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सोमवार, 20 सितंबर 2010

[54] " खण्ड का जगत और अखण्ड का जगत "

 " निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक हैं- स्वामी विवेकानन्द. " 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- " जगत दो हैं जिनमें हम बसते हैं- एक बहिर्जगत और दूसरा अंतर्जगत. खोज पहले बहिर्जगत में ही शुरू हुई. परन्तु उससे भारतीय मन को तृप्ति नहीं हुई. अनुसंधान के लिये वह और आगे बढ़ा..खोज अन्तर्जगत में शुरू हुई, क्रमशः चारों ओर से यह प्रश्न उठने लगा- ' मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का क्या हाल होता है?
' अस्तीत्यैके नायमस्तीति चैके ' (कठ० उ० १/१/२०) 
--' किसी किसी का कथन है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है, और कोई कोई कहते हैं कि नहीं रहता; हे यमराज ! इनमें कौन सा सत्य है ? 'समस्या के समाधान के लिये भारतीय मन ने अपने में ही गोता लगाया, तब यथार्थ उत्तर मिला. वेदों के इस भाग का नाम है उपनिषद या वेदान्त या आरण्यक !."(5/285) }
सृष्टि कि रचना के समय कि बात है. सृष्टि करते समय जब सृष्टा ने ' मनुष्य ' को गढ़ा तो उनको सबसे अधिक आनन्द हुआ, इतना आनन्द उनको अन्य किसी भी चीज को गढ़ने से नहीं हुआ था. तब सभी ने ईश्वर की इस सर्वश्रेष्ठ रचना - ' मनुष्य ' को प्रणाम किया. जिसका स्वाभाव शैतान के जैसा होता है, केवल वही मनुष्य के सामने अपना शीश अवनत नहीं करता.
इसीलिये सम्पूर्ण विश्व के मानव-समाज को आर्य (यथार्थ मनुष्य ) बनाना चाहिये, किन्तु पहले पहल कम से कम भारतवर्ष के नागरिकों को एक प्रबुद्ध नागरिकों का समाज य़ा एक यथार्थ मनुष्यों के समाज के रूप में अवश्य निर्मित करना होगा. मनुष्य ही देवता (जैसा )बन सकता है. मनुष्य के भीतर ही सब कुछ है. उत्तर गीता के एक  साधारण श्लोकांश में कहा गया है-कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हो जाने के बहुत दिनों बाद एक दिन अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं- " आपने उस समय जो गीता सुनाया था, बहुत अच्छा लगा था, उसी तरह के कुछ उपदेश और दीजियेगा ? " श्रीकृष्ण कहते हैं - " उस समय मैंने तुमको योगस्थ होकर उपदेश दिया था, वैसा क्या बार बार थोड़े ही कहा जा सकता है ?  पर जब तुम कुछ कहने के लिये कह रहे हो तो बोलता हूँ. " ऐसा कहने के बाद श्रीकृष्ण ने जो कहा था, उसको ' उत्तर गीता ' कहा जाता है. अनुगीता, ब्रह्मगीता और ब्राह्मणगीता एक दूसरे के क्रम से हैं -उसमे एक जगह पर वे कहते हैं-
 " नरत्वम् नारायणोsसी " 
" - मनुष्य ही नारायण है ! " 
एवं श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ने स्वामी विवेकानन्द के भीतर इसी नारायण ऋषि को प्राप्त किया था, उनको लाये थे, उपस्थित किये थे. ठाकुर स्वामीजी को अपने साथ लेकर आये थे, ऐसा स्वीकार करने के बाद इसकी जो कहानी कहे थे, वह अदभुत कहानी है. उस कहानी को हमलोग बहुत चिन्तन मनन करने के बाद भी कितना समझ पाते हैं ?
महाभारत के ३४० वें अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है. एवं गीता के शंकरभाष्य के उपोदघात (भूमिका ) में अति संक्षेप में यही कहानी कही गयी है. इस प्रकार हम समझ सकते है कि स्वामी विवेकानन्द उस प्रवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक नहीं हैं. बल्कि निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक हैं- स्वामी विवेकानन्द.
'ठाकुर एक दिन कहते हैं -" एक दिन मैं ने देखा कि- मैं ( मेरा मन ) पृथ्वी को पीछे छोड़ कर आकाश पथ से ऊपर की ओर ही उठता जा रहा है. वायूमंडल की सीमा जहाँ तक है उसको भी यह लाँघ गया है,उसके बाद और भी ऊपर जाते जाते देखता हूँ कि एक ज्योतिर्मय विभाजक जैसा घेरा दिया हुआ है.उसके एक ओर है खण्ड का जगत और ऊपर की ओर है अखण्ड का जगत.
उस विभाजक रेखा को लाँघ कर और भी ऊपर की ओर जाते जाते देखता हूँ, बहुत से देवी देवता बैठे हुए है, वे लोग भी पीछे छूटते चले गये.उसके बाद और ऊपर जाते जाते देखता हूँ कि महाशून्य के भीतर स्थित किसी अन्य लोक में पहुँच गया हूँ. वहाँ पहुँच कर देखता हूँ कि सात प्राचीन ऋषि समाधिस्त होकर बैठे हुए हैं. उनके नेत्र मूंदे हुए हैं और वे बिल्कुल ध्यानमग्न अवस्था में हैं.फिर ठाकुर कहते हैं- मैंने देखा कि उसके भी और उपरी आकाश से एक देव शिशु मानो धीरे धीरे उतर रहे हैं और उन ऋषियों में से एक के पास जाकर  उस देव शिशु ने प्रेम से उनके गले में गलबहियाँ डाल दिया,
तथा कोमल स्वर में उनको समाधि से जगाने के लिये चेष्टा करने लगे. किन्तु उनकी समाधि किसी भी तरह से भंग ही नहीं हो रही थी. बहुत समय के बाद थोड़ी मधुर मुस्कान बिखेरते हुए अपने अधखुले नेत्रों से उस देव-शिशु को देख लिये. तब उसशिशु ने उस ऋषि को कहा- ' मैं जा रहा हूँ, तुम भी आना.' तब उस ऋषि के मुख पर एक स्मित हँसी खेल गयी. " इस प्रकार उस ऋषि को वे ले आये.वह ऋषि ही स्वामी विवेकानन्द हैं. उन सप्तऋषियों में से ही एक ऋषि हैं स्वामी विवेकानन्द !


