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मंगलवार, 25 अगस्त 2009

' लघुता से प्रभुता की यात्रा '

महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाने के बाद, एक दिन  कौरवों के पिता धृतराष्ट्र पुत्र-शोक से व्याकुल हो कर विलाप कर रहे थे। तब महात्मा विदुर उनको सान्तावना देने के उद्देश्य से उनके साथ जीवन की कुछ अपरिहार्य (अवश्यम्भावी) सच्चाइयों  के ऊपर विचारों का आदान-प्रदान करते हुए कहते हैं-
" सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः |
   संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ||
"
- हे राजन , समय के प्रवाह में समस्त संचित धन-संपदा क्षीणता को प्राप्त हो जाते हैं। ऊँची उठी हुई लहरें (ज्वार) निश्चित रूप से नीचे गिरतीं हैं। 'लौकिक उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोगोंका अन्त वियोग है और जीवनका अन्त मरण है ।’ समस्त प्रकार के संयोगों (सम्मिलन) की परिसमाप्ति वियोग (विच्छेद ) में होती है; और जीवन की भवितव्यता (नियति) तो मृत्यु ही है।  
हम सभीलोग या कम से कम वे, जिनको जीवन की सच्चाइयों से दो-चार होना पड़ा है, महात्मा विदुर की उपरोक्त बातों से अवश्य सहमत होंगे संसारमें सिवाय धोखेके कुछ मिलनेवाला नहीं है । संसारमें सब संयोगका, संबंधोंका वियोग ही होगा—किन्तु सहमत होते हुए भी हम इन बातों को सपष्ट रूप से समझ नहीं पाते हैं या समझना नहीं चाहते हैं। क्योंकि हम में से अधिकांश लोग जीवन में सुख देने वाले छोटे-मोटे नश्वर वस्तुओं में ही चिपके रहना चाहते हैं। 
 हम में से अधिकांश लोग लोग जीवन की जिन कटु-सच्चाइयों से मुख मोड़ कर, सदैव इसी शरीर और जीवन से चिपके रहना क्यों चाहते हैं ? जरा-मृत्यु को हम सहर्ष नहीं स्वीकार कर पाते उन्हें भुला देना चाहते हैं; और अप्रिय सच्चाइयों को भुला कर हमलोग सदा जीवित रहना चाहते हैं। और जब तक जीवन है तब तक केवल सुख और आनन्द ही पाना चाहते हैं, इसी जीवन में हर प्रकार का सुख भोग लेना चाहते हैं, तथा उन्हें सदा के लिए अपना बनालेना चाहते हैं। किन्तु अफ़सोस ! इस सम्बन्ध में कही गई प्राचीन कहावत ही सत्य है -   ' Time and tide wait for none '  अर्थात ' समय और ज्वारभाटा किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। ' हमारी कामनाएं (desires) संख्या और शक्ति के अनुपात मेंदिन प्रति दिन बढ़ती ही जातीं हैं। हम अपनी सुख-भोग की इच्छाओं को जितना ही तृप्त करना चाहते हैं वे उतनी हीअधिक भड़क उठती हैं।पौराणिक कथा में वर्णित ' राजा ययाति ' के जैसा विषय-भोगों में सदा लिप्त रहने तथाइच्छाओं को अधिक से अधिक भोगों द्वारा तृप्त करने का दूसरा उदाहरण खोज पाना कठिन है। 
महाभारत के आदि-पर्व में एक कथा है कि- अपना पूरा जीवन केवल विषयों को भोगने में बिता देने के बाद ' राजा ययाति ' जब बुड्ढा हो गया तथा सांसारिक विषयों का भोग करने में अक्षम हो गया, तो उसमे और अधिक सुख भोगने कि अत्यन्त तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई। इसलिए उसी के एक पुत्र ' पुरु ' ने अपनी जवानी उसको दे दी। और कहानी कहती है कि नवयौवन पाने के बाद - ययाति एक बार फ़िर से सांसारिक विषयों का भोग करने में जुट गया। जब वह अपने छोटे लड़के का यौवन ले कर भी अपने को तृप्त नहीं कर पाया तब उसे अन्त में यह बोध हो ही गया कि काम कभी तृप्त नहीं होता। वे खेद प्रकट करते हुए कहते हैं-
न जातु कामः कामानसुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवामिवर्धते॥
जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि में घृताहुती डालने से अग्नि बुझती नहीं और भी ज्यादाभड़क उठती है, उसी तरह प्रत्येक काम्य वस्तु का उपभोग करने से कामना कभी शान्त नहीं होती बल्कि निरन्तरबढ़ती जाती है। इतना कह कर ययाति और एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं-
यत् पृथिव्याम व्रीहि यवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात् तृष्णाम् परित्यजेत॥
 -' अर्थात संसार में जितना भी अनाज, स्वर्ण-माणिक्य, पशुधन, और स्त्रियाँ हैं, ये सब के सब मिल कर एक व्यक्तिकि तृष्णा को भी शान्त नहीं कर सकते, इसलिए तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए।'  इसीलिए काम के आश्रय स्थल इन्द्रियों को वशीभूत कर लेना मनुष्य का प्रधान कर्तव्य है, क्योंकि भोग की सीमानहीं है और न उसमे शान्ति ही मिलती है। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि त्याग में ही शान्ति है- " त्यागात् शान्तिरनन्तरम् " केवल त्याग से ही अमृतत्व कि प्राप्ति होती है- " त्यागेनैके अमृतत्वमान्शुः " जो लोग इस राजा ययाति के समान कामनाओं को पूरा करने के पीछे दौड़ते रहते हैं- उनका परिणाम क्या होता है ?यह भोगने वालों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर भी जीर्ण नहीं होता, ऐसा जो तृष्णा नामक प्राण हरने वाला रोग है, उस तृष्णा के त्याग में ही सुख है। राजा कवि भर्थरिहरी इस दृश्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 
कालो न यातो वयमेव याता।
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा ॥
-' समय नहीं बीत जाता, हम ही बीत जाते हैं। इच्छाएँ जीर्ण नहीं होतीं हम ही जीर्ण हो जाते हैं।' यह सचमुच दिलको दहला देने वाली सच्चाई है।क्या हमलोग इस वस्तुस्थिति को बदल देने में सक्षम नहीं हैं ? यह ठीक है कि शरीर आता है(जन्म लेता है ), जाता है( मरता है); किन्तु आने और जाने के बीच जितना भी जीवनमिला है- उसे तो गौरवपूर्ण बनाया जा सकता है। 
यदि इस जीवन को गौरवमय बनाना हो, तो हमे जीवन की  ऊँच्चतर अवधारणा तथा अनुभूतियों को अर्जित करने के लिए गंभीर प्रयत्न करना होगा। यहाँ ' इच्छा ' का तात्पर्य ' स्वार्थपूर्ण- इच्छा ' से है। यह वह ' इच्छाशक्ति ' है जो हमारे क्षुद्र (छोटा) " अहं " जिसे हम ' मैं ' के नाम से पुकारते हैं, उसी क्षुद्र अहं कि दिशा में निदेशित रहती है। जबतक हमलोग आत्मकेन्द्रित (self-centered) बने रहते हैं, तब तक ये स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ (Selfish desires) ही हमारे प्रायः प्रत्येक कर्मों की प्रधानसंचालक होतीं हैं।हमलोग अपने-आपको(या स्व को) सर्वाधिक प्रेम किए बिना रह ही नहीं सकते। 

