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गुरुवार, 3 जून 2010

🔱🙏सत्य क्या है ? मानवजाति को पुनरुज्जीवित करने की जड़ीबूटी ऊर्ध्वमूलः आध्यात्मिकता में अन्तर्निहित है ! [26 JNKHMP]

🔱🙏संजीवनी  शक्ति  आध्यात्मिकता में अन्तर्निहित है !🔱🙏 
जिस एकमात्र उदगम (Source) से सब कुछ अस्तित्व में आया है, उस मूल को ही सत्य वस्तु कहते हैं। वह जो एकमेवाद्वितीयं वस्तु है; 'वही'  पूरी सृष्टि के सभी नाम-रूपों में समाया हुआ है। उपनिषद में उस सर्वानुस्यूत सत्य के विषय में कहा गया है -' पूरा स पक्षीभूत्वा प्राविशत। ' मानो सृष्टि के पहले वही ब्रह्म वस्तु मानो पक्षी जैसा बन कर सभी कुछ (पूरे विश्व ब्रह्माण्ड) में प्रविष्ट हो गये थे। इस भौतिक जगत में जिस प्रकार बाहर से भीतर प्रवेश किया जाता है,  सृष्टि के भीतर प्रविष्ट होने को भी उस अर्थ में नहीं समझना चाहिये। तैत्तरीय उपनिषद में कहा गया है-
 
" तत-सृष्ट्वा तत एव अनुप्राविशत !
 तत अनुप्रविश्य सत च त्यत अभवत।
विज्ञानम च अविज्ञानम च,
 सत्यम च अनृतम च, इदम यत किम च; तत सत्यम ।। " 

( तैत्तरीय उपनिषद : वल्ली :२: अनुवाक : ६)

- सर्ग के आदि में [जब सबकुछ मृत्यु से ढका हुआ था] परब्रह्म पुरोषत्तम ने यह विचार किया कि 
मैं नाना रूपों में उत्पन्न होकर बहुत हो जाऊँ ! यह विचार करके उन्होंने तप किया अर्थात जीवों के कर्मानुसार सृष्टि उत्पन्न करने के लिये संकल्प किया। संकल्प करके यह जो कुछ भी देखने, सुनने और समझने में आता है, इसी जड़-चेतनमय सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना की, अर्थात अपने ही संकल्पमय स्वरूप को बाहर प्रकट कर दिया।  उसके बाद स्वयं भी उसमे प्रविष्ट हो गये।  
फिर जिसका वर्णन किया जा सकता है और जिसका नहीं किया जा सकता ; ऐसे विभिन्न नाना पदार्थों के रूप में हो गए। इसी प्रकार आश्रय देने वाले और आश्रय न देने वाले, चेतन और जड़ इन सब के रूप में वे एकमात्र पुरुषोत्तम ही बहुत से नाम-रूप धारण करके व्यक्त हो गए। 
वे एक सत्यस्वरूप परमारमा ही सत्य (आत्मा) और मिथ्या (देह-मन)  के रूप में प्रकट हुए। 
इसीलिये ज्ञानीजन कहते हैं कि ' यह जो कुछ देखने, सुनने और समझने में आता है, वह सब-का-सब सत्यस्वरूप परमात्मा ही हैं! बल्कि यह पूरा विश्व ब्रह्माण्ड उसी से निर्मित हुआ है - अर्थात वह ब्रह्म वस्तु ही जगत का उपादान कारण है। वही ब्रह्म वस्तु सम्पूर्ण सृष्टि में अनुस्यूत य़ा ओत-प्रोत है। अतः वही एकमात्र वस्तु है ! जिस प्रकार स्वर्ण के विभिन्न आभूषणों में स्वर्ण ही एक मात्र वस्तु है!
 
"इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो 
दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि
यमं मातरिश्वानमाहु: ।।
- ऋग्वेद (1-164-43)
 अर्थात जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्व है। ब्रह्म ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है और विश्व का आधार है। इसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और नष्ट होने पर विश्व उसी में विलीन हो जाता है।

 श्लाकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रंथ कोटिभ:।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।।

-अर्थात् ' जो अनेक ग्रंथों में लिखा है, उसे मैं आधे श्लोक में यहां कह रहा हूं। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं।'

दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है। इन दृश्यमान जगत में सत्य क्या है, मिथ्या क्या है तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर संबंध है- इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर है इसमें। इस सृष्टि में ब्रह्म ही अनुस्यूत है ! संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म से है- यही श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है। जो था, जो है और जो सदैव रहेगा- वही तो ब्रह्म है। यहाँ मिथ्या शब्द असत् से भिन्न है। इस समय मिथ्या शरीर की जो प्रतीति सत्य वस्तु के रूप में हो रही है, वह परिवर्तनशील है, यह हमेशा रहने वाली -सनातन सत्य 'वस्तु' नहीं है। यही मिथ्यात्व है। इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है। संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही [प्रलय की अवस्था में]  ‘जीव’ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे जागने पर स्वप्नकाल के द्रष्टा और दृश्य का को लोप हो जाता है।
सत्य (सनातन) का अर्थ है, जो तीनों कालों में बाधित नहीं होता, अर्थात् जो था, जो है और जो रहेगा। इस दृष्टि से जगत् ब्रह्म-सापेक्ष है। ब्रह्म को जगत् के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता। जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है, उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है। 
श्रुति का वचन है- 'सदैव सोम्येदग्रमासीत्' -अर्थात् हे सौम्य ! सृष्टि से पूर्व सत्य ही था। उस वस्तु को जानने के लिये जिस अनुभूति की आवश्यकता है, आज का विज्ञान भी ठीक वही बात कह रहा है। केवल आज ही कह रहा हो ऐसा नहीं, विज्ञान तो बहुत वर्षों से वैसा ही कह रहा है। एक ही वस्तु से सब कुछ,यह पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है। 
सृष्टि की रचना के सम्बन्ध में अभी तक जो सर्वमान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त है वह है- " Big Bang Theory. " इसमें कहा गया है कि सृष्टि के ठीक पहले एक जोरदार विस्फोट हुआ होगा जिससे यह पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया! महाकाश में किसी कारण से एक बहुत बड़ी घटना घटित हुई, अचानक एक बहुत बड़ा Explosion हुआ जिससे यह जगत-प्रपंच निर्मित हो गया!" 

" छिपा था क्या कहाँ, किसने देखा था ? 

उस पल तो अगम, अतल जल भी कहाँ था?
ऋग्वेद (10:129)
 [नासदीय सूक्त # Nasadiya Sukta, Rigveda (10:129) : The universe and its origin - ब्रह्माण्ड और उसकी उत्पत्ति - # 'नासद्' से आरम्भ होने के कारण इसे 'नासदीय सूक्त' कहा जाता है। इस सूक्त में आश्चर्य और जिज्ञासा प्रकट की गयी है कि ब्रह्माण्ड कब, क्यों और किसके द्वारा अस्तित्व में आया। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। विद्वानों का विचार है कि इस सूक्त में भारतीय तर्कशास्त्र के बीज छिपे हैं। (न + असद् = 'तदानीम्' अर्थात प्रलय की अवस्था में >  असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; 'उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले असत् नहीं था और सत् भी नहीं था। इसे 'नासदीय सूक्त' कहा जाता है।]
 
लगभग पांच हजार वर्ष पुरानी, ब्रह्माण्ड और उसकी उत्पत्ति (सृष्टि-सृजन) की यह श्रुती नासदीय सूक्त # [ऋग्वेद (10:129)] आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी इसे रचित करते समय थी। सृष्टि की उत्पत्ती आज भी एक रहस्य है। सृष्टि के पहले क्या था? इसकी रचना किसने, कब और क्यों की ? ऐसा क्या हुआ जिससे इस सृष्टि का निर्माण हुआ ?
 Big Bang या ज़ोरदार धमाका सिद्धान्त ब्रह्मांड की रचना का एक सर्वाधिक मान्य वैज्ञानिक सिद्धांत है।  यह इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करता है कि यह ब्रह्मांड कब और कैसे बना। इस सिद्धांत के अनुसार, लगभग बारह से चौदह अरब वर्ष पूर्व संपूर्ण ब्रह्मांड एक परमाण्विक इकाई के रूप में था। इससे पहले क्या था, यह कोई नहीं जानता क्योंकि उस समय मानवीय समय (Time) और स्थान (Space-अन्तरिक्ष) जैसी कोई वस्तु अस्तित्व में थी ही नहीं ।

उस समय समस्त भौतिक पदार्थ (Matter) और ऊर्जा (Energy)  एक बिन्दु में सिमटी हुई थी। फिर इस बिन्दु ने फैलना शुरू किया।  Big Bang, वास्तव में बम विस्फोट जैसा विस्फोट नहीं था बल्कि इसमें प्रारंभिक ब्रह्मांड के कण समूचे अंतरिक्ष में फैल गए और एक दूसरे से दूर भागने लगे। बिग बैंग प्रतिरूप के अनुसार लगभग 13.7 अरब वर्ष पूर्व इस धमाके में अत्यधिक ऊर्जा का उत्सजर्न हुआ। यह ऊर्जा इतनी अधिक थी जिसके प्रभाव से आज तक ब्रह्मांड फैलता ही जा रहा है। सारी भौतिक मान्यताएं इस एक ही घटना से परिभाषित होती हैं जिसे बिग बैंग सिद्धांत कहा जाता है।
 Big Bang नामक इस महाविस्फोट के मात्र 1.43 सेकेंड अंतराल के बाद समय (Time) और अंतरिक्ष (Space) की वर्तमान मान्यताएं अस्तित्व में आ चुकी थीं। भौतिकी के नियम लागू होने लग गये थे। 1.34 वें सेकेंड में ब्रह्माण्ड १०३० गुणा फैल चुका था और क्वार्क, लैप्टान और फोटोन का गर्म द्रव्य बन चुका था। 1.4 सेकेंड पर क्वार्क मिलकर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन बनाने लगे, और ब्रह्मांड अब कुछ ठंडा हो चुका था। हाइड्रोजन, हीलियम आदि के अस्तित्त्व का आरंभ होने लगा था और अन्य भौतिक तत्व  बनने लगे थे। 
 उस समय महाकाश में जो एक भीषण Explosion हुआ था (1992 ,ऊँच -बनारस >जीप और बस में जोरदार टक्कर जैसा ?), और माना जाता है कि उसी से यह विश्व-ब्रह्माण्ड  अति सघन और ऊष्म अवस्था से विस्तृत हुआ है, और अब तक इसका विस्तार चालू है।  एक सामान्य धारणा के अनुसार अंतरिक्ष स्वयं भी अपनी आकाशगंगाओं सहित विस्तृत होता जा रहा है।तथापि वह जो  Big Bang हुआ था, निश्चित रूप से उसकी आवाज बहुत जोरदार रही होगी।  क्योंकि उसकी गूंज को इंग्लैण्ड के Jodrell Observatory के एक दूरबीन के माध्यम से जिस वर्ष एक Sound Wave को चिन्हित किया गया था, वह वर्ष 1967 था।  वह वर्ष 1967 मुझे विशेष तौर पर अब भी इसीलिये याद है क्योंकि -उसी वर्ष तो अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की स्थापना हुई थी। (और 1967 मैं एथेंस का सत्यार्थी  9 th Spl/ CH School में Bh- के साथ सत्य को बाह्य जगत में खोज रहा था?)

 परन्तु वैज्ञानिक लोग भी नहीं समझ पा रहे थे कि उस शब्द का उत्स (source) क्या था, अर्थात वह शब्द कहाँ से आ रहा था ? क्योंकि sound wave तो पकड़ में आ रहा था किन्तु वह ध्वनी किस स्रोत य़ा उत्स (source) से निकाल रही थी, उस स्रोत का पता नहीं लग पा रहा था। बाद में बहुत से वैज्ञानिकों ने बहुत से प्रयोग किये और प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलने से भी अंततः यही अनुमान लगाया गया कि, यह जो ध्वनी पकड़ में आ रही है वह उसी Big Bang की या महाकाश में महाविस्फोट (ॐ) की ध्वनि है; जो उसी जगह से निकल रही है जिससे सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई है। उस उत्स (Source) के विषय में पुनः नये नये अनुसन्धान हो रहे हैं।
 अभी हाल में ही Black matter (डार्क मैटर) का आविष्कार हुआ है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह डार्क मैटर (dark matter) ही है जो आकाशगंगाओं को आकार देता है।

(पूर्व में खगोलविदों का मानना ​​था कि गुरुत्वाकर्षण के कारण ब्रह्मांड का विस्तार धीमा हो जाएगा और फिर अंततः इसका लोप (Recollapse) हो जाएगा। हालाँकि हबल टेलीस्कोप से प्राप्त डेटा के अनुसार, ब्रह्मांड का तेज़ी से विस्तार हो रहा है। खगोलविदों का मानना ​​है कि तेज़ी से विस्तार की यह दर उस रहस्यमय डार्क फोर्स या एनर्जी के कारण है जो आकाशगंगाओं को अलग कर रही है।) 

[>>>डार्क मैटर और डार्क एनर्जी (Dark matter and Dark energy): में 'डार्क' (Dark) शब्द का प्रयोग अज्ञात को दर्शाने हेतु किया जाता है। जहाँ कहीं भी आप 'डार्क' (Dark) अंधेरा शब्द  देखते हैं, उसे इस तथ्य से जोड़ लें कि हमारे पास इसे देखने का कोई सीधा तरीका नहीं है। जैसे अंधेरे कमरे में रखी कुर्सी। जैसे पदार्थ में सन्निहित ऊर्जा (current)  को खुली आँखों से नहीं देखा जा सकता पर उसके झटके को महसूस किया जा सकता है
डार्क मैटर और डार्क एनर्जी में डार्क कहने  का यही मतलब है। ठीक उसी तरह जैसे अँधेरे कमरे में रखी कुर्सी भी बिल्कुल रोशनी वाले कमरे में रखी हुई कुर्सी के समान ही होती है, बस हम इसे देख नहीं सकते हैं, या सीधे इसके अस्तित्व की भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं। (जैसे अज्ञात ब्रह्म को दृष्टिगोचर बनाने के लिए 'काली' या 'कृष्ण' शब्द का प्रयोग किया जाता है? क्योंकि इनको लाँघा नहीं जा सकता- ब्रह्म को ट्रांसैन्ड नहीं किया जा सालता, देश-काल -निमित्त या माया को लाँघा जा सकता है।]  

ब्रह्मांड में डार्क मैटर की उपस्थिति: यह माना जाता है कि पुराने ब्लैक होल, जो ब्रह्मांड के प्रारंभिक युग में बने थे, डार्क मैटर का स्रोत हैं। यह प्रोफेसर स्टीफन हॉकिंग द्वारा कहा गया था। डार्क मैटर का हालाँकि कभी पता नहीं चला लेकिन माना जाता है कि यह पूरे ब्रह्मांड में फैला हुआ है। ऐसा माना जाता है कि डार्क एनर्जी के साथ मिलकर यह ब्रह्मांड के 95% से अधिक भाग का निर्माण करता है। इसका गुरुत्वाकर्षण बल हमारी आकाशगंगा में तारों को दूर जाने से रोकता है।
 डार्क मैटर आकाशगंगाओं को एक साथ आकर्षित (Attracts) और धारण (Holds) करता है, जबकि डार्क एनर्जी हमारे ब्रह्मांड के विस्तार का कारण बनती है। दोनों घटकों के अदृश्य होने के बावजूद डार्क मैटर के बारे में बहुत कुछ ज्ञात है, क्योंकि 1920 के दशक में  डार्क मैटर के अस्तित्व के बारे में बताया  गया, जबकि 1998 तक डार्क एनर्जी की खोज नहीं की गई थी।
हालाँकि भूमिगत प्रयोगों या दुनिया के सबसे बड़े त्वरक (world's largest accelerator) , लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर त्वरक (LHC) सहित अन्य प्रयोगों का उपयोग करके ऐसे डार्क मैटर कणों का पता लगाने के प्रयास अब तक विफल रहे हैं। यह इकाई 1930 के दशक से ब्रह्मांड विज्ञान में अनसुलझी पहेली बनी हुई है। इसे 'डार्क मैटर' नाम दिया गया था। इस सामग्री को 'पदार्थ' माना जाता है क्योंकि इसमें गुरुत्वाकर्षण होता है और यह अंधेरे से युक्त होता है क्योंकि यह प्रकाश (या विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम के किसी भी भाग) के साथ संबंधित नहीं होता है।] 

 विश्व के विभिन्न देशों से- यूरोप, अमेरिका और जापान के सत्तर वैज्ञानिक, विशेषकर खगोलशास्त्रीयों (astronomers) ने एक साथ मिलकर, हमलोगों के पास जो एक सैटेलाइट टेलीस्कोप (चन्द्रयान या आदित्य जैसे उपग्रह में लगा हुआ satellite telescope) है, उसके माध्यम से अनेक प्रयास और कई प्रकार के प्रयोगों के द्वारा उस एक 'वस्तु' को ढूँढ निकाला है, जिससे सभी वस्तुएँ निकली हैं। किन्तु उस वस्तु को जब देखा नहीं जा सकता, क्योंकि उसमें कोई प्रकाश है ही नहीं, तो उसे Black matter (या डार्क मैटर) कैसे कह सकते हैं ?

