मेरे बारे में

गुरुवार, 7 मार्च 2024

🔱🙏*परिच्छेद 127~ज्ञान-विज्ञान विचार :पहले संसार वृक्ष या पहले ईश्वर ? 🔱🙏अहंकार से मुक्त होने पर ही आत्मज्ञान होगा 🔱🙏 Enlightenment will come only when one is free from ego. 🔱🙏जीवन का उद्देश्य क्या है - मानप्रतिष्ठा या ईश्वरप्राप्ति ? 🔱🙏ब्रह्मदर्शन का ज्ञान-विज्ञान :एक ही ईश्वर सर्वभूतों में हैं >There is only one God in all existences! 🔱🙏 [पहले अन्तर्यामी अगमजानि प्रभु श्रीरामकृष्ण की शरणागति] 🔱🙏 [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]🔱🙏(रोग क्यों हुआ ? नरेन्द्र को संन्यास का उपदेश) 🙏तीव्र वैराग्य हो तो Dizonic रिश्तेदार नाग जैसे प्रतीत होंगे🙏 (सुख-भोग के लिए दूसरों की खुशामद करने की नौकरि करने वाले कंजूस होते हैं ) 🙏षड्भुजा मूर्ति # (षड्भुजा गौरांग: श्री चैतन्य महाप्रभु का 6 भुजाओं वाला रूप।) 🙏🔱स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण🔱🙏🔱🙏गृहस्थ तथा निष्काम कर्म । थियॉसफी (ब्रह्मविद्या) ।🔱🙏🔱🙏ठाकुर की पूजा क्यों होनी चाहिए ?🔱🙏🔱🙏ह्रदय कपाट खोल दो !🔱🙏🔱🙏सद्गुरु जीव के पापों को ग्रहण करते हैं - अवतार और नरेंद्र🔱🙏

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

(१)

🔱🙏श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र 🔱🙏 

(रोग क्यों हुआ ? नरेन्द्र को संन्यास का उपदेश) 

অসুখ কেন? নরেন্দ্রের প্রতি সন্ন্যাসের উপদেশ

Why the disease? Ascetic advice to Narendra

नरेन्द्र आदि भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुरवाले मकान में बैठे हुए हैं । दिन के दस बजे का समय होगा - 27 अक्टूबर 1885, मंगलवार, आश्विन कृष्ण चतुर्थी । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र तथा मणि आदि से बातचीत कर रहे हैं ।

Sri Ramakrishna was seated in his room. Narendra and other devotees were with him. The Master was conversing with them. It was about ten o'clock in the morning.

ঠাকুর শ্যামপুকুরের বাটীতে নরেন্দ্র প্রভৃতি ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। বেলা দশটা। আজ ২৭থে অক্টোবর, ১৮৮৫, মঙ্গলবার, আশ্বিন কৃষ্ণা চতুর্থী, ১২ই কার্তিক। ঠাকুর নরেন্দ্র, মণি প্রভৃতির সহিত কথা কহিতেছেন।

नरेन्द्र - डाक्टर कल कैसी कैसी बातें कर गया !

NARENDRA: "How strangely the doctor behaved yesterday!"

নরেন্দ্র — ডাক্তার কাল কি করে গেল।

एक भक्त - मछली काँटे में पड़ गयी थी, पर डोर तोड़कर निकल गयी ।

A DEVOTEE: "Yes, the fish swallowed the hook but the line broke.'

একজন ভক্ত — সুতোয় মাছ গিঁথেছিল, ছিঁড়ে গেল।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं, तोड़ते समय काँटा उसके मुँह में रह गया । इसलिए वह लापता नहीं हो सकती; देखो मरकर, अभी उतरायेगी

MASTER (smiling): "But the hook is in its mouth. It will die and float on the water."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — বঁড়শি বেঁধা আছে — মরে ভেসে উঠবে।

नरेन्द्र जरा बाहर गये, फिर आयेंगे । श्रीरामकृष्ण मणि के साथ पूर्ण के सम्बन्ध में बातचीत कर रहे हैं ।

Narendra went out for a few minutes. Sri Ramakrishna was talking to M. about Purna.

নরেন্দ্র একটু বাহিরে গেলেন, আবার আসিবেন। ঠাকুর মণির সহিত পূর্ণ সম্বন্ধে কথা কহিতেছেন —

श्रीरामकृष्ण - भक्त स्वयं को प्रकृति तथा भगवान को पुरुष मानकर उसे गले लगाने तथा चुम्बन करने की इच्छा करता है । पर यह तुम्हीं से कह रहा हूँ, सामान्य जीवों के सुनने की यह बात नहीं।

MASTER: "The devotee looking on himself as Prakriti likes to embrace and kiss God, whom he regards as the Purusha. I am telling this just to you. Ordinary people should not hear these things."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমায় বলছি — এ-সব জীবের শুনতে নাই — প্রকৃতিভাবে পুরুষকে (ঈশ্বরকে) আলিঙ্গন, চুম্বন করতে ইচ্ছা হয়।

मणि - ईश्वर अनेक तरह से लीलाएँ करते हैं - आपका रोग भी लीला ही है । इस रोग के होने के कारण यहाँ नये नये भक्त आ रहे हैं

M: "God sports in various ways. Even this illness of yours is one of His sports. Because you are ill new devotees are coming to you."

মণি — নানারকম খেলা — আপনার রোগ পর্যন্ত খেলার মধ্যে। এই রোগ হয়েছে বলে এখানে নূতন নূতন ভক্ত আসছে।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - भूपति कहता है, 'अगर आपको रोग न होता और किराये से मकान लेकर सिर्फ यहाँ रहते होते तो लोग क्या कहते ?' - अच्छा, डाक्टर की क्या से खबर है ?

MASTER (smiling): "Bhupati says, 'What would people have thought of you if you had just rented a house to live in, without being ill?' Well, what has happened to the doctor?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ভূপতি বলে, রোগ না হলে শুধু বাড়িভাড়া করলে লোকে কি বলত — আচ্ছা, ডাক্তারের কি হল?

मणि- इधर दास्य-भाव मानता भी है - 'तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ', उधर यह भी कहता है कि आदमी के लिए ईश्वर की उपमा क्यों ले आते हो ?

M: "As regards God he accepts for himself the attitude of a servant. He says, Thou art the Master and I am Thy servant.' But then he asks me, Why do you apply the idea of God to a man?'"

মণি — এদিকে দাস্য মানা আছে — ‘আমি দাস, তুমি প্রভু।’ আবার বলে — মানুষ-উপমা আনো কেন!

श्रीरामकृष्ण - खैर, क्या आज भी तुम उसके पास जा सकोगे ?

MASTER: "Just see! Are you going to him today?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখলে! আজ কি আর তুমি তার কাছে যাবে?

मणि - खबर देने की अगर आवश्कयता होगी तो जाऊँगा ।

M: "I shall see him if it is necessary to report your condition.'

মণি — খপর দিতে যদি হয়, তবে যাব।

श्रीरामकृष्ण - भला बंकिम कैसा लड़का है ? यहाँ अगर वह न आ सके तो तुम्हीं उसे कुछ बता देना । उससे उसका आध्यात्मिक ज्ञान जागृत होगा

MASTER: "How do you find this boy Bankim? If he cannot come here you may give him instruction. That will awaken his spiritual consciousness."

শ্রীরামকৃষ্ণ — বঙ্কিম ছেলেটি কেমন? এখানে যদি আসতে না পারে, তুমি না হয় তারে সব বলবে। — চৈতন্য হবে

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏पहले संसार वृक्ष या पहले ईश्वर ? 🔱🙏

[पहले अन्तर्यामी अगमजानि प्रभु श्रीरामकृष्ण की शरणागति] 

'यदृच्छालाभ' (जो कुछ मिल जाए' : whatever one gets)

[আগে সংসারের গোছগাছ, না ঈশ্বর? কেশব ও নরেন্দ্রকে ইঙ্গিত ]

नरेन्द्र पास आकर बैठे । नरेन्द्र के पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण नरेन्द्र बड़ी चिन्ता में पड़ गये हैं । माँ और छोटे भाई हैं, उनके भरण-पोषण की चिन्ता रहती है । नरेन्द्र कानून की परीक्षा के लिए तैयारी कर रहे हैं ।

Narendra entered the room and sat near Sri Ramakrishna. Since the death of his father he had been very much worried about the family's financial condition. He now had to support his mother and brothers. Besides, he was preparing himself for his law examination.

নরেন্দ্র আসিয়া কাছে বসিলেন। নরেন্দ্রের পিতার পরলোকপ্রাপ্তি হওয়াতে বড়ই ব্যতিব্যস্ত হইয়াছেন। মা ও ভাই এরা আছেন, তাহাদের ভরণপোষণ করিতে হইবে। নরেন্দ্র আইন পরীক্ষার জন্য প্রস্তুত হইতেছেন।

इधर कुछ दिन विद्यासागर के बहूबाजार वाले स्कूल में अध्यापक रह चुके हैं । घर का कोई प्रबन्ध करके निश्चिन्त होने की चेष्टा में लगे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण को सब कुछ मालूम है । वे नरेन्द्र की ओर स्नेह की दृष्टि से देख रहे हैं

 Lately he had served as a teacher in the Vidyasagar School at Bowbazar. He wanted to make some arrangement for his family and thus get rid of all his worries. Sri Ramakrishna knew all this. He looked affectionately at Narendra.

 মধ্যে বিদ্যাসাগরের বউবাজারের স্কুলে কয়েক মাস শিক্ষকতা করিয়াছিলেন। বাটীর একটা ব্যবস্থা করিয়া দিয়া নিশ্চিন্ত হইবেন — এই চেষ্টা কেবল করিতেছেন।ঠাকুর সমস্তই অবগত আছেন — নরেন্দ্রকে একদৃষ্টে সস্নেহে দেখিতেছেন

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - अच्छा, केशव सेन से मैंने कहा, 'यदृच्छालाभ' (जो कुछ मिल जाय)। जो बड़े घराने का लड़का (पहले फल बाद में फूल परम्परा में चुना गया युवा ?)  है, उसे भोजन की चिन्ता नहीं रहती - वह हर महीना जेब-खर्च पाता ही रहता है; परन्तु नरेन्द्र इतने ऊँचे घराने का है, उसके लिए कोई व्यवस्था क्यों नहीं हो जाती ? ईश्वर को मन दे देने पर (=अन्तर्यामी अवतार वरिष्ठ का दास अहं बन जाने पर ?)  'वे ' सब व्यवस्था कर देते हैं

MASTER (to M.): "Well, I said to Keshab, 'One should be satisfied with what comes unsought.' The son of an aristocrat does not worry about his food and drink. He gets his monthly allowance. Narendra, too, belongs to a high plane. Then why is he in such straitened circumstances? God certainly provides everything for the man who totally surrenders himself  to Him." 

[अन्तर्यामी अगमजानि प्रभु  > सब के मन में रहने और सब के मन की बात जानने वाला (ईश्वर, सच्चिदानंद, सिद्ध पुरुष , सदगुरु आदि के लिए प्रयुक्त)। धर्मग्रंथों द्वारा मान्य वह सर्वोच्च सत्ता जिसे सृष्टि का स्वामी माना जाता है। उदाहरण : ईश्वर अंतर्यामी हैं।  ईश्वर सर्वव्यापी है। ईश्वर हम सबके रक्षक हैं। भीतर की बात जाननेवाला । हृदय की बात का ज्ञान रखने वाला । अन्तः-करण  में स्थित होकर प्रेरणा करनेवाला । चित्त पर अधिकार रखनेवाला, उभयतोवहिनी चित्तनदी के प्रवाह को वैराग्य का फाटक लगाकर , विवेकोन्मुख करने में समर्थ स्वामी विवेकानन्द ! या श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द Be and Make शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित और माँ काली से चपरास प्राप्त  सद्गुरु, जीवनमुक्त शिक्षक, नेता , पैगम्बर : उदाहरण 'C-in-C नवनीदा')  भीतर तक पैठनेवाला । भीतर तक पहुँच रखनेवाला । सद्गुरु - ईश्वर -सच्चिदानंद> जगतपिता -जगन्माता - त्रिकालदर्शी - जगन्नियंता - आदिपुरुष - स्वयंभू - सर्वेश्वर - ब्रह्म -परब्रह्म-परमेश्वर-महाप्रभु -जगदीश्वर -मायापति-प्रभु-भगवान्- मायापति- अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव !का  प्रभु- मैं गुलाम तेरा ! व्यष्टि मैं को दास अहं में रूपांतरित कर लेने पर वे सब व्यवस्था कर देते हैं ! By converting the individual 'I' into a slave ego, He (thakur dev -माँ काली make all the arrangements. 5 फरवरी 2024 से रेगुलर रूटीन का पालन -morning योग। )

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারকে) — আচ্ছা, কেশব সেনকে বললাম, — যদৃচ্ছালাভ। যে বড় ঘরের ছেলে, তার খাবার জন্য ভাবনা হয় না — সে মাসে মাসে মুসোহারা পায়। তবে নরেন্দ্রের অত উঁচু ঘর, তবু হয় না কেন? ভগবানে মন সব সমর্পণ করলে তিনি তো সব জোগাড় করে দিবেন!

मास्टर - जी हाँ, कर देंगे । अभी सब समय बीता भी तो नहीं ।

M: "Narendra, too, will be provided for. It is not yet too late for him."

মাস্টার — আজ্ঞা হবে; এখনও তো সব সময় যায় নাই।

श्रीरामकृष्ण - परन्तु तीव्र वैराग्य होने पर यह सब हिसाब नहीं रहता । ‘घर का कुल प्रबन्ध करके तब साधना करूँगा’ - तीव्र वैराग्य के होने पर इस तरह की बात पर ध्यान नहीं जाता । (सहास्य) गोसाईं ने लेक्चर दिया था । उसने कहा, ‘दस हजार रुपये हों तो इतने से भोजन-वस्त्र का प्रबन्ध आनन्द से हो सकता है और तब निश्चिन्त होकर ईश्वर का चिन्तन किया जा सकता है ।’

[दादा ने कहा था 10 लाख का F. D. करवाकर संन्यास लेने वाला -इंजीनियर/प्रोफेसर  ढोंगी साधु  ही होगा !] 

MASTER: "But a man who feels intense dispassion or renunciation within doesn't calculate that way. He doesn't say to himself, 'I shall first make an arrangement for the family and then practise sadhana.' No, he doesn't feel that way if he has developed intense dispassion. A goswami (ओड़िया PANDA ?)  said in the course of his preaching, 'If a man has ten thousand rupees he can maintain himself on the income; then, free from worries, he can pray to God.'

শ্রীরামকৃষ্ণ — কিন্তু তীব্র বৈরাগ্য হলে ও-সব হিসাব থাকে না। ‘বাড়ির সব বন্দোবস্ত করে দিব, তারপরে সাধনা করব’ — তীব্র বৈরাগ্য হলে এরূপ মনে হয় না। (সহাস্যে) গোঁসাই লেকচার দিয়েছিল। তা বলে, দশ হাজার টাকা হলে ওই থেকে খাওয়া-দাওয়া এই সব হয় — তখন নিশ্চিন্ত হয়ে ঈশ্বরকে বেশ ডাকা যেতে পারে

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🙏तीव्र वैराग्य हो तो  Dizonic रिश्तेदार  नाग जैसे प्रतीत होंगे🙏  

(अन्तर्यामी  श्री रामकृष्ण देव ): “केशव सेन ने भी ऐसा ही इशारा किया था । उसने पूछा था – ‘महाराज, कोई कुछ पूँजी जोड़कर अगर ईश्वर की उपासना करे तो क्या वह कर सकता है या नहीं ? और इससे क्या किसी तरह का पाप-स्पर्श हो सकता है ?’

"Keshab Sen also said something like that. He said to me: 'Sir, suppose a man wants, first of all, to make a suitable arrangement of his property and estate and then think of God; will it be all right for him to do so? Is there anything wrong about it?'

