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बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द['स्वामी विवेकानन्द और हमारी संभावना]

आत्मश्रद्धा
( পুজ্য় শ্রীনবনীহরন মুখোপাধ্যায় লিখিত- " যুব সমস্যা ও স্বামী বিবেকানন্দ "  মহামন্ডল পুস্তিকার হিন্দী অনুবাদ  )
एक दिन ( शनिवार, २२ जनवरी, १८९८ ई० को ) ' बलराम मन्दिर ' के एक कमरे में बहुत से श्रोताओं के बीच स्वामीजी कह रहे थे- " इस देश में पुनः एक बार सच्ची श्रद्धा के भाव को जाग्रत करना होगा, हमारे सोये हुए आत्मविश्वास को जगाना होगा, तभी आज देश के सामने जो समस्यायें हैं, उनका समाधान स्वयं हमारे द्वारा ही हो सकेगा." ( ८/ २६९ )
किन्तु प्रश्न-कर्ता इस उत्तर से संतुष्ट न होकर बोले- ' केवल श्रद्धा से ही हमारे समाज के ( छूआ -छूत, भ्रष्टाचार...जैसे) असंख्य दोष कैसे दूर होंगे ? देश में जो बुराइयाँ और कुरीतियाँ हैं, उन्हें दूर करने के लिए कांग्रेस तथा देशभक्त संस्थायें प्रचार और आन्दोलन ( सत्याग्रह, अनशन आदि ) कर रहीं हैं, तथा अंग्रेज सरकार  से प्रार्थना भी कर रही हैं. क्या इससे भी अच्छा अन्य कोई मार्ग है ? श्रद्धा का इन सब बातों से क्या सम्बन्ध है ?
स्वामीजी ने कहा-  " माना कि सरकार तुमको तुम्हारी आवश्यकता की वस्तुएँ ( उस समय आजादी अभी जन लोकपाल बिल आदि ) देने को एकबार राज़ी भी हो जाये, पर प्राप्त होने पर उन्हें सुरक्षित और संभाल कर रखने वाले मनुष्य कहाँ हैं ?
इसीलिए पहले वैसे लोगों, यथार्थ ' मनुष्यों ' का निर्माण करो. हमें अभी मनुष्यों की आवश्यकता है, और बिना श्रद्धा के ' मनुष्य ' निर्माण कैसे हो सकता है ? " 
किन्तु वे सज्जन इससे भी संतुष्ट नहीं हुए; वे पुनः तर्क दिए- ' किन्तु बहुसंख्यक लोगों का मत ऐसा नहीं है.'
इस पर स्वामीजी का निर्भीक उत्तर मिला- " जिसे तुम बहुसंख्या कहते हो, वह मूर्खों की या अति साधारण बुद्धि रखने वालों की संख्या है. सभी देशों में, जिनके पास स्पष्ट धारणा करने वाला मस्तिष्क है, ऐसे व्यक्ति कम ही होते हैं." (८/२७० )
हम अपने ज्ञान (डिग्री ) या पद को लेकर चाहे जितना भी गर्व क्यों न करते हों, हमलोगों को यह स्मरण रखना विशेष प्रयोजनीय है कि हममें से अधिकांश व्यक्ति निर्बोध (अविवेकी ) हैं, और हमलोगों में से अधिकांश व्यक्तियों में ' श्रद्धा ' का नितान्त आभाव है. { अपनी मनुष्योचित गरिमा ( मैं आत्मा हूँ ) के प्रति अचेत ही रहते हैं.}
आज हमलोग समस्या के बोझ से निढाल युग में वास कर रहे हैं, इसीलिए  ' श्रद्धा ' के महत्व को  समझना और भी ज्यादा आवश्यक है. अभी हमें असंख्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.  गरीबी हटाने की समस्या. शिक्षा की समस्या, कई प्रकार की सामाजिक समस्या, जनसँख्या की समस्या, साम्प्रदायिकता की समस्या, पिछड़ेपन की समस्या, कानून-व्यवस्था की समस्या, राष्ट्रीय एकता की समस्या, देश की सुरक्षा की समस्या, कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण की समस्या, उत्पादन की समस्या, जलवायु प्रदुषण की समस्या, जीवन-समाज-राष्ट्र-दर्शन समस्या, और भी कितनी ही समस्यायें हैं. इस देश में एक और नयी समस्या दिखाई दे रही है- वृद्धावस्था की समस्या. 
  जीवित रहने से समस्या भी बनी रहती है. जहाँ जीवन नहीं है, वहाँ समस्याएँ भी नहीं होती हैं. यदि हमारे जीवन के साथ सूर्य के तापमान का कोई सम्बन्ध नहीं होता, तो उसका तापमान घट रहा है या नहीं ? यह हमारे लीये चिन्ता का विषय भी नहीं होता. जीवन की गति और अभिव्यक्ति में जो बाधा डालता हो, जीवन में विकास करने की संभावनाओं को जो संकुचित करता हो, जीवन के मार्ग पर अग्रसर होते रहने में जिससे बाधाएँ उठ खड़ी होती हो, उसी को समस्या कहते हैं. किन्तु जहाँ जीवन होता है, वहीँ समस्याएँ भी रहतीं हैं.स्वामीजी ने जीवन को इस प्रकार परिभाषित किया
है- ' एक अन्तर्निहित शक्ति अपने को अभिव्यक्त करना चाह रही है, एवं बाहरी परिवेश तथा परिस्थितियाँ उसको मानों दबाये रखना चाहती हैं, उन समस्त परिवेश के दबाव का अतिक्रम करके आत्मविकास करने और आत्मस्वरूप में प्रस्फुटित होने को जीवन कहते हैं.'


