" वेदाध्यापक के व्यवहार में भद्रता अनिवार्य है ! "
संगीत के और भी अन्य कई पक्ष होते हैं. वैसे तो खड़दह में प्राचीन समय के कई मन्दिर हैं, जिनमे से श्यामसुंदर का मन्दिर और राधाकान्त देव के मन्दिर का उल्लेख पहले ही हो चुका है. किन्तु इसके अतिरिक्त और एक मन्दिर हाल में बना है- ' लक्ष्मीनारायण मन्दिर ', उसके बने हुए मुश्किल से ४०-४५ वर्ष हुए होंगे. इस मन्दिर के संसथापक एक डाक्टर थे.
जिस प्रकार पूर्व में आन्दुल के ' बाबुराम डाक्टर ' की चर्चा हुई है, उनके पुत्र- बुधेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भी एक प्रसिद्ध डाक्टर थे. आमजनता के लिये वे दोनों भी डाक्टर बिधानचंद्र राय के जैसा केवल डाक्टर के नाम से जाने जाते थे. उन्होंने ही यहाँ पर इस मन्दिर की स्थापना की है. तब मैं स्काटिश चर्च कालेज में पढ़ाई कर रहा था.
उस समय स्काटिश चर्च कालेज के सभी छात्रों को ठीक १० बजे तक कालेज में पहुँच जाना अनिवार्य था. वहाँ के Prayer Hall में एक Organ (बाजा) रखा रहता था जिसके ऊपर Christian Psalms (ईसाई स्त्रोत्र ) का गान किया जाता था. उसके बाद बाइबिल से पाठ होता फिर कोई प्रार्थना करके हमलोग अपने अपने क्लास में चले जाते थे.हमलोगों के समय में Rev.John Kellas कालेज के प्रिंसिपल हुआ करते थे. वे हमलोगों का बाइबिल पर क्लास लेते थे एवं ३ महीने के अन्तराल पर हमलोगों को बाइबिल की परीक्षा देनी पड़ती थी.
सभी छात्रों को कालेज की तरफ से एक एक बाइबिल भेंट की गयी थी. मुझे जो बाइबिल मिली थी, वह पता नहीं किस प्रकार खो गयी थी. मैंने एक दिन प्रिंसिपल केल्लास को को बताया कि मेरी बाइबिल खो गयी है. उन्होंने कहा, " Oh, I'll give you another copy " - इस प्रकार उन्होंने मुझे अपने हाथों से बाइबिल की दूसरी प्रति दी.
और ठीक उसी समय ऐसा हुआ कि सुबह के समय कालेज में christian Prayer (ईसाई धर्म सम्बन्धी प्रार्थना) बाइबिल श्रवण,और psalms का गान करना और और शाम के समय में बिना नागा किये, लक्ष्मीनारायण मन्दिर में संस्कृत में स्त्रोत्र गाया करता था.
उस मन्दिर के प्रतिष्ठाता इतने नामी डाक्टर थे कि, उस समय के स्थानीय राजा लोग उनको प्लेन से ले जाया करते थे. उनका एक अलग ही रुतबा था. जब मैंने सुना कि वहाँ एक नया मन्दिर प्रतिष्टित हुआ है, तो एक दो दिन देखने के लिया गया था. मुझको देखते ही बुलाया और कहे - " आओ, कहाँ रहते हो, तुम्हारा नाम क्या है, यहाँ पर आते रहना. " उनका चेहरा बहुत गंभीर था और इतने स्नेह से बुलाये थे, मैं उस मन्दिर में प्रतिदिन जाने लगा.
कुछ ही दिनों बाद मुझसे पूछे, ' तुम्हें क्या गाना आता है ? ' मैंने कहा - जी नहीं. उन्होंने फिर पूछा -" हारमोनियम बजाना जानते हो ? " मैंने कहा- जी नहीं. " आओ, मैं तुमको हारमोनियम बजाना सिखाऊंगा. " उन्होंने मुझे ' सरगम ' (सारेगामापधनिसा) बजाना सिखाया फिर बोले- " संध्या के समय में यहाँ पर स्त्रोत्र गान होता है, तुमभी हमलोगों के साथ गाना." उस दिन से रोज शाम को एक घन्टा संस्कृत स्त्रोत्र गाया करता था. वे organ बजाया करते थे. उसके बाद मुझसे बोले, ' तुम भी organ बजाने का अभ्यास करो. ' मैंने organ बजाना भी सीख लिया.
