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गुरुवार, 14 जून 2012

"हरिजन का हुक्का पीया " [9]कहानियों में वेदान्त/

दो 
"हरिजन का हुक्का पीया " 
 स्वामी विवेकानन्द के जीवन में भी इसीप्रकार अचानक मोहनिद्रा टूटने का उदहारण मिलता है। 1886 ई0 में जब श्रीरामकृष्ण देव का शरीर छूट गया, तो नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द ) परिव्राजक के वेश में सम्पूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण करने निकले थे। वे भरत की आत्मा को नजदीक से देखना चाहते थे। 
एक दिन किसी गाँव के रस्ते से गुजर रहे थे; देखे कि कोई व्यक्ति हुक्का पी (या धूम्र पान कर ) रहा है। उन्होंने बहुत दिनों से हुक्का नहीं पीया था ; उस व्यक्ति को देखकर हुक्का पीने की तबियत ( मन या इच्छा ) हो गयी। उस व्यक्ति पास जाकर अपमे मन की बात बोले। वह व्यक्ति यहाँ-वहाँ देखने के बाद बोला- " आपको धुम्रपान कराने में मुझे कोई आपत्ति तो नहीं है, किन्तु मैं जात का मेहतर (अपमार्जक) हूँ, मैं अपना हुक्का आपको कैसे दे सकता हूँ ? "
यह बात सुनकर विवेकानन्द वापस जाने लगे। कुछ ही दूर जाने के बाद उनके मन में यह विचार
कौंधा- " ज्ञानी व्यक्ति भी क्या जाती-भेद देख सकता है ? जो शाश्वत चैतन्य सत्ता इस मेहतर के भीतर है, मेरे भीतर भी तो हूबहू वही चैतन्य है ! जाती-भेद शरीर के आधार पर किया जाता है, शरीर किस वंश में जन्मा है, उसके उपर निर्भर करता है। किन्तु आत्मा तो देह से निर्लिप्त (अलग-थलग) है, जिस आत्मा ने मेरे शरीर का चोला पहना है, उसी आत्मा ने इस मेहतर के शरीर का भी चोला पहना है। "
वे लौटे, और मेहतर के पास जाकर बैठ गये, उसकी कोई आपत्ति स्वीकार किये बिना-एक प्रकार से बलपूर्वक उसके हाथ से हुक्का छीन कर धुम्रपान करने लगे। थोड़ी देर तक बातचीत करने के बाद ही उन दोनों के बीच गहरी आत्मीयता हो गयी।
तीन 
" धूनी की अग्नि लेने पर तोतापूरीजी  की प्रतिक्रिया  "
श्रीरामकृष्ण के गुरु तोतापूरी के जीवन भी इसी प्रकार की एक घटना का उल्लेख है। श्रीरामकृष्ण तोतापूरीजी के द्वारा ही संन्यास-व्रत में दीक्षित हुए थे।
 
 एक दिन श्रीरामकृष्ण और वे दक्षिणेश्वर में पञ्चवटी के नीचे बैठे हुए थे। 
सामने से गंगा बहती चली जा रही थी। पूरीजी धूनी प्रज्वलित करके बैठे थे। धूनी के आमने-सामने दोनों बैठे हुए थे; वेदान्त की चर्चा चल रही थी। इसी समय एक व्यक्ति वहाँ आया। तम्बाकू सुलगाने के लिये उसने धूनी से एक लकड़ी खींच कर आग लेने की चेष्टा की। 
सन्यासी लोग धूनी की अग्नि को अत्यन्त पवित्र मानते हैं। इसीलिए जब वह व्यक्ति धूनी से उस प्रकार आग लेने की चेष्टा करने लगा तो पूरीजी बड़े क्रोधित हुए। चिमटा उठा कर उसके उपर प्रहार करने को उद्दत हो गये। यह देखकर श्रीरामकृष्ण की हँसी निकल गयी; उनकी हँसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। यह देख कर तोतापूरीजी अचम्भित होकर पूछे- " इतना हँस क्यों रहे हो ? " 
श्रीरामकृष्ण बोले- " यही आपका ब्रह्मज्ञान है ! क्या आप यह नहीं कहते, कि सबकुछ आत्मा है ? तब किसी व्यक्ति के द्वारा अग्नि छू जाने से धूनी के अपवित्र हो जाने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है ? "
पूरीजी ने अपना हाथ नीचे कर लिया। उनकी मोहनिद्रा टूट गयी।
  विचार करने लगे, " बिल्कुल ठीक बात है, समस्त प्राणियों (चाहे कोई जीव-शरीर में हो या प्रेत-शरीर में हो ) में उस ब्रह्म के आलावा और तो कुछ भी नहीं है। क्रोध के वशीभूत हो जाने से ही भेदबुद्धि (थोड़ी देर के लिए विवेक मोहनिद्रा में सो गया था ?) आ गयी थी; और मैं क्या करने जा रहा था ! " 
श्रीरामकृष्ण के सामने तोतापूरीजी ने संकल्प लिया -" अब जीवन में कभी क्रोध नहीं करूँगा ! "   



बुधवार, 13 जून 2012

" आचार्य शंकर और चण्डाल " [8]कहानियों में वेदान्त

[ यह बिल्कुल सच है, कि मनुष्य आत्मज्ञान (या अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान) प्राप्त करता है, तथा आत्मज्ञान हो जाने के बाद मनुष्य स्वयं को, एक ही चेतन सत्ता को सचमुच सभी प्राणियों में देख पाता है, निम्नोक्त घटनायें इसी सच्चाई को प्रमाणित करती हैं।]
एक 
आचार्य शंकर एक ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति थे। उनका जन्म आठवीं शताब्दी में हुआ था। वे एक सन्यासी थे। उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष में अद्वैतवाद का प्रचार किया था। 
 
एक दिन शंकर गंगास्नान करने काशी गये थे । गंगास्नान के बाद जब वे वापस लौट रहे थे तो देखते हैं, एक चण्डाल चार कुत्तों को साथ लिए उसी रस्ते से चला आ रहा है। शंकर रुक कर एक किनारे खड़े हो गये, ताकि कहीं उनसे छुआ न जाएँ। उनको यही भय था कि चण्डाल से या कुत्तों से कहीं छुआ गया तो अपवित्र हो जाऊंगा।
शंकर को इस प्रकार एक तरफ हटते देख कर चण्डाल ने कहा, " ब्राह्मण देवता, आप तो वेदान्त के अद्वैतवादी मत के प्रचार करते हुए भ्रमण करते हैं। फिर आपके लिये यह अस्पृश्यता-बोध (छुआ-छूत), भेद-भाव दिखाना कैसे संभव होता है ? मेरा शरीर छू जाने से आप अपवित्र हो जायेंगे, यह सोच कर आप आशंकित हैं ; किन्तु क्या हमदोनों का शरीर एक ही पंचतत्व के उपादानों से निर्मित नहीं है ? आपके भीतर जो आत्मा हैं और मेरे भीतर जो आत्मा हैं, वे एक नहीं हैं क्या ? हम दोनों के भीतर, सभी प्राणियों के भीतर क्या एक ही शुद्ध आत्मा विद्यमान नहीं हैं ? 
चण्डाल की बातों को सुनकर शंकर की मोहनिद्रा टूट गयी, वे अद्वैवाद की महानता के प्रति जागरूक हो गये। उनहोंने समझ लिया कि भेद तो केवल शरीर-मन (या नाम-रूप ) की सीमा में आबद्ध है, आत्मा (अस्ति-भाति-प्रिय) तो इन सबसे परे हैं। चण्डाल ने उनके स्वयं के दार्शनिक तत्व (अभेद ) के अनुभूति का द्वार खोल दिया था, यह विचार कर उन्होंने शंकर ने चण्डाल को नमस्कार किया। 
और वहीँ पर खड़े खड़े उन्होंने 'मनीषा- पंचकम ' नामक स्त्रोत्र की रचना कर दी। इस स्त्रोत्र के प्रत्येक स्तुति के अन्त में कहा गया है- " इस सृष्टि को जिस किसी ने भी अद्वैत-दृष्टि से देखना सीख लिया है, वह चाहे कोई ब्राह्मण हो चण्डाल हो; वही मेरा सच्चा गुरु है।"

