सोमवार, 2 अगस्त 2010

[42]" परानुकरण की पराकाष्ठा के प्रति विक्षोभ "

सम्बुद्धानन्दजी महाराज के मुख से सुनी हुई एक घटना का उल्लेख यहाँ किये बिना रहा नहीं जा सकता. वे बहुत वर्षों तक रामकृष्ण मिशन के बाम्बे (मुंबई) केन्द्र प्रधान रहे थे. उनके समय में अमेरिका के राष्ट्रपति की पुत्री भारतवर्ष को देखने के लिये आयी थी. पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जहाज से उतरने के बाद , बाम्बे  आश्रम में कुछ दिन रहने के बाद भारत भ्रमण के लिये निकल पड़ी. वापस लौट आने के बाद महाराज ने उनसे पूछा कि, उन्होंने भारत को कैसा देखा ? वे अपना मुँह थोड़ा बिचका कर बोलीं -   
" When America cannot digest  something she vomits it out. 
Europe is there to swallow that vomited matter.Not being able to digest it Europe again vomits it. I saw India unhesitatingly swallowing all that is vommitted by Europe.
( इसका हिन्दी अनुवाद नहीं करना ही अच्छा होगा)  
हाँ तो, उतनी व्यस्तता के कारण- रंगनाथानान्दजी के साथ अब और अधिक मिलना-जुलना सम्भव नही रह गया था. एक बार अचानक कहीं भेंट हो गयी तो बोले-
" Nabani, how are you ? You are quite comfortable now ! " 
मैंने कहा, " No Maharaj.वहाँ पर सोने के लिये जो डनलप का बिछौना मिला है, वैसा मेरे खानदान में कभी किसी ने देखा नहीं है. एयर कन्डीशंड कमरा, डानलो पिलो का बिछावन, मुझे तो रात के समय गिर न जाऊं, गिर न जाऊं लगता रहता है. "  उन्होंने पूछा-  " What about your food ? "
  मैंने कहा, " महाराज काँटा चम्मच-टम्मच घर में था, उन सबका व्यवहार करना जानता हूँ, किन्तु क्या उस प्रकार खाने से संतुष्टि होती है ? "
" Why are you staying there ? Why don't you come and stay with us ? " तुम वहाँ रह क्यों रहे हो ? " 
मैंने कहा, "  महाराज, भाष्यानन्दजी  ने वहाँ रहने को कहा है, इसीलिये मैं हूँ ! "
" No, no, you come here." फिर, और जितने दिनों तक शतवार्षिकी अनुष्ठान चलता रहा,  मुझको सन्यासियों के साथ रख दिये.कुछ दिनों बाद तो गोलपार्क में मेरा आना-जाना बहुत बढ़ गया. वहाँ पर  ' School of Humanistic Studies ' का प्रारम्भ हुआ था. लगभग एक वर्ष तक उसमे भी भर्ती हुआ. वहाँ पर संध्या के समय विभिन्न विषयों पर कुछ लेक्चर इत्यादि हुआ करता था.उसके प्रोग्राम को बहुत सुन्दर ढंग से निर्धारित किया गया था. वैसे अनेक विषयों को जिन्हें साधारणतया जान लेना सबों के लिये प्रयोजनीय होते हैं, ऐसे विषयों के ऊपर कई विशिष्ट वक्ता, इन विषयों में जो सम्यक जानकारी रखने वाले अध्यापक आदि थे, वैसे विषय पर उनसे व्याख्यान दिलवाया जाता था एवं उस भाषण का सारांश पहले से ही समस्त श्रोताओं में वितरित कर दिया जाता था.
कुछ दिनों तक रहते रहते एक रोज भाष्यानन्दजी बोले, ( वे ही उस प्रोग्राम कि देखरेख किया करते थे ) - " You take charge of this." फिर तीन वर्षों तक इस " School of Humanistic Studies " - के समस्त कार्यक्रमों  को सन्चालित करना, उसकी व्यवस्था देखना आदि जैसे कार्यों में लगा रहा. इसी प्रकार जो पब्लिक लेक्चर इत्यादि होते थे, उसमे जिन वक्ताओं को आमन्त्रित किया जाता था, उनको साथ में ले आना, उनकी यथोचित आतिथ्य प्रदान ( आव-भगत) करना, उनको सभा-कक्ष में ले जाकर व्याख्यान दिलवाना, उनके वापसी का इन्तजाम करना. यह सब देख कर बहुत से लोग यह सोचते थे कि, शायद मैं भी यहीं का एक कर्मचारी होऊँगा, य़ा इसमें संलग्न अन्य कोई कर्मी होऊँगा और क्या ! बहुत समय तक इसी प्रकार चला.
इसी बीच एक दिन भाष्यानन्दजी बोले, " नवनी, एक दिन तुमलोगों के घर जाऊंगा | "  मैंने कहा, "महाराज, यह तो मेरे लिये बहुत आनन्द की बात होगी | " इस पर उन्होंने कहा- " नहीं, तुम्हारे आनन्द के लिये नहीं जाऊंगा; मेरा कुछ अपना काम है." मैंने कहा, " जी बहुत, अच्छा !" वे बोले -
" मैं अमेरिका जाने वाला हूँ. मुझको शिकागो भेजा जा रहा है. अमेरिका तो जा रहा हूँ, किन्तु अभी तक मैंने ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं देखा है- जिसने स्वामीजी को देखा हो !
" शुनेछि तोमार ठाकुरदादा स्वामीजी के देखेछिलेन ! ताई तोमार ठाकुर दादा के देखते जाबो ! " 
(- मैंने सुना है कि तुम्हारे बाबा (पितामह) ने स्वामीजी को देखा था, इसीलिये तुम्हारे पितामह को देखने के लिये जाऊंगा !
इसके बाद मेरे घर जाने का एक दिन तय हो गया. उस दिन मेरे घर कौन-कौन गये थे सभी के नाम मुझे याद नहीं हैं, किन्तु ८-१० सन्यासी लोग मेरे घर पर आये थे.स्वामी रंगनाथानान्दजी भी आये थे. भाष्यानन्दजी का ट्रांसफर हो चुका था, इसीलिये उनकी जगह पर असिस्टेंट सेक्रेट्री होकर स्वामी अनन्यानन्दजी लन्दन से आये थे. वे, भाष्यानन्दजी, स्वामी निरामयानन्दजी, इत्यादि कई वरिष्ठ सन्यासी गण दो-तीन गाड़ियों में बैठ कर खड़दह आये थे.

