जब मैं बच्चा था तो पितामह मुझे बहुत से क़िस्से- कहानियाँ सुनाया करते थे, उन कहानियों को सुनकर कभी कभी मन में उनपर अविश्वास भी उत्पन्न होता था। सोचता था, क्या ये सभी कहानियाँ सच्ची हैं ? उनमें से एक कहानी है --
कृष्णनगर राजा के राज्य में एक अत्यन्त ही धार्मिक परिवार था। उसमें दो भाई अपने -अपने परिवार के साथ रहते थे तथा दोनों ही भले व्यक्ति थे। दोनों ईश्वर के बड़े भक्त थे तथा अपने-अपने इष्टदेव की पूजा अपने-अपने मन्दिरों में किया करते थे। उनमे से एक भाई वैष्णव था तो दूसरा भाई शाक्त था।
पहले के ज़माने में घर बनाने की एक शैली यह थी कि मुख्य प्रवेश द्वार से प्रवेश करते ही बीच में आंगन पड़ता था तथा दोनों और कमरे रहते थे। उसी प्रकार का घर इन दोनों भाइयों का भी था। एक भाई के घर में काली प्रतिष्ठित थीं तो दूसरे के घर में गोपाल प्रतिष्ठित थे।
संयोग से उनके आँगन में एक आम का एक पौधा उग आया, जब वह थोड़ा बड़ा हो गया उसमे ढेर सारे मंजर लगे। किन्तु, सारे के सारे मंजर झड़ गए केवल एक ही आम का टिकोला बचा। धीरे-धीरे वह टिकोला बड़ा होने लगा। प्रतिदिन सुबह दोनों भाई देखा करते थे कि आम कितना बड़ा हुआ। इधर , बड़ा भाई सोचता है जब आम बड़ा हो जायेगा,पक जायेगा तो इसे तोड़ कर माँ को खिलाऊँगा। उधर छोटा भाई सोचता है कि इसे गोपाल को खिलाऊँगा।
रोज प्रातः काल उठने के बाद दोनों कि नजर आम पर ही रहती थी। एक दिन सुबह में उठ कर दोनों भाइयों ने देखा कि आम तो है ही नहीं। कहाँ गया आम ? क्या हुआ ? दोनों का मन खिन्न हो गया। बड़ा भाई पछताता कि माँ को नहीं खिला सका, छोटा सोचता गोपाल को न खिला सका। फिर काफी उधेड़-बुन के बाद दोनों एक दूसरे से पूछते हैं- क्या तूने आम को देखा है? फिर दोनों ही जवाब देते हैं नहीं, मैंने तो नहीं देखा।
तब बड़े भाई ने कहा चलो तो जरा पूजा के कमरे में चलकर देखते हैं। जब दोनों पूजा के कमरे में पहुँचते हैं तो वहाँ का दृश्य देखकर अवाक् रह जाते हैं ! माँ काली, स्वयं अपनी गोद में बिठाकर गोपाल को वह आम खिला रही हैं। अद्भुत घटना है। जब मैंने बचपन यह घटना सुनी तो लगा कि मुझे बहलाने के लिये पितामह ने यह मनगढ़न्त कहानी सुनाई होगी।
किन्तु बड़ा होने पर इसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन मैंने बंगला विश्वकोष में भी पढ़ा। पहले मेरे मन में संदेह होता था कि बड़े-बुजुर्ग तो अक्सर कथा कहानियाँ सुनाते ही रहते हैं। जैसे वे यह भी कहा करते थे कि प्रभु ईशा मसीह भारतवर्ष में आये थे। अब यह सच है या नहीं, प्रमाण के साथ नहीं कहा जा सकता। किन्तु उनके द्वारा कथित इस घटना का उल्लेख भी मैंने बाद कहीं न कहीं पढ़ा या सुना अवश्य ही है।
बहरहाल सच चाहे जो भी हो मेरे पितामह और उनके बड़े भाई अक्सर आपसी बातचीत के क्रम में कहते थे -" कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपालकालिका " - कलयुग में काली भी हैं, और गोपाल भी हैं, और फिर काली और गोपाल (श्रीकृष्ण) दोनों अभिन्न भी हैं।
पितामह के अग्रज (यतीश चन्द्र ) भी वैसे ही थे, वे भी संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे- उनको ' विद्यार्नव ' की उपाधि मिली हुई थी। एक दिन पितामह के मुख से यह श्लोक सुन कर उनके बड़े भाई कहते हैं, यहाँ 'गोपालकालीका' का प्रयोग उचित नहीं लगता, क्योंकि गोपाल और काली दो हैं, इसीलिये द्विवचन होगा तथा व्याकरण की दृष्टि से 'गोपाल कालिके ' होना चाहिए। इसपर छोटे भाई कहते हैं - नहीं, भैया वैसा क्यों होगा ? क्योंकि यहाँ पर तो गोपाल और काली भिन्न नहीं हैं इसलिए , यहाँ द्विवचन न होकर एकवचन का ही प्रयोग करना उचित होगा। ( " ना, ता हबे ना, दादा; गोपाल आर काली एखाने तो आलादा नन, काजेई द्विवचन ना हये एकवचनई भाल। ")
