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बुधवार, 1 अगस्त 2012

2.1 " आशा और निराशा " [ द्वितीय अध्याय -2.1 :समस्या और समाधान (Problem and Solution) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.1]


 "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-2.1"

[द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान] 

1.  

 " आशा और निराशा "

    कई शताब्दियों तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद समस्याओं के पहाड़ /अम्बार को सिर पर उठाये जिस दिन पराधीन भारत में स्वाधीनता का अरुणोदय हुआ था, कितने ही प्रकार के दुःखों से घिरे होने के बावजूद भी, उस दिन मन में आशा की एक किरण फूट पड़ी थी। लगा था,अब देशवासियों के लिए 'भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा' की कमी नहीं रहेगी। हम सोचने लगे थे कि विश्व के समस्त राष्ट्रों के बीच भारतवर्ष अपना खोया हुआ गौरव पुनः प्राप्त कर लेगा। किन्तु मन में घर किये बैठी अन्य आशाओं-आकाकंक्षाओं की भाँति यह आशा भी अभी तक मरीचिका (mirage, कल्पना या भ्रम) ही बनी हुई है
          कुछ ही दिनों पूर्व जब पूरे जोर-शोर से भारतीय गणतन्त्र दिवस (26 जनवरी,1950)  की बीसवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी (यह लेख 1970 में महामण्डल की संवाद पत्रिका Vivek-Jivan में प्रकाशित हुआ था) और लगभग उसी समय (12 जनवरी, 1970 को) स्वामी विवेकानन्द का जन्मोत्सव भी मनाया गया था- तब मन में स्वाभाविक तौर से यह प्रश्न उठा था- अब भी देश का ऐसा हाल क्यों है ? शासन करने का अधिकार अपने हाथों में आने के बाद भी 
अभी तक भारत की आम जनता के चेहरों पर मुस्कान क्यों नहीं आ सकी है ? आज भी भारत के तरुणों- युवाओं की आँखों में आशा की चमक के बदले हताशा ही क्यों दिखाई दे रही है ? क्यों  हमलोग एक राष्ट्र के रूप में ['संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र' (Sovereign nation) के रूप में]  आज भी विश्व सभा में गौरव-पूर्ण आसन पर प्रतिष्ठित नहीं हो सके हैं ?
        इन सभी प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर जान लेना बहुत आवश्यक है। क्योंकि रोग की पहचान (diagnosis) ठीक से नहीं होने पर उससे मुक्त होना संभव नहीं होता। आज राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जो कुछ भी अधःपतन दिखाई दे रहा है, उसका कारण यह है कि हमलोगों के राष्ट्रीय-चरित्र में ईमानदारी लगभग विलुप्त हो चुकी है और चारों ओर भ्रष्टाचार व्याप्त हो चुका है। हमारे अन्दर से देशप्रेम गायब हो गया है जो राष्ट्रीय स्वार्थ को व्यक्ति स्वार्थ के उपर स्थान देना सिखालाता है। हमारे भीतर देश के लिए वैसी उत्कट देशभक्ति नहीं है, अपने देशवासियों के प्रति वह प्रेम नहीं है जो समाज के शोषितो, वंचितों, उपेक्षितों, जनसाधारण, नीच, मूर्ख, दरिद्र, अज्ञ, मोची, मेहतर - सबों को अपना भाई, अपने रक्त के रूप में देखना सिखाता है। इन सबका जो परिणाम होना चाहिए, वही हो रहा है।  [यानि स्वाधीन भारत में 'मनुष्य -निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार -प्रसार करने के बदले, इस प्रचलित 'बाबू (आई.ए.एस या क्लर्कबनाने वाली शिक्षा' व्यवस्था  लागु रहने के परिणामस्वरूप जो परिणाम होना चाहिये, वही हो रहा है। ]
            स्वामीजी ने अपने देशवासियों को साक्षात् देवता मानकर (जनताजनार्दन मानकर)  उनकी पूजा करने का संदेश दिया था। उन्होंने कहा था-"मैंने इतनी तपस्या करके जो समझा है उसका सार यही है कि सभी जीवों में वे (ईश्वर-एकोहं बहु स्याम) ही अधिष्ठित हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। ईश्वर के अनुग्रह से यदि तुम उनके किसी सन्तान की सेवा कर सको तो तुम धन्य हो जाओगे। अतएव (हमेशा दासोऽहं का भाव रखो) अपने को कभी दूसरों की अपेक्षा बहुत बड़ा मत समझो। तुम धन्य हो, क्योंकि तुमको सेवा करने का अधिकार मिला है। यह सेवा तुम्हारे लिये पूजा के तुल्य है।" (उच्च स्तर की समाज सेवा -दूसरों की आध्यात्मिक दृष्टि खोलने की सेवा तुम्हारे लिये पूजा के तुल्य है।) लेकिन स्वामीजी के इन संदेशों को सुन कर काम में लग जायें, वैसी हृदयवत्ता कहाँ है ? 
       जब प्रत्येक भारतवासी स्वामीजी के आदर्श को अपने जीवन में धारण करने के लिए प्रतिबद्ध होगा तभी वह पदावनत भारत को पुनर्जाग्रत करने के लिए वचनबद्ध होगा। व्यक्ति-जीवन के सबल बन जाने पर ही स्वस्थ समाज और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण संभव हो सकता है। समस्त निराशाओं के बीच स्वामीजी के जीवन्त संदेशों में ही भविष्य के भारत की आशा को साकार करने का बीज निहित है। 
           6 अप्रैल 1897 को सरला घोषाल को लिखित पत्र में स्वामी जी कहते हैं- " हे महाभागे! मैंने जापान में सुना कि वहाँ के लड़कियों को यह विश्वास है कि यदि उनके गुड़ियों को हृदय से प्यार किया जाय तो वे जीवित हो उठेंगी। जापानी बालिका अपनी गुड़िया को कभी नहीं तोड़ती। मेरा भी विश्वास है कि यदि हतश्री, अभागे, निर्बुद्धि, पददलित, चिर बुभुक्षित, झगड़ालू और ईर्ष्यालु भारतवासियों को भी कोई हृदय से प्यार करने लगे, तो भारत पुनः जाग्रत हो जायेगा। भारत तभी जागेगा जब विशाल हृदयवाले सैकड़ो स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतियों के कल्याण के लिये सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाध सागर में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं।" इसीलिये विशाल-हृदय वाले युवाओं का आह्वान करते हुए विवेकानन्द कहते हैं -"मोहग्रस्त लोगों की ओर दृष्टिपात करो। हाय ! हृदय-भेदकारी करुणापूर्ण उनके आर्तनाद को सुनो। "हे वीरों, बद्धों को पाशमुक्त करने, दरिद्रों के कष्ट को कम करने तथा अज्ञ-जनों के हृदय के अंधकार को दूर करने के लिये आगे बढ़ो ! 'अभिः,अभिः'! 'डरो नहीं','डरो नहीं'- यही वेदान्त-डिण्डिम का स्पष्ट उद्घोष है। " 
" कोई कृति खो नहीं सकती 
और न कोई संघर्ष व्यर्थ जायेगा, 
भले ही आशाएँ क्षीण हो जायें, 
और शक्तियाँ जवाब दे दें।
फिर भी धैर्य धरो कुछ देर- हे वीर हृदय, 
तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य जन्मेंगे,   
 और कोई भी सत्कर्म निष्फल न होगा ! " 
 (वि० सा० १० /पृष्ठ १८९ )
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" अभिः,अभिः, डरो नहीं,डरो नहीं!" 

"जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नहीं।
प्रेम गली अति सांकरी , तामें दो न समनहि।।

 अधिकांश लोग प्रियजन के लिए नहीं, बल्कि अपने व्यक्तिगत अभाव के लिए शोक मनाते हैं। हमारे जीवन में आने वाले सभी अच्छे या बुरे सभी प्रकार के व्यक्ति वास्तव में हमारे प्रति ईश्वर के प्रेम की अभिव्यक्ति हैं। क्योंकि -
 
"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
 
अनेन वेद्यं सत्-शास्त्रम् इति वेदांत-डिण्डिमः।"

[ब्रह्म सत्यम्। जगत् मिथ्या। जीवः ब्रह्म एव। न अपरः। अनेन वेद्यं सत्-शास्त्रम् इति वेदांत-डिण्डिमः ।]
ब्रह्म सत्य (यथार्थ) है,  ब्रह्माण्ड मिथ्या है।  (इसे यथार्थ या असत्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। यहाँ मिथ्या का अर्थ अस्तित्वहीन नहीं है बल्कि मिथ्या का अर्थ है कि इसे वास्तविक या अवास्तविक के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। जीव स्वयं ब्रह्म है, भिन्न नहीं। अतः प्रत्येक व्यक्ति स्वयं भगवान है। इसे सही शास्त्र के रूप में समझना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
    अतएव प्रत्येक मित्र - चाहे वह रिश्तेदार हो, मित्र हो या जीवनसाथी हो - चाहे वह अभी हमारे साथ हो या जो इस धरती को छोड़ चुका हो, एक माध्यम है जिसके माध्यम से ईश्वर स्वयं अपनी मित्रता का प्रतीक है। मित्र/शत्रु के  भेष में भगवान ही होते हैं। और वह "CINC नवनीदा " ईश्वर ही है जो कुछ समय के लिए एक प्यारे बेटे या बेटी या माँ, पिता, मित्र या प्रिय के रूप में प्रकट होता है - और वह ही है जो फिर से दृश्य से गायब हो जाता है। यदि कर्म बंधन मजबूत हैं, विशेष रूप से आध्यात्मिक बंधन, तो वह अलग-अलग अवतारों में उन्हीं आत्माओं के साथ फिर से रिश्ते में आ सकता है। 
   यह ईश्वर है, और केवल ईश्वर ही है, जिसने स्वयं को उन सभी मनुष्यों में आत्मा के रूप में समाहित किया है जिन्हें उसने बनाया है। और जब एक इंसान दूसरे इंसान को शुद्ध दिव्य प्रेम से प्यार करता है, तो वह उस व्यक्ति में भगवान की भावना को प्रकट होता हुआ देखता है। जो लोग प्रत्येक मनुष्य के भीतर वास करने वाली आत्मा से प्रेम करते हैं वे स्थायी आनंद का अनुभव करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि आत्मा अमर है - मृत्यु उसे बिल्कुल भी नहीं छू सकती। केवल वे लोग जिनके पास यह सच्चा ज्ञान है, वे ही अपने लिए इस प्रकार असाधारण जीवन डिजाइन करने में सक्षम हैं।
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मंगलवार, 31 जुलाई 2012

🕊🏹1.8" स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा : एक सम्पूर्ण परिचय " 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.8 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.8] old book 1.9]

8.

