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मंगलवार, 11 मई 2021

$$$$$ परिच्छेद ~ 29, [(8अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] No feeling of 'my-ness' toward the body * ईश्वर ही एकमात्र कर्ता हैं और सब उनके यंत्र हैं * प्रेम के दो लक्षण हैं । पहला, संसार भूल जाता है,दूसरा 'देहाध्यास' समूल नष्ट हो जाता है । । I do as He does through me.*नाम में रुचि होनी चाहिए, यदि अरुचि हो गयी तो फिर बचने की राह नहीं रह जाती * ‘अनुरागरूपी बाघ’*साधुसंग तथा प्रार्थना-वास्तव में दरिद्र कौन है ?* ईश्वर दर्शन क्यों नहीं होते? – अहंभाव के कारण । (Free will-संकल्प स्वातंत्र्य सिद्धांत)*सिद्धों की दृष्टि में ‘ईश्वर ही कर्ता है’* *भावग्राही जनार्दनः भगवान् मन देखते हैं *

[(8 अप्रैल 1883)परिच्छेद ~ २९, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत {श्री महेन्द्रनाथ गुप्त (बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]  

*परिच्छेद २९*

*दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ* 

(१)

*मणिलाल और काशीदर्शन*

चलो भाई, आज फिर भगवान् श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने दक्षिणेश्वर मन्दिर चलें । देखें, किस तरह वे भक्तों के साथ आनन्दविलास कर रहे हैं, और किस तरह सदा ईश्वरी भाव में मस्त होकर समाधिमग्न हो रहे हैं । हम देखेंगे, कभी वे समाधिमग्न हैं, कभी कीर्तन के आनन्द में मतवाले बने हुए हैं, तो कभी प्राकृत मनुष्यों की तरह भक्तों से वार्तालाप करते हैं । मुख में ईश्वरी प्रसंग के सिवा दूसरा विषय ही नहीं। मन सदा अन्तर्मुख है । 

हर एक श्वास के साथ माँ का नाम जप रहे हैं । व्यवहार पाँच वर्ष के बालक की तरह है । अभिमान कहीं छू तक नहीं गया है । किसी विषय में आसक्ति नहीं, सदानन्द, सरल और उदार स्वभाव हैं । “ईश्वर ही सत्य है, और सब अनित्य, दो दिन का ।” – यही एक वाणी है । चलो, उस प्रेमोन्मत्त बालक को देखने चलें । वे महायोगी हैं । अनन्त सागर के किनारे एकाकी विचरण कर रहे हैं । उस अनन्त सच्चिदानन्द सागर में मानो कुछ देख रहे हैं और देखकर प्रेमोन्मत्त बने घूम रहे हैं ।

आज चैत्र की शुक्ला प्रतिपदा है । रविवार, 8 अप्रैल 1883 । कल शनिवार को अमावस्या थी । श्रीरामकृष्ण कल बलराम बाबू के घर गए थे । अमानिशा के घोर अन्धकार में महाकाली एकाकी महाकाल के साथ लीलाविलास करती हैं । इसीलिए श्रीरामकृष्ण अमावस्या के दिन स्थिर नहीं रह पाते। बालकों की-सी स्थिति है। जो दिनरात निरन्तर माँ के दर्शन कर रहा हो, माँ के बिना जो क्षण भर रह नहीं सकता, वह बालक ही तो है।

प्रातःकाल का समय है । श्रीरामकृष्ण बच्चे की तरह बैठे हुए हैं । पास ही बालक भक्त राखाल बैठे हुए हैं । मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण के भतीजे रामलाल भी हैं । किशोरी तथा और भी कुछ भक्त आ गये ! थोड़ी देर में पुराने ब्राह्मभक्त श्री मणिलाल मल्लिक भी आए और भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

मणिलाल काशी गए थे । व्यवसायी आदमी है काशी में उनकी कोठी है ।

श्रीरामकृष्ण — হ্যাঁগা, কাশীতে গেলে, কিছু সাধু-টাধু দেখলে? ---क्यों जी, काशी गए थे, कुछ साधु-महात्मा भी देखे ?

मणिलाल- जी हाँ, त्रैलंगस्वामी, भास्करानन्द, इन सब को देखने गया था । 

श्रीरामकृष्ण- कहो, इन सब को कैसे देखा ?

मणिलाल- त्रैलंगस्वामी उसी ठाकुरबाड़ी में हैं, मणिकर्णिका घाट पर वेणीमाधव के पास लोग कहते हैं, पहले उनकी बड़ी ऊँची अवस्था थी । बड़े बड़े चमत्कार दिखला सकते थे । अब बहुत-कुछ घट गया है।

श्रीरामकृष्ण- यह सब विषयी लोगों की निन्दा है । 

मणिलाल- भास्करानन्द सब से मिलते जुलते हैं, वे त्रैलंगस्वामी की तरह नहीं हैं कि एकदम बोलना ही बन्द ।

श्रीरामकृष्ण- भास्करानन्द से तुम्हारी कोई बातचीत हुई ?

मणिलाल- जी हाँ, बहुत बातें हुई । उनसे पापपुण्य की भी बात चली थी । उन्होंने कहा, पापमार्ग का त्याग करना, पाप की चिन्ता न करना, ईश्वर यही सब चाहते हैं । जिन कामों के करने से पुण्य होता है, उन्हीं कामों को करना चाहिए ।

[परिच्छेद-29 ( 8अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*सिद्धों की दृष्टि में ‘ईश्वर ही कर्ता है और सब उनके यंत्र हैं' * 

(Free will-संकल्प स्वातंत्र्य सिद्धांत)  

श्रीरामकृष्ण- हाँ, यह एक तरह की बात है । - ऐहिक इच्छाएँ रखनेवालों के लिए । परन्तु जिनमें चैतन्य का उदय हुआ है, जिन्हें यह बोध हो गया है कि ईश्वर ही सत्य है, और सब असत्, अनित्य, उनका भाव एक दूसरी तरह का होता है । वे जानते हैं कि ईश्वर ही एकमात्र कर्ता हैं और सब उनके यंत्र हैं । 

उनके पैर बेताल नहीं पड़ते । उन्हें हिसाब-किताब करके पाप का त्याग नहीं करना पड़ता । ईश्वर पर उनका इतना अनुराग होता है कि जो कर्म वे करते हैं, वही सत्कर्म हो जाता है ! परन्तु वे जानते हैं कि इन सब कर्मों का कर्ता मैं नहीं हूँ; मैं तो उनका दास हूँ । मैं यन्त्र हूँ, वे यंत्री हैं । वे जैसा कराते हैं, वैसा ही करता हूँ; जैसा कहलाते हैं, वैसा ही कहता हूँ; जैसा चलाते हैं, वैसा ही चलता हूँ ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ ও একরকম আছে, ঐহিকদের জন্য। যাদের চৈতন্য হয়েছে, যাদের ঈশ্বর সৎ আর-সব অসৎ অনিত্য বলে বোধ হয়ে গেছে, তাদের আর-একরকম ভাব। তারা জানে যে, ঈশ্বরই একমাত্র কর্তা, আর সব অকর্তা। যাদের চৈতন্য হয়েছে তাদের বেতালে পা পড়ে না, হিসাব করে পাপ ত্যাগ করতে হয় না, ঈশ্বরের উপর এত ভালবাসা যে, যে-কর্ম তারা করে সেই কর্মই সৎকর্ম! কিন্তু তারা জানে, এ-কর্মের কর্তা আমি নই, আমি ঈশ্বরের দাস। আমি যন্ত্র, তিনি যন্ত্রী। তিনি যেমন করান, তেমনি করি, যেমন বলান তেমনি বলি, তিনি যেমন চালান, তেমনি চলি।

"{ But those whose spiritual consciousness has been awakened, who have realized that God alone is real and all else illusory, cherish a different ideal. They are aware that God alone is the Doer and others are His instruments.} 

Those whose spiritual consciousness has been awakened never make a false step. They do not have to reason in order to shun evil. They are so full of love of God that whatever action they undertake is a good action. They are fully conscious that they are not the doers of their actions, but mere servants of God. They always feel: 'I am the machine and He is the Operator. I do as He does through me. I speak as He speaks through me. I move as He moves me.'

[परिच्छेद-29 ( 8अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*आध्यात्मिक चेतना जाग्रत होने से दृष्टि परिवर्तित *

[Awakening of spiritual consciousness- Sight changed] 

“जिन्हें चैतन्य हुआ है, वे पापपुण्य के पार चले गए हैं । वे देखते हैं, ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं । कहीं एक मठ था । मठ के साधु-महात्मा रोज भिक्षा के लिए जाया करते थे । एक दिन एक साधु ने देखा कि एक जमींदार किसी किसान को पीट रहा है । साधु बड़े दयालु थे । बीच में पड़कर उन्होंने जमींदार को मारने से मना किया । जमींदार उस समय मारे गुस्से के आगबबूला हो रहा था । उसने दिल का सारा बुखार महात्माजी पर ही उतारा; उन्हें इतना पीटा कि वे बड़े देर तक बेहोश पड़े रहे । 

किसी ने मठ में जाकर खबर दी कि तुम्हारे किसी साधु को जमींदार ने बहुत मारा । मठ के साधु दौड़ते हुए आए और देखा तो वे साधु बेहोश पड़े हैं । तब उन्होंने उन्हें उठाकर मठ में लाया और एक कमरे में सुला दिया। साधु बेहोश थे, चारों ओर से लोग उन्हें घेरे दुःखित भाव से बैठे थे । कोई कोई पंखा झल रहे थे । एक ने कहा ‘मुँह में जरा दूध डालकर तो देखो ।’ मुँह में दूध डालने पर उन्हें होश आया । आँखें खोलकर ताकने लगे । किसी ने कहा, ‘अब यह देखना चाहिए कि इन्हें इतना ज्ञान है या नहीं कि आदमी पहचान सकें ।’ यह कहकर उसने ऊँची आवाज लगाकर पूछा ‘क्यों महाराज, आपको दूध कौन पिला रहा है?’ साधु ने धीमे स्वर में कहा, ‘भाई ! जिसने मुझे मारा था वही अब दूध पिला रहा है ।’

“ईश्वर को बिना जाने ऐसी अवस्था नहीं होती ।”

{"But one does not attain such a state of mind without the realization of God."

मणिलाल- जी हाँ, पर आपने यह जो कहा यह ऊँची अवस्था की बात है । भास्करानन्द के साथ ऐसी ही कुछ बातें हुई थीं ।

श्रीरामकृष्ण- वे किसी मकान में रहते हैं ?

मणिलाल- जी हाँ, एक आदमी के मकान में रहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण- उम्र क्या है ?

मणिलाल- पचपन की होगी ।

श्रीरामकृष्ण- कुछ और भी बातें हुई ?

मणिलाल- मैंने पूछा, भक्ति कैसे हो ? उन्होंने बतलाया, नाम जपो, राम राम कहो ।

श्रीरामकृष्ण- यह बड़ी अच्छी बात हैं ।

(२) 

*गृहस्थ और कर्मयोग* 

मन्दिर में भवतारिणी, राधाकान्त और द्वादश शिवों की पूजा समाप्त हो गयी । अब उनकी भोगारती के बाजे बज रहे हैं । चैत का महीना, दोपहर का समय है । अभी अभी ज्वार का चढ़ना आरम्भ हुआ है । दक्षिण की ओर से बड़े जोरों की हवा चल रही है । पूत सलिला भागीरथी अभी अभी उत्तरवाहिनी हुई हैं। श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद कमरे में विश्राम कर रहे हैं । 

राखाल बसीरहाट में रहते हैं । वहाँ गर्मी के दिनों में पानी के अभाव से लोगों को बड़ा कष्ट होता है । 

श्रीरामकृष्ण (मणिलाल से)- देखो, राखाल कहता था, उसके देश में (Basirhat, Rakhal's birth-place में ) लोगों को पानी बिना बड़ा कष्ट होता है । तुम वहाँ एक तालाब क्यों नहीं खुदवा देते? इससे लोगों का कितना उपकार होगा ! (हँसते हुए) तुम्हारे पास तो बहुत रूपये हैं, इतने रूपये रखकर क्या करोगे? वैसे सुना है, तेली (सुंडी) लोग बड़े हिसाबी होते हैं । (श्रीरामकृष्ण के साथ दूसरे भक्त भी हँस पड़े) । 

मणिलाल कलकत्ते की सिंदूरियापट्टी  में रहते हैं । सिंदूरियापट्टी के ब्राह्मसमाज का अधिवेशन उन्हीं के यहाँ होता है । ब्राह्मसमाज के वार्षिक उत्सव में वे बहुत से लोगों को आमन्त्रित करते हैं । श्रीरामकृष्ण को भी आमन्त्रण देते हैं । वराहनगर में मणिलाल का एक बगीचा है । वहाँ वे बहुधा अकेले आया करते हैं और उस समय श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर जाया करते हैं । वे सचमुच बड़े हिसाबी हैं । 

रास्ते भर के लिए किराये की गाड़ी नहीं करते । पहले ट्राम में चढ़कर शोभाबाजार तक आते हैं; फिर वहाँ से कुछ आदमियों के साथ हिस्से में किराया देकर घोड़ागाड़ी पर चढ़कर वराहनगर आते हैं । परन्तु रूपये की कमी नहीं है । कुछ साल बाद गरीब विद्यार्थियों के लिए उन्होंने एक ही किश्त में पचीस हजार रुपये देने का बन्दोबस्त कर दिया था । 

मणिलाल चुप बैठे रहे । कुछ देर इधर उधर की बातें करके बोले, “महाराज ! आप तालाब खुदवाने की बात कह रहे थे । उतना कहने ही से काम हो जाता, ऊपर से तेली-तमोली कहने की क्या जरूरत थी?श्रीरामकृष्ण मुस्कुरा रहे हैं; कोई कोई भक्त मुख दबाकर हँस भी रहे हैं । 

(३) 

[परिच्छेद-29 ( 8अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

* प्रेम -तत्त्व (Love element) * 

*प्रेम के दो लक्षण-देहाध्यास और कामिनी कांचन में आसक्ति समूल नष्ट 

कुछ देर बाद कलकत्ते से कुछ पुराने ब्राह्मभक्त आ पहुँचे । उनमें एक श्री ठाकुरदास सेन भी थे । कमरे में कितने ही भक्तों का समागम हुआ है । श्रीरामकृष्ण अपने छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । सहास्यवदन, बालक की-सी मूर्ति, उत्तरास्य होकर बैठे हैं । ब्राह्मभक्तों के साथ आनन्द से वार्तालाप कर रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण (ब्राह्म तथा दूसरे भक्तों से)- तुम लोग ‘प्रेम, प्रेम’, चिल्लाते हो, पर प्रेम को क्या ऐसी साधारण वस्तु समझ लिया है ? प्रेम तो चैतन्यदेव को हुआ था । प्रेम के दो लक्षण हैं । पहला, संसार भूल जाता है । ईश्वर पर इतना प्यार होता है कि संसार का कोई ज्ञान ही नहीं रह जाता । चैतन्यदेव वन देखकर वृन्दावन सोचते थे और समुद्र देखकर यमुना सोचते थे । दूसरा लक्षण यह है कि अपनी देह जो इतनी प्यारी वस्तु है, उस पर भी ममता नहीं रह जाती । देहात्मबोध  (देहाध्यास) समूल नष्ट हो जाता है।

{শ্রীরামকৃষ্ণ (ব্রাহ্ম ও অন্যান্য ভক্তদের প্রতি) — তোমরা ‘প্যাম’ ‘প্যাম’ কর; কিন্তু প্রেম কি সামান্য জিনিস গা? চৈতন্যদেবের ‘প্রেম’ হয়েছিল। প্রেমের দুটি লক্ষণ। প্রথম — জগৎ ভুল হয়ে যাবে। এত ঈশ্বরেতে ভালবাসা যে বাহ্যশূন্য! চৈতন্যদেব “বন দেখে বৃন্দাবন ভাবে, সমুদ্র দেখে শ্রীযমুনা ভাবে।”

“দ্বিতীয় লক্ষণ — নিজের দেহ যে এত প্রিয় জিনিস, এর উপরও মমতা থাকবে না, দেহাত্মবোধ একেবারে চলে যাবে।

"You talk glibly about prema. But is it such a commonplace thing? There are two characteristics of prema. First, it makes one forget the world. So intense is one's love of God that one becomes unconscious of outer things. Chaitanya had this ecstatic love; he 'took a wood for the sacred grove of Vrindavan and the ocean for the dark waters of the Jamuna'. Second, one has no feeling of 'my-ness' toward the body, which is so dear to man. One wholly gets rid of the feeling that the body is the soul.

