श्री गुरूजी : माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर
स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्द जी महाराज के मंत्रशिष्य श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर का जन्म 19 फरवरी, 1906 (विजया एकादशी) को नागपुर में अपने मामा के घर हुआ था। उनके पिता श्री सदाशिव गोलवलकर उन दिनों नागपुर से 70 कि.मी. दूर रामटेक में अध्यापक थे।
‘‘जैसे नियति ने श्री रामकृष्ण परमहंस के सान्निध्य में युवक नरेंद्र को पहुंचाकर अध्यात्म की भट्टी में तपाकर विवेकानंद बना विश्व-वंद्य बना दिया, वैसे ही सारगाछी आश्रम में स्वामी अखंडानंद की शरणागति में अध्यात्म की भट्टी में माधव नाम के तेजस्वी युवक को भी तपाकर केशव (डॉ. हेडगेवार) के पास मानो नियति ने ही पहुंचाकर लक्षावधि युवकों का हृदय सम्राट बना दिया।’’
स्वार्थी -भ्रमित नेताओं ने धर्मनिरपेक्षता को व्यवहार में गलत ढंग से हिंदू विरोध के रूप में अपनाया जबकि उसका वास्तविक अर्थ होता है कि शासन द्वारा किसी विशेष धर्म के अनुयायियों के साथ संलग्न न रहकर प्रत्येक धर्मानुयायियों के प्रति सद्भाव रखे।’’ उनकी योग्यता देखकर डा0 हेडगेवार ने उन्हें 1939 में सरकार्यवाह का दायित्व दिया। अब पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा। 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद श्री गुरुजी सरसंघचालक बने। 1970 में वे कैंसर से पीड़ित हो गये। श्री गुरुजी ने 5 जून, 1973 को रात्रि में शरीर छोड़ दिया।
सन् 1931 में माधवराव काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर चुके थे। विद्यार्थियों के प्रति आत्मीयता के कारण उनकी हर प्रकार से सहायता करना, गरीब विद्यार्थियों को अपने पैसे से किताबें खरीद कर देना, आवश्यक होने पर परीक्षा शुल्क की भी व्यवस्था वे करते थे। विद्यार्थी भी उनके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे और उनको "गुरुजी" कहकर पुकारते थे।
काशी में रहते समय ही श्री रामकृष्ण आश्रम से गुरुजी का गहरा सम्पर्क हो गया था और उनकी जन्मजात आध्यत्मिक प्रवृति अधिक गहरी हो चली थी। 1933 में नागपुर लौटने के बाद धन्तोली स्थित श्री रामकृष्ण आश्रम में उनका नियमित जाना-आना रहता था। वहां के स्वामी अमूर्तानंद (अमिताभ महाराज) के साथ उनकी निकट मित्रता हो गई थी। सन् 1934 के अंत में स्वामी अखण्डानंदजी नागपुर के श्री रामकृष्ण आश्रम में पधारे। वहां आश्रम के कुछ छात्रों को उन्होंने दीक्षा प्रदान की थी। अन्य जो छात्र दीक्षा लेने को उत्सुक थे, उनको स्वामीजी ने सारगाछी आने को कहा। इनमें माधवराव भी थे, यद्यपि वे आश्रम के विद्यार्थी नहीं थे। दिनांक 13 जनवरी, 1937, मकर संक्रांति के प्रत्युष काल में स्वामी अखण्डानन्द महाराज ने माधव को मंत्रदीक्षा प्रदान की।
एक दिन अमिताभ महाराज ने बाबा को बताया कि "माधवराव की हिमालय जाने की इच्छा बहुत प्रबल है।" बाबा ने कहा, "मुझे लगता है कि वह डाक्टर हेडगेवार के साथ रहकर समाज-सेवा का कार्य करेगा। हिमालय का दर्शन करे, परंतु ध्यान रखना कि वह एकांतवास न करे।" स्वामी अखण्डानंद महाराज का यह भविष्यवाणी सच निकली। 7 फरवरी, 1937 को स्वामी अखण्डानंद जी का निर्वाण हो गया।
श्री गुरुजी ने एक महीना नागपुर के श्रीरामकृष्ण आश्रम में रहकर स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण का मराठी में अनुवाद किया। श्री गुरुजी पुन: डाक्टर हेडगेवार के पास पहुंचे और संघ को भावी सरसंघचालक प्राप्त हो गया।
==============
स्वामी विवेकानन्द के सुविचार :
* यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' ही नाश कर डालो।
* न टालो, न ढूँढों -- भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भेजें , उसके लिए प्रतिक्षा करते रहो, यही मेरा मूलमंत्र है।
* मेरा आदर्श अवश्य ही थोडे से शब्दों में कहा जा सकता है - मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना।
* 'बसन्त की तरह लोग का हित करते हुए' - यहि मेरा धर्म है। "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः- यही मेरा धर्म है।"
* गम्भीरता के साथ शिशु सरलता को मिलाओ। सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है। बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास- ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी -- तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो।
* हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।
* किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।
* अन्त में प्रेम की ही विजय होती है। हैरान होने से काम नहीं चलेगा- ठहरो- धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है- तुमसे कहता हूँ देखना- कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति आवश्यक न हो- बहुत्व में एकत्व सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो। यदि आवश्यक हो तो "सार्वजनीनता" के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोडना होगा। मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता- हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, "दुसरों के धर्म का द्वेष न करना"; नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उन्का ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना - इसी भँवर में बडे-बडे जहाज डूब जाते हैं पुरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोडकर, दिखानी होगी, याद रखना उन्की कृपा से सब ठीक हो जायेगा।
* पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो। प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो। सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र- सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।
* तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कुद कर सबके आगे पहुँच जाओगे। जो अपना उध्दार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर - गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नही चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो।इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो 'नहीं' हो जाना पडेगा। खूब शाबाश! छान डालो - सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते तमाम संसा हिल उठता। क्या करूँ धीरे - धीरे अग्रसर होना पड रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान!
* जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा प्रदान करता है।
* मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।
* बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो -- यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।
'उतिष्ठ भारत' का संदेश लेकर 1890 में पुरुषसिंह स्वामी विवेकानंद जब हिमालय यात्रा पर निकले तो तीन नदियों के संगम काकड़ीघाट पर उन्हें अद्भुत खगोलीय तरंगों की अनुभूति हुई थी। इसी दौरान उन्हें विश्व व अणु ब्रह्मांड एक ही नियम की संरचना का आत्मज्ञान हुआ। अलौकिक शक्ति की अनुभूति कराने वाले काकड़ीघाट की तपोस्थली पर्यटन मानचित्र में भी नई पहचान कायम करेगा। अपने जीवन काल में वो 3 बार अल्मोड़ा आये. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने भी अपने भारत दौरे के दौरान स्वामी विवेकानन्द का कई बार जिक्र किया है. अब उनसे जुड़े स्थानों अल्मोड़ा, काकड़ीघाट, कसारदेवी आदि स्थानों को विवेकानन्द सर्किट के रुप में विकसित करने की योजना बनाई जा रही है.विवेकानन्द सर्किट के बनने से अल्मोड़ा आने वाले पर्यटकों को उनकी यात्रा की पूरी जानकारी मिल पायेगी. पर्यटकों के बढने से स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलेगा. वैसे भी कसार देवी, काकड़ीघाट और अल्मोड़ा में हर साल लाखों की संख्या में पर्यटक आते है. वर्ष 2010 की प्रलयंकारी आपदा के बाद यह पीपल का पेड़ सूखने लगा था। वर्ष 2015 में गोविंद बल्लभ पंत कृषि विवि पंतनगर के वैज्ञानिक इस पैतृक वृक्ष के जीवित तनों से कायिक कोशिकाओं को सुरक्षित कर प्रतिरूप(क्लोन) बनाने में जुटे। सफल प्रयोग के बाद क्लोन को उसी जड़ पर लगाया गया, जहां कभी पैतृक वृक्ष था।
* यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' ही नाश कर डालो।
* न टालो, न ढूँढों -- भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भेजें , उसके लिए प्रतिक्षा करते रहो, यही मेरा मूलमंत्र है।
* मेरा आदर्श अवश्य ही थोडे से शब्दों में कहा जा सकता है - मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना।
* 'बसन्त की तरह लोग का हित करते हुए' - यहि मेरा धर्म है। "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः- यही मेरा धर्म है।"
* गम्भीरता के साथ शिशु सरलता को मिलाओ। सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है। बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास- ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी -- तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो।
* हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।
* किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।
* अन्त में प्रेम की ही विजय होती है। हैरान होने से काम नहीं चलेगा- ठहरो- धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है- तुमसे कहता हूँ देखना- कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति आवश्यक न हो- बहुत्व में एकत्व सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो। यदि आवश्यक हो तो "सार्वजनीनता" के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोडना होगा। मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता- हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, "दुसरों के धर्म का द्वेष न करना"; नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उन्का ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना - इसी भँवर में बडे-बडे जहाज डूब जाते हैं पुरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोडकर, दिखानी होगी, याद रखना उन्की कृपा से सब ठीक हो जायेगा।
* पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो। प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो। सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र- सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।
* तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कुद कर सबके आगे पहुँच जाओगे। जो अपना उध्दार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर - गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नही चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो।इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो 'नहीं' हो जाना पडेगा। खूब शाबाश! छान डालो - सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते तमाम संसा हिल उठता। क्या करूँ धीरे - धीरे अग्रसर होना पड रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान!
* जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा प्रदान करता है।
* मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।
* बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो -- यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।
'उतिष्ठ भारत' का संदेश लेकर 1890 में पुरुषसिंह स्वामी विवेकानंद जब हिमालय यात्रा पर निकले तो तीन नदियों के संगम काकड़ीघाट पर उन्हें अद्भुत खगोलीय तरंगों की अनुभूति हुई थी। इसी दौरान उन्हें विश्व व अणु ब्रह्मांड एक ही नियम की संरचना का आत्मज्ञान हुआ। अलौकिक शक्ति की अनुभूति कराने वाले काकड़ीघाट की तपोस्थली पर्यटन मानचित्र में भी नई पहचान कायम करेगा। अपने जीवन काल में वो 3 बार अल्मोड़ा आये. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने भी अपने भारत दौरे के दौरान स्वामी विवेकानन्द का कई बार जिक्र किया है. अब उनसे जुड़े स्थानों अल्मोड़ा, काकड़ीघाट, कसारदेवी आदि स्थानों को विवेकानन्द सर्किट के रुप में विकसित करने की योजना बनाई जा रही है.विवेकानन्द सर्किट के बनने से अल्मोड़ा आने वाले पर्यटकों को उनकी यात्रा की पूरी जानकारी मिल पायेगी. पर्यटकों के बढने से स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलेगा. वैसे भी कसार देवी, काकड़ीघाट और अल्मोड़ा में हर साल लाखों की संख्या में पर्यटक आते है. वर्ष 2010 की प्रलयंकारी आपदा के बाद यह पीपल का पेड़ सूखने लगा था। वर्ष 2015 में गोविंद बल्लभ पंत कृषि विवि पंतनगर के वैज्ञानिक इस पैतृक वृक्ष के जीवित तनों से कायिक कोशिकाओं को सुरक्षित कर प्रतिरूप(क्लोन) बनाने में जुटे। सफल प्रयोग के बाद क्लोन को उसी जड़ पर लगाया गया, जहां कभी पैतृक वृक्ष था।
=============
🔱🙏स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा🔱🙏
चरित्र का निर्माण मन पर नियंत्रण से होता हैं। यजुर्वेद के शिव संकल्प सूत्र मन को नियंत्रण करने में अत्याधिक सहायक हैं। अपने बालक बालिकाओ को नित्य रात्री में शयन पूर्व इन मंत्रो से प्रार्थना करना सिखाये। - शिव संकल्प सूक्त ~ यजुर्वेद अध्याय 34 मंत्र 1-6/ यह शयन काल मंत्र हैं। स्वंय भी नित्य प्रार्थना करे परमात्मा से। शीघ्र आप जीवन में परिवर्तन देखेंगे। शिव संकल्प सूक्त हमारे मन में शुभ व पवित्र विचारों की स्थापना हेतु आवाहन करता है।
श्री रामकृष्ण कहा करते थे- सब कुछ मन की लीला है। मन से ही मनुष्य बद्ध है और मन से ही मुक्त। मन पर जैसा रंग चढ़ाओगे, उसी रंग में रंग जायेगा। एक ही मन विभिन्न भावों से विभिन्न व्यक्तियों से भिन्न-भिन्न तरह का प्यार करता है। एक स्त्री को एक भाव से तथा सन्तान को वह दूसरे भाव से स्नेह करता है। ईश्वर प्रेम में मन के भावों का स्वरूप सर्वथा बदल जाता है।”
- मन का स्थूल रूप मानवी मस्तिष्क में अवस्थित नाड़ी- केन्द्र है जो बाह्य जगत से इन्द्रियों तथा असंख्य संवेदनशील नाड़ियों द्वारा जुड़ा रहता है। उनके माध्यम से सूचनाएँ एकत्रित करता है। टेलीविजन यन्त्र की भाँति मस्तिष्क रूपी इलेक्ट्रानिक यन्त्र में घटनाओं, दृश्यों के चित्र-चित्रित होते रहते हैं। मन की स्थूल परत (अहं) ही अभिव्यक्त हो पाती है तथा साँसारिक कार्यों में उसकी सामर्थ्य का ही प्रयोग हो पाता है। जबकि उससे अनन्त गुना सामर्थ्यवान मानस (मन वस्तु-mind stuff =चित्त) प्रसुप्त पड़ा रहता है। उसको जागृत करना ही परम पुरुषार्थ है। ऋतम्भरा प्रज्ञा सम्पन्न राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, शंकराचार्य, प्रभृति प्रतिभाएँ उस महान जागरण की ही परिणति हैं। उनकी ये विशेषताएँ कहीं बाहर से आसमान से नहीं टपकी, वरन् मन की सूक्ष्म परतों के जागरण के फलस्वरूप प्रकट हुयीं।
भौतिक संसार में मानसिक शक्ति की अभिव्यक्ति किसी में शौर्य के रूप में प्रकट होती है, किसी में कला के रूप में तो किसी में प्रतिभा के रूप में। किसी-किसी में वह शक्ति पशुता के रूप में भी अपना परिचय देती है। पर कुछ ऐसे भी महामानव होते हैं जो उस शक्ति की अन्तिम अवस्था को प्राप्त कर प्रकृति के बन्धनों से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
श्री रामकृष्ण ने उसी महाशक्ति को काली अथवा महामाया के नाम से सम्बोधित किया है। शक्ति पूजा भी प्रकारान्तर से उस महाशक्ति की अभ्यर्थना का ही रूप है। उनका कहना था कि अगर किसी ने प्रकृति को- माया को भोग विलास की वस्तु मान लिया तो वह मृग मरीचिका की भाँति उसके पीछे भागता फिरेगा। तथा असन्तुष्टि तथा अतृप्ति की आग में जलता रहेगा। रावण तथा दुर्योधन जैसे प्रतापी राजाओं को भी उस आग में जल कर राख हो जाना पड़ा।”
उस शक्ति (प्रकृति) का सम्बन्ध जब राज सत्ता वैभव एवं शौर्य से जुड़ जाता है तो व्यक्ति नैपोलियन, हिटलर, सिकन्दर, अर्जुन तथा कर्ण जैसे महाबली बन जाते हैं। वही शक्ति जब प्रज्ञा के रूप में अभिव्यक्त होती है तो शंकराचार्य, विवेकानन्द, कुमारिल, अरस्तू और कान्ट जैसे विद्वान प्रकट होते हैं। जिसने उस प्रकृति (शक्ति) को विज्ञान के रूप में परब्रह्म की शक्ति मान लिया तो वह न्यूटन और आइन्स्टीन हो गया। 🔱🙏 जिसने प्रस्तर की प्रतिमा को ही काली मान लिया, वह रामकृष्ण परमहंस हो गया। * जिसने उस प्रकृति को आदर्श व्यवस्था मान लिया वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम बन गया।
भौतिक संसार में मानसिक शक्ति की अभिव्यक्ति किसी में शौर्य के रूप में प्रकट होती है, किसी में कला के रूप में तो किसी में प्रतिभा के रूप में। किसी-किसी में वह शक्ति पशुता के रूप में भी अपना परिचय देती है। पर कुछ ऐसे भी महामानव होते हैं जो उस शक्ति की अन्तिम अवस्था को प्राप्त कर प्रकृति के बन्धनों से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
श्री रामकृष्ण ने उसी महाशक्ति को काली अथवा महामाया के नाम से सम्बोधित किया है। शक्ति पूजा भी प्रकारान्तर से उस महाशक्ति की अभ्यर्थना का ही रूप है। उनका कहना था कि अगर किसी ने प्रकृति को- माया को भोग विलास की वस्तु मान लिया तो वह मृग मरीचिका की भाँति उसके पीछे भागता फिरेगा। तथा असन्तुष्टि तथा अतृप्ति की आग में जलता रहेगा। रावण तथा दुर्योधन जैसे प्रतापी राजाओं को भी उस आग में जल कर राख हो जाना पड़ा।”
उस शक्ति (प्रकृति) का सम्बन्ध जब राज सत्ता वैभव एवं शौर्य से जुड़ जाता है तो व्यक्ति नैपोलियन, हिटलर, सिकन्दर, अर्जुन तथा कर्ण जैसे महाबली बन जाते हैं। वही शक्ति जब प्रज्ञा के रूप में अभिव्यक्त होती है तो शंकराचार्य, विवेकानन्द, कुमारिल, अरस्तू और कान्ट जैसे विद्वान प्रकट होते हैं। जिसने उस प्रकृति (शक्ति) को विज्ञान के रूप में परब्रह्म की शक्ति मान लिया तो वह न्यूटन और आइन्स्टीन हो गया। 🔱🙏 जिसने प्रस्तर की प्रतिमा को ही काली मान लिया, वह रामकृष्ण परमहंस हो गया। * जिसने उस प्रकृति को आदर्श व्यवस्था मान लिया वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम बन गया।
ज्ञान का स्रोत वस्तुतः मनुष्य का मन है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब कुछ अन्दर ही है। आविष्कार का अर्थ- मनुष्य का अपनी अनन्त शक्ति स्वरूपा आत्मा पर आच्छन्न आवरण हटा लेना। संसार भर में ज्ञान के क्षेत्र में जो कुछ भी विद्यमान है वह मन से ही निकला है। मन हमारी इंद्रियों का स्वामी है। एक तरफ हमारीं इन्द्रियाँ जहाँ भौतिक विषय वस्तु की तथ्य-सूचना प्राप्त करने का कार्य करती हैं, वहीं हमारा मन इन इंद्रियों में ज्ञानरुपी प्रकाश बनकर इन तथ्यों का विश्लेषण कर व उनको निर्देश प्रदान कर हमारे विचारों के रुप में हमें यथोचित कर्म करने हेतु उत्प्रेरित करता है । इस प्रकार हमारा मन जितना शुभसंकल्प युक्त होता है, हमारा जीवन व इसका अभीष्ट कर्म उतना ही शुभ, सुंदर, पवित्र व कल्याणमय होता है। इस शिवसंकल्प सूक्त का अभ्यास रात को सोने से पूर्व, तथा प्रातः सोकर उठने बाद करना चाहिए ।
अभ्यास तो यह चाहिए कि आप संस्कृत वाला मंत्र ही पढ़ें , मुश्किल लग रहा है ... अब दो तीन बार साथ ही दिया गया सरल अन्वय वाला मंत्र पढ़ें। फिर संस्कृत से तुलना करें। अब आसानी से पढ़ा जायेगा। एक बार संस्कृत वाला मंत्र पढने का अभ्यास हो जाये तो बाद में अन्वय वाला मिटा दें। डायरी में अपने हाथ से लिखें यदि कंठस्थ करना है तो साथ में इस विडियो से सुने भी ~ॐ यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु । यजुर्वेद ३४-१/
[अन्वय - यत् जाग्रतः दूरं उदैति सुप्तस्य तथा एव एति तत् दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिः एकं दैवं तत् में मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।]
पदार्थ : (यत्) जो, जाग्रतः -जाग्रत अवस्था में ,'दुरम् उदैती' - दूर दूर भागता हैं, और 'सुप्तस्य' सुप्त अवस्था में भी (तथा+एव) उसी प्रकार ही (एती) जाता है | 'तत्' वह (दूरं गमं) दूर दूर पहुचने वाला (ज्योतिषां ज्योतिः) ज्योतियो का भी ज्योति रूप, प्रधान इन्द्रीय (एकं) एकमात्र (दैव) दिव्य शक्ति सम्पन्न (में मनः) मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शुभ संकल्पों वाला (अस्तु) हो।
हे परमात्मा ! जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों रुपी ज्योतियों की एक मात्र ज्योति है अर्थात् इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाली एक ज्योति है अथवा जो मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो !
ऋषियों ने परमात्मा से प्रार्थना करते हुए मन को इन्द्रियों का प्रकाशक कहा है- 'ज्योतिषां ज्योतिरेकम्।' मन के द्वारा सभी इन्द्रियां अपने अपने विषय का ज्ञान ग्रहण करती है । स्वाद रसना नहीं अपितु मन लेता है, नयनाभिराम दृश्य मन को मनोहर लगते हैं अन्यथा अमृतवर्षा करती चंद्रकिरणें अग्निवर्षा करती हुईं प्रतीत होती हैं । वाक् इन्द्रिय वही बोलती है व श्रवणेंद्रिय वही सुनती हैं जो मन अभिप्रेरित करता है । यही मन स्पर्शेंद्रिय से प्राप्त संवेदनों को सुखदुःखात्मक, मृदु-कठोर मनवाता है। सब इन्द्रियां निज निज कार्य करती हैं, किन्तु उनकी अनुभूतियों के ग्रहण में मन की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता । वह दिव्य ज्योतिमय शक्ति (मन) जो हमारे जागने की अवस्था में बहुत दूर तक चला जाता है, और हमारी निद्रावस्था में हमारे पास आकर आत्मा में विलीन हो जाता है,वह प्रकाशमान श्रोत जो हमारी इंद्रियों को प्रकाशित करता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
जो मन जाग्रत अवस्था में दूर - दूर तक चला जाता है, और सुप्त रहते स्वप्नावस्था में भी उतना ही चला करता है। जो सभी ज्योतियों की एक ज्योति है, वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।ॐ येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥२॥
[ अन्वय *ॐ येन कर्माण्य पसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यद पूर्वम यक्ष मन्तः प्रजानाम तन्म मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥२॥]
येन अपसः मनीषिणः यज्ञे धीराः विदथेषु कर्माणि कृण्वन्ति यत् अपूर्वं प्रजानां अंतः यक्षं तत् मे मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।
[ यजुर्वेद ३४-२/ पदार्थ : 'येन' जिस मन से (अपसः) पुरुषार्थी 'धीराः' धीर और 'मनीषिणः' मनस्वी या मननशील पुरुष, 'यज्ञे' सत्कर्म में और 'विदथेषु' युद्धादि में भी, 'कर्माणि' इष्ट कर्मो को 'क्रन्वन्ति' करते हैं, और 'यत्' जो 'अपुर्वम्' अपूर्व हैं; और 'प्रजानाम्' प्राणियों के 'अन्त' भीतर 'यक्षम्' मिला हुआ हैं, 'तत्' वह, 'में' मेरा (मनः) मन 'शिवसंकल्पमस्तु'- शिव संकल्पो वाला हो।]
जिस मन की सहायता से ज्ञानीजन (ऋषिमुनि इत्यादि) कर्मयोग की साधना में लीन यज्ञ,जप,तप करते हैं,वह (मन) जो सभी जनों के शरीर में विलक्षण रुप से स्थित है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
[अन्वय - यत् जाग्रतः दूरं उदैति सुप्तस्य तथा एव एति तत् दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिः एकं दैवं तत् में मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।]
पदार्थ : (यत्) जो, जाग्रतः -जाग्रत अवस्था में ,'दुरम् उदैती' - दूर दूर भागता हैं, और 'सुप्तस्य' सुप्त अवस्था में भी (तथा+एव) उसी प्रकार ही (एती) जाता है | 'तत्' वह (दूरं गमं) दूर दूर पहुचने वाला (ज्योतिषां ज्योतिः) ज्योतियो का भी ज्योति रूप, प्रधान इन्द्रीय (एकं) एकमात्र (दैव) दिव्य शक्ति सम्पन्न (में मनः) मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शुभ संकल्पों वाला (अस्तु) हो।
हे परमात्मा ! जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों रुपी ज्योतियों की एक मात्र ज्योति है अर्थात् इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाली एक ज्योति है अथवा जो मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो !
ऋषियों ने परमात्मा से प्रार्थना करते हुए मन को इन्द्रियों का प्रकाशक कहा है- 'ज्योतिषां ज्योतिरेकम्।' मन के द्वारा सभी इन्द्रियां अपने अपने विषय का ज्ञान ग्रहण करती है । स्वाद रसना नहीं अपितु मन लेता है, नयनाभिराम दृश्य मन को मनोहर लगते हैं अन्यथा अमृतवर्षा करती चंद्रकिरणें अग्निवर्षा करती हुईं प्रतीत होती हैं । वाक् इन्द्रिय वही बोलती है व श्रवणेंद्रिय वही सुनती हैं जो मन अभिप्रेरित करता है । यही मन स्पर्शेंद्रिय से प्राप्त संवेदनों को सुखदुःखात्मक, मृदु-कठोर मनवाता है। सब इन्द्रियां निज निज कार्य करती हैं, किन्तु उनकी अनुभूतियों के ग्रहण में मन की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता । वह दिव्य ज्योतिमय शक्ति (मन) जो हमारे जागने की अवस्था में बहुत दूर तक चला जाता है, और हमारी निद्रावस्था में हमारे पास आकर आत्मा में विलीन हो जाता है,वह प्रकाशमान श्रोत जो हमारी इंद्रियों को प्रकाशित करता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
जो मन जाग्रत अवस्था में दूर - दूर तक चला जाता है, और सुप्त रहते स्वप्नावस्था में भी उतना ही चला करता है। जो सभी ज्योतियों की एक ज्योति है, वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।ॐ येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥२॥
[ अन्वय *ॐ येन कर्माण्य पसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यद पूर्वम यक्ष मन्तः प्रजानाम तन्म मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥२॥]
येन अपसः मनीषिणः यज्ञे धीराः विदथेषु कर्माणि कृण्वन्ति यत् अपूर्वं प्रजानां अंतः यक्षं तत् मे मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।
[ यजुर्वेद ३४-२/ पदार्थ : 'येन' जिस मन से (अपसः) पुरुषार्थी 'धीराः' धीर और 'मनीषिणः' मनस्वी या मननशील पुरुष, 'यज्ञे' सत्कर्म में और 'विदथेषु' युद्धादि में भी, 'कर्माणि' इष्ट कर्मो को 'क्रन्वन्ति' करते हैं, और 'यत्' जो 'अपुर्वम्' अपूर्व हैं; और 'प्रजानाम्' प्राणियों के 'अन्त' भीतर 'यक्षम्' मिला हुआ हैं, 'तत्' वह, 'में' मेरा (मनः) मन 'शिवसंकल्पमस्तु'- शिव संकल्पो वाला हो।]
जिस मन की सहायता से ज्ञानीजन (ऋषिमुनि इत्यादि) कर्मयोग की साधना में लीन यज्ञ,जप,तप करते हैं,वह (मन) जो सभी जनों के शरीर में विलक्षण रुप से स्थित है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
कर्म में होते निरत जिससे मनीषी, धैर्यशील व्रती का संकल्प पूरा कराता जो, यज्ञ में जो अद्भुत शक्ति रूप में प्रतिष्ठित है, वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
ॐ यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥३॥
[अन्वय *ॐ यत् प्रज्ञान मु त चेतो धृतिश्च यज् ज्योति रन्तर मृतम प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥३॥ ]
यजुर्वेद ३४-३/पदार्थ : 'यत्' जो मन 'प्रज्ञानं' ज्ञान 'चेतः' चिंतन, उत और धृति धैर्य से युक्त हैं, च और यत्' जो; 'प्रजासु' प्रजाओ के, 'अन्तः' अंदर; 'अमृतम्' अमृत, (ज्योतिः) ज्योति हैं और 'यस्मात्' जिसके 'ऋते' बिना 'किंचन' कुछ कर्म काम, (न) नहीं 'क्रियते' किया जाता हैं; तन्मे मनः' वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शिव संकल्पों वाला हो |
जो मन ज्ञान, चित्त , व धैर्य स्वरूप , अविनाशी आत्मा से सुक्त इन समस्त प्राणियों के भीतर ज्योति सवरुप विद्यमान है, जिसके बिना कोई भी कर्म नहीं होता, वह मेरा मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त हो।
ज्ञानमय, विज्ञानमय, धृतिशील सब प्राणियों में जो रहा करता है तेज बनकर; नहीं किंचित् कर्म होता जिसके बिना; वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
ॐ यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥३॥
[अन्वय *ॐ यत् प्रज्ञान मु त चेतो धृतिश्च यज् ज्योति रन्तर मृतम प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥३॥ ]
यजुर्वेद ३४-३/पदार्थ : 'यत्' जो मन 'प्रज्ञानं' ज्ञान 'चेतः' चिंतन, उत और धृति धैर्य से युक्त हैं, च और यत्' जो; 'प्रजासु' प्रजाओ के, 'अन्तः' अंदर; 'अमृतम्' अमृत, (ज्योतिः) ज्योति हैं और 'यस्मात्' जिसके 'ऋते' बिना 'किंचन' कुछ कर्म काम, (न) नहीं 'क्रियते' किया जाता हैं; तन्मे मनः' वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शिव संकल्पों वाला हो |
जो मन ज्ञान, चित्त , व धैर्य स्वरूप , अविनाशी आत्मा से सुक्त इन समस्त प्राणियों के भीतर ज्योति सवरुप विद्यमान है, जिसके बिना कोई भी कर्म नहीं होता, वह मेरा मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त हो।
ज्ञानमय, विज्ञानमय, धृतिशील सब प्राणियों में जो रहा करता है तेज बनकर; नहीं किंचित् कर्म होता जिसके बिना; वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
ॐ येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्त होता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥४॥
[ अन्वय *ॐ येनेदम भूतम भुवनम भविष्यत् परिगृहीतम मृतेन सर्वम्।
येन यज्ञ स्तायते सप्त होता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥४॥]
यजुर्वेद ३४-४/ पदार्थ : (येन) जिस (अमृतेन) अमर मन से (भूतम्) भूत (भुवनम्) वर्तमान (भविष्यत्) भविष्य सब कुछ (परिग्रहीतम्) परिगृहीत हैं | (येन) जिस मन से (सप्त होता) सात (ऋत्वाजो) द्वारा होने वाला यज्ञ (तायते) फैलाया जाता हैं (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) अच्छे संकल्पों वाला हो |
जिस शाश्वत मन के द्वारा भूत,भविष्य व वर्तमान काल की सारी वस्तुयें सब ओर से ज्ञात होती हैं,और जिस मन के द्वारा सप्तहोत्रिय यज्ञ (सात ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला यज्ञ) किया जाता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
भूत, भावी, सतत वह जो, अमृतवत् सब कुछ संजोता, हविर्दाता सात रूपों में जगत विस्तार करता है , वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
येन यज्ञस्तायते सप्त होता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥४॥
[ अन्वय *ॐ येनेदम भूतम भुवनम भविष्यत् परिगृहीतम मृतेन सर्वम्।
येन यज्ञ स्तायते सप्त होता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥४॥]
यजुर्वेद ३४-४/ पदार्थ : (येन) जिस (अमृतेन) अमर मन से (भूतम्) भूत (भुवनम्) वर्तमान (भविष्यत्) भविष्य सब कुछ (परिग्रहीतम्) परिगृहीत हैं | (येन) जिस मन से (सप्त होता) सात (ऋत्वाजो) द्वारा होने वाला यज्ञ (तायते) फैलाया जाता हैं (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) अच्छे संकल्पों वाला हो |
जिस शाश्वत मन के द्वारा भूत,भविष्य व वर्तमान काल की सारी वस्तुयें सब ओर से ज्ञात होती हैं,और जिस मन के द्वारा सप्तहोत्रिय यज्ञ (सात ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला यज्ञ) किया जाता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
भूत, भावी, सतत वह जो, अमृतवत् सब कुछ संजोता, हविर्दाता सात रूपों में जगत विस्तार करता है , वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
ॐ यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिंश्चित्तँ सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥५॥
[अन्वय *ॐ यस्मिन ऋचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथ नाभा विवाराः।
यस्मिन्ष चित्तः सर्व मोतम प्रजानाम तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥५॥]
यजुर्वेद ३४-५/पदार्थ : हे प्रभो ! (यास्मिन्) जिस शुद्ध मन में (ऋचः साम) ऋग्वेद और सामवेद तथा (यास्मिन्) जिसमे (प्रजानाम्) प्राणियों के समग्र (चित्तम्) ज्ञान (ओतम्) सूत में मणियों के सामान सम्बद्ध हैं (तत्) वह (में) मेरा (मनः) मन (शिवसंकल्पमस्तु) उत्तम संकल्पों वाला हो |
जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाये व सामवेद व यजुर्वेद के मंत्र उसी प्रकार स्थापित हैं, जैसे रथ के पहिये की धुरी से तीलियाँ जुड़ी होती हैं, जिसमें सभी प्राणियों का ज्ञान कपड़े के तंतुओं की तरह बुना होता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
जैसे रथ चक्र में अरे हुआ करते, साम, ऋक्,यजु में प्रतिष्ठित वह प्राणियों के चित्त ओत प्रोत जिससे, वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
यस्मिंश्चित्तँ सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥५॥
[अन्वय *ॐ यस्मिन ऋचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथ नाभा विवाराः।
यस्मिन्ष चित्तः सर्व मोतम प्रजानाम तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥५॥]
यजुर्वेद ३४-५/पदार्थ : हे प्रभो ! (यास्मिन्) जिस शुद्ध मन में (ऋचः साम) ऋग्वेद और सामवेद तथा (यास्मिन्) जिसमे (प्रजानाम्) प्राणियों के समग्र (चित्तम्) ज्ञान (ओतम्) सूत में मणियों के सामान सम्बद्ध हैं (तत्) वह (में) मेरा (मनः) मन (शिवसंकल्पमस्तु) उत्तम संकल्पों वाला हो |
जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाये व सामवेद व यजुर्वेद के मंत्र उसी प्रकार स्थापित हैं, जैसे रथ के पहिये की धुरी से तीलियाँ जुड़ी होती हैं, जिसमें सभी प्राणियों का ज्ञान कपड़े के तंतुओं की तरह बुना होता है, मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
जैसे रथ चक्र में अरे हुआ करते, साम, ऋक्,यजु में प्रतिष्ठित वह प्राणियों के चित्त ओत प्रोत जिससे, वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
ॐ सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥६॥
*ॐ सुषार थिर अश्वा नि व यन् मनुष्यान्ने नीयतेऽ भीशुर भिवा जिन इ व।
हृत् प्रतिष्ठम यदजिरम जविष्ठम तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥६॥
पदार्थ : (यत्) जो मन (मनुष्यान्) मनुष्यों को (सुषारथिः) उत्तम सारथी (अश्वानिव) घोडो कि तरह (नेनियते) इधर-उधर ले जाता हैं और जो मन, अच्छा सारथी (अभीशुभिः) रस्सियों से (वाजिन इव) वेग वाले घोडो के समान मनुष्यों को वश में रखता हैं और (यत्) जो हत्प्रतिष्ठम् ह्रदय में स्थिर हैं (अजिरम्) जरा सहित हैं (जविष्ठम्) जो अतिशयगमन शील हैं | (तत्) वह (मे) मेरा (मनः) मन (शिव-संकल्पमस्तु) उत्तम संकल्पों वाला हो |
जो मन हर मनुष्य को इंद्रियों का लगाम द्वारा उसी प्रकार घुमाता है, तिस प्रकार एक कुशल सारथी लगाम द्वारा रथ के वेगवान अश्वों को नियंत्रितकरता व उन्हें दौड़ाता है, आयुरहित (अजर) तथा अति वेगवान व प्रणियों के हृदय में स्थित मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
सारथी रथ की कुशल वल्गा लिए, नियंत्रित गतिशील कर ज्यों अश्वदल अथक् द्रुत जो प्रणियों के हृदय स्थित, वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥६॥
*ॐ सुषार थिर अश्वा नि व यन् मनुष्यान्ने नीयतेऽ भीशुर भिवा जिन इ व।
हृत् प्रतिष्ठम यदजिरम जविष्ठम तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥६॥
पदार्थ : (यत्) जो मन (मनुष्यान्) मनुष्यों को (सुषारथिः) उत्तम सारथी (अश्वानिव) घोडो कि तरह (नेनियते) इधर-उधर ले जाता हैं और जो मन, अच्छा सारथी (अभीशुभिः) रस्सियों से (वाजिन इव) वेग वाले घोडो के समान मनुष्यों को वश में रखता हैं और (यत्) जो हत्प्रतिष्ठम् ह्रदय में स्थिर हैं (अजिरम्) जरा सहित हैं (जविष्ठम्) जो अतिशयगमन शील हैं | (तत्) वह (मे) मेरा (मनः) मन (शिव-संकल्पमस्तु) उत्तम संकल्पों वाला हो |
जो मन हर मनुष्य को इंद्रियों का लगाम द्वारा उसी प्रकार घुमाता है, तिस प्रकार एक कुशल सारथी लगाम द्वारा रथ के वेगवान अश्वों को नियंत्रितकरता व उन्हें दौड़ाता है, आयुरहित (अजर) तथा अति वेगवान व प्रणियों के हृदय में स्थित मेरा वह मन शुभसंकल्प युक्त ( सुंदर व पवित्र विचारों से युक्त) हो।
सारथी रथ की कुशल वल्गा लिए, नियंत्रित गतिशील कर ज्यों अश्वदल अथक् द्रुत जो प्रणियों के हृदय स्थित, वही मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो ।
🔱🙏कोशी नदी उत्तराखण्ड के कुमांऊॅं क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण नदी है। स्कंदपुराण के मानसखण्ड में इस नदी का उल्लेख कौशिकी के नाम से हुआ है। पौराणिक
उल्लेखों के अनुसार सतयुग में उत्तराखण्ड की कन्दराओं में जब ऋषि-मुनियों
पर धर्मद्वेषी असुरों का अत्याचार होने लगा। तत्समय द्रोणगिरी (दूनागिरी),
कषायपर्वत तथा कंजार पर्वत के ऋषि मुनियों ने कौशिकी (कोसी नदी) के तट पर
आकर सूर्य-देव की स्तुति की। ऋषि मुनियों की स्तुति से प्रसन्न होकर
सूर्य-देव ने अपने दिव्य तेज को वटशिला में स्थापित कर दिया। इसी वटशिला पर
कत्यूरी राजवंश के शासक कटारमल ने बड़ादित्य नामक तीर्थ स्थान के रूप में
प्रस्तुत सूर्य-मन्दिर का निर्माण करवाया ।
यह पूर्वाभिमुखी है तथा
उत्तराखण्ड राज्य में अल्मोड़ा जिले के अधेली सुनार नामक गॉंव में स्थित
है। यह अल्मोड़ा से 17 किलोमीटर की दूरी पर 3 किलोमीटर पैदल कच्चे रास्ते पर चलने के बाद पश्चिम की ओर स्थित है।
कहा जाता है कि जब सूर्य निकलता है तो सूर्य की पहली किरण कटारमल सूर्य
मंदिर में जो मुख्य मंदिर में शिवलिंग है, उस पर पड़ती है। यह सूर्य की
पहली किरण इन्द्र धनुष की तरह दिखाई देती है। भक्तजनों के द्वारा यह कहा
जाता है कि इस सूर्य देवता के मंदिर में जो भी आता है, वह अपनी परेशानी
सूर्य देवता से कहता है, तो उसकी परेशानी का हल जरूर निकलता है। और वह यहां
से खुश दिल से ही लौटता है चाहे वह कितना ही दुखी मन होकर आया हो।
इस
मंदिर में देश विदेशों से भक्त दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर के समीप गोविंद बल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण संस्थान
भी स्थित है। ऋषि-मुनियों ने जब से इस नदी के तट पर तपस्या की, तब से
कोसी नदी को इस मंदिर का मुख्य मार्ग माना जाता है, तभी से इसे कोशी कटारमल के नाम से भी जाना जाता है। जो अब कटारमल सूर्य-मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। कटारमल सूर्य मन्दिर
भारतवर्ष का प्राचीनतम सूर्य मन्दिर है। इसका निर्माण कत्यूरी राजवंश के
तत्कालीन शासक कटारमल के द्वारा छठीं से नवीं शताब्दी में हुआ था। यह
कुमांऊॅं के विशालतम ऊँचे मन्दिरों में से एक व उत्तर भारत में विलक्षण
स्थापत्य एवम् शिल्प कला का बेजोड़ उदाहरण है तथा समुद्र सतह से लगभग 2116
मीटर की ऊँचाई पर पर्वत पर स्थित है। ]
जीवन का मूल उद्देश्य है-शिवत्व (ईश्वर) की प्राप्ति। उपनिषद् का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है-हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें ? इसी का उत्तर है यह ~ ' ॐ नमः शिवाय’ जैसा गुरु से प्राप्त कोई मंत्र। ‘ मंत्र शब्दात्मक होता है। उसमें अचिन्त्य शक्ति होती है। 'देवो भूत्वा यजेत् देवं।' अर्थात अपने इष्टदेव की अर्चना करने के लिए पहले अपने आपको उनके अनुरूप बनाओ।
हमारा सारा जगत् शब्दमय है। शब्द को ब्रह्म माना गया है। मन के तीन कार्य हैं-स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन। मन प्रतीत की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है। किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती हैं, न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है। सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं। हम किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं। इसी तरह कल्पना एवं चिन्तन में भी शब्द का बिम्ब ही सहायक होता है। यदि मन को शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मन लंगड़ा है। मन की चंचलता वास्तव में ध्वनि की, शब्द की या भाषा की चंचलता है। मन को निर्विकल्प बनाने के लिए शब्द की साधना बहुत जरूरी है। ध्वनि विज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ध्वनियां होती है-श्रव्य ध्वनि और अश्रव्य ध्वनि। अश्रव्य ध्वनि अर्थात् (Ultra Sound Super Sonic) यह सुनाई नहीं देती। हमारा कान केवल 32470 कंपनों को ही पकड़ सकता है। कम्पन तो अरबों होते हैं किन्तु कान 32470 आवृत्ति के कम्पनों को ही पकड़ सकता है।
जैसे मिट्टी के एक पिण्ड को जान लेने से मिट्टी की सब चीजों का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार इस देहपिण्ड को जान लेने से समस्त विश्व- ब्रह्माण्ड का ज्ञान हो जाता है। रूप, वस्तु का मानो छिलका है और नाम या भाव भीतर का गूदा। शरीर है रूप और मन या अन्तःकरण है नाम; और वाक्शक्तियुक्त समस्त प्राणियों में इस नाम के साथ उसके वाचक शब्दों का अभेद्य योग रहता है। व्यष्टि मानव के परिच्छिन्न महत् या चित्त में विचार-तरंगें पहले 'शब्द' के रूप में उठती हैं और फिर बाद में तदपेक्षा स्थूलतर रूप धारण कर लेती हैं।
बृहत् ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ या समष्टि-महत् ने पहले अपने को नाम के और फिर बाद में रूप के आकार में अर्थात् इस परिदृश्यमान जगत् के आकार में अभिव्यक्त किया। यह सारा व्यक्त इन्द्रियग्राह्य जगत् रूप है, और इसके पीछे है। अनन्त अव्यक्त स्फोट का अर्थ है-समस्त जगत् की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म। समस्त नामों अर्थात् भावों का नित्य-समवायी अपादानस्वरूप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे ईश्वर इस विश्व की सृष्टि करता है। यही नहीं, ईश्वर पहले स्फोट-रूप में परिणत हो जाता है और तत्पश्चात् अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रियग्राह्य जगत् के रूप में परिणत कर लेता है। इस स्फोट का एकमात्र वाचक शब्द है 'ॐ'। चूंकि हम किसी भी उपाय से शब्द को भाव से अलग नहीं कर सकते, इसलिए 'ॐ' भी इस नित्य स्फोट से नित्य संयुक्त है। अतएव समस्त विश्व की उत्पत्ति, सारे नाम-रूपों की जननीस्वरूप इस ओंकार-रूप पवित्रतम शब्द से ही मानी जा सकती है। ]
राज योग : “ संसार में इतना दुःख क्यों है ? सम्पूर्ण विश्व में कोबिड-19 से हाल मे आई इतनी बड़ी तबाही के हृदयविदारक समाचार एक बार फिर हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि ”संसार में इतना दुःख -कष्ट क्यों है ?” वैसे इतने बड़े पैमाने पर विपत्ति का आना कोई नई बात नहीं है। सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदा, युद्ध, महामारी और दुष्टता हमेशा से ही रहे हैं। नई बात यह है की आज हम अपने घर बैठे ही दुनिया के किसी भी कोने में इंसानों पर आये हुए संकट को टीवी पर देख सकते हैं। और कुछ करें ना करें कम से कम हम इस प्रश्न पर ध्यान दे कर इसका उत्तर ढूँढने की कोशिश कर सकते हैं।
