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मंगलवार, 2 अगस्त 2011

अद्वैतवेदान्त की ईति- " काली-वेदान्ती "

काली-वेदान्ती
स्वामी अभेदानन्द का एक और नाम है- ' काली-वेदान्ती '. बचपन से ही उनके भीतर वेदान्त-दर्शन के प्रति तीव्र आकर्षण था. वेदान्त मत का उन्होंने गम्भीर-निष्ठा एवं अध्यवसाय के साथ अध्यन किया था, और आत्मसात भी कर लिया था. सांसारिक स्थूल बातों (नून-तेल-लकड़ी की चिन्ता ) को छोड़ कर, वे सदैव सूक्ष्म-वेदान्तिक तत्वों के गहन चिन्तन-मनन में ही डूबे रहते थे. जिसका मन सदैव वेदान्त के सूक्ष्म आत्मतत्व में ही निमग्न रहता हो, उसके भीतर शरीर की असारता का बोध उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है. 
इसीलिए सबकुछ छोड़-छाड़ कर एक दिन वे उपयुक्त गुरु की खोज में निकल पड़े. और सिद्धगुरु के रूप में उन्होंने अद्वैताचार्य श्रीरामकृष्ण को प्राप्त कर लिया; जो अद्वैतवाद के प्रबल-पक्षधर थे. अद्वैत-वेदान्त के 
' नेति नेति ' विचार-पद्धति को काली-महाराज भी बहुत पसन्द करते थे. इसको वेदान्त का ज्ञान मार्ग कहा जाता है. यहाँ पर ईश्वर का अस्तित्व अन्ध-विश्वास के उपर प्रतिष्टित नहीं है. इसमें न्याय-विचार करके सभी मतों का खण्डन कर दिया जाता है. इस अद्वैत-वाद में युक्ति-तर्क की सहायता से एक परम-सत्य तक पहुँचना होता है. यह मार्ग चरम विवेक-विचार के उपर प्रतिष्ठित है. 
काली-महारज भी इसी ज्ञान-मार्ग के पथिक थे. इस पथ में युक्ति-तर्क के आधार पर यह सिद्ध किया जाता है कि - ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या '. दिन-रात इसी विचार मग्न रहने के कारण सभी लोग उनको नास्तिक समझने लगे थे. उनके संगीसाथी साथियों ने श्रीरामकृष्ण के पास अभियोग लगाया कि - ' काली-वेदान्ती ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर रहा है. ' यह सब सुनकर अद्वैत-ज्ञानी श्रीरामकृष्ण धीरे से मुस्कुरा दिए और बोले- ' तुम लोग देख लेना एक दिन वह सबकुछ मानने लगेगा, सबकुछ जान जायेगा. ' 
वेदान्त के मतानुसार यह जगत मायामय स्वप्नवत होने के कारण मिथ्या (असत नहीं ) है. यह तो तात्विक-सत्य है; किन्तु क्या किसी ने अपने जीवन में इसका प्रयोग किया है ? प्रयोगात्मक वेदान्तवादी कहाँ है ? ऐसा वेदान्तविद व्यक्ति कहीं मिल सकता है, जो अद्वैत-वेदान्त के तत्वों को अपने जीवन में प्रयोग कर सचमुच वेदान्त-मूर्ति बन चुका हो ?
  काली-महाराज के जिज्ञासु मन में उठते रहने  वाले प्रश्नों का कोई अन्त नहीं था. किन्तु जब तक कोई प्रत्यक्ष-प्रमाण नहीं मिलजाता वे अपनी खोज बन्द करने वालों में से नहीं थे. क्योंकि, अपनी आँखों के सामने जिस जगत को बिलकुल स्पष्ट देख रहा हूँ, वह जगत वेदान्त-मत के अनुसार मिथ्या कैसे हो जाता है ?                     
इस प्रश्न का उत्तर तत्वज्ञ श्रीरामकृष्ण से इस प्रकार दिया- " ' नेति नेति ' करते हुए आत्मा की उपलब्धी करने का नाम ज्ञान है. पहले ' नेति नेति ' विचार करना पड़ता है. ईश्वर पंचभूत नहीं है, इन्द्रिय नहीं हैं, मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हैं, वे सभी तत्वों के अतीत हैं; - और यह होते ही यह सब स्वप्नवत हो जाता है.