[परिच्छेद-29 ( 8अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*अनुराग ( longing for God ) और उसके ऐश्वर्य क्या क्या है * 

“ईश्वरप्राप्ति के कुछ लक्षण हैं । जिस व्यक्ति में 'अनुराग ' अर्थात ईश्वर (परम् सत्य) को देखने की व्याकुलता ( longing for God) अपना ऐश्वर्य प्रकट करती है, उसके लिए ईश्वरप्राप्ति में अधिक देर नहीं है । 

[যার ভিতর অনুরাগের ঐশ্বর্য প্রকাশ হচ্ছে তার ঈশ্বরলাভের আর দেরি নাই।The man in whom longing for God manifests its glories is not far from attaining Him.

“अनुराग के ऐश्वर्य क्या हैं, सुनोगे ? विवेक, वैराग्य, जीवों पर दया, साधुसेवा, साधुसंग, ईश्वर का नाम-गुणकीर्तन, सत्यवचन, यह सब । 

[“ঈশ্বরলাভের কতকগুলি লক্ষণ আছে। যার ভিতর অনুরাগের ঐশ্বর্য প্রকাশ হচ্ছে তার ঈশ্বরলাভের আর দেরি নাই। “অনুরাগের ঐশ্বর্য কি কি? বিবেক, বৈরাগ্য, জীবে দয়া সাধুসেবা, সাধুসঙ্গ, ঈশ্বরের নামগুণকীর্তন, সত্যকথা — এই সব।

"There are certain signs of God-realization. The man in whom longing for God manifests its glories is not far from attaining Him. What are the glories of that longing? They are discrimination, dispassion, compassion for living beings, serving holy men, loving their company, chanting the name and glories of God, telling the truth, and the like. When you see those signs of longing in an aspirant, you can rightly say that for him the vision of God is not far to seek.

“अनुराग के ये सब लक्षण देखने पर ठीक ठीक कहा जा सकता है कि ईश्वरप्राप्ति में अब बहुत देर नहीं है । यदि मालिक का किसी नौकर के घर जाना ठीक हो जाए तो नौकर के घर की दशा देखकर यह बात समझ में आ जाती है । पहले घासफूस की कटाई होती है, घर का जाला झाड़ा जाता है, घर बुहारा जाता है । बाबू खुद अपने यहाँ से दरी, हुक्का वगैरह भेज देते हैं । यह सब सामान जब उसके घर आने लगता है, तब लोगों के समझने में कुछ बाकी नहीं रहता कि अब बाबूजी आना ही चाहते हैं ।” 

[“এই সকল অনুরাগের লক্ষণ দেখলে ঠিক বলতে পারা যায়, ঈশ্বর দর্শনের আর দেরি নাই। বাবু কোন খানসামার বাড়ি যাবেন, এরূপ যদি ঠিক হয়ে থাকে, খানসামার বাড়ির অবস্থা দেখে ঠিক বুঝতে পারা যায়! প্রথমে বন-জঙ্গল কাটা হয়, ঝুলঝাড়া হয়; ঝাঁটপাট দেওয়া হয়। বাবু নিজেই সতরঞ্চি, গুড়গুড়ি এই সব পাঁচরকম জিনিস পাঠিয়ে দেন। এই সব আসতে দেখলেই লোকের বুঝতে বাকি থাকে না, বাবু এসে পড়লেন বলে।”

"The state of a servant's house will tell you unmistakably whether his master has decided to visit it. First, the rubbish and jungle around the house are cleared up. Second, the soot and dirt are removed from the rooms. Third, the courtyard, floors, and other places are swept clean. Finally the master himself sends various things to the house, such as a carpet, a hubble-bubble for smoking, and the like. When you see these things arriving, you conclude that the master will very soon come."

[परिच्छेद-29 ( 8अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*भक्ति मार्ग में विवेक-प्रयोग (discretion) स्वतः होता है * 

[Discretion : the Art of suiting the action to particular circumstances. "विशेष परिस्थितियों में उचित- अनुचित बोधपूर्वक कार्रवाई करने का कौशल।भक्तिमार्ग से अन्तरिन्द्रिय-निग्रह (inner organs control )आप ही आप हो जाता है और सहज ही हो जाता है।] 

एक भक्त- क्या पहले विवेक-विचार करके इन्द्रियनिग्रह करना चाहिए ? 

[একজন ভক্ত — আজ্ঞে, আগে বিচার করে কি ইন্দ্রিয়নিগ্রহ করতে হয়? "Sir, should one first practise discrimination to attain self-control?"

श्रीरामकृष्ण- वह भी एक रास्ता है-विचारमार्ग (विवेक-प्रयोग, मनःसंयोग ) । लेकिन भक्तिमार्ग से अन्तरिन्द्रिय-निग्रह [मन-(Mind (manas), बुद्धि - intelligence (buddhi), चित्त ( mind-stuff chitta)और अहंकार -ego (ahamkara) का निग्रह]  आप ही आप हो जाता है और सहज ही हो जाता है। ईश्वर पर प्यार जितना ही बढ़ता जाता है, उतना ही इन्द्रियसुख अलोना मालुम पड़ता है।

“जिस रोज लड़का मर जाता है उस रोज क्या स्त्री-पुरुष का मन देहसुख की ओर जा सकता है ?” 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ও এক পথ আছে। বিচারপথ। ভক্তিপথেও অন্তরিন্দ্রিয় নিগ্রহ আপনি হয়। আর সহজে হয়। ঈশ্বরের উপর যত ভালবাসা আসবে, ততই ইন্দ্রিয়সুখ আলুনী লাগবে। “যেদিন সন্তান মারা গেছে, সেই শোকের উপর স্ত্রী-পুরুষের দেহ-সুখের দিকে কি মন থাকতে পারে?”

"That is also a path. It is called the path of vichara, reasoning. But the inner organs (Mind (manas), intelligence (buddhi), mind-stuff (chitta), and ego (ahamkara). are brought under control naturally through the path of devotion as well. It is rather easily accomplished that way. Sense pleasures appear more and more tasteless as love for God grows. Can carnal pleasure attract a grief-stricken man and woman the day their child has died?"

एक भक्त- उन्हें प्यार कर कहाँ सकते हैं ?

[परिच्छेद-29 ( 8अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*नाम महात्म्य-उपाय नाम-बीज का श्रवण-मनन -निदिध्यासन  * 

श्रीरामकृष्ण- उनका नाम लेते रहने से सब पाप कट जाते हैं । काम, क्रोध, शरीर सुख की इच्छा, ये सब दूर हो जाते हैं ।

एक भक्त- उनके नाम में रुचि नहीं होती ।

श्रीरामकृष्ण- व्याकुल होकर उनसे प्रार्थना करो जिससे उनके नाम में रुचि हो । वे ही तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे ।

यह कहकर श्रीरामकृष्ण देवदुर्लभ कण्ठ से गाने लगे । जीवों के दुःख से कातर होकर माँ से अपने हृदय का दुःख कह रहे हैं । अपने पर प्राकृत जीवों की अवस्था का आरोप करके माँ को जीवों का दुःख गाकर सुना रहे हैं :- 



दोष कारो नोय गो मा, आमि स्वखात सलिले डूबे मरि श्यामा। 

षड रिपू (धर्म-अधर्म) होलो कोदण्ड -स्वरुप, पुण्यक्षेत्र माझे काटिलाम कूप,

से कूपे बेड़ीलो कालरुप जल, काल- मनोरमा।।

आमार कि होबे तारिणी, त्रिगुणधारिणी --विगुण कोरेछे स्वगुणे,

किशे ए-बारि निबारि, भेबे दाशरथीर अनिवार बारि नयने। 

छिलो बारि कक्षे, क्रमे एलो बक्षे, जीवने जीवन केमोने होय मा रक्षे,

आछि तोर अपिक्षे, दे मा मुक्तिभिक्षे, कटाक्षेते कोरे पार।।

দোষ কারু নয় গো মা, আমি স্বখাত সলিলে ডুবে মরি শ্যামা ৷

ষড়রিপু হল কোদণ্ডস্বরূপ, পুণ্যক্ষেত্র মাঝে কাটিলাম কূপ,

সে কূপে বেড়িল কালরূপ জল, কাল-মনোরমা ৷৷

আমার কি হবে তারিণী, ত্রিগুণধারিণী — বিগুণ করেছে স্বগুণে,

কিসে এ-বারি নিবারি, ভেবে দাশরথির অনিবার বারি নয়নে ৷

ছিল বারি কক্ষে, ক্রমে এল বক্ষে, জীবনে জীবন কেমনে হয় মা রক্ষে,

আছি তোর অপিক্ষে, দে মা মুক্তিভিক্ষে, কটাক্ষেতে করে পার ৷৷

 गीत का आशय यह है-माँ श्यामा ! दोष किसी का नहीं, मैं अपने ही हाथों से खोदे हुए कुएँ के पानी में डूब रहा हूँ । माँ कालमनोरमा, षडरिपुओं की कुदाल लेकर, मैंने पुण्यक्षेत्र पर कूप खोदा, जिसमें अब कालरूपी पानी बढ़ रहा है । तारिणी, त्रिगुणधारिणी माँ, मेरे ही गुणों ने विगुण कर दिया है, अब मेरी क्या दशा होगी? इस वारि का निवारण कैसे करूँ यह सोचते हुए ‘दाशरथि’ की आँखों से निरन्तर वारिधारा बह रही है । पहले पानी कमर तक था, वहाँ से छाती तक आया । इस पानी में मेरे जीवन की रक्षा कैसे होगी? माँ, मुझे तेरी ही अपेक्षा है । मुझे तू मुक्तिभिक्षा दे, कृपाकटाक्ष करके पार कर दे ।” 

फिर गाने लगे :-

ए कि बिकार शंकरी, कृपा- चरणतरी पेले धन्वंतरी ! 

अनित्य गौरव होलो अंगदाह,‘आमार आमार’ ए कि होलो पाप मोह; 

(ताय) धनजनतृष्णा ना होय विरह, किशे जीवन धोरि।।

अनित्य आलाप,  कि पाप प्रलाप, सतत सर्वमंगले; 

माया-काकनिद्रा ताहे दाशरथीर नयन यूगले;

हिंसारुप ताई शे उदरे कृमि, मिछे काजे भ्रमि, शेई होय भ्रमि,  

रोगे बाँचि कि ना बाँचि तन्नामे अरुचि, दिबा शर्वरि।।

এ কি বিকার শঙ্করী, কৃপা-চরণতরী পেলে ধন্বন্তরি!

অনিত্য গৌরব হল অঙ্গদাহ, আমার আমার একি হল পাপ মোহ;

(তায়) ধনজনতৃষ্ণা না হয় বিরহ, কিসে জীবন ধরি ৷৷

অনিত্য আলাপ, কি পাপ প্রলাপ, সতত সর্বমঙ্গলে;

মায়া-কাকনিদ্রা তাহে দাশরথির নয়নযুগলে;

হিংসারূপ তাহে সে উদরে কৃমি, মিছে কাজে ভ্রমি, সেই হয় ভ্রমি,

রোগে বাঁচি কি না বাঁচি ত্বন্নামে অরুচি দিবা শর্বরী ৷৷ 

उनके नाम पर रुचि होने से जीवों का विकार दूर हो जाता है- इसी भाव का गीत है

(भावार्थ)- “हे शंकरि यह कैसा विकार है?  तुम्हारी कृपा औषधि मिलने पर ही यह दूर होगा । मिथ्या गर्व से मेरा सर्वांग जल रहा है । मुझे यह कैसा मोह हो गया है ! धन-जन की तृष्णा छूटती ही नहीं, अब मैं कैसे जीवित रह सकता हूँ? सर्वमंगले, जो कुछ कहता हूँ सब अनित्य प्रलाप है । आँखों से माया की नींद किसी तरह नहीं छूटती । पेट में हिंसा की कृमि हो गयी है । व्यर्थ कामों में घूमते रहने का भ्रमरोग हो गया है । जब तुम्हारे नाम ही पर अरुचि है, तब भला इस रोग से मैं कैसे बच सकूँगा ?”

श्रीरामकृष्ण- उनके नाम में अरुचि । रोग (typhoid, मियादी बुखार) में यदि अरुचि हो गयी तो फिर बचने की राह नहीं रह जाती । ( A typhoid patient has very little chance of recovery if he loses all taste for food.) यदि जरा भी रुचि हो तो बचने की बहुत-कुछ आशा है । इसीलिए नाम में रुचि होनी चाहिए । ईश्वर का नाम लेना चाहिए-दुर्गानाम, कृष्णनाम, शिवनाम, चाहे जिस नाम से पुकारो । यदि नाम लेने में दिनदिन अनुराग बढ़ता जाय, आनन्द हो तो फिर कोई भय नहीं, - विकार दूर होगा ही, उनकी कृपा अवश्य होगी । 

[परिच्छेद-29 ( 8अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू,सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥*

(As is a man's feeling of love, so is his gain. जेमोन भाव तेमोनी लाभ )

[जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है वह तो उसे मिलता ही है* आन्तरिक भक्ति तथा दिखावटी भक्ति। भगवान् मन के भाव देखते हैं ।]

“जैसा भाव होता है लाभ भी वैसा ही होता है । रास्ते से दो मित्र जा रहे थे । एक जगह भागवत पाठ चल रहा था । एक मित्र ने कहा, “आओ भाई, जरा भागवत सुने । दूसरे ने जरा झाँककर देखा । फिर वहाँ से वेश्या के घर चला गया । वहाँ कुछ देर बाद उसके मन में बड़ी विरक्ति हो आयी । वह आप ही आप कहने लगा, ‘मुझे धिक्कार है ! मेरा मित्र तो भागवत सुन रहा है और मैं यहाँ कहाँ पड़ा हूँ !’ इधर जो व्यक्ति भागवत सुन रहा था वह भी अपने मन को धिक्कार रहा था । वह कह रहा था, मैं कैसा मूर्ख हूँ ! यह पण्डित न जाने क्या बक रहा है और मैं यहाँ बैठा हुआ हूँ ! मेरा मित्र वहाँ कैसे आनन्द में होगा !’ जब ये दोनों मरे तब जो भागवत सुन रहा था, उसे तो यमदूत ले गए और जो वेश्या के घर गया था, उसे विष्णु के दूत वैकुण्ठ में ले गए ।

[“যেমন ভাব তেমনি লাভ। দুজন বন্ধু পথে যাচ্ছে। এক যায়গায় ভাগবত পাঠ হচ্ছিল। একজন বন্ধু বললে, ‘এস ভাই, একটু ভাগবত শুনি।’ আর-একজন একটু উঁকি মেরে দেখল। তারপর সে সেখান থেকে চলে গিয়ে বেশ্যালয়ে গেল। সেখানে খানিকক্ষণ পরে তার মনে বড় বিরক্তি এল। সে আপনা-আপনি বলতে লাগল, ‘ধিক্‌ আমাকে! বন্ধু আমার হরি কথা শুনছে, আর আমি কোথায় পড়ে আছি!’ এদিকে যে ভাগবত শুনছে, তারও ধিক্কার হয়েছে। সে ভাবছে, ‘আমি কি বোকা! কি ব্যাড় ব্যাড় করে বকছে, আর আমি এখানে বসে আছি! বন্ধু আমার কেমন আমোদ-আহ্লাদ করছে।’ এরা যখন মরে গেল, যে ভাগবত শুনেছিল, তাকে যমদূত নিয়ে গেল; যে বেশ্যালয়ে গিছিল, তাকে বিষ্ণুদূত বৈকুণ্ঠে নিয়ে গেল।"

'As is a man's feeling of love, so is his gain.' Once two friends were going along the street, when they saw some people listening to a reading of the Bhagavata. 'Come, friend', said the one to the other. 'Let us hear the sacred book.' So saying he went in and sat down. The second man peeped in and went away. He entered a house of ill fame. But very soon he felt disgusted with the place. 'Shame on me!' he said to himself. 'My friend has been listening to the sacred word of Hari; and see where I am!' But the friend who had been listening to the Bhagavata also became disgusted. 'What a fool I am!' he said. 'I have been listening to this fellow's blah-blah (ब्ला -ब्ला , बकवास) , and my friend is having a grand time.' In course of time they both died. The messenger of Death came for the soul of the one who had listened to the Bhagavata and dragged it off to hell. The messenger of God came for the soul of the one who had been to the house of prostitution and led it up to heaven.

[मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

 बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ (ब्रह्मबिन्दुपनिषद् श्लोक- २)

 मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है। ] 

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*मन ही मनुष्य के बन्धन और मुक्ति (मोक्ष) का कारण है* 

“भगवान् मन देखते हैं । (the Lord looks into a man's heart) कौन क्या कर रहा है, कहाँ पड़ा हुआ है, यह नहीं देखते । ‘भावग्राही जनार्दनः ।’

[“ভগবান মন দেখেন। কে কি কাজে আছে, কে কোথায় পড়ে আছে তা দেখেন না। ‘ভাবগ্রাহী জনার্দন।’

Verily, the Lord looks into a man's heart and does not judge him by what he does or where he lives. 'Krishna accepts a devotee's inner feeling of love.'

