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शुक्रवार, 23 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (1) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

हिन्दी अनुवाद की प्रस्तावना 
यह महामण्डल पुस्तिका मेरे हाथों में १९९३ के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में आई थी। तब से मैंने इसको अनगिनत बार पढ़ा है। किन्तु इस पुस्तिका में स्वामी विवेकानन्द द्वारा अंग्रेजी में कहे गये जिन उक्तियों को उद्धरण के भीतर (विदिन कोट्स) रखा गया है, वहाँ इन उक्तियों को 'कम्पलीट वर्क्स ऑफ़ स्वामी विवेकानन्द' के किस खण्ड से लिया गया है, इस सन्दर्भ को सूचित नहीं किया गया है। तत्वज्ञान से परिपूर्ण इस पुस्तिका का अनुवाद करने के लिये स्वामी जी ने किस प्रसंग में इन उक्तियों को कहा होगा, इसे समझना बहुत जरुरी था। 'गूगल बाबा' के कृपा से नेट पर अंग्रेजी में उपलब्ध 'कम्पलीट वर्क्स ऑफ़ स्वामी विवेकानन्द' सारे प्रसंग और सन्दर्भ तो मिल गये।  किन्तु अद्वैत आश्रम, कोलकाता तथा मायावति से हिन्दी में प्रकाशित 'सम्पूर्ण विवेकानन्द साहित्य' के किस खण्ड में वह संदर्भ मिलेगा इसके लिये मुझे स्वयं १० खण्डों में ढूँढना पड़ा। स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी में कथित उक्तियों को हिन्दी में अनुवाद करते समय विवेकानन्द साहित्य से पूरे निबंध को ही स्वयं टाईप करना पड़ा, और जहाँ आवश्यक लगा कुछ निबन्ध के कुछ पृष्ठों का पुनरानुवाद भी किया है। अवश्य इससे मुझे लाभ ही हुआ; किन्तु मुझे यह समझ में नहीं आया कि हिन्दी में 'सम्पूर्ण विवेकानन्द साहित्य'- अभी तक नेट पर क्यों उपलब्ध नहीं है? जबकि इसकी छपाई तो कम्प्यूटर से ही होती होगी !  कहीं इसके पीछे भी क्षद्म सेकुलरिस्टों की कोई साजिश, तो नहीं कि - विवेकानन्द को पढ़कर ' भारतवर्ष ' जाग उठेगा ?
जो हो इसका सही कारण मुझे नहीं पता है! आज का युग भौतिकता का युग है। इस भौतिक युग में सर्वत्र काम, क्रोध, मद, लोभ आदि आसुरी तमोगुणों का प्राबल्य परिलक्षित हो रहा है; एवं दैवी गुणों दया, करुणा, अहिंसा, प्रेम, सत्य आदि का तीव्र गति से क्षरण हो रहा है। भौतिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ने के परिणामस्वरूप मानव अपनी मानसिक शान्ति खोता जा रहा है। आज सर्वत्र अशान्ति, भय, विद्वेष एवं पारस्परिक संघर्ष का ऐसा जाल फैलता जा रहा है जिससे निस्तार का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता।
विज्ञान की विनाशकारी एवं संहारक उपलब्धियों ने विश्व को विनाश के उस अन्तिम छोर तक पहुँचा दिया है जहाँ मानवता अश्रुपात करती हुई दिखाई दे रही है। आज मानव दानव हो गया है। मानवता विलुप्त होती जा रही है। आज पाशविक शक्तियों का ताण्डव नृत्य सर्वत्र दिखाई दे रहा है।
राष्ट्रसंघ की दृष्टि भी, समूचे मानव-परिवार को, उसके परिवेश को एक इकाई न मानकर खण्डों में लेती, सोचती है। फिर खण्डों को और भी खण्डित करती है। कभी पर्यावरण-दिवस, कभी बाल-दिवस, कभी नारी, कभी वृध्द-दिवस। सब खंड-खंड ! जब समूचे ब्रह्माण्ड को चैतन्य एक इकाई माना जाएगा, तब सभी प्रकार के-हिंसा, हत्या, अन्याय, संवेदनहीनता के क्रम थम जाएँगे। 
धरती और धरती का जीवन आज इसीलिए रक्तरंजित है, क्योंकि पाश्चात्य दृष्टि भोगवादी, जड़वादी है। इस कारण आज विश्व में एकतरफ़ा बर्बर, व्यापक हिंसा बरपाने वाले युध्द हैं, विश्व के पिछड़े देशों को लूटने वाली शोषक, खुली  वैश्विक उदारीकरण व्यवस्था-बाज़ारवाद है। ओछी, स्वार्थी, जड़वादी दृष्टि के व्यक्तियों, समाजों, देशों के कारण धरती पर जन-जीवन, प्रकृति-जीवन उत्पीड़ित, दुखित, शोषित है। मनुष्य भूखा है। बेहाल है। विस्थापित है।मानवजाति में व्याप्त अनेक प्रकार के भ्रमों, भ्रमों की अनेक परतीय मूर्खताओं, दुष्टताओं, दुर्नीतियों के कारण धरती एवं ब्रह्माण्ड का सुख, शान्ति सब विनष्ट हो रहे हैं। तामसिकता तथा स्वार्थपरता का तिमिर बढ़ रहा है।
ऐसे अशान्त एवं भयंकर वातावरण में भयाक्रान्त मानवता के परित्रााण का एक ही उपाय है- स्वामी विवेकानन्द के द्वारा प्रदत्त सूत्र - Be and Make !- मनुष्य बनो और बनाओ ! विवेकानन्द युवा महामण्डल मानव-अस्तित्व के तीनों स्तरों '3H' -Hand, Head, Heart या ' शरीर, मन और ह्रदय ' के स्तर पर विकास की संक्रान्ति का आह्वान कर रहा है। क्योंकि सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही विवेक-प्रयोग कर के अपने तीन प्रमुख कंपोनेंट्स (उपादान) हैण्ड,हेड और हर्ट को विकसित कर यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनने और बनाने की क्षमता रखता है। स्वामीजी ने कहा है - ' ह्रदय का विस्तार ही जीवन है और ह्रदय की संकीर्णता ही मृत्यु !' हजार वर्षों की गुलामी कारण, हम लोग अपने उपनिषदों के यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने वाली परा-विद्या (या हाईएस्ट ट्रूथ को जानकर ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) के बलप्रद ज्ञान से दूर हो गये;तथा  दुर्बल होकर रहस्य-विद्या सीखने में समय बर्बाद करने लगे। 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -' पाश्चात्य शिक्षा का सबसे बड़ा दोष यही है कि इसमें छात्रों के 'ब्रह्म ज्ञान' को विकसित करने कोई अवसर नहीं है।' स्वाधीन भारत की अपनी कोई शिक्षानीति नहीं होने के कारण पुरातन भ्रम में पड़कर आज भी हमलोग मन्दिर में घण्टे-घड़ियाल बजा-बजाकर सोए हुए भगवान को जगा रहे हैं, और स्वयं तमोगुणी, भौतिकता- जड़ता की नींद में सोये हुए हैं। जबकि परम-आत्मा (ब्रह्म) हमारी अपनी ही देह में स्थित है, जिसे हम अपने से बाहर मानकर तरह-तरह से पूजते फिर रहे हैं। सन्त कबीर ने भी कहा था - 
"तेरा सांई तुज्झ में, ज्यों पुहुपन में बास ।
 कस्तुरी का मिरग ज्यों, फिर फिर ढूंढे घास ॥"     

फूलों में सुगंध होती है। उनकी महक तो उनके अंदर से ही आती है। इस प्रकार हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही वास करता है। किन्तु सांई-भक्त उसे शिर्डी के मन्दिरों में ढूँढ़ते हैं, जैसे कस्तूरी की सुगन्ध के कारण की व्यर्थ खोज करने के बाद, कस्तूरी-मृग (दी मुश्क-डियर) अन्त में उसे अपने में ही पाता है। अतः हमें उस अन्तर्यामी परमात्मा की आरती एवं पूजादि भी अपनी देह के भीतर ही करनी चाहिए। हमारा सतगुरु भी हमारे भीतर ही है उसकी पूजा-अर्चना भी भीतर ही सम्भव है। इस तथ्य को, सत्य को कोई-कोई विरला व्यक्ति ही समझता है, जो जागृत है- 

कलि श्यानों भवति संजिहानस्तु द्वापर:।
उतिष्ठंस्त्रोता भवति कृतं संपद्यते चरन॥
चरैवेति। चरैवेति।-(ऐतरेय ब्राह्मण)

अर्थात् कलयुग का अर्थ है सोए होना। जग जाना द्वापर है। उठकर खड़े हो जाना त्रोता है। और चल देना कृतयुग-सतयुग है। अत: व्यक्ति, देश जाति को जागृत होकर चलते रहना चाहिए। इसी मनुष्य को ' यथार्थ मनुष्य' भी कहते हैं।
सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही परा-ऐन्द्रिकता के धरातल पर अथवा इन्द्रियातीत भूमि पर पहुँचकर अपने बनाने वाले ब्रह्म को भी जान सकता है। उस भूमि पर पहुंचे मनुष्य को अपने अमुभव से यह ज्ञात हो जाता है कि इन्द्रिय-गोचर जगत में कुछ भी 'ब्रह्म-रहित' नहीं है। 'तत्र को मोहः कः शोकः एकं अनुपश्यतः'  और वह ' ब्रह्मवेत्ता मनुष्य ' ब्रह्म (निःस्वार्थपर) ही हो जाता है। कहना न होगा कि काया के रूप, रंग, जाति, वर्ण, वंश, देश, प्रदेश आदि के विभिन्न भेद के आधार पर महा-मारण, महा-विनाश के आदिम, पाश्विक नर-संहार बे-खौफ, बेरोक-टोक बरपाये जाते हैं और राष्ट्रसंघ निष्क्रिय, निष्प्राण-सा टुकुर-टुकुर देखता रहता है। विश्व की अग्रणी शक्तियाँ, घातक से अतिघातक अस्त्र-शस्त्रों का प्रदर्शन, विश्व-मण्डियों में करके, उन्हें बेचकर अपने देशों की समृध्दि को बढ़ाती रहती हैं। इसीलिये सभी गुरु (विवेकानन्द) समूचे प्राणी जगत् को चर्म-चक्षुओं की दृष्टि से नहीं, आत्मदृष्टि से देखने का आग्रह करते हैं।
जिस प्रकार धरती पर से अन्धकार को मिटाने के लिए सच्चे, वास्तविक सूर्य की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार Be and Make - ' कर्म और उपासना ' एक साथ करने का प्रशिक्षण देकर,स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माकारी शिक्षा के द्वारा दैदीप्यमान सूर्यों (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं) की संख्या बढ़ाकर, इस चेतना-विहीनता के अन्धकार को, हर प्रकार के तिमिर को मिटाया जा सकता है। ब्रह्म-विद्या (मनःसंयोग) में प्रशिक्षित हजारों शिक्षक ही शिवज्ञान से जीव सेवा का प्रशिक्षण देकर प्रत्येक युवा के ह्रदय को ' निःस्वार्थपरता' (ब्रह्मज्ञान) के आलोक से आलोकित करके, सम्पूर्ण विश्व के अज्ञान-अन्धकार को मिटाने में सक्षम हो सकते हैं। इसी महत्वपूर्ण कार्य को पूर्ण करने के लिये 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' रूपी प्रचण्ड सूर्य का उदय पश्चिमबंगाल में १९६७ में उदित हुआ था।  जो आज झारखण्ड -बिहार होता हुआ गुजरात तक, और दक्षिण में बंगोलर - विशाखापत्तनम तक अपने ३०० से भी ऊपर केन्द्रों के माध्यम से क्रमशः  युवा प्रशिक्षण शिविर में मनःसंयोग का प्रशिक्षण दे रहा है। 
जिस प्रकार मॉडर्न फिजिक्स में, तथ्यों को बड़े धैर्य के साथ पहले एक्सपेरिमेन्टल मेथड के द्वारा परिक्षण किया जाता है, फिर उससे उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर सिद्धान्त (थ्योरी) को सत्यापित किया जाता है।  ठीक उसी प्रकार हम स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान ' मनोविज्ञान का महत्व ' को गहराई से अध्यन करके यह समझ सकते हैं कि ' साइंस ऑफ़ साइंसेज ' अर्थात सभी विज्ञानों का विज्ञान 'दी साइन्स ऑफ़ साइकालजी ' ही है ! हमलोग स्वयं भी महामण्डल पुस्तिका 'मनःसंयोग' में वर्णित एक्सपेरिमेन्टल मेथड के द्वारा परिक्षण करने के बाद, उससे प्राप्त आंकड़ों के आधार पर इस सिद्धान्त को परख कर देख सकते हैं कि " डीप, डीप विदिन इज दी सोल, दी असेन्शिअल मैन - दी आत्मन ! ' अपने चित्त की गहन से गहन गहराई में यथार्थ मनुष्य है-आत्मा !'  
इस सर्वश्रेष्ठ विज्ञान 'मनोविज्ञान' (साइकालजी) को भारत में 'मनःसंयम' या मेन्टल-कोन्सन्ट्रेशन  कहते हैं।इस विज्ञान का अध्यन भी 'मॉडर्न फिजिक्स ' के अनुरूप पहले एक्सपेरीमेन्ट करके उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर और बाद में इस थ्योरी को सत्यापित किया जा सकता है कि, ' यथार्थ मनुष्य है - आत्मा ! ' 
अन्य पार्थिव विज्ञानों की ही तरह, किसी भी जाति, धर्म या देश में जन्मा जो भी व्यक्ति मनोविज्ञान के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक महर्षि पतंजलि द्वारा आविष्कृत 'अष्टांग-योग ' के निर्देशानुसार अनुसार प्रयोग  करने की न्यूनतम 'पात्रता' (एलिजिबिलिटी: यम नियम का पालन अथवा चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण) अर्जित कर लेगा, उसे अपने मन का अध्यन और विश्लेषण (मनःसंयोग) करने से जो तथ्य और आँकड़े उपलब्ध होंगे, उसका परिणाम होगा -अपने सच्चे स्वरुप (ब्रह्मत्व) की उपलब्धि !
जिस प्रकार विश्व भर के फिज़िसिस्ट (भौतिकविज्ञानी) प्रायः एक ही परिणाम पर पहुँचते हैं, उन्हें जिन सामान्य (जनरल फैक्ट्स) सार्वलौकिक नियमों का पता लगता है, और उनके अनुगामी बाद में उसी पद्धति से प्रयोग करके जिस निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं, उनके विषय में उनमें कोई मतभेद नहीं होता। उसी प्रकार मनःसंयोग के अभ्यास (एक्सपेरीमेन्ट) करने की पात्रता रखने वाले सभी संभावित मनोवैज्ञानिक (ऋषि या पैग़म्बर) भी एक ही निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं- उन हाईएस्ट यूनिवर्सल ट्रूथ्स या सर्वोच्च सार्वभौमिक सत्यों  को महावाक्य कहा जाता है। जिन्हें कोई भी मनोविज्ञान का छात्र,मनःसंयोग का अभ्यास करने वाला साधक, मनोवैज्ञानिक या भावी दार्शनिक अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति से सत्यापित कर सकता है। वैदिक ऋषियों के द्वारा अविष्कृत चार हाईएस्ट ट्रूथ्स या महावाक्य इस प्रकार हैं-  

१. प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेय उपनिषद ३/५/३)
ब्रह्म शुद्ध ज्ञान स्वरूप है
२. अहम् ब्रह्मास्मि (शतपथ ब्राह्मण ४/३/२/२१)
मै ब्रह्म हूँ
३. तत् त्वमसि (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७)
वह ब्रह्म तुम भी हो
४. अयमात्मा ब्रह्म (माण्डूक्योपनिषद २)
यह आत्मा ब्रह्म है 

कुछ अन्य महत्वपूर्ण महावाक्य इस प्रकार हैं - 'नेति नेति' (यह भी नही, यह भी नहीं), 'यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे' ( जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है), 'वसुधैव कुटुंबकम' ( पूरी दुनिया ही मेरा परिवार है) , ' मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अतिथि देवो भव' (माता,पिता और अतिथि देवता समान होते हैं, स्वामीजी ने इसमें जोड़ दिया है -मूर्ख देवो भव, दरिद्र देवो भव),  इन सभी महावाक्यों (थ्योरी) को कोई भी मनोवैज्ञानिक  अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति के द्वारा सत्यापित कर सकता है। इसलिये फिलासफी को भारत में दर्शन-शास्त्र कहा जाता है, एवं उसके आविष्कारक वैज्ञानिकों को दार्शनिक या तत्त्ववेत्ता-'महर्षि' (पैग़म्बर-मानवजाति के मार्गदर्शक 'नेता') कहा जाता है।
 स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को गहराई से समझने के लिये महामण्डल के अध्यक्ष पूज्य श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय जी ने संस्कृत और अंग्रेजी में ' विवेकानन्द दर्शनम् ' नाम से जो छोटी सी पुस्तिका लिखी है, उसमें हिन्दी में १० खण्डों में उपलब्ध विवेकानन्द साहित्य के रत्नों को मात्र २६ श्लोकों में भर दिया है। इस महामण्डल पुस्तिका ' विवेकानन्द - दर्शनम् ' रूपी ' विवेकानन्द वचनामृत ' का पान करके हम स्वयं मनुष्य (ब्रह्मविद्) बन सकते हैं, और दूसरों को भी ' मनुष्य ' बनने में सहायता कर सकते हैं !  इस छोटी सी पुस्तिका में स्वामीजी के जिन भाषणों एवं प्रबन्धों का उल्लेख किया गया है, उसका अनुशीलन करने से इक्कीसवीं सदी में भारत अवश्य विश्वगुरु बन सकता है। इसी क्रम में झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के सौजन्य से  उस पुस्तिका का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया जा रहा है। 

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    ' विवेकानन्द - दर्शनम् '
१. 

(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम् ]
[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his. 

इन दिस बुक, विदिन कोट्स, दी वर्ड्स आर ऑफ़ स्वामी विवेकानंदा. दी आइडियाज, ऑफ़ कोर्स, आर  ऑल हिज. 

इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]  

 

श्री श्री माँ सारदा और आप ,
 मैं ...या कोई भी ...

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वे स्वयं इतनी प्रकाशमयी हैं कि उनकी सन्तानों का मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।]
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१.

यह जगत क्या है ?

नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् | 
एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते ||


' After all, this world is a series of pictures. ' This colorful conglomeration expresses one idea only.

* 'आफ्टर ऑल, दिस वर्ल्ड इज अ सीरीज़ ऑफ़ पिक्चर्स.' दिस कलरफुल कंग्लोमरेशन एक्सप्रेसेज  वन आईडिया ओनली.  

 " सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है। और चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के द्वारा केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।"

प्रसंग : [भगिनी निवेदिता ' नोट्स ऑफ़ सम वांडरिंग्स विथ दी स्वामी विवेकानन्द'/ ईसा-अनुसरण -७/३३९/ ' उच्चतर जीवन के निमित्त साधनायें '३/ ९३-९८ / "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना" के "आचार्य शंकर के प्रसंग में" शीर्षक ६३ वें निबंध/ नवनीदा की आत्मकथा ' जीवन नदी के हर मोड़ पर' का ' सेभियर की समाधि-स्थली' शीर्षक [५४] वां निबंध]  

विषयवस्तु :  मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का पूरा जीवन ही एक लम्बी प्रार्थना होती है। वह स्वयं के देखे को, आत्मसाक्षात्कार एवं अनुभव को ही प्रमाण मानता है। यह अनुभूति ही परम-आत्मा है। इस सूक्ष्म, ब्रह्माण्ड में जल-तत्तव की भाँति पूरित, ब्रह्मचेतना को स्वयं देखता भी है और सबको दिखाता भी है।
उसका मार्ग अति कठिन है। दुर्गम ही नहीं, अगम है। इसीलिये सिस्टर निवेदिता ' नोट्स ऑफ़ सम वांडरिंग्स विथ दी स्वामी विवेकानन्द' में लिखती हैं - " आज स्वामीजीने कहा - किसी भी सन्त, अवतार या पैग़म्बर के जीवन का पूर्वार्ध ही अनुकरणीय होता है, सिद्ध हो जाने के बाद उनके जीवन का उत्तरार्ध पहले नहीं पढ़ना चाहिये। प्रभु ईसा मसीह के अनुयायियों ने यदि उनके उपदेशों का वर्णन करने के बजाय केवल उनके जीवन-चरित का वर्णन किया होता, यह बताया होता कि यीशु क्या खाते-पीते थे, वे कहाँ रहे और कहाँ सोये, तथा उनकी दिनचर्या क्या थी, तो उसका प्रभाव अधिक होता। उतने लम्बे व्याख्यानों की क्या जरूरत थी ? क्योंकि धर्म के विषय में जो कुछ कहा जा सकता है, उसे तो उंगलियों पर गिना जा सकता हैलम्बे लम्बे भाषणों का कोई महत्व नहीं, उन उपदेशो का अनुसरण करने से जो 'मनुष्य' निर्मित होता है, वही माने रखता है। " 
भगिनी निवेदिता ने स्वामी जी के उपरोक्त दर्शन का उल्लेख इस प्रकार किया है-"वह समय कितना सुन्दर था ! आज मैंने स्वामी विवेकानन्द को देखा! उन्होंने मुझे बताया कि,' सैल्वेशन इज नथिंग इन इटसेल्फ, इट इज ओनली अ मोटिव; पीपल आर नॉट सेव्ड ऑर अनसेव्ड, ऑर  रीडिम्ड ऑर अनरीडीम्ड। ' --अर्थात " मोक्ष (भवबन्धन से मुक्ति या निस्तार) अपने आप में कुछ नहीं है, यह केवल मनुष्य बनने और बनाने की एक अभिप्रेणा (मोटिव) है ! ऐसा नहीं है कि किसी मनुष्य का उद्धार हो गया, और दूसरा नहीं बच सका, किसी को मुक्ति मिल गयी और दूसरा अभिशप्त रह गया।' 
उन्होंने आगे कहा कि ' लाइफ इज़ नॉट अ मैटर ऑफ़ गोइंग फ्रॉम ईविल तो गुड, बट  फ्रॉम लैसर गुड टू हायर गुड. ऐन इंडिविजुअल लाइफ इज अ स्पिरिचुअल जर्नी टु कम्यून विथ गॉड.ऑन दिस  जर्नी सम आर जस्ट बिगनिंग, अदर्स हैव ट्रैवल्ड सम डिस्टेंस, सम हैव गॉन फरदर, व्हाइल अदर्स आर नियर दी  इंड ऑर गोल ऑफ़ दी जर्नी."
 -अर्थात जीवन-यात्रा का अर्थ बुराई से अच्छाई की ओर विकसित होना नहीं है, बल्कि कम अच्छा मनुष्य से अधिक अच्छा मनुष्य बनने की ओर आगे बढ़ते रहना है। प्रत्येक मनुष्य का जीवन भगवान के साथ एकत्व का  अनुभव करने, अथवा अपनी आत्मा के साथ जुड़ जाने की एक आध्यात्मिक यात्रा है। इस यात्रा में कुछ लोग सिर्फ शुरुआत कर रहे हैं, और कुछ दूसरे लोग थोड़ी दूरी तय कर चुके हैं,तो कुछ लोग उनसे भी आगे निकल चुके हैं; जबकि कुछ अन्य लोग यात्रा के अंतिम पड़ाव या लक्ष्य (अतिचेतन) में पहुँच चुके हैं।"  
धार्मिक विधिशास्त्र (रिचुअल्स क्रिया-अनुष्ठान) आदि 'मनुष्य' (मानहूश) बनाने की प्रेरक अभिप्रेरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। अतः सभी छात्रों को किशोरावस्था से ही धर्मशील या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने " Be and Make " का प्रयास करना चाहिये। ईसा ने भी कहा था -"सीक ये फर्स्ट दी किंगडम ऑफ़ गॉड" 'मैथ्यू ६/३३'।इसलिये  मनुष्य को किशोरावस्था से ही मनःसंयोग का अभ्यास करके सत्य या ईश्वर की खोज  करनी चाहिए, ऐसा करने से ईश्वर (आदर्श) के भीतर स्वाभाविक रूप से जो पवित्रता, नैतिकता, साधुता (राइचस्नेस) आदि सम्पत्तियाँ हैं वे सब तुम्हें विरासत में प्राप्त हो जायेंगी!"  
स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं भी मात्र १३ वर्ष की किशोर अवस्था में ही एक रोमन कैथलिक संत थॉमस ए० केम्पिस द्वारा लिखित "इमीटेशन ऑफ़ क्राइस्ट" या 'ईसा -अनुसरण ' नामक ग्रन्थ को पढ़ लिया था। स्वामीजी ने बताया कि उस पुस्तक की भूमिका ही, उस ग्रन्थ के प्रति उनके स्थायी आकर्षण का प्रधान कारण थी और तब उन्होंने सोचा भी नहीं था कि दिन उनको स्वयं भी उसी तरह का कार्य (भारत में रामकृष्ण मठ और मिशन को स्थापित) करना होगा। 
 उस ग्रन्थ की भूमिका (प्रीफेस) में लेखक ने अपने "मठ और संघ" में प्रवेश करने के बाद उनके जीवन  में आने वाले परिवर्तनों के विषय में विस्तार से लिखा है। उन्होंने कहा-" तुम जानती हो कि थॉमस ए० केम्पिस को मैं हृदय की गहराई से प्यार करता हूँ।'ख्रिष्टानुकरण' के लेखक थॉमस ए० केम्पिस का जन्म सन १३८० जर्मनी में हुआ था। मसीही विद्वानों का कहना है कि बाईबिल के बाद यह दूसरा पठन योग्य ग्रन्थ है, जिसकी रचना आत्मा की प्रेरणा से हुई है!  मात्र २० वर्ष की आयु में, सन १४०० में उन्होंने  संन्यास लिया और ऑगस्टीन मठ जो एग्नेस पहाड़ी पर स्थित था, में भर्ती हो गए। फिर १६ वर्ष बाद, १४१३ में उसी मठ के अध्यक्ष बने।  उन्हें एकान्त प्रिय था और उनका जीवन ध्यान, मनन और भक्ति भावना से परिपूर्ण था।" 
स्वामी जी ने अमेरिका जाने से बहुत पहले १८८९ ई० में 'साहित्य-कल्पद्रुम' नामक मासिक पत्रिका में  '"इमीटेशन ऑफ़ क्राइस्ट" नामक विश्वविख्यात पुस्तक का अनुवाद करना आरम्भ किया था। इस अनुवाद का शीर्षक उन्होंने ' ईसा-अनुसरण ' दिया था। इसकी 'भूमिका' स्वामीजी की मौलिक रचना है।" ७/३३८ इस पुस्तक- 'ख्रिष्टानुकरण' को पढ़ते पढ़ते, आप गीता में भगवदोक्त - ' सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् ब्रज ' इत्यादि उपदेशों की शत शत प्रतिध्वनि देख सकेंगे। दीनता, आर्त एवं दास्य-भक्ति की पराकाष्ठा इस ग्रन्थ की प्रत्येक पंक्ति में अंकित है और इसका पाठ करते करते तीव्र वैराग्य, अत्यद्भुत आत्मसमर्पण और ईश्वर-निर्भरता के भाव से ह्रदय उद्वेलित हो जाता है। जो लोग अन्ध कट्टरता के वशीभूत होकर, ईसाईयों का लेख समझकर इस पुस्तक को अश्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, उनके लिये हम वैशेषिक दर्शन के केवल एक सूत्र का उल्लेख करते हैं-- 'आप्तोपदेशवाक्यः शब्दः।' अर्थात सिद्ध पुरुषों के उपदेश प्रमाणस्वरूप हैं और इसीका नाम शब्द-प्रमाण है। सभी सयाने एक मत - समस्त 'आप्त-पुरुषों' का मत एक ही प्रकार का होता है। इस स्थान पर टीकाकार ऋषि जैमिनी कहते हैं कि आर्य और म्लेच्छ दोनों का ही 'आप्त-पुरुष' होना सम्भव है।"७/३३९
" इसलिये आज श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों की नहीं, बल्कि जैसा जीवन उन्होंने जीया था, उस प्रकार के जीवन की आवश्यकता है। और जिसके विषय में लिखा जाना अभी बाकी है। यथार्थ शिक्षक (गुरु या नेता) शिष्य रूपी धुन्ध के किसी ढेले- 'लम्प ऑफ़ मिस्ट' को अपने हाथों में लेते हैं, और क्रमशः वह एक 'मनुष्य' (ब्रह्मवेत्ता) के रूप में विकसित हो जाता है।" जगतगुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस एक ऐसे शिक्षक (मानव-जाति के मार्ग-दर्शक नेता) हैं, जो ब्रह्मविद् मनुष्यों का निर्माण करते हैं; और यही उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य है! किन्तु सदैव वे अपने अनुयायिओं की 'वीड आउट' (निराई) भी करते रहते थे, और अपने जिन युवा शिष्यों को वे (मानसिक रूपसे) वृद्ध समझते थे, उन्हें रद्द कर देते थे। उन्होंने अपने शिष्यों के रूप में सदा केवल युवाओं का ही चयन किया है !  
श्रीरामकृष्ण (या ईसामसीह) जैसे प्रेमस्वरूप जगतगुरु (नेता) का गुणगान करने वाला निष्ठवान महामण्डल कार्यकर्ता (नेतृत्व प्रशिक्षु ) बहुत सहजता से तीन अवस्था,' जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति ' में आसक्ति को त्यागकर तौर्य-अवस्था (अतिचेतन अवस्था ) में पहुँच सकता है और जगत रूपी चलचित्र को 'साक्षी-भाव' से देख सकता है। श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे किसी सच्चे जगतगुरु या नेता के सानिध्य में रहकर गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार मनुष्य बनने और बनाने  प्रशिक्षण को ही शिक्षक-प्रशिक्षण या लीडरशिप ट्रेनिंग कहते हैं। 
 निवेदिता लिखती हैं - मुझे याद आ रहा है, आगे उन्होंने कहा- * 'आफ्टर ऑल, दिस वर्ल्ड इज अ सीरीज़ ऑफ़ पिक्चर्स.' दिस कलरफुल कंग्लोमरेशन एक्सप्रेसेज वन आईडिया ओनली. वी वेयर ऑल वाचिंग दी मेकिंग ऑफ़ मैन ऐंड दैट अलोन." * आख़िरकार (यही समझ में आता है कि) यह दुनिया तस्वीरों की एक सतरंगी श्रृंखला है (टेलीविजन धारावाहिक के जैसा), और जिसके माध्यम से, 'मनुष्य-निर्माण' का महान हित साधित हो रहा है। हम सभी लोग अभी तक (इस संसार रूपी टेलीविजन धारावाहिक के माध्यम से) केवल मनुष्य को निर्मित होता हुआ देख रहे थे !
अपने कर्मयोग ग्रन्थ के 'उच्चतर जीवन के निमित्त साधनायें'  ( ३/ ९३-९८) में मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए विवेकानन्द कहते हैं - " एक बार संस्कार पड़ने पर वह मिटता नहीं, चित्त के उपर उसकी गहरी लकीर पड़ जाती है। अतः पहले बुरी आदतों को अच्छी आदतों में बदलो -इससे चित्त के ऊपर सद्संस्कारों की गहरी छाप पड़ जायगी। और अवचेतन मन के विशाल सागर में गहराई तक छपे कर्मों के संस्कार नियंत्रण में आने लगेंगे। हमलोग बार बार मन-वचन-कर्म से जो कुछ भी सोचते, बोलते, करते हैं, उसकी ऑफिस कॉपी या कार्बन कॉपी-उसकी  एक छाप या संस्कार चित्त में संचित रह जाते हैं। यही हमारी साधना का पहला अंग ' निरंतर विवेक-प्रयोग और यम-नियम का अभ्यास' (चरित्र-निर्माण) है, और हमारे सामाजिक कल्याण के लिये इसकी नितान्त आवश्यकता है।  
अतः प्रत्याहार - धारणा का अभ्यास करने के लिये जीवन में किसी आदर्श को - जो प्रेमस्वरूप एवं पवित्रता स्वरुप भी है, उसका चयन आज ही कर लो। और उन्हें अपने ह्रदय-कमल में आसन देकर उनके ही ऊपर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करो।' आसन-प्रत्याहार-धारणा ' (मनःसंयोग) का अभ्यास प्रातः और सायं दो बार नियम पूर्वक करते हुए क्रमशः अतिचेतन (इन्द्रियातीत) अवस्था में पहुँचना ही हमारे जीवन का लक्ष्य है  इस प्रकार अध्यवसाय पूर्वक अपने जीवनादर्श या रोल मॉडल पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते करते, एक दिन जब साहचर्य  (लॉ ऑफ़ असोसिएसन) के नियमानुसार चित्त शुद्ध हो जाता है, मन इन्द्रियातीत अवस्था में पहुँच जाता है।
  जब उस अवस्था की उपलब्धि हो जाती है, तब यही मानव दिव्य बन जाता है, मुक्त हो जाता है।और तब हम जन्म-मृत्यु के इस बंधन से मुक्त होकर उस ' एक' की ओर प्रयाण करते हैं, जहाँ-जन्म और मृत्यु किसी का अस्तित्व नहीं है, तब हम सत्य को जान लेते हैं और सत्यस्वरूप बन जाते हैं। " ३/९३ मुण्डक उपनिषद २.२.५ में कहा गया है -
यस्मिन् द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वैः।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुंचथ अमृतस्यैष सेतु:।।
इसका अर्थ है- जिसमें द्युलोक, पृथ्वी, अन्तरिक्ष (तीनों लोक) तथा प्राण रूप सब इन्द्रियों के साथ मन भी पिरोया हुआ है, उस एक आत्मा को ही जानो। अन्य सारी बातें छोड़ो। क्योंकि अमरता प्राप्त कराने वाला सेतु यही है। 
 स्वामी विवेकानन्द ने  ' हिन्दू धर्म के सामान्य आधार' शीर्षक निबंध में लिखा है - " अथ परा, यया तदक्षरमधिगम्यते - ' यही परा (अतिचेतन में पहुँचने की) विद्या है, जिससे हमें उस अविनाशी पुरुष की प्राप्ति होती है।"  ५/२६१ " ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो सम्पूर्णतया बुरी हो। यहाँ शैतान और  ईश्वर दोनों के लिए ही स्थान है, अन्यथा शैतान यहाँ होता ही नहीं। हमारी भूलों की भी यहाँ उपयोगिता है। बढे चलो ! यदि तुम सोचते हो कि तुमने कोई अनुचित कार्य किया है, तो फिर पीछे फिर कर मत देखो। यदि तुमने पहले इन गलतियों को न किया होता, तो क्या तुम मानते हो कि आज तुम जैसे हो, वैसे कभी हो सकते थे?  छोटी छोटी भूलों और बातों पर ध्यान न दो। हमारी इस रणभूमि में भूलों की धूल तो उड़ेगी ही।
यदि किसी चित्र (टीवी धारावाहिक ) में तुम दुःख का दृश्य देखो, तो तुम में से कौन उसे सहन नहीं कर सकता ? इसका कारण क्या है -जानते हो ? -हम उन चित्रों की धारावाहिक श्रृंखला के साथ अपना तादात्म्य नहीं करते, क्योंकी चित्र-शृंखला असत है, अवास्तविक है, हम जानते हैं कि वह एक दृश्य मात्र है। यदि पर्दे पर कोई भयानक दुःख वाला दृश्य (-'फिल्म देवदास ' ) चल रहा हो, तो शायद हम उसका रस भी ले सकते हैं। हम कलाकार और निर्देशक के कला की प्रशंसा करते हैं, हम उसकी असाधारण प्रतिभा पर आश्चर्यचकित हो जाते हैं, भले बिभिस्ततम दृश्य ही क्यों न हो। इसका रहस्य क्या है ? अनासक्ति ही इसका रहस्य है। अतएव साक्षी बनो। कहो -'मैं साक्षी हूँ, मैं आत्मा हूँ ! 'कोई भी बाह्य वस्तु मुझे स्पर्श नहीं कर सकती। सुवर्ण की एक थैली क्या कभी मेरा आदर्श हो सकती है ? कदापि नहीं! कोई कारण नहीं कि मैं {इसके लिये } कर्म करूँ, कोई कारण नहीं, जो मैं इसको पाने के लिये दुःखभोग करूँ, मैं सब कर्मों से निबट चूका हूँ, मैं साक्षी स्वरुप हूँ। 
मैं अपनी पिक्चर गैलरी (या टीवी रूम में) हूँ, यह विश्व मेरा म्यूज़ियम -अजायबघर  है, मैं यहाँ एक साक्षी के रूप में इन क्रमिक चित्रों को देख रहा हूँ। वे सभी सुन्दर हैं -भले हों या बुरे। मैं सतरंगी चित्रों के इस श्रृंखला के अत्यद्भुत् कौशल को देख रहा हूँ; यह सब उस महान चित्रकार की अनन्त चित्र-शृंखला है। सचमुच, किसी का अस्तित्व नहीं है- न संकल्प है, न विकल्प। वही सब कुछ हैं। वही जगत जननी लीला कर रही है, और हम सब उनके खिलौने जैसे हैं, उनकी लीला में सहायक मात्र हैं। यहाँ वे किसी को कभी एक भिखारी के रूप में सजाती हैं, और कभी एक राजा के रूप में, तीसरे क्षण उसे एक साधु का रूप दे देती हैं,  देर बाद एक शैतान की वेश-भूषा पहना देती हैं। जगतजननी के लीलाविलास में उनकी सहायता के लिये हम विभिन्न रूप धारण कर रहे हैं।
हमारे जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं, जब हम अनुभव करते हैं, कि हमारा खेल - ( मनुष्य बनने का ) खत्म हो चुका, और तब हम जगन्माता की ओर दौड़ जाना चाहते हैं। तब, हमारे लिये यहाँ के सारे कार्य-कलापों का कोई मूल्य नहीं रह जायेगा, नर-नारी-बच्चे, धन-नाम-यश, जीवन के हर्ष और महत्व, दण्ड पर पुरस्कार-इनका कुछ भी मूल्य न रह जायेगा और  सारा जीवन एक तमाशा प्रतीत होगा। हम केवल उस असीम छन्दोक्रम -बदलते हुए छाया -चित्रों का अवलोकन करेंगे, बिना किसी गंतव्य स्थल के, बिना किसी उद्देश्य के जो चलता जा रहा है, न जाने कहाँ? हम केवल इतना ही कह सकेंगे - ' हमारा खेल समाप्त हो चुका ! (क्या हम मनुष्य बन सके ? ) ३/ ९८ जिनका अपना खेल समाप्त हो चुका था, ऐसे अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे जगतगुरु,  १८ वर्ष के शिष्य नरेन्द्र नाथ दत्त जैसे 'लम्प ऑफ़ मिस्ट' को हाथ में लेकर ३० वर्ष की उम्र में जगतगुरु स्वामी विवेकानन्द में रूपान्तरित कर सकते हैं। ऐसे सद्गुरुओं को ही सम्पूर्ण मानवजाति का मार्ग दर्शक नेता - कहा जाता है।  
श्रीरामकृष्ण ने कहा था,  " शिव के अंश से जिसका जन्म होता है, वह ज्ञानी होता है; उसका मन हर समय 'ब्रह्म सत्य,जगत मिथ्या ' के बोध की ओर चला जाता है। विष्णु के अंश से जिसका जन्म होता है, उसमें प्रेम-भक्ति होती है।" किन्तु शंकराचार्य में विष्णु के प्रति भक्ति भी कम नहीं थी। ठाकुर यह भी कहते थे, कि " शंकराचार्य ने लोक-शिक्षा के लिये 'विद्या का मैं' रख लिया था। " विवेकानन्द दर्शनम् ' के रचनाकार परमपूज्य आचार्य देव श्रीनवनीहरण मुखोपाध्याय (हमारे भ्राता नवनी दा) अपनी प्रसिद्द पुस्तक "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना" के "आचार्य शंकर के प्रसंग में" शीर्षक ६३ वें निबंध में कहते हैं- 
" ठाकुर ने कहा था - ' मैं ब्रह्म और माया, जीव और जगत-सबको लेकर चलता हूँ। पहले नेति नेति करने के समय जीव और जगत को छोड़ देना होता है। जिसका नित्य है, उसीकी लीला है। इसीलिये मैं नित्य और लीला दोनों को लेता हूँ। माया के बल पर विश्व-ब्रह्माण्ड को उड़ा देने के लिये नहीं कहता हूँ। ज्ञानी देखते हैं, कि सबकुछ स्वप्नवत है। भक्त सभी अवस्था को लेते हैं। उत्तम भक्त नित्य और लीला दोनों को लेता है। इसीलिये नित्य से उतर आने के बाद भी उनका सम्भोग कर सकता है।"
आचार्य शंकर ने जगत को व्यावहारिक सत्य कहा है। उनहोंने भी जगत को बिलकुल उड़ा नहीं दिया था। आचार्य शंकर कोई शुष्क हृदय मनुष्य नहीं थे इसका प्रमाण उनके द्वारा लिखित -गंगा-स्त्रोत्र,भवानी-स्त्रोत्र, शिव-स्त्रोत्र आदि में देखा जा सकता है। आचार्य शंकर के द्वारा रचित 'विष्णुषट्पदी ' नामक एक अभूतपूर्व स्त्रोत्र है, जिसमें विष्णु का वर्णन किया गया है। उसको पढने से समझ में आता है कि शंकर कितने हृदयवान व्यक्ति थे। 

अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय विषयमृगतृष्णां ।
भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ॥ १॥


सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वं |
सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ||३||

-हे विष्णु ! मेरे अविनय या अशिष्टता को दूर कर दो। मेरे अहंकार को चूर्ण करदो, मुझे अपने मन का दमन करने में सहायता करो। विषय-भोग रूपी मृगतृष्णा (मरीचिका)-उसमें सुख है, ऐसा मानकर, इस लौकिक सुखों में आनन्द है, इसीमे अर्थ है, ऐसा सोंच कर उसके पीछे दौड़ रहा हूँ। किन्तु उस उषर रेगिस्तान में जीवन का थोडा भी आनन्द नहीं मिलता, किन्तु वहीं पहुँच कर हमलोग अपने को खो देते हैं। इसीलिये प्रार्थना करते हैं कि इस प्रकार की विषय भोगों की मृगतृष्णा बिल्कुल दूर हो जाये। ऐसा केवल मन का दमन करने से ही संभव है। इसीलिये हे विष्णु ! मेरे मन को दमन करने में मेरी सहायता करें। 
किन्तु जब तक अहंकार है, तब तक मन का दमन नहीं किया जा सकता है। इसीलिये सर्वप्रथम मेरा अविनय, अर्थात विनयहीनता या अहंकार दूर करो।
हे विष्णु, सभी प्राणियों के प्रति दया का विस्तार करके आप मुझे इस संसार सागर से पार करायें !
इस अहंकार को दूर करने का -क्या उपाय है ?  संत तुलसीदास कहते हैं - ' दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान, तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण।'  न्याय करना ईश्वर का काम है, आदमी का काम तो दया करना है। सब पर दया करनी चाहिए क्योंकि ऐसा कोई नहीं है जिसने कभी अपराध नहीं किया हो। दयालु चेहरा सदैव सुंदर होता है। समस्त हिंसा, द्वेष, बैर और विरोध की भीषण लपटें दया का संस्पर्श पाकर शान्त हो जाती हैं। दयालुता हमें ईश्वर तुल्य बनती है। एकमात्र सभी भूतों पर दया का विस्तार-अर्थात ह्रदय का विस्तार करने से ही अहंकार दूर करना संभव होता है। 
इसी बात को ठाकुर देव कहते थे, " अपने लोगों को प्रेम करने का नाम माया है, सर्वभूतों  को प्रेम करने का नाम दया है। " हमारे समस्त शास्त्रों में चिरकाल से दया की प्रशंसा होती आ रही है। समस्त प्राणियों के प्रति दया,प्रेम, करुणा, सहानुभूति बढ़ाने का उपदेश दिया गया है। इसका फल क्या होगा ? यही, कि वैसा करने से ह्मलोग संसार से मुक्त हो जायेंगे, या जन्म-मृत्यु के हाथों से छुटकारा प्राप्त कर लेंगे। संसार-सागर से उद्धार मिल जायेगा।
स्वामीजी ने कहा है- " वास्तव में केवल वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के कल्याण के लीये जीवन धारण करते हैं, बाकी तो मृत से भी अधम हैं।" हम स्वयं देख सकते हैं, हजारों वर्षों से आज तक विश्व के समस्त देशों में जितने भी अवतारी महापुरुष, संत, या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हुए हैं; जिन्होंने अपने जीवन को मानव-जाति के कल्याण  के लिये न्योछावर कर दिया था, उनमें से सभी को काल का ग्रास बनना पड़ा है। अन्य लोगों की तरह उन सबकी मृत्यु भी अवश्य हुई है; किन्तु वे आज मर कर भी अमर हैं।  तथा उनके जीवन और सन्देश धरती पर करोड़ों मनुष्यों को आज भी उच्चतर जीवन के लिये अनुप्रेरित कर रहे हैं। और जो मनुष्य घोर स्वार्थी होकर केवल अपने लिये जीता है, उसकी तो गणना भी मनुष्यों में नहीं होती ! कहा गया है -'आहार निद्रा भय मैथुनं च.……… '  
श्रीरामकृष्ण कहा करते थे " जब लकड़ी का बड़ा भारी (गुरु) कुन्दा पानी पर बहता है तब उस पर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी (खोखला गुरु) पर एक कौआ भी बैठे तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार जिस समय अवतार-महापुरुष आते हैं उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं; परन्तु सिद्ध पुरुष (केवल अपनी मुक्ति चाहने वाला? ) काफी श्रम करके किसी तरह स्वयं तरता है। सिद्ध पुरुष कैसा होता है ? --जैसे किसी जगह पर कुआँ था, पर मिट्टी से पट गया था; सिद्ध पुरुष उसे फिर खोद निकालता है। सिद्ध पुरुष मुमुक्षुजनों को ही मुक्ति दे सकते हैं परन्तु अवतार प्रेम-भक्तिरहित शुष्क ह्रदय व्यक्तियों का भी उद्धार करते हैं । " 
नेता (सद्गुरु या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) युगों-युगों की अन्धकार-काराओं-ह्रदय को अन्तर के प्रकाश से आलोकित करने वाले प्रकाश-स्तम्भ हैं। सच्चे नेता (जगतगुरु) बड़े दु:साहसी और विपरीत धारा के तैराक होते हैं। वे बड़े मरजीवड़े होते हैं। वे मृत्यु के मुख से अमरता की मणि " सर्वग्रासी प्रेम"  को जबरन निकालकर अपना  शीशमुकुट बना लेते हैं। " कोई मनुष्य सच्चा नेता केवल तभी बन सकता है, जब उसके हृदय में इसी प्रेमाग्नि का एक स्फुलिंग, इस प्रेम का एक छोटा सा अंश विद्यमान हो। जिसके हृदय में मानवमात्र के लिये ऐसा ही प्रेम नहीं छलकता हो, वह किसी भी व्यक्ति के जीवन -गठन या पूर्णत्व की दिशा में अग्रसर होने में कोई मार्गदर्शन नहीं दे सकता है। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुध्द, ईसा मसीह, हजरत मोहम्मद, भगवान वेदव्यास, आचार्य शंकर, श्रीरामकृष्ण परमहंस, माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द आदि मानवजाति के मार्गदर्शक ' नेता ' इसी प्रेम की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ मात्र थे।
 अतः लीडरशिप या नेतृत्व के इस  नूतन सिद्धान्त के आलोक में हमें भी अपने ह्रदय को ऐसे ही प्रेम से परिपूर्ण रखने के लिये निरंतर प्रयासरत रहना चाहिये । इन सभी नाम और रूपों में केवल प्रेम ही मूर्तमान हुआ है! ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं इसीलिये विष्णुसहस्र नाम में भगवान का एक नाम ' नेता ' भी है। " 
क्या हमलोग भी नेता नहीं बन सकते ? क्या हम उस प्रेम के छोटे से अंश को भी अपने ह्रदय में धारण नहीं कर सकते ? क्या हमलोग अपने संघ के अन्य कर्मियों के प्रति ; जो एक ही लक्ष्य ' मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो' आन्दोलन के सहकर्मी हैं, उनके साथ प्रेमपूर्ण संबन्ध स्थापित नहीं रख सकते ? क्या हम अपने देशवासियों को इस अनित्य, दुःखपूर्ण संसार के विविध कष्टों, दारिद्र्य और बेवशी के दलदल से ऊपर नहीं उठा सकते ? निश्चय ही हमलोग ऐसा कर सकते हैं, और हमें ऐसा अवश्य करना चाहिये। हमलोगों को भी मानवजाति का एक ऐसा नेता अवश्य बनना चाहिये। ऐसा नेता बन जाने पर हमलोग कितनी धन्यता का अनुभव करेंगे!! इसी प्रकार के हजारों नेताओं की हमें आवश्यकता है।
( पूज्य नवनीदा लिखित पुस्तिका नेतृत्व का अर्थ एवं गुण -पेज ५-७ )
अत: युवा अवस्था में ही अपने जीवन के लिए एक महान लक्ष्य निर्धारित कर लेना चाहिए। जीवन में सफलता,सार्थकता और धन्यता की उपलब्धि के लिए हमें यथाशीघ्र अपने जीवन को इस प्रकार गठित करना चाहिये, जिसका लक्ष्य व्यक्तिगत स्वार्थ और सुखों से ऊपर उठकर समस्त संसार के कल्याण, उन्नति और सुख के लिए कार्य करने में सक्षम मनुष्य बनना हो। ऐसा उदात्त लक्ष्य व्यक्ति के हृदय का तत्काल विकास और विस्तार करना प्रारंभ कर देता है। और अपने देशवासियों की अधिक से अधिक सेवा करने के लिये वह व्यक्ति अपने क्षुद्र स्वार्थ एवं संकुचित व्यक्तिगत इन्द्रिय सुखों से ऊपर उठकर जगत के हित, कल्याण और सुखों से स्वयं के हृदय को जोड़ने लगता है। दूसरे शब्दों में उसके हृदय का विस्तार होने लगता है। और जैसा कि स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा है कि " विस्तार (हृदय का विस्तार-मानवमात्र के लिये प्रेम) ही जीवन है एवं संकोच (हृदय की क्षुद्रता) ही मृत्यु है। जो स्वार्थ देखता है, आराम अधिक चाहता है अथवा आलसी है, उसके लिए तो नरक में भी जगह नहीं है।" 
बौद्ध धर्म के प्रभाव से हमलोगों का सनातन धर्म लगभग लुप्त होने के कागार तक पहुँच गया था। क्योंकि बौद्ध धर्म में वेद के उपर विश्वास करने की कोई बात नहीं थी। यहाँ तक कि स्वयं बुद्धदेव ने भी ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा है। हालाँकि वे सचमुच नास्तिक थे या नहीं ? इस सम्बन्ध में संदेह की गुंजाईश है, और इसको लेकर बहुत मतभेद भी है। किन्तु सामान्य जनता- जिनमें तत्वज्ञ बनने की क्षमता नहीं थी, वे  उनके ईश्वर के सम्बन्ध में चुप्पी को गलत समझ लिया, और ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को खोने लगे। वेद पर विश्वास नहीं करने के कारण, वेद-वेदान्त में जो महान सत्य छुपे हुए थे, वे सब मनुष्य के जीवन से लूप्त होने लगे।
 बुद्धदेव ने जिस संन्यासी सम्प्रदाय की स्थापना की थी, उसमें कोई व्यक्ति संन्यास धारण करने का उचित या योग्य अधिकारी है या नहीं इसपर कोई विचार किये बिना ही, बिना परीक्षा के सभी को संन्यास दिया जाने लगा था। परिणाम स्वरूप संन्यास धर्म की अधोगति होने लगी, और क्रमशः संन्यास का आदर्श विकृत होकर अपभ्रष्ट हो गया था। बौद्ध संन्यासियों के जीवन में क्रमशः अराजकता का प्रवेश हो गया, एवं  संन्यासियों के जीवन में व्याप्त अराजकता को देखकर समाज भी कलुषित होने लगा। सम्पूर्ण भारतवर्ष के राष्ट्रीय चरित्र में क्रमशः क्षरण होने लगा। 

जबकि संन्यास का अर्थ होता है- स्वयं को स्वयं की मृत्यु की खबर देना।  जीवित अवस्था में भी इस तरह जीना जैसे यह रीर शरीर संसार के भोगों के प्रति मर चुका हो। जो भी व्यक्ति जीते जी इस मृत्यु (त्याग या संन्यास) में उतरेगा, वह अमृत को उपलब्ध होगा।
[ जब हमारे विवेक-जीवन (विवेक-अंजन) में यह शोक -समाचार छपता है कि ('धीरेन दा' ७ सितम्बर 
२०१४ को दिवंगत हो गये) अर्थात मर गये ! तो मौत से घबड़ाने वाले लोग कहते हैं हाय , बड़े अच्छे मनुष्य थे - बेचारे मर गये ? हमें यह खयाल ही नहीं आता, कि अपने मरने की खबर आई है ! किसी अंग्रेज कवि की पंक्ति है- ' किसी को यह पूछने  लिये मत भेजो कि ' आज चर्च की घंटी किसके लिए बज रही है? तुम्हारे लिए ही तो बज रही है। बिना पूछे ही जानो कि तुम्हारे लिए ही बजती है।’ हम मौत से बहुत घबराते हैं। हम मृतक को फूलों से ढककर मौत की भयावहता को कम करने की चेष्टा करते हैं। संन्यासी सदैव जानते हैं कि ' जो चर्च में घण्टी बज रही है, मेरे लिए ही बज रही है, वह जो रास्ते से लाश गुजर रही है, वह मेरी ही गुजर रही है।']
जब हमारा सनातन धर्म ऐसी दुरवस्था को प्राप्त हो रहा था - उस संकट के समय में धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिये आचार्य शंकर ने व्यास-सूत्र पर भाष्य की रचना किये, समस्त उपनिषदों पर (दस उपनिषद या मतभेद है की बारह उपनिषदों ) भाष्य की रचना किये। उसके भीतर जो कर्म में रूपायित करने की दृष्टि थी, जिसकी व्याख्या व्यासदेव ने गीता के माध्यम से की थी, उसके उपर भी असाधारण भाष्य की रचना की। इस प्रकार वेदान्त, ब्रह्मसूत्र, एवं गीता के बीच सुसामंजस्य स्थापित करके तत्व और जीवन के बीच स्थापित किये। ताकि अपने व्यावहारिक जीवन में भी उपयोगी तत्वों को ग्रहण करके भारत की उन्नति हो सके। नया संन्यासी सम्प्रदाय स्थापित किये, चार नये मठ स्थापित किये। 
पुनः अंग्रेजों की गुलामी और पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से जब भारत के नव-शिक्षित हिन्दू-समाज में इन मठों प्रति सम्मान में क्षरण होने लगा तो जगतगुरु श्रीरामकृष्ण -माँ सारदा और स्वामी विवेकानन्द ने उसी प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा के अनुरूप उन्हीं वेदान्त के तत्वों को जीवन में अपनाने के योग्य तथा नये ढंग से समाजोपयोगी बनाकर,अपने जीवन के माध्यम से हमलोगों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है।
यदि सम्पूर्ण विश्व के मानव-इतिहास, उसका दर्शन, उसकी संस्कृति, उसकी प्रगति, उसके उत्थान-पतन का इतिहास में भारत वर्ष के अवदान को याद रखने की बात हो, तो बहुत सी बातों को याद नहीं रखकर,केवल इन तीन सोपानों को याद रखने से काम हो जायेगा। वेदव्यास ने क्या किया था, आचार्य शंकर ने क्या किया था तथा ठाकुर-माँ-स्वामीजी ने अपने जीवन में क्या और कैसे किया था- इतना जान लेना ही भारत के सच्चे इतिहास को जानना है। सम्पूर्ण मानव सभ्यता के इतिहास में विकास की जीवनधारा को याद रखने के लिये यदि तीन चरणों में विभक्त करके देखा जाय, तो प्रथम सोपान पर व्यासदेव हैं, दूसरे सोपान पर आचार्य शंकर हैं, और तृतीय तथा अंतिम सोपान पर श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द हैं।
 इन तीन सोपानों के माध्यम से भारतवर्ष के सामयिक पतन (इंडिया हिन्दूस्तान बनने ) और पुनः उसके पुनरुत्थान- भारत से भारतवर्ष बनने और बनाने का - एकमात्र उपाय स्वामीजी द्वारा प्रदत्त्त भारत निर्माण सूत्र " Be and Make " है - इस तथ्य को भलीभांति समझा जा सकता है। हमलोग यह जानते हैं कि प्राचीन युग में जब बहुत दीर्घ समय तक वर्नाक्यूलर स्क्रिप्ट या प्राकृत लिखित भाषा नहीं बनी थी, तो उस युग में गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार शिष्य किस प्रकार श्रुति के माध्यम से,अर्थात वेदमंत्रों को गुरुमुख से सुन सुन कर, मन ही मन याद रख लेते थे। और प्राचीन भारत में तथा वंश परम्परा (चतुर्वेदी -त्रिवेदी?) के अनुसार वेदों को इसी प्रकार संरक्षित रखा जाता था। महर्षि वेदव्यास ने बाद में उनको एकीकृत या संहित करके उसे चार भागों में विभक्त किया था। महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जावेंगे। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ से बाहर हो जायेगा। इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। व्यास जी ने उनका नाम रखा - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये।