 स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा : "एक सम्पूर्ण परिचय " 
 
      स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा  का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेना अत्यन्त कठिन कार्य है। उनके एक व्याख्यान या परिचर्चा को पढ़कर या सुनकर,  उनकी विचारधारा के समस्त आयामों की पूर्ण अवधारणा नहीं हो सकती। इसके लिये नियमित रूप से 'विवेकानन्द साहित्य ' के पठन-पाठन अथवा श्रवण -मनन की चेष्टा के साथ-साथ उन्हें आचरण में उतारने का अभ्यास (निदिध्यासन) करना भी आवश्यक है। 
              स्वामीजी के पास या तो इतना समय नहीं था कि वे समस्त विषयों पर विस्तारपूर्वक लिखते या उनको इसकी कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। किन्तु यह भी सत्य है कि वार्तालाप, व्याख्यान या पत्राचार के क्रम में अथवा यदा-कदा स्वयं कुछ लिखते समय विषयों के मूल में पहुँचकर उसे अत्यंत स्पष्ट रूप से समझाया है। दूसरे  विचारकों के द्वारा लिखित कई पुस्तकों को पढने के बाद भी उन विषयों की उतनी स्पष्ट धारणा नहीं हो पाती यहाँ तक कि हम कई बार और अधिक दिगभ्रमित हो जाते हैं। किन्तु, स्वामी जी की विचारधारा से परिचय हो जाने के बाद वे सब भ्रम-भ्रान्तियाँ तो दूर होंगी ही, साथ-ही-साथ प्रत्येक विषय की स्पष्ट धारणा भी बन सकेगी। और, यदि हम प्रयत्न करें, जो हमें अवश्य करना चाहिये, तो उस धारणा को हम अपने आचरण में उतार भी सकते हैं। हमें इस बात को अवश्य समझ लेनी चाहिये कि कोई विद्या या ज्ञान, चाहे वह कितना ही सुन्दर और महान क्यों न हो, उसका तब तक कोई मूल्य नहीं है -जब तक उसे कार्यरूप न दिया जाय। 
     किसी भी सिद्धान्त या ज्ञान का मूल्य उसका जीवन में प्रयोग और फल प्राप्त करने पर ही निर्भर है। इस तरह के विचार को ही प्रयोगाश्रित (empirical) या व्यावहारिक (Pragmatic) ज्ञान कहा जाता है। व्यवहारिकतावाद या उपयोगितावाद  (pragmatism) को तो एक दार्शनिक मतवाद के रूप में स्वीकार भी किया गया है। स्वामी जी को बिना जाने-समझे ही कह दिया जाता है कि वे आदर्शवादी थे या कल्पनालोक में विचरण करने वाले मनुष्य थे। आजकल लोग बिना गहराई से सोचे-समझे ही किसी के लिए किसी भी शब्द का व्यवहार कर देते हैं। हाँ, विवेकानन्द को कल्पनालोक या भावराज्य में विचरण करने वाला मनुष्य केवल इस अर्थ में कहा जा सकता है, जब हमलोगों को यह समझ में यह आ जाय कि जीवन के समस्त कार्य - व्यापार या यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड ही मात्र भाव-राशि है अर्थात  मनःकल्पित है। नहीं तो वास्तविक अर्थों में स्वामी जी से बड़ा प्रयोगवादी या व्यवहारवादी कोई दूसरा नहीं हुआ। उनके अनुसार इस भौतिक जगत में यदि कोई सिद्धान्त या ज्ञान व्यावहारिक और उपयोगी नहीं हो तथा उसके प्रयोग से -व्यक्ति और समाज को शुभफल नहीं प्राप्त हो, तो वैसे सिद्धान्त या ज्ञान (विद्या ) का कोई मूल्य नहीं है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्वामी जी की विचारधारा सकारात्मक , वास्तविक जगत में व्यावहारिक तथा प्रयोग  योग्य है।   
             यह सत्य हम सब को ज्ञात होना चाहिए कि स्वामी जी जैसा व्यावहारिक और सकारत्मक सोच रखने वाले मनुष्य बहुत कम ही दीखते हैं,  किन्तु स्वयं उनसे बिना परिचित हुए , केवल दूसरों के मुख से सुनकर हम भी कहने लगें कि स्वामीजी तो एक आदर्शवादी मनुष्य थे अर्थात व्यावहारवादी नहीं थे, तो अपने इस कथन से हम अपनी अज्ञानता का ही परिचय देंगे। क्योंकि स्वामीजी ने तो हमें यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़े हो जाने का उपदेश दिया है, अपने पैरों पर खड़े होने का निर्देश दिया है। उनका उपदेश था- " अपने पैरों को जमीन पर जमाकर खड़े हो जाओ और दूसरों को अपने हाथों से ऊपर उठा लो। " हमें इस बात पर जरा भी सन्देह नहीं होना चाहिये कि स्वामीजी उपयोग-बुद्धि या व्यावहारिक-बुद्धि से सम्पन्न थे। इसीलिये, जो लोग अपने को व्यावहारिक बुद्धि सम्पन्न मनुष्य या 'Technocrats' समझते हैं, या स्वयं को आधुनिक तकनीकी से लैस समझते हैं वैसे ही लोग स्वामी जी के सम्पर्क में आकर अधिक लाभान्वित हो सकते हैं। स्वामी जी के बारे में अमुक-अमुक व्यक्ति ने क्या कहा है -इसके माध्यम से यदि स्वामी जी के साथ परिचय करने की चेष्टा की जाय तो वह ' दूसरों के मुख से मिर्ची खाने' जैसा है। इसके बजाय हमलोगों को उनके विचारों को स्वयं समझने तथा उन्हें व्यवहार में लाने की चेष्टा कर स्वामीजी से सीधा संपर्क स्थापित करना होगा। स्वामीजी ने स्वयं कहा या लिखा है, उसके अधिकृत अनुवाद को अच्छी तरह से पढ़ कर, उसके उपर गहन- चिन्तन करके हमलोग उनका परिचय प्राप्त कर सकते हैं। उनकी विचारधारा से सम्यक परिचय प्राप्त करने के लिए  ऐसा करना नितान्त आवश्यक है।         
          स्वामी जी ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिया कार्य किया है परन्तु कुछ लोग उनको एक महान देशप्रेमी के रूप में जानते हैं। आश्चर्य की बात है कि कुछ लोग इसी विषय (उत्कट देशप्रेम) को लेकर उनकी आलोचना भी करते हैं। वास्तव में, स्वामीजी का देशप्रेम अतुलनीय था, फिर भी स्वामी जी सम्पूर्ण मानव जाति को ही अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करने में समर्थ थे। वे कहते हैं - " चाहे अमेरिका हो या भारत उनके लिए सभी देश सामान हैं। " किन्तु इतना होने पर भी जब वे पहली बार विदेश से वापस आये तो कहा था- " भारतवर्ष का प्रत्येक धूलकण मेरे लिये और अधिक महान हो गया है, भारत मुझे अपने प्राणों से भी  प्रिय प्रतीत हो रहा है। " ऐसा उन्होंने क्यों कहा था; इसको शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है। ऐसे विचार जिसके मन में जन्म ले वही इस बात को समझ सकता है। ऐसे विचार हमारे व्यक्तिगत  जीवन और समस्त मानव जाति  के लिए अत्यन्त मूल्यवान है। ऐसे शुद्ध , कल्याणकारी और सर्वजन हितकारी विचार किसी अन्य व्यक्ति में भी मिलते हों ऐसा कोई दूसरा उदाहरण हमें नहीं दिखाई देता जबकि कई अन्य लोगों ने भी अनेक अच्छी बातें अवश्य कही हैं, लेकिन किसी व्यक्ति के मुख से उसके सम्पूर्ण जीवनकाल में जो भी बातें निकली हों , वह सब की सब केवल मनुष्य के कल्याण हों , ऐसा कोई दूसरा उदाहरण (व्यक्ति) हमें नहीं दिखाई देता। स्वामी विवेकानन्द सभी मनुष्यों के कल्याण के विचारों से भरे एक ऐसे अक्षय कोष की तरह हैं, जो अतुलनीय है। वे अनुपम हैं और उनका विराट व्यक्तित्व अचम्भित कर देनेवाला है, इसीलिए वे हमारे अनन्य श्रद्धा के पात्र हैं और उन्हें हम सबको आदर्श के रूप में ग्रहण करना चाहिए।     

