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रविवार, 7 अगस्त 2011

" आचार्य अभेदानन्द " (प्रचारक अभेदानन्द - ८)

आचार्य अभेदानन्द 
स्वामी अभेदानन्दजी महाराज का व्यक्तित्व ईश्वरीय दिव्यभाव और अपार्थिव महिमा के एक जीवन्त प्रतिमूर्ति एवं अधिकारी पुरुष का था. जितने सारे अतिदुर्लभ सद्गुणों का एकत्रित समावेश किसी यथार्थ धर्मगुरु के आदर्श जीवन में रहना चाहिए, महाराज का जीवन उन समस्त गुणों के अपूर्व समन्वय सौन्दर्य की सुषमा से सुसज्जित था. 
उनका ध्यानदीप्त ज्ञानगम्भीर सदानन्दमय प्रशांत-मूर्ति का माधुर्य, लोकोत्तर साधक-चरित्र का स्वर्गिक सौन्दर्य, ज्ञान की प्रखरता, पांडित्य का प्राचूर्य एवं सर्वोपरि अपरिमेय आध्यात्मिकता से सुशोभित उनका जीवन किसी भी यथार्थ धर्माभिलाषी व्यक्ति के लिए विस्मयकारी और वन्दनीय था. 
दार्शनिक मनीषा, प्रगाढ़ पांडित्य, विचित्र वांग्मीता, अकाट्य तार्किकता, तीव्र अन्तर्दृष्टि, महाकर्म-शक्ति उनके जीवन में अकथनीय रूप से सम्मिलित थे. निर्भीक सत्यान्वेषण, कठोर तपस्या, सुतीक्ष्ण विशलेषणी-शक्ति, निरपेक्ष-धीशक्ति एवं तत्व-विवेक, असाम्प्रदायिक उदार दृष्टिकोण, उनके पवित्र चरित्र की एक अपूर्व विशेषता थी. 
यथार्थ सद्गुरु के लक्षण के सम्बन्ध में भगवान शंकराचार्य ने कहा है-
 ' श्रोत्रिय अवृजिन अकाहमत ब्रह्मवित्तम पुरुष आचार्यः ' | 
- अर्थात जो वेदार्थ-द्रष्टा, निष्पाप, सभी तरह के सांसारिक कामनाओं से मुक्त एवं ब्रहमविदों में श्रेष्ठ हों, वही आचार्य हैं- अर्थात सम्पूर्ण मानवजाति के वे धर्मगुरु होने योग्य हैं. स्वामी अभेदानन्दजी इस सिद्ध-कथन के जीवन्त दृष्टान्त थे. 
गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ का आदर्श कैसा होता होगा, यह उनके जीवन-दर्शन से समझा जा सकता है. उपनिषद में कहे गए - ' आत्मक्रीड़ आत्मरति क्रियावानेषू ब्रह्मविद वरिष्ठ ' - यह आदर्श आचार्य अभेदानन्दजी के जीवन में ही समुज्ज्वल प्रभा से प्रदीप्त एवं प्रकटित हुआ था. 
हमलोग साधारणतः धर्मप्रचारक या आचार्य कहने से जिस प्रकार के व्यक्तित्व की कल्पना करते हैं, अभेदानन्दजी का सामग्रिक जीवन, अभिप्राय, आदर्श एवं कार्यप्रणाली उससे बिल्कुल भिन्न्तर, उन्नत एवं विपरीत था. साधारण तौर पर दिखाई पड़ने वाले हिन्दू, ईसाई अथवा अन्य किसी भी धर्मप्रचारकों जैसा एक सांप्रदायिक अनुदार एकपक्षीय दकियानूसी मतवाद आदि बातों को स्वामी अभेदानन्दजी ने कभी अपना समर्थन नहीं दिया था. क्योंकि वे उदार सार्वजनिक विश्वधर्म के जीवन्त विग्रह भगवान श्रीरामकृष्ण के दीक्षित सन्तान तो थे ही, स्वयं भी एक सत्यद्रष्टा महायोगी - ज्ञानयोगी थे !