 वेदों की बहुत सी साखायें हैं, जिनके पाठ्य-विधि में (Text) थोड़ा-बहुत अन्तर या विभिन्नता होती है। उसके बाद जब इनकी संख्या बहुत ज्यादा हो गयी, तो उसको याद रखना बहुत मुश्किल हो गया, सुसंहती (compactness) का अभाव दिखाई देने लगा-तब व्यासदेव ने उसको ठीक से सजाकर एकत्रित किया और उसको समान वर्ग में श्रेणीबद्ध कर दिया। पहले उनको तीन श्रेणी में विभाजित किया-ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा जो शेष रह गए उनको अथर्ववेद कहा गया। ऋगवेद में जितने भी मन्त्र या श्लोक हैं, वे काव्यमय हैं, उनको कविता के माध्यम व्यक्त किया गया है। यजुर्वेद मुख्यतः गद्य है। तथा सामवेद में मुख्यतः ऋग्वेद के मन्त्र हैं, जिनमें कुछ और मन्त्र जोड़ कर संगीतमय बनाया गया है। सामवेद गाया जाने वाला -ग्येय वेद है। 

 वेद को मुख्यतः तीन भागों में विभक्त क्या गया है, इसीलिये उसको 'त्रयी' कहा जाता है। वेद के सारांश को वेद से अलग करके -उसका नाम 'उपनिषत' दिया गया। चूँकि वेद का सारांश उसमें है, जिसे गुरु के मुख से सुन सुन कर याद रखना होता था, इसीलिये उसको 'श्रुति' कहा जाता है। फिर उनका भी प्रधान या सिर होने के कारण उपनिषदों को 'श्रुतिशिर' भी कहा जाता है। वेदों का विभाजन करने के बाद महर्षि वेदव्यास ने वेदान्त या उपनिषद के भीतर जो दर्शन है, उस दर्शन के मूल तत्वों को सूत्रबद्ध कर दिए। 'सूत्र' का अर्थ होता है, मूल और प्राथमिक तत्वों को छोटे छोटे शब्दों में अभिव्यक्त करना या संचित रखना। क्योंकि छोटे छोटे शब्दों को याद रखना अपेक्षाकृत सहज  होता है, और आवश्यकता पड़ने पर उसकी व्याख्या करने से, या उसके भाव की विवेचना करने से, सम्पूर्ण दर्शन समझ में आ सकता है। इसका नाम - व्याससूत्र, या 'ब्रह्मसूत्र' या 'शारीरकसूत्र' अथवा 'वेदान्तसूत्र'। वेदान्त सूत्र के प्रथम चार सूत्र अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इन चारों को मिलाकर 'चतुःसूत्री' कहा जाता है।
किसी प्राचीन कवि ने कहा था- " वेदान्ती लोगों द्वारा लोक कल्याण के कर्मों में निरन्तर लगे रहना सम्भव नहीं होता - जो लोग ऐसा कहते हैं, इससे बढ़ कर और हास्यापद बात क्या हो सकती है ?"  वेदान्त किस प्रकार दैनन्दिन जीवन में उपयोगी हो सकता है, इसको वेदव्यास ने महाभारत की रचना करके दिखलाया है। विशेषरूप से महाभारत में उस स्थान पर जहाँ श्रीकृष्ण ने गीता कहा है। इसीलिये कहा गया है-
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:। पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।    
समस्त उपनिषद मानो गाय है, और गोपालनन्दन कृष्ण मानो दूध दुहने वाले हैं।वे मानो उपनिषदों का दोहन कर रहे हों, और पार्थ अर्थात अर्जुन मानो बछड़ा है। बछड़ा जब दूध खींचता है,तभी तो दूध दूहा जा सकता है। पार्थ बार बार जिज्ञासा करके, थोड़ा थोड़ा करके उपनिषदों से खींचे थे, इसीलिये वहाँ से गीतामृत रूपी असाधारण पौष्टिक दूध सम्पूर्ण मानवता को प्राप्त हुआ है। यह गीता ही व्यावहारिक वेदान्त है ! इस प्रकार वेद से उपनिषद बना है, उपनिषद से वेदान्तसूत्र बना है, और वेदान्त का जो व्यावहारिक पक्ष या प्रयोग-धर्मी वेदान्त है, वह है गीता। किन्तु ये समस्त कार्य व्यासदेव ने अकेले ही कर दिखाया था। इसीलिये सनातन धर्म, या दर्शन या मनुष्य जाति के लिये व्यासदेव का अवदान असाधारण है। इसीलिये व्यास को ' चिरजीवी विशालबुद्धि व्यास' कहा जाता है, उनकी कीर्ति ने उनको मानवता के समक्ष अमर बना दिया है।
एक अन्य दृष्टि से देखने पर, यदि यह विचार करें कि वास्तव में 'व्यास' किसको कहते हैं? किसी वृत्त के केन्द्र गुजरती हुई जो सरल रेखा परिधि को दोनों ओर स्पर्श करती है, उसे व्यास कहते है। अर्थात यदि किसी वृत्त का व्यास ज्ञात हो जाय, तो व्यास के सम्बन्ध में जुड़े रहने वाले को, इस पार और उस पार सम्पूर्ण का ज्ञान हो जाता है। इसलिये गीता के ध्यान मन्त्र में, जहाँ व्यासदेव की स्तुति की गयी है, वहाँ उनको 'विशालबुद्धि' कहा गया है। व्यासदेव ने जो वेदान्त-सूत्र लिखा था, उसके बाद आचार्य शंकर उसके उपर भाष्य की रचना किये थे।
जगद्गुरु आदि शंकराचार्य कृत साधना पंचकं २ में कहा गया है-

 ' वाक्यार्थश्च विचार्यताम श्रुतिशिर: पक्ष: स्माश्रीयताम। अतः महर्षि व्यास और श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द रूपी बेलपत्र तीन पत्तों में एक को ही देखने  दृष्टि प्रदान करने वाले, इनके बीच की कड़ी आचार्य शङ्कर का महत्व और अधिक बढ़ जाता है! इसीलिये तो कहा गया है- 
 "शङ्करः शङ्करः साक्षात् व्यासो नारायणः स्वयम् । 
 
आचार्य शंकर साक्षात् शिव हैं, शिवजी का अवतार हैं -आचार्य शंकर; उन्होंने मनुष्य के कल्याण के लिये शरीर धारण किया था, ऐसा कहा जाता है। इन्होंने सन्यासी शिष्य भी बनाये थे और गार्हस्थ सम्प्रदाय में गाणपत्‍य, सौर, शैव, शाक्‍त और वैष्‍णव संप्रदाय इत्यादि छः संप्रदाय बनाये थे। इस प्रकार उन्होंने साधारण लौकिक धर्म को बिल्कुल उठा ही दिया हो, ऐसी बात नहीं है। इस ओर भी उनका ध्यान समानरूप से था, इससे यह सिद्ध होता है कि शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे; ये कार्य ही उन्हें 'जगदगुरु' पद पर प्रतिष्ठित करते हैं।

आद्य जगद्‍गुरु शंकराचार्य ने वैदिक धर्म या सनातन धर्म को पुनर्स्थापित करने का भरपूर प्रयास किया। आचार्य शंकर ने हिंदुओं को यह समझाया कि तुम्हारा धर्म वैदिक धर्म या वेदान्त है।  इस धर्म का ससंस्थापक कोई व्यक्ति या मनुष्य नहीं है; इसलिये इसे सनातन धर्म कहा जाता है। भगवान बुद्ध भी सनातन अवतारों में एक अवतार हैं, और भविष्य में ऐसे कई अवतार आविर्भूत होंगे। अतः बौद्ध भी प्रकारान्तर से हिन्दू ही हैं ! जैसे भारत में रहने वाले सभी लोग चाहें तो स्वयं को हिन्दू या बौद्ध कह सकते हैं। क्योंकि हिन्दू शब्द भारतीय (या Indian) होने का ही पर्याय है। 
अतः उन्होंने सभी जातियों को इकट्ठा करके’दसनामी संप्रदाय’बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।
शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहाँ हुआ। मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की।  चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं,  इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं। चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-
1. वेदान्त ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।
2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
3. शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
4. ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)
किन्तु जगतगुरु श्रीरामकृष्ण  के आविर्भूत होने के पश्चात् , सम्पूर्ण विश्व आज एक ' ग्लोबल विलेज ' बन चूका है , और भारत की गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित वेदान्त का ज्ञान प्राप्त करने  हेतु  किसी भी सम्प्रदाय या देश के  आत्मजिज्ञासुओं के लिये भारत आकर ' स्पिरिचुअल नॉलेज' (आध्यत्मिक ज्ञान ) प्राप्त करना सहज हो गया है। इसी सम्भाव्यता को ऋषि दृष्टि से देखकर जगतगुरु स्वामी विवेकानन्द ने अपने अंग्रेज (ईसाई) शिष्य  कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर और उनकी पत्नी श्रीमती सी ई सेवियर को हिमालय में एक 'वेदान्त मठ ' स्थापित करने के लिये अनुप्रेरित किया था। उन्हीं की प्रेरणा से उनके अंग्रेज सेवियर दम्पति-शिष्य ने (गृहस्थ होकर भी) अद्वैत आश्रम, मायावती को उनके एक संन्यासी शिष्य स्वामी स्वरूपानंद के साथ मिलकर १९ मार्च १८९९ को प्रतिष्ठित कर दिखाया था। रामकृष्ण मिशन दूसरों की सेवा और परोपकार को कर्म योग मानता है जो कि हिन्दु धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। रामकृष्ण मिशन का ध्येयवाक्य है - 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च' (अपने मोक्ष और संसार के हित के लिये) अतः आधुनिक युग में स्वामी विवेकानन्द के शिष्य सेवियर दम्पति द्वारा स्थापित 'अद्वैत आश्रम, मायावती ' को 'अद्वैत मठ' की परम्परा में पाँचवाँ मठ कह सकते हैं, क्योंकि यहाँ सभी धर्मों या देश के अनुयायी अद्वैत-वेदान्त की शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।   
**   समुद्र तट से ६४०० फीट ऊंचाई पर टनकपुर रेलवे स्टेशन से ८८ किमी तथा काठगोदाम रेलवे स्टेशन से १६७ किमी दूर चम्पावत जिले के अंतर्गत लोहाघाट नामक स्थान से उत्तर पश्चिम जंगल में ९ किमी पर है, देवदार, चीड़, बांज व बुरांश की सघन वनराजि के बीच अदभुत नैसर्गिक सौन्दर्य के मध्य मणि के समान अद्वैत आश्रम, मायावती स्थित है।
सन् १९०१ में कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर के देहांत का समाचार जानकर स्वामी विवेकानंद श्रीमती सेवियर को सांत्वना देने के निमित्त मायावती आये थे। तब वे इस आश्रम में ३ से १८ जनवरी तक रहे. कैप्टेन की मृत्यु के पंद्रह वर्ष बाद तक श्रीमती सेवियर आश्रम में सेवाकार्य करती रहीं.
स्वामी विवेकानंद की इच्छानुसार मायावती आश्रम में कोई मंदिर या मूर्ति नहीं है इसलिए यहाँ सनातनी परम्परानुरूप किसी प्रतीक (मूर्ति या चित्र) की पूजा नहीं होती। सांय काल मधुर वाणी में सामूहिक रूप से संगीत वाद्यों के साथ राम नाम संकीर्तन होता है।  
[नवनीदा की आत्मकथा ' जीवन नदी के हर मोड़ पर' के [५४] वें निबंध में महामण्डल के जीप द्वारा 'अल्मोड़ा यात्रा ' प्रसंग में लिखते हैं- " मायावती तक आराम से आ गये। वहाँ पर हम सभी लोगों के लिये रहने कि व्यवस्था थी. घूम-फिर कर आस-पास देख आया. स्वामीजी लोग जिस स्थान पर बैठ कर ध्यान करते थे, वहाँ की निस्तब्धता को देखकर ऐसा लगता था मानो जगत हो ही नहीं ! वसन्त रोग (चेचक) से आक्रान्त रहने के समय जो देखा था- मैं मर गया हूँ, और जिस जगह पर शरीर का दाह-संस्कार कर दिया गया था, उसी स्थान को पुनः अपने सामने सेभियर के समाधि-स्थली के  रूप में साक्षात् देखा.(???)"  
'अद्वैत आश्रम'
भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत जिले में मायावती नामक स्थान पर स्थित है जहाँ संन्यासी या गृहस्थ कोई भी प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं यह अद्वैत आश्रम, मायावती  रामकृष्ण मठ की एक शाखा है, जिसका मुख्यालय कोलकाता के निकट बेलुड़ में है।

शंकराचार्य का दर्शन: शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। क्योंकि वेद या उपनिषद के भीतर जो दार्शनिक तत्व थे उनको वर्गीकृत करके व्यासदेव ने जिस वेदान्त-सूत्र की रचना की थी, उसकी व्याख्या में भी विभिन्नता की सम्भावना हो गयी थी। विभिन्न लोग अलग अलग ढंग से वेदांत-सूत्र की व्याख्या करने लगे थे, जिसके कारण भ्रान्ति उत्पन्न हो गयी थी। इनमें से किसकी व्याख्या सही है, किसकी गलत है? इसमें ग्रहण करने योग्य कौन सा भाष्य होगा ? इन सबके बारे में भी भ्रम उत्पन्न हो गया था। तब अत्यन्त तीक्ष्णबुद्धि-सम्पन्न शंकर ने समस्त शास्त्रों का अध्यन कर लेने के बाद, उसके अद्वैत पक्ष को लेकर वेदान्त-सूत्र पर भाष्य रचना किया ।
 सनातन भावधारा में सामान्य रूप से तीन मतों को स्वीकार किया जाता है- द्वैत,विशिष्टाद्वैत एवं अद्वैत। शंकर ने अद्वैत पक्ष को आधार बनाकर, पहले ब्रह्मसूत्र के उपर, फिर उपनिषद एवं गीता पर भी भाष्य रचना किये थे। इन तीनों को एक साथ मिलाकर 'प्रस्थानत्रैय' कहा जाता है। इस 'प्रस्थानत्रैय', अर्थात गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र में ही-हमलोगों के देश का सम्पूर्ण प्राचीन ज्ञान-भण्डार छुपा हुआ है, इसीलिये जो लोग उसके उपर भाष्य लिखते हैं, उन्हें हमारे देश में आचार्य कहा जाता है। शंकर, रामानुज,
मध्व, निम्बार्क आदि आचार्यों ने अपने-अपने मत के अनुसार इनकी जो व्याख्या की है, उनमें कुछ व्याख्या की भिन्नता है, और अपने मतानुसार स्वतंत्र-व्याख्या की गयी है।
आचार्य शंकर की सर्वश्रेष्ठता या वैशिष्ट्य (per-eminence) का प्रारंभ यहीं से होता है। उनहोंने वेदान्त के अद्वैत पक्ष को आधार बनाकर ब्रह्मसूत्र की जो व्याख्या की है, उसका मूल बिन्दु यही है कि -एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति ' - यहाँ दो  कुछ भी नहीं है, सत्य एक है, अनेक नहीं! और अनेक नाम-रूपों में जो कुछ दिख रहा है-वह सब ज्ञेय वस्तु या प्रतीत होने वाली वस्तु है, क्षणभंगुर है, मायिक वस्तु है, या अध्यस्त है। जो वस्तु दिखाई दे रही है, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कोई वस्तु वहां है,किन्तु वास्तव में नहीं है, तो उसको ही भ्रान्ति या भ्रम कहते हैं; जिसका कारण है 'माया'। जो एक होकर भी अनेक रूपों में भास रहा है- उसी को माया कहते हैं। जो वस्तु वह नहीं हो, जिस रूप में वह दिख रही हो, उसी को 'माया' कहते हैं। माया (एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु के रूप में दिखना -परिणाम नहीं है, विवर्त है।)का सबसे प्रसिद्द उदाहरण है, ' सर्प-रज्जू-न्याय ' - अर्थात अँधेरे में रज्जू को देखने से, उसके सर्प होने का भ्रम हो जाता है। जो एक को एक नहीं देखते, अनेक रूप में देखते हैं, वे समझते हैं कि जो कुछ दिख रहा है, वही सत्य है।माया की शक्ति कार्य कर रही है, इसीलिये आवरण पड़ जाता है, इसीलिये हमलोग ब्रह्म को देख नहीं पा रहे हैं, या अनेकता में एक की उपलब्धी नहीं कर पा रहे हैं। जिस प्रकार रस्सी को रस्सी के रूप में नहीं देख रहे हैं, वह बिल्कुल सर्प प्रतीत हो रहा है।

