*परिच्छेद १०७.
[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107]
गिरीश के मकान पर
(१)
ज्ञान-भक्ति-समन्वय का प्रसंग
श्रीरामकृष्ण गिरीश घोष के बसुपाड़ावाले मकान में भक्तों के साथ बैठकर ईश्वर सम्बन्धी वार्तालाप कर रहे हैं । दिन के तीन बजे का समय है । मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । आज बुधवार है - फाल्गुन शुक्ला एकादशी - 25 फरवरी 1885 ई.। पिछले रविवार को दक्षिणेश्वर मन्दिर में श्रीरामकृष्ण का जन्म महोत्सव हो गया है । श्रीरामकृष्ण गिरीश के घर होकर स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखने जायेंगे ।
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर पहले ही पधारे हैं । कामकाज समाप्त करके आने में मास्टर को थोड़ा विलम्ब हुआ । उन्होंने आकर ही देखा, श्रीरामकृष्ण उत्साह के साथ ब्रह्मज्ञान और भक्तितत्त्व के समन्वय की चर्चा कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों के प्रति) - जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति जीव की ये तीन स्थितियाँ होती हैं । "जो लोग ज्ञान का विचार करते हैं वे तीनों स्थितियों को उड़ा देते हैं, अर्थात ठीक-ठीक समझा सकते हैं। वे कहते हैं कि ब्रह्म तीनों स्थितियों से परे है - स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों शरीरों से परे है; सत्त्व, रज, तम - तीनों गुणों से परे है । सभी माया है, जैसे दर्पण में परछाई पड़ती है । प्रतिबिम्ब कोई वस्तु नहीं है । ब्रह्म ही वस्तु है, बाकी सब अवस्तु।
"ब्रह्मज्ञानी और भी कहते हैं, देहात्मबुद्धि रहने से ही दो दिखते हैं । परछाई भी सत्य प्रतीत होती है। वह बुद्धि लुप्त होने पर 'सोऽहम्' - 'मैं ही वह ब्रह्म हूँ' - यह अनुभूति होती है ।"
एक भक्त - तो फिर क्या हम सब बुद्धि-विचार का मार्ग ग्रहण करें ?
श्रीरामकृष्ण : युक्ति- विचार पथ भी है - वेदान्तवादियों का पथ । और एक पथ है भक्तिपथ । भक्त यदि ब्रह्मज्ञान के लिए व्याकुल होकर रोता है, तो वह उसे भी प्राप्त कर लेता है । ज्ञानयोग और भक्तियोग ।
"दोनों पथों से ब्रह्मज्ञान हो सकता है । कोई कोई ब्रह्मज्ञान के बाद भी भक्ति लेकर रहते हैं - लोकशिक्षा के लिए; जैसे अवतार आदि ।
"देहात्मबुद्धि, ‘मैं’ - बुद्धि आसानी से नहीं जाती । उनकी कृपा से समाधिस्थ होने पर जाती है - निर्विकल्प समाधि, जड़ समाधि ।
“समाधि के बाद अवतार आदि का 'मैं’ फिर लौट आता है - 'विद्या का मैं', 'भक्त' का ‘मैं’ । इस ‘विद्या के मैं’ से लोकशिक्षा होती है । शंकराचार्य ने ‘विद्या के मैं’ को रखा था ।
"चैतन्यदेव इसी ‘मैं’ द्वारा भक्ति का आस्वादन करते थे, भक्ति-भक्त लेकर रहते थे, ईश्वर की बातें करते थे, नाम संकीर्तन करते थे ।
" ‘मैं’ तो सरलता से नहीं जाता, इसीलिए भक्त जाग्रत्, स्वप्न आदि स्थितियों को उड़ा नहीं देता । वह सभी स्थितियों को मानता है, सत्व-रज-तम तीन गुण भी मानता है । भक्त देखता है, वे ही चौबीस तत्व बने हुए हैं । जीव-जगत् बने हुए हैं । फिर वह देखता है कि वे साकार चिन्मय रूप में दर्शन देते है ।