“कर्ताभजा सम्प्रदाय (Kartabhaja sect) के लोग मन्त्र-दीक्षा देने के समय कहते हैं-‘अब मन तेरा है’ । (এখন ‘মন তোর’) अर्थात अब सब कुछ तेरे मन पर निर्भर है ।

[“কর্তাভজারা মন্ত্র দিবার সময় বলে এখন ‘মন তোর’। অর্থাৎ এখন সব তোর মনের উপর নির্ভর করছে।

In the Kartabhaja sect, the teacher, while giving initiation, says to the disciple, 'Now everything depends on your mind.'

“वे कहते हैं,'He who has the right mind finds the right way and also achieves the right end,' जिसका मन ठीक है, उसका करण ठीक है, वह अवश्य ईश्वर को प्राप्त करेगा ।

[“তারা বলে, ‘যার ঠিক মন, তার ঠিক করণ, তার ঠিক লাভ।’

 According to this sect, 'He who has the right mind finds the right way and also achieves the right end,' 

“मन के ही गुण से हनुमान समुद्र पार कर गए ।  'I am the servant of Rama; I have repeated the holy name of Rama. Is there anything impossible for me?' ‘मैं श्रीरामचन्द्र का दास हूँ, मैंने रामनाम उच्चारण किया है, मैं क्या नहीं कर सकता’ – विश्वास इसे कहते हैं ।

[“মনের গুণে হনুমান সমুদ্র পার হয়ে গেল। ‘আমি রামের দাস, আমি রামনাম করেছি, আমি কি না পারি!’ এই বিশ্বাস।”

It was through the power of his mind that Hanuman leapt over the sea. 'I am the servant of Rama; I have repeated the holy name of Rama. Is there anything impossible for me?' — that was Hanuman's faith.

[परिच्छेद-29 ( 8अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*ईश्वर दर्शन क्यों नहीं होते? – अहंभाव (अज्ञान से Hypnotized रहने) के कारण ।* 

“जब तक अहंकार है तब तक अज्ञान (Ignorance-Hypnotized अवस्था ) है । अहंकार के रहते मुक्ति नहीं होती । “हे ईश्वर, तुम कर्ता हो और मैं अकर्ता हूँ, इसी का नाम ज्ञान है । 

[“যতক্ষণ অহংকার ততক্ষণ অজ্ঞান। অহংকার থাকতে মুক্তি নাই।

"Ignorance lasts as long as one has ego. There can be no liberation so long as the ego remains. 'O God, Thou art the Doer and not I' — that is knowledge.]

“गौएँ ‘हम्मा’ करती है और बकरे ‘में’ ‘में’ करते हैं । इसीलिए उनको इतना कष्ट भोगना पड़ता है । कसाई काटते हैं, चमड़े से जूते बनते हैं, ढोल मढ़ा जाता है – दुःख की पराकाष्ठा हो जाती है । हिन्दी में अपने को ‘हम’ कहते हैं और ‘मैं’ भी कहते हैं । ‘मैं’ ‘मैं’ करने के कारण कितने कर्म भोगने पड़ते हैं ! अन्त में आँतों से धनुहे की ताँत बनायी जाती है । धनुहे के हाथ में जब वह पड़ती है, तब ‘तू’ ‘तू’ कहती है । ‘तू’ कहने के बाद निस्तार होता है । फिर दुःख नहीं उठाना पड़ता ।

[“গরুগুলো হাম্‌মা হাম্‌মা করে, আর ছাগলগুলো ম্যা ম্যা করে। তাই ওদের কত যন্ত্রণা। কসায়ে কাটে; জুতো, ঢোলের চামড়া তৈয়ার করে। যন্ত্রণার শেষ নাই। হিন্দিতে ‘হাম্‌’ মানে আমি, আর ‘ম্যায়’ মানেও আমি। ‘আমি’ ‘আমি’ করে বলে কত কর্মভোগ। শেষে নাড়ীভুঁড়ি থেকে ধুনুরীর তাঁত তৈয়ার করে। তখন ধুনুরীর হাতে ‘তুঁহু তুঁহু’ বলে, অর্থাৎ ‘তুমি তুমি’। তুমি তুমি বলার পর তবে নিস্তার! আর ভুগতে হয় না।

“नीचे आने से ही ऊंचे उठा जाता है । चातक पक्षी का घोसला नीचे रहता है, परन्तु वह बहुत ऊंचे उड़ जाता है । ऊँची जमीन में कृषि नहीं होती । नीची जमीन चाहिए । पानी उसी में रुकता है । तभी कृषि होती है ।

[“নিচু হলে তবে উঁচু হওয়া যায়। চাতক পাখির বাসা নিচে, কিন্তু ওঠে খুব উঁচুতে। উঁচু জমিতে চাষ হয় না। খাল জমি চাই, তবে জল জমে! তবে চাষ হয়!”

"By being lowly one can rise high. The chatak bird makes its nest on low ground, but it soars very high in the sky. Cultivation is not possible on high land; in low land water accumulates and makes cultivation possible.

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*साधुसंग तथा प्रार्थना- पाठचक्र में जाना क्यों जरुरी है ?* 

“कुछ कष्ट उठाकर सत्संग करना चाहिए । घर में तो केवल विषय-चर्चा होती है, रोग लगा ही रहता है । जब चिड़िया सीखचे पर बैठती है तभी ‘राम राम’ बोलती है, जब वन में उड़ जाती है तब वही ‘टें टें’ करने लगती है।  

[“একটু কষ্ট করে সৎসঙ্গ করতে হয়। বাড়িতে কেবল বিষয়ের কথা। রোগ লেগেই আছে। পাখি দাঁড়ে বসে তবে রাম রাম বলে। বনে ডড়ে গেলে আবার ক্যাঁ ক্যাঁ করবে।

One must take the trouble to seek the company of holy persons. In his own home a man hears only worldly talk; the disease of worldliness has become chronic with him. The caged parrot sitting on its perch repeats, "Rama! Rama!' But let it fly to the forest and it will squawk in its usual way.

“धन होने से ही कोई बड़ा आदमी नहीं हो जाता । बड़े आदमी के घर का यह लक्षण है कि सब कमरों में दिये जलते रहते हैं । गरीब तेल नहीं खर्च कर सकते; इसीलिए दिये का वैसा बन्दोबस्त नहीं कर सकते । यह देहमन्दिर अँधेरे में न रखना चाहिए, ज्ञानदीप जला देना चाहिए ! ‘हृदयमन्दिर में ज्ञानदीप जलाकर ब्रह्ममयी का मुँह देखो न ।’ 

[“টাকা থাকলেই বড় মানুষ হয় না। বড় মানুষের বাড়ির একটি লক্ষণ যে, সব ঘরে আলো থাকে। গরিবেরা তেল খরচ করতে পারে না, তাই তত আলো বন্দোবস্ত করে না। এই দেহমন্দির অন্ধকারে রাখতে নাই, জ্ঞানদীপ জ্বেলে দিতে হয়। “জ্ঞানদীপ জ্বেলে ঘরে ব্রহ্মময়ীর মুখ দেখ না।”

"Mere possession of money doesn't make a nobleman. One sign of the mansion of a nobleman is that all the rooms are lighted. The poor cannot afford much oil, and consequently cannot have so many lights. This shrine of the body should not be left dark; one should illumine it with the lamp of Wisdom.

Lighting the lamp of Knowledge in the chamber of your heart, Behold the face of the Mother, Brahman's Embodiment.

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*प्रार्थना -तत्व,  अर्जी भेजो  गैस का बन्दोबस्त हो जायगा*

“ज्ञान सभी को हो सकता है । जीवात्मा और परमात्मा । प्रार्थना करो, उस परमात्मा के साथ सभी जीवों का योग हो सकता है । गैस का नल सब घरों में लगाया हुआ है और गैस गैसकम्पनी के यहाँ मिलती है । अर्जी भेजो, गैस का बन्दोबस्त हो जायगा, घर में गैसबत्ती जल जायगी । सियालदह में आफिस है (६/१ मन्मथमुखर्जी रोड में सिटी ऑफिस है सब हँसते हैं।) 

[“সকলেরই জ্ঞান হতে পারে। জীবাত্মা আর পরমাত্মা। প্রার্থনা কর — সেই পরমাত্মার সঙ্গে সব জীবেরই যোগ হতে পারে। গ্যাসের নল সব বাড়িতেই খাটানো আছে। গ্যাস কোম্পানির কাছে গ্যাস পাওয়া যায়। আরজি কর, করলেই গ্যাস বন্দোবস্ত করে দেবে — ঘরেতে আলো জ্বলবে। শিয়ালদহে আপিস আছে। (সকলের হাস্য)

"Everyone can attain Knowledge. There are two entities: jivatma, the individual soul, and Paramatma, the Supreme Soul. Through prayer all individual souls can be united to the Supreme Soul. Every house has a connection for gas, and gas can be obtained from the main storage-tank of the Gas Company. Apply to the Company, and it will arrange for your supply of gas. Then your house will be lighted.

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*जिस व्यक्ति चैतन्य जाग्रत हो , उस मनुष्य के लक्षण *

“किसी किसी को चैतन्य हुआ है इसके लक्षण भी हैं । ईश्वरी प्रसंग को छोड़ और कुछ सुनने को उसका जी नहीं चाहता । ईश्वरी प्रसंग के सिवा कोई दूसरी बात करना उसे अच्छा नहीं लगता । जैसे सातों समुद्र, गंगा-यमुना और सब नदियों में पानी है, परन्तु चातक को वर्षा की बूँदों की ही रट रहती है । चाहे मारे प्यास के छाती फट जाय, परन्तु वह दूसरा पानी कभी नहीं पीता ।” 

[“কারুর চৈতন্য হয়েছে। তার কিন্তু লক্ষণ আছে। ঈশ্বরীয় কথা বই আর কিছু শুনতে ভাল লাগে না। আর ঈশ্বরীয় কথা বই আর কিছু বলতে ভাল লাগে না। যেমন সাত সমুদ্র, গঙ্গা, যমুনা, নদী — সব তাতে জল রয়েছে, কিন্তু চাতক বৃষ্টির জল চাচ্ছে। তৃষ্ণাতে ছাতি ফেটে যাচ্ছে, তবু অন্য জল খাবে না।”

"In some people spiritual consciousness has already been awakened; but they have special marks. They do not enjoy hearing or talking about anything but God. They are like the chatak, which prays for rain-water though the seven oceans, the Ganges, the Jamuna, and the rivers near it are all filled with water. It won't drink anything but rain-water, even though its throat is burning with thirst."

(४)

गोपीप्रेम । *‘अनुरागरूपी बाघ’*

श्रीरामकृष्ण ने कुछ गाने के लिए कहा । रामलाल और कालीमन्दिर के एक ब्राह्मण कर्मचारी गाने लगे । ठेका लगाने के लिए एक बायाँ मात्र था । कुछ भजन गाये गये -

१) --

हृदि- वृंदावने बास, जदि करो कमलापति। 

ओ हे भक्तिप्रिय, आमार, भक्ति होबे राधासति।।


मुक्ति कामना आमारि, होबे वृन्दे गोपनारि,

देह होबे नन्देर पूरि, स्नेह होबे मा जशोमोति।।

आमाय धर धर जनार्दन, पापभार गोवर्धन,

कामादि छय कङ्गसचरे, ध्वंश  कर सम्प्रति।। 

बाजाये कृपा बांसरी , मन धेनूके बस कोरि,

तिष्ठे हृदिगोष्ठे पुराओ, ईष्ट एई मिनति।। 

आमार प्रेमरुप जमुनाकुले, आशा-बंशी बटमूल,

स्वदास भेबे सदयभावे, सतत कर बसति। 

जोदि बोलो राखाल- प्रेमे, बन्दि थाकि ब्रजधामे,

तबे ज्ञानहीन राखाल तोमार दास होबे हे दाशरथी।। 


(२) 

नवनीरदवरन किशे गण्य श्यामाचांद रुप हेरे, 

करेते बांशी अधरे हासि, रुपे भुबन आलो कोरे। 

जड़ित पीतबसन, तड़ित जिनी झलमल,

आन्दोलित चरणावधि हृदिसरोजे बनमाल,

निते युवती-जातिकुल, आलो करे जमुनाकुल,

नन्दकुल चंद्र जतो, चंद्र जिनि बिहरे।।

श्यामगुणधाम पशि, हाम हृदि-मंदिरे,

प्राण मन ज्ञान सखी हरे निलो बांशीर स्वरे,

गंगानारायणेर जे दु:ख शे कथा बोलिबो कारे,

जानते यदि जेते गो सखी जमुनाय जल अनिबारे।।

(৩) —

শ্যামাপদ-আকাশেতে মন ঘুড়িখান উড়তেছিল;

কলুষের কুবাতাস পেয়ে গোপ্তা খেয়ে পড়ে গেল।

(High in the heaven of the Mother's feet, my mind was soaring like a kite,When came a blast of sin's rough wind that drove it swiftly toward the earth. . . .)

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से)- बाघ जैसे दूसरे पशुओं को खा जाता है, वैसे ‘अनुरागरूपी बाघ’ काम-क्रोध आदि रिपुओं को खा जाता है । एक बार ईश्वर पर अनुराग होने से फिर काम-क्रोध आदि नहीं रह जाते। गोपियों की ऐसी ही अवस्था हुई थी । श्रीकृष्ण पर उनका ऐसा ही अनुराग था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — বাঘ যেমন কপকপ করে জানোয়ার খেয়ে ফেলে, তেমনি “অনুরাগ বাঘ” কাম ক্রোধ এই সব রিপুদের খেয়ে ফেলে। ঈশ্বরে একবার অনুরাগ হলে কামক্রোধাদি থাকে না। গোপীদের ওই অবস্থা হয়েছিল। কৃষ্ণে অনুরাগ। 

"As the tiger devours other animals, so does the 'tiger of zeal for the Lord' eat up lust, anger, and the other passions. Once this zeal grows in the heart, lust and the other passions disappear. The gopis of Vrindavan had that state of mind because of their zeal for Krishna.

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*अनुराग-अंजन या भक्ति का सुरमा (collyrium,काजल) *

[सुरमा बरेली वाला-प्रेम का सुरमा लगाकर एक-दो ही भ्रममुक्त होते हैं !] 

“और है ‘अनुराग-अंजन ।’   श्रीमती (राधा) कहती हैं-‘सखियों, मैं चारों ओर कृष्ण ही देखती हूँ । उन लोगों ने कहा- ‘सखि, तुमने आँखों में अनुराग-अंजन (जैसे विवेक-अंजन ?) लगा लिया है, इसीलिए ऐसा देखती हो।’

 "इस प्रकार भी लिखा है कि मेढक का सिर जलाकर उसका अंजन लगाने से चारों ओर साँप ही साँप दीख पड़ते हैं । 

[“আবার আছে ‘অনুরাগ অঞ্জন’। শ্রীমতী বলছেন, ‘সখি, চতুর্দিক কৃষ্ণময় দেখছি!’ তারা বললে, ‘সখি, অনুরাগ-অঞ্জন চোখে দিয়েছ তাই ওইরূপ দেখছ।’ এরূপ আছে যে, ব্যাঙের মুণ্ডু পুড়িয়ে কাজল তৈয়ার করে, সেই কাজল চোখে দিলে চারিদিক সর্পময় দেখে!

"Again, this zeal for God is compared to collyrium. Radha said to her friends, 'I see Krishna everywhere.' They replied, 'Friend, you have painted your eyes with the collyrium of love; that is why you see Krishna everywhere.' "They say that when your eyes are painted with collyrium made from the ashes of a frog's head you see snakes everywhere.

" जो लोग केवल कामिनी-कांचन - 'woman and gold' में पड़े हुए हैं, कभी ईश्वर का स्मरण नहीं करते, वे बद्ध जीव हैं । उन्हें लेकर क्या कभी महान् कार्य (-Be and Make) हो सकता है? जैसे कौए का चोंच मारे हुए आम को ठाकुर-सेवा में लगाने की तो क्या, खाने में भी हिचकिचाहट होती है ।
[“যারা কেবল কামিনী-কাঞ্চন নিয়ে আছে — ঈশ্বরকে একবারও ভাবে না, তারা বদ্ধজীব। তাদের নিয়ে কি মহৎ কাজ হবে? যেমন কাকে ঠোকরানো আম, ঠাকুর সেবায় লাগে না, নিজের খেতেও সন্দেহ।
"They are indeed bound souls who constantly dwell with 'woman and gold' and do not think of God even for a moment. How can you expect noble deeds of them? They are like mangoes pecked by a crow, which may not be offered to the Deity in the temple, and which even men hesitate to eat.

“संसारी जीव, बद्धजीव, ये रेशम के कीड़े (গুটিপোকা-Cocoon) हैं । यदि चाहें तो कोश को काटकर बाहर निकल सकते हैं; परन्तु खुद जिस घर को बनाया है, उसे छोड़ने में बड़ा मोह होता है । फल यह होता है उसी में उनकी मृत्यु हो जाती है । 

[“বদ্ধজীব — সংসারী জীব, এরা যেমন গুটিপোকা। মনে করলে কেটে বেরিয়ে আসতে পারে; কিন্তু নিজে ঘর বানিয়েছে, ছেড়ে আসতে মায়া হয়। শেষে মৃত্যু।

"Bound souls, worldly people, are like silk-worms. The worms can cut through their cocoons if they want, but having woven the cocoons themselves, they are too much attached to them to leave them. And so they die there.

