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शनिवार, 14 सितंबर 2024

🔱🕊 🏹हे आचार्य देव ! तोमाय सश्रद्ध प्रणाम। "A specimen of the Acharya's thought " 🔱🕊हे आचार्यदेव! आपको मेरा शत -शत प्रणाम, 🏹'आचार्य देव के विचारों की एक बानगी' 🔱🕊 🏹Aachaary ke vichaar ka ek namoona"

'आचार्य देव के विचारों की एक बानगी' 

[स्वामी विवेकानन्द का तिरोधान हो जाने के बाद जुलाई, 1902 में आन्दुल स्कूल [अर्थात Andul H.C.E School, वर्तमान नाम महियाड़ी कुण्डू चौधरी इंस्टीट्यूशन] के हॉल में स्कूल प्रबंधक -समिति के वरिष्ठ सदस्य डॉ. अमर चंद मुखर्जी की अध्यक्षता में एक स्मरणसभा का आयोजन किया गया था। उस स्मरण -सभा में आचार्य शिरीषचन्द्र मुखर्जी ('नवनी दा' के पितामह) के द्वारा स्वामी विवेकानन्द पर दिए गए भाषण का अंश

[" Excerpts from a speech on Swami Vivekananda delivered in July 1902 (by Acharya Sirish Chandra Mookherjee) in a commemoration meeting held at Andul School Hall under the presidentship of Dr. Amar Chand Mookkherjee, Senior Member, Andul School Committee .]   

" गोधूलि बेला में धुंधलके बादलों के बीच भगवा रंग के वस्त्र पहने जो सूरज डूब गया है, वो फिर दुबारा कभी नहीं उगेगा। बेलूड़ मठ के प्राचीर में जड़ी एक ऐसी उज्ज्वल ज्योति फीकी पड़ गयी है, जिसे लाखों कोहिनूर मिलकर भी फिर से रौशन नहीं कर पायेंगे। श्री रामकृष्ण देव के प्रिय शिष्य, शिकागो में व-वैदांतिक हिन्दुत्व के प्रचारक, रामकृष्ण मिशन के अग्रदल -संदेशवाहक,- 'submerged tenth' के प्रबल हिमायती (जनसंख्या का एक ऐसा हिस्सा जो स्थायी रूप से गरीबी में रह रहा है-'दरीद्र और मूर्ख नारायण' के प्रबल हिमायती।) हिमालय (अद्वैत आश्रम, मायावती) के जंगलों में ध्यान में लीन मौन योगी, भारत के मैदानी क्षेत्र के यायावर उपदेशक - ऐसे थे स्वामी विवेकानंद, जिनके स्वर्गारोहण की तिथि (पुण्यतिथि : नश्वर शरीर को त्यागने की तिथि) विगत 4 जुलाई विश्व के पुण्यात्माओं (Saints) के सूचि में दर्ज हो चुकी है। 

   उनकी मृत्यु पर हमलोग भला उस भाषा में शोक कैसे मनाएं जो आमतौर से समझी और बोली जाती है? लेकिन जब ह्रदय भर आता है, तब मुख से शब्द फूट ही पड़ते हैं। तो फिर हमें भी उसी प्रकार आगे बढ़ना होगा। स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करते हुए हम आन्दुल वासियों मन में जो पहला विचार उठेगा, जिस पर अंदुल को गर्व है, वह यही होगा कि उसे एक बार स्वामीजी के चरणों का स्पर्श प्राप्त हुआ थाइसलिए यह उचित ही है कि हम सब उस महान दिवंगत आत्मा को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इस धरती पर एकत्रित हुए हैं ......

       वैदिक धर्म को पुनरस्थापित करने का आचार्य शंकर द्वारा सौंपा हुआ दायित्व स्वामी विवेकानन्द के कन्धों पर पड़ा था।  पवित्र गंगा नदी की उफनती हुई धारा 'हर! हर!' कहती हुई, मानो शिव-सदृश स्वामी विवेकानन्द के सिर पर उतरी, और हमें उन्नत मनुष्य (बुद्धत्व) में रूपांतरित कर के परमानंद के सागर तक ले जाने के लिए और उन्हें पवित्र कर दिया। श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद जो बंगाल के (भारत फिर विश्व के) आकाश में सुशोभित  'binary stars' #- द्विआधारी तारे हैं उनसे प्रार्थना है कि अपनी सन्तानों पर हमेशा आशीर्वाद की वर्षा करते रहें। 

[# द्विआधारी तारा प्रणाली - वह होती है जिसमें दो तारे द्रव्यमान के एक सामान्य केंद्र के चारों ओर परिक्रमा करते हैं, अर्थात वे एक दूसरे से गुरुत्वाकर्षण द्वारा बंधे होते हैं। द्विआधारी तारे खगोलविदों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे तारों के द्रव्यमान को निर्धारित करने की अनुमति देते हैं। 

A binary star system is one in which two stars orbit around a common centre of mass, that is, they are gravitationally bound to each other. Binary stars are very important to astronomers because they allow the masses of stars to be determined.] 

  ....जिस प्रकार परमहंस श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द 5000 वर्ष पहले जन्मे श्रीकृष्ण और अर्जुन जैसे Servant Leadership के प्रतिरूप हैं, वैसे ही वे भारत में जन्मे  ईसा (Jesus) और जॉन (John) की प्रतिकृतियाँ भी (replicas) हैं।  इसलिए, सुसंस्कृत ईसाईयों ने बार-बार उनका अभिनन्दन  किया है। ..... दिन ढल कर रात में बदल जाएगा और रात सुवाहनी होकर प्रभात में बदल जाएगी; लेकिन, आह! शरीर से दुर्बल और आत्मा से पंगु इस पीड़ित भूमि पर स्वामी विवेकानन्द - के पुनरागमन के लिए और कितना इन्तजार करना होगा ?  

     मुझे आज भी दोपहर के समय दक्षिणेश्वर के ठाकुर देव वाले कमरे के नजदीक के पवित्र बरगद का वह वृक्ष याद है, जिसकी छत्रछाया में अमेरिका से लौटने के बाद स्वामी विवेकानंद खड़े थे। भगवा रंग के वस्त्र पहने, मन और शरीर की सभी खूबियों से सुसज्जित, मुस्कुराते हुए और भाषण देते हुए... उनके मुख से निकला आह्वान - 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' - इतना शक्तिशाली और भावपूर्ण था कि -जिसने सुना उनकी तरफ आकर्षित हो गया ! कितना जीवन्त ! कैसा उत्साह पूर्ण ! तब मैंने पास खड़े बाबू गिरीश चंद्र घोष से कहा था -

"A voice oracular has pealed today. 

Today, a hero's banner is unfurled! " 

                          "आज एक वेदान्ती सिंह की गर्जना गूँज उठी है,

आज एक नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) ने अपना ध्वज फहरा दिया है!"

लेकिन उस वेदान्त केसरी की अद्वैत गर्जना (Oneness-अन्तर्निहित दिव्यता के उद्घोष)  को मृत्यु की ख़ामोशी ने शांत कर दिया है। लेकिन उस योद्धा संन्यासी द्वारा फहराया गया ध्वज राम और कृष्ण की इस भूमि पर सदैव के लिए लहराता रहेगा!

(Anthropologist और जर्मन दार्शनिक लुडविग फायरबाख) ने कहा था - "ईश्वर मेरा पहला विचार था, विवेक दूसरा, और मनुष्य तीसरा तथा अंतिम विचार।"  यदि इन तीनों विचारों ~ 'ईश्वर, विवेक (देहधारी-Embodied-गुरु) और मनुष्य' ~ को एक साथ समझने की चेष्टा करें तो आपको स्वामी विवेकानन्द के जीवन की व्याख्या प्राप्त हो जाएगी। "..... 

     यह स्वामी विवेकानंद ही थे जिन्होंने जंगल, अरण्यों और मठों के चहारदीवारियों में कैद अद्वैत वेदान्त (Oneness) के संदेश को बगीचे के फल उत्पादकों और खेतिहर मजदूरों के द्वार-द्वार तक पहुँचा दिया। तथा उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा था - "श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः" 'हे अमृत के पुत्रो ! सुनो , हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो, मैंने उस अनादि पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त अज्ञान-अंधकार और माया के परे है। केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो। दूसरा कोई पथ नहीं है। " (१/१२ हिन्दुधर्म पर निबंध)  हे अमृत के पुत्रो और वंशजों, तुम सब सुनो!'.......  इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो कि तुम भेंड़ हो। तुम तो आत्मा हो आनन्दमय और अविनाशी। तुम नश्वर देह नहीं हो, देहधारी आत्मा हो ! तुम जड़ के दास नहीं हो, जड़ शरीर और मन ही तुम्हारा दास है।मानव-मात्र को इस प्रकार 'अमृतस्य पुत्राः ' कहकर सम्बोधित करने वाले स्वामीजी मानो छोटी छोटी मछलियों (minnows) के लिए तो समुद्र के भगवान (Triton) जैसे थे। 

        स्वामीजी ने अपने छोटे किन्तु समर्पित जीवन में- - 'The down-driven residua of Hindu Society' को संकीर्ण ह्रदय के व्यक्ति को विराट ह्रदय का मनुष्य बनाने, मनुष्य के छिछले ज्ञान को गहरा करने, "to humble the high-browed" ~ अर्थात अपने शरीर को ऊँची जाति में जन्मा समझकर, उस पर घमण्ड करने वाले  दम्भियों को विनम्र बनाने, और उन्हें हिन्दू समाज के वंचितों 'मूर्ख और दरिद्र ' को  उन्नत मनुष्य बनने की दिशा में ले चलने वाले मार्गदर्शक नेता , पैगम्बर बनने और बनाने का कार्य किया था। (हमलोगों में राजर्षि जनक जैसे जीवन्त आदर्श गड़ेरिया, shepherd- बनने और बनाने का कार्य किया था।) वे कहते थे "हम लोगों में से प्रत्येक को पैगम्बर बनना पड़ेगा -और तुम स्वरूपतः वही हो। बस केवल यह अपने अनुभव से जान लो ! " (८/१८) 

भारत के राष्ट्रीय आदर्श त्याग और सेवा के विरुद्ध पाश्चात्य भोगवादी भौतिक संस्कृति द्वारा कटाक्ष किये जाने को देखकर उसके खिलाफ क्रांतिकारी झाँसी की रानी के हृदय को झकझोर देने वाले नारे का स्मरण करते हुए,  स्वामी जी ने भी अपनी कर्णभेदी आवाज़ उठाई"मेरी झाँसी नहीं दूँगी!"  

(Meri Jhansi Nahi Doongi !) 

