शुक्रवार, 23 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (2) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

' विवेकानन्द - दर्शनम् '
२. 
यह जगत क्यों है ?
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )

[ विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम् ]

[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 


 
' महाविद्या' श्री श्री माँ सारदा और आप ,
 मैं ...या कोई भी ... 

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||



[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।] 
==========
 
 २.
 मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते |  
पश्यामः केवलं तद्धि नृनिर्माणं कथं भवेत् ||

Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'

मैन इज़ मार्चिंग टुवर्ड्स परफेक्शन. दैट इज -- ' दी ग्रेट इंटरेस्ट रनिंग थ्रू. वी वेयर ऑल वाचिंग दी मेकिंग ऑफ़ मेन, ऐंड दैट अलोन.'

चलचित्रों के इस सतरंगी समुच्चय-छटा रूपी जगत द्वारा केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है कि - अपने मोह (भ्रमों-भूलों) को त्यागता हुआ -मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (आदर्श ) की ओर अग्रसर हो रहा है ! हम सभी लोग अभी तक (जगत  रूपी टेलीविजन धारावाहिक के माध्यम से) केवल 'यथार्थ मनुष्य' (पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य) को निर्मित होता हुआ देख रहे थे ! "

प्रसंग : [१-२ :१.' उच्चतर जीवन के निमित्त साधनायें '३/ ९३-९८/  ' ब्रह्म एवं जगत ' Volume 2/Jnana-Yoga/The Absolute and Manifestation / श्रीमती ओली बुल (धीरा माता) को २० जनवरी १८९५  लिखित पत्र /इ ० टी० स्टर्डी को अगस्त १८९५ में लिखित पत्र/ श्रीमती ओली बुल (धीरा माता) को एवं अगस्त १८९५ का पत्र ईसा-अनुसरण -७/३३९ तथा भगिनी निवेदिता द्वारा कोलकाता डायरी में ८ मई १८९९ को लिखित/  १ नवम्बर १८९६ को मिस मैरी हेल को लिखित पत्र, ]


विषयवस्तु : पहले श्लोक में हमने जीवन की अन्तर्मुख यात्रा के संबंध में हमने पढ़ा था कि हमारा लक्ष्य,यम-नियम-आसन-पत्याहार-धारणा अर्थात महासंयोग का अभ्यास करके अतिचेतन में पहुँचकर अविनाशी आनन्द का साक्षात्कार करना है ! चीत्त में वह संस्कार यदि क्षण के लिए एक बार भी पड़ गया;  स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " एक बार संस्कार पड़ने पर वह मिटता नहीं, चित्त के उपर उसकी गहरी लकीर पड़ जाती है।  हमलोग बार बार मन-वचन-कर्म से जो कुछ भी सोचते, बोलते, करते हैं, उसकी ऑफिस कॉपी या कार्बन कॉपी-उसकी  एक छाप या संस्कार चित्त में संचित रह जाते हैं। अतः पहले बुरी आदतों को अच्छी आदतों में बदलो -इससे चित्त के ऊपर सद्संस्कारों की गहरी छाप पड़ जायगी।  और अवचेतन मन के विशाल सागर में गहराई तक छपे कर्मों के संस्कार नियंत्रण में आने लगेंगे। यही हमारी साधना का पहला अंग (निरंतर विवेक-प्रयोग और चरित्र-निर्माण अर्थात यम-नियम का अभ्यास) है, और हमारे सामाजिक कल्याण के लिये इसकी नितान्त आवश्यकता है। 
 ( फिर प्रातः और सायं दो बार नियम पूर्वक आसन-प्रत्याहार-धारणा या मनःसंयोग का अभ्यास करते हुए क्रमशः) अतिचेतन या इन्द्रियातीत अवस्था में पहुँचना ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। अतः जीवन में एक ईश्वर तुल्य अर्थात पूर्णतः निःस्वार्थ आदर्श जो प्रेमस्वरूप एवं पवित्रता स्वरुप भी है, उसका चयन आज ही कर लो। और उन्हें अपने ह्रदय-कमल में आसन देकर उनके ही ऊपर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करो। इस प्रकार अध्यवसाय पूर्वक अपने जीवनादर्श या रोल मॉडल पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते करते, एक दिन जब साहचर्य  (लॉ ऑफ़ असोसिएसन)के नियमानुसार चित्त शुद्ध हो जाता है, मन इन्द्रियातीत अवस्था में पहुँच जाता है। जब उस अवस्था की उपलब्धि हो जाती है, तब यही मानव दिव्य बन जाता है, मुक्त हो जाता है।और तब हम जन्म-मृत्यु के इस बंधन से मुक्त होकर उस ' एक' की ओर प्रयाण करते हैं, जहाँ-जन्म और मृत्यु किसी का अस्तित्व नहीं है, तब हम सत्य को जान लेते हैं और सत्यस्वरूप बन जाते हैं। ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ! " ३/९३ 
" ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो सम्पूर्णतया बुरी हो। यहाँ शैतान और  ईश्वर दोनों के लिए ही स्थान है, अन्यथा शैतान यहाँ होता ही नहीं। हमारी भूलों की भी यहाँ उपयोगिता है। बढे चलो ! यदि तुम सोचते हो कि तुमने कोई अनुचित कार्य किया है, तो फिर पीछे फिर कर मत देखो। यदि तुमने पहले इन गलतियों को न किया होता, तो क्या तुम मानते हो कि आज तुम जैसे हो, वैसे कभी हो सकते थे ? छोटी छोटी भूलों और बातों पर ध्यान न दो। हमारी इस रणभूमि में भूलों की धूल तो उड़ेगी ही।
यदि किसी चित्र (टीवी धारावाहिक ) में तुम दुःख का दृश्य देखो, तो तुम में से कौन उसे सहन नहीं कर सकता ? इसका कारण क्या है -जानते हो ? -हम उन चित्रों की धारावाहिक श्रृंखला के साथ अपना तादात्म्य नहीं करते, क्योंकी चित्र-शृंखला असत है, अवास्तविक है, हम जानते हैं कि वह एक दृश्य मात्र है। यदि पर्दे पर कोई भयानक दुःख वाला दृश्य -'फिल्म देवदास ' चल रहा हो, तो शायद हम उसका रस भी ले सकते हैं। हम कलाकार और निर्देशक के कला की प्रशंसा करते हैं, हम उसकी असाधारण प्रतिभा पर आश्चर्यचकित हो जाते हैं, भले बिभीतस्तम् दृश्य ही क्यों न हो। इसका रहस्य क्या है ? अनासक्ति ही इसका रहस्य है। अतएव साक्षी बनो। कहो -'मैं साक्षी हूँ, मैं आत्मा हूँ ! 'कोई भी बाह्य वस्तु मुझे स्पर्श नहीं कर सकती। 
सुवर्ण की एक थैली क्या कभी मेरा आदर्श हो सकती है ? कदापि नहीं ! कोई कारण नहीं कि मैं {इस्केलिये } कर्म करूँ, कोई कारण नहीं, जो मैं इसको पाने के लिये दुःखभोग करूँ, मैं सब कर्मों से निबट चूका हूँ, मैं साक्षी स्वरुप हूँ। मैं अपनी पिक्चर गैलरी या टीवी रूम में हूँ, यह विश्व मेरा म्यूज़ियम-थियेटर  है, मैं यहाँ एक साक्षी के रूप में इन क्रमिक चित्रों को देख रहा हूँ। वे सभी सुन्दर हैं -भले हों या बुरे। मैं सतरंगी चित्रों के इस श्रृंखला के अत्यद्भुत् कौशल को देख रहा हूँ; यह सब उस महान चित्रकार की अनन्त चित्र-शृंखला है। सचमुच, किसी का अस्तित्व नहीं है- न संकल्प है, न विकल्प। वही सब कुछ हैं। वही जगत जननी लीला कर रही है, और हम सब उनके खिलौने जैसे हैं, उनकी लीला में सहायक मात्र हैं। यहाँ वे किसी को कभी एक भिखारी के रूप में सजाती हैं, और कभी एक राजा के रूप में, तीसरे क्षण उसे एक साधु का रूप दे देती हैं,  देर बाद एक शैतान की वेश-भूषा पहना देती हैं। जगतजननी के लीलाविलास में उनकी सहायता के लिये हम विभिन्न रूप धारण कर रहे हैं।
हमारे जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं, जब हम अनुभव करते हैं, कि हमारा खेल - ( मनुष्य बनने का ) खत्म हो चुका, और तब हम जगन्माता की ओर दौड़ जाना चाहते हैं। तब, हमारे लिये यहाँ के सारे कार्य-कलापों का कोई मूल्य नहीं रह जायेगा, नर-नारी-बच्चे, धन-नाम-यश, जीवन के हर्ष और महत्व, दण्ड पर पुरस्कार-इनका कुछ भी मूल्य न रह जायेगा और  सारा जीवन एक तमाशा प्रतीत होगा। हम केवल उस असीम छन्दोक्रम -बदलते हुए छाया -चित्रों का अवलोकन करेंगे, बिना किसी गंतव्य स्थल के, बिना किसी उद्देश्य के जो चलता जा रहा है, न जाने कहाँ? हम केवल इतना ही कह सकेंगे - ' हमारा खेल समाप्त हो चुका ! (हम मनुष्य बन सके ? ) ३/ ९८
" There is nothing that is absolutely evil, which cannot be changed into good, because God alone is the Final Reality from which everything has manifested."
स्वामीजी कहते हैं, " इस जगत में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं जो पूरी तरह से बुरा (शैतान ) हो, जिसे अच्छे मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता हो; क्योंकि ब्रह्म  ही वह अंतिम सत्य हैं, जिनसे सम्पूर्ण जगत अभिव्यक्त हुआ है। नीचे दिये चित्र में (a) दी एब्सोल्यूट अर्थात ब्रह्म है और (b) दी यूनिवर्स अर्थात जगत है! यहाँ पर जगत शब्द से केवल जड़-जगत ही नहीं, किन्तु सूक्ष्म तथा आध्यात्मिक जगत, स्वर्ग, नरक और वास्तव में जो कुछ भी है, सबको इसके अन्तर्गत लेना होगा। मन एक प्रकार के परिणाम का नाम है, शरीर एक दूसरे प्रकार के परिणाम का-इत्यादि, इत्यादि। इन सबको लेकर अपना यह जगत निर्मित हुआ है। 