पितामह के अग्रज के दो पुत्र थे - उनमें बड़े थे देवदेव मुखोपाध्याय। वे ज्यूलॉजी में एम० एस०सि० थे एवं ज्यूलॉजिकल सर्वे अफ इंडिया के डॉयरेक्टर से ठीक निचले पद पर कार्यरत थे। और यह बात तय थी कि वर्तमान डॉयरेक्टर के रिटायर होने के बाद वे डॉयरेक्टर होंगे। किन्तु इसी बीच अल्प आयू में ही उनकी मृत्यू हो गई। पितामह के अग्रज ने जब यह देखा कि उनका पुत्र इतना सुप्रतिष्ठित जीवन जीते हुए , बीच में ही चल बसा तो पूजा के कमरे में जाकर माँ को प्रणाम किया तथा बोले- " माँ तुम जो भी करती हो कल्याण के लिये ही करती हो !" उनके छोटे पुत्र थे राजराज मुखोपाध्याय। वे एन्थ्रोपोलॉजी में एम० एस ० सि० थे एवं 'कलकाता म्यूजियम' के लाइब्रेरियन थे। वे भी अल्पायु में ही चल बसे।
एक भाई की दो पुत्रियाँ थीं। वे दोनों भी चल-बसीं। दूसरे भाई के दो पुत्र हुए। दोनों जीवित हैं। बड़े विभातकान्ति और छोटे रजतकान्ति। बड़े पुत्र रेलवे में थे तथा छोटे पुत्र शिक्षक थे, दोनों रिटायर हो गये हैं। इनलोगों का पूरा जीवन ही भिन्न प्रकार का था, ये सम्पूर्णतया अलग किस्म के लोग थे। जिस दिन ज्येष्ठ पितामह के छोटे पुत्र का देहान्त हुआ उसी दिन हमारे मुहल्ले के एक व्यक्ति यह सोंच कर हमारे घर पर आये कि बहुत दिनों से इनलोगों का हाल-चाल नहीं लिया है, जाकर मिलना चाहिये। उन दिनों वे लोग कोलकाता में रहते थे, वे हमारे सम्बन्धी भी थे।
घर के समीप पहुँच कर देखते हैं कि ज्येष्ठ पितामह घर के सामने वाले बरामदे में टहल रहे हैं। वे उनको देखते ही बरामदे से नीचे उतर आये तथा बाहों में भर कर पूछने लगे - " क्या समाचार है, कैसे हो ? बहुत दिनों से आये नहीं ? इत्यादि। तब वे सम्बन्धी बोले कि उनको यह समाचार मिला था कि यहाँ आपकी तबियत खराब है, इसलिए मिलने चला आया। इतने दिनों तक नहीं आने के कारण बहुत बुरा भी लग रहा था। वैसे घर के अन्य लोग कहाँ गये हैं, कोई दिखाई नहीं दे रहा हैं ? इसपर ज्येष्ठ पितामह ने कहा - " और लोग घर में नहीं हैं, वे श्मशान घाट गये हैं, थोड़ी ही देर में वापस आ जायेंगे। चलो, तुम ऊपर चलकर बैठो। "
जब मेरी माँ का देहान्त हुआ था और उन्हें अर्थी पर सुलाकर श्मशान ले जाने की तैयारी चल रही थी, उसी समय पिताजी ने मेरे निकट आकर कहा," थोड़ा रुको, ऐसा कहकर वे पितामह द्वारा बंगला में अनुवादित थोमस ग्रे की 'एलिजी' (Elegy अर्थात मरसिया) की पाण्डुलिपि निकाल लाये थे तथा उसकी पंक्तियों की आवृत्ति करने लगे ---
" अभिजात्य अभिमान दर्प क्षमतार
सौन्दर्य वैभवजात गर्व-मान हाय
अनिवार्य चिताधूमे डालि दिते हबे क्रमे,
अद्य नय कल्यमात्र वस्तु अपेक्षार -
गौरवेर पथ शेषे श्मशाने फुराय। "
The boast of heraldry, the pomp of power,
And all that beauty, all that wealth e'er gave,
Awaits alike th' inevitable hour:-
The paths of glory lead but to the grave.
And all that beauty, all that wealth e'er gave,
Awaits alike th' inevitable hour:-
The paths of glory lead but to the grave.
(The seeming glories of the rich are really not all that important because they will all be lost in death. If society were to see each individual as what they are, then greatness would come from being, not possessions.)
["Elegy Written in a Country Churchyard" is the British writer Thomas Gray's most famous poem, first published in 1751. The poem's speaker calmly mulls over death while standing in a rural graveyard in the evening.
