स्वामी अभेदानन्द और ' देशबन्धु ' चित्तरंजन दास
भारतवर्ष के राष्ट्रीय जीवन मे जिनका तन-मन-प्राण समर्पित थे, उनमें से एक उज्ज्वल व्यक्तित्व का नाम है - देशबन्धु चित्तरंजन दास ! वे स्वभावतः इस देश के मित्र थे. उनके स्वाधीनचेता और मुक्त मन से की गयी सेवा से देशवासी तो भाव-विभोर थे ही, विशेष रूप से स्वामी अभेदानन्दजी भी उनके स्वदेश-प्रेम को देख कर मुग्ध हुए थे.
सन् १९२४ में जब अभेदानन्दजी दार्जलींग गये थे, उस समय देशबन्धु चितरंजन दास भी दार्जलींग स्थित अपने Step Aside नामक आवास में थे. उस समय चितरंजन बहुत बीमार थे, इसीलिए अभेदानन्दजी स्वयम् ही उनको देखने के लिए गये थे, और अस्वस्थ देशबन्धु के शीघ्र निरोग हो जाने की शुभकामना भी दिए थे.
सन् १९२४ ई० में कोलकाता के किसी अन्य सामाजिक सम्मेलन में भी उन दोनों की मुलाकात हुई थी. उस वर्ष कोलकाता विवेकानन्द सोसायटि का वार्षिक सम्मेलन- ' मनोमोहन नाट्यमन्दिर ' में आयोजित हुआ था. उस सभा में देशबंधु अध्यक्ष के आसन पर विराजमान थे, और स्वामी अभेदानन्दजी उस सभा में एक वक्ता थे. जब अभेदानन्दजी द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि के बारे में अपनी बात कह रहे थे, उस समय वे उनके भाषण को बड़े ध्यान से सुन रहे थे.
बाद में अध्यक्ष का भाषण देते हुए, चितरंजन ने कहा- ' स्वामीजी ! आपका द्वैत-अद्वैत वेदान्त तो सुना, किन्तु मैं चाहता हूँ - ' बंगाल का वेदान्त '. अब आप लोग जरा यह तो समझाइये कि - ' बंगाल का वेदान्त ' क्या है ? - यही न, विश्वप्रेम- आचण्डाल के लिए निःस्वार्थ प्रेम, जिसे पहले महाप्रभु गौरांगदेव ने, एवम् हाल के दिनों में भगवान श्रीरामकृष्णदेव ने दिखलाया है.
इस प्रेम में जगत् विचार (अपने-पराये का बोध ) नहीं है, - स्वार्थपरता नहीं है, स्वर्गीय उत्स है, अनवरत बहने वाला आनंद है, मधुर भ्रातृत्व का बंधन है, एवं सभी जीवों के प्रति नारायण दृष्टि रखने की शिक्षा है. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
बाद में अध्यक्ष का भाषण देते हुए, चितरंजन ने कहा- ' स्वामीजी ! आपका द्वैत-अद्वैत वेदान्त तो सुना, किन्तु मैं चाहता हूँ - ' बंगाल का वेदान्त '. अब आप लोग जरा यह तो समझाइये कि - ' बंगाल का वेदान्त ' क्या है ? - यही न, विश्वप्रेम- आचण्डाल के लिए निःस्वार्थ प्रेम, जिसे पहले महाप्रभु गौरांगदेव ने, एवम् हाल के दिनों में भगवान श्रीरामकृष्णदेव ने दिखलाया है.
इस प्रेम में जगत् विचार (अपने-पराये का बोध ) नहीं है, - स्वार्थपरता नहीं है, स्वर्गीय उत्स है, अनवरत बहने वाला आनंद है, मधुर भ्रातृत्व का बंधन है, एवं सभी जीवों के प्रति नारायण दृष्टि रखने की शिक्षा है. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
' বহুরূপে সণমুখে তোমার, ছাডি কোথা খুঁজিছ ঈশ্বর ?
জিবে ' প্রেম ' করে যেইজন, সেইজন সেবিছে ঈশ্বর.