     स्वामीजी ने सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण के लिए कई विषयों पर अपने विचार विभिन्न प्रकार से व्यक्त किये हैं। और उन्होंने जो कुछ कहा है उसमें एक अविच्छिन्न तारतम्यता देखी जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो उनके सारे विचार एक अद्भुत कड़ी से जुड़े हुए हैं। जाति-प्रथा, नारी-कल्याण तथा शिक्षा, विश्व एकता इत्यादि विभिन्न विषयों पर उन्होंने अपने विचार व्यक्त किये हैं। किन्तु एक- एक मुद्दे के उपर अलग से सोच-सोचकर कुछ नहीं कहा है। इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का सत्य -(एकोऽहं बहुस्याम् ) क्या है, यह तथ्य उनकी आँखों के सामने सदैव बना रहता था। उन्होंने जीवन और जगत के भ्रमरहित स्वरुप का साक्षात् दर्शन किया था, क्योंकि वे विवेकज-ज्ञान के अधिकारी थे, और उसी अधिकार से वे ऐसा कह और कर पाये  थे।
            अतः हमलोगों को पहले ही यह समझ लेना होगा कि अविवेकपूर्ण अनुसन्धान से हम स्वामी जी का वास्तविक परिचय नहीं प्राप्त कर सकते हैं। उनका नाम था - विवेकानन्द, जो विवेक-प्रयोग के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके आनन्द का अधिकारी बना हो।हमलोग भी ज्ञान  प्राप्त करना चाहते हैं, आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं, सभी संसार के सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हैं, किन्तु विवेक का प्रयोग नहीं करते हैं। विवेक क्या है, इसका व्यवहार जीवन में किस प्रकार किया जाता है , इसको भली-भाँति सीख लेने से ही हमलोग अपने समस्त दुःखों के कारण को नष्ट कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " देवता, स्वर्ग और शक्तियों से बचने का फिर क्या उपाय है ? उपाय है विवेक -सद असद विचार। ' इस विवेकज-ज्ञान को  दृढ़ करने के उद्देश्य से ही इस अद्भुत संयम का उपदेश दिया गया है - 
  
"क्षणतत्क्रमयोः संयमात्विवेकजं ज्ञानम् ।।"  (3 -52) 

पातंजल योग सूत्र 3 -52।। में क्षण का अर्थ है, काल का सूक्ष्तम अंश। इस क्षण के पहले जो क्षण बीत चूका है और उसके बाद जो क्षण प्रकट होगा,-इस लगातार सिलसिले को ' क्रम ' कहते हैं।  उपर्युक्त विवेकजनित ज्ञान को दृढ़ करने के लिये इसी क्षण और उसके क्रम में मन का संयम करना होता है। क्षणतत्क्रमयोः – क्षण और उसके क्रम में, संयमात् – संयम करने से, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान उत्पन्न होता है। (विवेकानन्द साहित्य खण्ड 1/80) 

        विवेक का अर्थ है, सद -असद विचार , कौन शाश्वत है और कौन नश्वर है - इसका परीक्षण करके अच्छे-बुरे का निर्णय करना अथवा सत्य, असत्य और मिथ्या के अन्तर को समझना। इसी को सरल भाषा में शुभ-अशुभ, भला- बुरा, या श्रेय-प्रेय का अन्तर करना भी कह सकते हैं। 
लेकिन अच्छा-बुरा का निर्णय करते समय हम अक्सर भ्रम में पड़ जाते हैं। क्योंकि हमलोगों की प्रकृति या इन्द्रियों को जो अच्छा प्रतीत होता है उसी को हम अपने लिए अच्छा मानकर ग्रहण कर लेते हैं, और जो इन्द्रियों को अच्छा नहीं लगता उसे बुरा मान कर त्याग देते हैं। विवेकानन्द के नाम का तात्पर्य जानने के लिए हमें विवेक-प्रयोग करके उन्हीं के ऊपर मनोनिवेश करना होगा। विवेकज-ज्ञान किसे कहते हैं, इसको और स्पष्ट करते हुए पतंजलि योगसूत्र के विभूतिपाद में आगे कहा गया है - 
तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।।3 -54।। 

