' मनःसंयोग' से अधिक लाभकारी अन्य कोई विद्या में नहीं है !
( यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः)
मनःसंयोग एक ऐसी तकनीक है जिसके बिना कोई भी कार्य करना संभव नहीं होता। कोई भी शिक्षा पूर्ण नहीं होती। अपने जीवन के लक्ष्य को भी हम प्राप्त नहीं कर सकते। इसीलिये मनःसंयोग की पद्धति को सीख लेना हममें से प्रत्येक के लिये अत्यन्त आवश्यक है। किन्तु मनः संयोग का अभ्यास करने के पहले- मन का स्वरुप कैसा है, मन का स्वभाव, मन का आचार-व्यवहार आदि विषयों के विषय में जान लेना हमलोगों के लिये अत्यन्त आवश्यक है। सामान्य रूप से मन ही हमलोगों को सभी प्रकार के कर्मों को करने के लिये प्रेरित करता है, विषय-वस्तु द्वारा आकृष्ट करके, सुख का लोभ दिखाता है और उनके पीछे भागने के लिये बाध्य कर देता है। यह मन ही है, जो पूर्व में भोगे गये सुखस्मृति का वहन करता है, और पुनः पुनः उसी सुख का आस्वादन करने की तरफ हमें ले जाता है। मन हमलोगों को अपना गुलाम बनाकर, हमारे उपर प्रभुत्व या मालिकाना हक - जमाने की चेष्टा करता है। जिसके फलस्वरूप हमलोग स्वयं को, ( अपनी महिमा को ) ही भूल जाते हैं। यदि हम अपने जीवन-स्तर को उन्नत करना चाहते हों, मनुष्य-जीवन धारण करने को सार्थक बनाना चाहते हों, जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने की अदम्य इच्छा हो- तो इस अत्यन्त प्रभावशाली मन को अपने वश में, या अपने नियंत्रण में रखना अत्यंत आवश्यक है ।
हमलोगों की समस्त इन्द्रियों - बाह्य इन्द्रिय तथा अन्तः इन्द्रिय से लेकर, स्मृति, कल्पना, विचार, निर्णय, अच्छा लगना, प्रेरणा, संकल्प आदि - इन समस्त क्रियाओं का उद्गम-स्थान यह मन ही है। किन्तु वह अत्यन्त चंचल है। स्वामी विवेकानन्द से हमलोगों ने सुना है कि मन का स्वभाव अत्यन्त चंचल है। [ मनो मर्कटो मदीरो उन्मत्तः वृश्चिको दंशितः पश्चात् भूत आरुढ़ो '] फिर विभिन्न प्रकार की कामना -वासना (व्यक्तिवाद एवं स्वार्थपरता ) मन की स्वाभाविक चंचलता को असाधारण रूप चंचल बना देती है।
व्यक्तिवादी सोच एवं स्वार्थपरता (Individualist thinking and selfishness) ही हमलोगों की स्वाभाविक कमजोरी या दोष है। इसीके कारण हम को स्वयं को दूसरों से अलग समझने के भ्रम में पड़ जाते हैं ! यह आत्म-केन्द्रिकता और स्वार्थपरता हमें व्यक्तिगत सुख पाने के प्रति अधिक प्रलोभित करती है। इसीलिये दूसरों के सुख को देखकर हमलोग ईर्ष्या करने लगते हैं। उसी ईर्ष्या का डंक हमारे चंचल मन को और अधिक चंचल कर देता है। फिर उस चंचल मन पर जब अहंकार का भूत सवार हो जाता है, तो उस अहं का हाई इलेक्ट्रिक वोल्टेज (उच्च विद्युत-विभव) हमलोगों के मन को उन्मादी (सनकी) बना देता है। इस प्रकार के 'उन्मत्त-स्वभाव' मन का दमन करना अत्यन्त कठिन है। किन्तु इसके साथ साथ यह बात भी हमें ठीक से समझ लेनी चाहिये कि - ' कठिन होने से भी मन को वश में लाना असंभव नहीं है।'
[मनःसंयोग की प्रक्रिया : १. लाभ क्या होगा ?/ २. मन का स्वभाव कैसा ? गीता ६. ३४ / ३. मन का दमन कठिन है, जानकर भी हताश न होना, उपाय जानना अभ्यास -वैराग्य,गीता ६.३५ /४. उसमें भी कठिनाई हो तो अभ्यास योग गीता १२.९ की विधि से या मनःसंयोग का अभ्यास । ]
मनःसंयोग का प्रथम चरण: सर्वप्रथम हमलोगों यह स्पष्ट रूप से जान लेना होगा कि यदि अपने जीवन में सफलता अर्जित करनी हो, यदि जीवन को सार्थक करना हो, या जीवन-लक्ष्य को ( या चार पुरुषार्थों में से किसी पुरुषार्थ को ) प्राप्त करना हो, - उसमें सबसे प्रमुख भूमिका मन की ही होती है। वशीभूत मन की सहायता से जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता अर्जित की जा सकती है।