" -अनेक रूपों में ईश्वर तुम्हारे सामने मारे मारे फिर रहे हैं,इनको छोड़ कर ईश्वर को ढूँढने और कहाँ जाते हो ?
जो मनुष्य- ' जीव ' को ही ' शिव ' मान कर, ' प्रेम ' करता है, वही ईश्वर की सेवा करता है ! "
चितरंजन की इन बातों को सुन कर, और उनको सामाजिक जीवन में भी वेदान्त का व्यावहारिक प्रयोग करते देख कर अभेदानन्दजी भी अवाक हो गये थे. अपने दैनन्दिन जीवन में दोनों ने अलग अलग तरीके से वेदान्त को व्यावहारिक रूप दिया था.
अभेदानन्दजी देशबंधु चितरंजन के विश्व-प्रेम को देख कर मुग्ध थे. इसीलिए बातचीत करते हुए वे कहते थे- " यह जो जीव मात्र में आत्मदर्शन करने, या विश्व-प्रेम का भाव है यही - बंगाल का अपना वेदान्त है. प्रेमावतार गौरांगदेव ने मुस्लिम हरिदास को अपने गोद में स्थान दिया था, रूप-सनातन को बिना माँगे ही कृपा-दान देकर धन्य किया था, यहाँ तक कि जब हरिदास ने अपना शरीर त्याग किया था, तो सभी को उनका चरणोदक पान करने के लिए कहा था, प्रेम ऐसा ही होता है. ऐसे ही प्रेम को विश्व-प्रेम (Universal Love ) कहते हैं. तथा सि.आर. दास ने इसी प्रेम को- ' बंगाल का वेदान्त ' का वेदान्त कहा था. "
बंगाल के इस वेदान्त - ऐसे ' सर्वजनीन-प्रेम ' की शिक्षा केवल ' वेदान्त ' में ही निहित है, एवं ' बहुजन-हिताय ' व्रत- का पालन करते हुए अपने जीवन तक को उत्सर्ग कर देने की प्रेरणा भी केवल ' वेदान्त-वाद ' ( आत्मा का एकत्व या Unity in Diversity का ज्ञान ) ही प्रदान कर सकता है. स्वामी अभेदानन्दजी ने अपनी ऋषि-दृष्टि से यह देख लिया था कि चितरंजन के ह्रदय में यही - ' अद्वैत-बोध ' विद्यमान है, जिसके द्वारा वे देश की सेवा कर पा रहे हैं.इसीलिये वे कहते थे-
" यह जो सभी जीवों में ' नारायण- दर्शन ' करने वाली ज्ञानमयी दृष्टि है, यह अद्वैत भाव ही ' विश्व-प्रेम ' है, यही वेदान्त का सार है, जिसको देशबन्धु ' बंगाल का वेदान्त ' कहते थे. किसी भी तरह के भेद-भाव को अपने मन से पूरी तरह मिटा देना होगा. यह छोटा है, वह नीच है, यह अछूत है, इस प्रकार का संकीर्ण विचार मन में रखने से ह्मलोग मनुष्य नहीं बन सकते, सभी को मन-प्राण से अपने आत्मीय-स्वजन जैसा प्रेम करना होगा, - सभी के साथ अपने प्राणों को ऐसे सुर में बाँध लेना होगा, मानो एक के उपर चोट मारने से सभी एक साथ बज उठेंगे. "
' देशबन्धु ' समस्त देशवासियों के मन को एकमुखी बना कर एकस्वर में बाँधने की इच्छा रखते . विशेष तौर पर वे युवा-वर्ग के मन को एक सुर में बांधना चाहते थे. चितरंजन के ही समान अभेदानन्दजी भी देशप्रेमी थे और युवावर्ग को देशभक्ति की प्रेरणा दिया करते थे.