“কেশব সেনও ওই ইঙ্গিত করেছিল। বলেছিল, — ‘মহাশয়, যদি কেউ বিষয়-আশয় ঠিকঠাক করে, ঈশ্বরচিন্তা করে — তা পারে কিনা? তার তাতে কিছু দোষ হতে পারে কি?’

"मैंने कहा, तीव्र वैराग्य होने पर संसार कुआँ और आत्मीय साँप की तरह जान पड़ते हैं । तब 'रुपये इकट्ठा करूँगा', ‘विषय संचय करूँगा’ यह हिसाब नहीं रह जाता । ईश्वर ही वस्तु है और सब अवस्तु । ईश्वर को छोड़कर विषय को चिन्ता !

 I said to him: 'When a man feels utter dispassion, he looks on the world as a deep well and' his relatives as venomous cobras. Then he cannot think of saving money or making arrangements about his property.' God alone is real and all else illusory. To think of the world instead of God!

“আমি বললাম, তীব্র বৈরাগ্য হলে সংসার পাতকুয়া, আত্মীয় কাল সাপের মতো, বোধ হয়। তখন, ‘টাকা জমাব’, ‘বিষয় ঠিকঠাক করব’, এ-সব হিসাব আসে না। ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু — ঈশ্বরকে ছেড়ে বিষয়চিন্তা!

“एक स्त्री के ऊपर कोई बड़ा शोक आ पड़ा । पहले उसने अपनी नथ नाक से उतारकर सावधानी से कपड़े में लपेटकर बाँध ली, और फिर लगी रोने 'अरी मेरी मैया - मुझे यह क्या हुआ ?' - और यह कहकर पछाड़ खाकर गिर पड़ी, - परन्तु वह भी सावधानी से कि कहीं बँधी हुई नथ टूट न जाय !" सब हँस रहे हैं ।

"A woman was stricken with intense grief. She first tied her nose-ring in the corner of her cloth and then dropped to the ground, saying, 'Oh, friends, what a calamity has befallen me!' But she was very careful not to break the nose-ring." All laughed.

“একটা মেয়ের ভারী শোক হয়েছিল। আগে নৎটা কাপড়ের আঁচলে বাঁধলে, — তারপর, ‘ওগো! আমার কি হল গো।’ বলে আছড়ে পড়লো কিন্তু খুব সাবধান, নৎটা না ভেঙে যায়।”সকলে হাসিতেছেন।

 नरेन्द्र पर ये बातें तीर की तरह चोट करने लगीं - वे एक और लेट रहे । उनके मन की अवस्था समझकर मास्टर ने हँसकर कहा, ‘लेट क्यों रहे हो ?’

All laughed. At these words Narendra felt as if struck by an arrow, and lay down on the floor. M. understood what was going through Narendra's mind and said with a smile: "What's the matter? Why are you lying down?"

নরেন্দ্র এই সকল কথা শুনিয়া বাণবিদ্ধের ন্যায় একটু কাত হইয়া শুইয়া পড়িলেন। তাঁর মনের অবস্থা বুঝিয়া —মাস্টার (নরেন্দ্রের প্রতি, সহাস্যে) — শুয়ে পড়লে যে!

श्रीरामकृष्ण – (मास्टर से, सहास्य) - यहाँ मुझे उस स्त्री की याद आती है जो अपने बहनोई के साथ रहने में लाज के कारण मरी जाती थी । उसे यह समझ में ही नहीं आता था कि जब उसे इतनी शरम है तो अन्य स्त्रियों को, जो पर-पुरुषों के साथ रहती हैं, कैसे शरम नहीं लगती । वह कहती थी, ‘आखिर बहनोई तो अपने ही घर का आदमी है, परन्तु फिर भी तो मैं शरम से मरी जाती हूँ । - और इन औरतों की हिम्मत कैसे पड़ती है कि ये दूसरे आदमियों के साथ रहें !’

The Master said to M., with a smile: "You remind me of a woman who felt ashamed of herself for sleeping with her brother-in-law and couldn't understand the conduct of those women who lived as mistresses of strangers. By way of excusing herself she said: 'After all, a brother-in-law is one's own. But even that kills me with shame. And how do these women dare to live with strangers?'"

“একটা মেয়ের ভারী শোক হয়েছিল। আগে নৎটা কাপড়ের আঁচলে বাঁধলে, — তারপর, ‘ওগো! আমার কি হল গো।’ বলে আছড়ে পড়লো কিন্তু খুব সাবধান, নৎটা না ভেঙে যায়।”

मास्टर खुद संसार में हैं, उसके लिए उन्हें लज्जित होना चाहिए । वैसा न होकर वे नरेन्द्र पर हँस रहे हैं । अपना दोष कोई नहीं देखता, दूसरों के दोष देखने के लिए सब दौड़ पड़ते हैं, यही बात श्रीरामकृष्ण के वाक्य से सूचित हो रही है । इसीलिए उन्होंने उस स्त्री की बात चलायी जिसने दूसरी स्त्रियों के तो दोष देखे थे, यद्यपि वह स्वयं अपने बहनोई के साथ रहकर चरित्रभ्रष्ट हो गयी थी

M. himself had been leading a worldly life. Instead of being ashamed of his own conduct, he smiled at Narendra. That was why Sri Ramakrishna referred to the woman who criticized the conduct of immoral women, though she herself had illicit love for her brother-in-law.

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি, সহাস্যে) — “আমি তো আপনার ভাশুরকে নিয়ে আছি তাইতেই লজ্জায় মরি, এরা সব (অন্য মাগীরা) পরপুরুষ নিয়ে কি করে থাকে?”

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏मुक्त हाथ से दान कौन कर सकता है? 🔱🙏

Who can donate with free hand?

(सुख-भोग के लिए दूसरों की खुशामद करने की नौकरि करने वाले कंजूस होते हैं ) 

[মুক্তহস্ত কে? চাকরি ও খোশামোদের টাকায় বেশি মায়া ]

नीचे एक वैष्णव गा रहा था । गाना सुनकर श्रीरामकृष्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने वैष्णव को कुछ पैसे देने के लिए कहा । एक भक्त नीचे गया । बाद में श्रीरामकृष्ण ने पूछा, 'कितने पैसे दिये ?' उन्हें जब मालूम हुआ कि उस भक्त ने सिर्फ दो ही पैसे दिये तो वे बोले, “दो ही पैसे ? हाँ, ठीक है । बड़ी मेहनत के रुपये हैं - मालिक की कितनी खुशामद करके उसने कमाया होगा ! - अरे, मैंने सोचा था, कम से कम चार आने तो देगा !

A Vaishnava minstrel was singing downstairs. Sri Ramakrishna was pleased with his song and said that someone should give him a little money. A devotee went downstairs. The Master asked, "How much did he give the singer?" When he was told that the devotee had given only two paise , he said: "Just that much? This money is the fruit of his servitude. How much he had to flatter his master and suffer to earn it! I thought he would give at least four annas."

মাস্টার নিজে সংসারে আছেন, লজ্জিত হওয়া উচিত। নিজের দোষ, কেহ দেখে না — অপরের দেখে। ঠাকুর এই কথা বলিতেছেন। একজন স্ত্রীলোক ভাশুরের সঙ্গে নষ্ট হইয়াছিল। সে নিজের দোষ কম, অন্য নষ্ট স্ত্রী লোকদের দোষ বেশি, মনে করিতেছে। বলে, ‘ভাশুর তো আপনার লোক, তাইতেই লজ্জায় মরি।’

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏बिजली के उपकरण और श्री रामकृष्ण🔱🙏

[Electrical appliances and  Sri Ramakrishna]  

[बिजली - षट्कोण और बागची, षट्कोण और रामचन्द्र के आलेख्य दर्शन का चित्रण - प्रस्तावना - दक्षिणेश्वर में लंबे समय तक रहने वाले संन्यासी]

[Electricity — তাড়িতযন্ত্র ও বাগচী চিত্রিত ষড়্‌ভুজ ও রামচন্দ্রের আলেখ্য দর্শন — পূর্বকথা — দক্ষিণেশ্বরে দীর্ঘকেশ সন্ন্যাসী ]

छोटे नरेन्द्र ने श्रीरामकृष्ण से कहा था, "मैं यन्त्र लाकर आपको दिखलाऊँगा, विद्युत्-प्रवाह कैसा होता है ।" आज वह यन्त्र लाकर उन्होंने दिखाया ।

The younger Naren had promised to show Sri Ramakrishna the nature of electricity with an instrument. The instrument was exhibited.

ছোট নরেন ঠাকুরকে যন্ত্র আনিয়া তাড়িতের প্রকৃতি দেখাইবেন বলিয়াছিলেন। আজ আনিয়া দেখাইলেন।

दिन के दो बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । अतुल एक मित्र मुनसिफ को ले आये हैं । शिकदारपारा के प्रसिद्ध चित्रकार बागची आये हुए हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को कई चित्र भेंट किये । श्रीरामकृष्ण आनन्दपूर्वक चित्र देख रहे हैं । 

It was about two o'clock. Sri Ramakrishna and the devotees were sitting in the room. Atul brought with him a friend who was a munsiff. Bagchi, the famous painter from Shikdarpara, arrived. He presented the Master with several paintings. Sri Ramakrishna examined the pictures with great delight.

বেলা দুইটা — ঠাকুর ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। অতুল একটি বন্ধু মুনসেফকে আনিয়াছেন। শিকদারপাড়ার প্রসিদ্ধ চিত্রকর বাগচী আসিয়াছেন। কয়েকখানি চিত্র ঠাকুরকে উপহার দিলেন। ঠাকুর আনন্দের সহিত পট দেখিতেছেন। ষড়্‌ভুজ মূর্তি দর্শন করিয়া ভক্তদের বলিতেছেন — “দেখো, কেমন হয়েছে!

षड्भुजा मूर्ति # (षड्भुजा गौरांग: श्री चैतन्य महाप्रभु का 6 भुजाओं वाला रूप।) देखकर भक्तों से कह रहे हैं – ‘देखो, देखो, कैसा है यह चित्र !’ भक्तों ने फिर से देखने के लिए अहल्या-पाषाणी का चित्र ले आने के लिए कहा चित्र में श्रीरामचन्द्र को देखकर सब लोग प्रसन्न हो रहे हैं

ভক্তদের আবার দেখাইবার জন্য ‘অহল্যা পাষাণীর পট’ আনিতে বলিলেন। পটে শ্রীরামচন্দ্রকে দেখিয়া আনন্দ করিতেছেন।

श्रीयुत बागची के केश स्त्रियों की तरह लम्बे हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "बहुत दिन हो गये, दक्षिणेश्वर में एक संन्यासी को मैंने देखा था । उसके बाल नौ हाथ लम्बे थे । संन्यासी 'राधे-राधे' जपता था, कोई ढोंग उसमें न था ।"

Bagchi had long hair like a woman's. Sri Ramakrishna said: "Many days ago a sannyasi came to Dakshineswar who had hair nine cubits long. He used to chant the name of Radha. He was genuine."

শ্রীযুক্ত বাগচীর মেয়েদের মতো লম্বা চুল। ঠাকুর বলিতেছেন, “অনেককাল হল দক্ষিণেশ্বরে একটি সন্ন্যাসী দেখেছিলাম। ন হাত লম্বা চুল। সন্ন্যাসীটি ‘রাধে রাধে’ করত। ঢঙ নাই।”

कुछ देर बाद नरेन्द्र गाने लगे । गाने वैराग्य के भावों से ओत-प्रोत हैं । श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से तीव्र वैराग्य और संन्यास की बातें सुनकर नरेन्द्र को मानो उद्दीपन हो गया है । नरेन्द्र गा रहे हैं –

(1) जाबे कि हे दिन आमार बिफले चलिए। .... क्या मेरे दिन विफल ही बीत जायेंगे ? 

(2)अन्तरे जागीछो उमा अन्तर्यामिनी। --हे अन्तर्यामिनी माँ , तू अन्तर में सदा ही जाग रही है।  

(3) कि सुख जीवने मम ओहे नाथ दयामय हे ,यदि चरण -सरोजे परान -मधुप , चिर मगन ना रय हे ! .... हे दयामय , हे नाथ , यदि तुम्हारे चरण-सरोजों में मेरा मन-मधुप चिरकाल के लिए मग्न न हो सका , तो मेरे जीवन में सुख ही क्या है ? .......   

A few minutes later Narendra began to sing. The songs were full of the spirit of renunciation. He sang: "O Lord, must all my days pass by so utterly in vain? Down the path of hope I gaze with longing, day and night. . . ."

কিয়ৎক্ষণ পরে নরেন্দ্র গান গাইতেছেন। গানগুলি বৈরাগ্যপূর্ণ। ঠাকুরের মুখে তীব্র বৈরাগ্যের কথা ও সন্ন্যাসের উপদেশ শুনিয়া কি নরেন্দ্রের উদ্দীপন হইল? নরেন্দ্রের গান:

(১) যাবে কি হে দিন আমার বিফলে চলিয়ে।

(২) অন্তরে জাগিছ ওমা অন্তরযামিনী।

(৩) কি সুখ জীবনে মম ওহে নাথ দয়াময় হে,

      যদি চরণ-সরোজে পরাণ-মধুপ, চির মগন না রয় হে!


(२)

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏भजनानन्द में🔱🙏

साढ़े पाँच बजे का समय है । नरेन्द्र, श्याम बसु, गिरीश, डाक्टर दोकड़ी, छोटे नरेन्द्र, राखाल, मास्टर आदि बहुतसे भक्त उपस्थित हैं । डाक्टर सरकार ने आकर नाड़ी देखी और औषधि की व्यवस्था की ।

It was half past five in the afternoon when Dr. Sarkar came to the Master's room at Syampukur, felt his pulse, and prescribed the necessary medicine. Many devotees were present, including Narendra, Girish, Dr. Dukari, the younger Naren, Rakhal, M., Sarat, and Shyam Basu.

২৭শে অক্টোবর, ১৮৮৫, মঙ্গলবার, বেলা সাড়ে পাঁচটা। আজ নরেন্দ্র, ডাক্তার সরকার, শ্যাম বসু, গিরিশ, ডাক্তার দোকড়ি, ছোট নরেন্দ্র, রাখাল, মাস্টার ইত্যাদি অনেকে উপস্থিত। ডাক্তার আসিয়া হাত দেখিলেন ও ঔষধের ব্যবস্থা করিলেন।

पीड़ा-सम्बन्धी बातों के पश्चात्, श्रीरामकृष्ण के औषधि-सेवन के बाद डाक्टर सरकार ने कहा - 'अब आप श्यामबाबू से बातचीत कीजिये, मैं अब चलूँ ।' श्रीरामकृष्ण और एक भक्त बोल उठे, - 'गाना सुनियेगा ?’

Dr. Sarkar talked a little about the Master's illness and watched him take the first dose of medicine. Then Sri Ramakrishna began to talk to Shyam Basu. Dr. Sarkar started to leave, saying, "Now that you are talking to Shyam Basu, I shall say good-bye to you." The Master and a devotee asked the doctor if he would like to hear some songs.

পীড়াসম্বন্ধীয় কথার পর শ্রীরামকৃষ্ণের ঔষধ সেবনের পর ডাক্তার বলিলেন, ‘তবে শ্যামবাবুর সঙ্গে তুমি কথা কও, আমি আসি।’শ্রীরামকৃষ্ণ ও একজন ভক্ত বলিয়া উঠিলেন, ‘গান শুনবেন?”

डाक्टर सरकार - आप गाते गाते जो नाचने लगते हैं वह भाव दबाना होगा ।

DR. SARKAR (to the Master): "I should like it very much. But music makes you frisk about like a kid and cut all sorts of capers. You must suppress your emotion."

ডাক্তার — তুমি যে তিড়িং মিড়িং করে ওঠো। ভাব চেপে রাখতে হবে।

डाक्टर फिर बैठ गये । नरेन्द्र मधुर कण्ठ से गा रहे हैं । साथ ही तानपूरा और मृदंग बज रहे हैं ।

गाना - तुम्हारी रचना अपार चमत्कारों से भरी हुई है । यह विश्व-संसार शोभा का आगार हो रहा है ।....गाना – माँ ! घोर अन्धकार में तुम्हारी अरूपराशि चमक रही है ।...डाक्टर मास्टर से कह रहे हैं – ‘यह गाना उनके (श्रीरामकृष्ण के) लिए खतरनाक है ।’.

