*परिच्छेद- १२०*
दक्षिणेश्वर मन्दिर में*
[ ( 27 अगस्त 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-120] (१)
*पण्डित श्यामपद पर कृपा*
श्रीरामकृष्ण दो-एक भक्तों के साथ कमरे में बैठे हुए हैं । शाम के पाँच बजे का समय है । श्रावण कृष्णा द्वितीया, २७ अगस्त १८८५ ।
श्रीरामकृष्ण की बीमारी का सूत्रपात्र हो चुका है । फिर भी भक्तों के आने पर वे शरीर पर ध्यान नहीं देते, उनके साथ दिन भर बातचीत करते रहते हैं, - कभी गाना गाते हैं ।
श्रीयुत मधु डाक्टर प्रायः नाव पर चढ़कर आया करते हैं - श्रीरामकृष्ण की चिकित्सा के लिए । भक्तगण बहुत ही चिन्तित हो रहे हैं, उनकी इच्छा है, मधु डाक्टर रोज देख जाया करें । मास्टर श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं, ‘ये अनुभवी हैं, ये अगर रोज देखें तो अच्छा हो ।’
पण्डित श्यामापद भट्टाचार्य ने आकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन किये । ये आँटपुर मौजे में रहते हैं । सन्ध्या हो गयी, अतएव ‘सन्ध्या कर लूँ’ कहकर पण्डित श्यामापदजी गंगा की ओर - चाँदनीघाट चले गये । सन्ध्या करते करते पण्डितजी को एक बड़ा अद्भुत दर्शन हुआ ।
सन्ध्या समाप्त कर वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण माता का नाम-स्मरण समाप्त करके तखत पर बैठे हुए हैं । पाँवपोश पर मास्टर बैठे हैं, राखाल और लाटू आदि कमरे में आ-जा रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण – (मास्टर से, पण्डितजी को इशारे से बताकर) - ये बड़े अच्छे आदमी हैं । (पण्डितजी से) 'नेति नेति' करके जहाँ मन को विराम मिलता है, वहीं वे हैं ।
“राजा सात ड्योढ़ियों के पार रहते हैं । पहली ड्योढ़ी में किसी ने जाकर देखा, एक धनी मनुष्य बहुत से आदमियों को लेकर बैठा हुआ है, बड़े ठाट-बाट से । राजा को देखने के लिए जो मनुष्य गया हुआ था, उसने अपने साथवाले से पूछा, ‘क्या राजा यही है ?’ साथवाले ने जरा मुस्कराकर कहा, ‘नहीं’ ।
“दूसरी ड्योढ़ी तथा अन्य ड्योढ़ियों में भी उसने इसी तरह कहा । वह जितना ही बढ़ता था, उसे उतना ही ऐश्वर्य दीख पड़ता था, उतनी ही तड़क-भड़क । जब वह सातों ड्योढ़ियों को पार कर गया तब उसने अपने साथवाले से फिर नहीं पूछा, राजा के अतुल ऐश्वर्य को देखकर अवाक् होकर खड़ा रह गया - समझ गया राजा यही है, इसमें कोई सन्देह नहीं ।”
पण्डितजी - माया के राज्य [मन की चहारदीवारी] को पार कर जाने से उनके दर्शन होते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - उनके दर्शन हो जाने के बाद दिखता है कि यह माया और जीव-जगत् वे ही हुए हैं । यह संसार 'धोखे की टट्टी' है - स्वप्नवत् है । यह बोध तभी होता है जब साधक 'नेति नेति' का विचार करता है । उनके दर्शन हो जाने पर यही संसार 'मौज की कुटिया' हो जाता है ।
श्रीरामकृष्ण - “केवल शास्त्रों के पाठ से क्या होगा ? पण्डित लोग सिर्फ विचार किया करते हैं ।”
पण्डितजी - जब मुझे कोई 'पण्डित' कहता है, तो घृणा होती है ।
श्रीरामकृष्ण - यह उनकी कृपा है । पण्डित लोग केवल तर्क-वितर्क में लगे रहते हैं । परन्तु किसी ने दूध का नाम मात्र सुना है और किसी ने दूध देखा है । दर्शन हो जाने पर सब को नारायण देखोगे - देखोगे, नारायण ही सब कुछ हुए हैं ।
पण्डितजी नारायण का स्तव सुना रहे हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्द में मग्न हैं ।
पण्डितजी - सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्रसमदर्शनः ॥
[।।6.29।। योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी, आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।। ]
श्रीरामकृष्ण - आपने अध्यात्म-रामायण देखी है ?
