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बुधवार, 16 सितंबर 2009

" बाह्यजगत, अन्तर्जगत एवम इन्द्रियातीत-भूमि की झाँकी "



" यह सम्पूर्ण विश्व ' विविधता में एकता ' का एक विराट् उदाहरण है !
(दी होल यूनिवर्स इज अ ट्रिमेन्डsस केस ऑफ़ यूनिटी इन वेराईटी) 
'द साइंस ऑफ़ थ्री एच : 3H- का विज्ञान' 
(The Science of 3H' 'Hand-Head-Heart'
PHYSICAL-MENTAL-SPIRITUAL  )
किसी शायर ने कहा था - "ऐ खुदा ' मुझसे ' किसी रोज मिला दे 'मुझको' (Personal truth या ' अहम् ' को ), मौजे ' दरिया ' हूँ, ' समन्दर ' में गिरा दे मुझको।" उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द हमारे निद्रित मनुष्यत्व को झकझोरते हुए कहते हैं - " भौतिक जगत्, मानसिक जगत् या आध्यात्मिक जगत् - इस तरह की कोई  नितान्त स्वतंत्र (अलग-अलग) सत्तायें नहीं हैं। जो कुछ है, सब एक ही तत्त्व है (आत्मा ही ब्रह्म है)। या हमें यों कहना चाहिये कि यह सब एक ऐसी 'टैपरिंग-वस्तुऐं' क्रमशः पतली होती हुई शुन्डाकार वस्तुएं हैं,जो यहाँ स्थूल हैं, और जैसे जैसे यह ऊँची चढ़ती जातीं हैं, वैसे ही वैसे वह सूक्ष्म होती जाती हैं, सुक्ष्तम को हम- ' आत्मा ' कहते हैं और स्थूलतम को,'शरीर '।" (वि० सा० ख० ४ :१७३ )
The whole universe is a tremendous case of Unity in Variety।" (C.W:vol:1:504)
" यह सम्पूर्ण विश्व - ' विविधता में एकता ' का एक विराट् उदाहरण है। मनरूपी पिण्ड (mass) केवल एक ही है, उसीकी विभिन्न अवस्थाओं के विभिन्न नाम हैं। वे इस मानस-सागर की विभिन्न लघु भँवरें हैं। हम एक ही साथ व्यष्टि और समष्टि (Universal), दोनों हैं। इसी प्रकार यह क्रीड़ा चल रही है। ...वास्तव में यह एकत्व कभी खण्डित नहीं होता। जड़पदार्थ (matter-Hand)और मन (mind-Head) तथा आत्मा (Brhman-Heart) ये तीनो एक ही हैं।" (वि० सा० ख० :४ : १५२)

 " तुम एक समय में एक ही वस्तु देख सकते हो। मैंने जब साँप देख लिया, तो रस्सी एकदम विलीन हो गयी। और जब मैं रस्सी देखता हूँ,तो साँप अन्तर्हित हो जाता है। ....जब हम संसार देखते हैं, तब हम भगवान कैसे देख सकेंगे ? ...यहाँ जब तुम साँप देखते हो, तब रस्सी नहीं रहती। जब तुम आत्मविद् होओगे, तो बाकी सब कुछ अदृश्य हो जायगा। तुम जब केवल आत्म-दर्शन करोगे, तो तुम्हें कोई जड़-पदार्थ नहीं दिखायी देगा। तुम जिसे जड़ कहते हो वही आत्मा है। ये सारे भेद इन्द्रियों द्वारा आरोपित हैं। एक ही सूर्य हजारों छोटी तरंगों से प्रतिबिम्बित होकर हमें हजारों छोटे सूर्यों के समान लगता है। " (४:१५३)
" प्रकृति (आदतें) हमे चारो ओर से  दमित करने का प्रयास कर रही है और आत्मा अपने को अभिव्यक्त करना चाहती है। प्रकृति कहती है - ' मैं विजयी होउंगी '। आत्मा कहती है- " विजयी मुझे होना है "। प्रकृति कहती है - ठहरो ! मैं तुम्हे चुप रखने (भेंड़ बने रहने) के लिए थोड़ा सुख भोग दूंगी। आत्मा को थोड़ा मजा आता है, क्षण भर के लिए वह धोखे में पड़ जाती है, पर दूसरे ही क्षण वह फ़िर मुक्ति के लिए चीत्कार कर उठती है। " (३:१७३)
... इन्द्रियों के माध्यम से विश्व को देखते समय तुम्हें यह स्मरण रहना चाहिए कि उसे हम (केवल) जड़ और शक्ति के रूप में भी ग्रहण कर सकते हैं। तथा (संवेग के नियमानुसार) जब हम वेग (velocity) बढ़ाते हैं, तो पिण्ड (mass) घटता है। दूसरी ओर हम पिण्ड बढ़ा सकते हैं और वेग घटा सकते हैं।... सम्भव है, हम एक ऐसे बिन्दु पर पहुँचे, जहाँ पिण्ड (mass) की सारी सत्ता ही मिट जाए !" (वि० सा० ख० ४: १५३) 
 हमे यह स्मरण रखना चाहिए कि स्वामीजी ने यह वक्तव्य सैनफ्रांसिस्को में २२ मार्च १९०० ई को दिया था, इसके बाद १९०५ ई में ही आइन्स्टीन द्वारा, ' पदार्थ- उर्जा समीकरण ' E=Mc2 प्रतिपादित हुआ था।  इस दृष्टिगोचर जगत् वैचित्र का कारण स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - " अद्वैतवादि के मत से, इस नाम-रूप, अज्ञान या माया अथवा यूरोपीय लोगों कि भाषा में स्पेस-टाइम-काजैलिटी (देश-काल-निमित्त) के कारण ही यह एक अनन्त सत्ता इस वैचित्र्यमय जगत् के रूप में दिख पड़ती है।"
 स्वामी विवेकानन्द स्वयं एक युक्तिवादी मनुष्य थे, इसीलिए धार्मिक सिद्धान्तों को भी विज्ञान की कसौटी पर जाँचने के बाद ही स्वीकार करने के पक्षधर थे; इसीलिए वे कहते हैं - "  जिन अन्वेषण- पद्धतियों का प्रयोग बाह्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता है ? मेरा विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिए, और मैं यह भी चाहूँगा कि यह कार्य जितना शीघ्र हो, उतना ही अच्छा।यदि कोई धर्म इन अन्वेषणों के द्वारा ध्वन्सप्राप्त हो जाय, तो वह सदा से निरर्थक धर्म था - कोरे अन्धविश्वास का, एवं वह जितनी जल्दी दूर हो जाय, उतना ही अच्छा  मेरी यह दृढ़ धारणा है कि ऐसे धर्म का लोप होना एक सर्वश्रेष्ठ घटना होगी। सारा मैल जरुर धुल जाएगा, पर इस अनुसन्धान के फलस्वरूप धर्म के सनातन तत्व ही विजयी होकर निकल आयेंगे।वह केवल भौतिक विज्ञान और रसायन-शास्त्र के सिद्धान्तों जैसा केवल विज्ञान सम्मत ही नहीं होगा - प्रत्युत् और भी अधिक सशक्त हो उठेगा, क्योंकि भौतिकी और रसायन शास्त्र के पास अपने सत्यों को सिद्ध करने का अन्तःसाक्ष्य नहीं है, जो धर्म को उपलब्ध है।" (वि० सा० ख० २:२७८) "
 ........if a religion is destroyed by such investigations, it was then all time useless unworthy superstitions, and the sooner it goes the better . " (C.W: 1: 367)
  ' बाह्य -जगत् ' (the Outside):-
 स्वामी विवेकानन्द अपनी वैज्ञानिक (ऋषि) दृष्टि से ' सृष्टि-प्रक्रिया ' की व्याख्या करते हुए कहते हैं,
  " प्रश्न पूछा गया कि यह जगत् कहाँ से आया है, किसमे अवस्थित है, और फ़िर यह किसमें लय हो जाता है ?...मुक्तावस्था से इसकी उत्पत्ति होती है, बन्धन में इसकी अवस्थिति है, और मुक्ति में ही इसका लय होता है। " (३:७०) " 
वे अन्यत्र कहते हैं - " जिस प्रकार एक मिट्टी के ढेले को जान लेने पर मिट्टी से बनी हुयी समस्त वस्तुओं को जान लिया जाता है, उसी प्रकार ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे जान लेने पर स्वयं समस्त विश्व को जाना जा सकता है ?" (२:२१)  
" हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया है, जिसे जान लेने पर सबकुछ को जाना जा सके। हमने समस्त जगत् को पदार्थ (Matter) और उर्जा (Energy) में या प्राचीन भारतीय दार्शनिकों के शब्दों में, ' आकाश ' और ' प्राण ' में पर्यवसित कर दिया। अब आकाश और प्राण को उनके मूल (महत तत्व) में पर्यवसित करना होगा। "(२:२२)
प्राण का अभिप्राय है शक्ति (माँ जगदम्बा) - जो सब गति या संभाव्य गति, शक्ति या आकर्षण के रूपों में अपने को अभिव्यक्त करती है। " (४:१५२)
 " इन्हे ' मन ' नामक उच्चतर सत्ता में पर्यवसित किया जा सकता है। मन अर्थात महत् अथवा सार्वभौमिक विचार-शक्ति से प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है। प्राण या आकाश की अपेक्षा ' विचार ' - हमारी यथार्थ सत्ता की और अधिक सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है। विचार ही स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है। " (२:२३)
" ब्रह्माण्ड में जो उर्जा (Energy) है, उसका नाम है प्राण और वह इन भूतों में शक्ति के रूप में निवास करती है। प्राण के प्रयोग का महान उपकरण है -मन। मन भौतिक पदार्थ है। मन से परे आत्मा है, जो प्राण को धारण करता है। आत्मा, वह विशुद्ध बुद्धि है, जिसके द्वारा प्राण नियंत्रित और निर्दिष्ट होता है। ...मन अत्यन्त सूक्ष्म जड़पदार्थ (Matter) है। प्राण को अभिव्यक्त करने का उपकरण है-मन । अभिव्यक्ति के लिये शक्ति (Energy) को भौतिक पदार्थ (Matter-शरीर-मन) की आवशयकता होती है। " (४:९७)
 " मैं भी एक प्रकार से भौतिकवादी (materialist-मातृभक्त या हीरो) हूँ, क्योंकि मेरा विश्वास है कि केवल एक ही वस्तु का अस्तित्व है। आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवादी भी यही कहते है, पर वे उसे जड़ (matter) के नाम से पुकारते हैं, और मैं उसे ' ब्रह्म ' (या अल्ला-माँ जगदम्बा-काली) कहता हूँ। ये भौतिक वादी कहते हैं कि इस जड़ से ही सारी आशा, धर्म तथा सभी कुछ प्रसूत हुआ है। और मैं कहता हूँ, ' ब्रह्म ' (माँ जगदम्बा) से ही सब कुछ प्रसूत हुआ है।(२:९३) 
" आजकल हम जिसे जड़ पदार्थ कहते हैं, उसे प्राचीन हिंदू ' भूत ' अर्थात बाह्य-तत्व कहते थे। उनके मतानुसार ' एक तत्व ' नित्य है, शेष सब इसी से उत्पन्न हुये हैं। इस मूल तत्व को ' आकाश ' की संज्ञा प्राप्त है। आजकल 'ईथर' शब्द से जो भाव व्यक्त होता है, यह 'आकाश' बहुत कुछ उसके सदृश्य है, यद्दपि पूर्णतः नहीं। इस 'आकाश' तत्व के साथ ' प्राण ' नाम की आद्य उर्जा  (Primary Energy) रहती है।
प्राण और आकाश संघटित और पुन्संघटित होकर शेष तत्वों का निर्माण करते हैं। कल्पान्त में सबकुछ प्रलयगत हो कर आकाश और प्राण में लौट जाता है। " (४:१९४) "
 "..... विज्ञान भी आज कह रहा है कि, यह सबकुछ उसी एक उर्जा (शक्ति) का विकास है- जगत् में जो कुछ भी है, वह उस सबकी समष्टि है।" (२:९५) 
आधुनिक भौतिक विज्ञान (modern physics) को स्वामी विवेकानन्द ने उस समय एक चुनौती दिया था, जब वह भविष्यके गर्भ में था,और उनकी उस चुनौती को विद्युत विज्ञान के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिको में से एक विद्युत् वैज्ञानिक Nikola Tesla ने स्वीकार भी कर लिया था।   १३ फरवरी १८९६ ई में श्रीयुत् E.T. Sturdy को एक पत्र में लिखते हैं - " श्रीयुत् टेस्ला वैदान्तिक प्राण, आकाश और कल्प के सिद्धान्त को सुनकर बिल्कुल मुग्ध हो गए। उनके कथनानुसार आधुनिक भौतिक विज्ञान केवल इन्ही सिद्धान्तों को ग्रहण कर सकता है।....श्री टेस्ला यह समझते हैं कि गणितशास्त्र कि सहायता से वे यह प्रमाणित कर सकते हैं, कि जड़ और शक्ति (matter and energy) दोनों ही स्थितिक उर्जा (Potential Energy) में रूपांतरित हो सकते हैं। गणितशास्त्र के इस नवीन प्रमाण को समझने के लिए मैं आगामी सप्ताह में उनसे मिलने जाने वाला हूँ। ऐसा होने से वैदान्तिक ब्रह्माण्ड विज्ञान अत्यन्त दृढ़ नींव पर स्थित हो सकेगा। इन दिनों मैं वैदान्तिक ब्रह्माण्ड विज्ञान और प्रलय विज्ञान (Eschatology) में बहुत काम कर रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के साथ उनका पूर्ण सामंजस्य मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ, और एक कि व्याख्या के बाद दुसरे की भी हो जायगी।" (४:३८४)
प्रोफेसर टेस्ला हलाँकि इसमे सफल न हो सके, किन्तु १९०२ ई में स्वामीजी के शरीर त्याग देने के पश्चात् १९०५ई में अलबर्ट आइन्स्टाइन द्वारा प्रतिपादित ' सापेक्षता का सिद्धान्त ' (Theory of Relativity) प्रकाशित हो ही गया। इस सिद्धान्त के द्वारा अन्य वस्तुओं के साथ साथ यह भी प्रमाणित हो गया कि जड़ और शक्ति (Matter and Energy) वास्तव में एक ही वस्तु के दो आयाम हैं, एनर्जी ही मैटर के रूप में प्रतिभाषित हो रही है।अतः एक को दूसरे में (मैटर को एनर्जी में-परमाणु बम के रूप में ) रूपान्तरित किया जा सकता है या बदला जा सकता है। और यह अन्वेषण आधुनिक विज्ञान को आगे बढ़ाने में एक ' मील का पत्थर ' सिद्ध हुआ। 
अपने इसी सिद्धान्त के द्वारा आइन्स्टाइन ने भौतिक विज्ञान की, दीर्घकाल से चली आ रही अवधारणा को भी खण्डित कर दिया, कि प्रकाश (Light) के संचरण के लिए सम्पूर्ण अन्तरिक्ष (Space) में व्याप्त, अदृश्य(पहचान में न आने योग्य), ' ईथर ' नामक सूक्ष्म ठोस पदार्थ एक माध्यम के रूप में कार्य करता है।उन्हों ने इसे एक अनावश्यक पूर्वानुमान (unnecessary assumption) बताते हुए खारिज कर दिया। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि १९८५ ई में स्वामी विवेकानन्द ने भी ऐसी ही सम्भावना को व्यक्त करते हुए भौतिक विज्ञान पर एक निबन्ध लिखा था, जो उस समय के एक प्रतिष्ठित Journal में प्रकाशित हुआ था, जिसमे उन्होंने लिखा था -- " किन्तु ईथर की समस्त परिकल्पनाओं में ईथर के दो कणों, चाहे वे कितने भी क्षूद्र क्यों न हों, के बीच में कुछ न कुछ खाली स्थान रहना ही चाहिए; तथा वह कौन सी वस्तु है जो इस ईथर कणों के बीच के खाली स्थान को भी भर देती है ?.....अतः ईथर का सिद्धान्त या अन्तरिक्ष में व्याप्त भौतिक कणों को अन्तरिक्ष का स्पष्टीकरण नहीं माना जा सकता।" इस प्रकार हम यह देख सकते हैं कि उन्होंने भी अन्तरिक्ष कि व्याख्या पर प्रश्न चिन्ह लगया था. 
[" But on all suppositions, there must be Space between two particles of ether, however small; and what fills this inter ethereal Space ?... thus the Theory of the ether or material particles in space, cannot account for Space itself." (C.W vol 9 page 288,289)]