 तारकम् – जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सर्वविषयम् – सबको जानने वाला है,  सर्वथाविषयम् – सब प्रकार से जानने वाला है, च – एवं अक्रमम् – बिना क्रम में है वह, विवेकजम् – विवेक जनित, ज्ञानम् – ज्ञान है। इस ज्ञान को  तारक-ज्ञान  इसलिये कहा गया है कि वह योगी का जन्म-मृत्यु सागर से तारण करता है। समस्त  प्रकृति (वाह्य एवं अन्तः) की स्थूल और सूक्ष्म सभी अवस्थाएँ इस ज्ञान की ग्राह्य (विषय) हैं, तथा इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है। यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है। 'विवेकज-ज्ञान ' ऐसा ज्ञान है, जो हमें समस्त विषयों, समस्त अवस्थाओं तथा समस्त समस्याओं से मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है। पुनः जो भूत, भविष्य और वर्तमान समस्त अवस्थाओं का ज्ञान हो उसे - ' अक्रमम '; अर्थात बिना क्रम में गये, एक ही क्षण में परिपूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया जाय, वही  विवेकज ज्ञान है। जैसे अगर किसी कमरे में हजार वर्ष से भी अँधेरा हो, तो दीपक जलाने पर अँधेरा धीरे-धीरे नहीं जाता है, वरन एक ही बार में चला जाता है। वैसे ही विवेकज ज्ञान से अज्ञान रूपी अँधेरा एक ही बार में चला जाता है। जबकि साधारण ढंग से ज्ञान का अर्जन एक के बाद एक अर्थात क्रम से होता है। 
     अतः उसी 'विवेकज ज्ञान' प्राप्ति की बलवती इच्छा के साथ पूरी श्रद्धा रखते रखते हुए स्वामीजी के सन्देशों को पढ़ने, उसपर गहन चिन्तन करने और अपने जीवन में प्रयोग करने से हम भी उसको प्राप्त कर सकेंगे। आमतौर पर जो भी ज्ञान हम प्राप्त करते हैं, उसे केवल बुद्धि का प्रयोग करके प्राप्त करते हैं। उस लौकिक या बौद्धिक ज्ञान के द्वारा किसी वस्तु या विषय की जितनी जानकारी हमें मिलती है वह क्षणिक, सामयिक, सापेक्षिक और परिवर्तनशील होती है।  
          ज्ञाता और ज्ञेय वस्तुओं के बीच एक स्थानिक और त्वरित सम्पर्क स्थापक प्रक्रिया द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा मनुष्य जीवन और जगत की अपरिमित समस्यायों के मूल कारण  का परिचय नहीं मिल पाता है। जिस दृष्टि और अनुसन्धान से एक क्षण में समग्र जगत और विश्व- ब्रह्माण्ड भासित हो उठता है तथा समस्त समस्याओं का स्वरुप और समाधान-सूत्र दृष्टि पथ में आने लगता है, वही ज्ञान हम स्वामी जी से प्राप्त करते हैं। इसी दृष्टि के कारण वे निश्चित रूप से एक भविष्यद्रष्टा भी हैं। अपने सार्वभौम  वैश्विक दृष्टिकोण के आधार पर ही उन्होंने भविष्य के पथ का संकेत किया था। समग्र विश्व,उसकी समस्त समस्याएं और इसके आत्यंतिक समाधान को उन्होंने एक साथ देख लिया था।  उसके बाद उन्होंने उसे टुकड़ों में करके जो कहा, उन्हीं संदेशों से हमलोग विभिन्न प्रकार के विषयों से अवगत होते हैं और उनकी बातें हमें इतनी मूल्यवान लगती हैं।  जिस प्रकार गीता में भगवान श्री कृष्ण ने समस्त मुख्य-मुख्य वस्तुओं को  अपनी योग शक्ति रूपी तेज़ की अभिव्यक्ति बताकर कहा है कि समस्त जगत मेरी योग शक्ति के एक अंश से ही धारण किया हुआ हैं-
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।  
                        विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।।गीता: 10: 42।।         
अर्थात हे अर्जुन ! तुम जो अनेक को जानने की चेष्टा कर रहे हो कि -यह क्या है, यह क्या है? इस प्रकार अलग- अलग जानने की क्या आवश्यकता है? केवल इतना ही जान लो की केवल मेरे एक चौथाई अंश में ही यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड अवस्थित है।  स्वामीजी के विचारों का भी यही वैशिष्ट्य है। उनके समस्त संदेशों के भीतर जो मूल बात है, वह है मनुष्य को 'मनुष्य' के रूप में गढ़ लेना।  वे कहते हैं - " तुम लोग समाज का पुनर्गठन करो, समाज का नवीकरण करो, समाज की सेवा करो। तुम लोग राजनीति का उपयोग करो, विज्ञान और अर्थनीति का उपयोग करो ! इन सब चीजों की आवश्यकता है, लेकिन इतना समझ लो कि सभी नीतियाँ और आर्थिक योजनाएं मनुष्य के कल्याण के लिए ही हैं। इसलिये यदि तुम मनुष्य को ही पूर्ण मनुष्य के रूप में नहीं गढ़ सको, उसकी अन्तर्निहित सत्ता को यदि  पूर्ण विकसित और प्रकाशित न करा सको, तो वैसे विज्ञान,प्रद्योगिकी, अर्थशास्त्र, समाज-विज्ञान, राजनीति, इतिहास, दर्शन - ये सभी किसी काम के नहीं होंगे। अगर तुम इस इस मूल को जान लो, तो बाकी सब कुछ को जान लोगे यही है सच्चा ज्ञान। " जैसा कि श्रीरामकृष्ण कहते थे, " एक को जानने का नाम है ज्ञान, और बहुत को जानने का नाम है अज्ञान।" हमलोगों की आकांक्षा होनी चाहिये कि हम भी सबकुछ जान लेंगे, नहीं तो मूल सत्य हृदयंगम नहीं होगा। स्वामीजी के अनुसार इसी क्षण सब कुछ को जान लेने का अर्थ है- मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जान लेना और उसी ज्ञान की बुनियाद पर उससे संलग्न बाह्य विषयों को उचित रूप से अपने लिये उपयोगी बना लेना। 
             स्वामीजी ने मनुष्य के स्वरुप का अन्वेषण करके उसकी वास्तविक सत्ता का विकास करने तथा उसे अभिव्यक्त करने की साधना को ही प्राथमिक कार्य के रूप में कार्यान्वित करने पर जोर दिया था। विदेश से वापस लौटकर स्वामीजी ने भारत के प्रत्येक धूल-कण को पहले से भी अधिक पवित्र कहकर और अधिक प्रेम इसीलिये दर्शाया था कि सार्वभौमिक-कल्याण के महान तत्व (वसुधैव कुटुम्बकम- सर्वे भवन्तु सुखिनः ) का अविष्कार पृथ्वी पर सर्वप्रथम भारतवर्ष में ही हुआ था। वे यह देख पाने में समर्थ थे, उन्होंने अनुभव किया था, कि समस्त जगत का कल्याण करने के लिये, जिस मौलिक तत्व (ब्रह्म) को जानने की आवश्यकता होती है, उसका आविष्कार भारतवर्ष में ही हजारों वर्ष पूर्व यहाँ के ऋषि-मुनियों ने मनन-चिंतन तथा प्रत्यक्ष आत्मानुभूति के माध्यम से कर लिया था। उन्होंने देख लिया था कि यदि हृदयाकाश में उद्भासित, उस महान तत्व को, भारतवर्ष समग्र विश्व के मनुष्यों तक पहुँचा सका , तभी विश्व का यथार्थ कल्याण संभव होगा।
स्वामीजी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों से अपने हृदय से प्रेम करते थे इसीलिये वे भारतवासियों से अपेक्षा करते थे कि हमलोग उस तत्व को जानने और अभिव्यक्त करने की साधना करेंगे और  उसकी अनुभूति प्राप्त करके, एक दिन सम्पूर्ण विश्व में उस ज्ञानालोक को फैला देंगे।  इसीलिये भारत की धरती उनके नेत्रों के समक्ष एक पुण्यभूमि के रूप में प्रकट हो गयी थी। 
           जो तत्व प्राचीनकाल में जटिल भाषा में लिपिबद्ध होने के कारण अगम था। जो अरण्यों, पर्वत की कन्दराओं में छिपा हुआ था एवं केवल साधू-महात्माओं के चर्चा का विषय समझा जाता था, उसी तत्व को स्वामीजी ने हमलोगों के समक्ष सरल भाषा में रख दिया है। स्वामी जी ने अपने भावी संतानों से यह अपेक्षा की थी कि वे उपनिषदों में वर्णित उसी महान तत्व को अरण्यों से निकालकर जनारण्य में ले जाएँ। अर्थात उस तत्व को जंगल-झाड़, पर्वत-पहाड़ से निकाल कर साधारण मनुष्यों तक, किसानों के झोपड़ियों तक, हाट-बाजारों में, खेतों-खलिहानों में, कल-कारखानों में सर्वत्र प्रचारित और प्रसारित कर दें। ऐसा होने पर किसानों के हल से, कारखानों के कल से, एक नया महान तेजस्वी भारत महाशक्ति के रूप में उठ खड़ा होगा।
            वह तत्व क्या है-- हम सभी लोगों के भीतर अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त प्रेम का एक  महासागर ठांठे मार रहा है, उसे ही जानना होगा उस सर्वग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना होगा। हमलोग दीन-हीन नहीं हैं, हमलोग बहुत शक्तिशाली हैं, हमारा अमिट प्रताप है। हमलोग भूलवश या महाभ्रम के कारण अपने आप को असहाय मरण-धर्मा शरीर मात्र समझते हैं। इस निन्दनीय हीन भावना (Inferiority complex) के कारण ही हमलोगों ने स्वयं को अपने विराट स्वरुप से गिराकर देवमानव से पशु-मानव में परिणत कर लिया है, और पशुवत आचरण कर रहे हैं। भ्रम के कारण मनुष्य ने अपने आप को संकुचित कर लिया है,  उसे पुनः उसके जन्मसिद्ध बिराट स्वरुप में प्रतिष्ठित करा देना होगा, उसको ज्ञान आलोक से आलोकित कर देना होगा और प्रेम-सिन्धु में परिणत कर देना होगा।  स्वामी जी के उस विख्यात उपदेश से हम सभी अवगत हैं- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म-भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म,  उपासना, मनः संयम या ज्ञान, इनमें से एक, या एक से अधिक उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह-भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, अथवा अन्य बाह्य कर्म-काण्ड तो उसके गौण संकेत मात्र हैं। " 
वे कह रहे हैं, कि हम सभी लोग स्वरूपतः ब्रह्मवस्तु हैं और हमलोगों का लक्ष्य अपनी प्रकृति को नियंत्रित एवं उसपर विजय प्राप्त कर ब्रह्मवस्तु को अभिव्यक्त कर लेना है। इसके लिये हमें अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। हमलोग अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को, कर्म, मन को वशीभूत करने की साधना, संयम, ज्ञान चर्चा, सत्-असत - विवेक-विचार  तथा समस्त मनुष्यों की स्वार्थहीन सेवा में अपने आप को पूर्ण रूप से नियोजित करके अभिव्यक्त कर सकते हैं। 
      आधुनिक मनुष्य विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति के उपर जितना अधिक नियंत्रण प्राप्त करता जा रहा है, उसी अनुपात में वह अन्तःप्रकृति के सामने पराजय स्वीकार करता जा रहा है। मनुष्य की इस कंगाली (indigence) की तस्वीर स्वामी जी के मानस चक्षुओं के समक्ष स्पष्टता से प्रकट हुई थी। इसीलिये उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमने बाह्य प्रकृति को जीत लिया  है , इसीलिये विज्ञान की बड़ाई करते नहीं अघाते, किन्तु तुम्हारी अन्तःप्रकृति तुम्हारे साथ बिलियर्ड के बॉल के जैसा छिछली (ricochet) का खेल, खेल रही है और तुम्हारी महा-मूल्यवान परिसम्पत्ति रास्ते की धूल में यहाँ-वहाँ गच्चे खा रही है। ऐसे में  बेमिसाल, वैभवशाली मूर्ति (देव-दुर्लभ मानव शरीर) पाशविक वृत्तियों में उलझकर मुरझा गई है !ऐसा होते रहने नहीं दिया जा सकता है। तुमलोग आन्तरिक प्रकृति को जीत लो ! वशीभूत करो ! आन्तरिक शक्ति के उपर अधिकार प्राप्त करके उसे बाह्य-जीवन में प्रकट करो। स्वयं को मोह-निद्रा से जाग्रत करो और आन्तरिक उर्जा से परिपूर्ण हो जाओ ! किन्तु उस शक्ति का घमण्ड नहीं करना।  शक्तिवान होकर स्वयं को सबों की पूजा में, सबों की सेवा में, सबों के भीतर छूपी उसी शक्ति को जागृत करने के कार्य में समर्पित कर दो ! अपनी इन्द्रियों के सुख-भोग में निमग्न रहने से, भौतिक-सम्पदा को अधिकाधिक बढ़ाते जाने से, या नाम-यश, स्वार्थपरता की छोटे से दायरे बंधा जीवन जीने से, वह शक्ति जाग्रत नहीं हो सकती।"
         स्वामीजी कहते हैं, " सचमुच में वही जीवित रहता है, जो दूसरों के लिये जीता है, बाकी लोगों का जीवन तो मृतक से भी अधम है। " उनके इसी सन्देश में छुपा है (सूत्र-रूप से) शक्तिमान मनुष्य बनने का आदर्श, जो अपने पैरों को जमीन पर जमा कर, दूसरों को अपने हाथों का सहारा देकर उपर उठा लेने में समर्थ है। स्वामीजी ने इसी आदर्श को हमारे समक्ष रखा है। यदि हम यथार्थ मनुष्य के रूप में जीना चाहते हैं, तो हमें दूसरों के लिये जीना सीखना पड़ेगा। हम लोग परस्पर एक दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बांध लेंगे, एक दूसरे को उपर उठाने का प्रयास करेंगे। स्वार्थ-शून्य, सेवापरायण, प्रेमी मनुष्य ही शक्तिमान होता है, वही देखने में सर्वांग-सुन्दर मनुष्य  प्रतीत होता है। उसीके जीवन में अग्रगति संभव है। कल्याणकारी नवविप्लव का अग्रदूत वही बन सकता है जो वास्तव में चरित्रवान मनुष्य है। 
     और इसी कारण हमलोगों को अपना सुंदर चरित्र गढ़ना होगा। महान जीवन के 'विवेकज आनन्द' को उत्तराधिकार को उत्तरदायित्व के रूप में ग्रहण करने के  महान लक्ष्य पर पहुँचने के लिए "यथार्थ मनुष्य " [हिन्दू-मुसलमान -ईसाई -या ब्राह्मण-क्षत्रिय -वैश्य -शूद्र नहीं]  बनना होगा। अपने जीवन को उन्नत बना लेना होगा। हमारे जीवन की सार्थकता इसी कार्य के पूर्ण होने पर निर्भर है। जितने भी अन्य सिद्धान्त या ज्ञान हैं उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है।  
        स्वामीजी की विचार-धारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेने पर, यही आधारभूत तथ्य या मूल सत्य प्रकट हो जाता है। इसी सत्य को जानना होगा, समझना होगा और अपने जीवन में प्रयोग करना होगा। इसीलिये विवेक-प्रयोग की सहायता से सत्य-असत्य का परिक्षण करके निष्ठा के साथ स्वामीजी का जीवन और सन्देश की ध्यानजन्य विवेचना और उनके विचारों पर मनोनिवेश का अभ्यास करना वर्तमान युग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसी से चरित्र गठित होगा और जगत का यथार्थ कल्याण भी संभव होगा। 
          