{ स्वामी सारदानन्द जी अपनी पुस्तक श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग; तृतीय खण्ड के पृष्ठ ८० पर इस कहानी का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि, श्रीरामकृष्ण देव ने अपनी अपूर्व सरल भाषा में उस दर्शन की बातें हमे बतायी थी. उस भाषा का हू ब हू प्रयोग कर पाना हमारे लिये असम्भव है, इसीलिये उनकी भाषा यथासाध्य ज्यों की त्यों रखकर हमने उसे यहाँ संक्षेप में व्यक्त किया है. जो इस प्रकार है- 
" एक दिन देखा - ' मन ' ( मेरा परिवर्तनशील मिथ्या व्यक्तित्व य़ा सूक्ष्म शरीर ) समाधि के मार्ग से ज्योतिर्मय पथ में ऊपर उठता जा रहा है. चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र से युक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण कर वह पहले ' सूक्ष्म-भाव के जगत ' में प्रविष्ट हुआ. उस राज्य के ऊँचे से ऊँचे स्तरों में वह जितना ही उठने लगा, उतना ही अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पथ के दोनों ओर दिखायी देने लगीं. क्रमशः उस राज्य की अन्तिम सीमा पर ' वह ' (मेरा Mind य़ा परिवर्तनशील ' अहम् ' ) आ पहुँचा.वहाँ देखा, " एक ज्योतिर्मय परदे के द्वारा खण्ड (Relative Truth )और अखण्ड ( Absolute Truth)  "राज्यों का विभाग किया गया है.
उस परदे को लाँघ कर वह (मन ) क्रमशः अखण्ड राज्य में प्रविष्ट हुआ. वहाँ देखा, मूर्तरूप धारी कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि दिव्य देहधारी  देवी-देवता भी वहाँ प्रवेश करने का साहस न कर सकने के कारण बहुत दूर नीचे अपना-अपना अधिकार फैलाकर अवस्थित हैं. किन्तु दूसरे ही क्षण दिखाई पड़ा कि दिव्य ज्योतिर्घन तनु सात प्राचीन ऋषि वहाँ समाधिस्त होकर बैठे हैं.
(बुद्धि ने ) समझ लिया कि " ज्ञान और पुण्य " में तथा " त्याग और प्रेम " में ये लोग मनुष्य का कहना ही क्या, देवी-देवता तक के परे पहुँचे हुए हैं. विस्मित होकर इनके महत्व के विषय में सोचने लगा. इसी समय सामने देखता हूँ, अखण्ड भेद-रहित, समरस, ज्योतिरमण्डल का (जगत्कारण परमात्मा य़ा सर्व व्याप्त सत्ता) का एक अंश घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु के रूप में परिणत हो गया.वह देव-शिशु उनमे से एक के पास जाकर अपने कोमल हाथों से आलिंगन करके अपनी अमृतमयी वाणी से उन्हें समाधि से जगाने के लिये चेष्टा करने लगा. शिशु के कोमल प्रेम-स्पर्श से ऋषि समाधि से जागृत हुए और अधखुले नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे.उनके मुख पर प्रसन्नोज्वल भाव देख कर ज्ञात हुआ, मानो वह बालक उनका बहुत दिनों का परिचित ह्रदय का धन है. वह अदभुत देवशिशु 
 ( जगत्कारण के साथ अद्वैत भाव में अवस्थित श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ईश्वर के लोक-कल्याण साधन रूप कर्म को प्रतिक्षण अपना ही समझकर अनुभव कर रहे थे. इसी के प्रभाव से उन्हें ज्ञात हुआ कि वर्तमान युग का धर्मग्लानि नाश रूपी महान कार्य, उनके शरीर और मन को यंत्ररूप बनाकर साधित हो, यही विराट की ईच्छा है. फिर उसी के प्रभाव से वे समझ सके थे कि क्षूद्र स्वार्थ साधन के लिये नरेन्द्रनाथ का जन्म नहीं हुआ है, बल्कि ईश्वर के प्रति अत्यन्त अनुराग रहने के कारण उपरोक्त जनकल्याण साधन कर्म में, उन्हें सहायता देने के लिये ही उसका आगमन हुआ है. इसीलिये स्वार्थ रहित नित्यमुक्त नरेन्द्र को परम आत्मीय समझना और उनके प्रति प्रबल भाव से आकृष्ट होना ठाकुर के लिये स्वाभाविक ही था. (लीलाप्रसंग :३: पृष्ठ ९०)    
अति आनन्दित हो उनसे कहने लगा-
' मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना होगा ! '
उसके अनुरोध पर ऋषि के कुछ न कहने पर भी, उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों से अन्तर की सम्मति प्रकट हो रही थी. 
इसके अनन्तर ऋषि बालक को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए पुनः समाधिस्त हो गये. उस समय आश्चर्य-चकित होकर मैंने (ठाकुर ने ) देखा कि उन्हीं  के शरीर-मन का एक अंश उज्जवल ज्योति के रूप में परिणत होकर विलोम मार्ग से धराधाम में अवतीर्ण हो रहा है. नरेन्द्र को देखते ही मैं जान गया था कि यही वह ऋषि है ! "
किन्तु ' सप्तऋषि ' में से एक ऋषि कहते समय अक्सर हमलोग उत्तर आकाश में जो सात तारे दिखायी देते हैं हम लोग उनमे से ही एक ऋषि स्वामी विवेकानन्द को समझ लेते हैं, किन्तु वैसा समझना ठीक नहीं है.
पुराणों में वर्णन मिलता है, शंकराचार्य के गीता भाष्य के प्रारम्भ में इस कहानी को सामान्य तरीके से वर्णन किये हैं. ब्रह्माजी ने जगत कि सृष्टि करने के बाद देखा कि इतना सुन्दर (पेड़-पहाड़ समुद्र नदियाँ) जगत की रचना तो मैंने कर दिया, किन्तु इसको देखने के लिये लोग कहाँ हैं, कौन इसको देखेगा ?
तब उनहोंने अपनी ईच्छा से सात ऋषियों की सृष्टि किये.ये वही सप्त ऋषि हैं जो उत्तर आकाश में दिखायी पड़ते हैं. पुलह, क्रतु, पुलस्त, अत्री इत्यादि सात ऋषि, किन्तु ह मे यहाँ यह ध्यान देना होगा कि ये लोग प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि हैं, अतः ये लोग मनुष्य को प्रवृत्ति के मार्ग पर ले जायेंगे.
  मनुष्य में कई तरह कि प्रवृत्तियाँ रहती हैं. उसके कारण उनका वंश-विस्तार होगा, बहुत से लोग जन्म लेंगे. अनेक मनुष्य जन्म लेकर जब ब्रह्माजी के रचे इस अपूर्व सुन्दर जगत को देखेंगे तो बहुत खुश होंगे.
उसके बाद ब्रह्माजी के मन में विचार उठा कि यदि सभी मनुष्य प्रवृत्ति -मार्ग पर ही चलने लगेंगे तो दिनों दिन यह मनुष्य जाति अपना मनुष्यत्व खोने लगेगी. आज के समाज में हमलोग जैसा देख रहे हैं. 
तब उन्होंने निर्णय लिया कि नहीं, केवल प्रवृत्ति-मार्ग को जानलेने से ही नहीं होगा, निवृत्ति को भी सीखना होगा. ऐसा विचार करके उन्होंने पुनः अपनी ईच्छा से सन, सनक , सनन्दन आदि सात ऋषियों की सृष्टि किये. 
महाभारत के ३४० वें अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है. एवं गीता के शंकरभाष्य के उपोदघात (भूमिका ) में अति संक्षेप में यही कहानी कही गयी है. इस प्रकार हम समझ सकते है कि स्वामी विवेकानन्द उस प्रवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक नहीं हैं. बल्कि निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक हैं- स्वामी विवेकानन्द.
उन्हीं सात ऋषियों में से एक का नाम है- ' नारायण '. स्वामी विवेकानन्द वही नारायण ऋषि हैं.(दक्षिणेश्वर में प्रथम दर्शन के दिन ठाकुर कहते हैं- ' आमि जानी प्रभु तूमि सेई नारायण ! ' ) अर्थात ' नरेन्द्रनाथ दत्त ' निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक ' नारायण ' नामक ऋषि हैं; जिनके गले में एक शिशु के जैसा आलिंगन करके ठाकुर अपने साथ लीला-सहचर के रूप ले आये थे ! इस नारायण का अर्थ बैकुण्ठ वाले - नारायण नहीं है. स्वामीजी को बैकुण्ठ का नारायण समझना ठीक नहीं होगा. एक पुराण में आता है कि एक ऋषि ऐसे हुए थे जो एक पर्वत की चोटी पर बैठ कर सहस्र वर्षों तक गायत्री का जप किये थे, जिसके फलस्वरूप वे ब्रह्मलोक में गये थे. 
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Sri Ramakrishna’s vision of Nara-Narayana in Narendranath