  यहाँ के क्रान्तिकारी माज़िनी और गैरीबाल्डी को क्यों पढ़ना  चाहते हैं? स्वामीजी के साहित्य -कम्प्लीट वर्क्स ऑफ़ विवेकानन्द को पढ़िए। उनका साहित्य पुस्तक-जगत में किसी चमत्कार से कम नहीं है। जानकारी की खदान तो है ही , मातृभूमि की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने के लिए प्रेरणा का स्रोत भी है।

     उभरते हुए प्राच्य के देशभक्त-पैगंबर (Patriot-Prophet of the rising East ) -स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा यही थी कि- " पुनरुत्थानशील भारत के भव्य भवन की आधार-शिला 'दिव्य औसत' को बनाया जाएLet the 'divine average' be the corner-stone in the edifice of resurgent India. "  अर्थात मानवमात्र में जो दिव्यता (ब्रह्मत्व) अन्तर्निहित है, उसको अभिव्यक्त करो और उसी को विश्व-रंगमंच पर उभरते हुए भारत के भव्य प्रसाद की आधारशिला बनने दो। लेकिन उस अंतर्निहित दिव्यता या Oneness को अभिव्यक्त करने वाली चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा-पद्धति में  -ब्राह्मणवादी पुरोहितवाद का पोषण करने वाली घड़ी-घण्ट, पोथी-पत्रा या मोमबत्ती जलाने (घुटनों की कवायद करने?) जैसी कोई  अनिवार्यता न हो। "with no bell, book and candle of the Brahminical priesthood." 

 स्वामी जी कहते थे - "आत्मा वा अरे श्रोतव्यं : - दिन-रात श्रवण करो कि तुम्हीं वह 'देहधारी' आत्मा हो। यहाँ तक कि यह विचार तुम्हारे रक्त के प्रत्येक बूँद में और तुम्हारी नस-नस में समा जाय।" (८/१३) हृदय के पूर्ण होने पर, मुख बात करता है- हृदय के पूर्ण होने पर हाथ (Hand) भी काम करते हैं। भगवत्साक्षात्कार  हृदय (Heart) के द्वारा होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं। बुद्धि (Head-IQ) अन्धी है,उसकी अपनी गति-शक्ति नहीं है, उसके हाथ-पैर नहीं हैं। वास्तव में भावना- (emotion, फिलिंगही कार्य करती है, उसकी गति बिजली अथवा उससे भी अधिक वेगवान पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ होती है। अब प्रश्न यह है कि क्या तुममें भावना ( Heart-EQ) है ? यदि है तो तुम ईश्वर को देखोगे। तुम क्या किसी दूसरे के लिए ह्रदय से अनुभव करते हो ? यदि करते हो तो एकत्व (Oneness-SQ) के भाव में विकास कर रहे हो।" (८/१७) 

["This Âtman is first to be heard of. Hear day and night that you are that Soul. Repeat it to yourselves day and night till it enters into your very veins, till it tingles in every drop of blood, till it is in your flesh and bone. Out of the fullness of the heart the mouth speaketh," and out of the fullness of the heart the hand worketh also. Action will come. (vol-2/302) "It is through the heart that the Lord is seen, and not through the intellect. because the intellect is blind and cannot move of itself, it has neither hands nor feet. It is feeling that works, that moves with speed infinitely superior to that of electricity or anything else. Do you feel? — that is the question. If you do, you will see the Lord: Do you feel for others? If you do, you are growing in oneness." (Practical Vedanta-vol,2/306-7)

    स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु और मसीहा (वर्तमान युग के सर्वेन्ट लीडरशिप' या पैगम्बरी नेतृत्व के जीवंत उदाहरण) श्री रामकृष्ण के चरणों में बैठकर जो एक अनुकरणीय शिक्षा पायी थी, वह थी- " ईश्वर को खोजने कहाँ जाते हो ? तुम्हारे सामने ये जो दरीद्र नारायण, मूर्ख नारायण खड़े हैं, उनमें ईश्वर को पुनः देखो। उन्हें भोजन करवाओ, उन्हें शिक्षित करो, उन्हें गले से लगा लो, जिस प्रकार प्राचीन काल में राम ने निषाद राज गुहक को गले से लगाया था।" और 1897 में रामकृष्ण-मिशन के अस्तित्व में आने का कारण भी यही था।  [ फिर मिशन स्थापित होने के 70 साल बाद 1967 में भारत कल्याण के उद्देश्य से बड़ी संख्या में देशभक्त पैगम्बरों का निर्माण करने वाले युवा महामण्डल के स्थापित होने का कारण भी यही था।] जिसके माध्यम से स्वामी विवेकानन्द के ह्रदय की अभ्यस्त अग्नि' (wonted fires)- 'शिव ज्ञान से जीव सेवा ' रूपी अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है। इसके माध्यम से उन्होंने यहां और वहां (प्राच्य और पाश्चात्य में ) उन्होंने भारत की सहायता की थी, तो हम भारत की सहायता कैसे कर सकते हैं?  -" Say, Whoso turns as I, this evening turns to God to praise and pray!"  कहो, "जो कोई मेरी तरफ मुड़ता है, वह आज शाम को भगवान की स्तुति और प्रार्थना करने के लिए मुड़ता है!" (जिस प्रकार रॉबर्ट ब्राउनिंग की कविता-"होम-थॉट्स, फ्रॉम द सी" में कहा गया है।)  

[उपर्युक्त भाषण का पुनरावृत्ति करने के उपरान्त पूज्य आचार्य देव जो 1901-1953 तक इस संस्थान के महापराक्रमी (redoubtable) छठे प्रधानाध्यापक थे, उन्होंने इसे श्री भवदेव बन्दोपाध्याय को वसीयत के रूप में सौंप दिया, जिनके सौजन्य से यह प्रकाशित हुआ है।

The above speech has subsequently been recapitulated by the Revered Acharya himself, the redoubtable sixth Headmaster of this Institution since 1901-1953, and bequeathed the same to Sri Bhavdev Banerjee through whose courtesy it is published.

हमें यह भी बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि मुख्यतः इस संस्थान की स्थापना 1841 में इस इलाके के दिवंगत प्रसिद्ध जमींदार जोगेन्द्र नाथ मल्लिक द्वारा की गई थी और सर आशुतोष के सबसे बड़े चाचा दुर्गा प्रसाद मुखर्जी इसके पहले पूर्ण कालिक प्रधानाध्यापक (1853-1856) थे और उनके पिता डॉ. गंगा प्रसाद तथा उनके दो अन्य चाचा - हरि प्रसाद और राधिका प्रसाद - सभी इस संस्थान के छात्र थे। - संपादक/

We are also delighted to record here that primarily this Institution was established in 1841 by the Late lamented renowned Zamindar- Jogendra Nath Mallick of this locality and Sir Ashutosh's eldest uncle Durga Prasad Mukherjee was its full-fledged first Head Master (1853-1856) and his father  Dr. Ganga Prasad along with two other uncles - Hari Prasad and Radhika Prasad - all of them were pupils of this Institution. - Ed.]

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  🔱🕊 🏹"A specimen of the Acharya's thought " 🔱🕊 🏹

 [ Excerpts from a speech on Swami Vivekananda delivered in July 1902 (by Acharya Sirish Chandra Mookherjee) in a commemoration meeting held at Andul School Hall under the presidentship of Dr. Amar Chand Mookkherjee, Senior Member, Andul School Committee .] 

A sun has set in ochre-coloured robes amid gathering clouds of gloaming, never to rise again. A light has faded from the walls of Belur Math, which millions of Kohinoors will not rekindle. A disciple of Sri Ramakrishna Deva, the apostle of neo-Vedantic Hinduism of Chicago fame, the Avant courier of Ramakrishna Mission, the stalwart champion of the 'submerged tenth', the silent Yogi wrapped up in meditation in the wilds of Himalaya, the itinerant orator adown the plains of India, -such was  Swami Vivekananda, whose ascension to Heaven on July 4 last is just recorded in the calendar of Saints of the World.

How shall we mourn his loss in a language known and spoken? But out of the fullness of the heart, the mouth speaketh. So we shall have to go on anyway. Our first thought will naturally be, of which Andul is justly proud, that she was once blessed with the touch of Swamiji's feet! So it is only proper that we should assemble to pay our respectful homage to the great departed Soul ......

The mantle of inspiration left by Sri Shankaracharya fell on Swami Vivekananda. The surging tides of sacred Ganga, gurgling ' Hara! Hara! descended, as it were, on the head of Shiva- like Swamiji, to purify, to sanctify, and to take us on to the sea of sublimation and final bliss!..May Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda, the binary stars in the firmament of Bengal ever rain benediction on her sons and daughters that are and to be! .... They are replica of Jesus and John, born in India; thus, the cultured Christians hailed them again and again ..... The day will melt into the night and the night will mellow into dawn; but, ah! how long shall we have to wait for the advent of Swami Vivekananda to re-visit this woebegone land, maimed in body, crippled in soul ! .. 

I still remember the bright forenoon at Dakshineswar Thakur Bari and the hallowed Banyan Tree, under whose umbrageous canopy stood Swami Vivekananda, in ochre-coloured robes, fairy -dowered with all the gifts and graces of mind and body, smiling and delivering a speech on his return from America, - a speech, mighty -mouthed, eloquent, appealing to all present - 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत'  ('Uttisthat Jagrat Prapya Varannibodhat') What verve! What a stir! I remarked to Babu Girish Chandra Ghose, who was standing by - 

"A voice oracular has pealed today,

     Today, a hero's banner is unfurled! " 

That ' voice oracular' is hushed now to death! But the banner,  unfurled by the hero shall wave over this land of Rama and Krishna for ever and for aye !   

"My first thought was God; my second, reason; my third and last, man."- (Feuerbach). Put all these three thoughts together, and you will equate the Life of Swami Vivekananda.... 

It was Swami Vivekananda who brought the message of the Vedanta of the Woods to the fruiterers  of the garden, to the tillers of the soil whom he addressed - "शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः" ("Shrinvantu Visve Amritsya Putraah) ' Ye sons and scions of the Immortal One, all hear !'

     A Triton among the minnows that he was, Swamiji worked through his short but dedicated life to broaden the narrow, to deepen the shallow, to humble the high-browed, to shepherd the down-driven residua of Hindu Society. Against the aggressive materialists and wordings of the West making mouths at India, Swamiji raised his strident voice by recalling the soul-enthralling cry of the revolutionary Queen of Jhansi- "मेरी झाँसी नहीं दूँगी !" 

 Why go ye to Why go ye to Mazzini and Garibaldi ? Read Swamiji's Work: all a Marvel in Book -land, A Mine of Information, The Fountain-head of Inspiration for you to dedicate your lives to the service of the Motherland.   

Let the 'divine average' be the corner-stone in the edifice of resurgent India, with no bell, book and candle of the Brahminical priesthood; such was the ideology of Swami Vivekananda, the Patriot-Prophet of the rising East .

The one lesson that Swamiji learned sitting at the feet of his Master and Messiah Sri Ramakrishna, was to have re-discovered God in the persons of the Poor, to feed them, to educate them, to embrace them, as Rama did Guhaka of old. This was the raison d'etre of 'Ramakrishna Mission ', in which 'live his wonted fires'Here and here did he help India how can we help India? - Say, Whoso turns as I, this evening turns to God to praise and pray!  

[ The above speech has subsequently been recapitulated by the Revered Acharya himself, the redoubtable sixth Headmaster of this Institution since 1901-1953, and bequeathed the same to Sri Bhavdev Banerjee through whose courtesy it is published.

