जीवात्मा और धर्म
हम जब किसी नए विषय या वस्तु को समझने की कोशिश करते हैं तब हम उसी प्रकार के किसी पूर्व-परिचित विषय या वस्तु के साथ तुलना करके समझने की चेष्टा करते हैं। हमलोग पहले अपनी इन्द्रियों के माध्यम से ही किसी बाह्य वस्तु या विषय को समझने की चेष्टा करते हैं। इन्द्रियज-ज्ञान की सहायता से हमलोग भौतिक जगत के ' रूप-रस-शब्द-गंध-स्पर्श' आदि पाँच विषयों की अनुभूति करते हैं। किन्तु जो वस्तु बाह्य जगत में नहीं है - उस वस्तु या विषय की धारणा करने में हमलोगों को थोड़ी कठिनाई होती है। तब हमलोग बाह्यजगत की ही वस्तु से तुलना कर उसे समझने की कोशिश करते हैं। मूर्ति की कल्पना यहीं से उत्पन्न हुई है। क्योंकि हमलोग किसी निर्गुण-निराकार वस्तु की कल्पना नहीं कर सकते हैं, इसीलिये समस्त गुणों (शुभ और अशुभ) से युक्त किसी वस्तु की कल्पना करके, उसके भीतर देश-काल-पात्र आदि विभिन्न गुणों को आरोपित करने के बाद हमलोग उसे समझने की चेष्टा करते हैं। ऐसा नहीं होने पर किसी गुणातीतभाव की धारणा कर पाना हमलोगों के लिये लगभग असम्भव ही है। चाणक्य-नीति में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है -
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदिदैवतम् ।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनः ॥
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनः ॥
वैदिक ब्राह्मणों के आराध्य-देव हैं अग्नि । पूजा होने के बाद अंत में जो होम किया जाता है, वह प्राचीन काल के अग्नि पूजा का ही साक्ष्य है। होमाग्नि को प्रज्ज्वलित करके, जिस देवता का आह्वान करना चाहते हों, उसके नाम का मन्त्र पढ़ कर आहूति दिया जाता है। जो लोग मुनि अर्थात मननशील-विज्ञ व्यक्ति हैं, उनके देवता बाहर नहीं हैं। उनके देवता उनके हृदय में ही विद्यमान हैं। लेकिन, अल्प-बुद्धि वाले अपने देवता को मूर्त -प्रतीकों के रूप में कल्पना कर उसकी प्रतिमा को पूजते हैं। क्योंकि, जो देवता कल्पनातीत हैं, जो वाक्य और मन के अगोचर हैं, जिनके विस्तार, आकर, सीमा या गुणों को बोलकर नहीं समझाया जा सकता, उनको समझने में सुविधा के लिये किसी रूप की कल्पना कर ली जाती है। किन्तु जो समदर्शी हैं उनके देवता केवल उनके हृदय में ही नहीं रहते, वे चराचर विश्व में जितने भी जीव-जन्तु, जड़, वृक्ष, लता, नदी, पर्वत, समुद्र आदि हैं, सर्वत्र अपने ईष्टदेव को ही विद्यमान देखते हैं।
हमलोग सामान्य-बुद्धि वाले मनुष्य हैं इसीलिये किसी प्रतीक की कल्पना किये बिना आगे नहीं बढ़ सकते, या पूर्णत्वप्राप्ति की दिशा में अग्रसर नहीं हो सकते, इसीलिये कहा गया है- "उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रुपकल्पना। " प्रश्न उठता है कि वह कौन है जो इन विविध रूपों की कल्पना करता है? क्या मनुष्य अपनी कल्पना से इन रूपों की कल्पना करता है ? या स्वयं ब्रह्म ही उपासक की धारणा में अपने को प्रकट करने के लिये ससीम रूप धारण कर लेते हैं ? तंत्र-शास्त्रों में कहा गया है- " मनुष्य भी कल्पना नहीं करता और ब्रह्म भी कल्पना नहीं करते। बल्कि 'शक्ति' ही कल्पना करती है। वह जिस प्रकार अविद्या-माया का रूप धारण करके जीव के बंधन का कारण होती हैं, उसी प्रकार जीवात्माओं को मुक्ति प्रदान करने के लिये विद्या-माया बनकर विभिन्न रूपों को धारण करतीं हैं।" इसीलिये कहा गया है- ' साधकानां हितार्थाय अरुपा रूप धारिणी।' - अर्थात साधकों के मंगल के लिये रुपातीता ने रूप धारण कर लिया, और निराकार से साकार हो गयीं हैं।
