" महामण्डल द्वारा आयोजित अखिल भारत वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर "
के लिए " C-IN-C " की अवधारणा !
[ " THE GREAT TEACHERS OF THE WORLD " Volume 4, Lectures and Discourses. स्वामी विवेकानन्द द्वारा ३ फ़रवरी, १९०० ई० को शेक्सपियर क्लब, पसाडेना, कैलिफोर्निया में " विश्व के महान शिक्षक " विषय पर दिया गये अंग्रेजी भाषण का हिन्दी भावानुवाद। वि०सा० ख० ७/१७७ $$$ The concept of "C-IN-C" at the All India Annual Youth Training Camp of the Mahamandal : ]
1. उत्थान और पतन का चक्र, पुनरुत्थान के लिए निरंतर चलता रहता है (The Cycle of rise and fall Goes on for resurrection) :
भारतवर्ष के प्राचीन तत्वदर्शी ऋषियों के मतानुसार, यह विश्व-ब्रह्माण्ड चक्राकार तरंगों की भाँति गतिमान है। यह एक बार उठता है और उन्नति की पराकाष्ठा (zenith) को प्राप्त कर लेता है; तदन्तर उसका पतन आरम्भ होता है --कुछ काल तक वह इसी प्रकार, अवनति के गर्त में पड़ा रहता है, मानो पुनः उत्थान के लिये शक्ति-संग्रह कर रहा हो !
जिस प्रकार समुद्र में निरन्तर भीमकाय लहरें उठती और गिरती रहती हैं-उत्थान और पतन, पतन और उत्थान-यही विश्व की गति है! जो नियम ब्रह्माण्ड के लिये सत्य है, वही नियम इसके हर हिस्से पर भी लागु होता है। अथवा यूँ कहें कि जो विधान समष्टि के लिये सत्य है, वही व्यष्टि के लिये भी सत्य है !
The march of human affairs is like that. मनुष्य-समाज के सभी व्यापारों में भी यही तरंगवत् उत्थान और पतन का विधान लागु होता है। राष्ट्रों के इतिहास भी इसी उत्थान और पतन की कहानियाँ हैं, वे उठते हैं और गिरते हैं--उत्थान के बाद पतन-काल आता है और पतन के पश्चात् पहले की अपेक्षा और भी अधिक शक्ति के साथ पुनरुत्थान होता है। निरन्तर यही उत्थान और पतन का चक्र चलता रहता है।
विश्व के धार्मिक जगत में भी अनवरत रूप से यही क्रिया चल रही है। सम्पूर्ण मनुष्य जाति निरंतर प्रगति-अभियान, 'पूर्णत्व' (perfection) प्राप्ति के पथ (चरैवेति , चरैवेति) पर अग्रसर है!
विश्व के धार्मिक जगत में भी अनवरत रूप से यही क्रिया चल रही है। सम्पूर्ण मनुष्य जाति निरंतर प्रगति-अभियान, 'पूर्णत्व' (perfection) प्राप्ति के पथ (चरैवेति , चरैवेति) पर अग्रसर है!
2. विश्व-रंगमंच पर प्रदर्शित करने के लिए प्रत्येक जाति का अपना -अपना जीवनोद्देश्य (mission) होता है, अपने -अपने कर्तव्य की पूर्ति करनी ही पड़ती है : (Each race has its mission to perform, its duty
to fulfill. )
भौतिक जीवन के समान, प्रत्येक राष्ट्र के आध्यात्मिक जीवन में भी पतन और उत्थान के युग आते हैं। जब किसी राष्ट्र की आध्यात्मिक अवनति होती है, तो प्रतीत होता है कि उसकी
जीवन-शक्ति नष्ट हो गयी -वह छिन्न-भिन्न हो गयी है। [अर्थात विदेशी आक्रमण कारियों द्वारा उसके नागरिकों को गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया जाता है, उसकी सभ्यता-संस्कृति नष्ट-भ्रष्ट कर दी जाती है; किन्तु काल का पहिया (Wheel of time) लगातार घूम रहा है ? इसलिए ] किन्तु वह राष्ट्र पुनः
बल संग्रह करता है-उन्नति करने लगता है - जाग्रति की एक विशाल लहर उठती
है। और सदैव यही देखा जाता है कि इस विशालकाय तरंग के सर्वोच्च शिखर " zenith " पर कोई न कोई दिव्य महापुरुष [shining soul- जीवनमुक्त शिक्षक , मानवजाति के मार्गदर्शक नेता- युगावतार जगतगुरु श्रीरामकृष्ण] विराजमान हैं। जो स्वामी विवेकानन्द के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व को यह शिक्षा देते हैं कि - " शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता का प्रकटीकरण है। [शिक्षा अर्थात मानवतावादी शिक्षा-Humanistic Education, या मनुष्यनिर्माणकारी शिक्षा is manifestation of the perfection already in man ] :
एक ओर जहाँ वे (जगतगुरु) उस तरंग - उस जाति के अभ्युत्थान (the
nation rise-अर्थात उसके नागरिकों का चरित्र-निर्माण) के प्रेरणा-श्रोत (impetus,शक्ति-दाता) होते
हैं, वहीं दूसरी ओर वे स्वयं उस महती शक्ति [पुनरुत्थान या अभ्युदय प्रदान करने वाली शक्ति-जगतजननी (चुने हुए संतानों को और निःश्रेयस) माँ काली] के फलस्वरूप (अवतार) होते हैं, जो उस अभ्युदय- उस तरंग की मूल हैं। एक ओर जहाँ वे अपनी महती शक्ति (tremendous
power) से जड़ हो चुके युवा समाज को जाग्रत और सचेतन करते हैं, वहीं वह
युवा समाज ही उनकी इस प्रचण्ड शक्ति [ABVYM] के आविर्भाव का कारण होता है। इस प्रकार [नेता बनने की प्रक्रिया- 'BE AND MAKE' के अनुसार] वे
एक दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते रहते हैं,
परस्पर के स्रष्टा एवं सृष्ट हैं - जनक एवं जन्य (Creator and created) हैं। वे ही संसार के महान विचारक एवं मनीषी होते हैं, ये ही, शास्वत जीवन के सन्देश-वाहक ऋषि और ईश्वर के अवतार, दुनिया के पैग़म्बर (Prophet-नवनीदा के जैसा C-IN-C ) कहलाते हैं।
कुछ धर्मान्ध (Fanatic) व्यक्तियों की धारणा है कि दुनिया में केवल एक ही धर्म, एक ही ईश्वरावतार या एक ही पैग़म्बर (ईशदूत या नबी) हो सकता है, किन्तु यह धारणा सत्य नहीं है। इन सब ईशदूतों या महान नबियों के
जीवन का अध्यन और मनन करने पर हमें ज्ञात होगा कि उनमें से प्रत्येक को
विधाता ने मानो सात स्वरों (notes of the scale - षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद में से) केवल एक -बस एक स्वर का अभिनय करने के लिये ही निर्दिष्ट
किया था। वहाँ हम यह भी देख पाते हैं कि सब स्वरों के समन्वय से ही एकलयता
उतपन्न होती है, किसी एक स्वर से नहीं। विभिन्न राष्ट्रों और जातियों के
इतिहास भी यह बतायेंगे -कोई जातिविशेष सदा के लिये संसार का उपभोग करने की
अधिकारी नहीं रह सकती। समस्त मानवजाति की इस ईश्वरनिर्दिष्ट एकलयता में - [अनेकता में एकता स्थापित करने में] विश्व के सभी जाति और धर्म के लोगों को अपने- अपने स्वर को
मिलाना पड़ता है, सभी राष्ट्रों को अपना अपना जीवनोद्देश्य प्राप्त करना
पड़ता है, अपने अपने कर्तव्य की पूर्ति करनी पड़ती है।
इन समस्त राष्ट्रों के
जीवनोद्देश्य की समष्टि ही उस महान समन्वय -उस महान एकलयता का निर्माण
करती है। So, not any one
of these Prophets is born to rule the world for ever. (जिस प्रकार
विश्वमानवता में समन्वय लाने के लिये प्रत्येक राष्ट्र को अपना अपना
कर्तव्य या जीवनोद्देश्य निभाना पड़ता है,) जाति सम्बन्धी यही बात प्रत्येक
जाति के ईश्दूतों,अवतारों या नबियों पर भी लागू होती है। उनमें से कोई भी
अवतार, ईश्दूत, ऋषि या नबी सारे विश्व पर सदा के लिये शासन करने के लिये
नहीं जन्मा है। ऐसा न तो आज तक हुआ है और न भविष्य में कभी होगा।
उनमें से
प्रत्येक 'नेता' (अवतार या पैगम्बर) ने मानवता को आध्यात्मिक पूर्णता प्रदान करने की मानवतावादी शिक्षा (Humanistic education ) का प्रचार-प्रसार करने में अपनी अपनी
भूमिका निभायी है, और समय प्राप्त होने पर हर एक ईशदूत या नबी [नवनीदा ] उस भागीदारी के रूप में विश्व के शासक बनेंगे तथा उसकी नियति को नियंत्रित करेंगे।
3. 'अवतारवाद' या सगुण -धर्म में श्रद्धा अर्थात आस्तिक्यबुद्धि (Faith in 'Avatarism') :
हममें से अधिकांश लोग जन्मतः सगुण धर्म (personal religion),या 'अवतारवाद' में श्रद्धा रखते हैं। हम लोग मूल तत्व, 'आदि हेतु' (principles) की चर्चा करते हैं, सूक्ष्म तत्वों और उपपत्तियों (अनुमानों या theories) पर
विचार-विमर्श करते हैं। यह ठीक है, किन्तु हमारे प्रत्येक कार्य, प्रत्येक
विचार से यही प्रकट होता है कि हम किसी तात्विक सिद्धान्त (चार महावाक्यों) को केवल तभी समझ पाते हैं,
जब वह हमें किसी व्यक्ति विशेष के माध्यम से प्राप्त होता है।
किसी सूक्ष्म विचार (जैसे " मेरा साहिब मुझमें " या 'ईच सोल इज पोटेंशियलि डिवाइन' को ) को धारण करने में हम तभी समर्थ होते हैं, जब वह किसी ऐसे पुरुष विशेष के माध्यम से प्राप्त होता हो जिसने स्वयं उसकी अनुभूति कर ली हो;और जिसके अपने जीवन और चरित्र से दिव्यता अभिव्यक्त होती हुई दिखाई देती हो। किसी अवतार (जीवनमुक्त शिक्षक या नेता,C-IN-C ) के अपने जीवन द्वारा दिखलाये गये दृष्टान्त की सहायता से ही हम उनके उपदेशों को समझ पाते हैं।
काश ! ईश्वरेच्छा से हम सभी इतने उन्नत होते कि हमें तत्वविशेष की धारणा करने में दृष्टान्तों एवं आदर्श पुरुषों के माध्यम की आवश्यकता न पड़ती। किन्तु हम उतने उन्नत नहीं हैं, और इसीलिये स्वभावतः अधिकांश मनुष्यों ने इन असाधारण व्यक्तियों - ईसाईयों, बौद्धों और हिन्दुओं द्वारा पूजित किसी न किसी पैगम्बरों और अवतारों को आत्मसमर्पण कर दिया है। मुसलमानों ने आरम्भ से ऐसी उपासना का विरोध किया है, पर इस कट्टर विरोध के बावजूद हम हम देखते हैं कि पैगम्बर की उपासना तो दूर रही, वे प्रत्यक्षतः सहस्रों पीरों की पूजा करते देखे जा सकते हैं।
काश ! ईश्वरेच्छा से हम सभी इतने उन्नत होते कि हमें तत्वविशेष की धारणा करने में दृष्टान्तों एवं आदर्श पुरुषों के माध्यम की आवश्यकता न पड़ती। किन्तु हम उतने उन्नत नहीं हैं, और इसीलिये स्वभावतः अधिकांश मनुष्यों ने इन असाधारण व्यक्तियों - ईसाईयों, बौद्धों और हिन्दुओं द्वारा पूजित किसी न किसी पैगम्बरों और अवतारों को आत्मसमर्पण कर दिया है। मुसलमानों ने आरम्भ से ऐसी उपासना का विरोध किया है, पर इस कट्टर विरोध के बावजूद हम हम देखते हैं कि पैगम्बर की उपासना तो दूर रही, वे प्रत्यक्षतः सहस्रों पीरों की पूजा करते देखे जा सकते हैं।
We cannot go against facts! तथ्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हम लोग किसी 'पवित्रता स्वरूप' व्यक्तिविशेष की पूजा-अर्चना करने के लिए विवश हैं, और वह हमारे लिए हितकारी भी है। [" मेरा साहिब मुझमें " की घोषणा करने वाले कबीर भी अद्वैत वादी थे , सामान्य जनता का शोषण होता था , वे निर्भीक होकर पुरोहित वाद और मौलवियों का विरोध करते थे। माला फेरने , पत्थल पूजने , मुर्गा बांग , मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा ?पर दोष दर्शन नहीं , आत्मसमीक्षा। ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोये। रुखा-सूखा खाइके ठंढा पानी पिऊ। ]
एक बार जब ईशदूत ईसा के अनुयायियों ने उनसे कहा - 'प्रभु, हमें परम पिता परमेश्वर (ब्रह्म) के दर्शन कराइये ....." Lord, show us the Father !" तो
ईसा ने क्या कहा था ? -'He
that hath seen me hath seen the Father." ...उसका स्मरण करो !- तो
ईसा ने कहा - ' जिसने मुझे देख लिया है, उसने उस परम पिता (ब्रह्म) को भी देख लिया है।'
हममें ऐसा कौन है, जो ईश्वर को मानव -'स्त्री या पुरुष' के अतिरिक्त अन्य रूप में कल्पना कर सकता है ?
हममें ऐसा कौन है, जो ईश्वर को मानव -'स्त्री या पुरुष' के अतिरिक्त अन्य रूप में कल्पना कर सकता है ?
Which of us can imagine anything except that 'He' is a man? We can only see Him in and through humanity. हमलोग इस जगत में उनकी उपस्थिति को [अल्ला , परमपिता परमेश्वर ,माँ जगदम्बा काली को -केवल किसी व्यक्ति में मनुष्यत्व का उन्मेष होने के माध्यम से ही महसूस कर सकते हैं। [humanity= Unselfishness tending from zero to 100, मनुष्यजाति का स्वभाव 100 % निःस्वार्थपरता, पवित्रता या प्रेमस्वरूप ठाकुर -माँ -स्वामीजी को -ब्रह्मविद नेता की पवित्रता और प्रेमस्वरूपता का उन्मेष होने के माध्यम से ही महसूस कर सकते हैं। ]
4. हम याचक बनकर आते हैं; वे सम्राट (दाता) के रूप में आते हैं (We come as beggars; they come as Emperors.)
इस कमरे में प्रकाश का स्पंदन सर्वत्र वर्तमान है, किन्तु हम ऐसा झूठमूठ क्यों नहीं कह देते कि हम भी उसे सर्वत्र देखने में समर्थ हैं ? हम केवल किसी दीपक में ही उसे [प्रकाश के स्पंदन को ] देख सकते हैं। (lamp-नवनीदा जैसे मार्गदर्शक नेता के जीवन और चरित्र के आलोक में हम जानते हैं कि 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म ही है ' किन्तु हम सर्वत्र - सभी मनुष्यों में प्रभु (श्री रामकृष्ण) को न देखकर विभिन्न वस्तुओं या व्यक्तियों के नाम-रूप में ही क्यों देखते है?
क्योंकि 'God is an Omnipresent Principle — everywhere: but we are so constituted at present that we can see Him, feel Him, only in and through a human God.'- क्योंकि ईश्वर (प्रेमस्वरूप-पवित्रतास्वरूप-परमसत्य) एक "ओम्नीप्रेजेन्ट प्रिंसपल" या सर्वव्यापी सिद्धांत हैं -वे सर्वत्र विद्यमान हैं; किन्तु हमारे मन का गठन इस प्रकार से हुआ है, कि अपनी वर्तमान अवस्था में (जब तक हम अपने मन की चाहरदिवारी को तोड़ कर बाहर नहीं निकल सके हैं, और मृत्यु का भय पूर्णतः समाप्त नहीं हो गया है .... तब तक) हमलोग उन्हें किसी 'ह्यूमन गॉड' -मनुष्य रूप में अवतरित किसी (नवनीदा जैसे ) लोक-शिक्षक, नेता या पैगम्बर के माध्यम से ही देख सकते हैं, या जगत में उनकी उपस्थिति को महसूस कर सकते हैं।
देव-दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त कर लेने के बाद अब हमें क्या करना है ? हम नहीं जानते कि हमारे जीवन का अर्थ क्या है, इसका चरम लक्ष्य क्या है ? अपने इस उद्देश्यहीन जीवन में (आर्थिक-सुरक्षा प्राप्त करने के लिये) हम आज तो एक काम करते हैं, और कल दूसरा। हम लोग (जन्म-मृत्यु के) प्रवाह में पड़े हुए तिनकों की भाँति लहरों के थपेड़े खाते इधर-उधर बहते जाते हैं, तथा झंझा में उड़ते सूखे पत्तों की भाँति इतस्तः गिर पड़ते हैं।
किन्तु हम देखेंगे कि मानव जाति के इतिहास में विश्व के कल्याण के लिये जो अवतार [मानवजाति के मार्गदर्शक नेता-राम,कृष्ण , बुद्ध , ईसा , मोहम्मद , नानक , कबीर , चैतन्य , श्रीरामकृष्ण , विवेकानन्द ..... कैप्टन सेवियर -नवनीदा आदि ] हुए हैं, उनका जीवन-कार्य प्रारम्भ से ही निश्चित रहा है। Because they come with a mission, they come with a message, they do not want to reason. उनके जीवन का सारा नक्शा, सारी योजना उनके आँखों के सामने थी, और उससे वे एक इंच भर भी न डिगे। चूँकि उनका एक निश्चित जीवन-लक्ष्य होता है, अपने जीवन के लिये एक कार्य (मिशन) लेकर आते हैं, अतः वे एक सन्देश भी लाते हैं; और उसके संबन्ध में तर्क-वितर्क नहीं करते।
क्या
तुमने ऐसे किसी ऋषि, पैग़म्बर या अवतार के बारे में सुना या पढ़ा है, जिसने
अपने उपदेशों को युक्ति का आधार दिया हो? (महावाक्यों के मर्म - " मेरा साहेब मुझमें " अथवा 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है',या 'पंचभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े काँदे' को समझाने के लिए युक्ति-तर्क (reason) का सहारा लिया हो ? नहीं, उनमें से
किसी ने ऐसा नहीं किया है। (वेदों के महावाक्यों को सिद्ध करने के लिये) उन
ऋषियों को तर्क करने की क्या आवश्यकता है ? They speak
direct. वे सीधा और सरल शब्दों में सर्वोच्च सत्य को व्यक्त करना जानते हैं । उनमें परमसत्य का दर्शन करने की क्षमता होती है, और न केवल
वे स्वयं उस परमसत्य को देख सकते हैं, बल्कि उसे दूसरों को दिखाने का
सामर्थ्य भी उनमें रहता है।
यदि
तुम मुझसे पूछो कि ईश्वर है या नहीं, और मैं कह दूँ, कि हाँ ईश्वर है ! तो
तुम झट मुझे अपनी युक्तियाँ बताने के लिये बाध्य करोगे, और मुझ बेचारे को
कुछ युक्तियाँ पेश करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देनी पड़ेगी। किन्तु यदि
कोई ईसा से यही प्रश्न पूछता, तो ईसा तत्काल उत्तर देते -' हाँ, ईश्वर
है।' और यदि तुम ईसा से इसका प्रमाण माँगते, तो निश्चय ही ईसा ने कहा होता,
' लो, यह ईश्वर तुम्हारे सम्मुख खड़ा है, दर्शन कर लो।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन अवतारों या ईशदूतों की ईश्वर (या या स्वयं के सच्चे स्वरुप) विषयक धारणा अनुभूतिजन्य उपलब्धि, प्रत्यक्ष दर्शन (direct perception-अनुभूति जन्य उपलब्धि) पर आधारित है, तर्क जन्य नहीं। वे अन्धकार में नहीं टटोलते, उनके कथन में प्रत्यक्ष दर्शन का बल होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन अवतारों या ईशदूतों की ईश्वर (या या स्वयं के सच्चे स्वरुप) विषयक धारणा अनुभूतिजन्य उपलब्धि, प्रत्यक्ष दर्शन (direct perception-अनुभूति जन्य उपलब्धि) पर आधारित है, तर्क जन्य नहीं। वे अन्धकार में नहीं टटोलते, उनके कथन में प्रत्यक्ष दर्शन का बल होता है।
जब मैं इस मेज को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, तो फिर कोई भले हजारों युक्तियों द्वारा क्यों न चेष्टा करे, इस मेज के अस्तित्व में मेरा विश्वास नष्ट नहीं हो सकता। इसी
प्रकार इन महापुरुषों (नवनीदा जैसे लोक-शिक्षकों) का अपने आदर्श,अपने
जीवन-कार्य (मिशन) और सर्वोपरि स्वयं अपने आप पर अटल श्रद्धा होती
है। उन दिव्य पुरुषों (The great shining Ones-प्रवृत्ति और निवृत्तिमार्ग के सत्यद्रष्टा सप्तर्षियों ) में
जितना प्रचण्ड आत्मविश्वास होता है, उतना अन्य किसी को भी नहीं!
लोग उन दिव्य पुरुषों (लोक-शिक्षकों, सत्य द्रष्टा ऋषियों) से पूछते हैं - 'महाशय, क्या आप अपने शास्त्रादेश में बिना किसी प्रमाण के विश्वास करते हैं ? सगुण -साकार ईश्वर में विश्वास रखते हैं ? क्या आप 'परलोक' (देश-काल-निमित्त से परे की अवस्था) के अस्तित्व को मानते हैं? मेरी पुस्तक में लिखा है कि तीन-तलाक जायज है, या ईश्वर केवल निर्गुण-निराकार ही हो सकते हैं!) "Do you believe in this doctrine or that dogma?" क्या आप इस मत (doctrine-a belief (or system of beliefs) accepted as authoritative by some group or school.सप्रमाण अवतारवाद या मूर्ति-पूजा के सिद्धान्त में श्रद्धा रखते हैं, या उस हठधर्मिता (dogma-शास्त्रादेश a religious doctrine that is proclaimed as true without proof.
लोग उन दिव्य पुरुषों (लोक-शिक्षकों, सत्य द्रष्टा ऋषियों) से पूछते हैं - 'महाशय, क्या आप अपने शास्त्रादेश में बिना किसी प्रमाण के विश्वास करते हैं ? सगुण -साकार ईश्वर में विश्वास रखते हैं ? क्या आप 'परलोक' (देश-काल-निमित्त से परे की अवस्था) के अस्तित्व को मानते हैं? मेरी पुस्तक में लिखा है कि तीन-तलाक जायज है, या ईश्वर केवल निर्गुण-निराकार ही हो सकते हैं!) "Do you believe in this doctrine or that dogma?" क्या आप इस मत (doctrine-a belief (or system of beliefs) accepted as authoritative by some group or school.सप्रमाण अवतारवाद या मूर्ति-पूजा के सिद्धान्त में श्रद्धा रखते हैं, या उस हठधर्मिता (dogma-शास्त्रादेश a religious doctrine that is proclaimed as true without proof.
5. महामण्डल के स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make ' में प्रशिक्षित शिक्षक /नेता 'C-IN-C' नवनीदा से 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त नेताओं /जीवनमुक्त शिक्षकों में भी क्या आजीवन Asmita या Identity Confusion बना रह सकता है? [ दूसरे शब्दों में स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make ' में प्रशिक्षित शिक्षक /नेता 'C-IN-C' नवनीदा से 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त नेताओं का भी आत्मश्रद्धा (this belief in oneself) या आस्तिक्यबुद्धि खो जाने का कारण क्या है ? ]
जिनको यह विश्वास नहीं होता कि पूज्य नवनीदा सचमुच कैप्टन सेवियर के अवतार थे , जिनको अवतारवाद परम्परा ( ठाकुर--गिरीश घोष , ठाकुर नरेन्द्रनाथ, ठाकुर-नटिविनोदनी परम्परा , आदि ) में विश्वास नहीं होता , प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद भी उनकी मूलभित्ति (स्पाइनल कॉर्ड, मेरुदण्ड, आत्मश्रद्धा या आस्तिक्यबुद्धि )गायब हो जाती है। वे यदि दूसरों का मार्गदर्शन करें तो अँधा दूसरों को मार्ग दिखाने जैसी हालत होगी। क्योंकि अवतारवाद पर विश्वास नहीं होने उनकी आत्मश्रद्धा जागृत नहीं होगी , इसलिए उनमे अपनेआप पर विश्वास भी नहीं होगा। जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं है, उसे अन्य सूक्ष्म तत्वों में विश्वास रखने की आशा कैसे की जा सकती है? [But here the base is wanting:आत्मश्रद्धा this belief in oneself.]
