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शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

' सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर समाज ' [(SVHS-2.6 : स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना > द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान (Problem and Solution )] ( धर्म की अद्भुत परिभाषा _'ধর্ম মানে সার্বিক চরিত্র গড়ে তোলা।'/धर्म का अर्थ है संपूर्ण चरित्र का निर्माण।/ धर्म का अर्थ है पूर्णहृदयवान मनुष्य बन जाना !) ]

  " स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-2.6 "

[द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान ] 

(श्रीबेलपत्र-रूपी नवत्रयी  को अपने हृदय में रखने की आवश्यकता ) 

6.

 "सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर समाज " 
      
अभी [ इस अमृतकाल में आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर]  भारत माता की संतानों का पहला उद्देश्य नया भारत गढ़ना होना चाहिए।  तथा यह समझ लेना चाहिए कि देश को सुन्दर ढंग से गढ़ने के लिये, पहले हमें स्वयं को सुन्दर ढंग से गढ़ लेना होगा। इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि अपने जीवन को सुन्दर ढंग से कैसे गढ़ा जाता है ? (अर्थात स्वयं को मृगजल से स्थितप्रज्ञ मनुष्य के रूप में कैसे गढ़ा जाता है?) तत्पश्चात इस प्रयत्न में जुट जाना ही हमलोगों का एकमात्र कर्तव्य है। कोई भी स्वस्थ दिमाग का व्यक्ति इस प्रकार की कल्पना भी नहीं कर सकता कि राष्ट्र-संचालन के लिये प्रशासनिक व्यवस्था (E.D. या C.B.I) की कोई आवश्यकता नहीं है ? या राजननीतिक दलों का कोई प्रयोजन नहीं है, या समाजसेवी संस्थायें  आदि व्यर्थ हैं ! अतः हमलोगों को भी इसी प्रजातान्त्रिक परिवेश में और ऐसी ही सामाजिक संगठनों के बीच अपने कार्य-'बनो और बनाओ ' को करते जाना होगा।
             हमलोग यदि किसी व्याख्यान (गीता 2.54) को ध्यानपूर्वक सुनें तो वक्ता द्वारा कथित बातों से हम भले ही सहमत न हों पर उस विषयवस्तु के बारे में अपनी एक धारणा तो बना ही सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने भी अपने भाषण में कहा है - " यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और उसमें मेरा थोड़ा भी वश चले तो मैं तथ्यों का अध्यन करने से पूर्व मन की एकाग्रता के विषय में शिक्षा ग्रहण करूँगा। उसके बाद संसार में जितने भी विषय हैं, अपनी पसन्द के अनुसार उन सब विषयों  (स्थितधीः और स्थितप्रज्ञ आदि अर्जुन द्वारा पूछे गए 16 प्रश्नों के उत्तर) को जानने की चेष्टा करूँगा।" हम लोग भी यदि 'मन को एकाग्र' कर पढ़ने या सुनने को अपनी आदत बना लें तो बहुत से विषयों को बड़ी सहजता से भली-भाँति सीख सकते हैं।
      स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा [वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनःसंयोग/विवेक-प्रयोग /में प्रशिक्षित शिक्षकों का निर्माण करने की विचार-धारा] इस जगत की सर्वश्रेष्ठ विचारधारा है या नहीं, इसे सिद्ध करने के लिये- विभिन्न प्रकार के ढेरों युक्ति-संगत तर्क दिए जा सकते हैं। किन्तु उसी को लेकर यदि हमेशा दूसरों के साथ तर्क-वितर्क करने में ही उलझे रहें, तो उससे कोई लाभ नहीं होगा, और हमलोगों का समय तथा शक्ति व्यर्थ में ही नष्ट होगा।  यदि स्वामीजी की इस बात से सहमत हो जाएँ कि हम लोग अन्य जरुरी बातों को सुनने -समझने की चेष्टा तो करेंगे, किन्तु उससे पहले मनःसंयोग करना अवश्य सीखेंगे, तो हमलोग भी बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। छात्र लोग यदि रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर बैठना तथा सभी बातों को मन लगाकर पढ़ना और सुनना सीख जाएँ तो वे स्कूल में अपनी  पढाई-लिखाई भी बहुत अच्छे ढंग से कर सकेंगे। उसके साथ ही साथ यदि वे मनुष्य-जीवन का उद्देश्य भी जान लें तब तो यह 'सोने पर सुहागा' जैसी बात होगी। 
           कई अच्छे विद्यार्थी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद जीवन में 'बड़े' बने हैं। किन्तु 'बड़े' बनने का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि अच्छी नौकरी प्राप्त ली , धन कमा लिया। बल्कि 'बड़े' बनने का अर्थ है सच्चा मनुष्य (स्थितप्रज्ञ?) बनना। इसीलिए हमलोगों को सभी विषयों को ध्यान से सुनने (श्रवण) और सुनी गयी बातों को याद रखने की विधि अर्थात मनःसंयोग सीखना होगा। हम यदि किसी व्याख्यान को मनोयोग पूर्वक नहीं सुनेंगे तो उसमें कौन सी बात अच्छी है, कौन सी बात बुरी है इसका निर्णय नहीं कर पायेंगे। जबकि इसी भले-बुरे के बीच निर्णय कर लेना या विवेकपूर्ण निर्णय ले पाने की क्षमता रखना ही 'मनुष्य' का विशेष गुण है।  
       धर्म की मूल बात है विवेक-प्रयोग ! विवेक का अर्थ होता है, न्याय के मार्ग पर चलना। अच्छा-बुरा, शाश्वत - क्षणभंगुर इसमें अंतर करना।  जैसे सूती कपड़ा के टिकाऊ नहीं होने के कारण आजकल हम लोग टेरीकॉटन का पैन्ट ही अधिक पहनते हैं। क्योंकि प्रत्येक अच्छी वस्तु को हम चिरस्थायी बनाना चाहते हैं। किन्तु यदि हमारे पास सत-असत (अविनाशी और नश्वर ) के बीच बीच अंतर करने वाली बुद्धि (प्रज्ञा)  ही न रहे, तो हम उस सुख को चिरस्थायी नहीं बना सकेंगे। अतः सुख को चिरस्थायी बनाने के लिये मनःसंयोग सीखना आवश्यक है। मनःसंयोग किस प्रकार किया जाता है यह जानने के लिये हमें प्राचीन काल के मनोविज्ञान ' पतंजली योगसूत्र ' या 'अष्टांग योग' के कम से कम पाँच अंगों के सम्बन्ध में विस्तार से समझना होगा।
            किन्तु, आजकल हमलोग हर बात के लिये पश्चिम की तरफ देखना जरुरी समझते हैं। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ' स्वदेश-मन्त्र  ' में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि दूसरों की ही नकल कर या परमुखापेक्षी होकर कोई मनुष्य बड़ा (स्थितप्रज्ञ) नहीं बन सकता है। किन्तु हमलोग लगातार वैसा ही करते आ रहे हैं। स्वाधीनता के पहले तो यह था ही किन्तु, स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी हमलोग दूसरों की नकल करना छोड़ कर और कुछ नहीं कर पाये हैं। प्रश्न उठता है कि हम लोग अभी तक क्यों परमुखापेक्षी बने हुए हैं ? यदि हम उन कारणों का विश्लेषण करें जिसके चलते हम दूसरों की नकल करना नहीं छोड़ पाते, तो यही देखेंगे कि हमलोगों ने अभी तक विवेकवान मनुष्य (स्थितप्रज्ञ मनुष्य) का निर्माण करने के महत्व को नहीं समझा है।  यह बात जितना सत्य है, उतना ही सत्य यह भी है कि हमने अभी तक परानुकरण करना नहीं छोड़ा है।
  स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी हमलोगों की सरकार वोट, पार्लियामेन्ट सिस्टम, संविधान, विकास  परिकल्पना आदि सभी बातों में केवल परानुकरण ही किया है। ऐसा इसीलिये किया कि हमलोगों में आत्मविश्वास नहीं है ! इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने हमलोगों से बार बार कहा था- " पहले तुम लोग आत्मविश्वासी मनुष्य बनो ! उसके बाद सबकुछ अपने आप प्राप्त हो जायेगा।
 वे कहते हैं- " कोई व्यक्ति या राष्ट्र जिस दीन से स्वयं को घृणा करना आरम्भ कर देता है, उसी दीन से उसकी मृत्यु प्रारंभ हो जाती है।' स्वाधीनता के बाद से हमलोग बार बार यही दुहराते आये हैं,कि हमलोग दुर्बल हैं, हमारा कोई अतीत नहीं है, हमारा कोई भविष्य नहीं है। इसी बात को सदियों से सुनते आये हैं, इसको सही मानने लगे हैं, स्वयं को सिखाते आये हैं, दूसरों को भी यही सिखाते आ रहे हैं। जब छात्र पहली बार विद्यालय आता है तो वह सुनता है कि उसके पिता  पागल हैं! क्योंकि वे सादगी से रहते हैं तथा ईमानदारी से जीवन व्यतीत करते हैं। वहाँ सिखाया जाता है, कि ईमानदारी से जीने का कोई अर्थ ही नहीं है। चाहे जैसे भी धन कमाओ और ऐशो-आराम से जिन्दगी व्यतीत करो। जाने-अनजाने छात्रों के सामने इसी प्रकार का आदर्श रखा जा रहा है, और यही विचारधारा सर्वत्र फैलती जा रही है। 
           यदि आज की परिस्थितियों का गहराई से विश्लेष्ण किया जाय तो हम पायेंगे कि सारा देश लोभ, इन्द्रियपरायणता, व्यक्तिगत स्वार्थ या दलगतस्वार्थ के उपर जरूरत से ज्यादा ध्यान दे रहा है। देश के स्वार्थ या साधारण जनता के स्वार्थ की ओर थोडा भी ध्यान नहीं दे रहा है। फिर देश का भला कैसे होगा ? यदि हम सम्पूर्ण देश का भला करना चाहते हों,उच्चतर स्तर की समाज-सेवा करना चाहते हों, तो इसके लिये हमें प्रारम्भ से ही मनःसंयोग एवं विवेकपूर्वक निर्णय करने की विधि सीखनी होगी। क्या हमलोगों के पास अपना सिद्धान्त और नीति नहीं होनी चाहिए? किन्तु, किसी के पास स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करने का समय ही नहीं है, इसलिए हम केवल दूसरों की ही नकल कर रहे हैं, और परमुखापेक्षी होकर बैठे हुए हैं। इसीलिये हमारा 
सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा है। हम सभी यदि मनःसंयोग का अभ्यास करें तो किसी भी समस्या या विषय के उपर मन को एकाग्र कर विचार-विश्लेष्ण द्वारा विवेकपूर्ण निर्णय लेकर सभी प्रकार समस्याओं के समाधान स्वयं कर सकते हैं। स्कूल में पढ़ते समय हम यह जानते हैं कि पुस्तकों में सब कुछ लिखा हुआ है किन्तु, हम यह भी जानते हैं कि जो तथ्य पुस्तक में लिखे हुए हैं उन तथ्यों को अपने चित्त में सँजो लेने की आवश्यकता है। 
              हमलोग जो कुछ पढ़ते हैं या सुनते हैं, उनमें से यदि  सार -असार को अलग कर लिया जाय तो उन लेखों और व्याख्यानों की बातें हमें अपने निर्णय जैसी प्रतीत होंगी। जैसे विभिन्न वक्ता यहाँ आकर स्वामीजी के संदेशों और  विचारों के उपर कई व्याख्यान दिये और चले गये। जब तक हम उन  विचारों का तार्किक विश्लेष्ण (logical analysis) कर उन्हें अपने सिद्धान्त के रूप में अपना नहीं लेते , या आत्मसात नहीं कर लेते तब तक वह स्वामीजी, वक्ता विशेष, या महामण्डल के विचार बने रहेंगे। और उन व्याख्यानों को सुनने से कोई लाभ नहीं होगा।
         स्वामीजी ने वर्तमान समाज को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये जिस पद्धति या उपाय की बात की है वह श्रेष्ठ या सर्वोपरी इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि वे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने कार्यों को  'इहलौकिक और पारलौकिक ' कहकर दो भागों में विभक्त नहीं किया था। 
जबकि हमलोगों के सभी कार्य दो प्रकार के होते हैं- एक लौकिक (secular) और दूसरा पवित्र या धार्मिक (sacred)। जो व्यक्ति केवल सांसारिक जीवन के प्रति ध्यान केन्द्रित रखते हैं वे अपने सांसारिक जीवन को ही सुन्दर बनाने का प्रयत्न करते रहते हैं। सांसारिक जीवन को सुन्दर  बनाने के लिये अलग ढंग का परिश्रम करना होता है। जबकि जो लोग धर्म में विश्वास करते हैं वे वैसे कार्यों का चयन कर लेते हैं, जिन्हें वे धार्मिक समझते हैं। या फिर जो लोग जो धर्म में विश्वास नहीं करते हैं  वे भी अपने लिये कुछ अलग ढंग के कार्य (जैसे मरने के बाद बॉडी या आँखों को दान करना ) नियत कर लेते हैं। (वे नहीं जानते कि इससे भी पूण्य कर्म बाँधेगा। ) 
     >>>धर्म की अद्भुत परिभाषा :