"भक्त विद्यामाया की शरण लेता है । साधुसंग, तीर्थ, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य - इन सब की शरण लेकर रहता है । वह कहता है, यदि 'मैं' सरलता से चला न जाय, तो रहे साला 'दास' बनकर, 'भक्त' बनकर ।
"भक्त का भी एकाकार ज्ञान होता है । वह देखता है, ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । स्वप्न की तरह नहीं कहता, परन्तु कहता है, वे ही ये सब बने हुए हैं । मोम के बगीचे में सभी कुछ मोम का है । परन्तु है अनेक रूप में।
"परन्तु पक्की भक्ति होने पर इस प्रकार बोध होता है । अधिक पित्त जमने पर पीला रोग होता है। तब मनुष्य देखता है कि सभी पीले हैं । श्रीमती राधा ने श्यामसुन्दर का चिन्तन करते करते सभी श्याममय देखा और अपने को भी श्याम समझने लगीं । सीसा यदि अधिक दिन तक पारे के तालाब में रहे तो वह भी पारा बन जाता है । 'कुमुड़' कीड़े को सोचते सोचते झींगुर निश्चल हो जाता है, हिलता नहीं, अन्त में 'कुमुड़' कीड़ा ही बन जाता है । भक्त भी उनका चिन्तन करते करते अहंशून्य बन जाता है । फिर देखता है "वह ही मैं हूँ, मैं ही वह हूँ ।' "झींगुर जब 'कुमुड़' कीड़ा बन जाता है, तब सब कुछ हो गया । तभी मुक्ति होती है ।
"जब तक उन्होंने मैं-पन को रखा, तब तक एक भाव का सहारा लेकर उन्हें पुकारना पड़ता है - शान्त, दास्य, वात्सल्य - ये सब ।
"मैं दासीभाव में एक वर्ष तक था - ब्रह्ममयी की दासी औरतों का कपड़ा, ओढ़ना - यह सब पहना करता था, फिर नथ भी पहनता था । औरतों के भाव में रहने से काम पर विजय प्राप्त होती है ।
“उस आद्यशक्ति की पूजा करनी होती है, उन्हें प्रसन्न करना होता है । वे ही औरतों का रूप धारण करके वर्तमान हैं; इसीलिए मेरा मातृभाव है ।
"मातृभाव अति शुद्ध भाव है । तन्त्र में वामाचार की बात भी है, परन्तु यह ठीक नहीं, उससे पतन होता है । भोग रखने से ही भय है ।
"मातृभाव मानो निर्जला एकादशी है; किसी भोग की गन्ध नहीं है । दूसरी है फल-मूल खाकर एकादशी; और तीसरी, पूरी मिठाई खाकर एकादशी । मेरी निर्जला एकादशी है, मैंने मातृभाव से सोलह वर्ष की कुमारी की पूजा की थी । देखा, स्तन मातृस्तन हैं, योनि मातृयोनि है । "यह मातृभाव - साधना की अन्तिम बात है । ‘तुम माँ हो, मैं तुम्हारा बालक हूँ ।' यही अन्तिम बात है ।
"संन्यासी की निर्जला एकादशी है; यदि संन्यासी भोग रखता है; तभी भय है । कामिनी-कांचन भोग हैं । जैसे थूककर फिर उसी थूक को चाट लेना । रुपये-पैसे, मान इज्जत, इन्द्रियसुख - ये सब भोग हैं । संन्यासी का स्त्रीभक्त के साथ बैठना या वार्तालाप करना भी ठीक नहीं हैं - इसमें अपनी भी हानि और दूसरों की भी हानि है । इससे दूसरे लोगों को शिक्षा नहीं मिलती, लोकशिक्षा नहीं होती । संन्यासी का शरीर-धारण लोकशिक्षा के लिए है ।
"औरतों के साथ बैठना या अधिक देर तक वार्तालाप करना - इसे भी रमण कहा है । रमण आठ प्रकार के हैं । कोई औरतों की बातें सुन रहा है; सुनते सुनते आनन्द हो रहा है, - यह एक प्रकार का रमण है । औरतों की बात कह रहा है (कीर्तन में) - यह एक प्रकार का रमण है ।औरतों के साथ एकान्त में गुपचुप बातचीत कर रहा है यह एक प्रकार का रमण है । औरतों की कोई चीज पास रख ली है, आनन्द हो रहा है - यह प्रकार है । स्पर्श करना भी एक प्रकार का रमण है; इसीलिए गुरुपत्नी यदि युवती हो तो पादस्पर्श नहीं करना चाहिए । संन्यासियों के लिए ये सब नियम है ।