दूसरा चरण: मन के स्वाभाव को जानना होगा, मन का गठन किन उपादानों से हुआ है,इसे समझना होगा, स्वाभाव से चंचल मन व्यक्तिवादी सोच और स्वार्थपरता या अत्यधिक लालची होने से 'मदीरो उन्मत्तः वृश्चिको दंशितः पश्चात् भूत आरुढ़ो ' जितना वेरी हाई वोल्टेज वाला अहंकारी और उन्मत्त बन जाता है। मन की अतिरिक्त चंचलता के कारण को जान लिया। दूसरे चरण में मन का दमन करना, उसे वशीभूत करना क्यों अत्यन्त कठिन है; यह सब जान लिया । किन्तु यह सब जानकर भी हताश होने से काम नहीं चलेगा। क्योंकि जब मन की दुर्दमनीयता से हताश होकर गीता ६.३४ में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं -
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
क्योंकि हे कृष्ण मन बड़ा ही चञ्चल प्रमथनशील दृढ़ (इन्द्रियों को मथ देने वाला जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायु को मुट्ठी में पकड़ने की तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
तीसरा चरण: श्रद्धा, साहस निर्भीकता, निःस्वार्थपरता, त्याग और सेवा केवल इन पाँच भावों को जीवन में धारण कर लेने से मन को पूरी तरह से जीत कर उसका प्रभु बना जा सकता है ! अर्जुन को भी दुर्दान्त मन को वशीभूत करने की तकनीक बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण गीता ६. ३५ में कहते है, पहले तो तुम हताश मत होओ ! - मन कोई डॉन नहीं है ! " मन को पकड़ना मुश्किल तो है, किन्तु नामुकिन नहीं !
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
श्रीभगवान् बोले हे महाबाहो यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन अभ्यास और वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है। चौथा चरण : मनःसंयोग का अभ्यास इसी अभ्यास योग या ' BE AND MAKE ' को स्पष्ट करते हुए गीता १२.९ में कहते हैं -
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।
यदि इस प्रकार यानी जैसे मैंने बतलाया है उस प्रकार तू मुझमें चित्तको अचल स्थापित नहीं कर सकता? तो फिर हे धनंजय तू अभ्यासयोगके द्वारा -- चित्तको सभी इन्द्रिय विषयों से खींचकर, एक अवलम्बनमें (प्रत्याहार और धारणा : मन को अंतर्मुखी बनाकर हृदय में विद्यमान अपने इष्टदेव में बारम्बार एकाग्र करने) लगानेका नाम अभ्यास है! उससे युक्त जो समाधानरूप योग है? ऐसे अभ्यासयोगके द्वारा -- मुझ -- विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त करनेकी इच्छा कर। (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।) अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।
ये भगवान के वचन हैं कि -' मन को वश में लाना, उसको अपने नियंत्रण में रखना बिल्कुल संभव है।' उनके इस वचन के उपर पूर्ण विश्वास करके, इस बोध से, दृढ़ आत्मविश्वास से भरपूर अटल संकल्प लेकर, लगभग असम्भव से लगने वाले इस कार्य को, हममे से प्रत्येक को इसी जीवन में संभव कर दिखाना होगा।
यदि हमलोग इस विषय में विफल हो जायेंगे, ' सर्वोत्कृष्ट लाभ '-वंचित रह जायेंगे, तो हमलोगों का मनुष्य-जीवन धारण करना ही व्यर्थ हो जायेगा। अधिकांश मनुष्य इस मानव-शरीर को सर्वश्रेष्ठ योनि और मनुष्य-जीवन को महा-मूल्यवान जीवन क्यों कहा जाता है, इस बात से परिचित नहीं हैं। त्रय-दुर्लभं के महत्व को नहीं जानते हैं। इसीलिये हमारे इस महमूल्यवान जीवन का अधिकांश हिस्सा व्यर्थ के कार्यों में ही क्षय हो जाता है। जीवन में मिलने वाली प्रत्येक असफलता का मूल कारण केवल एक है- मन के उपर संयम या निन्त्रण का आभाव।