 TheAbsoluteAndManifestation.svg

यह ब्रह्म (a) दी एब्सोल्यूट, (c) टाइम-स्पेस-कॉज़ेशन देश-काल-निमित्त या  (कारणता; कारण-कार्य संबंध ) में से होकर आने से (b) जगत या दी यूनिवर्स बन गया है। यही अद्वैतवाद की मूल बात है। हम देश-काल-निमित्त रूपी चश्मे से ब्रह्म को देख रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म है, वहाँ देश-काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, क्योंकि वहाँ न मन है, न विचार। देश भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई बाह्य परिणाम नहीं है। और जहाँ सत्ता केवल एक है, वहाँ कार्य-कारणवाद भी नहीं  सकता; क्योंकि निमित्त ब्रह्म के नाम-रूप में अधःपतित होने के बाद ही होता है, उससे पहले नहीं। और हमारी इच्छा, वासना आदि जो कुछ है, वे सब उसके बाद ही आरम्भ होते हैं। " २/८५
" हमें केवल यह समझ लेना होगा कि सामाजिक दोषों के निराकरण का कार्य उतना वस्तुनिष्ठ नहीं है, जितना आत्मनिष्ठ। समाज के दोषों को प्रबल उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन द्वारा अथवा कड़े कानून के बल पर सहसा हटा देने से जिस उद्देश्य के लिए वह किया गया था वह उद्देश्य ही विफल हो जाता है। दोषारोपण अथवा निन्दा करने की भला आवश्यकता क्या? ऐसा कौन सा समाज है, जिसमें दोष न हों ? हम जानते हैं कि यहाँ बुराइयाँ हैं, पर बुराई तो हर कोई दिखा सकता है। मानव समाज का सच्चा हितैषी तो वह है जो इन कठिनाइयों से बाहर निकलने का उपाय बताये। ५/ १०९ " मेरा विचार है कि मैं भारत में कुछ ऐसे 'ज्ञान मंदिर ' स्थापित करूँ, जहाँ हमारे नवयुवक अपने शास्त्रों के ज्ञान -(मनःसंयोग और चरित्र-निर्माण पद्धति ) में प्रशिक्षण प्राप्त करके भारत तथा भारत के बाहर मनुष्य-निर्माण और चरित्र निर्माणकारी शिक्षा - 'Be and Make ' का प्रचार कर सकें। ' मनुष्य ' -केवल मनुष्य भर चाहिये। बाकी सब कुछ अपने आप हो जायगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जायें, तो संसार का कायाकल्प हो जाय। .... सबके समक्ष अपने धर्म के महान सत्यों का प्रचार करो, संसार इसकी प्रतीक्षा कर रहा है। " हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धांतों की जरुरत है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसंपन्न शिक्षा चाहिये, जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी --जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे ज़हर की भाँति त्याग दो, उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। " ५/११८-१२०  
' ब्रुकलिन से २० जनवरी, १८९५ को श्रीमती ओलि बुल को लिखित पत्र '

