वह तत्व क्या है-- हम सभी लोगों के भीतर अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त प्रेम का एक महासागर ठांठे मार रहा है, उसे ही जानना होगा उस सर्वग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना होगा। हमलोग दीन-हीन नहीं हैं, हमलोग बहुत शक्तिशाली हैं, हमारा अमिट प्रताप है। हमलोग भूलवश या महाभ्रम के कारण अपने आप को असहाय मरण-धर्मा शरीर मात्र समझते हैं। इस निन्दनीय हीन भावना (Inferiority complex) के कारण ही हमलोगों ने स्वयं को अपने विराट स्वरुप से गिराकर देवमानव से पशु-मानव में परिणत कर लिया है, और पशुवत आचरण कर रहे हैं। भ्रम के कारण मनुष्य ने अपने आप को संकुचित कर लिया है, उसे पुनः उसके जन्मसिद्ध बिराट स्वरुप में प्रतिष्ठित करा देना होगा, उसको ज्ञान आलोक से आलोकित कर देना होगा और प्रेम-सिन्धु में परिणत कर देना होगा। स्वामी जी के उस विख्यात उपदेश से हम सभी अवगत हैं- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म-भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनः संयम या ज्ञान, इनमें से एक, या एक से अधिक उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह-भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, अथवा अन्य बाह्य कर्म-काण्ड तो उसके गौण संकेत मात्र हैं। "
वे कह रहे हैं, कि हम सभी लोग स्वरूपतः ब्रह्मवस्तु हैं और हमलोगों का लक्ष्य अपनी प्रकृति को नियंत्रित एवं उसपर विजय प्राप्त कर ब्रह्मवस्तु को अभिव्यक्त कर लेना है। इसके लिये हमें अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। हमलोग अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को, कर्म, मन को वशीभूत करने की साधना, संयम, ज्ञान चर्चा, सत्-असत - विवेक-विचार तथा समस्त मनुष्यों की स्वार्थहीन सेवा में अपने आप को पूर्ण रूप से नियोजित करके अभिव्यक्त कर सकते हैं।
आधुनिक मनुष्य विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति के उपर जितना अधिक नियंत्रण प्राप्त करता जा रहा है, उसी अनुपात में वह अन्तःप्रकृति के सामने पराजय स्वीकार करता जा रहा है। मनुष्य की इस कंगाली (indigence) की तस्वीर स्वामी जी के मानस चक्षुओं के समक्ष स्पष्टता से प्रकट हुई थी। इसीलिये उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमने बाह्य प्रकृति को जीत लिया है , इसीलिये विज्ञान की बड़ाई करते नहीं अघाते, किन्तु तुम्हारी अन्तःप्रकृति तुम्हारे साथ बिलियर्ड के बॉल के जैसा छिछली (ricochet) का खेल, खेल रही है और तुम्हारी महा-मूल्यवान परिसम्पत्ति रास्ते की धूल में यहाँ-वहाँ गच्चे खा रही है। ऐसे में बेमिसाल, वैभवशाली मूर्ति (देव-दुर्लभ मानव शरीर) पाशविक वृत्तियों में उलझकर मुरझा गई है !ऐसा होते रहने नहीं दिया जा सकता है। तुमलोग आन्तरिक प्रकृति को जीत लो ! वशीभूत करो ! आन्तरिक शक्ति के उपर अधिकार प्राप्त करके उसे बाह्य-जीवन में प्रकट करो। स्वयं को मोह-निद्रा से जाग्रत करो और आन्तरिक उर्जा से परिपूर्ण हो जाओ ! किन्तु उस शक्ति का घमण्ड नहीं करना। शक्तिवान होकर स्वयं को सबों की पूजा में, सबों की सेवा में, सबों के भीतर छूपी उसी शक्ति को जागृत करने के कार्य में समर्पित कर दो ! अपनी इन्द्रियों के सुख-भोग में निमग्न रहने से, भौतिक-सम्पदा को अधिकाधिक बढ़ाते जाने से, या नाम-यश, स्वार्थपरता की छोटे से दायरे बंधा जीवन जीने से, वह शक्ति जाग्रत नहीं हो सकती।"