[मैं अगले AGM में महामण्डल का नेता तो बनना चाहता हूँ -लेकिन] मुझे स्वयं अपने अस्तित्व तक में पूरा विश्वास
नहीं है। एक क्षण मैं सोचता हूँ - मैं हूँ ! मेरा अस्तित्व है और कुछ भी
मुझे नष्ट नहीं कर सकता। किन्तु दूसरे ही क्षण मृत्यु-भय से मैं काँपने लगता हूँ। अभी हम सोचते हैं कि हमतो
अजर-अमर अविनाशी आत्मा हैं, और पल भर बाद अपनी ही कल्पना का कोई भूत देखकर (द्वैतबुद्धि वश) हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते
हैं, हमारा विवेक छुप जाता है, हमें यह भी ध्यान नहीं रहता कि हम कौन हैं,
और कहाँ हैं, जीवित हैं या मृत हैं ? (COVID-19 pandemic या किसी अन्य शत्रु में मृत्यु को
देखकर मृत्यु-भय से मैं काँपने लगता हूँ।) कभी सोचते हैं कि हम तो अत्यंत
धार्मिक और पवित्र (100 % Unselfish आत्मा, ब्रह्म हैं -M/F शरीर नहीं) हैं, किन्तु दूसरे ही क्षण एक धक्का
[Internet scene and audio ? अन्तरराष्ट्रीय कम्प्यूटर तन्त्र पर पाश्चात्य सभ्यता के भोगी दृश्य और श्रव्य का धक्का लगता है] , और हम चारों खाने चित हो जाते हैं। इसका कारण क्या है ? कारण यही है कि हमारा आत्मविश्वास मर गया है, (क्योंकि हमलोग आहारशुद्धि मंत्र को भूल गए ) इसीलिये हमारी नैतिकता की रीढ़ टूट गयी है।
{आधुनिक भारत में पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाववश, "चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा या '3H' विकास का प्रशिक्षण" के अभाव में देहाध्यास- इस मरणधर्मा जड़ शरीर
के साथ हमारा तादात्म्यबोध इतना अधिक गहरा हो गया है कि हम अपने को
स्त्री-पुरुष शरीर से भिन्न अन्य कुछ 'अजर-अमर-अविनाशी' आत्मा के रूप में
सोच ही नहीं सकते हैं। आत्मश्रद्धा का घोर अभाव हो गया है। क्योंकि हमने भारतीय परम्परा में 'Food purification mantra ' आहार-शुद्धि -मंत्र: बोलना बंद कर दिया है ,इसलिये मैंने आत्मश्रद्धा खो दिया है , और मेरी रीढ़ की हड्डी टूट गयी है (इन्द्रिय-मन का गुलाम बना हुआ व्यक्ति , प्रवृत्ति से निवृत्ति में लौटे बिना दूसरों को मन की गुलामी से मुक्त होने की क्या शिक्षा दे सकता है ? ) — I have lost faith in myself, my moral backbone is broken.
6. आत्मश्रद्धा जाग्रत करने में आहार-शुद्धि प्रशिक्षण की भूमिका ( Role of Food purification
Training in awakening self-respect.)
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।
-इस श्लोक में वैदिक यज्ञ का रूपक है। प्रत्येक यज्ञ में चार प्रमुख आवश्यक वस्तुएं होती हैं (1) यज्ञ का देवता जिसे आहुति दी जाती है (2) अग्नि (3) हवन के योग्य द्रव्य पदार्थ हवि (शाकल्य) और (4) यज्ञकर्ता व्यक्ति। यज्ञ भावना से कर्म करते हुए (अपने -अपने प्रवृत्ति या निवृत्ति धर्म का पालन करते हुए) ज्ञानी पुरुष की मन की स्थिति एवं अनुभूति का वर्णन इस श्लोक में किया गया है।
आत्मसाक्षात्कार हो जाने के बाद ,उस व्यक्ति के आत्मा [Asmita - Identity Confusion नहीं ] के अनुभव की दृष्टि से शुद्ध बुद्धि या आत्मा जान लेती है कि एक मात्र पारमार्थिक सत्य (नित्य) ही विद्यमान है न कि अविद्या से उत्पन्न नाम-रूपमय यह जगत् (लीला नहीं ?) । अतः वह जानता है कि सभी यज्ञों की उत्पत्ति ब्रह्म (की लीला शक्ति माँ जगदम्बा काली) से ही होती है जिनमें देवता अग्नि हवि और यज्ञकर्ता सभी ब्रह्म (की शक्ति के अवतार) हैं। वह
अनन्त पारमार्थिक सत्य जो इस दृश्यमान नित्य परिवर्तनशील जगत् का अधिष्ठान
है वेदान्त में ब्रह्म शब्द के द्वारा निर्देशित किया जाता है।
यही ब्रह्म एक शरीर से परिच्छिन्नसा हुआ आत्मा कहलाता है। एक ही तत्त्व को इन
दो शब्दों से लक्षित किया है और वेदान्त केसरी की यह गर्जना है कि आत्मा
ही ब्रह्म है। ठाकुर देव कहते थे - " यदि नित्य सत्य है , तो उनकी लीला भी सत्य है ! "
अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा (आँख और कान )
ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य-दृश्य और श्रव्य ) भी ब्रह्म है;
ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी
ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी
ब्रह्म ही है।।
समुद्र में जब एक तरंग दूसरी तरंग पर से उछलती हुई अन्य साथी तरंग से मिल जाती है तब इस दृश्य को देखते हुए हम जानते हैं कि ये सब तरंगे समुद्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। समुद्र में ही समुद्र का खेल चल रहा है। यदि कोई व्यक्ति जगत् के असंख्य नाम-रूपों के कर्मों और व्यवहारों में अंतर्बाह्य व्याप्त अधिष्ठान स्वरूप परमार्थ तत्त्व को देख सकता है तो फिर उसे सर्वत्र सभी परिस्थितियों में (ऑपरेशन के बाद रिकॉवरी रूम में भी ) वस्तुओं और प्राणियों का दर्शन अनन्त आनन्द स्वरूप सत्य का ही स्मरण कराता है।
संत पुरुष ब्रह्म [ॐ ] का ही आह्वान करके प्रत्येक कर्म करता है इसलिये उसके सब कर्म ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं। भोजन के पूर्व इस श्लोक के पाठ का प्रयोजन अब स्वतः स्पष्ट हो जाता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये पौष्टिक भोजन आवश्यक है और तीव्र क्षुधा लगने पर किसी भी प्रकार का अन्न स्वादिष्ट लगता है। इस प्रार्थना का भाव यह है कि भोजन के समय भी हमें इस सत्य का विस्मरण नहीं होना चाहिए कि - "एक ही अनेक बन गया है ! " (One has become many) यह ध्यान रहे कि भोक्तारूप ब्रह्म, ब्रह्म का आह्वान करके अन्नरूप ब्रह्म की आहुति उदर में स्थित अग्निरूप ब्रह्म को ही दे रहा है। इस ज्ञान का निरन्तर स्मरण रहने पर मनुष्य भोगों से ऊपर उठकर अपने अनन्तस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। {यज्ञ की सर्वोच्च भावना को स्पष्ट करने के पश्चात् भगवान् अर्जुन को समझाते हैं कि सम्यक् भावना के साथ (अनासक्ति पूर्वक ) होने से किस प्रकार प्रत्येक कर्म (प्रवृत्ति हो या निवृत्ति ?) यज्ञ ही बन जाता है !}
इसीलिए मानव जाति के इन सभी महान शिक्षकों (मार्गदर्शक नेताओं /अवतारों /Great Teachers-C-IN-C) में तुम्हें यह एक लक्षण सर्वत्र दिखेगा कि
उनमें प्रचण्ड आत्मविश्वास भरा होता है। उनका (ठाकुर-माँ -स्वामीजी का) यह आत्मविश्वास इतना असाधारण होता है, कि हम उसे पूर्णतया नहीं समझ सकते। इसीलिये
इन महान आचार्यों या नबियों के द्वारा स्वयं के विषय में कथित वचनों की कई
प्रकार से व्याख्या करके उन्हें उड़ा देने का प्रयत्न करते हैं, तथा उन्होंने अपने आत्मसाक्षात्कार या ईश्वरोपलब्धि के संबन्ध में जो बातें कहीं हैं, उनका अर्थ लगाने के लिये सहस्रों मतवादों (-'अल्ला परवर दिगार है, जबकि राम-ईसा-बुद्ध-मोहम्मद तो बन्दा है !') की सृष्टि कर लेते हैं। हम अपने विषय में उन ऋषियों, नबियों या अवतारों के समान (अहं ब्रह्मास्मि) नहीं सोच सकते,
और इसीलिये स्वभावतः, हम उन्हें समझ भी नहीं पाते।
जब इन महापुरुषों के
मुख से शब्द निकलते हैं, तो सारे विश्व को विवश होकर सुनना पड़ता है। जब वे
बोलते हैं, तो एक एक शब्द सीधे हृदय में प्रवेश करता है, वह बम के समान फूट
पड़ता है; और सुनने वाले पर अपना असीम प्रभाव जमा लेता है। What is in the word, unless it has the Power behind? निरी
वाणी (महावाक्यों में) में क्या है, यदि वाणी के पीछे
वक्ता की प्रचण्ड शक्ति न हो ? अर्थात जो उपदेश वह दूसरों को देता है, [तोतापुरी जी ठाकुर को अद्वैत का उपदेश करते हैं -चिलम के लिए धुनि से आग लेने पर मारने के लिए चिमटा उठा लेते हैं ? क्योंकि उस समय तक तोतापुरी व्यष्टि अहं सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित नहीं हुआ था !] उसका पालन स्वयं न करता हो; या उसका अपना जीवन वैसा अनुकरणीय (exemplary -दृष्टांत
योग्य) न हो ?
तुम
किस भाषा में बोलते हो और किस प्रकार अपनी भाषा में शब्द-विन्यास करते हो,
इससे किसी को क्या मतलब ? तुम अलंकार युक्त, व्याकरण सम्मत, लच्छेदार भाषा
का प्रयोग करते हो या नहीं, इससे भी किसी का क्या प्रयोजन ? प्रश्न तो
है-तुम्हारे पास लोगों को देने के लिये कुछ है या नहीं ? यहाँ केवल साम्य-भाव पर भाषण (सिंह-शावक कथा) सुनने की बात नहीं है, बात है (भ्रम-मुक्ति,सिंहावस्था देने) देने और लेने (सम्मोहन-अवस्था भेँड़त्व अवस्था लेने) की। It is a
question of giving and taking, and not listening. क्या तुम्हारे पास देने
के लिये कुछ (सत्योपलब्धि) है ? यदि है, तो दो। शब्द तो केवल तुम्हारे दान (gift)
को लोगों तक पहुँचा देंगे, ये तो केवल एक माध्यम हैं। कभी कभी हम देखते
हैं कि मौन रहकर भी एक व्यक्ति दूसरे में भाव (सत्य का -त्वमेव प्रत्यक्षं
ब्रह्मासि) संचारित कर देता है। दक्षिणामूर्ति स्त्रोत्र में कहा है -
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥ १२ ॥
आश्चर्य तो यह है कि उस वटवृक्ष के नीचे सभी शिष्य वृद्ध हैं और गुरु ( नेता या जीवनमुक्त शिक्षक) युवा हैं। साथ ही गुरु का व्याख्यान भी मौन भाषा (स्वामी विवेकानन्द के आँखों की भाषा) में है, किंतु उसी से शिष्यों के संशय नष्ट हो गये हैं ॥ १२
[श्रीसीता ने ‘ये हमारे हस्वेन्ड हैं’ ऐसा नहीं बताया। ऐसा बताने में कोई रस भी नहीं। आँचल से अपने मुखचन्द्र को ढाँक करके श्रीरामभद्र को निहारते हुए इशारे से अर्थात मौन रहते हुए ही अपने पति को बताया। किसी सभा में एक एक नवोढा पत्नी का पति बैठा है। सभा में उसकी सखियाँ पूछती हैं- ‘कहो सखी! इनमें कौन हैं तुम्हारे। क्या ये हैं?’ नवोढा़- उहूँ। सखियाँ- तो ये हैं। नवोढ़ा- उहूँ। सखियाँ- तो सखी ये हैं! नवोढ़ा- उहूँ। सखियों ने पति पर उँगली दी तो चुप। ‘अवचनेनैव प्रोवाच’ कुछ न बोलकर ही उत्तर दिया। --[साभार : भागवत सुधा -करपात्री महाराज ]
इस प्रकार " वे" [= " स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त (अवतारवादी) शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा : Be and Make ' में प्रशिक्षित और महामण्डल आन्दोलन के कमाण्डर-इन-चीफ़ (C-IN-C) 'नवनीदा' ] कभी कभी शब्दों का प्रयोग किंचित भी नहीं करते, किन्तु फिर भी- मन ही मन अपने (योग्य) शिष्य में परम् सत्य को संचारित कर देते हैं!
और इस प्रकार आहार-शुद्धि से ध्रुवा-स्मृति में पहुँचा हुआ " अविद्या और अस्मिता से मुक्त " अर्थात पहचान के भ्रम मुक्त (C-IN-C-'नवनीदा' ) किसी दूसरे "अविद्या और अस्मिता ग्रस्त " (Hypnotized) होकर अपनी पहचान विभ्रान्ति ( Identity Confusion) के दुःख से पीड़ित सिंह-शावक को De -Hypnotized या अस्मिता भ्रम से मुक्त होने का कौशल " मनःसंयोग " में प्रशिक्षित शिक्षक होने का चपरास प्रदान करते हैं। (हममें ऐसा कौन है, जो ईश्वर को मानव -'स्त्री या पुरुष' के अतिरिक्त अन्य रूप में कल्पना कर सकता है ?)
उदाहरण के लिए : ईसाई धर्म के अनुयायी (या नवनीदा के अनुयायी) यदि अपने ईशदूत या पैगम्बर (मानवतावादी शिक्षक , नेता या गुरु) प्रभु ईसा मसीह द्वारा कथित सिर्फ इस उत्तर पर यदि मनःसंयोग करें -- " जिसने मुझे देख लिया है, उसने उस परम पिता (ब्रह्म) को भी देख लिया है।' 'He that hath seen me hath seen the Father."
......[ नवनीदा का कथन - " विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से विवेकश्रोत उद्घाटित हो जाता है " ... क्योंकि चित्त नदी उभयतो वाहिनी है ! " पर मनःसंयोग करने से यही उत्तर प्राप्त होगा कि जिसने महामण्डला के प्रतिष्ठाता
(C-IN-C) 'नवनीदा' को देख लिया है, उसने जगतजननी माँ सारदा देवी, ठाकुरदेव
और अद्वैत आश्रम ,मायावती, अल्मोड़ा के प्रतिष्ठाता स्वामी विवेकानन्द और
कैप्टन सेवियर को भी देख लिया है।
...क्योंकि मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता के शब्द [ईशदूत ईसा, या Imitation of christ ,मसीह का अनुकरण करने वाले नवनीदा जैसे नेता के शब्द] केवल कहने भर के लिये नहीं होते ! ठाकुर-माँ -स्वामीजी के दूत पैगम्बर नवनीदा ने भी अपने जीवन- चरित्र (व्यष्टि अहं) को सचमुच जगतजननी माँ सारदा देवी के मातृ हृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं' -पन [ 100 % निःस्वार्थपरता = पूर्ण पवित्रता ] में रूपांतरित कर लिया था। नवनीदा माँ सारदा का उदाहरण देते थे , ठंढा के समय रात में रसोईया एक कुत्ते से छुआ गया था , तो वह रात में ही नहाने जा रहा था। पवित्रता स्वरूपणी माँ ने कहा था -तुम मुझे छू लो , तुम्हारा गंगा-स्नान हो जायेगा। और रात में नहाना नहीं पड़ेगा।
विचारशील होने का अर्थ है, विवेक-प्रयोग द्वारा तत्वनिर्णय करने में सक्षम मनुष्य। भावना और विचार का उचित प्रयोग करें। विचार के आभाव में विकास नहीं होता। अच्छा और बुरा हमारे विचार हैं। मन चंगा तो कठौती में गंगा। ईसा की तरह नवनीदा भी कहते थे - विचार से ही चरित्र-निर्माण होता है। जो किसी के अहित का विचार नहीं करता उसका शरीर सदा स्वस्थ बना रहता है। वृद्धावस्था का प्रतीक ऋषि अगस्त्य तारा हमेशा दक्षिण में और बाल्यावस्था का प्रतीक ध्रुव नक्षत्र [north star ] हमेशा उत्तर में, दोनों के बीच आकाशगंगा हमेशा क्यों घूमता रहता है ? । नवनीदा कहते थे - " उत्तर आकाश में जो सप्तर्षि दिखाई देते हैं , चार ऋतुओं में सप्तर्षियों से बने प्रश्नचिन्ह की आकृति बदलकर - स्वस्तिक का रूप धारण कर लेती है , जो आरोग्य का प्रतीक है। इस प्रसंग में नवनीदा कहते थे - " ये जो आकाश में सप्तर्षि मण्डल दिखाई देते हैं , वे प्रवृत्तिमार्ग के सप्तर्षि थे। लेकिन श्री रामकृष्ण जिस नरेन्द्रनाथ को अपने साथ लेकर आये थे वे निवृत्तिमार्ग के सप्तर्षियों में से एक थे। शंकराचार्य ने अपने गीताभाष्य में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को दो धर्म कहा है। यहाँ धर्म का अर्थ हिन्दू-मुसलमान नहीं 4 पुरुषार्थ में से पहला - " धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष " से पहला समझना चाहिए। यहाँ धर्म का अर्थ है अपना -अपना धर्म या Righteousness-औचित्यबोध ? मेरे लिए प्रवृत्ति या निवृत्ति में से किस धर्म को धारण करना उचित है ?
[ राँची महामण्डल मिशन के द्वारा हाइजेक क्यों हो जाता है ?? :
जो " बालक लोग" संन्यासी (ज्ञान-निवृत्ति ) को गृहस्थ (कर्म-प्रवृत्ति ) से श्रेष्ठ समझते हैं , और प्रोफेसर होकर भी ट्यूशन नहीं पढ़ाने और डॉक्ट्रेट की डिग्री प्राप्त यूनिवर्सिटी में HOD होकर भी विवाह नहीं करने का अभिमान करते हैं - वैसे पलायनवादी अस्मिता से ग्रस्त व्यक्ति [Identity Confusion-पहचान विभ्रान्ति से ग्रस्त या Hypnotized व्यक्ति] यदि स्वयं अँधा होकर दूसरों का मार्गदर्शन करने का प्रयास जब करते हैं , तो दोनों गड्ढे में गिरते हैं। वैसे स्वयं अन्धे नेता -- गृहस्थों को चरित्रनिर्माण या ब्रह्मचर्य पालन के प्रति उत्साह भंग करने (demoralize) करने के लिए ,
जो " बालक लोग" संन्यासी (ज्ञान-निवृत्ति ) को गृहस्थ (कर्म-प्रवृत्ति ) से श्रेष्ठ समझते हैं , और प्रोफेसर होकर भी ट्यूशन नहीं पढ़ाने और डॉक्ट्रेट की डिग्री प्राप्त यूनिवर्सिटी में HOD होकर भी विवाह नहीं करने का अभिमान करते हैं - वैसे पलायनवादी अस्मिता से ग्रस्त व्यक्ति [Identity Confusion-पहचान विभ्रान्ति से ग्रस्त या Hypnotized व्यक्ति] यदि स्वयं अँधा होकर दूसरों का मार्गदर्शन करने का प्रयास जब करते हैं , तो दोनों गड्ढे में गिरते हैं। वैसे स्वयं अन्धे नेता -- गृहस्थों को चरित्रनिर्माण या ब्रह्मचर्य पालन के प्रति उत्साह भंग करने (demoralize) करने के लिए ,
" दिल्ली के लड्डू का उदाहरण " देते हुए कहते हैं -
" जो खाये वह भी पछताये , जो न खाये वह भी पछताये "
और दूसरों से सुने इस उदाहरण को अपना समझकर बिजनेस करने और विवाह करने को संन्यास से छोटा समझते हैं। "
शंकराचार्य ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को अपने गीताभाष्य में दो धर्म कहा है। यहाँ धर्म का अर्थ हिन्दू-मुसलमान नहीं, अभ्युदय और निःश्रेयस अथवा 4 पुरुषार्थ में से पहला - " धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष " से पहला समझना चाहिए। यहाँ धर्म का अर्थ है अपना -अपना धर्म या Righteousness-औचित्यबोध ? मेरे लिए प्रवृत्ति या निवृत्ति में से किस धर्म को धारण करना उचित है ? दादा कहते थे यदि एक लाख में एक भी धर्म क्या है , बता दे तो मैं बहुत समझूँगा। }
7. 'नेता ' (विष्णु) सिर्फ देने के लिये ही धरती पर अवतरित होते हैं ( ' They ' - come to give) :
विष्णु-सहस्र नाम में भगवान विष्णु का एक नाम नेता है , उनके जैसा सम्पूर्ण मानवजाति का मार्गदर्शक नेता - " विवेकानन्द -कैप्टेन सेवियर वेदान्त नेता प्रशिक्षण परम्परा - 'Be and Make ' में प्रशिक्षित - पूज्य नवनीदा जैसे महापुरुष-कमाण्डर इन चीफ़ (अवतार , पैगम्बर, ईशदूत, सत्यद्रष्टा ऋषि -जिनका Identity Confusion समाप्त हो चुका या जो De-Hypnotized हो चुके हैं, या उनके द्वारा स्थापित संगठन ABVYM ) हर युग में माँ जगदम्बा की इच्छा से केवल अपने जीवन से शिक्षा देने के लिए अवतार लेते हैं ! वे संपूर्ण मानव- जाति को मोहग्रस्त मानवता (Humanity obsessed with Identity Confusion,नाम-रूप (लीला-माया ) या सापेक्षिक सत्य के द्वारा आसक्त या मंत्रमुग्ध मानवता = Fascinated or Hypnotized humanity ) को अपरा और परा विद्या [अविद्या और विद्या , अथवा निवृत्ति (ज्ञान) और प्रवृत्ति (कर्म) ] अर्थात विज्ञान (अविद्या =अभ्युदय) और अध्यात्म (विद्या =निःश्रेयस) दोनों में संतुलन या समन्वय स्थापित करने वाले उस मानवतावादी शिक्षा या "मानवतावादी धर्म- Humanistic religion" मनुष्यनिर्माणकारी धर्म और शिक्षा जो मनुष्य कट्टर आतंकवादी नहीं चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा ] का दान करने/ युवा-प्रशिक्षण पद्धति का प्रचार-प्रसार करने के लिये अवतरित होते हैं -जो मानवता को चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष ' प्रदान करती है - (देहध्यास के भ्रम =Identity Confusion से मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) कर देती है !] जो ईशदूत (कमांडर-इन-चीफ, नवनीदा ) होते हैं, वे आज्ञा देते हैं- Be and Make ! और हमारा कार्य है उनके आज्ञा (कमान) को ग्रहण करना।
" क्या तुम ईसाईयों को तुम्हारे अपने धर्मग्रन्थ (बाइबिल - मैथ्यू २८: १८-२० में), स्वयं प्रभु ईसा के द्वारा दीगयी वह उक्ति याद नहीं, जहाँ किस अधिकार पूर्ण वाणी से अपने शिष्यों को आज्ञा देते हुए कहा था (ठाकुर की भाषा में मानवतावादी शिक्षा देने मनुष्य बनो और बनाओ-Be and Make' का चपरासचपरास देते हुए) कहा था -“ स्वर्ग और पृथ्वी पर सभी अधिकार मुझे सौंपे गये हैं। सो, जाओ और सभी देशों के लोगों को शिक्षा दो.....वे सभी आदेश जो मैंने तुम्हें दिये हैं,उन्हें उन पर चलना सिखाओ। ” [ Do you not remember in your own scriptures the authority with which Jesus speaks? "Go ye, therefore, and teach all nations . . . teaching them to observe all things whatsoever I have commanded you. and, lo, I am with you always, even unto the end of the world. Amen.] 'मुझे जगत को विशेष कुछ देना है' -इस बात में प्रचण्ड विश्वास ईसा की समस्त उक्तियों में देखा जा सकता है। और यही प्रबल विश्वास तुम्हें संसार के उन सब महापुरुषों की वाणी में मिलेगा, जिन्हें दुनिया पैग़म्बरों और अवतारों-मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं/जीवनमुक्त शिक्षकों के रूप में पूजती आ रही है।
" क्या तुम ईसाईयों को तुम्हारे अपने धर्मग्रन्थ (बाइबिल - मैथ्यू २८: १८-२० में), स्वयं प्रभु ईसा के द्वारा दीगयी वह उक्ति याद नहीं, जहाँ किस अधिकार पूर्ण वाणी से अपने शिष्यों को आज्ञा देते हुए कहा था (ठाकुर की भाषा में मानवतावादी शिक्षा देने मनुष्य बनो और बनाओ-Be and Make' का चपरासचपरास देते हुए) कहा था -“ स्वर्ग और पृथ्वी पर सभी अधिकार मुझे सौंपे गये हैं। सो, जाओ और सभी देशों के लोगों को शिक्षा दो.....वे सभी आदेश जो मैंने तुम्हें दिये हैं,उन्हें उन पर चलना सिखाओ। ” [ Do you not remember in your own scriptures the authority with which Jesus speaks? "Go ye, therefore, and teach all nations . . . teaching them to observe all things whatsoever I have commanded you. and, lo, I am with you always, even unto the end of the world. Amen.] 'मुझे जगत को विशेष कुछ देना है' -इस बात में प्रचण्ड विश्वास ईसा की समस्त उक्तियों में देखा जा सकता है। और यही प्रबल विश्वास तुम्हें संसार के उन सब महापुरुषों की वाणी में मिलेगा, जिन्हें दुनिया पैग़म्बरों और अवतारों-मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं/जीवनमुक्त शिक्षकों के रूप में पूजती आ रही है।
8. " मनःसंयोग और जीवनगठन की पद्धति " (3H विकास के 5 अभ्यास) का प्रशिक्षण देने में समर्थ -कमाण्डर इन चीफ़ - नवनीदा जैसे ) ये महान शिक्षक (महामण्डल के नेता / या ऋषि (जिनका Identity confusion चला गया है , वे) इस पृथ्वी पर जीवंत ईश्वरस्वरुप है। These Great Teachers are the living Gods on this earth.ये महान शिक्षक (कमाण्डर इन चीफ़ - नवनीदा) या ऋषि इस पृथ्वी पर जीवंत ईश्वरस्वरुप है। इनके अतिरिक्त हम और किनकी उपासना करें ? मैं अपने मन में ईश्वर की धारणा करने का प्रयत्न करता हूँ -और अंत में पाता हूँ कि मेरी धरणा अत्यंत क्षुद्र और मिथ्या है। फिर अपनी आँखें खोलकर जब मैं पृथ्वी की इन महान आत्माओं या पैग़म्बरों के (नवनीदा के actual life,'जीवन नदी के हर मोड़ पर' पुस्तक में उनके) जीवन-चरित्र को देखता हूँ, तो मुझे प्रतीत होता है कि ईश्वर विषयक मेरी मेरी उच्च से उच्च धारणा (अल्ला या सच्चिदानन्द) से भी वे कहीं उच्चतर और महान हैं। ...... 'मने करबे तुमि एक जन शिक्षक .....' ) ७/१८१
(उसी तरह क्या हमें भी सदैव यह स्मरण नहीं रखना चाहिये कि स्वयं माँ काली से 'कमाण्ड' प्राप्त,चपरास या हुकुमनामा प्राप्त प्रथम प्रधान सेनापति थे श्रीरामकृष्ण, उन्होंने नरेन्द्रनाथ को 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में चरित्रनिर्माण या 3H-विकास का प्रशिक्षण' देने में समर्थ आज्ञा देने वाले "कमाण्डर-इन-चीफ" या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने का चपरास प्रदान किया था।)
हम अपने इस क्षुद्र जीवन में, [शारीरिक स्तर (M/F) के जीवन में] आपस में जो प्रेम करते हैं, उसकी अपेक्षा प्रेम की उच्चतर धारणा हम कर ही कैसे सकते हैं ? What idea of divine love can you form except what you actually live? जिस दिव्य प्रेम का (सम्पूर्ण मानवता के प्रति निःस्वार्थ प्रेम का) हमने कभी अनुभव ही नहीं किया, उसकी कल्पना भला हम कैसे कर सकेंगे? इसलिये अपने मन में ईश्वर (प्रेमस्वरूप परमसत्य) की कल्पना और धारणा करने में किये जाने वाले मेरे सभी प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध होते हैं !