[ उपरोक्त पंक्तियाँ थोमस ग्रे (1716-71) द्वारा लिखित तथा 1751 में प्रकाशित पुस्तिका : ' Elegy Written in a Country Churchyard' (किसी गाँव के कब्रिस्तान में लिखा गया शोकगीत)से ली गयीं हैं। इस कविता के कवि संध्या के समय एक ग्रामीण कब्रिस्तान में खड़े होकर मृत्यु की अनिवार्यता पर शांति से विचार करते हैं। इसका बंगला अनुवाद आचार्य सिरीष चन्द्र मुखोपाध्याय (1873-1966) ने किया है; जिसको 2008 में महामण्डल प्रकाशन द्वारा पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया है।]
" आभिजात्य होने का अभिमान, शक्तिशाली होने का दर्प,
वैभव से जन्मी हुई सुन्दरता का गर्व,...मान- सब कुछ !
हाय! एक दिन क्रमशः इन सबको चिता की लपटों के बीच-
अनिवार्य रूप से जला देना होगा, हम सभी उस अपरिहार्य घड़ी की प्रतीक्षा में हैं -
अपने धन -वैभव -सौंदर्य पर गर्व करने का पथ-
श्मशान भूमि में पहुँचकर समाप्त हो जाता है। "
(माँ अर्थी पर सोई हैं और पिताजी बैठ कर 'एलजी' पढ़ रहे हैं) क्या इस दृश्य की कल्पना भी की जा सकती है? और माँ की मृत्यू भी एक अद्भुत घटना थी। मेरी काकी माँ अर्थात राजराज काका की धर्मपत्नी, जिनका नाम कमला था, कुछ ही दिन के बुखार के बाद चल-बसी थी। उनके जाने के बाद से ही माँ न जाने कैसी तो हो गयीं। काकी माँ के मृत्यु के बाद उनके खाट को हटा दिया गया था उसी स्थान पर माँ दरी बिछा कर रोज सुबह में स्नान करके गीता पढने के लिये बैठ जातीं थीं।
उनका लोगों के साथ बातचीत भी बहुत कम हो गया था। बंगला रीति के अनुसार तेरहवें दिन श्राद्धकर्म के पश्चात् ' नियम-भंग ' करने का पालन किया गया। सब लोगों को दोपहर का भोजन कराने के पश्चात् माँ भी खाने के लिये बैठीं। घर के सभी सदस्यों ने उस दिन माँ के पत्तल पर कुछ न कुछ परोस दिया। सामान्यतया ऐसा होता नहीं है। माँ खाना खाने के बाद छत पर जाकर पसारे हुए कपड़ों को समेट कर सभी के कमरे-कमरे में दे आयीं। उस दिन काकी माँ के खाट को फिर से बिछा दिया गया था। माँ, मुख में पान लेकर उसी खाट पर जा लेटीं, और बस वहीं उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई।
काकी माँ के प्रति माँ के प्रेम केवल उनकी मृत्यू के समय ही परिलक्षित हुआ हो -ऐसा नहीं था। उनके दैनिन्दन जीवन में भी वह प्रेम झलक ही जाता था। ब्राह्मण समाज में विधवाओं के लिये सिर के बाल बाँधने (चोटी बाँधने ) की रीति नहीं थी, इसलिये काकी माँ चोटी नहीं करतीं थी। बस इसी कारणवश माँ ने भी चोटी करना छोड़ दिया था कि कहीं काकी माँ को इससे दुःख न पहुँचे।
माँ की आयु काफी हो चुकी थी। एक दिन देखता हूँ कि घर से बाहर बगान में जो रसोई घर का ड्रेन (नाली) निकलता था , उसे वे बैठे -बैठे साफ कर रही हैं। मैंने उनको स्नेहवश थोड़ा फटकारते हुए कहा कि "आपको इस आयु में यह सब करने की क्या आवश्यकता थी, मुझे बुला लेतीं !" माँ ने हँसते- हँसते कहा -" देख, बाईरे ड्रेन पोरिष्कार कोरबी, आर भेतरे मन परिष्कार करबी। " - देखो बेटे, बाहर हमेशा ड्रेन को साफ रखना तथा अन्दर में मन को हमेशा साफ रखना !" मैं चुप हो गया, ठीक ही तो कह रहीं हैं- बाहर को भी गन्दा रखना उचित नहीं कहा जा सकता, और न भीतर को ही !
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१४.