स्वामीजी कहते हैं, " सचमुच में वही जीवित रहता है, जो दूसरों के लिये जीता है, बाकी लोगों का जीवन तो मृतक से भी अधम है। " उनके इसी सन्देश में छुपा है (सूत्र-रूप से) शक्तिमान मनुष्य बनने का आदर्श, जो अपने पैरों को जमीन पर जमा कर, दूसरों को अपने हाथों का सहारा देकर उपर उठा लेने में समर्थ है। स्वामीजी ने इसी आदर्श को हमारे समक्ष रखा है। यदि हम यथार्थ मनुष्य के रूप में जीना चाहते हैं, तो हमें दूसरों के लिये जीना सीखना पड़ेगा। हम लोग परस्पर एक दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बांध लेंगे, एक दूसरे को उपर उठाने का प्रयास करेंगे। स्वार्थ-शून्य, सेवापरायण, प्रेमी मनुष्य ही शक्तिमान होता है, वही देखने में सर्वांग-सुन्दर मनुष्य प्रतीत होता है। उसीके जीवन में अग्रगति संभव है। कल्याणकारी नवविप्लव का अग्रदूत वही बन सकता है जो वास्तव में चरित्रवान मनुष्य है।
और इसी कारण हमलोगों को अपना सुंदर चरित्र गढ़ना होगा। महान जीवन के 'विवेकज आनन्द' को उत्तराधिकार को उत्तरदायित्व के रूप में ग्रहण करने के महान लक्ष्य पर पहुँचने के लिए "यथार्थ मनुष्य " [हिन्दू-मुसलमान -ईसाई -या ब्राह्मण-क्षत्रिय -वैश्य -शूद्र नहीं] बनना होगा। अपने जीवन को उन्नत बना लेना होगा। हमारे जीवन की सार्थकता इसी कार्य के पूर्ण होने पर निर्भर है। जितने भी अन्य सिद्धान्त या ज्ञान हैं उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है।
स्वामीजी की विचार-धारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेने पर, यही आधारभूत तथ्य या मूल सत्य प्रकट हो जाता है। इसी सत्य को जानना होगा, समझना होगा और अपने जीवन में प्रयोग करना होगा। इसीलिये विवेक-प्रयोग की सहायता से सत्य-असत्य का परिक्षण करके निष्ठा के साथ स्वामीजी का जीवन और सन्देश की ध्यानजन्य विवेचना और उनके विचारों पर मनोनिवेश का अभ्यास करना वर्तमान युग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसी से चरित्र गठित होगा और जगत का यथार्थ कल्याण भी संभव होगा।
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>> चरित्र निर्माण :
एक बौद्ध कहावत है कि-विचार से कर्म की उत्पत्ति होती है, कर्म से आदत की उत्पत्ति होती है, आदत से चरित्र की उत्पत्ति होती है और चरित्र से चरित्र से आपके भाग्य (कर्म फल या प्रारब्ध) की उत्पत्ति होती है। उत्तम चरित्र व्यक्ति की सबसे बड़ी संपदा है। चरित्र मन को उज्ज्वल करता है। जीवन को संवारता है। चरित्र से ही व्यक्तित्व आकार पाता है। चरित्र के प्रभाव से ही लोग मित्र बनते हैं और सुख संपत्ति के मार्ग खुलते हैं। संसार में मनुष्य के पास यदि सभी साधन हैं, परंतु आदर्श चरित्र नहीं है तो सब व्यर्थ। व्यक्ति को योग्यता की वजह से सफलता मिलती है और उस सफलता का संरक्षण आपके चरित्र से ही संभव है। जो सफल व्यक्ति अपने चरित्र को नहीं निखारते उनकी सफलता स्थायी नहीं रहती। रावण और कंस आदि पराक्रमियों के पास अपार शक्ति थी, परंतु उनका चरित्र आदर्श नहीं था। इसी कारण समाज उनका तिरस्कार करता है।
वस्तुत: धन बल और बाहुबल से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है 'चरित्रवान मनुष्य ' बनना। इसलिए जीवन में चरित्र को सुधारना ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। हम चाहे किसी भी क्षेत्र में सक्रिय हों, हमें चरित्र को बनाकर और बचाकर रखना चाहिए।
जिस प्रकार पानी में डूबते हुए पुरुष के लिये जीवन रक्षक उपकरण (life-saving device-लाइफ जैकेट, लाइफबॉय) के अलावा अन्य कोई भी वस्तु अधिक महत्व की नहीं हो सकती उसी प्रकार एक मोहित जीव (Hypnotized-भेंड़) के लिये इस ज्ञानार्जन से बढ़कर कोई सम्पत्ति नहीं होती।