किन्तु हमारे इस "स्व "  की स्पष्ट अवधारणा ही हमारे जीवन को विशिष्टता प्रदान करती है, तथा इसे अन्य प्रकार के जीवन से भिन्न बना देती है। हमारा यह क्षुद्र अहं - छोटा ' मैं ', आत्मा के वृहत संकल्पना में जितना अधिक विलीन होता जाता है, और हमलोग जितना अधिक यह अनुभव करने में समर्थ हो जाते हैं कि एक ही आत्मा सबों में निवास करती है, उतनी हीअधिक हमारी इच्छा-शक्ति स्वाभाविक रूप से सबों का कल्याण करने कि दिशा में मुड़ जाती है।( या स्व की  'विपरीत दिशा' 'पर' कल्याण की  दिशा में मुड़ जाती है) जितना अधिक हम इस विलोम मार्ग (स्व से पर की दिशा) में अर्थात अपने से ज्यादा दूसरों के कल्याण को महत्व देने में अग्रसर होने लगते हैं, उतना ही अधिक हम इस क्षुद्र अहं या छोटा 'मैं' से दूर हटते जाते हैं।

ह्रदय का यह विस्तार ही जीवन का (जीवित होने का) सच्चा चिह्न है। इसी बात को एक समीकरण के रूप में स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " ह्रदय का प्रस्फुटन(विस्तार) और प्रेम के बिना जीवन क्या है ?" यथार्थ मनुष्य को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं- " मनुष्य एक असीम वृत्त है,जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है,लेकिन जिसका केन्द्र एक स्थान में निश्चित है। " इसीलिए उसके अस्तित्व का वृत्त, सबों को अपने घेरे में समेट लेता है, किन्तु तब भी एक ' निश्चित स्थान ' में वह अपना एक पृथक व्यक्तित्व बनाय रखता है। ईश्वर को परिभाषित करते हुए आगे कहते हैं- " परमेश्वर एक ऐसा असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, लेकिन जिसका केन्द्र सर्वत्र है।" जब वह स्वयं को प्रत्येक ' केन्द्र-बिन्दु ' के साथ, प्रत्येक प्राणी के साथ अभिन्न देख सकता है तो, वह ईश्वर है।