विचार दो प्रकार का है - अनुलोम और विलोम . पहले के द्वारा मनुष्य जीव-जगत से नित्य ब्रह्म में जाता है और दूसरे के द्वारा देखता है कि, ब्रह्म ही जीव-जगत के रूप में लेलायित है. छत पर चढ़ने के लिए एक एक कर सब सीढ़ियों का त्याग करते हुए जाना होता है. सीढियाँ छत नहीं हैं. किन्तु छत पर जा पहुँचने के बाद दिखाई देता है कि जिन ईंट, चुना, सुर्खी आदि वस्तुओं से छत बनी है, उन्हीं से सीढ़ियाँ भी बनी हैं. जो परब्रह्म है, वही यह जीव-जगत बना है, चौबीस तत्व बना है. जो आत्मा है, वही पंचभूत बना है.
  तुम कहोगे, मिट्टी अगर आत्मा से ही बनी है तो वह इतनी कड़ी कैसे है ? उनकी इच्छा से सब कुछ सम्भव हो सकता है. क्या रज-वीर्य से हड्डी और मांस का निर्माण नहीं होता है ?
 अनुलोम और विलोम. ' नेति नेति ' करते हुए समाधी में पहुँचकर तुम्हारा ' अहं ' ब्रह्म में विलीन हो जाता है. फिर जब तुम समाधी से उतरकर नीचे आते हो तब तुम्हें दिखाई देता है कि ब्रह्म ही तुम्हारे ' अहं ' के रूप में तथा सारे जगत के रूप में व्यक्त हो रहा है....इसी प्रकार नित्य ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन करने के पश्चात् विचार आया
- ' जो नित्य हैं, वे ही लीला में जगत बने हैं.'
..यदि कहो- अखण्डस्वरुप आत्मा खण्डित जीवात्माओं में कैसे विभक्त हुआ ? कोई अद्वैत-वादी तार्किक विचार-बुद्धि के बल पर इसका उत्तर नहीं दे सकता. उसे यही कहना पड़ता है कि- ' मैं नहीं जानता '. ब्रह्मज्ञान होने पर ही इसका योग्य उत्तर मिल पाता है.
जब तक मनुष्य कहता है, ' मैं जानता हूँ ' या ' मैं नहीं जानता ' तब तक वह स्वयं को एक व्यक्ति (M /F ) समझता है. तब तक उसे इस विविधता ( जगत-प्रपंच ) को सत्य ही मानना पड़ता है- वह इसे भ्रम नहीं कह सकता. परन्तु जब व्यक्तित्व-बोध का;' मैं '-पन का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है, तब- ' समाधी ' में ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है.
अहंकार के दूर हो जाने पर जीवत्व ( M / F -पने ) का नाश हो जाता है. इस अवस्था में समाधी में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है. जीव नहीं ब्रह्म ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है.  
समाधी अवस्था में उपलब्ध ब्रह्म मानो दूध है, साकार-निराकार ईश्वर मानो माखन हैं, और चौबीस तत्वों से बना जगत मानो छाछ. जब तक तुम माया के राज्य में हो तब तक तुम्हें माखन और छाछ - ईश्वर और जगत - दोनों स्वीकार करना होगा. ...जब तक ' अहं ' है, तब तक साकार ईश्वर भी सत्य हैं; जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है.
यथार्थ ज्ञान होने पर अहंकार नहीं रहता. समाधी हुए बिना ठीक-ठाक ज्ञान नहीं होता. भरे दोपहर में सूरज जब ठीक माथे के उपर रहता है; उस समय मनुष्य चारों ओर देखता है, पर उसे अपनी छाया नहीं दिखाई देती वैसे ही, यथार्थ ज्ञान होने पर, समाधी होने पर अहंकाररूपी छाया नहीं रहती. यदि ठीक-ठाक ज्ञान होने के बाद भी किसी में ' अहं ' दिखाई पड़े, तो ऐसा जानना कि वह ' विद्या का अहं ' है, ' अविद्या का अहं ' नहीं.
..समाधी में अद्वैतबोध का अनुभव करने के पश्चात् पुनः नीचे उतर कर ' अहं ' बोध का अवलम्बन कर रहा जाता है.  ईश्वरदर्शन या आत्मज्ञान हो जाने के बाद सब कुछ चिन्मय लगने लगता है. काली के मन्दिर में जाकर देखता हूँ - प्रतिमा चिन्मय, पूजा कि वेदी, कोष-कुशी, मन्दिर का चौखट, मार्बल पत्थर सबकुछ ही चिन्मय है. उस समय बिल्ली को देखने से भी बोध होता है कि, चिन्मयी माँ ही यह सब बनीं है. "     
वेदान्त-वादी काली-महाराज ने श्रीरामकृष्ण के अद्वैत-अनुभूति की बातों को बहुत ध्यान से सुना. किन्तु तब भी उनका तार्किक वेदान्ती-मन इसे मानने को तैयार नहीं था. वे स्वयं द्रष्टा होना चाहते थे- जगत के जड़-जीव आदि समस्त वस्तुओं में एकमात्र परमात्मा ही ओतप्रोत हैं, तो वे उस परमात्मा को प्रत्यक्ष करना चाहते थे. वे वेदान्त के उस सर्वोच्च-शिखर पर पहुँचना चाहते थे, - जहाँ से सबकुछ ( जड़-जीव ) के साथ एकात्मबोध की अनुभूति होती है.