जीवन का मूल उद्देश्य है-शिवत्व (ईश्वर) की प्राप्ति। उपनिषद् का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है-हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें ? इसी का उत्तर है यह ~ ' ॐ नमः शिवाय’ जैसा गुरु से प्राप्त कोई मंत्र। ‘ मंत्र शब्दात्मक होता है। उसमें अचिन्त्य शक्ति होती है। 'देवो भूत्वा यजेत् देवं।' अर्थात अपने इष्टदेव की अर्चना करने के लिए पहले अपने आपको उनके अनुरूप बनाओ।
हमारा सारा जगत् शब्दमय है। शब्द को ब्रह्म माना गया है। मन के तीन कार्य हैं-स्मृति, कल्पना एवं चिन्तन। मन प्रतीत की स्मृति करता है, भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है। किन्तु शब्द के बिना न स्मृति होती हैं, न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है। सारी स्मृतियां, सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं। हम किसी की स्मृति करते हैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं। इसी तरह कल्पना एवं चिन्तन में भी शब्द का बिम्ब ही सहायक होता है। यदि मन को शब्द का सहारा न मिले, यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मन लंगड़ा है। मन की चंचलता वास्तव में ध्वनि की, शब्द की या भाषा की चंचलता है। मन को निर्विकल्प बनाने के लिए शब्द की साधना बहुत जरूरी है। ध्वनि विज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ध्वनियां होती है-श्रव्य ध्वनि और अश्रव्य ध्वनि। अश्रव्य ध्वनि अर्थात् (Ultra Sound Super Sonic) यह सुनाई नहीं देती। हमारा कान केवल 32470 कंपनों को ही पकड़ सकता है। कम्पन तो अरबों होते हैं किन्तु कान 32470 आवृत्ति के कम्पनों को ही पकड़ सकता है।
जैसे मिट्टी के एक पिण्ड को जान लेने से मिट्टी की सब चीजों का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार इस देहपिण्ड को जान लेने से समस्त विश्व- ब्रह्माण्ड का ज्ञान हो जाता है। रूप, वस्तु का मानो छिलका है और नाम या भाव भीतर का गूदा। शरीर है रूप और मन या अन्तःकरण है नाम; और वाक्शक्तियुक्त समस्त प्राणियों में इस नाम के साथ उसके वाचक शब्दों का अभेद्य योग रहता है। व्यष्टि मानव के परिच्छिन्न महत् या चित्त में विचार-तरंगें पहले 'शब्द' के रूप में उठती हैं और फिर बाद में तदपेक्षा स्थूलतर रूप धारण कर लेती हैं।
बृहत् ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ या समष्टि-महत् ने पहले अपने को नाम के और फिर बाद में रूप के आकार में अर्थात् इस परिदृश्यमान जगत् के आकार में अभिव्यक्त किया। यह सारा व्यक्त इन्द्रियग्राह्य जगत् रूप है, और इसके पीछे है। अनन्त अव्यक्त स्फोट का अर्थ है-समस्त जगत् की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म। समस्त नामों अर्थात् भावों का नित्य-समवायी अपादानस्वरूप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे ईश्वर इस विश्व की सृष्टि करता है। यही नहीं, ईश्वर पहले स्फोट-रूप में परिणत हो जाता है और तत्पश्चात् अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रियग्राह्य जगत् के रूप में परिणत कर लेता है। इस स्फोट का एकमात्र वाचक शब्द है 'ॐ'। चूंकि हम किसी भी उपाय से शब्द को भाव से अलग नहीं कर सकते, इसलिए 'ॐ' भी इस नित्य स्फोट से नित्य संयुक्त है। अतएव समस्त विश्व की उत्पत्ति, सारे नाम-रूपों की जननीस्वरूप इस ओंकार-रूप पवित्रतम शब्द से ही मानी जा सकती है। ]
राज योग : “ संसार में इतना दुःख क्यों है ? सम्पूर्ण विश्व में कोबिड-19 से हाल मे आई इतनी बड़ी तबाही के हृदयविदारक समाचार एक बार फिर हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि ”संसार में इतना दुःख -कष्ट क्यों है ?” वैसे इतने बड़े पैमाने पर विपत्ति का आना कोई नई बात नहीं है। सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदा, युद्ध, महामारी और दुष्टता हमेशा से ही रहे हैं। नई बात यह है की आज हम अपने घर बैठे ही दुनिया के किसी भी कोने में इंसानों पर आये हुए संकट को टीवी पर देख सकते हैं। और कुछ करें ना करें कम से कम हम इस प्रश्न पर ध्यान दे कर इसका उत्तर ढूँढने की कोशिश कर सकते हैं।
योग सूत्र के महान व्याख्याकार स्वामी विवेकानन्द ने कहा है “यदि ज्ञान का उद्देश्य मानवता का कष्ट निवारण है तो सर्वोच्च 'ज्ञान' वही है जो दुःख से पूर्ण मुक्ति दे। ” सारी दुनिया की छोटी बड़ी खबर जानने में अपना कीमती समय गंवाने की जगह आइये आज हम प्रार्थना करें कि हमें इस “क्यों” का उत्तर मिले। आर्थिक विकास, कानून, चिकित्सा और औपचारिक शिक्षा जैसे आधुनिक उपाय ढूँढने की जगह पतंजलि ने मानवता के दुर्गति के मूल कारण को पहचाना और उन कारणों के निवारण के उपाय बताये। पतंजलि योग सूत्र में दुःख के मूल कारण और उनके निदान के ऊपर विस्तृत चर्चा की गई है। उनकी शिक्षा आज भी उपयुक्त है जितने की 2000 साल पहले थी क्योंकि मनुष्य की प्रवृत्तियाँ आज भी वैसी ही हैं। और इसीलिए हमारे जैसे महामण्डल कर्मियों का कर्त्तव्य है कि हम स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित इस मनुष्य -निर्माण और चरित्र- निर्माणकारी शिक्षा पद्धति ["Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित चरित्रवान शिक्षक/ब्रह्मविद मनुष्य /नेता बनने और बनाने की शिक्षापद्धति] का स्वय अध्ययन करें और महामण्डल के वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर दुःख-क्लेश से ग्रस्त मानव समाज तक इस शिक्षा को पहुँचायें।
महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र II.1 में क्रिया योग की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है : “सतत अभ्यास (वैराग्य के साथ), स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान। ” इनमे
प्रमुख हैं यम , नियम का अभ्यास प्रतिमुहूर्त, रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर आसन में बैठकर, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास दिन में दो बार प्रातः सूर्योदय से पूर्व एवं संध्या गोधूलि बेला में। स्वामी विवेकानन्द ने किसी योग्य गुरु के सानिध्य में बैठकर ही प्राणायाम करने की चेतावनी देते हुए सामान्य साधकों को प्राणायाम करने से मना किया है।
हठ योग से 150 वर्ष भी जीवित रहा जा सकता है, पर उससे कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता। बरगद का वृक्ष भी 200 साल जीवित रहता है , उससे क्या ? उनके गुरु श्रीरामकृष्ण ने समाधि में रहने से मना किया था, और ध्यान करने से समाधि होती है। अतः महामण्डल में विद्यार्थियों के लिए अष्टांग योग के केवल 5 अंगों के अभ्यास का ही प्रशिक्षण दिया जाता है। हठयोग के द्वारा “कुण्डलिनी” को विकसित करने की चेष्टा के विषय में कुछ न कहना ही अच्छा होगा। इस “कुण्डलिनी-जागरण ” के चक्कर में महामण्डल के एक वरिष्ठ सदस्य तथा केमिस्ट्री के अविवाहित प्रोफेसर को विक्षिप्त होते देखा गया है।
बाबाजी ने सन् 1861 में लाहिड़ी महाशय को प्रभावशाली क्रिया योग विद्या की दीक्षा दी। महर्षि पतंजलि ने मन की अशुद्धियों को दूर करने के लिए कहा है- ‘‘तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:’’ अर्थात् तपस्या, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान- यह क्रियायोग है।
लक्ष्य- क्रियायोग क्यों किया जाये ? इस प्रश्न का उत्तर महर्षि ने देते हुए कहा है-समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च।(पा.यो.सू.2.2) क्रियायोग का अभ्यास क्लेशों को तनु करने के लिए एवं समाधि भूमि प्राप्त करने के लिये कहा जा रहा है।
क्लेश- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश और अभिनिवेश हैं। पंच क्लेश : योग सूत्र के द्वितीय पाद में पतंजलि ने हमें बतलाया है : “अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश – ये पाँच क्लेश हैं” II. ३ - अर्थात दुःख का मूल कारण है अविद्या और यही अन्य क्लेशों का श्रोत है।
यहाँ पर अविद्या से सामान्य अज्ञान या विद्या का अभाव नहीं बल्कि अपनी सही पहचान से वंचित रहना है। चेतना के विषयों को “अस्ति भाव” से जोड़ने का भ्रम इसी कारण से उत्पन्न होता है। हिप्नोटाइज्ड मनुष्य या सम्मोहित मनुष्य अपनी वास्तविकता को भूलकर स्वयं को “शरीर, मन, इन्द्रिय, मिथ्या अहं-भावना,” इत्यादि समझने की भूल करता है। सामान्य मनुष्य में यह पञ्च-क्लेश लगातार ज्यूँ का त्यूं बने रहते हैं। जब कभी सुनामी या कोबिड-19 जैसी महामारी के कारण हमारी जान माल पर संकट आता है तो हमारी सोच-समझ पर भय हावी हो जाता है। और हम फिर से स्वामी जी 'सिंह शावक ' की कथा में वर्णित 'हिप्नोटाइज्ड भेंड़' बन जाते हैं। अविद्या अर्थात् अनित्य को नित्य मानना, अशुचि को शुचि अर्थात् पवित्र मानना, अनात्म को आत्म अर्थात् अपना मानना, दु:ख को सुख समझना है। यह संसार अनित्य, शरीर गन्दगी से भरा हुआ है, यह संसार दु:खमय है हर सुख का अन्त दु:ख से परिपूर्ण है, यह इन्द्रिय, शरीर और चित्त जड़ है, अनात्म है, उपर्युक्त सभी की विपरीत भावना कर संसार को नित्य, पवित्र, सुखमय व आत्म समझना ही अविद्या है। अविद्या ही अन्य क्लेशों का मूल है।
इसके आगे पतंजलि हमें बतलाते हैं : “नश्वर को शाश्वत, अशुद्ध को शुद्ध, दुःख को सुख् और अनात्मा को आत्मा समझ लेना ही अविद्या है” – II.5 अस्मिता अर्थात् ‘मैं की भावना’ अहम् भावना ही अस्मिता क्लेश है यह मेरा शरीर है, मेरी वस्तु आदि को समझना अस्मिता नामक क्लेश है। यह घोर कष्ट को देने वाली शक्ति है। राग, सदैव सुखी रहने की इच्छा व द्वेश दु:ख से बचने का भाव है। दोनों परस्पर मिले हुये हैं। अपने वास्तविकता (सच्चिदानन्द स्वरूप) को न पहचान पाने के कारण ही हम बोल बैठते हैं “मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ , मैं अमुक जाति या सम्प्रदाय का हूँ", " मैं थक गया हूँ”, “मैं परेशान हूँ”, “मैं गुस्से में हूँ। ” जबकि सच्चाई ये है कि “मेरा शरीर M/F है या थक गया है” अथवा “मेरा मन चिंताग्रस्त है। ” अपना वास्तविक परिचय या अपनी आत्मा (सिंहशावक स्वरूप) को न जान पाना ही मानवता के दुखों का मूल कारण है। आत्मा 'witness consciousness' चिरस्थायी शाक्षी है। आत्मा (existence-consciousness-bliss) अपरिवर्तनशील होने के कारण अविनाशी है, यही अनन्त आत्मा नाना रूपों में गतिशील होते हुए भी शुद्ध और निर्लिप्त द्रष्टा है जो सब में व्याप्त है। बाकी सब कुछ अस्थायी और परिवर्तनशील (reflected consciousness) है। अगर हम अनित्य (मिथ्या अहं बोध-भेंड़त्व ) से चिपके रहेंगे तो दुःख को तो आना ही है। और ऐसा नहीं है कि दुःख कुछ खोने या किसी से बिछड़ने के बाद ही आता है बल्कि दुःख अपने आसक्ति के विषयों को खो देने के डर से ही शुरू हो जाता है। जो सर्वव्यापी आत्मा का दर्शन पा लेता है वह हजारों उथल पुथल या कोबिड -19 जैसी महामारी के बीच भी एक नीरव आश्रय (अवतारवरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव) को प्राप्त कर लेता है , और आत्मज्ञान पा लेता है, या ब्रह्मविद मनुष्य बन जाता है।
“देखने के यंत्र (मन-reflected consciousness) को देखने वाला (साक्षी चैतन्य-Pure consciousness) समझ बैठना अस्मिता है” – योगसूत्र - II.6/ अपने शरीर, मन, मिथ्या अहं -भावनाओं और संवेदनाओं को अपना स्वरुप मान लेने की आदत, पुरानी होते होते, स्वयं को M/F समझ लेने की जो प्रवृत्ति है वही अस्मिता कहलाती है। अपनी वास्तविकता का ज्ञान न होने के कारण ही यह भ्रम उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं है कि यह किसी एक व्यक्ति की कमजोरी हो बल्कि मानव मात्र में व्याप्त भ्रान्ति है या यूँ कहें कि चेतना को गुप्त रखने के लिये इसका सृजन किया गया है। सर्वव्यापी चेतना को प्रत्येक प्राणी में पृथक रचने का इस प्राकृतिक नियम का योगी विवेक और वैराग्य के अभ्यास से अतिक्रमण कर अपनी चेतना को पुनः विस्तृत कर सकता है | “मैं दुखी हूँ” के सोचने के जगह अपने दुःख को साक्षी भाव से देखते हुए इस दुःख के निवारण अथवा सुख् के प्राप्ति के लिये आवश्यक कर्म करते रहें।
“सुख् के प्रति आसक्ति राग है” -II.7
सर्वव्यापी चेतना (awareness) से पृथक व्यक्ति जब स्वयं को M/F शरीर, विचार प्रवाह एवं स्मृति समझ लेता है तो वह अपने परिवेश में उपलब्ध सुखद अनुभूतियों पर आसक्त हो जाता है | अपने आतंरिक आनन्द के अनुभूति को बाहरी उपादानों तथा परिस्थितियों से जोड़ लेने के कारण उनके छूट जाने कि कल्पना से उत्पन्न भय राग है। हम ऐसी कल्पना कर लेते हैं कि सुख् बाहरी परिस्थितियों और उपादानों पर निर्भर है। तब इनके न होने से हमें लगता है कि अपना आंतरिक सुख् उन्ही परिस्थितियों अथवा उपादानों के वापस आने पर ही हासिल होगा। यही राग है। राग आसक्ति और दुःख दोनों ही से बना है। सच तो ये है कि आनंद की अनुभूति स्व-स्फूर्त है, स्वाधीन है और यह बाह्य परिस्थिति अथवा उपादानों पर निर्भर नहीं है। इसके प्रति सजग रहने मात्र से ही इसका अनुभव प्राप्त हो जाता है। राग को तिलांजलि देते रहना है।
“दुःख से चिपके रहना द्वेष है” II-8/ ठीक उसी तरह कभी ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जिनसे हम वितृष्णा की अनुभूति करते हैं। एक ही परिस्थिति में अलग अलग व्यक्ति की अलग प्रतिक्रिया होती है। जो एक को सुख् देता है वही दूसरे के लिये दुखदायी हो सकता है। सुख् और दुःख के इस द्वंद्व से परे जाकर प्रत्येक परिस्थिति में समभाव, वैराग्य या विवेक-प्रयोग का अभ्यास पतंजलि के अनुसार श्रेष्ठ है। बाह्य परिस्थितियों को तत्काल बदल डालना अक्सर संभव नहीं होता। द्वेष से मुक्त होने के लिये हमें पहले अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर अपनी चेतना के गहराई में उतरना होगा। और उसके बाद ही हम अनुकूल वातावरण बनाने के लिये आवश्यक परिवर्तन ला सकेंगे। जो भी काम मिले उसे राग और द्वेष से रिक्त होने की प्रशिक्षण मान कर एक कर्म योगी की भावना से करें। कर्ता भाव को त्याग कर सभी कार्य धैर्यपूर्वक, निपुणता और निःस्वार्थ भाव से करें। कार्य और कार्य के फल दोनों के प्रति समभाव बनाये रखें।
“अभिनिवेश अभिनिवेश मृत्यु भय है। अर्थात जीवित रहने की लालसा बुद्धिमानों के मन में भी उपजती है जबकि जीवन स्व-स्फूर्त है” II-9/ प्रत्येक प्राणी में आत्म-संरक्षण की प्रवृत्ति स्वतः विद्यमान है। यह स्वयं को मात्र शरीर समझ लेने की भ्रान्ति और मृत्यु के भय पर आधारित है। हम सब ने कई जन्मों से जन्म और मृत्यु की पीड़ा इतनी बार झेली है कि इसकी पुनरावृत्ति से घबराते हैं। अपने जान के ऊपर कोई खतरा - 'कोरोना वायरस' देखते ही हम काँप उठते हैं। घबराहट से हमारी धड़कन तेज हो जाती और मारे डर के हम चीख पड़ते हैं। मगर जब हम अपने सच्चे स्वरुप का गहराई से मनन कर के अपने अविनाशी आत्मा का ध्यान करते हैं तब हम इन सभी क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं।
“सूक्ष्म रूप में विद्यमान इन पांचों क्लेशों का नाश उनके उत्पत्ति के कारणों की जड़ की पहचान कर लेने से होता है” II-10 पञ्चक्लेश अवचेतन मन के सूक्ष्म स्तर पर धारण किये हुए संस्कार हैं। समाधि की विभिन्न स्थितियों मे अपने स्त्रोत ( 3rd'H' हृदय ) में बारम्बार अवस्थित होकर इन्हें मिटाया जा सकता है। [प्रत्याहार -धारणा के अभ्यास द्वारा हृदय का विस्तार अभ्यास व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट -अहं बोध में रूपान्तरित करके हृदय का विस्तार करने का अभ्यास।] अवचेतन में छिपे हुए ये संस्कार सामान्य सजगता की स्थिति में और यहाँ तक कि ध्यान की स्थिति में भी पकड़ में नहीँ आते हैं। अतः इनके निवारण के लिये यह जरूरी है कि अपने सच्चे स्वरुप की पहचान निरंतर बनाये रखकर अस्मिता का जड़ से उन्मूलन किया जाये। जब “व्यष्टि -मैं” अपने सीमित परिचय से बढ़ता हुआ अपने सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध माँ जगदम्बा रूप को पहचानने लगता है, तब इस आत्म-साक्षात्कार के साथ संस्कार विलुप्त हो जाते हैं।
पतंजलि योग सूत्र I.12 में पतंजलि कहते हैं कि -अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥ अर्थात सतत अभ्यास एवं वैराग्य से चित्त की वृत्तियों को “मैं” समझ लेने की भ्रान्ति अस्त होती है। चित्तवृत्ति निरोध या योग को महाभारत (शान्तिपर्व ३१६/२) में सर्वश्रेष्ठ मानसिक बल कहा गया है- "नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलं"। पतंजलि योगसूत्र (१.१२) को अधिक स्पष्ट करते हुए इसके व्यास-भाष्य में कहा गया है - " चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। -मन की 'स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति ' चित्त-नदी के प्रवाह के नाम से जानी जाती है, जो कि दोनों दिशाओं (उर्ध्व और निम्न - उभयतः) में बहने वाली है। यह प्रवाह श्रेय (कल्याणाय) की दिशा में भी बहती है, और (च) अशुभ या पाप (पापाय) की ओर भी बहती है।' विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति' -- चित्तनदी की धारा जब विवेकविषय, विवेक के क्षेत्र (विषय) की ओर झुका (निम्ना) है,अर्थात विवेक -ख्याति या विवेकशील ज्ञान, जो किसी व्यक्ति को बुद्धि (नश्वर) और पुरुष (शाश्वत) के बीच के अंतर को अनुभव करने की अनुमति देता है; वह धारा (सा) 'कैवल्यप्राग्भारा' कैवल्य (मुक्ति) की ओर ले जानेवाली है और कल्याण-वहा है।
'अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति'- दूसरी ओर यह धारा जब अविवेक के क्षेत्र में, अर्थात जब बुद्धि और पुरुष के बीच रहने वाले अंतर का अनुभव नहीं करने की दिशा में झुकी होती है, वह 'संसारप्राग्भारा' संसार या देहान्तर-गमन (Transmigration) की ओर ले जाने वाली धारा पाप-वहा है, जो बुराई की ओर बहती है। उस (तत्र) बाह्य वस्तुओं या विषयों की ओर बहने वाली धारा पर (वैराग्येण) वैराग्य (रिनन्सिएसन या परहेज) का फाटक लगाकर विषयस्रोत को मन्द बनाते हुए शक्तिहीन (खिलीक्रियते) किया जाता है।
तथा विवेक-दर्शन का अभ्यास (या स्वामी विवेकानन्द विवेकशील ज्ञान Discriminative Knowledge' के मूर्त रूप थे उनके ऊपर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास -) पर चिंतन-मनन करते रहने के परिणामस्वरूप (एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध और) विवेकस्रोत उद्घाटित हो जाता है। इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः = इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः (चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति, अर्थात विषयों में दौड़ने वाली 'Propensity' का दमन या संशोधन,) परहेज,निवृत्ति या "Renunciation" और विवेक-दर्शन अर्थात "Discrimination" अर्थात (बुद्धि-पुरुष विवेक या शास्वत-नश्वर को पहचानने की क्षमता) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है।
"विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते !" इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-प्रयोग शक्ति' जो सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है; वह (१२ जनवरी १८६३ को) स्वयं स्वामी विवेकानन्द की आकृति में आविर्भूत होगी ! एक दिन और तब लालच को कम करते हुए (या भोगों में आसक्ति का त्याग करते हुए) उस गुरु विवेकानन्द के मूर्त रूप पर पुनः पुनः मन को धारण करने के अभ्यास से ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा !
“क्रियावान स्थिति में चित्त में उठती हुई वृत्तियों का ध्यान के द्वारा नाश होता है” योगसूत्र II-11/तात्पर्य यह है कि ध्यान किया नहीं जाता है, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करते करते जब 'तैल धारवत ' अपने इष्टदेव का ध्यान होने लगता है, उस गंभीर ध्यान से ही समाधि की प्राप्ति संभव है। और तभी मन की साधारण गतिविधियों में उलझे रहने की आदत से निपटा जा सकता है।
कर्म का नियम एवं आकस्मिक आपदाएँ या कोबिड -19 'Corona Pandemic' की विश्वव्यापी महामारी के बीच क्या संबन्ध है ? कोरोना वायरस (COVID-19) की बीमारी, सक्रमण से फैलती है। यह एक नए वायरस की वजह से होती है। इस बीमारी की वजह से सांस की बीमारी (जैसे कि फ़्लू) होती है। इसके अलावा, खांसी, बुखार, और ज़्यादा गंभीर मामलों में सांस लेने में तकलीफ़ होना इस बीमारी के लक्षण हैं। कोरोना वायरस की बीमारी मुख्य रूप से किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने से फैलती है। संक्रमित व्यक्ति के खांसने या छींकने पर उसके मुंह और नाक से गिरने वाली बूंदों से यह बीमारी दूसरे लोगों में फैलती है। यह तब भी फैलती है, जब कोई व्यक्ति उस सतह या चीज़ को छूता है जिस पर वायरस होता है, इसके बाद अपनी आंख, नाक या मुंह को छूता है। कोरोना वायरस (COVID-19) को रोकने के लिए, फ़िलहाल (20 अप्रैल 2020 तक) किसी तरह का टीका नहीं है। आप वायरस से खुद को बचाने के साथ ही इसे फैलने से रोकने में भी मदद कर सकते हैं। इसके लिए आप ऐसा करें--नियमित रूप से साबुन और पानी से या अल्कोहल वाले हैंड सैनिटाइज़र से 20 सेकंड तक हाथ धोएं। खांसने और छींकने के दौरान डिस्पोज़ेबल टिशू से या कोहनी को मोड़कर, अपनी नाक और मुंह को ढकें। जो लोग बीमार हैं उनसे (एक मीटर या तीन फ़ीट की) दूरी बनाए रखें घर पर ही रहें। और अगर आप बीमार हैं, तो खुद को परिवार के सभी लोगों से अलग कर लें। अगर आपके हाथ साफ़ नहीं हैं, तो अपनी आंख, नाक या मुंह को न छुएं।
जब भी कोई आकस्मिक आपदा टूटती है जैसा कि दक्षिणी एशिया में आई सुनामी, या अभी जो कोरोना वायरस (COVID-19) की विश्वव्यापी महामारी आयी है, जिसके कारण पूरे विश्व में 1.80 लाख मनुष्यों की मृत्यु हो गयी। और लाखो मनुष्य अस्पताल में इलाज करवा रहे हैं और करोड़ों -अरबो मनुष्य अपने -अपने घरों में बन्द हैं। हमारे मन में ये सवाल उठता है “इतने लोगों को क्यों मारना पड़ा ?” “और बाकी के बच क्यों गए ?” या यदि स्वयं भुक्तभोगी हुए तो मन में उठता हुआ सवाल “मेरे ही साथ क्यों ?” “मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था ?” “मेरा क्या दोष था ?”
पतंजलि तथा अन्य सिद्धों ने कर्म के विधान के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक बताया है। कर्म के विधान के अनुसार अतीत के हमारे कार्य, वचन और विचार फलित होते हैं। पञ्चक्लेशों के कारण हम कर्म संचय करते जाते हैं। यह 3 प्रकार से होता है : 1. प्रारब्ध कर्म : पूर्व जन्म के कर्म जिन्हें काटने के लिये यह जन्म हुआ; 2. क्रियमाण कर्म : इस जन्म मे सृजित कर्म; 3. संचित कर्म : जो आने वाले जन्मों में फलित होंगे।
कर्म का धारण कर्माशय में होता है। यही कर्म की कोख अथवा भण्डार है। यहीं सारे कर्म एकत्रित हैं। कर्म सतह पर आकर क्लेशों के रूप में प्रकट होने की प्रतीक्षा में रहते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि किसी एक प्रबल कर्म को काटने के लिये ही एक जन्म लेकर शरीर धारण करना पड़े । उस प्रबल कर्म से सम्बंधित कर्मों का भी फलभोग इसी जन्म में हो जाता है। यह तब तक चलता रहता है जब तक आत्म-ज्ञान की प्राप्ति कर व्यक्ति नए कर्म संचय करना बंद ना कर दे।
ये सच है कि व्यक्ति अपने कर्मों से जुड़ा हुआ है और कर्म ही निर्धारित करता है कि वह कैसे जीता है और विभिन्न परिस्थितियों में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी किन्तु वह पूरी तरह विवश भी नहीं है। उसे इस बात की स्वतंत्रता है की कर्मजन्य परिस्थितियों से उसका बर्ताव सकारात्मक हो या नकारात्मक। अगर हमारा व्यवहार नकारात्मक होता है जिससे हम दूसरों को दुःख पहुंचाते हैं तो वही दुःख और भी विकराल रूप धर कर हमारे जीवन में लौटती हैं। जब हम परिस्थितियों का सामना सजगता एवं विवेक-प्रयोग के साथ धैर्यपूर्वक करते हुए लोकोपकार-Be and Make ' आंदोलन के साथ जुड़े रहकर अनासक्त भाव से कर्म करते रहें तब वो कर्म क्षीण पड़ने लगते हैं।
हमारे एक महामण्डल कर्मी जो कोरोना वायरस लॉकडाउन में गरीब मजदूरों को राशन पहुंचाने तथा भूखों को भोजन पहुँचाने की सेवा से युक्त हैं, अपने हाल की एक रिपोर्ट में कहते हैं :“एक ही दोपहर की दो घटनाओं ने मुझे मनुष्य के निकृष्ट और उत्कृष्ट दोनों ही गुणों का परिचय करवा दिया। राहत के लिये बांटने को हमारे पास जो थोड़ा बहुत था उसे बांटने के क्रम में मैंने एक ओर तो ये देखा कि गरीब मजदूरों के ऊपर भी लूट-खसोट, ठगी, बेईमानी कर उनके पास जो भी बचा खुचा था वो छीना जा रहा था यहाँ तक की राहत सामग्री पहुँचाने वाली गाड़ी को भी लूटा जा रहा था और दूसरी ओर एक ऐसा इंसान भी दिखा जिसने विकट परिस्थिति में भी उदारता दिखाई। अपने मकान के दरवाजे पर वह अकेला खड़ा था। अपने पास से खाना का एक पैकेट देने के लिये मैंने उसे पुकारा। उसने अवसाद और कृतज्ञता भरी आँखें मेरी आँखों में डाल कर मुझे बताया कि वह नाश्ते में एक पावरोटी खा चुका था। उसकी इच्छा थी कि खाना का पैकेट उन्हें मिले जो सुबह से भूखे थे। ”
दुःख का सामना कैसे करें : मानवता के दुःख और कष्ट का सामना हम अपने विचार, वचन और कर्म में करुणा जगा कर करें। हमारा हृदय प्रेम और दया से परिपूर्ण हो, हम अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट हृदय के 'अहं' -बोध में रूपान्तरित करने की कला सीख लें। मनन करने का विषय यही है कि इस तरह की आपदाओं (COVID-19) से हम क्या सीखते हैं और उसके आने से हम कैसा आचार-व्यवहार करते हैं। पतंजलि कहते हैं : “उन्मूलन उस दुःख का करना है जो अनागत है” योगसूत्र II-16 / केवल आत्मा के चिंतन से ही हम उस दुःख से पार पा सकते हैं जो अभी आया नहीं है और जिसकी आगमन का श्रोत कर्मकोष में है। क्योंकि “दृश्यमान का अस्तित्व केवल आत्मा के लिये है” योगसूत्र (II.21) और “दृश्यमान जगत भोग और मुक्ति दोनों ही प्रदान करने वाला है” योग सूत्र (II-18) प्रकृति नाना प्रकार के भोग दिला कर अन्ततः हमारी चेतना को अपने मिथ्या परिचय से मुक्त करती है। अंततोगत्वा हम यह महसूस करते हैं कि प्रकृति के हाथों बहुत दुःख झेल लिये और तब व्याकुल होकर अपने आत्मवादी भ्रांतियों (“मैं शरीर, मन, इत्यादि हूँ”) से निकलने के उपाय ढूँढने लगते हैं।
सीधी बात ये है कि, प्रत्येक अनुभव से हमें कुछ सीखने का मौका मिलता है और हमें इनसे सत्य असत्य, ज्ञान अज्ञान, शाश्वत नश्वर, प्रेम आसक्ति, आत्मा शरीर-मन-अहंकार तथा दृश्य द्रष्टा के भेद को समझने का विवेक मिलता है। अपनी आत्मा को भूलने की प्रवृत्ति (सिंह -शावक होकर भी स्वयं को भेंड़ समझने की प्रवृत्ति) का अद्भुत उपचार है 'राज -योग' या स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित " मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा - Be and Make ' का प्रचार-प्रसार। अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान पा लेने के बाद जब हम दूसरों को दुःख उठाते देखते हैं तो उनके प्रति करुणा का अनुभव करते हैं। ऐसी परिस्थिति से भयभीत होने की जगह जब हम अपने विचार और कर्म से उनकी सेवा करें तो हमारे मन और भावनाओं की शुद्धि होती है और शांति आती है। सद्भाव से परिशुद्ध मन ईश्वरीय शक्ति से प्रेरित होकर सर्वजनहिताय प्रयत्नशील होता है।
ब्रह्मविद मनुष्य कैसे बना जाता है ? जीवन का लक्ष्य है- ईश्वरलाभ अर्थात सुख्, शांति, प्रेम और ज्ञान प्राप्ति। ईश्वर (परम सत्य) समस्त मानवता के माध्यम से ही स्वयं को अभिव्यक्त करता है। पूर्णता की कामना (या परम सत्य को जानने की व्याकुलता) जीवात्मा में (एथेंस के सत्यार्थी में) उसीमें अवस्थित इश्वर के प्रतिरूप (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) से आती है। ईश्वर, माँ जगदम्बा, ब्रह्म या परमसत्य नाम-रूप से परे होने के कारण परम सत्य (इन्द्रियातीत सत्य को) शब्दों या प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। हाँ, इसे अनुभव अवश्य किया जा सकता है और इसके लिये एक ऐसा/ नवनीदा के जैसा - गुरु/नेता जीवनमुक्त शिक्षक चाहिये जो इस सत्य के अपने जीवंत अनुभव को बाँट सके। इस तकनीक के माध्यम से गुरु अपने शिष्य को अपने अंदर इस सत्य का साक्षात्कार पाने कि विधि - मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास की पद्धति प्रदान करते हैं।
🔱🙏क्रिया योग क्या है? महर्षि पतंजलि ने अशुद्धियों को दूर करने के लिए कहा है- ‘‘ तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: ’’ अर्थात् तपस्या, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान- यह क्रियायोग है। इसका भाष्य करते हुए महर्षि व्यास कहते हैं कि ‘‘अतपस्वी को योग सिद्ध नहीं होता। अनादि कालीन कर्म और क्लेश की वासना के द्वारा जनित विचित्र और विषयजाल-युक्त जो मन की अशुद्धि है, वह तपस्या (५ अभ्यास) के बिना सम्यक् भिन्न अर्थात् विरल या छिन्न नहीं होता है।
तप : सामान्य अर्थ में, तप पदार्थ के शुद्ध सारतत्व को प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है। उदाहरण हेतु जिस प्रकार सोने को बार-बार गर्म कर छोटी हथोड़ी से पीटा जाता है जिसके परिणाम स्वरूप शुद्ध सोना प्राप्त हो सके। उसी प्रकार योग में तप (मनःसंयोग) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के मन की अशुद्धियों को जला कर भस्म किया जाता है ताकि उसका असली सारतत्व प्रकट हो सके। तप का तात्पर्य बेहतर अवस्था की प्राप्ति (विसम्मोहित अवस्था की प्राप्ति ) के लिए मिथ्या अहं के परिवर्तन या माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं -बोध में रूपान्तरण की एक प्रक्रिया के अनुगमन से है। महर्षि पतंजलि के अनुसार ‘‘तप (मनःसंयोग) से अशुद्धियों का क्षय होता है तथा शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है।’’ अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और यौग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके पालन में जो शारीरिक या मानसिक अधिक से अधिक कष्ट प्राप्त हो, उसे सहर्ष सहन करना इसका नाम तप है। यम और नियम के साथ आसन -प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास भी तप की ही श्रेणी में आते हैं। निष्काम भाव से इस तप का पालन करने से मनुष्य का अन्त:करण अनायास ही शुद्ध हो जाता है।
तैत्तिरीयोपनिषद् की भृगुवल्ली में कहा गया है ‘‘तपसा ब्रह्म विजिज्ञासत्व। तपो ब्रह्मेति’’ अर्थात् तप द्वारा ही ब्रह्म को जाना जा सकता है। तप ही ब्रह्म है।कहा गया है कि ‘‘नातपस्विनो: योग सिद्धति’’ अर्थात् तप के बिना योग सिद्ध नहीं होता है। तप के सम्बन्ध में कूर्मपुराण में कहा गया है ‘तपस्या से उत्पन्न योगाग्नि शीघ्र ही निखिल पाप समूहों को दग्ध कर देती है। उन पापों के दग्ध हो जाने पर प्रतिबन्धक रहित 'तारक ज्ञान' अर्थात ' विवेकज ज्ञान' का उदय हो जाता है। जिस प्रकार डण्ठल से पृथक् हुआ फल पुन: डण्ठल से नहीं जुड़ सकता है। अत: शास्त्र के कथनानुसार मोक्ष साधनाओं में से तप को श्रेष्ठतम साधना माना गया है।
स्वाध्याय : आत्मविषयक चिन्तन व मनन करना, तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन तथा ‘प्रणव’ आदि का जप करना ‘स्वाध्याय’ है। आत्मा का स्वरूप क्या है? कहाँ से आता है? इत्यादि विवेचन से आत्मविषयक जानकारी के लिये प्रयत्नशील रहना। तीनों ऐषणाओं से मुक्त हो जाना , धन-सम्पत्ति आदि की ओर अधिक आकृष्ट न होना, लोभी न बनना। धन की नश्वरता को समझते हुये केवल सामान्य निर्वहन योग्य धन कमाना व उपयोग करना अधिक संग्रह न करना। मठाधीश/ सेक्रेटी -प्रेसिडेन्ट आदि बनने की इच्छा न रखना ही स्वाध्याय का वास्तविक अर्थ है।
ईश्वरप्रणिधान : महर्षि पतंजलि ने ईश्वर को पुरुष विशेष की संज्ञा दी है। क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:। (पा.यो.सू. 1.24) अर्थात् ईश्वर (भगवान श्री रामकृष्ण) वह पुरुष विशेष है जिस पर दु:ख, कर्म, उसके लवलेश तथा फल आदि किसी का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यहाँ ईश्वर को व्यक्तिवादी नहीं वरन् उसे उच्च आध्यात्मिक चेतना कहा गया है। वह ईश्वर परम-पवित्र, कर्म व उसके प्रभाव से अछूता है उनका कोई भी प्रभाव ईश्वर पर नहीं पड़ता है। इसीलिये वह विशेष है।अन्य दर्शनों में जहाँ ईश्वर को विश्व का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, संहारकर्ता कहा गया है वहीं योगदर्शन में ईश्वर को विशेष पुरुष कहा गया है। ऐसा पुरुष जो दु:ख कर्मविपाक से अछूता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार-अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण की भक्ति विशेष ही ईश्वर प्रणिधान या महापुरुष प्रणिधान है। और इस भक्तिविशेष के कारण मार्ग कंटकविहीन हो जाता है और शीघ्र ही समाधि की प्राप्ति हो जाती है। योग के अन्य अंगों का पालन विघ्नों के कारण बहुत काल में समाधि सिद्धि प्रदान कराता है। ईश्वरप्रणिधान उन विघ्नों को नष्ट कर शीघ्र ही समाधि प्रदान करता है। अत: यह रास्ता अति महत्त्वपूर्ण है। समस्त जीवात्माओं का पंच क्लेश अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश और अभिनिवेष (पा.यो.सू. 2.3), कर्म विपाक या कर्माशय (पा.यो.सू.4.7) अर्थात् कर्मों के फल (पा.यो.सू.2.13) तथा आशय अर्थात् कर्मों के संस्कार (पा.यो.सू. 2.12) से अनादि काल से सम्बन्ध है किन्तु ईश्वर (ठाकुर) का इनसे न तो कभी सम्बन्ध था, न है, न कभी भविष्य में होने की सम्भावना ही है। वह अविद्या, अज्ञान से रहित है इस कारण सम्बन्ध नहीं है। ईश्वर का वाचक ओंकार (ॐ) है। महर्षि कहते हैं ‘तस्य वाचक: प्रणव:’(पा.यो.सू. 1.27)। प्रणव का निरन्तर जप अर्थात् ईश्वर का निरन्तर चिन्तन करना ही ईश्वर प्रणिधान है। चित्त को सभी ओर से हटाकर एकमात्र ईश्वर पर लगाना चाहिये यह समाधि को प्रदान करने वाला है। इस प्रणव के जप से योग साधकों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। ईश्वरप्रणिधान से सभी अशुद्धियों का नाश हो जाता है(पा.यो.सू. 1.29, 30, 31)।
क्रियायोग क्यों किया जाये ?
इस प्रश्न का उत्तर महर्षि ने देते हुए कहा है- " समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च।" (पा.यो.सू.2.2) अर्थात् यह क्रियायोग समाधि की सिद्धि देने वाला तथा पंचक्लेशों को क्षीण करने वाला है। महर्षि मानते है कि मनुष्य के पूर्व जन्म के संस्कार हर जन्म में अपना प्रभाव दिखाते है और ये क्लेश मनुष्य हर जन्म में भोगना पडता है। पूर्व जन्म के संस्कारों से जुडे रहने के कारण के अपना प्रभाव दिखाते है। इन क्लेशों का पूर्णतया क्षय बिना आत्मज्ञान के नहीं होता हैं। परन्तु क्रिया योग की साधना से इन्हें कम या क्षीण किया जा सकता है और मोक्ष प्राप्ति की साधना के मार्ग में बढा जा सकता है। क्रिया योग का (5 अभ्यास) अभ्यास 'पञ्च - क्लेशों' को तनु करने के लिए एवं समाधि भूमि प्राप्त करने के लिये कहा जा रहा है। क्रियायोग की साधना से समाधि की योग्यता आ जाती है। क्रियायोग से यह क्लेश क्षीण होने लगते है क्लेशों के क्षीण होने से ही मन स्थिर हो पाता है। पंचक्लेश यदि तीव्र अवस्था में है तब उस स्थिति में समाधि की भावना नहीं हो पाती है। तप स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान या कर्म, भक्ति , ज्ञान के द्वारा क्लेषों को क्षीण कर समाधि का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।जिसमें कि कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का सुन्दर समन्वय समाहित है।
क्लेश ५ प्रकार के हैं - अविद्या, अस्मिता, राग,द्वेष और अभिनिवेश हैं।
अविद्या अर्थात् सम्मोहित अवस्था में अनित्य M/F शरीर-मन (2H) को नित्य (3rdH -हृदय) मानना, अशुचि को शुचि अर्थात् पवित्र मानना, अनात्म या जड़ शरीर और मन (मिथ्या अहं reflected consciousness) को आत्म (सर्वव्यापी विराट अहं या चेतन-pure consciousness) समझ लेना, अर्थात् अपना सच्चा स्वरूप मानना ही , दु:ख को सुख समझ लेना है। यह संसार परिवर्तनशील होने से अनित्य है , शरीर गन्दगी से भरा हुआ है, यह संसार दु:खमय है हर सुख का अन्त दु:ख से परिपूर्ण है, यह इन्द्रिय, शरीर और चित्त जड़ है, अनात्म है, उपर्युक्त सभी की विपरीत भावना कर संसार को नित्य, पवित्र, सुखमय व आत्म समझना ही अविद्या है। अविद्या ही अन्य क्लेशों का मूल है। अस्मिता अर्थात् ‘मैं की भावना’ अहम् भावना ही अस्मिता क्लेश है यह मेरा शरीर है, मेरी वस्तु आदि को समझना अस्मिता नामक क्लेश है। यह घोर कष्ट को देने वाली शक्ति है। राग, सदैव सुखी रहने की इच्छा व द्वेष (Grudge दु:ख से बचने का भाव है। दोनों परस्पर मिले हुये हैं। अभिनिवेश मृत्यु भय है। उपर्युक्त सभी क्लेश के भाव समाधि (चित्तवृत्ति -निरोध) से दूर ले जाने वाले हैं। समाधि अर्थात् सभी वृत्तियों का नाश, क्लेशों के नाश की अवस्था। क्रियायोग से समस्त क्लेशों का नाश सम्भव है जिससे सहज ही समाधि अवस्था प्राप्त लो जायेगी।
ईश्वर प्रणिधान : ईश्वर के प्रति समर्पण ही हमारे समस्त दुखों, कल्मश कशायों का अन्त है। जिसमें की अपना अस्तित्व समाप्त कर उस परमात्मा के अस्तित्व का भान होता। जिसमें कि अपना अस्तित्व मिटने पर समाधि का आनन्द होने लगता है।
महर्षि पतंजलि ईश्वर प्रणिधान का फल बताते हुए कहते है-‘समाधिसिद्धिरीष्वरप्रणिधानात्’। योगसूत्र 2/45 अर्थात् ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि होती है। ईश्वर के आशीर्वाद से उसकी समस्त चित्त की वृत्तियॉ समाप्त हो जाती है। जिससे कि वह मोक्ष को प्राप्त होता है। अत: हम कह सकते है कि वर्तमान जीवन में तप स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान का अत्यन्त महत्व है। क्योंकि तप कर्म के लिए प्रेरित करते है जो कि कर्मयोग है। कर्मयोगी ही कर्मों को कुशलता पूर्वक- अनासक्त भाव से कर सकता है। तप, कठिन परिश्रम व्यक्ति को कर्मयोगी बनाती है। अत: कर्मों में कुशलता लाने के लिए तप नितान्त आवश्यक है।वही स्वाध्याय साधक के ज्ञानयोगी बनाता है। स्वाध्याय से 'विवेकज ज्ञान ' या तारक-ज्ञान की प्राप्ति होती है। क्या सही है, क्या गलत है का ज्ञान साधक को होता हे। जो कि प्रगति या उन्नति के मार्ग में अति आवश्यक है। स्वाध्याय के द्वारा श्रेष्ठ साहित्यों का अध्ययन करते हुए जैसे जैसे आत्मानुसंधान की ओर साधक बढता है; उसको हैरान-परेशान देखकर अन्ततोगत्वा उसे माँ जगदम्बा स्वयं ही अपने शरण में आश्रय दे देती है।
---------------
प्राचीन काल में समस्त ऋषि एवं मुनि गृहस्थ थे , उन्होनें गृहस्थाश्रम में रहते हुए साधना के द्वारा जिस तत्व (ब्रह्म) की प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त की थी , उस मनःसंयोग या क्रियायोग द्वारा कोई भी योग्य व्यक्ति गृहस्थ- आश्रम का आजीवन पालन करते हुए आध्यात्मिक जगत का सन्धान कर सकता है। एवं प्रत्यक्ष अनुभूतियों के माध्यम से ईश्वर तत्व का अंतरंग और बहिरंग पक्ष , सब कुछ देख सुन और समझ सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं।
आखिर हम अपने मिथ्या अहं या नाम-रूप से अनासक्त होंगे कैसे ? इस प्रश्न की भूमिका में पहले यह समझना होगा कि आसक्ति आती है कहाँ से ? उसकी उत्पत्ति कहाँ से होती है ? यह एक तथ्य है की प्रत्येक जीवधारी में प्राण स्थिर रूप में वर्तमान है। उस स्थिर प्राण के चंचल होने पर ही मन की उत्पत्ति होती है। इस चंचल मन को ही जीव मन कहा जाता है। इस चंचल मन को ही जीव , मन के रूप में जानता-मानता है। उसी चंचल मन से ही आसक्ति की उत्पत्ति होती है। तो फिर आसक्ति शून्य होने के लिए मन को निर्मना स्थिति में लाना होगा; अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना होगा या मन शून्य होना होगा।
किस उपाय से मन-शून्य हुआ जा सकता है अर्थात मनन तत्व का किस प्रकार नाश किया जाए , उसका या मानव कौशल गीता एवं पांतजल योग-दर्शन में स्पष्ट रूप से वर्णित है। किन्तु वर्तमान काल में उस मनःसंयोग पद्धति को प्रत्यक्ष करने वाले प्रशिक्षित नेता /जीवनमुक्त शिक्षकों में भी साधन-कौशल का अभाव है। जिन समस्त महयोगियों या महापुरुषों ने साधना के द्वारा प्रत्य्क्ष अनुभव प्राप्त किया है, वे जानते थे कि जो साधन सापेक्ष एवं अनुभवगम्य है उसे मौखिक रूप से या लिखकर समझने से , कौन समझेगा ? जिस प्रकार चीनी स्वयं न खाकर या चख कर , क्या दूसरों की बात सुनकर चीनी खाने का स्वाद समझ में आ सकता है ?- कालांतर में यह विज्ञानसम्मत साधन कौशल लुप्त होने के उपक्रम में जुड़ गया। किन्तु मानव इच्छा के प्रबल होने के कारण एक अद्भुत और पूर्णतः विज्ञानसम्मत विद्या - मनःसंयोग का जन्म 1967 में महामण्डल के आविर्भाव से हुआ। जिसे परम् पूज्य नवनीदा ने विद्यार्थियों के लिए मनःसंयोग पद्धति के रूप में प्रदान किया है। यह मन का ही चमत्कार है जो एक विज्ञानसम्मत अत्यन्त प्रभावी क्रिया ( मनःसंयोग पद्धति ) प्रत्यक्ष हुआ है। इस क्रियायोग को फ़ैलाने के कार्यों में नवनीदा के प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त शिष्यगण आज भी 'पाठचक्र' और युवा-प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से निरंतर कार्यरत हैं। मनःसंयोग में कुछ अन्य अभ्यास की भी जरुरत पड़ती है क्यों कि मानव- शारीर सिर्फ एक देह ही नहीं है -एक बहुत ही पवित्र मंदिर है जहां आप रहते हैं। इसकी देखभाल तो करनी होगी।
हम ईश्वर को (परम् सत्य को) बैकुंठ में खोजते हैं , क्षीर-सागर में ढूंढते हैं , तीर्थ , मंदिर , और मस्जिद में तलाशते हैं , किन्तु अपने शरीर के भीतर हृदय में जो सदैव विराजमान हैं , उसका पता नहीं जानते और उसे ढूंढने का आग्रह भी नहीं जाग्रत होता। जब कि इस देह-मन के परे हृदय में वह प्रत्यक्ष देवात्मा विराजमान हैं। उसके दर्शन करने की बात सभी ऋषियों ने एक वाक्य में व्यक्त किया है और उसकी साधना पद्धति और कौशल प्राप्त करने का मार्ग प्रदर्शित किया है , किन्तु कालांतर में वह लुप्त हो गया। उसका प्रधान कारण साधन सापेक्षता है , क्यों कि इस साधन (विवेक-प्रयोग) को संपन्न करने में कुछ समय धैर्य की जरुरत होती है जिसे कोई करना नहीं चाहता।
उसका भी मुख्य कारण है, वर्तमान युग सच्चे मार्गदर्शक नेता का अभाव ! इन दिनों कुछ ऐसा युग -प्रचलन ही है अनेक गुरु इस प्रकार प्रचार करते हैं कि - मेरे सर पर हाथ रखते ही समाधी लग जाती है , मन स्थिर होता है और क्या -क्या बहुत कुछ होता है। इस वजह से कोई समय नष्ट नहीं करना चाहता। किन्तु तनिक गहराई से विचार करने पर सभी समझ सकते हैं कि जिसे प्राप्त करने के लिए पृथ्वी या संसार की सारी सम्पदा के त्याग की आवश्यकता है , उसे इतनी सहजता से कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?