 The Mystery of Empty Space
द मिस्ट्री ऑफ़ एम्प्टी स्पेस
{अन्यत्र उन्होंने कहा था - " हमारा मन - देश, काल और निमित्त (पुर्वर्तिता और परवर्तिता के अनुक्रम) की चहारदिवारी के बाहर नहीं जा सकता। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपनी सत्ता को नहीं लाँघ सकता, उसी प्रकार देश और काल के नियम (नाम-रूप) ने जो सीमा खड़ी कर दी है, उसका अतिक्रमण करने की क्षमता किसी में नहीं है। (उधर वेदान्त के) इस कथन का तात्पर्य क्या है, कि - ' तीन काल में भी इस जगत् का अस्तित्व नहीं है ' या ' जगत् मिथ्या है ' ? इसका मर्मार्थ यही है कि उसका (जगत् का) निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। मेरे, तुम्हारे, अन्य सबों के मन के लिए इसका केवल सापेक्षिक अस्तित्व है।" (२:४६).....जगत का जो कुछ देश-काल-निमित्त के नियम के अधीन है, वही माया के अर्न्तगत है। " (२:६७)
" धर्म और विज्ञान में सामंजस्य लाने के लिए दोनों को ही आदान-प्रदान करना होगा। त्याग करना पड़ेगा, यही नहीं कुछ दुःखद बातों को भी सहन करना पड़ेगा। पर इस त्याग के परिणाम स्वरूप प्रत्येक व्यक्ति और भी निखर उठेगा और सत्य के सम्बन्ध में अपने को और भी आगे पायेगा। और अन्त में जाकर -' देश-काल की सीमा में बद्ध ज्ञान  का  महामिलन उस  'परमज्ञान ' से होगा, जो इन दोनों से परे है, जो मन तथा इन्द्रियों की पहुँच से परे है -' जो निरपेक्ष, असीम और अद्वितीय है।" (२:२०१)}
" इस देश, काल और निमित्त में हम एक विशेषता यह देखते हैं कि वे अन्यान्य किसी पदार्थ से पृथक होकर नहीं रह सकते। तुम शुद्ध देश की कल्पना करो, जिसमे न कोई रंग है, न सीमा और न चारो ओर किसी वस्तु से संसर्ग है; तो तुम देखोगे कि तुम इसकी कल्पना नहीं कर सकते। देश सम्बन्धी विचार करते ही तुमको दो सीमाओं के बीच अथवा तीन वस्तुओं के बीच स्थित देश की कल्पना करनी होगी।.... काल के सम्बन्ध में भी यही बात है। शुद्ध काल के सम्बन्ध में तुम कोई धारणा नहीं कर सकते। काल की धारणा करने के लिए तुमको एक पूर्ववर्ती और परवर्ती घटना लेनी पड़ती है। और अनुक्रम की धारणा के द्वारा उन दोनों को मिलाना होगा। जिस प्रकार देश बाहर की दो वस्तुओं पर निर्भर रहता है, उसी प्रकार काल भी दो घटनाओं पर निर्भर रहता है । और ' निमित्त ' अथवा ' कार्य-कारण वाद ' की धारणा इस देश और काल पर निर्भर रहती है। अतः देश-काल-निमित्त के भीतर ' विशेषता ' यही है कि इनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है।"
 "इस कुर्सी या उस दीवार का जैसा अस्तित्व है, उसका वैसा भी नहीं है। वे मानो सभी वस्तुओं के पीछे लगी हुई छाया के समान हैं, जिन्हें तुम किसी भी प्रकार पकड़ नहीं सकते। उनकी कोई सत्ता नहीं है, अधिक से अधिक वे छाया के समान हैं।फ़िर, वे कुछ भी नहीं हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उन्ही में से तो जगत् अभिव्यक्त हो रहा है। वे तीनो मानो स्वभावतः मिल कर नाना प्रकार के रूपों की उत्पत्ति कर रहे हैं। अतएव, पहले हमने देखा कि देश-काल-निमित्त की समष्टि का अस्तित्व नहीं है, फ़िर वे बिल्कुल असत् या अस्तित्वशून्य भी नहीं हैं। दूसरे ये कभी कभी बिल्कुल अदृश्य भी हो जाते हैं।उदाहरण के लिए, समुद्र की तरंगों को लो, तरंग अवश्य ही समुद्र के साथ अभिन्न है, फ़िर भी हम उसको ' तरंग ' कह कर समुद्र से पृथकरूप में जानते हैं। इस विभिन्नता का कारण क्या है ? तरंग - नाम और रूप ! नाम अर्थात उस वस्तु के सम्बन्ध में हमारे मन में जो एक धारणा रहती है वह, और रूप अर्थात आकार। पर क्या हम तरंग को, समुद्र से बिल्कुल पृथक रूप में सोच सकते हैं ? नहीं, कभी नहीं ! वह तो सदैव इस समुद्र की धारणा पर ही निर्भर करती है। यदि वह तरंग चली जाए, तो रूप भी अदृश्य हो जाएगा। फ़िर भी ऐसी बात नहीं कि यह रूप बिल्कुल भ्रमात्मक था। " (२:९०-९१)
स्वामीजी द्वारा दिया गया यह आश्चर्यजनक वक्तव्य उस समय का है जब भौतिक विज्ञान ने देश-काल की अविछन्नता (space-time continuum) तथा जड़पदार्थ (matter) को देश-काल की वक्रता  कहते हुए, (curvatures of space-time) उनके ऊपर स्पष्ट रूप से कोई विवरण नहीं दिया था। इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि भौतिक विज्ञान कि मौलिक धारणाएं जिन तथ्यों पर प्रतिष्ठित हैं, उनके सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार जितने स्पष्ट थे उतने ही आधुनिक भी थे। 
वे कहते हैं - " यदि भौतिक विज्ञानों का अर्थ ज्ञान की ऐसी शाखायें हैं, जो केवल इन्द्रियानुभूती पर ही आधारित और निर्मित हैं, और इसके अतिरिक्त अन्य किसी तथ्य पर नहीं, तो हमारा दावा है कि ऐसा विज्ञान न तो कभी था और न कभी हो सकेगा। इन्द्रियाँ निश्चय ही ज्ञान के उपादानों का संग्रह करतीं हैं और उनके साम्य और वैषम्य का निर्धारण करतीं हैं; पर उनकी गति यहीं पर रुक जाती है।पहली बात यह है कि तथ्यों का भौतिक संग्रह कुछ आध्यात्मिक धारणाओं, यथा - देश,काल के आश्रित हैं। ... जैसे जड़, शक्ति, मन, नियम, कारणता , और दिक्-काल जैसे विचार तो अति-उच्च अमूर्तिकरण के परिणाम हैं, और इनमे से किसी एक का भी किसी ने कभी इन्द्रियानुभव नहीं किया है। दूसरे शब्दों में, ये पुर्णतः आध्यात्मिक हैं। तथा इन आध्यामिक धारणाओं के बिना किसी भौतिक तथ्य का समझ सकना असंभव है।" (९:२७५) "
{ "....Apart from the question whether abstractions are possible or not...it is plain that these notions of matter or force, time or space, causation, Law, or mind are held to be units abstracted and independent..."(C.W:4:378)}"
....." इस प्रकार के प्रश्नों से अलग कि (जड़पदार्थो, मन...आदि का ) अमूर्तिकरण या सूक्ष्मीकरण सम्भव है या नहीं, इतना तो स्पष्ट है कि जड़, शक्ति, दिक्, काल, कारणता, विधान, अथवा मन को ऐसी इकाई माना गया है, जो सम्बन्धित वर्गों से भाव रूप में परिकल्पित हुई हैं और अपने आप में स्वतंत्र हैं।और यह कि जब उन्हें इस रूप में स्वीकार किया जाता है, तभी वे इन्द्रियानुभूत तथ्यों के व्याख्यात्मक समाधान बन कर सामने आती हैं। इसप्रकार इन अमूर्त विचारों कि सत्यता के अतिरिक्त दो और तथ्य स्पष्ट रूप में उभर कर सामने आते हैं- एक तो यह, कि ये तत्व आध्यात्मिक (metaphysical) हैं, और दूसरे केवल तात्विक रूप में ही ये भौतिक (physical) तथ्यों की व्याख्या कर पाते हैं, अन्यथा नहीं।" (९:२७६)  
बीसवीं सदी में आने के बाद ही यह प्रमाणित हो सका कि, समस्त जड़ पदार्थ जिन सब-एटॉमिक- पार्टिकल्स या उप-परमाणुविक कणों ' (Subatomic Particles/ सूक्ष्माणु) के द्वारा संघटित होते हैं, वे द्विधर्मी (dual nature) हैं। अर्थात उनकी प्रकृति द्वयात्मक होती है।अर्थात वे ' कण ' - के समान गुण-धर्म वाले (Particle-like) होने के साथ साथ, ' तरंग ' - के समान गुण-धर्म (Wave-like) भी होते हैं।
उनके यथार्थ स्वरूप के बारे में सूस्पष्ट रूप से अभी तक कुछ नहीं कहा जा सका है। उदाहरणार्थ - वह भौतिक घटना जिसे ' फोटो-इलेक्ट्रिसिटी ' (Photo-Electricity) के नाम से जाना जाता है. - इस प्रक्रिया में ' प्रकाश ' (Light) के ' कणात्मक ' गुण-धर्म (Particle-like behavior) का प्रदर्शन होता है। ( इस अन्वेषण के लिए आइंस्टाइन (Einstein) को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।) तथा जिस भौतिक घटना में प्रकाश (Light) का' तरंग ' जैसा गुण-धर्म (Wave-like behavior) प्रर्दशित होता है, उसे 'प्रकाश का समवर्तन ' (Interference of Light) कहा जाता है।
और यही बात विद्युदणुओं (Electrons) के लिए भी सत्य है, जिसके कारण विद्युत्-धारा (Electric current) प्रवाहित होती है।यहाँ स्वामीजी द्वारा कथित उस उक्ति का स्मरण हो आता है, जो उन्होंने तब कहा था, १८९६ ई में, जब ' विद्युदअणुओं ' (Electrons) का आविष्कार भी नहीं हुआ था। उन्होंने कहा था-" ...इसके परे विद्युत-लोक है, अर्थात वह अवस्था जहाँ प्राण (Wave) आकाश (Particle) से प्रायः अभिन्न है, और यह बताना कठिन हो जाता है कि ' विद्युत ' जड़ है या शक्ति।" (४:३८५)
 इन्ही अति क्षूद्र उप-परमाणुविक कणों ने- जो आँखों से दिखाई भी नहीं पड़तीं, (हिग्स बोसोन ने ?) अपने को असीम-अनन्त तक विस्तृत करके, तारों, निहारिकाओं से परिपूर्ण विशाल-विशाल आकाशगंगाओं (Galaxies) से भरे ब्रह्माण्ड का निर्माण कर लिया है ! 
यह विश्व- ब्रह्माण्ड आख़िर किस प्रकार अस्तित्व में आया होगा ? आज भी सृष्टि-रचनावाद के सिद्धान्त को समझाने के लिए, ' महा विस्फोट के सिद्धान्त ' (Big Bang Theory) को ही सर्वाधिक लोकप्रिय सिद्धान्त माना जाता है। इस सिद्धान्त कि सरल व्याख्या इस प्रकार दी जाती है - " यह ब्रह्माण्ड उस ' विलक्षण ' अवस्था से अस्तित्व में आया जहाँ न तो देश था न काल।"
(the universe came into being from the state called ' singularity ' - something where there is neither space or time.
 Before Time and Space 
बिफोर टाइम ऐंड स्पेस 
अब से लगभग पन्द्रह अरब वर्ष पहले -प्रकृति की साम्यावस्था भंग हो गयी -अचानक एक महाविस्फोट हुआ - देश, काल अस्तित्व में आ गया, और हमारा यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हो गया। इस बात को कोई नहीं जनता, कि इसका जन्म कैसे हुआ - और अभी यह जिस रूप में है, उस अवस्था तक विस्तृत कैसे हुआ होगा ?
" यह सारा व्यक्त इन्द्रियग्राह्य जगत् 'रूप' है, और इसके पीछे है 'नाम',शब्द या  अनन्त स्फोट। स्फोट का अर्थ है - समस्त जगत् की अभिव्यक्ति का कारण - ' शब्द ब्रह्म '। इस स्फोट का एकमात्र वाचक शब्द है-ॐ'।...स्फोट से ही सारे शब्द उत्पन्न होते हैं, फ़िर भी वह स्वयं पूर्ण रूप से विकसित कोई शब्द नहीं है। अर्थात, यदि किसी भी शब्द (जैसे माँ ) से उन सब भेदों को, जो एक भाव (माँ) को दूसरे से (पिता भाव से) अलग करते हैं, निकाल दिया जाय, तो जो कुछ बच रहता है, वही स्फोट या ॐ है। इसीलिए इस स्फोट को 'नादब्रह्म ' कहते हैं। " (४:३०)  
 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " भारतीय दर्शन के अनुसार 'नाम और रूप' ही इस जगत् की अभिव्यक्ति के कारण हैं। ... रूप, वस्तु का मानो छिलका है और नाम या भाव भीतर का गूदा। शरीर है रूप (बेल का खोपडा-छिलका) , और (बेल का गुदा है) मन या अन्तः करण है - नाम, और उसके पीछे है आत्मा (बेल का बीज कारणस्वरूप 'अस्ति-भाति-प्रिय', सच्चिदानन्द, ब्रह्म !) (४:२९) 
" स्वामी विवेकानन्द ने ' सांख्य ' और ' वेदान्त ' की सहायता से इस सृष्टि रचनावाद के सिद्धान्त की व्याख्या जिस स्पष्टता से दी है, उसे पढ़ कर कोई भी व्यक्ति आश्चर्य- चकित हो सकता है। वे कहते हैं कि यह दृश्यमान ब्रह्माण्ड, अव्यक्त अवस्था से बाहर निकला है और संभवतः यह पुनः उसी ' अव्यक्ताव्स्था ' में लौट जाएगा। उन्ही के शब्दों में- " ...जगत् किसी एक विशेष दिन में रचा नहीं गया। एक ईश्वर ने आकर इस जगत् की सृष्टि की और बाद में वह सो रहा, यह हो नहीं सकता। सृजन की शक्ति निरन्तर क्रियाशील है। ... हमारे संस्कृत शब्द ' सृष्टि ' का अंग्रेजी में ठीक से अनुवाद किया जाय तो वह Projection होना चाहिए creation नहीं। "  (५:२२)
"...सारी प्रकृति सदा विद्यमान रहती है, केवल प्रलय के समय वह क्रमशः सुक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है, और अन्त में एकदम अव्यक्त हो जाती है। फ़िर कुछ काल के विश्राम के बाद मानो कोई उसे पुनः ' प्रक्षेपित ' करता है, तब पहले की ही तरह समवाय, वैसा ही विकास वैसा ही रूपों का प्रकाशन का क्रीड़ाक्रम चलता रहता है.... फ़िर वह नष्ट हो जाती है,.... और पुनः वह निकल आता है। अनन्त काल से वह लहरों (या पेन्डुलम) की तरह एक बार बाहर हो जाता है, और फ़िर पीछे हट जाता है। देश, काल, निमित्त तथा अन्यान्य सब कुछ इसी प्रकृती अर्न्तगत है। इसलिए यह कहना कि सृष्टि का आदि है, बिल्कुल निरर्थक है। सृष्टि के आदि अथवा अन्त, यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता।" (५:२३) इन दिनों भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप को जानने के लिए, इसके आवर्ती प्रतिरूप (Cyclic models) तथा दोलायमान प्रतिरूप ( Oscillatory) के ऊपर शोध कार्य चल रहा है। 
किन्तु स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त बिल्कुल तर्कसंगत तथा स्वतः प्रमाणित तथ्यों पर आधारित था।वे कहते हैं-" असत् से सत् की उत्पत्ति असंभव है- शून्य से संसार का उदय अयोक्तिक है। परन्तु क्रमविकासवाद (Theory of Evolution ) के सिद्धान्त का उच्च भौतिक विज्ञान के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए, जिसके अनुसार क्रमविकास की प्रत्येक सृंखला के पीछे ' क्रम-संकोच ' (Involution) की क्रिया निहित है। "( ४:३४१) 
उन्होंने इस निराधार कल्पना (conjecture) को सीरे से ही नकार दिया, कि इस विश्व-ब्रह्माण्ड का कोई एक पहला कारण या सृष्टिकर्ता है। उनके लिए यह विश्व अनादी-अनन्त है ! यह विश्व-जगत् ईश्वर कि सृष्टि नहीं है -बल्कि स्वयं ईश्वर ही अपने-आपको को इस चरा-चर जगत् के रूप में अभिव्यक्त कर रहे हैं। तथा इस विश्व को इस रूप में दर्शन करने की दृष्टि प्राप्त कर लेना ही ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है।
हमारे चारो ओर जो प्रकृति तथा उसे संचालित करने वाला विधान है, उसके सम्बन्ध में हमारा ज्ञान कितना सही है ? प्रकृति सम्बन्धी ज्ञान तथा उन्हें संचालित करने वाले विधान के सम्बन्ध में, स्वामी विवेकानन्द के जो विचार थे -बिल्कुल वही विचार, उनके जाने के कई दशकों बाद, प्रमात्रा भौतिकी (Quantum Physics) के मौलिक आधार के रूप में आविष्कृत हुए थे।जिसके अनुसार - जो कुछ भी हम देख रहे हैं, वह इस बात पर निर्भर करता है, कि हम उसे किस प्रकार से देख रहे हैं। निरिक्षण करने वाले (द्रष्टा) को परिवर्तित कर दो, और यह विश्व परिवर्तित हो जाएगा।
 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " जब तक मैं जगत् से पृथक हूँ, जब तक मैं अपने अतिरिक्त और कुछ देखता हूँ, जब तक एक द्रष्टा है और (दूसरा उससे भिन्न ) दृश्य वस्तु है- संक्षेप में, जब तक द्वैत भाव है, यह जगत् सदैव परिणामशील प्रतीत होगा।पर असल बात यह है कि इस जगत् में परिणाम भी है और अपरिणाम भी। ... जो मन को देखते हैं, वे आत्मा को नहीं देख  पाते, और जो आत्मा को देख लेते हैं -उनके लिये शरीर और मन दोनों न जाने कहाँ चले जाते हैं।" (२:३०) }
{" हम किसी विषय के प्रत्यक्षीकरण पर विचार करें। मैं एक गिलास देखता हूँ। यह ज्ञान कैसे आता है ? गिलास का ' वह ' जिसे जर्मन दार्शनिक (Thing-in-itself) कहते हैं, अज्ञात है; मैं उसे कभी नहीं जान सकता। मानलो वह ' क ' है। गिलास का यह ' क ' हमारे चित्त के ऊपर कार्य कर रहा है। और चित्त प्रतिक्रिया कर रहा है। चित्त एक सरोवर के समान है। सरोवर में एक पत्थर फेंकने से - सरोवर कि प्रतिक्रिया स्वरूप एक तरंग पत्थर की ओर आएगी।यह तरंग उस पत्थर के समान जरा भी नहीं होती- वह एक (वृत्ति)तरंग है। गिलास का ' क ' ही पत्थर के रूप में मन पर आघात कर रहा है, तथा मन उसकी दिशा में एक तरंग फेंक रहा है। इसी तरंग को हम गिलास की संज्ञा देते हैं। 
मैं तुमको देख रहा हूँ। तुम स्वरूपतः (Thing-in-itself) जो हो, वह अज्ञात और अज्ञेय है। तुम वही अज्ञात सत्ता ' क ' हो - तुम हमारे मन पर कार्य कर रहे हो, और मन आघात प्राप्त होने की दिशा में एक तरंग निक्षेप करता है, तथा उस तरंग को ही हम श्री अथवा श्रीमती ' अमुक ' कहा करते हैं। इस प्रत्यक्ष क्रिया के दो उपादान हैं- एक भीतर से दूसरा बाहर से आनेवाला, तथा इन दोनों का ही मिश्रण - ' क ' + मन हमारा बाह्य जगत् है। ...यही बात आंतरिक प्रत्यक्षीकरण के सम्बन्ध में भी सत्य है। यथार्थ आत्मा या हमारा सच्चा-स्वरुप ' यथार्थ मैं ' जो हमारे भीतर विद्यमान है। वह भी अज्ञात और अज्ञेय है। उसे ' ख ' कहा जाये। जब हम अपने को अमुक -व्यक्तिविशेष के रूप में जानते हैं, तब वह ' ख ' + मन होता है। यह ' ख ' मन पर आघात करता है। अतः हमारा समग्र जगत् ' क ' + मन (बाह्य जगत्) और ' ख ' + मन (अन्तर जगत् ) है। ' क ' और ' ख ' बाह्य और अंतर्जगत के परे ' वस्तुरूप ' में माने जा सकते हैं।" (४:२१५) 
 उस अवस्था में जो सचमुच हमसे बहिर्निष्ठ है, ' वह '- वह नहीं है जिसे हम देखते हैं। जिस गिलास को मैं देखता हूँ, वह निश्चय ही बाह्य वस्तु नहीं है। जो कोई बाह्य वस्तु गिलास में है, उसे मैं नहीं जानता और न कभी जान पाउँगा।मुझ पर किसी वस्तु का संस्कार पड़ता है। तत्क्षण मैं उसकी तरफ़ प्रतिक्रिया प्रेषित करता हूँ, इन दोनों के संयोग का परिणाम है गिलास। बाह्य से क्रिया- ' क '। अभ्यंतर की क्रिया - ' ख '। गिलास है- ' क ' + ' ख '। जब तुम ' क ' पर देखते हो, तो उसे बाह्य जगत् कहते हो, ' ख ' पर देखते हो तो अंतर्जगत। (४:१३२)
इसलिए स्वामीजी का यह विश्वास निश्चित रूप से सत्य सिद्ध होगा कि- " विज्ञान और धर्म एक दुसरे का आलिंगन करेंगे। कविता और दर्शनशास्त्र मित्र हो जायेंगे। यही भविष्य का धर्म होगा। और हम यदि ऐसा करने में सफल हो जायें, तो यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि यह सभी काल और सभी अवस्थाओं के मनुष्यों के लिए उपयोगी होगा। केवल यही पथ विज्ञान को ग्राह्य हो सकता है, क्योंकि यह लगभग वहाँ पहुँच चुका है। "(२:९४)
(The Inside) 
अन्तर्जगत 
मस्तिष्क और मन कि समष्टि (Brain-mind complex) ही सबकुछ का निर्माण कर रही है। इस दृश्यमान 'त्रि-आयामी जगत् ' से प्रारम्भ करके ( भौतिक वैज्ञानिकों के लिए चाहे जगत् के आयामों कि संख्या जितनी भी हो, किन्तु हमलोग जगत् को तीन आयामों वाला( 3 D) ही देख पाते हैं।) हर प्रकार के विचारों, भावों, भय, राग-द्वेष, आदि मनोभावों का निर्माण भी इसी मस्तिष्क और मन कि समष्टि द्वारा ही हो रहा है। 
फ़िर भी यह मन क्या है, और मस्तिष्क के साथ इसका क्या सम्बन्ध है- इस बात को निश्चित रूप से कोई भी नहीं जानता। किन्तु हमारा मन है, इस बात को हम इसके कार्यों (Functions) के द्वारा जानते हैं, यह बाहर से आने वाले सन्देषों (संकेतों) को ग्रहण करके, उनका विश्लेषण करता है तथा उन्हें वर्गीकृत भी कर देता है। जिसके फलस्वरूप हम किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसपर विचार करते हैं, अनुभव करते हैं, कल्पना-इच्छा-संकल्प करते हैं, स्वप्न देखते हैं। 
और वह क्या है जो बहिर्जगत से हमारे अंतर्जगत में प्रविष्ट हो रहा है ? - वह एक उद्दीपक (Stimuli) है, जिसे विज्ञान कि भाषा में - ' विद्युतरासायनिक- संकेत ' (इलेक्ट्रोकेमिकल- सिग्नल्स) कहते हैं।  जो कोषाणुओं (Neurons) के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँच रही है। किसी वस्तु को देखने में क्या घटित होता है ? शून्य द्रव्यमान (Zero-mass) के वे विशिष्ट कण जिसके साथ विभिन्न मात्रा कि उर्जा भी संयुक्त रहती है, उसे ' Photons ' कहते हैं।  और उन्ही Photons की श्रंखला को प्रकाश (Light) कहते हैं।या आप यह भी कह सकते हैं कि हमारी नेत्रों के दृष्टिपटल (रेटिना) से, जब अनुरूप आवृत्ति बैंड की विद्युत-चुम्बकीय तरंगें (Electromagnetic Waves)  टकरातीं हैं, तब उसके विद्युत-रासायनिक संकेत उसी समय हमारे मस्तिष्क की दिशा में निर्दिष्ट होने लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारा 'ब्रेन-माइंड कम्प्लेक्स' (या मस्तिष्क-मन की समिष्टि) या एक ऐसा न्यूरोट्रांसमीटर है जो इन विद्युतरासायनिक-संकेतों को कच्चे माल के रूप में व्यव्हार कर के, उन सब वस्तुओं का निर्माण करतीं हैं, जिन्हें हम देख पाते हैं; यह कोई नहीं जानता कि कैसे ? परन्तु वही बहिर्जगत के रूप में प्रक्षेपित होता है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " पाश्चात्य दार्शनिक तो, इस तथ्य को अभी हाल में जान सके कि नेत्र वास्तव में दर्शन-इन्द्रिय (ऑप्टिक नर्व) नहीं है। बल्कि यथार्थ इन्द्रिय इनके पीछे मस्तिष्क के स्नायू केन्द्र (Optic Nerve) में वर्तमान हैं। और यदि वह 'ऑप्टिक नर्व' नष्ट हो जाये तो सहस्रलोचन इन्द्र की तरह, चाहे मनुष्य की हजार आँखें हों, पर वह कुछ देख नहीं सकता। तुम्हारा दर्शन यह स्वतःसिद्ध सिद्धान्त को लेकर आगे बढ़ता है कि, दर्शन-क्रिया का तात्पर्य वास्तव में बाह्य दृष्टि से नहीं, यथार्थ दृष्टि अन्तर इन्द्रिय की, मस्तिष्क के भीतर रहने वाले स्नायू केन्द्र की है।" (५:२९३)
जब मैं किसी पुस्तक को पढ़ रहा होता हूँ, तब मैं एक कागज के पन्नों पर छपे कुछ काली रेखाओं और वक्र गोलाइयों को देखता हूँ। उन्हें मैं अपने मन में विद्यमान कुछ विचारों के साथ जोड़ता हूँ, और उसका अर्थ निकलता हूँ। उसी प्रकार बाहर में कोई ध्वनी या उसका अभिप्राय भी नहीं है। श्रवण क्रिया में कम्पन ही कर्ण और हवा के माध्यम से मस्तिष्क में स्थित श्रवण-स्नायू केन्द्रों तक पहुँचते हैं, तथा जिस ध्वनी को हम सुनते हैं, वह हमारे भीतर ही उत्पन्न होते हैं। मैंने स्वचालित ढंग से विभिन्न प्रकार की ध्वनियों के साथ कुछ विचारों को संयुक्त करना सीख लिया है, इसीलिए जब कोई कुछ कहता है तो हम उसके कथन का अभिप्राय समझ लेते हैं।इससे यह सिद्ध हो जाता है कि समस्त प्रत्यक्ष ज्ञान तथा अवधारणायें वास्तव में मानसिक रचना है।
 तथा वह मानसिक प्रतिक्रिया निवेशों की प्रकृति एवं मध्यस्थ शारीरिक प्रक्रिया (Intermediary physiological process) के ऊपर निर्भर करती है। हमलोग मन के कार्यों को, उन्ही के ऊपर मन को एकाग्र और अंतर्मुखी करके समझ सकते हैं। मानव शरीर के सबसे जटिल और सबसे कठिन अंग मस्तिष्क से सम्बंधित, तंत्रिका विज्ञान (Neuro Science) पर किये गये हाल के शोध में कई बड़े-बड़े साहसिक कदम उठाये गये हैं, जिसने मानव-मस्तिष्क की सर्वोत्कृष्टता के विषय में किसी भी संदेह को बिल्कुल समाप्त कर दिया है।
खोपड़ी का सामने वाला हिस्सा (Frontal lobe) या ' ललाट ' के क्रमविकास ने मन की कार्यप्रणाली को समझने की असीम संभावनाओं को बढा दिया है। किंतु मानव-समाज उन संभावनाओं का अन्वेषण समुचित ढंग से अभी तक नहीं कर सका है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि, ललाट का सामने वाले हिस्से (cortex) में ही वह स्नायू केन्द्र है जिसमें 'विवेक-प्रयोग' करने का सामर्थ्य होता है ! हमारे विकसित ललाट में अवस्थित यह स्नायुकेन्द्र (सेरेब्रल कॉर्टेक्स) ही सत्-असत् के बीच विवेक (Discrimination) करने, पाशविक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने, आदि जैसे- मन कि उच्चतर क्रियाओं को संपन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।(जबकि पाशविक प्रवृत्तियों का सम्बन्ध मस्तिष्क के उस निचले हिस्से से है, जो मनुष्य शरीर प्राप्ति तक क्रमविकास (Evolution) करने के विभिन्न चरणों में विकसित होता है ) यह शोध भविष्य में उस ' विवेक ' को जानने का एक शरीर-वैज्ञानिक आधार (Physiological basis) प्रदान कर सकता है, जो केवल मनुष्य शरीर में ही दिखाई पड़ता है। और यह विवेक-प्रयोग सामर्थ्य ही है, जो मानव-मात्र के लिए अपना यथार्थ ' दिव्य-स्वरूप ' (Divine nature) को जान लेने का द्वार भी खोल देता है
कवि राजा भृतऋहरी इसी विवेक को 'धर्म' की संज्ञा देते हुए कहते हैं -
' आहार-निद्रा-भय-मैथुनम् च सामान्यमेतत, पशुर्भीनराणाम । 
    धर्मेव तेषाम् अधिको विशेषो, धर्मेण हीना पशुभिः समाना ॥ "
"- अर्थात श्रेय-प्रेय (शाश्वत-नश्वर ) के बीच विवेक-प्रयोग करने की शक्ति को ही ' धर्म ' कहते हैं, जो मनुष्य को उसकी पाशविक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखते हुए धर्म-पथ (मनुष्योचित पथ) का अनुसरण करने की योग्यता प्रदान करके उसे पशुओं से अलग करता है। जबकि ' विवेक-प्रयोग- शक्ति ' से रहित मनुष्य तो पशु के समान ही है। "
भौतिक-वादी लोग यह तर्क देते हैं कि ' मन ' (Mind) भी ' मस्तिष्क ' (Brain) के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह सच है कि मस्तिष्क में ऐसे करोड़ो कोशाणु (नयूरोन्स) हैं, जिनमे से प्रत्येक के भीतर भौतिक जड़ कणों द्वारा निर्मित हजारो अन्तर्ग्रन्थन (Synapses) रहते हैं। इसी के कारण अनेक वैज्ञानिक भी इसी मत के समर्थक हो जाते हैं। और उन्ही का अनुकरण करते हुए अनेक आधुनिक मानव, इसी ' भ्रांत-मत ' को विज्ञान का अन्तिम निष्कर्ष समझ कर इसके समर्थक बन गये हैं। जबकि वास्तविकता ऐसी  नहीं है। जार्ज हेनरी लुईस द्वारा लिखित पुस्तक " The Physical basis of Mind " की भूमिका में नोबेल पुरस्कार प्राप्त स्नायुरोग विशेषग्य (Neurologist) - सर चार्ल्स शेरिंगटन कहते हैं- " वर्तमान में ' मन के भौतिक आधार ' को जानने के प्रति आग्रह बढ़ता जा रहा है। मस्तिष्क के सम्बन्ध में अधिकाधिक बढ़ती हुई जानकारी के साथ हमारा मूल विषय (थीम), मस्तिष्क के क्रियाविज्ञान (physiology of The Brain) के लगभग समकक्ष पहुँच चुका है। चिन्तन-शक्ति, स्मरण-क्षमता, अनुभव-क्षमता, युक्ति-तर्क आदि मानसिक क्रियाओं के सन्दर्भ में जिस ' मन ' (Mind) शब्द का प्रयोग होता है, उसे भी भौतिक पदार्थों की श्रेणी में रखना कठिन हो गया है। जब कि शरीरविज्ञान वैसा एक प्राकृतिक - विज्ञान (Natural Science ) है जो शारीरिक सीमा के अतीत की समस्त विषयों के सम्बन्ध में मौन रहना अधिक पसन्द करता है; इसी कारण 'मन के भौतिक आधार' के अध्यन का विषय इन दो मतों के बीच उपेक्षित रह जाता है। "
उसी प्रकार विख्यात न्यूरो-सर्जन तथा सर सेरिंगटन के छात्र डा० वाइल्डर पेनफिल्ड अपनी पुस्तक-'The Mystery of Mind' (मन का रहस्य) के ' मानवीय-मस्तिष्क और चेतना का विवेचनात्मक अध्यन' नामक अध्याय में कहते हैं- " मस्तिष्क की क्रियाओं का निरिक्षण करते समय कोई भी न्यूरोलॉजिस्ट
(स्नायुतान्त्रिका विशेषज्ञ)  ' MRI ' देखकर यह अनुमान लगा सकता है कि प्रच्छ्न्न स्थितिज अन्तःशक्ति (conduction of potential) का संचालन मस्तिष्क के किस क्षेत्र में हो रहा है और उसका बनावट (pattern) कैसा है। अर्थात रक्त का प्रवाह देख कर वे मस्तिष्क को पढ़ सकते हैं। वे यह बता सकते हैं कि कोई व्यक्ति वृक्ष को देख रहा है या उसकी किसी डाल पर बैठे पंछी को, या कि कोई सच बोल रहा है या झूठ। (टीवी धारावाहिक सच का सामना ने इसे और प्रसिद्द कर दिया है।) लेकिन असली प्रश्न अभी भी एक रहस्य है कि मस्तिष्क में यह ' चेतना ' कहाँ से आती है, कि ' मैं हूँ ' और मुझे ' अमरत्व ' लाभ करने के लिये सदैव प्रयासरत रहना चाहिये ?
जिन क्रियाओं को- ' मन का कार्य ' (Mind-action) कहते हैं, वहाँ यह बात लागु नहीं होती। तथा मस्तिष्क (Brain) से बिल्कुल स्वतंत्र रूप से ' मन के कार्य ' ठीक उसी प्रकार क्रियाशील प्रतीत होते हैं, जैसे कोई क्रमादेशक (प्रोग्रामर) अपने कम्प्यूटर से बिल्कुल स्वतंत्र रह कर क्रियाशील रहता है। भले ही उस प्रोग्रामर को अपना कोई उद्देश्य पूरा करने के लिए अपने कम्प्यूटर के कार्यप्रणाली पर कितना भी निर्भर रहना पड़ता हो।"
आइये अब "मन तथा जड़पदार्थ " (Mind & Matter) के संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द के वचनों को सुनते है - " प्राथमिकता अथवा कारणता (Precedence or Causation) की समस्या से परे -  मन (Mind) भूतद्रव्य (Matter) का कारण है या भूतद्रव्य मन का ? बाह्य (स्थूल शरीर) आन्तरिक (मन या कारण शरीर) के अनुरूप बनता है, या आन्तरिक बाह्य के अनुरूप ?  पदार्थ मन की अनुरूपता स्वीकार करता है,  या मन पदार्थ की ?  परिवेश मानव मन को ढालता है, या मानव मन परिस्थितिओं को अपने अनुकूल ढाल देता है ?  - यह एक प्राचीन, अति प्राचीन प्रश्न है, जो आज भी उतना ही नविन और जीवन्त है, जितना कभी था।  
 इस पहेली का समाधान ढूंढने की चेष्टा किये बिना भी- इतना तो स्पष्ट है कि, बाह्य (स्थूल शरीर) का निर्माण आन्तरिक (मन या कारण शरीर) द्वारा चाहे हुआ हो या न हुआ हो, पर हम बाह्य को समझने में समर्थ हो सकें - इसकेलिए आवश्यक है कि बाह्य, आन्तरिक की अनुरूपता स्वीकार करे।हम चाहे यह मान भी लें कि बाह्य जगत ही आन्तरिक का कारण है, फ़िर भी हमे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारे मन के कारण रूप में बाह्यजगत भी - अज्ञात और अज्ञेय है। क्योंकि हमारे मन को, बाह्य जगत् के उतने ही रूप का या दृश्य का ज्ञान प्राप्त हो सकता है जितना उसकी प्रकृति के अनुरूप हो या उसकी प्रतिच्छाया हो। अब जो स्वयं उसकी प्रतिच्छाया है - प्रतिबिम्ब है, वह उसका कारण तो नहीं हो सकता। और फ़िर इस व्यापक अस्तित्व का वह दृश्य जो मन के द्वारा समग्र से पृथक कर लिया जाता है, अवगत किया जाता है, जाना जाता है, वह तो निश्चय ही मन का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसके अस्तित्व का ज्ञान ही मन में और मन के द्वारा होता है। "(९:२७६)

