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बुधवार, 18 सितंबर 2024

🙏🏹🔱🕊तथागत सिद्धार्थ गौतम की स्मृति में 🔱 [In Memoriam -Tathagata Siddhārtha Gautama] 🙏🏹🔱🕊 ॐ नमो भगवते सम्बुद्धाय ' 🙏

 🔱तथागत सिद्धार्थ गौतम की स्मृति में 🔱  

[In Memoriam -Tathagata Siddhārtha Gautama]

 In Memoriam 

Tathagata Siddhartha Gautama ]

Let the Baisakhi Purnima - Thrice Blessed Day of the Year be commemorated with the following Prayer - 

May there never be any evil to any one from me .... 

May I be a help to the helpless , ..... a servant of all.

May all beings see me with the eyes of a friend !

May  I see all beings with the eyes of a friend !

May we all see all beings with the eyes of a friend ! 

***                                 ******                                   *****

" What Buddha did was to break wide open the gates of that very religion which was confined  in the Upanishads to a particular cast....His greatness lies  in his unrivalled sympathy ..... his intellect and heart have never since been paralleled throughout the history of the world...(Eng.  Volume-6/225)  As for the ancient from which the Buddha preached , I have the greatest respect for it , as well as for his person. And you well know that we Hindus  worship Him as an Incarnation.... the three hundred millions of earthwormes crawling upon the fair soil of India are trying to oppress each other. This state of things must be removed , not by destroying religion but by following the great teachings of the Hindu faith , and Joining with it the wonderful sympathy of that logical development of Hinduism-Buddhism." 

-- Swami Vivekananda .

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54 W 33, New York,

USA 

" No One is To Blame "

Swami Vivekananda 

 [Written from New York, 16th May, 1895.]


   The sun goes down, its crimson rays

Light up the dying day;

A startled glance I throw behind

And count my triumph shame;

No one but me to blame.


Each day my life I make or mar,

Each deed begets its kind,

Good good, bad bad, the tide once set

No one can stop or stem;

No one but me to blame.


I am my own embodied past;

Therein the plan was made;

The will, the thought, to that conform,

To that the outer frame;

No one but me to blame.

Love comes reflected back as love,

Hate breeds more fierce hate,

They mete their measures, lay on me

Through life and death their claim;

No one but me to blame.


I cast off fear and vain remorse,

I feel my Karma's sway

I face the ghosts my deeds have raised --

Joy, sorrow, censure, fame;

No one but me to blame.


Good, bad, love, hate, and pleasure, pain

Forever linked go,

I dream of pleasure without pain,

It never, never came;

No one but me to blame.


I give up hate, I give up love,

My thirst for life is gone;

Eternal death is what I want,

Nirvanam goes life's flame;

No one is left to blame.


One only man, one only God, one ever perfect soul,

One only sage who ever scorned the dark and dubious ways,

One only man who dared think and dared show the goal --

That death is curse, and so is life, and best when stops to be.

Om Nama Bhagavate Sambuddhaya

Om, I salute the Lord, the awakened.

Published by the 'Vivekananda Pathachakra' Andul Mauri, Howrah, on the occasion of the 2500th Buddha Jayanti Celebration,

 The 24th May , 1956 .  

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 विवेकानन्द पाठचक्र, अंदुल मौरी, हावड़ा  द्वारा 24 मई, 1956 को '2500वीं बुद्ध जयंती समारोह' के अवसर पर प्रकाशित।  

Published by the "Vivekananda Pathachakra" Andul Mauri, Howrah  On the occasion of '2500th Buddha Jayanti' celebrations, on May 24, 1956.     

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तथागत — कपिलवस्‍तु के राजा शुद्धोदन और मायादेवी के पुत्र– सिद्धार्थ या  गौतम बुद्ध का आगमन पूर्व पूर्व बुद्धों की भाँति  हुआ था, इसलिए इनका नाम तथागत हुआ। 'तथागत' से अभिप्राय यह है कि 'जो वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को जानता हो।—महात्मा बुद्ध को उनके जीवन में ही सत्य (परम् सत्य या इन्द्रियातीत सत्य) के दर्शन हुए थे इसलिए उन्हें तथागत नाम से भी जाना जाता है। तथागत घाट वाराणसी का प्रसिद्ध घाट है जो सराय मोहाना में स्थित है। सराय मोहाना सारनाथ के पास स्थित है, जिसकी दूरी लगभग 7 किलोमीटर है । सारनाथ वह स्थान है जहाँ तथागत बुद्ध ने अपने पांच शिष्यों को प्रथम उपदेश दिया था।

हर साल वैशाख माह की पूर्णिमा तिथि को बुद्ध पूर्णिमा का त्योहार मनाया जाता है।  बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व इसी तिथि को कपिलवस्तु के पास लुम्बनी नामक जगह पर हुआ था। गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का 9वां अवतार भी माना जाता है। महात्मा बुद्ध हमेशा से निवृत्ति मार्ग के एक परम संन्यासी नहीं थे, बल्कि उनका जन्म एक अति संपन्न राज परिवार में - राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में हुआ था। और प्रवृत्ति-धर्म मार्ग के अनुसार वे अपने एक पुत्र राहुल और पत्नी के साथ पहले सुखी गृहस्थ जी रहे थे। बाद में कर्तव्यबोध जगने पर उन्होंने रातोंरात अपना राजपाट त्यागकर कठोर तप से (आत्म) 'ज्ञान' प्राप्त किया था और गौतम बुद्ध बन गए  थे।  माता-पिता ने बचपन में इनका नाम सिद्धार्थ गौतम रखा था।

एक बार राजकुमार सिद्धार्थ अपने घर से कहीं घूमने के लिए निकले। तभी रास्ते में उन्हें एक वृद्ध, एक रोगी, एक अर्थी और एक संन्यासी को देखा। नगर भ्रमण के दौरान उन्होंने इन सबके बारे में अपने सारथी से पूछा।  तब सारथी ने उन्हें बताया कि बुढ़ापा आने पर इंसान रोगी हो जाता है; और रोगी होने के बाद मृत्यु को प्राप्त करता है। एक संन्यासी ही है जो मृत्यु के पार जीवन की खोज में निकलता है।  यह सुनने के बाद बुद्ध के मन में राजसी सुख छोड़कर वैराग्य धारण धारण करने का ख्याल आया। गौतम बुद्ध ने 29 वर्ष की उम्र में महल, राजपाठ छोड़ दिया था और एक संन्यासी के रूप में जीवन बिताने लगे। 

   उन्होंने एक पीपल वृक्ष के नीचे करीब 6 वर्ष तक कठिन तपस्या की। वैशाख पूर्णिमा के दिन ही भगवन बुद्ध को एक वृक्ष के नीचे सत्य ज्ञान (आत्मज्ञान) की प्राप्ति हुई थी। भगवान बुद्ध को जहां ज्ञान की प्राप्ति हुई वह जगह [-'जानिबिघा?']बाद में बोधगया कहलाई।  महात्मा बुध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया था। 

      फरवरी, 1890 को लिखे एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जो धर्म/ या शिक्षा- जिसके प्रयोग से पशु मनुष्य में और मनुष्य देवता में उन्नत हो जाता है' -वह उपनिषदों में केवल एक जातिविशेष के लिए आबद्ध था, उसका द्वार गौतम बुद्ध ने सबके लिए खोल दिया और सरल लोकभाषा में उसे सबके लिए सुलभ कर दिया। उनका श्रेष्ठत्व उनके निर्वाण के सिद्धांत में नहीं, अपितु उनकी अतुलनीय सहानुभूति में है। बौद्ध धर्म के जिन श्रेष्ठ अंगों- -प्रज्ञा, शील, समाधि ("The high orders of Samadhi etc :  Wisdom, morality and   concentration) आदि को बौद्ध नैतिकता का 'त्रिरत्न' कहा जाता है, जिनके कारण उक्त धर्म को महत्ता प्राप्त है; प्रायः सबके सब वेदों में भी पाये जाते हैं ; वहाँ यदि अभाव है, तो वह है बुद्धदेव की बुद्धि तथा उनका ह्रदय, जिनकी बराबरी जगत के इतिहास में आज तक कोई नहीं कर सका।" (# स्वामी विवेकानन्द द्वारा अपने गुरु भाई स्वामी अखण्डानन्द को फरवरी, 1890 में लिखित पत्र/ वि० सा० खंड १/पृष्ठ-३६०)  [" The high orders of Samadhi etc (प्रज्ञा-शील -समाधि आदि), that lend gravity to his religion are, almost all there in the Vedas; what are absent there are his intellect and heart, which have never since been paralleled throughout the history of the world." (Eng.  Volume-6/225) 

 5 मई, 1897 को लिखित एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द भगवान बुद्ध का उल्लेख करते हुए पुनः लिखते हैं - " मेरा विचार अभी तीन राजधानियों में तीन प्रशिक्षण-केन्द्र स्थापित करने का है। ये तीनों केंद्र मानो मेरी  प्रचारकों को प्रशिक्षित करने वाली पाठशालायें होंगी, जहाँ से मैं भारत पर आक्रमण करना चाहता हूँ। मैं कुछ वर्ष और जिऊँ या न जिऊँ, भारत पहले से ही श्री रामकृष्ण का [=महामंडल के 'बुद्ध बनो और बुद्ध बनाओ!' आंदोलन का] हो गया है। (आलमबाजार मठ, कोलकाता से श्रीमती ओलीबुल को लिखित पत्र/खंड १/पेज: ३६१) 

[" My idea at present is to start three centers in three capitals. These would be my normal schools, from thence I want to invade India. India is already Ramakrishna’s [= Mahamandal's Movement for -'Be and Make Buddha!'whether I live a few years more or not." (-May 5th, 1897. Letter to Mrs.Bull ]  

   "मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि जो आधुनिक हिन्दू धर्म कहलाता है और जो दोषपूर्ण है [4000 जाति] वह अवनत बौद्ध मत का ही एक रूप है [-'Let the Hindus understand this clearly, and then it would be easier for them to reject it without murmur.' -- अर्थात] हिन्दुओं को स्पष्ट रूप से समझ लेने दो , फिर उन्हें उसको त्याग देने में (चार वर्णों के अलावा 4000 अगड़ी-पिछड़ी जाति -विभाजन को त्याग देने में) कोई आपत्ति न होगी। बौद्ध मत  का वह प्राचीन रूप जिसका भगवान बुद्ध ने उपदेश दिया था - वह और उनका व्यक्तित्व मेरे लिए परम पूजनीय है।  हम हिन्दू लोग उन्हें अवतार मानकर उनकी पूजा करते हैं।" (My visit to Ceylon has entirely disillusioned me, and the only living people there are the Hindus. The Buddhists are all much Europeanised लंका के जीवित और एकमात्र लोग हिन्दू ही हैं, वहाँ का बौद्ध धर्म किसी काम का नहीं है। वहाँ के बौद्ध यूरोप के रंग में रंगे हुए हैं। यहाँ तक कि धर्मपाल और उनके पिता के नाम भी यूरोपीय थे, जो उन्होंने अब बदल लिए हैं। अपने अहिंसा के महान सिद्धान्त का वे इतना आदर करते हैं कि उन्होंने जगह-जगह कसाई- खाने  “butcher-stalls” खोल रखे हैं। "(खंड -६/३१८-)     

आइये आज के धन्य दिन बैसाखी पूर्णिमा को निम्नलिखित प्रार्थना, जो  बुद्ध के समस्त सन्देशों का सार है - के साथ मनाया जाए -

ओम् दृते दृह मा ।

मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।

मित्रस्याऽहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ।

' मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।। 

(-यजुर्वेद 36/18)

 है स्वनियमों पर दृढ़ रहने वाले परमेश्वर ! हे प्रभु, संकट के समय मुझे दृढ़ बनाओ। (मैं ऐसा सद्व्यवहार करूँ कि) सब प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूँ । हम सब प्राणी परस्पर एक दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें।

O Lord, make me firm in times of distress. May all the beings look at me with a friendly eye. May I see all the beings with a friendly eye. Thus may we all be looked at with a friendly eye. (1)

भावार्थ - वे ही आत्मज्ञानी (आत्मविश्वासी-निष्कंप चरित्रवान मनुष्य अथवा सत्पुरुष ) हैं जो अपने आत्मा के सदृश सम्पूर्ण प्राणियों को मानें, किसी से भी द्वेष न करें और मित्र के सदृश सब का सदा सत्कार करें॥१८॥

"मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"

सभी प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें!

