मेरे बारे में

रविवार, 25 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (6) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

' विवेकानन्द - दर्शनम् '
६.  
चिरयुवा (सदा-यविष्ठ) बने रहने का  सुनिश्चित विज्ञान है-' राजयोग विद्या ' ! 
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
[ विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम् ] 
[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]


नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||




[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।]
 ========
६.
ईश्वरो वै यविष्ठः स्यादिति श्रुतिविवेचना । 
युवानो धर्मशीलाः स्युधर्मः शीलस्य भूषणम् ॥ 

1. God is the most youthful --- so holds the Vedas (Rig Veda 1.26.2)

2. ' One should be devoted to religion even in one's youth.' 
 
3. Youths should be righteous, ' be moral, be brave', and learn the right code of conduct ; virtue and righteousness beautify character. 

१. वेदों में कहा गया है - जो (सदा) सर्वस्मिन्काले (यविष्ठ) अतिशय बलवान रहे उसे 'युवा' कहते हैं- " नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः |  अग्ने दिवित्मता वचः ||

२. ' जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील बनना चाहिये । कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ?
३. ' युवाओं को धार्मिक (सदाचारी) बनना चाहिए, ' पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो', तथा न्यायोचित आचार संहिता को सीखो; सद्गुण एवं धार्मिकता चरित्र को अलंकृत करते हैं।
प्रसंग : [१. महामण्डल पुस्तिका "युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द " ऋग वेद ०१.०२६.००२/ २.(वि० सा० ख ६ : वार्ता एवं संलाप : ११)/ ३. ( ५ जनवरी १८९० को इलाहबाद से श्री यज्ञेश्वर भट्टाचार्य को लिखित पत्र)]  
विषयवस्तु :  (६.१ ) युवावर्ग स्वाभाव से ही अतिवादी होता है, जो कुछ करता है उसे अती तक ले जाता है। जिससे प्रेम करता है, अत्यधिक प्रेम करता है; जिस बात से घृणा करता है, अत्यधिक घृणा करता है। यही उनका वैशिष्ट होता है क्योंकि उनके भीतर अनन्त प्राण-उर्जा होती है। किन्तु यही उनकी कमजोरी का कारण भी बन जाती है। कच्चे कोयले में आँच देते समय इतना धुआँ निकलता है, कि आँखें जलने लगती हैं, पर भोजन नहीं पक सकता। किन्तु जब धुआँ निकलना बन्द हो जाता है, और कोयला में आग पकड़ लेता है, केवल तभी खाना पकाया जा सकता है।
'यौवन' (जवानी) जीवन का यह पड़ाव, ही कार्य करने का सही समय है। किन्तु युवावस्था में धुआँ-निकलने की अवधि का अतिक्रमण कर लेना ही सबसे बड़ी समस्या है। और इस समस्या का समाधान है शिव ज्ञान से जीव सेवा ' अर्थात ' Be and Make' के माध्यम से इस कर्म करने में सक्षम जीवन का गठिन कर लेना। 