उसी प्रकार माया में आवृत होने के कारण ही हम जगत को जो ईंट,लकड़ी,पत्थर इत्यादि अलग अलग रूपों में देख रहे हैं। जब माया हट जायेगी तो सब कुछ को ब्रह्म के रूप में देख सकेंगे। सत्य प्रकट हो जायेगा। एक बार माया का पर्दा हट जाने के बाद,हमलोगों की सत्य-दृष्टि खुल जाती है।जो वास्तव में वह नहीं है, वह उसी रूप में दिखाई पड़ रहा है। इसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की गयी है। आचार्य शंकर इस भ्रम को अध्यास कहते हैं, अर्थात सम्मोहित अवस्था में जो जैसा नहीं है, वैसा ही दिख रहा है; इसीको माया या माया का कार्य कहते हैं। माया-तत्व की व्याख्या में कहा जाता है, कि इसकी दो शक्तियाँ है- एक है आवरण-शक्ति और दूसरी है विक्षेप शक्ति।
आवरण-शक्ति की सहायता से जो वस्तु वास्तव में जो है, उसको यह माया उस रूप में देखने नहीं देती है। जैसे वास्तव में है तो रज्जू किन्तु वैसा देखने नहीं देती है, या दिख नहीं रही है। फिर विक्षेप शक्ति की
सहायता से जो नहीं है, उसी रूप में दिख रही है। जैसे वास्तव में है तो रज्जू, किन्तु सर्प जैसी दिख रही है। और हम वहाँ रज्जू नहीं देखकर सर्प देख रहे हैं। ' एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति ' -- वास्तव में एक ही है,अनेक नहीं है, उस 'एक' के सिवा अन्य कुछ भी नहीं है।
इसी बात को जगतगुरु श्रीरामकृष्ण बहुत सरल भाषा में इस प्रकार कहते हैं-" ब्रह्म या ईश्वर ही वस्तु हैं, उनके स्थान पर अन्य जो कुछ भी दिख रहा है, वह सब अ-वस्तु है। एक को जानने का नाम ज्ञान है, अनेक को जानने का नाम अज्ञान है।" ईश्वर की सर्वव्यापकता को और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था - " प्रत्येक वस्तु नारायण है। मनुष्य नारायण है, पशु नारायण है, साधु नारायण है, लम्पट भी नारायण है। जो कुछ है, सब नारायण ही है। नरायण विभिन्न रूपों में लीला करते हैं। सब उन्हीं के भिन्न-भिन्न रूप हैं, उन्हीं की महिमा (शक्ति ) का प्रकाश है! " किन्तु अपने शिष्यों को सावधान करते हुए यह भी कहा था कि ' यदि हाथी नारायण है तो महावत भी नारायण है-इस कथा को मत भूलना। ' 
वास्तव में सभी मनुष्य ब्रह्म ही हैं, किन्तु हमलोग उन्हें  अनगिनत नाम-रूप में देख रहे हैं। मनुष्य के तीन प्रमुख उपादान '3H' हैं -शरीर,मन और ह्रदय। इन तीनों के समंजस्यपूर्ण विकास,'3H' निर्माण के प्रशिक्षण द्वारा ही हम यथार्थ मनुष्य बन सकते हैं। इस तथ्य को समझते हुए भी हमलोग अपना जीवन और चरित्र गढ़ने के लिए जो कठोर परिश्रम नहीं करते हैं -यही माया है ! इसको ही अध्यास (देहाध्यास-माया) कहते हैं। विवेक का अर्थ है तृष्णा-लालच-वासना को अलग करना या शरीर-मन को ह्रदय से पृथक करना। 
हमारा बंधन (लालच) नाम-रूप (शरीर-मन ) कर्त्तृत्त्व भोक्तृत्त्व उपाधि को लेकर है । तृष्णा शरीर और मन के लिये हैँ । शरीर एवं मन (2H) न हो तो तृष्णा नहीँ हो सकती । कर्त्तृत्त्व कर्मेन्द्रियोँ और प्राण को लेकर है। जब कर्मेन्द्रियोँ से मेरा संबंध नहीँ तो मेरे मेँ कर्त्तृत्त्व का भी संबंध नहीँ । तभी इस दुःख से छूट सकते हैँ । हम अनादि काल की वासनाओँ से ग्रस्त हैँ । वासनायेँ हमारे मेँ भरी हुई हैँ , उसी के कारण हम कर्त्ता – भोक्ता बने हुए हैँ अन्यथा हैँ तो हम – ” अमृतस्य पुत्राः ”। परन्तु तृष्णा लालच वासनाओँ के कारण हम जीव बने हुए हैँ ।
वासनाओँ का प्राकाट्य जाग्रत – स्वप्न मेँ होता है । जब 'सुषुप्ति' मेँ जाते हैँ तब परम तृप्ति है क्योँकि तब हमारे अन्दर कर्त्तृत्त्व – भोक्तृत्त्व कुछ प्रकट नहीँ रहता है । 'जाग्रत','स्वप्न' मेँ आते ही दुर्वासा अर्थात् दुर्वासना का शाप लग जाता है । हम लोगोँ की कत्तृत्व शक्ति बकरी की तरह और भोक्तृत्व शक्ति हाथी की तरह है । इसलिये हमारी भूख कभी मिटती नहीँ । 
” चाहिये , चाहिये ” की आशा कभी नहीँ मिटती । ऐसा होना चाहिये , ऐसा करना चाहिये , भारत को महान देश होना चाहिये , अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिये , इत्यादि अपेक्षाएँ-इच्छायें असंख्य है जबकि हमारा कत्तृत्व बकरी की तरह है। हम चाहते हैं की गाय २० लीटर दूध दे , जब कहते हैँ कि ” इसके बारे मेँ कुछ करो ” तब जबाब मिलता है ” हम क्या कर सकते है, सारा चारा तो नेता खा गए ? ” अर्थात् कुछ नहीँ कर सकते । हम चरित्र-निर्माण और मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार तो कर नहीँ सकते पर चाह सकते हैँ, कि मेरा भारत महान बन जाय। और इसलिये देश-चिन्ता ग्रस्त निरंतर दुःखी भी बने हुए हैँ। 
जैसे वरुण पुत्र – वारुणी को निरंतर दुःख का ही अनुभव करता रह ता था, क्योँकि दुर्वासा (अर्थात दुर्वासना) के श्राप से, उसका पेट हाथी का और मुँह बकरी का हो गया था। उसके खाने वाला मुख (मन Head) और भरने वाला पेट (Hand) दोनोँ मेँ सामञ्जस्य नहीँ था ! ऐसे ही हमारी मन पर संयम रखने का अभ्यास न करने के कारण हमारी भोक्तृत्त्व शक्ति- बहुत ज्यादा है। ओर नियमित शारीरिक व्यायाम न करने के कारण कर्त्तृत्त्व शक्ति सीमित है, इसलिये हमारी इच्छायें जब पूर्ण नहीं होतीं तो हम दुःख का अनुभव करते हैँ । यह दुःख का अनुभव तब जाये जब हाथी के शरीर (पेट) और बकरी के मुख से पीछा छूटे। 


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वर्णव्यवस्था विषय

सब मनुष्यों की एक जाति है, अर्थात मनुष्य – जाति  ! मनुष्य-जाति चार-वर्णों में विभक्त होती है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र l इनका नाम ‘वर्ण’ इसलिए है कि जैसे जिसके गुण-कर्म हों वैसा ही उसको अधिकार देना चाहिए। चार वर्णों के गुण-कर्म:  गुण-कर्मों के अनुसार ही वर्ण ‘वरा’ जाता है, वेदाध्ययन और परमेश्वर की उपासना के साथ वर्तमान तथा विद्या आदि उत्तम गुणों से युक्त पुरुष को ब्राह्मण कहते हैं।  एश्वर्य, बल, वीर्य, शौर्य आदि गुणों से सम्पन्न पुरुष को क्षत्रिय कहते हैं । लेन -देन, व्यापार, पशु-पालन तथा कृषि आदि के कर्मों में सकुशल मनुष्य को वैश्य तथा शिल्पविद्या के जानने वाले तथा सेवा क्षेत्रों में कुशल किन्तु संस्कृत नहीं जानने वाले अज्ञानी मनुष्य को शुद्र कहते हैं। अतः संस्कृत सीखकर कोई भी जाति - धर्म  जन्मा मनुष्य क्रमशः ब्राह्मण बन सकता है।
शंकराचार्य के चार शिष्य: 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2। हस्तामलक 3. सुरेश्वराचार्य (मंडन मिश्र) 4. तोटक (तोटकाचार्य)। उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।

*मनुष्य जाती के दो भेद *
मनुष्य जाति के दो भेद अन्य प्रकार से भी किये हैं – आर्य और दस्यु ।  श्रेष्ठ मनुष्यों को आर्य कहते हैं और दुष्ट स्वभाव से डाकू आदि को दस्यु कहते हैं । इन्हें ही देव और असुर भी कहते हैं अर्थात आर्यों को देव तथा दस्युओं को असुर कहते हैं l
*वर्ण-परिवर्तन *
*शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम l
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विध्याद्वैश्यात्त्थैव च ll

*मनु-स्मृति (अध्याय 10, श्लोक 65)
अर्थात शूद्र ब्राह्मण हो जाता है, और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार ब्राह्मण हो तो वह ब्राह्मण रहता है और ब्राह्मण यदि क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के गुनोंवाला हो तो वह क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र हो जाता है l वैसे शूद्र भी मुर्ख हो तो वह शूद्र रहता है और जो उत्तम गुणों से युक्त हो तो यथायोग्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है । इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य के विषय में भी जान लेना चाहिए l जो शूद्र को वेदादि पढने का अधिकार न होता तो वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के अधिकार को कैसे प्राप्त हो सकता था ? महर्षि विश्वामित्र और महर्षि वाल्मीकि जैसे अनेकों उदाहरण हैं शास्त्रों का अध्ययन करें तो।  वेदादि शास्त्रों के पढने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने में सब मनुष्यों का अधिकार है,जो-जो पदार्थ ईश्वर ने रचे हैं वे सबके उपकारार्थ हैं ।   स्त्रियों को भी वेदादि शास्त्रों को पढने-सुनने का समान अधिकार है।  यजुर्वेद 26/2 में लिखा है :
यथेमा वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य: l
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च ll

अर्थात वेदों को पढने का अधिकार सब मनुष्यों को है, और विद्वानों को पढ़ाने का भी अधिकार है। ईश्वर आज्ञा देते हैं कि हे मनुष्य लोगों! जिस प्रकार मैं (परमेश्वर) तुमको चारों वेदों का उपदेश देता हूँ उसी प्रकार तुम भी उनको पढ़कर सब मनुष्यों को पढ़ाया और सुनाया करो, क्योंकि वह वेदरूपी वाणी सबका कल्याण करनेवाली है । वेदाधिकार जैसा ब्राह्मण के लिए है वैसा ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, पुत्र, भृत्य और अतिशूद्र के लिए भी बराबर है । वर्णपरिवर्तन के सम्बन्ध में यह निश्चितरूप से जान लेना चाहिए कि 25वें वर्ष में वर्णों का अधिकार ठीक-ठाक होता है, क्योंकि 25 वर्षों तक बुद्धि बढती है, इसलिए उसी समय गुण-कर्मों कि ठीक-ठाक परीक्षा करके वर्णाधिकार होना उचित है।
  ' आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः '
आचरण हीन को वेद भी पवित्र नहीं करते । वशिष्ठ स्मृति में कहा गया है - ' आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः ' अर्थात आचरण हीन को वेद भी पवित्र नहीं करते । गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र इन दोनों के प्रणेता एक ही हैं। ‘आपस्तम्बधर्मसूत्र’ (प्रश्न 2, पटल 5, खंड 11, सूक्त 10-11) में भी कहा गया है -  धर्माचरण से नीचे के वर्ण पूर्व-पूर्व वर्ण के अधिकार को प्राप्त होते हैं और अधर्मआचरण करके पूर्व-पूर्व वर्ण नीचे के वर्णों के अधिकारों को प्राप्त होते हैं ।  यह व्यवस्था समाज के संतुलन के लिए थी। समस्त ऋषियों ने भी समाज को चार वर्णों में विभाजित करना अनिवार्य बताया है। अन्य धर्मों में भी इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था की गयी थी। प्रत्येक व्यवस्था गुणों और कर्मों के आधार पर थी।
ग्रंथ: शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन (वेदान्त ) को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा मण्डन मिश्र जैसे कर्मकाण्डी हिन्दू विद्वान से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया। 
“ आचार्य श्री शंकर और मण्डन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ ”  

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मार्ग में मण्डनमिश्र जी की दासियाँ , जो परस्पर संस्कृत में वार्तालाप करती हुई नदी से जल लेने जा रही थीं उनसे आचार्य शङ्कर ने पूछा कि मण्डनमिश्र का घर कहाँ है ? श्री आचार्य शङ्कर का दर्शनकर दासियाँ भी विभोर हो गईं और सविनय उत्तर दिया : अर्थात् जिस द्वारपर टंगे पिजरों के भीतर बैठी मैनाएँ वेद अर्थात् श्रुति स्वतः प्रमाण है अथवा परतः प्रमाण । कर्म का शुभाशुभ फल कर्म देता है अथवा ईश्वर । जगत् ध्रुव है अथवा अध्रुव ? इस बातपर विचारकर रही हो उसे आप मण्डन मिश्र पण्डित का घर जानिये । दासियों से इस प्रकार वचन सुन आचार्य शङ्कर मण्डन के घर गये , परन्तु उस समय घरका द्वार बन्द था । मार्ग में दर्शक लोग उस अल्प वयस्क यतिवर का दर्शनकर मुग्ध होने लगे तथा उनके मुख मण्डल से किसी विशेष अवतारी पुरुष की अलौकिकता का अनुभव करने लगे । 
उस समय मण्डन मिश्र श्राद्ध कर रहे थे। योगिराज आचार्य शङ्कर आकाश मार्ग से आँगन में उतरे, शिखा सूत्र रहित जब एक सन्यासी को मण्डन ने देखा तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा । क्योंकि कुछ विद्वान् लोग श्राद्ध के अवसर पर संन्यासी का आना निषिद्ध मानते हैं जबकि यह शास्त्र विरुद्ध है ।  मण्डन मिश्र ने क्रोध भरी दृष्टि से यतिन्द्र शङ्कर की ओर देखते हुए कहा :” कुतो मुण्डी ” ? 
{ हे मुण्डी ! कहाँ से आये ?} यहाँ मुण्डी शब्द संन्यासी के प्रति अनादर सूचक सम्बोधन है । इस वाक्य दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि कहाँ से मुण्डित हो ? आचार्य श्री शङ्कर ने दूसरे अर्थ को मन में रखकर कहा ” आगलात् मुण्डी ” अर्थात् गले तक मुण्डन है ।
अरे ! मैं मुण्डन के विषय में नहीं पूछता , किन्तु ” पन्थास्ते पृच्छ्रयते मया ” मण्डन मिश्र आचार्य से कहते हैं कि मैं आपके मार्ग के विषय में पूछता हूँ कि आप आये कहाँ से ? तब आचार्य शङ्कर स्वामी ने मुस्कुराते हुए कहा – ” किमाह पन्थाः ? ” मार्ग से पूछे जाने पर उसने क्या उत्तर दिया ? मण्डन मिश्र ने चिढ़कर ”त्वन्माता मुण्डा ” मार्ग ने मुझे उत्तर दिया कि तुम्हारी माता मुण्डा है । आचार्य सर्वज्ञ शङ्कर स्वामी कहते हैं – बहुत ठीक , ” इत्याह तथैव हि ” तुमने ही मार्ग से पूछा है इसलिए वह उत्तर भी तुम्हारे लिए ही होगा अर्थात् तुम्हारी माता मुण्डा – संन्यासनी है , हमारी माता नहीं । आचार्य शङ्कर मण्डन को ललकारते हुए कहते हैं : ब्रह्मतत्त्व को न जानेवाला आत्महत्या को प्राप्त होता है । ” असन्नेव स भवत्यसद्ब्रह्मेति चेद्वेद ” ब्रह्म असत् है – नहीं है यदि ऐसा जानता है तो वह असत् ही हो जाता है । असूया नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः । ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चाऽऽत्महनो जनाः ॥
{ ईशावास्योपनिषद् 3 }

” परीक्ष्य लोकान्कर्मचित्तान्ब्राह्मणो निर्वेदमायात् ” { कर्मोँ से सम्पादित लोकों – फलों का परीक्षण कर अर्थात् अनित्य अनुभव कर ब्राह्मण वैराग्य को प्राप्त हो } ” यदहरेव विरजेतदहरेव प्रव्रजेत् ” { जाबाल खण्ड 4 } { जिस दिन वैराग्य हो उस दिन संन्यास ग्रहण करे } { ब्रह्मचार्याद्वा गृहाद्वा वनाद्वा ” { ब्रह्मचर्याश्रम से गृहस्थाश्रम से अथवा वानप्रस्थाश्रम से संन्यास ग्रहण करे } ” न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागैनैके अमृतत्वमानशुः ” { महा नारायण उपनिषद् 10 / 5 } { एक शाखा वाले ऐसा कहते हैं – न कर्म से , न प्रजा से न धन से अमृतत्व प्राप्त होता है किन्तु के एक त्याग से ही प्राप्त होता है } ” अथ परिव्राड् विवर्णवासा मुण्डोऽपरिग्रहः ” { जाबाल 5 } आदि श्रुति वाक्यों में ब्रह्मज्ञान के लिए संन्यास ग्रहण करने का स्पष्ट निर्देश है । यदि शिखा सूत्र का विधिवत् परित्यागकर संन्यास ग्रहण न किया जायगा तो उक्त श्रुति का निर्वाह नहीं हो सकेगा । श्रुति को भार से मुक्त करने के लिए संन्यास ग्रहण करना बुद्धिमता है , दुर्बुद्धि तो तुम हो जो ऐसा नहीं किया है ।
शङ्कर और मण्डन दोनों ही महापण्डित थे । समग्र देश में दोनों की ख्याति प्राप्त थी । दोनों के शास्त्र विषयक चर्चा सुनकर बहुत पण्डित तथा विद्वद्गण अधिक संख्या में आकर उपस्थित हुए।  आचार्य शङ्कर और मण्डन मिश्र के आग्रह से ” उभयभारती { शारदा } ने मध्यस्थपद को सुशोभित किया। ऐसा लगता था मानो दोनों विद्वानों के शास्त्रार्थ के तारतम्य का निर्णय करने के लिए स्वयं सरस्वती समामण्डप में पधारी हो यह नारी जाति के लिए महान् गौरव की बात थी। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति में योग्य नारियों का समाज में सम्मानित स्थान रहा है । ” आचार्य श्री शङ्कर की प्रतिज्ञा ” :
 

ब्रैह्मैकं परमार्थसिच्चिदमलं विश्वप्रपञ्चात्मना
शुक्ती रूप्यपरात्मनेव बहलाज्ञानावृतं भासते ।
तज्ज्ञानान्निखिलप्रपञ्चनिलया त्वात्मव्यवस्थापर
निर्वाणं जनिमुक्तमम्युपगतं मानं श्रुतेर्मस्तकम् ।।

 – ब्रह्म एक सत् चिद् निर्मल तथा परमार्थ है । जैसे मिथ्या ज्ञान से सीप रजतरूप में भासती है,वैसे ही सत्,  चिद् आनन्द स्वरूप ब्रह्म  मिथ्या अनादि अज्ञान से इस दृश्यमान प्रपञ्चरूप से भासित होता है । जब इसे ” तत्त्वमसि ” , ” अहं ब्रह्मास्मि ” आदि उपनिषद् वाक्यों द्वारा जीवब्रह्मैक्यज्ञान उत्पन्न होता है तब अनादि कारण मिथ्याज्ञान सहित यह समस्त प्रपञ्च निवृत्त हो जाता है और यह अपने असली चिन्मय स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जन्म – मरण से रहित होकर मुक्त हो जाता है । यही हमारा सिद्धान्त है । इसमें उपनिषद् प्रमाण है । मैं फिर अपने इस कथन को दुहराता हूँ ” जीवब्रह्मैक्य ” { जीव ब्रह्म एक है} यही मेरा विषय है । उसमें निम्न उपनिषद् वाक्य प्रमाण हैं ।
* ” एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म { छान्दोग्य 6 / 2 / 1 }* ” सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” { तैतरेय 2 / 1 / 1 }
* ” सर्वँ खल्विदं ब्रह्म ” { छान्दोग्य 3 / 14 / 1 }* ” ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति ” * ” ब्रह्मविदाप्नोति परम् “
* ” तत्र को मोहः कः शोकः एकात्मनुपश्यतः ”

