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सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

" राजयोग पर छः पाठ " -स्वामी विवेकानन्द (5)


पंचम पाठ
{प्रकाशकीय:  १८९५ में श्रीमती सारा सी. बुल के निवास-स्थान पर, अमेरिका में  उनके अमेरिकी शिष्यों के लिये आयोजित एक ‘चरित्र-निर्माण कारी प्रशिक्षण शिविर‘ में स्वामी विवेकानन्द  द्वारा दिए गए वर्ग-वार्ता के नोटों पर यह रचना आधारित है।    
जिन्हें स्वयं श्रीमती बुल ने लिपिबद्ध कर लिया था और बहुत संभाल कर रखा था। इन भाषणों को बाद में, सन् १९१३  में अन्य भक्तों एवं श्रद्धालु व्यक्तियों के बीच निजी वितरण के लिये एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।}
प्रत्याहार और धारणा : भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, “चाहे जिस रास्ते से आओ, मुझ तक ही पहुंचोगे।”
“सभी को मुझ तक पहुंचना होगा !”
 मन को समस्त विषयों से हटाकर किसी अभीष्ट विषय में संगृहीत करने की चेष्टा का नाम प्रत्याहार है। इसका प्रथम सोपान है मन की गति को स्वछन्द कर देना : उस पर नजर रखो, देखो कि वह क्या चिन्तन करता है ? स्व्यं केवल साक्षी बनो। मन आत्मा नहीं है। वह केवल सूक्ष्मतर रूप लिये हुए जड़ (नाशवान) वस्तु ही है। हम उसके मालिक हैं, और स्नायविक शक्तियों के द्वारा इच्छानुसार इसका उपयोग करना सीख सकते हैं।
[The double presence of mind: मन स्वयं को दो भागों में विभक्त कर सकता है, “The body is the objective (वस्तुनिष्ठ-मन) view of what we call mind (subjective या व्यक्तिपरक मन).”]  शरीर मन (आन्तरिक) का बाह्य रूप है। [शरीर मन (आन्तरिक नश्वर मन) का बाह्य (नाशवान) रूप या आकृति है।] हम शरीर और मन दोनों (नाशवान वस्तुओं) से परे (अविनाशी) आत्मायें हैं। हम आत्मा हैं, नित्य, अनन्त, साक्षी। शरीर चिन्तन-शक्ति का स्थूल रूप है।
जब वाम रंध्र से श्वास-क्रिया हो, तब विश्राम करो और जब दक्षिण रंध्र से, तब कार्य करो। और जब दोनों से हो, तब ध्यान या एकाग्रता का अभ्यास करो। जब हम शान्त हों और दोनों नासिका-रंध्रों से समान रूप से श्वास ले रहे हों, तब समझना चाहिये कि हम मौन ध्यान की उपयुक्त स्थिति में हैं। (वीणा प्राण-वायु को सम किये ) पहले ही एकाग्रता के लिये संघर्ष करने से कोई लाभ नहीं होता। ‘Control of thought will come of itself.’  मन का निरोध अपने आप होगा।
अँगूठे और तर्जनी से नासिका-रंध्रों को बन्द करने का (अनुलोम-विलोम और कपाल-भाति) का पर्याप्त अभ्यास कर लेने के पश्चात् हम केवल अपनी संकल्प-शक्ति से ऐसा (निरोध - मन को विषयों में जाने से रोक सकते हैं) कर सकते हैं।
अब प्राणायाम को कुछ बदलना होगा। यदि साधक अपने ‘इष्ट’ (Chosen Ideal- वांछित आदर्श) का कोई नाम है, तो रेचक और पूरक के समय उसे ‘ॐ’ के बदले उस नाम का जप करना चाहिये और कुम्भक के समय ‘हुम्’ मंत्र का जप करना चाहिये।
अवरुद्ध श्वास को तेजी के साथ कुंडलिनी के सिर के उपर प्रत्येक ‘हुम्’ जपने के साथ निक्षिप्त करो, और कल्पना करो कि ऐसा करने से वह जाग रही है। अपने को ईश्वर (अपने इष्टदेव से या गुरु) से अभिन्न समझो। कुछ समय बाद विचार अपने आगमन की घोषणा करेंगे, और वे (मन-सरोवर की तली चित्त की स्मृतियों से) कैसे प्रारंभ होते हैं ---इस बात का हमें साक्षात् ज्ञान होगा। और हम जो कुछ भी सोचने जा रहे हैं, उसके प्रति सचेत हो जाएँगे, इस स्तर पर ठीक वैसे ही अनुभव होगा, जैसे कि हम साक्षात् किसी व्यक्ति को आते हुए देख रहे हों। इस सीढ़ी तक हम तभी पहुँच पाते हैं, जब कि हमने स्वयं को अपने मन से अलग करना सीख  लिया है,और निरंतर हम स्वयं को द्रष्टा के रूप में मन को एक अलग वस्तु (दृश्य) के रूप में देखते हैं। इन्द्रिय-विषयों से संबंधित विचार तुम्हें पकड़ने न पाये, हटकर खड़े हो जाओ, वे शान्त हो जायेंगे।
अब केवल पवित्र विचारों (इष्टदेव के नाम-रूप-लीला-धाम) का अनुसरण करो; “ when they melt away”-- you will find the feet of the Omnipotent God !! उनके साथ चलो और जब वे अन्तर्हित हो जायेंगे, तब तुम्हें सर्वशक्तिमान भगवान (सच्चिदानन्द श्रीरामकृष्ण या) के चरणों के दर्शन होंगे। यह स्थिति इन्द्रियातीत या अतिचेतन अवस्था है। “ This is the super-conscious state; when the idea melts, follow it and melt with it. जब विचार विलीन हो जाएँ, उसीका अनुसरण करो और उसीमें तन्मय हो जाओ। (जब सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी सब कुछ विलुप्त हो जाये तब तुम भी उसी में गलकर उसके साथ मिल जाओ; किन्तु यदि माँ पुनः शरीर में लौटा दे तब ?)
प्रभामण्डल (Haloes,aura) : “ Haloes are symbols of inner light and can be seen by the Yogi.” अन्तर्ज्योति ‘inner light’ के प्रतीक हैं, और योगी उनका दर्शन कर सकते हैं। कभी कभी हम कोई ऐसा मुख देखते हैं, जो मानो ऐसी ज्योति से मण्डित है, जिसमें हम उसके चरित्र की झलक पा सकते हैं, और उसके बारे में एक अचूक निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। हम अपने इष्ट का आगमन एक दिव्य-दर्शन के रूप में देख सकते हैं, और उसी प्रतीक को आलम्बन बनाकर सरलतापूर्वक अपने मन को पूर्णरूपेण एकाग्र कर सकते हैं। 
यद्दपि हम सभी अपनी समस्त इंद्रियों के माध्यम से कल्पना कर सकते हैं, तथापि अधिकतर हम आँखों की सहायता लेते हैं. यहाँ तक कि कल्पना भी अर्ध-जड़ है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बिना एक प्रारंभिक चित्र के हम चिन्तन नहीं कर सकते। [“ we cannot think without a phantasm.” जैसे बिना एक प्रारंभिक-चित्र के हम गणेश भगवान का चिन्तन नहीं कर सकते हैं, जिसको कार्ल जुंग-archetype या आर्किटाइप या आद्यरूप ‘original’ मौलिक-रूप कहते हैं !)] चूँकि पशु भी चिन्तन करते से प्रतीत होते हैं, किन्तु वे किस बारे में सोच रहे हैं, उसे बताने के लिये उनके पास शब्द नहीं हैं, अतः यह सम्भव है कि चिन्तन और चित्रों के बीच में कोई अविभाज्य संबन्ध न भी हो। 
योग में कल्पना को बना रहने दो, पर ध्यान रखो कि वह शुद्ध और पवित्र रहे। कल्पना-शक्ति की प्रक्रिया की हमारी सबकी अपनी अपनी अलग विशिष्टतायें हैं। जो मार्ग तुम्हारे लिये सबसे अधिक स्वाभाविक हो, उसीका अनुसरण करो, वही सरलतम मार्ग होगा। 
"वह श्रीराम जो श्रीकृष्ण थे, अब श्रीरामकृष्ण हो गये हैं !"
 
