रविवार, 25 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (5) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

' विवेकानन्द - दर्शनम् '
५. 
 आज भी 'ऋषि'  अर्थात  ब्रह्मवेत्ता ' मनुष्य ' बना जा सकता है !
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )

[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.

इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 

Holy Mother of earth
  कोटि ब्रह्माण्ड नायिका माँ सारदा देवी

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।] 
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[ विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम् ] 
 ५.
ज्ञानभक्तिक्रियायोगैः राजयोगसमाश्रये । 
समं वै लभते ज्ञानमेकेनैवाधिकेन वा ॥ 

'By Work, or Worship, or Psychic control, or Philosophy - by one, or more, or all of these ' - the same knowledge is attainable. 


' कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों के सहारे '--एक ही 'ब्रह्म-ज्ञान' प्राप्त किया जा सकता है !

[ हमारे समस्त ज्ञान स्वानुभूति पर आधारित हैं। वैज्ञानिक तुमको किसी भी विषय पर विश्वास करने को नहीं कहेंगे। वे प्रत्येक व्यक्ति से यही कहेंगे " तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं, और तब उस पर विश्वास करो। " प्रत्येक निश्चित (अचूक) विज्ञान (Exact science) की एक सामान्य आधार-भूमि है और उससे जो सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं, इच्छा करने पर कोई भी उनका सत्यासत्य तत्काल समझ लेता है। अब प्रश्न है, कि धर्म के क्षेत्र में भी ऐसी कोई सामान्य आधार-भूमि है भी या नहीं ? 
कोई धर्म कहता है कि बादलों के उपर एक महान पुरुष है, वही सारे संसार का शासन करता है; और वक्ता महोदय बिना कोई प्रमाण दिये, मुझसे इसी सिद्धान्त में विश्वास करने को कहते हैं। उस अदृश्य सत्ता के लिये जिसकी शक्ति से यह विश्व-ब्रह्माण्ड संचालित हो रहा है, मेरे भी ऐसे अनेक भाव हो सकते हैं, जिन पर विश्वास करने करने की सीख मैं दूसरों को देता हूँ। किन्तु यदि कोई युक्ति-प्रमाण मांगता है, तब मैं भी निरुत्तर हो जाता हूँ। इसीलिये, आजकल धर्म और दर्शन-शास्त्रों की इतनी निन्दा सुनी जाती है। आजका प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति, यही समझता है कि ' संसार के विभिन्न धर्म कुछ बे- सिर-पैर की बातों के गट्ठर भर हैं, उनके सत्यासत्य सिद्धान्तों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है;  जिसके जी में जो आया, बस, वही बक गया है !' 
तुम यदि पृथ्वी के भिन्न भिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करो, तो तुमको ज्ञात हो जायगा कि वे दो श्रेणी में विभक्त हैं। कुछ धर्म शास्त्र पर आधारित हैं, और कुछ की शास्त्र-भित्ति नहीं है। जो शास्त्र-भित्ति पर स्थापित धर्म हैं, वे सुदृढ़ हैं और उनके मानने वालों की संख्या भी अधिक है। उक्त सभी सम्प्रदायों में यह मतैक्य दीख पड़ता है कि उनकी उनकी शिक्षा विशिष्ट व्यक्तियों (अवतारों या पैग़म्बरों) के प्रत्यक्ष अनुभव मात्र हैं। 
ईसा ने कहा है- " मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं।" उनके शिष्यों ने भी कहा है, " हमने ईश्वर का अनुभव किया है। " --आदि आदि। बौद्ध धर्म के विषय में भी ऐसा ही है। भगवान गौतम बुद्ध की प्रत्यक्ष अनुभूति पर यह धर्म स्थापित है। उन्होंने कुछ सत्यों का अनुभव किया था। हिन्दुओं के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है; उनके शास्त्रों में 'ऋषि' नाम से सम्बोधित किये जाने वाले ग्रन्थकर्ता कह गये हैं, " हमने कुछ सत्यों का अनुभव किये हैं! "