मनीषापञ्चकम्
Introduction
manIShA panchakam was written by Jagadguru Shri Adi Shankaracharya.
Shri Adi Sankaracharya gives a very lucid and straight version of advaita vedanta in five verses called as मनीषा पञ्चकं ; manIshA pa~nchakam. These five verses are placed in such a simple manner that it becomes very difficult for one to understand with the so called mind. But, when one is clear of all thoughts and the mind is perfectly calm like without waves in a pond, then one can see the bottom of the pond provided the water in the pond is crystal clear also. In the same way the reader is requested to purify the mind and keep it still so that the advaita vedanta reveals itself from these verses.
Even though there are only five verses in the  मनीषा पञ्चकं ; manIshA panchakam, the  first two verses which are in the question form before the 5 verses that are asked by chAnDAla should not be ignored at all. These two verses are like preparatory exercise for the main marathon of five verses. It is like preparing a lamp with oil and wick so that the lamp can be lit. For a lamp to be lit, we all know how important is the oil and wick; these two verses are like that. To remove darkness from a room, we need not try to remove the darknes step by step, we have to just bring in a lamp into the room, the darkness automatically gets removed. In the same way the ignorance cannot be removed step by step from the mind. One has to bring in the wisdom or the knowledge of advaita vedanta. Immediately after the entry of advaita vedanta, the duality of nature gets removed.
Instead of these two verses in total, one has to look into the words and ponder on them. Each word itself reveals a lot on preparation that is required on the path of advaita. The famous neti (न  na + इति  iti – Not this) doctrine is put forth indirectly in these two verses. The साधना चतुष्टय sAdhana chatushTaya – Four fold Qualifications (विवेकं ; vivekaM-discrimination, वैराग्यं ; vairAgyaM-dispassion, समादी षट्क संपत्ति samAdi ShaTka sampatti (सम  sama – control of mind, दम  dama – control of external sense organs, उपरम /उपरति  uparama/uparati – following one’s duty, तीतीक्ष  titiksha – acceptance of pairs of opposites (heat and cold; pain and pleasure etc.), श्रद्धा shraddha – faith in Guru’s words, समाधानं ; samAdhAnam – one pointedness of mind), मुमुक्षत्वं  - yearning desire for liberation) are placed in a very subtle manner, which can be overlooked if we do not concentrate on each word in the verses in a deeper way. (Please refer to tattvabodha for further details).
HISTORY:
It is known that this act happened in the city of Benaras/Kashi during the period of Sri Shankara’s life. It happened in such a way that, one day as Shri Shankara went to river ganges for his daily bath and rituals along with his disciples, and on the way back from the river, as he was walking on the streets, a chAnDAla (literally a dog eater - an outcaste) was walking on the same path in the opposite direction. It is customary in India that whenever a brahmin or an ascetic moves on a path, other people do not walk against his direction; they give way to the brahmin or ascetic to walk first. Now, this chAnDAla has not moved aside; instead, he was also walking in the opposite direction towards Shri Shankara. After seeing this chAnDAla’s movement Shri Shankara addresses chAnDAla to move away by using the words गच्छ ,  गच्छ  gaccha, gaccha meaning go, go away.
Scribe’s additional Note
It is futile to debate here, that whether the chAnDAla is really a chAnDAla or Lord Shiva himself who came in disguise to remove the ignorance of casteism from Sri Shankara. If chAnDAla is really a chAnDAla, how can he speak in such a high poetic language and that too in Sanskrit? If we see this as a moment that occurred in history some centuries ago, then it does not fetch us anything. However, if we consider that the Cosmos has arranged for this kind of a situation, for us to probe deeper, learn and perceive the Truth so that we make a way for our own Self realization, then only is the situation helpful to us. Here the Cosmos has arranged a situation for us to go deeper and deeper into our mind and later on go beyond the mind. So instead of saying to our mind gaccha, gaccha….for the mind to go outward, let us say gaccha, gaccha…for the mind to go inward and within. Because, when the mind goes within and tries to perceive the chaitanyam - the consciousness present within, then the mind will be trained to perceive the same chaitanayam – the consciousness in the external world and everywhere. When the sAdhak gets to this stage of perceiving the chaitanyam being all pervading and present everywhere, then the sAdhak enters into silence and gets aware of the Stillness which is ever present and is the substratum of the whole Cosmos.
annamayAdannamayam – made up of food. This body and the external world that we perceive is all panchikruta - made up from the food of five elements earth, water, fire, air & ether. Anything that is made up of these five elements is bound to be impermanent and will go away or perish in the time. So, here the Cosmos is telling us in the form of chAnDAla to look into the impermanence of this external world. The one that remains always and is perennial is nothing but chaitanyam or the consciousness which is all pervading.
Now let us look into the conversation between chAnDAla and Sri Shankara. Here Shri Shankara is asking chAnDAla to go away from his path. If we consider these two characters as two individuals, then the conversation may not be completely helpful. Instead, let us consider these two characters as two kinds of conditioning of thought process. We all are taught from our childhood to be pious, religious, to perform good activities, and to avoid bad. Now what is good and bad? We say a particular situation that favors us to be good and a situation that does not favor us to be bad. But is it really so? Because, any situation is just a situation. We only label the situation with either good or bad. If a situation is favorable to us, then it might not be favorable to someone. So, what is a good situation for us is becoming a bad situation for someone. This is the paradox of life. Isn’t it? In this scenario, how can the chAnDAla be bad to a brahmin? Has the chAnDala created any hurdle to the brahmin? No. So, the situation of appearing of a chAnDala in front of a brahmin as a bad situation is only a thought process which has been conditioned by the illusion of duality. It is a perception by which the brahmin has created a situation, and a limitation for himself and his thought process. Hence, in reality there is no good and bad. These are only our perceptions that are creating limitations for our pre-conditioned thought processes. As the chaitanyam is all pervading, God is present both in good and bad. Hence, one has to overcome this illusion of duality. So, in this case the wisdom in the form chAnDala is telling the knowledge, which is in the form of Shri Shankara, that one has to overcome the duality (dvaita) and step into the non-duality (advaita) to understand the Cosmos. Only when, one perceives the chaitnayam being all pervading, then only the ocean of bliss is blessed.
The conversation between chAnDAla and Sri ShankarAchArya:
 अन्नामयादान्नमयम्थ्वा चैतन्यमेव चैतान्यात ।
द्विजवर दूरीकर्तु वाञछ्सी किं ब्रूहि गच्छ गच्छेति ॥