मैं सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूं!

हम सभी प्राणी को मित्र की दृष्टि से देखें!

मुझसे कभी किसी का बुरा न हो....

मैं असहायों का सहायक बनूं, ..... सबका सेवक बनूं।

विश्व के समस्त प्राणियों से हम आत्मवत् व्यवहार  करें। प्राणी मात्र के प्रति करुणा ही धर्म की संसिद्धि का मूल है।

" मनुष्य की भांति अन्य सभी प्राणी, पशु-पक्षी भी प्रेम-करुणा, अपनत्व व सुख और दुख को समान रूप से अनुभूत करते हैं। प्राणी मात्र के प्रति आत्मवत व्यवहार से ही धर्म की संसिद्धि संभव है । पशु पक्षियों की निरीह आंखों से स्पंदित वेदनाओं के मर्म को समझने का प्रयत्न आप में दैवत्व की प्रतिष्ठा करेगा। पशु या अन्य किसी भी देहधारी के प्रति क्रूरता संवेदनहीनता एवं नैतिक पतन की पराकाष्ठा है ! आओ सृष्टि के सभी प्राणियों के प्रति  प्रेम जगाएँ ! हमें विश्व के सारे प्राणी मित्र दृष्टि से नित देखें, और सभी जीवों को हम भी मित्र दृष्टि से नित देखें।"  

14 फरवरी, 1890 को गाजीपुर से बलराम बसु को लिखित पत्र में, स्वामीजी कहते हैं - " आप साधनारम्भ की दशा की ओर सिंहावलोकन करें, [महामण्डल या ठाकुरदेव से जुड़ने से ठीक पहले की ओर सिंहावलोकन करें], तो आपको मालूम होगा कि पहले आप पशु थे, अब मानव हैं और आगे चलकर आप [ब्रह्मविद] एक देवता अथवा स्वयं ईश्वर हो जायेंगे। आपका इस प्रकार का पश्चाताप और असन्तोष आपकी भावी उन्नति का सूचक है, क्योंकि उसके बिना उन्नति होना असम्भव है। जो चुटकी बजाते ही ईश्वर का दर्शन पा लेता है, उसके लिए इसके आगे उन्नति का रास्ता बन्द समझिये। इस प्रकार के असन्तोष कि 'क्या लाभ हुआ, क्या लाभ हुआ '- तो एक वरदान है। कृपया अपनी शक्तिभर साधना करने का प्रयत्न कीजिये, परन्तु उससे होनेवाले लाभ या हानि का निर्णय अपने अधिकार से बाहर की बात है। ..... गिरीश बाबू को बहुत बड़ा धक्का लगा है, इस समय माताजी की सेवा करने से उन्हें बहुत शांति मिलेगी। " ( खंड-१/३६७)            

     " चिंतनशील लोग पिछले कुछ वर्षों से हिन्दू समाज की यह दुर्दशा समझ रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्यवश, इसका दोष वे हिन्दू धर्म के मत्थे मढ़ रहे हैं। वे सोचते हैं कि जगत के इस सर्वश्रेष्ठ धर्म (Oneness and Inherent Divinity की शिक्षा देने वाले धर्म) का नाश ही समाज की उन्नति का एकमात्र उपाय है। सुनो मित्र दोष धर्म/ शिक्षा का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो तुम्हें यही सिखाता है कि संसार के सभी प्राणी तुम्हारी आत्मा के ही विविध रूप हैं।  समाज की इस हीनावस्था का कारण है- इस 'तत्व' (=प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है) को व्यावहारिक आचरण में लाने का अभाव, सहानुभूति का अभाव [ =बाँटो और राज करो वाली राजीनीति], ह्रदय का अभाव। [उपनिषदों के उसी धर्म [या शिक्षा (Be and Make) को "जिसके प्रयोग से पशु मनुष्य में और मनुष्य देवता में उन्नत हो जाता है' को तुम्हारे द्वार तक पहुँचाने के लिए ] "भगवान एक बार फिर तुम्हारे बीच बुद्धरूप में आये। और तुम्हें गरीबों , दुःखियों और पापियों के लिये आँसू बहाना और उनसे सहानुभूति करना सिखाया, परन्तु तुमने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। तुम्हारे पण्डे -पुरोहितों ने यह भयानक किस्सा गाढ़ा कि भगवान बुद्ध तो झूठे सिद्धान्तों का (प्रज्ञा-शील-समाधि आदि का) प्रचार कर केवल असुरों को मोहित कर देने के लिए आये थे। ...आज सारी दुनिया इन तीस करोड़ मनुष्यों को, जो केंचुओं की तरह भारत की पवित्र धरती पर रेंग रहे हैं और एक दूसरे पर अत्याचार करने की कोशिश कर रहे हैं, को घृणा की दृष्टि से देख रही है।समाज की यह दशा दूर करनी होगी -परन्तु धर्म का नाश करके नहीं, वरन हिन्दू धर्म के महान उपदेशों का अनुसरण कर (यानि चार महावाक्यों का अनुसरण कर) और उसके साथ हिन्दुधर्म की स्वाभाविक परिणतिस्वरूप बौद्ध धर्म की अपूर्व सहृदयता को युक्त कर।लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता  के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर , भगवान (अवतार वरिष्ठ)  के प्रति अटल विश्वास (आत्मविश्वास या चरित्रबल) से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पद दलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र उद्धार के सन्देश का , सेवा के सन्देश का, सामाजिक उत्थान के सन्देश का, समानता के इसी सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे।"[आलासिंगा को लिखित पत्र खंड-१/ पेज ४०२ -०३/ 20 अगस्त, 1893.)]  

["The Lord once more came to you as Buddha and taught you how to feel, how to sympathise with the poor, the miserable, the sinner, but you heard Him not. Your priests invented the horrible story that the Lord was here for deluding demons with false doctrines!  (Letter to Alasinga -20th August, 1893.)

-स्वामी विवेकानन्द।

प्रेरणादायी नेता

-The inspirational leader

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[कारो दोष देखो ना !~ श्री माँ सारदा देवी]   

🙋 किसे दोष दूँ ? 🙋

" No One is To Blame "

स्वामी विवेकानंद

[न्यूयॉर्क से लिखित, 16 मई, 1895.]

सूरज ढल चुका है, उसकी लाल किरणें-

दम तोड़ते दिवस की देह को लपेट चुकी हैं;

अचम्भित दृष्टि से देख रहा मैं पीछे -

और गिनता हूँ अपनी सारी उपलब्धियाँ, 

किन्तु, आज उन्हें उपलब्धि समझने में भी मुझे लज्जा आती है, 

और किसीका नहीं, दोष तो मेरा ही है।  


हर दिन मैं खुद बनाता या बिगाड़ता रहा अपना जीवन,  

हर भले--बुरे कर्मों का फल भी उसी जैसा मिलता है। 

Good good, bad bad, the tide once set,

भला का फल भला, बुरा का फल बुरा- इस ज्वार-भाटा को 

शुरू होने के बाद -कोई कितना भी सर मारे  रोक नहीं सकता।      

क्योंकि और किसीका नहीं, दोष तो मेरा ही है।   


मैं ही तो अपना साकार अतीत हूँ;

जिसमें बड़ी बड़ी योजनायें बनाई थी ;

वे संकल्प, धारणायें, जैसी थीं -उसी साँचे के अनुरूप,

ढल गया है यह जीवन , 

और किसीका नहीं , दोष तो मेरा ही है। 

इसके लिए सिर्फ़ मैं ही ज़िम्मेदार हूँ।


प्रेम का प्रतिफल प्रेम के रूप में वापस आया,

और घृणा ने भी भयंकर अलगाव को जन्म दिया,

उन्हीं दो सीमाओं में घिरा रहा यह जीवन और मरण भी,

प्रेम और घृणा इसी तरह 'एकत्व' या 'पृथक्त्व' की ओर ले जाते हैं।   

किसे दोष दूँ ? जबकि स्वयं मैं ही दोषी हूँ।


मैं भय और व्यर्थ के पश्चाताप को त्याग रहा हूँ,

मैं अपने कर्म-फल के प्रवाह का अनुभव कर रहा हूँ।   

मैं अपने कर्मों द्वारा उत्पन्न- सुख-दुःख, निन्दा-प्रसिद्धि;

रूपी भूतों का सामना कर रहा हूँ --

किसे दोष दूँ , जबकि स्वयं मैं ही दोषी हूँ। 


शुभ-अशुभ, प्रेम- घृणा, सुख- दुःख 

हमेशा साथ-साथ जुड़े रहते हैं,

मैं मूरख - बिना दुःख के सुख का सपना ?? देखता रहा,

किंतु यह स्वप्न -स्वप्न ही रहा, कभी नहीं हुआ साकार ;

किसे दोष दूँ , जबकि स्वयं मैं ही दोषी हूँ। 


मैं घृणा त्यागता हूँ, मैं प्रेम छोड़ता हूँ,

मेरे जीवन की प्यास (ऐषणा) समाप्त हो गई है;

My thirst for life is gone;

मैं जो चाहता हूँ वह है - शाश्वत मृत्यु,

जीवन की लौ ही -जैसे निर्वाण पा गयी है;

अब कोई ऐसा बचा ही नहीं , जिसे दोष दूँ ! 


एकमात्र मानव, एक मात्र ईश्वर, एक ही पूर्ण आत्मा,

एकमात्र ऋषि -है वही -जिसने 

हमेशा अंधकार और संदिग्ध मार्गों का तिरस्कार किया,

One only man who dared think and dared show the goal --

 और एकमात्र सम्पूर्ण मनुज [मानहूँषपैगम्बर,नेता-शिक्षक] वह जिसने 

जिसने सोचा-समझा चरम लक्ष्य जीवन का, 

फिर पथ->'Be and Make' दिखलाया   

That death is curse, and so is life, 

and best when stops to Be.