'ईश्वर जीव और जगत' के स्वरुप को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये स्वामी विवेकानन्द ने भी प्रतिक की सहायता ली थी। उन्होंने किसी दक्ष कवि की तरह कल्पना द्वारा एक वस्तु-प्रतीक ( अर्चावतार) की सहायता से अपनी अनुभूति को व्यक्त करते हुए- श्रीमती ओली बुल को (20 जनवरी, 1895 लिखित) पत्र में कहा था , "प्रत्येक जीवात्मा एक तारा के समान है। ये तारे आकर में बहुत बड़े होते हैं , पर दीखते बहुत छोटे हैं। उसी प्रकार आत्मा भी अनन्त -असीम है। पर जीव-शरीर की छुद्र सिमा में रहकर स्वयं को प्रकट करता है इसीलिए हम इसे भी छोटा (अणु जैसा) ही समझ लेते हैं। लेकिन यह जीवात्मा छुद्र या अणु जैसा छोटा नहीं है , और एक दूसरे से भिन्न भी नहीं है। सभी जीवात्मायें एक वृहत एकता के सूत्र में बंधी हैं , किन्तु यह बात आसानी से समझ में नहीं आती। "
इस नीले आकाश का कोई ओर-छोर है। हम इसके आदि-अन्त की कल्पना भी नहीं कर पाते। टिमटिमाते तारों को देख कर लगता है ये सभी आकाश में टंगे हुए हैं। आत्मा की तुलना भी इस आकाश से की जा सकती है। समस्त प्राणियों के शरीर उसी आत्मा की घनीभूत अभिव्यक्तियाँ हैं। जीव और जगत के रूप में अपने को अभिव्यक्त कर देने के बाद आत्मा समाप्त नहीं हो जाता है। इन सब में परिव्याप्त होने के बाद आत्मा भी आत्मा की अभिव्यक्ति अनन्त शून्य तक सुविस्तृत है। पुरुषसूक्त में कहा गया है -'पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।' -(ऋ. १०. ९०. ३ ) - अर्थात यह सम्पूर्ण विश्व -ब्रह्माण्ड ब्रह्म या परमात्मा के केवल एक एक चौथाई अंश में ही स्थित है। जबकि उसका अधिकांश भाग दृश्यमान जगत के परे अनन्त लोक तक परिव्याप्त है। इन्द्रियग्राह्य जगत को परिपूर्ण करते हुए उसका भी अतिक्रमण करके उसके बाहर ही इस सत्ता का अधिकांश भाग अवस्थित है। गीता (१०.४२) में भी कहा गया है-
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।
-जगत के किन किन स्थानों में उनका विशेष प्रकाश है, उसका वर्णन करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन कहते हैं; अथवा हे अर्जुन बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।
ब्रह्म का विशिष्ट-वैभव बतलाते हुए कह रहे हैं- 'इस पुरुष/(प्रकृति या शक्ति?) की इतनी महिमा है कि यह सम्पूर्ण चराचर विश्व, यह सारा ब्रह्माण्ड (मन जहाँ तक जा सकता है) परमेश्वर (ब्रह्म या परमात्मा/परमेश्वरी-माँ जगदम्बा) के केवल एक चौथाई अंश में ही स्थित है। और उसका अधिकांश भाग (शेष तीन-चौथाई भाग) इस मन (या दृष्टिगोचर जगत) के परे अनन्त लोक तक परिव्याप्त है। आत्मा हमलोगों के इन्द्रियग्राह्य जगत को (अपने मन को ) परिपूर्ण करते हुए उसका भी अतिक्रमण करके उसके बाहर ही इस सत्ता का अधिकांश भाग (तीनचौथाई भाग) अवस्थित है। अर्थात् वह ईश्वर/ इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है, यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है और सर्वत्र विद्यमान है उसको हम किसी एक ही स्थान पर, या किसी एक ही 'नाम-रूप' में अवस्थित नहीं कह सकते।”