वास्तव में यह अविष्कार खगोलशास्त्री आइन्स्टाइन के उस सिद्धान्त का अनुसरण करता है जिसमे कहा गया है- ' यदि प्रकाश के अपने यात्रा पथ में चलते चलते कहीं कोई अवरोधक वस्तु आ जाति है, या कहीं वह अटक जाता है, तो उसकी गति थोड़ी मुड़ जाति है। "  इसी सिद्धान्त के आधार पर प्रयोग करके इन वैज्ञानिकों ने Gravitational bending का एक चित्र बनाया है; 'There is a huge mass of matter somewhere, from which everything came'  कि कहीं न कहीं पदार्थ का एक विशाल द्रव्यमान है, एक विराट वस्तु के आकार का एक पिण्ड कहीं पर है, उसी से यह पूरी सृष्टि निकली है। जिससे यह सब कुछ आया है।  
(সে তো আইনস্টাইনের একটা দেওয়া উপদেশ থেকে অনুসরণ করে যে , আলো কোথাও যেতে যেতে যদি কোনোখানে কোন বস্তুতে আটকা পড়ে , তাহলে তার গতিটা একটু বেঁকে যায়।) এই তত্ত্বের প্রয়োগ করে Gravitational এই জিনিসটার এঁরা একটা ছবি তৈরী করেছেন। They created a picture of this thing called Gravitational bending.একটা বিরাট বস্তু পিন্ড কোথাও আছে , তাই থেকে সমস্ত এসেছে। এই যে একটা source থেকে , একটা মূল থেকে সব কিছু এসেছে। ] 

यह जो कहा गया है कि या सम्पूर्ण सृष्टि, सब कुछ एक ही उत्स (one source, या एक ही स्रोत), एक ही मूल (one root) से निकला है। उस मूल उदगम को य़ा उत्स (Source ) को जिससे सब कुछ निकला है, उस वस्तु को गीता में -" उर्ध्वमूलं अधः शाखम "- (गीता:१५:१)  कह कर उसका वर्णन किया गया है, तथा वेदान्त में (कठोपनिषद) में उसीको - " उर्ध्वमूलः अवाक्शाखः एषो अस्वत्थः सनातनः " (कठ: ३:२:१) कहा है। 

बिल्कुल हाल -फ़िलहाल में चीन, जापान, युरोप, अमेरिका जैसे देशों  के 18 गणितज्ञ ने हफ़्तों-महीनों-वर्षों तक मिहनत करके एक ऐसा अंक बनाएं हैं, जो अंक  इतना जटिल है कि अभी तक पृथ्वी पर कोई ऐसा कंप्यूटर नहीं बना जिससे उसे हल किया जा सकता हो।  यह अंक इतना बृहत् है कि लिखने पर अमेरिका का पूरा मैनहट्टन द्विप को ही भर दिया जा सकता है।  ये गणितज्ञ लोग आशा कर रहे हैं कि, इसी अंक की सहायता से, प्रकृति में जितनी भी प्रकार की शक्तियाँ क्रियाशील हैं -  नक्षत्र नक्षत्र के बीच, ग्रह और उसके उपग्रह के बीच, य़ा प्रयेक वस्तु में सन्निहित गुरुत्वाकर्षण में जिस शक्ति के रहने से अणु-परमाणु के भीतरी गतिशीलता के बीच जो आकर्षण-विकर्षण की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है; उन समस्त शक्तियों के मूल में जो एक ही शक्ति विभिन्न रूपों में क्रियाशील है उसका सन्धान प्राप्त हो जायेगा। उस शक्ति का मूल भी उसी ' उर्ध्वमूल ' में स्थित है ! इन सिद्धान्तों को विज्ञान ने तो कभी अस्वीकार नहीं ही किया, बल्कि धीरे धीरे वह स्वयं भी उसी ' सत्य ' की ओर अग्रसर हो रहा है।
किन्तु प्राचीन काल में जो लोग अपने अंतर्जगत में ही स्थित अमृतस्वरूप सत्य को पाने की इच्छा से ' आवृत्तचक्षू:' अर्थात मन को बाह्य जगत में जाने से रोक कर उसकी दृष्टि को अंतर्जगत (ह्रदय) में नियोजित रखने में समर्थ हो जाते थे, वे (ऋषि लोग) आन्तरिक उज्ज्वलता (चित्त-शुद्धि) के प्रकाश में उस सत्य का अवलोकन करते थे। 
{उपनिषद में कहा गया है- 'आवृत्तचक्षू:  अमृतत्व इच्छन ' (कठ : २:१) कोई विरला ही बुद्धिमान मनुष्य ऐसा होता है जो सत्संग, स्वाध्याय तथा भगवत्कृपा से मन के इन्द्रिय विषय-भोगों में जाने की परिणाम दुःखता को जानकर अमृतस्वरूप सत्य-वस्तु को पाने की इच्छा से ' आवृत्त चक्षू: ' - अर्थात अपने मन और इन्द्रियों को  बाह्य विषयों से लौटाकर, ह्रदय में स्थित अन्तरात्मा में नियोजित रखने में समर्थ हो पाता है, वह उस सत्य-वस्तु (परमात्मा T) का दर्शन कर लेता है।}
 
उस सत्य को अपने ह्रदय में अनुभव कर लेना ही आध्यात्मिकता हैं! आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न मनुष्य य़ा सत्य को अपने ह्रदय में अनुभव कर लेने वाला मनुष्य यह जान लेता है कि, मनुष्य का शरीर तो वृद्धि और जरा को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है, ध्वंश हो जाने पर उसे मिट्टी में दफ़न कर दिया जाता है, आग में जला दिया जाता है, किसी गाँछ-वृक्ष के ऊपर रख दिया जाता है, वहन कोई गिद्ध य़ा चिल्ह उसे खा लेते हैं, मनुष्य के शरीर का अन्तिम संस्कार कई प्रकार से किया जाता है।  किन्तु आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न मनुष्य य़ा सत्य को अपने ह्रदय में अनुभव कर लेने वाला मनुष्य यह जान लेता है कि, शरीर का अन्तिम संस्कार कर देने भर से ही, सब कुछ समाप्त नहीं हो जाता। मनुष्य के भीतर जो सत्ता है,वह सत्ता भी उस सत्य के साथ अभिन्न है - इस बोध का थोड़ा स भी अंश, एक कणमात्र भी जाग्रत होना आध्यात्मिकता है! इस आध्यात्मिकता प्राप्त होने से क्या लाभ होता है ? यही कि हमलोग सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के साथ एकत्व की अनुभूति करते हैं ! हमलोग विश्व-ब्रह्माण्ड से अलग कोई भिन्न वस्तु नहीं हैं, हमलोग भी इस विश्व-ब्रह्माण्ड के लघु अंश हैं!  

इसीलिये -श्रीश्रीमाँ सारदा देवी का अत्यन्त सरल भाषा में दिया गया वह उपदेश घूम-फिर कर सामने आ ही जाता है कि -" इस जगत में कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं!  जगत तुम्हारा अपना है, कोई पराया -Alien नहीं है ' - इस बोध को ही आध्यात्मिकता कहा जाता है।  

[अगर वर्ष 1967 के वैज्ञानिक खोज # के आधार पर भी देखा जाय तो यही सिद्ध होता कि - There are no Alien - extraterrestrial civilization. Bell, who called the source LGM1 -' Little Green Men 1 '] 

यही है -सच्चा धर्म ! सच्चा धर्म वह है जो धारण करता है।  किन्तु हमलोगों का धारण नहीं हो रहा है, हमलोगों का तो विनाश हो रहा है।  सम्पूर्ण जगत हमलोगों का विनाश करने पर उतारू है; तथा हमलोग क्रमागत धीरे धीरे विनाश की ओर बढ़ते जा रहे हैं। किन्तु यदि हम विनष्ट हो जाने से बचना चाहते हैं, पुनरुज्जीवित होना चाहते हों तो, इसके लिये जिस सन्जीवनी शक्ति की आवश्यता है- वह इसी आध्यात्मिकता में अन्तर्निहित है।  अतः जगत के समस्त मनुष्यों की दृष्टि को इसी आध्यात्मिकता की ओर आकृष्ट कराने का प्रयत्न करना आवश्यक है।  इसीलिये वर्त्तमान युग में, इस युग के युगावतार श्रीरामकृष्ण देव, जगज्जननी माँ सारदा, जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द इसी आध्यात्मिकता रूपी अद्भुत संजीवनी शक्ति को हमलोगों के निकट उपलब्ध करा दिये हैं।
 
भारतवर्ष में जितने भी ऋषि-मुनि प्राचीन काल से इतने दिनों तक थे, इतने शास्त्र थे, इन शास्त्रों को भी बहुत सारे लोग भुला चुके थे।  श्रीरामकृष्ण देव ने अपने जीवन को ही अद्भुत दृष्टान्त स्वरूप गढ़ कर,  उसके ही आलोक में उन समस्त विस्मिर्त हो चुके वेद-उपनिषदों को उसी पुरातन सत्य को, नये रूप में - सरल, सहज भाषा में प्रकाशित कर दिए;  मानव समाज के सामने पुनर्स्थापित करा दिया! उन्होंने उसी पुरातन ज्ञान को बिल्कुल सरल और सहज भाषा में नये ढंग से प्रस्तुत किया था।  इसीलिये प्राचीन युग के ऋषियों मुनियों के जैसा अत्यन्त विद्वान्, अत्यन्त शास्त्रज्ञ, अत्यन्त ज्ञानी  होने का तनिक भी भाव उनके अन्दर नहीं था।  बिकुल ही प्रकृति की गोद में पले-बढे सरल ग्राम्य जीवन में,  जन्म से ही पढने-लिखने की ओर नहीं गये। यद्यपि वे  पाठशाला में गये भी तो केवल योग करना, जोड़ करना सीख पाये, वियोग अर्थात घटाव करना नहीं सीख सके। इसीलिये केवल योग ही चलने लगा, स्वयं भी वियोग यानि घटाव नहीं सीखे न दूसरों को ही वियोग-exclusion सीखा पाये।  क्योंकि समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड महायोग में युक्त है, इसमें कहीं वियोग नहीं है।     

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[गीता 15.1, तथा कठ उपनिषद (2.3.1) में भी  'सनातन ब्रह्मांड वृक्ष' के बारे में कहा गया है।- 'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्साख एशोऽश्वत्थः सनातनः। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते। तस्मिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदुनात्येति कश्चन। एतद्वै तत् ॥(कठ: 2.3.1)॥ 

(ऊर्ध्व-मूलः अवाक-शाखः = जिसकी जड़ें ऊपर हों और जिसकी शाखायें नीचे की ओर हों / एषः अश्वत्थः सनातनः = यह दृष्टिगोचर जगत संस्कृत में सनातन अश्वत्थः है, जिसको Botany में 'Ficus religiosa' (फाइकस रिलिजिओसा) या 'पीपल का वृक्ष'  कहते हैं /तत् एव शुक्रम् = It is He the Bright One, इसका जो मूलभूत तेजोमय कण (ब्रह्म-कण या God particle) है वही आनन्द स्वरुप विशुद्ध तत्व (अद्वैत तत्व) अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव हैं/ तत् ब्रह्म = वही ब्रह्म है/(और) तत् एव अमृतम् उच्यते = और वही अमृत कहलाता है (अर्थात जन्म और मृत्यु से मुक्त > free from birth and death कहलाता है) / सर्वे लोकाः तस्मिन् श्रिताः  = सारे लोक-परलोक उसी के आश्रित हैं / कश्चन उ तत् न अत्येति = कोई भी उसको लाँघ नहीं सकता-(none Transcend beyond Him' देश-काल-निमित्त (माया) के पार तो जाया जा सकता है किन्तु सच्चिदानन्द स्वरुप  परम् पुरुष ठाकुर देव के परे नहीं जाया जा सकता)/  एतत् वै तत् #  =  हे नचिकेता  यही वह परमात्मा है- जिसके विषय में तुमने पूछा था (this is the thing thou seekest)/  (हे एथेंस के सत्यार्थी !  एतत् वै तत् # यही वह महावाक्य है - परम् सत्य या इन्द्रियातीत सत्य है- जिसे तुम 1967 से खोज रहे थे, जिसे देखकर देवकुलिश अँधा हो गया था, जिसके विषय में तुमने मृत्यु के क्षण में भी पूछा था,और प्रलय के पहले जो था - वही सत्य है।] 
यहाँ यमाचार्य नचिकेता को समझा रहे हैं कि , " देखो बेटे, यह जगत नशाखोरी की तरह बहुत लत लगाने वाली वस्तु है, "addictive/ Habit-forming" वस्तु है। (यानि कामिनी, कांच और कीर्ति 3K - तीनों ऐषणाओं की लत नशाखोरी की तरह बहुत अधिक आसक्ति उत्पन्न करने देने वाली वस्तु है। इसलिए संसार, जो अश्वथ के समान कल तक भी नहीं रहने वाली है, में अत्यधिक आसक्त हो जाना ही  दुःख का कारण बनता है। मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण निरंतर सान्त (finite-ससीम, नश्वर)  में अनंत (infinite-असीम, अविनाशी) की तलाश  करता  रहता है। 
इस श्लोक में संसार के प्रति अरुचि (कामिनी-कांचन या तीनों ऐषणाओं के प्रति aversion) उत्पन्न करने के लिए उसी प्रकार घृणा-चिकित्सा (aversion therapy) की सहायता ली जा रही है, जिस प्रकार किसी ड्रग-एडिक्ट (drug addict) या नशेड़ी की नशामुक्ति (de-addiction) या नशे की लत छुड़ाने के लिए, नशे की वस्तु के प्रति अरुचि विकसित की जाती है। भवरोग से पीड़ित मनुष्य (3K में घोर आसक्त व्यक्ति) के लिए 'शब्द' प्रमाण # एक अत्यावश्यक चिकित्सा (important therapy) है। यह अनुभव करने के लिए भी 'पूर्व पुण्य' की आवश्यकता होती है कि कोई व्यक्ति संसार में फंस गया है, और अब वह उससे बाहर निकलने की इच्छा रखता है। 
[ Shabda Pramaana # >'शब्द' प्रमाण # "आप्तोपदेशः शब्दः" ( न्यायसूत्र 1.1.7) आप्त पुरुष द्वारा किए गए उपदेश को "शब्द" प्रमाण कहते हैं।  आप्त वह पुरुष है जिसने धर्म के और सब पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को भली भांति जान लिया है, जो सब जीवों पर दया करता है और सच्ची बात कहने की इच्छा रखता है। Poorva Punya# > संसार में फँसे व्यक्ति को उससे बाहर निकलने की इच्छा, या परम् सत्य (ईश्वर) को जानने की इच्छा - 'मुमुक्षत्वं' को दुर्लभ कहा है , यह पिछले जन्मों में किये अच्छे कर्मों - 'पूर्व पुण्य' से प्राप्त होती है। भगवत गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति प्रारब्ध कर्म से जुड़ा होता है। उसके पिछले जन्मों के "पूर्व पुण्य" - यानि पिछले जन्मों के अच्छे कर्म -  इस जीवन में  लंबी उम्र, संतान, स्वास्थ्य , अच्छे वंश, गरीबी के अभाव, अच्छी शिक्षा, अच्छे आचरण और अनुकूल परिस्थितियों के साथ अच्छे परिवार में पैदा होता है।]  >रसवर्जं रसोऽप्यस्य - (भ.गी. 2.59) श्रेय-प्रेय विवेक के बाद  =प्रेय के त्यागी यानि भोगों के त्यागी व्यक्ति से भोग की वस्तुयें दूर ही रहती हैं। निराहार रहने से विषय तो दूर हो जायेंगे परन्तु उनके प्रति मन में पूर्वानुभवजनित रस अर्थात् स्वाद या राग निवृत्त नहीं होता। भगवान् यहाँ आश्वासन देते हैं कि परम आत्मतत्त्व की अपरोक्षानुभूति होने पर यह राग भी समाप्त हो जाता है या भुने हुये बीजों के समान मनुष्य के मन में विषय प्रभावहीन हो जाते हैं। जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में रहते हुए अहंकार ने असंख्य विषय वासनायें अर्जित कर ली हैं। परन्तु अवस्थात्रय अतीत शुद्ध चैतन्य स्वरूप को पहचान कर अहंकार ही समाप्त हो जाता है तब ये वासनायें किस पर अपना प्रभाव दिखायेंगी। निराहारी व्यक्ति से (इन्द्रियों को विषयों से खींचने में सक्षम व्यक्ति से देही पुरुष से) विषय तो निवृत्त  (दूर)  हो जाते हैं, परन्तु रस निवृत्त नहीं होता, अर्थात 3K के प्रति राग या आसक्ति समाप्त नहीं होती । परन्तु परम तत्व का दर्शन करने पर (यानि विवेकदर्शन का अभ्यास करने पर)  इस (पुरुष) का राग भी निवृत्त हो जाता है। गुरु अपने शिष्य को संसार से बाहर निकालता है। किन्तु व्यक्ति के भीतर से संसार को निकालना (मन से 3K की आसक्ति को निकालना, मन को वश में करना) एक धीमी प्रक्रिया है। गुरु उन्हें इन्द्रियविषयों में आसक्ति के परिणाम को दिखलाकर - अली, मृग, मीन, पतंग, गज का उदाहरण देकर संसार के प्रति अरुचि के कारण की खोज करवाते हैं। गुरु यह दिखाते हैं कि तुम्हारी प्राथमिकताएँ- भोग नहीं त्याग हैं - जो कितनी उल्टी 'upside-down' हैं। यही निदिध्यासन (Nitiddyaasanaa) है - जिसका उद्देश्य संसार की ओर (3K की ओर) जो आदतन अभिमुखता (orientation) पर काबू पाना है। इस श्लोक का पहला भाग संसार के प्रति 'distaste' (कामिनी -कांचन में आसक्ति के प्रति अरुचि) पैदा करता है , और दूसरा भाग यह बतलाता है कि मनुष्य वास्तव में जो चाहता है ,वह आत्मा या 'ब्रह्म' है। और उसे अमृत (immortal- अविनाशी है, जन्म-मृत्यु से मुक्त।) कहा जाता है। यम तो मृत्यु का देवता है, उनका सम्बन्ध हमेशा (अहंकार की) मृत्यु से है। इसलिए वे यह बात कर्मवाच्य में (passive form) कह रहे हैं, मानो उन्हें अमृतत्व पर बात करने का भी अधिकार नहीं है। तस्मिन् लोकाः श्रिताः सर्वे - यह जगत एक प्रासंगिक घटना है- " एको अहं बहुस्याम' का प्रक्षेपण है, ब्रह्म की इच्छाशक्ति का incidental projection है, जो ब्रह्म पर निर्भर करता है। ब्रह्म ही जगत  का आश्रय है। जैसे छाया (प्रतिबिम्ब-परछाई-reflection ) प्रकाश से चिपकी रहती है, वैसे ही जगत ब्रह्म से चिपक जाता है। तत् उ न अत्येति कश्चन - इसका कोई उल्लंघन ( transgress) नहीं कर सकता। कारण (cause) , प्रभाव (effect) से अप्रभावित (unaffected)  रहता है। 

अर्थात इस संसार रूप सनातन अश्वत्थ वृक्ष (पीपल का वृक्ष जो कल नहीं रहेगा, पर अभी दीखता है) का मूल ऊपर में और शाखायें नीचे की ओर हैं।  इसका जो मूल कारण है, जिससे यह उत्पन्न होता है, जिससे सुरक्षित है और जिसमे विलीन होता है, वह ब्रह्म-वस्तु ऊपर है, कोई भी उसका अतिक्रमण करने में समर्थ नहीं है। ...ऐसा यह ब्रह्माण्ड रूप पीपल-वृक्ष अनादी कालीन- सदा से है। सत्य यही है कि एक ही " वस्तु " से सब कुछ उत्पन्न हुआ है!