' जीवन नदी के हर मोड़ पर '
(खेते खेते जल खावा भालो नय )
* श्रीरामकृष्ण वचनामृत का महत्व *
बचपन में खाना खाते समय बीच-बीच में एक-एक घूंट पानी पीने की आदत थी। एक दिन पिताजी ने टोकते हुए कहा -" खेते खेते जल खावा भालो नय ! " (खाना खाते समय बीच बीच में पानी पीते रहना ठीक नहीं !) उस दिन के बाद से आज 79 वें वर्ष में भी खाने के बीच कभी एक घूंट पानी नहीं पीता हूँ। खाते समय पानी पीने का विचार ही मन में नहीं आता। अब तो खाना खाने के बाद ही पानी पीने की आदत हो गयी है।
मैंने माँ एवं काकी माँ को कभी सड़क पर या बाजार में घूमते हुए नहीं देखा। यदा-कदा पितामह ही इन लोगों को गंगा स्नान कराने के लिये बग्घी से सुखचर के बिहारी पाईन के मन्दिर वाले घाट पर ले जाया करते थे। वहाँ स्त्रियों के लिये घाट पर एक अलग कमरा बना हुआ था। खड़दह में उस समय मात्र दो ही बग्घियाँ थीं। मुहम्मद और अहमद अली उसके कोचवान थे। जब कभी हमें अपने मामा लोगों के घर उत्तरपाड़ा या दक्षिणेश्वर जाना होता तो हमलोग उसी से जाया करते थे। यदि किसी मित्र या सम्बन्धी के यहाँ अथवा कुछ खरीदारी करने के लिये कोलकाता जाना होता तो एक भाड़े की मोटर गाड़ी मिल जाती थी। सारे दिन घूम-फिर कर वापस आने का किराया मात्र तीन या चार रूपये ही देना होता था। उस समय दस आने में एक गैलन पेट्रोल मिल जाता था।
माँ, एक दिन सुबह- सुबह मेरे कमरे में आईं और कहा - " हाँ रे, तोर एखाने चकचके बोई कि आछे दे ना रे आमाय, पड़बो। " (अरे सुन तो, तुम्हारे पास कोई सुनहली- चमकीली सी पुस्तक है क्या ? मुझे देना तो, पढूंगी।) मैंने कहा - " चकचके बई कि आबार ? " (अब यह चमकीली सी पुस्तक क्या है ?) माँ ने पुनः कहा " हाँ हाँ रे आमि देखेछि।" (हाँ, हाँ मैंने देखी है।)मैंने पूछा - " कोथाय देखले ? " (कहाँ देखी हो ?) उन्होंने जो उत्तर दिया उससे ऐसा लगा, मानो स्वप्न में उस पुस्तक को देखा हो। ' चकचके बई ' - माने सोनार जले लेखा ' कथामृत ' पाँचटा खण्ड एकटा ताके छिलो, अन्य बई-एर संगे ! ( चमकीली-पुस्तक, माने सोने के पानी से पाँच खण्डों में लिखी हुई पुस्तक 'श्रीश्रीरामकृष्ण कथामृत "(जिसका हिन्दी अनुवाद है श्रीरामकृष्ण वचनामृत) अन्य पुस्तकों के साथ किसी ताक पर रखी हुई थी ) मैंने कथामृत की ओर इशारा कर पूछा इन पुस्तकों के विषय में कह रही हो क्या ?
माँ ने कहा- " हाँ, हाँ यही तो ! दो ना मुझे ! " मैंने कहा- ' तुमको पढने के लिये दूंगा, पांचो दे दूंगा तो कहीं भुला तो न दोगी? माँ ने कहा "नहीं रे , भुला क्यों दूंगी, इन्हें बहुत संभाल कर रखूंगी और पढूंगी, तू दे तो सही। "मैंने कहा- ' पहले मैं तुमको एक खण्ड दूंगा। इस प्रकार एक-एक खण्ड करके पढ़ने के लिए दूंगा। 'मुझे अच्छी तरह याद है कि माँ ने कथामृत के पाँचो खण्ड (कुल 1280 पृष्ठों वाली सम्पूर्ण 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत' ) को तीन बार पूरी तरह से पढ़ा था। इन्हें तीन बार पढ़ने के बाद उन्होंने कहा- " आरउ किछू आछे, दे ना" ( और भी कुछ है तो दो न!) उसके बाद उन्होंने दो-चार किताबें और पढ़ी थीं। इसी बीच काकी माँ का देहान्त हो गया था। उनके देहान्त के पश्चात् देखा कि माँ कुछ दिनों तक सुबह में स्नान करने के पश्चात् थोड़ी देर तक बैठ कर गीता पढ़ती थीं। यह सब सोंच कर बड़ा आश्चर्य होता है !
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१५.