आचार्य शंकर आगे कहते हैं - जय निश्चित होने पर भी यदि मैं इस विवाद में पराजय का भागी हुआ तो हे प्रिय ! इस कषाय वस्त्रों सहित संन्यास को छोड़कर श्वेत वस्त्र धारण करूँगा । इस विवाद में जय तथा पराजयरूप फल की निर्णायक यह ” उभयभारती ” हो ।
मण्डन कहते हैं : इस वाद के करनेपर यदि मेरा पराजय हुआ तो आपसे कहे हुए से विपरीत भाव शुक्ल वस्त्र – गृहस्थाश्रम को छोड़कर कषाय वस्त्रों को धारण करूँगा । जिन मेरी पत्नी उभयभारती को आपने शास्त्रार्थ में मध्यस्थ बनाया है उसे मैं स्वीकार करता हूँ । तब उभयभारतीजी ने उनके कण्ठ में पुष्पमाला पहनाकर यह घोषणा कर दी : जिसके भी कण्ठ की माला जब मलिन हो जायेगी तब उसीका निश्चित पराजय समझा जायगा। 
गृहकार्य में संलग्न उभयभारती जी ने ऐसा कहकर घर चली गई , क्योंकि अपने पति के लिए भोजन और संन्यासी के लिए भिक्षा तैयार करनी थी । आचार्य शङ्कर बोले – हे सौम्य ! मुझे साधारण अन्न की भिक्षा में कोई आदर नहीं है , मैं विवादरूप भिक्षा लेने की इच्छा से आपके पास आया हुआ हूँ । परन्तु शर्त यह है कि परस्पर शिष्यरूप से भिक्षा देनी स्वीकार करनी चाहिए अर्थात् जो पराजित होगा वह दूसरे का शिष्य बन जायेगा ।
इस शास्त्रार्थ में एक श्लाधनीय बात यह थी कि दोनों वादी प्रतिवादी बड़े प्रेमभाव से साधु शब्दों का प्रयोग कर रहे थे कभी क्लान्त मन नहीं होते , न उनकी वाणी तथा स्वरादि भें शिथिलता प्रतीत होती धारावाहिक प्रश्नोत्तर की झड़ी चल रही थी । मध्यस्थ उभयभारती प्रतिदिन मध्याह्न काल में आकर अपने पति को कहती कि भोजन का समय हो गया है और यति शङ्कर को कहती की भिक्षा का समय हो गया है ।
इसी प्रकार पाँच छः दिन बीत गये । मण्डन कहते हैं : अश्वालम्बं गवालम्बं संन्यासं पलतैतृकम् । देवरात्सुतोत्पत्तिं पञ्च कलौ विर्जयेत् ॥ अर्थात् अश्वालम्ब , गवालम्ब , संन्यास , श्राद्ध में पितरों को मांस पिण्ड , देवर से पुत्र की उत्पत्ति ये पाँच कलियुग में वर्जित हैं । आगे कहते है कहाँ वह ब्रह्म , कहाँ वह दुर्बुद्धि , कहाँ वह संन्यास , कहाँ यह कलियुग स्वादु अन्न भोजन की इच्छा से तुमने यह योगियों का वेष धारण किया है ।
आचार्य शङ्कर ने पराशर स्मृति का प्रमाण देते हुए कहा  कि " जब तक वर्ण विभाग है जब तक वेदो का प्रचार है तब तक कलियुग में संन्यास और अग्निहोत्र का विधान है । " शङ्कर कहते हैं : क्व स्वर्गः क्व दुराचारः क्वाग्निहोत्रं क्व वा कलिः । मन्ये मैथुनकामेन वेषोऽयं कर्मिणां घृतः ॥ कहाँ स्वर्ग और कहाँ दुराचार कहाँ अग्निहोत्र और कहाँ कलियुग । 
मैथुन की इच्छा से ही तुमने यह कर्मियों का वेष धारण किया है ।  दुःख हेय है और सुख उपादेय है , दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति प्रत्येक प्राणी चाहता है, वही पुरुषार्थ है । प्रत्येक व्यक्ति का यह प्रसिद्ध अनुभव है कि मैं ईश्वर नहीं हूँ , किन्तु मैं अल्पज्ञ जीव उसका दास हूँ । यह प्रत्यक्ष प्रमाण जीव ब्रह्म की एकता का विरोधी है । यदि मुक्ति उपासना का फल है , तब तो उपासनारूप क्रिया जन्य होने से स्वर्ग आदि फल के समान अनित्य हो जायेगी , क्योँकि ” यज्जन्यं तदनित्यं ” { जो भाव पदार्थ उत्पन्न होता है वह अवश्य नष्ट होता है } यह नियम है । उपासना भी मानसिक क्रिया है । इसका करना न करना व अन्यथा करना व्यक्ति के अधिन है । समस्त कर्मोँ की यही दशा है । परन्तु ” ज्ञानं वस्तुतन्त्रं न पुरुष तन्त्रम् ” ” ज्ञान व्यक्ति के अधीन नहीं है प्रत्युत वस्तु के अधीन है । उसमें जानना , न जानना , अन्यथा जानना मनुष्य के अधीन नहीं है ” । जैसी वस्तु होगी वैसा ही ज्ञान होगा अन्यथा नहीं । यथा अग्नि उष्ण है, उसको शीतल नहीं कहा जाता , इत्यादि उदाहण हैं । इसलिए ज्ञान कर्म के अन्तर्गत नहीं है ।
जीव तथा ईश्वर में भेद के समान पृथ्वी (सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड) तथा ईश्वर में भेद भी अविद्यारूप उपाधि से ही मानते हैं , क्योँकि जब तक अविद्या है, तब तक ही भेद है । जैसे ही अविद्या से निवृत्त  कि कोई भेद नहीं रहता ।  
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समाने वृक्षं परिषस्वजाते । 
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥” 
 दो सखा { समान नाम वाले } सुन्दर गतिवाले पक्षी शरीररूपी एक ही वृक्ष को आश्रित किये रहते हैं । सदा इकट्ठा रहनेवाले उनमें एक तो उसके स्वादिष्ट फलों { कर्मफलों को } भोगता है और दूसरा उन फलोँको न भोगता हुआ केवल देखता रहता है । नीचे वाला पक्षी अन्तःकरण { बुद्धि } है और जीवात्मा है अर्थात् कर्मफल भोक्ता अन्तःकरण { बुद्धि} है और पुरुष (आत्मा ) उससे नितान्त भिन्न है – सम्पूर्ण संसारसे रहित है , ऐसा श्रुतिभगवती कहती है । वह केवल साक्षी है । इसप्रकार ” द्वा सुपर्णा ” यह मन्त्र – ” बुद्धि और जीवात्मा के भेदका प्रतिपादक है। यद्यपि लोहा स्वयं दाहक नहीं , फिर भी अग्निके सम्बन्ध से उसमें दाहक शक्ति आ जाती है , अर्थात् उसमें दाहकत्व प्रयोग होता है , उसी प्रकार उसमें चेतन के प्रवेश करने से अर्थात् चेतनके आध्यासिक तादात्म्य सम्बन्ध से अथवा चेतन प्रतिबिम्बित होनेसे बुद्धिमें भी चेतन के समान भोक्तृत्व शक्ति उत्पन्न हो जाती है।“ जो व्यक्ति इन प्रत्यगभिन्न दोनों पक्षियों- जीव और ब्रह्म में थोड़ा सा भी भेद सा देखता है - " मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति " { कठ 2 / 10 }  उसे जन्म – मरणरूप भय प्राप्त होती है, वह मृत्यु से मृत्युको प्राप्त होता है। अतएव अभेद सिद्धान्त सत्य है। सत्य है ।।  जीव भी परमात्मा के समान नित्य है तथा आनन्द आदि गुणों का निधान है । ये गुण आत्मा में सदा रहते हैं, परन्तु अविद्या से आवृत्त होने के कारण इनकी प्रतीति नहीं होती । जीव अविद्या से आवृत्त होने के कारण अपने को ब्रह्म नहीं समझता । जब अविद्या की निवृत्ति हो जाती है तब वह अपने को सचमुच ब्रह्म समझने लगता है । इसका यह अभिप्राय हुआ कि चेतन होने के कारण जीव ब्रह्म के तुल्य है। इस कथन से यह सिद्ध होगा कि यह संसार चैतन्य से उत्पन्न हुआ है । ” तदैक्षत ” यह विचारणीय प्रश्न है कि जगत् का मूल तत्त्व जड़ है अथवा चेतन ? नैयायिक और वैशेषिक जड़ परमाणुओं से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं । सांख्य मत में जड़ प्रधान सृष्टि का कृर्त्तृकारण है । परन्तु वेदान्त चेतन ब्रह्म को जगत् का मूल कारण मानता है । यथा – { तदैक्षत बहुस्या प्रजायते (छान्दोग्य 6 / 2 / 3 ) उसने ईक्षण अर्थात संकल्प किया कि मैं बहुत होऊँ ऐसा मानने से अचेतन परमाणु अथवा प्रकृति से जगत् की उत्पत्ति मानने वाले ” वैशेषिक ” तथा ” सांख्यों ” का खण्डन स्वतः सिद्ध हो जाता है । }
” क्षीयन्ते चात्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ” { मुण्डक 2 / 2 / 8 } उस परमतत्त्व के दर्शन करने वाले विद्वान् के सब कर्म क्षीण हो जाते हैं । ” आनन्दं ब्रह्मणो निद्वान्न विभेति कुतश्चन ” { तैत्तिरीय 3 / 1 / 1 }  ब्रह्म साक्षात्कार होनेपर तो सर्व कर्तव्यता की हानि और कृतकृत्यता हमारे मत में अलंकाररूप है । मननादि सहकृत श्रवण से ब्रह्म साक्षात्कार होनेपर संसारित्व का निवृत्ति श्रुति – स्मृति और अनुभव सिद्ध है ।
 यदि इन्द्रियों द्वारा जीव और ब्रह्म का भेद ज्ञात होता तो अभेद प्रतिपादक ” तत्त्वमसि ” आदि वेद वाक्यों का विरोध निश्चित होता। भेद का तात्पर्य  है अभाव होना – जैसे ” सूर्य चन्द्रमा नहीं है , मनुष्य पशु नहीं है ” इत्यादि। भेद तो  है । किन्तु उसके साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध अयुक्त है । अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम् ” रूप आदि रहित होने से ईश्वर के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध ही नहीं है , इससे ईश्वरका प्रत्यक्ष भी नहीं होता । वेदान्त सिद्धान्त में मन इन्द्रिय नहीं है , किन्तु ज्ञान कराने में इन्द्रियों का सहायक मात्र है । जैसे दीपक नेत्रेन्द्रिय द्वारा रूपज्ञान में सहायकमात्र है । ” इन्दियेभ्यः परा ह्यार्थाः इन्द्रियेभ्यश्च परं मनः ” { कठ श्रुति 3 / 10 } { इन्द्रियों की अपेक्षा सूक्ष्म होने से उनके विषय श्रेष्ठ हैं , विषयों से मन उत्कृष्ट है } ” मनः षष्ठानीन्द्रिमाणी{भगवद्गीता 15/7} { मन के साथ छः इन्द्रियाँ हैं } इत्यादि श्रुतिः स्मृति प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि मन इन्द्रिय नहीं है , किन्तु उनके साथ वर्णन मात्र है । इससे अभेद प्रतिपादक श्रुतियों के साथ कोई भी विरोध नहीं है । आत्मा तो इन्द्रियों से अप्रत्यक्ष है । ” न चक्षुषा गृह्यते ” { जो चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा गृहित नहीं है } इसलिए भेद अनुगृहीत है ।” आत्मा वा अरे द्रष्टव्य ” { बृहदारण्यक 2 / 4 / 5 } { याज्ञवल्क्य – हे मैत्रेयी ! आत्मा द्रष्टव्य है }
” यह रज्जु है सर्प नहीं है ” इत्यादि श्रवण से जैसे भ्रान्त श्रोता के भय कम्पनादि निवृत्त होते हैं , वैसे ब्रह्मस्वरूप के श्रवण से संसारित्व भ्रान्ति निवृत्त नहीं होती, क्योंकि श्रुत ब्रह्मस्वरूप पुरुष में यथापूर्व सुख दुःखादि संसार धर्म देखे जाते हैं और ” मन्तव्यो निधिध्यासितव्यः ” { आत्मा का मनन और निधिध्यासन करने चाहिए } इस प्रकार श्रवण के अनन्तर मनन और निधिध्यासन का शुति में विधान है अर्थात् यदि श्रवणमात्र से चरितार्थ होता तो मनन और निधिध्यासन का विधान क्यों होता ?  ” उद्दालक ” आदि महान् गुरु लोग ” श्वेतकेतु ” आदि प्रमुख शिष्यों परमात्मा का आत्मरूप से ग्रहण कराते हैं ,  'स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो ” { छान्दोग्य – उपनिषद् 6 / 8 / 7 } वही सत्य है ; वह आत्मा है ; हे श्वेतकेतु ! ” तत्त्वमसि ” तू , अर्थात् तेरा आत्मा ” तत्त्व ” है , तेरा शरीर ” तत्त्व – वस्तु ” नहीं । जैसे जल में डाला गया लवण अर्थात् नमक घुल जाने से दृष्टिगोचर नहीं होता , वैसे ही ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त होनेपर भी दृष्टिगोचर नहीं होता । ” न चक्षुषा गृह्यते ” रूपरहित होने से वह चक्षु से गृहीत नहीं होता । ” याज्ञवल्क्य कहते हैं – ” अभयं वै जनक प्राप्तोऽसि तदाऽऽत्मानमेवावेदहं ब्रह्मास्मि तस्मातत्सर्वमभवत् ” हे जनक ! निश्चय है तू अभय पदको प्राप्त हुआ है , मैं ब्रह्म हूँ , ऐसा अपने को जान ऐसा जानने से वह सब ब्रह्म हुआ । ” ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति” ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही होता है ” ” तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ” एकत्व देखनेवाले को मोह कहाँ और शोक कहाँ? इत्यादि श्रुतिप्रमाण , युक्ति और उदाहरणों से जीव ब्रह्म की एकता सिद्ध होती है।
हे विद्वन् ! जाग्रत् – स्वप्न तथा सुषुप्ति व्यभिचारी ये तीनों अवस्थाएँ मिथ्याज्ञान से तुम्हारे आत्मस्वरूप में कल्पित है । चक्षु आदि इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञानावस्था को जाग्रत् और इन्द्रियों से अजन्य विषय के परोक्ष ज्ञानकी अवस्था को ” स्वप्न ” कहते हैं तथा केवल अविद्या जिस अवस्थामें विद्यमान रहती है इसे विद्वान् लोग ” सुषुप्ति – अवस्था ” कहते हैं । आत्मा इन तीनों अवस्थाओं में अनुगत तथा पृथक् है । जिस प्रकार रज्जु साँप, दण्ड भूमिच्छिद्र आदि की कल्पना की जाती है , उसी प्रकार आत्मामें इन तीनों अवस्थाओं की कल्पना है , इन तीनों अवस्थाओं से रहित होनेके कारण ब्रह्म तूरिय अभय तथा शिवरूप है । हे विद्वन् ! वह सबकी अन्तरात्मा है फिर भी मूर्ख उसे बाहर ढूँढते है । दर्पण में दीखती हुई नगरी के समान यह समस्त नामरूपात्मक विश्व अपने सच्चिदानन्दस्वरूप व्यापक आत्मा के भीतर दृश्यमान है , अर्थात् इन कल्पित प्रतीतिमात्र विश्वका अधिष्ठान एकमात्र आत्मा है । जैसे निद्रादोष से अविद्यमान स्वप्न प्रपंच सत्य की भाँति बाहर उत्पन्न हुए के समान स्वप्न साक्षी तैजस् आत्मा मे प्रतीत होता है । तद्वत् यह जाग्रत् प्रपञ्च आत्मा में मायाशक्ति से सत्यकी भाँती भासता है ।
आचार्य शंकर से जब उभयभारती ने शास्त्रार्थ करना चाहा तो आचार्य बोले - यशस्वी पुरुष महिला के साथ वाद – विवाद नहीं करते ।
उभय भारती : क्यों, गार्गी ऋषि वचक्नु की कन्या थी , इसलिए उसका नाम ” गार्गी हुआ था , { महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 320 } । उनके  साथ महर्षि याज्ञवल्क्य ने शास्त्रार्थ किया तथा सुलभा ने धर्मध्वज नामवाले राजा जनक के साथ वाद – विवाद किया , क्या स्त्री से शास्त्रार्थ करनेपर भी वे यशस्वी न हुए ?
” आचार्यवान् पुरुषो वेद ” गुरु उपदेश से ही आत्मा का यथार्थस्वरूप अवगत होता है ।” तरति शोकमात्मवित् ” आत्मवेत्ता शोक रहित हो जाता है । हे विद्वन् ! आत्मा कि महिमा अपार है । जिसकी बुद्धि विमल हो उसे केवल वेद का एक वचन ” तत्त्वमसि ” श्रवण मात्र से आत्मसाक्षात्कार हो जाता है । आत्पज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु की परमावश्यकता है । शास्त्र के श्रवण , ममन का उतना फल नहीं मिलता जितना गुरु के सदुपदेश का । अतः गुरु आज्ञाको प्रसन्नता से प्रालन करना चाहिए । ” श्री पद्मपादाचार्य ” अद्वैत – तत्त्व का सुमधुर स्वर में गायन करते हुए कहते है :
” सर्वं चिदात्मकं सर्वमद्वैतं तत्त्वमसि राजन् ,
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म तत्त्वमसि तत्त्वमसि राजन् ।
 आत्मविषयक सार गर्भित गायन को सुनकर राजा ने अपने कार्यकलापों का स्मरण किया। उन सबको विदाकर आचार्य शङ्कर ने भी उस राजशरीर को सर्प की केँचुली के समान त्यागकर अपने पूर्व देह में प्रवेश किया ।
अत्यन्त शोकाकुल पद्मपाद आदि को सान्त्वना देकर साथ ही ” आकाश मार्ग ” से ” विश्वरूप मण्डन मिश्र ” के घर में उतरे । आचार्य को आकाश मार्ग से उतरते देखकर मण्डन मिश्र उनकी पूजा करने के लिए उठ खड़े हुए । तथा विनीत भाव से प्रणामकर विधिवत् आचार्य शङ्कर का पूजन किया ।आसनपर बैठे तथा विद्वानों से घिरे हुए आचार्य शङ्कर के समीप आकार ” सरस्वती उभयभारती ” बोली : -

