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रविवार, 9 अक्टूबर 2011

स्वामी विवेकानन्द का नव-वेदान्त

स्वामी विवेकानन्द ने १ फरवरी, १८९५ को न्यूयार्क से कुमारी मेरी हेल को लिखित एक पत्र में कहा था- " मेरे पास विश्व को देने के लिए एक संदेश है, जिसे मैं अपनी ही शैली में दूंगा. मैं अपने संदेश को न तो हिन्दू धर्म, न ईसाई धर्म, न संसार के किसी और धर्म के साँचे में ढालूँगा, बस. मैं केवल उसे अपने ही साँचे में ढालूँगा." (वि० सा० ख० ३/३८०)
वह संदेश क्या है ? अपने उस संदेश के सार को प्रस्तुत करते हुए, अपने ७ जून, १८९६ को Miss Margaret Noble ( सिस्टर निवेदिता ) को लिखित पत्र में कहते हैं- " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना."  
उद्भव स्थान 
' Man is essentially divine ! '  ' प्रतेक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! ' हजारों वर्ष पूर्व यह सत्य भारत में ही उद्घाटित हुआ था. उस युग को हमलोग वैदिक युग के नाम से जानते हैं. अतः वेदों को ही इस उत्कृष्ट-धारणा का प्रथम उद्भव-स्थान स्वीकार किया जाता है. २५ फरवरी, १९०० को ओकलैंड में दिये गये व्याख्यान में वेद-वेदान्त को परिभाषित करते हुए स्वामीजी कहते है- " वेदों से आशय किन्हीं ग्रंथों का नहीं है. उनका अर्थ है आध्यात्मिक नियमों का संचित कोष, जिनकी खोज विभिन्न व्यक्तियों ने विभिन्न कालों में की."
सम्बद्ध तर्क-विचार पूर्वक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि, यदि भारत में ' ऋषि ' नाम से विख्यात कुछ महान चिन्तकों के द्वारा अध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धी की जा सकती है, तो इस सत्य की उपलब्धी जगत के अन्य स्थानों में रहने वाले लोगों को भी अवश्य होनी चाहिए. स्वामीजी कहते हैं- ' हम देखते हैं कि यह अन्तःस्फुरण ही धर्म का एकमात्र मूल स्रोत है...अगर कभी किसी एक व्यक्ति को दैवी प्रेरणा (अन्तःस्फुरण या आत्मसाक्षात्कार ) मिली है, तो विश्व के हर व्यक्ति को प्रेरणा मिलने की सम्भावना है, और यही धर्म है. ' (वि० सा० ख० २/२७४ )' हम सभी विकास की प्रक्रिया के मध्य हैं. इस दृष्टि से एक आदमी दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ नहीं है. ' (९/१६१)
तथापि कुछ ऐतिहासिक कारणों से यह भारत का भाग्य था कि, सर्व-प्रथम वही इस सत्य को आविष्कृत करे. और केवल आविष्कृत ही नहीं करे बल्कि सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाने के लिये, विश्व भर में इसका प्रचार भी करे. ऋग-वेद कहता है- ' कृण्वन्तो विश्वमार्यम ' (९.६३.५) तथा सहस्राब्दियों से अनेकों उत्थान-पतन के मध्य से गुजरते हुए भी यह हमारी मातृभूमि का ही गौरव है कि वह निरन्तर पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित करने की साधना में निरत रही है.
वस्तुतः वेद विश्व के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ हैं. कोई नहीं जानता कि वे कब लिखे गये और किसके द्वारा लिखे गये. ' विद ' धातु का अर्थ है जानना. वेदान्त नामक ईश्वरीय ज्ञानराशि ऋषि नामधारी आध्यात्मजगत के वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत हुई है. ऋषि शब्द का अर्थ है मन्त्र-द्रष्टा, पहले ही से वर्तमान ज्ञान को उनहोंने प्रत्यक्ष किया है. पहले वैदिक साहित्य को सदियों तक याद करके कंठस्थ कर लिया जाता था, और सुरक्षित रखा जाता था, बहुत बाद में इसको लिख कर रखा जाने लगा.
यह वेद नामक ग्रंथराशि मुख्यतः दो भागों में विभक्त है- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड, संस्कार पक्ष और आध्यात्म पक्ष.कर्मकाण्ड में नाना प्रकार के याग-यज्ञों की बातें हैं; उनमें से अधिकांश का आज कोई उपयोग नहीं होता. कर्मकाण्ड का प्रधान भाव है- साधारण व्यक्ति के कर्तव्य (४ पुरुषार्थ-धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष) को जानना एवं मनुष्य जीवन के ४ आश्रमों- ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी तथा सन्यासी के भिन्न भिन्न कर्तव्यों का पालन जिन्हें अब भी थोडा बहुत माना जा रहा है. 'ज्ञान-काण्ड ' में आध्यात्मिक ज्ञान या शास्वत सत्यों को संचित किया गया है, अतः वे सदैव प्रासंगिक बने रहते हैं. (५/२०)
मुख्य रूप से इनको उपनिषदों में संचित रखा गया है. आगे चल कर समस्त उपनिषदों से आध्यात्मिक तत्वों के सारांश-सुमन को छन्दों में संग्रहित करके गीता रूपी सुन्दर माला ग्रथित हुई है. महाभारत के भीष्मपर्व के २५ से ४२ की भगवद्गीता में श्लोक-संख्या ७०० है. गीता सार्वजनीन धर्मग्रंथ है. 
व्यास देव रचित वेदान्त-सूत्र एक दूसरा ग्रन्थ है जिसमें इस दर्शन को सारगर्भित ढंग से विविध उद्धरणों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है.इन तीनों- उपनिषद, गीता और वेदान्त-सूत्र को एकसाथ मिला कर ' प्रस्थान-त्रय ' कहा जाता है. पारंपरिक रूप से इस दर्शन को ' वेदान्त-दर्शन ' कहा जाता है, जिसमें अन्य सभी दर्शनों के, विशेष तौर से ' योग-दर्शन ' की अच्छी बातों को भी समाहित किया गया है. तथा इस ' वेदान्त-दर्शन ' को ही सनातन धर्म का मुख्य अधिकारी दर्शन माना जाता है.