जीवन नदी के हर मोड़ पर
*मेरे पिताजी *
पिताजी हमेशा फिटफाट रहते थे। उन दिनों, अंग्रेजी वेशभूषा अपनाने का प्रचलन हो चुका था पिताजी डॉक्टरी करते थे। होमिओपैथिक डॉक्टर थे, तथा डॉक्टरी की पढ़ाई में उन्हें गोल्ड मेडल भी प्राप्त हुआ थे। कोलकाता के बड़े बड़े डाक्टरों के साथ उनका घनिष्ठ परिचय था। वे कोलकाता होमिओपैथिक मेडिकल कॉलेज एवं एक और मेडिकल कॉलेज में पढाया करते थे।
उन दिनों की एक घटना है , जब पिताजी 'Organon' (आन्वीक्षिकी) पढ़ाया करते थे, एवं All India Homoeopathic Practitioner's Association के सदस्य थे। उनलोगों का प्रतिवर्ष एक कान्फ्रेन्स होता था, वे भी उसमें भाग लेने जाया करते थे। उसमे उन्होंने अपना एक Thesis भी दिया था, शीर्षक था- ' Hahneman the Messahya of Medicine.' उस समय तक होमिओपैथ को सरकारी मान्यता नहीं मिली थी। इस Association ने उनको M.D. की उपाधि प्रदान की थी। बाबूजी भी घर में कभी कभी शेक्सपीयर के किसी नाटक का पूरा का पूरा दृश्य ही बोल जाते थे। घर में यही सब देखता था।
पिताजी ने जिस इस जगत से अंतिम प्रयाण किया, उस दिन उनको साधारण बुखार ही हुआ था। शाम को उन्होंने मुझे बुलाया और कहा- जीभ बहुत सूख रहा है, थोड़ा मधु है ? मैंने कहा- ' हाँ है।' फिर उन्हें एक चम्मच मधु दिया। वे बोले अच्छा लगा, थोड़ा और दो। फिर बोले- " एक डोज उषूध दाउ तो " ( एक खुराक दवा तो दो)। मैंने पूछा - ' कि उषूध देबो ? ' (कौन सी दवा दूँ?) उन्होंने कहा- ' Antim Trat ' (पिताजी अक्सर कहते थे ' Antim Trat ' को कहा जाता है- ' अन्तिम त्राण'।) एक खुराक दे दिया, उसके थोड़ी ही देर बाद वे उठ बैठे।
वे जहाँ बैठे थे, उसके बाद वाले कमरे के बाद ही है पूजा का कमरा। उसी पूजा के कमरे में पिताजी की दादी ने माँ काली की मूर्ति को प्रतिस्थापित किया था। और हमारे घर में जो तालाब है, उस तालाब की ओर जाने वाले रास्ते में बेल का पेड़ है। उसके नीचे उन्होंने शिव की भी प्रतिष्ठा की थीं। बल्कि वह तालाब भी उनके द्वारा ही बनवाया गया है। तालाब को खुदवाने के बाद उसके तली में उन्होंने एक लाख तुलसी का पौधा रोपवाया था। वे कहतीं थीं - " ऐ पूकूर जानबी गंगा। " ( इस तालाब को तुम लोग गंगा समझना।)
एक समय में सचमुच खड़दह के सरणी (Canal) से बहते हुए गंगा का जल ट्रंक रोड और मुहल्ले के रास्ते के किनारे से होते हुए हमलोगों के तालाब में गिरता था। यह मैंने देखा है। जहाँ बाबूजी बैठे थे वहाँ से वह तालाब और पूजा का कमरा बिल्कुल स्पष्ट दिखाई पड़ता था, दो कमरों के बाद ही तो था। वहीं बिस्तर पर बैठे- बैठे मेरे हाँथ से ' Antim Trat ' - दो बार खाए। उस समय तक परिवार के शेष लोग भी आ गये थे। उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। मैं उनके निकट गया। फिर मेरी बाँहों में उन्होंने शरीर त्याग दिया।
हमारे घर में जो पूजा का कमरा है, उसमे माँ काली के साथ लक्ष्मी, नारायण, अन्नपूर्णा - की छोटी छोटी मूर्तियाँ हैं, वहीँ पर गोपाल की भी दो मूर्तियाँ हैं। उनमे से गोपाल की एक मूर्ति को एक सन्यासी हमेशा अपने गले में कपड़े से बाँध कर लटकाय रहते थे। फिर सम्पूर्ण भारत वर्ष के तीर्थों का भ्रमण करते हुए उन्होंने काशीपुर आकर मेरी पितामही (महिमाचरण जी, की पुत्री थीं) को वह मूर्ति दे दी थी। वही गोपाल की मूर्ति हमलोग के पूजा घर में आज भी प्रतिष्ठित है।
हमारे यहाँ य़ा दक्षिणेश्वर में सभी जगह वर्ष में तीन बार विशेष काली पूजा का अनुष्ठान होता है। ज्येष्ठ महीने में जो विशेष पूजा होती है, उसको ' फलहारिणी काली पूजा' कहते हैं। कार्तिक महीने में जो पूजा होती है, उसे ' दीपान्विता काली पूजा' कहते हैं, जिसमे आलोक सज्जा (दीपक आदि का प्रकाश) की जाती है, तथा हमारे घर में माघ के महीने में बहुत दिनों से ' रटन्ति काली पूजा' होती आ रही है। इस पूजा को पहले ज्येष्ठ पितामह करते थे, फिर पितामह ने किया। उसके बाद जब पितामह की आयु बहुत अधिक हो गयी तो यह पूजा मुझे करनी पड़ी।
एक दिन जब मैं पूजा के कमरे में से पूजा समाप्त करके पितामह के कमरे में आया, तो उन्होंने कहा- " उखान थेके पाँजीटा दाउ तो " ( वहाँ से जरा पञ्चांग देना तो।) फिर उन्होंने कहा कि तुम तिथि पढ़ते जाओ। एक विशेष जगह पर अचानक उन्होंने कहा, " आर पड़ते हबे ना। " (अब और पढने की जरुरत नहीं है।) और ठीक उसी तिथी को, जिस तिथि पर उन्होंने रुकने के लिए कहा था , अपने शरीर का त्याग कर दिया! श्रीरामकृष्ण के जीवन में भी ठीक ऐसा ही घटित हुआ था !