किन्तु इन बुद्ध (नवनी दा) जैसे अवतारों के जीवन की प्रत्यक्ष घटनाएँ ('जीवन नदी के हर मोड़ पर' पुस्तक के रूप में) हमारे सामने हैं-उनकी दया, प्रेम एवं पवित्रता से भरे ऐसे प्रत्यक्ष कार्य हैं, जिनकी हम कल्पना तक नहीं कर सकेंगे। तब फिर क्या आश्चर्य है, यदि मैं इन महापुरुषों के चरणों में गिरकर ईश्वर के रूप में उनकी अर्चना करूँ ? निराकार तत्व (अल्ला परवर दिगार ) के बारे में लम्बी लम्बी बातें करना सरल है, पर मुझे एक तो ऐसा व्यक्ति बताओ, जो उपर्युक्त (किसी अवतार,सद्गुरु या पैगम्बर या नबी की) साकार उपासना के अतिरिक्त और कुछ कर सके?
9 . क्या सभी राष्ट्रों और जातियों (सम्प्रदायों) के सब अवतारों/नबियों/मानवतावादी शिक्षकों (Humanistic teachers) की उपासना कर सकना सम्भव है ?
क्या सभी जातियों और धर्मों के शिक्षकों में कोई भेदभाव किये बिना सभी जातियों और धर्मों के अवतारों /पैगम्बरों की उपासना कर सकना सम्भव है ? Is it possible to worship all the avatars/Prophets of all nations and communities?): इस सम्बन्ध में - 'Asmita ' (Identity Confusion) दूर हो जाने की पहचान (या ऋषित्व की पहचान) के विषय में श्री ठाकुर देव कहते थे - "Talking is not actuality." अर्थात " मुख से तबले के बोल निकाल लेना बहुत सरल है, किन्तु हाँथों से बहुत कठिन। करने और कहने में (मन-मुख एक करने में) बहुत भेद है।"
" क्या आप अविद्या और अस्मिता के अन्तर को स्पष्ट कर सकते है ? इस गूढ़ प्रश्न का सबसे ईमानदार उत्तर भावप्रचारक श्री के पी सुब्बाराय शास्त्री ने दिया है -"मैं आपको निश्चित रूप से बताऊंगा, लेकिन पहले मुझे अपने बारे में स्पष्ट हो लेने दें! "Most honest answer was given by Sri K P subbaraya Sastry - " I will definitely tell you , Let me clarify my-self first ! "
निराकार ईश्वर, निर्गुण तत्व के विषय में चर्चा करना कठिन नहीं है -और कोई करे तो मुझे आपत्ति नहीं, किन्तु ये नरदेव - (नवनी दा जैसे कमाण्डर इन चीफ़) मानवरूपधारी देवता, बुद्ध पुरुष या ऋषि, सदा से, सभी जातियों एवं सभी राष्ट्रों के यथार्थ में ईश्वर रहे हैं। ये सकल देव-मानव चिर काल से पूजित होते आ रहे हैं, और तब तक पूजित होते रहेंगे, जब तक मानव मानव बना रहेगा। क्योंकि मनुष्य मात्र में ही ब्रह्म को जानकर ब्रह्मवेत्ता (ब्रह्मविद) मनुष्य बन जाने, अस्मिता -Identity Confusion को हटाकर ऋषित्व, यथार्थ धर्म-जीवन (बुद्धत्व) या ईश्वरत्व उपलब्धि की सम्भावना है। प्रत्येक मनुष्य में (IQ-EQ-SQ) उपलब्धि की सम्भावना अन्तर्निहित है- यह विश्वास हम उन्हीं जीवंत पैग़म्बरों को देखकर कर पाते हैं। केवल अस्पष्ट रहस्यमय तत्वों को सुनते और दोहराते रहने से क्या लाभ? इस अवस्था से तो मृत्यु अधिक श्रेयस्कर है। ]
[ मनुष्य शरीर मिलने पर ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के लिए जिम्मेदारी का एहसास ! (sense of feeling= E.Q. भावनात्मक बुद्धिलब्धि का intelligence quotient. तथा विवेक-विचार शक्ति (thinking faculties = SQ =आध्यात्मिक भागफल = अन्तरात्मा की आवाज या जमीर ) आध्यात्मिक-बुद्धिलब्धि = जिसके विषय में गीता ६/२२ में कहा गया है--
--यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।
जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।।
{Spiritual intelligence= SQ =The Goal of practicing Mental Concentration)गीता 6 -22 और 23 में " मनःसंयोग का लक्ष्य " ( पर स्वामी चिन्मयानन्द की व्याख्या) :
पूर्व उपदिष्ट साधनों के अभ्यास के फलस्वरूप जब चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है तब उस शान्त चित्त में आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में नहीं वरन् अपने आत्मस्वरूप से। इस सुख को अतीन्द्रिय कहने से स्पष्ट है कि विषयोपभोग के सुख के समान यह सुख नहीं है। सामान्यत हमारे सभी अनुभव इन्द्रियों के द्वारा ही होते हैं। इसलिए जब आचार्यगण आत्म-साक्षात्कार को आनन्द की स्थिति के रूप में वर्णन करते हैं तब हम उसे बाह्य और स्वयं से भिन्न कोई लक्ष्य समझते हैं। परन्तु जब उसे अतीन्द्रिय कहा जाता है तो साधकों को उसके अस्तित्व और सत्यत्व के प्रति शंका होती है कि कहीं यह मिथ्या आश्वासन तो नहीं ? इस शंका का निवारण करने लिए इस श्लोक में भगवान् स्पष्ट करते हैं कि यह आत्मानन्द केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा ही ग्रहण करने योग्य है। [आत्मानन्द मिथ्या अहं-बुद्धि के द्वारा नहीं "आत्मा " माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं बोध के द्वारा ही ग्रहण करने योग्य है।] यहाँ एक शंका मन में उठ सकती है कि प्राय अतिमानवीय प्रयत्न करने के पश्चात् इस अनन्त आनन्द का जो अनुभव होगा कहीं वह क्षणिक तो नहीं होगा ? जिसके लुप्त हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए पुन उतना ही परिश्रम करना पड़े नहीं।
भगवान्
का स्पष्ट कथन है कि जिसमें स्थित होने पर योगी तत्त्व से कभी दूर नहीं
होता। यह शाश्वत सुख है जिसे प्राप्त कर लेने पर साधक पुन दुखरूप संसार को
प्राप्त नहीं होता। क्या उस योगी को सामान्य जनों को अनुभव होने वाले दुख
कभी नहीं होंगे ? क्या उसमें संसारी मनुष्यों के समान अधिकसेअधिक वस्तुओं
को संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी ? क्या वह लोगों से प्रेम करने के साथ
उनसे उसकी अपेक्षा नहीं रखेगा ? ... इस प्रकार की उत्तेजनाएं केवल अज्ञानी
पुरुष के लिए ही कष्टप्रद हो सकती हैं ज्ञानी के लिए नहीं।
मन की अपने ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप की अनुभूति की यह स्थिति परम आनन्द स्वरूप है। परन्तु यह साक्षात्कार तभी संभव है जब जीव शरीर मन और बुद्धि इन परिच्छेदक उपाधियों [वैश्वानर-तैजस-आनन्दभूक। .. आदि ?] के साथ के अपने तादात्म्य को पूर्णतया त्याग देता है।
इस मार्ग पर चलने के लिये सबको उत्साहित करने के लिए भगवान् कहते हैं - इस
योग (मनःसंयोग) का अभ्यास सभी को निश्चयपूर्वक करना चाहिये।
जिस आत्म-प्राप्ति रूप लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ है ऐसा नहीं मानता दूसरे
लाभ को स्मरण भी नहीं करता। एवं जिस आत्मतत्त्व में स्थित हुआ योगी
शस्त्राघात आदि बड़े भारी दुःखों द्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता। यहाँ
बाइसवें श्लोक में उस परमसत्य को उद्घाटित करते हैं जिसे प्राप्त कर लेने
पर योगी इससे अधिक अन्य कोई भी लाभ नहीं मानता है।
इतने अधिक स्पष्टीकरण के पश्चात् भी केवल बौद्धिक स्तर पर वेदान्त को समझने का प्रयत्न करने वाले लोगों के मन में शंका आ सकती है कि क्या इस आनन्द के अनुभव को जीवन की तनाव दुख कष्ट और शोकपूर्ण परिस्थितियों में भी निश्चल रखा जा सकता है ? दूसरे शब्दों में क्या
धर्म धनवान् और समर्थ लोगों के लिए के लिए केवल मनोरंजन और विलास, एवं
दुर्बल एवं असहाय लोगों के लिए अन्धविश्वासजन्य सन्तोष और पलायनवादियों के
लिए काल्पनिक स्वर्गमात्र नहीं है ? क्या धर्म के द्वारा जीवन में
आनेवाली कठिन परिस्थितियों में - जैसे किसी प्रियजन का वियोग , धन-सम्मान
की हानि, रुग्णता, दरिद्रता, भुखमरी आदि परिस्थितियों में भी कोई
मनुष्य पूर्णतः आश्वस्त और अविचलित रह सकता है ? लोगों के मन में उठने
वाली इस शंका का असंदिग्ध उत्तर देते हुए यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जिसमें स्थित हो जाने पर पर्वताकार दुखों से भी वह योगी विचलित नहीं होता।
उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सार यह है योगाभ्यास से मन के एकाग्र होने पर योगी को अपने उस परम आनन्दस्वरूप की अनुभूति होती है जो अतीन्द्रिय तथा केवल शुद्ध बुद्धि (अहं नहीं आत्मा) के द्वारा ग्राह्य है। उस अनुभव में फिर बुद्धि भी लीन हो जाती है। इस स्थिति में न संसार में पुनरागमन होता है न इससे श्रेष्ठतर कोई अन्य लाभ ही है। इसमें स्थित पुरुष गुरुतम दुखों से भी विचलित नहीं होता। गीता में इस अद्भुत सत्य का आत्मस्वरूप से निर्देश किया गया है और जो सभी विवेकी साधकों का परम लक्ष्य है।इस
आत्मा को जानना चाहिए। आत्मज्ञान तथा आत्मानुभूति के साधन को गीता में योग
कहा गया है और इस अध्याय में योग की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है। योग
शब्द का अर्थ है संबंध। अज्ञान दशा में मनुष्य का संबंध केवल अनित्य परिच्छिन्न विषयों के साथ ही होने के कारण उसे जीवन में सदैव अनित्य सुख ही मिलते हैं। इन विषयों का अनुभव शरीर मन और बुद्धि के द्वारा होता है। एक सुख का अन्त ही दुःख का प्रारम्भ है।
इसलिए उपाधियों के साथ तादात्म्य किया हुआ जीवन दुखसंयुक्त होगा। स्पष्ट
है कि योग विधि (अष्टांगयोग) में हमारा प्रयत्न यह होगा कि इन उपाधियों से
अपना तादात्म्य त्याग दें अर्थात् उनसे ध्यान दूर कर लें। जब तक इनका
उपयोग हम करते रहेंगे तब तक जगत् से हमारा सम्पूर्ण अथवा आंशिक वियोग नहीं
होगा। अतः शरीर मन और बुद्धि (3H) से वियुक्त होकर आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही दुःखसंयोग-वियोग योग है।
पंचेन्द्रिय भोग-विषयों में आसक्ति रहने से ही मन (मिथ्या अहं-Identity Confusion ) का अस्तित्व बना रहता है। किसी एक वस्तु से वियुक्त करने के लिए उसे अन्य श्रेष्ठतर वस्तु का आलम्बन देना पड़ता है। अत पारमार्थिक सत्य के आनन्द में स्थित होने का आलम्बन देने से ही दुःख-संयोग से वियोग हो सकता है। परन्तु इसके लिए प्रारम्भ में मन को प्रयत्नपूर्वक बाह्य विषयों से हटाकर आत्मा में (हृदय में विद्यमान विवेकानन्द की छवि में) स्थिर करना होगा।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।6.23।।
{तं विद्यात् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् / सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णचेतसा ॥
तम् = तम् आनन्दम्/ दुःखसंयोगवियोगम् = दुःखसम्बन्धरहितम्=दुःखसंयोगवियोगं a state of severance (पृथक्त्व) from union with pain?/ योगसंज्ञितम् = योगनामकम्-called by the name of Yoga/ विद्यात् = जानीयात्/ सः = तादृशः/ योगः = समाधिः/ अनिर्विण्णचेतसा = समुत्सुकमनसा पुरुषेण=जिस चित्तमें निर्विण्णता ( उद्वेग ) न हो वह अनिर्विण्णचित्त है ऐसे अनिर्विण्ण ( न उकताये हुए ) चित्तसे निश्चयपूर्वक योगका साधन करना चाहिये यह अभिप्राय है।/ निश्चयेन = अवश्यम्/ योक्तव्यः = प्राप्तव्यः ।}
तम् = तम् आनन्दम्/ दुःखसंयोगवियोगम् = दुःखसम्बन्धरहितम्=दुःखसंयोगवियोगं a state of severance (पृथक्त्व) from union with pain?/ योगसंज्ञितम् = योगनामकम्-called by the name of Yoga/ विद्यात् = जानीयात्/ सः = तादृशः/ योगः = समाधिः/ अनिर्विण्णचेतसा = समुत्सुकमनसा पुरुषेण=जिस चित्तमें निर्विण्णता ( उद्वेग ) न हो वह अनिर्विण्णचित्त है ऐसे अनिर्विण्ण ( न उकताये हुए ) चित्तसे निश्चयपूर्वक योगका साधन करना चाहिये यह अभिप्राय है।/ निश्चयेन = अवश्यम्/ योक्तव्यः = प्राप्तव्यः ।}
दु:ख के संयोग से जो पृथक्त्व या वियोग (severance) है, उसीको 'योग' नाम से जानना चाहिये । वह योग जिस ध्यानयोग (मनःसंयोग का लक्ष्य है) उस ध्यान-योग का अभ्यास करने से न उकताये हुए चित्त से निश्चय पूर्वक करना चाहिये। भगवान् कहते हैं दुःख के संयोग से वियोग की स्थिति योग है। योग की यह पुर्नव्याख्या इस प्रकार विरोधाभास की भाषा में गुंथी हुई है कि प्रत्येक पाठक का ध्यान सहसा उसकी ओर आकर्षित होता है। और वह उस पर विचार करने के लिए बाध्य सा हो सकता है।
गीता की प्रस्तावना में हम देख चुकें है कि महाभारत के सन्दर्भ में किस प्रकार गीता में उपनिषद् प्रतिपादित सिद्धांतों का पुनर्विचार किया गया है। गीता में योग के विषय में व्याप्त इस मिथ्या धारणा का कि यह (मनःसंयोग या राजयोग) कोई ऐसी अद्भुत साधना है जिसका अभ्यास करना, स्कूल के विद्यार्थियों या सामान्य जनों के लिए अति कठिन है; पूर्णतया परिहार कर दिया गया है।
[अपने -अपने स्वाभाविक धर्म (प्रवृत्ति और निवृत्ति विचारधारा ) के अनुसार हमें मनुष्य जीवन का उद्देश्य - अन्तिम पुरुषार्थ तक पहुँचने के लिए ईश्वर से प्राप्त विवेक के आनन्द का प्रयोग करने की शक्ति (धर्म /शिक्षा) को क्यों खो देना चाहिये? निहितार्थ को समझे बिना केवल- '
Be and Make' जैसे चार महावाक्य , चार पुरुषार्थ, चार वर्ण,चार आश्रम आदि को सुनते और दोहराते रहने से क्या लाभ ? इस अवस्था से तो मृत्यु अधिक श्रेयस्कर है। ] मेरे कथन (भाषण या निबंध) का तात्पर्य और उद्देश्य केवल यही है कि, मैंने अपने जीवन में सभी राष्ट्रों (राज्यों) और जातियों (अलग अलग भाषा बोलने वाले समुदायों , धार्मिक सम्प्रदायों) के सब अवतारों की उपासना कर सकना सम्भव पाया है ! तथा भविष्य में होने वाले अनेक अवतारों, ऋषियों,
पैग़म्बरों या नबियों की उपासना करने को प्रस्तुत हूँ। एक माँ अपने पुत्र
को किसी भी वेश में पहचान सकती है -और यदि कोई स्त्री यह नहीं कर सकती, तो
वह निश्चय ही उस व्यक्ति की माँ नहीं हो सकती है ![आशिक ( प्रेमी) है ? तो माशूक (प्रेमास्पद) को हर रूप में पहचान
! ]
अतः तुममें से जो व्यक्ति किसी एक विशेष अवतार (ईसा,बुद्ध, मुहम्मद आदि) में ही सत्य एवं ईश्वर की अभिव्यक्ति देखते हैं किन्तु दूसरों में नहीं (श्रीरामकृष्ण में नहीं) उनके विषय में मेरा स्वाभाविक निष्कर्ष यही है कि
वे किसी भी 'अवतार' के 'ईश्वरत्व' (सच्चिदानन्द स्वरूप) को नहीं जानते। ऐसे ढोंगी धर्मगुरुओं ने केवल कुछ शब्दों को रट लिया है, और जिस प्रकार राजनितिक दलबन्दी (party
politics) के वशीभूत व्यक्ति सत्यासत्य की चिन्ता न कर किसी एक दल की राजनीति का साथ देने लगते हैं, उसी
प्रकार इन कट्टर कठमुल्लों ने भी किसी सम्प्रदाय विशेष को ही अपना सर्वस्व
मान लिया है। पर यह धर्म नहीं है। संसार में कई ऐसे अंधे और मूढ़ भी हैं, जो
समीप में शुद्ध और मीठे पानी का कुआँ (रामकृष्ण वचनामृत और लीलाप्रसंग आदि) होने पर भी खारे कुएँ का ही पानी
पिएंगे, क्योंकि उस कुएँ को उसके पूर्वजों ने खुदवाया था!
10 . दोष धर्म (शिक्षा) का नहीं , शिक्षकों (धर्म-प्रचारकों) का है (The blame is not on religion (=education), but of teachers (=preachers) : अतएव,
अपने अल्प अनुभव से मैंने यही सीखा है कि "धर्म" में जो दोष एवं त्रुटियाँ
लोग देखते हैं, उसमें धर्म कहीं से जिम्मेदार दोष नहीं है। धर्म ने कभी मनुष्यों पर
अत्याचार करने की आज्ञा नहीं दी, धर्म ने कभी स्त्रियों को चुड़ैल और डाइन
कहकर जीवित जला देने का आदेश नहीं दिया, किसी धर्म ने कभी इस प्रकार
अन्यायपूर्ण कार्य करने की शिक्षा नहीं दी। तो फिर लोगों को ये अत्याचार, अनाचार करने के लिए किसने उत्तेजित किया ? राजनीति ने -धर्म ने नहीं, और यदि इस प्रकार की कुटिल राजनीति ही धर्म के स्थान को ग्रहण कर ले तो यह दोष किसका है? अतः जब कोई ढोंगी धर्म-प्रचारक (राम-रहीम) यह दावा करे कि "My Prophet is the only true Prophet", केवल मेरा पैग़म्बर ही सच्चा और एकमात्र नबी है, " तो वह झूठ बोलता है-उसे धर्म का 'क,ख' (alpha
of religion) भी नहीं मालूम !
धर्म न तो सिद्धान्तों की थोथी बकवास
है, न मत-मतान्तरों का प्रतिपादन और खण्डन है और न बौद्धिक सहमति (intellectual consent) ही है। धर्म
का अर्थ है -ह्रदय के अन्तर्तम प्रदेश में सत्य की उपलब्धि; धर्म का अर्थ
है ईश्वर का संस्पर्श प्राप्त करना। It is realisation in the heart of our hearts; it is touching God; it is feeling, इस तत्व की उपलब्धि करना-प्रतीति करना कि (मैं केवल शरीर नहीं हूँ) मैं आत्मस्वरूप हूँ और सर्वव्यापी किन्तु सबसे परे रहने वाले परमात्मा (भगवान विष्णु) एवं उसके अनेक अवतारों के साथ से मेरा युग युग का अच्छेद्द्य (माँ-बेटे के समान घनिष्ट) संबन्ध
है। यदि तुमने सचमुच उस परम पिता (ब्रह्म या शक्ति जगतजननी माँ सारदा ) के गृह में प्रवेश किया
है, तो अवश्य ही उसके (विभिन्न देशों या सम्प्रदायों में जन्मे ?)
पुत्रजनों का दर्शन भी किया होगा। तब फिर यह क्यों कहते हो कि तुम उन्हें
नहीं पहचानते ? [यदि तुमने यथार्थ में उस माँ भवतारिणी (शक्ति) के गृह में प्रवेश किया है, तो
अवश्य ही उसके लाड़ले पुत्रों का दर्शन भी किया होगा! (If you have really entered the house of the Father, how can you have seen His children and not known them?)
