मेरे बारे में

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

🔱🙏 `एक नया युवा आन्दोलन' 卐🙏 `A New Youth Movement ' 🔱🙏

`एक नया युवा आन्दोलन'  

`A New Youth Movement '
 
प्रस्तावना 
      अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा आयोजित ' वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर ' के प्रशिक्षण का मुख्य मुद्दा या मूल विषय शब्द (Particular Theme Word) है- 'Be and Make' ! अर्थात तुम स्वयं मनुष्य (आध्यात्मिक^)  बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो ! युवा प्रशिक्षण शिविरों में इसी मूल-विषय के ऊपर होने वाले चर्चाओं को महामण्डल की द्विभाषी संवाद पत्रिका 'Vivek-Jivan' में  सम्पादकीय निबन्ध के रूप में क्रमवार ढंग से प्रकाशित किया गया था।  यह नया प्रकाशन उसी संवाद-पत्रिका में छपे कुछ सम्पादकीय लेखों का एक संकलन है। इन चयनित सम्पादकीय लेखों को क्रमवार ढंग से एक साथ मिलाकर पढ़ने पर महामण्डल का वास्तविक स्वरूप एवं उसके आविर्भूत होने की तार्किक पृष्ठभूमि, उसका आदर्श एवं उद्देश्य एवं तथा स्वामी विवेकानन्द द्वारा युवाओं को सौंपे गए कठिन कार्य  -'' The Task ''  तथा उसकी कार्यपद्धति का प्रामाणिक परिचय (authentic introduction) प्राप्त हो सकता है। 
     जो युवा महामण्डल से प्यार करते हैं तथा उसके चरित्र-निर्माण आन्दोलन को आगे बढ़ाने में रूचि रखते हैं उन्हें विशेष रूप से इस पुस्तिका के प्रत्येक निबंध को बहुत ध्यान पूर्वक पढ़ना चाहिये। और, जिस प्रकार कोई गाय चारा खाने के बाद पागुर करके उसे अच्छी तरह से पचा लेती हैउसी प्रकार हमें भी प्रत्येक पैरा समाप्ति (paragraph break) के बाद थोड़ा रुक कर जो कुछ पढ़ें हैं, उतने अंश के मर्म पर चिंतन-मनन करके उसे आत्मसात (Chew and Digest) करने की चेष्टा करनी चाहिये।
        तात्पर्य यह कि महामण्डल-आंदोलन के सभी वरिष्ठ कर्मियों अर्थात 'महामण्डल के कार्यकारिणी समिति' के सभी सदस्यों को, विशेष रूप से इस मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण-कारी आंदोलन के भावी नेताओं को (would be Leaders को) इस पुस्तिका में प्रकाशित प्रत्येक निबंध का गंभीरता से अध्यन करके इसके विचारों को आत्मसात कर लेना चाहिये।       
     आशा की जाती है कि उनके अतिरिक्त अन्य वैसे लोग, जो भारत की  प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आधारित शिक्षा-पद्धति में अभिरुचि रखते हैं तथा रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त साहित्य को बड़े चाव से पढ़ते हैं; किन्तु अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के आदर्श , उद्देश्य और कार्य-पद्धति तथा उसके आदर्श वाक्य- 'Be and Make' के मर्म से परिचित नहीं होने के कारण, अभी तक इस संगठन के साथ संयुक्त नहीं सके हैं, यह पुस्तिका उनके लिये भी विशेष लाभप्रद सिद्ध होगी।
     यदि हम अपने वर्तमान सामाजिक परिदृश्य तथा  विशेष रूप से युवा-वर्ग की वर्तमान अवस्था को गहराई से समझने का प्रयास करें, तो यह पुस्तिका हमारे युवाओं के मन में वैसे उपयोगी सकारात्मक विचारों को अवश्य उत्पन्न  (Provoke) कर देगी जो अपरिहार्य हैं, किन्तु जिन्हें  वोट बैंक की राजनीति (vote bank politics) के कारण आम तौर पर प्रोत्साहित नहीं किया जाता है। 
   यदि वैसे प्रबुद्ध युवा जो वर्तमान में प्रचलित केवल नाम-यश पाने के उद्देश्य से और ' क्लबों ' के माध्यम से  की जाने वाली `घिसे-पिटे समाजसेवा' (stereotype social service) के अनुगामी न बनकर यदि सचमुच भारत माता को विश्वगुरु के आसन पर बैठाने के लिए कटिबद्ध हों , तो उन्हें युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त इस वैश्विक धर्म - 'Be and Make'  के ऊपर हमें नए सीरे से चिन्तन-मनन करना होगा; तथा इस [आध्यात्मिक] मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में जुट जाना होगा। 
      No idea here is an out-flow of any particular individual human brain." -- इस महामण्डल पुस्तिका में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष  के मानव-मस्तिष्क में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है!  इस पुस्तिका के लेखों में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है! एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ जोड़ने का उद्देश्य स्वयं के लिये नाम-यश या और कुछ कमाना नहीं है, बल्कि अपने व्यवहारिक जीवन में स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के प्रयोग द्वारा 'एक नये भारत का निर्माण', 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण' या "हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण'  करने हेतु युवाओं को अनुप्राणित करने का एक विनम्र प्रयास है।
       यदि इसके लिए किसी नए शब्द- निर्माण (coinage) की अनुमति दी जाये, तो इस पुस्तिका में वर्णित विचारों को 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण' करने के विषय में स्वामी विवेकानन्द के प्रायौगिक विचार का अध्यन  या  " An attempt to study Applied Vivekananda in the national context."  की संज्ञा दी जा सकती है।
      इस पुस्तिका के हिन्दी अनुवादक का ऐसा मानना है कि इस पुस्तिका में व्यक्त 'एक नये भारत का निर्माण' करने के विषय में स्वामी  विवेकानन्द के प्रायौगिक विचारों को सही तरीके से आत्मसात कर लेने पर "स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु महाफला वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा">'BE AND MAKE' पद्धति में प्रशिक्षित कोई भी कुशल-कर्मी (Skilled worker, नेता या जीवनमुक्त-शिक्षक) आध्यात्मिक मनुष्य का निर्माण करने के तकनीक और श्रेष्ठता (merit-श्रेय) को आसानी से समझ सकता है।    
       'A NEW YOUTH MOVEMENT' शीर्षक यह अंग्रेजी पुस्तिका प्रथम बार सितम्बर, 1987 में महामण्डल द्वारा प्रकाशित की गयी थी, जो इस पुस्तिका के हिन्दी अनुवादक के लिए पहला वार्षिक महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर था। महामण्डल के द्वारा इसके प्रथम हिन्दी (अनुवाद) का प्रकाशन दिनांक -9 फ़रवरी 2015 को हुआ।  (जब नवनीदा शरीर में थे ! और इस विषय पर उनके साथ पूरी चर्चा भी हुई थी!)  
[First English Publication -September 1987 
Printed by 
P.K. Das
Pelican Press
(जलसिंह प्रेस ?)
85 B.B. Ganguli Street,

Calcutta-12] 

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल 
का 
हिन्दी प्रकाशन विभाग,
तारा निकेतन,
बिशुनपुर आश्रम रोड 
झुमरीतिलैया -825409
कोडरमा, झारखण्ड 
(मोबाईल : 9386699949)

================================ 

स्वामी विवेकानन्द द्वारा अभिकल्पित 

`एक नया युवा आंदोलन !'

  'A New Youth Movement'

[Designed by Swami Vivekananda] 
 
विषय-सूचि 

1. नियत कार्य (The Work)
2. उन्नततर मनुष्यों का उन्नततर समाज (Tend Individuals, Tend Society) 
3. आत्मा और हृदय (Heart and Soul) 
4. संगठनात्मक एकता और नेतृत्व की अनिवार्यता (The Need of Organizational unity  and Leadership) 
5. बिखरी हुई इच्छाशक्ति का समन्वय  (Will and Unite)  
6. मनुष्य बनो और बनाओ का निहितार्थ (Implication of 'Be and Make')
7. शरीर-मन-हृदय का सामंजस्य पूर्ण विकास (For Total Development)
8. सौंपा हुआ कार्य तथा क्रियान्वन पद्धति (The Task and the Way)  
9. हमारी सीमा (Our Limitation)
10. लक्ष्य (परम-सत्य) तक पहुँचने का मार्ग (The Object and the Way)
11. लक्ष्य और मार्ग की पुनर्व्याख्या (The Way Further Explained) 
12. क्या आवश्यक है ? (What is Essential) 
13. महामण्डल की भूमिका (The Role of the Mahamandal) 
14. कार्य की योजना (The Plan of Work)
15. उद्देश्य और कार्यपद्धति (The Idea and the Method)
16. स्व-परामर्श (Speaking to Ourselves)
17. हमारा कर्तव्य (Our Duties) 
18. हमें क्या चाहिये ? (What is Wanted) 

================================

卐🙏एक नया युवा आंदोलन 卐🙏

 [A New Youth Movement] 

1.

नियत कार्य 

[The Work]  


[युवाओं के वैयक्तिक जीवन-गठन का कार्य]


[ The task of individual Life- building of youth]
 
   [🔱1. >>गीता  में कहा गया है,' मोहात् (अविवेकात् ^*) आरभ्यते कर्म यत्' - तत् तामसम् उच्यते॥ " वह कार्य तामसिक (बुरा ) है, जो इसमें शामिल 'आध्यात्मिक मुद्दों' पर विचार किए बिना केवल मोहवश (अविवेकत् ^ * 1) किया जाता है।  [18.25] 
That  work is Tamasic (dark) , which is undertaken through delusion, (अविवेकात् ^*) and without consideration of the the 'spiritual issues' involved .     

           यह बात कई लोगों को समझ में नहीं आती कि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल आखिर करना क्या चाहता है ? [उसका उद्देश्य क्या है ?] विगत 55 वर्षों में महामण्डल की द्विभाषी संवाद पत्रिका 'विवेक-जीवन' तथा अन्य दूसरी महामण्डल पुस्तिकाओं में इस विषय पर बहुत कुछ लिखा गया है, तथा कई युवा सम्मेलनों, प्रशिक्षण शिविरों एवं अन्यत्र भी इसके ऊपर बहुत कुछ कहा गया है। उन सबको यहाँ दोहराना संभव नहीं है, किन्तु जो लोग महामण्डल कार्य में लगे हुए हैं, उनके लाभ के लिये प्रमुख बातों की पुनरावृत्ति संक्षेप में की जा सकती है। यदि इस पुस्तिका का अध्यन करने से, महामण्डल के कार्यों के बारे में दूसरे लोगों की समझ भी स्पष्टतर होती है, तो वह एक अतिरिक्त लाभ होगा। 
       [महामण्डल का उद्देश्य है - 'भारत का कल्याण !' या 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' का निर्माण, लेकिन] कोई अकेला व्यक्ति या कोई एक संगठन भारत के कल्याण के लिये जितना कुछ किए जाने की आवश्यकता है, वह सब पूरा कर देने का उत्तरदायित्व नहीं उठा सकता। गीता (१८.२५) में  कहा गया है -
अनुबन्धं क्षयं हिंसाम् अनवेक्ष्य च पौरुषम्।

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।18.25।।

[अनुबन्धम् (भावि अशुभम्) क्षयं हिंसाम् (प्राणिपीडनम्) अनवेक्ष्य च पौरुषम्। मोहात् (अविवेकात् ^*) आरभ्यते कर्म यत्' - तत् तामसम् उच्यते॥ 
।।18.25।। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सार्मथ्य (पौरुषम्) का विचार न करके केवल मोहवश (अविवेकात् ^*eternal-mortal, शाश्वत-नश्वर,आध्यात्मिक- भौतिक, विवेक-प्रयोग किये बिना) आरम्भ किया जाता है, वह कर्म तामसिक कहलाता है।।
अनुबन्ध को -- अन्त में होनेवाला जो परिणाम है उसे अनुबन्ध कहते हैं उसको, और क्षय को -कर्म के करने में जो शक्ति का या धन का क्षय होता है उसको,  हिंसा को - दूसरों के हितों को (अर्थात राष्ट्र या संघ के हितों को) चोट पहुँचाने की संभावना को और पौरुष को -- अमुक कर्म को मैं समाप्त कर सकता हूँ ऐसी अपनी सामर्थ्य को, इस प्रकार अनुबन्ध से लेकर पौरुष तक के इन समस्त भावों पर विवेक -विचार किये बिना  -- इनकी परवा न करके, जो कर्म (धर्म) मोह से -- अविवेक  से आरम्भ किया जाता है वह तामस या तमोगुण-पूर्वक किया हुआ कहा जाता है।अतएव किसी कार्य-योजना के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं (pros and cons) को समझे बिना, तथा सफलता की सम्भावना आदि विषयों पर गहराई से विवेचना किये बिना उसे क्रियान्वित करने के लिए कूद पड़ना बुद्धिमानी का कार्य (prudence -विवेकपूर्ण) नहीं कहा जा सकता। 
 [🔱2.>>>Whatever Work is done with vidya, knowledge [about Om], through shraddha, and meditation backed by upanishad -tradition (Open eyed Meditation),  becomes most effective. 

जो कोई कार्य विद्या, [ओम के बारे में] ज्ञान , श्रद्धा और उपनिषद-परम्परा द्वारा समर्थित ध्यान (Open eyed Meditation -खुली आँखों वाला ध्यान) से किया जाता है, वह सबसे प्रभावी होता है। ]
छान्दोग्य उपनिषद् ^*2 (01.01.10) में कहा गया है -- " तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद । नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति।" [-वेत्तापि कर्म करोति, अवेत्तापि अत: अनियम:।Two kinds of people work: one kind knowing what Om means and another kind knowing nothing about it. Both kinds of people, however, are able to work with strength they derive from Om. But knowledge and ignorance produce different results. Whatever Work is done with vidya, knowledge [about Om], through shraddha, faith, and backed by upanishad-meditation, that alone becomes most effective. which is undertaken with adequate understanding, faith, conviction and sincerity, and the required know-how . With understanding of the negative and the positive aspects, if a work is taken up, it has a better chance for success.]
 दो प्रकार के लोग कार्य करते हैं : वे जो ओम के बारे में जानते हैं (इन्द्रियातीत सत्य या आत्मा के नाम ॐ ओम् के बारे में) जानते हैं और दूसरे जो इसके बारे में नहीं जानते हैं। यद्यपि वे दोनों इस ओम् (परमात्मा) से प्राप्त शक्ति की सहायता से ही अपने कार्य सम्पन्न करते हैं। लेकिन विद्या और अविद्या में भेद है । ज्ञान (ओम का ज्ञान)  और अज्ञान अलग-अलग परिणाम देते हैं। जिस किसी कार्य को विद्या से (ओम के बारे में समझ कर), श्रद्धा, विश्वास, ईमानदारी के साथ-साथ उपनिषद -परम्परा के अनुसार विधिवत ध्यान के लिए अपेक्षित तकनीकी जानकारी या (required know-how) प्राप्त करने के बाद, उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को समझते हुए प्रारम्भ किया जाता है , वह कार्य अधिक प्रभावशाली होता है, तथा उस कार्य में (3H विकास के 5 अभ्यास में) सफलता मिलने की सम्भावना भी अधिक होती है।
[इसीलिए वेदवित् अर्थात सामगान करने वाले अथवा ब्रह्मवित् इस ओम् को ही 'उद्गीथ' करते हैं या उच्च स्वर में गाते हैं।]
[🔱3.>>>Especially the work of personal 'Life building' of the  youth as would be Leader or 'Mali of Phulwari'. 

विशेष रूप से भावी नेता या 'फुलवारी के माली' युवाओं के वैयक्तिक जीवन-गठन का कार्य।] 
        इसलिए महामण्डल ने स्वयं के ऊपर भारत में सम्पूर्ण आर्थिक या राजनीतिक परिवर्तन लाने, बेरोजगारी, निरक्षरता को दूर करने या देश की जनसंख्या में वृद्धि के साथ करोड़ो  लोगों के अच्छे स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने, जैसी बड़ी-बड़ी योजनाओं की जिम्मेवारी नहीं ली है। इतने बड़े-बड़े कार्यों को करने के बजाय इसने कार्य का एक छोटा सा कार्य-क्षेत्र, युवाओं का 'जीवन गठन ' करना चुन लिया है। क्योंकि आज हमलोग जिन बड़ी-बड़ी समस्याओं - से जूझ रहे हैं, उनके हल की एकमात्र कुंजी है [ 'रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित भावी 'फुलवारी के माली' युवाओं को सौंपा गया -एकमात्र नियत कार्य है] 'मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार-प्रसार।  विशेष रूप से  युवाओं का वैयक्तिक जीवन-गठन करते हुए देश में 'चरित्रवान- मनुष्यों' की संख्या में वृद्धि करना है। 
        यह कार्य-योजना अन्य किसी के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं स्वामी विवेकानन्द के द्वारा ही बनाई गई थी। उन्होंने सदैव समस्यायों के मूल में पहुंचकर, उसके जड़ पर कार्य करने के लिए प्रेरित किया था। तथा भावी युग के 'विकसित मनुष्य' का एक आदर्श (प्रारूप) प्रस्तुत करते हुए, ऐसे मनुष्य के निर्माण की पद्धति भी हमें बतलाई थी। इसीलिए महामण्डल उनके दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करने का प्रयत्न कर रहा है। अन्य तथाकथित समाजसेवी संगठनों द्वारा देखने में 'समाज कल्याण' के नाम पर, युवा शक्ति-  जो समाज को अक्सर विपदा में डाल देती है, को नियंत्रित के उद्देश्य से  जिस प्रकार के आयोजन (युवा महोत्सव आदि) किये जाते हैं, महामण्डल भी उसी ढर्रे पर चलते हुए जिस-तिस व्यक्ति (या क्लब) से कोई परियोजना उधार लेने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता। यह पाया गया है कि अन्य तरीकों को आजमाने से अन्ततः कोई फायदा नहीं होता है, इसलिए महामण्डल केवल स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित मार्ग - ' Be and Make ' का ही अनुसरण करना चाहता है!  
[🔱-4 >>> We must 'Be and Make' a Flower Gardener or leader, trained in making the life-flower of youth to bloom! That is, a skilled (good) worker should not be short-sighted.

हमें युवाओं के जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने में प्रशिक्षित फुलवारी का माली या नेता बनना और बनाना चाहिए! यानि एक कुशल कर्मी को अदूरदर्शी नहीं होना चाहिए। ]  

        निस्संदेह यह कार्य सबसे कठिन कार्यों में से एक है !  यह एक ऐसा असामान्य कार्य है, जो किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं करता। लोगों से इस कार्य के लिए सहानुभूति या प्रशंसा के दो शब्द भी सुनाई नहीं देते।  [अन्नदान, वस्त्रदान, रिलीफ वर्क, या छठ-पूजा आदि में रोड-घाट पर झालर लटका देने आदि से बिपरीत, यह कार्य 'thankless' कार्य है; अर्थात साधारण लोगों से धन्यवाद पाने के अयोग्य है।]
 किन्तु एक 'कुशल कर्मी' [The good worker or 'Skilled  worker'- -श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में) प्रशिक्षित नेता (या जीवनमुक्त शिक्षक) मोहात् (अविवेकात्-unreasonable,indiscreet ) अविवेकपूर्ण नहीं, बल्कि विवेक-विचार पूर्वक चुने हुए (स्वचयनित) इस कठिन कार्य -(Be and Make) की श्रेष्ठता (merit-श्रेय) को जानता है। इसलिए वह अपने लिए कोई पुरस्कार ( reward ) नहीं चाहता; और दूसरों से मिलनेवाली तालियों की कोई परवाह नहीं करता। वह जानता है कि समस्त देशवासियों का कल्याण करने या समाज में सभी की भलाई करने की इच्छा से अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गढ़ लेना ही सबसे बड़ी समाज सेवा है। अन्य कोई समाज सेवा इससे बढ़कर लाभप्रद नहीं है। यदि किसी युवक के पास एक स्वस्थ-सबल शरीर और सभी का कल्याण करने की दृढ़ इच्छाशक्ति के आलावा अन्य कोई पूंजी न भी हो, किन्तु उसे अपने आदर्श, उद्देश्य और निर्भीक प्रयास के प्रति अटल विश्वास हो तो वह चरित्र-निर्माण के उसी ठोस बुनियाद पर अपने जीवन का गठन कर सकता है। अपना सुन्दर चरित्र गढ़ लेने के बाद यदि वह चाहे तो बिना कोई पूँजी निवेश किये या योजना बनाये ही  दूसरों को भी मनुष्यत्व (आध्यत्मिकता) अर्जित करने में सहायता कर सकता है। और यदि कोई व्यक्ति पूरी ईमानदारी के साथ 'आध्यात्मिक मनुष्य बनो और बनाओ' के प्रक्रम (process) को निरंतर जारी रखता हो तो अंततोगत्वा इसी से समाज की  बहुत बड़ी सेवा की जा सकेगी। इसीलिए हमें अदूरदर्शी नहीं होना चाहिए। 
 यदि हम इस प्राथमिक कार्य (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का कार्य) को किये बिना सीधा समाज सेवा में कूद पड़ेंगे तो वह निम्न स्तर की समाज-सेवा होगी। गीता में कहा गया है -
 
 दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

            बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49।।

[।।2.49।। दूरेण हि अवरं कर्म, बुद्धियोगात्, धनञ्जय । बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ, कृपणाः, फलहेतवः ॥- " Work (with desire) is verily far inferior, to that performed with the mind undisturbed by thoughts of result. O Dhananjaya, seek refuse in this evenness of mind. Wretched are they who act for results. ]   
बुद्धियोग-(समता) की अपेक्षा सकाम कर्म अत्यन्त ही निकृष्ट है। (कर्मफल की चिन्ताओं से मुक्त शान्त मन से किया हुआ कर्म निश्चित रूप से चिन्तित क्षुब्ध मन से किए गये कर्म से श्रेष्ठतर होता है।) इसलिये  हे धनञ्जय ! तू बुद्धि की समता (evenness of mind) का आश्रय ले; क्योंकि फल की इच्छा करने वाले कृपण (दीन) हैं।    
[🔱5. >>>  If we build our life properly, by subjugating our mind, we will come to know more about our own 'Inner Divinity and Power !'
 
" अगर हम  मन को अपना दास बनाकर, अपने जीवन को सही ढंग से गढ़ लेते हैं, तो अपनी 'आंतरिक दिव्यता और शक्ति' के बारे में और अधिक जानने लगेंगे !"]

     अगर हम [शरीर-मन को अपना दास बनाकर] अपने जीवन का निर्माण ठीक ढंग से कर लेते हैं, तो अपनी 'अंतर्निहित पवित्रता और शक्ति' [Inner Purity and Power- अन्तर्निहित दिव्यता या निःस्वार्थपरता तथा उसे अभिव्यक्त करने की शक्ति को विकसित करने की शिक्षा और धर्म।] के विषय में हमारी धारणा और अधिक स्पष्टतर हो जायेगी। फिर यह जान लेने के बाद कि "प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है" अर्थात वही पवित्रता और शक्ति तो प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान है - तब हमारे द्वारा किया जाने वाला निःस्वार्थ कर्म सबों के भीतर विद्यमान 'पवित्रता और शक्ति' की पूजा (सेवा या साधना ^*3 ) बन जायेगा। ऐसा ही कर्म - ' सेवा को साधना' समझकर किया गया कर्म  ही, मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकता है। गीता: में कहा गया है -

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

                स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।

[।।18.46।। यतः प्रवृत्तिः भूतानां येन सर्वं इदं ततम्। स्वकर्मणा तम् अभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः । 'He from Whom all the beings have evolved and by Whom all this is pervaded worshiping Him (Sri Ramakrishna, Ma Sarda, Swami Vivekananda) with his own duty, man attains perfection.'
जिस (परमात्मा या आत्मा) से भूतमात्र की प्रवृत्ति अर्थात् उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, उस (परमात्मा) की स्वकर्म द्वारा पूजा (शिव ज्ञान से जीव सेवा या साधना) करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है।
         साधारण व्यक्ति जैसे ही स्वामी विवेकानन्द के नाम से जुड़े किसी संगठन के विषय में सुनता है, तो उनकी कल्पना शक्ति उसे समाज के अंतिम सिरे पर स्थित पददलित और दीन-हीन मनुष्यों की सेवा (अन्नदान, वस्त्रदान, रिलीफ वर्क) के क्षेत्र में ले जाती है। यह सही है कि स्वामी जी ऐसे कार्य होते हुए देखना भी चाहते थे। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने इस प्रकार के कार्य को आरम्भ करने से पहले आत्म-विकास करके (3H विकास के 5 अभ्यास करके ) इन कार्यों को सम्पादित करने योग्य मनुष्य (चरित्रवान या आध्यात्मिक मनुष्य) बनने का जो निर्देश दिया है उसे हम प्रायः भूल जाते हैं। हमलोग प्राथमिक शिक्षा या स्कूली शिक्षा समाप्त किये बिना ही कॉलेज में प्रवेश लेने के लिये दौड़ पड़ते हैं; और हमारी बुद्धि हमें यहीं धोखा दे जाती है! इसीलिये भगवान श्रीकृष्ण हमें समत्वबुद्धि की शरण लेने का उपदेश देते हैं [" बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ " -गीता 2.49]और उपनिषद के ऋषि हमें विद्या की शरण में जाने की सीख देते हैं ! ["अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते।।' ईशावास्यो-पनिषद्, 11] स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रस्तावित कार्य-योजना (proposed action plan) "Be and Make" भी पूर्णतः  गीता और उपनिषद द्वारा निर्देशित उपरोक्त उपाय का ही अनुसरण करती है! यही कारण है कि उनके द्वारा निर्देशित समाज सेवा, अन्य सभी प्रकार की समाज सेवा से बिल्कुल भिन्न है। महामण्डल विदेशों से थोक भाव में आयातित समाज सुधार के सिद्धान्तों एवं समाजसेवी संस्थाओं की कार्य पद्धति का अनुसरण नहीं करता, बल्कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त योजना का ही अनुसरण करना चाहता है। 
   [🔱-6 >>> One must be ready to pay the right price for the valued commodity (ब्रह्म) !
मूल्यवान वस्तु (ब्रह्म) खरीदना हो , तो हमें उसकी  सही कीमत चुकाने के लिए  तैयार रहना चाहिए। [यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । शीश दियो जो गुरु (विवेकानन्द)  मिले, तो भी सस्ता जान।।] 

         समस्याओं का त्वरित निदान करने के पक्ष में दिया गया तर्क बहुत कमजोर है; तथा ऐसी सोच समत्वबुद्धि (equanimity) की कमी के कारण उत्पन्न होती है। कोई मूल्यवान वस्तु प्राप्त करनी हो तो हमें उसका उचित मूल्य चुकाने के लिए भी अवश्य तैयार रहना चाहिए। साधारण मनुष्य केवल जिस 'स्थूल समाज सेवा' (Concrete social service) को ही समझ पाते हैं, ( जैसे -अन्नदान, वस्त्रदान, रिलीफ-वर्क, या मोतियाबिंद का ऑपरेशन आदि इन्द्रिय-गम्य समाजसेवा को समझ पाते हैं।) वे सभी अच्छे कार्य हैं, किन्तु महामण्डल समस्त पीड़ित मानवता की दशा को सुधारने के लिए बड़े पैमाने पर उस प्रकार के कार्यों को करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर कभी नहीं लेगा। और 'समता में स्थित बुद्धि' हमें यह बतला देगी कि इस प्रकार के 'लोक दिखावे की समाज-सेवा' (जैसे बड़े पैमाने पर अन्नदान, वस्त्रदान, रिलिफ-वर्क, या बड़े-बड़े स्कूलभवन और हॉस्पिटल आदि बनवाने) से अपने को अलग रखने में, हमारे संगठन की विफलता तो कतई नहीं है। यदि युवाओं को उचित शिक्षा (युवाओं के वैयक्तिक जीवन-गठन की शिक्षा) देने का कार्य (महामण्डल द्वारा चुना गया सीमित कार्यक्षेत्रपहले किया जाये, तो वे प्रशिक्षित युवा जब अपने रोजगार (livelihood-रोजीरोटी कमाने) के लिए या स्वैच्छिक सेवा के लिए (voluntary service -मीशन या संघ ) जिस किसी भी कार्य-क्षेत्र में जायेंगे तो वे वहाँ सभी मायनों में हज़ार गुना अधिक (concrete service) ठोस समाज सेवा करने में समर्थ होंगे।
किन्तु, इस प्राथमिक कार्य [युवाओं के वैयक्तिक जीवन-गठन का कार्य] किये बिना कोई भी कार्य (भारत के कल्याण की कोई योजना) सफल नहीं हो सकेगा।
    महामण्डल ने अपनी अल्प-क्षमता के अनुसार समाज सेवा के कार्य को केवल अपने साध्य को पाने का एक साधन के रूप में ही ग्रहण करता है।  इसने जिस कार्य को (युवाओं के वैयक्तिक जीवन-गठन के कार्य को) अपने लक्ष्य के रूप में चुना है उसे पूरा करने की तकनीकी जानकारी भी इसके पास है। और अब -[55 वर्षों बाद ^] तो उसका परिणाम भी साफ- साफ दिखाई पड़ने लगा है। अतएव  महामण्डल ने केवल स्वामी विवेकानन्द के परमर्शों को स्वीकार करके मात्र उन्हीं के बताये रास्ते पर चलने का निर्णय ले लिया है !
===============
[महामण्डल पुस्तिका ` एक नया युवा आंदोलन ' [A New Youth Movement ] के प्रथम अध्याय ' नियत कार्य' (The Work) का सारांश (gist)  क्या है ?]
=========

2.

' उन्नत मनुष्य, उन्नत समाज' 

['युवाओं को स्वामीजी आह्वान- वैक्तिक जीवन-गठन द्वारा समाज को उन्नत करो !]  

[Tend individuals , Tend Society !]

(Swamiji's Call to the youth)      

🔱1. >> मानव समाज की समस्त शक्ति युवाओं में निहित है: [All energy of human society lies in the youth.]      
क्या आप जानते हैं कि आज पूरे विश्व में युवाओं की संख्या लगभग 180 करोड़ है और इसका एक तिहाई हिस्सा भारत की युवा आबादी है ? अर्थात वर्तमान समय में भारत की युवा आबादी लगभग 60 करोड़ है। और हम सभी जानते हैं कि मानव समाज की समस्त शक्तियाँ सदैव युवाओं के हाथों में ही रही हैं। जनसांख्यिकीय मानदंडों के अनुसार 15-35 आयु वर्ग के लोगों को आमतौर पर युवा माना जाता है। 
🔱2.>> विवेकानंद युवाओं के साथ कभी भी असहज नहीं थे। क्या कारण है ?   Vivekananda was never uncomfortable with the youth. What is the reason ?
        स्वामी विवेकानन्द को भारत के युवाओं पर अटूट विश्वास था। किन्तु, यह देख कर बड़ा आश्चर्य होता है कि सुकरात और अरस्तु जैसे प्राचीन पाश्चात्य दिग्गज भी अपने समय के युवाओं से सन्तुष्ट नहीं रहते थे। वे हमेशा युवाओं के दोष ही गिनवाते रहते थे और हर समय उन्हें बुरा-भला कहते रहते थे। आज भी गौर करें तो हम पायेंगे कि बुजुर्ग लोग आमतौर से युवाओं को पसंद नहीं करते हैं।  वे किसी तरह उन्हें केवल बर्दास्त भर करते हैं। लेकिन हमें उतना ही आश्चर्य होता है जब हम स्वामी विवेकानन्द की वाणी और रचनाओं में कहीं भी युवाओं के लिए एक भी कटु वचन ढूंढने में असफल रह जाते हैं। वे युवाओं के साथ कभी असहज नहीं होते थे, इसका क्या कारण हो सकता है ? 
 [🔱3. >>> वेद में ब्रह्म के विषय एक सुन्दर विशेषण है-'यविष्ठ' अर्थात जो सबसे युवा हो !   In Veda Beautiful adjective about Brahman is yavistha, the most youthful. 
अग्नि का  आह्वान करते हुए,वेदों में कहा गया है -' नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥ ऋग्वेद १.२६.२॥ - हे अग्नि! तुम सर्वदा युवक, श्रेष्ठ और तेजस्वी हो। हमारे होमकर्ता और प्रकाशमय वाक्यों द्वारा पुरोहित (नेता) चुने जाने योग्य होकर बैठो। Sit ever to be chosen, as our priest (Leader)., most youthful, through our hymns, Agni, through our heavenly word.
'श्रेष्ठं यविष्ठ भारताऽग्ने द्युमन्तमा भर । वसो पुरुस्पृहं रयिम् ।। RV2.7.1. 
भारत वह देश है जहां के ऊर्जावान युवा सब विद्याओं में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान हैं, सब का भला करने वाले हैं, सुखी हैं और जिऩ्हें ऋषिगण उपदेश देते हैं कि वे कल्याणमयी, विवेकशील तथा सर्वप्रिय लक्ष्मी को धारण करें ।
In Bharat all to have temperaments enlightened by zeal that is fired by desires to have excellent prosperity.]  
स्वामी विवेकानन्द ने मनुष्य के अस्तित्व को केवल बाह्य तौर पर ही नहीं बल्कि उसकी गहराई में  देखा था। उन्होंने यह देखा था कि इन युवाओं के भीतर वही एक ही परम सत्य, वास्तविक सत्ता,  ब्रह्म, या सर्वशक्तिमान आत्मा- जो सच्चिदानन्द स्वरूप है, विद्यमान हैं ! इसीलिये उन्होंने कहा था कि सभी प्राणियों का शरीर एक मन्दिर है पर मानव-शरीर इनमें ताजमहल जैसा सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है। इसीलिये तो प्रत्येक जीव विशेषतः मनुष्य उनके लिये पूजा की वस्तु है। भारतवर्ष के गौरवशाली अतीत की ओर देखने और वेदों की और उन्मुख होने पर हम पाते हैं कि वहाँ ब्रह्म के लिए एक उत्तम विशेषण 'यविष्ठ ' का प्रयोग देखने को मिलता है जिसका अर्थ है - 'सबसे युवा।' इसीलिए हमारे देवताओं (देव-सेनापति कार्तिक) का व्यक्तित्व शारीरिक सौष्ठव और मानसिक तेज की दृष्टि से किसी प्रतिभावान नायक (हीरो-योद्धा ) की तरह ही दीखता है! और स्वामीजी  सभी युवाओं को इन्हीं चिरयुवा देवताओं (यविष्ठ,C-IN-C नवनी दा ?) की तरह बनते देखना चाहते थे।
  [🔱4. >>> हमारे सभी दुखों की जड़ अविद्या है। तो पहले इस अज्ञानता को दूर करो। The root of all our sufferings is ignorance. So, dispel this ignorance .]  
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं को ध्यान में रखते हुए कहा था - " तुम्हारे लिए अपने भावी जीवन का मार्ग चुन लेने का यही सबसे उपयुक्त समय है। यदि तुम युवावस्था में ही भावी जीवन के विषय में ठोस निर्णय नहीं ले सके तो जीवन रूपी धन का सदुपयोग करने में विफल हो जाओगे।  यदि हम अपनी इन्द्रियों, मन और जीवन की वृत्तियों को बहिर्मुखी बनाये रखें तो इस देवदुर्लभ मानव-जीवन को सार्थक करने में असफल रह जायेंगे। इसलिए, स्वामीजी ने युवाओं में कदाचित दोषों के रहते हुए भी कभी उनका तिरस्कार नहीं किया वरन उत्साहित ही किया है , आशाप्रद बातें ही सुनाई हैं। युवा अपने भविष्य के प्रति आस्था अर्जित कर सकें ऐसी शक्तिदायी विचारों और आदर्शों से उन्हें प्रेरित किया है।  वे कहते हैं,  " संसार की ओर ऑंखें उठाकर देखो, मनुष्य क्यों दुःख भोगता है ? वेदान्त की दृष्टि से समस्त दुःखो कारण है - 'अज्ञान' (अविद्या)। इसलिए सत्य के आलोक का संधान कर इस अज्ञान से मुक्त हो जाओ। तुम यदि इस आलोक की थोड़ी भी झलक पा लेते हो तो तुम स्वयं ही जान पाओगे कि तुम्हारा भावी जीवन कितना महान है! यदि हम अपने व्यक्ति जीवन को इस सत्य (प्रेम,निःस्वार्थपरता) के आलोक से आलोकित कर पायें, और हममें से कई लोग यदि उस आलोक की एक झलक देख सकें, तो सम्पूर्ण मानवजाति का भविष्य ही उज्ज्वल हो जायेगा। और मानव जाति की अन्तर्निहित दिव्यता के ऊपर अज्ञान के अंधकार का जो घनीभूत आवरण पड़ा है वह छिन्न-भिन्न हो जायेगा। तभी हमारी अन्तर्निहित दिव्यता (पूर्णता) का जागरण होगा और हमारी वास्तविक उन्नति होगी!
 [🔱5. >>> धन और वासना के लिए लालसा, और आध्यात्मिकता की कमी हमारे मन में युद्धोन्माद (युद्ध करने की इच्छा) को जगा देती है।
 Hankering for wealth and lust, and lack of spirituality brings in our mind the desire for waging wars.]
       वर्तमान जगत में कितने ही विरोधाभास देखे जा सकते हैं। एक ओर दरिद्रता दिखती है तो दूसरी ओर प्रचुरता। एक ओर विज्ञान प्रगति कर रहा है , तो दूसरी ओर वास्तविक ज्ञान (परम् सत्य के ज्ञान) का घोर अभाव भी दृष्टिगोचर हो रहा है। आधुनिक युग के मनुष्यों के जीवन में एक ओर जहाँ सच्चे सुख और आनन्द का अभाव है , वहीं वह युद्ध की विभीषिका से भी त्रस्त है। मानव समाज नाना प्रकार के घात -प्रतिघात , द्वन्द्व , घृणा आदि से भी अभिशप्त है। चरम स्वार्थपरता और लोभ , चारों ओर पसरा हुआ दिखाई देता है। समाज में सहानुभूति और सद्भावना का घोर अभाव है। धन की तथा भोगों की आकांक्षा ने हमारे वास्तविक जीवन को आच्छन्न कर रखा है। आज ' वासना और स्वर्ण ' (lust and gold या जमीन-जायदाद ) में आसक्ति और आध्यात्मिकता के अभाव ने हमारी अन्तर्दृष्टि पर गहरा आवरण डाल दिया है। मनुष्यों में आध्यात्मिकता का यह अभाव ही मानव -समाज में घृणा , हिंसा , द्वेष , द्वंद्व और युद्धोन्माद उत्पन्न कर रहा है।  
        [🔱6. >> बाह्यजगत के विज्ञान (अविद्या) और अन्तर्जगत के विज्ञान (विद्या) में समन्वय लाने के कौशल को सीखो ! २१ वीं सदी में अद्वैत आश्रम, मायावती, हिमालय के निर्देशन में 'BE AND MAKE' - आंदोलन आध्यात्मिक शिक्षक बनो और बनाओ का आंदोलन सार्वभौमिक धर्म  का रूप ग्रहण कर लेगा। Synthesize the science of outer world, and the science of the inner world. ]
        हजारों वर्ष पूर्व ही हमारे पूर्वज ऋषियों ने इसी मनीषा ज्ञान (wisdom) की खोज कर इसे बाहर लाने का प्रयत्न किया था। उन्होंने बहिर्विज्ञान (अपरा विद्या) और अन्तर्विज्ञान (परा विद्या) दोनों में समान रूप से प्रगति की थी एवं इनके बीच समन्वय स्थापित की थी। किन्तु, काल के प्रवाह में हमने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करने के कौशल को भुला दिया। इस युग में , विशेषकर उन्नीसवीं सदी के शेष भाग में स्वामी विवेकानन्द ने इन दोनों विज्ञानों (धर्मों) के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास नये सिरे से किया है। जिनके पास ठीक-ठीक देखने की क्षमता है , वे देख सकेंगे कि वर्तमान युग में अन्तर्विज्ञान और बहिर्विज्ञान के बीच समन्वय पुनः स्थापित होने लगा है। महामण्डल प्रकाशित पुस्तिका "In Store for the Twenty-First Century" में इस सम्भावना की एक झलक देखी जा सकती है।  
 [🔱7. >> हमारे समाज में वेदान्त रहित "सामाजिक न्याय " की बात करना केवल एक राजनितिक नारा या खोखला शब्द है। 
"Equality' in our society without Vedanta is just a hollow word. 
      आज के भारतवर्ष (मोदी युग से पूर्व के भारत) में हम क्या देखते हैं? मात्र 20 घराने ऐसे हैं जिनका देश के अधिकांश धन पर प्रभुत्व है। दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुसार भारत की जनसंख्या का 74.5 प्रतिशत सुविधा से वंचित वर्ग (underprivileged  class) में आता है। अभी भी लगभग 30 फीसदी लोग अशिक्षा के अंधकार में डूबे हुए हैं। जिन्हें साक्षर कहा जाता है उनमें 30 से 35 प्रतिशत लोग ठीक से अपना नाम भी नहीं लिख सकते। इन्हें शिक्षित नहीं कहा जा सकता। भारत की लगभग आधी आबादी किसी तरह पेट भरने और तन ढंकने के न्यूनतम स्तर के नीचे वास करती है। सच कहा जाय तो बहुत से लोगों के पास रहने के लिए ठीक से घर भी नहीं है। अधिकांश लोगों के पास शिक्षा की कोई सुविधा नहीं है ,लोग न्याय वंचित रह जाते हैं। यह जो सबको समान न्याय दिलाने की बात की जाती है वह थोथी बकवास है।       
 [🔱8. >> कोई समाज या राष्ट्र व्यक्तियों से बना होता है, इसलिए राष्ट्र को पुनरुज्जीवत करने का अर्थ है (3H विकास के 5 अभ्यास द्वारा) वैक्तिक जीवन को, विशेषकर युवाओं के जीवन को सशक्त बनाना । 
Regeneration or Revivification of the nation meant invigorating the individual.] 
   भारत की ऐसी भयावह और दयनीय अवस्था को देखकर क्या हमलोग पशुओं की भाँति अपना -अपना स्वार्थ सिद्ध करने में ही लगे रह सकते हैं ? स्वामी विवेकानन्द ने समाज की अत्यन्त ही सरल परिभाषा दी है। वे कहते हैं कि एक -एक व्यक्ति के मिलने से समाज बनता है। इसी निष्कर्ष के आधार पर वे कहते हैं कि - यदि तुम अपने समाज की उन्नति चाहते हो तो तुम्हें समाज का उपादान --व्यष्टि मनुष्य की उन्नति के सारे उपाय करने होंगे। इसलिए राष्ट्र को पुनरुज्जीवित करने का अर्थ हुआ उसके नागरिकों को व्यावहारिक वेदान्त (आध्यात्मिकता) के द्वारा पुनरुज्जीवित करना अर्थात राष्ट्र के व्यष्टि मनुष्य की चारित्रिक उन्नति या राष्ट्रिय-चरित्र की उन्नति। भारत को पुरुज्जीवित करने का यही एकमात्र उपाय है ! इसीलिए स्वामी जी कहते हैं-`मनुष्य- निर्माण ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। ' (Man-making is my life's mission.) 
============================