[उनके पिता की मृत्यु के अवसर पर लिखित। स्वामीजी ने उन्हें धीरा माता कहकर सम्बोधित किया था]

प्रिय धीरा माता, 
आपके पिता के जीर्ण शरीर छोड़ने से पहले ही मुझे पूर्वाभास हो गया था, किन्तु जब किसी व्यक्ति से भावी माया की प्रतिकूल लहर टकराने वाली हो तो मैं उसे पहले से ही लिख दूँ- मेरा यह नियम नहीं है। ये अवसर जीवन को मोड़ देने वाले होते हैं। और मैं जानता हूँ कि आप विचलित नहीं हुई हैं। समुद्र के सतह पर लहरें बारी बारी से उठती-गिरती रहती हैं, किन्तु द्रष्टा आत्मा को - जो ज्योति की सन्तान है, प्रत्येक लहरों के डूबने की गहराई तक, समुद्र के तल में मोती और मूंगों की परतें ही प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। 
आना (जन्म ) और जाना (मृत्यु) केवल भ्रम है। आत्मा न आती है, न जाती है। वह किस स्थान में जायगी, जब कि सम्पूर्ण स्पेस (देश) आत्मा में ही स्थित है? प्रवेश करने और प्रस्थान करने का कौन समय होगा, जब समस्त काल आत्मा के भीतर ही है।
पृथ्वी घूमती है और सूर्य के घूमने का भ्रम उत्पन्न होता है। किन्तु सूर्य नहीं घूमता। इसी प्रकार प्रकृति या माया चंचल और परिवर्तनशील है। यहाँ नाम-रूपों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है, और इसी क्रम में एक के बाद दूसरा घूँघट उठता चला जाता है; माया इस जगत रूपी विराट पुस्तक के पन्ने पर पन्ने बदलती जाती है, जबकि साक्षी आत्मा अप्रभावित (अन्मूव्ड), और अपरिणामी (अन्चेन्ज्ड=रज्जु-सर्प न्याय) रहकर ज्ञान का पान करती है। 
जितनी भी जीवात्माएं हो चुकी हैं या होंगी,सभी वर्तमान काल में हैं -और यदि जड़ जगत की एक उपमा की सहायता लेकर कहें, तो वे सभी दिवंगत या भावी आत्माएँ एक ही ज्यामितीय बिन्दु (जोमेट्रिकल पॉइंट) पर स्थित हैं। चूँकि आत्मा में देश का भाव नहीं रहता, इसलिये जो हमारे थे, वे हमारे हैं, सर्वदा हमारे रहेंगे और सर्वदा हमारे साथ हैं। वे सर्वदा हमारे साथ थे, और हमारे साथ रहेंगे। हम उनमें हैं, वे हममें। निम्नांकित कोषाणुओं (सेल्ज्स) के  रेखा-चित्र (डायग्राम)  देखो ।  
यद्द्पि इनमें से प्रत्येक पृथक है, तथापि वे सब के सब (A) देह और (B) प्राण को जोड़ने वाली रेखा (AB-आत्मा) के इन दो बिन्दुओं में अभिन्न भाव से संयुक्त हैं। वहाँ सब हैं। प्रत्येक देहाध्यासि जीवात्मा -a',a'',a''' (मनुष्य) और  b',b'',b''' (अन्य दृष्टिगोचर या सूक्ष्म जीव-जड़ वस्तुओं ) का अलग अलग व्यक्तित्व (नाम-रूप) है, परन्तु वे सब 'AB' बिन्दुओं पर एक हैं। 
कोई भी उस अक्ष-रेखा (ऐक्सिस 'AB' -आत्मा या भगवान ) से निकलकर भाग नहीं सकता। और उसकी परिधि चाहे कितनी टूटी या फूटी क्यों न हो, परन्तु अक्ष-रेखा में खड़े होने से हम किसी भी कक्ष (चैम्बर) में प्रवेश  सकते हैं। यह अक्ष-रेखा ईश्वर (आत्मा) है। वहाँ उससे हम अभिन्न हैं, सब सबमें  है, और सब ईश्वर में है। चन्द्रमा के मुख पर चलते हुए बादल यह भ्रम उतपन्न करते हैं कि चन्द्रमा चल रहा है। 
 इसी प्रकार प्रकृति, शरीर और जड़ वस्तुएँ  (a',a'',a''' (मनुष्य) और  b',b'',b''') ही गतिशील हैं और उनकी गति (जन्म-बचपन-कैशोर्य-यौवन-प्रौढ़-बुढ़ापा -मृत्यु ) उनकी यह अनिवार्य गति ही ऐसा भ्रम उतपन्न करती है कि मानों (AB) आत्मा ही गतिशील है!! इस प्रकार अन्त में हमें यह पता चलता है कि जिस जन्मजात-प्रवृत्ति (अथवा अन्तः स्फुरणा ? ) से सब जातियाँ -उच्च या निम्न -दिवंगत आत्माओं (मृत व्यक्तियों ) की उपस्थिति अपने समीप अनुभव करती  हैं, यह घटना युक्ति की दृष्टि (इन्टलेक्चूअली बौद्धिक रूप से ) से भी सत्य है!! 
प्रत्येक दिवंगत जीवात्मा एक नक्षत्र है, और ये सभी नक्षत्र ईश्वररूपी उस अनन्त निर्मल नील गगन में विन्यस्त हैं। वही ईश्वर प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप है, वही प्रत्येक का यथार्थ स्वरुप और वही प्रत्येक और सबका प्रकृत व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा -रूप नक्षत्रों में से कुछ के, जो हमारी दृष्टि-सीमा से भी परे चले गये हैं, अनुसन्धान से ही धर्म का आरम्भ हुआ और यह अनुसन्धान तब समाप्त हुआ, जब हमने पाया कि उन सबकी अवस्थिति (AB-आत्मा) या परमात्मा में ही है और हम भी उसी में हैं। अब सारा रहस्य यह है कि आपके पिता ने जो जीर्ण वस्त्र पहना था, उसका त्याग उन्होंने कर दिया, और वे वहीँ अवस्थित हैं, जहाँ वे अनन्त काल से थे। 
इस लोक में या किसी और लोक में क्या वे फिर ऐसा ही कोई वस्त्र पहनेंगे ? मैं सच्चे दिल से प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा न हो, जब तक कि वे स्वयं ऐसा पूरे ज्ञान के साथ न करें। मैं प्रार्थना करता हूँ कि अपने पूर्व कर्म की अदृश्य शक्ति से परिचालित होकर कोई भी मनुष्य अपनी इच्छा के विरुद्ध कहीं भी न ले जाया जाय। मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी मुक्त हो जायें अर्थात वे यह अपने अनुभव से जान लें कि वे यहाँ और अभी इसी शरीर में मुक्त हैं !! और यदि वे पुनः कोई स्वप्न देखना चाहें (संसार को मुक्त कराने  इच्छा से ? ) तो वे सब स्वप्न आनन्द और  शान्ति के ही स्वप्न हों।" …… 
प्रसिद्द वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस को विदेश भेजने के लिए भारत ने जी जान से कोशिश की। क्योंकि उन्होंने स्वामीजी के ही निम्नोक्त कथन-के आधार पर यह सिद्ध कर दिखाया था कि पौधों में भी जीवन होता है। " यदि यह कहा जाय कि पौधा (प्लैन्ट) 'अचेतन'  है, या अधिक से अधिक वह -'चैतन्यरहित इच्छाशक्ति से युक्त ' है, तो उसका यह उत्तर होगा कि यह 'अचेतन वनस्पति क्रिया' (अन्कान्शस प्लान्ट-वील ) भी चैतन्य की ही अभिव्यक्ति है, यह चेतना (कन्श्स्नेस ) उस पौधे का भले न हो, किन्तु वह उसी विश्वव्यापी चेतन बुद्धिशक्ति (कॉस्मिक इंटेलिजेंस) की अभिव्यक्ति है, जिसे सांख्य दर्शन में महत् कहते हैं!" (४/३४१ इ ० टी० स्टर्डी को अगस्त १८९५ में लिखित पत्र में ) स्वामी जी कहते हैं -" बौद्धों का यह मतवाद कि,
 ' वास्तव-जगत का सभी कुछ उस 'एषणा'  या संकल्प से उद्भूत हुआ है '-- अपूर्ण है। क्योंकि प्रथमतः 'इच्छा' स्वयं ही एक मिश्र पदार्थ (कम्पाउन्ड-संयुक्त जुड़ा हुआ शब्द) है, और द्वितीयतः चैतन्यता या ज्ञान (कांशसनेस ऑर नॉलेज) जो पहले दर्जे का (सर्वश्रेष्ठ) मिश्र पदार्थ (कम्पाउन्ड) है। क्योंकि वह 'तदेकं ' इच्छा के भी पहले विद्यमान है। नॉलेज इज एक्शन - ज्ञान ही क्रिया है। पहले क्रिया होती है, फिर उसके बराबर और बिपरीत प्रतिक्रिया होती है। मन पहले अनुभव करता है एवं उसके बाद प्रतिक्रिया के रूप में उसमें संकल्प का उदय होता है। क्रमविकास की प्रत्येक परम्परा के पीछे क्रमसंकोच की क्रिया निहित है। इसलिये 'वासना' या 'संकल्प' विकास के पूर्व 'महत्' या ' विश्वचेतना' (कॉस्मिक इंटेलिजेंस) संकुचित अथवा सूक्ष्म भाव से विद्द्य्मान रहती है। 