तब फिर यह क्यों कहते हो तुम उन्हें (विभिन्न अवतारों या पैगंबरों को) नहीं पहचानते?] और यदि तुम वास्तव में उन्हें नहीं पहचानते हो, तो उसीसे यह प्रमाणित हो जाता है,कि अभी तक तुम ईश्वर के गृह में (मृत्यु-स्वरूपिणी माँ काली के गृह में) प्रवेश नहीं पा सके हो ! जननी अपने वत्स को--- किसी भी वेश में पहचान लेती है; पुत्र का छद्म वेश उसकी आँखों को धोखा नहीं दे सकता। सभी युगों और सभी देशों के इन महान नर-नारियों (ऋषियों-पैगम्बरों) को पहचानो, और यह ज्ञान प्राप्त करो कि उनमें परस्पर में कोई भेद, कोई अन्तर और पार्थक्य नहीं है।
तब फिर यह क्यों कहते हो तुम उन्हें (विभिन्न अवतारों या पैगंबरों को) नहीं पहचानते?] और यदि तुम वास्तव में उन्हें नहीं पहचानते हो, तो उसीसे यह प्रमाणित हो जाता है,कि अभी तक तुम ईश्वर के गृह में (मृत्यु-स्वरूपिणी माँ काली के गृह में) प्रवेश नहीं पा सके हो ! जननी अपने वत्स को--- किसी भी वेश में पहचान लेती है; पुत्र का छद्म वेश उसकी आँखों को धोखा नहीं दे सकता। सभी युगों और सभी देशों के इन महान नर-नारियों (ऋषियों-पैगम्बरों) को पहचानो, और यह ज्ञान प्राप्त करो कि उनमें परस्पर में कोई भेद, कोई अन्तर और पार्थक्य नहीं है।
11. व्यावहारिक वेदान्त (Practical Vedanta) : जहाँ कहीं भी यथार्थ धर्म का विकास हुआ है, उसे दिव्य ब्रह्म का
संस्पर्श मिला है, ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है, (मेरे द्वारा नहीं ???) आत्मा द्वारा परमात्मा की
उपलब्धि हुई है, वहाँ व्यक्तियों का ह्रदय इतना विशाल एवं उदार बन गया है कि वे
देश-काल के बन्धनों से मुक्त होकर ईश्वर (सच्चिदानन्द ब्रह्म) और उसके अवतारों (ऋषियों या पैगम्बरों) की परम ज्योति का
दर्शन सर्वत्र- सभी धर्मों और सभी देशों के अवतारों में करते हैं।
[और गा उठते हैं -अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |
अर्थात् : यह (अवतार राम और कृष्ण, या अवतारवरिष्ठ ठाकुरदेव ) मेरा है ,यह (बुद्ध, ईसा , मोहम्मद) उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है; इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो [कोई भी अवतार पराया नहीं लगता , सभी नाम-रूप ॐ की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं , इसलिए ] यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है |
12 . कुछ मुसलमान (सूफ़ी मुसलमानों के आलावा) कट्टर जिहादी आतंकवादी क्यों बन जाते हैं ? [ Why do some Muslims (other than Sufi Muslims) become staunch jihadist terrorists?]
Now,
some Mohammedans are the crudest in this respect, and the most
sectarian. किन्तु कुछ मुसलमान लोग लोग सर्वाधिक साम्प्रदायिक एवं संकीर्ण होते हैं। (जो भारत की गंगा-जमुनी तहजीब या या जो सूफ़ी परम्परा में नहीं पले-बढ़े है, जो जेहादी आतंकवादी लोग) उनका
मूल मंत्र (watchword-
नारा-A password, sometimes called a passcode, usually used to confirm the identity of a user. ) है :
" दुनिया में एक हीअल्ला है और मुहम्मद ही उसका
एक मात्र पैग़म्बर (सन्देश-वाहक) है! अतएव जो इस सिद्धान्त को नहीं मानते,
जो वस्तुएँ (बुद्ध की मूर्ति,ग्रन्थ या मन्दिर आदि) इस सिद्धान्त की पोषक
नहीं हैं,वे केवल खराब ही नहीं, समूल नष्ट कर देने योग्य हैं। जो व्यक्ति
इसमें विश्वास नहीं करता, उसे मौत के घाट उत्तर देना चाहिये; जो अन्य
उपासना गृह हैं, उन्हें जमींदोज कर देना चाहिये। जो धर्मग्रन्थ कोई भिन्न
उपदेश देती हों, बख्तियारपुर नाम रखकर , (नालन्दा के बौद्ध-विहार आदि को) उनको जला देना चाहिये! " अंध और प्रशान्त महासागर के मध्य (From the Pacific to the Atlantic) स्थित
सारे भूमिखण्ड पर पाँच शताब्दियों तक रक्त की धारा बहती रही। यह है इस्लाम
!
किन्तु इन मुसलमानों में भी, दार्शनिक प्रकृति की कुछ प्रबुद्ध आत्मायें
यदि कभी हुई हैं, तो उन्होंने इस क्रूरता के विरोध में अपनी आवाज उठायी।
ऐसा करके उन्होंने (सूफियों ने) यह प्रमाणित कर दिया कि उन्हें भी 'touch
of the Divine' ब्रह्म-संस्पर्श (शाश्वत चैतन्य) की उपलब्धि हो गयी है। सत्य के एक अंश (सत्यसार -प्रेम) का लाभ हो गया है! क्योंकि वे अपने
धर्म-पद्धति के साथ खिलवाड़ (playing with his religion) नहीं कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने यह समझ लिया
था कि जिस धर्म की बात वे करते हैं, वह केवल उनके ही पूर्वजों का धर्म नहीं है (his father's religion ), but spoke the truth direct like a man. उन्होंने सत्य (ब्रह्म या अल्ला)का साक्षात्कार यथार्थ मनुष्य के रूप में किया।
13. आध्यात्मिक मृत्यु (Spiritual Death)
: कोई सिंह -शावक अपने पहचान भ्रम ( Asmita ) को दूर हटाने की चेष्टा स्वयं क्यों नहीं कर पाता है ? (Why can't a lion-cub try to remove his identity confusion (Asmita) by himself?)
मानवतावादी शिक्षा/धर्म (Humanistic education) डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत (theory of evolution) के साथ एक अन्य तथ्य के साथ भी जुड़ी हुई है, वह है वेदान्त का क्रमसंकोचवाद (atavism -ऐटSविज़म) याने पिछली स्थिति में लौटना या पूर्वावस्था की ओर पुनरावर्तन (Recurrence) पुनरागमन जैसे -वृक्ष से बीज के रूप में लौटना !
आधुनिक विकासवाद के सिद्धान्त (theory of evolution) के साथ एक धार्मिक क्षेत्र में देखा जाता है कि प्राचीन सिद्धान्तों को वापस लाने के लिए हम में एक प्रवृत्ति
रहती है। किन्तु वैसा न कर, हमें कुछ नया सोचना चाहिये-चाहे वह गलत ही
क्यों न हो। पोंगापंथी बने रहने की अपेक्षा यही श्रेयस्कर है। Why should you not try to hit the mark? तुम्हें निशाने को (जीवन लक्ष्य को, अंतिम पुरुषार्थ - मोक्ष या ) हिट करने की कोशिश क्यों नहीं करनी चाहिये ? सटीक निशाना लगाने का प्रयत्न हमेशा करते रहना चाहिये, क्योंकि हम विफलताओं के माध्यम से अधिक समझदार बनते जाते हैं।
समय अनंत है, (यह जीवन ही अंतिम जीवन नहीं है!) Time
is infinite! -शास्वत
जीवन (अनादि वातं तदेकं-ब्रह्म के साथ शक्ति) में अवस्थिति का अवसर हमारे
सम्मुख है-फिर हम हताश क्यों हों ? दीवार को देखो-क्या वह कभी झूठ बोलता
है? पर उसकी उन्नति कभी नहीं होती -वह सदैव एक दीवार ही बना रहता है। किन्तु कोई मनुष्य झूठ बोलता है, फिर भी उसकी देवता बन जाने की संभावना कभी नष्ट नहीं होती। Man
tells a lie — and becomes a god too. इसलिये हमें सदैव क्रियाशील
-प्रयत्नशील बने रहना चाहिये।(ब्रह्मविद् बन जाने के लिये या सत्य को जान लेने के लिए -'तमाशा घुस के देखेंगे'- यही मेरा सिद्धान्त
रहा है)। कोई परवाह नहीं,
यदि हम गलत रस्ते पर जा रहे हों, कुछ न करने से तो यह अच्छा ही है। गाय
कभी झूठ नहीं बोलती पर वह सदैव गाय ही बनी रहती है। इसलिये क्रियाशील बनो, और (लक्ष्य पर)
निशाना लगाते रहो।(अर्थात पुरुषार्थी बनो और मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य , चार पुरुषार्थों -धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष पर क्रमशः निशाना लगाते रहो !)। चिन्तन करना सीखो-नये विचारों [मिल्क-टॉफ़ी ] को
जन्म दो -चाहे वे गलत ही क्यों न हों।
चूँकि हमारे खानदान में, हमारे पूर्वजों में से किसी ने भी स्वयं कोई नया विचार खोजने की जुर्रत कभी नहीं की -इसीलिये क्या मुझे भी अपने घुटनों पर माथा टेक कर बैठे रहना चाहिये और अपनी भावना-शक्ति तथा विवेक-विचार शक्ति खो देनी चाहिये? इस अवस्था से तो मृत्यु अधिक श्रेयस्कर है।
और फिर यदि धर्म के संबंध में मेरा अपना कोई दृढ़-निश्चय (convictions-धर्म अनुभूति है !), मेरे स्वयं की अनुभूति जन्य कोई जीवन्त धारणा (living ideas) ही न बन सकीं; तो वैसे (बनस्पति तुल्य) जीवन का मूल्य ही क्या रहा ? [Because my forefathers did not think this way, shall I sit down quietly and gradually lose my sense of feeling (जिम्मेदारी का एहसास ) and my own thinking faculties (4 पुरुषार्थ में विवेक-प्रयोग ) ? ]
नास्तिक लोग (the atheists)-जो ईश्वर को नहीं मानते उनसे कुछ
आशाएँ रखी जा सकती हैं, क्योंकि दूसरों से उनका मतभेद होने पर भी, वे कम से
कम खुद कुछ विचार करते हैं। जो (सिंह-शावक) स्वयं विचार नहीं करते, उन्होंने अभी धर्म-क्षेत्र (मानवतावादीशिक्षा के क्षेत्र) में अभी उनका जन्म ही नहीं हुआ है। (अर्थात जिन्होंने लंदन-स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़कर भी स्वयं विवेक-प्रयोग का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया --- मनमोहन सिंह ? इसलिए PM होकर भी रिमोट कंट्रोल द्वारा चलाये जाते थे) और वे जो स्वयं विचार नहीं करते, वे वास्तव में धर्म या शिक्षा का कोई आदर नहीं करते। उनका अस्तित्व बिल्कुल जेली-फ़िश (jellyfish) की तरह है - अर्थात उम्र तो बढ़ गया अक्ल नाममात्र की नहीं है!
' अस्मिता ' शब्द का वैदिक अर्थ : योग शास्त्र के अनुसार यह पाँच क्लेशों में से एक है। वैशेषिक दर्शन या विशेष-सांख्य में इसे मोह और वेदान्त में ह्रदय ग्रंथि कह गया है। ईश्वर का ध्यान छोड़कर शरीर और सांसारिक पदार्थों को अपना सर्वस्व समझने की क्रिया या भाव =(तोतापुरीजी के जैसा जगतजननी माँ सारदा /माँ काली को भूलकर इंटरनेट -फेसबुक -यूटुब के दृश्य को सच समझना ?) जैसे कोई सिंहशावक भेंड़ों की झुण्ड में पल-बढ़कर अपने को भेंड़ समझकर में -में करने लगा था ? अथवा यूएनओ में हिन्दी में भाषण देना पूरे देश की अस्मिता की पहचान है।
किसी ने
एक बार एक संन्यासी से पूछा था, " आप क्या कोई एकान्त निरुपद्रव स्थान
ढूँढ़ने में सफल हो सके हैं ? आप कितने वर्षों से हिमालय की मनोरम घाटियों
में भ्रमण कर रहे हैं ? " संन्यासी ने उत्तर दिया " ४० वर्षों से " ' तब अब
तक आपने क्यों नहीं किसी स्थान का निर्वाचन किया ? संन्यासी ने कहा,"
वत्स, इन पूरे चालीस वर्षों में जब तक मैं हिमालय में वास करता रहा, मेरे
मन ने मुझे एक बार भी शांत बैठने की अनुमति नहीं दी।" हम सभी इसी प्रकार
आजीवन शांति की खोज में लगे रहते हैं, मन में शांति लाभ करने का संकल्प
करते हैं, पर हमारा मन हमें शान्ति लेने नहीं देता।
हम सब उस सैनिक की कहानी जानते हैं, जिसने एक बार एक तातार (Tartar-क्रोधी व्यक्ति) को पकड़ लिया था। एक सैनिक नगर से लौटकर जब शिविर के समीप आया तो जोर जोर से चिल्लाने लगा-" मैंने एक तातार को कैद कर लिया है, मैंने एक तातार को कैद कर लिया है ।" अंदर से एक आवाज आई, 'उसे भीतर ले आओ '। सैनिक ने कहा-' वह भीतर नहीं आ रहा है'। तब तुम्हीं भीतर आ जाओ ! सैनिक ने कहा - ' वह मुझे भी भीतर नहीं आने देता। ' (मैं तो रजाई को छोड़ना चाहता हूँ, किन्तु रजाई ने ही मुझे पकड़ लिया है !) हम सब ने उस सैनिक की भाँती अपने अपने मन में एक एक 'तातार' को पकड़ रखा है, न तो हम स्वयं उसे वश में कर सकते हैं, और न वह 'तातार' (वस्तु या व्यक्ति विशेष में आसक्ति) ही हमें शान्तिपूर्वक जीवन-यापन करने देता है। हमारी दशा भी उस सैनिक की भाँति हो गयी है।
(jelly-fish existence : आध्यात्मिक दृष्टि से मृत व्यक्ति)
किन्तु अविश्वासी नास्तिक- जिज्ञासु सत्य की खोज तो कर रहा है, उसे पाने के लिये संघर्ष तो कर रहा है! But the disbeliever, the atheist, cares, and he is struggling. So think something! Struggle Godward! इसलिये स्वयं चिंतन-मनन (श्रवण-मनन-निदिध्यासन आधारित विवेक-दर्शन या विवेक-प्रयोग) करो, ईश्वर (ब्रह्म ) को निशाना बनाकर, लक्ष्य का संधान करो!
14 . असफलता की चिन्ता न करो, ईश्वरोन्मुख संघर्ष करते रहो , हदय मंदिर में दीपक जलना ही चाहिये! [Don't worry about failure, Struggle God-ward, Light must come.] : असफलता की चिन्ता न करो, यदि 'अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो' की चिन्ता करते करते तुम किसी अद्भुत/अनोखे निष्कर्ष या श्वेताश्वतर सिद्धान्त ---
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् ,
आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति,
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥- श्वेताश्वतर)
पर
पहुँच भी जाओ- तो भी क्या ? [queer theory- महावाक्य के मर्म को समझ भी गए तो भी क्या ? अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हूँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)/ तत्त्वमसि - "वह ब्रह्म तू है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )/ अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )/ प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)] (जब तक गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में शिक्षा देने का अधिकार माँ जगदम्बा का चपरास प्राप्त न हुआ हो ? ... तोतापुरी जी की तरह गंगा में /रिकवरी रूम में डूबने लायक पानी न मिले )
यदि तुम्हें भय है कि लोग तुम्हें विचित्र और
अजीब कहने लगेंगे, तो अपने निष्कर्ष या सिद्धान्त को अपने तक ही सीमित रखो।
जब तक तुम्हें माँ जगदम्बा (C-IN-C मदरली फिगर प्रमोद दा ) का स्पष्ट आदेश या 'चपरास ' न प्राप्त हो जाये -
तुम्हें इस सत्य का उपदेश देने या दूसरों में प्रचार करने की कोई आवश्यकता
नहीं!
If you are afraid to be called queer, keep it in your own
mind — you need not go and preach it to others.
किन्तु चुपचाप मत बैठे रहो, ईश्वरोन्मुख संघर्ष करते रहो -या लक्ष्य का संधान करते रहो! हदय मंदिर में दीपक जलना ही चाहिये! (Struggle God-ward! Light must come.) किन्तु यदि कोई आदमी रोज रोज अपने हाथ से मुझे भोजन कराता रहे, तो कुछ ही दिनों में मेरे हाथ बेकार हो जायँगे! भेंड़ों की तरह एक दूसरे के पीछे चलने से आध्यात्मिक मृत्यु (Spiritual Death) अवश्यम्भावी है! निश्चेष्टता का फल ही मृत्यु है। अतएव क्रियाशील बनो Be active; और जहाँ क्रियाशीलता है, वहाँ विभिन्नता तो होगी ही। विभिन्नता ही जीवन का रस (sauce of life) है, विभिन्नता में एकता का दर्शन ही जीने की कला है! विभिन्नता जगत की हर वस्तु को सुन्दर बना देती है। विभिन्नता ही जीवन का चिन्ह है, यही जीवन-प्रवाह का मूल श्रोत है। फिर इसे देखकर हमें भयभीत क्यों होना चाहिये?
किन्तु चुपचाप मत बैठे रहो, ईश्वरोन्मुख संघर्ष करते रहो -या लक्ष्य का संधान करते रहो! हदय मंदिर में दीपक जलना ही चाहिये! (Struggle God-ward! Light must come.) किन्तु यदि कोई आदमी रोज रोज अपने हाथ से मुझे भोजन कराता रहे, तो कुछ ही दिनों में मेरे हाथ बेकार हो जायँगे! भेंड़ों की तरह एक दूसरे के पीछे चलने से आध्यात्मिक मृत्यु (Spiritual Death) अवश्यम्भावी है! निश्चेष्टता का फल ही मृत्यु है। अतएव क्रियाशील बनो Be active; और जहाँ क्रियाशीलता है, वहाँ विभिन्नता तो होगी ही। विभिन्नता ही जीवन का रस (sauce of life) है, विभिन्नता में एकता का दर्शन ही जीने की कला है! विभिन्नता जगत की हर वस्तु को सुन्दर बना देती है। विभिन्नता ही जीवन का चिन्ह है, यही जीवन-प्रवाह का मूल श्रोत है। फिर इसे देखकर हमें भयभीत क्यों होना चाहिये?
अब, इतना समझ लेने के
बाद हम विभिन्न जातियों और धर्मों में जन्मे अवतारों,ऋषियों या पैग़म्बरों
/नेताओं /जीवनमुक्त शिक्षकों / के जीवन-चरित का तुलनात्मक अध्यन करने योग्य हो सकेंगे।
Now,... we are coming
into a position to understand about the Prophets.
15 . नेताओं (जीवनमुक्त शिक्षकों) के जीवन-चरित का तुलनात्मक अध्यन (Comparative study) : अलग अलग राष्ट्रों (राज्यों) और सम्प्रदायों (समुदायों) में जन्मे अवतारों, पैगंबरों , जीवनमुक्त शिक्षकों, अपने पहचान भ्रम को मिटा चुके अलग -अलग ऋषियों के जीवन नदी के हर मोड़ पर का तुलनात्मक अध्यन।
इतिहास इस बात का प्रमाण है
कि पुश्तैनी धर्म (Ancestral religion--बापदादों का धर्मं , या खानदानी धर्म) के नाम पर जेली मछली की भाँति निश्चेष्ट पड़े रहने की
अपेक्षा जिस सत्यार्थी ने 4 पुरुषार्थ रूपी लक्ष्य का संधान गहन रूप से किया है, उसी के
हृदय में ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम (सत्यसार) प्रवाहित हुआ है, वही आत्मा
ईश्वर की और अग्रसर हुई है, और उसे जीवन में, क्षण भर के लिये ही क्यों न
हो, even once in its life - उस परम वस्तु की झलक [Spiritual quotient-आध्यात्मिक लब्धि ] मिली है, उसका साक्षात्कार हुआ है।
[1967 महामण्डल के आविर्भूत होने से पहले] आत्मविकास के साधन के रूप में जो योग (मनःसंयोग सहित 3H विकास के 5 अभ्यास) कुछ विरले लोगों के लिए ही उपलब्ध था, उसका गीता और उपनिषदों की शिक्षा पर आधारित महामण्डल आंदोलन के माध्यम से मानो सार्वजनिक उद्यान में रूपान्तरण कर दिया गया है। जिसमें कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से प्रवेश करके यथायोग्य लाभान्वित हो सकता है। इस दृष्टि से गीता और उपनिषदों को हिन्दुओं के पुनर्जागरण का क्रान्तिकारी ग्रन्थ कहना, और महामण्डल को एक नया युवा आंदोलन कहना उचित ही है।
ईश्वरीय निर्वाध अधिकार (चपरास) से सम्पन्न होने के अतिरिक्त,अवतार/गुरु /नेता/ जीवनमुक्त शिक्षक के रूप में श्रीकृष्ण की भावनाओं उद्देश्यों एवं कार्यक्रमों में किसी युवा क्रान्तिकारी के जैसा अपूर्व उत्साह झलकता है। जब ऐसा दिव्य पुरुष अध्यात्म और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य कर रहा हो तो उसकी दी हुई योग की परिभाषा भी उतनी ही श्रेष्ठ होगी।
कुछ विचार करने से यह ज्ञात होगा कि यहाँ श्रीकृष्ण ने किसी ऐसे नये आदर्श या विचार को प्रस्थापित नहीं किया है जो पहले से ही हिन्दू शास्त्रों में प्रतिपादित नहीं था। अन्तर केवल इतना है कि श्रीकृष्ण के समय तक साधन की अपेक्षा साध्य पर विशेष बल दिया जाता रहा था। परिणाम यह हुआ कि श्रद्धावान् लोगों के मन में उसके प्रति भय सा बैठ गया और वे योग से दूर ही रहने लगे। फलत योग कुछ विरले लोगों के लिए ही एक रहस्यमयी साधना (?) बनकर रह गया था । लेकिन श्रीकृष्ण ने (नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल ने) योग (मनःसंयोग) की पुर्नव्याख्या करके लोगों के मन में बैठे इस भय को निर्मूल कर दिया है।
भगवान् कहते हैं कि इस अनासक्ति-योग का अभ्यास उत्साहपूर्ण और निश्चयात्मक बुद्धि से करना चाहिए। दृढ़ निश्चय और अटल उत्साह ही योग की सफलता के लिए आवश्यक गुण हैं, क्योंकि मिथ्या (अहं) से वियोग और सत्य से संयोग ही योग है। (अर्थात अनासक्ति द्वारा "मिथ्या अहं" को माँ जगदम्बा के मातृ हृदय के सर्वव्यापी विराट "मैं " बोध से संयोग करना या रूपांतरित कर लेना ही योग है।) यदि अग्नि की उष्णता असह्य लग रही हो तो हमें केवल इतना ही करना होगा कि उससे दूर हटकर किसी शीतल स्थान (माँ सारदा देवी की गोद ) पर पहुँच जायें।
इसी प्रकार यदि परिच्छिन्नता का जीवन दुखदायक है (स्वयं के मिथ्या नाम-रूप में आसक्त जीवन यदि दुःखदायक है ?) तो उससे मुक्ति पाने के लिए आनन्दस्वरूप आत्मा में स्थित ( = माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मैं -बोध में स्थित ) होने की आवश्यकता है। यही है दुःख -संयोगवियोग योग।
सम्प्रदाय और धर्म : उस अवस्था [C-IN-C की अवस्था ] का वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद् (२/२/८) का ऋषि कहता है-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ।।
[तस्मिन् परावरे दृष्टे अस्य हृदयग्रन्थि भिद्यते / सर्वसंशयाः छिद्यन्ते, कर्माणि क्षीयन्ते च ॥ – ईश्वर जो एक ही समय में ऊँचा (सर्वव्यापी विराट अहं) और नीचा (व्यष्टि अहं) दोनों है ----------का साक्षात्कार होने पर आत्मा की अविद्या नष्ट हो जाती है। सारे संशय मिट जाते हैं और सारे कुसंस्कारों का नाश हो जाता है। When ' He' ---that is both high and low is seen, the knot of the heart is untied; all doubts are solved; and all his karma is consumed.
Shankara’s Commentary:—The fruit of the knowledge of the Paramatman is stated to be the following. Loosened is “the knot of the heart,” i.e., the group of tendencies in the mind due to ignorance, the desire which clings to the intellect according to the Sruti “The desires which lie imbedded in the heart, etc.” This is attached to the heart (intellect) not to the Atman. Biddyate. undergoes destruction; doubts regarding all knowable things have their solution—doubts which perplex worldly men up to their death, being (continuous) like the stream of the Granges; of the man whose doubts have been solved and whose ignorance has been dispelled, such karma as was anterior to the birth of knowledge in this life, such as was performed by him in previous births and had not begun to bear fruit and such as was existing at the birth of knowledge come to an end; but not that karma which brought about this birth, for it had begun to bear fruit. He, “the omniscient”, not subject to samsara; ‘both high and low,’ high as being the cause and low as being the effect; when he is seen directly as “I am he”, one attains emancipation, the cause of samsara being up-rooted.