  समस्या के ऊपर जब हम चिन्तन करते हैं, तब आमतौर से उसका तात्पर्य सार्वजनिक समस्या से ही होता है. जैसे जनसँख्या की समस्या, या जलवायु प्रदूषण की समस्या आदी, किन्तु क्रमशः समुदाय-विशेष की समस्या भी सामने आ ही जाती है. जैसे गरीबी की समस्या, साम्प्रदायिक या पिछड़ी-जाती की समस्या, किन्तु कोई भी समस्या अन्ततोगत्वा पूरे समाज को ही प्रभावित करती है.
 इसीलिए जब हम किसी समुदाय-विशेष को ध्यान में रखकर, अलग अलग समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते हैं, तो पाते हैं कि अन्तिम रूप -से उस समस्या का कोई विशेष समाधान तो नहीं ही हुआ है, उल्टे उस चेष्टा से के फलस्वरूप एक नयी समस्या उत्पन्न हो गयी है.
इसीलिए किसी समुदाय-विशेष या छोटे-छोटे क्षेत्रों में व्याप्त समस्यायों को हल करने की चेष्टा करने की अपेक्षा क्रमशः बृहत्तर समूह की समस्या ( जिसकी अभिव्यक्ति ही क्षुद्रतर समस्यायों के रूप में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग रूपों में दिखाई देने लगती है.) के प्रतिकार की चेष्टा करना और अधिक वैज्ञानिक और युक्तिपूर्ण है.स्वामी विवेकानन्द इसी पद्धति के पक्षधर थे.
     वर्ग-विशेष की दृष्टि से विचार करने पर, पूर्वोक्त समस्याओं की तुलना में वृद्ध-समुदाय की समस्या में  थोड़ा नयापन है. वृद्ध-समुदाय समाज का स्थायी- समुदाय नहीं हैं.  जो लोग पहले शिशु अवस्था में थे वे ही आगे चल कर तरुण, युवा हुए, वे ही अब वृद्ध हो गए हैं, तथा वृद्धावस्था में उन्हें कुछ समस्याओं के सम्मुखीन होना पड़ रहा है. किन्तु यह समस्या पहले इस देश में नहीं थी.
     यह समस्या आधुनिक भोगवादी समाज कि देन है, उसी सामाजिक-व्यवस्था का अनुकरण करने से ही यह हमारे समाज में भी प्रविष्ट हो गयी है. विशेष तौर से यूरोप के देशों में शिशु-किशोर लोगों की समस्या अब एक नया रूप धारण कर रही है. वहाँ के शिक्षाशास्त्री उस समस्या के प्रति जागरूक भी हो चुके हैं.
 इस उम्र में, वहाँ पाई जाने वाली समस्या हमलोगों के देश में अभी तक खासतौर से यतीम या बिना माँ-बाप के बच्चों में ही पाई जाती थी, किन्तु अब हमारे देश में भी इस उम्र की समस्या पर भी भोगवादी समाज का प्रभाव बढ़ता जा रहा है. किन्तु हमलोग इस विषय को लेकर अभी तक सावधान नहीं हुए हैं,   बालकों एवं युवाओं की समस्या को यदि उचित तरीके से हल करने की चेष्टा नहीं की गयी, तो वृद्ध-समुदाय की समस्याओं को भी कभी हल नहीं किया जा सकेगा.
  पहले के जमाने में माता-पिता या गुरु-जनों के भीतर बच्चों को यथार्थ ' मनुष्य ' ( चरित्रवान मनुष्य) के रूप में गढ़ने के प्रति, एक ललक या उपयुक्त स्नेहमयी-दृष्टि रहती थी, किन्तु अब उनमें बचपन से ही यथार्थ शिक्षा देने के प्रति घोर उदासीनता पाई जाती है, जिसके फलस्वरूप विदेशों में- और अब अपने देश के बच्चों में भी यह आधुनिक-समस्या दृष्टि-गोचर हो रही है. इसका उपयुक्त समाधान न होने से ' युवा- समस्या ' के समाधान के जड़ तक पहुँचना कभी संभव न होगा. 
किसी भी समस्या के समाधान का दो उपाय है. एक है ' उपचार ' और दूसरा है ' निषेध '(रोग-प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि ). किन्तु रोग होने के बाद चिकित्सा करने की अपेक्षा रोग होने से पहले ही रोकथाम कर लेना सदैव बेहतर होता है.
जो समाज किसी समस्या के दिखाई पड़ने के पहले ही, उसकी सम्भाव्यता का पूर्वानुमान करना जानता है, तथा उसके उत्पन्न होने से पहले ही रोकथाम की व्यवस्था करने में सक्षम होता है, वैसे समाज में अनेको समस्याएँ भी दिखाई भी नहीं देती हैं. वर्तमान मुख्य समस्ययाओं का अधिकांश भाग समाज या उसके संचालकों में व्याप्त इसी  दृष्टिहीनता का परिचायक है. 
जब जीवन शुरू होता है, उसके साथ समस्याएँ भी जुड़ी रहती है. और बाल्यावस्था से ही जीवन का प्रारम्भ हो जाता है. उसी समय से यदि सम्भाव्य समस्या का निषेध-मूलक (रोकथाम का उपाय) चेष्टा को व्यव्हार में न अपनाया जाय तो, तो अनगिनत समस्याओं को रोकने उपाय भी नहीं रह जाता.
इसीलिए स्वामीजी ने बचपन से ही यथार्थ शिक्षा दिए जाने पर जोर दिया था.वे कहते थे - ' यदि मेरी कोई सन्तान होती तो मैं उसे जन्म से ही सुनाता- ' तत्वमसि निरंजन :'
{शिशु के विकास के लिए जितना आवश्यक स्नेह-दुलार है, उतना ही आवश्यक है, उसे समयानुकूल उद्बोधन देना । यह नहीं सोचना चाहिए कि बालक क्या समझता है? यह बड़ी भ्रान्ति है । समझने-समझाने के लिए भाषा भी एक माध्यम है; पर वही सब कुछ नहीं, स्नेह-स्पन्दनों और विचार-तरंगों के सहारे मनुष्य अधिक गहराई से समझता है । भाषा भी उसी को स्पष्ट करती है । बालक भाषा न भी समझे, तो भी मूल स्पन्दनों के प्रति बहुत संवेदनशील होता है । अपने मनोरंजन या खीझ की प्रतिक्रिया स्वरूप उसके साथ फूहड़ वार्तालाप नहीं करना चाहिए, उसे सम्बोधन करके प्रबोधन देने का शुभारम्भ इस संस्कार के समय किया जाता हैं, जिसे विचारशीलों, हितैषियों द्वारा आगे भी चलाते रहना चाहिए ।
क्रिया और भावना आचार्य बालक को गोद में लें । उसके कान के पास नीचे वाला मन्त्र बोलें । सभी लोग भावना करें कि भाव-भाषा को शिशु हृदयंगम कर रहा है और श्रेष्ठ सार्थक जीवन की दृष्टि प्राप्त कर रहा है ।
ॐ शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसारमाया परिवर्जितोऽसि ।
 संसारमायां त्यज मोहनिद्रां, त्वां सद्गुरुः शिक्षयतीति सूत्रम्॥ }
' तुमने अवश्य ही पुराण में रानी मदालसा की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी. उसके सन्तान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रखकर झुलाते हुए उसको लोरी सुनाते हुए गाती थी- ' तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप; तुम हो सर्व-शक्तिमान, तेरा है अमित प्रताप.' इस कहानी में महान सत्य छिपा हुआ है- ' अपने को महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे'.. (५/१३८)
स्वामी विवेकानन्द जिस प्रकार वृहत्तर समुदाय के सामग्रिक समस्याओं के समाधान की ओर ध्यान देने के पक्षधर थे, उसी प्रकार वे रोग हो जाने के बाद ' चिकित्सा ' की व्यवस्था करने की अपेक्षा,  रोग होने से पहले ही (उसकी रोकथाम की ) की चेष्टा - ' निषेध ' के भी पक्षधर थे. 
  रोगमुक्त करने की चिक्तिसा-पद्धति में जो मध्यवर्ती लक्षण निर्मित हुए हैं, जिसके कारण ही समस्या दिखाई दे रही है, उसको तोड़ना पड़ता है. किन्तु रोग-प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करने (या रोग-निरोधक उपाय ) करने के लीये - कुछ भी तोड़ना नहीं होता, निर्माण करना होता है.
  स्वामीजी ने हमेशा निर्माण करने के ऊपर ही जोर दिया है, तोड़ने के ऊपर नहीं. समस्या को तोड़ना या मिटाना नहीं, जिस जीवन में समस्या उत्पन्न होती है, उस जीवन का ही उचित ढंग से निर्माण करना चाहिए. यही है स्वामीजी द्वारा प्रदत्त (भ्रष्टाचार आदि ) समस्त समस्याओं के समाधान का मौलिक सूत्र. 
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 जिस प्रकार सार्वजनिक और सामुदाय-विशेष की समस्याओं से वृद्धावस्था और बाल्यावस्था-किशोरावस्था की समस्याओं में एक भिन्नता है, वैसे ही इन दोनों समस्याओं की अपेक्षा युवा-समस्या का वैशिष्ट्य भी कुछ अलग प्रकार का है.
  युवा-समस्या के दो पहलु बिल्कुल स्पष्ट हैं. जहाँ बच्चे या किशोर अपनी समस्याओं से स्वयं पीड़ित रहते हैं, एवं वृद्ध-समुदाय के लोग भी अपनी ही समस्याओं के बोझ तले दबे रहते हैं; वहीँ युवा-समस्याओं का बोझ  केवल युवाओं को ही वहन नहीं करना पड़ता; बहुत बार उस बोझ को उठाने की पीड़ा पूरे समाज को भी सहन करना पड़ती है.
 इसीलिए सभी समुदाय के लोगों के मन में युवा-समस्या के समाधान की चिन्ता बनी रहती है. सभी लोग ऐसा कहते हैं कि उन्हें इस समस्या के बारे में जानकारी है, किन्तु बहुत थोड़े से ही लोग इस समस्या को समझते हैं, तथा इस समस्या के समाधान का उपाय ढूंढ़ पाना तो बहुतों की बुद्धि से परे की बात है.
 इस समस्या का, उद्गम, लक्षण और समाधान- के बारे में युवा-समुदाय के विचार, स्वाभाविक रूप से अन्य-समुदाय के विचारों के साथ मेल नहीं खाते. इस समस्या के समाधान के उपाय के बारे में - समाज और युवाओं के बीच दृष्टिकोण का अन्तर रहने के कारण, आपसी सहयोग के अभाव में इस समस्या का कोई स्थायी-समाधान भी नहीं निकल पाता है, और मन ही मन चलने वाला संघर्ष क्रमशः प्रत्यक्ष स्तर पर दिखाई देने लगता है.  
 जीवन रहने के कारण समस्याएँ भी उत्पन्न होती हैं, और युवावस्था में जीवनी-शक्ति का प्राचूर्य सर्वाधिक होती है. इसीलिए युवा-जीवन में बाधाएँ भी अधिक आती हैं. जीवन को प्रस्फुटित होने में जो बाधक है, उसी को समस्या कहते हैं. इसीलिए युवाजीवन की समस्या यदि सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करती है, तो इसमें आश्चर्य क्या है ! 
युवाजीवन (यौवन का आवेग ) का शक्ति-प्राचूर्य युवाओं को आसानी से धमाकेदार (जोशीला)  बना देता है. किन्तु उनका आक्रोश देख कर समाज शंकित हो जाता है. इसीलिए समाज का हर वर्ग यह चाहता है कि यथा-शीघ्र युवा समस्या का समाधान होना चाहिए.
( तुलसीदासजी कहते हैं- ' ऐसो को जन्मयो जग माहि, पद पाये जासु मद नाहीं ' ) 
आइये यह देखा जाय कि स्वयं युवा-समाज, युवा-समस्या कहने से क्या समझता है ? वे लोग स्वाधीनता चाहते हैं, किन्तु देखते हैं कि समाज उनकी स्वाधीनता को हर कदम पर रोकना चाहता है. वे लोग जो चाहते हैं, उसे वे प्राप्त नहीं कर सकते; जिसके कारण उनके मन में एक प्रकार का विद्वेष उत्पन्न हो जाता है. और जीवन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति की प्रेरणा के साथ जो अक्सर प्रकट होता रहता है-उसमें उनका वह आक्रोष ही प्रकट होता है. तथा वह अक्सर विध्वंश करने के मार्ग पर ही अग्रसर रहता है. अपने आन्तरिक आक्रोष को प्रकट करने के लिये, उनको जो कुछ भी दिखाई देता है, उसे ही वे तोड़ देना चाहते हैं.
 युवा-समुदाय में एक प्रकार की आदर्शवादी मानसिकता रहती है. वे देखते हैं कि समाज में नाइंसाफ़ी या अन्याय (जीवन के हर स्तर पर भ्रष्टाचार ) भरा हुआ है. वे पाते हैं कि समाज के कुछ लोग ( जो निश्चय ही उनसे उम्र में बड़े-बुजुर्ग हैं) उनकी कथनी और करनी में अन्तर रहने पर भी, बड़े निश्चिन्त हो कर अपना  जीवन बिता रहे हैं; जबकि उनके अपने जीवन में अनिश्चयता और मनचाही-वस्तु-प्राप्ति न होने का जो मलाल रहता है, इसीलिए अपनी प्रत्येक समस्या के लिये वे अपने बड़े-बुजुर्ग ( समाज या देश के नेता ) को ही उसका जिम्मेवार मानते हैं.
फलस्वरूप उनके प्रति वे कोई सम्मान नहीं दिखा पाते हैं.वे ऐसा महसूस करते हैं कि समस्त  सामाजिक-अव्यवस्थायें बड़े-बुजुर्गों ( समाज के तथाकथित अभिभावकों ) के द्वारा जानबूझ कर सृष्ट की गयी हैं, इसीलिए उनका आक्रोष समाज की प्रत्येक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने पर उतारू हो जाता है.
   यह समस्या नूतन नहीं है, अनादी है. हाँ कुछ नया जुड़ गया है, वे देखते हैं- उनको रहने का ठिकाना नहीं मिलता, शिक्षा पाने का अवसर अपर्याप्त है, जो आरक्षण तथा प्रतियोगिता के कारण और भी छोटा हो गया है, अर्थोपार्जन का अवसर नितान्त सीमित है, खेल-कूद या मनोविनोद का मौका भी नहीं है. जिससे उनके मन में निराशा उत्पन्न होती है, उसके फलस्वरूप क्रोध उनके मन को आच्छन्न कर लेता है.
     आक्रोष प्रकट होते समय किसी प्रकार के न्याय-अन्याय की परवाह नहीं करता. इसीलिए जो कोई भी व्यक्ति, दल या निहित-स्वार्थी तत्व उनकी व्यथा और आकांक्षा के प्रति थोड़ी सी भी सहानुभूति दिखाते हैं, युवा-वर्ग विवेक-विचार किये बिना- उनके समक्ष अपना आत्मसमर्पण कर देता हैं. इससे दूसरों का स्वार्थ तो सिद्ध हो जाता है, किन्तु उनके अपने जीवन-नदी का प्रवाह रेगिस्तान में सूख जाता है.
अब देखते हैं कि - बड़े-बुजुर्ग लोग युवा-समस्या कहने से क्या समझते हैं? वे सभी युवाओं को उछ्रिन्ख्ल, अक्खड़, ढीठ, असंयमी, आतंक उत्पन्न करने वाला समझते हैं. इसलिए इनलोगों का एक वर्ग इनकी निन्दा करके ही चुप बैठ जाते हैं,
 जबकि कुछ अन्य बड़े-बुजुर्ग इन्हें (युवाओं को ) बाहरी बन्धनों में जकड़ना चाहते हैं. अपने जीवन को अशांति से बचाने के स्वार्थवश वे इनको बलपूर्वक इनको शिक्षित करना चाहते हैं, प्रलेप चढ़ा कर इन्हें शुद्ध करना चाहते है, या लालच देकर युवाओं के क्रोध को शान्त करना चाहते हैं.
 बहुत हुआ तो आधुनिक उदारतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए,  इनकी समस्याओं का समाधान करने के लिए- इनके खेल-कूद का, आमोद-प्रमोद करने का अधिक से अधिक अवसर (इण्डिया-पाकिस्तान क्रिकेट मैच आदि ) प्रदान करते हैं, कम नम्बर लाने से भी परीक्षा में पास कर देते हैं, शिक्षा और कार्यक्षमता न रहने से भी कोई छोटी-मोटी नौकरी की व्यवस्था करते हैं, युवा-समारोह के नाम पर विपरीत लिंग के साथ अप्रतिबन्धित मेलजोल बढ़ाने का अवसर देकर, ' विवाह ' की बाधा को हर प्रकार से समाप्त करने की चेष्टा करते है.
युवा-समस्या वास्तव में क्या है ? - इस बात को समाज और युवा-वर्ग, दोनों में से कोई भी पक्ष समझना ही नहीं चाहता है, यही इस समस्या के बने रहने का मूल कारण है. युवा-अवस्था में जीवन-उर्जा का प्राचूर्य रहता है, इसलिए युवा-जीवन (या यौवन) की असीम उर्जा ही युवा-समस्या का कारण है.
स्वामीजी की परिभाषा के अनुसार जीवन का अर्थ है- ' प्रस्फुटित होना एवं अपने स्वरुप को प्रकाशित करना.' और यदि जीवन को प्रस्फुटित होने के मार्ग में आने वाली बाधा को ही समस्या कहते हैं, तो उस समस्या के समाधान का खोज भी प्रस्फुटन और स्वरुप की अभिव्यक्ति के आधार पर ही करनी चाहिए.
पूर्वोक्त अध्याय में हमने देखा है कि युवा-समुदाय से भिन्न- समाज के बड़े-बुजुर्ग लोगों का एक दल तो केवल इनकी निन्दा ही किया करते हैं, तथा दूसरा दल उनके क्षोभ और क्रोध को, कुछ भोग-लालच दे कर शान्त करने की चेष्टा करते है.किन्तु युवा-आक्रोश को लोभ-लालच के सहारे शान्त करने की चेष्टा, वास्तव में युवाओं के स्वरुप को प्रस्फुटित होने में बाधा ही उत्पन्न करती है,  इसीलिए इसे युवा- समस्या के समाधान का उचित पथ नहीं कहा जा सकता है.
" আর তারা নিজেরা যেটা প্রকাশ করতে চায়, সেটা তাদের কাঁচা সত্তাটা, তাদের পাকা সত্তা নয় | কাঁচা সত্তাটাকে পাকা করা যায় ঐ অপরটির দ্বারা - যেটি হল বিকাশ | বিকশিত সত্তাটি প্রকাশিত হলেই তারা পাবে যথার্থ জীবন | আর সেটাই হতে পারে সমস্যার প্রকৃত সমাধান | " ( যুব সমস্যা ও স্বামী বিবেকানন্দ পেজ ১৩ ) 
 उधर युवा-समुदाय स्वयं जिस ' अन्तस्थ- सत्ता ' (आत्मा )को अभिव्यक्त करना चाहते हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि, वह उनकी कच्ची सत्ता( ' अहं-युक्त बुद्धि) है, उनकी परिपक्व सत्ता ( शुद्ध-बुद्धि या पक्का ' मैं ') नहीं है.
उस कच्ची-सत्ता (अशुद्ध-बुद्धि) को अन्तर्मुखी बना कर, उसे परिपक्व-सत्ता या (शुद्ध-बुद्धि ) में रूपान्तरित कर लेने से ही अपनी अन्तस्थ-सत्ता (आत्मा ) के सच्चे सुख या आनन्द (Bliss) को बाहर अभिव्यक्त करने की जो शक्ति प्राप्त होती है, उसको  विकास कहते हैं. इस विकसित सत्ता (शुद्ध-बुद्धि ) के प्रस्फुटित होने से ही उनको अपना यथार्थ जीवन प्राप्त हो सकेगा. और वही इस युवा समस्या का यथार्थ समाधान हो सकता है.
{ कच्ची-सत्ता (अहंकार) जिन विषयों में सुख पाने की चेष्टा करती है, वे सभी बाहर हैं, अतः उनका मन (चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार सभी) सदैव बहिर्मुखी बना रहता है. मन को बाहर जाने के लिये ९ द्वार हैं, जो बाहर से पुल होने वाले हैं, किन्तु वे नवो द्वार खुल्ले ही रहते हैं, दशम द्वार बन्द है. उसको पुश करने से खुलता है.   अहंकार (ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है, किन्तु स्वयम को ब्रह्म या बृहत समझ कर बड़ा बनने की लालसा (ऐष्णा) से ग्रस्त हो जाता है. वह सदैव जीवित रहने की लालसा से वंश-विस्तार (पुत्र-ऐष्णा), खूब धन कमाने की लालसा से (वित्त-ऐष्णा), सबसे अधिक नाम-यश पाने (वित्त-ऐष्णा) के वशीभूत रहने से उसका मन अत्यधिक चंचल हो जाता है.
यदि इस बन्दर के समान चंचल मन को अभ्यास और वैराग्य के द्वारा अपने वश में रखने का प्रयत्न करने की विद्या न ग्रहण की जाये तो मनुष्य पहले छोटे छोटे गुनाह करने वाला गुनाहगार, फिर लोकलाज खो देने से पापी बन जाता है, ' माँ ' उसकी विवशता को जानती हैं, इसलिए मनुष्य के गुनाहों पर पर्दा डालती जाती हैं, पर जब गुनाहगार लोकलाज खो कर पापी बन जाता है, उसकी बुद्धि जब बिलकुल भ्रष्ट हो जाती है, तब व्यक्ति क़त्ल-डकैती-बलात्कार करने वाला अपराधी बन जाता है.
और संगीन अपराध करने वाले को समाज और कानून फांसी या उम्र-कैद की सजा देता है. जब मन में उठने वाले बुरे विचार -(परधन और परदारा को पाने की लालसा ) तन के तल पर प्रकट हो जाती है, तो उसको अपराध कहते हैं. जेलों में बंद सच्चे अपराधी तो केवल १% होंगे, किन्तु मैं पहले माफ़ी मांग लूँ, मन में दूसरों की आकर्षक वुस्तुओं ( धन-सौन्दर्य ) के बारे में बुरे ख्याल बहुसंख्यक (९९%) लोगों में उठते रहते हैं, किन्तु मन में उठने वाले गुनाह (गंदे-विचारों ) को ठाकुर के सिवा और कोई देख नहीं पाता. 
( एक गुरु ने अपने पाँच शिष्यों को जप-तप की विद्या सिखाने के बाद उनसे गुरु-दक्षिणा में कुछ देने को कहा, सभी बोले आप जो भी आज्ञा देंगे, हम उसे तुरंत पूर्ण करेंगे, महाराज. गुरु ने सबों को एक एक कबूतर दे कर कहा, जितनी जल्दी हो सके तुम इन कबूतरों के सर काट कर ले आओ, पर एक बात का ध्यान रखना उस समय तुम्हें कोई देख न रहा हो. सभी शिष्य एक-दो घंटे में वैसा करके लौट आये, पर एक शिष्य शाम तक भी नहीं लौटा. गुरु ने डांट कर पूछा तू कैसा लड़का है रे, सभी लड़के तो काम पूरा करके कभी लौट आये, पर तुम अब लौटा है ! उस शिष्य ने कहा महाराज मुझे कोई ऐसी निर्जन जगह नहीं मिली जहाँ मुझे कोई नहीं देख रहा हो, ईश्वर या ब्रह्म तो व्यापक हैं, वे सभी जगह मौजूद थे, इसीलिए मैं नहीं काट सका. उसी लड़के ने मनः संयोग करना सीखा था. वह उत्तीर्ण हुआ. ) 
मन के ऊपर उसके संस्कार जमा होते जाते हैं और जन्म जन्मान्तर की कामना-वासना के पहाड़ साथ में लेकर बच्चा जन्म लेता है. क्योंकि शरीर के मरने से मन नहीं मरता वह उन्हें ( चित्त में संचित अपूर्ण वासनाओं
को )पूरा करने के लिये दूसरा जन्म लेता है. यदि पूर्व जन्म में उसने अच्छे कर्म किये हैं, तो उसे इस जन्म में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के प्रशिक्षण शिविर में आकर मनुष्य बनने और चरित्र-निर्माण की शिक्षा प्राप्त होती है.
यहाँ उसे यह समझ प्राप्त होती है कि मनुष्य शरीर को देव-दुर्लभ क्यों कहा जाता है ? शरीर साधन है, इसको स्वस्थ और निरोग रखने का प्रशिक्षण देने के साथ-साथ, मन को अन्तर्मुखी बनाने के लिए मनः संयोग का नियमित अभ्यास करने का प्रशिक्षण भी प्राप्त होता है.
जब वह लालच को कम करते हुए नियमित साधना (प्रार्थना, मनः संयोग, व्यायाम, स्वाध्याय, विवेक-प्रयोग या जप-तप ) करता है, तो उस योगाग्नि की एक चिंगारी से उसकी सारी कामना-वासना के संस्कारों के पहाड़ जल कर खाक हो जाते हैं. और उसका कच्चा मैं ( अहं-युक्त बुद्धि) शुद्ध हो कर पक्का मैं ( खाँटी-सोना या  शुद्ध बुद्धि ) में परिणत हो जाता है. मनःसंयोग का अभ्यास वह ' कृषि-कार्य ' है, जिसके द्वारा  सोने (शुद्ध स्वर्ण रूपी बुद्धि ) जैसी फसल प्राप्त होती है.}
कच्ची-सत्ता (या अहं-युक्त बुद्धि ) का प्रकटीकरण मानो बीज के अंकुर का माटी के ऊपर प्रकट होने जैसा है. जिस प्रकार छोटा सा बीज सख्त मिट्टी को भेद कर अपने अंकुर ऊपर प्रकट करता है, उस समय प्रकट होने की बाधा को वह जिस प्रकार स्वच्छन्द रूप से अतिक्रम करता है, ठीक उसी प्रकार युवा-जीवन भी उसी स्वाच्छ्न्द रूप में समाज के सख्त परिवेश या वातावरण को विदीर्ण करके अपने को प्रकट करेगा. 
इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि, युवा-समस्या का जड़ जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने की समस्या में निहित है. और स्वामीजी सभी मनीषियों की दृष्टि को इसी ओर आकर्षित करना चाहते हैं.
(इसलिए स्वामीजी से जब किसी ने अंग्रेजी में पूछा था- " Swamiji. are you a Buddhist ? तब उन्होंने थोडा मजाकिया लहजे में उत्तर दिया था- " No I am a bud dist ". 
युवा-जीवन में चंचलता, अस्थैर्य, बड़े-बुजुर्गों (समाज के अभिवकों ) के ' कथनी और करनी में ' अन्तर और आत्मीयता के खोखला-पन की प्रतिक्रिया स्वरुप उत्पन्न असहिष्णुता, कर्म-उद्दीपना के साथ बुद्धि की अपरिपक्क्वता, असीम उत्साह, उत्तेजना, समाज से समस्त बुराई, अन्याय को मिटा देने की इच्छा के साथ किसी न किसी एक धुन्धले से ' आदर्श ' के प्रति आस्था भी रहती है.
  युवा लोग स्वाभाव से ही ' अतिवादी ' होते हैं, जो कुछ भी करते हैं अधिक मात्रा में ही करते हैं, जिससे भी प्यार करते हैं, अत्यधिक प्यार करते हैं, जिससे घृणा करते हैं, तब घृणा भी अत्यधिक करते हैं.  जहाँ कहीं बल-प्रयोग करने की जरुरत हो- वहाँ आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग करना- उनका स्वाभाव होता है . यही उनकी विशेषता है, क्योंकि उनकी जीवनी-शक्ति असीम है.किन्तु यही उनकी असफलता का कारण भी है.
चूल्हे में आँच देते समय धुएँ से आँखें जलने लगती हैं, किन्तु रसोई नहीं पकती. आँच जब लहलहा उठती है, और धुआं निकलना बन्द हो जाता है, तभी खाना पकाया जा सकता है.
जीवन का यह काल ही, जीवन-गठन के लिए सबसे उपयुक्त समय है, किन्तु युवा जीवन के ' धुआं निकलने वाले काल ' का अतिक्रमण करना ही समस्या है. और इस  समस्या के समाधान का अर्थ है, जीवन को नियत कार्य के उपयुक्त (योग्य) गठित कर देना.  
उपयुक्त ढंग से गठित ' युवा-जीवन '  ही समाज के सभी वर्ग के लोगों के लिए सभी प्रकार के आहर्य को  पकाने वाला ' ईन्धन ' है . इसीलिए जब तक युवाओं के जीवन रूपी ईन्धन (या संसाधन) को उपयुक्त तरीके से गठित नहीं किया जाता,  तबतक समाज भी पंगु ( या लकवाग्रस्त ) रहने को बाध्य है.
 ' आहर्य ' का अर्थ केवल खाद्य-पदार्थ ही नहीं है, वरन जिसे  आहरण या ग्रहण नहीं करने से जीवन चल ही नहीं सकता हो, उसे ही ' आहार्य ' कहा जाता है. कच्चे अन्न को ग्रहणीय बनाने के लिए अग्नि की आवश्यकता होती है. इसीलिए वेद में अग्नि को ' अन्नपालक ' की संज्ञा दी गयी है.
Agni
अग्निदेव- ऊर्जा के प्रतीक । ऊर्जा, स्फुरणा, गर्मी, प्रकाश से भरे-पूरे रहने, अन्यों तक उसे फैलाने, दूसरों को अपना जैसा बनाने, ऊध्वर्गामी-आदशर्निष्ठ रहने, यज्ञीय चेतना के वाहन बनने की प्रेरणा के स्रोत ।
यह अग्नि कैसी होनी चाहिए ? उपनिषदों में कहा गया है - सर्वदा यविष्ठ ( युवा श्रेष्ठ ) और तेजःसम्पन्न युवा  ही वरण करने योग्य है ! ( ' तैत्तिरीयोपनिषद ' के अष्टम अनुवाक में कहा गया है- युवा स्यात साधुयुवा अध्यायकः आशिष्ठः द्रढीष्ठः बलिष्ठः तस्य इयम वित्तस्य पूर्णा सर्वा पृथिवी स्यात सः मानुषः एकः आनन्दः
- भाव यह है कि- कोई ऐसा मनुष्य जो युवा हो, वह भी ऐसा-वैसा मामूली युवक नहीं- सदाचारी, अच्छे चरित्र वाला, अच्छे कुल में उत्पन्न श्रेष्ठ पुरुष हो, उसे सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा मिली हो, तथा शासन में (अर्थात अन्य ब्रह्मचारियों को भी चरित्र-निर्माण की शिक्षा देने में ) अत्यन्त कुशल हो, उसके सम्पूर्ण अंग और इन्द्रियाँ रोगरहित समर्थ और सुदृढ़ हों, और वह सब प्रकार के बल से सम्पन्न हो. फिर धन-संपत्ति से भरी यह सम्पूर्ण पृथ्वी उसके अधिकार में आ जाय, तो यह मनुष्य के लिए सबसे बड़ा सुख और मानव लोक का सबसे महान आनन्द है.)
 इसलिए अग्नि-स्वरुप, तेजः संपन्न, वरणीय युवा-संप्रदाय ही हर दृष्टिकोण से समाज का अन्नपालक
(अग्नि ) है.  किन्तु यह अग्नि विध्वंश करने वाली अग्नि नहीं है, कार्य-निष्पादन करने के लिए है.
 किन्तु चंचलता और अधैर्य रहने से कार्य-निष्पादन नहीं हो पाता.
जिस प्रकार अग्नि अपनी ज्वालाओं की अद्भुत भास्वर जिह्वाओं से युक्त है, जिसकी चंचल लहलहाती हुई शिखा में सर्वग्रासिता शक्ति रहती है, उसी प्रकार युवा-जीवन में भी यही शक्ति रहती है. इसीलिए अग्नि से प्रार्थना की जाती है-
वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जां पते | सेमं नो अध्वरं यज ||
नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः | अग्ने दिवित्मता वचः ||
(ऋग्वेद संहिता - मण्डल 1 - सूक्त 26)
- ' अध्वरं यज '. हे अग्नि तुम यज्ञ का निष्पादन करो. हमलोगों के दीप्तिमान वचनों द्वारा प्रसन्न हो कर ( ' दिवित्मता वचः ' ) उपवेशन करो (बैठो) स्थिर हो जाओ.
क्योंकि कोई भी शक्ति नियन्त्रित न होने से कार्यकारी नहीं होती है. यज्ञ करना ही यथार्थ कर्म है.जिस कर्म को त्यागपूर्वक क्रियान्वित किया जाता है, उसको ही यज्ञ कहा जाता है. मिथ्या प्रशंसा या चापलूसी भरे वाक्यों युवा-जीवन के आक्रोश को दबाने की चेष्टा से काम नहीं होगा. दीप्तिमान वाक्य चाहिए, जिसके द्वारा अग्निस्वरूप युवा-वर्ग अपनी अन्तर्निहित शक्ति के प्रति जागरूक हो सकें.
{प्रार्थना हुई- ' हे अग्नि, तू ज्योतिर्मय के राज्य में पहुँचाने वाली मध्यस्त कड़ी है- हमारा दूत है. अतेव वे खाद्य तथा पेय पदार्थं, और वे सभी भेंट की वस्तुएं जो उनकी समझ में इन ज्योतिर्मयों को प्रिय हो सकती थी, उसे अग्नि में आहुति देने लगे. यही यज्ञ का प्रारम्भ था . ' ( ७/३३२-३३ )}



५ 
स्वामीजी क्या कह रहे हैं ? ' किन्नाम रोदिसि सखे त्वयि सर्वशक्तिः ' - हे सखे तुम क्यूँ रो रहे हो ? तुम्हारे ही भीतर समस्त शक्तियाँ अन्तर्निहित हैं. इस बात को जान लो एवं उस शक्ति को अभिव्यक्त करो. '   ' लोग कहते हैं- इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो, ' मैं कहता हूँ- ' पहले अपने आप पर विश्वास करो. कहो, ' मैं सब कुछ कर सकता हूँ. '' ' आत्मवैही प्रभवते न जडः कदाचित ' - अपनी शक्ति के बल पर ही सारे काम किये जा सकते हैं, जड़ में कोई शक्ति नहीं होती है. मैं केवल आत्मतत्व की ही चिन्ता ( पर ही चिंतन-मनन) करता हूँ, - जब वह ठीक होगा, तो सब काम अपने आप ठीक हो जायेंगे. (३/३१५)
( आमन्त्रयस्व भगवन भगद स्वरुपम |
कुर्मस्तारकचर्वणम त्रिभुवनमुतपाटयामो बलात, 
किं भो न विजानास्यस्मान - रामकृष्ण दासा वयम !'
वि० सा ० ख० ३/ ३११ ) '
(9,10।28च्) एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्य् अग्निं यमं मातरिश्वानम् आहुः ||28|| (28अथर्व वेद)