किन्तु, स्वामी विवेकानन्द ही वह प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्हों ने यह कहा कि -" भारत का कार्य तो बस एक ही है- और वह है, वैश्विक कल्याण या लोकहित। लोक-हित के अतिरिक्त अन्य कोई कर्म वास्तव में कर्म है ही नहीं। हमारे (भारत के) सभी कर्मों का एक ही उद्देश्य रहना चाहिए-  लोकहित !" यह केवल स्वामी विवेकानन्द का ही विचार हो, ऐसा भी नहीं है- वेदों में भी यही कहा गया है- यह हमलोगों का शाश्वत सिद्धान्त है, यही 'सनातन धर्म' है ! महाभारत में कहा गया है -
सर्वेषां यः सुहृनित्यं सर्वेषां च हिते रताः ।
कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले ॥

-अर्थात हे जाजले ! धर्म को केवल उसने ही जाना है, कि जो कर्म से , मन से और वाणी से सबका हित (अपने-पराये का भेद देखे बिना) करने में लगा हुआ है और सभी का हिताकांक्षी है।
               नींद में,सपने में, सोते-जागते, सभी अवस्थाओं में सभी कर्म प्रयासों में हमलोगों का एकमात्र कर्तव्य यही है। स्वामीजी स्वयं इसी प्रकार के मनुष्य थे और अपेक्षा करते थे कि सभी तरुण एक दिन इसी प्रकार के मनुष्य बनेंगे। यदि ऐसा ही आदर्श किसी अन्य महापुरुष का भी है तो हमलोग उनको भी श्रद्धा के साथ वरण करेंगे तथा उनके उपदेशों को कार्यान्वित करने की चेष्टा भी करेंगे। किन्तु, हमलोगों की दृष्टि जहाँ तक जाती है वहाँ, दूर-दूर तक स्वामी विवेकानन्द के अतिरिक्त अन्य किसी मनुष्य ने अपने जीवन के समस्त कर्मों का एकमात्र उद्देश्य 'लोकहित ' कभी नहीं बनाया है। 

       इस प्राचीन देश भारत में हमारे पूर्वज अपने विचारों और  दिनचर्या में ऐसे ही धर्म का पालन और चर्चा करते थे।  किन्तु समय के प्रवाह में वह नष्ट हो गया था। जिसके फलस्वरूप यहाँ भी लौकिक और परलौकिक दो अलग-अलग धर्म हो गये। इस विषय पर स्वामी जी कहते हैं - " हमारे देश में जो 'वेदान्तीक साम्यवाद ' था (सम्पूर्ण मानव-जाती को अपना कुटुंब समझने का भाव था) वह बाद में शायद व्यक्तिगत स्वार्थ के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण  अलग-अलग धर्म में परिणत हो गया।