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>> चरित्र निर्माण :
एक बौद्ध कहावत है कि-विचार से कर्म की उत्पत्ति होती है, कर्म से आदत की उत्पत्ति होती है, आदत से चरित्र की उत्पत्ति होती है और चरित्र से चरित्र से आपके भाग्य (कर्म फल या प्रारब्ध) की उत्पत्ति होती है। उत्तम चरित्र व्यक्ति की सबसे बड़ी संपदा है।  चरित्र मन को उज्ज्वल करता है। जीवन को संवारता है। चरित्र से ही व्यक्तित्व आकार पाता है। चरित्र के प्रभाव से ही लोग मित्र बनते हैं और सुख संपत्ति के मार्ग खुलते हैं। संसार में मनुष्य के पास यदि सभी साधन हैं, परंतु आदर्श चरित्र नहीं है तो सब व्यर्थ। व्यक्ति को योग्यता की वजह से सफलता मिलती है और उस सफलता का संरक्षण आपके चरित्र से ही संभव है। जो सफल व्यक्ति अपने चरित्र को नहीं निखारते उनकी सफलता स्थायी नहीं रहतीरावण और कंस आदि पराक्रमियों के पास अपार शक्ति थी, परंतु उनका चरित्र आदर्श नहीं था। इसी कारण समाज उनका तिरस्कार करता है।
 वस्तुत: धन बल और बाहुबल से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है 'चरित्रवान मनुष्य ' बनना। इसलिए जीवन में चरित्र को सुधारना ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। हम चाहे किसी भी क्षेत्र में सक्रिय हों, हमें चरित्र को बनाकर और बचाकर रखना चाहिए। 
जिस प्रकार पानी में डूबते हुए पुरुष के लिये जीवन रक्षक उपकरण (life-saving device-लाइफ जैकेट, लाइफबॉय)  के अलावा अन्य कोई भी वस्तु अधिक महत्व की नहीं हो सकती उसी प्रकार एक मोहित जीव (Hypnotized-भेंड़) के लिये इस ज्ञानार्जन से बढ़कर कोई सम्पत्ति नहीं होती।

जैसे ज्ञान (आत्मज्ञान) के बिना - चरित्र का निर्माण नहीं हो सकता, उसी प्रकार आत्मश्रद्धा के बिना आत्मज्ञान भी सम्भव नहीं है।  गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से ज्ञान प्राप्ति के लिए तीन महत्वपूर्ण सूत्र बतलाते हैं- ‘श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय।’ (4.39) अर्थात, इंद्रिय संयम, तत्परता और श्रद्धा से युक्त पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है। जिस विषय को हम अपने अनुभव से नहीं जानते, पर शास्त्रों से, अनुभवी और अपने से श्रेष्ठ व्यक्तियों से, गुरुजनों आदि से सुनकर विश्वास कर लेते हैं उसका नाम श्रद्धा है। रामचरितमानस में श्रद्धा और विश्वास को माता पार्वती और भगवान शंकर का स्वरूप बताया है। श्रद्धा और विश्वास साथ ही रहते हैं। आध्यात्मिक मार्ग, जिसमें ज्ञान, कर्म (निष्काम कर्म-कर्मयोग ) और भक्ति  और भी सम्मिलित हैं, उसमें जाने के लिए श्रद्धा का होना बेहद जरूरी है। अगर श्रद्धा और तत्परता हमारे अंदर हैं, पर एकाग्रता नहीं है, इंद्रियां विषय भोगों में लगी रहती हैं, तब भी हम अपने ज्ञान के बहिरंग और अंतरंग साधनों पर अपना ध्यान नहीं लगा पाएंगे। इसलिए ज्ञान प्राप्ति के साधन हेतु तीसरे सूत्र की भी बहुत आवश्यकता है। जिसका मन और इंद्रियां उसके वश में हैं, वही मनुष्य संयतेंद्रिय है, अन्यथा अधिकांश मनुष्य तो इंद्रियों के ही वश में रहते हैं।  जैसा मन में आता है, बिना विचार किए अज्ञान के साथ कार्य शुरू कर देते हैं और फिर पछताते रहते हैं। इसलिए भगवान ने श्रद्धा, तत्परता के साथ संयतेंद्रिय (इन्द्रिय संयम) होने की भी बात कही है। अगर इंद्रियां हमारे वश में नहीं हैं और साधन में तत्परता नहीं है तब समझना चाहिए कि अभी हमारी श्रद्धा में कमी है।
ज्ञानपूर्वक कर्म करने पर हमारा प्रत्येक कर्म ही कर्मयोग (निष्काम कर्म)  के रूप में परम तत्व की प्राप्ति कराने वाला बन जाता है। इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला और कुछ भी नहीं है- भगवान ने गीता में कहा है, ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।’ (4.38) इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला,  निसंदेह,  कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में आत्मा में प्राप्त करता है। योग में संसिद्धि अर्थात्  अन्तकरण की शुद्धि -प्राप्त पुरुष ही आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है।
कोई भी गुरु अपने शिष्य को चित्तशुद्धि प्रदान नहीं कर सकते। उसके लिये शिष्य को ही प्रयत्न करना पड़ेगा। लोगों में मिथ्या धारणा फैली हुई हैं कि गुरु अपने स्पर्श मात्र से शिष्य को सिद्ध बना सकता है। (अवतार वरिष्ठ के अलावा) यह असंभव है। अन्यथा अपने अत्यन्त प्रिय मित्र एवं शिष्य अर्जुन को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण स्पर्शमात्र से ही सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान करा सकते थे।अनेक साधक (शिष्य) पुरुष गुरु की कुछ सेवा के प्रतिदान स्वरूप उनका अर्जित किया हुआ ज्ञान क्षणमात्र में प्राप्त करना चाहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि उसे स्वयं चित्तशुद्धि के लिये (एकाग्रता  के लिए) प्रयत्न करना होगा जिससे उचित समय में पारमार्थिक सत्य का वह साक्षात् अनुभव कर सकेगा। पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये किसी निश्चित समय का यहां आश्वासन नहीं दिया गया है। कालेन शब्द से यह बताया गया है कि यदि साधक अधिक प्रयत्न करे तो लक्ष्य प्राप्ति में उसे अधिक समय नहीं लगेगा। अत सभी साधकों को चाहिए कि वे इसके लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहें
 इसलिए शिक्षा के साथ-साथ युवा शक्ति का ['Be and Make' गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में]-चरित्र निर्माण आज की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। निष्कलंक चरित्र निर्माण के लिए-आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास,आत्मसंयम,  नम्रता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुचिता,  विषयों के प्रति अनासक्ति, निर्भयता, दानशीलता, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग और सेवा परायणता जैसे चरित्र के 24 गुणों को अपने व्यवहार से अभिव्यक्त करना चाहिए । सुन्दर चरित्र के निर्माण में परिवार की अहम भूमिका होती है। माता-पिता जैसा व्यवहार करते हैं, वैसा ही बच्चे सीखते हैं। चरित्र को अधिक प्रभावित करने में परिवार के बाद विद्यालय का परिवेश, सामाजिक रहन-सहन, व्यवहार व वातावरण भी विशिष्ट स्थान रखते हैं। ऐसे में कह सकते हैं एक कच्चे घड़े की तरह युवा पौधों को संस्कारित करना पूरे समाज का दायित्व है।
ज्ञान के बिना कर्म - कर्म के बिना ज्ञान बाँझ है - भक्ति के बिना कर्म और ज्ञान दोनों -भक्ति हो कैसे ? श्रीराम के चरणों का ध्यान करना ही भक्ति का उपाय है। 