ऐसा सुगठित और समाजोपयोगी यौवन ही समाज के सभी समुदायों के समस्त प्रकार के आहार्य को पकाने (ग्रहणीय बनाने) वाली अग्नि है। और इस युवा-ऊर्जा से वंचित कोई भी समाज जड़-पर्वत के जैसा गतिशून्य (Stand still) हो जाने को बाध्य है। ' आहार्य ' शब्द का अर्थ केवल खाद्द्य पदार्थ ही नहीं है। जिस किसी वस्तु का आहरण या ग्रहण नहीं करने से, जीवन अप्रगतिशील बन जाता हो, वही है आहार्य ! (जैसे सत्संग या पाठचक्र भी आहार्य है।) कच्चे आहार (खाद्य-पदार्थ) को पका कर ग्रहणीय बनाने के लिये अग्नि आवश्यक होती है। 
इसीलिये वेदों में अग्नि को अन्नपालक कहा गया है। किस प्रकार की अग्नि होनी चाहिये ? जो सर्वदा यविष्ट बनी रहे, वरणीय और तेजःसम्पन्न अग्नि होनी चाहिये ! युवा-संप्रदाय ही समाज का सभी प्रकार से अन्नपालक, अग्निस्वरूप, तेजःसंपन्न, वरणीय हैं। कुशलता पूर्वक कर्म का निष्पादन करने के लिये इस अग्नि की आवश्यकता है। किन्तु यह अग्नि विध्वंश करने वाली अग्नि नहीं होनी चाहिये। चंचलता और अस्थिर यौवन रहने से कार्य का निष्पादन नहीं हो सकता है। जिस प्रकार युवाओं का जीवन चंचल और जोशीला होता है, उसी प्रकार अग्नि की लहलहाती हुई शिखा में सर्वग्रसिता शक्ति होती है। इसीलिये अग्नि का  आह्वान करते हुए - ऋग्वेद संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २६.२ में कहा गया है -
   नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥२॥
- अर्थात सदा तरुण रहने वाले हे अग्निदेव ! आप सर्वोत्तम होता (यज्ञ सम्पन्न कर्ता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर स्तुति वचनो का श्रवण करें॥
क्योंकि नियंत्रण में नहीं रखने से कोई भी शक्ति कार्यकर नहीं होती है। यज्ञ का अर्थ होता है त्याग के द्वारा सम्पादित कर्म। झूठी प्रशंसा या चाटुकारिता के द्वारा युवाजीवन के क्रोध को शान्त करने की चेष्टा से काम नहीं होगा। दीप्तिमान (ओजस्वी) वचनों के द्वारा अग्निस्वरूप युवा-समुदाय को, उनकी अन्तर्निहित शक्ति के संबन्ध में जाग्रत करना होगा। 
आधुनिक युग में भगवान (श्रीरामकृष्ण) सबसे प्रथम युवा नेता थे ; जिन्होंने अपने स्तुति-वचनों से १८ वर्ष के तरुण नरेन्द्र नाथ का जीवन गठित करके उनकी यौवन ऊर्जा को समाजोपयोगी बनाकर चिर युवा स्वामी विवेकनन्द में रूपान्तरित कर दिया था ! जिस उपाय से ईश्वर सदैव युवा रहते हैं, चिरयुवा बने रहने के उपाय का एक सुनिश्चित विज्ञान (Exact Science) है - 'राजयोग विद्या' ! तीनों ऐषणाओं को त्याग कर मनुष्य जिस मानसिक-एकाग्रता का अभ्यास करके ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकता है, युवाओं के लिये उसी सुनिश्चित विज्ञान को महामण्डल के द्वारा " मनः संयोग " के नाम से सरल भाषा में प्रकाशित किया गया है।  
 { महामण्डल पुस्तिका "युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द " }
६.२. ' One should be devoted to religion even in one's youth.' स्वामी जी का उपरोक्त दर्शन 'वार्ता एवं संलाप : ११' कथानक में इस प्रकार मिलता है -