3. 

...ह्रदय और आत्मा

[... Heart and Soul] 
        
🔱1.>> एक व्यक्ति स्वयं को पुनरुज्जीवित कर पूर्ण मनुष्य कैसे बना सकता है?  (कोई व्यक्ति स्वयं को यथार्थ मनुष्य कैसे बना सकता है ? क्या हम आत्मा को पौष्टिक आहार खिला सकते हैं? हमारी आत्मा रहती कहाँ है? How an individual may make himself properly ? i.e. How can  How can an individual Revivify (regenerate, invigorate) himself and manifest his divinity or perfection ? 'But can we feed our soul ?']
       स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं से हमने पाया है कि व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है। इसीलिये हम यदि व्यक्ति को सुन्दर रूप से गढ़ लें तो पूरे समाज को सुन्दर रूप में गढ़ा जा सकता है। कोई व्यक्ति स्वयं को 'मनुष्य ' के रूप में  कैसे निर्मित कर सकता है? यदि वह अपने शरीर (Hand)  को हिष्ट- पुष्ट रखने का प्रयत्न करता है, मन (Head)  को प्रबल इच्छा-शक्ति सम्पन्न और शक्तिशाली बनाने का अभ्यास करता है और ह्रदय (Heart-या 3H) को विशाल बनाने का प्रयास करता है; तो वह निश्चित रूप से स्वयं को यथार्थ मनुष्य के रूप में निर्मित कर सकता है। [इसलिए यदि समाज को नव-जीवन देना हो, समाज या राष्ट्र को यदि पुनरुज्जीवित करना हो तो व्यक्ति को (3H विकास के 5 अभ्यास के द्वारा) पुरुज्जीवित करना पड़ेगा।] जिस प्रकार पौष्टिक आहार और व्यायाम के माध्यम से स्थूल शरीर (physical body) को स्वस्थ और सबल बनाया जा सकता है, उसी प्रकार पौष्टिक आहार ( लालच कम करने के लिए स्वाध्याय) और व्यायाम (प्रत्याहार -धारणा ) के अभ्यास द्वारा हम अपने सूक्ष्म-शरीर या मन को भी शक्तिशाली और प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न बना सकते हैं। 'But can we feed our soul ?' --किन्तु क्या हम अपनी आत्मा को भी पौष्टिक आहार खिला सकते हैं ? हम जानते हैं कि हमारे ह्रदय में दूसरों के सुख-दुःख को, अपने सुख-दुःख जैसा महसूस करने की शक्ति होती है। एक दिन स्वामीजी के मन में यह प्रश्न आया कि हमारे स्थूल शरीर (physical body)के भीतर यदि आत्मा रहता है, तो उसका निवास स्थान कहाँ है?  उन्हें संस्कृत एक शब्द याद हो आया- ह्रदय।
{शायद ऐसा हुआ होगा -..... किसी दिन स्वामीजी के मन में यह प्रश्न उठा होगा कि आत्मा शब्द स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग ? या दोनों अर्थों में प्रयोग होता है। फिर बुद्धि ने कहा होगा- मन या आत्मा (सूक्ष्म शरीर) का कोई लिंग नही हो सकता, वह तो जिस शरीर में जाति है,वैसा ही रूप धारण करती है, पानी की तरह, जिस पात्र में गया, वैसा हो गया। लेकिन जहाँ से दूसरों के लिए प्रेम और सहानुभूति की अनुभूति होती है,आत्मा की उस भावाभिव्यक्ति को जाहिर करने के लिये दिल पर हाथ रखकर कुछ क्यों कहते है ? या दिल के आकार को पान के पत्ते जैसा बनाकर क्यों दिखाते हैं ? फिर यह विचार उठा कि हमारे स्थूल शरीर (physical body) के भीतर यदि आत्मा रहता/रहती है, तो  उसका निवास स्थान कहाँ है? }  स्वामीजी अपनी कल्पना शक्ति से एक-एक करके शरीर के सभी अंगों का विश्लेषण करते गए कि आत्मा का वास किस अंग में हो सकता है। सिर से प्रारम्भ करके वे क्रमशः नीचे आते गए और ह्रदय तक पहुँचकर रुक गये। उन्होंने देखा कि हाथ-पैर (extremities) में आत्मा के छुपे रहने की सम्भावना बहुत कम है। क्योंकि यदि तुम  अपना एक हाथ या अपना एक पैर काट देते हो, तो तुम नहीं मरते। तुम देखते हो कि तुम्हारी  आत्मा अभी भी बची हुई है। किन्तु, यदि हमारे सिर कुचल दिया जाये या हमारे वक्षस्थल का पिंजर (thoracic cage) टूट जाये, तो सामान्य रूप से हम जीवित नहीं रह सकते। इस प्रकार यह एक बिल्कुल विज्ञान सम्मत निष्कर्ष था। इसलिए उन्होंने सोंचा कि आत्मा का निवास इन्हीं दो अंगों में होना चाहिये।  फिर उत्तरोत्तर और भी सूक्ष्म विश्लेषण करके उन्होंने पाया कि हमारा सिर तो मस्तिष्क के कार्यों, बुद्धि का प्रयोग करने में ही बहुत ज्यादा व्यस्त रहता है। फिर उन्होंने कई बार यह अनुभव भी हुआ था कि यद्यपि हमें बुद्धि की आवश्यकता तो है, लेकिन बुद्धि अक्सर हमें स्वार्थी बना देती है;और यह हमें दूसरों के बारे में ज्यादा सोचने की अनुमति नहीं देती। अतएव सिर कभी हमारी आत्मा का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, क्योंकि हमारी आत्मा तो निःस्वार्थी है और सभीसे प्रेम करती है। इस प्रकार वैज्ञानिक निरीक्षण-परीक्षण प्रणाली के माध्यम से उन्होंने भी हमारे पूर्वज ऋषियों की तरह यही निष्कर्ष निकाला कि हमारी आत्मा  यदि हमारे शरीर में ही कहीं अवस्थित है, तो निश्चित रूप से हमारे ह्रदय, इस रक्त पंप करने की मशीन (blood pumping machine,) के आस-पास ही कहीं रह रही है ।  'शतं चैका च हृदयस्य नाड्य:' -हृदय की एक सौ एक नाड़ियां हैं। (कठोपनिषद-2.3.16)]
🔱2.>> स्थूल शरीर (physical body) में आत्मा का निवास स्थान यदि कहीं है तो वह सहानुभूति-ग्रंथि ( sympathetic ganglion) के भीतर है।
         नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द ) एक अत्यन्त प्रतिभाशाली छात्र थे। उन्होंने सभी विषयों यथा - इतिहास, धर्म और दर्शन का तो अध्यन किया ही था, साथ ही साथ उन्होंने फिजिक्स, केमिस्ट्री, बायोलॉजी, फिजियोलॉजी (physiology-शरीर क्रियाविज्ञान) और एनेटॉमी (anatomy- चीड़फाड़-विज्ञान) आदि का अध्ययन भी किया था। उन्होंने कहा था , तुम जानते हो कि हमारे शरीर में कई कई नाड़ीग्रन्थि (ganglion-स्नायु केन्द्र) होती हैं। मेडिकल के छात्र इसे अच्छी तरह से जानते होंगे। हमारे अकाल्पनिक ह्रदय, या असली ब्लड-पम्पिंग मशीन के निकट एक नाड़ीग्रन्थि होती है, जिसे 'सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि' (sympathetic ganglion) के नाम से जाना जाता है। यह एक वैज्ञानिक नाम है। और उनका अंतिम निष्कर्ष था, कि यदि आत्मा को मानव-शरीर में कहीं निवास करना है तो उसे इस 'सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि' में ही निवास करना चाहिए।
 🔱3.>> हमारी आत्मा अर्थात सहानुभूति, प्रेम और निःस्वार्थपरता रहती कहाँ है?उसी  'सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि' (sympathetic ganglion) में, इसलिए केवल वही शिक्षक (नेता, पैगम्बर या अवतार) अपनी दिव्यता को प्रकट कर सकता है, जो दूसरों के प्रति अधिक सहानुभूति रखता है।`जिंदगी है क्या सुन मेरी जां, प्यारभरा दिल-मीठी जुबाँ।'-मजरूह, फिल्म माया  ]
        अतएव, अभी तक अपनी अन्तर्निहित दिव्यता (ब्रह्मत्व, पूर्णता या निःस्वार्थपरता) को पूर्णतः अभिव्यक्त करने में कौन सक्षम हुए हैं ? केवल वही (अवतार, पैगम्बर,नेता) जो दूसरों के प्रति अधिक सहानुभूति रखते थे। हमलोग यदि 'जगत गुरु श्रीरामकृष्ण' के जीवन को ध्यान से देखें, श्रीश्री माँ सारदा देवी के जीवन को देखें , स्वामी विवेकानन्द के जीवन को देखें; या भगवान बुद्ध, श्री चैतन्य, ईसा मसीह और ऐसे ही अन्य जीवनमुक्त शिक्षकों के जीवन को देखें; तो हम पाते हैं कि वे सभी केवल प्रेम (निःस्वार्थपरता) की घनीभूत मूर्ति थे। एक बार स्वामी विवेकानन्द से उनके गुरु श्रीरामकृष्ण (नवनीदा ? ) के बारे में कुछ कहने के लिए जब बहुत जोर दिया गया, तब उन्होंने कहा - " उनके बारे में कुछ कहने की क्षमता हमारे भीतर नहीं है। "  वे सिर्फ इतना ही कह पाये कि श्री रामकृष्ण केवल LOVE हैं ! वे प्रेम के घनीभूत रूप हैं - He is love personified'!  हमारे शास्त्रों में भी ईश्वर को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि -"स ईशः अनिर्वचनीय- प्रेमस्वरूपः" -अर्थात ईश्वर केवल प्रेम स्वरुप है। 
[🔱4.>>I am He (Heart) - तो वास्तव में हम वही 'प्रेम स्वरुप ब्रह्म हैं।' (वास्तव में हम 'प्रेम-सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि 'sympathetic ganglion' रूपी  ब्रह्म हैं) और उसी ब्रह्मत्व (देवत्व -प्रेम, निःस्वार्थपरता या पूर्णता) को प्रकट करने के लिए, हम अपने मन और शरीर की सहायता लेते हैं। किन्तु अपने शरीर-मन के द्वारा इस पूर्णता को प्रकट करने के लिए हमें संगठित होकर प्रयास करना होगा। आज के सामाजिक वातावरण में अकेले व्यक्ति का प्रयास सफल नहीं होगा । ]
   भगवान के अंश होने से हमलोग भी वास्तव में प्रेमस्वरूप ही हैं, तथा अपने ह्रदय की सहानुभूति या प्रेम (दिव्यता-निःस्वार्थपरता ) को प्रकट करने के लिए, हम अपने मन और शरीर की सहायता लेते हैं। यह प्रयास हम 'individually ' व्यक्तिगत रूप से कर सकते हैं। अपने हृदय की सहानुभूति और प्रेम को प्रकट करने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में है। किन्तु, केवल कुछ मुट्ठी भर युवाओं के लिए वैयक्तिक रूप से इस पूर्णता (देवत्व या निःस्वार्थपरता) को अभिव्यक्त करने का प्रयास करना, विशेष रूप से वर्तमान सामाजिक परिवेश में बहुत कठिन है। यदि हम वैयक्तिक रूप से इस राष्ट्रीय आदर्श (त्याग और सेवा के माध्यम से  देवत्व की अभिव्यक्ति या वैयक्तिक जीवन-गठन ) का प्रयत्न करते रहें , तो हो सकता कि कुछ दिनों के बाद हम ऐसा सोचने लगें कि वर्तमान परिवेश में यह कार्य सफल ही नहीं हो सकता। इसी मानसिकता के साथ अन्ततः हम यह प्रयास करना ही छोड़ देंगे, और वर्तमान युग के भोगवादी बयार के साथ बहने लग जायेंगे। लेकिन, यदि कई युवा मिलकर एक संगठन बना लें और इस प्रयास में परस्पर एक-दूसरे को उत्साहित करते रहें, तभी उनके द्वारा किया जाने वाला 'life building' जीवन-निर्माण का प्रयास सफल हो सकता है। 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' का उद्देश्य भी यही है। यह संगठन इसी कार्य को धरातल पर उतारने के लिये आविर्भूत हुआ है। ताकि, भारत के सभी युवा इस युवा-संगठन की वज्रांकित पताका के तले एकत्र होकर जीवन- गठन के कार्य में एक-दूसरे की सहायता कर सकें यदि इस तरह के संगठित प्रयास से भारत के 60 करोड़ युवाओं में से केवल कुछ लाख (कुछ हजार भी ? ) युवाओं को भी संघबद्ध करने में हमलोग सफल हो जाते हैं , तो केवल कुछ ही वर्षों में हमारे सम्पूर्ण समाज की दशा बहुत हद तक परिवर्तित हो जाएगी। 
  [🔱5 .>>समाजशास्त्रीय विज्ञान हमें बताता है कि असामाजिक तत्वों का एक छोटा सा गिरोह (अल्पमत) पूरे समाज के लिए खतरा बन जाता है।]
समाजशास्त्रीय विज्ञान हमें बताता है कि किसी विशेष समयावधि में, किसी समाज-विशेष का प्रत्येक व्यक्ति, अपने समाज के लिये कोई विशिष्ट मानदण्ड, शैली या प्रचलन को निर्धारित नहीं करता, बल्कि उस समाज के कुछ शक्तिशाली मनुष्यों की एक संगठित मण्डली ही उस विशेष समाज की प्रवृत्ति (trend) को निर्धारित करती है। इस सच्चाई को आप खुद परख सकते हैं।आजकल प्रायः सुनने को मिलता है कि हमारे समाज में असामाजिक गतिविधियाँ बहुत ज्यादा बढ़ गयी हैं। लेकिन, क्या आपको लगता है, क्या कोई सचमुच यह मानता है कि आज हमारे समाज में अधिकांश लोग असामाजिक (anti-social) बन गए हैं? कदापि नहीं। बल्कि, आज हमारे समाज में जो थोड़े से समाज-विरोधी लोग रह रहे हैं, वे गिरोह बनाकर इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि  असामाजिक तत्वों का एक छोटा सा समूह सम्पूर्ण समाज को डराते-धमकाते रहते हैं। इस बात से आप कोई सीख क्यों नहीं लेते ? क्या आप कुछ ऐसे युवाओं को  एकत्रित और संगठित नहीं कर सकते जो शरीर से बलवान , चरित्र से शक्तिशाली, मन से ओजस्वी , संकल्प में अटल , इच्छाशक्ति के धनी और ह्रदय से इतने विशाल जो दूसरों के दुःख-कष्ट को महसूस करने की क्षमता रखते हों? यदि सभी युवा व्यक्तिगत रूप से अपने जीवन को निर्मित करने का संयुक्त प्रयास करें तो ऐसी युवाशक्ति सम्पूर्ण समाज की जीवन शैली या धारा को परिवर्तित कर देगी। 
[🔱6.>> यदि चारित्रिक शक्ति और मन के दृढ़ संकल्प के साथ सभी युवा एकजुट हो जायें तो वे अवश्य एक नए भारत का निर्माण कर सकेंगे।]
एक दिन स्वामी जी (परिव्राजक विवेकानन्द तब वाराणसी में थे) रास्ते से जा रहे थे कि एक बन्दर ने उनका पीछा किया। वह उन्हें डराने की कोशिश करने लगा और स्वामीजी उससे बचने की कोशिश में दौड़ने लगे। यह देख बंदर और भी डरावने ढंग से उनका पीछा करने लगा। उसी समय उसी रास्ते गुजरते एक साधु ने जोर से चिल्ला कर कहा - " अरे भाई भागो मत , घूमकर कर खड़े हो जाओ , और बंदर का सामना करो। " स्वामीजी ने वैसा ही किया , तुरंत ही वे घूमकर खड़े हो गए , बंदर की तरफ घूर कर देखा। परिणाम यह हुआ कि बंदर वहां से भाग खड़ा हुआ।  ठीक उसी प्रकार हमलोग भी यदि समाज- विरोधी लोगों की घुड़कियों और सामाजिक बुराइयों से डर कर भागते रहेंगे, उसका सामना नहीं करेंगे तो हम असफल हो जायेंगे। किन्तु, हमलोग एक बार यदि कमर कस कर , अपने चरित्र की शक्ति और मन के दृढ़ संकल्प के साथ उनका सामना करने को उठ खड़े हों , तो न केवल हम समाज की समस्त अशुभ बातों को रोक सकेंगे बल्कि पूरे समाज की बागडोर भी अपने हाथों में ले सकेंगे।  महामण्डल स्वामी विवेकानन्द के जीवन और उनकी महान शिक्षाओं को भारत के युवाओं के सामने रख देना चाहता है। यदि सभी युवा संगठित होकर प्रयत्नशील हो जायें तो वे न केवल समाज की बुराइयों को ही दूर कर सकेंगे , बल्कि देश को भी यथार्थ रूप से विकसित कराकर एक नए और महान भारत का पुनर्निर्माण भी कर सकेंगे। अतः भारतवर्ष के सभी नागरिकों का कल्याण और उनका सर्वांगीण विकास ही महामण्डल का उद्देश्य है। देशवासियों की वर्तमान दशा में सुधार तथा समस्त प्रकार के कष्टों से मुक्ति बहुत आवश्यक है , किन्तु उस उद्देश्य  को केवल कुछ विकासात्मक कार्य, राहत और पुनर्वास कार्य या साधारण समाज सेवा के माध्यम से प्राप्त नहीं किया जा सकता। स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के आलोक में हम यह स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि हमलोग यदि एक अच्छे उद्देश्य के लिए- अपनी अन्तर्निहित दिव्यता [पूर्णता या निःस्वार्थपरता] को अभिव्यक्त करने के लिए; केवल अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित करें, और  संगठित होकर कार्य करें, तभी हम अपने देश का सर्वाधिक कल्याण कर सकते हैं। 
=====================
 
4.

 🔱🙏संघीय एकता और  नेतृत्व  की  आवश्यकता !🔱🙏

[The Need of Organizational unity and Leadership] 

 [🔱1. >>>कलियुग में संघीय एकता (Federal unity) ही बल है  
[Unity is strength in Kali Yuga- कलियुग में संघीय एकता या सांगठनिक एकत्व (Organizational Unity) ही शक्ति (बल या ईश्वरत्व-power) है।]
महर्षि  वेदव्यास की एक विख्यात उक्ति है - 
  
त्रेतायां मंत्रशक्तिश्च, ज्ञानशक्तिः  कृते युगे।
 द्वापरे युद्ध-शक्तिश्च, संघे शक्ति कलौ युगे।।

-त्रेता युग में मन्त्र शक्ति, सत्ययुग में ज्ञान शक्ति तथा द्वापर में युद्ध शक्ति प्रमुख बल था, किन्तु कलियुग में संघीय एकता ही बल  (ईश्वरत्व -power) है !! 
       इसलिए स्वामी विवेकानन्द तो संघटनात्मक कौशल  की अवधारणा पर ही मुग्ध थे। उन्होंने पाश्चत्य जगत के संघटनात्मक कौशल (organizational skills) की अत्यन्त प्रशंसा की है। यद्यपि वे प्राचीन भारत के संघों (विशेषकर बौद्ध संघों) की सफलता और कमियों से अच्छी तरह परिचित थे। फिर भी न केवल जनसाधारण के दुःख-कष्टों को दूर करने के लिए, बल्कि उन्हें सही दिशा में शिक्षित करने के लिये भी वे 'संघ भावना' से कार्य करने के पक्षधर थे। वे यह जानते थे कि हमारे देश के आम लोगों में किसी भी संगठित प्रयास की सफलता के लिए मिलजुल कर कार्य करने की भावना का घोर अभाव है।  [हृदय की सहानुभूति और प्रेम (आत्मा की शक्ति) को मन और शरीर की सहायता से प्रकट करने की शिक्षा-3H विकास के 5 अभ्यास की शिक्षा (प्रशिक्षण) देने के लिए भी स्वामीजी संगठन बनाकर कार्य करने के पक्षधर थे।]
         ११ जुलाई १८९४ के पत्र में उन्होंने कहा था, ' संगठन की शक्ति (organizational skillsका  हमारी प्रकृति में पूर्णतया अभाव है , उसका विकास करना होगा।' फिर सूत्रात्मक रूप से जोड़ देते हैं - `इसका सबसे बड़ा रहस्य है -ईर्ष्या का अभाव होना।'.....एक समिति (Vedanta society) को संगठित करो जिसके अधिवेशन नियमित रूप से होते रहें। और जहाँ तो हो सके , इसके बारे में मुझे (रजिस्टर्ड ऑफिस के केंद्रीय सचिव या 'C-IN-C नवनीदा' को) रिपोर्ट भेजते रहो। "
["The faculty of organisation is entirely absent in our nature, but this has to be infused. The great secret is — absence of jealousy." . . . You must organise a society which should regularly meet, and write to me about it as often as you can." (letter to ALASINGA, 11th July, 1894.)]  
 वे खेद प्रकट करते हुए कहते हैं - " तुम तीस करोड़ मनुष्य (आज 130 करोड़ मनुष्य) अपनी-अपनी संकल्प शक्ति को एक दूसरे से पृथक किये रहते हो।" यहाँ हम लोग स्मरण कर सकते हैं कि 1967 में महामण्डल के स्थापित होने के बाद से ही, इसके 'उद्देश्य और कार्यक्रम' की व्याख्या करते हुए हमलोग कहते आये हैं -" यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है , तो इसके लिये आवश्यकता है संगठनात्मक एकता की, (मानसिक और शारीरिक) शक्ति संचयन की और बिखरी हुई संकल्पशक्ति  को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। " महामण्डल के संघगीत (Anthem) में विवेकानन्द के इन शब्दों का उल्लेख देखा जा सकता है -" अथर्ववेद संहिता (ऋग्वेद में भी है) की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी, जिसमें कहा गया है , तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ, देवगण  मनुष्य द्वारा इसीलिए पूजे गये कि वे एकचित्त थे -एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है।"
[या `एक मन -एक प्राण हो जाना ' ही सांगठनिक एकता (organizational unity/integration skills) का कौशल है !)    

 वे खेद प्रकट करते हुए कहते हैं - " तुम तीस करोड़ मनुष्य (आज 130 करोड़ मनुष्य) अपनी-अपनी संकल्प शक्ति को एक दूसरे से पृथक किये रहते हो।" यहाँ हम लोग स्मरण कर सकते हैं कि 1967 में महामण्डल के स्थापित होने के बाद से ही, इसके 'उद्देश्य और कार्यक्रम' की व्याख्या करते हुए हमलोग कहते आये हैं -" यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है , तो इसके लिये आवश्यकता है संगठनात्मक एकता की, (मानसिक और शारीरिक) शक्ति संचयन की और बिखरी हुई संकल्पशक्ति  को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। " महामण्डल के संघगीत (Anthem) में भी विवेकानन्द के इन्हीं शब्दों का उल्लेख देखा जा सकता है -" अथर्ववेद संहिता (ऋग्वेद में भी है) की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी, जिसमें कहा गया है , तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ, देवता मनुष्य द्वारा इसीलिए पूजे गये कि वे एकचित्त थे -एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है।"[या एक मन -एक प्राण हो जाना ही सांगठनिक एकता (organizational unity/integration skills) का कौशल है !)    
 🔱2.>>लोकोक्ति है  --'नेता जन्मजात रूप से पैदा होते हैं - बनाये नहीं जाते' - इस  कथन का तात्पर्य यही  है  कि सही प्रकार का नेतृत्व अर्जित करना बड़ा कठिन है। हमेशा पहले दास बनना (जनताजनार्दन का सेवक बनना) सीखो और फिर तुम नेता बनने के योग्य हो जाओगे।
The saying --'Leaders are born and not made'  indicates  that the right type of leadership is difficult to acquire.]
          इस रहस्य को समझ लेने के बाद (अर्थात संगठनात्मक एकता में ही बल है- संघे शक्ति कलौ युगे। के रहस्य को समझ लेने के बाद) , किसी भी संगठन के फलने-फूलने के लिए जो सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है वह है - कुशल नेतृत्व ! किन्तु आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि " नेता जन्मजात पैदा होता है, नेता बनाया नहीं जा सकता। " लेकिन, यह उक्ति किस बात की ओर इशारा करती है ? यह इसी बात पर जोर देती है कि सही प्रकार की नेतृत्व-क्षमता अर्जित करना बहुत कठिन कार्य है।  (नेता, जीवनमुक्त शिक्षक या जनता-जनार्दन का सेवक बनना बहुत कठिन है।) अगर कोई व्यक्ति यह दावा करे कि- ' मैं नेता (गुरु, जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर, जनता-जनताजनार्दन का सेवक) बनना चाहता हूँ।' [परन्तु उसका अपना चरित्र यदि निर्मित न हुआ हो (पूजा सिंघल)], तो वह अपनी नेतृत्व क्षमता (mettle-शूरता) को तुरन्त साबित नहीं कर सकता। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द नाम-यश की ऐषणा से बचने की चेतावनी देते हुए कहते हैं , " यदि तुम तुच्छ विषयों को लेकर ' तू -तू , मैं -मैं ' -करोगे , झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे , तो समझ लो कि तुम उस शक्ति संचयन (3H विकास) से दूर हटते जाओगे , जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है। .... इसलिए ये सब मतभेद के झगड़े एकदम बन्द हो जाने चाहिये। " वे आगे कहते हैं , " हर एक व्यक्ति आज्ञा देना चाहता है पर आज्ञा पालन करने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। पहले , आदेश पालन करना सीखो , आदेश देना फिर स्वयं आ जायेगा। हमेशा पहले दास होना सीखो , तभी तुम स्वयं गुरु या नेता होने योग्य बन सकोगे। यदि तुम्हारे वरिष्ठ तुम्हें इस बात की आज्ञा दें कि तुम नदी में कूद पड़ो और एक मगरमच्छ को पकड़ लाओ , तो तुम्हारा कर्तव्य यह होना चाहिए कि पहले तुम आज्ञा का पालन करो और फिर कारण पूछो। भले ही तुम्हें दी हुई आज्ञा ठीक न प्रतीत हो, परन्तु फिर भी तुम पहले उसका पालन करो और फिर प्रतिवाद करो। यदि संगठन के अनुयायियों में गुरुजनों की आज्ञा को शिरोधार्य करने की भावना न रहे तो संगठनात्मक एकता की शक्ति कोई केन्द्रीकरण सम्भव नहीं। व्यक्तिगत शक्तियों के इस केंद्रीकरण के बिना कोई महान कार्य नहीं किया जा सकता है। '
[🔱3.>>'अगर तुम सफल होना चाहते हैं तो पहले अहं का नाश कर डालो ! हमेशा पहले दास (अपने नेता नवनी दा का अनुयायी) बनना सीखो और फिर तुम नेता बनने के योग्य हो जाओगे।(अर्थात व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'विराट मैं' रूपान्तरित कर लो।)    
 ["Kill self first if you want to succeed. Always first learn to be a slave (a follower of your leader Navani Da) and then you will be able to become a leader. (i.e. able to transform the individual ego into the omnipresent 'Virat Main' of Mother Jagadamba's mother heart.)]
      स्वामी विवेकानन्द के शब्द बड़े स्पष्ट हैं तथा इनकी व्याख्या करने की भी कोई जरूरत नहीं पड़ती। वे सीधे-सीधे कहते हैं , " हमलोग आलसी हैं, एकजुट नहीं हो सकते हैं , एक-दूसरे से प्रेम नहीं कर सकते हैं , बड़े स्वार्थी हैं , हम तीन मनुष्य भी एक-दूसरे से घृणा किये बिना, ईर्ष्या किये बिना , एकत्र नहीं हो सकते। इसलिए यदि तुम सफल होना चाहते हो तो पहले 'अहं ' का नाश कर डालो। तुम अपने भाइयों का नेता बनने की कोशिश मत करो , बल्कि उनके सेवक ही बने रहो। कभी भी दूसरों का मार्गदर्शन या शासन करने का प्रयास नहीं करो। सभी के सेवक बने रहो। शासक बनने की कोशिश मत करो। सबसे अच्छा शासक वह है , जो अपने को सभी का सेवक समझता है , जो अच्छी सेवा कर सकता हैं। " यदि हम महामण्डल में काम करना और सफल होना चाहते हैं तो हमें इन विचारों को अवश्य सुनना होगा , इस पर चिंतन-मनन करना होगा और इन विचारों को आत्मसात कर लेना होगा। तथा अपनी नेतृत्व- क्षमता का निर्माण भी इन्हीं शिक्षाओं के अनुरूप करना होगा , ताकि जो लोग अभी इस संगठन से जुड़ रहे हैं , उन भावी नेताओं को भी तुम्हारे जीवन से उचित मार्गदर्शन प्राप्त हो ! अगर इस संगठन के वरिष्ठ नेताओं में ही इन आवश्यक गुणों का अभाव होगा तो उनके पीछे चलने वाले लोग भी इस मूल रचनात्मक कार्य के मर्म को नहीं समझ पाएंगे , और हमारा जो मुख्य उद्देश्य है - भारत का कल्याण , उस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध नहीं होंगे।अतएव, इस समय जो लोग नेतृत्व कर रहे हैं , उन्हें उपरोक्त बुनियादी गुणों को अवश्य अर्जित करना चाहिए , साथ ही निम्नलिखित बातों पर भी ध्यान देना चाहिए :
 [🔱4.>>Leader must cultivate these basic things :
*कोई अहंकार नहीं रहना चाहिये (No egoism.)
 - यहाँ किसी प्रकार का  'अहं' नहीं रखना चाहिए, निजी लाभ पाने या नाम-यश की कामना नहीं रखनी चाहिए। हमेशा आदर्श को ध्यान में रखते हुए शान्त मन से [माथा गर्म किये बिना ] विवेकपूर्ण निर्णय लेना चाहिए। अपने भीतर के विद्यार्थी को कभी मरने नहीं देना चाहिए। हमेशा एक विद्यार्थी बने रहने का प्रयास करना चाहिए। प्रत्येक अनुभव से कुछ न कुछ सीखना चाहिये। सभी को मन, वचन और कर्म से अवश्य पवित्र रहना चाहिए। पहले कामिनी-कांचन में आसक्ति का स्वयं त्याग करने के बाद ही दूसरों से इसके अनुकरण की अपेक्षा करनी चाहिए। दूसरों को कार्य करने का आदेश देने से पहले , उसे स्वयं करना चाहिये।               
       जबतक दूसरे लोग तुम्हें अपना नेता न बनायें तुम्हें एक अनुयायी या शिष्य की तरह कार्य करते रहना चाहिए। प्रत्येक के मन में यह विश्वास रहना चाहिए कि वह नेता बन सकता है तथा उसे एक नेता के गुणों को भी अवश्य आत्मसात करते रहना चाहिए। जब कभी परिस्थितियों की जरूरत हो अवश्य आगे आना चाहिए , किन्तु नेता बनने की जल्दबाजी नहीं होनी चाहिये। किन्तु, इस आधार पर इंतजार में ही नहीं बैठे रहना चाहिए कि मुझसे तो इस कार्य की जिम्मेदारी उठाने के लिए किसी ने कुछ कहा ही नहीं है। अपने ह्रदय को इतना निर्मल और निष्कपट बना लो कि तुम जो कुछ भी कर रहे हो , वह तुम पूरे विश्वास के साथ इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए ही कर रहे हो , किसी निजी उद्देश्य को पाने की कामना से नहीं। तुम्हें जिनका नेतृत्व करना है, अपने को उनमें से ही एक समझो। अपने को ऊँचाई पर रखते हुए उन्हें न देखो। 
[🔱4.>>Do not boast that without you nothing will move, but give your due quota for the work you are in.
    ऐसा घमण्ड मत करो कि तुम्हारे बिना यह संगठन आगे बढ़ नहीं सकता ; लेकिन जिस कार्य को तुम्हें सौंपा गया है उसमें अपने को खपा दो। जो असत्य है और नैतिक नहीं है , उसके साथ समझौता नहीं करो। कभी झूठ न बोलो। तुम्हारी परियोजना का कार्य यदि उन आदर्शों की प्राप्ति के अनुकूल नहीं है , जिसे तुमने पूर्वनिर्धारित कर रखा है , तो वे बिल्कुल तुच्छ ही नहीं अपमानजनक भी हो सकते हैं। सदैव याद रखो कि तुम जैसा करोगे , दूसरे भी उसी का अनुकरण करेंगे। तुम्हारे विचारों और कार्यों में एकरूपता होनी चाहिए। कोई भी परियोजना विवेकपूर्वक और दूरदर्शिता रखते हुए बनानी चाहिए। जोशीला होना अच्छा है , लेकिन इसका दिखावा या आडम्बर नहीं होना चाहिए। अपनी भाषा, विचार और व्यवहार पर नियंत्रण रखना चाहिए। अपने जीवन को दूसरों के लिए प्रेरणास्पद बनाओं। [तुमसे मिलने के बाद दूसरों को ऐसा लगना चाहिए कि तुमसे मिलकर उनका जीवन धन्य हो गया। -जनबीघा कैम्प ]   
 [🔱5. >>Be clean in money matters.
 संगठन के आय-व्यय के मामले में बिल्कुल साफ-सुथरा रहने के लिए तुम्हें चरित्र और कार्यक्षमता दोनों अर्जित करनी चाहिए। इसी किसी में कोई एक ही गुण है , तो वह नेता नहीं बन सकता। सभी प्रकार के पूर्वाग्रह से पीछा छुड़ा लो। बिना मशीन बने नियमानुवर्ती बनो। यथेष्ट रूप से बोलो पर वाचाल मत बनो। 
         यदि गुण तुममें अनुपस्थित हों , तब नेता बनने की हड़बड़ी मत करो। पहले इन विचारों को समझो , इन पर चिंतन -मनन करो , और इन आदर्शों को चरित्रगत बना लो। समय आने पर तुम्हें भी कई लोगों का मार्गदर्शन करना होगा। पहले उस काम के लिए अपने आप को योग्य तो बना लो। स्वामीजी की वाणी का स्मरण करो , " काम करो, योजनाओं को कार्यान्वित करो , मेरे बालकों , मेरे वीरों , सर्वोत्तम साधु स्वभाव मेरे प्रिय जनो  ,पहिये पर जा लगो, उस पर अपने कन्धे लगा दो। नाम-यश अथवा अन्य तुच्छ विषयों के लिए पीछे मुड़कर मत देखो। " 
[🔱6.>>Read Vivekananda carefully and regularly lest you deviate from the path you have chosen to become a Man.
       अंतिम और बहुत ही महत्वपूर्ण बात याद रखो - इस मुख्य उद्देश्य पर दृढ़ विश्वास रखो, तथा इसे प्राप्त करने के लिए स्वामी विवेकानन्द का अध्यन नियमित और ध्यानपूर्वक करते रहो। ऐसा न करने पर तुम अपने यथार्थ मनुष्य बनने के लक्ष्य से भटक भी सकते हो। 
      इन परामर्शों को पुनः-पुनः पढ़ो। अपनी डायरी में उन गुणों को दर्ज करो जो तुम्हारे भीतर हैं , और कितने अंश में हैं।  उन गुणों को भी ध्यान से नोट करो , जो तुम्हारे भीतर न हों। [उन 12 दोषों को भी देखो कि वे निकले या नहीं ?] किन्तु निराश न होना , जो गुण तुममें नहीं हैं , उन गुणों को अर्जित करने की चेष्टा करो और जो हैं उन्हें और अधिक बढ़ाने का प्रयत्न करो। छः महीने बाद नये सिरे से नोट बनाओ और अपनी प्रगति पर निशान लगाओ। सभी तुमसे प्रेम करने लगेंगे , और उनसे सम्मान मिलेगा , एवं कार्य में (अपनी अन्तर्निहित निःस्वार्थपरता या दिव्यता को व्यक्त करने के कार्य में) निरंतर आनन्द बना रहेगा। [किसी भी घटना से सन्तुलन नहीं बिगड़ेगा।] इसका परिणाम यह होगा कि तुम ' ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य ' दोनों को विकसित करते जाओगे और तभी यह संगठन अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकेगा। हमारा महामण्डल ' तेजस्वी युवकों को संगठित करने और उनके ह्रदय में मातृभूमि और उसके संतानों के लिए प्रेम, शक्ति , बल , सत्यनिष्ठा , ईमानदारी , त्याग , सेवा , साहस आदि की भावना को प्रज्ज्वलित करने में सफल हो जायेगा। ताकि हमारे संघबद्ध प्रयास से एक नया महान भारत का निर्माण हो सके। 
=======================<>=====
" नेता क्या कभी बनाया जा सकता है ? नेता जन्मजात रूप से पैदा होता है। समझते हो ? और फिर एक नेता (जीवनमुक्त शिक्षक,पैगम्बर, C-IN-C नवनीदा) की भूमिका निभाना बड़ा कठिन काम है। स्वयं को दासों का दास 'दासस्य दासः' --समझते हुए हजारों आदमियों का मन रखना पड़ता है। जब ईर्ष्या और स्वार्थपरता जरा सी भी न हो [Leader = 0% selfishness and jealousy], तभी तुम नेता बन सकते हो। पहले तो -by birth, जन्मजात फिर पूर्णतः निःस्वार्थी (100% Unselfishness) हो, तभी कोई व्यक्ति नेता बन सकता है। सब कुछ ठीक ठीक हो रहा है , सब ठीक हो जायेगा। प्रभु ठीक जाल फेंक रहे हैं , वे ठीक जाल खींच रहे हैं - हम लोग उनका अनुसरण करेंगे , प्रेम ही परम् साधन है ! अन्त में प्रेम की ही विजय होती है। अधीर हो जाने से काम न चलेगा, थोड़ी धीर धरो !-धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है। ३/३६०  [कालिदास ने कुमारसम्भव में कहा है कि विकार-हेतौ सति येषां मनांसि न विक्रियन्ते ते एव धीराः। 'विकार के हेतु उपस्थित होने पर भी जिनके चित्त विकृत नहीं होते, उनका नाम धीर है।']       
Can a leader be made my brother? A leader is born. Do you understand? And it is a very difficult task to take on the role of a leader. — One must be accommodate a thousand minds. There must not be a shade of jealousy or selfishness, then you are a leader. First, by birth, and secondly, unselfish — that’s a leader. Everything is going all right, everything will come round. He casts the net all right, and winds it up likewise best instrument. Love conquers in the long run. It won’t do to become impatient — wait, wait — patience is bound to give success. . [(Beginning of?) 1894. Letters of Swami Vivekananda to 
Swami Ramakrishnanda ] 
8. “I am persuaded that a leader is not made in one life. He has to be born for it. For the difficulty is not in organisation and making plans; the test, the real test, of the leader, lies in holding widely different people together along the line of their common sympathies. And this can only be done unconsciously, never by trying.” (Sayings and Utterances – Swami Vivekananda)
===============================