लक्ष्य तक पहुँचने के तीन सोपान 
 किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यह ' वेदान्त-दर्शन ' ही एकमात्र वैसा दर्शन है, जिसे मनीषियों ने क्रमानुसार व्यवस्थित ढंग से विकसित किया है. उल्टे यह कुछ आध्यात्मिक-सत्यों के आविष्कारक ऋषियों द्वारा स्वतःस्फूर्त कथनों का संग्रह है. इतिहास के बाद वाले काल-खंड में इसी प्रस्थान-त्रय को प्रमुख आधार मानकर  दर्शन की कई शाखायें विकसित हो गयीं हैं.
उनमें से तीन मतवाद- द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत-वाद  ऐसे मतवाद हैं जो सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं. ये तीनों मतवाद पहले एक दूसरे के साथ सामंजस्य नहीं बना पाते थे, प्रत्येक मतवाद यह दावा करता था कि वेदान्त के ऊपर केवल उसकी अपनी व्याख्या ही एकमात्र सत्य है. 
श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने नवीन ढंग से इनकी व्याख्या करते हुए कहा - ये सभी मार्ग सत्य हैं क्योंकि एक ही सत्य को विभीन्न दृष्टिकोण से देखते हैं, तथा पहले अपने को दूसरों से बिल्कुल पृथक समझने का जो भ्रम हम सबों में विद्यमान था, उन्हें क्रमशः दूर करते हुए, ये सभी मत हमलोगों को विश्व के एकत्व को अनुभूत करने वाले एक ही लक्ष्य तक पहुंचा देने में समर्थ हैं. 
अति संक्षेप में कहा जाय तो द्वैतवाद के अनुसार जीव-जगत और ईश्वर सभी एक दूसरे से पृथक हैं. ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं, वे ही इस जगत की सृष्टि-कर्ता, पालन-कर्ता और संहार-कर्ता हैं. विशिष्टाद्वैत में यह माना जाता है कि अस्तित्व की प्रत्येक वस्तु चाहे वह कितनी भी क्षुद्र क्यों न हो, उस पूर्ण का अंश है जो पूर्ण है या ईश्वर है. अद्वैत दर्शन दृढ़ता से यह घोषित करता है कि केवल ब्रह्म या ईश्वर का ही अस्तित्व है. अज्ञान के कारण ही हमलोग जीव और जगत को ईश्वर से भिन्न देखते हैं. 
समस्त जगत को ब्रह्मस्वरूप देखने की प्रेरणा देते हुए और अपने गुरुदेव द्वारा उद्धृत सूत्र ' दया नहीं सेवा ' की व्याख्या करते हुए विवेकानन्दजी कहते हैं- " किसी पर दया न करो. सबको अपने समान देखो. अपने को असाम्य रूप आदिम पाप से मुक्त करो. हम सब समान हैं और हमें यह न सोचना चाहिए, ' मैं महान हूँ और तुम बुरे हो इसलिए मैं तुम्हारे पुनरुद्धार का प्रयत्न कर रहा हूँ.' साम्य-भाव में स्थित रहना मुक्त पुरुष का लक्षण है. केवल पापी ही पाप देखता है. मनुष्य को न देखो, केवल प्रभु को देखो..शरीर के बंधन से मुक्ति प्राप्त करो. 
देह-बुद्धि से आसक्त न होना और भविष्य में दूसरा शरीर धारण करने की वासना को त्याग देना. उनलोगों के शरीर से भी प्रेम न करो और न उनके शरीर की इच्छा करो, जो हमें प्रिय हैं. जबतक हम शरीर-बुद्धि से मुक्त होना नहीं सीख लेते, हमें उसे रखना ही होगा.हमें शरीर से तादाम्य भाव न रखना चाहिए, अपितु उसे केवल एक साधन के रूप में देखना चाहिए, जिसका उपयोग पूर्णता प्राप्त करने में किया जाता है. 
श्रीराम भक्त हनुमान जी ने इन शब्दों में अपने दर्शन का सारांश कहा - 
देह्बुद्ध्या तु दासोअहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः |
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः || 
' मैं जब देह से अपना तादात्म्य करता हूँ तो मैं आपका दास हूँ, आपसे सदैव पृथक हूँ. जब मैं अपने को जीव समझता हूँ तो मैं उसी पूर्ण ब्रह्म या दिव्य प्रकाश की चिनगारी हूँ. जो कि तू है. किन्तु जब अपने को आत्मा से तदाकार करता हूँ तो मैं और तू एक हो ही जाते हैं. " (६/२६७-६८)    
' तब भी इष्ट-निष्ठा विशेष रूप से आवश्यक है. भक्तश्रेष्ठ हनुमान ने कहा है- 
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि |
तथापि मम सर्वस्वं रामः कमल लोचनः || 
-' मैं जानता हूँ, जो परमात्मा लक्ष्मीपति हैं, वे ही जानकीपति हैं, तथापि कमललोचन श्रीराम ही मेरे सर्वस्व हैं ' (५/२४९) उसी प्रकार ईसामसीह भी ईश्वर को कभी कभी अपना स्वर्गस्थ-पिता कहते हैं, फिर कभी कहते
हैं ' स्वर्ग का राज्य तुम्हारे ह्रदय मे है. ' फिर वे भी कहते हैं- ' मैं और मेरा पिता एक हैं '.   
{" जगत दो हैं जिनमें हम बसते हैं- एक बहिर्जगत और दूसरा अंतर्जगत. खोज पहले बहिर्जगत में ही शुरू हुई. परन्तु उससे भारतीय मन को तृप्ति नहीं हुई. अनुसंधान के लिये वह और आगे बढ़ा..खोज अन्तर्जगत में शुरू हुई, क्रमशः चारों ओर से यह प्रश्न उठने लगा- ' मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का क्या हाल होता है?