Dr. Sarkar took his seat once more, and Narendra began to sing in his sweet voice, to the accompaniment of the tanpura and mridanga:This universe, wondrous and infinite,O Lord; is Thy handiwork;And the whole world is a treasure-house Full of Thy beauty and grace. . . .Dr. Sarkar said to M., "This song is dangerous for him."

ডাক্তার আবার বসিলেন। তখন নরেন্দ্র মধুরকণ্ঠে গান করিতেছেন। তৎসঙ্গে তানপুরা ও মৃদঙ্গ ঘন ঘন বাজিতেছে। গাহিতেছেন:

(১)     চমৎকার অপার জগৎ রচনা তোমার,

শোভার আগার বিশ্ব সংসার।

অযুত তারকা চমকে রতন-কাঞ্চন-হার

কত চন্দ্র কত সূর্য নাহি অন্ত তার।

শোভে বসুন্ধরা ধনধান্যময়, হায় পূর্ণ তোমার ভাণ্ডার

হে মহেশ, অগণনলোক গায় ধন্য ধন্য এ গীতি অনিবার।

 ডাক্তার মাস্টারকে বলিলেন, “It is dangerous to him!”

श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से पूछा - 'ये क्या कह रहे हैं ?' मास्टर ने कहा, 'डाक्टर को भय हो रहा है कि कहीं आपको भाव-समाधि न हो जाय ।' कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण भावस्थ हो रहे हैं । डाक्टर के मुँह की ओर हेर हाथ जोड़कर कह रहे हैं – ‘नहीं, नहीं, क्यों भाव होगा ?’ परन्तु कहते ही कहते वे गम्भीर भावसमाधि में मग्न हो गये । शरीर निश्चल और नेत्र स्थिर हो गये ! काठ के पुतले की तरह निर्वाक् बैठे हुए हैं ! बाह्य जगत् का ज्ञान लेश मात्र नहीं है । मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, सब अन्तर्मुख हैं । अब ये पहलेवाले मनुष्य नहीं दीख पड़ते । नरेन्द्र मधुर कण्ठ से गा रहे हैं -

 Sri Ramakrishna asked M. what the doctor had said. M. replied, "The doctor is afraid that this song may throw your mind into samadhi."In the mean time the Master had partially lost consciousness of the outer world. Looking at the physician, he said with folded hands: "No, no. Why should I go into samadhi?"

Hardly had he spoken these words when he went into a deep ecstasy. His body became motionless, his eyes fixed, his tongue speechless. He sat there like a statue cut in stone, completely unconscious of the outer world. Turned inward were his mind, ego, and all the other organs of perception. He seemed an altogether different person.

এ-গান ঠাকুরের পক্ষে ভাল নয়, ভাব হইলে অনর্থ ঘটিতে পারে)।শ্রীরামকৃষ্ণ মাস্টারকে জিজ্ঞাসা করিলেন, “কি বলছে?” তিনি উত্তর করিলেন, “ডাক্তার ভয় করছেন, পাছে আপনার ভাবসমাধি হয়।” বলিতে বলিতে শ্রীরামকৃষ্ণ একটু ভাবস্থ হইয়াছেন; ডাক্তারের মুখপানে তাকাইয়া করজোড়ে বলিতেছেন, “না, না, কেন ভাব হবে?” কিন্তু বলিতে বলিতে তিনি গভীর ভাব-সমাধিতে মগ্ন হইলেন। শরীর স্পন্দহীন, নয়ন স্থির! অবাক্‌! কাষ্ঠপুত্তলিকার ন্যায় উপবিষ্ট! বাহ্যশূন্য! মন বুদ্ধি অহংকার চিত্ত সমস্তই অন্তর্মুখ। আর সে মানুষ নয়। নরেন্দ্রের মধুরকণ্ঠে মধুর গান চলিতেছে:

गाना - यह कैसी सुन्दर शोभा है ! तुम्हारा कैसा सुन्दर मुख देख रहा हूँ ! आज मेरे घर में हृदयनाथ आये हैं, प्रेम का फुहारा छूट रहा है ।.....

गाना - हे दयामय, हे नाथ, यदि तुम्हारे चरण-सरोजों में मेरा मन-मधुप चिरकाल के लिए मग्न न हुआ तो मेरे जीवन में सुख ही क्या है ?......इस गीत को सुनकर डाक्टर मुग्ध हो अश्रुपूर्ण लोचनों से बोल उठे, 'अहा अहा !' 

नरेन्द्र ने पुनः गाया –गाना - वह शुभ प्रभात कब आयेगा जब मेरे हृदय में उस प्रेम का संचार होगा, जब मेरी कामनाएँ पूर्ण हो जायेंगी, मैं मधुर हरिनाम करता रहूँगा और आँखों से प्रेमाश्रु-धारा बह चलेगी ? .....

(३)

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏ब्रह्मदर्शन का ज्ञान-विज्ञान :एक ही ईश्वर सर्वभूतों में हैं 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण को अब बाहरी संसार का ज्ञान हो गया है । गाना भी समाप्त हो गया । पण्डित, मूर्ख तथा आबाल-वृद्ध वनिता सभी के मन को मुग्ध करनेवाली उनकी बातचीत फिर होने लगी । सभी मनुष्य स्तब्ध हैं । सब लोग उस मुख की ओर एकटक देख रहे हैं । अब वह कठिन पीड़ा कहाँ है ? मुख अभी भी खिले हुए अरविन्द के समान प्रफुल्ल है - मुख से मानो ईश्वरी ज्योति निकल रही है

In the midst of the singing Sri Ramakrishna had regained consciousness of the outer world. When Narendra finished the song, the Master continued his conversation, keeping them all spellbound. The devotees looked at his face in wonder. It did not show the slightest trace of the agonizing pain of his illness. The face shone with heavenly joy.

ইতিমধ্যে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বাহ্যসংজ্ঞালাভ করিয়াছেন। গান সমাপ্ত হইল। তখন পণ্ডিত ও মূর্খের — বালক ও বৃদ্ধের — পুরুষ ও স্ত্রীর — আপামর সাধারণের — সেই মনোমুগ্ধকরী কথা হইতে লাগিল। সভাসুদ্ধ লোক নিস্তব্ধ। সকলেই সেই মুখপানে চাহিয়া রহিয়াছেন। এখন সেই কঠিন পীড়া কোথায়? মুখ এখনও যেন প্রফুল্ল অরবিন্দ, — যেন ঐশ্বরিক জ্যোতিঃ বহির্গত হইতেছে

श्रीरामकृष्ण डाक्टर से कहने लगे - "लज्जा छोड़ो, ईश्वर का नाम लोगे, इसमें लज्जा क्या है ? लज्जा, घृणा और भय, इन तीनों के रहते ईश्वर नहीं मिलते । ‘मैं इतना बड़ा आदमी, और ईश्वर नाम लेकर नाचूँ ? यह बात जब बड़े बड़े आदमी सुनेंगे, तब मुझे क्या कहेंगे ? अगर वे कहें, अजी, डाक्टर तो अब ईश्वर का नाम लेकर नाचने लगा, तो यह मेरे लिए बड़ी ही लज्जा की बात होगी ।' इन सब भावों को छोड़ो ।"

Addressing the doctor, the Master said: "Give up this false modesty. Why should you feel shy about singing the name of God? The proverb says very truly: 'One cannot realize God if one is a victim of shame, hatred, or fear.' Give up such foolish notions as: 'I am such a great man! Shall I dance crying the name of God? What will other great men think of me on hearing of this? They may say that the doctor, poor fellow, has been dancing uttering the name of Hari, and thus pity me.' Give up all these foolish notions."

তখন তিনি ডাক্তারকে সম্বোধন করিয়া বলিতেছেন, “লজ্জা ত্যাগ কর, ঈশ্বরের নাম করবে, তাতে আবার লজ্জা কি? লজ্জা, ঘৃণা, ভয় — তিন থাকতে নয়। ‘আমি এত বড় লোক, আমি ‘হরি হরি’ বলে নাচব? বড় বড় লোক এ-কথা শুনলে আমায় কি বলবে? যদি বলে, ওহে ডাক্তারটা ‘হরি হরি’ বলে নেচেছে। লজ্জার কথা!’ এ-সব ভাব ত্যাগ কর।”

डाक्टर - मैं उस तरह का आदमी नहीं हूँ । लोग क्या कहेंगे, इसकी मुझे रत्ती भर परवाह नहीं ।

DOCTOR: "I never bother about what people say. I don't care a straw about their opinions."

ডাক্তার — আমার ওদিক দিয়েই যাওয়া নাই; লোকে কি বলবে, আমি তার তোয়াক্কা রাখি না।

श्रीरामकृष्ण - इतना तो तुममें खूब है । (सब हँसते हैं)

MASTER: "Yes, I know of your strong feeling about that. (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার উটি খুব আছে। (সকলের হাস্য)

"देखो, ज्ञान और अज्ञान के पार हो जाओ, तब उन्हें समझोगे । बहुत कुछ जानने का नाम है अज्ञान । पाण्डित्य का अहंकार भी अज्ञान है । एक ईश्वर ही सर्वभूतों में हैं, इस निश्चयात्मिका बुद्धि का नाम है ज्ञान । उन्हें विशेष रूप से जानने का नाम है विज्ञान

"Go beyond knowledge and ignorance; only then can you realize God. To know many things is ignorance. Pride of scholarship is also ignorance. The unwavering conviction that God alone dwells in all beings is jnana, knowledge. To know Him intimately is vijnana, a richer Knowledge. 

“দেখ, জ্ঞান-অজ্ঞানের পার হও, তবে তাঁকে জানতে পারা যায়। নানা জ্ঞানের নাম অজ্ঞান। পাণ্ডিত্যের অহংকারও অজ্ঞান। এক ঈশ্বর সর্বভূতে আছেন, এই নিশ্চয় বুদ্ধির নাম জ্ঞান। তাঁকে বিশেষরূপে জানার নাম বিজ্ঞান।

पैर में काँटा गड़ गया है, उसको निकालने के लिए एक दूसरे काँटे की जरूरत होती है । काँटे को काँटे से निकालकर फिर दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं । पहले अज्ञानरूपी काँटे को दूर करने के लिए ज्ञानरूपी काँटे को लाना होता है । इसके बाद ज्ञान और अज्ञान दोनों को ही फेंक देना पड़ता है; क्योंकि वे ज्ञान और अज्ञान से परे हैं ।

If a thorn gets into your foot, a second thorn is needed to take it out. When it is out both thorns are thrown away. You have to procure the thorn of knowledge to remove the thorn of ignorance; then you must set aside both knowledge and ignorance. God is beyond both knowledge and ignorance. 

যেমন পায়ে কাঁটা বিঁধেছে, সে কাঁটাটা তোলবার জন্য আর-একটি কাঁটার প্রয়োজন। কাঁটাটা তোলবার পর দুটি কাঁটাই ফেলে দেয়। প্রথমে অজ্ঞান কাঁটা দূর করবার জন্য জ্ঞান কাঁটাটি আনতে হয়। তারপর জ্ঞান-অজ্ঞান দুইটিই ফেলে দিতে হয়। তিনি যে জ্ঞান-অজ্ঞানের পার। 

लक्ष्मण ने कहा था, 'राम, यह कैसा आश्चर्य है ! इतने बड़े ज्ञानी वशिष्ठ देव भी पुत्रों के शोक से विव्हल होकर रो रहे थे !' राम ने कहा, 'भाई, जिसे ज्ञान है, उसे अज्ञान भी है; जिसे एक वस्तु का ज्ञान है, उसे अनेक वस्तुओं का भी ज्ञान है । जिसे उजाले का अनुभव है; उसे अँधेरे का भी है । ब्रह्म ज्ञान तथा अज्ञान से परे है; पाप और पुण्य, शुचिता और अशुचिता से परे है ।’"

Once Lakshmana said to Rama, 'Brother, how amazing it is that such a wise man as Vasishtha wept bitterly at the death of his sons!' Rama said: 'Brother, he who has knowledge must also have ignorance. He who has knowledge of one thing must also have knowledge of many things. He who is aware of light is also aware of darkness.' Brahman is beyond knowledge and ignorance, virtue and vice, merit and demerit, cleanliness and uncleanliness."

লক্ষ্মণ বলেছিলেন, ‘রাম! এ কি আশ্চর্য! এত বড় জ্ঞানী স্বয়ং বশিষ্ঠদেব পুত্রশোকে অধীর হয়ে কেঁদেছিলেন।’ রাম বললেন, ‘ভাই, যার জ্ঞান আছে, তার অজ্ঞানও আছে, যার এক জ্ঞান আছে, তার অনেক জ্ঞানও আছে। যার আলোবোধ আছে, তার অন্ধকারবোধও আছে। ব্রহ্ম — জ্ঞান-অজ্ঞানের পার, পাপ-পুণ্যের পার, ধর্মাধর্মের পার, শুচি-অশুচির পার।”

यह कहकर श्रीरामकृष्ण रामप्रसाद के गाने की आवृत्ति करके कहने लगे –"आ मन ! चल टहलने चलें । काली-कल्पतरु के नीचे तुझे चारों फल पड़े मिल जायेंगे .... ।”

Sri Ramakrishna then recited the following song of Ramprasad: Come, let us go for a walk, O mind, to Kali, the Wish-fulfilling Tree, And there beneath It gather the four fruits of life. . . .

এই বলিয়া শ্রীরামকৃষ্ণ রামপ্রসাদের গান আবৃত্তি করিয়া বলিতেছেন —আয় মন বেড়াতে যাবি। কালীকল্পতরুমূলে রে চারিফল কুড়ায়ে পাবি ॥

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

 🔱🙏ब्रह्म अवांग  मनसः गोचरं : अर्थात ब्रह्म वाणी और मन के परे हैं 

ब्रह्म का स्वरूप समझाया नहीं जा सकता🔱🙏

[অবাঙ্‌মনসোগোচরম্‌ — ব্রহ্মের স্বরূপ বুঝান যায় না ]

[अवांग मनसगोचर -मन और वाणी की पहुंच से बाहर है ‘परमात्मा। ’ उसका रहस्य वही समझ पाता है जो उन्हें पा लेता है। वह भी वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता क्योंकि मन और वाणी की वहां तक पहुंच नहीं है। वे समझने और समझाने में आने वाले समस्त पदार्थों से सर्वथा विलक्षण हैं। "न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यश:।।" (श्वेताश्वतरोपनिषद् अ. 4-19) जिनका ‘महान यश’ है, जिनका महान यश सर्वत्र प्रसिद्ध है, उन पर परात्पर ब्रह्म की कोई भी उपमा नहीं है, जिसके द्वारा उनको समझा अथवा समझाया जा सके। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उनके समान हो तो उसकी उपमा दी जाए। अत: मनुष्य को उस परम प्राप्य तत्व को जानने और पाने का अभिलाषी बनना चाहिए क्योंकि जब वह मनुष्य को प्राप्त होता है तब हमें क्यों नहीं होगा? ] 

श्याम बसु - दोनों काँटों के फेंक देने पर फिर क्या रह जायेगा ?

SHYAM BASU: "Sir, what remains after one throws away both thorns?"

শ্যাম বসু — দুই কাঁটা ফেলে দেওয়ার পর কি থাকবে?

श्रीरामकृष्ण – नित्यशुद्धबोधरूपम् । यह तुम्हें भला कैसे समझाऊँ ? अगर कोई पूछे कि तुमने जो घी  खाया वह कैसा था, तो उसे किस तरह समझाया जाय ? अधिक से अधिक इतना ही कह सकते हो कि घी जैसा होता है, बस वैसा ही था

MASTER: "Nityasuddhabodharupam — the Eternal and Ever-pure Consciousness. How can I make it clear to you? Suppose a man who has never tasted ghee asks you, 'What does ghee taste like?' Now, how can you explain that to him? At the most you can say: 'What is ghee like? It is just like ghee!'