[अस्य = इन सर्वनियन्ता भगवान् का, विश्वाभूतानि = अनन्तानन्त जीव तथा अनन्त लोक, पादः = सम्पूर्ण ऐश्वर्य का चतुर्थ भाग है । और, अस्य = इन भगवान श्रीरामकृष्ण का, त्रिपादः = तीनो पाद अर्थात् तीनो भाग हैं- अहंकार आदि से युक्त 'बद्ध जीव और मुमुक्षु' , दूसरा पाद नित्यमुक्त = जो कभी संसार में फँसे ही नहीं-नारद आदि, और तीसरे हैं मुक्त जीव = डीहिप्नोटाइज्ड, भ्रम से मुक्त, जो भवबन्धन से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं वे अमृतं =अविनाशी हैं।]
-ये तीनो पाद कहां हैं? इसका उत्तर देते हैं --दिवि। दिव् शब्द का अर्थ है परमाकाश,स्वर्ग, भगवद्धाम! गीता ११/१२ में कहा गया है -'दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।' भगवान के विराट्-रूप [चिन्मय भगवद्धाम ='विस्फोटी परमानन्द' कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानन्द की बाढ़ की उपमा; या माँ जगदम्बा के विराट रूप=सर्वव्यापी मातृहृदय का 'अहं'-बोध] की जो प्रभा -- प्रकाश है; उसकी उपमा कहते हैं - अगर आकाशमें एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा (विराट्-रूप परमात्मा या विराट सर्वव्यापी 'अहं'-बोध रूपिणी माँ जगदम्बा) विश्वरूप के प्रकाश के समान शायद ही हो। अथवा सम्भव है कि न भी हो अर्थात् उससे भी विश्वरूप का प्रकाश ही अधिक हो सकता है।
-ये तीनो पाद कहां हैं? इसका उत्तर देते हैं --दिवि। दिव् शब्द का अर्थ है परमाकाश,स्वर्ग, भगवद्धाम! गीता ११/१२ में कहा गया है -'दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।' भगवान के विराट्-रूप [चिन्मय भगवद्धाम ='विस्फोटी परमानन्द' कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानन्द की बाढ़ की उपमा; या माँ जगदम्बा के विराट रूप=सर्वव्यापी मातृहृदय का 'अहं'-बोध] की जो प्रभा -- प्रकाश है; उसकी उपमा कहते हैं - अगर आकाशमें एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा (विराट्-रूप परमात्मा या विराट सर्वव्यापी 'अहं'-बोध रूपिणी माँ जगदम्बा) विश्वरूप के प्रकाश के समान शायद ही हो। अथवा सम्भव है कि न भी हो अर्थात् उससे भी विश्वरूप का प्रकाश ही अधिक हो सकता है।
गीता (१०.४२) में भी कहा गया है- अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।
-जगत का किन किन स्थानों में उनका विशेष प्रकाश है, उसका वर्णन करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन कहते हैं; अथवा हे अर्जुन बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।
वे सभी स्थानों में व्याप्त हैं, किन्तु जीवात्मा में उनका विशेष प्रकाश है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मैं जीवन भर ईश्वर को ढूँढ़ता रहा, किन्तु अन्त में मैंने मनुष्य के भीतर ही ईश्वर को देखा है।"
अन्यान्य जड़ वस्तुओं की तुलना में जीव शरीर में ही ब्रह्मचैतन्य का प्रकाश सर्वाधिक है। जो लोग सम-दर्शी होते हैं वे सर्वत्र उनका अनुभव करते हैं। हमलोग तो सर्वदर्शी नहीं हैं इसीलिये जीवों के भीतर, विशेषतः मनुष्य के भीतर ही उनको स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। सीमाहीन आकाश में परिव्याप्त ब्रह्मवस्तु हमारी धारणा से परे है। किन्तु जिस आकृति में घनीभूत होकर ब्रह्म ने स्थूल रूप धारण किया है, वहाँ हमलोग उनके अस्तित्व का अनुभव कर सकते है।