इसीलिए किसी भी प्रकार के दलबन्दी पर आधारित संकीर्ण सांप्रदायिक मतवाद का प्रचार-प्रसार करना उन जैसे महायोगी और सत्यद्रष्टा साधक के जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता था. समस्त प्रकार के सम्प्रदायों के परे विश्वजनीन सत्यधर्म का जो अनवद्य अपरूप प्रकाश है, उसको उन्होंने अपने परम आराध्य गुरु भगवान श्रीरामकृष्ण के ज्योतिर्मय तपोपूत जीवन में उतरते देखा था. इसी उदार सर्वजनीन धर्मादर्श भारतवर्ष में यूरोप में अमेरिका में जाती-धर्म-वर्ण- श्रेणी निरपेक्ष समस्त नर-नारियों में उन्होंने प्रचार किया था. 
किसी दार्शनिक जैसी विचार-शक्ति एवं वैज्ञानिक जैसे दृष्टिकोण के साथ अभेदानन्दजी धर्म के प्रत्येक विषय की मीमांसा किया करते थे. इसके ऊपर वे विभिन्न धर्म -मतों से ऐतिहासिक प्रमाण एवं तात्विक-तथ्यों को भी उद्धृत किया करते थे. उनका मन सम्पूर्ण रूप से तार्किक और विचारशील थी. किसी भी कार्य को करने से पूर्व वे अपनी विश्लेषणी बुद्धि के द्वारा उसके भले-बुरे समस्त पक्षों पर विचार-विश्लेषण करने के बाद ही उसे ग्रहण या वर्जन करना उनका स्वाभाव बन गया था.
धर्मविषयक किसी भी एक प्रश्न को लेकर उसका सम्पूर्ण भला-बुरा पक्ष अपने सूक्ष्म बुद्धि से आविष्कार करके उसी श्रेणी के अन्य तथ्यों के साथ तुलना और संशोधन करने के बाद अन्त में वेदान्त की भित्ति पर उसका एक सर्वांगसुन्दर ऐक्य एवं समाधान करना ही उनके धर्म-व्याख्यान की पद्धति थी. 
किसी धर्मप्रचारक का आदर्श कैसा होना चाहिए,  उसे अपनी मौलिक चिन्तनशक्ति के द्वारा अविष्कार करके पाश्चात्य देशों में प्रचार कार्य के लिए जाने से कुछ ही समय पहले १८९५ ई० में अपने एक प्रबंध-
  ' The Hindu Preacher ' में अभेदानन्द जी स्वयं लिखते हैं- " A great want of this age is a religious order of the Hindus, which well-equipped with modern learning in science and in philosophy, possessing a knowledge of the world and acquainted with spirit of the times will undertake the propagation of the Hindu religion in all countries and bring into existence the reign of peace and harmony in the midst of waring religions. "
- अर्थात " इस युग की सबसे प्रधान आवश्यकता है,हिन्दुओं की एक ऐसी  ' ईमानदार व्यवस्था ' खड़ी की जाय, जो विज्ञान एवं दर्शन-शास्त्र (तत्वज्ञान- ' ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ' ) के आधुनिक अध्यन से भलीभांति सुसज्जित होने के साथ साथ;अपने भीतर सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान को भी समाहित रखे तथा समय के विचार-धारा से भलीभांति परिचित हो ! वैसी ' ईमानदार व्यवस्था ' ही सभी देशों में हिन्दू-धर्म (वेदान्तिक-धर्म ) के प्रचार-प्रसार का उत्तरदायित्व ले सकती है  एवं आपस में युद्धरत धर्मों के बीच शान्ति और समरसता (अविरोध ) के आधिपत्य को स्थापित कर सकती है  . " 
भारतीय शाश्वत सनातन वेदान्तिक हिन्दू-धर्म के इस अपूर्व उदार एवं असाम्प्रदायिक आदर्श को लेकर ही  सार्वभौमिक-धर्म के जीवन्त विग्रह श्रीरामकृष्ण के यथार्थ भावशिष्य स्वामी विवेकानन्द, तथा उनके बाद स्वामी अभेदानन्द ने पृथ्वी के विभिन्न देशों में सभी धर्मों के समस्त जाति के नरनारी के पास परम मुक्ति, शान्ति और सत्य-प्राप्ति का पथप्रदर्शन किया है. 
वर्तमान युग वैज्ञानिक आविष्कार तथा उद्भावना का ही युग है. तार्किकता ही इसकी एकमात्र भित्ति है- तर्क-प्रधान वर्तमान युग में तर्क-युक्ति की कसौटी पर कसे बिना, किसी भी मतवाद को प्रतिष्ठित करना बिल्कुल असंभव है. 