आचार्य शंकर की टीका : The fruit of the knowledge of the (ब्रह्म =) Paramatman is stated to be the following. ईश्वर के ज्ञान का फल निम्नलिखित बताया गया है (तोतापुरी जी को दक्षिणेश्वर में जब यह ज्ञात हुआ कि माँ काली ही ब्रह्म या अवतार वरिष्ठ ठाकुर हैं -उसका फल ? ) : "जब हृदय की गाँठ का भेदन हो जाता है " ---" When the knot of the heart is penetrated ”, उस समय अविद्या (ignorance) के कारण मन में प्रवृत्तियों का जो समूह या अतीत की आदतों का बंडल (the group of tendencies or the bundle of past habits) -अर्थात श्रुति के अनुसार भोगों की वे इच्छायें, बार - बार के अभ्यास से चित्त (मिथ्या अहं बुद्धि = हृदय ?) पर जिसकी गहरी लकीर पड़ जाती है (imbedded in the heart), और जो बुद्धि को जकड़ लेती है (रज्जु पर सर्प का आवरण डालकर या बुद्धि को Hypnotized कर देती हैं ), वे समस्त प्रवृत्तियों का समूह हृदय (मनवस्तु -चित्त, मिथ्या अहं बुद्धि ) से सम्बद्ध (attached ) है ना कि आत्मा से।
[" When the knot of the heart is penetrated ,” the group of tendencies in the mind due to ignorance, the desire which clings to the intellect according to the Sruti “The desires which lie imbedded in the heart, etc. ” This is attached to the heart (intellect) not to the Atman. विसूचिका (सायटिका) रोग (Sciatica disease) , सेई देवी मूर्ति --मुखे महाप्रसादेर स्वाद " --माँ ने गिरीश घोष से कहा मैं सचमुच की माँ हूँ ! ]
भिद्यते = undergoes destruction=सर्वसंशयाः छिद्यन्ते = ब्रह्म और शक्ति अभेद्य हैं , माँ काली ही ब्रह्म (ठाकुर) हैं यह जान लेने के बाद - " सभी जानने योग्य चीजों के बारे में शंकाओं का समाधान हो जाता है"- वैसे समस्त संदेह जो संसारी मनुष्यों को उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक --गंगा की धारा की तरह निरंतर परेशान किये रहते हैं , समाप्त हो जाते हैं।
[undergoes
destruction; doubts regarding all knowable things have their
solution—doubts which perplex worldly men up to their death, being (continuous) like the stream of the Granges; ]
प्रकृति-पुरूष
के विवेक द्वारा पमरपुरूष परमात्मा के साक्षत्कार होने से
अविद्या-निवृत्तिपूर्वक हृदय-ग्रन्थि= अस्मिता की निवृत्ति हो जाती है और
संशया: = मैं चेतन हूं, वा अचेतन हूं, नित्य हूं, वा अनित्य हूं,???? इस प्रकार के सम्पूर्ण संशय निवृत्त होकर जन्ममरण के हेतु सम्पूर्ण कर्म भी क्षीण हो जाते हैं।।
16. यह जगत दुःख से क्यों जल रहा है ? :योगदर्शन में पांच प्रकार के क्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश। इनमें अविद्या ही बाकी चार क्लेशों की जननी है।
[Why is this world burning in misery- ' विवेकानन्द दर्शनम् सारांश ' (1-16 ) सोमवार, 1 सितंबर 2014 ] :
To Sister Nivedita
63 ST. GEORGE'S ROAD, LONDON,
7th June, 1896.
DEAR MISS NOBLE,
My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.
This world is in chain of superstition. I pity the oppressed, whether man or woman, and I pity more the oppressors.
One idea that I see clear as daylight is that misery is caused by ignorance and nothing else.
63 ST. GEORGE'S ROAD, LONDON,
7th June, 1896.
DEAR MISS NOBLE,
My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.
This world is in chain of superstition. I pity the oppressed, whether man or woman, and I pity more the oppressors.
One idea that I see clear as daylight is that misery is caused by ignorance and nothing else.
Who will give the world light?
Sacrifice (त्याग और सेवा) in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come. The earth's bravest and best will have to sacrifice themselves, for the good of many, for the welfare of all.
[ इसको हिन्दी में समझिये - 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय , महामण्डल के गृहस्थाश्रम में रहने वाले शिक्षकों को , गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी " त्याग और सेवा " में समर्पित जीवन ईमानदारी से जीकर दिखाना होगा। प्रमोद दा के शब्दों में महामण्डल के शिक्षकों को गृहस्थाश्रम में रहते हुए - अर्थात दिल्ली का लड्डू खाते समय भी अनासक्त होकर खाना होगा , 'त्याग' का जीवन जीना होगा। क्योंकि दिल्ली का लड्डू नहीं खाकर पछताने से अच्छा है, दिल्ली का लड्डू खाकर पछताना। " इसे समझ लेने ही महामण्डल आंदोलन आगे बढ़ेगा। ] Buddhas by the hundred are necessary with eternal love and pity.
Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt.
It is no superstition with you, I am sure, you have the making in you of a world-mover, and others will also come. Bold words and bolder deeds are what we want.
Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt.
It is no superstition with you, I am sure, you have the making in you of a world-mover, and others will also come. Bold words and bolder deeds are what we want.
Awake, awake, great ones! The world is burning with misery. Can you sleep? Let us call and call till the sleeping gods awake, till the god within answers to the call. What more is in life? What greater work? The details come to me as I go. I never make plans. Plans grow and work themselves. I only say, awake, awake!
May all blessings attend you for ever!
Yours affectionately,
VIVEKANANDA.
May all blessings attend you for ever!
Yours affectionately,
VIVEKANANDA.
प्रसंग : [द इमिटेशन ऑफ क्राइस्ट: मानवजाति के मार्गदर्शक नेता- ईसा का अनुसरण -७/३३९- तथा ७ जून १८९६ को स्वामी विवेकानन्द द्वारा भगिनी निवेदिता को लिखित उपरोक्त पत्र। तथा भगिनी निवेदिता द्वारा लिखित कोलकाता डायरी में ८ मई १८९९ को 'स्वामी विवेकानन्द के साथ भ्रमण के कुछ नोट्स' (Notes of some wanderings with the Swami Vivekananda- 8 th May 1899) ]
विषयवस्तु - अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ?
मानवजाति के मार्गदर्शक नेता---अवतार , पैग़म्बर ,नेता , जीवनमुक्त शिक्षक, सद्गुरु, या अपने पहचान भ्रम 'Identity Confusion' को मिटा चुके ऋषि (सिंहशावक) ही ह्रदय को अर्थात युगों-युगों की अन्धकार-काराओं को अन्तर के प्रकाश से आलोकित करने वाले प्रकाश-स्तम्भ हैं। वैसे नेता बड़े दु:साहसी और विपरीत धारा के तैराक होते हैं। वे बड़े मरजीवड़े होते हैं। वे मृत्यु के मुख से अमरता की मणि को जबरन निकालकर अपना शीशमुकुट बना लेते हैं। धर्म अर्थात " अभ्युदय और निःश्रेयस " --- आदि , के विषय में जो कुछ कहा जा सकता है उसे तो उंगलियों पर गिना जा सकता है। इसीलिये धर्म को समझने के लिए उनके (धर्मप्रचारकों या भावप्रचारकों के) लम्बे लम्बे भाषणों का कोई महत्व नहीं है ,उनके जीवन का अनुसरण (imitation of christ)करने से या उनके उपदेशों (त्याग और सेवा) को अपने जीवन में धारण करने से करने से, जो 'मनुष्य' (आप्त-पुरुष, ब्रह्मविद मनुष्य ) निर्मित होता है, वही माने रखता है।
इसीलिए दादा कहते थे - किसी भी सन्त, अवतार या पैग़म्बर, (C-IN-C) के जीवन का पूर्वार्ध ही अनुकरणीय होता है, उनके जीवन का उत्तरार्ध, अर्थात पहचान भ्रम (Identity -Confusion) को हटा कर ब्रह्मविद अवस्था या सिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद के जीवन चरित को पहले नहीं पढ़ना चाहिये।
महामण्डल की मानवतावादी शिक्षा (मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास ) आदि 'मनुष्य' (मानहूश-ब्रह्मविद ) बनने की प्रेरक अभिप्रेरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। अतः सभी छात्रों को किशोरावस्था से ही धर्मशील या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने " Be and Make " का प्रयास करना चाहिये। ईसा ने भी कहा था - "Seek ye first the kingdom of God" -'मैथ्यू ६/३३'।
" यह संसार कुसंस्कारों की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है। एक बात जो मैं सूर्य
के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और
कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ? असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों 'बुद्धों' की आवश्यकता है।
संसार
के धर्म प्राणहीन और विकृत हो चुके हैं; आज जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता
है वह है - चरित्र! संसार को ऐसे लोग चाहिये जिनका अपना जीवन स्वार्थहीन
ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह प्रेम उनके एक एक शब्द को बज्र के समान
प्रभावकारी बना देगा।
जब तुम अपने यथार्थ स्वरुप को जान जाओगी, ब्रह्मविद् बन जाओगी तब तुम्हारे शब्दों का प्रभाव इस जगत के ऊपर बज्र के समान- आकस्मिक
घटना (bolt from the blue) बनकर टूट पड़ेंगे ! उन व्यक्तियों में मेरा थोड़ा
भी आत्मविश्वास विश्वास नहीं है जो यह पूछते हैं, कि 'क्या मेरे उपदेशों को कोई
सुनेगा?'अभी तक जगत में इतना साहस नहीं है, कि वह उस व्यक्ति के उपदेश को सुनने से इनकार कर दे, जिसके पास देने के लिये कोई सन्देश है।
मनःसंयोग ही अज्ञान को नष्ट करने वाली (ब्रह्मविद्) मनुष्य बनने वाली विद्या है; इसीलिये इसको ब्रह्मविद्या या राजयोग विद्या या पराविद्या भी कहते हैं । यह वैसा मनोविज्ञान है जिसे किसी भी जाति और धर्म के मनुष्य अपने अपने धर्म का पालन करते हुए सीख सकते हैं ।
उठो ! उठो ! संसार दुःख से जल रहा है; क्या तुम सो सकते हो?
हम बार-बार पुकारें जब तक सोते हुए देवता न जग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव
उस पुकार का उत्तर न दें। आज सबसे बड़ी समाजसेवा युवाओं को यह सिखा देना है
कि चरित्र-निर्माण के लिये मन को एकाग्र करने की विधि क्या है ? जीवन में इससे (Be and Make से ) बढ़कर महान कर्म ( धर्म) क्या है ? विवेकानन्द दर्शनं श्लोक -१.
नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् |
एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते ||
१. " सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है।" और जगत रूपी चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के माध्यम से केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।"
--1. ' After all, this world is a series of pictures. ' This colorful conglomeration expresses one idea only.
श्लोक -२. मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते | पश्यामः केवलं तद्धि नृनिर्माणं कथं भवेत् ||
2. Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'
२. अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !
2. Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'
२. अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !
विवेकानन्द दर्शनं श्लोक ३. मनुष्य जाति को उसके दिव्य का स्वरुप का पता बता दो - जगत उसे सुनने को बाध्य है !
आदर्शस्य वर्णनञ्च् कियत् शब्दैः तु शक्यते-
ब्रह्मत्वञ्च् मनुष्याणामाचारे तत् प्रकाशनम्॥
अर्थात - मेरा
आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य जाति
को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
उसे प्रकट करने का उपाय बताना ।
"
My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto
mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement
of lif
17 . न केवल सहिष्णुता बल्कि सार्वभौमिक स्वीकृति।[ Not only tolerance but universal acceptance] :
सभी सयाने एक मत - समस्त 'आप्त-पुरुषों' का मत एक ही प्रकार का होता है। आप्तोपदेशवाक्यः शब्दः। अर्थात सिद्ध पुरुषों के उपदेश प्रमाणस्वरूप हैं और इसीका नाम शब्द-प्रमाण है। इस स्थान पर टीकाकार ऋषि जैमिनी कहते हैं कि आर्य और म्लेच्छ दोनों का ही 'आप्त-पुरुष' होना सम्भव है।"७/३३९ इसलिये मनुष्य को किशोरावस्था से ही मनःसंयोग का अभ्यास करके सत्य या ईश्वर की खोज करनी चाहिए , ऐसा करने से ईश्वर (माँ जगदम्बा रूपी आदर्श) के भीतर स्वाभाविक रूप से जो पवित्रता, नेकी, साधुता (righteousness) आदि सम्पत्तियाँ हैं वे सब तुम्हें विरासत में प्राप्त हो जायेंगी ! स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं भी मात्र १३ वर्ष की किशोर अवस्था में ही एक रोमन कैथलिक संत थॉमस ए० केम्पिस द्वारा लिखित "Imitation of christ " या 'ईसा- नुकरण' नामक ग्रन्थ को पढ़ लिया था।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस ने कहा था -"An avatars-doctrine could not supply India's present need of a religion all- embracing, sect-uniting, etc."
" विभिन्न ब्राण्ड वाले धर्मों में प्रचलित पारम्परिक एकमात्र उद्धारक अवतारवाद/या पैगम्बर का सिद्धान्त भारत की वर्तमान आवश्यकता की आपूर्ति नहीं कर सकता। भारत की वर्तमान आवश्यकता की एक ऐसे नेता/शिक्षक /गुरु की है, जो सार्वभौम-धर्म (वेदान्त) में विश्वासी हो और जो विश्व के सभी विभिन्न सम्प्रदायों और मतों को गले लगा सके और सभी संप्रदाय में परस्पर सौहार्द और भाईचारे के साम्य को स्थापित कर सके।
स्वामी विवेकानंद न सिर्फ धार्मिक कट्टरता और रूढि़वाद के विरोधी थे, बल्कि साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता को भी इंसानियत का दुश्मन मानते थे। स्वामी विवेकानंद विश्व बंधुत्व ही नहीं - ' एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति ' रूपी वेदान्ती साम्यवाद में प्रतिष्ठित वैश्विक एकत्व के बेखौफ प्रवक्ता थे। उनके दिल में सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान था। उनकी नजरों में धर्म एक अलग ही मायने रखता था। उनका कहना था- 'अगर कोई यह ख्वाब देखता है कि सिर्फ उसी का धर्म बचा रह जाएगा और दूसरे सभी नष्ट हो जाएंगे, तो मैं अपने दिल की गहराइयों से उस पर तरस ही खा सकता हूं। जल्द ही सभी झंडों पर, कुछ लोगों के विरोध के बावजूद यह अंकित होगा कि लड़ाई नहीं दूसरों की सहायता, विनाश नहीं मेलजोल, वैमनस्य नहीं बल्कि सद्भाव और शांति। इसीलिए सर्वधर्म समभाव की संकल्पना यहां पर उदित हुई।
शिकागो में अपने पहले भाषण में उन्होंने जो पहला वाक्य कहा था वो यही कहा था कि मैं चार हजार वर्ष पुरानी सभ्यता की ओर से तुम लोगों को यह बोलने आया हूँ,(उससे पहले सब लोग कह चुके थे कि मेरा धर्म सही है, बाकी धर्म गलत हैं। उन्होंने कहा था मैं यह कहने आया हूँ) कि हम लोग मानते हैं कि सभी धर्म सत्य हैं, सत्यानुसंधान के मार्ग हैं और हम महज सहिष्णुता में नहीं विश्वास करते, हमलोग सर्वधर्म समन्वय को स्वीकार करते हैं ! टॉलरेन्स तो बहुत छोटा मूल्य है, हम इससे बडा़ मूल्य अपने सामने रखते हैं हम सबको स्वीकार कर सकते हैं। नॉट ओनली टॉलरेन्स बट युनिवर्सल एक्सेप्टेन्स। आई ऐम प्राउड टू बिलांग टु ए रिलिजन व्हिच हैज टॉट द वर्ल्ड बोथ टॉलरेन्स ऐन्ड युनिवर्सल एक्सेप्टेन्स वी बिलीव नॉट ओनली इन युनिवर्सल टॉलरेशन बट वी एक्सेप्ट आल रिलीजन्स ऐज ट्रू ।
हम सभी मतों (सम्प्रदायों) को सरत्यानुसंधान के विविध मार्गों के रूप में स्वीकारते हैं। यह एक नई आवाज थी इसीलिए यूरोप ने उसको ध्यान से सुना और यह आगामी भारत के लिए भी एक संकेत था। स्वामी विवेकानंद ने दुनिया के दो बड़े मजहब, हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म की बीच आपसी सहकार- या " गंगा-जमुनी तहजीब " को स्पष्ट करते हुए कहा था कि 'हमारी मातृभूमि, दो संस्कृतियों - हिन्दू और मुस्लिम की मिलनस्थली है। मैं अपने मानस नेत्रों से देख रहा हूँ - कि आज के संघात और बवंडर के अंदर से ही ' वेदान्त का मस्तिष्क और इस्लाम का शरीर लेकर ' एक भारत श्रेष्ठ भारत - अपराजेय भारत ' का आविर्भाव होगा !
शंकराचार्य ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को अपने गीताभाष्य में दो धर्म कहा है। यहाँ धर्म का अर्थ हिन्दू-मुसलमान नहीं 4 पुरुषार्थ में से पहला - " धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष " से पहला समझना चाहिए। यहाँ धर्म का अर्थ है अपना -अपना धर्म या Righteousness-औचित्यबोध ? मेरे लिए प्रवृत्ति या निवृत्ति में से किस धर्म को धारण करना उचित है ? }
इसीलिये आज श्री रामकृष्ण के उपदेशों की नहीं, बल्कि जैसा जीवन उन्होंने जीया था, उस प्रकार के जीवन की आवश्यकता है। यथार्थ शिक्षक (गुरु या नेता) शिष्य रूपी धुन्ध के एक ढेले- 'lump of mist' को अपने हाथों में लेते हैं, और क्रमशः वह एक 'मनुष्य' (ब्रह्मवेत्ता) के रूप में विकसित हो जाता है।" श्री रामकृष्ण एक ऐसे शिक्षक (मानव-जाति के मार्ग-दर्शक नेता) हैं, जो ब्रह्मविद् मनुष्यों का निर्माण करते हैं; और यही उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य है! किन्तु सदैव वे अपने अनुयायिओं की 'वीड आउट' (निराई) भी करते रहते थे, और अपने जिन युवा शिष्यों को वे वृद्ध समझते थे (जेली फिश -आध्यात्मिक दृष्टि से मृत समझते थे ), उन्हें रद्द कर देते थे। उन्होंने अपने शिष्यों के रूप में सदा केवल युवाओं का ही चयन किया है !
इसीको गुरु-शिष्य परम्परा में ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने में सक्षम जीवनगठन / ईसामसीह-संत पॉल परम्परा /श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द परम्परा / या स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा या Be and Make ' लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे प्रेमस्वरूप नेता (C-IN-C, मानवतावादी शिक्षक) का गुणगान करने वाला निष्ठवान महामण्डल कार्यकर्ता (नेतृत्व प्रशिक्षु-अथवा Would be Leader ) बहुत सहजता से माण्डूक्य उपनिषद में वर्णित तीन उपाधियों ' जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति ' में आसक्ति को त्यागकर, चतुर्थ या तौर्य-अवस्था (इन्द्रियातीत अविनाशी आनन्द) का अनुभव कर सकता है।
भारत के गृहस्थ युवाओं (प्रवृत्ति मार्गी युवाओं) के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण के जैसा ब्रह्मवेत्ता मनुष्य या आप्त मनुष्य बनकर स्वयं सर्वधर्म-समन्वय या साम्य-भाव में प्रतिष्ठित हो जाना है; और दूसरों को भी उसी साम्य-भाव में स्थित होने में सहायता करना है।
गुलामी की मानसिकता से ग्रस्त भारत को जाग्रत करने की पहली शर्त या प्राथमिक आवश्यकता थी उसके खोये हुए सेल्फ कान्फीडेन्स, आत्म श्रद्धा को लौटा देने की तथा ' एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति ' रूपी वेदान्ती साम्यवाद के आधार पर सभी धर्मों के बीच परस्पर सौहार्द और भाईचारे - 'सर्वधर्म समन्वय' को स्थापित करने की ! इसीलिये उन्होंने मानवतावादी शिक्षा को हिन्दू-मुस्लिम-सिख -ईसाई ब्रांड वाले धर्म में या सिर्फ मेल-या फीमेल में विभाजित न करते हुए कहा था - "Each soul is potentially divine- प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है " -अर्थात प्रत्येक जीव संभावित ईश्वर है ! और अपने ईश्वरीय स्वरूप को अभिव्यक्त करना ही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है।
विवेकानन्द ने कहा - " पुरानी परिभाषा थी जो ईश्वर को नहीं मानता वह नास्तिक है, मैं परिभाषा करता हूँ कि जो अपने आप को नहीं मानता, अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। " इसलिए भारत के लिए, उनका जो आव्हान था वह यह था, अपने आप पर विश्वास करो और उठकर खड़े हो जाओ। और उन गरीबों के लिए, उन लांछितों के लिए उन जरूरतमंदों के लिए जो कुछ कर सकते हो, वह करो। किन्तु यह मानकर नहीं कि वे गरीब हैं, और रोगी हैं। बल्कि वे स्वयं शिव/जगदम्बा हैं, और तुम्हारी पूजा को स्वीकार करके तुम्हें आप्त या ब्रह्मविद् मनुष्य बनने का अवसर देने के लिये स्वयं गरीब और रोगी M/F बन कर तुम्हारे सामने खड़े हैं ! इसलिये - ' निल डाउन एंड गिव'!
जब प्रेमस्वरूप नेता नवनीदा के निर्देशन में कोई नेतृत्व-प्रशिक्षु आप्त -पुरुष बन जाता है, तब वह इस जगत की घटनाओं (विभिन्न सम्प्रदायों/गुटों के बीच चलने वाले झगड़ों ) को देखकर विचलित नहीं होता। तब कोई सीन यदि पसन्द नहीं आ रहा हो तो ईश्वर (माँ काली) की कृपा से उसको फ़ास्ट-फॉरवर्ड मोड में डाल कर अपने सत्य-स्वरूप में स्थित रह सकता है। वह जान लेता है कि साधारण मनुष्य (विभिन्न धर्मों के अनुयायी-अमज़द डकैत) भी अपने भ्रमों-भूलों को, 'अपना-पराया' की भेद-बुद्धि को त्यागता हुआ क्रमशः परिपूर्णता (perfection या सर्वोत्कृष्टता) की ओर ही अग्रसर हो रहा है। वह स्वयं अहंकार, देहाध्यास अर्थात मन की गुलामी का त्याग कर के यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद्-आप्त पुरुष) बन जाता है, और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करता है।
श्रीरामकृष्ण- माँ सारदा- स्वामी विवेकानन्द/..... नवनीदा के सर्वधर्म समन्वय रूपी जीवन धारावाहिक का अवलोकन करने से हमें आखिरकार यह समझ में आ ही जाता ही जाता है कि उनके जीवन-चरित के माध्यम से हमलोग अभी तक केवल 'मनुष्य' को [man with capital 'M'] पूर्णत्व-प्राप्ति की ओर अग्रसर होता हुआ देख रहे थे !
18. अविद्या और अस्मिता में क्या अंतर है ? (What is the difference between Avidya and Asmita?)