yativara = O! great ascetic!; kim = whom; vAnChasi = (you) desire to;  gachCha = go (away); brUhi = (by) uttering (asking to) ;   gachCheti = go away, go away;  durI kartum = keep or move away (from my path); annamayaat = this body which is made from food; annamayam = same as yours nourished by food;  athavaa = or else, if not so; chaitanyam = the consciousness (in me);  (eva = it is also the); iva = just like;  chaitanyaat = (same as your) consciousness.
O great ascetic! Please tell me. Whom you desire to move away from your path by uttering the words “go away, go away”? Is it this body, which is made from food to move away from your body, which is also similarly made from food? Or, is it the consciousness, which is present in this body (physical appearance) to move away from the consciousness which is similar to the consciousness present in your body (physical appearance)? Please tell me.
किं गंगाम्बुनी बिम्बितेओम्ब्र्मनौ चंदाल्वातिपयः
पूरे चंत्रमस्ती कच्च्न्घतिम्रित्कुम्भ्योवोर्म्ब्रे।
प्रत्याग्वस्तुनी निस्तारान्ग्सह्जान्न्दाव्बोधाम्बुधौ
विप्रोअयम्श्व्प्चोअय्मित्य्पिमहन्कोअयम्विभेद्भ्रमः ॥



pratyag vastuni = the Truth indwelling in everything; nistaranga = without waves i.e., stillness; ambudhau = ocean; sahaja= natural (which is present always); ananda= Bliss; avabodha = faculty of being resolute in judgment or action; mahaan = Oh Great One!; ko = why; ayam = this; vibhedha = discrimination; bhramah = illusion; ayam = this;  vipro = learned Brahmin;  iti = this; api = that part also; ayam = this;  shwapacho = literally the one who eats dogs, (Shwa.N pacha = dog eat) one who is an outcaste (chanDaala);
gangaa ambudhi = sacred waters of Ganges; payah poore = full of water;  vaa = or; chandaala veedhi = the street in which chanDaala lives or slum area; bimbita = reflected; ambara maNou = the jewel of the sky, i.e., the Sun; antaram = difference; kim = what; asti = exists; vaa = or; kAnchana ghaTI = pot made of gold; mrit kumbha = earthen pot; yoH = who / which; ambare = in the reflected sky; vaa = or; antaram = difference;  kim = what; asti = exists.
Verse meaning
Oh Great One! Please answer me. How can you get into the illusion of difference that the same Truth and natural perennial bliss do not exist in an outcaste and a brahmin, when it is as clear as a reflection of the sun in the still waves of an ocean? What happened to your faculty of judgement?
Also please answer me. Is there any difference between the empty space that exists in a golden pot and an earthen pot? And, is there any difference between the reflection of the sun that is being reflected in the waters of Ganges and in the waters that passes through the slum areas?
Scribe’s additional Note
These two verses are the preparatory exercise for every sAdhak. Because, in these two verses the minimum requirements for a sAdhak have been prescribed. Those are:
1.    To understand the Truth one need to have pure discrimination and stillness of mind.
2.    To have equality so that one should be able to see that there is in reality no difference in any thing and everything.
3.    All the external world is only a reflection of the Absolute.
With this background, now we will enter the realm of advaita vedanta where the manIsha panchakam is being told.

Shankara replies as follows:

जाग्रत्स्वप्न सुषुत्पिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते
या ब्रह्मादि पिपीलिकान्त तनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी,
सैवाहं न च दृश्य वस्त्विति दृढ प्रज्ञापि यस्यास्तिचे
च्चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम. ॥ १ ॥
jaagrat = wakeful state; swapna = dream state;  sushupti = deep sleep state;  shu = also;  sphuTataraa = that which is very clear; ujjrumbhate = shines in all beings; samvid = consciousness; yaa = the one which; protaa = embedded, indwelling, pervaded by, contained in; brahmaadi = from the Creator onwards; pipIlikAnta = upto the ant, tanu shu = all living bodies and, jagat sAkshiNI = the one who is the witness all worldly activities;  saivAham = he is that I;  na = not; cha = and; drusya = that which is seen (na cha drusya = not be perceived) ; vastviti = this as an object; api = also;  druDha = firm;  praj~na = intelligence; asti chet = it exists as the same;  astu = let it be; chAnDaalo = the outcaste; sa tu = in the same way; astu = let it be; Dwijo = the twice born, learned (Brahmin);  maneesha mama = my prudent reflection; eshaa = this; Guru iti = is the real preceptor.



If one says with firm conviction, that he is the one who is present in all the states of wakefulness, dream and sushupti (deep sleep), and present in all beings and objects beginning from Brahma (the creator) to the tiny ant and who is vibrant as energy consciousness in everything and being witness of the whole cosmos, then this I say with my prudent reflection that, that individual is revered preceptor, be he a twice born (brahmin) or an outcaste. Do not see that person in any other way.
Scribe’s additional Note
This first verse itself is breaking all the shackles of dogmatic rituals. Now, we have to clearly understand the word dwija = twice born. It is foolish and erroneous to say that all those persons who undergo the thread ceremony (upanayana) ritual are twice born. Remember in nature no one and no thing can take re-birth without dying first. So, how can a thread ceremony makes one twice born? This sacred ceremony is a ritual where the person is asked to die before his physical death. That is the ego has to be completely get rid of. When the “i” dies, then that person is ready to perceive the cosmos with pure discrimination and see the Truth in everything and treats with equality every part of the cosmos. That person sees and perceives the same in all the three states of jagrat, swapna & sushupti. That person, the twice born perceives the inherent vibrant energy being existing as a substratum in every thing in the whole cosmos. That person sees himself in everything and every part of the cosmos. Such person becomes indeed none other than the Guru, Preceptor.


ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं
सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाशेषं मया कल्पितम्
इत्थं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले
चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥

Brahma = The Brahman; eva = really; Aham = the inner Self or “I”; idam = this; jagat = universe; cha = and;  sakalam = total, whole, everything; chinmaatra = pure intelligence, mere consciousness alone; vistAritam = fully stated and extended; sarvam = completely; cha = and; etat = this;  avidyayaa = ignorance together with non-existence; triguNayaa = set of three characteristics (attributes – sattva, rajas & tamas); sesham = that which remains as; kalpitam = imagined; mayA = by me; yasya = Who so ever,  dhruda matih = with firm conviction (with accurate knowledge and perception); ittham = this way of understanding; nitye = that which is everlasting, permanent, does not undergo any change or modification; pare = that which is other (Supreme or Eternal consciousness); nirmale = pure, stainless, resplendent; sukhatare = bliss; astu = let it be; chAnDaalo = the outcaste; sa tu = in the same way; astu = let it be; Dwijo = the twice born, learned (Brahmin);  maneesha mama = my prudent reflection; eshaa = this; Guru iti = is the real preceptor.
If one says with firm conviction, that he is the one who is present in Brahma as the creator; he is pervaded in the whole cosmos as pure intelligence and consciouness; he who says that he has imagined this world with the three characteristics of sattva, rajas and tamas because of ignorance of the Truth; he who is pure, stainless, resplendent, always in that bliss; then this I say with my prudent reflection that, that individual is revered preceptor, be he a twice born (brahmin) or an outcaste. Do not see that person in any other way.
Scribe’s additional Note
A person who constantly meditates on the Absolute will one day gets awakened. He realizes that all the emotional experiences that are undergone are because of illusion/maya or ignorance of Truth. He understands that this illusion is governed by three characteristics or gunas – sattva, rajas and tamas. Once he overcomes these three gunas and becomes nirguna - guna rahita (not characterless, but beyond characters), his mind becomes pure, stainless and would be able to reflect the Absolute. Then such person will always be in that bliss.
शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचागुरोरः
नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना,
भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके
प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥

vishwaM = Universe; akhilaM = whole, entire; shashwat = perpetual, endless, permanent;  eva = really;  nashvaraM = perishable, transitory; nishchitya = having determined;  guruH = the Guru, preceptor;  uvaacha = saying, words (vaca gurae vaachaa guro = words of Guru); brahma = Supreme Spirit, Absolute; nityaM = permanent;  nirantaraM = eternally; vimrushataa = carefull analysis; nirvyaaja = pure, sincere; shaanta = peaceful (without any attachments); Atmanaa = you yourself, by yourself; sva = of self; vapuH = body;  samarpitaM = delivered unto; prArabdhaaya = revenue of prArabdha, revenue of the undertaken deeds; duShkR^itaM = wrongly or wickedly done; bhUtaM = of the past; bhaati = pass for (to present and future); cha = and; eShaa =this; pradahataa = burns of; paavake =  fire, shining; saMvinmaye = consisting of that intellect; esha = this; maneesha mama = my prudent reflection.


I say with my prudent reflection and conviction through Guru’s words, that this entire Universe is transitory and only the Brahma or Supreme Spirit is permanent; the human body is delivered unto us as our praarabdha to meditate on that Absolute constantly with a calm and pure mind and after awakening with this fire of self effulgent intellect (wisdom), that individual burns his past and the future karma in that shining fire of knowledge and will just surrender his present body to the praarabdha.
Scribe’s additional Note
As per the ancient scriptures it is said that man is bound by three types of karma or conditional thinking. The first one is called as sanchita karma, which is based upon his past lives. This is the conditional thinking which he has brought from his past lives. This is the conditioning by which some people like certain things and do not like some other things. May be a person lived in India in his previous life may be speaking the Indian languages very well even though that person might be born in USA and might have never heard or written these languages in his present life. It is the same with many of the emotions also. If a person is very angry and is unable to control his anger in his previous life may have more or less the same tendencies in this life. A person who might be interested in yoga in his previous life will continue the same in this life also. The second type of karma is the praarabdha karma. This karma is based upon the deeds that person performed in his previous lives, which made him to obtain his present body. A person who might be an athlete in his previous life will have a strong physique even in this life. A person who might be following all the health restrictions may have a very healthy body in this life. The third type of karma is called as aagaami karma. This is the karma which an individual is going to obtain in future based upon his present & future nature and deeds. Simplest example would be, if any individual over eats, the immediate result would be indigestion. He is bound to fall sick. If any individual irritates someone, he is going to get the repercussions from the individual whom he irritated. If any individual pollutes the environment, he is bound to inhale polluted air. The Nature’s laws are always certain and there will be no deviation in the consequences of Nature.
So, when one meditates on the Absolute and constantly is in the state of awareness of the Absolute, will clear all thoughts in the mind i.e., will not have any attachment towards thoughts. Such individual will merge the mind in the Absolute and becomes one with the Absolute. In Vedanta a simile is given where a doll made of salt went into the ocean to measure the depth of the ocean and not only lost itself, but has become one with the ocean. So, the individual who meditates on the Absolute not only melts and becomes one with the Absolute, but becomes the Absolute itself. For such a person the sanchita and aagaami karma gets burnt and he will be living just to burn his praarabdha karma. He surrenders himself to the Absolute. Such kind of a person has overcome all his conditional thinking from the past and will not be succumbed to any conditional thinking in future. Such a person will act only as per the situation as long as the present body stays alive and may not react in any situation.


या तिर्यङ्नरदेवताभिरहमित्यन्तः स्फुटा गृह्यते
यद्भासा हृदयाक्षदेहविषया भान्ति स्वतो चेतनाः,
ताम् भास्यैः पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावय
न्योगी निर्वृतमानसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥



yaa = arrive at;  sphuTaa = clear, apparent;  gR^ihyate = perceived; ahaM = as the I; iti = this; antaH = within, inside; tirya~N.h = all animals; nara = human beings; devatA = the gods; abhiH = inclusive of;  yadbhaaasa = with that effulgence or consciousness;  swataH = self;  achetanaa = insentient (jaDa = without any feeling); vishayaa = the sense objects; bhaanti = understood, illuminated by; hR^idaya = the heart; deha = the body; axa = the eyes (here it is all five senses that capture the vishaya);  taam = those (the heart, body, all sense organs); bhaasyaiH = to be brought to light, to be made visible;  pihitaa = concealed, hidden;  arkamaNDala = the sun’s outer layer effulgent with luminous light, sun’s halo;  nibhaaM = similar to that of; sphUrtiM = appearance or display; yogI = yogi, contemplative saint;  nirvR^ita = be accomplished;  sadaa = always; Bhaavayan = present in that state of condition (meditation); maanasohi = always in that mind or consciousness; maneesha mama = my prudent reflection; eshaa = this; Guru iti = is the real preceptor.
I clearly arrive at the perception with my prudent reflection and say with conviction that, the one who sees the ever effulgent consciousness in all animals, human beings and gods; and the one who says that it is by the reflection of this effulgent consciousness that makes all the body, mind and sense organs as sentient even though they are insentient; who says that all the external objects are perceived only through this consciousness, which is hidden as the clouds hide the self-effulgent sun’s halo; the one who meditates always on that eternal consciousness and is always in that state of stillness, that great one is the Guru, preceptor.
Scribe’s additional note
The heart, body, mind and senses are in reality insentient. But we perceive them as sentient. So, what is that, which is present in them to appear them as sentient? It is the self effulgent consciousness which is actually making them to appear sentient. So, this self effulgent consciousness is present as substratum in all these and creating an illusion that all these are sentient. It is like when we watch a movie on a screen we see various colorful shadows created by the reel through which the light is passed through. In reality all these shadows or the casting/movie that we see on the screen is not real. Only the light is real. This self effulgent consciousness is shadowed by the mAya as the clouds hide the sun’s halo.
We can see all the objects in the world in a broad day light even if the sun is covered by the clouds. Does it mean that the sun is not present when the clouds cover the sun? No. There is another simile to understand it easily. When we see the full moon in the night we say that the moon is so good and the moon light is making us to see all the objects in the night also. But in reality moon is not self-luminance. What we see the moon is actually the reflection of the sun’s light which is falling on the moon. In the same way this whole world is only a reflection of that self effulgent consciousness as the substratum.
While we watch a movie we undergo through many emotions as similar to that of the emotions that are projected on the screen. Now let us say instead of watching the movie on the screen if we take 180o turn and see the light coming from the booth/projector, we will not be undergoing any emotions; instead, we will be so peaceful without any thoughts/emotions. Suddenly the illusion of the movie is gone from us. In the same way the one who sees, perceives and always be in the awareness of that self effulgent consciousness i.e., always meditating on that self effulgent consciousness is always peaceful to the brim, completely fulfilled, contented, self-satisfied, without any desires (no thoughts – in a perfect stillness) and full of bliss. Such an individual is none other than a Guru, preceptor.