यहाँ उल्लेखनीय होगा कि बाह्य जगत् की वैज्ञानिक गवेषणा एवं उसकी व्याख्या करने के लिये ' मात्रा भौतिकी ' (quantum physics) के निर्भीक समर्थकों ने इसी अवधारणा को, बिना इसमे कोई फेर-बदल किये अपने आधारभूत वाक्य के रूप में प्रतिपादित किया था। तथा उन्होंने भी यह घोषित किया था, कि जड़ पदार्थ केवल अज्ञात ही नहीं अज्ञेय भी हैं। अभी केवल विगत शताब्दी में ही, विज्ञान को यह पता चला है कि उर्जा तरंग कणों (energy wave particles ) के समान गुणधर्म का गणितीय नृत्य है यह जगत्। 
इस दृष्टिगोचर जगत् प्रपंच की संतोषप्रद व्याख्या करते हुए स्वामीजी आगे कहते हैं- " इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि मन को भूतद्रव्य (Matter) का परिणाम कहना असम्भव ही नही असंगत भी है। ... अस्तित्व का वह अंश जो विचार और जीवन कि विशिष्टताओं से विरहित है, और जिसमे बाह्यतत्त्व की विशिष्टता वर्तमान है, वही भूतद्रव्य (Matter) कहलाता है। और जो अंश बाह्य ततत्व से विरहित है, और जिसे विचार और जीवन की विशिष्टताएं उपलब्ध हैं, उसे मन (Mind) कहा जाता है।
अब मन से भूत द्रव्य की, अथवा पदार्थ से मन की उत्पत्ति सिद्ध करना प्रत्येक से उन गुण-धर्मो की अनुमिति करना है, जिनसे विरहित हम उन्हें मान चुके हैं। इसीलिए मन और पदार्थ (Mind & Matter) की कारणता के सम्बन्ध में चलने वाला सारा संघर्ष एक शाब्दिक पहेली भर है,उससे अधिक कुछ नहीं।
....इसका अर्थ यह हुआ कि, एक पक्ष इस समस्त जगत् की व्याख्या उसके उस अंश से करना चाहता है जो बाह्य है, और दूसरा पक्ष उसके उस अंश से जो आतंरिक है। ये दोनों ही प्रयत्न असंभव हैं। मन और पदार्थ (दोनों जड़ हैं,इसलिये वे कभी)  एक दुसरे की व्याख्या नहीं कर सकते- एक दुसरे का रहस्य नहीं खोल सकते। 
समस्या का एकमात्र समाधान उस तत्त्व में खोजना पड़ेगा जो मन और भौतिक पदार्थ (आकाश और प्राण) दोनों को ही अपने में समाहित कर लेता है।... यह तर्क दिया जा सकता है कि मन के आभाव में विचार का अस्तित्व असम्भव है। क्योंकि यदि हम यह कल्पना करें कि कोई ऐसा समय था, जब विचार का अस्तित्व नहीं था, तो निश्चय ही भौतिक पदार्थ का भी जैसा हम उसे जानते हैं, अस्तित्व नहीं हो सकता था। दूसरी ओर यह कहा जा सकता है कि चूँकि अनुभव के आभाव में ज्ञान असंभव है, और चूँकि यह अनुभव ही है जो बाह्यविश्व कि कल्पना करता है, इसीलिए मन का अस्तित्व - जैसा कि हम उसे जानते हैं, भौतिक पदार्थ (अहं ?) के आभाव में असंभव है। " (९:२७७,२७८)

(THE BEYOND) :
इन्द्रियातीत 

 - हमारे भीतर या बाहर जो कुछ भी है, वह वस्तु चाहे शारीरिक हो या मनसतात्विक, वह प्रकृति का ही एक अंश है तथा प्राकृतिक नियमों का पालन करता है। इस तरह से देखने पर ये सभी वस्तुयें पार्थिव वस्तुयें हैं। किन्तु सभी प्राणियों में ऐसी कोई एक वस्तु है, जो उन्हें जड़ पदार्थों से अलग करती है, वह है -' अपनी सत्ता का बोध ' (The awareness of Existence) तथा ' आत्म-रक्षा के लिए आग्रह ' ( The urge for self-preservation)। उदाहरण के लिए, ' मैं जानता हूँ, कि मैं हूँ, तथा मुझे सदैव जीवित रहने के लिये संघर्ष करना चाहिए।' यहाँ तक कि एक जीवाणु (Amoeba) भी यह जानता है कि उसका अस्तित्व है, वह है ! तथा अपने जीवन कि रक्षा के लिये वह भी संघर्ष करता है। किन्तु एक मेज अपने अस्तित्व के प्रति जाग्रत नहीं होता, इसीलिए वह सदैव बने रहने के लिये संघर्ष भी नहीं कर सकता। प्रत्येक जीव या प्राणियों में यह जो विलक्ष्ण वैशिष्ट है, वह उसे जड़ प्रकृति से प्राप्त नहीं हो सकता, वह अवश्य ही उसे किसी अज्ञात श्रोत से प्राप्त हुई होगी। 
तथा उस श्रोत को प्रकृति से अवश्य ही परे भी होना चाहिए (जैसा हम जानते हैं की वह तो जड़ है), लेकिन परे होते हुए भी वह स्वयं को इसके भीतर अभिव्यक्त करने की शक्ति रखता है। (अगर मैं अपने मशीन रूपी अवचेतन मस्तिष्क को पढ़ सकता हूँ, और उस न्यूरोट्रांसमीटर को भी देख सकता हूँ जो मेरे मस्तिष्क से संकेत (संदेष) भेजता है, तो इसका अर्थ यह है कि मैं न्यूरोट्रांसमीटर (दिमाग या Brain) नहीं हूँ, फ़िर मैं कौन हूँ ?)

भारत के श्रेष्ठ ऋषि-मुनियों ने, शरीर और मन के इस नित्य- परिवर्तनशील समष्टि से परे, किन्तु सभी जीवों में अन्तर्निहित इसी अप्राकृतिक सारतत्व को - ' आत्मा ' की संज्ञा दी है। यह आत्मा क्या है ? इसके उत्तर में वे कहते हैं- ' प्रकृति में दृष्टिगोचर किसी भी अन्य वस्तु के सदृश्य यह नहीं है, इसीलिए यह युक्तितर्क या तुलना सापेक्ष वस्तु नहीं है, तथा साधारण अनुभव के समान इसे भी ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता। जब हम इस आत्मतत्व का अनुभव कर लेते है, तो हम वही बन जाते हैं- इतना ही नहीं वे या भी कहते हैं कि हम पहले ही से 'वह' हैं !'(आत्मसाक्षात्कार कर लेने के बाद, निर्विकल्प-समाधिवान पुरुष, अवतार या नेता का ) प्रकृति के साथ जो हमारा पुराना तादातम्य था केवल वह समाप्त हो जाता है, और अब हमलोग केवल एक हाड़-मांस का पिण्ड और विचारों- भावनाओं की समष्टि मात्र ही नहीं रह जाते हैं। "