Accompanied by a devotee and a few friends, Narendra one day came to Dakshineswar and entered the small room of Sri Ramakrishna. He came by the western door, as Sri Ramakrishna described afterwards, careless about his body and dress, and unlike other people, not mindful of the external world. On Sri Ramakrishna's request, he began singing a Brahmo song, 'Shortly after I sang the song; he suddenly rose and, taking me by the hand, led me to the northern veranda, shutting the door behind him. He said, 'Ah, you have come so late! How could you be so unkind as to keep me waiting so long! My ears are well nigh burnt by listening to the profane talk of worldly people.' The next moment he stood before me with folded hands and began to address me, 'Lord, I know you are that ancient sage, Nara, the incarnation of Narayana, born on earth to remove the miseries of mankind.'
Nara-Narayana is the twin-brother incarnation of the preserver-god Vishnu on earth, working for the preservation of dharma or righteousness. In the concept of Nara-Narayana, the human soul Nara (नरेंद्र) is the eternal companion of the Divine Narayana (श्रीरामकृष्ण).
The Hindu epic Mahabharata identifies god Krishna with Narayana and Arjuna - the chief hero of the epic - with Nara. The legend of Nara-Narayana is also told in the scripture Bhagavata Purana. Hindus believe that the pair dwells at Badrinath, where their most important temple stands.
Krishna and Arjuna are often referred to as Nara-Narayana in the Mahabharata and are considered part incarnations of Narayana and Nara respectively, according to the Bhagavata Purana.
In a previous life, the duo were born as the sages Nara and Narayana, and who performed great penances at the holy spot of Badrinath. Nara and Narayana were the Fifth Avatar of Lord Vishnu.
The twins were sons of Dharma, the son of Brahma and his wife Murti (Daughter Of Daksha) or Ahimsa They live at Badrika performing severe austerities and meditation for the welfare of the world. These two inseparable sages took avatars on earth for the welfare of mankind and to punish the wicked ones.
The sages defeated a demon called Sahasrakavacha ("one with a thousand armours"). Legend has it that once Lord Shiva tried to bring the fame of Nara and Narayana before the entire world. To do that, he hurled his own potent weapon Paashupathastra at the meditating rishis. 
 The power of their meditation was so intense that the astra lost it's power before them. Lord Shiva stated that this happened since the duo were jnanis of the first order constantly in the state of Nirvikalpa Samadhi.)
(Nara-Narayana (Sanskrit: नर-नारायण
{ " महाभारत का ३२० वाँ अध्याय आश्वमेधिक-पर्व " ( अर्जुन का श्रीकृष्ण से गीता का विषय पूछना - गीता प्रेस, गोरखपुर का चौंतीसवाँ पुनर्मुद्रण पृष्ठ संख्या- ६६७)  
इस प्रकार कहा गया है- '...अर्जुन ने यह वचन कहा, देवकीनन्दन ! जब युद्ध का अवसर उपस्थित था, ...मुझे जो ज्ञान का उपदेश दिया था, वह सब इस समय बुद्धि के दोष से भूल गया है. उन विषयों को सुनने के लिये बारम्बार मेरे मन में उत्कंठा होती है. ..अतः पुनः वह सब विषय मुझे सुना दीजिये....श्रीकृष्ण बोले-
अबुद्ध्या नाग्रहीर्यस्त्वं तन्मे सुमहदप्रियम्।
न च साद्य पुनर्भूयः स्मृतिर्मे सम्भविष्यति॥१०॥ 
....श्रीकृष्ण बोले- ...अब मेरे लिये उस उपदेश को ज्यों-का त्यों दुहरा देना कठिन है; क्योंकि उस समय योगस्थ होकर मैंने परमात्म-तत्व का वर्णन किया था. अब उस विषय का ज्ञान ज्ञान कराने के लिये मैं एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ.
सिद्ध ने कहा - " तात कश्यप ! मैंने तृष्णा से मोहित होकर अनेकों बार जन्म और मृत्यु का क्लेश उठाया है, .हे तात! विविध प्रकार के कर्मों से और केवल पुण्य कर्मों के योग से मर्त्य प्राणि या तो यहाँ (पृथिवी पर) या फिर देवलोक में जाते हैं। कहीं पर भी आत्यान्तिक सुख नहीं है। और न ही कहीं पर शाश्वत स्थिति है। बार बार अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त स्थान से च्युति होती है। मेरे द्वारा काम और क्रोध से अभिभूत होकर, तथा तृष्णा से मोहित होकर, पाप का सेवन करने के कारण अशुभ योनियाँ भोगीं गईं हैं(मेरे द्वारा) बार बार जन्म (भोगा गया है) और बार बार मृत्यु (भोगी गई है)। विविध प्रकार के आहार भोगे गये हैं तथा नाना प्रकार के स्तनों से दुग्धपान किया गया हैहे अनघ! मेरे द्वारा विविध प्रकार की माताऐं, विमिन्न पिता, विचित्र सुख और दुःख देखे गए हैं। ..जिस तरह आँखवाले मनुष्य अँधेरे में इधर- उधर उगते -बुझते हुए खद्योत (जुगनुओं ) को देखते हैं, उसी प्रकार सिद्ध पुरुष अपनी ज्ञानमयी दिव्य दृष्टि से जन्मते-मरते तथा गर्भ में प्रवेश करते हुए जीव को सदा देखते रहते हैं.जीव के तीन स्थान- यह मर्त्यलोक भूमि, कर्मभूमि कहलाती है."..पुण्य कर्म करने वाले जीव स्वर्ग में पाप कर्म करने वाले कर्मानुसार नरक में पड़ते हैं. यह आवागमन की परम्परा बराबर लगी रहित है. (पेज-६६९) ...सदाचार (character -building )  से ही धर्म में अटल स्थिति होती है.