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। 

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।15.1।।

[ऊर्ध्वमूलम् अधःशाखम् अश्वत्थं प्राहुः अव्ययम् छन्दांसि यस्य पर्णानि यः तं वेद सः वेदवित् ॥ १॥
श्री भगवान् ने कहा -- (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है।।
Botany (वनस्पति शास्त्र) में अश्वत्थ वृक्ष का नाम 'Ficus religiosa' (फाइकस रिलिजिओसा) है।  जो लोक में पीपल के वृक्ष के नाम से प्रसिद्ध है। यह ध्यान रहे कि अश्वत्थ वृक्ष से वटवृक्ष नहीं सूचित किया गया है। शंकराचार्य जी के अनुसार संसार को अश्वत्थ का नाम व्युत्पत्ति के आधार पर दिया गया है। अश्वत्थ का अर्थ इस प्रकार है श्व का अर्थ आगामी कल है, त्थ का अर्थ है स्थित रहने वाला। अतः  अश्वत्थ का अर्थ है वह जो कल अर्थात् अगले क्षण पूर्ववत् स्थित नहीं रहने वाला है। तात्पर्य यह हुआ कि अश्वत्थ शब्द से इस सम्पूर्ण अनित्य और परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् की ओर इंगित किया गया है
इस श्लोक में कहा गया है कि इस अश्वत्थ का मूल ऊर्ध्व में अर्थात् ऊपर है। इसका यदि केवल वाच्यार्थ ही ग्रहण करें, तो ऐसा प्रतीत होगा कि किसी अशिक्षित चित्रकार ने इस संसार वृक्ष को चित्रित किया है। यह चित्र आध्यात्मिक दृष्टि से असंगत, धार्मिक दृष्टि से हानिकर और सौन्दर्य की दृष्टि से कुरूप लग सकता है। परन्तु ऐसा विचार इस वेदान्ती धर्म-चित्र के महान् गौरव का अपमान है।
शंकराचार्यजी ने ही उपनिषद् के भाष्य में यह लिखा है कि संसार को वृक्ष कहने का कारण यह है कि उसको काटा जा सकता है व्रश्चनात् वृक्ष। वैराग्य के द्वारा हम अपने उन समस्त दुखों को समाप्त कर सकते हैं जो इस संसार में हमें अनुभव होते हैं। -"कश्चित् धीरः आवृत चक्षुः'  जो संसारवृक्ष परमात्मा से अंकुरित होकर व्यक्त हुआ प्रतीत होता है, उसे हम अपना ध्यान परमात्मा में केन्द्रित करके काट सकते हैं
इतिहास के विद्यार्थियों को अनेक राजवंशों की परम्पराओं का स्मरण/ या जैसे राठौड़ राजपूतों की वंशावली को रखना होता है। उसमें जो परम्परा दर्शायी जाती है वह इस ऊर्ध्वमूल वृक्ष के समान ही होती है। एक मूल पुरुष से ही उस वंश का विस्तार होता है। इसी प्रकार इस संसार वृक्ष का मूल ऊर्ध्व कहा है- जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है।
 जैसे वृक्ष को आधार तथा पोषण अपने ही मूल से ही प्राप्त होता है, इसी प्रकार भोक्ता जीव और भोग्य जगत् दोनों अपना आधार और पोषण शुद्ध अनन्तस्वरूप (आनन्द स्वरुप) ब्रह्म से ही प्राप्त करते हैं। तथापि अनेक लोगों की जिज्ञासा ऊर्ध्व शब्द के उपयोग को जानने की होती है। ऊर्ध्व शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में किया गया है- जैसे लोक में हम उच्च वर्ग, उच्च अधिकारी, उच्च आभूषण आदि का प्रयोग करते हैं।
यहाँ उच्च शब्द से तात्पर्य रेखागणितीय उच्चता से नहीं है वरन् श्रेष्ठ, आदर्श अथवा मूल्य से है। भावनाओं की दृष्टि से भी स्वभावत मनुष्य सूक्ष्म और दिव्य तत्त्व को उच्चस्थान प्रदान करता है और स्थूल व आसुरी तत्त्व को अधः-स्थान। देश- काल और कारण के परे होने पर भी परमात्मा को यहाँ ऊर्ध्व कहा गया है
 वह (ईश्वरीय कण-मूल कण) जड़ प्रकृति को चेतनता प्रदान करने वाला स्वयं-प्रकाशस्वरूप तत्त्व है। स्वाभाविक है कि यहाँ रूपक की भाषा में दर्शाया गया है कि यह संसार वृक्ष ऊर्ध्वमूल वाला है। इस परिवर्तनशील जगत् (अश्वस्थ) को अव्यय अर्थात् अविनाशी माना गया है। परन्तु केवल आपेक्षिक दृष्टि से ही उसे अव्यय कहा गया है। किसी ग्राम में स्थित पीपल का वृक्ष अनेक पीढ़ियों को देखता है जो उसकी छाया में खेलती और बड़ी होती हैं। इस प्रकार मनुष्य की औसत आयु की अपेक्षा वह वृक्ष अव्यय या नित्य कहा जा सकता है। 
इसी प्रकार इन अनेक पीढ़ियों की तुलना में जो विकसित होती हैं।  कल्पनाएं और योजनाएं बनाती हैं प्रयत्न करके लक्ष्य प्राप्त कर नष्ट हो जाती हैं।  यह जगत् अव्यय कहा जा सकता है। छन्द अर्थात् वेद इस वृक्ष के पर्ण हैं।  वेद का अर्थ है ज्ञान। 
ज्ञान की वृद्धि से मनुष्य के जीवन में अवश्य ही गति आ जाती है। आधुनिक जगत् की भौतिक उन्नति, विज्ञान की प्रगति औद्योगिक क्षेत्र की उपलब्धि और अतिमानवीय स्फूर्ति की तुलना में प्राचीन पीढ़ी को जीवित भी नहीं कहा जा सकता। ज्ञान की वृद्धि से भावी लक्ष्य और अधिक स्पष्ट दिखाई देता है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य उसे पाने के लिये और अधिक प्रयत्नशील हो जाता है
 वेद अर्थात् ज्ञान की तुलना वृक्ष के पर्णों के साथ करना अनुपयुक्त नहीं है। वृक्ष के पर्ण वे स्थान हैं जहाँ से जल वाष्प बनकर उड़ जाता है, जिससे वृक्ष की जड़ों में एक दबाव उत्पन्न होता है। इस दबाव के कारण जड़ों को पृथ्वी से अधिक जल और पोषक तत्त्व एकत्र करने में सुविधा होती है। अत यदि वृक्ष के पत्तों को काट दिया जाये, तो वृक्ष का विकास तत्काल अवरुद्ध हो जायेगा। 
पत्तों की संख्या जितनी अधिक होगी वृक्ष का परिमाण और विकास उतना ही अधिक होगा। जहाँ ज्ञान की अधिकता होती है वहाँ व्यक्त जीवन की चमक भी अधिक दिखाई देती है। जो पुरुष न केवल अश्वत्थ वृक्ष को ही जानता है वरन् उसके पारमार्थिक सत्यस्वरूप ऊर्ध्वमूल को भी पहचानता है वही पुरुष वास्तव में वेदवित् अर्थात् वेदार्थवित् है।  उसका वेदाध्ययन का प्रयोजन सिद्ध हो गया है। वेदों का प्रयोजन सम्पूर्ण विश्व के आदि स्रोत एकमेव अद्वितीय परमात्मा का बोध कराना है। सत्य का पूर्णज्ञान न केवल शुद्धज्ञान (भौतिक विज्ञान) से और न केवल भक्ति से ही प्राप्त हो सकता है। यह गीता का निष्कर्ष है। 
जब हम इहलोक और परलोक, सान्त और अनन्त, सृष्ट और सृष्टिकर्ता इन सबको तत्त्वतः  जानते हैं, तभी हमारा ज्ञान पूर्ण कहलाता है। ज्ञान की अन्य शाखाएं कि कितनी ही दर्शनीय क्यों न हों वे सम्पूर्ण सत्य के किसी पक्ष् विशेष को ही दर्शाती हैं। वेदों के अनुसार पूर्ण ज्ञानी पुरुष वह है जो इस नश्वर संसारवृक्ष तथा इसके अनश्वर ऊर्ध्वमूल (परमात्मा) को भी जानता है। भगवान् श्रीकृष्ण उसे यहाँ वेदवित् कहते हैं। 
नश्वर संसार (शरीर-जगत ) का अविनाशी परमात्मा (आत्मा-ब्रह्म) के साथ जो संबंध है उसका भी इस में वर्णन किया गया है। यदि परमात्मा एकमेव अद्वितीय सत्य है, तो उससे अलग यह नश्वर जड़ जगत् (शरीर और मन) कैसे उत्पन्न हुआ ? उत्पन्न होने के पश्चात् कौन इसका धारण पोषण करता है  ? सृष्टिकर्ता अनन्त ईश्वर और सृष्ट सान्त जगत् के मध्य वस्तुत क्या संबंध है ? जीवन के विषय में गंभीरता से विचार करना प्रारंभ करते ही मन में इस प्रकार के प्रश्न उठने लगते हैं।
छंदोक्योपनिषद के छठे अध्याय में कहा गया है, तदेव सौम्य, इदमग्रे आसीत् - इन सबके प्रकट होने से पहले सत् ही था। स आत्मा त्वमसि श्वेतकेतो... वह आत्मा आप ही हैं, हे श्वेतकेतु! बाद में उसी अध्याय में, असत्व इदम्ग्रे असित् | तस्मात् सत् अजायत। जो कुछ वहां था वह अस्तित्वहीन था। अनस्तित्व से अस्तित्व आया। यह भ्रमित करने वाला हो सकता है।  यहां अस्तित्व न होने का मतलब यह है कि यह नाम और रूप से मुक्त था। जगत् की रचना अनायास नहीं हो सकती। एक नियति है और इसलिए एक नियंता है - शासक जो नियम निर्धारित करता है। ब्रह्म के अस्तित्व पर प्रश्न उठाना स्वयं के अस्तित्व पर प्रश्न उठाना है। इस अस्तित्व को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस ज्ञान को कभी भी नकारा नहीं जा सकता कि मेरा अस्तित्व है। ईश्वर का अस्तित्व अनुमान या अनुमान का विषय नहीं है। शब्द प्रमाण इसके अस्तित्व का प्रमाण है। यह श्लोक इस बात का उत्तर देता है कि हमें यह क्यों कहना चाहिए कि जगत ब्रह्म से आया है, शून्य से नहीं। } 
>>>नासदीय सूक्त :

नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥

अन्वय- 'तदानीम्' अर्थात प्रलय की अवस्था में >  असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।
अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः = स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।
 >>>श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते हैं, 'सारी विद्याएं अधूरी हैं। जो परमात्मा को जान गया उसी का जीवन सफल है। जिसने प्रभु का आश्रय लिया है, वही इस भवसागर से पार हो सकता है। शेष लोगों का तो पूरा जीवन ही व्यर्थ में चला जाता है। 'विद्या' वही है जो प्रभु से मिला दे, जो भवसागर पार करा दे -वह ज्ञान सर्व श्रेष्ठ है। और खुद का ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान कहलाता है। ऐसा ज्ञान जो जीवन को आनंद से सरोबार कर दे।'
>>>भविष्य का धर्म :
 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " आज हमको बुद्धि के इस प्रखर सूर्य ' शंकराचार्य ' के साथ बुद्धदेव का अद्भुत प्रेम और दयायुक्त अद्भुत ह्रदय चाहिये।  इसी सम्मिलन से हमें उच्चतम दर्शन की उपलब्धि होगी।  विज्ञान और धर्म एक दूसरे का आलिंगन करेंगे।  कविता और विज्ञान मिल जायेंगे।  यही भविष्य का धर्म होगा। 

" अग्निः यथा एको भुवनम प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव |
एकः तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च || 
(कठ २:२:९)

- जिस प्रकार एक ही अग्नि निराकार रूप से सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, उस समय उसमे कोई भेद नहीं है, परन्तु जब वह साकार रूप से प्रज्वलित होता है, तब उन आधारभूत वस्तुओं (चकमक पत्थर, लकड़ी और युरेनियम) का  जैसा आकार होता है, वैसा ही आकार अग्नि का भी दृष्टिगोचर होती है, उसी प्रकार सारे जीवों की अन्तरात्मा वह ब्रह्म (परम सत्य) ही भिन्न-भिन्न प्राणियों में उन उन प्राणियों के अनुरूप नाना रूपों में प्रकाशित होते हैं, फिर वह जगत के बाहर भी है। 
भाव यह कि आधारभूत वस्तु के अनुरूप ही उनकी महिमा का प्रकाट्य होता है।  किन्तु वह परम सत्य इतना ही नहीं है इससे बहुत अधिक विलक्षण है। ...विज्ञान किस ओर जा रहा है, यह क्या तुम नहीं देखते? ...मनस्तत्व में से होकर हम उसी एक अनन्त सार्वभौमिक सत्ता में पहुँच रहे हैं, जो सब वस्तुओं कि अन्तरात्मा है, जो सबका सार और सभी वस्तुओं का सत्य है, जो नित्य मुक्त, नित्यानन्द और नित्य सत्ता है। बाह्य विज्ञान के द्वारा भी हम उसी एक तत्व पर पहुँच रहे हैं। यह जगत-प्रपंच उसी एक मूलकण का विकास है! " (२:९४-९५) 

" जिन्हें आत्मा की अनुभूति य़ा ईश्वर (सत्य) -साक्षात्कार नहीं हुआ हो, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि आत्मा य़ा ईश्वर है? यदि ईश्वर हो, तो उसका साक्षात्कार करना होगा; यदि आत्मा नामक कोई चीज हो, तो उसकी उपलब्धि करनी होगी।  अन्यथा ईश्वर (य़ा सत्य ) पर विश्वास न करना ही भला। ढोंगी होने स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है। ....यदि लोगों को ईश्वर की सत्ता में विश्वास रहेगा, तो वे सत (ईमानदार)  और नीतिपरायण बनेंगे इसलिए अच्छे (योग्य) नागरिक होंगे। " (वि० सा० ख० १:३७)
स्वामीजी अन्यत्र कहते हैं -" सत्य की खोज करो- इस नित्य परिवर्तनशील नश्वर जगत में क्या सत्य है, इसकी खोज करो| कुछ भौतिक परमाणुओं के समष्टिस्वरूप इस देह के भीतर क्या कोई ऐसी चीज है जो सत्य हो?" (२:५) 
" यह आपातप्रतीयमान व्यक्तितित्व (M /F ) वास्तव में भ्रम मात्र है; इस भ्रमातक व्यक्तित्व में आसक्त रहना- अत्यन्त नीच कार्य है,...आत्मत्याग का अर्थ है, इस मिथ्या व्यक्तित्व का त्याग सब प्रकार (स्वयं को स्त्री-पुरुष मान कर मन से सब प्रकार के भोगों की इच्छा य़ा ) की स्वार्थपरता का त्याग| यह अहंकार और ममता पूर्व कुसंस्कारों के फल हैं और जितना ही इस (मिथ्या) 'व्यक्तित्व ' का त्याग होता जाता है, उतनी ही आत्मा अपने नित्य स्वरूप में, अपनी पूर्ण महिमा में अभिव्यक्त होती है।...यही समस्त नैतिक शिक्षा का आधार है। " (२:१५)
" हम इन्द्रिय-सुख की सस्ती वस्तु के शिकार हैं, भले ही उससे हमारा सर्वनाश ही क्यों न हो।  हमने यह भुला दिया है कि जीवन में और अधिक महान वस्तुएं हैं। ...ईश्वर ने एक बार धरती पर वराह-अवतार लिया; उनकी एक शूकरी भी थी।  कालान्तर में उनके कई शूकर संतानें हुईं। अपने परिवारवालों के बीच वे बड़े चैन से रह रहे थे।  कीचड़ में लोटते हुए वे खूब मस्त थे।  वे अपनी दिव्य महिमा एवं प्रभुता भूल बैठे।  देवता बड़े चिंतित हुए। वे धरती पर उतर आये और उनसे शूकर-शरीर का त्याग कर देवलोक लौट चलने की विनती करने लगे।  ईश्वर ने उनकी एक न सुनी और उन सब को दुत्कार दिया।  वे बोले ' मैं इसी योनी में बड़ा प्रसन्न हूँ और इस रंग में भंग देखना नहीं चाहता।'कोई चारा न देख देवताओं ने प्रभु का शूकर-शरीर नष्ट कर दिया। 

तत्क्षण ईश्वर की दिव्य भव्यता लौट आई और वे बड़े विस्मित थे कि शूकर-स्थिति में वे प्रसन्न रहे कैसे! मानवीय आचरण भी इसी प्रकार का है।  जब कभी वे लोग - (उर्ध्वमूल) निर्गुण ईश्वर (Super -Consciousness ) की चर्चा सुनते हैं, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है कि ' मेरे व्यक्तित्व का क्या होगा? मेरा तो व्यक्तित्व ही लुप्त हो जायेगा !'फिर कभी ऐसा विचार मन में उठे तो उस शूकर की दशा याद कर लेना। " (९:८२)

" हे नर-नारियों ! उठो, आत्मा के सम्बन्ध में जाग्रत होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो, सत्य के अभ्यास का साहस करो।  संसार को कोई सौ साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है।  अपने में वह साहस लाओ, जो सत्य को जान सके, जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके, जो मृत्यु से न डरे, प्रत्युत उसका स्वागत करे, जो मनुष्य को यह ज्ञान करा दे कि वह आत्मा है और सारे जगत में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो उसका विनाश कर सके।  " (२:१८) ] 

" मृत्यु, दुःख तथा इस संसार में मनुष्य को मिलनेवाले अनेक जोरदार- झटके केवल वही मनुष्य पार कर सकता है, जिसने सत्य जान लिया है।  सत्य क्या है ? सत्य वह है, जिसमे कोई विकार उत्पन्न नहीं होता, मनुष्य की आत्मा, विश्व की आत्मा ही सत्य है। ...जो अनेकता में एकमेवाद्वितीय को समझता है और उसका अपनी आत्मा में दर्शन करता है, वही शाश्वत शान्ति का अधिकारी होता है, दूसरा कोई नहीं , दूसरा कोई नहीं। " (३:१६४-६५)
 " मृत्यु के समय भी तुम्हारे अधरों पर सोsअहं ,सोsअहं खेलता रहे।  यही सत्य है- जगत की अनन्त शक्ति तुम्हारे भीतर है| जो कुसंस्कार तुम्हारे मन को ढके हुए है, उन्हें भगा दो| साहसी बनो।  सत्य को जानो और उसे जीवन में परिणत करो| चरम लक्ष्य भले ही बहुत दूर हो, पर उठो, जागो, जब तक ध्येय तक न पहुँचो, तबतक मत रुको! " (२:२०) 
" इस समस्त विश्व में एक सत वस्तु ओतप्रोत है; और वह देश, काल तथा (निमित्त ) कार्य-कारण के जाल में मानो फँसी हुई है।  मनुष्य का सच्चा स्वरूप वह है, जो अनादी, अनन्त, आनन्दमय तथा नित्य मुक्त है, वही देश, काल और परिणाम के फेर में फंसा है।  यही प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में भी सत्य है।  प्रत्येक वस्तु का परमार्थ स्वरूप वही अनन्त है। यह विज्ञानवाद (प्रत्याय वाद ) नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि विश्व का अस्तितिव ही नहीं है।  इसका अस्तित्व सापेक्ष है, और सापेक्षता के सब लक्षण इसमें विद्यमान हैं।  लेकिन इसकी स्वयं की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।  यह इसलिए विद्यमान है कि इसके पीछे देश-काल-निमित्त से अतीत निरपेक्ष आद्वितीय सत्ता मौजूद है| " (३:११९)
चेतन मन ही अचेतन का कारण है| हमारे जो लाखों पुराने चेतन विचार और चेतन कार्य थे,वे ही घनीभूत होकर प्रसुप्त हो जाने पर हमारे अचेतन विचार बन जाते हैं|हमारा उधर ख्याल ही नहीं जाता,हमे उनका ज्ञान नहीं होता, हम उन्हें भूल जाते हैं|...वे ही प्रसुप्त कारण एक दिन मन के ज्ञानयुक्त क्षेत्र पर आ उठते हैं और मानवता का नाश कर देते हैं| 
अतएव सच्चा मनोविज्ञान (मनः संयम का अभ्यास)उनको (अचेतन मन को) चेतन मन के अधीन लाने का प्रयत्न करेगा| अतएव शिक्षा का सबसे महत्व पूर्ण कार्य है,पूरे मनुष्य को पुनरुज्जीवित (नये सिरे से जीवित) जैसा कर देना,जिससे कि वह अपना पूर्ण स्वामी बन जाये|अचेतन को अपने अधिकार में लाना हमारी साधना का पहला भाग है|
दूसरा है- चेतन के परे -("उर्ध्वमूल"Super -Conscious अतिचेतन ) में जाना ! जिस तरह, अचेतन चेतन के नीचे - उसके पीछे रहकर कार्य करता है, उसी तरह चेतन के ऊपर-उसके अतीत भी एक अवस्था है|जब मनुष्य इस अतिचेतन अवस्था में पहुँच जाता है, तब वह मुक्त हो जाता है, ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है| 
तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लौह श्रृंखलाएँ मुक्ति बन जाती हैं!अतिचेतन (Super Consciousness : उर्ध्वमूल) का यह असीम राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है!  
अतएव यह स्पष्ट है कि हमे दो कार्य अवश्य ही करने होंगे| एक तो यह कि इड़ा और पिंगला के प्रवाहों का नियमन करअचेतन कार्यों को नियमित करना;  और दूसरा, इसके साथ ही साथ चेतन के भी परे चले जाना| 
   ग्रंथों में कहा गया है कि योगी वही है, जिसने दीर्घ काल तक चित्त की एकाग्रता का अभ्यास करके ( य़ा अनायास भगवत कृपा से भी ) इस सत्य की उपलब्धि कर ली है|अब सुषुम्ना का द्वार खुल जाता है और इस मार्ग में वह प्रवाह प्रवेश करता है, जो इसके पूर्व उसमे कभी नहीं गया था, यह धीरे धीरे विभिन्न कमल-चक्रों को खिलाता हुआ अन्त में मस्तिष्क तक पहुँच जाता है| तब योगी को अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान हो जाता है, वह जान लेता है कि वह स्वयं परमेश्वर ही है|