कार्य-कारण वाद के अतिरक्त इस युग के विद्वत समाज के लिए अब कोई अन्य मत स्वीकार्य नहीं है, उनको वे बिल्कुल मृतप्राय मानते हैं. जहाँ पर केवल तर्क-युक्ति का ही प्राधान्य हो, जो मत या  सिद्धान्त कार्य-कारणवाद या तर्कवाद की दृढ़ भित्ति पर खड़ा है,  उसी मतवाद को वर्तमान युग के चिन्तनशील मनीषियों का समर्थन मिल सकता है. 
दीर्घ काल से कोई दकियानूसी लौकिक-प्रथा चली आ रही है, इसीलिए आज भी हमें उसे मानना होगा, अयौक्तिक मतवाद, अन्धविश्वास, ढोंग-ढकोसला, धार्मिक कट्टरता, असम्बद्ध अलीक भावप्रवणता, व्यक्तिविशेष के प्रति निर्विचार अनुराग आदि जैसे आधारहीन तर्क या निर्देश देकर, आज के चिन्तनशील युवाओं के संदेह या जिज्ञाषा को मिटाया नहीं जा सकता.
किसी भी युक्तिहीन विचारहीन मतवाद को, या उन सिद्धांतों को जो आधुनिक युग के वैज्ञानिक नियमों के विरुद्ध हों- उसे आज का कोई यथार्थ शिक्षित और सत्यार्थी व्यक्ति अब और आगे मानने को तैयार नहीं है. इसीकारण जब वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करने वाला व्यक्ति, अपनी आन्तरिक सत्य-अनुसन्धानी बुद्धि के द्वारा अनुप्रेरित होकर-
जगत की उत्पत्ति, स्थिति, परिणाम या मानव का जन्म, परिणति, कर्मफल आदि विभिन्न जटिल समस्याओं के बारे में पादरि, पुरोहित, मौलवी या किसी सामान्य धर्मप्रचारक से प्रश्न करता है, वे साम्प्रदायिक मतसर्वस्व तथाकथित ' धर्मप्रचारक ' लोग हतबुद्धि होकर बगलें झाँकने लगते हैं और उनके किसी भी प्रश्न का सटीक उत्तर नहीं दे पाते हैं. 
जब वह जिज्ञासु या सत्यार्थी ( सत्य-अन्वेषी ) व्यक्ति अपने प्रश्नों का सटीक उत्तर नहीं पाता है, तो उसका संशय और अधिक दृढ़ हो जाता है. और क्रमशः यह संशय घोर अविश्वास में परिणत हो जाता है. इसीलिए वर्तमान युग का तार्किक सत्यार्थी जब तथाकथित धर्मप्रचारकों से अपनी समस्याओं का कोई समाधान नहीं पाता है, तो वह अन्ततोगत्वा घोर निराशा में डूब कर हताशा से नास्तिक बन जाता है. 
ऐसेही निराशाग्रस्त, हताश,  नास्तिक सत्यान्वेषियों के सम्मुख ' अपरोक्ष सत्यदर्शन ' के अटल अग्रभेदी भित्ति के उपर खड़े होकर, स्वामी अभेदानन्दजी  उनको ' आशा की वाणी ' सुनाते हुए कहते हैं-
" Vedanta can turn our science into a system of religion.we must stand on the solid ground of reason and ultimate research to understand the final goal of religion. 