' अस्तीत्यैके नायमस्तीति चैके ' (कठ० उ० १/१/२०) 
--' किसी किसी का कथन है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है, और कोई कोई कहते हैं कि नहीं रहता; हे यमराज ! इनमें कौन सा सत्य है ? '
समस्या के समाधान के लिये भारतीय मन ने अपने में ही गोता लगाया, तब यथार्थ उत्तर मिला. वेदों के इस भाग का नाम है उपनिषद या वेदान्त या आरण्यक या रहस्य !.यहाँ हम देखते हैं, उपनिषदों के वीर तथा साहसी महामना ऋषि निर्भय भाव से बिना समझौता किये ही मनुष्य जाति के लिये ऊँचे से ऊँचे तत्वों की घोषणा कर गये हैं, जो कभी भी प्रचारित नहीं हुए. श्रुतियों के ये सार्वभौम सत्य, वेदान्त के ये अपूर्व तत्व, अपनी ही महिमा से अचल, अजेय और अविनाशी बनकर आज भी विद्यमान है. हे हमारे देशवासियो, मैं उन्हीं को तुम्हारे आगे रखना चाहता हूँ. "   
" आजकल हम लोग प्रायः एक विशेष भ्रम में पड़ जाते है. वेदान्त कहने से हम केवल अद्वैतवाद समझ लेते हैं..यदि भारत के सभी धार्मिक पन्थों का अध्यन करना है तो वर्तमान समय में प्रस्थान-त्रय को पढना सभी संप्रदाय वालों के लिये आवश्यक है. सबसे पहले हैं श्रुतियाँ अर्थात उपनिषद, दूसरे हैं व्याससूत्र जो अपने पहले के दर्शनों की समष्टि तथा चरम परिणति स्वरुप होने के कारण इतर दर्शनों से बढ़ कर समझे जाते हैं. पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि ये दर्शन एक दूसरे के विरोधी हों; बल्कि वे एक दूसरे के आधार स्वरुप हैं- मानो सत्य की खोज करनेवाले मनुष्यों को सत्य का क्रम-विकास दिखलाते हुए, व्यास-सूत्रों में उनकी चरम परिणति हो गयी है.
व्यास-सूत्रों में वेदान्त के अद्भुत सत्यों को क्रमबद्ध किया गया है तथा उपनिषदों एवं व्यास-सूत्रों के मध्य में वेदान्त की दिव्य टीका के रूप में गीता वर्तमान है. अतः भारत का प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय - चाहे वह द्वैतवादी, अद्वैतवादी या वैष्णव हो- उपनिषद, गीता तथा व्यास-सूत्र को प्रमाणिक ग्रन्थ मानता है. "  (५/२८५-२८७)
" जिस किसी ने एक नवीन संप्रदाय की नींव डाली है, उसने इन्हीं तीन प्रस्थानों को आधार बना कर एक नये भाष्य की रचना की है. अतः वेदान्त को उपनिषदों के किसी एक ही भाव में - द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद या अद्वैतवाद के रूप में आबद्ध कर देना ठीक नहीं है.एक अद्वैतवादी को अपना परिचय वेदान्ती कहकर देने का जितना अधिकार है, उतना रामानुज-संप्रदाय के विशिष्टाद्वैतवादी (भक्तिवेदान्त-सूत्र के रचयिता ' राम ब्रह्म परमारारथ रूपा ' कहने वाले ) को भी है. हिन्दू शब्द का अर्थ ही वेदान्ती है. तुम कदापि यह विश्वास न करो कि अद्वैतवाद के आविष्कारक आचार्य शंकर थे. मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि ये सब मत एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं.
हमारे षड्दर्शन महान तत्व के क्रमिक उद्घाटन मात्र हैं, जो संगीत कि तरह धीमे स्वरवाले पर्दों से उठते हैं, और अंत में समाप्त होते हैं, अद्वैत की वज्र-गम्भीर ध्वनि में. अद्वैतवादी कहते हैं, अस्तित्व केवल इसी अनन्त का है और नामरूप आदि जितने हैं सब माया है. नाम और रूप हटा दो तो तुम और हम सब एक हो जायेंगे.' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति - सत्ता एक ही है, परन्तु मुनियों ने भिन्न भिन्न नामों से उसका वर्णन किया है.' --हमारे राष्ट्रिय चरित्र-निर्माण का मूल मन्त्र यही है, इसे अपने जीवन में उतार लेने से ही हमारे राष्ट्र की समग्र जीवन-समस्या का समाधान हो जायेगा. इस अत्यन्त अद्भुत भाव का प्रचार हमें अभी दुनिया तक भी पहुँचा देना है.      
उपनिषदों का उद्देश्य चरम एकत्व के आविष्कार की चेष्टा है, और विभिन्नता में एकत्व का आविष्कार ही ज्ञान है. दृश्य जगत के नाम और रूपों में हजारों-हजार वैभिन्न्य देख रहे हैं, जड़ और चेतन भेद है, सभी चित्त-वृत्तियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं, जहाँ कोई रूप दूसरे से नहीं मिलता, जहाँ प्रत्येक वस्तु अपर वस्तु से पृथक है, उसमें भी एकत्व का आविष्कार करने का हमारा उद्देश्य कितना कठिन है ! 