" हममें से प्रत्येक व्यक्ति, बिना किसी अपवाद के, योग के इस अन्तिम अवस्था को प्राप्त कर सकता है| लेकिन यह अत्यन्त कठिन कार्य है|यदि मनुष्य को इस सत्य का अनुभव करना हो ...कुछ विशेष साधनाएँ भी करनी होंगी (य़ा महामण्डल का निष्ठावान कर्मी बनने से अनायास T की कृपा से भी होगा ) | महत्व है तैयारी ही का|दीपक जलाने में कितनी देर लगती है? केवल एक सेकंड, लेकिन उस मोमबत्ती को बनाने में कितना समय लग जाता है! "  (३: १२१-१२२) 

" जब कोई भी मनुष्य यह दावा करता है कि ' मैं सत्य को जानता हूँ|' तो मैं कहता हूँ, ' यदि तुम सत्य को जानते हो, तो तुममें आत्मनियंत्रण होना चाहिये; और यदि तुममे आत्मनियंत्रण है, तो इन (मस्तिष्क में स्थित) इन्द्रियों के नियन्त्रण करने में समर्थ बन कर सिद्ध कर दो!.. जब मैं ध्यान के लिये बैठता हूँ, तो मन में संसार के सब बुरे से बुरे विषय उभर आते हैं। मतली आने लगती है (ऐसा लगता है मानो अपना कान ऐंठ कर अपने चेहरे पार खुद ही थप्पड़ मारूँ)| मन ऐसे विचारों को क्यों सोचता है, जिन्हें मैं नहीं चाहता कि वह सोचे ? मैं मानो मन का दास हूँ|जब तक मन चंचल है और वश से बाहर है, तब तक कोई आध्यात्मिक ज्ञान संभव नहीं है| शिष्य (विद्यार्थी) को मनः संयम सीखना ही होगा| हाँ, मन का कार्य है सोचना ! पर यदि शिष्य जिन विचारों को सोचना नहीं चाहता, तो मन में वैसे विचार आने ही नहीं चाहिये! जब वह आज्ञा दे, तो मन को सोचना भी बन्द कर देना चाहिये|" (३:१९३)
" तुम जो जो आवश्यक समझते हो, सब रखो, यहाँ तक कि उससे अतिरिक्त वस्तुएं भी रखो- इससे कोई हानी नहीं| पर तुम्हारा प्रथम और प्रधान कर्तव्य है- सत्य को जान लेना, उसको प्रत्यक्ष कर लेना|" (२:१५२)
" सत्य को प्राप्त करने में निमिष मात्र लगता है- प्रश्न केवल जान लेने भर का है| स्वप्न टूट जाता है, उसमे कितनी देर लगती है ? एक सेकण्ड में स्वप्न का तिरोभाव हो जाता है| जब भ्रम का नाश होता है, तो उसमे कितना समय लगता है ? पलक झपकने में जितनी देर लगती है, उतनी| जब मैं सत्य को जानता हूँ, तो इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता कि - ' असत्य ' (नाम-रूप) गायब हो जाता है| मैंने रस्सी को सर्प समझ लिया था और अब जानता हूँ कि वह रस्सी है| प्रश्न केवल आधे सेकण्ड का है| और सब कुछ हो जाता है ! तू वह है! तू वास्तविकता है ; इसे जानने में कितना समय लगता है? ..ईश्वर जीवन है; ईश्वर सत्य है| फिर भी इस स्वतः प्रत्यक्ष सत्य को प्राप्त करना कितना कठिन जान पड़ता है! " ( ३:१९०)
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - " जिन व्यक्तियों ने इस जीवन में ही इस अवस्था को प्राप्त कर लिया है, जिन्हें कम से कम एक मिनट के लिये भी संसार का यह साधारण दृश्य बदलकर सत्य का ज्ञान मिल गया है, उन्हें जीवन्मुक्त कहते हैं। जीवित रहते हुए यह मुक्ति प्राप्त करना ही वेदांती का लक्ष्य है। .... हम प्रतिदिन, प्रतिमास, प्रतिवर्ष इस जगत रूपी मरुस्थल में भ्रमण कर रहे हैं पर मरीचिका को मरीचिका नहीं समझ पा रहे हैं।  एक दिन वह मरीचिका अदृश्य हो जाएगी। 
पर वह फिर से आ जाएगी-शरीर  को पूर्व कर्मों के अधीन रहना पड़ता है, अतः वह मरीचिका फिर से लौट आएगी।  जबतक हम कर्म से बन्धे हुए हैं, तब तक जगत हमारे सम्मुख आयेगा ही| ....पर वे पहले की भाँति हमपर प्रभाव न डाल सकेंगे|इस नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का नाश हो जायेगा, उसके विष के दाँत टूट जायेंगे; जगत हमारे लिये एकदम बदल जायेगा; क्योंकि जैसे ही जगत दिखायी देगा, वैसे ही उसके साथ उसका स्वरूप और सत्य तथा मरीचिका के भेद का ज्ञान भी हमारे सामने प्रकाशित हो जायेगा। " (२: ३६) 
" मैं पुरुष य़ा स्त्री हूँ, मैं अमुक देशवासी हूँ, यह सब कहना केवल मिथ्या है| सभी देश मेरे हैं, सारा विश्व मेरा है; ...सारा विश्व ही मानो मेरा शरीर हो गया है| किन्तु हम देखते हैं कि संसार में बहुत से लोग ये सब बातें मुख से कहने पर भी आचरण में सभी प्रकार के अपवित्र कार्य करते रहते हैं; ... जब तक अशुभ-वेग एकदम समाप्त नहीं हो जाता, जब तक पहले की अपवित्रता बिल्कुल दग्ध नहीं हो जाती, तब तक कोई भी सत्य का साक्षात्कार और उसकी उपलब्धि नहीं कर सकता|अतएव जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिये अतीत जीवन के शुभ संस्कार, शुभ वेग ही बच रहता है| शरीर में वास करते हुए भी और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं;उनके मुख से सब के प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका मन केवल सत्चिन्तन ही कर सकता है, उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी रहे सर्वत्र मानव जाती के लिये महान आशीर्वाद होती है| " (२: ३८)
" मस्तिष्क एवं ह्रदय दोनों की ही हमें आवश्यकता है| अवश्य ह्रदय बहुत श्रेष्ठ है- ह्रदय के मध्यम से जीवन की महान अन्तः प्रेरणाएं आती हैं| मस्तिष्क वान किन्तु ह्रदय शून्य- मनुष्य बनने की अपेक्षा मै सौगुना अधिक चाहूँगा कि भले मेरे पास दिमाग न हो, पर थोड़ा स ह्रदय अवश्य प्राप्त हो! जिसके ह्रदय है, उसीका जीवन संभव है, उसीकी उन्नति संभव है; किन्तु जिसके तनिक भी ह्रदय नहीं, केवल मस्तिष्क है, वह सूखकर मर जाता है|...पर जो केवल अपने ह्रदय के द्वारा परिचालित होते हैं, उन्हें अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं, ...हमको चाहिये - ह्रदय और मस्तिष्क का समन्वय ... इस वैराग्य का अर्थ शुष्क आत्महत्या नहीं है . वेदान्त में वैराग्य का अर्थ है, जगत को ब्रह्म-रूप देखना! " (२:१४९-५०)}

>>>द्वैत भी अद्वैत ही है > 

 शिव और शक्ति एक है , जिस प्रकार पदार्थ (matter) और ऊर्जा (Energy) एक ही है !! अब वैज्ञानिक भी मानते हैं कि हम एक कणिका जगत (particle world) में रहते हैं। जो कुछ हम देखते हैं या नहीं देख पाते, वह सब इन्हीं मूलकणों के बीच असंख्य जोड़-तोड़ का परिणाम है। प्रकृति उनके माध्यम से हमें यही बताती है कि ऊर्जा (E) और पदार्थ (M ) एक ही चीज है। 

जिसे हम द्वैत यानी दोरूपीय देखते-मानते हैं, वह सब वास्तव में अद्वैत यानी एकरूपीय है। क्या यही बातें भारत का वैदिक तत्वदर्शन भी नहीं कहता ? इस तरह स्पष्ट है कि सृष्टि के निर्माण की ' बिग बैंग की धाराणा ' और ' भारतीय दर्शन ' की धारणा में कितनी ज्यादा समानता है! अब भाषा और समय के अंतर को छोड़ दें तो वैदिक व्याख्या अधिक वैज्ञानिक  दिखती है। अगर यह मान लिया जाए कि आत्मा शब्द का मूल अर्थ वही है, जिसे अब ऊर्जा या एनर्जी कहा जाता है तो वैदिक दर्शन एक विज्ञान नजर आता है
 
>>> मनुष्य का निर्माण: य़ा मनुष्य की सृष्टि कैसे हुई ?"

कहाँ से आया मनुष्य ? ईसाई धार्मिक ग्रन्थ बाइबिल के ' सृष्टि की उत्पत्ति ' नामक प्रथम अध्याय में तथा इस्लाम और सनातन धर्म के पुरानों में भी कहा गया है कि ' God ,अल्ला य़ा भगवान ' ही पृथ्वी पर दिखाई पड़ने वाले प्राणियों तथा फरिश्तों का निर्माता है! लेकिन मनुष्य को पैदा करने य़ा उसके निर्मित हो जाने की वास्तविक प्रक्रिया क्या है? 

>>>चार्ल्स डार्विन के क्रम-विकासवाद का सिद्धांत- 
कहता है कि मनुष्य - वानर से विकास का परिणाम हैं ! यदि ऐसा है, तो फिर मनुष्य से और भी उन्नत किसी प्राणी का क्रम विकास जारी रहना चाहिये था!किन्तु विगत 2000 वर्षों से भी अधिक समय से मानव की मुखाकृति में कोई बदलाव क्यों नहीं आया है ? क्या इसका मतलब यह निकाल कर चुप-चाप बैठे रहा जाये कि -  चार्ल्स डार्विन का वैज्ञानिक सिद्धान्त - क्रम-विकासवाद ने अब कार्य करना बन्द कर दिया है? 
य़ा; आध्यात्मिक वैज्ञानिक (ऋषि )स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित :' क्रम-संकोच वाद ' के सिद्धान्त को भी सर्न की प्रयोगशाला (LHC) में सिद्ध करने का प्रयोग क्यों न किया जाये? क्या कोई भाई इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है ? 

आत्मा की परिभाषा  गीता  (२:२०) में भी रखी गई है- " न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ " - अर्थात यह आत्मा किसी काल में न तो जन्मता है और न मरता है। यह हमेशा साश्वत है। सिर्फ शरीर मरता है आत्मा नहीं।
 'नैनं छिदंति शस्त्राणी, नैनं दहति पावक। 
न चैनं क्लेदयां तापो, नैनं शोशयति मारूतः।। 
(गीता:२:२३)

आत्मा वो है जिसे किसी भी शस्त्र से भेदा नहीं जा सकता, जिसे कोई भी आग जला नहीं सकती, कोई भी दु:ख उसे तपा नहीं सकता और न ही कोई वायु उसे सूखा सकती है। 

अब ऊर्जा की परिभाषा देखते हैं- " ऊर्जा को न तो नष्ट किया जा सकता है और न ही उत्पन्न।
सिर्फ एक ऊर्जा को दूसरी ऊर्जा में बदला जा सकता है। " भारतीय दर्शन भी यह मानता है कि आत्मा रूप बदलती है, य़ा उसका पुनर्जन्म भी होता है! यह दृष्टांत भी ऊर्जा के रूपांतरण से मिलता है। इस तरह वैदिक मान्यताओं का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करना  पूरी मानवता के लिये बहुत उपयोगी है !

प्रकृति ऊर्जा का कभी क्षय नहीं होने देती। ऊर्जा से ही वह पदार्थ बनाती है। ब्रह्मांड में आज जो कुछ हमें पदार्थ-रूप में दिखाई पड़ता है, वह कोई 14 अरब वर्ष पूर्व सृष्टि की उत्पत्ति वाले महाधमाके से पहले एक बिंदु में मात्र ऊर्जा के रूप में संचित था

" बिग बैंग का प्रयोग सफल! खुलेंगे प्रकृति के नए राज "  (Tuesday, 30 March 2010 (न्यूज़ डेस्क विज्ञान जगत) जेनेवा में सर्न के वैज्ञानिकों ने LHC मशीन के माध्यम से प्रोटोन को टकराने में सफलता प्राप्त की है। वैज्ञानिकों की मानें तो इससे ब्रह्मांड के बनने के रहस्य खुल सकते हैं।  यही नहीं इससे भौतिक विज्ञान में नई खोज की उम्मीद की जा रही है।  विशाल हैड्रन कोलाइडर फिर से काम करना शुरू कर चुका है और अब इस मशीन पर काम करने वाले वैज्ञानिक अब पहली बार प्रोटोन के कणों को एक साथ टकराने की कोशिश करने जा रहे हैं, क्या होगा इससे? 

इस प्रयोग से खुलेगा ब्रह्मांड का रहस्य >>  
इस प्रयोग को लेकर सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि यह ईश्वर के अस्तित्व को प्रकारांतर से चुनौती देता है। धर्म के पास चूँकि इस बात का वैज्ञानिक जवाब नहीं है कि यह ब्रह्मांड कैसे अस्तित्व में आया इसलिए उसने उसके बनाने वाले की कल्पना कर ली और उसे ईश्वर कहा। जरा सृष्टि के निर्माण की बाइबिल की व्याख्या पर गौर करें, जो कहती है कि एक ईश्वर है जिसने शुरू में इस पृथ्वी और स्वर्ग का निर्माण किया। 
बिग बैंग या महाविस्फोट की वैज्ञानिक अवधारणा, जो कई प्रश्नों का जवाब देती है, बताती है कि इस ब्रह्मांड का जन्म 13 अरब 70 करोड़ साल पहले एक महाविस्फोट के साथ हुआ और एक सेकंड के लाखवें हिस्से में दूर-दूर तक पदार्थ फैल गया। पृथ्वी का अस्तित्व ही सिर्फ 4 अरब 54 करोड़ साल पुराना है।
 बहरहाल, प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन की ऊर्जा और पदार्थ के बारे में जो समीकरण है, वह भी ऊर्जा के पदार्थ में रूपांतरण की बात सिद्ध करता है। अब आप कहेंगे कि ठीक है मान लिया, पर उससे पहले स्पेस तो कहीं न कहीं रहा होगा जिसमें यह पदार्थ फैला होगा। आज हम जानते हैं कि आकाशगंगाएँ लगातार एक-दूसरे से दूर हो रही हैं। छिटक रही हैं। यानी ब्रह्मांड का कोई ओर-छोर ही नहीं है
हमारी अपनी आकाशगंगा, जिसे मिल्की-वे कहा जाता है इतनी विराट है कि इसके एक सिरे पर स्थित तारे के प्रकाश को दूसरे सिरे तक पहुँचने में 1 लाख प्रकाश वर्ष का समय लगता है। प्रकाश एक साल में करीब 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड की गति से चलकर लगभग 9.5 खरब किलोमीटर तक पहुँचता है। इस संख्या को 1 लाख से गुणा करके हम अपनी आकाशगंगा की लंबाई पा सकते हैं। अब अपनी आकाशगंगा की विराटता की कल्पना कर लीजिए और फिर सोचिए कि ब्रह्मांड में कम से कम और नहीं तो कई अरब आकाशगंगाओं का अस्तित्व होना चाहिए। तो कितना विराट स्पेस होगा? 
वैसे बिग बैंग की थ्योरी यह भी कहती है कि विस्फोट से पदार्थ ही नहीं बना, टाइम और स्पेस भी बने। हम जैसे आम आदमियों के लिए इस गड़बड़झाले को समझना आसान नहीं है। इस ब्रह्मांड के बारे में यह भी कहा जाता है कि जिन तमाम तारों, ग्रह नक्षत्रों, सुपरनोवा तारों और आकाशगंगाओं आदि का पता लगा लिया गया है, वह समूचे ब्रह्मांड का मात्र 4 प्रतिशत हिस्सा हैशेष अंतरिक्ष डार्क मैटर और डार्क एनर्जी से बना है

