द्रष्टा और दृश्य के प्रकृति का विश्लेषण
[An Inquiry into the Nature of the 'SEER' and the 'SEEN']
(स्वामी सर्वप्रियानन्द की व्याख्यानमाला का हिन्दी भावानुवाद।)
भूमिका
जिन पुस्तकों का अध्यन करने से अद्वैत- वेदान्त के सभी विषयों का संक्षिप्त का परिचय प्राप्त होता हो, वैसी पुस्तकों को 'प्रकरण ग्रन्थ' कहा जाता है। यह "दृग-दृश्य विवेक" भी उसी श्रेणी की पुस्तक है, अतः इसे अद्वैत-वेदान्त की भूमिका भी कह सकते हैं। यह ग्रन्थ संसार के सभी धर्मों का सार है। इस पुस्तक में, मानव सभ्यता का ऐसा कालातीत ज्ञान (timeless wisdom) संचित है, कि आज २१ वीं सदी में, जब किसी भी सिद्धान्त को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखने के बाद ही स्वीकार किया जाता है; वहीँ लगभग एक हजार वर्ष पूर्व अद्वैत-वेदान्त पर लिखी गयी पुस्तक को हॉलीवुड जैसे अत्याधुनिक शहरों से लेकर भारत के मठ में रहने वाले सन्यासियों के बीच समानरूप से आदर-सम्मान प्राप्त है। जिस प्रकार आदिगुरु शंकराचार्य के "भज-गोविन्दं" ग्रंथ का एक और नाम 'मोह मुद्गर' (illusion hammer -भ्रम भंजक मुदगर) भी है, उसी प्रकार 'दृग-दृश्य विवेक' ग्रन्थ का एक और नाम 'वाक्य सुधा' भी है। सुधा का अर्थ होता है अमृत, सामान्य अर्थ हुआ 'वाक्य का अमृत' (nectar of sentence) किन्तु यहाँ इसका तात्पर्य है "वेदान्त के चार महावाक्यों - (the Four great statement of Identity) के मंथन से निकला हुआ अमृत!" इस तरह की पुस्तकें जीव और ब्रह्म के एकत्व (Oneness) को स्थापित करती हैं।
मनुष्य जीवन के मूलभूत प्रश्न हैं - मैं कौन हूँ ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? दुःखों पर कैसे विजय प्राप्त कर सकता हूँ ? यह दृष्टिगोचर विश्व-ब्रह्माण्ड क्या है? क्या यह सम्भव है कि मैं स्थायी रूप से आनन्द में रह सकूँ ? ईश्वर, भगवान या ब्रह्म वस्तुतः क्या हैं ? इसलिए ऋषियों के मन में प्रश्न उठा-'विज्ञातारमरे केन विजानीयात् (बृहदा॰ २ । ४ । १४) ‘सब के विज्ञाता को किसके द्वारा जाना जाय ?’ वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि - 'स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता'(श्वेताश्वतर॰ ३ । ११) ‘ जो कुछ भी जाननेमें आनेवाली वस्तुएँ हैं, वह ब्रह्म उन सबको जानता है परंतु उसको जाननेवाला (कोई) नहीं है। (ज्ञानी पुरुष) उसे महान आदि पुरुष कहते हैं । वह सम्पूर्ण ज्ञेय को जानता है, पर उसका ज्ञाता कोई नहीं है ।’ किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं की ईश्वर अज्ञेय है !
मनुष्य जीवन के मूलभूत प्रश्न हैं - मैं कौन हूँ ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? दुःखों पर कैसे विजय प्राप्त कर सकता हूँ ? यह दृष्टिगोचर विश्व-ब्रह्माण्ड क्या है? क्या यह सम्भव है कि मैं स्थायी रूप से आनन्द में रह सकूँ ? ईश्वर, भगवान या ब्रह्म वस्तुतः क्या हैं ? इसलिए ऋषियों के मन में प्रश्न उठा-'विज्ञातारमरे केन विजानीयात् (बृहदा॰ २ । ४ । १४) ‘सब के विज्ञाता को किसके द्वारा जाना जाय ?’ वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि - 'स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता'(श्वेताश्वतर॰ ३ । ११) ‘ जो कुछ भी जाननेमें आनेवाली वस्तुएँ हैं, वह ब्रह्म उन सबको जानता है परंतु उसको जाननेवाला (कोई) नहीं है। (ज्ञानी पुरुष) उसे महान आदि पुरुष कहते हैं । वह सम्पूर्ण ज्ञेय को जानता है, पर उसका ज्ञाता कोई नहीं है ।’ किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं की ईश्वर अज्ञेय है !
दृग-दृश्य
विवेक का अर्थ है द्रष्टा और दृश्य (seen) के अन्तर को पृथक-पृथक
(discriminate) रूप में समझ लेंना। और द्रष्टा से दृश्य में विवेक करने का
अर्थ है सत्य (Real) से असत्य (unreal) को अलग करना। 'विवेक-प्रयोग' पद्धति का मुख्य कर्यकारी सिद्धान्त केवल इतना समझ लेना है कि " द्रष्टा हमेशा दृश्य से पृथक " होता है।
सामान्य रूप से किसी सांसारिक वस्तु को जानने के लिए हम अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हैं। किन्तु बुद्धि स्वयं जड़ मन का एक अंश है, उसके द्वारा अखण्डता को (जड़ और चेतन की अखण्डता या 'Oneness') को नहीं जाना जा सकता। इसलिए आप्त ऋषियों के द्वारा आविष्कृत "विवेक-प्रयोग" के इन मूलभूत सिद्धान्तों को केवल उपनिषदों की सहायता से या " यम - नचिकेता वेदान्त श्रुति-परम्परा" के प्रकरण ग्रंथों के आचार्यों के मुख से श्रवण करने से ही समझा जा सकता है। किन्तु वह ब्रह्म -विद्या केवल पहली बार सुनने से ही हमलोगों को प्राप्त हो जाएगी, यह सम्भव नहीं है। अन्तर आलोक प्राप्त करने के तीन सोपान हैं -श्रवण-मनन-निदिध्यासन। सुनना, समझना और अभ्यास द्वारा जीवन में धारण करना।
अतः भारतीय संस्कृति या श्रुति-परम्परा [विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक - प्रशिक्षण परम्परा" अथवा " Be and Make Leadership Training Tradition "] के अनुसार पूर्ण मनुष्य बनने और बनाने की आध्यात्मिक साधनामें अग्रसर होने के लिए पहला सोपान है - अप्रत्यक्ष आत्मा को प्रत्यक्ष रूप में देखने की शुभ इच्छा (auspicious desire) का उदय होना ! अर्थात 'अंधे हो जाने के खतरे 'risk' या जोखिम को जानते हुए भी 'एथेंस का सत्यार्थी - देवकुलिश ' के जैसा (अथातो - ब्रह्मजिज्ञासा-बृहत को जानने की जिज्ञासा), परम् सत्य (Absolute Truth) इन्द्रियातीत सत्य या ईश्वर को इन्द्रियों के माध्यम से देखने की प्रबल शुभ इच्छा [ benediction -मंगल कामना] का उदय होना ही मनुष्य (3H में विकसित मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य) बनने की साधना का प्रथम सोपान है।
स्वामी विवेकानन्द जब नरेन्द्र थे, तब उन्होंने श्रीरामकृष्ण से पूछा था -'महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है ? सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्म-शक्त्या वृक्षान् सरीसृप-पशून् खग-दंश-मत्स्यान्। तैस् तैर् अतुष्ट-हृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥ अपनी मायारूप अनादि आत्म-शक्ति से वृक्ष रेंगने वाले प्राणी, पशु, पक्षी, डंक मारने वाले मच्छर, मछली आदि अनेक प्रकार के जीवों के अनेक शरीर रचे, फिर भी ईश्वर को उनमें संतोष नहीं हुआ। फिर उसने ब्रह्म साक्षात्कार करने में समर्थ बुद्धिवाले मानव की सृष्टि की, तब उसे संतोष हुआ। (श्रीमद्भागवत /स्कन्द ११: अध्याय ० ९)
"देहो गुरुर् मम विरक्ति-विवेक हेतुर्" -- सर्वदा परिणाम में दुखःद और जन्म-मरणशील यह देह मेरा गुरु है। वह मुझे विवेक-वैराग्य की शिक्षा देती है। कारण उसी के सहारे मैं तत्त्व-विचार कर पाता हूँ। फिर भी वह देह (मेरे अपने लिए नहीं) दूसरों के लिए है, यह समझकर मैं मुक्तसंग हो विचरता रहता हूँ।
"लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसंभवान्ते" - अनेक जन्मों के बाद यह अति दुर्लभ, और अनित्य होने पर भी मोक्ष दिलाने में समर्थ मनुष्य-जन्म प्राप्त हुआ है। तो बुद्धिमान पुरुष का कर्तव्य है कि मृत्यु के शिकंजे में पड़ने से पूर्व ही शीघ्र मोक्ष प्राप्ति का यत्न करे। (नश्वर) विषयों का भोग तो सभी योनियों में मिलता ही है।
"यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया," स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्-तत्-स्वरूपताम्।--- देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भय से जिस-जिस वस्तु में बुद्धिपूर्वक अपना मन एकाग्र करता है, उन-उन पदार्थों से वह एकरूप हो जाता है।
हे उद्धव! मेरी माया से निर्मित विद्या और अविद्या मेरे दो अनादि शक्तियाँ हैं। वे देहधारियों को क्रमशः मोक्ष और बंध देने वाली हैं, यह जानो।[साभार - साभार krishnakosh.org/ भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 26]
अतः यदि हम अभी संस्कृत श्लोकों के अर्थ को न भी समझते हों, तो भी श्लोकों को अन्वय करते हुए हू ब हू उच्चारित करते हुए उन्हें सुनने (श्रवण) की चेष्टा करें। फिर इस बात पर मनन करें कि इस ग्रंथ में जो कुछ कहा जा रहा है, क्या मैं उसको समझ पाया हूँ ? और अंतिम रूप से यह देखना है कि क्या इसके विचार मेरे लिए भी सत्य हैं, और मैं उसे अपने आचरण में उतार सकता हूँ ? यदि ऐसा लगे कि इसमें दिए गए तर्क तो मेरे लिए भी बिल्कुल सत्य हैं, तथा मैं उसको अपने जीवन में अवश्य रूपायित कर सकता हूँ ! तो इस संकल्प को ही 'अन्तर ज्ञानोदय' (Enlightenment from within), प्रबोधन, बुद्धत्व की प्राप्ति अथवा शिक्षा (-तैत्तरीय उपनिषद की दीर्घ 'ई' की मात्रा वाली) शीक्षा-'सा एषा भार्गवी वारुणी विद्या' कहते हैं।
सामान्य रूप से किसी सांसारिक वस्तु को जानने के लिए हम अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हैं। किन्तु बुद्धि स्वयं जड़ मन का एक अंश है, उसके द्वारा अखण्डता को (जड़ और चेतन की अखण्डता या 'Oneness') को नहीं जाना जा सकता। इसलिए आप्त ऋषियों के द्वारा आविष्कृत "विवेक-प्रयोग" के इन मूलभूत सिद्धान्तों को केवल उपनिषदों की सहायता से या " यम - नचिकेता वेदान्त श्रुति-परम्परा" के प्रकरण ग्रंथों के आचार्यों के मुख से श्रवण करने से ही समझा जा सकता है। किन्तु वह ब्रह्म -विद्या केवल पहली बार सुनने से ही हमलोगों को प्राप्त हो जाएगी, यह सम्भव नहीं है। अन्तर आलोक प्राप्त करने के तीन सोपान हैं -श्रवण-मनन-निदिध्यासन। सुनना, समझना और अभ्यास द्वारा जीवन में धारण करना।
अतः भारतीय संस्कृति या श्रुति-परम्परा [विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक - प्रशिक्षण परम्परा" अथवा " Be and Make Leadership Training Tradition "] के अनुसार पूर्ण मनुष्य बनने और बनाने की आध्यात्मिक साधनामें अग्रसर होने के लिए पहला सोपान है - अप्रत्यक्ष आत्मा को प्रत्यक्ष रूप में देखने की शुभ इच्छा (auspicious desire) का उदय होना ! अर्थात 'अंधे हो जाने के खतरे 'risk' या जोखिम को जानते हुए भी 'एथेंस का सत्यार्थी - देवकुलिश ' के जैसा (अथातो - ब्रह्मजिज्ञासा-बृहत को जानने की जिज्ञासा), परम् सत्य (Absolute Truth) इन्द्रियातीत सत्य या ईश्वर को इन्द्रियों के माध्यम से देखने की प्रबल शुभ इच्छा [ benediction -मंगल कामना] का उदय होना ही मनुष्य (3H में विकसित मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य) बनने की साधना का प्रथम सोपान है।
स्वामी विवेकानन्द जब नरेन्द्र थे, तब उन्होंने श्रीरामकृष्ण से पूछा था -'महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है ? सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्म-शक्त्या वृक्षान् सरीसृप-पशून् खग-दंश-मत्स्यान्। तैस् तैर् अतुष्ट-हृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥ अपनी मायारूप अनादि आत्म-शक्ति से वृक्ष रेंगने वाले प्राणी, पशु, पक्षी, डंक मारने वाले मच्छर, मछली आदि अनेक प्रकार के जीवों के अनेक शरीर रचे, फिर भी ईश्वर को उनमें संतोष नहीं हुआ। फिर उसने ब्रह्म साक्षात्कार करने में समर्थ बुद्धिवाले मानव की सृष्टि की, तब उसे संतोष हुआ। (श्रीमद्भागवत /स्कन्द ११: अध्याय ० ९)
"देहो गुरुर् मम विरक्ति-विवेक हेतुर्" -- सर्वदा परिणाम में दुखःद और जन्म-मरणशील यह देह मेरा गुरु है। वह मुझे विवेक-वैराग्य की शिक्षा देती है। कारण उसी के सहारे मैं तत्त्व-विचार कर पाता हूँ। फिर भी वह देह (मेरे अपने लिए नहीं) दूसरों के लिए है, यह समझकर मैं मुक्तसंग हो विचरता रहता हूँ।
"लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसंभवान्ते" - अनेक जन्मों के बाद यह अति दुर्लभ, और अनित्य होने पर भी मोक्ष दिलाने में समर्थ मनुष्य-जन्म प्राप्त हुआ है। तो बुद्धिमान पुरुष का कर्तव्य है कि मृत्यु के शिकंजे में पड़ने से पूर्व ही शीघ्र मोक्ष प्राप्ति का यत्न करे। (नश्वर) विषयों का भोग तो सभी योनियों में मिलता ही है।
"यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया," स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्-तत्-स्वरूपताम्।--- देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भय से जिस-जिस वस्तु में बुद्धिपूर्वक अपना मन एकाग्र करता है, उन-उन पदार्थों से वह एकरूप हो जाता है।
हे उद्धव! मेरी माया से निर्मित विद्या और अविद्या मेरे दो अनादि शक्तियाँ हैं। वे देहधारियों को क्रमशः मोक्ष और बंध देने वाली हैं, यह जानो।[साभार - साभार krishnakosh.org/ भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 26]
अतः यदि हम अभी संस्कृत श्लोकों के अर्थ को न भी समझते हों, तो भी श्लोकों को अन्वय करते हुए हू ब हू उच्चारित करते हुए उन्हें सुनने (श्रवण) की चेष्टा करें। फिर इस बात पर मनन करें कि इस ग्रंथ में जो कुछ कहा जा रहा है, क्या मैं उसको समझ पाया हूँ ? और अंतिम रूप से यह देखना है कि क्या इसके विचार मेरे लिए भी सत्य हैं, और मैं उसे अपने आचरण में उतार सकता हूँ ? यदि ऐसा लगे कि इसमें दिए गए तर्क तो मेरे लिए भी बिल्कुल सत्य हैं, तथा मैं उसको अपने जीवन में अवश्य रूपायित कर सकता हूँ ! तो इस संकल्प को ही 'अन्तर ज्ञानोदय' (Enlightenment from within), प्रबोधन, बुद्धत्व की प्राप्ति अथवा शिक्षा (-तैत्तरीय उपनिषद की दीर्घ 'ई' की मात्रा वाली) शीक्षा-'सा एषा भार्गवी वारुणी विद्या' कहते हैं।
ii) इस ग्रंथ के लेखक : इसके लेखक के नाम में स्पष्टता नहीं है, क्योंकि मूल ग्रन्थ में केवल 'शंकराचार्य' नाम लिखा हुआ है। और आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों के अध्यक्ष को भी 'शंकराचार्य' ही कहा जाता है, इसलिए इस ग्रन्थ के मूल लेखक को कोई इसके विद्यारण्य स्वामी मानते है, कोई आचार्य भारती तीर्थ कहते हैं जो कर्नाटक के विजयनगर में जन्मे थे। किन्तु यह पुस्तक विद्यारण्य स्वामी द्वारा लिखित पुस्तक 'पंचदसी' की पद्धति में लिखी गयी है, इसलिए कुछ लोग उनको ही इसका लेखक मानते हैं। इस ग्रन्थ में कुल ४६ श्लोक हैं , किन्तु विवेकज-ज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल १ से ३१ तक के श्लोक को समझ लेना भी पर्याप्त है।
परम सत्य (आध्यात्मिक सत्य) की खोज करने के अधिकारी शिष्य (Qualified Student for Spiritual Inquiry):
एक भौतिकवादी व्यक्ति (जो आध्यात्मिक सत्य या इन्द्रियातीत सत्य से पूरी तरह अनभिज्ञ है, तथा केवल इन्द्रियग्राह्य जगत को ही सत्य समझता है) उसमें आत्मश्रद्धा नहीं होती; इसीलिए उसे अपने यथार्थ स्वरुप (अप्रत्यक्ष आत्मा) या भगवान के विषय में जानने की इच्छा नहीं होती, और इसीलिए वह शास्त्रों का (गीता-उपनिषद आदि) का अध्यन भी नहीं करना चाहता। फिर कोई ऐसा व्यक्ति जिसने परम् सत्य (absolute Truth) की अनुभूति कर ली है, वैसे व्यक्ति को भी 'विवेक-प्रयोग' का अभ्यास करने या शास्त्रों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ऐसा भ्रममुक्ति (De-Hypnotized) व्यक्ति के लिए कर्मबन्धन में फंसने की कोई समस्या नहीं होती। जो योग्य शिक्षार्थी (सत्यार्थी -The qualified student) इन्द्रियातीत सत्य को या अपनी आत्मा को जानने की इच्छा करता है, वह भौतिक जगत के बन्धनों से (कामिनी-कांचन और कीर्ति से) मुक्त हो जाता है।
आध्यात्मिक मनुष्य को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है -
(1) मुमुक्षु व्यक्ति : जो लोग मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं,
(2) आध्यात्मिक साधक : जो भगवान के नाम का जप, भगवान की पूजा, धार्मिक व्रत-उपवास, तीर्थयात्रा, ध्यान, आदि जैसे धार्मिक अभ्यास कर रहे हैं।
(3) जिज्ञासु : जो उस ईश्वर या अदृष्ट शक्ति (जगतजननी माँ काली) के विषय में जानना चाहते हैं, जो सौरमण्डल सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कुशल -संचालन को नियंत्रित कर रही है कभी-कभी, तो ऐसा भी देखा गया है कि जो व्यक्ति जिस सत्य को देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश क्यों अँधा हो गया था ? केवल उस 'सत्य' को जानने की जिज्ञासा से भी यदि शास्त्र का अध्यन करना प्रारम्भ करते हैं, वे बाद में गंभीर आध्यात्मिक साधक [C-in-C] बन गए हैं।
द्रष्टा और दृश्य के अन्तर को पहचान लेने की अनिवार्यता (Necessity of Seer-Seen Discrimination):
आम तौर से इस तरह के ग्रंथों का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया जाता है, अथवा भगवान की स्तुति में कोई श्लोक लिखा जाता है। किन्तु इसके प्रथम श्लोक में केवल 'साक्षी' शब्द आया है, और गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने कई नामों में एक नाम साक्षी भी बताया है। इस प्रकार इस ग्रंथ के प्रारम्भ में भी 'साक्षी' शब्द से ब्रह्म के अवतार का स्मरण कर लिया गया है।
इस ग्रंथ के 1 से 5 तक के श्लोक में मनुष्य के यथार्थ स्वरुप को जानने का कौशल (technique of realizing your true self) बतलाया गया है। यह पुस्तक किसी हितैषी शिक्षक की तरह हमें मूर्त से अमूर्त की ओर ले जाने जाने का प्रयास करती है। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ ही सीधा मूलभूत प्रश्नों के उत्तर खोजने से होता है।
इस पुस्तक का प्रथम श्लोक समुद्र की तरह गहरा (profound) मंत्र है, और सम्पूर्ण मानवता के लिए परम् परमहितकारी है। इस पहले श्लोक में लेखक बड़े नाटकीय अंदाज में घोषणा करते हैं कि अस्तित्व (Existence या सत्ता) अपने को चार चरणों में अभिव्यक्त करती है: -
यहाँ लेखक दर्शन-क्रिया या देखने और पहचान लेने की प्रक्रिया को बहुत सरल शब्दों में समझा रहे हैं; कि दर्शन क्रिया कैसे होती है ? पहले आँख द्रष्टा है, और नामरूप आदि दृश्य हैं, फिर
मन द्रष्टा है और नेत्रादि इन्द्रियाँ दृश्य हैं, फिर बुद्धि द्रष्टा है
और मन दृश्य है । अन्तमें बुद्धिकी वृत्तियोंका भी जो द्रष्टा है, वह
साक्षी (स्वयंप्रकाश आत्मा) किसीका भी दृश्य नहीं है ।’
"The eye is the seer and form (and color) the seen. That (eye) is the seen and mind is (its) seer. The Witness alone is the seer of thoughts in the mind and never the seen."
१. रूपं दृश्यं लोचनं दृक्- देखने के लिए सर्वप्रथम रंग-रूप ( form and color स्थूल शरीर और रंग) दृश्य हैं, जिनको हम नेत्रों के द्वारा देखते और पहचानते हैं। यहाँ रंगरूप कथित वस्तु (perceived-गोचर वस्तु ) है, और देखने वाला-द्रष्टा या पहचानने वाला (perceiver) आँख है।
[EYE: यहां, "आंख" शब्द का तात्पर्य - वास्तविक 'sense organ of vision' से है। वास्तविक दर्शन-इन्द्रियाँ (optic nerve) से है, जो मस्तिष्क में अवस्थित हैं। केवल यह नेत्र-गोलक ही नहीं, जिसमें स्क्लेरा (sclera-श्वेत पटल) कॉर्निया (cornea-पुतली या लेन्स के आगे का उभार), रेटिना (retina-आँख के पिछले भाग का चित्रपट) रहते हैं -यह देखने का केवल बाह्य उपकरण है। जब बाह्य उपकरण, मस्तिष्क में अवस्थित दर्शन-इन्द्रियां और मन तीनों एक साथ जुड़ जाते हैं -तभी कथित वस्तु की पहचान होती है। [घड़ी देखकर हम झट से समय बता देते हैं !] यहाँ "आँख" शब्द से पाँच विषयों-रूप,रस,गंध-शब्द,स्पर्श आदि का अनुभव करने में सक्षम मस्तिष्क में अवस्थित उनकी समस्त समतुल्य इन्द्रियों - corresponding sense organs of vision, hearing, feeling, tasting, and smelling. , आंख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा का प्रतिनिधत्व करने वाली इन्द्रियों को इंगित किया गया है। यहाँ आँखों के लिए एकवचन -'आंख' शब्द का उपयोग दर्शन इन्द्रिय के लिए किया जा रहा है, क्योंकि यद्यपि भौतिक रूप से हमारी दो ऑंखें हैं, किन्तु दर्शन क्रिया मस्तिष्क में अवस्थित केवल एक दर्शनेन्द्रिय (one single sense organ of vision-ऑप्टिक नर्भ) द्वारा नियंत्रित होती है। तात्पर्य है कि शब्दादि विषयों में होने वाले परिवर्तन को इन्द्रियाँ जानती हैं; अतः विषय दृश्य हैं और इन्द्रियाँ द्रष्टा हैं ।
[EYE: Here, the word "eye" means this sense organ of vision, and not the physical structure consisting of sclera, cornea, retina, etc. The word "eye" is used to represent all sense organs, that is, the sense organs of vision, hearing, feeling, tasting, and smelling. The singular form is used to refer to the sense organs because the faculty of perception is only one. Although, physically we have two eyes, the eyes are controlled by one single sense organ of vision.]
श्लोक का पहला चरण कहता है, रूप (आकार या इन्द्रधनुष के 7 रंग) दृश्य है और नेत्र द्रष्टा है। अर्थात जो द्रष्टा (Subject) है,वह दृश्य (Object) से भिन्न या पृथक होता है। ऋषि हमसे इस सिद्धान्त पर ऑंखें मूंदकर विश्वास करने के लिए नहीं कह रहे हैं। हमलोग केवल अपने सामान्य ज्ञान (Common Sense) या सामान्य बौद्धिक समझ (Intellectual understanding) के द्वारा ही समझ सकते हैं कि द्रष्टा, दृश्य वस्तु से पृथक होती हैं। इस नियम के अनुसार घड़ा दृश्य हैं और द्रष्टा -ऑंखें इनसे भिन्न हैं, इनको देखने वाली हैं। घड़े को ऑंखें देखती हैं, इसलिए ऑंखें घड़े से पृथक हैं यह हमलोगों का सामान्य अनुभव है, हम सामान्य बुद्धि से यह समझ सकते हैं।
यहाँ विश्वास के आधार पर ही किसी सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने की बात नहीं है। हर मनुष्य इस सिद्धान्त को अपनी बौद्धिक समझ के द्वारा समझ सकता है। लेखक कहते हैं कि हमारे जीवन के प्रत्येक अनुभव में एक अनुभवकर्ता (experiencer) द्रष्टा तथा दूसरा अनुभव करने योग्य कोई भौतिक वस्तु या ज्ञेय पदार्थ (Object) अवश्य रहता है, जिसे किसी इन्द्रियों और मन की सहायता से देखा, चखा, सूँघा, सुना या छूआ,चखा,सूँघा जा सकता है। वेदान्त को समझने के लिए इतना सामान्य ज्ञान होना ही पर्याप्त है, इसी बौद्धिक समझ के सहारे आगे बढ़ते रहो। इस प्रकार 'विवेक-प्रयोग' का पहला सिद्धान्त यह निकला कि " दृष्टा, दृश्य से बिल्कुल पृथक या अलग होता है।" यह कोई गूढ़ दार्शनिक बात नहीं है। इतना तो हम सभी केवल अपनी सामान्य बुद्धि के बल पर भी समझ सकते हैं।
2. तद् दृश्यं दृक् तु मानसं- वह नेत्र भी दृश्य है,और मन उसका द्रष्टा है। श्लोक के दूसरे चरण में थोड़ा और गहराई से विचार करते हैं तब पाते हैं कि ऑंखें भी दृश्य हैं, और मन उसका द्रष्टा बन है। कैसे? अपने मन के द्वारा जान रहा हूँ कि मेरी आँखों की अवस्था क्या है ? क्या बिना चश्में के मैं पढ़ सकता हूँ या नहीं ?-यह बात ऑंखें स्वयं नहीं जानती, हम लोग अपने मन के द्वारा ही अपनी आँखों की अवस्था को जानते हैं। इस प्रकार मन जब द्रष्टा बन जाता है, तब ऑंखें दृश्य बन जाती हैं।
इन्द्रियों में होने वाले परिवर्तन को मन जानता है; अतः इन्द्रियाँ दृश्य हैं और मन द्रष्टा है । मनमें होनेवाले संकल्प-विकल्प, चंचलता-स्थिरता आदि विकारोंको बुद्धि जानती है; अतः मन दृश्य है और बुद्धि द्रष्टा है । बुद्धि में होने वाले विकारों (समझना, न समझना अथवा कम समझना आदि) को स्वयं जानता है; अतः बुद्धि दृश्य है और स्वयं (स्वरूप) द्रष्टा है । यह साक्षी स्वयं अपरिवर्तनशील तथा निर्विकार है; अतः वह किसीका भी दृश्य नहीं है, प्रत्युत सबका द्रष्टा है। नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा (बृहदा॰ ३ । ७ । २३)‘इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है ।’ ' स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता ‘वह सम्पूर्ण ज्ञेयको जानता है, पर उसका ज्ञाता कोई नहीं है ।’
MIND: The mind is a flow of thoughts. The sense organs are controlled by the mind. Although, the term mind usually refers to the faculty of feeling emotions and the term intellect refers to the faculty of thinking ideas, here the term "mind" should be understood to include intellect, memory, and ego or I-thought (that is, "I think," "I decide," and "I remember").