जैसे ज्ञान (आत्मज्ञान) के बिना - चरित्र का निर्माण नहीं हो सकता, उसी प्रकार आत्मश्रद्धा के बिना आत्मज्ञान भी सम्भव नहीं है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से ज्ञान प्राप्ति के लिए तीन महत्वपूर्ण सूत्र बतलाते हैं- ‘श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय।’ (4.39) अर्थात, इंद्रिय संयम, तत्परता और श्रद्धा से युक्त पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है। जिस विषय को हम अपने अनुभव से नहीं जानते, पर शास्त्रों से, अनुभवी और अपने से श्रेष्ठ व्यक्तियों से, गुरुजनों आदि से सुनकर विश्वास कर लेते हैं उसका नाम श्रद्धा है। रामचरितमानस में श्रद्धा और विश्वास को माता पार्वती और भगवान शंकर का स्वरूप बताया है। श्रद्धा और विश्वास साथ ही रहते हैं। आध्यात्मिक मार्ग, जिसमें ज्ञान, कर्म (निष्काम कर्म-कर्मयोग ) और भक्ति और भी सम्मिलित हैं, उसमें जाने के लिए श्रद्धा का होना बेहद जरूरी है। अगर श्रद्धा और तत्परता हमारे अंदर हैं, पर एकाग्रता नहीं है, इंद्रियां विषय भोगों में लगी रहती हैं, तब भी हम अपने ज्ञान के बहिरंग और अंतरंग साधनों पर अपना ध्यान नहीं लगा पाएंगे। इसलिए ज्ञान प्राप्ति के साधन हेतु तीसरे सूत्र की भी बहुत आवश्यकता है। जिसका मन और इंद्रियां उसके वश में हैं, वही मनुष्य संयतेंद्रिय है, अन्यथा अधिकांश मनुष्य तो इंद्रियों के ही वश में रहते हैं। जैसा मन में आता है, बिना विचार किए अज्ञान के साथ कार्य शुरू कर देते हैं और फिर पछताते रहते हैं। इसलिए भगवान ने श्रद्धा, तत्परता के साथ संयतेंद्रिय (इन्द्रिय संयम) होने की भी बात कही है। अगर इंद्रियां हमारे वश में नहीं हैं और साधन में तत्परता नहीं है तब समझना चाहिए कि अभी हमारी श्रद्धा में कमी है।
ज्ञानपूर्वक कर्म करने पर हमारा प्रत्येक कर्म ही कर्मयोग (निष्काम कर्म) के रूप में परम तत्व की प्राप्ति कराने वाला बन जाता है। इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला और कुछ भी नहीं है- भगवान ने गीता में कहा है, ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।’ (4.38) इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला, निसंदेह, कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में आत्मा में प्राप्त करता है। योग में संसिद्धि अर्थात् अन्तकरण की शुद्धि -प्राप्त पुरुष ही आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है।
कोई भी गुरु अपने शिष्य को चित्तशुद्धि प्रदान नहीं कर सकते। उसके लिये शिष्य को ही प्रयत्न करना पड़ेगा। लोगों में मिथ्या धारणा फैली हुई हैं कि गुरु अपने स्पर्श मात्र से शिष्य को सिद्ध बना सकता है। (अवतार वरिष्ठ के अलावा) यह असंभव है। अन्यथा अपने अत्यन्त प्रिय मित्र एवं शिष्य अर्जुन को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण स्पर्शमात्र से ही सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान करा सकते थे।अनेक साधक (शिष्य) पुरुष गुरु की कुछ सेवा के प्रतिदान स्वरूप उनका अर्जित किया हुआ ज्ञान क्षणमात्र में प्राप्त करना चाहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि उसे स्वयं चित्तशुद्धि के लिये (एकाग्रता के लिए) प्रयत्न करना होगा जिससे उचित समय में पारमार्थिक सत्य का वह साक्षात् अनुभव कर सकेगा। पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये किसी निश्चित समय का यहां आश्वासन नहीं दिया गया है। कालेन शब्द से यह बताया गया है कि यदि साधक अधिक प्रयत्न करे तो लक्ष्य प्राप्ति में उसे अधिक समय नहीं लगेगा। अत सभी साधकों को चाहिए कि वे इसके लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहें।