यही आत्म-साक्षात्कार या आत्मबोध हो जाने पर मनुष्य सर्वत्र ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव करने में समर्थ हो जाता है. जबतक यह अभेदानुभूती नहीं हो जाती, तबतक नेति नेति विचार करना होता है. इस प्रकार
' नेति नेति ' विचार करके जिन्होंने ' ईति ' कर लिया है, वे ही सच्चे अद्वैत-वेदान्ती हैं.
वहाँ पहुँच जाने के बाद, फिर (ज्ञाता और ज्ञेय ) दो नहीं रह जाता, सबकुछ एक हो जाता है. सभी वस्तुओं के भीतर ' एक ' को प्रत्यक्ष कर लेने को ही अद्वैतानुभूती कहते हैं.आध्यात्म-मार्ग का यह सर्वोच्च स्तर (शिखर) है. यहाँ पहुँच जाने पर वेदान्त-विचार (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ) बोध (अनुभूति ) में परिणत हो जाता है. 
इसीलिए हमें समझना चाहिए कि अद्वैत-वेदान्त केवल तार्किक विचार-बुद्धि उपर ही प्रतिष्ठित नहीं है. बल्कि तर्क-युक्ति से मुक्ति प्राप्त कर लेना ही इसका उद्देश्य है. वेदान्तोक्त तात्वि-सत्य को व्यवहारिक सत्य में परिणत कर लेने के लिए ही वेदान्त-साधना की जाती है. ज्ञान-विचार करते करते ज्ञान की चरम सीमा पर पहुँच जाना ही अद्वैतवेदान्त की ईति है. 
अनुभूति-प्राप्त करने के लिए ही काली-महाराज की वेदान्त-साधना चल रही थी. दिन रात वे ज्ञान-विचार में निमग्न रहने लगे. जब तक वे ज्ञान की चरम पराकाष्ठा में उपनीत नहीं हो जाते वे साधना से विरत नहीं हो सकते थे. अद्वैत तत्व के अनुसन्धान कर अभेददर्शन के उद्देश्य से वे पुनः गम्भीर ध्यान में डूब गए.
अध्यवसायी, आत्मज्ञान के इच्छुक- काली-महाराज के लिए वेदान्त एक अन्वेषण था. उनके प्राणों की भूख थी. उनका मन उस व्याकुलता के आवेग से आर्तनाद से भरा हुआ था. वे श्रीरामकृष्ण के दिव्यसनिध्य में उपविष्ट थे. 
उनकी ज्ञानान्वेषी वेदान्तिक तर्कशील मानसिकता अंतर की व्याकुलता को अवदमित कर रही थी.
उनके प्राणों में यह प्रश्न बार बार उठ रहा था- ' क्या सचमुच, किसी को अभिन्न-दृष्टि प्राप्त हो जाती है ? सर्वभूतों में क्या, किसी को सचमुच आत्मदर्शन होता है ? क्या कोई मुझे ' ज्ञानांजन ' प्रदान करके मेरी  आत्मदृष्टि को भी उन्मोचित करने में समर्थ है? यदि कोई समर्थ गुरु हैं, तो वह अद्वैत-ज्ञानी साधक 
कहाँ मिलेंगे ?
वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि, सिद्धान्त को व्यवहार रूपांतरित होते देखने का समय उपस्थित हो गया. शायद अन्तर्यामी अद्वैतवादी श्रीरामकृष्ण ने अपनी अद्वैतानुभूती के द्वारा काली-महाराज की आन्तरिक वासना (तीव्र इच्छा) को अपने ह्रदय में अनुभव कर लिया था. इसीलिए उन्होंने काशीपुर-उद्यानबाड़ी में स्वयं इसके दृष्टान्त-स्वरुप बन कर, काली-महाराज को आवेगपूर्ण शब्दों में आदेश दिया- " बाहर जा कर देखो, जो आदमी मठ की हरी-हरी घासों पर टहल रहा है, उसको घास पर चलने से मना कर दो. मुझे बहुत कष्ट हो रहा है. ऐसा महसूस हो रहा है, मानो वह मेरी छाती के उपर ही चल रहा हो. " 
काली-महाराज अवाक् रह गए. मन में उठा प्रश्न मन में ही रह गया. सोचने लगे- ' इन्होंने मेरे मन की बात को जान कैसे लिया ? स्तम्भित काली-वेदान्ती ठाकुर के निर्देशानुसार शीघ्रता से बाहर निकल कर देखे- अरे बिलकुल सच ! बाहर एक व्यक्ति मठ की हरी हरी दूबों के उपर टहल रहा था. जल्दी से वहाँ पहुँच कर उसको घास के उपर उस प्रकार चहल-कदमी करने से मना किया.