अगर हम ब्रह्म को बुद्धि से जानने की चेष्टा करते हैं तो हमने मानो ब्रह्म को बुद्धि का विषय बना लिया अर्थात् ब्रह्म तो दृश्य (एकदेशीय) हो गया और बुद्धि द्रष्टा (व्यापक) हो गयी । बुद्धि में वही विषय आता है, जो बुद्धि से छोटा होता है । अतः जब तक हम ब्रह्म को बुद्धि के ज्ञान से देखेंगे, बुद्धि से उस पर विचार करेंगे, तब तक हमारी स्थिति जड़ में ही रहेगी । कारण कि सांसारिक विषयों से लेकर बुद्धि तक सब प्रकृति का कार्य होने से दृश्य (जड़) ही है ।
1.रूपं दृश्यं लोचनं दृक्- आकृति या रूप दृश्य है और नेत्र द्रष्टा है।
2.तद् दृश्यं दृक् तु मानसं- वह नेत्र भी दृश्य है,और मन उसका द्रष्टा है।
3. दृश्याः धीवृत्तयः साक्षी- मन में उठने वाले समस्त विचारों का भी एक द्रष्टा है, जिसे साक्षी चेतना कहते हैं।
4. दृक् एव न तु दृश्यते- वह साक्षी चेतना ही वास्तविक द्रष्टा है, वह किसी के लिए दृश्य नहीं है।
कोई भी स्थूल रूप (object) दृश्य है और नेत्र द्रष्टा (subject) है। ये नेत्र-द्रष्टा (seer) भी मन की दृष्टि से दृश्य (scene) की श्रेणी में आ जाते हैं। उसी प्रकार मन शब्द से लक्षित उसकी समस्त वृत्तियॉँ (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार आदि) भी साक्षी (the witness-स्वयं प्रकाश आत्मा) की दृष्टि से दृश्य हैं। यह साक्षी किसी के द्वारा दृश्य नहीं बनता, अतः वह ही वास्तविक द्रष्टा है। अंत में बुद्धि की वृत्तियों का (चित्त -मन-बुद्धि -अहंकार का) भी जो द्रष्टा है, वह साक्षी केवल द्रष्टा है, किसी के लिए भी वह दृश्य नहीं है। महत्व के बढ़ते हुए क्रमानुसार वे चार स्तर इस प्रकार हैं -
i) रूपं - "आकार (form-आकृति) " पंचेन्द्रियों से ग्राह्य विश्व-ब्रह्माण्ड के स्थूल-सूक्ष्ण भैतिक पदार्थ।
ii) लोचनं - "आंख" अर्थात पाँच विषयों का अनुभव करने में सक्षम-नाक,कान,जिह्वा,त्वचा आदि पाँच इन्द्रियाँ।
iii) मानसं - "मनस् या मन" जिसे चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार को एक साथ मिलाकर अन्तःकरण कहते हैं।
iv) साक्षी - "चैतन्य आत्मा (Witness consciousness)”, ब्रह्म या सच्चिदानन्द (existence-consciousness-bliss) या माँ जगदम्बा का सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध। इसे वेदान्त का सर्वोच्च तत्व कहा जाता है।
SEER: The one who sees or knows. The subject of the action of seeing. The word "seer" can be taken to represent eye, the seer (of forms and color); ear, hearer (of sounds); nose, smeller (of smells); tongue, taster (of tastes); skin, feeler (of touch perceptions); mind, feeler (of emotions); intellect, thinker (of thoughts); and Self, the Witness of all thoughts. The real Seer is the Self alone. The sense organs and mind are considered seers only in a relative sense.
1.रूपं दृश्यं लोचनं दृक्- आकृति या रूप दृश्य है और नेत्र द्रष्टा है। श्लोक का पहला चरण कहता है जो द्रष्टा (the Subject) है वह दृश्य वस्तु (Object) से भिन्न या अलग है। यह पुस्तक हमसे इस सिद्धान्त पर ऑंखें मूँदकर विश्वास करने के लिए नहीं कहती। बल्कि हम इसे केवल अपने सामान्य ज्ञान (Common Sense) या सामान्य बौद्धिक समझ (Intellectual understanding) के द्वारा ही समझ सकते हैं कि ज्ञाता ज्ञेय वस्तु से भिन्न है। यहाँ विश्वास के आधार पर ही किसी सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने की बात नहीं है। हर मनुष्य इस सिद्धान्त को अपनी बौद्धिक समझ के द्वारा समझ सकता है। 'घट द्रष्टा घटात् भिन्नः'। इस नियम के अनुसार घड़ा दृश्य हैं और द्रष्टा -ऑंखें इनसे भिन्न हैं, इनको देखने वाली हैं। घड़े को ऑंखें देखती हैं, इसलिए ऑंखें घड़े से पृथक हैं यह हमलोगों का सामान्य अनुभव है, हम सामान्य बुद्धि से यह समझ सकते हैं। लेखक कहते हैं कि वेदान्त को समझने के लिए इतना सामान्य ज्ञान होना ही पर्याप्त है, इसी बौद्धिक समझ के सहारे आगे बढ़ते रहो। हमारे जीवन के प्रत्येक अनुभव में एक अनुभवकर्ता (experiencer) द्रष्टा तथा दूसरा अनुभव करने योग्य कोई भौतिक वस्तु या ज्ञेय पदार्थ (Object) अवश्य रहता है, जिसे किसी इन्द्रियों और मन की सहायता से देखा, चखा, सूँघा, सुना या छूआ,चखा,सूँघा जा सकता है।
SEEN: The object of the action of seeing or knowing. This term represents all that is seen, heard, felt, smelt, tasted, thought, and known. In reality, the Self is the only Seer, and everything else is seen.It appears that the eye is the seer of the forms and colors. However, it cannot function without the mind, and is not really the seer. It is also in reality seen, but with respect to the action of perception of names and forms, we can say that the eye is an instrument for the mind. The mind is an instrument for the Self, the real Seer.
जैसे मैं द्रष्टा हूँ और यह पुस्तक दृश्य है, अतः यह पुस्तक और मैं दोनों एक दूसरे से पृथक हैं। इस बात को हमलोग केवल साधारण बुद्धि (common sense) से भी समझ सकते हैं। अनेक नाम-रूपों से परिपूर्ण यह जगत दृश्य है (Object), और ऑंखें द्रष्टा (Subject) हैं। प्रत्येक इन्द्रिय विषयों (रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श) का अनुभव करते समय हमलोग इस बात के प्रति जागरूक (aware) भी रहते हैं कि मैं अभी अमुक विषय का अनुभव कर रहा हूँ। फिर अपनी सामन्य बुद्धि (common sense) के आधार पर ही हम समझ सकते हैं, कि द्रष्टा दृश्य से अलग होता है। द्रष्टा - आँखे, दृश्य - इस पुस्तक, टेबल या माइक्रोफोन से अलग हैं -इस बात को हम केवल सामान्य ज्ञान से समझ सकते हैं। इस प्रथम श्लोक से वेदान्त के तीन कार्यकारी सिद्धान्त प्राप्त होते वे द्रष्टा-दृश्य विवेक-प्रयोग विद्या को समझने के आधारभूत नियम हैं।
Three Principles of Seer-Seen Discrimination:
इस प्रकार पहला सिद्धान्त यह निकला कि-1. The seer is always different from the seen. " दृष्टा दृश्य से बिल्कुल अलग या भिन्न होता है।" यह कोई गूढ़ दार्शनिक बात नहीं है, इतना तो हम सभी केवल अपनी सामान्य बुद्धि के बल पर भी समझ सकते हैं। फिर हम पाते हैं कि ऑंखें केवल उन्हीं वस्तुओं को देख पाती हैं जो उससे दूर हों, ऑंखें अपने आप सीधे या प्रत्यक्षतः नहीं देख सकती। अपनी आँखों को हमलोग केवल फोटो में या दर्पण में ही देख सकते हैं। किन्तु directly या प्रत्यक्षतः सीधे अपनी आँखों को नहीं देख सकते। इसी प्रकार और थोड़ा विचार करने से हम समझ सकते हैं कि जो साधन या उपकरण (Instrument) हमें देखने के लिए उपलब्ध हैं, उन आँखों का अस्तित्व (entity-सत्ता) एक (One) है, जबकि दृश्य, नाम-रूप (रंग और आकृतियाँ) अनेक हैं। इस प्रकार दूसरा सिद्धान्त क्या निकला ?
दूसरा सिद्धान्त यह हुआ कि द्रष्टा एक है दृश्य अनेक (Many) हैं-(Seer is one scenes are many) इसी प्रकार यहाँ बैठकर जो कुछ मैं देख रहा हूँ, वह दृश्य निरंतर परिवर्तन-शील है; अभी इस हॉल में इतने लोग नहीं थे, कुछ देर बाद फिर इसमें दूसरे लोग चले आएंगे। इससे तीसरा सिद्धान्त यह निकला कि, द्रष्टा अपरिवर्तनीय है और दृश्य निरंतर परिवर्तनशील है। इस प्रकार इस श्लोक में वेदान्त को समझने के तीन कार्यकारी नियम (Operating Rules) प्राप्त होते हैं- १. द्रष्टा दृश्य से अलग या भिन्न होता है २. द्रष्टा एक (One) होता है दृश्य अनेक (Many) होते हैं ३. द्रष्टा सापेक्षिक दृष्टि से अपरिवर्तनशील अभिज्ञता (constant-awareness,अचल जागरूकता ) रहता है, और दृश्य परिवर्तनशील होने से जड़ (inert) होता है। [The seer is ‘aware’ and the seen relative to it is ‘inert’. द्रष्टा सचेतन होता है और दृश्य सापेक्षिक दृष्टि से उसकी अपेक्षा जड़ होता है।]
2.तद् दृश्यं दृक् तु मानसं- वह नेत्र भी दृश्य है,और मन उसका द्रष्टा है। श्लोक के दूसरे चरण में थोड़ा और गहराई से विचार करते हैं तब पाते हैं कि ऑंखें भी दृश्य हैं, और मन उसका द्रष्टा बन है। कैसे? अपने मन के द्वारा जान रहा हूँ कि मेरी ऑंखें खुली हुई हैं। या मेरी आँखों की अवस्था क्या है ? क्या बिना चश्में के मैं पढ़ सकता हूँ या नहीं, -यह बात ऑंखें स्वयं नहीं जानती, हम लोग अपने मन के द्वारा ही अपनी आँखों की अवस्था को जानते हैं। इस प्रकार मन जब द्रष्टा बन जाता है, तब ऑंखें दृश्य बन जाती हैं। तब उस द्रष्टा मन के लिए नया नाम आता है -'knower' ज्ञाता, और ऑंखें ज्ञेय (known) बन जाती हैं। मन केवल आँखों की अवस्था का ही ज्ञाता नहीं है, बल्कि नाक -कान आदि पंचेन्द्रीय से युक्त शरीर के हर अंग की क्रिया का ज्ञाता है। मैं सूँघ पा रहा हूँ या नहीं ? यह कौन जनता है ? मन ही जानता है। सुन पा रहा हूँ या नहीं ? बाहर से पता नहीं चलता कि सामने वाला बहरा है या नहीं ? 'fair enough' - एकदम उचित बात है ! निष्कर्ष यह निकला की 'नेत्र आदि समस्त इन्द्रियों के सहित यह शरीर ज्ञेय है और मन उसका ज्ञाता है। अब वेदान्त को समझने का पहला कार्यकारी नियम लागु करके देखें- क्या ज्ञाता मन ज्ञेय इन्द्रियों और शरीर आदि से अलग है ? क्या मन आँखों से अलग है ? हमारा अनुभव कहता है कि हाँ है ! दूसरा सिद्धान्त लागु करें - क्या ज्ञाता मन एक है और ज्ञेय विषय अनेक हैं ? हाँ, हमारी समस्त इन्द्रियों तथा शरीर की अनेकों अवस्थाओं को जानने वाला मन एक है। तीसरा सिद्धान्त लागु करें - शरीर-इन्द्रियों की अवस्थाएं निरंतर परिवर्तनशील हैं, किन्तु उनकी अवस्थाओं को जानने वाला मन 'सापेक्षिक रूप से 'aware' अपरिवर्तनशील है।
WITNESS: The ultimate Seer which sees without the help of any other entity. The Self alone is the Witness.
3. दृश्याः धीवृत्तयः साक्षी- मन में उठने वाले समस्त विचारों का भी एक द्रष्टा है, जिसे साक्षी चेतना कहते हैं।और यहीं से, प्रथम श्लोक के तीसरे चरण से वेदान्त का असली जादू (magic) शुरू हो जाता है। इससे भी गहराई में उतर कर देखते हैं, तब पता चलता है कि मन भी एक ज्ञेय पदार्थ (object) जिसका कोई ज्ञाता या साक्षी है।(contents of our mind is also something that we know) क्योंकि मन में क्या चल रहा है, उसमें कैसे विचार उठ रहे हैं, मन में उठने वाले विचारों कोई साक्षी हर समय देख रहा होता है। अर्थात मन भी एक ज्ञेय पदार्थ है और इसका भी कोई ज्ञाता या साक्षी है,और यह साक्षी ही मन को भीतर से प्रकाशित कर रहा है।
फिर mind changes into mind -कभी प्रसन्न कभी उदास -होता रहता है, again it's obvious, फिर से यह स्पष्ट है। यहाँ कहा जा रहा है कि मन स्वयं एक दृश्य वस्तु है, क्या हम अपने मन की विभिन्न अवस्थाओं को नहीं जानते ? आपने जो कहा उसे मैं समझा या नहीं समझा ? मेरा मन उदास है या खुश है ? मेरे मन में क्या इच्छा उठी उसे मैं जान रहा हूँ। जब मैं किसी घटना को याद करता हूँ, तो क्या मैं नहीं जानता मैं कुछ याद कर रहा हूँ ? जब कोई चीज चाभी या नाम याद नहीं आती तो क्या मैं यह नहीं जानता कि मेरी स्मरणशक्ति या यादाश्त 'memory' मुझे धोखा दे रही है ? इस प्रकार मन की समस्त क्रिआओं को मैं देख सकता हूँ !इस प्रकार थोड़ा गहराई से चिंतन करने पर हम देखते हैं कि, मन की बुद्धि आदि वृत्तियों (चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार) का भी कोई साक्षी है, मन का भी कोई द्रष्टा है ! यदि मन एक दृश्य है, मन भी एक ज्ञेय वस्तु है, तो इस मन का भी कोई द्रष्टा या ज्ञाता होना ही चाहिये। There is a seer of the mind there is a knower of the mind, वह ज्ञाता या द्रष्टा कौन है ? उसे हम ठीक-ठीक नहीं जानते किन्तु उसे witness या साक्षी कह सकते हैं ! क्योंकि यह मन की समस्त गतिविधियों को देखता है , इसीलिए वह इसका साक्षी है। मन उस साक्षी के लिये दृश्य बन जाता है, और साक्षी उसका द्रष्टा है।
अतः यह स्पष्ट हो गया कि मन भी कोई ऐसी वस्तु है, जिसे देखा जा सकता है, जाना जा सकता है।और इस कार्य को हम अभी तुरंत कर सकते हैं। (close your eyes and look into your mind)आँखों को मूँद कर मन को देखने की चेष्टा करें, इसको ही 'Intro Inspection' या आत्मनिरीक्षण अथवा मनःसंयोग कहते हैं। आप इसे अभी करके देख सकते हैं।ऑंखें और मन भी चुँकि परिवर्तनशील शरीर के ही अंग हैं, अतः द्रष्टा के रूप में उनको सापेक्षिक रूप से अपरिवर्तनशील कहा जाता है, जबकि दृश्य -शरीर-इन्द्रियां आदि निरंतर परिवर्तनशील है। वैसे मन स्वयं भी अपनी अवस्थाओं में-चित्त, मन,बुद्धि अहं आदि अवस्थाओं में परिवर्तनशील रहता है।
ये ऑंखें पुस्तक से एकदम पृथक हैं, इसमें विश्वास करने की जरूरत नहीं पड़ती , मैं बिल्कुल आश्वस्त हूँ कि ऑंखें पुस्तक से अलग हैं। उसी प्रकार हमें अपने अनुभव से बिल्कुल आश्वस्त होना पड़ेगा कि , हाँ मैं इस मन और शरीर से बिल्कुल पृथक अजर-अमर अविनाशी साक्षी हूँ। किन्तु हमने देखा है कि मनःसंयोग का अभ्यास करते समय या 'intro- inspection ' या 'आत्म-निरीक्षण' करते समय, यह मन भी अपने को दो भाग में बाँट कर द्रष्टा मन से दृश्य मन को देख सकता है ? तो फिर हम यह क्यों समझें कि मन से भिन्न कोई दूसरा साक्षी है, जो मन की गतिविधियों को देख रहा है ? वेदान्त इसके उत्तर में कहता है, एकाग्रता का अभ्यास करते करते (ध्यान के गाढ़ा तैलधारवत होने से) एक अवस्था ऐसी आती है, जब मन नहीं होता किन्तु तुम होते हो !