“जो मुक्त जीव (de-Hypnotized ) हैं, वे कामिनी-कांचन के वशीभूत नहीं होते ।कोई कोई कीड़े (रेशम के) जिस कोये को इतने प्रयत्न से बनाते हैं, उसे काटकर निकल भी आते हैं । परन्तु ऐसे एक ही दो होते हैं । 

[“যারা মুক্তজীব, তারা কামিনী-কাঞ্চনের বশ নয়। কোন কোন গুটিপোকা অত যত্নের গুটি কেটে বেরিয়ে আসে। সে কিন্তু দু-একটা।

"Free souls are not under the control of 'woman and gold'. There are some silk-worms that cut through the cocoon they have made with such great care. But they are few and far between.

“माया मोह में डाले रहती है । दो एक मनुष्यों को ज्ञान होता है । वे माया के भुलावे में नहीं आते-कामिनी-कांचन के वशीभूत  नहीं होते

[“মায়াতে ভুলিয়ে রাখে। দু-একজনের জ্ঞান হয়; তারা মায়ার ভেলকিতে ভোলে না; কামিনী-কাঞ্চনের বশ হয় না। আঁতুড়ঘরের ধূলহাঁড়ির খোলা যে পায়ে পরে, তার বাজিকরের ড্যাম্‌ ড্যাম্‌ শব্দের ভেলকি লাগে না। বাজিকর কি করছে সে ঠিক দেখতে পায়।

"It is maya that deludes. Only a few become spiritually awakened and are not deluded by the spell of maya. They do not come under the control of 'woman and gold'.

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*साधनसिद्ध,  कृपासिद्ध और नित्यसिद्ध * 

कोई कोई बड़े परिश्रम से खेत में पानी खींचकर लाते हैं । यदि ला सके तो फसल भी अच्छी होती है । किसी किसी को पानी सींचना ही नहीं पड़ा, वर्षा के जल से खेत भर गया । उसे पानी सींचने के लिए कष्ट नहीं उठाना पड़ा । माया के हाथ से रक्षा पाने के लिए कष्टसाध्य साधनभजन करना पड़ता है । कृपासिद्ध को कष्ट नहीं उठाना पड़ता परन्तु ऐसे दो ही एक मनुष्य होते हैं ।

[“সাধনসিদ্ধ আর কৃপাসিদ্ধ। কেউ কেউ অনেক কষ্টে ক্ষেত্রে জল ছেঁচে আনে; আনতে পারলে ফসল হয়। কারু জল ছেঁচতে হল না, বৃষ্টির জলর ভেসে গেল। কষ্ট করে জল আনতে হল না। এই মায়ার হাত থেকে এড়াতে গেলে কষ্ট করে সাধন করতে হয়। কৃপাসিদ্ধের কষ্ট করতে হয় না। সে কিন্তু দু-এক জনা।

"There are two classes of perfect souls: those who attain perfection through spiritual practice, and those who attain it through the grace of God. Some farmers irrigate their fields with great labour. Only then can they grow crops. But there are some who do not have to irrigate at all; their fields are flooded by rain. They don't have to go to the trouble of drawing water. One must practise spiritual discipline laboriously, in order to avoid the clutches of maya. Those who attain liberation through the grace of God do not have to labour. But they are few indeed.

“और हैं *नित्यसिद्ध*। इनका ज्ञान-चैतन्य-जन्म-जन्मान्तरों में बना ही रहता है । मानो फौआरे की कल बन्द है, मिस्त्री ने इसे उसे खोलते हुए उसको भी खोल दिया और उससे फर्र से पानी निकलने लगा । जब नित्यसिद्ध का प्रथम अनुराग मनुष्य देखते हैं तब आश्चर्य से कहने लगते हैं- ‘इतनी भक्ति, इतना वैराग्य, इतना प्रेम इसमें कहाँ था ?’

[“আর নিত্যসিদ্ধ, এদের জন্মে জন্মে জ্ঞানচৈতন্য হয়ে আছে। যেমন ফোয়ারা বুজে আছে। মিস্ত্রী এটা খুলতে ফোয়ারাটাও খুলে দিলে, আর ফরফর করে জল বেরুতে লাগল! নিত্যসিদ্ধের প্রথম অনুরাগ যখন লোকে দেখে, তখন অবাক্‌ হয়। বলে এত ভক্তি-বৈরাগ্য-প্রেম কোথায় ছিল?”

"Then there is the class of the ever-perfect. They are born in each life with their spiritual consciousness already awakened. Think of a spring whose outlet is obstructed. While looking after various things in the garden, the plumber accidentally clears it and the water gushes out. Yet people are amazed to see the first manifestations of an ever-perfect soul's zeal for God. They say, 'Where was all this devotion and renunciation and love?'

श्रीरामकृष्ण गोपियों के अनुराग की बात कह रहे हैं । फिर गाना होने लगा । रामलाल गाने लगे -

নাথ! তিমি সর্বস্ব আমার। প্রাণাধার সারাৎসার;

নাহি তোমা বিনে কেহ ত্রিভুবনে, বলিবার আপনার ৷৷

তুমি সুখ শান্তি, সহায় সম্বল, সম্পদ ঐশ্বর্য, জ্ঞান বুদ্ধি বল,

তুমি বাসগৃহ, আরামের স্থল, আত্মীয় বন্ধু পরিবার ৷৷

তুমি ইহকাল, তুমি পরিত্রাণ, তুমি পরকাল, তুমি স্বর্গধাম,

তুমি শাস্ত্রবিধি গুরুকল্পতরু, অনন্ত সুখের আধার ৷৷

তুমি হে উপায়, তুমি হে উদ্দেশ্য, তুমি স্রষ্টা পাতা তুমি হে উপাস্য,

দণ্ডদাতা পিতা, স্নেহময়ী মাতা, ভবার্ণবে কর্ণধার (তুমি) ৷৷ 

गीत का आशय यह है-

“हे नाथ ! तुम्ही हमारे सर्वस्व हो, तुम्ही हमारे प्राणों के आधार हो और सब वस्तुओं में सार पदार्थ भी तुम्ही हो । तुम्हें छोड़ तीनों लोक में अपना और कोई नहीं । सुख, शान्ति, सहाय, संबल, सम्पद्, ऐश्वर्य, ज्ञान, बुद्धि, बल, वासगृह, आरामस्थल, आत्मीय, मित्र, परिवार सब कुछ तुम्हीं हो । तुम्हीं हमारे इहकाल हो और तुम्हीं परकाल हो, तुम्हीं परित्राण हो और तुम्हीं स्वर्गधाम हो, शास्त्रविधि और कल्पतरु गुरु भी तुम्हीं हो; तुम्हीं हमारे अनन्त सुख के आधार हो । हमारे उपाय, हमारे उद्देश्य तुम्ही हो । तुम्हीं स्त्रष्टा, पालनकर्ता और उपास्य हो ! दण्डदाता पिता, स्नेहमयी माता और भवार्णव के कर्णधार भी तुम्हीं हो ।”

श्रीरामकृष्ण(भक्तों से)- अहा ! कैसा गीत है ! – तुम्हीं हमारे सर्वस्व हो ।’ अक्रूर के आने पर गोपियों ने श्रीराधा से कहा, ‘राधे ! यह तेरे सर्वस्व-धन का हरण करने के लिए आया है ।’ प्यार यह है । ईश्वर के लिए व्याकुलता इसे कहते हैं ।

फिर गाना होने लगा-

(भावार्थ)-“रथचक्र को न पकड़ो न पकड़ो । क्या रथ चक्र से चलता है ! जिनके चक्र से जगत् चलता है ! वे हरि ही इस चक्र के चक्री हैं ।”

गीत सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण गम्भीर समाधि-सागर में डूब गये । भक्तगण श्रीरामकृष्ण को चुपचाप टकटकी लगाये देख रहे हैं । कमरे में सन्नाटा छाया हुआ है । श्रीरामकृष्ण हाथ जोड़े हुए समाधिस्थ बैठे हैं- वैसे ही जैसे फोटोग्राफ में दिखायी देते हैं । नेत्रों से आनन्दधारा बह रही है ।

बड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ हुए । परन्तु अभी उन्हीं से वार्तालाप कर रहे हैं जिन्हें समाधि-अवस्था में देख रहे थे । कोई कोई शब्द सुन पड़ता है । श्रीरामकृष्ण आप ही आप कह रहे हैं- “तुम्हीं मैं हो, मैं ही तुम हूँ ।.....खूब करते हो परन्तु”

[অনেকক্ষণ পরে ঠাকুর একটু প্রকৃতস্থ হইলেন। কিন্তু সমাধির মধ্যে যাঁকে দর্শন করিতেছিলেন, তাঁর সঙ্গে কি কথা কহিতেছেন। একটি-আধটি কেবল ভক্তদের কানে পৌঁছিতেছে। ঠাকুর আপনা-আপনি বলিতেছেন, “তুমিই আমি আমিই তুমি। তুমি খাও, তুমি আমি খাও!... বেশ কিন্তু কচ্ছ।

The Master went into deep samadhi. His body was motionless; he sat with folded hands as in his photograph. Tears of joy flowed from the corners of his eyes. After a long time his mind came down to the ordinary plane of consciousness. He mumbled something, of which only a word now and then could be heard by the devotees in the room. He was saying: "Thou art I, and I am Thou — Thou eatest — Thou — I eat! . . . What is this confusion Thou hast created?"

“यह मुझे पीलिया रोग तो नहीं हो गया ? – चारों ओर तुम्हीं को देख रहा हूँ ।

“हे कृष्ण, दीनबन्धु (गरीबों के शखा ) ! प्राणवल्लभ ! गोविन्द !”

[“এ কি ন্যাবা লেগেছে। চারিদিকেই তোমাকে দেখছি! “কৃষ্ণ হে দীনবন্ধু প্রাণবল্লভ! গোবিন্দ!”

 ​"I see everything like a man with jaundiced eyes! I see Thee alone everywhere. O Krishna, Friend of the lowly! O Eternal Consort of my soul! O Govinda!"

‘प्राणवल्लभ ! गोविन्द !’ कहते हुए श्रीरामकृष्ण फिर समाधिमग्न हो गये । भक्तगण महाभावमय श्रीरामकृष्ण को बार बार देख रहे हैं, किन्तु फिर भी नेत्रों की तृप्ति नहीं होती ।

(५)

*श्रीरामकृष्ण का ईश्वरावेश । उनके मुख से ईश्वरवाणी*

श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हैं । अपनी छोटी खाट पर बैठे हुए हैं । चारों ओर भक्तगण बैठे हैं । श्री अधर सेन कुछ मित्रों के साथ आये हैं । अधर डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं । इन्होंने श्रीरामकृष्ण को पहले एक बार देखा है-आज दूसरी बार देख रहे हैं । इनकी उम्र लगभग उनतीस-तीस वर्ष की होगी ।

इनके मित्र सारदाचरण को मृत पुत्र का शोक है । ये स्कूलों के डिप्टी इन्स्पेक्टर रह चुके हैं । अब पेन्शन ले ली हैं । साधन-भजन पहले ही से कर रहे हैं । बड़े लड़के का देहान्त हो जाने से किसी तरह मन को सान्त्वना नहीं मिलती । इसीलिए अधर उन्हें श्रीरामकृष्ण के पास ले आये हैं । बहुत दिनों से अधर स्वयं भी श्रीरामकृष्ण को देखना चाहते थे ।

श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । आँखें खोलकर आपने देखा, कमरे भर के लोग आपकी ओर ताक रहे हैं । उस समय आप अपने आप कुछ कहने लगे ।

क्या श्रीरामकृष्ण के मुँह से ईश्वर स्वयं उपदेश दे रहे हैं !

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*जीवन -लक्ष्य को पाने की ज़िद होनी चाहिए। *

श्रीरामकृष्ण- “कभी कभी विषयी मनुष्यों में ज्ञान का उन्मेष होता है, वह दीपशिखा की तरह दीख पड़ता है, - नहीं नहीं, सूर्य की किरण की तरह; छेद के भीतर से मानो किरण निकल रही है । विषयी मनुष्य और ईश्वर का नाम ! उसमें अनुराग (सत्य-दर्शन की व्याकुलता ) नहीं होता । जैसे बालक कहता है, तुझे भगवान् की कसम है । घर की स्त्रियों का झगड़ा सुनकर ‘भगवान् की कसम’ याद कर ली है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — বিষয়ী লোকের জ্ঞান কখনও দেখা দেয়। এক-একবার দীপ শিখার ন্যায়। না, না, সূর্যের একটি কিরণের ন্যায়। ফুটো দিয়ে যেন কিরণটি আসছে। বিষয়ী লোকের ঈশ্বরের নাম করা — অনুরাগ নাই। বালক যেমন বলে, তোর পরমেশ্বরের দিব্যি। খুড়ী-জেঠীর কোঁদল শুনে “পরমেশ্বরের দিব্যি” শিখেছে! 

"The spiritual wisdom of worldly people is seen only on rare occasions. It is like the flame of a candle. No, it is rather like a single ray of the sun passing through a chink in a wall. Worldly people chant the name of God, but there is no zeal behind it. It is like children's swearing by God, having learnt the word from the quarrels of their aunts.

“विषयी मनुष्यों की निष्ठा (grit-चरित्रबल या ज़िद) नहीं होती । हुआ हुआ, न हुआ तो न सही । पानी की जरूरत है, कुआँ खोद रहा है । खोदते खोदते जैसे ही कंकड़ निकला कि बस छोड़ दी वह जगह, दूसरी जगह खोदने लगा । लो, वहाँ भी बालू ही बालू निकलती है ! वह वहाँ से भी अलग हुआ । जहाँ खोदना आरम्भ किया है, वहीँ जब खोदता रहे तभी तो पानी मिलेगा ।

[“বিষয়ী লোকদের রোখ নাই। হল হল; না হল না হল। জলের দরকার হয়েছে কূপ খুঁড়ছে। খুঁড়তে, খুঁড়তে যেমন পাথর বেরুল, অমনি সেখানটা ছেড়ে দিলে। আর-এক জায়গা খুঁড়তে বালি পেয়ে গেল; কেবল বালি বেরোয়। সেখানটাও ছেড়ে দিলে। যেখানে খুঁড়তে আরম্ভ করেছে, সেইখানেই খুঁড়বে তবে তো জল পাবে।

"Worldly people have no grit. If they succeed in an undertaking, it is all right, but if they don't succeed, it scarcely bothers them at all. When they need water they begin to dig a well. But as soon as they strike a stone they give up digging there and begin at another place. Perhaps they come to a bed of sand. Finding nothing but sand, they give that place up too. How can they succeed in getting water unless they continue to dig persistently where they started?

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*मनुष्य अपने ही कर्मों के फल को भोगता है, ईश्वर उसे सुख-दुःख नहीं देते। *

“जीव जैसे कर्म करता है वैसा ही फल भी पाता है ।

“इसीलिए गाने में कहा है-দোষ কারু নয় গো মা। আমি স্বখাত সলিলে ডুবে মরি শ্যামা।

(भावार्थ)-“ ‘माँ श्यामा ! दोष किसी का नहीं, मैं अपने ही हाथों खोदे हुए कुएँ के पानी में डूब रहा हूँ ।’

[“জীব যেমন কর্ম করে, তেমনি ফল পায়। তাই গানে আছে: দোষ কারু নয় গো মা।আমি স্বখাত সলিলে ডুবে মরি শ্যামা।

"Man reaps the harvest of his own past actions. Hence you read in the song:O Mother, I have no one else to blame: Alas! I sink in the well these very hands have dug.