श्री राम । जय राम । जय जय राम । श्री राम ।
श्री राम । जय राम । 

शंकर मानस हंस प्रणाम् ।
हंस वंश आवतंस प्रणाम् ।

अतिथि ब्रह्म् रघूवीर प्रणाम् ।
जीव प्रजाणम धीर प्रणाम्।  

धनुभंजन शिव-भक्त प्रणाम् ।
राम ।
धनुभंजन शिव-भक्त प्रणाम् ।
ततसत् व्यक्ता व्यक्त प्रणाम्

वसुंधरा वरदान प्रणाम् ।
श्री राम । श्री राम । 
पुन्य सुरभि पवमान प्रणाम्


क्षीरोदधिगंभिर्य प्रणाम् ।
क्षीरोदधिगंभिर्य प्रणाम् ।
उत्तरतम् उत्तिरय प्रणाम्

श्री राम । श्री राम । जय जय राम । जय जय राम । श्री राम । श्री राम । 

" उठो, जागो ! अपनी अन्तर्निहित महिमा के प्रति सचेतन हो जाओ, और तब तक मत रुको जब तक तुम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते। - स्वामी विवेकानंद 
>>>"श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में स्वयं ठाकुर देव से-'नरेन शीक्षा देबे' का लिखित चपरास प्राप्त जीवनमुक्त शिक्षक (नेता, विश्वमित्र) होने का भावार्थ : [ 'शीक्षा'= अर्थात "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर प्रवृत्ति-निवृत्ति लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा' में महामण्डल (भूमण्डल) आन्दोलन,  [(प्रधान नेता-विश्वमित्र) बनो और बनाओ आंदोलन] के स्वयं विवेकानन्द से "C-IN-C" होने का चपरास प्राप्त पूज्य नवनी दा द्वारा आविष्कृत और स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित "सत्ययुग स्थापन पद्धति (वैश्विक धर्म) 'Be and Make -चरैवेति, चरैवेति"  का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेना अत्यन्त कठिन कार्य है।]    
 >>>Yoga formula invented by Nabani da :  The Yoga formula or  invented by Nabani dato make life meaningful invented by modern Maharishi Patanjali Nabani da : " unselfishness tending to zero is animality, unselfishness tending to fifty is humanity, 100% unselfishness is becoming God! Be and Make ' Let this be our motto! 
 जीवन को सार्थक बनाने का योग सूत्र :  विश्वमित्र बनने और बनाने के मार्गदर्शक नेता आधुनिक महर्षि पतंजलि नवनीदा द्वारा आविष्कृत 'Be and Make -चरैवेति, चरैवेति" परम्परा में "सतयुग (वैश्विक धर्म) स्थापित करने की पद्धति या सूत्र"= अर्थात निःस्वार्थपरता का उर्ध्व (ब्रह्मरंध्र की दिशा) में पचास प्रतिशत की ओर प्रवृत्त होना मानवता है ,और सौ प्रतिशत निःस्वार्थी बन जाना ईश्वरत्व है। निःस्वार्थपरता का शून्य की दिशा में प्रवृत्त होना पशुता है। नेता को सबसे पहले यह समझना होगा कि मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ?  हमारे जीवन की सार्थकता इसी कार्य (विवेकज ज्ञान से उत्पन्न विवेकज आनंद का अनुभव करने) के पूर्ण होने पर निर्भर है। जितने भी अन्य सिद्धान्त या ज्ञान हैं, उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है। 

>>> वेदान्तडिण्डिम> "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।अनेन वेद्यं सच्छास्त्रम् इति वेदान्तडिण्डिमः।।अर्थ—ब्रह्म सत्य है। जगत् अर्थात् जगत के सभी नामरूप मिथ्या अर्थात् नाशवान हैं।जीव ही ब्रह्म है दूसरा नही,अर्थात् आत्मा एवं ब्रह्म मूलतः एक ही है।इसे सही शास्त्र(शास्त्रवचन)जानना चाहिए, यह वेदान्त का उद्घोष है।

>>>"एकोऽहं बहुस्याम् ।" (छान्दोग्योपनिषद्)  वेदों में कहा गया है, ब्रह्म एक था, उसमें इच्छा हुई, एक से अनेक होने की, और इस सृष्टि का निर्माण हुआ।  किंतु अनेक होने के बाद भी उसके एकत्व में कोई अंतर नहीं पड़ा। 
     जैसे कोई बीज एक होता है, किंतु समय पाकर एक से अनेक हो जाता है।  पहले अंकुर फूटता है, फिर तना, डालियाँ, पत्ते, फूल, फल और अंत में बीज रूप में वह अनेक हो जाता है, किंतु हर बीज उस पूर्व बीज के ही समान है।  उसमें भी अनेक होने की पूरी सम्भावनाएं हैं। जैसे अंकुर, तना, या डालियाँ, फूल आदि सभी उस बीज में से ही निकले हैं, पर वे बीज नहीं हैं, इसी प्रकार ब्रह्म से ही जड़ जगत, वृक्ष, पशु, पंछी आदि हुए हैं पर वे ब्रह्म के एकत्व का अनुभव नहीं कर सकते, केवल मानव को ही यह सामर्थ्य है कि वह फूल की तरह खिले, फिर उसमें भक्ति व ज्ञान के फल लगें और उसके भीतर ब्रह्म रूपी बीज का निर्माण हो सके। {"स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"  { 'Be and Make ' Leadership Training Tradition में  में CINC का चपरास प्राप्त नवनी दा द्वारा प्रदत्त जीवन को उन्नत बनाने की पद्धति के अनुसार वह फूल की तरह खिले, फिर उसमें भक्ति व ज्ञान के फल लगें और उसके भीतर ब्रह्म रूपी बीज का निर्माण हो सके !}
[जैसे ऋग्वेद कहता है - मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्‌ (ऋग्वेद 10.53.6)- ज्ञान का मूलभूत सारतत्व यही है कि हे मनुष्य तू स्वयं सच्च मनुष्य बन तथा दिव्य गुणयुक्त सन्तानों को जन्म दे अर्थात्‌ सुयोम्य मानवों के निर्माण में सतत प्रयत्नशील रह। बौद्ध, हिन्दू ,मुस्लिम,सिख, इसाई बनने की बात वेदों में नहीं है। वेद कहता है – मनुर्भव – मनुष्य बन! जब एक बार कुछ लोगों ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से संसार में व्याप्त दुःख एवं अशान्ति को दूर करने का उपाय पूछा तो वैज्ञानिक ने उत्तर दिया- ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करो’’।
 /2. स्वस्ति पन्थामनुचरेम । (5.51.15) कल्याण मार्ग का अनुसरण करें ।/5. सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् । (10.181.2) मिलकर  चलें, मिलकर बोलें।/यजुर्वेद कहता है - सुमना भव । अच्छे मन वाले बनें।  तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु । (34.1) यह मेरा मन शिव संकल्प युक्त हो। 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।' (36.18) मित्र की दृष्टि से सर्वत्र देखें ।/अथर्ववेद कहता है  : मानवो मानवम् पातु - मनुष्य मनुष्य को पाले ।  माता भूमिः पुत्रोSहम् पृथिव्याः । माता भूमि है, पुत्र है हम पृथ्वी के ।ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत । (11.5.19) ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की । मधुमतीं वाचमुदेयम । (16.2.2) मैं मीठी वाणी बोलूँ ।] 
" दुनिया में मनुष्य और उसके मन से अधिक शक्तिशाली और कुछ नहीं है। - सर विलियम हैमिल्टन :  ''সাত কোটি বাঙালিরে হে মুগ্ধ জননী রেখেছ বাঙালি করে মানুষ করনি ”* ——রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর /জেগে ওঠো, সচেতন হও এবং লক্ষ্যে না পৌঁছা পর্যন্ত থেমো না। - স্বামী বিবেকানন্দ/* দুনিয়াতে মানুষের চেয়ে বড় আর কিছু নেই আর মানুষের মাঝে মনের চেয়ে বড় নেই। - স্যার উইলিয়াম হ্যামিলন/ 
"सात करोड़ बंगालियों की हे मुग्ध जननी (माँ काली) आपने उन्हें केवल बंगाली बनाये रखा है, मनुष्य नहीं बनाया !"  - रवींद्रनाथ टैगोर। 
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शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

🕊🏹1.6 ' क्या वर माँगना चाहिये ' 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.6 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.6]

  6.