मुञ्जं शरीरं तस्याहुरिषीकामात्मनि श्रिताम्।
एतन्निदर्शनं प्रोक्तं योगविद्भिरनुत्तमम्॥२२॥
..जैसे मनुष्य सपने में किसी अपरिचित पुरुष को देखकर जब पुनः उसे जाग्रत-अवस्था में देखता है तो तुरन्त पहचान लेता है की - ' यह वही है ! '. उसी प्रकार साधनपरायण योगी समाधि अवस्था में आत्मा को जिस रूप (सच्चिदानन्द-रूप ) में देखता है, उसी रूप में उसके बाद (वहाँ से लौट आने के बाद) में भी देखता है.  जैसे कोई मनुष्य मूँजसे सींक को अलग करके दिखा दे, वैसे ही योगी पुरुष आत्मा को इस देह से पृथक करके देखता है. यहाँ शरीर को मूँज कहा गया है और आत्मा को सींक. " (पेज-६७१) 
{विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं। श्री नर नारायण स्तुति
नौमि नारायणं नरं करुणायनं, ध्यान - पारायणं, ज्ञान - मूलं ।

अखिल संसार - उपकार - कारण, सदयहदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं ॥१॥


भावार्थः-- मैं उन श्रीनर - नारायणको नमस्कार करता हूँ, जो करुणाके स्थान, ध्यानके परायण और ज्ञानके कारण हैं । जो समस्त संसारका उपकार करनेवाले, दयापूर्ण हदयवाले, तपस्यामें लगे हुए और शरणागत भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं ॥१॥ 
पुण्य वन शैलसरि बद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रुपं ।
सिद्ध - योगींद्र - वृंदारकानंदप्रद, भद्रदायक दरस अति अनूपं ॥५॥ 