तिथि का निर्धारण करने के बाद पितामह ने कहा था -" उखान थेके कालीपूजा पद्धतिटा दाउ। " ( वहाँ से कालीपूजा की पद्धति वाली पुस्तक तो दो) मैंने दे दिया। अपने
हाँथ में लेते ही मेरे हाथ में दे कर बोले- " उटा तोमार काछे राखो, एखाने
आर लागबे ना।" उसी समय से विशेष पूजा का दायित्व भी मेरे ऊपर आ गया।
[জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে -২২-২৬]
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* Ratanti Kali Puja *
यह विशेष तौर पर भारत के पूर्वी हिस्सों में मनाई जाती है। यह पूजा हर वर्ष देवी शक्ति उपासकों द्वारा माघ माह की चतुर्दशी तिथि को की जाती है। इस दिन देवी काली को दयालु माता के रूप में पूजा जाता है। रटन्ती का अर्थ है प्रिय। यह दिव्य भक्तों (स्त्रियों के प्रति सन्तान भाव, वीर भाव रखने वाले भक्तों) के लिए एक विशेष अवसर माना जाता है। बंगाल में लोग दक्षिणेश्वर काली मंदिर में रटन्ती काली मां की पूजा करते हैं।
*प्रार्थना और पूजा में अंतर *
- 'पूजा' उन क्रियाओं (भौतिक प्रयोगों) का नाम है जो प्रिय (रटन्ती या जिसकी पूजा हो रही है) के गुणों को अपने अन्दर जागृत करने के लिए किया जाता है। इसमें अनंत प्रकार के कर्म हो सकते हैं।
- 'प्रार्थना' प्रिय ( रटन्ती - जिसकी प्रार्थना हो रही है) के गुणों को अपने अन्दर जागृत करने की इच्छा प्रकट करती हुयी एक शाब्दिक- वाचिक- मानसिक प्रक्रिया है।
इस प्रकार से पूजा में प्रार्थना सदैव सम्मिलित रहती है, पर प्रार्थना में पूजा नहीं भी हो सकती है।
*ईश्वर और अन्य देवी-देवता *
ईष्ट एक होना चाहिए दूसरा नहीं। ईश्वर ही परमश्रेष्ठ परमेश्वर -पुरुषोत्तम है जिसे 'ब्रह्म' कहा गया है, और उसे ही ईष्ट कहा गया है। गायत्री मंत्र उसी की प्रार्थना के लिए है। इसके अलावा किसी भी एक देवता या देवी को चुन सकते हैं और जीवन पर्यंत तक उसी पर कायम रहें। उक्त देवी, देवता या गुरु के माध्यम से परमेश्वर की आराधना करें।
(अर्थात " श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make" के माध्यम से अपने गुरुदेव से अपने ईष्टदेव का नाम प्राप्त करके ,'पुरुषोत्तम के अवतार वरिष्ठ' श्रीरामकृष्ण की आराधना करें ! )
*"यम -नियम" का पालन और "प्रत्याहार -धारणा" का अभ्यास*
वेद कहते हैं कि यम-नियम का पालन करना ही धर्म है और मनःसंयोग का अभ्यास ही सफलता का सूत्र है। यम-नियम पर (24 X 7) कायम रहना और सुबह-शाम दो बार मनःसंयोग का अभ्यास करते रहने से सभी तरह के सुखों की प्राप्ती तो होती ही है; साथ ही मनचाही सफलता भी मिलती है। भाग्य भी कर्मवादियों का साथ देता है। कर्म सधता है सतत अभ्यास से।
*पुत्री को अपने पिता का गोत्र क्यों प्राप्त नहीं होता *
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आइये वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें... हम आप सब जानते हैं कि स्त्री में गुणसूत्र xx और पुरुष में xy गुणसूत्र होते हैं।
इनकी सन्तति में माना कि पुत्र हुआ (xy गुणसूत्र) अर्थात इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से ही आया यह तो निश्चित ही है क्योंकि माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही है !
और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) यानी यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते हैं ।
अब तक हम यह समझ चुके है कि वैदिक गोत्र प्रणाली y गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है ।
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विद्यमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल हैं ।
चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है ।
विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात मानसिक विकलांगता , अपंगता , गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं । शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था ।
एक बात और , माता पिता यदि कन्यादान करते हैं , तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई 'वस्तु' समकक्ष समझते हैं।
बल्कि इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिये, उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये । डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही , इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है।
सिंदूर-दान से पूर्व ही पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है । तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी , वर्णसंकर नहीं करेगी। क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है । यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है ।
यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है जो एक पत्नी द्वारा पति को दान किया जाता है ।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अलावा यह संस्कारगत शुचिता किसी अन्य सभ्यता में दृश्य ही नहीं है।
{साभार:GyanSarovarज्ञानसरोवर/ https://www.facebook.com/GyanSarover.Champawat/posts/427532480634258/}
महामण्डल कर्मियों के लिए दक्षिणेश्वर की माँ भवतारिणी के मन्दिर को इतिहास पढ़ना भी आवश्यक है।
Sri Sri Jagadiswari Mahakali
Goddess Kali has always enjoyed a significant presence in our culture. She appears in various forms as an embodiment of Shakti, the eternal energy and cosmic power. She is also believed to be the eternal cosmic strength that destroys all existence. Her facial expressions depict the extent of her powers of destruction. The heads she holds in her hand instantly arouses mortal-fear in everybody and her protruding tongue symbolizes the mockery of human ignorance.