स्वामीजी एक जगह कहते हैं, " यदि प्रत्येक मनुष्य के भीतर अवतार होने की सम्भावना नहीं हो, तो फिर कहना होगा कि अवतार कभी हुए ही नहीं थे। " अर्थात प्रत्येक मनुष्य के भीतर अवतार होने की सम्भावना विद्यमान है। किसी अवतार पुरुष के जीवन और सन्देश की विवेचना, उनके जीवन का अध्यन और जीवन लीला पर चिंतन करने से प्रत्येक व्यक्ति अपने संकीर्ण जीवनवृत्त का अतिक्रमण कर महत जीवनबोध अर्जित करने में सफल हो पाता है।
महर्षि पतंजली कहते हैं, " ईश्वरप्रणिधानम् - पवित्र-जीवन में उपनीत महापुरुषों के जीवन और सन्देश का चिन्तन करने वाला मनुष्य, पहले की अपेक्षा अधिक उन्नत-अवश्य हो जाता है। शंकराचार्य कहते हैं, ' त्रय-दुर्लभं ' -' मनुष्यत्वं, मुमुक्षुत्वं और महापुरुष संश्रय'- इन तीन चीजों को एक साथ प्राप्त करना दुर्लभ है। कितने जन्मों तक साधना करने (विभिन्न योनियों -८४ लाख में भटकने के बाद) के बाद मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है। मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी नाम-यश, भोग-वासना में बन्ध जाने से मुक्ति की इच्छा ही नहीं होती। फिर मुक्त होने की इच्छा होने पर भी महापुरुष (पहुँचे हुए संत-गुरु ) का आश्रय प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है। यह तीनों दुर्लभ संसाधन एक साथ प्राप्त होने पर ही मुक्ति की सम्भावना है। नहीं तो मुक्ति की सम्भावना बहुत कम है।
चौपाया जीवों का सिर सदैव नीचे की ओर रहता है। वही जब क्रमिक विकास में दो पैरों पर खड़े होना, और हाथों का उपयोग करना सीख लेता है , तब वह अपने सिर को ऊपर उठाकर आकाश की ओर देख सकता है, तब उसकी दृष्टि की परिधि बढ़ जाती है। फिर वह जितना ही उन्नत होता जाता है , उसकी क्षितिज रेखा उतनी ही बढ़ती जाती है। इस प्रकार वह क्रमशः अनन्त की कल्पना करना सीखता है। आगे बढ़ने या उन्नत मनुष्य बनने के लिए और भी प्रयत्न करना पड़ता है , यही इसका अन्त नहीं है।
स्वामीजी श्रीमती ओली बुल को लिखित पत्र (20 जनवरी, 1895) में कहते हैं , " प्रत्येक जीवात्मा एक तारा है , और ये सभी तारे उसी ईश्वर रूपी अनन्त निर्मल नील आकाश में विन्यस्त हैं। वही ईश्वर प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप है , वही प्रत्येक का यथार्थ स्वरुप और वही प्रत्येक और सबका यथार्थ व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा- रूप तारों में से कुछ के , जो हमारी दृष्टि-सीमा से परे चले गए हैं , उनका अनुसन्धान करने से ही धर्म का आरम्भ हुआ, और यह अनुसन्धान तब समाप्त हुआ, जब हमने पाया कि उन सबकी अवस्थिति परमात्मा में ही है और हम भी उसीमें हैं।" (३/३७६)
[ " Each soul is a star, and all stars are set in that infinite azure, that eternal sky, the Lord. There is the root, the reality, the real individuality of each and all. Religion began with the search after some of these stars that had passed beyond our horizon, and ended in finding them all in God, and ourselves in the same place."]