इसलिए शिक्षा के साथ-साथ युवा शक्ति का ['Be and Make' गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में]-चरित्र निर्माण आज की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। निष्कलंक चरित्र निर्माण के लिए-आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास,आत्मसंयम, नम्रता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुचिता, विषयों के प्रति अनासक्ति, निर्भयता, दानशीलता, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग और सेवा परायणता जैसे चरित्र के 24 गुणों को अपने व्यवहार से अभिव्यक्त करना चाहिए । सुन्दर चरित्र के निर्माण में परिवार की अहम भूमिका होती है। माता-पिता जैसा व्यवहार करते हैं, वैसा ही बच्चे सीखते हैं। चरित्र को अधिक प्रभावित करने में परिवार के बाद विद्यालय का परिवेश, सामाजिक रहन-सहन, व्यवहार व वातावरण भी विशिष्ट स्थान रखते हैं। ऐसे में कह सकते हैं एक कच्चे घड़े की तरह युवा पौधों को संस्कारित करना पूरे समाज का दायित्व है।
ज्ञान के बिना कर्म - कर्म के बिना ज्ञान बाँझ है - भक्ति के बिना कर्म और ज्ञान दोनों -भक्ति हो कैसे ? श्रीराम के चरणों का ध्यान करना ही भक्ति का उपाय है।
श्री राम । जय राम । जय जय राम । श्री राम ।
श्री राम । जय राम ।
शंकर मानस हंस प्रणाम् ।
हंस वंश आवतंस प्रणाम् ।
अतिथि ब्रह्म् रघूवीर प्रणाम् ।
जीव प्रजाणम धीर प्रणाम्।
धनुभंजन शिव-भक्त प्रणाम् ।
राम ।
धनुभंजन शिव-भक्त प्रणाम् ।
ततसत् व्यक्ता व्यक्त प्रणाम् ।
वसुंधरा वरदान प्रणाम् ।
श्री राम । श्री राम ।
पुन्य सुरभि पवमान प्रणाम् ।
क्षीरोदधिगंभिर्य प्रणाम् ।
क्षीरोदधिगंभिर्य प्रणाम् ।
उत्तरतम् उत्तिरय प्रणाम् ।
श्री राम । श्री राम । जय जय राम । जय जय राम । श्री राम । श्री राम ।
" उठो, जागो ! अपनी अन्तर्निहित महिमा के प्रति सचेतन हो जाओ, और तब तक मत रुको जब तक तुम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते। - स्वामी विवेकानंद
>>>"श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में स्वयं ठाकुर देव से-'नरेन शीक्षा देबे' का लिखित चपरास प्राप्त जीवनमुक्त शिक्षक (नेता, विश्वमित्र) होने का भावार्थ : [ 'शीक्षा'= अर्थात "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर प्रवृत्ति-निवृत्ति लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा' में महामण्डल (भूमण्डल) आन्दोलन, [(प्रधान नेता-विश्वमित्र) बनो और बनाओ आंदोलन] के स्वयं विवेकानन्द से "C-IN-C" होने का चपरास प्राप्त पूज्य नवनी दा द्वारा आविष्कृत और स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित "सत्ययुग स्थापन पद्धति (वैश्विक धर्म) 'Be and Make -चरैवेति, चरैवेति" का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेना अत्यन्त कठिन कार्य है।]
>>>Yoga formula invented by Nabani da : The Yoga formula or invented by Nabani dato make life meaningful invented by modern Maharishi Patanjali Nabani da : " unselfishness tending to zero is animality, unselfishness tending to fifty is humanity, 100% unselfishness is becoming God! Be and Make ' Let this be our motto!
जीवन को सार्थक बनाने का योग सूत्र : विश्वमित्र बनने और बनाने के मार्गदर्शक नेता आधुनिक महर्षि पतंजलि नवनीदा द्वारा आविष्कृत 'Be and Make -चरैवेति, चरैवेति" परम्परा में "सतयुग (वैश्विक धर्म) स्थापित करने की पद्धति या सूत्र"= अर्थात निःस्वार्थपरता का उर्ध्व (ब्रह्मरंध्र की दिशा) में पचास प्रतिशत की ओर प्रवृत्त होना मानवता है ,और सौ प्रतिशत निःस्वार्थी बन जाना ईश्वरत्व है। निःस्वार्थपरता का शून्य की दिशा में प्रवृत्त होना पशुता है। नेता को सबसे पहले यह समझना होगा कि मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? हमारे जीवन की सार्थकता इसी कार्य (विवेकज ज्ञान से उत्पन्न विवेकज आनंद का अनुभव करने) के पूर्ण होने पर निर्भर है। जितने भी अन्य सिद्धान्त या ज्ञान हैं, उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है।
