लेकिन यहाँ प्रश्न उठता है कि मैं दूसरों के सुख-दुःख को अपने जैसा क्यों देखूं ? हम चाहते हैं कि सब हमसे अच्छा व्यवहार करें, पर मैं सब किसी से अच्छा व्यवहार क्यों करूँ ? मेरे मतलब की बात नहीं हो तो हम दूसरों से दुर्व्यवहार क्यों न करें ? विवेकानन्द पूछते हैं -यदि इससे मुझे लाभ पहुँचता हो तो मैं किसी अन्य व्यक्ति को क्यों चोट न पहुँचाऊँ या उसे वंचित न करूँ? इसके पीछे तर्क क्या है ? इसका लॉजिक क्या है ?-What is the logic of Golden rule ? Why should I not hurt or deprive another person, if it is to my advantage? what is the logic of this golden rule ? -इसके पीछे का तर्क Oneness है, एकत्व की अनुभूति है जो आपको सिर्फ वेदान्त में मिलेगा। क्योंकि हम सब एक हैं। एक ही सत्ता में ये सारी दुनिया भास रही है। यदि किसी दूसरे को हम नुकसान पहुँचाते हैं, तो गहरे अस्तित्वगत अर्थ में, हम स्वयं अपने को भी हानि पहुँचाते हैं। हमलोगों को पता नहीं चलता हैं , हमलोग सोचते हैं कि दूसरों को ठग कर Exploit करके हम अपना फायदा उठा रहे हैं। जिसको लगता है कि वो दूसरा है। वास्तव में वो दूसरा है नहीं। (5.38)/ वो अपना आपा ही है, लेकिन प्रतीत होता है कि वो अलग है।
स्वप्न का दृष्टान्त लीजिये। जैसे स्वप्न में जिसको भी हम देखते हैं , वो हमसे अलग नहीं है। हम ही उस रूप में दिखाई दे रहे हैं। वेदान्त कहता है एक ही आत्मा सब में है , इसीलिए सबसे सुन्दर व्यवहार, सबसे नैतिक व्यवहार, सबसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। क्योंकि मेरी ही आत्मा उस रूप में दिखाई दे रही है। समस्त प्रकार की नैतिकता का आधार यही है। विवेकानन्द कहते हैं -किसी व्यक्ति को नैतिक क्यों होना चाहिए ? नैतिकता का आधार क्या है ? -इसका आधार सिर्फ अद्वैत वेदान्त में बतलाया गया है। Metaphysically -आध्यात्मिक दृष्टि से हम सभी एक हैं! इसलिए नैतिकता आवश्यक हो जाती है। यह बहुत बड़ी समस्या है, दर्शनशास्त्र में आजतक इस पर बहस चल रहा है। उत्तर है अद्वैत के एकत्व में। "दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा आप उनसे अपेक्षा रखते हो।" 'It is the foundation of all ethics' यह एकत्व की अनुभूति ही -यह सभी नैतिकता का आधार है! अभी Harvard University(Sigma/Parul/ और MSUniversity?) में नैतिकता (Ethics) पर - स्वामी विवेकानन्द के चरित्र-निर्माण और मनुष्यनिर्माणकारी शिक्षा को एक कोर्स के रूप चलाने की बात चल रही है। पढ़ा रहे थे, आप सबके परिचित प्रोफेसर अमर्त्यसेन, जो नोबेल प्राइज विनर हैं। वहां इकोनॉमिक्स पढ़ाते हैं और दर्शनशास्त्र भी पढ़ाते हैं। उनके क्लास में जाकर मैं बैठता था, सुनने के लिए कि वे क्या पढ़ा रहे हैं ? (7.07)/ मूल समस्या यही है कि हमें नैतिक क्यों होना चाहिए ? और उसका उत्तर केवल अद्वैत वेदान्त से ही प्राप्त होता है। उसका कारण है -अस्तित्व का एकत्व, Oneness of all existence ! एकत्व की अनुभूति से ही नैतिकता की बुनियाद प्राप्त होती है। मूल विषय पर अब आएंगे - अभी अभी मैं सोंच रहा था -आज का विषय है Oneness की प्रासंगिकता। लेकिन हमलोगों एकत्व और दो लेक्चर सुनने को मिल रहा है। विषय है एकत्व लेकिन भाषण होगा दो। मतलब आप जब तक शरीर में हैं , द्वैत से (मिथ्या अहं से ?) पीछा छुड़ा नहीं सकते हैं। आप एकत्व की और बढ़ेंगे लेकिन द्वैत आपका पीछा करता ही रहेगा ! आप द्वैत से ही अद्वैत की ओर बढ़ेंगे। अब हम यह विचार करेंगे कि कैसे हम द्वैत से अद्वैत में पहुँचते हैं ? मेरे भाषण का आधार है आचार्य शंकर का प्रसिद्ध प्रकरण ग्रंथ -अपरोक्ष अनुभूति ! उस ग्रंथ से कुछ विचार हम आपके सामने रखेंगे , फिर प्रश्नोत्तरी होगी। हमारे समक्ष आज का Menu (व्यंजन-सूचि, या भोजन सूचि) यही है। तो अपरोक्ष अनुभूति ; यह शब्द भी अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। अद्वैत वेदान्त का Subject Matter , विषय - वस्तु क्या है ? एक होता है - प्रत्यक्ष'; जैसे अभी मैं आप लोगों को देख रहा हूँ, आप लोग भी मुझको देख रहे हैं। हमलोग पांचों इन्द्रियों से रूप-रस-गंध -शब्द और स्पर्श आदि समस्त विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। इसको प्रत्यक्ष कहा जाता है -जिसका ज्ञान हमको प्रत्यक्ष धारणा से , Direct perception से प्राप्त होता है। यर प्रत्यक्ष है। लेकिन हमारे पंचेन्द्रियों से भी जो परे है - उसका ज्ञान , उसकी धारणा भी हमलोगों को होती है। उसको कहते हैं परोक्ष -जिसका ज्ञान हमें पुस्तकों या शास्त्रों द्वारा प्राप्त होता है। जिसके बारे में स्कूल में या कॉलेज की पुस्तकों पढ़ते हैं। हम विज्ञान की प्रक्रिया से सौर मण्डल के घूर्णन पथ का अनुमान लगाते हैं। अलग-अलग प्रकार का विज्ञान सीखते हैं। शास्त्र धर्म का भी ज्ञान होता है। लेकिन ये प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं , परोक्ष है। क्योंकि ये इन्द्रियग्राह्य नहीं है। इसकी धारणा प्रत्यक्ष रूप से नहीं परोक्ष रूप से होती है। तो एक प्रत्यक्ष ज्ञान है , और दूसरा परोक्ष ज्ञान है। और एक ज्ञान है जिसकी धारणा अपरोक्ष रूप में होती है। ये जो अभी देख रहे हैं , सुन रहे हैं, सोंच रहे हैं , ये सब हमारे सामने उद्भासित हो रहा है। हमें सभी चीजों की लगातार अनुभूति हो रही है। We are having the first person experience, हमारे मन में जितनी वृत्तियाँ उठ रही हैं , वो जो साक्षी है, चैतन्य है -consciousness है, उससे हम लोगों को अनुभव हो रहा है। इसको कहते हैं अपरोक्ष। इससे भी आगे बढ़कर वो है ब्रह्म , जो चैतन्य खुद है। उसके लिए उपनिषद में कहा गया है 'साक्षात् अपरोक्ष' यहाँ, शंकराचार्य जी दो अर्थ में अपरोक्ष शब्द का व्यवहार कर रहे हैं। एक साक्षी भाव है , जिसका अनुभव हम चैतन्य से करते हैं। और consciousness खुद भी अपरोक्ष है। ये अपरोक्ष अनुभूति जो ग्रन्थ है ,उसमें आदि शंकराचार्य कुछ विचार रखते हैं। विचार किसके बारे में ?
हम क्या हैं? Who am I ? हम कौन हैं ? ये विचार भी ठीक नहीं है - ये तो हम अपने resume [बायोडाटा -CV -शैक्षणिक कार्यानुभव में (M/F)] नाम आदि लिखते हैं। वह सब Who am I ? में आ जाता है। लेकिन What am I ? (10.54) क्या हम केवल रक्त-मांस-हड्डी से निर्मित एक शरीर हैं ? क्या हम एक विचार, स्मृति या कोई कहानी (narrative) हैं? क्या हम शरीर-और मन का समुच्य (combination) हैं ? क्या हम यह व्यक्ति हैं ? या इससे परे कुछ हैं ? यही प्रश्न है - हम क्या हैं ? यह एक अनुसन्धान (enquiry) का विषय है ! उपनिषद तो सीधे शब्दों में कहता है - आप वह नहीं हैं , आप शिव हैं - चिदानन्द रूपः शिवोहं ! इतना सुंदर chanting हमलोग अभी सुन रहे थे। मधुसूदन सरस्वती ने इस पर सूक्ष्म विचार किया है। लेकिन वेदान्त सिद्धान्त के बारे में कहना बहुत कठिन है। वेदान्त को समझाने में भाषा के अलावा हमारे पास और क्या है ? शंकराचार्य जी खुद दशश्लोकी के आखिर में कहते हैं - कथम् सर्व-वेदान्त-सिद्धम् ब्रवेमि।(10) जिस ब्रह्म के विषय में मुख से कहा नहीं जा सकता , उसको कैसे बोलूँ ? उसको समझाऊँ किस प्रकार ? उसको भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। शब्दों में उसको कहना है, जिसको शब्दों में कहा नहीं जा सकता है। अभी हमको लेकिन 45 मिनट बोलना ही है, उसके बारे में जिसको कहा नहीं जा सकता है। लेकिन यही वेदान्त की महिमा है - कि जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता, उसके वर्णन की पद्धति भी वेदान्त ने खोज ली है। उसके कई उपाय हैं - जैसे एक उपाय है - "नेति, नेति !" निषेध करके- जो ऐसा सत्य है , जिसे हम शब्दों में नहीं कह सकते हैं, तो इतना तो कह सकते हैं कि सत्य क्या नहीं है ? जो सत्य नहीं है - उसको हम deny कर सकते हैं, निषेध कर सकते हैं। ये एक उपाय है।
दूसरा उपाय है कहानी के रूप में समझाना - जैसे कभी-कभी 'सिंह शावक' की कथा से समझाया जाता है। हाथी नारायण है , तो महावत भी नारायण है। काटना नहीं , फुँफकारना जरूर।