শ্রীরামকৃষ্ণ — নিত্যশুদ্ধবোধরূপম্‌। তা তোমায় কেমন করে বুঝাব? যদি কেউ জিজ্ঞাসা করে, ‘ঘি কেমন খেলে?’ তাকে এখন কি করে বুঝাবে? হদ্দ বলতে পার, ‘কেমন ঘি না যেমন ঘি।’ 

"एक स्त्री से उसकी एक सखी ने पूछा था, ‘क्यों सखि, तेरा तो पति आया है, भला बता तो सही, पति के आने पर कैसा आनन्द मिलता है ?’ उस स्त्री ने कहा, 'यह तो तू तभी समझेगी जब तेरे भी स्वामी होगा; इस समय मैं तुझे भला कैसे समझाऊँ !’ 

A young girl asked her friend: 'Well, friend, your husband is here. What sort of pleasure do you enjoy with him?' The friend answered: 'My dear, you will know it for yourself when you get a husband. How can I explain it to you?'

একটি মেয়েকে তার সঙ্গী জিজ্ঞাসা করেছিল, ‘তোর স্বামী এসেছে, আচ্ছা ভাই, স্বামী এলে কিরূপ আনন্দ হয়?’ মেয়েটি বললে, ‘ভাই, তোর স্বামী হলে তুই জানবি; এখন তোরে কেমন করে বুঝাব।’ 

पुराण में है, भगवती जब हिमालय के यहाँ पैदा हुई तब माता ने गिरिराज को अनेक रूपों से दर्शन दिया । गिरीन्द्र ने सब रूपों के दर्शन करके भगवती से कहा, 'बेटी, वेद में जिस ब्रह्म की बात है, अब मुझे उस ब्रह्म के दर्शन हों ।' तब भगवती ने कहा, 'पिताजी, अगर ब्रह्म के दर्शन करना चाहते हो तो साधुओं का संग करो ।' ब्रह्म क्या वस्तु है यह मुख से नहीं कहा जा सकता । एक ने कहा था, 'सब जूठा हो गया है, पर ब्रह्म जूठा नहीं हुआ ।'

"It is said in the Purana that Bhagavati, the Divine Mother, was once born as the daughter of King Himalaya. After Her birth She showed Her father Her many forms. The Lord of the mountains, after enjoying all these visions, said to the Divine Mother, 'May I have the vision of Brahman as It is described in the Vedas!' Then the Divine Mother answered, 'Father, if you want to have the vision of Brahman you must live in the company of holy men.'

 পুরাণে আছে ভগবতী যখন হিমালয়ের ঘরে জন্মালেন, তখন তাঁকে নানারূপে দর্শন দিলেন। গিরিরাজ সব রূপ দর্শন করে শেষে ভগবতীকে বললেন, মা, বেদে যে ব্রহ্মের কথা আছে, এইবার আমার যেন ব্রহ্মদর্শন হয়। তখন ভগবতী বললেন, বাবা, ব্রহ্মদর্শন যদি করতে চাও, তবে সাধুসঙ্গ কর

इसका अर्थ यह है कि वेदों, पुराणों, तन्त्रों और शास्त्रों का मुख से उच्चारण करने के कारण वे सब जूठे हो गये हैं ऐसा कहा जा सकता है, परन्तु ब्रह्म क्या वस्तु है, यह कोई अभी तक मुख से नहीं कह सका । इसीलिए ब्रह्म अभी तक झूठे नहीं हुए । सच्चिदानन्द के साथ क्रीड़ा और रमण कितने आनन्दपूर्ण हैं, यह मुख से नहीं कहा जा सकता । जिसे यह सौभाग्य मिला है, वही जानता है ।"

"What Brahman is cannot be described in words. Somebody once said that everything in the world has been made impure, like food that has touched the tongue, and that Brahman alone remains undefiled. The meaning is this: All scriptures and holy books — the Vedas, the Puranas, the Tantras, and so forth — may be said to have been defiled because their contents have been uttered by the tongues of men; but what Brahman is no tongue has yet been able to describe. Therefore Brahman is still undefiled. One cannot describe in words the joy of play and communion with Satchidananda. He alone knows, who has realized it."

“ব্রহ্ম কি জিনিস — মুখে বলা যায় না। একজন বলেছিল — সব উচ্ছিষ্ট হয়েছে, কেবল ব্রহ্ম উচ্ছিষ্ট হন নাই। এর মানে এই যে, বেদ, পুরাণ, তন্ত্র, আর সব শাস্ত্র, মুখে উচ্চারণ হওয়াতে উচ্ছিষ্ট হয়েছে বলা যেতে পারে; কিন্তু ব্রহ্ম কি বস্তু, কেউ এ-পর্যন্ত মুখে বলতে পারে নাই। তাই ব্রহ্ম এ পর্যন্ত উচ্ছিষ্ট হন নাই! আর সচ্চিদানন্দের সঙ্গে ক্রীড়া, রমণ — যে কি আনন্দের তা মুখে বলা যায় না। যার হয়েছে সে জানে।”

(४)

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏 अहंकार से मुक्त होने पर ही आत्मज्ञान होगा  🔱🙏

[Enlightenment will come only when one is free from ego.]

श्रीरामकृष्ण ने डाक्टर से फिर कहा - "देखो, अहंकार के बिना गये ज्ञान नहीं होता । मनुष्य मुक्त तभी होता है जब 'मैं' दूर हो जाता है । 'मैं' और 'मेरा' - यही अज्ञान है । ‘तुम’ और 'तुम्हारा' - यही ज्ञान है ।

Addressing Dr. Sarkar, Sri Ramakrishna continued: "Look here. One cannot attain Knowledge unless one is free from egotism. There is a saying:  'When shall I be free? When 'I' shall cease to be.' 

जो सच्चा भक्त है, वह कहता है, 'हे ईश्वर ! तुम्हीं कर्ता हो, तुम्हीं सब कुछ कर रहे हो, मैं तो बस यन्त्र ही हूँ । मुझसे जैसा कराते हो, मैं वैसा ही करता हूँ । यह सब धन तुम्हारा है, ऐश्वर्य तुम्हारा है, संसार तुम्हारा है । तुम्हारा ही घर-परिवार है, मेरा कुछ भी नहीं, मैं दास हूँ । तुम्हारी जैसी आज्ञा होगी, उसी के अनुसार सेवा करने का मेरा अधिकार है ।'

'I' and 'mine' — that is ignorance. 'Thou' and 'Thine' — that is Knowledge. A true devotee says: 'O God, Thou alone art the Doer; Thou alone doest all, I am a mere instrument; I do as Thou makest me do. All these — wealth, possessions, nay, the universe itself — belong to Thee. This house and these relatives are Thine alone, not mine. I am Thy servant; mine is only the right to serve Thee according to Thy bidding.'

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার ডাক্তারকে সম্বোধন করিয়া বলিলেন, “দেখ, অহংকার না গেলে জ্ঞান হয় না। ‘মুক্ত হব কবে, “আমি” যাবে যবে’। ‘আমি’ ও ‘আমার’ এই দুইটি অজ্ঞান। ‘তুমি’ ও ‘তোমার’ এই দুইটি জ্ঞান। যে ঠিক ভক্ত, সে বলে — হে ঈশ্বর! তুমিই কর্তা, তুমিই সব করছো, আমি কেবল যন্ত্র, আমাকে যেমন করাও তেমনি করি। আর এ-সব তোমার ধন, তোমার ঐশ্বর্য, তোমার জগৎ। তোমারই গৃহ পরিজন, আমার কিছু নয়। আমি দাস। তোমার যেমন হুকুম, সেইরূপ সেবা করবার আমার অধিকার।

"जिन लोगों ने थोड़ीसी पुस्तकें पढ़ी हैं, उनमें अहंकार समा जाता है । कालीकृष्ण ठाकुर के साथ ईश्वरीय बातें हुई थीं । उसने कहा, 'वह सब मुझे मालूम है ।' मैंने कहा, ‘जो दिल्ली हो आया है, क्या यह कहता फिरता है कि मैं दिल्ली हो आया – मैं दिल्ली हो आया ? - क्या उसे इसके लिए घमण्ड हो सकता है ? जो बाबू (gentleman) है, क्या वह कहता फिरता है, मैं बाबू हूँ ?’ "

"Those who have read a few books cannot get rid of conceit. Once I had a talk with Kalikrishna Tagore about God. At once he said, 'I know all about that.' I said to him: 'Does a man who has visited Delhi brag about it? Does a gentleman go about telling everyone that he is a gentleman?'"

“যারা একটু বই-টই পড়েছে, অমনি তাদের অহংকার এসে জোটে। কা-ঠাকুরের সঙ্গে ঈশ্বরীয় কথা হয়েছিল। সে বলে, ‘ও-সব আমি জানি।’ আমি বললুম, যে দিল্লী গিছিল, সে কি বলে বেড়ায় আমি দিল্লী গেছি, আর জাঁক করে? যে বাবু, সে কি বলে আমি বাবু!”

श्याम बसु - वे (कालीकृष्ण ठाकुर) आपको बहुत मानते हैं ।

SHYAM: "But Kalikrishna Tagore has great respect for you."

শ্যাম বসু — তিনি (কা-ঠাকুর) আপনাকে খুব মানেন।

श्रीरामकृष्ण - अजी क्या कहूँ, दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर की एक भंगिन को क्या ही अहंकार था । उसकी देह में दो-एक गहने थे । वह जिस रास्ते से आ रही थी, उसी रास्ते से दो-एक आदमी उसकी बगल से निकल रहे थे । भगिन ने उनसे कहा, 'ए, हट जा ।' तब फिर दूसरे आदमियों के अहंकार की बात क्या कहूँ !

MASTER: "Oh, how vanity turns a person's head! There was a scavenger woman in the temple garden at Dakshineswar. And her pride! And all because of a few ornaments. One day a few men were passing her on the path and she shouted to them, 'Hey! Get out of the way, you people!' If a scavenger woman could talk that way, what can one say about the vanity of others?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — ওগো বলব কি! দক্ষিণেশ্বরে কালীবাড়িতে একটি মেথরাণীর যে অহংকার! তার গায়ে ২/১ খানা গহনা ছিল। সে যে পথ দিয়ে আসছিল, সেই পথে দু-একজন লোক তার পাশ দিয়ে চলে যাচ্ছিল। মেথরাণী তাদের বলে উঠল। ‘এই! সরে যা’ তা অন্য লোকের অহংকারের কথা আর কি বলব?

श्याम बसु - महाराज, जब ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं तो फिर पाप का दण्ड कैसा ?

SHYAM: "Sir, if God alone does everything, how is it that man is punished for his sins?"

শ্যাম বসু — মহাশয়! পাপের শাস্তি আছে অথচ ঈশ্বর সব করছেন, এ কিরকম কথা?

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारी तो सुनार की-सी बुद्धि है !

MASTER: "How like a goldsmith you talk!"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি, তোমার সোনার বেনে বুদ্ধি!

नरेन्द्र - सुनार की बुद्धि अर्थात् calculating (बनियाई) बुद्धि ।

NARENDRA: "In other words, Shyam Babu has a calculating mind, like a goldsmith, who weighs things with his delicate balance."

নরেন্দ্র — সোনার বেনে বুদ্ধি অর্থাৎ calculating বুদ্ধি!

श्रीरामकृष्ण - अरे भाई, तू आम खा ले और प्रसन्न हो जा । बगीचे में कितने सौ पेड़ हैं, कितने हजार डालियाँ हैं, कितने कोटि पत्ते हैं, इन सब के हिसाब से तुझे क्या काम ? तू आम खाने के लिए आया है, आम खा जा

MASTER: "I say: O my foolish boy, eat the mangoes and be happy. What is the use of your calculating how many hundreds of trees, how many thousands of branches, and how many millions of leaves there are in the orchard? You have come to the orchard to eat mangoes. Eat them and be contented.

শ্রীরামকৃষ্ণ — ওরে পোদো, তুই আম খেয়ে নে! বাগানে কত শত গাছ আছে, কত হাজার ডাল আছে, কত কোটি পাতা আছে, এ-সব হিসাবে তোর কাজ কি? তুই আম খেতে এসেছিল, আম খেয়ে যা। 

(श्याम वसु से) तुम्हें इस संसार में मनुष्य का शरीर ईश्वरप्राप्ति की साधना करने के लिए मिला है । ईश्वर के पाद-पद्मों में किस तरह भक्ति हो उसी की चेष्टा करो । तुम्हें इन सब वृथा बातों से क्या मतलब ? फिलॉसफी (दर्शन-शास्त्र) लेकर विचार करने से तुम्हारा क्या होगा ? देखो, आध पाव शराब से ही तुम्हें नशा होता है, फिर शराबवाले की दुकान में कितने मन शराब है, इसका हिसाब लगाकर क्या करोगे ?

(To Shyam) "You have been born in this world as a human being to worship God; therefore try to acquire love for His Lotus Feet. Why do you trouble yourself to know a hundred other things? What will you gain by discussing philosophy'? Look here, one ounce of liquor is enough to intoxicate you. What is the use of your trying to find out how many gallons of liquor there are in the tavern?"

(শ্যাম বসুর প্রতি) তুমি এ সংসারে ঈশ্বর সাধন জন্য মানব জন্ম পেয়েছ। ঈশ্বরের পাদপদ্মে কিরূপে ভক্তি হয়, তাই চেষ্টা কর। তোমার এত শত কাজ কি? ফিলজফী লয়ে বিচার করে তোমার কি হবে? দেখ, আধপো মদে তুমি মাতাল হতে পার। শুঁড়ির দোকানে কত মন মদ আছে, এ হিসাবে তোমার কি দরকার?

डाक्टर - और ईश्वर की मधुशाला (God's Tavern) में शराब अनन्त है । कुछ पता ही नहीं कि कितनी है !

DOCTOR: "Quite so. And what is more, the Wine in God's Tavern is beyond all measure. There is no limit to It."

ডাক্তার — আর ঈশ্বরের মদ Infinite! সে মদের শেষ নাই।

श्रीरामकृष्ण - (श्याम वसु से) - ईश्वर को आममुख्तारी ( power of attorney) क्यों नहीं दे देते ? उस पर सारा भार छोड़ दो । अच्छे आदमी को अगर कोई भार दे दे, तो क्या वह कभी अन्याय कर सकता है ? पाप का दण्ड वे देंगे या नहीं यह वे जानें

MASTER (to Shyam): "Why don't you give your power of attorney to God? Rest all your responsibilities on Him. If you entrust an honest man with your responsibilities, will he misuse his power over you? God alone knows whether or not He will punish you for your sins."

শ্রীরামকৃষ্ণ (শ্যাম বসুর প্রতি) — আর ঈশ্বরকে আমমোক্তারী দাও না। তাঁর উপর সব ভার দাও। সৎ লোককে যদি কেউ ভার দেয়, তিনি কি অন্যায় করেন? পাপের শাস্তি দিবেন, কি না দিবেন, সে তিনি বুঝবেন।

डाक्टर - उनके मन में क्या है, यह वे जानें । आदमी हिसाब लगाकर क्या कहेगा ? वे हिसाब से परे हैं ।

DOCTOR: "God alone knows what is in His mind. How can a man guess it? God is beyond all our calculations."

ডাক্তার — তাঁর মনে কি আছে, তিনিই জানেন। মানুষ হিসাব করে কি বলবে? তিনি হিসাবের পার!

श्रीरामकृष्ण - (श्याम बसु से) - तुम कलकत्तेवाले बस यही एक राग अलापते हो । तुम लोग यही कहा करते हो, 'ईश्वर में पक्षपात है', क्योंकि एक को उन्होंने सुख में रखा है, और दूसरे को दुःख में । ये मूर्ख खुद जैसे हैं, उनके स्वयं के भीतर जैसा है, वैसा ही ये ईश्वर के भीतर भी देखते हैं

MASTER (to Shyam): "That's the one theme of you Calcutta people. You all say, 'God is stained by the evil of inequality', because He has made one person happy and another miserable. What these rascals see in themselves they see in God, too.

শ্রীরামকৃষ্ণ (শ্যাম বসুর প্রতি) — তোমাদের ওই এক। কলকাতার লোকগুলো বলে, ‘ঈশ্বরের বৈষম্যদোষ।’ কেননা, তিনি একজনকে সুখে রেখেছেন, আর-একজনকে দুঃখে রেখেছেন। শালাদের নিজের ভিতরও যেমন, ঈশ্বরের ভিতরও তেমনি দেখে

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏जीवन का उद्देश्य क्या है - मानप्रतिष्ठा या ईश्वरप्राप्ति  ? 🔱🙏

[‘লোকমান্য’ কি জীবনের উদ্দেশ্য? ]

"हेम दक्षिणेश्वर जाया करता था । [हेम (राय बहादुर हेमचन्द्र कर)- डिप्टी मजिस्ट्रेट। पलटू के पिता, श्री श्री ठाकुर के भक्त।] मुलाकात होने पर ही मुझसे कहता था, 'क्यों भट्टाचार्य महाशय (पुजारी जी ?), संसार में एक ही वस्तु है - मान – क्यों ?' मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर-लाभ है, यह इने-गिने लोग ही कहते हैं ।"

"Hem used to come to the temple garden at Dakshineswar. Whenever he chanced to meet me, he would say: 'Well, priest, there is only one thing worth having in this world, and that is honour. Isn't that so?' Very few indeed say that the goal of human life is the realization of God."

“হেম দক্ষিণেশ্বরে যেত। দেখা হলেই আমায় বলত, ‘কেমন ভট্টাচার্য মশাই! জগতে এক বস্তু আছে; — মান? ঈশ্বরলাভ যে মানুষ জীবনের উদ্দেশ্য, তা কম লোকই বলে।”

(5) 

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण🔱🙏

[Gross, Subtle, Causal and Mahakaran] 

श्याम बसु - क्या कोई सूक्ष्म शरीर (subtle body) को दिखला सकता है ? क्या कोई यह दिखला सकता है कि - जब मनुष्य मर जाता है , तब वह सूक्ष्म  शरीर बाहर चला जाता है ?

SHYAM: "We hear a great deal about the subtle body. Can anyone show it to us? Can anyone demonstrate that the subtle body, when a man dies, leaves the gross body and goes away?"

শ্যাম বসু — সূক্ষ্মশরীর কেউ কি দেখিয়ে দিতে পারে? কেউ কি দেখাতে পারে যে সেই শরীর বাহিরে চলে যায়?

श्रीरामकृष्ण - जो सच्चे भक्त हैं, उन्हें क्या गरज कि वे तुम्हें यह सब दिखलायें ? कोई साला माने या न माने, उनका इससे क्या बनता-बिगड़ता है ! उनमें इस तरह की इच्छा नहीं रहती कि कोई बड़ा आदमी उन्हें माने ।

MASTER: "True devotees don't care a rap about showing you these things. What do they care whether some fool of a big man respects them or not? The desire to have a big man under their control never enters their minds."

श्याम बसु - अच्छा, स्थूल देह, सूक्ष्म देह, इन सब में भेद क्या है ?

SHYAM: "What is the distinction between the gross body and the subtle body?"

শ্যাম বসু — আচ্ছা, স্থূলদেহ, সূক্ষ্মদেহ, এ-সব প্রভেদ কি?

श्रीरामकृष्ण - पंचभूत को लेकर जो देह है, वही ‘स्थूल देह’ है । मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त को लेकर ‘सूक्ष्म शरीर’ है । जिस शरीर से ईश्वर का आनन्द मिलता है और ईश्वर से सम्भोग किया जाता है, वह ‘कारण शरीर’ है । तन्त्रों में उसे ‘भगवती तनु’ कहा है सब से अतीत है ‘महाकारण’ (तुरीय- अर्थात इन्द्रियातीत सत्य) , यह मुख से नहीं कहा जा सकता ।

MASTER: "The body consisting of the five gross elements is called the gross body. The subtle body is made up of the mind, the ego, the discriminating faculty, and the mind-stuff. There is also a causal body, by means of which one enjoys the Bliss of God and holds communion with Him. The Tantra calls it the Bhagavati Tanu, the Divine Body. Beyond all these is the Mahakarana, the Great Cause. That cannot be expressed by words.

শ্রীরামকৃষ্ণ — পঞ্চভূত লয়ে যে দেহ, সেইটি স্থূলদেহ। মন, বুদ্ধি, অহংকার আর চিত্ত, এই লয়ে সূক্ষ্মশরীর। যে শরীরে ভগবানের আনন্দলাভ হয়, আর সম্ভোগ হয়, সেইটি কারণ শরীর। তন্ত্রে বলে, ‘ভগবতী তনু।’ সকলের অতীত ‘মহাকারণ’ (তুরীয়) মুখে বলা যায় না

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏साधना की आवश्यकता - केवल ईश्वर की भक्ति ही सार है🔱🙏

[সাধনের প্রয়োজন — ঈশ্বরে একমাত্র ভক্তিই সার ]

"केवल सुनने से क्या होगा ?  [योग और समाधी ; सुनने से क्या होगा ?] कुछ करो भी । [यम-नियम , आसन-प्रत्याहार , धारणा का विधिवत अभ्यास भी करो ! ]  "भंग-भंग रटने से क्या होगा? उससे क्या कभी नशा हो सकता है ? "भंग को कूटकर देह में लगाने से भी नशा नहीं होता। कुछ खाना चाहिए । 

"What is the use of merely listening to words?  Do something!  What will you achieve by merely repeating the word 'siddhi'? Will that intoxicate you? You will not be intoxicated even if you make a paste of siddhi and rub it all over your body. You must eat some of it.

“কেবল শুনলে কি হবে? কিছু করো।“সিদ্ধি সিদ্ধি মুখে বললে কি হবে? তাতে কি নেশা হয়? “সিদ্ধি বেটে গায়ে মাখলেও নেশা হয় না। কিছু খেতে হয়। 

कौनसा सूत चालीस नम्बर का है, और कौनसा इकतालीस नम्बर का, यह सब सूत का व्यवसाय बिना किये क्या कभी कहा जा सकता है ?जिनका सूत का व्यवसाय है उनके लिए सूत की पहचान करना कोई कठिन बात नहीं । 

 How can a man recognize yarns of different counts, such as number forty and number forty-one, unless he is in the trade? Those who trade in yarn do not find it at all difficult to describe a thread of a particular count. 

কোন্‌টা একচল্লিশ নম্বরের সুতো, কোন্‌টা চল্লিশ নম্বরের — সুতার ব্যবসা না করলে এ-সব কি বলা যায়? যাদের সুতার ব্যবসা আছে, তাদের পক্ষে অমুক নম্বরের সুতা দেওয়া কিছু শক্ত নয়! 

इसीलिए कहता है, कुछ साधना करो, तब स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण किसे कहते हैं, यह समझ सकोगे । जब ईश्वर से प्रार्थना करोगे तब उनके पादपद्मों में केवल भक्ति की प्रार्थना करना ।

Therefore I say, practise a little spiritual discipline; then you will know all these — the gross, the subtle, the causal, and the Great Cause. While praying to God, ask only for love for His Lotus Feet.

তাই বলি, কিছু সাধন কর। তখন স্থূল, সূক্ষ্ম, কারণ মহাকারণ কাকে বলে সব বুঝতে পারবে। যখন ঈশ্বরের কাছে প্রার্থনা করবে, তাঁর পাদপদ্মে একমাত্র ভক্তি প্রার্থনা করবে।

"अहल्या के शापमोचन के बाद श्रीरामचन्द्र ने उससे कहा, 'तुम मुझसे कोई वर- याचना करो ।' अहल्या ने कहा, 'राम, यदि वर देना ही है, तो यही वर दो कि चाहे शूकर-योनि में भी मेरा जन्म क्यों न हो, फिर भी तुम्हारे पादपद्मों में मेरा मन लगा रहे ।'

"When Rama redeemed Ahalya from the curse. He said to her, 'Ask a boon of Me.' Ahalya said, 'O Rama, if You deign to grant me a boon, then please fulfil my desire that I may always meditate on Your Lotus Feet, even though I may be born in a pigs body.'

“অহল্যার শাপ মোচনের পর শ্রীরামচন্দ্র তাঁকে বললেন, তুমি আমার কাছে বর লও। অহল্যা বললেন, রাম যদি বর দিবে তবে এই বর দাও — আমার যদি শূকরযোনিতেও জন্ম হয় তাতেও ক্ষতি নাই; কিন্তু হে রাম! যেন তোমার পাদপদ্মে আমার মন থাকে

“मैंने माता के पास एकमात्र भक्ति की प्रार्थना की थी । श्री माता के पादपद्मों में फूल चढ़ाकर हाथ जोड़ मैंने कहा था - 'माँ, यह लो तुम अपना ज्ञान और यह लो अज्ञान, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपनी शुचिता और यह लो अपनी अशुचिता, मुझे शुद्धा भक्ति दो; यह लो अपना पाप और यह लो अपना पुण्य; यह लो अपना भला और यह लो अपना बुरा, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना धर्म और यह लो अपना अधर्म, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।’

"I prayed to the Divine Mother only for love. I offered flowers at Her Lotus Feet and said with folded hands: 'O Mother, here is Thy ignorance and here is Thy knowledge; take them both and give me only pure love for Thee. Here is Thy holiness and here is Thy unholiness; take them both and give me only pure love for Thee. Here is Thy virtue and here is Thy sin; here is Thy good and here is Thy evil; take them all and give me only pure love for Thee. Here is Thy dharma and here is Thy adharma; take them both and give me only pure love for Thee.'

“আমি মার কাছে একমাত্র ভক্তি চেয়েছিলাম। মার পাদপদ্মে ফুল দিয়ে হাতজোড় করে বলেছিলাম, ‘মা, এই লও তোমার অজ্ঞান, এই লও তোমার জ্ঞান, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। এই লও তোমার শুচি, এই লও তোমার অশুচি, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। এই লও তোমার পাপ, এই লও তোমার পুণ্য, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। এই লও তোমার ভাল, এই লও তোমার মন্দ, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। এই লও তোমার ধর্ম, এই লও তোমার অধর্ম, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও।

“धर्म अर्थात् दानादि कर्म, धर्म को लेने ही से अधर्म को लेना होगा, पुण्य को लेने ही से पाप को लेना होगा, ज्ञान को लेने ही से अज्ञान को लेना होगा, शुचिता को लेने ही से अशुचिता को भी लेना होगा । जैसे, जिसे उजाले का ज्ञान है, उसे अँधेरे का भी ज्ञान है । जिसे एक का ज्ञान है, उसे अनेक का भी ज्ञान है । जिसे भले का विचार है, उसे बुरे का भी है ।

"Dharma means good actions, like giving in charity. If you accept dharma, you have to accept adharma too. If you accept virtue, you have to accept sin. If you accept knowledge, you have to accept ignorance. If you accept holiness, you have to accept unholiness. It is like a man's being aware of light, in which case he is aware of darkness too. If a man is aware of one, he is aware of many too. If he is aware of good, he is aware of evil too.

“ধর্ম কিনা দানাদি কর্ম। ধর্ম নিলেই অধর্ম লতে হবে। পুণ্য নিলেই পাপ লতে হবে। জ্ঞান নিলেই অজ্ঞান লতে হবে। শুচি নিলেই অশুচি লতে হবে। যেমন যার আলোবোধ আছে, তার অন্ধকারবোধও আছে। যার একবোধ আছে, তার অনেকবোধও আছে। যার ভালবোধ আছে তার মন্দবোধও আছে।

"यदि शूकर का माँस खाकर भी ईश्वर के पादपद्मों में किसी की भक्ति हो, तो वह पुरुष धन्य है । और यदि हविष्य भोजन करके भी संसार में आसक्ति रही—”

"Blessed is the man who retains his love for the Lotus Feet of God, even though he eats pork. But if a man is attached to the world, even though he lives only on boiled vegetables and cereals, then —"

“যদি কারও শূকর মাংস খেয়ে ঈশ্বরের পাদপদ্মে ভক্তি তাকে, সে পুরুষ ধন্য; আর হবিষ্য খেয়ে যদি সংসারে আসক্তি থাকে —”

डाक्टर - तो वह अधम है । यहाँ एक बात कहता हूँ । बुद्ध ने शूकर-माँस खाया था । शूकर-माँस खाया नहीं कि पेट में शूल होने लगा ! इस बीमारी में बुद्ध अफीम का सेवन करते थे ! निर्वाण-सिर्वाण जानते हो क्या है ? - बस अफीम खाकर पीनक में पड़े रहते थे - बाह्य संसार का कुछ ज्ञान नहीं रहता था, - यही निर्वाण हो गया !

DOCTOR: "He is a wretch. But let me interrupt you here and say something. Buddha once ate pork and as a result had colic. To get rid of the pain he would take opium and thus become unconscious. Do you know the meaning of Nirvana and such stuff? Buddha would become stupefied after eating opium. He would have no consciousness of the outer world. This is what they call Nirvana!"

ডাক্তার — তবে সে অধম! এখানে একটি কথা বলি — বুদ্ধ শূকর মাংস খেয়েছিল। শূকর মাংস খাওয়া আর কলিক্‌ (পেটে শূলবেদনা) হওয়া। এ ব্যারামের জন্য বুদ্ধ Opium (আফিং) খেত। নির্বাণ-টির্বাণ কি জান? আফিং খেয়ে বুঁদ হয়ে থাকত, বাহ্যজ্ঞান থাকত না; — তাই নির্বাণ!

बुद्धदेव के निर्वाण की यह अनोखी व्याख्या सुनकर सब लोग हँसने लगे । फिर दूसरी बातचीत होने लगी ।

All laughed to hear this novel interpretation of Nirvana. The conversation went on.

বুদ্ধদেবের নির্বাণ সম্বন্ধে এই ব্যাখ্যা শুনিয়া সকলে হাসিতে লাগিলেন; আবার কথাবার্তা চলিতে লাগিল।

(६)

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏गृहस्थ तथा निष्काम कर्म । थियॉसफी (ब्रह्मविद्या) ।🔱🙏

গৃহস্থ ও নিষ্কাম কর্ম — Theosophy

श्रीरामकृष्ण - (श्याम बसु से ) - संसार-धर्म में दोष नहीं; परन्तु ईश्वर के पाद-पद्मों में मन रखकर, कामनारहित होकर कर्म करना चाहिए । देखो न, अगर किसी की पीठ में एक फोड़ा हो जाता है तो सब के साथ वह बातचीत भी करता है और घर के काम-काज भी देखता है, परन्तु उसका मन फोड़े पर ही लगा रहता है; इसी तरह, घर का कार्य करते हुए भी ईश्वर की ओर मन को लगाये रखना चाहिए

MASTER (to Shyam): "There is no harm in your leading the life of a householder. But do your duties in an unselfish spirit, fixing your mind on the Lotus Feet of God. You must have noticed that a man with a carbuncle on his back speaks to others in his usual way; perhaps he attends to his daily duties also; but his mind is always on the carbuncle. It is like that.

শ্রীরামকৃষ্ণ (শ্যাম বসুর প্রতি) — সংসারধর্ম; তাতে দোষ নাই। কিন্তু ঈশ্বরের পাদপদ্মে মন রেখে, কামনাশূন্য হয়ে কাজকর্ম করবে। এই দেখ না, যদি কারু পিঠে একটা ফোঁড়া হয়, সে যেমন সকলের সঙ্গে কথাবার্তা কয়, হয়তো কাজকর্মও করে, কিন্তু যেমন ফোঁড়ার দিকে তার মন পড়ে থাকে, সেইরূপ।

"संसार में बदचलन औरत की तरह रहो । उसका मन तो यार पर लगा रहता है, पर वह घर का सब काम-काज सम्भालती रहती है । (डाक्टर से) समझे ?" डाक्टर - वह भाव अगर न रहे तो कैसे समझूँगा ?