We are also delighted to record here that primarily this Institution was established in 1841 by the Late lamented renowned Zamindar- Jogendra Nath Mallick of this locality and Sir Ashutosh's eldest uncle Durga Prasad Mukherjee was its full-fledged first Head Master (1853-1856) and his father  Dr. Ganga Prasad along with two other uncles - Hari Prasad and Radhika Prasad - all of them were pupils of this Institution. - Ed.]

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আমার সহকর্মী প্রত্যেক শিক্ষক 

ও 

আমার প্রত্যেক ছাত্রের প্রতি -

পথের পরিচয়ের স্মৃতি মনের গোপন কোন ,

রাখবো আমি , রেখো তুমি অতি সঙ্গোপনে। 

বিদায় বেলায় মিলন রাখি বাঁধনু তোমার হাতে,

আশা অতীত রইবে বেঁচে ভাবি কালের সাথে। 

-- শ্রী প্রাণগোপাল শ্রীমানী 

অবসরপ্রাপ্ত সহ -প্রধান শিক্ষক 

  মহিয়াড়ি কুণ্ডুচৌধুরী  ইন্সটিট্যুশন

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मेरे प्रत्येक साथी शिक्षक

 और

 मेरे प्रत्येक छात्र को समर्पित  

अनुसरणीय पथ के पहचान की स्मृति मन का रहस्य है,

मैं इसे रखूंगा, तुम भी इसे बहुत संभालकर रखना। 

विदाई के वक़्त मैंने तुम्हारे हाथ में प्रेम-बंधन बाँध दिया है,

मुझे आशा है कि अतीत जीवित रहेगा और भविष्य समय के साथ चलता जायेगा।

-- श्री प्राणगोपाल श्रीमानी 

सेवानिवृत्त उप-प्रधानाचार्य

महियाड़ी कुण्डू चौधरी इंस्टीट्यूशन

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To every one of my fellow teachers

 and 

to every one of my students -


The memory of the identity of the path is a secret of the mind, 

I will keep it, you also keep it very carefully.

At the time of farewell, I put a tie in your hand,

I hope the past remains alive and future with time.

-- Shri Prangopal Srimani 

Retired Vice-Principal

Mahiyadi Kunduchowdhury Institution  

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कविता 

आचार्य शिरीषचन्द्र  (1873-1966) को साष्टाङ्ग प्रणाम ! 

हे आचार्यदेव! आपको मेरा शत -शत प्रणाम,

आप तीन पीढ़ियों के हैं गुरु,

शिरीषचंद्र तव् नाम !


पिता आपके भुवनचन्द्र हैं,

शिष्य आपके ईश्वरचन्द्र !

माता आपकी साध्वी जगन्मोहिनी, 

तथा 'तंत्र साधना की गुरु' भी वही  !

'खड़ाह के राम' जतीशचंद्र, आपके बड़े भाई ! 

आप लक्ष्मण हैं - अनुज जिनके।

भक्तों में भैरव अनुभव होते हैं। 


'महिमाचरण तनया' - तुषारवासिनी देवी आपकी स्त्री है,

 बचपन में पायी थी ठाकुर-स्वामीजी का आशीष,

वे बचपन से ही बहुत भाग्यशाली थीं। 

आपको मेरा शत -शत प्रणाम ! 


(2) 

आप शेक्सपियर के साहित्य में डूबे रहते-

 डॉक्टर अमरनाथ के साथ

जस्टिस वुड्रूफ़ भी आपसे प्रभावित हुए। 

सुनकर आपके तंत्र-शास्त्र की बात।  

मुझे विद्यालय भवन में अनुशासन देखकर 

अंग्रेज प्रशासक रह गया अचम्भित !! 

आपके भीतर 'ज्ञान और भक्ति' युगलबन्दी देखकर,   

'बंगाल टाइगर' सब हैरान हुए। 

काले कपड़े पहनके ,

आपने कक्षा में प्रवेश किया.

पढ़ाया 'व्हाइट नाइट'

बमुश्किल आँखों को फाड़ कर इसे देखा जाता है। 

अंडुल - (मौरी) आप स्कूल की जान हैं, 

लेकिन छात्र ही आपके जीवनधन हैं। 

'शिक्षा' के साथ देते 'संस्कार',

इसीलिए करते हैं सब सम्मान। 


लेकिन पढ़े-लिखे छात्र तो सभी हैं

स्थापित संबंधित मामलों में.

आपको उन पर गर्व है.

अपने हृदय में प्रसन्न रहो


पूर्वी-पश्चिमी कला शैली

यह आपके लिए आसान है.

आत्मसातीकरण कैसे किया जाता है?

अगर आप छात्रों को देखें


विश्वविजयी विवेकानन्द को देखा है आपने, 

आपने उनकी बातें सुनी हैं !

तुमने उनका आशीर्वाद मन में रख लिया,

माना हुआ  जीवन धन्य है। 

आपको मेरा शत -शत प्रणाम ! 


(3) 

दक्षिणेश्वर में सुनी बातों को ,

आपने 'दक्षिण के नवद्वीप' (अंदुल?) में सुनाया  है।

गंगा में सरस्वती मिलाया 

तूने भूमि को सुन्दर बनाया है


स्कूल भवन में लगी आपकी संगमर्मर की मूरत ,

आपने असंख्य सुनाई काहिनी, 

तभी आपके आगमन पथ का आज नाम है-

आचार्य शिरीष सारनी !!


सदैव प्राचीन और अर्वाचीन 

उसकी सेवा की

आप संस्कृति के स्रोत हैं

बॉय फिल्में, अनुखुन। 


आप कई मायनों में प्रतिभाशाली हैं.

दर्शन, विज्ञान, संगीत, लय।

अपने आप को क्षमा करें

यह अनिर्वचनीय, निर्गुण, गुण प्रभावित करता है।


शिक्षक बाहर - गुरु गंभीर तू

भीतर एक ज्ञान-तप का वास है।

'बनो और बनाओ' - स्वामीजी के शब्द,

मानो कोई जीवित मूर्ति पकड़ रखी हो। 


आप को मानो ऊर्ध्वलोक से खींचकर उतारा गया था 

महामण्डल भाव- 'Be and Make ' को जागृत करने के लिए 

मानो शाम का दीपक जलाना हो तब 

उसका बत्ती पहले से बनाना होता है।


आप जीवित अवस्था में ही किंवदंती बन चुके थे ,

आपके लिए विशेष सम्मान.

आज आधी सदी बीत चुकी है फिर भी

लेकिन मन यादों से भरा है  


आपका पाण्डित्य देश-काल की सीमाओं को लाँघ जाता था, 

क्या विश्व विज्ञान अतीत था.

जब शाम को स्कूल की छुट्टी हो जाती -

तब शुरू होता था नेता-प्रशिक्षण व्रत !  


 नव-नालन्दा के शीलभद्र मानो आप ही हों ;

आपका यश एकदिन चारों दिशाओं में फैलेगा।  

अन्दुल के तो भगीरथ सम हैं। 

आप  क्रांति नूतन-'Be and Make' के अग्रदूत हैं ! 

आपको मेरा शत -शत प्रणाम ! 



श्री सुशांत बन्दोपाध्याय 

अन्दुल मौरी विवेकानन्द युवा महामण्डल,

पूर्व छात्र(1962-1969), 

 महियादी कुंडू चौधरी संस्थान।

तारीख- 28 जुलाई, 2024.

मोबाइल - 9831105587.

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আচার্য শিরীষ চন্দ্র প্রণতি

হে আচার্যদেব ! তোমায় সশ্রদ্ধ প্রণাম। 

তুমি তীন পুরুষের শিক্ষা গুরু ,

শিরিশচন্দ্র তব নাম। 

পিতা তোমার ভুবনচন্দ্র, ছাত্র ঈশ্বরচন্দ্র। 

মাতা সাধ্বী জগন্মোহিনী,

তথা গুরু -সাধন তন্ত্রের। 


কামদেব পন্ডিতের বংশধর তুমি, 

প্রেসিডেন্সি কলেজের সেরা ছাত্র, 

শিক্ষকতা পেশা নির্বাচিলে ; 

না করিতে কাজ ব্রাত্য। 


'খড়দহের রাম ' যতীশচন্দ্র ,

জ্যেষ্ঠ ভ্রাতা তব। 

তুমি লক্ষ্মণ -অনুজ তাঁর। 

ভক্ত ভৈরব অনুভব। 


'মহিমা তনয়া ' - তুষারবাসিনী 

হলেন তোমার সহধর্মিনী। 

ঠাকুর -স্বামীজী পরশ আশিষে ,

অতি শৈশব ই ছিলেন ধন্য তিনি।   


আবেদন করেন যতীশচন্দ্র,  

আন্দুল -(মৌরি)স্কুলের জন্যে। 

শিক্ষকতার যে আদর্শ 

তুমি রেখে গিয়েছো এই জগতে 

রয়েছে তা আজও অনুসরণীয়। 

রয়েছে তা সবার স্মৃতি তে।  


(2) 

শেক্সপিয়ারের সাহিত্যে নিমগ্ন তুমি  

ডাক্তার অমরনাথ সঙ্গে 

বিচারপতি উড্রফ হন বিমুগধ। 

তব তন্ত্র আলাপ প্রসঙ্গে। 


বিদ্যালয় ভবনে শৃঙ্খলা দেখি 

ইংরেজ প্রশাসক আচম্ভিত। 

জ্ঞান-ভক্তির যুগলবন্দিতে ,

'বাংলার বাঘ' বিস্মিত।  


কালো পোশাকে সজ্জিত হয়, 

তুমি প্রবেশিলে শ্রেণী কক্ষে। 

পড়াতে পড়াতে 'White Knight' 

সবে দেখে বিস্ফরিত চক্ষে।  


জ্ঞান-গর্ভ উদ্ধৃতি সব,

ব্ল্যাকবোর্ডে লিখে রাখতে ;

পুরানো ছাত্ররা সব ভুলে যায়। 

পারেনা সেগুলি ভুলতে।  


তব শিক্ষিত ছাত্র রা সব 

প্রতিষ্ঠিত স্ব স্ব ক্ষেত্রে। 

তাদের গর্বে গর্বিত তুমি ,

হও হুল্লসিত নিজ চিত্তে। 


প্রাচ্য -পাশ্চাত্য কৃষ্টি ধারা 

সহজে মিলেছে তোমাতে। 

আত্তীকরণ হয় কেমনতর 

দেখালে ছাত্র মাঝে তে। 


বিশ্ববিজয়ী বিবেকানন্দ কে দেখেছো তুমি 

শুনেছ তাঁর বাণী। 

তাঁর আশীষ পরশ মাথায় নিয়েছ ,

জীবন ধন্য মানি। 


(3)