तो फ़िर हम अपनी बुद्धि द्वारा ऐसी वस्तु को समझ कैसे सकते हैं ? क्योंकि किसी नये सिद्धांत को पूर्ण रुपें समझे बिना, उसके आधार पर हम आगे कैसे बढ़ सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में गौतमबुद्ध मौन हो जाते हैं। वे केवल इतना ही कहते हैं -"अप्प दीपो भव !" अर्थात निर्धारित प्रणाली का अनुसरण करो और स्वयं ही सत्य की अनुभूति करो। ' 
किन्तु प्राचीन भारतीय वेदान्त-दर्शन : अर्थात 'श्रुति-युक्ति-अनुभूति' के सहारे मानवीय बुद्धि जहाँ तक पहुँच सकती है, उस ओर संकेत करता हुआ कहता है- ' ब्रह्म या आत्मा सत्-चित्-आनंद स्वरूप है '। अर्थात यह ' सत्-स्वरूप ' है, इसका यथार्थ अस्तित्व है, इसीलिए इसमे ' अमरत्व लाभ' करने अथवा आत्मरक्षा करने की प्रवृत्ति रहती है।  फ़िर यह ' चित्-स्वरूप ' है - यथार्थ ज्ञानस्वरूप है, इसीलिए इसमे चेतना तथा ज्ञानप्राप्ति की स्वभाविक इच्छा रहती है। फ़िर यह ' आनन्द- स्वरूप ' है, इसीलिए सदैव सुख प्राप्त करना और दुःख से बचना चाहता है। प्रकृति के चिरंतन प्रवाह के माध्यम से और उसके भीतर व्याप्त रहने वाला यही एक मात्र अपरीवर्तनशील ' सत्य-वस्तु '- आत्मा या ब्रह्म है। सभी प्राणियों में यह,' सच्चिदानन्द ' स्वरुप ' ब्रह्म ' ही - स्वयं को ' आत्मा ' के रूप में अभिव्यक्त करता है। तथा क्रमविकास के उच्तर सोपानों तक विकसित जीवों में इसकी अभिव्यक्ति की मात्रा क्रमशः अधिकतर होती जाती है। तथा  भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' ( या विवेकानन्द - निवेदिता भक्ति-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में BE AND MAKE ' के महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यास करना) इस सत्य तक पहुँचने का निकटतम मार्ग है। 
प्रतिभासिक मनुष्य के पार्श्व में स्थित ' यथार्थ ' मनुष्य यह ब्रह्म ही है। १८९७ ई के लाहौर व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " इस समय पाश्चात्य देशों में भौतिक विज्ञान की जैसी द्रुत उन्नति हो रही है, और शरीर विज्ञान जिस तरह धीरे-धीरे प्राचीन धर्मों के एक के बाद दूसरे दुर्ग पर अपना अधिकार जमा रहा है, उसे देखते हुए पाश्चात्य वासियों को कोई टिकाऊ आधार नहीं मिल पा रहा है, क्योंकि आधुनिक शरीर विज्ञान में पग-पग पर मन(Mind) की मस्तिष्क (Brain) के साथ अभिन्नता देख कर वे बड़ी उलझन में पड़ गये हैं, परन्तु भारतवर्ष में हमलोग यह तत्त्व पहले से ही जानते हैं। भारतीय बालक को पहले ही यह तत्त्व सीखना पड़ता है कि मन भी एक जड़ पदार्थ है, परन्तु सूक्ष्मतर जड़ है।
 हमारा यह जो स्थूल शरीर है, इसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर या मन है। यह भी जड़ है, केवल सूक्ष्मतर जड़ है, परन्तु आत्मा नहीं। ... आत्मा तो मनुष्य के भीतर ' यथार्थ ' मनुष्य है। यह आत्मा जड़ को (शरीर और मन को ) अपने यन्त्र के रूप में, अथवा मनोविज्ञान कि भाषा में कहें तो अपने अन्तःकरण  के रूप में चलाती-फिरती है। और मन अन्तर-इन्द्रियों की सहायता से, शरीर की दृश्यमान वाह्यइन्द्रियों पर कार्य करता है। " (५: २९२)
यहाँ तक कि अंहकार (भी जो किसी मध्यस्त (Sense Agency) की तरह मन के कार्यों में संयुक्त रहता है) - जिसके करण जड़ प्रकृति और आत्मा के तादातम्य (ग्रंथि) को स्वीकार कर के हम अपना परिचय - मैं श्री ' अमुक' हूँ ' , कह कर अपना परिचय देते हैं। तथा मैं यह कर रहा हूँ, या वह किया हूँ-' कर्तापन ' का यह मिथ्या अभिमान या अहंकार भी इस साक्षी स्वरूप आत्मा का शरीर-मन की समष्टि के साथ तादातम्य करने का ही परिणाम है।
अतः हमारा अंहकार या 'अहम्' एक भ्रम या देहाध्यास है, हमारी यथार्थ आत्मा नहीं है। अब जरा इस विरोधाभास (Paradox) पर विचार करें - ' मैं यह सोंचता हूँ कि, मैं शरीर हूँ। तथा मैं यह जानता हूँ कि मेरा शरीर मर जाएगा। किन्तु जन्मजात रूप से मेरे अन्दर आत्मसंरक्षण करने कि प्रवृत्ति भी है। दूसरे शब्दों में मेरे अन्दर यह प्रवृत्ति जन्मजात रूप से है कि मुझे ' अमरत्व ' प्राप्त करने के लिए हर सम्भव प्रयास अवश्य करना चाहिए। '
जब तक हमलोग परम-सत्य, आत्मा या अपने यथार्थ स्वरूप कि उपलब्धि या आत्म-साक्षात्कार नहीं कर लेते, हमलोगों को ऐसे ही स्व-विरोधी मनोभाओं के बीच जीना पड़ता है। जितना अधिक से अधिकतर हम इस ' आत्म्वस्तु ' या परम सत्य कि ओर अग्रसर होते रहते हैं, उसी परिमाण में हम क्रमशः अपने ' तुच्छ अहम् ' या क्षुद्र अंहकार को भूलते जाते हैं; तथा सबों के साथ अपने एकत्व की अनुभूति होने लगती है।' 
" जगत में कोई पराया नहीं है ' - सभी को अपना बनाना सीखो ! श्रीमाँ सारदा देवी की यही शिक्षा,यही बोध हमलोगों को मातृहृदय के प्रेम से परिपूर्ण कर देता है!  क्योंकि यह आत्मा ही सबों का सार तत्त्व है। सब प्राणियों के ह्रदय में विद्यमान यह स्वप्रकाश सत्य ही सभी जीवों की यथार्थ आत्मा है। यही सर्व व्याप्त सत्ता है, इतना ही नहीं वह इन सब के परे भी है।
" एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । 
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥ "
( श्वेता शतर :६:११)
'- “वह एक देव ही सब प्राणियों में छिपा हुआ है।  सब में व्याप्त हैं,और समस्त प्राणियों का अन्तर्यामी परमात्मा है। इसी के साथ यह भी कहते हैं कि - सबों के भीतर निवास करने वाले यह परमदेव ही सबके कर्मों के अधिष्ठाता हैं, कर्तापन के अभिमान से कर्म करने वाले जिव को, कर्मानुसार फल प्रदान करते हैं। तथा मन में शुभ - अशुभ हर प्रकार के विचारों या बाहरी-भीतरी सभी कर्मों को देखने वाले निष्क्रिय' साक्षी ' हैं।परम चेतन सवरूप परमात्मा सबों को चेतना प्रदान करने वाले होते हुए भी वह आद्वितीय चैतन्य स्वरूप हैं जो प्रकृति के गुणों से अतीत भी हैं।'
  स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में -" वह साक्षी स्वरूप हैं, हमारे समस्त ज्ञान का वह साक्षी स्वरूप है। हम जो कुछ जानते हैं, वह सब पहले उसे जानकर उसी के माध्यम से जानते हैं। वही हमारी आत्मा का सारतत्त्व है। वही वास्तविक अहम् है। और वह ' अहम् ' ही, हमारे इस ' अहम् ' का सार सत्ता स्वरूप है। हम अपने उस ' अहम् ' के मध्यम से जाने बिना कुछ भी नहीं जान सकते। अत एव सभी कुछ हमें ब्रह्म के माध्यम से ही जानना पड़ेगा।" (२:८६)
 यहाँ पर स्वामीजी ने केवल अभिव्यक्ति की भाषा में थोड़ा परिवर्तन करके "Impersonal Truth" या अवैयक्तिक सत्य को "Personal Truth" या वैयक्तिक सत्य में परिवर्तित कर दिया है। इसीलिए हमलोगों को भी जीवन की संभावनाओं तथा कार्यक्षेत्र के विस्तार ( या मैं कौन हूँ ? ) को - पूर्ण रूप में समझने के लिये ' चैतन्य के सिद्धान्त ' (Principle of Awareness) को 'क' और 'ख' (या नाम-रूप) से पृथक करके,या आकाश (matter) और प्राण (Energy) से सर्वथा विलक्षण उसके स्वरूप को पहचान लेना होगा। र इस कार्य को पुरा करने में केवल हमारी मानव-प्रजाति के प्राणी-(Homo Sapiens) ही सक्षम हो सकते हैं।
 स्वामीजी कहते हैं - " जड़ द्रव्य (शरीर) , मन, आत्मा (3H) ये तीनो एक हैं। ये केवल नाम-भेद मात्र हैं। विश्व में सत्य एक है और हम उसे विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं।  एक दृष्टिकोण से देखा गया वही सत्य जड़ तत्व है, दूसरे दृष्टिकोण से वही मन है। यहाँ दो वस्तुयें नहीं हैं। ...रस्सी को देख कर उसे साँप समझने वाला मन भ्रम में नहीं था। अगर वह भ्रमित रहता, तो उसे कुछ भी दिखायी न देता। केवल एक वस्तु को दूसरी वस्तु समझ लिया गया है, अस्तित्वहीन वस्तु को किसी दूसरे रूप में नहीं समझा गया है।" (४:१५२,१५३)
" जो ऐसी अवस्था (निर्विकल्प-समाधिवान पुरुष, अवतार,वेदान्ती लीडरशिप की अवस्था)  को प्राप्त हो गये हैं, जहाँ न सृष्टि है, न सृष्ट, न सृष्टा, जहाँ न ज्ञाता है, न ज्ञान और न ज्ञेय, जहाँ न मैं है, न तुम और न वह, जहाँ न प्रमाता है, न प्रमेय और न प्रमाण। जहाँ - कौन किसको देखे ? - वे पुरूष सबसे अतीत हो गये हैं, और वहाँ पहुँच गये हैं, जहाँ - न वाणी पहुँच सकती है, न मन! और श्रुति जिसे ' नेति ', ' नेति ' कहकर पुकारती है। ... जब प्रह्लाद अपने आपको भूल गये, तो उनके लिये न सृष्टि रही और न उसका कारण, रह गया केवल नाम-रूप से अविभक्त एक अनन्त तत्व। पर ज्यों ही उन्हें यह बोध हुआ कि - ' मैं प्रह्लाद हूँ ' !! त्यों ही उनके सम्मुख जगत् और कल्याणमय अनन्त गुणागार जगदीश्वर प्रकाशित हो गये। " (४:१२)
 " अद्वैतवादी कहता है, ' नाम-रूप को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ' ब्रह्म ' नहीं है ? (४:३३)
 " कभी कभी हम कोई ऐसा मुख (पूज्य नवनीदा जैसा मुख)  देखते हैं, जो मानो ऐसी ज्योति (प्रभामंडल- halos) से मण्डित है, जिससे हम उसके चरित्र की झलक पा सकते हैं और उसके बारे में एक अचूक निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।" (४:९३)
 स्वामी विवेकानन्द ऐसे ही मनुष्यों (लोकशिक्षकों, नेताओं का) का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करना चाहते थे। उनके जीवन के उद्देश्य (mission) के पीछे यही भाव अब भी कार्यरत है, तभी तो अपने जीवनोद्देश्य को प्रकट करते हुये, उन्होंने कहा था - " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्यजाति को उसके ' दिव्य- स्वरूप' का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। " (४:४०७)
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श्री अरुणाभ सेनगुप्ता के ' प्रथम ' निबन्ध - द्विभाषी संवाद पत्रिका Vivek- Jivan के annual number 2009 में प्रकाशित इसके उप-सम्पादक -The Outside, The Inside, and The Beyond : Glimpses of Swamiji's View का हिन्दी रुपान्तरण।

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

' लघुता से प्रभुता की यात्रा '

महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाने के बाद, एक दिन  कौरवों के पिता धृतराष्ट्र पुत्र-शोक से व्याकुल हो कर विलाप कर रहे थे। तब महात्मा विदुर उनको सान्तावना देने के उद्देश्य से उनके साथ जीवन की कुछ अपरिहार्य (अवश्यम्भावी) सच्चाइयों  के ऊपर विचारों का आदान-प्रदान करते हुए कहते हैं-
" सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः |
   संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ||
"
- हे राजन , समय के प्रवाह में समस्त संचित धन-संपदा क्षीणता को प्राप्त हो जाते हैं। ऊँची उठी हुई लहरें (ज्वार) निश्चित रूप से नीचे गिरतीं हैं। 'लौकिक उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोगोंका अन्त वियोग है और जीवनका अन्त मरण है ।’ समस्त प्रकार के संयोगों (सम्मिलन) की परिसमाप्ति वियोग (विच्छेद ) में होती है; और जीवन की भवितव्यता (नियति) तो मृत्यु ही है।  
हम सभीलोग या कम से कम वे, जिनको जीवन की सच्चाइयों से दो-चार होना पड़ा है, महात्मा विदुर की उपरोक्त बातों से अवश्य सहमत होंगे संसारमें सिवाय धोखेके कुछ मिलनेवाला नहीं है । संसारमें सब संयोगका, संबंधोंका वियोग ही होगा—किन्तु सहमत होते हुए भी हम इन बातों को सपष्ट रूप से समझ नहीं पाते हैं या समझना नहीं चाहते हैं। क्योंकि हम में से अधिकांश लोग जीवन में सुख देने वाले छोटे-मोटे नश्वर वस्तुओं में ही चिपके रहना चाहते हैं। 
 हम में से अधिकांश लोग लोग जीवन की जिन कटु-सच्चाइयों से मुख मोड़ कर, सदैव इसी शरीर और जीवन से चिपके रहना क्यों चाहते हैं ? जरा-मृत्यु को हम सहर्ष नहीं स्वीकार कर पाते उन्हें भुला देना चाहते हैं; और अप्रिय सच्चाइयों को भुला कर हमलोग सदा जीवित रहना चाहते हैं। और जब तक जीवन है तब तक केवल सुख और आनन्द ही पाना चाहते हैं, इसी जीवन में हर प्रकार का सुख भोग लेना चाहते हैं, तथा उन्हें सदा के लिए अपना बनालेना चाहते हैं। किन्तु अफ़सोस ! इस सम्बन्ध में कही गई प्राचीन कहावत ही सत्य है -   ' Time and tide wait for none '  अर्थात ' समय और ज्वारभाटा किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। ' हमारी कामनाएं (desires) संख्या और शक्ति के अनुपात मेंदिन प्रति दिन बढ़ती ही जातीं हैं। हम अपनी सुख-भोग की इच्छाओं को जितना ही तृप्त करना चाहते हैं वे उतनी हीअधिक भड़क उठती हैं।पौराणिक कथा में वर्णित ' राजा ययाति ' के जैसा विषय-भोगों में सदा लिप्त रहने तथाइच्छाओं को अधिक से अधिक भोगों द्वारा तृप्त करने का दूसरा उदाहरण खोज पाना कठिन है। 
महाभारत के आदि-पर्व में एक कथा है कि- अपना पूरा जीवन केवल विषयों को भोगने में बिता देने के बाद ' राजा ययाति ' जब बुड्ढा हो गया तथा सांसारिक विषयों का भोग करने में अक्षम हो गया, तो उसमे और अधिक सुख भोगने कि अत्यन्त तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई। इसलिए उसी के एक पुत्र ' पुरु ' ने अपनी जवानी उसको दे दी। और कहानी कहती है कि नवयौवन पाने के बाद - ययाति एक बार फ़िर से सांसारिक विषयों का भोग करने में जुट गया। जब वह अपने छोटे लड़के का यौवन ले कर भी अपने को तृप्त नहीं कर पाया तब उसे अन्त में यह बोध हो ही गया कि काम कभी तृप्त नहीं होता। वे खेद प्रकट करते हुए कहते हैं-
न जातु कामः कामानसुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवामिवर्धते॥
जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि में घृताहुती डालने से अग्नि बुझती नहीं और भी ज्यादाभड़क उठती है, उसी तरह प्रत्येक काम्य वस्तु का उपभोग करने से कामना कभी शान्त नहीं होती बल्कि निरन्तरबढ़ती जाती है। इतना कह कर ययाति और एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं-
यत् पृथिव्याम व्रीहि यवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात् तृष्णाम् परित्यजेत॥
 -' अर्थात संसार में जितना भी अनाज, स्वर्ण-माणिक्य, पशुधन, और स्त्रियाँ हैं, ये सब के सब मिल कर एक व्यक्तिकि तृष्णा को भी शान्त नहीं कर सकते, इसलिए तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए।'  इसीलिए काम के आश्रय स्थल इन्द्रियों को वशीभूत कर लेना मनुष्य का प्रधान कर्तव्य है, क्योंकि भोग की सीमानहीं है और न उसमे शान्ति ही मिलती है। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि त्याग में ही शान्ति है- " त्यागात् शान्तिरनन्तरम् " केवल त्याग से ही अमृतत्व कि प्राप्ति होती है- " त्यागेनैके अमृतत्वमान्शुः " जो लोग इस राजा ययाति के समान कामनाओं को पूरा करने के पीछे दौड़ते रहते हैं- उनका परिणाम क्या होता है ?यह भोगने वालों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर भी जीर्ण नहीं होता, ऐसा जो तृष्णा नामक प्राण हरने वाला रोग है, उस तृष्णा के त्याग में ही सुख है। राजा कवि भर्थरिहरी इस दृश्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 
कालो न यातो वयमेव याता।
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा ॥
-' समय नहीं बीत जाता, हम ही बीत जाते हैं। इच्छाएँ जीर्ण नहीं होतीं हम ही जीर्ण हो जाते हैं।' यह सचमुच दिलको दहला देने वाली सच्चाई है।क्या हमलोग इस वस्तुस्थिति को बदल देने में सक्षम नहीं हैं ? यह ठीक है कि शरीर आता है(जन्म लेता है ), जाता है( मरता है); किन्तु आने और जाने के बीच जितना भी जीवनमिला है- उसे तो गौरवपूर्ण बनाया जा सकता है। 
यदि इस जीवन को गौरवमय बनाना हो, तो हमे जीवन की  ऊँच्चतर अवधारणा तथा अनुभूतियों को अर्जित करने के लिए गंभीर प्रयत्न करना होगा। यहाँ ' इच्छा ' का तात्पर्य ' स्वार्थपूर्ण- इच्छा ' से है। यह वह ' इच्छाशक्ति ' है जो हमारे क्षुद्र (छोटा) " अहं " जिसे हम ' मैं ' के नाम से पुकारते हैं, उसी क्षुद्र अहं कि दिशा में निदेशित रहती है। जबतक हमलोग आत्मकेन्द्रित (self-centered) बने रहते हैं, तब तक ये स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ (Selfish desires) ही हमारे प्रायः प्रत्येक कर्मों की प्रधानसंचालक होतीं हैं।हमलोग अपने-आपको(या स्व को) सर्वाधिक प्रेम किए बिना रह ही नहीं सकते। 

किन्तु हमारे इस "स्व "  की स्पष्ट अवधारणा ही हमारे जीवन को विशिष्टता प्रदान करती है, तथा इसे अन्य प्रकार के जीवन से भिन्न बना देती है। हमारा यह क्षुद्र अहं - छोटा ' मैं ', आत्मा के वृहत संकल्पना में जितना अधिक विलीन होता जाता है, और हमलोग जितना अधिक यह अनुभव करने में समर्थ हो जाते हैं कि एक ही आत्मा सबों में निवास करती है, उतनी हीअधिक हमारी इच्छा-शक्ति स्वाभाविक रूप से सबों का कल्याण करने कि दिशा में मुड़ जाती है।( या स्व की  'विपरीत दिशा' 'पर' कल्याण की  दिशा में मुड़ जाती है) जितना अधिक हम इस विलोम मार्ग (स्व से पर की दिशा) में अर्थात अपने से ज्यादा दूसरों के कल्याण को महत्व देने में अग्रसर होने लगते हैं, उतना ही अधिक हम इस क्षुद्र अहं या छोटा 'मैं' से दूर हटते जाते हैं।

ह्रदय का यह विस्तार ही जीवन का (जीवित होने का) सच्चा चिह्न है। इसी बात को एक समीकरण के रूप में स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " ह्रदय का प्रस्फुटन(विस्तार) और प्रेम के बिना जीवन क्या है ?" यथार्थ मनुष्य को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं- " मनुष्य एक असीम वृत्त है,जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है,लेकिन जिसका केन्द्र एक स्थान में निश्चित है। " इसीलिए उसके अस्तित्व का वृत्त, सबों को अपने घेरे में समेट लेता है, किन्तु तब भी एक ' निश्चित स्थान ' में वह अपना एक पृथक व्यक्तित्व बनाय रखता है। ईश्वर को परिभाषित करते हुए आगे कहते हैं- " परमेश्वर एक ऐसा असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, लेकिन जिसका केन्द्र सर्वत्र है।" जब वह स्वयं को प्रत्येक ' केन्द्र-बिन्दु ' के साथ, प्रत्येक प्राणी के साथ अभिन्न देख सकता है तो, वह ईश्वर है।

इस प्रकार से देखा जाय तो दृश्य-पटल के निचले छोर पर एक ' पशु-मानव ' है, जो स्वयं को केवल साढेतीन हाँथ का छोटा सा शरीर-मन का एक संघात (Small body-mind complex) समझता है, और अपना सारा जीवन केवल स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के पीछे दौड़ते रहने में खर्च कर देता है। और अन्त में इतना अधिक जीर्ण (खोखला) हो जाता है कि, उसे अपना ही जीवन मानो एक भयंकर दुःस्वप्न जैसा प्रतीत होने लगता है। उपरी छोर पर एक ऐसा ' देव-मानव ' है, जो पूरी तरह से स्वार्थशून्य है और स्वयं को ही सभी प्राणियों में देखता है, या दूसरों के साथ स्वयं को अभिन्न अनुभव करता है। दोनों छोरों के मध्य में निःस्वार्थपरता के विभिन्न सोपानों तक उन्नत हुआ ' मनुष्य ' है। 
मनुष्य बनने के लिए काम (स्वार्थपूर्ण इच्छाओं) पर नियंत्रण की आवश्यकता है।यह नियंत्रण धर्म के अंकुश से साधित होता है। " धर्म वह वस्तु है, जो ' नरपशु ' को मनुष्य में, और मनुष्य को ' नरदेव ' में उन्नत कर देता है।" प्रारंभिक अवस्था में हमलोग ' यथार्थ मनुष्यत्व ' प्राप्त करने की दिशा में अवश्य अग्रसर हो सकते हैं।स्वार्थपूर्ण इच्छाओं की अत्यधिक प्रचूरता हमलोगों को मनुष्यत्व से दूर हटा देती है। वे हमे अपने यथार्थ स्वरूप को भूल जाने के लिए बाध्य कर देती हैं । (इसी कभी न तृप्त होने वाली काम रूपी अग्नि के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका रहता है)। वे हमारे चित्त को गन्दला कर देतीं हैं, मन को अपवित्र बना देतीं हैं।
 चित्त को शुद्ध करने, या मन को पवित्र रखने के लिए महर्षि पतंजलि ने जिन चार अभ्यासों को (समाधी पाद- ३३) में बताया था, बाद में स्वामी विवेकानन्द ने ही उनके ऊपर सर्वप्रथम भाष्य लिखा था। वे चार 
अभ्यास इस प्रकार हैं: मैत्री (friendship to all) , करुणा(compassion for the distressed), मुदिता (happiness with strength-giving things), और उपेक्षा (indifference to weakening things)।
स्वामी विवेकानन्द इसकी व्याख्या करते हुए (वि० सा० ख० १:१३७) में कहते हैं-" यह आवश्यक है कि हम सबके प्रति मैत्री-भाव रखें, दीन-दुखियों के प्रति दयावान हों, लोगों को सत्कर्म करते देख कर सुखी हों, और दुष्ट मनुष्य के प्रति उपेक्षा दिखायें।इसी प्रकार जो भी (इन्द्रिय)विषय हमारे सामने आते हैं, उन सबके प्रति भी हमारे में यही भाव रहने चाहिए। यदि कोई विषय हितकर हो, तो उसके प्रति मित्रता अर्थात अनुकूल भाव धारण करना चाहिए।इसी तरह, यदि हमारी भावना का विषय दुःखकर हो, तो हमारे अन्तः करण को उसके प्रति करुणापूर्ण होना चाहिए। यदि वह कोई शक्ति-प्रद विषय हो, तो हमें आनन्दित होना चाहिए, तथा जिन विषयों का उपभोग हमें दुर्बल बना देता हो, उसके प्रति उदासीन रहना ही श्रेयस्कर है।"