और सुषुप्ति की अवस्था तो इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जिसका अनुभव हम प्रतिदिन करते हैं। गहरी नींद में हम नहीं थे तो सोया कौन था ? नहीं, क्यों यह शरीर ही सोया पड़ा था। किन्तु जब तुम उठते हो तब कहते हो-मुझे बड़ी अच्छी नींद आयी, कुछ पता ही नहीं चला ? जिस समय मन आत्म-निरीक्षण नहीं कर रहा होता है, क्या उस समय भी तुम अपने अपने मन को जान नहीं रहे होते हो ? basic level of awareness is going on'- जागरूकता (awareness) अपने सापेक्षिक स्तर पर निरंतर क्रियाशील रहती है। ऐसी कोई चीज है जो मन को प्रकाशित (illumining) कर रही है। इसीलिए मन भी अपने को द्रष्टा-दृश्य में बांटकर आत्मनिरीक्षण कर सकता है। किन्तु मन को आत्मनिरीक्षण की क्षमता कौन प्रदान कर रहा है ? बुद्धि यादों का स्मरण कर रही है। तब भी मन में एक consciousness चेतना बनी हुई है। जैसे कोई सर्जन ऑपरेशन करते समय मन को पूरा एकाग्र कर लेता है, उस समय भी मन रहता है, किन्तु मैं -पन का होश नहीं रहता। अतः साक्षी मन (अहं) से बिल्कुल पृथक है।
जगत के साथ सबसे गहरी आसक्ति (attachment) का उदाहरण, हम जानते हैं कि माँ की ममता के द्वारा दिया जाता है। और बच्चे के प्रति वैसी ममता का रहना अनिवार्य भी है। किन्तु जो माँ अपने बच्चे के बिना एक मिनट नहीं रह सकती ,वह माँ जब गहरी निद्रा में सो जाती है, तब बच्चे को, जगत को और अपने शरीर को बिल्कुल भूल जाती है। और ऐसा हर रात में होता है। क्योंकि तुम मन नहीं, मन के साक्षी हो, और साक्षी-चेतना (witness consciousness, चैतन्य आत्मा) सदैव मन (जड़) से पृथक होती है।
वेदान्त कहता है - " तुम अपने मन के ज्ञाता हो, और ज्ञाता ज्ञेय से हमेशा अलग होता है!" वेदान्त केवल इतना ही नहीं है, किन्तु इतना समझ लेने से भी जगत की सारी समस्याएं दूर हो जाती हैं। समस्या शरीर, मन या जगत में होती हैं। साक्षी उससे हमेशा अलग होता है। मेरी गरीबी, मेरी असफलता, मेरी इच्छा -भले तुम उन्हें पकड़े रहो, किन्तु वे तुम्हारे स्वरूप का हिस्सा नहीं हैं। तुम कितना भी पकड़े रहो, सब चला जायेगा।
हम हर रोज अनुभव करते हैं कि रात्रि में नींद के समय सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं। चाहे कोई व्यक्ति I.C.U. (गहन चिकित्सा केन्द्र) में सोया हुआ है या अमेरिका के प्रेजिडेंट का देह-मन व्हाइट हॉउस में सोया हुआ है -गहन निद्रा में दोनों की अवस्था एक सी होती है। उसी प्रकार संसार की (देह-मन की) समस्यायें हमसे बिल्कुल अलग हैं, किन्तु हम उन्हें पकड़े रहना चाहते हैं। जैसे बन्दर को पकड़ने के लिए मदाड़ी संकीर्ण मुंह वाले बर्तन में चना भर कर बन्दर के समक्ष रख देता है। और बंदर जब संकरे मुख वाले बर्तन में हाथ डालकर, चने को अपनी मुट्ठी में भर लेता है, और जब हाँथ बाहर निकालना चाहता है,तब नहीं निकाल पाता, बर्तन उसके हाथों में फंस जाता है, और मदाड़ी उसे पकड़ लेता है। अगर उसी समय बंदर मुट्ठी खोल दे तो वह भाग सकता था। किन्तु वह चने से इतना आसक्त हुआ रहता है, कि उसे छोड़ना नहीं चाहता और पकड़ा जाता है। इसको कोई पकड़ नहीं सकता था परन्तु भ्रम और इच्छा के कारण वह पकड़ा जाता है। यदि कोई मंकी चने को छोड़ दे तो वह मंक बन जाता है।
इस पर एक मजेदार घटना भी है। इन दिनों समाज में साधारण गृहस्थ लोगों का सही मार्गदर्शन करने में समर्थ शिक्षकों, नेताओं का घोर अभाव हो गया है। अधिकांश नेता, शिक्षक और तथाकथित धर्मोपदेशक पेशेवर व्यापारी (Professional businessman) बन गए हैं, जबकि आध्यात्मिक ज्ञान खरीदने-बेचने की वस्तु नहीं है। इसीलिए कुछ भारतीय लोग भी, पाश्चात्य योगा-पर्यटकों के समान,आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए, सच्चे साधु/शिक्षक की खोज में महामण्डल द्वारा -" स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में आने के बजाए, कुम्भ मेले में या हिमालय पर रहने वाले सन्यासियों के पास जाना अधिक लाभकारी समझते हैं।
ऐसा ही दिल्ली का कोई युवा व्यवसायी (Young businessman) सांसारिक दुःख-कष्ट से बचने का उपाय पूछने के लिए हिमालय पर रहने वाले किसी साधु से मिलने अक्सर जाया करता था। उसके मार्गदर्शक नेता/आध्यात्मिक शिक्षक बहुत ऊँचे पहाड़ों पर रहते थे। ऐसा माना जाता है, जो साधु जितनी अधिक ऊँचाई पर रहेंगे , उनका ज्ञान भी उतना ऊँचा होगा। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द चाहते थे कि पर्वतों की कन्दराओं और अरण्यों में छिपे वेदान्त को सामान्य नागरिकों किसानो-मजदूरों-खेल के मैदानों, कारखानों तक ही नहीं भारत के द्वार द्वार तक पहुँचा दिया जाये। एक दिन उस युवा कारोबारी ने बहुत ऊँचे पहाड़ पर रहने वाले साधु से कहा- महाराज, मैं बहुत दुःखी हूँ, बड़े कष्ट में हूँ। संन्यासी ने पूछा क्या तुम्हें दुःख का अनुभव हो रहा है ? हाँ , तभी तो आपके पास आया हूँ। साधु बोले यदि तुम अपने दुःख का अनुभव कर रहे हो, तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम अपने दुःखों को जानने वाले हो। इस प्रकार वास्तव में तुम दुःख के ज्ञाता हो, तुम स्वयं दुःखी नहीं हो। बल्कि अपने मन में होने वाले दुःख को देखने वाले द्रष्टा हो। क्योंकि विवेक-प्रयोग का मौलिक सिद्धान्त (गुरुत्वाकर्षण के नियम जैसा-आध्यात्मिक नियम) है कि ज्ञाता (Subject) सदैव ज्ञेय वस्तु (object ) से अलग होता है। तुम दुःख-सुख को जानने वाले हो, स्वयं दुःखी नहीं हो। जो भय को जानने वाला है, वह भयभीत नहीं होता। उदासी को देखने वाला उदास नहीं है।
उस युवा कारोबारी ने जब मन की समस्या को अपने से थोड़ा अलग करके देखा, तो उसकी घबड़ाहट कम होने लगी और उसकी बुद्धि थोड़ी स्थिर हुई । अब साघु बोले अब जरा विचार करो कि क्या मन के दुःख-कष्ट तुम्हारे साथ संलग्न हो गए हैं ? स्वयं से पूछ कर देखो कि क्या वे दुःख-कष्ट तुमको belong करते हैं ? दुःख-कष्ट का अनुभव तो तुम्हारा मन कर रहा है। युवक ने कहा - यह ठीक है कि मन मुझसे अलग है, किन्तु इसमें तो कोई संदेह नहीं कि यह मेरा मन है, इसीलिए मैं अपने मन के दुःखी या उदास होने से स्वयं को दुःखी और उदास अनुभव करता हूँ।
साधु ने पूछा- क्या वास्तव में यह मन तुम्हारा मन है ? ये क्या प्रश्न हुआ ? जरूर यह मेरा मन है, मैं इसकी हर अवस्था को जानता हूँ! साधु बोले नहीं, जरा और ठीक से सोच कर बताओ - मानलो तुम किसी ट्रेन से जा रहे हो। सामने के सीट पर बैठे आदमी से तुम्हारा परिचय हो गया , तुम उसको अच्छी तरह जान गए, कुछ घंटों बाद वह उतर गया। तुम उसको जानते हो, क्या करता है, कैसा दीखता है, सब कुछ तुम जानते हो, किन्तु इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि वह यात्री तुमसे संलग्न हो गया, तुमसे जुड़ा हुआ है - या तुमको belong करता है ? थोड़ी देर सोचने के बाद वह युवक बोला - " महाराज आप ठीक कहते हैं, यह मन मुझे बिल्कुल अलग है, अतः अब मैं बिल्कुल शांत हूँ।"
किन्तु कहानी का दिलचस्प हिस्सा (interesting part of the story) यहाँ से शुरू होती है, उसको अपने गुरु से असली शिक्षा अब मिलती है। साधु कहते हैं -'नहीं तुम शान्त नहीं हो, तुम अपने मन की शांति के ज्ञाता हो। 'जिस प्रकार मन के दुःख के साथ जब तुम्हारा 'अहं -बोध या 'मैं'-पन' संलग्न (attach) हो गया था, तब तुम अपने को दुःखी सझने लगे थे। किन्तु जब तुम्हारे जीवन्मुक्त शिक्षक ने यह समझा दिया कि तुम मन नहीं हो, मन के साथ संलग्न नहीं हो, मन तुमसे अलग वस्तु है, और तुम मन के ज्ञाता हो। तुम मन के भी साक्षी हो, उससे भिन्न हो। अतः इस समय गुरु के उपदेश को सुनकर उस कारोबारी पर दुःख का प्रभाव कम हो गया और वह दुःख-कष्ट की उपेक्षा करके,मन पर नियंत्रण रखने में अभी तो समर्थ हो गया है।
किन्तु यह कारोबारी जिस प्रकार इस समय मन की शांति के साथ स्वयं संलग्न (attach) हो कर कह रहा है कि -अब मैं बिल्कुल शांत हूँ ! उसी प्रकार जब यह लौटकर दिल्ली जायेगा तो सांसारिक लोगों के उपदेश को सुनकर - मन के दुःख को अपना दुःख मानकर उस दुःख के साथ भी फिर से संलग्न (attach) हो जायेगा। इसीलिए साधु ने कहा - ' तुम शांत नहीं हो, तुम अभी अपने मन में उपस्थित शांति के ज्ञाता हो, जिस प्रकार पहले तुम अपने मन में उपस्थित शांति की कमी या दुःख के ज्ञाता थे! तुम मन की ख़ुशी के ज्ञाता हो, उदासी के ज्ञाता हो, उदास नहीं हो, तुम दुखी नहीं हो! तुम मन के सुख-दुःख से परे हो! इस बोध में प्रतिष्ठित हो जाना ही सच्ची शांति है।"
अपने साक्षी स्वरूप की विस्मृति का सबसे बड़ा कारण है -आत्मा का देह के साथ तादात्म्य कर लेना या देहध्यास। जब कभी ठोकर लगकर नाख़ून उखड़ जाता है, उस समय जिस शारीरिक दुःख का अनुभव होता है, उस समय क्या कोई सोंच सकता है कि मैं आत्मा हूँ ? वेदान्त एनेस्थीसिया नहीं है, वेदान्त इस दृष्टिगोचर दुनिया को बदलने की चेष्टा नहीं करता यह सत्यार्थी को भ्रममुक्त या विसम्मोहित करता है।भले अभी हमलोगों को आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ हो , फिर भी यह वेदान्त हमारी सहायता करता है। क्या तुम्हें पेट में दर्द का अनुभव होता है ? हाँ , तब तुम वह हो, जो दर्द का ज्ञाता है। तब तुम अवश्य इससे पृथक हो। स्वामी तुरियानन्द जी एक बार नासूर (carbuncle) का ऑपरेशन बिना एनेस्थीसिया के करवा लिए थे, किन्तु जब बैंडेज करते समय रुई को खींचा तो कराह पड़े; डॉक्टर ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा-यदि तुम पहले ही मुझे सावधान कर देते, कि तुम बैंडेज उखाड़ने वाले हो; तो इस समय भी मैं पहले ही मन और देह से अपने को अलग कर लेता। उन्होंने बंगला में कहा था 'बोलबे तो आगे मन के तूले निताम।' यह उदाहरण एक स्पष्ट प्रमाण है कि मनुष्य अपने देह-मन से बिल्कुल अलग है,उसका ज्ञाता है। clear proof that you exist apart from your mind. एक नए साधु जो सिद्ध नहीं हुए थे -उनकी नकल करने गए तो चिल्ला पड़े। बोले 'वो शाला किताब का बात किताब में ही रह गया। ' इससे भी बड़ा कष्ट शारीरक कष्ट होता है, पाईल्स या पेट में आँव हो जाय - तो पहले डॉक्टर से मिलो; उसके बाद वेदान्त (लीडरशिप क्लास 😄) के पास आ सकते हो।
कर्मयोग जगत का कल्याण करके चित्त को शुद्ध करने की बात कहता है। भक्तियोग सारा ध्यान ईश्वर पर लगाकर जगत की सेवा करने की बात कहता है। राजयोग योगिक समाधि (Concentration) के द्वारा मन को बदलने का प्रयास करता है। ज्ञानयोग अज्ञान को दूर करने के लिए केवल बौद्धिक -समझ या सामान्य ज्ञान का प्रयोग करता है। क्योंकि ज्ञान स्वयं ही मन को शांत कर देता है ! knowledge itself calms down the mind !