[इस भौतिक वादी जीवन को सर्वस्व समझ लेना भारी भूल है। श्रुतियों और शास्त्रों में जगह-जगह कहा गया है कि परब्रह्म  ही जगत का कारण है जो आनंदमय है। आनंद से भी प्राणी उत्पन्न होते हैं, आनंद में ही जीते हैं तथा अंत में आनंद में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। मनुष्य अपने ही कर्मों का शुभ एवं अशुभ फल भोगता है, ईश्वर उसे सुख-दुःख नहीं देते। पृथ्वी के सर्वोच्च पद पर आसीन होकर भी हम प्रभु के इस परम कारण को नहीं समझ सकते।  इस अथाह ब्रह्मांड में हम पृथ्वी के जीव तो अंशमात्र ही अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। इस जीवन चक्र में परम कारण का रहस्य आध्यात्मिक चिंतन के ज्ञान से ही संभव है। आध्यात्मिक जागृति से ही विसंगतियां दूर होती हैं।  प्रतिकूल परिस्थितियां दुःख का आभास देती हैं और अनुकूल परिस्थितियां सुख का बोध कराती हैं। ये दोनों हमें प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होते हैं जो प्रत्येक मनुष्य के अपने-अपने कर्मों, अकर्मों, विकर्मों और सकर्मों का प्रतिफल है। पूर्व प्रारब्ध को सुख और दुःख मानने वाले मनुष्य संघर्ष करके इसे सरलतापूर्वक मिटा देते हैं। जो लोग प्रारब्ध को नहीं मानते, वे रो-रोकर समय काटते हैं। यहां यह समझना श्रेयस्कर होगा कि मनुष्य की इच्छा से कुछ नहीं होता, समय से ही वह सब कुछ होता है।कर्म के नियम से कोई मुक्त नहीं रह सकता। ''आप अपने कर्मफल से नहीं बच सकते। आप जहाँ भी जाते हैं, जो कुछ भी करते हैं, आपके कर्म ही आपको शांतिपूर्वक देख रहे होते हैं। किसी भी दिन आपको आपके कर्म का फल पृथ्वी पर वहन करना ही होता है।"आइए! अपने कर्मफल का आनन्द लें। अच्छे कर्म करें। समस्याओं एवं दुःख की परिस्थिति में अन्य को दोष न देकर अपने कर्म फल को स्वीकार करें।दुर्योधन ने भी कहा था " मैं कर्म के सिद्धान्त का सार जानता हूँ, मैं जानता हूँ कि क्या सही है और क्या गलत, किन्तु फिर भी मैं अज्ञात शक्तियों के  द्वारा कर्म करने हेतु बाध्य किया जाता हूँ। "साभार :https://m.dailyhunt.in/news/india/hindi/kosi+times+]

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*परब्रह्म  ही जगत का कारण है जो आनंदमय है।* 

‘मैं’ और ‘मेरा’ अज्ञान है । विचार तो करो, देखोगे जिसे ‘मैं’ कह रहे हो, वह आत्मा (परब्रह्म)  के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । विचार करो- तुम शरीर हो या हाड़ हो या मांस या और कुछ? तब देखोगे, तुम कुछ नहीं हो । तुम्हारी कोई उपाधि नहीं । तब कहोगे, मैंने कुछ भी नहीं किया; मेरे न दोष हैं, न गुण; न पाप है, न पुण्य ।

[“আমি আর আমার অজ্ঞান। বিচার করতে গেলে যাকে আমি আমি করছ, দেখবে তিনি আত্মা (परब्रह्म ) বই আর কেউ নয়। বিচার কর — তুমি শরীর না মাংস, না আর কিছু? তখন দেখবে, তুমি কিছুও নও। তোমার কোন উপাধি নাই। তখন আবার ‘আমি কিছু করি নাই, আমার দোষও নাই, গুণও নাই। পাপও নাই, পুণ্যও নাই।’

"'I' and 'mine' — that is ignorance. By discriminating you will realize that what you call 'I' is really nothing but Atman. Reason it out. Are you the body or the flesh or something else? At the end you will know that you are none of these. You are free from attributes. Then you will realize that you have never been the doer of any action, that you have been free from virtue and faults alike, that you are beyond righteousness and unrighteousness.

यह सोना है और यह पीतल, ऐसे विचार को अज्ञान कहते हैं और सब कुछ सोना है, इसे ज्ञान । “ईश्वरदर्शन होने पर विचार बन्द हो जाता है । फिर ऐसा भी है कि कोई ईश्वरलाभ करके भी विचार करता हैं । कोई भक्ति लेकर रहता है, उनका गुणगान करता है ।

[“এটা সোনা, এটা পেতল — এর নাম অজ্ঞান। সব সোনাএর নাম জ্ঞান।”“ঈশ্বরদর্শন হলে বিচার বন্ধ হয়ে যায়। ঈশ্বরলাভ করেছে, অথছ বিচার করছে, তাও আছে। কি কেউ ভক্তি নিয়ে তাঁর নামগুণগান করছে।

"From ignorance a man says, 'This is gold and this is brass.' But a man of Knowledge says, 'It is all gold.'"Reasoning stops when one sees God. But there are instances of people who have realized God and who still continue to reason. Again, there are people who, even after having seen God, chant His name with devotion and sing His glories.

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*सब कुछ सोना (आनन्द) है" ~  इसे ज्ञान कहते है* 

“बच्चा तभी तक रोता है जब तक उसे माता का दूध पीने को नहीं मिलता । मिला कि रोना बन्द हो गया । तब आनन्दपूर्वक पीता रहता है । परन्तु एक बात है । कभी कभी वह दूध पीते पीते खेलता भी है और आनन्द से किलकारियां भरता है ।

[“ছেলে কাঁদে কতক্ষণ? যতক্ষণ না স্তন পান করতে পায়। তারপরই কান্না বন্ধ হয়ে যায়। কেবল আনন্দ। আনন্দে মার দুধ খায়। তবে একটি কথা আছে। খেতে খেতে মাঝে মাঝে খেলা করে, আবার হাসে।

"How long does a child cry? So long as it is not sucking at its mother's breast. As soon as it is nursed it stops crying. Then the child feels only joy. Joyously it drinks the milk from its mother's breast. But it is also true that, while drinking, the child sometimes plays and laughs.]

“वे ही सब कुछ हुए हैं । परन्तु मनुष्य में उनका प्रकाश अधिक है । जहाँ शुद्धसत्त्व बालकों का-सा स्वभाव है कि कभी हँसता है, कभी रोता है, कभी नाचता है, कभी गाता है, वहाँ वे प्रत्यक्ष भाव से रहते हैं ।” 

[“তিনিই সব হয়েছেন। তবে মানুষে তিনি বেশি প্রকাশ। যেখানে শুদ্ধসত্ত্ব বালকের স্বভাব — হাসে, কাঁদে, নাচে, গায় — সেখানে তিনি সাক্ষাৎ বর্তমান।”

"It is God alone who has become everything. But in man He manifests Himself the most. God is directly present in the man who has the pure heart of a child and who laughs and cries and dances and sings in divine ecstasy."

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*जीव ! समर के लिए तैयार हो जाओ ।*

श्रीरामकृष्ण अधर का कुशलसमाचार ले रहे हैं । अधर ने अपने मित्र के पुत्रशोक का हाल कहा । श्रीरामकृष्ण अपने ही भाव में गाने लगे-

জীব সাজ সমরে, রণবেশে কাল প্রবেশ তোর ঘরে।

ভক্তিরথে চড়ি, লয়ে জ্ঞানতূণ, রসনাধনুকে দিয়ে প্রেমগুণ,

ব্রহ্মময়ীর নাম ব্রহ্ম-অস্ত্র তাহে সন্ধান করে ৷৷

আর এক যুক্তি রণে, চাই না রথরথী, শত্রুনাশে জীব হবে সুসঙ্গতি,

রণভূমি যদি করে দাশরথি ভাগীরথীর তীরে ৷৷

(भावार्थ)-‘जीव ! समर के लिए तैयार हो जाओ । रण के वेश में काल तुम्हारे घर में घुस रहा है । भक्ति-रथ पर चढ़कर, ज्ञान-तूण लेकर रसना-धनुष में प्रेम गुण लगा, ब्रह्ममयी के नामरूपी ब्रह्मास्त्र का सन्धान करो। लड़ाई के लिए एक युक्ति और है । तुम्हें रथ-रथी की आवश्यकता न होगी यदि भागीरथी के तट पर तुम्हारी यह लड़ाई हो ।’  

[To arms! To arms, O man! Death storms your house in battle array!Bearing the quiver of knowledge, mount the chariot of devotion;Bend the bow of your tongue with the bow-string of love.And aim at him the shaft of Mother Kali's holy name.Here is a ruse for the fray: You need no chariot or charioteer;Fight your toe from the Ganges' bank, and he is easily slain.

“क्या करोगे? इस काल के लिए तैयार हो जाओ । काल घर में घुस रहा है । उनका नामरूपी अस्त्र लेकर लड़ना होगा । कर्ता वे ही हैं । मैं कहता हूँ, ‘जैसा कराते हो, वैसा ही करता हूँ । जैसा कहाते हो, वैसा ही कहता हूँ । मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री; मैं घर हूँ, तुम घर के मालिक; मैं गाड़ी हूँ, तुम इंजीनियर ।’ 

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*आममुख्तारी (power of attorney ^) उस आनन्दमय परब्रह्म को ही दो- जो जगत का कारण है !* 

“आममुख्तार उन्हीं को बनाओ । काम का भार अच्छे आदमी को देने से कभी अमंगल नहीं होता । उनकी जो इच्छा हो, करे ।  

[“কি করবে? এই কালের জন্য প্রস্তুত হও। কাল ঘরে প্রবেশ করেছে, তাঁর নামরূপ অস্ত্র লয়ে যুদ্ধ করতে হবে, তিনিই কর্তা। আমি বলি, যেমন করাও, তেমনি করি; যেমন বলাও তেমনি বলি; আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী; আমি ঘর, তুমি ঘরণী; আমি গাড়ি, তুমি ইঞ্জিনিয়ার।“তাঁকে আম্‌মোক্তারি দাও! ভাল লোকের উপর ভার দিলে অমঙ্গল হয় না। তিনি যা হয় করুন।

Then he said: "What can you do? Be ready for Death. Death has entered the house. You must fight him with the weapon of God's holy name; God alone is the Doer. I say: 'O Lord, I do as Thou doest through me. I speak as Thou speakest through me. I am the machine and Thou art the Operator. I am the house and Thou art the Indweller. I am the engine and Thou art the Engineer.'

 Give your power of attorney to God . One doesn't come to grief through letting a good man assume one's responsibilities. Let His will be done.

[*आम-मुख्तारी (power of attorney ^) "यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति। एतं ह वाव न तपति। किमहं साधु नाकरवम्‌। किमहं पापमकरवमिति। स य एवं विद्वानेते आत्मानं स्पृणुते। उभे ह्येवैष एते आत्मानं स्पृणुते। य एवं वेद। इत्युपनिषत्‌॥" (तैत्तिरीयोपनिषद्ब्रह्मानन्दवल्लीनवमोऽनुवाकःश्लोक -१)

-अर्थात 'ब्रह्म' का वह आनन्द जहाँ से कुछ भी प्राप्त किए बिना वाणी वापिस लौट आती है तथा मन भी जहाँ पहुँच कर विस्मय से चकित होकर लौट आता है, 'ब्रह्म' के उस आनन्द को कौन जानता है? वह चाहे इस जगत् में, चाहे अन्यत्र, कहीं भी, भयभीत नहीं होता। वास्तव में उसको कोई सन्ताप (दुःख) नहीं होता तथा ये पीड़ापूर्ण भाव उसके मन में नहीं आते-''मैंने सत्कर्म को करना क्यों छोड़ दिया तथा मैंने उस पापकर्म का आचरण को क्यों किया? क्योंकि जो 'नित्यब्रह्म' को जानता है वह इन्हें जानता है, वह यह जानता है कि ये उसके 'आत्मतत्त्व' के समान ही हैं; हाँ,वह जानता है कि ये शुभ एवं अशुभ दोनों क्या हैं तथा 'ब्रह्म' को ऐसा जानते हुए वह आत्मा को मुक्त करता है। और यही है उपनिषद्, यही है वेद का रहस्य।

'वह' हम दोनों की एक साथ रक्षा करे; 'वह' एक साथ हम दोनों को अपने अधीन कर ले, हम एक साथ शक्ति एवं वीर्य अर्जित करें। हम दोनों का अध्ययन हमारे लिए तेजस्वी हो, प्रकाश एवं शक्ति से परिपूरित हो। हम कदापि विद्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः। शान्तिः। हरिः ॐ

The Bliss of the Eternal from which words turn back without attaining and mind also returneth baffled, who knoweth the Bliss of the Eternal? He feareth not for aught in this world or elsewhere. Verily to him cometh not remorse and her torment saying “Why have I left undone the good & why have I done that which was evil?” For he who knoweth the Eternal, knoweth these that they are alike his Spirit; yea, he knoweth both evil and good for what they are and delivereth Spirit, who knoweth the Eternal. And this is Upanishad, the secret of the Veda. Together may He protect us, together may He possess us, together may we make unto us strength & virility. May our reading be full of light and power. May we never hate. OM Peace! Peace! Peace! Hari OM!] 

" आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्। आनन्दाध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। आनन्देन जातानि जीवन्ति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।सैषा भार्गवी वारुणी विद्या। परमे व्योमन्प्रतिष्ठिता। स य एवं वेद प्रतितिष्ठति। अन्नवानन्नादो भवति। महान्भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन महान्‌ कीर्त्या॥ (तैत्तिरीयोपनिषद्भृगुवल्लीषष्ठोऽनुवाकःVerse १) 

--उन्होंने जाना कि 'आनन्द' ही 'ब्रह्म' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि केवल 'आनन्द' से ही ये समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं तथा उत्पन्न होकर आनन्द के द्वारा ही ये जीवित रहते हैं तथा प्रयाण करके 'आनन्द' में ही ये समाविष्ट हो जाते है। यही है भार्गवी (भृगु की) विद्या, यही है वारुणी (वरुण की) विद्या जिसकी परम व्योम द्युलोकः में सुदृढ प्रतिष्ठा है। जो यह जानता है, उसको भी सुदृढ प्रतिष्ठा मिलती है। वह अन्न का स्वामी (अन्नवान्) एवं अन्नभोक्ता बन जाता है। वह प्रजा सन्ततिः से, पशुधन से, ब्रह्मतेज से महान हो जाता है, वह कीर्ति से महान् बन जाता है।

He knew Bliss for the Eternal. For from Bliss alone, it appeareth, are these creatures born and being born they live by Bliss and to Bliss they go hence and return. This is the lore of Bhrigu, the lore of Varouna, which hath its firm base in the highest heaven. Who knoweth, getteth his firm base, he becometh the master of food and its eater, great in progeny, great in cattle, great in the splendour of holiness, great in glory.

श्रुतियों और शास्त्रों में जगह-जगह कहा गया है कि परब्रह्म ही जगत का कारण है जो आनंदमय है। आनंद से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं, आनंद में ही जीते हैं तथा अंत में आनंद में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। मनुष्य अपने ही कर्मों का शुभ एवं अशुभ फल भोगता है, ईश्वर उसे सुख-दुःख नहीं देते। आराध्य का स्मरण ही सुमिरन है ; और सुमिरन आराध्य के प्रति श्रद्धानिष्ठ बनने की सतत प्रक्रिया है। इस आराधन प्रक्रिया को जो जितने मनोयोग से निष्पादित करता है, वह उतना ही आत्मतोष की अनुभूति करता है। आत्मतोष की यह संजीवनी उसे तनावमुक्त रखने के साथ ही शांत-सुखद जीवन जीने एवं कार्यक्षेत्र में सफल होने की अक्षय ऊर्जा प्रदान करती है। सुमिरन का सुख लाभ अप्रत्यक्ष एवं अनिर्वचनीय है। नित्य नियमपूर्वक किया जाने वाला सुमिरन नैत्यिक, अनुष्ठानिक श्रेणी में आता है।साभार :https://m.dailyhunt.in/news/india/hindi/kosi+times+] 

‘शोक भला क्यों नहीं होगा । आत्मज है न । रावण मरा तो लक्ष्मण दौड़े हुए गए, देखा, उसके हाड़ों में ऐसी जगह नहीं थी जहाँ छेद न रहे हो । लौटकर राम से बोले- भाई, तुम्हारे बाणों की बड़ी महिमा है, रावण की देह में ऐसी जगह नहीं है जहाँ छेद न हों ! राम बोले-ভাই হাড়ের ভিতর যে-সব ছিদ্র দেখছ, ও বাণের জন্য নয়। শোকে তার হাড় জরজর হয়েছে। हाड़ के भीतरवाले छेद हमारे बाणों के नहीं है, मारे शोक के उसके हाड़ जर्जर हो गए है । वे छेद शोक के ही चिन्ह हैं । 

[“তা শোক হবে না গা? আত্মজ! রাবণ বধ হল; লক্ষণ দৌড়িয়ে গিয়ে দেখলেন। দেখেন যে, হাড়ের ভিতর এমন জায়গা নাই — যেখানে ছিদ্র নাই। তখন বললেন, রাম! তোমার বাণের কি মহিমা! রাবণের শরীরে এমন স্থান নাই, যেখানে ছিদ্র না হয়েছে! তখন রাম বললেন, ভাই হাড়ের ভিতর যে-সব ছিদ্র দেখছ, ও বাণের জন্য নয়। শোকে তার হাড় জরজর হয়েছে। ওই ছিদ্রগুলি সেই শোকের চিহ্ন। হাড় বিদীর্ণ করেছে।

"But isn't your grief for your son only natural? The son is one's own self reborn. Lakshmana ran to Ravana when the latter fell dead on the battle-field. Looking at Ravana's body, he found that every one of his bones was full of holes. Thereupon he said to Rama: 'O Rama, glory be to Your arrows! There is no spot in Ravana's body that they have not pierced.' 'Brother,' replied Rama, 'the holes you see in his bones are not from My arrows. Grief for his sons has pierced them through and through. These holes are the marks of his grief. It has penetrated his very bones.'