 मृत्यु एक अभिशाप है, और यह जीवन भी तो ऐसा ही है,

  सबसे उत्तम ~ 

 जन्म-मरण का बन्धन छूटे ! 

ॐ नमो भगवते सम्बुद्धाय,

Om, I salute the Lord, the awakened.

ॐ नमः प्रभु ! चिर सम्बुद्ध !   

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प्रज्ञा, शील, समाधि

बौद्ध धर्म मानता है कि विवेकज-ज्ञान (प्रज्ञा), नैतिक आचरण (शील) और एकाग्रता (समाधि) जीवन के लिए तीन आवश्यक घटक हैं। प्रज्ञा, शील, समाधि को बौद्ध नैतिकता का 'त्रिरत्न' कहा जाता है। बुद्धि सही दृष्टिकोण से आती है, यह सही लक्ष्य की ओर ले जाती है।

मानव के मन के अध्ययन के सन्दर्भ में, सत्य-असत्य -मिथ्या की पहचान करने तथा समस्याओं के हल करने की मन की क्षमता को- विवेकज ज्ञान या प्रज्ञा  कहते हैं। प्रज्ञा मन की वह क्षमता है जो सही निष्कर्ष पर पहुँचने में सहायक होती है।

बुद्ध ने तीन शब्द उपयोग किए हैं–प्रज्ञा, शील, समाधि। बुद्ध कहते हैं, जितनी प्रज्ञा बढ़े, जितनी समझ बढ़े, उतना शील रूपांतरित होता है, चरित्र बदलता है। जितना चरित्र रूपांतरित हो, उतनी समाधि निकट आती है।

लेकिन शुरुआत करनी पड़ती है प्रज्ञा से, समझ से। समझ बनती है शील बाहर की दुनिया में, और भीतर की दुनिया में समाधि। यहां समझ बढ़ती है, तो बाहर की दुनिया में चरित्र पैदा होता है। और चरित्र का अगर ठीक-ठीक अर्थ समझें, तो चरित्र (=आत्मविश्वास) केवल उसी के पास होता है, जो अकंप (माँ सारदा/तारा का पुत्र) है। जो जरा-जरा सी बात में कंप जाता है, उसके पास कोई चरित्र (आत्मविश्वास) नहीं होता।

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ॐ नमो भगवते सम्बुद्धाय !

[Om, I salute the Lord, the awakened/ ॐ नमः जागृत प्रभु, तत्त्वमसि !--'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' बताने वाले भारत की प्राचीन देवसंस्कृति परम्परा ~ के 'The inspirational leader- 'प्रेरणादायक पैगम्बर' आचार्यदेव (शिक्षक, नेता, CINC नवनीदा) को प्रणाम करता हूं !]  

 "स्वामीजी से किसीने पूछा - क्या बुद्ध ने उपदेश दिया था कि -'अनेकता सत्य है अहं असत्य है!', जबकि सनातनी हिन्दू धर्म एक ('One'-ness) को सत्य (real) और अनेक (Many) को (unreal-असत्य नहीं ! मिथ्या) मानता है ? " स्वामीजी ने उत्तर दिया - "हाँ, और परमहंस रामकृष्ण ने उसमें (बुद्ध के उपदेश में) जो कुछ जोड़ा है, वह यह है - 'अनेक और एक' एक ही सत्य (तत्व-सोना) है', जिसे एक ही मन के द्वारा अलग-अलग समय पर और अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखा जाता है।"(सूक्तियाँ और सुभाषित-८/१२७) 

[जैसा सोना को कभी- नेकलेस, ब्रासलेट, कंगन, earring -कान की बाली, या अँगूठी के रूप में देखा जाता है। जैसे मिट्टी ही कभी घड़ा, सुराही , कुल्हड़ के रूप में देखा जाता है। जैसे एक ही M/F अलग अलग समय पर अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखे जाते हैं। वैसे ही एक ही जीवन मनुष्य और पशु में है। जैसे गहना -सोना एक है, वैसे ही जीवन भी  Om, I salute the Lord, the awakened- 'The inspirational leader !' ओम, मैं जागृत प्रभु ~ 'प्रेरणादायक पैगम्बर' (शिक्षक, नेता-आचार्यदेव ) को प्रणाम करता हूं !]       

"Did Buddha teach that the Many was real and the 'ego' unreal, while orthodox Hinduism regards the One as the real, and the many as unreal?" the Swami was asked. "Yes", answered the Swami. "And what Ramakrishna Paramahamsa and I have added to this is, that the Many and the One are the same Reality, perceived by the same mind at different times and in different attitudes." (Eng-vol /8) 

(43)" अद्वैत की यह मान्यता है कि आत्मा [देह की मृत्यु के बाद ? साक्षी आत्मा -सिनेमा के पर्दे की तरह तटस्थ/कूटस्थ रहती है ] न आती है , न जाती है। और जगत-ब्रह्माण्ड के ये सभी लोक आकाश और प्राण की भिन्न-भिन्न रचनायें हैं। अर्थात्, यह सौर मण्डल  (Solar Sphere : सूर्य और उसकी परिक्रमा करने वाली सभी खगोलीय पिण्डों का गुरुत्वाकर्षण से बंधा हुआ तंत्र है।) जिसके अन्तर्गत दृष्टिगोचर जगत का जो  सबसे अधिक घनीभूत स्तर है, उसमें 'प्राण' भौतिक शक्ति  के रूप में (physical force-जैसे धकेलना, रस्सी खींचना के रूप में) तथा 'आकाश' इन्द्रियगोचर पदार्थ (sensible matter) के रूप में दिखाई पड़ता है ! 

    दूसरा चन्द्र मण्डल (Lunar Sphere-क्षेत्र) कहलाता है, जो सौर मण्डल के चारों और है। यह चन्द्रमा नहीं - बल्कि देवताओं का निवास स्थान है ; अर्थात इसमें प्राण मनोबल (psychic forces) के रूप में और आकाश तन्मात्राओं या सूक्ष्म कणों (fine particles) के रूप में प्रकट होता है।

     इसके परे (चन्द्रमण्डल से परे) विद्युत् मण्डल (Electric Sphere) है; अर्थात् प्राण की एक ऐसी अवस्था जहाँ वह आकाश (matter) के साथ अविभाज्य (inseparable) रूप में बनी रहती है, और तुम्हारे लिए यह कहना कठिन हो जाता है कि ['वज्र' (Thunderbolt)?] विद्युत् (electricity) ऊर्जा (Energy बल या शक्ति) है या पदार्थ (Matter) ?  

          इसके बाद ब्रह्मलोक है, जहाँ न तो प्राण है और न ही आकाश, बल्कि दोनो मन-वस्तु (mind - stuff, the primal energy) मे विलीन है। [विद्युत् लोक के बाद ब्रह्मलोक वह स्तर है जहाँ आकाश और प्राण दोनों मनवस्तु चित्, प्राथमिक ऊर्जा या 'आद्या शक्ति' जिसकी तुलना तरङ्ग रहित शान्त सरोवर से कि जाति है] में विलीन हैं।]  

         और चुकी यहाँ - न तो प्राण है और न ही आकाश - इसलिए जीव (साक्षी चेतना) पूरे ब्रह्मांड का चिंतन समष्टि या महत् (अर्थात मन ) के योग के रूप में (माँ जगदम्बा के मातृ ह्रदय के सर्वयापी विराट 'मैं' के रूप में) करता है। यह एक पुरुष, एक अमूर्त विश्वात्मा प्रतीत होता है, किन्तु वह ब्रह्म नहीं है, क्योंकि यहाँ भी अनेकत्व (multiplicity) विद्यमान है। अन्ततोगत्वा -# इससे जीव उस एकत्व (Oneness) का अनुभव करता है, जो लक्ष्य है।

[# तीन 'श' को सहने के बाद 'ह' का अनुभव - जो कि लक्ष्य है अर्थात तीन बार आसन्न घात-प्रतिघात से जीवित बचकर निकल जाने के बाद - यह अनुभव  करता है, कि हत्या की कोशिश करने वाला (कौरव) , और हत्या से बच-जाने वाला (पाण्डव) दोनों एक ही है -माँ जगदम्बा/श्री कृष्ण की निर्देशन में अलग-अलग भूमिका निभाते हैं।]     

     अद्वैतवाद कहता है कि ये वे दिव्य-दर्शन हैं ( visions-परिकल्पना या झलक हैं)  जो जीव के सामने क्रमिक रूप से उत्पन्न होते हैं। वह स्वयं न तो जाता है और न आता है, और जिस दृश्य को वह अभी देख रहा है -वह भी इसी प्रकार आत्मा/ब्रह्म रूपी पर्दे पर प्रक्षेपित किया गया है। 

       प्रक्षेपण (सृष्टि-projection) और प्रलय (dissolution) एक ही क्रम में होने चाहिए, केवल एक का अर्थ पीछे की ओर जाना (मिथ्या अहं का हटना) और दूसरे का (आत्मज्ञान का) बाहर आना है।

         "अब, चूँकि प्रत्येक व्यक्ति (each individual) केवल अपने ही जगत को देख सकता है, वह जगत [नाटक-सिनेमा] उसके बंधन के साथ उत्पन्न  होता है और उसकी मुक्ति के साथ ही चला जाता है, यद्यपि जो बन्धन में हैं, उनके लिए वह वैसा ही बना रहता है। अतः नाम और रूप से विश्व बना है। समुद्र की लहर केवल तभी तक लहर है जब तक वह नाम और रूप से बंधी हुई है। जब लहर शान्त हो जाती है, या बूँद सागर में मिल जाती है , तब समुद्र रहता रहता है, किन्तु वह नाम- रूप 'बूँद या लहर ' शीघ्र ही हमेशा के लिए अदृश्य हो जाता है। इसलिए 'लहर' का नाम और रूप उस जल के बिना अस्तित्व नहीं रख सकता, जो पहले बूँद या लहर के रूपों में दिख तो रहा था। किन्तु वह नाम और रूप स्वयं लहर नहीं थे। जैसे ही लहर जल में वापस लौटती है, उसका नाम-रूप नष्ट हो जाता है। लेकिन दूसरे नाम और रूप दूसरी लहरों से सम्बन्धित होकर जीवित रहते हैं। 

      इस दिखने वाले नाम-रूप को माया कहते हैं और जल ब्रह्म है। लहरें कभी भी जल के अतिरिक्त और कुछ नहीं थीं, फिर भी लहरों की अवस्था में उनका नाम और रूप था। फिर,  यह नाम और रूप एक क्षण के लिए भी लहर से पृथक नहीं रह सकता, यद्यपि लहर, जल के रूप में शाश्वत काल तक नाम और रूप से पृथक रह सकती है।  परन्तु चूँकि नाम और रूप  कभी अलग नहीं किये जा सकते, इसलिए उनका अस्तित्व (अमुक के रूप में) है, ऐसा भी नहीं माना जा सकता। फिर भी 'वे' [ ठाकुर, माँ, स्वामीजी -दादा ] शून्य (मिथ्या) नहीं हैं। इसे माया कहते हैं।"   

"हो सकता है कि एक जीर्ण वस्त्र को त्याग देने के समान, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं बहुत उचित समझूँ। किन्तु मैं काम करना नहीं छोड़ूँगा। जब तक सारी दुनिया न जान ले, मैं सब जगह लोगों को यही प्रेरणा देता रहूँगा, कि वह ईश्वर के साथ एक है।" 

[प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! तत्त्वमसि !--'वह ब्रह्म तुम्हीं हो। (१०/२१७)]     

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43. "Now on the Advaitic side it is held that the soul neither comes nor goes, and that all these spheres or layers of the universe are only so many varying products of Akasha and Prana. That is to say, the lowest or most condensed is the Solar Sphere, consisting of the visible universe, in which Prana appears as physical force, and Akasha as sensible matter.