' क्या वर माँगना चाहिये '

           स्वामी विवेकानन्द क्या प्राप्त करना चाहते थे ? इसी हमलोग इसे अपने देह-मन तथा सत्ता की सम्पूर्ण चेतना के साथ समझने की चेष्टा करें, और उनकी ज्वलन्त इच्छा (Burning-Desire) के साथ अपनी भी इच्छा, आकांक्षा को जोड़ दें तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतमाता एक दिन अपने गौरवशाली सिंहासन पर अवश्य आरूढ़  हो जायेंगी।
       सच तो यह है कि स्वामी जी जो प्राप्त करना चाहते थे, उससे बड़ी कोई प्राप्तव्य वस्तु हो भी नहीं सकती। उसको प्राप्त कर लेने के बाद और कुछ प्राप्त करने लायक बचता भी नहीं है। स्वामी जी कहते हैं -" मनुष्यत्व की प्राप्ति, हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। मैं इसी श्रेष्ठ जन्म-सिद्ध अधिकार को प्राप्त करना चाहता हूँ। क्या हम केवल थोड़ा शारीरिक सुख भोग, थोड़ी धन सम्पत्ति, बंगला, मोटरकार, थोड़ा नाम-यश, थोड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करके ही संतुष्ट हो जायेंगे ? क्या इतने क्षुद्र जीवन से सन्तुष्ट हो जायेंगे? नहीं, बिलकुल नहीं।" 
             ' भूमैव सुखम ' - अल्प नहीं भूमा में जो महाआनन्द है, मैं उसी आनन्द का अधिकारी हूँ। हम सभी उसी मनुष्यत्व को प्राप्त करने के अधिकारी है। इसलिए यदि हम सबसे बड़ी वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा करें, अर्थात  मनुष्य बनने का प्रयत्न करें, या सुप्त मनुष्यत्व को जाग्रत कर लें तो फिर इस व्यावहारिक जीवन में और कुछ प्राप्त करने की इच्छा शेष नहीं रह जाती। 
         हमारी एक मात्र लक्ष्य है- 'मनुष्यत्व' या 'पूर्णत्व' या इसी जीवन में पूर्णता की प्राप्ति। सभी  मनुष्य उस पूर्णता के अधिकारी बन सकते हैं। स्वामीजी के मन की  सबसे बड़ी आकांक्षा यही थी।और, वे इसी आकांक्षा को सभी मनुष्यों के मन में विशेषकर युवाओं के मन में जाग्रत करा देना चाहते थे। एक दिन नरेन् श्रीरामकृष्ण देव के पास जाकर कहते है, ' मैं इन दिनों बड़ी मुफलिसी के दौर से गुजर रहा हूँ। माँ एवं भाई- बहनों के लायक भोजन भी नहीं जुट पाता है, आप ही कोई उपाय कर दीजिये। माँ काली तो आपकी सब बातों को मान लेती हैं और वे सबकुछ कर सकती हैं, तो मेरे लिये आप उनसे कहकर इतना तो अवश्य करवा दीजिये। मेरे परिवार के लिये थोड़े धन और अन्न की व्यवस्था होनी चाहिए - जरा देखें कि वे इसकी व्यवस्था कर सकती हैं या नहीं?" 
          श्री रामकृष्ण ने कहा -  " मैं तो माँ से यह सब चीजें नहीं माँग सकता। तुम स्वयं माँ से ये सभी चीजें माँग लो। तुम स्वयं माँ के पास जाकर उनसे कहो न। " 
           किन्तु, जब नरेन माँ से माँगने गए तो महाकाली के सामने उन्होंने अपने मन की सर्वोच्च आकांक्षा  व्यक्त कर दी। उन्होंने  कहा - " माँ, मुझे भक्ति दो, विवेक दो, वैराज्ञ दो, ज्ञान दो ! " नरेन् ने केवल वही माँगते हैं, जो मनुष्यत्व-प्राप्त करने के अधिकारी के रूप में, एक मनुष्य के रूप में वे माँग सकते थे। नरेन् डरते -काँपते हुए छोटी- छोटी वस्तुओं को माँगने वालों में से नहीं थे। इसलिए, वे माँ के सामने निडरता के साथ खड़े होकर सर्वोच्च वस्तु -'भूमा' के आनन्द को प्राप्त का अधिकारी या योग्य बना देने की माँग करते हैं। क्योंकि बुद्धिमान नरेन् यह जानते थे कि हो सकता है कि अधिक माँगने से उतना नहीं मिले, किन्तु कम मांगने पर तो अधिक मिलने की कोई सम्भावना ही नहीं रह जाती । किन्तु, आमतौर पर हमलोग अपने जीवन में क्षुद्र वस्तुओं को पाने की ही कामना करते हैं। 
स्वामीजी कहते हैं, " तुम लोग केवल नौकरी दो, नौकरी दो, चिल्लाते रहते हो। क्या अंग्रेजों के बेंत और जूतों का प्रहार खाय बिना तुम्हें चैन नहीं मिलता है? क्या तुम स्वयं कुछ नहीं कर सकते? आधुनिक विज्ञान और प्रौद्यगिकी की सहायता से तुमलोग भी आधुनिक उपभोग के व्यावसायिक वस्तुओं के उत्पादनों का निर्माण या विपणन (startup business ideas) क्यों नहीं कर सकते ? जापान जाकर देखो, उन लोगों का देश-प्रेम कितना अद्भुत है !"
       वे कहते थे- ' जब मनुष्य बन कर जन्म लिया है, तो मनुष्य-जीवन की महिमा को प्रकट  करो। जीवन (Life) क्या है ? एक अन्तर्निहित शक्ति अपने को अभिव्यक्त करना चाह रही है, और बाहरी परिस्थितियाँ तथा बाधाएँ उसको दबाये रखना चाहती हैं, उन समस्त बाधा-विघ्नों का अतिक्रमण करके जो प्रकट हो जाता है, उसी को जीवन कहते हैं। " अतः उसी शाश्वत जीवन  को प्राप्त करने के लिए हमलोगों को भी अपनी समस्त प्रकार की संभावनाओं (पुरुषार्थ) को प्रकट करने की  साधना करनी होगी।  स्वामी जी ने मनुष्य मात्र में बीज रूप से विद्यमान पूर्णत्व को प्रफुटित करने का सन्देश दिया है। यहाँ प्रस्फुटित करने का अर्थ है -"मनुष्य जीवन की उत्कृष्टता को अभिव्यक्त करना।" अपने जीवन को प्रस्फुटित करके यह दिखला दो कि तुम्हारे जीवन की  माँग क्या है , तुम्हारी सर्वोच्च आकांक्षा (ज्वलंत इच्छा -Burning-Desire) क्या है ? थोड़ा धैर्य रखकर जीवन को परिष्कृत  कर लो तथा उस अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता, पूर्णता) को अभिव्यक्त करो ! जीवन कमल को खिलाकर उसके सुगन्ध को प्रसारित होने दो। एक अद्भुत महान सत्ता हमारे भीतर छुपी हुई है। उसी परम् सत्य को जान लेना होगा तथा अभिव्यक्त करना होगा। हम लोगों को अपने जीवन में प्रतिमुहूर्त चलते, बोलते एवं कर्म करते समय यह स्मरण रखना होगा कि हमलोगों में अनन्त अविरोध है, अनन्त ज्ञान है , अनन्त शक्ति है,अनन्त प्रेम है, मेरे भीतर भी वे हैं तथा प्रत्येक मनुष्य के भीतर वे ही हैं। किन्तु, उनको (निःस्वार्थपरता के अवतार वरिष्ठ को ?) हम जानते नहीं हैं, उसका सम्मान (श्रद्धा) नहीं करते हैं, उनको अभिव्यक्त नहीं करते हैं। सर्वदा शारीरिक सुख या क्षणिक इन्द्रिय सुख प्राप्त करने की कामना में आसक्त रहने से क्या होता है? हम अपने अन्तर्निहित सर्वोच्च, सुन्दर और बड़ी वस्तु को (ह्रदय में विद्यमान आध्यात्मिकता के अवतार वरिष्ठ को) उपेक्षित कर उसे- भूल जाते हैं। " 
        स्वामी जी क्या चाहते थे, इसे पत्र-पत्रिकाओं या समाचार पत्रों के पन्नों को पढ़कर नहीं जाना जा सकता। स्वामी जी क्या चाहते थे इसे समझने के लिये अपने हृदय को विशाल बना लेना होगा। स्वामीजी ने स्वयं ही कहा है, कि मुझे क्या लाभ हुआ है सो तो मैं नहीं जानता किन्तु, इतना अवश्य कह सकता हूँ कि मेरा हृदय जरुर विशाल हो गया है। यह जो मेरा हृदय विशाल हो गया है, यही है वास्तव में आकांक्षा योग्य वस्तु है जिसे मैंने चाहा तथा प्राप्त किया है। स्वामीजी कहते हैं, " किसी भी तुच्छ को पाने या भोगने की कामना को मन से निकाल दो, हर समय अपने हृदय को बड़ा करने की चेष्टा करो। " यदि कोई यह प्रश्न करे कि,स्वामीजी क्या प्राप्त करना चाहते थे, इसे जानने की चेष्टा मैं क्यों करूँ ? तो इसका उत्तर यह है कि हमलोग अभी एक बहुत बड़े संकट में घिर गये हैं, इसमें गिरने की सम्भावना ही अधिक है।
     यदि इसी उम्र में हमलोग यह नहीं जान लें कि हमें ईश्वर से वरदान में सचमुच क्या माँगने की इच्छा करनी चाहिये; तो हमलोग इतना अधिक नीचे गिर सकते हैं कि वहाँ से फिर कभी उठ ही न सकें। इसीलिये हमें अपनी कामना के स्तर को ऊँचा कर लेना होगा तथा सर्वोच्च वस्तु को ही पाने की कामना करनी होगी। 
[ यदि राजाधिराज (ईश्वर) के दरबार तक पहुँच ही गए, तो राजा से कोंहड़ा (ऐश्वर्य या सिद्धि) माँगने की अपेक्षा सर्वोच्च वस्तु -राजा (ईश्वर) को ही पाने की कामना ही करनी होगी।
          हमारे सम्पूर्ण जीवन को सार्थक करने के लिए स्वामीजी ने एक सूत्र दिया है। वह है- 'जिसने दूसरों के लिये जीना सिख लिया हो, केवल उसी ने जीवन को जाना है।' दूसरों  के लिये  त्याग करने की आवश्यकता सदैव रहेगी। इसीलिये ऐसा सोचना उचित नहीं होगा कि चूँकि हमने राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त कर ली है इसीलिये अब त्याग की आवश्यकता नहीं रह गयी है। इस त्याग से ही सबकुछ का प्रारंभ हुआ है, इस त्याग के अन्दर ही जीवन का विस्तार करना होगा, तथा इसके द्वारा ही अपने जीवन को सफल करना होगा
            श्रीरामकृष्ण देव के त्याग की तो हम धारणा भी नहीं कर सकते। उनके त्याग का क्या कहना ? सारदा देवी के त्याग की तो तुलना ही नहीं हो सकती। श्रीरामकृष्ण देव की माँ चन्द्रादेवी के असाधारण त्याग की बात हमलोग जानते ही हैं। एक बार मथुर बाबु ने उनसे पूछा था, " माता जी आप अपने लिए क्या चाहती हैं, मुझे बताइये।  आप जो कुछ भी चाहियेगा , मैं उसे लाकर दूंगा। " इसके उत्तर में उन्होंने कहा था -"बेटा,  मैं कुछ भी नहीं चाहती हूँ, भला मैं क्या चाहूँगी ।" किन्तु, मथुर बाबु भी छोड़ने वाले नहीं थे, वे जिद करने लगे। तब, उन्होंने कहा था - 
" देखो बेटा, मैं अभी क्या माँगू यह नहीं सोच पा रही - बहुत सोचने पर भी कोई जरूरत महसूस नहीं हो रही है।" 
          उधर मथुर बाबु की भी देने की प्रतिबद्धता दृढ़ हो रही थी। वे कहने लगे -" माता जी आप संकोच मत कीजियेगा, आप जो भी चाहेंगी मैं दूंगा। यदि जमीन, मकान, रुपया चाहिये तो वह भी दूँगा। " तब माता चन्द्रादेवी कहती हैं, " बेटा, अभी तो सोचने पर भी माँगने लायक कुछ दिखाई नहीं दे रहा है, कल सोच कर मैं तुम्हें बता दूंगी। " दूसरे दिन,  बहुत सोचने के बाद उन्होंने कहा था- " बेटा, एक पैसे का दोख्ता (जर्दा पत्ता ) ला दोगे ?
        ' इस छोटी- सी कामना के पीछे जो सत्य अंतर्निहित है, उसको समझने की चेष्टा करनी होगी। स्वामी जी ने हमें जिस वस्तु को माँगने के लिये कहा है, उसी वस्तु को 
(निःस्वार्थपरता -पूर्णता -दिव्यता के अवतार वरिष्ठ को) यदि कोई माँगे और प्राप्त कर ले या प्राप्त करने की चेष्टा में लगा रहे, तभी उसको मनुष्य कहा जा सकता है। यह चेष्टा, संग्राम या प्रयत्न ही मनुष्य जीवन की साधना है। स्वामी जी के अनुसार, " कोई मनुष्य जबतक यह प्रयत्न या संग्राम करता रहता है, तभी तक उसको मनुष्य कहा जा सकता है। जिस क्षण वह इस चेष्टा को बन्द करके प्रकृति के सामने पराजय स्वीकार कर लेता है, उसी क्षण वह मनुष्य की महिमा से स्वयं को गिरा लेता है। इसीलिये स्वामी जी की ज्वलंत इच्छा यही थी कि- " हमलोग मनुष्य बन जाएँ "। 
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वे कहते थे – " मेरे मित्रो, मैंने तुम्हारी पार्लियामेंट, सेनेट, वोट, मेजोरिटी, बैलेट आदि सब देखा है, शक्तिमान पुरुष जिस ओर चलने की इच्छा करते हैं समाज को उसी ओर चलाते हैं, बाक़ी लोग भेड़ों की तरह उनका अनुकरण करते हैं| तो भारत में कौन शक्तिमान पुरुष है ? वे ही जो धर्मवीर हैं। वे ही हमारे समाज को चलाते हैं। वे ही आवश्यकता होने पर समाज की रीति नीति को बदल देते हैं।  हम चुपचाप सुनते हैं, और उसे मानते हैं। 
जिनके हाथ में रूपया है, वे राज्य शासन को अपनी मुट्ठी में रखते हैं, प्रजा को लूटते हैं और उसको चूसते हैं, उसके बाद उन्हें सिपाही बनाकर देश-देशान्तरों (सीरिया-इराक़) में मरने के लिए भेज देते हैं।  जीत होने पर घरद्वार धन धान्य से उनका भरेगा, प्रजा तो उसी जगह मार डाली गई। एक बात पर विचार करके देखो। मनुष्य नियमों को बनाता है, या नियम मनुष्य को बनाते हैं ? मनुष्य रुपया पैदा करता है, या रूपया मनुष्यों को पैदा करता है ? 
 " मेरे मित्रो ! पहले मनुष्य बनो,तब तुम देखोगे कि वे सब बाक़ी चीजें स्वयं तुम्हारा अनुसरण करेंगी। परस्पर के प्रति घृणित द्वेषभाव को छोड़ो और सदुद्देश्य,सदुपाय,सत्यसाहस एवं सदवीर्य का अवलंबन करो। तुमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है, तो अपनी कीर्ति यहीं छोड़ जाओ।
तुलसी आयो जगत में, जगत हँसे तुम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, आप हँसे जग रोये।।
अगर ऐसा कर सको, तब तो मनुष्य हो,अन्यथा तुम मनुष्य किस बात के ?१०/६२" 
(http://www.krantidoot.in/2014/09/blog-post_5.html)
[इसमें कोई सन्देह नहीं है कि, एक दिन जब अधिकांश भारतवासी 'हृदयवान मनुष्य' बन जायेंगे तब भारतमाता अपने गौरवशाली सिंहासन पर अवश्य विराजमान हो जाएँगी।] 