भगवान बुद्ध ने भी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को त्याग कर मन को पवित्र बनाने का जो उपदेश ' पाली ' भाषा में दिया है उसे ' Metta Sutta ' या " मेत्ता-सुत्त " के नाम से जाना जाता है। उसके कुछ अंशों का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है : " जिस प्रकार एक 'माँ ' अपना जीवन जोखिम में डालकर भी, अपनी सन्तान, अपनी एकलौती सन्तान कि रक्षा करती है ! उसी प्रकार अपने ह्रदय का असीम विस्तार कर, सभी जीवों की रक्षा अपनी आँखों की पुतली के सामान करनी चाहिए। इसी सार्वभौमिक प्रेम जन्य दयाशीलता की भावना को,सम्पूर्ण विश्व में विकीर्ण करो ! इसे ऊपर की ओर असीम आसमान तक,और नीचे की ओर अतल गहराई तक ; और आगे, तथा असीम तक......."
बुद्ध देव आगे कहते हैं- ' the pure-hearted one having clarity of vision ' will be ' freed from all sense desires '। अर्थात जिनकी दृष्टि ' ज्ञानमयी ' हो चुकी है, और ह्रदय पवित्र हो चुका है, वे समस्त प्रकार की इन्द्रिय-कामनाओं (स्वार्थपूर्ण इच्छाओं ) से मुक्त हो जायेंगे।" हमलोगों को मनुष्यत्व प्राप्त करने की दिशा में कम से कम पहला कदम उठाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द के समकालीन अनेक लोग उन्हें बुद्ध देव के समतुल्य मानते थे, उनकी वाणी का स्मरण करें-
" यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। बाकि लोग तो मृत से भी ज्यादा अधम हैं."(२:३७१)

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सोमवार, 10 अगस्त 2009

'विवेक-प्रयोग का महत्व ' परिप्रश्नेन (प्रश्न संख्या 55 से 67 )

भगवान श्री कृष्ण आत्मज्ञान प्राप्त करने का उपाय बताते हुए कहते हैं -
 तद विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
                     उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः॥' (गीता :४: ३४)
उस (तत्त्वज्ञान) को (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।  
जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए ज्ञान का उपदेश अनिवार्य है। उस ज्ञानोपदेश को देने के लिए गुरु (नेता या लोकशिक्षक) का जिन गुणों से सम्पन्न होना आवश्यक है उन्हें इस श्लोक में बताया गया है। गुरु के उपदेश से पूर्णतया लाभान्वित होने के लिए शिष्य में जिस भावना तथा बौद्धिक क्षमता का होना आवश्यक है उसका भी यहाँ वर्णन किया गया है। 
प्रणिपातेन वैसे तो साष्टांग दण्डवत शरीर से किया जाता है परन्तु यहाँ प्रणिपात से शिष्य का प्रपन्नभाव और नम्रता गुरु के प्रति आदर एवं आज्ञाकारिता अभिप्रेत है। सामान्यत लोगों को अपने यथार्थ स्वरूप के विषय में पूर्ण अज्ञान होता है। वे न तो अपने मन की प्रवृत्तियों को जानते हैं और न ही मनःसंयोग की साधना को। अतः उनके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे गुरु के समीप रहकर उनके दिये उपदेशों को समझने तथा उसके अनुसार आचरण करने में सदा तत्पर रहें।
जिस प्रकार जल का प्रवाह ऊपरी धरातल से नीचे की ओर होता है उसी प्रकार ज्ञान का उपदेश भी ज्ञानी गुरु के मुख से जिज्ञासु शिष्य के लिये दिया जाता है। इसलिये शिष्य में नम्रता का भाव होना आवश्यक है जिससे कि उपदेश को यथावत् ग्रहण कर सके। परिप्रश्नेन प्रश्नों के द्वारा गुरु की बुद्धि मंजूषा में निहित ज्ञान निधि को हम खोल देते हैं।
सेवया गुरु को फल फूल और मिष्ठान आदि अर्पण करना ही सेवा नहीं कही जाती। यद्यपि आज धार्मिक संस्थानों एवं आश्रमों में इसी को ही सेवा समझा जाता है। गुरु के उपदेश को ग्रहण करके उसी के अनुसार आचरण करने का प्रयत्न ही गुरु की वास्तविक सेवा है। इससे बढ़कर और कोई सेवा नहीं हो सकती। शिष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिये गुरु में मुख्यत दो गुणों का होना आवश्यक है (क) आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान तथा (ख) अनन्त स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थिति
इन दो गुणों को इस श्लोक में क्रमश ज्ञानिन और तत्त्वदर्शिन ( अर्थात खुली आँखों से ध्यान करने में सक्षम) शब्दों से बताया गया है। केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्रकाण्ड पंडित बना जा सकता है लेकिन योग्य गुरु नहीं। शास्त्रों से अनभिज्ञ आत्मानुभवी पुरुष मौन हो जायेगा, क्योंकि शब्दों से परे अपने निज अनुभव को वह व्यक्त ही नहीं कर पायेगा। अत गुरु का शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मनिष्ठ दोनों होना आवश्यक है। उपर्युक्त कथन से भगवान् का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी और तत्त्वदर्शी आचार्य द्वारा उपादिष्ट ज्ञान ही फलदायी होता है और अन्य ज्ञान नहीं।
एक निष्णात गुरु शिष्य के प्रश्न से ही उसके बौद्धिक स्तर को समझ लेते हैं। शिष्य के विचारों में हुई त्रुटि को दूर करते हुए वे अनायास ही उसके विचारों को सही दिशा भी प्रदान करते हैं। प्रश्नोत्तर रूप इस संवाद के द्वारा गुरु के पूर्णत्व की आभा शिष्य को भी प्राप्त हो जाती है इसलिये हिन्दू धर्म में गुरु और शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर की यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है जिसे पाठ-चक्र या सत्संग कहते हैं।
[ साभार http://www.gitasupersite.iitk.ac.in]
 "वह ज्ञान श्रीगुरु के चरणों में प्रणाम करके (प्रणिपातेन ), आत्मविषयक प्रश्नों के द्वारा - अर्थात आत्मा और अनात्मा के विषय में, मैं कौन हूँ, संसार-बन्धन क्या है, उससे मुक्ति का उपाय क्या है, इस प्रकार विविध प्रश्नों के द्वारा; तथा गुरुसेवा के द्वारा प्राप्त होता है। तत्वदर्शी लोग तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश देंगे। "
श्री रामकृष्ण ने कहा है - " विज्ञानी सदा ब्रह्म दर्शन करते हैं, आँखें खोल कर भी सर्वत्र उन्हीं को देखते हैं। वे कभी नित्य से लीला में रहते हैं और कभी लीला से नित्य में जाते हैं। विज्ञानी के आठों बन्धन खुल जाते हैं, काम क्रोधादि भस्म हो जाते हैं, केवल आकार मात्र रहते हैं। ' नेति नेति ' विचार कर वे उस नित्य अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँच जाते हैं। वे विचार करते हैं - वह जीव नहीं, जगत नहीं, २४ तत्त्व भी नहीं हैं। नित्य में पहुँच कर वे फ़िर देखते हैं, वही सब कुछ हुए हैं- जीव, जगत २४ तत्व सभी। "
56 प्रश्न: धर्म यह शिक्षा देता है कि ईश्वर सब कुछ (कण-कण ) में विद्यमान हैं, तथा यह मानव शरीर ही ईश्वर का निवास-स्थान है, तो फ़िर हम उन्हें देख क्यों नहीं पाते हैं ? कृपया मुझे उन्हें देखने और ह्रदय से प्रेम करने का उपाय बताइए।
उत्तर: जो ब्रह्मत्व (Divinity) हम सबों के भीतर पहले से विद्यमान है, उसे प्रकट करने कि सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में  है. किन्तु वह अभी निंद्रित अवस्था में सो रही है। मुझे अवश्य ही उसको नींद से जगा देना होगा। और तब वह ब्रह्मत्व दूसरों के कल्याण के लिए, मेरे विचारों, वचनों और कर्मो द्वारा प्रवाहित होने लगेगा।
यह ठीक है कि ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि, उन्हें मानव शरीर के भीतर किसी मिट्टी की गुड़िया (मूर्ति) जैसा बैठा दिया गया है, बल्कि यही वह शक्ति है जो मनुष्य शरीर के आकृति में स्वयं को प्रकट कर रही है। यही शक्ति स्वयं को सबों के प्रति अपरिबद्ध और असीम ' प्रेम ' के रूप में अभिव्यक्त करती है, वही अनन्त शक्ति और पवित्रता है। इसीको ब्रह्मत्व कहते हैं।
मैं इसे कैसे जाग्रत कर सकता हूँ ?- इस अन्तर्निहित अनन्त शक्ति के ऊपर उत्कट ' श्रद्धा ' को विकसित करके ! यह क्या चीज है ? 
- श्रद्धा का अर्थ है आस्तिक्य बुद्धि, अर्थात यह विश्वास कि आनन्द-स्वरूप , प्रेम-स्वरूप मेरे भीतर हैं; वह निस्स्वार्थ प्रेम ,शक्ति और पवित्रता मेरे भीतर में है। ये सारे गुण प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित हैं तथा मानव मात्र में उन्हें अभिव्यक्त करने कि संभावना है। सुंदर वस्तुएँ हमारे भीतर स्वाभाविक या जन्मजात रूप से विद्यमान हैं, और सो रहीं हैं, तथा दूसरों के कल्याण के लिए उन्हें अभिव्यक्त करना, और इस शक्ति को जाग्रत कर लेना ही मनुष्य का कर्तव्य है।
  57 प्रश्न: क्या श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के विचारों में कोई अन्तर है ? या उनके मत अलग अलग तो नहीं हैं ?
उत्तर: नहीं, बिल्कुल नहीं ! उन दोनों के विचार या मत बिल्कुल एक समान थे - बिल्कुल एक ही थे। स्वामी विवेकानन्द ने जो भी शिक्षाएँ हमें दीं हैं, वह सब उन्होंने अपने गुरु श्री रामकृष्ण से ही प्राप्त किए थे; तथा स्वामीजी ने पूरी ईमानदारी के साथ आजीवन केवल उन्ही का अनुसरण किया था।
उन्हों ने कहा था- " यदि मनसा, वाचा, कर्मणा मैंने कोई सत्कार्य किया हो, यदि मेरे मुँह से कोई ऐसी बात निकली हो, जिससे संसार के किसी भी मनुष्य का कुछ उपकार हुआ हो, तो उसमें मेरा कुछ भी गौरव नहीं, वह उनका है। परन्तु यदि मेरी जिह्वा ने कभी अभिशाप कि वर्षा की हो, यदि मुझसे कभी किसी के प्रति घृणा का भाव निकला हो, तो वे मेरे हैं, उनके नहीं। जो कुछ दुर्बल है, वह सब मेरा है, पर जो कुछ भी जीवनप्रद है, बलप्रद है, पवित्र है, वह सब उन्हींकी शक्ति का खेल है, उन्हींकी वाणी है और वे स्वयं हैं।" (वि० सा० ख० ५: २०६)
"..... उनके चरित्र का निर्णय मुझे देखकर न करना। वे इतने बड़े थे कि मैं या उनके शिष्यों में से कोई दूसरा सैकड़ों जीवन तक चेष्टा करते रहने के बावजूद भी उनके यथार्थ स्वरूप के एक करोड़वें अंश के तुल्य भी न हो सकेगा। ... मैं ह्रदय से प्रार्थना करता हूँ कि हमारी जाति के कल्याण के लिए, हमारे देश कि उन्नति के लिए तथा समग्र मानव जाति के हित के लिए वही श्री रामकृष्ण परमहंस तुम्हारा ह्रदय खोल दें; ....तुम्हें और हमें रुचे या न रुचे, इससे प्रभु का कार्य रुक नहीं सकता, अपने कार्य के लिए वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव कि बात है। " (५:२०९)
इन बातों का जिक्र स्वामीजी ने ' कलकत्ता-अभिनन्दन ' का उत्तर देते समय इसी लिए किया था: वे स्पष्ट कर देना चाहते थे कि, उन्होंने जो कुछ भी कहा या किया था वे सभी केवल श्री रामकृष्ण के विचारों का प्रतिबिम्ब मात्र था। अतः श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के विचारों में कोई अन्तर नहीं है।
58 प्रश्न: दुर्लभ ' मनुष्य- जीवन ' का सदुपयोग कैसे किया जाता है ?
उत्तर :- अगर तुम्हे यह ज्ञात हो चुका है कि मनुष्य-जीवन दुर्लभ है, तब तुम उसका सदुपयोग करने की दिशा में अवश्य अग्रसर हो सकते हो। मनुष्य जीवन को दुर्लभ क्यों कहा जाता है ? इस जीवन की विशेषता क्या है ? अन्य जीव के जीवन में ऊँच्च भावों की धारणा नहीं होती, महत्तम (सर्वश्रेष्ठ) ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
चार पैरों पर चलने की असुविधा से शुरू करके अन्य सभी विषयों में उनका विकास मनुष्य की तुलना में काफी पीछे है।विशेषतः मानव मस्तिष्क की तुलना में अन्य जीवों का मस्तिष्क बहुत कम विकसित रहने के कारण वे ऊँच्च्तर विचारों या ज्ञान को समझ नहीं सकते। 'ब्रह्म-वस्तु' की धारणा कर पाना तो बिल्कुल असम्भव है। यह केवल मनुष्य के लिए ही सम्भव है।
हाँ, यह भी सच है की सभी मनुष्य के लिए सामान रूप से ब्रह्म-वस्तु को समझ सकना सम्भव नहीं है, किंतु न्यूनाधिक (थोड़ा-बहुत) सभी मनुष्य उस दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। ब्रह्म-तत्त्व को समझने या अपने अनुभव से जान लेने, की दिशा में अग्रसर होने को ही साधना कहते हैं। नियमित साधना या अभ्यास करने से जो शक्ति क्रमशः बढ़ने लगती है उसको धारणा शक्ति (conceptual power) कहते हैं। धारणा- 
शक्ति में वृद्धि का तात्पर्य है- किसी गूढ़ विषय को अच्छी तरह से समझने की शक्ति,वह साधना (मनः संयोग का अभ्यास ) करने से बढ़ जाती है। कैसा अभ्यास करना पड़ता है ?किस प्रकार, क्या करने से बढ़ती है ? अर्थात साधना करने की पद्धति क्या है ?
पूर्व काल में जो महान हुए थे, जिन लोगों ने सत्य दर्शन किया था,(जो लोग सत्य-द्रष्टा होते हैं उनको ही ऋषि कहा जाता है), उनलोगों ने जो उपदेश दिए हैं, उनके वचनों को सुनना (श्रवण), उन वचनों पर गंभीरता से चिंतन करना (मनन), फ़िर उसे जान लेने के लिए उसी पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करना(निदिध्यासन)। इसी प्रकार, श्रेष्ठ जनों (ऋषिओं) की वाणी का श्रवण- मनन- निदिध्यासन का अभ्यास करने से हम लोग धीरे धीरे अपने जीवन का सदुपयोग करना सीख जायेंगे।जीवन का सदुपयोग करने का क्या अर्थ है ?
माँ सारदा के उपदेश का स्मरण करो- " केऊ पर नय, जगत तोमार।" अर्थात - ' कोई पराया नहीं, जगत तुम्हारा अपना है।'मैं जितना उन्नत होऊंगा, जितना विकसित होऊंगा, जितना अधिक से अधिक मनुष्यत्व अर्जित करने की दिशा में अग्रसर होता जाऊंगा उतना ही पराये लोग मेरे अपने हो जायेंगे।