हमलोगों के देश में घर में पधारे हुए सन्यासियों की अभ्यर्थना जिस रीति से की जाती है, उसके अनुसार प्रवेशद्वार पर (उठाने ) उन सभी के चरणों को (पीतल के कठौते में रख कर) धोया गया.(फिर तौलिये से पोछ दिया गया). मेरे पितामह प्रत्येक साधु के गले में फूलों की माला पहना दिये. 
फिर उनलोगों के साथ पितामह की बातचीत होने लगी, उनलोगों की बैठक बहुत देर तक चली. सभी लोग एक साथ बैठ कर भोजन ग्रहण किये.भोजनोपरान्त वापस लौटते समय मोटा-मोटी यह जाना गया कि कौन कहाँ से आये थे. मालूम पड़ा कि दो सन्यासी अद्वैत आश्रम से आये थे.उनमे से एक सन्यासी, स्वामी स्मरणानन्दजी (जयराम महाराज )  अभी वर्तमान में (सन २०१० में ) " रामकृष्ण मठ मिशन " के 'सह-अध्यक्ष' (Vice -President ) हैं !
उस समय मैं उनको नहीं पहचानता था, उनके साथ मेरा परिचय नहीं हुआ था. उन्होंने कहा, " नवनिबाबू, आप अद्वैत आश्रम में क्यों नहीं आते हैं ? " मैंने कहा, महाराज बहुत से स्थानों में जाना सम्भव नहीं हो पाता, मैं तो पहले ( स्वामी रंगनाथानन्दजी के आने से पहले ) गोलपार्क भी नहीं जाता था. अभी रंगनाथानन्द जी के व्याख्यानों  को सुनने के लिये वहाँ जाता हूँ, और अन्यान्य स्थानों में भी कभी कभी गया हूँ. कुछ दिनों के बाद स्वामी अनन्यानन्दजी गोलपार्क से अद्वैत आश्रम में चले आये.
किन्तु बाद में अद्वैत आश्रम में आना-जाना शुरू कर दिया. फलसवरूप अब प्रतिदिन गोलपार्क नहीं जा पाता था, ऑफिस के बाद रोज अद्वैत आश्रम ही जाया करता था, वह नजदीक भी पड़ता था. आते जाते ऐसा होगया कि वहाँ पहुँचते ही तीसरे तल्ले पर लेजा कर कुछ चाय-वाय खिलाते थे. चाय-वाय करके संध्या के समय में जयराम महाराज और स्वामी अनन्यानन्दजी - ये दोनों व्यक्ति टहलने के लिये थोड़ा बाहर जाते थे. वे लोग अद्वैत आश्रम से निकलकर पार्क-सर्कस तक जाते थे, मैं भी उनके साथ जाया करता था.
उनदिनों विशेष कर कलकत्ते में एवं अन्य भी कई जगहों पर, युवाओं के भीतर एक प्रकार का अस्थैर्य (छटपटाहट ) जैसा, मानो भीतर भीतर कहीं कुछ (परानुकरण की पराकाष्ठा के प्रति विक्षोभ ) चल रहा हो, ऐसा भाव परिलक्षित होने लगा था.                   
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{ Swami Bhashyananda (1917-1996)
 