5.

 संकल्प- ग्रहण और एकता  

[ 'Will and Unite'] 


   >>Many in society are brutes, they behave like beasts.
सर्वप्रथम हमें यह संकल्प लेना होगा कि हमें अपने भीतर मानवीय गुणों को विकसित करना है, क्योंकि हममें से कई लोगों के पास साधारण मानवीय गुण भी नहीं होते। हमलोग अक्सर स्वामी विवेकानन्द के शब्दों को दुहराते हुए प्रार्थना करते हैं - " माँ मुझे मनुष्य बना दो "। किन्तु यह प्रार्थना क्या हम ईमानदारी से करते हैं ? क्या हम सचमुच ईमानदारी से यह चाहते हैं, कि हमें मनुष्य बन जाना चाहिये ? और यदि हम यथार्थ मनुष्य नहीं बनना चाहते तो इस प्रकार से प्रार्थना करने की उपयोगिता क्या है ? ऐसी प्रार्थना का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में हमलोग अभी मानव जैसे दिखने वाले प्राणी मात्र हैं। समाज में कई लोग बिल्कुल पशु के समान हैं, वे बिल्कुल जानवरों की तरह व्यवहार करते हैं। समाज में यथार्थ मनुष्य कितने दिखाई देते हैं ? यही कारण है कि मानव समाज की वर्तमान हालत ऐसी है। हर जगह इतना अन्याय है, सामाजिक जीवन की घटनाओं से इतनी शिकायतें हैं, कभी -कभी तो हम विरोध करते हैं; कभी कभी तो हमारा गुस्सा फूट भी पड़ता है, किन्तु क्या हम इन बुराइयों को समाज से दूर करने के लिये कुछ कार्य भी करते हैं ? हमलोग हर बुराई के लिये दूसरों को जिम्मेदार ठहराते हैं, दूसरों पर आरोप लगाते हैं । किन्तु हम स्वयं कोई उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहते। हम दूसरों के ऊपर समाज को बदलने का कार्य सौंपना चाहते हैं। 
    >>So what is the use of suggesting, ' Let it be done' ? Who will do it ? 
       हम देखते हैं कि अब सामाजिक परिस्थिति कैसी है, वह बुरी ही नहीं बल्कि असहनीय हो चुकी है। इससे समाज का बहुत ज्यादा नुकसान हो जाता है, फिर भी मैं जानता हूँ कि बहुत से लोग इन घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेते। वे ऐसा नहीं सोचते कि सामाजिक स्थिति में बदलाव लाने के लिये उन्हें भी कुछ करना चाहिये।' यदि हम यही कहते रहें कि 'यह तो अच्छा कार्य है, इसे होना भी चाहिए ' -तो इस तरह के सुझावों का क्या फायदा ? इस कार्य को करेगा कौन ? 'इसे होना चाहिये' - यह एक भ्रामक वाक्य है। यदि हम ऐसा बोलें कि ' इसे तुम करो ' या 'इस कार्य को मैं करूँगा ', तो हम इसे समझ सकते हैं।  लेकिन हम यदि बड़ी नम्रता से यही कहते रहें कि 'समाज को उन्नत बनाने का कार्य होना चाहिए ' तो हमें यह भी बताना चाहिए कि यह कार्य कौन करने जा रहा है? यदि हम केवल यही कहते रहें कि 'समाज अच्छा होना चाहिए, समाज को उन्नत होना चाहिए, समाज से सभी बुराइयों को समाप्त होना ही चाहिये', तो इस तरह के दिखावटी बातों का कोई अर्थ नहीं है। हमें यह भी पता नहीं है कि इस कार्य को मैं करूँगा या तुम करोगे। मैं समाज को उन्नततर बनाने के कार्य में स्वयं भागीदार नहीं बनना चाहता, किन्तु मैं इच्छा रखता हूँ कि समाज में ऐसा बदलाव आना चाहिये। मैं केवल इच्छा रखता हूँ , किन्तु केवल इच्छा रखने से कोई परिणाम नहीं निकलता यह बिल्कुल अर्थशून्य इच्छा है।
    >>Willing is the seed, is the father of the things that come. 
 सिर्फ इच्छा रखने की जगह अब मैं संकल्प लूँगा। यदि हम केवल इच्छा करते रहे तो यह केवल इच्छाकल्पित चिन्तन होगा, जो कभी मूर्त रूप नहीं ले सकेगा। किन्तु यदि इच्छुक बने रहने के बजाय, हमलोग संकल्प लेना सीख जायें तो यह पूर्ण रूप से अलग बात होगी। दृढ़ इच्छाशक्ति को ही संकल्प कहते हैं। मनुष्य बनने का संकल्प उठा लेना ही सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। संकल्प , भविष्य में प्राप्त होने वाली सफलता का मुख्य कारण या बीज स्वरूप है। संकल्प के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति अपने मन में ठान ले, दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले, वीर योद्धा (गुरु गोविन्द सिंह) के समान संकल्प कर ले - तो किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी ऊँचाई तक पहुँचना सम्भव है, कोई भी वस्तु प्राप्त की जा सकती है ! यह बात बिल्कुल सत्य है, अतः हमलोगों को केवल इच्छुक ही नहीं बने रहना चाहिये , बल्कि दृढ़ संकल्प भी लेना चाहिये।  
    >> “संगच्छध्वम् संवदध्वम् ” Those who care about the welfare of the people should will together ! 
      इस काम को करने के लिये, हमें दूसरों को आदेश नहीं देना चाहिये, या दूसरों से इसकी अपेक्षा नहीं करनी चाहिये।  हमें इस बात को अस्पष्ट नहीं छोड़ना चाहिये,  बल्कि निर्भीक होकर इस बात को कहना चाहिये कि इस कार्य को (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के कार्य को) करने की जिम्मेवारी किसके ऊपर है; कौन इसकी शुरुआत करने जा रहा है। मैं स्वयं इसका बीड़ा उठाता हूँ। आओ, तुम, मैं और हर कोई इस कार्य में जुट जाएँ । जो कोई भी व्यक्ति अपने देशवासियों के कल्याण की चिन्ता करते हों, उन्हें एक साथ आना चाहिये, उन्हें कन्धे से कन्धा, सिर से सिर मिलाकर, बाँहों से बाहें और कदमों से कदम मिलाते हुए साथ-साथ आगे बढ़ना चाहिये। जब हमलोग अपना संघ-गीत- “संगच्छध्वम् संवदध्वम् ” गाते हैं तो उसमें भी यही प्रार्थना करते हैं। हम सब एक साथ चलें, हम सब एक साथ सोचें , हम सब एक साथ अनुभव करें, हम सब एक साथ संकल्प लें , हम सब एक साथ आनन्द का उपभोग करें। हमें सब कुछ एक साथ करना चाहिये। यह एकता और मिलजुल कर संकल्प लेने की क्षमता ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु है।   
===================================== 

6.

"बनो और बनाओ - का निहितार्थ "

[The implication of ' Be and Make' ]

         >>Our greatest victory is to conquer ourselves : 
चाहे हम वाह्य प्रकृति को गहराई से जानने की चेष्टा करें अथवा स्वयं को - दोनों ही स्थिति में हमें उसी असीम अनन्त का आह्वान सुनाई देता है। वाह्यजगत और अन्तर्जगत दोनों असीम अनन्त है। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं जो हमें सीमाबद्ध करना चाहती है। जैसे-जैसे हम बड़े होने लगते हैं, क्रमशः हमें ऐसा अनुभव होने लगता है कि स्वयं को (समाज के सुख-दुःख  से काटकर ) अलग-थलग रखना ही पाप है और स्वयं को प्रसारित करने के प्रयास में हम स्वयं को अपने सगे सम्बन्धियों में (अपने और अपने ससुराल के --सगे सम्बन्धियों में) विलीन कर देना चाहते हैं। और इस प्रयास में हमें 'पता चलता है' - कि हमारी सबसे बड़ी विजय तो स्वयं को (व्यष्टि अहं को) जीत लेने में है, जिसके फलस्वरूप हम कामिनी-कांचन में आसक्ति या अपने परिवेश के आकर्षण के गुलाम न बनकर स्वयं के (मन या अन्तःप्रकृति के) स्वामी बन जाते हैं !   
       >>Freedom -(sympathy or love for others) is our nature, our kinship goads us to see them all free. Here individual effort transformed into social effort, conveyed in short - BE AND MAKE.
      समाज की वर्तमान संकटपूर्ण अवस्था का मूल कारण यही है कि हमने स्वयं के ऊपर अपनी महानता (ब्रह्मत्व) पर, अन्तर्निहित अनन्त शक्ति एवं साधुता (पवित्रता) की शक्ति पर विश्वास खो दिया है। इस खोये हुए आत्मविश्वास और श्रद्धा को सशक्त (fortify-सुदृढ़ ) कर ही हम इस विकट समस्या पर विजय प्राप्त कर सकते हैं; और ठीक यहीं पर व्यक्तिगत प्रयास करने की आवश्यकता होती है। मुक्ति ही हमारा स्वभाव है, अर्थात दूसरों के प्रति सहानुभूति या प्रेम ही हमारा स्वभाव है, इसीलिये हम (प्रेमवश) अपने सभी सगे -सम्बन्धियों को भी मुक्त देखने की इच्छा करते हैं। निकट के सगे -सम्बधियों में अपनापन की भावना रहने के कारण, दूसरों के प्रति हमारा स्वाभाविक प्रेम - उन सबों को (सभी प्रकार के दुःख -कष्टों से) मुक्त देखना चाहता है। यहीं पर व्यक्तिगत प्रयास एक सामाजिक प्रयास में रूपान्तरित हो जाता है। इसी युगपत प्रयत्न (simultaneous effort ) की आवश्यकता को स्वामी विवेकानन्द ने अपने संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित वाणी (या महावाक्य)- 'Be and Make' के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
       >> Statue of Equality -' In India we have social communism, that is spiritual individualism with the light of Advaita (non-dualism)
 उनके इसी विचार के साथ थोड़ा और आगे बढ़ने पर हम पाते हैं कि वे इसी बात की ओर इशारा करते हैं - " In India we have social communism, with the light of Advaita -- that is, spiritual individualism." (-Sayings and Utterances, Volume 8)]  अर्थात भारत में अद्वैत वेदान्त की भावना से अनुप्रेरित सामाजिक साम्यवाद (Social communism ) आध्यात्मिक व्यक्तिवाद  (spiritual individualism-प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है की भित्ति ) की भित्ति पर स्थापित है।  इसीलिये  स्वामी विवेकानन्द ने इस आध्यात्मिक संक्रान्ति 'बनो और बनाओ '  की शुरुआत करने के लिये, भारत की आम जनता, जो झोपड़ियों में निवास करती है के बीच, भारत की प्राचीन 'विद्या एवं संस्कृति' का प्रचार-प्रसार  सामाजिक प्रयास के रूप में करने का सुझाव  दिया था।  क्योंकि वे यह जानते थे कि जन साधारण से परे हमारे सामूहिक अस्तित्व (राष्ट्रीय अस्तित्व) का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
     >>As the masses awaken-and if they have acquired the required culture meanwhile,  they will engulf everything like surging flood .
      उन्होंने पूरे विश्वास के साथ भविष्यवाणी करते हुए कहा था - " भारतवर्ष की आम जनता प्राचीन भारतीय विद्या और संस्कृति को प्राप्त करके ज्यों-ज्यों जागृत होती जायेगी, और उन्हें एक दिन अवश्य जागना होगा, इस दौरान वह यदि अपेक्षित शिक्षा और संस्कृति भी अर्जित कर लेती है, तो उस नवजागरण रूपी बाढ़ का जल उतर जाने के बाद , यथार्थ उन्नत आध्यात्मिक मनुष्य रूपी जलोढ़-जमाव ^*(alluvial deposit) द्वारा यह भारत भूमि अत्यन्त उपजाऊ बन जायेगी। और यह उर्वरता ऐसे हजारों ऐसे सुन्दर फूलों (चरित्र-कमल) को खिला देगी, जो स्वयं मुरझा जाने से पहले सर्वाधिक पुष्टिकर फलों (भावी आध्यात्मिक शिक्षकों) को जन्म देते जायेंगे।   
[जलोढ़क-जमाव (alluvial deposit) ^*  कहते हैं - बाढ़ के पानी के बहाव से लायी हुई  मिट्टी, गाद जो प्रवाह के उतर जाने के बाद उस भूमि पर जमा होकर उसे उर्वरा बना देती है। 

   =====================>><<======

7.

सम्पूर्ण विकास की ओर 

[For Total Development ]

   >>A man means a body, a mind, and his soul. Take care of three H's. 
       यदि हम मनुष्यों का निर्माण करना चाहते हों, या स्वयं 'मनुष्य' बनना चाहते हों, तो हमें यह अवश्य समझना होगा कि 'मनुष्य' कहते किसे हैं ? 'मनुष्य' का अर्थ है शरीर , मन और उसकी आत्मा। स्वामी विवेकानन्द इसी बात को आसानी से समझाने के लिए एक सूत्र देते हुए कहते हैं - मनुष्य तीन 'H' से बना हुआ है-Man is three H's ! उन्होंने कहा कि शरीर, मन और आत्मा 
इन तीनों के सम्मिलित आकृति को मनुष्य कहते हैं। इसलिये यदि हम मनुष्यों का निर्माण करना चाहते हों, और स्वयं मनुष्य बनना चाहते हों, तो हमें मनुष्य के तीनों अवयवों का सुसमन्वित विकास करना होगा।  इनमें से हाथ 'Hand' हमारे शरीर (बाहुबल) का प्रतिनिधित्व करता है , सिर 'Head' हमारे मन (बुद्धिबल) का प्रतिनिधित्व करता है , और ह्रदय 'Heart' के माध्यम से हमारी आत्मा की सहानुभूति -शक्ति और प्रेम की अभिव्यक्त होती है। 
>>If we understand a man as  trinity of three H's, body, mind and the soul, then only we can think of a goal for our life.
       उन्नत मनुष्य बनने के लिए हमें इन तीनों  को उन्नत करना होगा। हमें नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के माध्यम से अपने शरीर को स्वस्थ और बलशाली बनाना होगा।  मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा हम अपने मन को नियंत्रण में रखने का प्रयास कर सकते हैं, ताकि उसे उचित ढंग से विकसित किया जा सके। स्वामी विवेकानन्द के द्वारा दिये गये आदर्शों का अध्यन और परिचर्चा के माध्यम से हम अपने हृदय की सहानुभूति- शक्ति (प्रेम) को जागृत करने का प्रयास कर सकते हैं, जो कि ह्रदय का कार्य है। हमलोग अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में तभी विचार कर सकते हैं, जब हम मनुष्य को " Hand, Head and Heart " अथवा `शरीर, मन एवं आत्मा ' रूपी त्रिमूर्ति समझ सकें।
       >>Our body and mind are nothing but a little expression of our real essence which is the Soul, and religion/education is the manifestation of the divinity/perfection already in man .
यदि हमलोग यह सोचें कि हम तो केवल शरीर मात्र हैं, तो हमारी स्वाभाविक वृत्ति यही होगी कि इसका भरण-पोषण किया जाय, इसे मौज-मस्ती मिले, इससे केवल आमोद-प्रमोद किया जाय, या लुत्फ़ उठाया जाय; और मात्र इतना ही से सब कुछ समाप्त हो जायेगा। अगर हमलोग स्वयं को केवल 'शरीर एवं मन ' सोंचे, तो उस स्थिति में भी हमलोग अपनी इन्द्रियों का तुष्टिकरण करने एवं विभिन्न प्रकार के लालचों  और कामनाओं को पूर्ण करने में संलिप्त हो जायेंगे, या अगर बहुत हुआ तो थोड़ी बौद्धिक कसरत भी कर लेंगे, और बस यहीं पर सब कुछ खत्म हो जायेगा। किन्तु यदि हम यह जान लें कि, प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है - अर्थात हमारा सच्चा स्वरूप तो अजर-अमर-अविनाशी आत्मा है, और यह नश्वर शरीर और मन तो केवल उसकी ही एक अभिव्यक्ति है, तब उस अवस्था में हमारे जीवन का लक्ष्य बिल्कुल अलग प्रकार का होगा। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - 'प्रत्येक मनुष्य पहले से विद्यमान ईश्वरत्व (दिव्यत्व-पूर्णता-निःस्वार्थपरता ) को अभिव्यक्त करना ही धर्म/शिक्षा है। ' हमें उस ईश्वरत्व को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करना चाहिये, और वही हमें अपने जीवन का एक सच्चा और सही लक्ष्य प्रदान करता है।
      >>Mine and the other bodies or minds are not different , but different expressions of the Same Essence -The Soul !
    यदि हमलोग यह जान लें कि हमारे भीतर एक आत्मा, या ब्रह्म निवास करते हैं, तब हम स्पष्ट रूप से देख पायेंगे कि वे सिर्फ मेरे हृदय में ही नहीं बैठे हैं। वे प्रत्येक व्यक्ति में हैं, हर वस्तु में हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। तथा इसके परे भी हैं ; वे इस व्यक्त या दृष्टिगोचर जगत से परे भी हैं। केवल ऐसा विश्वास ही जगत को एकता के सूत्र में बाँध सकता है। यह ज्ञानमयी दृष्टि ही हमें जगत को ब्रह्ममय देखने की बुद्धिमत्ता प्रदान करती है, और केवल यह ज्ञान ही प्रत्येक व्यक्ति को परस्पर जोड़ सकती है। यह दिखलाता है कि मेरा और दूसरों के शरीर और मन अलग नहीं हैं , बल्कि एक ही मूलवस्तु (ब्रह्म-आत्मा) की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।  यह समझ ही हमें प्रत्येक व्यक्ति से प्रेम करने और किसी भी व्यक्ति से घृणा नहीं करने का साहस और उत्साह प्रदान करती है। यही हमें दूसरों के प्रति सहानुभूति रखने की क्षमता प्रदान करती है। यही (हृदयवत्ता) हमें दूसरों के कल्याण के लिये अपना सुख, अपनी ख़ुशी, अपना सब कुछ न्योछावर कर देने के लिये अनुप्रेरित करती है। 
   >> "Mine and the other bodies or minds are not different" - This Understanding gives us the spirit (भावना) and the courage (साहस) to love everybody and not to hate anybody. 
       यही समझ दूसरों के सुख-दुःख को भी अपने ही जैसा समझने की क्षमता प्रदान करती है। दूसरों के प्रति इसी  सहानुभूति के बल पर, इसी ज्ञान के साथ हमलोग दूसरों के दुःख-कष्टों को दूर हटाने का प्रयास करना चाहिये।  इसी बात को स्वामीजी संक्षेप में इस प्रकार कहते हैं कि "त्याग और सेवा " ही भारत के जुड़वा राष्ट्रीय आदर्श हैं। वे आगे इसमें जोड़ते हैं कि, आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये, शेष सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। उनके ये विचार ही हमारे समक्ष जीवन का एक 'आदर्श और लक्ष्य ' प्रस्थापित कर देते हैं। यह विचार हमें अपने जीवन के लिये एक दर्शन देते हैं। उनके ऐसे विचार ही हमें अपने जीवन को सही ढंग से निर्मित करने के लिये प्रेरित करते हैं। 
       >>"Mine and the other bodies or minds are not different" - This Understanding This gives us a philosophy for our life.
     इसीलिये, हमलोगों को इसी जीवन-दृष्टि या जीवन-दर्शन के आलोक में अपने जीवन को सही ढंग से गठित करने का संकल्प लेना चाहिये। यदि हमलोग अन्य लोगों से अलग नहीं हैं, तो उन्हें जब दुःख होता हो, वे रोते और विलाप करते हों, तब उनके दुःख-कष्टों को दूर करने के लिये हमें अवश्य आगे आना चाहिये, और इसकी खातिर हमें किसी भी तरह के त्याग या कष्ट को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
>>Beautiful verse uttered by Sri Krishna in Bhagvata, gives us the purpose of this life, the goal of this life, the meaning of this life, the fulfilment of this human life:  
 श्रीमद्भागवत में एक बहुत सुन्दर उपदेश-वाक्य है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है। यह श्लोक हमें मनुष्य जीवन का लक्ष्य, इसका सही उद्देश्य, इस जीवन का सही अर्थ प्रदान करता है, और इस जीवन सार्थक बनाने का उपाय भी प्रदान करता है।

एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु । 
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयं आचरणं सदा ॥ 
---यही 'साफल्य ' है , मानवजीवन की सार्थकता , या उद्देश्य यही है। वह क्या है ? वह सार्थकता कैसे प्राप्त होती है ? ' श्रेयं आचरणं सदा'। सदैव श्रेय कार्य करो।  किस तरह से ? तो - 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' ! अपने शब्दों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के द्वारा, और यदि आवश्यक हो तो अपने जीवन का बलिदान या अर्थ का त्याग करके भी केवल सद्कर्म ही करना चाहिये। यदि तुम्हारे पास धन है, तो अपने धन का व्यवहार करके, अपनी बुद्धि का, अपनी वाणी का,यदि जरुरी हो तो अपने सम्पूर्ण जीवन के द्वारा भी दूसरों का कल्याण करो। यही मानव जीवन की सार्थकता है।  
    स्वामी जी भी हमें ठीक ऐसी ही सलाह देते हैं । वे कहते हैं- "यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। बाकि लोगों का जीना तो मुर्दों की तरह जीने जैसा है। "  इन्हीं विचारों के आलोक में हमें जीवन को सही ढंग से निर्मित करने का दृढ़ संकल्प लेना चाहिये। 
========================>>><<<===========
'मनुष्य जीवन की सार्थकता : त्याग और सेवा  पर निर्भर है ! क्योंकि -" This life is short, the vanities of the world are transient, they alone live who live for others; the rest are more dead than alive. So with these ideas we should resolve to build ourselves properly."
=======================================

8

' सौंपा हुआ कार्य: चरित्रनिर्माण और उसका मार्ग ' 

[ India's Mission- The Task and the Way]

     >> India (Vedanta) alone can contribute meaningfully to the progress of the whole of mankind.संपूर्ण मानव जाति की प्रगति में केवल भारत (का वेदान्त) ही सार्थक योगदान दे सकता है। 

        हमारे समक्ष जो सौंपा हुआ लक्ष्य है वह है भारत का कल्याण। [जो कार्य हमें 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में "महामण्डल चपरास " के साथ सौंपा गया है, वह है भारत का कल्याण।] अगर हम उसके लिए काम करना चाहें तो हमें चीजों को स्पष्ट रूप से देखना होगा। हम सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव पूरे विश्व विशेषकर भारतवर्ष के कल्याण के लिये हुआ था, क्योंकि वे जानते थे कि सिर्फ भारत ही विश्व- मानवता की प्रगति में अपना अर्थपूर्ण योगदान दे सकता है। स्वामीजी ने यह दृष्टि अपने आध्यात्मिक अनुभूति से पाई थी। स्वामीजी की यह आत्म-अभिव्यक्ति और अनुभूति उन्हीं पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित सत्य से प्राप्त हुई थी जिसे हम वेदान्त कहते हैं।    

        >>'Practical Vedanta' has to be applied for the purpose of life-building of individuals for the good of the whole society .

अतीत में हमारे देश में ऋषि-मुनियों के द्वारा वेदान्त का अध्यन विशेषतः जंगलों (अरण्यों) में किया जाता था। स्वामी विवेकानन्द ही प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित इस महान सत्य को वनों से निकाल कर हाट-बाजार तक, समाज के आम लोगों और उनके घरों तक लाने का कार्य किया था। इसे ही 'Practical Vedanta' या 'व्यावहारिक वेदान्त ' कहते हैं। पूरे समाज का कल्याण करने के लिए, इसके आम जनों का जीवन गठन करने के उद्देश्य से उनके दैनन्दिन जीवन में- इसी 'व्यावहारिक वेदान्त' [4 -महा वाक्य] को प्रयोग में लाना होगा। स्वामी जी ने बड़ी गंभीरता से कहा था -" No nation is great or good because Parliament enacts this or that, but because its men are great and good. "  कोई भी राष्ट्र इसलिये महान और अच्छा नहीं होता कि वहाँ के पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल (Like RTI and Lokpal Bill etc) पास कर दिया है, वरन इसलिए होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं। " (भारत का ध्येय -४. २३४/India's Mission- Sunday Times, London, 1896) ] 

>> A man is good if he has a good character and  India's Mission is -'Make men first !' 

 किसी व्यक्ति को हम अच्छा मनुष्य तभी कहते हैं, जब उसका चरित्र अच्छा होता है।  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " पहले मनुष्य निर्माण करो--Make men first ! " उन्होंने कहा था , " शिक्षा को  जीवनगठन , मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी विचारों (महकाक्यों) को आत्मसात करने की पद्धति अवश्य उपलब्ध करानी   चाहिए। "Education must provide 'life-building, man-making, character-making assimilation of ideas ." इसीलिये अगर हमें अपने देश , अपने जनसाधारण की भलाई और कल्याण के लिये कार्य करना है तो हमें अपना ध्यान व्यक्ति-चरित्र के निर्माण पर केन्द्रित करना होगा। अतएव,  'व्यक्ति-चरित्र का निर्माण' - करना ही हमारा प्रमुख कार्य होना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द को यह अनुभव भी हुआ था कि यदि हम सम्पूर्ण भारतवर्ष के कल्याण के इस कार्य को वृहत तौर पर करना चाहें , तो हमें संगठित होकर प्रयास करना होगा और इसके लिये संगठन की आवश्यकता होगी। तथा हमें इस  ' व्यक्ति-चरित्र निर्माण तथा आत्मविकास ' के कार्य को संगठित होकर और संगठन के माध्यम से ही  करना होगा। 

       >>We have never heard that any tiger became a saint. But in human history many sinners have become saints. Even gods aspire to be born as human beings. ]

अब हमलोग यह देखने का प्रयास करेंगे कि क्या चरित्र निर्माण  के लिए कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पद्धति हो सकती है ? कई लोगों का मानना है कि चरित्र तो जन्मजात रूप से व्यक्ति में निहित कोई चीज है। हमलोग प्रायः ऐसा कहते हैं कि जल की अपनी कुछ विशेषतायें हैं, अग्नि के कुछ अलग गुण (धर्म) हैं। बाघ एक क्रूर पशु है, किन्तु क्या हम ऐसा कुछ मनुष्य के बारे में भी कह सकते हैं ? स्वामी जी कहते हैं कि देवता भी मानव रूप में जन्म लेने के लिये लालायित रहते हैं। क्योंकि, देवताओं का (या पशुओं का ?) जीवन चाहे कितना ही महान, गौरवशाली और भव्य क्यों न हो, वे जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं। हमलोगों ने ऐसा कभी नहीं सुना कि एक  बाघ था जो बाद में संत  बना गया । लेकिन मानव इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण अभिलिखित हैं, जहां कोई पापी था जो बाद में संत बन गया।

  >>The character of a person is known through one's behavior :  

आइए, अब विचार करें कि किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में जाना कैसे जाता है? किसी  व्यक्ति के चरित्र की धारणा उसके आचरण ,व्यवहार एवं समाज के दूसरे लोगों के साथ उसके सम्बन्धों के देखकर बनाई जाती है। मानलो , मैं किसी से मिलता हूं और उसके चले जाने के बाद  मेरे मन में उस व्यक्ति के बारे में एक बहुत ही सुखद छवि रह जाती है। या इसके विपरीत, मैं किसी अन्य व्यक्ति के संपर्क में आता हूं और मुझे खेद का अनुभव होता है। ऐसा विचार आता है कि कितना अच्छा होता अगर मैं उस व्यक्ति से कभी मिला ही नहीं होता। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि, पहले व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व से भिन्न प्रकृति का है। एक का व्यक्तित्व मनोहर है (winsome,हर्षवर्धन करने वाला),जबकि दूसरे का  ऐसा नहीं है। 

   >>>Personalty means what we appear to be and Character is what we really are. 

       आइये, अब हम व्यक्तित्व और चरित्र के बीच के अन्तर को समझने का प्रयास करते हैं। कोई व्यक्ति दूसरों को ऊपर जैसा प्रभाव छोड़ जाता है, समग्रता में वही उसका व्यक्तित्व समझा जाता है। यहाँ तक ​​कि उस व्यक्ति की वाणी , शारीरिक बनावट, इत्यादि भी इस मामले में काफी महत्व रखते हैं। उसका पहनावा ,केश-विन्यास (hair cut) और उसकी दूसरी अन्य चीजें भी उसके व्यक्तित्व को गढ़ने में अपना योगदान देती हैं। जबकि चरित्र किसी व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व का केवल एक अंग है। लेकिन यह बात हमलोगों को स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि व्यक्तित्व का यह अंग (चरित्र)  ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु है।

 >>I will be liked and loved, because of my behavior, because of the expression of my feelings.