इस प्रकार से देखा जाय तो दृश्य-पटल के निचले छोर पर एक ' पशु-मानव ' है, जो स्वयं को केवल साढेतीन हाँथ का छोटा सा शरीर-मन का एक संघात (Small body-mind complex) समझता है, और अपना सारा जीवन केवल स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के पीछे दौड़ते रहने में खर्च कर देता है। और अन्त में इतना अधिक जीर्ण (खोखला) हो जाता है कि, उसे अपना ही जीवन मानो एक भयंकर दुःस्वप्न जैसा प्रतीत होने लगता है। उपरी छोर पर एक ऐसा ' देव-मानव ' है, जो पूरी तरह से स्वार्थशून्य है और स्वयं को ही सभी प्राणियों में देखता है, या दूसरों के साथ स्वयं को अभिन्न अनुभव करता है। दोनों छोरों के मध्य में निःस्वार्थपरता के विभिन्न सोपानों तक उन्नत हुआ ' मनुष्य ' है। 
मनुष्य बनने के लिए काम (स्वार्थपूर्ण इच्छाओं) पर नियंत्रण की आवश्यकता है।यह नियंत्रण धर्म के अंकुश से साधित होता है। " धर्म वह वस्तु है, जो ' नरपशु ' को मनुष्य में, और मनुष्य को ' नरदेव ' में उन्नत कर देता है।" प्रारंभिक अवस्था में हमलोग ' यथार्थ मनुष्यत्व ' प्राप्त करने की दिशा में अवश्य अग्रसर हो सकते हैं।स्वार्थपूर्ण इच्छाओं की अत्यधिक प्रचूरता हमलोगों को मनुष्यत्व से दूर हटा देती है। वे हमे अपने यथार्थ स्वरूप को भूल जाने के लिए बाध्य कर देती हैं । (इसी कभी न तृप्त होने वाली काम रूपी अग्नि के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका रहता है)। वे हमारे चित्त को गन्दला कर देतीं हैं, मन को अपवित्र बना देतीं हैं।
 चित्त को शुद्ध करने, या मन को पवित्र रखने के लिए महर्षि पतंजलि ने जिन चार अभ्यासों को (समाधी पाद- ३३) में बताया था, बाद में स्वामी विवेकानन्द ने ही उनके ऊपर सर्वप्रथम भाष्य लिखा था। वे चार 
अभ्यास इस प्रकार हैं: मैत्री (friendship to all) , करुणा(compassion for the distressed), मुदिता (happiness with strength-giving things), और उपेक्षा (indifference to weakening things)।
स्वामी विवेकानन्द इसकी व्याख्या करते हुए (वि० सा० ख० १:१३७) में कहते हैं-" यह आवश्यक है कि हम सबके प्रति मैत्री-भाव रखें, दीन-दुखियों के प्रति दयावान हों, लोगों को सत्कर्म करते देख कर सुखी हों, और दुष्ट मनुष्य के प्रति उपेक्षा दिखायें।इसी प्रकार जो भी (इन्द्रिय)विषय हमारे सामने आते हैं, उन सबके प्रति भी हमारे में यही भाव रहने चाहिए। यदि कोई विषय हितकर हो, तो उसके प्रति मित्रता अर्थात अनुकूल भाव धारण करना चाहिए।इसी तरह, यदि हमारी भावना का विषय दुःखकर हो, तो हमारे अन्तः करण को उसके प्रति करुणापूर्ण होना चाहिए। यदि वह कोई शक्ति-प्रद विषय हो, तो हमें आनन्दित होना चाहिए, तथा जिन विषयों का उपभोग हमें दुर्बल बना देता हो, उसके प्रति उदासीन रहना ही श्रेयस्कर है।"

भगवान बुद्ध ने भी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को त्याग कर मन को पवित्र बनाने का जो उपदेश ' पाली ' भाषा में दिया है उसे ' Metta Sutta ' या " मेत्ता-सुत्त " के नाम से जाना जाता है। उसके कुछ अंशों का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है : " जिस प्रकार एक 'माँ ' अपना जीवन जोखिम में डालकर भी, अपनी सन्तान, अपनी एकलौती सन्तान कि रक्षा करती है ! उसी प्रकार अपने ह्रदय का असीम विस्तार कर, सभी जीवों की रक्षा अपनी आँखों की पुतली के सामान करनी चाहिए। इसी सार्वभौमिक प्रेम जन्य दयाशीलता की भावना को,सम्पूर्ण विश्व में विकीर्ण करो ! इसे ऊपर की ओर असीम आसमान तक,और नीचे की ओर अतल गहराई तक ; और आगे, तथा असीम तक......."
बुद्ध देव आगे कहते हैं- ' the pure-hearted one having clarity of vision ' will be ' freed from all sense desires '। अर्थात जिनकी दृष्टि ' ज्ञानमयी ' हो चुकी है, और ह्रदय पवित्र हो चुका है, वे समस्त प्रकार की इन्द्रिय-कामनाओं (स्वार्थपूर्ण इच्छाओं ) से मुक्त हो जायेंगे।" हमलोगों को मनुष्यत्व प्राप्त करने की दिशा में कम से कम पहला कदम उठाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द के समकालीन अनेक लोग उन्हें बुद्ध देव के समतुल्य मानते थे, उनकी वाणी का स्मरण करें-
" यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। बाकि लोग तो मृत से भी ज्यादा अधम हैं."(२:३७१)

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