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मंगलवार, 21 सितंबर 2010

[55]" सत्यनिष्ठा "

मनसा द्वीप रामकृष्ण मिशन "
यह जो महामण्डल का कार्य चल रहा है, ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रयास बहुत ही महत्वपूर्ण है .और स्वामीजी भी तो यही चाहते थे- ' जगत का कल्याण '. सम्पूर्ण जगत का कल्याण, सभी देश के मनुष्यों का कल्याण. और माँ सारदा कि भाषा में वेदान्त का सार भी है- " कोई पराया नहीं, संसार तुम्हारा है ! " सभी को अपना जान कर यथासाध्य सबों के लिये कुछ (उनके मन को जगाने का प्रयास) करते जाना. किन्तु इस प्रयास में कूद पड़ने के पहले जो करनीय है, वह है -स्वयं को थोड़ा तैयार कर लेना. स्वयं थोड़ा तैयार हुए बिना यह कार्य होना सम्भव नहीं है. 
महामण्डल का कार्य कई स्थानों में चल रहा है. प०बंगाल के बिल्कुल दक्षिण में बंगोपसागर (बंगाल की खाड़ी) है. उसके बिल्कुल छोर पर अनेकों द्वीप हैं. हममे से वे लोग जो बीच में निवास करते हैं, हममे से कई लोगों ने केवल उनकी चर्चा सुनी है, परन्तु अपने आँखों से एक आध को ही देखा होगा. किन्तु उसकी धारणा नही की जा सकती. सुन्दरवन में एकसौ से भी अधिक द्वीप हैं.
उनमे से सागरद्वीप सबसे बड़ा है. सागरद्वीप में 'मनसाद्वीप रामकृष्ण मिशन ' केन्द्र है.उस अँचल के मनुष्यों के पास शिक्षा नहीं है, किन्तु उन पुराने सन्यासियों के बारे में कितने लोगों को पता है, जिन्होंने अपने ह्रदय में ठाकुर-माँ-स्वामीजी के उपदेशों के मर्म को धारण करके, वहाँ के लोगों के बीच इनकी शिक्षाओं को पहुँचा देने के लिये अपने प्राणों को न्योछावर करके कई वर्षों तक कार्य चलाया है?  
उस अँचल में गुरु विवेकानन्द के नाम पर अदभुत उत्साह जाग्रत हुआ था. कितने ही वर्षों पहले स्कूल कि स्थापना हुई है. उस स्कूल में एक सन्यासी उसकी स्थापना के समय से ही, कार्य किये थे. जब उनकी उम्र बहुत ज्यादा हो गयी तो उनका शरीर बिल्कुल जीर्ण-शीर्ण हो गया तब वे बेलुड मठ में invalid chair - पर बैठे कर इधर उधर का कुछ कार्य देखते थे. एक दिन उनका दर्शन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था. वे उसी चेयर पर बैठे हुए थे, उनके सेवक गण उनके कान के निकट तेज आवाज में बोल बोल कर थोड़ा परिचय देने की चेष्टा किये. इस प्रकार एक महामण्डल नामक संस्था है, ये उसमे कार्य करते हैं. उन्होंने प्रसन्न होकर कहा था- ' वाः वाः बहत अच्छी बात है ! ' इनकी प्रसन्नता को देखने से जो आनन्द होता है, उसकी कल्पना भी नही  की जा सकती. 
परवर्ती काल में अनेकों साधु उसी सुन्दरवन में जाकर उस आश्रम के सञ्चालन का दायित्व ग्रहन किया है.आश्रम के बाहर सबसे पहले आता है- काकद्वीप. उसी रास्ते से होकर मनसाद्वीप जाने का मार्ग है.
इसीलिये वहाँ के कुछ निवासियों को मनसाद्वीप के सिद्धिदानन्दजी  ने वहाँ पर श्रीरामकृष्ण जन्मोत्सव मानाने की बात कही. सबसे पहले वहाँ पर रहने वाले नदिया के चाँद साहा एवं उनके व्यवसाई मित्र निर्मल पाल से इस सम्बन्ध में बातचीत किये. उनलोगों ने भी जन्मोत्सव के आयोजन के प्रति बहुत उत्साह और आग्रह दिखाया. किन्तु स्थानाभाव के कारण पहला उत्सव नदे बाबू के घर के छत पर ही आयोजित करना पड़ा. बाद में यह उत्सव एक क्लब के मैदान में आयोजित होने लगा और उन्हीं लोगों के उत्साह से काकद्वीप में भी ठाकुर का एक मन्दिर स्थापित हो गया. 
एक सन्यासी ने वहाँ आ कर उस मन्दिर के सञ्चालन का भार ग्रहण किया. उसके बादसे उसी जगह में उत्सव आदि होने लगे. वहाँ पर छोटे बच्चों के के लिये एक स्कूल निर्मित हो गया. इन सभी कार्यों में नदे बाबू का सहयोग मिला था, नदे बाबू एक गृहस्थ होने के बावजूद वयवसाय आदि में ज्यादा सिर नहीं खपाते थे.ठाकुर माँ स्वामीजी के विषय में पढना, रात रात भर जाग कर पढना और सर्वदा इसी को लेकर अपनी पूरी जिन्दगी समर्पित कर दिये थे. उस अँचल के घर घर में ठाकुर-माँ-स्वामीजी का भाव पहुँच गया है. वहाँ बहुत वर्षों से लगातार ठाकुर माँ स्वामीजी का उत्सव आयोजित होता आ रहा है. पर अब वही और भी अधिक फैलने लगा था. 
इस प्रकार होते होते अन्यान्य द्वीपों में भी ठाकुर का उत्सव मनाया जायेगा ऐसी योजना बनी. महामण्डल गठित होने के समय से ही प्रति वर्ष मुझे उस उत्सव में जाने के लिये कहते थे, और मैं जाया करता था. जहाँ तक मुझे याद है मैं लगातार पचीस-तीस वर्षों तक इन द्वीपों में प्रति वर्ष इधर उधर के कम से कम आठ, दस, बारह , चौदह द्वीपों तक के उत्सव में भाग लिया हूँ.केवल इस मनसा द्वीप में ही नहीं, इस प० बंगाल का सिवाना जहाँ तक है, वहाँ तक के कई द्वीपों में ठाकुर का उत्सव हुआ है. वहाँ पर जाने में अदभुत आनन्द मिलता था. किन्तु उन द्वीपों तक पहुँच पाना तब बहुत कष्टकर हुआ करता था, इधर सुनता हूँ कुछ उन्नति हुई है. 
किसी भी द्वीप में ठाकुर के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में दिन भर उत्सव मनाया जाता था, उसके बाद संध्या के समय थोड़ा गाना हुआ, आध्यात्मिक चर्चा सम्मलेन (आलोचना सभा) हुई, उसके बाद रात्रि में सभी एक साथ बैठ कर ' लंगर ' में भोजन किये. उस समय हमलोगों का एक प्रकार का यह अभ्यास सा ही हो गया था कि, एक द्वीप पर उत्सव समाप्त होते ही अगले द्वीप के उत्सव में भाग लेने के लिये निकल पड़ते थे.
उत्सव समाप्त होते होते रात्रि के बारह बज जाते थे, साढ़े बारह एक बजे तक भी हमलोग नौका में चढ़ कर सो रहते थे. एक द्वीप से दूसरे द्वीप तक आवागमन का साधन यह नौका ही थी, परन्तु तब आज के जैसा मोटर चालित नावें नहीं हुआ करतीं थी, पतवार से चलने वाली नावें ही हुआ करती थीं. 
कई बार तो ऐसा भी होता था कि नौका रात भर चलती रहती थी. प्रातः काल में य़ा सुबह होने के बाद नौका किसी द्वीप में जाकर किनारे से लगती थी. उस द्वीप में नाव वाला घुटने तक जल में ही उतरने को कहता था, वह स्थान भी कादो-कीचड़ से भरा होता था. वहाँ उतरने के बाद किसी तरह कहीं थोड़ा सा जल मिला तो वहाँ रुक कर हाँथ पाँव धो कर फिर चलते चलो पैदल ही चलते जाना होता था क्योंकि जब रोड जैसा कुछ था ही नहीं तो किसी यान-वाहन का प्रश्न ही कहाँ उठता था.टेंढ़े-मेंढे पगडंडियों से होकर य़ा बांध के ऊपर से चलते चलते आधा घन्टा, एक घन्टा, डेढ़ घन्टा पैदल चलने के बाद जहाँ उत्सव होने वाला होता वहाँ हमलोग पहुँच पाते थे. जैसे तैसे वहाँ पहुँचने के बाद स्नान-भोजन-भजन समाप्त करके थोड़ा विश्राम करने के बाद संध्या में उत्सव में भाग लेते थे. वहाँ से कार्यक्रम समाप्त होने के बाद फिर अगले द्वीप पर उत्सव में भाग लेने के लिये निकलना होता था. इस प्रकार अनेकों बार हुआ है. प्रत्येक वर्ष वहाँ के उत्सव में जाने का सौभाग्य मिला है. 
वहाँ के निवासियों में ठाकुर-माँ स्वामीजी के प्रति अदभुत आकर्षण, प्रेम, श्रद्धा निवेदन की चेष्टा को देखने से बहुत आश्चर्य होता था. वहाँ के अधिकांश निवासी अशिक्षित थे. किसी किसी द्वीप में स्कूल भी है, वहाँ के निवासी शिक्षित भी मिलते थे. उस समय मनसाद्वीप में जो सन्यासी थे, वे वहाँ बहुत दिनों से थे तथा उनकी उम्र भी बहुत अधिक हो गयी थी, और वे एक अत्यन्त अच्छे मनुष्य थे.दुबला-पतला शरीर, दीर्घ चेहरा, ऐसा लगता मानो उनको चलने-फिरने में थोड़ा कष्ट का अनुभव भी होने लगा था. किन्तु उनके चेहरे पर कभी थकान नही दिखता था. माइल पर माइल पैदल ही चलते जा रहे हैं, तो जा रहे हैं. उनकी एक दो बातें याद जिन्हें मैं बांटना चाहूँगा. 
वे एक समय में रामकृष्ण मिशन के एक बड़े स्कूल में प्रधान शिक्षक के पद पर कार्यरत थे. वहाँ पर एक दिन एक ब्रह्मचारी आकर उनसे कहते हैं- ' कल तो प्राइज डिस्ट्रीब्युसन होने वाला है, उसके साथ सभी लडकों को सर्टिफिकेट आदि भी दिये जायेंगे, ढेर सारे सर्टिफिकेट देने हैं, इन सब पर आप आज ही हस्ताक्षर करके रख दीजिये.' जब वे एक सर्टिफिकेट पर हस्ताक्षर करने के बाद उस पर तारीख डालने ही वाले थे तो ब्रह्मचारीजी ने कहा- ' महाराज, आज की तारीख मत डालियेगा, वहाँ पर कल की तारीख डालनी होगी, क्योंकि यह सर्टिफिकेट तो कल देना होगा.' वे थोड़ी देर तक उस ब्रह्मचारी के चेहरे की ओर देख कर एक ओर रखने के बाद बोले- ' आज हस्ताक्षर कराना चाहते हो तो इस पर आज का ही तारीख दिया जायेगा, यदि कल की तारीख चाहते हो तो हस्ताक्षर भी कल ही होगा.'
और एक घटना है, इसी तरह किसी द्वीप में संध्या-सभा हो रही थी, वे ज्यादा बोलते नही थे, भाषण तो बिल्कुल ही नही देते थे. सभा के शुरुआत में एक दो बात कह दिया करते थे, जैसे- ' हमलोग कल अमुक जगह गये थे, आज यहाँ आये हैं, कल अमुक जगह जायेंगे. वहाँ पर ठाकुर का उत्सव हो रहा है. ' इसी प्रकार सामान्य ढंग से दो-चार बातें बता दिये करते थे, अधिक कुछ नही कहते थे. ऐसा नहीं था कि उनको बोलना नहीं  आता था, किन्तु ऐसा प्रतीत होता था कि वे बोलना नहीं चाहते थे. किन्तु सभी सभाओं में भाग लेते थे, और बैठे रहते थे. उनकी मौन सौम्य मूर्ति को देखने मात्र से ही सभी का मन आनन्द से भर उठता था. 
मुझे एकबार कि घटना याद आती आती है जिसे मैं बताये बिना नहीं रह सकता. कैसे कैसे सन्यासियों के दर्शन का सौभाग्य हुआ है, कितनो को ही देखा है. जब सभा समाप्त हो गया तो देखता हूँ वे माइक्रोफोन को पकड़ कर अपनी ओर खींच रहे हैं. हमलोगों को तो आश्चर्य हुआ ही, अन्य लोग भी थोड़ा विस्मित हुए कि जो महाराज कभी कुछ बोलना नहीं चाहते हैं, वे उसको अपनी पर खींच क्यों रहे हैं ? वे माइक पकड़ कर बोलते हैं - ' मुझसे उस समय बोलते समय एक भूल हो गयी है, मैंने कहा था कि कल मैं अमुक जगह गया था, वह भूल से निकल गया था, कल मैं वहाँ नहीं गया था, वहाँ तो मैं परसों गया था.' इस प्रकार से बोल कर उनहोंने अपने भूल को संशोधित कर लिया था. ' ऐसी सत्य निष्ठा ! कल्पना भी नहीं की जा सकती.
और एक वाकया है- मनसा द्वीप में मिशन के पास अपने धान के खेत हैं. उस जमीन में धान की पैदावार होने पर सरकार को एक ' लेभि ' चुकानी पड़ती है. लेभि के लिये सरकार नोटिस भेजती है. उसमे लिखा रहता है कि आपको जितना धान उपजा है उसका इतना अंश सरकार को देना होगा. मिशन में नोटिस आया था, उसके अनुसार लेभि का धान पहुँचा ही दिया गया था. उसके बाद वे उस नोटिस को देख रहे थे. बैठ कर उस नोटिश को अच्छी तरह से देखने के बाद लेभि की मात्रा का हिसाब-किताब करने लगे. उपज कितनी हुई और उसपर लेभि कितना दिया गया है, इसका हिसाब लगा कर उन्होंने देखा कि उसमे भूल हो गयी है. सरकार के नोटिश में जितनी लेभि मांगी गयी है, उसमे भूल है. 
जिस ऑफिस से नोटिश आया था वह आश्रम से दो माइल दूर है, गर्मी का दिन था और दोपहर का समय, वे उसी समय सिर पर छाता लगा कर पैदल ही चल पड़े. वहाँ जाकर उस अफसर के कमरे सामने जा कर खड़े हुए.साहब के दरवान ने कहा- ' साहब अभी व्यस्त हैं,भीतर मत जाइये.' थोड़ी देर बाद फिर देखने गये तब कहा कि, ' अभी साहब के पास कुछ लोग हैं, नही जाइये.' उसके बाद जब काफी देर हो गया तो वे खुद थोड़ा पर्दा खिसका कर देखने कि चेष्टा करते हैं. पर्दा खिसकते ही जो अफसर हैं- बोलते हैं, ' क्या है, आप को क्या काम है? ' 
तब वे हाथों में नोटिश लिये हुए थोड़ा आगे बढ़ कर, जैसे ही कमरे में प्रवेश किये हैं,उस कागज के रंग को देख कर ही साहेब पहचान गये है कि, यह लेभि जमा कराने का नोटिश है. दूर से ही देख कर कहते हैं, ' नहीं नहीं, अब इसमें कुछ भी नहीं किया जा सकता, बिल्कुल सही है, जितना है, एकदम ठीक है. अब उसमे कुछ भी नहीं किया जा सकता है.' अफसर समझ रहे थे कि महाराज उनके पास आवेदन करने आये होंगे कि लेभि ज्यादा लग गया है, इसको थोड़ा कम कर दिया जाय, इतना ज्यादा नहीं होना चाहिये. महाराज बोले,' नहीं नहीं, मेरी बात तो सुनिए, मैं किस लिये आया हूँ कमसे कम इतना तो सुनियेगा. ' ' बोलिए आपकी क्या बात सुनूँ ?' साधु कहते हैं- ' आप लोगों से हिसाब लगाने में भूल हो गयी है, लेभि तो और अधिक लगनी चाहिये थी, कानून के अनुसार हमलोगों को इतना मन धान और ज्यादा देना होगा.'
 यही है ' सत्य-निष्ठा '- सत्य पर अटल रहना. ऊपर से इतनी अधिक उम्र में, दुबले पतले शरीर को लेकर इतनी दूर पैदल चल कर सत्य बतलाने की असाधारण चेष्टा की जितनी भी बड़ाई की जाये कम है.
इस प्रकार की अनेकों घटनाएँ अनेकों लोगों को देखा हूँ. एक बार मनसा द्वीप में उत्सव हो रहा है, संध्या अनुष्ठान हो जाने के बाद रात्रि में ' जात्रा-पार्टी ' का भी कार्यक्रम होने वाला है.उत्सव में बहुत भारी भीड़ इकट्ठी हुई है.महाराज मंच पर बैठे हुए हैं, चेयर नहीं था, तो टेबल के ऊपर ही बैठ गये हैं. रात्रि के अन्त में पौ फटते समय उठ कर देखता हूँ कि जात्रा उस समय तक भी चल रहा था और महाराज उसी प्रकार बैठे हुए हैं. वे इसीलिये बैठे हैं कि जो लोग जात्रा कर रहे हैं, उनको वहाँ बैठे देख कर आनन्दित होंगे. इसीलिये (दूसरों को आनन्द देने के लिये) रात भर टेबल के ऊपर बैठे हुए रह गये हैं, पीठ भी टिकाने का अवसर नहीं मिला है, पर चेहरे पर कोई थकान नहीं हैं. मनुष्य को कोई साधु ही इतनी मर्यादा-दान कर सकता है, हमारे जैसे साधारण लोग तो जात्रा करने वाले मनुष्यों को गवैया-नचैया ही समझते हैं.             
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Sundarbans is the largest mangrove forest in the world