  हो सकता है कि मेरी पोशाक पुरानी हो। यह भी हो सकता है कि मैं देखने में प्रभावशाली और आकर्षक न लगूँ, मेरी शिक्षा भी वैसी न हो, किन्तु यदि मेरे व्यवहार में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण (sterling qualities) हों तो अन्ततोगत्वा मेरे सुन्दर व्यवहार और मेरी भावनाओं की मनोहर अभिव्यक्ति के कारण मुझे ही अधिक पसन्द किया जायेगा और प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा जायेगा। हमलोग सत्य के बहुत निकट होंगे  जब हम कहें कि, " हमारे व्यक्तित्व का अर्थ है - जैसा हम दिखते हैं, जबकि चरित्र वह है, जो हम वास्तव में हैं ! " हो सकता है कि अपनी वाकपटुता और अन्य दूसरी चीजों से शायद हम दूसरों को आकर्षित कर लेते हों, लेकिन जब परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं रहती उस समय हम भिन्न प्रकार से (अपने व्यक्तित्व से अलग हटकर) व्यवहार या कार्य करने लगते हैं।  इसलिए, सबसे पहले हमें अपने चरित्र को सही ढंग से निर्मित करने पर अधिक ध्यान देना  चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का वास्तविक स्वरुप एक मजबूत नींव पर तैयार हो सके। चाणक्यनीति में कहा गया है -

दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटापटावृतः ।

तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ॥ 

- लंबी शाल तथा खेस इत्यादि चमकीले वस्त्रों से सुसज्जित एक मूर्ख व्यक्ति दूर से सुशोभित होता है। लेकिन वह तब तक ही सुशोभित होता है (विद्वान सा प्रतीत होता है ) जब तक वह  कुछ कहता नहीं है। मुख खोलते ही उसकी मूर्खता जगजाहिर हो जाती है।  [A foolish person dressed nicely in a bright flowing robe  looks beautiful and impressive (like a scholar) from a distance only so long he does not speak even a little. (As soon as he speaks something his foolishness gets exposed]

     >>  The character of Sri Ramakrishna was wonderful, not a mere outward personality;  as he looks up, you are caught in the net of his love.  

     श्री रामकृष्णदेव के बारे में विचार करो। उनके पास तो बहुत से पढ़े-लिखे ज्ञानी लोग आया करते थे। उनके सामने वे किस तरह के व्यक्ति के रूप में दिखा करते होंगे ? गाँव से आया एक बिल्कुल साधारण निरक्षर देहाती , शिष्टाचार से अपरिचित जो हमेशा भदेस ग्रामीण भाषा का प्रयोग करता हो।  श्री रामकृष्णदेव के व्यक्तित्व में प्रथम-दृष्ट्या मन को आकर्षित करने योग्य तो कुछ भी नहीं था। किन्तु, पास जाकर कुछ बोलने के पहले, जैसे ही तुम उनके निकट आते हो, उनकी कृपाकटाक्ष तुम पर पड़ती है और तुम मोहित (fascinated, मन्त्रमुग्ध) हो जाते हो, तुम उनके प्रेम-जाल में फँस जाते हो ! ऐसा जादू कैसे हो जाता है ? क्योंकि श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही अद्भुत था केवल बाहरी व्यक्तित्व नहीं।
     >>Sri Ramakrishna searched for Truth and discovered the TRUTH (Love, unselfishness-चरित्र के 24 गुण ) in himself !  
  उन्होंने इस प्रकार के अद्भुत चरित्र का निर्माण कैसे किया होगा ? उन्होंने भी 'सत्य ' की (एथेंस के सत्यार्थी की तरह परम् सत्य की) खोज की थी, और उस सत्य को - जो पवित्रता है, प्रेम है, करुणा है, सहानुभूति है, जो निःस्वार्थता है, त्याग है, जो सभी के लिए सेवा भावना है; उसे अपने अन्दर ही पाया था। ये सभी वास्तव में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण हैं जो यथार्थ मनुष्य के चरित्र में हो सकते हैं। यदि हम भी इन गुणों को किसी तरह अपने अन्दर विकसित कर सकें, तभी हम कह सकते हैं कि हमने एक मनोहर चरित्र का निर्माण कर लिया है। चरित्र है क्या चीज ? चरित्र हमारी आदतों या प्रवृत्तियों का समूह मात्र है। सत्य के प्रति अटूट प्रेम, करुणा, सहानुभूति, निःस्वार्थपरता,  निर्भयता, त्याग और सेवा भावना  - ये सभी चरित्र के उत्कृष्ट गुण हैं। तो क्या हम यह मान सकते हैं कि ये सभी गुण भी उन्हीं आदत से ही निर्मित होते होंगे जिससे हमारा चरित्र बनता है? हाँ, हमलोग देखेंगे कि ये सभी अच्छे गुण जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है , वे हमारी सत्ता में पहले से ही विद्यमान हैं। 
      >>Character building  education  is -"तत: क्षेत्रिकवत् ।" As a farmer removes the obstacles from the channel of flowing water in the field:
यदि उपरोक्त सारे गुण हमारी आत्मा में पहले से अन्तर्निहित हैं, तो फिर चरित्र निर्माण में आदतों की भूमिका क्या है ? अच्छी तरह से अवलोकन करने पर हम पायेंगे कि असत कार्य और अपने अविवेकपूर्ण निर्णयों के द्वारा हमने ही अपने मन पर कुछ ऐसे गलत छाप या संस्कार डाल दी हैं, जो हमारी सत्ता में निहित उन सुन्दर गुणों के प्रवाह को विकसित होने में रोड़े अटका रही हैं, या बाधा डाल रही हैं। स्वामी जी ने स्वयं कहा है, इसलिए हमें इस बात को अच्छी तरह से समझना होगा कि चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा एक निषेधात्मक प्रक्रिया (negative process) है, जिसमें हमें चित्त पर पड़े गहरे संस्कारों (अहं वृत्ति) को दूर करने के लिए कठिन परिश्रम करना होगा, ताकि अच्छे गुण स्वतः प्रकट होने लगें। जैसा पतंजलि योग सूत्र में कहा गया है - "तत: क्षेत्रिकवत् ।"  (कैवल्य पाद- ४.३) जिस प्रकार खेत में काम करने वाला किसान खेत पटाते समय पानी व खेत के बीच आने वाली मेड़ रूपी बाधाओं को रस्ते से हटाता है। वैसे हमें भी इन गुणों के स्वतः प्रकट होने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाना होगा।

       >>The first step to character formation is, brahmacharya (आत्मसंयम) to desist from bad thoughts, bad words, bad actions. 

अतएव असत कर्म,असत वचन और असत विचारों से विरत हो जाना- ही चरित्र निर्माण का प्रथम सोपान है। इसी आत्मसंयम को ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसके वाद अच्छे कर्मों को बार-बार करते हुए अच्छी आदतों का निर्माण करना होगा । सद्कर्म क्या है, हम स्वाभाविक रूप से पूछेंगे। हम एक स्वर में कहेंगे कि नैतिक कार्य करना ही सद्कर्म है । लेकिन नैतिकता क्या है? स्वामी विवेकानन्द ने नैतिकता की बड़ी ही आसान परिभाषा दी है, जो देश या काल के अनुसार नहीं बदलता है। 

 >>Which is unselfish is moral, and that which is selfish is immoral.

      स्वामीजी कहते हैं, जो निःस्वार्थ कार्य है वह नैतिक है और जो भी कार्य स्वार्थपूर्ण है वह अनैतिक है। उन्होंने नैतिकता की यह परिभाषा कहाँ से प्राप्त की है? हम आसानी से देख सकते हैं कि यह वेदान्त द्वारा प्रतिस्थापित सत्य - (कोई पराया नहीं सभी अपने हैं) को स्वीकार करने का एक परिणाम है। जब तक मैं केवल  'मैं' और 'मेरा' के बारे में सोचता हूं, मैं स्वयं को सीमित कर लेता हूँ । और जब अपनी अन्तर्निहित पूर्णता को विस्तृत करते हुए मैं अपने पृथक अस्तित्व (मिथ्या अहं) को समष्टि अहं में खो देता हूँ या लीन कर देता हूँ,तभी मैं निःस्वार्थी हूँ और नैतिक हूं। इसका अर्थ यह हुआ है कि मैं सत्य की पूर्णता (निःस्वार्थपरता और प्रेम) को स्वीकार करता हूं। नैतिकता के इसी समझ की सहायता से अब हमलोग आसानी से उचित और अनुचित कर्म में अन्तर (श्रेय-प्रेय, बाबू और बगीचा में विवेक-प्रयोग) कर सकते हैं। 

>>Repetition of moral actions over and over again is the method of character building.

और इस प्रकार विवेक-प्रयोग करने के बाद जब हम केवल उचित कर्म ही करेंगे तथा उसे बार -बार दुहराते रहेंगे, तो केवल सद्कर्म करने की हमारी आदत पड़ जाएगी। और अच्छे कार्यों से उत्पन्न अच्छी आदतें जब पुरानी होकर जब अच्छी प्रवृत्तियों में परिणत हो जायेंगी; तो उन्हीं सद्प्रवृत्तियों का समाहार या संग्रह (collection or agglomeration) हमें एक सुन्दर चरित्र का अधिकारी बना देगा। इसलिए, नैतिक कार्यों की बार-बार पुनरावृत्ति ही चरित्र निर्माण की पद्धति है। स्वामी विवेकानंद ने हमलोगों को - 'शिव ज्ञान से जीव सेवा करने ' या मनुष्य को ईश्वर समझकर सेवा करने के लिए कहा था ।

 >> Renunciation and service to others -this is the way to formation of one's character.

श्रीरामकृष्ण देव दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में स्थापित माँ भवतारिणी की मूर्ति की पूजा किया करते थे। लेकिन उन्होंने स्वयं से पूछा , क्या मैं केवल एक मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकता हूँ ? उन्हें उत्तर मिला , यदि तुम एक पत्थर की मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकते हो , तो रक्त -मांस के बने जीवन्त मनुष्यों में ईश्वर की पूजा क्यों नहीं कर सकते ? उन्होंने स्वयं से  प्रश्न किया कि ' क्या केवल बंद-आंखों से ही ध्यान होना संभव है? उन्हें उत्तर प्राप्त हुआ था कि, नहीं तुम खुली आँखों से भी ध्यान कर सकते हो !  इसलिए, श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द (अपने गुरुदेव से सीखकर) दोनों ने  इस महान सत्य की शिक्षा दी है कि " मानव-सेवा ही ईश्वर की वास्तविक पूजा है" ना कि आत्म-सुख का लालच या घोर स्वार्थपरता। 'त्याग और दूसरों की सेवा ' - यही चरित्र निर्माण का मार्ग है। स्वामी जी के शब्दों में, 'अपने चरित्र -कमल को पूर्णरूपेण खिला लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। ' और हमें वैसा ही करने का प्रयास करना चाहिए। 

          >>Discrimination between good and bad action is a function of mind, so training of mind is primary work for  character building. 

         व्यावहारिक तौर पर हम देखते हैं कि हमारे कर्मों से ही हमारे चरित्र का निर्माण होता है। यदि हमारे कर्मों के ऊपर विवेक-विचार का नियंत्रण हो तब हमारे द्वारा अच्छे कर्म होते हैं, जो अच्छे चरित्र के निर्माण में सहायक बन जाते हैं। उचित और अनुचित कर्म के बीच विवेक-विचार करना हमारे मन का कार्य है। अत: अपने मन पर नियंत्रण रखने के लिए , उसको एकाग्र करने या मनःसंयोग का अभ्यास ही चरित्र निर्माण का प्राथमिक कार्य है। क्योकि किसी भी कार्य को करने का संकल्प हम मन में ही लेते हैं और सद -असद कर्मों के बीच अन्तर भी मन की सहायता से ही करते हैं। इसलिए मन के ऊपर नियंत्रण और विवेक -प्रयोग की सहायता से अच्छे कर्मों को लगातार दोहराते हुए हम अच्छी आदतें, अच्छी प्रवृत्तियों का निर्माण कर सकते हैं।  और अच्छी प्रवृत्तियों का  समुदाय ही अच्छा चरित्र है, अतएव हम कह सकते हैं चरित्रवान मनुष्य बन जाना ही हम सभी की उदात्त नियति है। 

    >>You are the maker of your own destiny- for everything depends on manliness ! 

इसलिए, स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि 'तुम स्वयं  अपने भाग्य के निर्माता हो। 'हमारा भविष्य किसी अज्ञात जगह से नियंत्रित होने वाले किसी भाग्य नामक असाधारण वस्तु पर निर्भर नहीं करता; यह हमारे पौरुष तथा आत्मविश्वास पर निर्भर करता है। इसलिए स्वामी जी ने कहा था - " जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है , उतना ही अधिक मुझे लगता है कि 'पौरुष' में ही सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया सुसमाचार है। " ( सूक्तियाँ एवं सुभाषित : ८.१३१ ) ["The older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my new gospel." (Sayings and Utterances-8.16)]   उन्होंने प्रत्येक युवा को अपने- आप पर विश्वास करने, अपने पौरुष पर और अपने प्रयत्न क्षमता पर विश्वास रखने का सन्देश दिया था। स्वामीजी सभी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते है - अपनी अन्तर्निहित संभावनाओं को प्रकट करो , अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करो और उस भाग्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र को उन्नततर, महानतम गौरवशाली भविष्य की ओर ले चलो ! 

===============================

" मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंहविक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। आत्मविश्वास रखो।  तुम्हीं लोग तो पूर्वकाल में वैदिक ऋषि थे। अब केवल शरीर बदल कर आये हो। मैं दिव्य चक्षु से देख रहा हूँ , तुम लोगों में अनन्त शक्ति है। उस शक्ति को जगा दे ; उठ उठ, काम में लग जा , कमर कस। क्या होगा दो दिन का धन-मान लेकर ? मेरा भाव जानता है? - मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य का निर्माण करने में लाख जन्म लेने पड़े तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ। " -स्वामी विवेकानन्द

================================

[एक नया युवा आंदोलन]

9.

हमारी सीमा 

[Our Limitation]

         >>Man is limited only outwardly; But when he knows this and tries to outgrow to his unlimited stature becomes great !  

     हम अपनी सीमाओं को जानते हैं , किन्तु इससे हमारे उत्साह में कोई कमी नहीं होगी। बल्कि ये सीमायें ही हमें इनके अतिक्रमण का उपाय ढूँढ़ने में सहायता करती हैं। मनुष्य केवल वाह्य रूप से सीमाबद्ध है। किन्तु जब वह यह जान लेता है कि वह वृहत है (जिससे सब निकला है, जिसमें सब स्थित है, और जिसमें सब लीन हो जाता है !), तब वह अपने असीम स्वरूप को विकसित करने में लग जाता है।
        कोई कार्य केवल इसलिये महान नहीं हो जाता कि उसका बड़ी धूमधाम से प्रचार हुआ है। हमारी बातों पर बहुत कम लोग ही ध्यान देंगे। किन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो विगत पचास वर्षों से यह सब सुनते आ रहे हैं। इसीलिये हमें अपने ऊपर पूरा भरोसा है। यदि किसी जुलुस में थोड़े से विदेशी स्त्री-पुरुषों को शामिल कर लिया जाय तो उस खबर को एक फोटो के साथ अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर जगह मिलती है, किन्तु जब हजारों युवा ' हम मनुष्य बनेंगे' का नारा लगाते हुए शहर के राजमार्ग पर शोभा-यात्रा निकालते हैं तो इस पर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता ? 
क्योंकि जो संकीर्ण दृष्टिकोण, स्वार्थी उद्देश्य रखने वाले लोग हैं, जिनमें मनुष्य में अन्तर्निहित महान सम्भावनाओं और उच्च मूल्यों की कोई जानकारी नहीं वैसे दुनियावी लोग तो ऐसा ही करते हैं। अतः ऐसी बातों में समय नष्ट न कर बल्कि कृत संकल्पित होकर हमें अपना कार्य करते रहना चाहिए।
 
        देश की वर्तमान परिस्थितियों को बदलने के लिए- सरकार,लोकतन्त्र के स्वरूप को, या मौजूदा संविधान को बदलना आवश्यक हो सकता है। किन्तु इस कार्य को करने का बीड़ा केवल पूर्ण रूप से पवित्र और निःस्वार्थी  लोग ही  उठा सकते हैं। पर वैसे मनुष्य हैं कहाँ, और वैसे मनुष्य हमें प्राप्त कहाँ से होंगे ? जो लोग लोकतांत्रिक और क्रान्तिकारी बदलाव लाने की बात करते हैं [जे.पी ,अन्नाहजारे, केजरी आदि], उन सभी ने इस मूलभूत कार्य को ही छोड़ रखा है। और महामण्डल इसी छूटे हुए कार्य को पूरा करने प्रयास कर रहा है, और जब तक यह कार्य बहुत हद तक सम्पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक वह भी इन परिस्थितियों को बदल पाने में सक्षम नहीं हो सकता। इस सीमा को महामण्डल  विनम्रतापूर्वक स्वीकार भी करता है।  इसलिए महामण्डल का राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं है, क्योंकि -politics always puts the cart before the horse.' अर्थात राजनीति हमेशा गाड़ी को घोड़े के आगे रखती है।
         महामण्डल के पास न तो ज्यादा धन-बल है, और न ही अधिक जन-बल है। किन्तु  इन बातों को लेकर वह तब तक चिन्तित भी नहीं है, जब तक उसके समक्ष एक बिल्कुल स्पष्ट -आदर्श, उद्देश्य और उपाय है ! जब तक उसके पास थोड़ी संख्या में ही सही, लेकिन कुछ ऐसे युवा हैं जिन्होंने यह जान लिया है कि भारत के वास्तविक कल्याण के लिए सर्वप्रथम क्या करना आवश्यक है। क्योंकि विगत 55 वर्षों में हमने देखा है कि देश भर में सर्वत्र निष्ठावान , मेहनती ,देशभक्त , निःस्वार्थी , विनम्र , त्यागी , उत्साही और साहसी युवकों की  एक ऐसी  बड़ी संख्या मौजूद है, जो इस महान राष्ट्र को पुनरुज्जीवित करने में अपने जीवन को समर्पित करने के लिये उत्सुक हैं ।
          लेकिन महामण्डल उन चुनिन्दा (जीवनदानी)  लोगों का संगठन भी नहीं है जो केवल संगठन के कार्यों को ऑंखें मूँदकर निबटाने के आलावा और किसी पारिवारिक दायित्व का ध्यान नहीं रखते।  वरन यह संगठन उन समस्त युवाओं के लिये है, जो अपने देश एवं देशवासियों और   स्वयं से भी प्यार करते हैं, तथा एक गौरवशाली और महिमान्वित राष्ट्रीय जीवन के निर्माण में अपना भरपूर योगदान देने के साथ-साथ स्वयं भी एक उदात्त और कर्मठ जीवन जीने के इच्छुक हैं। यह संगठन जो युवा अभी 'जहाँ हैं, और जैसे है' - उन सभी युवाओं के लिये है। उन्हें न तो अपना घर छोड़ना है, न पढाई छोड़नी है, और न ही रोजगार - व्यवसाय छोड़ना है, अपितु उन्हें अपना अध्यन आदि समस्त कार्यों को करते हुए केवल अपना चरित्र सुन्दर ढंग से गठित करना है। और अपनी अतिरिक्त ऊर्जा ,समय और यदि सम्भव हो सके तो कुछ धन देना होता है। 
     महामंडल जीवन की पूर्णता प्राप्त करने के समस्त सम्भव उपायों का प्रचार नहीं करता, बल्कि साधन के रूप में केवल कर्म करते रहने का प्रचार करता है। इसलिए यह संगठन  उपरोक्त स्वभाव वाले अधिकांश युवा - जो जाति , धर्म या सम्प्रदाय के आधार पर कोई भेद नहीं रखते, के लिए उपयुक्त है। यदि यह हमारे लिए एक सीमा भी हो तो भी इसके लिये हमें कोई शिकायत या असंतोष नहीं है। इस कार्य में अपना सर्वश्रेष्ठ समर्पित कर देने की क्षमता व्यक्तिगत आध्यात्मिक-उपलब्धि पर निर्भर करती है। यह कार्य देश और इसके लाखों-करोड़ों देशवासियों के कल्याण का कार्य है। और इस उद्देश्य से कार्य करने की क्षमता केवल वैसे ही कार्यों से अर्जित की जा सकती है जो बिना किसी निजी स्वार्थ की इच्छा से किया जाता है। समाज सेवा का कार्य भी इसी तरह का एक कार्य है। इसीलिये महामण्डल समाज सेवा को साध्य के रूप में नहीं बल्कि साधन के रूप में लेने का पक्षधर है। अब यह युवाओं ही तय करना है कि क्या वे इस महान उद्देश्य को पूरा करने के लिये आगे आयेंगे या केवल निजी स्वार्थों की पूर्ति करते रहने में ही अपना जीवन बिता देंगे ? जिसके फलस्वरूप अन्ततोगत्वा उनका व्यक्तिगत रूपसे अमानवीकरण तो होगा ही राष्ट्र भी रसातल में जाने के लिए बाध्य हो जायेगा । 
          उपर गिनाये गए और संभवतः उससे भी अधिक सीमाओं के होते हुए भी, अपनी भलाई और देश की भलाई के लिए  युवा शक्ति को रचनात्मक कार्यों के लिये प्रेरित करने में महामण्डल के सफल होने की असीम सम्भावनायें  हैं।  
====================================

10. 
 
लक्ष्य- और उसका मार्ग 

[The Object and the Way.]

        >>It is not enough to do something as we cannot stay without work. We should plan our work according people need. 
       हमारे समक्ष जो भी कार्य इस समय अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रयोजनीय प्रतीत हो रहे हैं, हर उस कार्य में कूद पड़ने से पहले उसमें अन्तर्निहित उद्देश्य से भलीभाँति परिचित होना अनिवार्य है। हम एक क्षण भी कार्य किये बिना नहीं रह सकते , लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि स्वयं को जिस-तिस प्रकार के कार्यों में व्यस्त कर लिया जाये। अधिकांश लोग ऐसे ही किसी न किसी कार्य में व्यस्त रहते हैं, किन्तु इस तरह के कार्यों से ऐसा कोई परिणाम नहीं मिलता जिससे आम लोगों लाभ पहुँचे। स्वाभाविक रूप से हमें पहले यह निर्धारित करना चाहिये कि जो कार्य हम करने जा रहे हैं वह बहुतों के लिये लाभकारी हो, अतः हमें अपने कार्य के परिणाम पर दृष्टि रखते हुए ही कोई कार्य [स्ट्रीट लैम्प पर निशाना लगाना आदि] करना चाहिए। इसलिये पहले हमें यह जान लेना चाहिये लोगों की मूल आवश्यकता क्या है, फिर उस आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए अपनी कार्य योजना बनानी चाहिए। (दूरदर्शी होकर दीर्घकालीन और अल्पकालीन दोनों प्रकार की कार्य-योजना बनानी चाहिये- जैसे 12 वर्ष बाद भारतवर्ष को मैं कहाँ देखना चाहूँगा, और उस ऊँचाई तक वह पहुँचेगा कैसे ? )      
         >>Our Goal is overall prosperity of the people of India.  
      हमारे देशवासी वर्षों से नहीं बल्कि सदियों से अज्ञानता, दुःख और गरीबी में रहते आ रहे हैं। आज भारत के लिए जो सर्वाधिक जरूरी चीज है, वह है समस्त देशवासियों का 'समग्र' विकास और  समृद्धि इसीलिये, हमारी समस्त परियोजनायें ऐसी होनी चाहिये के वे देशवासियों के सामग्रीक विकास के अनुकूल हों। शिक्षा, अर्थव्यवस्था, कानून व्यवस्था , साहित्य , कला , शिल्प , दर्शन, धर्म , सामाजिक रीति-रिवाज, उद्योग , वाणिज्य , विदेश व्यापर , कृषि, आदि सभी विषयों को इस प्रकार निर्देशित करना चाहिये कि ये सभी हमारे देशवासियों की समृद्धि के उसी लक्ष्य की ओर अग्रसर हों। यही वह आदर्श है जिसकी घोषणा सभी राजनितिक नेता लोग करते तो हैं, पर ये घोषणायें शायद ही कभी कार्य में परिणत होते दिखाई देती हैं। हमारे देश में इन दो धाराओं-(कथनी और करनी ) के बीच का अन्तर इतना स्पष्ट है कि अक्सर आश्चर्य होता है कि क्या सम्पूर्ण देशवासियों के उद्देश्य को एक ही दिशा- 'एक भारत -श्रेष्ठ भारत' का निर्माण में एकजुट करने का सच्चा प्रयास करना सम्भव भी है ?
       >>To built 'One India - Best India' --What is the way to attain this unification of purpose ?
  सभी देशवासियों का उद्देश्य 'एक भारत -श्रेष्ठ भारत का निर्माण ' करना हो जाये, उद्देश्य के ऐसे एकीकरण (unification of purpose) को प्राप्त करने का उपाय क्या है ? और क्या ऐसा करना कभी सम्भव भी है? अवश्य सम्भव है, और इसका उपाय है ऐसा करने की इच्छाशक्ति या दृढ़-संकल्प ! लेकिन, कोई अकेला मनुष्य (One -individual) ऐसा करने, अर्थात `एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण' करने का संकल्प ले-ले तो यह कभी सम्भव नहीं होगा। परन्तु यदि यह 'अनेकों' (many) का संकल्प बन जाये, अर्थात `एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण' करना ही यदि 140 करोड़ देशवासियों का संकल्प बन जाये; तो ऐसा करना अवश्य सम्भव हो जायेगा ! लेकिन 'अनेकों' का , 140 करोड़ देशवासियों का- 'संकल्प ' एक जैसा बना देना कैसे सम्भव होगा ? `Teach everyone to learn to will that way.' देश के प्रत्येक व्यक्ति को 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण' करने के लिए संकल्प ग्रहण करने की विधा- (autosuggestion) सिखा दो !
  >>The most important part of Mass Education is the coordination of will. [जन -शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण अंग है - इच्छाशक्ति का समन्वय। ]
 यदि तुम स्वयं संकल्प ग्रहण करने का कौशल सीख लो और दूसरे को भी उसी प्रकार सिखा दो तब इच्छाशक्ति का समन्वय हो जायेगा। जनसाधारण को शिक्षित करने का यही सबसे महत्वपूर्ण अंग है। ऋग्वेद, अथर्व वेद तथा उपनिषदों में और बाद के शास्त्रों में (अष्टांग-योग आदि में) भी इसी की शिक्षा दी जाती थी। लेकिन कतिपय कारणों से इस अनूठी नियम-बद्धता (unique discipline) को आज हमलोग भूल बैठे हैं और इसी कारण इतना दुःख-कष्ट सह रहे हैं। मुफ्त में रेवड़ी बाँटने का प्रलोभन देकर बहुमत जुटा लेने वाली पार्टी को सत्ता में ले आना, जनसाधारण के समन्वित इच्छाशक्ति के महान सिद्धान्त का एक बहुत ही घटिया उदाहरण है। इस तरह की  प्रलोभन जन्य नियमबद्धता तो कोई भी पार्टी राजनीतिक हथकण्डों के द्वारा पुनः अर्जित कर सकती है।
 >>Coordination of will is emphatically 'a political, or apolitical' 
 action ?  
       बलपूर्वक या चालाकी से इच्छाशक्तियों का समन्वयन करना एक राजनितिक कार्य है, लेकिन यहाँ जिस ' एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण' के महान उद्देश्य से किया जाने वाले जन-साधारण के इच्छाशक्ति का समन्वय करने की बात की जा रही है , वह पूरी तरह से एक अराजनैतिक (apolitical) कार्य है। यदि हमलोग पहले ही जन-शिक्षा (mass education) के इस सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा को अराजनैतिक 'a-politically' तरीकों से अनुभव करने में सक्षम हो जायें ; तो आज जिन संकटों का सामना हम कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश पर काबू पाया जा सकता है। और इस दिशा में कार्य का प्रारम्भ करने के लिये हमारे भीतर जनसाधारण की समन्वित इच्छाशक्ति की प्रचण्ड क्षमता पर अटूट विश्वास होना चाहिये। और फिर इच्छाशक्ति के इस समन्वयन को कार्यरूप देने के लिये हमारे भीतर दृढ़ संकल्प (strong determination) भी होना चाहिए।  
 >>Youths come close, forge a united front so that a national will emerges.
       अब चूँकि हममें से प्रत्येक व्यक्ति को  'एक भारत श्रेष्ठ भारत, हर दृष्टि से समृद्ध भारत' का निर्माण करने के उद्देश्य से संकल्प-ग्रहण की पद्धति को सीखना है, और दूसरों को भी उसी प्रकार संकल्प-ग्रहण कौशल को सीखने के लिये अनुप्रेरित करना है; इसीलिये कार्य में जुड़े सभी व्यक्तियों को एक-दूसरे के करीब आना चाहिये और परस्पर जुड़कर (दीदी -दादा का) एक संयुक्त मोर्चा (united front) बना लेना चाहिये, ताकि एक राष्ट्रीय इच्छाशक्ति का आविर्भाव हो सके। 'एक भारत श्रेष्ठ भारत, हर दृष्टि से समृद्ध भारत' का निर्माण के उद्देश्य से की गयी यह राष्ट्रीय इच्छाशक्ति (national will ) यदि निष्कपट होगी तो वह जनसाधारण को स्वार्थपरता त्यागने के लिये प्रेरित करेगी। और तब जिन सभी क्षेत्रों में नियमबद्धता (disciplines) और राजीनीति आदि विषयों का उल्लेख पहले किया गया था उसके लिए अपने क्षुद्र स्वार्थों को त्याग करने की शक्ति प्राप्त होगी, और ऐसी समन्वित राष्ट्रीय इच्छाशक्ति के द्वारा देश की अवस्था परिवर्तित होने के लिए बाध्य हो जाएगी। 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " संकल्प शक्ति ही जगत में अमोघ शक्ति है। प्रबल इच्छाशक्ति का अधिकारी मनुष्य एक ऐसी ज्योतिर्मयी प्रभा अपने चारों ओर फैला देता है कि दूसरे लोग स्वतः उस प्रभा से प्रभावित होकर उसके भाव से भावित हो जाते हैं। इच्छा-शक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही वह सारा रहस्य है।"  5 /191 ] 
       >>>The necessity of Youth organization.
        अब प्रश्न उठता है कि इस प्रक्रिया को (वज्र जैसा अप्रतिरोध्य निःस्वार्थी मनुष्य बनने और बनाने की प्रक्रिया) को तेज  कैसे किया जाय ? यहीं पर संगठन की आवश्यकता होती है। और यह महामण्डल जो समस्त देशप्रेमी समस्त संगठनों का ह्रदय (nucleus) या केन्द्र है, वह आगे चलकर देश के कोने कोने तक प्रसारित हो जायेगा। और इस संगठन से जुड़े हर व्यक्ति के जीवन को इतने सुन्दर ढंग से गठित कर देगा कि वह व्यक्ति मानव मस्तिष्क द्वारा कल्पित किसी भी मशीनी मानव (Robot) की तुलना में अधिक दक्ष होगा।  
==================================

11. 

 मार्ग की पुनर्व्याख्या

[The Way Further Explained]  
  
        >>Only from  faith and conviction in 'One India - Best India' will come the 'will to work' for the ideal.
   महामण्डल देश के विभिन्न हिस्सों में फैल रहा है। कई बार इसके कार्यों में तीव्र उत्साह देखा गया है तो कई बार इसका अभाव भी दृष्टिगोचर हुआ है। यद्यपि इसका भौतिक विस्तार स्वागत योग्य है , किन्तु जो चीज सबसे अधिक आवश्यक है , वो है इसके उद्देश्य और आदर्श में दृढ़ विश्वास। यह दृढ़ विश्वास तभी आ सकेगी , जब वे सभी लोग जो इस कार्य में लगे हैं, और जो लोग आगे इसके साथ जुड़ना चाहते हैं, वे महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य से पूर्णतया परिचित हों। क्योंकि केवल 'एक भारत -श्रेष्ठ भारत का निर्माण ' के प्रति निष्ठा और दृढ़ विश्वास रखने से ही महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को कार्यान्वित करने की प्रचण्ड इच्छाशक्ति आयेगी। 
       >> Weekly Study circles, Periodical training camps,  Annual training camps,  are practical methods for coordination of wills to bring about change in society.
जब तक महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य के प्रति हमारा विश्वास दृढ़ नहीं हो जाता , तब तक इसे कार्यान्वित करने के लिये जैसी  प्रचण्ड संकल्प शक्ति चाहिये उसका अभाव दिखाई देगा। महामण्डल के आदर्श, उद्देश्य और कार्यपद्धति को समझने के लिये विभिन्न भाषाओँ में पुस्तिकायें, सुचना पत्र (leaflets), मासिक मुखपत्र 'विवेक जीवन' , हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका 'विवेक अंजन',पत्राचार के माध्यम से मूल विचारों के आदान -प्रदान की सुविधा , तथा व्यक्तिगत तौर से बातचीत करने की सुविधा भी उपलब्ध है। विशेषतः साप्ताहिक पाठचक्र, आवधिक प्रशिक्षण शिविर, वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर आदि 'एक भारत -श्रेष्ठ भारत का निर्माण ' के लिए इच्छाशक्ति में समन्वय लाने के व्यावहारिक तरीके हैं।  
      >>Mahamandal -movement is a broad flow of coordinated will and This is the best instrument for social engineering.
      जब तक महामण्डल के  'आदर्श, उद्देश्य और कार्य-पद्धति' को हम अच्छी तरह से समझ नहीं लेते , तब तक भले ही इस बात पर सहमति हो कि देश के कल्याण के लिये हमें भी कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिये, किन्तु हमारे 'असमन्वित क्रियाकलाप' (uncoordinated actions)  देश के कल्याण के लिये किये गए हमारे प्रयासों को एक रचनात्मक आन्दोलन का रूप नहीं दे सकते। तोड़-फोड़ करने या धरना प्रदर्शन (Agitations) से कुछ भी हासिल नहीं होगा। आज एक नये प्रकार के रचनात्मक आन्दोलन की आवश्यकता है। समन्वित इच्छाशक्ति के व्यापक प्रवाह को ही रचनात्मक आन्दोलन कहा जाता है। यह मनुष्य -निर्माण और चरित्र- निर्माण कारी आंदोलन समन्वित इच्छाशक्ति का एक व्यापक प्रवाह है और सामाजिक अभियान्त्रिकी (social engineering) का सबसे अच्छा साधन है। अलग-अलग व्यक्तियों की बिखरी हुई इच्छाशक्ति जब संयुक्त होकर 'समन्वित इच्छाशक्ति ' में रूपान्तरित हो जाती है -तब वह अमोघ शक्ति बन जाती है। 
           >>To give this movement a dynamism; Our Ideal is great hero and the pathfinder of the future - Swami Vivekananda !
    इस आन्दोलन को अद्भुत गतिशीलता देने के लिये हमने एक ऐसे 'आदर्श' का चयन किया है जो बिना किसी सम्भावित विचलन के हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे, एक ऐसा आदर्श जो जनता-जनार्दन के कल्याण के उद्देश्य से समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने में समर्थ हैं- वे हैं स्वामी विवेकानन्द। किन्तु इस महान जन-नायक और 'the pathfinder of the future' -भविष्य के सम्पूर्ण मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, स्वामी विवेकानन्द के नाम पर कुछ न कुछ करते रहना ही पर्याप्त नहीं है। यदि हमलोग कुछ ठोस परिणाम हासिल करना चाहते हों, तो हमें अपने -'उद्देश्य और कार्यपद्धति' को हमारे 'आदर्श ' (विवेकानन्द चरित ) के साथ समायोजित कर लेना होगा। अतः हमें इन तीन विषयों - 'उद्देश्य, आदर्श और कार्य-पद्धति' को बहुत अच्छी तरह से आत्मसात कर लेना होगा !   
        >> Buildings, schools, dispensaries, doing some social service work  are not the criteria to judge the success of this movement. 
 महामण्डल का किसी भी तरह की राजनीती से कोई लेना-देना नहीं है, ठीक उसी प्रकार यह साधारण अर्थों में कोई धार्मिक या समाज-सेवी संगठन भी नहीं है ! महामण्डल के सदस्य किसी भी राजनितिक दल या संगठन के साथ नहीं जुड़ सकते , उसी प्रकार महामण्डल की कार्यसूची में साधारण धार्मिक-संस्कार या अनुष्ठान का आयोजन करना या तथाकथित समाज-सेवा के कार्य का कोई स्थान भी नहीं है। इस आन्दोलन की सफलता का निर्णय करने का मापदण्ड यह नहीं हो सकता कि अब तक इसके कितने भवन बने हैं, कितने विद्यालय या दातव्य चिकित्सालय आदि इसके द्वारा चलाये जा रहे हैं। महामण्डल के सभी कार्यक्रमों का वास्तविक उद्देश्य चरित्र निर्माण के माध्यम से एक उन्नततर समाज की स्थापना करना है। इसके विविध कार्यक्रम,समारोह, संसथान, समाज सेवा आदि कार्य जो चरित्र का निर्माण करने में सहायता करती हों - साधन हैं और साध्य है युवाओं का जीवन गठन ! 
         >> Success of the Mahamandal work is to be evaluated, by taking  note of the progress of the working upon the youths mind.  
अतः महामण्डल आन्दोलन की सफलता का मूल्यांकन इस तरह के कार्यों की संख्या से नहीं, बल्कि इस बात से निर्धारित होता है कि ये सभी कार्य युवाओं को चारित्रिक गुणों को अर्जित करने में कितने सहायक सिद्ध हो रहे हैं। चूँकि इस प्रकार से मूल्यांकन करना कठिन होता है, और इसके सदस्यों के चारित्रिक गुणों का संवर्धन और उन्नति सतही दृष्टि से देखने पर दिखाई नहीं देती, इसलिए नौसिखिया लोग युवाओं के मन पर हुए कार्य की प्रगति को पहचानने में अक्सर विफल हो जाते हैं , इसलिए वे महामण्डल की कार्यपद्धति को अपनाने के विषय में आसानी से  
उत्साहित भी नहीं हो पाते है। फिर भी यहाँ निर्देशित निःशब्द अभ्यासों (3H विकास के 5 अभ्यास) को, इसकी सफलता के प्रति दृढ़ विश्वास रखते हुए व्यक्तिगत एवं सामूहिक तौर पर अपना लेना होगा।   
  इस बात को हमें निश्चित रूप से समझ लेना होगा, कि प्रत्येक व्यक्ति-चरित्र का निर्माण किये बिना , हमलोग अपने करोड़ो देशवासियों के दुःख-कष्ट को कभी दूर नहीं कर सकते, तथा उनके लिये  शिक्षा, आवास, भोजन आदि मुलभूत सुविधा नहीं जुटा सकते। और व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण बनाए बिना सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी जड़ से नहीं मिटा सकते । और इसीलिये यह हमारा लक्ष्य है। और एक 'स्वस्थ समाज' के बिना मानव व्यक्तित्व का पूर्ण विकास, मनुष्यों की सम्पूर्ण शिक्षा (जो, कि यथार्थ धर्म या आध्यात्मिकता का ही दूसरा नाम है) सम्भव नहीं है। 
>> Character building of youths is the sine qua non for  full development of human personality,  which is nothing but true  spirituality .
अतएव स्वस्थ मानव-समाज के निर्माण के लिए युवाओं के चरित्र का निर्माण एक अनिवार्य शर्त (sine qua non) है। महामण्डल का यह सुविचारित आन्दोलन, असंख्य लोगों के कल्याण के लिये एक नये समाज का निर्माण करने दिशा में ही कार्यरत है। ऐसा महान उद्देश्य कुछ मुट्ठी भर लोगों के द्वारा या यहाँ-वहाँ कार्यरत समूहों के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। देश के सभी लोग पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक, एक बहुत बड़ी संख्या में जब एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने इच्छा से, अपनी कार्य-योजना में अटल विश्वासी होकर, एक साथ संघबद्ध होकर, आगे बढ़ेंगे तो निःसन्देह परिवर्तन होकर रहेगा। ऐसे विचारों से अनुप्रेरित होकर महामण्डल ही महामण्डल का आविर्भाव हुआ है। अब यदि हम सभी लोग एक साथ मिल- जुल कर काम नहीं करते, और जो सुविचारित कार्यपद्धति है उसे कार्यरूप देने के लिये कठिन परिश्रम नहीं करते, तो स्वामी विवेकानन्द ने भारत में आमूल-चूल परिवर्तन लाने का जो स्वप्न देखा था, उसे धरातल पर कैसे उतारा जा सकेगा ? हमलोगों ने बातें बहुत कर ली हैं, बहुत आहें भर चुके हैं, बहुत दिनों तक तन्द्रा में सोये रहे हैं। बस, यह सब बहुत हो चुका, आइये हमलोग एकजुट होकर कार्य में जुट जाएँ । मनुष्य और समाज को हमलोग जिस रूप में ढालना चाहते हैं, उसके लिए हमारे पास पर्याप्त शक्ति भी है। 
==============================

12.