यह बात सभी को माननी होगी कि इस देह-मंदिर में ऐसा एक देवता है जो चित-स्वरुप में जीवात्मा के नाम से उसके हृदय में ही विराजमान है। ऐसी एक सत्य वस्तु का संघान न करके व्यर्थ ही भरमते , भटकते रहते हैं। ब्रह्मा , विष्णु और महेश के बारे में हम सुनते आए हैं कि इन तीनों देवों को भी परदे की आड़ में रहकर, जो ब्रह्म (माँ जगदम्बा) इन्हें नित्य नचाते हैं , वे किसी दिन भी बाहर नहीं आते , और आएँगे भी नहीं , फिर भी उन्हें खोजना या सत्य -वस्तु का संघान करना ही तो जीवन का परम आनंद है।
हम भारतवासी , ब्रह्मा , विष्णु , शिव या महेश को मानते आए हैं , किन्तु संसार के अन्य लोग इन सब देवताओं का नाम तक नहीं जानते। लेकिन , सृष्टि , स्थिति , लय तथा सतव , रज , तम - इन गुणों की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता। क्यों कि ये तीनों स्थितियां एवं गुण कहाँ नहीं हैं। यानि सभी वस्तुओं में सर्वत्र इनकी व्याप्ति है। "ये तीनों इलेक्ट्रॉन , न्यूट्रॉन और प्रोटोन के नाम से जाने जाते हैं जो कण-कण में हैं। " इनके कार्यों शक्तियों के अनुसार साकार मूर्ति की कल्पना दार्शनिक तत्व के माध्यम से से की गयी है।
मनःसंयोग के अभ्यास में समस्त इंद्रियद्वार को बल पूर्वक रुद्ध कर के मन को चारो और से समेट कर (प्रत्याहार द्वारा) हृदय में स्थित स्वामी विवेकानन्द की छवि पर धारण किया जाता है। निर्दिष्ट मार्ग से अभ्यास करते-करते अविज्ञय आत्मा का दर्शन पा कर साधक कृत्य-कृत्य हो जाते हैं।
स्वामी -शिष्य संवाद खंड ६/८३ में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - श्री जगन्नाथ जी का जो रथ है , वह मानो इसी शरीर-रूपी रथ का एक स्थूल रूप है। इसी शरीर रूपी रथ में हमें आत्मा का दर्शन करना होगा। 'आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च । मध्ये वामनमासीनं विश्वेदेवा उपासते। कठोपनिषद 3। में जो वामनरूपी आत्मा के दर्शन का वर्णन किया गया है, वही वास्तव में जगन्नाथ दर्शन है। [प्राण वायु को तो उपर फेँक देता है और अपान-वायु को नीचे फेक देता है और दोनोँके बीचमेँ बैठा हुआ है " वामन"। वामन भगवान् का नाम तो जग जानता है " नन्हा - सा ईश्वर बैठा हुआ है वहाँ " । उस नन्हे को जब तक हम अपनी बलि नहीँ दे देते - बलिदान नहीँ कर देते - तब तक तो वह नन्हा - मुन्ना वावन बनकर बैठा रहता है , और जब बलिदान हो जाता है तब वह विराट् हो जाता है - ऐसा वामन है जो ब्रह्म हो जाता है। जब तक हम अपने अन्नमय , प्राणमय , मनोमय , विज्ञानमय , आनन्दमय कोष - को उसके प्रति अर्पित नही किया , जब तक हम तीन - पाद अर्पित नही करेँगे - तीन - पाद अर्पित करना पड़ता है , चतुर्थ - पाद वह स्वयं है । स्थूल -शरीर प्रथम् पाद , सूक्ष्म - शरीर द्वितीय पाद और कारण - शरीर तो , अविद्यात्मक ही है , पाद - वाद नहीँ है , वह तो तुरीय के - ज्यान - मात्र से ही पहचान लेने मात्र से ही तृतीय पाद मिट जाता है और चतुर्थ - पादकी प्राप्ती होती है । यह " वामन मे " जो मन है , वा + मन = मन । यह मन की उपाधि से ही ब्रह वामन बना हुआ है , अगर मनकी उपाधि न हो तो ब्रह्म वामन न हो ।]
इसी प्रकार इसी प्रकार 'रथे च वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते' का भी अर्थ यही है कि तेरे शरीर में जो आत्मा है उसका दर्शन यदि तू कर लेगा तो फिर तेरा पुनर्जन्म नहीं होगा। परन्तु अभी तो तू इस आत्मा की उपेक्षा करके अपने इस विचित्र जड़ शरीर को ही सर्वदा 'मैं' समझा करता है। .... सचमुच एक श्रेणी के मनुष्य ऐसे हैं, जो 'विवेकानन्द दर्शन' का आश्रय लेकर प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास करते करते धीरे धीरे ब्रह्मत्व को प्राप्त हो जाते हैं। अतएव जगन्नाथ-विवेकानन्द की मूर्ति का आश्रय लेकर भगवान श्री रामकृष्ण की जो विशेष शक्ति प्रकाशित हो रही है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। " ६/८३
अर्थात इस शरीर रूपी रथ में स्थित उस वामन देव् अथवा अंगुष्ठ -प्रमाण पुरुष का दर्शन कर के जन्म को सफल करते हैं। इस पुरुष का जो दर्शन प्राप्त करते हैं , उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। वे हमेशा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
महाभारत के 18 दिन व्यापी युद्ध में श्री कृष्ण ने अर्जुन को रथ पर बैठा कर साक्षात् रूप में उपदेश दिया था। किन्तु इस देह-रथ की प्रवृत्ति एवं निवृति का युद्ध 18 जन्म में भी समाप्त नहीं होने वाला। श्री कृष्ण उस देह को त्याग-कर चले गए , किन्तु उसके भीतर जिन कृष्ण का अस्तित्व वर्तमान है वे तो अंदर भी प्रत्येक देह-रथ में वर्तमान है ,-और चिर काल तक रहेंगे। क्यों कि वे अविनाशी हैं . उनकी वर्तमानता के कारण ही हम सबकुछ अनुभव करते हैं। वे ही इस देह-रथ के भीतर बैठ कर उपदेश कर रहे हैं। भगवान ने फिर कहा ,- " हे अर्जुन , मैं भी नहीं रहूँगा , तुम भी नहीं रहोगे। " - तो फिर रहेगा क्या?-
जो ईश्वर हमारे भीतर वर्तमान है उसकी शरण किस प्रकार प्राप्त की जाए ? उसके लिए मन को किस प्रकार तैयार करना चाहिए ? इसका ही ज्ञान मनःसंयोग के प्रशिक्षण द्वारा प्राप्त होता है, जो पूर्वजन्म में नवनीद ने कैप्टन सेवियर के रूप में स्वामीजी से प्राप्त किया था। और महामण्डल के वर्तमान कर्मी भी महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर तथा पाठचक्र के माध्यम स उसकी प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहे हैं। नवनीदा ने आजीवन गृहस्थ आश्रम में रहकर, आदर्श गृहस्थ के रूप में साधना के जिस उच्च -स्तर को प्राप्त किया था , वह हजारों वर्ष के भीतर देखने में नहीं आता। न जाने कितने युवा कैंपर्स उनका आश्रय पाकर रामकृष्ण मिशन के संन्यासी बन चुके हैं। और कितने ही गृहस्थ बिजनेस मैन, शिक्षक, नौकरी-पेशा, किसान आदि उनका आश्रय पाकर धन्य हुए हैं। उसकी सीमा नहीं है।
श्री कृष्ण ने गीता में अनेकों जगह पर मन की अद्भुत शक्तियों के बारे में बताया है। किन्तु उन बातों को इस प्रकार दर्शाया गया है जैसे श्री कृष्ण ने ही कहा। उदहारण के लिए - श्री कृष्ण ने कहा - " मैं ही जगत का पालन-कर्ता हूँ और मैं ही विनाश-कर्ता भी हूँ , संसार में जो हो रहा है , वह मेरी इच्छा से हो रहा है। मेरे इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। संसार में सभी होने वाली घटनाओं का जिम्मेवार भी मैं ही हूँ। ' - दूसरी ओर फिर कहते हैं - " जो जैसा कर्म करेगा , वो वैसा ही फल प्राप्त करता है। "- यह दो तरह का विरोधाभास करने वाली तथ्यों को क्यों कहा उन्होने ? इस बात की व्याख्या अभीतक कोई भी स्पष्ट नहीं कर पाये हैं। इसका मूल कारण है कि उक्त बातें श्री कृष्ण ने मन के बारे में बताया है--स्वयं नहीं कहा है। मन की शक्तियों के बारे में अनेकों चकित कर देने वाली बातों मैंने बहुत ही सहज शब्दों में कई जानकारी दी है जो पूर्णतः प्रमाणिक है। भगवान अर्जुन के प्रति लक्ष्य करते हुए पुरे विश्व के मनुष्यों से कह रहे हैं , हे जगतवासी , उस ईश्वर की शरणागति प्राप्त करो , उसके प्रसाद या उसकी अनुकम्पा से ही परम शांति एवं शाश्वत -पद की प्राप्ति होगी। पुरुषोत्तम युग के यही वह पुरुष हैं जिनका दर्शन पाकर साधक का जीवन कृतार्थ हो जाता है। कबीर दास ने सुन्दर ढंग से इस रहस्य को व्यक्त किया है -
यह 'राम-दुआर' क्या है ? साधारण आदमी सोचते हैं - यह अयोध्या के राम-मंदिर के समक्ष मरने की बात है।- "राम" शब्द या उच्चारण को परंपरा ने आगे चल कर त्रेता-युग के राम को समझने की भूल करावा दी है। -जो राम त्रेता में हुए थे, वही कृष्ण बनकर द्वापर में आये थे और अभी श्रीरामकृष्ण परमहंस देव बनकर आये हैं। इस रहस्य को श्री रामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द से ' नरेन् शिक्षा देगा ' का चपरास सौंपते हुए कहा था। फिर इस रहस्य को स्वामी विवेकानन्द ने कैप्टन सेवियर से " Be and Make" का चपरास सौंपते हुए कहा था। जिसकी पद्धति को कैप्टन सेवियर ने नवनीदा के रूप में पुनर्जन्म लेकर 1967 में महामण्डल के युवा-प्रशिक्षण शिविर में स्थापित कर दिया है। जो विगत 54 वर्षों से निरंतर जारी है। इसी रहस्य को नवनीदा ने मनःसंयोग की कक्षा में बताया कि " राम-दुआर ' का अर्थ है हृदय में कूटस्थ (विराजित) ठाकुर -माँ -स्वामीजी में प्राण एवं मन को स्थापित करके जो उस परम पुरुष का दर्शन करते-करते देह त्याग देते हैं; अर्थात शरीर से तादात्म्य या मिथ्या अहं को त्याग देते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यह एक अत्यन्त वास्तविक और सच्ची साधना है सिर्फ बात ही नहीं है। जो साधक जीवनभर मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास करते रहते हैं, उन्हीं के पक्ष में यह सम्भव है। यही तो मनःसंयोग का उद्देश्य और फल है।
यह कोई सुनी-सुनाई बात नहीं है -नवनीदा के प्रत्यक्ष और प्रमाणिक जीवन को देखकर समझा जा सकता है। अतः सिर्फ आँख -बंद कर विश्वास करने का कोई विषय नहीं है। मेरे जैसे व्यक्ति ने - जिसने कभी कोई शास्त्र न पढ़ा , वो मनःसंयोग के अभ्यास से गीता , उपनिषद आदि सभी शास्त्रों की सत्यता का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। शास्त्रों में कोई यदि उलट -फेर भी कर दी गयी हो तो उसे वह शीघ्र ही पकड़ कर समझ जाता है। जिस अमर राजयोग आधारित विज्ञान-सम्मत मनःसंयोग को नवनीदा ने जगत को दिया है , उसका अल्पांश भी यदि कोई करे तो उसका महान कल्याण होता है। इसमें कोई संदेह नहीं। - इस बात को मैंने अपने 35 साल तक महामण्डल से जुड़े रहकर प्रत्यक्ष अनुभव किया है ! और यही अनुभव महामण्डल के अन्य कर्मियों ने भी किया है। वस्तुतः यह भगवत वचन भी है - " स्वल्पमस्य , धर्मस्य त्रायतो महतो भयात। " इस बात को कबीर जी की भाषा में इस प्रकार कहा गया है -
अर्थात , लिखा-लिखी की बात नहीं , यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है। उदाहरण देते हुए कहते हैं की विवाह के समय कितने बाराती , बाजे , रोशनी आदि की सजावट के साथ बरात में शामिल होते हैं। किन्तु ज्योंही वर-कन्या का मिलन होता है , उसके बाद ही सभी अपने-अपने स्थान की ओर लौट जाते हैं। -अर्थात-साधक जब प्रकृति-पुरुष या जीवात्मा और परमात्मा के साथ मिलने में समर्थ हो जाते हैं तभी क्रिया की परवस्था में पहुँच जाते हैं। यह अवस्था स्वयं बोधगम्य है।
---------------------
मन की अद्भुत चमत्कारी शक्तियां: आपने पढ़ा ही होगा कि "आवश्यकता अविष्कार की जननी है।" मनःसंयोग पद्धति के जन्म-दाता या आविष्कारक नवनीदा ने अष्टांग योग को सरल कर पांच अंग में योग की क्रियात्मक विधि ढूंढ निकाली , जो आगे चलकर "मनःसंयोग " के नाम से प्रचलित हुई । नवनीदा का मनःसंयोग सहित ५ अभ्यास का प्रशिक्षण ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है। ठाकुर- माँ के आशीर्वाद से और स्वामी विवेकानन्द की तीव्र-इच्छा से ही मनःसायोग आधारित युव प्रशिक्षण शिविर और महामण्डल की उत्पत्ति हुई। इस 'Be and Make ' प्रक्रिया (लीडरशिप ट्रेनिंग) में कोई भ्रान्ति नहीं होती और परिणाम एक ही आता है , अतः यह पूर्ण रूप से एक वैज्ञानिक प्रणाली है।
प्रश्न यह है कि - क्या माँ काली की भक्ति करने वाले श्रीरामकृष्ण का ईश्वर कोई दूसरा है ? - क्या योग करने वाले राजयोगी स्वामी विवेकानन्द का ईश्वर अलग होता है ?- क्या ठाकुर की तंत्र-मार्ग साधना का ईश्वर अलग है ? - जो भी जिस विधि से पूजन-अर्चन करता है , क्या उसका ईश्वर - अलग-अलग है ? क्या सभी धर्मों के लोगों के अलग-अलग ईश्वर हैं ? - किसी को काली का दर्शन होता है , तो किसी को त्रेता-युग वाले राम का, , किसी को हनुमान , किसी को श्री कृष्ण का , किसी को श्रीरामकृष्ण का , किसी को ईशा-मसीह का , किसी को अल्ला या कोई पैगम्बर का आदि। - आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या ये सब एक भ्रामक विचार नहीं हैं ?-- तो सही क्या है ?- यह जानने के लिए मन और मन की धारणा को समझना होगा।
जब व्यक्ति के मन में कोई बात (गुरु वाक्य या चार महावाक्य) पूरी तरह बैठ जाती है तो वह बात उस व्यक्ति के मन की धारणा बन जाती है। इसके बिना वह आगे नहीं बढ़ सकता। चाहे कोई भी विषय -वस्तु हो , उसके सन्दर्भ का जो ज्ञान होता है , उस सम्बन्ध में सभी के अपने-अपने विचार बन जाते हैं। वह विचार मन की धारणा ही है। इससे कोई बच नहीं सका है। इसके सम्बन्ध में अब जो बताने जा रहा हूँ , वह बहुत अहम बातें हैं। धारणा की सकारात्मक शक्ति बहुत उत्तम और चमत्कार करने वाली होती हैं बशर्ते , यदि उसमें एकाग्रता भी शामिल हों। ध्यान रहे कि जब मन की सूक्ष्मता से कोई कार्य किया जाता है तो मन स्वयं एकाग्र हो जाता है। अब एक और अहम बात ,- किसी ज्ञान के प्रति सबकी अपनी-अपनी धारणा होती है। मन के कारण वह बीमार होता है , स्वस्थ होता है और अपना विकास भी करता है। जैसी मन की धारणा होगी , उसका संसार भी उसी अनुरुप होगा। यदि धारणा में कोई परिवर्तन हुआ तो, उसका प्रत्यक्ष संसार में भी बदलाव आने लगता है। यह परिवर्तन भी दो प्रकार का होता है- सकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक परिवर्तन उसे कहेंगे जब व्यक्ति के मन लायक कोई काम होता हो। नकारात्मक परिवर्तन व्यक्ति को बीमार या दुखी बनाता है। मन की गलत धारणा की वजह से व्यक्ति बीमार या दुखी जीवन व्यतीत करता है। हमें गलत धारणा होने का कारण ढूँढना होगा। उसमे सूक्ष्म परिवर्तन लाकर व्यक्ति को स्वस्थ और सुखी बनाया जा सकता है। जब अंदर का मन स्वस्थ होता है तो उससे सम्बंधित बाहरी जीवन भी उसके अनुकूल होने लगता है। अर्थात जब अंदर ठीक से वह ठीक होता है तो उसका बाहरी संसार भी ठीक होता है। गीता में यह भी स्पष्ट किया गया है कि - " जो मुझे जिस रूप में भी भजता है -प्रेम करता है -मनन -चिंतन करता है , मैं उसी रूप में दर्शन देता हूँ। चाहे मुझे वह प्रेमी मान ले , प्रेमिका मान ले , मित्र मान ले या कोई भी मुझे प्रिय-इष्ट मान ले। जो मुझे जिस रूप में भी याद करता है -मैं वैसा ही दर्शन देता हूँ। "--- यहाँ पर श्री कृष्ण ने मन की स्थितियों के बारे में समझाया है। अर्थात , मन की कल्पित कल्पनाओं के कारण जिसे वह देखना चाहता है वह देख सकता है। इसके बाद श्री कृष्ण ने ईश्वर को सही रूप में पाने और समझने के लिए योग का ज्ञान दिया है। वे स्वयं एक महान योगी थे। मन के सभी रहस्यों को समझ लिए थे। उनकी कोई बात झूठी नहीं हुई , बशर्ते कि गीता का सही रूप में अध्ययन किया जाए।
मनःसंयोग की आवश्यकता : 'संसार के सभी धर्म आज उपहास की वस्तु हो गये हैं, आज संसार जो चाहता है -वह है चरित्र !' ~ स्वामी विवेकानन्द। [Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt.
One idea that I see clear as daylight is that misery (पंचक्लेश) is caused by ignorance (अविद्या ) and nothing else. Who will give the world light? Sacrifice in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come. The earth's bravest and best will have to sacrifice themselves for the good of many, for the welfare of all. Buddhas by the hundred are necessary with eternal love and pity.
My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.
Awake, awake, great ones! The world is burning with misery. Can you sleep? Let us call and call till the sleeping gods awake, till the god within answers to the call. What more is in life? What greater work? The details come to me as I go. I never make plans. Plans grow and work themselves. I only say, awake, awake! ~ letter to Sister Nivedita - 7th June, 1896.]
धर्म के नाम पर खिलवाड़ और व्यवसायिकता की स्थिति को अपने देश में देख कर कबीर ने अत्यन्त दुःख के साथ कहा है –
ठौर का अर्थ होता है ~ 'धाम' वह इन्द्रियातीत सत्य जो देश-काल-निमित्त या नाम-रूप से परे, सच्चिदानन्द स्वरूप है ! अक्षर तत्त्व ब्रह्म है जो समस्त विश्व का अधिष्ठान है। ॐ या प्रणव उस ब्रह्म का वाचक या सूचक है जिसके किसी अवतार वरिष्ठ पर हमें ध्यान करने का उपदेश दिया गया था। यह अविनाशी चैतन्य स्वरूप आत्मा ही अव्यक्त प्रकृति को सत्ता एवं चेतनता प्रदान करता है जिसके कारण प्रकृति इस वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि को व्यक्त करने में समर्थ होती है। यह सनातन अव्यक्त अक्षर आत्मतत्त्व ही मनुष्य के लिए प्राप्त करने योग्य पररम लक्ष्य है। श्री कृष्ण के शब्दों में - " यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। गीता 8.21।।" जहां जाने या पहुँचाने पर फिर पुनरावर्तन नहीं होता, वही मेरा धाम है। " यहाँ शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को महर्षि व्यास जी ने काव्यात्मक शैली द्वारा श्रीकृष्ण के निवास स्थान के रूप में वर्णित किया है ~ तद्धाम परमं मम/तत् धाम परमम् मम। अनेक स्थलों पर यह स्पष्ट किया गया है कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण 'मैं ' शब्द का प्रयोग आत्मस्वरूप की दृष्टि से करते हैं। अतः यहाँ भी धाम शब्द से किसी स्थान विशेष से तात्पर्य नहीं वरन् उनके स्वरूप से ही है। यह आत्मानुभूति ही साधक का लक्ष्य है जो उसके लिए सदैव उपलब्ध भी है। संसार शब्द का अर्थ ही है वह जो निरन्तर बदलता रहता है। निद्रा कोई जीवन का अन्त नहीं वरन् दो कर्मप्रधान जाग्रत अवस्थाओं के मध्य का विश्राम काल है उसी प्रकार मृत्यु भी जीवन की समाप्ति नहीं है। प्रायः वह जीव के दो विभिन्न शरीर धारण करने के मध्य का अव्यक्त अवस्था में विश्राम का क्षण होता है।
वर्तमान युग में जो व्यक्ति भ्रम -मुक्ति पाना चाहता है (de -hypnotized होना चाहता है ) उसका एक मात्र साधन है --महामण्डल Be and Make-परम्परा में मनःसंयोग का प्रशिक्षण या क्रिया-योग ।
मनःसंयोग या क्रियायोग : मनुष्य को उस स्थिति (ब्रह्मत्व) तक ले जाता है जहां सुख और आनंद ही व्याप्त है। इसके अलावा व्यक्ति को और कुछ भी इच्छा बाकि नहीं रह जाती। अतः उसका पुनर्जन्म नहीं होता। अक्षर तत्त्व ब्रह्म है जो समस्त विश्व का अधिष्ठान है। ॐ या प्रणव उस ब्रह्म का वाचक या सूचक है जिस पर हमें ध्यान करने का उपदेश दिया गया था। यह अविनाशी चैतन्य स्वरूप आत्मा ही अव्यक्त प्रकृति को सत्ता एवं चेतनता प्रदान करता है जिसके कारण प्रकृति इस वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि को व्यक्त करने में समर्थ होती है। यह सनातन अव्यक्त अक्षर आत्मतत्त्व ही मनुष्य के लिए प्राप्त करने योग्य पररम लक्ष्य है। जब कोई व्यक्ति उपदिष्ट मनःसंयोग या क्रियायोग के अभ्यास से उपाधियों के साथ हुए मिथ्या तादात्म्य को दूर कर देता है तब वह अपने शुद्ध अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है। स्वप्न से जागने पर ही स्वप्न के मिथ्यात्व का बोध होता है अन्यथा नहीं और एक बार जाग्रत् अवस्था में आने के पश्चात् स्वप्न के सुख और दुःख के प्रभाव से मनुष्य सर्वथा मुक्त हो जाता है।
'लाहिड़ी महाशय' (श्री श्यामाचरण लाहिड़ी 30 सितम्बर 1828 – 26 सितम्बर 1895)भारत के आठ महान साधक में से एक 18 वीं शताब्दी के उच्च कोटि के साधक थे जिन्होंने सद्गृहस्थ के रूप में रहते हुए भी योगज-शक्ति में पूर्णता प्राप्त कर ली थी। इन्होंने वेदान्त, सांख्य, वैशेषिक, योगदर्शन और अनेक संहिताओं की व्याख्या भी प्रकाशित की। परम सिद्ध महावतार बाबा जी ने महर्षि पतंजलि के प्रसिद्ध ग्रन्थ “योग सूत्र” में वर्णित क्रिया योग का पुनरुद्धार किया | सूत्र II.1 में क्रिया योग की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है : “सतत अभ्यास (वैराग्य के साथ), स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान। ” इनमे प्रमुख हैं प्राणायाम, मंत्र एवं भक्ति के द्वारा दिव्य चेतना एवं महान शक्ति “कुण्डलिनी” को विकसित करना। बाबाजी ने सन् 1861 में लाहिड़ी महाशय को प्रभावशाली क्रिया योग विद्या की दीक्षा दी। लाहिरी महाशय का जन्म नदिया जिले के घूर्णी गाँव में 30 सितम्बर सन 1828 को एक संभ्रान्त ब्राह्मण कुल में हुआ था। अपने पैत्रिक गाँव को छोड़ कर उनके पिता गौरमोहन लाहिरी काशी आ गए और बंगाली टोला स्थित एक भवन में सपरिवार रहने लगे। आपका पठनपाठन काशी में हुआ। बंगला, संस्कृत के अतिरिक्त आपने अंग्रेजी भी पढ़ी यद्यपि कोई परीक्षा नहीं पास की। लाहिरी महाशय के विवाह पश्चात दो पुत्र और दो पुत्रियों का जन्म हुआ।
इनके शिक्षाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिरशांति प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। ब्रिटिश सरकार के सैनिक ईन्जीनीयरिंग विभाग दानापुर में मिलिटरी एकाउंट्स आफिस में अकाउनटेंट के पद पर लाहिड़ी महाशय सन 1851 में कार्यरत थे। सरकारी नौकरी में उनकी नियुक्ति 23 साल की उम्र में हो गयी थी। । 1869 में उन्हें सुचना मिली कि – उनका स्थानांतरण रानीखेत में हो गया – जहाँ सेना का नया कैंप स्थापित किया जा रहा था। एक दोपहर रानीखेत की पहाड़ियों में सैर करते हुए उनको उन्हें लगा – जैसे कोई उनका नाम लेकर पुकार रहा हैं। कौतूहलवश वो आवाज की दिशा में द्रोणागिरी पर्वत की और बढ़ते रहे। इस बात से भी चिंतित थे किं कहीं उन्हें लौटने से पहले अँधेरा न हो जाए। चलते हुए वो एक खुली जगह पर पहुंचे – जिसके दोनों और गुफा थी। वहां अपनी तरह दिखने वाले एक युवक के को उनके स्वागत में खड़े देख – वो आश्चर्य में पड़ गए। युवक ने बताया कि – उन्होंने ही लाहिड़ी महाशय को पुकारा था। स्वागत में खड़े युवा संत – परम सिद्ध महावतार बाबा जी थे। महावतार बाबा की गुफा आज भी उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में कुकुछीना से 13 किलोमीटर दूर दूनागिरि के पांडुखोली में स्थित है।
लाहिड़ी महाशय को उन्होंने एक गुफा में विश्राम करने को कहा। –लाहिड़ी तुम्हे वो आसान याद हैं? महावतार बाबा ने कोने पर पड़े कम्बल की और इशारा करते हुए कहा। नहीं महाराज, – लाहड़ी महाशय अपनी इस विचित्र साहसिक यात्रा पर हतप्रभ हो बोले; महाराज – मुझे अँधेरा होने से पहले निकलना होगा – सुबह ऑफिस में काम हैं। लाहिड़ी महाशय के लिए उस समय तक रहस्मय संत ने अंग्रेजी में उत्तर दिया – The office is brought for you, and not you for the office (ऑफिस तुम्हारे लिए लाया गया हैं, तुम ऑफिस के लिए नहीं) निर्जन वन में एक सन्यासी से ऐसे शब्द सुन लाहिड़ी महाशय अवाक् रह गए । संत ने आगे बताया कि लाहिड़ी महाशय के रानीखेत स्थानांतरण के लिए – उन्होंने ही गुप्त रूप से, सेना के अधिकारी के मन को यहाँ कैंप लाने और उनके स्थानांतरण का सुझाव दिया था।
संत ने कहा कि यह जगह – उन्हें परिचित लग रही होगी कर इसके बाद – लाहिड़ी महाशय के माथे को स्पर्श किया, तो उनकी पूर्व जन्म की स्मृतियाँ जाग गयी । उन्हें याद आया कि ये संत उनके पूर्व जन्म के गुरु – महावतार बाबा हैं। उन्हें याद आया किं पूर्व जन्म में इसी गुफा में – उन्होंने कई वर्ष बिताये थे। पूर्व जन्म की मधुर और पवित्र स्मृतियों से वो भाव विव्हल हो उठे।
उस रात लाहड़ी महाशय के पूर्व जन्म के कर्मों के बंधन से मुक्ति के लिए महावतार बाबा ने उस जंगल में अपनी योग शक्ति से एक सवर्णों और रत्नो से प्रकाशित महल एक निर्माण कराया, जो लाहिड़ी महाशय के पूर्व जन्म में जगी इच्छा थी। कुछ समय के लिए सरकारी काम से अल्मोड़ा जिले के रानीखेत नामक स्थान पर भेज दिए गए। हिमालय की इस उपत्यका में गुरुप्राप्ति और दीक्षा हुई। लाहिड़ी महाशय का स्वर्ण महल से मोह भंग हो जाने पर वह महल अदृश्य गया। दिव्य पुरुषों के लिए किसी भी वस्तु की कल्पना और उसकी शृष्टि में में कोई अंतर नहीं होता।
हिन्दू मान्यता हैं – किं – जब तक मनुष्य में कामना और इच्छा शेष हैं – उसका जन्म होता रहेगा, पूर्व जन्म की अधूरी इच्छा – उसके अगले जन्म में उसके अवचेतन मन के अंदर रहती हैं। पूर्व जन्म के की अनुभूतियों का बोध, महावतार बाबा से प्राप्त ज्ञान और उनकी कृपा से अगले सात दिन लाहिड़ी महाशय निर्विकल्प समाधि में लींन रहे। आत्म ज्ञान के अनेकों स्तरोँ को पार कर आठवे दिवस – लाहिड़ी महाशय ने उसी वन में बाबाजी के साथ हमेशा के लिए रहने की इच्छा प्रकट की।
लाहिड़ी महाशय के गुरु ने कहा - “ तुमको 'क्रिया- योग' द्वारा दी आध्यात्मिक शांति को अनेकों तक पहुँचाने के लिए नियुक्त किया गया है। करोड़ों जोकि पारिवारिक संबंधों और भारी सांसारिक कार्यों में डूबें है, तुमसे प्रेरणा लेंगे, क्यूंकि तुम भी उनकी तरह एक गृहस्थ हो । तुम्हें अन्य गृहस्थ लोगों को यह दर्शाना होगा कि सबसे उच्तम आध्यात्मिक प्राप्तियाँ - 'ब्रह्मज्ञान' भी गृहस्थ को मना नहीं हैं। तुम्हारे आदर्श संतुलित जीवन से वे समझेंगें कि आत्मबोध आंतरिक अवस्था है, न कि बाहरी, संन्यास पर निर्भर है।” `जिससे पारिवारिक बंधन में बंधे, सांसारिक कर्तव्यों से दबे, अनेकों लोगो को (Bh–अनुभव लेने के बाद उसका त्याग करने से) – बिना सांसारिक बंधन तोड़े ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए हिम्मत और प्रेरणा मिलेगी।
बाबाजी ने उन्हें बताया कि - मैंने तुम्हें यहाँ तब तक नहीं बुलाया जब तक तुम विवाहित नहीं हो गए। अब तुम्हें एक आदर्श गृहस्थ के रूप में आगे का जीवन व्यतीत करना होगा। अगणित लोग तुमसे क्रिया योग की दीक्षा लेकर अध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करेंगे। परम सत्ता का साक्षात्कार करेंगे। उन्होंने लाहिड़ी महाशय को भगवतगीता के इस अमर वचन-- को अपने सभी शिष्यों ( भावी नेताओं) को बताने को कहा कि ' स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात' –अर्थात – इस धर्म (5 अभ्यास) का थोड़ी सी भी साधना बड़े से बड़े भय से रक्षा करता हैं। को दीक्षा के वक्त दूसरों को भी सुनाने का निर्देश (चपरास) दिया-कि उनके इस जन्म का उद्देश्य प्रवृत्ति मार्ग के सामान्य मानवों के बीच रहकर अपनी नेता/जीवनमुक्त शिक्षक की भूमिका निभानी हैं। साथ ही गीता के एक श्लोक 2/40 की व्याख्या भी दी
आरम्भ करना अभिक्रम कहलाता है, इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्ग 'Be and Make' में अभिक्रम का यानी गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए , मनुष्य बनने के 5 अभ्यास स्वयं करने और दूसरों को भी अनुप्रेरित करने के पाठचक्र (विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर) के प्रारम्भ का कृषि आदि के सदृश नाश नहीं होता। अभिप्राय यह कि योग विषयक प्रारम्भ का फल अनैकान्तिक ( संशययुक्त ) नहीं है। तथा चिकित्सादि की तरह ( इसमें ) प्रत्यवाय ( विपरीत फल ) भी नहीं होता है। तो क्या होता है ?
इस कर्मयोगरूप धर्म 'Be and Make' का थोड़ासा भी अनुष्ठान ( साधन ) जन्म-मरण रूप महान् संसार-भय से रक्षा किया करता है। भगवान् श्रीकृष्ण यहां मानो इस ज्ञान का, इस कर्मयोगरूप धर्म 'Be and Make' का विज्ञापन - करते हुये कर्मयोग का उपर्युक्त दोनों दोषों से सर्वथा मुक्त और सुरक्षित होने का आश्वासन देते हुए कहते हैं -इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय (मृत्यु) से रक्षण करता है।।
दुसरे दिन गुरुदेव से बिछुड़ते समय लाहिड़ी महाशय रोने लगे। यह देखकर गुरुदेव ने उन्हें कंठ से लगाया। और सांत्वना देते हुए बोले- " नहीं वत्स, तुम्हें वापिस जाना ही होगा। संन्यासी के वेश में नहीं, बल्कि गृहस्थ के रूप में रहते हुए जन कल्याण का कार्य करना होगा। तुम्हें, तुम्हारे जीवन को देखकर लोग यह जान सकेंगे कि उच्चस्तर की साधना से गृहस्थ भी - ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकते हैं। और यही इस बात के पीछे गहरा कारण था कि लाहिड़ी महाशय गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद ही बाबाजी से मिल पाए। क्योंकि प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटने में समर्थ एक गृहस्थ योगी के रुप में उन्हें – प्रवृत्ति धर्म के संसारी लोगो के मध्य रह उन्हें मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देकर, उन्हें सांत्वना देनी होगी कि – गृहस्थ भी ब्रह्म की उपलब्धि कर सकते हैं। ब्रह्मविद होने का लाभ उठा सकते हैं, अर्थात दूसरों की सेवा निःस्वार्थभाव से कर सकते हैं। तुम्हें गृहस्थी से अलग होने की आवश्यकता नहीं है। तुम उस (Bh) -बंधन से मुक्त हो गए हो। आगे चल कर अनेक लोग तुमसे दीक्षा ग्रहण करेंगे। यह याद रखना कि योग्य व्यक्ति को ही दीक्षा देना. ईश्वर प्राप्ति के लिए जो सर्वस्व त्याग कर सकता है, वही इस मार्ग के योग्य है। जो व्यक्ति ईश्वर (इन्द्रियातीत सत्य या परम् सत्य) की प्राप्ति के लिए जो सर्वस्व त्याग कर सकता है, वही इस मार्ग के योग्य है। तुम मुझसे बिछुड़ नहीं रहे हो। मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूँगा। जब जहां स्मरण करोगे तब वहीँ उपस्थित हो जाऊँगा। मेरे लिए व्याकुल होने की आवश्यकता नहीं है। "
बाबाजी के आदेश से लाहिड़ी महाशय द्वाराहाट के द्रोणागिरी की पहड़ियों से नीचे उतरे। रानीखेत से वापिस आते समय लाहिड़ी महाशय कुछ मित्रों के अनुरोध पर मुरादाबाद में रुक गए। एक दिन न जाने किस बात पर एक सज्जन ने कहा- " आजकल वास्तविक संत हैं कहाँ? T.v. पर दिखने वाले अधिकांश बाबा लोग 'क्षेत्रे भोजन मठे निद्रा ' वाले हैं। इन लोगों का राजशाही ठाटबाट देखकर ईर्ष्या होती है. बड़े बड़े मठ बनवा कर, आम जनता को उपदेश देकर मूर्ख बनाते हैं। असली संत कभी इन ऐश्वर्यों को स्पर्श भी नहीं करते" इस बैठक में लाहिड़ी महाशय भी मौजूद थे। उन्होंने कहा- " आपका ख्याल गलत है। भारत में अभी भी उच्च कोटि के संत हैं। हम उनको पहचान नहीं पाते हैं। वे अपने घरों (खरदह) से दूर रहकर - कोन्नगर में अपनी साधना कर्मयोगरूप धर्म 'Be and Make' _में निमग्न रहते हैं। मेरे गुरुदेव/[नेता नवनीदा] ऐसे ही महान संत हैं। जिनकी कृपा से मुझे नया जीवन मिला है।"
इतना कहकर लाहिड़ी महाशय अपने परम पूज्य गुरुदेव से मिलने की अनोखी कहानी सुनाने लगे। उनकी बातों पर किसी ने विश्वास नहीं किया। गुरुदेव की कृपा तथा पूर्व जन्म के संस्कार के कारण लाहिड़ी महाशय योगारूढ़ तो हो गए थे , पर साधारण मनुष्यों की तरह अपने गर्व (व्यष्टि अहं) का शमन अभी नहीं कर पाए थे। अपना मजाक उड़ता देखकर लाहिड़ी महाशय ने उत्तेजनावश कहा-``आप लोगों को मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा है? अगर मैं चाहूँ तो अभी इसी क्षण, यहीं, अपने गुरुदेव को बुला सकता हूँ। अब लोगों ने विश्वास करना भी क्यों था ? अचानक लाहिड़ी महाशय इस अपमान से अत्यंत क्षुब्ध हो उठे। वे यह भूल गए कि ऐसे ही किसी व्यक्ति के सामने परा-शक्ति व परा-इच्छा का उपयोग नहीं करना चाहिए जो इसके योग्य नहीं हैं।
लाहिड़ी महाशय एक दुसरे कमरे में चले गए और अन्दर न आने का निर्देश देकर ध्यानस्थ हो गए। कुछ ही देर में कमरे में प्रकाश हुआ और गुरुदेव प्रकट हुए। उनकी दृष्टि कठोर थी। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा-" श्यामाचरण, तुमने इन विषयी अकर्मण्य मित्रों के कारण मुझे बुलाया? अब मैं जा रहा हूँ, अब ऐसे तुच्छ कारणों पर मैं कभी नहीं आऊंगा। " गुरुदेव के इस कथन से लाहिड़ी महाशय का मन काँप उठा। तुरंत जमीन पर माथा टेकते हुए कहा-" अपराध के लिए क्षमा कर दें गुरुदेव। उत्तेजनावश मैं बाल हठ कर बैठा। अविश्वासी मन वाले इन अंधों को बताना चाहता था कि भारत में अभी भी उच्चस्तर के योगी हैं। अब आप आ ही गए हैं तो इन अविश्वासियों को दर्शन देकर इनके भ्रम को दूर करने की कृपा करें। " गुरुदेव ने अभय वाणी देते हुए कहा- 'ठीक है. भविष्य में कभी विनोद के निमित्त मेरा स्मरण मत करना। जब वास्तव में तुम्हें आवश्यकता होगी तब ही आऊंगा।" इस आश्वासन को पाते ही लाहिड़ी महाशय ने कमरे का दरवाजा खोल दिया। लोग चकित दृष्टि से उनके गुरुदेव को देखने लगे। फिर भी एक अविश्वासी बोल उठा- " यह तो सामूहिक सम्मोहन है, वास्तविक नहीं है।" गुरुदेव मुस्कुराए आगे बढ़ कर सभी को स्पर्श किया और प्रसाद के रूप में हलुवा दिया। ज्यों ही लोगों ने हलुवा मुह में डाला त्यों ही वह प्रकाश लुप्त हो गया। इन दर्शनार्थियों में से एक ने आगे चलकर लाहिड़ी महाशय से दीक्षा प्राप्त की। अब आप अनुमान लगा लीजिये की स्वयं बाबाजी महाराज प्रकट हुए। दर्शन दिए। तब भी लोगों को विश्वास नहीं हुआ। कभी कभी तो लगता है कि क्या इंसान अविश्वास (चमत्कार) पर ही विश्वास करना चाहता है ?!