सुबह में स्काटिश चर्च कालेज में जिसप्रकार organ बजा कर Christian prayer गाया करता, शाम के समय उसी प्रकार organ पर ही लक्ष्मीकान्त मन्दिर में भी प्रतिदिन एक घन्टा तक संस्कृत स्त्रोत्र गाया करता था. बीच बीच में बाधाएँ भी आती थीं. एकदिन बहुत तेज बारिश हो रही थी. सड़क पर एक भी आदमी नहीं, कहीं कोई दिखाई नहीं दे रहा था. मन्दिर के पुजारी तथा अन्य जितने कर्मचारी-भक्त गण आदि थे, सभी मुझेसे स्नेह करते थे.
आपस में सभी कह रहे थे कि आज का मौसम इतना ख़राब है कि नवनी आज आने नहीं सकेंगे. किन्तु उन्होंने (डाक्टर ने) कहा, ' नवनी नहीं आयेगा ? ' " चाहे मौसम जितना भी ख़राब क्यों न हो, वो जरुर आयेगा. " उतनी तेज बारिश में भी एक छाता लगा कर जब भींगता हुआ हाजिर हुआ- तब उन्होंने कहा, " देखते हो, मैंने कहा था न वो आयेगा ! " जिस कार्य को मन में एकबार ठान लिया, उसे तो करना ही है ! उसमे कोई भी प्राकृतिक य़ा सामाजिक विपदा कभी भी बाधक नहीं बन सकती है! इस प्रकार सुबह-शाम ये दोनों (psalm य़ा ईसाई स्तुति और संस्कृत श्लोक पाठ ) कार्य निर्बाध रूप से बहुत दिनों तक चला था.
तत्पश्चात जहाँ नौकरी करता था, वहाँ के एक सहकर्मी से धीरे धीरे परिचय बढ़ा तो हठात एक दिन उन्होंने मुझसे कहा- " मैं शाम को एक जगह जाऊंगा, मेरे साथ चलेंगे ? " मैंने पूछा, कहाँ जाना होगा? वे बोले- " वेदान्त मठ ". मैं ने पूछा " वेदान्त मठ कहाँ पर है? " उन्होंने बताया कि " वेदान्त मठ हाथीबगान के पास है, मैं वहाँ जाया करता हूँ." मैंने फिर पूछा, " वहाँ पर क्या है? " इस आश्रम की स्थापना स्वामी विवेकानन्द के एक गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द ने की है, आज वहाँ उनकी जन्मतिथि मनाई जाएगी, मैं जाऊंगा, आप जाइएगा? " क्या मन में आया मैंने कह दिया " चलिए,मैं भी चलूँगा." गया.
आश्रम तक जाने का रास्ता बहुत संकरा है, एक बहुत पतली सी गली से होकर प्रवेश करना पड़ता है, और आश्रम का परिसर भी छोटा है. भीतर एक आँगन जिसमे सामने एवं एक किनारे का कमरा का छत टीना से छाया हुआ है. दूसरी तरफ रसोई घर, एक और कमरा, सामने खाली स्थान है. और रास्ते के किनारे एक छोटा सा मन्दिर, जिस पर छोटा सा गुम्बद बना है. उसके सामने थोड़ा खाली स्थान है. मन्दिर को देख कर लोग रास्ते में खड़े खड़े ही प्रणाम कर लेते हैं. फ्रांक डोराक (Frank Dvorak य़ा फ्रैंक डोरा ) ने भगवान श्री रामकृष्ण देव का जो चित्र बनाया था उसके बारे में बहुतों को पता है, य़ा जो लोग उसके ऊपर चर्चा करते हैं, वे सभी जानते हैं कि उस चित्र को उन्होंने किस प्रकार बनाया था. फ्रैंक डोराक के लिये श्री रामकृष्ण का नाम भी सुन पाना संभव नहीं था, और न उन्होंने वह नाम कभी सुना भी था. वे एक आर्टिस्ट थे और अपनी कला के लिये बहुत विख्यात थे.एक दिन उनको अनायास ही एक दर्शन होता है. मानो वे एक मूर्ति को बिल्कुल स्पष्ट ही देख रहे हों ! फ्रांक डोराक ने अपनी कल्पना में( श्री रामकृष्ण को बिना देखे य़ा जाने ) जिस मूर्ति को स्पष्ट रूप में देखा था, उसी का चित्र बना कर रख लिया. तब उनको पता भी नहीं था कि वह किनका चित्र है. उसके कुछ दिनों बाद उनके स्टूडियो में लगे उस चित्र को कुछ लोगों ने देख कर आविष्कार किया कि वह चित्र तो श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का है! (फ्रैंक डोराक भी १९०९ में स्वामी अभेदानन्द से मिलने के लिये वेदान्त मठ गये थे.)