एकबार, उन्होंने कोलकाता में युवाओं को संबोघित करते हुए कहा था- " तुम लोग केवल ' गाँधी ' ' गाँधी ' क्यों चिल्लाते हो ? स्वार्थत्यागी आदर्श-चरित्र ; केवल एक ही गाँधी से देश का उद्धार नहीं हो सकता, प्रत्येक ग्राम में एक एक गाँधी ( नरेन्द्र रूपी Ideal ) का निर्माण कर सको तब जानूँ- तभी देश का कल्याण हो सकता है. " वे दोनों चाहते थे कि ' आदर्श ' के नाम का केवल जयकारा लगाना ही काफी नहीं है; हमें अपने व्यावहारिक जीवन में, और कार्यों में भी उनकी( विवेकानन्द की ) शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए, अपने चरित्र को भी गढ़ना चाहिए.
देशबंधु चितरंजन के महाप्रायण करने का समाचार सुन कर अभेदानन्दजी बहुत मर्माहत हुए थे. उस समय वे दार्जलींग में थे, तथा एक श्रद्धांजलि समारोह में अभेदानन्दजी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था- " हमारे बंगाल के नायक ने इसी दार्जलींग शहर में अपना शरीर त्याग किया है. जिस दिन उनका देहावसान हुआ, मैं यहीं पर उपस्थित था, - सूचना मिली, देशबंधु अब इस दुनिया में नहीं रहे, अचानक मानो एक बज्रपात सा हुआ, ऐसा प्रतीत हुआ मानो हृदय पर किसी ने ज़ोर एक मुक्का जड़ दिया हो, मन में विचार उठा, आज देश की आशाओं का सूर्य मानों अस्त हो गया है.
देशबंधु एक महान त्यागी व्यक्ति थे...यदि ह्मलोग इस बात का विश्लेषण करके देखें कि भारत के नर-नारी, बच्चे-बूढ़े सभी के बीच वे-' देशबन्धु-चितरंजन ' के नाम से क्यों जाने जाते थे, तब ह्म पाएँगे कि; देश और देशवासियों के कल्याण के लिए उनका सर्वस्व त्याग, सर्वजनीन- प्रेम, एवं कर्तव्य- परायणता ही इसके मूल कारण थे.
केवल इतना ही नहीं, अभेदानन्दजी ने देशबंधु चितरंजन के चरित्र में - धार्मिकता और धर्मप्राणता को भी लक्ष्य किया था. इसीलिए वे कहते थे, ' धर्म ही उनके कर्म-समुद्र का मार्गदर्शी प्रकाश-स्तंभ था. वे परम वैष्णव थे, - जीव जीव में नारायण-मूर्ति का दर्शन करके जगत के समक्ष इतने बड़े देश-भक्त बन सके थे.
इस तथ्य का संकेत - ' नारायण ' नामक उनकी पहली मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. उनके हृदय में कौन छोटा कौन बड़ा ऐसा भेद नहीं था, उनकी ज्ञानमयी दृष्टि सभी को नारायण की प्रतिमूर्ति रूप से देखती थी, इसीलिए उनके प्रेम-दृष्टि में सभी मनुष्य एक समान बन गये थे.
केवल इतना ही नहीं, अभेदानन्दजी ने देशबंधु चितरंजन के चरित्र में - धार्मिकता और धर्मप्राणता को भी लक्ष्य किया था. इसीलिए वे कहते थे, ' धर्म ही उनके कर्म-समुद्र का मार्गदर्शी प्रकाश-स्तंभ था. वे परम वैष्णव थे, - जीव जीव में नारायण-मूर्ति का दर्शन करके जगत के समक्ष इतने बड़े देश-भक्त बन सके थे.
इस तथ्य का संकेत - ' नारायण ' नामक उनकी पहली मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. उनके हृदय में कौन छोटा कौन बड़ा ऐसा भेद नहीं था, उनकी ज्ञानमयी दृष्टि सभी को नारायण की प्रतिमूर्ति रूप से देखती थी, इसीलिए उनके प्रेम-दृष्टि में सभी मनुष्य एक समान बन गये थे.