Vedanta tells us that religion is nothing,but the science of soul,
and that science of being is not distinct and separate from the science of the universe that universe is but our own being. "
  -अर्थात ' वेदान्त ' में वह सामर्थ्य है कि वह हमारे ' विज्ञान ' को एक ' परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास  कराने वाली व्यवस्था 'के रूप में परिणत कर सकता है ! हमलोगों को तार्किकता के ठोस धरातल पर खड़े होकर,धर्म के अन्तिम लक्ष्य को समझने का अन्तिम अनुसन्धान अवश्य करना चाहिए. वेदान्त यह घोषणा करता है कि -' आत्मा को जानने के विज्ञान ' को ही ' धर्म ' कहते हैं. तथा ' अपने अस्तित्व को जानने का यह विज्ञान '  इस ' विश्व-ब्रह्माण्ड को जानने के विज्ञान ' से पृथक और भिन्न नहीं है; तथा यह विश्व-ब्रह्माण्ड;  और कुछ नहीं, हमारी अपनी ही सत्ता है. "( यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ) 
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि, ' वेदान्त ' क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वामी अभेदानन्दजी अपने व्याख्यान - ' What is Vedanta ' में कहते हैं- " The term Vedanta in the present case is used to signify, not a book, but ' Wisdom ', while ' anta ' (अन्त ) means ' end ', Vedanta therefore, implies literally ' end of wisdom '; and the philosophy is called Vedanta because it explains what that end is and how it can be attained. " 
अर्थात" पेश किये गए उदाहरण में ' वेदान्त ' शब्द का प्रयोग किसी पुस्तक को सूचित करने के लिए नहीं बल्कि ' ज्ञान ' को सूचित करने के लिए किया गया है,जब कि ' अन्त ' का अर्थ है - ' जानने का अन्त '.इसीलिए वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है-' अन्तिम ज्ञान या सर्वोच्च ज्ञान ' ( ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या - को अपरोक्ष रूप से अर्थात अपने अनुभव से जानना या आत्मसाक्षात्कार कर लेना );तथा इस दर्शन-शास्त्र को वेदान्त कहते हैं, 
क्योंकि यह इस बात की व्याख्या करता है कि मनुष्यजाति का ' अंतिम-लक्ष्य ' क्या है, तथा उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है. "
इसीलिए वेदान्त-धर्म का आदर्श और उसकी साधना पद्धति संपूर्णतः सर्वजनीन है. यह सर्वोच्च सत्य किसी व्यक्ति या किसी भी मतवाद में आबद्ध नहीं है. उपरोक्त व्याख्यान में स्वामी अभेदानन्दजी इसी बात को स्पष्ट रूप से घोषित कर रहे हैं. 
वेदान्त प्रतिपाद्य-धर्म का उद्देश्य है- आत्मज्ञान की प्राप्ति या आत्मसाक्षात्कार . किस प्रकार इसे प्राप्त किया जाता है, इस प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं- " आत्मसंयम करो, आत्मज्ञान हो जायेगा. तभी तुम यह जान पाओगे कि भगवान क्या हैं. इस मार्ग पर बढ़ने की इच्छा जिस किसी भी व्यक्ति में होगी, वही इसका अधिकारी है. फिरभी अधिकारी के अन्तर के अनुसार इच्छा का तारतम्य रहता है. तुम्हारे भीतर दो प्रकार का ' मैं ' है. एक है ' पशु-मैं ' और दूसरा है ' देव-मैं '. इस पशु-मैं का दमन करके अपने आन्तरिक ' देव-मैं ' को अभिव्यक्त करो, - इसी को 'आत्म-संयम ' कहते हैं. " 
यथार्थ धर्म की मूलनीति - आत्मसंयम, सत्यनिष्ठा, पवित्रता, विवेक, वैराग्य, ध्यानाभ्यास, निःस्वार्थ मानवसेवा (सेवा-परायणता ) आदि  सदगुणों को निरन्तर जीवन में उतारने पर प्रतिष्ठित है. जीवन में इन सद्गुणों को महत्व न देकर केवल जिस-तिस पर विश्वास करने से धर्म के तत्व की उपलब्धी करना असम्भव है.
इस प्रसंग के ऊपर अधिकारी स्वामी अभेदानन्दजी अपनी ' आत्म-विकास ' नामक पुस्तक में विशेष रूप से प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- " साधन-स्वाध्याय और विवेक-वैराग्य न रहने से केवल शास्त्र आदि का अध्यन करने पर धर्मलाभ नहीं होता. शास्त्रों में धर्मसाधना की विधि-निर्देश और उपाय कहा गया है. उसका ठीक ठीक आचरण और अभ्यास न करने से परमार्थ तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है. "
शास्त्र-कथन का यथार्थ एवं सत्ययता को देखना हो तो, उसे इन सब असाधारण अधिकारिक महापुरुषों के जीवन में देखा जा सकता है; क्योंकि ये लोग संयम, तपस्या, विवेक, वैराग्य, ध्यानाभ्यास, आदि का अनुशीलन करते हुए अन्त में आत्मसाक्षात्कार करके मुक्त और पूर्णकाम बने हैं.
बाहरी आचार-अनुष्ठान करने या त्याग का पोशाक (गेरुआ ) धारण कर लेने मात्र से ही कोई त्यागी नहीं बन जाता है. जब तक भीतर (अंतःकरण ) से आसक्ति, कूभाव, लोभ, हिंसा, विषय-वासना, आदि बिल्कुल दूर नहीं हो जाते, तब तक वैराग्य का कोई अर्थ ही नहीं होता.
वैराग्य क्या है- इस सम्बन्ध अभेदानन्दजी इसप्रकार कहते हैं-  " भगवान के प्रति खिंचाव होने से दूसरी ओर का खिंचाव कम हो जाता है. इसको ही वैराग्य कहते हैं. वैराग्य का अर्थ जंगल में चले जाना नहीं है. पूर्व दिशा में जितना आगे बढ़ते जाओगे, पश्चिम दिशा उतनी ही पीछे छूटती चली जाएगी.
  ..गेरुआ नहीं पहनना होगा. यह क्या चीज है ? यह तो Fire of knowledge (ज्ञानाग्नि ) का Symbol ( प्रतीक ) है. मनको गेरुआ पहना दो- clothe yourselves with the fire of knowledge, ( ज्ञानाग्निमय बन कर रहो ). केवल गेरुआ पहन लेना ही काफी नहीं है, जिसकी समस्त भोगों की वासना त्याग हो चुकी हो वे ही सन्यासी हैं, स्थितधी: हैं. 
इस तरह के एक दृष्टान्त को हमलोगों ने प्रत्यक्ष देखा है. वे हैं- ज्ञान और त्याग की पराकाष्ठा के आदर्श - श्रीरामकृष्ण... किसी भी कामना को बुल-बुले के आकर में उठने के पहले ही, उसको नष्ट करना होता है. इसीलिए विवेक-विचार करने एवं ध्यान (मनः संयोग का अभ्यास) करने की आवश्यकता होती है. जो लोग थोडा भी ध्यान ( मनः संयोग का नियमित अभ्यास ) किये  हैं, वे ही जानते हैं कि शान्ति क्या है.  किसी भी कामना की सिद्धि होने से जो क्षणिक सुख मिलता है, उसके साथ इसी ' शान्ति ' की तुलना करते हुए विवेक-विचार करना होता है. " 
पार्थिव वासना, दैहिक सुखलिप्सा, इन्द्रिय परायणता या मन की चंचलता ही इस ध्यानाभ्यास का अन्तराय है. पार्थिव विषयों की वासना, स्वार्थपरता, और काम-क्रोध आदि वृत्ति ही इन समस्त मानसिक चांचल्य का मूल है. इसीलिए वे आगे कहते हैं- 
" काम-क्रोध रहने के कारण ही तो, संसारी मनुष्य ध्यान नहीं कर पाते हैं. अभ्यास करना छोड़ देते हैं. मुक्ति क्या है ? इन्द्रिय और मन के दासत्व से मुक्ति- जिसके द्वारा शान्ति, स्वास्थ्य, आनन्द, ज्ञान आदि प्राप्त होते हैं.
...ईश्वर के प्रति अनुराग होने पर विषयों के प्रति आसक्ति को काट कर मुक्त पुरुष हुआ जा सकता है. यह साधना करते रहने से क्रमशः मन स्थिर होने लगता है, उसके बाद जब मन कुछ और अधिक स्थिर रहने लगता है, तब अपने ईष्टदेव ( ठाकुर-माँ ) का चिन्तन किया जा सकता है.
दूसरी समस्त विचारों को छोड़ कर, मन जब केवल अपने ईष्टदेव का चिन्तन करने में डूब जाता है, ध्यान का प्रारम्भ ठीक तभी होता है. " 
जो लोग ध्यानाभ्यास ( मनः संयोग ) करने के अभ्यस्त हैं, वे ही जानते हैं कि, साधक-जीवन की प्रथम अवस्था में मन किस प्रकार चंचल होकर साधक की ईश्वर-चिन्तन में विघ्न उपस्थित करता है. पातन्जल योगशास्त्र तथा श्रीमदभगवद्गीता में कहा गया है, निरन्तर दीर्घकाल तक ध्यान-अभ्यास, त्याग-वैराग्य एवं विवेक-विचार करने वाला महातेजस्वी योद्धा ही वीर सन्यासी है.
उसके उसी तपोमय शरीर में विभिन्न आचार्यों प्रकाश होता है. कभी वह शिशु जैसा सरल सदा हास्यमय - तो कभी विजयी वीर जैसा संग्रामचेता जैसा प्रतीत होता है. कभी वह महाज्ञानी की ज्ञानदीप्त प्रचंडता, तो कभी महाभक्त की भक्ति कमनीयता से ओतप्रोत होता है. कभी तो उसकी महापण्डित जैसी प्रगाढ़ पाण्डित्य के समक्ष सुविख्यात मनीषीगण भी स्तब्ध रह जाते हैं. फिर कभी छोटे से बालक से सामान्य से किसी विषय को बड़े आग्रह के साथ शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं. 