जब वे अपने कार्यालय में वापिस आये तो उनके सहयोगियों को अपार प्रसन्नता हुई। सहकर्मियों के बार बार प्रश्न करने पर भी लाहिड़ी महाशय ने अपने अज्ञातवास के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया। उन लोगों की उत्सुकता समाप्त करने के लिए केवल इतना बोले- "मैं जंगल में भटककर दूर चला गया था. नयी जगह होने के कारण मुझे वापिस आने में इतना समय लग गया।" इसके शीघ्र बाद – मुख्यालय से एक पत्र आया जिसमे लिखा था – " लाहिड़ी को वापस दानापुर लौट जाना चाहिए, उनका रानीखेत स्थानांतरण गलती से हुआ। लाहिड़ी महाशय का रानीखेत आने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। रानीखेत से वापिस आकर वे अपने कार्यालय में पूर्व की भांति कार्य करने लगे। गुरु द्वारा बतायी गयी क्रियायों की साधना भी चलती रही। दीक्षा के बाद भी इन्होंने कई वर्षों तक नौकरी की और इसी समय से गुरु के आज्ञानुसार लोगों को दीक्षा देने लगे थे।
बाबा जी से दीक्षा का जो प्रकार प्राप्त हुआ उसे क्रियायोग कहा गया है। क्रियायोग की विधि केवल दीक्षित साधकों को ही बताई जाती है। क्रिया-योग की पद्धति महावतार बाबाजी द्वारा लाहिड़ी महाशय को प्रदान की गयी थी। जैसा कि लाहिड़ी महाशय द्वारा सिखाया गया है, क्रिया योग पारंपरिक रूप से गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ही सीखा जाता है। उन्होंने स्मरण किया कि, क्रिया योग में उनकी दीक्षा के बाद, "बाबाजी ने मुझे उन प्राचीन कठोर नियमों- यम,नियम,आसान, प्रत्याहार और धारणा में निर्देशित किया जो गुरु से शिष्य में संचारित होकर योग कला या मनःसंयोग को नियंत्रित करते हैं।" क्रिया योग की साधना करने वालों के द्वारा इसे एक प्राचीन योग पद्धति के रूप में वर्णित किया जाता है, जिसे आधुनिक समय में महावतार बाबाजी के शिष्य लाहिरी महाशय के द्वारा 1861 के आसपास पुनर्जीवित किया गया। और परमहंस योगानन्द की पुस्तक ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी (एक योगी की आत्मकथा) के माध्यम से जन सामान्य में प्रसारित हुआ। लाहिड़ी महाशय के महावतार बाबाजी से 1861 में क्रिया योग की दीक्षा प्राप्त करने की कहानी का व्याख्यान एक योगी की आत्मकथा में किया गया है। योगानन्द ने लिखा है कि उस बैठक में, महावतार बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय से कहा कि, "यह क्रिया योग जिसे मैं इस उन्नीसवीं सदी में तुम्हारे जरिए इस दुनिया को दे रहा हूं, यह उसी विज्ञान का पुनः प्रवर्तन है जो भगवान कृष्ण ने सदियों पहले अर्जुन को दिया; और बाद में यह पतंजलि और ईसा मसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और अन्य शिष्यों को ज्ञात हुआ।" योगानन्द जी ने यह भी लिखा कि बाबाजी और ईसा मसीह एक दूसरे से एक निरंतर सम्पर्क में रहते थे और दोनों ने एक साथ, "इस युग के लिए मुक्ति की एक आध्यात्मिक तकनीक की योजना बनाई।" लाहिड़ी महाशय के माध्यम से, क्रिया योग जल्द ही भारत भर में फैल गया। लाहिड़ी महाशय के शिष्य स्वामी श्री युक्तेशवर गिरि के शिष्य योगानन्द जी ने, 20वीं शताब्दी के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में क्रिया योग का प्रसार किया। योगानन्द जी के अनुसार, प्राचीन भारत में 'क्रिया योग' अर्थात मनःसंयोग की पद्धति को भली भांति जाना जाता था, लेकिन अंत में यह खो गया, जिसका कारण था पुरोहित गोपनीयता और मनुष्य की उदासीनता। योगानन्द का कहना है कि पतंजलि का इशारा योग क्रिया की ओर ही था जब उन्होंने लिखा "क्रिया योग शारीरिक अनुशासन, मानसिक नियंत्रण और ॐ पर ध्यान केंद्रित करने से निर्मित है।" और फिर जब वह कहते हैं, "उस प्रणायाम के जरिए मुक्ति प्राप्त की जा सकती है जो प्रश्वसन और अवसान के क्रम को तोड़ कर प्राप्त की जाती है।" योगानन्द जी का कहना है की भगवान कृष्ण ने भगवद गीता में क्रिया योग को संदर्भित किया है। योगानन्द जी ने यह भी कहा कि भगवान कृष्ण क्रिया योग का जिक्र करते हैं जब "भगवान कृष्ण यह बताते है कि उन्होंने ही अपने पूर्व अवतार में अविनाशी योग की जानकारी एक प्राचीन प्रबुद्ध, वैवस्वत या सूर्य को दी जिन्होंने इसे महान व्यवस्थापक मनु को संप्रेषित किया। इसके बाद उन्होंने, यह ज्ञान भारत के सूर्य वंशी साम्राज्य के जनक इक्ष्वाकु को प्रदान किया।" योगानंद के अनुसार क्रिया योग ईश्वर से साक्षात्कार की एक प्रभावी विधि है, जिसके पालन से अपने जीवन को संवारा और ईश्वर की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। जैसा की योगानन्द द्वारा क्रिया योग को वर्णित किया गया है, "एक क्रिया योगी अपनी जीवन उर्जा को मानसिक रूप से नियंत्रित कर सकता है ताकि वह रीढ़ की हड्डी के छः केंद्रों के इर्द-गिर्द ऊपर या नीचे की ओर घूमती रहे (मस्तिष्क, गर्भाशय ग्रीवा, पृष्ठीय, कमर, त्रिक और गुदास्थि संबंधी स्नायुजाल) जो राशि चक्रों के बारह नक्षत्रीय संकेतों, प्रतीकात्मक लौकिक मनुष्य, के अनुरूप हैं। क्रिया योग के उद्धरण में लिखा है, "क्रिया योग साधना या मनःसंयोग को ऐसा माना जा सकता है कि जैसे यह "आत्मा में रहने की पद्धति" की साधना है"। यह विधि पूर्णतया शास्त्रोक्त है और गीता [ पतंजलि योगसूत्र] उसकी कुंजी है। क्रियायोग की प्रक्रिया का आगे विश्लेषण करते हुये वे कहते हैं कि मनुष्य की श्वशन गति और उसकी चेतना की भिन्न भिन्न स्थिति के बीच गणितानुसारी सम्बन्ध होने के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। गीता में कर्म, ज्ञान, सांख्य, भक्ति इत्यादि सभी योग है और वह भी इतने सहज रूप में जिसमें जाति और धर्म के बंधन बाधक नहीं होते। बैलगाड़ी के समान धीमी और अनिश्चित गति वाले धार्मिक मार्गों की तुलना में 'क्रिया-योग' (मनःसंयोग) के द्वारा ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को विमान मार्ग कहना उचित होगा। प्रत्यक्ष प्राण-शक्ति के द्वारा मन को नियन्त्रित करने वाला 'क्रिया-योग ' अनन्त तक पहुँचने के लिये सबसे सरल प्रभावकारी और अत्यन्त वैज्ञानिक मार्ग है। मनःसंयोग, मन की एकाग्रता या प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास धीमे श्वसन पर निर्भर है। तेज या विषम श्वास भय, काम क्रोध आदि हानिकर भावावेगों की अवस्था का सहचर है। परमहंस योगानन्द के अनुसार क्रियायोग एक सरल मनःकायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से परिपूरित हो जाता है। इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरूदण्ड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देते हैं।
आप हिंदू, मुसलमान, ईसाई सभी को बिना भेदभाव के दीक्षा देते थे। इसीलिए आपके भक्त सभी धर्मानुयायी हैं। उन्होंने अपने समय में व्याप्त कट्टर जातिवाद को कभी महत्व नहीं दिया। वह अन्य धर्मावलंबियों से यही कहते थे कि आप अपनी धार्मिक मान्यताओं का आदर और अभ्यास करते हुए क्रियायोग द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। लाहिड़ी महाशय अपने शिष्यों को अपने-अपने वातावरण एवं पालन-पोषण के अनुसार अपना जीवन जीने की स्वतन्त्रता देते थे। वे कहते थे: ‘‘मुसलमान को रोज पाँच बार नमाज पढ़ना चाहिये। हिन्दू को दिन में कई बार ध्यान में बैठना चाहिये। इसाई को रोज कई बार घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना करके फिर बाइबिल का पाठ करना चाहिये।’’लाहिड़ी महाशय अत्यंत विचारपूर्वक अपने अनुयायियों को उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग या राजयोग के मार्ग पर चलाते थे। संन्यास लेने की इच्छा रखने वाले शिष्यों को वे आसानी से उसकी अनुमति नहीं देते थे; हमेशा उन्हें संन्यास-जीवन की उग्र तपश्चर्या पर पहले भलीभाँति विचार कर लेने का परामर्श देते थे। पात्रानुसार भक्ति, ज्ञान, कर्म और राजयोग के आधार पर व्यक्तित्व और प्रवृत्तियों के अनुसार साधना करने की प्रेरणा देते। इस प्रकार लाहिड़ी महाशय ने सन १८८० तक सरकार की सेवा में रहने के बाद अवकाश ग्रहण किया था।
अवकाश लेने के बाद लाहिड़ी महाशय की कठिनाईयां बढ़ गयी। पेंशन के रुपयों से गृहस्थी न चलती देखकर वे काशी के राजा महाराज ईश्वरीयनारायण सिंह के सुपुत्र प्रभुनारायण सिंह को शास्त्रादी पढ़ाने के लिए कुछ दिनों तक तीस रुपये मासिक वेतन पर गृह शिक्षक का कार्य करते रहे। आगे चलकर ईश्वरीयनारायण सिंह लाहिड़ी महाशय से इतने प्रभावित हुए की उन्होंने और उनके पुत्र ने भी श्यामाचरण लाहिड़ी को गुरु रूप में स्वीकार किया। विशुद्ध ब्राह्मण होते हुए भी लाहिड़ी महाशय जात पात के अहम् को नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि में - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है , इसलिए सभी सम थे।
इलाहाबाद में होने वाले कुम्भ के मेले में गए थे। वहाँ एक घटना को देखकर वे समदर्शी हो गए थे. कहा जाता है की लाहिड़ी महाशय मेले में घूम रहे थे. अचानक उनकी दृष्टि एक ऐसे जटाजूट धारी महात्मा पर पड़ी जिनके सामने वीर आसन में बैठकर उनके गुरुदेव श्रद्धा पूर्वक पैर धो रहे थे। यह दृश्य देखकर लाहिड़ी महाशय ने पूछा- " गुरुदेव, आप..और इनकी सेवा में.?" लाहिड़ी महाशय की ओर बिना देखे बाबाजी महाराज बोले- " इस समय में इन महात्मा के चरण धो रहा हूँ। इसके बाद इनके बर्तनों को साफ़ करूँगा। "लाहिड़ी महाशय को समझते देर नहीं लगी कि इस उदाहरण को प्रस्तुत करते हुए गुरुदेव मुझे शिक्षा दे रहे हैं। भविष्य में उंच नीच का भेद न करूँ। प्रत्येक मानव में ईश्वर का निवास होता है, इसे मान कर चलूँ। गुरुदेव ने उस दिन कहा था- " मैं ज्ञानी- अज्ञानी- साधुओं की सेवा कर नम्रता सीख रहा हूँ!" इस घटना के बाद से ही लाहिड़ी महाशय के स्वभाव में परिवर्तन हो गया. भेद भाव पूर्ण रूप से समाप्त हो गया। क्योंकि अद्वैत-बोध संपन्न ब्रह्मविद महापुरुष लोग कभी भेदभाव नहीं करते। सामान्य जन भेदभाव के आधार पर जीवन यापन करता है। इससे हमें कुछ सीखना चाहिए। मन के भेद को मिटाने की साधना ही सबसे बड़ी साधना है। ( अर्थात व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित करने की साधना ही सबसे बड़ी साधना है !)
लाहिड़ी महाशय के उपदेश - ‘‘यह याद रखो कि तुम किसी के नहीं हो और कोई तुम्हारा नहीं है। इस पर विचार करो कि किसी दिन तुम्हें इस संसार का सब कुछ छोड़कर चल देना होगा, इसलिये अभी से ही भगवान को जान लो,’’ महान गुरु अपने शिष्यों से कहते।
"You are walking on the earth as in a dream. Our world is a dream within a dream; you must realize that to find God is the only goal, the only purpose, for which you are here. For Him alone you exist. Him you must find."
‘‘ आत्मानुभूति के गुब्बारे में प्रतिदिन उड़कर मृत्यु की भावी सूक्ष्म यात्रा के लिये अपने को तैयार करो। माया के प्रभाव में तुम अपने को हाड़-मांस की गठरी मान रहे हो, जो दु:खों का घर मात्र है।’’
"अनवरत प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करो ताकि तुम जल्दी से जल्दी अपने को सर्व-दु:ख-क्लेशमुक्त अनन्त परमतत्त्व के रूप में पहचान सको। क्रियायोग की गुप्त कुंजी के उपयोग द्वारा देह-कारागार से मुक्त होकर परमतत्त्व में भाग निकलना सीखो।’’
उनके मत से शास्त्रों पर शंका अथवा वाद -विवाद में न फंस कर, उनका सार -तथ्य आत्मसात् करना चाहिए। अपनी समस्याओं के हल करने का आत्मचिंतन, आत्मनिरीक्षण (introspection) या अन्तरावलोकन से बढ़कर अन्य कोई मार्ग नहीं। आत्मनिरीक्षण में ही अपनी सब समस्याओं का समाधान ढूँढ़ो। शास्त्रों के किताबी ज्ञान से उत्पन्न मतांध धारणाओं के कचरे को अपने मन से निकाल फेंको और उसके स्थान पर प्रत्यक्ष अनुभूति के आरोग्यप्रद मीठे जल को अंदर आने दो। परम सत्य या ईश्वर के विषय में व्यर्थ अनुमान लगाते रहने के बदले ईश्वर (के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) से प्रत्यक्ष सम्पर्क करो। अन्तरात्मा के सक्रिय मार्गदर्शन से मन की तार को जोड़ लो; उसके माध्यम से बोलने वाली ईश्वर -वाणी के पास जीवन की प्रत्येक समस्या का उत्तर है। लाहिड़ी महाशय के प्रवचनों का पूर्ण संग्रह प्राप्य नहीं है किन्तु गीता, उपनिषद्, संहिता इत्यादि की अनेक व्याख्याएँ बँगला में उपलब्ध हैं। भगवद्गीताभाष्य का हिंदी अनुवाद लाहिड़ी महाशय के शिष्य श्री भूपेद्रनाथ सान्याल ने प्रस्तुत किया है। श्री लाहिड़ी की अधिकांश रचनाएँ बँगला में हैं।
किसी (लाहिड़ी महाशय या नवनीदा जैसे) सिद्ध योगी की पहचान यही है कि उनके अनुयायी या शिष्य किस स्तर के हैं। भारत वर्ष की शक्ति वेदान्त या योग शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में सदा से 'चपरास ' परम्परा की एक विशेषता है। शक्ति का प्रवाह है। गुरु शिष्य की परम्परा है। लाहिड़ी महाशय के भी अनगिनत शिष्य हुए जो कि योगैश्वर्य से युक्त (ब्रह्मविद योगी) थे। अस्तु लाहिड़ी महाशय के जीवन के विषय में और जानने के लिए आगे बढ़ते हैं। लाहिड़ी महाशय स्वामी युक्तेश्वर गिरी के गुरु थे, और इसलिए वे परमहंस योगानंद जी के परमगुरु हुए । योगानंद परमहंस ने 'योगी की आत्मकथा' नामक जीवनवृत्त में गुरु को बाबा जी कहा है। परमहंस योगानंद की आत्मकथा- योगी कथामृत (Autobiography of a Yogi), परमहंस योगानन्द (5 जनवरी, 1893 - 7 मार्च, 1952) द्वारा रचित आत्मकथा है। इस पुस्तक में "आत्म-साक्षात्कार " (self-realization) प्राप्त करने और पूर्व के आध्यात्मिक विचारों को प्राप्त करने के उस पद्धति क परिचय दिया गया है, जो 1946 तक केवल कुछ लोगों के लिए उपलब्ध था। इस पद्धति में प्राणायाम के कई स्तर होते है जो ऐसी तकनीकों पर आधारित होते हैं जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को तेज़ करना और प्रशान्ति और ईश्वर के साथ जुड़ाव की एक परम स्थिति को उत्पन्न करना होता है। इस प्रकार क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है। लेखक का दावा है कि पुस्तक के लेखन को उन्नीसवीं सदी के गुरु, लाहिड़ी महाशय, द्वारा बहुत पहले भविष्यवाणी किया गया था।
कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद ने शिकागो सर्वधर्म सभा में पहली बार भारतीय धर्म का परिचय दिया, जिसका लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। जब भी स्वामी विवेकानंद की बात होती है तो शिकागो की धर्मसंसद में 1893 में उनके दिए गए भाषण का उल्लेख जरूर होता है। यह सही है कि स्वामी विवेकानंद ने हिंदू या भारतीय धर्म के बारे में छाए अज्ञान को दूर किया लेकिन स्वामी योगानंद ने 1920 से शुरू कर धर्म के व्यावहारिक प्रयोग के साथ योग को कक्षा और पाठ्यक्रम की तरह भी लोगों तक पहुंचाया।इस योग विज्ञान को सुदूरवर्ती क्षेत्रों तक पत्राचार पाठ्यक्रमों के जरिए पहुंचाया और लोगों को शिक्षित करने के साथ ही उसका अभ्यास भी कराया। स्वामी जी ने कई तरह से व्यक्त किया कि योग का अर्थ ईश्वर से मिलना या जुड़ना है। उनकी शिक्षाएं मूलत: सिखाती हैं कि किस प्रकार हर कोई व्यक्ति इसे पा सकता है। उन्होंने आधुनिक युग के लोगों के सामने योग का वैज्ञानिक स्वरूप व्यक्त किया। क्रिया योग विज्ञान के रूप में ध्यान की एक ऐसी प्रविधि को रखा, जिसका जिक्र श्रीकृष्ण ने गीता में किया है। आधुनिक युग में योगानंद ने उसी का प्रचार किया और लोगों को सिखाया। अपनी आत्मकथा'योगी कथामृत ' में शरीर, मन व आत्मा के सुसंगत विकास के लिए उन्होंने क्रिया योग प्रविधि की मुख्य विशेषताओं का वर्णन किया है। मनमोहक शैली में लिखी गई इस पुस्तक में ऐसे वैश्विक सत्य हैं,जो हर युग, हर राष्ट्र,हर पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति के लिए उपयुक्त हैं। परमहंस योगानंद द्वारा बताई गई ध्यान की इन प्रविधियों का पूरी श्रद्धा और नियम से अभ्यास कर साधक उस आत्म साक्षात्कार के योग्य हो जाता है, जिसकी चर्चा संसार के सभी मुख्य धर्मों में की गई है। योगानंद जी ने शरीर , मन और आत्मा के संतुलित विकास पर बल दिया है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कुछ शारीरिक व्यायाम केवल योग नहीं हैं, अपितु इसका अंतिम लक्ष्य है - ईश्वर के साथ मिलना।
स्वामी परमहंस योगानंद के बचपन का नाम मुकुंद लाल घोष था। परमहंस योगानंद जी, (1983-1952), पहले भारतीय योग गुरु थे जिन्होंने पश्चिमी देशों में अपना स्थायी निवास बनाया। योगानंद जी का नाम मुकुन्दा लाल घोष था, और वे एक धनी बंगाली परिवार में भारत के गोरखपुर शहर में जन्मे थे। बचपन से उनका स्वभाव आध्यात्मिकता की ओर था। उनका मनपसंद मनोरंजन था संतो को मिलना, और उनकी आध्यात्मिक तलाश उनको उनके गुरु, सेरामपुर के स्वामी श्री युक्तेश्वर जी, तक ले गयी। अपने गुरु के अंतर्गत प्रशिक्षण बदौलत वे केवल 6 महीनों में समाधी, मतलब ईश्वर के साथ अप्रतिबंधित एकता, को प्राप्त कर लिया। युक्तेश्वर जी ने मुकुन्दा को 1914, में संन्यास में दीक्षा दी, उस दिन के बाद मुकुन्दा स्वामी योगानंद बन गए। योगानंद जी के बाहरी विशेष कार्य की शुरुआत 1916 में रांची में ब्रह्मचार्य विद्यालय की स्थापना से हुई। विद्यालय के लिए आर्थिक व्यवस्था कासिम बाज़ार के महाराजा ने की और यह विद्यालय योगानंद जी के हर तरह से संपूर्ण शिक्षण के आदर्शों को पालन करता है: भारत के युवा का शारीरिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण। युवकों की शिक्षा में परमहंस जी की गहन अभिरूचि थी। सन् 1918 में कासिम बाजार के महाराज के महाराज श्री मणीन्द्र चन्द्र नंदी ने राँची में अपने महल व पच्चीस एकड़ भूमि आश्रम एवं विद्यालय के रूप मे दी, जिसे योगदा सत्संग ब्रह्मचर्य विद्यालय कहा जाता था। तत्पश्चात् यह योगदा सत्संग शाखा मठ बना जो पत्राचार कार्यालय और योगदा सत्संग पाठशाला एवं योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इण्डिया (वाइ. एस. एस.) को एक असांप्रदायिक और धर्मार्थ संस्था के रूप में पंजीकृत करवाया। वाइ. एस. एस. का पंजीकृत मुख्य कार्यालय योगदा सत्संग मठ है, जो कि दक्षिणेश्वर, कोलकाता में गंगा के किनारे स्थित है। परमहंस योगी विश्वविश्रुत योगधारा के उन्नायक थे. बीसवीं सदी के प्रारंभ में, बंगाल में स्वामी योगानन्द का प्रादुर्भाव हुआ था. बालपन से ही उनका अध्यात्म और संन्यास की ओर आकर्षण था. एक से दूसरे गुरू तक होते हुए उनकी जीवन यात्रा अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित रियलाइजेशन, फैलोशिप सेंटर में समाप्त हुई. “योगी कथामृत” नामक उनकी पुस्तक अध्यात्म व विज्ञान की गुत्थियों को खोलती एक कुंजी है. गांधीजी ने स्वयं उनसे ‘क्रिया योग’ की सम्पूर्ण विधि सीखी थी.
योगदा सत्संग सोसाइटी (Y. S. S.) : शरीर, मन और आत्मा की संस्कारशाला: क्रिया योग का जिक्र श्रीकृष्ण ने गीता में किया है। द्वापर के बाद राज योग की इस प्रविधि का प्रायरू लोप हो गया था, जिसे श्रीकृष्ण स्वरूप महावतार बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय (श्यामा चरण लाहिड़ी) को प्रदान किया था। लाहिड़ी महाशय ने यह दिव्य ज्ञान स्वामी युक्तेश्वर गिरि को प्रदान किया था। उन्होंने इससे योगानंद जी को दीक्षित किया और परमहंस की उपाधि प्रदान की। उनके लेखन कौशल का ही यह कमाल है कि उनके जीवन काल में ही 1945 में प्रकाशित उनकी जीवनी ऑटो बायोग्राफी ऑफ़ अ योगी (हिंदी में योगी कथामृत) दुनिया भर में प्रशंसित हुई। इस पुस्तक में बताए ज्ञान को समझ पाने तथा उसे जीवन में उतार पाने से आपका पूरा दृष्टिकोण और जीवन परिवर्तित हो जाएगा। ईश्वर में विश्वास रखिए और नेक काम करते हुए आगे बढ़ते रहिए। परमहंस जी के निर्देशों के अनुरूप योगदा सत्संग सोसाइटी और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप क्रिया योग से विश्व को अवगत करा रही है। इससे न केवल मनुष्य का शरीर और उसका मन तथा आत्मा तृप्त होता है, वरन इसमें मानवता का कल्याण भी अंतर्निहित है। इसी प्रकार योगदा सत्संग सोसाइटी के सम्मान में 7 मार्च 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अन्य डाक टिकट जारी करते हुए कहा था, जब हम मंदिर जाते हैं तो हमें थोड़ा सा प्रसाद मिलता है। उसे हम घर जाकर जितने भी लोगों में संभव हो थोड़ा-थोड़ा बांटते हैं।वह प्रसाद हमारा नहीं होता, न ही हमने उसे बनाया होता है, लेकिन वह पवित्र होता है और जब हम उसे बांटते हैं तो हमें संतोष मिलता है। परमहंस योगानंद जी ने जो किया है, जब हम उसे प्रसाद रूप में बांटते चले जाते हैं, तब हम अपने भीतर एक आध्यात्मिक सुख की अनुभूति प्राप्त करते हैं।
संस्था से जुड़े सदस्यों के लिए विभिन्न आश्रमों में निश्चित समय पर रिट्रीट का आयोजन किया जाता है। रांची आश्रम में हर साल नवंबर-दिसंबर में छह दिनों के शरद संगम का आयोजन होता है।इसमें विश्व भर से औसतन तीन हजार श्रद्धालु भाग लेते हैं। इस दौरान उनको परमहंस योगानंद द्वारा बताए गए शक्ति संचार व्यायाम, प्राणायाम और क्रिया योग की प्रविधियों से अवगत कराया जाता है और गीता के संदेशों पर आधारित प्रवचन भी होता है।
इस संस्था में प्रवेश पाने से लेकर स्वामी बनने तक की लंबी प्रक्रिया है। इस दौरान गहन साधना और भारतीय अध्यात्म, खासकर गीता और योग-ध्यान का पूर्ण प्रशिक्षण दिया जाता है। रांची के हृदय स्थल चुटिया में 28 एकड़ में स्थापित इस संस्था को इतना भव्य, पर्यावरण मित्र और आध्यात्मिक रूप दिया गया है कि इसमें प्रवेश के साथ ही मन संतुलित और प्रसन्न हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह कि 1917 से 1920 तक परमहंस योगानंद ने लीची के जिस वृक्ष के नीचे शिष्यों को आध्यात्मिक ज्ञान दिया था, वह वृक्ष आज भी वैसा ही तरोताजा, सघन और फलदार बना हुआ है।
परमहंस योगी के अनमोल विचार :
1. ईश्वर क्या है? लगातार मिलने वाला, हमेशा नया दिखने वाला आनन्द.
2. ईश्वर को देखने और समझने के लिए खुद से ही कोशिश करनी होगी, यही एकमात्र जरिया है. किसी धार्मिक विश्वास या नियति जैसे जुमलों के भुलावे में आकर ईश्वर को खुद से समझने का प्रयास न करना गलत होगा.
3. मनुष्य जब तक अपनी बुरी सोच से बरी नहीं हो जाता, तब तक वह किसी भी कड़े सच को नहीं समझ सकता है.
4. जिन्दगी मौत से ताकतवर है क्योंकि वह पापों को धोकर भी आगे बढती है.
5. केवल तुच्छ व्यक्ति ही दूसरों के दुखों के जीवन के प्रति संवेदनशीलता खो देता है क्योंकि वह अपने ही छोटे-छोटे दुखों में डूबा रहता है.
6. योग साधना विचारों की आपसी टकराहट से पैदा होने वाले शोर को पार कर शांति हासिल करने का एक तरीका है.
7. दिन के रात में और रात के दिन में बदलते समय भारत में जो खूबसूरत नजारे दिखते हैं उनकी किसी भी और देश से तुलना नहीं की जा सकती. उस समय आकाश ऐसे दिखता है, जैसे भगवान ने अपने कलर बाक्स से सारे रंग निकाल कर एक साथ से उछाल दिए हों.
8. चूँकि चरम ज्ञान अर्थात् वह जो मानवीय बुद्धि के अधिकतम उपयोग से जाना जा सकता है, मानव का अंतिम लक्ष्य है, तब क्यों न सीखा जाए कि मनुष्य सही ढंग से कैसे जिए.
9. लोग अपना संतुलन खो देते हैं एवं धनोपार्जन के पागलपन तथा व्यावसायिक उन्माद के कारण कष्ट भोगते हैं, क्योंकि उनको कभी भी एक संतुलित जीवन की आदत को विकसित करने का मौका ही नहीं मिला.
10. हमारे जीवन को हमारे आकस्मिक या प्रतिभाशाली विचार नहीं वरन हमारी दैनन्दिन आदतें नियंत्रित करती हैं.
11. बच्चों में आध्यात्मिक महत्वाकांक्षा के विचार डालने चाहिए ताकि वे केवल सेवा की भावना से ही धनोपार्जन करें.
12. मनुष्य उसी पाठ को दोहराता है, जिसकी शिक्षा उसे दो से दस या पन्द्रह वर्ष की आयु में मिली है.
13. मानव का लक्ष्य केवल धन कमाना ही न हो.
[ पीएम मोदी के कोविड -19 के 5 विचार पर आधारित बिजनेस और वर्क कल्चर - A. E. I. O. U :Adaptability, Efficiency, Inclusivity, Opportunity, Universalism . अनुकूलन क्षमता, दक्षता, विशिष्टता, अवसर, सार्वभौमिकता। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार 19 अप्रैल 2020 को अपने विचार साझा किए कि कोरोनोवायरस महामारी भविष्य में कार्य -संस्कृति और नौकरियों की प्रकृति को बदल देगी। कोरोना वायरस ने पेशेवर जीवन के रूप-रेखा को काफी बदल दिया है। लॉक डाउन इन दिनों में , घर हमारा नया कार्यालय है। इंटरनेट नया बैठक कक्ष है। मैं भी इन बदलावों को अपना रहा हूं। अब मंत्री सहयोगियों, अधिकारियों और विश्व नेताओं के साथ मेरी अधिकांश बैठकें, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से ही होती हैं। भारत, एक युवा राष्ट्र है जो अपने अभिनव उत्साह के लिए जाना जाता है, एक नई कार्य संस्कृति प्रदान करने का बीड़ा उठा सकता है। मैं इस नए व्यवसाय और कार्य संस्कृति को निम्न स्वरों (vowels consonants ) के अनुसार पुनर्परिभाषित करता हूं। मैं उन्हें कहता हूं- हर संकट अपने साथ एक अवसर लेकर आता है। COVID-19 अलग नहीं है। नए सामान्य के स्वर- क्योंकि अंग्रेजी भाषा में स्वर की तरह, ये COVID महामारी के बाद की दुनिया के किसी भी व्यवसाय मॉडल के आवश्यक घटक बन जाएंगे।
उनका जन्म 5 जनवरी 1893 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ। उन्होंने क्रिया योग को ईश्वर से साक्षात्कार की एक प्रभावी विधि बताते हुए इसके पालन से मानव जीवन को संवारने और ईश्वर की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी। yog शरीर, मन और आत्मा के संतुलित और संपूर्ण विकास की ओर हमें ले जाता है योग। इसका लक्ष्य केवल शारीरिक व्यायाम तक ही सीमित नहीं है, अपितु इसका अंतिम लक्ष्य है - ईश्वर के साथ मिलन।पश्चिमी देशों में पहली बार योग के संदेश को संगठित रूप में पहुंचाने में योगदा सत्संग सोसाइटी के संस्थापक परमहंस योगानंद का नाम निर्विवाद रूप से लिया जा सकता है। 1920 में वे 27 वर्ष की उम्र में पहली बार अमेरिका गए और तभी से योग विज्ञान के प्रचार - प्रसार में लग गए। कई तरह की उक्तियां जैसे- मैं इस संसार रूपी नाटक का एक हिस्सा हूं,परंतु इससे अलग भी हूं। अभी प्रत्येक पल को पूरी तरह से जियो और भविष्य अपने आप संवर जाएगा, परमहंस योगानंद जी की आध्यात्मिक शिक्षाओं का हिस्सा है। इस तरह की प्रभावशाली शिक्षाओं के जरिए उन्होंने लोगों को खुद में सुधार लाने के लिए प्रेरित किया। लाखों भक्त उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं। इन शिक्षाओं ने लोगों के मन और आत्मा पर अनोखी और अमिट छाप छोड़ी है। उनके योगदान के कारण वे पश्चिम में योग के जनक भी कहे जाते हैं। वे ताउम्र सक्रिय रहे और योग की शिक्षा देते रहे।
परमहंस योगानन्द का जन्म मुकुन्दलाल घोष के रूप में ५ जनवरी १८९३, को गोरखपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ। योगानन्द के पिता भगवती चरण घोष बंगाल नागपुर रेलवे में उपाध्यक्ष के समकक्ष पद पर कार्यरत थे। योगानन्द अपने माता पिता की चौथी सन्तान थे। उनकी माता पिता महान क्रियायोगी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे।
In 1910 Yogananda's seeking after various saints mostly ended when, at the age of 17, he met his guru, Swami Yukteswar Giri. He describes his first meeting with Yukteswar as a rekindling of a relationship that had lasted for many lifetimes: We entered a oneness of silence; words seemed the rankest superfluities. Eloquence flowed in soundless chant from heart of master to disciple. With an antenna of irrefragable insight I sensed that my guru knew God, and would lead me to Him. The obscuration of this life disappeared in a fragile dawn of prenatal memories. Dramatic time! Past, present, and future are its cycling scenes. This was not the first sun to find me at these holy feet! Later on Yukteswar informed Yogananda that he had been sent to him by Mahavatar Babaji for a special purpose. After passing his Intermediate Examination in Arts from the Scottish Church College, Calcutta, in June 1915, he graduated with a degree similar to a current day Bachelor of Arts or B.A. (which at the time was referred to as an A.B.), from Serampore College, the college having two entities, one as a constituent college of the Senate of Serampore College (University) and the other as an affiliated college of the University of Calcutta. This allowed him to spend time at Yukteswar's ashram in Serampore. In 1915, he took formal vows into the monastic Swami order and became Swami Yogananda Giri. In 1917, Yogananda founded a school for boys in Dihika, West Bengal, that combined modern educational techniques with yoga training and spiritual ideals. To teach that the purpose of life is the evolution, through self-effort, of man’s limited mortal consciousness into God Consciousness; and to this end to establish Self-Realization Fellowship temples for God-communion throughout the world, and to encourage the establishment of individual temples of God in the homes and in the hearts of men. A year later, the school relocated to Ranchi. In 1917 in India Paramahansa Yogananda " began his life's work with the founding of a 'how-to-live' school for boys, where modern educational methods were combined with yoga training and instruction in spiritual ideals."
In 1920 "he was invited to serve as India's delegate to an International Congress of Religious Liberals convening in Boston. His address to the Congress, on 'The Science of Religion,' was enthusiastically received." For the next several years he lectured and taught across the United States. His discourses taught of the "unity of 'the original teachings of Jesus Christ and the original Yoga taught by Bhagavan Sri Krishna.' Yogananda wrote the Second Coming of Christ: The Resurrection of the Christ Within You and God Talks With Arjuna — The Bhagavad Gita to reveal what he claimed was the complete harmony and basic oneness of original Christianity as taught by Jesus Christ and original Yoga as taught by Bhagavan Krishna; and to present that these principles of truth are the common scientific foundation of all true religions."This school would later become the Yogoda Satsanga Society of India, the Indian branch of Yogananda's American organization, Self-Realization Fellowship. Yogoda Satsanga Society of India (YSS) is a non-profit religious organization founded by Paramahansa Yogananda in 1917, 100 years ago .Paramahansa Yogananda's dissemination of his teachings In countries outside the Indian subcontinent it is known as – the Self-Realization Fellowship (SRF)/Yogoda Satsanga Society of India (YSS).
The "science" of Kriya Yoga is the foundation of Yogananda's teachings. Kriya Yoga is "union (yoga) with the Infinite through a certain action or rite (kriya). The Sanskrit root of kriya is kri, to do, to act and react." Kriya Yoga was passed down through Yogananda's guru lineage – Mahavatar Babaji taught Kriya Yoga to Lahiri Mahasaya, who taught it to his disciple, Yukteswar Giri, Yogananda's Guru. Yogananda wrote in Autobiography of a Yogi that the "actual technique should be learned from an authorized Kriyaban (Kriya Yogi) of Self-Realization Fellowship (Yogoda Satsanga Society of India.)"
Yogananda wrote down his Aims and Ideals for Self-Realization Fellowship/
Yogoda Satsanga Society:
Yogananda taught his students the need for direct experience of truth, as opposed to blind belief. He said that "The true basis of religion is not belief, but intuitive experience. Intuition is the soul's power of knowing God. To know what religion is really all about, one must know God."
Echoing traditional Hindu teachings, he taught that the entire universe is God's cosmic motion picture, and that individuals are merely actors in the divine play who change roles through reincarnation. He taught that mankind's deep suffering is rooted in identifying too closely with one's current role, rather than with the movie's director, or God.
He taught Kriya Yoga and other meditation practices to help people achieve that understanding, which he called Self-realization: Self-realization is the knowing – in body, mind, and soul – that we are one with the omnipresence of God; that we do not have to pray that it come to us, that we are not merely near it at all times, but that God's omnipresence is our omnipresence; and that we are just as much a part of Him now as we ever will be. All we have to do is improve our knowing.
To demonstrate the superiority of mind over body, of soul over mind.
To point out the one divine highway to which all paths of true religious beliefs eventually lead: the highway of daily, scientific, devotional meditation on God.To disseminate among the nations a knowledge of definite scientific techniques for attaining direct personal experience of God.
To overcome evil by good, sorrow by joy, cruelty by kindness, ignorance by wisdom.
To serve mankind as one’s larger Self.
To unite science and religion through realization of the unity of their underlying principles.
To liberate man from his threefold suffering: physical disease, mental inharmonies, and spiritual ignorance.
To encourage “plain living and high thinking”; and to spread a spirit of brotherhood among all peoples by teaching the eternal basis of their unity: kinship with God.
To teach that the purpose of life is the evolution, through self-effort, of man’s limited mortal consciousness into God Consciousness; and to this end to establish Self-Realization Fellowship temples for God-communion throughout the world, and to encourage the establishment of individual temples of God in the homes and in the hearts of men.
To advocate cultural and spiritual understanding between East and West, and the exchange of their finest distinctive features.
To reveal the complete harmony and basic oneness of original Christianity as taught by Jesus Christ and original Yoga as taught by Bhagavan Krishna; and to show that these principles of truth are the common scientific foundation of all true religions.
To reveal the complete harmony and basic oneness of original Christianity as taught by Jesus Christ and original Yoga as taught by Bhagavan Krishna; and to show that these principles of truth are the common scientific foundation of all true religions. In 1920, Yogananda went to the United States aboard the ship City of Sparta, as India's delegate to an International Congress of Religious Liberals convening in Boston. That same year he founded the Self-Realization Fellowship (SRF) to disseminate worldwide his teachings on India's ancient practices and philosophy of Yoga and its tradition of meditation.He lived in the United States from 1920—1952, interrupted by an extended trip abroad in 1935–1936 which was mainly to visit his guru in India.In 1935, he returned to India to visit his guru Yukteswar Giri and to help establish his Yogoda Satsanga work in India. While in India, Yukteswar gave Yogananda the monastic title of Paramahansa. Paramahansa means "supreme swan" and is a title indicating the highest spiritual attainment. In 1936, while Yogananda was visiting Calcutta, Yukteswar attained mahasamadhi (final soul liberation) in the town of Puri. During this visit, as told in his autobiography, he met with Mahatma Gandhi, and initiated him into the liberating technique of Kriya Yoga as Gandhi expressed his interest to receive the Kriya Yoga of Lahiri Mahasaya; Anandamoyi Ma; renowned physicist Chandrasekhara Venkata Raman; and several disciples of Yukteswar's guru Lahiri Mahasaya.The last four years of his life were spent primarily in seclusion with some of his inner circle of disciples at his desert ashram in Twentynine Palms .On 7 March 1952, he attended a dinner for the visiting Indian Ambassador to the US, Binay Ranjan Sen, and his wife at the Biltmore Hotel in Los Angeles. At the conclusion of the banquet, Yogananda spoke of India and America, their contributions to world peace and human progress, and their future cooperation . expressing his hope for a "United World" that would combine the best qualities of "efficient America" and "spiritual India." as Yogananda ended his speech, he read from his poem My India, concluding with the words "Where Ganges, woods, Himalayan caves, and men dream God—I am hallowed; my body touched that sod(मातृभूमि)."
As he uttered these words, he lifted his eyes to the Kutastha center (the Ajna Chakra), and his body slumped to the floor." Followers say that he entered mahasamadhi. The official cause of death was heart failure.