“परन्तु है यह सब अनित्य । गृह, परिवार, सन्तान, सब दो दिन के लिए है । The palm-tree alone is-real. One or two fruits have dropped off. Why lament? ताड़ का पेड़ ही सत्य है । दो एक फल गिर जाते हैं । इसके लिए दुःख क्यों ?

[“তবে এ-সব অনিত্য। গৃহ, পরিবার, সন্তান দুদিনের জন্য। তালগাছই সত্য। দু-একটা তাল খসে পড়েছে। তার আর দুঃখ কি?

"But house, wife, and children are all transitory; they have only a momentary existence. The palm-tree alone is-real. One or two fruits have dropped off. Why lament?

ईश्वर तीन काम करते हैं, - सृष्टि, स्थिति और प्रलय । मृत्यु है ही । प्रलय के समय सब ध्वंस हो जाएगा, कुछ भी न रह जाएगा । माँ केवल सृष्टि के बीज बीनकर रख देंगी । फिर नयी सृष्टि होने के समय उन्हें निकालेंगी । घर की स्त्रियों के जैसे हण्डी रहती है जिसमें वे खीरे-कोहड़े के बीज, समुद्रफेन, नील जा डला आदि छोटी छोटी पोटलियों में बाँधकर रख देती हैं ।” (सब हँसते हैं ।)

[“ঈশ্বর তিনটি কাজ করেছেন — সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয়। মৃত্যু আছেই। প্রলয়ের সময় সব ধ্বংস হয়ে যাবে, কিছুই থাকবে না। মা কেবল সৃষ্টির বীজগুলি কুড়িয়ে রেখে দেবেন। আবার নূতন সৃষ্টির সময় সেই বীজগুলি বার করবেন। গিন্নীদের যেমন ন্যাতা-কাঁতার হাঁড়ি থাকে। (সকলের হাস্য) তাতে শশাবিচি, সমুদ্রের ফেনা নীলবড়ি ছোট ছোট পুটলিতে বাঁধা থাকে।”

"God is engaged in three kinds of activity: creation, preservation, and destruction. Death is inevitable. All will be destroyed at the time of dissolution. Nothing will remain. At that time the Divine Mother will gather up the seeds for the future creation, even as the elderly mistress of the house keeps in her hotchpotch-pot little bags of cucumber seeds, 'sea-foam', blue pills, and other miscellaneous things. The Divine Mother will take Her seeds out again at the time of the new creation."

(६)

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*सकलेर एकपथे जेते होबे -एक पथे चोलिबो , एक कथा बोलिबो * 

डिप्टी मजिस्ट्रेट श्री अधरचंद्र सेन को उपदेश -सब को एक ही रास्ते से जाना है *  

श्रीरामकृष्ण अधर के साथ अपने कमरे के उत्तरी ओर के बरामदे में खड़े होकर बातचीत कर रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण (अधर से) -तुम डिप्टी हो । यह पद भी ईश्वर के ही अनुग्रह से मिला है । उन्हें न भूलना, समझना, सब को एक ही रास्ते से जाना है, ^  यहाँ सिर्फ दो दिन के लिए आना हुआ है । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (অধরের প্রতি) — তুমি ডিপুটি। এ-পদও ঈশ্বরের অনুগ্রহে হয়েছে। তাঁকে ভূলো না। কিন্তু জেনো, সকলের একপথে যেতে হবে।১ এখানে দুদিনের জন্য।

 "You are a deputy magistrate. Remember that you have obtained your position through the grace of God. Do not forget Him, but remember that all men must one day walk down the same path. We stay in the world only a couple of days.

[एक ही रास्ते से सब को जाना है, ^ इस वार्तालाप के  डेढ़ साल बाद ही "डिप्टी मजिस्ट्रेट" श्री अधरचंद्र सेन का निधन हो गया था।खबर सुनने के बाद श्री ठाकुरदेव माँ जगदम्बा के पास काफी देर तक रोते रहे थे। अधर ठाकुर के परम भक्त थे।  अधर का घर शोभाबाजार,बेनेटोला, कोलकाता में है। उनके विषय में श्रीठाकुर देव ने कहा था , "तुम मेरे अंतरंग हो।"  उनके कुछ सगे-सम्बन्धी अब भी जीवित है ; और उनके घर का बैठक-खाना  और ठाकुर- बाड़ी अब तीर्थस्थल बन गए हैं।] 

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

(We stay in the world only a couple of days.)

*संसार में कर्म करना (पद-पैसा अर्जित करना) चित्तशुद्धि का साधन है*

“संसार कर्मभूमि है । यहाँ कर्म करने के लिए आना हुआ है, जैसे देहात में घर है और कलकत्ते में काम करने के लिए आया जाता है । 

“कुछ काम करना आवश्यक है । यह (चित्तशुद्धि का ) साधन है । जल्दी जल्दी सब काम समाप्त कर लेना चाहिए । जब सुनार सोना गलाते हैं, तब धौंकनी, पंखा, फूँकनी आदि से हवा करते हैं, जिससे आग तेज हो और सोना गल जाय । सोना गल जाता है, तब कहते हैं, चिलम भरो । अब तक पसीने पसीने हो रहे थे पर काम करके ही तम्बाकू पीएँगे । 

[“সংসার কর্মভূমি। এখানে কর্ম করতে আসা। যেমন দেশে বাড়ি কলকাতায় গিয়ে কর্ম করে। “কিছু কর্ম করা দরকার। সাধন। তাড়াতাড়ি কর্মগুলি শেষ করে নিতে হয়। স্যাকরারা সোনা গলাবার সময় হাপর, পাখা চোঙ দিয়ে হাওয়া করে যাতে আগুনটা খুব হয়ে সোনাটা গলে। সোনা গলার পর তখন বলে, তামাক সাজ্‌। এতক্ষণ কপাল দিয়ে ঘাম পড়ছিল। তারপর তামাক খাবে।

“पूरी जिद चाहिए; साधना तभी होती है । वह अविद्या का नाश करता है । दृढ़ प्रतिज्ञा होनी चाहिए । 

[“খুব রোখ চাই। তবে সাধন হয়। দৃঢ় প্রতিজ্ঞা।

"One must have stern determination; then alone is spiritual practice possible. One must make a firm resolve.

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*गुरु देव के मुख से सुने गए नाम-बीज के श्रवण-मनन-निदिध्यासन में बड़ी शक्ति है !*  

“उनके नाम-बीज में बड़ी शक्ति है । वह अविद्या का नाश करता है । बीज कितना कोमल है और अंकुर भी कितना नरम होता है, परन्तु मिट्टी कैसी ही कड़ी क्यों न हो, वह उसे पार कर ही जाता है - मिट्टी फट जाती है। 

[“তাঁর নামবীজের খুব শক্তি। অবিদ্যা নাশ করে। বীজ এত কোমল, অঙ্কুর এত কোমল, তবু শক্ত মাটি ভেদ করে। মাটি ফেটে যায়।

"There is great power in the seed of God's name. It destroys ignorance. A seed is tender, and the sprout soft; still it pierces the hard ground. The ground breaks and makes way for the sprout.

“कामिनी-कांचन के भीतर रहने से वे मन को खींच लेते हैं । सावधानी से रहना चाहिए । त्यागियों के लिए विशेष भय की बात नहीं । यथार्थ त्यागी कामिनी-कांचन से अलग रहता है । साधना के बल से सदा ईश्वर पर मन रखा जा सकता है । 

[“কামিনী-কাঞ্চনের ভিতর থাকলে মন বড় টেনে লয়। সাবধানে থাকতে হয়। ত্যাগীদের অত ভয় নাই। ঠিক ঠিক তাগী কামিনী-কাঞ্চন থেকে তফাতে থাকে। তাই সাধন থাকলে ঈশ্বরে সর্বদা মন রাখতে পারবে।

"The mind becomes very much distracted if one lives long in the midst of 'woman and gold'. Therefore one must be very careful. But monks do not have much to fear. The real sannyasi lives away from 'woman and gold'. Therefore through the practice of spiritual discipline he can always fix his mind on God.

जो यथार्थ त्यागी हैं वे सर्वदा ईश्वर पर मन रख सकते हैं; वे मधुमक्खी की तरह केवल फूल पर बैठते हैं; मधु ही पीते हैं । जो लोग संसार में कामिनी-कांचन के भीतर है उनका मन ईश्वर में लगता तो है, पर कभी कभी कामिनी-कांचन पर भी चला जाता है; जैसे साधारण मक्खियाँ बर्फी पर भी बैठती हैं और सड़े घाव पर भी बैठती हैं । हाँ, विष्ठा पर भी बैठती हैं । 

[परिच्छेद ~ 29, (8अप्रैल 1883)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*राजा जनक ने पहले ज्ञान और कर्म की तलवारें चलाई फिर पेन्शन भी मिला*  

“मन सदा ईश्वर पर रखना । पहले कुछ मेहनत करनी पड़ेगी; फिर पेन्शन पा जाओगे ।”

“ঠিক ঠিক ত্যাগী। যারা সর্বদা ঈশ্বরে মন দিতে পারে, তারা মৌমাছির মতো কেবল ফুলে বসে মধু পান করে। সংসারে কামিনী-কাঞ্চনের ভিতরে যে আছে, তার ঈশ্বরে মন হতে পারে, আবার কখন কখন কামিনী-কাঞ্চনেও মন হয়। যেমন সাধারণ মাছি, সন্দেশেও বসে আর পচা ঘায়েও বসে, বিষ্ঠাতেও বসে।

“ঈশ্বরেতে সর্বদা মন রাখবে। প্রথমে একটু খেটে নিতে হয়। তারপর পেনশন ভোগ করবে।”

"True sannyasis, those who are able to devote their minds constantly to God, are like bees, which light only on flowers and sip their honey. Those who live in the world, in the midst of 'woman and gold', may direct their attention to God; but sometimes their minds dwell also on 'woman and gold'. They are like common flies, which light on a piece of candy, then on a sore or filth.

"Always keep your mind fixed on God. In the beginning you must struggle a little; later on you will enjoy your pension."

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$परिच्छेद ~ 28 [(7 अप्रैल 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत]Unattachment to 'woman and gold' *न पाप करना ही अच्छा है और न पाप का अभिनय करना * संसारी तथा शास्त्रार्थ* *गगन की थाली , रवि चन्द्र दीपक जले * पान और मछली में क्या रखा है , कामिनी-कांचन का त्याग ही त्याग है *

[(7 अप्रैल 1883)परिच्छेद ~ २८, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत {श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]  

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परिच्छेद ~ २८ 
*नरेन्द्र आदि भक्तों के साथ बलराम के मकान पर* 
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बलराम बाबू के मकान में बैठे हुए हैं, बैठक के उत्तरपूर्ववाले कमरे में । दोपहर ढल चुकी, एक बजा होगा । नरेन्द्र, भवनाथ, राखाल, बलराम और मास्टर कमरे में उनके साथ बैठे हुए हैं ।
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आज अमावस्या है, शनिवार, 7 अप्रैल 1883। श्रीरामकृष्ण बलराम बाबू के घर सुबह को आए थे । दोपहर का भोजन वहीँ किया है । नरेन्द्र, भवनाथ, राखाल तथा और भी दो-एक भक्तों को आपने निमन्त्रित करने के लिए कहा था, अतएव उन लोगों ने भी यहीं आकर भोजन किया है । श्रीरामकृष्ण बलराम से कहते थे- “इन्हें खिलाना, तो बहुत से साधुओं को खिलाने का पुण्य होगा ।” 
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कुछ दिन हुए श्रीरामकृष्ण श्री केशवबाबू के यहाँ ‘नववृन्दावन’ नाटक देखने गए थे । साथ नरेन्द्र और राखाल भी गए थे । नरेन्द्र ने भी अभिनय में भाग लिया था । केशव 'पवहारी बाबा' बने थे ।
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्रादि भक्तों से)- केशव साधु बनकर शान्तिजल ('Water of Peace') छिड़कने लगा । परन्तु मुझे अच्छा न लगा । अभिनय में शान्तिजल !

“और एक आदमी (कु. बाबू) पापपुरुष बना था । ऐसा करना भी अच्छा नहीं । न पाप करना ही अच्छा है और न पाप का अभिनय करना ही । 
.[কেশব (সেন) সাধু সেজে শান্তিজল ছড়াতে লাগল। আমার কিন্তু ভাল লাগল না। অভিনয় করে শান্তি জল!
“আর-একজন (কু-বাবু) পাপ পুরুষ সেজেছিল। ওরকম সাজাও ভাল না। নিজে পাপ করাও ভাল না — পাপের অভিনয় করাও ভাল না।”
{Nava-Vrindavan drama :Narendra had taken part in the performance, in which Keshab had played the role of Pavhari Baba . "Keshab came on the stage in the role of a holy man and sprinkled the 'Water of Peace'. But I didn't like it. The idea of sprinkling such water on a theatrical stage after a performance!" Another gentleman played the part of Sin. That is not good either. One should not commit sin; one should not even feign it."
नरेन्द्र का स्वास्थ्य अच्छा नहीं हैं; परन्तु उनका गाना सुनने की श्रीरामकृष्ण को बड़ी इच्छा है । वे कहने लगे, “नरेन्द्र, ये लोग कह रहे हैं, तू कुछ गा ।”
नरेन्द्र तानपुरा लेकर गाने लगे  : 
(१)
आमार प्राणपिंजरेर पाखि, गाओ ना रे, 
ब्रह्मकल्पतरुपरे बोशे रे पाखि, विभुगण गाओ देखी। 

(गाओ, गाओ) धर्म, अर्थ, काम,  मोक्ष
सूपक्व फल खाओ ना रे। 

बोलो  बोलो आत्माराम, पोड़ो प्राणाराम, 
हृदय माझे, प्राण विहंग डाको अविराम, 

डाक तृषित चातकेर मतो,
पाखि अलस थेको ना रे।   


 আমার প্রাণপিঞ্জরের পাখি, গাও না রে।
ব্রহ্মকল্পতরুপরে বসে রে পাখি, বিভুগুণ গাও দেখি,
(গাও, গাও) ধর্ম অর্থ কাম মোক্ষ,
সুপক্ক ফল খাও না রে।
বল বল আত্মারাম, পড় প্রাণারাম,
হৃদয়-মাঝে প্রাণ-বিহঙ্গ ডাক অবিরাম,
ডাক তৃষিত চাতকের মতো,
পাখি অলস থেক না রে।
गीत का भावार्थ यह है- “मेरे प्राण-पिंजरे के पक्षी, गाओ न रे। ब्रह्म-कल्पतरु पर बैठकर परमात्मा के गुण गाओ ! धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-रूपी पके हुए फल खाओ । हे मेरे हृदय के प्राणविहंग, तुम निरन्तर ‘आत्माराम, प्राणाराम’ कहकर पुकारो । प्यासे चातक की तरह पुकारो, आलस मत करो ।”
(२) 

विश्वभुवनरंजन ब्रह्म परम ज्योतिः।
अनादिदेव जगतपति प्राणेर प्राण।।   

गीत का भावार्थ यह है- “वे (मेरे इष्टदेव) विश्वरंजन हैं, परमज्योति ब्रह्म हैं, अनादिदेव जगत्पति हैं, प्राणों के भी प्राण हैं ।....”
(३) 

हे राजराजेश्वर , देखा दाओ। 
करुणा भिखारि आमि, करुण-नयने चाओ॥

चरने उत्सर्ग दान , करियाछि एई प्राण। 
संसार -अनलकुण्डते झलसि गियाछे ताओ। 

कलुष -कलंके भरा ताहे आवरित ए -हृदय ; 
मोहे मुग्ध मृतपाय , हये आछि आमि दयामय ,
मृतसंजीवनी दाने, शोधन करिये लाओ।  

 गीत का भावार्थ यह है- “हे राजराजेश्वरी ! दर्शन दो ! मैं जिन प्राणों को तुम्हारे चरणों में अर्पित कर रहा हूँ, वे संसार के अनल-कुण्ड में पड़कर झुलस गए हैं । और उस पर यह हृदय कलुष-कलंक से आवृत है । दयामय ! मोहमुग्ध होकर मैं मृतकल्प हो रहा हूँ, तुम मृतसंजीवनी दृष्टि से मेरा शोधन कर लो ।”

(४)***
The Master wanted to hear Narendra sing. The young disciple was not feeling well, but at the Master's earnest request he sang to the accompaniment of the tanpura:

गगन की थाली , रवि चन्द्र दीपक जले । 
तारका मंडल, चमके मोती रे ।

धूपु मलयानिल , पवन चँवर करे,
सकल बनराजी फुलन्त जोति रे ॥

कैसी आरती होइ , हे भवखण्डन तेरी आरती।। 
भवखंडना तेरी आरती॥

अनाहत शब्द बाजंत भेरी रे ॥
नाम तेरो आरती मजन मुरारे ।।
हरि के नाम बिन झूठे सगल पासारे ।। 