स्वामीजी उत्साही युवकों के सामने सदैव त्याग के उच्च आदर्श रखते थे। बहुधा अविवाहित युवकों को ब्रह्मचर्य और त्याग का उपदेश दिया करते थे। मठ के संन्यासियों से शिष्य ने बहुधा सुना है कि कई भाग्यवान युवकों ने उनके उत्साहपूर्ण वचनों से प्रेरित होकर गृहस्थाश्रम का त्याग करके सन्यासी (लीडर ट्रेनी) बनना चाहा; किन्तु स्वामीजी के गुरुभाइयों ने उनमें से बहुत अनुरोध किया कि इनमें से एक को संन्यास दीक्षा (लीडरशिप ट्रेनिंग) न दी जाय। इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा था, " आह, यदि हमलोग भी पापी, तापी, दिन-दुःखी और पतितों के उद्धारसाधन से इनकार कर दें, तो फिर इस जगत में कौन इनकी देख-भाल करेगा ? तुम इस विषय में किसी प्रकार की बाधा न डालो। "   
'न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशु: (कैवल्योपनिषत् १/२) — न कर्म से, न सन्तान से और न धन से, वरन कुछ असाधारण विरले लोगों (rare ones) ने मात्र त्याग से अमृतत्व प्राप्त किया है। जो ब्रह्मचारी अपनी श्राद्ध क्रिया करने के बाद गंगाजी में पिण्ड आदि डालकर लौट आये, उन्होंने स्वामीजी के चरण कमलों की वंदना की। स्वामीजी आशीर्वाद देते हुए बोले, " तुम मनुष्य जीवन के सर्वश्रेष्ठ व्रत [' Be and Make'] को ग्रहण करने के लिये उत्साहित हुए हो। धन्य है तुम्हारा वंश, और धन्य है तुम्हारी गर्भ-धारिणी माता -' कुलं पवित्रं जननी कृतार्था !'
गीता भी कहती है -"काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु:" -अर्थात ज्ञानी जानते हैं कि कामनाओं के लिये किये गये कर्म का त्याग करना ही संन्यासी जैसा जीवन जीना है। (जो महामण्डल के कर्मी नहीं हैं-जो इस चरित्र-निर्माण आन्दोलन के साथ नहीं जुड़े हैं, उनमें से) कोई कामिनी के दास हैं, कोई अर्थ के, कोई नाम-यश के या विद्या अथवा पाण्डित्य के। इस दासत्व को छोड़ कर बाहर निकलने से ही वे मुक्ति के पथ - " मनुष्य बनो और बनाओ " के पथ पर चल सकते हैं ! 
शिष्य- महाराज क्या संन्यास ग्रहण करने ( या महामण्डल कर्मी बनने) से ही सिद्धि-लाभ होता है ?
स्वामीजी - सिद्धिलाभ होता है या नहीं, यह बाद की बात है। जब तक तुम भीषण संसार की सीमा से बाहर नहीं आते, जब तक वासना के दासत्व को नहीं छोड़ सकते, तब तक भक्ति या मुक्ति की प्राप्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती। ब्रह्मज्ञ के लिये ऋद्धि-सिद्धि बड़ी तुच्छ बात है।
शिष्य- महाराज, क्या संन्यास ग्रहण करने (महामण्डल का लीडर ट्रेनी बनने) के लिये क्या विशेष उम्र होने तक प्रतीक्षा करनी होती है ' is there any special time'? 
स्वामीजी- संन्यास धर्म (बनो और बनाओ) की साधना में किसी प्रकार का कालकाल नहीं है। श्रुति कहती है, "यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्"  —जिस समय भी तुम्हारे मन में भारत-भक्ति सर्वोच्च जीवन लक्ष्य प्रतीत हो, और कामिनी-कंचन से वैराग्य का उदय हो तभी प्रव्रज्या (लीडर ट्रेनी बनना) करना उचित है। 'योगवशिषिठ' में भी है -  
युवैव धर्मशील: स्यात् अनित्यं खलु जीवितम्।
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति॥