 
Conscoiusness or Mahat by Swami Vivekananda


कॉस्मिक कांशसनेस या विश्वचेतना या महत 
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अवचेतन मन (सब्कान्शस माइंड)----------चेतन मन (कॉन्शस माइंड)-------अतिचेतन मन(सूपर कॉन्शस)|
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चेतनारहित इच्छाशक्ति 
 (अन्कान्शस प्लान्ट-वील)-------चेतन इच्छाशक्ति (कॉन्शस विल प्रॉपर)----अतिचेतन संकल्प (सूपर कॉन्शस विल 'विवेक ')

 देयर इज नो विलिंग विदाउट नोइंग--' बिना ज्ञान के संकल्प असंभव है,' हाउ कैन वी डिज़ायर अनलेस वी नो दी ऑब्जेक्ट ऑफ़ डिज़ायर ? क्योंकि इच्छित वस्तु के संबन्ध में यदि किसी प्रकार का ज्ञान न हो, तो उसको पाने की इच्छा का उदय होगा ही कैसे ? 
 जिस क्षण तुम ज्ञान (अतिचेतन नॉलेज) को चेतन (कॉन्शस) और अवचेतन (सबकॉन्शस) में विभक्त कर सकोगे, उसी क्षण आपाततः कठिन ज्ञात होनेवाला यह ' ज्ञान ' तत्व सरल हो जायगा। ऐसा हो भी क्यों नहीं? यदि संकल्प या इच्छाशक्ति को हम इस प्रकार (विवेक-शक्ति में ) विभक्त कर सकते हैं तो उसके बाप (ज्ञान को ?), उसकी मूल वस्तु को क्यों नहीं विभक्त कर सकते ? ( The apparent difficulty vanishes as soon as you divide knowledge also into subconscious and conscious. And why not? इफ़ विल कैन बी सो ट्रीटेड, व्हाई नॉट इट्स फादर?"
१३ फरवरी १८९६ ई में श्री इ.टी. स्टर्डी को एक पत्र में लिखते हैं - " श्रीयुत् टेस्ला वैदान्तिक प्राण, आकाश और कल्प के सिद्धान्त को सुनकर बिल्कुल मुग्ध हो गए। उनके कथनानुसार आधुनिक भौतिक विज्ञान केवल इन्ही सिद्धान्तों को ग्रहण कर सकता है। चूँकि आकाश और प्राण दोनों कॉस्मिक महत ब्रह्माण्डीय महत्, यूनिवर्सल माइंड (समष्टि या सर्वव्यापी मन)--ब्रह्मा या ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं। 
श्री टेस्ला यह समझते हैं कि गणितशास्त्र कि सहायता से वे यह प्रमाणित कर सकते हैं, कि जड़ और शक्ति (मैटर ऐंड एनर्जी) दोनों ही स्थितिक उर्जा (पोटेंशियल एनर्जी ) में रूपांतरित हो सकते हैं।  गणितशास्त्र के इस नवीन प्रमाण (E=Mc2) को समझने के लिए मैं आगामी सप्ताह में उनसे मिलने जाने वाला हूँ। ऐसा होने से वैदान्तिक ब्रह्माण्ड विज्ञान (दी वेदान्तिक कॉस्मोलॉजी) अत्यन्त दृढ़ नींव पर स्थित हो सकेगा। 
मैं आजकल वैदान्तिक 'कॉस्मोलॉजी' एवं  'एस्केटालॉजी' (Eschatology- concerned with death, judgment, and the final destiny of the soul and of humankind.) ब्रह्माण्ड विज्ञान और परलोक विद्या में बहुत कुछ काम कर रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के साथ उनका पूर्ण सामंजस्य मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ, और एक कि व्याख्या के बाद दुसरे की भी हो जायगी। तदोपरान्त इसी विषय पर प्रश्नोत्तर के रूप में एक पुस्तक भी लिखना चाहता हूँ। उसका पहला अध्याय 'कॉस्मोलॉजी' या ब्रह्माण्डीय विज्ञान होगा, जिसमें वैदान्तिक सिद्धान्त और मॉडर्न फ़िजिक्स में सामंजस्य दिखलाया जायगा।  
 