यत्सौख्याम्बुधि लेशलेशत इमे शक्रादयो निर्वृता
यच्चित्ते नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा मुनिर्निर्वृतः
यस्मिन्नित्य सुखाम्बुधौ गलितधीर्ब्रह्मैव न ब्रह्मविद्
यः कश्चित्स सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥


yat = that (The Self – Brahman);  ambudhi = ocean;  saukhya = supreme bliss; lesha leshata = even the smallest of the smallest portion; ime = this; nirvR^itaa = be accomplished, become; shakraadayo = Surendra (Indra) and other gods; prashaanta = composed, indifferent, peaceful; kalane = state of being fulfilled with;  chitte = consciouness;  yat = that; na itaraaM = not by any other special means; muniH = the munis or sages; labdhvaa = having received such experience, who is in that awareness; nirvR^itaH = being accomplished of fulfillment; Yasmin = whose;  dhI = mind, mental attitude; nitya = always ever permanent; galita = melted in (here it means that, that individual who have overcome all thoughts – mind, who has gone beyond mind, beyond all experiences, whose mind has dissolved in the ocean of bliss, who does not have any identity – ego or I); ambudhau = ocean; suo sukha = eternal bliss; na brahmavid brahmaiva = that is not Brahma, but Brahman itself;  sa = such an individual; yaH kashchit = whosoever; pado = feet (his feet); vandita = worthy to be worshipped of;  surendra = Indra, king of gods; nUnaM = indeed, certainly; maneesha mama = my prudent reflection  
It is my strong conviction that the person who is always in that ocean of eternal bliss is not a mere knower of Brahman, but Brahman itself. Even the minutest portion of that bliss is enough to satisfy the Indra and other gods. By meditating on that Supreme ever effulgent, permanent consciousness with calm mind melted in that ocean of bliss and is always in that awareness, he is completely fulfilled. Whosoever that individual, his feet are fit to be worshipped even by the lord of kings Indra himself. This is my prudent reflection and conviction.
Scribe’s additional note
An individual who has overcome every kind of conditional thinking is free from all kinds of desires. Such a person need not worry about anyone and anything in life. Such a person is full of Love, kindness and joy. Such a person responds to everyone and everything happening around him, but will not react to anyone or anything. Such a person is always in that eternal self effulgent bliss. Such a person is completely fulfilled and self-contented. Even if a minutest portion of that bliss is tasted, then it will satisfy king of gods, Indra himself. That means that joy is far more than billions of billions of happiness experienced together.
इति  श्रीमत  शंकर भगवतः कृतौ  मनीष पञ्चकं  सम्पूर्णं  