4. दृक् एव न तु दृश्यते- वह साक्षी चेतना ही वास्तविक द्रष्टा है, वह किसी के लिए दृश्य नहीं है। श्लोक के चौथे चरण में यह समझ में आता है कि हर अनुभव के अनुभवकर्ता (subject) हम स्वयं हैं, अतः हम स्वयं कभी 'object ' या ज्ञेय पदार्थ नहीं हो सकते। और यह मन हमारे लिए एक ज्ञेय पदार्थ जैसा ही है। हमलोग जगत और इसके विषयों का अनुभव मन के द्वारा ही करते हैं, अतः यह मन हमारा केवल उपकरण या साधन है। जिसको अन्तःकरण कहा जाता है। इससे क्या निष्कर्ष निकला? यही कि हमलोग मन (इन्द्रिय,शरीर) नहीं हैं, हम इसके द्रष्टा, ज्ञाता या साक्षी है;और यह हमारे लिए एक नया और बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन (Revelation) है। क्योंकि इसके पहले हम स्वयं को केवल एक 'body mind complex' मन-शरीर मिश्रित संरचना समझ रहे थे। हम यह समझ रहे थे कि मैं केवल एक व्यक्ति 'individual' हूँ अर्थात आईने में जो M/ F शरीर दीखता है , और इसके भीतर का मन जो इस शरीर को स्त्री-पुरुष मानता है,वही मैं हूँ। आमतौर से हम सभी ऐसा ही सोचते हैं कि 'boundary of the body is this skin' केवल इस त्वचा तक ही मैं हूँ! मेरे शरीर की सीमा बस इस त्वचा तक ही है;और इस त्वचा के उधर (beyond) जो कुछ है, वह मैं नहीं हूँ। किन्तु 'विवेक-प्रयोग विद्या' सिखाने वाली यह पुस्तक हमें शिक्षा देती है, कि हमलोग यह शरीर या मन नहीं हैं, बल्कि हम इसके इसके ज्ञाता, द्रष्टा या अनुभवकर्ता हैं।इसके पहले वाले निबन्ध में भी हमने यह जान लिया था कि हम लोग देह-मन नहीं हैं बल्कि हम स्वरूपतः इस देह-मन (2'H') के साक्षी (आत्मा 3rd 'H') हैं !
अब प्रथम श्लोक के चौथे चरण पर पहुँचकर "Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षण पाने वाला वेदान्त का भावी नेता/शिक्षक (Would be Leader of Vedanta) अपने जीवनमुक्त प्रशिक्षक/C-in-C/ नेतावरिष्ठ नवनीदा पूछता है - क्या मैं उस साक्षी चेतना (existence-consciousness-bliss) को जान सकता हूँ ? नहीं, 'तुम' उसे कभी नहीं जान सकते -क्योंकि कि 'वह' तो तुम्हारा स्वरूप ही है। [साक्षी [चैतन्य-आत्मा] दृक् एव, न तु दृश्यते (न एव दृश्यः)॥the sākŝi (the witness, namely, the Ātman) is the seer only, and never the scene.]
तुम अपने विषय में साधारण बुद्धि का प्रयोग करके कितना और क्या जानते हो ? बस वही परिचय जो तुम्हारे पासपोर्ट में या आधार कार्ड में लिखा है। किन्तु वास्तव में तुम क्या हो ? चौथे चरण में लेखक कहते है -साक्षी (आत्मा) मन से पृथक है और उसका ज्ञाता है। किन्तु क्या यह आत्मा अभी हमारे लिए सत्य है या हमें इसकी अनुभूति करनी बाकि है ? नहीं, इस समय हमें इसकी अनुभूति नहीं है, किन्तु महामण्डल के 5 अभ्यासों को सीखकर भविष्य में अपने स्वरुप की अनुभूति की जा सकती है। बल्कि इस समय भी अपने साक्षी स्वरुप को सामान्य ज्ञान या बौद्धिक समझ के द्वारा भी अनुभव किया जा सकता है। हम सभी लोग इसी समय एक ज्ञाता के रूप में सभी ज्ञेय वस्तुओं से (देह-मन से) पृथक हैं ! तो फिर इस समय उसकी अनुभूति क्यों नहीं हो रही है? क्योंकि सब कुछ समझने के बाद भी, विवेक-प्रयोग आदि का अभ्यास करने के बाद भी बंदर ने केले/या चने को मुट्ठी में पकड़ा हुआ है। हमने अपने मन से शरीर-इन्द्रियों के साथ तादतम्य कर लिया है। इसीलिए हम अपने को बन्धन में फंसा महसूस करते हैं।
फिर भी यह न समझना कि वह अज्ञात ही रह जाता है। नाम-रूप दृश्य (object-पदार्थ) है, द्रष्टा (subject कर्ता है); फिर वह (आँख) दृश्य या ज्ञेय है, मन उसका ज्ञाता है; फिर मन की वृत्तियाँ (चित्त-मन-बुद्धि -अहंकार) दृश्य है, इसका द्रष्टा साक्षी (आत्मा) है; और साक्षी को कभी नहीं देखा जा सकता, किन्तु उसे अज्ञात या अज्ञेय भी नहीं समझना चाहिये ; उसका बोध नहीं प्रतिबोध होता है। यह बुद्धत्व प्राप्त करना असम्भव नहीं है।
केनोपनिष्द 2.4 कहता है -'प्रतिबोध विदितं मतं अमृतत्वं हि विन्दते ।' -तुम स्वयं वह साक्षी चैतन्य (conscious witness) हो, जो इस बुद्धि को प्रकाशित करता है। मनुष्य के अधिकार में ज्ञानोपलब्धि के दो साधन इन्द्रिय और आत्मा हैं। इन्द्रियों से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे बोध और आत्मा के द्वारा जिस ज्ञान की उपलब्धि होती है, उसे प्रतिबोध कहते हैं। मन की बहिर्मुखी वृति के द्वारा उपलब्ध ज्ञान का नाम ही बोध है, परन्तु जो ज्ञान अन्तर्मुखी वृति के द्वारा प्राप्त हुआ करता है उसे बोध नहीं कह सकते; उसका नाम प्रतिबोध है। इस अन्तर्मुखी वृति का कार्यक्षेत्र आत्मा और परमात्मा होते हैं, इसलिए आत्मा को जो अपने स्वरूप का ज्ञान या ईश्वर का ज्ञान प्राप्त हुआ करता है, उसी का नाम प्रतिबोध है। 'प्रतिबोध विदितं मतं' परमात्मा की उपलब्धि प्रतिबोध में अर्थात प्रत्येक अनुभूति में होने लगती है। और जब किसी महापुरुष को " प्रत्येक बोध में ब्रह्मबोध होने लगता है - बोध बोध में ब्रह्मबोध होता है; तब उस महापुरुष के लिए फिर मरण कैसा?”जब किसी पैगम्बर/नेता /शिक्षक को वह अवस्था प्राप्त हो जाती है-तब वह जिस तरफ अपनी नजरों को घुमाता है, वह वहीँ ब्रह्म को देखता है -
आत्माकाश मे देहाभिमान जीव भाव की सृष्टि कर देता है । देहाभिमान के नष्ट होते ही जीवात्मा अपने ब्रह्म स्वरूप मे प्रतिष्ठित हो जाता है । जीव को ब्रह्म होने मे उतनी ही देर लगती है जितनी देर किसी 'ब्राह्मण' को 'मनुष्य' होने मे लगती है । 'ब्राह्मण' (ब्रह्मवेत्ता व्यक्ति) मनुष्य ही है केवल 'ब्राह्मणत्व का अभिमान' हटाना है इसी प्रकार देहाभिमान हटा देने पर जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है!
श्लोक का चौथा चरण कहता है -यह साक्षी (आत्मा) ही सच्चा द्रष्टा है। फिर मन क्या है ? मन है दृश्य वस्तु। साक्षी, इन्द्रिय, शरीर और मन मिलकर इस सम्पूर्ण जगत के द्रष्टा हैं। किन्तु सच्चा द्रष्टा एक मात्र साक्षी चैतन्य ही है। उपनिषद् में यह शिक्षा यह दी गई है कि इस प्रतिबोध (आत्मानुभव) से, प्राप्त विज्ञान से, मनुष्य अमरता (मोक्ष-डीहिप्नोटाइज्ड या जीवन्मुक्त अवस्था) प्राप्त करता है। उसे अपने पुरुषार्थ से 3H का बल (शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार का बल ) विकसित करना चाहिये; और उपलब्ध विज्ञान से अमरता लाभ करना चाहिए। अपने जीवन के हर कार्यक्षेत्र में इस अनन्त चैतन्य का अनुभव करने से यह शक्ति विकसित होती है, केवल समाधि में रहने से नहीं होती।
और यह सम्भव है, परन्तु इस प्रतिबोध की प्राप्ति अहंकार के तिरोहित या नाश होने से ही हुआ करती है। अहंकार के नाश से ममता का नाश होता है और ममता के नाश से मनुष्य (आत्मा) और परमात्मा के बीच से 'द्वैत का परदा' उठ जाता है। यह साक्षी ही एकमात्र ज्ञाता है, बाकी सबकुछ ज्ञेय है। यह साक्षी चैतन्य -मन,बुद्धि अहंकार से अलग है। मन-बुद्धि-अहंकार शरीर हर कुछ निरंतर बदलता रहता है, साक्षी कभी नहीं बदलता। फिर यह साक्षी एक है -बाकि सब अनेक है।
अद्वैत- वेदान्त में साक्षी की परिभाषा: श्रीरामकृष्णस्तवराजः में कहा गया है- "बुद्धेश्चसाक्षी निखिलस्य जन्तोः। यो वेत्ति सर्वं न च यस्य वेत्ता, परात्मरूपो भुवि रामकृष्णः ॥१॥" जो सबको जानते हैं उनको कोई नहीं जानता, वह कौन है ? श्री रामकृष्ण ? [स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्||३. १९||] नहीं , अद्वैत -वेदान्त कहता है - 'तत्त्वमसि' -वह तुम ही हो ! तुम स्वयं ('वह' शाश्वत चैतन्य श्रीरामकृष्ण) ही अपनी बुद्धि और अहं के साक्षी हो।
जैसे 'धन' में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति अपने को ‘धनवान्’ समझता है; किन्तु 'धन' (कामिनी,कांचन और कीर्ति) आसक्ति नहीं रहने से धनवान्-व्यक्ति (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटा हुआ व्यक्ति-सद्गृहस्थ) तो रहता है, पर अब उसका नाम 'धनवान्' (संसारी -धनपशु) नहीं रहता । ऐसे ही दृश्य के सम्बन्ध से ‘द्रष्टा’ कहलाता है; किन्तु दृश्य का सम्बन्ध न रहने पर द्रष्टा तो रहता है, पर ‘द्रष्टा’ संज्ञा नहीं रहती । तात्पर्य है कि एक ही चिन्मय तत्त्व (समझने के लिये) दृश्य के सम्बन्ध से द्रष्टा, साक्ष्य के सम्बन्धसे साक्षी, करण के सम्बन्ध से कर्ता और शरीर के सम्बन्ध से शरीरी कहा जाता है । किन्तु वास्तव में उस तत्त्व का कोई नाम नहीं है । वह केवल अनुभवरूप है । [साभार http://satcharcha.blogspot.com/]
माण्डूक्य उपनिषद में कहा है -" शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥"-जीवन की चार अवस्थाएँ है - 1. जागृति 2. स्वप्न 3. सुषुप्ति 4. तुर्यगा । तुर्यगा - तीनो अवस्था से मुक्त होना तुर्यगा है। ब्रह्म को जिस इन्द्रियातीत ज्ञान अवस्था मेँ आत्मरुप और अखण्ड जाने वही अवस्था तुर्यगा है।जाग्रत आदि तीन अवस्थाओं से रहित शिव, अद्वैत स्वरूप,निर्विकल्प समाधि की जो चौथी अवस्था है वह तुर्यगा है। यह तुर्यगा अवस्था जीवन्मुक्त पुरुषों में इसी देह में विद्यमान रहती है।
मंत्र में जिसे - 'शान्तं, शिवं, अद्वैतं' कहा जा रहा है वह 'तुम' और 'मैं' ही हूँ। शान्तं -शिवं -अद्वैतं हमलोगों का ही नाम है। 3rd'H' हृदय (Heart) या आत्मा का का ही एक नाम शांति है, ऐसा नहीं कि आध्यात्मिक आत्मा शांत होती है,आत्मा स्वभावतः शांति ही है। चाहे तुम्हारा मन (Head) और शरीर (Hand) शांत रहता हो या नहीं रहता हो, जगत शांत हो या सतत् परिवर्तनशील रहता हो, किन्तु तुम (3rd 'H') साक्षी भाव से हमेशा के लिये अक्षुब्ध (undisturbed ) हो । वह शांति -साम्यभाव (equilibrium, संतुलन) ही तुम्हारा स्वरूप है। यहाँ तक कि तुम जब तुम देह-मन के साथ तादात्म्य करके जगत के साथ तादात्म्य कर लेते हो, अपना मान बैठते हो। और अपने को मन -देह के साथ एकदम संलग्न (attached-आसक्त) समझते हो, और कहते हो मन का दुःख मेरा दुःख है, मन का अज्ञान मेरा मन है, मन का संसारी स्वभाव मेरा स्वभाव है, तब तुम अपने आप से यह सब मिथ्या (false) भाषण करते हो, स्वयं से झूठ बोलते हो। वह ज्ञाता जो मन-बुद्धि को भी जान रहा है, वास्तव में हम स्वयं 'शान्तं -शिवं -अद्वैतं' ही हैं। [सदा सत्य बोलो ! 'मैं वह हूँ !'] यहाँ भी वेदान्त समझने के द्रष्टा या साक्षी को समझने के लिए वेदांत के (विवेक-प्रयोग विद्या) के तीन मौलिक नियमों का प्रयोग करें -
१. द्रष्टा और दृश्य यहाँ भी भिन्न हैं, जो 'साक्षी-चेतना ' (Witness consciousness) मन को देख रही है, वह निश्चित रूप से मन से अलग कोई वस्तु है।
२.दूसरा नियम है, द्रष्टा एक रहता है, दृश्य अनेक होता है। मन में अनेकों विचार, इच्छायें , भावनायें आती -जाती रहती हैं, विचारों का प्रवाह चलता रहता है, किन्तु उसको जानने वाला साक्षी एक ही होता है।
३. तीसरा मौलिक नियम है कि द्रष्टा साक्षी चेतना अपरिवर्तनीय है, मन में उठने वाले विचार, दृश्य या ज्ञेय विचार, इसकी इच्छायें-आकांक्षाएं निरंतर परिवर्तन शील है। मन की अवस्था सापेक्षिक रूप से निरंतर बलदती रहती है, किन्तु मन की अवस्थाओं में परिवर्तन को देखने वाला साक्षी नहीं बदलता, हर परिस्थिति में वह - मन को साक्षी भाव से देखता रहता है। अंतिम निष्कर्ष The seer is ‘aware’ and the seen relative to it is ‘inert’. यह निकला कि द्रष्टा जागरूक (aware या चेतन) और दृश्य सापेक्षिक रूप से जड़ है। अब इस पुस्तक के अगले २,३,४ और ५ तक के श्लोक को देखेंगे, तो पता चलेगा कि इन श्लोकों में इस पुस्तक के प्रथम श्लोक को ही और अधिक स्पष्ट रूप में समझाने की चेष्टा की गयी है।
हमारी आँख द्रष्टा बनकर, नीला-पीला रंग, स्थूल-सूक्ष्म, छोटा -बड़ा आदि अनेक प्रकार के आकृतियों को या रूपों को देखती है। इस श्लोक में प्रथम श्लोक के पहले चरण की व्याख्या है।
3. नाना-विधानि रूपाणि - आकृतियाँ रूप कई प्रकार की हैं।
4. श्लोक के चौथे चरण में कहा गया सभी रंग रूपों के देखने वाला एक मात्र नेत्र हैं।
यह श्लोक विवेक-प्रयोग के तीन मौलिक सिद्धान्तों में से प्रथम सिद्धान्त -" द्रष्टा एक होता है, दृश्य अनेक होते हैं" के समर्थन में कहा गया है। बाह्य जगत में कुछ रूप विभिन्न रंगों और आकर में है, नीले,पीले, स्थूल -सूक्ष्म हैं। कुछ लम्बे है, कुछ नाटे कद के अनेक (Many) नाम-रूप हैं -किन्तु समस्त प्रकार के रंग-रूपों का द्रष्टा एक (One )ऑंख ही है।उसी प्रकार शब्द,रस,गंध, स्पर्श आदि विषय भी मस्तिष्क में अवस्थित उसके corresponding senses, कान, जिह्वा, नाक, त्वचा आदि सम्बंधित इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव में आते हैं। बाह्य जगत की सम्पूर्ण जानकारी मन ही प्राप्त करता है; इस दृष्टि से देखने पर मन पाँचों इन्द्रियों का स्वामी है। यहाँ मन द्रष्टा है और इन्द्रियाँ दृश्य हैं।
प्रथम श्लोक में हमने समझा था कि 'विवेक-प्रयोग विद्या' तीन मौलिक सिद्धान्तों (operating principles) के अनुसार कार्य करती है-1.द्रष्टा एक होता है और दृश्य अनेक होते हैं। 2.द्रष्टा दृश्य से सदैव भिन्न होता है। 3.तीसरा सिद्धान्त कहता है कि दृश्य (सापेक्षिक दृष्टि से) निरंतर परिवर्तनीय होता है, किन्तु द्रष्टा (सापेक्षिक दृष्टि से) अपरिवर्तनीय होता है। निष्कर्ष क्या निकला? यही कि द्रष्टा, दृश्य से सदैव भिन्न या अलग होता है।
अब श्लोक 3 को लेते हैं, इसमें पहले श्लोक के दूसरे चरण 'तद्दृश्यं दृक्तु मानसम्' की व्याख्या है। तद् [लोचन-आदि-सूक्ष्म-इन्द्रियं तु] दृश्यं [भवति यस्मात् एव] मानसं (मनस्) दृक्। आँख (कान,नाक,जिह्वा,त्वचा आदि) भी दृश्य है और मन उसका द्रष्टा है।
उस आँख के अंधापन, मन्दता या तीक्ष्णता आदि विविध धर्मों को हमारा एक मन समझता है।इसी प्रकार कान,नाक, जिह्वा, त्वचा आदि इन्द्रिय-विषयों के बारे में भी समझना चाहिये।
Chapter 1: (Verses 1-5) THE BASIC LAWS OF DISCRIMINATION
रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं दृक्तु मानसम् ।दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते ॥ १॥
[स्थूल-]रूपं दृश्यं [ग्रहक-योग्यं भवति यस्मात् एव] लोचनं [चक्षुस्-आदि-इन्द्रियं] दृक्। तद् [लोचन-आदि-सूक्ष्म-इन्द्रियं तु] दृश्यं [भवति यस्मात् एव] मानसं (मनस्) दृक्। [सूक्ष्म-रूपाः] धी-वृत्तयः दृश्या: [भवन्ति यस्मात् एव] साक्षी [चैतन्य-आत्मा] दृक् एव, न तु दृश्यते (न एव दृश्यः)॥
उस आँख के अंधापन, मन्दता या तीक्ष्णता आदि विविध धर्मों को हमारा एक मन समझता है।इसी प्रकार कान,नाक, जिह्वा, त्वचा आदि इन्द्रिय-विषयों के बारे में भी समझना चाहिये।
Such characteristics of the eye as blindness, sharpness or dullness, the mind is able to recognize because it is a unity. This also applies to the ear, skin etc.