-अर्थात जीवात्मा के जीवन में धर्म शुरू होता है इसी प्रकार कुछ वैसे वृहत आकर के तारों का अनुसन्धान करने से जो दिगंश वलय (azimuth ring) के निवासी हैं, जिनके जीवन-परिक्रमा का पथ और भी विशाल होता है। जो महापुरुष (नेता) अन्य लोगों को भी उनके संकीर्ण क्षितिज से परे ले जा सकते हैं, उनके जीवन-लीला के अध्यन और अनुसन्धान से ही व्यक्ति के जीवन में धर्म का आरम्भ होता है। किसी साधक में धर्म-जीवन का आरम्भ उसके भौतिक संसार के आकर्षण की ओर पीठ फेर देने से होती है , वापस लक्ष्य (काशी ) की तरफ यात्रा शुरू करने से कलकत्ता स्वतः पीछे छूट जाता है। क्रमश ऊपर उठते जाने से ही उस अनन्त नीले आकाश में पहुँचा जा सकता है, जहाँ आत्मा और ब्रह्म में कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता। सबकुछ ब्रह्म में ही लीन हो जाता है, और वहीं जीवात्मा के धर्म का भी अन्त हो जाता है।
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'ईश्वर जीव और जगत' के स्वरुप को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये (कृष्ण-बुद्ध- ईसा और मोहम्मद तो पुरुष थे किन्तु, ईश्वर -गॉड-अल्ला-पुरुष है या स्त्री ?... को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये।) स्वामी विवेकानन्द (जो पहले माँ काली को नहीं मानते थे ?) ने किसी कमाल के कवि जैसी कल्पना के द्वारा एक वस्तु-प्रतीक (object module, या अर्चावतार) की सहायता से व्याख्यायित किया है। अपनी अनुभूति को व्यक्त करते हुए- श्रीमती ओली बुल को लिखित पत्र (२० जनवरी, १८९५) में कहते हैं, "प्रत्येक आत्मा एक एक स्टार है (सितारे की तरह है)। और ये सभी सितारे ईश्वररूपी उस अनन्त नीले आकाश में विन्यस्त हैं (अजियोर/azure/नीलाकाश/अनन्त तक विस्तृत मातृहृदय- में पहुँचे हुए हैं)। और वही ईश्वर (मातृहृदय ईश्वर) प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप, यथार्थ स्वरुप है, और वही समस्त सितारों (भक्तों, वीरों,हीरोज) का स्वाभाविक व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा-रूप सितारों में से कुछ अविस्मरणीय सितारों का जब हम पुनरानुसन्धान करना प्रारम्भ करते हैं,(कुछ अविस्मरणीय मातृहृदय जैसे-नवनीदा, स्वामी विवेकानन्द, श्रीमाँ सारदा-सरस्वती, भगवान श्रीरामकृष्णदेव, मोहम्मद, चैतन्य, नानक, बुद्ध, ईसा,राम,कृष्ण, जैसे सितारों का पुनरानुसन्धान करना प्रारम्भ करते हैं।) जो हमारी दृष्टि से परे चले गए हैं, तभी हमारे जीवन में धर्म का प्रारम्भ होता है, और यह अनुसन्धान तब समाप्त हो जाता है, जब हम पाते हैं कि उन सब (विभिन्न व्यक्तित्वों) की अवस्थिति ईश्वर (मातृहृदय में रूपांतरण) में ही है, और हमलोग भी उसी ईश्वर (माँ जगदम्बा) में अवस्थित हैं।" ( Each soul is a Star, and all stars are set in that infinite azure, that eternal sky, the Lord. There is the root, the reality, the real individuality of each and all. Religion began with the search after some of these stars that had passed beyond our horizon, and ended in finding them all in God, and ourselves in the same place.) अब सारा रहस्य यह है कि आपके पिता ने जो जीर्ण वस्त्र पहना था, उसका त्याग उन्होंने कर दिया, और अभी वे वहीँ अवस्थित हैं, जहाँ वे अनन्त काल से थे। इस लोक या किसी अन्य लोक (सप्त लोक चौदह भुवन) में क्या वे फिर ऐसा