हमलोगों के देश में ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि नाम से गुण के अनुसार कर्मों का जो बँटवारा किया गया था (वर्णाश्रम धर्म था), उसमें से प्रत्येक ने दूसरों के अधिकार को कम करके अपने अपने समूह के अधिकार को प्रधानता देने का प्रयत्न किया है। इसीलिये अब हमलोगों के देश में जो साम्य आएगा वह ' केवल पढ़े जाने वाले वेदान्त ' से नहीं बल्कि वेदान्त के उसी प्राचीन स्वरुप को जीवन में धारण करने से आयेगा !"  हम स्वामी जी कथित जितने भी संदेशों का उल्लेख करते हैं, वे सभी - महावाक्य हैं ! अर्थात वेदान्त के ही वचन हैं। किन्तु ,हम इस बात को भूल गये थे कि वेदान्त का ऐसा सुन्दर स्वरुप कभी रहा होगा, कभी इसके अन्दर ज्ञान की ऐसी अद्भुत ज्ञान  की ज्योति रही होगी ! 
                    विशाल बुद्धि व्यासदेव ने वेदान्त के जिन समस्त सिद्धान्तों को एकत्र करके जिस वेदान्त सूत्र की रचना की थी, वे  सूत्र सम्पूर्ण मानव जाति को मोहनिद्रा से जगा सकते हैं। वेदों के जो चार महावाक्य मनुष्य को पुनरुज्जीवित कर सकते हैं, उसे वीर बना सकते हैं  [अभीः -निर्भय] बना सकते हैं, वह सब, यहाँ तक कि उसके शंकर -भाष्य को भी हमलोग  लगभग भूल ही चुके थे। धरती का प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक दूसरे मनुष्य के लिये सहानुभूति का अनुभव करेगा, इतना ही नहीं आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के दुःख को दूर करने के लिये अपने जीवन तक को न्योछावर कर देगा- ये सारे वेदान्ती-सिद्धान्त बाद में इसके अनेक प्रकार की भाष्यों के बाढ़ (बाहुल्य) में डूब गये थे। जिसके फलस्वरूप हमारे राष्ट्र का पतन हो गया था। और इसी का लाभ उठाकर विदेशियों ने हमें हजार वर्षों तक गुलाम बनाये रखा। समय के प्रवाह में जाती-धर्म आधारित भेदभाव की उत्पत्ति हुई, हम भारतीय आपस में लड़ने-झगड़ने लगे और मारा-मारी पर उतर कर अपना ही नुकसान करने लगे।
              यदि हम यह सब बन्द करना चाहते हों तो हमें स्वामी विवेकानन्द, श्री रामकृष्ण के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए आना ही पड़ेगा। [या महामण्डल की सतयुग स्थापनकारी "Be and Make -चरैवेति,चरैवेति C-IN-C 'लीडरशिप ट्रेनिंग ' परम्परा में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण ग्रहण करने के लिये आना ही पड़ेगा।] ठाकुर श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे- " बंधे हुए या गतिहीन जल में काई जम जाती है, किन्तु बहती हुई नदी या झरने का पानी जिसमें स्रोत है, उसमें कभी काई नहीं जमता।" हमारे वर्तमान सामाजिक जीवन में प्राण का (जीवन का)  उत्स नहीं है, इसीलिये इतनी दलबन्दी (गुटबाजी ) हो रही है। उसमें जीवन का स्रोत, प्राण का उत्स लाने के लिये क्या करना होगा ? बस इतना ही, कि हमलोगों को 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा ' को ग्रहण करना होगा। क्योंकि उनकी भावधारा- हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, जैन, क्रिश्चियन, सिख सबों के लिये है, यहाँ तक कि जो कहते हैं, मैं धर्म को नहीं मानता-उन नास्तिकों के लिये भी है। ऐसे अद्भुत 'प्राणप्रद वचन' (श्रीरामकृष्ण वचनामृत) और कहीं नहीं है। एवं वेदान्त के समस्त अद्भुत सिद्धान्तों को (महावाक्यों को) श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द ने अपने जीवन में, व्यवहार करके भी दिखला दिया है !
              स्वामीजी के विचार में तथा वेदान्त मत से भी समाज में किसी को विशेषाधिकार पाने का कोई अधिकार नहीं है। किन्तु विशेषाधिकार के बल पर ही ब्राह्मणों ने वेदान्त की गलत व्याख्या कर दी, जिसके फलस्वरूप वेदान्त में जो शक्ति है, बलप्रद सन्देश है, उसे हमने व्यक्तिगत जीवन और राष्ट्रिय-जीवन से बाहर कर दिया इसीलिये अब स्वयं को उन्नत करने के लिये वेदान्त के अमृत तुल्य सिद्धान्तों (4 -महावाक्यों आदि) को दूसरों को केवल रटकर सुना देने से ही काम नहीं चलेगा; उसकी उचित व्याख्या भी करनी होगी और उन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर अपने जीवन को गढ़ कर, उदाहरण-स्वरुप बना कर तरुणों के समक्ष प्रस्तुत भी करना होगा
       उपनिषद युग के बाद, श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द के जीवन के अतिरिक्त इस प्रकार का जीवन्त वेदान्त अन्य कहीं देखने को नहीं मिलता है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द-माँ सारदा के बेलपत्र रूपी नवत्रयी को अपने हृदय में रखने की आवश्यकता है। आज हमारे व्यक्तिगत और राष्ट्रिय जीवन में जितनी भी समस्याएं दिखाई दे रही हैं, उनको दूर करने के लिये इस त्रयी को अपने शीश पर चढ़ाने अर्थात उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। धर्म या आध्यात्मिकता का अर्थ मन्दिर, मस्जिद, फूल-बेलपत्र ही नहीं है- स्वामीजी ने कभी इसको धर्म नहीं कहा है। "धर्म का अर्थ है, अपना और राष्ट्रिय-चरित्र का निर्माण करना" -(धर्म का अर्थ है संपूर्ण हृदय वाला मनुष्य बनना।) कितनी अद्भुत धर्म की परिभाषा है ! 
["धर्म का अर्थ है पूर्णहृदयवान मनुष्य बन जाना ! -Religion means becoming a whole-hearted human being. "ধর্ম বা আধ্যাত্মিকতা মানে মন্দির, মসজিদ , ফুল-বেলপাতাই নয় -স্বামীজী একে ধর্ম বলেননি। ধর্ম মানে সার্বিক চরিত্র গড়ে তোলা। কি অদ্ভুত কথা।" (आमादेर सम्भावना नया का पेज 57) Religion or spirituality does not mean temples, mosques, or flowers - Swamiji did not call it religion. Dharma means building a whole character. what a strange thing.   श्रीरामकृष्ण का चरित्र धर्म की इसी परिभाषा पर गठित है   
         श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही एकमात्र आदर्श पूर्ण-मानव के रूप में गठित सार्वभौमिक चरित्र है, और इस युग के प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह श्रीरामकृष्ण का अनुसरण करके अपना चरित्र गठित कर ले। इस प्रकार के चरित्रवान मनुष्य जब देश में अधिक संख्या में निर्मित कर लिये जायेंगे, तभी देश की उन्नति हो सकती है। वैसा नहीं होने तक देश के उन्नति की कोई सम्भावना नहीं है। उन्नति का अर्थ केवल अध्यात्मिक उन्नति ही नहीं है बल्कि आर्थिक उन्नति से लेकर, हर पहलु से उन्नति शामिल है।" 
            हमलोग निरन्तर अद्द्योगिक क्षेत्र में में उन्नति के आँकड़े गिनाते रहते हैं किन्तु, कुछ दिनों पूर्व बंगाल से प्रकशित होने वाले समाचार-पत्र 'अमृत-बाजार पत्रिका' में एक अवकाश प्राप्त सेना अधिकारी द्वारा लिखित  " Industrial Decline in West Bengal " शीर्षक एक लेख छपा था। इस लेख में लेखक ने पश्चिम बंगाल के उद्द्योग जगत की बिगड़ती हुई स्थिति के कारणों को किसी भी दल की चापलूसी किये बिना स्पष्ट रूप से हमलोगों के विचारार्थ - इस प्रकार रख दिया था -"देश को उन्नत बनाने के लिए औद्द्योगिक उत्पादन में भी वृद्धि करनी आवश्यक है, इसीलिये उद्द्योग जगत का भी अपना एक महत्व है। किन्तु, बहुत से लोग सोचते हैं कि केवल उद्द्योगों के विकास से ही देश भी विकसित हो जायेगा, फिर कुछ लोग ऐसी सोच को बहुत बड़ी गलती मानते हैं। जो भी हो, देश को उन्नत बनाने के लिये अन्य कई चीजों के साथ औद्द्योगिक विकास भी आवश्यक है।"  लेखक निष्पक्ष भाव से  लिखते हैं -"भारत में उद्द्योग के क्षेत्र में पहले बंगाल जहाँ प्रथम स्थान पर था, वहीं आज वह  निचले पायदान पर चला गया है। इस लेख के अन्त में अवकाश प्राप्त सैन्य अधिकारी (लेखक) कहते हैं, " हमलोगों का देश एक अध्यात्मिक देश है, यहाँ मनुष्यत्व को बहुत ऊँचा स्थान दिया जाता है तथा हमारे ही राज्य में एक ऐसे महामानव ने जन्म ग्रहण किया था जिन्होंने मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को सम्पूर्ण देश में प्रसारित करने कि योजना बनाई थी। किन्तु हमलोग अभी तक उनकी योजना को क्रियान्वित नहीं कर सके हैं, इसीलिये आज औद्द्योगिक क्षेत्र में भी हमलोगों को ऐसी अवनति हुई है। अतः नया भारत गढ़ने के लिये हमलोगों को स्वामी विवेकानन्द के पास आना ही पड़ेगा।
               स्वामी विवेकानन्द का अर्थ स्वर्ग से उतरा कोई देवता नहीं है। स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे मनुष्य का नाम है, जिनको यह पता ही नहीं था कि भय किस चिड़िया का नाम है ? वे एक ऐसे मनुष्य थे जिसने अपना सब कुछ त्याग दिया था तथा दूसरों की सेवा में अपना जीवन  न्योछावर/समर्पित कर दिया था। वे एक ऐसे 'Hero' थे जो ब्रह्म को जानते थे और 'ब्रह्म में ही अध्यस्त' इस जगत को भी जानते थे- अर्थात माया से होकर आने के कारण ब्रह्म ही जगत के रूप में भास रहा है। इसलिए देश के स्कूल-कॉलेजों में, खेत-खलिहानों में, कारखानों में, अर्थात जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वामी विवेकानन्द जैसे Hero की आवश्यकता है। और आज भी  स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण या नेताजी बनना सम्भव है - इसी बात को भावी पीढ़ी के युवाओं को सुनाने में समर्थ चिरयुवा नेता की आवश्यकता है। स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं, तुमलोग कभी-कभी पीछे मुड़ कर अपने प्राचीन-गौरवमय अतीत को भी देखो। स्वामीजी हर समय कहते हैं, " आगे बढ़ो, आगे बढ़ो ! पीछे मुड़ कर यह मत देखो कि कौन गिरा।" किन्तु दूसरे स्थान पर कहते हैं " यात्रा का प्रारंभ करने से पहले एक बार पीछे मुड़ कर देखना भी जरुरी है।" क्योंकि तुम्हारे पीछे एक मूल्यवान सांस्कृतिक विरासत है, वह इतना महा मूल्यवान है कि यदि तुम उससे आलोक ग्रहण नहीं करोगे तो मार्ग पर चलते समय अपने को दुर्बल महसूस करोगे!  ठगों का गिरोह (पाँच विषय) तुम्हारे दुर्बल शरीर को लाठी से पीट कर घायल कर देंगे, और तुम स्वयं को विकास के पथ पर आगे नहीं ले जा सकोगे और राष्ट्र को भी सही नेतृत्व नहीं दे सकोगे। आज हमारी  ऐसी अवस्था हो गयी है मानो हमारी बुद्धि के घर में ही ताला जड़ दिया गया हो। हमारे पास भी बुद्धि-विवेक सब कुछ है , किन्तु हम लोग या तो इसे जानते नहीं या इसे स्वीकार नहीं करते।  इसीलिये (रागा जैसा) बार- बार विदेश जाकर हमें बुद्धि भी उधार में लेनी पडती है! 
      स्वामी विवेकानन्द चाहते थे कि हमलोग इस खोये हुए आत्मविश्वास को जाग्रत करें। इस आत्मविश्वास को जाग्रत करने से हमलोग अच्छे डाक्टर बन सकेंगे, अच्छे इंजीनियर बन सकेंगे, चाहे जो भी कुछ क्यों न करें, अच्छी आमदनी कर सकेंगे और 'मनुष्य' कहलाने योग्य मनुष्य भी बन सकेंगे। और उसी के साथ देश को भी उन्नत बना सकेंगे, हमलोगों के देश की राजनीती भी परिवर्तित हो जायेगी।
               अभी हमारी राजनीती केवल सरकारें बदल सकती है। किन्तु इससे कोई कल्याण नहीं होने वाला है। सरकारों के बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदल जाती। बन्दूक की नाल से सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता है क्योंकि अंततः मनुष्य ही व्यवस्था चलता है, बन्दूक का नाल भी मनुष्य ही तैयार करता है, और सरकार, कानून, पार्लियामेन्ट, राजनितिक दल, उद्द्योग-वाणिज्य, सब कुछ मनुष्य ही बनाता है। 
किन्तु कोई भी पदार्थ ' मनुष्य ' का निर्माण नहीं कर सकता। देश में सामाजिक, आर्थिक, हर प्रकार का विकास होना चाहिए।  किन्तु, ऐसा क्यों है कि धनी और अधिक धनवान बनते जा रहे हैं, और गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं ? कारण है असाम्य ! वेदान्तिक साम्य  का सिद्धान्त पुस्तकों (गीता और उपनिषदों ) में तो हैं, किन्तु हमने अभी तक उसे कार्य में नहीं उतारा है।
            एक शोध में पाया गया है कि ईसामसीह के जन्म से पाँच हजार वर्ष पूर्व इस देश में जो मूल्य-सूचकांक था उसके अनुसार एक दिहाड़ी मजदूर अपने भोजन में होने वाले खर्च का आधी  ही कमाई कर पाता था। और यदि आज के मूल्य-सूचकांक को देखें तो आज भी ठीक वही स्थिति बनी हुई है। कोई दिहाड़ी-मजदूर आज भी अपनी आवश्यकता भर खाद्यान्न अपनी दिहाड़ी की मजदूरी से नहीं खरीद सकता। परिवर्तन केवल रूपये की संख्या [डॉलर या सोना -रुपया सम्बन्ध]  में हुआ है अन्य किसी चीज में नहीं।  इसीलिये स्वामीजी को कहना पड़ा था कि " समस्त संसार में आज भी सभ्यता कहीं नहीं आ सकी है। " यही कारण है की आज भी यही स्थिति बनी हुई है। हम आज भी भीतर से असभ्य-बर्बर ही बने हुए हैं, किन्तु विभिन्न प्रकार के पोशाक पहन कर देश-विदेश में कई प्रकार से लोगों को झांसा देकर प्रभावित करते आ रहे हैं। तो फिर सभ्यता कहाँ है? उसे  खोजने के लिये हमें अपने भीतर झाँक कर देखना होगा। 
मनुष्य को पुर्णतः स्वार्थहीन और प्रेमी बनना होगा। सभी को समान रूप से प्रेम करना होगा । सभी को यथार्थ मनुष्य बनाने के लिए हमें क्या करना होगा ? इस बात को हमें मनःसंयोग की सहायता से जानना होगा, और स्वामीजी के सन्देश इन्हीं सब विचारों के विशाल भण्डार हैं। वहाँ से उच्च विचारों को ढूँढ -ढूँढ कर  उनकी सहायता से अपना और देश का नव-निर्माण करना होगा।  
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>>>हमें बुद्धि और प्रज्ञा का फर्क समझना होगा।  अंग्रेजी में दो शब्द हैं - इंटेलेक्ट (intelligence) और इंटेलीजेंस (wisdom.)। हिंदी में इंटेलेक्ट को बुद्धि और इंटेलीजेंस को प्रज्ञा के रूप में समझ सकते हैं। अधिकांश लोग यह समझ ही नहीं पाते कि कहां बुद्धि का दायरा खत्म होता है और कहां से प्रज्ञा का आयाम शुरू होता है। 

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।। समाधिपाद : 48 ।।

शब्दार्थ :- तत्र, ( उस अध्यात्म प्रसाद के प्राप्त होने पर ) प्रज्ञा, ( साधक की बुद्धि ) ऋतम्भरा, ( केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली होती है । )
सूत्रार्थ :-  अध्यात्मप्रसाद का लाभ प्राप्त होने पर साधक की बुद्धि केवल सत्य को जानने वाली हो जाती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में अध्यात्मप्रसाद को प्राप्त करने के बाद साधक की क्या स्थिति होती है ? इसका वर्णन किया गया है । अध्यात्मप्रसाद से साधक समाहित चित्त वाला बन जाता है । उस समाहित चित्त की में भी निपुणता होने पर उत्कृष्ट बुद्धि की प्राप्ति होती है । उस उत्कृष्ट बुद्धि को ही ऋतम्भरा कहा गया है ।
ऋतम्भरा बुद्धि वह होती है जो केवल सत्य को ही ग्रहण करती है । उसमें असत्य या विपरीत ज्ञान का लेश मात्र भी अंश नही होता है ।
सामान्य जीवन में व्यक्ति की बुद्धि असत्य ज्ञान को भी ग्रहण करती रहती है । जिससे वह अविद्या आदि क्लेशों में उलझा जाता है । कलेशों के कारण वह अनावश्यक अर्थात निषेध कार्यों को करता रहता है ।
लेकिन जैसे ही साधक को अध्यात्मप्रसाद की प्राप्ति होती है वैसे ही उसकी बुद्धि केवल और केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली बन जाती है । और सभी कलेशों का नाश हो जाता है । ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्राप्त होने से साधक को अपने वास्तविक स्वरूप की जानकारी/स्मृति सदा बनी रहती है । जिससे वह आत्मा, चित्त, मन, शरीर व इन्द्रियों के विषयों का आत्मसात कर लेता है ।
यह ऋतम्भरा प्रज्ञा ही साधक की मुक्ति का साधन बनती है

लेकिन आज की शिक्षा व्यवस्था यही बताती है कि आप जो कुछ भी जानते हैं, उसका खूब इस्तेमाल कीजिए और खुद को और धरती को तबाह कर दीजिए। कोई आपको इस पर ध्यान देने के लिए नहीं कह रहा कि यह चाकू कैसे बना है, कैसे हम इसका इस्तेमाल कर सकते हैं और कैसे नहीं। इस दिशा में अभी तक काम नहीं हुआ है। तो इंसान अपनी  बुद्धि के चलते तकलीफ पा रहा है। बुद्धि ही है जो इस धरती पर विचरने वाले दूसरे जीवों से हमें अलग करती है और हमारे लिए एक उपहार है। लेकिन अफसोस की बात कि यही चीज हमारे दुखों का मूल बनती है। फिलहाल यह बुद्धि हमारे लिए इतनी अधिक पीड़ा व मुश्किलों का कारण इसलिए बनी हुई है, क्योंकि आप बुद्धि रूपी चाकू को गलत छोर से पकड़े हुए हैं। भारत में एक परंपरा है कि जब आप किसी को चाकू दें तो उसे एक खास तरीके से देते हैं। नहीं तो आप दूसरे को घायल कर देंगे।इसी से जुड़ी स्वामी विवेकानंद के जीवन की रोचक घटना : "  रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने उनके संदेश व शिक्षाओं को फैलाने के लिए अमेरिका जाने का फैसला किया। उन दिनों समुद्र पार कर किसी दूसरे देश जाना किसी दूसरे ग्रह पर जाने जैसा था। अगर आप भाप से चलने वाले पानी के जहाज से तीन महीने की यात्रा पर जाएं तो यह कहना मुश्किल था कि आप वापस लौटेंगे भी या नहीं। तो वे जाने से पहले परमहंस की पत्नी शारदा देवी से आशीर्वाद लेने पहुँचे। जब वह उनके पास पहुंचे और उन्होंने अपनी इच्छा उन्हें बताई तो उस वक्त वह कुछ काम कर रही थीं। शारदा देवी ने बिना सिर उठाए उनकी बातें सुनी। विवेकानंद ने कहा, ‘मैं पश्चिमी देशों में जाकर अपने गुरु की शिक्षाओं को फैलाना चाहता हूं। क्या मैं जा सकता हूं?’ अपने काम में व्यस्त, बिना अपना सिर उठाए उन्होंने विवेकानंद से कहा, ‘नरेन क्या तुम मुझे वह चाकू दे सकते हो?’ नरेन ने चाकू उठाया और गुरु मां को दे दिया। चूंकि नरेन एक खास तरीके के व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने एक खास तरीके से वह चाकू उन्हें दिया। नरेन ने चाकू के धार वाले सिरे को हाथ में पकडक़र मां को चाकू का हत्था पकडऩे को दिया। मां ने चाकू ले लिया और उसे एक तरफ रख दिया और बोली, ‘तुम जा सकते हो।’ तब नरेन ने इस बात पर गौर किया और फिर उन्होंने उनसे पूछा, ‘आपने मुझसे चाकू क्यों मांगा? आपको तो सब्जी काटनी नहीं थीं। जो भी काटना था, वह सब पहले ही बर्तन में कटा रखा हुआ है। फिर आपने चाकू क्यों मांगा?’ गुरु मां ने कहा, ‘मैं यह देखना चाहती थी कि तुम चाकू कैसे पकड़ाते हो। तुम अपने गुरु की शिक्षाओं को फैलाने के लिए जा सकते हो।’
[माँ काली-श्रीरामकृष्ण परम्परा में भावमुख रहने का चपरास प्राप्त गुरु श्रीरामकृष्ण -माँ सारदा वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में-'नरेन् शिक्षा देगा ' का चपरास प्राप्त शिष्य-स्वामी विवेकानन्द, क्योंकि नरेन् चाकू पकड़ाना जानता था ! को अपने हृदय में रखने की आवश्यकता है। और इसीकारण विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर Be and Make '-चरैवेति ,चरैवेति' लीडरशिप परम्परा में C-IN-C का चपरास प्राप्त नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल आंदोलन-के Dy C-IN-C, बिरेन दा, दीपक दा ....आदि को "मोने कोरबी तुमि एक जन शिक्षक !" को निरंतर अपने हृदय में रखने की आवश्यकता है।और आज भी 'गुरु-शिष्य वेदान्त 'C-IN-C' Be and Make परम्परा' में स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण या नेताजी जैसा  Hero अर्थात स्थितप्रज्ञ बनना सम्भव है; इसी बात को सबको सुनाने और अपने जीवन के द्वारा दिखा देने में समर्थ युवा नेता (C-IN-C नवनीदा जैसे चिरयुवा नेता) की आवश्यकता हमें है ।],


   [श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग के प्रशिक्षण को प्रमुखता प्राप्त है।अथवा महामण्डल की "Be and Make:चरैवेति, चरैवेति" C-IN-C Leadership Training परम्परा में 'नेता' को 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण को प्रमुखता प्राप्त है।] 
>>>श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही अनुकरणीय है !  मेरे गुरुदेव किसी को ढूंढने नहीं गये। उनका सिद्धान्त यह था कि मनुष्य को प्रथम चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्रप्त करना चाहिए और उसके बाद फल स्वयं ही मिल जाता है। जब कमल खिलता है तो मधुमक्खियाँ स्वयं ही उसके पास मधु लेने के लिए आ जाति हैं। अतः प्रथम हमें चरित्रवान होना चाहिए और यही सबसे बड़ा कर्तव्य है, जो हमारे सामने है। ''7/260 "मेरे गुरुदेव का मानव जाति के लिए यह सन्देश है कि ' प्रथम स्वयं धार्मिक बनो और सत्य की उपलब्धी करो। तुम अपने भ्रातृ-स्वरुप मानव जाति के कल्याण के लिए सर्वस्व त्याग दो ! भ्रातृ-प्रेम के विषय में बातचीत बिल्कुल न करो, वरन अपने शब्दों को सिद्ध करके दिखाओ। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय, वरन इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति। जिन्हें अनुभव हुआ है, वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्य जाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं-केवल वे ही ज्योति कि शक्ति हैं।' जिस देश में ऐसे मनुष्य जितने ही अधिक पैदा होंगे, वह देश उतनी ही उन्नत अवस्था को पहुँच जायेगा और जिस देश में ऐसे मनुष्य बिल्कुल नहीं हैं, वह नष्ट हो जायेगा-वह किसी प्रकार नहीं बच सकता. " ७/२६७] 
 
[जबकि दूसरों के पापाजी या डैडीजी की उपरी इनकम बहुत है, इसलिए वे बड़े ठाट-बाट से रहते हैं इसीलिये कहा जाता है, तुम्हारे पिता इतनी बड़े पद पर रहकर भी कुछ नहीं बनाये, इसलिए एकदम पागल हैं।स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "जो व्यक्ति दिन-रात अपने को दीन-हीन या अयोग्य समझे हुए बैठा रहेगा, उसके द्वारा कुछ भी नहीं हो सकता। वास्तव में अगर दिन-रात वह अपने को दीन,नीच एव, 'कुछ नहीं' समझता है तो वह 'कुछ नहीं' ही बन जाता है। हम तो उसी सर्व शक्तिमान परम पिता की सन्तान हैं, उसी अनन्त ब्रह्माग्नि की चिनगारियाँ हैं, -भला हम 'कुछ नहीं' क्योंकर हो सकते हैं ? हम सब कुछ हैं, सब कुछ कर सकते हैं, और मनुष्य को सब कुछ करना ही होगा, हमारे पूर्वजों में ऐसा ही दृढ़ आत्मविश्वास था। इसी आत्मविश्वास रूपी प्रेरणा-शक्ति ने उन्हें सभ्यता की उच्च से उच्चतर सीढ़ी पर चढ़ाया था;और जिस दिन हमारे पूर्वजों ने अपना यह आत्मविश्वास गँवाया, उसी दिन से हमारी यह अवनति, यह दुरवस्था आरम्भ हो गयी। आत्मविश्वास-हीनता का मतलब है ईश्वर में अविश्वास. " ५/२६७]
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
अर्थात धर्म के सार को सुनों और सुनकर हृदयंगम कर लो । वह क्या है ? वह इतना ही है कि जो अपनी आत्मा के प्रतिकूल हो , वैसा आचरण दूसरों के साथ न करें । " यही है-यूनिवर्सल रिलिजन या 'वैश्विक धर्म' या सभी मनुष्यों का धर्म !  
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[Naipaul passed judgment that "Bengal was the economic and intellectual leader of India till it discovered Marxism. It discovered Marxism and like poor Russia in 1917, committed suicide. The economic lead of Bengal has vanished and so has the cultural lead.] 
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बुधवार, 8 अगस्त 2012

2.5 "समस्या का समाधान " [ द्वितीय अध्याय -गीता 2.5 4 : 'मृग जल' भ्रम से स्थितप्रज्ञ 'मनुष्य' का निर्माण ! : समस्या और समाधान (Problem and Solution ) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.5]

       " स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-2.5 "
 
द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान ? 

[गीता (2.54) - 'मृग जल' भ्रम से स्थितप्रज्ञ 'मनुष्य' का निर्माण !] 

5.

 "समस्या का समाधान " 

समाज में समस्याएँ रहती ही हैं, फिर कई समस्यायें (अविद्या आदि) सभी समाज में एक ही प्रकार की होती हैं। प्रत्येक समाज इन समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है किन्तु, उन प्रयासों के बीच नई -नई समस्यायें भी उत्पन्न होती रहती हैं;  इसीलिए समाज में समस्याओं का कभी अंत नहीं होता।
      समस्यायों को हल करने के दो तरीके हैं- एक उपचारात्मक 'curative' तथा दूसरा निरोधात्मक (preventive)हम यह कहावत को जानते हैं-' Prevention is better than cure'(रोकथाम का तरीका इलाज से बेहतर है।) तात्पर्य यह कि व्याधि  हो जाने के बाद उसका उपचार करने की अपेक्षा समस्यायों का निरोध करना उत्तम है। किन्तु, समाज की विविध जटिलताओं के कारण रोगनिरोध का उपाय कठिन हो जाता है। इसलिये असंख्य समस्यायों से पीड़ित समाज को अक्सर उनके उपचार (curative treatment) में ही व्यस्त रहना पड़ता है। प्राचीनकाल से अबतक जितने भी सामाज-सेवी संगठन बने हैं, वे सभी मूख्य रूप से समस्यायों की रोकथाम के उद्देश्य से ही बने हैं। फिर भी जो समस्यायें रोकथाम रूपी सरकफन्दों (noose) से फिसलकर प्रकट हो ही जाती हैं, उनके उपचार के लिये समाज को ताकत (राष्ट्रशक्ति -सेना, पुलिस, कानून) का सहारा लेना पड़ता है। 
                 वैश्विक गाँव (Global Village) में तब्दील होते विश्व में विभिन्न कारणों से विशेषकर बेमेल आदर्शों के अप्रतिबन्धित प्रवेश के कारण सामाजिक संस्थाएं कमजोर हो गयी हैं।  सामाजिक संगठनों के प्रभावकारी न रहने पर रोकथाम के उपाय (Preventive action) जब कमजोर पड़ जाते हैं तब मुख्यतः राजनितिक उपायों के द्वारा समस्याओं को हल करने का प्रयास चलने लगता है। फिर विभिन्न देशों में समस्याओं को अलग-अलग ढंग से देखा जाता है तथा राज-नैतिक पृष्ठभूमि में परिवर्तन के साथ ही - 'उपचारात्मक या रोगनिवारक विधि' में भी परिवर्तन हो जाता है। 
      इसके अतिरिक्त असंख्य जटिल समस्याओं वाले देश का नेतृत्व करना या किसी सामाजिक या प्रशासनिक व्यवस्था को सुन्दर रूप में संचालित करना भी सरल नहीं है। असंख्य जटिल समस्याओं के कारण सत्ताधीशों को इन जटिल समस्यायों की गहराई में जाने का पर्याप्त समय भी नहीं मिल पाता है। एक ओर जहाँ मूल कारणों को चिन्हित कर पाना कठिन होता है, वहीँ दूसरी ओर जब कोई समस्या अत्यधिक भड़क उठती हैं तो उस समस्या के निराकरण के लिए 'तात्कालिक उपाय ' के रूप में  किसी न किसी उपचारात्मक विधि को लागू करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। राजनितिक उपाय से समस्याओं को हल करने का प्रयास हिमशैल के ऊपरी छोटे से हिस्से (Tip of the iceberg ) को स्पर्श करने के समान है। इसमें मूल समस्या ज्यों की त्यों पड़ी रह जाती है क्योंकि राजनीतक दल जन समर्थन के माध्यम से सत्ता बचाये रखने पर अधिक ध्यान देते हैं, तथा सच नहीं कह पाते इसलिए मनुष्यों के चारित्रिक गुणों  पर्याप्त सम्मान नहीं मिल पाता। किन्तु मनुष्यों के चारित्रिक गुणों के भीतर ही समस्या का समाधान निहित है। अतः उपचार और रोकथाम के उपायों का मिलन स्थल भी यही हैं। क्योंकि जहाँ एक अवगुण समस्या की उत्पत्ति का कारण है, वहीं एक सदगुण समस्या का समाधान करने में सक्षम है। चारित्रिक गुणों की बुनियाद पर मनुष्यों की गुणवत्ता में परिवर्तन लाना ही समस्या का सम्पूर्ण उपचार है।  दूसरे ढंग से विचार करने पर यही एकमात्र रोकथाम का उपाय भी है। जिस समाज की समस्याओं के मूल कारण घोर स्वार्थी मनुष्य (पशुमानव)  हो, वहाँ स्वार्थ-हीन मनुष्यों (देव-मानव ) का निर्माण करना ही  रोकथाम का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। किन्तु यह कार्य बाहरी दबाव, कड़ा कानून  या पार्लियामेन्ट में बिल पास कर नहीं किया जा सकता। 
          स्वामीजी ने तो बार बार कहा है, कि 'निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण  पार्लियामेन्ट से कानून पास करवा कर नहीं किया जा सकता है।' और निःस्वार्थी, निष्कपट, देश-भक्त, 'चरित्रवान मनुष्यों ' का निर्माण किये बिना समाज की यथार्थ उन्नति नहीं हो सकती है। इसी विषय पर स्वामीजी के समकालीन पाश्चात्य मनीषी जॉर्ज बर्नार्ड शॉ (George Bernard Shaw) के विचारों का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। वैसे तो वे आयु में स्वामीजी से बड़े थे, किन्तु उनकी विचारधारा में परिपक्वता स्वामीजी के जीवन-काल के पश्चात् ही आ सकी थी। श्री शॉ के विषय में ए.सि. वार्ड (A. C.  Ward) लिखते हैं- " अपने प्रारम्भिक जीवन में, किसी कट्टर साम्यवादी की तरह श्री शॉ भी यह विश्वास करते थे कि, धनिकों के ऐश्वर्य को कम कर के गरीबों को उपर उठाने का प्रयत्न करना सभ्य समाज के लिये अनिवार्य है। और इसके लिये पार्लियामेन्ट में कानून पास करवाकर साम्यवाद को स्थापित करना प्राथमिक कार्य है।" हालाँकि उन्होंने मानव समाज के कल्याण और आनन्द में वृद्धि करने के उपाय के रूप में साम्यवाद का ही प्रचार किया था। किन्तु बाद में (उम्र बढ़ने पर अर्थात) अनुभव अधिक हो जाने पर पार्लियामेन्ट से कानून पास करवा कर 'साम्यवाद' स्थापित करने का उनका विचार बदल गया था। तथा अपने अनुभव के आधार पर बर्नार्ड शॉ ने कहा था " समाज की उन्नति के लिये प्राथमिक आवश्यकता अच्छे कानून की नहीं बल्कि अच्छे मनुष्यों की है। ऐसे स्त्री-पुरुषों का निर्माण करना होगा जो जीवन में नैतिकता को धारण करने वाले चरित्रवान हों। कुछ ईमानदार लोग कहीं-कहीं से अच्छे-अच्छे  कानूनों का संकलन कर एक अच्छा संविधान तो बना सकते हैं किन्तु यह अच्छे कानूनों का पोथा स्वतः ही किसी अच्छे समाज की गारन्टी नहीं दे सकता।" क्या बर्नार्ड शॉ के ये विचार स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा की प्रतिध्वनि प्रतीत नहीं होते? 
       हमारे देश में -- आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, नैतिक, सामुदायिक-विकास से सम्बन्धित, जातिगत और भाषाई (Ethnic and linguistic) आदि अनगिनत  समस्याएँ हैं। किन्तु हमें पहले यह विचार करना पड़ेगा कि समाज के इन समस्यायों की जड़ कहाँ है? समाज बनता किस चीज से है ? क्या मैदान,पर्वत, गाँव, शहर,भवन, या विभिन्न संगठन, प्रतिष्ठान,  संवैधानिक सभा-समितियों, पुलिस, सरकार, आदि के द्वारा समाज का निर्माण  होता है? या फिर सबों के विकास और प्रगति को ध्यान में रखकर पारस्परिक सहयोग के साथ प्रकृति तथा मनुष्यों के द्वारा निर्मित समस्त उत्पादों तथा संस्थाओं को उपयोग में लाकर सुख-शांति से मिलजुलकर रहने वाले मनुष्यों से बनता है ? यह स्पष्ट है कि मनुष्य ही समाज का केन्द्र  है, तथा सभी योजनायें उसी को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं । 
                मनुष्य अपने को पूर्ण विकसित करने के लिये निरंतर संघर्ष कर रहा है  उससे भूलें भी होती हैं, अनुभव से शिक्षा भी प्राप्त करता है, फिर अपना पूर्ण विकास करने के संघर्ष में जुट 
जाता है। इस प्रकार यह समाज मनुष्य के पूर्ण-आत्मविकास करने के लिए संघर्ष का स्थान है या एक व्यायामशाला है समाज में स्थापित विभिन्न चारित्रिक-मूल्यों के ताने-बाने (টানা ও পোড়েন) के अनुसार ही मनुष्यों में क्रिया - प्रतिक्रिया होती दिखाई देती हैं। इन समस्त शक्तियों के ताने-बाने, मूल्यों के गिरने- उठने या संतुलन में रखने की कुँजी भी व्यष्टि मनुष्य के नियन्त्रण में ही रहती हैं। जबकि उपरी तौर पर यह दिखता है कि नैतिकता विभिन्न सरकारी संस्थाओं के माध्यम से (ed,cbi या पुलिस के डण्डे से ) ही लागू की जा सकती हैं। इससे इस भ्रान्त धारणा की सृष्टि हो जाती है कि समाज में नैतिक शक्तियों को नियंत्रित करने का सामर्थ्य जनसाधारण के पास नहीं होती। समाज के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, या अन्य किसी भी समस्या का मूल उसमें वास करने वाले मनुष्यों के भीतर ही ढूँढ़ा जाना चाहिए। क्योंकि समस्या चाहे कोई भी हो अन्ततः उसके मूल में कोई न कोई मनुष्य ही होगा। और उसी में सुधार  या दण्ड के माध्यम से उस समस्या का समाधान होगा। मनुष्य को सुधारने अथवा दण्डित करने के अतिरिक्त सामाजिक समस्याओं के समाधान का अन्य कोई पथ है ही नहीं। 
        यहाँ, एक विषय पर विशेष रूप से चिन्तन करने की आवश्यकता है। ठीक है कि हमने यह स्वीकार कर लिया कि किसी भी समस्या का समाधान के लिये अन्ततोगत्वा किसी न किसी मनुष्य को ही सुधारना होगा या दण्डित करना होगा; किन्तु प्रश्न है कि मनुष्य को सुधारने या  दण्डित करने का कार्य करेगा कौन ? इसका उत्तरदायित्व किसके उपर होगा, सरकार, सामाजिक संगठन या वृहत्तर समाज ?  थोड़ी गहराई से विचार करने पर यह आसानी से समझ जायेंगे कि किसी भी प्रकार की संस्था के पीछे मनुष्य की कल्पनाशक्ति (Imagination), तर्कशक्ति (Rationality) और संकल्पशक्ति (willpower) ही कार्य करती है।  तथा थोड़ी और अधिक गहराई से चिंतन-मनन  करने पर हम यह भी समझ सकेंगे कि अंततः मनुष्य को किसी दूसरे के साथ नहीं बल्कि स्वयं के साथ ही संघर्ष करना होगा। 
             मनुष्य का स्वयं के साथ संघर्ष करने का क्या अर्थ है ? इसका अर्थ है कि हमें अपने शरीर के साथ नहीं बल्कि मन के साथ संघर्ष करना होगा। क्योंकि मानव- मन ही वह आधार है जो समस्त समस्याओं का समाधान में सक्षम चारित्रिक-गुणों को उत्पन्न करता है।  
इसीलिये मन का शुद्धिकरण इस प्रकार करना होगा जिससे वह' संकल्प-शक्ति' या इच्छाशक्ति के प्रवाह एवं अभिव्यक्ति को फलदायी बनाने तथा उन्हें अपने पूर्ण-नियन्त्रण में रखने में समर्थ हो सके। इसका अर्थ यह हुआ कि समस्या का समाधान करने के लिए, मन को प्रशिक्षित करने का उपयुक्त तरीका सीखकर, उसका उचित तरीके से मुकाबला करना होगा। [प्रार्थना करना होगा 
हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें, दूसरों को जय के पहले खुद को जय करें !] इस प्रकार  निष्कर्ष यह निकला कि 'मन' को वशीभूत करने की शिक्षा ही समाज की समस्त  समस्याओं के समाधान का सर्वोत्तम उपाय है
      यदि हम मन को वशीभूत करने को ही समस्त समस्याओं के समाधान का अन्तिम उपाय स्वीकार कर लें तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि समस्या को हल करने के लिये केवल 'उपचारात्मक -विधि ' (Curative method) को अपनाने से भी कोई विशेष लाभ नहीं हो सकता है। क्योंकि दण्डात्मक कार्यवाई का भय हमारे कुसंस्कारों को थोड़ी देर के लिये दबा तो सकता है अथवा उन कुसंस्कारों के हानिकारक प्रभाव में थोड़ी कमी तो ला सकता है किन्तु , भविष्य में पुनः वह समस्या उत्पन्न ही न होगी इसकी गारंटी नहीं दे सकता। इसलिये समस्याओं का समाधान करने के दूसरे तरीके 'रोकथाम पद्धति' - अर्थात मनुष्य के मन को प्रशिक्षित करने वाली शिक्षा के माध्यम से समस्यायों को हल करने के उपर विस्तार से चर्चा करना आवश्यक है। 
            यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या सभी प्रकार के मनुष्यों को मन को वशीभूत करने की शिक्षा दी जा सकती है ? उत्तर है- हाँ ! लेकिन यदि किसी के मन का स्वाभाव एक बार गठित हो गया हो तथा आदतें चित्त की गहराई तक प्रविष्ट हो चुकी हों तो वैसे मन को वश में लाना (अर्थात स्थितप्रज्ञ मनुष्य # बनना )  असम्भव न होने से भी कठिन अवश्य है।  इसीलिये व्यस्क हो जाने के बाद मन में परिवर्तन लाने की चेष्टा की अपेक्षा किशोर मन को ही गठित करने का प्रयास अपेक्षाकृत सरल एवं अधिक फलदायी होता है। अतः किशोर मन को इस प्रकार प्रशिक्षित तथा गठित करना होगा ताकि वह समस्यायों को उत्पन्न करने वाले चारित्रिक-दोषों या अवगुणों को अपनाये ही नहीं, और विवेक-प्रयोग द्वारा उन्हें धारण करने से ही इंकार कर दे। 

      अतएव हमारे नीतिनिर्धारकों को  इस ओर (3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण की ओर) सतर्क दृष्टि रखनी होगी  जिससे समाज का प्रत्येक व्यक्ति  (छुरे की धार जैसी) तीक्ष्णतर विवेक-प्रयोगशक्ति, व्यापक उदार दृष्टिकोण,  एवं परिष्कृत संकल्पशक्ति-(मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूंगा ! इत्यादि समस्त सकारात्मक चारित्रिक गुणों  से विभूषित होकर (संकल्पसूत्र को प्रतिदिन दो बार लिखते-करते  हुए)  समाज के भीतर बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्यायों के समाधान करने में समर्थ एक योग्य और उपयुक्त चरित्र का अधिकारी मनुष्य बन सके। 
और चूँकि अन्ततोगत्वा इंटरैक्शन तो मनुष्य को मनुष्य के साथ ही करना पड़ता है, अतएव आज के तरुण को ही भविष्य के व्यस्क मनुष्य के साथ बातचीत या अंतःक्रिया (interaction) करनी पड़ेगी। आज के तरुणों को यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिये कि चाहे समस्याओं का सामना करना हो अथवा किसी नई समस्या को उत्पन्न होने से रोकना हो, दोनों परिस्थितियों में स्वयं को 'यथार्थ मनुष्य' के रूप में यानि चरित्रवान मनुष्य (स्थितप्रज्ञ मनुष्य)  के रूप में गढ़ लेना सबसे पहला आवश्यक कार्य हैअतएव तरुणों को आत्मविकास की पद्धति को समझाने, सिखाने या प्रशिक्षण देने में समाज के अन्य लोगों की सहायता का सवाल, भी स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है। [विशेषरूप से "Be and Make ' चरैवेति,चरैवेति' -वेदान्त लीडरशिप, अर्थात 3H विकास के 5 अभ्यास को सिखाने में सक्षम 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर CINC प्रशिक्षण परम्परा" में स्वयं प्रशिक्षित शिक्षकों /नेताओं के की सहायता का सवाल स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है।] क्योंकि युवाओं को सम्पूर्ण मानव (यथार्थ मनुष्य या स्थितप्रज्ञ  मनुष्य)  में परिणत करने के लिये, [यानि '3H ' की दृष्टि से तीनों अवयव में उन्नत, बुद्धत्व-प्राप्त मनुष्य बनने और ] शिक्षा संस्थानों द्वारा (बड़ोदा यूनिवर्सिटी के Department of Social Work द्वारा)  किया जाने वाला केवल मस्तिष्क का विकास  (Head का विकास या बुद्धिबल विकास) ही यथेष्ट नहीं है। इसीलिए शिक्षा-संस्थानो के बाहर किन्तु 'संगठित -सामाजिक प्रयास' (Outside educational institutions but through 'organized social efforts') के द्वारा मनुष्य की हृदयवत्ता (Heartiness-या सौहार्द, आत्मबल ) को विकसित करने के साथ साथ कर्मशक्ति (Hand-बाहुबल ) को भी विकसित करना अत्यंत आवश्यक है। 
            जो मनुष्य स्वयं को केवल जैविक अवश्यकताओं (Biological needs) को पूरा करने तक ही सीमाबद्ध कर लेता है, जिसको  आहार-निद्रा-भय-और प्रजनन करने  के अतिरिक्त अन्य किसी उत्कृष्ट वस्तु पाने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती, जिसके जीवन का लक्ष्य केवल इन्द्रिय विषयों का भोग करना और दूसरों को लूट कर या छीन कर भी अपना स्वार्थ पूरा कर लेना ही हो, तो वह व्यक्ति मनुष्य का ढाँचा रहने से भी पशु के समान ही है। और समस्त समस्यायों की जड़ भी यहीं पर है। केवल वास्तविक शिक्षा ही मनुष्य को पशुत्व की दिशा में गिरने से रोक कर मनुष्यत्व प्राप्ति की दिशा में मोड़ने का सामर्थ्य रखती है।  किन्तु आज हमलोग अपनी संतानों को, बचपन से ही  उपयुक्त शिक्षा देने तथा उनको यथार्थ मनुष्य (स्थितप्रज्ञ समस्यायों मनुष्य) बनाने की तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं। फलस्वरूप वे लोग अनायास उग आये कटीली झाड़ियों [कैक्ट्स या पर्थेनियम ग्रास] की तरह हो जाते हैं तब उनके काँटों की चुभन से समाज का आम आदमी क्षत-विक्षत होता रहता है।   
            इनसे पीड़ित होकर हम अचानक किसी दिन सुबह उठकर किसी  मैदान (रामलीला मैदान या जन्तर-मन्तर,शाहीन बाग के रोड को जाम कर) में किसी बैनर तले एकत्र होकर तेजी से सभी समस्याओं के समाधान कर देने की योजना  बना लेते हैं और  एक विशाल आयोजन करते हैं। बहुत जोर-शोर से उसका प्रचार होता  है। लोग सोचने लगते हैं कि अब सभी लंबित समस्याओं का समाधान होने ही वाला है। और वे समस्यायों के अंत के विषय में पढ़ने के लिए अगली सुबह अख़बार की प्रतीक्षा करने लगते हैं। किन्तु, जब उसमें समस्याओं के समाधान के विषय में कुछ नहीं मिलता तब वे एकबार फिर निराशा के गर्त में गिर जाते हैं। इसी प्रकार का गड़बड़झाला  लम्बे समय से चला आ रहा है, और तब तक चलता रहेगा, जब तक हमलोग यह नहीं जान लेंगे कि 'पुनर्निर्माण के कार्य' का प्रारंभ करना कहाँ से  है ? यह कार्य हमें जड़ से ही करना होगा, जड़ों को सींचना होगा, उसकी देख-रेख करनी होगी। तभी तो जब पौधा बड़ा होगा तो हमें उसका फल प्राप्त होगा। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " पुनर्निर्माण करने के लिये हमें समस्या के भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है। इसी को मैं आमूल सुधार कहता हूँ। मेरी चिकित्सा-पद्धति यह है कि रोग को केवल दबाकर न रखा जाय, बल्कि उसे जड़ से नष्ट कर दिया जाय। तथाकथित समाज-सुधार के कार्यों में हाथ मत डालना, क्योंकि आध्यात्मिक सुधार के बिना कोई भी सुधार सम्भव नहीं है।  " ( रामकृष्ण मठ नागपुर से प्रकाशित पुस्तक - 'भारत ओर उसकी समस्याएँ ' पृष्ठ ३७ ) 
        हमलोगों को अपना सारा ध्यान तरुणों के उपर केन्द्रित रखना होगा। उसको उपयुक्त तरीके से शरीर, मन और ह्रदय को विकसित करने का प्रशिक्षण देकर 'योग्य मनुष्य'  के रूप में उनका निर्माण करना होगा।  फिर जब वे लोग (स्थितप्रज्ञ लोग) सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रबन्धन और नेतृत्व की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले लेंगे, केवल तभी हमारी सभी समस्याओं का समाधान हो सकेगा, उसके पहले नहीं। इस 'स्थितप्रज्ञ-मनुष्यनिर्माणकारी आन्दोलन ' को सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैला देने के लिए हमें परस्पर मिलजुल कर (परस्पर भावयन्तः) आपस में एकजूट होकर काम करना होगा, इसके लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होगी। हो सकता है यह सन्जीवनी बूटी किसी किसी को अरुचिकर, बेस्वाद, नीरस लगे, किन्तु स्वामीजी के अनुसार भारत की समस्त समस्यायों की रामबाण-औषधि, इस स्थितप्रज्ञ- मनुष्यनिर्माणकारी शिक्षा/धर्म को भारत माता की प्रत्येक संतान (हिन्दू हो या मुसलमान) के पास पहुँचा देना ही है। इस कार्य के साथ प्रत्येक अंग्रेजी पढ़े लिखे तरुण को जोड़ने का प्रयास करना होगा। अभी हमें अपनी उर्जा व्यर्थ के राजनितिक , सामाजिक आंदोलनों में नष्ट नहीं करना होगा। क्योंकि जब तक सच्चे मनुष्यों का (स्थितप्रज्ञ मनुष्यों) का निर्माण नहीं कर लिया जाता तबतक किसी भी परिवर्तन की आशा करना व्यर्थ है। 
      अभी हमलोगों का एक मात्र लक्ष्य है-' मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ !' बाकी सबकुछ अपने आप ही ठीक हो जायेगा। कोई नया दल या नया कानून पार्लियामेन्ट से पास करवाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। किन्तु जो लोग उपचारात्मक विधि ( क़ानूनी दण्ड ) से परिवर्तन लाने के प्रति आग्रही हैं उनकी भी निंदा मत करो। वे लोग अपने तरीके से अथक प्रयास करें, वे भी समस्या को हल करने की चेष्टा पूरे जी-जान से करें। किन्तु तुम अपने पथ पर चलते रहो। दूसरों को भी अपने मार्ग पर लाने की चेष्टा में समय मत बर्बाद करो। यदि स्थितप्रज्ञ मनुष्य ' बनो और बनाओ ' की सतयुग स्थापनकारी पद्धति की महत्ता को तुमने स्वयं समझ लिया है तो कार्य में लग जाओ। एकबार स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " To do good and to be good -is whole of religion." अर्थात, अच्छा मनुष्य बनो, और अच्छे कार्य करो- इतना ही धर्म है। क्या तुम इस धर्म को ग्रहण कर सकोगे ? यदि युवा शक्ति  इस धर्म को ग्रहण करले, तो दुनिया बदल जाएगी। स्वार्थी लोग इस सरल सत्य को समझना ही नहीं चाहेंगे, वे तुम्हारी हँसी उड़ायेंगे। किन्तु तुम अपने पथ को नहीं छोड़ना। स्वार्थी मनुष्य ऐसा मानते हैं कि- ' यह दुनिया उनके भोग के लिये बनी है, और दुर्बल मनुष्य तो सबल मनुष्यों के द्वारा शोषित होने के लिये ही बने हैं, और ताकत से ही न्याय होता है। (जिसके हाथ में होगी लाठी भैंस वही कब तक ले जायेगा ?') किन्तु, तुम्हारे लिए वैसा नहीं होगा। तुम्हारा सिद्धान्त होगा- " मैं जगत की सेवा करने के लिये आया हूँ, सबल मनुष्य दुर्बल को उपर उठायेंगे और न्याय ही शक्ति है। " यह बाद वाला मार्ग ही श्रेय का मार्ग है। यह मार्ग ही दूसरों की सहायता करने वाला मार्ग है। इस पथ से चलने वाला पथिक ही यथार्थ शक्तिमान होता है, उसका रक्षा-कवच सुंदर चरित्र होता है।
      इस मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने के लिये बहुत अधिक धन-बल बहुत बड़े भवन या बड़ा विद्यालय बनाने की आवश्यकता नहीं है।  यदि तुम अपने देश से प्यार करते हो, अपने शरीर,मन एवं हृदय की उन्नति के द्वारा अन्य पाँच लोगों के विकास की सम्भावना में भी विश्वास करते हो तो दूसरों को भी उन्नति करने का यह पथ दिखला दो। नाम-यश के प्रलोभन में मत फंसो, अपने संकल्प पर दृढ रहो।  छात्र-जीवन में तुम्हारे लिये सर्वोत्तम त्याग होगा अपनी उर्जा को चरित्र-गठन के अतिरिक्त अन्य सभी चीजों से समेट लेना, उसका दुरूपयोग नहीं करना। ऐसा करने से तुम बौद्धिक शक्ति, ह्रदयवत्ता तथा कर्म-क्षमता से सम्पन्न पूर्ण मनुष्य (स्थितप्रज्ञ मनुष्य) के रूप में विकसित हो सकते हो। अपने शरीर को बलवान और ओजपूर्ण बनाओ, अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण (Penetrating) बनाओ, तथा अपने हृदय को प्रसारित कर उसे उदार बना लो। 
        जहाँ कहीं भी तरुणों का दल एकत्रित होता हो- किसी कमरे में, किसी वृक्ष के नीचे, मैदान में, गाँव-शहर कहीं भी वहीँ 'मन को स्थितप्रज्ञ बनने और बनाने के लिए प्रशिक्षित करने वाली  शिक्षा का प्रचार-प्रसार' करने वाले केन्द्र खोलने का प्रयास करते रहो। उन केन्द्रों में व्यायाम के द्वारा शरीर को पूष्ट बनाने, पाठचक्र और सामूहिक चर्चा के द्वारा मन को पूष्ट बनाने, स्वामीजी के मानव सेवा के सम्बन्ध में दिए गए उनके उपदेशों को वास्तविक जीवन में उतार कर ह्रदय को प्रसारित करने का प्रयास निरंतर करते रहो। मनन और प्रार्थना इस विकास के दो आवश्यक अंग होंगे। ग्राम- जिला- राज्य, राष्ट्र, हर स्तर के युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने से बहुत लाभ होता है।  शिविर में संगठित प्रयास,सामूहिक निवास और देश के विभिन्न राज्यों से आये हुए तरुणों के साथ मिल-जुल कर रहने के फलस्वरूप युवाओं में परमत सहिष्णुता, सहयोगात्मक मनोभाव, एकात्मबोध, एवं राष्ट्रीय एकता का भाव आदि सद्गुण स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं । शिविर में समस्त आवश्यक प्रशिक्षण को प्राप्त करने वाला कर्तव्यपरायण, देशप्रेमी, स्वार्थहीन, त्यागी, मानवताबोध सम्पन्न, सेवापरायण एवं उदार दृष्टिकोण सम्पन्न नागरिक में रूपान्तरित हो जाता है। 
        जब असीम साहस, जबर्दस्त आशावाद  एवं अविरत प्रयास से ऐसे कई चरित्रवान (स्थितप्रज्ञ) युवक तैयार हो जायेंगे जो क्रमशः सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र; यथा शिक्षा संस्थानों, अस्पतालों, कृषि क्षेत्र, रक्षा विभाग, उद्द्योग और व्यापार, सरकारी दफ्तर, विभिन्न राजनैतिक दलों में प्रविष्ट हो जायेंगे तब राष्ट्र के जीवन में समस्यायों का जो ढेर लगा हुआ है वह सब उनके आने  के साथ ही समाप्त हो जायेगा।
          किन्तु, हमारा उद्देश्य स्वयं कोई शिक्षा-संस्थान, अस्पताल, अद्द्योगिक प्रतिष्ठान, या राजनैतिक पार्टी खड़ा करना नहीं है। क्योंकि देश में इन सब का आभाव नहीं है। परन्तु, इस प्रकार के समस्त प्रतिष्ठानों में ईमानदार कार्यकर्ताओं का घोर आभाव है। इस कमी को दूर करना ही महामण्डल सबसे आवश्यक कार्य समझता है, और इतना कर ही वह खुश है। राजनीती के माध्यम से इन सब पर कब्जा कर लेने का हमारा  कोई इरादा नहीं है।
               स्वामी विवेकानन्द का युवाओं से आग्रह है- " इसीलिये पहले 'मनुष्य' उत्पन्न करो! "  यही है उनके इस आह्वान की मूल भावना। किन्तु,  हमलोगों ने आभी तक स्वामीजी के सत्योपदेश पर कोई ध्यान नहीं दिया है। अगर सुना भी है तो कभी यह समझने की चेष्टा नहीं की है कि उन्होंने " Be and Make " का आह्वान क्यों किया था? उनके इसी छोटे से सत्योपदेश के भीतर ही 'क्रान्तिकारी परिवर्तन ' का बीज निहित है !
       सत्ता के नशे में चूर रहने की प्रवृत्ति  को त्यागकर, अपने क्षुद्र स्वार्थों को विसर्जित कर स्वामीजी के नाम के आगे ' हिन्दू-सन्यासी ' का तमगा  लगाकर उन्हें भी 'sectarian' (कट्टरपंथी) बनाने की साजिश/ कोशिश छोड़, आइये, हमलोग इस योजना (स्थितप्रज्ञ-मनुष्यनिर्माणकारी योजना)  को पूरा करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य  प्रारंभ करें और इस " मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन " को सारे देश में फैला दें ! 
 
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>>># गीता में अर्जुन उवाच : स्थितप्रज्ञ क्या है?  
धार्मिक ग्रंथों में मिथ्या जगत (संसार) को मृगतृष्णा कहा गया है जिसका अर्थ हिरण द्वारा देखा जाने वाला 'मृग जल' है। रेगिस्तान की गर्म रेत पर जब सूर्य की किरण का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है और उस हिरण को जल का भ्रम हो जाता है।  वह धीरे-धीरे जल की ओर भागता है, वह मृगजल वहां से दूसरे स्थान पर रहती है और आगे दिखाई देती है। हिरन अपनी मंदबुद्धि के कारण यह जान नहीं पाता कि वह भ्रम के पीछे भाग रहा है। अभागा हिरण मृगजल का पीछा करते हुए भागता रहता है, और रेगिस्तान की तप्ती रेत पर थककर मर जाता है। इसी प्रकार दैवी शक्ति (प्राकृत शक्ति)  माया भी सुख का भ्रम पैदा करती है और हम अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की आशा में इन्द्रियग्राह्य  सुखों के पीछे भागते रहते हैं।  
जो व्यक्ति अपने को शरीर मानता है वह मायिक पदार्थों में आनंद को खोजता है तथा जो अपने को आत्मा मानता है वह भगवान में आनंद को खोजता है। कुछ लोग पूर्णतया अध्यात्मवाद को महत्व देते हैं, तथा कुछ लोग पूर्णतया भौतिकवाद को महत्व देते हैं । दोनों वाद-वादी अपने सिद्धान्त को ही सत्य​ मानते हैं, अतः अध्यात्मवाद तथा भौतिकवाद में अनादिकाल से विवाद चला आ रहा है। परंतु वास्तव में दोनों ही आवश्यक  हैं, क्योंकि भौतिकवाद (अपरा विद्या)  एवं अध्यात्मवाद (परा विद्या) दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । गरुड़ पुराण  कहता है -
चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरत्वलाभे सकलसुरपतित्वम्। 
भवितुं सुरपतिरूवंगितत्वं तथापि न निवर्तते तृष्णा।।
(गरुड़ पुराण-2.12.14)"संपूर्ण पृथ्वी का राजा, देवता का पद चाहता है । देवता, स्वर्ग के राजा इंद्र का पद चाहते हैं । इंद्र भी ब्रह्मा का पद प्राप्त कर ब्रह्मलोक का स्वामी बनना चाहता है । अतः कामनाओं का कोई अंत नही।"
'माया के खेल को महसूस किए बिना'  स्थितप्रज्ञ होना‌ संभव नहीं है। यानि 'C' या माया = देश, काल, निमित्त में होकर आने के कारण ही ब्रह्म (A) ही जगत या 'C' के रूप में भास रहा है , या एक ईश्वर ही अनेक बन गया है !  एक ब्रह्म ही  मरीज, नर्स , डॉक्टर, मेहतर, मरीज का पति, पिता, बहु ,बेटा बनकर अपना -अपना रोल कर रहा है ....  इस बात को अपने अनुभव से समझे बिना,  इस बात को अपने अनुभव से जाने बिना  स्थितप्रज्ञ होना‌ संभव नहीं है। 
एक अभिनेता जब तक अपनी भूमिका में (राजा या भिखारी की भूमिका अथवा डॉक्टर और मरीज की भूमिका) नहीं डूबता उसका अभिनय जीवंत नहीं दिखाई देता। इसके बावजूद भी वह संयत रहता है क्योंकि वह जानता है कि उसकी भूमिका वास्तविक नहीं है। एक नजरिए से यह स्थितप्रज्ञ अवस्था की झलकी है। अर्जुन उवाच : 