कामः सङ्कल्पसन्देहौ श्रद्धाऽश्रद्धे धृतीतरे ।ह्रीर्धीर्भीरित्येवमादीन् भासयत्येकधा चितिः ॥ ४॥
कामः, सङ्कल्प-सन्देहौ, श्रद्-धा-अ-श्रद्-धे, धृति-इतरे [धृति-स्व-विपरिते], ह्रीः, धीः, भीः इति एवम् आदीन् [वृत्ति-विशेषान्] चितिः (चैतन्यं) एकधा (केवलं) भासयति॥
कामना, संकल्प, संदेह, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, लज्जा, ज्ञान, भय आदि मन की विभिन्न वृत्तियों को भी एक ही साक्षी चेतना चेतनता को प्रकाशित करती है।
Consciousness illumines desire,determination and doubt, belief and non belief, constancy and its opposite, modesty, understanding, fear and other, because it is a unity.
नोदेति नास्तमेत्येषा न वृद्धिं याति न क्षयम् ।स्वयं विभात्यथान्यानि भासयेत्साधनं विना ॥ ५॥
एषा [चितिः] न उदेति, न अस्तम् एति, न वृद्धिं न क्षयं [च] याति। [एषा] स्वयं विभाति [विविध-वृत्ति-रूपतस् भाति], अथ [च अन्य-]साधनं विना [एषा] अन्यानि भासयेत् (प्रकाशयेत्)॥
साक्षी चैतन्य की चेतनता का न तो उदय होता है, न अस्त होता है। इसमें कोई वृद्धि अथवा क्षय भी नहीं होते है। यह स्वयं प्रकाश्य है, तथा बिना किसी साधन की अपेक्षा के अन्य समस्त को प्रकाशित करती है।
This Consciousness does neither rise nor set. It does not increase; nor does it suffer decay. Being self-luminous, it illumines everything else without any other aid.
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Chapter 2: (Verses 6-12)/“Ego & Reflected Consciousness”
चिच्छायाऽऽवेशतो बुद्धौ भानं धीस्तु द्विधा स्थिता ।एकाहङ्कृतिरन्या स्यादन्तःकरणरूपिणी ॥ ६॥
चित्-छाया-आवेशतस् (चिति-प्रतिबिम्ब-अनुप्रवेशात्) बुद्धौ भानं [बुद्धिः स्वयम्-प्रकाशमाना इव वर्तते]। धीः (बुद्धिः) तु द्विधा [न एकधा] स्थिता। एका अहम्-कृतिः [अहम्-विषय-अन्तर्-करण-रूपिणी], अन्या [इदम्-विषय-]अन्तर्-करण-रूपिणी स्यात्॥
बुद्धि में साक्षी चेतना का प्रतिबिम्ब पड़ने से जड़ बुद्धि स्फूर्ति से युक्त हो जाती है। तथा इसमें जानने का सामर्थ्य भी जाग्रत हो जाता है। उसके बाद यह बुद्धि दो वृत्तियों से युक्त दिखने लगती है, प्रथम अहंकार और दूसरी अन्तःकरण वृत्ति।
Buddhi appears to possess luminosity on account of the reflection of Consciousness in it. Intelligence is of two kinds. One is designated egoity, the other as mind.
छायाऽहङ्कारयोरैक्यं तप्तायःपिण्डवन्मतम् ।तदहङ्कारतादात्म्याद्देहश्चेतनतामगात् ॥ ७॥
छाया-अहङ्कारयोः (चित्-छाया च अहम्-कृतिः च तयोः) ऐक्यं [विरुद्ध-धर्मि-]तप्त-अयस्-पिण्डवत् मतम्। तद्-अहङ्कार-ताद्-आत्म्यात् [अ-चेतनः] देहः चेतनताम् अगात् [ज्ञान-स्व-रूपत्वम् प्राप्नुयात्]॥
प्रतिबिंबित चेतना और अहंकार का सम्बन्ध लोहे के लाल तप्त गोले और अग्नि के समान होता है। अहंकार जब देह के साथ तादात्म्य करता है, तब देह भी चेतनवान हो जाता है।
In the opinion of the wise, the identity of the reflection and of ego is like the identity of the fire and the iron ball. The body having been identified with the ego passes for a conscious entity.
अहङ्कारस्य तादात्म्यं चिच्छायादेहसाक्षिभिः ।सहजं कर्मजं भ्रान्तिजन्यं च त्रिविधं क्रमात् ॥ ८॥
अहङ्कारस्य ताद्-आत्म्यं त्रि-विधं चित्-छाया-देह-साक्षिभिः (चिति-छाया देहः प्रत्यक्-आत्मा च तेभिः) – सह-जं, कर्म-जं, भ्रान्ति-जन्यं च क्रमात् [अहङ्कारस्य चित्-छायया सह-जं ताद्-आत्म्यम् इत्यादि-क्रमात्]॥
अहंकार का चिदाभास, देह और साक्षी चैतन्य के साथ तादात्म्य क्रमशः -सहज, कर्मज और भ्रान्तिजन्य होता है।
The identification of the ego with the reflection of Consciousness, the body and the Witness are of three kinds, namely, natural,due to past karma, and due to ignorance,respectively.
सम्बन्धिनोः सतोर्नास्ति निवृत्तिः सहजस्य तु ।कर्मक्षयात् प्रबोधाच्च निवर्तेते क्रमादुभे ॥ ९॥
[छाया-अहङ्कार-]सम्बन्धिनोः सतोः [यावत् सति], [तावत्] सह-जस्य तु [ताद्-आत्म्यस्य] निवृत्तिः न अस्ति, उभे [कर्म-ज-भ्रान्ति-ज-ताद्-आत्म्ये] कर्म-क्षयात् प्रबोधात् च क्रमात् निवर्तेते॥
अहंकार का चित-प्रतिबिम्ब के साथ जो सहज तादात्म्य है, उसकी निवृत्ति नहीं होती है। किन्तु शेष दो प्रकार के तदात्म्यों की निवृत्ति क्रमशः कर्मक्षय और तत्वज्ञान से हो जाती है।
The mutual identification of the ego and the reflection of Consciousness, which is natural, does not cease so long as they are taken to be real. The other two identification disappear after the wearing out of the result of Karma and the attainment of the knowledge of the highest Reality respectively.
अहङ्कारलये सुप्तौ भवेद्देहोऽप्यचेतनः ।अहङ्कारविकासार्धः स्वप्नः सर्वस्तु जागरः ॥ १०॥
अहङ्कार-लये सुप्तौ, [तदा] देहः अपि अ-चेतनः भवेत्। अहङ्कार-विकास-अर्धः ‘स्वप्नः’ [नाम], सर्वः [विकासः] ‘जागरः’ [नाम भवेत्]॥
अहंकार जब पूर्ण लय को प्राप्त होता है, उस समय देह की अचेतनता से लक्षित सुषुप्ति अवस्था प्राप्त होते है। अहंकार के अर्ध-जागृत अवस्था में स्वप्न लोक में विचरण, तथा अहंकार के पूर्ण जागृत अवस्था में जाग्रत अवस्था प्राप्त होती है।
In the state of deep sleep, when ego disappears the body also becomes unconscious. The state in which there is the half manifestation of the ego is called the dream state, and the full manifestation of the ego is the state of waking.
अन्तःकरणवृत्तिश्च चितिच्छायैक्यमागता ।वासनाः कल्पयेत् स्वप्ने बोधेऽक्षैर्विषयान् बहिः ॥ ११॥
[इदं-विषय-[अन्तर्-करण-वृत्तिः च (अपि) चिति-छाया-ऐक्यम् आगता [तप्त-अयस्-पिण्डवत्]। स्वप्ने [सा वृत्तिः इमाः[] वासनाः कल्पयेत्। बोधे (जागरे) [सा वृत्तिः इमान् विषयान् अक्षैः (इन्द्रियैः) बहिस् कल्पयेत्॥
बुद्धि की अन्तःकरण वृत्ति भी प्रतिबिंबित चेतनता के साथ तादात्म्य करके जीवन्त हो जाती है। कामना-वासना के अनुरूप ही स्वप्नलोक की सृष्टि करती है। जाग्रत अवस्था में भी इसी वृत्ति के द्वारा बाह्य जगत के विषयों की कल्पना होती है।
The inner organ which in itself but a modification identifying itself with the reflection of Consciousness imagines ideas in the dream. And the same inner organ imagines objects external to itself in the waking state with respect to the sense-organs.
मनोऽहङ्कृत्युपादानं लिङ्गमेकं जडात्मकम् ।अवस्थात्रयमन्वेति जायते म्रियते तथा ॥ १२॥
मनस्-अहम्-कृती-उपादानं [इदं-विषय-अन्तर्-करणं च अहम्-वृत्तिः च तयोः उपादान-कारणं] लिङ्गं (सूक्ष्म-शरीरं) एकं [प्रत्येकं भवति]। [तद् लिङ्गं] जडा-आत्मकं [अपि। [तद् लिङ्गं] अवस्था-त्रयं (जागर-आदि-त्रयं) अन्वेति (अनुभवति)। तथा ‘[इदं लिङ्गं] [जीव-उपाधिः] जायते म्रियते [च]’ [इति अनुभवः]॥
अन्तःकरण वृत्ति -मन तथा अहंकार वृत्ति का उपादान एक जड़ लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर ही है। इस सूक्ष्म शरीर के आवागमन के कारण ही तीन अवस्थाओं की एवं जन्म-मरण की प्राप्ति होती है।
The subtle body which is the material cause of the mind and egoism is one and of the nature of insentience. It moves in the three states and is born and it dies.
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Chapter 3: (Verses 13-21)“The Powers of Maya”
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरूपकम् ।विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत् ॥ १३॥
मायायाः [समष्टि-लिङ्गस्य] शक्ति-द्वयं हि [प्रसिद्धं श्रुत्या] विक्षेप-आवृति-रूपकं (विक्षेप-आवरण-रूपम्)। विक्षेप-शक्तिः (जनिका-शक्तिः) जगत् लिङ्ग-आदि-ब्रह्म-अण्ड-अन्तं [व्यष्टि-आत्मक-लिङ्ग-शरीर-आदिं आ समष्टि-आत्मक-ब्रह्म-अण्डात्] सृजेत्॥
माया की दो शक्तियाँ हैं -विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति। विक्षेप शक्ति लिंग-शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक का सृजन करती है।
Two powers, undoubtedly, are predicated of Maya, viz., those of projecting are veiling.The projecting power creates everything from the subtle body to the gross universe.