  • (10,8।27अ) त्वं स्त्री त्वं पुमान् असि त्वं कुमार उत वा कुमारी||
  • (10,8।27ब्) त्वं जीर्णो दण्ढेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ||27||
(' स्त्री-पुरुष-भेद की जड़ नहीं रखूँगा. अरे, आत्मा में भी कहीं लिंग का भेद है ? न लिंग धर्म कारणं, समता सर्वभूतेषु एतन्मुक्तस्य लक्षणम ' स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा हैं. शरीराभिमान छोड़ कर खड़े हो जाओ. ..हरेक आत्मा में अनन्त शक्ति है.' निर्गच्छति जग्ज्जालात पिंजरादिव केसरी '- जिस तरह सिंह पिंजरा तोड़ कर निकल जाता है, उसी तरह से आत्मा भी शारीर-मन के पिंजरे को तोड़ कर निकल सकता है.)
कहते हैं- ' निराश मत होना, मार्ग बड़ा कठिन है- छुरे की धार पर चलने के समान दुर्गम है; फिरभी निराश न होना, उठो-जागो ! एवं अपने आदर्श में पहुँच जाओ !'
और हमलोग क्या कर रहे हैं? इस प्रकार के दीप्तिमान वाक्य हमलोगों के मुख से कहाँ निकलते हैं ? हमलोग तो उनके चंचल-चित्त के सामने चलचित्र, दूरदर्शन और हानिकारक साहित्य के माध्यम से  जितने भी दौर्बल्य-संचारी भाव, दृश्य, तथा वाक्य हो सकते हैं; वही सब कुछ परोस रहे हैं.
युवा-समुदाय के पास सबल शरीर और सतेज इन्द्रियों के साथ प्रचुर मात्रा में जो जीवनी-शक्ति, मन, बुद्धि, आवेग, ईच्छा, आदि होती हैं - वे इनका सदुपयोग करना नहीं जानते, उलटे इसका दुरूपयोग ही कर बैठते हैं; इसलिए वही इनके लिए समस्या बन जाती हैं. शिक्षा ही इनसबका सदुपयोग करना सिखाती है. किन्तु वैसी शिक्षा हम उन्हें नहीं देते, जैसी शिक्षा दी जा रही है, उससे तो वे लोग इन शक्तियों का और अधिक दुरूपयोग करना ही सीख रहे हैं. जिसका फल क्या होता है ?
हमलोग जीवन भर " शरीर के दास, मन के दास, जगत के दास, एक बड़ाई की बात के दास, एक शिकायत की बात के दास, वासना के दास, सुख के दास, जीवन के दास, मृत्यु के दास- हर वस्तु के दास बने रहते हैं."
दूसरों के ऊपर दोषारोपण करने से इस विषाक्त फल से बचा नहीं जा सकता है.
स्वामीजी कहते हैं- ' कहो, कि मैं अभी जिन कष्टों को भोग रहा हूँ, वह मेरे ही द्वारा किये हुए कर्मों के फल हैं. इसके द्वारा यही प्रमाणित होता है कि ये सारे दुःख-कष्ट मेरे ही द्वारा दूर भी किये जा सकते हैं. 
अनन्त भविष्य तुम्हारे सामने पड़ा है. सदैव याद रखना, तुम्हारा प्रत्येक विचार, प्रत्येक कार्य संचित रहेगा, जिस प्रकार तुम्हारे द्वारा किया गया कोई असत-विचार, और असत कार्य तुम्हारे ऊपर बाघ के जैसा झपट्टा मारने को उद्दत है, उसी प्रकार तुम्हारा सत-चिंतन और सत-कार्य आदि हजारो देवताओं की शक्ति लेकर सदैव तुम्हारी रक्षा करने को तैयार खड़ी हैं."
  "उपाय क्या हुआ ? ' साधू (सदाचारी) बनो, वैसा बन जाने पर तुम्हारे असाधु भाव बिल्कुल चले जायेंगे. इसी प्रकार सारा जगत परिवर्तित हो जायेगा. यही समाज का बहुत बड़ा लाभ है. समग्र मानव-जाती के लिए यही महत्वपूर्ण लाभ है." 
शिक्षा के मौलिक अंग हैं- ब्रह्मचर्य, संयम, सदुपयोगबुद्धि, अनुशासन. किन्तु इन सबकी जड़ है- श्रद्धा. इसीलिए स्वामीजी ने इस ' श्रद्धा ' को ही समस्त समस्याओं के समाधान का सूत्र  कहा है. वे कहते हैं-  " इसी श्रद्धा या अद्भुत विश्वास का प्रचार करना ही मेरे जीवन का व्रत है." 
" तुमलोगों में से जिन लोगों ने उपनिषदों में मनोरम कठोपनिषद का पाठ किया है, उनको नचिकेता की कहानी अवश्य याद होगी. एक राजर्षि एक महायज्ञ अनुष्ठान करके दक्षिणा में अच्छी अच्छी वस्तुओं का दान करने के बदले अतिवृद्ध, किसी भी कार्य के लिए अनुपयुक्त गौओं का दान कर रहे थे. 
देखने की बात यह है कि-  बड़ेबुजुर्गों को अनुचित कार्य करते हुए देखने से, या गुरुजनों के भ्रष्टाचरण को देख कर, आज का युवाओं के मन में भी जिस प्रकार आक्रोष उत्पन्न होता है, और वह जिस प्रकार अपनी शक्ति का सदुपयोग करते हुए, उस अनुचित कार्य को रोकने के लिए उत्तेजित होकर अपना गुस्सा ( क्षोभ ) प्रकट करता है.
स्वामीजी कहते जा रहे हैं- " उसी समय उनके पुत्र नचिकेता के ह्रदय में श्रद्धा प्रविष्ट होती है. इस अपूर्व शब्द का वास्तविक अर्थ को समझ पाना अत्यन्त कठिन है. इस शब्द का प्रभाव (एश्वर्य) और कार्यकारिता  अति आश्चर्यजनक है. 
नचिकेता के ह्रदय में जिस क्षण श्रद्धा जाग्रत हुई, उसके मन में विचार उठा- " मैं कई लड़कों की तुलना में प्रथम श्रेणी का हूँ, कईयों की तुलना में मध्यम श्रेणी का हूँ, किन्तु अधम तो मैं कभी नहीं हूँ. मैं जिस किसी भी कार्य को करने की बात मन में ठान लूँ, उसे अवश्य पूरा कर सकता हूँ. '
इस प्रकार की ' श्रद्धा ' जैसे ही उसके मन में जाग्रत हुई, उसका आत्मविश्वास और साहस बढने लगा. 
 उस समय नचिकेता के मन में जिस समस्या को हल करने की बात उमड़-घुमड़ रही थी, वह मृत्यु की समस्या थी- वह जानना चाहता था कि मृत्यु के बाद क्या होता होगा ? उसके ह्रदय में इसी रहस्य को जानने की प्रबल उत्कंठा हो रही थी. क्योंकि उसके पिता ने कह दिया था- ' जाओ मैं तुम्हें यम को देता हूँ ! अब वह तरुण नचिकेता नवयौवन के उमंग और उत्साह की शक्ति से भर कर, ' मृत्यु के पार ' क्या है ? इसी रहस्य का निपटारा करने को उद्दत हो जाता है.
किन्तु यमराज के घर पहुंचे बिना तो इस समस्या के समाधान का कोई उपाय नहीं था. इसीलिए वे ' यम-सदन ' पहुँच जाते है.हमलोगों में ऐसी ही श्रद्धा रहनी चाहिए. दुर्भाग्यवश भारत से इस श्रद्धा का प्रायः लोप ही हो गया है. हमलोगों की वर्तमान दुर्दशा का यही कारण है. एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य का जो अन्तर दिखाई देता है, वह और कुछ नहीं;  इसी श्रद्धा के तारतम्य के कारण होता है. इसी श्रद्धा के तारतम्य के अनुसार कोई बड़ा होता है, कोई छोटा होता है. 
यही श्रद्धा तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाये. मैं यही श्रद्धा युवाओं के भीतर देखना चाहता हूँ. हम सभी लोगों में ऐसा ही आत्मविश्वास रहना चाहिए. और इसी विश्वास को अर्जन करने का महान कार्य, तुम लोगों के सामने पड़ा हुआ है." 
स्वामीजी केवल इतना ही कह कर रुके नहीं, हमलोगों को इसके साथ ही साथ इस ' श्रद्धा ' से च्युत कराने वाला इसका जो बिल्कुल विपरीत भाव है, जिसके बने रहने के कारण हम किसी मुसीबत या समस्या के सामने आते ही घबड़ा कर भय से कांपने लगते हैं, और समस्या पहले से भी अधिक जटिल प्रतीत होने लगती है. कहा भी गयाहै- ' मुसीबत पड़ने पर घबड़ा जाना सबसे बड़ी मुसीबत है.
' इसीलिए हमें सावधान करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-   " हमलोगों के राष्ट्रिय खून में एक भयानक रोग का बीज प्रविष्ट हो गया है- वह है, हर बात को हँसी में उड़ा देना, ( आत्म-श्रद्धा आदि जैसे जीवन गठन-कारी अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण या गम्भीर विषय को भी हल्के ढंग से लेना, या हँस कर उसका मजाक उड़ा देना ) ' गम्भीरता का आभाव ';  इस दोष को सम्पूर्ण रूप से निकाल बाहर करना होगा. वीर बनो, श्रद्धा-संपन्न बन जाओ, और जो कुछ आवश्यक है, सब प्राप्त हो जायेगा. ( दादा ने मुझे आशीर्वाद दिया था- ' तुम वीर हो, धीर बनो !') अपने देश के ऊपर मैं विश्वास करता हूँ, विशेष तौर पर अपने देश के युवाओं के ऊपर मेरा पूरा विश्वास है. "
स्वामीजी से प्रश्न किया गया था- ' हमलोगों के देश से श्रद्धा का लोप कैसे हुआ, हमलोग (आर्य-जाति के होकर भी ) श्रद्धाहीन कैसे बन गये ?'
उत्तर देते हुए स्वामीजी ने कहा था- ' बचपन से हमारी शिक्षा ही ऐसी रही है. उसमें निषेध और नकार (Negative Education ) का ही प्राबल्य है. हमने यही तो सीखा है कि हम नगण्य हैं, नचीज हैं. कभी भी हमें यह नहीं बताया गया कि हमारे देश में ( भ्रष्ट नेताओं के सिवा- महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, रानी लक्ष्मी बाई, नेताजी सुभाषचंद्र ,भगत सिंह, सुकदेव राजगुरु जैसे) महान योद्धाओं का भी जन्म हुआ है.
कोई भी सकारात्मक आशावादी ( Positive)विचार हमें सिखलाये नहीं जाते. हमें सिर उठा कर और सीना तान कदम से कदम मिलाकर चलना तक नहीं आता. हमें इंगलैंड के पूर्वजों की तो एक एक घटना और तिथि याद हो जाती है, पर, दुःख है अपने देश के अतीत से हम अनभिज्ञ रहते हैं. हम केवल निर्बलता का पाठ पढ़ते हैं. अतः श्रद्धा नष्ट न हो तो क्या हो? " (८/२६९)     
  " यदि पंडितों की शिक्षा-प्रणाली ही ठीक होती, तो श्रीरामकृष्ण क्यों अवतार धारण करते और क्यों पुस्तकीय ज्ञान का उपहास करते ? उनके साथ जिस नूतन जीवन-शक्ति (मौलिक-चिंतन पद्धति- श्रवण-मनन - निदिध्यासन )  का आविर्भाव हुआ, उससे जब हमारी शिक्षा ओतप्रोत हो जाएगी, तब ही सफलता प्राप्त होगी.
 जब तक इस देश में अध्यापन और शिक्षा का भार, त्यागी और निःस्वार्थी व्यक्ति वहन नहीं करेंगे, तब तक भारत को दुसरे देशों के तलवे चाटने पड़ेंगे. तुम क्या यह नहीं जानते कि एक निरक्षर युवक ने अपनी निष्कामता और त्याग के बल से किस तरह तुम्हारे बड़े बड़े दिग्गज पंडितों के छक्के छुड़ा दिए थे ?
एक बार दक्षिणेश्वर के मन्दिर में पुजारी से विष्णु-प्रतिमा का पैर टूट गया. पंडितों की एक सभा हुई उन्होंने पोथी-पुराण और ग्रन्थ देख कर निर्णय दिया कि खंडित मूर्ति का पूजन शास्त्र-विरुद्ध है, और नयी मूर्ति की प्रस्थापना करनी होगी. इस पर काफी वाद-विवाद होने लगा.
अंत में श्री रामकृष्ण बुलाये गए. उनहोंने सब कुछ सुनकर पूछा - ' यदि पति (रासमणि के दामाद ) की टांग टूट जाये, वह यदि अपाहिज हो जाये, तो क्या पत्नी को उसे त्याग देना चाहिए ? ' फिर क्या था ! पंडितों ने यह तर्क ( मौलिक-विचार ) सुना तो मुँह से शब्द नहीं निकला, मूक हो गये और इस सरल कथन के सामने उनके शास्त्र-और ग्रन्थ एक ओर धरे धरे के धरे रह गये. " ( ८/२३२) }    

हमलोगों में ऐसी ही श्रद्धा रहनी चाहिए. दुर्भाग्यवश (हजार वर्षों तक विदेशिओं के गुलाम बने रहने के कारण) भारत से इस श्रद्धा-प्रदान करने वाली शिक्षा का प्रायः लोप ही हो गया है.
" आज हमें श्रद्धा की आवश्यकता है, आत्मविश्वास की आवश्यकता है. बल ही जीवन है, और निर्बलता ही मृत्यु - आत्मश्रद्धा का अर्थ है, - ' हम आत्मा हैं, अजर, अमर, अविनाशी, मुक्त और शुद्ध. फिर हमसे पाप कार्य कैसे संभव है ? असंभव ' इस प्रकार की दृढ श्रद्धा सभी युवाओं में जाग्रत होनी चाहिए. इस प्रकार का अडिग विश्वास हमें मनुष्य बना देता है, देवता बना देता है. पर आज हम श्रद्धाहीन हो गए हैं और इसीलिए हमारे देश का पतन हो रहा है. "  ( ८/२६९)
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 ७ 
मेखला 
युवा-शक्ति ही राष्ट्र-शक्ति है. समाज को उन्नति के शिखर तक ले जाने में केवल युवा-वर्ग ही सक्षम है. और युवाओं की सम्पत्ति है- उनकी तरुणायी, उनकी यौवन-उर्जा !  किन्तु उन्हें इस शक्ति का उपयोग संयम और सदुपयोगबुद्धि के साथ करने की शिक्षा नहीं दी गयी है, इसीलिए वे इस युवा-शक्ति का दुरुपयोग करके बलहीन हो गये हैं. 
तथापि तीक्ष्ण-शक्ति ( Penetrating Power ) से असंभव कार्यों को भी सम्भव किया जा सकता है. जैसे 
" जलशक्ति के तीक्ष्ण प्रवाह का नियन्त्रित सदुपयोग करने से, पत्थल में भी छिद्र करके खनन कार्य सम्पादित किया जा सकता है. " या नदी के तीक्ष्ण जल-प्रवाह पर बांध बना देने से ही सिंचाई और जल-विद्युत् का उत्पादन होना संभव है. 
वैसे ही इस यौवन की तीक्ष्ण-शक्ति का अपने जीवन में सदुपयोग करने के लिए ब्रह्मचर्य और संयम की प्रयोजनीयता होती है. " तुमको यदि कोई अभिशाप देता है, या अपमानित करता है, तो उसको सहो, और उसके प्रति कृतज्ञ होओ. क्योंकि गाली देना, अपशब्द कहना या शाप देना कैसा लगता है, यह दिखाने के लिये उसने मानो तुम्हारे सामने एक दर्पण रख दिया हो, और तुमको आत्मसंयम का अभ्यास करने का एक अवसर प्रदान कर रहा हो. अभ्यास करने का मौका न मिले तो शक्ति का उद्घाटन या प्रस्फुटन भी नहीं हो सकता है. और दर्पण सामने न रहे तो हम अपना चेहरा स्वयं नहीं देख सकते है. "  
( ..तुम्हारे पास तीन चीजें ( 3H ) हैं- १ शरीर (Hand ) २. मन (Head ) ३. ह्रदय (Heart ) या आत्मा ! आत्मा इन्द्रियातीत है. मन और शरीर जन्म और मृत्यु का पात्र है. पर तुम अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हो, पर बहुधा तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो.
जब मनुष्य कहता है- ' मैं यहाँ हूँ ' वह शरीर की बात सोचता है. ..किन्तु जब कोई तुम्हें गाली देता है, या तुम्हारा अपमान करता है, और तुम भीतर से क्रोधित नहीं हो जाते, तब तुम आत्मा हो.') ( १०/४० ) '
शक्ति का दुरूपयोग करना समस्या है, शक्ति का सदुपयोग करना समाधान है. युवा-शक्ति का दुरूपयोग होने  देना या दुरूपयोग होने की सम्भावना का बने रहना - ही समस्या है. इस शक्ति का सदुपयोग करना ही समस्या का समाधान है. यह समाधान हमें संयम, अनुशासन, ब्रह्मचर्य, से प्राप्त हो सकता है.
किसी प्रश्न के उत्तर में स्वामीजी कहते हैं- " किसी एक ही वस्तु को एक प्रकार से व्यव्हार करने का नाम पाप और अन्य प्रकार से व्यव्हार करने का नाम पुण्य है. जैसे इस दीपक की ज्वाला के कारण हमलोग देख पा रहे हैं, और कितने कार्य कर रहे हैं, दीपक का ऐसा सदुपयोग हो रहा है.
अब इसी दीपक के ऊपर हाथ रखो, हाथ जल जायेगा. यहाँ दीपक का व्यव्हार दूसरे ढंग से हुआ. इसीलिए व्यव्हार करने के तरीके के अनुसार ही कोई चीज भली-बुरी बन जाती है. हमलोगों के शरीर और मन के किसी शक्ति का सूव्यव्हार करने का नाम पुण्य है, एवं कूव्यवहार या दुरुपयोग करने का नाम पाप है. " 
" अपवित्र चिन्तन या विचार और कल्पना अपवित्र कार्य करने जैसा ही दोषपूर्ण है. इच्छाओं का दमन करने से सर्वोत्तम फल की प्राप्ति होती है. कामशक्ति (या
कामप्रवृति ) को आध्यात्मिक-शक्ति ( Spiritual power )  में रूपान्तरित करो, किन्तु स्वयं को पौरुषहीन मत बनाओ, क्योंकि वैसा करने से केवल शक्ति की बर्बादी होती है. यह शक्ति जितनी प्रबल रहेगी, इसके द्वारा उतना अधिक कार्य सम्पन्न हो सकेगा."
  " ब्रहचर्यवान व्यक्ति के मस्तिष्क में प्रबल शक्ति- असाधारण ईच्छाशक्ति संचित रहती है. "   
{' महती काम-शक्ति को पशु-सुलभ क्रिया से उन्नत करके मनुष्य शरीर के महान डाईनेमो - ' मस्तिष्क ' में परिचालित करके वहाँ संचित करने पर वह ओजस ( प्रभा मंडल ) अर्थात महान आध्यात्मिक शक्ति में परिणत हो जाति है.
  समस्त जप-ध्यान, प्रार्थनाएं उस पशु-सुलभ काम-शक्ति के एक अंश को ओजस में परिणत करने में सहायता करती हैं और हमें आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती हैं. यह ओजस ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है, और केवल मनुष्य के शरीर में ही इस शक्ति का संग्रह सम्भव है. जिस व्यक्ति की समस्त पशु-सुलभ काम-शक्ति ओजस में परिणत हो गयी है, वही देवता है. उसकी वाणी में शक्ति होती है और उसके वचन जगत को पुरुज्जिवित करते हैं. 
जब तक मनुष्य अपनी सर्वोच्च शक्ति - कामशक्ति को ओज में परिणत नहीं कर लेता, कोई भी स्त्री या पुरुष, वास्तविक रूप में आध्यात्मिक नहीं हो सकता. 
 अतः हमें चाहिए कि हम अपनी महती शक्तियों को अपने वश में करना सीखें और अपनी इच्छा-शक्ति से उन्हें पशुवत रखने के बजाय आध्यात्मिक बना दें. अतः यह स्पष्ट है कि पवित्रता ही समस्त धर्म और नीति की आधारशिला है. (४/८९) }   
" जो ' श्रद्धा ' वेद-वेदान्त का मूलमन्त्र है, जिस श्रद्धा ने नचिकेता को यमराज के मुख में पहुँच कर प्रश्न करने के लिए साहसी बना दिया था, इसी श्रद्धा के बल से जगत चल रहा है. " इसके साथ ब्रह्मचर्य और शिक्षा ओतप्रोत रूप में जुड़ी हुई है. ऋग्वेद के एक सूक्त के देवता ही ' श्रद्धा ' हैं.
अथर्ववेद में प्रार्थना की गयी है -
(6,133।4अ) श्रद्धाया दुहिता तपसो 'धि जाता स्वसा ऋषीणां भूतकृतां बभूव | 
(6,133।4च्) सा नो मेखले मतिम् आ धेहि मेधाम् अथो नो धेहि तप इन्द्रियं च ||4||
अध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप ब्रह्मचारी (विद्यार्थी ) की मेखला से श्रद्धा रूपी कन्या का जन्म होता है,  
और ये ' श्रद्धा ' ही ऋषियों की ' बहिन ' हैं जो उनको उत्कृष्ट मौलिक विचारों ( आविष्कारों ) से परिपूर्ण कर वैश्विक-समाज ( Global society ) को अपने परिवार के रूप में देखने की दृष्टि - ' वसुधैव - कुटुम्बकम ' की ज्ञानमयी दृष्टि प्रदान करतीं हैं. अतेव, हे मेखले ! हमलोगों को चिन्तन-शक्ति दो, हमलोगों को मेधा ( ज्ञानमयी दृष्टि ) प्रदान करो, हमलोगों को तप करने ( कष्ट सहने ) की शक्ति दो, हमलोगों को इन्द्रिय-संयम से उत्पन ओजस शक्ति दो. '