দক্ষিণেশ্বরে শোনা কথা ,

তুমি 'দক্ষিণ নবদ্বীপে ' (আন্দুল?) শুনায়েছ। 

গঙ্গা সনে সরস্বতী 

ভূমি সুন্দর মিলায়েছ।   


বিবেক-বাণীতে সিঞ্চিত করেছ 

যুব -কিশোরের মন। 

কর্ম ক্ষেত্র নয়, সাধন-ক্ষেত্র করেছ ,

তব বিদ্যা নিকেতন। 


বিদ্যালয় ভবনে তব মর্মর মূর্তি,

কহিছ কত না কাহিনী 

তব আগমন পথ হয়েছে আজিকে 

আচার্য শিরিষ সারনী।  


চির পুরাতন নতুন করে

করেছো যে পরিবেশন ,

তোমা উৎসারিত সংস্কৃতি ধারা 

বয় ফ্ল্পধারায়, অনুখন।  


শ্যামা মায়ের সাথে শ্যামেরে বেঁধেছেন,

প্রেমিক মহারাজ। 

'প্রেমিক উৎসবে ' তুমি প্রেমিক কে বেঁধেছ। 

ভক্ত হৃদয় মাঝে।  


নানাগুনে গুণী তুমি ,

দর্শন, বিজ্ঞান , সুর , ছন্দ। 

নিজগুনে ক্ষমা করো 

এই অক্ষম, নির্গুণ , গুন্ মুগ্ধে।   


বাইরে শিক্ষক - গুরু গম্ভীর তুমি 

ভিতরে এক জ্ঞান-তাপস বাস করে। 

'Be and Make' - স্বামীজীর কথা ,

যেন জীবন্ত এক মূর্তি ধরে। 


তোমা কর্ষিত ঊর্ধ্বের ভূমিতে 

মহামন্ডল ভাব উপ্ত। 

যেন সন্ধ্যাপ্রদীপ জ্বালানোতে 

পলিতা পাকানোর ইতিবৃত্ত। 


জীবিত কালেই কিংবদন্তি তুমি

ছিলে বিশেষ শ্রদ্ধা ভাজন। 

আজি সার্ধ - শতবর্ষ অতিক্রান্ত, তবু 

তব স্মরণে ভরে উঠে মন। 


যেন নব -নালন্দার শীলভদ্র তুমি 

তব যশ ছুটে চতুর্দিক , 

আন্দুলে তুমি ভগীরথ সম। 

তুমি নুতন পথিকৃৎ ,


পাণ্ডিত্য তব গন্ডি ভাঙ্গা- 

ছিল বিশ্ব বিদ্যা গত। 

বিদ্যালয় নিঘন্ট হলে শেষ,

শুরু হতো Be and Make' শিক্ষক-শিক্ষন ব্রত।     

শ্রী সুশান্ত বন্দোপাধ্যায় 

আন্দুল মৌরি বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল ,

প্রাক্তন ছাত্র , মহিয়াড়ি কুন্ডু চৌধরী ইনস্টিটিউশন। 

(১৯৬২-১৯৬৯) 

তারিখ - ২৮ জুলাই, ২০২৪।

মোবাইল - ৯৮৩১১০৫৫৮৭।  

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मंगलवार, 10 सितंबर 2024

🏹🔱🕊शिरीष कुसुम का एक गुच्छा -" विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वतो नास्ति कर्तृता।" *"[आन्दुल H.C.E स्कूल-1841 (मोहियारी कुंडू चौधरी इंस्टीट्यूशन)" के पूर्व विद्यार्थियों का पुनर्मिलन'Alumni Reunion' के अवसर पर दिया गया महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय द्वारा दिया गया भाषण ~ " A Bunch of Shirish Kusum "🏹

 🙋शिरीष कुसुम का एक गुच्छा🙋

*A Bunch of Shirish Kusum*

~ श्री नवनीहरन मुखोपाध्यायाय

(15th August, 1931- 26th Sept, 2016) 

       यह सोच कर भी कैसा लगता है कि - आज से पचास साल पहले हमने, इसी स्कूल # [मोहियारी कुंडू चौधरी इंस्टीट्यूशन (#आन्दुल H.C.E स्कूल)-1841,आचार्य शिरीष सारनी, ​​अंदुल, महियारी, हावड़ा जिला, पश्चिम बंगाल 711302)] से दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्कूल छोड़ दिया था। उन्हीं सहपाठियों में से जो आज जीवित हैं, वे पुनः उसी स्कूल में मिल रहे हैं - यह एक दम अद्भुत और अविश्वनीय पुनर्मिलन में है!! हालाँकि, मुझे नहीं पता कि उन लोगों को धन्यवाद देने के लिए क्या कहूँ जिन्होंने इस पूर्व विद्यार्थी पुनर्मिलन 'Alumni Reunion' को आयोजित करने के विषय में सोचा। परन्तु संसार में सुख-दुःख तो नित्य साथी हैं। इसलिए सभी को एक साथ सम्मिलित होने में बाधाएँ आती हैं। अतएव जितने छात्र हमलोग उस समय थे -उसमें से सभी यहाँ उपस्थित नहीं हो सके हैं। एक के बाद एक करके कितने ही लोग चले गए हैं । और इस मिलन समारोह के आयोजकों की मुख्य कठिनाई यही है, वैसे दोस्त जिन्हें 'हम अपना जीवन समझते थे ' वे जब हमें अचानक छोड़कर चले जाते हैं, तो उस दुःख को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है- "जिसका प्राण समझता है, वही समझ सकेगा।" 

        जिस दिन असित के पत्र से पहली बार मुझे इस पुनर्मिलन के बारे में पता चला और उसके बाद और कई मित्रों से दो-तीन बार मुलाकात हुई, लेकिन उसके बाद मानों सुकुमार रे के गणित के जैसा छात्रों की संख्या अचानक पचास से भी कम हो गयी। आज से साठ वर्ष पहले की बात याद आ रही है  जब आचार्यदेव (नवनीदा के पितामह ) मुझे  लेकर एक शिक्षक समारोह में आये थे तब मैंने पहली बार इस स्कूल को देखा था। [ नवनीदा का जन्म 15th August, 1931 को हुआ था, अर्थात 1996-60= 1936 में उनकी आयु लगभग 5 वर्ष की रही होगी।] उस दिन स्कूल के शिक्षकों विशेषतः संस्कृत शिक्षक पण्डित क्षेत्र-मोहन चट्टोपाध्याय महोदय को मैंने संस्कृत में तपोवन वर्णन का एक श्लोक " हुतधूमकेतु-शिखाञ्जन स्निग्धसमृद्धशाखम् ...." मैंने सुनाया था। जैसे ही मैंने उन्हें यह श्लोक सुनाया वैसे ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर खींच लिया और अपनी गोद में बिठाकर कहने लगे - वाह ! वाह ! तुम अभी इतने छोटे हो, और इतना शुद्ध संस्कृत उच्चारण कर सकते हो ; तुम्हें तो वाक् सिद्धि # प्राप्त होगी। (वाक् सिद्धि # एक ऐसी सिद्धि जिससे व्यक्ति जो कुछ भी कहे वो घटित हो जाये।) तब मुझे इसका मतलब समझ नहीं आया था, लेकिन बड़े होने के बाद जब उस बात को याद करता हूं तो मुझे अब भी डर लगता है।

       फिर 1943 में सातवीं कक्षा में मैंने इस स्कूल में प्रवेश लिया था। जब इस स्कूल की स्थापना हुई थी तब तक कलकत्ता विश्वविद्यालय का जन्म भी नहीं हुआ था।  सर आशुतोष की बड़े भ्राता इस स्कूल के प्रथम प्रधानाध्यापक थे। उनके बाद  इस विद्यालय के प्रधाना-ध्यापक 1901 ई. में आचार्यदेव  बने थे । [अर्थात जिस समय नवनीदा के पितामह श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) उस स्कूल के हेड मास्टर के पद पर नियुक्त हुए होंगे, उस समय  उनकी आयु मात्र  28 वर्ष रही होगी ,और उम्र में वे स्वामीजी से 10 वर्ष छोटे रहे होंगे।] जब  1902 ई. में स्वामी विवेकानन्द का तिरोधान हुआ, उस समय आन्दुल स्कूल में एक स्मृति सभा का आयोजन किया गया था। उस स्मरण सभा में स्वामी विवेकानन्द को आमने -सामने देखने और उनके भाषण को सुनने अपना अनुभव बताते हुए आचार्यदेव ने स्वामी विवेकानन्द  के ओजस्वी व्यक्तित्व और भाषण शैली का उल्लेख अपने भाषण में किया था, उसका उल्लेख करते हुए शैलेन्द्रनाथ धर ने अपनी पुस्तक-A comprehensive Biography of Swami Vivekananda " (स्वामी विवेकानंद की विस्तृत जीवनी) में इस प्रकार उद्धृत किया था - "उस सभा में आचार्यदेव ने अपना अनुभव बताते हुए  कहा था कि- 1897 ई० में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए उस संक्षिप्त भाषण को, आचार्यदेव ने अपने मित्र गिरीश चंद्र घोष (बंगाल के सुप्रसिद्द संगीतकार, कवि, नाटककार) के साथ  परमहंस श्री रामकृष्णदेव के जन्मदिन के अवसर पर, दक्षिणेश्वर के माँ काली मन्दिर पहुँचकर बिल्कुल आमने-सामने खड़े होकर सुना था।" 

     1905 ई. के बंग-भंग आन्दोलन ने स्वतंत्रता संग्राम को और भी तीव्र बना दिया था। आचार्य-देव के आदेशानुसार इस स्कूल के छात्रों ने भी विदेशी उत्पादों को जलाने में भरपूर योगदान दिया था। तब यह समाचार  इंग्लैण्ड के एक समाचारपत्र में स्कूल के नाम के साथ प्रकाशित हुई थी, जिसके फलस्वरूप प्रधानाध्यापक (आचार्यदेव) के नाम पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। किन्तु जो ब्रिटिश अधिकारी उनको गिरफ़्तार करने आया, वह स्कूल के असाधारण अनुशासन और स्कूल के प्रधानाध्यापक  के व्यक्तित्व को देखकर आश्चर्य-चकित हो गया। और बाघ के जैसा हिंसक वह ब्रिटिश अधिकारी पूज्य नवनीदा के पितामह - 'शिरीष बाबू' -के मधुर व्यवहार से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि  वारंट रद्द करके बिना गिरफ्तार किये ही वापस लौट गया ।