Thus ends the manIshApa~nchakaM composed by Shri ShankarAchArya

" नचिकेता " [7] कहानियों में वेदान्त

नचिकेता का वृत्तान्त
चारों ओर शोर गुल मच रहा था। देश के चारो दिशाओं से लोग भागे चले आ रहे थे। ऋषि बाजश्रवस यज्ञ का आयोजन किये थे। बहुत बड़े पैमाने पर यज्ञ हो रहा था। इस यज्ञ में ऋषि अपनी सारी धन-सम्पत्ति दान करने वाले थे।
तपोवन के एक किनारे पर्याप्त लम्बे-चौड़े भूखण्ड पर यज्ञ मण्डप बनाया गया था। बहुत से ऋषि-मुनि आये हैं, बड़े-बड़े पण्डितगण आये हैं। यज्ञ प्रारम्भ हो चुका है, होमाग्नि में आहूति दी जा रही है। दान भी शुरू हुआ है। विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का दान हो जाने के बाद, गऊ-दान शुरू हुआ है। बाजश्रवस बहुत सारे गौओं को दान में देने जा रहे हैं। सभी लोग आनन्द में विभोर हैं, केवल एक लड़के के चेहरे पर हँसी नहीं है, उत्सव का आनन्द नहीं है।
 कुम्हलाये हुए गम्भीर चेहरे को लेकर वह लड़का एक कोने में खड़े खड़े गऊ -दान देख रहा था। वह लड़का बाजश्रवस ऋषि का पुत्र नचिकेता था। उसके किशोर मन में आज तूफान उठ रहा था; सोचता जा रहा था- " दान देना बहुत पुण्य का काम है, मेरे पिताजी यह सोच कर गौएँ दान कर रहे हैं, कि जिनको दे रहे हैं, उनका भला
होगा। इसीलिए तो दान की इतनी महिमा है, जिन व्यक्तियों को पैसे से गाय खरीद कर दूध पीने या अपने बच्चों को दूध पिलाने का सामर्थ्य नहीं है, एक गाय दान में मिल जाने से उनका कितना भला होगा, किन्तु उसके पिता के गौशाले में जितनी खराब गायें थीं, उन्हीं को चुन चुन कर वे दान देने के लिए ले आये थे। ऐसी ऐसी गायें थीं, जो बिल्कुल दुबली पतली और बूढ़ी हो चुकी थीं, जिनके चेहरे को देखने से ही वितृष्णा हो जाती है। उनको देखने से ऐसा लगता था, मानों इस जन्म में उनका घास खाना और जल पीना समाप्त हो चूका था, यज्ञशाला से घर जाने के रस्ते में ही लगता है, वे सब मर जायेंगी, मानों मृत्यू के पथ पर उनका पैर बढ़ चुका है। गौशाले में तो कितनी सारी अच्छी अच्छी गायें भरी पड़ी हैं, उन गायों को पिताजी क्यों नहीं लाये हैं ? जिस उद्देश्य से वे दूसरों को गायों को दान में दे रहे हैं, क्या ऐसी गायों को दान में देने से उनका वह उद्देश्य सिद्ध
होगा ? बल्कि इससे तो उन्हें बिलकुल उल्टा फल मिलेगा। "
झुंझलाहट से उसका बाल-मन भर गया। किन्तु वह तो एक बच्चा था, इसका प्रतिरोध कैसे करे ? अपने पिता के पास जाकर स्वाभिमान भरे लहजे से पूछा -' पिताजी, आप मुझको किसे दान में दे रहे हैं ? ' अपने छोटे से लड़के की अर्थहीन बातों पर ध्यान दे सकें, ऋषि के पास उतना समय कहाँ था ? किन्तु नचिकेता ने भी जिद नहीं छोड़ा, बार बार उनके पास जाकर यही प्रश्न पूछता रहा। उसको रोकने के लिए बाजश्रवस ने क्रूद्ध होकर कह दिया, " जाओ, मैं तुमको यम के हाथों में दिया। "
उत्तर सुन कर थोड़ी देर तक नचिकेता किसी पत्थर की मूर्ति के समान खड़ा रह गया। सोचने लगा, " पिताजी ने ऐसा कैसे कह दिया; क्या मुझे वे इतना अवांछनीय समझते हैं? क्या मैं इतना अयोग्य लड़का हूँ ? मनुष्य के रूप में क्या मेरा कोई मूल्य ही नहीं है ? " आत्मनिरीक्षण करने लगा, उसने पाया कि यह सत्य नहीं है - " बहुतों से मैं बड़ा हूँ, बहुतों की तुलना में मध्यम हूँ, किन्तु मेरे पिताजी के जितने भी शिष्य हैं, मैं उनमें से सबसे निकृष्ट तो बिलकुल नहीं हूँ।" स्वयं के उपर श्रद्धा जाग्रत हो गयी, और आत्मविश्वास से उसका हृदय भर उठा। साथ ही साथ उसने अपना कर्तव्य भी निश्चित कर लिया।- " मैं यमराज के बहुत से कार्यों में उपयोगी हो सकता हूँ। "
ऐसा सोच कर उसने मन में ठान लिया, कि अब तो मुझे यमराज के पास जाना ही होगा ! फिर अपने पिता के पास जाकर नचिकेता ने अपना संकल्प सुना दिया। यह सुनकर बाजश्रवस चौंक गए। अरे, मैंने अनजाने में कोई बात कह दी तो उससे क्या हुआ ? अपने पुत्र को यमलोक भेजना क्या किसी पिता की आंतरिक इच्छा हो सकती है ? किन्तु नचिकेता ने अपने पिता को समझाया कि सत्य की रक्षा करना उनका अनिवार्य कर्तव्य है। एक बार जब उनके मुंह से यह बात निकल ही गयी है, तो फिर मन में चाहे कितना भी कष्ट क्यों न हो, उनके लिए नचिकेता को यमपुरी जाने की अनुमति प्रदान करना ही उचित है। मनुष्य का जीवन है ही कितने दिनों का ? जिस शरीर के माध्यम से हमलोग पृथ्वी का रूप-रस आदि भोग करते हैं, उसका मरना तो ध्रुव तारे के समान अटल है। किन्तु सत्य की रक्षा कर पाने से उसका शुभ फल शरीर नष्ट होने के बाद भी हमलोगों के साथ साथ जाता है, तथा अगले जीवन में भी उसका शुभ फल प्राप्त होता है।
नचिकेता की बातों को सुनकर बाजश्रवस को चैतन्य होता है। अपने पिता को समझा बुझा कर, उनकी अनुमति लेकर नचिकेता यमपुरी की ओर प्रस्थान करता है। यमराज बिना कोई पक्षपात किये, ईश्वर के कानून के अनुसार सबों को कर्मफल प्रदान करते हैं, अच्छे कर्मों का अच्छा फल और बुरे कर्मों के लिए बुरा फल देते हैं। क्योंकि यमराज किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं करते इसीलिए उनका एक उपनाम धर्मराज भी है। इसीलिए नचिकेता यमराज के प्रति अपने मन में अति उच्च धारणा लेकर यमपुरी में उपस्थित होते हैं।
किन्तु उस समय यमराज वहाँ नहीं थे, किसी जरुरी काम से बाहर गए थे। नचिकेता बिना कुछ खाए-पीये तीन दिनों तक उनकी राह देखता हुआ प्रतीक्षा करता रहता है।
तीन दिनों बाद जब यमराज वापस लौटते हैं, तो नचिकेता को देखकर, तथा उसके संकल्प की दृढ़ता और श्रद्धा का परिचय प्राप्त करके यमराज बड़े प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं, " तुम तीन रात्रि इतना कष्ट सह कर मेरी प्रतीक्षा में बैठे रहे हो, इससे मैं तुम पर प्रसन्न हो गया हूँ। तुम मुझसे इसके बदले में तीन बर मांग लो । "
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नचिकेता ने कहा- " मैं पृथ्वी छोड़ कर आपके पास आया हूँ; इसके लिए मेरे पिताजी को बहुत दुःख हो रहा है, और बहुत चिन्ता करते हुए अपना दिन बिता रहे हैं। जब मैं आपसे विदा लेकर वापस लौटूँ, तो वे मुझे पहचान सकें, और प्रसन्नतापूर्वक मुझे स्वीकार कर लें। प्रथम बर के रूप में मैं आपसे यही मांगता हूँ।"
यमराज ने कहा - " वैसा ही होगा, पुत्र ! दूसरा बर भी माँग लो। "
नचिकेता ने कहा, " मैंने सुना है कि स्वर्ग में लोग बड़े सुख से रहते हैं। वहाँ पर किसी को रोग,शोक, बुढ़ापा का डर नहीं सताता है, मृत्यु का भय भी नहीं होता। जिस कर्मकाण्ड की सहायता से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है, मुझे उसकी पद्धति सिखा दीजिये। "
स्वर्ग प्राप्ति के लिए जो यज्ञ करना पड़ता है, यमराज उसकी छोटी छोटी बातों को भी बहुत विस्तार से नचिकेता को सिखा देते हैं। एकबार सुनने के बाद ही नचिकेता हू ब हू पूरी पद्धति उनको सुना देता है। उसकी स्मरणशक्ति को देख कर यमराज बहुत प्रसन्न होते हैं, और एक अतिरिक्त बर देते हैं- " नचिकेता, तुम्हारे ही नाम के उपर इस यज्ञाग्नि का नाम रखा जायेगा, ' नचिकेतस-यज्ञ '।" उसके बाद पूछे कि, " अब बताओ कि तुम तीसरे बर के रूप में क्या चाहते हो ? "