तीसरा है कभी कभी -Paradoxical Statement विरोधाभासी वचन से समझाना-जो सबसे दूर है, सबसे नजदीक है। दौड़ता रहता है , लेकिन एकदम स्थिर है। जो बड़े से भी बड़ा है , लेकिन छोटे से भी छोटा है। अणोरणीयान् महतो महीयान् आदि इसका मतलब क्या है ? जो ज्ञानी जन के लिए दिन है, साधारण लोगों के लिए रात है। और जो साधारण लोगों के लिए दिन है, ज्ञानी के लिए रात है। इसका मतलब क्या है ? दो विरुद्ध बात अगर एकसाथ समझ में आएगी तब आपको वेदांत की धारणा हो सकेगी। वेदांत आपके पकड़ में आएगी।
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
भावार्थ-
वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिह्वा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता है।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
भावार्थ-
वह बिना शरीर (त्वचा) के ही स्पर्श करता है, आँखों के बिना ही देखता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।
[एक बार तुलसीदास अपने ईष्ट श्री राम के दर्शन की इच्छा लिए जगन्नाथ पुरी की ओर चल पड़े। वहां पहुंचने के बाद लोगों की भीड़ को देखकर वह बहुत खुश हुए और मंदिर के अंदर दर्शन करने के लिए चले गए। लेकिन जैसे ही उन्होंने श्री जगन्नाथ जी को देखा (बिना हाथ के जगन्नाथ ?) और अचानक ही उनके चेहरे पर निराशा छा गई और वह बाहर आकर मन में सोचने लगे कि इतनी दूर आना भी मेरा बेकार हुआ, क्योंकि यह बिना हाथों के मेरे ईष्ट नहीं हो सकते हैं। रात काफी हो गई थी तो वह थके-हारे, भूखे-प्यासे एक जगह पर आराम करने के लिए बैठ गए।
कुछ समय के बाद वहां आहट होने लगी और तुलसीदास को एक बालक की आवाज़ सुनाई दी जो उनका ही नाम पुकार रहा था। उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और कहा कि मैं ही तुलसीदास हूं। उस बच्चे के हाथ में एक थाली थी जो उसने तुलसीदास की ओर करके कहा कि ‘लीजिए, जगन्नाथ जी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है।’
तुलसीदास बोले ‘कृपा करके इसे वापस ले जाएं।’ बालक ने कहा, ‘जगन्नाथ का भात-जगत पसारे हाथ’ और वह भी स्वयं महाप्रभु ने भेजा और आप स्वीकार नहीं कर रहे हैं। कारण क्या है?’ तुलसीदास ने कहा कि, ‘मैं अपने ईष्ट को भोग लगाएं बिना कुछ भी ग्रहण नहीं करता और फिर यह जगन्नाथ का जूठा प्रसाद जिसे मैं अपने ईष्ट को नहीं खिला सकता, ये मेरे किसी काम का नहीं हैं।’ बालक ने मुस्कराते हुए कहा कि यह आपके ईष्ट ने ही तो भेजा है।तुलसीदास बोले- यह बिना हाथों वाला मेरा ईष्ट नहीं हो सकता। बालक ने कहा कि आपने श्रीरामचरितमानस में तो इसी रूप का वर्णन किया है-
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना ।।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
यह सुनकर तुलसीदास का चेहरा देखने लायक था। आंखों में आंसू, मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। थाल रखकर वह बालक बोला कि मैं ही राम हूं। मेरे मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा है। विभीषण नित्य मेरे दर्शन को आता है। कल प्रातः तुम भी आकर दर्शन कर लेना। यह कहकर वह बच्चा अदृश्य हो गया।
इसके बाद तुलसीदास ने बड़े प्रेम से प्रसाद खाया। सुबह होने पर मंदिर पहुंचने पर उन्हें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के स्थान पर श्री राम, लक्ष्मण और माता जानकी के भव्य दर्शन हुए। भगवान ऐसे भक्तवत्सल हैं कि उन्होंने अपने भक्त की इच्छा पूरी की। जिस स्थान पर तुलसीदास रात के समय रुके थे, उस जगह का नाम ‘तुलसी चौरा’ रखा गया। आज के समय में वहां पर तुलसीदास जी की पीठ ‘बड़छता मठ’ के रूप में विख्यात है। ( पंजाब केसरी एवम गूगल से लिया गया)
लेकिन यदि हमलोग 3'H' से निर्मित हैं , तो वास्तव में तो हम क्या हैं ? हम चेंज के साक्षी हैं ! हम निर्विकार है, शरीर सविकार है। द्रष्टा दृश्य से अलग होता है। हम द्रष्टा हैं ,शरीर दृश्य है ? इसलिए हम शरीर नहीं हैं। हम चेतन हैं, शरीर जड़ वस्तु (object) जिसको आप जान सकते हैं, वो जड़ है। मन भी जड़ है क्योंकि निरंतर परिवर्तनशील है -बुद्धि-चित्त -अहंकार हूँ। अभी जो जाग्रत है , उसी को नींद आ रही थी। मन भी दृश्य है। मन और चैतन्य का अन्तर पश्चिम को पता नहीं है। जो समस्त वेदांतों द्वारा स्थापित है उसका मैं कैसे वर्णन कर सकता हूँ?