      The next is called the Lunar Sphere, which surrounds the Solar Sphere. This is not the moon at all, but the habitation of the gods; that is to say, Prana appears in it as psychic forces, and Akasha as Tanmatras or fine particles. Beyond this is the Electric Sphere; that is to say, a condition inseparable from Akasha, and you can hardly tell whether electricity is force or matter. Next is the Brahmaloka, where there is neither Prana nor Akasha, but both are merged into the mind - stuff, the primal energy. And here -- there being neither Prana nor Akasha -- the Jiva contemplates the whole universe as Samashti or the sum total of Mahat or mind. This appears as Purusha, an abstract Universal Soul, yet not the Absolute, for still there is multiplicity. From this the Jiva finds at last that Unity which is the end.

       Advaitism says that these are the visions which arise in succession before the Jiva, who himself neither goes nor comes, and that in the same way this present vision has been projected. [...सारे दृश्य / या जो कुछ भविष्य में होगा वह भी इसी प्रकार आत्मा/ब्रह्म रूपी पर्दे पर प्रक्षेपित किया जा रहा है, किया जाता रहेगा ?।]  The projection (Srishti) and dissolution must take place in the same order, only one means going backward and the other coming out. 

     "Now, as each individual can only see his own universe, that universe is created with his bondage and goes away with his liberation, although it remains for others who are in bondage. Now, name and form constitute the universe. A wave in the ocean is a wave only in so far as it is bound by name and form. If the wave subsides, it is the ocean, but that name - and - form has immediately vanished forever, so that the name and form of a wave could never be without the water that was fashioned into the wave by them. Yet the name and form themselves were not the wave; they die as soon as ever it returns to water, but other names and forms live on in relation to other waves. This name - and - form is called Maya and the water is Brahman. The wave was nothing but water all the time, yet as a wave it had the name and form. Again this name - and - form cannot remain for one moment separated from the wave, although the wave, as water, can remain eternally separate from name and form. But because the name and form can never be separated, they can never be said to exist. Yet they are not zero. This is called Maya."  

"It may be that I shall find it good to get outside of my body—to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God." (Volume 5, Sayings and Utterances-44)

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  'आत्मा' वा अरे श्रोतव्यः'  

(Atma Va Are Shrotavyah) 

          उस आत्मा का श्रवण करो - जिससे सब कुछ निकला है, जिसमें स्थित है, और जिसमें सबकुछ लीन हो जाता है।  [1-1-2: जन्माद्यस्य यत: = अस्य = इस जगत् के;  जन्मादि = जन्म आदि (उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय); यत: = जिससे (होते हैं, वह ब्रह्म है)| और जिसका केन्द्र निश्चित है, परन्तु परिधि अनन्त, असीम है। इस आत्मा के विषय में तैत्तिरीय उपनिषद् (भृगु वल्ली, अनुवाक १)  कहती है: 

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति।

यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद्‌ ब्रह्मेति।

“ये समस्त प्राणी कहाँ से उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर ये किसके द्वारा जीवित रहते हैं तथा तत्पश्चात् ये किसमें समाविष्ट हो जाते हैं, उसे तुम जानने का प्रयास करो, क्योंकि वह ही है ‘ब्रह्म’।”

स्वामीजी कहते हैं -" जिसमें शरीर-बोध बिल्कुल नहीं है, वह मदमत्त हाथी की तरह इतस्तः विचरण करता है। परन्तु मेरे समान क्षुद्र जीव के लिए यह आवश्यक है कि वह एक स्थान पर बैठकर साधना करे। और तब तक अभ्यास में लगा रहे , जबतक उसे इष्ट-सिद्धि प्राप्त न हो। जब कोई व्यक्ति ब्रह्मविद बन जाये , फिर वह चाहे तो, उस प्रकार निर्द्वन्द्व विचरण कर सकता है। परन्तु वह अवस्था बहुत दूर - निस्सन्देह बहुत दूर है।  (१/३६२)    

चिन्ताशून्यमदैन्यभैक्ष्यमशनं पानं सरिद्वारिषु

स्वातन्त्र्येण निरंकुशा स्थितिरभीर्निद्रा श्मशाने वने।

वस्त्रं क्षालनशोषणादिरहितं दिग्वास्तु शय्या मही

संचारो निगमान्तवीथिषु विदां क्रीडा परे ब्रह्मणि॥

विमानमालम्ब्य शरीरमेतद्

भुनक्त्यशेषान्विषयानुपस्थितान् ।

परेच्छया बालवदात्मवेत्ता

योऽव्यक्तलिङ्गोऽननुषक्तबाह्यः ॥

दिगम्बरो वापि च साम्बरो वा

त्वगम्बरो वापि चिदम्बरस्थः।

उन्मत्तवद्वापि च बालवद्वा

पिशाचवद्वापि चरत्यवन्याम्‌॥

(Vivekachudmani, 538-40)

-- " ब्रह्मज्ञानी को भोजन बिना किसी परिश्रम के अपनेआप मिल जाता है। जो कुछ पीने को मिल जाता है वह पी लेता है। वह कहीं भी जाने में आनन्द का अनुभव करता है। निर्भय रहता है, कभी जंगल में और कभी श्मशान में सो जाता है। --'treads the Path, which the Vedas have taken, but whose end they have not seen.' - वह उस वैदिक मार्ग का (महावाक्यों का) अनुसरण करता है, जिसका अंत क्या होगा उसने अभीतक देखा नहीं है उसका शरीर आकाश जैसा (बृहद) है, वह बालकों की तरह दूसरों के इच्छानुसार परिचालित होता है। कभी वस्त्र विहीन, कभी सुन्दर कपड़ों से सुशोभित रहता है। और कभी-कभी केवल ज्ञान ही उनका वस्त्र होता है। वह कभी बच्चों की तरह, कभी उन्मत्त जैसा और कभी औघड़ के जैसा शुचिता के प्रति उदासीन रहता है।" (विवेकचूड़ामणि, 538-40)

🙏मैं श्री गुरुदेव के पवित्र चरणों में प्रार्थना करता हूँ कि तुमको वह अवस्था - [ब्रह्मवेत्ता वाली अवस्था ] प्राप्त हो और तुम गैण्डे की भाँति निर्द्वन्द्व विचरण करो।  

-स्वामी विवेकानंद

(स्वामी अखण्डानन्द को पत्र - दिनांक फरवरी, 1890)

— To a knower of Brahman food comes of itself, without effort — he drinks wherever he gets it. He roams at pleasure everywhere — he is fearless, sleeps sometimes in the forest, sometimes in a crematorium and, treads the Path, which the Vedas have taken, but whose end they have not seen. His body is like the sky; and he is guided, like a child, by others' wishes; he is sometimes naked, sometimes in gorgeous clothes, and at times has only Jnana as his clothing; he behaves sometimes like a child, sometimes like a madman, and at other times again like a ghoul, indifferent to cleanliness. (Vivekachudamani, 538-40)

🙏 I pray to the holy feet of our Guru that you may have that state, and you may wander like the rhinoceros.

Swami Vivekananda

(Letter to swami Akhandananda -dated Feb, 1890)

          स्वामी विवेकानन्द अपने व्याख्यान "व्यावहारिक जीवन में वेदान्त (१)" में कहते हैं - एक शब्द में वेदान्त का उपदेश है - 'तत्वमसि' - 'तुम्हीं वह ब्रह्म हो !'... प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को अपने जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है।  वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता भ्रम स्वीकार करता है। जो अपने को दुर्बल समझता है, वो भ्रांत है। जिन ऋषियों ने सत्य समूह (चार महावाक्यों) का आविष्कार किया था वे पहाड़ की गुफाओं में रहने वाले नहीं थे, वरन कर्मठ जीवन जीने वाले राजा लोग थे। जब राजा लोग [राजर्षि जनक] इन सब तत्वों का चिन्तन करने तथा उसको अपने जीवन में परिणत करने और अपने आचरण द्वारा मानवजाति को शिक्षा देने का समय निकाल लेते थे। हम अपेक्षाकृत खाली ही रहते हैं, अतः हमारे लिए उस सत्य का साक्षात्कार न कर सकना बड़ी लज्जाजनक बात है। वेदान्त इस बात को बिल्कुल नहीं मानता कि पशु मनुष्य से पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर हमारे भोज्य रूप में बनाया है। एकमात्र जीवन है, एकमात्र जगत है , एकमात्र सत है। आदर्श यही है कि मांस न खाया जाये। " सब वही एक है, जो अपने को विचार, जीवन , आत्मा (देहधारी) या देह के के रूप में अभिव्यक्त करता हैं, और उनमें अन्तर केवल परिमाण का है। " मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थिति और तथा अभाव के कारण है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता , वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है - जो आत्मविश्वास नहीं रखता , वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास -मिथ्या 'अहं' को लेकर नहीं है, ['देहधारी' के प्रति विश्वास] क्योंकि वेदान्त Oneness की शिक्षा भी देता है। इस आत्मविश्वास का अर्थ है -सबके प्रति विश्वास। 