 " सैकड़ों युग के लगातार सामाजिक अत्याचार से तुम्हारा सारा मनुष्यत्व नष्ट हो गया है! ...आओ, मनुष्य बनो। अपने संकीर्ण अन्धकूप से निकलकर बाहर जाकर देखो, सभी देश कैसे उन्नति के पथ पर चल रहें है। क्या तुम मनुष्य से प्रेम करते हो? तुम लोग क्या देश से प्रेम करते हो? तो फिर आओ हम भले बनने के लिए  प्राणपण से चेष्टा करे। "
 " माया के भीतर अग्रसर होने को एक वृत्त कहा जा सकता है-जो तुम्हें प्रस्थान बिंदु पर पुनः वापस ले आता है। अन्तर केवल इतना ही है कि यात्रा प्रारंभ करते समय तुम अज्ञानी थे और उस स्थान पर जब लौट कर आते हो, तब तुम पूर्ण ज्ञान उपलब्ध किये होते हो। यह है वह ज्ञान ,जो हमारा स्वभाव या स्वरूप है। इस ज्ञान को हमारा 'जन्मगत स्वत्व' भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वास्तव में हमारा जन्म तो है ही नहीं।"७/१०८ 
" यह कहना कि केवल मनुष्यों में ही आत्मा होती है,पशुओं में नहीं, बिल्कुल बेतुका है। मैंने पशु से भी गये-गुजरे मनुष्यों को देखा है। किन्तु जब यह मनुष्य के रूप में उच्चतम स्तर पर रहती है, तभी उसे मुक्ति मिल पाती है। इस तरह मनुष्यत्व का स्तर सबसे उन्नत स्तर है, देवत्व से भी उन्नत। क्योंकि मनुष्यत्व के स्तर पर ही आत्मा को मुक्ति मिल सकती है।"२/२२०
 "मनुष्य जाति के बड़े बड़े नेताओं की बात यदि ली जाये, तो हमें सदा यही दिखलाई देगा कि ..सच्चा मनुष्यत्व या व्यक्तित्व ही वह वस्तु है,जो हम पर प्रभाव डालती है।४/१७१
" मनुष्य के सच्चे स्वरूप में कोई विधि नहीं,कोई दैव नहीं,कोई अदृष्ट नहीं। अनन्त में विधान या नियम कैसे रह सकता है ?" श्रृंखला तोड़ डालो और मुक्त हो जाओ।"८/३२
 " आज के पाश्चात्य ईश्वरतत्व-अन्वेषियों का मूलमंत्र तो 'मनुष्य का सच्चास्वरूप' और आत्मा हो गया है।" ९/३७५ 
[इसीलिए जानिबिघा को लिखित एक पत्र में दादा ने लिखा था -" सत्यं शिवं सुन्दरम" तो पाश्चात्य का भाव है, भारत का भाव है -"सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म । "(तैत्तिरीय उपनिषद 2.1.1) ब्रह्म सत्यं  - अनंत चेतना मौलिक वास्तविकता है। जगत मिथ्या  - परिवर्तनशील  एक   सापेक्षिक सत्य है। जीवः ब्रह्म एव न अपरः - वास्तविक 'मैं' अनंत चेतना से अलग नहीं है।]    
तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार,उदासी मन काहे को डरे  ।
काबू में मँझधार उसी के, हाथों में पतवार उसी के। 
तेरी हार भी नहीं है तेरी हार,उदासी मन काहे को डरे ?....
गज भी वही बना है, ग्राह भी वही बना है - 
ग्राह को मार कर, गज को तारने वाला भी वही है ! 
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