नचिकेता ने कहा, " कोई कहता है, मृत्यू के बाद भी मनुष्य का अस्तित्व रहता है; केवल शरीर ही नष्ट होता है, वास्तविक मनुष्य नहीं मरता, आत्मा अमर है। फिर कोई कहता है, यह बात नहीं है- मृत्यू के साथ ही साथ मनुष्य का सबकुछ समाप्त हो जाता है, उसका और कोई अस्तित्व ही नहीं रहता। इनमें से किसकी बात ठीक है, वह मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ। मैं आपसे आत्मतत्व जानना चाहता हूँ।"
नचिकेता की बातों को सुनकर यमराज तो दंग रह जाते हैं- " यह लड़का कह क्या रहा है ? " पहले तो उसकी श्रद्धा और आत्मविश्वास को देखकर ही वे खुश हो गये थे, अब इतने कम उम्र में ही अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसमें जो तीव्र इच्छा जाग्रत हुई उसे देख कर वे मन ही मन और अधिक प्रसन्न हुए। फिर भी उसकी यह जिज्ञाषा आन्तरिक है या नहीं, उसकी थोड़ी परीक्षा करके देखना चाहे। नचिकेता से
बोले, " देखो बच्चे, यह तत्व अत्यन्त सूक्ष्म है; इस विषय में देवताओं को भी संशय हो जाता है। इसीलिए इस तत्व को लेकर सिर मत खपाओ, तुम इसके बदले कोई और बर मांगलो। "
नचिकेता ने कहा, " यदि यह बात है कि देवताओं को भी इस विषय में संदेह होता है, फिर तो यह तत्व मुझको जानना ही होगा। और आप तो मृत्यू के ही देवता हैं, आपके जैसा योग्य वक्ता और मुझे कहाँ मिलगा ? आत्मतत्व को जानने का ऐसा अवसर मैं छोडूंगा क्यों ? "
तब यमराज उसको लालच देते हुए कहते हैं, " देखो नचिकेता, तुमको मैं अतुल्य ऐश्वर्य का अधिकारी बना दूंगा। तुमको मैं प्रचूर भू-संपत्ति, गाड़ी-घोडा, धन-जन से भर दूंगा। पुत्र-पौत्र के साथ एक सौ वर्षों तक इन सबका भोग करो। यदि इच्छा हो, तो और भी अधिक उम्र तक, जबतक चाहो, जीवित रहकर इन सबका भोग करो।
 पृथ्वी पर जीते समय सभी मनुष्य यही सब तो पाना चाहते हैं। यह भी देखो कि स्वर्ग की सभी अप्सराएँ यहाँ उपस्थित हैं। इन सबको अपने साथ ले जाओ, ये लोग बहुत अच्छा नृत्य-संगीत जानती हैं। इसके अलावा भी तुमको भोग की बहुत सारी वस्तुएं दूंगा, जो तुम भोग करना चाहो, वह सब तुमको दे दूंगा। स्वर्ग में गए बिना जिन भोगों को नहीं पाया जा सकता, भोग की जिन वस्तुओं को पृथ्वी पर देखना भी दुर्लभ है, वह सब भी मैं तुमको दे रहा हूँ। यह सब अपने साथ लेते जाओ, इतनी सुंदर सुंदर वस्तुओं को छोड़ कर, आत्मज्ञान क्यों पाना चाहते हो ? "
किन्तु आजीवन इन सबका भोग करके जितना आनन्द प्राप्त होता है, उससे भी करोड़ो गुणा अधिक आनन्द का, असीम, कभी न समाप्त होने वाले, सनातन, प्रतिघात रहित आनन्द का अधिकारी बनना चाहता है नचिकेता ! और वह आनन्द आत्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) के पथ पर चलने से ही प्राप्त हो सकता है। उसका मन अल्प से नहीं भर सकता। नचिकेता ' उड़द के दाल ' का खवैया नहीं है, वह तो महा मूल्यवान वस्तु लेने आया है। इसीलिए वह कहता है-
" यमराज, यह सही है कि देह-इन्द्रिय की सहायता से मनुष्य जितने विषयों का भोग करके सुख भोग कर सकता है, भोग की उन समस्त वस्तुओं को आप मुझे प्रचुर मात्रा में दे रहे हैं। किन्तु उन वस्तुओं को आप चाहे जितना भी मात्रा में क्यों न दें, किन्तु उससे आनन्द कितना मिलेगा ? क्योंकि चाहे जितना भी क्यों न मिलता जाये, मन उतने से कभी तृप्त तो नहीं होता, वह तो और- और पाने की रट लगाये ही रहता है। इसके अतिरिक्त इन समस्त भोगों को मैं कितने दिनों तक भोग सकूँगा ? चाहे मैं एक सौ वर्षों तक जीवित रहूँ या दो सौ वर्षों तक, एक दिन तो उसका अन्त अवश्य होगा ? और जिन इन्द्रियों के द्वारा इन भोगों को भोगा जाता है, वे इन्द्रियां भी तो उम्र बढ़ने के साथ साथ शिथिल या जीर्ण होती जाती हैं। इसीलिए मेरा (प्रशिक्षित) मन इन सब भोगों की ओर जाता ही नहीं है। इसीलिए आप इन सब नश्वर विषयों को भोगने का प्रलोभन देकर मेरे मन को लालची नहीं बना सकते हैं, मैं वैसा कोई छोटा सा बच्चा नहीं हूँ, जिसे आप लोलीपॉप दिखला कर फुसला सकते हों, ' जो ' मैं जानना चाहता हूँ, वही बतलाइए। "
 यमराज ने समझ लिया कि यह लड़का अपने इरादे का पक्का है; उसकी आत्मज्ञान पाने की इच्छा अत्यंत तीव्र और हार्दिक है, इसके भीतर किसी सच्चे सत्यार्थी जैसी - बिल्कुल एक ' Burning desire ' है, इसकी जिज्ञाषा में कोई भी मिलावट नहीं है। आत्मतत्व की धारणा करने के लिए मन को जितना दृढ और सबल होना चाहिए, उतना प्रशिक्षित भी हो चूका है इसका मन ( अर्थात अपने सच्चे स्वरूप को जान लेने के बाद यह आश्चर्य से उछलने नहीं लगेगा, उस ज्ञान को पचा लेने की क्षमता भी इसके मन में है।) इसीलिए यह आत्मतत्व सुनने का योग्य अधिकारी है, ' एक अच्छा आधार है।' ऐसा निर्णय लेकर यमराज उसको आत्मज्ञान का उपदेश सुनाने लगते हैं।
यमराज ने आत्मज्ञान प्राप्त करने का जो उपदेश नचिकेता को सुनाया था, वह सम्पूर्ण इतिहास, उसका सम्पूर्ण वृत्तान्त ' कठोपनिषद ' नामक वेदान्त में समाविष्ट है। कठोपनिषद यजुर्वेद का अंतिम भाग है। (वेद चार हैं-ऋक, यजू: , साम और अथर्व ) कठोपनिषद की कुछ बातों का उल्लेख उपर किया गया है।
(Pure Consciousness) शुद्ध, निष्कलंक, निर्मल, अमल, पवित्र, अमिश्रित या खालिस - चेतना (अभिज्ञता, बोध या ज्ञान ) हमलोगों में से प्रत्येक के भीतर है; इसीलिए हमलोग एक चेतन जीव के रूप में जीवित हैं। आत्मा के चैतन्य से ही हमलोगों का यह शरीर, मन, प्राण आदि ' जड़ ' होकर भी ' चेतन ' जैसे प्रतीत होते हैं; ठीक वैसे ही जैसे किसी श्वेत स्फटिक के सामने उड़हुल का लाल फूल रखने से वह लाल दिखाई पड़ने लगता है। यह शुद्ध शाश्वत चैतन्य - ' सच्चिदानन्द ' ही हमारा स्वरूप है, हमलोगों का यथार्थ ' मैं ' है !
जिस प्रकार सूर्यास्त हो जाने के बाद अँधेरे में हमलोग कुछ भी नहीं देख पाते हैं, फिर भी जिस इन्द्रिय के माध्यम से हमलोग देखते हैं, उन आँखों का कोई दोष सूर्य को कभी स्पर्श नहीं करता, उसी प्रकार सबकुछ जानने और देखने वाले आत्मा की शक्ति (चेतना) से मन, शरीर, प्राण इत्यादि जड़ प्रकृति चेतन जैसी प्रतीत होने पर भी, वह आत्मा निःसंग है, केवल साक्षी है, शरीर, मन, प्राणों के खोल (packing ) द्वारा किये गये कार्यों का दोष उस शुद्ध चेतन सत्ता को मलीन या विकृत नहीं कर सकता।
मनुष्य की इन्द्रियां और मन आदि स्वभावतः बहिर्मुखी हैं ; इसीलिये बाह्य वस्तुओं को हिला-डुला कर, उनको हरकत में लाकर या उत्तेजित करके हमलोग आमोद-प्रमोद द्वारा आनन्द पाना चाहते हैं। किन्तु आत्मज्ञान प्राप्त (या अपने सच्चे स्वरुप से साक्षात्कार) करने की तीव्र इच्छा हो, तो मन को बाह्य विषयों में जाने से रोक कर, या बाह्य विषयों से खीँच कर, अन्तर्मुखी बना लेना होगा।
 मन को भीतर की ओर, अपने यथार्थ स्वरुप की ओर देखने का प्रशिक्षण देना होगा। (अपने दोषों को देखने और दूसरों में विद्यमान शुद्ध स्वरुप को देखना सिखाना होगा । (दूसरों में अगर दोष दीखता है, तो विवेक-विचार करना होगा कि वह दोष ' packing ' का है, या आत्मा का ? ) जो लोग अमृतत्व चाहते हैं, या अमर होना चाहते हैं, वे अपने सुद्ध स्वरुप या आदर्श के उपर मन को एकाग्र करने की विधी अवश्य सीखते हैं। वे लोग वाह्य विषयों में बिखरी हुई मन की रश्मियों को समेट कर, सम्पूर्ण मन को (आदर्श रूपी कोनवेक्स लेन्स या पावर का शीशा पर फोकस रखने का अभ्यास ) आत्म-चिन्तन में एकाग्र करने का अभ्यास करते हैं। जिस व्यक्ति में विवेक जाग्रत हो जाता है, उन्हें इस प्रकार अपने मन को बाह्य विषयों में जाने से रोक कर आत्मस्वरूप पर एकाग्र रखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
 