 विद्या गुरुमुखी : मैं जब इस स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब सुबोध कुमार चटखण्डी मास्टर महाशय हमलोगों को भूगोल पढ़ाते थे। वे थोड़े स्थूलकाय थे, इसलिए ब्लैक बोर्ड पर मानचित्र को लटका देते थे, और स्वयं कुर्सी पर बैठकर एक छड़ी के द्वारा नक्शे के स्थलबिन्दु को दिखा-दिखा कर छात्रों को समझाते थे। ब्लैकबोर्ड पर हमारे पंडित महाशय (क्षेत्रमोहन पंडित महाशय के स्वनामधान्य पुत्र ...पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ संस्कृत पढ़ाते थे। उन्होंने चाण्क्य का श्लोक कंठस्थ करने को कहा था ;लेकिन उनके  से वैसा हो नहीं सका। तब उन्होंने भूतनाथ को पूरे पीरियड पर पीछे बेंच पर खड़े करवा दिया था। उसके बाद उसका रिजल्ट (परिणाम) बहुत अच्छे हुआ । ...बेंच पर खड़े होकर उन्होंने जितने श्लोक पढ़े थे , वो सब मुझे इस समय कण्ठस्थ है।  ....वह किताबों और तुकबंदी के साथ कक्षा से बाहर चला गया था। हमारे स्कूल के संस्कृत शिक्षक द्वारा उद्धृत छोटी -छोटी  छंदें अब भी हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।   लेकिन वे श्रद्धा की प्रतिमूर्ति थे। उसकी पूरी बातों को यदि लिखने के लिए कहा जाये , तो मेरी छोटी सी संस्कृत स्मृति उतना लिखने में सक्षम नहीं होगी। बाद में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर भी रहे। किन्तु हमलोगों के आचार्यदेव से जब तक उन्हें अनुमति नहीं मिली -उन्होंने स्कूल नहीं छोड़ा था। बाद में उन्होंने 'मीमांसा दर्शन ' ग्रंथ में वर्णित शुकाष्टकं # के एक श्लोक का जिस प्रकार गूढ़ार्थ बतलाया था, उसके विषय में आचार्य महामुखोपध्याय योगेन्द्रनाथ तर्कतीर्थ द्वारा शुकाष्टकं के विषय में  प्रश्न करने पर उन्होंने विनम्रता पूर्वक कहा था - विद्यालय के आचार्य-देव के मुख से उसकी जैसी व्याख्या सुनी थी, वही लिखा है, ग्रंथ की दृष्टि से नहीं; क्योंकि " विद्या गुरुमुखी।"   

    सभी की बातें याद आ रहीं हैं। लेकिन सब लिखने की जगह कहाँ है। अमलेन्दु राय महाशय हमलोगों को अंग्रेजी ग्रामर पढ़ाते थे, यदि ठीक-ठीक याद है तो टेस्ट परीक्षा में मास्टर महाशय से  मुझे 83 % नंबर प्राप्त हुए थे। बाद में अंग्रेजी में किताब लिखने में संकोच नहीं हुआ। कई यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी में भाषण देना सम्भव हुआ है। कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय में भाषण देने के बाद राजयपाल की धर्मपत्नी ने पूछा था कि आपने किस यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी सीखा है ? मैंने कहा -"बहुत गर्व से कहता हूँ कि ब्रिटिश चर्च या में नहीं सीखा , बल्कि हावड़ा जिला के एक ग्रामीण स्कूल में सीखा है। "  

   जैसा कि कॉलजों में हुआ करता है , हमलोगों के स्कूल का विज्ञान का क्लास भी  गुरुदास मेमोरिएल के दोतल्ले पर गैलरी में होता था। वैसी व्यवस्था उस समय अन्य किसी स्कूल में थी या नहीं -नहीं जानता। फणीन्द्रनाथ पाल महाशय विज्ञान पढ़ा रहे थे। उन्होंने पूछा क्या कोई लड़का यह बता सकता है कि साबुन का निर्माण कैसे होता है ? एक लड़के ने (उसका नाम अभी याद नहीं है)खड़ा होकर कहा - "मैं जानता हूँ सर। एक बहुत बड़े चूल्हे पर बहुत बड़ा कड़ाही रहता है। उस कड़ाही में बुरादा के जैसा कुछ डाल देता है। फिर एक आदमी बहुत बड़े डब्बू से उसमें कोई चीज डालकर उसको खूब हिलाता है। थोड़ी देर बाद उसको चूल्हे से उतारने पर 'एक कड़ाही साबुन' बन जाता है। " उसके उत्तर को सुनकर पूरा क्लास ठहाके मार कर हँसने लगा था। 

    सेकण्ड हेड मास्टर (सहायक प्रधान शिक्षक) थे तारेश चंद्र कर। उच्च श्रेणी के बच्चों को इतिहास पढ़ाते थे। थोड़ा गंभीर स्वभाव के व्यक्ति थे। सब समय चुन्नट गिराकर धोती पहनते और कुर्ते में गले तक बटन को बंद रखते थे। और कंधे पर चादर रखते थे। आँखों पर चश्मा और मूँछ भी रखते थे। उनके नजदीक जाने में भय होता था। जिस समय क्लास नहीं भी रहता ,तब भी मोटी -मोटी पुस्तकें पढ़ते रहते थे। अक्सर मोटी-मोटी सी पुस्तक हाथों में लिए टहलते हुए क्लास में प्रवेश करते थे। लड़कों को अच्छी तरह सिखाना है , इसीलिए वे खुद बहुत परिश्रम करके पढ़ा करते थे। वैसे शिक्षक आजकल दिखाई नहीं देते। इनदिनों  विश्वविद्यालय के ऑफ़ पीरियड के दौरान शिक्षक कक्ष में क्या-क्या होता है , उसे बताया नहीं जा सकता। याद है एक बार क्लास में पढ़ाते समय, कुछ विशेष तथ्यों को समझाने के लिए "Historian's History of the World" (विश्व के इतिहास-निर्माताओं का इतिहास) का एक खंड लाइब्रेरी से क्लास में मंगवाये। उनको दूर से किसी ने हँसते हुए नहीं देखा था। किन्तु नजदीक जाने पर उनकी मूँछों के बीच से सुन्दर हँसी खिलती हुई देखि जा सकती थी। थोड़े से शब्दों में जो बातें कहते थे उसी से पता चल जाता था कि वे छात्रों से कितना स्नेह करते थे। 

      सतीश चंद्र दास महाशय हमलोगों को बंगला पढ़ाते थे और स्कूल को चलाने में जो कुछ आवश्यक होता वह सबकुछ वे स्वेच्छा से आगे बढ़कर पूरा कर देते थे। उनको देखकर किशोर मन में जो विचार उठते थे , आज कह सकता हूँ कि वैसे महापुरुष को ही स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।कविता या श्लोकों में शिक्षा ढूँढ़ने के रोग से मैं पहले से पीड़ित था। वे पढ़ाते समय इतना बेसुध होकर पढ़ाते थे कि चार साल की स्कूली पढ़ाई के दौरान उनके मुख से केवल दो श्लोक ही सुने थे। जिसमें से एक श्लोक में उन्होंने अपने Silver Voice में जो कहा था, उसका व्यवहार मैं बार बार करता हूँ। 

मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।

मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥

[मन -वचन -कर्म से जो एक हो वो है महात्मा। 

     मन -वचन -कर्म यदि भिन्न भिन्न ,तो है दुरात्मा।।] 

अर्थात् श्रेष्ठ और महान व्यक्तियों के जो भी विचार होते हैं वे मन में वही बोलते हैं और उसी के अनुसार कार्य भी करते हैं। दूसरी ओर नीच और दुष्ट व्यक्ति सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं और करते भी भिन्न हैं। उपर्युक्त सुभाषित  सज्जन और नीच व्यक्तियों की मानसिकता और व्यवहार में अंतर को बहुत ही सुन्दर ढंग से उजागर करता है।

हमलोगों का यह परमसौभाग्य है कि हमलोगों ने जिन पवित्र, उदारचरित महाप्राण, छात्रवत्सल, शिक्षकों के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त करने का सुयोग पाया था , उनमें से दो व्यक्ति आज भी  इस  मिलन-उत्सव में पधार कर प्रत्यक्ष देवता रूप में आशीर्वाद दे रहे हैं। श्री बेचाराम चक्रवर्ती और श्री पंचानन भट्टाचार्य महाशय दोनों हमलोगों को गणित पढ़ाते थे। मैंने उनसे इस गणित के विषय में अनकहा सबक ये सीखा है कि गणित का अन्तिम छोर 'एक' और 'शून्य' होता है ! [ "এবিষয়ে অকথিত এই শিক্ষা পেয়েছি যে, গণিতের প্রান্তদ্বের এক আর শূন্য।   अर्थात गणित का ध्येय (end) 'एक' और 'शून्य' के महत्व को समझना है।] 'एक' को उचित स्थान में रखने से- 'शून्य' संख्या में वृद्धि करेगा, वैसा नहीं करें तो सब शून्य हो जायेगा।  शंकराचार्य ने कहा है - 'एक' को जो 'शून्य' कहता है, वही मूर्ख है और उनके श्री चरणोंकमलों में हमलोग श्रद्धा पूर्वक प्रणाम निवेदित करके हमलोग धन्य हो गए हैं।  

इसी प्रसंग में और दो व्यक्तियों की याद आ रही है, जो इसी विद्यालय के आचार्यदेव के छात्र थे,और आगे चलकर स्कॉटिश चर्च कालेज में मैंने जिनसे पढ़ा है। विपिन कृष्ण घोष M.A. में और B.T. में फर्स्ट-क्लास -फर्स्ट अंग्रेजी में थे आश्चर्य की बात स्कॉटिश चर्च कॉलेज में बंगला पढ़ाते थे। वे लोग बंगला में मेरिट लिस्ट में थे। इसी विद्यालय के और आचार्यदेव के छात्र डॉक्टर बुधेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय। विपिनदा  के पास कई बार गया हूँ, बहुत कहने का समय नहीं है। थोड़े में कहता हूँ, उनको देखकर मन में वेद -पुराणों में कहे दधीचि ऋषि की याद हो आती थी। 

दूसरे व्यक्ति थे डॉक्टर देवेन्द्रनाथ मित्र। गणित में ईशान स्कॉलर , केवल हमारे विद्यालय के नहीं , अन्दुल मौड़ी के गौरव थे। विदेशों के यूनिवर्सिटी में पढ़ाने जाते थे। तो दूसरी ओर गंभीर आध्यत्म के खोजी, निरहंकार साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। सब बातें नहीं कहूंगाइस विद्यालय के इन दो छात्रों के छात्र होने का गौरव अपने सीने में लिए हुए हूँ। 

    सतीश मास्टर महाशय को भारत के राष्ट्रीय आदर्श "त्याग और सेवा " में सिद्धि प्राप्त थी। आचार्य देव की कितनी सेवा उन्होंने की थी। और इसी स्कूल के एक साधारण कार्यकर्ता, एक ऐसे  व्यक्ति थे जो उदार ह्रदय माली थे वे हमलोगों को भी माता जैसे स्नेह से भोजन करवाते थे। इस अवसर पर उनके नाम (?) से पुरष्कार की घोषणा होने से एक इतिहास बना है। उनको हमलोग गुरुजन के रूप में देखते थे। वास्तव में वे मनुष्य जैसे यथार्थ 'मनुष्य' थे ! [क्योंकि  कोई मनुष्य , श्रीराम के साथ अपने अद्वैत को केवल माया की कृपा से ही  समझ सकता है। माया तुम्हारी राम, जीव भी तुम्हारा,  ]  