द्वाराहाट के निकट वर्तमान में योगदा सोसाइटी द्वारा स्थापित आश्रम भी हैं, जिसमे प्रतिवर्ष अनेकों श्रदालु और अनुयायी इस पुण्यभूमि के दर्शन के आकर धन्य होते हैं। अच्छा, ये बात हमें अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि किसी भक्त में और शिष्य में अंतर होता है। भक्त उसे कहते हैं जो साफ़ मन से साधू (नवनीदा) के निकट बना रहे, और शिष्य वो जो अपने गुरु के मार्ग पर चलने आये।और अपने (साधू-नेता ) को गुरुरूप में ग्रहण करके परमात्म सिद्धि की तरफ चले। शिष्य बनाना कोई आसान नहीं, गुरु मिलना और भी कठिन है। जीवन का कठिन व्रत है। लाहिड़ी महाशय अपने गुरु महावतार बाबाजी द्वारा 'क्रिया योग' की शिक्षा का विश्वभर में प्रचार करने लिए चुने गए थे । एक पूर्ण रूप से सिद्ध आत्मा, लाहिड़ी महाशय फिर भी शादी शुदा थे, और उनके ऊपर और कई जिम्मेवारियाँ थीं। उनका सद्भावपूर्ण जीवन आशा और प्रेरणा का आकाशदीप बना, सांसारिक जिम्मेवारियों वाले लोगों को यह दर्शाने के लिए कि कैसे वे भी आत्मबोध के पथ पर चल सकें। लाहिड़ी महाशय और महावतार बाबा के महान जीवन के बारे में बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा हो तो उनसे जुडी पुस्तके पढ़ सकते हैं।
अल्मोड़ा : कुमाऊँनी संस्कृति की असली छाप अल्मोड़ा में ही मिलती है - अत: कुमाऊँ के सभी नगरों में अल्मोड़ा ही सभी दृष्टियों से बड़ा है। उत्तराखंड में लोकप्रिय पहाड़ी स्टेशनों में से एक अल्मोड़ा। जो दर्शनीय सुंदरता और आकर्षक मौसम एवं आदर्श पर्यटन स्थल के नाम से जाने जाते हैं। यह शहर हिमालय के दक्षिणी भाग के कुमाऊं पहाडिय़ों के बीच 5,417 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिरों का शहर है अल्मोड़ा। चंद राजाओं के शासनकाल के दौरान ‘राजापुर’ के नाम से जाना जाता था। यह शहर पाइन और देवदार पेड़ के घने जंगलों से घिरा हुआ है। नैनीताल और रानीखेत जैसे पड़ोसी हिल स्टेशनों के विपरीत, जिसे ब्रिटिश द्वारा विकसित किया गया था। अल्मोड़ा कुमाऊंनी लोगों द्वारा विकसित किया गया था। शहर को मंदिरों के शहर के रूप में भी जाना जाता है यहां सबसे अच्छी जगहों की एक सूची है जिसे आप अल्मोड़ा में देख सकते हैं। अल्मोड़ा के चितई नामक स्थान पर 'गोलू देवता का मंदिर' है, जिन्हें कुमायूं के एक इतिहास देवता के रूप में पूजा जाता है। गोलू देवता चम्पावत के चंद राजा के पुत्र थे, जिन्हें न्याय का प्रतीक माना जाता है। धार्मिक मान्यता है, कि यहां अर्जी लगाने से तुरंत न्याय मिलता है। यहां भक्त अपनी परेशानी को कागज पर लिखकर गोलू देवता के मंदिर में रख देत हैं। मनोकामना पूरी होने पर भक्त भेंट स्वरूप मंदिर में घंटी या अन्य वस्तु लगाते हैं। उत्तराखंड में ही गोलू देवता के और भी कई मंदिर स्थित हैं।गोलू देवता: उत्तराखंड के न्याय के देवता हैं। यहां गोलू देवता सुनते हैं फरियाद, मुराद होती है पूरी। न्याय के देवता के मंदिर में लोग आकर 10 रुपए से लेकर 100 रुपए तक के गैर-न्यायिक स्टांप पेपर पर लिखित में अपनी-अपनी-अपील करते हैं और जब उनकी अपील पर सुनवाई हो जाती है तो वे फीस के तौर पर यहां आकर घंटियां तथा घंटे बांधते हैं। गोलू देवता के प्रति लोगों की आस्था मंदिर में बंधीं ये घंटियां ही बयां करती हैं। कई टनों में मंदिर के हर कोने-कोने में दिखने वाले इन घंटे-घंटियों की संख्या कितनी है, ये आज तक मन्दिर के लोग भी नहीं जान पाए। आम लोगों में इसे घंटियों वाला मन्दिर भी पुकारा जाता है, जहां कदम रखते ही घंटियों की कतार शुरू हो जाती हैं।
अल्मोड़ा का इतिहास : 8वी सदी से लेकर 16वी सदी तक यहाँ चन्द (चंदेल) या चन्द्रवंशीय राजाओ का शासन था। 1790 में अल्मोड़ा (Almora) गोरखों के अधिकार क्षेत्र में रहा जिन्होंने लगभग 25 सालो तक राज किया | 1815 में यह अंग्रेजो के अधिकार में आ गया | नगर के पूर्वी भाग में गोरखों द्वारा बनाया गया किला और चन्द्र राजाओं द्वारा बनवाये गये किले , महल एवं मन्दिर उस समय के वास्तुशिल्प की झलक आज भी दर्शाते है | यह नगर आज भी अपने प्राचीन स्वरूप को संजोये हुए है। अल्मोड़ा (Almora) का स्थानीय बाजार और गलियाँ , गोलाई लिए हुए लकड़ी की खिडकियों वाली इमारते पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती है। यहाँ के कारीगर ताम्बे की चीजे बनाने में आज भी अपने पारम्परिक तरीको का इस्तेमाल करते है। यहाँ के स्थानीय लोगो द्वारा बुने गये जम्पर और पारम्परिक नरम उनी शाले बहुत प्रसिद्ध है। अल्मोड़ा की खुबसुरत वादिया यहाँ के त्योहारों पर होने वाले लोकनृत्यों एवं गीतों की धुनों में सदैव गुंजायमान होती रहती है जिसे देखकर ऐसा लगता है मानो सपनों की दुनिया में प्रवेश कर गये हो |
अल्मोड़ा (Almora) के दर्शनीय स्थल :
1. राजकीय संग्रहालय – बस स्टैंड के नजदीक स्थित इस संग्रहालय में अल्मोड़ा की पुरानी संस्कृति तथा कत्युरी और चन्द्र राजाओं के समय की दुर्लभ सामग्री प्रदर्शित की गयी है |
2.डियर पार्क: अल्मोड़ा से लगभग 3 किमी दूर स्थित पर स्थित डियर (Deer) पार्क घुमने फिरने के लिए अच्छी जगह है शाम का समय यहाँ बड़ा ही सुहावना लगता है जिसका आनन्द लेने के लिए पयर्टको की भीड़ लगी रहती है। प्रकृति और वन्यजीव प्रेमियों के लिए एक आदर्श विकल्प माना जाता है। इस पार्क में आप हरी-भरी हिमालय वनस्पतियों के अलावा हिरण, तेंदुआ औऱ काला भालू जैसे जानवरों को देख सकते हैं। दिल्ली से अल्मोड़ा भ्रमण के दौरान आप इस खास पहाड़ी डियर पार्क की सैर का आनंद उठा सकते हैं।
3. ब्राईटेन एंड कार्नर – बस स्टैंड से 2 किमी की दूरी पर स्थित इस स्थान से हिमालय की चोटियों के बीच सूर्योदय एवं सूर्यास्त का बेहद खुबसुरत नजारा दिखाई देता है |
4. कालीमठ – अल्मोड़ा से 5 किमी दूर स्थित कसार देवी मंदिर एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए कालीमठ शहर से पैदल यात्र करनी पड़ती है। यहां से करीब आठ किमी. खड़ी चढ़ाई के बाद कालीशिला के दर्शन होते हैं। विश्वास है कि मां दुर्गा शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज का संहार करने के लिए कालीशिला में 12 वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हुई थीं। मान्यता है कि इस स्थान पर शुंभ-निशुंभ दैत्यों से परेशान देवी-देवताओं ने मां भगवती की तपस्या की थी। तब मां प्रकट हुई। असुरों के आतंक के बारे में सुनकर मां का शरीर क्रोध से काला पड़ गया और उन्होंने विकराल रूप धारण कर लिया। कालीमठ मंदिर के समीप मां ने दोनों दैत्यों रक्त-बीज का वध किया था। उसका रक्त जमीन पर न पड़े, इसलिए महाकाली ने मुंह फैलाकर उसके रक्त को चाटना शुरू किया। मां को इन्हीं ६४ यंत्रों से शक्ति मिली थी। रक्तबीज शिला नदी किनारे आज भी स्थित है। इस शिला पर माता ने उसका सिर रखा था। मान्यता है कि जब महाकाली शांत नहीं हुईं, तो भगवान शिव मां के चरणों के नीचे लेट गए। जैसे ही महाकाली ने शिव के सीने में पैर रखा वह शांत होकर इसी कुंड में अंतर्ध्यान हो गईं। माना जाता है कि महाकाली इसी कुंड में समाई हुई हैं। कालीमठ में शिव-शक्ति स्थापित हैं। इसे भारत के सिद्ध पीठों में से एक माना जाता है। स्कंद पुराण के अंतर्गत केदारखंड के बासठवें अध्याय में मां के इस मंदिर का वर्णन है। मां काली का असीमित 'शक्तिपुंज' काली शिला और कालीमठ मंदिर रुद्रप्रयाग में स्थित है। इस मंदिर की स्थापना शंकराचार्य ने की थी। आज भी यहां पर रक्तशिला, मातंगशिला व चंद्रशिला स्थित है। नवरात्रि के शुभ अवसर पर इस मंदिर में देश के विभिन्न भागों से हजारों की संख्या में भक्तगण आते हैं। अल्मोड़ा से 5 किमी दूर स्थित कालीमठ एक खूबसूरत प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर पिकनिक स्थल है। यहाँ से पयर्टक अल्मोड़ा नगर की खूबसूरती और बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियों को देखने का आनन्द उठा सकते है।
5. मोहन जोशी पार्क – V आकार की कृत्रिम झील के चारो ओर मोहन जोशी पार्क बनाया गया है जो कि यहाँ के स्थानीय पर्यटकों का मनपसन्द पिकनिक स्थल है | इन सबके आलावा अल्मोड़ा को कुमाऊ सांस्कृतिक विविधता का केंद्र भी कहा जाता है | यहाँ हर मौसम में कही न कही लगने वाले मेलो में छटा बिखरी रहती है | मकर संक्रांति के अवसर पर बागेश्वर से उत्तरायाणी का विशाल मेला लगता है जिसमे शामिल होकर पर्यटक कुमाऊँ की सांस्कृतिक परम्परा से परिचित हो सकते है |
6 . बिनसर –बिन्सर वन्यजीव अभयारण्य: बिनसर अल्मोडा से करीब 33 किमी की दूरी पर बसा है। यह क्षेत्र कभी मध्यकालीन रघुवंशी (चन्द या चन्देल) राजपूतों की राजधानी हुआ करता था, जिन्होंने अंग्रेजों के आगमन तक कुमाऊं में शासन किया। 'बिनसर' एक गढ़वाली शब्द है, जिसका अर्थ होता है 'नव प्रभात'। देवदार के जंगलों से घिरा यह पूरा क्षेत्र अब एक वन्य अभयारण्य बन चुका है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा स्थित बिनसर, एक खूबसूरत पहाड़ी पर्यटन स्थल है, जिसके वन्य जीवन को देखते हुए, अब इसे एक जीव अभयारण्य में तब्दील कर दिया गया है। झांडी ढार नामक पहाड़ी पर स्थित यह पर्वतीय स्थल, अपने रोमांचक दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है। यहां से हिमालय की बर्फीली चोटियों को आसानी से देखा जा सकता है। यहां स्थित 'ज़ीरो पॉइन्ट' से हिमालय की चोटियां जैसे केदारनाथ, चौखंबा, नंदा देवी, पंचोली, त्रिशूल, आदि चोटियों को देखा जा सकता है। ये जगह चंद राजाओं की गर्मियों की राजधानी थी और 1988 में इसे वन आरक्षित के रूप में स्थापित किया गया था। बिन्सार वन्यजीव अभ्यारण्य की ऊंचाई 900 से 2500 मीटर के बीच होती है, इसके उच्चतम बिंदु ‘ज़ीरो पॉइंट’ के साथ होता है जो आसपास के चोटियों के कुछ महान विचार प्रदान करता है । वन को एक विशेष प्रकार के ओक के संरक्षण के लिए स्थापित किया गया था। देवदार के घने जंगलों से घिरा यहां एक महादेव का मंदिर भी है, जिसे 'बिनसर महादेव' के नाम से जाना जाता है। भगवान भोलेनाथ को समर्पित यह मंदिर हिंदुओं के पवित्र स्थानों में से एक है।7वी एवं 8वी सदी में बिनसर नामक यह खूबसूरत स्थल चन्द्र राजाओं की राजधानी हुआ करता था | यह स्थल अल्मोड़ा (Almora) से मात्र 32 किमी की दूरी पर स्थित है | अगर पर्यटक एकांत जगह पर प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ छुट्टिया गुजारना चाहते है तो उनके लिए घने जंगलो के बीच बसी अल्मोड़ा क्षेत्र की सबसे ऊँची चोटी सर्वाधिक उपयुक्त स्थान है | गजब के प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ साथ चाँदनी में नहाई बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियाँ देखकर पर्यटक मन्त्रमुग्ध हो जाते है |
7. कयरमल – 800 साल पुराना यह मन्दिर कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाद देश का दूसरा महत्वपूर्ण सूर्यमंदिर है | मन्दिर के मुड़े हुए स्तम्भ , दरवाजे और आकृतियाँ उस समय की शिल्पकला के अनुपम उदाहरण है |
8 . सीतला खेत – यह छुट्टिया बिताने के लिए आदर्श जगह है | यहाँ के आस-पास के जंगल में काफी मात्रा में फल-फूल और आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के पौधे है | सीतला खेत से 2 किमी नीचे खुंट गाँव है जो कि स्वतंत्रता सेनानी गोविन्द वल्लभ पन्त का पैतृक गाँव है |
बाबाजी ने सन् 1861 में लाहिड़ी महाशय को प्रभावशाली क्रिया योग विद्या की दीक्षा दी। महर्षि पतंजलि ने मन की अशुद्धियों को दूर करने के लिए कहा है- ‘‘तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:’’ अर्थात् तपस्या, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान- यह क्रियायोग है।
लक्ष्य- क्रियायोग क्यों किया जाये ? इस प्रश्न का उत्तर महर्षि ने देते हुए कहा है-समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च।(पा.यो.सू.2.2) क्रियायोग का अभ्यास क्लेशों को तनु करने के लिए एवं समाधि भूमि प्राप्त करने के लिये कहा जा रहा है।
क्लेश- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश और अभिनिवेश हैं। पंच क्लेश : योग सूत्र के द्वितीय पाद में पतंजलि ने हमें बतलाया है : “अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश – ये पाँच क्लेश हैं” II. ३ - अर्थात दुःख का मूल कारण है अविद्या और यही अन्य क्लेशों का श्रोत है।
यहाँ पर अविद्या से सामान्य अज्ञान या विद्या का अभाव नहीं बल्कि अपनी सही पहचान से वंचित रहना है। चेतना के विषयों को “अस्ति भाव” से जोड़ने का भ्रम इसी कारण से उत्पन्न होता है। हिप्नोटाइज्ड मनुष्य या सम्मोहित मनुष्य अपनी वास्तविकता को भूलकर स्वयं को “शरीर, मन, इन्द्रिय, मिथ्या अहं-भावना,” इत्यादि समझने की भूल करता है। सामान्य मनुष्य में यह पञ्च-क्लेश लगातार ज्यूँ का त्यूं बने रहते हैं। जब कभी सुनामी या कोबिड-19 जैसी महामारी के कारण हमारी जान माल पर संकट आता है तो हमारी सोच-समझ पर भय हावी हो जाता है। और हम फिर से स्वामी जी 'सिंह शावक ' की कथा में वर्णित 'हिप्नोटाइज्ड भेंड़' बन जाते हैं। अविद्या अर्थात् अनित्य को नित्य मानना, अशुचि को शुचि अर्थात् पवित्र मानना, अनात्म को आत्म अर्थात् अपना मानना, दु:ख को सुख समझना है। यह संसार अनित्य, शरीर गन्दगी से भरा हुआ है, यह संसार दु:खमय है हर सुख का अन्त दु:ख से परिपूर्ण है, यह इन्द्रिय, शरीर और चित्त जड़ है, अनात्म है, उपर्युक्त सभी की विपरीत भावना कर संसार को नित्य, पवित्र, सुखमय व आत्म समझना ही अविद्या है। अविद्या ही अन्य क्लेशों का मूल है।
इसके आगे पतंजलि हमें बतलाते हैं : “नश्वर को शाश्वत, अशुद्ध को शुद्ध, दुःख को सुख् और अनात्मा को आत्मा समझ लेना ही अविद्या है” – II.5 अस्मिता अर्थात् ‘मैं की भावना’ अहम् भावना ही अस्मिता क्लेश है यह मेरा शरीर है, मेरी वस्तु आदि को समझना अस्मिता नामक क्लेश है। यह घोर कष्ट को देने वाली शक्ति है। राग, सदैव सुखी रहने की इच्छा व द्वेश दु:ख से बचने का भाव है। दोनों परस्पर मिले हुये हैं। अपने वास्तविकता (सच्चिदानन्द स्वरूप) को न पहचान पाने के कारण ही हम बोल बैठते हैं “मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ , मैं अमुक जाति या सम्प्रदाय का हूँ", " मैं थक गया हूँ”, “मैं परेशान हूँ”, “मैं गुस्से में हूँ। ” जबकि सच्चाई ये है कि “मेरा शरीर M/F है या थक गया है” अथवा “मेरा मन चिंताग्रस्त है। ” अपना वास्तविक परिचय या अपनी आत्मा (सिंहशावक स्वरूप) को न जान पाना ही मानवता के दुखों का मूल कारण है। आत्मा 'witness consciousness' चिरस्थायी शाक्षी है। आत्मा (existence-consciousness-bliss) अपरिवर्तनशील होने के कारण अविनाशी है, यही अनन्त आत्मा नाना रूपों में गतिशील होते हुए भी शुद्ध और निर्लिप्त द्रष्टा है जो सब में व्याप्त है। बाकी सब कुछ अस्थायी और परिवर्तनशील (reflected consciousness) है। अगर हम अनित्य (मिथ्या अहं बोध-भेंड़त्व ) से चिपके रहेंगे तो दुःख को तो आना ही है। और ऐसा नहीं है कि दुःख कुछ खोने या किसी से बिछड़ने के बाद ही आता है बल्कि दुःख अपने आसक्ति के विषयों को खो देने के डर से ही शुरू हो जाता है। जो सर्वव्यापी आत्मा का दर्शन पा लेता है वह हजारों उथल पुथल या कोबिड -19 जैसी महामारी के बीच भी एक नीरव आश्रय (अवतारवरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव) को प्राप्त कर लेता है , और आत्मज्ञान पा लेता है, या ब्रह्मविद मनुष्य बन जाता है।
“देखने के यंत्र (मन-reflected consciousness) को देखने वाला (साक्षी चैतन्य-Pure consciousness) समझ बैठना अस्मिता है” – योगसूत्र - II.6/ अपने शरीर, मन, मिथ्या अहं -भावनाओं और संवेदनाओं को अपना स्वरुप मान लेने की आदत, पुरानी होते होते, स्वयं को M/F समझ लेने की जो प्रवृत्ति है वही अस्मिता कहलाती है। अपनी वास्तविकता का ज्ञान न होने के कारण ही यह भ्रम उत्पन्न होता है। ऐसा नहीं है कि यह किसी एक व्यक्ति की कमजोरी हो बल्कि मानव मात्र में व्याप्त भ्रान्ति है या यूँ कहें कि चेतना को गुप्त रखने के लिये इसका सृजन किया गया है। सर्वव्यापी चेतना को प्रत्येक प्राणी में पृथक रचने का इस प्राकृतिक नियम का योगी विवेक और वैराग्य के अभ्यास से अतिक्रमण कर अपनी चेतना को पुनः विस्तृत कर सकता है | “मैं दुखी हूँ” के सोचने के जगह अपने दुःख को साक्षी भाव से देखते हुए इस दुःख के निवारण अथवा सुख् के प्राप्ति के लिये आवश्यक कर्म करते रहें।
“सुख् के प्रति आसक्ति राग है” -II.7
सर्वव्यापी चेतना (awareness) से पृथक व्यक्ति जब स्वयं को M/F शरीर, विचार प्रवाह एवं स्मृति समझ लेता है तो वह अपने परिवेश में उपलब्ध सुखद अनुभूतियों पर आसक्त हो जाता है | अपने आतंरिक आनन्द के अनुभूति को बाहरी उपादानों तथा परिस्थितियों से जोड़ लेने के कारण उनके छूट जाने कि कल्पना से उत्पन्न भय राग है। हम ऐसी कल्पना कर लेते हैं कि सुख् बाहरी परिस्थितियों और उपादानों पर निर्भर है। तब इनके न होने से हमें लगता है कि अपना आंतरिक सुख् उन्ही परिस्थितियों अथवा उपादानों के वापस आने पर ही हासिल होगा। यही राग है। राग आसक्ति और दुःख दोनों ही से बना है। सच तो ये है कि आनंद की अनुभूति स्व-स्फूर्त है, स्वाधीन है और यह बाह्य परिस्थिति अथवा उपादानों पर निर्भर नहीं है। इसके प्रति सजग रहने मात्र से ही इसका अनुभव प्राप्त हो जाता है। राग को तिलांजलि देते रहना है।
“दुःख से चिपके रहना द्वेष है” II-8/ ठीक उसी तरह कभी ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जिनसे हम वितृष्णा की अनुभूति करते हैं। एक ही परिस्थिति में अलग अलग व्यक्ति की अलग प्रतिक्रिया होती है। जो एक को सुख् देता है वही दूसरे के लिये दुखदायी हो सकता है। सुख् और दुःख के इस द्वंद्व से परे जाकर प्रत्येक परिस्थिति में समभाव, वैराग्य या विवेक-प्रयोग का अभ्यास पतंजलि के अनुसार श्रेष्ठ है। बाह्य परिस्थितियों को तत्काल बदल डालना अक्सर संभव नहीं होता। द्वेष से मुक्त होने के लिये हमें पहले अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर अपनी चेतना के गहराई में उतरना होगा। और उसके बाद ही हम अनुकूल वातावरण बनाने के लिये आवश्यक परिवर्तन ला सकेंगे। जो भी काम मिले उसे राग और द्वेष से रिक्त होने की प्रशिक्षण मान कर एक कर्म योगी की भावना से करें। कर्ता भाव को त्याग कर सभी कार्य धैर्यपूर्वक, निपुणता और निःस्वार्थ भाव से करें। कार्य और कार्य के फल दोनों के प्रति समभाव बनाये रखें।
“अभिनिवेश अभिनिवेश मृत्यु भय है। अर्थात जीवित रहने की लालसा बुद्धिमानों के मन में भी उपजती है जबकि जीवन स्व-स्फूर्त है” II-9/ प्रत्येक प्राणी में आत्म-संरक्षण की प्रवृत्ति स्वतः विद्यमान है। यह स्वयं को मात्र शरीर समझ लेने की भ्रान्ति और मृत्यु के भय पर आधारित है। हम सब ने कई जन्मों से जन्म और मृत्यु की पीड़ा इतनी बार झेली है कि इसकी पुनरावृत्ति से घबराते हैं। अपने जान के ऊपर कोई खतरा - 'कोरोना वायरस' देखते ही हम काँप उठते हैं। घबराहट से हमारी धड़कन तेज हो जाती और मारे डर के हम चीख पड़ते हैं। मगर जब हम अपने सच्चे स्वरुप का गहराई से मनन कर के अपने अविनाशी आत्मा का ध्यान करते हैं तब हम इन सभी क्लेशों से मुक्त हो जाते हैं।
“सूक्ष्म रूप में विद्यमान इन पांचों क्लेशों का नाश उनके उत्पत्ति के कारणों की जड़ की पहचान कर लेने से होता है” II-10 पञ्चक्लेश अवचेतन मन के सूक्ष्म स्तर पर धारण किये हुए संस्कार हैं। समाधि की विभिन्न स्थितियों मे अपने स्त्रोत ( 3rd'H' हृदय ) में बारम्बार अवस्थित होकर इन्हें मिटाया जा सकता है। [प्रत्याहार -धारणा के अभ्यास द्वारा हृदय का विस्तार अभ्यास व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट -अहं बोध में रूपान्तरित करके हृदय का विस्तार करने का अभ्यास।] अवचेतन में छिपे हुए ये संस्कार सामान्य सजगता की स्थिति में और यहाँ तक कि ध्यान की स्थिति में भी पकड़ में नहीँ आते हैं। अतः इनके निवारण के लिये यह जरूरी है कि अपने सच्चे स्वरुप की पहचान निरंतर बनाये रखकर अस्मिता का जड़ से उन्मूलन किया जाये। जब “व्यष्टि -मैं” अपने सीमित परिचय से बढ़ता हुआ अपने सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध माँ जगदम्बा रूप को पहचानने लगता है, तब इस आत्म-साक्षात्कार के साथ संस्कार विलुप्त हो जाते हैं।
पतंजलि योग सूत्र I.12 में पतंजलि कहते हैं कि -अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥ अर्थात सतत अभ्यास एवं वैराग्य से चित्त की वृत्तियों को “मैं” समझ लेने की भ्रान्ति अस्त होती है। चित्तवृत्ति निरोध या योग को महाभारत (शान्तिपर्व ३१६/२) में सर्वश्रेष्ठ मानसिक बल कहा गया है- "नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलं"। पतंजलि योगसूत्र (१.१२) को अधिक स्पष्ट करते हुए इसके व्यास-भाष्य में कहा गया है - " चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। -मन की 'स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति ' चित्त-नदी के प्रवाह के नाम से जानी जाती है, जो कि दोनों दिशाओं (उर्ध्व और निम्न - उभयतः) में बहने वाली है। यह प्रवाह श्रेय (कल्याणाय) की दिशा में भी बहती है, और (च) अशुभ या पाप (पापाय) की ओर भी बहती है।' विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति' -- चित्तनदी की धारा जब विवेकविषय, विवेक के क्षेत्र (विषय) की ओर झुका (निम्ना) है,अर्थात विवेक -ख्याति या विवेकशील ज्ञान, जो किसी व्यक्ति को बुद्धि (नश्वर) और पुरुष (शाश्वत) के बीच के अंतर को अनुभव करने की अनुमति देता है; वह धारा (सा) 'कैवल्यप्राग्भारा' कैवल्य (मुक्ति) की ओर ले जानेवाली है और कल्याण-वहा है।
'अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति'- दूसरी ओर यह धारा जब अविवेक के क्षेत्र में, अर्थात जब बुद्धि और पुरुष के बीच रहने वाले अंतर का अनुभव नहीं करने की दिशा में झुकी होती है, वह 'संसारप्राग्भारा' संसार या देहान्तर-गमन (Transmigration) की ओर ले जाने वाली धारा पाप-वहा है, जो बुराई की ओर बहती है। उस (तत्र) बाह्य वस्तुओं या विषयों की ओर बहने वाली धारा पर (वैराग्येण) वैराग्य (रिनन्सिएसन या परहेज) का फाटक लगाकर विषयस्रोत को मन्द बनाते हुए शक्तिहीन (खिलीक्रियते) किया जाता है।
तथा विवेक-दर्शन का अभ्यास (या स्वामी विवेकानन्द विवेकशील ज्ञान Discriminative Knowledge' के मूर्त रूप थे उनके ऊपर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास -) पर चिंतन-मनन करते रहने के परिणामस्वरूप (एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध और) विवेकस्रोत उद्घाटित हो जाता है। इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः = इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः (चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति, अर्थात विषयों में दौड़ने वाली 'Propensity' का दमन या संशोधन,) परहेज,निवृत्ति या "Renunciation" और विवेक-दर्शन अर्थात "Discrimination" अर्थात (बुद्धि-पुरुष विवेक या शास्वत-नश्वर को पहचानने की क्षमता) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है।
"विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते !" इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-प्रयोग शक्ति' जो सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है; वह (१२ जनवरी १८६३ को) स्वयं स्वामी विवेकानन्द की आकृति में आविर्भूत होगी ! एक दिन और तब लालच को कम करते हुए (या भोगों में आसक्ति का त्याग करते हुए) उस गुरु विवेकानन्द के मूर्त रूप पर पुनः पुनः मन को धारण करने के अभ्यास से ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा !
“क्रियावान स्थिति में चित्त में उठती हुई वृत्तियों का ध्यान के द्वारा नाश होता है” योगसूत्र II-11/तात्पर्य यह है कि ध्यान किया नहीं जाता है, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करते करते जब 'तैल धारवत ' अपने इष्टदेव का ध्यान होने लगता है, उस गंभीर ध्यान से ही समाधि की प्राप्ति संभव है। और तभी मन की साधारण गतिविधियों में उलझे रहने की आदत से निपटा जा सकता है।
कर्म का नियम एवं आकस्मिक आपदाएँ या कोबिड -19 'Corona Pandemic' की विश्वव्यापी महामारी के बीच क्या संबन्ध है ? कोरोना वायरस (COVID-19) की बीमारी, सक्रमण से फैलती है। यह एक नए वायरस की वजह से होती है। इस बीमारी की वजह से सांस की बीमारी (जैसे कि फ़्लू) होती है। इसके अलावा, खांसी, बुखार, और ज़्यादा गंभीर मामलों में सांस लेने में तकलीफ़ होना इस बीमारी के लक्षण हैं। कोरोना वायरस की बीमारी मुख्य रूप से किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने से फैलती है। संक्रमित व्यक्ति के खांसने या छींकने पर उसके मुंह और नाक से गिरने वाली बूंदों से यह बीमारी दूसरे लोगों में फैलती है। यह तब भी फैलती है, जब कोई व्यक्ति उस सतह या चीज़ को छूता है जिस पर वायरस होता है, इसके बाद अपनी आंख, नाक या मुंह को छूता है। कोरोना वायरस (COVID-19) को रोकने के लिए, फ़िलहाल (20 अप्रैल 2020 तक) किसी तरह का टीका नहीं है। आप वायरस से खुद को बचाने के साथ ही इसे फैलने से रोकने में भी मदद कर सकते हैं। इसके लिए आप ऐसा करें--नियमित रूप से साबुन और पानी से या अल्कोहल वाले हैंड सैनिटाइज़र से 20 सेकंड तक हाथ धोएं। खांसने और छींकने के दौरान डिस्पोज़ेबल टिशू से या कोहनी को मोड़कर, अपनी नाक और मुंह को ढकें। जो लोग बीमार हैं उनसे (एक मीटर या तीन फ़ीट की) दूरी बनाए रखें घर पर ही रहें। और अगर आप बीमार हैं, तो खुद को परिवार के सभी लोगों से अलग कर लें। अगर आपके हाथ साफ़ नहीं हैं, तो अपनी आंख, नाक या मुंह को न छुएं।
जब भी कोई आकस्मिक आपदा टूटती है जैसा कि दक्षिणी एशिया में आई सुनामी, या अभी जो कोरोना वायरस (COVID-19) की विश्वव्यापी महामारी आयी है, जिसके कारण पूरे विश्व में 1.80 लाख मनुष्यों की मृत्यु हो गयी। और लाखो मनुष्य अस्पताल में इलाज करवा रहे हैं और करोड़ों -अरबो मनुष्य अपने -अपने घरों में बन्द हैं। हमारे मन में ये सवाल उठता है “इतने लोगों को क्यों मारना पड़ा ?” “और बाकी के बच क्यों गए ?” या यदि स्वयं भुक्तभोगी हुए तो मन में उठता हुआ सवाल “मेरे ही साथ क्यों ?” “मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था ?” “मेरा क्या दोष था ?”
पतंजलि तथा अन्य सिद्धों ने कर्म के विधान के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक बताया है। कर्म के विधान के अनुसार अतीत के हमारे कार्य, वचन और विचार फलित होते हैं। पञ्चक्लेशों के कारण हम कर्म संचय करते जाते हैं। यह 3 प्रकार से होता है : 1. प्रारब्ध कर्म : पूर्व जन्म के कर्म जिन्हें काटने के लिये यह जन्म हुआ; 2. क्रियमाण कर्म : इस जन्म मे सृजित कर्म; 3. संचित कर्म : जो आने वाले जन्मों में फलित होंगे।
कर्म का धारण कर्माशय में होता है। यही कर्म की कोख अथवा भण्डार है। यहीं सारे कर्म एकत्रित हैं। कर्म सतह पर आकर क्लेशों के रूप में प्रकट होने की प्रतीक्षा में रहते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि किसी एक प्रबल कर्म को काटने के लिये ही एक जन्म लेकर शरीर धारण करना पड़े । उस प्रबल कर्म से सम्बंधित कर्मों का भी फलभोग इसी जन्म में हो जाता है। यह तब तक चलता रहता है जब तक आत्म-ज्ञान की प्राप्ति कर व्यक्ति नए कर्म संचय करना बंद ना कर दे।
ये सच है कि व्यक्ति अपने कर्मों से जुड़ा हुआ है और कर्म ही निर्धारित करता है कि वह कैसे जीता है और विभिन्न परिस्थितियों में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी किन्तु वह पूरी तरह विवश भी नहीं है। उसे इस बात की स्वतंत्रता है की कर्मजन्य परिस्थितियों से उसका बर्ताव सकारात्मक हो या नकारात्मक। अगर हमारा व्यवहार नकारात्मक होता है जिससे हम दूसरों को दुःख पहुंचाते हैं तो वही दुःख और भी विकराल रूप धर कर हमारे जीवन में लौटती हैं। जब हम परिस्थितियों का सामना सजगता एवं विवेक-प्रयोग के साथ धैर्यपूर्वक करते हुए लोकोपकार-Be and Make ' आंदोलन के साथ जुड़े रहकर अनासक्त भाव से कर्म करते रहें तब वो कर्म क्षीण पड़ने लगते हैं।
हमारे एक महामण्डल कर्मी जो कोरोना वायरस लॉकडाउन में गरीब मजदूरों को राशन पहुंचाने तथा भूखों को भोजन पहुँचाने की सेवा से युक्त हैं, अपने हाल की एक रिपोर्ट में कहते हैं :“एक ही दोपहर की दो घटनाओं ने मुझे मनुष्य के निकृष्ट और उत्कृष्ट दोनों ही गुणों का परिचय करवा दिया। राहत के लिये बांटने को हमारे पास जो थोड़ा बहुत था उसे बांटने के क्रम में मैंने एक ओर तो ये देखा कि गरीब मजदूरों के ऊपर भी लूट-खसोट, ठगी, बेईमानी कर उनके पास जो भी बचा खुचा था वो छीना जा रहा था यहाँ तक की राहत सामग्री पहुँचाने वाली गाड़ी को भी लूटा जा रहा था और दूसरी ओर एक ऐसा इंसान भी दिखा जिसने विकट परिस्थिति में भी उदारता दिखाई। अपने मकान के दरवाजे पर वह अकेला खड़ा था। अपने पास से खाना का एक पैकेट देने के लिये मैंने उसे पुकारा। उसने अवसाद और कृतज्ञता भरी आँखें मेरी आँखों में डाल कर मुझे बताया कि वह नाश्ते में एक पावरोटी खा चुका था। उसकी इच्छा थी कि खाना का पैकेट उन्हें मिले जो सुबह से भूखे थे। ”
दुःख का सामना कैसे करें : मानवता के दुःख और कष्ट का सामना हम अपने विचार, वचन और कर्म में करुणा जगा कर करें। हमारा हृदय प्रेम और दया से परिपूर्ण हो, हम अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट हृदय के 'अहं' -बोध में रूपान्तरित करने की कला सीख लें। मनन करने का विषय यही है कि इस तरह की आपदाओं (COVID-19) से हम क्या सीखते हैं और उसके आने से हम कैसा आचार-व्यवहार करते हैं। पतंजलि कहते हैं : “उन्मूलन उस दुःख का करना है जो अनागत है” योगसूत्र II-16 / केवल आत्मा के चिंतन से ही हम उस दुःख से पार पा सकते हैं जो अभी आया नहीं है और जिसकी आगमन का श्रोत कर्मकोष में है। क्योंकि “दृश्यमान का अस्तित्व केवल आत्मा के लिये है” योगसूत्र (II.21) और “दृश्यमान जगत भोग और मुक्ति दोनों ही प्रदान करने वाला है” योग सूत्र (II-18) प्रकृति नाना प्रकार के भोग दिला कर अन्ततः हमारी चेतना को अपने मिथ्या परिचय से मुक्त करती है। अंततोगत्वा हम यह महसूस करते हैं कि प्रकृति के हाथों बहुत दुःख झेल लिये और तब व्याकुल होकर अपने आत्मवादी भ्रांतियों (“मैं शरीर, मन, इत्यादि हूँ”) से निकलने के उपाय ढूँढने लगते हैं।
सीधी बात ये है कि, प्रत्येक अनुभव से हमें कुछ सीखने का मौका मिलता है और हमें इनसे सत्य असत्य, ज्ञान अज्ञान, शाश्वत नश्वर, प्रेम आसक्ति, आत्मा शरीर-मन-अहंकार तथा दृश्य द्रष्टा के भेद को समझने का विवेक मिलता है। अपनी आत्मा को भूलने की प्रवृत्ति (सिंह -शावक होकर भी स्वयं को भेंड़ समझने की प्रवृत्ति) का अद्भुत उपचार है 'राज -योग' या स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित " मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा - Be and Make ' का प्रचार-प्रसार। अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान पा लेने के बाद जब हम दूसरों को दुःख उठाते देखते हैं तो उनके प्रति करुणा का अनुभव करते हैं। ऐसी परिस्थिति से भयभीत होने की जगह जब हम अपने विचार और कर्म से उनकी सेवा करें तो हमारे मन और भावनाओं की शुद्धि होती है और शांति आती है। सद्भाव से परिशुद्ध मन ईश्वरीय शक्ति से प्रेरित होकर सर्वजनहिताय प्रयत्नशील होता है।
ब्रह्मविद मनुष्य कैसे बना जाता है ? जीवन का लक्ष्य है- ईश्वरलाभ अर्थात सुख्, शांति, प्रेम और ज्ञान प्राप्ति। ईश्वर (परम सत्य) समस्त मानवता के माध्यम से ही स्वयं को अभिव्यक्त करता है। पूर्णता की कामना (या परम सत्य को जानने की व्याकुलता) जीवात्मा में (एथेंस के सत्यार्थी में) उसीमें अवस्थित इश्वर के प्रतिरूप (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) से आती है। ईश्वर, माँ जगदम्बा, ब्रह्म या परमसत्य नाम-रूप से परे होने के कारण परम सत्य (इन्द्रियातीत सत्य को) शब्दों या प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। हाँ, इसे अनुभव अवश्य किया जा सकता है और इसके लिये एक ऐसा/ नवनीदा के जैसा - गुरु/नेता जीवनमुक्त शिक्षक चाहिये जो इस सत्य के अपने जीवंत अनुभव को बाँट सके। इस तकनीक के माध्यम से गुरु अपने शिष्य को अपने अंदर इस सत्य का साक्षात्कार पाने कि विधि - मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास की पद्धति प्रदान करते हैं।
🔱🙏क्रिया योग क्या है? महर्षि पतंजलि ने अशुद्धियों को दूर करने के लिए कहा है- ‘‘ तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: ’’ अर्थात् तपस्या, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान- यह क्रियायोग है। इसका भाष्य करते हुए महर्षि व्यास कहते हैं कि ‘‘अतपस्वी को योग सिद्ध नहीं होता। अनादि कालीन कर्म और क्लेश की वासना के द्वारा जनित विचित्र और विषयजाल-युक्त जो मन की अशुद्धि है, वह तपस्या (५ अभ्यास) के बिना सम्यक् भिन्न अर्थात् विरल या छिन्न नहीं होता है।
तप : सामान्य अर्थ में, तप पदार्थ के शुद्ध सारतत्व को प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है। उदाहरण हेतु जिस प्रकार सोने को बार-बार गर्म कर छोटी हथोड़ी से पीटा जाता है जिसके परिणाम स्वरूप शुद्ध सोना प्राप्त हो सके। उसी प्रकार योग में तप (मनःसंयोग) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के मन की अशुद्धियों को जला कर भस्म किया जाता है ताकि उसका असली सारतत्व प्रकट हो सके। तप का तात्पर्य बेहतर अवस्था की प्राप्ति (विसम्मोहित अवस्था की प्राप्ति ) के लिए मिथ्या अहं के परिवर्तन या माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं -बोध में रूपान्तरण की एक प्रक्रिया के अनुगमन से है। महर्षि पतंजलि के अनुसार ‘‘तप (मनःसंयोग) से अशुद्धियों का क्षय होता है तथा शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है।’’ अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और यौग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके पालन में जो शारीरिक या मानसिक अधिक से अधिक कष्ट प्राप्त हो, उसे सहर्ष सहन करना इसका नाम तप है। यम और नियम के साथ आसन -प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास भी तप की ही श्रेणी में आते हैं। निष्काम भाव से इस तप का पालन करने से मनुष्य का अन्त:करण अनायास ही शुद्ध हो जाता है।
तैत्तिरीयोपनिषद् की भृगुवल्ली में कहा गया है ‘‘तपसा ब्रह्म विजिज्ञासत्व। तपो ब्रह्मेति’’ अर्थात् तप द्वारा ही ब्रह्म को जाना जा सकता है। तप ही ब्रह्म है।कहा गया है कि ‘‘नातपस्विनो: योग सिद्धति’’ अर्थात् तप के बिना योग सिद्ध नहीं होता है। तप के सम्बन्ध में कूर्मपुराण में कहा गया है ‘तपस्या से उत्पन्न योगाग्नि शीघ्र ही निखिल पाप समूहों को दग्ध कर देती है। उन पापों के दग्ध हो जाने पर प्रतिबन्धक रहित 'तारक ज्ञान' अर्थात ' विवेकज ज्ञान' का उदय हो जाता है। जिस प्रकार डण्ठल से पृथक् हुआ फल पुन: डण्ठल से नहीं जुड़ सकता है। अत: शास्त्र के कथनानुसार मोक्ष साधनाओं में से तप को श्रेष्ठतम साधना माना गया है।
स्वाध्याय : आत्मविषयक चिन्तन व मनन करना, तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन तथा ‘प्रणव’ आदि का जप करना ‘स्वाध्याय’ है। आत्मा का स्वरूप क्या है? कहाँ से आता है? इत्यादि विवेचन से आत्मविषयक जानकारी के लिये प्रयत्नशील रहना। तीनों ऐषणाओं से मुक्त हो जाना , धन-सम्पत्ति आदि की ओर अधिक आकृष्ट न होना, लोभी न बनना। धन की नश्वरता को समझते हुये केवल सामान्य निर्वहन योग्य धन कमाना व उपयोग करना अधिक संग्रह न करना। मठाधीश/ सेक्रेटी -प्रेसिडेन्ट आदि बनने की इच्छा न रखना ही स्वाध्याय का वास्तविक अर्थ है।
ईश्वरप्रणिधान : महर्षि पतंजलि ने ईश्वर को पुरुष विशेष की संज्ञा दी है। क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:। (पा.यो.सू. 1.24) अर्थात् ईश्वर (भगवान श्री रामकृष्ण) वह पुरुष विशेष है जिस पर दु:ख, कर्म, उसके लवलेश तथा फल आदि किसी का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यहाँ ईश्वर को व्यक्तिवादी नहीं वरन् उसे उच्च आध्यात्मिक चेतना कहा गया है। वह ईश्वर परम-पवित्र, कर्म व उसके प्रभाव से अछूता है उनका कोई भी प्रभाव ईश्वर पर नहीं पड़ता है। इसीलिये वह विशेष है।अन्य दर्शनों में जहाँ ईश्वर को विश्व का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, संहारकर्ता कहा गया है वहीं योगदर्शन में ईश्वर को विशेष पुरुष कहा गया है। ऐसा पुरुष जो दु:ख कर्मविपाक से अछूता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार-अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण की भक्ति विशेष ही ईश्वर प्रणिधान या महापुरुष प्रणिधान है। और इस भक्तिविशेष के कारण मार्ग कंटकविहीन हो जाता है और शीघ्र ही समाधि की प्राप्ति हो जाती है। योग के अन्य अंगों का पालन विघ्नों के कारण बहुत काल में समाधि सिद्धि प्रदान कराता है। ईश्वरप्रणिधान उन विघ्नों को नष्ट कर शीघ्र ही समाधि प्रदान करता है। अत: यह रास्ता अति महत्त्वपूर्ण है। समस्त जीवात्माओं का पंच क्लेश अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश और अभिनिवेष (पा.यो.सू. 2.3), कर्म विपाक या कर्माशय (पा.यो.सू.4.7) अर्थात् कर्मों के फल (पा.यो.सू.2.13) तथा आशय अर्थात् कर्मों के संस्कार (पा.यो.सू. 2.12) से अनादि काल से सम्बन्ध है किन्तु ईश्वर (ठाकुर) का इनसे न तो कभी सम्बन्ध था, न है, न कभी भविष्य में होने की सम्भावना ही है। वह अविद्या, अज्ञान से रहित है इस कारण सम्बन्ध नहीं है। ईश्वर का वाचक ओंकार (ॐ) है। महर्षि कहते हैं ‘तस्य वाचक: प्रणव:’(पा.यो.सू. 1.27)। प्रणव का निरन्तर जप अर्थात् ईश्वर का निरन्तर चिन्तन करना ही ईश्वर प्रणिधान है। चित्त को सभी ओर से हटाकर एकमात्र ईश्वर पर लगाना चाहिये यह समाधि को प्रदान करने वाला है। इस प्रणव के जप से योग साधकों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। ईश्वरप्रणिधान से सभी अशुद्धियों का नाश हो जाता है(पा.यो.सू. 1.29, 30, 31)।
क्रियायोग क्यों किया जाये ?
इस प्रश्न का उत्तर महर्षि ने देते हुए कहा है- " समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च।" (पा.यो.सू.2.2) अर्थात् यह क्रियायोग समाधि की सिद्धि देने वाला तथा पंचक्लेशों को क्षीण करने वाला है। महर्षि मानते है कि मनुष्य के पूर्व जन्म के संस्कार हर जन्म में अपना प्रभाव दिखाते है और ये क्लेश मनुष्य हर जन्म में भोगना पडता है। पूर्व जन्म के संस्कारों से जुडे रहने के कारण के अपना प्रभाव दिखाते है। इन क्लेशों का पूर्णतया क्षय बिना आत्मज्ञान के नहीं होता हैं। परन्तु क्रिया योग की साधना से इन्हें कम या क्षीण किया जा सकता है और मोक्ष प्राप्ति की साधना के मार्ग में बढा जा सकता है। क्रिया योग का (5 अभ्यास) अभ्यास 'पञ्च - क्लेशों' को तनु करने के लिए एवं समाधि भूमि प्राप्त करने के लिये कहा जा रहा है। क्रियायोग की साधना से समाधि की योग्यता आ जाती है। क्रियायोग से यह क्लेश क्षीण होने लगते है क्लेशों के क्षीण होने से ही मन स्थिर हो पाता है। पंचक्लेश यदि तीव्र अवस्था में है तब उस स्थिति में समाधि की भावना नहीं हो पाती है। तप स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान या कर्म, भक्ति , ज्ञान के द्वारा क्लेषों को क्षीण कर समाधि का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।जिसमें कि कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का सुन्दर समन्वय समाहित है।
क्लेश ५ प्रकार के हैं - अविद्या, अस्मिता, राग,द्वेष और अभिनिवेश हैं।
अविद्या अर्थात् सम्मोहित अवस्था में अनित्य M/F शरीर-मन (2H) को नित्य (3rdH -हृदय) मानना, अशुचि को शुचि अर्थात् पवित्र मानना, अनात्म या जड़ शरीर और मन (मिथ्या अहं reflected consciousness) को आत्म (सर्वव्यापी विराट अहं या चेतन-pure consciousness) समझ लेना, अर्थात् अपना सच्चा स्वरूप मानना ही , दु:ख को सुख समझ लेना है। यह संसार परिवर्तनशील होने से अनित्य है , शरीर गन्दगी से भरा हुआ है, यह संसार दु:खमय है हर सुख का अन्त दु:ख से परिपूर्ण है, यह इन्द्रिय, शरीर और चित्त जड़ है, अनात्म है, उपर्युक्त सभी की विपरीत भावना कर संसार को नित्य, पवित्र, सुखमय व आत्म समझना ही अविद्या है। अविद्या ही अन्य क्लेशों का मूल है। अस्मिता अर्थात् ‘मैं की भावना’ अहम् भावना ही अस्मिता क्लेश है यह मेरा शरीर है, मेरी वस्तु आदि को समझना अस्मिता नामक क्लेश है। यह घोर कष्ट को देने वाली शक्ति है। राग, सदैव सुखी रहने की इच्छा व द्वेष (Grudge दु:ख से बचने का भाव है। दोनों परस्पर मिले हुये हैं। अभिनिवेश मृत्यु भय है। उपर्युक्त सभी क्लेश के भाव समाधि (चित्तवृत्ति -निरोध) से दूर ले जाने वाले हैं। समाधि अर्थात् सभी वृत्तियों का नाश, क्लेशों के नाश की अवस्था। क्रियायोग से समस्त क्लेशों का नाश सम्भव है जिससे सहज ही समाधि अवस्था प्राप्त लो जायेगी।
ईश्वर प्रणिधान : ईश्वर के प्रति समर्पण ही हमारे समस्त दुखों, कल्मश कशायों का अन्त है। जिसमें की अपना अस्तित्व समाप्त कर उस परमात्मा के अस्तित्व का भान होता। जिसमें कि अपना अस्तित्व मिटने पर समाधि का आनन्द होने लगता है।
महर्षि पतंजलि ईश्वर प्रणिधान का फल बताते हुए कहते है-‘समाधिसिद्धिरीष्वरप्रणिधानात्’। योगसूत्र 2/45 अर्थात् ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि होती है। ईश्वर के आशीर्वाद से उसकी समस्त चित्त की वृत्तियॉ समाप्त हो जाती है। जिससे कि वह मोक्ष को प्राप्त होता है। अत: हम कह सकते है कि वर्तमान जीवन में तप स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान का अत्यन्त महत्व है। क्योंकि तप कर्म के लिए प्रेरित करते है जो कि कर्मयोग है। कर्मयोगी ही कर्मों को कुशलता पूर्वक- अनासक्त भाव से कर सकता है। तप, कठिन परिश्रम व्यक्ति को कर्मयोगी बनाती है। अत: कर्मों में कुशलता लाने के लिए तप नितान्त आवश्यक है।वही स्वाध्याय साधक के ज्ञानयोगी बनाता है। स्वाध्याय से 'विवेकज ज्ञान ' या तारक-ज्ञान की प्राप्ति होती है। क्या सही है, क्या गलत है का ज्ञान साधक को होता हे। जो कि प्रगति या उन्नति के मार्ग में अति आवश्यक है। स्वाध्याय के द्वारा श्रेष्ठ साहित्यों का अध्ययन करते हुए जैसे जैसे आत्मानुसंधान की ओर साधक बढता है; उसको हैरान-परेशान देखकर अन्ततोगत्वा उसे माँ जगदम्बा स्वयं ही अपने शरण में आश्रय दे देती है।
---------------
प्राचीन काल में समस्त ऋषि एवं मुनि गृहस्थ थे , उन्होनें गृहस्थाश्रम में रहते हुए साधना के द्वारा जिस तत्व (ब्रह्म) की प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त की थी , उस मनःसंयोग या क्रियायोग द्वारा कोई भी योग्य व्यक्ति गृहस्थ- आश्रम का आजीवन पालन करते हुए आध्यात्मिक जगत का सन्धान कर सकता है। एवं प्रत्यक्ष अनुभूतियों के माध्यम से ईश्वर तत्व का अंतरंग और बहिरंग पक्ष , सब कुछ देख सुन और समझ सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं।
आखिर हम अपने मिथ्या अहं या नाम-रूप से अनासक्त होंगे कैसे ? इस प्रश्न की भूमिका में पहले यह समझना होगा कि आसक्ति आती है कहाँ से ? उसकी उत्पत्ति कहाँ से होती है ? यह एक तथ्य है की प्रत्येक जीवधारी में प्राण स्थिर रूप में वर्तमान है। उस स्थिर प्राण के चंचल होने पर ही मन की उत्पत्ति होती है। इस चंचल मन को ही जीव मन कहा जाता है। इस चंचल मन को ही जीव , मन के रूप में जानता-मानता है। उसी चंचल मन से ही आसक्ति की उत्पत्ति होती है। तो फिर आसक्ति शून्य होने के लिए मन को निर्मना स्थिति में लाना होगा; अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना होगा या मन शून्य होना होगा।
किस उपाय से मन-शून्य हुआ जा सकता है अर्थात मनन तत्व का किस प्रकार नाश किया जाए , उसका या मानव कौशल गीता एवं पांतजल योग-दर्शन में स्पष्ट रूप से वर्णित है। किन्तु वर्तमान काल में उस मनःसंयोग पद्धति को प्रत्यक्ष करने वाले प्रशिक्षित नेता /जीवनमुक्त शिक्षकों में भी साधन-कौशल का अभाव है। जिन समस्त महयोगियों या महापुरुषों ने साधना के द्वारा प्रत्य्क्ष अनुभव प्राप्त किया है, वे जानते थे कि जो साधन सापेक्ष एवं अनुभवगम्य है उसे मौखिक रूप से या लिखकर समझने से , कौन समझेगा ? जिस प्रकार चीनी स्वयं न खाकर या चख कर , क्या दूसरों की बात सुनकर चीनी खाने का स्वाद समझ में आ सकता है ?- कालांतर में यह विज्ञानसम्मत साधन कौशल लुप्त होने के उपक्रम में जुड़ गया। किन्तु मानव इच्छा के प्रबल होने के कारण एक अद्भुत और पूर्णतः विज्ञानसम्मत विद्या - मनःसंयोग का जन्म 1967 में महामण्डल के आविर्भाव से हुआ। जिसे परम् पूज्य नवनीदा ने विद्यार्थियों के लिए मनःसंयोग पद्धति के रूप में प्रदान किया है। यह मन का ही चमत्कार है जो एक विज्ञानसम्मत अत्यन्त प्रभावी क्रिया ( मनःसंयोग पद्धति ) प्रत्यक्ष हुआ है। इस क्रियायोग को फ़ैलाने के कार्यों में नवनीदा के प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त शिष्यगण आज भी 'पाठचक्र' और युवा-प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से निरंतर कार्यरत हैं। मनःसंयोग में कुछ अन्य अभ्यास की भी जरुरत पड़ती है क्यों कि मानव- शारीर सिर्फ एक देह ही नहीं है -एक बहुत ही पवित्र मंदिर है जहां आप रहते हैं। इसकी देखभाल तो करनी होगी।
हम ईश्वर को (परम् सत्य को) बैकुंठ में खोजते हैं , क्षीर-सागर में ढूंढते हैं , तीर्थ , मंदिर , और मस्जिद में तलाशते हैं , किन्तु अपने शरीर के भीतर हृदय में जो सदैव विराजमान हैं , उसका पता नहीं जानते और उसे ढूंढने का आग्रह भी नहीं जाग्रत होता। जब कि इस देह-मन के परे हृदय में वह प्रत्यक्ष देवात्मा विराजमान हैं। उसके दर्शन करने की बात सभी ऋषियों ने एक वाक्य में व्यक्त किया है और उसकी साधना पद्धति और कौशल प्राप्त करने का मार्ग प्रदर्शित किया है , किन्तु कालांतर में वह लुप्त हो गया। उसका प्रधान कारण साधन सापेक्षता है , क्यों कि इस साधन (विवेक-प्रयोग) को संपन्न करने में कुछ समय धैर्य की जरुरत होती है जिसे कोई करना नहीं चाहता।
उसका भी मुख्य कारण है, वर्तमान युग सच्चे मार्गदर्शक नेता का अभाव ! इन दिनों कुछ ऐसा युग -प्रचलन ही है अनेक गुरु इस प्रकार प्रचार करते हैं कि - मेरे सर पर हाथ रखते ही समाधी लग जाती है , मन स्थिर होता है और क्या -क्या बहुत कुछ होता है। इस वजह से कोई समय नष्ट नहीं करना चाहता। किन्तु तनिक गहराई से विचार करने पर सभी समझ सकते हैं कि जिसे प्राप्त करने के लिए पृथ्वी या संसार की सारी सम्पदा के त्याग की आवश्यकता है , उसे इतनी सहजता से कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?