Sundarbans is the Sundarbans is situated Bangladesh and India both country.The Sundarbans features a complex network of tidal waterways, mudflats and small islands of salt-tolerant mangrove forests.Located about 320 km. south-west of Dhaka and spread over an area of about 60000 sq, km of deltaic swamps along the coastal belt of Khulna.Sundarbans is accessed from Kolkata ( Calcutta) by traveling either towards the South East or the South West. The South West route takes one through Diamond Harbour to Kakdwip and Namkhana. You can take a boat from these places or from Gangadharpur and visit Lothian Island and surrounding areas.The South Eastern route is more popular. You drive 86 kms through wetlands and agricultural land to reach Sonakhali. You can take a 3 hour boat ride from Sonakhali jetty to Sajnekhali Tourist Lodge or cross over to Basanti. From Basanti you can take an auto-rickshaw ride to Gadkhali (11kms). At Gadkhali take the ferry to cross the Bidya river to arrive at Gosaba. A Cycle Rickshaw ride will take you to Pakhiralaya in about half hour. Sajnekhali is across the water from Pakhiralaya. A UNESCO World Heritage Site (awarded in ’97) , Sundarban is a vast area covering 4262 square kms in India alone, with a larger portion in Bangladesh. The total area of the Indian part of the Sundarban forest, lying within the latitude between 21°13’-22°40’ North and longitude 88°05’-89°06’ East, is about 4,262 sq km, of which 2,125 sq km is occupied by mangrove forest across 56 islands and the balance is under water. The Sundarbans is the world's biggest mangrove forest - the home of the Royal Bengal tiger. The Royal Bengal tiger being the most famous, but also including many birds, spotted deer,crocodiles and snakes.the Sundarbon Indian restaurant in Monk Street, Abergavenny, is an exotic treasure just waiting to be discovered. Specialising in aromatic Bengali dishes, our chefs are masters in the art of preparing flavoursome food for diners who enjoy an authentic Indian experience.These dense mangrove forests are criss-crossed by a network of rivers and creeks.

November to March is best time to visit this forest.


Kakdwip subdivision (Bengali: কাকদ্বীপ মহকুমা), is a subdivision of the South 24 Parganas district in the state of West Bengal, India. It consists of four community development blocks: Kakdwip, Namkhana, Patharpratima and Sagar. The four blocks contain 42 gram panchayats. The subdivision has its headquarters at Kakdwip.

Area

The subdivision contains rural areas of 42 gram panchayats under four community development blocks: Kakdwip, Namkhana, Patharpratima and Sagar.There is no urban area under these four blocks.

 Blocks

Kakdwip block

Rural area under Kakdwip block consists of 11 gram panchayats, viz. Bapuji, Rabindra, Sri Sri Ramkrishna, Swami Bibekananda, Madhusudanpur, Ramgopalpur, Srinagar, Netaji, Rishi Bankimchandra, Suryanagar and Pratapadityanagar. Kakdwippolice statin serves this block. Headquarters of this block is in Pakurberia.

 Namkhana block

Rural area under Namkhana block consists of seven gram panchayats, viz. Budhakhali, Haripur, Namkhana, Shibrampur, Frezarganj, Mausini and Narayanpur. Namkhana and Kakdwip police stations serve this block. Headquarters of this block is in Namkhana.

Patharpratima block

Rural area under Patharpratima block consists of 15 gram panchayats, viz. Achintyanagar, Dakshin Raipur, Gopalnagar, Ramganga, Banashyamnagar, Digambarpur, Herambagopalpur, Sridharnagar, Brajaballavpur, Durbachati, Laksmijanardanpur, Srinarayanpur Purnachandrapur, Dakshin Gangadharpur, G Plot and Patharpratima. Patharpratima police station serves this block.Headquarters of this block is in Ramganga .

 Sagar block

Rural area under Sagar block consists of nine gram panchayats, viz. Dhablat, Dhaspara Sumatinagar–II, Ghoramara, Ramkarchar, Dhaspara Sumatinagar–I, Muriganga–I, Rudranagar, Gangasagar and Muriganga–II Sagar police station serves this block. Headquarters of this block is in Rudranagar.

Legislative segments

As per order of the Delimitation Commission in respect of the delimitation of constituencies in West Bengal, the area under the Patharpratima block forms the Patharpratima assembly constituency. The Kakdwip block, along with two gram panchayats under the Namkhana block, viz. Budhakhali and Narayanpur, will form the Kakdwip assembly constituency. The other five gram panchayats under the Namkhana block along with the area covered by the Sagar block will form the Sagar assembly constituency. All the three constituencies will be assembly segments of the Mathurapur (Lok Sabha constituency), which will be reserved for Scheduled castes (SC) candidates.
As per orders of Delimitation Commission, 131. Kakdwip constituency will cover Kakdwip CD Block and Budhakhali and Narayanpur gram panchayats of Namkhana CD Block.

       

                         

सोमवार, 20 सितंबर 2010

[54] " खण्ड का जगत और अखण्ड का जगत "

 " निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक हैं- स्वामी विवेकानन्द. " 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- " जगत दो हैं जिनमें हम बसते हैं- एक बहिर्जगत और दूसरा अंतर्जगत. खोज पहले बहिर्जगत में ही शुरू हुई. परन्तु उससे भारतीय मन को तृप्ति नहीं हुई. अनुसंधान के लिये वह और आगे बढ़ा..खोज अन्तर्जगत में शुरू हुई, क्रमशः चारों ओर से यह प्रश्न उठने लगा- ' मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का क्या हाल होता है?
' अस्तीत्यैके नायमस्तीति चैके ' (कठ० उ० १/१/२०) 
--' किसी किसी का कथन है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है, और कोई कोई कहते हैं कि नहीं रहता; हे यमराज ! इनमें कौन सा सत्य है ? 'समस्या के समाधान के लिये भारतीय मन ने अपने में ही गोता लगाया, तब यथार्थ उत्तर मिला. वेदों के इस भाग का नाम है उपनिषद या वेदान्त या आरण्यक !."(5/285) }
सृष्टि कि रचना के समय कि बात है. सृष्टि करते समय जब सृष्टा ने ' मनुष्य ' को गढ़ा तो उनको सबसे अधिक आनन्द हुआ, इतना आनन्द उनको अन्य किसी भी चीज को गढ़ने से नहीं हुआ था. तब सभी ने ईश्वर की इस सर्वश्रेष्ठ रचना - ' मनुष्य ' को प्रणाम किया. जिसका स्वाभाव शैतान के जैसा होता है, केवल वही मनुष्य के सामने अपना शीश अवनत नहीं करता.
इसीलिये सम्पूर्ण विश्व के मानव-समाज को आर्य (यथार्थ मनुष्य ) बनाना चाहिये, किन्तु पहले पहल कम से कम भारतवर्ष के नागरिकों को एक प्रबुद्ध नागरिकों का समाज य़ा एक यथार्थ मनुष्यों के समाज के रूप में अवश्य निर्मित करना होगा. मनुष्य ही देवता (जैसा )बन सकता है. मनुष्य के भीतर ही सब कुछ है. उत्तर गीता के एक  साधारण श्लोकांश में कहा गया है-कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हो जाने के बहुत दिनों बाद एक दिन अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं- " आपने उस समय जो गीता सुनाया था, बहुत अच्छा लगा था, उसी तरह के कुछ उपदेश और दीजियेगा ? " श्रीकृष्ण कहते हैं - " उस समय मैंने तुमको योगस्थ होकर उपदेश दिया था, वैसा क्या बार बार थोड़े ही कहा जा सकता है ?  पर जब तुम कुछ कहने के लिये कह रहे हो तो बोलता हूँ. " ऐसा कहने के बाद श्रीकृष्ण ने जो कहा था, उसको ' उत्तर गीता ' कहा जाता है. अनुगीता, ब्रह्मगीता और ब्राह्मणगीता एक दूसरे के क्रम से हैं -उसमे एक जगह पर वे कहते हैं-
 " नरत्वम् नारायणोsसी " 
" - मनुष्य ही नारायण है ! " 
एवं श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ने स्वामी विवेकानन्द के भीतर इसी नारायण ऋषि को प्राप्त किया था, उनको लाये थे, उपस्थित किये थे. ठाकुर स्वामीजी को अपने साथ लेकर आये थे, ऐसा स्वीकार करने के बाद इसकी जो कहानी कहे थे, वह अदभुत कहानी है. उस कहानी को हमलोग बहुत चिन्तन मनन करने के बाद भी कितना समझ पाते हैं ?
महाभारत के ३४० वें अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है. एवं गीता के शंकरभाष्य के उपोदघात (भूमिका ) में अति संक्षेप में यही कहानी कही गयी है. इस प्रकार हम समझ सकते है कि स्वामी विवेकानन्द उस प्रवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक नहीं हैं. बल्कि निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक हैं- स्वामी विवेकानन्द.
'ठाकुर एक दिन कहते हैं -" एक दिन मैं ने देखा कि- मैं ( मेरा मन ) पृथ्वी को पीछे छोड़ कर आकाश पथ से ऊपर की ओर ही उठता जा रहा है. वायूमंडल की सीमा जहाँ तक है उसको भी यह लाँघ गया है,उसके बाद और भी ऊपर जाते जाते देखता हूँ कि एक ज्योतिर्मय विभाजक जैसा घेरा दिया हुआ है.उसके एक ओर है खण्ड का जगत और ऊपर की ओर है अखण्ड का जगत.
उस विभाजक रेखा को लाँघ कर और भी ऊपर की ओर जाते जाते देखता हूँ, बहुत से देवी देवता बैठे हुए है, वे लोग भी पीछे छूटते चले गये.उसके बाद और ऊपर जाते जाते देखता हूँ कि महाशून्य के भीतर स्थित किसी अन्य लोक में पहुँच गया हूँ. वहाँ पहुँच कर देखता हूँ कि सात प्राचीन ऋषि समाधिस्त होकर बैठे हुए हैं. उनके नेत्र मूंदे हुए हैं और वे बिल्कुल ध्यानमग्न अवस्था में हैं.फिर ठाकुर कहते हैं- मैंने देखा कि उसके भी और उपरी आकाश से एक देव शिशु मानो धीरे धीरे उतर रहे हैं और उन ऋषियों में से एक के पास जाकर  उस देव शिशु ने प्रेम से उनके गले में गलबहियाँ डाल दिया,
तथा कोमल स्वर में उनको समाधि से जगाने के लिये चेष्टा करने लगे. किन्तु उनकी समाधि किसी भी तरह से भंग ही नहीं हो रही थी. बहुत समय के बाद थोड़ी मधुर मुस्कान बिखेरते हुए अपने अधखुले नेत्रों से उस देव-शिशु को देख लिये. तब उसशिशु ने उस ऋषि को कहा- ' मैं जा रहा हूँ, तुम भी आना.' तब उस ऋषि के मुख पर एक स्मित हँसी खेल गयी. " इस प्रकार उस ऋषि को वे ले आये.वह ऋषि ही स्वामी विवेकानन्द हैं. उन सप्तऋषियों में से ही एक ऋषि हैं स्वामी विवेकानन्द !


{ स्वामी सारदानन्द जी अपनी पुस्तक श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग; तृतीय खण्ड के पृष्ठ ८० पर इस कहानी का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि, श्रीरामकृष्ण देव ने अपनी अपूर्व सरल भाषा में उस दर्शन की बातें हमे बतायी थी. उस भाषा का हू ब हू प्रयोग कर पाना हमारे लिये असम्भव है, इसीलिये उनकी भाषा यथासाध्य ज्यों की त्यों रखकर हमने उसे यहाँ संक्षेप में व्यक्त किया है. जो इस प्रकार है- 
" एक दिन देखा - ' मन ' ( मेरा परिवर्तनशील मिथ्या व्यक्तित्व य़ा सूक्ष्म शरीर ) समाधि के मार्ग से ज्योतिर्मय पथ में ऊपर उठता जा रहा है. चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र से युक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण कर वह पहले ' सूक्ष्म-भाव के जगत ' में प्रविष्ट हुआ. उस राज्य के ऊँचे से ऊँचे स्तरों में वह जितना ही उठने लगा, उतना ही अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पथ के दोनों ओर दिखायी देने लगीं. क्रमशः उस राज्य की अन्तिम सीमा पर ' वह ' (मेरा Mind य़ा परिवर्तनशील ' अहम् ' ) आ पहुँचा.वहाँ देखा, " एक ज्योतिर्मय परदे के द्वारा खण्ड (Relative Truth )और अखण्ड ( Absolute Truth)  "राज्यों का विभाग किया गया है.
उस परदे को लाँघ कर वह (मन ) क्रमशः अखण्ड राज्य में प्रविष्ट हुआ. वहाँ देखा, मूर्तरूप धारी कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि दिव्य देहधारी  देवी-देवता भी वहाँ प्रवेश करने का साहस न कर सकने के कारण बहुत दूर नीचे अपना-अपना अधिकार फैलाकर अवस्थित हैं. किन्तु दूसरे ही क्षण दिखाई पड़ा कि दिव्य ज्योतिर्घन तनु सात प्राचीन ऋषि वहाँ समाधिस्त होकर बैठे हैं.
(बुद्धि ने ) समझ लिया कि " ज्ञान और पुण्य " में तथा " त्याग और प्रेम " में ये लोग मनुष्य का कहना ही क्या, देवी-देवता तक के परे पहुँचे हुए हैं. विस्मित होकर इनके महत्व के विषय में सोचने लगा. इसी समय सामने देखता हूँ, अखण्ड भेद-रहित, समरस, ज्योतिरमण्डल का (जगत्कारण परमात्मा य़ा सर्व व्याप्त सत्ता) का एक अंश घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु के रूप में परिणत हो गया.वह देव-शिशु उनमे से एक के पास जाकर अपने कोमल हाथों से आलिंगन करके अपनी अमृतमयी वाणी से उन्हें समाधि से जगाने के लिये चेष्टा करने लगा. शिशु के कोमल प्रेम-स्पर्श से ऋषि समाधि से जागृत हुए और अधखुले नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे.उनके मुख पर प्रसन्नोज्वल भाव देख कर ज्ञात हुआ, मानो वह बालक उनका बहुत दिनों का परिचित ह्रदय का धन है. वह अदभुत देवशिशु 
 ( जगत्कारण के साथ अद्वैत भाव में अवस्थित श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ईश्वर के लोक-कल्याण साधन रूप कर्म को प्रतिक्षण अपना ही समझकर अनुभव कर रहे थे. इसी के प्रभाव से उन्हें ज्ञात हुआ कि वर्तमान युग का धर्मग्लानि नाश रूपी महान कार्य, उनके शरीर और मन को यंत्ररूप बनाकर साधित हो, यही विराट की ईच्छा है. फिर उसी के प्रभाव से वे समझ सके थे कि क्षूद्र स्वार्थ साधन के लिये नरेन्द्रनाथ का जन्म नहीं हुआ है, बल्कि ईश्वर के प्रति अत्यन्त अनुराग रहने के कारण उपरोक्त जनकल्याण साधन कर्म में, उन्हें सहायता देने के लिये ही उसका आगमन हुआ है. इसीलिये स्वार्थ रहित नित्यमुक्त नरेन्द्र को परम आत्मीय समझना और उनके प्रति प्रबल भाव से आकृष्ट होना ठाकुर के लिये स्वाभाविक ही था. (लीलाप्रसंग :३: पृष्ठ ९०)    
अति आनन्दित हो उनसे कहने लगा-
' मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना होगा ! '
उसके अनुरोध पर ऋषि के कुछ न कहने पर भी, उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों से अन्तर की सम्मति प्रकट हो रही थी. 
इसके अनन्तर ऋषि बालक को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए पुनः समाधिस्त हो गये. उस समय आश्चर्य-चकित होकर मैंने (ठाकुर ने ) देखा कि उन्हीं  के शरीर-मन का एक अंश उज्जवल ज्योति के रूप में परिणत होकर विलोम मार्ग से धराधाम में अवतीर्ण हो रहा है. नरेन्द्र को देखते ही मैं जान गया था कि यही वह ऋषि है ! "
किन्तु ' सप्तऋषि ' में से एक ऋषि कहते समय अक्सर हमलोग उत्तर आकाश में जो सात तारे दिखायी देते हैं हम लोग उनमे से ही एक ऋषि स्वामी विवेकानन्द को समझ लेते हैं, किन्तु वैसा समझना ठीक नहीं है.
पुराणों में वर्णन मिलता है, शंकराचार्य के गीता भाष्य के प्रारम्भ में इस कहानी को सामान्य तरीके से वर्णन किये हैं. ब्रह्माजी ने जगत कि सृष्टि करने के बाद देखा कि इतना सुन्दर (पेड़-पहाड़ समुद्र नदियाँ) जगत की रचना तो मैंने कर दिया, किन्तु इसको देखने के लिये लोग कहाँ हैं, कौन इसको देखेगा ?
तब उनहोंने अपनी ईच्छा से सात ऋषियों की सृष्टि किये.ये वही सप्त ऋषि हैं जो उत्तर आकाश में दिखायी पड़ते हैं. पुलह, क्रतु, पुलस्त, अत्री इत्यादि सात ऋषि, किन्तु ह मे यहाँ यह ध्यान देना होगा कि ये लोग प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि हैं, अतः ये लोग मनुष्य को प्रवृत्ति के मार्ग पर ले जायेंगे.
  मनुष्य में कई तरह कि प्रवृत्तियाँ रहती हैं. उसके कारण उनका वंश-विस्तार होगा, बहुत से लोग जन्म लेंगे. अनेक मनुष्य जन्म लेकर जब ब्रह्माजी के रचे इस अपूर्व सुन्दर जगत को देखेंगे तो बहुत खुश होंगे.
उसके बाद ब्रह्माजी के मन में विचार उठा कि यदि सभी मनुष्य प्रवृत्ति -मार्ग पर ही चलने लगेंगे तो दिनों दिन यह मनुष्य जाति अपना मनुष्यत्व खोने लगेगी. आज के समाज में हमलोग जैसा देख रहे हैं. 
तब उन्होंने निर्णय लिया कि नहीं, केवल प्रवृत्ति-मार्ग को जानलेने से ही नहीं होगा, निवृत्ति को भी सीखना होगा. ऐसा विचार करके उन्होंने पुनः अपनी ईच्छा से सन, सनक , सनन्दन आदि सात ऋषियों की सृष्टि किये. 
महाभारत के ३४० वें अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है. एवं गीता के शंकरभाष्य के उपोदघात (भूमिका ) में अति संक्षेप में यही कहानी कही गयी है. इस प्रकार हम समझ सकते है कि स्वामी विवेकानन्द उस प्रवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक नहीं हैं. बल्कि निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक हैं- स्वामी विवेकानन्द.
उन्हीं सात ऋषियों में से एक का नाम है- ' नारायण '. स्वामी विवेकानन्द वही नारायण ऋषि हैं.(दक्षिणेश्वर में प्रथम दर्शन के दिन ठाकुर कहते हैं- ' आमि जानी प्रभु तूमि सेई नारायण ! ' ) अर्थात ' नरेन्द्रनाथ दत्त ' निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक ' नारायण ' नामक ऋषि हैं; जिनके गले में एक शिशु के जैसा आलिंगन करके ठाकुर अपने साथ लीला-सहचर के रूप ले आये थे ! इस नारायण का अर्थ बैकुण्ठ वाले - नारायण नहीं है. स्वामीजी को बैकुण्ठ का नारायण समझना ठीक नहीं होगा. एक पुराण में आता है कि एक ऋषि ऐसे हुए थे जो एक पर्वत की चोटी पर बैठ कर सहस्र वर्षों तक गायत्री का जप किये थे, जिसके फलस्वरूप वे ब्रह्मलोक में गये थे. 
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Sri Ramakrishna’s vision of Nara-Narayana in Narendranath