>>> वेदान्तडिण्डिम> "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।अनेन वेद्यं सच्छास्त्रम् इति वेदान्तडिण्डिमः।।अर्थ—ब्रह्म सत्य है। जगत् अर्थात् जगत के सभी नामरूप मिथ्या अर्थात् नाशवान हैं।जीव ही ब्रह्म है दूसरा नही,अर्थात् आत्मा एवं ब्रह्म मूलतः एक ही है।इसे सही शास्त्र(शास्त्रवचन)जानना चाहिए, यह वेदान्त का उद्घोष है।
>>>"एकोऽहं बहुस्याम् ।" (छान्दोग्योपनिषद्) वेदों में कहा गया है, ब्रह्म एक था, उसमें इच्छा हुई, एक से अनेक होने की, और इस सृष्टि का निर्माण हुआ। किंतु अनेक होने के बाद भी उसके एकत्व में कोई अंतर नहीं पड़ा।
जैसे कोई बीज एक होता है, किंतु समय पाकर एक से अनेक हो जाता है। पहले अंकुर फूटता है, फिर तना, डालियाँ, पत्ते, फूल, फल और अंत में बीज रूप में वह अनेक हो जाता है, किंतु हर बीज उस पूर्व बीज के ही समान है। उसमें भी अनेक होने की पूरी सम्भावनाएं हैं। जैसे अंकुर, तना, या डालियाँ, फूल आदि सभी उस बीज में से ही निकले हैं, पर वे बीज नहीं हैं, इसी प्रकार ब्रह्म से ही जड़ जगत, वृक्ष, पशु, पंछी आदि हुए हैं पर वे ब्रह्म के एकत्व का अनुभव नहीं कर सकते, केवल मानव को ही यह सामर्थ्य है कि वह फूल की तरह खिले, फिर उसमें भक्ति व ज्ञान के फल लगें और उसके भीतर ब्रह्म रूपी बीज का निर्माण हो सके। {"स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" { 'Be and Make ' Leadership Training Tradition में में CINC का चपरास प्राप्त नवनी दा द्वारा प्रदत्त जीवन को उन्नत बनाने की पद्धति के अनुसार वह फूल की तरह खिले, फिर उसमें भक्ति व ज्ञान के फल लगें और उसके भीतर ब्रह्म रूपी बीज का निर्माण हो सके !}
[जैसे ऋग्वेद कहता है - मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् (ऋग्वेद 10.53.6)- ज्ञान का मूलभूत सारतत्व यही है कि हे मनुष्य तू स्वयं सच्च मनुष्य बन तथा दिव्य गुणयुक्त सन्तानों को जन्म दे अर्थात् सुयोम्य मानवों के निर्माण में सतत प्रयत्नशील रह। बौद्ध, हिन्दू ,मुस्लिम,सिख, इसाई बनने की बात वेदों में नहीं है। वेद कहता है – मनुर्भव – मनुष्य बन! जब एक बार कुछ लोगों ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से संसार में व्याप्त दुःख एवं अशान्ति को दूर करने का उपाय पूछा तो वैज्ञानिक ने उत्तर दिया- ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करो’’।
/2. स्वस्ति पन्थामनुचरेम । (5.51.15) कल्याण मार्ग का अनुसरण करें ।/5. सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् । (10.181.2) मिलकर चलें, मिलकर बोलें।/यजुर्वेद कहता है - सुमना भव । अच्छे मन वाले बनें। तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु । (34.1) यह मेरा मन शिव संकल्प युक्त हो। 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।' (36.18) मित्र की दृष्टि से सर्वत्र देखें ।/अथर्ववेद कहता है : मानवो मानवम् पातु - मनुष्य मनुष्य को पाले । माता भूमिः पुत्रोSहम् पृथिव्याः । माता भूमि है, पुत्र है हम पृथ्वी के ।ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत । (11.5.19) ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की । मधुमतीं वाचमुदेयम । (16.2.2) मैं मीठी वाणी बोलूँ ।]
" दुनिया में मनुष्य और उसके मन से अधिक शक्तिशाली और कुछ नहीं है। - सर विलियम हैमिल्टन : ''সাত কোটি বাঙালিরে হে মুগ্ধ জননী রেখেছ বাঙালি করে মানুষ করনি ”* ——রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর /জেগে ওঠো, সচেতন হও এবং লক্ষ্যে না পৌঁছা পর্যন্ত থেমো না। - স্বামী বিবেকানন্দ/* দুনিয়াতে মানুষের চেয়ে বড় আর কিছু নেই আর মানুষের মাঝে মনের চেয়ে বড় নেই। - স্যার উইলিয়াম হ্যামিলন/
"सात करोड़ बंगालियों की हे मुग्ध जननी (माँ काली) आपने उन्हें केवल बंगाली बनाये रखा है, मनुष्य नहीं बनाया !" - रवींद्रनाथ टैगोर।
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