हमलोगों में से अधिकांश व्यक्ति बचपन में या किशोरावस्था में मन के यथार्थ स्वरूप को, उसके गठन के उपादान, उसके स्वभाव (मन की दशा या ' temperament ') को नहीं जानते हैं। मन की अनन्त शक्ति या मन की चंचलता के विषय में नहीं जानते हैं, उसको नियंत्रण में लाने या वशीभूत करने की क्या आवश्यकता है? इन सब बातों को समझ ही नहीं पाते हैं। मन को वश में करने के लिये जैसा आत्मविश्वास होना चाहिये, वैसा आत्मविश्वास और आत्मश्रद्धा ही नहीं है। मन को वश करूँगा-ऐसा कोई संकल्प नहीं है, इसके लिये प्रयास भी नहीं करते हैं, या कभी करते भी हैं, तो अध्यवसाय पूर्वक नहीं करते हैं, जिसके फलस्वरूप हमलोगों का जीवन असफल हो जाता है।
हमलोगों यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जानी चाहिये कि, भले हम विद्वान् नहीं हों, धनवान नहीं हों, भोग-ऐश्वर्य के अधिकारी भी नहीं हों, तो भी हमारा जीवन विफल नहीं होगा, किन्तु यदि हम अपने मन के उपर नियंत्रण नहीं स्थापित कर सके, तो हमलोगों का जीवन अवश्य विफल हो जायेगा। किन्तु केवल इसी एक मात्र कौशल को-मनःसंयोग के तकनीक को सीख लेने से हमलोगों का जीवन सार्थक हो जायेगा। किन्तु यह सब जान लेने के बाद भी बहुत से मनुष्यों में जीवन को सार्थक बनानेवाली, जीवन- लक्ष्य तक पहुंचा देने वाली, मनः संयोग के पद्धति को सीख लेने की जैसी तड़प होनी चाहिये, वैसी तड़प नहीं होती। हमलोग कई तरह के कार्य कर सकते हैं, अपने अनगिनत स्वार्थों को पूर्ण कर सकते हैं, किन्तु यह नहीं जानते कि,चाहे स्वार्थ-सिद्धि चाहते हों या परोपकार करना चाहते हों- यदि पहले मन को ही हम वशीभूत नहीं कर सकें तो अन्ततो गत्वा कुछ भी सार्थक नहीं होगा। इतना ही नहीं, हमारा जीवन भी मनः संयोग सीखे बिना अन्य किस उपाय से सार्थक नहीं हो सकता है।
यदि हमलोग भी अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व के प्रति, नचिकेता के सामान या स्वामी विवेकानन्द के समान श्रद्धावान, आत्मविश्वासी और दृढ़-निश्चयी (confident) हों,अपनी सनातन संस्कृति और विचारधारा के प्रति पूर्ण आस्था रखते हों, तो हमलोगों में हमलोगों में ऐसा आत्मविश्वास रखना होगा कि किसी भी कार्य को आरम्भ करने के पहले, किसी भी प्रकार के विषय पर अपना विचार और शक्ति को नियोजित करने के पहले, विवेक-प्रयोग द्वारा इस मन के उपर नियंत्रण रखने की साधना को कठोर परिश्रम, प्रयत्न, अध्यवसाय के साथ करते रहेंगे।
यह कार्य अत्यन्त कठिन है। किन्तु इस कार्य की उपेक्षा करने से, आलस्य करने से, प्रयत्न में कमी रहने से , एक-मुखीनता या निष्ठा में थोड़ी भी कमी रहने से, (अपने क्षुद्र-मैं के घेरे का जीवन) व्यक्तिवाद और निजीस्वार्थ के भोग और ऐश्वर्य की लालसा को पूर्ण करने की चेष्टा हो या परोपकार, समाज या मनुष्यों की सेवा करनी हो, सारे उद्द्म भी पूर्ण रूप से विफल हो जाएँगी। यदि हमलोग केवल इसी एक विषय को भी सीख सकें, तो हमलोगों का परवर्ती जीवन, अभी जैसा है, अवश्य उससे कई गुना अधिक उन्नत बन जायेगा। किन्तु इस विषय को यदि नहीं सीखें, नहीं जानें, इस विषय के महत्व के प्रति यदि हमारी दृष्टि आकृष्ट नहीं हो सके, इस विषय को जान लेने की प्रेरणा यदि हमारे मन में नहीं उठे, तो चाहे किसी भी विषय की बात हम क्यों न सोचें, या किसी भी योजना के क्रियान्वन की पद्धति को आविष्कृत करने की चेष्टा क्यों न करें, वे सब तो विफल होंगी ही, हमारे जीवन में भी सार्थकता आने की कोई सम्भावना नहीं होगी।