Accompanied by a devotee and a few friends, Narendra one day came to Dakshineswar and entered the small room of Sri Ramakrishna. He came by the western door, as Sri Ramakrishna described afterwards, careless about his body and dress, and unlike other people, not mindful of the external world. On Sri Ramakrishna's request, he began singing a Brahmo song, 'Shortly after I sang the song; he suddenly rose and, taking me by the hand, led me to the northern veranda, shutting the door behind him. He said, 'Ah, you have come so late! How could you be so unkind as to keep me waiting so long! My ears are well nigh burnt by listening to the profane talk of worldly people.' The next moment he stood before me with folded hands and began to address me, 'Lord, I know you are that ancient sage, Nara, the incarnation of Narayana, born on earth to remove the miseries of mankind.'
Nara-Narayana is the twin-brother incarnation of the preserver-god Vishnu on earth, working for the preservation of dharma or righteousness. In the concept of Nara-Narayana, the human soul Nara (नरेंद्र) is the eternal companion of the Divine Narayana (श्रीरामकृष्ण).
The Hindu epic Mahabharata identifies god Krishna with Narayana and Arjuna - the chief hero of the epic - with Nara. The legend of Nara-Narayana is also told in the scripture Bhagavata Purana. Hindus believe that the pair dwells at Badrinath, where their most important temple stands.
Krishna and Arjuna are often referred to as Nara-Narayana in the Mahabharata and are considered part incarnations of Narayana and Nara respectively, according to the Bhagavata Purana.
In a previous life, the duo were born as the sages Nara and Narayana, and who performed great penances at the holy spot of Badrinath. Nara and Narayana were the Fifth Avatar of Lord Vishnu.
The twins were sons of Dharma, the son of Brahma and his wife Murti (Daughter Of Daksha) or Ahimsa They live at Badrika performing severe austerities and meditation for the welfare of the world. These two inseparable sages took avatars on earth for the welfare of mankind and to punish the wicked ones.
The sages defeated a demon called Sahasrakavacha ("one with a thousand armours"). Legend has it that once Lord Shiva tried to bring the fame of Nara and Narayana before the entire world. To do that, he hurled his own potent weapon Paashupathastra at the meditating rishis. 
 The power of their meditation was so intense that the astra lost it's power before them. Lord Shiva stated that this happened since the duo were jnanis of the first order constantly in the state of Nirvikalpa Samadhi.)
(Nara-Narayana (Sanskrit: नर-नारायण
{ " महाभारत का ३२० वाँ अध्याय आश्वमेधिक-पर्व " ( अर्जुन का श्रीकृष्ण से गीता का विषय पूछना - गीता प्रेस, गोरखपुर का चौंतीसवाँ पुनर्मुद्रण पृष्ठ संख्या- ६६७)  
इस प्रकार कहा गया है- '...अर्जुन ने यह वचन कहा, देवकीनन्दन ! जब युद्ध का अवसर उपस्थित था, ...मुझे जो ज्ञान का उपदेश दिया था, वह सब इस समय बुद्धि के दोष से भूल गया है. उन विषयों को सुनने के लिये बारम्बार मेरे मन में उत्कंठा होती है. ..अतः पुनः वह सब विषय मुझे सुना दीजिये....श्रीकृष्ण बोले-
अबुद्ध्या नाग्रहीर्यस्त्वं तन्मे सुमहदप्रियम्।
न च साद्य पुनर्भूयः स्मृतिर्मे सम्भविष्यति॥१०॥ 
....श्रीकृष्ण बोले- ...अब मेरे लिये उस उपदेश को ज्यों-का त्यों दुहरा देना कठिन है; क्योंकि उस समय योगस्थ होकर मैंने परमात्म-तत्व का वर्णन किया था. अब उस विषय का ज्ञान ज्ञान कराने के लिये मैं एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ.
सिद्ध ने कहा - " तात कश्यप ! मैंने तृष्णा से मोहित होकर अनेकों बार जन्म और मृत्यु का क्लेश उठाया है, .हे तात! विविध प्रकार के कर्मों से और केवल पुण्य कर्मों के योग से मर्त्य प्राणि या तो यहाँ (पृथिवी पर) या फिर देवलोक में जाते हैं। कहीं पर भी आत्यान्तिक सुख नहीं है। और न ही कहीं पर शाश्वत स्थिति है। बार बार अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त स्थान से च्युति होती है। मेरे द्वारा काम और क्रोध से अभिभूत होकर, तथा तृष्णा से मोहित होकर, पाप का सेवन करने के कारण अशुभ योनियाँ भोगीं गईं हैं(मेरे द्वारा) बार बार जन्म (भोगा गया है) और बार बार मृत्यु (भोगी गई है)। विविध प्रकार के आहार भोगे गये हैं तथा नाना प्रकार के स्तनों से दुग्धपान किया गया हैहे अनघ! मेरे द्वारा विविध प्रकार की माताऐं, विमिन्न पिता, विचित्र सुख और दुःख देखे गए हैं। ..जिस तरह आँखवाले मनुष्य अँधेरे में इधर- उधर उगते -बुझते हुए खद्योत (जुगनुओं ) को देखते हैं, उसी प्रकार सिद्ध पुरुष अपनी ज्ञानमयी दिव्य दृष्टि से जन्मते-मरते तथा गर्भ में प्रवेश करते हुए जीव को सदा देखते रहते हैं.जीव के तीन स्थान- यह मर्त्यलोक भूमि, कर्मभूमि कहलाती है."..पुण्य कर्म करने वाले जीव स्वर्ग में पाप कर्म करने वाले कर्मानुसार नरक में पड़ते हैं. यह आवागमन की परम्परा बराबर लगी रहित है. (पेज-६६९) ...सदाचार (character -building )  से ही धर्म में अटल स्थिति होती है.


मुञ्जं शरीरं तस्याहुरिषीकामात्मनि श्रिताम्।
एतन्निदर्शनं प्रोक्तं योगविद्भिरनुत्तमम्॥२२॥
..जैसे मनुष्य सपने में किसी अपरिचित पुरुष को देखकर जब पुनः उसे जाग्रत-अवस्था में देखता है तो तुरन्त पहचान लेता है की - ' यह वही है ! '. उसी प्रकार साधनपरायण योगी समाधि अवस्था में आत्मा को जिस रूप (सच्चिदानन्द-रूप ) में देखता है, उसी रूप में उसके बाद (वहाँ से लौट आने के बाद) में भी देखता है.  जैसे कोई मनुष्य मूँजसे सींक को अलग करके दिखा दे, वैसे ही योगी पुरुष आत्मा को इस देह से पृथक करके देखता है. यहाँ शरीर को मूँज कहा गया है और आत्मा को सींक. " (पेज-६७१) 
{विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं। श्री नर नारायण स्तुति
नौमि नारायणं नरं करुणायनं, ध्यान - पारायणं, ज्ञान - मूलं ।

अखिल संसार - उपकार - कारण, सदयहदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं ॥१॥


भावार्थः-- मैं उन श्रीनर - नारायणको नमस्कार करता हूँ, जो करुणाके स्थान, ध्यानके परायण और ज्ञानके कारण हैं । जो समस्त संसारका उपकार करनेवाले, दयापूर्ण हदयवाले, तपस्यामें लगे हुए और शरणागत भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं ॥१॥ 
पुण्य वन शैलसरि बद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रुपं ।
सिद्ध - योगींद्र - वृंदारकानंदप्रद, भद्रदायक दरस अति अनूपं ॥५॥ 


जो पवित्र वन, पर्वत और नदियोंसे पूर्ण बदरिकाश्रम में सदा पद्मासन लगाये एकरुपसे ( अटल ) विराजमान रहते हैं । जिनका अत्यन्त अनुपम दर्शन सिद्ध, योगीन्द्र और देवताओंको भी आनन्द और कल्याणका देनेवाला है ॥५॥
हे विश्वम्भर ! वहाँ आपके बदरिकाश्रमके मार्गमें ' मनभंग ' नामक पर्वत हैं , ( जिसे देखकर लोग आगे साधनका उत्साह भंग हो जाता है; ) वहाँ ' चित्तभंग ' पर्वत है, तो यहाँ मद ही चित्तभंगका काम करता है; वहाँ जैसे कठिन - कठिन पर्वत हैं तो यहाँ काम - लोभादि कठिन पर्वत हैं । ( वहाँ जैसे हिंसक पशु आदि बड़े विघ्न हैं तो ) यहाँ राग, द्वेष, मत्सर आदि अनेक बड़े - बड़े विघ्न हैं, जिनमेसे प्रत्येक बड़ा निर्दय और राग, द्वेष, मत्सर आदि अनेक बड़े - ब्वड़े विह्न हैं, जिनमेसें प्रत्येक बडा निर्दय और कुटिल कर्म करनेवाला है ॥६॥
यहाँ कामिनीकी अत्यन्त बाँकी चितवन ही छुरेकी भयंकर धार और कामका विष ही तलवारकी ते धार है, जो बड़े - बड़े धीर और गम्भीर पुरुषोंके मनको पीड़ा पहुँचानेवाला है फिर हम - सरीखे निर्बलोंकी तो गिनती ही क्या है ? ॥७॥
हे नाथ ! प्रथम तो यह आपके दर्शनका मार्ग ही बड़ा कठिन है, फिर दुष्ट और नीचोंका ( मेरा ) साथ हो गया है, सहारेके लिये हाथमें वैराग्यरुपी लकड़ी भी नहीं है । यह दास आपके दर्शनके लिये घबरा रहा है, फंदेमें फँसकर दुःखी हो रहा है । हे नाथ ! दासके कष्टको दूरकर इसकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥८॥
मुझ दीन तुलसीदासके पास धर्मरुपी मार्ग - व्यय ( कलेवा ) भी नहीं हैं, मैं थककर बड़ा दुःखी हो रहा हूँ, मोहने मेरी बुद्धिका भी नाश कर दिया है, अतएव हे चक्रधारी ! आप तेज, बल और सुखकी राशि हैं, मुझे बिना विलम्ब अपने कर - कमलका सहारा दीजिये ॥९॥}
 दोनों हाथों को दोनों ओर सीधा फैलाकर एक हाथ के सिरे से दूसरे हाथ के सिरे तक की लंबाई के माप को नर कहते हैं। इसी माप को एक पुरूष भी कहते हैं। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, हमने तो नर शब्द का अर्थ मनुष्य समझा है। क्या नर का अर्थ मनुष्य भी है?
आचार्य ने कहा- तुम ठीक कह रहे हो वत्स, नर शब्द का एक अर्थ मनुष्य भी है। पुरूष के अर्थ में भी नर शब्द रू ढ़ हैं जबकि पुर का अर्थ है परिधि, यानी शरीर और जो शरीर में रहता है, केन्द्र में रहता है, उस आत्मा को पुरूष कहते हैं। इसलिए वैदिक वांग्मय में पुरूष शब्द का अर्थ कोरा नर नहीं है। नर और नारी दोनों लिंगों के अर्थ में पुरूष शब्द आत्मा के अर्थ को ही प्रकट कर रहा है। परमात्मा और नित्य पुरूष के अर्थ में भी नर और नारायण शब्द का व्यवहार होता है।
आचार्य बोले- "श्वेताश्वतरोपनिषद्" में नर और नारायण के युगल भाव यानी जुगल जोड़ी की चर्चा मिलती है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिषष्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वžयनश्नन्नन्योùभिचाकशीति।
यानी दो पक्षी साथ-साथ मित्रभाव से सृष्टि रूपी वृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं। उनमें से एक वृक्ष के फल खाता है यानी भोग के फल खाता है और दूसरा केवल साक्षी-भाव में रहता है यानी फलों को और सखा पक्षी के भोग फल को प्राप्त करते हुए देखता है। इस रूपक में आत्मा और परमात्मा का सखा-भाव दिखाया है। दूसरी परिभाषा के अनुसार जीव और आत्मा दोनों शरीर में रहते हैं। जीव कर्मों के फलों का भोग करता है जबकि आत्मा साक्षी-भाव में जीव की प्रवृत्तियों को देखता है।
आचार्य ने बताया- "मनुस्मृति" नर शब्द का अर्थ मादा के विपरीत लिंगी नर के अर्थ में करती है। नर का एक अर्थ शतरंज का मोहरा भी है। धूप घड़ी की कील को भी नर कहते हैं। नर नामक एक ऋषि भी हुए हैं।
"भगवद्गीता" और "मनुस्मृति" के अनुसार नराधिप, नराधिपति नरेश्वर, नरपति और नरपालक नाम नारायण के माने गए हैं। नर-नारायण शब्द कृष्णवाची होने से मूलत: एक ही अर्थ में माना जाता है। पुराणों और महाकाव्यों में ही नर और नारायण के रू प में दो चरित्र सामने आते हैं। नर को अर्जुन का समरू प माना गया है और नारायण कृष्ण को कहा गया है। इस तरह नर-नारायण का युग्म यानी जोड़ा कृष्णार्जुन भी है। 
पशु जैसे मनुष्य को नर-पशु कहते हैं। "हितोपदेश" में कहा गया है- आहार, निद्रा, भय और मैथुन नर और पशुओं में समान रू प से पाया जाता है। मनुष्य में महज धर्म यानी कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक बोध हैं। अगर किसी आदमी के पास यह धर्म नही है, उसे नर-पशु ही कहा जाता है।
मर्दानी औरत यानी जिस औरत के पुरूषों की तरह दाढ़ी, मूंछ आते हैं उसे नरमानिका, नरमानिनी और नरमालिनी कहते हैं।
आचार्य बोले-   नर-मेध शब्द का अर्थ नरयज्ञ हैं। कलिकाल के दुष्प्रभाव के कारण नर-मेध का अर्थ नरबलि के रू प में लिया जाने लगा जबकि नर-मेध प्रतीकात्मक यज्ञ प्रक्रिया थी। इसका तात्पर्य मनुष्य के अहंकार का परमात्मा या इष्ट के सामने संपूर्ण समर्पण यानी अपने घमंडरू पी पशु भाव का बलिदान करना है। 
 "अनार्य मान्यता" के अनुसार आदमी अपने अहंकार के दमन के बदले दूसरे मनुष्य की बलि देने लगा। मघ्ययुग में यह प्रवृति जोर पकड़ने लगी। "कालिका" पुराण में इसकी चर्चा मिलती है। भवभूति ने अपने नाटक "मालतीमाधव" के पांचवें अंक में नर-मेध का नरबलि के रू प में वर्णन किया है। अघोरी अघोरघंट द्वारा नायिका की बलि करने की विभत्सता इस दृश्य मेंदिखाई देती है। कलिकाल में मूल अर्थ से भटक कर नरमेध और गोमेध के अर्थ हिंसापरक होने से शास्त्रकारों ने इन्हें वर्जित अनुष्ठान माना है। नरबलि शब्द जघन्य अपराध के अर्थ में ही सदैव देखा जाता रहा है।
आचार्य बोले- मनुष्य सृष्टि को नर-यान कहते हैं। आदमी द्वारा खींचे जाने वाली गाड़ी को नरवाहन कहते हैं। कोलकाता में इसका प्रचलन रहा है। "रघुवंश" के अनुसार कुबेर का एक विशेषण नरवाहन है। पराक्रमी मनुष्य को नरवीर और नरशार्दुल कहते हैं।
याज्ञवल्क्य के अनुसार मृत्यु को नरांतक कहते हैं। विष्णु का एक विशेषण नारायण है। राक्षस और पिशाच को नृशंस कहते हैं। चक्रवर्ती राजा को नरेंद्र कहा जाता है।
(वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा श्री रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर-----सुग्रीव अत्यंत भयभीत होकर बोले- हे हनुमान्‌! सुनो, ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना!!-----यदि वे मन के मलिन बालि के भेजे हुए हों तो मैं तुरंत ही इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊँ (यह सुनकर) हनुमान्‌जी ब्राह्मण का रूप धरकर वहाँ गए और मस्तक नवाकर इस प्रकार पूछने लगे-॥
 को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4॥
-----हे वीर! साँवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, जो क्षत्रिय के रूप में वन में फिर रहे हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में विचर रहे हैं?॥
 मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता ॥
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ।-----नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥ 
मन को हरण करने वाले आपके सुंदर, कोमल अंग हैं और आप वन के दुःसह धूप और वायु को सह रहे हैं क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश- इन तीन देवताओं में से कोई हैं या आप दोनों नर और नारायण हैं॥


जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥1॥
------अथवा आप जगत्‌ के मूल कारण और संपूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान्‌ हैं, जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है?

कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए॥
नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥1॥
------(श्री रामचंद्रजी ने कहा-) हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आए हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी स्त्री थी॥


इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई॥2॥
------भावार्थ:-यहाँ (वन में) राक्षस ने (मेरी पत्नी) जानकी को हर लिया। हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया। अब हे ब्राह्मण! अपनी कथा समझाकर कहिए ॥


प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥
------भावार्थ:-प्रभु को पहचानकर हनुमान्‌जी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े (उन्होंने साष्टांग दंडवत्‌ प्रणाम किया)। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं!॥


पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥
-------फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्‌जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं? 
तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥
मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूँ इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना ॥


एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥
-----------एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबंधु भगवान्‌! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया!॥
:जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥
एहे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े (आप उसे न भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है॥


आधुनिक भौतिक-विज्ञान के अनुसार ‘जल’ की उत्पत्ति ‘हाईड्रोजन+ऑक्सीजन’ इन दो गैसों पर विद्युत की प्रक्रिया के कारण हुई है। पौराणिक सिद्धान्त के अनुसार ‘वायु’ और ‘तेज’ की प्रतिक्रिया के कारण ‘जल’ उत्पन्न हुआ है। यदि वायु को गैसों का समुच्चय एवं तेज को विद्युत माना जाये तो इन दोनों ही सिद्धांतों में कोई अन्तर नहीं है। अतः जल की उत्पत्ति का पौराणिक सिद्धांत पूर्णतया विज्ञान-सम्मत सिद्ध होता है।


आधुनिक वैज्ञानिक आकाश, वायु तेज, जल और पृथ्वी को तत्व नहीं मानते। न मानने का कारण ‘तत्व’ संबंधी अवधारणा है। तत्व के सम्बन्ध में पौराणिक अवधारणा यह है कि जिसमें ‘तत्’ (अर्थात् पुरुष/विष्णु/ब्रह्म) व्याप्त हो, वह ‘तत्व’ कहलाता है। 
आधुनिक विज्ञान के अनुसार ‘तत्व’ केवल मूल पदार्थ (Element) होता है। वस्तुतः ‘तत्त्व’ और ‘तत्व’ में बहुत अन्तर है। ‘तत्त्व’ वास्तविक रूप में एक ‘भूत’ है। किन्तु तत्व या Element एक पदार्थ मात्र है। अतः यह भेद मात्र अवधारणा के कारण उत्पन्न हुआ है।

इस सम्बन्ध में ‘विष्णु पुराण’ का निम्नलिखित श्लोक दृष्टव्य है-


‘पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाश एव च।
सर्वेन्द्रियान्तःकरणं पुरुषाख्यं हि यज् जगत्।।’
अर्थात्- पृथिवी, आपः (जल), तेज, वायु, आकाश, समस्त इन्द्रियाँ और अन्तःकरण इत्यादि जितना भी यह जगत् (गतिशील संसार) है, सब ‘पुरुष रूप’ है।
-श्री विष्णु पुराण/प्रथम अंश/अ.-2/श्लोक -68


महर्षि पाराशर का कथन है कि सृष्टि की रचना में भगवान् तो केवल निमित्त-मात्र हैं (क्योंकि) उसका प्रधान कारण तो ‘सृज्य पदार्थों’ की शक्तियाँ ही हैं। वस्तुओं की रचना में निमित्त मात्र को छोड़कर और किसी बात की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि वस्तु (ह्रदय) तो अपनी ही (परिणाम या इच्छा ) शक्ति से ‘वस्तुता’ (स्थूलरूपता या मन और शरीर) को प्राप्त हो जाती है-


‘निमित्तमात्रमेवासौ सृ्ज्यानां सर्गकर्मणि।
प्रधान कारणीभूता यतो वै सृज्यशक्तयः।।
निमित्त मात्रं मुक्त्वैवं नान्यक्तिञ्चिदपेक्षते।
नीयते तपतां श्रेष्ठ स्वशक्त्या वस्तु वस्तुताम्।।’
< -श्री विष्णु पुराण/प्रथम अंश/अ.-4/श्लोक 51-52


‘जल’ की उत्पत्ति के संबंध में एक अन्य पुरातन- अवधारणा भी विचारणीय है। लगभग सभी पुराणों और स्मृतियों में यह श्लोक (थोड़े-बहुत पाठभेद से) दिया रहता है जो इस अर्थ का वाचक है कि जल की उत्पत्ति ‘नर’ (पुरुष = परब्रह्म) से हुई है अतः उसका (अपत्य रूप में) प्राचीन नाम ‘नार’ है, चूंकि वह (नर) ‘नार’ में ही निवास करता है, अत: उस नर को ‘नारायण’ कहते हैं-


आपो नारा इति प्रोक्ता, आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।

-ब्रह्मपुराण/अ-1/श्लोक-38


विष्णुपुराण के अनुसार इस समग्र संसार के सृष्टि कर्ता ‘ब्रह्मा’ का सबसे पहला नाम नारायण है। दूसरे शब्दों में में भगवान का ‘जलमय रूप’ ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण है-


जल रूपेण हि हरिः सोमो वरूण उत्तमः।
अग्नीषोममयं विश्वं विष्णुरापस्तु कारणम्।।

-अग्निपुराण /अ.-64/श्लोक 1-2


‘हरिवंश पुराण’ भी इसकी पुष्टि करता है कि ‘आपः’ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं। ‘हरिवंश’ में कहा गया है कि स्वयंभू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से सर्वप्रथम ‘जल’ की ही सृष्टि की। फिर उस जल में अपनी शक्ति का आधीन किया जिससे एक बहुत बड़ा ‘हिरण्यमय-अण्ड’ प्रकट हुआ। वह अण्ड दीर्घकाल तक जल में स्थित रहा। उसी में ब्रह्माजी प्रकट हुए-


ततः स्वयंभूर्भगवान् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः।
अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत्।।35।।
हिरण्य वर्णभभवत् तदण्डमुदकेशयम्।
तत्रजज्ञे स्वयं ब्रह्मा स्वयंभूरिति नः श्रुतम्।। 37।।


इस ‘हिरण्यमय अण्ड’ के दो खण्ड हो गये। ऊपर का खण्ड ‘द्युलोक’ कहलाया और नीचे का ‘भूलोक’। दोनों के बीच का खाली भाग ‘आकाश’ कहलाया। स्वयं ब्रह्माजी ‘आपव’ कहलाये-


‘उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य ज्ञज्ञिरे।
आपवस्य प्रजासर्गें सृजतो ही प्रजापतेः।।49।।’


अर्थात्- इस प्रकार प्रजा की सृष्टि रचते हुए उन ‘आपव’ (अर्थात् जल में प्रकट हुए) प्रजापति ब्रह्मा के अंगों में से उच्च तथा साधारण श्रेणी के बहुत से प्राणी प्रकट हुए।


-हरिवंश/हरिवंश पर्व/प्रथम अध्याय}
      

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

[53] " पशु तो पशु ही रह जाते हैं, किन्तु मनुष्य- ' मनुष्य ' बन सकता है ! "

