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सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

" राजयोग पर छः पाठ " -स्वामी विवेकानन्द (4)

चतुर्थ पाठ

{प्रकाशकीय:  १८९५ में श्रीमती सारा सी. बुल के निवास-स्थान पर, अमेरिका में  उनके अमेरिकी शिष्यों के लिये आयोजित एक ‘चरित्र-निर्माण कारी प्रशिक्षण शिविर‘ में स्वामी विवेकानन्द  द्वारा दिए गए वर्ग-वार्ता के नोटों पर यह रचना आधारित है।    
जिन्हें स्वयं श्रीमती बुल ने लिपिबद्ध कर लिया था और बहुत संभाल कर रखा था। इन भाषणों को बाद में, सन् १९१३  में अन्य भक्तों एवं श्रद्धालु व्यक्तियों के बीच निजी वितरण के लिये एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।}
मन को वश में करने की शक्ति प्राप्त करने के पूर्व हमें उसका भली प्रकार अध्यन करना चाहिये। चंचल मन को संयत करके हमें उसे विषयों में जाने या बहिर्मुखी होने से रोकना होगा, उसे खींच कर, या अन्तर्मुखी बनाकर, उसे एक ही विचार में केन्द्रित करना होगा। इस अभ्यास को बार बार करना होगा। संकल्प-शक्ति अर्थात इच्छा-शक्ति या ‘power of will’ के द्वारा मन को वश में करके, उसे अन्य विषयों का चिन्तन करने से रोककर, केवल ईश्वर (श्रीरामकृष्ण) की महिमा का चिन्तन करने में लगाना होगा। 
मन को स्थिर करने का सबसे सरल उपाय है, चुपचाप बैठ जाना और उसे देखते रहना। और उसे  कुछ क्षण के लिये वह जहाँ जाय, उसे जाने देना। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो,"I am the witness watching my mind drifting.’- “ मैं मन नहीं हूँ; मैं मन को विचरण करते हुए देखने वाला साक्षी हूँ !“ Then see it think as if it were a thing entirely apart from yourself. इसके बाद, ऐसी कल्पना करो मानो मन सोच रहा हो कि वह तो, तुमसे (द्रष्टा या साक्षी) से बिल्कुल ही भिन्न है। अपने को ईश्वर (सच्चिदानन्द) से अभिन्न (स्वयं को ‘शरीर-मन-बुद्धि-इन्द्रिय रूपी रथ’ में बैठा हुआ ‘महारथी’)मानो, मन अथवा जड़ पदार्थ के साथ एक करके कदापि न सोचो।
  