इस आरती में गुरु नानक ने माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट स्वरुप का चित्रण किया है, और कल्पना की है कि समस्त ब्रह्माँड  उनकी ही पूजा में लीन है। उन्होंने यह आरती 1506  में पूर्वी भारत की यात्रा के दौरान, परंपरागत आरती से हट कर पुरी के श्री जगन्नाथ जी मंदिर में गायी  थी।  
इस गीत का भावार्थ यह है:-
 “गगनरूपी आरती की थाल में रवि-चन्द्ररुपी दीपक जल रहे हैं । तारा मंडल (galaxy) मोतियों की तरह शोभायमान हैं। मलय पर्वत से आती चंदन की सुगंध ही धूप है, वायु चंवर कर रही है, समस्त वनों की सम्पूर्ण वनस्पतियाँ तुम्हारी आरती के निमित्त फूल की तरह अर्पित हैं। अनहद शब्द भेरी की तरह बज रहा है। हे खण्डन भवबन्धन ! तुम्हारी आरती की भव्यता का वर्णन किस तरह किया जा सकता है!.....इसके बाद जो लाइन जोड़ी गयी है -  हे मुरारी ! (मुर दैत्य के शत्रु, विष्णु या श्रीकृष्ण) तुम्हारा नाम जपना ही मेरे लिए आपकी आरती और आपको स्नान करवाने के समान है । हरि के नाम बिना सभी सांसरिक सुख झूठे हैं ।"  यह संत रविदास जी द्वारा रचित है , जिनका जन्म संयोवश एक मोची (cobbler) परिवार में हुआ था।  
 राष्ट्रगान के रचयिता आचार्य रवींद्रनाथ टैगोर से एक बार प्रख्यात फिल्म कलाकार बलराज साहनी, जो तब शांति निकेतन में अध्यापक थे, ने प्रश्न किया कि जिस प्रकार भारत का राष्ट्रगान उन्होंने लिखा है,  तो क्यों न सम्पूर्ण विश्व के लिए भी एक विश्वगान भी लिखें? इस पर उन्होंने कहा कि वह तो पहले ही लिखा जा चुका है, १६वीं शताब्दी में गुरु नानक के द्वारा। और यह मात्र इस विश्व ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए गान है। गुरुदेव टैगोर इस आरती से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने स्वयं बांग्ला में इसका अनुवाद भी किया। 
[ " The sky is the puja thaal, in which the sun and the moon are the diyas/The stars in the constellation are the jewels/The wind laden with sandalwood fragrance, is the celestial fan/All the flowering fields/forests are the radiance! What wonderful worship this is, O Destroyer of fear, This is your prayer. "]
 {" Naam tero aarti majan muraare Harke Naam bina jhoothey sagal pasaarey "(694)  O Lord, Thy Name to me is the aarti and holy ablutions. Everything else is false) Onwards, has been composed by Sant Ravidas, who, incidentally was a cobbler.
Versatile actor Balraj Sahni once asked the Nobel laureate Rabindra Nath Tagore, “You've written the National Anthem for India. Can you write an Anthem for the whole world?” 
“It's already been written, not only for the whole world but for the  entire universe, in the 16 century by Guru Nanak,” replied Tagore.
 The Gurudev was referring to Guru Nanak's aarti (the ceremony of light). Tagore was so much enamored of this aarti that he, himself, rendered it in Bangla. ]

(५)
चिदाकाशे होलो पूर्ण प्रेमचंद्रोदय हे, 
उथलिलो प्रेमसिंधू कि आनंदमय हे। 
(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय )

चारिदिके झलमल कोरे भक्त ग्रहदल, 
भक्तसंगे भक्तसखा लीलारसमय हे। 
(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय )

स्वर्गेर दुआर खुली, आनंदलहरी तूली,
नवविधान वसंत समीरन बय, 
छूटे ताहे मंद मंद लीलारस प्रेमगंध, 
घ्राणे जोगिवृंद जोगानंदे मत्त होये हे। 
(जय दयामय, जय दयामय, जय दयामय)

भवसिंधू जले, विधान कमले, आनंदमयी विराजे,
आवेशे आकूल, भक्त अलिकूल, पिये सूधा तार माझे। 
देखे देखे मायेर प्रसन्न वदन, चित्त विनोदन भूवन मोहन,
पदतले दले दले साधुगण नाचे गाय प्रेमे होईये मगन। 

किबा अपरूप आहा मरी मरी जुडाईलो प्राण दरशन कोरी, 
प्रेमदासे बोले सबे पाये धोरी, गाओ भाई मायेर जय। 

“चिदाकाश में प्रेमचन्द्र का पूर्ण उदय हुआ ।......”

*पान और मछली में क्या रखा है , कामिनी-कांचन का त्याग ही त्याग है* 

नरेन्द्रनाथ के गानों के समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण ने भवनाथ से गाने के लिए कहा । भवनाथ ने भी एक गाना गाया-
দয়াঘন তোমা হেন কে হিতকারী!
সুখে-দুঃখে সব, বন্ধু এমন কে, পাপ-তাপ-ভয়হারী। 

(भावार्थ)- “हे दयाधन [अवतार वरिष्ठ रामकृष्ण] , तुम्हारे जैसा हितकारी और कौन है? इस प्रकार सुख और दुःख में समान रूप से साथ देनेवाला । सभी पाप-ताप, भय आदि का हरण करनेवाला साथी दूसरा कौन है? संकटों से पूर्ण इस घोर भवसागर से तारनेवाला खेवैया और कौन हैं? किसकी कृपा से ये संग्रामकारी रिपुगण पराजित होकर दूर भागते हैं? इस प्रकार समस्त पापों का दहन और त्रिताप का निवारण कर शान्तिजल प्रदान करनेवाला और कौन है? अन्त समय में, जब सभी त्याग देते हैं उस समय, कौन इस तरह बाँहें फैलाकर गोद में ले लेता है?”
.
नरेन्द्र (हँसते हुए)- इसने (भवनाथ ने) पान और मछली खाना छोड़ दिया है । 

श्रीरामकृष्ण (भवनाथ से हँसते हुए)- क्यों रे? पान और मछली में क्या रखा है? इससे कुछ नहीं होता । The renunciation of 'woman and gold' is the true renunciation. कामिनी-कांचन का त्याग ही त्याग है । राखाल कहा है?

एक भक्त- जी, राखाल सो रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए)- एक आदमी बगल में चटाई लेकर नाटक देखने के लिए गया था । नाटक शुरू होने में देर थी, इसलिए वह चटाई बिछाकर सो गया । जब जागा तब सब समाप्त हो गया था ! (सब हँसते हैं ।)
“ फिर चटाई बगल में दबाकर घर लौट आया ।”
रामदयाल बहुत बीमार हैं । एक दूसरे कमरे में, बिछौने पर पड़े हैं । श्रीरामकृष्ण उस कमरे में जाकर उनकी बीमारी का हाल पूछने लगे ।
*संसारी तथा शास्त्रार्थ* 
तीसरे पहर के चार बज चुके हैं । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र, राखाल, मास्टर, भवनाथ आदि के साथ बैठक में बैठे हुए हैं । कुछ ब्राह्मभक्त भी आए हैं । उन्हीं के साथ बातचीत हो रही है ।
ब्राह्मभक्त- महाराज क्या आपने भी पंचदशी पढ़ी है ।

श्रीरामकृष्ण- यह सब पहले-पहले एक बार सुनना पड़ता है-पहले-पहल एक बार विचार कर लेना पड़ता है । इसके बाद- ‘प्यारी श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में रख । मन, तू देख और मैं देखूँ और दूसरा कोई न देखने पाये ।’
“साधन-अवस्था में वह सब सुनना पड़ता है । उन्हें प्राप्त कर लेने पर ज्ञान का अभाव नहीं रहता । माँ ज्ञान की राशि ठेलती रहती हैं ।
{"One should hear the scriptures during the early stages of spiritual discipline. After attaining God there is no lack of knowledge. Then the Divine Mother supplies it without fail.
“पहले हिज्जे करके लिखना पड़ता है-फिर सीधे घसीटते जाओ ।
"A child spells out every word as he writes, but later on he writes fluently.
“ सोना गलाने के समय कमर कसकर काम में लगना पड़ता है । एक हाथ में धौंकनी-दूसरे में पंखा-मुँह से फूकना-जब तक सोना न गल जाए । गल जाने पर ज्योंही साँचे में छोड़ा कि सब चिन्ता दूर हो गयी ।

“शास्त्र केवल पढ़ने ही से कुछ नहीं होता । कामिनी-कांचन में रहने से वे शास्त्र का अर्थ समझने नहीं देते । संसार की आसक्ति में ज्ञान का लोप हो जाता है ।
{"Mere reading of the scriptures is not enough. A person cannot understand the true significance of the scriptures if he is attached to the world.

“प्रयत्नपूर्वक मैंने काव्यरसों के जितने भेद सीखे थे वे सब इस काले (श्रीकृष्ण) की प्रीति में पड़ने से नष्ट हो गए ।” (सब हँसते हैं ।)
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श्रीरामकृष्ण ब्राह्मभक्तों से केशव की बात कहने लगे-

“केशव योग और भोग दोनों में हैं । संसार में रहकर ईश्वर की ओर उनका मन लगा रहता है ।” 
{"Keshab enjoys the world and practises yoga as well. Living in the world, he directs his mind to God."

एक भक्त कानवोकेशन (Convocation of Calcutta University/कोलकाता विश्वविद्यालय की उपाधिवितरण सभा) के सम्बन्ध में कहते हुए बोले, “देखा, वहाँ बड़ी भीड़ लगी हुई थी ।”

श्रीरामकृष्ण- एक जगह बहुत से लोगों को देखने पर ईश्वर का उद्दीपन होता है । यदि मैं ऐसा देखता तो विव्हल हो जाता । 
"The feeling of the Divine is awakened in me when I see a great crowd of people. Had I seen that meeting, I should have been over- whelmed with spiritual fervour."

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सोमवार, 10 मई 2021

$ परिच्छेद ~ 27 , [(29 मार्च 188) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Raga-Bhakti* *राग-भक्ति, अर्थात ईश्वर को (माँ काली को) अपनी माँ के रूप में प्यार करना*समाधितत्त्व (भ्रमर-कीट न्याय) सविकल्प और निर्विकल्प ~No trace of cockroach- ego?* *गृहस्थ शिक्षक के लिए व्हाइट ड्रेस ही सर्वोत्तम~ वेष के अनुकूल मन होना अनिवार्य* लोकैषणा- समाज में प्रतिष्ठा और यश की कामना को विषवत त्याग दो* नरेन्द्र इत्यादि नित्यसिद्ध — उनमें भक्ति जन्मजात रहती है * नित्यसिद्ध तो मधुमक्खी की तरह होते हैं ,

परिच्छेद ~ २७ [ श्रीरामकृष्ण वचनामृत (29 मार्च 188)

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ 

परिच्छेद~ २७
 
*ब्राह्मभक्तों के प्रति उपदेश* 
(१) 

*समाधि-मन्दिर में* 
फाल्गुन के कृष्णपक्ष की पंचमी है, बृहस्पतिवार, २९ मार्च १८८३ । दोपहर को भोजन करके भगवान् श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर के लिए विश्राम कर रहे हैं । दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर का वही पहले का कमरा है । सामने पश्चिम की ओर गंगा बह रही है । दिन के दो बजे का समय है । ज्वार आ रहा है । 

कोई कोई भक्त आए हुए हैं । ब्राह्मभक्त श्री अमृत और (well-known singer of the Brahmo Samaj, Trailokya.)ब्राह्मसमाज के नामी गवैये श्री त्रैलोक्य-जिन्होंने केशव सेन के ब्राह्म समाज में भगवान् की लीलाओं का गुणगान कर बालक, वृद्ध सभी का कितनी बार मन लुभाया है-आए हैं । 
राखाल बीमार हैं । उन्हीं की बात श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण-यह लो, राखाल बीमार पड़ गया । क्या सोडा पीने से अच्छा होता है? न जाने क्या होगा ! राखाल, तू जगन्नाथ का प्रसाद खा । यह कहते कहते श्रीरामकृष्ण एक अद्भुत भाव में आ गये । 
शायद आप देख रहे हैं, साक्षात् नारायण सामने राखाल के रूप में बालक का वेष धारण करके आ गए हैं । इधर कामिनीकांचन-त्यागी बालकभक्त शुद्धात्मा राखाल हैं और उधर भगवत्प्रेम में सदा मस्त रहनेवाले श्रीरामकृष्ण की प्रेमभरी दृष्टि-अतएव वात्सल्यभाव का उदय होना स्वाभाविक था । राखाल को वात्सल्यभाव से देखते हुए आप बड़े ही प्रेम से ‘गोविन्द’ ‘गोविन्द’ उच्चारण करने लगे । 
.
श्रीकृष्ण को देखकर यशोदा के मन में जिस भाव का उदय होता था, यह शायद वही भाव है ! भक्तगण यह अद्भुत दृश्य देख रहे हैं । एकाएक वह भाव स्थिर हो गया । ‘गोविन्द’ नाम जपते हुए भक्तावतार श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गए ! शरीर चित्रवत् स्थिर हो गया । इन्द्रियाँ मानो अपने काम से जवाब देकर चली गयीं । नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि स्थिर हो रही है । साँस चल रही है या नहीं, इसमें सन्देह है । इस लोक में केवल शरीर पड़ा हुआ है, आत्माराम चिदाकाश में विहार कर रहे हैं । अब तक जो माता की तरह सन्तान के लिए घबड़ाए हुए थे, वे अब कहाँ हैं? क्या इसी अद्भुत अवस्था का नाम समाधि है? 
{ समाधि As his soul soared into the realm of Divine Consciousness, his body became motionless, his eyes were fixed on the tip of his nose, and his breathing almost ceased.

इसी समय गेरुए कपड़े पहने हुए एक अपरिचित बंगाली सज्जन आ पहुँचे भक्तों के बीच में बैठ गए । 

(२) 
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । 
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ (गीता, ३/६) 

[जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों  (सम्पूर्ण इन्द्रियों-) को हठपूर्वक रोक कर मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मूढ़ बुद्धि वाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।
 शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन का स्वभाव है एक विचार को बारंबार दोहराना। इस प्रकार एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ संस्कार (वासना) बन जाता है। और फिर जो कोई विचार हमारे मन में उठता है उनका प्रवाह पूर्व निर्मित दिशा में ही होता है।
विचारो की दिशा (श्रेय-प्रेय)  निश्चित हो जाने पर वही मनुष्य का चरित्र (स्वभाव) बन जाता है जो उसके प्रत्येक कर्म में व्यक्त होता है। अत निरन्तर विषयचिन्तन से वैषयिक संस्कार मन में गहराई से उत्कीर्ण हो जाते हैं और फिर उनसे प्रेरित विवश मनुष्य संसार में इसी प्रकार के कर्म करते हुये देखने को मिलता है
इसलिए जिस व्यक्ति ने कर्मेन्द्रियों के निग्रह के साथ ही मन और बुद्धि को विषयों के चिन्तन से बुद्धिमत्तापूर्वक निवृत्त नहीं किया हो तो ऐसे साधक की आध्यात्मिक उन्नति निश्चय ही असुरक्षित और आनन्दरहित होगी।
जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों में रहता है वास्तव में वह अध्यात्म का सच्चा साधक नहीं वरन् जैसा कि यहाँ कहा गया है विमूढ और मिथ्याचारी है।  ] 


*गृहस्थ शिक्षक के लिए व्हाइट ड्रेस ही सर्वोत्तम~  वेष के अनुकूल मन होना अनिवार्य*   

धीरे धीरे श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटने लगी । भाव में आप ही आप बातचीत कर रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण (गेरुआ देखकर)- यह गेरुआ क्यों ? क्या कुछ लपेट लेने ही से हो गया ? (हँसते हैं।) किसी ने कहा था-“चण्डी छेड़े होलुम ढाकी।” ‘चण्डी छोड़कर अब ढोल बजाता हूँ ।’ पहले चण्डी के गीत गाता था, फिर ढोल बजाने लगा । (सब हँसते हैं ।) 
[ আবার গেরুয়া কেন? একটা কি পরলেই হল? (হাস্য) একজন বলেছিল, “চন্ডী ছেড়ে হলুম ঢাকী।” — আগে চণ্ডির গান গাইত, এখন ঢাক বাজায়! (সকলের হাস্য)  
(at the sight of the ochre cloth): "Why this gerrua? Should one put on such a thing for a mere fancy? A man once said, 'I have exchanged the Chandi for a drum.' At first he used to sing the holy songs of the Chandi; now he beats the drum. (All laugh.)

“वैराग्य तीन-चार प्रकार के होते हैं । जिसने संसार की ज्वाला से दग्ध होकर गेरुआ धारण कर लिया है, उसका वैराग्य अधिक दिन नहीं टिकता । किसी ने देखा, काम कुछ मिलता नहीं, झट गेरुआ पहनकर काशी चला गया ! तीन महीने बाद घर में चिट्ठी आयी, उसने लिखा है- ‘मुझे काम मिल गया है, कुछ ही दिनों में घर आऊँगा, चिन्ता न करना !’ परन्तु जिसके सब कुछ है, चिन्ता की कोई बात नहीं, किन्तु फिर भी कुछ अच्छा नहीं लगता, अकेले अकेले में भगवान् के लिए रोता है, उसी का वैराग्य यथार्थ वैराग्य है ।” 
[“বৈরাগ্য তিন-চার প্রকার। সংসারের জ্বালায় জ্বলে গেরুয়াবসন পরেছে — সে বৈরাগ্য বেশিদিন থাকে না। হয়তো কর্ম নাই, গেরুয়া পরে কাশী চলে গেল। তিনমাস পরে ঘরে পত্র এল, ‘আমার একটি কর্ম হইয়াছে, কিছুদিন পরে বাড়ি যাইব, তোমরা ভাবিত হইও না।’ আবার সব আছে, কোন অভাব নাই, কিন্তু কিছুভাল লাগে না। ভগবানের জন্য একলা একলা কাঁদে। সে বৈরাগ্য যথার্থ বৈরাগ্য।
"There are three or four varieties of renunciation. Afflicted with miseries at home, one may put on the ochre cloth of a monk; but that renunciation doesn't last long. Again, a man out of work puts on an ochre wearing-cloth and goes off to Benares. After three months he writes home: 'I have a job here. I shall come home in a few days. Don't worry about me.' Again, a man may have everything he wants. He lacks nothing, yet he. does not enjoy his possessions. He weeps for God alone. That is real renunciation.
“मिथ्या कुछ भी अच्छा नहीं । मिथ्या वेष भी अच्छा नहीं । वेष के अनुकूल यदि मन न हुआ, तो क्रमशः उससे महा अनर्थ ही जाता है । झूठ बोलने या बुरा कर्म करने से धीरे धीरे उसका भय चला जाता है । इससे सादे कपड़े पहनना अच्छा है । मन में आसक्ति भरी है, कभी कभी पतन भी हो जाता है, और बाहर से गेरुआ ! यह बड़ा ही भयानक है ।” 
{“মিথ্যা কিছুই ভাল নয়। মিথ্যা ভেক ভাল নয়। ভেকের মতো যদি মনটা না হয়, ক্রমে সর্বনাশ হয়। মিথ্যা বলতে বা করতে ক্রমে ভয় ভেঙে যায়। তার চেয়ে সাদা কাপড় ভাল। মনে আসক্তি, মাঝে মাঝে পতন হচ্ছে, আর বাহিরে গেরুয়া! বড় ভয়ঙ্কর!”
"No lie of any sort is good. A false garb, even though a holy one, is not good. If the outer garb does not correspond to the inner thought, it gradually brings ruin. Littering false words or doing false deeds, one gradually loses all fear. Far better is the white cloth of a householder. Attachment to worldliness, occasional lapses from the ideal, and an outer garb of gerrua — how dreadful!

* लोकैषणा-  को विषवत त्याग दो*    

“यहाँ तक कि जो लोग सच्चे हैं उनके लिए कौतुकवश भी झूठ की नक़ल बुरी चीज है । केशव सेन के यहाँ मैं ‘नव ~ वृन्दावन’ नाटक देखने गया था । न जाने कैसा क्रास (Cross) वह लाया और फिर पानी छिड़कने लगा; कहता था, शान्तिजल है । एक को देखा, मतवाला बना बहक रहा था ।
[”এমনকি, যারা সৎ, অভিনয়েও তাদের মিথ্যা কথা বা কাজ ভাল নয়। কেশব সেনের ওখানে নববৃন্দাবন নাটক দেখতে গিছলাম। কি একটা আনলে ক্রস (cross); আবার জল ছড়াতে লাগল, বলে শান্তিজল। একজন দেখি মাতাল সেজে মাতলামি করছে!”
"It is not proper for a righteous person to tell a lie or do something false even in a dramatic performance. Once I went to Keshab's house to see the performance of a play called Nava-Vrindavan. They brought something on the stage which they called the 'Cross'. Another actor sprinkled water, which they said was the 'Water of Peace'. I saw a third actor staggering and reeling in the role of a drunkard."
ब्राह्मभक्त- कु. बाबू थे ।
श्रीरामकृष्ण- भक्त के लिए इस तरह का स्वाँग करना भी अच्छा नहीं । उन सब विषयों में बड़ी देर तक मन को डाल रखना दोष है । मन धोबी के घर का कपड़ा है, जिस रंग से रंगोगे, वही रंग उस पर चढ़ जाएगा । मिथ्या में बड़ी देर तक डाल रखोगे तो मिथ्या ही हो जाएगा ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ভক্তের পক্ষে ওরূপ সাজাও ভাল নয়। ও-সব বিষয়ে মন অনেকক্ষণ ফেলে রাখায় দোষ হয়। মন ধোপা ঘরের কাপড়, যে-রঙে ছোপাবে সেই রঙ হয়ে যায়। মিথ্যাতে অনেকক্ষণ ফেলে রাখলে মিথ্যার রঙ ধরে যাবে।
"It is not good for a devotee to play such parts. It is bad for the mind to dwell on such subjects for a long while. The mind is like white linen fresh from the laundry; it takes the colour in which you dip it. If it is associated with falsehood for a long time, it will be stained with falsehood.

“एक दूसरे दिन ‘निमाई-संन्यास’ (A play describing Sri Chaitanya's embracing of the monastic life.) का अभिनय था । केशव के घर में मैं भी देखने के लिए गया था । केशव के कुछ खुशामदी चेलों ने अभिनय बिगाड़ डाला था । एक खुशामदी चेले ने केशव से कहा, ‘कलिकाल के चैतन्य तो आप ही हैं’। केशव मेरी ओर देखकर हँसता हुआ कहने लगा, ‘तो फिर ये क्या हुए?’ मैंने कहा,  ‘আমি তোমাদের দাসের দাস। রেণুর রেণু।’ ‘मैं तुम्हारे दासों का दास-रज की रज हूँ ।’ केशव में लोकैषणा थी - उनको  नाम और यश की अभिलाषा थी !”  Keshab had a desire for name and fame.
[“আর-একদিন নিমাই-সন্ন্যাস, কেশবের বাড়িতে দেখতে গিছিলাম। যাত্রাটি কেশবের কতকগুলো খোশামুদে শিষ্য জুটে খারাপ করেছিল। একজন কেশবকে বললে, ‘কলির চৈতন্য হচ্ছেন আপনি!’ কেশব আমার দিকে চেয়ে হাসতে হাসতে বললে, ‘তাহলে ইনি কি হলেন?’ আমি বললুম, ‘আমি তোমাদের দাসের দাস। রেণুর রেণু।’ কেশবের লোকমান্য হবার ইচ্ছা ছিল।”
"Another day I went to Keshab's house to see the play called Nimai-Sannyas. (A play describing Sri Chaitanya's embracing of the monastic life.) Some flattering disciples of Keshab spoiled the whole performance. One of them said to Keshab, 'You are the Chaitanya of the Kaliyuga.' Keshab pointed to me and asked with a smile, Then who is he?' I replied: 'Why, I am the servant of your servant. I am a speck of the dust of your feet.' Keshab had a desire for name and fame.

*नरेन्द्रादि नित्यसिद्ध पाताल फोड़ शिव (Hades burst Shiva) उनमें भक्ति जन्मजात रहती है *

 (अमृत और त्रैलोक्य के प्रति ) - नरेंद्र, राखाल इत्यादि सभी लड़के, नित्यसिद्ध हैं। ये लोग जन्म से ही भगवान के भक्त होते हैं। बहुत से लोगों को बहुत साधना करके थोड़ी सी भक्ति होती है, लेकिन इनलोगों में जन्म से ही ईश्वर के लिए प्रेम रहता है। " যেন পাতাল ফোঁড়া শিব — বসানো শিব নয়।“---[ स्वयंभू का अर्थ होता है, पृथ्वी या भूमि से स्वयं निकला हुआ। यानि प्राकृतिक।] (They are like the natural image of Siva, which springs forth from the earth and is not set up by human hands.) " मानो 'स्वयंभू'~  पाताल फोड़ शिव हैं - रखे हुए शिव नहीं। " 
[(অমৃত ও ত্রৈলোক্যের প্রতি) — “নরেন্দ্র, রাখাল-টাখাল এই সব ছোকরা, এরা নিত্যসিদ্ধ, এরা জন্মে ঈশ্বরের ভক্ত। অনেকের সাধ্যসাধনা করে একটু ভক্তি হয়, এদের কিন্তু আজন্ম ঈশ্বরে ভালবাসা। যেন পাতাল ফোঁড়া শিব — বসানো শিব নয়।"
Youngsters like Narendra and Rakhal are ever-perfect. Every time they are born they are devoted to God. An ordinary man acquires a little devotion after austerities and a hard struggle. But these boys have love of God from the very moment of their birth. They are like the natural image of Siva, which springs forth from the earth and is not set up by human hands.
“नित्यसिद्धों (ever-perfect) का एक दर्जा ही अलग है । सभी चिड़ियों की चोंच टेढ़ी नहीं होती । ये कभी संसार में नहीं फँसते, जैसे प्रह्लाद ।
[“নিত্যসিদ্ধ একটি থাক আলাদা। সব পাখির ঠোঁট বাঁকা নয়। এরা কখনও সংসারে আসক্ত হয় না। যেমন প্রহ্লাদ।
"The ever-perfect form a class by themselves. Not all birds have crooked beaks. The ever-perfect are never attached to the world. There is the instance of Prahlada.

“साधारण मनुष्य साधना करता है, ईश्वर पर भक्ति भी करता है, और संसार में भी फँस जाता है, स्त्री और धन ('woman and gold') के लिए भी हाथ लपकाता है । मक्खी जैसे फूल पर भी बैठती है, बर्फियों पर भी बैठती है और विष्ठा पर भी बैठती है । (सब स्तब्ध हैं ।)
{“সাধারণ লোক সাধন করে, ঈশ্বরে ভক্তিও করে। আবার সংসারেও আসক্ত হয়, কামিনী-কাঞ্চনে মুগ্ধ হয়। মাছি যেমন ফুলে বসে, সন্দেশে বসে, আবার বিষ্ঠাতেও বসে। (সকলে স্তব্ধ)
"Ordinary people practise spiritual discipline and cultivate devotion to God; but they also become attached to the world and are caught in the clamour of 'woman and gold'. They are like flies, which sit on a flower or a sweetmeat and light on filth as well.

नित्यसिद्ध तो मधुमक्खी की तरह होते हैं । मधुमक्खियाँ केवल फूल पर बैठती हैं और मधु  ही पीती हैं । नित्यसिद्ध रामरस का  ही पान करते हैं (The ever-perfect drink only the Nectar of Divine Bliss. accept only branded teachings), विषयरस की ओर नहीं जाते ।
[“নিত্যসিদ্ধ যেমন মৌমাছি, কেবল ফুলের উপর বসে মধুপান করে। নিত্যসিদ্ধ হরিরস পান করে, বিষয়রসের দিকে যায় না।
"But the ever-perfect are like bees, which light only on flowers and sip the honey. The ever-perfect drink only the Nectar of Divine Bliss. They are never inclined to worldly pleasures.


*राग-भक्ति, अर्थात  ईश्वर को (माँ काली को) अपनी माँ के रूप में प्यार करना*
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साधना द्वारा जो भक्ति प्राप्त होती है, इनकी वह भक्ति नहीं है । इतना जप, इतना ध्यान करना होगा, इस तरह पूजा करनी होगी, यह सब विधिवादीय भक्ति है । जैसे किसी गाँव में किसी को जाना है, परन्तु रास्ते में धनहे खेत पड़ते हैं, तो मेड़ों से घूमकर उसे जाना पड़ता है । अगर किसी को सामनेवाले गाँव में जाना हैं, परन्तु रास्ते में नदी पड़ती है, तो टेढ़ा रास्ता चक्कर लगाते हुए ही पार करना पड़ता है ।
[.“সাধ্য-সাধনা করে যে ভক্তি, এদের সে ভক্তি নয়। এত জপ, এত ধ্যান করতে হবে, এইরূপ পূজা করতে হবে — এ-সব ‘বিধিবাদীয়’ ভক্তি। যেমন ধান হলে মাঠ পার হতে গেলে আল দিয়ে ঘুরে ঘুরে যেতে হবে। আবার যেমন সম্মুখের গাঁয়ে যাবে, কিন্তু বাঁকা নদী দিয়ে ঘুরে ঘুরে যেতে হবে।
"The devotion of the ever-perfect is not like the ordinary devotion that one acquires as a result of strenuous spiritual discipline. Ritualistic devotion consists in repeating the name of God and performing worship in a prescribed manner. It is like crossing a rice-field in a roundabout way along the balk. Again, it is like reaching a near-by village by boat in a roundabout way along a winding river.

“रागभक्ति, प्रेमाभक्ति, ईश्वर पर आत्मीयों की-सी प्रीति होने पर फिर कोई विधिनियम नहीं रह जाता । तब का जाना धनहे खेतों की मेड़ों पर का जाना नहीं, किन्तु कटे हुए खेतों से सीधा निकल जाना है । चाहे जिस ओर से सीधे चले जाओ । बाढ़ आने पर फिर नदी के टेढ़े रास्ते से नहीं जाना पड़ता । तब इधर उधर की जमीन और रास्ते पर एक बाँस पानी चढ़ जाता है । तब तो बस सीधे नाव चलाकर पार हो जाओ । “इस रागभक्ति, अनुराग या प्रेम के बिना ईश्वर नहीं मिलते ।”
{“রাগভক্তি প্রেমাভক্তি ঈশ্বরে আত্মীয়ের ন্যায় ভালবাসা, এলে আর কোন বিধিনিয়ম থাকে না। তখন ধানকাটা মাঠ যেমন পার হওয়া। আল দিয়ে যেতে হয় না। সোজা একদিক দিয়ে গেলেই হল।
"One does not follow the injunctions of ceremonial worship when one develops raga-bhakti, when one loves God as one's own. Then it is like crossing a rice-field after the harvest. You don't have to walk along the balk. You can go straight across the field in any direction."Without this intense attachment, this passionate love, one cannot realize God."


*समाधितत्त्व (भ्रमर-कीट न्याय) सविकल्प और निर्विकल्प*

अमृत- महाराज ! इस समाधि-अवस्था में भला आपको क्या जान पड़ता है?
श्रीरामकृष्ण- सुना नहीं-(भ्रमर-कीट न्याय) ? भौंरे की चिन्ता करते करते झींगुर भौंरा ही बन जाता है। वह अनुभव कैसा होता है जानते हो? मानो हण्डी की मछली को गंगा में छोड़ दिया हो । 
{ "You may have heard that the cockroach, by intently meditating on the brahmara, is transformed into a brahmara. Do you know how I feel then? I feel like a fish released from a pot into the water of the Ganges."
अमृत- क्या जरा भी अहंकार नहीं रह जाता?
{ "Don't you feel at that time even a trace of cockroach- ego?"
श्रीरामकृष्ण- हाँ, बहुधा मेरा कुछ अहंकार रह जाता है। सोने के एक टुकड़े को तुम चाहे जितना घिस डालो पर अन्त में एक छोटा सा कण बचा ही रहता है । और, जैसे कोई बड़ी भारी अग्निराशी है, उसकी एक जरा सी चिनगारी हो । बाह्य ज्ञान चला जाता है, परन्तु प्रायः थोड़ा सा अहंकार रह जाता है, शायद वे विलास के लिए रख छोड़ते हैं । ‘मैं’ और ‘तुम’ इन दोनों के रहने ही से स्वाद मिलता है । 
:{ "Yes, generally a little of it remains. However hard you may rub a grain of gold against a grindstone, still a bit of it always remains. Or again, take the case of a big fire; the ego is like one of its sparks. In samadhi I lose outer consciousness completely; but God generally keeps a little trace of ego in me for the enjoyment of divine communion. Enjoyment is possible only when 'I' and 'you' remain.
कभी कभी इस ‘अहं’ को भी वे मिटा देते हैं । इसे ‘जड़ समाधि’ या ‘निर्विकल्प समाधि’ कहते हैं । तब क्या अवस्था होती है, यह कहा नहीं जा सकता ! नमक का पुतला समुद्र नापने गया था । ज्योंही समुद्र में उतरा कि गल गया । ‘तदाकाराकारित’ ! अब लौटकर कौन बतलाये कि समुद्र कितना गहरा है ! 
{"Again, sometimes God effaces even that trace of 'I'. Then one experiences jada samadhi or nirvikalpa samadhi. That experience cannot be described. A salt doll went to measure the depth of the ocean, but before it had gone far into the water it melted away. It became entirely one with the water of the ocean. Then who was to come back and tell the ocean's depth?"
  
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