अत्यावश्यक समाज सेवा क्या है ? 

[What is Essential ]

            
कोई अकेला व्यक्ति दूसरों के कल्याण के लिये कुछ कार्य कर सकता है। या कोई संगठन भी जनसाधारण की भलाई के लिये, कुछ अच्छे कार्यों को करने का जिम्मा ले सकता है। वे सभी कार्य बहुत लाभदायक भी हो सकते हैं। इस तरह के कार्यों से बहुत सारे लोगों को कुछ न कुछ लाभ अवश्य उठा सकते हैं। किन्तु कुछ कार्य ऐसे भी होते हैं जो उतने स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देते, इस तरह के कार्यों से मिलने वाले लाभ पर भी सबों की दृष्टि नहीं जाती। तथापि उसका प्रभाव बहुत दूरगामी हो सकता है, और यह भी सम्भव है कि इस प्रकार के कार्यों को सम्पन्न किये बिना, दूसरे हितकारी कार्य भी अन्ततोगत्वा कोई स्थायी परिणाम न दे सकें। बहुत से लोग तो यह 
जानने की चेष्टा भी नहीं करते कि क्या ऐसा कोई निःशब्द कार्य हो सकता है ? यदि जानते भी हों, तो बहुत से लोग उसके लिये परिश्रम नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि उनका परिणाम तत्काल दिखाई नहीं पड़ता, इसीलिए तभी का तभी उन्हें सभी के द्वारा मान्यता नहीं मिलती और गुणगान नहीं होता।   
          किन्तु महामण्डल ने अपने नाम-यश की कोई परवाह किये बिना अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा को कुछ ऐसे ही बुनियादी कार्यों में उत्सर्ग कर देने का निर्णय लिया है, जो अन्ततोगत्वा अन्य समस्त अच्छे सामाजिक प्रयासों की सफलता को सुनिश्चित बना देगी।  
     >>Man is the basic thing and man-making is the basic work. 
       'मनुष्य' ही समाज का मूलतत्व है और मनुष्य निर्माण करना ही बुनियादी कार्य है ! समाज सेवा का कोई भी कार्य चाहे वह सरकार के द्वारा हो या स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से हो - वास्तव में उन सभी कार्यों का प्रतिपादन तो मनुष्यों के स्तर से ही होता है। किन्तु इन मनुष्यों में सही समझ, उचित मनोभाव, प्रेरणा, निःस्वार्थपरता का भाव न हो, तो कोई भी सेवा-कार्य यथार्थ फलदायी नहीं हो सकेगी। इसीलिये, इन गुणों को विकसित करना ही बुनियादी काम है। क्योंकि ये सभी गुण वास्तव में मनुष्य के चरित्र में ही सन्निहित रहती हैं; इसलिए चरित्र-निर्माण ही मनुष्य-निर्माण का दूसरा नाम है। 
     >>character-building is another name for man-making.
        कोई व्यक्ति निस्सन्देह स्वयं या दूसरों के साथ मनुष्य -निर्माण का प्रयास कर सकता है। किन्तु इस कार्य को यदि राष्ट्रव्यापी स्तर पर करना हो, और इसे चन्द लोगों द्वारा किये जाने वाले आकस्मिक प्रयास (soda water effect) जैसा बीच में ही छोड़ देने के लिए न करना हो, और देश के सभी प्रान्तों में इसका प्रचार-प्रसार करना चाहते हों, तो एक संगठित प्रयास अनिवार्य हो जाता है। और यही महामंडल का कार्य है।
        >>>the duty of raising the masses of India;भारत को समृद्ध और खुशहाल बनाने के लिये क्या-क्या करना जरुरी है, इस विषय पर चर्चा करते हुए स्वामी विवेकानन्द अत्यावश्यक बिन्दु पर आते हैं, और कहते हैं --" इसलिए पहले 'मनुष्य' का निर्माण करो। जब देश में ऐसे मनुष्य तैयार हो जायेंगे, जो अपना सबकुछ देश के लिये न्योछावर कर देने को तैयार हों, जिनकी अस्थियाँ तक निष्ठा के द्वारा गठित हों, जब ऐसे मनुष्य जाग उठेंगे तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा। भारत तभी जागेगा जब विशाल हृदयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन-वचन और कर्म से उन करोड़ों भारतवासियों के कल्याण के लिये प्राणपण से प्रयास करेंगे, जो भूख, गरीबी और शिक्षा के अभाव में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं।" इसीलिये उन्होंने आह्वान किया था - " ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो जो भारत के जनसाधारण के कल्याण का व्रत ले सकें और इस व्रत ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझते हुए उसमें अपने 'ह्रदय और आत्मा ' (heart and soul -3H) समर्पित कर सकें, भारतीय युवकों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है। "
               >> the most essential social service. रुपया-पैसा या कुछ दान- सामग्री इकट्ठा कर अभावग्रस्त लोगों के बीच उनका वितरण करना, या जन-साधारण की आर्थिक उन्नति के लिए विशेष कार्यक्रम आदि चलाना,ये सभी अच्छे कार्य हैं। बहुत सारे सरकारी , गैर सरकारी संगठन इस के कार्य कर सकते हैं,तथा करने में लगे हुए भी हैं। किन्तु  इन सब समाज-सेवा के कार्यों से श्रेष्ठतर तथा अधिक महत्वपूर्ण हैं ऐसे देशवासियों के चरित्र का निर्माण करना, जो अपने देशवासियों के कल्याण के लिये निःस्वार्थ भाव से अपना सबकुछ न्योछावर करने को तत्पर रहेंगे। ऐसे मनुष्य - जीवन के सभी व्यवसायों में, समाज में और घरों में होने चाहिये। यही है अत्यावश्यक समाज सेवा, जो समाज-कल्याण की निरन्तरता (sustained social well-being) को सुनिश्चित बनाये रखने के लिए आश्वस्त करती है। गारंटी देती है। ऐसे निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण करना ही 'अत्यावश्यक समाज सेवा' है ! अतएव, इस अत्यावश्यक समाजसेवा के बारे में हमारी धारणा बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिये। हमारे समस्त कार्यकलापों को इसी एक लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में संचालित करना चाहिये।             
       >>Come and see how individuals are improving.
(विगत 55 वर्षों से) महामण्डल के माध्यम से इसी कार्य को करने का प्रयास  किया जा रहा है। और हमलोग यह देखकर आश्वस्त हैं कि प्रयास परिणाम भी दे रहा है। इसके पास (निःस्वार्थी मनुष्य निर्माण के लिए) पूर्णतः सक्षम पद्धति है। सभी लोगों को इस अत्यावश्यक समाज सेवा को समझ लेना चाहिये, इसकी पद्धति (3H विकास के 5 अभ्यास) को जान लेना चाहिये, तत्पश्चात इस सुविचारित पद्धति का प्रयोग करके अपने जीवन में उसके परिणाम को देखते रहना चाहिए। केवल कुछ लेखों को पढ़ लेने या भाषणों को सुनने भर से ही काम नहीं चलेगा। आइये, हमारे छह दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लीजिये, और स्वयं अनुभव कीजिये कि कैसे हजारों युवा क्रमशः उन्नततर मनुष्य में रूपान्तरित होते जा रहे हैं। अगर हम भारत में बेहतर बदलाव चाहते हैं , तो यही उपाय है।  
>>>Character -qualities should be imbibed :    
  हमें चरित्र के गुणों को आत्मसात करना चाहिये, उसमें निहित उच्च आध्यात्मिक विचारों का आत्मसातीकरण करना चाहिये। इसीको सच्ची शिक्षा (तैत्तरीय उपनिषद वाली 'शीक्षा') कहते हैं। अत्यावश्यक समाज सेवा  यदि कुछ है तो वह मूलतः यह मनुष्य-निर्माणकारी (निःस्वार्थी मनुष्य - जीवनमुक्त शिक्षक/नेता/पैगम्बर) बनाने वाली शिक्षा ही है। और यह स्वाभाविक है कि इस शिक्षा को ग्रहण करने में समय लगेगा। किसी भी महान लक्ष्य को रातों-रात या बिना निरंतर कठोर परिश्रम किये प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
>> the alternative is status quo.
       कुछ लोग प्रश्न उठा सकते हैं कि क्या भारत के सभी मनुष्यों को चरित्रवान (निःस्वार्थपर) बनाया जा सकता है ? यदि नहीं बना सकते, उसका विकल्प क्या यथस्थिति-में पड़े रहना है ? क्या ऐसा करने से 'यथा पूर्वं तथा परं' किसी एक समस्या को भी हल किया जा सकता है ? किन्तु यदि इस प्रयास (3H निर्माण के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण ) को निरन्तर जारी रखा जाय,  तो कुछ युवाओं के चरित्र में निश्चित रूप से सुधार आएगा और क्रमशः उनकी संख्या में वृद्धि  होती रहेगी,  भले ही 25 वर्ष के बदले 55  वर्ष लग जायें, लेकिन परिस्थितियाँ अवश्य बदलेंगी ! जो लोग आलसी और घोर निराशावादी हैं, उनको सोये रहने दो। कि न्तु जो युवा आशावादी और परिश्रमी हैं, जिन्हें अपने आप पर और मानवमात्र पर अटूट श्रद्धा है; उन्हें आगे आना चाहिए और इस  अभियान-चक्र के पहिये पर अपने कंधों को भिड़ा देना चाहिये । 
           >> work hard to educate people and to be educated properly. स्वामी विवेकानन्द बिल्कुल सही निष्कर्ष पर पहुँचकर कहते हैं - " इसलिये हमें उस समय तक 'ठहरना' होगा, जब तक कि सामान्य मनुष्य (आध्यात्मिक दृष्टि से भी) शिक्षित न हो जायें,  जब तक वे अपनी आवश्यकताओं को सही ढंग से समझने न लगें, तथा अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझा लेने के योग्य और सक्षम नहीं हो जायें।"  यहाँ 'ठहरना' होगा कहने का अर्थ यह नहीं है कि, जब तक भगवान की कृपा से सभी सामान्य मनुष्य सही रूप में शिक्षित नहीं हो जायें, तब तक हमें आलसी जैसा बैठे रहना चाहिये। उनका यह कथन सामान्य मनुष्यों को सही रूप में शिक्षित (केवल साक्षर नहीं-ब्रह्मविद) बनाने के लिये स्वयं भी सही रूप में शिक्षित (ब्रह्मविद) होने के लिये कठोर परिश्रम करते रहने पर जोर देता है। स्वामी जी का निर्देश है,' Take man where he stands and from thence give him a lift.'-अर्थात मनुष्य अभी जिस सोपान पर खड़ा है (यानि निःस्वार्थपरता के पैमाने से अपने को जो भी कुछ मान रहा है);उसे वहीं से उठाकर उन्नततर सोपान पर ले जाने के लिए हमें अपना हाथ बढ़ाना है ! स्वामीजी कहते थे - " जो शिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवन-संग्राम में समर्थ नहीं बना सकती, जो मनुष्य में चरित्र-बल, परहित भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है? वास्तव में जिस प्रशिक्षण (मनःसंयोग सहित 5 अभ्यासों का प्रशिक्षण) के द्वारा  इच्छाशक्ति के प्रवाह और भावाभिव्यक्ति को वश में लाया जाता है, और वह फलदायक बन जाती है, उसे ही शिक्षा कहा जाता है ! " 
           किन्तु तरह की शिक्षा (विद्या-जो मुक्त करे) किसी शिक्षा परिषद (boards) अन्तर्गत कोई नया स्कूल स्थापित करके अथवा किसी विश्वविद्यालय की निगरानी में कोई नया कॉलेज निर्मित करके आयातित नहीं की जा सकती है। जैसा विवेकानन्द कहते थे , " हमारे देश में तो उस प्रकार के असंख्य शिक्षण-संस्थान पहले से खुले हुए हैं, और प्रतिदिन नये नये शिक्षण-संस्थान खुलते भी जा रहे हैं। किन्तु " जनसाधारण की भलाई के लिये, त्याग और सेवा की भावना का विकास हमारे राष्ट्र में अभी तक नहीं हुआ है।" और जैसा स्वामी जी चाहते थे इस मनुष्य बनने और बनाने वाली विद्या को देश के हर युवक के दरवाजे तक पहुँचा देना है। यही महामण्डल का वास्तिक कार्य है। और इस कार्य को तुम तभी कर सकते हो, जब तुम यह विश्वास करो कि हाँ तुम इसे अवश्य कर सकते हो ! 

=====================

13.

卐 महामण्डल की भूमिका  

[The Role of the Mahamandal]

         >>If there is no dropping into the same river twice; then How does history repeats itself ?
        एक पुरानी कहावत है,आप एक ही नदी में दो बार डुबकी नहीं लगा सकते। यह कहावत एक अन्य प्रचलित लोकोक्ति (adage)- `इतिहास स्वयं को दोहराता है' का सीधा खण्डन करता है। इस जगत को सतत प्रवाहमान कहा गया है, यह किसी नदी की तरह ही समय के साथ बहता रहता है। और जिस प्रकार कोई नदी अपने मार्ग में पुनः नहीं लौट सकती उसी प्रकार एक ही नदी में कोई दो बार डुबकी भी नहीं लगा सकता, क्योंकि उसी बीच वह समय के साथ पहले ही एक लम्बा रास्ता तय कर चुकी होती है। फिर इतिहास स्वयं को कैसे दोहराता है ? यह प्रश्न बहुत प्रासांगिक है। 
        >>law of history :  किन्तु हम यदि पीछे मुड़कर गुजरे हुए समय,  जिसे हम सही या गलत 'इतिहास'  कहते हैं, में जाँच -पड़ताल करें (look into), तो पाते हैं कि समय के प्रवाह में हम एक ही प्रकार की घटनाओं को बारम्बार घटित होते हुए देख रहे हैं। हालाँकि सामाजिक वातावरण और परिवेश बिल्कुल भिन्न होता है। और तब हमें ऐसा लगता है मानो हमने इतिहास के एक नियम को आविष्कृत कर लिया है , और हम घोषणा कर देते हैं कि -`इतिहास स्वयं को दोहराता है। ' किन्तु वैसा ही दूसरे सही तथ्य की अनदेखी कर देते हैं 'समय के प्रवाह में घटनाओं की पुनरावृत्ति भले ही एक जैसी दिखती हों, पर उनकी न्यायसंगत पुनरावृत्ति नहीं हो सकती। 
         इन दोनों विरोधाभासी कहावतों का समाधान इस तथ्य में निहित है कि दोनों में से कोई भी उक्ति न तो पूरी तरह से गलत है, और न पूरी तरह से सही है। जब कोई घटना स्वयं को दोहराती हुई सी प्रतीत होती हैं, तब तक सम्पूर्ण परिस्थितियाँ पूरी तरह से बदल चुकी होती हैं, और वास्तव में एक ही नदी में दो बार डुबकी नहीं लगाई जा सकती। किन्तु यदि हम बहती हुई नदी के वास्तविक कणों (अणु -परमाणु) पर हमारा ध्यान न हो तो हम पाते हैं कि अपने तल और दोनों किनारों  तथा अन्य वस्तुओं सहित नदी बिल्कुल वैसी ही है। उसी प्रकार जिन घटनाओं को हम अभी घटित होते हुए देख रहे हैं उसमें बहुत सी बातें ऐसी हैं जो पहले घटित किसी घटना में में भी समान रूप से मौजूद थीं। [जैसे ज्वार भाटे के उतराव में किसी खास बिन्दु पर एक शिखर भी प्रतीत होता है, इसकी प्रकृति भी बिल्कुल उसी घटना की तरह होती है, जिसका हमने पहले किसी स्थान और समय में अवलोकन किया था।
        यदि हम ध्यान से देखें तो पायेंगे कि कई बड़े बड़े ऐतिहासिक घटनाओं में बहुत सी बातें एक समान बातें घटित होती रही हैं और हम उससे बहुत कुछ सीख भी सकते हैं। इतिहास के  प्रवाह की लम्बी श्रृंखला में मनुष्य ने कई बार अपनी आत्मश्रद्धा को खोया है और उसे पुनः प्राप्त भी कर लिया है, इसके परिणाम स्वरूप संसार का इतिहास भी अलग अलग रूप धारण करता रहा है। और यहाँ तक कि एक ही युग में इसी आत्मश्रद्धा की शक्ति के अनुसार विभिन्न राष्ट्रों ने इतिहास के पन्नों पर अलग -अलग छाप छोड़े हैं।  स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, " संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है जिन्हें अपने आप पर विश्वास था। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र अपनी आत्मश्रद्धा को खो देता है उसी क्षण उसकी मृत्यु हो जाती है। " 
          हमलोग भी इस समय एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जब हमारे देशवासियों ने अपनी आत्मश्रद्धा को लगभग सम्पूर्ण रूप से खो दिया है। विचारधारा और कर्म में कौशल का सम्पूर्ण सत्यानाश हो चुका है। हजार वर्षों की गुलामी ने हमें एक ऐसे राष्ट्र में परिणत कर दिया है, जिसकी रीढ़ की हड्डी ही नहीं बची है। आज जबकि पराधीनता के जुए को हमारे कन्धों से उठा दिया गया है, तब भी क्यों हमलोग अपना सिर उठाकर नहीं चल सकते। झुककर रहना ही हमारी आदत बन चुकी और गुलामों की भाँति किसी दूसरे जुए आदेश की प्रतीक्षा करते रहते हैं;  किन्तु  अपने भविष्य का निर्माता स्वयं बनने की बात तो सोच भी नहीं सकते। प्रश्न है ऐसा क्यों ? क्योंकि हमने अन्य कोई शिक्षा ग्रहण करने से पहले स्वयं पर विश्वास करना सीखा ही नहीं है। 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " विश्वास - विश्वास! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा के ऊपर विश्वास -यही उन्नति करने का एकमात्र उपाय है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर, और विदेशियों ने बीच बीच में जिन देवताओं को तुम्हारे बीच घुसा दिया है, उन सब पर भी तुम्हारा विश्वास हो, और अपने आप पर विश्वास न हो तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। अपने आप पर श्रद्धा करना सीखो! और इसी आत्मश्रद्धा के बल से अपने पैरों पर खड़े हो जाओ !"
           यही वह सबक है , जिसे हमलोगों को व्यक्तिगत तौर पर और साथ ही राष्ट्रीय तौर पर 
सीखना है। जब तक हम मदद के लिये दूसरों के पास हाथ पसारते रहेंगे, हर समय भीख माँगते रहेंगे, तब तक हमलोगों को न तो व्यक्तिगत तौर पर न ही राष्ट्र के स्तर पर मोक्ष के अधिकारी हो सकेंगे। हम लोग जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्तिगत एवं राष्ट्र के स्तर पर दाता की भूमिका ग्रहण करना भूल चुके हैं। हमलोगों को इस बात की कभी शिक्षा ही नहीं मिली कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी क्षेत्र में दाता की भूमिका ग्रहण कर सकता है। उसी प्रकार एक राष्ट्र के रूप में भी अन्य राष्ट्रों को देने के लिये हमारे पास बहुत कुछ है। स्वामीजी कहते हैं  - " संसार में सर्वदा दाता की भूमिका ग्रहण करो। सर्वस्व दे दो, पर बदले में कुछ न चाहो।"  
यदि हम एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप जीना चाहते हों, यदि हम अपने खोये हुए आत्मविश्वास को पुनः प्राप्त करके राष्ट्र की मृत्यु को रोकना चाहते हों, तो ये ही वे सरल बातें हैं , जिन्हें हमें सिखाना पड़ेगा। समाज सेवा के साधारण एवं छोटे-छोटे कार्य करते समय इसके वास्तविक उद्देश्य पर अपनी दृष्टि को स्थिर रखते हुए, हम यह सीख सकते हैं कि बदले में कुछ भी पाने की आशा किये बिना ही दाता की भूमिका को कैसे ग्रहण किया जाता है और साथ ही साथ भरपूर आत्मविश्वास भी कैसे अर्जित होता है। इसी प्रयत्न में जुट जाने के लिये अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, अपने सभी युवा मित्रों को प्रेरित करता है। इसका कोई बहुत विस्तृत मैनिफेस्टो या घोषणा पत्र नहीं है। वास्तव में महामण्डल यह नहीं जानता कि आगे चलकर व्यापक सन्दर्भ में इसे कौन सी भूमिका निभानी होगी।  यह बहुत ही छोटे रूप में गठित होकर छोटे से बड़ा होता जा रहा है। धीरे धीरे यह युवाओं के मन को जीत रहा है, ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को तो विशेष रूप से अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। ये युवा स्वयं को एक दुर्भेद्य-दुर्ग के रूप में गठित कर रहे हैं, जहाँ स्वार्थपरता को प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, जहाँ सेवापरायणता कभी आत्म-प्रशंसा के बोझ तले दब नहीं जाती।  
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - मैं कभी योजना नहीं बनाता,योजनायें स्वतः उदित होती हैं और वे निज बल से ही पुष्ट होती हैं , मैं केवल कहता हूँ -जागो, जागो !" (७ जून १८९६ को लिखित एक पत्र) अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल सभी युवाओं से  केवल यही अनुरोध करता है कि वे स्वामी विवेकानन्द के इस आह्वान को ध्यान देकर सुनने  और समझने का प्रयास करें।  और उस संकट की स्थितियों के प्रति जाग उठें। 
       जब हमारी चिर गौरवमयी भारत माता विषम परिस्थितियों में घिरी हुई है। जब हमलोग किसी के ऊपर भरोसा नहीं रख पते हैं , यहाँ तक कि स्वयं के ऊपर भी विश्वास नहीं कर पा रहे हैं, हमें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि  हमारी प्रतिभा के अनुरूप भविष्य के भारत का निर्माण ही हमारा एकमात्र धर्ममत या सिद्धान्त होना चाहिए , और राष्ट्र-निर्माण भीख माँगने से नहीं  केवल दाता की भूमिका ग्रहण करने से ही सम्भव होता है !  सन्देह या अविश्वास कभी राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रेरक बल नहीं बन सकता , केवल स्वयं के ऊपर विश्वास से ही ऐसा हो सकता है। यदि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को भविष्य का नया -भारत गढ़ने में  कोई भूमिका अदा करनी है , तो वह है देश के नवयुवकों में इस खोये हुए आत्मविश्वास को वापस लौटा देने में सहायता करना । 
======================

14.

महामण्डल की कार्य योजना 

[The Plan of Work ]

     महामण्डल का मुख्य कार्य है, नवयुवकों के मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना- जिससे उन्हें एक नई जीवन-दृष्टि  (life-view) प्राप्त हो, और वे अपने जीवन के चरम लक्ष्य को खोज सकें।साथ ही जीवन क्या है ?  मनुष्य-जीवन को देव-दुर्लभ क्यों कहा जाता है इत्यादि की समझ और  आत्मविकास करने  तथा चरित्र-निर्माण की व्यवहारिक पद्धति प्रदान करना।  ताकि हमारे युवा ऐसे विवेकशील नागरिक बन सकें, जो समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्य निभाने के लिये सजग और सक्षम हों, और साथ-साथ अपने व्यक्तिगत जीवन में उच्चतर परिपूर्णता को प्राप्त करने में सफल हो सकें! महामण्डल की समस्त कार्य योजनायें इसी उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में निर्देशित हैं। 
         प्रत्येक मनुष्य के जीवन और चरित्र का निर्माण करके एक उच्चतर समाज का निर्माण करना ही महामण्डल  का उद्देश्य है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कहें तो-'man-making and character-building'--'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण' ही महामण्डल का उद्देश्य है। 'मनुष्य निर्माण' का अर्थ होता है,उसके तीनों प्रमुख अवयव -'3H' Hand (शरीर), Head (मन) और Heart (ह्रदय) का संतुलित विकास! यहाँ Head से तात्पर्य है विवेक प्रयोग करने की शक्ति का विकास , Hand -शारीरिक शक्ति तथा Heart-दूसरों के सुख-दुःख को अपने हृदय में अनुभव करने की शक्ति का प्रतीक है। जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति, सामूहिक रूप से और व्यापक पैमाने पर इसी एकमात्र उद्देश्य के लिये प्रयास करने लगेगा, तो निश्चित रूप समाज के ऊपर इसका प्रभाव पड़ेगा, जिसके फलस्वरूप के समाज की अवस्था में भी धीरे धीरे उन्नति दिखने लगेगी।
      किन्तु इस  'मनुष्य-निर्माण योजना'  को पंच-वर्षीय, दस-वर्षीय या पच्चीस वर्षीय योजना में सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता । क्योंकि एक पीढ़ी के बाद,  दूसरी पीढ़ी आती रहती है , इसीलिये हमें इस 'कार्य-योजना' को निरन्तर जारी रखना पड़ेगा। और हमारे जीवन में ऐसा कोई क्षण नहीं आयेगा, जब हम उच्च स्वर से घोषणा करेंगे, " समाप्ति ! हमारा कार्य समाप्त हुआ, हमने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है-  देखो यह रहा, पूर्ण विकसित मनुष्यों का परिपूर्ण समाज!" ऐसा सोचना एक अवास्तविक कल्पना है, अयथार्थवादी कथन है - और ऐसा समय कभी नहीं आने वाला है। जो लोग इस कार्य-योजना 'Be and Make अपने जीवन का एक मिशन समझकर, इसके साथ जुड़ना चाहते हैं, उन्हें आजीवन परिश्रम करते रहने के लिये अवश्य तत्पर रहना होगा।इस थाती को (विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु  महाफला वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति को) उन भावी आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओं के हाथों में सौंप देना होगा, जो हमारे बाद आकर इस आन्दोलन से जुड़ने वाले हैं ! 
              महामण्डल युवाओं का संगठन है इसलिए, हो सकता है कि इस आंदोलन से जुड़ने वाले सभी युवा समाज में प्रचलित धार्मिक अनुष्ठानों को पसन्द नहीं करते हों,  किन्तु वे सभी एक योग्य नागरिक बनने में अवश्य रूचि रख सकते हैं। जो अपने सम्पूर्ण जीवन को देशवासियों और  मातृभूमि के कल्याण में समर्पित कर देने की क्षमता रखता हो। वास्तव में यही सर्वोच्च आध्यात्मिकता है। इस प्रकार वे पूर्ण मनुष्यत्व भी अर्जित कर सकेंगे । एक बड़ी संख्या में निष्कपट,  ईमानदार,  मेहनती, देशभक्त, निःस्वार्थी , विनम्र, त्यागी , उत्साही, और साहसी युवक देश भर में प्रत्येक स्थान पर हैं, जो राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए खुद को समर्पित कर देने को उत्सुक हैं, ऐसे युवाओं को संगठित एवं उत्साहित किया जा सकता है।
     इसके लिये अत्यावश्यक कार्य को समझना होगा, उस आवश्यकता को पूर्ण करने की पद्धति को जानना होगा , उस पद्धति का प्रयोग बहुत उचित रीति से करने के बाद उसके परिणाम पर भी दृष्टि रखनी होगी। यदि भारत में एक महान परिवर्तन लाना चाहते हैं - तो उसका यही उपाय है। स्वामी विवेकानन्द ने यह भी कहा है कि  - "जब आप मूल और ठोस बुनियादी कार्य करना चाहते हैं तो समस्त वास्तविक प्रगति मन्द ही होगी।" ४/२३३]
      कुछ लोग पूछते सकते हैं - " क्या सभी मनुष्यों को उन्नत किया जा सकता है? यदि नहीं तो क्या यथास्थिति को बनाये रखना ही विकल्प है ? क्या ऐसा सोंचने से किसी भी समस्या का हल निकलेगा ? लेकिन यदि इन प्रयासों को निरन्तर जारी रखा जाये तो कम से कम कुछ लोगों के चरित्र में अवश्य सुधार होगा, और क्रमशः इनकी संख्या में वृद्धि होगी और परिस्थितियाँ बदलने को बाध्य हो जायेंगी। स्वामी विवेकानन्द इसी बात की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं - " जब हम विश्व-इतिहास का मनन करते हैं, तो पाते हैं कि जब- जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है, तथा जब ससीम में असीम और अविनाशी आत्मा की खोज  (उसे उपयोगितावादी कितना भी अर्थहीन प्रमाणित करने की चेष्टा क्यों न करें) --समाप्त हो जाती है, तो उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। " (२/१९८)  हमें इसी योजना को साकार करने के लिये कार्य करना है !
        अब कुछ लोग पूछ सकते हैं, और जैसा हमें अक्सर सुनने को मिलता है, ठीक है, आप लोगों का उद्देश्य तो महान है, योजनायें भी प्रशंसनीय हैं, किन्तु इस कार्य-योजना को साकार करने के लिये आपका मार्ग क्या है ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि, इस मनुष्य निर्माण एवं चरित्र-निर्माण' की पद्धति का अविष्कार हमारे पूर्वज ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर लिया था, स्वामी विवेकानन्द ने  उसी पद्धति को वनो के आश्रमों और मठों के चहारदीवारियों से बाहर निकाल कर जन-सामान्य के घरों तक पहुँचा दिया है। 
     और यह पद्धति (ऑटोसजेशन) आधुनिक मनोविज्ञान की शब्दशः प्रतिध्वनि है,और पूर्णतः विज्ञान सम्मत भी है। यदि बहुत संक्षेप में कहें तो, इस पद्धति में चारित्रिक-गुणों के सिद्धान्तों का पहले श्रवण करना, फिर उसके ऊपर गहराई से चिंतन- मनन करने के बाद उसकी स्पष्ट अवधारणा को विवेक प्रयोग और मनःसंयोग का अभ्यास करते हुए, अपने अवचेतन मन में अंतःस्थापित  कर लेना पड़ता है। तत्पश्चात विवेक की पहरेदारी और मार्गदर्शन में उपरोक्त प्रक्रिया का पुनः पुनः अभ्यास इतनि तत्परता के साथ करना है कि वे सिद्धान्त अवचेतन मन में स्थायी रूप से मुद्रित हो जायें। साथ ही इस प्रक्रिया को नियंत्रित और लक्ष्य की दिशा में निर्देशित भावावेग  की सहायता से सदैव सरस् बनाये रखना होगा - जो कि ह्रदय की भूमिका है। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि यह पद्धति ,विवेक प्रयोग (ज्ञानयोग ), मानसिक नियंत्रण (राजयोग) हृदय के आवेग का नियंत्रण (भक्तियोग) और चरित्र निर्माण के उद्देश्य से निःस्वार्थ समाज-सेवा के कार्य (कर्मयोग); चारों योगों का एक सामंजस्यपूर्ण संयोजन है। 
      महामण्डल के सभी कार्यकलाप इतने सुनियोजित हैं कि इसमें सम्मिलित होने वाले प्रत्येक सदस्य को उपरोक्त चारों योगों के सामंजस्यपूर्ण संयोजन से होकर गुजरना ही पड़ता है। प्रार्थना , मनःसंयोग , पाठचक्र, मनःसंयोग, और समाज सेवा चरित्र-निर्माण प्रक्रिया में  चारो योगों को क्रमशः चार धाराओं में निरूपित करती है। समाजसेवा महामण्डल का लक्ष्य नहीं है, बल्कि यह चरित्र-निर्माण का एक उपाय मात्र है, इसकी मात्रा   महामण्डल कार्य-योजना की सफलता का पैमाना नहीं है। महामण्डल के कार्यों को करते समय सदस्यों का दृष्टिकोण ,विवेक प्रयोग करने  की क्षमता में वृद्धि , ह्रदय को सरस बनाये रखते हुए भावावेग पर नियंत्रण, मन को वश में रखने की क्षमता में वृद्धि इत्यादि बातें ही विचारणीय हैं।   
महामण्डल युवाओं के लिये इस प्रकार का एक परिवेश उपस्थित कराता है, जिसमें शामिल होकर वे महामण्डल की कार्य-योजना के अनुरूप अपने चरित्र का निर्माण कर सकते हैं। महामण्डल के केन्द्र (जिनकी संख्या विभिन्न राज्यों में ३१५ से  अधिक हैं) शहरों और गाँवों में है - इसे किसी कमरे, बरामदे या वृक्ष की छाया में, या खेल के मैदान अथवा पार्क में -जहाँ नवयुवक इकट्ठा होते हों, वहीं स्थापित किया जा सकता है। 
महामण्डल के सभी सदस्य अपने शरीर को स्वस्थ और सबल रखने के लिये व्यायाम करते हैं, ज्ञान अर्जित करने के लिये अध्यन और बुद्धि को कुशाग्र करने के लिए सामूहिक परिचर्चा करते हैं। साथ ही समुद्र जैसे विशाल ह्रदय वाले स्वामी विवेकानन्द के जीवन और शिक्षाओं के अध्यन से तथा उनके उपदेशनुसार मानवता की सेवा मूलक कार्यों में अपना योगदान देकर वे अपने ह्रदय का असीम तक विस्तार करने का प्रयत्न भी करते हैं। यह पद्धति कितनी व्यावहारिक है, इस पर कोई तब तक विश्वास नहीं कर सकता जब तक वह इन चारों प्रक्रियाओं से गुजरने के फलस्वरूप अपने हृदय के विस्तार को देखकर स्वयं ही आश्चर्य से चकित न हो जाये !
          बच्चों के लिये भी इसीके अनुरूप किन्तु अधिक सरल ढंग से अभ्यास करने की व्यवस्था की जाती है। मानव की अन्तस्थ दिव्यता की पूजा के लिये बाह्य सेवा की पद्धति का लाभ उठाने के लिये, तथा इसे जीवन के प्रतिमुहूर्त प्रकट करने के लिए महामण्डल के केन्द्रों द्वारा दातव्य चिकित्सालय, कोचिंग क्लास, प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, बच्चों के लिए स्कूल , छात्रावास, पुस्तकालय इत्यादि चलाये जाते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा से पीड़ित लोगों के लिये राहत कार्य, कृषि-प्रशिक्षण, ग्रामोन्नयन के कार्य, गरीबछात्रों तथा अभावग्रस्त लोगों की सहायता के लिये अन्य गतिविधियाँ भी चलायी जाती है। निर्धन रोगियों के लिये वे अक्सर रक्तदान भी किया करते हैं ।
          वे वैसे सभी कार्य करते हैं जिससे उनकी मांस-पेशियाँ पुष्ट हों, मस्तिष्क को तेज और हृदय को विस्तृत या उदार बनाये। इस सम्पूर्ण कार्ययोजना को समझने में सहायता करने के लिए, स्थानीय या जिला-स्तरीय से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर अक्सर युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित होते रहते हैं। शिविर में जीवन गठन के विशिष्ट पद्धतियों की विस्तृत जानकारी दी जाती है तथा उन्हें अपनी क्रमागत उन्नति का रिकॉर्ड रखने का परामर्श भी दिया जाता है। इन रिकॉर्ड का अनुवर्ती अध्यन (Follow-up studies) सभी सदस्यों के  चारित्रिक-गुणों में क्रमशः सुधार की बहुत उत्साहजनक परिणामों की ओर इशारा करते हैं । देश के विभिन्न राज्यों से आये विभिन्न मतावलम्बी और भाषा-भाषी युवा जब एक जगह पर सम्मिलित होकर साथ-साथ रहते हैं सामूहिक गतिवधियों में भाग लेते हैं, तब उनमें सहिष्णुता, सहयोग की भावना, एकात्म-बोध एवं राष्ट्रीय एकता की भावना जागृत होती है। यह सब कुछ एकसाथ युवाओं को - कर्तव्यपारायण, देशभक्त, निःस्वार्थी एवं मानवतावादी दृष्टिकोण से युक्त त्यागी , सेवा भावना और उदार दृष्टिकोण से सम्पन्न  नागरिक बनने के लिये अनुप्रेरित करते हैं । 
     अतः युवाओं के लिये यह समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है कि जब तक हमारा अपना चरित्र  
सुन्दर ढंग से गठित नहीं हो जाता, तब तक हम राष्ट्र की सेवा करने, समाजिक समस्याओं  समाधान करने एवं समाज में होने वाले अनिष्ट को रोकने में  समर्थ नहीं हो सकते हैं। अतः अन्य  लोगों के लिये भी यह स्वाभाविक कर्तव्य हो जाता है कि वे युवाओं को अपना जीवन सही ढंग से गठित करने में गंभीरता पूर्वक सहायता करें। वास्तव में यही वह कार्य-क्षेत्र है, जिसमें महामण्डल ने अपनी समस्त ऊर्जा लगाने का निर्णय  ले लिया है। 
             इसीलिये अत्यावश्यक  कार्य है -युवाओं को  सही ढंग से प्रशिक्षित करना। (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में पूर्ण मनुष्य बनने और बनाने के लिये 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझने के लिए सही ढंग से प्रशिक्षित करना।)  इस  प्रशिक्षण की पूर्ण पद्धति इस प्रकार सुनियोजित होनी चाहिये कि उससे युवाओं का सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके। प्रत्येक युवा को एक पूर्ण मनुष्य (निःस्वार्थी) के रूप में निर्मित कर देना ही इस प्रशिक्षण का लक्ष्य होना चाहिये। प्रचलित संस्थागत शिक्षा प्रणाली समग्र-शिक्षा के इस अत्यावश्यक तत्व (अप्रतिरोध्य निःस्वार्थपरता ) को प्रदान नहीं कर पाती , जिसे प्राप्त करना प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिये अनिवार्य है। इस दृष्टि से देखें तो महामण्डल का कार्य एक प्रकार से प्रचलित शिक्षा प्रणाली की को दूर करने में सहायता करना है। 
         इस जीवन गठन की प्रक्रिया के साथ समाज सेवा का कार्य भी घनिष्ट रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिये जिन क्षेत्रों में महामण्डल के केन्द्र क्रियाशील हैं, वहाँ का समाज भी इन केन्द्रों द्वारा गयी की सेवा से लाभान्वित होता है। तथा जो लोग महामण्डल के सदस्य बन जाते हैं, उन्हें जो सेवा दी जाती है शायद वही सर्वोत्कृष्ट  समाज सेवा है, क्योंकि यही एक मात्र ऐसी सेवा है जो समाज में वास्तविक परिवर्तन ला सकती है।अतएव, महामण्डल जीवन-गठन करने के लिये धीर-गति का एक ऐसा विशिष्ट आन्दोलन है, जिसके साथ यदि  देश के युवा पर्याप्त संख्या में जुड़ जायें तो यह आन्दोलन आगे चलकर निश्चित रूप से पूरे समाज को उन्नति के रास्ते पर आगे बढ़ा सकता है।विगत 55 वर्षों से इस कार्य की प्रगति तथा कार्य-पद्धति की सफलता के प्रत्यक्ष प्रमाण को देखकर यह आशा  लगातार बढ़ती जा रही है, और जो लोग इस आन्दोलन के कार्यकर्ता हैं, उनके मन की आशा अब दृढ़ विश्वास में परिणत हो चुकी है। महामण्डल पूर्ण रूप से तभी सन्तुष्ट होगा जब चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करने और जीवन के सभी क्षेत्रों में उनकी आपूर्ति करने के इस धन्यवाद विहीन कार्य को सालों -साल तक लगातार सफलतापूर्वक संचालित रखने में भी सक्षम हो जाता है। महामण्डल का उद्देश्य कभी भी युवाओं को अपने नियंत्रण में लेना और राजनीति के माध्यम से सत्ता की कुर्सी प्राप्त करना नहीं है। क्योंकि चरित्रवान मनुष्यों के बिना समाज की मूल समस्याओं का निदान होना सम्भव नहीं है। 
   स्वामी विवेकानन्द के कथन, 'And therefore, make men first.'- " अतएव पहले मनुष्य का निर्माण करो" - का तात्पर्य भी यही है। हमलोगों ने अभी तक उनके इस परामर्श के ऊपर समुचित ध्यान नहीं दिया है, किन्तु उनके इसी प्रस्ताव के भीतर एक क्रन्तिकारी परिवर्तन के बीज निहित हैं । आधुनिक भारत के सच्चे नेता के महत्व को ख़ारिज करने की कोशिश किये बिना उनके ऊपर  'भारत का हिन्दू संन्यासी'  का लेबल चिपका कर  हमें  सत्ता और सम्पत्ति जमा करने के लोभी  स्वप्नों को त्याग देना चाहिये। आइये , हमलोग इस 'रामकृष्ण -विवेकानन्द' स्वर्णयुग स्थापन योजना के ऊपर कार्य करें और इस  इस 'मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन '- को देश के कोने-कोने तक पहुँचा दें ।
====================================