         हमलोग तो इस स्कूल के केवल कुछ ही 'वर्षों तक सीमित छात्रों में से एक' हैं। किन्तु हमारे विद्यालय की यह जो अश्रान्त छात्र प्रवाह- है, उसके ऊपर एक ही व्यक्ति के विशेष जीवन का 52 वर्षों तक एक अमिट प्रभाव पड़ा था। उस व्यक्ति का व्यक्तित्व इस विद्यालय के अस्तित्व में व्याप्त हो गया था और उन्हें महापुरुष बना दिया था। उस व्यक्ति के व्यक्तित्व ने - ने इस 'अन्दुल HCE स्कूल ' को सचमुच  एक-"पीढ़ीगत ज्ञानपीठ परम्परा"- (Heritage Jnanpith अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) में परिणत कर दिया था।  'The personality of that Individual'   "तार सत्ता विद्यालयेर सत्ताय संचारित होय ताके महान करे तुलेछिलो !" [#তার সত্তা বিদ্যালয়ের সত্তায় সঞ্চারিত হয়ে তাকে মহান করে তুলেছিল, His being permeated the being of the school and made him great.]  वह जीवन था हमारे स्कूल के प्रधान शिक्षक आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) का जीवन;  जो 'बंगला रामायण' के रचयिता तथा नैषधीय चरित महाकाव्य में चतुष्पदी शिक्षा का उल्लेख करने वाले '  खड़दह के श्रीहर्ष के वंशज कामदेव पण्डित के 16 वीं पीढ़ी में जन्मे थे। ये कामदेव ही थे जिन्होंने नित्यानन्द प्रभु को खड़दह में लाकर बसाया था। जिसके कारण खड़दह को एक 'श्रीपीठ' के रूप में जाना जाता है। वे एक वैसे ही महापुरुष थे-जिसके बारे में कहावत है - 

  'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि। 

लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति ।।' 

  अर्थात - "उन महापुरुषों के मन की थाह भला कौन पा सकता है । जो अपने दुखों में 'वज्र' से भी कठोर और दूसरों के दुखों के लिए फूल से भी अधिक कोमल हो जाते हैं ।"-और इसी विशिष्टता के कारण ही वे समाज में प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध होते हैं।

ठीक उसी प्रकार आचार्यदेव ने भी अपने शिरीष नाम को सार्थक कर दिखाया था। महाकवि कालिदास ने संस्कृत के कालजयी अमर ग्रंथ 'कुमार सम्भव' में कहा है -

" मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपः क्व वत्से क्व च तावकं वपुः।

पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीषपुष्पं न पुनः पतत्रिणः॥"

[भावार्थ - मेना पार्वती को समझाते हए कहती है घर में (हिमालयपर) ही अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करने वाले अनेक देवी- देवता विद्यमान हैं जिनकी आराधना करके मनोवाञ्छित फल प्राप्त कर सकती हो। कहाँ तुम राजमहल की सुखसुविधा में पली- बढ़ी और सुकोमल शरीर वाली हो और कहाँ तपस्या की कठोर दिनचर्या है। क्योंकि शिरीष का कोमल पुष्प भ्रमर के भार को तो सह सकता है किन्तु किसी पक्षी के भार को तो कदापि नहीं। जिस प्रकार पक्षी के भार से पुष्प टूट जाता है, उसी प्रकार तुम्हारा कोमल शरीर भी तपजन्य कष्ट को सहन नहीं कर सकेगा। अतः तप का विचार त्याग कर घर में ही रहते हए ही मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति हेतु इष्ट देवता की आराधना करो। (पंचम सर्ग-श्लोक-4,) साभार/https://archive.org/stream/Kumarsambhav/Kumarsambhav_djvu.txt)]

किसी किसी पुराने छात्रों के मुख से सुना हूँ कि मैंने देश-विदेश के अनेकों विद्वानों को देखा है किन्तु हमलोगों के आचार्यदेव जैसा अन्य को नहीं देखा। स्कूल में सूट पहनते थे और कुर्सी -टेबल लगाकर बैठते थे। किन्तु स्कूल के समय के अलावा जब वे उस कुर्सी पर बैठते, तब दूर से देखने पर ऐसा लगता था मानों कोई साधक बैठे हुए हैं। उन्होंने परा और अपरा दोनों विद्याओं की साधना की थी इसलिए उनके जीवन का ऐसा प्रभाव पड़ा था। [तीनि दुई विद्यार ई साधना कोरे छिलेन - अपरा एवं परा ! -তিনি দুই বিদ্যার ই সাধনা করেছিলেন , অপরা এবং পরা।-अर्थात उन्होंने श्रीहर्ष के महाकाव्य 'नैषधीयचरित' के नलोपाख्यान में वर्णित 'अधीति, बोध, आचरण और प्रचार' की गुरु-शिष्य चतुष्पदी परम्परा में अपना जीवन गठन किया था ; इसलिए उनके जीवन का ऐसा प्रभाव पड़ा था।]

इंग्लैण्ड के सबसे बड़े और सबसे प्रतिष्ठित माध्यमिक विद्यालयों में से एक Eton-कॉलेज के (लंदन - ईटन कॉलेज, जो ब्रिटेन का संभवतः सबसे पॉश, सर्वाधिक कुलीन बोर्डिंग स्कूल है)- और इसके प्रधान शिक्षकों का जो आदर्श वाक्य है -"I am taught best by teaching" अर्थात दूसरों को पढ़ा कर मैं खुद सबसे अच्छा सीखता हूँ ! अर्थात दूसरों को पढ़ाना स्वयं सीखने का सबसे अच्छा तरीका है। किसी गूढ़ अवधारणा को समझने का सबसे अच्छा तरीका है उसे किसी दूसरे को समझाना।

[रोमन दार्शनिक सेनेका ने कहा था, "जब हम पढ़ाते हैं, तो हम सीखते हैं।" वैज्ञानिकों ने इस पद्धति को "प्रोटेग प्रभाव" (protégé effect) का नाम दिया है; इसमें पाया गया है कि जो 'छात्र' शिक्षक की भूमिका में पढ़ाने का भी काम करते हैं उन्हें परीक्षा में उन छात्रों की तुलना में अधिक अंक प्राप्त होते हैं जो केवल अपने लिए सीख रहे हैं। कोई concept- जैसे कोई गूढ़ महावाक्य या ठाकुर,माँ, स्वामीजी के उपदेश जैसे 'Be and Make', को समझाने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे किसी दूसरे को समझाना- उदाहरण

1."मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - एक नाम मात्र के मनुष्य और दूसरे मानहूँष (जागृत मनुष्य !) जो लोग केवल ईश्वर प्राप्ति के लिये व्याकुल हैं वे जागृत हैं -'मानहूँश' हैं ! और जो केवल कामिनी -कांचन के पीछे पागल हैं, वे सभी साधारण मनुष्य हैं - केवल नाम के मनुष्य।"

" Men are of two classes - men in name only (Manush) and the awakened men (Man-hunsh). Those who thirst after God alone belong to the latter class; those who are mad after 'woman and gold ' are all ordinary men - men in name only " ---Sri Ramakrishna .

1.2. "मेरे बच्चे, अगर तुम शांति चाहते हो, तो दूसरों के दोषों पर ध्यान मत दो। अपनी ही गलतियों पर ध्यान दो। दुनिया को अपना बनाना सीखो। कोई भी पराया नहीं है, मेरे बेटे पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है।"

"My child, if you want peace, then do not look into anybody's faults . Look into your own faults. Learn to make the world your own. No one is a stranger, my child ; the whole world is your own ." ---Sri Sarda Devi.

1.3" धर्म/या शिक्षा का रहस्य सिद्धांतों में नहीं, बल्कि व्यवहार में निहित हैअच्छा बनना और अच्छा करना - यही धर्म/अर्थात शिक्षा का सार है!

" The Secret of Religion/ Education lies not in theories but in practice. To be good and do good - that is the whole of religion/ie- education ! ---Swami Vivekananda ."]

.......उपरोक्त गूढ़ उपदेशों को स्वयं समझने का सबसे अच्छा तरीका है उसे किसी और को समझाना ।

प्रधान शिक्षक के रूप में आचार्यदेव का भी वही आदर्श वाक्य था -'कुर्वतो नास्ति कर्तृता।' सब कुछ करके भी " मैं ने किया" -'I did' -'আমি করেছি' ऐसा विचार भी मन में नहीं उठना चाहिए। स्मृति वचन' भी ऐसा है-

विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वतो नास्ति कर्तृता ।

अलेपवादमाश्रित्य श्रीकृष्णजनको यथा ।।

अर्थात् श्रीकृष्‍ण और जनक के समान कोई भी ब्रह्मज्ञानी पुरुष (ब्रह्मविद) सब कर्म करके भी अकर्ता, अलिप्‍त एवं सर्वदा मुक्‍त ही रहता है।" [गीता 14.20 में भी यही बात कही गयी है।]

उनके जीवन के अन्तिम समय में उनके द्वारा आजीवन की गयी साधना का फल देखने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ है। उस समय वे साधक जैसे प्रतीत नहीं होते थे। उनको देखते ही "स्वतः मन बोलतः सिद्धपुरुषः -ब्रह्मज्ञ !" किन्तु इस प्रसंग को अभी नहीं उठाऊंगा। नवमी -दशमी की कक्षा में हमलोगों को वे अंग्रेजी में - शेली, टेनिसन, कीट्स, ब्राउनिंग, वर्ड्सवर्थ का गद्य व्हाइट नाइट आदि जो प्रोज -पोएट्री पढ़ाते थे। प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते समय शेक्सपियर के प्रसिद्द नाटक हैमलेट में उन्होंने बहुत ही सुन्दर यादगार अभिनय किया था। और उनके एक विदेशी (अंग्रेज) प्रोफेसर ने उनके अभिनय से प्रभावित होकर कहा था -'वाह,तुमने तो आज प्रसिद्द अंग्रेज अभिनेता 'Beerbohm tree'(1852 – 1917) के जैसा अभिनय किया था।आचार्यदेव ने उस समय के विदेशों में अत्यन्त प्रसिद्द लेखक (Motivational writer) विलियम वॉकर एटकिंसन [William Walker Atkinson (1862–1932)] द्वारा लिखित ~ 'The Secret of Success' का अध्यन भी किया था, और जिस प्रकार हमलोगों को पढ़ाया था वह आजतक जीवन में बहुत काम आता है। महर्षि पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर जो व्याकरण महाभाष्य लिखा था, उसमें कहा गया है कि - "चतुर्भिश्च प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति--आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेनेति" ।। महाभाष्य १.१.१ पस्पशाह्निक।। विद्या चार प्रकार से उपयोगी सिद्ध होती -अर्जन में, अभ्यास करने , शिक्षण करने , और व्यव्हार में। जो विद्या अपने व्यवहार में नहीं उतरती वह व्यर्थ है। तथा जो अपने छात्रों को ऐसी शिक्षा दे पाते हैं उन्हीं को आचार्य (C-IN-C नवनी दा) कहते हैं। इसीलिए वायु पुराण में आचार्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है-

आचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयते अधि !

स्वयं ह्यपि आचरेत् य: तु आचार्य: इति स्मृत: !