 अतः यह स्पष्ट है कि सभी धर्माचार्यों (ऋषियों या पैग़म्बरों) ने ईश्वर को देखा था। उन सभी ने आत्मदर्शन किया था; अपने अनन्त स्वरुप का ज्ञान सभी को हुआ था, सभी ऋषियों ने अपने भविष्य अवस्था को देखा था, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये हैं। भेद इतना ही है कि इनमें से अधिकांश धर्मों के ठीकेदार लोग यह दावा करने लगे हैं कि ' इस समय वे अनुभूतियाँ असम्भव हैं। जो विभिन्न नाम वाले धर्मों के प्रथम संस्थापक थे, बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रचलन हुआ, ऐसे केवल थोड़े से व्यक्तियों के लिये ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव हुआ था। अब ऐसे अनुभव करने के लिये कोई रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्म पर केवल विश्वास भर किया जा सकता है।' धर्म के ठिकदारों के इस तर्क मैं अपने अनुभव के आधार पर पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ !! 
यदि पहले किसी रसायन शास्त्री वैज्ञानिक को हाइड्रोजन पेरोक्साइड (H2O2) और पोटेशियम परमैंगनेट (KMnO4) के बीच प्रतिक्रिया कराकर जो भाप (H2O) और ऑक्सीजन (O2) मिला है; तो इससे यह सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुंचा जा सकता है, कि ऑक्सीजन का आविष्कार होने के पहले भी कोटि कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, और भविष्य में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी। एक-रूपता ही प्रकृति का एक बड़ा नियम है। एक बार जो घटित हुआ है, वह पुनः पुनः घटित हो सकता है !
इसीलिये योग-विद्या के आचार्यगण कहते हैं कि ' धर्म के सत्यों का जब तक कोई अनुभव नहीं कर लेता, तब तक धर्म की बात करना वृथा है। जिन्हें आत्मा की अनुभूति या ईश्वर-साक्षात्कार न हुआ हो, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि आत्मा या ईश्वर है ? यदि कहीं कोई ईश्वर है, तो मुझे भी उसका साक्षात्कार करना होगा; यदि आत्मा नामक कोई वस्तु है- तो उसकी उपलब्धि करनी पड़ेगी। अन्यथा विश्वास न करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है। ' 
मनुष्य (सत्यार्थी या भावी पैग़म्बर) चाहता है सत्य, वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है, वेद कहते हैं- ' तभी उसके सारे सन्देह दूर हो जाते हैं, सारा भ्रम -जाल छिन्न-भिन्न हो जाता है और सारी वक्रता सीधी हो जाती है। ' मुण्डक२/२/८ 
और तब वह ऋषि बोल पड़ता है - ' हे अमृत के पुत्रों, हे दिव्यधाम-निवासियों, सुनो---मैंने अज्ञान के अंधकार से उस आलोक के राज्य में जाने का मार्ग प्राप्त कर लिया है। जो (ब्रह्म श्रीरामकृष्ण) समस्त तम के पार है, उसको जान लेने (या पहचान लेने) पर ही वहाँ जाया जा सकता है। --मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं है!' श्वेता/२-५,३-८
इस सत्य को प्राप्त करने के लिये, राजयोग-विद्या (पातंजल योग-सूत्र) मानव के समक्ष बिल्कुल व्यावहारिक और वैज्ञानिक प्रणाली को आजमा कर देखने का प्रस्ताव रखती है। मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूँ, परन्तु तुम यदि साधना न करो, उन यम-नियमों का पालन और मनःसंयोग का अभ्यास न करो, तो तुम कभी धार्मिक अर्थात ऋषि या पैग़म्बर न हो सकोगे। सभी युगों, सभी देशों, के निष्काम और पवित्र अवतार या पैग़म्बर इसी सत्य का प्रचार कर गए हैं। संसार का कल्याण छोड़ कर अन्य कोई नाम-यश की कामना उनमें नहीं थी। 
वे सभी कहते हैं, " हमारी इन्द्रियाँ और मन-बुद्धि जिन सत्यों का अनुभव करा सकती हैं, मैंने उससे उच्चतर सत्य प्राप्त कर लिया है! और यदि तुम चाहो, तो तुम भी इस प्रशिक्षण-पद्धति की परीक्षा लेकर या आजमा कर देख सकते हो। तुम महामण्डल निर्दिष्ट साधना-प्रणाली लेकर सरल भाव से साधना करते रहो, फिर भी यह उच्चतर सत्य यदि प्राप्त न हो, तब तुम भले ही कह सकते हो, कि इस उच्चतर (अविनाशी ब्रह्म) सत्य के विषय में कही जाने वाली बातें किसी सनकी दिमाग की उपज हैं ! किन्तु इससे पहले मनःसंयोग पर आधारित उपरोक्त की सत्यता को बिल्कुल अस्वीकृत कर देना किसी तरह युक्तिपूर्ण नहीं है। " अतएव महामण्डल द्वारा लंगरखाना से संयुक्त निर्दिष्ट शिविर प्रशिक्षण-प्रणाली के माध्यम से श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिये आवश्यक है, और तब ज्ञान (ब्रह्म ) का प्रकाश अवश्य प्राप्त होगा। 