उपनिषदों का प्रायः प्रत्येक अध्याय द्वैतवाद या उपासना से आरम्भ होता है. पहले शिक्षा दी गयी है कि ईश्वर मानो प्रकृति के बाहर है, वही हमारा उपास्य है, वही शासक है. आगे चल कर वे ही आचार्य बतलाते हैं कि ईश्वर प्रकृति के बाहर नहीं, नहीं बल्कि प्रकृति में अंतर्व्याप्त हैं. अंत में ये दोनों भाव छोड़ दिये गये हैं, और जो कुछ है सब वही है - कोई भेद नहीं. ' तत्वमसि श्वेतकेतो ' - हे श्वेतकेतु, तुम वही (ब्रह्म ) हो ! " (५/२८९)                        " अधिकांश पंडित, लगभग ९८ % , इस मत के पोषक हैं कि या तो अद्वैतवाद सत्य है, अथवा विशिष्टाद्वैतवाद अथवा द्वैतवाद; वाराणसी धाम के किसी घाट पर जाकर यदि तुम पाँच मिनट के लिये बैठो, तो तुम देखोगे कि इन भिन्न भिन्न सम्प्रदायों का मत लेकर लोग निरन्तर लड़-झगड़ रहे हैं. इस परिस्थिति में एक ऐसे महापुरुष (श्रीरामकृष्ण परमहंस ) का जन्म हुआ जिनका जीवन उस सामंजस्य की व्याख्या था, जो भारत के सभी सम्प्रदायों का आधारस्वरूप था और जिसको (प्रस्थान-त्रय को ) उन्होंने कार्यरूप में परिणत कर दिखाया. 
पंचेंद्रियों में फँसा हुआ जीव स्वभावतः द्वैतवादी होता है. जब तक हम पंचेंद्रियों में पड़े हैं, तबतक हम सगुण ईश्वर ही देख सकते हैं.रामानुज कहते हैं, ' जब तक तुम अपने को देह, मन या जीव (M /F ) सोचोगे तबतक तुम्हारे ज्ञान की हर क्रिया में जीव, जगत और इन दोनों के कारण स्वरुप ' वस्तुविशेष ' का बोध बना रहेगा.' परन्तु मनुष्य के जीवन में ऐसा भी समय आता है, जब शरीर-ज्ञान बिल्कुल चला जाता है, जब मन भी क्रमशः सूक्ष्मानुसूक्ष्म होता हुआ आत्मा में लीन हो जाता है (मन मर जाता है), जब देहाध्यास में डाल देने वाली भावना, मृत्यु का डर और दुर्बलता सभी मिट जाते हैं. तभी - केवल तभी उस प्राचीन महान उपदेश की सत्यता समझ में आती है. वह उपदेश क्या है? 

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: ।
                   निर्दोषं हि समं ब्रह्रा तस्माद् ब्रह्राणि ते स्थिता: ।। ( गीता ५/१९ )
  जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा (ब्रह्म ) में ही स्थित हैं ।।19।। 

 The living entity, by accepting his material existence, has become situated differently than in his spiritual existence. But if one understands that the Supreme is situated in His Paramātmā manifestation everywhere, that is, if one can see the presence of the Supreme Personality of Godhead in every living thing, he does not degrade himself by a destructive mentality, and he therefore gradually advances to the spiritual world. The mind is generally addicted to sense gratifying processes; but when the mind turns to the Supersoul, one becomes advanced in spiritual understanding. ) (५/२३९-४०) 
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ब्रह्म की दो अवस्था 
लक्ष्य तक पहुँचने के तीन सोपानों पर चर्चा करते हुए - ' विवेकानन्द साहित्य ' की भूमिका में सिस्टर निवेदिता लिखती हैं- ' प्रगति दृश्य से अदृश्य की ओर, अनेक से एक की ओर, निम्न से उच्च की ओर, साकार से निराकार की ओर होती है, किन्तु विपरीत दिशा में कदापि नहीं...द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं, जिनमें अंतिम अद्वैत ही लक्ष्य है. इस सिद्धान्त का यह एक और भी महान तथा अधिक सरल अंग है कि ' अनेक और एक ' (the Many and One ) विभिन्न समयों पर विभिन्न वृत्तियों में मन के द्वारा देखे जानेवाला ' एक ' ही तत्व है.' 
वे आगे कहतीं हैं- ' यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य हैं, तो केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, वरन सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के सभी प्रकार, सर्जन के सभी प्रकार भी, सत्य-साक्षात्कार के मार्ग हैं. अतः लौकिक और धार्मिक ( Sacred and Secular ) में अब आगे कोई भेद नहीं रह जाता. कर्म करना ही उपासना करना है. विजय प्राप्त करना ही त्याग करना है. स्वयं जीवन ही धर्म है. प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना (प्रवृत्ति-मार्ग ) उतना ही कठोर न्यास है, जितना कि त्याग करना और विमुख होना (निवृत्ति-मार्ग ). " ( वि० सा० ख० १/ पेज ठ, ड ) 
ब्रह्म या सत्य की भी दो अवस्थाएँ है- स्थैतिक (अपरिवर्तिक) और गतिज (सक्रीय)  (Static and Dynamic). अपनी स्थैतिक अवस्था में यह निरपेक्ष सत्ता है, अनेक से परे एकमेवाद्वितीय अवस्था, किसी भी दृष्टिगोचर वस्तु, विचार या कल्पना से परे की अवस्था है. अपने गतिज अवस्था में यह जीव, जगत और ईश्वर के रूप में प्रकाशित होता है.
श्रीरामकृष्ण के शब्दों में जिस व्यक्ति ने ब्रह्म के स्थैतिक अवस्था का अनुभव कर लिया है, वह ज्ञानी है. तथा जिसने यह अनुभव से जान लिया है कि अपने सक्रीय या गतिज अवस्था में ब्रह्म ही विभिन्न नामरुपों वाला जगत बन कर भास रहा है- वह विज्ञानी है. श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के आविर्भूत होने से पहले साधारण जन इस सत्य से परिचित नहीं थे.
आचार्य शंकर ने घोषणा की है वेदान्त दर्शन में यह स्पष्ट कहा गया है कि यह सम्पूर्ण जगत और जीव भी ब्रह्म ही हैं- (विवेकचुड़ामणि-४७८)
' अंतरस्थ मनुष्य ' को जानने का विज्ञान 
सोलहवीं शताब्दी में पाश्चात्य जगत नये उत्साह और नये नये विचारों कि उर्जा से तरंगायित हो रहा था. तभी से विज्ञान ने भी लम्बे लम्बे कदमों से प्रगति करना प्रारम्भ किया एवं उन्नीसवीं शताब्दी आते आते इसने ईसाई धर्म के आध्यात्मिक जड़ों को चकनाचूर करके रख दिया, अब वहां के बुद्धिजीवी धर्म के नाम पर दिये जानेवाले  निरर्थक काल्पनिक उपदेशों में विश्वास करने को तैयार नहीं थे. इसीलिए भौतिकवाद विजयी हो गया, और तबसे मनुष्य को केवल एक जैविक-आर्थिक-राजनितिक जन्तु समझा जाने लगा. जड़वादी सभ्यता के प्रचार प्रसार ने एक दार्शनिक शून्य एवं आध्यातिक संकट उत्पन्न का दिया.
पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के पास इस तरह के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था कि- मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ? किसी मनुष्य को निःस्वार्थी क्यों बनना चाहिए तथा उसे कुछ पाने की आशा किये बिना ही दूसरों से प्रेम क्यों करना चाहिए ?
स्वामीजी इसका अवलोकन करते हैं- " आधुनिक मनुष्य, चाहे लोगों के बीच जो कुछ भी क्यों न कहे, अपने हृदय के एकान्त में यह जानता है कि अब वह ' विश्वास ' नहीं कर सकता. कतिपय बातों में इसलिए विश्वास करना कि पुरोहितों की कोई संगठित संस्था (चर्च आदि) विश्वास करने के लिये कहती है, या ऐसा किसी ग्रंथ में लिखा है, या इसलिए विश्वास करना कि उसका समाज चाहता है- आधुनिक मनुष्य जानता है कि ऐसा कर पाना उसके लिये असम्भव है. कुछ लोग ऐसे अवश्य हैं, जो तथाकथित लोकप्रिय धर्म (दशहरा-होली-दिवाली ) से संतोष कर लेते हैं, किन्तु हम अच्छी तरह जानते हैं कि वे कुछ सोचते-विचारते नहीं हैं. उनकी ' आस्था ' की धारणा को ' चिन्तनशून्य प्रमाद ' ( not-thinking-carelessness ) ही कहना ठीक होगा. धर्म के इस प्रकार के प्रासाद के चूर चूर हुए बिना यह युद्ध और आगे नहीं चल सकता.
अब प्रश्न उठता है, क्या बचने का कोई उपाय है ? इस प्रश्न को और भी अच्छे ढंग से रखा जा सकता है; क्या धर्म भी उन बुद्धि के आविष्कारों की कसौटी पर स्वयं को सत्य प्रमाणित करा सकता है, जिसकी सहायता से अन्य सभी विज्ञान अपने को सत्य सिद्ध करते हैं ? बाह्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण-पद्धतियों का प्रयोग होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता है ?
मेरा विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिए और मेरा अपना विश्वास यह भी है कि यह कार्य जितना शीघ्र हो, उतना ही अच्छा ! यदि कोई धर्म इन अन्वेषणों के द्वारा ध्वंश प्राप्त हो जाय, तो वह सदा से निरर्थक बकवास था, --कोरे अन्धविश्वास पर आधारित धर्म था, एवं वह जितनी जल्दी दूर हो जाय, उतना ही अच्छा. मेरी अपनी दृढ धारणा है कि ऐसे धर्म का लोप होना एक सर्वश्रेष्ठ घटना होगी. 
सारे मैल जरुर धुल जायेंगे, और इस अनुसन्धान के फलस्वरूप धर्म के शाश्वत तत्व विजयी होकर निकल आयेंगे. और वह विज्ञान की कसौटी पर परीक्षित धर्म केवल विज्ञान-सम्मत ही नहीं होगा- कम से कम उतना ही वैज्ञानिक माना जायेगा जितनी कि भौतिकी या रसायनशास्त्र कि उपलब्धयां हैं- प्रत्युत और भी सशक्त हो उठेगा; क्योंकि भौतिकी या रसायन शास्त्र के पास अपने सत्यों को सिद्ध करने का अन्तः साक्ष्य नहीं है, जो धर्म को उपलब्ध है. " ( २/ २७८ )
 वस्तुतः वेदान्त भी एक विज्ञान है जो अन्तर्जगत के सत्यों को आविष्कृत करता है, इसीलिए श्रीरामकृष्ण एवं विवेकानन्द ने जनसाधारण के समक्ष वेदान्त को अंतरस्थ मनुष्य को जानने का विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया है. विवेकानन्द ने इसकी व्याख्या बहुत सरल युक्ति के आधार पर करते हुए यह दिखलाया है कि वेदान्त का वाह्यजगत के विज्ञान के साथ कोई झगड़ा या मतभिन्नता नहीं है. स्वामीजी के देहत्याग करने के १०० वर्ष बीत जाने के बाद आधुनिक विज्ञान ने बहुत प्रगति की है, तथा कई वैज्ञानिकों ने इस मत का समर्थन किया है. तथा स्वामीजी की भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध करते हुए विज्ञान और धर्म न केवल एक दुसरे के निकट आ चुके हैं, बल्कि उन दोनों ने आपस में हाथ भी मिला लिया है.
साधारण मनुष्य यह सोचता है कि धर्म केवल कुछ विश्वासों, धार्मिक रीती-रिवाजों और धार्मिक क्रियापद्धति के समुच्चय का नाम है, जिसके साथ कुछ साम्प्रदायिक पहचान भी संयुक्त रहती है. धर्म को इसी दृष्टिकोण से देखनेवालों के लिये स्वामी विवेकानन्द के धर्म के उपर विशेष कुछ कहने के लिये नहीं था. अन्तर्जगत के सत्यों का अनुसन्धान करके उन्हें अनुभूत करने के सच्चे और गहन खोज को ही वे धर्म मानते थे. क्या यही काम विज्ञान भी नहीं करता ? 