अर्थात्- जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील बनना चाहिये । कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ? मृत्यु का पता नहीं कब हो जाये, यह सोचकर जीवन में सबसे पहले से सत्य या ईश्वर की खोज करनी चाहिये।  यह जीवन अनित्य है, यह समझकर युवावस्था से ही धर्म का पालन या ईश्वर की खोज में लग जाना चाहिये।
— "Owing to life itself being frail and uncertain, one should be devoted to religion even in one's youth. For who knows when one's body may fall off?"

विविदिषा संन्यास - आत्म-तत्व को जानने की प्रबल इच्छा ' strong yearning' जिस सत्यार्थी में रहती है, उसे शास्त्र पाठ या साधनादि द्वारा अपना स्वरुप जानने के लिए किसी ब्रह्मज्ञ पुरुष की कृपा अनायास प्राप्त हो जाती है, (यह पूर्व जन्म के संस्कार से ही होता है) और वह संन्यास लेने (लीडर ट्रेनी) का अधिकार प्राप्त कर लेता है।  
 इसी कारण सिद्धार्थ गौतम को योगियों और साधुओं के पास जाने पर भी जब कहीं शान्ति नहीं मिली तब
 ' इहासने शुष्यतु मे शरीरम् '- कहकर आत्मज्ञान लाभ करने के लिये वे स्वयं ही बैठ गये और गौतम-बुद्ध होकर उठे ! 'लीडर ट्रेनी बनने और बनाने' का त्याग-व्रत लेकर महामण्डल आन्दोलन से जुड़कर ब्रह्मज्ञ होना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इस लीडरशिप ट्रेनिंग (वैराग्य) को प्राप्त करना ही परम पुरुषार्थ है। यह वैराग्य उतपन्न होने पर जिनका संसार से अनुराग हट गया है, वे ही धन्य हैं। सच्चे संन्यासी (जो सादा पोशाक में भी महामण्डल-ऋषि हैं) हैं, वे ही गृहस्थों के उपदेशक हैं। उन पवित्र संन्यासियों को देखकर गृहस्थ भी उन पवित्र भावों को अपने जीवन में परिणत करते हैं और ठीक ठीक कर्म -'Be and Make' करने को तत्पर होते हैं। 
शिष्य - महाराज, लोक कल्याण (भारत कल्याण) में तत्पर यथार्थ संन्यासी मिलता कहाँ है ? 
स्वामीजी - आह, यदि हजार वर्ष में भी श्रीरामकृष्ण के समान कोई गृहस्थ संन्यासी जन्म ले लेते हैं तो सब कमी पूरी हो जाती है। वे जिन उच्च आदर्श और भावों को छोड़ जाते हैं, उनके जन्म से सहस्र वर्षों तक लोग उनको ही ग्रहण करते हैं। 
भारतवर्ष में अभी तक इस संन्यास प्रथा [ ' मठवासी शिक्षण संस्थान' (monastic institution-संन्यासी आचार्यों के आश्रम में युवाओं को रख कर 'नेतृत्व का प्रशिक्षण' देने वाली संस्था)] के होने के कारण ही यहाँ उनके सामान महापुरुष जन्म ग्रहण करते हैं। दोष सभी आश्रमों (मनुष्य की आयु को १०० वर्ष मानकर मनुष्य जीवन को जिन चार आश्रमों में बाँटा गया है, उनमें से) में हैं, पर किसी में कम तो किसी में अधिक। दोष रहने पर भी इस आश्रम को अन्य आश्रमों का जो शीर्ष स्थान प्राप्त हुआ है, इसका कारण क्या है ? सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं - जगत के मंगल के लिये ही उनका जन्म होता है। यदि ऐसे संन्यास-आश्रम (गृहस्थ-आश्रम में भी संन्यासी जैसा जीवन जीने वाले श्री नवनीहरण) के भी तुम कृतज्ञ न हो तो तुम्हें धिक्कार है, कोटि कोटि धिक्कार। इन बातों को कहते कहते स्वामीजी का मुखमण्डल प्रदीप्त हो उठा । संन्यास आश्रम के गौरव प्रसंग पर चर्चा करते समय स्वामीजी मानो साक्षात मूर्तिमान संन्यास के रूप में प्रतिभासित होने लगे।
 इस आश्रम की सर्वोच्चता का अनुभव कर मधुर स्वर में शंकराचार्य रचित 'कौपीन पंचकम्' की आवृत्ति करने लगे -(Five Stanzas on the wearer of loin-cloth) जो संन्यासी कमर पर मात्र लंगोट धारण कर विचरण करते हैं- (उन 'तोता पूरी जी' ठाकुर के 'नंगटा गुरु' को समर्पित पाँच छन्द

 
 वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः |
विशोकमन्तःकरणे चरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||१||
 
अद्वैत वेदान्त के उपवन (पंचवटी-दक्षिणेश्वर) में सदैव विचरण करने वाले, भिक्षान्न में जो मिल गया 
उसी से सन्तुष्ट और सदा आनन्दित, सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त अन्तःकरण के साथ गाँव-गाँव 
भटकने वाला वह संन्यासी सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर)
भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है !
 
मूलं तरोः केवलमाश्रयन्तः पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः |
कन्थामिव श्रीमपि कुत्सयन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||२||

जिसका आश्रय केवल पंचवटी के वृक्ष नीचे है, दोनों अंजलि में जितना भोजन अंटा  -उसी अल्प भाग को खाने वाला, धन-दौलत को गुदड़ी (कन्थामिव- पैबन्द लगे गेंदरे) के समान ठोकर मारता है, वह संन्यासी (नवनी दा) सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर) भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है !  
  
