" साधक और साधना "
साधना के सम्बन्ध में जन साधारण की भ्रान्त धारणा : भारत अपनी राष्ट्रीय शक्ति का जितना व्यय आध्यात्मिक राज्य की सत्यवस्तुओं का साक्षात्कार करने के लिये करता रहा है तथा अभी तक कर रहा है, उतना खर्च करने वाला विश्व का कोई दूसरा देश नहीं है। किन्तु अधिकांश लोग यह सोचते हैं कि संसार के सुख-भोगों में घोर आसक्ति रखते हुए भी कोई मंत्र
सीखकर बिना वैराग्य के ही जगत्कारण ईश्वर को देखा जा सकता
है, तथा उन्हें वशीभूत भी किया जा सकता है। और इस
प्रकार की भ्रान्त धारणा के वशीभूत होकर वे किसी आशाराम या रामपाल
जैसे ढोंगी साधु के चक्कर में फँसकर जीवन व्यर्थ कर लेते हैं।
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे-
" सर्व भूतों में ब्रह्मदर्शन अथवा ईश्वर दर्शन
साधना की सबसे उच्च और अंतिम अवस्था है।"
मनुष्य के सौभाग्य से साधना में चरम उन्नति होने पर ही यह अवस्था प्राप्त होती है ! शास्त्रों का कथन है - " जगत में जो कुछ तुम देख रहे हो - ईंट, पत्थर, लकड़ी, मिट्टी, मनुष्य, पशु, वृक्ष-लता, स्थूल-सूक्ष्म, चेतन-अचेतन,जीव-जन्तु, देव-देवता ये सब एक अद्वितीय ब्रह्मवस्तु हैं ! ब्रह्म-वस्तु को ही तुम नाना प्रकार के 'नाम-रूपों' में देख रहे हो, सुन रहे हो, स्पर्श, घ्राण तथा आस्वादन कर रहे हो। " [यहां जो भी है, वही है। यहां प्रत्येक वस्तु आराध्य है। यहां और मूर्तिया बनाने की जरूरत नहीं है, सभी मूर्तियां उसकी हैं। यहां मंदिर खड़े करना व्यर्थ है, सारा अस्तित्व मंदिर है।इन पक्षियों की आवाज में वही है। सुनो। वृक्षों की हरियाली में वही है। आंख साफ करो और देखो! तुम्हारी पत्नी में, तुम्हारे पति में, तुम्हारे बेटे में, तुम्हारे पिता में वही है। फिर से तलाशो। अगर नहीं मिला है, तो कहीं तलाश में भूल हो गयी है। सारे शास्त्र यही कहते हैं कि सबमें परमात्मा है। तो मेरी पत्नी में नहीं है? लोगों ने कहा—वें शास्त्र ठीक कहते हैं, मगर यह व्यावहारिक नहीं है। और शास्त्रों को बीच में मत लाओ, तुम गृहस्थ आदमी हो! तुम कहां की इन ऊंची बातों में पड़ गये! तुमने पत्नी को पत्नी मान लिया, उसीमें भूल हो गयी। पत्नी मान लिया, अब तो तुम सोच ही कैसे सकते हो कि पत्नी परमात्मा भी हो सकती है? इसी मान्यता को भ्रम कहते हैं। भागवान की — 'शक्ति' का नाम ही 'माया' है! वह झूठ नहीं है, वह झूठ कैसे हो सकती है?]
प्रश्न - तो हमें उस वस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ?
उत्तर - इसलिए कि तुम लोगों को भ्रम हो गया है। जब तक मनुष्य स्वयं अज्ञानावस्था में है, उसे अज्ञान के कारण का बोध कैसे हो सकता है? भ्रम व् अज्ञान के कारण ही सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो पाता है। यथार्थ वस्तु (देशकालातीत सत्य) के साथ तुलना करने पर ही हम भीतर तथा बाहर की अवस्था के भ्रम को समझ पाते हैं।
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥
जिस वस्तु को जाने बिना झूठ (मिथ्या -जगत ) भी सत्य मालूम होता है, जैसे
बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत
का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है॥1॥ हर मनुष्य हिप्नॉटाइज्ड हो चुका है। नित्य-परिवर्तनशील होने के कारण -'मिथ्या जगत' को ही सत्य समझ रहा है। जब तक वह भ्रम (अपने को शरीर मानने भ्रम ) दूर नही होगा, तब तक तुम भ्रम में हो - तुम्हें उसका पता कैसे चलेगा ? [भेंड़ बने हुए सिंह-शावक का भ्रम कोई गुरु-सिंह आकर उसको डिहिप्नोटाइज्ड नहीं करेगा या रज्जु-सर्प भ्रम में (भीतर रज्जु) पर टॉर्च की रौशनी में बाहर की अवस्था (सर्प)] पूर्वोक्त भ्रम को जानने के लिये भी तुमको उसी प्रकार के डिहिप्नोटाइज्ड करने वाले ज्ञान (T के नाम-जप) की आवश्यकता है।
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥3॥
जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, वे अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है॥3॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥
यह जगत (प्रकृति मन-बुद्धि) प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी (पुरुष) इसके प्रकाशक हैं। वे
माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की
सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥
प्रश्न - अच्छा, इस प्रकार का भ्रम होने का कारण क्या है तथा वह 'भ्रम ' हमें कब से हुआ है ?
उत्तर - इस भ्रम का कारण भी वही है -जो रज्जु-सर्प भ्रम के पीछे था- अर्थात अज्ञान ! सिंह-शावक होकर स्वयं को भेंड़ समझने का भ्रम या आत्मा होकर स्वयं को स्त्री-पुरुष या शरीर मानने का भ्रम, वह अज्ञान कब उपस्थित हुआ -यह तुम कैसे जान सकते हो ? जब तक तुम स्वयं अज्ञान में पड़े हुए हो, तब तक खुद, बिना किसी पथप्रदर्शक के उस अज्ञान को जानने का प्रयास करना व्यर्थ की माथा-पच्ची है। जब तक स्वप्न देखा जाता है, तब तक वह सत्य ही प्रतीत होता रहता है। नींद खुलने पर जाग्रत अवस्था के साथ तुलना करने से ही उसके मिथ्यात्व की धारणा होती है।एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥
इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥1॥
प्रश्न - तो फिर उपाय क्या है ?
उत्तर - अज्ञान को दूर करना ही एकमात्र उपाय है; और मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि उस भ्रम या अज्ञान को दूर किया जा सकता है ! जिस मनःसंयोग की पद्धति को सीख कर प्राचीन ऋषि-
मुनि उसे दूर करने में समर्थ हुए थे, उसी पद्धति को महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में सीखाया जाता है।
मुनि उसे दूर करने में समर्थ हुए थे, उसी पद्धति को महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में सीखाया जाता है।
प्रश्न - अच्छा, ऋषियों ने जिस मिथ्या जगत को 'ब्रह्म-रूप' में देखा है वही सत्य है-यह कहने का आधार क्या है? उस उपाय को जानने से पूर्व कुछ अन्य शंकाओं को दूर करना आवश्यक लग रहा है।
पाश्चत्य विकसित देश और विश्व के समस्त वैज्ञानिक सर्न के प्रयोगशाला में जो कुछ प्रत्यक्ष देख रहे हैं, उसे तो आप भ्रम बतला रहे हैं,और कुछ अल्पसंख्यक मुट्ठीभर ऋषियों ने इन्द्रियातीत भूमि के सत्य को प्रत्यक्ष किया है, उसे ही सत्य कह रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि गीता-उपनिषद के ऋषि और शास्त्र जो (नवनीदा) कुछ कह रहे हैं -वही भ्रम हो ?
पाश्चत्य विकसित देश और विश्व के समस्त वैज्ञानिक सर्न के प्रयोगशाला में जो कुछ प्रत्यक्ष देख रहे हैं, उसे तो आप भ्रम बतला रहे हैं,और कुछ अल्पसंख्यक मुट्ठीभर ऋषियों ने इन्द्रियातीत भूमि के सत्य को प्रत्यक्ष किया है, उसे ही सत्य कह रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि गीता-उपनिषद के ऋषि और शास्त्र जो (नवनीदा) कुछ कह रहे हैं -वही भ्रम हो ?
उत्तर -बहुसंख्यक व्यक्ति जो विश्वास करेंगे, वही सर्वदा सत्य हो ऐसा कोई नियम नहीं है। ऋषियों ने इन्द्रियातीत सत्य को प्रत्यक्ष करने के बाद जगत को मिथ्या कहा है,असत्य नहीं कहा है। अविनाशी सत्यस्वरूप को जानकर मनुष्य मृत्यु के भय से रहित हो जाता है, समस्त दुःखों (मेन्टल डिप्रेसन तनाव आदि) से मुक्त होकर चिर-शान्ति का अधिकारी बन जाता है तथा उसे मरणशील मानव-जीवन का एक निश्चित-लक्ष्य भी विदित हो जाता है। इसके अतिरिक्त यथार्थ ज्ञान मानव के अन्दर सहिष्णुता, सन्तोष, करुणा, दीनता आदि सदगुणों का विकास कर उसे पूर्ण रूप से उदार बना देता है - वह 'वसुधैव कुटुम्बकम की भावना ' में आरूढ़ हो जाता है। उस ज्ञानी पुरुष या ऋषि के पदचिन्हों का अनुसरण कर जो-जो व्यक्ति सिद्धिलाभ करते हैं (प्रमोद दा, बासु दा, रनेन दा …) उनके अन्दर भी वे सारे सदगुण विकसित हो जाते हैं।
प्रश्न - अच्छा, हम सभी को एक ही प्रकार का भ्रम क्यों और कैसे हुआ ? इतने व्यक्तियों को, सभी देश के लोगों को, इस प्रकार सभी विषयों में एक साथ एक ही प्रकार का भ्रम होना क्या आश्चर्यजनक नहीं है ? मैं जिसे (ब्रह्म नहीं) पशु-पक्षी (या नौकर) समझता हूँ, आप भी उसे पशु (नौकर या बेयरा ) ही समझते हैं, मनुष्य नहीं समझते; अन्यान्य विषयों में भी यही बात है। इसलिये आपका कथन सम्भव प्रतीत नहीं होता।
उत्तर - इसके उत्तर में शास्त्रों का कहना है, कि अनेक व्यक्तियों को एक ही प्रकार का भ्रम होने पर भी भ्रम कभी सत्य नहीं होता। एक असीम अनन्त समष्टि-मन (महत्-तत्व) में जगत रूप कल्पना का उदय हुआ है। तुम्हारा, मेरा तथा प्रत्येक व्यक्ति का मन या व्यष्टि-मन उस विराट मन का अंश होने के कारण हम लोगों को एक ही प्रकार की कल्पना का अनुभव करना पड़ रहा है। और हममें से प्रत्येक व्यक्ति पशु को पशु के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में अपनी इच्छानुसार देखने या कल्पना करने में समर्थ नहीं हैं। हम लोगों में से कोई कोई मनःसंयोग की पद्धति को सीखकर साधना करके यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर सब प्रकार
के भ्रमों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु दूसरे लोग जो आत्मश्रद्धा नहीं रखते वे स्वयं को केवल
शरीर समझकर इन्द्रियभोगों में पड़े रहते हैं, वे जिंदगी भर भेंड़ होने के
भ्रम को छोड़ नहीं पाते हैं। तुम सत्यद्र्ष्टा अल्पसंख्यक ऋषियों (नवनीदा, प्रमोददा आदि) को भी सामान्य मनुष्य मानने के लिये तैयार नहीं हो, इसीलिये तुम्हें यहाँ पर नियम का व्यतिक्रम दिखाई दे रहा है। और बार बार पूछते हो सबको एक ही प्रकार का भ्रम कैसे हुआ ?
विराट मन में जगत-कल्पना सतत विद्यमान रहने के कारण साधारण मानवों को एक-सा भ्रम होता रहता है, किन्तु उस कारण 'विराट-मन' कभी भ्रम में आबद्ध नहीं होता । जैसे श्रीरामकृष्ण कहते थे -" साँप के मुँह में विष रहता है, उसी मुँह से वह नित्य भोजन कर रहा है, किन्तु उससे साँप का कुछ नहीं बिगड़ता, किन्तु साँप जिसे काटता है, उसकी तो उस विष से तत्काल ही मृत्यु हो जाती है। " हमें यह बात सदा याद रखनी चाहिये कि ईश्वर सर्वज्ञ या अन्तर्यामी (ओमनीसिएंट) हैं, इसलिए अज्ञानजनित जगत-कल्पना (वर्ल्ड-फिक्शन) के भीतर तथा बाहर भी अद्वय ब्रह्मवस्तु (अपरिवर्तनशील ऐब्सलूट) को ही ओतप्रोत रूप से विद्यमान देखते हैं। विराट-मन में जगतरूप कल्पना का उदय होने पर भी वे हमलोगों की तरह अज्ञान के बन्धन में पड़कर मृतक के समान जड़ नहीं हो जाते, जबकि हमलोग की दृष्टि अभी बदली नहीं है, इस लिए हम जगत को ब्रह्म-रूप में नहीं देख पाते हैं।
[जगत-कारण प्रकृति अनादि है, जगत-कल्पना या 'वर्ल्ड फिक्सन' देश-काल से परे है]
हमारा व्यष्टि-मन दीर्घकाल से जगदातीत
अद्वय ब्रह्मवस्तु के साक्षात् दर्शन से वंचित रहा है, जिसके फलस्वरूप हम इस बात
को बिल्कुल ही भूल चुके हैं कि यह जगत वास्तव में मनःकल्पित वस्तुमात्र है। देश व् काल अथवा 'नाम-रूप' दोनों पदार्थ जगत- कल्पना के ही घटक हैं- जिनके आभाव में किसी प्रकार की विचित्रता का सृजन नहीं हो सकता। हमारा व्यष्टि-मन समष्टि-मन के साथ अविच्छेद्य रूप से सम्बद्ध है, अतः यह जगत हमलोगों द्वारा भी मनःकल्पित ही सिद्ध होता है। और इस विश्व-कल्पना को लगातार देखते-देखते सत्य मानने लगते हैं, इसीलिये- 'मुझे मति-भ्रम हुआ है', इस सच्चाई को हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं। क्योंकि पहले ही कहा जा चूका है कि यथार्थ वस्तु तथा अवस्था के साथ तुलना करने पर ही हम भीतर तथा बाहर के भ्रम को सर्वदा समझ पाने में समर्थ होते हैं। वेदों में सृजनशक्ति की आदिकारण स्वरूपा प्रकृति या माया को अनादि अर्थात कालातीत माना गया है। काल की कल्पना के साथ ही साथ जगत की कल्पना भी तदाश्रय विश्व-मन में विद्यमान है।
जबकि भक्तिमार्ग के साधक चरम-अवस्था में कहाँ पहुँचेंगे - इस विषय में बहुधा अनजान रहते हैं। तथा उच्च से उच्चतर लक्ष्यों को ग्रहण करते हुए अन्त में नश्वर जगत से परे अविनाशी अद्वय वस्तु का वे साक्षात् परिचय प्राप्त कर लेते हैं। इन्द्रियगोचर जगत को सत्य मानकर विषय-भोगों में आसक्ति रखने की जो धारणा जन-साधारण में बनी रहती है -उस आसक्ति (लालच) को दोनों मार्ग के पथिकों को त्याग देना आवश्यक होता है। ज्ञान-मार्ग के पथिक प्रारम्भ से ही उसे पूर्णतया परित्याग करने का प्रयास करते हैं, जबकि भक्त प्रारम्भ में उसके कुछ अंशों को ही त्याग कर साधना में प्रवृत्त (संलग्न) होते हैं। किन्तु किन्तु साधना के अन्त में ज्ञानी की तरह उन्हें भी नश्वर-जगत के भोगों का सम्पूर्ण रूप से परित्याग कर 'एकमेवाद्वितीयम् अविनाशी परमतत्व' में या 'शिव-ज्ञान से जीव-सेवा करने में' आसन्न होना पड़ता है।
नित्य-परिवर्तनशील तथा निश्चित मरणशील मानव-जीवन में जगत की अनित्यता का ज्ञान यथा-समय सहज ही में आकर उपस्थित हो जाता है। अतः जगत-सम्बन्धी साधारण धारणा को त्याग कर 'नेति,नेति' मार्ग से जगत्कारण का आविष्कार करने का पथ प्राचीन युग में ऋषियों ने पहले आविष्कृत किया होगा -ऐसा प्रतीत होता है। भक्ति एवं ज्ञान ये दोनों मार्ग एक साथ प्रचलित रहने पर भी भक्तिमार्ग के विभिन्न प्रकारों की सम्पूर्ण परिपुष्टि होने के पूर्व ही उपनिषदों में ज्ञानमार्ग की सम्यक परिपुष्टि हुई थी।
जगत के सम्बन्ध में स्वार्थमय तथा एकमात्र इन्द्रिय-सुख में रचे-पचे रहने की साधारण धारणा के वर्जन को ही शास्त्रों में 'वैराग्य ' कहकर निर्देश किया गया है। जन्म-जन्म के संचित अभ्यास के फलस्वरूप जगत के बारे में हमारी धारणा तथा अनुभूति आदि ने वर्तमान आकार को धारण किया है। अब यदि कोई मनुष्य यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना चाहता है -तो उसे जगत के अन्तर्गत कथित नाम-रूप, देश-काल, मन-बुद्धि आदि सभी विषयों से परे -जो इन्द्रियातीत सत्य है, उससे परिचित होना पड़ेगा। इस परिचय (बुद्धि-पुरुष विवेक ) को प्राप्त करने के प्रयास को ही शास्त्रों में - 'साधन' कहा है, एवं जो स्त्री-पुरुष जाने-अनजाने इसी प्रयास में रत हैं, उसे भारत में 'साधक' कहा जाता है। [ श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग-साधक और साधना १३४-१३५]
" देश-कालातीत जगत्कारण के साथ
परिचित होने का प्रयास ही साधना है।"
इन्द्रियातीत या जगत से परे उस अपरिवर्तनशील वस्तु का आविष्कार करने का प्रयास मुख्यतः दो मार्गों से किया जाता है-'नेति,नेति' या ज्ञानमार्ग तथा 'इति,इति'-अर्थात भक्तिमार्ग । 'नेति,नेति' मार्ग का लक्ष्य' - मैं कौन हूँ ? इस सत्य का आविष्कार करना है ! नित्यस्वरूप जगत्कारण 'यह नहीं है' 'वह नहीं है' - इस प्रकार विचारपूर्वक साधन मार्ग में अग्रसर हो साधक स्वल्पकाल में ही अन्तर्मुखी बन चुका था- उपनिषद इस बात का साक्षी है। उसने यह अनुभव किया था कि अन्य समस्त वस्तुओं की अपेक्षा अपनी देह तथा मन (2H) के द्वारा ही वह इस जगत साथ सम्बंधित हैं। अतः देह तथा मन के सहारे जगत्कारण
(Heart) के अन्वेषण में अग्रसर होने पर शीघ्र ही उसका पता लगने की
सम्भावना है। साथ ही जिस प्रकार 'हंडी के एक चावल को देखने से ही मालूम हो
जाता है कि भात अच्छी तरह से पक गया है या नहीं '-ठीक उसी प्रकार अपने
अन्दर नित्य-कारण-स्वरुप का अनुसन्धान मिलते ही दूसरी वस्तु तथा व्यक्तियों
में भी उसकी खोज मिल सकती है। इसलिए ज्ञानमार्ग के पथिकों के निकट - " मैं वास्तव में कौन हूँ ? " इस विषय का अनुसन्धान ही एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। ज्ञानमार्ग के साधक प्रारम्भ से ही अविनाशी परमतत्व को अपना चरम लक्ष्य मानकर तीक्ष्ण बुद्धि के सहायता से उस दिशा में ज्ञानपूर्वक अग्रसर
होता है। परिचित होने का प्रयास ही साधना है।"
जबकि भक्तिमार्ग के साधक चरम-अवस्था में कहाँ पहुँचेंगे - इस विषय में बहुधा अनजान रहते हैं। तथा उच्च से उच्चतर लक्ष्यों को ग्रहण करते हुए अन्त में नश्वर जगत से परे अविनाशी अद्वय वस्तु का वे साक्षात् परिचय प्राप्त कर लेते हैं। इन्द्रियगोचर जगत को सत्य मानकर विषय-भोगों में आसक्ति रखने की जो धारणा जन-साधारण में बनी रहती है -उस आसक्ति (लालच) को दोनों मार्ग के पथिकों को त्याग देना आवश्यक होता है। ज्ञान-मार्ग के पथिक प्रारम्भ से ही उसे पूर्णतया परित्याग करने का प्रयास करते हैं, जबकि भक्त प्रारम्भ में उसके कुछ अंशों को ही त्याग कर साधना में प्रवृत्त (संलग्न) होते हैं। किन्तु किन्तु साधना के अन्त में ज्ञानी की तरह उन्हें भी नश्वर-जगत के भोगों का सम्पूर्ण रूप से परित्याग कर 'एकमेवाद्वितीयम् अविनाशी परमतत्व' में या 'शिव-ज्ञान से जीव-सेवा करने में' आसन्न होना पड़ता है।
नित्य-परिवर्तनशील तथा निश्चित मरणशील मानव-जीवन में जगत की अनित्यता का ज्ञान यथा-समय सहज ही में आकर उपस्थित हो जाता है। अतः जगत-सम्बन्धी साधारण धारणा को त्याग कर 'नेति,नेति' मार्ग से जगत्कारण का आविष्कार करने का पथ प्राचीन युग में ऋषियों ने पहले आविष्कृत किया होगा -ऐसा प्रतीत होता है। भक्ति एवं ज्ञान ये दोनों मार्ग एक साथ प्रचलित रहने पर भी भक्तिमार्ग के विभिन्न प्रकारों की सम्पूर्ण परिपुष्टि होने के पूर्व ही उपनिषदों में ज्ञानमार्ग की सम्यक परिपुष्टि हुई थी।
जगत के सम्बन्ध में स्वार्थमय तथा एकमात्र इन्द्रिय-सुख में रचे-पचे रहने की साधारण धारणा के वर्जन को ही शास्त्रों में 'वैराग्य ' कहकर निर्देश किया गया है। जन्म-जन्म के संचित अभ्यास के फलस्वरूप जगत के बारे में हमारी धारणा तथा अनुभूति आदि ने वर्तमान आकार को धारण किया है। अब यदि कोई मनुष्य यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना चाहता है -तो उसे जगत के अन्तर्गत कथित नाम-रूप, देश-काल, मन-बुद्धि आदि सभी विषयों से परे -जो इन्द्रियातीत सत्य है, उससे परिचित होना पड़ेगा। इस परिचय (बुद्धि-पुरुष विवेक ) को प्राप्त करने के प्रयास को ही शास्त्रों में - 'साधन' कहा है, एवं जो स्त्री-पुरुष जाने-अनजाने इसी प्रयास में रत हैं, उसे भारत में 'साधक' कहा जाता है। [ श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग-साधक और साधना १३४-१३५]
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2 टिप्पणियां:
Bahut hi gyan dayak bate hai. Koiagar ispe malakare to uska jivan dhanya ho sakta hai.
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