यज्ञोपवीत धारण करने वाले को वेदनिष्ठा अपनानी होती है और वेदनिष्ठा अपनाने वाले शिष्य को ही गुरु ज्ञान देते हैं, उसे ही दीक्षा देते हैं। दीक्षा वह है जो दिशा बताए और दृष्टि प्रदान करे। यज्ञोपवीत धारण करने के बाद गुरु के पास जाने वाले को कर्तव्य की दीक्षा और जीवन की दृष्टि प्राप्त होती है। इस अर्थ में उपनयन में उपनयन का अर्थ दूसरी आँख या नई दृष्टि ऐसा भी हो सकता है।उपनयन संस्कार एक दिव्य संस्कार है। उसके द्वारा मानव को नया जन्म मिलता है यह उसका संस्कार जन्म है। 'जन्मना जायते शूद्राः संस्कारात्‌ द्विज उच्यते'। उपनयन संस्कार अर्थात तेजस्वी जीवन की दीक्षा।
यज्ञोपवीत देते समय बालक को लंगोटी पहनाते हैं। लंगोटी बाँधने का अर्थ है विषय वासना पर काबू रखना। फैली हुई सूर्य की किरणों को बहिर्गोल काँच द्वारा केंद्रित किया जाय तो उससे अग्नि पैदा होती है, उसी तरह विच्छिन्न, बिखरी हुई, स्खलित होने वाली वीर्यशक्ति को बाँधा जाए, संयमित किया जाए तो उससे भी प्रचंड शक्ति निर्माण होती है। लंगोटी का तात्पर्य है कि जीवन में भोग को प्राधान्य न देकर त्याग को प्राधान्य देना, सुख को गले न लगाकर सादगी को आलिंगन करना। सादगी होगी तभी विद्या संपादन हो सकेगी।
 यज्ञोपवीत लेते समय कमर पर मेखला बाँधनी होती है। मेखला बंधन यानी व्रत बंधन, मेखला बंधन यानी जिंदगी में आने वाली मुसीबतों के साथ कमर कसकर संघर्ष करने की तत्परता रखना, मेखला बंधन यानी जीवन के दैवासुर संग्राम में आसुरी वृत्ति विजयी न हो उसके लिए सतत जागृति।-पूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवले }
स्वामीजी कहते हैं- " मनुष्यों के भीतर जो शक्ति काम-प्रवृत्ति में, कामुक-चिन्तन इत्यादि रूपों में प्रकट होती है, उसको संयमित करने पर वह सुगमता पूर्वक ' ओज ' में रूपान्तरित हो जाती है.  
केवल कामजयी ( काम को परास्त करने वाले ) पवित्र नर-नारी ही इस  ओजस-धातू (ओजस रूप में परिणत वीर्य ) को अपने मस्तिष्क में संचित करने में समर्थ होते है.
योगी लोग कहते हैं-  मनुष्य के शरीर में जितनी भी शक्तियाँ अवस्थित हैं, उनसब में सबसे सर्वोच्च शक्ति ओजस है. ऐसे ओजसशक्ति-सम्पन्न पुरुष जो कोई भी कार्य करते हैं, उसमें ही अलौकिक-शक्ति का आविर्भाव दिखाई देता है. "

८ 
राष्ट्रिय शिक्षा-पद्धति    
 " आस्तिक्य- बुद्धि "- को ही श्रद्धा कहते हैं. श्रद्धा की उपलब्धी होने से पहले संयम और ब्रह्मचर्य की शक्ति प्राप्ति होती है, उससे विवेक-शक्ति, मेधा ( श्रुति-धारणसमर्थ बुद्धि ), तपः शक्ति ( प्रयत्न क्षमता ), वीर्य और ओज प्राप्त होते है.
वर्तमान विदेशी  शिक्षा-पद्धति के द्वारा समस्त दुर्लभ गुणों की जननी ' श्रद्धा ' की उपलब्धी करना सम्भव नहीं हैं. गलत ढंग से दी गयी शिक्षा ( केवल पुस्तकीय ज्ञान रटाने वाली ) ' कूशिक्षा ' ही समस्त समस्याओं की जननी है. इसीलिए समस्त समस्याओं का समाधान केवल उपयुक्त शिक्षा अर्जन के बल पर ही संभव हो सकता है. " ऐसी कोई भी समस्या नहीं है जिसका समाधान - ' शिक्षा ' !  मन्त्र के बल पर न किया जा सकता हो ! "
 "..बाल्यावस्था से ही जाज्वल्यमान, उज्ज्वल चरित्र युक्त किसी तपस्वी महापुरुष के सहवास में रहना चाहिए, जिससे उच्चतम ज्ञान का जीवन्त आदर्श सदा दृष्टि के समक्ष रहे. ' झूठ बोलना पाप है '- केवल पढ़ भर लेने से क्या होगा ? हर एक को पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने का व्रत लेना चाहिए, तभी ह्रदय में श्रद्धा और भक्ति का उदय होगा, नहीं तो, जिसमें श्रद्धा और भक्ति नहीं, वह झूठ क्यों नहीं बोलेगा ? " ( ८/ २२८-२३२ )  
' लोग बचपन से ही शिक्षा पाते हैं कि वे दुर्बल हैं, पापी हैं. उनको सिखाओ कि वे सब उसी अमृत की सन्तान हैं- साहसी बनो, सत्य को जानो और उसे जीवन में परिणत करो. चरम लक्ष्य भले ही बहुत दूर हो, पर उठो, जागो, जब तक ध्येय तक न पहुँचो, तब तक मत रुको. ' (२/२०)  
इस यथार्थ ' शिक्षा ' का मूल है - श्रद्धा. इसीलिए श्रद्धा की उपलब्धी कर लेना ही समस्त समस्याओं के समाधान की मूल कुंजी है. युवा-जीवन ही शिक्षा अर्जित करने का सबसे उपयुक्त समय है. उपयुक्त-शिक्षा के फलस्वरूप हमलोगों की उर्जा संवर्धित होकर ओजस के रूप संचित रहती है; जिससे संयम, जीवनी-शक्ति, और कार्य-क्षमता प्राप्त होती है.
 वैसी शिक्षा यदि नहीं मिल सकी तो, युवा-जीवन की तीक्ष्ण-शक्ति ही समस्या बन कर खड़ी हो जाती है. इस शिक्षा को अर्जित करने के लिए अथक-प्रयत्न करना पड़ता है. स्वामीजी ने कहा है- " प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है."
जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य, जीवन की असीम सम्भावना, जीवन की समस्या और समाधान समझने के लिए गहन विचार-शक्ति का होना अनिवार्य है.
यह शक्ति हमें यथार्थ शिक्षा द्वारा ही प्राप्त हो सकती है. स्वामीजी ने कहा है- " शिक्षा देते समय और भी एक महत्वपूर्ण विषय को हमें याद रखना होगा, हमें विद्यार्थियों को किसी प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए, उन्हें स्वयं ही गहन चिन्तन करने को प्रोत्साहित करना चाहिए, शिक्षा इस प्रकार दी जानी चाहिए ताकि वे स्वयम विचार करना सीख जाएँ.
इस मौलिक-चिन्तन करने की क्षमता का आभाव ही भारत के वर्तमान पतनावस्था का कारण है. यदि लडकों को ऐसी शिक्षा दी जाये ( जिससे वे इन्द्रियातीत सत्य को देखने के लिए, भरपूर श्रद्धा अथवा अद्भुत आत्मविश्वास को मौलिक चिन्तन करना सीख कर स्वतः उस सत्य को आविष्कृत करने में समर्थ हो जाएँ जो नित्य, अजर-अमर अविनाशी है,) तभी वे लोग मनुष्य बन सकेंगे, एवं जीवन-संग्राम में आने वाली किसी भी समस्या को स्वयं ही हल करने में समर्थ हो जायेंगे.
" क्या यह कभी सम्भव है कि सृष्टि आदि काल से जिस देश की सन्तान अखिल विश्व को शिक्षा देती आ रही है, केवल इसीलिए मूर्ख बन जायगी कि ( भारत के तत्कालीन वाइसराय लार्ड कर्जन या वर्तमान के कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा को इतना महँगा कर देना चाहते थे मध्यम वर्ग उस शिक्षा से वंचित रह जाये ) लार्ड कर्जन उच्च शिक्षा बन्द कर रहे हैं ? क्या उच्च शिक्षा का अर्थ केवल भौतिक शास्त्रों का अध्यन, और दैनिक उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन कर लेना भर है ? उच्च शिक्षा का उद्देश्य है - जीवन की समस्याओं को सुलझा लेने में समर्थ व्यक्ति बन जाना. और आज के तथा कथित सभ्य देश आज भी जिन समस्याओं में उलझा हुआ है ( जीव-ईश्वर-माया ) उन्ही पर गहन चिन्तन कर रहा है, किन्तु हमारे देश में सहस्रों वर्ष पूर्व ही ये गुत्थियाँ सुलझा ली गयीं हैं. 
" जिस प्रकार लडकों को ३० वर्ष की उम्र तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर सत्य को जानने के विज्ञान की तकनीक या कौशल सीखना होगा, उसी तरह लड़कियों को भी यह तकनीक ( श्रवण-मनन-निदिध्यासन ) सीखनी होगी, आज इस प्रकार की शिक्षा देने में समर्थ योग्य शिक्षकों को प्रशिक्षित करना सबसे बड़ी चुनौती है, जिससे हजारो सिंगी जैसे गृहस्थ युवाओं को प्रशिक्षित किया जा सके. "   
 किन्तु प्रश्न करता ने फिर पुछा- ' पर आज की विश्वविद्यालय की शिक्षा में क्या दोष है ?
  स्वामीजी कहते हैं - " तुमलोग अभी जिस शिक्षा को प्राप्त कर रहे हो, उसमे कुछ गुण अवश्य हैं, किन्तु उसके साथ साथ अनेकों दोष भी हैं. और ये दोष इतने अत्यधिक हैं कि इसका गुण वाला अंश नगण्य हो जाता है.  इस शिक्षा का या किसी भी तरह से दी जाने वाली निषेधात्मक शिक्षा का सबसे पहला दोष तो यह है कि, उनके पास जो भी पारम्परिक ज्ञान रहता है, वह सब नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है.)और यह मृत्यु से भी अधिक भयानक है.बालक स्कुल पहुँच कर पहले यही सीखता है कि - उसका पिता एक मूर्ख है, दूसरी बात उसका पितामह एक सनकी-पागल बुड्ढा है, तीसरा प्राचीन आचार्य-गण जितने भी हैं सारे के सारे ' ढोंगी बाबा ' थे, और चौथी बात उसे यह सिखाई जाती है कि हमारे रामायण, महाभारत, उपनिषद आदि जितने भी शास्त्र हैं- उनमें केवल झूठी बातें भरी हुई हैं. और इस प्रकार वे १६ वर्ष कि उम्र को प्राप्त करने के पहले ही वे एक जीवनी-शक्ति रहित, रीढ़ कि हड्डी से रहित, ' नहीं ' की समष्टि में परिणत हो जाता है. "