" गुरु-शिष्य योग-वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा  "
( ' मनुष्य-निर्माण कारी प्रशिक्षण का प्रभाव ' के बारे में ) दो-चार घटनाओं का स्मरण जब तब हो आने से बहुत आश्चर्य भी होता है. दो व्यक्तियों के जीवन से जुड़ी घटनायें याद आती हैं. एक लड़के को कोई नौकरी य़ा रोजगार का कुछ भी अवलम्ब नहीं था. बहुत कष्ट से एक स्कूल में उसको नौकरी मिली. किन्तु जब वह नौकरी करने स्कूल में गया तो वहाँ उसको पढ़ाने के बजाय ऑफिस का कार्य दिया जाने लगा. उसको स्कूल का एकाउन्ट्स लिखने के लिये कहा जाता था.
तथा वह एकाउन्ट किस प्रकार लिखना होगा इसका निर्देश देते हुए स्कूल के व्यवस्थापक लोग बोले, कि आप जैसे एकाउन्ट लिख रहे हैं वैसे न लिख कर हमलोग जैसा कहते हैं वैसा लिखिए ताकि हमलोगों के स्कूल को उससे लाभ पहुँचे इत्यादि इत्यादि कहने लगे. अर्थात मिथ्या हिसाब लिखने के लिये उस पर दबाव देने लगे.तब वह उस नौकरी को छोड़ कर वापस लौट आया. कहता था, नहीं, यह सब तो सच्ची बात नहीं है. भविष्य के जीवन में उसने फिर कभी नौकरी नहीं किया. अपने घर में बैठ कर कुछ छात्रों को पढ़ता था, उसके बाद अपना एक छात्रावास स्थापित कर लिया. 
और एक दूसरे लड़के की बात याद आ रही है. वह भी बड़ा आश्चर्य जनक था. उस लड़के के पिताजी रामकृष्ण मिशन द्वारा संचालित एक दातव्य चिकित्सालय में कम्पाऊन्डर थे. अति सामान्य तलब मिलता था. उतने पैसों से पुत्र-पुत्रियों को पढ़ाना-लिखाना और परिवार का भरण-पोषण करना बहुत कष्टकर था. उनका लड़का पढने-लिखने में अच्छा था.अच्छे अंकों से पास करके बहुत चेष्टा करने पर भी उसको नौकरी नहीं मिली. वह दूर में रहता था किन्तु नियमित पत्राचार किया करता था. एक बार उसने सूचित किया कि एक बहुत बड़ी कम्पनी में बहुत अच्छे पद पर नियुक्ति के लिये मुम्बई जाकर परीक्षा देने का एक चिट्ठी मिली है;प्रतियोगिता परीक्षा में भाग लेने के वास्ते मुम्बई ही जाना पड़ेगा किन्तु मेरे पास तो मुम्बई जाने के लिये रूपया पैसा नहीं है, क्या करूँ ?
मैंने उसको लिखा कि तुम किसी तरह रुपये पैसों का इन्तजाम करके परीक्षा दे आओ. आश्चर्य लगता है, वह लड़का मुम्बई गया, परीक्षा में भाग लिया वह प्रतियोगिता परीक्षा सर्व भारतीय स्तर पर आयोजित हुई थी. उस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर एक विदेशी कम्पनी में बहुत ऊँचे पद पर नौकरी मिल सकती थी. लिखित परीक्षा में उसको प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है, इसके बाद एक इन्टरभियु होगा. वह इन्टरभियु कलकाता में होगा, किन्तु वह लड़का तो उत्तर बंगाल में रहता था, उसके लिये मुम्बई की परीक्षा से लौटने के बाद पुनः उत्तर बंगाल से कलकाता आकर इन्टरभियु देना बहुत कठिन था. मैंने उसको फिर एक पत्र लिखा. उससमय चिट्ठी पहुँचने में आजकल जितना समय नहीं लगता था. कुछ जल्दी ही पत्र अपने गंतव्य पते तक पहुँच जाता था. ऐसी आशा रखी जा सकती थी कि एक सप्ताह के अन्दर अन्दर एक जगह से दूसरे जगह तक चिट्ठी पहुँच ही जाएगी.अभी तो सात दिनों में बहुत कम ही चिट्ठी पहुँच पाती है.
इस प्रकार वह कलकाता आया, आकर इन्टरभियु दिया, इसमें भी फर्स्ट हुआ, और सेलेक्टेड हो गया. उसको उसी कम्पनी में Eastern Region of India - का प्रभार देकर नौकरी में रख लिया गया.पर उस नौकरी में आगे चल कर उसको जाकर कई प्रकार की समस्याओं के सम्मुखीन भी होना पड़ता था. किन्तु जिस प्रकार प्रशिक्षण और अभ्यास से वह तप कर निकला था उसके फलस्वरूप उसके शरीर में बिकुल कोई आँच नहीं लग सका.
हमलोगों का सिटी ऑफिस जिस समय अद्वैत आश्रम से चल रहा था, उसके बाद में ही तो वहाँ से शम्भूबाबू लेन में आया था. किन्तु उसी समय से बिल्कुल स्थापना के समय से ही कॉलेज स्ट्रीट ( आजकल जिसको विधान सरणी कहता है ) के ठीक मोड़ के पास एक ' मेस बाड़ी ' ( निजी छात्रावास ) में ऊपर चढ़ने पर सीधा दूसरे तल्ले पर एक बरामदे के साथ छोटा सा जगह था, एक लड़का वहाँ रहता था उसने परामर्श दिया कि आपलोग चाहें तो इस स्थान को अपने उपयोग में ला सकते हैं.
उस समय महामण्डल का कोई साइन बोर्ड नहीं था, महामण्डल का पता कहाँ दिया जायेगा यही सोंच कर महामण्डल का एक साइनबोर्ड उस ' मेस बाड़ी ' पर लगा दिया गया था.उस समय हमलोगों के ' चण्डी दा ' एक ऑफिस में नौकरी करते थे, संध्या के समय नौकरी से आने के बाद वहीं दो-तीन घन्टा रोज आकर अकेले ही बैठे रहते थे.वहाँ कोई काम नहीं होता था कोई वहाँ नहीं जाता था, किन्तु शाम के समय में  चण्डी दा पूरी निष्ठा के साथ वहाँ दो घंटे तक अवश्य उपस्थित रहते थे. उसके बाद शम्भू बाबू लेन य़ा अन्य कहीं जाकर महामण्डल का कार्य करते थे. इस प्रकार की निष्ठा के साथ कार्य हुआ था.जिस समय कार्य इतना ज्यादा बढ़ गया कि शम्भू बाबू लेन में रहना भी सम्भव नहीं हुआ तो एक हमलोगों के ' तनु दा ' (श्री तनुलाल पाल ) जो महामण्डल के मीटिंग में पहले से ही जाते थे, उन्होंने एकदिन कहा कि सियालदह स्टेशन के निकट मेरा घर है, महामण्डल को तो काम करने में बहुत असुविधा हो रहा है, यदि महामण्डल लेना चाहे तो मेरे घर के निचले तल्ले पर का दो कमरा मैं दे सकता हूँ.
 तनु दा भी महामण्डल के एक उपाध्यक्ष हैं, एवं वे स्वामी विज्ञानानन्द जी महाराज ( स्वामीजी के एक गुरुभाई ) के आश्रित हैं. उनका मठ और मिशन में बहुत पुराना सम्बन्ध है तथा अति प्राचीन सन्यासियों में से बहुतों के साथ संग किये हैं. तब उनके घर में दो कमरों को लिया गया.और महामण्डल का सिटी ऑफिस स्थानान्तरित हो कर वहीं चला आया.पता है- 6 /1 A, जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, हमलोगों का सिटी ऑफिस आज भी वहीं है, ( जिसमे सोने का भी जगह नहीं है वहीं प्रमोद दा को बहुत कष्ट पूर्वक रहना पड़ता है.) उसी समय से सभी कार्य वहाँ से चलाये जा रहे हैं. इधर ये सब कार्य बढ़ते जा रहे हैं, पुस्तकों का प्रकाशन बढ़ता जा रहा है.
 ' विवेक-जीवन ' के ग्राहक बढ़ते जा रहे हैं. महामण्डल के केन्द्र इसके ग्राहक बने हैं, महामण्डल के अनेकों सदस्य इसके ग्राहक बने हैं. इसके बाद महामण्डल सदस्यों के अतिरिक्त भी कई लोग यह सब देख कर इसके ग्राहक बन रहे हैं. होते होते अन्य से तुलना करने योग्य तो कुछ भी नहीं है, फिर भी लगभग तीन हजार ग्राहक हो गये हैं.
अब भी किन्तु आठ पृष्ठों का यह द्विभाषी मासिक सम्वाद पत्रिका ' विवेक-जीवन ' के नाम से ही प्रकाशित होता है.बिहार का एक यूनिट है, वह अब झाड़खण्ड राज्य के अन्तर्गत पड़ गया है. झाड़खण्ड के कार्यकर्ताओं ने कहा कि' विवेक-जीवन ' अंग्रेजी और बंगला में तो निकलता है पर इसमें यदि हिन्दी भी रहता तो बहुत अच्छा था. हिन्दी क्षेत्रों में अधिकांश लोग तो बंगला पढ़ नहीं पाते हैं. साधारण तौर से ' विवेक- जीवन ' में एक सम्पादकीय लेख अंग्रेजी में होता है, एक बंगला में होता है. महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों के सम्वाद आदि दिये जाते हैं. इसके अतिरक्त कुछ अन्य समसामयिक सूचनाएं, विज्ञान जगत से जुड़े नये नये समाचार आदि भी रहते हैं.
इसके अतिरिक्त विशेष रूप से कैम्प में जो प्रश्नोत्तरी का कार्यक्रम चलता है वह बहुतों को बहुत उपयोगी लगता है, तथा सभी इसे बहुत पसन्द करते हैं. जो लोग कैम्प में नहीं आ पाते हैं वे ' विवेक-जीवन ' में प्रश्नोत्तर देख सकते हैं. इस प्रकार की कई उपयोगी सामग्रियों को इसमें प्रकाशित किया जाता है. अब हिन्दी भाषी कर्मियों के आग्रह पर इसे हिन्दी में भी निकालने की अनुमति दे दी गयी. हिन्दी में किन्तु मूख्य रूप से इसी द्विभाषी
 ' विवेक-जीवन ' के अंग्रेजी बंगला में जो कुछ प्रकाशित होता है उसी ' विवेक-जीवन '  को हिन्दी में अनुवाद करके अब ' विवेक-अंजन ' नाम से महामण्डल की हिन्दी त्रैमासिक सम्वाद पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया जाता है. आजकल यह पत्रिका भी हिन्दी अँचल में बहुतों का ध्यान आकर्षित करने लगी है.उधर पहले पहल महामण्डल की जो अवस्था थी, उस समय तो कार्य करने वाले लोग बहुत ही कम थे, नहीं के बराबर थे. इसीलिये महामण्डल के काम से कई स्थानों पर अकेले ही जाना पड़ता था. कोई आने का निमत्रण देता तब वहाँ जाना पड़ता था, य़ा कहीं जाना हमलोगों को जरुरी लगता तो भी जाना पड़ता था.