उनमें ऐसी धर्म-प्राणता थी इसीलिए वे संपूर्ण भारत वासियों को अपना आत्मीय स्वजन जैसा अपना बना लेने में सक्षम हुए थे. यदि वास्तव में देखें तो धर्म ही वह बुनियाद है, जिस पर सारी मानवता एकत्व के सुर में बँध जाती है. मनुष्य के जीवन से यदि धर्म को हटा दिया जाय तो जगत के किसी भी कार्य में सफलता नहीं पाई जा सकती है.
किन्तु इनदिनों बहुत से तथाकथित बुद्धि-ज़ीवी कहने लगें हैं कि- ' यदि देशसेवा करनी है, तो धर्म को बिल्कुल अलग रख देना होगा.' आजकल युवाओं के मन में भी ऐसे कुविचार भरे जा रहे हैं कि ' देशसेवा और धर्म ' का आपस में कुछ लेना-देना नहीं है. दोनों बिल्कुल भिन्न हैं. बल्कि धर्म ही स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग का बाधक है. यदि भारतमाता की सेवा करनी हो तो, अब कुछ वर्षों के लिए धर्म को बिल्कुल ही त्याग देना चाहिए, जब की ऐसी धारणा बिल्कुल ही ग़लत है.
किन्तु इनदिनों बहुत से तथाकथित बुद्धि-ज़ीवी कहने लगें हैं कि- ' यदि देशसेवा करनी है, तो धर्म को बिल्कुल अलग रख देना होगा.' आजकल युवाओं के मन में भी ऐसे कुविचार भरे जा रहे हैं कि ' देशसेवा और धर्म ' का आपस में कुछ लेना-देना नहीं है. दोनों बिल्कुल भिन्न हैं. बल्कि धर्म ही स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग का बाधक है. यदि भारतमाता की सेवा करनी हो तो, अब कुछ वर्षों के लिए धर्म को बिल्कुल ही त्याग देना चाहिए, जब की ऐसी धारणा बिल्कुल ही ग़लत है.
क्योंकि धर्म के बिना थोड़ा भी त्याग करना असंभव है ! देश-सेवकों का जीवन ' त्याग ' के बिना निष्कलंक कैसे बन सकता है? देश के कल्याण में जो लोग अपने को समर्पित करना चाहते हैं उनमें थोड़ी भी त्याग की भावना अवश्य रहनी चाहिए.
यह त्याग किस उद्देश्य को सामने रख कर करना है? भारतमाता के लिए ! क्यों ? .... इसीलिए कि हम अपने देश को बहुत प्यार करते हैं, महाप्राण लोग अपने दुख की परवाह नहीं करते, वे तो देश के दुख से कातर होते हैं. क्योंकि उनकी दृष्टि में सभी मानव एक समान प्रिय हो जाते हैं, चाहे कोई निर्धन हो या धनी, छोटा हो या बड़ा सभी से उसको प्रेम होता है. इसीलिए ऐसी समदर्शिता, ऐसा विश्वप्रेम क्या धर्म को जीवन में धारण किए बिना क्या कभी प्रतिफलित हो सकता है ? "
स्वामी अभेदानन्द जी देशबंधु के देश के कल्याण के लिए आत्म-त्याग की भावना से भी पुर्णतः परिचित थे. उनको याद करके वे सभी के समक्ष कहा करते थे,- " यदि कोई व्यक्ति दूसरे किसी व्यक्ति के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर देता हो, तो इसका अर्थ ही है कि वह उसको भगवान (अल्ला,वाहेगुरु,गॉड, महामाया जो भी नाम दो) का अंश या प्रतिमूर्ति समझ कर ही, उसको अपने प्रेम-चक्षुओं से दर्शन करने में समर्थ है ! मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि, यदि चितरंजन समग्र भारत के आन्तरिक प्रेम को प्राप्त करके, भारतमाता की सेवा में आत्मबलिदान करने मे समर्थ हुए थे, तो उसका एकमात्र कारण यही था कि वे एक धर्म-प्राण व्यक्ति थे.