पण्डितजी - जी हाँ, कुछ-कुछ देखी है ।
श्रीरामकृष्ण - ज्ञान और भक्ति से वह पूर्ण है । 'शबरी' का उपाख्यान, 'अहिल्या' की स्तुति, सब भक्ति से पूर्ण हैं ।
“परन्तु एक बात है । वे विषय-बुद्धि से बहुत दूर हैं ।”
पण्डितजी - जहाँ विषय बुद्धि है, वे वहाँ से 'सुदूरम्' हैं । और जहाँ वह बात नहीं है, वहाँ वे 'अदूरम्' हैं । उत्तरपाड़ा के एक जमींदार मुखर्जी को मैने देखा, उम्र पूरी हो गयी है और वह बैठा हुआ उपन्यास सुन रहा था ।
श्रीरामकृष्ण - अध्यात्म रामायण में एक बात और लिखी हुई है, वह यह कि जीव-जगत् वे ही हुए हैं ।
पण्डितजी आनन्दित होकर, यमलार्जुन के द्वारा की गयी इसी भाव की स्तुति की आवृत्ति कर रहे हैं, श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध से (श्लोक 10.10.29-31 )--
कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्यः पुरुषः परः।
व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मण विदुः।।
त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः।
त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः।।30।।
त्वं महान्प्रकृतिः साक्षाद्रजः सत्त्वतमोमयी।
त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविचारवित्।।31।।
सम्पूर्ण स्तुति सुनकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । खड़े हुए हैं । पण्डितजी बैठे हैं । पण्डितजी की गोद और छाती पर एक पैर रखकर श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।
पण्डितजी चरण धारण करके कह रहे हैं, ‘गुरो, चैतन्यं देहि ।’ श्रीरामकृष्ण छोटे तखत के पास पूर्वास्य खड़े हुए हैं ।
कमरे से पंडितजी के चले जाने पर श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, “मैं जो कुछ कहता हूँ, वह पूरा उतर रहा है न ? जो लोग अन्तर से उन्हें पुकारेंगे, उन्हें यहाँ आना होगा।”
रात के दस बजे सूजी की थोड़ीसी खीर खाकर श्रीरामकृष्ण ने शयन किया । मणि से कहा, ‘पैरों में जरा हाथ तो फेर दो ।’
कुछ देर बाद उन्होंने देह और छाती में भी हाथ फेर देने के लिए कहा ।
एक झपकी के बाद उन्होंने मणि से कहा, ‘तुम आओ – सोओ । देखूँ, अगर अकेले में आँख लगे ।’ फिर रामलाल से कहा, 'कमरे के भीतर ये (मणि) और राखाल चाहे तो सो सकते हैं ।
(२)
[शुक्रवार, 28 अगस्त, 1885-श्री रामकृष्ण वचनामृत-120]
*श्रीरामकृष्ण तथा ईशू *
सबेरा हुआ । श्रीरामकृष्ण उठकर 'काली माता' का स्मरण कर रहे हैं । शरीर अस्वस्थ रहने के कारण भक्तों को वह मधुर नाम सुनायी न पड़ा । प्रातःकृत्य समाप्त करके श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे । श्री रामकृष्ण मणि से पूछ रहे हैं, ‘अच्छा, रोग क्यों हुआ ?’