बाह्य जगत के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना, मनुष्य की आभ्यान्तरिक प्रकृति या मन के व्यापारों का पर्यवेक्षण करने की अपेक्षा सहज होता है। क्योंकि उसके लिये हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके हैं, पर अन्तर्जगत के व्यापार को समझने में मदद करने वाला कोई भी यन्त्र नहीं है। राजयोग-विद्या पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यंतरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का उपाय सीखा देती है। मन का पर्यवेक्षण करने वाला यन्त्र स्वयं मन ही है !
 मनःसंयोग या एकाग्रता की शक्ति का सही सही नियमन कर जब मन को बहिर्मुखी होने से रोककर, अन्तर्जगत की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है। और तब उसके प्रकाश में हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या देखने से क्या और कैसे घटित होने लगता है। मन की शक्तियाँ प्रकाश की किरणों के समान नाना प्रकार के बाह्य विषयों में इधर-उधर बिखरी हुई हैं। जब उन्हें केंद्रीभूत कर दिया जाता है, तब वे सब कुछ को आलोकित कर देती हैं। यही ज्ञान का एकमात्र उपाय है। पर इसके लिये काफ़ी अभ्यास करना आवश्यक है।
कुछ और कहने के पहले मैं सांख्य-दर्शन के सम्बन्ध में कुछ कहूँगा। इस सांख्य दर्शन पर पूरा राजयोग आधारित है। सांख्य के अनुसार ज्ञान की प्रणाली इस प्रकार है - पहले ज्ञेय विषय के साथ आँख आदि बाह्य उपकरणों का संयोग होता है। ये चक्षु आदि (आँख,कान,नाक,जिह्वा और त्वचा) बाहरी उपकरण फिर उसे मस्तिष्क-स्थित अपने अपने इन्द्रिय-गोलकों के पास भेजते हैं, इन्द्रियाँ मन के निकट, और मन उसे निश्चात्मिका बुद्धि के पास ले जाता है; तब पुरुष या आत्मा उसका ग्रहण करती है। फिर जिस सोपानक्रम में से होता हुआ वह विषय अंदर आया था, उसी में से होते हुए लौट जाने की पुरुष मानो उसे आज्ञा देता है। इस प्रकार विषय गृहीत होता है। पुरुष को छोड़कर शेष सब जड़ है। एकमात्र पुरुष ही चेतन है। मन तो मानो आत्मा का दिव्य चक्षु है। उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है। आधुनिक शरीर वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आँखें वास्तविक दर्शन-इन्द्रिय नहीं हैं, वे तो बाह्य खिड़की है, इन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायु-केन्द्र 'ऑप्टिक नर्भ' में अवस्थित है; और समस्त इन्द्रियों के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही समझना चाहिये।  
बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है, अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी है। अभिभावक लोग कहते हैं, मन लगाकर पढ़ो; पर मन को लगाया कैसे जाता ? यह शिक्षा हमें नहीं दी जाती है। इसी कारण हममें से अधिकांश लोग अपने आभ्यंतरिक जगत की क्रिया-विधि का निरीक्षण करने की शक्ति खो बैठे हैं। हमारी इन्द्रियाँ स्वभावतः बहिर्मुखी हैं, उसके साथ साथ जुड़ा हुआ मन भी बहिर्मुखी बन गया है।  मन को इन्द्रियों से खींचकर उसे अंतर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उसे मन के उपर ही निवेशित करना होगा, तांकि वह अपना स्वाभाव समझ सके, अपने आप को विश्लेषण करके देख सके। किन्तु यह एक अत्यन्त कठिन कार्य है, अतएव इस क्षेत्र में हमारे 'ऋषियों' जिन्हें हम धार्मिक क्षेत्र के महान वैज्ञानिक- 'महर्षि पतंजलि'  के नाम से जानते हैं, द्वारा आविष्कृत वैज्ञानिक प्रणाली -'अष्टांग-योग' द्वारा अग्रसर होना सबसे सुरक्षित उपाय है। इस विषय में वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार अग्रसर होने का यही एक मात्र उपाय है।  
अब आप पूछ सकते हैं कि इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है ? पहले तो, ज्ञान स्वयं ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है; दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है। यह हमारे समस्त दुःखों का हरण करेगा। जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु का साक्षात दर्शन कर लेता है--जिसका किसी काल में नाश नहीं है, जो स्वरूपतः शाश्वत चैतन्य है, या नित्य पूर्ण और नित्य शुद्ध है, तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ ग़ायब हो जाता है! वह जान लेता है कि मैं मरने वाला नहीं हूँ, और कोई नहीं मर सकता, फिर वह 'अभिः'-बन जाता है, तब उसे मृत्यु का भी नहीं रह जाता। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है । इन दोनों का आभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसी क्षण, इसी देह में उसे परमानन्द -सच्चिदानन्द की प्राप्ति हो जाती है, वह मुक्त हो जाता है! फिर स्वयं बंधन-मुक्त होकर दूसरों को भी बंधन मुक्त करने की एकमात्र वासना ही उसे जीवित रखती है! 