The purpose is not to glorify death but to overcome the I-am-the-body idea. The cremation grounds reinforce the idea that the body is a temporary.
Kali and Shiva are said to dwell in these places because it is our attachment to the body that gives rise to the ego. Kali and Shiva give liberation by dissolving the illusion of the ego.Thus we are the ever-existing I AM and not the impermanent body.
This is emphasized by the scene in the cremation grounds. Out of all the Devi forms, Kali is the most compassionate because She provides moksha or liberation to Her children. She is the counterpart of Shiva. They are the destroyers of unreality.
When the ego sees Mother Kali it trembles with fear because the ego sees in Her its own eventual demise. An individual who is attached to his/her ego will not be able to receive the vision of Mother Kali and She will appear in a fear invoking or "wrathful" form.
A mature soul who engages in spiritual practice to remove the illusion of the ego sees Mother Kali as very sweet, affectionate, and overflowing with incomprehensible love for Her children.
A mature soul who engages in spiritual practice to remove the illusion of the ego sees Mother Kali as very sweet, affectionate, and overflowing with incomprehensible love for Her children.
Ma Kali wears a garland made of 52 skulls and a skirt made of dismembered arms because the ego comes out of identification with the body. In fact, we are beings of spirit and not flesh.
So liberation can only prevail when our attachment to the body comes to an end. Therefore, the skirt and garland are trophies worn by Her to represent the liberation of Her children from attachment to the finite body.
In two of Her hands, She holds a sword and a freshly severed head that is dripping blood. This represents a great battle in which she defeated the demon Raktabija.
Her black (or sometimes dark blue) skin represents the womb of the unmanifest from which all of creation is born and into which all of creation will eventually return.
Goddess Kali Ma is depicted as standing on a white skinned Shiva who is lying beneath Her. His white skin is in contrast to Her black or sometimes dark blue skin. He is showing a blissful detached look on His face. Shiva is pure formless awareness sat-chit-ananda (being-consciousness-bliss) while She represents "form" eternally sustained by the underpinning of pure awareness.
Kali Puja is mostly prevalent in West Bengal. Among the Bengalis. The Puja is held on the night of the New Moon in the Bengali month of Kartik, this occasion brings in a tidal wave of festive zeal amongst the various cross sections of society.
It is said that Maharaja Krishnan Chandra of Nawadweep gave an order that everyone, in his domain should worship Kali. Punishment was given to the defaulters. Thus more than 10,000 images of Kali began to be worshipped in his domain. Before the present Kali Puja, Ratanti Kali Puja was celebrated in ancient times.
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It is believed that the present form of the image of Kali, is due to a dream seen by Lord Chaitanya‘s contemporary Krishnananda Agambagish (a distinguished scholar of Indian charms, incantations black magic and voodoo - ‘Tantra‘), author of Tantric Saar, that he should make her image after the figure, he saw first in the morning.
The image should then be worshipped. At dawn Krishnanand saw a dark complexioned housing maid with left hand protruding and making cow dung cakes with her right hand.
Her body was shining with white dots. While wiping off the sweat from her forehead with left hand, the vermilion had been spread in her parted hair. The hair was disarranged.
Her unprecedented coming face-to-face with Krishnananda, an elderly, made her bit her tongue with shame. This posture of the housemaid gave vent to his imagination, which he later utilized to envisage the idol of Goddess Kali. Thus was formed the image of Kali.
The main puja starts at midnight and stretches till dawn. In the midst there are to ‘aarati‘. Ma Kali is worshipped amidst the bursting of crackers and display of fireworks.
It is said that the tradition of bursting crackers was a deliberate attempt to create a warlike, ambiance. The name of Ma Kali is synonymous with destruction.
The rituals required for worship Ma Kali are very plain and simple. Ma Kali is satisfied with the bare minimum with the bare minimum fruits and foods. Elaborate cooking or preparation is not needed to satisfy Ma Kali.
Some even offer ‘soma ras‘ or pure wine as a ‘bhog‘ to Ma Kali. The great spiritual leader Sri Sri Ramakrishna once said that Ma Kali is everyone‘s Goddess because she eats whatever we eat. This is perhaps the reason why Ma Kali is worshipped by a cross-section of the masses.
It is, probably, one of the oldest tantras, according to Woodroffe, who published the Sanskrit text with an English introduction in his Tantrik Texts series.
The cremation ground (shmashana) is also the supreme nadi or channel within the human organism - the sushumna -- The central channel of bio-energy within the spine of a human being, the royal road of Kundalini.
As a Mother, Kali was called Treasure-House of Compassion (karuna), Giver of Life to the World, the Life of all lives.
Despite the popular western belief that she is just a Goddess of destruction, she is the fount of every kind of love, which flows into the world through women, her agents on earth. Thus, it is said of a male worshipper of Kali, "bows down at the feet of women," regarding them as his rightful teachers.