स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः सुशान्तसर्वेन्द्रियवृत्तिमन्तः |
अहर्निशं ब्रह्मसुखे रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||३||

अपने हृदयस्थ परमानन्द द्वारा सदैव आल्हादित रहते हुए जो अपनी समस्त इन्द्रियों की उत्कट इच्छाओं को पूर्णतः शान्त करने में समर्थ हो जाता है, वह दिन रात ब्रह्मानन्द (नाम की खुमारी) में मस्त रहता है। वह संन्यासी (नवनी दा) सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर) भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है ! 
देहादिभावं परिवर्तयन्तः स्वात्मानमात्मन्यवलोकयन्तः |
नान्तं न मध्यं न बहिः स्मरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||४|| 

मन और शरीर में निरन्तर होने वाले परिवर्तनों को वह साक्षी भाव से देखता है और समस्त जीवों को अपनी आत्मा के समान देखता है। सृष्टि-स्थिति-लय को भी सिया-राम मय देखने वाला वह संन्यासी (नवनी दा) सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर) भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है !    
  
 ब्रह्माक्षरं पावनमुच्चरन्तो ब्रह्माहमस्मीति विभावयन्तः |
भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||५||


गुरु द्वारा प्रदत्त पवित्र ब्रह्म के नाम, जो जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला है, को जपता हुआ, निरंतर- `I am Brahman', 'मैं ब्रह्म हूं' के ऊपर एकाग्रता (प्रत्याहार-धारणा) का अभ्यास करता है। और भिक्षा में मिले अन्न पर निर्भर रहता हुआ, जो गाँव गाँव में चरित्र-निर्माण आन्दोलन को फ़ैलाने का प्रयत्न करता है- वह संन्यासी (नवनी दा) सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर) भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है !    
 फिर कहने लगे, " बहुजनहिताय बहुजनसुखाय " ही संन्यासियों (महामण्डल के नेताओं) का जन्म होता है।   इस विविदिषा संन्यास (पूज्य नवनी दा से लीडर ट्रेनी बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करके भी) जो इस ऊँचे लक्ष्य - 'Be and Make' आन्दोलन से भ्रष्ट हो जाता है, उसका तो जीवन ही व्यर्थ है- वृथैव तस्य जीवनम् !
महामण्डल में नेतृत्व का प्रशिक्षण क्यों दिया जाता है ? औरों के निमित्त अपना जीवन उत्सर्ग करने, जीव के आकाशभेदी क्रन्दन को दूर करने, जो मातायें -बहनें सम्मान का जीवन पाने के लिये तरस रही हैं- उनके आँसू पोछने, पुत्र-वियोग से पीड़ित अभिभावकों के मन को शान्ति देने, सर्वसाधारण को जीवन-संग्राम में सक्षम करने, शास्त्रों के उपदेशों को फैलाकर सबका ऐहिक और परमार्थिक मंगल करने और ज्ञानलोक से सबके भीतर जो ब्रह्म-सिंह सुप्त है, उसे जाग्रत करने । महामण्डल के सभी कर्मियों बैठे बैठे क्या कर रहे हो ? 'arouse the sleeping lion of Brahman in all by throwing in the light of knowledge.' उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करो ! उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत -उठो जागो, और तब तक रुको नहीं, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय। 
३.  ५ जनवरी १८९० को इलाहबाद से श्री यज्ञेश्वर भट्टाचार्य को लिखित पत्र में कहते हैं -
प्रिय फ़कीर, नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अंतःकरण पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिये। नैतिक होने के साथ - साथ वीर भी बनो --अपने प्राणों के लिये कभी न डरो ! धार्मिक मत-मतान्तरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची न करना। कायर लोग पापाचरण करते हैं, वीरपुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते-यहाँ तक कि वे कभी अपने मन में पापपूर्ण विचारों को उदय भी नहीं होने देते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। स्वयं मनुष्य बनो, तथा जो लड़के तुम्हारे देखभाल में हैं, उनको साहसी, नीतिपरायण तथा दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील बनाने की चेष्टा करो। युवाओं-तुम्हारे लिये नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। इसके सिवाय अन्य किसी धार्मिक-मतवाद को मानना तुम्हारे लिये आवश्यक नहीं है। कायरपन, पाप, असत आचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिये, बाकी आवश्यकीय वस्तुएं अपने आकर उपस्थित होंगी। राम को कभी टीवी-सिनेमा या अन्य ऐसे खेल-तमाशे जिससे चित्त की दुर्बलता बढ़ती हो, स्वयं न ले जाना या जाने देना। --तुम्हारा नरेन्द्रनाथ
=======  
 
  
  

कोई टिप्पणी नहीं: