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Saturday, December 13, 2014

अशरीरी वाणी (" ॐ " Voice Without Form)

पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिन्दू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिन्दू धर्म के समान गरीबों और नीच जातिवालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो। 
प्रभु ने मुझे दिखा दिया है कि इसमें धर्म का कोई दोष नहीं है, वरन दोष उनका है, जो ढोंगी और दम्भी हैं, जो 'परमार्थिक' और 'व्यवहारिक' सिद्धांतों के रूप में अनेक प्रकार के अत्याचार के अस्त्रों का निर्माण करते हैं। चिन्तनशील लोग पिछले कुछ वर्षों से समाज की यह दुर्दशा समझ रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्यवश, वे हिन्दू धर्म के मत्थे इसका दोष मढ़ रहे हैं। 
वे सोचते हैं कि जगत के इस सर्वश्रेष्ठ धर्म का नाश ही समाज की उन्नति का एकमात्र उपाय है। सुनो मित्र, प्रभु की कृपा से मुझे इसका रहस्य मालूम हो गया है। दोष धर्म का नहीं है। इसके विपरीत तुम्हारा धर्म तो तुम्हें यही सिखाता है कि संसार भर के सभी प्राणी तुम्हारी आत्मा के विविध रूप हैं। …सारी दुनिया इन तीस करोड़ मनुष्यों को, जो केचुओं की तरह भारत की पवित्र धरती पर रेंग रहे हैं और एक दूसरे पर अत्याचार करने की कोशिश कर रहे हैं, घृणा की दृष्टि से देख रही है। समाज की यह दशा दूर करनी होगी -परन्तु धर्म का नाश करके नहीं, वरन हिन्दू धर्म के महान उपदेशों का अनुसरण कर और उसके साथ उसमें बौद्धधर्म -जो हिन्दू धर्म का ही स्वाभाविक विकसित रूप है; की अपूर्व सहृदयता (करुणा) को युक्त कर। 
भारतमाता कम से कम एक हजार युवकों का बलिदान चाहती है- मस्तिष्क वाले युवकों का पशुओं का नहीं। सर्वदा याद रखना -नाम-यश कमाना अपना उद्देश्य नहीं है। वत्स, साहस अवलंबन करो। भगवान की इच्छा है कि भारत में हमसे बड़े बड़े कार्य संपन्न होंगे। विश्वास करो, हमीं बड़े बड़े काम करेंगे। हम गरीब लोग- जिनसे लोग घृणा करते हैं, पर जिन्होंने मनुष्य का दुःख सचमुच दिल से अनुभव किया है। राजे-रजवाड़ों से बड़े बड़े काम बनने की आशा बहुत कम है। भारतवर्ष में हमलोग गरीबों और पतितों को क्या समझ सकते हैं ! उनके लिये न कोई अवसर है, न बचने की राह, और न उन्नति के लिये कोई मार्ग ही। भारत के दरिद्रों, पतितों और पापियों का कोई साथी नहीं, कोई सहायता देनेवाला नहीं -वे कितनी ही कोशिश क्यों न करें, उनकी उन्नति का कोई उपाय नहीं। वे दिन पर दिन डूबते जा रहे हैं। क्रूर समाज उन पर जो लगातार चोटें कर रहा है, उसका अनुभव तो वे खूब कर रहे हैं, पर वे जानते नहीं कि वे चोटें कहाँ से आ रही हैं। वे भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं। इसका फल है गुलामी।
हमारे देश के लोगों में न विचार है, न गुणग्राहकता। इसके विपरीत एक सहस्र वर्ष के दासत्व के स्वाभाविक परिणामस्वरूप उनमें भीषण ईर्ष्या है, और उनकी प्रकृति सन्देहशील है, जिसके कारण वे प्रत्येक नये विचार का विरोध करते हैं। क्या कारण है कि हिन्दू राष्ट्र अपनी अद्भुत बुद्धि एवं अन्यान्य गुणों के रहते हुए भी टुकड़े टुकड़े हो गया? 
मेरा उत्तर होगा --ईर्ष्या। कभी भी कोई जाति इस मन्दभाग्य हिन्दूजाति की तरह इतनी नीचता के साथ एक दूसरे से ईर्ष्या करनेवाली, एक दूसरे के सुयश से ऐसी डाह करनेवाली न हुई, और यदि आप कभी पश्चिमी देशों जायें, तो पश्चिमी राष्ट्रों में इसके अभाव का अनुभव सबसे पहले करेंगे। भारत में तीन मनुष्य एक साथ मिलकर पॉँच मिनट के लिये भी कोई काम नहीं कर सकते। हर एक मनुष्य अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है और अंत में संगठन की दुरवस्था हो जाती है। भगवान! भगवान ! कब हम ईर्ष्या करना छोड़ेंगे ? प्रत्येक मनुष्य एवं प्रत्येक राष्ट्र को महान बनाने के लिये तीन बातें आवश्यक हैं --
१. ' चरित्र-निर्माण' की शक्ति में विश्वास। 
२. ईर्ष्या और सन्देह का परित्याग। 
३. जो सत बनने और सतकर्म करने [BE AND MAKE ] 
के लिये यत्नवान् हों, उनकी सहायता करना।
भर्तृहरि ने ठीक कहा है -' ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ' (जो नाहक औरों के हित के बाधक होते हैं, वे कैसे हैं, यह हमें नहीं मालूम)। भाई, सब दुर्गुण मिट जाते हैं, पर वह अभागी ईर्ष्या नहीं मिटती ! 
हमारी जाति का यही दोष है --केवल परनिन्दा और ईर्ष्या। प्रभु ने कहा है -'त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ' श्वेताशतर ' -तुम्हीं स्त्री हो और तुम्हीं पुरुष; तुम्हीं कुमार हो और तुम्हीं कुमारी-इत्यादि; और हम कह रहे हैं- 'दुरमपसर रे चाण्डाल ' -ऐ चाण्डाल दूर हट ! ' केनैषानिर्मिता नारी मोहिनी '--किसने इस मोहिनी नारी को बनाया? 
मैं श्रीरामकृष्ण के चरणों में 'तुलसी और तिल ' निवेदन कर तथा अपना शरीर अर्पित कर उनका गुलाम हो गया हूँ। मैं उनकी आज्ञा का उल्ल्ंघन नहीं कर सकता। उनकी वाणी को आप्तवाक्य मानकर मैं उस पर विश्वास करता हूँ। उनका आदेश यह था कि जब तक सिद्धि प्राप्त न हो, एक जगह बैठकर साधना करनी चाहिये। जिस समय देहादि के भाव अपने आप छूट जायें, उस समय साधक चाहे जो कुछ कर सकता है। जिसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो गयी है उसीका यहाँ-वहाँ घूमना शोभा देता है।
लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्वत्र उद्धार के सन्देश और समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। तुम्हें नहीं मालूम मेरे भीतर क्या है। यदि मेरे उद्देश्य की सफलता के लिए तुममें से कोई मेरी सहायता करे तो अच्छा ही है, नहीं तो गुरुदेव मुझे पथ दिखाएंगे। बाहरी लोगों के सम्मुख इस पत्र को पढ़ने की आवश्यकता नहीं। यह बात सभी से कहना, सभी से पूछना --क्या  सभी लोग ईर्ष्या त्यागकर एकत्र रह सकेंगे या नहीं ? यदि नहीं, तो जो ईर्ष्या किये बिना नहीं रह सकता, उसके लिये घर वापस चले जाना ही अच्छा होगा, और इससे सभी का भला होगा। 
जब तक मैं निष्कपट हूँ, तब तक मेरा विरोध कोई नहीं कर सकता, क्योंकि प्रभु ही मेरे सहायक हैं। मैंने तो इन नवयुवकों को संगठित करने के लिये ही जन्म लिया है। यही नहीं, प्रत्येक नगर में सैंकड़ों और मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं, और मैं चाहता हूँ कि इन्हें अप्रतिहत गतिशील तरंगों की भाँति भारत में सब ओर भेजूँ, ताकि वे दीनहीनों एवं पददलितों के द्वार पर सुख, नैतिकता, धर्म एवं शिक्षा पहुँचावें। और इसे मैं करूँगा, या मर जाऊँगा।
ऐसे देश में, विशेषतः बंगाल में (तब बिहार - झारखण्ड-बंगाल को मिलाकर बंगाल कहा जाता था), ऐसे व्यक्तियों का संगठन खड़ा करना जो परस्पर मतभेद रखते हुए भी अटल प्रेमसूत्र से बँधे हुए हों, क्या एक आश्चर्यजनक बात नहीं है ? यह संघ (ABVYM) बढ़ता ही रहेगा; अनन्त शक्ति और अभ्युदय के साथ-
साथ उदारता की यह भावना अवश्य ही सारे देश में फ़ैल जायगी;  तथा हमारी गुलामों की इस जाति को उत्तराधिकार सूत्र से प्राप्त- उत्कट अज्ञता, द्वेष, प्राचीन अन्धविश्वास, जातिभेद व् ईर्ष्या के बावजूद- यह हमारे देश के रोम रोम में समा जाएगी तथा उसे विद्युत-संचार के द्वारा उद्बोधित करेगी ! 
तुम नीतिपरायण तथा साहसी बनो, ह्रदय पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिये। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो- प्राणों के लिये कभी न डरो। तुम्हारे लिये नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। स्वयं मनुष्य बनो तथा जो खासकर तुम्हारी ही देखभाल में हैं - उन्हें भी साहसी, नीतिपरायण तथा दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील - (स्वयं बनने और Be and Make!) बनाने की चेष्टा करो।
साधनारम्भ की दशा की ओर सिंहावलोकन करो, तो तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम पहले पशु थे, अब मानव हो  और आगे चलकर तुम एक देवता अथवा स्वयं ईश्वर  हो जाओगे। "
--- स्वामी विवेकानन्द





Saturday, December 6, 2014

"देश-कालातीत सत्य से परिचित होने के प्रयास ही साधना है ! "

" साधक और साधना "
साधना के सम्बन्ध में जन साधारण की भ्रान्त धारणा :  भारत अपनी राष्ट्रीय शक्ति का जितना व्यय आध्यात्मिक राज्य की सत्यवस्तुओं का साक्षात्कार करने के लिये करता रहा है तथा अभी तक कर रहा है, उतना खर्च करने वाला विश्व का कोई दूसरा देश नहीं है। किन्तु अधिकांश लोग यह सोचते हैं कि संसार के सुख-भोगों में घोर आसक्ति रखते हुए भी कोई मंत्र सीखकर बिना वैराग्य के ही जगत्कारण ईश्वर को देखा जा सकता है, तथा उन्हें वशीभूत भी किया जा सकता है। और इस प्रकार की भ्रान्त धारणा के वशीभूत होकर वे किसी आशाराम या रामपाल जैसे ढोंगी साधु के चक्कर में फँसकर जीवन व्यर्थ कर लेते हैं। 
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे-
 " सर्व भूतों में ब्रह्मदर्शन अथवा ईश्वर दर्शन 
       साधना की सबसे उच्च और अंतिम अवस्था है।" 
मनुष्य के सौभाग्य से साधना में चरम उन्नति होने पर ही यह अवस्था प्राप्त होती है !  शास्त्रों का कथन है - " जगत में जो कुछ तुम देख रहे हो -  ईंट, पत्थर, लकड़ी, मिट्टी, मनुष्य, पशु, वृक्ष-लता, स्थूल-सूक्ष्म, चेतन-अचेतन,जीव-जन्तु, देव-देवता ये सब एक अद्वितीय ब्रह्मवस्तु हैं ! ब्रह्म-वस्तु को ही तुम नाना प्रकार के 'नाम-रूपों' में देख रहे हो, सुन रहे हो, स्पर्श, घ्राण तथा आस्वादन कर रहे हो। " 
[यहां जो भी है, वही है। यहां प्रत्येक वस्तु आराध्य है। यहां और मूर्तिया बनाने की जरूरत नहीं है, सभी मूर्तियां उसकी हैं। यहां मंदिर खड़े करना व्यर्थ है, सारा अस्तित्व मंदिर है।इन पक्षियों की आवाज में वही है। सुनो। वृक्षों की हरियाली में वही है। आंख साफ करो और देखो! तुम्हारी पत्नी में, तुम्हारे पति में, तुम्हारे बेटे में, तुम्हारे पिता में वही है। फिर से तलाशो। अगर नहीं मिला है, तो कहीं तलाश में भूल हो गयी है। सारे शास्त्र यही कहते हैं कि सबमें परमात्मा है। तो मेरी पत्नी में नहीं है? लोगों ने कहा—वें शास्त्र ठीक कहते हैं, मगर यह व्यावहारिक नहीं है। और शास्त्रों को बीच में मत लाओ, तुम गृहस्थ आदमी हो! तुम कहां की इन ऊंची बातों में पड़ गये! तुमने पत्नी को पत्नी मान लिया, उसीमें भूल हो गयी। पत्नी मान लिया, अब तो तुम सोच ही कैसे सकते हो कि पत्नी परमात्मा भी हो सकती है? इसी मान्यता को भ्रम कहते हैं। भागवान की — 'शक्ति'  का नाम ही 'माया' है! वह झूठ नहीं है, वह झूठ कैसे हो सकती है?]
 प्रश्न - तो हमें उस वस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ? 
 उत्तर - इसलिए कि तुम लोगों को भ्रम हो गया है। जब तक मनुष्य स्वयं अज्ञानावस्था में है, उसे अज्ञान के कारण का बोध कैसे हो सकता है? भ्रम व् अज्ञान के कारण ही सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो पाता हैयथार्थ वस्तु (देशकालातीत  सत्य) के साथ तुलना करने पर ही हम भीतर तथा बाहर की अवस्था के भ्रम को समझ पाते हैं। 

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥ 
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥
जिस वस्तु को जाने बिना झूठ (मिथ्या -जगत ) भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है॥1॥ 
 हर मनुष्य हिप्नॉटाइज्ड हो चुका है। नित्य-परिवर्तनशील होने के कारण -'मिथ्या जगत' को ही सत्य समझ रहा है। जब तक वह भ्रम (अपने को शरीर मानने  भ्रम ) दूर नही होगा, तब तक तुम भ्रम में हो - तुम्हें उसका पता कैसे चलेगा ? [भेंड़ बने हुए सिंह-शावक का भ्रम कोई गुरु-सिंह आकर उसको डिहिप्नोटाइज्ड नहीं करेगा या रज्जु-सर्प भ्रम में (भीतर रज्जु) पर टॉर्च की रौशनी में बाहर की अवस्था (सर्प)] पूर्वोक्त भ्रम को जानने के लिये भी तुमको उसी प्रकार के डिहिप्नोटाइज्ड करने वाले ज्ञान (T के नाम-जप) की आवश्यकता है।  
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥ 
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥3॥

जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, वे अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है॥3॥  
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥ 
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥   

यह जगत (प्रकृति मन-बुद्धि) प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी (पुरुष) इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥
प्रश्न - अच्छा, इस प्रकार का भ्रम होने का कारण क्या है तथा वह 'भ्रम ' हमें कब से हुआ है ?
उत्तर - इस भ्रम का कारण भी वही है -जो रज्जु-सर्प भ्रम के पीछे था- अर्थात अज्ञान ! सिंह-शावक होकर स्वयं को भेंड़ समझने का भ्रम या आत्मा होकर स्वयं को स्त्री-पुरुष या शरीर मानने का भ्रम, वह अज्ञान कब उपस्थित हुआ -यह तुम कैसे जान सकते हो ? जब तक तुम स्वयं अज्ञान में पड़े हुए हो, तब तक खुद, बिना किसी पथप्रदर्शक के उस अज्ञान को जानने का प्रयास करना व्यर्थ की माथा-पच्ची है। जब तक स्वप्न देखा जाता है, तब तक वह सत्य ही प्रतीत होता रहता है। नींद खुलने पर जाग्रत अवस्था के साथ तुलना करने से ही उसके मिथ्यात्व की धारणा होती है।

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥ 
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥ 

इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥1॥ 
प्रश्न - तो फिर उपाय क्या है ? 
उत्तर - अज्ञान को दूर करना ही एकमात्र उपाय है; और मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि उस भ्रम या अज्ञान को दूर किया जा सकता है ! जिस मनःसंयोग की पद्धति को सीख कर प्राचीन ऋषि-
मुनि उसे दूर करने में समर्थ हुए थे, उसी पद्धति को महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में सीखाया जाता है। 
प्रश्न - अच्छा, ऋषियों ने जिस मिथ्या जगत को 'ब्रह्म-रूप' में देखा है वही सत्य है-यह कहने का आधार क्या है? उस उपाय को जानने से पूर्व कुछ अन्य शंकाओं  को दूर करना आवश्यक लग रहा है।
पाश्चत्य विकसित देश और विश्व के समस्त वैज्ञानिक सर्न के प्रयोगशाला में जो कुछ प्रत्यक्ष देख रहे हैं, उसे तो आप भ्रम बतला रहे हैं,और कुछ अल्पसंख्यक मुट्ठीभर ऋषियों ने इन्द्रियातीत भूमि के सत्य को प्रत्यक्ष किया है, उसे ही सत्य कह रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि गीता-उपनिषद के ऋषि और शास्त्र जो (नवनीदा) कुछ कह रहे हैं -वही भ्रम हो ?
उत्तर -बहुसंख्यक व्यक्ति जो विश्वास करेंगे, वही सर्वदा सत्य हो ऐसा कोई नियम नहीं है। ऋषियों ने इन्द्रियातीत सत्य को प्रत्यक्ष करने के बाद जगत को मिथ्या कहा है,असत्य नहीं कहा है। अविनाशी सत्यस्वरूप को जानकर मनुष्य मृत्यु के भय से रहित हो जाता है, समस्त दुःखों (मेन्टल डिप्रेसन तनाव आदि) से मुक्त होकर चिर-शान्ति का अधिकारी बन जाता है तथा उसे मरणशील मानव-जीवन का एक निश्चित-लक्ष्य भी विदित हो जाता है। इसके अतिरिक्त यथार्थ ज्ञान मानव के अन्दर सहिष्णुता, सन्तोष, करुणा, दीनता आदि सदगुणों का विकास कर उसे पूर्ण रूप से उदार बना देता है - वह 'वसुधैव कुटुम्बकम की भावना ' में आरूढ़ हो जाता है। उस ज्ञानी पुरुष या ऋषि के पदचिन्हों का अनुसरण कर जो-जो व्यक्ति सिद्धिलाभ करते हैं (प्रमोद दा, बासु दा, रनेन दा …) उनके अन्दर भी वे सारे सदगुण विकसित हो जाते हैं।
प्रश्न - अच्छा, हम सभी को एक ही प्रकार का भ्रम क्यों और कैसे हुआ ? इतने व्यक्तियों को, सभी देश के लोगों को, इस प्रकार सभी विषयों में एक साथ एक ही प्रकार का भ्रम होना क्या आश्चर्यजनक नहीं है ? मैं जिसे (ब्रह्म नहीं) पशु-पक्षी (या नौकर) समझता हूँ, आप भी उसे पशु (नौकर या बेयरा ) ही समझते हैं, मनुष्य नहीं समझते; अन्यान्य विषयों में भी यही बात है। इसलिये आपका कथन सम्भव प्रतीत नहीं होता। 
उत्तर - इसके उत्तर में शास्त्रों का कहना है, कि अनेक व्यक्तियों को एक ही प्रकार का भ्रम होने पर भी भ्रम कभी सत्य नहीं होता। एक सीम अनन्त समष्टि-मन (महत्-तत्व) में जगत रूप कल्पना का उदय हुआ है। तुम्हारा, मेरा तथा प्रत्येक व्यक्ति का मन या व्यष्टि-मन उस विराट मन का अंश होने के कारण हम लोगों को एक ही प्रकार की कल्पना का अनुभव करना पड़ रहा है। और हममें से प्रत्येक व्यक्ति पशु को पशु के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में अपनी इच्छानुसार देखने या कल्पना करने में समर्थ नहीं हैं। हम लोगों में से कोई कोई मनःसंयोग की पद्धति को सीखकर साधना करके यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर सब प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु दूसरे लोग जो आत्मश्रद्धा नहीं रखते वे स्वयं को केवल शरीर समझकर इन्द्रियभोगों में पड़े रहते हैं, वे जिंदगी भर भेंड़ होने के भ्रम को छोड़ नहीं पाते हैं। तुम सत्यद्र्ष्टा अल्पसंख्यक ऋषियों (नवनीदा, प्रमोददा आदि) को भी सामान्य मनुष्य मानने के लिये तैयार नहीं हो, इसीलिये तुम्हें यहाँ पर नियम का व्यतिक्रम दिखाई दे रहा है। और बार बार पूछते हो सबको एक ही प्रकार का भ्रम कैसे हुआ ?
विराट मन में जगत-कल्पना सतत विद्यमान रहने के कारण साधारण मानवों को एक-सा भ्रम होता रहता है, किन्तु उस कारण 'विराट-मन' कभी भ्रम में आबद्ध नहीं होता । जैसे श्रीरामकृष्ण कहते थे -" साँप के मुँह में विष रहता है, उसी मुँह से वह नित्य भोजन कर रहा है, किन्तु उससे साँप का कुछ नहीं बिगड़ता, किन्तु साँप जिसे काटता है, उसकी तो उस विष से तत्काल ही मृत्यु हो जाती है। " हमें यह बात सदा याद रखनी चाहिये कि ईश्वर सर्वज्ञ या अन्तर्यामी (ओमनीसिएंट) हैं, इसलिए अज्ञानजनित जगत-कल्पना (वर्ल्ड-फिक्शन) के भीतर तथा बाहर भी अद्वय ब्रह्मवस्तु (अपरिवर्तनशील ऐब्सलूट) को ही ओतप्रोत रूप से विद्यमान देखते हैंविराट-मन में जगतरूप कल्पना का उदय होने पर भी वे हमलोगों की तरह अज्ञान के बन्धन में पड़कर मृतक के समान जड़ नहीं हो जाते, जबकि हमलोग की दृष्टि अभी बदली नहीं है, इस लिए हम जगत को ब्रह्म-रूप में नहीं देख पाते हैं।
[जगत-कारण प्रकृति अनादि है, जगत-कल्पना या 'वर्ल्ड फिक्सन' देश-काल से परे है
हमारा व्यष्टि-मन दीर्घकाल से जगदातीत अद्वय ब्रह्मवस्तु के साक्षात् दर्शन से  वंचित रहा है, जिसके फलस्वरूप हम इस बात को बिल्कुल ही भूल चुके हैं कि यह जगत वास्तव में मनःकल्पित वस्तुमात्र है। देश व् काल अथवा 'नाम-रूप' दोनों पदार्थ जगत- कल्पना के ही घटक हैं- जिनके आभाव में किसी प्रकार की विचित्रता का सृजन नहीं हो सकता। हमारा व्यष्टि-मन समष्टि-मन के साथ अविच्छेद्य रूप से सम्बद्ध है, अतः यह जगत हमलोगों द्वारा भी मनःकल्पित ही सिद्ध होता है। और इस विश्व-कल्पना को लगातार देखते-देखते सत्य मानने लगते हैं, इसीलिये- 'मुझे मति-भ्रम हुआ है', इस सच्चाई को हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं। क्योंकि पहले ही कहा जा चूका है कि यथार्थ वस्तु तथा अवस्था के साथ तुलना करने पर ही हम भीतर तथा बाहर के भ्रम को सर्वदा समझ पाने में समर्थ होते हैं। वेदों में सृजनशक्ति की आदिकारण स्वरूपा प्रकृति या माया को अनादि अर्थात कालातीत माना गया है। काल की कल्पना के साथ ही साथ जगत की कल्पना भी तदाश्रय विश्व-मन में विद्यमान है। 
" देश-कालातीत जगत्कारण के साथ 
     परिचित होने का प्रयास ही साधना है।"
इन्द्रियातीत या जगत से परे उस अपरिवर्तनशील वस्तु का आविष्कार करने का प्रयास मुख्यतः दो मार्गों से किया जाता है-'नेति,नेति' या ज्ञानमार्ग तथा 'इति,इति'-अर्थात भक्तिमार्ग 'नेति,नेति' मार्ग का लक्ष्य' - मैं कौन हूँ ? इस सत्य का आविष्कार करना है !  नित्यस्वरूप जगत्कारण 'यह नहीं है' 'वह नहीं है' - इस प्रकार विचारपूर्वक साधन मार्ग में अग्रसर हो साधक स्वल्पकाल में ही अन्तर्मुखी बन चुका था- उपनिषद इस बात का साक्षी है। उसने यह अनुभव किया था कि अन्य समस्त वस्तुओं की अपेक्षा अपनी देह तथा मन (2H) के द्वारा ही वह इस जगत साथ सम्बंधित हैं। अतः देह तथा मन  के सहारे जगत्कारण (Heart) के अन्वेषण में अग्रसर होने पर शीघ्र ही उसका पता लगने की सम्भावना है। साथ ही जिस प्रकार 'हंडी के एक चावल को देखने से ही मालूम हो जाता है कि भात अच्छी तरह से पक गया है या नहीं '-ठीक उसी प्रकार अपने अन्दर नित्य-कारण-स्वरुप का अनुसन्धान मिलते ही दूसरी वस्तु तथा व्यक्तियों में भी उसकी खोज मिल सकती है। इसलिए ज्ञानमार्ग के पथिकों के निकट - " मैं वास्तव में कौन हूँ ? " इस विषय का अनुसन्धान ही एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। ज्ञानमार्ग के साधक प्रारम्भ से ही अविनाशी परमतत्व को अपना चरम लक्ष्य मानकर तीक्ष्ण बुद्धि के सहायता से उस दिशा में ज्ञानपूर्वक अग्रसर होता है। 
जबकि भक्तिमार्ग के साधक चरम-अवस्था में कहाँ पहुँचेंगे - इस विषय में बहुधा अनजान रहते हैं।  तथा उच्च से उच्चतर लक्ष्यों को ग्रहण करते हुए अन्त में नश्वर जगत से परे अविनाशी अद्वय वस्तु का वे साक्षात् परिचय प्राप्त कर लेते हैं। इन्द्रियगोचर जगत को सत्य मानकर विषय-भोगों में आसक्ति रखने की जो धारणा जन-साधारण में बनी रहती है -उस आसक्ति (लालच) को दोनों मार्ग के पथिकों को त्याग देना आवश्यक होता है। ज्ञान-मार्ग के पथिक प्रारम्भ से ही उसे पूर्णतया परित्याग करने का प्रयास करते हैं, जबकि भक्त प्रारम्भ में उसके कुछ अंशों को ही त्याग कर साधना में प्रवृत्त (संलग्न) होते हैं। किन्तु  किन्तु साधना के अन्त में ज्ञानी की तरह उन्हें भी नश्वर-जगत के भोगों का सम्पूर्ण रूप से परित्याग कर 'एकमेवाद्वितीयम् अविनाशी परमतत्व' में या 'शिव-ज्ञान से जीव-सेवा करने में' आसन्न होना पड़ता है।  
नित्य-परिवर्तनशील तथा निश्चित मरणशील मानव-जीवन में जगत की अनित्यता का ज्ञान यथा-समय सहज ही में आकर उपस्थित हो जाता है। अतः जगत-सम्बन्धी साधारण धारणा को त्याग कर 'नेति,नेति' मार्ग से जगत्कारण का आविष्कार करने का पथ प्राचीन युग में ऋषियों ने पहले आविष्कृत किया होगा -ऐसा प्रतीत होता है। भक्ति एवं ज्ञान ये दोनों मार्ग एक साथ प्रचलित रहने पर भी भक्तिमार्ग के विभिन्न प्रकारों की सम्पूर्ण परिपुष्टि होने के पूर्व ही उपनिषदों में ज्ञानमार्ग की सम्यक परिपुष्टि हुई थी।
जगत के सम्बन्ध में स्वार्थमय तथा एकमात्र इन्द्रिय-सुख में रचे-पचे रहने की साधारण धारणा के वर्जन को ही शास्त्रों में 'वैराग्य ' कहकर निर्देश किया गया है। जन्म-जन्म के संचित अभ्यास के फलस्वरूप जगत के बारे में हमारी धारणा तथा अनुभूति आदि ने वर्तमान आकार को धारण किया है। अब यदि कोई मनुष्य यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना चाहता है -तो उसे जगत के अन्तर्गत कथित नाम-रूप, देश-काल, मन-बुद्धि आदि सभी विषयों से परे -जो इन्द्रियातीत सत्य है, उससे परिचित होना पड़ेगा। इस परिचय (बुद्धि-पुरुष विवेक ) को प्राप्त करने के प्रयास को ही शास्त्रों में - 'साधन' कहा है, एवं जो स्त्री-पुरुष जाने-अनजाने इसी प्रयास में रत हैं, उसे भारत में 'साधक' कहा जाता है।  [ श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग-साधक और साधना १३४-१३५]
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Saturday, November 29, 2014

१५.' परीक्षा और परिणाम ' १६." सीपियों की तरह होना होगा " [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

 १५. परीक्षा और परिणाम

 (धारणा -२-तल्लीनता )
                     हम यह कैसे जानेंगे कि मन की दृष्टि उसी ध्येय वस्तु (आराध्य-आदर्श) पर पड़ रही है? इसकी पहचान यही है कि मन जब किसी वस्तु पर पुर्णतः एकाग्र रहता है, या तल्लीन (engrossed) हो जाता है, तो उस समय मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं है। पहले से चयनित वह आदर्श ही मन के चिन्तन का एक मात्र विषय होता है। उस मूर्त आदर्श में जो उच्च-भाव हैं, बस उसी का चिन्तन चलता रहेगा। धीरे धीरे वे विचार स्पष्ट से स्पष्टतर होते जाते हैं और अन्य किसी तरह के विचार मन में नहीं उठते हैं। उस चयनित आदर्श के चिंतन में ही मन इतना तल्लीन (Engrossed) हो जाता है या डूब जाता है कि कितनी अवधि तक धारणा की गयी है, उसका पता ही नहीं चलता। नियमित रूप से इसी प्रकार थोड़ी देर तक लगातार एक ही विषय पर (विवेक-दर्शन पर ) मन को तल्लीन रखने में समर्थ होने से ही मनःसंयोग का अभ्यास करना कहा जाता है । 
                   इसी प्रकार प्रतिदिन दो बार, प्रातः और संध्या में 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे अपनी इच्छानुसार मन को किसी भी वस्तु या विषय पर एकाग्र किये रखने की क्षमता बढ़ती जाती है। इसके साथ ही साथ किसी भी इन्द्रिय विषय से मन को खींच लेने की क्षमता भी प्राप्त होती है, क्योंकि मैं अनवरत मन के ऊपर अपनी इच्छा-शक्ति का प्रयोग (विवेक-प्रयोग) करने का अभ्यास करता रहा हूँ,  इसीलिये इच्छामात्र से मन को बहुत सारी चीजों से खींच कर हमेशा अपने समक्ष एक अनुशासित 'अर्दली' या अपने सबसे अच्छे मित्र के रूप में हमेशा अपने समक्ष खड़ा रख सकता हूँ। अब वह मेरी आज्ञा के बिना किसी भी विषय में नहीं जा सकता है।  
                     'धारणा' के अभ्यास को -अर्थात बार बार मन को इन्द्रियविषयों से खींच कर,थोड़ी देर तक पूर्व-निर्धारित मूर्त आदर्श में तल्लीन रखने की चेष्टा को मन का व्यायाम भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर के व्यायाम से शारीरिक शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, उसी प्रकार मन के व्यायाम से मानसिक शक्ति भी बलवती होती जाती है। जिस प्रकार शरीर को शक्तिशाली बनाने के लिये  पौष्टिक आहार होते हैं, उसी प्रकार मन को भी शक्तिशाली बनाने का आहार होता है। निरंतर पवित्र विचार या शुभ-संकल्प से मन को भरे रखना वह मानसिक पुष्टि है, जो  मन को हृष्ट-पुष्ट बनाये रखता है। श्रेष्ठ साहित्य पढ़ने, अच्छी संगति में रहने, शास्त्रार्थ या रचनात्मक विचारों का आदान-प्रदान तथा उच्च भावों का चिन्तन करने से मन को पौष्टिक आहार प्राप्त होता है। इसके साथ-साथ प्रतिदिन दो बार मन का व्यायाम अर्थात 'प्रत्याहार और धारणा' का नियमित अभ्यास करने से भी मन उन्नत और शक्तिशाली बनता है। 
                   ऐसे शक्तिशाली मन को यदि संयमित करके वशीभूत कर लिया जाय तो उसके द्वारा सभी कार्यों में सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। जिस व्यक्ति ने मन की गुलामी करनी छोड़ दी हो, जो स्वयं अपने मन का प्रभु हो गया हो,अर्थात जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसने वस्तुतः जगत को जीत लिया है। वह कहीं भी और कभी भी पराजित नहीं होता, क्योंकि वह मन की अनन्त शक्ति का अधिकारी बन जाता है। 
            अब वह जिस किसी विषय में अपना मनोनिवेश करगा, वह विषय उसे पुरी तरह से ज्ञात हो जाएगा। इस वशीभूत मन की शक्ति की सहायता से हम अपने जीवन के उद्देश्य या लक्ष्य का चयन कर सकते हैं, तथा उस लक्ष्य को प्राप्त करने के उपयुक्त उपायों पर मनोनिवेश करने से, उस लक्ष्य को साधकर अपने जीवन को सार्थक या कृतार्थ कर सकते हैं। अपने वशीभूत मन की शक्ति का प्रयोग कर अपने चरित्र और जीवन को सुंदर रूप से गठित कर सकते हैं। इस प्रकार मनः संयोग का अभ्यास करने से कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में यथार्थ सुख, शान्ति और आनन्द का अधिकारी बन सकता है।
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 ।।देशबंधश्चितस्य धारणा।।-पतंजलि - अर्थात चित्त का देश विशेष में बँध जाना (perception या अनुभूति जन्य अभिज्ञता ) ही धारणा  है। 

              " एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जीओ। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सिद्ध होने का तरीका है। ---स्वामी विवेकानन्द
जिस व्यक्ति को धारणा में सिद्ध प्राप्त हो जाती है, कहते हैं कि ऐसा योगी अपनी सोच या संकल्प मात्र से सब कुछ बदल सकता है। ऐसे ही योगी के आशीर्वाद या शाप फलित होते हैं। इस अवस्था में मन पूरी तरह स्थिर तथा शांत रहता है। जैसे क‍ि बाण के कमान से छूटने के पूर्व, कुछ देर के लिए लक्ष्य पर निगाहें बिल्कुल स्थिर हो जाती हैं, ठीक उसी तरह योगी के मन की अवस्था हो चलती है।  जबकि उसके एक तरफ संसार होता है तो दूसरी तरफ रहस्य का सागर रूपी लक्ष्य (अन्तर्निहित ब्रह्मत्व) पर नजर रहती है । यह मन के बंधन से मुक्ति - भ्रम या सम्मोहन से मुक्ति, या सिंह-शावक के भेंड़त्व की मान्यता से मुक्ति, या देहाध्यास के सम्मोहन से डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने की शुरुआत भी है। क्योंकि अष्टावक्र संहिता (१/११)  में कहा गया है - - 'या मति सा गतिर्भवेत ! ('मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥ स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है॥११॥)  धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है। 

                          धारणा से ही कठिन परीक्षा और सावधानी की शुरुआत होती है। यहीं से धर्म मार्ग का कठिन रास्ता शुरू होता है, जबकि साधक को हिम्मत करके और आगे रहस्य के संसार में कदम रखना होता है। कहते हैं कि यहाँ तक पहुँचने के बाद पुन: संसार में पड़ जाने से दुर्गति हो जाती है। ऐसे व्यक्ति को योगभ्रष्ट कहा जाता है, अब पीछे लौटना याने जान को जोखिम में डालना ही होगा। कहते हैं कि छोटी-मोटी जगह से गिरने पर छोटी चोट ही लगती है, लेकिन पहाड़ पर से गिरोगे तो भाग्य या भगवान भरोसे ही समझो। इसलिए 'जरा बच के'। यह बात उनके लिए भी जो योग की साधना कर रहे हैं और यह बात उनके लिए भी जो जाने-अनजाने किसी 'धारणा सिद्ध योगी' का उपहास उड़ाते रहते हैं। कहीं उसकी टेढ़ी नजर आप पर न पड़ जाए।
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१६." सीपियों की तरह होना होगा "

                 विवेकानन्द जी कहते हैं - " जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्य-शुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का आभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।"(१:४० ) 

                    " भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुन्गस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह बात मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती है। ज्यों ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुंह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और  वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।"

हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फ़िर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। 

              एक भाव को पकडो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रहते हैं, उन्हीं के ह्रदय में सत्य तत्त्व का उन्मेष होता है।...एक विचार लो उसी विचार को अपना जीवन बनाओ उसी का चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ। सब प्रकार की बकवास छोड़ दो। जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, केवल उन्हीं के लिखे ग्रन्थ पढो। यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना (Be and Make?)  चाहें, तो हमे मन की गहराई तक जाना पड़ेगा। पुरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ- फ़िर मृत्यु भी आये, तो क्या ! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि - काम सधे या प्राण ही जायें। फल की ओर आँख रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ! " (१:८९-९०)
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ओशो कहते हैं - " वही आदमी प्रेम करता है, जो बस प्रेम करता है और किस-से ? का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि जो आदमी ‘किसी से’ प्रेम करता है, वह शेष से क्या करेगा? वह शेष के प्रति घृणा से भरा होगा। जो आदमी ‘किसी का ध्यान’ करता है, वह शेष के प्रति क्या करेगा?" 

१२. 'मन को देखना ' १३.' मन को आदेश देना ' १४. "मनः संयोग" [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

१२. मन को देखना 
(द्रष्टामन की सहायता से दृश्यमन की गतिविधियों का पर्यवेक्षण)
             अब वास्तविक कार्य का प्रारम्भ होता है। और वह है अपने मन के रूबरू होना अर्थात मन के आमने-सामने होना। षडरिपु के कारण अपने मन की अतिरिक्त चंचलता पर विवेक-सामर्थ्य का अंकुश लगाकर  को अनुशासित करने के लिये 'यम-नियम' का पालन (24 X 7) करके पहले उसको थोड़ा शान्त और स्थिर कर लेना होगा।  फिर उसकी बिखरी हुई शक्ति-रश्मियों को संघटित कर, उन्हें एकाग्र (तीक्ष्ण या नुकीला) बनाकर, उसे किसी वस्तु या विषय में केन्द्रीभूत कर उसी स्थान में रोके रखने का कौशल सीखना होगा। इसके लिए सबसे पहले अपने मन को देखना होगा। उसमें उठने वाले विचारों को, उसकी गति को, विभिन्न विषयों में बार-बार बिक्षिप्त (Distort) होने की क्रिया का अवलोकन (Observation) करना होगा अर्थात अपने मन को ही  ग़ौर से देखना होगा।
 बाह्य वस्तुओं को हमलोग आँखों से देखते हैं। लेकिन मन को तो चर्म-चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। क्योंकि मन तो अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ है। इसलिये उसको किसी सूक्ष्म माध्यम से ही देखना होगा। परन्तु मन के जैसी सूक्ष्म, दूसरी कोई सूक्ष्म वस्तु तो है ही नहीं।  इसीलिये मन को मन के द्वारा ही देखना पड़ता है। शुरू -शुरू में यह सुनकर विस्मय होना स्वाभाविक है कि 'मन की यह दोहरी विद्यमानता' (Double Presence of Mind) कैसे संभव है ? किन्तु जाने-अनजाने हमलोग प्रायः यही तो सदैव करते रहते हैं। जब हम किसी विषय पर बहुत तल्लीन हो कर विचार कर रहे होते हैं या गहन चिन्तन में डूबे रहते हैं, तब हमें यह भी याद नहीं रहता कि हम विचार कर रहे हैं। हम उन विचारों में ही खो जाते हैं।  जब अकस्मात हमारी तंद्रा टूटती है, तब हम स्वयं अवाक् होकर सोचने लगते हैं कि अरे ! क्या मैं ही इतनी देर से इस विषय पर चिन्तन कर रहा था ? अर्थात उस समय अचानक हमारी दृष्टि मन कि ओर पड़ती है। कौन से माध्यम से यह दृष्टि पड़ी तथा यह स्मरण हुआ कि अरे! मैं ही इतनी देर से विचार कर रहा था-निश्चित रूप से मन के माध्यम से, मन के ऊपर हमारी दृष्टि पड़ी।  मानो मन का ही एक अंश इससे बाहर निकल कर, थोड़ा परे हट कर खड़ा हो शेष मन के कार्यों का अवलोकन कर रहा हो । 
अब उपरोक्त रीति से अर्धपद्मासन में बैठ जाने के बाद, इसी प्रकार द्रष्टा-मन या व्यक्तिपरक मन (Subjective Mind) की सहायता से दृश्य-मन या विषयाश्रित मन (Objective Mindकी गतिविधियों को थोड़ी देर तक पर्यवेक्षण करना है। मन में उठने वाले विचारों, चित्त की चंचलता को, और विभिन्न विषयों में मन के इधर-उधर भागने को ग़ौर से देखना होगा। एक चलचित्र की तरह न जाने क्या-क्या हमारे मन में चल रहा होता है,या अंकित रहता है। कितने शब्द, कितने चित्र, कितनी यादें और न जाने क्या- क्या! कभी-कभी तो हमें स्वयं ही अवाक् रह जाना पड़ता है कि अरे ! मेरे मन में क्या ऐसे-ऐसे विचार भी भरे हुए थे?

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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " अतएव मनः संयम का पहला सोपान यह है कि कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो। मन सतत चंचल है। वह बन्दर की तरह सदा कूद-फाँद रहा है। यह मन -मर्कट जितनी इच्छा हो, उछल-कूद मचाय, कोई हानि नहीं ; धीर भाव से प्रतीक्षा करो और मन की गति देखते जाओ। लोग जो यह कहते हैं कि ज्ञान ही यथार्थ शक्ति है, यह बिल्कुल ठीक है। जब तक मन कि क्रियाओं पर नज़र न रखोगे, उसका संयम न कर सकोगे। मन को इच्छानुसार घूमने दो।
सम्भव है, बहुत बुरी बुरी भावनाएँ तुम्हारे मन में आयें। तुम्हारे मन में इतनी असत भावनाएँ आ सकतीं हैं कि तुम सोचकर आश्चर्यचकित हो जाओगे। परन्तु देखोगे, मन के ये सब खेल दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं, दिन पर दिन मन कुछ कुछ स्थिर होता जा रहा है। पहले कुछ महीने देखोगे, तुम्हारे मन में हजारों विचार आयेंगे, क्रमशः वह संख्या घटकर सैंकडो तक रह जायेगी। फ़िर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जायगी, और अन्त में मन पूर्ण रूप से वश में आ जायगा। पर हाँ, हमें प्रतिदिन धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा। " (१:८७)
" बाह्य जगत् के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सहज है, क्योंकि उसके लिए हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके है, पर अन्तर्जगत के व्यापार को समझने में मदद करनेवाला कोई भी यन्त्र नहीं।..किन्तु फ़िर भी हम यह निश्चयपूर्वक जानते हैं कि किसी विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए मन का पर्यवेक्षण करना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि उचित विश्लेषण के बिना कोई भी विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर केवल बेबुनियाद (भित्तिहीन) अनुमान में परिणत हो जाता है।...द्रष्टा-मन ही अपने दृश्य-मन के अन्दर चल रहे व्यापारों का निरिक्षण-परिक्षण य़ा पर्यवेक्षण करने वाला यंत्र है। मनोयोग  की शक्ति का सही-सही नियमन कर जब उसे अन्तर जगत् की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है, और तब उसके प्रकाश में हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है।" (१:३९)

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१३. 'मन को आदेश देना '
(२. प्रत्याहार- मन को बालक और मित्र के समान सलाह देना )
         इस प्रकार द्रष्टा-मन की सहायता से दृश्य-मन की गतिविधियों का थोड़ी देर पर्यवेक्षण करने के बाद, हमें वास्तविक कार्य की ओर एक कदम और आगे बढ़ना होगा। अब थोड़ी देर मन को उसकी मनमानी वस्तुओं की ओर जाने की छूट देने बाद, उसे समझा-बुझाकर अपने नियंत्रण में रहने को कहना होगा, उसे और मनमाने विषय अथवा वस्तु पर भटकने की छूट नहीं देनी होगी, इधर-उधर दौड़ने से रोकना होगा। मन पर धीरे धीरे विवेक-अंकुश का प्रयोग करना होगा उससे कहना होगा -  नहीं अब तुम्हें पहले जैसा इधर-उधर दौड़ने नहीं दिया जायगा।  मन को एक बालक के समान सलाह देनी होगी। 
                 साथ-साथ स्वयं को (अहं को) भी समझाना होगा कि अब तक हम नासमझ बने हुए थे, जिसके कारण मन के चलाये चल रहे थे। मन की गुलामी कर रहे थे, मन को जो अच्छा लग रहा था, उसको ही मुझे अच्छा लग रहा है-ऐसा मान बैठे थे। अबतक जो कुछ मन ने देखना चाहा,सुनना चाहा, करना चाहा, वह सब कुछ देखा, सुना और किया। अब यह समझ गया हूँ कि यह तो मन का दास होना है; अब आगे  ऐसा नहीं होने दूँगा। मन तो मेरा ही एक शक्तिशाली उपकरण (Powerful Instrument) या साधन है, अतः उसे मेरी आवश्यकता और प्रयोजनीयता के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। अतः अब मन के ऊपर अपना प्रभुत्व जमाना होगा। हमने शुरू से ही उस पर शासन नहीं चलाया जिसके फलस्वरूप वह इतना शरारती हो गया है कि मेरी कोई बात सुनना ही नहीं चाहता, हर समय मनमानी करने पर उतारू रहता है। किन्तु अब इसे मेरा आदेश पालन करने के लिये किसी आदेशपाल (अर्दली) की तरह सदैव तत्पर रहना होगा। इसे प्रेमपूर्वक सिखाने से यह सीख सकता है और हमारी बात मानने लगता है। 
[ लालयेत् पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत्॥
अर्थ- पाँच वर्ष की अवस्था तक पुत्र को लाड़ करना चाहिए, दस वर्ष की अवस्था तक (उसी की भलाई के लिए) उसे ताड़ना (डाँटना और कान खींचना) भी दिया जा सकता है; किन्तु उसके सोलह वर्ष की अवस्था प्राप्त कर लेने पर उससे मित्रवत व्यहार करना चाहिए] . 
मन के साथ एक बालक के समान या  एक मित्र के समान बात-चीत करनी होगी। कहना होगा- मेरे मन ! शान्त होओ ! इतना दौड़ते रहना ठीक नहीं है। आज तक तेरा कहना मानकर मैं भटक रहा था, अब तू एक बार मेरा कहना मानकर तो देख ! शास्त्र के वचन तो मानकर तो देख कि नरक में भी वैसा दुःख नहीं जैसा  चित्त के घोर चंचल रहने से होता है। और वैसा सुख स्वर्ग में भी नहीं जैसा निश्चल चित्त में प्रकट होता है। ऐ मन ! तेरा चंचल होना तेरा और मेरा विनाश है और तेरा स्थिर होना हम दोनों के परम् कल्याण का हेतु है। अतः ऐ मेरे मन मान जा। इसी में तेरा कल्याण है।
            इस प्रकार अगर मनःसंयोग की इच्छा बहुत बलवती हो, और इस संकल्प पर  दृढ़ रहा जाय, यम-नियम का पालन प्रतिमुहूर्त करते रहा जाय, 'वासना और धन ' का ययाति जैसा भोग करने की घोर आसक्ति को त्याग दिया जाय, यदि इसी लगन के साथ मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिये नियमित चेष्टा की जाय, और पूरे लगन के साथ मनःसंयोग का अभ्यास करने की नियमित चेष्टा की जाय, तो हमें यह देखकर ख़ुशी होगी कि मन धीरे-धीरे कहना मानना सीख रहा है। हम यह भी देखेंगे कि मन  शान्त और स्थिर रहने लगा है तथा  मेरे वश में ही रहता है (स्वप्न में भी ?)। ऐसे आज्ञाकारी मन को बाह्य विषयों से खींचकर, एकाग्र बनाकर अपनी इच्छा और प्रयोजनीयता के अनुसार किसी भी विषय में केन्द्रीभूत किया जा सकता है!
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 [यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः।-पंचतंत्र 
अर्थात यत्न करने पर भी यदि काम सिद्ध न हो रहा हो, तो आत्मनिरीक्षण करो और देखो कि दोष कहाँ रह गया था? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " जो इच्छा मात्र से अपने मन को (मस्तिष्क में स्थित) समस्त स्नायू केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है, उसीका प्रत्याहार सिद्ध हुआ है। प्रत्याहार का अर्थ है-एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना। मन कि बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। इसमे कृतकार्य होने पर हम यथार्थ में चरित्रवान होंगे; .... इससे पहले तो हम मशीन (रबोट) मात्र हैं। " (१:८६)]
जनक-विचार
श्रीयोगवाशिष्ठ ग्रन्थ में वशिष्ठजी कहते हैं- ‘हे रामजी ! फिर उस महीपति ने अपने मन से कहा- ऐ मेरे मन ! आज तक मैं तेरे कहने में रहा और तूने जो कहा वह मैंने स्वीकार किया। तूने जो वासना की वह मैंने पूर्ण की। ऐ मेरे मन !   ऐ मन ! तू शान्त हो जा। राज्य तेरा नहीं। पुत्र-परिवार तेरा नहीं। यह शरीर भी तेरा नहीं। जिसका सब कुछ है वह परमात्मा तेरा है। ऐ मेरे चित्त ! तू उसी परमात्मा में शान्त हो जा। तेरा भला होगा।’
ऐ मेरे चित्त ! तेरा सच्चा राज्य तो आत्मा का राज्य है। इस जनकपुरी में तो कई राजा आये। जिसने यहाँ राज्य किया वह जनक कहलाया। तू कब तक इस झूठे पद-प्रतिष्ठा पृथ्वी-राज होने का गर्व करके अपने को धरती का राजा मानेगा ? तू इस पृथ्वी का पति नहीं, महिपति नहीं, तू तो इस पृथ्वी का एक ग्रास मात्र है। तेरे जैसे तो कई राजा आ-आकर इस पृथ्वी में दफनाये गये। उनकी हड्डियाँ भी गल गईं। 'माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय।एक दिन ऐसा आयगा मैं रौंदूगी तोय।।'
महिपति अपने चित्त को समझाता हैः ‘ऐ चित्त ! तू परमात्मा की शान्ति में शान्त हो जा। नहीं तो ऋषि लोग मेरी हँसी करेंगे। कहेंगेः समझदार होकर मूर्खों की नाईं आयुष्य बिता दिया। बुद्धिमान होकर पशुओं की नाईं शरीर को पालने-पोषने में जीवन गँवा दिया। ऐ मेरे मन ! जिस परमात्मा ने तुझे अनुराग का दान दिया है उससे संसार के विषय तू क्या माँगता है ? उससे नश्वर चीजों की चाह तू क्यों करता है ? अब तू शान्त पद का आश्रय ले। जैसे ज्ञानवान संत पुरूष आत्म-विचार करते शान्त पद का आश्रय लेकर संसार-समुद्र से तर जाते हैं, तू भी उस आत्मपद का आश्रय़ ले।"
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१४. "मनः संयोग"
( मन को अन्य विषयों से हटाते हुए एक विशेष ध्येय की ओर स्थिर करना)
 (Fixing the mind on a particular subject धारणा-१)
पिछले अध्याय में बताये गये विधियों के अनुसार मन को बार-बार समझा-बुझाकर नाना प्रकार के विषयों से खींच कर अपने सामने खड़ा करना होगा। परन्तु मन तो कभी खाली नहीं बैठता, उसे किसी न किसी वस्तु पर अवश्य ही लगाना पड़ेगा। इसीलिये मन में धारणा करने योग्य किसी-न-किसी वस्तु या विषय को पहले से निर्धारित करना होगा। मन को अन्य विषयों से हटाते हुए, एक विशेष 'ध्येय-वस्तु' या विषय की ओर स्थिर करने को ही धारणा (Concentration) या एकाग्रता कहते हैं। [पतंजलि कहते हैं -' देशबन्धः चित्तस्य धारणा ' अर्थात चित्त को देश-विशेष में बाँधना धारणा है।] धारणा का उद्देश्य है किसी ध्येय वस्तु पर चित्त को एकाग्र करना । इसके द्वारा मानसिक शक्ति के प्रवाह को एक ही विषय की ओर प्रेरित करना सम्भव हो जाता है।
किन्तु यह ध्येय (ध्यान का विषय) क्या हो ? हम अपनी श्रद्धा के अनुसार किसी भी वस्तु का चुनाव कर सकते हैं। हम अपने मन को दीपक की लौ पर, दीवार पर वृत्त बनाकर उसके केन्द्र पर, या अन्य किसी पवित्र प्रतीक  'ॐ' (या 786/ पवित्र काबा) पर भी मन को लगाने का प्रयत्न कर सकते हैं। लेकिन किसी ऐसे मूर्त आदर्श पर मन को बैठना ज्यादा अच्छा होता है जिस पर हमारे मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा-भक्ति हो। किसी ऐसे देवी-देवताओं, महापुरुष या इष्ट की मूर्ति या चित्र पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक सहज होता है, जिन्हें हम पवित्रता स्वरूप या प्रेम-स्वरूप मानकर श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजने योग्य (या परिक्रमा करने योग्य) मानते हैं। ऐसे ध्येय (मूर्त-आदर्श) पर मन को स्थिर रखने की चेष्टा करने से मनोविज्ञान के 'साहचर्य का नियम' (Law of Association) के अनुसार उस आदर्श के सदगुणों (पवित्रता और प्रेम) का विचार भी हमारी कल्पना में आने लगते हैं। इसलिये किसी मूर्त-आदर्श पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक श्रेयस्कर होता है। 
           यदि अभी तक हमने किसी पूजनीय मूर्ति या श्रद्धेय महापुरुष को अपने आदर्श के रूप में सतत ध्यान करने का पात्र नहीं चयन किया हो तो अब बिना देर किये चयन कर लेना चाहिये। हमलोग चरित्र के गुणों को अपने में धारण कर यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हैं तथा देश-सेवा से जुड़कर अपना जीवन धन्य करना या सार्थक करना चाहते हैं। यदि ऐसा ही लक्ष्य है तो भारत सरकार द्वारा घोषित युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति या जीवन्त छवि हमारे लिये एक अत्यन्त प्रेरणादायी आदर्श हो सकती है। जितना उनका धारणा-ध्यान सिद्ध था वैसा ही कर्म भी था। वे चरित्र के सभी गुणों के वे मूर्तरूप लगते हैं। फ़िर समस्त मानव जाति के लिए उनके ह्रदय कितना प्रेम था ! उन्होंने अपने उपदेशों में बहुत सरल भाषा में मनुष्य जीवन का उद्देश्य तथा यथार्थ मनुष्य बनने के उपाय ही नहीं सुझाया है- बल्कि वैसा करके और बनके  दिखा भी दिया है। उन्होंने मन या जगत का दास न बन कर संयमी बनने का निर्देश दिया है। मन को एकाग्र करने की शिक्षा को ही उन्होंने सर्वोपरि शिक्षा माना है। उन्होंने तैंतीस कोटि देवता पर विश्वास करने से पहले 'आत्मविश्वासी' बनने की शिक्षा दी है। इसलिये उनकी छवि पर मनः संयोग का अभ्यास करने से- अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से ममें भी इसी प्रकार का आत्मविश्वास पैदा होगा। उन्होंने कहा है-" मनुष्य सब कुछ कर सकता है, मनुष्य के लिए असंभव कुछ भी नहीं है।"वे मानव-मानव के बीच जाति या धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं देखते थे। जाती, धर्म, शिक्षा, धन-संपत्ति आदि के आधार पर वे किसी भी मनुष्य को अपने से अलग नहीं मानते थे।उनके लिए सभी मनुष्य एक समान थे। अतः किसी भी जाति और धर्म में जन्मा मनुष्य उन्हें अपना आदर्श मान सकता है और उनकी छवि पर 'मनः संयोग' का अभ्यास कर सकता है। 
जिस लक्ष्य (ध्येय-वस्तु) पर मनः संयोग का अभ्यास करना है, आँख बन्द करने से पहले उस लक्ष्य को खूब ध्यानपूर्वक थोड़ी देर तक देखते रहना चाहिए। ऐसा करने से यह होगा कि आँखें बन्द करने के बाद भी वही छवि या आकृति मन में बस जायेगी। (जैसे गुलाब का ध्यान करने से उसकी सुगन्ध नासिका में बस जाती है।) उसी तरह आराध्य के श्रीचरण हृदय में बस जायेंगे। तदुपरांत जैसा हम पहले जान चुके हैं - मन को समझाकर समस्त विषयों से खींच कर पूर्व चयनित आदर्श की मूर्ति या पवित्र - प्रतीक पर मन को एकाग्र रखने का प्रयास करेंगे। 
             हो सकता है कि ('वासना और धन' आदि विषयों से) खींचकर कर लाया गया मन पुनः वहीँ-वहीं भाग जाय, इसलिये मन की चालाकियां आपको पकड़नी पड़ेंगी। यह तभी संभव होगा जब मन पर आप पैनी नजर रखें। आप द्रष्टा मन से दृश्य मन पर पैनी नजर गड़ाये रखिये । हां ! अभी यह विवेक-दर्शन में लगा हुआ था, लेकिन अचानक यह आपको चकमा देकर सांसारिक प्रपंच में चला गया। चूंकि आप मन के प्रति सजग और सचेत हैं, इसलिए उसे पुनः विवेक-दर्शन में अनुप्रेरित कीजिये, पास खींच लाइए। इसमें ऊबने से काम नहीं चलेगा। उस स्थिति में मन का तब तक पीछा करना होगा, जब तक वह बैठ न जाए। उसे फ़िर से आदेश देते हुए अपने इष्ट का चिन्तन करने के लिए सम्भालना होगा। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि मन अपने इष्ट वस्तु से हट कर अन्य बातों का चिन्तन में इतना रम जाये कि हम कहाँ और क्यों बैठे हैं, यह भी हमें स्मरण नहीं रहे। अगर ऐसा होता है, तो भी हतोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है। हम जान चुके हैं कि मन का स्वभाव ही वैसा है। उसे आज तक कभी भी संयम का पाठ पढ़ाया ही नहीं गया था, तभी तो उसका यह हाल बन गया है। यदि मन कि चंचलता से बहुत असुविधा होने लगे तो पुनः आँखे खोल कर मनः संयोग के लक्ष्य को खूब ध्यान से, निर्बाध दृष्टि से देखने के बाद पुनः मन को लगाना सहज हो जाता है।
जिस लक्ष्य या इष्ट वस्तु पर मनः संयोग करना चाहते हैं, उसी पर मन को लगाने का अर्थ क्या है ? हमलोग पहले ही जान चुके हैं कि मन की अदृश्य शक्ति-रश्मियों को चारों ओर से समेट कर,अन्तर्मुखी बना कर एक ही (स्नायु) केन्द्र में निवेशित रखना मनः संयोग है। हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं जो जगत के रूप, रस, गंध,शब्द और  स्पर्श आदि पाँच विषयों के संवाद हम तक पहुँचाते रहते हैं। अभी सिर्फ़ एक इन्द्रिय के कार्य पर विचार करें। मान लो कि मैं अभी आँखों से विवेक-दर्शन का अभ्यास कर रहा हूँ, या विवेकानन्द की छवि पर मनःसंयोग कर रहा हूँ। जब तक यह विचार मन में रहता है कि मैं विवेक-दर्शन कर रहा हूँ, तब तक यह समझना चाहिए कि मन अपने आराध्य-देव का दर्शन करने में ही लगा हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि नेत्रों कि दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ रही है, मन की दृष्टि भी उसी वस्तु के ऊपर केन्द्रीभूत है। किन्तु कभी-कभी ऐसा भी तो होता है, कि आँख की दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ रही है, मन की दृष्टि उस वस्तु पर नहीं पड़ रही है, अर्थात उस समय मन की शक्ति रश्मियाँ दूसरी ओर जा रही होती हैं। उस समय ऑंखें कुछ देख ही नहीं सकेंगी। इसीलिये वस्तु को नेत्र दृष्टि के सम्मुख रहने पर भी हम उसे देख नहीं पाते हैं।
                            मनः संयोग का अर्थ है मात्र मनमाने ढंग से किसी भी व्यक्ति या विषय के चिंतन में तल्लीन (
engrossed) हो जाना नहीं है- (जैसे शकुंतला दुष्यंत की याद में इतनी लीन हो गयी थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के पधारने का पता ही नहीं चला ....)  बल्कि हमारी इच्छा और प्रयास से आँखों की दृष्टि और मन की दृष्टि दोनों को किसी प्रयोजनीय विषय में लगाये रखने (तल्लीन रखने)  का सामर्थ्य प्राप्त कर लेना है। अर्थात मनःसंयोग के लिये जिस लक्ष्य-वस्तु का चयन किया है, अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने के लिये स्वामी विवेकानन्द की जिस छवि (शिकागो पोज) को पहलीबार १२ जनवरी १९८५ को टी.वी पर एक बार देखते ही अपने एकमात्र आदर्श के रूप में अपने मन में बसा चुका हूँ; अब उन्हीं के ऊपर बलपूर्वक इस प्रकार से केन्द्रीभूत करना है कि मन की शक्ति-रश्मियों का छोटा सा कण भी अन्य किसी विषय में जाने न पाये! 
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद, उसके बाद की साधना अर्थात धारणा का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगाधारणा का अर्थ है - 'मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना।'  मन को स्थानविशेष में धारण करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि मन को शरीर के अन्य सब स्थानों से अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाये रखना। मान लो, मैंने मन को हाथ में धारण किया। तब शरीर के अन्यान्य अवयव विचार के विषय के बाहर हो जायेंगे। जब चित्त अर्थात मनोवृत्ति किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध रहती है, तब उसे धारणा कहते हैं। इस धारणा के अभ्यास के समय किसी कल्पना की सहायता लेने से काम अच्छा सधता है। मान लो,हृदय के एक बिन्दु में मन को धारण करना है। इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है। अतएव सहज उपाय यह है कि हृदय में एक पद्म की भावना करो और (तथा उस अष्टदल रक्तवर्ण कमल पर अपने इष्ट को बैठा हुआ देखने की) कल्पना करो कि वह आदर्श आत्म-ज्योति से पूर्ण है (वाइब्रेन्ट या जीवन्त है)-चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो । " (१:८७)
[और दुर्वासा ऋषि ने अपना  यथोचित स्वागत सत्कार नहीं  होता देखकर इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप (curse) को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली (fish) निगल गई |मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया। ]