Born April 18, 1917 in Akola in Maharashtra state, Swami Bhashyananda was given the name Vasant Vishwanath Natu.


His father, Vishwanath Vasudev Natu, and his mother, Annapurna, were pious, orthodox brahmins, and he began his Vedic studies in early childhood. 


At the age of five his father began to teach him how to sit for meditation.

Vasant received his Master in Arts from the University of Nagpur in central India, and held the highest academic degree at that time in Sanskrit from a recognized Indian university. 

Before graduating from college, he began to attend and finally joined the Ramakrishna order in Nagpur in about 1936.

Under the guidance of his Guru, Swami Virajananda, then president of the Ramakrishna Math and Mission, he practiced Raja yoga for several years. 



In 1962 he was transferred to Calcutta 
to assist Swami Ranganathananda
in the work of 
the Ramakrishna Mission Institute of Culture,
where he became assistant director.

In 1964 he was transferred to New York to assist Swami Nikhilananda, where he became well adjusted to American ways. And finally,



on July 28, 1965, on the passing of Swami Vishwananda, he was appointed Swami-in-Charge of the Vivekananda Vedanta Society in Chicago.

Swami Bhashyananda's work in Chicago was distinguished by vigorous expansion. Within a year of taking charge, the congregation of the center tripled and in 1966 he moved the center from its Elm Street location to its present address.


He also purchased a nearby bungalow for use of women devotees. His most dramatic expansion of the Society was the purchase and development of the Ganges Retreat facility in Ganges, Michigan.

Swami Bhashyananda was a frequent traveler, making semi-annual pilgrimages to India and dividing his time between Chicago and Ganges, as well as establishing over 40 "satellite" Vedanta groups throughout the United States and Canada.

A tall, well-proportioned, athletic man with regal features and a broad smile, Swami possessed an excellent sense of humor, and was an able story teller. His knowledge of the Hindu scriptures was broad and he had a talent of making lucid the most abstruse philosophical points.

In college, wrestling and soccer had been favorites of his and after the Vedanta Center moved to its present location in the Hyde Park area of Chicago, he would take long walks along the lakefront. Once, he and two of the bramhacharis took a walk that lasted for 22 miles!

In the mid-1980's, Swami Bhashyananda suffered the first of eight strokes. He continued to perform his duties as Swami-in-Charge for several more years, before Swami Chidananda was sent from India to assist him.

He passed away on October 4, 1996}

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