      "This Âtman is first to be heard of."आत्मा वा अरे श्रोतव्यं : - दिन-रात श्रवण करो कि तुम्हीं वह 'देहधारी' आत्मा हो। यहाँ तक कि यह विचार तुम्हारे रक्त के प्रत्येक बूँद में और तुम्हारी नस-नस में समा जाय। हृदय के पूर्ण होने पर, मुख बात करता है- हृदय के पूर्ण होने पर हाथ (Hand) भी काम करते हैं। " (८/१३) धर्म के विषय में विश्व-ब्रह्माण्ड के एकत्व और आत्मविश्वास के अतिरिक्त और क्या शिक्षा आवश्यक है ? शिक्षा केवल इतनी ही देनी है। जगत अनेक नहीं है , जीवन अनेक नहीं है। यह बहुत्व उस एकत्व की ही अभिव्यक्ति है। अतएव हमलोगों का प्रथम कर्तव्य है - इस तत्व की शिक्षा अपने को तथा दूसरों को शिक्षा देना। (८/१४) "जिसे हम विवेक-प्रयोग कहते हैं , उसका उपयोग अपने जीवन के प्रतिक्षण में करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए हमें सत्य की कसौटी जान लेनी चाहिए - वह है अन्तर्निहित दिव्यता और एकत्व का ज्ञान। जिससे एकत्व की प्राप्ति हो - (प्रेम बढ़े) वही सत्य है। प्रेम सत्य है ; घृणा असत्य है , क्योंकि वह अनेकत्व जन्म देती है। घृणा ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है- अतएव वह गलत और मिथ्या है। प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है।  मैं जिसे सम्मुख देख रहा हूँ, उससे भी अधिक व्यावहारिक ईश्वर और कहाँ होगा ? (८/१५-१६)  भगवत्साक्षात्कार  हृदय (Heart) के द्वारा होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं। बुद्धि (Head-IQ) अन्धी है,उसकी अपनी गति-शक्ति नहीं है, उसके हाथ-पैर नहीं हैं। वास्तव में भावना- (emotion, फिलिंग) ही कार्य करती है, उसकी गति बिजली अथवा उससे भी अधिक वेगवान पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ होती है। अब प्रश्न यह है कि क्या तुममें भावना ( Heart-EQ) है ? यदि है तो तुम ईश्वर को देखोगे। तुम क्या किसी दूसरे के लिए ह्रदय से अनुभव करते हो ? यदि करते हो तो एकत्व (Oneness-SQ) के भाव में विकास कर रहे हो।" (८/१७) क्या विश्व के इतिहास में तुम्हें पैगम्बरों की शक्ति का पता नहीं चला ? बुद्धि में ? ईसा की भाँति भावना करो, तुम भी ईसा हो जाओगे; बुद्ध के समान एकत्व का अनुभव (भावना) करो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे। एकत्व की भावना ही जीवन है , एकत्व की भावना ही बल है, एकत्व भावना ही तेज है - एकत्व की भावना  के बिना कितनी भी बुद्धि लगाओ , ईश्वर-प्राप्ति नहीं होगी। हमलोगों में से प्रत्येक को पैगम्बर बनना पड़ेगा-और तुम स्वरूपतः वही हो। बस केवल यह अपने अनुभव से जान लो। (८/१८)        

["This Âtman is first to be heard of. Hear day and night that you are that Soul. Repeat it to yourselves day and night till it enters into your very veins, till it tingles in every drop of blood, till it is in your flesh and bone. Out of the fullness of the heart the mouth speaketh," and out of the fullness of the heart the hand worketh also. Action will come. (vol-2/302) "It is through the heart that the Lord is seen, and not through the intellect. because the intellect is blind and cannot move of itself, it has neither hands nor feet. It is feeling that works, that moves with speed infinitely superior to that of electricity or anything else. Do you feel? — that is the question. If you do, you will see the Lord: Do you feel for others? If you do, you are growing in oneness." (Practical Vedanta-vol,2/306-7)] 

आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित है; और मृत्यु का अर्थ है, इस केंद्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित हो जाना।" (१/१०) This is man. And what is God? God is a circle with its circumference nowhere and centre everywhere. (vol -8 /God: Personal And Impersonal)   

जगत् के समस्त पदार्थों में प्रियतम वस्तु यही ‘आत्मा’ है। किसी स्थान से प्रिय वस्तुओं की गणना की जाय (देश-काल में स्थित किन्हीं वस्तुओं की गणना की जाय), पर्यवसान आत्मा में ही होता है। इस विशाल वृत्त स्थानीय जगत् का केन्द्र यही आत्मा है। केन्द्र निश्चित है, परन्तु परिधि अनन्त, असीम है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने इसी आत्मा के साक्षात्कार को मोक्ष का स्वरूप बतलाया है। जगत् का कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है। आज की चीजें देखते हैं , वह कल नष्ट हो जाती हैं। यदि कोई टिकने वाला अनश्वर/अविनाशी पदार्थ है, तो वह आत्मा ही है। इसी का साक्षात् अनुभव करना मानव जीवन का चरम लक्ष्य है। इसके अनुभव के निमित्त पुत्रवत्सला माता की तरह भगवती श्रुति सुन्दर शब्दों में हमें शिक्षा देती हैं- 

 आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो  मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः। 

आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेन सर्व विज्ञातं भवति।।

 (वृहदारण्यक 2/4/5)

याज्ञवल्क्य जी मैत्रेयी से कहते हैं-- अरी मैत्रेयि ! यह  आत्मा ही देखने (जानने) योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है तथा निदिध्यासन (खुली आँखों से ध्यान) करने योग्य है॥ आत्मा का श्रवण करो,मनन करो तथा ध्यान करो। आत्मा के विज्ञान से सब विज्ञात हो जाता है। वेदान्तसार के विद्वन्मनोरञ्जनी टीका में कहा गया है–

"श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः।

 मत्वा च सततं  ध्येयः  एते  दर्शन  हेतवः।।"

 आत्मतत्व का श्रवण श्रुति-वाक्यों के द्वारा करना चाहिए, मनन तार्किक युक्तियों से करना चाहिए तथा योगप्रतिपादित उपायों (अष्टांग योग) के द्वारा उसका निदिध्यासन करना चाहिए। ये ही तीनों आत्म-दर्शन के उपाय हैं।  

[आत्मा के सच्चे स्वरूप का ज्ञान हमें उन्हीं ग्रन्थों से करना चाहिए जिनमें आत्मनिष्ठ ब्रह्मवेत्ता पुरूषों के साक्षात् किये गये अनुभव का संकलन है। ये ही हमारे परम माननीय वेद हैं। श्रवण से ही हमारे कर्तव्य की समाप्ति नहीं होती। मनन की भी आवश्यकता रहती है। युक्तियों के सहारे वेदविहित तथ्यों के स्वरूप को ठीक ढंग से समझना ‘मनन’ है। योग (अष्टांग) के मार्ग से उस निश्चित तत्व का लगातार चिन्तन करते रहना ‘निदिध्यासन’ है। इन उपायों से आत्मा का दर्शन मिलता है। धर्म का लक्षण महर्षि कणाद के शब्दों में है- यतोऽभ्युदय-निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। अर्थात् जिससे लौकिक उन्नति तथा पारलौकिक कल्याण (Oneness) दोनों की सिद्धि (परा और अपरा विद्या -'Secular and Sacred' दोनों की सिद्धि-हो वही धर्म है। धर्म (से अर्जितअर्थ और काम द्वारा) संसार में उन्नति की काङ्क्षा रखता है, पर उसके साथ-साथ मोक्ष की सिद्धि भी उसका लक्ष्य है। इसी को विस्तार से समझाते हुये स्वामी विवेकानंद कहते है कि यदि वह एक ही पर ध्यान दे, तो उसका उद्देश्य कथमपि पूर्ण नहीं कहा जा सकेगा। पाश्चात्य देशों में धर्म दर्शन का बाधक रहा है, साधक नहीं। विरोधी रहा है, सहायक नहीं।]

परन्तु भारत वर्ष में धर्म और दर्शन में अविच्छेद्य मैत्री रही है। भारतीय दर्शन (philosophy) का आविर्भाव, इसीलिए हुआ है कि वह  क्लेश-बहुल संसार से निवृत्ति पाने के लिए लिए, तीन तापों से सन्तप्त जन की शान्ति के लिए एक सुन्दर तथा निश्चित मार्ग का उपदेश देता है-

 ‘‘दुःखत्रयाभिघातात् जिज्ञासा तदपघातके हेतौ’।

 (सांख्य-कारिका) 

अर्थात त्रितापों के दुःख से त्रस्त व्यक्ति (या सत्यार्थी भावी नेता या ऋषि) को उससे मुक्ति पाने के लिए जिज्ञासा होती है। उन ऋषियों के द्वारा आविष्कृत मुक्ति पथ का विचारशास्त्र (Ideology- वेदों के चार महावाक्य का विचार) पण्डितों की मनगढ़न्त कल्पना (fanciful imagination) का विजृम्भण (जँभाई-उलटबासी) मात्र नहीं है। अपितु उसका उपयोग और प्रभुत्व (dominion) इस व्यावहारिक जगत (practical world) के लिए है। 

       भारतीय धर्म (सनातन वैदिक धर्म) की प्रतिष्ठा सत्यद्रष्टा ऋषियों के द्वारा सुचिन्तित तथा आविष्कृत आध्यात्मिक तथ्यों के ऊपर (=चार महावाक्यों के ऊपर) ही है। यानि भारतीय धर्म और दर्शन, दोनों के मूल आधार वेद ही हैं। कहावत है -" जैसा विचार, वैसा आचार : As is the thought, so is the conduct."-दर्शन विचारों का [सिद्धान्त’ (theory) चार महावाक्य का] प्रतिपादक है और इन्हीं विचारों के अनुसार आचारों [‘ व्यवहार्य ’(practical)] की व्यवस्था करना धर्म का काम है। दर्शन सिद्धान्त प्रतिपादक है तो धर्म व्यवहार प्रदर्शक है। बिना धार्मिक आचारों 'Be and Make' द्वारा कार्या-न्वित हुए दर्शन की स्थिति निष्फल है और बिना दार्शनिक विचारों द्वारा परिपुष्ट हुए धर्म की सत्ता अप्रतिष्ठित है। धर्म को अपनी इमारत खड़ा करने के लिए दर्शन नींव रखता है। कोई भी धर्म तब तक विद्वानों का प्रियप्रात्र नहीं बन सकता, जब तक वह दर्शन की नींव पर खड़ा नहीं होता। भारत में इस सामंजस्य का मधुर रूप दिखलाई पड़ता है। धर्म के सहयोग से भारतीय दर्शन की व्यापक व्यावहारिक दृष्टि है और दर्शन की आधारशिला पर प्रतिष्ठित होने के कारण भारतीय धर्म आध्यात्मिकता से अनुप्राणित है तथा वह तर्कहीन विचारों तथा विश्वासों से अपने आपको बचा सका है

      दुःख की निवृत्ति (removal of suffering)  की खोज से धर्म उत्पन्न होते है और दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति (ultimate removal of suffering) का एकमात्र उपाय ‘दर्शन’ ही है। परमात्म-दर्शन, परमेश्वर का दर्शन, ब्रह्मलाभ, ‘स्व’ को ‘पर’ में निमग्न कर देना, यही उन्नत दर्शन (advanced philosophy)  है इस प्रकार धर्म की पराकाश्ठा का ही नाम ‘दर्शन’ है। पराकाष्ठा (Culmination) से मतलब यह है कि सच्चे दर्शन से सब का सामंजस्य, सबकी परस्पर अनुकूलता, सबकी तुष्टि और पुष्टि हो जाती है। आत्मदर्शन (self-realization)  जिस प्रकार दर्शन का चरम लक्ष्य है, उसी प्रकार यह परमधर्म (ultimate religion) भी है। स्वामी विवेकानंद मनु और याज्ञवल्क्य के आत्म-दर्शन को ही परमधर्म मानते हैं -

सर्वेषामपि चैतेषामात्तमज्ञानं परं स्मृतम्। 

तद्धयंग्रयं सर्वविद्यानां प्राप्तये ह्यमृतं ततः॥ 

(मनुस्मृति -12.85॥)

इन सभी कर्मों में आत्मज्ञान सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि वही सभी विद्याओं में श्रेष्ठ है। उससे अमृतत्व प्राप्त होता है। 