' यह शिक्षा ' बाबू ' पैदा करने की मशीन के सिवाय कुछ नहीं है. अगर इतना ही दोष होता, तो भी ठीक था, पर नहीं- इस शिक्षा से लोग किस प्रकार श्रद्धा और विश्वास रहित होते जा रहे हैं ! वे कहते हैं, गीता तो एक प्रक्षिप्त अंश है, वेद (गंड़ड़ीये के ) देहाती गीत मात्र हैं.वे भारत के बाहर के देशों तथा विषयों के सम्बन्ध में तो हर बात जानना चाहते हैं, पर यदि कोई उनसे अपने पूर्वजों के नाम पूछे तो, चौदह पीढ़ी तो दूर रही, सात पीढ़ी तक भी नहीं बता सकते.
..जिसे सदैव इस बात का विश्वास और अभिमान है की वह उच्च कुल में उत्पन्न हुआ है, कभी दुश्चरित्र नहीं हो सकता, उसमें जो उच्च-कुल में उत्पन्न होने का स्वाभिमान और आत्मविश्वास का भाव है, वही उसके विचार और आचरण को सदैव इतना नियंत्रित रखता है कि ऐसा व्यक्ति सन्मार्ग से च्युत होने की अपेक्षा हंसते हंसते मृत्यु का आलिंगन कर लेगा.
इसी तरह राष्ट्र का गौरवमय अतीत राष्ट्र को नियन्त्रण में रखता है,और उसका अधः पतन नहीं होने देता. ..जिनके पास आँखें हैं, वे जानते हैं कि हमारा इतिहास कितना उज्जवल है, और वह देश को किस प्रकार जीवित रख रहा है...पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से हमारे युवकों की बदली हुई विचारधारा और डगमग आत्मविश्वास को ध्यान में रख कर, आज उस गौरवमय  इतिहास को फिर से लिखना होगा,
जिससे पाश्चात्य सभ्यता से चकित और चकाचौंध में भ्रमित हमारे युवक अपने अतीत पर गर्व करना सीखें ...हमें गुरुगृह-वास और उस जैसी अन्य शिक्षा प्रणालियों ( ३ दिवसीय, ६ दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर ) को पुनः जीवित करना होगा. आज हमें आवश्यकता है वेदान्त युक्त पाश्चात्य विज्ञान की, ब्रहचर्य के आदर्श,
और ' श्रद्धा '-जन्य अद्भुत आत्मविश्वास की. ..वेदान्त का सिद्धान्त है कि मनुष्य के ह्रदय में ज्ञान का समस्त भण्डार निहित है- एक अबोध शिशु में भी- केवल उसको जाग्रत कर देने की आवश्यकता है, और यही आचार्य का कार्य है.'    
इस प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करने से यदि युवा-समस्या उत्पन्न होती हो और दिन प्रतिदिन बढती जाती हो, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? स्वामीजी कहते हैं- " सिर में कितनी ही बातें ठूंस दी जाती हैं, जिसको वे सारा जीवन पचा नहीं पाते, बेमतलब, अप्रासंगिक, असंगत, असंबद्ध विचार उनके दिमाग में उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं, इसको शिक्षा नहीं कहा जा सकता है. वेदों में कहे गए कुछ महावाक्यों को ( श्रवण-मनन-निदिध्यासन पद्धति की शिक्षा से ) इस प्रकार आत्मसात कर लेना होगा कि, उनसे हमारा जीवन गठित हो सके, जिसे मनुष्य निर्माण हो, चरित्र गठित हो सके.
यदि तुमलोग केवल पाँच ही भावों ( महावाक्यों ) को हजम करके जीवन और चरित्र इस प्रकार गठित कर सको, तो जिस व्यक्ति ने एक पूरे पुस्तकालय की समस्त पुस्कों को रट कर कंठस्थ कर लिया हो, उसकी अपेक्षा तुम्हारी शिक्षा अधिक हुई है- ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा. "  
हमलोग केवल युवा-जीवन की समस्या ही नहीं, समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार से उत्पन्न समस्त समस्याओं को दूर करने के लिए जब अत्यन्त व्यग्र हो जायेंगे, तब इस प्रकार की यथार्थ- शिक्षा पाने के घोर-आग्रही बन जायेंगे, और स्वामीजी द्वारा बारम्बार कथित अनेकों महावाक्यों में से ५ महावाक्य यथा- १. श्रद्धा ( अद्भुत आत्मविश्वास, ब्रह्मचर्य, सत्यवादिता ) २. भय-शून्यता ३. स्वार्थ-शून्यता ( परार्थपरता )  ४. त्याग और ५. सेवा  इत्यादि को जीवन में आत्मसात करने के लिये चुन लेंगे. 
किन्तु शिक्षा केवल शिक्षार्थी के ऊपर ही निर्भर नहीं करता. " यथार्थ शिक्षा वे ही दे सकते हैं, जिनके पास देने के लिये कुछ हो, क्योंकि शिक्षा प्रदान करने का अर्थ केवल कुछ वाक्यों का उच्चारण कर देना ही नहीं है, यह कुछ विषयों पर सहमती या असहमति व्यक्त कर देना ही नहीं है, शिक्षा प्रदान करने अर्थ है- सारतत्व को संचारित कर देना.
जो व्यक्ति अपने द्वारा कथित बोध-वाक्यों को स्वयं आत्मसात करके पहले अपने जीवन में धारण कर चुके हों, विद्यार्थियों पर केवल उन्हीं की वचनों का असर होता है.  सभी तरह की शिक्षा का अर्थ होता है; आदान-प्रदान - आचार्य प्रदान करेंगे और शिष्य ग्रहण करेंगे. किन्तु आचार्य के भीतर देने योग्य कुछ वस्तु रहनी चाहिए और शिष्य में भी उसे ग्रहण करने की पात्रता रहनी चाहिए, ग्रहण करने के लिये तत्पर रहना चाहिए. " 
आचार्यों में यह सामर्थ्य रहना चाहिए कि वह अपने शिष्यों को देश-कालातीत सत्य के बारे में इस प्रकार कह सके -  " मन और बाह्य प्रकृति की प्रत्येक वस्तु ( नाम-रूप ) देश-काल में हैं और कार्य-कारण के नियम से बँधे हैं. आत्मा सब देश, सब काल, सब कार्य-कारणों से परे है. जो बँधी है, वह प्रकृति है, आत्मा नहीं| ..तुम आत्मा हो, मुक्त और शाश्वत, चिर मुक्त, चिर पवित्र. केवल पर्याप्त श्रद्धा रखो और क्षण भर में तुम मुक्त हो जाओगे. इसलिए अपनी मुक्ति घोषित करो और जो हो, वह बनो !! - सदा मुक्त, सदा पवित्र !. देश, काल, कार्य-कारण को हम माया कहते हैं '. ( १०/२५-२६)
 आचार्य के भीतर वह शक्ति कहाँ से आयेगी ? अथर्ववेद में कहा गया है- " आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारीणम ईच्छते " - आचार्य ब्रह्मचर्यरूपी आध्यात्मिक चर्या के साथ ब्रह्मचारी ( शिक्षार्थियों ) को पाने की कामना करेंगे. वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इस तरह से आदान-प्रदान करने की कोई व्यवस्था नहीं है. कारण के बिना कार्य नहीं होता. युवा-समस्या भी कोई आकस्मिक घटना नहीं है.
 प्रश्न- उस इन्द्रियातीत सत्य को जानने की विशेष शिक्षा पद्धति कौन सी है ?
' हमारे मत में दो प्रणालियाँ है- एक अस्ति-भाव द्योतक या प्रवृत्ति मार्ग है और दूसरी नास्ति-भाव द्योतक या निवृत्ति मार्ग है. प्रथमोक्त मार्ग से सारा विश्व चलता है- गृहस्थ लोग इसी पथ से प्रेम के द्वारा उस पूर्ण वस्तु को पाने का प्रयत्न कर रहे हैं, यदि इस प्रेम की परिधि को अनन्त गुनी बढ़ा ड़ी जाय, हम उसी विश्व-प्रेम में पहुँच जायेंगे. दुसरे पथ में ' नेति ', ' नेति ' अर्थात ' यह नहीं ', ' यह नहीं ' इस प्रकार की साधना करनी पडती है. इस साधना में चित्त की जो कोई तरंग ( गाली या अपमान सूचक शब्द )  मन को बहिर्मुखी बनाने की चेष्टा करती है, उसका निवारण करना पड़ता है.
 अंत में मन (अहम ) ही मानो मर जाता है, तब सत्य स्वयं प्रकाशित हो जाता है. हम इसीको आत्मसाक्षात्कार, समाधि या इन्द्रियातीत अवस्था या पूर्ण ज्ञानावस्था कहते हैं. यह अवस्था विषय (ज्ञेय-ठाकुर ) को विषयी ( ज्ञाता -अहम ) में लीन कर देने से प्राप्त होती है. वास्तव में यह जगत विलीन हो जाता है, केवल ' मैं ' रह जाता है- एकमात्र ' मैं ' ही वर्तमान रहता है. ' (१०/३८४ )
 प्रश्न - आपने जिस अद्वैत-अवस्था के बारे में कहा है, वह क्या केवल आदर्श है, अथवा उसे लोग प्राप्त भी करते है ?
' यदि वह केवल थोथी बात हो, तब तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं. हम जानते हैं कि यह अवस्था ऋषि-मुनियों को उपलब्ध हुई थी, और उसी पद्धति से अनुसरण करने वाले सत्यार्थी को आज भी होती है. उस इन्द्रियातीत सत्य कि उपलब्धी करने के लिये वेदों में तीन उपाय बतलाये गये है- श्रवण, मनन और निदिध्यासन. इस आत्म-तत्व के विषय में पहले श्रवण करना होगा.
श्रवण करने के बाद इस विषय पर विचार करना होगा- आँखें मूंदकर विश्वास न कर, अच्छी तरह तर्क की कसौटी पर कस कर, समझ-बूझकर उस पर विश्वास करना होगा. इस प्रकार आपने सत्य-स्वरुप पर विचार करके उसके निरन्तर ध्यान में नियुक्त होना होगा, तब ( मृत्यु का सामना करते ही ) उसका साक्षात्कार होगा. यह प्रत्यक्षानुभूति ही यथार्थ धर्म है. केवल किसी मतवाद को स्वीकार कर लेना धर्म नहीं है. हम तो कहते हैं यह समाधी या ज्ञानातीत अवस्था ही धर्म है. ' (१०/३८७)
शिक्षा के प्रसंग में स्वामीजी और एक विशेष पक्ष की ओर इंगित करते हैं, जो समस्याग्रस्त युवा-समुदाय को आत्म-श्रद्धा में प्रतिष्ठित होने में सहायक है- " मेरे विचार से मन को एकाग्र रखने में समर्थ बन जाना ही शिक्षा का प्राण है ". " मनरूपी आंतरिक उपकरण को स्वस्थतर (तीक्ष्ण) बना कर, उसको पूरी तरह से अपने वश में ले आओ, यही है शिक्षा का आदर्श. " " जिस शिक्षा के द्वारा इस इच्छाशक्ति के वेग और प्रवाह को अपने आधीन रखा जाता है, और वह फलदायी हो, उसीको शिक्षा कहते हैं. "
अन्यत्र कहते हैं- " जिस ( शरीर रूपी ) रथ के इन्द्रियरुपी घोड़े दृढ़तापूर्वक संयत नहीं रहते, मन रूपी रश्मि (लगाम) भी दृढ़तापूर्वक संयमित नहीं होता, वह रथ अन्ततोगत्वा विनष्ट हो जाता है. " 
आचार्य के भीतर वह शक्ति कहाँ से आयेगी ? अथर्ववेद में कहा गया है- " आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारीणम ईच्छते " - आचार्य ब्रह्मचर्यरूपी आध्यात्मिक चर्या के साथ ब्रह्मचारी ( शिक्षार्थियों ) को पाने की कामना करेंगे. वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इस तरह से आदान-प्रदान करने की कोई व्यवस्था नहीं है. कारण के बिना कार्य नहीं होता. युवा-समस्या भी कोई आकस्मिक घटना नहीं है.
' ईश्वर रूप में सबकी उपासना करो- सारे आकार उसके मन्दिर हैं. बाकी सब कुछ भ्रम है. ' अन्तर्भेदी-दृष्टि प्राप्त कर लो '- हमेशा भीतर की ओर देखो, बाहर (शरीर-M /F ) की ओर कदापि नहीं . ' (९/८९) 
' वेदान्त - ' वेद ' शब्द से बना है, और वेद का अर्थ है ज्ञान. समस्त ज्ञान वेद है और ईश्वर की भाँति अनन्त है. कोई व्यक्ति ज्ञान की कभी सृष्टि नहीं करता. क्या तुमने कभी ज्ञान का सृजन होते देखा है ? ज्ञान का अन्वेषण मात्र होता है- आवृत (सत्य) का अनावरण (उद्घाटन ) होता है. ज्ञान सदा यहीं सामने है, क्योंकि वह स्वयं ईश्वर है. अतीत, वर्तमान, अनागत इन तीनों का ज्ञान हम सब में विद्यमान है. हम उसका अनुसन्धान मात्र करते हैं और कुछ नहीं. ' (९/९०) 
' थोड़ी धूम-धाम हुए बिना भगवान श्रीरामकृष्ण के नाम से लोग कैसे परिचित होंगे, और उनसे प्रेरित
कैसे होंगे ? ..अब लोग उन्हें क्रमशः जानेंगे, तभी तो देश का मंगल होगा. जो देश के मंगल के लिये ही, आविर्भूत हुए हैं, उनको जाने बिना देश का कल्याण किस प्रकार होगा ? उनको ठीक ठीक जन लेने से - ' मनुष्य ' तैयार होंगे. और ' मनुष्य ' यदि तैयार हो गये, तो दुर्भिक्ष आदि को दूर करना फिर कितनी देर की बात है ? ' ( ८/२५१)
 स्वामी विवेकानन्द एक युवक से कह रहे हैं-  " यथार्थ जिज्ञासु के साथ दो रात तक बोलते रहने से भी, मुझे थकान का अनुभव नहीं होता, मैं आहार-निद्रा त्याग कर अनवरत बोलता रह सकता हूँ. या इच्छा होने से हिमालय की गुफा में समाधिस्त हो कर बैठा रह सकता हूँ. किन्तु केवल देश की दशा को देख कर और इसके परिणाम के बारे में सोच कर मैं अधीर हो जाता हूँ. समाधी भी तूच्छ प्रतीत होता है, यहाँ तक कि ' तूच्छं ब्रह्मपदं ' हो जाता है. तुमलोगों की मंगल कामना ही मेरे जीवन का व्रत है ".
सुकरात से लेकर अभी तक जितने भी मनीषी हुए हैं, युवा-वर्ग के लिये सभी के मुख से निन्दा ही सुनाई पड़ती है. किन्तु स्वामीजी के मुख से युवाओं के प्रति एक भी निन्दनीय बात नहीं निकली है. युवाओं के लिये केवल उत्साहवर्धक, प्रेरणादायी दीप्तिमान वाक्य ही निकले हैं, इस युवा वर्ग के प्रति उनमें गहरी सहनुभूति थी. " मेरा कार्य है, तुम लोगों के भीतर इन भावों को जाग्रत कर देना; यदि एक मनुष्य का निर्माण करने के लिये मुझे एक लाख बार भी जन्म लेना पड़े तो मैं उसके लिये भी तैयार हूँ. " आहा ! कैसी लोक-कल्याण की भावना है !   
{ " भाषण से इस देश में कुछ भी न होगा, भाईलोग सुनेंगे, वाह-वाह करेंगे, ताली पीटेंगे, बस और उसके बाद घर जा कर भात के साथ सब हजम कर जायेंगे. पुराने जंग खाए लोहे को ...पहले आग में लाल करना करना होगा, तब कहीं हथौड़ी से पीट कर कोई वस्तु ( मनुष्य ) बनाई जा सकेगी. इस देश में ज्वलन्त जीवन्त उदाहरण दिखाये बिना कुछ भी न होगा. अनेक लडकों की आवश्यकता है, जो सारे इन्द्रिय भोगों को छोड़-छाड़ कर देश के लिये जिवनोत्सर्ग करें. पहले उनका जीवन ( चरित्र ) निर्माण करना होगा, तब कहीं काम होगा. ' ( ८/२५२) '
" पहले भीतर की शक्ति को करके देश के लोगों को अपने पैरों पर खड़ा कर, अच्छे भोजन-वस्त्र तथा उत्तम भोग आदि करना वे पहले सीखें. इसके बाद उन्हें उपाय बता दे कि किस प्रकार सब प्रकार के भोग-बन्धनों से वे मुक्त हो सकेंगे. निष्क्रियता, हीन बुद्धि और कपट से देश छा गया है. क्या बुद्धिमान लोग यह देख कर स्थिर रह सकते हैं ? रोना नहीं आता ?
मद्रास, बम्बई, पंजाब, बंगाल- कहीं भी तो जीवनी शक्ति का चिन्ह दिखाई नहीं देता. तुम लोग सोच रहे हो- ' हम शिक्षित हैं ! ' क्या खाक सीखा है ? दूसरों कि कुछ बातों को दूसरी भाषा में रट कर मस्तिष्क में भरकर, परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सोच रहे हो- हम शिक्षित हो गये ! धिक् धिक्, इसका नाम कहीं शिक्षा है ? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? या तो क्लर्क बनना या एक दुष्ट वकील बनना, , और बहुत हुआ तो क्लर्की का ही दूसरा रूप एक डिप्टी मजिस्ट्रेट की नौकरी - यही न ?
  इससे तुम्हें या देश को क्या लाभ हुआ ? एक बार आँखें खोलकर देख- सोना पैदा करनेवाली भारत-भूमि में अन्न के लिये हाहाकार मचा है !..पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से जमीन खोदने लग जा, अन्न की व्यवस्था कर- नौकरी करके नहीं- अपनी चेष्टा द्वारा पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से नित्य नवीन उपाय का आविष्कार करके ! इसी अन्न-वस्त्र की व्यवस्था करने के लिये मैं लोगों को रजोगुण की वृद्धि करने का उपदेश देता हूँ.(६/१५५)
 हमलोग क्या कर रहे हैं ? बेरोजगारी की समस्या को मिटाने के लिये सबों को प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में खिचड़ी की व्यवस्था जोड़ रहे हैं, या सबों के लिये कोई छोटी मोटी नौकरी का उपाय, नहीं हुआ तो बेरोजगारी भत्ता देने की व्यवस्था कर रहे हैं. जिसके कारण समस्या का समाधान तो हुआ ही नहीं, बल्कि इस प्रकार की शिक्षा में पढ़े-लिखे लड़के भी अब ट्रेन डकैती तक कर रहे हैं, और जितने प्रकार का समाज विरोधी कार्य हो सकते हैं, उन समस्त अनैतिक कार्यों में योगदान कर रहे है.
१०.
स्वामीजी के लिये युवा-वर्ग कोई समस्या नहीं है. युवा शक्ति तो राष्ट्रिय-संपदा है. इसीलिए युवा-वर्ग को तोड़ने की कोई परिकल्पना उनमे नहीं थी. उन्होंने युवाशक्ति को देश की उन्नति और निर्माणकारी योजनाओं में संचारित करना चाहा था. वास्तव में युवा-समस्या के समाधान का यही सबसे उत्कृष्ट मार्ग है.
जैसा श्रीरामकृष्ण कहा करते थे- ' कोलकाता को दूर ठेलना हो तो काशी की ओर अग्रसर होना पड़ता है, काशी की ओर अग्रसर रहने से कोलकाता स्वयं ही दूर होता जाता है.'  इसीलिए स्वामीजी युवा वर्ग का आह्वान करते हैं- " तुमलोगों को अपने भविष्य की जीवन-गति को स्थिर करने यही उपयुक्त समय है, जितने दिनों तक यौवन का तेज बरकरार है, जब तुमलोग कर्म करने से थकते नहीं हो, जबतक तुमलोगों के यौवन का नया और सतेज भाव विद्यमान है, काम में लग जाओ, यही तो समय है. 
भारत के पुनर्निर्माण के लिये आप क्या करना चाहते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वामीजी कहते
हैं- ' मैं युवकों को धर्म-प्रचारक के रूप में प्रशिक्षित करने के लिये- नेतृत्व का प्रशिक्षण देना चाहता हूँ. मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमें से आयेंगे. सिंह की भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे. (४/२६१) '
 युवा-समुदाय राष्ट्र के लिए समस्या नहीं वरन राष्ट्र की शक्ति हैं, स्वामी विवेकानन्द केवल इतना ही नहीं मानते थे, वे यह विश्वास भी करते थे कि देश की समस्त समस्याओं का समाधान केवल युवाओं के द्वारा ही सम्भव होगा.
किसी विराट समाज की किसी समस्या का कोई अकेला समाधान संभव नहीं है. राष्ट्रिय पुनरुत्थान रूपी व्यापक समस्या ने ही स्वामी विवेकानन्द की समस्त विचारों और प्रयास को ग्रास बना लिया था. वास्तव में उनका लक्ष्य था, राष्ट्रिय अभ्युदय.
युवा समस्या का समाधान कोई तथाकथित युवा-कल्याण के लिये अनुष्ठित होने वाले कार्यक्रमों के द्वारा नहीं हो सकता. राष्ट्रिय समस्या से जोड़ कर ही इसका समाधान होना संभव है. इसीलिए स्वामीजी ने उस श्रद्धा सम्पन्न प्रश्न-कर्ता युवक से इसके आगे जो कहा था, उसे आज का समस्या-ग्रस्त युवा-सम्प्रदाय भी सुन
सकते हैं- " मैं तो कहता हूँ, जो कुछ भी हो - तू कुछ कर अवश्य ! या तो किसी व्यापर की चेष्टा कर, या फिर हमलोगों की तरह आत्मनो मोक्षार्थम जगत हिताय च ( अपने मोक्ष के लिये तथा जगत के कल्याण के लिये ) - यथार्थ सन्यास पथ का अनुसरण कर.
यह अंतिम पथ ही निस्सन्देह श्रेष्ठ पथ है, व्यर्थ ही गृहस्थ बनने से क्या होगा ? ..यदि इस श्रद्धा इसी आत्मविश्वास को प्राप्त करने के लिये उत्कण्ठित है तो फिर समय न गँवा ! आगे बढ़, दूसरों के लिये अपने जीवन का बलिदान देकर लोगों के द्वार द्वार जाकर यह अभय-वाणी सुना- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! " (६/ १०६-९)  
" क्या तुम देख नहीं पाते पूर्व के आकाश पर अरुणोदय हो गया है, सूर्य के निकलने में अब और अधिक विलम्ब नहीं है. तुमलोग इस समय कमर कस कर काम में लग जाओ, घर-संसार में फंसने से क्या होगा ? 
इस समय तुमलोगों का कार्य है- सम्पूर्ण देश के कोने कोने में, गाँव गाँव तक जा कर सभी लोगों यह समझा देना कि अब और आलस्य से बैठे रहने से काम नहीं चलेगा, शिक्षाहीन, धर्महीन, वर्तमान पतन के कारणों को उन्हें समझा दो और कहो- ' भाई लोग, उठो ! जागो ! और कितने दिनों तक सोते रहोगे ? ' 
 और सरल भाषा में उनलोगों को व्यवसाय- बाणिज्य, कृषि-कुटीर उद्योग आदि गृहस्थ जीवन के लिये अत्यावश्यक विषयों की जानकारी दो. यदि ऐसा नहीं करते तो तुम्हारे पढने-लिखने को धिक्कार है, तुम्हारे वेद-वेदान्त पढने को भी धिक्कार है. दूसरों के लिये थोडा सा भी कार्य करने से, भीतर की शक्ति जाग उठती है,  ह्रदय में सिंह जैसा बल आ जाता है, तुम लोगों को मैं इतना प्रेम करता हूँ, किन्तु मेरी इच्छा होती है, कि तुमलोग दूसरों के लिये काम करते हुए मर जाओ, मैं यह देख कर खुश हो जाऊं. "       
' प्रश्न- महाराज, ऐसे शिक्षक कहाँ से आयेंगे जो लड़कपन से ही इन बातों को सुनाता और समझता रहे ? ' इसीलिए हम आये हैं, तुम सब इस तत्व को हमसे सीखो, समझो और अनुभव करो. फिर इस भाव को नगर नगर, गाँव गाँव, पुरवे पुरवे में फैला दो. और सबके पास जाकर कहो, ' उठो, जागो और सोओ मत. सारे अभाव और दुःख नष्ट करने कि शक्ति तुम्हीं में है, इस बात पर विश्वास करते ही वह शक्ति जाग उठेगी. यह बात सबसे कहो और साथ ही सरल भाषा में विज्ञान, दर्शन, भूगोल और इतिहास की मूल बातों को सर्वसाधारण में फैला दो. ' ( ६/१४) '
एक पत्र में स्वामीजी कहते हैं- " मुझे कोई भला कहे या बुरा, मैं ने इन युवाओं को संघबद्ध करने के लिये ही जन्म ग्रहण किया है. और केवल इतना ही नहीं, भारत के प्रत्येक नगर नगर में सैकड़ो युवा मेरे साथ सहयोग करने के लिये तैयार है. ये लोग दुर्दमनीय तरंगाकार में भारतभूमि के ऊपर प्रवाहित होंगे, एवं सर्वाधिक दीनहीन और पद-दलित लोगों के द्वार द्वार पर सुख-स्वाछ्न्द्य, नीति, धर्म, और शिक्षा को वहन करके पहुंचा देंगे, यही मेरी आकांक्षा और व्रत है, इसे मैं पूरा करूँगा या मृत्यु को वरन करूँगा. " 

' वे जिन्होंने मेरे बचपन में मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया, जिन्होंने  जीवनभर केवल मेरे लिये सबकुछ किया- मेरे माता-पिता; वे भी चले गये- कहाँ ? हर कोई, हर चीज चली गयी, जा रही है, और चली जायेगी. वे कहाँ चले जाते हैं ? प्रातः कालीन सूर्य जगत के लिये प्रकाश, ताप और हर्ष लता है. वह मन्द गति से यात्रा करता है, शाम को नीचे गहराई में विलुप्त हो जाता है; अगले दीन वह फिर प्रकट होता है- गरिमामय, सुन्दर. और वह है कमल का अद्भुत फूल- सुबह, जब सूर्य की किरणें उसकी बन्द पंखुड़ीयों को स्पर्श करती हैं, वह खुल जाता है और सूर्य ढलने पर पुनः बन्द हो जाता है.  तात्पर्य यह निकला गया कि कुछ ऐसे थे जो आते, चले जाते और पुनरुज्जीवित होकर अपनी कब्रों से उठ खड़े हो सकते थे. यह पहला समाधान था. और इसीलिए सूर्य तथा कमल धर्म के प्रथम प्रतीक हुए.
रात्री में भी चाँद-तारे अपना प्रकाश फैलाते रहते हैं, तब वे जिनसे मैं स्नेह करता हूँ, कहाँ चले जाते हैं? निश्चय ही नीचे तमसाच्छन्न स्थान को नहीं, वरन ऊपर, शाश्वत प्रकाश के राज्य में. यहाँ नये प्रतीक अग्नि हैं, जो अपनी ज्वालाओं की अद्भुत भास्वर जिह्वाओं से युक्त है- पूरे वन को अल्प समय में खा सकते हैं, भोजन पकाने वाली, गर्मी देने वाली, और वन्य पशुओं को दूर भगा देने वाली अग्नि की ज्वाला- यह प्राण दायक, प्राणरक्षक अग्नि और उसकी लपटें - जो सबकी सब ऊपर जाती हैं, नीचे कभी नहीं. यह अग्नि ही है जो उन्हें ज्योति के स्थलों में ऊपर ले जाने वाली है.जिस श्रद्धा अर्थात अद्भुत आत्मविश्वास के बल पर नचिकेता मृत्यु के सामने जाकर, साक्षात् यमराज के सामने खड़े हो गए थे, उसी अपूर्व श्रद्धा के बल से ही स्वामी विवेकानन्द ने भी देश-कल्याण के लिये युवक संप्रदाय को गढ़ने के लिये मृत्यु का आलिंगन किया था, और भारत माता की सेवा में मृत्यु-वरण करने का अनुपम आशीर्वाद युवा-समुदाय के मस्तक पर वर्षित किया था. ऐसी ' मृत्युंजयी- श्रद्धा ' के सामने कोई भी समस्या हल हुए बिना रह ही नहीं सकती.
( हमने देखा है कि नचिकेता के ' मृत्यु के पार ' क्या होता है ?- की समस्या को, स्वयं मृत्यु के देवता यमराज को हल करना पड़ा था. )  
११
युवा--जीवन की सार्थकता  
युवा समस्या कोई सामयिक समस्या नहीं है. जब तक समाज रहेगा, युवा समस्या भी रहेगी. एक युग का युवा-सम्प्रदाय दुसरे युग के युवा-सम्प्रदाय से भिन्न होता है. इसीलिए युवा-समस्या का अत्यान्तिक समाधान किसी भी समय नहीं हो सकता. यह समस्या जिस प्रकार चिरन्तन है, इसके समाधान की चेष्टा भी उसी प्रकार निरन्तर अवश्यम्भावी रूप से चलता रहेगी.
युवा समस्या को देखने के दो पहलु हैं. इनलोगों की समस्या है, इनलोगों को ही भोगना होगा. किन्तु उनकी समस्या से समाज बिल्कुल अछूता नहीं रह सकता. युवा-जीवन की उच्च्रिन्ख्लता और बुद्धि की अपरिपक्क्वता से समाज में भी कुछ समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं.
इन लोगों की समस्या को और भी दो भागों में विभक्त किया जा सकता है. मौलिक या आन्तरिक समस्या तथा  गौण और बाह्य समस्या. बाह्य समस्या के अन्तर्गत शिक्षा, अर्थोपार्जन, प्रतिष्ठा इत्यादि आते हैं. मौलिक या  आन्तरिक समस्या है युवा-जीवन या यौन काल के तीक्ष्ण-शक्ति की समस्या.
जीवन के इस काल-खण्ड में तीक्ष्ण प्राणशक्ति, आवेग, भावाभिव्यक्ति, कर्म, आशा-आकांक्षा इत्यादि अनेक विषयों का अम्बार, संयम और नियन्त्रण का आभाव, आन्तरिक ऐक्य या उद्देश्य की एकमुखिनता, स्पष्ट आदर्श और जीवन लक्ष्य का अभाव, इस उम्र की स्वाभाविक वृत्तियों के भंवर में फंसी मन और इन्द्रियों की विवशता आदि घटक ही - मौलिक या आन्तरिक समस्या के उपादान हैं.
गौण समस्या सामयिक है, इसीलिए विभिन्न समय के हिसाब से, अलग अलग देशों में, विभिन्न रूप लेते रहते हैं, किन्तु इनका समाधान अपेक्षाकृत सहज है, और निष्ठा के साथ सामाजिक प्रयत्न करने से संभव है.
जबकि देश-काल की दृष्टि से विचार करने पर युवा-समुदाय की  मौलिक समस्या चिरन्तन और सर्वत्र समान है.इसका समाधान उतना सहज नहीं किन्तु अधिक महत्वपूर्ण है. और एक बात, बाह्य गौण समस्याएं, समाज के सामूहिक प्रयास से समाधान होने योग्य हैं, किन्तु आन्तरिक मौलिक समस्या ( जिसका समाधान किये बिना युवा समस्या का समाधान जड़ से नहीं हो पाता, और युवा-शक्ति का सदुपयोग सार्वजनिक उन्नति और सार्वजनिक समस्याओं के निराकरण में नहीं हो पाता है. ) का समाधान सामूहिक सामाजिक प्रचेष्टा से हो पाना सम्भव नहीं है. सामूहिक प्रचेष्टा इस विषय में केवल सहायक हो सकती है, किन्तु इसका समाधान व्यक्तिगत प्रचेष्टा के उपर निर्भर करता है.
स्वामी विवेकानन्द युवा-वर्ग द्वारा सृष्ट समस्या की ओर दृष्टिपात करने की भी जरुरत नहीं समझते. गौण समस्याओं के समाधान की ओर समय समय पर केवल कुछ कुछ संकेत मात्र किये हैं. किन्तु मौलिक, आंतरिक और चिरन्तन युवा समस्या के रहस्य को उद्घाटित करते हैं, ताकि युवा-सम्प्रदाय का प्रत्येक युवा व्यक्तिगत तौर पर इस समस्या का समाधान करके, जीवन के यथा उपयुक्त विकास और प्रकास के माध्यम से अपने अपने जीवन के सम्भावना को प्रस्फुटित कर सके, और युवा जीबन की नियंत्रित शक्ति की सहायता से, सार्वजनिक समस्याओं के समाधान में सक्रीय हो कर सर्व जनों के कल्याण साधन करते हुए अपने जीवन को सार्थक कर सकें, स्वामीजीने उसी का पथ दिखाया है. 
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পুজ্য় শ্রীনবনীহরন মুখোপাধ্যায় লিখিত- " যুব সমস্যা ও স্বামী বিবেকানন্দ "  মহামন্ডল পুস্তিকার হিন্দী অনুবাদ :
            