उस समय ऑफिस में नौकरी भी करनी पड़ती थी. शनिवार के दिन दो बजे दिन में छुट्टी हो जाती थी. कई बार महामण्डल के कागज पत्तर, पुस्तिकाएँ आदि साथ में लेकर निकल जाता था. कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि अनजाने रास्ते पर पैदल चलते चलते माइल पर माइल जमीन पीछे छोड़ता हुआ बहुत दूर निकल आया हूँ. एक छोटी नदी आ गयी है. एकबार याद है, तारकेश्वर से ट्रेन में उतर कर कितने माइल पैदल चला होऊँगा अभी बता नहीं सकता, दामोदर नदी पार करके देखता हूँ थोड़ा जंगल जैसा आ गया है. जहाँ जाना है वहाँ का नाम किससे पूछूं ? कोई जन प्राणी दूर दूर तक दिखलाई नहीं पड़ रहा था. जंगल के बीच से पैदल चलने का जो निशान पड़ जाता है, जिसको पगडंडी कहते हैं, उसी से जाते जाते हठात एक आदमी दिखायी पड़ा, उससे मैंने पूछा- यह ग्राम किस ओर पड़ेगा? ' ओ यह ग्राम ? थोड़ा और आगे जाइये, आपको वहाँ से दो पगडण्डी अलग अलग दिशाओं में मुडती हुई दिखेगी, आप बायीं ओर वाली पगडण्डी पकड़ कर चलने से वहाँ पहुँच जाइयेगा. '
ऑफिस से मैं दो बजे निकला था, पर उस ग्राम तक पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी. वहाँ पहुँच कर जब एक स्थान पर गया तो देखा कि एक आदमी का घर है. घर क्या छोटी सी कुटिया थी. उसीमे जाने के लिये बोला. जो लोग ग्राम कि ओर गये हैं वे जानते हैं कि ' कुटिया- नुमा ' जो घर बनाये जाते हैं उसमे वे लोग हर जगह में दरवाजा बहुत बड़ा नहीं रखते हैं. बहुत नीचा दरवाजा था. सिर को झुका कर ही उसमे प्रवेश किया जा सकता है. उस कुटिया में जाने पर वहाँ के लोगों से बहुत देर तक बातचीत हुई. वहाँ पर महामण्डल का एक केन्द्र बना. वहाँ पर जिन्हों ने महामण्डल का केन्द्र स्थापित किया था वे अभी रामकृष्ण मठ-मिशन के सन्यासी हैं.
हमलोगों ने अभी तक ठीक से गिनती करके नहीं देखा है, पर कई लोग कहते हैं कि महामण्डल के प्रायः एकसौ कर्मी मठ-मिशन के सन्यासी बन गये हैं. उनलोगों के मन में यहीं से ठाकुर कि बातें सुनते सुनते आग्रह हुआ है. इस समय उनलोगों का उम्र भी बहुत ज्यादा हो गया है, कभी कभी तो हमलोग भी पहचान नहीं पाते हैं. क्योंकि सन्यासी बनने के पहले वे किसी ग्राम में अपने पुर्वाश्रम की वेष-भूषा में ही रहते थे, अब मुख की आकृति बदल गयी है, शरीर भी कुछ कुछ बदल गया है, मुंडित मस्तक हो गये हैं; इसीलिये हो सकता है हमलोग कभी कभी पहचान नहीं पाते हैं. कोई कोई स्वयं आगे बढ़ कर परिचय देते हुए कहते हैं- ' मैं भी पहले महामण्डल में था. ' तब उनलोगों से मिल कर बहुत अच्छा लगता है, बहुत आनन्द भी होता है. यह सब किस प्रकार हो गया है ? हमे खुद नहीं मालूम.इसिलए मेरे मन में बार बार ये ख्याल आता है,..... यदि ठाकुर परमहंसदेव की ईच्छा नहीं होती तो महामण्डल कभी स्थापित भी नहीं हो सकता था. यदि इसके पीछे माँ का आशीर्वाद नहीं रहता, स्वामीजी का अदभुत तेज और उत्साह वर्धक प्रेरणा इसके साथ मिलकर एकत्रित नहीं हो जाती तो महामण्डल कभी यहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता था. 
इसीलिये मेरे मन में यह विचार भी उठता है कि हमलोगों का जीवन, जो भी लोग इस काम से जुड़े हैं उन सभी लोगों का जीवन इसलिए धन्य हो गया है कि , ठाकुर-माँ -स्वामीजी का कार्य जिस प्रकार हमलोगों के माध्यम से हो रहा है, यह उन्ही की ईच्छा से हो रहा है, उन्ही की आशीर्वाद से हो रहा है. हमलोगों का जीवन धन्य हो रहा है, ऐसा प्रतीत होता है.
एक और जगह में जाने बोला था, वहाँ जाकर देखता हूँ वैसा उबड़-खाबड़ अँचल है, कहीं पर बांसों का झुरमुट है तो कहीं उस पगडण्डी पर चलते चलते बीच में जंगल आ जाता है. इसी प्रकार चलते चलते उस ग्राम में जा पहुँचा. वहाँ पहुँचने पर देखता हूँ कि एक कमरे में ठाकुर-माँ-स्वामीजी का चित्र बहुत सुन्दर ढंग से सजा कर रखा हुआ है. वहाँ पर प्रतिदिन उनकी पूजा-अर्चना की जाती है. उस पूजा में उस घर के लोग भाग लेते हैं, दूसरे लोग भी आते हैं, महामण्डल के जो सदस्य लोग  हैं वे भी आते हैं, संध्या बेला में आरात्रिक होता है.
उसके बाद देखता हूँ सामने थोड़े खुला स्थान है, वहाँ पर छोटे छोटे बच्चों का एक दल बैठा हुआ है. मुझसे बोला कि आप इनलोगों को कुछ कहिये. क्या बोलूँगा ? इस प्रकार हठात कह दिया जाये तो मैं इन छोटे छोटे बच्चों को क्या बोलूं, यही सोंच रहा था. मैंने पूछा- ' क्या तुमलोग ठाकुर को जानते हो ? '
" हाँ, जानते हैं ! " तुमलोग क्या माँ को जानते हो; श्रीश्रीमाँ सारदा देवी को ? " हाँ जानते हैं, यही तो भीतर में बैठी हुई हैं, पूजा होती है. " अच्छा तुमलोग स्वामी विवेकानन्द को जानते हो ? " हाँ जानते हैं, स्वामी विवेकानन्द को भी जानते हैं. " ऐसे बच्चों को मैं और भला क्या कहता. तब मैंने उन बच्चों से एक बात कहा - " जानते हो इन लोगों को देखने से मुझे क्या महसूस होता है ? मैं तुमलोगों से अपने मन कि बात बतलाता हूँ. ठाकुर हमलोगों के पिता हैं, माँ सारदा हमलोगों की माँ हैं, और स्वामी विवेकानन्द हमलोगों के बड़े भाई हैं. तुम्हारे बड़े भैया हैं." 
यदि तुमलोग सचमुच इन लोगों को माँ, पिताजी और बड़े भैया जैसा अनुभव कर सको तो तुमलोगों का जीवन अति सुन्दर हो उठेगा. जीवन में आनन्द बना रहेगा. संसार में दुःख है, आभाव है, सबकुछ है. किन्तु मन में यदि वह आनन्द बना रहे (ठाकुर माँ स्वामीजी को बिल्कुल अपना मानने से जो आनन्द होता है - वैसा वाला देश-कालातीत आनन्द ) तो जीवन कभी व्यर्थ में ही नहीं बीत सकता है.मनुष्य योनी में जन्म लेना सार्थक हो जायेगा. अत्यन्त आनन्दित मन लेकर हमलोग इस नश्वर शरीर का त्याग करने में समर्थ बन जायेंगे. एक दिन तो यह शरीर सभी को त्याग करना ही होगा. किन्तु स्वामीजी जैसा कहते थे, वह बहुत बड़ी बात है होगी कि हम सभी मनुष्य यथार्थ मनुष्य बन कर छोटी छोटी निशानियाँ ही सही, पर कोई न कोई निशानी अपना कोई न कोई दाग य़ा एक " चिन्ह " यहाँ पर अवश्य ही छोड़ कर विदा ले सकते हैं ! तब हमारे चले जाने के बाद लोग कहेंगे-
" हाँ, एकटा रेखे गेछे किछू, एकटा जीवन रेखे गेछे ! "  
" हाँ, अमुक व्यक्ति चला तो गया है, पर कुछ चिन्ह (प्रतीक-चिन्ह Mile -Stone  रूपी एक ' जीवन ') छोड़ गया है ! " 
ऐसे ही प्रेरणा दायक जीवन गठित करना आवश्यक है. हमलोगों को अपना जीवन ऐसे ही त्रिदेवों (ठाकुर-माँ -स्वामीजी ) के साँचे में ढाल लेना है ! ( ये तीनों ही माँ, पिता और बड़े भैया के रोल मॉडल हैं) हमे यह मनुष्य शरीर प्राप्त हो गया है, मुष्य शरीर प्राप्त करके इसको ' यथार्थ मनुष्य ' के रूप में गढ़ लेना पड़ता है. अन्य पशु लोग जन्म लेते हैं और उम्र बीत जाने के बाद भी वे पशु ही रह जाते हैं. किन्तु मनुष्य शरीर प्राप्त कर लेने के बाद ' यथार्थ मनुष्य' जैसा बन जाने का पूरा दायित्व मनुष्य का ही है. उन्ही कवि राजा भर्तृहरि की एक बहुत प्रसिद्ध उक्ति है- " पशु, पशु ही रह जाता है. किन्तु मनुष्य मनुष्य हो उठता है ! " बड़े ही सुन्दर ढंग से वे कहते हैं- 
" येषां न विद्या न तपो न दानं,
                न ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः |
ते मर्त्यलोके भूरी भारभूता,
                                 मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति || "  
जिनके भीतर विद्या नहीं है, तपस्या नहीं है, ज्ञान नहीं है, धर्म नहीं है, दान नहीं है, वैसे लोग इस धरनी पर भार स्वरुप हैं. मनुष्य के रूप में मृग जैसे हैं, अर्थात पशु जैसे ही घूमते फिरते हैं. समाज के अधिकांश लोगों की तो यही दशा है. यदि हमलोग इस मनुष्य के समाज को पशुओं के समाज जैसी अवस्था में रहने देना नहीं चाहते हों, यदि हमलोग यह चाहते हों कि मनुष्य का समाज ' यथार्थ मनुष्य ' के समाज में बदल जाये तो, इस चरित्र निर्माण कारी और मनुष्य निर्माण कारी प्रशिक्षण शिविर को भारत के गाँव गाँव तक फैला देना होगा. इसके लिये हमे स्वयं चेष्टा करके पहले अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गढ़ लेना होगा. जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ लेने पर वह एक महामूल्यवान सम्पद में परिणत हो उठता है.            
           