 चन्द्रा ने ली दो टकराते ब्लैक होल की तस्वीर स्वप्निल भारतीय द्वारा बुधवार, 10/07/2009 - 16:32 को प्रकाशित अन्तरिक्ष विज्ञान सन 2002  मे इन टकराते श्याम विवरों का पता लगाया गया था।  यह दोनो श्याम विवर(Black hole)  एक दूसरे से मात्र 3000  प्रकाश वर्ष की दूरी पर हैं और इस चित्र मे मध्य मे चमकीले बिन्दूओं की तरह दिखाई दे रहे हैं। है न आश्चर्य की बात -- दो श्याम विवरों को साक्षात देखना! 
वैज्ञानिक मानते हैं कि इन दोनो के बीच इतनी नजदीकी की वजह शायद यह है कि यह दोनो एक दूसरे के ऊपर सांप की तरह कुंडली मार रहे है -- यह कुंडली मारने की प्रक्रिया शायद 300  लाख साल पहले शुरू हुई थी। श्याव विवर की खोज व अध्यन हाल के वर्षों मे शोध का बेहद सक्रिय क्षेत्र हो गया है। खासकर N.G.C. 6240 पर तो वैज्ञानिकों‌ की नजरें हमेशा टिकी रहती हैं।
इस प्रयोग के तहत सात करोड़ खरब इलेक्ट्रोन वोल्ट (टीइवी) का टकराव किया गया और आगे भी प्रयोग जारी रहेगा।  जो लगभग 24 महीनों तक जारी रहेगा। इससे प्राप्त आंकड़ों का अध्ययन और जांच पड़ताल की जाएगी। यह श्रमसाध्य कार्य है जो कई वर्षों तक चल सकता है।  लेकिन इससे प्रकृति के रहस्य खुल सकते हैं। इससे यह भी पता चल सकता है कि ब्रह्मांड की रचना आखिर कैसे हुई?
कहाँ हो रहा है प्रयोग ? जिनेवा के निकट सर्न के इस महाप्रयोग की खासियत यह है कि इसके जरिए 13 अरब 70 करोड़ साल पहले हुए विस्फोट के एकदम बाद की स्थिति की एक बड़ी प्रयोगशाला में पुनर्रचना करने की कोशिश की जा रही है। इससे बहुत सारे बुनियादी सत्य उजागर होंगे, जिनके बारे में धर्म के पास कोई भी तार्किक जवाब नहीं है। हमें कई उत्तर मिलेंगे। जैसे वैज्ञानिकों के पास इसका जवाब नहीं है कि महाविस्फोट के बाद से जो मूलकण (आदिकण) बने, उनमें भार कहाँ से आया। बिना भार के दो इलेक्ट्रॉन आपस में जुड़ ही नहीं सकते। इस जुड़ाव से ही फिर भाँति-भाँति के पदार्थों का ठोस, द्रव और गैस के रूप में जन्म हुआ।\
इसके लिए 'हिग्स' कणों की परिकल्पना की गई है, जिन्हें ईश्वरीय कण भी कहा जाता है। दो प्रोटीन पुंजों की टकराहट से वैज्ञानिकों को इन हिग्स कणों के बारे में ही नहीं, डार्क मैटर आदि के बारे में भी जानकारी मिल सकती है। इस प्रयोग ने जिन अनंत आँकड़ों की पूँजी मनुष्य को सौंपी है, उनका प्रारंभिक विश्लेषण करने में करीब छह महीने लगेंगे
वैज्ञानिक अंतरिक्ष का कोई अतिरिक्त आयाम भी ढूँढना चाहते हैं। किसी भी वस्तु के तीन आयाम होते हैं, लेकिन अंतरिक्ष का एक आयाम टाइम या काल भी माना जाता है। कई वैज्ञानिक शोध ब्रह्मांड के 11 आयामों की ओर संकेत करते हैं।
जाहिर है ब्रह्मांड के रहस्यों से उठने वाला कोई भी पर्दा प्रकारांतर से ईश्वर के अस्तित्व पर भी वाजिब सवाल खड़ा कर सकता है, जैसे मनुष्य ने प्रयोगशाला में क्लोन बनाकर किए भी हैं। तब हमें पता चलेगा कि इस सृष्टि के  निर्माण की यही वैज्ञानिक व्याख्या है, जो सही है।यह तो नहीं कह सकते कि तब हमारी दुनिया पूरी तरह बदल जाएगी, लेकिन इतना जरूर है कि तब ईश्वर और धर्म के बारे में मनुष्य के विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएगा। (नईदुनिया)
यह प्रयोग स्विट्ज़रलैंड और फ़्रांस की सीमा पर बनी एक बड़ी प्रयोगशाला में हो रहा है। इसकी स्थापना अरबों डॉलर खर्च कर की गई थी।  इसको बनाने में 20 साल लगे।  यहाँ विशाल हेड्रन कोलाइडर में अणुओं को लगभग प्रकाश की गति से टकराया जाएगा।  इस पूरे महाप्रयोग के ज़रिए मिलने वाली जानकारी से पृथ्वी की उत्पत्ति की 'बिग बैंग' थ्योरी को समझने में भी मदद मिलने की उम्मीद है। 
कौन से आधार करते हैं समर्थन? इस थ्योरी को कुछ आधार सपोर्ट करते हैं। पहला यह कि ब्रह्मांड में जो आकाशगंगाएं जितनी दूर हैं, वह उतनी ही गति से हम से दूर जा रही हैं। हबल के नियम से जाने जाना वाला यह सिद्धांत इस बात को प्रमाणित करता था कि ब्रह्मांड तेजी से फैल रहा है। 
दूसरा जैसा कि बिग बैंग सिद्धांत कहता है कि ब्रह्मांड अपनी प्रारंभिक अवस्था में काफी गर्म था, ऐसे में इस गर्म स्थान में शेष को तलाशने के लिए 1965 में दो वैज्ञानिक पेंजियाज और विल्सन ने कॉस्मिक माइक्रोवेव को देखा, जिससे इस बात को बल मिला कि कहीं कुछ शेष है। वहां एक शोर-ध्वनि को सुना गया, जो प्रत्येक दिशा से समान मात्रा में आ रहा था। तीसरी बात यह कि ब्रह्मांड में हाइड्रोजन और हीलियम जैसे हल्के तत्वों की प्रचुरता ने बिग बैंग सिद्धांत को बल दिया क्योंकि सिद्धांत कहता है कि ठंडे होने के बाद तत्व बनने लगे और हाइड्रोजन, हीलियम आदि के बनने की शुरुआत हो गई।
बिंग बैंग सिद्धांत दो मुख्य धारणाओं पर आधारित होता है। पहला भौतिक नियम और दूसरा ब्रह्माण्डीय (कॉस्मोलाजिकल) सिद्धांत। 1964 में ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्गस ने बिग बैंग के बाद एक सेकेंड के अरबें भाग में ब्रह्मांड के द्रव्यों को मिलने वाले भार का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जो भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस के बोसोन सिद्धांत पर ही आधारित था। इसे बाद में 'हिग्गस-बोसोन' के नाम से जाना गया। इस सिद्धांत ने जहां ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्यों पर से पर्दा उठाया, वहीं उसके स्वरूप को परिभाषित करने में भी मदद की।
 सेर्न और फर्मी लैब जैसी प्रयोगशालाओं में हिग्स-बोसोन की खोज के नाम पर एक बहुत सीमित पैमाने पर उन्हीं परिस्थितियों को पैदा करने का प्रयास हो रहा है। यूरोप की परमाणु भौतिकी प्रयोगशाला सेर्न के महानिदेशक रोल्फ डीटर होयर कहते हैं-  'मेरा मानना है कि हिग्स का अस्तित्व है। मैं जानता नहीं कि ऐसा है यै नहीं। जानूँगा तब, जब वह मिल जाएगा। यह जरूर जानता हूँ कि ऐसा कुछ जरूर होना चाहिए,जो हिग्स जैसा असर पैदा करता है, क्योंकि इसका कोई कारण होना चाहिए कि मूलकणों के पास अपना भार क्यों होता है?'
-  (राम यादव के सौजन्य से - डॉयचे वेले, जर्मन रेडियो)

अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ इनर्जी की फर्मी नेशनल एक्सीलरेटर लैब की ओर से गुरुवार को बताया गया कि वैज्ञानिकों की एक टीम ने कुछ ऐसी धड़कनें दर्ज की हैं, जो डार्क मैटर से जुड़ी अवधारणाओं के करीब हैं। वैज्ञानिकों के इस सतर्क दावे के बाद-सारी दुनिया की निगाहें फिर उस " छलिया " की ओर उठीं हैं, जो है पर सामने नहीं आता। 

सम्पूर्ण सृष्टि में ग्रहों, तारों और मंदाकिनियों सहित तमाम पिण्डों में मौज़ूद ठोस तरल या गैस की शक्ल में जिस पदार्थ को हम देख पाते हैं, वह सिर्फ पाँच प्रतिशत है। बाकी अदृश्य है। जो नज़र नहीं आता उसमें 75 प्रतिशत डार्क इनर्जी और 25 फीसदी डार्क मैटर है। यह सब भी अनुमान है। इधर का उधर हो सकता है। अलबत्ता वैज्ञानिक मानते हैं कि वह है ज़रूर। उसकी वजह से ही सृष्टि का यह रूप और आकार है। डार्क मैटर ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति का मुख्य स्रोत है। प्रकृति में मौज़ूद सुपर सिमिट्री का वह कारक है। 

' वह '(परम सत्य-जिससे सब कुछ निकला है)" अमवस्या की रात में-  काली बिल्ली " की तरह अदृश्य है ! इसीलिए अंग्रेज़ी में उसे डार्क मैटर, यानी काला पदार्थ कहते हैं।  1933 से वह वैज्ञानिकों को छका रहा है।  हाथ ही नहीं आता कभी किसी अनजान तारे के प्रकाश को अपने गुरुत्व बल से मोड़ देता है, तो कभी किसी मंदाकिनी (गैलेक्सी) के अत्यंत तेज़ी से घूमते हुए तारों को छटक कर दूर जाने से रोकता है।  कहने को तो तीन चौथाई ब्रह्मांड उसी का बना है,  पर देखने पर वह कहीं रत्ती भर भी दिखाई नहीं पडता। 
जर्मनी में म्युनिख के पास गार्शिंग के खगोल भौतिकी माक्स प्लांक संस्थान (Max Planck Institute for Astrophysics) के वैज्ञानिक भी इस काले पदार्थ पर से रहस्य का पर्दा उठाने में लगे हैं। संस्थान के निदेशक साइमन व्हाइट कहते हैं, "दु्र्भाग्य से हम नहीं जानते कि ब्लैक मैटर किस तरह का पदार्थ है।  हमारे पास इस के प्रमाण तो हैं कि ब्रह्मांड में भारी मात्रा में ऐसा कोई पदार्थ है, जो गुरूत्वाकर्षण जैसा प्रभाव पैदा करता है,लेकिन हम उसे देख नहीं पाते। " पूरी तह से तो अब भी किसी ने नहीं देखा है।  
 लेकिन, अब लगता है कि वैज्ञानिकों को इस " छलिये " - की हल्की सी झलक मिल गयी है! गत दिसंबर में अमेरिका की कई प्रयोगशालाओं ने मिल कर घोषित किया कि उन के डिटेक्टरों ने पहली बार दो ऐसे कण दर्ज किये हैं, जो डार्क मैटर के मूल कण होने चाहिये। 
यदि वह मिल गया तो वैज्ञानिकों को उस सुपर स्ट्रिंग के गणितीय सूत्र को बनाने में सफलता मिल जाएगी, जो सारे विज्ञानों पर लागू होगा। अमेरिका के अनेक विश्वविद्यालय और प्रयोगशालाएं क्रायोजेनिक डार्क मैटर सर्च (CDMS) के प्रयोग से जुड़े हैं।  अर्थात परम शून्य तापमान वाले डिटेक्टरों की सहायता से काले पदार्थ की खोज नाम की इस परियोजना के प्रमुख डैन बाउअर ने बताया कि डिटेक्टरों ने जो कुछ दर्ज किया है, उसे होना तो अदृश्य काला द्रव्य ही चाहिये, लेकिन कुछ और होने की संभावना भी 25 प्रतिशत के बराबर है। सिद्धांत में डार्क मैटर अत्यंत सूक्ष्म सब एटॉमिक पार्टिकल से बना हैं। इन्हें वीकली इंटरएक्टिंग मैसिव पार्टिकल्स या विम्प्स (Weakly Interacting Massive Particle या WIMPs.) कहते हैं।
इसी कारण विज्ञान जगत इस खोज को अभी पूरी मान्यता नहीं दे रहा है। वैज्ञानिक काले पदार्थ को, यानी उसके अणुओं-परमाणुओं को, अब तक देख या पकड़ भले ही न पाये हों, विभिन्न प्रयोगों और अवलोकनों से इतना ज़रूर जानते हैं कि उसके मूलकण  हमें ज्ञात इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन, प्रटोन या फिर उन से भी छोटे क्वार्क, लेप्टॉन, ग्लूऑन से बिल्कुल भिन्न होने चाहिये।
 कंप्यूटर अनुकरणों से यही पता चलता है।  वे न्यूट्रीनो कहलाने वाले उन कणों की तरह के होने चाहिये, जो इतने छोटे हैं कि हर क्षण लाखों-करोड़ों की संख्या में हमारे शरीर ही नहीं, हमारी पृथ्वी के भी आरपार आते-जाते रहते हैं और हमें रत्ती भर भी पता नहीं चलता न्यूट्रीनो शायद ही कभी किसी परमाणु के नाभिक से टकराते हैं, इसलिए अच्छे से अच्छे पार्टिकल डिक्टेर भी उन के टकराने की बस इक्की दुक्की चमक ही दर्ज कर पाते हैं, जबकि वे संवेदनशील इतने हैं कि एक जुगुनू की चमक को एक किलोमीटर दूर से भी दर्ज कर सकते हैं। 
वैज्ञानिकों का समझना है कि न्यूट्रीनो भी वहीं से आते हैं,जहां काले पदार्थ का जमघट है।   और, काले पदार्थ, यानी डार्क मैटर का यह जमघट कहां से आता है? म्यूनिक विश्वविद्यालय के प्रो. हाराल्ड लेश कहते हैं, "एक अनुमान यह है कि वह मृत तारों का बना होना चाहिये। 

 हर गैलेक्सी या मंदाकिनी में सौ से दौ सौ अरब तारे होते हैं।  उन में से कुछ अपना जीवनकाल पूरा कर चुके होते हैं।  ब्लैक होल यानी कृष्ण विवर, न्यूट्रॉन तारे, बुझ गये तारे, इत्यादि।  वे गैलेक्सियों के आस-पास जमा हो जाते हैं।  चमकते नहीं, इसलिए दिखते नहीं और केवल गुरूत्वबल के द्वारा अपने अस्तित्व का आभास देते हैं। "

इसकी तलाश में जो डिटेक्टर लगाया गया है, उससे बेहतर डिटेक्टर अगले वर्ष से काम करना शुरू कर देगा। अभी जो स्पंदन प्राप्त हुआ है, वह पृष्ठभूमि के किसी अन्य ऊर्जास्नोत का नहीं है, तो यह बहुत बड़ी सफलता है। अगर वह मिल गया है तो यकीनन सैकड़ों रोचक चीजें और मिलेंगी। 
उत्तरी मिनेसोटा की एक खाली पड़ी लोहे की खान में करीब आधा मील गहरी चट्टानों और शील्ड करने वाले मैटीरियल की तमाम परतों के नीचे माइनस 273 सेल्सियस तापमान पर (जिसे एब्सल्यूट ज़ीरो) कहा जाता है, यह प्रयोग चल रहा है। यहाँ पर वैज्ञानिकों ने एक स्पंदन दर्ज किया, जो डार्क मैटर का भी हो सकता है। ये महासंवेदनशील डिटेक्टर मिनीसोटा की खनिज लोहे की एक खान में, जो अब इस्तेमाल में नहीं है, पौने एक किलोमीटर की गहराई पर लगे हैं।  यदि बात सही निकली, तो यह भौतिक विज्ञान में अब तक की एक सबसे सनसनीखेज़ खोज बन जायेगी। मिनीसोटा वाली खनिज लोहे की बेकार पड़ी खान में ज़मीन से सैकड़ों मीटर नीचे जर्मेनियम और सिलिकॉन क्रिस्टल के बने 30 डिटेक्टर लगे हैं. वे लगभग ऋण 273 डिग्री सेल्ज़ियस वाले परमशून्य पर काम करते हैं। 
 इस तापमान पर किसी कण के टकराने से पैदा हुई क्षीणतम गर्मी को भी मापा जा सकता है. साथ ही, जैसे ही डार्क मैटर वाला कोई विम्प कण इन क्रिस्टलों से टकरायेगा,  उन्हें हिला देगा.  इस गहराई पर पृथ्वी तक पहुंचने वाली ब्रह्मांडिय किरणें नहीं पहुंच सकतीं, इसलिए वे ऐसा कोई कंपन पैदा नहीं कर सकतीं.  डिटेक्टरों ने ऐसे ही दो अलग अलग कंपन दर्ज किये हैं. यदि अगले कुछ वर्षों में ऐसे ही चार और घटनाएं दर्ज होती हैं, तो इसे डार्क मैटर वाली अवधारणा की पुष्टि मान लिया जायेगा।  (रिपोर्ट: राम यादव}

इस बीच एक और अनुमान वैज्ञानिकों के बीच लोकप्रिय हो रहा हैः"आज यह माना जा रहा है कि डार्क मैटर विम्प (WIMP) कणों का बना होता है।  यह नाम वीक इंटर ऐक्टिंग मैसिव पार्टिकल्स  का संक्षेप है. ये विम्प बहुत ही अपरिचित किस्म के मूलकण होने चाहिये".
वीक इंटर ऐक्टिंग मैसिव पार्टिकल्स  का अर्थ हुआ क्षीण अभिक्रिया करने वाले भारी कण.  अनुमान है कि हमें ज्ञात परमाणुओं वाले मूलकणों की तरह ही, डार्क मैटर भी अज्ञात कई प्रकार के मूलकणों का बना होना चाहिये। 
 उसके मूलकण हमें यह बता सकते हैं कि समय हमेशा आगे की दिशा में ही क्यों चलता है?  वे शायद सुपरसिमेट्री वाले इस सिद्धांत की भी पुष्टि करें कि ब्रह्मांड के हर कण और मूलकण का, उससे भी भारी, एक जुड़वां प्रतिरूप होता है।  इसी उत्तर की जेनेवा में सेर्न के महा-त्वरक से भी खोज हो रही है। 
>>>उड़न तश्तरियाँ कहाँ से आती हैं? पृथ्वी से परे सभ्यता की खोज - इस ब्रह्मांड में हम अकेले नहीं हैं तो वे सभ्यताएँ कहाँ हैं, जो हमारी जैसी या शायद उससे भी बेहतर हैं? उड़न तश्तरियाँ कहाँ से आती हैं? वे कल्पनाएँ नहीं हैं तो उन्हें चलाने वाले हमारे रेडियो संकेतों का जवाब क्यों नहीं देते। 
अमेरिका के प्रोफेसर फ्रैंक ड्रेक को भी यही प्रश्न कुरेदा करते थे। आज से पचास साल पहले 1960 में, जब वे तीस साल के भी नहीं थे, तब उन्होंने एक रेडियो टेलिस्कोप की मदद से पहली बार पृथ्वी से परे इतरलोकीय सभ्यता की आहट लेनी चाही। सोचा, उन्हें कुछ इस तरह की आवाजें सुनाई पड़ेंगी। 
वह बताते हैं, 'मेरे पहले प्रयोग का नाम था प्रॉजेकट आजमा। हमने दो महीनों तक सूर्य जैसे दो तारों की दिशा में रेडियो संकेतों की खोज की। लेकिन हमें कुछ नहीं मिला।'कोई सुराग नहीं : फ्रैंक ड्रेक को आज तक ऐसा कुछ नहीं मिला है, जिसके बारे में भरोसे के साथ कहा जा सकता कि वह किसी दूसरी दुनिया के सभ्य लोगों की पैदा की हुई रेडियो तरंग है। 
रेडियो तरंगें तो ढेरों मिलती हैं, लेकिन वे आकाशीय पिंडों द्वारा स्वयं पैदा की हुई प्राकृतिक तरंगें होती हैं। तब भी, फ्रैंक ड्रेक की जिज्ञासा और लगन की कोख से विज्ञान की एक नई शाखा - बायो एस्ट्रोनॉमी [जैवखगोल विज्ञान (bio astronomy)] का जन्म हुआ। विज्ञान की यह नई शाखा अंतरिक्ष में संभावित जीवन की खोजबीन को समर्पित है। फ्रैंक ड्रेक सन फ्रांसिस्को के तथाकथित सेती इस्टीट्यूट,  के लिए काम करते हैं। SETI का अर्थ है - Search for Extraterrestrial Intelligence, यानी, पृथ्वी से परे बुद्धिधारियों की खोज। 

आज से पैंतालीस साल पहले 8 अप्रैल 1965 के दिन सेती ने तश्तरीनुमा बड़े बड़े रेडियो एंटेनों की सहायता से अंतरिक्ष में बुद्धिधारी प्रणियों की खोज शुरू की। भ्रम टूटा > दो ही साल बाद, 1967 में वैज्ञानिकों को लगा कि बटेर हाथ लग गयी। तब अखबारों की सुर्खियाँ कुछ इस तरह की थीं- 'डॉक्टरेट कर रही महिला वैज्ञानिक ने हरे आदमियों का पता लगा लिया।','हम अंतरिक्ष में अकेले नहीं हैं।' 'खगोलविदों ने नई दुनिया खोज निकाली।'उस महिला वैज्ञानिक का नाम था जोसेलिन बेल
लेकिन, सारी खुशी पर तब पानी फिर गया, जब पता चला कि जिस रेडियो पल्स (स्पंद) को किसी सभ्यता का संकेत समझा जा रहा था, वह वास्तव में एक मृत न्यूट्रॉन तारे से आ रहा था। न्यूट्रॉन तारे ऐसे ठोस पिंड होते हैं, जो बहुत तेजी से घूमते हैं और साथ ही बहुत ही कसी हुई रेडियो तरंगों की कौंध सी पैदा करते हैं। इसीलिए उन्हें पल्सर भी कहा जाता है

तलाश है रेडियो तरंगों की : इस बीच पृथ्वी से परे किसी बुद्धिमान सभ्यता का सुराग पाने के लिए सेती के वैज्ञानिक रात-दिन आकाश को छान रहे हैं। आकाश से आ रही लाखों रेडियों फ्रीक्वेंसियों को पकड़ने के लिए वे ओवन्स वैली, कैलीफोर्निया में स्थित एलन टेलेस्कोप अर्रे का उपयोग करते हैं।
इस परियोजना के प्रमुख पीटर बैकस बताते हैं, 'पृथ्वी से परे बुद्धिधारियों की अपनी खोज में हम इस दर्शनशास्त्री प्रश्न को गंभीरता से नहीं लेते कि बुद्धि क्या चीज है? हम टेक्नॉलॉजी पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। आकाशीय पिंड फ्रीक्वेंसियों के एक बहुत बड़े दायरे में रेडियो तरंगें छोड़ते हैं। 
हम मनुष्यों के बनाए रेडियो ट्रांसमिटर सबसे कम बैंड विस्तार वाले प्राकृतिक ट्रांसममिटरों की तुलना में भी 300 गुना संकरे बैंड पर प्रसारण करते हैं। इसलिए हमारी नजर में बहुत कम बैंड विस्तार वाला एक बहुत ही कसा हुआ रेडियो संकेत ही हमारे जैसी ही किसी तकनीकी सभ्यता परिचायक होगा।' 
अनहोनी बात तो तब हो जाएगी, जब सेर्न की प्रतियोगी अमेरिका की फर्मी लैब के वैज्ञानिक सेर्न से पहले ही ब्रह्मकण कहलाने वाले हिग्स-बोसोन का खंडन या मंडन कर देंगे। हिग्स-बोसोन को प्रमाणित करने वाले प्रयोग के निदेशक योआखिम म्निश भी स्वीकार करते हैं कि इस समय इस प्रमाण को पाने की दौड़ चल रही है और हो सकता है कि शिकागो के पास की फर्मी लैब के वैज्ञानिक बाजी मार ले जाएँ।