इज्याचारदमाहिंसादानस्वाध्यायकर्मणाम्।

      अयं तु परमो धर्मों यद् योगेनात्मदर्शनम्।। 

(याग्वल्क्य. स्मृ.1)

यज्ञ, आचार, दम, अहिंसा , दान, स्वाध्याय आदि की अपेक्षा योगाभ्यास से, अर्थात बाह्य जगत के चित्त-वृत्तियों के निरोध से जो आत्मा का यथार्थ ज्ञान होता है, यह परम धर्म है । 

    इस पुण्यभूमि (holy land) भारत में गंगा और यमुना के सम्मिलन के समान धर्म और दर्शन का मधुर मिलन भारतीय संस्कृति के परम सामरस्य (ultimate harmony) का सूचक है। भगवती श्रुति दोनों का मूल है। उस मूल को तिरस्कृत कर देने पर दोनों की स्थिति आपत्तियों से घिरी रहती है। केवल तर्क (logic) से किसी बात का ठीक निर्णय नहीं हो सकता। इसलिए श्रुति का आश्रय सदा आदरणीय है। भर्तृहरि ने ‘वाक्यपदीय’ में इस तत्व का विवेचन बहुत ठीक किया है- 

प्रज्ञा विवेकं लभते भिन्नैरागमदर्शनैः,

कियद् वा शक्यमुन्नेतुं स्वतर्कमनुधावता।

 तत्तद् उत्प्रेक्षमाणानां पुराणैरागमैर्विना,

 अनुपासितवृद्धानां विद्या नाति प्रसीदति।।”

        विभिन्न आगमों के दर्शनों के द्वारा प्रज्ञा (बुद्धि) विवेक को प्राप्त करती है। अन्यान्य शास्त्रों एवं भिन्न भिन्न दर्शनों के अभ्यसन से ही बुद्धि किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप तक (सत-असत -मिथ्या विवेक तक) पहुंचती है, केवल अपने तर्कों का अनुगमन करतें हुए ही कहां तक पहुंचा जा सकता है..?? उसके तर्कों का नियंत्रण तो कहीं होना ही चाहिए,नहीं तो गन्तव्य से वह कहीं दूर भटक जायेगा। इसलिए पुराणों तथा आगमों के बिना तत्-तत् उत्प्रेक्षा [ उत्प्रेक्षा अलंकार : हरि (ठाकुर जी) मुख मानो मधुर मयंक -जहां किसी उपमेय (वस्तु) से उपमान की संभावना व्यक्त की जाए।] करने वालों तथा वृद्धों की उपासना ( न करने वालों की विद्या कोई बहुत प्रसन्न नहीं होती। श्रुतिहीन तर्क का कोई प्रामाण्य नहीं होता। यहाँ वृद्धों से तात्पर्य आप्त जनों और अनुभवी जनों (श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु/आप्त मार्गदर्शक नेता/पैगम्बर) से है। यह स्वामी जी की धर्म व दर्शन का सार अभिव्यक्ति है।

[साभार कादम्बरी शर्मा/ संस्कृत विभाग, शासकीय संस्कृत महाविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

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महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थीं। पहली पत्नी भारद्वाज ऋषि की पुत्री कात्यायनी और दूसरी मित्र ऋषि की कन्या मैत्रेयी थीं। याज्ञवल्क्य (तत्त्वमसि प्रमुख) चार महावाक्यों - में आधारित उस वेदान्त दर्शन के प्रखर प्रवक्ता थे, जिसने इस संसार को 'मिथ्या' स्वीकारते हुए भी (अर्थात सत-असत -मिथ्या का विवेक करके भी) उसे पूरी तरह नकारा नहीं। उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर संसार की सत्ता को स्वीकार किया। 

     एक दिन (50 वर्ष की आयु होने के बाद) याज्ञवल्क्य को लगा कि अब उन्हें गृहस्थ आश्रम छोडकर वानप्रस्थ के लिए चले जाना चाहिए। इसलिए उन्होंने दोनों पत्नियों के सामने अपनी संपत्ति को बराबर हिस्से में बांटने का प्रस्ताव रखा। कात्यायनी ने पति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, पर मैत्रेयी बेहद शांत स्वभाव की थीं। अध्ययन, चिंतन और शास्त्रार्थ में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। वह जानती थीं कि धन-संपत्ति से आत्मज्ञान नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए उन्होंने पति की संपत्ति लेने से इंकार करते हुए कहा कि मैं भी वन में जाऊंगी और आपके साथ मिलकर ज्ञान और अमरत्व की खोज करूंगी। इस तरह कात्यायनी को ऋषि की सारी संपत्ति मिल गई और मैत्रेयी अपने पति की विचार-संपदा की स्वामिनी बन गई।

पति से मिला आत्मज्ञान

वृहदारण्यक उपनिषद् में मैत्रेयी का अपने पति के साथ बडे रोचक संवाद का उल्लेख मिलता है। मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य से यह ज्ञान ग्रहण किया कि हमें कोई भी संबंध इसलिए प्रिय होता है क्योंकि उससे कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ जुडा होता है। मैत्रेयी ने अपने पति से यह जाना कि आत्मज्ञान के लिए ध्यानस्थ,समर्पित और एकाग्र होना कितना जरूरी है। याज्ञवल्क्य ने उन्हें उदाहरण देते हुए यह समझाया कि जिस तरह तुरही- नगाड़े (trumpet and drum) की आवाज के सामने हमें दूसरी कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती। वैसे ही आत्मज्ञान के लिए सभी इच्छाओं (ऐषणाओं) का बलिदान जरूरी होता है।

>>>क्या मृत्यु ही अंतिम सत्य है? (क्या मैत्रेयी के इसी प्रश्न ने सम्पूर्ण स्त्री जाति का सम्मान नहीं बढ़ाया?)

        याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा कि जैसे सारे जल का एकमात्र आश्रय समुद्र है उसी तरह हमारे सभी संकल्पों का जन्म मन में होता है। जब तक हम जीवित रहते हैं, हमारी इच्छाएं भी जीवित रहती हैं। मृत्यु के बाद हमारी चेतना का अंत हो जाता है और इच्छाएं भी वहीं समाप्त हो जाती हैं। यह सुनकर मैत्रेयी ने पूछा कि क्या मृत्यु ही अंतिम सत्य है? उसके बाद कुछ भी नहीं होता? 

      यह सुनकर याज्ञवल्क्य ने उन्हें समझाया कि- 'आत्मा वा अरे श्रोतव्य'  हमें अपनी आत्मा को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। शरीर नश्वर है, पर आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है। यह न तो जन्म लेती है और न ही नष्ट होती है। आत्मा को पहचान लेना अमरता को पा लेने के बराबर है। वैराग्य का जन्म भी अनुराग से ही होता है। चूंकि मोक्ष का जन्म भी बंधनों में से ही होता है, इसलिए मोक्ष की प्राप्ति करने से पहले (यानि हर मनुष्य में ईश्वर का दर्शन करने से पहले) हमें जीवन के अनुभवों से भी गुजरना पडेगा। यह सब जानने के बाद भी मैत्रेयी की जिज्ञासा शांत नहीं हुई और वह आजीवन अध्ययन-मनन में लीन रहीं। आज हमारे लिए स्त्री शिक्षा बहुत बडा मुद्दा है, लेकिन हजारों साल पहले मैत्रेयी ने अपनी विद्वत्ता से न केवल स्त्री जाति का मान बढाया, बल्कि उन्होंने यह भी सच साबित कर दिखाया कि पत्नी धर्म का निर्वाह करते हुए भी स्त्री ज्ञान अर्जित कर सकती है। 

    जब भी मन अशांत होता है तो नाम-जप या भजन गाना/सुनना शुरू करना चाहिए। इससे भक्त को ऐसा लगता है कि ईश्वर - सभी प्रकार के मनुष्य रूपों उसके आसपास ही हैं। हमें गीता के दर्शन को अपने जीवन में उतारने की कोशिश- Be and Make ' आन्दोलन से जुड़कर  करना चाहिए। इससे हमें आत्मिकखुशी मिलती है।

याज्ञवल्क्य और ब्रह्मवादिनी गार्गी बिच हुए दार्शनिक संवाद ने दुनिया के कौनसे रहस्य उजागर किये थे?

गार्गी : ऐसा माना जाता है, स्वयं को जानने के लिए आत्मविद्या के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है परन्तु आप ब्रह्मचारी तो नहीं। आपकी तो स्वयं दो दो पत्नियां हैं, ऐसे में नहीं लगता कि आप एक अनुचित उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं?

याज्ञवल्क्य : ब्रह्मचारी कौन होता हैं गार्गी? (जवाब में यज्ञवल्क्य पूछते हैं)।

गार्गी : जो परम सत्य (ultimate truth) की खोज में लीन रहे।

याज्ञवल्क्य : तो तुम्हें ये क्यों लगता हैं, गृहस्थ परम सत्य की खोज नहीं कर सकता ?

गार्गी : जो स्वतन्त्र हैं वही केवल सत्य की खोज कर सकता। विवाह तो बंधन हैं

याज्ञवल्क्य : विवाह बन्धन हैं?

गार्गी : निसंदेह।

याज्ञवल्क्य- कैसे?

गार्गी : विवाह में व्यक्ति को औरों का ध्यान रखना पड़ता हैं। निरंतर मन किसी न किसी चिंता में लीन रहता हैं, और संतान होने पर उसकी चिंता अलग। ऐसे में मन सत्य को खोजने के लिए मुक्त कहां से हैं? तो निसंदेह विवाह बन्धन हैं महर्षि।

याज्ञवल्क्य : किसी की चिंता/चिंतन करना बन्धन हैं या प्रेम?

गार्गी : प्रेम भी तो बन्धन हैं महर्षि?

याज्ञवल्क्य : प्रेम सच्चा (निःस्वार्थ प्रेम -केवल अपने पुत्र को नहीं दूसरे के पुत्र को अपने पुत्र जैसा प्रेम करे?) हो तो मुक्त कर देता हैं। केवल जब प्रेम में स्वार्थ प्रबल होता हैं तो वह बन्धन बन जाता हैं। समस्या प्रेम नहीं स्वार्थ हैं

गार्गी : क्या प्रेम में सदा स्वार्थ ही नहीं होता है महर्षि ?

याज्ञवल्क्य : जब प्रेम से आशाएं जुड़ने लगाती हैं, इच्छाएं जुड़ने लगती हैँ तब स्वार्थ का जन्म होता हैं। ऐसा प्रेम अवश्य बन्धन बन जाता हैं। जिस प्रेम में अपेक्षाएं न हो इच्छाएं न हों, जो प्रेम केवल देना जनता हो वही प्रेम मुक्त करता हैं

गार्गी : सुनने में तो आपके शब्द प्रभावित कर रहे हैं महर्षि। परन्तु क्या आप इस प्रेम का कोई उदहारण दे सकते हैं?