जो पवित्र वन, पर्वत और नदियोंसे पूर्ण बदरिकाश्रम में सदा पद्मासन लगाये एकरुपसे ( अटल ) विराजमान रहते हैं । जिनका अत्यन्त अनुपम दर्शन सिद्ध, योगीन्द्र और देवताओंको भी आनन्द और कल्याणका देनेवाला है ॥५॥
हे विश्वम्भर ! वहाँ आपके बदरिकाश्रमके मार्गमें ' मनभंग ' नामक पर्वत हैं , ( जिसे देखकर लोग आगे साधनका उत्साह भंग हो जाता है; ) वहाँ ' चित्तभंग ' पर्वत है, तो यहाँ मद ही चित्तभंगका काम करता है; वहाँ जैसे कठिन - कठिन पर्वत हैं तो यहाँ काम - लोभादि कठिन पर्वत हैं । ( वहाँ जैसे हिंसक पशु आदि बड़े विघ्न हैं तो ) यहाँ राग, द्वेष, मत्सर आदि अनेक बड़े - बड़े विघ्न हैं, जिनमेसे प्रत्येक बड़ा निर्दय और राग, द्वेष, मत्सर आदि अनेक बड़े - ब्वड़े विह्न हैं, जिनमेसें प्रत्येक बडा निर्दय और कुटिल कर्म करनेवाला है ॥६॥
यहाँ कामिनीकी अत्यन्त बाँकी चितवन ही छुरेकी भयंकर धार और कामका विष ही तलवारकी ते धार है, जो बड़े - बड़े धीर और गम्भीर पुरुषोंके मनको पीड़ा पहुँचानेवाला है फिर हम - सरीखे निर्बलोंकी तो गिनती ही क्या है ? ॥७॥
हे नाथ ! प्रथम तो यह आपके दर्शनका मार्ग ही बड़ा कठिन है, फिर दुष्ट और नीचोंका ( मेरा ) साथ हो गया है, सहारेके लिये हाथमें वैराग्यरुपी लकड़ी भी नहीं है । यह दास आपके दर्शनके लिये घबरा रहा है, फंदेमें फँसकर दुःखी हो रहा है । हे नाथ ! दासके कष्टको दूरकर इसकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥८॥
मुझ दीन तुलसीदासके पास धर्मरुपी मार्ग - व्यय ( कलेवा ) भी नहीं हैं, मैं थककर बड़ा दुःखी हो रहा हूँ, मोहने मेरी बुद्धिका भी नाश कर दिया है, अतएव हे चक्रधारी ! आप तेज, बल और सुखकी राशि हैं, मुझे बिना विलम्ब अपने कर - कमलका सहारा दीजिये ॥९॥}
 दोनों हाथों को दोनों ओर सीधा फैलाकर एक हाथ के सिरे से दूसरे हाथ के सिरे तक की लंबाई के माप को नर कहते हैं। इसी माप को एक पुरूष भी कहते हैं। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, हमने तो नर शब्द का अर्थ मनुष्य समझा है। क्या नर का अर्थ मनुष्य भी है?
आचार्य ने कहा- तुम ठीक कह रहे हो वत्स, नर शब्द का एक अर्थ मनुष्य भी है। पुरूष के अर्थ में भी नर शब्द रू ढ़ हैं जबकि पुर का अर्थ है परिधि, यानी शरीर और जो शरीर में रहता है, केन्द्र में रहता है, उस आत्मा को पुरूष कहते हैं। इसलिए वैदिक वांग्मय में पुरूष शब्द का अर्थ कोरा नर नहीं है। नर और नारी दोनों लिंगों के अर्थ में पुरूष शब्द आत्मा के अर्थ को ही प्रकट कर रहा है। परमात्मा और नित्य पुरूष के अर्थ में भी नर और नारायण शब्द का व्यवहार होता है।
आचार्य बोले- "श्वेताश्वतरोपनिषद्" में नर और नारायण के युगल भाव यानी जुगल जोड़ी की चर्चा मिलती है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिषष्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वžयनश्नन्नन्योùभिचाकशीति।
यानी दो पक्षी साथ-साथ मित्रभाव से सृष्टि रूपी वृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं। उनमें से एक वृक्ष के फल खाता है यानी भोग के फल खाता है और दूसरा केवल साक्षी-भाव में रहता है यानी फलों को और सखा पक्षी के भोग फल को प्राप्त करते हुए देखता है। इस रूपक में आत्मा और परमात्मा का सखा-भाव दिखाया है। दूसरी परिभाषा के अनुसार जीव और आत्मा दोनों शरीर में रहते हैं। जीव कर्मों के फलों का भोग करता है जबकि आत्मा साक्षी-भाव में जीव की प्रवृत्तियों को देखता है।
आचार्य ने बताया- "मनुस्मृति" नर शब्द का अर्थ मादा के विपरीत लिंगी नर के अर्थ में करती है। नर का एक अर्थ शतरंज का मोहरा भी है। धूप घड़ी की कील को भी नर कहते हैं। नर नामक एक ऋषि भी हुए हैं।