>>>सेर्न का महा-त्वरक : 

  फर्मी लैब का त्वरक टेवाट्रॉन यद्यपि सेर्न के एलएचसी जितना शक्तिशाली नहीं है, तब भी इस समय वही एकमात्र ऐसा बड़ा त्वरक है, जो चालू है और जिस के साथ 600 वैज्ञानिक हिग्स बोसोन ब्रह्मकणों (God Particles) को प्रमाणित करने में जुटे हुए हैं। मजे की बात यह है कि टेवाट्रॉन को 2011 तक बंद कर दिया जाना है। लेकिन अब वहाँ के वैज्ञानिक चहक रहे हैं, 'मेरा नाम माइकल कर्बी है, इस समय हिग्स-बोसोन की खोज पर काम कर रहा हूँ। मूलकण विज्ञान में यही इस समय का सबसे रोचक विषय है। यह एक चुनौती है, जिसका हम करीब 40 वर्षों से, यानी तब से उत्तर खोज रहे हैं, जब पीटर हिग्स ने परिकल्पना की थी कि वे ही परमाणु के मूलकणों को मास, अर्थात द्रव्यमान प्रदान करते हैं।'
>>>मूल कण क्या हैं ?
क्वांटम भौतिकी (quantum physics) में मूलकण कहते हैं ऊर्जा के एक ऐसे अकेले अतिसूक्ष्म बिंदु को, जिस का, जहाँ तक हमें पता है, और कोई घटक या और कोई टुकड़ा नहीं होता। उसे और अधिक खंडित नहीं किया जा सकता। 
 हिग्स-बोसोन परमाणु-संघटक तत्वों को भार प्रदान करने वाले ऊर्जा के उस रहस्यमय रूप को कहते हैं, जिसकी अभी पुष्टि नहीं हो सकी है। वे ठीक उस क्षण में बने होंगे, जब ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई थी। हीलियम के प्रोटोन कणों को लगभग प्रकाश जैसी तेज गति से आपस में टकरा कर एक बिंदुरूप में उसी क्षण को दुबारा पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है
माइकल कर्बी बताते हैं कि उन्हें अमेरिका की फर्मी लैब वाले त्वरक टेवाट्रोन के तथाकथित डी जीरो प्रयोग के दौरान पिछले सात वर्षों के प्रोटोन कणों की टक्करों वाले रिकार्ड देखने होंगे और ऐसी खास टक्करों को छाँटना होगा, जिनमें हिग्स-बोसोन बने होने के निशान मिल सकते हैं।
वे कहते हैं, 'यदि हम पूरी सावधानी से विश्लेषण कर सके, तो हिग्स-बोसोन बनने वाली घटनाओं के निशान पहचान कर उनके संकेतों को प्रोटोन टक्कर की अन्य घटनाओं वाली पृष्ठभूमि से अलग कर सकते हैं। यदि हम संकेतों को पृष्ठभूमि से अलग कर सके, तो यह कहने की आशा कर सकते हैं कि हमने हिग्स-बोसोन को पा लिया है और जान गए हैं कि वही परमाणु के मूलकणों को उनका द्रव्यमान देता है।'
>>>' हिग्स बोसोन का महत्व '
हिग्स-बोसोन की खोज वास्तव में इस प्रश्न के उत्तर की खोज है कि परमाणु में निहित इलेक्ट्रॉन, उस के प्रोटोनों का निर्माण करने वाले दो अप क्वार्क और एक डाउन क्वार्क, उसके न्यूट्रोनों का निर्माण करने वाले दो डाउन क्वार्क और एक अप क्वार्क और न्यूट्रॉन के बिखरने से बनने वाले न्यूट्रीनो का जो अलग अलग द्रव्यमान है, यानी उनका जो अलग अलग भार है, वह उन्हें कहाँ से मिलता है।
एक ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्स ने 1964 में यह परिकल्पना दी कि परमाणु के इन आठ संघटक मूलकणों को उनका भार एक विशेष बलक्षेत्र से मिलता है। इस बलक्षेत्र को बाद में हिग्स फील्ड कहा जाने लगा। परमाणु विज्ञान के तथाकथित स्टैंडर्ड मॉडल के अनुसार हिग्स फील्ड के भी विद्युत आवेशधारी और आवेशहीन भाग होते हैं। उन्हें भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस के नाम पर बोसोन नाम दिया गया। सत्येद्रनाथ बोस ने परमशून्य तापमान पर पदार्थ की एक पाँचवीं अवस्था की भी कल्पना की थी, जिसे बोस आइनश्टाइन कंडेनसेट कहा जाता है।

[अगर वर्ष 1967 के वैज्ञानिक खोज # के आधार पर भी देखा जाय तो यही सिद्ध होता कि - There are no Alien - extraterrestrial civilization. Bell, who called the source LGM1 -' Little Green Men 1 '] 
{1967: THE OVERLOOKED UFO WAVE AND THE COLORADO PROJECT.  Presented by-  RICHARD H. HALL : 

>>>" The Great UFO Wave of 1967" :  (1967 की उपेक्षित यूएफओ तरंगे और कोलोराडो परियोजना। प्रस्तुतकर्ता- रिचर्ड एच. हॉल) : 
>>>अंक लिखने का इतिहास :  अधिकतर सभ्यताओं में लिपि के अक्षरों को ही अंक माना गया। रोमन लिपि के अक्षर I को एक अंक माना गया क्योंकि यह शक्ल से एक उंगली जैसा है। इसी तरह II को दो अंक माना गया क्योंकि यह दो उंगलियों की तरह है। रोमन लिपि के अक्षर V को 5  का अंक माना गया। यदि आप हंथेली को देखे जिसकी सारी उंगलियां चिपकी हो और अंगूंठा हटा हो तो वह इस तरह दिखेगा। रोमन X को उन्होंने दस का अंक माना क्योंकि यह दो हंथेलियों की तरह हैं। L को पच्चास, C को सौ, D को पांच सौ और N को हजार का अंक माना गया।इन्हीं अक्षरों का प्रयोग कर उन्होंने अंक लिखना शुरू किया। इन अक्षरों को किसी भी जगह रखा जा सकता था। इनकी कोई भी निश्चित जगह नहीं थी। ग्रीक और हरब्यू (Hebrew) में भी वर्णमाला के अक्षरों को अंक माना गया उन्हीं की सहायता से नम्बरों का लिखना शुरू हुआ।नम्बरों को अक्षरों के द्वारा लिखने के कारण न केवल नम्बर लिखे जाने में मुश्किल होती थी पर गुणा, भाग, जोड़ या घटाने में तो नानी याद आती थी। 
अंक प्रणाली में क्रान्ति तब आयी जब भारतवर्ष ने लिपि के अक्षरों को अंक न मानकर, नयी अंक प्रणाली निकाली और शून्य को अपनाया। इसके लिये पहले नौ अंको के लिये नौ तरह के चिन्ह अपनाये जिन्हें 1,2,3  आदि कहा गया और एक चिन्ह 0 भी निकाला। इसमें यह भी महत्वपूर्ण था कि वह अंक किस जगह पर है। इस कारण सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि सारे अंक इन्हीं की सहायता से लिखे जाने लगे और गुणा, भाग, जोड़ने, और घटाने में भी सुविधा होने लगी। यह अपने देश से अरब देशों में गया।

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मंगलवार, 25 मई 2010

🔱🙏 'श्रद्ध्या सत्यं आप्यते ' --श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है; श्रद्धा आविवेश की दीक्षा ! "[25 JNKHMP]

श्रद्धा आविवेश की दीक्षा 

(श्रद्धा के जाग्रत होने पर इन्द्रियातीत सत्य की प्राप्ति होती है।  )

मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि बचपन से ही भगवान के साकार रूप पर आस्था रखने य़ा मूर्ति में साक्षात् गोपाल को देखने, गोपाल के मूर्त विग्रह का पूजन करने, भगवान को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करने, कांसे का घन्टा बजाने, य़ा आरती करने से मुझे कोई क्षति हुई हो! बल्कि ठीक इसके विपरीत मुझे इससे कुछ लाभ ही हुआ है। ऐसा मैं निश्चय पूर्वक कह सकता हूँ।  

क्योंकि बचपन से ही पवित्र परिवेश में पालन-पोषण होने,और किशोरावस्था तथा युवावस्था में भी ऐसे ही वातावरण में रहने, घर के सदस्यों तथा परिचितों के त्यागपूर्ण जीवन या कुछ विस्मयजनक घटनाओं आदि को देखने से -जितने भी शुभ और पवित्र संस्कार मन पर पड़ते हैं, वे सब मनुष्य जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने में (Life Building में) बहुत ही सहायक होते हैं।  
किसी भी चीज को प्रत्यक्ष देख लेने के बाद उस पर विश्वास करना उचित ही है।  हम सभी को  अपने जीवन में कुछ न कुछ अद्भुत किन्तु सत्य घटनाओं का प्रत्यक्ष अनुभव कभी न कभी अवश्य ही होता है। कौन बता सकता है कि ' कलयुग में गोपाल-काली एक हैं ' कहानी में वह सब कैसे घटित हुआ हुआ होगा? 
(JNKHMP -१३ में में जो दो भाइयों की कहानी है, जिसमे माँ काली गोपाल को अपने गोदी में लेकर आम खिला रहीं थी। मूल बंगला पुस्तक " जीबन नदीर बाँके बाँके " के पृष्ठ २२ को देखें) 
पितामह ने जो कृष्णनगर के राजबाड़ी की कहानी सुनाई थी, य़ा फिर उस दिन की आखों-देखी घटना को भला कैसे झुठलाया जा सकता है !  माँ ने तो मुझे सांत्वना देने के लिये कह दिया था-" माँ कालीर झूड़ी थेके खेये नेबे गोपाल !"(गोपाल माँ काली की टोकरी से स्वयं ही पूड़ियों को निकाल कर खा लेंगे) और सुबह में घर के सभी लोगों ने वह दृश्य देखा- माँ काली की टोकरी में पूरियाँ नहीं बची हैं, एवं पूरियाँ छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त होकर गोपाल की चौकी तक एक कतार में बिछी थीं। 
विश्वास होना य़ा न होना एक बात है, और ऐसा होना संभव है य़ा नहीं वह दूसरी बात है। किन्तु किसी घटना को प्रत्यक्ष देख लेने पर जो विश्वास होता है - वह अलग ही श्रेणी का होता है। क्योंकि स्वयं प्रत्यक्ष कर लेने पर एक भिन्न प्रकार की श्रद्धा जाग्रत होती हैस्वामीजी कठोपनिषद में नचिकेता के भीतर इसी तरह के  " श्रद्धा-आविवेश " का उदाहरण दिया करते थे। 

नचिकेता के पिता यज्ञ कर रहे हैं ! बहुत बड़े पैमाने पर यज्ञ कर रहे हैं, किन्तु उसमे जो दान दे रहे हैं, उसमे वे चुन- चुन कर उन गौओं को दे रहे हैं, जो ' दुग्धदोहा निरिन्द्रिया: ' हो चुकी हैं। अर्थात वे गौएँ ' निरिन्द्रिय ' हैं अर्थात जो अब और दूध देने के योग्य नहीं हैं, वे अब संतान भी उत्पन्न नहीं कर सकती। यह देख कर नचिकेता कहता है- " पिताजी आप इस तरह की गौओं को क्यों दान कर रहे हैं? आपको तो श्रेष्ठ वस्तु दान में देनी चाहिए। मैं आपका पुत्र हूँ, क्या मैं श्रेष्ठ वस्तु नहीं हूँ? मुझको आप किसे दान कर रहे हैं? " दो-तीन बार पूछने पर उसके पिताजी ने नाराज होकर कह दिया - " जा, मैं तुझको यम को देता हूँ! " इस कहानी को प्रायः सभी जानते हैं की इसके बाद नचिकेता यम से मिलने चल देते हैं, और सशरीर ही यम के सदन (घर) में पहुँच जाते हैं! 

तब यम कहीं बाहर गये हुए थे (शायद आत्मा कलेक्ट करने?), इसलिए नचिकेता तीन दिनों तक उनके लौटने की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं।  यम जब लौट आते हैं तो नचिकेता के साथ उनकी मुलाकात होती है।  वह उनसे आत्म-तत्व के विषय में प्रश्न करता है। तब यमाचार्य नचिकेता को  'उर्ध्वमूलः अवाक्शाखः' वाला आत्मतत्व --जिसका तीनों कालों में भी नाश नहीं होता, समझा देते हैं!  इस प्रकार जब वह अपने यथार्थ स्वरूप को जान जाता है, तब उसका ह्रदय में "श्रद्धाविवेश" #होता है। ["श्रद्धाविवेश"# एई जे एई रकम जखन हलो, तखन से बलछे "श्रद्धाविवेश।" (please see जीबन नदीर बाँके बाँके बंगला पेज 49)]
 अर्थात उस बालक के निर्मल अंतःकरण में श्रद्धा जाग्रत हो जाती है! जब तक किसी मनुष्य में श्रद्धा (आध्यात्मिकता-आस्तिक्य बुद्धि) जाग्रत नहीं हो जाती, तब तक वह पशुत्व से मनुष्य में और मनुष्यत्व से देवत्व में उन्नत नहीं हो सकता। यह श्रद्धा जाग्रत कैसे होती है - इस बात को वेदों में भी समझाया गया है कि सर्वप्रथम किसी किसी उद्देश्य के लिए व्रती होना पड़ता है। वेद में कहा गया है -
 
व्रतेन दीक्षामाप्नोति, 

दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। 

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, 

श्रद्ध्या सत्यमाप्यते।। 
यजुर्वेद 19|30 ||

[शब्दार्थ‌ - व्रतेन....व्रत क्या है ? अवगुणों को छोड़कर गुणों को धारण करने का नाम व्रत है। पाप से निवृत्त होकर सद्गुणों को धारण करना ही उपवास है। भूखे रहकर शरीर को सुखाने का नाम उपवास नहीं है। व्रत का अर्थ है ऐसे आचार, विचार, व्यवहार तथा शुभ संकल्प जिन्हें अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र, उच्च और महान बनाने के लिए स्वीकार किया जाए। हमें चाहिए कि हम दुर्व्यसनों को त्यागकर सदाचारी बनने का व्रत लें। परोपकार का व्रत लें। देश सेवा का व्रत लें। इस प्रकार के सच्चे व्रतों को जीवन में धारण करने से जीवन उन्नत होगा। किसी व्रत में लग जाने से, (जैसे चरित्रवान मनुष्य बनने के उद्देश्य से संकल्प-सूत्र या स्वपरामर्ष सूत्र- "चमत्कार जो आप कर सकते हैं " को छः महीना तक सुबह-शाम लिखने में लग जाने से -धीरे धीरे विश्वास आता है और जब संकल्प दृढ़ हो जाता तब उससे श्रद्धा आती है।) सत्यनियम के पालन से मनुष्य / दीक्षां......दीक्षा को, प्रवेश को/आप्नोति....प्राप्त करता है/ दीक्षया.....दीक्षा से/दक्षिणां..........दक्षिणा को, व्रृद्धि को, बढ़ती को/आप्नोति......प्राप्त करता है/ दक्षिणा.......दक्षिणा से/श्रद्धां.........श्रद्धा को/आप्नोति........प्राप्त करता है / और सदा श्रद्ध्या......श्रद्धा द्वारा/सत्यं.......सत्य को/ आप्यते......प्राप्त किया जाता है। ]
सर्वप्रथम किसी कार्य में लग जाने से धीरे धीरे विश्वास आता है,और उससे श्रद्धा आती है।  एवं श्रद्धा के जाग्रत होने पर ही सत्य को प्राप्त किया जाता है। यदि बचपन से ही इस श्रद्धा को जाग्रत करने कि चेष्टा  प्रारम्भ न किया जाय, शैशव काल में श्रद्धा नहीं रहे,  यौवन में भी श्रद्धा यदि नहीं आ सके, श्रद्धा को यदि युवावस्था में भी जाग्रत नहीं किया जा सके तो किसी मनुष्य को जीवन में सच्ची-श्रद्धा य़ा सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। 'उर्ध्वमूलः अवाक्शाखः' सत्य को प्राप्त करने के लिए व्रत, दीक्षा, दक्षिणा और श्रद्धा के चार सोपानों को पार करना होता है। 

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 " कठोपनिषद् "[ क= ब्रह्म; ठ= निष्ठा; इस प्रकार 'कठ' माने ब्रह्म में निष्ठा उत्पन्न करनेवाला उपनिषद्।"  शाश्वत शान्ति का पथ : वि० सा० ख० ३:१६० ]

हम सोचते हैं कि मृत्यु जीवन की दुश्मन है, लेकिन सत्य बिलकुल विपरीत है। मृत्यु के बिना जीवन हो ही नहीं सकता। 

ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः।
तदेव शुक्रं तद्‌‌ ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिंल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। एतद्वै तत्‌।। (कठोपनिषद्-2.3.1)।।

''यह सनातन अश्वत्थ है जिसका मूल ऊपर है, किन्तु इसकी शाखाएँ नीचे हैं। 'वही' तेजोमय है, 'वही' एकमेव 'ब्रह्म' 'वही' 'अमृत' कहलाता है; 'उसी' में समस्त लोक आश्रित हैं, कोई भी 'उसके' परे नहीं जाता। 
उसको कोई लांघ नहीं सकता। उसके पार जाने का कोई उपाय नहीं है। उसको ट्रांसेंड नहीं किया जा सकता। परमात्मा का अर्थ ही यही है कि जो अंत है, कि जो आखिरी है--सीमांत--जिसके पार कुछ शेष नहीं रह जाता। अगर उसके पार कुछ शेष रह जाता है, तो वह परमात्मा नहीं है।  जहां सब दृश्य खो जाते हैं और केवल द्रष्टामात्र रह जाता है। जहां सब ज्ञेय समाप्त हो जाते हैं और मात्र ज्ञाता शेष रह जाता है। उस केवल-ज्ञान की, उस कैवल्य की खोज अध्यात्म है। सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था। यही है 'वह' जिसकी तुम्हें अभीप्सा है।
श्री रामकृष्ण कहते थे, तुम सिर्फ हवा का रुख पहचान लो, फिर तुम अपनी नाव का पाल खोल दो। फिर तुम्हें पतवार भी न चलानी पड़ेगी, फिर नाव, उसकी हवाएं ले चलेंगी गंतव्य की ओर।

लेकिन यह सूत्र यम के द्वारा नचिकेता को कहा गया है, इसमें यम कह रहा है कि ऊपर की ओर मूल, नीचे की ओर शाखाएं हैं। जैसा भी हमारा जानना है, जीवन का सत्य उससे ठीक विपरीत है।
ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व वह परमेश्वर ही है। वही ब्रह्म है और वही अमृत कहलाता है।

