तृतीय पाठ
(ओजस)
{प्रकाशकीय: यह रचना स्वामी विवेकानन्द द्वारा 1895 ई. में अमेरिका में श्रीमती सारा सी. बुल के निवास-स्थान पर, उनके अमेरिकी शिष्यों के लिये आयोजित एक ‘Be and Make वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा में आयोजित शिविर‘ में दिए गए वर्ग-वार्ता के नोटों पर आधारित है। जिन्हें
स्वयं श्रीमती बुल ने लिपिबद्ध कर लिया था और बहुत संभाल कर रखा था। इन
भाषणों को बाद में, 1913 ई. में अन्य भक्तों एवं श्रद्धालु व्यक्तियों के
बीच निजी वितरण के लिये एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।}
कुंडलिनी : आत्मा का अनुभव जड़ के रूप न करो, बल्कि उसके यथार्थ स्वरुप को जानो। हम लोग आत्मा को देह समझते हैं, किन्तु हमारे लिये इसको इन्द्रिय और बुद्धि से अलग करके सोचना आवश्यक है। तभी हमें इस बात का ज्ञान होगा कि हम अमृतस्वरूप हैं। परिवर्तन से आशय है कार्य और कारण का द्वैत; ‘all that changes must be mortal.’और जो कुछ भी परिवर्तनशील है, उसका नश्वर होना अवश्यम्भावी है। इससे यह सिद्ध होता है कि न तो शरीर और न मन अविनाशी हो सकते हैं, क्योंकि दोनों में परिवर्तन हो रहा है। केवल जो अपरिवर्तनशील है, वही अविनाशी हो सकता है; क्योंकि उसे कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता।
हम लोग (ब्रह्म को या सत्य को जानने के बाद) सत्यस्वरूप हो नहीं जाते, बल्कि हम पहले से ही सत्यस्वरुप हैं। किन्तु हमें सत्य को आवृत करने वाले अज्ञान के पर्दे को हटाना होगा। ‘ The body is objectified thought.’ देह विचार का ही रूप है। ‘सूर्य’ और ‘चन्द्र’ शक्ति-प्रवाह शरीर के सभी अंगों में शक्ति-संचार करते हैं। अवशिष्ट अतिरिक्त शक्ति सुषुम्णा के अन्तर्गत विभिन्न चक्रों अथवा सामान्यतया विदित स्नायु-जाल (plexuses) में संचित रहती है। ये शक्ति-प्रवाह मृत देह में दृष्टिगत नहीं होते और केवल स्वस्थ शरीर में ही देखे जा सकते हैं। योगी को एक विशेष सुविधा रहती है, क्योंकि वह केवल इनका अनुभव ही नहीं करता, अपितु इन्हें प्रत्यक्ष देखता भी है। वे उसके जीवन में ज्योतिर्मय हो उठते हैं। ऐसे ही उसके महान स्नायु-केन्द्र (nerve centres) भी हैं।
कार्य,जाग्रत (conscious) तथा अचेतन मन (unconscious), दोनों दशाओं में होते हैं। योगियों की एक दूसरी अवस्था भी होती है, वह है अतिचेतन अवस्था (super-conscious), जो सभी देशों और सभी युगों में समस्त समस्त धार्मिक ज्ञान का स्रोत रही है। ‘The super-conscious state makes no mistakes’ अतिचेतन या तुरीय अवस्था में कभी भूल नहीं होती, किन्तु जब जन्मजात-प्रवृत्ति (instinct) के द्वारा प्रेरित होकर कोई कार्य किया जाता है, तो वह कार्य पूर्णरूपेण यंत्रवत होता है, किन्तु पूर्ववर्ती अतिचेतन (इन्द्रियातीत) अवस्था, जाग्रत अवस्था (होश या चेतना consciousness) के परे की स्थिति होती है। इसे सहजानन्द (अन्तःप्रेरणा inspiration) कहते हैं, परन्तु योगी कहता है, “ यह शक्ति प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित है और अन्ततोगत्वा सभी लोग इसका आनन्द प्राप्त करेंगे।”
हमें ‘सूर्य’ और ‘चन्द्र’ की गतियों को एक नये रास्ते से परिचालित करना होगा और उनके लिये