  " He who was Rama was Krishna and is now Ramakrishna"
“ We are the results of all reincarnations through Karma: "One lamp lighted from another", says the Buddhist — different lamps, but the same light.” हम सभी लोगों का वर्तमान जीवन अनेक पूर्व जन्मों के कर्मो का फल है। बौद्ध लोग कहते हैं, “एक से दूसरा दीप जलाया गया। दीप भिन्न भिन्न हैं, पर (भिन्न भिन्न दीपों में वही एक ज्योति चली आ रही है) प्रकाश एक ही है। “
सदा प्रसन्न रहो, वीर बनो, (वीर हो तो धीर बनो !), नित्य स्नान करो और 3P - धैर्य, पवित्रता और अध्यवसाय बनाये रखो। तभी तुम यथार्थतः योगी बनोगे। शीघ्रता कदापि न करो और यदि उच्च शक्तियाँ अवतरित होती हैं, तो याद रखो कि वे तुम्हारे अपने मार्ग से भिन्न पगडंडियाँ हैं !! वे तुम्हें अपने मुख्य पथ से भ्रष्ट न कर पायें। उन्हें अलग छोड़ दो और अपने एकमात्र लक्ष्य पर अटल रहो -ईश्वर। केवल अनन्त की छह करो, जिसे पाकर हमें अनन्त शान्ति प्राप्त होगी। पूर्ण को प्राप्त करने पर फिर प्राप्त करने के लिये कुछ भी शेष नहीं रहता। हम सदा के लिये मुक्ति और पूर्णता का लाभ कर लेते हैं--पूर्ण सत्, पूर्ण चित्, पूर्ण आनन्द ! 
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