15 . 

महामण्डल का स्वरुप एवं कार्य 

[The Idea and the Method ]

का महामण्डल किस प्रकार की संस्था है, इसका स्वरूप क्या है ? क्या यह एक धार्मिक संगठन है? या फिर यह सांस्कृतिक, समाजसेवी या कोई शैक्षणिक संस्थान है ?
     क्योंकि इस संस्था के साथ स्वामी विवेकानन्द का नाम जुड़ा हुआ है, वे एक संन्यासी थे और उन्होंने धर्म का प्रचार किया था,अतः लोग आसानी से यह धारणा बना लेते हैं, कि शायद यह भी एक प्रकार का धार्मिक संगठन हो होगा। किन्तु ऐसे आकलन के आधार पर पूछे कि -क्या महामण्डल कोई धार्मिक संगठन है ? तो उत्तर होगा - नहीं।  किन्तु धर्म का जो सार तत्व है, आध्यात्म का जो वास्तविक अर्थ होता है [नश्वर मानव शरीर में अविनाशी आत्मा को खोज लेना !!], उसकी ओर यदि किसी का संकेत हो - तो कहना पड़ेगा, निस्सन्देह महामण्डल एक धार्मिक संस्था है। किन्तु, यहाँ 'धर्म' का अर्थ कोई संकीर्ण दायरे वाला 'मतवाद' नहीं हो सकता। महामण्डल की आस्था जिस धर्म में है, वह हिन्दुओं का धर्म तो बिल्कुल नहीं है, हिन्दुओं में भी न तो यह वैष्णव है,न शाक्त है, और न शैव-पन्थ को ही मानने वाला है। 
>> Sri Ramakrishna or Vivekananda  does not belong to any narrow boundary of particular religion . 
       क्योंकि हमलोग श्रीरामकृष्ण देव या स्वामी विवेकानन्द को किसी एक धर्म-विशेष से जुड़े हुए व्यक्ति नहीं थे। वे दोनों तो 'सर्वधर्म समन्वय' या सभी धर्मों में परस्पर सद्भाव (Harmony of all religions ) के संस्थापक रहे हैं। इन दोनों के आविर्भूत होने से पहले तक,- धर्म के क्षेत्र में सहिष्णुता पूर्णतया अनुपस्थित थी और आज भी ऐसा है या नहीं यह अभी भी सन्देहास्पद है। 
 धर्मों में परस्पर असहिष्णुता 'intolerance' की बुराई के विरुद्ध  विश्व की आँखों को खोलने वाले प्रथम व्यक्ति श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द ही हैं। मनुष्य समाज में विभिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न समय में देश-काल की विविधता के आधार पर पृथक पृथक नाम वाले मत या सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव होता रहा है। इसीलिये परमत सहिष्णु होना बहुत महत्वपूर्ण है। 
  >>>way to the fulfillment of these aspirations, yearnings is the way of religion.
       मनुष्यों के जीवन में एक धर्म, कर्तव्य, कोई न कोई ज्वलन्त आकांक्षा और अभिलाषा (परमसत्य को जानने की इच्छा ?) होती हैं। और इन आकांक्षाओं या अभिलाषाओं को  पूर्ण करने का जो पथ है, उसी को 'धर्म का मार्ग' कहा जाता है। जिन लोगों को इस सच्चे धर्म (मिथ्या शरीर में सत्य सनातन आत्मा का साक्षात्कार रूपी धर्म) की उपलब्धि हो जाती है, उनके लिये हिन्दू, मुस्लिम या ईसाईयों के बीच (या शाक्त और वैष्णव के बीच) कोई अन्तर नहीं रह जाता।स्वामी विवेकानन्द ने इस तथ्य को बहुत गहराई से और विस्तारपूर्वक समझाया है। उनकी दृष्टि में जब कोई व्यक्ति बाह्य-प्रकृति और अन्तःप्रकृति दोनों के ऊपर विजय प्राप्त कर लेता है, केवल तभी उसे धर्म की प्राप्ति होती है। इसी के द्वारा मनुष्य को यथार्थ शक्ति प्राप्त होती है, इसीलिये वास्तव में यही सच्चा धर्म है। इसीलिये स्वामी जी धर्म की परिभाषा देते हुए कहते है, " धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। " इस कसौटी से देखने पर विभिन्न धर्मों के बीच भेदभाव करने के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता। हर धर्म के लिये यह पैमाना एक समान है, और जो कुछ इसके प्रतिकूल होगा उसे धर्म नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक धर्म यह बताता है कि मनुष्य को अपनी पाशविकता (स्वार्थपरता) पर अंकुश लगाना चाहिये और अपने मानवीय गुणों को विकसित करके यथार्थ मनुष्य [ शैतान से इन्सान] बन जाना चाहिए। कोई भी मनुष्य जब (यम-नियम का अनवरत पालन करके ) अपनी पशुता पर विजय प्राप्त कर लेगा, वह  सच्चा धार्मिक मनुष्य बन जायेगा तब उसे देखने और मिलने से ऐसा प्रतीत होगा मानो वह भी भगवान का ही प्रकट रूप है! (उसके चारों ओर भी किसी काल्पनिक भगवान के जैसा प्रभावलय प्रतीत होगा।) मनुष्य जब अपनी कल्पना के अनुसार भगवान का चित्र या मूर्ति गढ़ता है,तो वह उनके मुखड़े को पवित्रता, तेजस्विता, आदि नायकोचित उत्कृष्ट चारित्रिक गुणों से विभूषित करते हुए ही गढ़ता है, क्योंकि दिन-प्रतिदिन की व्यावहारिक दुनिया में ऐसा मुखमण्डल ढूँढ पाना लगभग मुश्किल है।सामान्यतः हम समाज में मनुष्यों का जैसा सौन्दर्य, शारीरक-शौष्ठव और स्वभाव आदि देखते हैं, उससे हमारी कल्पना को तृप्ति नहीं मिलती। इसीलिये जब हम भगवान के बारे में विचार करते हैं, तो हम उसमें समस्त मानवीय गुणों को अनन्त गुना विकसित रूप में देखने का प्रयास करते हैं।' इसीलिये हमलोग मनुष्य को भगवान या किसी अवतार के साँचे में डाल कर गढ़ना चाहते चाहते हैं। विश्व के प्रत्येक धर्म में यह बात एक समान पायी जाती है। इस दृष्टिकोण से विचार किया जाय महामण्डल भी निस्सन्देह धर्म (3H विकास के 5 अभ्यासों ) का पालन कर रहा है। किन्तु महामण्डल अपने किसी सदस्य को मन्दिर,मस्जिद,चर्च या गुरुद्वारा जाने, कर्मकाण्डीय अनुष्ठान करने या पूजा-पाठ करने का निर्देश नहीं देता, इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल धार्मिक संस्था नहीं है।  
>>>If a man is really cultured , he does not look at the world the way animals do.
      आजकल बहुत से लोग 'संस्कृति'  का अर्थ नृत्य-संगीत, नाटक,कहानियाँ, उपन्यास, कुछ दुर्बोध चित्र या अर्थहीन कवितायें समझते हैं। किन्तु महामण्डल 'संस्कृति' की ऐसी व्याख्या को व्यर्थ और बौद्धिक शक्ति की बर्बादी समझकर इस पर कोई ध्यान नहीं देता। इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल कोई सांस्कृतिक संस्था भी नहीं है। यदि कोई मनुष्य सही अर्थों में सुसंस्कृत बन जाता है, तो वह बाह्य जगत को उस दृष्टि से नहीं देखता जिस दृष्टि कोई पशु (M/F) देखता है। 
'मनुष्यत्व' का विकास होने के साथ-साथ उसके भीतर सौन्दर्य की प्रशंसा करने के लिये एक कोमल आंतरिक शक्ति (सिया-राम मैं सब जग जानी वाली दृष्टि) भी पुष्पित हो जाती है। और अब उसे किसी वस्तु की व्यावहारिक उपयोगिता क्या है, उस दृष्टि से देखने पर सन्तुष्टि प्राप्त नहीं होती। जगत को 'सिया-राम मय' दृष्टि से देखने का अभ्यास करते करते उसका मन-दर्पण स्वच्छ हो जाता है (अब वहाँ ब्रह्म-रूपी जगत का कोई विकृत चित्र नहीं बनता ), जिसके फलस्वरूप वह चिंतन में, शब्दों में, प्रकृति में, जगत के समस्त सजीव प्राणियों में भी सौन्दर्य देखने की क्षमता या 'सौन्दर्यबोध ' अर्जित कर लेता है। यह निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक गुण है। इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल अवश्य एक सांस्कृतिक संगठन है; किन्तु  उपरोक्तत बताये हुए संस्कृति के तथाकथित परिभाषा के अनुरूप यह कोई सांस्कृतिक संगठन भी नहीं है। 
>>Place for social service in the Mahamandal .
        इसी प्रकार से विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जायेगा कि प्रचलित अर्थों में महामण्डल एक समाजसेवी संगठन भी नहीं है। क्यों ? आमतौर से कोई भी समाज-सेवी संस्था समाज के लिए कुछ न कुछ कल्याण कार्यों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता है, वह विभिन्न समाजोपयोगी कार्यों के द्वारा लोगों को सहायता प्रदान करता है। आजकल 'rural development'  अर्थात ग्रामीणविकास समाजसेवा के लिये एक महत्वपूर्ण विषय बन गया है। इसके अन्तर्गत सामान्यतः अन्नहीन को अन्न और वस्त्र-हीन को वस्त्र, रोगियों के लिये दवाइयाँ -इत्यादि  का वितरण करके निःसहायों की सहायता की जाती है। ये सभी अच्छे कार्य हैं। तथापि महामण्डल का गठन केवल इसी प्रकार की समाजसेवी कार्यों के लिये नहीं हुआ है।  इस तरह की सेवायें प्रदान करने के लिये तो पहले से ही स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर  देश-दुनिया में असंख्य संस्थायें कार्यरत हैं। राष्ट्रीय सरकार, विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठन एवं आम धनाड्य लोगों का संरक्षण भी उन्हें प्राप्त है। फिर उसी तरह के एक और संगठन का क्या औचित्य हो सकता है ? 
>>'Service to the Ignorant and the Poor' दुःख का मूल कारण -अविद्या को दूर करना सर्वश्रेष्ठ समाज सेवा है !!
      इसके बावजूद भी महामण्डल  में समाज-सेवा के लिए एक स्थान है। यह एक विशेष प्रकार की समाज-सेवा है,और यदि इसे हम 'उत्कृष्ट समाज सेवा ' का नाम भी दें, तो वह गलत नहीं होगा।  क्योंकि इस प्रकार के समाजसेवा की परिकल्पना स्वयं स्वामी विवेकानन्द जी के द्वारा ही की गयी थी। अज्ञानियों (अविद्याग्रस्त) और दरिद्रों (वैचारिक पूअर)' को साक्षात नारायण मानकर उनकी सेवा करने का उपदेश- स्वामी जी ने दिया था। निस्सन्देह भूखों को भोजन कराना, वस्त्रहीनों को वस्त्र देना, बीमारों के लिये चिकत्सा की व्यवस्था करना, आदि कार्य भी  स्वामी विवेकानन्द  द्वारा निर्देशित समाज-सेवा का ही हिस्सा है। किन्तु जिस प्रकार उन्होंने विशेष बल दिया था, वह है लोगों उत्तम विचार प्रदान करना , ऐसे महावाक्यों से परिचित करा देना जो किसी व्यक्ति  को उन्नततर मनुष्य बनने में सहायता करें । हमारे अपने ही परिवार और समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो जीवन को उन्नततर बना देने वाले विचारों से वंचित रह गए हैं ! वास्तव में गरीब - तो वैसे ही लोग हैं। 
>>The work on which Swami ji  emphasis is providing good ideas to the people :
           गरीब केवल वे ही नहीं हैं जिनके पास पैसा नहीं है और जो अपने लिये दो वक्त की रोटी का भी प्रबंध नहीं कर सकते। बल्कि असली गरीब तो वह है जो धन होने के बावजूद, 
उन्नततर मनुष्य में परिणत कर देने वाले उच्च विचारों (महावाक्यों का श्रवण-मनन -निदिध्यासन) को समझने की अभिलाषा या अभाव से ग्रस्त है । स्वामी जी के अनुसार इस प्रकार के गरीब लोगों (माया द्वारा शोषित -वंचित लोगों) की सेवा करना  सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा का कार्य है। महामण्डल भी विशेष रूप से इसी उकृष्ट श्रेणी की समाज सेवा करने का पक्षधर है।  
         महामण्डल का उद्देश्य किसी की व्यक्तिगत इच्छा संकीर्ण सामूहिक इच्छा की पूर्ति करना भी नहीं है , जहाँ दानशील व्यक्ति या महान समाज कहलाने के पीछे मुख्य कारण बहुधा अहंकार की तृप्ति ही होती है। आजकल ऐसी मानसिकता से ही अक्सर समाजसेवा का कार्य किया जाता है। मेरे पास काफी धन-सम्पति और जमीन जायदाद आदि है चलो थोड़ा बहुत गरीबों को दान कर देता हूँ , इस मानसिकता के साथ की जाने वाली समाज सेवा व्यक्ति के ह्रदय को विशाल बनाने के बजाए उसके अहंकार को ही और पुष्ट कर देती है। इसीलिए तो इन दिनों समाचार पत्र , टेलीविजन या फेसबुक आदि में सभी प्रकार की तथाकथित समाज सेवा को , यहाँ तक कि जिसमें कम्बल -चादर बाँटना भी शामिल है , फोटो खिंचवाने की मुद्रा में दिखाया जाता है। स्वामीजी ने इस प्रकार से समाज सेवा करना कभी नहीं सिखाया है।       
        अगर उन्होंने भी इसी प्रकार की दिखावटी समाजसेवा का उपदेश दिया होता तो लोगों ने उन्हें अपनी स्मृति में इतना तरो-ताजा नहीं रखा होता, और भी  उनको इतनी श्रद्धा, सम्मान और प्रेम के साथ स्मरण नहीं किया जाता। कई लोग इस धरती पर पैदा हुए हैं, जिन्होंने उपरोक्त विवरण के अनुसार ही समाज सेवा करने के लिये योजनायें बनाई हैं , और उन्हें इस कार्य में सफलता भी प्राप्त हुई है ! किन्तु मानव स्मृति में इतने दीर्घकाल तक बने रहने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं हो सका है। 
 >>पूजनीय विभूतियाँ Pioneers among men, leaders of races,
 इस जगत में अबतक जितने भी अग्रणी मार्गदर्शक नेता, पूजनीय विभूतियाँ - जैसे राम, कृष्ण ,बुद्ध, ईसा,मोहम्मद, श्चैतन्य, रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द [माया और जीव दोनों के स्वामी श्री रामकृष्ण हैं , उनकी कृपा के बिना जीव कभी माया को नहीं जान सकता यह बताने वाले .....
कैप्टन सेवियर, श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय] आदि हुए हैं; उन्हें सम्पूर्ण मानवता आज भी इसीलिये याद करती है कि उनमें से प्रत्येक ने समाज को ऐसे अमूल्य विचार दिये हैं जो मानवजाति के लिये सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुई हैं, तथा युग-युगान्तर से मनुष्य उसका सच्चा लाभ उठाता आ रहा है। हालाँकि उनमें से कइयों ने स्वयं अपने नाम से कोई नया सम्प्रदाय या धर्म खड़ा नहीं किया है। 
>>complete elimination of all wants through positive ideas,
      जो मनुष्य जीवनदायी विचारों की गरीबी से त्रस्त हैं, वे उन महान विभूतियों के जीवन और सन्देशों से आज भी प्रेरणा प्राप्त करके उनके सकारात्मक विचारों द्वारा अपने समस्त अभाव को सदा के लिये समाप्त कर देने का उत्साह प्राप्त करते हैं। जीवन में पूर्णत्व प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। 
         महामण्डल ऐसा कोई दावा नहीं करता कि वह समाज की समस्त आवश्यकताओं पूर्ण कर देगा। किन्तु आज के युवाओं के पास उन विचारों का अभाव है जो उनके जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये आवश्यक है। अक्सर देश के युवाओं को वर्तमान में प्रचलित शिक्षा पद्धति से वैसे बहुमूल्य विचार प्राप्त नहीं होते, जो जीवन-गठन के लिये या मनुष्य बनने के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। बेशक (देश के सौभाग्य से ), आज भी कुछ ऐसे शिक्षक हैं जो पाठ्यपुस्तकों के घेरे से बाहर जाकर अपने स्वयं के जीवन की उपलब्धियों और अनुभवों से प्राप्त कुछ अनुकरणीय शिक्षाओं को अपने जीवन द्वारा छात्रों के समक्ष प्रस्तुत  करते हैं। वे ऐसा इसीलिये करते हैं, ताकि छात्र भी वैसे जीवन-मूल्यों से उत्प्रेरित होकर अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने के आग्रही बन सकें। वर्तमान समय में भी ऐसे कुछ शिक्षकों का अस्तित्व बचा हुआ है जिनका अपना जीवन त्याग और सेवा के द्वारा गठित है, जिसके कारण आज भी कुछ युवा देश की वास्तविक संपत्ति के रूप में विकसित हो पा रहे हैं। किन्तु, जब राजनितिक यूनियनबाजी के भँवर में फंस कर, ये थोड़े से आदर्श शिक्षक भी अपने घुटने टेक देंगे, और आदर्शों के साथ समझौता करना  शुरू करने पर मजबूर कर दिये जायेंगे, वही दिन अपने देश के लिये सचमुच अत्यन्त दुर्भाग्य का दिन होगा। इन दिनों जागरूक अभिभावकों की संख्या में भी तेजी से गिरावट आ रही है। वस्तुस्थिति की गंभीरता को देखते हुए महामण्डल ने इसी जरूरत को पूरा करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है।  इसीलिये महामण्डल के नाम के साथ यदि कोई विशेषण जोड़ना ही हो तो इसे धार्मिक,सांस्कृतिक अथवा समाज-सेवी संगठन न कहकर इसे एक शैक्षणिक संसथान  कहना चाहिये।
         अब यदि कोई यह प्रश्न पूछे कि आदर्श शिक्षा के प्रचार- प्रसार के लिये क्या महामण्डल भी किसी विशेष मॉडल पर आधारित कुछ विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करना चाहता है ? तो पुनः इस प्रश्न का उत्तर होगा - 'नहीं !' बहुत से ऐसे संगठन हैं जो बड़े बड़े भवनों में विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करके नैतिक शिक्षा प्रदान करने की योजना को भी लागु करने की कोशिश कर रहे हैं, किन्तु वे भी विफल मनोरथ ही सिद्ध हो रहे हैं। भले ही प्रचलित शिक्षा के साथ नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए विषयवस्तु और पद्धति का चयन बहुत सोच-विचार कर किया जाय, यदि वैसा कर लेना भी सम्भव हुआ-तो भी इस तरह की आदर्श शिक्षा प्रदान करने के लिए कोई बनाई गयी कोई भी योजना, विफल होने को बाध्य होगी। क्यों ? क्योंकि उस आदर्श शिक्षा को देने वाले शिक्षकों भी तो 'employment exchange '  से या किसी राजनितिक दल द्वारा की गयी (शिक्षा विभाग के मंत्री पार्थो चटर्जी वाले बेलघड़िया , टॉलीगंज स्थित अर्पिता नुख्रजी के रोजगार दफ्तर के 50 करोड़ी अनुशंसाओं के बल पर ही हुई होगी। और इस प्रकार यह - राष्टीय शिक्षा निति में नैतिकता बोध जोड़ने वाली आदर्श शिक्षा योजना भी कागजों पर ही सिमटकर रह जाएगी।
>> If the boy does not come to education, education must go to the boy.' 
        इसीलिये,आज  की जो अवस्था है उसमें सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थाओं , या विद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाते रहने से कोई लाभ नहीं होगा , उलटे इस परियोजना में लगा हुआ समस्त श्रम और धन कोई वांछित लाभ पहुँचाये बिना व्यर्थ में ही नष्ट हो जायेगा। इसीलिये महामण्डल सही ढंग की शिक्षा प्रदान करने का वैसा ही कार्य करना तो चाहता है, किन्तु जनता के टैक्स के पैसों से  ऐसे शिक्षण शिक्षण संस्थानों की संख्या बढ़ा करके नहीं;  बल्कि इस नीति के अनुसार कार्य करना चाहता है कि-"यदि बालक शिक्षा के पास नहीं आ सकता तो शिक्षा को ही बालक के पास ले जाना होगा।" इसीलिये महामण्डल का कार्य गाँवों में शहरों में, हर जगह अपने केन्द्रों को प्रसारित करते जाना है। यदि कहीं कोई लड़का है जो उनमें से किसी केन्द्र तक भी नहीं पहुँच सकता, तो महामण्डल उनके घरों में उन विचारों की आपूर्ति करने के लिये जायेगा; जिसकी उन्हें बड़ी आवश्यकता है, जिसके बिना वह सही ढंग से विकसित नहीं हो सकता, जिसके अभाव में वह शारीरिक और नैतिक दृष्टि से जीर्ण और दुर्बल हो गया है। जब इस प्रकार के मनुष्य निर्माणकारी विचार उसे उपलब्ध करवा दिये जायेंगे, तो वह भी हर दृष्टि से विकसित हो जायेगा; और ये शक्तिदायी विचार उसको स्वस्थ और सबल बना देंगे।  
>>Man has three elements, which are his sources of power-body, mind and heart.  
इन्हीं विचारों को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं , जो शक्ति के स्रोत हैं - शरीर, मन और ह्रदय। जब इन तीनों तत्वों का समुचित और सुसमन्वित विकास हो जाता है , तब कोई भी व्यक्ति यथार्थ मनुष्य बन जाता है। "  यही वह कार्य है जिसे पूरा करने का बीड़ा महामण्डल ने उठाया है। शरीर को स्वस्थ और सबल बनाने के लिये शारीरिक व्यायाम, मन पर नियंत्रण प्राप्त कर उसे एकाग्र और सतेज बनाने के लिये मनःसंयोग का नियमित अभ्यास करना महामंडल युवाओं के दैनिक दिनचर्या में शामिल हैं। किन्तु यदि हम अपने बाहुबल और बुद्धिबल को ही अपना एकमात्र सम्बल मान लें, तो हमारे लिए यह सम्भव नहीं होगा कि हम मानव समाज के कल्याण की दिशा में हम विशेष प्रगति कर सकें। उसके लिये अन्य शक्तियों (2H)  के साथ 'हृदय की शक्ति' को भी जोड़ना अनिवार्य होगा। हृदय की जो सहनुभूतिशीलता है, उसका विस्तार (अनन्त तक) करना होगा। पर कैसे ? ह्रदय को विस्तृत करने की पद्धति क्या है ? 
>>Every man is a temple in the true sense.
        उसी पद्धति का एक अंग है, समाज-सेवा। किन्तु यदि हृदय को विकसित करने का एक उपाय मानकर समाज-सेवा करनी हो, तो वह कभी दानी होने के अहंकार के साथ अपनी दान- शीलता का प्रदर्शन करने के मनोभाव को रखते हुए नहीं की जा सकती। अतः हमें अपनी समाज-सेवा मानव-मात्र के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते हुए नहीं की जानी चाहिए। बल्कि हमें शिविर में आने वाले अपने युवा मित्रों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते हुए, देवता बुद्धि से आह्वान करते हुए कहना चाहिए - " इहागच्छ , इहतिष्ठ ! " [ॐ भूर्भुवः श्वः श्री भगवन विष्णो: इहागच्छ इह तिष्ठ।] ऐसा सोचना होगा, मानो प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक मनुष्य का शरीर सच्चे अर्थों में एक मंदिर (प्रभु-निवास) है। उस देह-मंदिर में विराजित देवता बड़े कष्ट में हैं, दुःख भोग रहे हैं- "ब्रह्म पंचभूतों के फंदे में पड़ कर रो रहे हैं !" और उनकी वास्तविक दिव्यता (निःस्वार्थपरता) अभिव्यक्त नहीं हो पा रही है। इसीलिए, हम एक शिवालय को जैसे धो-पोंछ कर स्वच्छ और पवित्र बनाते हैं, चन्दन घिसकर लेप तैयार करते हैं, फूल तोड़ते हैं, एवं साक्षात शिवजी की दिव्य उपस्थिति का अनुभव करने के लिये, उनके विग्रह और मंदिर को सुगन्धित पुष्प और धुप-चन्दन आदि से सजा कर मनोहारी बना देते हैं।
       विद्यादान रूपी समाज-सेवा भी ठीक उसी तरह की एक प्रकार का भयमिश्रित सम्मान और पवित्रता की अनुभूति करते हुए करनी होगी, कि सेवा में कहीं कोई त्रुटि तो नहीं हो गयी? जैसे हमलोग मन्दिर में आमतौर से देवताओं के प्रति रखते हैं। इसीलिये महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में जो सेवा कार्य चलाये जा रहे हैं, उनका मूल्यांकन केवल सेवा कार्य की मात्रा, आर्थिक व्यय एवं बाहरी तड़क-भड़क या दिखावा के आधार पर करना उचित नहीं होगा। इस प्रकार के कार्यों का उचित मूल्यांकन तो केवल महामण्डल के कार्य-कर्ताओं के उद्देश्य, अनुभूति की गहराई- जो उन्हें क्रमशः आध्यात्मिक रूप उन्नत बना देगी, उस कार्य में संलग्न ऐसे कर्मियों की संख्या से ही निर्धारित की जा सकती है।
>>Essence of true education : All-round development and unfoldment of the being. (शिक्षा का सार है - बहुमखी विकास और अस्तित्व का प्रकटीकरण)   
          जब कोई व्यक्ति अपने शरीर, मन और हृदय को महामण्डल द्वारा निर्धारित- " 3H विकास के 5 दैनन्दिन अभ्यास" का निरंतर अनुशीलन करते हुए अपने बहुमुखी विकास को 'सर्वोच्च उत्कृष्टता' (highest excellence) तक विकसित कर अपने वास्तविक अस्तित्व का अनावरण कर लेता है, उसी को 'सच्ची शिक्षा का सार' कहते हैं। और उसी को सच्चा धर्म या आध्यात्मिकता भी कहते हैं। इस आध्यात्मिकता का सम्बन्ध हमारी दुनिया से भिन्न कोई दूसरी दुनिया, या केवल मृत्यु के बाद की दुनिया से नहीं होता। प्रत्येक युग में कुछ सत्यान्वेषी मनुष्यों ने परम् सत्य तक पहुँचने के कुछ सुस्पष्ट मार्गों को खोजा है, और आगे चलकर ये सुस्पष्ट मार्ग ही  `वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' का रूप धारण कर लेते हैं, उन्हें ही धर्म मार्ग (paths of religion) कहते हैं। इन्हीं मार्गों को योग की संज्ञा भी दी गयी है। 
>> Religion means conquering our inner nature as also the the nature outside . 
हमारे शास्त्रों में चार प्रमुख योगों का उल्लेख किया गया है, ये हैं- ज्ञानयोग, राजयोग, भक्तियोग और कर्मयोग। स्वामी विवेकानन्द ने ध्यान से देखा कि "धर्म का अर्थ है-  इन चारों में से कोई एक या एकाधिक अथवा सभी योग मार्गों का अवलम्बन करके अपनी अन्तःप्रकृति और बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेना।" विवेकानन्द ने यह भी कहा है कि जब हमारी आन्तरिक शक्ति (मानसिक शक्ति) पूर्णतया हमारे नियंत्रण में आ जाती हैं, तो बाह्य प्रकृति (जगत-व्यवहार) के ऊपर नियंत्रण पाना सहज हो जाता है। उनके मतानुसार सबसे प्रभावी और उत्तम मार्ग, इन चारो योगों को सुसमन्वित कर उन्हें संघटित कर लेने से प्राप्त होता है। जो व्यक्ति आत्मविकास के इस चारो योगों की सम्मिलित प्रणाली को अपनाता है, उसे चारों योगों के अलग-अलग फल एक साथ प्राप्त हो जाते हैं,और सभी दिशाओं उसका विकास एक साथ साधित हो जाता है।
       संक्षेप में कहा जाय तो 'ज्ञानयोग' विवेक-विचार करने का मार्ग है। यह पथ मनुष्य को निरंतर विवेक-प्रयोग करते हुए बुराई से अच्छाई को, अनित्य से नित्य वस्तु को, नश्वर से शाश्वत को पृथक करते रहने का आदेश देता है। और इस प्रकार विवेक प्रयोग करते हुए निर्णय लेने से मनुष्य जो शाश्वत और वास्तविक है उस परम सत्य प्राप्त कर सकता है।  
         एक 'राजयोगी' मानसिक शक्ति के ऊपर सर्वाधिक जोर देता है। उसके लिये मन ही सब कुछ है उसका दावा है कि मन की अतिरिक्त चंचलता को शांत कर मन की शक्ति को पूर्णतया आत्म-नियंत्रण में रखने से सत्य स्वयं को उद्घाटित कर देता है। सत्य का साक्षात्कार करने के लिये यही उसकी साधना का पथ है।
       एक भक्त को यही ठीक लगता है कि शरीर, मन या बुद्धि के लिये किसी विशेष व्यायाम की आवश्यकता नहीं है। नाक दबाकर प्राणायाम आदि का अभ्यास करने या किसी तरह के कठोर वैराग्य को अपनाने की जरूरत नहीं है। वह कहता है यदि कोई व्यायाम करना ही हो तो मैं ह्रदय का व्यायाम करना अधिक पसंद करूँगा। मैं अपने प्रभु या इष्टदेव के लिये अपने ह्रदय का द्वार खोल दूँगा। उसके मन में यह दृढ़ विश्वास या आस्था होती है कि चाहे जिस भाव से या जिस नाम से उन्हें क्यों न पुकारूँ हमारे ह्रदय में ही एक परम सत्य, प्रेमस्वरूप कोई रहता अवश्य है।    
      यदि हृदय में कोई प्रेमस्वरूप भगवान नहीं रह रहे होते, तो मेरे हृदय में प्रेम की एक छोटी सी कली भी कैसे अंकुरित हो सकती थी ? यदि वहाँ, ह्रदय में कोई ऐसी सत्ता विद्यमान नहीं है - जो प्रेम से भरी हुई हो और जिसका स्वभाव ही प्रेम है तो मेरे भीतर प्रेम का वह सागर कैसे उमड़ने लगता है जो किसी भी प्रकार के बंधन द्वारा अवरुद्ध होने से इन्कार कर देता है ? जो 'मैं' और 'मेरा' तक सीमित रहने की अवज्ञा करता है, जो उन्मुक्त होकर सर्वत्र-सबको अपने-पराये सभी को अपने आलिंगन में बाँध लेना चाहता है! वही परम प्रेमस्वरूप परमात्मा (माँ जगदम्बा) है जिसे कोई अल्ला, कोई भगवान, कोई शिव या कोई काली कहता है। तो कुछ लोग अपनी कल्पना में उन्हीं को भगवान मानकर स्वर्ग में सिंहासन पर आसीन देखते हैं। जो व्यक्ति भक्तियोग का अभ्यास करता है वह कहता है- विवेक प्रयोग, मन का नियन्त्रण या कठोर तपस्या के द्वारा सत्य का साक्षात्कार करने के बजाय मैं प्रेम के माध्यम से सत्य की खोज करूँगा, मैं अपने सीमित प्रेम को पूर्णतया उनमें ही लीन कर दूँगा-जो प्रेमस्वरूप हैं ! और इस प्रकार मैं सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति कर लूँगा। सम्पूर्ण जगत को अपना प्रेम समर्पित कर मैं स्वयं ही जगत स्वरूप बन जाऊँगा !  
        'कर्म-योगी' को उपरोक्त कोई भी मार्ग पसंद नहीं है। उसके अनुसार निरन्तर विवेक-प्रयोग करते रहने या भावुकता के आवेग से अभिभूत होकर हृदय को खोल कर भगवान के आगमन की प्रतीक्षा करते रहना बिल्कुल आवश्यक नहीं है। उसके मतानुसार अकर्मण्य होकर बैठे रहना सर्वथा अनुचित है। यह तथ्य है कि हमारे पास कर्म करने की शक्ति है स्वतः संचालित होने (self-start) की क्षमता है, लेकिन उसका एक अलग तात्पर्य है। इस कर्मशक्ति का उपयोग करके हम अपने जीवन को सार्थक और परिपूर्ण बना सकते हैं। कर्मयोगी जब पूर्णता प्राप्त करने के लिये अपनी पद्धति के अनुसार प्रयास करता रहता है तब उसे यह उपलब्धि होती है कि सच्चा आनन्द तो केवल तभी प्राप्त होता है जब वह किसी कार्य को वह अपने आमोद-प्रमोद या अपने भोग-विलास की इच्छा से प्रेरित होकर नहीं कर रहा होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म-योग (निष्काम कर्म) के फल का स्मरण कराते हुए कहा है - "दूसरों के कल्याण की इच्छा से किया गया निःस्वार्थ कर्म किसी सतर्क कर्मयोगी को ज्ञान के राज्य में प्रतिष्ठित करा देता है।
 कर्मयोगी जब अपने क्षुद्र स्वार्थ को त्याग कर दूसरों के कल्याण के लिये अपना सब कुछ न्योछावर कर देने को तत्पर हो जाता है तब उसे भी उसी सत्य की अनुभूति होती है, जिसको ज्ञानी ज्ञानयोग के द्वारा अनुभव करता है। क्योंकि, वह भी यही अनुभव करता है कि 'वह' और 'दूसरे लोग' भिन्न-भिन्न नहीं हैं। इस 'नूतन पहचान' की अनुभूति पूर्णतया उसी 'सत्य' के अनुरूप होती है,  जिस सत्य की उपलब्धि किसी प्रेमी को भगवान के प्रति प्रेम रखने से प्राप्त होती है, या किसी राज-योगी को मन पर नियंत्रण कर लेने से प्राप्त होती है। 
          परम सत्य की खोज और उसकी उपलब्धि करने के यही चार प्रमुख मार्ग हैं, जो व्यक्ति इन चारो मार्गों का अपने जीवन में समान रूप से और सही तरीके से प्रयोग करने में समर्थ होता है, और हर सम्भव तरीके से परम सत्य का आस्वादन कर लेता है - स्वामी विवेकानन्द के अनुसार वही आदर्श मनुष्य है। श्रीरामकृष्ण देव भी यही कहते थे कि- किसी खाद्य पदार्थ का स्वाद मुझे केवल एक ही तरीके से क्यों लेना चाहिये ? एक ही मछली (या सब्जी) को तो कितने ही प्रकार से तैयार किया जा सकता है। 
>>Seekers of Truth will discriminate between eternal and temporal, good and pleasent:   
        अपनी सीमित क्षमता के साथ हमलोग 'रामकृष्ण-विवेकानन्द' के विचारों और निर्देशों के अनुसार विवेक प्रयोग, मन पर नियंत्रण, अपने-पराय के बीच भेदरहित प्रेम, और निष्काम कर्म के बीच समन्वय स्थापित करने के लिये सदा प्रयत्नशील रहेंगे। केवल तभी हमारा बहुमुखी और पूर्ण विकास साधित होगा। यह हो सकता है कि हमारे ह्रदय (Heart) में सभी देशवासियों के लिये प्रेम अंकुरित हो जाये,सहानुभूति भी जाग्रत हो जाये, किन्तु यदि हमारा शरीर (Hand) सबल और स्वस्थ नहीं है तो हम सेवा में सक्षम कर्मी नहीं बन पायेंगे। और हम उनके दुःख-कष्टों दूर करने के लिये 'परिश्रम को पराकाष्ठा तक भी नहीं पहुँचा सकेंगे! उसी प्रकार हम मन की एकाग्रता शक्ति अर्जित किये बिना लोगों के दुःख -कष्ट दूर करने जायें तो हम पूरे मनोयोग से सेवा भी नहीं कर पायेंगे और वह सेवा फलदायी भी नहीं होगी। उसी प्रकार सोचने, बोलने और कुछ भी करने के पहले विवेक-प्रयोग करके अवश्य देख लेना चाहिये कि वह अच्छा है या बुरा, श्रेय है या प्रेय - सही निर्णय लेने की इस शक्ति को जाग्रत करने के लिये विवेकज ज्ञान का संवर्धन करते रहना  आवश्यक है। किन्तु हमारी  ज्ञान-चर्चा इतनी विशद या दुरूह भी नहीं हो जानी चाहिये, कि तर्क द्वारा यह सिद्ध करने की चेष्टा करने लगें कि सच्चे वेदान्तवादी के लिए तो 'गंगाजल और नाले के जल' में भी कोई अंतर नहीं है! 
>>> Expansion of our heart , to stir up sympathy to feel for others'
       हम ज्ञान -विचार के साथ-साथ ह्रदय की क्षमता को भी सरल तरीके से विकसित करने का प्रयास कर सकते हैं। श्रीरामकृष्णदेव , स्वामी विवेकानन्द और माँ श्री श्री सारदा देवी के जीवन और शिक्षाओं  का अध्यन और उन पर चिंतन-मनन करना चाहिये।  उनके जीवन और सन्देश पर निरंतर चर्चा करते रहने से विवेक-प्रयोग करने की शक्ति तथा सही और गलत, सत्य और मिथ्या, अच्छा और बुरा के बीच निर्णय करने की क्षमता (विवेकज-ज्ञान) स्वतः जाग्रत हो जाती है। सर्वमंगल की प्रार्थना और मनःसंयोग के नियमित अभ्यास के द्वारा ही मन की शान्ति और सन्तुलन (poise) प्राप्त की जा सकती है; जिसके अभाव में हमलोग अक्सर गलत निर्णय कर बैठते हैं और वह प्रेम जो हमारे ह्रदय में उमड़ता है कभी कार्यान्वित नहीं हो पाता।  और अपने हृदय को विकसित करने के लिए दूसरों के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में अनुभव करने की क्षमता को बढ़ाना चाहिये, अर्थात हृदय की सहानुभूति शक्ति को प्रदीप्त करना आवश्यक है। इसके लिये अपने हृदय की भक्ति-भावना का संवर्धन  करना जरुरी है- जो कि अपने प्रेम के सीमित दायरे- 'मैं' और 'मेरा' को सर्वत्र, सब दिशाओं में, सम्पूर्ण मानवता के लिये प्रसारित कर लेने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हृदय के प्रसार के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये लगातार प्रयत्न करते रहना आवश्यक है। ठाकुर, माँ और स्वामी जी के जीवन और शिक्षाओं पर चिंतन-मनन करने से विवेक-प्रयोग करने की क्षमता में वृद्धि होने के साथ -साथ, हृदय को विकसित करने में भी सहायता प्राप्त होती है। ठाकुर, माँ और स्वामीजी का अनुसरण करने का अर्थ है, जो "ब्रह्म पंचभूतों के फन्दे में पड़कर रो रहे हैं"  उनके वास्तविक दुःख के कारण (अविद्या) को खोज कर उसे दूर हटाने के लिये उनकी सच्ची सेवा करना। जब कोई व्यक्ति विस्तृत ह्रदय (भक्तियोग) , जग्रत विवेक (ज्ञानयोग) और वशीभूत मन (राजयोग) और व्यावहारिक दक्षता (कर्मयोग) के साथ स्वयं को सुसज्जित करके, लोगों के वास्तविक कल्याण के लिये अपने जीवन तक को न्योछावर कर देने की ज्वलन्त इच्छा के साथ   जब सामाज-सेवा करने को उठ खड़ा होता है, तो उसके द्वारा की गयी समाज-सेवा साधारण समाजसेवियों द्वारा की गयी समाज-सेवा से थोड़ी अलग हटकर तो होती ही है! [ इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने अपनी कविता, 'मृत्युस्वरूपा कालीमाता ' में कहा है -  "साहसी, जो चाहता है दुःख  -मिल जाना मरण से ,नाश की नाचता है, माँ उसीके पास आयी !"  ] 
>>Transcend animality in man and to stride for full manhood. 
        महामण्डल की अपने विभिन्न केन्द्रों (३१५ से अधिक) के द्वारा इसी प्रकार के सुयोग्य, स्वस्थ, बलवान, अन्तर्विचारशील और सहानुभूति सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण करने के कार्य में लगा हुआ है। भारत के विभिन्न गाँवों और शहरों में ऐसे युवा व्यक्तिगत रूप से और परस्पर मिल-जुल कर, स्वामी विवेकानन्द के जीवनप्रद और शक्तिदायी विचारों को व्यवहारिक रूप देते हैं। 
        महामण्डल की दृष्टि में,चारों योगों को समन्वित करके- मानव को उसकी पशु-प्रकृति का अतिक्रमण करने (transcend करने), तथा पूर्ण मनुष्यत्व (पूर्ण निःस्वार्थपरता) की ओर प्रगति करने का यही उपाय है। यही वह मार्ग है जिस पर चलते हुए महामण्डल  प्रचलित अर्थों में धार्मिक, सांस्कृतिक, समाजसेवी या शैक्षणिक संस्थान बने बिना, उन्नततर मनुष्यों का उन्नततर समाज बनाने का दृढ़ संकल्प लेकर, सच्चा धर्म, सच्ची संस्कृति, सच्चा समाज-कल्याण और सच्ची शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कार्य में, विगत 55 वर्षों से लगा हुआ है। वास्तव में महामण्डल का उद्देश्य और कार्य योजना भी यही है।
=========================
 