उतना ही दूसरों के लिए मन में अनुभूति जाग उठेगी। दूसरों का सुख-दुःख बिल्कुल अपने जैसा महसूस होगा। मेरे भीतर उतना ही दूसरे लोगों का क्लेश हटा देने का आग्रह, चेष्टा और क्षमता बढ़ जायेगी। ऐसा ' मनुष्य ' बन जाने से मैं अपने जीवन का सदुपयोग करने में समर्थ हो सकता हूँ।
(Vivek-Jivan मई २००९)
59 प्रश्न : साहस बढ़ाने के लिए क्या करूँ ?
उत्तर : हर समय अपनी अन्तर्निहित अनन्त शक्ति में आस्था जाग्रत रखने की चेष्टा करोगे। स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में थे, एक दिन किसी रास्ते से जा रहे थे। देखा की एक छोटी सी नदी में कुछ अण्डे के खोल या बौल बहते जा रहे थे, और कुछ लड़के छोटे छोटे shot gun से उनके ऊपर गोली छोड़ रहे थे पर निशाने पर कोई गोली लग नहीं रही थी। स्वामीजी नजदीक ही खड़े हो कर उनका खेल देख रहे थे।कुछ देर बाद उन लड़कों का ध्यान उनकी तरफ़ गया। उन लोगों ने पूछा, क्या आप निशाना लगा सकेंगे ? स्वामीजी बोले लाओ कोशिश करके देखता हूँ। स्वामीजी ने बन्दूक लिया- अपने जीवन में उन्होंने पहली ही बार उनहोंने बन्दूक थामा था। उन्होंने जितनी भी बार shot मारे सभी गोलियां निशाने पर लगीं और सारे बौल फूट गए।
लड़कों को बहुत आर्श्चय हुआ, उन्होंने पूछा- आपने कैसे ऐसा किया ? उन्होंने कहा - ' यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि concentration, एकाग्रता की शक्ति है। मैं देख रहा था की तुमलोग खेल रहे थे एक आनन्द प्राप्त करने के लिए, किन्तु कुछ हो नहीं रहा था एक भी गोली निशाने पर लग नहीं रही थी, जिसकी असफलता की हताशा तुमलोगों के चेहरों और आँखों से झलक रही थी। मुझको जब पूछा तो मैंने सोंचा यह कौन सा कठिन काम है ? मैं अगर अपने मन को उन बहती हुई गेंदों में से किसी एक पर,ठीक से एकाग्र कर दूँ तो मेरी गोली ठीक उसी पर लगेगी। और तुमने देखा कि मेरी प्रत्येक गोली निशाने पर लगी।'
इसी प्रकार साहस बढाने के सम्बन्ध में भी - ' नहीं बढा पाउँगा ' ' नहीं बढा पाउँगा ' कभी मत करना। हम लोग मनुष्य हैं, हमारे लिए असाध्य कुछ भी नहीं है। हमारे लिए ऐसा कोई स्थान नहीं जो दुर्गम हो, ऐसा कोई कार्य नहीं जो हमारे लिए असम्भव हो।हम किसी भी बात से भयभीत न होंगे। क्योंकि हम मनुष्य ही चिर काल से जगत् पर विजय प्राप्त करते आ रहे हैं। इस प्रकार निरन्तर विचार करते हुए भय-शुन्य हुआ जा सकता है। कई तरह के भय से व्यर्थ में त्रस्त रहते हैं। 
जैसे भूत का भय। आज कल मनुष्यों के बीच भूतों का भय कम हो गया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि, अधिकांश भूत मर चुके हैं।मेरे बचपन कि बात, याद है- हमलोगों का घर जहाँ था उसके नाम के अनुसार उसको शहर कहते थे, किन्तु वह लगभग एक गाँव जैसा ही था। हमारे घर के पीछे कि तरफ़ एकतालाब था, मेरे कमरे की खिड़की- दरवाजे उसी ओर खुलते थे। उसी दरवाजे से बगान में भी जाया जा सकता था। 
एक दिन शाम के समय किसी कारण वश खिड़की खोल कर बाहर देखा। खोलते ही बाहर देखा, तो मुंह से निकला- अरे बाप ! .... इस प्रकार पंजा फैलाय मानो एक बड़ा सा सिर हिलने लगा। बाप रे ! यह क्या है ! पर कुछ क्षण हिम्मत बांधे खड़े हो कर देखता रहा तो देखा कि एक बड़े आकर के कच्चू गाछ का पत्ता था, उसके ऊपर का हिस्सा हवा के कारण (या शायद पानी भी पड़ा हो )..... इस प्रकार इस प्रकार हिल रहा था।  
फ़िर जब घर के भीतर जा कर इस बात को बताया तो मेरे बाबा (पितामह) हँसने लगे और कहा - " विटपे विकट भूत देखे भीरु जन " अर्थात जो लोग भीरु होते हैं, जिनमे साहस नहीं होता, वे ही 'विटप' में यानि गाछ में 'विकट' भूत देखते हैं। उस समय मेरी उम्र कितनी रही होगी- पॉँच, छः वर्ष या बहुत होगा तो सात वर्ष। उनकी वह बात- " विटपे भूत देखे भीरु जन ", मुझे आज भी याद है।हिलते हुए गाछ का पत्ता ही तो था, उसी को देख कर, उसी में - पता नहीं यह क्या होगा सोंचते समय अवश्य मेरे मन में भी भूत की ही बात उठी थी। 
और एक घटना है। नौकरी के सिलसिले में एक जगह जाना पड़ा था। वह भी शहर ही था पर उतना विकसित नहीं था। वहां मैं और एक अन्य सज्जन व्यक्ति -दोनों एक ही घर में रहते थे। उनको रात के समय ही काम से बाहर जाना पड़ता था। उनकी official duty ही रात की पाली में पड़ती थी। इसीलिए मैं कमरे में अकेला था। उस घर में दो ही कमरे थे, और आस पास में गाछ-वृक्ष थे थोड़ा बगान जैसा लगता था। किन्तु बगान तैयार नहीं था, बस उसमे कुछ थोड़े बहुत झाड़-झंखार नुमा गाछ-वृक्ष उग आए थे। उसी के बीच से एक पगडण्डी से होते हुए पैदल चलने के बाद थोडी दूरी पर दूसरा एक रिहायसी मकान था।
मैं सोया हुआ था। खिड़की के सामने ही मेरा बिस्तर था, और एक ओर दरवाजा था। घर में प्रवेश करने का जो मुख्य द्वार था उसके अतिरिक्त और एक द्वार। उसको खोलने से सीधा बाहर बगान में जाया जा सकता था। हठात दरवाजे के कुण्डी को किसीने हिलाया। खट,खट-खट ! नींद टूट गई...बाप रे, अभी सुनसान में कौन आ गया ?
... कोई जन-प्राणी भी तो नहीं है आस पास; फ़िर नींद पड़ गई। फ़िर से वही दरवाजा खटखटाने की आहट। इसी प्रकार दो-तीन बार होने के बाद उठा। बिछावन पर तकिये के पास टॉर्च रखने की आदत मुझे सदा से है। मैंने आस्ते-आस्ते तकिये के नीचे से टॉर्च निकाला और सिर को नीचे झुकाते हुए ( जिससे खिड़की के बाहर से कोई मुझे देखे नहीं) खिड़की के नीचे से टॉर्च की रौशनी को बाहर फेंका। जितनी दूर तक देखा, कहीं कुछ नहीं था। फ़िर जाकर बिस्तर पर लेट गया, थोड़ी देर बाद फ़िर से वही बात। बहुत देर तक पड़े रहने के बाद सोंचने लगा यह चोर-डकैत या अन्य कुछ नहीं है। 
 उसके बहुत देर बाद लगा दूर से एक आवाज आ रही है। जैसे ही वह आवाज आई, वैसे ही कुण्डी बज उठी। बहुत देर तक विचार करने के बाद समझ में आया की वहाँ से दो माइल दूर Railway siding है वहाँ shunting हो रहा है। उस स्थान की मिट्टी में जो कम्पन हो रहा था वही बहुत दूर तक थोड़ा थोड़ा जाता है। वही यहाँ की कुण्डी को हिला दे रहा था।
इसीलिए साहस बढाने के लिए अपने ऊपर विश्वास रखना होगा, और बुद्धि को सतर्क रखना होगा। किस बात का भय, बोलो ? मानलो कोई तुम्हारे ऊपर हठात आक्रमण कर दे- चोर, डकैत या अन्य कोई -तो क्या करोगे ? ...fight and fight valiantly without any fear ( निर्भय हो कर वीर की तरह युद्ध करोगे)।तभी तुम्हारे जीतने की सम्भावना है। और अगर वैसा नहीं किया तो सब हो गया। पहले ही डर गए तो कुछ भी न करपाओगे। " अरे बाप रे, गया रे !"- इस प्रकार चिल्लाने से क्या लाभ है, बोलो ? डरना नहीं।
60 प्रश्न : महामण्डल ( अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) का उद्देश्य क्या है ?
उत्तर : महामण्डल का उद्देश्य एक ऐसे स्वस्थ- सुंदर, विवेकशील समाज का निर्माण करना है, जिसमे - अधिकांश मनुष्यों का ह्रदय प्रेम, सहानुभूति, करुणा से परिपूर् हो तथा वे सदैव दूसरों की सेवा 
(शिवज्ञान से जीव सेवा) करने में तत्पर रहते हों। हमलोगों के लिये (प्रभु श्री रामकृष्ण द्वारा) नियत कार्य (Task) है - ऐसे ही ' हृदयवान ' मनुष्यों का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करना है, ताकि वे भारतीय समाज में बहुमत का रूप धारण कर ले।
आज के मानव-समाज को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है की, अभी उसका चेहरा बहुत बिगड़ चुका है। केवल भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व के प्रत्येक देश के मनुष्य समाज ने जहाँ तक सम्भव हो सकता है , वहाँ तक बदतरीन शक्ल अख्तियार कर लिया है।प्राचीन काल में हमारा देश बहुत ही सुन्दर और सहृदय मनुष्यों का देश था।
आज उसका वह सुन्दर रूप क्यों दिखाई नहीं दे रहा है ? सबसे पहला कारण तो यह है कि- हमारे नेताओं के व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण, हमारे देश को तीन टुकडों में खण्डित कर दिया गया था ! India has been ' trisected '। जब हमलोग स्कूल के छात्र थे, तब भारत का- अखण्ड भारत का कितना भव्य और सुन्दर रूप हमने देखा है !
जिस समय हमलोग १० वीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करने के बाद, अन्तिम परीक्षा में बैठने का इन्तजार कर रहे थे, उसी समय हमने सुना कि भारत स्वतंत्र होने जा रहा था।विदेशियों ने भारत पर बहुत लम्बे समय तक शासन किया था, जो भारत सदियों से परतन्त्र ( गुलामी कि जंजीरों में जकड़ा हुआ) था, वही भारत स्वतंत्र होने जा रहा था।
कैसी सुखद घटना घटित होने को थी !हमलोगों को कक्षा में भूगोल पढ़ाते समय, हमारे भूगोल शिक्षक ब्लैकबोर्ड पर( एक ओर ) अखण्ड  भारत का मानचित्र टांग दिया करते थे। वहाँ देखने से हमारा देश कितना सुन्दर और विशाल दीखता था ! तब हमे भारत माता की आकृति सचमुच ' माँ ' के समान ही लगती थी, जिसके दोनों हाथो से गुलामी की बेडियाँ अब खुलने ही वाली थी। हमलोग इसी माँ की पूजा किया करते थे।( And the Mother was trisected।) और उसी माँ को तीन टुकडों में खण्डित कर दिया गया। 
क्योंकि सत्ता के लोभ और मोह ने तब उन लोगों को अँधा बना दिया था, जिनके उत्तराधिकारी आज यह घोषणा करते हैं कि -" हमलोग तुम्हारे नेता हैं, हम तुम्हे सुरक्षा देंगे, तुम्हारे लिए सब कुछ करेंगे ,(तुम केवल वोट दो, कहोगे तो तुम्हारे लिए चाँद को भी धरती पर उतार देंगे।)" किन्तु तब उन्ही लोगों ने भारत को तीन खंडों में - पाकिस्तान, पूर्वी पाकिस्तान में बाँट दिया, और सेष बचे बीच वाले भू-खण्ड को आज हमलोग ' भारत ' के नाम से जानते हैं।जबकि आजादी से पहले वाला भारत, प्राचीन भारत - कितना विशाल था !
तुम्हे भारत के मानचित्र में बर्मा वाला जो हिस्सा दीखता है, तब उसे देखने से मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानो सचमुच वह मेरी माँ का लहराता हुआ आँचल है, जो बंगाल कि खाड़ी तक फैला हुआ है।तब वह चित्र मुझे साक्षात् माँ कि प्रतिमा ही जान पड़ती थी।किन्तु इन्ही लोगों ने भारत माता को ठीक उसी प्रकार तीन टुकडों में काट डाला, जिस प्रकार किसी पशु को खाने,या निगल जाने के लिए, पहले उसके टुकड़े कर दिए जाते है !
इसके बाद जो कुछ बचा है, वह तुम सबसे छुपा हुआ नहीं है।विशेषाधिकार प्राप्त लोगों का एकमात्र उद्देश्य है, किसी न किसी तरह से अधिक से अधिक पैसे बना लेना और देशवासियों की जान की कीमत पर भी, अपने लिए अधिक से अधिक इन्द्रिय-भोगों को सुनिश्चित कर लेना।
आज तुम्हे अपने चारो ओर स्वच्छ छवि के इमानदार व्यव्हार करने वाले मनुष्य बहुत कम ही दिखाई देंगे।आज तो समाज के हर एक क्षेत्र में, अपनी इच्छाओं-अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिये नियम-विरुद्ध या भ्रष्ट साधन अपनाये जा रहे हैं।
आज के समाज का चेहरा ऐसा ही विकृत हो गया है। किन्तु यह सब क्या इसी प्रकार चलता रहेगा ? समाज की यह दुर्दशा होते देख कर चुप नहीं रहना चाहिए। इस अवस्था में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिये कुछ न कुछ प्रयास हम सबों को करना चाहिए। किन्तु क्रान्तिकारी परिवर्तन क्या है ?
...सड़कों में परिवर्तन, हवाई अड्डा या बंदरगाह में परिवर्तन, और ज्यादा जहाज, अधिक से अधिक आव्रजन मार्गों (flyovers) का निर्माण, चतुर्भुज सड़क निर्माणों की श्रृंखला बनाने वाले परिवर्तन से हमारा कोई तात्पर्य नहीं है।जबकि आज के समाज में इन्हीं सब चीजों को मनुष्य जीवन से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मनुष्य ही उपेक्षित हो रहे हैं।आज अपने युवाओं को हमलोग कैसी शिक्षा दे रहे है ?
कोलकाता विश्वविद्यालय हो या आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, आजकल अधिकांश PhD शोधपत्र अंशतः या पुर्णतः दूसरों के चुराये हुए रहते हैं। पश्चिम बंगाल के एक विश्वविद्यालय में किसी प्रोफ़ेसर की नियुक्ति की गई थी। विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त होने के लिये PhD होना आवशयक होता है, पर उनके पास PhD नहीं था। २० वर्ष के बाद यह ज्ञात हुआ कि उन्होंने एक विदेशी विश्वविद्यालय में एक शोध-प्रबंध (Thesis) तो जमा करवाया था, किन्तु उनको PhD प्राप्त नहीं हुई थी। हमे अपनी शिक्षा ऐसे लोगों से ग्रहण करनी होगी जिनके पास थोड़ी सी ईमानदारी भी नहीं है।
वर्तमान में हमारा देश जिन समस्याओं से जूझ रहा है, उसके कारणों पर यदि गहराई विश्लेषण किया जाय तो केवल एक ही कारण उभर कर सामने आती है कि हमारे पास सद्चारित्रावन ' मनुष्य ' बहुत अल्प संख्या में हैं। अतः हमारी समस्त समस्याओं का निदान केवल मनुष्य निर्माण है।
महामण्डल इस मनुष्य निर्माण आन्दोलन के लक्ष्य को सभी युवाओं के ह्रदय में बैठा देना चाहता है, एवं इसी कार्य के लिये स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श के रूप में स्थापित करना चाहता है। वे मानव जाती को उठाने के लिये आये थे, भारत को उठाने के लिये आये थे। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के लिये कार्य किया था। उन्होंने परम सत्य का साक्षात्कार किया था, तथा विश्व भर के मानव-मन को आलोकित कर दिया था।
परन्तु अपने जीवन का कल्याण, भारत का कल्याण तथा विश्व का कल्याण करने वाले कार्यकर्त्ता बनने तथा बनाने के लिये उनका आह्वान मुख्य रूप से केवल युवाओं के लिये ही था।इसीलिये महामण्डल भी तुम लोगों से, भारत के युवाओं से बहुत उम्मीद रखता है तथा भरोसा करता है।
अपने जीवन का गठन चट्टानी नींव पर करो- अर्थात अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, अपनी बुद्धि को इतना विवेकशील और तीक्ष्ण बना लो कि उसमे सागर की तली को भी देख लेने का सामर्थ्य हो, ह्रदय को विशाल तथा उत्साह से परिपूर्ण रखो।
यथार्थ ज्ञान (Right knowledge) अर्जित करो (जगत में कोई पराया नहीं है) तथा अपने उदार ह्रदय में सबों के प्रति मैत्री-भाव रखते हुए इन महान विचारों को, धनाड्यतमों से लेकर दरिद्रतमों तक, शिक्षितों से अशिक्षितों तक, ज्ञानियों से अज्ञानियों तक के जीवन में उतारने लेने के लिये - उनके द्वार द्वार पर पहुँच कर उन्हें अनुप्रेरित करो।
इस कार्य को पूरा करने के लिये पहले ख़ुद तुम्हे मनुष्य बनना पड़ेगा। तुम्हे अपना शरीर हृष्ट-पुष्ट रखने के साथ साथ मन को भी संयम में रखना होगा। किन्तु केवल शरीर-मन का विकास करने से ही यथार्थ मनुष्य नहीं बना जाता है। इसके साथ ही यह भी देखना पड़ेगा कि उस शरीर में जो ह्रदय है, वह पशु का ह्रदय है या मनुष्य का,या देवता का ह्रदय है।किसी को असली मनुष्यत्व अर्जित हुआ है नहीं, उसकी सही पहचान उसके ह्रदय से ही होती है। मनुष्य बन जाने के बाद संसार के सभी मनुष्यों का दुःख-दर्द (Sorrows and Sufferings) तुम्हे बिल्कुल अपना महसूस होगा। तब अपने शरीर और मन के द्वारा तुम सदैव दूसरों का केवल कल्याण ही सोंचोगे और करोगे। तुम्हारे मुख से सदैव केवल दूसरों के कल्याण के लिये प्रार्थना ही निकलेगी। यदि तुम्हारे पास कुछ धन है, तो उसका एक हिस्सा उन्हें मिलेगा जिनके पास यह नहीं है।
आज हमारे देश को बहुत बड़ी संख्या में ऐसे ही युवाओं कि आवश्यकता है। किन्तु इस तथ्य को समझ पाने में सक्षम कोई व्यक्ति न तो सरकार में है न किसी भी राजनितिक दल में है। किसी भी संगठन के ध्यान का विषय मनुष्य निर्माण नहीं है, या ऐसे युवाओं को गढ़ने का स्वप्न आज कोई नहीं देख रहा है। (स्वामीजी का) यह सपना साकार करने के लिये अब युवाओं को ही आगे आना होगा। इस वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में इस वर्ष भारत के कई राज्यों से, तुमलोग कुल १३०९ युवा भाग लेने आये हो। इस छोटे से गाँव में, जहाँ तक पहुँचने के लिये उचित ढंग का सड़क भी नहीं है,आने में तुम लोगों ने कई कष्ट उठाये होंगे। क्यों ?
- तुम यहाँ कुछ अति महत्वपूर्ण विचारों को सुनने के लिये आये हो। महामण्डल यह जानता है कि, इस प्रकार का भाव तुम्हे और कहीं से प्राप्त नहीं हो सकते हैं। 
भारत में धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनितिक आदि कई बड़े बड़े संगठन हैं तो जरुर किन्तु ये विचार तुम्हे किसी भी संगठन में सुनने को नहीं मिलेंगे।
अतः यह हमारा सौभाग्य है कि हमलोग आपस में विचार-विमर्ष करने के लिये यहाँ तक पहुँच सके हैं। यदि इन विचारों को तुम सचमुच उपयोगी समझते हो तो उन्हें आत्मसात कर लो। अपने जीवन में उतार लो।
हमलोगों को दूसरों के लिये जीना सीखना चाहिए, अपने लिये जीना भी कोई जीना है ? जो केवल अपने लिये जीता है, वह तो नर-पशु है। जो सचमुच मनुष्य बनना चाहता है, वह अवश्य ही दूसरों के लिये जीवन धारण करना चाहेगा। हमलोग अपनी शक्ति, ज्ञान, धन, सब कुछ दूसरों के कल्याण में समर्पित कर देंगे। संक्षेप में यही है महामंडल का उद्देश्य है।
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(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का बयालिसवाँ (42nd) वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले के - " गंगाधरपुर शिक्षण मन्दिर " (बी.एड.कॉलेज) में २५ से ३० दिसम्बर तक २००८ में आयोजित हुआ था। इस शिविर में बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, नई दिल्ली, अंडमान- निकोबार द्वीप तथा पश्चिम बंगाल के विभिन्न जिलों से कुल १३०९ युवा प्रशिक्षनार्थियों ने भाग लिया था। इस शिविर का उद्घाटन ' रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन, बेलूड़ ' के सहायक सचिव ' श्रीमत स्वामी सुविरानान्दजी महाराज ने किया था। ३० दिसम्बर को आयोजित ' विदाई सत्र' के मुख्य अतिथि रामकृष्ण मठ और मिशन के ट्रस्टी ' श्रीमत स्वामी शिवमायानान्दजी महाराज थे। शिविर के पांचवें दिन, २९ दिसम्बर को २७५ प्रशिक्षनार्थियों ने 'रक्त-दान' किया था।
इस शिविर में उपस्थित शिविरार्थियों की संख्या अबतक की सर्वाधिक संख्या थी। जिसमे आयोजित प्रश्नोत्तरी कक्षा में महामण्डल के अध्यक्ष ' परम पूज्य श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय ' द्वारा प्रदत्त यह उत्तर महामण्डल की द्विभाषी संवाद पत्रिका vivek-jivan के annual number (वार्षिकांक ) २००९ में छपा था। ' पूज्य दादा ' द्वारा अंग्रेजी में प्रदत्त उत्तर का हिन्दी अनुवाद ' झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल ' 
( कोडरमा, झारखण्ड ) से हिन्दी में प्रकाशित किया जा रहा है।)
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61 प्रश्न- इनदिनों समाचार माध्यमों में अक्सर सामाजिक परिवर्तन की बात सुनाई पड़ती है; महामण्डल के दृष्टिकोण से ' सामाजिक परिवर्तन ' का क्या अर्थ है ? 
उत्तर- समाज बनता है- मनुष्यों से,अतः व्यष्टि मनुष्य में परिवर्तन न आने से समाज में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है. समाचार पत्र में जिस परिवर्तन का उल्लेख रहता है, वह कोई परिवर्तन नहीं है. महामण्डल की दृष्टि के अनुरूप यदि सचमुच समाज को परिवर्तित करना है, तो सर्वप्रथम समाज में सुयोग्य नागरिक ( य़ा उपयुक्त मनुष्य) का निर्माण करना होगा. वह मनुष्य- समाज किसे कहते हैं, मनुष्य किसे कहते हैं, मनुष्यों का यथार्थ कल्याण किस बात पर निर्भर करता है, आदि बातों को समझ सकेगा. 
मनुष्य के कल्याण के लिये क्या करना आवश्यक है- इसे बता सकने में समर्थ मनुष्य लगभग नहीं है. दो एक व्यक्ति यदि हैं, तब भी इस समय वैसे मनुष्यों की संख्या बहुत अधिक नहीं है जो एक साथ मिल कर य़ा संघबद्ध होकर समाज में परिवर्तन लाने के लिये जो करना आवश्यक है, उसे करेंगे. इसीलिये महामण्डल की सारी चेष्टा ऐसे ही (उपयुक्त) मनुष्यों का निर्माण करना है.
 वर्तमान समय में समाज का जो अशुभ य़ा विकृत पक्ष है, उसमे कमी लाने की कोई व्यवस्था है ही नहीं- ऐसा कहना पड़ता है. इस कूव्यवस्था के लिये जो वास्तव में दोषी हैं, उनको अभी दोषी कह कर चिन्हित भी नहीं किया जाता है. उनको न्याय-व्यवस्था के समक्ष लाकर, पदमुक्त कर देना य़ा दण्डित करना वर्तमान समाज में बिल्कुल असम्भव है. 
इसीलिये यदि सचमुच समाज में परिवर्तन लाना हो, तो भविष्यत् की ओर दृष्टि रखते हुए वर्तमान में जो कम उम्र के लड़के-लड़कियां हैं उनका जीवन इतने सुन्दर ढंग से गठित करना होगा ताकी वे बड़े होकर समाज में यथार्थ परिवर्तन लाने में सक्षम हो सकें. यदि कम उम्र से ही बहुसंख्यक लड़के-लड़कियों का जीवन सुन्दर ढंग से निर्मित किया जा सके, तो बड़े होकर वे ही लोग समाज में आमूल परिवर्तन कर सकते हैं. 
इसीलिये सर्वप्रथम जो लोग समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम हों, उनमे परिवर्तन लाना होगा- इसीलिये पहले इसी कार्य को करना होगा. 
62 प्रश्न- प्रवृत्ति और निवृत्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर- प्रवृत्ति का अर्थ है, व्यस्त रहना, ग्रहण करना, पी जाना, उपभोग करना। निवृत्ति का अर्थ है, खाली रहना, अस्वीकार करना, परित्याग करना. हमारे शास्त्रों के अनुसार प्रवृत्ति का प्रश्न  सृष्टि के समय में ही उपस्थित हुआ था. हमारे देश में ऐसी मान्यता है कि इस विश्व-ब्रह्माण्ड को ब्रह्माजी ने रचा है. इस सम्पूर्ण विश्व को रचने के बाद, वे स्वयं ही अपनी इस अनूठी रचना को देख-देख कर आनन्दित हो रहे थे.
जब उन्होंने देखा, कि करोड़ो तारे, हजारों सूर्य-चन्द्र से भरी आकाश-गंगा वाला यह विश्व-ब्रह्माण्ड तो अत्यन्त सुन्दर है, जिसमे नीले नीले आसमान, हरे हरे समुद्र, ऊँचे ऊँचे पर्वत, और अनगिनत चीजें हैं जो इसको अत्यन्त मनोहारी बना रही हैं. उस समय तक उनको टूरिस्म य़ा पर्यटन विभाग के बारे में पता नहीं था. वरना वे, अपनी रचना का आनन्द लेने के लिये, स्वयं पर्यटन कार्यालय खोल कर, पर्यटकों को आमन्त्रित करते. पर उनके मन में यह विचार आया, मैंने इतने विशाल और सुन्दर विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना की है, किन्तु इसको देख कर आनन्द लेने वाला और तारीफ करने वाला तो कोई नहीं है ? 
इस सुन्दर सृष्टि की बड़ाई सुनने के लिये, उन्होंने सोंचा कि कुछ जीव-जन्तुओं के साथ मनुष्यों की रचना भी करूं. यह सोंच कर सबसे पहले उन्होंने सप्तऋषियों की रचना की, जिनको प्रवृत्तिमार्ग य़ा भोग-मार्ग के ऋषि कहा जाता है. उन ऋषियों ने अपना वंश-विस्तार करना शुरू किया, मनुष्यों की रचना हुई, उनलोगों ने सृष्टि का उपभोग करना, मौज-मस्ती लूटना शुरू किया और जितना अधिक से अधिक भोग सम्भव था, उपभोग करने लगे.  
फिर एक दिन ब्रह्माजी के मन में विचार उठा, मैंने इन सात ऋषियों की रचना की, फिर इस सृष्टि की सराहना करने के लिये, इनलोगों ने इतने मनुष्यों को उत्पन्न किया, पर ये मनुष्य तो बहुत ज्यादा भोग करने में डूब गये हैं, और इतना ज्यादा भोग, अन्त में इनको नष्ट कर देगा. इसलिए इन मनुष्यों की अत्यधिक भोग ईच्छा पर थोड़ा नियन्त्रण करना चाहिये.
इसलिए उन्होंने पुनः, कुछ नहीं से निवृत्ति मार्ग के सात ऋषियों को बनाने की ईच्छा की, और बनाया. ये ऋषि लोग मनुष्यों को त्याग करने की शिक्षा देंगे,  भोग करने की ईच्छा को त्यागने य़ा कमसे कम उनको अपनी इच्छाओं को निर्धारित सीमा के अन्दर रखने को अनुप्रेरित करेंगे.
 स्वामी विवेकानन्द, सप्त ऋषियों के दूसरे जत्थे, निवृत्ति मार्गी ऋषियों में से एक ऋषि थे. इसीलिये स्वामीजी ने, अपना जीवन गठित किया, और श्रीरामकृष्ण की आज्ञा (चपरास) - ' नरेन् शिक्षा देगा ' का पालन करते हुए, जगत के मनुष्यों को अपने जीवन से त्याग की शिक्षा दी थी, निःस्वार्थपर होना सिखाया था.  