जो स्वयं सभी शास्त्रों का मर्म जानते हैं, और अपने आचरण के द्वारा उसको व्यक्त करते हों, दूसरों के द्वारा ऐसा आचार स्थापित हो इसलिए अहर्निश प्रयत्न करते हैं; और ऐसा आचार स्वयं अपने आचरण में लाता है, उन्हें आचार्य कहते है ।

आचार्यदेव के शिक्षकत्व का जब 50 वर्ष पूरे हो गए ,तब स्वर्ण जयंती (गोल्डन जुबली) के आयोजन पर स्कूल प्रांगण में उनकी संगमरमर की प्रतिमा लगाई गयी थी। इस प्रतिमा के मूर्तिकार उनके ही छात्र श्री कालोशशि बन्दोपाध्याय हैं। संगमरमर पत्थल के उसी टुकड़े से उन्होंने एक नन्दी (बैल/বৃষ/bull) की मूर्ति बना दी थी , जो आचार्यदेव की मातृदेवी द्वारा स्थापित मंदिर में शिव के वाहन के रूप में विद्यमान है।

आचार्यदेव के साथ उनके छात्रवृन्द के सम्बन्ध की बात सोचते समय कठोपनिषद्- 2.3.1 में कथित-'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्साख एशोऽश्वत्थः सनातनः।" का स्मरण हो आता है। [जड़ ऊपर, अर्थात् 'विष्णु का वह सर्वोच्च स्थान ' ही इसका मूल है, यह संसार वृक्ष , जो अव्यक्त से लेकर अचल तक फैला हुआ है, इसकी जड़ ऊपर, अर्थात् ब्रह्म में है ।] यहाँ वह वृक्ष जिसका जड़ ऊपर और शाखायें नीचे हैं, भले अश्वस्थ का न होकर शिरीष का है['ब्रह्म' वृक्ष रूपी शिरीष का फूल बहुत चमत्कारी होता है! टेसू या पलाश का फूल, हिंदू धर्म में पलाश को भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निवास स्थान माना जाता है। पलाश जितना देखने मेंआकर्षित करता है, उससे अधिक इसके आयुर्वेदिक फायदे हैं।] पुराणों की भाषा में कहा जा सकता है कि -

"आजीव्यः सर्वछात्राणां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। "

उसी विराट सनातन ब्रह्मवृक्ष का आश्रय लेकर इसका छात्र संगठन (The student body) जीवित है। हमसब उसी शिरीष वृक्ष पर 50 वर्ष पहले खिले शिरीष कुसुम एक एक गुच्छा हैं।

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এক গুচ্ছ শিরীষ কুসুম 

শ্রী নবনীহরন মুখোপাধ্যায়  

          ভাবতে কেমন লাগে , পঞ্চাশ বছর আগে আমরা দশম শ্রেণীর পাঠ শেষ করে বিদ্যালয় ছাড়লাম।  আজ তাদের মধ্যে যারা রয়েছি সেই বিদ্যালয় মিলিত হচ্ছি ---এক  অপূর্ব মিলনোৎসবে।  অভাবনীয় ! তবু যারা ভেবেছে তাদের কি বলে কৃতজ্ঞতা জানাবো জানিনা। কিন্তু সংসারে সুখ দুঃখ নিত্য সহচর। তাই বাধা বাজে , আমরা সবাই তো নেই।  একে একে কত জন চলে গেছে। আর এই মিলনবেলার আয়োজকদের প্রধান সঙ্কট এই সে দিন যেভাবে আকস্মাৎ আমাদের ছেড়ে চলে গেল , সে দুঃখ কথার বলে বোঝান সম্ভব নয় " বোঝে প্রাণ বোঝে যার। " 

যে দিন প্রথম এই মিলনোৎসবের কথা অসিতের চিঠিতে জানলাম আর তারপর দু-তিনবার কজনের সঙ্গে দেখা হল , তখন থেকে নয় সেটা যেন সুকুমার রায়ের অংকের মত হঠাৎ পঞ্চাশের বেশি কমে গেল। মনে হল ষাট বছর আগের কথা যখন প্রথম এই বিদ্যালয় দেখি। একটি শিক্ষকদের অনুষ্ঠানে আচার্যদেব এনেছিলেন। মনে আছে তখন কার পন্ডিত মশাই ক্ষেত্রমোহন চট্টোপাধ্যায় প্রমুখ শিক্ষক মশাইদের সংস্কৃতে তপোবন বর্ণন  (" আত্মলোকে পুত ধুমকেতু:.... ") শুনেয়েছিলাম। তিনি হাত ধরে কোলে নিয়ে বলেছিলেন " তোমার বাকসিদ্ধি " হবে। " তখন মানে বুঝিনি। বড় হয় মনে পড়লে এখনও ভয় হয়।  

        তারপর স্কুলে ভর্তি হওয়া ১৯৪৩ এ সপ্তম শ্রেণীতে। এ স্কুল যখন হয় তখন কলিকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের জন্ম হয়নি। প্রথম প্রধান শিক্ষক ছিলেন স্যার আশুতোষের জ্যেষ্ঠতাত। আচার্যদেব এ স্কুলের প্রধান শিকক্ষক পদে ব্রতীহন ১৯০১ সালে। ১৯০২ সালে স্বামী বিবেকানন্দের তিরোধান হল স্কুলে স্মৃতি সভায় স্বামিজীরব ব্যাক্তিত্ব ও বাগ্মিতা বিষয়ে আচার্যদেব যা বলেন তা শৈলেন্দ্রনাথ ধরে কৃত " A comprehensive Biography of Swami Vivekananda " তে লিপিবদ্ধ আছে।    

     আচার্যদেব তাঁর অভিজ্ঞতা বলেন , যে হেতু তিনি ১৮৯৭ খ্রিস্টাব্দে দক্ষিনেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণের জন্মতিথি উপলক্ষ্যে স্বামীজীর বক্তিতা মহাকবি গিরিশ চন্দ্র ঘোষের সঙ্গে গিয়ে শুনেছিলেন। ১৯০৫ সালে বঙ্গভঙ্গ আন্দোলন সংগ্রামের ইন্ধন যোগায়। আচার্যদেব নির্দেশে ছাত্ররা বিদেশী পণ্যের বহনং সবে  যোগ দেয় স্কুলের নাম দিয়ে সে খবর ইংল্যান্ডের পত্রিকার প্রকাশিত হয় ও ফলে প্রধান শিককের নাম গ্রেপ্তারি পরোয়ানা জারি হয়। কিন্তু এক বাঘা ইংরেজ অফিসার গ্রেপ্তার করতে এসে স্কুলের অসাধারন শৃঙ্খলা দেখে ও প্রধান শিক্ষকের ব্যক্তিত্ব স্তম্ভিত হয়ে পরোয়ানা প্রত্যাহার করেন।

      সেই স্কুলে সপ্তম শ্রেণী তে পড়ছি। সুবোধ চট খন্ডি মহাশয় ভূগোল পড়াবেন। ব্ল্যাক বোর্ডে মেপ টাঙিয়ে চেয়ারে বসে বেশ গোলগাল মানুষটি বেত দিয়ে মেপ পয়েন্ট করে দেখিয়ে বুঝিয়ে পড়াতো। ব্ল্যাকবোর্ডে আমাদের পন্ডিত মশাই (ক্ষেত্রমোহন পন্ডিত মহাশয়ের পুত্র স্বনামধন্য ভারত বিখ্যাত। .....???পড়াতেন সপ্ত তীর্থ ) চানক্য শ্লোক মুখস্থ করতে দিয়ে ছিলেন , হয় ওঠেনি। না বলতে পবায় পেছনে বিশ্যুট ভূতনাথ উপর দাঁড় করিয়ে দিয়েছিলেন সারা পিনিয়টা। ফল বড় ভাল হয়েছিল সেই থেকে তিনি। ... বেঞ্চির যত শ্লোক বলেছেন সব এখন ও মুখস্থ আছে। সংস্কৃত ছন্দে আকর্ষণ আসে ও একটা ছোট। ....তিনি ক্লাশে বই ও ছন্দে হাত দিয়ে বেরিয়ে। তিনি ছিলেন শ্রদ্ধার মূর্তি।  তার কথা লিখতে হলে আমার ছোট সংস্কৃত স্মারকে ধরবে না। তিনি পরে কোলকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের অধ্যাপক হয় ছিলেন।  

কিন্তু সে বিকালে আমাদের আচার্যদের আদেশ না করা পর্যন্ত স্কুল ছাড়েননি। পরে 'মীমাংসা দর্শন ' গ্রন্থে শুক অষ্টকম এর পর্যন্ত সে বিষয়ে শ্লোক যে ভাবে উদ্ধার করেন, সে বিষয়ে তাঁর আচার্য মহামুখোপাধ্যায় যোগেন্দ্রনাথ তর্কতীর্থ মহাপুরুষ এর একটি প্রশ্ন করলে তিনি সবিনয় নিবেদন করেন, বিদ্যালয়ে আচার্যদেবের মুখে তিনি শুনেছেন তীর্থ মহোদয় তাই লিখেছেন , গ্রন্থে দৃষ্টে নয় , কারন বিদ্যা গুরুমুখী। 

সকলের কথা মনে হয়। তবে সব লেখার জায়গা কোথায় ? অমলেন্দু রায় মশাই আংরেজীর ব্যাকরণ পড়ালেন , যদি ভুলে গিয়ে না থাকি , টেষ্টে পরীক্ষায় ইংরেজিতে ৮৩ % মশাই এমন নম্বর পেয়ে ছিলাম। পরে ইংরেজিতে বই লিখতে ভয় হয়নি। অনেক বিশ্ববিদ্যালয়ে ইংরেজিতে ভাষণ দিতে পারা গেছে। কুরুক্ষেত্র বিশ্ববিদ্যালয়ে ভাষণের পর রাজ্যপালের স্ত্রী প্রশ্ন করেছিলেন -আমি কোন বিশ্বদ্যালয়ে ইংরেজি পড়েছি ? গর্বের সঙ্গে বলছি , ইংরেজি স্কটিশ চর্চ বিশ্ববিদ্যালয়ে শিখিনি , শিখেছি হাওড়া জেলার একটা গ্রামের স্কুলে।     

গুরুদাস মেমোরিয়াল দোতালায় গাইলারিতে বিজ্ঞানের ক্লাস হতো , যেমন কলেজে হয় পরীক্ষা নিরীক্ষা করে দেখানো হতো। সে সময় কোন স্কুলে এমন ছিল কিনা জানিনা। ফনীন্দ্রনাথ পাল মশাই পড়াচ্ছেন। জিজ্ঞাসা করলেন , সাবান কি করে তৈরি হয় কেউ বলতে পারো ? কেউ পারেনা।  একজন (কে ? মনে নেই ) উঠে বললেন , জানি স্যার। একটা বড় উনুনে একটা কড়ায় ঘিয়ের মতো একটা কি দিয়ে তার পর কি কি যেন মিশিয়ে খুব নাড়তে হয়। তারপরে নামলেই এক কড়া সাবান। আর সকলেই কি হাসি। 