ये जो दो बिरुद्ध बात -जो अचल है , कहीं नहीं जाता है , लेकिन सबसे आगे दौड़ कर जाता है। ये बातें आपको कन्फ्यूज करने के लिए नहीं कही गयी हैं। जब एक बार हम इसको पकड़ लेंगे, तब यह हमको बिलकुल सही लगने लगेगी। जो ज्ञानी है, जो समझता है, जिसने वेदान्त को पकड़ लिया है, उसके लिए ये बातें एकदम सही हैं। हमारे लिए ये विरोधाभासी बातें हैं। वेदांत के निष्णात विद्वानों का कहना है। जो कहा नहीं जा सकता है, उसको कहने की एक दार्शनिक प्रक्रिया है। उसको कहते हैं -'अध्यारोप अपवाद' (अध्यारोप + अपवाद) = पहले अध्यारोप, फिर अपवाद (हटाना)। अद्वैत वेदांत में आत्मतत्व के उपदेश की वैज्ञानिक विधि। ब्रह्म के यथार्थ रूप का उपदेश देना अद्वैत मत के आचार्य का प्रधान लक्ष्य है। ब्रह्म है स्वयं निष्प्रपंच है लेकिन इसका ज्ञान बिना प्रपंच की सहायता के किसी प्रकार भी नहीं कराया जा सकता।' इसके कई उदाहरण है। कोई शिष्य गुरु के पास आया, गुरु जी हमको समझाइये आकाश क्या होता है ? तो गुरु देव पहले खाली जगह को ढक देने की आज्ञा देते है , फिर आवरण हटा लेने के बाद जो बचा वो आकाश है। पहले अध्यारोप कर दिए फिर उसका अपवाद कर दिए। तब पकड़ में आ गया कि ओ , इसको आकाश कहते हैं।
दूसरा पर्दा और फिल्म का उदाहरण : जैसे कोई बच्चा यह नहीं जानता हो कि सिनेमा क्या है ? (17. 43) वैसे आज कोई वैसा बच्चा मिलना मुश्किल है। जाने के पहले पिता उसे समझा देते हैं कि बाबू देखो, वहाँ एक पर्दा होगा, उस पर चित्र- छवि चलेगा। उसको सिनेमा कहते हैं। अंदर जाते है तो -फिल्म शुरू हो गयी होती है। मुश्किल तो यही है। जब हम जन्म लेते हैं - तब फिल्म शुरू हो गयी होती है। बीच में आते हैं हमलोग। शुरू से आते तो पकड़ आ जाता। लेकिन हमारा जब जन्म होता है - तब माता -पिता हैं। स्कूल -कॉलेज है - सब दुनिया चल रही है। बीच में हम हाजिर हो जाते हैं। सभी लोग सिनेमा देखने में मग्न हो जाता है। कुछ देर बाद बच्चे के मन में जिज्ञासा होती है। पिताजी आप कह रहे थे कि पर्दा है वहाँ। कहाँ हैं पर्दा आप दिखाइए। (19.11) कल्कि -के पीछे, अश्वस्थामा के पीछे पर्दा है। सभी दृश्य को हटा दो। समझायें कैसे? दीवाल पर कोई पिक्चर है - ये हैं ब्रह्म ! अच्छा ये शरीर ब्रह्म है। मैं परब्रह्म हूँ ? ये मुश्किल रह जाती है। इसकेलिए 'अध्यारोप अपवाद का टेक्निक' लगाया जाता है। पहले श्रुति या उपनिषद को सुना जाता है, फिर युक्ति से लॉजिक से -बुद्धि से समझना है। तर्क करके ब्रह्मज्ञान नहीं होता है पर युक्ति से पहले हमको समझाया जाता है। तर्क करने से हमारा जो अज्ञान है , जो भ्रम है -जो कन्फ्यूजन है - वह दूर हो जाता है। विवेकानंद कहते हैं बुद्धि युक्ति एक सफाईकर्मी की तरह है -Vivekananda says Intellect is like a sweeper - वह सारा कचड़ा साफ कर देती है।