अमेरिका यूरोप में वे संघबद्ध इसाई मिशनरियों, नास्तिक और अज्ञेय वादियों के साथ संग्राम में एकेश्वर निरत और युक्ति की कृपान से ज्ञान के शानित अस्त्र से उनमे से प्रत्येक को परास्त कर देने वाले थे. केवल उतना ही नहीं, अमेरिका और यूरोप के प्रधान प्रधान विश्वविद्यालय में और सूविख्यात जनसभाओं में दार्शनिक, समाजसेवी, वैज्ञानिक के लिए श्रद्धा, सम्मान, से बार बार अभिनन्दित हुए हैं. 
महा महान विद्वान-पण्डित उनके साथ एक ही मंच पर बैठे थे, उनके पाण्डित्य को देखे हैं, और उस मनीषा की कोई तुलना नहीं हो सकती. फिर भारत उस दिग्विजयी विश्व-वरेण्य सन्यासी को अशिक्षित, अज्ञ, ग्रामवासियों के पास देखता है, ये तो उन्हीं के जैसे सहज-सरल भाषा में उनके समस्त प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं, सर्वआभरण रहित सरल सुकुमार शिशु जैसा सदा आनन्दमय एक अद्भुत योगी पुरुष. 
यह जो प्रत्येक के निकट उसी के जैसा हो जाने की क्षमता, - सबों के मन के साथ अपने मन को मिला देने की क्षमता जो उनमे थी, वह उनकी एक आश्चर्यजनक ईश्वरीय शक्ति थी. उनके पूतचरित्र में समस्त विशुद्ध गुणों का समावेश था. वे बज्र के समान कठोर थे, तो पुष्प जैसे कोमल भी थे. 
उनके सुदीर्घ गौरवमय प्रचारक जीवन की विस्मयकारी घटना- अद्भुत असाधारण अमित प्रतिभा की चिन्तास्पद और और कार्य-वैचित्र्य पूर्ण जीवन की समग्र और सर्वांगसुन्दर इतिहास जगत में विरल है. जगत के विभिन्न स्थानों में प्रचारकार्य और कर्म जीवन का समस्त विवरण, कई स्थानों के मनीषी, सूविद्वान व्यक्ति, या प्रख्यात प्रतिष्ठानों के नेताओं का उनके पास लिखित पत्रावली, अमेरिका, यूरोप के संवादपत्रों में समादर पूर्ण असंख्य अभिमत - उनके प्राच्य और पाश्चात्य के शिष्यवृन्द, गुणग्राही, उनके भक्तों से प्राप्त उनके जीवन की नानाविध घटनावली इत्यादि उपादानों का सम्पूर्ण संग्रह कर उसको कालक्रमिक संयोजना और संस्थापना करना भी बहुत वर्षों तक आग्रहपूर्ण अध्यवसाय सापेक्ष कार्य है. 
उनका व्यापक प्रचार कार्य में केवल रामकृष्ण-संप्रदाय ही नहीं, परन्तु भारत के अन्य समस्त सुधि-सन्त, दार्शनिक और धर्मप्रचारक उसी सुदूर समुद्र पार में भारत की सभ्यता, संस्कृति, धर्मप्रचार करके देश, जाति और स्वयं को गौरवान्वित किये हैं. वह महती प्रचेष्टा और अक्लान्त अविश्रांत जो परिश्रम - उनका गौरवमय साफल्य को उन्होंने यथार्थ संन्यासी के जैसा अर्पित कर दिए हैं भगवान श्रीरामकृष्ण को, उन्हीं की मनीषा, पाण्डित्य, और आध्यात्मिकता के फलस्वरूप भारत का आर्य धर्म. आर्य-सभ्यता, आज पाश्चात्य के सुधि समाज में स्वीकृत और सम्मानित है. उनके कार्य-धरा के गौरव से समग्र भारतवर्ष गौरवान्वित है. 
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* ' উন্মেষ ' পত্রিকায় প্রকাশিত     ( ' उन्मेष ' नामक पत्रिका में प्रकाशित )           
                                                     

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