वास्तव में हमलोग शरीर, मन, बुद्धि, आदि जड़ पदार्थों से बिल्कुल भिन्न हैं। हमलोगों का शरीर मानों एक रथ है, हमलोग उस रथ में बैठे हुए हैं। इन्द्रियाँ मानों घोड़े हैं, और मन लगाम है। और बुद्धि इस रथ की सारथि (रथि या अंकुष ) है। हमारी ' बुद्धि ' यदि ' विवेकवान ' बन जाये, कौन सा मार्ग अच्छा है और कौन सा मार्ग खराब है, उसमें यह औचित्य-बोध या सही समझ यदि हो। यदि वह मन की लगाम को कौशल के साथ खीँच कर घोड़ों को विषय-मार्ग पर जाने से पलटा लेने में सक्षम है ; मन यदि उसके वश में रहता हो, तो वह इन्द्रिय रूपी उद्दण्ड घोड़ों को अपनी इच्छानुसार इधर-उधर बहकने नहीं देती है; बुद्धि का अंकुष रथ को सही ढंग से हांककर हमलोगों को अपने लक्ष्य पर पहुंचा देती है।
 इसी प्रकार की बहुत सी ज्ञानवर्धक बातें नचिकेता को यमराज ने सुनाया था।
ईमानदार प्रयत्न रहने से सभी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। एक जन्म के प्रयत्न में यदि मार्ग के अन्तिम छोर या लक्ष्य तक न भी पहुँच सके तो भी कोई चिंता नहीं, मनुष्य इस मार्ग पर जहाँ तक भी अग्रसर हो सका है, उतनी साधना का फल कभी नष्ट नहीं होता। एक जन्म में अभ्यास के द्वारा मन जितना उन्नत बन सका होता है, उसी उन्नत मन को लेकर ही उसका पुनर्जन्म होता है। अगले जन्म में वह अपनी यात्रा उसी स्थान से प्रारंभ करता है, उसको फिर से अपनी साधना का प्रारंभ नहीं करना पड़ता है। क्योंकि मृत्यू के समय केवल शरीर ही नष्ट होता है, मन को कुछ नहीं होता, इसीलिए नये शरीर में भी ' मन ' का गठन (संरचना-या Structure) पूर्व के जैसा ही रहता है।
श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था- " इसके पहले भी मेरे और तुम्हारे कई जन्म हो चुके हैं, मुझे अपने समस्त जन्मों का इतिहास याद है, और तुम सब भूल गए हो। "
यह जान लेने के बाद कि एक जन्म में किये गये प्रयत्न का फल दुसरे जन्म तक बना रहता है, इसीलिए वर्तमान में हमलोगों में कितना सामर्थ्य होगा ?  इस बात की चिन्ता में सिर न खपा कर, ज्ञानप्राप्ति के पथ पर आगे बढ़ने के लिए सीधा कमर कस कर भीड़ जाना होगा। इस मार्ग पर हमलोग अपनी यात्रा का प्रारंभ चाहे जहाँ से भी क्यों न करें, उससे कुछ आता-जाता नहीं है। उसको लेकर मन में कभी निराशा नहीं आने देनी चाहिए।
कोई भी कर्म इतना क्रूर या गर्हित नहीं है, जिसे भूल वश कर बैठने से कोई मनुष्य हमेशा के लिए नष्ट हो जाता हो। कोई व्यक्ति जीवन पथ के किसी भी स्थान पर क्यों खड़ा हो, वह स्थान चाहे कितना भी निचा क्यों न हो, मनुष्य जिस क्षण, उम्र के किसी पड़ाव पर अपनी भूल समझ लेता है ; जैसे ही उसमें अशान्ति, उदासी और भय के चँगुल से मुक्ति पाने के लिए सत्य-प्राप्ति की इच्छा जाग उठती है, उसी समय, उम्र के उसी पड़ाव से सत्य की ओर मुख घुमा कर ( असत राह से सत राह की ओर ) अपनी यात्रा प्रारंभ कर देनी चाहिए। ऐसा करने से एक न एक दिन उस सत्य को, असीम आनन्द को, अमृतत्व को अवश्य प्राप्त कर लेंगे।
 
जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करके अपने सच्चे स्वरुप को पहचान कर धन्य हो चुके हों, उनके निकट पहुंचकर यह जान लेना होगा कि इस मार्ग पर चलने की पद्धति क्या है, सम्पूर्ण पद्धति को उनसे सीख लेनी चाहिए। उनके जीवन के सम्पर्क में आने, उनकी बातों को सुनने और मनन करने से लोगों को चैतन्य (परोक्ष ज्ञान) हो जाता है। उन्हीं लोगों के उपदेशों को संकलित करके शास्त्रों को लिखा गया है। वे (ज्ञानी जन )लोग सभी प्राणियों में आत्मदर्शन करते हैं, या सबों के भीतर स्वयं को देखते हैं। ज्ञानप्राप्ति के बाद जितने भी दिनों तक उनका शरीर धरती पर रहता है, वे लोग बसन्त ऋतू के समान केवल लोक-हित करने के लिए गाँव-गाँव में घूमते रहते हैं।
अब हमलोग इसीप्रकार के दो-चार ब्रह्मज्ञ-पुरुषों के जीवन की कुछ घटनाओं पर चर्चा करेंगे।


  
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