 निस्संदेह वाह्यजगत में ठीक ऐसा ही खोज विज्ञान भी करता है. अपने अन्तिम उद्देश्य और सन्निकर्ष में विज्ञान और धर्म तत्वतः हुबहू एक ही चीज है. तथापि इनमें एक अन्तर अवश्य है. वाह्यजगत का विज्ञान विश्व-ब्रह्माण्ड के सत्यों को खोजने के लिये वाह्य उपकरणों का प्रयोग करता है, वहीँ धर्म अन्तर्जगत का विज्ञान होने के कारण, हमारे अन्तर्निहित सत्य को उद्घाटित करने के लिये, आन्तरिक उपकरणों का उपयोग करता है. किन्तु इन दोनों प्रकार की खोज में कहीं भी कोई साम्प्रदायिक बुद्धि नहीं रहती है. चूँकि सापेक्षता के सिद्धान्त (The  theory of relativity) का आविष्कार अल्बर्ट आइन्सटाइन ने किया था, इसीलिए उसे जर्मन या युहूदी सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता, ठीक उसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि वेदान्त भारतीय या हिन्दुओं की सम्पत्ति है.
स्वामी विवेकानन्द मुहम्मद सरफराज हुसैन को लिखित पत्र में इसी तथ्य की ओर इशारा करते हुए कहते
हैं- " चाहे हम उसे वेदान्त कहें या और किसी नाम से पुकारें, परन्तु सत्य तो यह है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अन्तिम शब्द है, और केवल उसी के दृष्टिकोण से सब धर्मों और सम्प्रदायों को प्रेम से देखा जा सकता है. हमें विश्वास है कि भविष्य के प्रबुद्ध मानवी समाज का यही धर्म है. अन्य जातियों की अपेक्षा हिन्दुओं को यह श्रेय प्राप्त होगा कि उनहोंने इसकी सर्वप्रथम खोज की.
इसका कारण यह है कि वे अरबी और हिब्रू दोनों जातियों से अधिक प्राचीन हैं. तथापि वह व्यावहारिक अद्वैतवाद (वेदान्त)- जो समस्त मनुष्य-जाति को अपनी ही आत्मा का स्वरुप समझता है, तथा उसीके अनुकूल आचरण करता है- का प्रचार-प्रसार एवं विकास हिन्दुओं में सार्वभौमिक भाव से होना अभी भी शेष है. 
इसके विपरीत हमारा अनुभव यह है कि यदि किसी धर्म के अनुयायी व्यावहारिक जगत के दैनिक कार्यों के क्षेत्र में, इस ' साम्यभाव ' को पर्याप्त रीति से व्यव्हार में अपना सके हैं वे इस्लाम और केवल इस्लाम के अनुयायी हैं." (६/४०५)
सभी धर्मों की नींव है- वेदान्त 
स्वामीजी ने वेदान्त की शिक्षा समन्वयाचार्य के चरणों में बैठ कर ग्रहण की थी, इसलिए प्रारम्भ से ही वे किसी धर्म को मन मारकर बर्दाश्त नहीं करते थे, बल्कि सभी धर्म-मार्गों को सत्य कह कर स्वीकार करते थे. इतना ही नहीं उन्होंने प्रचुर संश्लेष्ण देते हुए समस्त धर्मों को वेदान्त के विज्ञान में समावेशित करने का प्रयास किया है, ६ मई १८९५ को अमेरिका से आलसिंगा पेरूमल को स्वामीजी लिखते हैं- " अब मैं तुम्हें अपने एक नूतन आविष्कार के विषय में बतलाऊंगा. समग्र धर्म वेदान्त में, अर्थात वेदान्त दर्शन के तीन सोपानों- द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत में निहित हैं. मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के क्रम में ये तीनों सोपान के जैसे - एक के बाद एक आते हैं. प्रत्येक सोपान का अनुभव प्राप्त करना आवश्यक है. 
 सार-रूप से यही धर्म है. भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार-व्यवहारों और धर्ममतों में वेदान्त के प्रयोग का नाम है- हिन्दू धर्म. यूरोप की जातियों के विचारों में उसके पहले सोपान अर्थात द्वैतवाद के प्रयोग का नाम है- ' ईसाई धर्म '. सेमेटिक जातियों में उसका ही प्रयोग है, ' इस्लाम धर्म '. अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूती के आकर मेंहुआ ' बौद्ध धर्म '- इत्यादि, इत्यादि.
  धर्म का अर्थ है वेदान्त; उसका प्रयोग विभिन्न राष्ट्रों के विभिन्न प्रयोजन, परिवेश एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता ही रहेगा. मूल दार्शनिक तत्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव, शाक्त आदि हर संप्रदाय ने अपने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान-पद्धति में उसे रूपान्तरित कर लिया है. "
( ४/२८३ ) 
हमारी आन्तरिक महिमा एवं आधारभूत एकत्व का बीज
सभी जीवों का दैवी सार, हमारा यथार्थ ' मैं ', हमारा अन्तर्निहित चैतन्य-बोध - यह आत्मा ही है. वेदान्त कहता है कि सारी शक्ति एवं पवित्रता पहले से ही इस आत्मा में विद्यमान है. आइये सुने कि इस सम्बन्ध में स्वामीजी क्या कहते हैं- " इतने मत-मतान्तरों, विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों तथा शास्त्रों के होते हुए भी यदि कोई सिद्धान्त हमारे सब सम्प्रदायों का सामान्य आधार है, तो वह है आत्मा की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास, और यह समस्त संसार का भाव-स्रोत परिवर्तित कर सकता है.