"संसारियों की अलग बात है । वे दो-एक पुत्र होने पर भाईबहन की तरह रहें । उनके लिए अन्य सात प्रकार के रमण से उतना दोष नहीं है ।
"गृहस्थ के ऋण हैं । देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण; फिर स्त्रीऋण भी है – एक दो बच्चे होना और सती हो तो उसका प्रतिपालन करना ।
“संसारी लोग समझ नहीं सकते कि कौन अच्छी स्त्री है और कौन बुरी स्त्री; कौन विद्याशक्ति और कौन अविद्याशक्ति । जो अच्छी स्त्री है, विद्याशक्ति है, उसमें काम, क्रोध आदि कम होता है, नींद कम होती है । वह पति के मस्तक को दूर ठेल देती है । जो विद्याशक्ति है उसमें स्नेह, दया, भक्ति, लज्जा आदि होते हैं । वह सभी की सेवा करती है, वात्सल्य भाव से; और पति की भगवान् में भक्ति बढ़ाने का यत्न करती है। अधिक खर्च नहीं करती, कहीं पति को अधिक श्रम न करना पड़े, कहीं ईश्वर के चिन्तन में विघ्न न हो ।
"फिर मर्दानी स्त्रियों के भी लक्षण हैं । खराब लक्षण - टेढ़ी धँसी हुई आँखें, बिल्ली जैसी आँखें, हड्डियाँ उभरी हुई, बछड़े जैसे गाल ।"
गिरीश - हमारे उद्धार का उपाय क्या है ?
श्रीरामकृष्ण - भक्ति ही सार है । फिर भक्ति का सत्त्व, भक्ति का रज, भक्ति का तम भी है । “भक्ति का सत्त्व है दीन-हीन भाव; भक्ति का तम मानो डाका पड़ने का भाव है - मैं उनका काम कर रहा हूँ, मुझे फिर पाप कैसा ? तुम मेरी अपनी माँ हो, दर्शन देना ही होगा ।"
गिरीश (हँसते हुए) - भक्ति का तम आप ही तो सिखाते हैं ।
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - परन्तु उनके दर्शन होने का लक्षण है । समाधी होती है । समाधि पाँच प्रकार की होती है । (१) चींटी की गति - महावायु चींटी की तरह उठती है । (२) मछली की गति। (३) तिर्यक् गति । (४) पक्षी को गति - जिस प्रकार पक्षी एक शाखा से दूसरी शाखा पर जाता है । (५) कपिवत् या बन्दर की गति - मानो महावायु कूदकर माथे पर उठ गयी और समाधि हो गयी ।
"और भी दो प्रकार की समाधि है । एक - स्थित समाधि, एकदम बाह्यशून्य; बहुत देर तक, सम्भव है, कई दिनों तक रहे । और दूसरी - उन्मना समाधि, एकाएक मन को समस्त इन्द्रियविषयों की ओर से समेट कर ईश्वर में लगा देना ।
(मास्टर के प्रति) “तुमने यह समझा है ?"
मास्टर - जी हाँ ।
गिरीश - क्या साधना द्वारा उन्हें प्राप्त किया जा सकता है ?
श्रीरामकृष्ण - लोगों ने अनेक प्रकार से उन्हें प्राप्त किया है । किसी ने अनेक तपस्या, साधन-भजन करके प्राप्त किया है, ये हैं साधनसिद्ध कोई जन्म से सिद्ध हैं, जैसे नारद शुकदेव आदि; इन्हें कहते हैं नित्यसिद्ध । दूसरे हैं अकस्मात सिद्ध, जिन्होंने एकाएक प्राप्त कर लिया है; जैसे कोई आशा न थी । पर एकाएक नन्द बसू की तरह धन मिल गया ।
"और कुछ लोग हैं स्वप्नसिद्ध और कृपासिद्ध । यह कहकर श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर होकर गाना गा रहे हैं ।
(भावार्थ) - "क्या श्यामारूपी धन को सभी लोग प्राप्त करते है ! अबोध मन नहीं समझता है, यह क्या बात है !"