"Live in the world like an immoral woman. Though she performs her household duties, her mind is fixed on her sweetheart. (To the doctor) Do you understand that?

DOCTOR: "Never having had such an experience myself, how can I understand?"

“সংসারে নষ্ট মেয়ের মতো থাকবে। মন উপপতির দিকে, কিন্তু সে সংসারের সব কাজ করে। (ডাক্তারের প্রতি) বুঝেছ?” ডাক্তার — ও-ভাব যদি না থাকে, বুঝব কেমন করে

श्याम बसु - कुछ तो अवश्य ही समझते हो ! (सब हँसते हैं)

SHYAM: "Oh, yes! You understand a little." (All laugh.)

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - और यह व्यवसाय (समझने का) वे बहुत दिनों से कर रहे हैं । क्यों जी? (सब हँसते हैं)

MASTER: "Moreover he has had long experience in that trade. Isn't that so?" (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — আর ওই ব্যাবসা অনেকদিন ধরে করছেন! কি বল? (সকলের হাস্য)

श्याम बसु – महाराज ! थियॉसफी (ब्रह्मविद्या) का क्या मत है ?

SHYAM: "Sir, what do you think of Theosophy?"

শ্যাম বসু — মহাশয়, থিয়সফি কিরকম বলেন?

श्रीरामकृष्ण - असल बात यह है कि जो लोग चेला बनाते फिरते हैं, वे हलके दर्जे के हैं । और जो लोग सिद्धि अर्थात् अनेक तरह की शक्तियाँ चाहते हैं, वे भी हलके दर्जे के हैं । जैसे, पैदल गंगा पार कर जाना, यह सिद्धि है । दूसरे देश में एक आदमी क्या बातचीत कर रहा है, यह कह सकना एक सिद्धि है । इन सब आदमियों के लिए ईश्वर पर भक्ति होना बहुत कठिन है ।

MASTER: "The long and short of the matter is that those who go about making disciples belong to a very inferior level. So also do those who want occult powers to walk over the Ganges and to report what a person says in a far-off country and so on. It is very hard for such people to have pure love for God.

শ্রীরামকৃষ্ণ — মোট কথা এই, যারা শিষ্য করে বেড়ায়, তারা হালকা থাকের লোক। আর যারা সিদ্ধাই অর্থাৎ নানারকম শক্তি চায়, তারাও হালকা থাক। যেমন গঙ্গা হেঁটে পার হয় যাব, এই শক্তি। অন্য দেশে একজন কি কথা বলছে তাই বলতে পারা, এই এক শক্তি। ঈশ্বরে শুদ্ধাভক্তি হওয়া এই সব লোকের ভারী কঠিন।

श्याम बसु - परन्तु वे लोग (थियाँसफी सम्प्रदायवाले) हिन्दू धर्म को फिर से स्थापित करने की चेष्टा कर रहे हैं ।

SHYAM: "But the Theosophists have been trying to re-establish the Hindu religion."

শ্যাম বসু — কিন্তু তারা (থিয়সফিস্ট্‌রা) হিন্দুধর্ম পুনঃস্থাপিত করবার চেষ্টা করছে।

श्रीरामकृष्ण - मुझे उनके सम्बन्ध में काफी ज्ञान नहीं है ।

MASTER: "I don't know much about them."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি তাদের বিষয় ভাল জানি না।

श्याम बसु - मृत्यु के बाद जीवात्मा कहाँ जाता है - चन्द्रलोक (lunar sphere ) में, नक्षत्रलोक (stellar sphere में या अन्य किसी लोक में - ये सब बातें थियॉसफी से समझ में आ जाती है ।

SHYAM: "You can learn from Theosophy where the soul goes after death —whether to the lunar sphere or the stellar sphere or some other region."

শ্যাম বসু — মরবার পর জীবাত্মা কোথায় যায় — চন্দ্রলোকে, নক্ষত্রলোকে ইত্যাদি — এ-সব থিয়সফিতে জানা যায়।

श्रीरामकृष्ण – होगा ! मेरा भाव कैसा है, जानते हो ? हनुमान से एक आदमी ने पूछा था, ‘आज कौनसी तिथि है ?’ हनुमान ने कहा, 'मैं वार, तिथि, नक्षत्र, यह कुछ नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया करता हूँ ।' मेरा भी ठीक ऐसा ही भाव है ।

MASTER: "That may be. But let me tell you my own attitude. Once a man asked Hanuman, 'What day of the lunar fortnight is it?' Hanuman replied: 'I know nothing about the day of the week, the day of the lunar fortnight, the position of the stars in the sky, or any such things. On Rama alone I meditate.' That is my attitude too."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তা হবে আমার ভাব কিরকম জানো? হনুমানকে একজন জিজ্ঞাসা করেছিল, আজ কি তিথি? হনুমান বললে, ‘আমি বার, তিথি, নক্ষত্র এ-সব কিছু জানি না; কেবল এক রামচিন্তা করি।’ আমার ঠিক ওই ভাব।

श्याम बसु - उन लोगों का 'महात्माओं' के अस्तित्व में विश्वास है । क्या आपका भी है ?

SHYAM: "The Theosophists believe in the existence of mahatmas. Do you believe in them, sir?"

শ্যাম বসু — তারা বলে, মহাত্মা সব আছেন। আপনার কি বিশ্বাস?

श्रीरामकृष्ण - यदि तुम मेरी बात पर विश्वास करो तो हाँ, मुझे है । परन्तु ये सब बातें इस समय रहने दो । मेरी बीमारी कुछ अच्छी होने पर फिर आना । यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास है तो तुम्हारे लिए ऐसा कोई मार्ग निकल आयगा जिससे तुम्हें मन की शान्ति प्राप्त हो जायगी तुम तो देखते ही हो कि मैं धन या वस्त्र की कोई भेंट स्वीकार नहीं करता । यहाँ कोई अन्य भेंट भी नहीं देनी पड़ती, इसलिए यहाँ इतने लोग आया करते हैं ! (सब हँसते हैं)

MASTER: "If you believe in my words, I say yes. But now please leave these matters alone. Come here again when I am a little better. Some way will be found for you to attain peace of mind, if you have faith in me. You must have noticed that I don't accept any gift of money or clothes. We do not take any collection here. That is why so many people come. (Laughter.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার কথা বিশ্বাস করেন তো আছে। এ-সব কথা এখন থাক। আমার অসুখটা কমলে তুমি আসবে। যাতে তোমার শান্তি হয়, যদি আমায় বিশ্বাস কর — উপায় হয়ে যাবে। দেখছো তো, আমি টাকা লই না, কাপড় লই না। এখানে প্যালা দিতে হয় না, তাই অনেকে আসে! (সকলের হাস্য)

(डाक्टर से) "यदि तुम बुरा मत मानो तो तुमसे एक बात कहूँ । - यह सब तो बहुत किया - रुपया, मान, लेक्चर; अब थोड़ासा मन ईश्वर पर भी लगाओ । और यहाँ कभी कभी आया करो । ईश्वर की बातें सुनकर उद्दीपन होगा ।"कुछ देर बाद डाक्टर चलने के लिए उठे । इसी समय श्रीयुत गिरीशचन्द्र घोष आ गये और उन्होंने श्रीरामकृष्ण के चरणों की धूलि धारण कर आसन ग्रहण किया । उन्हें देखकर डाक्टर को प्रसन्नता हुई, वे फिर बैठ गये ।

(To the doctor) "If you won't take offense, I shall tell you something. It is this: You have had enough of such things as money, honour, lecturing, and so on. Now for a few days direct your mind to God. And come here now and then. Your spiritual feeling will be kindled by hearing words about God." After a little while, as the doctor stood up to take his leave, Girish Chandra Ghosh entered the room and bowed low before the Master. Dr. Sarkar was pleased to see him and took his seat again.

(ডাক্তারের প্রতি) — “তোমাকে এই বলা, রাগ করো না; ও-সব তো অনেক করলে — টাকা, মান, লেকচার; — এখন মনটা দিনকতক ঈশ্বরেতে দাও; আর এখানে মাঝে মাঝে আসবে, ঈশ্বরের কথা শুনলে উদ্দীপন হবে!” কিয়ৎকাল পরে ডাক্তার বিদায় লইতে গাত্রোত্থান করিলেন। এমন সময় শ্রীযুক্ত গিরিশচন্দ্র ঘোষ আসিলেন ও ঠাকুরের চরণধূলি লইয়া উপবিষ্ট হইলেন। ডাক্তার তাঁহাকে দেখিয়া আনন্দিত হইলেন ও আবার আসন গ্রহণ করিলেন।

डाक्टर - मेरे रहते रहते ये नहीं आयेंगे ! ज्योंही चलने का समय आया कि आकर हाजिर हो गये ! (सब हँसते हैं)

DOCTOR (pointing to Girish): "Of course he would not come as long as I was here. No sooner am I about to leave than he enters the room."

ডাক্তার — আমি থাকতে উনি (গিরিশবাবু) আসবেন না! যাই চলে যাব যাব হয়েছি অমনি এসে উপস্থিত। (সকলের হাস্য)

गिरीश के साथ डाक्टर की विज्ञान-सभा (Science Association) - सम्बन्धी बातें होने लगीं ।

Girish and Dr. Sarkar began to talk about the Science Association established by the latter.

গিরিশের সঙ্গে ডাক্তারের বিজ্ঞানসভার (Science Association) কথা হইতে লাগিল।

श्रीरामकृष्ण - मुझे एक दिन वहाँ ले चलोगे ? 

MASTER: "Will you take me there one day?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমায় একদিন সেখানে লয়ে যাবে?

डाक्टर - आप अगर वहाँ जायेंगे तो ईश्वर की आश्चर्यपूर्ण कारीगरी देखकर बेहोश हो जायेंगे ।

DOCTOR: "If you go there you will lose all consciousness at the sight of the wondrous works of God."

ডাক্তার — তুমি সেখানে গেলে অজ্ঞান হয়ে যাবে — ঈশ্বরের আশ্চর্য কাণ্ড সব দেখে।

श्रीरामकृष्ण – हँ ?
MASTER: "Oh, indeed!"
শ্রীরামকৃষ্ণ — বটে?

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏ठाकुर की पूजा क्यों होनी चाहिए ?🔱🙏

डाक्टर - (गिरीश से) - और चाहे सब काम करो, पर ईश्वर समझकर इनकी पूजा न किया करो । ऐसे भले आदमी को क्यों बिगाड़ रहे हो ?

DOCTOR (to Girish): "Whatever you may do, please do not worship him as God. You are turning the head of this good man."

ডাক্তার (গিরিশের প্রতি) — আর সব কর — but do not worship him as God (ঈশ্বর বলে পূজা করো না।) এমন ভাল লোকটার মাথা খাচ্ছ?

गिरीश - क्या करूँ महाशय ? जिन्होंने इस संसार - समुद्र और सन्देह - सागर से मुझे पार किया, उन्हें और क्या मानूँ बतलाइये । उनमें ऐसी एक भी चीज नहीं है जिसे मै पवित्र न मानूँ । उनकी विष्ठा तक को तो मैं गन्दी नहीं मानता ।

GIRISH: "What else can I do? Oh, how else shall I regard a person who has taken me across this ocean of the world, and what is still more, the ocean of doubt? There is nothing in him that I do not hold sacred. Can I ever look on even his excreta as filthy?"

গিরিশ — কি করি মহাশয়? যিনি এ সংসার-সমুদ্র ও সন্দেহ সাগর থেকে পার করলেন, তাঁকে আর কি করব বলুন। তাঁর গু কি গু বোধ হয়?

डाक्टर - मैं विष्ठा के लिए नहीं कहता; मुझे भी उससे घृणा नहीं है । एक दिन एक दूकानदार अपने बच्चे को दिखाने मेरे पास आया था । उस बच्चे ने वहीं टट्टी कर डाली । सब लोग कपड़े से नाक ढकने लगे । मैं वहीं बाजू से आध घण्टे बैठा रहा, पर नाक में कपड़ा तक न लगाया । फिर, जब मेहतर मैले की टोकरी लिये मेरे पास से निकल जाता है, तब भी मैं अपना नाक नहीं ढकता । मैं जानता हूँ, वह जो है मैं भी वही हूँ - मुझमें और उसमें कोई अन्तर नहीं । तब फिर उस पर क्यों घृणा करूँ ? क्या मैं इनके पैरों की धूलि नहीं ले सकता ! - यह देखो - (श्रीरामकृष्ण की पद-धूलि धारण करते हैं ।) 

DOCTOR: "This question of excreta doesn't bother me. I too have no feeling of repugnance. Once a grocer's child was brought to my office for treatment. His bowels moved there. All covered their noses with cloths; but I sat by his side for half an hour without putting a handkerchief to my nose. Besides, I cannot cover my nose when the scavenger passes by me with a tub on his head. No, I cannot do that. I know very well that there is no difference between a scavenger and myself. Why should I look down on him? Can't I take the dust of his [meaning Sri Ramakrishna's] feet? Look here." The doctor saluted Sri Ramakrishna and touched the Master's feet with his forehead.

ডাক্তার — গুর জন্য হচ্ছে না। আমারও ঘৃণা নাই! একটা দোকানীর ছেলে এসেছিল, তা বাহ্যে করে ফেললে! সকলে নাকে কাপড় দিলে! আমি তার কাছে আধঘণ্টা বসে! নাকে কাপড় দিই নাই। আর মেথর যতক্ষণ মাথায় করে নিয়ে যায়, ততক্ষণ আমার নাকে কাপড় দেবার জো নাই। আমি জানি সেও যা, আমিও তা, কেন তাকে ঘৃণা করব? আমি কি এঁর পায়ের ধুলা নিতে পারি না? — এই দেখ নিচ্ছি। (শ্রীরামকৃষ্ণের পদধূলি গ্রহণ।)

गिरीश - इस शुभ मुहूर्त पर देवदूत भी बधाई दे रहे हैं !

GIRISH: "Oh, the angels are saying, 'Blessed, blessed be this auspicious moment!'"

গিরিশ — Angels (দেবগণ) এই মুহূর্তে ধন্য ধন্য করছেন।

डाक्टर - तो पैरों की धूल लेने में इतना आश्चर्य क्या है ? मैं तो सब के पैरों की धूल ले सकता हूँ । दीजिये, दीजिये - (सब के पैरों की धूलि लेते हैं ।)

DOCTOR: "What is there to marvel at in taking the dust of a man's feet? I can take the dust of everybody's feet. Give me, all of you, the dust of your feet."The doctor touched the feet of all the devotees.

ডাক্তার — তা পায়ের ধুলা লওয়া কি আশ্চর্য! আমি যে সকলেরই নিতে পারি! — এই দাও! এই দাও! (সকলের পায়ের ধুলা গ্রহণ।

नरेन्द्र - (डाक्टर से) - इन्हें हम लोग ईश्वर की तरह मानते हैं । जैसे उद्भिद् और जीव-जन्तुओं के बीच में कुछ ऐसे जीवधारी होते हैं जिन्हें उद्भिद् या जन्तु बतलाना मुश्किल है, उसी तरह नर-लोक और देव-लोक के बीच में एक ऐसा स्थल है जहाँ यह बतलाना कठिन है कि यह व्यक्ति मनुष्य है या ईश्वर

NARENDRA (to the doctor): "We think of him [meaning the Master] as a person who is like God. Do you know, sir, what it is like? There is a point between the vegetable creation and the animal creation where it is very difficult to determine whether a particular thing is a vegetable or an animal. Likewise, there is a stage between the man-world and the God-world where it is extremely hard to say whether a person is a man or God."