For those who have grappled with their own ego, the personification of the demons in this story is striking. When the demons first glimpsed the Mother they charged. The darkness sees the light and does not comprehend it. The ego attacks that which it does not understand or that which threatens it.
The demon with the magical power of sprouting a new demon each time a drop of its blood reaches the ground is reminiscent of spiritual pride.
This is the power of the ego to inflate itself over "perceived" success in making spiritual progress.
Thus spiritual progress is next to impossible as long as spiritual pride keeps sprouting a new demon each time the ego is slashed by some spiritual insight or experience. The ego whispers in our ear, " See what a great spiritual aspirant you are."
Other demons changed form when threatened by the Devi. The ego shifts its position with astounding cunning by the power of rationalization. Mahishasura, the demon king, was intoxicated with his strength and valor and changed into a buffalo.
The ego is always consumed with self-importance. When he saw that he was not winning, he tried to fool the Mother with self-pity and claimed that Her many forms were an unfair advantage.
The Mother saw through the ploy and destroyed his self-pity with the Truth stating that there was only one Mother. The ego was destroyed and the soul found liberation in Her quick and deadly spear of compassion.
the Kali temple of Dakshineswar.
In those days there was no railway line between Calcutta and Banaras and it was more comfortable for rich persons to make the journey by boat rather than by road. We are told that the convoy of Rani Rasmani consisted of twenty four boats carrying relatives, servants, and supplies.
But the night before the pilgrimage began, the Divine Mother, in the form of the goddess Kali, intervened.She appeared to the Rani in a dream and said,
"There is not need to go to Banaras.
Install my statue in a beautiful temple
on the banks of the Ganges river
and arrange for my worship there.
Then I shall manifest myself in the image
and accept worship at that place."
Profoundly affected by the dream, the Rani immediately looked for and purchased land, and promptly began construction of the temple. The large temple complex, built between 1847 and 1855, had as its centerpiece a shrine of the goddess Kali, but also had temples dedicated to the deities Shiva and Radha-Krishna.
A scholarly and elderly sage was chosen as the head priest and the temple was consecrated in 1855. Within the year this priest died and his responsibility passed to his younger brother, Ramakrishna, who over the next thirty years would bring great fame to the Dakshineswar temple.
Ramakrishna did not serve for long as temple's head priest however. From the first days of his service in the shrine of the goddess Kali, he was filled with a rare form of the love of God known in Hinduism as maha-bhava.
Worshipping in front of the statue of Kali, Ramakrishna would be overcome with such ecstatic love for the deity that he would fall to the ground and, immersed in spiritual trance, lose all consciousness of the external world. These experiences of God-intoxication became so frequent that he was relieved of his duties as temple priest but allowed to continue living within the temple compound.
During the next twelve years Ramakrishna would journey ever deeper into this passionate and absolute love of the divine. His practice was to express such intense devotion to particular deities that they would physically manifest to him and then merge into his being.
The various forms of god and goddess such as Shiva, Kali, Radha-Krishna, Sita-Rama, Christ and Mohammed frequently appeared to him and his fame as an avatar, or divine incarnation, rapidly spread throughout India.
Ramakrishna fully realized the infinite and all-inclusive nature of the divine. He was a conduit for divinity into the human world and the presence of that divinity may still be clearly experienced at the Kali temple of Dakshineswar.
There are twelve most holy Sivalingas known as Jyotir-Lingas, the manifestations of Siva in the form of emblems representing light. In the Dakshineswar temple also, twelve temples of Siva have been constructed in a row by Rani Rasmani, who perhaps had in mind the twelve Jyotirlingas.
Sri Ramakrishna himself was a living Jyotirlinga of Siva as he was the embodiment of divine light which arose out of Jugi's Siva Temple of Kamarpukur. Thus it is no wonder that Thakur was much devoted to the twelve 'Jyotir Lingas' or Siva installed at Dakshineswar.
Sri Ramakrishna himself was a living Jyotirlinga of Siva as he was the embodiment of divine light which arose out of Jugi's Siva Temple of Kamarpukur. Thus it is no wonder that Thakur was much devoted to the twelve 'Jyotir Lingas' or Siva installed at Dakshineswar.
Sri Ramakrishna could not worship for long the twelve Sivalingas in the Dakshineswar temple which are called Yogeswar, Jatneswar, Jatileswar, Nakuleswar, Nakeswar, Nirjareswar, Nareswar, Nandiswar, Nageswar, Jagadiswar, Jaleswar and Yajneswar.
Among these twe1ve Sivas, Jagadiswar (literally, Lord of the world) seems to be especially important, as the real name of the Kali at the Dakshineswar temple is 'Sri Sri Jagadiswari Mahakali.'
Sri Ramakrishna himself was Jagadiswar-Siva who actually realised that the Jagad (world) itself is Iswara (Siva).
He said "One day while worshipping Siva I was about to place a betle- leaf on the head of the image, when it was revealed to me that this Virat, this Universe, itself is Siva.After that my worship of Siva through the image came to an end."
But he used to send his young disciples to the twelve Siva temples for meditation.
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