[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 107 ]
(२)
卐🙏गिरीश का शान्तभाव । कलि में शुद्र की भक्ति और मुक्ति卐🙏
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर भावाविष्ट हैं । गिरीश आदि भक्तगण सामने बैठे हैं । कुछ दिन पहले स्टार थिएटर में गिरीश ने अनेक अशिष्ट बातें सुनाई थीं, इस समय शान्त भाव है ।
श्रीरामकृष्ण(गिरीश के प्रति) - तुम्हारा यह भाव बहुत अच्छा है – शान्तभाव । माँ से इसीलिए कहा था, 'माँ', उसे शान्त कर दो, मुझे ऐसा-वैसा न कहे ।'
गिरीश(मास्टर के प्रति) - न जाने किसने मेरी जीभ को दबाकर पकड़ लिया है, मुझे बात करने नहीं दे रहा है ।
श्रीरामकृष्ण अभी भी भावमग्न हैं, अन्तर्मुख । बाहर के व्यक्ति, वस्तु, धीरे-धीरे मानो सभी को भूलते जा रहे हैं । जरा स्वस्थ होकर मन को उतार रहे हैं । भक्तों को फिर देख रहे हैं ।श्रीरामकृष्ण(मास्टर को देखकर) - ये सब वहाँ पर (दक्षिणेश्वर में) जाते हैं, - जाते हैं तो जायँ, माँ सब कुछ जानती हैं ।
(पड़ोसी बालक के प्रति) - क्यों जी, तुम क्या समझते हो ? मनुष्य का क्या कर्तव्य है ?
सभी चुप हैं । क्या श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं कि ईश्वर की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है ?
श्रीरामकृष्ण(नारायण के प्रति) - क्या तू पास होना नहीं चाहता ? अरे सुन, जो पाशमुक्त हो जाता है वह शिव बन जाता है और जो पाशबद्ध रहता है वह जीव है ।"* (*बंगला में 'पास' और 'पाश' दोनों का उच्चारण एक जैसा किया जाता है ।)
श्रीरामकृष्ण अभी भावमग्न हैं । पास ही ग्लास में जल रखा था, उन्होंने उसका पान किया । वे अपने आप कह रहे हैं, “कहाँ, भाव में तो मैंने जल पी लिया !"
अभी सायंकाल नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण गिरीश के भाई अतुल के साथ बातचीत कर रहे हैं । अतुल भक्तों के साथ सामने ही बैठे हैं । एक ब्राह्मण पड़ोसी भी बैठे हैं । अतुल हाईकोर्ट में वकील हैं ।
श्रीरामकृष्ण (अतुल के प्रति) - आप लोगों से यही कहता हूँ, आप दोनों करें, संसार धर्म भी करें और जिससे भक्ति हो वह भी करें ।
ब्राह्मण पड़ोसी - क्या ब्राह्मण न होने पर मनुष्य सिद्ध होता है, (पूर्णता प्राप्त कर सकता है) ?
श्रीरामकृष्ण - क्यों ? कलियुग में शूद्र की भक्ति की कथाएँ हैं । शबरी, रैदास, गुहक चण्डाल, - ये सब उदाहरण हैं ।
नारायण - (हँसते हुए )- ब्राह्मण, शूद्र सब एक हैं ।
ब्राह्मण - क्या एक जन्म में होता है ?
श्रीरामकृष्ण - उनकी दया होने पर क्या नहीं होता ! हजार वर्ष के अन्धकारपूर्ण कमरे में बत्ती लाने पर क्या थोड़ा थोड़ा करके अन्धकार जाता है ? एकदम रोशनी हो जाती है ! (अतुल के प्रति) – “तीव्र वैराग्य चाहिए - जैसी नंगी तलवार ! ऐसा वैराग्य होने पर स्वजन काले साँप जैसे लगते हैं, घर कुआँ-सा प्रतीत होता है ।
सब चुपचाप हैं । श्रीरामकृष्ण ने जो कुछ कहा, एकाग्र चित्त से सुनकर सभी उस पर चिन्तन कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (अतुल के प्रति) - क्यों, वैसी दृढ़ता – व्याकुलता - नहीं होती ?
अतुल - मन कहाँ ईश्वर में रह पाता है ?
श्रीरामकृष्ण - अभ्यासयोग ! प्रतिदिन उन्हें पुकारने का अभ्यास करना चाहिए । एक दिन में नहीं होता । रोज पुकारते पुकारते व्याकुलता आ जाती है ।
"रात-दिन केवल विषय-कर्म करने पर व्याकुलता कैसे आयेगी ? यदु मल्लिक शुरू शुरू में ईश्वर की बातें अच्छी तरह सुनता था, स्वयं भी कहता था । आजकल अब उतना नहीं कहता । हमेशा चापलूसों को लेकर बैठा रहता है, और रात-दिन केवल विषय की बातें करता है !"