हम क्या हैं ? What am I ? के जवाब में तीन युक्तियाँ। हम ये शरीर हैं ? लेकिन यह तो परिवर्तनशील है। जन्म जब हुआ था , नन्हे थे तब प्राइमरी स्कूल, हाई स्कूल में गए , कॉलेज का फोटो -कितना अन्तर है ? वजन , लम्बाई , चेहरे में शरीर कितना बदलता गया ? शरीर विकारी है , हर समय इसमें विकार हो रहा है। जो इसका द्रष्टा है, साक्षी है वो भी हम ही हैं। द्रष्टा और दृश्य दोनों कभी एक नहीं हो सकते हैं। घट-द्रष्टा घटात भिन्नः - शरीर निरंतर परिवर्तनशील है, लेकिन मैं एक साक्षी के रूप में अनुभव करता हूँ कि मैं अपरिवर्तनीय हूँ ! तो हम निर्विकार हैं - और यह शरीर सवीकार है - दोनों कभी एक नहीं हो सकते हैं। subject और object कभी एक नहीं होता है। आँख किसको देख सकता है ? जो आँख से अलग है -कुछ हट कर है। आँख कभी अपने आप को नहीं देख सकती है। पंचइन्द्रिय ही शरीर को दृश्य बना देते हैं। स्वीकार-निर्विकार, द्रष्टा-दृश्य एक अलग युक्ति है, और चेतन -जड़ अलग युक्त है। पुष्प चेतन है या जड़ है। जिसको आप ऑब्जेक्ट बना सकते हैं , शरीर जड़ है। हम शरीर को जानते हैं , शरीर हमको नहीं जान सकता है।
मन -भी हम नहीं है। क्योंकि सबसे ज्यादा यही बदलता है। मन के परिवर्तन को भी मैं देख रहा हूँ। दुःख -सुख मन में है। मन का आधुनिक फिलॉसफी अभी शिशु रूप में है। मन और चेतन का फर्क अभी तक नहीं समझा है। consciousness तो अंग्रेजी शब्द है, चैतन्य -चित -बोधि -संवित ये संस्कृत शब्द हैं। अंग्रेजी जो हम देख रहे हैं , सुन रहे हैं उसको भी वे consciousness कहते हैं। consciousness और मन में क्या अन्तर है ? अभी गाय के विषय में सोचें - ये तो मन की एक वृत्ति है -जो अ , आ, गाय बोल रही है। हमने उसको जाना , लेकिन वो गाय या अक्षर भी हमको जान रही है ? नहीं।
तो हम क्या हैं ? (33.31) हम शरीर और मन के द्रष्टा हैं-चेतन हैं , निर्विकार हैं ; इसीको कहते हैं आत्मा, इसीको कहते हैं -चैतन्य , इसको ही पुरुष -बहुत सारे पारिभाषिक शब्द हैं। देहात्मभेद में दो को अलग कर देंगे तो -फिर से द्वैत में फंस जायेंगे। इसमें एकत्व कहाँ है ? इसका फायदा यह समझना है कि द्रष्टा -दृश्य से अलग होता है।
एक और सूक्ष्म बात द्रष्टा तो दृश्य से अलग है - किन्तु क्या दृश्य द्रष्टा से अलग है? (36.13) एक उदाहरण : स्वप्न-दृष्टान्त - स्वप्न चल रहा है , और मुझे पता नहीं है कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ।
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई।।
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई।।
भावार्थ-
इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता।
स्वप्न में हमने बहुत से लोगों को देखा-हॉल को देखा -कुछ घटनाओं को देखा। जब स्वप्न से हम जाग गए तो हमें पता चल गया कि हम उस कल्पना से अलग हैं। जो कुछ मैं देख रहा था , वह मेरी कल्पना थी। हमें पता चल गया कि हम स्वप्न के द्रष्टा हैं। स्वप्न के व्यक्तियों से, स्वप्न की वस्तुओं से , स्वप्न के देश -काल से हम अलग हैं ! लेकिन वो देश-काल वो वस्तु जो हमने स्वप्न में देखा - वो हमसे अलग है ? नहीं, स्वप्न का देश-काल-वस्तु हमसे अलग नहीं है। हमारा ही मन , हम खुद उसको project कर रहे हैं। व्यक्त कर रहे हैं, प्रक्षिप्त कर रहे हैं।