याज्ञवल्क्य : नेत्र खोलो और देखो (दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा ......)  समस्त जगत निःस्वार्थ प्रेम का प्रमाण हैं। ये प्रकृति निःस्वार्थता का सबसे महान उदहारण हैं। सूर्य की किरणें, ऊष्मा, उसका प्रकाश इस पृथ्वी पर पड़ता हैं तो जीवन उत्पन्न होता हैं। ये पृथ्वी सूर्य से कुछ नहीं मांगती हैं। वो तो केवल सूर्य के प्रेम में खिलना जानती हैं और सूर्य भी अपना इस पृथ्वी पर वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करता हैं। ना ही पृथ्वी से कुछ मांगता हैं। स्वयं को जलाकर समस्त संसार को जीवन देता हैं। ये निःस्वार्थ प्रेम हैं गार्गी! प्रकृति और पुरुष की लीला और जीवन उनके सच्चे प्रेम का फल हैं। हम सभी उसी निःस्वार्थता से उसी प्रेम से जन्मे हैँ और सत्य को खोजने में कैसी बाधा ?

इन उत्तरों को सुन गार्गी पूर्णतः संतुष्ट हो जाती और कहती हैं, 'मैं पराजय स्वीकार करती हूं'। तब याज्ञवल्क्य कहते हैं गार्गी तुम इसी प्रकार प्रश्न पूछने से संकोच न करो, क्योंकि प्रश्न पूछे जाते हैँ तो ही उत्तर सामने आते हैंजिनसे यह संसार लाभान्वित होता हैं

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[https://www.awgp.org/en/literature/book/samast_vishva_ko_bharat_ke_ajashra_anudan/v1.13] 

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से सत्युग का प्रारम्भ हो चुका है 'Be and Make आन्दोलन' अर्थात मनुष्य (मानहूँष) यानि पैगम्बर बनो और बनाओ युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से -देव संस्कृति को पुनर्स्थापित करने प्रगति यात्रा विगत 57 वर्षों से जारी है। 

देव संस्कृति की प्रगति यात्रा : भारतीय संस्कृति कितनी विशाल है व इस महासागर में कालक्रम से किस प्रकार भिन्न-भिन्न सभ्यताएँ व संस्कृतियाँ, मत-मतान्तर आते और समाते चले गए, इस सम्बन्ध में इतिहासकार एकमत हो इसकी सहिष्णुता सामाजिकता, उदारता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहे हैं । यथार्थ भारत को आविष्कृत करते हुए कविगुरु रविन्द्र नाथ ठाकुर ने लिखा था-


हे  मोर चित्त,  पुण्यतीर्थे जागो रे धीरे,

एई भारतेर महामानवेर सागर तीरे ।

केह नहि जाने, कार आह्वने, कत मानुषेर धारा,

दुर्वार स्रोते एलो कोथा हते, समुद्रे हलो हारा ।

हेथाय आर्य, हेथा अनार्य, हेथाय द्राविड़ चीन,

शक- हूण- दल, पाठान- मोगल एक देहे हलो लीन,

रणधारा वाहि जयगान गाहि, उन्माद कलरवे,

भेद मरुपथ, गिरिपवर्त यारा ऐसे छिलो सबे ।

तारा मोर माझो सवाई बिराजे, केहो नहे नहे दूर,

आमार शोणिते रयेछे ध्वनित तारि विचित्र सूर ।


হে মোর চিত্ত, পুণ্য তীর্থে জাগো রে ধীরে

এই ভারতের মহামানবের সাগরতীরে।

কেহ নাহি জানে কার আহ্বানে কত মানুষের ধারা

দুর্বার স্রোতে এল কোথা হতে, সমুদ্রে হল হারা।

হেথায় আর্য, হেথা অনার্য, হেথায় দ্রাবিড় চীন--

শক-হুন-দল পাঠান-মোগল এক দেহে হল লীন।

রণধারা বাহি জয়গান গাহি,  উন্মাদ কলরবে, 

ভেদি মরুপথ, গিরিপর্বত যারা এসেছিল সবে| 

তারা মোর মাঝে সবাই বিরাজে কেহ নহে নহে দূর,

আমার শোণিতে রয়েছে ধ্বনিতে তারি বিচিত্র সুর। 

       उपरोक्त बंगला कविता का भावानुवाद  कविश्रेष्ठ साहित्यकार श्री रामधारी सिंह दिनकर ने हिन्दी में करते हुए अपनी पुस्तक भारतीय संस्कृति के चार अध्याय में लिखा है-भारत देश महा मावनता का पारावार (समुद्र) है । ओ मेरे हृदय ! इस पवित्र तीर्थ - पुण्यभूमि भारत को देखने लिए पूरी श्रद्धा से अपनी आँखों को खोलो --कोई नहीं जानता कि किसके आह्वान पर मनुष्यता की कितनी धाराएँ दुर्वार वेग से बहती हुई, कहाँ-कहाँ से आई और इस महासमुद्र में मिलकर खो गयीं । यहाँ आर्य है, अनार्य हैं, यहाँ द्राविड़ और चीनी वंश के कितनी जाति के लोग हैं । शक, हूण, पठान और मोगल न जाने कितनी जाति के लोग इस देश में आये और सबके एक ही शरीर में समाकर एक हो गए । समय-समय पर जो लोग रक्त की धारा बहाते हुए एवं युद्धोन्माद के उत्साह में विजय के गीत गाते हुए रेगिस्तान को पार कर एवं पवर्तों को लाँघकर इस देश में आए थे, उनमें से किसी का भी अब अलग कोई अस्तित्व नहीं है । वे सब मेरे इस विराट शरीर में विद्यमान हैं । मुझसे कोई भी दूर नहीं है । मेरे रक्त में सबका स्वर ध्वनित-गुंजायमान हो रहा है ।

प्रस्तुत निबन्ध  उस स्मृति व अनुभूति को ताजा बनाता आया है, जो राष्ट्रीय एकात्मता के रूप में अनेकताओं में एकता वाली इस विलक्षण संस्कृति के साथ संपन्न होती आयी है । भारतीय संस्कृति को अनेक संस्कृतियों के योग से बना हुआ मधु माना जाता है व चूँकि इसकी उत्पत्ति आर्य से हुई है, यह आर्य या वैदिक संस्कृति मानी जाती है । आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ, यह कोई नस्ल या जाति विशेष का नाम नहीं है।  । भारत वर्ष में यह भाव कभी पनपा ही नहीं कि रेस-थ्योरी या नृवंश-सिद्धान्त के अनुसार कौन हमारी जाति का है कौन नहीं? जो इस पुण्यतोया भागीरथी के प्रवाह में जुड़ा वह गंदा नाला हो या पवित्र यमुना नदी, सभी इसमें आत्मसात हो आर्य पुरुष कहलाये । जिसने भी भारतीय संस्कृति को अपनी संस्कृति तथा भारत को अपना देश मान लिया वह विदेशी होता हुआ भी भारतवासियों द्वारा अपने ही वंश के भटके पूवर्जों की संतति मानते हुए आत्मसात कर लिया गया । इसीलिए भारत एक जाति का नाम नहीं है, वरन् एक विराट संस्कृति, देव-संस्कृति  का नाम है । संस्कृति अथार्त् अनगढ़ को परिष्कार कर उसे सुगढ़ बना देने वाली एक पद्धति [संस्कृति अथार्त् अनगढ़ मनुष्य को (आचार्यदेव और भक्तिभूषण परम्परा (गुरु-शिष्य वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा)  में परिष्कार कर उसे सुगढ़ मनुष्य -'मानहूँष' बना देने वाली एक लीडरशिप ट्रेनिंग -प्रेरणादायक पैगम्बर निर्माणकारी प्रशिक्षण पद्धति ।]

     विराट महासागर में मिलने वाले हर प्रकार के विचारों का आत्मसात हो उसी सागर की एक बूँद बन जाना, इस संस्कृति का ऐसा वैशिष्ट्यपूर्ण गुण है, जो आज  की विखण्डन भरी, विभिन्नताओं से भरी विश्वमानवता की विभिन्न समस्याओं का समाधान भी है।  भारत में आकर जो लोग एक साथ कभी रहे उनके मत एक नहीं थे, धर्म एक नहीं थे, मान्यतायें एक नहीं थी भाषाएँ भी एक नहीं थीं, किन्तु कुछ बात ही ऐसी निराली है इस संस्कृति में कि विभिन्न विचारों, मतों, धमों व संस्कृतियों में पूरा सामंजस्य बैठता चला गया व विभिन्नताओं का सम्मिश्रित रूप विश्व एकता के वसुधैव कुटुम्बकम के एक नमूने के रूप में हम सबके समक्ष है ।

        किसी भी महान संस्कृति सभ्यता, धर्म या समाज के ह्रास  या पतन का एक ही कारण होता है, उसमें विकृतियों का प्रवेश तथा इस कारण उसकी जीवनी शक्ति गिर जाना । जैसे किसी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में आहार-विहार, व्यवहार के व्यतिक्रम के कारण विजातीय द्रव्य प्रविष्ट हो जाएँ तो रुग्णावस्था आरम्भ हो जाती है । इसी प्रकार कष्ट-पीड़ा, अजीर्ण आहार ग्रहण की अक्षमता व क्रमशः स्वाथ्य का गिरता चले जाना उसकी परिणतियाँ हैं, ठीक उसी प्रकार संस्कृति पर भी यह नियम लागू होता है । 

       पाश्चात्य विद्वान व इतिहासकार  भारतीय संस्कृति के कालक्रम में क्रमशः पतन आने और विकृतियों का उसमें समावेश होने के कारण बताते हुए यही लिखते हैं कि हिन्दू समाज अच्छाइयाँ छोड़ता रहा व वर्ण-जाति भेद से लेकर अछूत समस्या, नारी समस्या, शुद्धि समस्या जैसी कई समस्याओं को पैदा करके अपने गले इसने पतन की राह चुन ली । 

        तत्वमसि - अर्थात वह ब्रह्म तुम्हीं हो - यह ज्ञान सुनाकर औरों को स्वीकार करने की परम्परा जो देव संस्कृति में थी वह कालान्तर में नष्ट हो गयी तथा जाति बहिष्कार जैसी परम्परा से भी उसने काफी नुकसान उठाया ऐसा पाश्चात्यविदों का मत है । वे लिखते हैं कि यही कारण है कि आक्रान्ताओं ने प्राकृतिक विशेषताओं से भरे-पूरे, धन-धान्य से भरे आदिसभ्यता व ज्ञान के केन्द्र इस राष्ट्र को भलीभाँति रौंदा

     विगत दो हजार वर्षो की गुलामी का अंधकार भरा इतिहास वे साक्षी के रूप में सामने रखते हैं, जिसमें भारतवर्ष राजनैतिक दृष्टि से ही नहीं, सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम होता चला गया व इसके आध्यात्मिक तत्वदशर्न में ऐसी विकृतियाँ समाहित होती चली गयीं, जिनने जनमानस को दिग्भ्रमित ही किया । भाग्यवाद, ईश्वरेच्छा ही सवोर्परि, पुरुषाथर्हीनता, अकमर्ण्यवाद, पलायनवाद, मायावाद, कर्म-सन्यास जैसे तत्वों ने जनमानस को मूच्छिर्त और कायर बना दिया । कालान्तर में अँग्रेजी शिक्षा के साथ पाश्चत्य सभ्यता भी यहाँ आई व यहाँ के लोग अपने गौरवपूर्ण अतीत को भूलकर उस भोगपरायण दशर्न को अपनाने लगे, जिससे आज सारा पश्चिम दुःखी है । आलोचक  तो यहाँ तक भी कहते हैं कि भारतीय देव -संस्कृति की कमजोरियों ने ही भारत को दुबर्ल बना दिया व इसी कारण विदेशी आक्रान्ता इस राष्ट पर आधिपत्य कर सकें

       क्या कारण है कि विदेशी संस्कृतियाँ एक ही थपेड़े में अस्त-व्यस्त हो गयीं तथा दूसरी ओर हिन्दू संस्कृति अपनों को अपनी मूलसत्ता से पृथक् कर उपेक्षा कर पूरे विश्व भर में उनके अनुदान वितरित करती रही अनेकानेक आचारों-संस्कृतियों को जन्म देती रहीं किन्तु समूल नष्ट नहीं जन बल घटता चला गया, फिर भी देव संस्कृति कोटि -कोटि वर्षों के संघर्ष के बाद भी जीवित है । इस विषमता के मूल में कौन-सा नियम काम कर रहा है?