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

[52] "महामण्डल की कार्य पद्धति"

योगासनों (मूलबन्ध,मुद्रा आदि) के प्रशिक्षक 'आयरनमैन' -नीलमणिदा ! 
आज भारत के पहल पर यू.एन.ओ द्वारा प्रतिवर्ष २१ जून को 'अंतर्राष्ट्रीय योगदिवस' के रूप में मनाया जा रहा है। ' रामकृष्ण मूभमेन्ट ' या रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का यह अंग जिसका नाम अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल है; यह युवासंगठन अपने वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में विद्यार्थियों को विगत ५१ वर्षों से चार योगों- कर्मयोग,ज्ञानयोग,भक्तियोग और राजयोग का व्यावहारिक प्रशिक्षण द्वारा चरित्र-निर्माण एवं जीवन-गठन का प्रशिक्षण देता चला आ रहा है।
यह संस्था केवल युवाओं के लिये है. इसका संस्था का गठन केवल इसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर किया गया है कि हमारे युवा भाई कहीं विपथगामी न हो जाएँ, वे लोग सूपथ  पर रहें, अच्छे पथ पर रहें, ताकि उनका जीवन सुन्दर ढंग से गठित हो और वे देश-मातृका की सेवा में अपना तन मन धन न्योछावर कर के अपने जीवन को सार्थक कर सकें ! 
यह कार्य अपने आप में बहुत पुनीत कार्य है. यह एक ऐसा कार्य है, जिससे जुड़ने वाले को- " ठाकुर की ईच्छा, माँ का आशीर्वाद एवं स्वामीजी की उत्साह के द्वारा सहज में ही आनन्द  प्राप्त हो सकता है."  इस कार्य को करने में क्या आनन्द मिलता है, इसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ हो जाती है. देश को अपनी माँ समझ कर, बिल्कुल अपनी माँ के जैसा प्यार नहीं करने से- देश वासियों को अपना परम-आत्मीय जानते हुए बिकुल अपने परिवार जैसा प्रेम नहीं करने से, उनके लिये अपने जीवन की शक्ति को थोड़ा भी खर्च नहीं करने से, यह जीवन यूँ ही व्यर्थ में नष्ट हो जायेगा. 
इसी प्रकार जो कार्य प्रारम्भ हो गया था वह चलता रहा, किन्तु अद्वैत आश्रम के सन्यासियों द्वारा कार्य समाप्त कर लिये जाने के बाद, फिर बचे हुए समय में वहीं पर बैठ कर किसी संस्था का कार्य ज्यादा दिनों तक चल पाना सम्भव नहीं था. इसी कारण इसी के नजदीक ' ऐन्टाली ' में एक जगह देख लिया गया. इसकी खोज करने के लिये भी मेरे साथ केवल जयराम महाराज ( वर्तमान में रामकृष्ण मठ मिशन के वाईस प्रेसिडेन्ट ) ही मेरे साथ बाहर निकले.
बाहर निकल कर इधर उधर खोजते खोजते ' शम्भुबाबू लेन ' में एक छोटा सा कमरा पाया जा सका, किन्तु कहना पड़ता है कि दो कमरे प्राप्त हुए. एक घर में घुसने पर थोड़ा सा जगह, जिसके दाहिनी ओर तथा बायीं ओर दोनों ओर दो कमरे जो इतने छोटे थे कि उसका माप बताना भी बहुत कठिन है. याद पड़ता है कि शायद आठ फुट बाय छौ फुट माप का कमरा रहा होगा. दो तरफ दो कमरे वाला (2BHK फ़्लैट ) भाड़ा में लिया गया.  वहीं पर बैठ कर कार्य चलने लगा. एक-दो वर्ष बीत जाने का बाद यह आवश्यक लगने लगा था कि महामण्डल का एक अपना मुखपत्र भी होना चाहिये. तब ' विवेक-जीवन ' के नाम से एक पत्रिका निकाली जाय यह निर्णय लिया गया. पहला जो अंक निकला उसमे आठ पन्ने थे. 
आज भी आठ पन्नों कि ही पत्रिका छपती है. इसका प्रतिवर्ष दो विशेषांक भी - जनवरी और जुलाई में निकाले जाते हैं.ये विशेषांक बड़े होते हैं.महामण्डल के इस मुखपत्र में महामण्डल की जितनी शाखाओं में काम चल रहा था, उन की खबरें, कुछ निबन्ध, आदि रहते थे. बाद में यह पत्रिका दो भाषाओँ में (अंग्रेजी और बंगला में) निकलने लगी. 
इसको छापने के लिये एक छोटे से प्रेस की व्यवस्था भी करनी पड़ी. उसके लिये सम्पादकीय लेख आदि अंग्रेजी और बंगला में लिखना, कम्पोज होने के बाद उसका प्रूफ देखना फिर पत्रिका के छप जाने पर उसको उसी नये भाड़े वाले मकान को 'सिटी ऑफिस ' (उसी शम्भूबाबू लेन के कमरे में ) ले आना. हमलोग उसीको सिटी ऑफिस कहते थे.क्योंकि हमलोगों के महामण्डल में सारे दिन केवल महामण्डल का ही काम करने वाले { ' पूर्णकालिक ' य़ा ' जीवनदानी ' } कार्यकर्ताओं का कोई कांसेप्ट नहीं है. 
( महामण्डल के सदस्य वैसे गृहस्थ लोग होते हैं जो सारा दिन अपना पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने के बाद केवल खाली बचे समय में ही  महामण्डल का काम करते हैं.)  सारे दिन केवल महामण्डल का ही कार्य करते हों ऐसा कोई सदस्य पहले भी नहीं था आज भी नहीं है, ( प्रमोद दा को छोड़ कर ? )अतः महामण्डल कोई ऐसा स्थाई पता तो होना जरुरी था जहाँ किसी भी समय डाक, चिट्ठी य़ा मनीआर्डर जो भी कुछ आये उसको रिसीव करने के लिये कोई तो हमेशा उपलब्ध रहना चाहिये. इसके लिये खड़दा वाले घर ' भुवन-भवन ' के सिवा यह सुविधा अन्य किसी जगह पर उपलब्ध नहीं था इसीलिये प्रारम्भ से ही खड़दा के घर( नवनीदा का पैत्रिक निवास स्थान ) ' भुवन-भवन ' में महामण्डल का रजिस्टर्ड ऑफिस बनाया गया था.
और जो बाद में (शम्भूबाबू लेन में ) भाड़े का नया मकान लिया गया वह हमलोगों का पहला ' सिटी- ऑफिस ' था. संस्था को रजिस्टर्ड करने के लिये एक नियमावली बनाने की आवश्यकता सामने आयी  जिसको कंस्टीच्यूशन (Constitution) कहा जाता है. तब इसी तरह के और भी पाँच दस संस्थाओं का   कंस्टीच्यूशन कैसे है, उसे देख सुन कर एवं इस विषय पर उपलब्ध कानून की पुस्तकों का अध्यन करने के बाद बहुत सोंच-विचार करके महामण्डल का एक Constitution लिखना पड़ा. फिर इस संस्था को सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट (Societies Registration Act)  के अनुसार पंजीकृत करवाया गया.
इस प्रकार ' सिटी-ऑफिस ' से सारे कार्य चलने लगे. महामण्डल की द्विभाषी सम्वाद पत्रिका ' विवेक - जीवन ' प्रकाशित होने लगी. उस समय याद पड़ता है कि शम्भू बाबू लेन के ऑफिस में मात्र दो-चार लोग ही आया करते थे. उनमे से एक व्यक्ति आगे चल कर सन्यासी हो गये थे. वे अद्वैतआश्रम में एकाउन्ट्स का काम देखा करते थे, और भी कई संस्थाओं में हिसाब-किताब देखने का काम करते थे. उन्होंने कई वर्षों तक महामण्डल का एकाउन्ट्स भी देखा था.
उन दिनों ' विवेक-जीवन ' को मोड़ना, उसके ऊपर रैपर लगाना, पता लिखना और टिकट चिपकाना फिर दूसरे दिन उन सब को निकट के किसी पोस्ट ऑफिस में छोड़ आना ये सभी कार्य मूख्य रूप से हम तीन व्यक्तियों को ही करना पड़ता था, एक थे श्री चण्डीचरण दास, (जिनको हमलोग चण्डीदा कहते थे), उनके साथ वीरेन (वीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती ) एवं मैं. उसके बाद कन्सेशनल रेट में पत्रिका को पोस्ट करने की सुविधा पाने के लिये ' विवेक-जीवन ' को आवेदन भेजकर दिल्ली से 'न्यूज़पेपर रजिस्ट्रेशन'  करवाया गया. वहाँ से नम्बर मिल जाने के बाद उसको प्रकाशित होने पर महीने के पहले पखवाड़े में एक विशेष पोस्ट ऑफिस में ही छोड़ देना पड़ता था.
तत्पाश्चात एक के बाद एक करके महामण्डल की पुस्तिकाएँ भी प्रकाशित होने लगीं. इसके बाद उन पुस्तिकाओं का विभिन्न भाषाओँ में अनुवाद किया गया. अंग्रेजी और बंगला में पुस्तकें लिखी गयीं. कई पुस्कों को बंगला से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया. जब यह कार्य (आन्दोलन ) धीरे धीरे फैलने लगा, तो उन सभी नये नये स्थानों में इसके केन्द्र को स्थापित होते देखने पर आज स्वयं हमलोगों को भी आश्चर्य होता है. क्योंकि किसी भी स्थान पर एक भी नया केन्द्र हमलोग खुद से चेष्टा कर कर के स्थापित किये हों ऐसा नहीं है. महामण्डल के स्थापित होने के समय से ही प्रत्येक वर्ष हमलोग एक कैम्प अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित करते हैं, इसको हमलोग अक्सर Annual Camp कहते हैं.
हमलोग भारतवर्ष के विभिन्न यूनिवर्सिटी में, जाने पहचाने कालेजों में, महामण्डल के वरिष्ठ सदस्यों का जहाँ के प्राध्यापकों से किसी न किसी प्रकार का परिचय हो उनसे सम्पर्क करके उनलोगों के पास ' युवा प्रशिक्षण शिविर ' में भाग लेने का आवेदन पत्र और शिविर की नियमावली आदि भिजवाने लगे. उन सबको देख सुन कर पश्चिम बंगाल के बाहर के राज्यों के कई विभिन क्षेत्रों से बहुत से युवा (शिविरार्थी ) लोग आने लगे.एवं उन शिविरार्थियों की संख्या क्रमशः बढ़ते बढ़ते हजार को पर कर गयी, एग्यारह सौ, साढ़े एग्यारह सौ, गत वर्ष (२००९ के वार्षिक शिविर में ) तेरह सौ से भी अधिक शिवारार्थी आये थे.
किन्तु वार्षिक शिविर में (भारत के अत्यन्त दूर दराज के क्षेत्रों से ) सभी तो आ नहीं सकते हैं. इसी लिये इस वार्षिक शिविर को भी भारत के अन्य राज्यों में आयोजित करना बहुत जरुरी है. किन्तु जिन जिन स्थानों में महामण्डल की शाखाएं स्थापित हो चुकी थीं, उन राज्यों के कर्मी लोग ' राज्य स्तरीय शिविर ' आयोजित करने के लिये उद्योगी हुए और हमलोगों से अनुमति मांगे, हमलोगों ने भी उनको अपने ही राज्य में ' युवा प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित करने के लिये प्रोत्साहित किया. इस प्रकार राज्य स्तरीय शिविर का आयोजन होने लगा. जिस प्रकार बिहार राज्य स्तरीय शिविर, उडिषा राज्य स्तरीय कैम्प होने लगे, इसी प्रकार अन्यान्य राज्यों में भी कैम्प होने लगे.
उन राज्य स्तरीय कैम्पों में राज्य के विभिन्न जिलों से युवा लोग आने लगे, वहाँ पर जिन लोगों ने सुना वे अपने अपने क्षेत्र में वापस लौट कर स्वतः आग्रही हो कर अपने अपने स्थानों में केन्द्र आरम्भ किये. इसी प्रकार करते करते इस समय तो महामण्डल के अनेकों केन्द्र खुल गये हैं.इस समय विभिन्न राज्यों में महामण्डल की कुल २८० शाखाएं हैं. किन्तु महामण्डल की शाखायें खोलने का एक नियम शुरू से ही चलता आ रहा है, वह यही है कि जिस स्थान पर भी नया केन्द्र खुलेगा वहाँ पहले वे लोग एक पाठचक्र गठित करके कार्य आरम्भ करेंगे.
पाठचक्र में उन्हीं विषयों को पढ़ कर उस पर चर्चा किया जाता है, जिन विषयों को प्रशिक्षण शिविर में सिखाया जाता है, उनको सुनकर और सीख कर नित्य करनीय पाँच अभ्यास ( व्यायाम, मनः संयोग, स्वाध्याय,  विवेक-प्रयोग, और आत्ममूल्यांकन आदि )  का अभ्यास करने के लिये पाठचक्र के प्रत्येक सदस्य को उत्साहित किया जाता है. जैसे सुबह उठ कर थोड़ी देर तक व्यायाम करना है, कुछ समय के लिये मनः संयोग का अभ्यास करना है. सारे दिन से लेकर रात्रि में सोने के पहले तक जब कभी समय मिले स्वामीजी की पुस्तकों को महामण्डल की पुस्तिकाओं का अध्यन करना है, यदि संध्या के समय किया जाय तो अच्छा है, यदि समय नहीं मिले तो रात में सोने के पहले फिर एक बार मनः संयोग का अभ्यास करना है, मन में कुछ भी सोंचने, बोलने य़ा करने के पहले श्रेय-प्रेय का विवेक करना है, फिर दूसरों में दोष देखने की वृत्ति को छोड़ कर अपने ही भीतर विद्यमान गुण-दोषों का मूल्यांकन करके साप्ताहिक मानांक बैठना - आदि कार्य चलने लगे. 
बहुत पहले से ही जो ' आयरन मैन ' के नाम से विख्यात थे श्री नीलमणि दास वे प्रथम अवस्था से ही जब अद्वैत आश्रम में मीटिंग चल रहा था, तो एकदिन वे सीधा बिल्कुल मीटिंग के स्थान पर ही आकर उपस्थित हो गये. उनको जब नीचे पूछा गया कि आप कहाँ जा रहे हैं ? तब उन्होंने कहा कि मैंने सुना है कि यहाँ पर स्वामी विवेकानन्द को आदर्श मान कर कुछ कार्यक्रम चल रहा है, मेरे कानों तक ऐसी खबर पहुंची है. ' हाँ, हाँ, आपने बिल्कुल ठीक सुना है, एक मीटिंग चल रही है .' वे बोले मैं भी वहीं जाना चाहूँगा. आप क्या वहाँ जा कर कुछ बोलना चाहते हैं ? ' नहीं नहीं विवेकानन्द को लेकर कहीं कुछ अच्छा कार्यक्रम चलेगा और उसमे मैं अपना योगदान नहीं दूंगा- यह हो नहीं सकता है.' वे उस मीटिंग में आकर बैठे एवं उस दिन से लेकर जितने दिनों तक जीवित थे महामण्डल के साथ जुड़े हुए थे. महामण्डल के अखिल भारतीय शिविर में तथा अन्य स्थानों के शिविर में भी बहुत से शिविर में जाकर शिविरार्थियों को फिजिकल ट्रेनिंग सिखाये हैं, व्यायाम सिखाये हैं.महामण्डल के एक भाईस प्रेसिडेन्ट के पद पर आसीन रहते हुए शारीरिक विकास के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी को जब तक उनके शरीर में शक्ति थी बहुत सुन्दर ढंग से निभाए हैं.
उनके पुत्र स्वपन दास हैं,  वे भी चाहे कहीं भी All India  कैम्प क्यों ना होता हो, वहाँ जाते हैं, और सबों को व्यायाम सिखाने, योगासन आदि सिखाने का कार्य करते हैं. महामण्डल के स्थापना के समय से ही यह चला आ रहा है. यह एक बहुत अच्छी चीज है. महामण्डल कार्यों के एक अंग के साथ ' नीलमणि दा ' एवं उनके सुपुत्र आज तक जुड़े हुए हैं, और शारीरिक प्रशिक्षण के उत्तरदायित्व को निभाते आ रहे हैं यह सचमुच एक अति प्रशंसनीय विषय तो है ही, बड़े हर्ष की बात भी है.शरीर गठन, शरीर को स्वस्थ और निरोग बनाये रखना यह भी तो महामण्डल के कार्य- मनुष्य निर्माण का एक महत्वपूर्ण अंग है. स्वामीजी ने भी कहा है- शरीर और मन की देखभाल करनी है. तो शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने में इन लोगों का अवदान महामण्डल में बहुत स्मरणीय है.
इसके बाद ये केन्द्र बढ़ते बढ़ते विभिन्न स्थानों में स्थापित हुए. बहुत से राज्यस्तरीय शिविर भी होने लगे. इसके बाद हुआ कि जहाँ जहाँ हमारे केन्द्र हैं, वहाँ पर स्थानीय शिविर होना चाहिये. तब जिलास्तरीय शिविर हुआ, कभी कभी कई जिलों को मिलाकर आंचलिक शिविर हुआ जैसे ' उत्तर बंगाल आंचलिक शिविर ' होता है. उसी प्रकार दक्षिणी बंगाल आंचलिक शिविर भी होता है. आजकल वर्धमान, पुरुलिया, बाँकुड़ा, मेदिनीपुर, इन सभी जिलों को मिला कर आंचलिक शिविर हो रहा है. इन सभी केन्द्रों में बहुत अच्छी तरह कार्य चल रहा है, एवं प्रत्येक स्थान पर चाहे एक दिन के लिये भी हो कम से कम एक शिविर जरुर होता है. इन शिविरों में भाग लेने से होता यह है कि नये नये लड़के लोग आकर उसमे भाग लेते हैं, थोड़ा सा सुन कर भी जिनके भीतर अधिक उत्साह होता है, य़ा जो अच्छी तरह से इसे ग्रहन करते हैं, वे इस नित्य करनीय अभ्यासों को अपने आचरण में उतारना आरम्भ कर देते हैं. और वही लोग थोड़े बड़े हो जाने पर अच्छे कर्मी बन जाते हैं.
इसी तरह काम चलते चलते एक शिशु- विभाग भी गठित हो गया. इस विषय में एक ही महामण्डल कर्मी बहुत दक्ष थे. वह स्वयं ही कई स्थानों में छोटे छोटे बालकों का दल बना कर शाम के समय में खेल-कूद कराता था. उसने कहा कि इसी तरह महामण्डल में करने से अच्छा होगा. इस प्रकार एक शिशु-विभाग गठित हो गया. उसका नाम रखा गया- 'विवेक-वाहिनी '. यह भी बहुत जगह बना है. ऐसा भी हुआ कि कहीं कहीं तो एक सौ, डेढ़ सौ शिशु लोग भी आते हैं. उनलोगों को संध्या के समय में खेल-कूद, गाना, कहानी सुनाना, कहानी के माध्यम से उनके मन में सदगुणों को अर्जित करने के लिये उत्साहित किया जाता है.
इस प्रकार जिन लोगों ने बहुत कम उम्र में शिशु विभाग में योग दिया था, वे जब थोड़े बड़े हो गये तो महामण्डल के स्थानीय केन्द्र के सदस्य बन जाते हैं. वही लोग शिशु-विभाग के संचालक भी बन जाते हैं. यह एक अत्यन्त ही सराहनीय कार्य बन चुका है. जिसको बिल्कुल बचपन से ही सत्संग में रहना कहते हैं. अत्यन्त छोटी उम्र से ही जीवन गठन आरम्भ कर लेने के फलस्वरूप उनके जीवन में अच्छे भाव गहराई से बैठ जाते हैं. उनलोग अपने जीवन में कम से कम ठाकुर-माँ- स्वामीजी को तो अपने आदर्श के रूप में यथा सम्भव लेने कि चेष्टा करते हैं. और उनका जीवन सुन्दर पुष्प के जैसा प्रस्फुटित हो उठता है.