নরেন্দ্র (ডাক্তারের প্রতি) — এঁকে আমরা ঈশ্বরের মতো মনে করি। কিরকম জানেন? যেমন ভেজিটেবল্‌ ক্রিয়েসন্‌ (উদ্ভিদ) ও অ্যানিম্যাল ক্রিয়েসন্‌ (জীবজন্তুগণ)। এদের মাঝামাঝি এমন একটি পয়েন্ট্‌ স্থান আছে, যেখানে এটা উদ্ভিদ কি প্রাণী, স্থির করা ভারী কঠিন। সেইরূপ Man-world (নরলোক) ও God-world (দেবলোক) এই দুয়ের মধ্যে একটি স্থান আছে, যেখানে বলা কঠিন, এ ব্যক্তি মানুষ, না ঈশ্বর।

डाक्टर - अजी, ईश्वर की बात पर उपमा नहीं काम करती ।

DOCTOR: "Well, my dear young friend, one cannot apply analogies to things divine."

ডাক্তার — ওহে, ঈশ্বরের কথায় উপমা চলে না।

नरेन्द्र - मैं ईश्वर तो कह नहीं रहा, ईश्वर-तुल्य मनुष्य कह रहा हूँ ।

NARENDRA: "I do not say that he is God. What I am saying is that he is a godlike man."

নরেন্দ্র — আমি God (ঈশ্বর) বলছি না, God like man (ঈশ্বর তুল্য ব্যক্তি) বলছি।

डाक्टर - अपने इस तरह के भावों को दबा रखना चाहिए, खोलना अच्छा नहीं । मेरा भाव किसी ने नहीं समझा । मेरे परम मित्र मुझे घोर निर्दयी समझते हैं । और तुम्हीं लोग शायद एक दिन मुझे जूतों से मारकर भगा दोगे

DOCTOR: "One should suppress one's feelings in such a matter. It is bad to give vent to them. Alas! No one understands my own feelings. Even my best friend thinks of me as a stern and cruel person. Even people like you will perhaps one day throw me out after beating me with your shoes."

ডাক্তার — ও-সব নিজের নিজের ভাব চাপতে হয়। প্রকাশ করা ভাল নয়। আমার ভাব কেউ বুঝলে না। My best friends (যারা আমার পরম বন্ধু) আমায় কঠোর নির্দয় মনে করে। এই তোমরা হয়তো আমায় জুতো মেরে তাড়াবে!

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - यह क्या कहते हो ? ऐसा मत कहो । ये लोग तुम्हें कितना प्यार करते हैं ! नववधु जिस उत्सुकता से शयन-गृह में पति की प्रतीक्षा करती है, उसी उत्सुकता से ये लोग तुम्हारे आने की बाट जोहते रहते हैं !

MASTER: "Don't say such a thing! They love you so much! They await your coming as eagerly as the bridesmaids in the bridal chamber await the coming of the groom."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — সেকি! — এরা তোমায় কত ভালবাসে! তুমি আসবে বলে বাসকসজ্জা করে জেগে থাকে।

गिरीश - (डाक्टर से) - सब लोगों की आप पर अत्यन्त श्रद्धा है ।

GIRISH: "Everyone has the greatest respect for you."

গিরিশ — Every one has the greatest respect for you. (সকলেই আপনাকে যৎপরোনাস্তি শ্রদ্ধা করে।)

डाक्टर - मेरा लड़का, यहाँ तक कि मेरी स्त्री भी मुझे निष्ठुर हृदय का मनुष्य समझती है । मेरा दोष केवल इतना ही है कि मैं किसी के पास अपने भाव प्रकट नहीं होने देता ।

DOCTOR: "My son and even my wife think of me as a hard-hearted person. My only crime is that I do not display my feelings."

ডাক্তার — আমার ছেলে — আমার স্ত্রী পর্যন্ত — আমায় মনে করে hard-hearted (স্নেহমমতা শূন্য), — কেননা, আমার দোষ এই যে, আমি ভাব কারু কাছে প্রকাশ করি না

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏ह्रदय कपाट खोल दो !🔱🙏

गिरीश - तब तो महाशय, आपके लिए यह अच्छा है कि आप अपने हृदय के कपाट खोल दें - कम से कम अपने मित्रों पर कृपा करके - यह सोचकर कि वे आपकी थाह नहीं पा रहे हैं ।

GIRISH: "In that case, sir, it would be wise for you to open the door of your heart, at least out of pity for your friends; for you see that your friends cannot otherwise understand you."

গিরিশ — তবে মহাশয়! আপনার মনের কবাট খোলা তো ভাল — at least out of pity for your friends (বন্ধুদের প্রতি অন্ততঃ কৃপা করে) — এই মনে করে যে, তারা আপনাকে বুঝতে পারছে না।

डाक्टर - अजी कहूँ क्या, तुम्हारे से भी मेरा भाव अधिक उमड़ चलता है । (नरेन्द्र से) मैं एकान्त में आँसू बहाया करता हूँ

DOCTOR: "Will you believe me when I say that my feelings get worked up even more than yours? (To Narendra) I shed tears in solitude.

ডাক্তার — বলব কি হে! তোমাদের চেয়েও আমার feelings worked-up হয় (অর্থাৎ আমার ভাব হয়)। (নরেন্দ্রের প্রতি) I shed tears in solitude (আমি একলা একলা বসে কাঁদি।)

  [ (27 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-127 ]

🔱🙏सद्गुरु जीव के पापों को ग्रहण करते हैं  - अवतार और नरेंद्र🔱🙏

[মহাপুরুষ ও জীবের পাপ গ্রহণ — অবতারাদি ও নরেন্দ্র ]

(श्रीरामकृष्ण से) "अच्छा, भाव के आवेश में तुम दूसरों की देह पर पैर रख देते हो, यह अच्छा नहीं ।"

(To Sri Ramakrishna) "Well, may I say something? When you are in ecstasy you place your foot on others' bodies. That is not good."

ডাক্তার (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — ভাল, তুমি ভাব হলে লোকের গায়ে পা দাও, সেটা ভাল নয়।

श्रीरामकृष्ण - मुझे यह ज्ञान थोड़े ही रहता है कि मैं किसी की देह पर पैर रख रहा हूँ ! डाक्टर - वह अच्छा नहीं, इतना तो बोध होता होगा ?

MASTER: "Do you think I know at that time that I am touching another with my foot?" DOCTOR: "You feel that it is not the right thing to do, don't you?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি কি জানতে পারি গা, কারু গায়ে পা দিচ্ছি কিনা!ডাক্তার — ওটা ভাল নয় — এটুকু তো বোধ হয়?

श्रीरामकृष्ण - भावावेश में मुझे क्या होता है, यह तुमसे कैसे कहूँ ? उस अवस्था के बाद सोचता हूँ कि शायद इसीलिए मुझे रोग हो रहा है । ईश्वर के भावावेश में मुझे उन्माद हो जाता है । उन्माद में इस तरह हो जाता है, मैं क्या करूँ ?

MASTER: "How can I explain to you what I experience in samadhi? After coming down from that state I think, sometimes, that my illness may be due to samadhi. The thing is, the thought of God makes me mad. All this is the result of my divine madness. How can I help it?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার ভাবাবস্থায় আমার কি হয় তা তোমায় কি বলব? সে অবস্থার পর এমন ভাবি, বুঝি রোগ হচ্ছে ওই জন্য! ঈশ্বরের ভাবে আমার উন্মাদ হয়। উন্মাদে এরূপ হয়, কি করব?

डाक्टर - ये (श्रीरामकृष्ण) मान गये । अपने कार्य के लिए ये पश्चाताप कर रहे हैं । यह कार्य अन्यायपूर्ण है, यह ज्ञान भी इन्हें है ।

DOCTOR: "Now he accepts my view. He expresses regret for what he does. He is conscious that the act is sinful."

ডাক্তার — ইনি মেনেছেন। He expresses regret for what he does; কাজটা sinful (অন্যায়) এটি বোধ আছে।

श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से ) - तू तो बड़ा चण्ट है, इसका अर्थ इन्हें समझा क्यों नहीं देता ?

MASTER (to Narendra): "You are very clever. Why don't you answer? Explain it all to the doctor."

শ্রীরামকৃষ্ণ (নরেন্দ্রের প্রতি) — তুই তো খুব শঠ (বুদ্ধিমান), তুই বল না; একে বুঝিয়ে দে না।

गिरीश - (डाक्टर से) - महाशय, आपने समझने में भूल की है । उन्हें इस बात का दुःख नहीं है कि उन्होंने समाधि-अवस्था में भक्तों के शरीर को स्पर्श किया । उनका स्वयं का शरीर नितान्त शुद्ध तथा पाप रहित है । वे जो दूसरों को इस प्रकार छूते हैं, यह उन्हीं लोगों के कल्याणार्थ है। कभी कभी उनके मन में यह बात उठती है कि शायद उन लोगों के पाप अपने ऊपर ले लेने के कारण ही उन्हें यह शारीरिक कष्ट हुआ हो ।

GIRISH (to the doctor): "Sir, you are mistaken. He is not expressing regret for touching the bodies of his devotees during samadhi. His own body is pure, untouched by any sin. That he touches others in this way is for their good. Sometimes he thinks that he may have got this illness by taking their sins upon himself.

গিরিশ (ডাক্তারের প্রতি) — মহাশয়! আপনি ভুল বুঝেছেন। উনি সে জন্য দুঃখিত হননি। এঁর দেহ শুদ্ধ — অপাপবিদ্ধ। ইনি জীবের মঙ্গলের জন্য তাদের স্পর্শ করেন। তাদের পাপ গ্রহণ করে এঁর রোগ হবার খুব সম্ভাবনা, তাই কখনও কখনও ভাবেন। 

"आप अपनी ही बात सोचिये । एक बार आप को उदरशूल हुआ था । उस समय क्या आप दुःखित नहीं होते थे कि रात को इतनी इतनी देर तक जगकर क्यों पढ़ा ? परन्तु इसका अर्थ क्या यह हुआ कि रात को देर तक पढ़ना कोई बुरी बात है ? इसी प्रकार वे (श्रीरामकृष्ण) भी सम्भव है, दुःखित हों कि वे रुग्ण हैं । परन्तु उससे उनके मन में यह भाव नहीं आता कि दूसरों के कल्याण के लिए उन्होंने उन लोगों को जो स्पर्श किया वह ठीक न था ।"

"Think of your own case. Once you suffered from colic. Didn't you have regrets at that time for sitting up and reading till very late at night? Does that prove that reading till the late hours of the night is, in itself, a bad thing? He [meaning Sri Ramakrishna] too may be sorry that he is ill. But that does not make him feel that it is wrong on his part to touch others for their welfare."

আপনার যখন কলিক (শূলবেদনা) হয়েছিল তখন আপনার কি রিগ্রেট (দুঃখ) হয় নাই, কেন রাত জেগে এত পড়তুম? তা বলে রাত জেগে পড়াটা কি অন্যায় কাজ? রোগের জন্য রিগ্রেট (দুঃখ-কষ্ট) হতে পারে। তা বলে জীবের মঙ্গলসাধনের স্পর্শ করাকে অন্যায় কাজ মনে করবেন না।

डाक्टर कुछ लज्जित से हुए और गिरीश से कहा, 'मैं तुमसे हार गया, अपनी चरण-धूलि मुझे लेने दो ।' (गिरीश के पैरों की धूल लेते हैं) (नरेन्द्र से) 'कोई कुछ कहे, गिरीश की बुद्धिमत्ता को मानना पड़ता है ।"

Dr. Sarkar felt rather embarrassed and said to Girish: "I confess my defeat at your hands. Give me the dust of your feet." He saluted Girish.

DOCTOR (to Narendra): "Whatever else one may say about him [meaning Girish], one must admit his intellectual powers."

ডাক্তার (অপ্রতিভ হইয়া, গিরিশের প্রতি) — (তোমার কাছে হেরে গেলুম, দাও পায়ের ধুলা দাও। (গিরিশের পদধূলি গ্রহণ)। (নরেন্দ্রের প্রতি) — আর কিছু নয় হে, his intellectual power (গিরিশের বুদ্ধিমত্তা) মানতে হবে।

नरेन्द्र - (डाक्टर से) - एक बात और देखिये । एक वैज्ञानिक आविष्कार के लिए आप अपने जीवन का उत्सर्ग कर सकते हैं, उस समय अपने शरीर और सुख दुःख पर ध्यान भी न देंगे परन्तु ईश्वर-सम्बन्धी विज्ञान सब विज्ञानों में बड़ा है । तब क्या यह उनके (श्रीरामकृष्ण के) लिए स्वाभाविक नहीं है कि वे ईश्वर की प्राप्ति के लिए अपना शरीर और स्वास्थ्य भी लगा दें ?

NARENDRA (to the doctor): "You may look at the thing from another standpoint. You can devote your life to scientific research without giving a thought to your health or comfort. But the Science of God is the grandest of all sciences. Isn't it natural for him to risk his health to realize Him?"

নরেন্দ্র (ডাক্তারের প্রতি) — আর-এককথা দেখুন। একটা Scientific discovery (জড় বিজ্ঞানের সত্য বাহির) করবার জন্য আপনি life devote (জীবন উৎসর্গ) করতে পারেন — শরীর, অসুখ ইত্যাদি কিছুই মানেন না। আর ঈশ্বরকে জানা grandest of all sciences (শ্রেষ্ঠ বিজ্ঞান)-এর জন্য ইনি health risk (শরীর নষ্ট হয় হউক, এরূপ মনের ভাব) করবেন না?

डाक्टर - जितने भी धर्माचार्य हुए हैं - ईशू, चैतन्य, बुद्ध, मुहम्मद इन सब में अन्त अन्त में अहंकार आ गया था – कहा - 'जो कुछ मैं कहता हूँ, वही ठीक है ।' आश्चर्यजनक !

DOCTOR: "All religious reformers, including Jesus, Chaitanya, Buddha, and Mohammed, were in the end filled with egotism. They all said, 'Whatever I say is alone true.' How shocking!"

ডাক্তার — যত religious reformer (ধর্মাচার্য) হয়েছে, Jesus (যীশু), চৈতন্য, বুদ্ধ, মহম্মদ শেষে সব অহংকারে পরিপূর্ণ — বলে, ‘আমি যা বললুম, তাই ঠিক!’ এ কি কথা!

गिरीश - (डाक्टर से) - महाशय, वही दोष आप पर भी लागू है । आप इन सब पर अहंकार का दोष लगा रहे हैं; आप उनमें बुराई देख रहे हैं । बस इसीलिए तो आप भी अहंकार का दोष लगाया जा सकता है । डाक्टर चुप हो गये ।

GIRISH (to the doctor): "Now, sir, you are committing the same mistake. You are accusing them all of egotism. You are finding fault with them. For that very reason you too can be accused of egotism.Dr. Sarkar remained silent.

গিরিশ (ডাক্তারের প্রতি) — মহাশয়, সে দোষ আপনারও হচ্ছে! আপনি একলা তাদের সকলের অহংকার আছে, এ দোষ ধরাতে ঠিক সেই দোষ আপনারও হচ্ছে।ডাক্তার নীরব হইলেন।

नरेन्द्र - (डाक्टर से) - इन्हें जो हम लोग पूजते हैं, वह पूजा मानो ईश्वर की ही पूजा है । इन बातों को सुनकर श्रीरामकृष्ण बालक की तरह हँस रहे हैं ।

NARENDRA (to the doctor): "We offer worship to him bordering on divine worship."At these words the Master laughed like a child.