ये देखिये - यहाँ पीछे ये पिक्चर है -यह पर्दा है; इस स्क्रीन पर यह पिक्चर projected है। स्क्रीन तो पिक्चर से अलग है ! पर्दा -पिक्चर से अलग है , क्यों अलग है ? आप पिक्चर हटा दीजिये - फिर भी स्क्रीन रह जायेगा। आप वहाँ कोई दूसरा पिक्चर लगा दीजिये - स्क्रीन वही का रह जायेगा। लेकिन पिक्चर क्या पर्दा से अलग है ? नहीं , पिक्चर स्क्रीन से अलग नहीं रह सकता है। हवा में पिक्चर नहीं रह सकता। आजकल 3D पिक्चर आगये हैं ; लेकिन हवा में ऐसे पिक्चर को नहीं टांगा जा सकता। पिक्चर का आधार है स्क्रीन। पिक्चर का आधार पिक्चर से अलग है , लेकिन पिक्चर अपने आधार से अलग नहीं है।
एक दूसरा उदाहरण - ये पोडियम ! हमारे सामने है , जो काठ की बनी हुई है। ये काठ टेबल से अलग है। टेबल का जो उपादान है काठ -वो टेबल से अलग है। क्योंकि इसके पहले ये वृक्ष था , उसकी लकड़ी से टेबल बना। टेबल टूट जाये तो फिर काठ का टुकड़ा हो जायेगा। टेबल नहीं रहेगा। लेकिन ये टेबल क्या काठ से अलग है ? नहीं -काठ हटा लीजिये कोई टेबल नहीं रहेगा। उसी तरह ये जो दृश्य जगत है , सवीकार जगत है, जड़जगत है , परिवर्तनशील जगत है, उसको हमने अपने से अलग किया। ये जो दृश्य -सवीकार देह है, जड़ -परिवर्तनशील शरीर है। सवीकार मन है -इन सबको अपने से अलग किया। क्योंकि हम इसके द्रष्टा, निर्विकार -चेतन (Consciousness) हैं - ये बात ठीक है। लेकिन जिसको हमने अलग किया वो वास्तव में अलग है ही नहीं। आचार्य शंकर ने अपरोक्षानुभूति ग्रन्थ में कहा है -
कार्ये हि कारणं पश्येत्, पश्चात् कार्यं विसर्जयेत् ।
कारणत्वं ततः गच्छेत्, अवशिष्टं भवेत्-मुनिः ॥
(अपरोक्षानुभूति : 139)
पहले कार्य को देखकर (मन या अन्तःकरण को देखकर) उसके कारण (मन वस्तु -चित्त) का निश्चय करो, उसके बाद कार्य का (मन,बुद्धि ,चित्त और मिथ्या अहंकार M/F भाव का ) त्याग कर दो। कार्य का त्याग कर देने पर ( M/F भाव का या मिथ्या अहं के नाम-रूप का त्याग कर देने पर) देखोगे कि कारण (शाश्वत चैतन्य) आप ही अवशिष्ट रह जाता है। इसी प्रकार कार्य (मिथ्या अहंकार) के वर्जित होने से मुनिगण स्वयं चिन्मय स्वरूप (सच्चिदानन्द स्वरुप) हो जाते हैं ॥ १३९ ॥
(39.09) जगत कार्य है - इसमें पहले कारण को देखो। पहले कार्य में कारण को देखो , जिससे ये बना है , इसके उपादान को - इसके reality को देखो, जिससे ये बनी है उसको देखो। बाद में कार्य (नाम-रूप) को विसर्जित कर दो। घट दृष्टा घटात भिन्नः -वो घड़े का उदाहरण देते हैं - घड़ा कार्य है, घट effect है। उसका कारण क्या है ? उसका उपादान क्या है ? वो मिट्टी से बनी है। तो पहले घड़े में आप मिट्टी देखिये, कार्य में कारण देखिये , घट में मिट्टी देखिये। देख लिया। टेबल में काठ देखिये। (40.08) लहर में पानी देखिये, आभूषण -जेवर में सोना देखिये। देख लिया ? अब उसके बाद - पश्चात् कार्यं विसर्जयेत् !