हिन्दू, जैन तथा बौद्धों में, वस्तुतः भारत में सर्वत्र यह अटल विश्वास परिव्याप्त है कि आत्मा ही समस्त शक्तियों का आधार है. और तुम यह भली भांति जानते हो कि भारत में ऐसी कोई दर्शन प्रणाली नहीं है, जो इस बात की शिक्षा देती हो कि हमें शक्ति, पवित्रता अथवा पूर्णता कहीं बाहर से प्राप्त होगी, वरन हमें सर्वत्र यही शिक्षा मिलती है कि वे तो हमारे जन्मसिद्ध अधिकार हैं, हमारे लिये उनकी प्राप्ति स्वाभाविक है. अपवित्रता तो केवल एक वाह्य आवरण है जिसके नीचे हमारा वास्तविक स्वरुप मानो ढँक सा गया है; परन्तु जो सच्चा ' तुम ' है वह पहले से ही पूर्ण है,शक्तिशाली है. " (५/५६)
स्वामीजी १८९७ ई० में अपने मद्रास भाषण में स्पष्ट रूप से कहा है कि वे किस दर्शन का प्रचार-प्रसार करना चाहते हैं- " अद्वैतवाद, द्वैतवाद अथवा अन्य किसी वाद का प्रचार करना मेरा उद्देश्य नहीं है. हमें इस समय आवश्यकता है केवल आत्मा की- उसके अपूर्व तत्व, उसकी अनन्त शक्ति, अनन्त वीर्य, अनन्त शुद्धता और अनन्त पूर्णता के तत्व को जानने की. यदि मेरे कोई सन्तान होती तो मैं उसे जन्म के समय से ही सुनाता 
- ' तत्वमसि निरंजन: ' तुमने अवश्य ही पुराण में रानी मदालसा की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी. उसके सन्तान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रख कर झुलाते हुए उसके निकट गति थी- ' तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप; तुम हो सर्वशक्तिशाली, तेरा है अमित प्रताप.' इस कहानी में महान सत्य छिपा हुआ है. अपने को महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे. " (५/१३७-३८)  
इसीलिए उन्होंने सम्पूर्ण मानवजाति को तुरही-निनाद करते हुए - उठो ! जागो ! का आह्वान सुनाया :
" तुम शुद्धस्वरुप सच्चिदानन्द आत्मा हो, उठो, जाग्रत हो जाओ. हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. जागो, उठो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल और दुखी मत समझो. हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ, अपना स्वरुप प्रकाशित करो.
तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिये उचित नहीं है. जगत से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो-देखो, इसका क्या व्यावहारिक फल होता है, देखो, कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो उठती हैं, और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है. मनुष्य जाति से यह बतलाओ और उसे उसकी शक्ति दिखा दो. तभी हम स्वयम अपने दैनन्दिन जीवन में उसका प्रयोग करना सीख सकेंगे. "( ८/१५ )   
अपने देशवासियों के लिये स्वामीजी आध्यात्मिकता से अधिक बलवान बनने की शिक्षा देना चाहते थे, इसीलिए वे उनके सम्मुख वेदान्त को रखते हुए कहते हैं - " हे बन्धुगण, तुम्हारी और मेरी नसों में एक ही रक्त का प्रवाह हो रहा है, तुम्हारा जीवन-मरण मेरा भी जीवन-मरण है.मैं तुमसे पूर्वोक्त कारणों से कहता हूँ कि हमको शक्ति, केवल शक्ति ही चाहिए. और उपनिषद शक्ति की विशाल खान हैं.
उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी बना सकते हैं. उनके द्वारा समस्त संसार पुनरुज्जीवित, सशक्त और वीर्य-सम्पन्न हो सकता है.समस्त जातियों को, सकल मतों को, भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के दुर्बल, दुखी, पददलित लोगों को स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर मुक्त होने के लिये वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रहे हैं. मुक्ति अथवा स्वाधीनता, दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों का मूल मन्त्र है. " ( ५/१३३-३४)    
उसी भाषण में स्वामीजी आगे कहते हैं- " समग्र संसार का अखण्डत्व (भूमण्डलीकरण) - जिसको ग्रहण करने के लिये संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा महान भाव है. " (५/१३५) 
हमलोग स्वरूपतः बिल्कुल एक हैं, इसीलिए हम सभी लोगों को आपस में प्रेम करना चाहिए. हमलोगों को अवश्य निःस्वार्थपर होना चाहिए, क्योंकि मेरी आत्मा दूसरों की आत्मा से पृथक है- ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है. दूसरों का सुख दुःख मेरा सुख दुःख है. अतः हमलोगों को संघबद्ध होकर काम करना चाहिए, अपने को पृथक पृथक नाम-रूपों वाला श्रीमान अमुक या श्रीमती अमुक मान कर नहीं, बल्कि अपनी अन्तस्थ यथार्थ आत्मा को ही सबों में समान रूप से विद्यमान देख कर संघबद्ध प्रयास करना चाहिए. यह बात समझ में आ जाने पर कोई अपने लिये विशेषाधिकार पाने का दावा नहीं कर सकेगा.
  स्वामीजी ने कहा है - " अपवित्र ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्यों को असुर बना देता है. यन्त्रों तथा अन्य सज-सामानों के निर्माण से बहुत बड़ी शक्ति प्राप्त की जा रही है और आज विशेषाधिकारों का ऐसा दावा किया जा रहा है, जैसा संसार के इतिहास में पहले कभी नहीं किया गया था. इसी कारण वेदान्त इन ( रंग-भेद आदि ) विशेषाधिकार के दावों के विरुद्ध प्रचार करना चाहता है; ताकि मनुष्यों की आत्मा पर होने वाले अत्याचार को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाये. " (९/१०२) 
ह्रदय का विस्तार करने तथा त्याग और सेवा के आदर्श को युवाओं के भीतर प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से भारत के युवाओं के समक्ष व्यावहारिक वेदान्त को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- " अतः, हे लाहौर के युवको, फिर अद्वैत की वही प्रबल पताका फहराओ, क्योंकि और किसी आधार पर तुम्हारे भीतर वैसा अपूर्व प्रेम नहीं पैदा हो सकता. जब तक तुम लोग उसी एक भगवान को सर्वत्र एक ही भाव से उपस्थित नहीं देखते, तबतक तुम्हारे भीतर वह प्रेम पैदा नहीं हो सकता- उसी प्रेम की पताका फहराओ.