आदेश को सुन कर, उस व्यक्ति ने घास के उपर चलना जैसे ही बन्द किया, उन्होंने देखा कि, ठाकुर श्रीरामकृष्ण थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने लगे हैं. अब आश्चर्य-चकित होकर, काली-महाराज अवाक् हो गए और अपलक-दृष्टि से श्रीरामकृष्ण को देखते रह गए; मानो अद्वैत-विज्ञान किसे कहते है, उसके प्रत्यक्ष-प्रमाण स्वरुप जीवन्त वेदान्त-मूर्ति को देख कर मिला रहे हों. 
अद्वैतानुभूती को, आज उन्होंने अपनी आँखों के सम्मुख प्रमाणित होते देख लिया था. विचार कर रहे हैं- इसको ही आत्मज्ञान कहते हैं, इसको ही आत्मदृष्टि कहते है. तृणादि जड़-चेतन, जीव-जगत, सबकुछ के भीतर अपने को देखना ही तो ' अभेदज्ञान ' है. यही तो अद्वैत-वेदान्त का चरम तत्व है- जिसको निज-अनुभव से जानने के लिए साधक को साधनारुपी सोपानों से होकर गुजरना होता है. 
काली-वेदान्ती इसी आत्मानुभूति को प्राप्त करना चाहते थे. श्रीरामकृष्ण ने आज उसीको दृष्टान्त-सापेक्ष प्रमाण द्वारा दिखा दिया था. उन्होंने अभेदतत्व को प्रयोग-द्वारा वास्तविकता में परिणत कर दिया था. जड़-पदार्थों के प्रति अभिन्न दृष्टि को व्यवहारिक रूप से दृष्टिगोचर करा दिया था. यही सत्य हजारों वर्ष पूर्व ऋषि कन्ठ से घोषित हुआ था-
" यदिदं किञ्चित जगत सर्वं प्राण एजति निःसृतम "|
- अर्थात जीव-जगत सभी कुछ के भीतर एक ही प्राणसत्ता चैतन्य रूप में निहित है. 
यह अभेदतत्व अभी तक केवल वेदान्त-शास्त्रों के पन्नों में निबद्ध था. श्रीरामकृष्ण ने स्व-अनुभूत आचरण के द्वारा - शास्त्रोक्त सत्यतत्व को ' तथ्य ' में परिणत कर दिखाया था. काली-महाराज के सत्यार्थी मन ने वेदान्त के जिस सारतत्व का अन्वेषण किया था, श्रीरामकृष्ण ने उसे दिव्य-दृष्टि की सहायता से उन्मोचित कर दिया था. पवित्र-सानिध्य प्रदान कर परम-प्राप्ति को वास्तविकता में परिणत कर दिया था. 
श्रीरामकृष्ण अद्वैत-वेदान्ती थे, वे कहते थे-' अद्वैतज्ञान को आँचल में बाँध कर जो चाहो करो, तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा. '
इसीलिए वे काली-वेदान्ती के अद्वैत साधना का असमर्थन नहीं कर सकते थे. परन्तु यदि कोई जानना चाहता तो उसको, वे तत्व और तथ्य (सिद्धान्त और व्यव्हार दोनों ) की सहायता से प्रमाणित कर कर के दिखला देते थे. 
इसीलिए वेदान्त के जो तात्विक-सिद्धान्त हजारों वर्ष पूर्व,उपनिषद-कारों के ध्यान-नेत्र या ऋषि-दृष्टि के सामने उद्भाषित हो उठे थे, आज वही तत्व श्रीरामकृष्ण के जीवन से प्रमाणित हो रहे थे, एवं काली-महाराज ने स्वयम अपने आँखों से परख कर देख लिया था. उनकी अद्वैत-वेदान्त की साधना सार्थक हो गयी थी; और उसके साथ ही साथ गुरुभाइयों द्वारा दिया गया - ' काली-वेदान्ती ' नाम का सही मुल्यांकन भी हो गया था.         
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2 टिप्‍पणियां:

merikhabrein ने कहा…

bahut hi sundar vyakhyaa hai advet upasna ki. is sambandh aur jankari ki pratiksha rahegi.

merikhabrein ने कहा…

bahut hi sundar vyakhyaa hai advet upasna ki. is sambandh aur jankari ki pratiksha rahegi.