उसके बाद कार्य को (घड़े के नाम -रूप को) विसर्जित कर दीजिये । घड़ा को मन से हटा दीजिये। कैसे ? घड़ा को जब हम नजदीक से देखेंगे तो क्या देखेंगे ? यही कि वो मिट्टी से बना है। घड़े में मिट्टी उसके कण कण में व्याप्त है -अनुस्यूत है घड़े में। ओतप्रोत है मिट्टी। इस कपड़ा में सूत कहाँ हैं ? ओतप्रोत है उसमें। लहर में पानी कहाँ है ? ये लहर पानी से बना है। पानी कारण है - कार्य लहर है। लहर में नाम-रूप है -उसका व्यवहार है -लहर में केवल पानी ही पानी है। कार्य को विसर्जित करने पर क्या बचेगा ? घट नाम की कोई ठोस वस्तु है ही नहीं , ठोस वस्तु केवल मिट्टी है। इसको कहेंगे - पश्चात् कार्यं विसर्जयेत् ! आप देखेंगे घट नाम की कोई वस्तु है नहीं। ठोस वस्तु तो मिट्टी है।
जब कार्य को विसर्जित कर दिया , कार्य ही नहीं रहा तब कारण फिर किसका कारण है ? जब कारण का कोई कारणत्व ही नहीं रहा। कारणत्वं ततो गच्छेत्- तो क्या रह गया ? हम कहेंगे मिट्टी रह गयी ! आचार्य कहते हैं -नहीं रे मूर्ख ! मिट्टी नहीं रह गयी। (42.20) तो क्या रह गया ? आचार्य कहते हैं - मुनि रह गया। अवशिष्टं भवेत् मुनिः ।
यहाँ घट ,मिट्टी, लहर , पानी, सोना और आभूषण की बात नहीं हो रही है; ये अपने अनुभव की बात हो रही है। सीधा-सीधी ब्रह्मज्ञान - वेदान्त कैम्प के सबसे लास्ट में अंतिम वक्ता बोलने के लिए उठा तो सभी ऊब कर जा रहे थे। ये कपड़ा तो है -लेकिन जो आप देख रहे हैं -वो सर्वव्याप्त प्रकाश है ! जो कपड़े से reflect होके आपके आँखों में जा रही है। कपड़ा थोड़े आपके आँखों में जा रही है। आप जो कुछ भी देख रहे हैं -वो सिर्फ लाईट को ही देख रहे हैं। उसी तरह सुबह से शाम तक , रात में स्वप्न में , गंभीर निद्रा में-फिर जाग्रत अवस्था में हमें जो भी अनुभव हो रहा है-जिसको हम संसार कहते हैं। जिसको हम जन्म कहते हैं। बढ़ना -बुढ़ाना हमारा पूरा जीवन जिसको कहते हैं। वो सब केवल अनुभूति मात्र है। और अनुभूति क्या है ? चैतन्य मात्र है। उसी अनुभूति मात्र ब्रह्म में ये सारा जीवन का अनुभव हो रहा है। ये शरीर , हमारा अपना व्यक्तित्व -जो इधर खड़ा होकर बोल रहा है - मेरा जो स्मृति है कि हम ये हैं (M/F) हैं। जो दिख रहा है -वो देखने की क्रिया से अलग कुछ नहीं है। (45.08) देखने की प्रक्रिया : वेदान्त की टेक्निकल प्रक्रिया है। वो दिख रहा है , मैं देख रहा हूँ। मन में जो वृत्ति उठ रही है। लेकिन देखने की प्रक्रिया से अलग कोई वस्तु की सिद्धि नहीं होती है। और देखना चित्तवृत्ति से अलग कुछ नहीं है। और चित्तवृत्ति क्या है ? जो चैतन्य में ही उद्भासित हो रही है।
तो केवल चेतना -consciousness, या शाश्वत चैतन्य -सच्चिदानन्द का ही एक मात्र अस्तित्व है।जैसे आप घड़े को नजदीक से एग्जामिन करेंगे तो पाएंगे की घड़े में मिट्टी के सिवाय और कुछ नहीं है। आप कहेंगे नहीं वो तो घड़ा है - नामरूप को आप हटा दो , तो मिट्टी के सिवा वह और कुछ नहीं है। अगर रूप आकार ही नहीं रहा तो घट नाम ही निरर्थक हो जाता है - घट कहाँ है ? जिसको हम जीवन कहते है वो चैतन्य के सिवा कुछ है ही नहीं। वो चैतन्य आप हो - तत्वमसि ! अहंब्रह्मास्मि उसी का अर्थ है ! ये विचार ही हमें एकत्व में ले जाता है। जो हम दृश्य देख रहे थे कि विश्व-जगत हमसे अलग है। वास्तव में वो हम ही हैं ! स्वप्न में जिसको देखा था -वो लग रहा था हमसे अलग है , वो वास्तव में हम ही हैं। हमारा ही कल्पना है। दृश्य जितना है, जो कुछ भी जड़ है , जो कुछ भी सवीकार है , जड़ जितना है वो जड़ नहीं है -चेतन का ही प्रकाश है। वो आपका ही प्रकाश है। "अवशिष्टं भवेत् मुनिः "--- शिव केवलो अहं ! अवशिष्ट शिव रह जाता है। यदि शिव अवशिष्ट रह जाता है , तो उससे हमें क्या ? वो आप ही हैं ! वो खुद आप हैं , वो अवशिष्ट भी नहीं है- वही है , उसके सिवा कुछ है ही नहीं ! अभी वही है - उसी का एकत्व है।
जगत को साधारण दृष्टि से देखिये और फिर दार्शनिक दृष्टि से देखिये - साधारण दृष्टि आप सत्य किसको मानते हैं ? यह जो मन-बुद्धि और पंच ज्ञान इन्द्रियों से हम जिस इन्द्रियगोचर जगत का अनुभव करते है, देखते हैं , सुनते है - मन-बुद्धि से परीक्षा ,निरीक्षा करके जो मिलता है उसीको हम सत्य मानते हैं। मन ,बुद्धि और पंच ज्ञानिन्द्रियों से जगत को जिस रूप में हम अनुभव करते हैं, साधारण मनुष्य के लिए वही सत्य है।
अब एक स्टेप आगे बढिये - ये जगत, मन-बुद्धि, चित्त अहंकार, पंच ज्ञान इन्द्रिय ये सबकुछ चैतन्य में अनुभव हो रहे हैं। हम इसके द्रष्टा हैं। सांख्य के मत में ये हुआ तत्वज्ञान-सत्य । किन्तु अभी भी द्वैत बना हुआ है। अंतिम रूप से अद्वैत वह है - उसी चैतन्य में, यह समस्त जगत-प्रपंच , उसी द्रष्टा में यह पंच ज्ञानेन्द्रिय-मन, बुद्धि सब उसीमें भास रहे हैं। उससे अलग कोई दूसरा अस्तित्व है ही नहीं। ये अद्वैत तत्व है तो यहाँ एकत्व हो जाता है।.... ये तो चलता ही रहेगा।
भावितं तीव्रवेगेन यदस्तु निश्चयात्मना ॥
पुमांस्तद्विभवेच्छीघ्रं ज्ञेयंभ्रमरकीटवत् #॥१४०॥
140. A person who meditates upon a thing with great assiduity (पूरी एकाग्रता) and firm conviction (दृढ़ विश्वास के साथ) , becomes that very thing. This may be understood (1) from the illustration of the wasp and the worm.