"भगवद्गीता" और "मनुस्मृति" के अनुसार नराधिप, नराधिपति नरेश्वर, नरपति और नरपालक नाम नारायण के माने गए हैं। नर-नारायण शब्द कृष्णवाची होने से मूलत: एक ही अर्थ में माना जाता है। पुराणों और महाकाव्यों में ही नर और नारायण के रू प में दो चरित्र सामने आते हैं। नर को अर्जुन का समरू प माना गया है और नारायण कृष्ण को कहा गया है। इस तरह नर-नारायण का युग्म यानी जोड़ा कृष्णार्जुन भी है। 
पशु जैसे मनुष्य को नर-पशु कहते हैं। "हितोपदेश" में कहा गया है- आहार, निद्रा, भय और मैथुन नर और पशुओं में समान रू प से पाया जाता है। मनुष्य में महज धर्म यानी कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक बोध हैं। अगर किसी आदमी के पास यह धर्म नही है, उसे नर-पशु ही कहा जाता है।
मर्दानी औरत यानी जिस औरत के पुरूषों की तरह दाढ़ी, मूंछ आते हैं उसे नरमानिका, नरमानिनी और नरमालिनी कहते हैं।
आचार्य बोले-   नर-मेध शब्द का अर्थ नरयज्ञ हैं। कलिकाल के दुष्प्रभाव के कारण नर-मेध का अर्थ नरबलि के रू प में लिया जाने लगा जबकि नर-मेध प्रतीकात्मक यज्ञ प्रक्रिया थी। इसका तात्पर्य मनुष्य के अहंकार का परमात्मा या इष्ट के सामने संपूर्ण समर्पण यानी अपने घमंडरू पी पशु भाव का बलिदान करना है। 
 "अनार्य मान्यता" के अनुसार आदमी अपने अहंकार के दमन के बदले दूसरे मनुष्य की बलि देने लगा। मघ्ययुग में यह प्रवृति जोर पकड़ने लगी। "कालिका" पुराण में इसकी चर्चा मिलती है। भवभूति ने अपने नाटक "मालतीमाधव" के पांचवें अंक में नर-मेध का नरबलि के रू प में वर्णन किया है। अघोरी अघोरघंट द्वारा नायिका की बलि करने की विभत्सता इस दृश्य मेंदिखाई देती है। कलिकाल में मूल अर्थ से भटक कर नरमेध और गोमेध के अर्थ हिंसापरक होने से शास्त्रकारों ने इन्हें वर्जित अनुष्ठान माना है। नरबलि शब्द जघन्य अपराध के अर्थ में ही सदैव देखा जाता रहा है।
आचार्य बोले- मनुष्य सृष्टि को नर-यान कहते हैं। आदमी द्वारा खींचे जाने वाली गाड़ी को नरवाहन कहते हैं। कोलकाता में इसका प्रचलन रहा है। "रघुवंश" के अनुसार कुबेर का एक विशेषण नरवाहन है। पराक्रमी मनुष्य को नरवीर और नरशार्दुल कहते हैं।
याज्ञवल्क्य के अनुसार मृत्यु को नरांतक कहते हैं। विष्णु का एक विशेषण नारायण है। राक्षस और पिशाच को नृशंस कहते हैं। चक्रवर्ती राजा को नरेंद्र कहा जाता है।
(वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा श्री रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर-----सुग्रीव अत्यंत भयभीत होकर बोले- हे हनुमान्‌! सुनो, ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना!!-----यदि वे मन के मलिन बालि के भेजे हुए हों तो मैं तुरंत ही इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊँ (यह सुनकर) हनुमान्‌जी ब्राह्मण का रूप धरकर वहाँ गए और मस्तक नवाकर इस प्रकार पूछने लगे-॥
 को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4॥
-----हे वीर! साँवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, जो क्षत्रिय के रूप में वन में फिर रहे हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में विचर रहे हैं?॥
 मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता ॥
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ।-----नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥ 
मन को हरण करने वाले आपके सुंदर, कोमल अंग हैं और आप वन के दुःसह धूप और वायु को सह रहे हैं क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश- इन तीन देवताओं में से कोई हैं या आप दोनों नर और नारायण हैं॥


जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥1॥
------अथवा आप जगत्‌ के मूल कारण और संपूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान्‌ हैं, जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है?

कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए॥
नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥1॥
------(श्री रामचंद्रजी ने कहा-) हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आए हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी स्त्री थी॥


इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई॥2॥
------भावार्थ:-यहाँ (वन में) राक्षस ने (मेरी पत्नी) जानकी को हर लिया। हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया। अब हे ब्राह्मण! अपनी कथा समझाकर कहिए ॥


प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥
------भावार्थ:-प्रभु को पहचानकर हनुमान्‌जी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े (उन्होंने साष्टांग दंडवत्‌ प्रणाम किया)। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं!॥


पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥
-------फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्‌जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं? 
तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥
मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूँ इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना ॥


एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥
-----------एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबंधु भगवान्‌! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया!॥
:जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥
एहे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े (आप उसे न भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है॥


आधुनिक भौतिक-विज्ञान के अनुसार ‘जल’ की उत्पत्ति ‘हाईड्रोजन+ऑक्सीजन’ इन दो गैसों पर विद्युत की प्रक्रिया के कारण हुई है। पौराणिक सिद्धान्त के अनुसार ‘वायु’ और ‘तेज’ की प्रतिक्रिया के कारण ‘जल’ उत्पन्न हुआ है। यदि वायु को गैसों का समुच्चय एवं तेज को विद्युत माना जाये तो इन दोनों ही सिद्धांतों में कोई अन्तर नहीं है। अतः जल की उत्पत्ति का पौराणिक सिद्धांत पूर्णतया विज्ञान-सम्मत सिद्ध होता है।


आधुनिक वैज्ञानिक आकाश, वायु तेज, जल और पृथ्वी को तत्व नहीं मानते। न मानने का कारण ‘तत्व’ संबंधी अवधारणा है। तत्व के सम्बन्ध में पौराणिक अवधारणा यह है कि जिसमें ‘तत्’ (अर्थात् पुरुष/विष्णु/ब्रह्म) व्याप्त हो, वह ‘तत्व’ कहलाता है। 
आधुनिक विज्ञान के अनुसार ‘तत्व’ केवल मूल पदार्थ (Element) होता है। वस्तुतः ‘तत्त्व’ और ‘तत्व’ में बहुत अन्तर है। ‘तत्त्व’ वास्तविक रूप में एक ‘भूत’ है। किन्तु तत्व या Element एक पदार्थ मात्र है। अतः यह भेद मात्र अवधारणा के कारण उत्पन्न हुआ है।