स्वामी विवेकानन्द जब इंगलैंड में अकेले ही श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार कर रहे थे, तो उन्हें लगा कि इस कार्य के लिये कुछ दूसरे गुरु भाइयों को भी लगाना अनिवार्य है- तब उन्होंने स्वामी अभेदानन्द को बुलवा लिया. स्वामी विवेकानन्द तो फिर भी बी.ए. तक पास थे, किन्तु अभेदानन्द जी केवल एंट्रेन्स पास किये थे.वे उन्हें ही इंगलैंड में कार्य करने योग्य समझे और बुलवा लिये.अभेदानन्द गये.
जिस स्थान पर पहुँच कर विवेकानन्द को व्याख्यान देना था, वहाँ जाकर विवेकानन्द ने घोषणा कर दिया कि - " भारत से मेरा एक भाई आया है, आज आप लोगों के समक्ष वही भाषण देगा. और वे इंगलैंड जाकर पहली बार " पञ्चदशी " के ऊपर व्याख्यान दिये थे; (यह बोलते हुए आँखें भर आतीं हैं कि ) एक एंट्रेन्स पास लड़का England में जाकर इंग्लिश भाषा में " पञ्चदशी " के ऊपर भाषण दे सकता है !
और भाषण कि समाप्ति के बाद
स्वामी विवेकानन्द ने अभेदानन्द को स्पष्ट कर दिया था कि - " When I will
not be there, the world will listen my voice through these dear lips." -
अर्थात जब मैं इस शरीर में न रहूँगा, तो मेरे इन्हीं प्रिय होठों से जगत
मेरी वाणी को सुनेगा. और सचमुच उसके बाद स्वामी अभेदानन्द २५ वर्षों तक
पूरे अमेरिका में वेदान्त आदि विषयों पर इतना सारगर्भित भाषण करने लगे कि -
रामकृष्ण मठ मिशन के नये नये केन्द्र स्थापित होने लगे.
उन्हीं के जन्मोत्सव में भाग लेने के लिये मैं वेदान्त मठ गया था. उस दिन जन्मोत्सव था इसलिए बहुत से लोग पहुँचे हुए थे, जो मुझे वहाँ अपने संग ले गये थे वे उसी पतली गली से होते हुए नजदीक वाली जो सीढ़ी है उससे ऊपर चढ़ कर एक पतले बरामदे से होकर एक कमरे में ले गये. कमरा अत्यन्त छोटा पर थोड़ा लम्बा था. उस कमरे के दोनों ओर दो पतली-पतली चटाईयाँ (मादुर - जिस पर बैठने से गर्मी नहीं लगती) बिछी हुई थीं.उसी चटाई पर कुछ भक्त लोग बैठे हुए हैं एवं कमरे के पिछले हिस्से में किसी टेबल-चेयर पर नहीं, बल्कि जमीन पर ही एक चटाई बिछी है जिसके सामने एक लकड़ी का डेस्क रखा था, वहीं पर एक साधु बैठे हुए थे(.भारी सुन्दर हांसी हांसी मुखटी.)उनके अति सुन्दर हँसमुख चेहरे पर मुस्कान खेल रही थी. उनका सिर मुड़ा हुआ नहीं था, सिर के बाल कुछ बढ़े हुए थे.उनके गले में किसी ने एक सुन्दर सी माला पहना दी थी, वह माला गले में झूल रही थी.
जो सज्जन मुझे ले गये थे उन्होंने उनको प्रणाम किया, मैं भी उनके पीछे पीछे चलकर उनके चरण-स्पर्श किये. प्रणाम करके जैसे ही मैंने सिर उठा कर उनकी ओर देखा, वे बोले- ( ओह कितनी सुन्दर उनकी हँसी थी, उनकी उस हँसी को देख कर श्रीरामकृष्ण देव के हँसी की बात तब मुझे बहुत याद आ रही थी. कैसा अद्भुत एक दिव्य हँसमुख चेहरा दिखाई दिया!) तुम्हारा नाम क्या है ? मैंने कहा- नवनिहरण मुखोपाध्याय. उन्होंने कहा - ' वाह, कोथाय थाको '- वाह बहुत बढ़िया, रहते कहाँ हो? 'मैंने कहा- ' खड़दह में '.