कोई एक वस्त्र पहनेंगे ? मैं सच्चे दिल से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा न हो, जब तक कि वे ऐसा पूरे ज्ञान (होशोहवास) के साथ न करें। मैं प्रार्थना करता हुआ कि अपने पूर्व कर्म की अदृश्य शक्ति से परिचालित होकर कोई भी अपनी इच्छा के विरुद्ध कहीं भी न ले जाया जाय। मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड-सिंह) हो जायें, अर्थात वे यह जान लें कि वे तो मुक्त ही हैं ! (अर्थात केवल इतना जान लें कि अब वे हिप्नोटाइज्ड-भेंड़ नहीं हैं! ) और यदि वे पुनः कोई स्वप्न देखना भी चाहें, तो वे सब आनन्द और शान्ति के स्वप्न हों। "]
(विवेकानंद जो पहले माँ काली को नहीं मानते थे ?) ने किसी कमाल के कवि जैसी कल्पना के द्वारा एक वस्तु-प्रतीक (object module, या अर्चावतार) की सहायता से व्याख्यायित किया है।
[अर्चावतार अर्चा का अर्थ प्रतिमा अथवा मूर्ति होता है। निराकार-निर्विकार-शुद्ध-बुद्ध-परमानंदस्वरूप परब्रह्म (क्योंकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हैं। जिन्हें मायाधीश, मायापति आदि नामों से जाना जाता है।) भक्तों की हितकामना से मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह आदि अवतारों के अतिरिक्त राम, कृष्ण,बुद्ध, ईसा,आदि विविध रूपों में अवतार ग्रहण करते हैं। यह अवतार मूर्ति रूप में प्रतिष्ठित होने के कारण अर्चावतार शब्द से अभिहित होता है।]
[ (Object-symbol/ महाकाली -महालक्ष्मी -महासरस्वती आदि)इस दृष्टि से शूद्र भी गुरु से ज्ञान प्राप्त करके चरित्रवान मनुष्य बनकर ब्राह्मण में रूपांतरित हो सकते हैं। जातिप्रथा जन्मगत ही नहीं है, इसका उद्देश्य प्रत्येक मनुष्य को चरित्रवान मनुष्य में अर्थात ब्राह्मण में रूपांतरित करना है। (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का जन्म दो बार होता है—एक बार माता के गर्भ से और दूसरी बार गुरु द्वारा ज्ञान दिए जाने पर। इसलिए इन्हें द्विजाति कहा जाता है। इनका आराध्य देव अग्नि है।)
(जैसे अशुभ की अध्यक्षता कौन शक्ति करती है ? इस विचार पर चिंतन करने से माँ काली, कृष्ण या किसी अवतार की मूर्ति की कल्पना जन्म लेती है।)
' प्रत्येक जीवात्मा में अवतार बन जाने की सम्भावना है !'माँ जगदम्बा ने अपना स्वरूप बतलाते हुये स्वयं कहा है- “एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का – ममापरा”।
‘मैं ही परब्रह्म, परम-ज्योति, प्रणव-रूपिणी तथा युगल रूप धारिणी हूं। मैं
ही सब कुछ हूं। मुझ से अलग किसी का वजूद ही नहीं है। मेरे गुण तर्क से परे
हैं। मैं नित्य स्वरूपा एवं कार्य कारण रूपिणी हूं।’ अतः मनुष्यमात्र को यदि अपना आत्मकल्याण करना हो
अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना हो तो अवश्य ही माँ भगवती की आराधना करें।
माँ ममता की मूरत है। इतना
तो निश्चित है जो भगवती के शरण में जाता है, उसे माँ अवश्य अपनाती है। यह बात भी
स्मरण रहे कि शक्तिमान् की शक्ति अभिन्नरूप से रहती है, सम्पूर्ण पदार्थों
में – जैसे –अग्नि में दाहिका शक्ति होती है, विद्वानों के अन्दर विद्याशक्ति, धनवानों में धनशक्ति,
ब्रह्मचारियों में ब्रह्मचर्यशक्ति इत्यादि। शक्ति एक होकर भी अनेकरूप में
व्यक्त होती है। जीवमात्र
में अविद्या शक्ति बनकर रहने वाली माँ जगज्जनी भगवती पराम्बा,
विश्वजन-मोहिनी (मनुष्य को हिप्नोटाइज्ड करने वाली शक्ति ?) कहलाती है।]