सोचो कि ‘मन’ (दृश्य)तुम्हारे सामने एक विस्तृत, बिल्कुल तरंग-रहित, शान्त सरोवर की तरह है, और जो विचार इसमें आ-जा रहे हैं, वे मानो इस शान्त-निर्मल झील की तली में उठने वाले बुलबुले हैं, जिसे ‘तुम’ (द्रष्टा) बिल्कुल स्पष्ट रुप में देख पा रहे हो ! इन बुलबुलों को, या उठने-मिटने वाले विचारों को रोकने का प्रयास न करो, वरन उनको देखते चलो, वे जैसे जैसे विचरण कर रहे हैं, वैसे वैसे तुम भी उनका पीछा करते रहो। यह क्रिया धीरे धीरे मन-सरोवर के सतह पर उठने वाले तरंग-वृत्तों को सीमित कर देगी।
‘For the mind ranges over wide circles of thought and those circles widen out into ever-increasing circles, as in a pond when we throw a stone into it.’ कारण यह है कि ‘मन’ विचार-तरंगों की विस्तृत परिधि में घूमता है, और ये परिधियाँ विस्तृत होकर निरन्तर बढ़ने वाले वृत्तों का निर्माण करती रहती हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी सरोवर में ढेला फेंकने पर होता है। (सरोवर में ढेला केवल बाहर से ही फेंका जा सकता है, किन्तु मन-सरोवर ऐसा है जिसमें इसकी तली या भीतर चित्त-भूमि में संचित स्मृतियाँ भी ढेला फेंकती हैं।) 
We want to reverse the process and starting with a huge circle make it narrower until at last we can fix the mind on one point and make it stay there.’
हम इस क्रिया को उलट देना चाहते हैं, और बड़े वृत्तों से प्रारंभ करके उन्हें छोटा छोटा बनाते चले जाते हैं, यहाँ तक कि अन्त में हम मन-सरोवर रूपी वृत्त के केन्द्र-बिन्दु पर स्थिर करके उसे वहीँ रोक सकें, निरुद्ध कर सकें या उसे तरंगायित ही न होने दें !! 
Hold to the idea, "I am not the mind, I see that I am thinking, I am watching my mind act", दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो, “मैं मन नहीं हूँ, मैं देखता हूँ कि मैं सोच रहा हूँ अर्थात मेरा मन सोच रहा है। मैं द्रष्टा हूँ और मन दृश्य है। मैं अपने मन (दृश्य) तथा अपनी (द्रष्टा-अहं की) क्रिया का अवलोकन कर रहा हूँ। “ प्रतिदिन ऐसा अभ्यास करते रहने से मन और उसमें उठने वाले विचारों को अपने से अभिन्न समझने का भाव कम होता जायेगा, यहाँ तक कि अन्त में तुम अपने को मन से बिल्कुल कर सकोगे, और सचमुच इसे अपने से भिन्न जान सकोगे। 
इतनी सफलता प्राप्त करने के बाद मन तुम्हारा दास हो जायेगा, और उसके उपर इच्छानुसार शासन कर सकोगे। “The first stage of being a Yogi is to go beyond the senses. “ इन्द्रियों से परे हो जाना योगि की प्रथम अवस्था है। जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।
जितना सम्भव हो सके, एकान्त सेवन करो। तुम्हारा आसन सामान्य ऊँचाई का होना चाहिये। प्रथम कुशासन बिछाओ, फिर मृगचर्म और उसके उपर रेशमी कपड़ा। अच्छा होगा कि आसन के साथ पीठ टेकने का साधन न हो, और वह दृढ हो।
‘Thoughts being pictures, we should not create them.’चूँकि विचार एक प्रकार के चित्र हैं, अतः हमें उनकी रचना नहीं करनी चाहिये। हमें अपने मन से सारे विचार हटाकर रिक्त कर देना चाहिये। जितनी ही शीघ्रता से विचार आयें, उतनी ही तेजी से उन्हें दूर भगाना चाहिये। इसे कार्यरूप में परिणत करने के लिये, ‘we must transcend matter and go beyond our body.’  हमें जड़-जगत और शरीर (की आसक्ति) के परे जाना परमावश्यक है। वस्तुतः मनुष्य का समस्त जीवन ही इसको सिद्ध करने का प्रयास है।
प्रत्येक ध्वनि (मंत्र) का अपना अर्थ होता है, हमारी प्रकृति में इन दोनों का परस्पर संबन्ध है। हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर (भगवान श्रीरामकृष्ण) हैं। उनका ही चिन्तन (नाम-जप) करो। यही नहीं कि हम ज्ञाता को जान सकते हैं, अपितु हम तो वही हैं। अशुभ को देखना तो उसकी सृष्टि ही करना है। जो कुछ हम हैं, वही हम बाहर भी देखते हैं, क्योंकि यह जगत हमारा दर्पण है। यह छोटा सा शरीर हमारे द्वारा रचा हुआ एक छोटा सा दर्पण है। बल्कि समस्त विश्व हमारा शरीर है। इस बात का हमें सतत चिन्तन करना चाहिये, तब हमें ज्ञान होगा कि न तो हम मर सकते हैं और न दूसरों को मार सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक शरीर मेरा ही स्वरुप तो है ! हम अजन्मा हैं, और अमर हैं ! और हमारा एक मात्र कर्तव्य प्रेम करना है ! 
‘ यह समस्त विश्व हमारा शरीर है। समस्त स्वास्थ्य, समस्त सुख हमारा सुख है, क्योंकि यह सब विश्व के अन्तर्गत है।’ कहो, ‘ मैं विश्व हूँ !’ अन्त में हमें ज्ञात हो जाता है कि सारी क्रिया हमारे भीतर से इस दर्पण में प्रकट हो रही है।
यद्दपि हम छोटी छोटी लहरों के समान प्रतीत हो रहे हैं, तथापि समस्त समुद्र हमारा आधार है और हम उसके साथ एक हैं। समुद्र के बिना लहर का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
यदि कल्पना का सदुपयोग करें, तो वह हमारी परम हितैषिणी है। वह युक्ति के परे जा सकती है। और वही एक ऐसी ज्योति है, जो हमें सर्वत्र ले जा सकती है।
अन्तःस्फुरण प्रदान करनेवाली शक्ति हमारे भीतर है। हमें स्व्यं अपनी उच्च मनःशक्तियों से प्रेरित होना होगा।
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