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

स्वामी विवेकानन्द का नव-वेदान्त

स्वामी विवेकानन्द ने १ फरवरी, १८९५ को न्यूयार्क से कुमारी मेरी हेल को लिखित एक पत्र में कहा था- " मेरे पास विश्व को देने के लिए एक संदेश है, जिसे मैं अपनी ही शैली में दूंगा. मैं अपने संदेश को न तो हिन्दू धर्म, न ईसाई धर्म, न संसार के किसी और धर्म के साँचे में ढालूँगा, बस. मैं केवल उसे अपने ही साँचे में ढालूँगा." (वि० सा० ख० ३/३८०)
वह संदेश क्या है ? अपने उस संदेश के सार को प्रस्तुत करते हुए, अपने ७ जून, १८९६ को Miss Margaret Noble ( सिस्टर निवेदिता ) को लिखित पत्र में कहते हैं- " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना."  
उद्भव स्थान 
' Man is essentially divine ! '  ' प्रतेक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! ' हजारों वर्ष पूर्व यह सत्य भारत में ही उद्घाटित हुआ था. उस युग को हमलोग वैदिक युग के नाम से जानते हैं. अतः वेदों को ही इस उत्कृष्ट-धारणा का प्रथम उद्भव-स्थान स्वीकार किया जाता है. २५ फरवरी, १९०० को ओकलैंड में दिये गये व्याख्यान में वेद-वेदान्त को परिभाषित करते हुए स्वामीजी कहते है- " वेदों से आशय किन्हीं ग्रंथों का नहीं है. उनका अर्थ है आध्यात्मिक नियमों का संचित कोष, जिनकी खोज विभिन्न व्यक्तियों ने विभिन्न कालों में की."
सम्बद्ध तर्क-विचार पूर्वक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि, यदि भारत में ' ऋषि ' नाम से विख्यात कुछ महान चिन्तकों के द्वारा अध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धी की जा सकती है, तो इस सत्य की उपलब्धी जगत के अन्य स्थानों में रहने वाले लोगों को भी अवश्य होनी चाहिए. स्वामीजी कहते हैं- ' हम देखते हैं कि यह अन्तःस्फुरण ही धर्म का एकमात्र मूल स्रोत है...अगर कभी किसी एक व्यक्ति को दैवी प्रेरणा (अन्तःस्फुरण या आत्मसाक्षात्कार ) मिली है, तो विश्व के हर व्यक्ति को प्रेरणा मिलने की सम्भावना है, और यही धर्म है. ' (वि० सा० ख० २/२७४ )' हम सभी विकास की प्रक्रिया के मध्य हैं. इस दृष्टि से एक आदमी दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ नहीं है. ' (९/१६१)
तथापि कुछ ऐतिहासिक कारणों से यह भारत का भाग्य था कि, सर्व-प्रथम वही इस सत्य को आविष्कृत करे. और केवल आविष्कृत ही नहीं करे बल्कि सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाने के लिये, विश्व भर में इसका प्रचार भी करे. ऋग-वेद कहता है- ' कृण्वन्तो विश्वमार्यम ' (९.६३.५) तथा सहस्राब्दियों से अनेकों उत्थान-पतन के मध्य से गुजरते हुए भी यह हमारी मातृभूमि का ही गौरव है कि वह निरन्तर पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित करने की साधना में निरत रही है.
वस्तुतः वेद विश्व के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ हैं. कोई नहीं जानता कि वे कब लिखे गये और किसके द्वारा लिखे गये. ' विद ' धातु का अर्थ है जानना. वेदान्त नामक ईश्वरीय ज्ञानराशि ऋषि नामधारी आध्यात्मजगत के वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत हुई है. ऋषि शब्द का अर्थ है मन्त्र-द्रष्टा, पहले ही से वर्तमान ज्ञान को उनहोंने प्रत्यक्ष किया है. पहले वैदिक साहित्य को सदियों तक याद करके कंठस्थ कर लिया जाता था, और सुरक्षित रखा जाता था, बहुत बाद में इसको लिख कर रखा जाने लगा.
यह वेद नामक ग्रंथराशि मुख्यतः दो भागों में विभक्त है- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड, संस्कार पक्ष और आध्यात्म पक्ष.कर्मकाण्ड में नाना प्रकार के याग-यज्ञों की बातें हैं; उनमें से अधिकांश का आज कोई उपयोग नहीं होता. कर्मकाण्ड का प्रधान भाव है- साधारण व्यक्ति के कर्तव्य (४ पुरुषार्थ-धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष) को जानना एवं मनुष्य जीवन के ४ आश्रमों- ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी तथा सन्यासी के भिन्न भिन्न कर्तव्यों का पालन जिन्हें अब भी थोडा बहुत माना जा रहा है. 'ज्ञान-काण्ड ' में आध्यात्मिक ज्ञान या शास्वत सत्यों को संचित किया गया है, अतः वे सदैव प्रासंगिक बने रहते हैं. (५/२०)
मुख्य रूप से इनको उपनिषदों में संचित रखा गया है. आगे चल कर समस्त उपनिषदों से आध्यात्मिक तत्वों के सारांश-सुमन को छन्दों में संग्रहित करके गीता रूपी सुन्दर माला ग्रथित हुई है. महाभारत के भीष्मपर्व के २५ से ४२ की भगवद्गीता में श्लोक-संख्या ७०० है. गीता सार्वजनीन धर्मग्रंथ है. 
व्यास देव रचित वेदान्त-सूत्र एक दूसरा ग्रन्थ है जिसमें इस दर्शन को सारगर्भित ढंग से विविध उद्धरणों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है.इन तीनों- उपनिषद, गीता और वेदान्त-सूत्र को एकसाथ मिला कर ' प्रस्थान-त्रय ' कहा जाता है. पारंपरिक रूप से इस दर्शन को ' वेदान्त-दर्शन ' कहा जाता है, जिसमें अन्य सभी दर्शनों के, विशेष तौर से ' योग-दर्शन ' की अच्छी बातों को भी समाहित किया गया है. तथा इस ' वेदान्त-दर्शन ' को ही सनातन धर्म का मुख्य अधिकारी दर्शन माना जाता है.
लक्ष्य तक पहुँचने के तीन सोपान 
 किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यह ' वेदान्त-दर्शन ' ही एकमात्र वैसा दर्शन है, जिसे मनीषियों ने क्रमानुसार व्यवस्थित ढंग से विकसित किया है. उल्टे यह कुछ आध्यात्मिक-सत्यों के आविष्कारक ऋषियों द्वारा स्वतःस्फूर्त कथनों का संग्रह है. इतिहास के बाद वाले काल-खंड में इसी प्रस्थान-त्रय को प्रमुख आधार मानकर  दर्शन की कई शाखायें विकसित हो गयीं हैं.
उनमें से तीन मतवाद- द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत-वाद  ऐसे मतवाद हैं जो सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं. ये तीनों मतवाद पहले एक दूसरे के साथ सामंजस्य नहीं बना पाते थे, प्रत्येक मतवाद यह दावा करता था कि वेदान्त के ऊपर केवल उसकी अपनी व्याख्या ही एकमात्र सत्य है. 
श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने नवीन ढंग से इनकी व्याख्या करते हुए कहा - ये सभी मार्ग सत्य हैं क्योंकि एक ही सत्य को विभीन्न दृष्टिकोण से देखते हैं, तथा पहले अपने को दूसरों से बिल्कुल पृथक समझने का जो भ्रम हम सबों में विद्यमान था, उन्हें क्रमशः दूर करते हुए, ये सभी मत हमलोगों को विश्व के एकत्व को अनुभूत करने वाले एक ही लक्ष्य तक पहुंचा देने में समर्थ हैं. 
अति संक्षेप में कहा जाय तो द्वैतवाद के अनुसार जीव-जगत और ईश्वर सभी एक दूसरे से पृथक हैं. ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं, वे ही इस जगत की सृष्टि-कर्ता, पालन-कर्ता और संहार-कर्ता हैं. विशिष्टाद्वैत में यह माना जाता है कि अस्तित्व की प्रत्येक वस्तु चाहे वह कितनी भी क्षुद्र क्यों न हो, उस पूर्ण का अंश है जो पूर्ण है या ईश्वर है. अद्वैत दर्शन दृढ़ता से यह घोषित करता है कि केवल ब्रह्म या ईश्वर का ही अस्तित्व है. अज्ञान के कारण ही हमलोग जीव और जगत को ईश्वर से भिन्न देखते हैं. 
समस्त जगत को ब्रह्मस्वरूप देखने की प्रेरणा देते हुए और अपने गुरुदेव द्वारा उद्धृत सूत्र ' दया नहीं सेवा ' की व्याख्या करते हुए विवेकानन्दजी कहते हैं- " किसी पर दया न करो. सबको अपने समान देखो. अपने को असाम्य रूप आदिम पाप से मुक्त करो. हम सब समान हैं और हमें यह न सोचना चाहिए, ' मैं महान हूँ और तुम बुरे हो इसलिए मैं तुम्हारे पुनरुद्धार का प्रयत्न कर रहा हूँ.' साम्य-भाव में स्थित रहना मुक्त पुरुष का लक्षण है. केवल पापी ही पाप देखता है. मनुष्य को न देखो, केवल प्रभु को देखो..शरीर के बंधन से मुक्ति प्राप्त करो. 
देह-बुद्धि से आसक्त न होना और भविष्य में दूसरा शरीर धारण करने की वासना को त्याग देना. उनलोगों के शरीर से भी प्रेम न करो और न उनके शरीर की इच्छा करो, जो हमें प्रिय हैं. जबतक हम शरीर-बुद्धि से मुक्त होना नहीं सीख लेते, हमें उसे रखना ही होगा.हमें शरीर से तादाम्य भाव न रखना चाहिए, अपितु उसे केवल एक साधन के रूप में देखना चाहिए, जिसका उपयोग पूर्णता प्राप्त करने में किया जाता है. 
श्रीराम भक्त हनुमान जी ने इन शब्दों में अपने दर्शन का सारांश कहा - 
देह्बुद्ध्या तु दासोअहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः |
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः || 
' मैं जब देह से अपना तादात्म्य करता हूँ तो मैं आपका दास हूँ, आपसे सदैव पृथक हूँ. जब मैं अपने को जीव समझता हूँ तो मैं उसी पूर्ण ब्रह्म या दिव्य प्रकाश की चिनगारी हूँ. जो कि तू है. किन्तु जब अपने को आत्मा से तदाकार करता हूँ तो मैं और तू एक हो ही जाते हैं. " (६/२६७-६८)    
' तब भी इष्ट-निष्ठा विशेष रूप से आवश्यक है. भक्तश्रेष्ठ हनुमान ने कहा है- 
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि |
तथापि मम सर्वस्वं रामः कमल लोचनः || 
-' मैं जानता हूँ, जो परमात्मा लक्ष्मीपति हैं, वे ही जानकीपति हैं, तथापि कमललोचन श्रीराम ही मेरे सर्वस्व हैं ' (५/२४९) उसी प्रकार ईसामसीह भी ईश्वर को कभी कभी अपना स्वर्गस्थ-पिता कहते हैं, फिर कभी कहते
हैं ' स्वर्ग का राज्य तुम्हारे ह्रदय मे है. ' फिर वे भी कहते हैं- ' मैं और मेरा पिता एक हैं '.   
{" जगत दो हैं जिनमें हम बसते हैं- एक बहिर्जगत और दूसरा अंतर्जगत. खोज पहले बहिर्जगत में ही शुरू हुई. परन्तु उससे भारतीय मन को तृप्ति नहीं हुई. अनुसंधान के लिये वह और आगे बढ़ा..खोज अन्तर्जगत में शुरू हुई, क्रमशः चारों ओर से यह प्रश्न उठने लगा- ' मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का क्या हाल होता है?
' अस्तीत्यैके नायमस्तीति चैके ' (कठ० उ० १/१/२०) 
--' किसी किसी का कथन है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है, और कोई कोई कहते हैं कि नहीं रहता; हे यमराज ! इनमें कौन सा सत्य है ? '
समस्या के समाधान के लिये भारतीय मन ने अपने में ही गोता लगाया, तब यथार्थ उत्तर मिला. वेदों के इस भाग का नाम है उपनिषद या वेदान्त या आरण्यक या रहस्य !.यहाँ हम देखते हैं, उपनिषदों के वीर तथा साहसी महामना ऋषि निर्भय भाव से बिना समझौता किये ही मनुष्य जाति के लिये ऊँचे से ऊँचे तत्वों की घोषणा कर गये हैं, जो कभी भी प्रचारित नहीं हुए. श्रुतियों के ये सार्वभौम सत्य, वेदान्त के ये अपूर्व तत्व, अपनी ही महिमा से अचल, अजेय और अविनाशी बनकर आज भी विद्यमान है. हे हमारे देशवासियो, मैं उन्हीं को तुम्हारे आगे रखना चाहता हूँ. "   
" आजकल हम लोग प्रायः एक विशेष भ्रम में पड़ जाते है. वेदान्त कहने से हम केवल अद्वैतवाद समझ लेते हैं..यदि भारत के सभी धार्मिक पन्थों का अध्यन करना है तो वर्तमान समय में प्रस्थान-त्रय को पढना सभी संप्रदाय वालों के लिये आवश्यक है. सबसे पहले हैं श्रुतियाँ अर्थात उपनिषद, दूसरे हैं व्याससूत्र जो अपने पहले के दर्शनों की समष्टि तथा चरम परिणति स्वरुप होने के कारण इतर दर्शनों से बढ़ कर समझे जाते हैं. पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि ये दर्शन एक दूसरे के विरोधी हों; बल्कि वे एक दूसरे के आधार स्वरुप हैं- मानो सत्य की खोज करनेवाले मनुष्यों को सत्य का क्रम-विकास दिखलाते हुए, व्यास-सूत्रों में उनकी चरम परिणति हो गयी है.
व्यास-सूत्रों में वेदान्त के अद्भुत सत्यों को क्रमबद्ध किया गया है तथा उपनिषदों एवं व्यास-सूत्रों के मध्य में वेदान्त की दिव्य टीका के रूप में गीता वर्तमान है. अतः भारत का प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय - चाहे वह द्वैतवादी, अद्वैतवादी या वैष्णव हो- उपनिषद, गीता तथा व्यास-सूत्र को प्रमाणिक ग्रन्थ मानता है. "  (५/२८५-२८७)
" जिस किसी ने एक नवीन संप्रदाय की नींव डाली है, उसने इन्हीं तीन प्रस्थानों को आधार बना कर एक नये भाष्य की रचना की है. अतः वेदान्त को उपनिषदों के किसी एक ही भाव में - द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद या अद्वैतवाद के रूप में आबद्ध कर देना ठीक नहीं है.एक अद्वैतवादी को अपना परिचय वेदान्ती कहकर देने का जितना अधिकार है, उतना रामानुज-संप्रदाय के विशिष्टाद्वैतवादी (भक्तिवेदान्त-सूत्र के रचयिता ' राम ब्रह्म परमारारथ रूपा ' कहने वाले ) को भी है. हिन्दू शब्द का अर्थ ही वेदान्ती है. तुम कदापि यह विश्वास न करो कि अद्वैतवाद के आविष्कारक आचार्य शंकर थे. मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि ये सब मत एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं.
हमारे षड्दर्शन महान तत्व के क्रमिक उद्घाटन मात्र हैं, जो संगीत कि तरह धीमे स्वरवाले पर्दों से उठते हैं, और अंत में समाप्त होते हैं, अद्वैत की वज्र-गम्भीर ध्वनि में. अद्वैतवादी कहते हैं, अस्तित्व केवल इसी अनन्त का है और नामरूप आदि जितने हैं सब माया है. नाम और रूप हटा दो तो तुम और हम सब एक हो जायेंगे.' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति - सत्ता एक ही है, परन्तु मुनियों ने भिन्न भिन्न नामों से उसका वर्णन किया है.' --हमारे राष्ट्रिय चरित्र-निर्माण का मूल मन्त्र यही है, इसे अपने जीवन में उतार लेने से ही हमारे राष्ट्र की समग्र जीवन-समस्या का समाधान हो जायेगा. इस अत्यन्त अद्भुत भाव का प्रचार हमें अभी दुनिया तक भी पहुँचा देना है.      
उपनिषदों का उद्देश्य चरम एकत्व के आविष्कार की चेष्टा है, और विभिन्नता में एकत्व का आविष्कार ही ज्ञान है. दृश्य जगत के नाम और रूपों में हजारों-हजार वैभिन्न्य देख रहे हैं, जड़ और चेतन भेद है, सभी चित्त-वृत्तियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं, जहाँ कोई रूप दूसरे से नहीं मिलता, जहाँ प्रत्येक वस्तु अपर वस्तु से पृथक है, उसमें भी एकत्व का आविष्कार करने का हमारा उद्देश्य कितना कठिन है ! 
उपनिषदों का प्रायः प्रत्येक अध्याय द्वैतवाद या उपासना से आरम्भ होता है. पहले शिक्षा दी गयी है कि ईश्वर मानो प्रकृति के बाहर है, वही हमारा उपास्य है, वही शासक है. आगे चल कर वे ही आचार्य बतलाते हैं कि ईश्वर प्रकृति के बाहर नहीं, नहीं बल्कि प्रकृति में अंतर्व्याप्त हैं. अंत में ये दोनों भाव छोड़ दिये गये हैं, और जो कुछ है सब वही है - कोई भेद नहीं. ' तत्वमसि श्वेतकेतो ' - हे श्वेतकेतु, तुम वही (ब्रह्म ) हो ! " (५/२८९)                        " अधिकांश पंडित, लगभग ९८ % , इस मत के पोषक हैं कि या तो अद्वैतवाद सत्य है, अथवा विशिष्टाद्वैतवाद अथवा द्वैतवाद; वाराणसी धाम के किसी घाट पर जाकर यदि तुम पाँच मिनट के लिये बैठो, तो तुम देखोगे कि इन भिन्न भिन्न सम्प्रदायों का मत लेकर लोग निरन्तर लड़-झगड़ रहे हैं. इस परिस्थिति में एक ऐसे महापुरुष (श्रीरामकृष्ण परमहंस ) का जन्म हुआ जिनका जीवन उस सामंजस्य की व्याख्या था, जो भारत के सभी सम्प्रदायों का आधारस्वरूप था और जिसको (प्रस्थान-त्रय को ) उन्होंने कार्यरूप में परिणत कर दिखाया. 
पंचेंद्रियों में फँसा हुआ जीव स्वभावतः द्वैतवादी होता है. जब तक हम पंचेंद्रियों में पड़े हैं, तबतक हम सगुण ईश्वर ही देख सकते हैं.रामानुज कहते हैं, ' जब तक तुम अपने को देह, मन या जीव (M /F ) सोचोगे तबतक तुम्हारे ज्ञान की हर क्रिया में जीव, जगत और इन दोनों के कारण स्वरुप ' वस्तुविशेष ' का बोध बना रहेगा.' परन्तु मनुष्य के जीवन में ऐसा भी समय आता है, जब शरीर-ज्ञान बिल्कुल चला जाता है, जब मन भी क्रमशः सूक्ष्मानुसूक्ष्म होता हुआ आत्मा में लीन हो जाता है (मन मर जाता है), जब देहाध्यास में डाल देने वाली भावना, मृत्यु का डर और दुर्बलता सभी मिट जाते हैं. तभी - केवल तभी उस प्राचीन महान उपदेश की सत्यता समझ में आती है. वह उपदेश क्या है? 