इतनी संक्षिप्त वार्तालाप के बाद हमलोग नीचे उतर आते हैं. उस दिन उत्सव था, स्वामी अभेदानन्द का जन्मदिन मनाया जा रहा था. सबसे पहले एक भजन-गान हुआ. उस गाने को सुन कर ऐसा लगा कि इतना सुन्दर भजन मैंने कभी और सुना हो, ऐसा याद नहीं पड़ रहा था. अति सुन्दर गाना था. मैं जिनके साथ गया था उनसे ही पूछा- यह भजन कौन गा रहे हैं?' उन्होंने कहा, " यह भजन जिन्होंने सुनाया उनका नाम है- वीरेश्वर चक्रवर्ती.वे एक रेडियो आर्टिस्ट हैं."
यह सुनकर मैं उनसे और कुछ विशेष नहीं पूछा, किन्तु मन ही मन सोचने लगा, रेडिओ आर्टिस्ट तो कई हैं, रेडिओ पर संगीत तो कितने ही लोग सुना करते हैं, कुछ गीत-संगीत मैंने भी सुना है; किन्तु ऐसा गाना तो मैंने कभी नहीं सुना है. मन में विचार उठा उनसे थोड़ा परिचय होने से अच्छा है. जो हो, उत्सव समाप्त होने पर लौट आया. कुछ दिनों बाद मेरे वही सज्जन-सहकर्मी ने मुझसे एक दिन कहा कि,महाराज, याने वेदान्त मठ के तात्कालिक प्रेसिडेन्ट स्वामी सदात्मानन्दजी, (जो स्वयं स्वामी अभेदानन्द के शिष्य थे और स्वामी अभेदानन्द के बाद वेदान्त मठ के प्रेसिडेन्ट हुए थे तथा अपना शरीर त्याग करने तक, ४० वर्षों तक, लगातार वे ही वेदान्त मठ के प्रेसिडेन्ट थे.) मुझसे कह रहे थे कि " उस दिन जो नवनी नामका लड़का आया था, वह उस दिन कब गया? जाने के समय तो मुझ से भेंट करने नहीं आया."
जैसे ही मेरे सहकर्मी ने यह कहा, मैं समझ गया कि यह तो वास्तव में एक बहुत बड़ी भूल हो गयी है. हाँ आते समय तो सचमुच उनको बोले बिना ही चला आया था. याद ही नहीं रहा, उसका कारण यह था कि, बहुत से लोग उस दिन उनको प्रणाम करने बहुत से लोग गये थे, कई भक्त लोग भी गये थे, मैं उस दिन के पहले कभी नहीं गया था.
जब गया तो उनके निकट जा कर प्रणाम कर लिया, किन्तु लौटने के समय भी कह कर आना चाहिये, यह बात ध्यान में नहीं आयी. तब चाहे जो भी हो यह एक भूल तो मुझसे अवश्य हो चुकी थी. उनसे बोल कर आना ही उचित था.मैंने कहा ,और एक दिन चलिए न, मैं भी जाऊंगा.बाद में एक दिन फिर वहाँ गया और महाराज जी को बोला कि, " उस दिन सचमुच मुझसे भूल हो गयी थी, मैं उस समय (अपने कर्तव्य को ) ठीक से समझ नही सका."
वे बोले " हाँ, मान लो कि तुम किसी घर में गये हो,वह व्यक्ति तुम्हारा परिचित है; तब तो वह तुम्हारी आव-भगत करेगा ही. तुमको देखते ही कहेगा - ' आइये आइये, पधारिये- कैसे आये? कृपया आसान ग्रहण कीजिये.' उसके बाद जब तुम बात-चीत करके वहाँ से लौटने लगोगे तो निश्चय ही उनको कहोगे-
' ठीक है, तो अब हम चलते हैं,फिर मिलते हैं. '- कुछ न कुछ कहने के बाद ही तो वहाँ से विदा लोगे !"
कहने के बाद वे भी हँसने लगे, और हमलोग भी हँसने लगे.
मैंने देखा कि ये तो बड़े ही अद्भुत व्यक्ति हैं ! पहली ही मुलाकात में इन्होंने मुझे प्रेम के बन्धन में बांध लिया था. बहुत दिन बीत जाने पर,वहाँ से जो ' विश्ववाणी ' नामक पत्रिका निकलती है, धीरे-धीरे उसका कार्य भार मुझे देने लगे. धीरे-धीरे उस पत्रिका पूरा कार्य भार, जैसे प्रबन्ध आदि का चयन,एडिट का काम,प्रूफ आदि देखना भी मैंने ही संभाल लिया.