मणि - जी, साधारण मनुष्यों की तरह अगर आपकी भी सब बातें न होंगी तो जीवों में आपके निकट आने का साहस फिर कैसे होगा ? वे देखते हैं, इस देह में इतनी बीमारी है, फिर भी आप ईश्वर को छोड़ और कुछ भी नहीं जानते ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - बलराम ने भी कहा, ‘आप ही को अगर यह है तो हमें फिर क्यों नहीं होगा ?’ सीता के शोक से जब राम धनुष्य न उठा सके तब लक्ष्मण को बड़ा आश्चर्य हुआ । परन्तु "पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी आँसू बहाना पड़ता है ।”
मणि - भक्तों का दुःख देखकर ईशू भी साधारण मनुष्यों की तरह रोये थे ।
श्रीरामकृष्ण - क्या हुआ था ?
मणि - जी, मार्था और मेरी दो बहनें थीं । उनके एक भाई थे – लैजेरस । ये तीनों ईशू के भक्त थे। लैजेरस का देहान्त हो गया । ईशू उनके घर जा रहे थे । रास्ते में एक बहन, मेरी, दौड़ी हुई गयी और उनके पैरों पर गिरकर रोने लगी और कहा, ‘प्रभो, तुम अगर आ जाते तो वह न मरता ।’ उसका रोना देखकर ईशू भी रोये थे ।
“फिर ईशु लेजारस की कब्र के पास जाकर उसका नाम ले-लेकर पुकारने लगे, उठो लैजेरस ! लैजेरस तुरन्त जी उठा और कब्र में से निकलकर उनके पास आ गया ।”
श्रीरामकृष्ण - मैं ये सब बातें नहीं कर सकता ।
मणि - आप खुद नहीं करते, क्योंकि आपकी इच्छा नहीं होती । ये सब सिद्धियाँ हैं, इसीलिए आप नहीं करते । उनका प्रयोग करने पर आदमी का मन देह की ओर चला जाता है, शुद्धा भक्ति की ओर नहीं । इसीलिए आप नहीं करते ।
“आपके साथ ईशू का बहुत कुछ मेल होता है ।”
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - और क्या क्या मिलता है ?
मणि - आप भक्तों से न तो व्रत करने के लिए कहते हैं, न किसी दूसरी कठोर साधना के लिए । खाने-पीने के लिए भी कोई कठोर नियम नहीं है । ईशू के शिष्यों ने रविवार (विश्राम दिवस-Sabbath) को नियमानुकूल उपवास नहीं किया, इसलिए जो लोग शास्त्र मानकर चलते थे(Pharisees), उन लोगों ने उनका तिरस्कार किया । ईशू ने कहा, ‘वे लोग खायेंगे और खूब खायेंगे । जब तक वर के साथ हैं तब तक तो बाराती लोग आनन्द करेंगे ही ।’
श्रीरामकृष्ण - इसका क्या अर्थ है ?
मणि - अर्थात् जब तक अवतारी पुरुष के साथ हैं तब तक अन्तरंग शिष्य सब आनन्द में ही रहेंगे। - क्यों वे निरानन्द का भाव लायें ? जब वे निजधाम चले जायेंगे , तब उनके (अन्तरंग शिष्यों के) निरानन्द के दिन आयेंगे ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - और भी कुछ मिलता है ?
मणि - जी, आप जिस तरह कहते हैं, ‘लड़कों में कामिनी और कांचन का प्रवेश नहीं हुआ; वे उपदेशों की धारणा कर सकेंगे, - जैसे नयी हण्डी में दूध रखना; दही जमायी हण्डी में रखने से दूध बिगड़ सकता हैं’; ईशू भी इसी तरह कहते थे ।
श्रीरामकृष्ण - क्या कहते थे ?
मणि – ‘पुरानी बोतल में शराब रखने से बोतल फूट सकती है । पुराने कपड़े में नया पेवन लगाने पर कपड़ा जल्दी फट जाता है ।’
“आप जैसा कहते हैं, ‘माँ और आप एक है’, उसी तरह वे भी कहते थे, ‘पिता और मैं एक हूँ’ ।”
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - और कुछ ?
मणि - आप जैसा कहते हैं, ‘व्याकुल होकर पुकारने से वे सुनेंगे ।’ वे भी कहते थे, 'व्याकुल होकर द्वार पर धक्का मारो, द्वार खुल जायेगा ।’
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, यदि ईश्वर फिर अवतार के रूप में प्रकट हुए हैं तो वे पूर्ण रूप में हैं, अथवा अंश रूप में अथवा कला रूप में ?
मणि - जी, मैं तो पूर्ण, अंश और कला, यह अच्छी तरह समझता ही नहीं, परन्तु जैसा आपने कहा था, चारदीवार में एक गोल छेद, यह खूब समझ गया हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - क्या, बताओ तो जरा ?
मणि - चारदीवार के भीतर एक गोल छेद है । उस छेद से चारदीवार के उस तरफ के मैदान का कुछ अंश दीख पड़ता है । उसी तरह आप के भीतर से उस अनन्त ईश्वर का कुछ अंश दीख पड़ता है ।
श्रीरामकृष्ण- हाँ, दो-तीन कोस तक बराबर दीख पड़ता है ।
चाँदनी घाट में गंगास्नान कर मणि फिर श्रीरामकृष्ण के पास आये । दिन के आठ बजे होंगे । मणि लाटू से श्रीजगन्नाथजी के सीत (भात) माँग रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण मणि के पास आकर कह रहे हैं – ‘इसका (भात -प्रसाद खाने का) नियमपूर्वक पालन करते रहना । जो लोग भक्त हैं, प्रसाद बिना पाये वे कुछ खा नहीं सकते ।’
मणि- मैं बलरामबाबू के यहाँ से सीत ले आया हूँ, कल से रोज दो-एक सीत पा लिया करता हूँ ।
मणि भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर रहे हैं । फिर बिदा होने लगे । श्रीरामकृष्ण सस्नेह कह रहे हैं – ‘तुम कुछ सबेरे आ जाया करो, भादों की धूप बड़ी खराब होती है ।’
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[यमलार्जुन मोक्ष *बचपन में एक बार भगवान् श्री कृष्ण को यशोदा जी ने ऊखल में बाँध दिया और आप अन्य कार्य में लग गयीं। उसी स्थान पर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्द अर्जुन के दो वृक्ष एक दूसरे के अत्यंत समीप खड़े थे। भगवान ने उनके बीच में प्रवेश किया, किन्तु वह ओखली आड़ी पड़ गयी, उस समय उन्होंने जो जोर किया, तो पेंड़ उखड़ गए; और दो दिव्य पुरुष प्रकट हुए। वृक्षयोनि में जन्म लेने से पूर्व, ये कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव थे। अत्यधिक दौलतमन्द होने के कारण ये मदान्ध हो गये थे। एक बार उन्हें नग्न होकर जलक्रीड़ा करते देख नारद जी ने उनको उपकार करने के लिए वृक्षयोनि भोगने का शाप दिया। फिर जब उन्होंने बहुत अनुनय-विनय की तो उन पर दया करके वह वर दिया कि श्रीकृष्ण भगवान की समीपता पाकर तुम फिर देवयोनि को प्राप्त होगे। यमलार्जुन के उखड़ने पर वे नलकूबर और मणिग्रीव भगवान के समीप आये और नतमस्तक से प्रणाम करके हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे- श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध से (श्लोक 10.10.29-31 )--
कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्यः पुरुषः परः।
व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मण विदुः।।
अनुवाद - हे कृष्ण, हे कृष्ण ! आपकी योगशक्ति अचिन्त्य है। आप सर्वोच्च आदि-पुरुष हैं, आप समस्त कारणों के कारण हैं, आप पास रह कर भी दूर हैं और इस भौतिक सृष्टि से परे हैं। विद्वान ब्राह्मण जानते हैं (सर्वं खल्विदं ब्रह्म—इस महवाक्य के आधार पर) कि आप सर्वेसर्वा हैं और यह विराट विश्व अपने स्थूल तथा सूक्ष्म रूपों में आपका ही स्वरूप है।