 


      ब्रह्म       =   ऐब्सलूट (पूर्ण-असीम-अनन्त)    
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                                          |
                   महत् या ईश्वर   =   मौलिक रचनात्मक ऊर्जा (आदि सृष्टिशक्ति)

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                                   ^                                 ^
                           प्राण         आकाश      फ़ोर्स (शक्ति या ऊर्जा)   मैटर (पदार्थ)         
                                                         

[अविनाशी  ब्रह्म =(पूर्ण-असीम-अनन्त)> से ब्रह्माण्डीय महत्, यूनिवर्सल माइंड (समष्टि या सर्वव्यापी मन) या ईश्वर=आदि सृष्टिशक्ति माँ जगद्धात्री > उसी से प्राण और आकाश उत्पन्न हुआ> उसी मौलिक रचनात्मक ऊर्जा, आदि सृष्टिशक्ति का फ़ोर्स और मैटर का मिलाजुला रूप है माइंड-स्टफ ! वास्तविक मनुष्य आत्मा है।]
  'एस्केटालॉजी' की व्याख्या केवल अद्वैत के दृष्टिकोण से होगी। द्वैतवादियों का कहना है कि मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा सोलर स्फीयर (सूर्य लोक) में जाता है, वहाँ से लूनर स्फीयर (चन्द्र लोक) में और वहाँ से इलेक्ट्रिक स्फीयर (विद्द्युत लोक) में। वहाँ से किसी पुरुष के साथ वह ब्रह्मलोक जाता है। अद्वैतवादी कहते हैं कि वहाँ वह निर्वाण प्राप्त करता है। 
अद्वैतवादी दृष्टिकोण से आत्मा न कहीं आता है, न जाता है और ये सब लोक (स्फेयर) या जगत के  स्तर (लेअर) आकाश और प्राण के विभिन्न परिणाम मात्र हैं। अर्थात सबसे नीचा और सबसे घना सौर मण्डल (सोलर स्फीयर) है जो हमारा विज़िबल यूनिवर्स (दृष्टिगोचर जगत) है। इसी सौर मण्डल में प्राण फिजिकल फ़ोर्स (चुंबकत्व - भौतिक शक्ति) के रूप में प्रकट होता है, और आकाश पंचेन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ (सेंसिबल मैटर) के रूप में। 
इसके बाद के स्तर को लूनर स्फेयर - चन्द्र लोक कहते हैं जो सूर्यलोक को चारों ओर से घेरे है। यह चन्द्रमा नहीं है, परन्तु देवताओं का निवासस्थान है; अर्थात प्राण यहाँ साइकिक फोर्सेज (मानसिक शक्तियों) के रूप में प्रकट होता है, और आकाश तन्मात्रा या सूक्ष्म भूत (फाइन पार्टिकल्स) के रूप में प्रकट होता है। इसके परे विद्द्युत लोक - ' इलेक्ट्रिक स्फेयर '; अर्थात वह अवस्था जहाँ प्राण आकाश से प्रायः  इन्सेपरबल (अभिन्न) है, और यह निर्णय लेना कठिन हो जाता है कि ' इलेक्ट्रिसिटी ' (विद्द्युत) फ़ोर्स  है या मैटर ? विद्द्युत द्रव्य है या शक्ति ?
इसके बाद ब्रह्मलोक है जहाँ न प्राण है, न आकाश, परन्तु दोनों ही चित् -शक्ति अर्थात आदिशक्ति (दी प्राइमल  एनर्जी, माइंड-स्टफ या मनवस्तु) में  मर्ज्ड हैं, या मिले हुए हैं। यहाँ प्राण और आकाश के न रहने से जीव को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक  विश्व समष्टि मन या महत् के रूप में प्रतीत होता है। यह प्रतीति पुरुष या सगुण विश्वात्मा (माँ सारदा ?) की अभिव्यक्ति है, न कि निर्गुण अद्वितीय परमात्मा (श्रीरामकृष्ण ?) की, क्योंकि 'मल्टप्लिसिटी' या विविधता  सूक्ष्म संभावनाओं के रूप में यहाँ भी विद्यमान है। इसके पश्चात् जीव को पूर्ण एकत्व की अनुभूति होती है, जो कि मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
अद्वैत के अनुसार जीव के सम्मुख इन सब अनुभूतियों का प्रकाश एक के बाद एक क्रमशः होता है; परन्तु जीव स्वयं न कहीं आता है न जाता है; और इसी प्रकार इस वर्तमान जगत भी प्रक्षिप्त (प्रोजेक्टेड या अभिव्यक्त) हुआ है। इसी क्रम से प्रक्षेपण (प्रोजेक्शन= सृष्टि) और प्रलय (डिसलूशन) होते हैं; केवल एक का अर्थ है -' पीछे जाना ' (क्रमसंकोच) और दूसरे का -'बाहर निकलना ' (क्रमविकास)।
अब चूँकि प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही विश्व को देखता है, इसलिये उस विश्व की उत्पत्ति उसके बन्धन के साथ ही होती है, और उसकी मुक्ति से वह विश्व लय हो जाता है, तथापि वह औरों के लिये, जो बन्धन में हैं, अवशेष रहता है। नेम ऐंड फॉर्म से या नाम और रूप से ही विश्व बना है। समुद्र की तरंग, उसी समय तक तरंग कहला सकती है जब तक कि वह नाम और रूप से सीमित है। यदि तरंग शांत हो जाय तो वह समुद्र ही है । किन्तु उसके नाम और रूप  सदा के लिये विलुप्त हो गये। इसलिये उस तरंग का नाम और रूप जल के बिना नहीं हो सकते। उसी जल से नाम और रूप ने तरंग का निर्माण किया, परन्तु फिर भी वे स्वयं तरंग नहीं हैं। जैसे ही तरंग पानी बन जाती है वैसे ही नाम और रूप का लोप हो जाता है, परन्तु दूसरे नाम और रूप, जिनका दूसरी तरंगों से संबन्ध है, वर्तमान रहते हैं। यही ' नेम ऐंड फॉर्म ' या नाम और रूप माया कहलाता है; और पानी ब्रह्म है। [ चादर में पड़ी हुई गाँठ (नाम-रूप) तभी तक गाँठ कहा जाता है, जब तक वह खुल नहीं जाय, यदि गाँठ खुल जाय तो यह पहले भी चादर थी, अब भी चादर ही है। नेम ऐंड फॉर्म = 'गाँठ' या लहर माया है पानी या चादर ब्रह्म ]