प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नूनमुभे तु कर्मणि |
प्रवृत्तिः स्वार्थबुध्याश्च निवृत्तिस्तदविसर्जने ||
प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों कर्म के स्वाभाव हैं।  इनमे से जो प्रवृत्ति है वह प्रत्येक मनुष्य में रहने वाली स्वाभाविक वृत्ति है, जो हर स्थान से हरेक वस्तु को एक केन्द्र के चारों ओर इकट्ठा करना चाहती है, वह केन्द्र है मनुष्य का अपना मैंपन (मिथ्या अहंकार ) और निवृत्ति समस्त नैतिकता और धर्म की मूल तत्व है.तथा इसकी पूर्णता उस आत्मत्याग में है, जो दूसरों के कल्याण के लिये अपना शरीर, मन और सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर बना देती है। 

प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च द्वे एते श्रुतिगोचरे |
प्रवृत्त्या बध्यते जन्तुर्निवृत्त्या तु विमुच्यते ||२०१||

"उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी-
र्दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
    यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः॥"
 इति हितोपदेशः॥ 
.[श्री आदिशंकराचार्यकृत निर्वाणाष्टकम: 

मनोबुद्धयहंकार चित्तानि नाहं, न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे ।  

न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ १  


न वै प्राणसंज्ञा न वै पंचवायुः, न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोषः। 

न वाक्पाणि पादौ न चोपस्थ-पायुः चिदानन्दरूपःशिवोहं शिवोहम्॥ २


न मे रागद्वेषौ, न मे लोभमोहौ, मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः। 

न धर्मों, न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्॥ ३



न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं, न मंत्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः।

अहं भोजनम् नैव भोज्यं न भोक्ता, चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्॥ ४  

न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म:।

न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैव शिष्यः चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्॥ ५


अहं निर्विकल्पो निराकार-रूपो, विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।

न चासंगतं नैव मुक्तिर्न बन्धः चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्॥ ६ ॥