सायंकाल हुआ । कमरे में बत्ती जलायी गयी है । श्रीरामकृष्ण देवताओं के नाम ले रहे हैं, गाना गा रहे हैं और प्रार्थना कर रहे हैं । कह रहे हैं, "हरि बोल, हरि बोल, हरि बोल"; फिर "राम, राम, राम" ! "नित्यलीलामयी, ओ माँ! उपाय बता दे, माँ ; हम तुम्हारे शरण में हैं ! हमें एक तुम्हारा ही आश्रय है !" "शरणागत, शरणागत, शरणागत" ।
गिरीश को व्यस्त देखकर श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर चुप रहे । तेजचन्द्र से कह रहे हैं, "तू जरा पास आकर बैठ ।"
तेजचन्द्र पास बैठे । थोड़ी देर बाद मास्टर से कान में कह रहे हैं, "मुझे जाना है ।"श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति ) - क्या कह रहा है ? मास्टर - घर जाना है - यही कह रहा है ।
श्रीरामकृष्ण - मैं इन्हें इतना क्यों चाहता हूँ ? ये निर्मल पात्र हैं - विषयबुद्धि प्रविष्ट नहीं हुई है । विषयबुद्धि रहने पर उपदेशों को धारण नहीं कर सकते । नये बर्तन में दूध रखा जा सकता है, दही के बर्तन में दूध रखने से खराब हो जाता है ।
"जिस कटोरी में लहसुन घोला हो, उस कटोरी को चाहे हजार बार धो डालो, लहसुन की गन्ध नहीं जाती ।"
[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत, 107 ]
(३)
卐🙏श्रीरामकृष्ण का स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखना卐🙏
श्रीरामकृष्ण 'वृषकेतु' (कर्ण का पुत्र) नाटक देखेंगे । बीडन स्ट्रीट पर जहाँ बाद में मनोमोहन थिएटर हुआ, पहले वहाँ स्टार थिएटर था । श्रीरामकृष्ण थिएटर में आकर बाक्स में दक्षिण की ओर मुँह करके बैठे । मास्टर आदि भक्तगण पास ही बैठे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - नरेन्द्र आया है ?
मास्टर - जी हाँ ।
अभिनय हो रहा है । कर्ण और पद्मावती ने आरी को दोनों ओर से पकड़कर वृषकेतु का बलिदान किया । पद्मावती ने रोते रोते मांस को पकाया । वृद्ध ब्राह्मण अतिथि आनन्द मनाते हुए कर्ण से कह रहे हैं, “अब आओ, हम एक साथ बैठकर पका हुआ मांस खायें ।” कर्ण कह रहे हैं, "यह मुझसे न होगा । पुत्र का मांस खा न सकूँगा ।”
एक भक्त ने सहानुभूति प्रकट करके धीरे से आर्तनाद किया । साथ ही श्रीरामकृष्ण ने भी दुःख प्रकट किया ।
खेल (वृषकेतु नाटक) समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण रंगमंच के विश्रामगृह में आकर उपस्थित हुए । गिरीश, नरेन्द्र आदि भक्तगण बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण कमरे में जाकर नरेन्द्र के पास खड़े हुए और बोले, “मैं आया हूँ ।"
श्रीरामकृष्ण बैठे । अभी भी वृन्द वाद्यों (orchestra) का संगीत सुनायी दे रहा है । श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - यह सहगान (Concert) सुनकर मुझे आनन्द हो रहा है । वहाँ पर (दक्षिणेश्वर में) शहनाई बजती थी, मैं भावमग्न हो जाता था । एक साधु मेरी स्थिति देखकर कहा करता था, 'ये सब ब्रह्मज्ञान के लक्षण हैं।'
वाद्य बन्द होने पर श्रीरामकृष्ण फिर बात कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - यह तुम्हारा थिएटर है या तुम लोगों का ?