समस्त विद्याओं के आप स्वामी हैं , सब प्राणियों के आप ईश्वर हैं , ब्रह्मा के आप अधिपति हैं । हे ब्रह्मन् ! आप साक्षत् ” सदाशिव ” हैं ।सभा में मुझे न जीतकर ” कामशास्त्र ” में कथित कामकलाओं के जानने के लिए आपने जो प्रयत्न किया है , वह मानव चरित का अनुसरण मात्र है , अन्यथा आप सर्वज्ञ हैं । जगत् में ऐसा कोई विद्या नहीं है जो आपसे अज्ञात हो।हे पूज्य ! आपने हम दोनों स्त्री और पुरुष को पराजित किया है उससे हम लोगों को किसी प्रकार की लज्जा नहीं है । क्या सूर्य के द्वारा किया गया पराभव चन्द्रमा की अपकीर्ति फैलाता है ?
अब मैं अपने निर्मल ब्रह्मलोक को अवश्य जाऊँगी । हे पूज्य ! आप कृपया मुझे जाने की आज्ञा दीजिये। ऐसा कहकर अन्तर्धान होनेवाली शारदा योग शक्ति से जानकर श्री शङ्कर स्वामी बोले –
हे देवी ! ऋष्यश्रृङ्ग क्षेत्र में हमारे द्वारा नवनिर्मित मन्दिर में ” शारदा ” नाम से पूजा प्राप्त करें और भक्तों की अभिलषित कामनाओं को पूर्ण करती हुई सज्जनों के पास सदा निवास करें ” तथास्तु ” कहकर शारदा ब्रह्मा के प्रिये लोक को चली गई । वहाँ शारदा के अकस्मात् अन्तर्धान होने से सभा में उपस्थित लोग अतिविस्मित हुए ।
 मण्डन मिश्र भी सब पदार्थों का दान आदि से त्याघर , सविधि आचार्य से संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। अनन्तर आचार्य ने उसे ” तत्त्वमसि ” का वास्तविक अर्थ समझाया । आप्त वाक्य होने से ” वेद स्वतः प्रमाण ” माने गये हैं । भेद श्रुति से अभेद श्रुति प्रबल है , अतः जीव ब्रह्म की एकता मानना ही ठीक है ।{ यह श्रुति जीव ब्रह्म की एकता , जो लोकमें प्रसिद्ध है } का बोध कराती है , इसलिये वह अधिक बलवती है । सत्व वह है जिसके द्वारा स्वप्न देखा जाता है और क्षेत्रज्ञ वह है जो शरीर में रहता हुआ साक्षी है दोनों सत्त्व और क्षेत्रज्ञ हैं ।
अन्धेरे में घट – घड़ा ज्ञात नहीं होता , तो इससे यह नहीं समझा जाता कि अन्धेरे में घड़ा नहीं है ? क्योँकि प्रकाश से अन्धकार के निवृत्त होनेपर वह स्पष्ट प्रतीत होता है । इसी प्रकार अविद्या के कारण यद्यपि अभेद ज्ञान नहीं होता फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अभेद नहीं है , क्योँकि विद्या से अविद्या के निवृत्त हो जानेपर अभेद स्पष्ट ज्ञात होता है । ' घट द्रष्टा घटात् भिन्नः ' { घट आदि कार्य वाणी – कथनमात्र है , सत्य तो केवल मृत्तिका ही है । } घट आदि मृत्तिका से उत्पन्न हुए हैं । जैसे ये मृत्तिका से भिन्न नहीं हैं अर्थात् इनकी मृत्तिका से भिन्न सत्ता नहीं हैं , वैसे ही परमात्मा से उत्पन्न हुआ यह जगत् भी परमात्माके विना त्रिकालमें नहीं है अर्थात् इसकी पृथक् सत्ता नहीं है , मिथ्या है । शरीर के विषय में सबको यह दृढ़ धारणा है कि यह शरीर दृश्य है , इसका द्रष्टा अवश्य इससे भिन्न होना चाहिए ।अन्नमय , प्राणमय , मनोमय , विज्ञानमय तथा आनन्दमय इन पाँच कोशों के भीतर वह ऐसा छिपा हुआ है कि बाह्य दृष्टिवाले अज्ञानी को उसकी परमसत्ता का पता ही नहीं चलता । विद्वान् लोग युक्तियों से इसकी विशेष विवेचनाकर  तिलों में छिपे तैल की भाँति जिस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करते हैं , वह तत्त्व तुम्हीं होबुद्धिरूपी सारथि कुशल और सर्वदा समाहित चित्त से युक्त होता है । उसके अधीन इन्द्रियाँ इस प्रकार रहती है जिस प्रकार योग्य सारथि के अधीन अच्छे घोड़े।आत्मा जाग्रत् स्वप्न तथा सुसुप्ति , इन तीनों अवस्थाओं में अनुस्यूत होकर भी इनसे इस प्रकार पृथक रहता है जिस प्रकार पुष्पमाला में अनुस्यूत धागा । इन तीनों उपाधियों से पृथक् कर विद्वान् लोग जिस तत्त्व को जानते हैं वह तत्त्व तुम्हीं हो ।जो कुछ वर्तमान में है , भूतकाल में था तथा भविष्यकाल में उत्पन्न होगा वह सब पुरुष ब्रह्म है । सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलाम् ” ।उसीसे इस विश्व की उत्पत्ति , स्थिति तथा लय होता है ।जिस प्रकार सुर्वण अपने कार्यरूप मुकुट आदि का कारण भी है तथा आत्मा भी , वह परम तत्त्व तुम्ही हो।हे सोम्य! तत्त्ववित् पुरुष कभी पश्चाताप  हुए अपना सिर नहीं पीटता कि  हाय ! मैंने अमुक पाप कर्म क्यों किया ? तथा अमुक पुण्य कर्म क्यों नहीं किया , इस प्रकार वह ताप को प्राप्त नहीं होता । यह सम्पूर्ण जगत् मिथ्या है , इस प्रकार हृदय में अनुसंधान करनेवाला पुरुष कर्मफलों से किसी प्रकार भी लिप्त नहीं होता । जिस प्रकार स्वप्न काल में किये गये पुण्य पाप जागनेपर मिथ्या बुद्धि से नष्ट होने के कारण कदाचिदपि शुभाशुभ फल के लिए नहीं होते
चाहे वह सौ अश्वमेध यज्ञ करे अथवा चाहे अगणित ब्राह्मणों की हत्या करे , तो भी परमार्थतत्त्व को जाननेवाला पुरुष सुकृत और दुष्कृत से लिप्त नहीं होता !शरीर बन्धनरूप है । इसका कारण धर्माधर्भ है । इनकी शिथिलता समाधि बल से होती है और चित्त के गमनागमन की नाड़ी के ज्ञान से योगी लोग चित्त को अपनी इच्छा से दूसरे शरीर में प्रवृष्ट कर सकते हैं
इस प्रकार श्री शङ्कर देशिकेन्द्र द्वारा आत्मतत्त्वका उपदेश पाकर मण्डनमिश्र आचार्य के श्री चरणों गिरकर कहने लगे -हे भगवन् ! आज मैं धन्य हुआ हूँ । आपकी कृपासे अविद्यारूपी पिशाचिनी से मुक्त हुआ हूँ । अनन्त जन्मों से इस अज्ञाननिद्रा में सोया आज जागा हूँ । अन्धकार से प्रकाश में आया हूँ । द्वैत से अद्वैत , भय से अभय , मृत्यु से अमृत को प्राप्त हुआ हूँ । आहा ! हा !! आज मायाका पदा हट गया जिसने आज तक हमारे असली आत्मस्वरूप को ढाक रखा था जिससे आत्मा से भिन्न जड वस्तुओं को आत्मा मानकर आसक्त होकर अनन्त दुःखों का अनुभव करना पड़ रहा था । भगवन् ! आज आपके कृपा कटाक्षसे मुझे दिव्यनेत्र प्राप्त हुए है जो अभी तक अनेक देवताओं को प्रसन्न करनेपर भी प्राप्त नहीं हो पाये थे । मैं ही ब्रह्मा हूँ । मैं देवाधिदेव साक्षात् शिव हूँ । मैं ही शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव हूँ । सुख क्षणिक विषयों में ढूँढनेपर मी प्राप्त नहीं हुआ वह निरतिशय अनन्त आनन्द का समुद्र आज आपकी कृपा से प्राप्त हुआ है । हे दयालु गुरुदेव ! हमारे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आपको भेंटकर सकूँ । यही सब आपके चरणों में अर्पित है ? ऐसा कहते मण्डन मिश्र फिर आचार्य के चरणकमलों में गिर पड़े।
 आचार्य ने उसे स्नेह से उठाकर कहा – हे विद्वन् ! तुम कृतकृत्य हुए हो । आजसे आपका सन्यास नाम
” सुरेश्वराचार्य ” रखा जाता है ।{ आचार्य ने अपने प्रथम अद्वैत वेदान्त मठ ” श्रृङ्गेरी मठ में आचार्य पदपर पूर्णाभिषेक कर ” अहं ब्रह्मास्मि ” महावाक्य का दान दिया । }

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{  साधना पंचकं 
गुरु: ब्रह्मा: गुरु: विष्णु: गुरु देवो महेश्वर: |
गुरु: साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ||

 
[गुरु ही ब्रह्मा विष्णु महेश हैं.... गुरु ही ब्रह्म हैं इसलिये उस गुरु को प्रणाम ...]

वेदो नित्यम्धीयताम तदुदितं कर्म स्वनुष्ठियतम |
तेनेशस्य विधीयतामपचिती: काम्ये मतिस्त्यज्यताम ||
पापौघ: परिभूयताम भवसुखे दोषो अनुसंधीयता |
मात्मेछा व्यव्सीयताम निजगृहातूर्णम विनिर्गाम्यताम ||१||


[हम नित्य स्वाध्याय करें, अर्थात विवेकानन्द साहित्य के कम से कम एक चैप्टर को अवश्य पढ़ें, यही युवाओं  लिये वेद-अध्यन है। तथा वेद आधारित रीति से कर्मकाण्ड और देवताओं का पूजन करें, का अर्थ है - अच्छी आदतों का निर्माण करके अपना चरित्र गढ़ें (Be) और ' शिव ज्ञान से जीव सेवा ' करें अर्थात दूसरों को भी मनुष्य बनने के लिये प्रेरित करें (Make)' Be and Make ' को ही ' कर्म और उपासना ' एक साथ करें । हमारे कर्म अनासक्त भाव से हो और हमें पाप समूहों से दूर ले जाने वाले हो,-अर्थात नाम-यश पाने की इच्छा से कुछ न करें। हम अपने जीवन में निरंतर विवेक-प्रयोग करके अपनी गलतियो को जान सकें, आत्म-ज्ञान प्राप्त करें और मुक्ति की ओर बढें]

संग: सत्सु विधीयताम भगवतो भक्तिदृढा धीयताम |
शान्त्यादि: परिचीय्ताम दृढतरं कर्माशु सन्त्यज्यताम ||
सिद्विद्वानुपसर्प्याताम प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यताम |
ब्रह्मैकाक्षरमथर्यताम श्रुतिशिरोवाक्यम स्माकर्न्याताम ||२||


[ हम अच्छे संग में रहे (१. नियमित पाठ -चक्र में जाएँ ) , ठाकुर -माँ -स्वामीजी के प्रति दृढ भक्ति प्राप्त करें, हम शान्ति जैसी मन की अवस्था को जान सकें, हम कठिन परिश्रम करें (२. नियमित व्यायाम और यम-नियम का पालन करते रहें ), सद्गुरु (स्वामी विवेकानन्द स्वरूप किसी आदर्श ) के समीप जाकर आत्म समर्पण करें (३. विवेक-प्रयोग ) और उनकी चरण पादुका का नित्य पूजन करें, हम एकाक्षर ब्रह्म-(ॐ के साकार रूप) का ध्यान करें (४. श्रीरामकृष्ण के चित्र पर मन को प्रतिदिन दो बार एकाग्र करें मनःसंयोग का अभ्यास प्रातः सायं करें) और वेदों की ऋचाएं सुनें.(५. नित्य प्रातः जगत के कल्याण की प्रार्थना करें ।]

वाक्यार्थश्च विचार्यताम श्रुतिशिर: पक्ष: स्माश्रीयताम |
दुस्तर्कात्सुविरम्यताम श्रुतिमतर्कात्सो अनुसंधीयताम ||
ब्रह्मैवास्मि विभाव्यताम हरहर्गर्व: परित्ज्यताम |
देहे अहम्मतिरुज्झ्यताम बेधजनैर्वाद: परित्ज्यताम ||३||


[हम महावाक्यों और श्रुतियो को समझ सकें, हम कुतर्को में ना उलझें, "में ब्रह्म हूँ" (I am He) ऐसा विचार करें, हम अभिमान से प्रतिदिन दूर रहे, "में देह हूँ" ऐसे विचार का त्याग कर सकें और हम विद्वान बुद्धिजनों से कुतर्क न करें... ]

क्षुद्व्याधि:च चिकित्स्य्ताम प्रतिदिनं भिक्षोषधम भुज्यताम |
स्वाद्वन्नम न तु याच्यताम विधिवशातप्राप्तेन संतुश्यताम ||
शीतोष्नादि विषह्यताम न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यता |
मौदासीन्यमभिपस्यताम जनकृपा नैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम ||४||


[ हम भूख पर नियंत्रण पा सकें और भिक्षा का अन्न ग्रहण करें (संन्यास की नियमानुसार-गृहस्थ हों तो ? वर्ष में कम से कम एकबार चंदा मांगकर आयोजित होने वाले युवप्रशिक्षण शिविर का अन्न खायें ), स्वादिष्ट अन्न की कामना न करें और जो कुछ भी प्रारब्ध वशात हमें प्राप्त हो उसी में संतुष्ट रहे,म शीत और उष्ण को सहन कर सकें, हम वृथा वाक्य न कहें, सहनशीलता हमें पसंद हो किन्तु हम दयनीय बनकर न निकलें... ]

एकान्ते सुखमास्यताम परतरे चेत: समाधीयताम |
पूर्णात्मा सुस्मीक्ष्यताम जगदिदम तद्बाधितम दृश्यताम ||
प्राक कर्म प्रविलाप्यताम चितिब्लान्नाप्युत्तरै: श्लिष्यताम |
प्रारब्धम त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थियाताम ||५||
 
[ हम एकांत सुख में (निर्जन शिविर में ) बैठ सकें और आत्मा के परम सत्य (ब्रह्म श्रीरामकृष्ण) पर मन को केन्द्रित कर सकें, हम समस्त जगत को सत्य (माँ सारदा और श्रीरामकृष्ण ) से परिपूर्ण देख सकें, हम पूर्व कृत बुरे कर्मो के प्रभाव को नष्ट कर सकें और नवीन कर्मो से न बंधे(चरित्र-निर्माण मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को प्राप्त करें, हम इस निष्कर्ष पर यथाशीघ्र पहुंचें कि - ' After all this world is series of pictures.' यह जगत तो चलचित्र या टीवी सीरियल में दिखने वाले रंगीन छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र है ! यहाँ सब कुछ प्रारब्धानुसार हो रहा है; और हम परम सत्य (ठाकुर) के साथ रहें... ]

य: श्लोकपंचक्मिदम पठते मनुष्य: संचितयत्यनुदिनम स्थिरतामुपेत्य |
तस्याशु संसृतिद्वानल तीव्र घोर ताप: प्रशांतिमुप्याति चिति प्रसादात ||


[ जो मनुष्य इस पंचक के श्लोको का पाठ नित्य करता है, वह जीवन में स्थिरता (संतुलन) को अर्जित और संचित करता है... इस तपस्या से प्राप्त प्रशांति के फलस्वरुप जीवन के समस्त घोर दुख शोकादि के ताप उसके लिए प्रभाव हीन हो जाते हैं..(वह सभी घटनाओं को फ़ास्ट-फॉरवर्ड मोड में डालकर उसका साक्षी बन सकता है ।) ] 
इसलिये भगवान् ने भी श्रीगीताजी मेँ कहा – कि अमृत के पुत्र होकर भी तुम मृत बने हुए हो । ये शरीर (नाम-रूप) अन्त होने वाले हैँ । कर्त्ता – भोक्तापने का अनुभव कराने वाले तो ये शरीर-मन हैँ। आपके स्वरूप मेँ ये सब कुछ नहीँ हैँ। आप तो स्वयं नित्य हो , शरीरी (ह्रदय) हो , आपका कभी नाश नहीँ हो सकता, आप अप्रमेय हो । हमेशा ही अपने स्वरूप मेँ स्थित हो । इसलिये इन उपाधियोँ (नाम-रूप) से अपनी आसक्ति को हटाना मात्र है, ब्रह्म की प्राप्ति नहीँ करनी है क्योँकि वह तो हमेशा आपका स्वरूप है ।
शंकराचार्य के दो गुरु थे:   अद्वैत वेदांत की परंपरा में गौड़पादाचार्य को आदि शंकराचार्य के परमगुरु अर्थात् शंकर के गुरु गोविंदपाद के गुरु के रूप में स्मरण किया जाता है। गौड़पादाचार्य के गुरू, शुकदेव परमहंस थे । शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि’ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।’आत्मा की गति मोक्ष में है।

‘निर्वाण-षटकम्’
जब आदि गुरु शन्कराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा । बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है…यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||


[मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||


 [न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||3||


[न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||4||

[न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]


न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||

[न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

[मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]


!!! भज गोविन्दम’ स्तोत्र !!!
 ‘मोह मुगदर’
भज गोविन्दम’ स्तोत्र को मोहमुदगर भी कहा गया है जिसका अर्थ है- वह शक्ति जो आपको सांसारिक बंधनों से मुक्त कर दे । ‘भज गोविन्दम’ में शंकराचार्य ने संसार के मोह में ना पड़ कर भगवान् कृष्ण की भक्ति करने का उपदेश दिया है। उनके अनुसार, संसार असार है और भगवान् का नाम शाश्वत है। उन्होंने मनुष्य को किताबी ज्ञान में समय ना गँवाकर और भौतिक वस्तुओं की लालसा, तृष्णा व मोह छोड़ कर भगवान् का भजन करने की शिक्षा दी है। इसलिए ‘भज गोविन्दम’ को ‘मोह मुगदर’ यानि मोह नाशक भी कहा जाता है।


भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते। 
सम्प्राप्ते सन्निहिते मरणे, नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥1॥


हे भटके हुए प्राणी, सदैव परमात्मा का ध्यान कर क्योंकि तेरी अंतिम सांस के वक्त तेरा यह सांसारिक ज्ञान तेरे काम नहीं आएगा। सब नष्ट हो जाएगा।

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां, कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्। 
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं, वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥2॥


हम हमेशा मोह माया के बंधनों में फसें रहते हैं और इसी कारण हमें सुख की प्राप्ति नहीं होती। हम हमेशा ज्यादा से ज्यादा पाने की कोशिश करते रहते हैं। सुखी जीवन बिताने के लिए हमें संतुष्ट रहना सीखना होगा। हमें जो भी मिलता है उसे हमें खुशी खुशी स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हम जैसे कर्म करते हैं, हमें वैसे ही फल की प्राप्ति होती है।
नारीस्तनभरनाभीनिवेशं, दृष्ट्वा- माया-मोहावेशम्।
 एतन्मांस-वसादि-विकारं, मनसि विचिन्तय बारम्बाररम् ॥ 3॥


हम स्त्री की सुन्दरता से मोहित होकर उसे पाने की निरंतर कोशिश करते हैं। परन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह सुन्दर शरीर सिर्फ हाड़ मांस का टुकड़ा है।

नलिनीदलगतसलिलं तरलं, तद्वज्जीवितमतिशय चपलम्। 
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥4॥


हमारा जीवन क्षण-भंगुर है। यह उस पानी की बूँद की तरह है जो कमल की पंखुड़ियों से गिर कर समुद्र के विशाल जल स्त्रोत में अपना अस्तित्व खो देती है। हमारे चारों ओर प्राणी तरह तरह की कुंठाओं एवं कष्ट से पीड़ित हैं। ऐसे जीवन में कैसी सुन्दरता?

यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावत् निज परिवारो रक्तः। 
पश्चात् धावति जर्जर देहे, वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे ॥5॥


जिस परिवार पर तुम ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, जिसके लिए तुम निरंतर मेहनत करते रहे, वह परिवार तुम्हारे साथ तभी तक है जब तक के तुम उनकी ज़रूरतों को पूरा करते हो।

यावत्पवनो निवसति देहे तावत् पृच्छति कुशलं गेहे। 
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥6॥


तुम्हारे मृत्यु के एक क्षण पश्चात ही वह तुम्हारा दाह-संस्कार कर देंगे। यहाँ तक की तुम्हारी पत्नी जिसके साथ तुम ने अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ारी, वह भी तुम्हारे मृत शरीर को घृणित दृष्टि से देखेगी।

बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः। 
वृद्धस्तावत् चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥7॥


सारे बालक क्रीडा में व्यस्त हैं और नौजवान अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने में समय बिता रहे हैं। बुज़ुर्ग केवल चिंता करने में व्यस्त हैं। किसी के पास भी उस परमात्मा को स्मरण करने का वक्त नहीं।

का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयं अतीव विचित्रः। 
कस्य त्वं कः कुत अयातः तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः ॥8॥


कौन है हमारा सच्चा साथी? हमारा पुत्र कौन हैं? इस क्षण- भंगुर, नश्वर एवं विचित्र संसार में हमारा अपना अस्तित्व क्या है? यह ध्यान देने वाली बात है।
सत्संगत्वे निःसंगत्वं, निःसंगत्वे निर्मोहत्वं।
 निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥9॥


संत परमात्माओ के साथ उठने बैठने से हम सांसारिक वस्तुओं एवं बंधनों से दूर होने लगते हैं। ऐसे हमें सुख की प्राप्ति होती है। सब बन्धनों से मुक्त होकर ही हम उस परम ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं।

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः। 
क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥10॥


यदि हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं तो हमें शारीरिक सुख की प्राप्ति नहीं होगी। वह ताल ताल नहीं रहता यदि उसमें जल न हो। जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर जाता है, उसी तरह ज्ञान की प्राप्ति होते ही, हम इस विचित्र संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।

मा कुरु धन-जन-यौवन-गर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वम्। 
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्म पदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥11॥


हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा गुरूर, सब एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। कुछ भी अमर नहीं है। यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा है। हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए।
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
 कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चति आशावायुः ॥12॥
समय का बीतना और ऋतुओं का बदलना सांसारिक नियम है। कोई भी व्यक्ति अमर नहीं होता। मृत्यु के सामने हर किसी को झुकना पड़ता है। परन्तु हम मोह माया के बन्धनों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते हैं।

का ते कान्ता धनगतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता। 
त्रिजगति सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥13॥


सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बन्धनों में फंस कर एवं व्यर्थ की चिंता कर के हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा। क्यों हम सदैव अपने आप को इन चिंताओं से घेरे रखते हैं? क्यों हम महात्माओं से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए हुए मार्ग पर नहीं चलते? संत महात्माओं से जुड़ कर अथवा उनके दिए गए उपदेशों का पालन कर के ही हम सांसारिक बन्धनों एवं व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं ।

जटिलो मुण्डी लुञ्चित केशः काषायाम्बर-बहुकृतवेषः।
 पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृत शोकः ॥14॥


इस संसार का हर व्यक्ति चाहे वह दिखने में कैसा भी हो, चाहे वह किसी भी रंग का वस्त्र धारण करता हो, निरंतर कर्म करता रहता है। क्यों? केवल रोज़ी रोटी कमाने के लिए। फिर भी पता नहीं क्यों हम सब कुछ जान कर भी अनजान बनें रहते हैं।
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशन विहीनं जातं तुण्डम्। 
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् ॥15॥


जिस व्यक्ति का शरीर जवाब दे चूका है, जिसके बदन में प्राण सिर्फ नाम मात्र ही बचे हैं, जो व्यक्ति बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता, वह व्यक्ति भी स्वयं को सांसारिक मोह माया से छुड़ाने में असमर्थ रहा है।

अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः रात्रौ चिबुक- समर्पित-जानुः। 
करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चति आशापाशः ॥16॥


समय निरंतर चलता रहता है। इसे न कोई रोक पाया है और न ही कोई रोक पायेगा। सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी।

कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्। 
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन मुक्तिः न भवति जन्मशतेन ॥17॥


हमें मुक्ति की प्राप्ति सिर्फ आत्मज्ञान के द्वारा प्राप्त हो सकती है। लम्बी यात्रा पर जाने से या कठिन व्रत रखने से हमें परम ज्ञान अथवा मोक्ष प्राप्त नहीं होगा।

सुर-मन्दिर-तरु-मूल- निवासः शय्या भूतलमजिनं वासः। 
सर्व-परिग्रह-भोग-त्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः ॥18॥


जो इंसान संसार के भौतिक सुख सुविधाओं से ऊपर उठ चुका है, जिसके जीवन का लक्ष्य शारीरिक सुख एवं धन और समाज में प्रतिष्ठा की प्राप्ति मात्र नहीं है, वह प्राणी अपना सम्पूर्ण जीवन सुख एवं शांति से व्यतीत करता है।

योगरतो वा भोगरतो वा संगरतो वा संगविहीनः।
 यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दति एव ॥19॥


चाहे हम योग की राह पर चलें या हम अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हमने अपने आप को परमात्मा से जोड़ लें तो हमें सदैव सुख प्राप्त होगा।

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गंगा- जल-लव-कणिका-पीता। 
सकृदपि येन मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम् ॥20॥


जो अपना समय आत्मज्ञान को प्राप्त करने में लगाते हैं, जो सदैव परमात्मा का स्मरण करते हैं एवं भक्ति के मीठे रस में लीन हो जाते हैं, उन्हें ही इस संसार के सारे दुःख दर्द एवं कष्टों से मुक्ति मिलती है।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।
 इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥
हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।

रथ्याचर्पट-विरचित- कन्थः पुण्यापुण्य-विवर्जित- पन्थः। 
योगी योगनियोजित चित्तः रमते बालोन्मत्तवदेव ॥22॥


जो योगी सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर अपनी इन्द्रियों को वश में करने में सक्षम हो जाता है, उसे किसी बात का डर नहीं रहता और वह निडर होकर, एक चंचल बालक के समान, अपना जीवन व्यतीत करता है।

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।
 इति परिभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥23॥


हम कौन हैं? हम कहाँ से आये हैं? हमारा इस संसार में क्या है? ऐसी बातों पर चिंता कर के हमें अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। यह संसार एक स्वप्न की तरह ही झूठा एवं क्षण-भंगुर है।

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः व्यर्थं कुप्यसि सर्वसहिष्णुः।
 सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥24॥


संसार के कण कण में उस परमात्मा का वास है। कोई भी प्राणी ईश्वर की कृपा से अछूता नहीं है।

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ। 
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वाछंसि अचिराद् यदि विष्णुत्वम्॥ 25॥


हमें न ही किसी से अत्यधिक प्रेम करना चाहिए और न ही घृणा। सभी प्राणियों में ईश्वर का वास है। हमें सबको एक ही नज़र से देखना चाहिए और उनका आदर करना चाहिए क्योंकि तभी हम परमात्मा का आदर कर पाएंगे।

कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम्। 
आत्मज्ञानविहीना मूढाः ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥26॥


हमारे जीवन का लक्ष्य कदापि सांसारिक एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं होना चाहिए। हमें उन्हें पाने के विचारों को त्याग कर, परम ज्ञान की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। तभी हम संसार के कष्ट एवं पीडाओं से मुक्ति पा सकेंगे।
गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्। 
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥27॥


उस परम परमेश्वर का सदैव ध्यान कीजिए। उसकी महिमा का गुणगान कीजिए। हमेशा संतों की संगती में रहिए और गरीब एवं बेसहारे व्यक्तियों की सहायता कीजिए।

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः। 
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥28॥


जिस शरीर का हम इतना ख्याल रखते हैं और उसके द्वारा तरह तरह की भौतिक एवं शारीरिक सुख पाने की चेष्टा करते हैं, वह शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा। मृत्यु आने पर हमारा सजावटी शरीर मिट्टी में मिल जाएगा। फिर क्यों हम व्यर्थ ही बुरी आदतों में फंसते हैं।

अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
 पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥ 29॥


संसार के सभी भौतिक सुख हमारे दुखों का कारण है। जितना ज्यादा हम धन या अन्य भौतिक सुख की वस्तुओं को इकट्ठा करते हैं, उतना ही हमें उन्हें खोने का डर सताता रहता है। सम्पूर्ण संसार के जितने भी अत्यधिक धनवान व्यक्ति हैं, वे अपने परिवार वालों से भी डरते हैं।

प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेकविचारम्। 
जाप्यसमेत समाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम् ॥30॥


हमें सदैव इस बात को ध्यान में रखना चाहिए की यह संसार नश्वर है। हमें अपनी सांस, अपना भोजन और अपना चाल चलन संतुलित रखना चाहिए। हमें सचेत होकर उस ईश्वर पर अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर देना चाहिए।
गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः।
 सेन्द्रियमानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥ 31॥


हमें अपने गुरु के कमल रूपी चरणों में शरण लेनी चाहिए। तभी हमें मोक्ष की प्राप्ति होगी। यदि हम अपनी इन्द्रियों और अपने मस्तिष्क पर संयम रख लें तो हमारे अपने ही ह्रदय में हम ईश्वर को महसूस कर पायेंगे।

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‘यक्ष- युधिष्ठिर संवाद’
यक्ष और धर्मराज युधिष्ठिर के बीच संवाद -महाकाव्य महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद नाम से एक पर्याप्त चर्चित प्रकरण है यह प्रसंग वस्तुतः काफी लंबा है । संवाद का विस्तृत वर्णन वनपर्व के अध्याय ३१२ एवं ३१३ में दिया गया है । संक्षेप में उसका विवरण यूं है:-
पांडव जन अपने तेरह-वर्षीय वनवास पर वनों में विचरण कर रहे थे । तब उन्हें एक बार प्यास बुझाने के लिए पानी की तलाश हुई । पानी का प्रबंध करने का जिम्मा प्रथमतः सहदेव को सोंपा गया । उसे पास में एक जलाशय दिखा जिससे पानी लेने वह वहां पहुंचा । जलाशय के स्वामी अदृश्य यक्ष ने आकाशवाणी के द्वारा उसे रोकते हुए पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर देने की शर्त रखी, जिसकी सहदेव ने अवहेलना कर दी । यक्ष ने उसे निर्जीव (संज्ञाशून्य?)  कर दिया । उसके न लौट पाने पर बारी-बारी से क्रमशः नकुल, अर्जुन एवं भीम ने पानी लाने की जिम्मेदारी उठाई ।
 वे उसी जलाशय पर पहुंचे और यक्ष की शर्तों की अवज्ञा करने के कारण सभी का वही हस्र हुआ । अंत में युधिष्ठिर स्वयं उस जलाशय पर पहुंचे । यक्ष ने उन्हें आगाह किया और अपने प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहा । युधिष्ठिर ने धैर्य दिखाया, यक्ष को संतुष्ट किया, और जल-प्राप्ति के साथ यक्ष के वरदान से भाइयों का जीवन भी वापस पाया । यक्ष ने अंत में यह भी उन्हें बता दिया कि वे धर्मराज हैं और उनकी परीक्षा लेना चाहते थे । यक्ष ने सवालों की झणी लगाकर युधिष्ठिर की परीक्षा ली । अनेकों प्रकार के प्रश्न उनके सामने रखे और उत्तरों से संतुष्ट हुए । [ किन्तु युधिष्ठिर  का उत्तर प्रत्येक मनुष्य का उत्तर नहीं हो सकता है, अतः हमें स्वयं इन प्रश्नों  का सही उत्तर ढूँढना चाहिये - चाहे किसी प्रश्न का उत्तर खोजने में हमें ४० वर्षों तक भी चिन्तन-मनन क्यों  न करना पड़े!}
१. यक्ष प्रश्न – कौन हूँ मैं?
युधिष्ठिर – तुम न यह शरीर हो, न इन्द्रियां, न मन, न बुद्धि। तुम शुद्ध चेतना हो, वह चेतना जो सर्वसाक्षी है।
२. यक्ष – जीवन का उद्देश्य क्या है?
युधिष्ठिर – जीवन का उद्देश्य उसी चेतना को जानना है जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है।
उसे जानना ही मोक्ष है।
३. यक्ष – जन्म का कारण क्या है?
युधिष्ठिर – अतृप्त वासनाएं, कामनाएं और कर्मफल ये ही जन्म का कारण हैं।
४. यक्ष – जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन है?
युधिष्ठिर – जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया वह जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है।
५. यक्ष – वासना और जन्म का सम्बन्ध क्या है?
युधिष्ठिर – जैसी वासनाएं वैसा जन्म। यदि वासनाएं पशु जैसी तो पशु योनि में जन्म। यदि वासनाएं मनुष्य जैसी तो मनुष्य योनि में जन्म।
६. यक्ष – संसार में दुःख क्यों है?
युधिष्ठिर – लालच, स्वार्थ, भय संसार के दुःख का कारण हैं।
७. यक्ष – तो फिर ईश्वर ने दुःख की रचना क्यों की?
युधिष्ठिर – ईश्वर ने संसार की रचना की और मनुष्य ने अपने विचार और कर्मों से दुःख और सुख की रचना की।
८. यक्ष – क्या ईश्वर है ? कौन है वह ? क्या रुप है उसका ? क्या वह स्त्री है या पुरुष ?
युधिष्ठिर – हे यक्ष ! कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। तुम हो इसलिए वह भी है उस महान कारण को ही आध्यात्म में ईश्वर कहा गया है। वह न स्त्री है न पुरुष।
९. यक्ष – उसका स्वरूप क्या है?
युधिष्ठिर – वह सत्-चित्-आनन्द है, वह अनाकार ही सभी रूपों में अपने आप को स्वयं को व्यक्त करता है
१०. यक्ष – वह अनाकार स्वयं करता क्या है?
युधिष्ठिर – वह ईश्वर संसार की रचना, पालन और संहार करता है।
११. यक्ष – यदि ईश्वर ने संसार की रचना की तो फिर ईश्वर की रचना किसने की?
युधिष्ठिर – वह अजन्मा अमृत और अकारण है
१२. यक्ष – भाग्य क्या है?
युधिष्ठिर – हर क्रिया, हर कार्य का एक परिणाम है। परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। यह परिणाम ही भाग्य है। आज का प्रयत्न कल का भाग्य है।
१३. यक्ष – सुख और शान्ति का रहस्य क्या है?
युधिष्ठिर – सत्य, सदाचार, प्रेम और क्षमा सुख का कारण हैं। असत्य, अनाचार, घृणा और क्रोध का त्याग शान्ति का मार्ग है।
१४. यक्ष – चित्त पर नियंत्रण कैसे संभव है?
युधिष्ठिर – इच्छाएं, कामनाएं चित्त में उद्वेग उतपन्न करती हैं। इच्छाओं पर विजय चित्त पर विजय है।
१५. यक्ष – सच्चा प्रेम क्या है?
युधिष्ठिर – स्वयं को सभी में देखना सच्चा प्रेम है। स्वयं को सर्वव्याप्त देखना सच्चा प्रेम है। स्वयं को सभी के साथ एक देखना सच्चा प्रेम है।
१६. यक्ष – तो फिर मनुष्य सभी से प्रेम क्यों नहीं करता?
युधिष्ठिर – जो स्वयं को सभी में नहीं देख सकता वह सभी से प्रेम नहीं कर सकता।
१७. यक्ष – आसक्ति क्या है?
युधिष्ठिर – प्रेम में मांग, अपेक्षा, अधिकार आसक्ति है।
१८. यक्ष – बुद्धिमान कौन है?
युधिष्ठिर – जिसके पास विवेक है।
१९. यक्ष – नशा क्या है?
युधिष्ठिर – आसक्ति।
२०. यक्ष – चोर कौन है?
युधिष्ठिर – इन्द्रियों के आकर्षण, जो इन्द्रियों को हर लेते हैं चोर हैं।
२१. यक्ष – जागते हुए भी कौन सोया हुआ है?
युधिष्ठिर – जो आत्मा को नहीं जानता वह जागते हुए भी सोया है।
२२. यक्ष – कमल के पत्ते में पड़े जल की तरह अस्थायी क्या है?
युधिष्ठिर – यौवन, धन और जीवन।
२३. यक्ष – नरक क्या है?
युधिष्ठिर – इन्द्रियों की दासता नरक है।
२४. यक्ष – मुक्ति क्या है?
युधिष्ठिर – अनासक्ति ही मुक्ति है।
२५. यक्ष – दुर्भाग्य का कारण क्या है?
युधिष्ठिर – मद और अहंकार।
२६. यक्ष – सौभाग्य का कारण क्या है?
युधिष्ठिर – सत्संग और सबके प्रति मैत्री भाव।
२७. यक्ष – सारे दुःखों का नाश कौन कर सकता है?
युधिष्ठिर – जो सब छोड़ने को तैयार हो।
२८. यक्ष – मृत्यु पर्यंत यातना कौन देता है?
युधिष्ठिर – गुप्त रूप से किया गया अपराध।
२९. यक्ष – दिन-रात किस बात का विचार करना चाहिए?
युधिष्ठिर – सांसारिक सुखों की क्षण-भंगुरता का।
३०. यक्ष – संसार को कौन जीतता है?
युधिष्ठिर – जिसमें सत्य और श्रद्धा है।
३१. यक्ष – भय से मुक्ति कैसे संभव है?
युधिष्ठिर – वैराग्य से।
३२. यक्ष – मुक्त कौन है?
युधिष्ठिर – जो अज्ञान से परे है।
३३. यक्ष – अज्ञान क्या है?
युधिष्ठिर – आत्मज्ञान का अभाव अज्ञान है।
३४. यक्ष – दुःखों से मुक्त कौन है?
युधिष्ठिर – जो कभी क्रोध नहीं करता।
३५. यक्ष – वह क्या है जो अस्तित्व में है और नहीं भी?
युधिष्ठिर – माया।
३६. यक्ष – माया क्या है?
युधिष्ठिर – नाम और रूपधारी नाशवान जगत 
३७. यक्ष – परम सत्य क्या है ?
युधिष्ठिर – ब्रह्म।…!
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