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: ।
                   निर्दोषं हि समं ब्रह्रा तस्माद् ब्रह्राणि ते स्थिता: ।। ( गीता ५/१९ )
  जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा (ब्रह्म ) में ही स्थित हैं ।।19।। 

 The living entity, by accepting his material existence, has become situated differently than in his spiritual existence. But if one understands that the Supreme is situated in His Paramātmā manifestation everywhere, that is, if one can see the presence of the Supreme Personality of Godhead in every living thing, he does not degrade himself by a destructive mentality, and he therefore gradually advances to the spiritual world. The mind is generally addicted to sense gratifying processes; but when the mind turns to the Supersoul, one becomes advanced in spiritual understanding. ) (५/२३९-४०) 
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ब्रह्म की दो अवस्था 
लक्ष्य तक पहुँचने के तीन सोपानों पर चर्चा करते हुए - ' विवेकानन्द साहित्य ' की भूमिका में सिस्टर निवेदिता लिखती हैं- ' प्रगति दृश्य से अदृश्य की ओर, अनेक से एक की ओर, निम्न से उच्च की ओर, साकार से निराकार की ओर होती है, किन्तु विपरीत दिशा में कदापि नहीं...द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं, जिनमें अंतिम अद्वैत ही लक्ष्य है. इस सिद्धान्त का यह एक और भी महान तथा अधिक सरल अंग है कि ' अनेक और एक ' (the Many and One ) विभिन्न समयों पर विभिन्न वृत्तियों में मन के द्वारा देखे जानेवाला ' एक ' ही तत्व है.' 
वे आगे कहतीं हैं- ' यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य हैं, तो केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, वरन सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के सभी प्रकार, सर्जन के सभी प्रकार भी, सत्य-साक्षात्कार के मार्ग हैं. अतः लौकिक और धार्मिक ( Sacred and Secular ) में अब आगे कोई भेद नहीं रह जाता. कर्म करना ही उपासना करना है. विजय प्राप्त करना ही त्याग करना है. स्वयं जीवन ही धर्म है. प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना (प्रवृत्ति-मार्ग ) उतना ही कठोर न्यास है, जितना कि त्याग करना और विमुख होना (निवृत्ति-मार्ग ). " ( वि० सा० ख० १/ पेज ठ, ड ) 
ब्रह्म या सत्य की भी दो अवस्थाएँ है- स्थैतिक (अपरिवर्तिक) और गतिज (सक्रीय)  (Static and Dynamic). अपनी स्थैतिक अवस्था में यह निरपेक्ष सत्ता है, अनेक से परे एकमेवाद्वितीय अवस्था, किसी भी दृष्टिगोचर वस्तु, विचार या कल्पना से परे की अवस्था है. अपने गतिज अवस्था में यह जीव, जगत और ईश्वर के रूप में प्रकाशित होता है.
श्रीरामकृष्ण के शब्दों में जिस व्यक्ति ने ब्रह्म के स्थैतिक अवस्था का अनुभव कर लिया है, वह ज्ञानी है. तथा जिसने यह अनुभव से जान लिया है कि अपने सक्रीय या गतिज अवस्था में ब्रह्म ही विभिन्न नामरुपों वाला जगत बन कर भास रहा है- वह विज्ञानी है. श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के आविर्भूत होने से पहले साधारण जन इस सत्य से परिचित नहीं थे.
आचार्य शंकर ने घोषणा की है वेदान्त दर्शन में यह स्पष्ट कहा गया है कि यह सम्पूर्ण जगत और जीव भी ब्रह्म ही हैं- (विवेकचुड़ामणि-४७८)
' अंतरस्थ मनुष्य ' को जानने का विज्ञान 
सोलहवीं शताब्दी में पाश्चात्य जगत नये उत्साह और नये नये विचारों कि उर्जा से तरंगायित हो रहा था. तभी से विज्ञान ने भी लम्बे लम्बे कदमों से प्रगति करना प्रारम्भ किया एवं उन्नीसवीं शताब्दी आते आते इसने ईसाई धर्म के आध्यात्मिक जड़ों को चकनाचूर करके रख दिया, अब वहां के बुद्धिजीवी धर्म के नाम पर दिये जानेवाले  निरर्थक काल्पनिक उपदेशों में विश्वास करने को तैयार नहीं थे. इसीलिए भौतिकवाद विजयी हो गया, और तबसे मनुष्य को केवल एक जैविक-आर्थिक-राजनितिक जन्तु समझा जाने लगा. जड़वादी सभ्यता के प्रचार प्रसार ने एक दार्शनिक शून्य एवं आध्यातिक संकट उत्पन्न का दिया.
पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के पास इस तरह के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था कि- मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ? किसी मनुष्य को निःस्वार्थी क्यों बनना चाहिए तथा उसे कुछ पाने की आशा किये बिना ही दूसरों से प्रेम क्यों करना चाहिए ?
स्वामीजी इसका अवलोकन करते हैं- " आधुनिक मनुष्य, चाहे लोगों के बीच जो कुछ भी क्यों न कहे, अपने हृदय के एकान्त में यह जानता है कि अब वह ' विश्वास ' नहीं कर सकता. कतिपय बातों में इसलिए विश्वास करना कि पुरोहितों की कोई संगठित संस्था (चर्च आदि) विश्वास करने के लिये कहती है, या ऐसा किसी ग्रंथ में लिखा है, या इसलिए विश्वास करना कि उसका समाज चाहता है- आधुनिक मनुष्य जानता है कि ऐसा कर पाना उसके लिये असम्भव है. कुछ लोग ऐसे अवश्य हैं, जो तथाकथित लोकप्रिय धर्म (दशहरा-होली-दिवाली ) से संतोष कर लेते हैं, किन्तु हम अच्छी तरह जानते हैं कि वे कुछ सोचते-विचारते नहीं हैं. उनकी ' आस्था ' की धारणा को ' चिन्तनशून्य प्रमाद ' ( not-thinking-carelessness ) ही कहना ठीक होगा. धर्म के इस प्रकार के प्रासाद के चूर चूर हुए बिना यह युद्ध और आगे नहीं चल सकता.
अब प्रश्न उठता है, क्या बचने का कोई उपाय है ? इस प्रश्न को और भी अच्छे ढंग से रखा जा सकता है; क्या धर्म भी उन बुद्धि के आविष्कारों की कसौटी पर स्वयं को सत्य प्रमाणित करा सकता है, जिसकी सहायता से अन्य सभी विज्ञान अपने को सत्य सिद्ध करते हैं ? बाह्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण-पद्धतियों का प्रयोग होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता है ?
मेरा विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिए और मेरा अपना विश्वास यह भी है कि यह कार्य जितना शीघ्र हो, उतना ही अच्छा ! यदि कोई धर्म इन अन्वेषणों के द्वारा ध्वंश प्राप्त हो जाय, तो वह सदा से निरर्थक बकवास था, --कोरे अन्धविश्वास पर आधारित धर्म था, एवं वह जितनी जल्दी दूर हो जाय, उतना ही अच्छा. मेरी अपनी दृढ धारणा है कि ऐसे धर्म का लोप होना एक सर्वश्रेष्ठ घटना होगी. 
सारे मैल जरुर धुल जायेंगे, और इस अनुसन्धान के फलस्वरूप धर्म के शाश्वत तत्व विजयी होकर निकल आयेंगे. और वह विज्ञान की कसौटी पर परीक्षित धर्म केवल विज्ञान-सम्मत ही नहीं होगा- कम से कम उतना ही वैज्ञानिक माना जायेगा जितनी कि भौतिकी या रसायनशास्त्र कि उपलब्धयां हैं- प्रत्युत और भी सशक्त हो उठेगा; क्योंकि भौतिकी या रसायन शास्त्र के पास अपने सत्यों को सिद्ध करने का अन्तः साक्ष्य नहीं है, जो धर्म को उपलब्ध है. " ( २/ २७८ )
 वस्तुतः वेदान्त भी एक विज्ञान है जो अन्तर्जगत के सत्यों को आविष्कृत करता है, इसीलिए श्रीरामकृष्ण एवं विवेकानन्द ने जनसाधारण के समक्ष वेदान्त को अंतरस्थ मनुष्य को जानने का विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया है. विवेकानन्द ने इसकी व्याख्या बहुत सरल युक्ति के आधार पर करते हुए यह दिखलाया है कि वेदान्त का वाह्यजगत के विज्ञान के साथ कोई झगड़ा या मतभिन्नता नहीं है. स्वामीजी के देहत्याग करने के १०० वर्ष बीत जाने के बाद आधुनिक विज्ञान ने बहुत प्रगति की है, तथा कई वैज्ञानिकों ने इस मत का समर्थन किया है. तथा स्वामीजी की भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध करते हुए विज्ञान और धर्म न केवल एक दुसरे के निकट आ चुके हैं, बल्कि उन दोनों ने आपस में हाथ भी मिला लिया है.
साधारण मनुष्य यह सोचता है कि धर्म केवल कुछ विश्वासों, धार्मिक रीती-रिवाजों और धार्मिक क्रियापद्धति के समुच्चय का नाम है, जिसके साथ कुछ साम्प्रदायिक पहचान भी संयुक्त रहती है. धर्म को इसी दृष्टिकोण से देखनेवालों के लिये स्वामी विवेकानन्द के धर्म के उपर विशेष कुछ कहने के लिये नहीं था. अन्तर्जगत के सत्यों का अनुसन्धान करके उन्हें अनुभूत करने के सच्चे और गहन खोज को ही वे धर्म मानते थे. क्या यही काम विज्ञान भी नहीं करता ? 
 निस्संदेह वाह्यजगत में ठीक ऐसा ही खोज विज्ञान भी करता है. अपने अन्तिम उद्देश्य और सन्निकर्ष में विज्ञान और धर्म तत्वतः हुबहू एक ही चीज है. तथापि इनमें एक अन्तर अवश्य है. वाह्यजगत का विज्ञान विश्व-ब्रह्माण्ड के सत्यों को खोजने के लिये वाह्य उपकरणों का प्रयोग करता है, वहीँ धर्म अन्तर्जगत का विज्ञान होने के कारण, हमारे अन्तर्निहित सत्य को उद्घाटित करने के लिये, आन्तरिक उपकरणों का उपयोग करता है. किन्तु इन दोनों प्रकार की खोज में कहीं भी कोई साम्प्रदायिक बुद्धि नहीं रहती है. चूँकि सापेक्षता के सिद्धान्त (The  theory of relativity) का आविष्कार अल्बर्ट आइन्सटाइन ने किया था, इसीलिए उसे जर्मन या युहूदी सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता, ठीक उसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि वेदान्त भारतीय या हिन्दुओं की सम्पत्ति है.
स्वामी विवेकानन्द मुहम्मद सरफराज हुसैन को लिखित पत्र में इसी तथ्य की ओर इशारा करते हुए कहते
हैं- " चाहे हम उसे वेदान्त कहें या और किसी नाम से पुकारें, परन्तु सत्य तो यह है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अन्तिम शब्द है, और केवल उसी के दृष्टिकोण से सब धर्मों और सम्प्रदायों को प्रेम से देखा जा सकता है. हमें विश्वास है कि भविष्य के प्रबुद्ध मानवी समाज का यही धर्म है. अन्य जातियों की अपेक्षा हिन्दुओं को यह श्रेय प्राप्त होगा कि उनहोंने इसकी सर्वप्रथम खोज की.
इसका कारण यह है कि वे अरबी और हिब्रू दोनों जातियों से अधिक प्राचीन हैं. तथापि वह व्यावहारिक अद्वैतवाद (वेदान्त)- जो समस्त मनुष्य-जाति को अपनी ही आत्मा का स्वरुप समझता है, तथा उसीके अनुकूल आचरण करता है- का प्रचार-प्रसार एवं विकास हिन्दुओं में सार्वभौमिक भाव से होना अभी भी शेष है. 
इसके विपरीत हमारा अनुभव यह है कि यदि किसी धर्म के अनुयायी व्यावहारिक जगत के दैनिक कार्यों के क्षेत्र में, इस ' साम्यभाव ' को पर्याप्त रीति से व्यव्हार में अपना सके हैं वे इस्लाम और केवल इस्लाम के अनुयायी हैं." (६/४०५)
सभी धर्मों की नींव है- वेदान्त 
स्वामीजी ने वेदान्त की शिक्षा समन्वयाचार्य के चरणों में बैठ कर ग्रहण की थी, इसलिए प्रारम्भ से ही वे किसी धर्म को मन मारकर बर्दाश्त नहीं करते थे, बल्कि सभी धर्म-मार्गों को सत्य कह कर स्वीकार करते थे. इतना ही नहीं उन्होंने प्रचुर संश्लेष्ण देते हुए समस्त धर्मों को वेदान्त के विज्ञान में समावेशित करने का प्रयास किया है, ६ मई १८९५ को अमेरिका से आलसिंगा पेरूमल को स्वामीजी लिखते हैं- " अब मैं तुम्हें अपने एक नूतन आविष्कार के विषय में बतलाऊंगा. समग्र धर्म वेदान्त में, अर्थात वेदान्त दर्शन के तीन सोपानों- द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत में निहित हैं. मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के क्रम में ये तीनों सोपान के जैसे - एक के बाद एक आते हैं. प्रत्येक सोपान का अनुभव प्राप्त करना आवश्यक है. 
 सार-रूप से यही धर्म है. भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार-व्यवहारों और धर्ममतों में वेदान्त के प्रयोग का नाम है- हिन्दू धर्म. यूरोप की जातियों के विचारों में उसके पहले सोपान अर्थात द्वैतवाद के प्रयोग का नाम है- ' ईसाई धर्म '. सेमेटिक जातियों में उसका ही प्रयोग है, ' इस्लाम धर्म '. अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूती के आकर मेंहुआ ' बौद्ध धर्म '- इत्यादि, इत्यादि.
  धर्म का अर्थ है वेदान्त; उसका प्रयोग विभिन्न राष्ट्रों के विभिन्न प्रयोजन, परिवेश एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता ही रहेगा. मूल दार्शनिक तत्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव, शाक्त आदि हर संप्रदाय ने अपने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान-पद्धति में उसे रूपान्तरित कर लिया है. "
( ४/२८३ ) 
हमारी आन्तरिक महिमा एवं आधारभूत एकत्व का बीज
सभी जीवों का दैवी सार, हमारा यथार्थ ' मैं ', हमारा अन्तर्निहित चैतन्य-बोध - यह आत्मा ही है. वेदान्त कहता है कि सारी शक्ति एवं पवित्रता पहले से ही इस आत्मा में विद्यमान है. आइये सुने कि इस सम्बन्ध में स्वामीजी क्या कहते हैं- " इतने मत-मतान्तरों, विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों तथा शास्त्रों के होते हुए भी यदि कोई सिद्धान्त हमारे सब सम्प्रदायों का सामान्य आधार है, तो वह है आत्मा की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास, और यह समस्त संसार का भाव-स्रोत परिवर्तित कर सकता है.
हिन्दू, जैन तथा बौद्धों में, वस्तुतः भारत में सर्वत्र यह अटल विश्वास परिव्याप्त है कि आत्मा ही समस्त शक्तियों का आधार है. और तुम यह भली भांति जानते हो कि भारत में ऐसी कोई दर्शन प्रणाली नहीं है, जो इस बात की शिक्षा देती हो कि हमें शक्ति, पवित्रता अथवा पूर्णता कहीं बाहर से प्राप्त होगी, वरन हमें सर्वत्र यही शिक्षा मिलती है कि वे तो हमारे जन्मसिद्ध अधिकार हैं, हमारे लिये उनकी प्राप्ति स्वाभाविक है. अपवित्रता तो केवल एक वाह्य आवरण है जिसके नीचे हमारा वास्तविक स्वरुप मानो ढँक सा गया है; परन्तु जो सच्चा ' तुम ' है वह पहले से ही पूर्ण है,शक्तिशाली है. " (५/५६)
स्वामीजी १८९७ ई० में अपने मद्रास भाषण में स्पष्ट रूप से कहा है कि वे किस दर्शन का प्रचार-प्रसार करना चाहते हैं- " अद्वैतवाद, द्वैतवाद अथवा अन्य किसी वाद का प्रचार करना मेरा उद्देश्य नहीं है. हमें इस समय आवश्यकता है केवल आत्मा की- उसके अपूर्व तत्व, उसकी अनन्त शक्ति, अनन्त वीर्य, अनन्त शुद्धता और अनन्त पूर्णता के तत्व को जानने की. यदि मेरे कोई सन्तान होती तो मैं उसे जन्म के समय से ही सुनाता 
- ' तत्वमसि निरंजन: ' तुमने अवश्य ही पुराण में रानी मदालसा की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी. उसके सन्तान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रख कर झुलाते हुए उसके निकट गति थी- ' तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप; तुम हो सर्वशक्तिशाली, तेरा है अमित प्रताप.' इस कहानी में महान सत्य छिपा हुआ है. अपने को महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे. " (५/१३७-३८)  
इसीलिए उन्होंने सम्पूर्ण मानवजाति को तुरही-निनाद करते हुए - उठो ! जागो ! का आह्वान सुनाया :
" तुम शुद्धस्वरुप सच्चिदानन्द आत्मा हो, उठो, जाग्रत हो जाओ. हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. जागो, उठो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल और दुखी मत समझो. हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ, अपना स्वरुप प्रकाशित करो.
तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिये उचित नहीं है. जगत से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो-देखो, इसका क्या व्यावहारिक फल होता है, देखो, कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो उठती हैं, और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है. मनुष्य जाति से यह बतलाओ और उसे उसकी शक्ति दिखा दो. तभी हम स्वयम अपने दैनन्दिन जीवन में उसका प्रयोग करना सीख सकेंगे. "( ८/१५ )   
अपने देशवासियों के लिये स्वामीजी आध्यात्मिकता से अधिक बलवान बनने की शिक्षा देना चाहते थे, इसीलिए वे उनके सम्मुख वेदान्त को रखते हुए कहते हैं - " हे बन्धुगण, तुम्हारी और मेरी नसों में एक ही रक्त का प्रवाह हो रहा है, तुम्हारा जीवन-मरण मेरा भी जीवन-मरण है.मैं तुमसे पूर्वोक्त कारणों से कहता हूँ कि हमको शक्ति, केवल शक्ति ही चाहिए. और उपनिषद शक्ति की विशाल खान हैं.
उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी बना सकते हैं. उनके द्वारा समस्त संसार पुनरुज्जीवित, सशक्त और वीर्य-सम्पन्न हो सकता है.समस्त जातियों को, सकल मतों को, भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के दुर्बल, दुखी, पददलित लोगों को स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर मुक्त होने के लिये वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रहे हैं. मुक्ति अथवा स्वाधीनता, दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों का मूल मन्त्र है. " ( ५/१३३-३४)    
उसी भाषण में स्वामीजी आगे कहते हैं- " समग्र संसार का अखण्डत्व (भूमण्डलीकरण) - जिसको ग्रहण करने के लिये संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा महान भाव है. " (५/१३५) 
हमलोग स्वरूपतः बिल्कुल एक हैं, इसीलिए हम सभी लोगों को आपस में प्रेम करना चाहिए. हमलोगों को अवश्य निःस्वार्थपर होना चाहिए, क्योंकि मेरी आत्मा दूसरों की आत्मा से पृथक है- ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है. दूसरों का सुख दुःख मेरा सुख दुःख है. अतः हमलोगों को संघबद्ध होकर काम करना चाहिए, अपने को पृथक पृथक नाम-रूपों वाला श्रीमान अमुक या श्रीमती अमुक मान कर नहीं, बल्कि अपनी अन्तस्थ यथार्थ आत्मा को ही सबों में समान रूप से विद्यमान देख कर संघबद्ध प्रयास करना चाहिए. यह बात समझ में आ जाने पर कोई अपने लिये विशेषाधिकार पाने का दावा नहीं कर सकेगा.
  स्वामीजी ने कहा है - " अपवित्र ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्यों को असुर बना देता है. यन्त्रों तथा अन्य सज-सामानों के निर्माण से बहुत बड़ी शक्ति प्राप्त की जा रही है और आज विशेषाधिकारों का ऐसा दावा किया जा रहा है, जैसा संसार के इतिहास में पहले कभी नहीं किया गया था. इसी कारण वेदान्त इन ( रंग-भेद आदि ) विशेषाधिकार के दावों के विरुद्ध प्रचार करना चाहता है; ताकि मनुष्यों की आत्मा पर होने वाले अत्याचार को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाये. " (९/१०२) 
ह्रदय का विस्तार करने तथा त्याग और सेवा के आदर्श को युवाओं के भीतर प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से भारत के युवाओं के समक्ष व्यावहारिक वेदान्त को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- " अतः, हे लाहौर के युवको, फिर अद्वैत की वही प्रबल पताका फहराओ, क्योंकि और किसी आधार पर तुम्हारे भीतर वैसा अपूर्व प्रेम नहीं पैदा हो सकता. जब तक तुम लोग उसी एक भगवान को सर्वत्र एक ही भाव से उपस्थित नहीं देखते, तबतक तुम्हारे भीतर वह प्रेम पैदा नहीं हो सकता- उसी प्रेम की पताका फहराओ.
उठो, जागो, जब तक लक्ष्य पर नहीं पहुँचते तब तक मत रुको. उठो, एक बार और उठो, क्योंकि त्याग के बिना कुछ हो नहीं सकता. दुसरे की यदि सहायता करना चाहते हो, तो तुम्हें अपने अहंभाव को छोड़ना होगा. ईसाईयों की भाषा में कहता हूँ- तुम ईश्वर और शैतान की सेवा एक साथ नहीं कर सकते. चाहिए वैराग्य. तुम्हारे पूर्व पुरुषों ने बड़े बड़े कार्य करने के लिए संसार का त्याग किया था. वर्तमान समय में ऐसे अनेक मनुष्य हैं, जिन्होंने अपनी ही मुक्ति के लिए संसार का त्याग किया है. तुम सब कुछ दूर फेंको- यहाँ तक कि अपनी मुक्ति का विचार भी दूर रखो- जाओ, दूसरों की सहायता करो. तुम सदा बड़ी बड़ी साहसिक बातें करते हो, परन्तु अब तुम्हारे सामने यह व्यावहारिक वेदान्त रखा गया है. तुम अपने इस तुच्छ जीवन की बलि देने के लिए तैयार हो जाओ. " (५/३२०-२१)
' बहुजन - हिताय '  
सिस्टर निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में स्वामीजी के बारे में लिखती हैं- " उन्होंने एक पंडित की भाँति नहीं, एक अधिकारी व्यक्ति की भाँति उपदेश दिया. क्योंकि जिस सत्यानुभूति का उपदेश उन्होंने दिया, उसकी गहराइयों में वे स्वयं भी गोता लगा चुके थे, और रामानुज की भाँति उसके रहस्यों को चांडाल, जाति-बहिष्कृत और विदेशियों को बतलाने के निमित्त ही वे वहाँ से लौटे थे. " (१/ भूमिका 'ठ') स्वामीजी गौतम बुद्ध के सम्बन्ध में कहते हैं- " बुद्ध ने वेदान्त को प्रकाशित किया, और उसका जनसाधारण में प्रचार करके भारतवर्ष की रक्षा की . " (२/९३) 
बुद्ध के जाने के २५०० वर्ष बाद स्वयं स्वामीजी ने भी वही कार्य किया, वे कहते हैं- " प्राचीन काल में केवल अरण्यवासी संन्यासी ही उपनिषदों की चर्चा करते थे. वे रहस्य के विषय बन गये थे. उपनिषद सन्यासियों तक ही सीमित थे. शंकर ने कुछ सदय हो कहा है, ' गृही मनुष्य भी उपनिषदों का अध्यन कर सकते हैं; इससे उनका कल्याण ही होगा, कोई अनिष्ट नहीं होगा.' परन्तु अभी तक यह संस्कार कि उपनिषदों में वन, जंगल अथवा एकान्तवास का ही वर्णन है, मनुष्यों के मन से नहीं हटा...वेदान्त के इन सब महान तत्वों का प्रचार आवश्यक है, ये केवल अरण्य में अथवा पहाड़ो की कन्दराओं में ही आबद्ध नहीं रहेंगे; वकीलों और न्याधिशों में, प्रार्थना-मन्दिरों में, दरिद्रों की कुटियों में, मछुओं के घरों में, छात्रों के अध्यन-स्थानों में- सर्वत्र ही इन तत्वों की चर्चा होगी और ये काम में लाये जायेंगे. 
यदि कहो कि, उपनिषदों के सिद्धान्तों को मछुए आदि साधारण जन किस प्रकार काम में लायेंगे ? इसका उपाय शास्त्रों में बताया गया है- तुम अपने को महान समझो तो तुम सचमुच महान बन जाओगे.
मछुआ यदि अपने को आत्मा समझकर चिन्तन करे, तो वह एक उत्तम मछुआ होगा. विद्यार्थी यदि अपने को आत्मा विचारे, तो वह एक श्रेष्ठ विद्यार्थी होगा. वकील यदि अपने को आत्मा समझे, तो वह एक अच्छा वकील होगा. औरों के विषय में भी यही समझो " (५/१३९-४० ) 
विवेकानन्द के लिए ये सभी विचार बहुत सुन्दर हो सकते हैं, परन्तु जब तक किसी सिद्धान्त को व्यावहारिक धरातल पर प्रत्येक मनुष्य के द्वारा नहीं उतारना सम्भव न हो उस सिद्धान्त का कोई मूल्य नहीं है. उनके जीवन का यह ध्येय था कि इन महान सत्यों को ब्राह्मण विद्वानों के चंगुल से निकाल कर, सारे संसार में फैला दिया जाये. इन्हें बुद्धिवादियों की अनुपयोगी तर्क-वितर्क, चमत्कार, और मिथ्या भय के जाल से बहार निकाल कर इतना सरल बना दिया जाय कि इसे एक बच्चा भी समझ सके. उन्होंने इन विचारों को आधुनिक संसार के समक्ष सरल अंग्रेजी में प्रमाणिक युक्ति-विचार के साथ प्रकट कर दिया. 
अपने गुरुदेव की भाँती, उन्होंने भी इन सत्यों को अपने जीवन में उतार कर दिखा दिया, और इस प्रकार अपने भीतर भी विवेकानन्द ने भी अपने भीतर एक ऐसी जीवन्त शक्ति उत्पन्न की जो पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित कर देने में समर्थ है. 
आज भी वे सर्वत्र मनुष्य जाती को देवमानव में रूपान्तरित होने के लिए पुकार रहे है-" उठो, जागो, जब तक लक्ष्य पर नहीं पहुँचते तब तक मत रुको ! " उनका यह आह्वान आम पंडितों की तरह कोरा भाषण नहीं है. उन्होंने ऐसा कोई उपदेश किसी को नहीं दिया है, जिसको उन्होंने स्वयं अपने जीवन में अनुभूत एवं आत्मसात नहीं कर लिया था. तथा उनके उपदेशों में बहुजन हिताय सम्पूर्ण विचार को बीज रूप से सार-संक्षेप बड़े सुन्दर ढंग से कहा है- " एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है ? " ( ८/३४) 
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( The Neo-Vedanta of Vivekananda - अरुणाभ सेनगुप्ता द्वारा विवेक-जीवन annual number 2011 में छपे लेख का हिन्दी अनुवाद )         