गिरीश - जी, हम लोगों का ।
[ (25 फरवरी, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत, 107 ]
🙏सम्पूर्ण विश्व एक रंगमंच (थिएटर) है !🙏
श्रीरामकृष्ण - 'हम लोगों का' शब्द ही अच्छा है । 'मेरा' कहना ठीक नहीं । कोई कोई कहता है 'मैं खुद आया हूँ ।' ये सब बातें हीनबुद्धि अहंकारी लोग कहते हैं ।
नरेन्द्र - सभी कुछ थिएटर है ।
NARENDRA: "The whole world is a theatre."
श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, ठीक । परन्तु कहीं विद्या का खेल है, कहीं अविद्या का ।
नरेन्द्र - सभी विद्या के खेल है ।
NARENDRA: "Everything is the play of vidya."
श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, परन्तु यह तो ब्रह्मज्ञान से होता है । भक्ति और भक्त के लिए दोनो ही हैं, विद्यामाया और अविद्यामाया ।
MASTER: "True, true. But a man realizes that when he has the Knowledge of Brahman. But for a bhakta, who follows the path of divine love, both exist — vidyamaya and avidyamaya.
(भावार्थ) - "चिदानन्द समुद्र के जल में प्रेमानन्द की लहरें हैं । अहा ! महाभाव में रासलीला की क्या ही माधुरी है । नाना प्रकार के विलास, आनन्द-प्रसंग कितनी ही नयी नयी भाव तरंगें नये नये रूप धारण कर डूब रही हैं, उठ रही हैं और तरह तरह के खेल कर रही हैं । महायोग में सभी एकाकार हो गये । देश-काल की पृथक्ता तथा भेदाभेद मिट गये और मेरी आशा पूर्ण हुई । मेरी सभी आकांक्षाएँ मिट गयीं । अब हे मन, आनन्द में मस्त होकर दोनों हाथ उठाकर 'हरि हरि' बोल' ।
^एक ही जन्म में दूसरी बार जीवित होने वाले कर्ण के पुत्र वृषकेतु की कथा : कहते हैं मृत्यु जीवन का सत्य है जो एक बार मर जाता है वह फिर जीवित नहीं हो सकता। लेकिन कई बार ऐसे भी चमत्कार होते हैं कि मरने के बाद लोग जीवित हो उठते हैं। महाभारत में भी कुछ ऐसी ही कथाएं हैं। कथा इस प्रकार है - कर्ण के द्वार से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता था। यदि एक बार वह किसी वस्तु को देने की स्वीकृति दे देता तो उसे अवश्य देता। एक दिन महाराज कर्ण दोपहर के भोजन के लिए निकलने लगे तो एक ब्राह्मण पधारे. द्वारपाल ने उन्हें महल में जाने की आज्ञा दे दी। महाराज ने पूछा –“कहिए विप्रवर ! मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ?” --कल एकादशी का व्रत था आज उपवास खोलना है। किन्तु आपसे इच्छित भोजन चाहता हूँ। ”
महात्मन ! आज्ञा दें, जैसे आज्ञा देंगे वही भोजन परोसा जाएगा। ” उस क्षद्मवेशी ने कर्ण के पुत्र का मांस खाने की इच्छा प्रकट की। “ब्राह्मण को नरमांस का लोभ ! प्रभु कहीं आप मेरी परीक्षा तो नहीं ले रहे ? मैं एक माँ होकर अपने ही बच्चे का मांस कैसे पकाऊ ? उसने विचार किया – “धर्म व व्रत के पालन के लिए सन्तान का बलिदान भी करना पड़े तो नि:संकोच कर देना चाहिए, हो सकता है ईश्वर ने वृषकेतु के भाग्य में यही लिखा हो।
पद्मावती ने ध्यान लगा कर चित्त को शांत किया व समस्त मोह त्याग कर पुत्र वध के लिए प्रस्तुत हुई। वृषकेतु के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ब्राह्मण के आगे भोजन परोसा तो वह बोला –“ वाह ! क्या बढिया सुगंध आ रही है। जाओ, बाहर से किसी बालक को बुला लाओ, पहला कौर उसे खिलाऊंगा। ”कर्ण बालक की खोज में बाहर गए तो देखा कि वृषकेतु बच्चों के साथ खेल रहा है। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ब्राह्मण के वेश में स्वयं नारायण कर्ण व उसकी पत्नी की परीक्षा लेने आए थे। पद्मावती ने पति-पत्नी की मर्यादा के पालन के लिए मातृत्व की सभी मर्यादाएँ तोड़ दीं व अपने अप्रतिम त्याग के बल पर संसार में अमर हो गई।]