      एक सबसे बड़ी विशेषता जो  हम पाते हैं, वह है अपने शब्द- Be and Make  के भाव के अनुरूप संस्कृति के साथ परिष्कृति की भावना । कल्चर शब्द सही मायने में मात्र भारतीय संस्कृति पर लागू होता है क्योंकि इसका अर्थ होता है निरन्तर परिष्कार-अनगढ़ता को सुगढ़ता में बदलने का प्रयास । शेष सभी कालान्तर में जन्मी तथाकथित संस्कृतियाँ तो सभ्यताएँ (सिविलाइजेशन्स) ही कही जानी चाहिए क्योंकि उनमें यह गुण नहीं थी । इसी गुण के अभाव के कारण परिस्थितियों के संघर्ष में पाश्चात्य सभ्यताएँ रुग्ण-विकृत होकर नष्ट होती रहीं । स्वार्थों के संघर्ष में वे समाप्त हो गयीं ।

       अपनी जीवनी शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भारतीय संस्कृति ने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने की अपेक्षा, भीड़ बढ़ाने की अपेक्षा, परिष्कार पर- देव संस्कृति के अनुरूप  चरित्र-निर्माण और मनुष्यनिर्माण-कारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ -आचार्यदेवों, पैगम्बरों, शिक्षकों के निर्माण पर  अधिक ध्यान दिया यही कारण है कि उसका अस्तित्व सुरक्षित रहा । विकृत तत्व बहिष्कृत होकर नष्ट होते रहे, संस्कारच्युत होने के कारण बाहर जाते रहे किन्तु मूल चिन्तन जो अध्यात्मवादी था, व्यक्ति की बहिमुर्खी नहीं अंतमुर्खी वृत्ति के विकास एवं आत्मसत्ता की सर्वांगपूर्ण प्रगति पर निभर्र था । हिन्दू संस्कृति देव संस्कृति का प्राण बना रहा । 

     जब से यह चिन्तन बदला व यह माना जाने लगा कि भोगवाद ही प्रधान है, आध्यात्मिक नहीं । आधि भौतिक प्रगति ही सब कुछ है, तब से ही भारत का अंधकार-युग आरंभ हुआ मानना चाहिए। जो भारत अर्ध संस्कृत-हिंसक-आक्रान्ताओं द्वारा पराजित हुआ, वह विलासी भारत था । इतिहास के पृष्ठों का विवेचन यही बताता है ।

       आत्म समीक्षा तो करना चाहिए व यह भी देखना चाहिए कि कालक्रम में जो कमियों आयीं उनसे कैसे जूझा जाना चाहिए था? नहीं यह किया गया तो विकासक्रम कैसे अवरुद्ध हुआ? यहाँ तक तो ठीक है परन्तु संस्कृति के शाश्वत चिरन्तर सत्य की उपेक्षा कर यदि एक ही पक्ष पर दोष निरन्तर लगाया जाता रहे तो वह पक्षपातपूर्ण चिन्तन होगा । कहा जाता है कि जाति से बहिष्कृत, समाज से बहिष्कृत, संस्कृति से बहिष्कृत, करने की आदिकालीन परम्परा ने आज हिन्दू संस्कृति का ह्रास किया है । यदि यह सच होता तो इतने मत-मतान्तर, इतने संप्रदाय, परस्पर विरोधी दशर्न, धामिर्क मान्यताएँ, बहिष्कार किया गया था हीन वृत्तिका, विकृत तत्वों का न कि जाति का या व्यक्तियों का । 

       जब तक संस्कृति धमर्परायण रही आध्यात्मिक रही, वह हर विचारधारा को अपने अन्दर समाहित करती रही, देव संस्कृति में युगधर्म, वर्ण-धर्म्, आश्रमधर्म के साथ आपद्धर्म का भी विधान है । अवश्य ही इन निश्चित धर्मों का ठीक पालन न करने से भी संस्कृति में विकार आया है । वणार्श्रम, धर्म की व्याख्या भी वह नहीं है, जो चिरप्रचलित है वरन् बड़ी क्रांतिकारी व प्रगतिशील है । उसकी चर्चा उपयुक्त स्थान पर की जा रही है । यहाँ तो विवेचन संस्कृति की मात्रा का हो रहा है।

        तो अब समस्या का समाधान क्या हो? एक ही समाधान है वह है देवसंस्कृति के निधार्रणों से भारतभूमि में रहने वाले, इसके प्रभाव क्षेत्र में बसने वाले तथा इस मूल से बाहर गए लोगों को भलीभाँति अवगत कराना तथा उनमें सांस्कृतिक गौरव-अभियान की भावना का संचार करना । कोई किसी भी धर्म को माने, मान्यता को माने, संप्रदाय के बताए पथ पर चले परन्तु सांस्कृतिक चिन्तन सबका सावर्भौम सनातन एक होना चाहिए । 

       आज संस्कृति के नाम पर समाज व शासन द्वारा मात्र नृत्य, संगीत, अभिमान, उछल-कूद, चित्रकला, मूतिर्कला, स्थापना व काव्यकला को ही उसका पयार्य मानकर उनकी चिन्ह पूजा होती रही है । जबकि संस्कृति का यह एक प्रतिशत से भी कम पक्ष है । संस्कृति इससे भी बड़ी विराट स्तर की वस्तु है, जिसे दैनन्दिन जीवन में, क्रियाकलापों में, हमारी आस्थाओं में स्थान मिलना चाहिए, विज्ञान व अध्यात्म हमारी संस्कृति के झण्ड़े तले एक साथ कदम से कदम मिलाकर चलते हैं । इससे बड़ी स्थापना देव संस्कृति की क्या हो सकती है कि वह प्रगतिशील विज्ञान सम्मत धर्मो को - मनुष्य बनो और बनाओ को विश्वधर्म बनाकर आज साम्प्रदायिकता व धामिर्क उन्मदभरी परिस्थितियों का हल सुझाने में पूणर्तः सक्षम है ।

      प्रागैतिहासिक या वैदिककाल से लेकर बुद्ध से समय तक, बुद्ध से लेकर आद्यशंकराचार्य तक तथा आचार्य शंकर से लेकर -स्वामी विवेकानन्द तक, और विवेकानन्द से लेकर नवनी दा के पितामह तक महामण्डल होने तक  भारतीय संस्कृति के तीन अध्याय भली-भाँति तीन विकासक्रमों-सोपानों के रूप में देखे जा सकते हैं, प्रत्येक में देवसंस्कृति ने कुछ खोया व पाया है किन्तु मूलतत्व -महावाक्य तत्त्वमसि अक्षुण्ण बना हुआ है व वही असके अस्तित्व का, सनातनता का मूल कारण है । 

                 परिव्राजक परम्परा का पुनजीर्वन कर, ब्राह्मणत्व के विस्तार द्वारा ब्रह्मनिष्ठ-समाज को समपिर्त, लोकसेवी, आत्माओं (पैगम्बरों) का उत्पादन करने की प्रक्रिया एक संगठन ने इस शताब्दी में आरंभ की व महामण्डल के संस्थापक संस्कृति पुरुष परमपूज्य गुरुदेव [नवनीदा के पितामह आचार्यदेव ?]  का ही पुरुषार्थ है कि आज देव संस्कृति में -Be and Make' का संदेश भारतभूमि के कोने-कोने तथा विश्व मनीषा तक पहुँच रहा है

        श्रीमद् भागवत कथामहात्मा बुद्ध से लेकर आद्यशंकर तक, [व्यासदेव से लेकर आचार्य देव (श्रीमत शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय) तक,और आचार्य स्वामी विवेकान्द से लेकर  कैप्टन सेवियर तक, फिर धुनिक युग में आचार्यदेव से लेकर भक्तिभूषण भवदेव बन्दोपाध्याय विवेकानन्द पाठचक्र अन्दुल तक, आचार्यदेव से नवनीदा तक (CINC रूप आचार्यदेव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) तक से लेकर  विवेकानन्द युवा महामण्डल/पाठचक्र तक तथा पुष्पित पल्लवित होती चली आ रही धमर्तंत्र से लोकशिक्षण की, समाज-राष्ट के पुनजीर्वन की तथा आस्था संकट की विभीषिका से मोर्चा लेने की यह पुण्य प्रक्रिया मनुष्य  निमार्ण योजना-प्रज्ञा अभियान शांतिकुज की युगान्तरीय चेतना के माध्यम से अब विराट रूप ले रही है तथा सतयुग की वापसी का उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन दे रही है।  तो इसके मूल में देव संस्कृति की शाश्वतता-सनातनता ही है । योगीराज अरविन्द ने अजस अतिमानस के अवतरण की व स्वर्ग के भूमि पर उतरने की बात कही है, वह समय यही है जब चारों ओर प्रतिकूलताओं से अनास्था की विडम्बना से संघर्ष छिड़ा हुआ है, व व्यक्ति उत्कृष्टता की ओर उन्मुख दिखाई दे रहा है । नवयुग आएगा तो उसकी आधारशिला देव संस्कृति, श्रेष्ठ निधार्रणों पर ही रखी जएगी यह सुनिश्चित है ।

स्वामीजी कहते हैं - " मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु, युवको ! मैं गरीबों, मूर्खों और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी (Servant Leadership के आदर्श उदाहरण भगवान श्रीकृष्ण) के मंदिर में, जो गोकुल के दीन -हीन ग्वालों के सखा थे, जो गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने में नहीं हिचके। जिन्होंने अपने बुद्धावतार -काल में अमीरों का निमंत्रण अस्वीकार कर एक वारांगना के भोजन का निमंत्रण स्वीकार किया और उसे उबारा। जाओ उनके पास जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबली दो, अपने समस्त जीवन की बलि दो - उन दीन हीनों और उत्पीड़ितों के लिए, जिनके लिए भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं , और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार -कार्य में लगा दोगे, जो दिनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं।" (खंड -१/ ४०५) 

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