एक दिन बोले- " नवनी, तुम स्वामी विवेकानन्द के ऊपर एक प्रबन्ध लिखो, उसको ' विश्ववाणी ' में प्रकाशित किया जायेगा." मैंने कहा, महाराज मैं क्या प्रबन्ध लिखूंगा? मैं स्वामीजी के सम्बन्ध में क्या जानता हूँ? मैंने तो जीवन में कभी प्रबन्ध नहीं लिखा है. उन्होंने कहा, " मैं कहता हूँ,तो लिखो न ".
मैं घर लौट आया.घर लौटने में प्रायः रात्रि के १० तो बज ही जाते थे.खाना-पीना करके कागज-कलम लेकर बैठा, और सामने स्वामीजी कि एक चित्र की तरफ देखते हुए बोला- ' स्वामीजी देखिये, चन्डी महाराज (स्वामी सदात्मानन्दजी ) आप के ऊपर एक एक प्रबन्ध लिखने के लिये कह रहे हैं, किन्तु मैं तो आपके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानता, अब क्या करूँ ?
बहुत रात बीत जाने तक भी बैठे बैठे दो य़ा तीन पन्ने का एक प्रबन्ध लिख लिया.उसी दिन, जीवन में पहली बार मैंने स्वामीजी के ऊपर कुछ लिखने की चेष्टा की थी. अगले दिन उस प्रबन्ध को लेकर उनके पास गया, थोड़ी देर तक उसका अवलोकन काने बाद उन्हों ने कहा- " वाह बहुत अच्छा हुआ है. इस लेख को 'विश्ववाणी' के अगले अंक में प्रकाशित कर देना "
उस समय वेदान्त मठ के सेक्रेटरी थे- स्वामी प्रज्ञानन्दजी ( Swami Prajnanandji ) , साथ ही साथ उनके साथ भी बातचीत हुई. कुछ लोग स्वामी प्रज्ञानन्द जी को और भी एक दूसरे कारण से जानते थे.
क्योंकि वे संगीत के विषय में प्रसिद्ध ज्ञानी व्यक्ति - ' Musicologist ' थे. वे संगीत के परीक्षक थे, गीत-संगीत के ऊपर उन्होंने कई प्रबन्ध लिखे थे. Encyclopaedia Britanica में जिस विषय की जानकारी दी जाति है
उसे उस विषय में पृथ्वी पर जो श्रेष्ठ विशेषज्ञ होते हैं उन्ही से लिखवाई जाति है, उसमे उनके द्वारा लिखित ' एशिया के संगीत ' विषय पर एक प्रबन्ध है. एवं भारतवर्ष में सभी लोग उनको संगीत जगत के विशिष्ठ पण्डित के रूप में जानते हैं.
अन्य विषयों के अतिरिक्त संगीत के ऊपर उनके द्वारा लिखित कई तात्विक पुस्तकें हैं. संगीत के विषय को लेकर संगीत के जितने भी तत्व हैं, वैदिक संगीत से प्रारम्भ करते हुए भारत में जितनी भी संगीत की धाराएँ प्रवाहित हुई हैं, विकसित और उन्नत हुई हैं, उनके सम्बन्ध उनके द्वारा दी गयी जानकारी सर्वाधिक प्रणिधान योग्य हैं.
उनके साथ भी परिचय हुआ.वे भी मुझसे बहुत स्नेह करने लगे. मुझ पर उनका ऐसा स्नेह था, जो मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता. इसी बीच में यह कहना, बचपना जैसा लगेगा य़ा नहीं जानता, पर वे मेरे साथ मुढ़ी और तेलभाजा (बैगन का पकौड़ा) एक ही थाली में रख कर खाते थे.उनके साथ बैठ कर एक ही थाली में मुढ़ी-तेलभाजा कई बार खाया हूँ.
Swami Prajnananda:
A HISTORY OF INDIAN MUSIC (ANCIENT PERIOD) (Vol. 1) | |||
The present volume is an attempt to trace out,first,the historical evolution of the musical materials like microtones, tones, murchhanas, ragas, scales, gitis, prabandhas, veena, venu and mridanga,dances and hand poses, rhythm and tempo as well as the philosophical concepts that are essential for the study of history of Indian music; secondly, the chronological accounts of history of music of India in different ways in different periods, including development of music in Bengal and South India.
Medium Octavo, pages (XX)210. Price : Rs. 120.00 | |||
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