63 प्रश्न : जहाँ तक मैं समझता हूँ, महामण्डल का उद्देश्य तो, चरित्र-निर्माण करना है; किन्तु यहाँ पर स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के ऊपर ही विशेष जोर क्यों दिया जाता है ?
उत्तर : महामण्डल का उद्देश्य केवल चरित्र-गठन करना है, ऐसा कहना बहुत सही नहीं है। यदि केवल चरित्र-निर्माण करना ही, महामण्डल का काम होता, तो शायद स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों पर जोर दिये बिना भी काम चल सकता था- किन्तु अभी इसके ऊपर विस्तार से चर्चा नहीं करूंगा। वास्तव में महामण्डल का उद्देश्य है- भारत के कल्याण के लिये कार्य करना.
हमलोग अपने देश के लिये कुछ कर गुजरना चाहते हैं, इसीलिये हमलोगों को पहले अपना जीवन सुन्दर रूप से गठित करना आवश्यक है, चरित्रवान मनुष्य बनना आवश्यक है, देशप्रेमी होना आवश्यक है,  स्वार्थ-शून्य बनना आवश्यक है, परार्थपर होना आवश्यक है, और भी बहुत सी चीजें आवश्यक हैं, किन्तु  कम से कम स्वार्थ को, भोग की ईच्छा को कम करना तो अत्यन्त आवश्यक है.
यदि केवल चरित्र-गठन की महत्ता पर ही प्रकाश डालने की बात होती, तो स्वामीजी के उपदेशों को छोड़ कर अन्य कई प्रकार की बातें की जा  सकती थीं, किन्तु स्वामीजी के उपदेशों में, चरित्र-निर्माण की समस्त प्रयोजनीय बातें सन्निहित हैं. नके उपदेशों में चरित्र-गठन के महत्व की बातें तो हैं ही,  साथ-साथ चरित्र- गठन करने की पद्धति का भी निर्देश दिया गया है.
महामण्डल के उद्देश्य के बारे में बहुत संक्षेप में कहना हो, तो हम कहते हैं- भारतवर्ष की उन्नति के लिये प्रयास करना, भारत का कल्याण करना, और इसी महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अपना जीवन गठित करना, और परार्थ के लिये कार्य करने में ही, अपने जीवन की शक्ति को व्यय कर देना. यह बात (ऐसा महान जीवन लक्ष्य) अन्य किसी के उपदेश में है?
बहुत से लोगों के नाम गिनाये जाते हैं, किन्तु स्वामी विवेकानन्द के जैसा और कोई दूसरा हुआ ही नहीं है. स्वामीजी को बाद देकर चरित्र गठन करने में कोई आपत्ति नहीं है. अनेक लोगों के पास अनेक प्रकार के Prescription नुस्खा रहता है, उनके निर्देशानुसार कार्य करोगे तो देखोगे कि शुरू शुरू में शायद कुछ अच्छा होगा, कई प्रकार के विशेष गुण शायद तुम्हारे भीतर आ जायेंगे, किन्तु जो असली वस्तु चाही गयी है, वह ठीक तरीके से नहीं भी मिल सकती है. चरित्र के विषय में अनेकों लोगों ने बहुत कुछ कहा है, किन्तु चरित्र-निर्माण की उपयोगिता और चरित्र-गठन करने की पद्धति के बारे में स्वामीजी ने  जैसा कहा है, वैसा अन्य किसी ने भी नहीं कहा है.
महामण्डल का कार्य है, युवाओं को जगा कर, उनमे मनुष्य जैसा मनुष्य बनने को उत्साहित करना, जिससे उनका जीवन आदि देश के काम में लग सके, इसीका प्रयास करना. आजकल बहुत से लोग हमलोगों को परामर्श देते हैं, थोड़ा career- के लिये भी बताया जाता तो अच्छा नहीं था ? किस प्रकार career का चुनाव करना चाहिये, इन सब की व्यवस्था क्या यहाँ से नहीं की जा सकती है ? क्या कोई वैसा प्रकल्प नहीं चलाना चाहिये जिससे ये युवा लोग स्वनिर्भर हो जाएँ ? सरकार तो यह सब कर ही रही है, और यही सब कर कर के देश को बिल्कुल डूबने के कगार तक पहुँचा दिया है. सरकारी दावे से तो लग रहा है कि गरीबी तो लगभग बिल्कुल खत्म होने जैसी अवस्था में आ गयी है. और सच्चाई यह है कि आज भी भूख से, खाने बिना लोग मर रहे हैं.
इसीलिये यह सब निरर्थक चेष्टा होगी. किन्तु महामण्डल स्वामीजी का सामग्रिक मार्ग-दर्शन का ही अनुसरण करेगा. स्वामीजी का replacement करने योग्य, उनके समतुल्य, ग्रहण करने योग्य कोई दूसरा आदर्श, अभी तक तो इस पृथ्वी पर जन्मा नहीं है. स्वामीजी ने भारतवर्ष के लिये जो कहा है, समस्त मानवजाति के लिये जो कहा है और दिया है, उसको कोई replace  करने में समर्थ हो, ऐसा तो कोई आज तक इस पृथ्वी पर पैदा नहीं लिया है. टीवी य़ा फ्रिज खरीद लेने जैसा आसन नहीं समझें कि एक ही वस्तु कई विभिन्न कम्पनी में बनाकर एक ही दुकान में सजा कर रखी हुई रहतीं हैं, उसमे से किसी एक को चुन लिया. स्वामीजी किसी मनिहारी के दुकान में सजा कर रखी गयी, सामग्री जैसे कोई सामग्री नहीं हैं. ऐसा नहीं है कि उनको पसंद हुए, इसीलिये खरीद लिया. स्वामीजी को बाद करके, स्वामीजी जैसा ही कोई दूसरा आदर्श प्राप्त होता हो, ऐसा एक ही जगह में एकत्रित भाव और दूसरा नहीं हुआ है. समस्त को ध्यान में रख कर ही ऐसा कहा जा रहा है.
उडिषा में एक स्थान पर भाषण करते समय मैंने कहा था- " In human history a second person like Swami Vivekananda was never born." भाषण समाप्त होने पर कॉलेज के छात्रों का एक समूह ने मुझे घेर लिया और बोले, " आपका भाषण बहुत अच्छा लगा, किन्तु आपने जिस एक बात का उल्लेख किया, वह क्या सही है ? " मैंने पूछा कौन सी बात? " आपने एक जगह कहा था,  कि " स्वामीजी के जैसा और दूसरा कोई भी मनुष्य आज तक पृथ्वी पर जन्मा ही नहीं है ! "- यह क्या अपने ठीक कहा था ?  मैंने कहा, " देखो, मैं कभी कहीं से रट कर, य़ा किसी अन्य से सुनि हुई कोई बात कभी नहीं कहता, जिस तथ्य को मैं स्वयं ठीक से समझ पाने में सक्षम हुआ हूँ, बस उसी एक बात को  मैं हर बार कहता हूँ !"
तब उनलोगों ने बताया, " देखिये, यहीं पास में एक साधु रहते हैं, उनके पांडित्य की परिधि बिल्कुल स्वामीजी की विद्या की परिधि जितनी विस्तृत है, उनका अध्यन भी बहुत गहरा है, उनके पास ज्ञान का असीम भण्डार है, समस्त शास्त्रों पर उनका पूर्ण अधिकार है.  कहा जाय तो उनका समस्त ज्ञान उनकी मुट्ठी में है, ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसके बारे में वे नहीं जानते हों; और त्याग के बारे में क्या कहा जाय ? वे भी सन्यासी हैं, और असाधारण त्यागी हैं. वे अपने भोजन के लिये कोई चेष्टा नहीं करते, कोई भोजन दे देता है, तो खा लेते हैं, नहीं मिला तो, कुछ नहीं खाते हैं. अदभुत महात्यागी हैं, उनके सारे गुण बिल्कुल स्वामीजी की तरह ही हैं. इसीलिये हमलोग कह सकते हैं कि स्वामीजी के जैसा और एक व्यक्ति हैं. यदि आप उनको देखना चाहें, तो कल सुबह में ही आपको दिखला सकते हैं, गाड़ी से जाने पर एक घन्टा लगेगा, पास में ही एक जंगल है, उसी जंगल में वे रहते हैं. "
मैंने बहुत शान्त भाव से ही कहा, " नहीं, कल मैं उनको देखने नहीं जा रहा हूँ, " " क्यों ? क्यों ? वे स्वामीजी के जैसे क्यों नहीं हैं? " मैंने कहा, " मैं इस बात पर आपत्ति नहीं करता कि उनकी विद्या स्वामीजी के जैसी है, यह भी मान लेता हूँ कि उनका त्याग स्वामीजी के जैसा है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द स्वयं कहते हैं, " मैं अपना शेष जीवन हिमालय की किसी गुफा में, ध्यान करते हुए बीता सकता हूँ, किन्तु ऐसा मैं कैसे कर पाऊंगा रे ? जगत में इतने मनुष्य कष्ट में हैं, इतना दुःख है, दरिद्रता का कैसा उत्पीड़न भोग रहे हैं, और मैं अपनी मुक्ति के लिये, हिमालय की गुफा में ध्यान करके बीता दूंगा ? नहीं नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता !"
और ये साधु अभी तक जंगल में ही बैठे हुए हैं. इसीलिये इन साधु का बाकी सबकुछ स्वामीजी के जैसा होने पर भी, इस जगह वे स्वामीजी के जैसे नहीं हैं. " स्वामीजी  दुखी मनुष्यों के दुःख से विदग्ध ह्रदय लेकर, उन दुखी-पीड़ित मानवों के कल्याण के लिये, उन मनुष्यों के पास, सम्पूर्ण भारतवर्ष का कल्याण करने के लिये दौड़ पड़े हैं. और इसी आशा से विदेशों तक भी दौड़ गये कि - शायद वहाँ से भारत के लिये कुछ सहायता मिल जाये. किन्तु वहाँ जाने के बाद वे समझ गये थे- कि नहीं, सहायता करने वाला यहाँ कोई नहीं है.
तब उन्होंने कहा, तुम लोग स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने की चेष्टा करो.मनुष्य बनो, चरित्र गठन करो, देश को प्यार करना सीखो, देश का अर्थ देश की मिट्टी ही नहीं है, देश से प्यार करने का अर्थ है अपने देशवासियों से प्यार करना. देश के मनुष्यों को प्यार करना सीखो, अपने देशवासियों के दुःख को समझना सीखो, अपने ह्रदय (Heart )को बड़ा करो, शरीर (Hand) को बलवान बनाओ, सिर (मस्तिष्क Head ) को जाग्रत करो- प्रखर बुद्धि, विवेक-विचार करने की शक्ति चाहिये.
उन्होंने हमे आदेश दिया है - " ह्रदय से मनुष्यों के दुःख को अनुभव करो, विचारशक्ति से उनके दुखों को दूर करने का उपाय ढूँढो, और शारीरिक शक्ति का प्रयोग कर उस उपाय को क्रियान्वित करके दिखा दो." इतना बड़ा महामानव सचमुच नहीं जन्मा है, उनके उपदेशों को सुनकर, उनके आदेश, उनकी शिक्षा, उनकी डांट-फटकार - आदि को सुनकर,  शायद हमारी सुबुद्धि वापस लौट आये. उनकी बात को सुन कर हमलोग एक दूसरे प्रकार के मनुष्य बन जायेंगे, हमलोगों की मनोवृत्ति बिल्कुल बदल जाएगी,
जैसे किसी बहुत बड़े चुम्बक के पहाड़ के निकट जहाज चला जाये, तो लोहे से निर्मित उसके समस्त नट-भोल्ट, कब्जा-काठी, इत्यादि स्वतः खुल जायेंगे, उसी तरह इनके पास जाने से, इनकी आकर्षण की शक्ति से हमलोगों के समस्त बंधन छिन्न-भिन्न होजाएंगे, हम बंधन मुक्त हो जायेंगे. ऐसा होने पर हमलोग जो बन जायेंगे, वह क्या है? केवल ह्रदय, इसीलिये स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं -  
" Be a heart-whole man !"  
ऐसा मार्ग-दर्शन और किसी दूसरे व्यक्ति से मिल सकता है क्या ?  
64 प्रश्न : अपने कार्य को पूरी तरह से समाप्त किये बिना ही स्वामी विवेकानन्द ने अपने नश्वर शरीर का त्याग क्यों किया ?
उत्तर : यह कार्य (सम्पूर्ण भारत में ' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' को स्थापित कराकर ' व्यक्ति-चरित्र गठन ' करने का कार्य) दो या चार वर्षों में ही पूरा नहीं किया जा सकता, और न इसको ' पँच-वर्षीय योजना ' की संज्ञा ही दी जा सकती है. यह कार्य (व्यक्ति जीवन-गठन अर्थात युवाओं के जीवन को युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द के साँचे में ढाल लेने का कार्य)एक अत्यन्त दीर्घकालिक व्यवस्था-क्रम (Longtime-process) है, जिसे समय के साथ-साथ आगे बढ़ते रहना है, और कोई व्यक्ति यह नहीं जनता कि इस तरह की परियोजना का कभी अन्त होगा भी या नहीं. 
आँकड़ों की दृष्टि से इस कार्य के बारे में निष्कपटता पूर्वक चिन्तन किया जा सकता है. मान लो कि आज का युवा-वर्ग,(चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण प्राप्त करके) 'यथार्थ मनुष्य ' बन जाता है, किन्तु इसी बीच जनसंख्या में बढ़ोत्तरी भी हो रही है, नव-जात शिशु जन्म ले रहे हैं. (वे भी कल युवा बनेंगे), अतः इस मनुष्य-निर्माणकारी प्रक्रिया को निरन्तर जारी रखना होगा. और निश्चित तौर पर, स्वामीजी भी इस धरा-धाम पर (अपने नश्वर शरीर में) तबतक नहीं ठहरे नहीं रह सकते थे, जबतक इस पृथ्वी पर सारे मानव, यथार्थ पुरुष और स्त्री में विकसित होने के लिए जन्म-ग्रहण नहीं कर लेते.
उन्होंने बहुत स्पष्ट तौर पर कहा था कि उनका अपना नियत काम (कर्तव्य या टास्क) साधारण जनता के लिए उपयोगी विचारों (सिद्धान्तों) को प्रबुद्ध-जनमानस में प्रविष्ट करा देना था; और इस कार्य को उन्होंने प्रवीणता के साथ पूरा कर लिया था. और इस बारे में उनके मन कोई संशय भी नहीं था;उन्होंने कहा था- ' My work is done !' 
            (मैंने अपना कार्य समाप्त कर लिया है !)
दुर्भाग्यवश, बहुत थोड़े से व्यक्ति ही उनके विचारों सही रूप से ग्रहण कर के, उन्हें अपने व्यहार में अपनाने कठोर प्रयास करते हैं. उनके सिद्धान्तों ( Be and Make ) को बहुत गम्भीरता के साथ समझने का प्रयास नहीं किया गया है. यह एक सच्चाई है, जिसे हमें स्वीकार करना चाहिए, किन्तु अपनी असमर्थतता के चलते हमलोग इसे स्वीकार करने में संकोच करते हैं. हमलोग सोचते है कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं वह स्वामीजी के विचारों को व्यावहारिक धरातल पर रूपायित करने का प्रयास ही कर रहे हैं; किन्तु उनका प्रधान सिद्धान्त (' स्वयं यथार्थ मनुष्य बनो और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करो !) का प्रमुख अंश (Be), अर्थात स्वयं मनुष्य बनने का कार्य अधुरा ही रह जाता है. 
स्वामीजी ने सरकार (सत्ता किसके हाथ में है या सरकार किसकी है) के विषय में ज्यादा कुछ नहीं कहा था, उन्होंने सामाजिक परिवर्तन (समाजिक व्यवस्था में परिवर्तन) के बारे में सम्भाषण दिया था; और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन इसमें रहने वाले (सामाजिक व्यवस्था को चलाने वाले ) मनुष्यों की गुणवत्ता (चारित्रिक गुणों ) पर निर्भर करती है. राजनीति विज्ञान का सिद्धान्त है-" People get as good a government as they Deserve. "
             " जिस देश या राज्य की जनता जिस योग्य होती है उसे वैसी ही सरकार प्राप्त होती है।"
आज हमारे देश की ' केन्द्रीय सरकार ' और राज्यों की सरकारें भी बिलकुल वैसी ही हैं, जिसके हम पात्र हैं. यदि जब हमलोग बदल जायेंगे (अर्थात हमारी चारित्रिक गुणवत्ता सुधर जाएगी और हमलोग यथार्थ मनुष्य बन जायेंगे) तो हमारी सरकारें भी स्वतः बदल जाएँगी. इसीलिए, स्वामीजी का कार्य हर समय में जारी रहेगा. उन्होंने हमें आश्वस्त करते हुए कहा था- " Work unto death- I am with you, and when I am gone, my spirit will work with you."  
" मृत्यु पर्यन्त कार्य (मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण का कार्य ) करते रहो, मैं तुम्हारे साथ हूँ, और जब मैं चला जाउँगा(इस रंग-मँच से हट जाउँगा) तब मेरी आत्मा तुम्हारे साथ कार्य करेगी ! "  
अन्यत्र उन्होंने कहा था-
" It may be that I shall find it good to get outside of my body-to cast it off like a disused garment. Bur I shall not cease to work. I shall inspire men everywhere, until the whole world shall know that it is one with God. "
" यह सम्भव है कि मुझे अपने इस नश्वर शरीर को किसी जीर्ण वस्त्र के समान त्याग कर बाहर निकल जाना पड़े, किन्तु मैं कार्य करना कभी नहीं छोडूंगा,मैं सर्वत्र मनुष्यों में तबतक प्रेरणा भरता रहूँगा जब तक वह यह नहीं अनुभव करता कि वह और ईश्वर (श्रीरामकृष्ण, अल्ला, ब्रह्म) एक हैं."                  
 65 प्रश्न  " हाल का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और ' जन लोकपाल बिल '  के बारे में महामण्डल का दृष्टिकोण क्या है ? " 
उत्तर- यह कत्तई आवश्यक नहीं है कि महामण्डल को हर मुद्दे पर अपना एक अभिमत व्यक्त करना ही चाहिए. कोई गंभीर और ईमानदार व्यक्ति, या समूह, यदि राष्ट्र के कल्याण के लिए, कोई महत्वपूर्ण काम कर रहे हों तो, हमें उनको अपनी शुभ कामनाएँ अवश्य देनी चाहिए. किन्तु हमारा कार्य क्षेत्र अलग है; और हम अपना सारा ध्यान उसी कार्य पर केन्द्रित रखते हैं, जिसे हमने अपने लिए चुन लिया है. हमलोग भावनाओं के आवेग और उत्तेजना में बह कर अपना ध्यान अन्य किसी विषय की ओर भटकने नहीं दे सकते.
सामाजिक और राजनीतिक संबंधों, व्यवस्थाओं, और संस्थाओं में परिवर्तन लाकर समस्याओं को सुलझाने के उद्देश्य से सामाजिक या राजनीतिक आंदोलन किये जाते रहे हैं. सामाजिक बुराइयों के इलाज के लिए अक्सर इसी प्रकार के आन्दोलन आवश्यक हो जाते हैं. किन्तु, हमारा तरीका रोग-निरोधक या सुरक्षात्मक है. हमारा ध्यान, सदैव सभी समस्याओं की जड़, स्त्री और पुरुषों के चरित्र के उपर ही केन्द्रित रहना चाहिए. जो किसी पौधे के जड़ को सींचता है, वास्तव में वह पुरे पौधे को ही सींचता है. सारी समस्याएँ मन की गलत प्रवृत्तियों की उपज होती हैं. इसीलिए यदि इसका ध्यान नहीं रखा जाय तो किसी अन्य उपाय से इसका स्थायी समाधान सम्भव नहीं है.     
  इसीलिए महामण्डल युवा लोगों  के मन पर कार्य कर रहा है, क्योंकि वे ही परिवर्तन के लिए सर्वाधिक सहज अनुगामी होते हैं. मूल रूप से यह काम शैक्षणिक है, जिसके अनुसार उनके लिए अपने मन को अन्तर्मुखी करने की थोड़ी सी योग्यता भी अपेक्षित है. मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति बहिर्मुखी है; इसीलिए यह अपने अंतर्निहित गुरु ' विवेक-शक्ति ' पर से, मन अपनी एकाग्रता को आसानी से खो देता है. इसीलिए मन को सदैव विवेक के साथ संयुक्त रखने के कार्य को, या मन को अन्तर्मुखी बनाने के अभ्यास को, अन्य क्रिया-कलापों, चाहे वे कितने भी अच्छे क्यों न हों, के साथ जोड़ कर व्यर्थ नहीं होने देना चाहिए.इंग्लैंड में एक पत्रकार ने स्वमी विवेकानन्द से पूछा था- ' क्या आपने इंडियन नेशनल कांग्रेस आन्दोलन की ओर कुछ ध्यान दिया है ? ' (४/240 )
 स्वामीजी ने उत्तर में कहा था- " मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने काफ़ी ध्यान दिया है; मेरा कार्यक्षेत्र दूसरा है. पर मैं इस आन्दोलन को महत्वपूर्ण मानता हूँ और हृदय से उसकी सफलता चाहता हूँ।'उन्होंने, राजनैतिक या सामाजिक सुधार आंदोलनों के साथ, ' मनुष्य निर्माण के कार्य ' को मिश्रण करने की स्वीकृति नहीं दी थी. क्योंकि देश की व्यवस्था में एक दीर्घकालिक, मौलिक परिवर्तन लाने के लिए, वे ' मनुष्य-निर्माण के कार्य ' को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते थे. 
उसी साक्षात्कार के क्रम में उन्होंने, उस अंग्रेज पत्रकार से कहा था- ' आपके यहाँ एक कहावत है कि लोगों को पार्लियामेंट के कानून से पुण्यात्मा नहीं बनाया जा सकता...और इसीलिए धर्म, राजनीति की अपेक्षा अधिक गहरे महत्व की वस्तु है, ' वह जड़ तक पहुँचता है और आचरण के सार से संबंध रखता है.' 
तब उस साक्षात्कार-कर्ता ने थोड़ा आश्चर्य व्यक्त करते हुए स्वामीजी से पूछा था- ' क्या भारत को उस जागरण (मन और इन्द्रियों को अन्तर्मुखी रखने ) का ज्ञान है, जिसकी आप चर्चा कर रहे हैं ? '
इसका उत्तर देते हुए स्वामीजी ने कहा था- ' (इस मामले में भारत ) पुर्णतः जाग्रत है. किन्तु संसार शायद उस जागरण को मुख्यतया कांग्रेस आन्दोलन और सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में ही देख पाता है, पर यह जागरण धर्म के क्षेत्र में भी उतना ही वास्तविक है, यद्दपि वह वहाँ अधिक निस्तब्धता से काम करता है. '
यहाँ ' धर्म ' से तात्पर्य वह विचार है जो ' जड़ तक पहुँचता है और आचरण के सार से संबंध रखता है.' ऐसा धर्म और चरित्र-निर्माण में कोई अन्तर नहीं है.
बहुत कम लोग ही ऐसे हैं, जो इस यथार्थ धर्म या ' चरित्र-निर्माण ' के कार्य के महत्व को समझ पाते हैं, क्योंकि यह कार्य (चरित्र-निर्माण ) ओस की बूंदों की तरह ख़ामोशी के साथ ' जीवन-पुष्प ' को प्रस्फुटित कर देता है. इसलिए हमारी राय में, जो लोग इसके महत्व को समझते हैं और इसके लिए काम करते हैं, उन्हें उच्च दक्षता प्राप्त करने के चक्कर में पड़ कर, अपनी ऊर्जा को नष्ट नहीं करना चाहिए. 
 इसके अलावा, हमलोग वैसे युवाओं के बीच काम कर रहे हैं, जिनमें जटिल सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर, स्वतंत्र राय बनाने या निर्णय लेने की क्षमता, अभी तक विकसित नहीं हुई है. हमें अपने विचारों को उन पर नहीं थोपना चाहिए.
उन्हें, अपनी आँखों के साथ चीजों को देखने, खुले दिमाग के साथ विकसित होनेऔर फिर खुद तय करने का मौका देना चाहिए. हमारे काम सिर्फ उन्हें सच्चे मनुष्य के रूप में विकसित होने में सहायता करना है. और यही हमारी सीमा है .
66  प्रश्न- ' विवेक ' और ' हृदय ' में क्या अन्तर है ? ' ब्रह्म ' क्या है ?
उत्तर- विवेक एक विशिष्ठ प्रकार से विचार करने की प्रक्रिया का नाम है- अर्थात यह क्या है, यह क्या है, यह क्या है, इसप्रकार हर वस्तु को अलग अलग करके समझना। किस वस्तु का मूल्य कितना है- इसका मूल्य बहुत अधिक नहीं है, इसका मूल्य इससे अधिक है, इस प्रकार से जब विचार किया जाता है; तब इसे विवेक कहा जाता है।  
और इस प्रकार से विचार करने के लिए मस्तिष्क के आलावा और कोई दूसरा यन्त्र कहीं शरीर में फिट नहीं है.हमलोगों की धारणा यह कि शायद हृदय ( दिल ) हमलोगों के छाती के निकट है. किन्तु छाती के निकट जो हृदय ( दिल ) है, वह एक यंत्र है, जिसको ' हृदय-यंत्र ' या heart कहते हैं. वह तो रक्त-संचालन करने वाला यंत्र या  Blood Pumping Machine है. वह जन्म के समय से लेकर जब तक मनुष्य जीवित रहता है तबतक चलता ही रहता है।  हृदय का धड़कना बंद होते ही मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। सारे शरीर में रक्त को संचालित को करना (blood pumping ) इसका कार्य है।  किन्तु उसी यंत्र को यह हृदय नहीं समझना चाहिए।  
हमलोग जिस हृदय की बात कर रहे हैं, वह अनुभव करने की शक्ति है। उसका स्थान हमारे शरीर में कहाँ है, इसे तुरन्त खोजा नहीं जा सकता है। इसीलिए छाती पर हाथ रख कर जहाँ हृदय-यंत्र रहता है, हमलोग उसी का उल्लेख करते हैं। यह एक काल्पनिक मान्यता है, इसका कोई अर्थ नहीं होता, वास्तव में जो कार्य होता है वह, मस्तिष्क के भीतर होता है. मस्तिष्क क्या है, कैसा चौंका देने वाला पदार्थ है, इसके पूरी संरचना को आज तक मनुष्य पूरी तरह से जान नहीं पाया है। लगातार मस्तिष्क की नयी नयी शक्तियों के परिचय का खुलासा हो रहा है. 
वास्तव में शुभ-अशुभ, पसंद-नापसंद, लोभ, त्याग, पाने की इच्छा, त्याग कर देने की इच्छा आदि  समस्त  विवेकपूर्ण निर्णय लेने का कार्य, मस्तिष्क में ही घटित होता है. इन दिनों मस्तिष्क को लेकर बहुत से अनुसन्धान किये जा रहे हैं. यह भी सच है कि अनुसन्धान कार्य में बहुत उन्नति हुई है, किन्तु मन की शक्ति का पूरा परिचय अभी तक बहुत कम ही मिल सका है. 
सिर के उपर, ठीक बिच में एक स्थान को ब्रह्म-रन्ध्र कहा जाता है. ऐसा  माना जाता है की यह स्थान ब्रह्म की उपलब्धी करने के लिए है. ब्रह्मवस्तु से ही यह विश्व-ब्रह्माण्ड आविर्भूत हुआ है। ब्रह्म का अर्थ क्या है ? ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है- बृहत. इतना बृहत, कि उसके बाहर और कुछ भी नहीं है. हमलोग भी इससे अलग नहीं हैं. इसीलिए हमलोग घटिया सोच नहीं रखेंगे, संकीर्ण विचार नहीं रखेंगे, बृहत के बारे में ही विचार करेंगे। शब्दार्थ के अनुसार इसको ही ब्रह्म विचार कहते हैं.
अपने को अनुदार मत रखो, छोटे से दायरे में कैद मत होने दो. ' अपने को मैंने जगत्स्वरूप बना लिया है; सारे विश्व के साथ अपने को एक और अभिन्न  देखता हूँ !' कितनी बड़ी उपलब्धी है, कितने आनन्द की बात है ! हमलोग सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव कर सकते हैं, हमलोग इतने बड़े हो सकते हैं. किन्तु हमने अपने को सीमित बना डाला है।  थोड़ा सा पकवान, थोड़ा सा इन्द्रिय सुख, इतने को ही बहुत बड़ा सुख मान लेते हैं।  यदि हमलोग अपने जीवन को ठीक ठीक गढ़ सकें, तो इससे बहुत बड़ी वस्तु हमलोग प्राप्त कर सकते हैं,बृहत वस्तु, जिस से बड़ा और कुछ भी नहीं है, भूमा आनन्द की प्राप्ति का संवाद सभी के पास पहुंचना चाहिए।  
इस  संवाद को हमलोगों ने  इस युवा प्रशिक्षण शिविर में प्राप्त किया है, यही समझ कर लौट सकें, तो बहुत बड़ा कार्य होगा. इसी ' भूमा आनन्द ' को प्राप्त करने का लोभ, हमलोगों को और अधिक पवित्र बनने में सहायक होगा, हमें उन्नत बनाएगा, हमलोग पुष्पित हो जायेंगे.
जीवन क्या एक घर में रहना, खाना-पीना, स्कूल-कॉलेज, यूनिवर्सिटी में जाना, थोड़ा पढ़-लिख कर नौकरी-रोजगार में लग जाना भर है? दिन भर कुछ रोजी-रोजगार किया, घर आया, खाना खाया, और सो गया, फिर वंश-विस्तार होने लगा- क्या इसी को मनुष्य- जीवन कहते हैं? ऐसा जीवन तो पशु लोग भी जी लेते हैं. पशुओं और मनुष्यों का जीवन क्या एक ही जैसा होना चाहिए ?
मनुष्य तो विरासत से ही इतनी बुद्धि लेकर जन्म ग्रहण किया है, वह क्या अपने कार्य के माध्यम से, जीवन-यात्रा की प्रणाली के माध्यम से, जीवन का सही उद्देश्य या लक्ष्य निर्धारित करने के माध्यम से, उसे प्राप्त करने के लिए जी-जान से प्रयत्न करने के माध्यम से, अपने उस ' मनुष्यत्व ' प्रकाशित नहीं करेगा ? यथार्थ ' मनुष्यत्व ' के उत्थान और आविर्भाव को देख कर जगत अवाक रह जायेगा- मनुष्य की शक्ति कितनी असीम है!
सच्चा मनुष्य ऐसा ही होता है. इस तरह के मनुष्य बनने के लिए जो कुछ चाहिए, वह सभी चीजें हमारे पास हैं. हमारे पास शरीर, मन, बुद्धि, हृदय या अनुभव करने की शक्ति विद्यमान है. हमलोग क्या इन्हें यूँ ही नष्ट हो जाने देंगे ? यह जो बाहर का परिवेश है, आज के समाज में भौतिक-वाद की जो आंधी बह रही है, उसके बाढ़ में क्या हम स्वयं को भी डूब जाने देंगे?
नहीं, हमलोग ऐसा हरगिज नहीं होने देंगे. हमलोग सच्चरित्रता के धरातल पर अपने कदमों को सख्ती के साथ जमाये रखेंगे. पश्चमी सभ्यता के आँधियों का वेग चाहे जितना भी क्यों न हो, वह हमें अपने प्रवाह में डुबोने नहीं पायेगी। इस बाढ़ के बीच में खड़े रहकर भी, जो प्राप्त करना है, उसे प्राप्त कर के ही दम लेंगे.   
 67 प्रश्न : हमलोग ' मनुष्य ' ही हैं, इस बात को हम कैसे समझ सकते हैं ?
उत्तर : यदि इसी समय की बात लो, तो तुम देखोगे कि, शरीर में ऐसा कुछ प्रतीत हो रहा है, जो तुमको नीचे की ओर गिराना चाह रहा है, तुम्हारे मन में फिर एक ऐसा ख्याल आ रहा है,  तुम्हारे मन में ऐसे एक विचार की पुनरावृत्ति जाग रही है और चूँकि तुम ' विवेकी ' हो,  इसीलिए इस बात समझ पा रहे हो। 
हमलोग अपना परिचय देते है कि हमलोग विवेकानन्द के अनुयायी हैं, यदि सचमुच हमलोग ' विवेक ' के अनुगामी हों, अर्थात कुछ भी सोचने, बोलने और करने के पहले यदि ' विवेक- प्रयोग ' अवश्य करने की आदत यदि हमारी ' प्रवृत्ति ' बन चुकी हो; तो हम स्पष्ट देख पाएंगे की मेरा मन कभी कभी मुझको धोखे में डाल कर अच्छाई के मार्ग पर न लेजा कर ( श्रेय ) से भटकाकर, नीचे (प्रेय) की ओर ले जाना चाह रहा है. जो अच्छा नहीं है, जो मुझे दुर्बल बना देगा, उसे मैं अपने पैर के अंगूठे से भी स्पर्श नहीं करूंगा, उससे दूर ही रहूँगा. कोई प्रलोभन दिखा कर मुझे उसके साथ युक्त नहीं कर पायेगा. यदि यह सामर्थ्य मुझमें है, तभी मैं ' मनुष्य ' हूँ. स्वयं के उपर ऐसा नियन्त्रण केवल ' मनुष्य ' ही रख सकता है. इसीलिए ' मनुष्य योनी ' को सर्वश्रष्ठ कहा जाता है.
' मनुष्य ' का अर्थ क्या है ? श्रीरामकृष्ण कहते थे- ' मान हूँश, तो मानुष ' जिसको अपनी मानवोचित मर्यादा के प्रति ' होश ' सदैव बना रहता हो, उसी को ' मनुष्य ' कहा जाता है. विचार करके देखो तो जरा, यह उक्ति कितनी सरल, पर कितनी असाधारण है? दूसरे प्रकार से देखें तो श्रीरामकृष्ण देव मूर्ख ही ठहरे. पाठशाला में पढ़ने के लिए, बहुत ही थोड़े समय के लिए गये थे। हिसाब बनाने के लिए कहा गया तो किसी प्रकार ' जोड़ ' करना सीख लिए थे, किन्तु ' घटाव ' करना नहीं सीख पाये।  ' शेष नहीं निकालने ' (घटाव नहीं करने) से जोड़ (योग) होता है. यह योग ( जोड़ ) क्या है ? जो सबसे ऊँची बात है, सबसे सुन्दर वस्तु है, वह है- सभी के साथ जुड़ जाना, एक और अभिन्न बन जाना !
  हमलोग टी.वी. पर देख कर आजकल ' योग-योग ' बोलते हैं. अभी तो पार्क में बैठ कर योग करना एक फैशन बन चुका है. कई कई नामों से ' योगा-सेन्टर ' खुल गये हैं। वास्तव में ' योग ' का क्या अर्थ है? यह देखना कि हमारे हृदय में जो मौलिक वस्तु है, उसके साथ स्वयं को ' जोड़ ' करके रखने पर ही, अन्य सबों के साथ योग बना रहता है, क्योंकि सबों के भीतर ' मौलिक वस्तु ' एक ही है। इस तथ्य को सदा स्मरण रखते हुए जीवनयापन करने से, हमारी जो अन्तर्निहित ' सत्ता ' (ब्रह्मत्व ) है, वह और अधिक प्रस्फुटित होने लगता है, और अधिक अभिव्यक्त होता है, और अधिक फलदायी होता है।  इसीलिए अपनी ' स्मृति ' ध्रुव तारे के जैसा अटल बनाये रखना लाज़मी है!   
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