जैसे किसी सरोवर के किनारे कोई वृक्ष खड़ा हो तो सरोवर में जो प्रतिबिंब बनता है, वह उलटा होगा। तट पर खड़े हुए वृक्ष की शाखाएं आकाश में ऊपर की ओर फैली होंगी, तट पर खड़े वृक्ष की मूल, जड़ें नीचे जमीन में फैली होंगी। लेकिन प्रतिबिंब उलटा होगा। उसमें जड़ें ऊपर होंगी, शाखाएं नीचे होंगी। सभी प्रतिबिंब उलटे होते हैं। प्रतिबिंब कभी भी सीधा नहीं हो सकता। इस वैज्ञानिक सत्य को ध्यान में रखकर इस सूत्र को समझना बहुत आसान होगा। 

परमेश्वर हमें अदृश्य है, पदार्थ हमें दृश्य है। इसलिए अज्ञानी कहता है--जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या। ज्ञानी कहता है--ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। उलटा हो जाता है। जब कोई व्यक्ति जीवन की इस प्रक्रिया को उलटा करता है, तो पदार्थ अदृश्य होने लगता है और परमात्मा दृश्य होने लगता है। और जिस दिन पदार्थ पूरी तरह अदृश्य हो जाता है, सिर्फ परमात्मा दृश्य रह जाता है, उस दिन जानना कि सत्य की अनुभूति हुई।  हमारे सामने सबसे बड़ा भय यह है कि शायद अगले जन्म में हमें मानव शरीर नहीं मिलेगा। वेदों मे वर्णन किया गया है: 

इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक्‌ शरीरस्य विस्रसः।

ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते।।

(कठोपनिषद्-2.3.4.)।।

यदि शरीर का पतन होने से पहले इस मनुष्य शरीर में ही, ईश्वर भक्ति करके अपना लक्ष्य प्राप्त कर लो, (या उस परम् सत्य को साक्षात कर सको) तब तो ठीक है, नहीं तो फिर 'सर्गेषु' कई जन्मों तक चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ेगा।।4।।
"इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः" (केनोपनिषद्-2.5) 
"हे मनुष्यों! मानव जीवन पाने का बहुत कम अवसर मिलता है। यदि तुम इसका उपयोग परम लक्ष्य को प्राप्त करने में नहीं करते तब तुम्हें घोर संकटों का सामना करना पड़ेगा।"
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शुक्रवार, 21 मई 2010

आज भी अघटन घटित होता है ! " [24 JNKHMP]

पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता के कूप्रभाव को देखकर, १०० वर्ष पहले के - ' वर्तमान भारत ' को सावधान करने के उद्देश्य से स्वामी विवेकानन्द ने ' स्वदेश मंत्र ' देते हुए कहा था - " हे भारत ! यह परानुवाद, परानुकरण, परमुखापेक्षा , इसी दास-सुलभ दुर्बलता, इसी घृणित जघन्य निष्ठूरता के बल पर तुम उच्चाधिकार प्राप्त करोगे ? (य़ा विश्व महासभा में उच्चासन ग्रहण करोगे?)  
स्वामीजी के इस चेतावनी को उस समय किसने सुना ? काश, यदि भारत उनकी इस चेतावनी को सुनकर तभी सावधान हो गया होता !आज का भारतवर्ष ( वर्ष १९८५ में १२ जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित करने के बाद से) थोड़ा- बहुत " विवेकानन्द, विवेकानन्द " करने लगा है| किन्तु किस कारण से उनको याद कर रहा है- यह बात मैं ठीक से समझ नहीं पाता हूँ| जिन सब लोगों य़ा संगठनों के मुख से ' विवेकानन्द, विवेकानन्द ' का नाम उच्चारित हो रहा है, उनका उद्देश्य बहुत स्पष्ट नहीं है| 
एक बार स्वामी विवेकानन्द ने एक पत्र में उलाहना देते हुए लिखा था- " भारतवर्ष के असंख्य मनुष्य मुझे समझ नहीं सके हैं! " स्वामीजी ने जिस पत्र में यह बात लिखी थी, वह बहुत पुरानी चिट्ठी है, याद पड़ता है कि वर्ष १८९४-९५ में किसी समय का पत्र होगा| यह बात आज भी उतनी ही सत्य है, आज भी भारतवर्ष स्वामी विवेकानन्द को समझ नहीं पाया है| फिर भी कुछ लोग क्यों " स्वामीजी, स्वामीजी " कर रहे हैं,यह बात स्पष्ट नही होती !
परन्तु किसी सच्चे देश-प्रेमी संस्था य़ा व्यक्ति को यह बोध हो जाय कि - " देश से भ्रष्टाचार मिटाने का एक मात्र उपाय है, यहाँ के नागरिकों का चरित्र निर्माण! "वैसा व्यक्ति यदि स्वामीजी की शिक्षा को अपनाकर स्वयं मनुष्य बने और दूसरों को भी मनुष्य बनाने के उद्देश्य से उनकी चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा को भारत के गाँव-गाँव तक फैला देने के लिये व्याकुल हो उठे ! 
और उसके मन में रात-दिन यदि केवल यही प्रश्न उमड़ता-घुमड़ता रहे, कि किस उपाय से यथार्थ रूप में देश का नवनिर्माण संभव हो सकता है?  तब " विवेकानन्द,विवेकानन्द " का नाम उच्चारित करना अनिवार्य हो जाता है ! 
क्योंकि ' मूर्तमान-चरित्र ', ' चिर-युवा स्वामी विवेकानन्द ' के जैसा युवा आदर्श (Youth Model ), युवा नेता (Youth Leader ) अन्य दूसरा कोई भी नहीं है!! इसी तथ्य को स्वीकार करके भारत सरकार ने भी उनके जन्म-दिवश १२ जनवरी को भारत का राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित किया है !    
देश का अर्थ क्या है ? देश का अर्थ होता है देश के मनुष्य ! देश की धरती ही देश नहीं है ! देश-प्रेम का अर्थ है देश-वासियों से प्रेम ! 
देश की मिट्टी से प्रेम करना बहुत अच्छी बात है |किन्तु देश की उसी माटी पर जितने भी मनुष्य जन्म ग्रहण किये है, जो भारत माता की संतानें (हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई हैं) हैं, जो हमारे भाई हैं, जो भारतवासी हैं ! - उन भारतवासियों के जीवन को सुन्दर रूप से गठित कर उन्हें ' यथार्थ- मनुष्य ' य़ा ' योग्य- नागरिक ' के रूप में परिणत करना होगा हमसबों का पुनीत कर्तव्य है ! 
क्योंकि भारत महान तब होगा - जब इसके नागरिकों का चरित्र भी महान होगा! और हम भी गर्व से भर कर कह सकेंगे -  ' हमारा भारत महान !'  किन्तु प्रश्न यह है कि, इन भारत-वासियों -  " भारत-माता की सन्तानों " -  के चरित्र का निर्माण कर उन्हें यथार्थ ' मनुष्य ' बनाने अथवा" योग्य नागरिक के रूप गढ़ने की जिम्मेदारी " को उठाने के लिये, कौन आगे आयेगा ?" पूरे समाज को यह उत्तरदायित्व सार्वजनिक तौर पर उठाना होगा ! " (जैसे हमलोग ' सार्वजनिक दुर्गा पूजा-समिति ' बनाते हैं, ठीक उसी प्रकार पूरे समाज को सार्वजनिक तौर इस जिम्मेदारी को भी मिल-जुल कर उठाना होगा!)

{फरवरी १८९७ में जब स्वामीजी मद्रास में थे तब, ' मद्रास टाइम्स ' नामक समाचार पत्र का एक प्रतिनिधि ने स्वामी विवेकानन्द से पूछा था- ' आप भारत के पुनर्जागरण के लिये क्या करना चाहते हैं? '
इसके उत्तर में स्वामीजी कहते हैं- " ...हम कितनी ही राजनीति बरतें, उससे उस समय तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि भारत के सभी नागरिक (य़ा भारत का जनसमुदाय) एक बार फिर सुशिक्षित, सुपोषित और सुपालित नहीं होता |
..यदि हम भारत को पुनर्जीवित करना ( महान बनाना ) चाहते हैं, तो हमें उनके लिये काम करना होगा| मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमे से आयेंगे| सिंहों की भाँती वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे|मैंने अपना ' उद्देश्य ' निर्धारित कर लिया है और उसके लिये अपना समस्त जीवन दे दिया है |
दि मुझे सफलता नहीं मिलती, तो मेरे बाद कोई अधिक उपयुक्त व्यक्ति( श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय जैसा, जैसा ......infinite युवा ?) आयेगा और इस काम को सँभालेगा, और मैं अपना संतोष प्रयत्न करने में ही मानूंगा| 
आपके- अर्थात ' भारत के युवओं 'के सामने है - जनसमुदाय को उसका अधिकार देने (के पहले उन्हें योग्य नागरिक के रूप में प्रशिक्षित करने ) की समस्या ?(नहीं , परम उत्तरदायित्व है ! ) ये (प्रशिक्षित ) ' हृदयवान युवा '  - अर्थात ' आध्यात्मिक-शक्ति सम्पन्न युवा !' हमारे जनसमुदाय( भारतवासियों) के दोनों प्रकार के-(परा और अपरा) आध्यात्मिक और लौकिक विद्या प्रदान करने में समर्थ शिक्षक (नेता य़ा मार्गदर्शक) होंगे| वे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र में उस समय तक फैलेंगे, जब तक कि हम सम्पूर्ण भारत पर नहीं छा जायेंगे|" (वि० सा० ख० ४: २६०-६१) }

" 3H-निर्माण की शिक्षा " का अर्थ  :
एवं इस अनिवार्य -उत्तरदायित्व को सार्वजनिक रूप से अपने कन्धों पर उठाने के लिये, हमे  स्वामीजी से शरीर(Hand ) और मन (Head )को विकसित कराने के साथ-साथ ह्रदय(Heart ) को भी विकसित करने की शिक्षा भी अवश्य ग्रहण करनी होगी!
अन्यत्र स्वामीजी कहते हैं-" मैं शिक्षा को गुरु के साथ सम्पर्क, ' गुरु-गृहवास ' (योग्य गुरु के सानिध्य में ' ह्रदय के विस्तार करने हेतु ' लिया जाने वाला युवा प्रशिक्षण शिविर) समझता हूँ| गुरु के व्यक्तिगत जीवन के आभाव में शिक्षा नहीं हो सकती| अपने विश्वविद्यालयों को ही लीजिये| अपने ६३ वर्ष के अस्तित्व में उन्होंने क्या किया है ? उन्होंने एक भी मौलिक व्यक्ति पैदा नहीं किया| वे केवल परीक्षा लेने की संस्थाएँ हैं| 
भारतवासिओं के कल्याण के लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने की भावना का अभी हमारे राष्ट्र में विकास नहीं हुआ है| " ( ४: २६२)}
अपने ह्रदय को बड़ा बनाने,अर्थात " ह्रदय के विस्तार को " ही   'आध्यात्मिकता' कहते हैं|' आध्यात्मिकता ' का अर्थ है-सबसे- (हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई) प्रेम करने की शक्ति ! य़ा आध्यात्मिक शक्ति! और आध्यत्मिकता के विस्तार से ही - ह्रदय का विस्तार होता है !

किन्तु वैसा ह्रदय कहाँ है, हृदय तो सूख गया है| क्योंकि हम सभी लोग ' वैश्वीकरण ' के नाम पर - पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता का अनुकरण करने के होड़ में दौड़े चले जा रहे हैं! आज का भारत - अपनी उसी गुलामी वाली मानसिकता य़ा " दास सुलभ दुर्बलता " के कारण  १०० वर्ष पहले के 'वर्तमान-भारत ' की अपेक्षा और भी अधिक " अमेरिका-परस्त " बन चुका है! तथा अपनी ' त्याग की महिमा पर आधारित ' अति प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति को भूल कर, " कामिनी-कांचन के भोग- " Eat , Drink and be marry ! " को ही अपना परम पुरुषार्थ मानने लगा है|
 आज का भारतवासी दिग्भ्रमित होकर भोग, भोग और केवल 'भोग करने की लालच' में फंस कर एक-दूसरे से अधिक भोगसामग्री इकठ्ठा करने की होड़ में दौड़ा चला जा रहे हैं| जिसके फलस्वरूप हमारा ह्रदय सूख कर रेगिस्तान बन गया है |( अपने किसी भी देशवासी के भूख से हुई मौत को देख-सुन कर भी अब कोई प्रतिक्रिया नहीं होती ! हमारा ह्रदय विकसित होने के बजाय सिकुड़ता जा रहा है !) 
यदि हमे फिर से ' हृदयवान मनुष्य ' बनना है, तो इस भोगवादी संस्कृति से हमे दूर होना ही होगा अन्य कोई उपाय नहीं है !   अन्य कोई उपाय नहीं है !! 
स्वामीजी कहते हैं- " हमारी कार्य-विधि (कार्यक्रम) बहुत सरलता से बतायी जा सकती है| वह केवल राष्ट्रीय जीवन को पुनः स्थापित करना है|बुद्ध ने 'त्याग' का प्रचार किया था| भारत ने सुना और फिर केवल छः शताब्दियों में वह अपने उच्चतम शिखर पर पहुँच गया|( पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति का ) भेद यहाँ है ! भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं : त्याग और सेवा ! आप इसकी इन धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये, और शेष सब अपने आप ठीक हो जायेगा| इस देश में आध्यात्मिकता का झंडा कितना ही ऊँचा क्यों न किया जाय, वह पर्याप्त नहीं होता| केवल इसीमे भारत का उद्धार निर्भर करता है! " (वि० सा० ख० ४: २६५)}
(नवनी दा कहते हैं- JNKPH पेज ४६ :)
आशैशव (बचपन से ही ) सबों के (मन में ) भीतर अच्छे भाव भरने की चेष्टा करना अत्यन्त आवश्यक है| मुझे अपने बचपन की बहुत सारी स्मृति तो नहीं है, किन्तु मेरे चित्त में एक स्मृति आज भी इतनी प्रगाढ़ है, जिसे मैं इस उम्र में भी भूल नहीं सका हूँ !
प्रतिदिन रात्रि के समय जब सोने जाता तो नींद आने में देरी होती थी, दोपहर के समय में भी विश्राम करना य़ा सोना नहीं चाहता था| मुझे याद है कि, दोपहर के समय में माँ बंकिमचन्द्र के ' आनन्दमठ ' से थोड़ा-थोड़ा पढ़ करके भैया को और मुझको सुनाया करतीं थीं|
पूरी पुस्तक को सुना देने के बाद माँ ने कहा था -  " बन्किमचंद्र द्वारा लिखित पुस्तक - आनन्दमठ   बहुत अच्छी ( देश-भक्ति बढ़ाने वाली) चीज है, इसीलिये तुम दोनों को पढ़ कर सुना दी हूँ, किन्तु इस प्रकार कि पुस्तकों को ' उपन्यास ' कहते हैं, और उपन्यास पढना अच्छी बात नहीं है |" 
 मैंने जीवन में एक भी उपन्यास नहीं पढ़ा है| शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के द्वारा लिखे गये उपन्यास तो जगत-प्रसिद्ध हैं , किन्तु मुझे याद नहीं आता कि मैंने अपने जीवन में कभी भी शरतचंद्र के किसी भी पुस्तक को अपने हाथ में लिया हो| अन्य कोई भी उपन्यास नहीं पढ़ा हूँ|हाँ कभी कभी कोर्स के रूप में किसी किसी उपन्यास का अंश-विशेष दिया रहता तो पढना पड़ता था, दूसरा उपाय नहीं था| किन्तु जिसको उपन्यास पढना कहा जाता है, वैसा जीवन में कभी नहीं पढ़ा हूँ|

रात्रि के समय सोने में देरी करता था, मैं जल्दी से सोना नहीं चाहता था; हमलोगों में यह तय था, कि माँ पहले एक कहानी सुनाएगी, तब मैं सो जाऊंगा!एवं कहानियाँ सुनना मुझे बहुत पसन्द था|मेरी माँ अक्सर मुझे ' बालक ध्रुव ' की कहानी सुनाया करती थीं| मैं बालक-ध्रुव की कहानी सुनता, सुनकर रुलाई आ जाती और रोते रोते सो जाता था| माँ ध्रुव की कहानी का प्रारम्भ इस प्रकार किया करती थी- " ध्रुव भगवान के बड़ भाल बासतेन |"अर्थात " ध्रुव भगवान को बहुत प्यार करते थे !"
 
मै पूछता था- ' माँ, भगवान कहाँ रहते हैं? ' भगवान को कहाँ पाया जाता है ? माँ कहती- " भगवान सबों के सामने तो यूँ ही घूमते-फिरते नहीं रहते, भगवान जंगल-टंगल में रहते हैं, उनको यदि पूरे मन से चाहा जाय और उनकी खोज में निकल पड़ा जाय, तब उनको पाया जा सकता है |" तारपरे ध्रुव बलतो - " ताहले आमि जाब बने, ताहले आमि जाब बने | "  
उसके बाद बालक-ध्रुव कहते - " ऐसी बात है तो मैं जंगल में जाऊँगा, तब मैं जंगल में जाऊंगा !" (देखिये भारतीय-संस्कृति में बालक ध्रुव की कथा के माध्यम से बचपन में ही त्याग की महत्ता को कैसे भरा जाता है !) 
एक दिन ऐसा हुआ कि कहानी सुनाते सुनाते माँ ने सोचा कि ध्रुव भी सो गये हैं, इसलिए माँ पहले ही सो गयीं| किन्तु ध्रुव सोया नहीं था, जागा हुआ था|  वह उठा और दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया| चलते चलते बहुत दूर निकल गया, रास्ते में एक घना जंगल मिला, वह उसमे प्रविष्ट होकर - " भगवान तुम कहाँ हो, भगवान तुम कहाँ हो " करने लगा| 
प्रत्येक दिन यहीं तक की कहानी सुनने से ही रुलाई आ जाती थी, और मैं नींद में सो जाता था| बचपन की इससे प्रगाढ़ स्मृति और कोई याद नहीं पड़ती है |
{ बालक ध्रुव
राजा उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो भार्यायें (पत्नियाँ ) थीं। राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुये। यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थी किन्तु राजा उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था। एक बार उत्तानपाद ध्रुव को गोद में लिये बैठे थे कि तभी छोटी रानी सुरुचि वहाँ आई। अपने सौत के पुत्र ध्रुव को राजा के गोद में बैठे देख कर वह ईर्ष्या से जल उठी।

झपटकर उसने ध्रुव को राजा के गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उनकी गोद में बैठाते हुये कहा, "रे मूर्ख! राजा के गोद में वह बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ है। तू मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुआ है इस कारण से तुझे इनके गोद में तथा राजसिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं है। "
पाँच वर्ष के बालक ध्रुव को अपनी सौतेली माता के इस व्यहार पर बहुत क्रोध आया पर वह कर ही क्या सकता था? इसलिये वह अपनी माँ सुनीति के पास जाकर रोने लगा। 

सारी बातें जानने के पश्चात् सुनीति ने कहा, "बेटा ध्रुव! तेरी सौतेली माँ सुरुचि से अधिक प्रेम होने के कारण तेरे पिता हम लोगों से दूर हो गये हैं। अब हमें उनका सहारा नहीं रह गया है। तू भगवान को अपना सहारा बना ले। 
सम्पूर्ण लौकिक तथा अलौकिक सुखों को देने वाले भगवान नारायण के अतिरिक्त तुम्हारे दुःख को दूर करने वाला और कोई नहीं है। तू केवल उनकी भक्ति कर।"