यदि हमलोग वर्तमान जन्म में, अर्थात जिस शरीर में रहते हुए हमारा यह जीवन चल रहा है, उस एक सम्पूर्ण जीवन में - भले ही हम देशोद्धार न कर सकें, भले ही हम परोपकार नहीं कर सकें, भले ही हम अपने व्यक्तिगत जीवन में आत्म-केन्द्रिक सुखभोग, सम्पत्ति-ऐश्वर्य नहीं अर्जित कर सकें, तो इन नाकामीयों के बावजूद कुछ आने-जाने वाला नहीं है। किन्तु यदि इसी शरीर में रहते रहते मनः संयोग का अभ्यास करके उसको पूरी तरह से वश में ला सकें तो, हमारा यही जीवन अवश्य सार्थक हो जायेगा। फिर इसके बाद जो जीवन मिलने वाला होगा (अवश्य हम यदि पुनर्जन्म में विश्वास करते हों तब ),उस जीवन में हमलोग अवश्य अधिकाधिक कार्यों को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर लेंगे। (अर्थात भविष्य में यदि कोई व्यक्ति देशोद्धार और परोपकार का कार्य करना चाहता हो तो उसे पहले इसी जीवन में मन के ऊपर विजय प्राप्त कर लेना होगा। )
स्वामी विवेकानन्द के बारे में हमलोग चर्चा करते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं,और ऐसा मानते हैं कि हम उनको जानते हैं। किन्तु यदि ध्यान से देखें तो समझ में आयेगा कि मनः संयोग के बारे में अबतक जितनी बातें हुई हैं, वे सब विवेकानन्द की ही बातें हैं। हमलोग यदि मनः संयोग नहीं सीखें, तो न अपना और न देश का कोई लाभ होगा। इसलिये भारत का निर्माण करना चाहते हों,तो मनः संयोग के कौशल को सीखना हमारा प्रथम कर्तव्य है। प्रथम कर्तव्य की ही उपेक्षा कर दें, और लोगों को दिखाने के लिये बड़ी बड़ी योजनाओं की घोषणा करते रहने से कोई लाभ नहीं होगा।
पहले जमाने में किसी कमजोर छत्र को भी दो क्लास पास करके उन्नित करने (promoted) का रिवाज था, या ऐसा भी था की जिसने परीक्षा में अच्छा रिजल्ट नहीं क्या हो, किन्तु अनुग्रह-अंक देकर उसको अगली कक्षा में प्रोन्नत कर दिया जाता था, किन्तु वैसा करने से छात्र का कुछ भला नहीं होता था, बल्कि उनका अकल्याण अवश्य होता था। क्योंकि उनकी बुनियाद तो कच्ची ही रह जाती थी। ठीक उसी प्रकार हमलोगों के जीवन की बुनियाद कच्ची रह जाएगी, यदि हम पहले अपने मन को नियंत्रण में रखना न सीख कर, अपने जीवन में सुख-संपदा अर्जित करने की चेष्टा करें। या कहें कि जगत का उद्धार कर रहा हूँ, वह सब विफल हो जायेगा-यही स्वामी विवेकानंद की शिक्षा है। स्वामी विवेकानन्द के विभिन्न संदेशों को सुनकर हम कितना भी दावा करें, कि उनको समझा है, उनका कार्य कर रहा हूँ, कहकर अपनी पीठ कितनी भी थपथपा ली जाय, किन्तु यदि मनः संयोग का अभ्यास नहीं करते हों, तो यह हमारी बुद्धि की अल्पता का ही परिचायक होगा।
यदि यह सोचकर कि मनःसंयोग को समझना और समझाना तो बड़ा कठिन है, इस विषय को छोड़ कर स्वामीजी के प्रथम आदेश को ही उपेक्षित कर, स्वामीजी की अन्य आसानी से समझ में आ जाने वाली संदेशों की विवेचना करके यह सोचे कि हमने उनको जान लिया है, तो यह बहुत बड़ी भूल होगी। ध्यान रहे कि महामण्डल में आ जाने के बाद भी हमसे वह भूल नहीं हो।
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[यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।भावार्थ : (चित्त वृत्तियों के रुक जाने के बाद-)परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥22॥]