आइए थोड़ा विचार कर के देखें कि उनके जीवन में धर्म का महत्व और सर्वजन के प्रति उनका प्रेम किस सीमा तक था. जब एक बार चाँदपूर में कुली-मजदूरों ने आन्दोलन कर दिया था तो उनको उनका हक दिलाने के लिए वे एक सामान्य सी नौका ' जेलेडोंगी' के सहारे पद्मा-नदी पर किए थे. जब Steamer नहीं मिल सका तो, उस उफनती हुई विशाल पद्मानदी के तूफान में अपने प्राणों की ममता का त्याग कर, केवल एक मांझी के उपर विश्वास करके तथा अपनी आत्म-विश्वास जन्य इच्छाशक्ति के बल पर उस नदी को पार क्यों किए थे ?
इसीलिए कि असहाय भूखे कुली-मजदूरों के दुख को देख कर उनका हृदय व्यथीत हो रहा था ! कोई साधारण व्यक्ति दूसरों के दुख को देख कर इतना कातर भी हो सकता है ! क्या आप इसकी कल्पना भी कर सकते हैं ? उनका देशप्रेम केवल स्वतंत्रता आन्दोलन तक ही सीमाबद्ध नहीं था, उनका हृदय और मन दीन-दुखी और कुली-मजदूरों के लिए भी समान रूप से व्यथा का अनुभव करता था. "
अभेदानन्दजी उनके देशप्रेम और मानवप्रेम को देख कर मुग्ध थे, तथा कहते थे- " इसमसीह का उपदेश है- Love thy neighbor as thyself. तुम अपने पड़ोसी को बिल्कुल अपने जैसा प्यार करो. किन्तु कितने लोग वैसा कर पाते हैं ? ऐसे मनुष्य कितने हैं, जो दूसरों की सेवा निःस्वार्थ भाव से करने के लिए स्वयम् को मिटा सकते हैं ? देशबंधु आज जगत के समक्ष पूज्य क्यों हैं? - इसीलये कि वे दूसरों के कल्याण के लिए, स्वयम् को ( अपने मिथ्या अहं को) सम्पूर्ण रूप से मिटा देने में समर्थ हुए थे ( तथा देशवासियों के सम्मान की रक्षा के लिए खुद का अपमान सहने में सक्षम थे.)
वस्तुतः - ' Love and Universal brotherhood ' ( प्रेम और सार्वलौकिक भ्रातृत्व ) की भावना से वे ओतप्रोत थे, इसीलिए आज वे स्वनामध्न्य हुए हैं. "
Deshbandhu CHITTARANJAN DAS (1870-1925)
His countrymen hailed him as a ‘Deshbandhu’ (Friend of the Country) because he declared in 1905: "If I die in this work of winning freedom, I believe I shall be born in this country again and again, live for it, hope for it, work for it with all the energy of my life, with all the love of my nature till I see the fulfillment of my hope and the realisation of this idea".
हृदयवत्ता के बल से ही चित्तरंजन देशबंधु में रूपांतरित हुए थे. भारतवासी और भारतवर्ष उनके निःस्वार्थ प्रेम से समृद्ध हुआ है. वे स्वाभाविक रूप से ही देश के ' बन्धु ' मित्र थे. स्वामी अभेदानन्दजी ने चित्तरंजन के चरित्र को देख कर इस निश्चय पर पहुँचे थे, कि वैसा कोई भी व्यक्ति देश की सेवा में अपने प्राणों को समर्पित नहीं कर सकता जिसके जीवन में कुछ भी त्याग नहीं हो. उन्होंने आत्मत्याग के व्रत से उद्दीप्त चित्तरंजन को भली-भाँति समझा था.
इसीलिए वे कहा करते थे, " धार्मिक हुए बिना कोई भी व्यक्ति अपने स्वार्थ का त्याग कर ही नहीं सकता- और स्वार्थत्याग किए बिना देश-सेवा या कोई भी जनकल्याणकारी कार्य किया नहीं किया जा सकता है. देश के लिए स्वयं को मिटा देना होगा, अर्थात अपने क्षूद्र अहम् को पूरी तरह से मिटा देना होगा, - थोड़ा सा भी व्यक्तिगत स्वार्थ या मान-अपमान का ध्यान रहने से इस अहम् को मिटाया नहीं जा सकता है. अपने कर्तव्य के दायित्व पूर्ण आसान को खाली छोड़ कर, जब देशबंधु चले गये तो उस आसान पर बैठने योग्य व्यक्ति का निर्माण आज तक क्यों नहीं किया जा सका है ?