माता के इन वचनों को सुन कर ध्रुव को कुछ ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह भगवान की भक्ति करने के लिये पिता के घर को छोड़ कर चल दिया। मार्ग में उसकी भेंट देवर्षि नारद से हुई। नारद मुनि ने उसे वापस जाने के लिये समझाया किन्तु वह नहीं माना। तब उसके दृढ़ संकल्प को देख कर नारद मुनि ने उसे 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र की दीक्षा देकर उसे सिद्ध करने की विधि समझा दी। 
 उधर बालक ध्रुव ने यमुना जी के तट पर मधुवन में जाकर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र के जाप के साथ भगवान नारायण की कठोर तपस्या की। अत्यन्त अल्पकाल में ही उसकी तपस्या से भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन देकर कहा, "हे राजकुमार! मैं तेरे अन्तःकरण की बात को जानता हूँ। तेरी सभी इच्छायें पूर्ण होंगी। 
तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुझे वह लोक प्रदान करता हूँ जिसके चारों ओर ज्योतिश्चक्र घूमता रहता है तथा जिसके आधार पर यह सारे ग्रह नक्षत्र घूमते हैं। प्रलयकाल में भी जिसका नाश नहीं होता। सप्तर्षि भी नक्षत्रों के साथ जिसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। तेरे नाम पर वह लोक ध्रुवलोक कहलायेगा। इस लोक में छत्तीस सहस्त्र वर्ष तक तू पृथ्वी का शासन करेगा।बालक ध्रुव को ऐसा वरदान देकर भगवान नारायण अपने लोक को चले गये।( सूख सागर के सौजन्य से)}
 दूसरी घटना जो याद आती है- वह है घर में जितनी भी पूजा-पाठ आदि हुआ करते थे, उन सबको बहुत ध्यान से देखना और सुनना भी मुझे बहुत पसन्द था| 

पूजा-घर में पितामह जिस चौकी पर माँ काली की पूजा करते थे, उसी चौकी के एक छोर पर गोपाल की मूर्ति भी रखी  है |ये वही गोपाल हैं जो, एक साधु की छाती से बन्धे हुए थे, और जिन्होंने पूरे भारतवर्ष का भ्रमण कर लिया है,( जिसे मेरी पितामही को दे कर चले गये थे!) पितामह को कालीपूजा करते देख कर मुझमे इन्ही ' गोपाल ' के प्रति झुकाव उत्पन्न हो गया| 
पितामह जब काली-पूजा कर रहे होते तो मैं जिद पकड़ लेता कि मैं भी गोपाल की पूजा करूँगा! और मैं इस बात के लिये भी जिद करता था कि, माँ काली के लिये जैसा जैसा भोग बनेगा, गोपाल लिये भी वैसा वैसा ही भोग देना होगा !
माँ काली की पूजा के बीच में पितामह, कुछ देर तक 'चंडीपाठ' ( दुर्गा सप्तसदी का पाठ ) भी किया करते थे| मेरे पास भी अपनी एक ' छोटी सी चंडी 'थी जो मात्र ' दो इंच चौड़ी ' थी; मैं गोपाल के सामने उसी चंडी का पाठ किया करता था|पितामह माँ काली के सामने चंडी का पाठ करते और मैं गोपाल के सामने चंडी का पाठ करता| 
जितना जितना भोग माँ काली के लिये बनेगा, उतना ही भोग गोपाल को भी देना होगा, यही मेरी जिद थी|हमलोगों के घर में ऐसी प्रथा थी कि काली पूजा के समय बाहर के लोग, प्रायः कभी नहीं उपस्थित रहते थे, केवल घर के लोग ही पूजा में शामिल होते थे; और जितना भी भोग बनता था, वह समस्त भोग ही भगवान को निवेदित कर दिया जाता था| 
जिस प्रकार परात में भोग दिया जाता है, वैसे किसी बड़ी थाली में सजा कर भोग चढाने की प्रथा हमलोग के यहाँ नहीं थी| इतने बड़े से पीतल की हाँडी में खिचड़ी बना तो, उस पूरी हाँडी को ही दो आदमी उठाकर पूजाघर में रख आते थे| 
पूड़ियाँ छान ली गयीं, तो समस्त पूड़ियों को भी एक बेंत की बड़ी सी टोकरी में भर कर - वहीं भगवान के सामने रख दिया जाता था|अन्य कोई सब्जी-भाजी य़ा पायस इत्यादि जो कुछ भी भोग बनाया जाता था वह सबकुछ को वैसे ही पूरा का पूरा ठाकुर (भगवान) को अर्पित कर दिया जाता था|

मेरी जिद के अनुसार,निकट में ही गोपाल के लिये भी एक छोटी सी हाँडी में खिचड़ी, एक छोटी सी कटोरी में पायस, छोटी सी तस्तरी में अन्य सब्जी- भाजी, छोटी सी एक बेंत की टोकरी में पूड़ियाँ- ये सब कुछ देना ही होगा|
एकबार काली पूजा के समय गोपाल को- बेंत की ' छोटी टोकरी' में भर कर पूड़ियाँ नहीं दी गयीं| मैंने माँ से पूछा- ' गोपाल की पूड़ियाँ कहाँ हैं?' माँ ने कहा - शायद उस समय नजदीक में कोई टोकरी नहीं थी,य़ा शायद उसमे अन्य कोई सामग्री भर कर रख दी गयी हो; मुझे बहलाने के लिये माँ ने कहा, " तुम वह सब मत सोंचो, गोपाल स्वयं माँ काली की टोकरी से पूड़ी निकाल कर खा लेंगे|" मै यह सुनकर संतुष्ट हो गया
रात्रि में पूजा हुई| पूजा के बाद घर के सभी सदस्यों ने प्रसाद ग्रहण किया, और सोने चले गये|माँ काली के पूजा के कमरे के सामने वाले एक कमरे में ही पितामह भी रहा करते थे| प्रातः काल नींद से उठते ही 
वे पूजा के कमरे (ठाकुर-घर) की सिंकड़ी खोल देते, और ठाकुर के कमरे में जा कर प्रणाम करने के बाद ही कहीं जाते|और वह दिन हम सबों के लिये बड़े आनन्द का दिन था|
पूजा के बाद, जब हमलोग उनको प्रणाम करते तो हमलोगों के पीठ पर हाथ रख कर प्रेम-जतलाते हुए स्पर्श करते थे, य़ा जब बहुत छोटे थे तो गोदी में बैठा लेते थे|हम लोग उनके उसी एक बार के स्नेहिल- स्पर्श, उनके शरीर का स्पर्श प्राप्त करने की प्रतीक्षा में रहते थे| 
सुबह-सुबह दरवाजा खोल कर ठाकुर-घर (पूजा के कमरे) में जो दृश्य देखे तो आश्चर्य चकित हो गये! आश्चर्य से स्तंभित हो कर,
                  वहीं से खड़े होकर माँ को आवाज दिये - " बोउमा, एइदिके एसो, देखे जाउ ! " वहाँ जाने पर देखा गया कि, माँ काली की जिस बड़ी टोकरी से घर के सदस्यों को देने के लिये खिचड़ी-उचड़ी सब भोग से थोड़ा थोड़ा निकाल लिया गया था|उसके बाद जितना भी  भोग बचा रहता था, वह सब वैसे ही रहता था, यही हमारे घर की रीति थी| 
किन्तु वहाँ जाने पर देखा गया कि माँ काली की उतनी बड़ी बेंत की टोकरी में जितनी भी पूड़ियाँ बची हुई थीं, सब की सब लगभग समाप्त हो गयीं थीं, और उस टोकरी में पूड़ी के एक-आध टुकड़े ही पड़े हुए हैं| और पूड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े उस टोकरी से शुरू होकर गोपाल की चौकी तक कतार में बिछे हुए थे!
माँ जाकर देखी, तो आश्चर्य से आवाक रह गयीं! हम सभी लोगों को पुकारीं| हमलोग भी पूजा के कमरे में जो देखे तो आश्चर्य चकित हो गये! यह (अघटन) तो मैंने अपनी आँखों से घटित होते देखा है, इसीलिये इसको तो मैं अस्वीकार नहीं कर सकता! 
इसीलिये कहना पड़ता है - " आज भी अघटन घटित होता है !! "    
                                     

सोमवार, 17 मई 2010

विवेक-प्रयोग के साथ कर्म करना ही कर्मयोग है ![23]

कर्मयोग का रहस्य 
हममें से प्रत्येक के भीतर ' महान ' बनने की सम्भावना अन्तर्निहित है, हम कितने महान हो सकते हैं-इसकी कोई सीमा नहीं है ! किन्तु हमलोग अपने थोड़े से विकास से ही संतुष्ट हो जाते हैं| थोड़ा पढना-लिखना सीख लिया, कोई नौकरी प्राप्त हो गयी, शादी-विवाह करके थोड़ा पारिवारिक सुख लिया, एक दो सन्तान हो गया, फिर जैसे तैसे जीवन कट ही जाता है| भले ही दुःख-कष्ट में जीना पड़े य़ा  पीड़ा और यंत्रणा में य़ा  हिंसा-अत्याचार-प्रताड़ना में य़ा फिर लोगों को ठग कर ही सही किसी प्रकार गुजर-बसर तो हो ही जाता है| इसी लिये बंगला में कहावत है- ' अल्प लईया थाकि ताई, जाहा पाई  ताहा चाई ना |' - हम लोग थोड़े को ही लेकर जीवन बिता देते हैं(क्षूद्र अहं को ही अपना यथार्थ स्वरूप समझते हैं.), इसी लिये जितना भी प्राप्त होता है, उसे चाहते नहीं हैं ! (उपनिषद में कहा गया है- ' न अल्पस्य सुखं भूमैव सुखम ')   
 इन्हीं में से कोई यदि (तथा कथित) विद्वान् निकल गया( जीवन की सार्थकता का अर्थ नहीं समझा) तो वह कुमार्ग में जाकर और भी भटक जाता है| इसीलिये स्वामी विवेकानन्द के कर्मयोग इत्यादि पर चर्चा करते हुए एक सन्यासी ने किसी पत्रिका में स्वामी जी द्वारा कही गयी एक कहानी का उदहारण दे कर जो समझाया था, वह अति सुन्दर कहानी बीच-बीच में याद आ जाती है- 
  किसी गाँव में गाँव के बिल्कुल एक छोर पर एक सन्यासी वास करते थे, उनकी एक कुटिया थी| और उसी ग्राम में एक डकैत भी रहता था, उस डकैत ने अनेक बार डाका डाला था, डाका डालने के क्रम में अनेकों खून भी किये थे|
जब उसकी उम्र कुछ अधिक हुई तो उस डकैत के मन में विचार आया- नहीं, यह सब कार्य - डाका डालना,किसी मनुष्य की हत्या करना आदि ठीक कार्य नहीं है, अब और ऐसा जघन्य कार्य नहीं करूँगा| फिर सोचने लगा, यह छोड़ कर रहूँगा कहाँ,कहाँ जाना ठीक होगा ? फिर उसने सोंचा, साधु लोग तो अक्सर परोपकार करने का उपदेश देते हैं, जो लोग किसी संकट में पड़ जाते हैं, उनको आश्रय देते हैं, तो क्यों नहीं साधु महाराज कहा जाय ?
वे साधु के पास जा कर बोले- " मैं इस प्रकार का एक भयंकर डकैत हूँ, अनेकों मनुष्यों की हत्या कर चुका हूँ, कई डाके डाले हैं, किन्तु मुझे अब यह सब अच्छा नहीं लगता है| मैं यहाँ आपके आश्रय में रहना चाहता हूँ, मुझे यहाँ रहने देंगे? " साधु बोले- " ठीक है, रह जाओ |" कुछ दिन उनके सत्संग में रहने के बाद, उस डकैत ने पुनः कहा- " मैंने तो अनेकों पाप किये हैं थोड़ा पुण्य संचय करने के लिये तीर्थाटन- स्नान आदि करने की इच्छा हो रही है|"
साधु बोले- " अच्छा यह बताओ कि स्नान आदि करने से तुम्हारे पाप मिट गये हैं य़ा नहीं - इस बात को तुम समझोगे कैसे ? " उसने सोंचा- ' बिल्कुल ठीक बात है, सचमुच मैं कैसे जान पाउँगा कि मेरे पाप गये हैं य़ा नहीं? साधु बोले- " तुम एक काम करो, थोड़ा सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा ले आओ |" वह डकैत आधा गज सफ़ेद कपड़ा का टुकड़ा ले आया| साधु बोले- ' वहाँ पर दावात रखा है, तुम उसकी थोड़ी स्याही इस सफ़ेद कपड़े पर डाल दो|"
वह डाल दिया| फिर साधु बोले - " इस कपड़े को तुम अपनी मोटरी में रख लो| जब किसी तीर्थ स्थान में जाकर स्नान करोगे तो, स्नान करने के बाद बाहर निकलते ही इस कपड़े को मोटरी से बाहर निकाल कर देख लोगे- यदि देखो कि कपड़ा तो काला ही है, तो समझ लेना कि तुम्हारा पाप अभी मिटा नहीं है, और जब पाप मिट जायेगा तो देखोगे कि कपड़ा फिर से सादा हो गया है! " 
अब वह जगह विभिन्न तीर्थ स्थानों का दर्शन करने के बाद जहाँ-जहाँ स्नान करता प्रत्येक बार उस कपड़े को बाहर निकाल कर देख लेता, पर उसका कालापन मिटता नहीं था- जैसा था वैसा ही बना रहता| बहुत उदास मन से वापस लौट रहा था|
वापस लौटते समय रास्ते में एक घना जंगल भी पार करना पड़ता था | जब वह उसी घने जंगल से गुजर रहा था, तो उसे किसी स्त्री की आर्तनाद- ' बचाओ-बचाओ ' की पुकार सुनाई दी | वह उसी आवाज का अनुसरण करता हुआ जब घटना स्थल पर पहुँचा, तो देखा कि एक नव-विवाहिता स्त्री को पकड़ कर, रस्सी के द्वारा कुछ डकैत लोग उसे एक पेंड़ से बांध दिया है, और उसका सब गहना-गुड़िया लूट रहा है| 
तीर्थाटन करके वापस लौटते हुए डकैत के मन में हठात बोध जागा- ' नहीं नहीं इस अकेली महिला को तो बचाना ही होगा! 'लूटने वाले डकैत की ही कुल्हाड़ी जमीन पर गिरी हुई थी| उसी कुल्हाड़ी को उठाकर बोला- ' जहाँ बावन वाँ वहीं तिरपन वाँ !' 
 और झट से एक डकैत के माथे पर वार कर दिया|उसका सर फट गया और रक्त-रंजित हो कर वह वहीं गिर पड़ा, उसकी हालत देख कर अन्य सब डकैत भाग गये| 
तब उस नारी का बन्धन खोल दिया, उसका समस्त गहना आदि को एकत्र करके एक पोटली में बांध कर उस लड़की के हाथ में देकर बोला- ' तुम्हारा घर किस गाँव में है, कहाँ रहती हो ?' फिर उसके बताये रास्ते तक उसे छोड़ कर, साधु के पास वापस लौट आया | 
जब साधु के पास पहुँचा तो साधु ने पूछा- " क्या समाचार है, बताओ तुम्हारे पाप -टाप मिटे य़ा नहीं ? डकैत बहुत दुखी होकर बोला- " पाप मिटना तो दूर की बात है, और एक नया खून कर के आया हूँ !" 
कैसे, क्या हुआ ? पूरा विवरण कह सुनाया- इस प्रकार इसप्रकार सब हुआ है | तब साधु महाराज बोले- ' ठीक है, तुम जरा अभी अपनी मोटरी से उस गंदे कपड़े को बाहर निकाल कर देखो तो |' जब उसने गंदे कपड़े को बाहर निकाला तो देखता है- अब वहाँ थोड़ी भी स्याही नहीं है, पूरा कपड़ा बिल्कुल सफ़ेद हो गया है! हमलोग इस मुहाबरे- ' जहाँ बावनवाँ वहीं तिरपनवाँ ' को अक्सर व्यवहार में लाते हैं | 
इस उदहारण से साधु महाराज ने कर्म-योग के मूल रहस्य को इस प्रकार समझाया- " यह खून- जो तुमने अभी अभी किया है, वहाँ वह खून करना ही तुम्हारा कर्तव्य था, एक अबला स्त्री की रक्षा करने के लिये तुमने किया है| इसके पहले तुमने जितने खून किये थे, उसके पीछे तुम्हारा उद्देश्य उनकी हत्या करके लूट-पाट करना था |और अभी जो खून किया वह किसी के कल्याण के लिये किया है! इसलिए हत्या जैसा जघन्य कर्म भी विवेक पूर्वक करने से कर्मयोग हो सकता है ! "   
यह धर्म-बोध, इस प्रकार विवेक-पूर्वक कर्म करने की क्षमता - हममे से प्रत्येक के भीतर रहना आवश्यक है! यह शिक्षा- हर समय अपने विवेक को जाग्रत रखते हुए कर्म करने की शिक्षा हमलोगों को कहाँ प्राप्त हो रही है ? 
आधुनिक साहित्य के नाम पर इन दिनों  इन्टरनेट, टीवी, सिनेमा आदि विभिन्न माध्यमों से जो सब प्रचारित किया जा रहा है, समाचार पत्रों में जैसे-जैसे चित्र और सम्वाद निकल रहे हैं इन सब को देख कर ऐसा प्रीत होता है कि, भारत की प्राचीन संस्कृति नष्ट हो चुकी है, और हमलोग यह मान चुके हैं कि अब हमलोगों यही सब आहरण करना होगा|
पर यह बात सच नहीं है, हमारी सांस्कृतिक विरासत पूरी तरह से नष्ट नहीं हुई है, अब भी जितना कुछ बचा हुआ है, आवश्यकता केवल उस ओर दृष्टि रखने की है|इसीलिये जिन के भीतर थोड़ी सी भी सदबुद्धि है, जिनको थोड़ा भी समाज और देश के कल्याण की चिन्ता है, उनको चाहिये कि अपने इसी प्राचीन धरोहर से इस प्रकार के उच्च भावों को आहरण करके उनलोगों के समक्ष रख दें जो अभी तरुण अवस्था में हैं|अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो देश बचेगा कैसे?
आज सम्पूर्ण विश्व में ' वैश्वीकरण ' के नाम पर जो कुछ चल रहा है, जो सब हो रहा है,उससे वे सारे गरीब देश जो चाहे पूरब के हों य़ा युरोप के, वे सब  गरीब होते जा रहे हैं, एवं और भी होते चले जायेंगे|आज हमारे देश के गरीबों की अवस्था कैसी हो गयी है? उन गरीबों के हताश-निराश मलिन चेहरे की तरफ नजर उठा कर देखने वाला भी कोई है? कोई नहीं है| 
केवल धनि लोगों का धन और भी बढेगा , और जो निर्धन हैं वे और अधिक निर्धन होते चले जाएँ| भूखे रहने के कारण यदि उनकी मृत्यु भी हो जाये तो कोई देखने वाला नहीं है, उनकी सहायता करने के लिये कुछ भी तो नहीं है, क्यों ? इसीलिये कि हमलोगों का जो यथार्थ मनुष्यत्व है, जिसको हम हृदयवत्ता के नाम से जानते हैं, उसमे वृद्धि करने के लिये कोई हमलोग कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं|
हमलोगों का प्रयास है तो शरीर को बढ़ाने पर, शरीर की शक्ति बढ़ाने पर (सरकारी प्राइमरी स्कूल में कुंग-फु सिखाया जा रहा है),अर्थ बढ़ाने, धन-बल बढ़ाने, हमलोगों का अहंकार बढे, हमारा ऐश्वर्य बढे, हमारी आकांक्षाओं को बढ़ाने का भरपूर प्रयास हो रहा है| यह जो पाश्चात्य भोगवाद है, वह तो आज नहीं बहुत दिन पहले (२०० साल पहले) ही भारत में आ चुका है! इसीलिये इसने(पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति ने) हमलोगों को पूरी तरह से अपना ग्रास बना डाला है|  
[तभी तो अख़बार में फोटो छपता है -कोई गरीब बाप अपनी बेटियों को ही बैल की जगह लगाकर खेत जोत रहा है ? या एम्बुलेंस नहीं मिलने से कोई गरीब पती अपनी पत्नी की लाश को ३० कि.मी सायकिल पर ढो कर ले जा रहा है ?]