सब काल में तरंग पानी ही है, परन्तु फिर भी तरंग (माँ जगद्धात्री ) के आकार में उसका नाम और रूप है! पुनः ये नाम और रूप एक क्षण के लिये भी पानी से पृथक होकर नहीं रह सकते, तथापि तरंग जल-रूप में अनन्त काल नाम और रूप से पृथक होकर रह सकती है। परन्तु  -'नेम ऐंड फॉर्म ' कैन नेवर बी  सेपरेटेड,नाम और रूप कभी पृथक नहीं किये जा सकते, इसलिये उनका अस्तित्व नहीं माना जा सकता। फिर भी ' नेम ऐंड फॉर्म ' ज़ीरो - 
' शून्य ' नहीं है। यही माया है।
[ श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे - " ईश्वर ( प्राइमल एनर्जी आदि सृष्टिशक्ति 'माँ जगद्धात्री ') का रूप मानना पड़ता है। जगद्धात्री रूप का अर्थ जानते हो ? जिन्होंने जगत को धारण कर रखा है, उनके धारण न करने से, उनके पालन न करने से जगत नष्टभ्रष्ट हो जाय। मनरूपी हाथी को जो वश में कर सकता है, उसी के हृदय में जगद्धात्री उदित होती है । ]
मैं इसका विवेचन बड़ी सावधानी से करना चाहता हूँ, फिर भी तुम तुरंत यह समझ सकते हो कि 'आइ एम ऑन दी राइट ट्रैक.'--मैं सही राह पर हूँ ! ऊँचे और नीचे केन्द्रों के परस्पर सम्बन्ध को जानने के लिये शरीर-क्रिया विज्ञान  या फिजियोलॉजी का अधिक गहराई से अध्यन करने की आवश्यकता है, केवल तभी इससे मन-वस्तु, जिससे मन बनता है या चित्त (माइंड स्टफ- 'दी प्राइमल  एनर्जी) और बुद्धि ( 'इंटेलेक्ट' या देवी सर्व भूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता ) आदि से सम्बंधित जो साइकोलॉजी या मनोविज्ञान है -उसे पूर्णता प्राप्त होगी। परन्तु मेरी बुद्धि के समक्ष अब सब कुछ स्पष्ट होता जा रहा है, धुँधलापन बिल्कुल दूर हो गया है। मैं उन्हें (तथाकथित बुद्धिजीवियों -कबीलांठों को) देना चाहता हूँ ' ड्राई, हार्ड रीज़न' - रुखा और कठोर तर्क, जो प्रेम के अति मधुर रस से कोमल किया गया हो, इंटेंस वर्क या उत्कट कर्म से सुगन्धित मसालेदार बना हो और योग की रसोई में पका हो, जिससे उसे एक शिशु भी -' ईज़ली डाइजेस्ट ' कर सके, या सहज रूप से पचा सके। " (४:३८४) 
" हमें केवल यह समझ लेना होगा कि सामाजिक दोषों के निराकरण का कार्य उतना वस्तुनिष्ठ नहीं है, जितना आत्मनिष्ठ। समाज के दोषों को प्रबल उत्तेजनापूर्ण आन्दोलन द्वारा अथवा कड़े कानून के बल पर सहसा हटा देने से जिस उद्देश्य के लिए वह किया गया था वह उद्देश्य ही विफल हो जाता है। दोषारोपण अथवा निन्दा करने की भला आवश्यकता क्या? ऐसा कौन सा समाज है, जिसमें दोष न हों ? हम जानते हैं कि यहाँ बुराइयाँ हैं, पर बुराई तो हर कोई दिखा सकता है। मानव समाज का सच्चा हितैषी तो वह है जो इन कठिनाइयों से बाहर निकलने का उपाय बताये। ५/ १०९ " मेरा विचार है कि मैं भारत में कुछ ऐसे 'ज्ञान मंदिर ' स्थापित करूँ, जहाँ हमारे नवयुवक अपने शास्त्रों के ज्ञान -(मनःसंयोग और चरित्र-निर्माण पद्धति ) में प्रशिक्षण प्राप्त करके भारत तथा भारत के बाहर मनुष्य-निर्माण और चरित्र निर्माणकारी शिक्षा - 'Be and Make ' का प्रचार कर सकें। ' मनुष्य ' -केवल मनुष्य भर चाहिये। बाकी सब कुछ अपने आप हो जायगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जायें, तो संसार का कायाकल्प हो जाय। .... सबके समक्ष अपने धर्म के महान सत्यों का प्रचार करो, संसार इसकी प्रतीक्षा कर रहा है। " हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धांतों की जरुरत है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसंपन्न शिक्षा चाहिये, जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी --जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे ज़हर की भाँति त्याग दो, उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। " ५/११८-१२०  
श्रीमती ओली बुल को अगस्त, १८९५ को लिखित पत्र में स्वामी जी कहते हैं - " अपने देशवासियों के प्रति मैंने अपना थोड़ा सा कर्तव्य निभाया है। अब जगत के लिये ---जिससे कि मुझे यह शरीर मिला है, देश के लिये --जिसने की मुझे यह भावना (वसुधैव कुटुंबकम) प्रदान की है; तथा मनुष्य-जाति के लिये ---जिसमें कि मैं अपनी गणना कर सकता हूँ- कुछ करना है। 
The older I grow, the more I see behind the idea of the Hindus that man is the greatest of all beings. दी ओल्डर आइ ग्रो, दी मोर आइ सी बिहाइंड दी आईडिया ऑफ़ दी हिन्दूज दैट मैन इज दी ग्रेटेस्ट ऑफ़ आल बीइंग्स---जितनी ही मेरी उम्र बढ़ रही है, उतना ही -'मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है '--मैं हिन्दुओं की इस धारणा का गहरा अर्थ अनुभव कर रहा हूँ ! ' मुसलमान भी यही कहते हैं।  दी एंजेल्स वेयर आस्क्ड बाइ अल्लाह टू बाउ डाउन टू ऐडम.अल्लाह ने देवदूतों से आदम को प्रणाम करने के लिए कहा था।इबलीस ने ऐसा नहीं किया, इसलिये वह शैतान बना। दिस अर्थ इज हाइअर दैन ऑल हेवन्स- यह पृथ्वी सब स्वर्गों से ऊँची है ---सृष्टि का यही सर्वश्रेष्ठ विद्यालय है। मंगल और बृहस्पति ग्रह के लोग (ऐलीअन्स लोग) धरती पर विचरण केने वाले मनुष्यों की अपेक्षा उच्च श्रेणी के प्राणी नहीं हैं ---क्योंकि वे हमारे साथ किसी प्रकार का संबन्ध स्थापित नहीं कर सकते।