यह बात सभी को माननी होगी कि इस देह-मंदिर में ऐसा एक देवता है जो चित-स्वरुप में जीवात्मा के नाम से उसके हृदय में ही विराजमान है। ऐसी एक सत्य वस्तु का संघान न करके व्यर्थ ही भरमते , भटकते रहते हैं। ब्रह्मा , विष्णु और महेश के बारे में हम सुनते आए हैं कि इन तीनों देवों को भी परदे की आड़ में रहकर, जो ब्रह्म (माँ जगदम्बा) इन्हें नित्य नचाते हैं , वे किसी दिन भी बाहर नहीं आते , और आएँगे भी नहीं , फिर भी उन्हें खोजना या सत्य -वस्तु का संघान करना ही तो जीवन का परम आनंद है।
हम भारतवासी , ब्रह्मा , विष्णु , शिव या महेश को मानते आए हैं , किन्तु संसार के अन्य लोग इन सब देवताओं का नाम तक नहीं जानते। लेकिन , सृष्टि , स्थिति , लय तथा सतव , रज , तम - इन गुणों की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता। क्यों कि ये तीनों स्थितियां एवं गुण कहाँ नहीं हैं। यानि सभी वस्तुओं में सर्वत्र इनकी व्याप्ति है। "ये तीनों इलेक्ट्रॉन , न्यूट्रॉन और प्रोटोन के नाम से जाने जाते हैं जो कण-कण में हैं। " इनके कार्यों शक्तियों के अनुसार साकार मूर्ति की कल्पना दार्शनिक तत्व के माध्यम से से की गयी है।
मनःसंयोग के अभ्यास में समस्त इंद्रियद्वार को बल पूर्वक रुद्ध कर के मन को चारो और से समेट कर (प्रत्याहार द्वारा) हृदय में स्थित स्वामी विवेकानन्द की छवि पर धारण किया जाता है। निर्दिष्ट मार्ग से अभ्यास करते-करते अविज्ञय आत्मा का दर्शन पा कर साधक कृत्य-कृत्य हो जाते हैं।
स्वामी -शिष्य संवाद खंड ६/८३ में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - श्री जगन्नाथ जी का जो रथ है , वह मानो इसी शरीर-रूपी रथ का एक स्थूल रूप है। इसी शरीर रूपी रथ में हमें आत्मा का दर्शन करना होगा। 'आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च । मध्ये वामनमासीनं विश्वेदेवा उपासते। कठोपनिषद 3। में जो वामनरूपी आत्मा के दर्शन का वर्णन किया गया है, वही वास्तव में जगन्नाथ दर्शन है। [प्राण वायु को तो उपर फेँक देता है और अपान-वायु को नीचे फेक देता है और दोनोँके बीचमेँ बैठा हुआ है " वामन"। वामन भगवान् का नाम तो जग जानता है " नन्हा - सा ईश्वर बैठा हुआ है वहाँ " । उस नन्हे को जब तक हम अपनी बलि नहीँ दे देते - बलिदान नहीँ कर देते - तब तक तो वह नन्हा - मुन्ना वावन बनकर बैठा रहता है , और जब बलिदान हो जाता है तब वह विराट् हो जाता है - ऐसा वामन है जो ब्रह्म हो जाता है। जब तक हम अपने अन्नमय , प्राणमय , मनोमय , विज्ञानमय , आनन्दमय कोष - को उसके प्रति अर्पित नही किया , जब तक हम तीन - पाद अर्पित नही करेँगे - तीन - पाद अर्पित करना पड़ता है , चतुर्थ - पाद वह स्वयं है । स्थूल -शरीर प्रथम् पाद , सूक्ष्म - शरीर द्वितीय पाद और कारण - शरीर तो , अविद्यात्मक ही है , पाद - वाद नहीँ है , वह तो तुरीय के - ज्यान - मात्र से ही पहचान लेने मात्र से ही तृतीय पाद मिट जाता है और चतुर्थ - पादकी प्राप्ती होती है । यह " वामन मे " जो मन है , वा + मन = मन । यह मन की उपाधि से ही ब्रह वामन बना हुआ है , अगर मनकी उपाधि न हो तो ब्रह्म वामन न हो ।]
इसी प्रकार इसी प्रकार 'रथे च वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते' का भी अर्थ यही है कि तेरे शरीर में जो आत्मा है उसका दर्शन यदि तू कर लेगा तो फिर तेरा पुनर्जन्म नहीं होगा। परन्तु अभी तो तू इस आत्मा की उपेक्षा करके अपने इस विचित्र जड़ शरीर को ही सर्वदा 'मैं' समझा करता है। .... सचमुच एक श्रेणी के मनुष्य ऐसे हैं, जो 'विवेकानन्द दर्शन' का आश्रय लेकर प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास करते करते धीरे धीरे ब्रह्मत्व को प्राप्त हो जाते हैं। अतएव जगन्नाथ-विवेकानन्द की मूर्ति का आश्रय लेकर भगवान श्री रामकृष्ण की जो विशेष शक्ति प्रकाशित हो रही है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। " ६/८३
अर्थात इस शरीर रूपी रथ में स्थित उस वामन देव् अथवा अंगुष्ठ -प्रमाण पुरुष का दर्शन कर के जन्म को सफल करते हैं। इस पुरुष का जो दर्शन प्राप्त करते हैं , उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। वे हमेशा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
महाभारत के 18 दिन व्यापी युद्ध में श्री कृष्ण ने अर्जुन को रथ पर बैठा कर साक्षात् रूप में उपदेश दिया था। किन्तु इस देह-रथ की प्रवृत्ति एवं निवृति का युद्ध 18 जन्म में भी समाप्त नहीं होने वाला। श्री कृष्ण उस देह को त्याग-कर चले गए , किन्तु उसके भीतर जिन कृष्ण का अस्तित्व वर्तमान है वे तो अंदर भी प्रत्येक देह-रथ में वर्तमान है ,-और चिर काल तक रहेंगे। क्यों कि वे अविनाशी हैं . उनकी वर्तमानता के कारण ही हम सबकुछ अनुभव करते हैं। वे ही इस देह-रथ के भीतर बैठ कर उपदेश कर रहे हैं। भगवान ने फिर कहा ,- " हे अर्जुन , मैं भी नहीं रहूँगा , तुम भी नहीं रहोगे। " - तो फिर रहेगा क्या?-
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।"
-हे अर्जुन ! ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और अपनी मायासे शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है। गीताचार्य कहते हैं, मेरा स्मरण ईश्वर अर्थात् सम्पूर्ण विश्व के शासक के रूप में करो। ईश्वर ही नियामक और नियन्ता है। उसकी उपस्थिति में ही जगत् की समस्त घटनाएं घट सकती हैं, अन्यथा नहीं। जैसै कि वाष्प इंजन का ईश्वर वाष्प है, जिसके बिना इंजन में गति नहीं आ सकती। ईश्वर तो भूतमात्र के हृदय में निवास कर रहा अंतरयामी है। इसकी पहचान हृदय में ही हो सकती है। जिस प्रकार विशाल महानगरी में किसी व्यक्ति से मिलने के लिये उसके निवासस्थान का पता बताया जाता है। उसी प्रकार, यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अपना स्थानीय पता बता रहे हैं। हृदय शब्द से तात्पर्य शारीरिक अंग रूप हृदय से नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय का अर्थ लाक्षणिक है, शाब्दिक नहीं। प्रेम, सहानुभूति , करुणा, धृति, उत्साह, स्नेह, कोमलता, क्षमा, उदारता जैसे दैवी गुणों से सम्पन्न मन ही हृदय कहलाता है। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।"
जो ईश्वर हमारे भीतर वर्तमान है उसकी शरण किस प्रकार प्राप्त की जाए ? उसके लिए मन को किस प्रकार तैयार करना चाहिए ? इसका ही ज्ञान मनःसंयोग के प्रशिक्षण द्वारा प्राप्त होता है, जो पूर्वजन्म में नवनीद ने कैप्टन सेवियर के रूप में स्वामीजी से प्राप्त किया था। और महामण्डल के वर्तमान कर्मी भी महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर तथा पाठचक्र के माध्यम स उसकी प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहे हैं। नवनीदा ने आजीवन गृहस्थ आश्रम में रहकर, आदर्श गृहस्थ के रूप में साधना के जिस उच्च -स्तर को प्राप्त किया था , वह हजारों वर्ष के भीतर देखने में नहीं आता। न जाने कितने युवा कैंपर्स उनका आश्रय पाकर रामकृष्ण मिशन के संन्यासी बन चुके हैं। और कितने ही गृहस्थ बिजनेस मैन, शिक्षक, नौकरी-पेशा, किसान आदि उनका आश्रय पाकर धन्य हुए हैं। उसकी सीमा नहीं है।
श्री कृष्ण ने गीता में अनेकों जगह पर मन की अद्भुत शक्तियों के बारे में बताया है। किन्तु उन बातों को इस प्रकार दर्शाया गया है जैसे श्री कृष्ण ने ही कहा। उदहारण के लिए - श्री कृष्ण ने कहा - " मैं ही जगत का पालन-कर्ता हूँ और मैं ही विनाश-कर्ता भी हूँ , संसार में जो हो रहा है , वह मेरी इच्छा से हो रहा है। मेरे इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। संसार में सभी होने वाली घटनाओं का जिम्मेवार भी मैं ही हूँ। ' - दूसरी ओर फिर कहते हैं - " जो जैसा कर्म करेगा , वो वैसा ही फल प्राप्त करता है। "- यह दो तरह का विरोधाभास करने वाली तथ्यों को क्यों कहा उन्होने ? इस बात की व्याख्या अभीतक कोई भी स्पष्ट नहीं कर पाये हैं। इसका मूल कारण है कि उक्त बातें श्री कृष्ण ने मन के बारे में बताया है--स्वयं नहीं कहा है। मन की शक्तियों के बारे में अनेकों चकित कर देने वाली बातों मैंने बहुत ही सहज शब्दों में कई जानकारी दी है जो पूर्णतः प्रमाणिक है। भगवान अर्जुन के प्रति लक्ष्य करते हुए पुरे विश्व के मनुष्यों से कह रहे हैं , हे जगतवासी , उस ईश्वर की शरणागति प्राप्त करो , उसके प्रसाद या उसकी अनुकम्पा से ही परम शांति एवं शाश्वत -पद की प्राप्ति होगी। पुरुषोत्तम युग के यही वह पुरुष हैं जिनका दर्शन पाकर साधक का जीवन कृतार्थ हो जाता है। कबीर दास ने सुन्दर ढंग से इस रहस्य को व्यक्त किया है -
" मरते-मरते जग मरा , मरना न जाना कोय।
ऐसा मरना कोई न मरा , जो फिर न मरना होय। .
मरना है दुइ भांति का जो मरना जाना कोय।
राम दुआरे जो मरे , फिर न मरना होय।
अर्थात , संसार में प्रतिदिन लोग मर रहे हैं , किन्तु हाय , अफ़सोस है कि ऐसा मरण किसी का न हुआ , की पुनः मृत्यु न हो। संसार में मृत्यु दो प्रकार की होती है -एक तो साधारण मृत्यु जो नित्य हो रही है और एक है असाधारण मृत्यु जिसे " रामदुआर " की मृत्यु कहते हैं , अर्थात राम के दरवाजे पर मृत्यु।ऐसा मरना कोई न मरा , जो फिर न मरना होय। .
मरना है दुइ भांति का जो मरना जाना कोय।
राम दुआरे जो मरे , फिर न मरना होय।
यह 'राम-दुआर' क्या है ? साधारण आदमी सोचते हैं - यह अयोध्या के राम-मंदिर के समक्ष मरने की बात है।- "राम" शब्द या उच्चारण को परंपरा ने आगे चल कर त्रेता-युग के राम को समझने की भूल करावा दी है। -जो राम त्रेता में हुए थे, वही कृष्ण बनकर द्वापर में आये थे और अभी श्रीरामकृष्ण परमहंस देव बनकर आये हैं। इस रहस्य को श्री रामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द से ' नरेन् शिक्षा देगा ' का चपरास सौंपते हुए कहा था। फिर इस रहस्य को स्वामी विवेकानन्द ने कैप्टन सेवियर से " Be and Make" का चपरास सौंपते हुए कहा था। जिसकी पद्धति को कैप्टन सेवियर ने नवनीदा के रूप में पुनर्जन्म लेकर 1967 में महामण्डल के युवा-प्रशिक्षण शिविर में स्थापित कर दिया है। जो विगत 54 वर्षों से निरंतर जारी है। इसी रहस्य को नवनीदा ने मनःसंयोग की कक्षा में बताया कि " राम-दुआर ' का अर्थ है हृदय में कूटस्थ (विराजित) ठाकुर -माँ -स्वामीजी में प्राण एवं मन को स्थापित करके जो उस परम पुरुष का दर्शन करते-करते देह त्याग देते हैं; अर्थात शरीर से तादात्म्य या मिथ्या अहं को त्याग देते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यह एक अत्यन्त वास्तविक और सच्ची साधना है सिर्फ बात ही नहीं है। जो साधक जीवनभर मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास करते रहते हैं, उन्हीं के पक्ष में यह सम्भव है। यही तो मनःसंयोग का उद्देश्य और फल है।
यह कोई सुनी-सुनाई बात नहीं है -नवनीदा के प्रत्यक्ष और प्रमाणिक जीवन को देखकर समझा जा सकता है। अतः सिर्फ आँख -बंद कर विश्वास करने का कोई विषय नहीं है। मेरे जैसे व्यक्ति ने - जिसने कभी कोई शास्त्र न पढ़ा , वो मनःसंयोग के अभ्यास से गीता , उपनिषद आदि सभी शास्त्रों की सत्यता का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। शास्त्रों में कोई यदि उलट -फेर भी कर दी गयी हो तो उसे वह शीघ्र ही पकड़ कर समझ जाता है। जिस अमर राजयोग आधारित विज्ञान-सम्मत मनःसंयोग को नवनीदा ने जगत को दिया है , उसका अल्पांश भी यदि कोई करे तो उसका महान कल्याण होता है। इसमें कोई संदेह नहीं। - इस बात को मैंने अपने 35 साल तक महामण्डल से जुड़े रहकर प्रत्यक्ष अनुभव किया है ! और यही अनुभव महामण्डल के अन्य कर्मियों ने भी किया है। वस्तुतः यह भगवत वचन भी है - " स्वल्पमस्य , धर्मस्य त्रायतो महतो भयात। " इस बात को कबीर जी की भाषा में इस प्रकार कहा गया है -
" लिखा-लिखी का बात नहीं ,देखा-देखि की बात।
दूल्हा-दुल्हिन मिल गए ,फीकी पड़ी बारात । " अर्थात , लिखा-लिखी की बात नहीं , यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है। उदाहरण देते हुए कहते हैं की विवाह के समय कितने बाराती , बाजे , रोशनी आदि की सजावट के साथ बरात में शामिल होते हैं। किन्तु ज्योंही वर-कन्या का मिलन होता है , उसके बाद ही सभी अपने-अपने स्थान की ओर लौट जाते हैं। -अर्थात-साधक जब प्रकृति-पुरुष या जीवात्मा और परमात्मा के साथ मिलने में समर्थ हो जाते हैं तभी क्रिया की परवस्था में पहुँच जाते हैं। यह अवस्था स्वयं बोधगम्य है।
---------------------
मन की अद्भुत चमत्कारी शक्तियां: आपने पढ़ा ही होगा कि "आवश्यकता अविष्कार की जननी है।" मनःसंयोग पद्धति के जन्म-दाता या आविष्कारक नवनीदा ने अष्टांग योग को सरल कर पांच अंग में योग की क्रियात्मक विधि ढूंढ निकाली , जो आगे चलकर "मनःसंयोग " के नाम से प्रचलित हुई । नवनीदा का मनःसंयोग सहित ५ अभ्यास का प्रशिक्षण ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है। ठाकुर- माँ के आशीर्वाद से और स्वामी विवेकानन्द की तीव्र-इच्छा से ही मनःसायोग आधारित युव प्रशिक्षण शिविर और महामण्डल की उत्पत्ति हुई। इस 'Be and Make ' प्रक्रिया (लीडरशिप ट्रेनिंग) में कोई भ्रान्ति नहीं होती और परिणाम एक ही आता है , अतः यह पूर्ण रूप से एक वैज्ञानिक प्रणाली है।
प्रश्न यह है कि - क्या माँ काली की भक्ति करने वाले श्रीरामकृष्ण का ईश्वर कोई दूसरा है ? - क्या योग करने वाले राजयोगी स्वामी विवेकानन्द का ईश्वर अलग होता है ?- क्या ठाकुर की तंत्र-मार्ग साधना का ईश्वर अलग है ? - जो भी जिस विधि से पूजन-अर्चन करता है , क्या उसका ईश्वर - अलग-अलग है ? क्या सभी धर्मों के लोगों के अलग-अलग ईश्वर हैं ? - किसी को काली का दर्शन होता है , तो किसी को त्रेता-युग वाले राम का, , किसी को हनुमान , किसी को श्री कृष्ण का , किसी को श्रीरामकृष्ण का , किसी को ईशा-मसीह का , किसी को अल्ला या कोई पैगम्बर का आदि। - आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या ये सब एक भ्रामक विचार नहीं हैं ?-- तो सही क्या है ?- यह जानने के लिए मन और मन की धारणा को समझना होगा।
जब व्यक्ति के मन में कोई बात (गुरु वाक्य या चार महावाक्य) पूरी तरह बैठ जाती है तो वह बात उस व्यक्ति के मन की धारणा बन जाती है। इसके बिना वह आगे नहीं बढ़ सकता। चाहे कोई भी विषय -वस्तु हो , उसके सन्दर्भ का जो ज्ञान होता है , उस सम्बन्ध में सभी के अपने-अपने विचार बन जाते हैं। वह विचार मन की धारणा ही है। इससे कोई बच नहीं सका है। इसके सम्बन्ध में अब जो बताने जा रहा हूँ , वह बहुत अहम बातें हैं। धारणा की सकारात्मक शक्ति बहुत उत्तम और चमत्कार करने वाली होती हैं बशर्ते , यदि उसमें एकाग्रता भी शामिल हों। ध्यान रहे कि जब मन की सूक्ष्मता से कोई कार्य किया जाता है तो मन स्वयं एकाग्र हो जाता है। अब एक और अहम बात ,- किसी ज्ञान के प्रति सबकी अपनी-अपनी धारणा होती है। मन के कारण वह बीमार होता है , स्वस्थ होता है और अपना विकास भी करता है। जैसी मन की धारणा होगी , उसका संसार भी उसी अनुरुप होगा। यदि धारणा में कोई परिवर्तन हुआ तो, उसका प्रत्यक्ष संसार में भी बदलाव आने लगता है। यह परिवर्तन भी दो प्रकार का होता है- सकारात्मक और नकारात्मक। सकारात्मक परिवर्तन उसे कहेंगे जब व्यक्ति के मन लायक कोई काम होता हो। नकारात्मक परिवर्तन व्यक्ति को बीमार या दुखी बनाता है। मन की गलत धारणा की वजह से व्यक्ति बीमार या दुखी जीवन व्यतीत करता है। हमें गलत धारणा होने का कारण ढूँढना होगा। उसमे सूक्ष्म परिवर्तन लाकर व्यक्ति को स्वस्थ और सुखी बनाया जा सकता है। जब अंदर का मन स्वस्थ होता है तो उससे सम्बंधित बाहरी जीवन भी उसके अनुकूल होने लगता है। अर्थात जब अंदर ठीक से वह ठीक होता है तो उसका बाहरी संसार भी ठीक होता है। गीता में यह भी स्पष्ट किया गया है कि - " जो मुझे जिस रूप में भी भजता है -प्रेम करता है -मनन -चिंतन करता है , मैं उसी रूप में दर्शन देता हूँ। चाहे मुझे वह प्रेमी मान ले , प्रेमिका मान ले , मित्र मान ले या कोई भी मुझे प्रिय-इष्ट मान ले। जो मुझे जिस रूप में भी याद करता है -मैं वैसा ही दर्शन देता हूँ। "--- यहाँ पर श्री कृष्ण ने मन की स्थितियों के बारे में समझाया है। अर्थात , मन की कल्पित कल्पनाओं के कारण जिसे वह देखना चाहता है वह देख सकता है। इसके बाद श्री कृष्ण ने ईश्वर को सही रूप में पाने और समझने के लिए योग का ज्ञान दिया है। वे स्वयं एक महान योगी थे। मन के सभी रहस्यों को समझ लिए थे। उनकी कोई बात झूठी नहीं हुई , बशर्ते कि गीता का सही रूप में अध्ययन किया जाए।
मनःसंयोग की आवश्यकता : 'संसार के सभी धर्म आज उपहास की वस्तु हो गये हैं, आज संसार जो चाहता है -वह है चरित्र !' ~ स्वामी विवेकानन्द। [Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt.
One idea that I see clear as daylight is that misery (पंचक्लेश) is caused by ignorance (अविद्या ) and nothing else. Who will give the world light? Sacrifice in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come. The earth's bravest and best will have to sacrifice themselves for the good of many, for the welfare of all. Buddhas by the hundred are necessary with eternal love and pity.
My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.
Awake, awake, great ones! The world is burning with misery. Can you sleep? Let us call and call till the sleeping gods awake, till the god within answers to the call. What more is in life? What greater work? The details come to me as I go. I never make plans. Plans grow and work themselves. I only say, awake, awake! ~ letter to Sister Nivedita - 7th June, 1896.]
धर्म के नाम पर खिलवाड़ और व्यवसायिकता की स्थिति को अपने देश में देख कर कबीर ने अत्यन्त दुःख के साथ कहा है –
" कान फुंकने का गुरु और है , बेहद का गुरु और !
बेहदका गुरु जो मिले ,पहुंचा देवै ठौर ! ठौर का अर्थ होता है ~ 'धाम' वह इन्द्रियातीत सत्य जो देश-काल-निमित्त या नाम-रूप से परे, सच्चिदानन्द स्वरूप है ! अक्षर तत्त्व ब्रह्म है जो समस्त विश्व का अधिष्ठान है। ॐ या प्रणव उस ब्रह्म का वाचक या सूचक है जिसके किसी अवतार वरिष्ठ पर हमें ध्यान करने का उपदेश दिया गया था। यह अविनाशी चैतन्य स्वरूप आत्मा ही अव्यक्त प्रकृति को सत्ता एवं चेतनता प्रदान करता है जिसके कारण प्रकृति इस वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि को व्यक्त करने में समर्थ होती है। यह सनातन अव्यक्त अक्षर आत्मतत्त्व ही मनुष्य के लिए प्राप्त करने योग्य पररम लक्ष्य है। श्री कृष्ण के शब्दों में - " यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। गीता 8.21।।" जहां जाने या पहुँचाने पर फिर पुनरावर्तन नहीं होता, वही मेरा धाम है। " यहाँ शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को महर्षि व्यास जी ने काव्यात्मक शैली द्वारा श्रीकृष्ण के निवास स्थान के रूप में वर्णित किया है ~ तद्धाम परमं मम/तत् धाम परमम् मम। अनेक स्थलों पर यह स्पष्ट किया गया है कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण 'मैं ' शब्द का प्रयोग आत्मस्वरूप की दृष्टि से करते हैं। अतः यहाँ भी धाम शब्द से किसी स्थान विशेष से तात्पर्य नहीं वरन् उनके स्वरूप से ही है। यह आत्मानुभूति ही साधक का लक्ष्य है जो उसके लिए सदैव उपलब्ध भी है। संसार शब्द का अर्थ ही है वह जो निरन्तर बदलता रहता है। निद्रा कोई जीवन का अन्त नहीं वरन् दो कर्मप्रधान जाग्रत अवस्थाओं के मध्य का विश्राम काल है उसी प्रकार मृत्यु भी जीवन की समाप्ति नहीं है। प्रायः वह जीव के दो विभिन्न शरीर धारण करने के मध्य का अव्यक्त अवस्था में विश्राम का क्षण होता है।
वर्तमान युग में जो व्यक्ति भ्रम -मुक्ति पाना चाहता है (de -hypnotized होना चाहता है ) उसका एक मात्र साधन है --महामण्डल Be and Make-परम्परा में मनःसंयोग का प्रशिक्षण या क्रिया-योग ।
मनःसंयोग या क्रियायोग : मनुष्य को उस स्थिति (ब्रह्मत्व) तक ले जाता है जहां सुख और आनंद ही व्याप्त है। इसके अलावा व्यक्ति को और कुछ भी इच्छा बाकि नहीं रह जाती। अतः उसका पुनर्जन्म नहीं होता। अक्षर तत्त्व ब्रह्म है जो समस्त विश्व का अधिष्ठान है। ॐ या प्रणव उस ब्रह्म का वाचक या सूचक है जिस पर हमें ध्यान करने का उपदेश दिया गया था। यह अविनाशी चैतन्य स्वरूप आत्मा ही अव्यक्त प्रकृति को सत्ता एवं चेतनता प्रदान करता है जिसके कारण प्रकृति इस वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि को व्यक्त करने में समर्थ होती है। यह सनातन अव्यक्त अक्षर आत्मतत्त्व ही मनुष्य के लिए प्राप्त करने योग्य पररम लक्ष्य है। जब कोई व्यक्ति उपदिष्ट मनःसंयोग या क्रियायोग के अभ्यास से उपाधियों के साथ हुए मिथ्या तादात्म्य को दूर कर देता है तब वह अपने शुद्ध अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है। स्वप्न से जागने पर ही स्वप्न के मिथ्यात्व का बोध होता है अन्यथा नहीं और एक बार जाग्रत् अवस्था में आने के पश्चात् स्वप्न के सुख और दुःख के प्रभाव से मनुष्य सर्वथा मुक्त हो जाता है।
'लाहिड़ी महाशय' (श्री श्यामाचरण लाहिड़ी 30 सितम्बर 1828 – 26 सितम्बर 1895)भारत के आठ महान साधक में से एक 18 वीं शताब्दी के उच्च कोटि के साधक थे जिन्होंने सद्गृहस्थ के रूप में रहते हुए भी योगज-शक्ति में पूर्णता प्राप्त कर ली थी। इन्होंने वेदान्त, सांख्य, वैशेषिक, योगदर्शन और अनेक संहिताओं की व्याख्या भी प्रकाशित की। परम सिद्ध महावतार बाबा जी ने महर्षि पतंजलि के प्रसिद्ध ग्रन्थ “योग सूत्र” में वर्णित क्रिया योग का पुनरुद्धार किया | सूत्र II.1 में क्रिया योग की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है : “सतत अभ्यास (वैराग्य के साथ), स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान। ” इनमे प्रमुख हैं प्राणायाम, मंत्र एवं भक्ति के द्वारा दिव्य चेतना एवं महान शक्ति “कुण्डलिनी” को विकसित करना। बाबाजी ने सन् 1861 में लाहिड़ी महाशय को प्रभावशाली क्रिया योग विद्या की दीक्षा दी। लाहिरी महाशय का जन्म नदिया जिले के घूर्णी गाँव में 30 सितम्बर सन 1828 को एक संभ्रान्त ब्राह्मण कुल में हुआ था। अपने पैत्रिक गाँव को छोड़ कर उनके पिता गौरमोहन लाहिरी काशी आ गए और बंगाली टोला स्थित एक भवन में सपरिवार रहने लगे। आपका पठनपाठन काशी में हुआ। बंगला, संस्कृत के अतिरिक्त आपने अंग्रेजी भी पढ़ी यद्यपि कोई परीक्षा नहीं पास की। लाहिरी महाशय के विवाह पश्चात दो पुत्र और दो पुत्रियों का जन्म हुआ।
इनके शिक्षाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिरशांति प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। ब्रिटिश सरकार के सैनिक ईन्जीनीयरिंग विभाग दानापुर में मिलिटरी एकाउंट्स आफिस में अकाउनटेंट के पद पर लाहिड़ी महाशय सन 1851 में कार्यरत थे। सरकारी नौकरी में उनकी नियुक्ति 23 साल की उम्र में हो गयी थी। । 1869 में उन्हें सुचना मिली कि – उनका स्थानांतरण रानीखेत में हो गया – जहाँ सेना का नया कैंप स्थापित किया जा रहा था। एक दोपहर रानीखेत की पहाड़ियों में सैर करते हुए उनको उन्हें लगा – जैसे कोई उनका नाम लेकर पुकार रहा हैं। कौतूहलवश वो आवाज की दिशा में द्रोणागिरी पर्वत की और बढ़ते रहे। इस बात से भी चिंतित थे किं कहीं उन्हें लौटने से पहले अँधेरा न हो जाए। चलते हुए वो एक खुली जगह पर पहुंचे – जिसके दोनों और गुफा थी। वहां अपनी तरह दिखने वाले एक युवक के को उनके स्वागत में खड़े देख – वो आश्चर्य में पड़ गए। युवक ने बताया कि – उन्होंने ही लाहिड़ी महाशय को पुकारा था। स्वागत में खड़े युवा संत – परम सिद्ध महावतार बाबा जी थे। महावतार बाबा की गुफा आज भी उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में कुकुछीना से 13 किलोमीटर दूर दूनागिरि के पांडुखोली में स्थित है।
लाहिड़ी महाशय को उन्होंने एक गुफा में विश्राम करने को कहा। –लाहिड़ी तुम्हे वो आसान याद हैं? महावतार बाबा ने कोने पर पड़े कम्बल की और इशारा करते हुए कहा। नहीं महाराज, – लाहड़ी महाशय अपनी इस विचित्र साहसिक यात्रा पर हतप्रभ हो बोले; महाराज – मुझे अँधेरा होने से पहले निकलना होगा – सुबह ऑफिस में काम हैं। लाहिड़ी महाशय के लिए उस समय तक रहस्मय संत ने अंग्रेजी में उत्तर दिया – The office is brought for you, and not you for the office (ऑफिस तुम्हारे लिए लाया गया हैं, तुम ऑफिस के लिए नहीं) निर्जन वन में एक सन्यासी से ऐसे शब्द सुन लाहिड़ी महाशय अवाक् रह गए । संत ने आगे बताया कि लाहिड़ी महाशय के रानीखेत स्थानांतरण के लिए – उन्होंने ही गुप्त रूप से, सेना के अधिकारी के मन को यहाँ कैंप लाने और उनके स्थानांतरण का सुझाव दिया था।
संत ने कहा कि यह जगह – उन्हें परिचित लग रही होगी कर इसके बाद – लाहिड़ी महाशय के माथे को स्पर्श किया, तो उनकी पूर्व जन्म की स्मृतियाँ जाग गयी । उन्हें याद आया कि ये संत उनके पूर्व जन्म के गुरु – महावतार बाबा हैं। उन्हें याद आया किं पूर्व जन्म में इसी गुफा में – उन्होंने कई वर्ष बिताये थे। पूर्व जन्म की मधुर और पवित्र स्मृतियों से वो भाव विव्हल हो उठे।
उस रात लाहड़ी महाशय के पूर्व जन्म के कर्मों के बंधन से मुक्ति के लिए महावतार बाबा ने उस जंगल में अपनी योग शक्ति से एक सवर्णों और रत्नो से प्रकाशित महल एक निर्माण कराया, जो लाहिड़ी महाशय के पूर्व जन्म में जगी इच्छा थी। कुछ समय के लिए सरकारी काम से अल्मोड़ा जिले के रानीखेत नामक स्थान पर भेज दिए गए। हिमालय की इस उपत्यका में गुरुप्राप्ति और दीक्षा हुई। लाहिड़ी महाशय का स्वर्ण महल से मोह भंग हो जाने पर वह महल अदृश्य गया। दिव्य पुरुषों के लिए किसी भी वस्तु की कल्पना और उसकी शृष्टि में में कोई अंतर नहीं होता।
हिन्दू मान्यता हैं – किं – जब तक मनुष्य में कामना और इच्छा शेष हैं – उसका जन्म होता रहेगा, पूर्व जन्म की अधूरी इच्छा – उसके अगले जन्म में उसके अवचेतन मन के अंदर रहती हैं। पूर्व जन्म के की अनुभूतियों का बोध, महावतार बाबा से प्राप्त ज्ञान और उनकी कृपा से अगले सात दिन लाहिड़ी महाशय निर्विकल्प समाधि में लींन रहे। आत्म ज्ञान के अनेकों स्तरोँ को पार कर आठवे दिवस – लाहिड़ी महाशय ने उसी वन में बाबाजी के साथ हमेशा के लिए रहने की इच्छा प्रकट की।
लाहिड़ी महाशय के गुरु ने कहा - “ तुमको 'क्रिया- योग' द्वारा दी आध्यात्मिक शांति को अनेकों तक पहुँचाने के लिए नियुक्त किया गया है। करोड़ों जोकि पारिवारिक संबंधों और भारी सांसारिक कार्यों में डूबें है, तुमसे प्रेरणा लेंगे, क्यूंकि तुम भी उनकी तरह एक गृहस्थ हो । तुम्हें अन्य गृहस्थ लोगों को यह दर्शाना होगा कि सबसे उच्तम आध्यात्मिक प्राप्तियाँ - 'ब्रह्मज्ञान' भी गृहस्थ को मना नहीं हैं। तुम्हारे आदर्श संतुलित जीवन से वे समझेंगें कि आत्मबोध आंतरिक अवस्था है, न कि बाहरी, संन्यास पर निर्भर है।” `जिससे पारिवारिक बंधन में बंधे, सांसारिक कर्तव्यों से दबे, अनेकों लोगो को (Bh–अनुभव लेने के बाद उसका त्याग करने से) – बिना सांसारिक बंधन तोड़े ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए हिम्मत और प्रेरणा मिलेगी।
बाबाजी ने उन्हें बताया कि - मैंने तुम्हें यहाँ तब तक नहीं बुलाया जब तक तुम विवाहित नहीं हो गए। अब तुम्हें एक आदर्श गृहस्थ के रूप में आगे का जीवन व्यतीत करना होगा। अगणित लोग तुमसे क्रिया योग की दीक्षा लेकर अध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करेंगे। परम सत्ता का साक्षात्कार करेंगे। उन्होंने लाहिड़ी महाशय को भगवतगीता के इस अमर वचन-- को अपने सभी शिष्यों ( भावी नेताओं) को बताने को कहा कि ' स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात' –अर्थात – इस धर्म (5 अभ्यास) का थोड़ी सी भी साधना बड़े से बड़े भय से रक्षा करता हैं। को दीक्षा के वक्त दूसरों को भी सुनाने का निर्देश (चपरास) दिया-कि उनके इस जन्म का उद्देश्य प्रवृत्ति मार्ग के सामान्य मानवों के बीच रहकर अपनी नेता/जीवनमुक्त शिक्षक की भूमिका निभानी हैं। साथ ही गीता के एक श्लोक 2/40 की व्याख्या भी दी
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।।
[न इह अभिक्रमनाशः अस्ति (loss
of effort ) प्रत्यवायः (production of contrary results) न विद्यते।
स्वल्पम् very little अपि even? अस्य of this धर्मस्य duty त्रायते
protects महतः (from) great भयात्]स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।।
आरम्भ करना अभिक्रम कहलाता है, इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्ग 'Be and Make' में अभिक्रम का यानी गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए , मनुष्य बनने के 5 अभ्यास स्वयं करने और दूसरों को भी अनुप्रेरित करने के पाठचक्र (विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर) के प्रारम्भ का कृषि आदि के सदृश नाश नहीं होता। अभिप्राय यह कि योग विषयक प्रारम्भ का फल अनैकान्तिक ( संशययुक्त ) नहीं है। तथा चिकित्सादि की तरह ( इसमें ) प्रत्यवाय ( विपरीत फल ) भी नहीं होता है। तो क्या होता है ?
इस कर्मयोगरूप धर्म 'Be and Make' का थोड़ासा भी अनुष्ठान ( साधन ) जन्म-मरण रूप महान् संसार-भय से रक्षा किया करता है। भगवान् श्रीकृष्ण यहां मानो इस ज्ञान का, इस कर्मयोगरूप धर्म 'Be and Make' का विज्ञापन - करते हुये कर्मयोग का उपर्युक्त दोनों दोषों से सर्वथा मुक्त और सुरक्षित होने का आश्वासन देते हुए कहते हैं -इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय (मृत्यु) से रक्षण करता है।।
दुसरे दिन गुरुदेव से बिछुड़ते समय लाहिड़ी महाशय रोने लगे। यह देखकर गुरुदेव ने उन्हें कंठ से लगाया। और सांत्वना देते हुए बोले- " नहीं वत्स, तुम्हें वापिस जाना ही होगा। संन्यासी के वेश में नहीं, बल्कि गृहस्थ के रूप में रहते हुए जन कल्याण का कार्य करना होगा। तुम्हें, तुम्हारे जीवन को देखकर लोग यह जान सकेंगे कि उच्चस्तर की साधना से गृहस्थ भी - ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकते हैं। और यही इस बात के पीछे गहरा कारण था कि लाहिड़ी महाशय गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद ही बाबाजी से मिल पाए। क्योंकि प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटने में समर्थ एक गृहस्थ योगी के रुप में उन्हें – प्रवृत्ति धर्म के संसारी लोगो के मध्य रह उन्हें मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देकर, उन्हें सांत्वना देनी होगी कि – गृहस्थ भी ब्रह्म की उपलब्धि कर सकते हैं। ब्रह्मविद होने का लाभ उठा सकते हैं, अर्थात दूसरों की सेवा निःस्वार्थभाव से कर सकते हैं। तुम्हें गृहस्थी से अलग होने की आवश्यकता नहीं है। तुम उस (Bh) -बंधन से मुक्त हो गए हो। आगे चल कर अनेक लोग तुमसे दीक्षा ग्रहण करेंगे। यह याद रखना कि योग्य व्यक्ति को ही दीक्षा देना. ईश्वर प्राप्ति के लिए जो सर्वस्व त्याग कर सकता है, वही इस मार्ग के योग्य है। जो व्यक्ति ईश्वर (इन्द्रियातीत सत्य या परम् सत्य) की प्राप्ति के लिए जो सर्वस्व त्याग कर सकता है, वही इस मार्ग के योग्य है। तुम मुझसे बिछुड़ नहीं रहे हो। मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूँगा। जब जहां स्मरण करोगे तब वहीँ उपस्थित हो जाऊँगा। मेरे लिए व्याकुल होने की आवश्यकता नहीं है। "
बाबाजी के आदेश से लाहिड़ी महाशय द्वाराहाट के द्रोणागिरी की पहड़ियों से नीचे उतरे। रानीखेत से वापिस आते समय लाहिड़ी महाशय कुछ मित्रों के अनुरोध पर मुरादाबाद में रुक गए। एक दिन न जाने किस बात पर एक सज्जन ने कहा- " आजकल वास्तविक संत हैं कहाँ? T.v. पर दिखने वाले अधिकांश बाबा लोग 'क्षेत्रे भोजन मठे निद्रा ' वाले हैं। इन लोगों का राजशाही ठाटबाट देखकर ईर्ष्या होती है. बड़े बड़े मठ बनवा कर, आम जनता को उपदेश देकर मूर्ख बनाते हैं। असली संत कभी इन ऐश्वर्यों को स्पर्श भी नहीं करते" इस बैठक में लाहिड़ी महाशय भी मौजूद थे। उन्होंने कहा- " आपका ख्याल गलत है। भारत में अभी भी उच्च कोटि के संत हैं। हम उनको पहचान नहीं पाते हैं। वे अपने घरों (खरदह) से दूर रहकर - कोन्नगर में अपनी साधना कर्मयोगरूप धर्म 'Be and Make' _में निमग्न रहते हैं। मेरे गुरुदेव/[नेता नवनीदा] ऐसे ही महान संत हैं। जिनकी कृपा से मुझे नया जीवन मिला है।"
इतना कहकर लाहिड़ी महाशय अपने परम पूज्य गुरुदेव से मिलने की अनोखी कहानी सुनाने लगे। उनकी बातों पर किसी ने विश्वास नहीं किया। गुरुदेव की कृपा तथा पूर्व जन्म के संस्कार के कारण लाहिड़ी महाशय योगारूढ़ तो हो गए थे , पर साधारण मनुष्यों की तरह अपने गर्व (व्यष्टि अहं) का शमन अभी नहीं कर पाए थे। अपना मजाक उड़ता देखकर लाहिड़ी महाशय ने उत्तेजनावश कहा-``आप लोगों को मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा है? अगर मैं चाहूँ तो अभी इसी क्षण, यहीं, अपने गुरुदेव को बुला सकता हूँ। अब लोगों ने विश्वास करना भी क्यों था ? अचानक लाहिड़ी महाशय इस अपमान से अत्यंत क्षुब्ध हो उठे। वे यह भूल गए कि ऐसे ही किसी व्यक्ति के सामने परा-शक्ति व परा-इच्छा का उपयोग नहीं करना चाहिए जो इसके योग्य नहीं हैं।
लाहिड़ी महाशय एक दुसरे कमरे में चले गए और अन्दर न आने का निर्देश देकर ध्यानस्थ हो गए। कुछ ही देर में कमरे में प्रकाश हुआ और गुरुदेव प्रकट हुए। उनकी दृष्टि कठोर थी। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा-" श्यामाचरण, तुमने इन विषयी अकर्मण्य मित्रों के कारण मुझे बुलाया? अब मैं जा रहा हूँ, अब ऐसे तुच्छ कारणों पर मैं कभी नहीं आऊंगा। " गुरुदेव के इस कथन से लाहिड़ी महाशय का मन काँप उठा। तुरंत जमीन पर माथा टेकते हुए कहा-" अपराध के लिए क्षमा कर दें गुरुदेव। उत्तेजनावश मैं बाल हठ कर बैठा। अविश्वासी मन वाले इन अंधों को बताना चाहता था कि भारत में अभी भी उच्चस्तर के योगी हैं। अब आप आ ही गए हैं तो इन अविश्वासियों को दर्शन देकर इनके भ्रम को दूर करने की कृपा करें। " गुरुदेव ने अभय वाणी देते हुए कहा- 'ठीक है. भविष्य में कभी विनोद के निमित्त मेरा स्मरण मत करना। जब वास्तव में तुम्हें आवश्यकता होगी तब ही आऊंगा।" इस आश्वासन को पाते ही लाहिड़ी महाशय ने कमरे का दरवाजा खोल दिया। लोग चकित दृष्टि से उनके गुरुदेव को देखने लगे। फिर भी एक अविश्वासी बोल उठा- " यह तो सामूहिक सम्मोहन है, वास्तविक नहीं है।" गुरुदेव मुस्कुराए आगे बढ़ कर सभी को स्पर्श किया और प्रसाद के रूप में हलुवा दिया। ज्यों ही लोगों ने हलुवा मुह में डाला त्यों ही वह प्रकाश लुप्त हो गया। इन दर्शनार्थियों में से एक ने आगे चलकर लाहिड़ी महाशय से दीक्षा प्राप्त की। अब आप अनुमान लगा लीजिये की स्वयं बाबाजी महाराज प्रकट हुए। दर्शन दिए। तब भी लोगों को विश्वास नहीं हुआ। कभी कभी तो लगता है कि क्या इंसान अविश्वास (चमत्कार) पर ही विश्वास करना चाहता है ?!