पाश्चात्य देशों में जब कोई सेनापति तोप के गोले से वीरगति को प्राप्त होता है, तब उसके अभाव को उसका प्रतिनिधि उसी क्षण पूर्ण कर देता है, वह उसी क्षण उस पद को ग्रहण कर के दुगने उत्साह के साथ युद्ध का संचालन करता है. किन्तु हमारे देश में यह अभाव बहुत दीर्घ दिनों तक बना ही रहता है, क्योंकि यहाँ स्वाभाविक रूप से त्याग और साहस है ही नहीं. त्यागी होना क्या मुँह से कहने भर की बात है ? इसका मूल ही धर्म-शिक्षा है; बच्चों को बचपन से ही ऐसी शिक्षा देनी होगी. किन्तु क्या आपलोग वैसी शिक्षा देते हैं ?
देशवासियों और देश के लिए अपने प्राणों को भी न्योचछवर करने के लिए कर्तव्य की रणभूमि में दौड़ पड़ना चाहिए, आप में से कितने लोग अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देते हैं ? परन्तु पाश्चात्य देशों में ऐसी अवस्था नहीं है. माता-पिता बचपन से ही अपने बचों को निर्भीक और स्वावलंबी होने की शिक्षा देते हैं.
पिछले यूरोपीय महायुद्ध के समय मैं अमेरिका में था, उस समय की एक घटना मुझे याद है- वह अपने माँ-बाप का एक एकलौता बेटा था, उसकी उम्र २०-२२ के आसपास रही होगी, बि.ए. का परीक्षार्थी था, युद्ध में जाने के लिए अपना नाम दिया था, सूचना मिली - तुम्हें भी युद्ध में जाना है. उसके माँ-बाप ने अपने एकलौते लड़के को विदा करते हुए कहा - ' Go sacrifice your life for the sake of your country, Don't turn back ' जाओ, अपने देश के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दो, रुणभूमि में कभी अपना पीठ मत दिखना ' उन वीरहृदय माँ-बाप की कर्तव्य बोध देखिए.
और ह्मारे देश के माँ-बाप क्या करते हैं? बचपन से ही ' भकउआँ ' का डर बच्चों के दिल में पैदा कर के कहते हैं- ' बबुआ, दो मुट्ठी बासी-भात खा कर भी मेरे घर के किसी कोने में दुबके रहो ' ( तुमको मिलिट्री में भर्ती होने की कोई ज़रूरत नहीं है.) इसीलिए ऐसे सपूतों के द्वारा देश-सेवा कैसे संभव हो सकती है ?
-किन्तु किसी समय में ह्मारे देश में भी ऐसी ही वीरप्रेरणा थी, जब राजपूत वीरांगनाएँ अपने पति-पुत्र को रणभूमि में अपने प्राणों को न्योछावर कर देने केर देने के लिए प्रेरणा दिया करतीं थीं. और वे लोग तलवार को मयान से बाहर निकाल कर शत्रु-समुद्र में कूद कर लड़ते लड़ते मातृभूमि के बलिवेदी पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देते थे.(' ये है अपना राजपूताना नाज़ जिसे तलवारों पे, इसने अपना जीवन काटा बरछी ढाल कृपाणों पे; कूद पड़ी थीं यहा हजारों पद्मिनियाँ अंगरों पे!) उसके दृष्टान्त हैं- रानी पद्मिनी, हाड़ा रानी, मीराबाई आदि जो आज भी भारत के इतिहास में अमर हैं.
इस विक्रमपुर का नाम भी इसी ' विक्रम ' के लिए प्रसिद्द है. - बंगाली वीरों ने भी मुसलमानों को जल-युद्ध में पराजित कर देश की रक्षा की थी. किन्तु आजकल अधिकांश लोग अन्य प्रकार के (भोगी ) बनते जा रहे हैं. इसीलिए एक बार फिर उसी वीर भाव को जाग्रत करना होगा.