तथाकथित उच्च श्रेणी के प्राणी -दिवंगत आत्माएं अर्थात 'मरे हुए लोग' अन्य प्रकार के देहधारी मनुष्यों के सिवाय और कुछ नहीं हैं; सूक्ष्म होने पर भी उनके शरीर वास्तव में हस्तपाद-विशिष्ट मानव-शरीर ही है। और वे इसी पृथ्वी के किसी दूसरे आकाश में रहते हैं तथा एकदम अदृश्य
(एब्सल्यूटली इनविजिबल) भी नहीं हैं।  हमलोगों की तरह ही उनमें भी चिन्तन-शक्ति, समझ (कांशसनेस-संज्ञा या भान) तथा अन्यान्य सब कुछ विद्यमान है। इसीलिये वे भी मनुष्य ही हैं। देवता तथा देवदूतों के बारे में भी यही बात है। किन्तु केवल मनुष्य ही ईश्वर बन सकता है, तथा देवादि (दिवंगत लोगों, देवताओं या फ़रिश्तों) को ईश्वरत्व-प्राप्ति के लिए पुनः मनुष्य-जन्म धारण करना पड़ेगा। 
[ क्योंकि एकमात्र मनुष्य-शरीर मिलने के बाद ही (बुद्धत्व) की प्राप्ति हो सकती है, या ब्रह्मविद् मनुष्य बना जा सकता है।अल्ला ने जब सारी सृष्टि रचना कर ली तो सबसे अंत में मनुष्य को बनाया, अपनी इस रचना को देखकर अल्ला बहुत खुश हुए, क्योंकि वह अपने बनाने वाले को भी जान सकने में सक्षम था ! और ब्रह्मवेत्ता मनुष्य ब्रह्म ही हो जाता है। ]
अर्थात जब किसी को यह समझ आ जाती है कि यह दुनिया या जगत चलचित्र - निरंतर बदलती हुई तस्वीरों की श्रृंखला है। तो उसे इस (संसार-धारावाहिक) का सर्वोत्तम लाभ भी समझ में आ जाता है कि इसके माध्यम से क्रमशः 'मनुष्य-निर्माण' का महान हित साधित हो रहा है। तब वह इस जगत की घटनाओं को देखकर विचलित नहीं होता। वह जान लेता है कि साधारण मनुष्य भी अपने भ्रमों-भूलों को, 'अपना-पराया' की भेद-बुद्धि को त्यागता हुआ  क्रमशः परिपूर्णता (perfection या सर्वोत्कृष्टता) की ओर ही अग्रसर हो रहा है। हम  सभी लोग अभी तक इस जगत रूपी चलचित्र के माध्यम से केवल 'मनुष्य' को   [man with capital 'M'] निर्मित होता हुआ देख रहे थे ! या अपने कच्चा-मैं (small-self) को पक्का-मैं (real-self) में क्रमशः विकसित होता हुआ देख रहे थे !
 स्वामीजी का उपरोक्त दर्शन या दार्शनिक तत्व भी 'स्वामी विवेकानन्द के साथ भ्रमण के कुछ नोट्स ' (Notes of some wanderings with the Swami Vivekananda'-Sister Nivedita)-के कोलकाता डायरी के ८ मई, १८९९ वाले पन्नों से लिया गया है। भगिनी निवेदिता अपनी कोलकाता डायरी में लिखती हैं- " आज उन्होंने कहा- ' तुम जानती हो कि थॉमस ए० केम्पिस को मैं हृदय की गहराई से प्यार करता हूँ। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थ समस्त ईसाई-जगत की एक अत्यन्त आदरणीय निधि है। यह ग्रन्थ किसी रोमन कैथलिक संत द्वारा लिखा गया है--लिखित कहना तो भूल होगी-- इस पुस्तक का प्रत्येक अक्षर ईसा-प्रेम में मस्त इन सर्वत्यागी महात्मा के ह्रदय के रक्त-विन्दुओं से अंकित है। 
इस समय हम ईसाई राजा की प्रजा हैं। (तब का भारत ब्रिटिश शासन के आधीन था।) राज-अनुग्रह से अनेक प्रकार के स्वदेशी एव विदेशी ईसाई-धर्म प्रचारकों को हमने देखा है। इन दिनों बहुत से ऐसे मिशनरी प्रचारक मिल जाते हैं, जो मुख से तो कहते हैं -' आज जो कुछ है खाओ, कल के लिये चिन्ता न करो;' किन्तु वे स्वयं अपने बैंक-खाते में आगामी दस साल के हिसाब से संचय करने में व्यस्त हैं ! हम यह भी देख रहे हैं कि ' जिन्हें सिर छुपाने तक को स्थान न था' उनके शिष्य, उनके मिशनरी प्रचारक स्वयं किसी दूल्हे की तरह फैशन की विलासिता में सज-धज कर ईसा के ज्वलन्त त्याग एवं निःस्वार्थता के प्रचार में जी-जान से जुटे हुए हैं ! 
किन्तु प्रभु ईशु (अथवा श्रीरामकृष्ण परमहंस) का सच्चा अनुयाई, या प्रकृत ईसाई एक भी नहीं दिखाई दे रहा है। इस अद्भुत विलासी, अत्यन्त दाम्भिक, महा अत्याचारी तथा ठाट-बाट से रहने वाले प्रोटेस्टेन्ट ईसाई सम्प्रदाय को देखकर ईसाइयों के बारे में हमारी जो धारणा अत्यन्त कुत्सित हो गयी है, वह इस पुस्तक को पढ़ने से सम्यक रूप से दूर हो जायगी। '७/३३८-३९
नेतृत्व-प्रशिक्षण शिविर में मनःसंयोग सीखकर जगत रूपी चलचित्र का अवलोकन यदि साक्षी-भाव से किया जाय तो, तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि संसार रूपी पंचेन्द्रिय-ग्राह्य जगत के विषय-भोगों में कोई सच्चा सुख नहीं है। चौसा-आम खाना मुझे पसन्द है, या मेरे मन-इन्द्रियों को पसन्द है ? वास्तव में इन्द्रिय-विषयों (स्वाद,स्पर्श आदि ) में रस ढूँढ़ना, मनुष्य के असंयमित और अप्रशिक्षित मन की पहचान है। विषयों में सुख होने का झाँसा देकर अनियन्त्रित मन हमें उनमें फँसा देता है और जो सच्चा असीम सुख और शाश्वत आनन्द मेरे ह्रदय में नित्य-विद्यमान है, उससे वंचित कर दुःख, भय, अशान्ति की अग्नि में दग्ध करता रहता है। 