सृष्टिर्नाम ब्रह्मरूपे सच्चिदानन्दवस्तुनि ।अब्धौ फेनादिवत् सर्वनामरूपप्रसारणा ॥ १४॥
[श्रुतितस्] ‘सृष्टिः’ नाम ब्रह्म-रूपे सत्-चित्-आनन्द-वस्तुनि सर्व-नाम-रूप-प्रसारणा, अब्धै फेन-आदिवत् [यथा एक-समुद्र-जले नाना-जल-रूपाणि]॥
जैसे एक समुद्र में अनेक फेन -बुदबुदे आदि नामरूप उत्पन्न होते हैं, वैसे ही एक सच्चिदानन्द स्वरूप-ब्रह्म में अनेक नाम और रूपों के प्रसारण हो जाने को सृष्टि कहते हैं।
The manifestation of all names and forms in the entity which is Existence – Consciousness– Bliss and which is the same as Brahman, like the foams etc. in the ocean, is known as creation.
अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः ।आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम् ॥ १५॥
अपरा शक्तिः [आवरण-शक्तिः] दृश्-दृश्ययोः भेदम् अन्तर् [व्यष्टितस् आवृणोति], ब्रह्म-सर्गयोः [भेदं] च बहिस् [समष्टितस्] आवृणोति। सा [आवरण-शक्तिः] संसारस्य कारणं [न तु विक्षेप-शक्तिः ईश्वर-सृष्ठि-कारणम्]॥
अंदर में द्रष्टा और दृश्य का भेद करके, बाहर ब्रह्म और सर्ग के भेदों को माया की आवरण शक्ति ढँक देती है। यह आवरण शक्ति ही संसार का कारण है।
The other power conceals the distinction between the perceiver and the perceived objects which are recognized within the body as well as the distinction between Brahman and the phenomenal universe which is perceived outside. This power is the cause of the phenomenal universe.
साक्षिणः पुरतो भाति लिङ्गं देहेन संयुतम् ।चितिच्छाया समावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः ॥ १६॥
[यद् व्यष्टि-]लिङ्गं देहेन संयुतं [संयुक्तं कर्मेण] चिति-छाया-समावेशात् साक्षिणः पुरतस् [अग्रं] भातं (भासमानं), [तद् लिङ्गं] व्यावहारिकः जीवः स्यात्॥
व्यावहारिक जीव शब्द (मन के भीतर विद्यमान) उस व्यवहार करने वाले कर्ता के लिए प्रयुक्त होता है, जो साक्षी चेतना के अत्यन्त निकट होता है, तथा जो चेतनता की छाया से युक्त होने के कारण ही जीवन्त प्रतीत होता है।
The subtle body which exists in close proximity to the Witness identifying itself with gross body becomes the embodied empirical self, on account of its being affected by the reflection of Consciousness.
अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते ।आवृतौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽपयाति तत् ॥ १७॥
[दृश्-दृश्य-अन्यस्-अन्य-धर्माणाम्] आरोपात् (अध्यासात्) अस्य [व्यावकारिक-जीवस्य] जीवत्वं [संसारित्वं] साक्षिणि अपि अवभासते। आवृत्तौ विनष्टायां [भ्रान्ति-अन्-उदये] तु, भेदे (अ-ताद्-आत्म्ये) भाते [स्पष्टं ज्ञाते विवेके सति] च, तद् [जीवत्वं] अपयाति (अपगच्छति)॥
अविवेकी मनुष्य इस व्यावहारिक जीव के जीवत्व का आरोपण साक्षी में करके उस साक्षी को ही जीव रूप से देखता है। oh !! जब विवेक प्राप्त करके जीव एवं साक्षी को यथावत देख लिया जाता है तब माया की आवरण शक्ति नाश को प्राप्त हो जाती है।
The character of an embodied self appear through false superimposition in the Sakshi also. With the disappearance of the veiling power, the distinction between the seer and the object becomes clear and with it the jiva character of the Sakshi disappears.
तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति ।या शक्तिस्तद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते ॥ १८॥
[यथा व्यष्टि-आत्मके] तथा [समष्टि-आत्मके] च [यावत्] सर्ग-ब्रह्मणः भेदम् आवृत्य या [आवरण-]शक्तिः तिष्ठति, [तावत् तद्-वशात् ब्रह्म विकृतत्वेन [विकारिणा] भासते॥
यह आवरण शक्ति ही ब्रह्म और सृष्टि के भेद को भी ढँक देती है। एवं इसीके कारण ब्रह्म 'नम-रूपों ' के धर्मों से युक्त दीखता है।
Similarly Brahman, through the influence of the power that conceals the distinction between It and the phenomenal universe,appears as endowed with the attributes of change.
अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयोः ।भेदस्तयोर्विकारः स्यात् सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित् ॥ १९॥
ख-वायु-अग्नि-जल-उर्वीषु [पञ्च-भूतेषु] देव-तिर्यक्-नर-आदिषु [शरीर-लक्षणेषु भौतिकेषु] सत्-चित्-आनन्दाः अ-भिन्नाः। [सर्वेषु] रूप-नामनी भिद्येते [अ-निर्वचनीय-माया-कार्यत्वेन]॥
आकाश,वायु , अग्नि, जल तथा पृथ्वी पंच भूतों से बने जड़ प्रपंच में, तथा देवता, पशु, मनुष्य आदि चेतन प्राणियों में सच्चिदानन्द तत्व अभिन्न है। भेद मात्र नाम-रूपों की दृष्टि से ही होते हैं।
The attributes of Existence, Consciousness and Bliss are equally present in the space, air,fire, water and earth as well as in deities,animals and men etc. Names and forms alone make one differ from the other.
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Chapter 4: (Verses 22-31)“Meditation Techniques”
उपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः ।समाधिं सर्वदा कुर्याद्-हृदये वाऽथवा बहिः ॥ २२॥
द्वे नाम-रूपे उपेक्ष्य [अवज्ञाय मानस-कायेन अ-परम-अर्थत्वेन], सत्-चित्-आनन्द-तत्-परः [सन्] हृदये अन्तर्-करण-विषये वा [वक्ष्यमाण-स-दृशेन] अथवा बहिस् [बाह्य-वस्तु-विषये वक्ष्यमाण-स-दृशेन] समाधिं सर्वदा कुर्यात्॥
जगत शब्द से लक्षित नाम-रूपों की उपेक्षा करके अपने हृदय में अथवा बाह्य जगत में सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म को ही सर्वत्र देखते हुए उसी में चित्त को समाहित करने/रखने का सतत प्रयास करना चाहिए।
Having become indifferent to name and form and being devoted to Sac-chid-ananda aspects, one should always practice samadhi either within the heart or outside.
सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि ।दृश्यशब्दानुवेधेन सविकल्पः पुनर्द्विधा ॥ २३॥
हृदि [व्यष्टौ] समाधिः द्वि-विधः – स-विकल्पः निस्-विकल्पः [च]। पुनर् (भूयस्) स-विकल्पः द्विधा – दृश्य-शब्द-अनुविद्धेन [अनुभव-दृश्य-विषयेण श्रुति-शब्द-विषयेण च], [अथवा ‘अनुविद्धः’ श्रुति-अनुरूपेण स्थापितः इत्यर्थः]॥
अब समाधि का परिचय देते हुए लेखक कहते हैं कि समाधि दो चरणों में सिद्ध होती है। सविकल्प और निर्विकल्प समाधि। सविकल्प समाधि में भी क्रमशः दो चरण होते हैं - दृश्यानुविद्ध और शब्दानुविद्ध।
Two kinds of Samadhi to be practiced in the heart are known as Savikalpa and Nirvikalpa. Savikalpa-Samadhi is again divided into two classes, according to its association with a cognizable object or a scriptural word.
कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम् ।ध्यायेद्दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ॥ २४॥
चित्त-गाः (हृदय-स्थाः) दृश्याः काम-आद्याः [भवन्ति]। चेतनं [आत्मानं चैतन्यं] तद्-साक्षित्वेन [काम-आदि-साक्षित्वेन] ध्यायेत्। अयं स-विकल्पकः दृश्य-अनुविद्धः समाधिः॥
हृदय में दृष्यानुविद्ध सविकल्प समाधि का अभ्यास करने के लिए इस तथ्य पर गहराई से विचार करो कि 'कामादि सभी वृत्तियाँ जड़ दृश्य हैं ,तथा हम उसके साक्षी चेतन तत्व हैं।' इसके फलस्वरूप जो अन्तःस्थिति उत्पन्न होती है, उसको ही दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि कहते हैं।
See the desires etc as objects of perception, and see yourself, the conscious-ness, as their seer. When we deeply meditate on these facts then we glide into an quiet yet awareful state which is called Dryshya prompted Savikalpa-Samadhi, facilitated by seer-seen viveka.
असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ।अस्मीति शब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ॥ २५॥
“सः अ-सङ्गः, सत्-चित्-आनन्दः, स्व-प्रभः, द्वैत-वर्जितः [आत्मा अहम्] अस्मि” इति, अयं स-विकल्पकः [श्रुति-]शब्द-विद्धः समाधिः॥
इसके बाद शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि का अभ्यास करना चाहिए। महावाक्यों में स्वरूप के विषय में जो लक्षण कहे गए हैं -जैसे असंग, सच्चिदानद, स्वप्रकाश, द्वैत रहित आदि तत्व कहे गए हैं; वह मैं ही हूँ। इन्हें अपने ध्यान का विषय बनाकर स्व-स्वरूप का और गहराई से ज्ञान प्राप्त करके -उसी शाश्वत साक्षी चैतन्य की अनुभूति में समाहित होकर स्थित रहने को शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि कहते हैं।
Using the scriptural pointers as: I am Existence- Consciousness-Bliss, unattached, self-luminous and free from duality etc., one should go deep into the truth of seer, and abide in that Self. This is known as the Savikalpa-Samadhi facilitated by scriptural words.
स्वानुभूतिरसावेशाद्दृश्यशब्दावुपेक्ष्य तु ।निर्विकल्पः समाधिः स्यान्निवातस्थितदीपवत् ॥ २६॥
दृश्य-शब्दान् उपेक्षितुः [अवज्ञानिनः मानस-कायेन] स्व-अनुभूति-रस-आवेशात् [स्व-ज्ञानम् एव स्व-रूप-अनुभवः तस्य आवेशात् अ-भेद-भावात्], समाधिः [व्यष्टौ] निस्-विकल्पः स्यात्, नि-वात-स्थित-दीपवत्॥
दृश्य और शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले तत्व-विवेक के कारण जब एक तरफ स्वानुभूति के दिव्यरस का अत्यधिक आविर्भाव होता है, तथा दूसरी तरफ विवेक-वशात ही समाहित अवस्था के रस से भी निरपेक्ष होकर निवातस्थ दीपक के समान स्थित रहते हैं, तब निर्विकल्प समाधि सहजता से प्राप्त हो जाती है।
The Nirvikalpa-Samadhi is that in which the mind becomes steady like the light kept in a place free from wind and in which the student becomes indifferent to both objects and words on account of his complete absorption in the bliss of the realization of the Self.
हृदीव बाह्यदेशेऽपि यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि ।समाधिराद्यः सन्मात्रान्नामरूपपृथक्कृतिः ॥ २७॥
हृदि इव, यस्मिन् कस्मिन् वस्तुनि बाह्य-देशे [समष्टौ] अपि च, आद्यः [स-विकल्पः दृश्य-अनुविद्धः] समाधिः सत्-मात्रात् नाम-रूप-पृथक्-कृतिः [नाम-रूप-विवेकः]॥
जिस प्रकार अपने हृदय में (इस ग्रंथ के प्रथम श्लोक से प्रारम्भ कर समाधि तक गति हुई) उसी प्रकार बाह्य जगत में भी किसी विषय को निमित्त बनाकर सर्वप्रथम दृश्यानुविद्ध समाधि सिद्ध करने हेतु विषय के अन्तर्गत सत्स्वरूपता से नाम-रूप को पृथक करना चाहिए।
Like the samadhi prompted by drig-drishya,one should now practice samadhi using any external objects. Here the first step is to discriminate between names & forms and pure existence.
अखण्डैकरसं वस्तु सच्चिदानन्दलक्षणम् ।इत्यविच्छिन्नचिन्तेयं समाधिर्मध्यमो भवेत् ॥ २८॥
“[इदं] वस्तु अ-खण्ड-एक-रसं सत्-चित्-आनन्द-लक्षणं [अस्ति]” इति इयं अ-विच्छिन्न-चिन्ता [वि-जातीय-प्रत्यय-रहित-स-जातीय-प्रत्यय-प्रवाह-रूपा चिन्ता] मध्यमः [द्वितीयः स-विकल्पः श्रुति-शब्द-अनुविद्धः] समाधिः भवेत्॥
तत्पश्चात यह सत्ता अखण्ड, एकरस, सच्चिदानन्द स्वरुप ब्रह्म ही हैं ; इस प्रकार के किसी न विषय को निमित्त बनाकर, सतत तत्व-विवेक बनाये रखना मध्यम प्रकार की अर्थात शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि होती है।
The entity which is always of the same nature and unlimited and which is characterized by Existence- Consciousness-Bliss, is verily Brahman. Such uninterrupted reflection is called the intermediate absorption,that is the Savikalpa-Samadhi associated with scriptural word.
स्तब्धीभावो रसास्वादात्तृतीयः पूर्ववन्मतः ।एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत् कालं निरन्तरम् ॥ २९॥
[यः] स्तब्धी-भावः (स्थिर-भावः) [स्व-विज्ञानं] रस-आस्वादात् पूर्ववत् [रस-आवेशात्] (DrDV.26), [सः समाधिः तृतीयः [समष्टौ निस्-विकल्पः] मतः। एतैः षड्भिः समाधिभिः [व्यष्टि-समष्ठि-दृश्य-शब्द-चथुर्-स-विकल्प-समाधिभिः व्यष्टि-समष्ठि-द्वि-निस्-विकल्प-समाधिभ्यां च] निस्-अन्तरं कालं नयेत्॥
जब स्वानुभूति के रसास्वादन से स्तब्धीभाव तुल्य अवस्था हो जाती है, तब तीसरे प्रकार की - अर्थात निर्विकल्प समाधि हो जाती है। इस प्रकार छह समाधियों के अभ्यास में अपना काल व्यतीत करना चाहिए।
The insensibility of the mind as before,on account of the experience of Bliss, is designated as the third kind of Samadhi (Nirvikalpa). The practitioner should uninterruptedly spend his time in these six kinds of Samadhi.
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ॥ ३०॥
परम-आत्मनि विज्ञाते, [तद्-फलं च] देह-अभिमाने गलिते [शिथिली-भूते यावत्], [तावत् मुमुक्षोः] यत्र यत्र मनस् याति, तत्र तत्र [इमे षड्] समाधयः [स्युः]॥
जिस समय देहाभिमान का नाश तथा परमात्मा का विज्ञान प्राप्त हो जाता है, उसके बाद मन चाहे जहाँ कहीं भी जाए, वह समाधि अवस्था में ही रमता है।
[ देहाभिमान (जड़ के साथ 'मैं'-पन) सर्वथा मिट जाने पर जब परमात्मतत्त्व का बोध हो जाता है तब जहाँ जहाँ मन जाता है वहाँ-वहाँ परमात्मतत्त्व का अनुभव होता है अर्थात् उसकी अखण्ड समाधि (सहज समाधि) रहती है। मन (अहं) का मिट जाना ही समाधि का अनुभव है। और मन मिट गया तो परमात्मा से मिलन हो गया। अब कहां जाना है? देहाभिमान सर्वथा मिट जाने पर जब परमात्मतत्त्व का बोध हो जाता है, तब समाधि से लौटने के बाद ? जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ परमात्मतत्त्व का अनुभव होता है अर्थात उसकी अखंड समाधि (सहज समाधि रहती है)।]
With the disappearance of the attachment to the body and with the realization of the Supreme Self, to whatever object the mind is directed, one effortlessly revels in Samadhi.