140. जो व्यक्ति किसी वस्तु पर (सूर्य की किरणों में अन्तर्निहित ऊष्मा/दिव्यता पर) पूरी एकाग्रता और दृढ़ विश्वास के साथ ध्यान करता है, वह वही वस्तु बन जाता है। इसे (#) भ्रमर (ततैया या हड्डा) और झींगुर कीड़े के दृष्टांत से समझा जा सकता है।
(#)..... यह एक प्रचलित मान्यता है कि जब भ्रमर या हड्डा अपने घर में एक झींगुर को पकड़ ले आता है और उसकी पिटाई करके या डंक मारने के बाद वहीं छोड़ देता है, और घर के मुख को मिट्टी से भर कर उसके चारों ओर घूमता रहता है। तो अपहृत करके लाया गया झींगुर फिर से डंक मारने के डर से लगातार अपने हमलावर के बारे में सोचता रहता है, जब तक कि वह एक पूर्ण विकसित भ्र्मर ततैया में रूपांतरित नहीं हो जाता। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति पूरे मन से ब्रह्म का ध्यान करता है, तो वह समय के साथ ब्रह्म बन जाता है।
निश्वयात्मा पुरुष की तीव्र एकाग्रता भावना करके जो मनुष्य जिस वस्तु का चिन्तन करता है, वह ततैया कीड़ा (या झींगुर) की तरह शीघ्र ही भँवरे की तरह तद्रूप हो जाता है। जैसे यह किंवदंती प्रसिद्द है कि भँवरा अपने मिट्टी से बने खोह में किसी ततैया कीड़े को पकड़ कर ले आता है , और भरदम उसकी पिटाई करता है। और खोह के मुख को बन्द करके उसके चारों ओर गुनगुन करके चक्कर काटता है। अपहरण करके लाया हुआ वह कीट मारे भय के उसी मारने वाले भ्रमर कीट का चिन्तन करते करते तद्रूप धारण कर लेता है, जगत में यह किंवदंती प्रसिद्द है। इसी प्रकार पुरुष (सच्चिदानंदं ब्रह्म) का चिन्तन करते करते तद्रूप हो जाता है ॥ १४०॥
निश्वयात्मना पुरुषेण- किसी दृढ़ विश्वासी व्यक्ति (सच्चिदानंदं ब्रह्म के चारो महावाक्यों में दृढ़ विश्वासी व्यक्ति ) द्वारा जब "तीव्र वेगेन" - सबसे (energetically-प्रभावशाली ढंग से या) ऊर्जावान रूप से यत् उस वस्तु भवितां का ध्यान पुमान व्यक्ति पर किया जाता है तत् वह शीघ्रं शीघ्र ही वास्तव में भवेत् बन जाता है (एतत् यह) ततैया (झींगुर ) और भंवरा कीड़ा ज्ञेयं के चित्रण से भ्रमर-कीटवत् को समझना चाहिए .
वेदान्त का मूल सिद्धांत 'आत्मा' का विचार है। शास्त्रों में कहा गया है कि हमारी निर्मिति तीन चीजों से हुई है - 3'H' शरीर, मन और आत्मा। इनमें से आत्मा ही सर्व शक्तिशाली है। नश्वर शरीर और मन से परे जो शाश्वत/अविनाशी आत्मा है, जो सभी शक्तियों का भण्डार है। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि अपनी कमजोरी के बारे में (शरीर की नश्वरता पर) सोचते रहना कमजोरी का समाधान नहीं है। इसलिए, उन्होंने सकारात्मक सत्य - अविनाशी आत्मा की महिमा पर ध्यान केंद्रित करना सिखाया।