‘सुषुम्णा’ का मुख खोलकर एक नया रास्ता देना होगा। जब हम इस ‘सुषुम्णा’ से होकर शक्ति-प्रवाह को मस्तिष्क तक ले जाने में सफल हो जाते हैं, उस समय हम शरीर से बिल्कुल अलग हो जाते हैं। मेरुदण्ड के तले त्रिकास्थि (sacrum) के निकट स्थित मूलाधार चक्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यह स्थल काम-शक्ति (sexual energy) के प्रजनन-तत्व (generative substance) का निवास है, और योगी इसको एक त्रिकोण के भीतर छोटे से कुंडलीकृत सर्प के प्रतीक के रूप में मानते हैं। इस प्रसुप्त सर्प (sleeping serpent) को कुंडलिनी कहते हैं। इस कुंडलिनी को जाग्रत करना ही राजयोग का प्रमुख उद्देश्य है।
महती कामशक्ति (sexual force) को पशु-सुलभ क्रिया से उन्नत करके मनुष्य शरीर के महान डाइनेमो मस्तिष्क (dynamo of the human system, the brain) में परिचालित करके वहाँ संचित करने पर ‘ओजस’ अर्थात महान आध्यात्मिक शक्ति बन जाती है। समस्त सत चिन्तन, समस्त प्रार्थनायें उस पशु-सुलभ शक्ति (that animal energy) के एक अंश को ओजस में परिणत करने में सहायता करती हैं और हमें आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती हैं।
यह ओजस ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है, और केवल मनुष्य के शरीर में ही इस शक्ति का संग्रह सम्भव है। “One in whom the whole animal sex force has been transformed into Ojas is a god. He speaks with power, and his words regenerate the world.” जिसकी समस्त पशु-सुलभ काम-शक्ति ओजस में परिणत हो गयी है, वही देवता है। उसकी वाणी में शक्ति होती है और उसके वचन जगत को पुनरुज्जीवित करते हैं।
योगी मन ही मन कल्पना करता है कि यह कुंडलिनी क्रमशः धीरे धीरे उपर उठकर सर्वोच्च स्तर अर्थात सहस्रार (pineal gland) में पहुँच रही है। जब तक मनुष्य अपनी सर्वोच्च शक्ति, काम-शक्ति (sexual energy) को ओजस में परिणत नहीं कर लेता, कोई भी स्त्री या पुरुष, वास्तविक रूप में आध्यात्मिक नहीं हो सकता।
“No force can be created; it can only be directed. Therefore we must learn to control the grand powers that are already in our hands and by will power make them spiritual instead of merely animal. Thus it is clearly seen that chastity is the corner-stone of all morality and of all religion.”
कोई शक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती, उसे केवल एक दिशा में परिचालित या रूपान्तरित क्या जा सकता है। अतः हमें चाहिये कि हम अपनी महती शक्तियों को अपने वश में करना सीखें और अपनी इच्छा-शक्ति की सहायता से उन्हें पशुवत रखने के बजाय आध्यात्मिक बना दें। अतः यह स्पष्ट है कि पवित्रता ( ब्रह्मचर्य chastity) ही समस्त धर्म और नीति की आधारशिला है। विशेषतः राजयोग में मन-वचन-कर्म की पूर्ण पवित्रता अनिवार्य है। विवाहित हों या अविवाहित, सभी लोगों के लिये एक ही नियम लागु होता है। शरीर के इस सार अंश को वृथा नष्ट कर देने पर आध्यात्मिकता की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
इतिहास बताता है कि सभी युगों में बड़े बड़े द्रष्टा महापुरुष या तो तपस्वी और संन्यासी थे, या उम्र की एक अवस्था में आने के बाद विवाहित-जीवन का परित्याग कर देने वाले थे। पवित्रता ही सबसे महान शक्ति है। केवल पवित्रात्मा ही भगवत-साक्षात्कार कर सकते हैं।
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