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

15." ज्ञान-भक्ति और कर्म के मूर्तमान प्रतिक " (प्रचारक अभेदानन्द - १७)

15.ज्ञान-भक्ति और कर्म के मूर्तमान प्रतीक अभेदानन्द 
' सभी लड़कों में तुम बुद्धिमान हो. नरेन के बाद तुम्हारी ही बुद्धि का स्थान है. जिस प्रकार नरेन कोई मत चला सकता है, तुम भी वैसा कर सकोगे. ' - यह बात १८८६ ई० में श्री रामकृष्ण ने अपने अंतरंग लीला-पार्षद अभेदानन्दजी से एकांत में कही थी. उस समय स्वामी अभेदानन्द,कालीप्रसाद उर्फ काली के नाम से जाने जाते थे, तथा काशीपुर उद्द्यान-बाड़ी में बीमार श्रीरामकृष्ण की सेवा करते थे, किन्तु मौका मिलते ही, पुनः शास्त्र अध्यन में डूब जाते थे.
 यहाँ शास्त्र-अध्यन से तात्पर्य केवल धर्म, दर्शन, एवं न्ययशास्त्र ही नहीं है, बल्कि पाश्चात्य विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, पदार्थ विज्ञान, जौन स्टुअर्ट का तर्कशास्त्र, लुईस के दर्शन का इतिहास, हैमिल्टन के दर्शन के साथ कुमारसंभव, श्रीमदभगवतगीता, शिव संहिता, पतंजल योग दर्शन, आदि ग्रन्थों को कालीप्रसाद गहन रात्रि  तक बहुत ध्यान से पढ़ा करते थे. एकदिन रात्रि में श्रीरामकृष्ण की चरण-सेवा करते हुए, अंग्रेज दार्शनिक मिल का तर्कशास्त्र पढ़ रहे थे. इतने ध्यान से शास्त्र-अध्यन करने की निष्ठा को देख कर श्रीरामकृष्ण को उत्सुकता हुई, उन्होंने पूछा - ' क्यूँ रे, तूँ अभी कौन सी पुस्तक पढ़ रहा है ?'
  कालीमहाराज बोले- ' अँग्रेज़ी का न्यायशास्त्र. श्रीरामकृष्ण ने पूछा- ' उसमें कौन सी बात सिखाई जाती है ? ' इसमें ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण के बारे में तर्क, दलील, एवं वाद-विवाद करना सिखाया जाता है.थोड़ा हंसते हुए श्री रामकृष्ण बोले- " केवल इतना ही, लेकिन देखता हूँ कि तुम बाकि लड़कों में भी ग्रंथों को पढ़ने का शौक जगा रहे हो. पर एक बात जानते हो, किताबी-ज्ञान से ज्यादा कुछ लाभ नहीं होता. भगवान को जानने के लिए, पुस्तकीय ज्ञान की बहुत अधिक आवश्यकता नहीं होती. पर हाँ, दूसरों को समझाने के लिए पुस्तकीय विद्या की आवश्यकता होती है. अपना दृढ विश्वास तो संबल के रूप में अपने पास रहता ही है, पर दूसरों को विश्वास कराने में युक्ति-तर्क के अस्त्र-श्स्त्र का सहारा लेना पड़ता है. खुद को तो एक नरहणी से भी मारा जा सकता है, किन्तु दूसरों को मारने के लिए ढाल, तलवार आदि अस्त्र-श्स्त्र के बिना नहीं मार सकते. यह पुस्तकीय ज्ञान इसीलिए प्राप्त किया जाता है. जो लोग लोकशिक्षा देंगे उनके लिए  ग्रंथों का अध्यन करना ज़रूरी  है. "
 श्रीरामकृष्ण परमहंस (परम सद्गुरु ) कभी किसी के भाव को नष्ट नहीं करते थे, किन्तु उसका जो भाव पहले से हो, वह भाव उसके भीतर और अधिक प्रखर हो उठे, उस विषय में वे सदा सतर्क रहते थे. अंतर्यामी श्रीरामकृष्ण ने उस दिन देख लिया था, कि एक दिन स्वामी अभेदानन्द को 
एक ' सर्वशास्त्र-विशारद-लोकशिक्षक ' के रूप में विश्व के रंगमंच पर खड़ा होना होगा. 
  इसीलिए श्रीरामकृष्ण ने उनके शास्त्र-अध्यन में बाधा नहीं देकर उनको उत्साहित, एवं और अधिक गहराई से अध्यन करने को अनुप्रेरित किया था. संशय के बदले उनमें विश्वास भर उठा, तथा आशीर्वाद की शक्ति से उनके उद्यम-शीलता दोगुनी बढ़ गयी. मान-प्राण ईश्वरीय शक्ति से भरपूर हो गया. अभेदानन्द आत्मशक्ति से भर कर अपराजेय हो उठे. अब उनके साथ तर्क-विचार करके कोई उनको हरा नहीं पाता था.  इसके लिए श्रीरामकृष्ण ने भी कभी असंतोष नही प्रकट किया, और इसीप्रकार अभेदानंद का जीवन स्नेहमय पिता तुल्य परमहंसदेव की असीम करुणा से समृद्ध होता चला गया.
        फलस्वरूप पुनः एक नयी पुस्तक- ' अष्टवक्र-संहिता ' को पढ़ना आरंभ कर दिए. अब उनके मन में अद्वैत वेदान्त मत का केवल ' नेति-नेति ' विचार उठने लगा. इसप्रकार तर्क-युक्ति पूर्ण विचार रूपी तीक्ष्ण धार से अन्य सारे मत खंडित हो जाते है. इतना ही नहीं जन्मजात-विश्वास को भी अब तर्क-युक्ति रूपी कसौटी पर कस कर देख लेने के बाद ही स्वीकार करने का मनोभाव हो जाता है. और अब उस मन में अन्धविश्वास के लिए कोई भी स्थान नहीं रह जाता. इसी अवस्था में शास्त्र-उद्धरनों की सहयता से अभेदानन्दजी ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में विभिन्न प्रकार के ढेर सारे अकाट्य युक्ति-तर्क को ढूढ़ निकालते थे.
उनके अद्वैत वेदान्त के नेति -नेति विचार के सामने सभी परास्त हो गये. जब सबों का मत खंडित हो गया, तो सभी लोग दौड़े सर्वमताधीश श्रीरामकृष्ण के पास, तथा बूढ़ेगोपाल ने स्वामी अभेदानन्द के विरुद्ध श्री रामकृष्ण से अभियोग लगाया कि ' महाशय, काली कुछ भी नहीं मानता, बिल्कुल नास्तिक हो गया है. ' इस अभियोग को सुन कर श्रीरामकृष्ण कुछ कहे नहीं, केवल थोड़ा हंस दिए. क्योंकि वे तो अंतर्यामी थे, सबकुछ जानते थे.
इसके बाद पुनः एक दिन श्रीरामकृष्ण की सेवा करने गये हैं, कमरे में कालीमहाराज को अकेले देख कर श्रीश्रीठाकुर ने पूछा- ' हाँ रे, सुनता हूँ कि आजकल तूँ नास्तिक हो गया है.' 
 काली महाराज कोई उत्तर न देकर चुपचाप एक किनारे खड़े रहे. यह देख कर श्रीरामकृष्ण ने पुनः प्रश्न 
 किया- ' क्या तूँ ईश्वर को मानता है ? क्या शास्त्र पर विश्वास करता है ? ' इस बार उनके सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर मिला- ' नहीं '.
    शिष्य के इस उत्तर को सुन कर श्री रामकृष्ण स्तंभित हुए और एक वाक्य-बाण  छोड़े - ' यदि तुम किसी दूसरे साधु से इस प्रकार कहते, तो वे तुम्हारे गाल पर एक थप्पड़ लगा देते.' तार्किकतावादी अभेदानन्द ने पुनः स्पष्ट कहा- ' आप भी मारिए, किन्तु जब तक मैं यह ठीक ठीक नही साँझ लेता कि ईश्वर हैं, एवं वेद सत्य है, तब तक इन सब अंधविश्वास के ऊपर विश्वास कर, इन्हें सत्य क्यूँ मान लूँ? आप मुझे समझा दीजिए, और मेरे ज्ञान नेत्रों को खोल दीजिए, तब मैं सबकुछ मान लूँगा.' 
        अभेदानन्दजी अंधविश्वास से कभी दिग्भ्रमित नहीं होते थे. युक्ति-तर्क से जाँच-परख करने के बाद ही उन्होंने श्रीरामकृष्ण को भी गुरु रूप में स्वीकार किया था. अनुभूति के प्रकाश में अपनी व्यक्तिगत उपलब्धि के आधार पर ही उनको अपना गुरु माना था. इसीलिए श्रीरामकृष्ण थोड़ा भी क्रुद्ध नहीं हुए थे. बल्कि प्रसन्न ही हुए थे, एवम् हंसते हुए कहा था- ' एकदिन तुम सब जान जाओगे, और सब कुछ मानने लगोगे. देखो न, इसी तरह नरेन भी पहले कुछ नहीं मानता था, किन्तु आजकल ' राधे राधे ' कह कर रोता है, और कीर्तन में नृत्य करता है. इसके बाद से तुम भी सब कुछ मानने लग जाओगे. '
    अभेदानन्दजी छोड़ने वाले नहीं थे, केवल बातों से नहीं गुरुकृपा के प्रमाण को भी साथ ही साथ मिला कर देख लेना चाहते हैं. क्योंकि उनका हृदय तो व्याकुल होकर प्रार्थना कर रहा है-
' अज्ञानतिमिरन्धस्य ज्ञानंजनश्लाकया चक्षुरुउन्मिलितम एन तस्मै श्री गुरुवै  नमः'
 - ज्ञान अंजन प्रदान कर मेरे नेत्रों को खोल दीजिए, मुझको दिखला दीजिए. और जब मैं जान जाऊंगा तो फिर सबकुछ मानूँगा, वरना कुछ नहीं मानूँगा. आन्तरिकतता के साथ कालीमहाराज ने यही निवेदन किया. करुणामय श्री रामकृष्ण ने उनके प्राणों की भूख व्याकुलता और सरलता को हृदय से अनुभव किए एवं, अपने दिव्य-स्पर्श से धीरे धीरे उपलब्धि के समस्त द्वार को खोल दिए.  
श्रीरामकृष्ण की कृपा से अभेदानन्दजी अनुभूति के चरम शिखर पर पहुँच गये थे, इस बात को अपनी आत्मजीवनी में उन्होंने इस प्रकार लिखा है- " एक दिन गहन रात्रि में ध्यानस्थ अवस्था में बाह्यज्ञानशून्य हो गया, और मेरी आत्मा मानो शरीर रूपी पिंजड़े से बाहर निकल कर शून्य आकाश में मुक्त पंछी की तरह उड़ान भरने लगी. क्रमशः वह उपर उठती हुई, अनन्त की ओर उड़ने लगी.तब मैं अपूर्व दृश्य देखते देखते एक सुंदर सुशोभित राजमहल जैसे किसी सुरम्य स्थान में जा पहुँचा. ...उसी अपूर्व सुंदर दृश्य को देख ही रहा था, कि ठीक उसी समय परमहंसदेव की मूर्ति ज्योतिर्मय होकर विराट आकर में परिणत हो गयी, एवं उनके भीतर समस्त देवी-देवता, अधिकारिक पुरुष, श्रीकृष्ण,ज़राथ्रूष्ट, नानक, श्रीचैतन्य महाप्रभु, शंकराचार्य आदि अपने अपने आसनसे उठ कर परमहंसदेव के विराट शरीर में प्रविष्ट होने लगे. 
 उस समय इस अपूर्व दर्शन का यथार्थ कोई मर्म नहीं समझ सकने के कारण मैं तेज़ी से दौड़ता हुआ परमहंसदेव के पास उपस्थित हुआ, और उनसे सारी बातों को कह सुनाया. परमहंसदेव ने सुन कर कहा- ' तुम्हें वैकुंठ का दर्शन मिल गया है. इसबार तुम देवी-देवताओं के दर्शन की चरम सीमा तक जा पहुँचे हो. अब तुम्हारे लिए और कुछ दर्शन करना बाकी नहीं रह गया है. यहाँ से तुम अब अरूप और निराकार के स्तर में उठ गये हो. "
वाराहनगर मठ में रहते समय स्वामी अभेदानन्दजी गंभीर जप-ध्यान में डूबे रहते थे. और मौका मिलते ही, वेदान्त दर्शन के अद्वैतवाद को लेकर विचार करते रहते थे. वे वेदान्त-मत के समर्थक थे, इसीलिए उनका
नाम ' काली-वेदान्ती ' पड़ गया था; एवं दिनरात एक छोटे से कमरे में बैठ कर तपस्या भी करते रहते थे, इसीलिए उनको ' काली-तपस्वी ' भी नाम मिला था. इसी समय (१२९५ बांगाब्द में) स्वामी अभेदानन्दजी ने अनुष्टप छ्न्द में पहली बार ' श्रीरामकृष्णस्त्रोत्रम ' की रचना की थी. उस स्त्रोत्र में कहा है-
 ' लोकनाथ-श्चिदाकारो राजमानः स्वधामनी '... इत्यादि. 
   वाराहनगर मठ में संध्या-आरती के उपरान्त समवेत कंठ से इसी स्त्रोत्र का पाठ किया जाता था. तथा जिस स्त्रोत्र के माध्यम उन्होने श्रीश्रीमाँ सारदादेवी को परिष्कृत रूप में वर्णन किया था वह है-
' प्रकृतिं  परमामभयां वरदां नररूपधरां जनतापहराम '...इत्यादि.
 इस स्त्रोत्र को स्वयम् पाठ करके श्रीश्रीमाँ को सुनाया था. एवं इसे सुन कर श्रीश्री माँ आनन्दके वेग से आप्लुत होकर स्वामी अभेदानन्दजी को आशीर्वाद दीं थीं- ' तुम्हारे मुख में सरस्वती बैठ जाएँ '. इसी समय श्रीश्रीमाँ ने उनको आशीर्वाद स्वरूप एक जप करने की माला भी दी थीं.   
स्वामी अभेदानन्दजी एक ही आधार में तपस्वी और कर्मयोगी थे. स्वामीजी के आह्वान पर वेदान्त का प्रचार करने के लिए वे भी पाश्चात्य देशों में गये थे, तथा २५ वर्षों तक ( १८९६ से १९२१ तक ) अथक परिश्रम करके, स्वामीजी द्वारा प्रतिष्ठित वेदान्त-' बीज ' को सफलतापूर्वक विशाल ' वृक्ष ' में परिणत कर दिए थे
स्वामी अभेदानन्दजी असाधारण वक्ता थे. स्वयम् स्वामीजी उनकी प्रथम वक्तृता को सुन कर आनन्द से भर उठे थे, एवं अभिभूत होकर सभामंच से ही घोषणा किए थे-
 " Even if I perish out of this plane, my message will be sounded 
  through these dear lips and the World will hear it. "
          और सचमुच ही उनके भीतर ' त्रिवेणी- संगम ' हुआ था, पाश्चात्य जगत के समक्ष स्वामी अभेदानन्दजी  स्वामीजी के संदेशवाहक रूप में आविर्भूत हुए थे. वे कहते थे- ' मेरे भीतर ठाकुर-माँ- स्वामीजी की शक्ति खेल कर रही है. ' त्रि-शक्ति के अधिकारी '  स्वामी अभेदानन्दजी के भीतर उनकी ही कृपा विकसित हो उठी  थी- और वे श्रीरामकृष्ण का ज्ञान, सारदादेवी की भक्ति, एवं स्वामीजी का कर्म का  एक ही आधार में मूर्तप्रतीक हो गए  थे. 
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'স্বস্তিকা ' ৮ সেপ্টেম্বর ২০০১ , ' स्वस्तिका ' ८ सितम्बर २००१ , स्वामी अभेदानन्द की जन्मतिथि के अवसर पर प्रकाशित.
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