जब वे अपने कार्यालय में वापिस आये तो उनके सहयोगियों को अपार प्रसन्नता हुई। सहकर्मियों के बार बार प्रश्न करने पर भी लाहिड़ी महाशय ने अपने अज्ञातवास के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया। उन लोगों की उत्सुकता समाप्त करने के लिए केवल इतना बोले- "मैं जंगल में भटककर दूर चला गया था. नयी जगह होने के कारण मुझे वापिस आने में इतना समय लग गया।" इसके शीघ्र बाद – मुख्यालय से एक पत्र आया जिसमे लिखा था – " लाहिड़ी को वापस दानापुर लौट जाना चाहिए, उनका रानीखेत स्थानांतरण गलती से हुआ। लाहिड़ी महाशय का रानीखेत आने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। रानीखेत से वापिस आकर वे अपने कार्यालय में पूर्व की भांति कार्य करने लगे। गुरु द्वारा बतायी गयी क्रियायों की साधना भी चलती रही। दीक्षा के बाद भी इन्होंने कई वर्षों तक नौकरी की और इसी समय से गुरु के आज्ञानुसार लोगों को दीक्षा देने लगे थे।
बाबा जी से दीक्षा का जो प्रकार प्राप्त हुआ उसे क्रियायोग कहा गया है। क्रियायोग की विधि केवल दीक्षित साधकों को ही बताई जाती है। क्रिया-योग की पद्धति महावतार बाबाजी द्वारा लाहिड़ी महाशय को प्रदान की गयी थी। जैसा कि लाहिड़ी महाशय द्वारा सिखाया गया है, क्रिया योग पारंपरिक रूप से गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ही सीखा जाता है। उन्होंने स्मरण किया कि, क्रिया योग में उनकी दीक्षा के बाद, "बाबाजी ने मुझे उन प्राचीन कठोर नियमों- यम,नियम,आसान, प्रत्याहार और धारणा में निर्देशित किया जो गुरु से शिष्य में संचारित होकर योग कला या मनःसंयोग को नियंत्रित करते हैं।" क्रिया योग की साधना करने वालों के द्वारा इसे एक प्राचीन योग पद्धति के रूप में वर्णित किया जाता है, जिसे आधुनिक समय में महावतार बाबाजी के शिष्य लाहिरी महाशय के द्वारा 1861 के आसपास पुनर्जीवित किया गया। और परमहंस योगानन्द की पुस्तक ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी (एक योगी की आत्मकथा) के माध्यम से जन सामान्य में प्रसारित हुआ। लाहिड़ी महाशय के महावतार बाबाजी से 1861 में क्रिया योग की दीक्षा प्राप्त करने की कहानी का व्याख्यान एक योगी की आत्मकथा में किया गया है। योगानन्द ने लिखा है कि उस बैठक में, महावतार बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय से कहा कि, "यह क्रिया योग जिसे मैं इस उन्नीसवीं सदी में तुम्हारे जरिए इस दुनिया को दे रहा हूं, यह उसी विज्ञान का पुनः प्रवर्तन है जो भगवान कृष्ण ने सदियों पहले अर्जुन को दिया; और बाद में यह पतंजलि और ईसा मसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और अन्य शिष्यों को ज्ञात हुआ।" योगानन्द जी ने यह भी लिखा कि बाबाजी और ईसा मसीह एक दूसरे से एक निरंतर सम्पर्क में रहते थे और दोनों ने एक साथ, "इस युग के लिए मुक्ति की एक आध्यात्मिक तकनीक की योजना बनाई।" लाहिड़ी महाशय के माध्यम से, क्रिया योग जल्द ही भारत भर में फैल गया। लाहिड़ी महाशय के शिष्य स्वामी श्री युक्तेशवर गिरि के शिष्य योगानन्द जी ने, 20वीं शताब्दी के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में क्रिया योग का प्रसार किया। योगानन्द जी के अनुसार, प्राचीन भारत में 'क्रिया योग' अर्थात मनःसंयोग की पद्धति को भली भांति जाना जाता था, लेकिन अंत में यह खो गया, जिसका कारण था पुरोहित गोपनीयता और मनुष्य की उदासीनता। योगानन्द का कहना है कि पतंजलि का इशारा योग क्रिया की ओर ही था जब उन्होंने लिखा "क्रिया योग शारीरिक अनुशासन, मानसिक नियंत्रण और ॐ पर ध्यान केंद्रित करने से निर्मित है।" और फिर जब वह कहते हैं, "उस प्रणायाम के जरिए मुक्ति प्राप्त की जा सकती है जो प्रश्वसन और अवसान के क्रम को तोड़ कर प्राप्त की जाती है।" योगानन्द जी का कहना है की भगवान कृष्ण ने भगवद गीता में क्रिया योग को संदर्भित किया है। योगानन्द जी ने यह भी कहा कि भगवान कृष्ण क्रिया योग का जिक्र करते हैं जब "भगवान कृष्ण यह बताते है कि उन्होंने ही अपने पूर्व अवतार में अविनाशी योग की जानकारी एक प्राचीन प्रबुद्ध, वैवस्वत या सूर्य को दी जिन्होंने इसे महान व्यवस्थापक मनु को संप्रेषित किया। इसके बाद उन्होंने, यह ज्ञान भारत के सूर्य वंशी साम्राज्य के जनक इक्ष्वाकु को प्रदान किया।" योगानंद के अनुसार क्रिया योग ईश्वर से साक्षात्कार की एक प्रभावी विधि है, जिसके पालन से अपने जीवन को संवारा और ईश्वर की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। जैसा की योगानन्द द्वारा क्रिया योग को वर्णित किया गया है, "एक क्रिया योगी अपनी जीवन उर्जा को मानसिक रूप से नियंत्रित कर सकता है ताकि वह रीढ़ की हड्डी के छः केंद्रों के इर्द-गिर्द ऊपर या नीचे की ओर घूमती रहे (मस्तिष्क, गर्भाशय ग्रीवा, पृष्ठीय, कमर, त्रिक और गुदास्थि संबंधी स्नायुजाल) जो राशि चक्रों के बारह नक्षत्रीय संकेतों, प्रतीकात्मक लौकिक मनुष्य, के अनुरूप हैं। क्रिया योग के उद्धरण में लिखा है, "क्रिया योग साधना या मनःसंयोग को ऐसा माना जा सकता है कि जैसे यह "आत्मा में रहने की पद्धति" की साधना है"। यह विधि पूर्णतया शास्त्रोक्त है और गीता [ पतंजलि योगसूत्र] उसकी कुंजी है। क्रियायोग की प्रक्रिया का आगे विश्लेषण करते हुये वे कहते हैं कि मनुष्य की श्वशन गति और उसकी चेतना की भिन्न भिन्न स्थिति के बीच गणितानुसारी सम्बन्ध होने के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। गीता में कर्म, ज्ञान, सांख्य, भक्ति इत्यादि सभी योग है और वह भी इतने सहज रूप में जिसमें जाति और धर्म के बंधन बाधक नहीं होते। बैलगाड़ी के समान धीमी और अनिश्चित गति वाले धार्मिक मार्गों की तुलना में 'क्रिया-योग' (मनःसंयोग) के द्वारा ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को विमान मार्ग कहना उचित होगा। प्रत्यक्ष प्राण-शक्ति के द्वारा मन को नियन्त्रित करने वाला 'क्रिया-योग ' अनन्त तक पहुँचने के लिये सबसे सरल प्रभावकारी और अत्यन्त वैज्ञानिक मार्ग है। मनःसंयोग, मन की एकाग्रता या प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास धीमे श्वसन पर निर्भर है। तेज या विषम श्वास भय, काम क्रोध आदि हानिकर भावावेगों की अवस्था का सहचर है। परमहंस योगानन्द के अनुसार क्रियायोग एक सरल मनःकायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से परिपूरित हो जाता है। इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरूदण्ड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देते हैं।
आप हिंदू, मुसलमान, ईसाई सभी को बिना भेदभाव के दीक्षा देते थे। इसीलिए आपके भक्त सभी धर्मानुयायी हैं। उन्होंने अपने समय में व्याप्त कट्टर जातिवाद को कभी महत्व नहीं दिया। वह अन्य धर्मावलंबियों से यही कहते थे कि आप अपनी धार्मिक मान्यताओं का आदर और अभ्यास करते हुए क्रियायोग द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। लाहिड़ी महाशय अपने शिष्यों को अपने-अपने वातावरण एवं पालन-पोषण के अनुसार अपना जीवन जीने की स्वतन्त्रता देते थे। वे कहते थे: ‘‘मुसलमान को रोज पाँच बार नमाज पढ़ना चाहिये। हिन्दू को दिन में कई बार ध्यान में बैठना चाहिये। इसाई को रोज कई बार घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना करके फिर बाइबिल का पाठ करना चाहिये।’’लाहिड़ी महाशय अत्यंत विचारपूर्वक अपने अनुयायियों को उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग या राजयोग के मार्ग पर चलाते थे। संन्यास लेने की इच्छा रखने वाले शिष्यों को वे आसानी से उसकी अनुमति नहीं देते थे; हमेशा उन्हें संन्यास-जीवन की उग्र तपश्चर्या पर पहले भलीभाँति विचार कर लेने का परामर्श देते थे। पात्रानुसार भक्ति, ज्ञान, कर्म और राजयोग के आधार पर व्यक्तित्व और प्रवृत्तियों के अनुसार साधना करने की प्रेरणा देते। इस प्रकार लाहिड़ी महाशय ने सन १८८० तक सरकार की सेवा में रहने के बाद अवकाश ग्रहण किया था।
अवकाश लेने के बाद लाहिड़ी महाशय की कठिनाईयां बढ़ गयी। पेंशन के रुपयों से गृहस्थी न चलती देखकर वे काशी के राजा महाराज ईश्वरीयनारायण सिंह के सुपुत्र प्रभुनारायण सिंह को शास्त्रादी पढ़ाने के लिए कुछ दिनों तक तीस रुपये मासिक वेतन पर गृह शिक्षक का कार्य करते रहे। आगे चलकर ईश्वरीयनारायण सिंह लाहिड़ी महाशय से इतने प्रभावित हुए की उन्होंने और उनके पुत्र ने भी श्यामाचरण लाहिड़ी को गुरु रूप में स्वीकार किया। विशुद्ध ब्राह्मण होते हुए भी लाहिड़ी महाशय जात पात के अहम् को नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि में - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है , इसलिए सभी सम थे।
इलाहाबाद में होने वाले कुम्भ के मेले में गए थे। वहाँ एक घटना को देखकर वे समदर्शी हो गए थे. कहा जाता है की लाहिड़ी महाशय मेले में घूम रहे थे. अचानक उनकी दृष्टि एक ऐसे जटाजूट धारी महात्मा पर पड़ी जिनके सामने वीर आसन में बैठकर उनके गुरुदेव श्रद्धा पूर्वक पैर धो रहे थे। यह दृश्य देखकर लाहिड़ी महाशय ने पूछा- " गुरुदेव, आप..और इनकी सेवा में.?" लाहिड़ी महाशय की ओर बिना देखे बाबाजी महाराज बोले- " इस समय में इन महात्मा के चरण धो रहा हूँ। इसके बाद इनके बर्तनों को साफ़ करूँगा। "लाहिड़ी महाशय को समझते देर नहीं लगी कि इस उदाहरण को प्रस्तुत करते हुए गुरुदेव मुझे शिक्षा दे रहे हैं। भविष्य में उंच नीच का भेद न करूँ। प्रत्येक मानव में ईश्वर का निवास होता है, इसे मान कर चलूँ। गुरुदेव ने उस दिन कहा था- " मैं ज्ञानी- अज्ञानी- साधुओं की सेवा कर नम्रता सीख रहा हूँ!" इस घटना के बाद से ही लाहिड़ी महाशय के स्वभाव में परिवर्तन हो गया. भेद भाव पूर्ण रूप से समाप्त हो गया। क्योंकि अद्वैत-बोध संपन्न ब्रह्मविद महापुरुष लोग कभी भेदभाव नहीं करते। सामान्य जन भेदभाव के आधार पर जीवन यापन करता है। इससे हमें कुछ सीखना चाहिए। मन के भेद को मिटाने की साधना ही सबसे बड़ी साधना है। ( अर्थात व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित करने की साधना ही सबसे बड़ी साधना है !)
लाहिड़ी महाशय के उपदेश - ‘‘यह याद रखो कि तुम किसी के नहीं हो और कोई तुम्हारा नहीं है। इस पर विचार करो कि किसी दिन तुम्हें इस संसार का सब कुछ छोड़कर चल देना होगा, इसलिये अभी से ही भगवान को जान लो,’’ महान गुरु अपने शिष्यों से कहते।
"You are walking on the earth as in a dream. Our world is a dream within a dream; you must realize that to find God is the only goal, the only purpose, for which you are here. For Him alone you exist. Him you must find."
‘‘ आत्मानुभूति के गुब्बारे में प्रतिदिन उड़कर मृत्यु की भावी सूक्ष्म यात्रा के लिये अपने को तैयार करो। माया के प्रभाव में तुम अपने को हाड़-मांस की गठरी मान रहे हो, जो दु:खों का घर मात्र है।’’
"अनवरत प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करो ताकि तुम जल्दी से जल्दी अपने को सर्व-दु:ख-क्लेशमुक्त अनन्त परमतत्त्व के रूप में पहचान सको। क्रियायोग की गुप्त कुंजी के उपयोग द्वारा देह-कारागार से मुक्त होकर परमतत्त्व में भाग निकलना सीखो।’’
उनके मत से शास्त्रों पर शंका अथवा वाद -विवाद में न फंस कर, उनका सार -तथ्य आत्मसात् करना चाहिए। अपनी समस्याओं के हल करने का आत्मचिंतन, आत्मनिरीक्षण (introspection) या अन्तरावलोकन से बढ़कर अन्य कोई मार्ग नहीं। आत्मनिरीक्षण में ही अपनी सब समस्याओं का समाधान ढूँढ़ो। शास्त्रों के किताबी ज्ञान से उत्पन्न मतांध धारणाओं के कचरे को अपने मन से निकाल फेंको और उसके स्थान पर प्रत्यक्ष अनुभूति के आरोग्यप्रद मीठे जल को अंदर आने दो। परम सत्य या ईश्वर के विषय में व्यर्थ अनुमान लगाते रहने के बदले ईश्वर (के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) से प्रत्यक्ष सम्पर्क करो। अन्तरात्मा के सक्रिय मार्गदर्शन से मन की तार को जोड़ लो; उसके माध्यम से बोलने वाली ईश्वर -वाणी के पास जीवन की प्रत्येक समस्या का उत्तर है। लाहिड़ी महाशय के प्रवचनों का पूर्ण संग्रह प्राप्य नहीं है किन्तु गीता, उपनिषद्, संहिता इत्यादि की अनेक व्याख्याएँ बँगला में उपलब्ध हैं। भगवद्गीताभाष्य का हिंदी अनुवाद लाहिड़ी महाशय के शिष्य श्री भूपेद्रनाथ सान्याल ने प्रस्तुत किया है। श्री लाहिड़ी की अधिकांश रचनाएँ बँगला में हैं।
किसी (लाहिड़ी महाशय या नवनीदा जैसे) सिद्ध योगी की पहचान यही है कि उनके अनुयायी या शिष्य किस स्तर के हैं। भारत वर्ष की शक्ति वेदान्त या योग शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में सदा से 'चपरास ' परम्परा की एक विशेषता है। शक्ति का प्रवाह है। गुरु शिष्य की परम्परा है। लाहिड़ी महाशय के भी अनगिनत शिष्य हुए जो कि योगैश्वर्य से युक्त (ब्रह्मविद योगी) थे। अस्तु लाहिड़ी महाशय के जीवन के विषय में और जानने के लिए आगे बढ़ते हैं। लाहिड़ी महाशय स्वामी युक्तेश्वर गिरी के गुरु थे, और इसलिए वे परमहंस योगानंद जी के परमगुरु हुए । योगानंद परमहंस ने 'योगी की आत्मकथा' नामक जीवनवृत्त में गुरु को बाबा जी कहा है। परमहंस योगानंद की आत्मकथा- योगी कथामृत (Autobiography of a Yogi), परमहंस योगानन्द (5 जनवरी, 1893 - 7 मार्च, 1952) द्वारा रचित आत्मकथा है। इस पुस्तक में "आत्म-साक्षात्कार " (self-realization) प्राप्त करने और पूर्व के आध्यात्मिक विचारों को प्राप्त करने के उस पद्धति क परिचय दिया गया है, जो 1946 तक केवल कुछ लोगों के लिए उपलब्ध था। इस पद्धति में प्राणायाम के कई स्तर होते है जो ऐसी तकनीकों पर आधारित होते हैं जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को तेज़ करना और प्रशान्ति और ईश्वर के साथ जुड़ाव की एक परम स्थिति को उत्पन्न करना होता है। इस प्रकार क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है। लेखक का दावा है कि पुस्तक के लेखन को उन्नीसवीं सदी के गुरु, लाहिड़ी महाशय, द्वारा बहुत पहले भविष्यवाणी किया गया था।
कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद ने शिकागो सर्वधर्म सभा में पहली बार भारतीय धर्म का परिचय दिया, जिसका लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। जब भी स्वामी विवेकानंद की बात होती है तो शिकागो की धर्मसंसद में 1893 में उनके दिए गए भाषण का उल्लेख जरूर होता है। यह सही है कि स्वामी विवेकानंद ने हिंदू या भारतीय धर्म के बारे में छाए अज्ञान को दूर किया लेकिन स्वामी योगानंद ने 1920 से शुरू कर धर्म के व्यावहारिक प्रयोग के साथ योग को कक्षा और पाठ्यक्रम की तरह भी लोगों तक पहुंचाया।इस योग विज्ञान को सुदूरवर्ती क्षेत्रों तक पत्राचार पाठ्यक्रमों के जरिए पहुंचाया और लोगों को शिक्षित करने के साथ ही उसका अभ्यास भी कराया। स्वामी जी ने कई तरह से व्यक्त किया कि योग का अर्थ ईश्वर से मिलना या जुड़ना है। उनकी शिक्षाएं मूलत: सिखाती हैं कि किस प्रकार हर कोई व्यक्ति इसे पा सकता है। उन्होंने आधुनिक युग के लोगों के सामने योग का वैज्ञानिक स्वरूप व्यक्त किया। क्रिया योग विज्ञान के रूप में ध्यान की एक ऐसी प्रविधि को रखा, जिसका जिक्र श्रीकृष्ण ने गीता में किया है। आधुनिक युग में योगानंद ने उसी का प्रचार किया और लोगों को सिखाया। अपनी आत्मकथा'योगी कथामृत ' में शरीर, मन व आत्मा के सुसंगत विकास के लिए उन्होंने क्रिया योग प्रविधि की मुख्य विशेषताओं का वर्णन किया है। मनमोहक शैली में लिखी गई इस पुस्तक में ऐसे वैश्विक सत्य हैं,जो हर युग, हर राष्ट्र,हर पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति के लिए उपयुक्त हैं। परमहंस योगानंद द्वारा बताई गई ध्यान की इन प्रविधियों का पूरी श्रद्धा और नियम से अभ्यास कर साधक उस आत्म साक्षात्कार के योग्य हो जाता है, जिसकी चर्चा संसार के सभी मुख्य धर्मों में की गई है। योगानंद जी ने शरीर , मन और आत्मा के संतुलित विकास पर बल दिया है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कुछ शारीरिक व्यायाम केवल योग नहीं हैं, अपितु इसका अंतिम लक्ष्य है - ईश्वर के साथ मिलना।
स्वामी परमहंस योगानंद के बचपन का नाम मुकुंद लाल घोष था। परमहंस योगानंद जी, (1983-1952), पहले भारतीय योग गुरु थे जिन्होंने पश्चिमी देशों में अपना स्थायी निवास बनाया। योगानंद जी का नाम मुकुन्दा लाल घोष था, और वे एक धनी बंगाली परिवार में भारत के गोरखपुर शहर में जन्मे थे। बचपन से उनका स्वभाव आध्यात्मिकता की ओर था। उनका मनपसंद मनोरंजन था संतो को मिलना, और उनकी आध्यात्मिक तलाश उनको उनके गुरु, सेरामपुर के स्वामी श्री युक्तेश्वर जी, तक ले गयी। अपने गुरु के अंतर्गत प्रशिक्षण बदौलत वे केवल 6 महीनों में समाधी, मतलब ईश्वर के साथ अप्रतिबंधित एकता, को प्राप्त कर लिया। युक्तेश्वर जी ने मुकुन्दा को 1914, में संन्यास में दीक्षा दी, उस दिन के बाद मुकुन्दा स्वामी योगानंद बन गए। योगानंद जी के बाहरी विशेष कार्य की शुरुआत 1916 में रांची में ब्रह्मचार्य विद्यालय की स्थापना से हुई। विद्यालय के लिए आर्थिक व्यवस्था कासिम बाज़ार के महाराजा ने की और यह विद्यालय योगानंद जी के हर तरह से संपूर्ण शिक्षण के आदर्शों को पालन करता है: भारत के युवा का शारीरिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण। युवकों की शिक्षा में परमहंस जी की गहन अभिरूचि थी। सन् 1918 में कासिम बाजार के महाराज के महाराज श्री मणीन्द्र चन्द्र नंदी ने राँची में अपने महल व पच्चीस एकड़ भूमि आश्रम एवं विद्यालय के रूप मे दी, जिसे योगदा सत्संग ब्रह्मचर्य विद्यालय कहा जाता था। तत्पश्चात् यह योगदा सत्संग शाखा मठ बना जो पत्राचार कार्यालय और योगदा सत्संग पाठशाला एवं योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इण्डिया (वाइ. एस. एस.) को एक असांप्रदायिक और धर्मार्थ संस्था के रूप में पंजीकृत करवाया। वाइ. एस. एस. का पंजीकृत मुख्य कार्यालय योगदा सत्संग मठ है, जो कि दक्षिणेश्वर, कोलकाता में गंगा के किनारे स्थित है। परमहंस योगी विश्वविश्रुत योगधारा के उन्नायक थे. बीसवीं सदी के प्रारंभ में, बंगाल में स्वामी योगानन्द का प्रादुर्भाव हुआ था. बालपन से ही उनका अध्यात्म और संन्यास की ओर आकर्षण था. एक से दूसरे गुरू तक होते हुए उनकी जीवन यात्रा अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित रियलाइजेशन, फैलोशिप सेंटर में समाप्त हुई. “योगी कथामृत” नामक उनकी पुस्तक अध्यात्म व विज्ञान की गुत्थियों को खोलती एक कुंजी है. गांधीजी ने स्वयं उनसे ‘क्रिया योग’ की सम्पूर्ण विधि सीखी थी.
योगदा सत्संग सोसाइटी (Y. S. S.) : शरीर, मन और आत्मा की संस्कारशाला: क्रिया योग का जिक्र श्रीकृष्ण ने गीता में किया है। द्वापर के बाद राज योग की इस प्रविधि का प्रायरू लोप हो गया था, जिसे श्रीकृष्ण स्वरूप महावतार बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय (श्यामा चरण लाहिड़ी) को प्रदान किया था। लाहिड़ी महाशय ने यह दिव्य ज्ञान स्वामी युक्तेश्वर गिरि को प्रदान किया था। उन्होंने इससे योगानंद जी को दीक्षित किया और परमहंस की उपाधि प्रदान की। उनके लेखन कौशल का ही यह कमाल है कि उनके जीवन काल में ही 1945 में प्रकाशित उनकी जीवनी ऑटो बायोग्राफी ऑफ़ अ योगी (हिंदी में योगी कथामृत) दुनिया भर में प्रशंसित हुई। इस पुस्तक में बताए ज्ञान को समझ पाने तथा उसे जीवन में उतार पाने से आपका पूरा दृष्टिकोण और जीवन परिवर्तित हो जाएगा। ईश्वर में विश्वास रखिए और नेक काम करते हुए आगे बढ़ते रहिए। परमहंस जी के निर्देशों के अनुरूप योगदा सत्संग सोसाइटी और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप क्रिया योग से विश्व को अवगत करा रही है। इससे न केवल मनुष्य का शरीर और उसका मन तथा आत्मा तृप्त होता है, वरन इसमें मानवता का कल्याण भी अंतर्निहित है। इसी प्रकार योगदा सत्संग सोसाइटी के सम्मान में 7 मार्च 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अन्य डाक टिकट जारी करते हुए कहा था, जब हम मंदिर जाते हैं तो हमें थोड़ा सा प्रसाद मिलता है। उसे हम घर जाकर जितने भी लोगों में संभव हो थोड़ा-थोड़ा बांटते हैं।वह प्रसाद हमारा नहीं होता, न ही हमने उसे बनाया होता है, लेकिन वह पवित्र होता है और जब हम उसे बांटते हैं तो हमें संतोष मिलता है। परमहंस योगानंद जी ने जो किया है, जब हम उसे प्रसाद रूप में बांटते चले जाते हैं, तब हम अपने भीतर एक आध्यात्मिक सुख की अनुभूति प्राप्त करते हैं।
संस्था से जुड़े सदस्यों के लिए विभिन्न आश्रमों में निश्चित समय पर रिट्रीट का आयोजन किया जाता है। रांची आश्रम में हर साल नवंबर-दिसंबर में छह दिनों के शरद संगम का आयोजन होता है।इसमें विश्व भर से औसतन तीन हजार श्रद्धालु भाग लेते हैं। इस दौरान उनको परमहंस योगानंद द्वारा बताए गए शक्ति संचार व्यायाम, प्राणायाम और क्रिया योग की प्रविधियों से अवगत कराया जाता है और गीता के संदेशों पर आधारित प्रवचन भी होता है।
इस संस्था में प्रवेश पाने से लेकर स्वामी बनने तक की लंबी प्रक्रिया है। इस दौरान गहन साधना और भारतीय अध्यात्म, खासकर गीता और योग-ध्यान का पूर्ण प्रशिक्षण दिया जाता है। रांची के हृदय स्थल चुटिया में 28 एकड़ में स्थापित इस संस्था को इतना भव्य, पर्यावरण मित्र और आध्यात्मिक रूप दिया गया है कि इसमें प्रवेश के साथ ही मन संतुलित और प्रसन्न हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह कि 1917 से 1920 तक परमहंस योगानंद ने लीची के जिस वृक्ष के नीचे शिष्यों को आध्यात्मिक ज्ञान दिया था, वह वृक्ष आज भी वैसा ही तरोताजा, सघन और फलदार बना हुआ है।
परमहंस योगी के अनमोल विचार :
1. ईश्वर क्या है? लगातार मिलने वाला, हमेशा नया दिखने वाला आनन्द.
2. ईश्वर को देखने और समझने के लिए खुद से ही कोशिश करनी होगी, यही एकमात्र जरिया है. किसी धार्मिक विश्वास या नियति जैसे जुमलों के भुलावे में आकर ईश्वर को खुद से समझने का प्रयास न करना गलत होगा.
3. मनुष्य जब तक अपनी बुरी सोच से बरी नहीं हो जाता, तब तक वह किसी भी कड़े सच को नहीं समझ सकता है.
4. जिन्दगी मौत से ताकतवर है क्योंकि वह पापों को धोकर भी आगे बढती है.
5. केवल तुच्छ व्यक्ति ही दूसरों के दुखों के जीवन के प्रति संवेदनशीलता खो देता है क्योंकि वह अपने ही छोटे-छोटे दुखों में डूबा रहता है.
6. योग साधना विचारों की आपसी टकराहट से पैदा होने वाले शोर को पार कर शांति हासिल करने का एक तरीका है.
7. दिन के रात में और रात के दिन में बदलते समय भारत में जो खूबसूरत नजारे दिखते हैं उनकी किसी भी और देश से तुलना नहीं की जा सकती. उस समय आकाश ऐसे दिखता है, जैसे भगवान ने अपने कलर बाक्स से सारे रंग निकाल कर एक साथ से उछाल दिए हों.
8. चूँकि चरम ज्ञान अर्थात् वह जो मानवीय बुद्धि के अधिकतम उपयोग से जाना जा सकता है, मानव का अंतिम लक्ष्य है, तब क्यों न सीखा जाए कि मनुष्य सही ढंग से कैसे जिए.
9. लोग अपना संतुलन खो देते हैं एवं धनोपार्जन के पागलपन तथा व्यावसायिक उन्माद के कारण कष्ट भोगते हैं, क्योंकि उनको कभी भी एक संतुलित जीवन की आदत को विकसित करने का मौका ही नहीं मिला.
10. हमारे जीवन को हमारे आकस्मिक या प्रतिभाशाली विचार नहीं वरन हमारी दैनन्दिन आदतें नियंत्रित करती हैं.
11. बच्चों में आध्यात्मिक महत्वाकांक्षा के विचार डालने चाहिए ताकि वे केवल सेवा की भावना से ही धनोपार्जन करें.
12. मनुष्य उसी पाठ को दोहराता है, जिसकी शिक्षा उसे दो से दस या पन्द्रह वर्ष की आयु में मिली है.
13. मानव का लक्ष्य केवल धन कमाना ही न हो.
[ पीएम मोदी के कोविड -19 के 5 विचार पर आधारित बिजनेस और वर्क कल्चर - A. E. I. O. U :Adaptability, Efficiency, Inclusivity, Opportunity, Universalism . अनुकूलन क्षमता, दक्षता, विशिष्टता, अवसर, सार्वभौमिकता। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार 19 अप्रैल 2020 को अपने विचार साझा किए कि कोरोनोवायरस महामारी भविष्य में कार्य -संस्कृति और नौकरियों की प्रकृति को बदल देगी। कोरोना वायरस ने पेशेवर जीवन के रूप-रेखा को काफी बदल दिया है। लॉक डाउन इन दिनों में , घर हमारा नया कार्यालय है। इंटरनेट नया बैठक कक्ष है। मैं भी इन बदलावों को अपना रहा हूं। अब मंत्री सहयोगियों, अधिकारियों और विश्व नेताओं के साथ मेरी अधिकांश बैठकें, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से ही होती हैं। भारत, एक युवा राष्ट्र है जो अपने अभिनव उत्साह के लिए जाना जाता है, एक नई कार्य संस्कृति प्रदान करने का बीड़ा उठा सकता है। मैं इस नए व्यवसाय और कार्य संस्कृति को निम्न स्वरों (vowels consonants ) के अनुसार पुनर्परिभाषित करता हूं। मैं उन्हें कहता हूं- हर संकट अपने साथ एक अवसर लेकर आता है। COVID-19 अलग नहीं है। नए सामान्य के स्वर- क्योंकि अंग्रेजी भाषा में स्वर की तरह, ये COVID महामारी के बाद की दुनिया के किसी भी व्यवसाय मॉडल के आवश्यक घटक बन जाएंगे।
उनका जन्म 5 जनवरी 1893 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ। उन्होंने क्रिया योग को ईश्वर से साक्षात्कार की एक प्रभावी विधि बताते हुए इसके पालन से मानव जीवन को संवारने और ईश्वर की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी। yog शरीर, मन और आत्मा के संतुलित और संपूर्ण विकास की ओर हमें ले जाता है योग। इसका लक्ष्य केवल शारीरिक व्यायाम तक ही सीमित नहीं है, अपितु इसका अंतिम लक्ष्य है - ईश्वर के साथ मिलन।पश्चिमी देशों में पहली बार योग के संदेश को संगठित रूप में पहुंचाने में योगदा सत्संग सोसाइटी के संस्थापक परमहंस योगानंद का नाम निर्विवाद रूप से लिया जा सकता है। 1920 में वे 27 वर्ष की उम्र में पहली बार अमेरिका गए और तभी से योग विज्ञान के प्रचार - प्रसार में लग गए। कई तरह की उक्तियां जैसे- मैं इस संसार रूपी नाटक का एक हिस्सा हूं,परंतु इससे अलग भी हूं। अभी प्रत्येक पल को पूरी तरह से जियो और भविष्य अपने आप संवर जाएगा, परमहंस योगानंद जी की आध्यात्मिक शिक्षाओं का हिस्सा है। इस तरह की प्रभावशाली शिक्षाओं के जरिए उन्होंने लोगों को खुद में सुधार लाने के लिए प्रेरित किया। लाखों भक्त उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं। इन शिक्षाओं ने लोगों के मन और आत्मा पर अनोखी और अमिट छाप छोड़ी है। उनके योगदान के कारण वे पश्चिम में योग के जनक भी कहे जाते हैं। वे ताउम्र सक्रिय रहे और योग की शिक्षा देते रहे।
परमहंस योगानन्द का जन्म मुकुन्दलाल घोष के रूप में ५ जनवरी १८९३, को गोरखपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ। योगानन्द के पिता भगवती चरण घोष बंगाल नागपुर रेलवे में उपाध्यक्ष के समकक्ष पद पर कार्यरत थे। योगानन्द अपने माता पिता की चौथी सन्तान थे। उनकी माता पिता महान क्रियायोगी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे।
In 1910 Yogananda's seeking after various saints mostly ended when, at the age of 17, he met his guru, Swami Yukteswar Giri. He describes his first meeting with Yukteswar as a rekindling of a relationship that had lasted for many lifetimes: We entered a oneness of silence; words seemed the rankest superfluities. Eloquence flowed in soundless chant from heart of master to disciple. With an antenna of irrefragable insight I sensed that my guru knew God, and would lead me to Him. The obscuration of this life disappeared in a fragile dawn of prenatal memories. Dramatic time! Past, present, and future are its cycling scenes. This was not the first sun to find me at these holy feet! Later on Yukteswar informed Yogananda that he had been sent to him by Mahavatar Babaji for a special purpose. After passing his Intermediate Examination in Arts from the Scottish Church College, Calcutta, in June 1915, he graduated with a degree similar to a current day Bachelor of Arts or B.A. (which at the time was referred to as an A.B.), from Serampore College, the college having two entities, one as a constituent college of the Senate of Serampore College (University) and the other as an affiliated college of the University of Calcutta. This allowed him to spend time at Yukteswar's ashram in Serampore. In 1915, he took formal vows into the monastic Swami order and became Swami Yogananda Giri. In 1917, Yogananda founded a school for boys in Dihika, West Bengal, that combined modern educational techniques with yoga training and spiritual ideals. To teach that the purpose of life is the evolution, through self-effort, of man’s limited mortal consciousness into God Consciousness; and to this end to establish Self-Realization Fellowship temples for God-communion throughout the world, and to encourage the establishment of individual temples of God in the homes and in the hearts of men. A year later, the school relocated to Ranchi. In 1917 in India Paramahansa Yogananda " began his life's work with the founding of a 'how-to-live' school for boys, where modern educational methods were combined with yoga training and instruction in spiritual ideals."
In 1920 "he was invited to serve as India's delegate to an International Congress of Religious Liberals convening in Boston. His address to the Congress, on 'The Science of Religion,' was enthusiastically received." For the next several years he lectured and taught across the United States. His discourses taught of the "unity of 'the original teachings of Jesus Christ and the original Yoga taught by Bhagavan Sri Krishna.' Yogananda wrote the Second Coming of Christ: The Resurrection of the Christ Within You and God Talks With Arjuna — The Bhagavad Gita to reveal what he claimed was the complete harmony and basic oneness of original Christianity as taught by Jesus Christ and original Yoga as taught by Bhagavan Krishna; and to present that these principles of truth are the common scientific foundation of all true religions."This school would later become the Yogoda Satsanga Society of India, the Indian branch of Yogananda's American organization, Self-Realization Fellowship. Yogoda Satsanga Society of India (YSS) is a non-profit religious organization founded by Paramahansa Yogananda in 1917, 100 years ago .Paramahansa Yogananda's dissemination of his teachings In countries outside the Indian subcontinent it is known as – the Self-Realization Fellowship (SRF)/Yogoda Satsanga Society of India (YSS).
The "science" of Kriya Yoga is the foundation of Yogananda's teachings. Kriya Yoga is "union (yoga) with the Infinite through a certain action or rite (kriya). The Sanskrit root of kriya is kri, to do, to act and react." Kriya Yoga was passed down through Yogananda's guru lineage – Mahavatar Babaji taught Kriya Yoga to Lahiri Mahasaya, who taught it to his disciple, Yukteswar Giri, Yogananda's Guru. Yogananda wrote in Autobiography of a Yogi that the "actual technique should be learned from an authorized Kriyaban (Kriya Yogi) of Self-Realization Fellowship (Yogoda Satsanga Society of India.)"
Yogananda wrote down his Aims and Ideals for Self-Realization Fellowship/
Yogoda Satsanga Society:
Yogananda taught his students the need for direct experience of truth, as opposed to blind belief. He said that "The true basis of religion is not belief, but intuitive experience. Intuition is the soul's power of knowing God. To know what religion is really all about, one must know God."
Echoing traditional Hindu teachings, he taught that the entire universe is God's cosmic motion picture, and that individuals are merely actors in the divine play who change roles through reincarnation. He taught that mankind's deep suffering is rooted in identifying too closely with one's current role, rather than with the movie's director, or God.
He taught Kriya Yoga and other meditation practices to help people achieve that understanding, which he called Self-realization: Self-realization is the knowing – in body, mind, and soul – that we are one with the omnipresence of God; that we do not have to pray that it come to us, that we are not merely near it at all times, but that God's omnipresence is our omnipresence; and that we are just as much a part of Him now as we ever will be. All we have to do is improve our knowing.
To demonstrate the superiority of mind over body, of soul over mind.
To point out the one divine highway to which all paths of true religious beliefs eventually lead: the highway of daily, scientific, devotional meditation on God.To disseminate among the nations a knowledge of definite scientific techniques for attaining direct personal experience of God.
To overcome evil by good, sorrow by joy, cruelty by kindness, ignorance by wisdom.
To serve mankind as one’s larger Self.
To unite science and religion through realization of the unity of their underlying principles.
To liberate man from his threefold suffering: physical disease, mental inharmonies, and spiritual ignorance.
To encourage “plain living and high thinking”; and to spread a spirit of brotherhood among all peoples by teaching the eternal basis of their unity: kinship with God.
To teach that the purpose of life is the evolution, through self-effort, of man’s limited mortal consciousness into God Consciousness; and to this end to establish Self-Realization Fellowship temples for God-communion throughout the world, and to encourage the establishment of individual temples of God in the homes and in the hearts of men.
To advocate cultural and spiritual understanding between East and West, and the exchange of their finest distinctive features.
To reveal the complete harmony and basic oneness of original Christianity as taught by Jesus Christ and original Yoga as taught by Bhagavan Krishna; and to show that these principles of truth are the common scientific foundation of all true religions.
To reveal the complete harmony and basic oneness of original Christianity as taught by Jesus Christ and original Yoga as taught by Bhagavan Krishna; and to show that these principles of truth are the common scientific foundation of all true religions. In 1920, Yogananda went to the United States aboard the ship City of Sparta, as India's delegate to an International Congress of Religious Liberals convening in Boston. That same year he founded the Self-Realization Fellowship (SRF) to disseminate worldwide his teachings on India's ancient practices and philosophy of Yoga and its tradition of meditation.He lived in the United States from 1920—1952, interrupted by an extended trip abroad in 1935–1936 which was mainly to visit his guru in India.In 1935, he returned to India to visit his guru Yukteswar Giri and to help establish his Yogoda Satsanga work in India. While in India, Yukteswar gave Yogananda the monastic title of Paramahansa. Paramahansa means "supreme swan" and is a title indicating the highest spiritual attainment. In 1936, while Yogananda was visiting Calcutta, Yukteswar attained mahasamadhi (final soul liberation) in the town of Puri. During this visit, as told in his autobiography, he met with Mahatma Gandhi, and initiated him into the liberating technique of Kriya Yoga as Gandhi expressed his interest to receive the Kriya Yoga of Lahiri Mahasaya; Anandamoyi Ma; renowned physicist Chandrasekhara Venkata Raman; and several disciples of Yukteswar's guru Lahiri Mahasaya.The last four years of his life were spent primarily in seclusion with some of his inner circle of disciples at his desert ashram in Twentynine Palms .On 7 March 1952, he attended a dinner for the visiting Indian Ambassador to the US, Binay Ranjan Sen, and his wife at the Biltmore Hotel in Los Angeles. At the conclusion of the banquet, Yogananda spoke of India and America, their contributions to world peace and human progress, and their future cooperation . expressing his hope for a "United World" that would combine the best qualities of "efficient America" and "spiritual India." as Yogananda ended his speech, he read from his poem My India, concluding with the words "Where Ganges, woods, Himalayan caves, and men dream God—I am hallowed; my body touched that sod(मातृभूमि)."
As he uttered these words, he lifted his eyes to the Kutastha center (the Ajna Chakra), and his body slumped to the floor." Followers say that he entered mahasamadhi. The official cause of death was heart failure.