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।

अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; समाधिस्थस्य-दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य का; केशव-केशी राक्षस का दमन करने वाले, श्रीकृष्ण; स्थितधी:-प्रबुद्ध व्यक्ति; किम्-क्या; प्रभाषेत बोलता है; किम्-कैसे; आसीत-बैठता है; व्रजेत-चलता है; किम्-कैसे।
।।2.54।। अर्जुन ने कहा -- हे केशव समाधि में स्थित ( = दिव्य चेतना में लीन) स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण है।  वह सिद्ध पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
स्थितप्रज्ञस्य (स्थिर बुद्धियुक्त मनुष्य) और समाधिस्थस्य (दिव्य चेतना में स्थित) की उपाधि प्रबुद्ध व्यक्ति (=बुद्धत्व प्राप्त पुरुष) को दी जाती है। श्रीकृष्ण से पूर्ण योग की अवस्था या समाधि के विषय पर उपदेश सुनकर अर्जुन स्वाभाविक प्रश्न पूछता है। अर्जुन किसी बुद्धत्वप्राप्त व्यक्ति को उसके  मन पर कितना अधिकार होता है , मन उसके वश में रहता है , या वह मन का गुलाम रहता है , वह भगवान (योग-गुरु श्रीकृष्ण) से स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के मन की प्रकृति के संबंध में जानना चाहता है। इसके अतिरिक्त वह यह भी जानना चाहता है कि दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य की मानसिकता उसके स्वभाव में कैसे प्रकट होती है
 इस श्लोक से आरम्भ करते हुए अर्जुन श्रीकृष्ण से सोलह प्रश्न पूछता है। जिसके प्रतिउत्तर में श्रीकृष्ण कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग इत्यादि के संबंध मे गूढ़ रहस्य प्रकट करते हैं।
इस प्रकरण में स्थितप्रज्ञ का अर्थ है वह पुरुष जिसे आत्मा का अपरोक्ष अनुभव हुआ हो। और उसके फलस्वरूप जिसकी विवेक बुद्धि स्थिर हो गयी हो । वरना,  समाधि आदि शब्दों के प्रचलित अर्थ से तो कोई यही समझेगा कि योगी पुरुष आत्मानुभूति में अपने ही एकान्त में रमा रहता है। प्रचलित वर्णनों के अनुसार नये जिज्ञासु साधक की कल्पना होती है कि ज्ञानी पुरुष इस व्यावहारिक जगत् के योग्य नहीं रह जाता। 
ऐसी धारणाओं वाले से घृणा और कूटिनीति के युग में पला अर्जुन इस ज्ञान को स्वीकार करने के पूर्व ज्ञानी पुरुष के लक्षणों को जानना चाहता था। स्थितप्रज्ञ के लक्षणों को पूर्णत समझने की उसकी अत्यन्त उत्सुकता स्पष्ट झलकती है जब वह कुछ अनावश्यक सा यह प्रश्न पूछता है कि वह पुरुष कैसे बोलता है कैसे बैठता है आदि। उन्माद की अवस्था से बाहर आये अर्जुन का ऐसा प्रश्न उचित ही है। श्लोक की पहली पंक्ति में स्थितप्रज्ञ के आन्तरिक स्वभाव के विषय में प्रश्न है तो दूसरी पंक्ति में वाह्य जगत् में उसके व्यवहार को जानने की जिज्ञासा है।  भगवान श्री-उवाच-परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा; 

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।

।।2.55।। प्रजाहति-परित्याग करता है; यदा-जब; कामन्-स्वार्थयुक्त; सर्वानिश्चिंत; पार्थ-पृथपुत्र, अर्जुन; मनः-गतान-मन की; आत्मनि-आत्मा की; ईव-एकमात्र; आत्मना-शुद्ध मन से; तुष्टः-संतुष्ट, स्थितप्रज्ञाः-स्थिर बुद्धि युक्त; तादा-उस समय, तब; उच्यात–कहा जाता है।

 श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ, जिस समय पुरुष मन में स्थित सब स्वार्थपरता की कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
 >>> भक्ति (दिव्य प्रेम) और ऐषणा का विवेक : (ठाकुर-माँ -स्वामीजी में अनुरक्ति)  और ऐषणा (तृष्णा से वैराग) का विवेक :  जैसे पत्थर गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के कारण ही पृथ्वी पर गिरता है। उसी प्रकार  हमारी आत्मा अनंत सुखों के सागर भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस देव का अंश है, इसलिए वह स्वाभाविक रूप से अन्तर्निहित आनंद को प्राप्त करना चाहती है। जब (देहाध्यासी अहं नहीं) आत्मा' ठाकुर देव से एकत्व (अर्थात सच्चिदानन्द का दासत्व ) का रस लेने का प्रयास करती हैं तब इसे 'दिव्य प्रेम' कहा जाता है। लेकिन अपने यथार्थस्वरूप  की अज्ञानता के कारण वह स्वंय को वह (M/F) शरीर मान लेता है और इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले शरीर के सुखों का भोग करना चाहता है, तब उसे तृष्णा कहते हैं।
अभिप्राय यह कि पुत्र धन और लोक (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति) की समस्त तृष्णाओंको त्याग देने वाला संन्यासी ही आत्माराम आत्मक्रीड और स्थितप्रज्ञ है। 
जीवन में हो रहे बदलावों पर इंसान अपनी समझ उस अभिनेता की तरह बना लें जिसमें उसे निर्देशक की आज्ञा का पालन करते हुए सुख और दुख को जीना है, अपनी भूमिका से न्याय करते हुए भी कथा के उस पात्र की असत्यता के प्रति सावधान बने रहना है।यही ब्रह्मज्ञान है जिसके बिना स्थितप्रज्ञ होना असंभव है। संकीर्ण दृष्टि (ह्रदय या स्वार्थी व्यक्ति)  वाला इंसान कभी स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता। दादा के अनुसार उपचारात्मक (curative) और रोगनिरोधक  ( preventive) उपायों का मिलन  बिंदु है - 'पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बनो और बनाओ!'
>>>CINC -'प्रत्यक्षं किं प्रमाणं - त्वेमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि।  तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। अतः तुम्हींको मैं प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा। महामण्डल की स्थितप्रज्ञ मनुष्य निर्माण की Be and Make परम्परा में प्रशिक्षित किसी जीवनमुक्त शिक्षक से यह सुनकर अपने भीतर आने वाले परिवर्तन का अनुभव करने के लिए महामण्डल शिविर में भाग लेने की परीक्षा प्रार्थनीय है। 
[Heart-whole man/ The Heart First man :The heart is the "home of the personal life," and hence a man is designated, according to his heart, wise (1 Kings 3:12, etc.), pure (Psalm 24:4; Matthew 5:8, etc.), upright and righteous (Genesis 20:5, 6; Psalm 11:2; 78:72), pious and good (Luke 8:15), etc.] वे कहते हैं, " जब आपके पास ऐसे मनुष्य होंगे, जो अपना सब कुछ देश के लिये होम कर देने के लिये तैयार हों, भीतर तक एकदम सच्चे, जब ऐसे मनुष्य उठेंगे, तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा. भारत तभी जागेगा, जब विशाल ह्रदयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख के सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन,वचन तथा कर्म से उन करोड़ों भारतियों के कल्याण हेतु सचेष्ट होंगे, जो निरन्तर निर्धनता एवं अज्ञान के अगाध सागर में डूबते जा रहे हैं. जो सच्चे हृदय से भारत के कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझें-ऐसे युवकों के बीच कार्य करते रहो. उन्हें जाग्रत करो, संगठित करो, तथा उनमें त्याग का मन्त्र फूँक दो. यह कार्य पूर्णतया भारतीय युवकों पर ही निर्भर है। इस समय मुझे चाहिये, जोरदार प्रचारकों (महामण्डल में प्रशिक्षित नेताओं) का एक दल. " (' भारत और उसकी समस्याएँ '-पृष्ठ ३१)}
गीता में अर्जुन द्वारा भगवान से श्रीकृष्ण से पूछे गए सोलह प्रश्न निम्नवर्णित हैं-

1. "स्थितप्रज्ञ मनुष्य (दिव्य चेतना में स्थित मनुष्य) के क्या लक्षण हैं।" (श्लोक 2.54) 

2. “यदि तुम ज्ञान को सकाम कर्मों से श्रेष्ठ मानते हो तब मुझे इस घोर युद्ध में क्यों धकेलना ___चाहते हो।" (श्लोक 3.1) 
3. "मनुष्य न चाहकर भी पापकर्मों मे क्यों प्रवृत्त होना चाहता है? क्या उसे बलपूर्वक पापमयी कर्मों में लगाया जाता है।" (श्लोक 3.36) 
4. "आपका जन्म विवस्वान से बहुत काल पश्चात हुआ था, तब फिर मैं यह कैसे समझू कि आपने उसे इस ज्ञान का उपदेश दिया था।" (श्लोक 4.4) 
5. "पहले आप कर्मों का परित्याग करने की अनुशंसा करते हो और फिर पुनः आप निष्ठापूर्वक श्रद्धाभक्ति के साथ कर्म करने की प्रशंसा करते हो। कृपया मुझे निश्चयपूर्वक समझाने की कृपा करें कि इन दोनों में से क्या लाभकारी है।" (श्लोक 5.1)
 6. "हे कृष्ण। मन चंचल, अशांत, शक्तिशाली और हठी है। मुझे प्रतीत होता है कि वायु की अपेक्षा इसे नियंत्रित करना अत्यंत कठिन है।" (श्लोक 6.33)
 7. "उस असफल योगी का भाग्य क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक भक्तिमार्ग पर चलता है तथा बाद में जिसका मन भगवान से हटकर अनियंत्रित दुर्वासनाओं में लिप्त हो जाता है और वह क्यों अपने जीवन में सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाता।" (श्लोक 6.37) 
8. "ब्रह्म क्या है और कर्म क्या है? अधिभूत क्या है और अधिदेव कौन है? अधियज्ञ क्या है और यह शरीर में कैसे रहता है? मन को भक्ति में स्थिर रखने वाले योगी मृत्यु के समय आपको कैसे पा लेते हैं।" (श्लोक 8.1-2) 
9. "कृपया मुझे अपने दिव्य वैभवों के संबंध में विस्तारपूर्वक समझाएँ जिसके द्वारा आप समस्त संसार में व्याप्त हैं।" (श्लोक 10.16) । 
10. "हे परम पुरुषोत्तम! मेरी इच्छा है कि मैं आपका विश्वरूप देखू!" (श्लोक 11.3) 
11. "आप, जो समस्त सृष्टि से पहले थे, मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं, आपकी प्रकृति ___ और प्रयोजन मेरे लिए रहस्य हैं।" (श्लोक 11.31) 
12. "जो आपकी साकार रूप में भक्ति करते हैं या जो अव्यक्त निर्गुण निर्विशेष ब्रह्म के रूप में __ आपकी पूजा करते हैं, इन दोनों में से किसको योग में पूर्ण माना जाए।" (श्लोक 12.1) 
13. "मैं प्रकृति और पुरुष (भोक्ता) के बारे में जानना चाहता हूँ। कर्म क्षेत्र क्या है और कर्म -क्षेत्र का ज्ञाता कौन है? ज्ञान क्या है और ज्ञान का विषय क्या है।" (श्लोक 13.1) 
14. "उस पुरुष के क्या लक्षण हैं जो प्रकृति के तीन गुणों से परे हो चुका है। हे भगवान!उसका आचरण क्या है। वह गुणों के बंधन को कैसे पार कर जाता है।" (श्लोक 14.21)
15. "उन लोगों की स्थिति क्या है जो शास्त्रों के विधि-विधानों की अवहेलना करते हैं किन्तु अपनी इच्छा से श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं।" (श्लोक 17.1) 
16. "मैं संन्यास का प्रयोजन जानना चाहता हूँ, यह त्याग या कर्म के फलों का परित्याग करने से कैसे भिन्न है।" (श्लोक 18.1)
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