अविद्या तथा अस्मिता में केवल इतना ही अन्तर है कि अनात्मा में आत्मबुद्धि को अविद्या
और सुख-दुःखविशिष्ट अनात्मा (मिथ्या अहं?) में आत्मबुद्धि की अस्मिता कहते हैं।।
अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता है। भ्रम (hypnotized अवस्था) एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। यह चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इसमें जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। सांसारिक जीव अहंकार अविद्याग्रस्त होने के कारण जगत् को सत्य मान लेता है और अपने वास्तविक रूप, ब्रह्म या आत्मा का अनुभव नहीं कर पाता। एक ही सत्य को अनेक रूपों में देखना एवं मैं, तू, तेरा, मेरा, यह, वह, इत्यादि का भ्रम उसे अविद्या के कारण होता है।
उपनिषदों में इन्हें (माया को) ब्रह्म की शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। किंतु इसे ईश्वर की शक्ति (माँ जगदम्बा) के रूप में अद्वैत वेदान्त में भी स्वीकार किया गया है। यदि माया सर्वदेशीय भ्रम का कारण है तो अविद्या व्यक्तिगत भ्रम का करण है।
रस्सी में साँप का भ्रम उत्पन्न होने पर हम अधिष्ठान के मूल रूप को नहीं देख पाते। माया की दो शक्तियाँ हैं - आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति। एक शक्ति से माया (प्रकार से) अधिष्ठान का "आवरण" करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अधिष्ठान के वास्तविक रूप को ढँक देती है। द्वितीय, " विक्षेप " कर देती है, अर्थात् उसपर दूसरी वस्तु का आरोप कर देती है।
आचार्य शंकर के अनुसार प्रथम देखी हुई वस्तु की स्मृतिछाया को दूसरी वस्तु पर आरोपित करना भ्रम या अध्यास है। रस्सी में साँप का भ्रम इसी अविद्या के कारण होता है। इसी प्रकार माया या अविद्या आत्मा में अनात्म वस्तु का आरोप करती है। संसार के सारा आचार व्यवहार एवं संबंध अविद्याग्रस्त संसार में ही संभव है। अत: यह जगत संसार व्यवहार रूप से अवश्य सत्य है, लेकिन परमार्थत: वह मिथ्या है, माया है। अनिर्वचनीय ख्याति के अनुसार अविद्या न तो सत् है और न असत्। वह सद्सद्विलक्षण है। अविद्या को अनादि तत्व माना गया है। अविद्या ही बंधन का कारण है, क्योंकि इसी के प्रभाव से अहंकार की उत्पत्ति होती है। ठाकुर कहते थे - " नित्य भी सत्य है और लीला भी सत्य है ! "
वास्तविकता एवं भ्रम को ठीक ठीक जानना, वेदान्त में ज्ञान कहा गया है। फलत: ब्रह्म और अविद्या का ज्ञान ही विद्या कहा जाता है। अद्वैत वेदान्त में ज्ञान ही मोक्ष का साधन माना गया है, अतएव विद्या इस साधन का एक अनिवार्य अंग है। विद्या का मूल अर्थ है, सत्य का ज्ञान, परमार्थ तत्व का ज्ञान या आत्मज्ञान। ब्रह्म एव आत्मा में कोई अंतर नहीं है। यह आत्मा ही ब्रह्म है। अस्तु, विद्या को विशिष्ट रूप से आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कह सकते हैं।
विद्या के दो रूप कहे गए हैं - अपरा विद्या, जो निम्न केटि की विद्या मानी गई है, सगुण ज्ञान से सम्बन्ध रखती है। इससे मोक्ष नहीं प्राप्त किया जा सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन पराविद्या है। इसी को आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं। अविद्याग्रसत जीवन से मुक्ति पाने के लिए एवं अपने रूप का साक्षात्कार करने के लिए परा विद्या के अंग हैं। यदि अपरा विद्या प्रथम सोपान है, तो परा विद्या द्वितीय सोपान है।
साधन चतुष्टय से प्रारंभ करके, मुमुक्षु श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, इन त्रिविध मानसिक क्रियाओं का क्रमिक नियमन करता है। वह विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में "तत्वमसि" महावाक्य [Be and Make वाक्य ] का श्रवण करने के बाद, मनन की प्रक्रिया से गुजरते हुए, ध्यान या समाधि अवस्था में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे "मैं ही ब्रह्म हूँ" का बोध हो उठता है। यही ज्ञान परा विद्या कहलाता है।
भौतिक जगत के जिस ज्ञान को आजकल 'विज्ञान' कहते हैं उसी को उपनिषद में अपराविद्या के नाम से कहा गया है। अभ्युदय और भौतिकता, अविद्या के पर्याय हैं। इसी प्रकार निःश्रेयस और आध्यात्मिकता विद्या के पर्याय हैं। ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है :
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥
इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व) प्राप्त कर लेता है।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥
इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व) प्राप्त कर लेता है।
अस्मिता = identity : The identity of a person or place is the characteristics that they have that make them different from others." I wanted a sense of my own identity."
' अस्मिता ' शब्द का सामान्य अर्थ = 'आइडेंटिटी' के लिए हिंदी शब्द 'अस्मिता'/ (egotism-ईगोटिज़्म ) मिथ्या अभिमान। अस्मिता हानि = Identity loss/ अस्मिता संभ्रम = Identity Confusion /
' अस्मिता ' शब्द का सामान्य अर्थ = 'आइडेंटिटी' के लिए हिंदी शब्द 'अस्मिता'/ (egotism-ईगोटिज़्म ) मिथ्या अभिमान। अस्मिता हानि = Identity loss/ अस्मिता संभ्रम = Identity Confusion /
अपने होने का भाव; अहंभाव / हस्ती; हैसियत; अपनी सत्ता की पहचान / अहंता; अहंकार; अस्तित्व; विद्यमानता; मौजूदगी/ (योगशास्त्र) पाँच प्रकार के क्लेशों में से एक। / मनुष्य में होनेवाला मिथ्या अभिमान अर्थात यह ज्ञान, या धारणा कि "मैं" हूँ या मैं करता/करती (M/F) हूँ, अर्थात् व्यष्टि -अहं को "मै" हूँ समझना , तथा मेरी औरों से पृथक एवं स्वतंत्र सत्ता है। स्व-अस्तित्व के महत्त्वपूर्ण होने का भाव या अवस्था। प्रतिष्ठित होने की अवस्था या भाव/ किसी वस्तु या बात के बारे में मन में उठनेवाला वह भाव जिसके कारण महत्व प्राप्त हो या अभिमान किया जा सके। मन का यह भाव या मनोवृत्ति कि मेरी एक पृथक् और विशिष्ट सत्ता है।
' अस्मिता ' शब्द का वैदिक अर्थ : योग शास्त्र के अनुसार यह पाँच क्लेशों में से एक है। वैशेषिक दर्शन या विशेष-सांख्य में इसे मोह और वेदान्त में ह्रदय ग्रंथि कह गया है। ईश्वर का ध्यान छोड़कर शरीर और सांसारिक पदार्थों को अपना सर्वस्व समझने की क्रिया या भाव =(तोतापुरीजी के जैसा जगतजननी माँ सारदा /माँ काली को भूलकर इंटरनेट -फेसबुक -यूटुब के दृश्य को सच समझना ?) जैसे कोई सिंहशावक भेंड़ों की झुण्ड में पल-बढ़कर अपने को भेंड़ समझकर में -में करने लगा था ? अथवा यूएनओ में हिन्दी में भाषण देना पूरे देश की अस्मिता की पहचान है।
योग सूत्र संख्या 2.6 : दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता ॥॥2/6
-दृग्दर्शनशक्यो: एकात्मता इव अस्मिता। अर्थात पुरूष (आत्मा) और बुद्धि दोनों का (एकात्मता, इव) एक पदार्थ की भांति प्रतीत होना (अस्मिता) अस्मिता कहलाती है।। द्रष्टा-दृश्य और दर्शन शक्ति को एक मानना या पुरुष (आत्मा-witness consciousness) और बुद्धि (reflected consciousness)में अभेद मानना ।
-दृग्दर्शनशक्यो: एकात्मता इव अस्मिता। अर्थात पुरूष (आत्मा) और बुद्धि दोनों का (एकात्मता, इव) एक पदार्थ की भांति प्रतीत होना (अस्मिता) अस्मिता कहलाती है।। द्रष्टा-दृश्य और दर्शन शक्ति को एक मानना या पुरुष (आत्मा-witness consciousness) और बुद्धि (reflected consciousness)में अभेद मानना ।
व्याख्या : चेतनस्वरूप होने से पुरूष को “दृक्शक्ति” और जड़ होने के कारण बुद्धि को “दर्शनशक्ति” कहते हैं, बुद्धि और पुरूष दोनों का घट पट की भांति परस्पर अत्यन्त भेद होने पर भी अविद्याबल से एक पदार्थ सा प्रतीत होने को “अस्मिता” कहते हैं। इसी अस्मितारूप क्लेश के होने से पुरूष में--अहमस्मि = मैं हूं, अहंसुखी=मैं हूं, अहंदुःखी हूं, इस प्रकार का व्यवहार होता है। औपनिषद के ऋषि लोग इसी अस्मिता को हृदयग्रन्थि कहते हैं, जब ज्ञान द्वारा इस अस्मिता के निवृत्त होने से रागद्वेषादिक निवृत्त होजाते हैं जब पुरूष को मोक्षपद की प्राप्ति होती है।
जिस व्यक्ति की शंका का समाधान हो गया (doubts have been solved) है और जिसकी अज्ञानता दूर हो गई ( ignorance has been dispelled) है, कर्माणि क्षीयन्ते च/ अर्थात उस व्यक्ति के वे सभी कर्म जो इस जन्म में ज्ञान होने की तिथि ( birth of knowledge 14 अप्रैल 1992) से पहले उसने किये थे , या जिन कर्मों को पिछले जन्मों में उनके द्वारा किया गया था ( performed by him in previous births) और फल देना अभी शुरू नहीं हुआ था, और जो कर्म ज्ञान के जन्म होने के समय तक विद्यमान था-- उसका अंत हो जाता है। लेकिन उन कर्मों का अंत नहीं होता , जो इस जन्म को ग्रहण करने का कारण था -(?Bh , Nda, पित्ताशय की पथरी ) वह फल देना शुरू कर देता है।
वह जो "सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान" (माँ जगदम्बा -आत्मा ) हैं वे संसार (जन्म -मृत्यु) के अधीन नहीं हैं , “the omniscient, omnipresent and omnipotent not subject to samsara ) ” / वे एक ही समय में (युगपत ढंग से) ‘both high and low,’ ‘उच्च और निम्न दोनों हैं ! कारण (cause-माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापक विराट मैं -बोध ) के रूप में उच्च और कार्य ( effect- पुत्र- व्यष्टि अहं) होने के नाते निम्न है ; high as being the cause and low as being the effect; / उसी परम् सत्य माँ जगदम्बा को जब कोई साधक सीधे "मैं वह हूं" के रूप में देख लेता है ,when He is seen directly as “I am he”, तब वह माँ का कृपापात्र साधक------संसार के कारण (मिथ्या अहं) के जड़ से उखड़ जाने या समूल नष्ट हो जाने के कारण ! मुक्ति (emancipation मोक्ष मन की गुलामी से मुक्ति - या भेंड़ होने के भ्रम से मुक्ति, de-hypnotized अवस्था ) प्राप्त करता है !
He, “the omniscient”, not subject to samsara; ‘both high and low,’ high as being the cause and low as being the effect; when he is seen directly as “I am he”, one attains emancipation, the cause of samsara being up-rooted. -
तस्मिन् दृष्टे परावरे--- उपदेश के अन्त में अनुशासन दिया जाता है। जो अकाम, निष्काम, आप्तकाम और आत्मकाम होता है, उसके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता। वह ब्रह्म ही रहकर ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। {मुण्डक उप०, Paravare : में वर्तमान स्थानीय समय स्पष्ट सौर समय से 25 मिनट पीछे है।
The current local time in Paravare is 25 minutes behind the apparent solar time. सूर्योदय: 05:39/ सूर्यास्त: 17:31/ दिन की लंबाई: 11घं 51मि/ Solar noon: सौर दोपहर: 11:35}
The current local time in Paravare is 25 minutes behind the apparent solar time. सूर्योदय: 05:39/ सूर्यास्त: 17:31/ दिन की लंबाई: 11घं 51मि/ Solar noon: सौर दोपहर: 11:35}
तस्मिन् परावरे - that which is at once the being below and the Supreme | - जो एक ही समय में (at once - एकाएक , तुरंत , फौरन ) " अवर " (निम्न सत्य , सापेक्षिक सत्य , मिथ्या अहं - inferior truth, relative truth, false ego) और " पर" (परम् सत्य ,सर्वोच्च सत्य , निरपेक्ष सत्य Absolute Truth = माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी, विराट Omnipresent ' मैं '- बोध ) भी है | दृष्टे - when is seen (ठाकुर के गुरु तोतापुरी जी ने भी जब माँ काली की शक्ति = एक ही समय में 'दाता' और 'ग्रहीता' बनने की शक्ति , को स्वीकार किया और ठाकुर के शिष्य नरेन्द्र भी जब माँ भवतारिणी को देखा और स्वीकार कर लेते हैं -... तब ?| अस्य - उसकी | हृदयग्रन्थि = " Cardiovascular knot" (रक्त संचरण तंत्र ह्रदय व रक्त वाहिनियां की अवरोधक गाँठें ) भिद्यते = भेदन = Penetration, जब मन को मन पर ही एकाग्र कर दिया जाता है , तब वह (Tractor Hydraulic Drilling मशीन की तरह) अपनी ही परतों को छेद कर -उसकी चहार दीवारी (मिथ्या अहं) से बाहर (निर्विकल्प अवस्था -समाधि में) चला जाता है। सर्वसंशयाः - all doubts, अहं नहीं , आत्मा ही परमात्मा है, या 4 महावाक्य के विषय में, ब्रह्म ही शक्ति है के विषय में सभी संशय--- छिद्यन्ते - चित्त पर पड़े M/F की गहरी लकीरें, उसी प्रकार मिट जाती हैं - जैसे रबड़ से पेन्सिल की लकीरें cut away | अस्य कर्माणि च क्षीयन्ते - पित्ताशय की पथरी के ऑपरेशन के बाद रिकॉवरी रूम में उस व्यक्ति को व्यावहारिक वेदान्त (पवित्रता,प्रेम ,निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है -लेकिन किसी मनुष्य के माध्यम से ही उन्हें -पुत्र ही जगतजननी है)का ज्ञान दे उस दिन तक के समस्त प्रारब्ध कर्म भी 2-3 घंटे भोग कर क्षीयन्ते are spent and perish - and a man's works| ]
--- उस
समय- ह्रदय के कुटिल भावों का नाश हो जाता है, (अपने और जगत के विषय में)
सारी शंकाएँ दूर हो जाती हैं, और कर्मों का क्षय हो जाता है, क्योंकि उस
समय उस परम तत्व के दर्शन हो जाते हैं, जो --'दूर से भी दूरतम तथा निकट से भी
निकटतम है!' [जो एक ही समय में यहाँ भी है , और वहाँ भी है ! ?]
हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक ही समय में 'अपरा सत्ता' एवं 'परम सत्ता' है।
किसी एथेंस के सत्यार्थी के जीवन में घटित यह घटना ही यथार्थ धर्म है, यही धर्म का सार
है। इसके अतिरिक्त अन्य सब केवल मत-मतान्तर है, कोरा सिद्धान्त है!
उस परम
अवस्था- आत्मसाक्षात्कार (direct
perception) तक पहुँचने के विभिन्न मार्गों को मज़हब या सम्प्रदाय कहते हैं,
और उस अवस्था में जो उपलब्धि होती है वही है धर्म !
टोकरी के फल तो कीचड़
में गिर गये हैं, और हम टोकरी को लेकर झगड़ रहे हैं। धर्म पर विवाद करने
वाले दो व्यक्तियों से जरा यह पूछकर देखो, 'क्या तुमने ईश्वर को देखा है?
क्या तुमने उन सब अतीन्द्रिय विषयों का अनुभव किया है, जिनके लिये तुम झगड़
रहे हो ? कोई व्यक्ति यह दावा करता है कि -'केवल ईसा मसीह ही सच्चा पैग़म्बर
है!' ठीक है। पर उससे पूछो, ' क्या तुमने ईसा को कभी देखा है ? ' क्या
तुम्हारे पिता ने कभी ईसा को देखा था ? नहीं, 'क्या तुम्हारे पितामह ने ईसा
को देखा था ?' नहीं; 'तब तुम विवाद किस बात पर कर रहे हो ? ' फल तो ज़मीन
पर गिर गये हैं और तुम टोकरी के लिये विवाद कर रहे हो ?' (कल -१४/५/२०१४ को बुद्ध भी है बुद्ध-पूर्णिमा भी है !) समझदारों (बुद्धों-Sensible men and women) और सभ्य (ऋषि) स्त्री-पुरुषों को इस प्रकार झगड़ते हुए शर्म आनी चाहिये। These great Messengers and Prophets (बुद्ध,ईसा,मोहम्मद या श्रीरामकृष्ण) are great and true. ये सभी पैग़म्बर (मुहम्मद) और ईशदूत (ईशा या बुद्ध) यथार्थ में महान और सच्चे थे। क्यों ?
इसलिये
कि उनमें से हर एक ने अपने जीवन-काल में एक एक महान भाव का-एक एक महान
सिद्धान्त का प्रचार किया है। उदाहरण के लिये भारत के महान अवतारों को ही
लो। ये धर्म के प्राचीनतम संस्थापक हैं। पहले हम श्रीकृष्ण के जीवन को
देखें। उनकी मुख्य शिक्षा गीता में है-' अनासक्त रहो ! तुम्हारे हृदय के
प्रेम पर केवल एक व्यक्ति का अधिकार है-केवल उस व्यक्तिगत ईश्वर का अधिकार
है, जो कभी बदलता नहीं।' वह कौन है ? वह केवल ईश्वर ही है। इसलिये अपना
ह्रदय किसी परिवर्तनशील वस्तु या व्यक्ति को समर्पित मत करो, इसका अंत
दुःखमय होगा।
यदि तुम किसी व्यक्तिविशेष के शरीर (विवेकानन्द-तत्व को जाने बिना ही ) को
अपना ह्रदय अर्पित कर देते हो, तो उसकी मृत्यु के पश्चात् सारा संसार
तुम्हारे लिये दुःखपूर्ण बन जायेगा। आज जिसे अपने से अभिन्न मानकर तुम अपना
हृदय समर्पित कर चुके हो, सम्भव है कल उसीसे तुम्हारा वैमनस्य हो जाय। यदि
उसे पत्नी को देते हो, तो कल उसकी मृत्यु हो सकती है। यही संसार की रीति
है। इसीलिये श्रीकृष्ण ने गीता में उपदेश दिया है -'एक मात्र ईश्वर ही ऐसा
है जो कभी नहीं बदलता। उनका स्नेह अनंत और अपरिवर्तनशील है, हम कहीं भी
रहें और कुछ भी करें, उस कृपा-सिन्धु की कृपा में कोई अंतर नहीं आता। हमारे
अधम कार्यों पर भी वह कभी क्रुद्ध नहीं होता। (बुद्ध कभी क्रुद्ध नहीं
होता)।
और वह हमपर क्रुद्ध हो भी तो क्यों ? तुम्हारा नटखट बच्चा कितनी भी
शरारत क्यों न करता हो, तुम उसपर कभी नहीं बिगड़ते। हम भविष्य में क्या होने
वाले हैं, कितने महान होनेवाले हैं-यह क्या ईश्वर नहीं जानता ? उसे यह
ज्ञान है कि हममें से प्रत्येक मनुष्य देर-सवेर पूर्णत्व को प्राप्त कर
लेगा ! इसीलिये हममें सैकड़ों दोष रहने पर भी वह विचलित नहीं होता, उसका
धैर्य असीम है! अतएव हमें उससे प्रेम करना चाहिये, और
जीव मात्र से उसमें ही तथा उसके माध्यम से ही प्रेम करना चाहिये।' यही
गीता की शिक्षा का सार है, और इसी को अपने जीवन का मूल मंत्र मानकर जीवन-पथ
पर अग्रसर होना चाहिये। अपनी पत्नी को तुम अवश्य प्रेम करो, पर पत्नी के
लिये नहीं। You must love the wife, but not for the wife's sake.
' न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति,
आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति।'
[-बृहदारण्यक उपनिषद्] -
" हे प्रिये, पत्नी को पति प्रिय लगता है, किन्तु वह पति के लिए नहीं। but because the Lord is in the husband." उसका कारण है उस पति में वर्तमान प्रभु (अनंत परमात्मा) !"
वेदान्त दर्शन कहता है कि पति-पत्नी के बीच प्रेम में, यद्द्पि पत्नी सोचती है कि वह अपने पति को प्रेम कर रही है, किन्तु असली आकर्षण (real
attraction) ईश्वर ही है, जो पति में अवस्थित है। वही एकमात्र आकर्षण है,
उसके अतिरिक्त अन्य कोई (व्यक्ति-M/F) उसका स्नेह-भाजन नहीं है। पत्नी
अज्ञानवश नहीं जानती कि अपने पति से प्रेम करने में वह केवल ईश्वर (रबजू)
को ही प्यार कर रही है, और यह अज्ञान ही भविष्य में उसके दुःख का कारण बन
जाता है। ज्ञानपूर्वक किये जाने पर यही प्रेम -मुक्ति का मार्ग बन जाता है।
जहाँ भी प्रेम है, आनंद का एक विन्दु भी वर्तमान है, वहीं ईश्वर वर्तमान
है ! क्योंकि ईश्वर रस-स्वरुप है, प्रेमस्वरूप है, आनंदस्वरुप है! ईश्वर के
आभाव में प्रेम असम्भव है !! कृष्ण का यही उपदेश हिन्दुओं के रग रग में
प्रवाहित हो रहा है।
जब
हिन्दू कोई शुभ कार्य करता है, यहां तक कि जब वह पानी भी पीता है, तो कहता
है, 'इस कार्य के सभी शुभ फल ब्रह्म को अर्पित है !' एक बौद्ध भी यही
संकल्प करता है कि 'इस संसार के सारे शुभ फल संसार को प्राप्त हों, और जगत
के दुःख व् कष्ट मुझे मिलें।' (क्या यहाँ बौद्ध और हिन्दू के कथन में क्या कोई
विरोधाभास दिखाई देता है?)
हिन्दू कहता है-" मैं आस्तिक हूँ,
ईश्वरविश्वासी हूँ, और ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है, सकल आत्माओं
की अन्तरात्मा है। 'वासुदेव सर्वं'-इसलिये यदि मैं अपने कार्यों का पुण्य,
उनके शुभ फल 'ब्रह्मार्पणं ' कर दूँ, तो यह सर्वश्रेष्ठ त्याग होगा,
क्योंकि अंततोगत्वा मेरे सत्कार्य, मेरे कार्यों के शुभ फल निश्चित ही सारे
संसार को प्राप्त होंगे !' इसलिये संसार में रहकर जो व्यक्ति कार्य करता
है, और अपने कार्यों का शुभाशुभ फल ईश्वर को अर्पित कर देता है, वह संसार
के पापों से निर्लिप्त रहता है। जिस भाँति कीचड़ में जन्म लेकर भी,कमल कीचड़
से निर्लिप्त रहता है, उसी भाँति ऐसा व्यक्ति सांसारिक कर्मों को करते हुए
भी, उन्हें ईश्वर को समर्पित कर देने पर दोष-लिप्त नहीं होता।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संग्ङं त्यक्त्वा करोति य: ।
लिप्तये न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ||गीता ५/१० ||
लिप्तये न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ||गीता ५/१० ||
- अर्थात जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म (परमात्मा) में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है, वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।।
इस मनोवैज्ञानिक सत्य को दर्शाते हुए भगवान् उपदेश देते हैं कि सभी साधकों को ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने चाहिये। किसी आदर्श के निरन्तर स्मरण (विवेक-दर्शन का अभ्यास) का अर्थ है मनुष्य का तत्स्वरूप ही बन जाना। जैसे अज्ञानदशा में हमें अहंकार (व्यष्टि अहं) का अखण्ड स्मरण बना रहता है वैसे ही ईश्वर (माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट अहं) का निरन्तर स्मरण रहने पर अहंकार का त्याग (व्यष्टि अहं का समष्टि अहं में रूपांतरण) संभव हो सकता है। ईश्वर के अखण्ड चिन्तन से हम जीवभाव से ऊपर उठकर ईश्वर के साथ एकत्व का अनुभव कर सकते हैं। संक्षेप में अभी हम जीवभाव (नाम-रूप -उपाधि) में स्थित आत्मा हैं, गीता का आह्वान है कि हम आत्मभाव में स्थित जीव बन जायें।
आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ज्ञानी पुरुष देहादि उपाधियों के साथ विषयों के मध्य उसी प्रकार रहता है जैसे कमल का पत्ता जल में। एक ज्ञानी सन्त पुरुष अन्य मनुष्यों के समान जगत् में निवास करता हुआ समस्त व्यवहार करता है; और फिर भी पाप पुण्य राग-द्वेष सुन्दरता-कुरूपता आदि से कभी भी लिप्त नहीं होता। प्रबल
कर्मशीलता -श्री कृष्ण की एक और महान शिक्षा है।
गीता का उपदेश
है-कार्यरत रहो, रातदिन कार्य करते रहो! स्वभावतः ही शंका उपस्थित होगी कि
निरन्तर कर्म करने से शान्ति कैसे उपलब्ध होगी? यदि मनुष्य दिन-रात, आमरण
टमटम के घोड़े की भाँति जीवन की गाड़ी खींचता रहे, और उसे खींचते खींचते ही
इहलीला समाप्त कर दे, तो मानव जीवन का मूल्य ही क्या रहा ? भगवान श्री
कृष्ण कहते हैं, ' नहीं, कर्मरत व्यक्ति अवश्य शांति का अधिकारी बनेगा।
कार्य-क्षेत्र से पलायन करना शांति का पथ नहीं है। यदि सम्भव हो तो अपने
कर्तव्य-कर्म (सामने आये हुए कर्म) छोड़ दो, तथा किसी पर्वत शिखर पर
जीवनयापन करो, किन्तु वहाँ भी मन स्थिर नहीं रहेगा, वहाँ भी वह यंत्रवत
भ्रमण करता रहेगा। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि श्रीकृष्ण और भगवान बुद्ध के उपदेशों में कोई विरोधाभास नहीं है। (कर्म तो करो किन्तु शूद्र जैसा नहीं. किन्तु ब्राह्मण बुद्धि के साथ करो !)