নরেন্দ্র (ডাক্তারের প্রতি) — We offer to him Worship bordering on Divine Worship (এঁকে আমরা পূজা করি — সে পূজা ঈশ্বরের পূজার প্রায় কাছাকাছি) —ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আনন্দে বালকের ন্যায় হাসিতেছেন।

===========

>>>षड्भुजा गौरांग: श्री चैतन्य महाप्रभु का 6 भुजाओं वाला रूप। षड्भुजा मूर्ति # सार्थक सृजन की प्रसन्नता सर्वश्रेष्ठ होती है।  चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों को समय-समय पर अनेक रूपों के दर्शन कराये थे जिसमें से एक षट्भुज अंग दर्शन भी कराये थे। जिसके दर्शन करने से षट् भुजाओं में श्रीकृष्ण, श्रीराम व स्वयं चैतन्य ने अपने आपको प्रस्तुत कर एक ही रूप में तीनों दर्शन करा दिये थे। वृंदावन तथा मथुरा के श्रीषट्भुज महाप्रभु के मंदिर में आज भी श्रीगौरांग महाप्रभु के विग्रह में छः भुजाधारी महाप्रभु के अति दुर्लभ और सुंदर रूप के दर्शन होते है। इस रूप के दर्शन वृन्दावन तथा मथुरा के मंदिरों में होते हैं।  मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान के निकट पोतराकुण्ड के समीप गुरूगोविन्द गोड़िया मठ में भी इसी रूप के दर्शन होते हैं। मथुरा में इस रूप के श्रीविग्रह की स्थापना नवद्वीप पश्चिम बंगाल से आये गुरूगोविन्द दास ब्रह्मचारी बाबा महाराज ने की थी।  मथुरा में उन्होंने सन् 1960 में ज्ञानवापी पोतरा कुण्ड के निकट जमीन खरीदी और 1998 में इस षट्भुज महाप्रभु जी के श्रीविग्रह की स्थापना की थी। वर्तमान सेवायत श्री कृष्ण प्रसाद दत्तगुप्त ने बताया कि महाराजश्री को स्वप्न में उक्त मूर्ति की स्थापित करने का आदेश हुआ था। जिसके वाद गुरूगोविन्द दास जी ने 1998 में षटभुज महाप्रभु जी के श्रीविग्रह को यहां स्थापित किया था। तभी से निरन्तर यहां सेवापूजा चलती आ रही है।

'जब तक जीना , तब तक सीखना ' ~ अनुभव ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है !( दील्ली की अनुभावत्मक शिक्षा ही समाधान देखें। 

===============


  




गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

🔆🙏 चरित्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका [(SVHS -4.3)🔆🙏 चरित्र निर्माण में स्वपरामर्श (Autosuggestion):चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा। द्वारा संकल्प-ग्रहण की भूमिका]🔆🙏 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔆🙏 ' शिक्षा : समस्त रोगों का रामबाण ईलाज है "

🔱 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔱

 खण्ड - 4  

🙏शिक्षा समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि है ! 🙏

[Education is the panacea for all problems!]

(SVHS- 4.3)

🔆🙏 चरित्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका 🔆🙏 

[चरित्र निर्माण में स्वपरामर्श (Autosuggestion) द्वारा संकल्प-ग्रहण की भूमिका] 

    [1.>>शिक्षा का उद्देश्य इच्छाशक्ति को नियंत्रित कर उसे प्रभावी (effective-असरदार) बनाना है। The aim of education is to control the willpower to make it effective. ]
    श्रीरामकृष्ण की एक प्रसिद्द उक्ति है- "जब तक जीना, तब तक सीखना "('जावत बाँची तावत सीखी ! ' क्योंकि अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।) इच्छाशक्ति को प्रभावी (effective) बनाने के लिये उसे नियंत्रित करना ही शिक्षा का लक्ष्य  है। आज हमारे समाज की जो असहनीय परिस्थिति (परस्पर विश्वास की कमी) बन गयी है उसका कारण हमारी शिक्षा है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। अपना सुन्दर चरित्र गठन करके, हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम 'मनुष्य' बन सकते हैं, छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है।
[2.>>Another name for morality is unselfishness. #नैतिकता का दूसरा नाम निःस्वार्थपरता है।]
        अतएव पारस्परिक सम्बन्ध और पारस्परिक-श्रद्धा (Interpersonal relationship and mutual respect) इन दोनों विषयों के उपर शिक्षा प्रणाली में विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है। ये दोनों गुण निःस्वार्थपरता से प्राप्त होते हैं। नैतिकता का दूसरा नाम निःस्वार्थपरता है। स्वार्थ प्रेरित कार्य कभी नैतिक नहीं हो सकता है
     क्योंकि जैसे ही (कोई) व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्रश्रय देना चाहेगा, तुरन्त ही प्रतिस्पर्धा का प्रश्न उठ खड़ा होगा।  फलस्वरूप उसकी सम्पूर्ण शक्ति संघर्ष और घृणा में बर्बाद होने लगेगी। इसलिये जो शिक्षा उपरोक्त दोनों विषयों का ध्यान नहीं रखती हो, वह व्यर्थ है। यथार्थ शिक्षा हमें चलने, बोलने, कार्य करने  इत्यादि समस्त हाव-भाव को मानवोचित ढंग से करने के लिए निर्देशित करती है। 
[3.>>व्यावहारिक जीवन के अनुभवों से प्राप्त होने वाली शिक्षा ही चरित्र निर्माण में सहायक होती है। (Education gained from practical life experiences is helpful in building character.)
सही शिक्षा (यानि जीवन अनुभव से प्राप्त शिक्षा) ही चरित्र निर्माण में सहायक होती है। क्योंकि यथार्थ शिक्षा की बुनियाद एक सकारात्मक सोच (Positive thinking) पर आधारित होती है। मन के ऊपर अधिकार रखे बिना हम अपने विचारों को प्रयोजनीय मार्ग (इच्छानुसार क्षेत्र के लीक Rut) में नहीं प्रवाहित कर सकते। मनुष्योचित चरित्र गठित हो जाने के बाद ही कोई व्यक्ति अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति सही रूप में जागरूक हो सकता है। हर समय केवल अपने अधिकार की बात सोंचते रहने से कोई परिवार, समाज या देश सुचारू रूप में नहीं चल सकता। कर्तव्य की परवाह किये बिना किसी को उसका उचित अधिकार मिल भी नहीं सकता। हमारे मानवोचित एवं विवेकपूर्ण कर्तव्य के द्वारा ही समाज में नैतिक-मूल्यों की स्थापना हो सकती है। 
    हमारा पहला कर्तव्य है, दूसरों का सुख, दूसरों के कल्याण के बारे में सोचना। इसी के माध्यम से हम समाज के प्रति जागरूक बनते हैं। समाज के कल्याण के प्रति जागरूक बनने से ही हम अपना अधिकार अर्जित कर सकेंगे। यदि हम काम करने जायेंगे ही नहीं तो वेतन कैसे मिलेगा ? उसी प्रकार यदि हमें कर्तव्य-बोध ही न रहे तो हमें अधिकार क्यों मिलना चाहिये ? कर्तव्यबोध की शिक्षा नहीं मिलने पर चरित्र-निर्माण नहीं हो सकता। यदि हम सचमुच अपने समाज और देश का निर्माण करना अपना दायित्व समझते हैं, तो हममें से प्रत्येक को दूसरों के लिये अपने स्वार्थ का त्याग करना सीखना होगा। सर्वप्रथम स्वयं एक चरित्रवान  मनुष्य बनना पड़ेगा।
[4 .>> मानव कल्याण या समाजसेवा के कई स्तर हैं :गीता के सांख्य योग के अनुसार 3rd 'H हृदय ' का विकास (Development of heart) बाकी के 2H के विकास से  से कैसे भिन्न है (मन और शरीर के विकास से ) से कैसे भिन्न है -यह समझा देना उच्च स्तर की समाज सेवा है। ] 
       मानव कल्याण या समाजसेवा के कई स्तर हैं। न्नहीन को अन्नदान, बेघर लोगों के लिये आवास निर्माण, कर्तव्य-बोध जाग्रत होने के बाद, कर्म करने की पहल से (उद्यम से) मानसिक संपदा से समृद्ध करना आदि । फिर समाज सेवा का उच्चतम स्तर है मनुष्य को उसकी अध्यात्मिक संपदा के प्रति जाग्रत कर देना। यही सबसे बड़ी समाज सेवा है। हमारे पास जो अत्यन्त दुर्लभ पर स्वाभाविक सम्पदा है उसके बारे में कुछ नहीं जानने से उसे व्यर्थ में गवाँना पड़ेगा । जब हम अपनी अध्यात्मिक संपदा को आविष्कृत कर लेंगे तब हम इस बात को भी जान लेंगे कि हम सभी लोगों का अस्तित्व अलग- अलग नहीं है, बल्कि हम सभी लोगो के भीतर एक आन्तरिक एकत्व का सूत्र  विद्यमान है - ऐसी समझ #होते ही हम आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्मबोध अर्जित कर लेंगे। [(#"जे जार इष्ट देव सेइ तार आत्मा " काली-कृष्ण एक हैं- की धारणा होते ही हमलोग आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्म बोध अर्जित कर लेंगे। ] 
        हमारी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है आध्यात्मिक दृष्टि का जागरण-(ह्रदय का विकास) इससे एक सीढ़ी नीचे उतर कर पहले  अपने मन को  उच्च-भावों से भर लेना होगा।  इसी को मन की शक्ति का विकास या मन को प्रशिक्षित करना कहते हैं। इसके एक सीढ़ी नीचे उतर कर हम लोग शारीरिक व्यायाम और पौष्टिक आहार द्वारा अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट या शक्तिशाली बना सकते हैं। 
[5.>>अच्छी आदतें अच्छे चरित्र का निर्माण क्यों करेंगी?  Why good habits 
will form good character? ভালো অভ্যাসে চরিত্র গঠন হবে কেন ?কোন পরিস্থিতিতে কোন ব্যক্তি যে রকম আচরণ করবে তার অভ্যাস কি ধরনের হয়েছে তার উপর। ] 
   अच्छे अभ्यास से किस प्रकार चरित्र गठन होगा ? कोई व्यक्ति किसी  परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी पुरानी आदतों (ingrained habits) पर निर्भर करेगा। कोई व्यक्ति निर्जन स्थान में मूल्यवान वस्तु गिरी हुई देखकर नजरें बचाकर उसे अपने अधिकार में लेने की चेष्टा करेगा, दूसरा उसके असली मालिक को वापस करने की चेष्टा करेगा। 
      हमारा मन एक हद तक कैमरे के समान है। जिस वस्तु के सामने कैमरा निर्दिष्ट होगा उसके पर्दे पर सिर्फ उसी वस्तु  का चित्र बनेगा। किन्तु मनुष्य का मन किसी कैमरा की अपेक्षा अधिक उन्नत किस्म का यंत्र है। इसीलिए मन रूपी कैमरे में  शब्द और रूप के आलावा किसी वस्तु के गंध, स्पर्श और स्वाद के छाप भी पड़ जाते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रियाँ से युक्त हमारा मन रूपी कैमरा हर समय जगत के असंख्य वस्तुओं की छाप हमारे चित्त पर डालता रहता है। मेरे अपने विचार, वाणी और कर्म का जितना गहरा छाप (लकीर) मेरे चित्त पर पड़ेगा , उतना गहरा छाप दूसरों के विचार , कथन और कार्य के द्वारा नहीं पड़ सकता है। एक ही कार्य का बार- बार अभ्यास करने से उन्हीं विचारों, शब्दों और कार्यों के आदतों की लकीरें हमारे चित्त के ऊपर भी पड़ जाती है, तथा ये लकीरें क्रमशः गहरी होती जाती हैं। इस प्रकार हमलोग बैल-गाड़ी में जुते बैलों के समान ही एक ही लकीर पर बार- बार चलते रहते हैं।
       इसीलिये जब हम बार-बार विवेक का प्रयोग करके अपनी (विवेकसम्पन्न) बुद्धि को केवल पवित्र विचारों का संग्रह करने में दक्ष बना लेंगे, तब हमारे चित्त पर केवल सदविचारों की ही लकीरें गहरी पड़ेंगी। फिर हम यदि यही सदअभ्यास दुहराते रहेंगे तो हमारा चरित्र अच्छा बने बिना नहीं रहेगा ! इसलिये स्वयं का और दूसरों का कल्याण के लिए पहले अपना चरित्र अच्छा बनाना होगा। इसके लिये सही शिक्षा प्राप्त कर ('जब तक जीना तब तक सीखना ' जैसे अनुभव से शिक्षा प्राप्त करते हुए) हमें स्वयं अपना चरित्र गठित करना होगा। इसके लिये निरंतर अभ्यास आवश्यक है।   
        इस शिक्षा को ग्रहण करने के लिये बड़े- बड़े विद्यालय भवन  की आवश्यकता नहीं है। घर पर हों या बाहर, दिन-रात अच्छी आदतों को अर्जित करने की शिक्षा प्राप्त करने से जीवन में असफलता नहीं आयेगी। हम स्वयं अपने जीवन को सुन्दर रूप में गढ़ेंगे और अपने देश-वासियों का कल्याण करने की क्षमता अर्जित करके, अपने जीवन को सार्थक बना सकेंगे
  
----
>>>गीता अध्याय-2 सांख्य योग: विश्लेषणात्मक ज्ञान का योग (sum of analytical knowledge) :  जीवन के खेल में सफलता का रहस्य : (Secret of success in the game of life:) 
यह सांख्ययोग वास्तव में ज्ञानयोग है। ज्ञानयोग को बुद्धियोग भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ पर बुद्धि का अर्थ है संख्या। अत: जिससे आत्मतत्त्व का दर्शन हो वह सांख्ययोग है। आत्मा एवं शरीर दोनों पृथक्-पृथक् हैं फिर भी अज्ञानी जन शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं, अत: शरीर के नाश होने से आत्मा के नाश का ज्ञान कर लेते हैं।
साभार https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/2/hi]

[🔆🙏"शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। और धर्म का अर्थ उस दिव्यता को व्यक्त करना है जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। " -स्वामी विवेकानन्द।
 "शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं , यह भी नहीं। जिस मनःसंयोग के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है , उसे शिक्षा कहते हैं। "]  
🔆🙏दादा कहते थे - नेता को इन तीन बातों की पक्की धारणा रखनी होगी। ->>बुद्धि और विवेक का अंतर क्या है ? धर्म क्या है ?श्रद्धा क्या है?  और मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? जानो और बताओ ! 

>>1 आज हमारे समाज में, संगठन में यहाँ तक कि परिवार में भी जो असहनीय स्थिति पैदा हो गयी है, उसका कारण परस्पर विश्वास की कमी है; जो  हमारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली से उत्पन्न हो गयी है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। इसका समाधान स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति -"Be and Make " है, जो भारत की प्राचीन  गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में आधारित है।  अपना जीवन और चरित्र सुन्दर रूप से  गठन करके हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम "मनुष्य " बन सकते हैं। छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है। अर्थात C-IN-C नवनीदा~ C-C दीपक दा  Be and Make परम्परा में प्रशिक्षित और महामण्डल से चपरास प्राप्त "मनुष्य " क्रमशः कैसे बन सकते हैंऔर बना सकते हैं -प्रशिक्षणार्थियों को इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है!  अर्थात पशु की अवस्था से, मनुष्य में और मनुष्य से देवमानव- (51 to 100 % निःस्वार्थी-जीवनमुक्त शिक्षक या नेता) के रूप में क्रमशः कैसे विकसित हुआ जाता है -इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है !]
>>>5.  अच्छी आदतें अच्छे चरित्र का निर्माण क्यों करेंगी?  Why good habits will form good character? कोई व्यक्ति किसी विशेष परिस्थिति में कैसा व्यवहार करेगा यह उसकी पुसनी आदतों या अन्तर्निहित  प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। [अर्थात अच्छी आदतों का निर्माण करने से अच्छे चरित्र का निर्माण कैसे होगा ? कोई व्यक्ति किसी  परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी अन्तर्निहित प्रवृत्तियों (inherent tendencies) के  पर निर्भर करेगा।]
(How a person will behave in a particular situation depends on his ingrained habits (inherent tendencies). 3H विकसित करने के 5 अच्छे अभ्यासों से अच्छी आदतें बनेंगी (सर्वमंगल की प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग आदि का पुनः-पुनः अभ्यास करने से अच्छी आदत बनेंगी), अच्छी आदतें पुरानी हो जाने से अच्छी प्रवृत्ति, और अच्छी प्रवृत्तियों के कुल समाहार को ही अच्छा चरित्र कहते हैं। विवेकानन्द कहते थे - " हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखो कि तुम क्या सोचते हो ? जो तुम सोचते हो, वो बन जाओगे। यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे, अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे। एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका है।] 
=========