इस सम्बन्ध में ‘विष्णु पुराण’ का निम्नलिखित श्लोक दृष्टव्य है-


‘पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाश एव च।
सर्वेन्द्रियान्तःकरणं पुरुषाख्यं हि यज् जगत्।।’
अर्थात्- पृथिवी, आपः (जल), तेज, वायु, आकाश, समस्त इन्द्रियाँ और अन्तःकरण इत्यादि जितना भी यह जगत् (गतिशील संसार) है, सब ‘पुरुष रूप’ है।
-श्री विष्णु पुराण/प्रथम अंश/अ.-2/श्लोक -68


महर्षि पाराशर का कथन है कि सृष्टि की रचना में भगवान् तो केवल निमित्त-मात्र हैं (क्योंकि) उसका प्रधान कारण तो ‘सृज्य पदार्थों’ की शक्तियाँ ही हैं। वस्तुओं की रचना में निमित्त मात्र को छोड़कर और किसी बात की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि वस्तु (ह्रदय) तो अपनी ही (परिणाम या इच्छा ) शक्ति से ‘वस्तुता’ (स्थूलरूपता या मन और शरीर) को प्राप्त हो जाती है-


‘निमित्तमात्रमेवासौ सृ्ज्यानां सर्गकर्मणि।
प्रधान कारणीभूता यतो वै सृज्यशक्तयः।।
निमित्त मात्रं मुक्त्वैवं नान्यक्तिञ्चिदपेक्षते।
नीयते तपतां श्रेष्ठ स्वशक्त्या वस्तु वस्तुताम्।।’
< -श्री विष्णु पुराण/प्रथम अंश/अ.-4/श्लोक 51-52


‘जल’ की उत्पत्ति के संबंध में एक अन्य पुरातन- अवधारणा भी विचारणीय है। लगभग सभी पुराणों और स्मृतियों में यह श्लोक (थोड़े-बहुत पाठभेद से) दिया रहता है जो इस अर्थ का वाचक है कि जल की उत्पत्ति ‘नर’ (पुरुष = परब्रह्म) से हुई है अतः उसका (अपत्य रूप में) प्राचीन नाम ‘नार’ है, चूंकि वह (नर) ‘नार’ में ही निवास करता है, अत: उस नर को ‘नारायण’ कहते हैं-


आपो नारा इति प्रोक्ता, आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।

-ब्रह्मपुराण/अ-1/श्लोक-38


विष्णुपुराण के अनुसार इस समग्र संसार के सृष्टि कर्ता ‘ब्रह्मा’ का सबसे पहला नाम नारायण है। दूसरे शब्दों में में भगवान का ‘जलमय रूप’ ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण है-


जल रूपेण हि हरिः सोमो वरूण उत्तमः।
अग्नीषोममयं विश्वं विष्णुरापस्तु कारणम्।।

-अग्निपुराण /अ.-64/श्लोक 1-2


‘हरिवंश पुराण’ भी इसकी पुष्टि करता है कि ‘आपः’ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं। ‘हरिवंश’ में कहा गया है कि स्वयंभू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से सर्वप्रथम ‘जल’ की ही सृष्टि की। फिर उस जल में अपनी शक्ति का आधीन किया जिससे एक बहुत बड़ा ‘हिरण्यमय-अण्ड’ प्रकट हुआ। वह अण्ड दीर्घकाल तक जल में स्थित रहा। उसी में ब्रह्माजी प्रकट हुए-


ततः स्वयंभूर्भगवान् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः।
अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत्।।35।।
हिरण्य वर्णभभवत् तदण्डमुदकेशयम्।
तत्रजज्ञे स्वयं ब्रह्मा स्वयंभूरिति नः श्रुतम्।। 37।।


इस ‘हिरण्यमय अण्ड’ के दो खण्ड हो गये। ऊपर का खण्ड ‘द्युलोक’ कहलाया और नीचे का ‘भूलोक’। दोनों के बीच का खाली भाग ‘आकाश’ कहलाया। स्वयं ब्रह्माजी ‘आपव’ कहलाये-


‘उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य ज्ञज्ञिरे।
आपवस्य प्रजासर्गें सृजतो ही प्रजापतेः।।49।।’


अर्थात्- इस प्रकार प्रजा की सृष्टि रचते हुए उन ‘आपव’ (अर्थात् जल में प्रकट हुए) प्रजापति ब्रह्मा के अंगों में से उच्च तथा साधारण श्रेणी के बहुत से प्राणी प्रकट हुए।


-हरिवंश/हरिवंश पर्व/प्रथम अध्याय}
      

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