नलकूवर तथा मणिग्रीव नामक दोनों देवता अपनी निरन्तर स्मृति के कारण नारद की कृपा से कृष्ण की श्रेष्ठता को समझ सके। अब उन्होंने स्वीकार किया, “यह आपकी योजना थी कि नारदमुनि के आशीर्वाद से हमारा उद्धार हो। अत: आप परम योगी हैं। आप भूत, वर्तमान तथा भविष्य—सबके जानने वाले हैं। आपने ऐसी सुन्दर योजना बनाई थी कि यद्यपि हम यहाँ पर जुड़वाँ अर्जुन वृक्ष के रूप में खड़े रहे किन्तु हमारे उद्धार के लिए छोटे बालक के रूप में आप प्रकट हुए हैं। यह आपकी ही अचिन्त्य योजना थी। आप परम पुरुष होने के कारण कुछ भी कर सकते हैं।”
हे कृष्ण! (आप निपट गोपाल नहीं हैं।) आपका स्वभाव अचिन्त्य है। आप परम पुरुष हैं क्योंकि आप सबके कारण (आद्य) हैं। (केवल निमित्त कारण ही नहीं किन्तु आप उपादान कारण भी हैं) क्योंकि स्थूल-सूक्ष्मरूप यह जगत् आपका ही स्वरूप है, ऐसा ब्रह्मज्ञानी जानते हैं।।29।।
त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः।
त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः।।30।।
आप हर वस्तु के नियन्ता भगवान् हैं। आप ही हर जीव का शरीर, प्राण, अहंकार तथा इन्द्रियाँ हैं। आप काल, परम पुरुष,अक्षय नियन्ता विष्णु हैं।
(आप जगत् के नियन्ता भी हैं क्योंकि) आप सकल जीवों के देह, प्राण, अहंकार और इन्द्रियों के (अंतर्यामीरूप से) ईश्वर हैं। (शंका होती है कि इस संसार का निमित्त कारण यदि 'काल ' है, तथा प्रकृति जगत का उपादान कारण है और प्रकृति से उत्पन्न हुआ महत् ही जगत् के आकार में परिणत होता है तो कर्ता तथा नियन्ता पुरुष ही सिद्ध होता है। इसका समाधान डेढ़ श्लोक से करते हैं, आप तो अविकारी हैं और पुरुष आपका अंश है, महत से तृणपर्यन्त सब कार्य ही हैं, इस कारण) हे भगवान! आप ही काल हैं। (काल ही आपकी लीला है) आप ही विष्णु हैं और आप ही ह्रास और वृद्धि से शून्य (अव्यय) ईश्वर हैं।।30।।
त्वं महान्प्रकृतिः साक्षाद्रजः सत्त्वतमोमयी।
त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविचारवित्।।31।।
आप तात्कालिक कारण और तीन गुणों—सतो, रजो तथा तमो गुणों—वाली भौतिक प्रकृति हैं। आप इस भौतिक जगत के आदि कारण हैं। आप परमात्मा हैं। अतएव आप हर एक जीव के हृदय की बात को जानने वाले हैं।
रजः- सत्त्व तमोगुणमयी प्रकृति (शक्ति) आप ही हैं; (यह ऊपर कहा गया है कि प्रकृति के क्षोभक काल भी आप ही हैं) प्रकृति का कार्य महत भी आप ही हैं; प्रकृति के प्रवर्तक पुरुष भी आप ही हैं, क्योंकि वह भी आपका ही अंश है। सबके साक्षी भी आप ही हैं। अर्थात् देह, इंद्रिय, अंतःकरण के रोग, राग, प्रीति आदि विकारों को जानने वाले आप ही हैं।।31।।]
'He' (Pandit Shyamapada Bhattacharya Nyayabagish) returned to the Master's room and sat on the floor. Sri Ramakrishna had just finished meditation and the chanting of the holy names. He was sitting on the small couch and M. on the foot-rug. Rakhal, Latu, and the others were in and out of the room.
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