द्वाराहाट के निकट वर्तमान में योगदा सोसाइटी द्वारा स्थापित आश्रम भी हैं, जिसमे प्रतिवर्ष अनेकों श्रदालु और अनुयायी इस पुण्यभूमि के दर्शन के आकर धन्य होते हैं। अच्छा, ये बात हमें अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि किसी भक्त में और शिष्य में अंतर होता है। भक्त उसे कहते हैं जो साफ़ मन से साधू (नवनीदा) के निकट बना रहे, और शिष्य वो जो अपने गुरु के मार्ग पर चलने आये।और अपने (साधू-नेता ) को गुरुरूप में ग्रहण करके परमात्म सिद्धि की तरफ चले। शिष्य बनाना कोई आसान नहीं, गुरु मिलना और भी कठिन है। जीवन का कठिन व्रत है। लाहिड़ी महाशय अपने गुरु महावतार बाबाजी द्वारा 'क्रिया योग' की शिक्षा का विश्वभर में प्रचार करने लिए चुने गए थे । एक पूर्ण रूप से सिद्ध आत्मा, लाहिड़ी महाशय फिर भी शादी शुदा थे, और उनके ऊपर और कई जिम्मेवारियाँ थीं। उनका सद्भावपूर्ण जीवन आशा और प्रेरणा का आकाशदीप बना, सांसारिक जिम्मेवारियों वाले लोगों को यह दर्शाने के लिए कि कैसे वे भी आत्मबोध के पथ पर चल सकें। लाहिड़ी महाशय और महावतार बाबा के महान जीवन के बारे में बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा हो तो उनसे जुडी पुस्तके पढ़ सकते हैं।
अल्मोड़ा : कुमाऊँनी संस्कृति की असली छाप अल्मोड़ा में ही मिलती है - अत: कुमाऊँ के सभी नगरों में अल्मोड़ा ही सभी दृष्टियों से बड़ा है। उत्तराखंड में लोकप्रिय पहाड़ी स्टेशनों में से एक अल्मोड़ा। जो दर्शनीय सुंदरता और आकर्षक मौसम एवं आदर्श पर्यटन स्थल के नाम से जाने जाते हैं। यह शहर हिमालय के दक्षिणी भाग के कुमाऊं पहाडिय़ों के बीच 5,417 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिरों का शहर है अल्मोड़ा। चंद राजाओं के शासनकाल के दौरान ‘राजापुर’ के नाम से जाना जाता था। यह शहर पाइन और देवदार पेड़ के घने जंगलों से घिरा हुआ है। नैनीताल और रानीखेत जैसे पड़ोसी हिल स्टेशनों के विपरीत, जिसे ब्रिटिश द्वारा विकसित किया गया था। अल्मोड़ा कुमाऊंनी लोगों द्वारा विकसित किया गया था। शहर को मंदिरों के शहर के रूप में भी जाना जाता है यहां सबसे अच्छी जगहों की एक सूची है जिसे आप अल्मोड़ा में देख सकते हैं। अल्मोड़ा के चितई नामक स्थान पर 'गोलू देवता का मंदिर' है, जिन्हें कुमायूं के एक इतिहास देवता के रूप में पूजा जाता है। गोलू देवता चम्पावत के चंद राजा के पुत्र थे, जिन्हें न्याय का प्रतीक माना जाता है। धार्मिक मान्यता है, कि यहां अर्जी लगाने से तुरंत न्याय मिलता है। यहां भक्त अपनी परेशानी को कागज पर लिखकर गोलू देवता के मंदिर में रख देत हैं। मनोकामना पूरी होने पर भक्त भेंट स्वरूप मंदिर में घंटी या अन्य वस्तु लगाते हैं। उत्तराखंड में ही गोलू देवता के और भी कई मंदिर स्थित हैं।गोलू देवता: उत्तराखंड के न्याय के देवता हैं। यहां गोलू देवता सुनते हैं फरियाद, मुराद होती है पूरी। न्याय के देवता के मंदिर में लोग आकर 10 रुपए से लेकर 100 रुपए तक के गैर-न्यायिक स्टांप पेपर पर लिखित में अपनी-अपनी-अपील करते हैं और जब उनकी अपील पर सुनवाई हो जाती है तो वे फीस के तौर पर यहां आकर घंटियां तथा घंटे बांधते हैं। गोलू देवता के प्रति लोगों की आस्था मंदिर में बंधीं ये घंटियां ही बयां करती हैं। कई टनों में मंदिर के हर कोने-कोने में दिखने वाले इन घंटे-घंटियों की संख्या कितनी है, ये आज तक मन्दिर के लोग भी नहीं जान पाए। आम लोगों में इसे घंटियों वाला मन्दिर भी पुकारा जाता है, जहां कदम रखते ही घंटियों की कतार शुरू हो जाती हैं।
अल्मोड़ा का इतिहास : 8वी सदी से लेकर 16वी सदी तक यहाँ चन्द (चंदेल) या चन्द्रवंशीय राजाओ का शासन था। 1790 में अल्मोड़ा (Almora) गोरखों के अधिकार क्षेत्र में रहा जिन्होंने लगभग 25 सालो तक राज किया | 1815 में यह अंग्रेजो के अधिकार में आ गया | नगर के पूर्वी भाग में गोरखों द्वारा बनाया गया किला और चन्द्र राजाओं द्वारा बनवाये गये किले , महल एवं मन्दिर उस समय के वास्तुशिल्प की झलक आज भी दर्शाते है | यह नगर आज भी अपने प्राचीन स्वरूप को संजोये हुए है। अल्मोड़ा (Almora) का स्थानीय बाजार और गलियाँ , गोलाई लिए हुए लकड़ी की खिडकियों वाली इमारते पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती है। यहाँ के कारीगर ताम्बे की चीजे बनाने में आज भी अपने पारम्परिक तरीको का इस्तेमाल करते है। यहाँ के स्थानीय लोगो द्वारा बुने गये जम्पर और पारम्परिक नरम उनी शाले बहुत प्रसिद्ध है। अल्मोड़ा की खुबसुरत वादिया यहाँ के त्योहारों पर होने वाले लोकनृत्यों एवं गीतों की धुनों में सदैव गुंजायमान होती रहती है जिसे देखकर ऐसा लगता है मानो सपनों की दुनिया में प्रवेश कर गये हो |
अल्मोड़ा (Almora) के दर्शनीय स्थल :
1. राजकीय संग्रहालय – बस स्टैंड के नजदीक स्थित इस संग्रहालय में अल्मोड़ा की पुरानी संस्कृति तथा कत्युरी और चन्द्र राजाओं के समय की दुर्लभ सामग्री प्रदर्शित की गयी है |
2.डियर पार्क: अल्मोड़ा से लगभग 3 किमी दूर स्थित पर स्थित डियर (Deer) पार्क घुमने फिरने के लिए अच्छी जगह है शाम का समय यहाँ बड़ा ही सुहावना लगता है जिसका आनन्द लेने के लिए पयर्टको की भीड़ लगी रहती है। प्रकृति और वन्यजीव प्रेमियों के लिए एक आदर्श विकल्प माना जाता है। इस पार्क में आप हरी-भरी हिमालय वनस्पतियों के अलावा हिरण, तेंदुआ औऱ काला भालू जैसे जानवरों को देख सकते हैं। दिल्ली से अल्मोड़ा भ्रमण के दौरान आप इस खास पहाड़ी डियर पार्क की सैर का आनंद उठा सकते हैं।
3. ब्राईटेन एंड कार्नर – बस स्टैंड से 2 किमी की दूरी पर स्थित इस स्थान से हिमालय की चोटियों के बीच सूर्योदय एवं सूर्यास्त का बेहद खुबसुरत नजारा दिखाई देता है |
4. कालीमठ – अल्मोड़ा से 5 किमी दूर स्थित कसार देवी मंदिर एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए कालीमठ शहर से पैदल यात्र करनी पड़ती है। यहां से करीब आठ किमी. खड़ी चढ़ाई के बाद कालीशिला के दर्शन होते हैं। विश्वास है कि मां दुर्गा शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज का संहार करने के लिए कालीशिला में 12 वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हुई थीं। मान्यता है कि इस स्थान पर शुंभ-निशुंभ दैत्यों से परेशान देवी-देवताओं ने मां भगवती की तपस्या की थी। तब मां प्रकट हुई। असुरों के आतंक के बारे में सुनकर मां का शरीर क्रोध से काला पड़ गया और उन्होंने विकराल रूप धारण कर लिया। कालीमठ मंदिर के समीप मां ने दोनों दैत्यों रक्त-बीज का वध किया था। उसका रक्त जमीन पर न पड़े, इसलिए महाकाली ने मुंह फैलाकर उसके रक्त को चाटना शुरू किया। मां को इन्हीं ६४ यंत्रों से शक्ति मिली थी। रक्तबीज शिला नदी किनारे आज भी स्थित है। इस शिला पर माता ने उसका सिर रखा था। मान्यता है कि जब महाकाली शांत नहीं हुईं, तो भगवान शिव मां के चरणों के नीचे लेट गए। जैसे ही महाकाली ने शिव के सीने में पैर रखा वह शांत होकर इसी कुंड में अंतर्ध्यान हो गईं। माना जाता है कि महाकाली इसी कुंड में समाई हुई हैं। कालीमठ में शिव-शक्ति स्थापित हैं। इसे भारत के सिद्ध पीठों में से एक माना जाता है। स्कंद पुराण के अंतर्गत केदारखंड के बासठवें अध्याय में मां के इस मंदिर का वर्णन है। मां काली का असीमित 'शक्तिपुंज' काली शिला और कालीमठ मंदिर रुद्रप्रयाग में स्थित है। इस मंदिर की स्थापना शंकराचार्य ने की थी। आज भी यहां पर रक्तशिला, मातंगशिला व चंद्रशिला स्थित है। नवरात्रि के शुभ अवसर पर इस मंदिर में देश के विभिन्न भागों से हजारों की संख्या में भक्तगण आते हैं। अल्मोड़ा से 5 किमी दूर स्थित कालीमठ एक खूबसूरत प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर पिकनिक स्थल है। यहाँ से पयर्टक अल्मोड़ा नगर की खूबसूरती और बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियों को देखने का आनन्द उठा सकते है।
5. मोहन जोशी पार्क – V आकार की कृत्रिम झील के चारो ओर मोहन जोशी पार्क बनाया गया है जो कि यहाँ के स्थानीय पर्यटकों का मनपसन्द पिकनिक स्थल है | इन सबके आलावा अल्मोड़ा को कुमाऊ सांस्कृतिक विविधता का केंद्र भी कहा जाता है | यहाँ हर मौसम में कही न कही लगने वाले मेलो में छटा बिखरी रहती है | मकर संक्रांति के अवसर पर बागेश्वर से उत्तरायाणी का विशाल मेला लगता है जिसमे शामिल होकर पर्यटक कुमाऊँ की सांस्कृतिक परम्परा से परिचित हो सकते है |
6 . बिनसर –बिन्सर वन्यजीव अभयारण्य: बिनसर अल्मोडा से करीब 33 किमी की दूरी पर बसा है। यह क्षेत्र कभी मध्यकालीन रघुवंशी (चन्द या चन्देल) राजपूतों की राजधानी हुआ करता था, जिन्होंने अंग्रेजों के आगमन तक कुमाऊं में शासन किया। 'बिनसर' एक गढ़वाली शब्द है, जिसका अर्थ होता है 'नव प्रभात'। देवदार के जंगलों से घिरा यह पूरा क्षेत्र अब एक वन्य अभयारण्य बन चुका है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा स्थित बिनसर, एक खूबसूरत पहाड़ी पर्यटन स्थल है, जिसके वन्य जीवन को देखते हुए, अब इसे एक जीव अभयारण्य में तब्दील कर दिया गया है। झांडी ढार नामक पहाड़ी पर स्थित यह पर्वतीय स्थल, अपने रोमांचक दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है। यहां से हिमालय की बर्फीली चोटियों को आसानी से देखा जा सकता है। यहां स्थित 'ज़ीरो पॉइन्ट' से हिमालय की चोटियां जैसे केदारनाथ, चौखंबा, नंदा देवी, पंचोली, त्रिशूल, आदि चोटियों को देखा जा सकता है। ये जगह चंद राजाओं की गर्मियों की राजधानी थी और 1988 में इसे वन आरक्षित के रूप में स्थापित किया गया था। बिन्सार वन्यजीव अभ्यारण्य की ऊंचाई 900 से 2500 मीटर के बीच होती है, इसके उच्चतम बिंदु ‘ज़ीरो पॉइंट’ के साथ होता है जो आसपास के चोटियों के कुछ महान विचार प्रदान करता है । वन को एक विशेष प्रकार के ओक के संरक्षण के लिए स्थापित किया गया था। देवदार के घने जंगलों से घिरा यहां एक महादेव का मंदिर भी है, जिसे 'बिनसर महादेव' के नाम से जाना जाता है। भगवान भोलेनाथ को समर्पित यह मंदिर हिंदुओं के पवित्र स्थानों में से एक है।7वी एवं 8वी सदी में बिनसर नामक यह खूबसूरत स्थल चन्द्र राजाओं की राजधानी हुआ करता था | यह स्थल अल्मोड़ा (Almora) से मात्र 32 किमी की दूरी पर स्थित है | अगर पर्यटक एकांत जगह पर प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ छुट्टिया गुजारना चाहते है तो उनके लिए घने जंगलो के बीच बसी अल्मोड़ा क्षेत्र की सबसे ऊँची चोटी सर्वाधिक उपयुक्त स्थान है | गजब के प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ साथ चाँदनी में नहाई बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियाँ देखकर पर्यटक मन्त्रमुग्ध हो जाते है |
7. कयरमल – 800 साल पुराना यह मन्दिर कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाद देश का दूसरा महत्वपूर्ण सूर्यमंदिर है | मन्दिर के मुड़े हुए स्तम्भ , दरवाजे और आकृतियाँ उस समय की शिल्पकला के अनुपम उदाहरण है |
8 . सीतला खेत – यह छुट्टिया बिताने के लिए आदर्श जगह है | यहाँ के आस-पास के जंगल में काफी मात्रा में फल-फूल और आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के पौधे है | सीतला खेत से 2 किमी नीचे खुंट गाँव है जो कि स्वतंत्रता सेनानी गोविन्द वल्लभ पन्त का पैतृक गाँव है |
उत्तराखंड: उत्तराखंड का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव जाती का। यहाँ कई शिलालेख, ताम्रपत्र व प्राचीन अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। जिससे गढ़वाल की प्राचीनता का पता चलता है। गंगा यहाँ भौतिक जगत में उतरती है। इससे पहले वह सुर-नदी देवभूमि में विचरण करती है। इस भूमी में हर रूप शिव भी वास करते हैं, तो हरि रूप में बद्रीनारायण भी। माँ गंगा का यह उदगम क्षेत्र उस देव संस्कृति का वास्तविक क्रिड़ा क्षेत्र रहा है जो पौराणिक आख्याओं के रूप में आज भी धर्म-परायण जनता के मानस में विश्वास एवं आस्था के रूप में जीवित हैं। मुख्य रूप से इस क्षेत्र में ब्राह्मण एवं क्षत्रीय जाति के लोगों का निवास अधिक है। उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून उत्तरभारत की खूबसूरत जगहों में से एक है।गुरु द्रोणाचार्य भी एक समय में यहाँ रहते थे। यहाँ पाये जाने वाले प्राचीन मंदिर और खंडहर लगभग 2000 साल पुराने हैं। उत्तराखण्ड के प्रथम राजा "महाराज शालिवाहन देव" थे, जिनका कार्यकाल ८५० ई० पू० माना जाता है, इनकी राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) थी और इनके राज्य का विस्तार किन्नर भूमि (हिमाचल) केदारखण्ड (गढ़वाल), मानसखण्ड (कुमाऊं) तथा नेपाल तक था। संभवतः रोहिलखण्ड (बरेली) में भी उनका अधिकार था| उत्तराखंड मे देवी देवताओ के निवास के अलावा यहाँ पर कई राजवंशों का भी शासन रहा है। आइये उत्तराखंड के अतीत के राजाओं के शासन एवं उनके इतिहास पर चर्चा करें।
आज के उत्तराखंड के संपूर्ण क्षेत्र में शासन करने का प्रथम श्रेय कत्यूर वंश को जाता है। कत्यूरी शासकों की राजधानी पहले जोशीमठ थी, परन्तु बाद में यह कार्तिकेयपुर हो गई। कुमाऊँ निवासी 'कत्यूर' को लोक देवता मानकर पूजा अर्चना करते हैं। यह तथ्य प्रमाणित करता है कि कत्यूर शासकों का प्रजा पर बहुत प्रभाव था क्योंकि उन्होंने जनता के हित में मन्दिर, नाले, तालाब व बाजार का निर्माण कराया। पाली पहाड़ के 'ईड़ा' के बारह खम्भा में इन राजाओं की यशोगाथा अंकित है। तत्कालीन शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों से पता चलता है कि कत्यूर राजा वैभवशाली तथा प्रजावत्सल थे। ११वीं शताब्दी के बाद इनकी शक्ति घटने लगी।कुमाऊँ में आज भी यह प्रचलित है कि कत्यूरी वंश के अवसान पर सूर्य छिप गया और रात्रि हो गई, किन्तु चन्द्रवंशी चन्द्रमा के उदय से अंधकार मिट गया। चन्द्रवंशी शासन की स्थापना पर नया प्रकाश फैल गया।‘ कत्यूर घाटी में अपनी राजधानी कार्तिकेयपुर अब बैजनाथ से नाम प्राप्त करने वाले कत्यूरियों ने इस क्षेत्र में 8वीं सदी के प्रारंभ में अपना प्रभूत्व कायम किया। 10वीं सदी के अंत होते होते इस साम्राज्य में वंश के झगड़े के कारण दरार पड़नी शुरु हो गयी। 13वीं सदी तक यह बिखराव पूर्ण हो गया यद्यपि कत्यूरी वंश के वंशज कहीं-कहीं शासन करते रहे और अंत में 16वीं सदी तक चंद राजाओं ने इसे समाप्त कर दिया। चंद वंश: 8वीं सदी में अपने राज्य के विजित होने के बाद झांसी से भागकर कुमाऊं में चंद राजवंश का आना माना जाता है। पुराने चंदेल वंश के एक राजकुमार सोमचंद को ज्योतिषियों ने उत्तर की ओर जाने को कहा तथा उसने काली कुमाऊं के शासक कत्यूर वंश की एक राजकुमारी से विवाह कर लिया। वहां उसने चंपावत में भाटी किलेबंदी के बीच अपने सिंहासन की स्थापना की। चंद राजवंश के पहले राजा, राजा सोमचंद थे, जिन्होंने कुमाऊं पर सन 700 - से 721 तक राज किया। अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में आपसी दुर्भावनाओं व राग-द्वेष के कारण चंद राजाओं की शक्ति बिखर गई थी। फलतः गोरखों ने अवसर का लाभ उठाकर हवालबाग के पास एक साधारण मुठभेड़ के बाद सन् 1790 ई. में अल्मोड़ा पर अपना अधिकार कर लिया। गाय, ब्राह्मण का इनके शासन में विशेष सम्मान था। दान व यज्ञ जैसे कर्मकांडों पर विश्वास के कारण इनके समय कर्मकांडों को भी बढ़ावा मिला। गोरखों के सैनिकों जैसे स्वभाव के कारण कहा जा सकता है कि इस काल में कुमाऊँ पर सैनिक शासन रहा। ये अपनी नृशंसता व अत्याचारी स्वभाव के लिए जाने जाते थे। जब अंग्रेजों ने इस राज्य पर आक्रमण किया, तो एक प्रकार से कुमाऊँ ने मुक्ति की ही साँस ली। 27 अप्रैल, 1815 ई. को अंग्रेजों के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर करके गोरखाओं ने कुमाऊँ की सत्ता अंग्रेजों को सौंप दी।
देहरादून के पूर्व में गंगा नदी बहती है, जबकि यमुना नदी पश्चिम को बहती है। देहरादून के बारे में कहा जाता है कि जो इस शहर में एक बार आया वो समझो यहीं का हो गया। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य बेहद लुभावना है जो किसी भी पर्यटक को अपनी और खींच सकता है।
नैनीताल के पर्यटन स्थल :
हनुमानगढ़ी : नैनीताल में हनुमानगढ़ी सैलानी, पर्यटकों और धार्मिक यात्रियों के लिए विशेष, आकर्षण का केन्द्र हैै। यहाँ से पहाड़ की कई चोटियों के और मैदानी क्षेत्रों के सुन्हर दृश्य दिखाई देते हैं। नैनीताल स्थित हनुमान गढ़ी भगवान हनुमानजी का मंदिर है। पहाड़ी के ऊपर स्थित इस मंदिर से सूर्यास्त देखने का अपना एक अलग ही मजा है।यहां काफी संख्या में पर्यटक सूर्यास्त देखने पहुंचते है। भीड़ में अपनी जगह बनाने के लिए यहां शाम 4 बजे तक पहुंच जाएँ। हनुमानगढ़ी के पास ही एक बड़ी वेधशाला (observatory) है। इस वेधशाला में नक्षत्रों का अध्ययन कियी जाता है। राष्ट्र की यह अत्यन्त उपयोगी संस्था है।
रानीबाग : काठगोदाम से तीन किलोमीटर नैनीताल की ओर बढ़ने पर रानीबाग नामक अत्यन्त रमणीय स्थल है।'रानीबाग' से पहले इस स्थान का नाम चित्रशिला था। कहते हैं कत्यूरी राजा पृथवीपाल की पत्नी रानी जिया यहाँ चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थी। वह बहुत सुन्दर थी। रुहेला सरदार उसपर आसक्त था। जैसे ही रानी नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही रुहेलों की सेना ने घेरा डाल दिया। रानी जिया शिव भक्त और सती महिला थी। उसने अपने ईष्ट का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई। रुहेलों ने उन्हें बहुत ढूँढ़ा परन्तु वे कहीं नहीं मिली। वह रंगीन शिला जिया रानी के स्मृति चिन्ह माना जाता है। रानी जिया को यह स्थान बहुत प्यारा था। यहीं उसने अपना बाग लगाया था और यहीं उसने अपने जीवन की आखिरी सांस भी ली थी। वह सदा के लिए चली गई परन्तु उसने अपने गात पर रुहेलों का हाथ नहीं लगने दिया था। तब से उस रानी की याद में यह स्थान रानीबाग के नाम से विख्यात है। रानीबाग से दो किलोमीटर जाने पर एक दोराहा है। दायीं ओर मुड़ने वाली सड़क भीमताल को जाती है। जब तक मोटर - मार्ग नहीं बना था, रानीबाग से भीमताल होकर अल्मोड़ा के लिए यही पैदल रास्ता था। वायीं ओर का राश्ता ज्योलीकोट की ओर मुड़ जाता है। ये दोनों रास्ते भुवाली में जाकर मिल जाते हैं।
भीमताल: नैनीताल से भी यह बड़ा ताल है। भीमताल एक त्रिभुजाकर झील है। नैनीताल की तरह इसके भी दो कोने हैं जिन्हें तल्ली ताल और मल्ली ताल कहते हैं। यह भी दोनों कोनों सड़कों से जुड़ा हुआ है। नैनीताल से भीमताल की दूरी 22.5 कि. मी. है।भीमताल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सुन्दर घाटी में ओर खिले हुए अंचल में स्थित है। इस ताल के बीच में एक टापू है, नावों से टापू में पहुँचने का प्रबन्ध है। यह टापू पिकनिक स्थल के रुप में प्रयुक्त होता है।
सात ताल :सातताल घने वाँस वृक्षों की सघन छाया में समुद्रतल से १३७१ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस ताल की विशेषता यह है कि लगातार सात तालों का सिलसिला इससे जुड़ा हुआ है। इसीलिए इसे 'सातताल' कहते है। 'कुमाऊँ' अंचल के सभी तालों में 'सातताल' का जो अनोखा और नैसर्गिक सौन्दर्य है, वह किसी दूसरे ताल का नहीं है। सचमुच यह ताल सौन्दर्य की दृष्टि से सर्वोपरि है। यहाँ पर नौकुचिया देवी का मन्दिर है। अमेरिका के डा. स्टेनले को भी यह स्थान बहुत प्रिय लगा। वे यहाँ पर अपनी ओर से एक 'वन विहार'का संचालन कर वन के पशु पक्षियों का सर्वेक्षण करते हैं। उनका यहाँ एक आश्रम है, जहाँ बैठकर वे प्रकृति के विभिन्न अंगों का निरीक्षण, परीक्षण और संरक्षण करते हैं। इस ताल तक पहुँचने के लिए भीमताल से ही मुख्य मार्ग है। भीमताल से 'सातताल' की दूरी केवल ४ कि.मी. है। नैनीताल से सातताल २१ कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
नल -दमयन्ति ताल : सात तालों की गिनती में 'नल दमयन्ति' ताल भी आ जाता है। माहरा गाँव से सात ताल जाने वाले मोटर-मार्ग पर यह ताल स्थित है। इस ताल का आकार पंचकोणी है। इसमें कभी-कभी कटी हुई मछलियों के अंग दिखाई देते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अपने जीवन के कठोरतम दिनों में नल दमयन्ती इस ताल के समीप निवास करते थे। जिन मछलियों को उन्होंने काटकर कढ़ाई में डाला था, वे भी उड़ गयी थीं। कहते हैं, उस ताल में वही कटी हुई मछलियाँ दिखाई देती हैं। इस ताल में मछलियों का शिकार करना मना है।
काशीपुर : खुर्पीताल से कालढूँगी मार्ग होते हुए काशीपुर को एक सीधा मार्ग चला जाता है। काशीपुर नैनीताल जिले का एक प्रसिद्ध नगर है, और मुरादाबाद व लालकुआँ से रेल द्वारा जुड़ा है। नैनीताल से यहाँ निरन्तर बसें आती रहती हैं। कुमाऊँ के राजाओं का यह एक मुख्य केन्द्र था। चीनी यात्री हृवेनसांग ने भी इस स्थान का वर्णन किया था। उन्होंने इस स्थान का उल्लेख 'गोविशाण' नाम से किया था प्राचीन समय से ही काशीपुर का अपना भौगोलिक, सांस्कृतिक व धार्मिक महत्व रहा है। कालाढूँगी/हल्द्वानी से काशीपुर मोटर-मार्ग में काशीपुर शहर से लगभग ६ कि.मी. पहले देवी का एक काफी पुराना मन्दिर है यहाँ पर चैत्र मास में चैती मेला विशेष रुप से लगता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं तथा अपनी मनौतियाँ मनाते और माँगते हैं। देवी के दर्शन करने के लिए यहाँ काफी भीड़ उमड़ पड़ती है।
द्रोणा सागर : चैती मेला स्थल से काशीपुर की ओर २ किलोमीटर आगे नगर से लगभग जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण ताल द्रोण सागर है। पांडवों से इस ताल का सम्बन्ध बताया जाता है कि गुरु द्रोण ने यहीं रहकर अपने शिष्यों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी थी। ताल के किनारे एक पक्के टीले पर गुरु द्रोण की एक प्रतिमा है, ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टिकोण से यह विशिष्ट पर्यटन स्थल है।
1- जागेश्वर: ऊंचे पहाडों, देवदार के घने जंगलों और जटागंगा नदी के किनारे बसा है उत्तराखंड का जागेश्वर शिव धाम। अलमोड़ा से करीब 35 किलोमीटर दूर घने जंगल में मौजूद जागेश्वर पहुंचते ही असीम शांति का एहसास होता है। जागेश्वर की गणना भगवान शिव के बारह ज्योर्तिलिंगों में की जाती है। यहां 7वीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी के बीच करीब 125 मंदिर बनाए गए हैं ।मान्यता है भगवान शिव के लिंग रूप की पूजा जागेश्वर से ही शुरू हुई। जागेश्वर को ‘कुमाऊँ का काशी’ भी कहा जाता है। जागेश्वर प्राचीन कैलाश मानसरोवर मार्ग पर स्थित है। ये अल्मोड़ा से करीब 35 किलोमीटर दूर है।जागेश्वर धाम उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में स्थित जो अल्मोड़ा से सिर्फ 35 किलोमीटर और दिल्ली से 400 किलोमीटर दूर स्थित है। जागेश्वर कुमाऊँ अंचल के परम पवित्र तीर्थों में से एक माना जाता है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। कहा जाता है कि यहां निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों ने तपस्या की थी और यहीं से लिंग के रूप में भगवान शिव की पूजा शुरू हुई थी। खास बात यह है कि यहां भगवान शिव की पूजा बाल या तरुण रूप में भी की जाती है। सबसे विशाल तथा प्राचीनतम ‘महामृत्युंजय शिव मंदिर’ यहां का मुख्य मंदिर है इसके अलावा जागेश्वर धाम में भैरव, माता पार्वती,केदारनाथ, हनुमान, मृत्युंजय महादेव, माता दुर्गा के मंदिर भी विद्यमान है। हर वर्ष यहां सावन के महीने में श्रावणी मेला लगता है। देश ही विदेश से भी यहां भक्त आकर भगवान शंकर का रूद्राभिषेक करते हैं। यहां रूद्राभिषेक के अलावा, पार्थिव पूजा, कालसर्प योग की पूजा, महामृत्युंजय जाप जैसे पूजन किए जाते हैं।अल्मोड़ा सड़क मार्ग द्वारा इस क्षेत्र के प्रमुख केन्द्रों से जुड़ा है। विभिन्न केन्द्रों की दूरियाँ: दिल्ली ३७८ किमी, लखनऊ ४६० किमी, नैनीताल ६६ किमी (रानीखेत के रास्ते १०३ किमी), काठगोदाम ९० किमी है। सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन में काठगोदाम है, जो यहाँ से 90किमी दूर स्थित है, औए वहाँ से दिल्ली, लखनऊ और आगरा के लिए ट्रेनें उपलब्ध हैं। जागेश्वर महादेव मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर बाल जागेश्वर या बाल शिव को समर्पित है। महापुरुषों के अनुसार यह भी मान जाता है कि भगवान शिव यहां अपने निवास स्थान से नीचे आकर ध्यान करते थे। कुमायूँ के चाँद राजा जागेश्वर मंदिर के संरक्षक थे। जगरेश्वर मंदिरों की दीवारों और स्तंभों पर विभिन्न अवधियों के 25 शिलालेख देखने को मिलते हैं, शिलालेखों भाषा संस्कृत और ब्राह्मी है। जागेश्वर को अपने आकर्षक मंदिर परिसर के लिए जाना जाता है जो संस्कृति उत्साही और इतिहास प्रेमियों के लिए यह जगह स्वर्ग के सामान है। अल्मोड़ा जागेश्वर से केवल 35 किमी दूर है, जिसके चलते यहां आने वाले लोग आमतौर पर अल्मोड़ा में आवास बुक करते हैं और जागेश्वर की यात्रा को एक दिन में पूरा कर लेते हैं। जागेश्वर धाम में समशीतोष्ण जलवायु के कारण पूरे साल यहां पर्यटक जा सकते हैं। यहां गर्मियों का मौसम काफी शांत और सुखद रहता है जबकि सर्दियों के मौसम में बर्फबारी से ठंडक हो सकती है। अप्रैल से जून और सितंबर से नवंबर के बीच यहां जाने का सबसे अच्छा समय है। वसंत और शुरुआती मानसून के मौसम जागेश्वर की यात्रा करना आपके लिए एक खास अनुभव साबित हो सकता है। यहां आकर आपको इन प्राचीन मंदिरों और उनके राजवंशों के बारे में बहुत कुछ जानने को मिलता है जिन्होंने इनका निर्माण करवाया था।
जागेश्वर धाम पहुंचने के लिए दिल्ली से लगभग 10 घंटे और काठगोदाम से 4 घंटे लगते हैं। जो भी लोग सड़क मार्ग द्वारा जागेश्वर की यात्रा करना चाहते हैं वो आईएसबीटी आनंद विहार, दिल्ली से हल्द्वानी और अल्मोड़ा के लिए बस पकड़ सकते हैं। जागेश्वर का निकटतम रेलवे स्टेशन है काठगोदाम, जो 25 किलो-मीटर की दूरी पर स्थित है। काठगोदाम रेलवे स्टेशन भारत के प्रमुख शहरों जैसे लखनऊ, दिल्ली और कोलकाता से ट्रेन के माध्यम से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। काठगोदाम पहुंचने के बाद आप अल्मोड़ा और जागेश्वर के लिए बसें और टैक्सी की मदद से जा सकते हैं। जागेश्वर का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर है जो 150 किलोमीटर दूर स्थित है।
2- बिनसर: प्रकृति का अनुछुआ सौंदर्य देखना चाहते हैं तो बिनसर जरूर जाइए। उत्तराखंड के अल्मोड़ा के पास का बिनसर एक वन्य प्राणी विहार भी है। बांज और बुरांस के जगलों वाले बिनसर में तेंदुए पाए जाते है। जंगल भी इतना घना कि कुछ इलाकों में सूर्य की रोशनी भी शायद ही पहुंचती हो। बिनसर से हिमालय की नंदा देवी, त्रिशुल, पंचाचुली, नंदाकोट, मृगधूनी जैसी बर्फीली चोटियों का 300 किलोमीटर लंबा अद्भुत नजारा दिखाई देता है। आधुनिक सुविधाओं से दूर यहां कुछ दिन बिताने का अनुभव जिंदगी भर नहीं भुलाया जा सकता। बिनसर अल्मोड़ा से करीब 30 किलोमीटर है।
3- रामगढ़: गुरू रविन्द्रनाथ टैगोर ने यहां रहकर गीतांजली का कुछ हिस्सा लिखा था। हिन्दी कवियित्री महादेवी वर्मा ने भी यहां के शान्त और सुकून भरे माहौल में लेखन किया । उत्तराखंड के रामगढ़ कस्बे का यह इतिहास इसे खास बनाता है। इसके साथ यहां हिमालय की बेजोड़ खूबसूरती को जोड़ दे तो फिर इस जगह का कोई मुकाबला नहीं।
4- मुक्तेश्वर: उत्तराखंड की सबसे खूबसूरत जगहों में मुक्तेश्वर का नाम लिया जाता है। नैनीताल जिले का यह छोटा का कस्बा कुछ दिन शांति से बिताने वाले पर्यटकों के बीच खासा लोकप्रिय है। 2286 मीटर की ऊंचाई इसके मौसम को खास बनाती है। इस जगह का नाम यहां भगवान शिव के मंदिर के नाम पर पड़ा जिसे मुक्तेश्वर धाम कहा जाता है। 1893 में यहां इडियन वेटनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई जहां आज भी जानवरों से जुडें मामलों पर रिसर्च किया जाता है। मुक्तेश्वर रामगढ़ से 30 किलोमीटर है। 6- शीतलाखेत:जब बस जंगल के बीच रहने का मन करे , आप चाहें कि आस पास घूमते हिरण आपको दिखाई देते रहें, सुबह चिड़ियों के चहचहाने से आपकी नींद खुले और साथ में पहाडी मौसम का आनंद भी मिले तो बस शीतलाखेत चले आएं। रानीखेत के पास बसा यह छोटा सा गांव बस आराम करने के लिए ही है। कुछ करना चाहें तो करीब तीन किलोमीटर की चढाई करके पहाड़ की चोटी पर बने मंदिर तक जाएं और मंदिर की चोटी से उत्तराखंड के शानदार नजारों का मजा लें। ये रानीखेत से शीतलाखेत करीब 30 किलोमीटर है।
7-नैनीताल: एक बड़ी सी झील, उसमें तैरती रंग-बिरंगी नावें, पानी में दिखाई देता शहर का अक्स, किनारे बनी माल रोड, पुराने चर्च और इमारतें। अंग्रेजी दौर की खनक और आधुनिकता का अजब मेल है नैनीताल। अंग्रेजों ने आराम करने के लिए उत्तराखंड के इस हिल स्टेशन को बसाया था । खास बात यह है कि उस दौर की खूबसूरती को नैनीताल ने आज भी संजो कर रखा है। कहा जाता है मां सती की आंख ( नैन) यहां गिरी थी जिसके आधार पर इसका नाम नैनीताल पड़ा। झील के किनारे नैयना देवी का प्राचीन मंदिर भी है जो 64 शक्तिपीठों में से एक है।
8-चौकोरी :ऊंचे बर्फीले पहाडों और घनों जगलों से घिरा है उत्तराखंड का छोटा सा कस्बा चौकोरी। यहां से पंचाचूली और नंदा देवी की बर्फ से ढकी चोटियों का अद्भुत दृश्य नजर आता है। ऐसा लगता है कि हम बिल्कुल इन पहाडों के सामने खडे हैं। यह अनजाना कस्बा प्रकृति प्रेमी पर्यटकों के बीच धीर-धीरे लोकप्रिय हो रहा है। चौकोरी समुद्र तल से 2010 मीटर की ऊंचाई पर है। प्रकृति की अनछुई सुन्दरता को करीब से महसूस करने के लिए चौकोरी बढिया जगह है। यह कस्बा नैनीताल से 173 किलोमीटर की दूरी पर है।
9- मुनस्यारी: उत्तराखंड के चीन से लगते जिले पिथौरागढ का खूबसूरत कस्बा है मुनस्यारी। यह इलाका इतना खूबसूरत है कि इसे छोटा कश्मीर भी कहा जाता है। मुनस्यारी रोमांचक खेल और प्राकृतिक सुन्दरता पसंद करने वाले के बेहतरीन है। मुनस्यारी से ऊपरी हिमालय के कई ट्रेकिंग रास्तों की शुरूआत होती है। यहां से मिलन और रालम ग्लेशियर की चढ़ाई शुरू की जाती है। नंदा देवी चोटी की चढाई का आधार भी मुनस्यारी ही है।यहां से भी पंचाचूली, त्रिशूल और नंदा देवी की बर्फीली चोटियों का मनभावन नजारा दिखाई देता है। मुनस्यारी अल्मोड़ा से 200 किलोमीटर दूर है।
10- अल्मोड़ा : उत्तराखंड का प्राचीन और ऐतिहासिक शहर है अल्मोड़ा।1650 मीटर की ऊँचाई पर बसा अल्मोड़ा एक खूबसूरत हिल स्टेशन है। यह कुमाऊं के चंद राजाओं की राजधानी रहा। अल्मोड़ा को उत्तराखंड का सांस्कृतिक केन्द्र कहा जाता है। यहां के बाजार की पतली सड़कों पर घूमें तो लगता है पुराने समय में आ गये हैं। लकड़ी की बनी छोटी-छोटी दुकानें इस शहर को अनोखा रुप देती हैं। इस शहर के पास कई प्राचीन मंदिर हैं जो देखे जा सकते हैं। अल्मोड़ा की होली भी बहुत लोकप्रिय है। अल्मोड़ा आएं तो यहां कि प्रसिद्ध बाल मिठाई खाना ना भूलें। अल्मोड़ा नैनीताल से 60 किलोमीटर दूर है। कुमाऊँ के प्रवेश द्वार के नाम से जाना जाने वाला स्थान -अल्मोड़ा तक की सड़क यात्रा का प्रारम्भ करें। हल्द्वानी के बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन से होते हुए, काठगोदाम, रानीबाग, भीमताल, भवाली, कैंची आश्रम, गरमपानी, खैरना, सुयालबाड़ी, क्वारब, लोधिया होते हुए अल्मोड़ा पहुचे।
-------
लोहाघाट : कुमाऊं के चंद शासकों की प्रथम राजधानी, चंपावत, संस्कृति एवं कला की धनी विरासत का एक प्राचीन शहर है। भारतीय स्वाधीनता से पहले कुमाऊं के शेष भाग की तरह लोहाघाट भी कई रजवाड़े वंशों द्वारा शासित रहा है। 6ठी से 12वीं सदी के दौरान यहां कत्यूरि वंश का शासन रहा। परंतु इसी दौरान चंद शासकों ने चंपावत पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया। उस समय चंपावत के निकट होने के कारण लोहाघाट एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र था। वर्ष 1790 में स्थानीय रूप से गोरखियोल कहे जाने वाले गोरखों ने कुमाऊं पर कब्जा कर लिया और चंदों के शासन का अंत कर दिया। वास्तव में प्रथम गोरखा आक्रमण लोहाघाट पर ही हुआ। गोरखों का शोषण भरा शासन वर्ष 1815 में समाप्त हो गया जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें परास्त कर कुमाऊं पर अधिकार कर लिया। द हिमालयन गजेटियर (वॉल्युम III, भाग I, वर्ष 1882) में ई टी एटकिंस ने लिखा है कि वर्ष 1881 में लोहाघाट की आबादी 64 महिलाओं सहित कुल 154 ही थी। वर्ष 2000 में लोहाघाट वर्तमान नये राज्य उत्तराखंड का भाग बना जो तब उत्तरांचल कहलाता था।
तिब्बत के प्राचीन व्यापारिक मार्ग पर होने के कारण लोहाघाट का प्रमुख व्यापारिक शहर होना सुनिश्चित हुआ। तिब्बत से भारत, पहाड़ी रास्तों को पार करने में निपुण भोटिया लोग प्रमुख व्यापारी थे जो लोहाघाट के बाजार में ऊन भेड़/बकरी, बोरेक्स एवं नमक बेचने के लिये आते तथा तिब्बत के लिये मोटे कपड़े, चीनी (खासकर गुड़) मसाले एवं तंबाकू खरीदकर ले जाते। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के कारण यह व्यापारिक कार्य एकाएक ठप्प पड़ गया और फलस्वरूप दोनों देशों के बीच व्यापारिक दृष्टि से लोहाघाट का महत्व कम हो गया। लोहाघाट का इतिहास स्वामी विवेकानन्द से भी सम्बद्ध है, जिन्हें पास ही मायावती में एक अद्वैत आश्रम की स्थापना करने का श्रेय जाता है। यहां वे कई बार आये तथा वर्ष 1901 में दो सप्ताह से अधिक दिनों तक रूके। उन्होंने इस क्षेत्र के बारे में कहा, “यही वह जगह है, जिसका सपना मैं बचपन से देखा करता था। मैने बार-बार सदैव यहां रहने का प्रयास किया पर इसके लिये उपयुक्त समय नहीं मिल सका तथा कार्य व्यस्तता के कारण मुझे इस धार्मिक स्थान से दूर जाना पड़ा। मैं अंतर्मन से प्रार्थना एवं आशा करता हूं और विश्वस्त भी हूं कि मेरे अंतिम दिन यही बीतेंगे। पृथ्वी के सभी स्थानों में हमारी जाति की सर्वोत्तम यादें इन्हीं पर्वतों से संबद्ध हैं।”
रोहिलखंड: रोहिलखंड या रुहेलखण्ड उत्तर प्रदेश के उत्तर-पश्चिम में एक क्षेत्र है। रोहिला एक संघ था, भारत के उन वीरो का, भारत की पश्चिमी उत्तरीय सीमा प्रहरियों का जिन्होंने स्वयम के टुकड़े टुकड़े होने तक ओर अंतिम श्वांस लेने तक धूलि के कण के बराबर भी आक्रांताओं को भारत भूमि और कदम नही रखने दिया। रोहिल प्राकृत और खंड संस्कृत के शब्द हैं जो क्षत्रिय राजाओं के प्रमाण हैं । 'खंड' क्षत्रिय राजाओं से सम्बंधित है, जैसे भरतखंड, बुंदेलखंड, विन्धयेलखंड , रोहिलखंड, कुमायुखंड, उत्तराखंड आदि। इसके दक्षिण पश्चिमी ओर गंगा है, पश्चिमी ओर उत्तराखंड और नेपाल उत्तर में हैं। पूर्वी ओर अवध है। महाभारत में इसे रोह शब्द अवरोह धातु से लिया गया है जिसका अर्थ है चढ़ना अवरोही, रोही प्लस ला प्रत्य बराबर रोहिला अर्थात चढ़ाई करने वाला। तीब्र प्रवाह *रोह*, की भांति चढ़ाई करने वाला भी रोहिला कहलाया। पश्चिमी उत्तरीय सीमा प्रांत वैसे भी पर्वतीय चढ़ाई युक्त ढलान यक्त ओर द्रहयु के वंशजो द्रोही रोही के वंशजो चन्द्र वन्स के क्षत्रियो का प्रदेश होने के कारण मध्य काल तक पाणिनि कालीन भारत से लेकर रोह के नाम से जाना गया।
रोहिलखंड: रोहिलखंड या रुहेलखण्ड उत्तर प्रदेश के उत्तर-पश्चिम में एक क्षेत्र है। रोहिला एक संघ था, भारत के उन वीरो का, भारत की पश्चिमी उत्तरीय सीमा प्रहरियों का जिन्होंने स्वयम के टुकड़े टुकड़े होने तक ओर अंतिम श्वांस लेने तक धूलि के कण के बराबर भी आक्रांताओं को भारत भूमि और कदम नही रखने दिया। रोहिल प्राकृत और खंड संस्कृत के शब्द हैं जो क्षत्रिय राजाओं के प्रमाण हैं । 'खंड' क्षत्रिय राजाओं से सम्बंधित है, जैसे भरतखंड, बुंदेलखंड, विन्धयेलखंड , रोहिलखंड, कुमायुखंड, उत्तराखंड आदि। इसके दक्षिण पश्चिमी ओर गंगा है, पश्चिमी ओर उत्तराखंड और नेपाल उत्तर में हैं। पूर्वी ओर अवध है। महाभारत में इसे रोह शब्द अवरोह धातु से लिया गया है जिसका अर्थ है चढ़ना अवरोही, रोही प्लस ला प्रत्य बराबर रोहिला अर्थात चढ़ाई करने वाला। तीब्र प्रवाह *रोह*, की भांति चढ़ाई करने वाला भी रोहिला कहलाया। पश्चिमी उत्तरीय सीमा प्रांत वैसे भी पर्वतीय चढ़ाई युक्त ढलान यक्त ओर द्रहयु के वंशजो द्रोही रोही के वंशजो चन्द्र वन्स के क्षत्रियो का प्रदेश होने के कारण मध्य काल तक पाणिनि कालीन भारत से लेकर रोह के नाम से जाना गया।
रोहिले क्षत्रियो ने
आज तक कभी भी राष्ट्र व् अपनी क्षत्रिय कोम पर जीते जी आंच नहीं आने दी,
800 वर्षो तक आक्रान्ताओ को, रोके रखने में अपना सर्वस्व मिटाया है।
विधर्मी का संघार किया है , शाका और * जौहर* किया है,परन्तु अपना धर्म न
बदला न छोड़ा। प्राचीन भारत की केवल दो भाषाएँ संस्कृत व प्राकृत (सरलीकृत
संस्कृत) थी । नगरे नगरे ग्रामै ग्रामै विलसन्तु संस्कृतवाणी । सदने -
सदने जन - जन बदने , जयतु चिरं कल्याणी । रोहिला शब्द भारत के गौरवशाली
इतिहास का एक विशेष दर्पण है ! "सहारन" राजपूतो का एक गोत्र है जो रोहिले
राजपूतो में पाया जाता है। यह सूर्य वंश की एक प्रशाखा है जो राजा भरत के
पुत्र तक्षक के वंशधरो से प्रचालित हुई थी । यह वही शब्द है जो वीर
क्षत्रिय राजवंशों व इतिहास की वीर गाथाओं से परिचय कराता है। रोहिले
राजपूत प्राचीनकाल से ही लोकतंत्र के संवाहक रहे हैं। रोहिले- राजपूत प्राचीन काल से ही सीमा- प्रांत, मध्य देश
(गंगा- यमुना का दोआब), पंजाब, काश्मीर, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश में
शासन करते रहे हैं।
अयोध्या में इख (गन्ना) उगाने वाले के नाम पर इक्ष्वाकु वंश या /सूर्य वंश का उदय हुआ। और प्रयाग के पास झूंसी में चन्द्र वंश का उदय हुआ। भारत के चन्द्र वंश के चक्रवर्ती सम्राट ययाति इसी वंश में हुए। इनके तीसरे पुत्र द्रह्यु का प्रदेश ही रूह/ रोह प्रदेश ने नाम से जाना गया। द्रह्यु से रोहिलाओ का मूल है। रोह का अर्थ है चढ़ना (पर्वतीय ) यह भी एक पर्वतीय प्रदेश ही है। यह भारत की पश्चिमी उत्तरीय सीमा का प्रदेश था। इसके निवासियों ने सिकंदर को भारत में प्रवेश करने से रोकने के बाद 400 वर्ष तक मुगल आक्रांताओं को भी रोके रक्खा। किन्तु जब मैदानों से मदद नहीं मिली तो मैदानों की और आना प्रारम्भ कर दिया।
-------------
अयोध्या में इख (गन्ना) उगाने वाले के नाम पर इक्ष्वाकु वंश या /सूर्य वंश का उदय हुआ। और प्रयाग के पास झूंसी में चन्द्र वंश का उदय हुआ। भारत के चन्द्र वंश के चक्रवर्ती सम्राट ययाति इसी वंश में हुए। इनके तीसरे पुत्र द्रह्यु का प्रदेश ही रूह/ रोह प्रदेश ने नाम से जाना गया। द्रह्यु से रोहिलाओ का मूल है। रोह का अर्थ है चढ़ना (पर्वतीय ) यह भी एक पर्वतीय प्रदेश ही है। यह भारत की पश्चिमी उत्तरीय सीमा का प्रदेश था। इसके निवासियों ने सिकंदर को भारत में प्रवेश करने से रोकने के बाद 400 वर्ष तक मुगल आक्रांताओं को भी रोके रक्खा। किन्तु जब मैदानों से मदद नहीं मिली तो मैदानों की और आना प्रारम्भ कर दिया।
-------------