[पूज्य नवनी दा (परिप्रश्नेन २/२७) इस प्रश्न - "आधुनिक युग में भी चार प्रकार के वर्णों की व्यवस्था करने की क्या आवश्यकता है ?" ..... के उत्तर में आगे कहते हैं - " सभी व्यक्तियों को शूद्र होकर क्यों रहना चाहिये ?" अर्थात सभी मनुष्यों को स्वयं को केवल एक शरीर मानकर, शारीरिक श्रम करके ही जीविका अर्जन करने वाला शूद्र ही क्यों बने रहना चाहिये ? क्या देश की इतनी दुर्दशा देखने के बाद भी हमारी बुद्धि कभी खुलेगी नहीं ? क्या अनुभूति ( आत्मानुभूति या परमसत्य या ब्रह्म की उपलब्धि) हमलोगों को कभी नहीं होगी ? क्या हमलोग आजीवन सिर्फ शारीरिक परिश्रम के द्वारा ही अपनी आजीविका अर्जित करते रहेंगे? और नारे लगाते रहेंगे - और दो, और दो-हमारी मांगे पूरी करो ! - इसीको तो शूद्र का जीवन कहा जाता है। क्या हमलोग भी इसी प्रकार अपना जीवन बिता देंगे ? नहीं नहीं, हमलोगों के जीवन में ऐसी दुर्घटना कभी नहीं हो सकती। हमलोगों के भीतर भी अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति (सर्वग्रासी प्रेम) है ! अतएव हमलोग किसी की हिंसा नहीं करेंगे, हमलोग किसी से घृणा नहीं करेंगे, हमलोग किसी मनुष्य को अपने शत्रु के रूप में नहीं देखेंगे, सभी को अपने मित्र की दृष्टि से ही देखेंगे। और केवल वैसे ही कार्य करेंगे जिससे मेरी और दूसरे सभी मनुष्यों की चारित्रिक उन्नति हो।
हमलोग कर्मठ मनुष्य बनने का अर्थ, आजीवन केवल शारीरिक परिश्रम करते रहना समझते हैं, शारीरक परिश्रम करने के अतिरिक्त हम और कुछ कर ही नहीं सकते -ऐसा क्यों सोचना चाहिये ? अभी कुछ ही दिनों पूर्व मिदनापुर जिले में एक युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित हुआ था। उस शिविर के आयोजन में जो भी राशि व्यय हुई थी, उस खर्च को वहाँ के लड़कों ने (केवल चन्दा माँगकर ही नहीं ) दूसरों के खेत में मजदूरी करके जमा किया था। यहाँ यह कहना पड़ेगा कि उन्होंने शूद्रों का कर्तव्य - 'शारीरक-परिश्रम ' तो किया किन्तु ब्राह्मण की बुद्धि के साथ किया। आज के समाज में इसी दृष्टिकोण के साथ समाज-सेवा के कार्यों को करने की आवश्यकता है।
"Bloom where you're planted" - जो व्यक्ति जहाँ कहीं कार्य कर रहा हो, वह वहीँ कार्य करता रहे, किन्तु उसे अपने कार्य को ब्राह्मणों की बुद्धि के साथ (निःस्वार्थ भाव से) करना उचित होगा। नहीं तो, वैसी समाज- सेवा द्वारा (जो निज लाभ के उद्देश्य से की गयी हो) न तो दूसरों का कल्याण होगा (दूसरों का चरित्र उन्नत होगा) और न अपना कल्याण होगा, अर्थात हमलोग स्वयं भी 'थंडरबोल्ट' के जैसा निःस्वार्थपर या 'अप्रतिरोध्य मनुष्य' बनने और बनाने से वंचित रह जायेंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही उपदेश दिया है, वेदों -उपनिषदों में भी यही उपदेश दिया गया है।
वेदों में कहा गया है कि जहाँ 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' "Practical efficiency and this Inner Apprehension of TRUTH" दोनों एक साथ रहते हैं, वहाँ देवताओं का वास होता है। अर्थात जिस व्यक्ति में 'ब्रह्म-बुद्धि' या सत्य को अपने अनुभव से जान लेने की क्षमता (সত্য অনুধাবন ক্ষমতা The power to realize truth), या मेधा (भ्रममुक्त मनुष्य, डीहिप्नोटाइज्ड ब्रह्मविद मनुष्य बनने की क्षमता), और साथ ही साथ 'व्यावहारिक दक्षता ' के साथ शारीरिक परिश्रम करने की क्षमता दोनों विकसित हो जाती है, वहाँ देवताओं का वास होता है ! वहाँ देवता लोग प्रसन्न होकर आशीर्वादों की वर्षा करते हैं। अर्थात जिस परिवार या समाज में ऐसे मेधा और व्यावहारिक कार्य-दक्षता से सम्पन्न मनुष्यों का वास होता है, उस समाज और परिवार के सभी मनुष्यों का जीवन धन-धान्य से परिपूर्ण हो उठता है ! आज भारत में ऐसे ही प्रतिभासम्पन्न मनुष्यों का निर्माण करने की आवश्यकता है।
हमलोग मजदूर हो सकते हैं, किसान हो सकते हैं, किन्तु उस विद्या को क्यों न अर्जित करें जो हमें मुक्त कर देती है ? हमलोग भी क्यों बुद्धिमान नहीं बनेंगे ? हमलोग भी ज्ञानवान क्यों नहीं बन सकते ? हमलोग भी 'ब्राह्मण' अर्थात अनुभूति सम्पन्न मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य या ऋषि) क्यों नहीं बनेंगे ? ऐसे मनुष्यों का निर्माण करने से ही तो देश की उन्नति होगी। वर्णाश्रम धर्म और सत्य-उपलब्धि दोनों के संबन्धों को ठीक से समझ लेने पर ही देश की उन्नति सम्भव है - इस दृष्टि से देखकर यदि कोई पूछे कि क्या वर्णाश्रम धर्म की उपयोगिता आज भी है ? तो कहना होगा कि निश्चय ही इसकी उपयोगिता आज भी है ! (परिप्रश्नेन -२/४३)]
हम सब उस सैनिक की कहानी जानते हैं, जिसने एक बार एक तातार (Tartar-क्रोधी व्यक्ति) को पकड़ लिया था। एक सैनिक नगर से लौटकर जब शिविर के समीप आया तो जोर जोर से चिल्लाने लगा-" मैंने एक तातार को कैद कर लिया है, मैंने एक तातार को कैद कर लिया है ।" अंदर से एक आवाज आई, 'उसे भीतर ले आओ '। सैनिक ने कहा-' वह भीतर नहीं आ रहा है'। तब तुम्हीं भीतर आ जाओ ! सैनिक ने कहा - ' वह मुझे भी भीतर नहीं आने देता। ' (मैं तो रजाई को छोड़ना चाहता हूँ, किन्तु रजाई ने ही मुझे पकड़ लिया है !) हम सब ने उस सैनिक की भाँती अपने अपने मन में एक एक 'तातार' को पकड़ रखा है, न तो हम स्वयं उसे वश में कर सकते हैं, और न वह 'तातार' (वस्तु या व्यक्ति विशेष में आसक्ति) ही हमें शान्तिपूर्वक जीवन-यापन करने देता है। हमारी दशा भी उस सैनिक की भाँति हो गयी है।
हम
सब शान्त और स्थिर होने का संकल्प करते हैं। किन्तु यह तो एक शिशु भी कह
सकता है और मन में सोचता है कि वह सफल हो जायगा। किन्तु वास्तव में वैसा कर
पाना अत्यंत कठिन होता है। मैंने भी ऐसा प्रयत्न किया है। मैं अपने
कर्तव्यकर्मों को एकदम ही त्यागकर पर्वत-शिखरों की ओर प्रस्थान कर गया। मैं
गहन गुफ़ाओं एवं निविड़ वनों में निवास करता रहा। पर व्यर्थ, क्योंकि मैंने
भी एक 'तातार ' पकड़ लिया था। मेरे विचारों का संसार सर्वत्र और सर्वदा मेरे
साथ साथ चल रहा था। यह 'तातार' हमारे ही मन में निवास करता है, इसीलिये
हमें अन्य व्यक्तियों पर अपनी शान्ति भंग करने का दोषारोपण नहीं करना
चाहिये। हम अपनी बाह्य परिस्थितियों को दोष देकर कहते हैं -ये परिस्थितियाँ
अनुकूल हैं, ये प्रतिकूल हैं। पर हम भूल जाते हैं कि इन सबका कारण है, वह
'तातार', जो हमारे ही मानस में निवास करता है, और उसे वशीभूत कर लेने पर सब
ठीक हो जायगा।
इसलिये
भगवान श्री कृष्ण की शिक्षा है कि अपने कर्तव्य-कर्म त्याग कर मत भागो,
मनुष्य की भाँति उन्हें पूर्ण करने का यत्न करो और उनके फलाफल की चिन्ता न
करो। सेवक को 'क्यों '-कहने का क्या अधिकार है ? सैनिक को तर्क-वितर्क करने
का अधिकार नहीं।
कर्तव्य पथ पर अग्रसर होते जाओ, और इस बात की चिंता न करो
कि तुम्हारे कर्तव्य का रूप क्या है। केवल अपने मन से पूछो कि वह ब्राह्मण बुद्धि के साथ अर्थात निःस्वार्थ भाव से कार्य कर रहा है या नहीं ? यदि तुम सचमुच निष्काम हो, [थंडरबोल्ट के जैसा -वज्र के जैसा अप्रतिरोध्य मनुष्य बन जाओगे।] तो
विश्व में कोई तुम्हारे मार्ग में बाधा नहीं खड़ी कर पायगा। अपने को
कर्तव्य में डूबा दो, " Neither seek nor avoid" - न टालो न ढ़ूंढ़ो " जो काम हाथ में आ जाये, उसे करते जाओ। जब तुम इस
प्रकार कर्तव्य-रत हो जाओगे, तो धीरे धीरे तुम्हें गीता (४/१८ ) के इस महान सत्य की
प्रतीति होने लगेगी:
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ।।४/१८।।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ।।४/१८।।
- अर्थात जो पुरुष कर्म में अकर्म (inaction) और अकर्म में कर्म (action) देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।
{जैसा कि अनेक लोगों का विश्वास है कि कर्तव्य कर्म ही हमें पूर्णत्व की प्राप्ति करा देंगे; किन्तु ऐसा यहाँ नहीं कहा गया है। यह सर्वथा असंभव है। कर्म स्वयं ही इच्छा का शिशु है और कर्मों के द्वारा हम वस्तुओं को उत्पन्न कर सकते हैं। और कोई भी उत्पन्न की हुई वस्तु स्वभाव से ही परिच्छिन्न विनाशी होती है। इस प्रकार कर्मों के द्वारा प्राप्त किया ईश्वरत्व (पूर्णत्व) , रविवासरीय ईश्वरत्व होगा जो आगामी सोमवार को हम से विलग हो जायेगा। शारीरिक कर्म बुद्धि में स्थित किसी ज्ञात अथवा अज्ञात इच्छा की केवल स्थूल अभिव्यक्ति है। पूर्ण नैर्ष्कम्य की स्थिति का अर्थ निष्कामत्व की स्थिति होनी चाहिए इसे ही पूर्ण ईश्वरत्व की स्थिति कहते हैं।
किसी व्यक्ति के शान्त बैठे रहने मात्र से उसे निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता। शारीरिक निष्क्रियता (inaction या अकर्म) किसी व्यक्ति के क्रियाहीन होने का मापदण्ड नहीं हो सकता। यह एक सुविदित तथ्य है कि जब कभी हम गम्भीर निर्माणकारी विचारों में मग्न होते हैं तो हम केवल शारीरिक दृष्टि से बिल्कुल शान्त और निष्क्रिय हो जाते हैं। बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध , वाद्यों के समीप एक संगीतज्ञ, हाथ में लेखनी लिए एक लेखक इन सब में कभी-कभी निष्क्रयता देखी जाती है। परन्तु वह निष्क्रियता सत्त्वगुण की है तमोगुण की नहीं। इन शान्त क्षणों के बाद ही वे अपनी श्रेष्ठ कला-कृति प्रस्तुत कर रहे होते हैं।
पंखा घूमता है विद्युत नहीं। रेल चलती है वाष्प नहीं। इसी प्रकार ईंधन जलता है अग्नि नहीं। शरीर मन और बुद्धि कार्य करते है परन्तु चैतन्य आत्मा नहीं। इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाले पुरुष को सब मनुष्यों में " बुद्धिमान" कहा जाता है। उसे यहाँ आत्मानुभवी नहीं कहा गया है। इस प्रकार जिस पुरुष में आत्मनिरीक्षण की क्षमता है वह अकर्म में कर्म को पहचान सकता है। एक विवेकी पुरुष जब जगत् में क्रियाशील रहता है उस समय मानो अपने आपको सब उपाधियों से अलग करके साक्षीभाव से स्वयं अकर्म में रहते हुए वह सब कर्मों को होते हुए देख सकता है।
निसन्देह वह मनुष्यों में श्रेष्ठ है और आत्मप्राप्ति के अत्यन्त समीपस्थ है। संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि निस्वार्थ भाव तथा अर्पण की भावना से कर्माचरण करने पर चित्त शुद्ध होता है, और बुद्धि में कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने की क्षमता आती है। यह क्षमता दैवी और श्रेष्ठ है। क्योंकि इसके द्वारा ही हम अपने आप को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं। }
श्री
कृष्ण के उपदेशानुसार संसार के सभी कर्तव्य-कर्म (प्रवृत्ति या निवृत्ति) पवित्र हैं। कोई ऐसा कर्म
नहीं जिसे निकृष्ट कहा जाय। भगवान श्री कृष्ण के अनुसार तो सिंहासनारूढ़
सम्राट और साधारण मनुष्य के कर्तव्यों का महत्व समान ही है-'कर्तव्य
'-दृष्टि से दोनों में कोई भेद नहीं।
हम देखते हैं कि श्री कृष्ण की शिक्षा का भी हमारे जीवन में कितना महत्व है।
बिना इस सन्देश को हृदय में धारण किये, संसार में क्षण भर भी शान्त और अकपट
भाव से सानन्द कर्तव्य-रत रहना असम्भव हो जायगा। कर्तव्य-पथ पर अग्रसर पुरुष को श्री कृष्ण के उपदेश का एक एक शब्द निर्भीक बनाता रहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं-
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमति न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: ।। गीता १८/४८।।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: ।। गीता १८/४८।।
हे कौन्तेय ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (the duty to which one is born-कर्तव्य-कर्म) को नहीं त्यागना चाहिए; क्योंकि सभी कर्म दोष से आवृत होते है, जैसे धुयें से अग्नि।।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार- मनुष्य परिस्थितियों का स्वामी है, दास नहीं। जिस मात्रा में मनुष्य अपने स्वामित्व को दृढ़तापूर्वक व्यक्त कर पायेगा , उसी मात्रा में उसका विकास संभव होगा। क्या सभी कर्म दोष से आवृत नहीं हैं भगवान् श्रीकृष्ण का युक्तिवाद यह है कि जब सभी कर्म दोषयुक्त हैं, तो गृहस्थों के स्वकर्म या स्वधर्म का त्याग कर परधर्म (निवृत्ति) का आचरण क्यों करना चाहिए यह सर्वथा अनुपयुक्त है।
कर्तृत्व का अभिमान ही वासनाओं को उत्पन्न करके कर्म को दोषयुक्त बना देता है।अज्ञान अवस्था में यह दोष अपरिहार्य है। जैसे अग्नि के साथ धूम्र। परन्तु यदि चूल्हे को बाहर खुले वातावरण में रखा जाये, तो धुंआ नष्ट हो जाता है और अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। इसी प्रकार, ईश्वर का स्मरण- अर्थात "ॐ तत् सत् ॐ" का उच्चारण करके निरहंकार भाव से जगत् कर्म करने पर अहंकार के अभाव में वासनाओं का आवरण नष्ट होकर स्वयं का शुद्ध चैतन्य स्वरूप स्पष्ट अनुभव होता है।
{स्वभाव (वर्ण) और स्वधर्म (आश्रम) का वर्णन करने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण एक अत्यन्त सूक्ष्म पक्ष का विवेचन करते हैं। जिसकी उपादेयता सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। भगवान् का यह उपदेश है कि सहज कर्म के सदोष होने पर भी उसका त्याग नहीं करना चाहिए। सहज शब्द का अर्थ है जन्म के साथ। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म अपनी पूर्वार्जित वासनाओं के साथ ही होता है। अतः सहज कर्म से तात्पर्य उन वासनाओं से है जिनके साथ मनुष्य का जन्म होता है। जिन संस्कारों के साथ (प्रवृत्ति या निवृत्ति) हमारा जन्म हुआ है; उसके अनुसार हमको कर्म करने चाहिए। परन्तु स्मरण रहे कि ये कर्म निरहंकार और निस्वार्थ भाव से ही किये जाने चाहिए। बाह्य जगत् के प्रलोभन (तीनों ऐषणाएँ ) हमारे कर्म को दूषित नहीं कर सकें, इसकी हमें सावधानी रखनी चाहिए। }
अब गौतम बुद्ध के महान सन्देश को सुनो।
( पी ......पू....... फी .......सू जैसे दो भाई तो नहीं हो ?) बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत - आर्यसत्य की संकल्पना ' को संस्कृत में 'चत्वारि आर्यसत्यानि' कहते हैं। आर्यसत्य चार हैं (1) दुःख : संसार में दुःख है, (2) समुदय : दुःख के कारण हैं,(3) निरोध : दुःख के निवारण हैं, (4) मार्ग : निवारण के लिये अष्टांगिक मार्ग हैं।
ऐसा कौन पाषाणहृदय है, जो बुद्ध के इन वचनों से प्रभावित न होगा? " जग
क्षणभंगुर एवं दुःखमय है। समय तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा है। अपने
आमोदपूर्ण जीवन से सन्तुष्ट, अपने सुन्दर प्रासादों में मनोरम
वस्त्राभूषणों से विभूषित,अनेकविध भोज्य पदार्थों से तुष्ट, हे मोहनिद्रा
में अभिभूत नर-नारियों, क्या जीवन में तुमने कभी दाने दाने के लिए मुहताज
उन लक्ष लक्ष नर-कंकालों की भी कोई चिन्ता की है, जो भूख से तड़प तड़प कर दम
तोड़ देते हैं? जरा सोचो, जगत के इस महा सत्य पर विचार करो, सर्व
दुःखमनित्यम ध्रुवम् -संसार में चारो ओर दुःख ही दुःख है। देखो, संसार में
पदार्पण करता हुआ शिशु भी वेदनापूर्ण रुदन करने लगता है। यह एक हृदयविदारक
सत्य है। इस दुःखमय जगत में जन्म लेते ही वह क्रन्दन करने लगता है। (वर्ल्ड इज बर्निंग इन मिजरी कैन यू स्लिप ? यह संसार दुःख से जल रहा है, क्या तुम सो सकते हो ?
संसार
में रुदन के सिवा है क्या ? संसार एक रुदनस्थल है। इसलिये यदि हम तथागत के
शब्दों को हृदय में स्थान देना चाहते हैं, तो हमें सम्पूर्णतः स्वार्थरहित
होना होगा। उनकी महान वाणी अनायास ही ह्रदय में घर कर लेती है। बुद्ध ने
कहा है, 'अपनी स्वार्थपूर्ण भावनाओं का उन्मूलन कर दो, स्वार्थपरता की ओर
ले जाने वाली सारी बातें नष्ट कर दो। स्त्री-पुरुष-परिवार आदि बंधनों तथा
सांसारिक प्रपंचों से दूर रहो और सम्पूर्णतया स्वार्थ-शून्य
बनो।'
संसारी व्यक्ति मन ही मन निःस्वार्थ बनने का संकल्प करता है, किन्तु
पत्नी-मुख अवलोकन करते ही उसका हृदय स्वार्थ से भर जाता है। माँ
स्वार्थ-शून्य बनने की इच्छा करती है, पर पुत्र का मुख देखते ही उसके ये
भाव लुप्त हो जाते हैं। सबकी यही दशा है। ज्योंही ह्रदय में स्वार्थपूर्ण
कामनाओं का उदय होता है, ज्योंही व्यक्ति स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से कार्य
प्रारम्भ करता है; त्योंही सच्चा मनुष्य लुप्त हो जाता है, तब वह पशु बन
जाता है, वासनाओं का क्रीतदास बन जाता है। वह अपने बंधुओं को भी भूल जाता
है, अब वह कभी नहीं कहता -'पहले, आप और बाद में मैं'; उसके मुंह से निकलने
लगता है, 'पहले मैं, और बाद में सब अपना अपना प्रबंध कर लें।' (नेता वही जो सीर-दार तो सरदार !)
अब
तनिक नाजरथ-निवासी ईशदूत ईसा को देखो। उनकी शिक्षा है-'प्रस्तुत रहो,
स्वर्गराज्य अत्यन्त समीप है!' मैंने श्री कृष्ण के उपदेशों पर मनन किया
है; मैं अनासक्त होकर कर्म-मार्ग पर अग्रसर होने का यत्न भी करता हूँ,
किन्तु कभी कभी इन उपदेशों को भूलकर मैं मोहाभिभूत हो जाता हूँ। तब इस
स्थिति में हठात तथागत का सन्देश मुझे सुनायी पड़ता है-
'सावधान ! संसार के
सकल पदार्थ नश्वर हैं।
संसार दुःखमय है। सर्वं दुःखमनित्यमध्रुवम!'
मैं
सुनकर कुछ सम्भलता हूँ; पर मेरे ह्रदय में यह विवाद उठ खड़ा होता है कि मैं
कृष्ण और बुद्ध में से किसका अनुगमन करूँ ? तब मेरे कानों में ईसा की यह
महान घोषणा गूँजने लगती है,'प्रस्तुत रहो, स्वर्गराज्य अत्यन्त समीप है। एक
क्षण का भी विलम्ब न होने दो। कल पर कुछ न छोड़ो और उस महान तथा परम अवस्था
के लिये सदा प्रस्तुत रहो, वह तुम्हारे निकट किसी भी क्षण उपस्थित हो सकती
है।' ईसा के इस सन्देश का भी हमारे ह्रदय में उच्च स्थान है। हम आदरपूर्वक
इस उपदेश को शिरोधार्य करते हैं, और प्रणाम करते हैं, उस महान अवतार को,
ईश्वर के उस विग्रह-रूप को, जिसने दो सहस्र वर्ष पूर्व मानव जाति को प्रेम
और सदाचार की शिक्षा दी थी।
इसके
पश्चात् हमारी दृष्टि समानता के उस महान संदेशवाहक पैग़म्बर मुहम्मद साहब
की ओर जाती है। शायद तुम यह पूछोगे कि उनके धर्म में क्या अच्छाई है ? पर
यदि उसमें अच्छाई न होती तो वह आज तक जीवित कैसे रह पाता ? केवल शुभ ही
जीवित रह सकता है, केवल वही बच रहता है; क्योंकि जो कल्याणकर है, वही सबल
और दृढ है, और इसलिये वही अनंत जीवन का भी अधिकारी होता है। इस जीवन में भी
अपवित्र और दुराचारी का जीवन-काल कितना होता है? क्या पवित्र साधु व्यक्ति
उसकी अपेक्षा अधिक दीर्घायु नहीं होता ? निश्चित, क्योंकि साधुता ही शक्ति
है, पवित्रता ही बल है!