यह इन्द्रिय-विषयों में स्वाद-सुख का अनुभव करना तो पशु भी करते हैं, इसलिये यह न मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है न अनिवार्यता। मनुष्य जीवन का चरम-लक्ष्य तो ब्रह्मवेत्ता मनुष्य (ब्रह्मविद्) या आप्त मनुष्य बनकर प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण के जैसा स्वयं साम्य-भाव में प्रतिष्ठित, हो जाना है और दूसरों को भी उसी साम्य-भाव में स्थित होने में सहायता करना है।
ईसा मसीह या श्रीरामकृष्ण परमहंस के समान शिक्षक समस्त मानव-जाति के वैसे मार्ग-दर्शक नेता हैं, जो अपने जीवन को उदाहरण स्वरुप बनाकर 'मनुष्य-निर्माण' करते हैं- और यही उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य है! " श्रीरामकृष्ण परमहंस का गुणगान करने वाला निष्ठवान महामण्डल कार्यकर्ता बहुत सहजता से तीन अवस्था, ' जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति ' में आसक्ति को त्यागकर तौर्य-अवस्था (इन्द्रियातीत अविनाशी आनन्द) का अनुभव कर सकता है। वह स्वयं अहंकार, देहाध्यास अर्थात मन की गुलामी का त्याग कर के यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद्) बन जाता है, और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करता है।      
और अब मुझे याद आ रहा है, आगे उन्होंने कहा- " आज श्री रामकृष्ण के शब्दों की नहीं, बल्कि जैसा जीवन उन्होंने जीया था, उस प्रकार के 'आदर्श-जीवन' की आवश्यकता है- और जिसके विषय में लिखा जाना अभी बाकी है।" उन्होंने इसी क्रम में आगे कहा * After all, this world is a series of pictures, and man-making is the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone. 
आख़िरकार यही समझ में आता है कि यह चराचर जगत्, यह दुनिया सतत परिवर्तनशील तस्वीरों की एक श्रृंखला (टेलीविजन धारावाहिक के जैसा) की एक श्रृंखला मात्र है; जिसके माध्यम से, 'मनुष्य-निर्माण' का महान हित साधित हो रहा है।  हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को निर्मित होता हुआ देख रहे थे ! "
१ नवम्बर १८९६ को मिस मैरी हेल को लिखित एक पत्र में विवेकानन्द कहते हैं - " दी गोल्ड्नेस् ऑफ़ गोल्ड, दी सिल्वेर्नेस ऑफ़ सिल्वर, दी मैनहूड ऑफ़ मैन, दी वुमन्हुड ऑफ़ वुमन, दी रियलिटी ऑफ़ एवरीथिंग इज़ दी लॉर्ड ! " - अर्थात स्वर्ण का स्वर्णत्व, रजत का राजतत्व, पुरुष का पुरुषत्व, स्त्री का स्त्रीत्व, मनुष्यों का मनुष्यत्व और सब वस्तुओं का सत्यस्वरूप परमात्मा (निःसवर्थपरता) ही है। किन्तु अनादि काल से हम इस परमात्मा को बाह्य जगत में खोजने का प्रयत्न करते आ रहे हैं, और इस प्रयत्न में हम उन्हीं को अपनी कल्पना की 'विचित्र' वस्तुओं - पुरुष, स्त्री, बालक, शरीर-मन, पृथ्वी, सूर्य-चन्द्र-तारे, संसार, प्रेम, नफ़रत, धन-संपत्ति; और भूत-प्रेत, शैतान, फ़रिश्ता,देवगण -भगवान श्रीहरि इत्यादि के रूप में प्रक्षेपित करते रहे हैं। 
सच तो यह है कि प्रभु हममें ही है, हम स्वयं प्रभु हैं- जो नित्य द्रष्टा, सच्चा 'अहम्' तथा अतीन्द्रिय है। उस ब्रह्म को द्वैत भाव से देखने की प्रविृत्ति (प्रपेन्सिटी) तो मात्र अपने समय और प्रतिभा को नष्ट करना ही है! जब कोई जीवात्मा इस विषय में जागरूक, सचेत और सावधान हो जाता है, तो वह उसे ओब्जेक्टिफायिंग करना या विषयाश्रित बनाना छोड़ देता है और आत्मा (निःस्वार्थपरता) की ओर अधिकाधिक प्रवृत होता है। यही क्रमविकास (ईवोलूशन) है अर्थात अन्तर्दृष्टि का अधिकाधिक विकास एवं बहिर्दृष्टि का अधिकाधिक लोप।"
श्रीरामकृष्ण- माँ सारदा- स्वामी विवेकानन्द  के सर्वधर्म समन्वय रूपी जीवन धारावाहिक का अवलोकन करने से हमें आखिरकार यह समझ में आ ही जाता ही जाता है कि उनके जीवन-चरित के माध्यम से हमलोग अभी तक केवल 'मनुष्य' को केवल पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य में रूपान्तरित की होता हुआ देख रहे थे! वह जान लेता है कि साधारण मनुष्य (विभिन्न धर्मों के अनुयायी-अमज़द डकैत) भी अपने भ्रमों-भूलों को, 'अपना-पराया' की भेद-बुद्धि को त्यागता हुआ  क्रमशः परिपूर्णता (perfection या सर्वोत्कृष्टता) की ओर ही अग्रसर हो रहा है। वह स्वयं अहंकार, देहाध्यास अर्थात मन की गुलामी का त्याग कर के यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद्-आप्त पुरुष) बन जाता है, और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करता है।
भारत के युवाओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण के जैसा ब्रह्मवेत्ता मनुष्य या आप्त मनुष्य बनकर स्वयं सर्वधर्म-समन्वय या साम्य-भाव में प्रतिष्ठित हो जाना है; और दूसरों को भी उसी साम्य-भाव में स्थित होने में सहायता करना है। 
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