उठो, जागो, जब तक लक्ष्य पर नहीं पहुँचते तब तक मत रुको. उठो, एक बार और उठो, क्योंकि त्याग के बिना कुछ हो नहीं सकता. दुसरे की यदि सहायता करना चाहते हो, तो तुम्हें अपने अहंभाव को छोड़ना होगा. ईसाईयों की भाषा में कहता हूँ- तुम ईश्वर और शैतान की सेवा एक साथ नहीं कर सकते. चाहिए वैराग्य. तुम्हारे पूर्व पुरुषों ने बड़े बड़े कार्य करने के लिए संसार का त्याग किया था. वर्तमान समय में ऐसे अनेक मनुष्य हैं, जिन्होंने अपनी ही मुक्ति के लिए संसार का त्याग किया है. तुम सब कुछ दूर फेंको- यहाँ तक कि अपनी मुक्ति का विचार भी दूर रखो- जाओ, दूसरों की सहायता करो. तुम सदा बड़ी बड़ी साहसिक बातें करते हो, परन्तु अब तुम्हारे सामने यह व्यावहारिक वेदान्त रखा गया है. तुम अपने इस तुच्छ जीवन की बलि देने के लिए तैयार हो जाओ. " (५/३२०-२१)
' बहुजन - हिताय '  
सिस्टर निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में स्वामीजी के बारे में लिखती हैं- " उन्होंने एक पंडित की भाँति नहीं, एक अधिकारी व्यक्ति की भाँति उपदेश दिया. क्योंकि जिस सत्यानुभूति का उपदेश उन्होंने दिया, उसकी गहराइयों में वे स्वयं भी गोता लगा चुके थे, और रामानुज की भाँति उसके रहस्यों को चांडाल, जाति-बहिष्कृत और विदेशियों को बतलाने के निमित्त ही वे वहाँ से लौटे थे. " (१/ भूमिका 'ठ') स्वामीजी गौतम बुद्ध के सम्बन्ध में कहते हैं- " बुद्ध ने वेदान्त को प्रकाशित किया, और उसका जनसाधारण में प्रचार करके भारतवर्ष की रक्षा की . " (२/९३) 
बुद्ध के जाने के २५०० वर्ष बाद स्वयं स्वामीजी ने भी वही कार्य किया, वे कहते हैं- " प्राचीन काल में केवल अरण्यवासी संन्यासी ही उपनिषदों की चर्चा करते थे. वे रहस्य के विषय बन गये थे. उपनिषद सन्यासियों तक ही सीमित थे. शंकर ने कुछ सदय हो कहा है, ' गृही मनुष्य भी उपनिषदों का अध्यन कर सकते हैं; इससे उनका कल्याण ही होगा, कोई अनिष्ट नहीं होगा.' परन्तु अभी तक यह संस्कार कि उपनिषदों में वन, जंगल अथवा एकान्तवास का ही वर्णन है, मनुष्यों के मन से नहीं हटा...वेदान्त के इन सब महान तत्वों का प्रचार आवश्यक है, ये केवल अरण्य में अथवा पहाड़ो की कन्दराओं में ही आबद्ध नहीं रहेंगे; वकीलों और न्याधिशों में, प्रार्थना-मन्दिरों में, दरिद्रों की कुटियों में, मछुओं के घरों में, छात्रों के अध्यन-स्थानों में- सर्वत्र ही इन तत्वों की चर्चा होगी और ये काम में लाये जायेंगे. 
यदि कहो कि, उपनिषदों के सिद्धान्तों को मछुए आदि साधारण जन किस प्रकार काम में लायेंगे ? इसका उपाय शास्त्रों में बताया गया है- तुम अपने को महान समझो तो तुम सचमुच महान बन जाओगे.
मछुआ यदि अपने को आत्मा समझकर चिन्तन करे, तो वह एक उत्तम मछुआ होगा. विद्यार्थी यदि अपने को आत्मा विचारे, तो वह एक श्रेष्ठ विद्यार्थी होगा. वकील यदि अपने को आत्मा समझे, तो वह एक अच्छा वकील होगा. औरों के विषय में भी यही समझो " (५/१३९-४० ) 
विवेकानन्द के लिए ये सभी विचार बहुत सुन्दर हो सकते हैं, परन्तु जब तक किसी सिद्धान्त को व्यावहारिक धरातल पर प्रत्येक मनुष्य के द्वारा नहीं उतारना सम्भव न हो उस सिद्धान्त का कोई मूल्य नहीं है. उनके जीवन का यह ध्येय था कि इन महान सत्यों को ब्राह्मण विद्वानों के चंगुल से निकाल कर, सारे संसार में फैला दिया जाये. इन्हें बुद्धिवादियों की अनुपयोगी तर्क-वितर्क, चमत्कार, और मिथ्या भय के जाल से बहार निकाल कर इतना सरल बना दिया जाय कि इसे एक बच्चा भी समझ सके. उन्होंने इन विचारों को आधुनिक संसार के समक्ष सरल अंग्रेजी में प्रमाणिक युक्ति-विचार के साथ प्रकट कर दिया. 
अपने गुरुदेव की भाँती, उन्होंने भी इन सत्यों को अपने जीवन में उतार कर दिखा दिया, और इस प्रकार अपने भीतर भी विवेकानन्द ने भी अपने भीतर एक ऐसी जीवन्त शक्ति उत्पन्न की जो पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित कर देने में समर्थ है. 
आज भी वे सर्वत्र मनुष्य जाती को देवमानव में रूपान्तरित होने के लिए पुकार रहे है-" उठो, जागो, जब तक लक्ष्य पर नहीं पहुँचते तब तक मत रुको ! " उनका यह आह्वान आम पंडितों की तरह कोरा भाषण नहीं है. उन्होंने ऐसा कोई उपदेश किसी को नहीं दिया है, जिसको उन्होंने स्वयं अपने जीवन में अनुभूत एवं आत्मसात नहीं कर लिया था. तथा उनके उपदेशों में बहुजन हिताय सम्पूर्ण विचार को बीज रूप से सार-संक्षेप बड़े सुन्दर ढंग से कहा है- " एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है ? " ( ८/३४) 
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( The Neo-Vedanta of Vivekananda - अरुणाभ सेनगुप्ता द्वारा विवेक-जीवन annual number 2011 में छपे लेख का हिन्दी अनुवाद )