সহকারী প্রধান শিক্ষক ছিলেন তারেশ চন্দ্র কর। উচ্চ শ্রেণী তে ইতিহাস পড়াতেন রাশভারী গম্ভীর প্রকৃতির মানুষ। সব সময় কোঁচা ঝুলিয়ে ধুতি , পাঞ্জাবি গলায় প্রেন্ট বোতাম এটা ও কাঁধে চাদর। চোখে চশমা ও গোঁফ ছিল। কাছে ঘেঁষতে ভয় করতো। তখন ক্লাস না সর্বদাই মোট মোট বই পড়তেন , অনেক সময় হাতে নিয়ে পায়চারি করতে করতে ক্লাসে আসতেন। কয়েকটা মোট মোট বই নিয়ে। ছেলেদের ভালো করে শেখাতে হবে বলে কি পরিশ্রম। এসব আজ দেখা যায় না। একদিন মনে আছে পড়াতে পড়াতে Historian's History of the world ' এর বই একটা খন্ড লাইব্রেরি থেকে ক্লাসে আনলেন। কিছু বেশি তথ্য দেবার জন্যে। দূর থেকে কেউ হাসতে দেখেনি। কিন্তু কাছে গেলে গোঁফের ফাঁকে সুন্দর হাসি ফুটে উঠতো। অল্প যা কথা বলতেন তাতে বোঝা যেত ছাত্রদের কত স্নেহ করতেন।  

বাংলা পড়াতেন আর স্কুলটা চালাতে যা যা দরকার সবটা স্বেচ্ছায় এগিয়ে গিয়ে করতেন সতীশ চন্দ্র দাস মহাশয়। তাঁকে দেখে কিশোর মনে যা উঠতো তা আজ বলছি -েকে বলে মহাপুরুষ বলা যায় স্থিত প্রাজ্ঞ। অনেক দিন আগে , তখনও কবিতা রোগে ভুগছি , একটা কবিতায় তাঁর কথা বলা হচ্ছিলো। তাঁর ছিল জেক বলে silver voice তিনি পোড়ালে সময় জ্ঞান থাকতো না। তিনচার বৎসরে দুটি শ্লোক বলে ছিলেন। তার একটি এখনও বার বার ব্যবহার করি। 

मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।

मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥

[मन -वचन -कर्म से जो एक हो वो है महात्मा। 

     मन -वचन -कर्म यदि भिन्न भिन्न ,तो है दुरात्मा।।] 

আমাদের পরম সৌভাগ্য যে আমরা যে সব পবিত্র , উদারচরিত মহাপ্রাণ ছাত্রবৎসল শিক্ষকদের পাদমূলে বসে শিক্ষালাভ সুযোগ পেয়েছি। তাদের মধ্যে দুজন এই মিলনোৎসবে এসে আমাদের আজও প্রত্যক্ষ দেবতা হয় আশীর্বাদ করছেন। শ্রীযুক্ত বেচারাম চক্রবর্তী ও শ্রীযুক্ত পঞ্চানন ভট্টাচার্য মহোদয়গণ উভয়েই আমাদের অঙ্কশাস্ত্যের শিক্ষা দিতেন।  যে বিষয়ে অকথিত এই শিক্ষা পেয়েছি যে গণিতের প্রান্ত দ্বেড় আর শূন্য। এক কে ঠিক রাখলে শূন্য সংখ্যা বৃদ্ধি করে , না হলে সবই শূন্য মাত্র। শঙ্করাচার্যঃ বলেছেন , এক কে যে  শূন্য বলে সেই মূর্খ। আজ তাঁদের শ্রীচরণ কমলে আম্নাদের সশ্রদ্ধ প্রণাম নিবেদন করে আমরা धन्य হয়ই।  

এ প্রসঙ্গে আর দুজনের কথা মনে হচ্ছে , যাঁরা এই বিদ্যালয়ের ও আচার্যদেবের ছাত্র ছিলেন ও ঘটনাক্রমে স্কটিশ চার্চ কলেজে তাঁদের কাছে পড়েছি। বিপিন কৃষ্ণ ঘোষ MA তে ও BT তে ফার্স্ট ক্লাস ফার্স্ট , ইংরেজিতে ও MA তে কৃতি পেছন ছিলেন এই বিদ্যালয়ের ওবং আচার্য দেবের ছাত্র বিখ্যাত ডাক্তার বুধেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায়। বিপীনদার কাছে অনেক গেছি , অনেক বলার সুযোগ নেই। এটুকু বলি , তাঁকে দেখে মনে বেদ পূরণের দধীচি নিছক কপোলকল্পনা নয়। এমন চরিত্র মানুষের ও হয়। 

দ্বিতীয় জন ডাক্তার দেবেন্দ্রনাথ মিত্র। অংকে ঈশান স্কলার , শুধু আমাদের বিদ্যালয়ের নয় , আন্দুল মুড়ি তে গৌরব। বিদেশের বিশ্ববিদ্যালয়ে পড়াতে গিয়েছেন। এদিকে গভীর অধ্যাত্ম অন্বেষী , নিরহংকার সাধু প্রকৃতি মানুষ। সব কথা বলবো না। এ বিদ্যালয়ের এই দুই ছাত্রের কাছে ছাত্র হতে পারার গৌরব বুকে নিয়ে আছি। সতীশ মাস্টার মশায়ের সিদ্ধি ছিল ত্যাগ ও সেবার। আচার্য দেবের কি সেবাই করেছিলেন। আর এক জন করে ছিল ওদের মালী  স্কুলের সাধারণ কাজের কর্মী।  আমাদের ও সে মায়ের স্নেহ দিয়ে খাবাতেন। তার নাম এই উপলক্ষে পারিতোষিক দিয়ে একটা ইতিহাস সৃষ্টি হলো। তাকে আমরা গুরুজন বলে দেখতাম। কি মানুষ ই ছিল 

আমরা তো একটি বছরের। কিন্তু আমাদের বিদ্যালয়ের এই জয় অবিশ্রান্ত ছাত্র ধারা তাদের উপর একটি জীবনের প্রভাব পড়ে ছিল ৫২ বছর ধরে। সে শক্তি এ বিদ্যাপীঠ কে বিশেষ রূপ দিয়ে ছিল। তাঁর সত্তা বিদ্যালয়ের সত্তায় সঞ্চারিত হয়ে তাকে মহান করে তুলে ছিল। সে জীবন আমাদের প্রধান শিক্ষক আচার্য শিরিশচন্দ্র মুখোপাধ্যায় (কামদেবি)যিনি খড়দহ শ্রীহর্ষ বংশীয় কামদেব পন্ডিত সদাশ অধস্তন পুরুষ , যে কামদেব খড় দহে  নিত্যানন্দ প্রভু কে আনয়ন করেছিলেন যাতে খড় দহ শ্রী পীঠ বলে চিহ্নিত হয়। তিনি ছিলেন -  'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।বাইরে কঠোর , কিন্তু ভিতরে কুসুমের থেকেও কোমল। শিরিষ নাম সার্থক। কালিদাস 'কুমার সম্ভবে ' বলছেন - শিরিষ কুসুম ভ্রমরের পদভারে সইলে ও পাখিদের পদভারে সইতে অসমর্থ। কোন কোন পুরানো ছাত্রের মুখে শুনেছি , দেশ -বিদেশের অনেক বিদ্বান দেখেছি , কিন্তু আমাদের মাষ্টার মহাশয়ের মত দেখলাম না। স্কুলে স্যুট পরতেন , টেবিল চেয়ার বসতেন। কিন্তু স্কুলের সময় ছাড়া যখন এই চেয়ারেই বসে থাকতেন , দূর থেকে দেখে মনে হতো কোন সাধক বসে আছেন। তিনি দুই বিদ্যার ই সাধনা করেছিলেন , অপরা এবং পরা।  তাই সে জীবনের প্রভাব ওভাবে পড়েছিল।   

প্রধান শিক্ষক হিসাবে ও তাঁর আদর্শ বাক্য ছিল - ETON -এর প্রধানদের শব্দগুচ্ছ " I am taught Best by teaching ' শেখাতে গিয়ে আমি সব থেকে ভাল করে শিখি।  'कुर्वतो नास्ति कर्तृता।'করেও 'আমি করেছি 'এ ভাব নেই। সারা জীবনের সাধনার ফল শেষ জীবনে দেখার সৌভাগ্য হয়েছে। তখন আর সাধক মনে হতো না।  स्वतः मन बोलतः सिद्धपुरुष! ब्रह्मज्ञ ! সে কোথায় আর যাবো না। নবম-দশম শ্রেণীতে ইংরেজি গদ্য -পদ্য পড়িয়েছেন   Shelley, Tennyson, Keats, Browning, Wordsworth गद्य White Knight পড়ান তো দত্তের মত নাট্যাভিনয় প্রেসিডেন্সি কলেজ Shakespeare এর নাটক অভিনয় করে বিদেশী অধ্যাপকদের প্রশংসা পেয়ে ছিলেন এক সময়। The Secret of Success:-Written by -William Walker Atkinson -1862–1932) পড়েছিলেন যা জীবনে বড় কাজে লেগেছে। পতঞ্জলি  মহাভাষ্যে বলেছেন বিদ্যা চার প্রকারে উপযুক্ত হয়। অর্জনে, চর্চায় , শিক্ষনে ও ব্যবহারে। যে বিদ্যা ব্যবহারে আসে না তা ব্যর্থ।

এরূপ শিক্ষা যিনি দিতে পারেন তাঁকেই আচার্য বলে। মনু তাই বলেন ' -उपाध्यात् दश आचार्य:' শিক্ষক থেকে আচার্য দশগুন বড়। বায়ু পূরণে আচার্যের বিষয়ে বলা হয়েছে -"आचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयते अधि !स्वयं ह्यपि आचरेत् य: तु आचार्य: इति स्मृत: !' যিনি শাস্ত্রের অর্থ যথাযথ লাভ করে নিজ আচরণে তা পরিলক্ষিত করেছেন এবং যিনি অনুগতদের তেমন আচরণে উদ্বুদ্ধ করেন প্রেরিত করেন তিনি আচার্য।  আচার্য দেবের প্রধান শিক্ষতার পঞ্চাশ বছর পূর্ন হলে সুবর্ন জয়ন্তী অনুষ্ঠানে বিদ্যালয়ের তাঁর মর্মর মূর্তি বসল। তারই ছাত্র কালোশশী বন্দোপাধ্যায়  মূর্তির শিল্পী। সেই পাথর থেকেই তিনি একটি বৃষ তৈরি করে দেন , যা খড়দহে আচার্য দেবের মাতৃদেবীর প্রতিষ্ঠিত শিবের বাহনরূপে আজ ও রয়েছে। আচার্যদেবের সঙ্গে তাঁর ছাত্র বৃন্দের সম্বন্ধের কথা ভাবতে গিয়ে উপনিষদের 'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्साख एशोऽश्वत्थः सनातनः।"মনে পড়ে/ঊর্ধ্ব মূল নিম্নতার শাখা সমূহ - সে বৃক্ষ টি আশ্বস্থ না হয়ে শিরিষ। পূরণের ভাষায় বলতে পারা যায় কিছু বদল করে -   "आजीव्यः सर्वछात्राणां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। " সেই বিরাট সনাতন ব্রাহ্ম বৃক্ষ টি আশ্রয় করে ছাত্র কুল বাস করছে। সে শিরিষ বৃক্ষের পঞ্চাশ বছর আমরা এক গুচ্ছ শিরিষ কুসুম। 

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