देश की सेवा के लिए वैसी ही निः स्वार्थपरता और त्याग की भावना से ओतप्रोत अपना चरित्र गढ़ना होगा, केवल मुख से केवल सी.आर. दास कह कर, डींगें हांकने के बजाये, उनके (देशबन्धु के) सांचे में ढाल कर, अपने चरित्र का निर्माण तो करो, उनके आदर्श को सामने रख कर, अपने जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ कर - देश की सेवा तो करो, फिर मैं देखता हूँ- कि तुम लोग अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में कैसे सफल नहीं होते ?
देशबन्धु की देशभक्ति के भीतर यथार्थ धार्मिकता थी, उसे अभेदानन्दजी ने प्रत्यक्ष किया था. इसीलिए वे कहते थे- " देशसेवा करना चाहते हों तो धर्म का त्याग बिल्कुल नहीं करना होगा, प्रत्येक कार्य में धर्म को आदर्श मान कर सदैव उसी रास्ते पर चलना होगा. अमेरिका और फ्रांस जैसे लोकतांत्रिक देश जैसे समस्त लोकतांत्रिक देशों में धर्म को शासन से स्वतंत्र नहीं माना जाता. उनका मानना है कि- The king is the defender of Faith. - अर्थात राजा ही धर्म के रक्षक हैं, राजा का जो धर्म है, सभी को उसी के अनुसार चलना
भारत माता के सपूत, देशप्रेमी-' देशबन्धु ' चित्तरंजन दास के प्रति अभेदानन्दजी में असीम श्रद्धा थी. वे भारतीय युवकों को देशबंधु के आदर्श का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करते थे. तथा उनका वह आह्वान उनके भाषणों में इस प्रकार व्यक्त हुआ है- " आपलोग देशबंधु का वही स्वदेश प्रेम-समदर्शिता एवं सर्वोपरि उनका ज्वलंत त्याग के निर्देशन को सामने रख कर अपने अपने व्यक्ति चरित्र का निर्माण करो. धर्म के सार्वभौमिक उदार भावों के मध्यम से युवाओं को जीवन को सुंदर ढंग से गठित करने वाला आंदोलन खड़ा करो. क्योंकि आत्मा में प्रतिष्ठित जीवन - ' Self-realization ' या ' आत्मबोध ' को ही स्वराज कहते हैं.
जिस दिन आपलोग स्वाभाविक रूप से त्यागी और आदर्श कर्मी बन सकेंगे, उसी दिन देशबंधु की स्वर्गवासी पवित्र आत्मा का अमोघ आशीर्वाद ग्रहण कर के स्वराज या शांति प्राप्त करने में सक्षम होंगे ".
इस प्रकार देशबंधु की धर्मनीति और कार्य पद्धति को लेकर अभेदानन्दजी के मन में असीम श्रद्धा थी. उनकी देशसेवा और देशवासियों के प्रति प्रेम त्यागवाद - अर्थात भारत के कल्याण के लिए स्वयं को मिटा देने की भावना पर आधारित था. इसीलिए वे एक स्वार्थ त्यागी देश सेवक थे. जीवन में थोड़ा भी त्याग स्वीकार किए बिना निःस्वार्थ-सेवा कर पाना संभव ही नहीं है. उनके जैसे महात्यागी सेवा-व्रत को धारण करके देश सेवा करने वाले की देशसेवा ही सार्थक है. इन दोनों राष्ट्र-भक्तों का परिचित होना सार्थक हुआ है. अभेदानन्दजी आध्यात्म वाद के मध्यम से मानवकल्याण के व्रती थे, एवं देशबंधु राष्ट्रप्रेम के मध्यम से समाजसेवा किए थे. दोनों सफल कर्मयोगी थे एवं दोनों का उद्देश्य भी एक ही था- दोनों अपने देश और देशवासियों की सेवा में समर्पित-प्राण थे.
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' সময় অসময় ' পত্রিকায় প্রকাশিত ' समय असमय ' पत्रिका में प्रकशित.
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