16.

स्वयं से बात करना

[Speaking to Ourselves ]
 
>> Real religion makes man a real Man.'   
        साधारण अर्थों में महामण्डल एक धार्मिक संगठन नहीं है। उसी प्रकार सामान्यतौर पर  यह एक सामाज-सेवी  संगठन भी नहीं है। और साधारण अर्थ में यह कोई शैक्षिक संस्थान भी नहीं है। लेकिन यह एक ऐसा संगठन है जो प्रत्येक युवा तक चाहे उसका जन्मजात धर्म कुछ भी क्यों न हो , या वो स्वयं को किसी भी धर्म का अनुयायी न मानने का दावा करता हो, -इन सब बातों की परवाह किये बिना, वास्तविक धर्म को पहुँचा देना चाहता है ! कोई युवा यह कह सकता है वह किसी भी साम्प्रदायिक धर्म (sectarian religion) से सम्बन्ध नहीं रखता ! किन्तु हमें उससे यह अवश्य कहना चाहिये - " भाई , वास्तव में तुम्हारी आवश्यकता तो एक अलग प्रकार के धर्म की है, वह धर्म जो मनुष्य को 'सच्चा मनुष्य' बना देता है , वह धर्म जो इंसान को 'सच्चा इंसान ' बना  देता है।  
>>Mahamandal  does not believe in charity from a high pedestal, but with ratiocination. 
       गहरे अर्थों में महामण्डल एक समाज-सेवी संगठन भी है। लेकिन, यह ऊँचा आसन ग्रहण करके दान-पुण्य (charity) करने में विश्वास नहीं रखता बल्कि एक पूर्वनिर्धारित प्रेरणा- वेदान्ती विवेक (वसुधैव कुटुम्बकम, जीव ही शिव है) की सही समझ से अनुप्रेरित होकर पूरी विनम्रता के साथ समाजसेवा का उपयोग अपने हृदय को विस्तृत करने के लिए करता है। वास्तव में धर्म एक ऐसी वस्तु है जो - पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवत्व में उन्नत कर देता है ! और मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिये ऐसा होना अपरिहार्य है। एवं प्रत्येक मनुष्य के तीन प्रमुख अंग हैं- उसका शरीर, उसका मन और उसका हृदय (3H)।
       किसी व्यक्ति के लिये व्यायाम और पौष्टिक आहार आदि के माध्यम से अपने शरीर को विकसित कर लेना किंचित सरल कार्य है। उसी प्रकार किसी मनुष्य के लिये अपने मन और बुद्धि को विकसित कर लेना थोड़ा कठिन तो अवश्य है किन्तु असम्भव भी नहीं है। अभ्यास के द्वारा मन पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु जो व्यक्ति केवल शरीर और मन से शक्तिशाली है तो क्या उसे इतने से ही सन्तुष्ट हो जाना चाहिये ? क्या वह एक 'सच्चा मनुष्य' होगा, जो किसी भी समाज के लिये एक परिसंपत्ति हो ? नहीं ! क्योंकि वह अपने शरीर और मस्तिष्क की शक्तियों का यथोचित उपयोग नहीं कर पायेगा। क्योंकि जब तक किसी मनुष्य के पास सच्ची सहानुभूति और दूसरों के सुख-दुःख को अनुभव करने वाला हृदय नहीं होगा, तो उसकी शारीरिक और मानसिक उर्जायें वैसा सर्वोत्तम परिणाम और उच्चतम लाभ नहीं दे सकेंगी जैसा वे दे सकती थीं।  
 किन्तु मन एक सूक्ष्म भौतिक पदार्थ (fine Matter) है और शरीर एक स्थूल भौतिक पदार्थ (gross-Matter) है। इसीलिये शरीर को विकसित करना आसान है, किन्तु मन को विकसित करना थोड़ा कठिन है। लेकिन फिर भी ये दोनों चूँकि भौतिक पदार्थ हैं, इसलिये इन्हें सावधानी, जानकारी और प्रयास से विकसित किया जा सकता है, और यथोचित ज्ञान की सहायता से हम उनको सम्भाल भी सकते हैं। 
>> We cannot reach the heart easily by any means. 
       किन्तु 'हृदय' सबसे अधिक सूक्ष्म वस्तु है और किसी भी अर्थ में भौतिक पदार्थ नहीं है। इसीलिए हमलोग किसी भी (द्रुत) साधन का उपयोग करके ह्रदय तक नहीं पहुँच सकते। हम जानते हैं कि मन एक साधन (instrument) है, जिसका उपयोग हम स्वयं मन को ही देखने (या पकड़ने) के लिये कर सकते हैं। किन्तु ह्रदय को देखने या छूने के लिये इस प्रकार कोई दूसरा साधन (यंत्र) हमारे पास नहीं है। एक हृदय दूसरे हृदय को - केवल दूर से ही, प्रत्युत्तर भेज सकता है। यह कुछ- कुछ अनुकम्पन या अनुनाद (resonance) जैसी वस्तु है। जैसे रेडियो तरंगों को एक स्थान से भेजा जाता है, और दूसरे छोर पर एक इलेक्ट्रॉनिक रिसीवर होता है जो  तरंगों को डिटेक्ट कर लेता है या पकड़ लेता है, और हमलोग घर बैठे रेडिओ प्रसारण केन्द्र से प्रसारित होने वाले भाषण या विविध संगीत को सुन सकते हैं। हमारा हृदय भी ठीक उसी प्रकार से कार्य करता है। 
>>Attune your heart to the heart beats of others.(डकैत अमजद और माँ सारदा पद्धति)
      हमलोग फिजिक्स में ' प्रतिध्वनि की घटना' (Phenomenon of Resonance) के विषय में पढ़ते हैं। किसी तार वाले वाद्य यंत्र जैसे गिटार के एक तार को एक विशेष आवृत्ति (Frequency) पर ट्यून कर दें -जैसे 240। और गिटार के एक अन्य तार को भी उसी समान आवृत्ति 240 पर सेट कर दो । और बस एक तार को छेड़ दो, pluck कर दो । यदि तुम इस प्रयोग को करते हो, तो तुम देखेंगे कि दूसरा तार भी स्वतः कंपन करना शुरू देता है, और वही स्वर (ध्वनि) उत्पन्न कर रहा है, जो स्वर पहले वाले तार से बहार निकल रहा है। ठीक इसी प्रकार-तुम अपने हृदय  को दूसरों के हृदय की धड़कन या फीलींग्स (सुख-दुःख के कम्पन)  के साथ अट्यून करके, उस हृदय के सुर के साथ अपने हृदय के सुर को मिला सकते हो ! किसी भी प्राणी के हृदय पर कार्य करने की यही एकमात्र पद्धति है। [That is the only method to work upon one's heart.] और यह कार्य हमलोग सही उद्देश्य के साथ समाज-सेवा करते समय कर सकते हैं। यही कारण है कि महामण्डल के कर्मियों को अपने हृदय का विकास करने के उद्देश्य ही समाज में दूसरों की सहायता और सेवा करने के लिये जाना चाहिये। और भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं,सच्चा योगी वही है (माँ सारदा) जो दूसरों के दुःख-संताप को अपने हृदय में महसूस करता है, और समान रूप से शोकाकुल हो जाता है, और दूसरों के आनन्द को भी ठीक उसी के समान महसूस करके, उसके आनन्द में सहभागी बन सकता है। स्वामी विवेकानन्द भी एक महान और बड़े योगी थे, किन्तु हमलोगों को भी कम से कम छोटा योगी तो अवश्य बनना चाहिये। 
         हमें भी दूसरे के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में थोड़ा बहुत अवश्य महसूस करना चाहिये, और उस परिस्थिति  का उपयोग अपने हृदय को विकसित करने में करना चाहिये। ऐसा महसूस करने के बाद भी , क्या हमलोगों को केवल हाथ पर हाथ रखे बैठे रहना चाहिये ? नहीं, बल्कि उसकी सहायता और सेवा के लिये अपने हाथों को आगे बढ़ा देना चाहिये। तुम उनके दुःख को कम (mitigate) करने का प्रयत्न करो, और वैसा करने के बाद तुम्हें जो ज्ञान प्राप्त होगा वह स्थाई बन जायेगा, तुम्हारे हृदय में बस जायेगा, और तुम्हारे साथ सदैव बना रहेगा। (अद्वैत वेदान्त -कोई पराया नहीं सभी अपने हैं -या ईश्वरत्व का बोध तुम्हारे साथ सदैव बना रहेगा।) तो यह है महामण्डल में समाजसेवा का स्थान, तथा आत्मविकास  के भिन्न-भिन्न मार्गों  एवं कार्यप्रणालियों में समन्वय लाने की युक्ति भी यही है।
>>Four Traditional Great Paths for selfdevelopment. (गुरु-शिष्य परम्परा में ही चारों योग सीखने होंगे) 
 स्वामी जी जैसे कहते हैं धर्म वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य बना देता है, उसी प्रकार वे कहते हैं , तुम अपने शरीर, मन और हृदय को विकसित करने का प्रयास करते रहो, और यदि तुम  इन्हें पूर्ण रूप से विकसित कर सके, तो तुम एक पूर्ण मनुष्य बन जाओगे। और उसके बाद वे कहते हैं, " जिस व्यक्ति ने अपनी अन्तःप्रकृति के साथ-साथ बाह्य- प्रकृति पर भी विजय कर लिया है - वही सच्चा धार्मिक मनुष्य है। " किन्तु दोनों -अन्तः प्रकृति और बाह्य प्रकृति पर विजय पाया कैसे जाता है ? स्वामी जी इसकी युक्ति बतलाते हुए कहते हैं, " इस उद्देश्य के लिये तुम एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा ले सकते हो, और फिर वे आत्म विकास के लिये चार महान  पारम्परिक मार्गों  का उल्लेख करते हैं। इन पारम्परिक मार्गों (आत्मविकास के लिए 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -परम्परा' सम्बन्धी चार महान मार्गों- Four Traditional Great Paths for self-development.) का एक सामन्य नाम है - और वह है योग। वे चार मार्ग हैं, 'ज्ञानयोग' -अर्थात ज्ञान का मार्ग; 'राजयोग' - मन पर नियंत्रण करने का मार्ग, फिर 'भक्तियोग'- उपासना का मार्ग, और 'कर्मयोग'-निष्काम कर्म का मार्ग। ये ही वे चार पारम्परिक मार्ग (These are four traditional paths) हैं जिसका अनुसरण करने से हम अपना विकास कर सकते हैं, और सम्पूर्ण मनुष्य बन सकते हैं। वैसा मनुष्य जिसने अपने (भौतिक) शरीर और मन को तो  विकसित किया ही है, लेकिन उसके साथ-साथ हृदय को भी विस्तृत करके अपनी दुर्बलताओं पर भी विजय प्राप्त कर लिया है, जो अपनी पाशविक-दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करके दिव्य प्रकाश युक्त (प्रभा-वलय से युक्त) मनुष्य बन गया हो।
      ज्ञान के मार्ग का पथिक या ज्ञानयोगी भले और बुरे, शाश्वत और नश्वर के बीच विवेक-प्रयोग करता है, और निरन्तर परिवर्तनशील, क्षणस्थायी, अनित्य वस्तुओं में आसक्ति को त्याग करता  जाता है, एवं चिरस्थायी, शास्वत, नित्य या सत्य वस्तु के साथ लगातार जुड़ा रहता है, और धीरे धीरे यथार्थ सत्य (ultimate truth, इन्द्रियातीत सत्य) की अनुभूति प्राप्त कर लेता है। राजयोगी कहता है, इसी जीवन में परिपूर्णता प्राप्त करने के लिये, पूर्णतः विकसित होने के लिये, या अपनी अन्तर्निहित समस्त सम्भावनाओं को साकार करने के लिये,हमें केवल एक काम करना है- और वह है, अपने मन को पूर्णतया अपने वश में कर लेना। तुम इसे अष्टांग योग स्टेप्स  यम (शम), नियम (दम), आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि  की सहायता से कर सकते हो । अतएव हमलोगों इस साधन-मार्ग से थोड़ा परिचित (कम से कम 5 अंग से परिचित) तो अवश्य होना चाहिये। 
          महामण्डल इन चारो योग-मार्गों के आवश्यक अंशों का उपयोग करना चाहता है। 
और स्वामी जी कहते थे कि समाज का लगभग प्रत्येक मनुष्य, अपने व्यक्तिगत विकास के लिए इनमें से कम से कम एक मार्ग का चयन तो अवश्य करता है। स्वामी जी कहते थे, मेरे लिए  आदर्श मनुष्य वही है जिसके चरित्र में सभी सच्चे गुण समान रूप से और पूर्ण मात्रा में उपस्थित हों। मेरी दृष्टि में आदर्श मनुष्य तो वही है, जो अपनी साधना में इन चारो योग-मार्गों का सम्मिश्रण करने में सक्षम हो, अपने दैनन्दिन जीवन में उसका अभ्यास करके स्वयं को पूर्णतः विकसित कर सके। वही वास्तव में एक पूर्ण विकसित मनुष्य है, और हमलोग भी ऐसा ही पूर्ण मनुष्य बनना चाहते हैं। 
          'भक्तियोगी', जो उपासना के मार्ग को ग्रहण करता है, का कहना है, " मैंने ढूंढ़ निकाला है कि प्रेम मेरे भीतर है, और ऐसा प्रतीत होता कि, यह कोई ऐसी वस्तु है जो विस्तारशील है। मानो यह नित्य विस्तार-शील ब्रह्माण्ड हो। यह प्रतिपल विस्तारित होने का प्रयास करता है। यदि यह एकाकी हो जाय, तो परितृप्त नहीं होता। यह उमड़ता हुआ प्रेम दूसरों का स्पर्श करना चाहता है, उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है, और सम्पूर्ण विश्व को आत्मसात कर  लेना चाहता है। वह 'प्रेम' जिसका अनुभव मैं अपने हृदय में करता हूँ, मुझे बतलाता है कि इस ब्रह्माण्ड में और इस ब्रह्माण्ड से परे कोई वस्तु ऐसी है जिसका स्वभाव ही विशुद्ध प्रेम है; जो प्रेमस्वरूप है। और मेरी तीव्र इच्छा (hankering) है कि मेरा यह बून्द भर प्रेम, उस प्रेम के सागर से संयुक्त हो जाये।" और वह उसी पथ में आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है। वह अश्रु बहता है, वह मिलने की तड़प का अनुभव करता है। वह मंदिर जाता है, जब मूर्तियों को चंदन लगाता है,तो उसे उसी प्रेम का अनुभव होता है। कड़े पत्थर या सख्त लकड़ी से बनी मूर्तियों में भी वह प्रेम का ही दर्शन करता  है। वह अनुभव करता है कि  मूर्तियों की उस कठोर स्तब्धता के पीछे, कोई सबसे कोमल, प्रेम-स्वरूप वस्तु छुपी हुई है ! वह ऐसा अनुभव करता है, और उसी को पाने का प्रयास करता है। 
        वाह, ये तो बड़ी अच्छी बात है। हर मनुष्य यही तो है। किन्तु वैसा अनुभव करने के लिये सबसे पहले दूसरों के प्रति सहानुभूति की आवश्यकता है। केवल इसी की सहायता से हम अपने ह्रदय को विकसित कर सकते हैं। लेकिन, हम देख सकते हैं कि भले ही हम पूरे तौर से ज्ञान का उपयोग  कर सकते हैं, भले ही हम अपने मन पर हमारे नियंत्रण का उपयोग  कर सकते हैं, और साथ ही दूसरों के प्रति  सहानुभूति का अनुभव भी करते हैं;  पर इतना सब रहने से भी होता क्या है ? कुछ भी नहीं ! 
>>Apply  practical Vedanta in your own life!
    मुझे पता है कि  कि धर्म क्या है, मैं जानता हूँ कि दूसरों के सुख-दुःख का अनुभव अपने हृदय में कैसे किया जाता है,  मैं अपने मन को नियंत्रित करना जानता हूँ ; पर दूसरों के लिए मैं करता क्या हूँ -कुछ नहीं।  तो मेरे ज्ञानी-ध्यानी होने से समाज को क्या लाभ हुआ  ? मुझे तो स्वयं आगे बढ़कर दूसरों के दुःख-कष्ट को कम करने के कार्य में जुट जाना चाहिये। मुझे प्रेम और सहनुभूति से अनुप्रेरित होकर, किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये,अपने उस ज्ञान का उपयोग करने की  मानसिक क्षमता के साथ, विवेक-शक्ति का प्रयोग करते हुए, दूसरों के दुःख-कष्ट को कम करने के लिये क्या करना होगा; यह जानने के बाद अवश्य आगे बढ़ कर कार्य में जुट जाना चाहिये। यदि तुम  ऐसी अभिप्रेरणा लेकर समाज-सेवा के कार्य में अपना योगदान करोगे तो तुम्हें उस समाज सेवा  से महान आनन्द की अनुभूति होगी। यही कर्म तुम्हें उस सत्य तक पहुँचा देगा, जहाँ तुम  शाश्वत-नश्वर का विवेक-प्रयोग करते हुए पहुँच सकते हो, मन पर नियंत्रण करने के माध्यम से, या भगवान को प्रेम करते हुए पहुँच सकते हो। अतएव, यदि तुम स्वयं को सम्पूर्ण मनुष्य तक विकसित करने की चेष्टा में किसी भी तरह से इन चारों मार्गों का समन्वय कर सको तो तुम आदर्श मनुष्य बन जाओगे।
           महामण्डल स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त 'मनुष्य' का यही आदर्श  देश के युवाओं के समक्ष  प्रस्तुत करता है, एवं इन चारो योग मार्गों में समन्वय प्राप्त करने की एक प्रणाली - भी प्रस्तावित करता है। महामण्डल यह कहता है कि हमलोगों को किसी प्राचीन  वेदान्ती की तरह विवेक-प्रयोग नहीं कर सकते हैं,  यह अत्यन्त कठिन भी है। यहाँ तक कि तोतापुरी, जिन्होंने भगवान श्रीरामकृष्ण देव को वेदान्त-मत में दीक्षित किया था, क्या वे स्वयं  प्रत्येक वस्तु में यह समानता (अभेद) को सर्वदा देखने में समर्थ हो सके थे ? जब किसी व्यक्ति ने उनके धूनी की आग को केवल छू लिया था, तब क्या वे क्रोध से नहीं भर गये थे ? और यह देख कर श्रीरामकृष्ण देव जब हँसना शुरू कर दिये, और लोट-पोट होने लगे; तो तोतापुरी जी गुस्सा हो गए, और उनसे पूछा, ' यह क्या है, इतना हँस क्यों रहे हो ?' श्रीरामकृष्ण देव ने कहा,' मुझे तो आपके अद्वैत-वेदान्त के अभेद-ज्ञान को देखकर हँसी आ गयी !  यह मनुष्य जिसने एक निम्न -जाति में जन्म लिया है, आया और आपकी पवित्र अग्नि को छू दिया, और इतने से आप उत्तेजित होकर आगबबूला हो गए !' इसीलिये हमलोग भी वैसे वेदान्ती तो नहीं बनने जा रहे हैं। हमलोग उस प्रकार का विवेक-प्रयोग नहीं करने जा रहे हैं;  बल्कि हम अपनी विवेक-प्रयोग की शक्ति को एक सरल विधि - विवेकानन्द साहित्य का अध्यन करके विकसित करना चाहते हैं। 'अविनाशी और नश्वर' के बीच, अच्छे और बुरे के बीच, सही और गलत के बीच अन्तर करने की क्षमता बढ़ाने के लिये इन्हीं बातों पर परस्पर चर्चा करना ही हमलोगों के लिये 'ज्ञानयोग' का मार्ग है। 
>>No longer ignorantly call a man -man , but try to recognize him as God. ब्रह्म ही पंचभूतों के फंदे में फंसकर रो रहे हैं !
      इसी तरह प्रतिदिन मनःसंयोग का अभ्यास  करके हमलोग यह सीख लेंगे कि मन को अपने नियंत्रण में कैसे रखा जाता है। एवं ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम को विकसित करने का  प्रयास हमलोग केवल मंदिरों, मस्जिदों या गिरजाघरों में जाकर नहीं करेंगे। बल्कि हमलोग खेल के मैदान में, सड़क पर गली मुहल्ले में, गरीबों की झोपड़ियों में जायेंगे, और उन सबों में अपने प्रियतम की उपस्थित को अनुभव करने का प्रयास करेंगे। अब हमलोग  जनसाधारण को अपनी अज्ञानता में   'मनुष्य' नहीं कहेंगे, बल्कि आगे से उनको (हरिया को) ईश्वर (श्री हरि जी) के रूप में पहचानने की चेष्टा करेंगे। [आशिक है तो माशूक को हर रूप में पहचान]   
       स्वामी जी ने हमें हर मनुष्य में भगवान को (अपने इष्टदेव को) देखने का निर्देश दिया है। वे कहते हैं, ' मैं ने ईश्वर की खोज में सारा जीवन लगा दिया है, उन्हें ढूँढ़ने की कोशिश मैंने हर जगह की है, किन्तु मैंने भगवान को केवल मनुष्यों में ही पाया है।' हमलोग समाज के लाखों दुःख-कष्ट से पीड़ित 'जनताजनार्दन ' के पास जायेंगे और अपनी सम्पूर्ण भक्ति उनके चरणों में अर्पित कर देंगे। इसी प्रकार हम भक्ति का अभ्यास करेंगे और हमलोग केवल अपने हृदय को विकसित करने के लिये ही समाज-सेवा का कार्य करेंगे।
अपनी अन्तर्निहित सर्वोच्च संभावना को साकार करने के लिये, अपने शरीर, मन और हृदय को विस्तृत करने के लिये हमलोग चारों महान पारम्परिक मार्गों का समन्वय करेंगे। और अभी हममें जितनी भी पाशविक वृत्तियाँ है, अपनी उन समस्त अमानुषिक गुणों पर विजय प्राप्त कर लेंगे, और हमलोग वास्तव में -'धरती पर देवता' (Divinities upon earth !) बन जायेंगे!
===========================  

17.

"हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक कर्तव्य " 

[Our Duties]
[Our Duties- 'First be men']
>>What do we want ? and what is wanted from us ? 
       हम क्या चाहते हैं ? हम खुश रहना चाहते हैं। ख़ुशी क्या है ? सामान्य रूप से हम यह नहीं जानते। हम खुशियों की तलाश में इधर-उधर, हर चीज के पीछे भागते हैं। और इस भाग-दौड़ में हम यह भूल जाते हैं कि कुछ चीजें हमसे भी अपेक्षित हैं। हमसे क्या अपेक्षित है ? हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि हमलोग कर्तव्यपरायण बनें। किसके प्रति कर्तव्यपरायण बनें ? हमलोगों को स्वय के प्रति , अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति , देश के प्रति और क्रमशः सम्पूर्ण मानवता के प्रति कर्तव्यपराण बनना चाहिये। 
 >>What could be our duty to ourselves, society or the country?
        हम जानते हैं कि परिवार के प्रति कर्तव्य कहने से आपका तात्पर्य क्या है। आपका तात्पर्य है यह है कि हमें कम से कम आराम और अधिक से अधिक परिश्रम करके जितना सम्भव उतना कमाना चाहिये और अपने ऊपर कम से कम खर्च करना चाहिये और सबकुछ परिवार को सौंप देना चाहिये। लेकिन स्वयं के प्रति हमारा कर्तव्य क्या हो सकता है ? समाज के प्रति कर्तव्य तो सामाजिक कार्यकर्ताओं का है , एवं देश के प्रति कर्तव्य राजनेताओं तथा उन जनप्रतिनिधियों का है जो इसी कार्य के लिये चुने गये हैं। फिर, समाज या देश के प्रति हमारा कर्तव्य क्या हो सकता है ? 
      आम जनता की सोच ऐसी ही होती है। लेकिन यह गलत है। जब तक कि कर्तव्य को उसकी समग्रता में नहीं समझा जाता, तब तक कोई भी कर्तव्य  ठीक से नहीं किया जा सकता है। परिवार के प्रति कर्तव्य को वही बेहतर ढंग से निभा सकता है, जो अपने प्रति, समाज के प्रति और देश के प्रति अपने कर्तव्य को समझता है। क्योंकि परिवार भी तो समाज की ही एक इकाई है , और व्यक्ति परिवार का सदस्य है। और व्यक्ति, परिवार , समाज और देश ये सभी मिलकर मानवता को आकार देते हैं। इस दृष्टि से देखने पर यह समझा जा सकता है कि स्वयं के प्रति या परिवार के प्रति कर्तव्य भी मानवता के प्रति कर्तव्य का ही एक अंग है। हमें अपने सभी कर्तव्यों को इसी आलोक में समझना होगा। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार इस  विश्व-रंगमंच पर केवल मनुष्य बनने का एक नाटक (drama) चल रहा है, और हमलोग इस नाटक के केवल दर्शक भर ही नहीं हैं; बल्कि इस विश्व-रंगमंच के अभिनेता भी हैं [हमारे युग के प्रसिद्द वैज्ञानिक नील्स बोहोर (Niels Bohr, 1885 –1962) के अनुसार]; जो मानवता की भलाई के लिये अपने-अपने अंश का योगदान कर रहे हैं। 
>>Our duty to ourselves is to bring out the best in ourselves .
    अपने भीतर निहित सर्वोत्तम गुणों को आचरण में अभिव्यक्त करने के लिए स्वयं के प्रति हमारा कर्तव्य क्या हैं ?   स्वयं के प्रति हमारा कर्तव्य केवल अपने भीतर अन्तर्निहित में सर्वश्रेष्ठ (दिव्यता) को प्रकट करने के लिए प्रयास करना है। हमारे भीतर चरित्र के सभी अच्छे गुण , और उन्हें उपयोग में लाने की क्षमता हममें पहले से ही है, किन्तु सुषुप्त (dormant) हैं। उन्हें जाग्रत करना है , बाहर लाना है और आत्मप्रयास के द्वारा अपने आचरण में अभिव्यक्त करना है। हमलोगों का स्वयं के प्रति सबसे पवित्र कर्तव्य यही है जिसका पालन करना हमारा दायित्व है। अपने कर्तव्य के प्रति ऐसी भावना अपने 'मनुष्य जीवन ' को देवदुर्लभ कहे जाने के महत्व को समझ लेने के बाद प्राप्त होती है। यदि हम इस कर्तव्य की अनदेखी कर देते हैं तो हम न केवल अपना नुकसान करते हैं, बल्कि मानव जाति के कल्याण में भी बाधा डालते हैं। और जो व्यक्ति अपने अन्तर्निहित सर्वोत्तम गुणों को आचरण में अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है , वह अपने परिवार, समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में अधिक दक्षता प्राप्त कर लेता है। 
        समाज और देश के प्रति कर्तव्यों का पालन विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है। इस तरह के कार्य को ही कोई व्यक्ति अपने जीवन का एकमात्र  व्यवसाय के रूप में अपनाकर अपनी अतिरिक्त ऊर्जा, समय और धन का निवेश कर सकता है। ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें कोई इनके लिये कार्य कर सकता है। इसके विभिन्न क्षेत्र के रूप में लोकहितैषी कार्य, समाज सेवा, शिक्षा , सामाजिक सुधर , (वंशगत?) राजनीति , धर्म आदि हो सकते हैं। सभी देशों में इन क्षेत्रों में ऐसे कार्यों का एक लम्बा इतिहास रहा है। अतीत में ऐसे कार्य अधिकतर व्यक्तिगत रूप से किये जाते थे। बाद इन लोकहितैषी कार्यों को गैर सरकारी संगठन (NGO) बनाकर संगठनात्मक तरीके से किया जाने लगा है। आगे चलकर राजनितिक संरक्षण में सरकारों ने धीरे-धीरे इन क्षेत्रों में प्रवेश करना शुरू कर दिया, जिसमें गैर-सरकारी संस्थाओं के लिए कुछ क्षेत्र के कार्यों को तो छोड़ दिया गया , किन्तु व्यक्तिगत प्रयासों के लिये थोड़ा ही कार्य शेष रहा।  सभी समाजों में तेजी से बदलती हुई आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में  ऐसा होना आम तौर पर बिल्कुल स्वाभाविक है।
>>>onerous duty of serving others : (दूसरों की सेवा करने का कठिन कर्तव्य:)
        प्रश्न उठ सकता है कि क्या ये बदलती हुई परिस्थितियाँ किसी व्यक्ति को समाज और देश के प्रति उसके कर्तव्यों से मुक्त कर देती हैं ? तो उत्तर होगा- नहीं। इसके विपरीत, बदली हुई  परिस्थितियों ने किसी व्यक्ति को उसके कुछ पुराने सामाजिक दायित्वों के बोझ से तो मुक्त कर दिया है, लेकिन उसके बदले एक अधिक कठिन कर्तव्य को सौंप दिया है, - दूसरों की सेवा हमें इस तरह से करनी होगी कि वे 'स्वयं के प्रति किये जाने वाले उन कर्तव्यों के विषय में  जागरूक हो सकें जो अंततः उन्हें समाज और देश के प्रति उनके कर्तव्यों का पालन करने के योग्य बना देते हैं। इस कार्य को भी व्यक्तिगत रूप से या फिर संगठित तरीके से भी किया जा सकता है। 
>>The duty to oneself : (स्वयं के प्रति हमारे कर्तव्य)  
     स्वयं के प्रति हमारा कर्त्तव्य है पहले से विद्यमान अपनी शक्तियों और गुणों में से सर्वश्रेष्ठ को अपने आचरण में अभिव्यक्त करने का प्रयास करना है। इस कार्य को  'होना' (Being) और 'बनना' (Becoming) कहा जा सकता है। इससे हम स्वामी विवेकानन्द के नीति-वाक्य (motto) -'Be and Make' में कहे गए 'Be' के अभिप्राय को समझ सकते हैं। तथा दूसरों को समाज और देश के प्रति उनके कर्तव्य के विषय में , और उनकी अपनी मनुष्योचित गरिमा , उसकी संभाव्यता और उन्हें प्रकट करने के कर्तव्य के प्रति जागरूक होने में सहायता करना है।  ताकि वे भी उनके भीतर जो सर्वोत्कृष्ट गुण हैं उन्हें अपने आचरण में अभिव्यक्त करके वे वह 'बन सकें' (Become-ब्रह्मविद) जो वे वास्तव में हैं। इससे स्वामी जी के उपरोक्त आदर्श वाक्य में कहे गए 'Make' का तात्पर्य समझा जा सकता है। 
>>Mahamandal has chosen to translate this central teaching of Swami Vivekananda, 'Be and Make'  into practice         
       स्वामी विवेकानंद ने धर्म, समाजशास्त्र, राजनीति, इतिहास, शिक्षा, भौतिक वस्तुओं में छिपे सौन्दर्य को देखने की विद्या -एस्थेटिक्स (aesthetics-सौंदर्यशास्त्र)  इत्यादि जैसे कई विषयों पर बहुत कुछ बोला है। लेकिन बार-बार वे उसी एक सरल कर्त्तव्यनिर्देश प्रस्ताव (proposition) पर लौट आए हैं ,जिसका नाम है 'पहले मनुष्य बनो', पहले हमें ईश्वर (100 % निःस्वार्थी मनुष्य) बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनने में देंगे।  'बनो और बनाओ ' -यही तुम्हारा मूलमंत्र हो।"  उन्होंने बार बार यह आश्वासन दिया है कि, यदि ऐसा किया जा सके ; अर्थात यदि भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा ' की भावना में तीव्रता लायी जा सके, तो बाकी सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा ! 
       यही वह कार्य है जिसे महामंडल ने चुन लिया है। समाज के प्रति दूसरे अन्य कर्तव्यों और दायित्वों का पालन करने के लिए तो बहुत सारी संस्थायें हैं। ऐसे सभी कार्यों में विशेष धन व्यय करने की आवश्यकता रहती है। जबकि महामंडल के पास निवेश करने के लिए पूँजी के रूप में केवल ऊर्जा, (त्याग और सेवा की) भावना और कार्य करने का दृढ़ संकल्प है ! और महामण्डल ने इसी पूँजी का उपयोग करके स्वामी विवेकानन्द की इस मनुष्य निर्माणकारी मुख्य शिक्षा को अभ्यास में लाने के लिए, भारत के गाँव -गाँव , शहरों -शहरों में इसका प्रचार-प्रसार व्यक्तिगत रूप से और संगठित तरीके से करने का बीड़ा उठा लिया है ! 
========================

18.

'देश के युवाओं से क्या अपेक्षा की जाती है ? '

[What is Wanted ]

[>>The Mahamandal is a working device to practice  the teachings of Swami Vivekananda. स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का अभ्यास करने के लिए महामंडल एक कार्यशील उपकरण है।]
         इस बात को उच्च स्वर में और पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम स्वयं स्वामी विवेकानन्द के द्वारा ही निर्धारित किया गया है। महामण्डल किसी एक (चतुर सुजान) व्यक्ति या कुछ बुद्धिमान व्यक्तियों की कल्पना से उपजा हुआ संगठन नहीं है। महामण्डल एक ऐसी कार्य युक्ति (working device) है जो न केवल भारत की पतनोन्मुखी गति को रोकने, बल्कि उसे सम्पूर्ण रूप से पुनरुज्जीवित करने में सक्षम स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को कार्यरूप देने में लगी हुई है। स्वामी जी की यह तीव्र इच्छा थी,  कि भारत के सभी युवा आलस्य , निराशा , अवसाद और अपमानजनक विचारों को पीछे छोड़कर आगे आयें जो उनके अंग-प्रत्यंग को शक्तिहीन बना देती है, उनके कद को छोटा कर देता है और उनकी आत्मा को उत्साहहीन कर कर देता है।  
>>The Waking dream of Swami Vivekananda: (स्वामी विवेकानंद का जाग्रत स्वप्न) 
हमारे देश में बहुत लम्बे समय से, विशेषकर विगत लगभग एक हजार वर्षों से ऐसा  स्वामी विवेकानन्द अपनी ऋषि-दृष्टि से अतीत के इतिहास को, बनते हुए इतिहास को और उस इतिहास को भी देखने में सक्षम थे, जो अभी भविष्य के गर्भ में है, जिसे बनना अभी बाकी है! उन्होंने ने स्वयं कहा था कि वे 1500 वर्ष बाद घटित होते हुए इतिहास को भी देखने में समर्थ थे।उन्होंने सम्पूर्ण मानवजाति को पूर्णता के पथ पर अग्रसर होते हुए देखा था, और उन्होंने यह भी देखा था कि भारत पुनः उन्नत हो रहा है, भारत माता जाग उठी है ! और ये भारत के युवा ही हैं, जो उसे फिर प्रतिष्ठित करेंगे। 
[ध्यातव्य - आज 2022 में रूस-यूक्रेन, ताईवान , जापान-चाईना  युद्ध; ED के छापे के साथ पार्थ का युद्ध  और  भारत में निवास करने वाले विश्व के दो तिहाई युवा। भारत में युवाओं की  संख्या 80 करोड़ है, जिनकी  औसत आयु 29 वर्ष है।]
>>The Mahamandal came into being to do a little like the squirrels who helped Sri Ramachandra (Sri Ramakrishna) to build the bridge to Lanka from the main land.
       जिस प्रकार, छोटी-छोटी गिलहरीयों ने भी 'मुख्य भूमि' से श्रीलंका तक पहुँचने के लिये पुल का निर्माण करने में श्रीरामचन्द्र जी की सहायता की थी, ठीक उसी प्रकार महामण्डल भी भारत के पुनरुत्थान (स्वर्णयुग की स्थापना) में थोड़ी सी सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से अस्तित्व में आया है। जैसा स्वामी विवेकानन्द कहते थे, हम भारत के युवा अत्यन्त विनम्र लोग हैं, हमलोग साधारण मनुष्य हैं, किन्तु ये सामान्य लोग ही विश्व की सबसे शक्तिशाली प्राणियों का समूह हैं।  क्योंकि हम अपनी अन्तर्निहित अनन्त शक्ति में विश्वास करते हैं, और हम यह भी जानते हैं कि सभी प्रकार के भय (मृत्यु-भय) पर विजय कैसे प्राप्त किया जाता है ? महामण्डल यह भी जानता है कि युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के आह्वान पर पूर्णत्व प्राप्त की दिशा में , अन्तर्निहित दिव्यता (निःस्वार्थपरता) को अभिव्यक्त करने की दिशा में  कैसे आगे बढ़ा जाता है? 
>>We have a tendency ~ 'गंभीरता का अभाव'  nowadays to trifle with everything : 
          स्वामी विवेकानन्द की यह तीव्र इच्छा थी कि भारत के युवा मनुष्य बन जायें, और हम भारत के युवा 'मनुष्य' बनना चाहते हैं। यदि हमलोग भी भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं। तो हमें उन समस्त कारणों को अवश्य दूर करना चाहिये, जो हमारे वर्तमान अधःपतन के लिये उत्तरदायी है। और वे कारण क्या हैं ? कई कारणों में से एक  है, 'गंभीरता का अभाव '। स्वामी जी कहते हैं, "हमलोगों में आजकल यह प्रवृत्ति घर कर गयी है कि हमलोग हर बात को मजाक में उड़ा देना चाहते हैं, और किसी भी बात के महत्व को समझना नहीं चाहते।" हम लोग उस प्रत्येक परामर्श को बड़े हल्के ढंग से लेते हैं, जिसके आधार पर हमारे राष्ट्र का भविष्य निर्मित होने वाला है। हमलोग इस दुर्लभ मनुष्य जीवन के महत्व को समझना नहीं चाहते। हमलोग अपने आचरण, शिक्षा, अपने विचार और अन्य सभी जरुरी बातों को हल्के ढंग से ही लेते हैं। यही पहला कारण है जिसने देश को पतनोन्मुख बना दिया है। इसलिये हमे अब थोड़ी गंभीरता और विवेकशीलता का परिचय देना चाहिये। 
>>You can transcend your body and your mind; and that is sprituality. 
     किन्तु गंभीर होने का अर्थ यह नहीं है कि हमें हर समय अपना मुखड़ा लटकाये रखना होगा। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -'हर समय तुमलोग अपने चेहरे पर उदासी की परत मत चढ़ाये रहो। क्यों ? क्योंकि निरानन्द रहना तो तुम्हारा स्वभाव में है ही नहीं। तुम तो वीर हो ! असाधारण शक्तिसम्पन्न हो, बलशाली हो ,तुम तो 'भय-मुक्त' हो। दूसरों के कल्याण के लिए तुम अपना सब कुछ त्याग सकते हो ! तब तुम दूसरों की सेवा भी कर सकते हो। तुम इन्द्रिय विषयों को भोगने की लालसा पर विजय प्राप्त कर सकते हो। तुम इस जड़ शरीर और मन के परे जा सकते हो। देह और मन से ऊपर उठ जाना ही तो आध्यात्मिकता है! स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं को यही आध्यात्मिकता विरासत में सौंप देना चाहते थे! क्योंकि तभी वे भारत का कल्याण करने के योग्य बन सकेंगे। 
>>First of all deluge the country with spiritual ideas-`that a Man can transcend his body and his mind ! ' 
  इसीलिये तो उन्होंने कहा था, 'सबसे पहले इस देश को आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो !' किन्तु (स्वाधीनता प्राप्ति के बाद) हमलोगों ने सबसे पहले ठीक इसका उल्टा किया है। 
हमलोगों ने आध्यात्मिक सिद्धान्तों (चार महावाक्यों) और आध्यात्मिकता विकसित करने की प्रणाली-(चरित्रनिर्माण की पद्धति या 3H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति) को ही अलमारी में बन्द करके उस पर ताला लगा दिया है। भारत का कल्याण करने के लिए स्वामीजी के परामर्श के अनुसार, "भारत को सबसे पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित करने "  के बजाए हमने समाज के कल्याण के लिए कई  योजनाएं और कार्यक्रम तैयार किए हैं। हमें उन योजनाओं पर बहुत गर्व भी है कि हमने ऐसा (20 सूत्री, मनरेगा,food security bill, RTI आदि ) कर दिया है।  हम इन योजनाओं पर सैकड़ों और हजारों करोड़ रूपये प्रतिवर्ष खर्च करते हैं, फिर भी हम देखते हैं कि उसका लाभ भारत के करोड़ों निर्धन-गरीबों और दबे-कुचले आबादी तक नहीं पहुँच पाता है। वे भूख से मर जाते हैं,या उन्हें असह्य तकलीफ झेलनी पड़ती है। हमलोग स्वयं को शिक्षित तथा बुद्धिमान समझते हैं, लेकिन उन्हें (पार्थो चटर्जी जैसे राजनीतिज्ञों को) धोखा देने की अनुमति दे रखी है और हम लगातार ठगे जा रहे हैं। 
>>'Rejuvenate India by infusing it with spirituality' ( 'भारत को आध्यात्मिकता से आप्लावित करके पुनरुज्जीवित कर दो !)
क्योंकि हम देश की समस्याओं को उसके सही कारणों के परिप्रेक्ष्य में रख कर देखना नहीं जानते। हमें तो इसका एहसास भी नहीं होता, कि जिन आपदाओं को, दुःख-कष्टों को हम झेल रहे हैं, वह हमारी ही लापरवाही, हमलोगों की गंभीरता में कमी, जनसामान्य के लिये हमारे प्रेम में कमी, सर्वसाधारण के लिये हमारी त्याग की भावना में कमी, हमारे चरित्र में सेवापरायणता आदि के गुणों का अभाव, एवं हमारी घोर स्वार्थपरता के कारण है । सीधे शब्दों में कहें, तो हम लोग अपने (जड़) शरीर और मन के गुलाम बन गए हैं। हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से केवल शारीरिक सुख और आराम का भोग करना चाहते हैं।  स्वामी विवेकानन्द ने हमलोगों को देह और मन की इन सभी निम्न स्तर की तृष्णाओं से ऊपर उठ जाने का निर्देश दिया है। इनसे ऊपर उठ जाना आध्यात्मिकता (spirituality) है।  वे चाहते थे कि इस आध्यात्मिकता को भारतवर्ष में फिर से पुनरुज्जीवित कर दिया जाय। वे चाहते थे कि हम अपने दैनन्दिन जीवन में इस आध्यात्मिकता का अभ्यास करें। वे गीता-उपनिषद के महान विचारों को हल चलाने वालों, मछुआरों , गृहस्थों, श्रमिकों- समाज के सभी वर्गों तक पहुँचा देना चाहते थे। यही उनका उद्देश्य था और महामण्डल उसी उद्देश्य को कार्यरूप देने के क्षेत्र में कार्य करना चाहता है। 
          यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी (Task) है, एक बहुत बड़ा कार्य है, और हमें इस कार्य को अवश्य करना चाहिए। भारत के सभी युवाओं को इस कार्य को पूरा करने के लिये कमर कस कर खड़े हो जाना चाहिये। युवाओं (यविष्ठ) के आलावा और कौन इस जिम्मेवारी  (Task) को पूरा करने में समर्थ हो सकता है ? बुजुर्ग, दुर्बल, कमजोर या 'sleeping minds ' जिनका मन अभी तक सोया हुआ है, वे भी इस कार्य को नहीं कर सकते। भारत के सम्पूर्ण पुनरुत्थान के इस महान कार्य को सिर्फ वैसे भारतीय युवा ही पूर्ण कर सकते हैं, जिनके पास बलवान शरीर, उन्नत मन और एक विशाल हृदय है, जो ऊर्जा से भरपूर हैं, साथ ही जिनमें अनुशासन, गम्भीरता और प्रेम की भावना भी हैं। 'भारत को आध्यात्मिकता से आप्लावित करके पुनरुज्जीवित कर देना ' --युवाओं के करने योग्य यही सबसे महान कार्य है !
>>Two ways -of doing something. हंगामा करके या निःशब्द ?
        किसी भी कार्य को करने के दो तरीके हैं। एक है,'नाम-यश' पाने की इच्छा से काम को बड़े ताम-झाम के साथ आडम्बर-पूर्ण तरीके से, बड़ी-बड़ी योजनाओं के साथ, एक बहुत बड़ी राशि आदि खर्च करते हुए करना। और दूसरा तरीका है, यशगान सुनने या कुछ पाने की अपेक्षा रखे बिना कार्य को इतने सादगीपूर्ण तरीके से करना कि उस कार्य की तरफ लोगों का ध्यान भी न जाये। किसी बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के कार्य को हमलोग अपने दैनन्दिन जीवन के कार्यों को करते हुए, किसी छोटे संगठन के माध्यम से बहुत सादगी के साथ भी सम्पन्न कर सकते हैं । महामण्डल की कार्य-पद्धति भी यही है। भारत को पुनरुज्जीवित करने में समर्थ स्वामी विवेकानन्द के विचारों को अपने आचरण में रूपान्तरित कर लेना ही महामण्डल का लक्ष्य है। 
>>Mahamandal  has one merit- 'A fund of will ':   
     महामण्डल अपने लिए नाम या प्रसिद्धि नहीं चाहता, सम्पत्ति अर्जित नहीं करना चाहता, किसी के भी द्वारा अपना यशगान सुनने या प्रशंसा प्राप्त करने की कामना नहीं करता, या बड़ी धनराशि भी नहीं जुटाना चाहता है । महामण्डल की एक खूबी है- 'इच्छाशक्ति का संचित कोष'   हमारे कुछ युवा कर्मियों के 'दृढ़ संकल्पों का संचित कोष'। वे कोई गणमान्य व्यक्ति नहीं हैं, उनके पास बहुत बड़ी- बड़ी डिग्रियाँ भी नहीं हैं, वास्तव में वे बिल्कुल सामान्य लोग हैं। बस उनका केवल यह दृढ़ संकल्प है - " हम स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने आचरण में रूपायित करेंगे, हमलोग पूरे देश का सम्पूर्ण रूप से पुनरुत्थान करेंगे! " सबसे पहले हम पवित्र बनेंगे। हमारी साधनायें  पवित्र होंगी, हमारी योजनायें पवित्र होंगी , हमारा उद्देश्य पवित्र होगा, हमारी कार्यपद्धति पवित्र होगी। इसी पवित्रता को सम्बल बना कर हम आगे बढ़ेंगे और स्वामी विवेकानन्द विचारों (महावाक्यों) को आचरण में उतार कर पूरे भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करेंगे। यह महान कार्य हम कैसे करेंगे ? हमें बड़े कार्यक्रमों या विशाल प्रचार-तंत्र की जरूरत नहीं है, जिस पर आजकल लोग अधिक विश्वास करते हैं , और झट से आकर्षित हो जाते हैं। बल्कि यह कार्य देशवासियों के प्रति अटूट प्रेम, आदर्श और उद्देश्य के प्रति अटल विश्वास तथा इन्हें कार्यान्वित करने के दृढ़ संकल्प के द्वारा ही सम्पन्न हो सकता है। महामण्डल यही करने का प्रयास (55 वर्षों से) कर रहा है। 
>>The nation can be raised only by men of character.[राष्ट्र का उत्थान केवल चरित्रवान मनुष्यों के द्वारा ही हो सकता है।] 
    'हमारा यह महान देश विभिन्न कारणों से पतन की ओर अग्रसर है।' क्या हम इसको सहन कर सकते हैं ? क्या भारत के युवा ऐसा होने दे सकते हैं ? हम इसे रोक सकते हैं और कुछ ऐसा कर सकते हैं जो अधोपतन की प्रक्रिया को उल्टा घुमा दे। ऐसा हमलोग किस प्रकार कर सकते हैं?  हमलोग केवल अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करके, केवल अपने चरित्र का निर्माण करके ही इस कार्य को कर सकते हैं ! क्योंकि राष्ट्र का उत्थान केवल चरित्रवान मनुष्यों के द्वारा ही हो सकता है। यदि हमारे भीतर चरित्र की शक्ति है, तो हमारा जो भी संकल्प हो उसे हम अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। 
>>Character is the capacity to overcome all misery.  
              यह चरित्र क्या है ? यह विवेक पूर्वक निर्णय लेने, और उसे अमल में उतारने की  इच्छाशक्ति है। यह केवल अपने क्षुद्र-स्वार्थ को पूरा करने की इच्छाशक्ति नहीं, बल्कि सबों का कल्याण करने की इच्छाशक्ति है। जो हमें 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना से जोड़ती है, और हमें संसार के सभी मनुष्यों की मंगल कामना में विभोर रखती है। इसीको चरित्र कहते हैं। चरित्र वह वस्तु है जो दैहिक सुख-भोग की इच्छा, इन्द्रियों के तुष्टिकरण की इच्छा और कामना-वासना के आवेग पर विजय प्राप्त के लेने की क्षमता प्रदान करती है। यह है चरित्र। दूसरों के कल्याण के लिये स्वयं कष्ट उठाने की क्षमता को चरित्र कहते हैं। सभी प्रकार की दयनीयता (misery या अभाग्य) पर विजय प्राप्त कर लेने की क्षमता का नाम है-चरित्र।  ये कुछ ऐसी चीजें हैं, जिन्हें साथ-साथ मिलाकर चरित्र के नाम से जाना जाता है। चरित्रवान मनुष्य बनने का अर्थ इन सभी गुणों से विभूषित हो जाना है। चरित्रवान मनुष्य बनने का यही अर्थ होता है। 
     जब तक हम स्वयं इस तरह के चरित्रवान-मनुष्य नहीं बन जाते, तब तक क्या हम किसी भी समस्या को हल कर सकते हैं? क्या हम सचमुच दूसरों की मदद कर सकते हैं, क्या हम सचमुच समाज की सेवा कर सकते हैं ? नहीं, हम नहीं कर सकते। इसीलिये यदि हमलोग राष्ट्र के कल्याण के लिए कार्य करना चाहते हों, तो सबसे पहले हमें अपने चरित्र का निर्माण अवश्य करना चाहिये।
यदि हम अपना सुंदर चरित्र गढ़े बिना ही समाज-सेवा करने, गरीबों और अशिक्षितों की मदद करने जायेंगे, तो हमारे सभी प्रयास अन्ततोगत्वा व्यर्थ सिद्ध होंगे। क्योंकि यदि चरित्रहीन मनुष्य लोगों की सेवा करेंगे तो हो सकता है कि जिन अभावग्रस्त लोगों की सेवा करने वे गए हैं, उनका अभाव कुछ समय के लिए दूर हो जाये, या कुछ दिनों के लिये उनकी भूख शांत हो जाये, या हो सकता है कि उस गाँव के लोग समाचार-पत्र और पुस्तक पढ़ने में सक्षम हो जायें, या सामान्य पत्राचार करना भी सीख लें, किन्तु अन्ततः उन्हीं चरित्रहीन समाजसेवकों की भाँति- वे लोग स्वयं भी चरित्रहीन मनुष्य (पार्थो -इरफ़ान) ही बने रहेंगे। वे वहाँ भी उसी प्रकार का हर काम करेंगे जो समाज की भलाई के अनुकूल तो नहीं ही हों, बल्कि अशोभनीय भी हों। वे वहाँ भी ऐसी चीजों को उत्पन्न कर देंगे, जो समाज के लिए हानिकारक होगा।
          जनता का पैसा उड़ाया जा रहा है। रिश्वतखोरी का बोलबाला है। अधिकांश लोग यही चाहते हैं कि उसे कम काम करना पड़े, उसके ऊपर कोई उत्तरदायित्व न हो पर कमाई इतनी अधिक हो कि वह आराम से सुख-भोग करता रहे। जनसंचार माध्यम, साहित्य, शिक्षा - चाहे घर में हो या संस्थानों में, वे भी जिन्हें घर-समाज का अभिभावक समझा जाता है, सभी अपनी निम्नतर  वासनाओं को ही संतुष्ट करने में व्यस्त दिखाई देते हैं। समाज के नामी-गिरामी कहे जाने वाले व्यक्तियों के जीवन में लालच और लोभ को बढ़ता देखकर किशोरों, युवाओं में भी स्वार्थपरता की भावना बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति केवल हमारे देश में ही नहीं है। हर जगह की स्थिति ऐसी ही है।     
>>-We must 'learn to do more than paid for' 
      किन्तु, इस संधिबेला में  (इक्कीसवीं सदी में, पच्चीस साल बाद यानि  2047 तक   भारत विश्व का केन्द्र बनने जा रहा है) जब हमें एक विकसित राष्ट्र, हर क्षेत्र में समृद्ध भारत- 'एक भारत श्रेष्ठ भारत '  के रूप में अपनी पहचान बनानी है, , हम इस सर्वनाशी भोग-विलास को और बर्दाश्त नहीं कर सकते। जनसाधारण के चिरकालीन अज्ञान और दरिद्रता दूर करने के लिये, हमें भारत का पुनर्निर्माण युवाओं के चरित्र निर्माण की चट्टानी बुनियाद पर ही करना होगा। हमारे पास सही ढंग से सोच-विचार करने या विवेक-प्रयोग करने की क्षमता नहीं है। हमने वह क्षमता खो दी है। बस हम भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग रहे हैं, जिसका उल्लेख स्वामी विवेकानन्द ने अपनी सिंह -शावक की कथा में बार-बार किया था।  
     बेशर्म लोग कम विशेषाधिकार प्राप्त साधारण जनता की कीमत पर अपने क्षुद्र स्वार्थों, को पूरा करने में लगे हुए हैं। और साधारण जनता जिनके पास सही शिक्षा और समझ की कमी हैं, वे सोचते हैं- ये लोग उनकी मदद करने के लिये काम कर रहे हैं। वे अक्सर उन उन तथाकथित जनसेवकों का अनुसरण करते हैं और धीरे-धीरे अपने चरित्र को खो देते हैं , भ्रष्ट हो जाते हैं, यहाँ तक कि ऐसे युवा अपने काम करने की क्षमता भी खो देते हैं। हमारा देश तो कठोर परिश्रम करना ही भूल गया है। जबकि दूसरे देशों के लोग क्या कर रहे हैं ? यहाँ हमलोग सिर्फ दूसरे देशों के लोगों की प्रशंसा करने नहीं जा रहे हैं, किन्तु लगभग हर जगह के पश्चमी लोग अधिक कर्मशील (hardworking) लोग हैं। यह परिश्रमशीलता या कर्मठता हमें भी सीखनी होगी।अर्थात हमलोगों को भी जीवन के सफल होने के 16  नियमों में से एक नियम -We must 'learn to do more than paid for '-" भुगतान की तुलना में अधिक कार्य करना " सीखना होगा। 
          जैसे मानलो कि मैं किसी  फैक्ट्री में आठ घंटे काम करता हूँ, और प्रति दिन किसी उत्पाद के सात पीस बनाने का काम करता  हूँ, और मुझे एक निश्चित राशि के रूप में वेतन मिलता है। यदि मैं अपनी मिहनत से एक दिन में बारह पीस निकाल देता हूँ, तो मुझे बड़ा सन्तोष मिलता है। यदि मैं बारह पीस की बजाय चौदह पीस निकाल देता हूँ, तो मुझे अलग से प्रोत्साहन भत्ता (incentive bonus) भी मिलता है। किन्तु मुझे स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिये कि " क्या मैं पंद्रह या सोलह पीस नहीं निकाल सकता ? और अपने लिए तय की गई मासिक भुगतान के अतिरिक्त राशि बोनस के रूप में पाने के अपने दावे को क्या मैं नहीं छोड़ सकता ? हाँ, मैं यह कर सकता हूँ, और अवश्य करूंगा।
     हाँ , यह ठीक है कि मैं अपने काम से अपनी आजीविका कमाता हूँ। लेकिन मेरा देश भी मेरे सामने है। मैं अपने देश के कल्याण में भी अपना योगदान दे सकता हूँ। यह ठीक है कि मैं इस फैक्ट्री में काम करता हूँ, किन्तु जिन वस्तुओं का उत्पादन मैं करता हूँ, उससे मेरा देश भी तो समृद्ध बनता है। इस काम को करने से मेरी जितनी कमाई हो जाती है, उतना मेरे  परिवार के भरण-पोषण के लिए काफी है। उतना पर्याप्त है। किन्तु, यदि मैं अपनी मिहनत से एक दिन में पंद्रह पीस का उत्पादन करने में सक्षम हूँ, तो मुझे सिर्फ अपनी मजदूरी कमाने के लिए दस पीस बनाने के बाद उत्पादन-कार्य को रोक क्यों देना चाहिये ?
>>Capacity To work more than paid for ' - This Spiritual capacity can be used everywhere:और इस आध्यात्मिक-क्षमता का प्रयोग भारत -विकास के हर क्षेत्र में किया जा सकता है ! 
क्या मैं अपने श्रम के माध्यम से, अपने राष्ट्र के लिए कुछ योगदान नहीं कर सकता, भले इस शर्म के एक हिस्से के लिए मुझे अतिरिक्त राशि नहीं मिले ? मेरे देश के कई लोग बेरोजगार हैं, उन्हें भी पैसों की जरुरत है। मेरे द्वारा अतिरिक्त उत्पादन किये जाने से देश आय में कुछ वृद्धि अवश्य होगी, जिसे उनके लिए रोजगार पैदा करने हेतु वापस निवेश किया जा सकता है। क्या मैं अपनी परिस्थिति के साथ उन बेरोजगारों की परिस्थिति की तुलना नहीं कर सकता ? [अपने दिल से जानो दूसरों के दिल का हाल। ] इसी को तो आध्यात्मिक क्षमता कहते हैं ! और आध्यात्मिक क्षमता ( spiritual capacity) का प्रयोग हर जगह किया जा सकता है।  जैसे मान लो कि- मैं एक शिक्षक हूँ, और किसी स्कूल में चार घन्टे पढ़ाता हूँ, तो मुझे वेतन के रूप में एक निश्चित राशि प्राप्त होती है। अब यदि स्कूल में पढ़ाये जाने वाले विषय को सिलेबस के अनुसार चार घन्टे तक पढ़ा देने के बाद, यदि मैं छात्रों के साथ क्लास में एक घन्टा अधिक बैठकर उन्हें कुछ ऐसे उन्नत विचार बतलाने की चेष्टा करूँ जिससे वे अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर सकें, तो ऐसा करके मैं सचमुच अपने देश की सेवा में बहुत बड़ा योगदान दूँगा। 
या मान लो कि मैं किसी अस्पताल में डॉक्टर हूँ।  मैं जब अस्पताल जाता हूँ, तो मेरे काम के निश्चित घन्टे होते हैं। मान लो मैं रोजाना सौ लोगों का इलाज करता हूँ, जिसके लिए मुझे मेरा वेतन मिल रहा है। क्या मैं एक घन्टा और काम नहीं कर सकता और दस गरीब लोगों का इलाज नहीं कर सकता ? किन्तु हम लोग वैसा नहीं करते हैं।स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -  " जब तक करोड़ों अशिक्षित रहेंगे और भूखों मरते रहेंगे, तब तक मैं उस प्रत्येक आदमी को देशद्रोही (traitor) समझूंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, किन्तु उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता। "३/३४५  आज हमारे देश के अधिकांश शिक्षित लोग क्या इसी श्रेणी में नहीं आते ? 
         क्या आज का युवा शिक्षित होने के बाद भी एक देशद्रोही (traitor) बनना चाहेगा ?  स्वामी विवेकानन्द ने इस प्रकार की शिक्षा को व्यर्थ कहा था और इसे रोकने का आह्वान किया था।महामण्डल भी ऐसी शिक्षा पर अंकुश लगाना चाहता है। थोड़ा सा किताबी ज्ञान प्राप्त करते ही, हम लोग सोचने लगते हैं, कि 'मैं तो सचमुच में सुशिक्षित मनुष्य बन गया हूँ, मुझे असली शिक्षा प्राप्त हो चुकी है। किन्तु सच्ची शिक्षा की पहचान यह कि वह तुम्हारे ह्रदय को विस्तृत करेगी, तुम्हारे शरीर और मन को शक्तिशाली बना देगी!  
>>The Benediction: Become a serious and hard-working, heart-whole man.
        अपने देश से प्यार करो, अपने देशवासियों को प्यार करो। अपने भाइयों से प्यार करो, देशवासियों की रगों में बह रहे अपने ही खून प्रेम करो। स्पष्ट रूप से विवेक-विचार करो, कठोर परिश्रम करो। मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो ! अपने मन को नियंत्रित करने की तकनीक  (trick) को सीख लो। राष्ट्र की मूल समस्या पर , और अपने जीवन की छोटी छोटी समस्याओं पर अपने मन को एकाग्र करो। उन समस्याओं के मूल कारण  को ढूंढ़ निकालो, और दृढ़ निश्चय तथा दृढ़ संकल्प के साथ उसका समाधान करो , और एक गंभीर, परिश्रमी तथा किसी प्रकार की आसक्ति से आजाद (दिलबस्तगी से आजाद) एक 'heart-whole man ' पूर्णहृदयवान मनुष्य (100 %निःस्वार्थी) बन जाओ ! देशवासियों के विषय में सोचो और अपने देश को उन्नत करो। स्वामी विवेकानन्द भारत के युवकों से यही चाहते थे, और विवेकानन्द युवा महामण्डल भी यही अपेक्षा रखता है। स्वामी विवेकानन्द का जो आदर्श और उद्देश्य है ,हमलोग उसी आदर्श और उद्देश्य को अपने आचरण में रूपायित करना चाहते हैं।और हमें इस कार्य को अवश्य करना चाहिये। 
======================== 
[For Origional English book see -  'A NEW YOUTH MOVEMENT' (DESIGNED BY SWAMI VIVEKANANDA) Mahamandal Blog Wednesday, 4 July 2018]
===================