यदि इस्लाम में कोई अच्छाई, कोई शुचिता न होती तो
वह आज तक जीवित कैसे रह पाता ? नहीं, इस्लाम में यथेष्ट अच्छाई है। पैग़म्बर
मुहम्मद साहब दुनिया में समता, बराबरी के सन्देश-वाहक थे -वे मानव जाति
में, मुसलमानों में भ्रातृ-भाव के प्रचारक थे। उन्होंने अपने जीवन के
दृष्टान्त से यह दिखलाया दिया कि मुसलमान मात्र में सम्पूर्ण साम्य एवं
आपसी भाईचारा रहना चाहिये। उनके धर्म में जाति, मतामत, वर्ण, लिंग आदि पर
आधारित भेदों के लिये कोई स्थान न था। तुर्किस्तान का सुल्तान अफ़्रीका के
बाजार से एक हब्शी गुलाम खरीदकर, उसे जंजीरों में बाँधकर अपने देश ल सकता
है। किन्तु यही गुलाम यदि इस्लाम को अपना ले और उपयुक्त गुणों से विभूषित
हो, तो उसे तुर्की के शाहजादी से निकाह करने का भी हक मिल जाता है।
मुसलमानों की इस उदारता के साथ जरा इस देश (अमेरिका ) में हब्शियों
(नीग्रो) एवं रेड इंडियन लोगों के प्रति किये जानेवाले घृणापूर्ण व्यवहार
की तुलना तो करो।
और हिन्दू भी क्या करते हैं? यदि तुम्हारे देश का कोई
धर्म-प्रचारक (ईसाई मिशनरी) भूलकर किसी 'सनातनी' हिन्दू के भोजन को स्पर्श कर
ले, तो वह उसे अशुद्ध कहकर फेंक देगा। हमारा दर्शन उच्च और उदार होते हुए
भी हमारा व्यवहार, हमारा आचार हमारी कितनी दुर्बलता का परिचायक है ! किन्तु
अन्य मतावलम्बियों की तुलना में हम इस दिशा में मुसलमानों को अत्यन्त
प्रगतिशील पाते हैं। जाति या वर्ण का विचार न कर, सबके प्रति समान भाव
-बंधुभाव का प्रदर्शन -यही इस्लाम की महत्ता है, इसीमें उसकी श्रेष्ठता है
! इस प्रकार हम देखते हैं कि हर अवतार, हर पैग़म्बर ने दुनिया को एक न एक
महान सत्य का सन्देश दिया है। जब तुम पहले उस सन्देश को सुनते हो और
तत्पश्चात उसकी जीवनी का अवलोकन करते हो, तो उस सत्य के प्रकाश में उसका
सारा जीवन व्याख्यायित दिखाई पड़ता है ।
अज्ञ
एवं बुद्धिहीन व्यक्ति अनेकविध मत-मतान्तरों की कल्पना करते हैं, और अपने
मानसिक विकास के अनुसार अपनी कल्पनाओं का समर्थन करने वाली कई व्याख्याओं
को आविष्कृत कर इन महापुरुषों पर आरोपित करते हैं। उनकी महान शिक्षाओं को
लेकर वे उन पर अपने मतानुसार भ्रान्त व्याख्याएँ करने लगते हैं। With every great Prophet his life is the only commentary.किन्तु
हर एक अवतार या पैग़म्बर की जीवनी ही उसके उपदेशों का एकमात्र भाष्य है।
किसी भी महान आचार्य (नेता) के जीवन का अवलोकन करो-उसके कार्य उसके
उपदेशों का अर्थ स्पष्ट करने लगते हैं। गीता को ही पढ़कर देखो, तुम्हें
कृष्ण के जीवन और गीता के एक एक शब्द में सामंजस्य दिखेगा। Will
other and greater Prophets come? क्या और भी अवतारी पुरुष, श्रेष्ठतर
पैग़म्बर या ईशदूत जन्म ग्रहण करेंगे ? निश्चय ही वे धरा पर अवतीर्ण होंगे।
किन्तु उनके आगमन की प्रतीक्षा में मत बैठे रहो।
मैं तो यह पसन्द करूँगा कि तुममें से हर एक व्यक्ति समस्त पूर्व विधानों (Old Testaments) की समष्टिस्वरूप इस यथार्थ नूतन विधान (New
Testament) के मसीहा, ऋषि, पैग़म्बर या बुद्ध बनने का प्रयत्न करे ! प्राचीन काल के
विभिन्न अवतारों के समस्त सन्देशों को आत्मसात कर उन्हें अपनी अनुभूति,
अपनी उपलब्धि के योग से अपने पूर्ण बना लो और इस अंधकार आछन्न युग के, इस त्रस्त
मानव जाति के मसीहा -मार्गदर्शक नेता याने जीवनमुक्त शिक्षक बन जाओ ! ये सभी महान अवतार हैं,
प्रत्येक ने हमारे लिये कुछ न कुछ वसीयत छोड़ी है, वे हमारे ईश्वर हैं। हम
उनके चरणों में प्रणाम करते हैं ! हम उनके क्षुद्र किंकर हैं। किन्तु इसके
साथ साथ हम स्वयं को भी नमस्कार करते हैं, क्योंकि वे यदि ईश्वर-पुत्र और
अवतार हैं, तो हम भी वही हैं । उन्होंने पूर्णता पहले प्राप्त कर ली है, और
हम भी यहीं और इस जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेंगे। ईसा के शब्दों का
स्मरण करो-'स्वर्ग का राज्य निकट ही है!'
प्रेम-प्रयोग की अवधारणा : लेकिन ईश्वर के राज्य में पहुँचने का अहंकार त्याग देना चाहिए। सच्चे बलशाली नेता वो होते हैं -जो गुरुजनों के समक्ष अपनी विनम्रता कभी त्यागते नहीं, और कालनेमियों की प्रारब्ध-जन्य मजबूरी को समझ कर,उन्हें क्षमा करते हुए अपने हृदय को बड़ा करते रहते हैं। प्रेम-प्रयोग की इसी अवधारणा का वर्णन करते हुए प्राचीन काल के Poet King (राजा-कवि) भर्तृहरी ने एक श्लोक में बड़े सुन्दर ढंग से कहा है -
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः,
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभि: प्रीणयन्तः।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥
( तात्पर्यम्: सज्जनानां स्वभावं वर्णयति कविः । मनसा, वचसा, कर्मणा च सर्वेषामेव प्राणिनामुपकारिणः, सदा परेषां सूक्ष्मानपि गुणान् विशदीकृत्य हृदि धारयन्तः सज्जनाः जगति अंगुलिगणनीया एव भवन्ति । सत्पुरुषाणां वचांसि मनांसि शरीराणि च अमृतेन पूर्णानि भवन्ति । तादृशेन अमृतपूर्णेन वचनेन, चेतसा, शरीरेण च ते सज्जनाः उपकारसहस्रेण लोके स्थितानां सर्वेषां जीविनामपि हितम् आचरन्ति । अपि च अन्येषु स्थिताः गुणाः अल्पाः चेदपि तान् एव बहु मत्वा, मनसि सन्तोषम् अनुभवन्ति । किन्तु एतादृशाः जनाः जगति कियन्तः सन्ति ?)
-राजा कवि कहते हैं ऐसे सज्जन (जीवनमुक्त शिक्षक, देश-समाज का मार्गदर्शक नेता) समाज में आज कितने हैं; जिनके कार्य , मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत (पवित्रता ) से परिपूर्ण हैं ? अर्थात जिनके मन और मुख एक हैं ? अर्थात मन में जैसा अमृतमय (पवित्र) चिंतन करते हैं, मुख से भी वैसे ही पवित्र वचन कहते हैं, और जिनके कर्म भी बिल्कुल निःस्वार्थपूर्ण और केवल दूसरों के कल्याण के लिए होते हैं, और जो सभी मनुष्यों का बहुत प्रकार से कल्याण करके त्रिभुवन को आनन्दित करते हैं?
वे लोग त्रिभुवन को किस उपाय से आनन्दित करते हैं ? किसी के भीतर यदि परमाणु के जितना छोटा भी गुण दिखता है, उसे वे पर्वत के जितना विशाल देखते और बखान करते हैं। और इस प्रकार अपने हृदय को सदैव विकसित करते रहते हैं। राजा कवि भर्तृहरी कहते हैं, ऐसे जीवनमुक्त शिक्षक/नेता जो दूसरों के परमाणु तुल्य या अत्यंत स्वल्प गुण को भी- पर्वत प्रमाण बढ़ा कर, ' प्रेम-प्रयोग ' करके अपने हृदयों का विकास साधन करते हों, संसार में बहुत कम- याने अंगुली पर गिनने योग्य ही पाये जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने जो गीता [४.५] में कहा है कि -
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
- हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता। " यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि किस प्रकार वे अनन्त स्वरूप हैं। और सृष्टि के प्रारम्भ में कैसे उन्होंने सूर्य देवता को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया, फिर मनुमहाराज से होते हुए राजर्षियों तक पहूँचा ।
इस प्रकरण में पुराणों में वर्णित अवतारवाद का सिद्धान्त (Theory of embodiment) को विस्तार-पूर्वक बताया गया है। पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करने वाले अनेक विदेशियों को हिन्दू दर्शन का यह प्रकरण और हिन्दुओं का अवतारवाद में विश्वास अत्यन्त भ्रामक प्रतीत हो सकता है। परन्तु यदि हम सृष्टिसम्बन्धी वेदान्त के सिद्धान्त को जानते हुये इस पर विचार करें तो अवतारवाद को समझना कठिन नहीं होगा।
किसी एक भी प्राणी का जन्म केवल संयोग ही नहीं है। डार्विन के विकास के सिद्धान्त के अनुसार भी प्रत्येक व्यक्ति जगत में विकास की सीढी पर उन्नति करने के फलस्वरूप आया है। प्रत्येक देहधारी का जीवन उस जीव के दीर्घ (जन्म-जन्मान्तर के) आत्म-चरित्र को दर्शाता है। असंख्य और विभिन्न प्रकार के शरीरों में वास करने के पश्चात् ही जीव वर्तमान विकसित स्थिति को प्राप्त करता हुआ है। प्रत्येक नवीन देह में जीव को पूर्व जन्मों का विस्मरण हो जाता है किन्तु वह पूर्व जन्मों में अर्जित वासनाओं से युक्त रहता है।
परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण (या अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) की स्थिति एक साधारण जीव के समान नहीं समझनी चाहिये। वे अपनी सर्वज्ञता के कारण अर्जुन के (जैसे भगवान श्रीरामकृष्ण स्वामी विवेकानन्द के) और स्वयं के अतीत को जानते हैं अतः उन्होंने कहा मैं उन सबको जानता हूँ और तुम नहीं जानते। इसी अध्याय में आगे श्रीकृष्ण बतायेंगे कि किस प्रकार वे स्वेच्छा और पूर्ण स्वातन्त्र्य से उपाधियों को धारण करके मनुष्यों के मध्य रहते हुए कार्य करते हैं जो उनकी दृष्टि से लीलामात्र है। उन्हें कभी भी अपने दिव्य स्वरूप का विस्मरण नहीं होता।
यहाँ गीता (४.५) में श्रीभगवान के कहने का तात्पर्य ऐसे ही महान जीवन्मुक्त महात्माओं [C-IN-C- नवनीदा या महामण्डल जैसे किसी संगठन] के जन्म से है जो, केवल लोकहित के लिये आविर्भूत होकर, भगवान श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा देवी -स्वामी विवेकानन्द में संयुक्त रहते हुए अवतार के कार्य - मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा -'Be and Make ' के प्रचार-प्रसार द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी पर 'सत्ययुग' स्थापित करने में अपने जीवन को न्योछावर कर देते हैं। ऐसे महात्माओं (जीवनमुक्त शिक्षकों) के परोपकार गुणों 'Quality of Leadership' का वर्णन करते हुए आचार्य शंकर ने अपने ग्रन्थ ʻविवेकचूडामणिʼ में कहा है—
शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो,
वसन्तवल्लोकहितं चरन्त:।
तीर्णा: स्वयं भीमभवार्णवं जनान्
अहेतुनाऽन्यानपि तारयन्त:।।39।।
शान्ति स्वभाव-युक्त जीवनमुक्त शिक्षक याने मानवजाति के मार्गदर्शक नेता वसन्तऋतु के सदृश केवल संसार का हित करते हैं। वे बिना किसी अन्य कारण के (नाम-यश आदि से रहित) पूर्णतया निःस्वार्थ-बुद्धि से कठिन संसार-सागर से लोगों को तारते हुए, आप भी तर जाते हैं।
{जब हमलोगों जैसा कोई साधारण मनुष्य भी (माँ जगदम्बा रूपी आचार्य की कृपा से) इस नश्वर नाम-रूपात्मक जगत के पृष्ठभूमि में अवस्थित अविनाशी सत्य (अस्ति-भाति-प्रिय) का साक्षात्कार कर लेते हैं, उन्हें भी अपने दिव्य स्वरूप का कभी विस्मरण नहीं होता। इस प्रकार वे स्वयं इस जन्म-मृत्यु के सागर से तर जाते हैं। अर्थात तीनों प्रकार की ऐषणाओं के बंधन से मुक्त हो कर परम शान्ति का अनुभव करते हैं। तब उनका कठोर हृदय पसीजना शुरू कर देता है,अर्थात उनका ह्रदय अत्यन्त विशाल और उदार हो जाता है। वे बिना किसी स्वार्थ के (अकारण) ही बसंत-ऋतू की तरह केवल परोपकार करने के उद्देश्य से भारत के गाँव-गाँव तक स्वामीजी के सन्देश "Be and Make " -अर्थात ' मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता) बनो और बनाओ ' को पहुंचा देने के लिये लोक-कल्याण के कार्य में निरन्तर लगे रहते हैं। वैसे शान्त (बुद्ध के जैसा magnanimous या महामनस्क-उदार), महात्मा, सज्जन मनुष्य सत्य का संदेश (मनुष्य-'3H' निर्माण और चरित्र-निर्माण की शिक्षा द्वारा अपने पैरों पर खड़े होने की पद्धति लोगों को समझाने, के लिये व्याकुल हो जाते है। ‘विगत मान सम सीतल मन’ सज्जनों को अभिमान छू तक नहीं जाता। सज्जन पुरुष दूसरों का उपकार करते हुए भी अपने को ही उपकृत समझते हैं। ‘मन अभिमान न आणे रे’। वे अपने को निमित्त मात्र समझते हैं। वे अपने में कर्ता बुद्धि को आने नहीं देते। }
ठीक वैसे ही " Swami Vivekananda -Captain Savior 'Be and Make ' Leadership Training Tradition " में प्रशिक्षित अभिमानरहित नेताओं याने जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण करके , श्वेत-बर्फ से आच्छादित हिमालय की चोटियों जैसी प्रशान्त गंभीर अध्यात्मिक-ज्ञान के सर्वोच्च शिखर से (अद्वैत आश्रम , मायावती , अल्मोड़ा से) भगवान श्रीरामकृष्ण के अमृत-वचन रूपी ज्ञान-गंगा को सभी मनुष्यों तक पहुंचा देने के लिये, हमारे प्रिय नेता नवनीदा ( जो अपने पूर्व जन्म में Captain Savior = C-IN-C, सेवियर याने उद्धारक थे) के नेतृत्व में महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुध्द जीवन, एक शब्द में अनुभूति, केवल आत्म-साक्षात्कार को ही विजय प्राप्त होगी ! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होने अपने बन्धन तोड डाले हैं, जिन्होने अनन्त का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्त ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम-यश की और इतने ही व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे। मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, " वसन्तवल्लोकहितं चरन्त:।"--- यही मेरा धर्म है।"
" हिन्दू धर्म का एक सिद्धान्त विश्व के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है। वह सिद्धान्त यह है की- " मनुष्य को इसी जन्म में ब्रह्म की उपलब्धि करनी होगी " याने ईश्वर का साक्षात्कार करना होगा। और अद्वैत-ग्रन्थ अत्यन्त युक्तिपूर्ण ढंग ( गीता ,उपनिषद, ब्रह्मसूत्र आदि logically) उसमें यह जोड़ देते हैं की - " ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ।" (मुण्डकोपनिषद् 3 / 2 / 9 ) -- अर्थात ब्रह्म को जानने वाला (आत्मा ही परमात्मा है को जानने वाला) स्वयं भी ब्रह्म ही हो जाता है । " ९/३७१ (" सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥---गोस्वामी तुलसीदास। )
(The one idea the Hindu religions differ in from every other in the world, the one idea to express which the sages almost exhaust the vocabulary of the Sanskrit language, is that man must realise God even in this life. And the Advaita texts very logically add, "To know God is to become God.) "
" दादूपंथी सम्प्रदाय के त्यागी संत निश्चलदास ने भी अपने ‘ विचार सागर ’ ग्रन्थ में स्पष्टतापूर्वक कहा है-
" जो ब्रह्मविद् वही ब्रह्म ताकी वाणी वेद।
संस्कृत और भाषा में करत भरम का छेद॥
" जिसने ब्रह्म को जान लिया , वह ब्रह्म बन गया" , उसकी वाणी ही वेद है। और उससे अज्ञान का अंधकार दूर हट जायगा , चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोक-भाषा में हो। "
इस प्रकार द्वैतवादियों के मत के अनुसार ईश्वर का साक्षात्कार करना, या अद्वैतवादियों के कहने के अनुसार "ब्रह्म हो जाना" -यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है ! एवं उसके अन्य उपदेश हमारी , उस लक्ष्य की ओर प्रगति के लिए सोपानस्वरूप हैं। भाष्यकार भगवान शंकराचार्य की महिमा यही है की उन्होंने अपनी प्रतिभा से दादागुरु गौड़पादाचार्य की माण्डूक्य कारिका, और व्यासदेव के भावों की ऐसी अद्भुत व्याख्या प्रकट की।"
{Nischaladâsa, a Tyagi of the Dâdu panthi sect, boldly declared in his Vichâra-Sâgara: "He who has known Brahman has become Brahman. His words are Vedas, and they will dispel the darkness of ignorance, either expressed in Sanskrit or any popular dialect."Thus TO REALISE GOD , the Brahman, as the Dvaitins say, or TO BECOME BRAHMAN , as the Advaitins say — is the aim and end of the whole teaching of the Vedas . And every other teaching, therein contained, represents a stage in the course of our progress thereto. And the great glory of Bhagavan Bhashyakara Shankaracharya is that it was his genius that gave the most wonderful expression to the ideas of Vyasa.}
और " गौड़पाद -गोविन्दपाद वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित" आचार्य शंकर ने भी वैसे वसन्तऋतु के सदृश जीवन-मुक्त शिक्षकों /नेताओं के निर्माण करने का (जो पूर्णतया निःस्वार्थ-बुद्धि से कठिन संसार-सागर से लोगों को तारते हुए, आप भी तर जाते हैं,का) सूत्र देते हुए कहा था -
दुर्जनः सज्जनों भूयात्,
सज्जनः शान्तिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बन्धेभ्यः,
मुक्तास्त्वन्यान् विमोचयेत्।।
अर्थात् दुर्जन प्राणी सज्जन बन जाँय, सज्जन प्राणी शान्ति लाभ करें, शान्त प्राणी बन्धनों से विमुक्त हों, मुक्त प्राणी दूसरों की मुक्ति के काम लग जाँय। यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " क्या भारत मर जायेगा ? तब तो संसार से सारी आध्यात्मिकता का समूल नाश जायेगा। सारे सदाचारपूर्ण आदर्श-जीवन का अस्तित्व मिट जायेगा। धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्ट हो जायेगी और सारी भावुकता का भी लोप हो जायगा। और उसके स्थान में कामरूपी देव तथा विलासिता रूपी देवी राज्य करेंगे। धन उनका पुरोहित होगा। प्रतारणा, पाशविक बल, प्रतिद्वन्दिता, ये ही उनकी पूजा-पद्धति होगी और मानव आत्मा उनकी बलि सामग्री हो जायगी। ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती। "
(Shall India die? Then from the world all spirituality will be extinct, all moral perfection will be extinct, all sweet-souled sympathy for religion will be extinct, all ideality will be extinct; and in its place will reign the duality of lust and luxury as the male and female deities, with money as its priest, fraud, force, and competition its ceremonies, and the human soul its sacrifice. Such a thing can never be. )
इसलिये महामण्डल के प्रत्येक " भावी नेता " {Would be Leader: " Swami Vivekananda-Captain Savior (=उद्धारकर्ता-प्रशिक्षण परम्परा) 'Be and Make' Leadership Training Tradition " में प्रशिक्षित विवेकानन्द के सैनिकों के भावी नेता (C-IN-C)} को इसी क्षण यह दृढ़ संकल्प- 'staunch resolution 'लेना चाहिये कि-
" I will become a messenger of Light,
I will
become a child of God, nay, I will become a God!"
मैं माण्डूक्योपनिषद में कथित "ॐ " के अर्थ को जानकर;
हजारों वर्षों से बंद अँधेरी कोठरी रूप हृदय को
मायासंख्या -तुरीयं की ज्ञान-ज्योति द्वारा आलोकित करने वाला -
जीवनमुक्त शिक्षक याने नेता (ईश्वरपुत्र -ठाकुर की संतान या पैगम्बर) बनूँगा !
नहीं मैं ब्रह्म को जानकर ब्रह्म ही बन जाऊँगा !
नहीं, मैं स्वयं ईश्वर बनूँगा !
स्वामी विवेकानन्द अन्यत्र कहते हैं - " आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है , विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है , और अपने पर ही होने से मनुष्य का ईश्वर बन जाता है। पहले हमें ईश्वर (ब्रह्मविद) बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनने में सहायता देंगे।
"Be and make. -- 'ब्रह्मविद मनुष्य' बनो और बनाओ !
- यही हमारा मूल-मंत्र रहे। "
(This infinite power of the spirit, brought to bear upon matter evolves material development, made to act upon thought evolves intellectuality, and made to act upon itself makes of man a God. First, let us be Gods, and then help others to be Gods.)
"Be and make- Let this be our motto !"
किसी मनुष्य (आंटी dks) को पापी मत कहो , उसे यह बताओ की तू भी संभावित ब्रह्म है। यदि कोई शैतान भी हो , तो भी हमारा कर्तव्य यही है की हम ब्रह्म का ही स्मरण करें , शैतान का नहीं। किसी कमरे में यदि हजार वर्षों से अंधकार हो , तो उसे जाने में हजार वर्ष नहीं लगेंगे। बल्कि एक दीपक के जलते ही वह अँधेरा क्षणभर में दूर हो जायेगा।
" हम पूरी जिंदगी यही नहीं रटते रहें कि- 'Man partly is fully hopes to Be !' बल्कि यही कहें कि-
" हम (पूर्ण) हैं - ईश्वर (पूर्ण) हैं " --और हम ईश्वर हैं ! निर्वाण षट्कम गाते और शिवोहं शिवोहं -कहते हुए आगे बढ़ते चलो।
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर्न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥1॥
मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं
मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं
मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥2॥
मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं, मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं
मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्सर्जन की इन्द्रियां हूं, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥3॥
न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह
न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या
मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदार् न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥4॥
मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं
मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ
न मैं भोजन (भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे मृत्यु शंका न मे जातिभेद:पिता नैव मे नैव माता न जन्म:
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥5॥
न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव
मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था
मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य,
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥6॥
मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं
मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं,
न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं,
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
जड़ नहीं , वरन चैतन्य हमारा लक्ष्य है। नाम और रूप (उपाधि) वाले सभी नामरूप-हीन सत्ता, "मायसंख्या तुरीयं" के अधीन हैं। इसी सनातन सत्य की शिक्षा श्रुति (माण्डूक्य उपनिषद) दे रही है। प्रकाश को ले आओ , अन्धकार आप ही आप नष्ट हो जायेगा। वेदान्त केसरी गर्जना करे , सियार अपने बिलों में छिप जायेंगे। भावों को
इसी कार्य की जिम्मेदारी भावी नेताओं को सौंपने के लिए भगिनी निवेदिता को एक पत्र में लिखते हैं -
7th June, 1896.
DEAR MISS NOBLE,
My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.
This world is in chain of superstition. I pity the oppressed, whether man or woman, and I pity more the oppressors.
One idea that I see clear as daylight is that misery is caused by ignorance and nothing else. Who will give the world light? Sacrifice in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come. The earth's bravest and best will have to sacrifice themselves for the good of many, for the welfare of all. Buddhas by the hundred are necessary with eternal love and pity.
Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt.
It is no superstition with you, I am sure, you have the making in you of a world-mover, and others will also come. Bold words and bolder deeds are what we want. Awake, awake, great ones! The world is burning with misery. Can you sleep? Let us call and call till the sleeping gods awake, till the god within answers to the call. What more is in life? What greater work? The details come to me as I go. I never make plans. Plans grow and work themselves. I only say, awake, awake!
May all blessings attend you for ever!
Yours affectionately,
VIVEKANANDA.
DEAR MISS NOBLE,
My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.
This world is in chain of superstition. I pity the oppressed, whether man or woman, and I pity more the oppressors.
One idea that I see clear as daylight is that misery is caused by ignorance and nothing else. Who will give the world light? Sacrifice in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come. The earth's bravest and best will have to sacrifice themselves for the good of many, for the welfare of all. Buddhas by the hundred are necessary with eternal love and pity.
Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt.
It is no superstition with you, I am sure, you have the making in you of a world-mover, and others will also come. Bold words and bolder deeds are what we want. Awake, awake, great ones! The world is burning with misery. Can you sleep? Let us call and call till the sleeping gods awake, till the god within answers to the call. What more is in life? What greater work? The details come to me as I go. I never make plans. Plans grow and work themselves. I only say, awake, awake!
May all blessings attend you for ever!
Yours affectionately,
VIVEKANANDA.
Say not man is a sinner. Tell him that he is a God. Even if there were a devil, it would be our duty to remember God always, and not the devil.If the room is dark, the constant feeling and repeating of darkness will not take it away, Bring in the light; the darkness will vanish of itself.
. Let us say, "We are" and "God is" and "We are God", "Shivoham, Shivoham", and march on. Not matter but spirit. All that has name and form is subject to all that has none. This is the eternal truth the Shrutis preach.
Bring in the light of " ॐ " - the Mayasankhya "Turiyam"
as said in Mandukya Upanishad ;
the darkness will vanish of itself.
Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes.
Throw the ideas broadcast, and let the result take care of itself. Let us put the chemicals together; the crystallization will take its own course. Bring forth the power of the spirit, and pour it over the length and breadth of India; and all that is necessary will come by itself.-REPLY TO THE MADRAS ADDRESS -Volume 4,page-331)
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