इस ज्ञान की प्राप्ति के लिये एकमात्र उपाय है-एकाग्रता! मन की शक्तियों को एकाग्र करने के सिवा अन्य किस तरह संसार में समस्त वैज्ञानिक सिद्धान्त; 'गुरुत्वाकर्षण' का नियम आदि आविष्कृत हुए हैं? यदि प्रकृति के द्वार कैसे खटखटाना चाहिये, उस पर कैसे आघात करना चाहिये -वह वैज्ञानिक पद्धति अगर सीख ली जाय, तो बस -प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है। उस आघात करने की शक्ति और तीव्रता मनःसंयोग से ही आती है। मानव-मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं है। वह जितना अधिक एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है; यही रहस्य है। जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अंधकारमय स्थान भी अपने गुप्त रहस्य खोल देते हैं, उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अन्तरतम रहस्य प्रकाशित कर देता है। 
तब हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुँचेगे। तभी, आत्मा है या नहीं, हमारा जीवन क्या केवल सामान्य जीवन-काल तक ही सीमित है, अथवा अनन्तकाल तक रहने वाला है? संसार में कोई ईश्वर है या नहीं, वह सब हम स्वयं देख सकेंगे। सब कुछ हमारे ज्ञान-चक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा। तुम्हारा धर्म चाहे जो हो-तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, मुसलमान हो या बौद्ध या ईसाई -इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं; तुम मनुष्य हो, बस- इतनी सी योग्यता ही पर्याप्त है ! जब तक कोई बात स्वयं प्रत्यक्ष न कर सको, तब तक उस पर विश्वास न करो- राजयोग यही शिक्षा देता है। सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिये अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। किन्तु इस राजयोग की साधना में दीर्घ काल तक निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है। 
राजयोगी कहते हैं, हम पहले अन्तर्जगत का ज्ञान प्राप्त करेंगे, फिर उसीके द्वारा बाह्य और अन्तर उभय प्रकृति को वशीभूत कर लेंगे। पाश्चात्य देशों में लोग इसको रहस्य या गुप्त विद्या समझते थे, इन सब योग-प्रणालियों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ देना पड़ेगा। जिससे बल मिलता है, उसीका अनुसरण करना चाहिये; जो तुमको दुर्बल बनता है, वह समूल त्याज्य है। ऐन्द्रजालिक रहस्य को जानने की स्पृहा मानव-मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आजकल निकृष्टतर अनेक श्रीश्री गुरु नामधारी व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं जिसके कारण इसकी शिक्षा देने वाले शिक्षकों का निर्माण करना आवश्यक हो गया है। किन्तु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है ! चार हजार वर्ष से भी पहले यह इस विज्ञान को आविष्कृत किया गया था। अन्धविश्वास करना ठीक नहीं, भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो, ठीक उसी प्रणाली से यह धर्म-विज्ञान भी सीखना होगा। इसमें गुप्त रखने की कोई बात नहीं किसी विपत्ति की आशंका भी नहीं है। 
प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। 
बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। 
कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। 
बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं। १/३४  
[ Each soul is potentially divine.

The goal is to manifest this Divinity within by controlling nature, external and internal.

Do this either by Work, or Worship, or Psychic control, or Philosophy - by one, or more, or all of these - and be free.

This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details.-RAJA YOGA, Preface] 

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