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ ३१॥
तस्मिन् पर-अवरे [समष्टि-व्यष्टि-रूपे अथवा पर-अ-पर-तत्त्वे] दृष्टे [सति], हृदय-ग्रन्थिः भिद्यते। सर्व-शंशयाः छिद्यन्ते। अस्य कर्माणि च क्षीयन्ते। (MunU.2.2.8)॥
माया से परे या देश-काल-निमित्त से परे इस दिव्य तत्व (शाश्वत चैतन्य आनन्द) का दर्शन होने पर - हृदय में स्थित अविद्या तथा सभी कर्मों का क्षय हो जाता है।
By beholding Him who is high and low,the fetters of the heart are broken, all doubts are solved and all his karmas wear away.
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अध्याय 5 : जीव की प्रकृति
अवच्छिन्नश्चिदाभासस्तृतीयः स्वप्नकल्पितः ।विज्ञेयस्त्रिविधो जीवस्तत्राद्यः पारमार्थिकः ॥ ३२॥
अवच्छिन्नः, चित्-आभासः, तृतीयः [च] स्वप्न-कल्पितः [इति] जीवः त्रिविधः विज्ञेयः। तत्र आद्यः [अवच्छिन्नः इव जीवः] पारम-अर्थिकः [ब्रह्म-भूतः]॥
अवच्छेदः कल्पितः स्यादवच्छेद्यं तु वास्तवम् ।तस्मिन् जीवत्वमारोपाद्ब्रह्मत्वं तु स्वभावतः ॥ ३३॥
अवच्छेदः [परिच्छिन्नत्वं] कल्पितः स्यात्, अवच्छेद्यं [यद् कल्पनेन अवच्छेत्तुं शक्यं] तु वास्तवं [पारम-अर्थिकं सत्यं ब्रह्म एव]। तस्मिन् [पारम-अर्थिके] जीवत्वं [अवच्छिन्नत्वं] आरोपात्, ब्रह्मत्वं [अ-द्वैतं] तु स्व-भावतस्॥
अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणैकताम् ।तत्त्वमस्यादिवाक्यानि जगुर्नेतरजीवयोः ॥ ३४॥
“तद् त्वम् असि” [इति] आदि-वाक्यानि अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणा एकतां जगुः (प्रख्यातवन्ति), न इतर-जीवयोः [चित्-आभास-स्वप्न-कल्पित-जीवयोः – यस्मात् बिम्ब-प्रतिबिम्ब-एक-देशित्वं न शक्यं, यः च कल्पितः सः कल्पिनम् एव च]॥
ब्रह्मण्यवस्थिता माया विक्षेपावृतिरूपिणी ।आवृत्यखण्डतां तस्मिन् जगज्जीवौ प्रकल्पयेत् ॥ ३५॥
विक्षेप-आवृति-रूपिणी माया ब्रह्मणि अवस्थिता [न पृथक्-स्थिता]। अ-खण्डतां आवृत्य, [अन्-आदिः माया] तस्मिन् [ब्रह्मणि] जगत्-जीवौ प्रकल्पयेत् [सृजेत् इव]॥
जीवो धीस्थचिदाभासो भवेद्भोक्ता हि कर्मकृत् ।भोग्यरूपमिदं सर्वं जगत् स्याद्भूतभौतिकम् ॥ ३६॥
चित्-आभासः धी-स्थः, भोक्ता कर्म-कृत् [च] हि (यस्मात्), [प्रसिद्धः व्यावहारिकः] ‘जीवः’ भवेत्। इदं सर्वं भूत-भौतिकं भोग्य-रूपं ‘जगत्’ स्तात्॥
अनादिकालमारभ्य मोक्षात् पूर्वमिदं द्वयम् ।व्यवहारे स्थितं तस्मादुभयं व्यावहारिकम् ॥ ३७॥
मोक्षात् पूर्वं, इदं द्वयं [जीव-जगत्] अन्-आदि-कालं आरभ्य व्यवहारे स्थितं। तस्मात् उभयं व्यावहारिकं॥
चिदाभासस्थिता निद्रा विक्षेपावृतिरूपिणी ।आवृत्य जीवजगती पूर्वे नूत्ने तु कल्पयेत् ॥ ३८॥
[यथा माया ब्रह्मणि] निद्रा चित्-आभास-स्थिता विक्षेप-आवृति-रूपिनी। पूर्वे व्यावहारिके जीव-जगती आवृत्य, [निद्रा] नूत्ने तु [प्रति-नवे स्वप्ने जीव-जगती] कल्पयेत्॥
प्रातिभासिकजीवो यस्तज्जगत् प्रातिभासिकम् ।वास्तवं मन्यतेऽन्यस्तु मिथ्येति व्यावहारिकः ॥ ४०॥
यः प्रातिभासिक-जीवः तद् प्रातभासिकं जगत् वास्तवं [सत्यं] मन्यते, अन्यः तु व्यावहारिकः [जीवः उभे प्रातिभासिके] मिथ्या [अ-सत्यतया] इति [मन्यते]॥
व्यावहारिकजीवो यस्तज्जगद्व्यावहारिकम् ।सत्यं प्रत्येति मिथ्येति मन्यते पारमार्थिकः ॥ ४१॥
यः व्यावनारिक-जीवः तद् व्यावहारिकं जगत् सत्यं प्रत्येति [मन्यते]। पारमार्थिकः [जीवः एभे व्यावहारिके] मिथ्या इति मन्यते॥
पारमार्थिकजीवस्तु ब्रह्मैक्यं पारमार्थिकम् ।प्रत्येति वीक्षते नान्यद्वीक्षते त्वनृतात्मना ॥ ४२॥
पारमार्थिक-जीवः तु [जीव-]ब्रह्म-ऐक्यं पारमार्थिकं प्रत्येति। [सः ज्ञानी] अन्यद् [भेद-वस्तु] न [सत्यतया] वीक्षते (मन्यते), अन्-ऋत-आत्मना [अ-सत्यतया] तु वीक्षते॥
माधुर्यद्रवशैत्यानि नीरधर्मास्तरङ्गके ।अनुगम्याथ तन्निष्ठे फेनेऽप्यनुगता यथा ॥ ४३॥
परम सत्य (आध्यात्मिक सत्य) की खोज करने के अधिकारी शिष्य (Qualified Student for Spiritual Inquiry):
एक भौतिकवादी व्यक्ति (जो आध्यात्मिक सत्य या इन्द्रियातीत सत्य से पूरी तरह अनभिज्ञ है, तथा केवल इन्द्रियग्राह्य जगत को ही सत्य समझता है) उसमें आत्मश्रद्धा नहीं होती; इसीलिए उसे अपने यथार्थ स्वरुप (अप्रत्यक्ष आत्मा) या भगवान के विषय में जानने की इच्छा नहीं होती, और इसीलिए वह शास्त्रों का (गीता-उपनिषद आदि) का अध्यन भी नहीं करना चाहता। फिर कोई ऐसा व्यक्ति जिसने परम् सत्य (absolute Truth) की अनुभूति कर ली है, वैसे व्यक्ति को भी 'विवेक-प्रयोग' का अभ्यास करने या शास्त्रों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ऐसा भ्रममुक्ति (De-Hypnotized) व्यक्ति के लिए कर्मबन्धन में फंसने की कोई समस्या नहीं होती। जो योग्य शिक्षार्थी (सत्यार्थी -The qualified student) इन्द्रियातीत सत्य को या अपनी आत्मा को जानने की इच्छा करता है, वह भौतिक जगत के बन्धनों से (कामिनी-कांचन और कीर्ति से) मुक्त हो जाता है।
आध्यात्मिक मनुष्य को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है -
(1) मुमुक्षु व्यक्ति : जो लोग मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं,
(2) आध्यात्मिक साधक : जो भगवान के नाम का जप, भगवान की पूजा, धार्मिक व्रत-उपवास, तीर्थयात्रा, ध्यान, आदि जैसे धार्मिक अभ्यास कर रहे हैं।
(3) जिज्ञासु : जो उस ईश्वर या अदृष्ट शक्ति (जगतजननी माँ काली) के विषय में जानना चाहते हैं, जो सौरमण्डल सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कुशल -संचालन को नियंत्रित कर रही है कभी-कभी, तो ऐसा भी देखा गया है कि जो व्यक्ति जिस सत्य को देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश क्यों अँधा हो गया था ? केवल उस 'सत्य' को जानने की जिज्ञासा से भी यदि शास्त्र का अध्यन करना प्रारम्भ करते हैं, वे बाद में गंभीर आध्यात्मिक साधक [C-in-C] बन गए हैं।
द्रष्टा और दृश्य के अन्तर को पहचान लेने की अनिवार्यता (Necessity of Seer-Seen Discrimination):
जब
दो अस्तित्व (entity-तत्व) एक समान प्रतीत होते हैं, तब उस समय पृथक
-पृथक रूप से पहचान लेना या विवेक करना अधिक कठिन हो जाता है, उदाहरण के
लिए, साबूदाना (sago) और सफेद पत्थरों (white stones) को अलग करना मुश्किल है। विवेक-प्रयोग करना तब भी सम्भव नहीं है ,जब हम यह नहीं जानते कि दो एक समान दिख रहे अस्तित्व में एक रोल्डगोल्ड है और दूसरा प्योर गोल्ड है
! दो अस्तित्व के बीच अन्तर को नहीं जानने के कारण जो समस्यायें उत्पन्न
हो जाती हैं, उन समस्याओं को सही विवेक-विचार करके ही दूर किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, यदि दर्पण पर धूल पड़ी हो, या दर्पण दरक गया हो, तो उस दर्पण पर किसी व्यक्ति के चेहरे की जो छवि या प्रतिबिम्ब बनेगी वह टेढ़ी-मेढ़ी या विकृत (distorted) दिखाई देगी। अब कोई व्यक्ति यदि दर्पण में बन रहे विकृत प्रतिबिम्ब को ही अपना वास्तविक चेहरा समझकर दुःखी हो हो रहा है, तो उसके दुःख को दूर करने का एकमात्र उपाय उसको वास्तविक चेहरा और परिलक्षित छवि के बीच अन्तर को विवेक-विचार द्वारा सही रूप से पहचान लेना है कि -" बद्ध, मुक्त, मुमुक्षु,साधक (Bound, free, mumukshu, seeker) आदि विशेषण आत्मा के नहीं हैं। "बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः।" ‘बद्ध-मुक्त’ यह भाषा गुणों के कारण है। मुझे वह वस्तुतः लागू नहीं। गुण मायामूलक होने से न मुझे मोक्ष है और न बंधन ही।
मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव (components) हैं -शरीर , मन और हृदय [Hand, Head, Heart- 3H] , इन तीनों को विकसित करने का प्रशिक्षण प्राप्त करना ही यथार्थ शिक्षा है। किन्तु आधुनिक या प्रचलित पाश्चात्य शिक्षा-व्यवस्था में हृदय को विकसित करने और मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसीलिए अधिकांश युवा उच्च डिग्रियाँ प्राप्त करने के बाद भी अज्ञानता (ignorance) के कारण स्वयं को दर्पण में दिखने वाला एक M/F शरीर मात्र ही समझते हैं। और अपने को अविनाशी, अपरिवर्तनशील ,अनन्त आत्मा [ Infinite Existence-Consciousness-Bliss] के रूप में पहचान लेने की शिक्षा नहीं प्राप्त करने के कारण स्वयं को एक 'limited individual' ससीम व्यक्ति या नश्वर ,परिवर्तनशील शरीर के साथ तादात्म्य कर लेते हैं, और आजीवन मृत्यु के भय से पीड़ित रहते हैं। किन्तु, वास्तव में हम दृश्यमान शरीर (Seen -घट) नहीं हैं, शरीर रूपी घट के द्रष्टा (Seer) हैं। जब हम अपने यथार्थ द्रष्टा -(Witness Consciousness), और दृश्य -(Reflected Consciousness) शरीर और मन (Body-mind complex) के बीच अंतर को पृथक -पृथक रूप से पहचान लेते हैं, तब देखा जाता है, कि शरीर की सीमाएं फिर हमें प्रभावित नहीं कर पाती हैं।
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उदाहरण के लिए, यदि दर्पण पर धूल पड़ी हो, या दर्पण दरक गया हो, तो उस दर्पण पर किसी व्यक्ति के चेहरे की जो छवि या प्रतिबिम्ब बनेगी वह टेढ़ी-मेढ़ी या विकृत (distorted) दिखाई देगी। अब कोई व्यक्ति यदि दर्पण में बन रहे विकृत प्रतिबिम्ब को ही अपना वास्तविक चेहरा समझकर दुःखी हो हो रहा है, तो उसके दुःख को दूर करने का एकमात्र उपाय उसको वास्तविक चेहरा और परिलक्षित छवि के बीच अन्तर को विवेक-विचार द्वारा सही रूप से पहचान लेना है कि -" बद्ध, मुक्त, मुमुक्षु,साधक (Bound, free, mumukshu, seeker) आदि विशेषण आत्मा के नहीं हैं। "बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः।" ‘बद्ध-मुक्त’ यह भाषा गुणों के कारण है। मुझे वह वस्तुतः लागू नहीं। गुण मायामूलक होने से न मुझे मोक्ष है और न बंधन ही।
मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव (components) हैं -शरीर , मन और हृदय [Hand, Head, Heart- 3H] , इन तीनों को विकसित करने का प्रशिक्षण प्राप्त करना ही यथार्थ शिक्षा है। किन्तु आधुनिक या प्रचलित पाश्चात्य शिक्षा-व्यवस्था में हृदय को विकसित करने और मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसीलिए अधिकांश युवा उच्च डिग्रियाँ प्राप्त करने के बाद भी अज्ञानता (ignorance) के कारण स्वयं को दर्पण में दिखने वाला एक M/F शरीर मात्र ही समझते हैं। और अपने को अविनाशी, अपरिवर्तनशील ,अनन्त आत्मा [ Infinite Existence-Consciousness-Bliss] के रूप में पहचान लेने की शिक्षा नहीं प्राप्त करने के कारण स्वयं को एक 'limited individual' ससीम व्यक्ति या नश्वर ,परिवर्तनशील शरीर के साथ तादात्म्य कर लेते हैं, और आजीवन मृत्यु के भय से पीड़ित रहते हैं। किन्तु, वास्तव में हम दृश्यमान शरीर (Seen -घट) नहीं हैं, शरीर रूपी घट के द्रष्टा (Seer) हैं। जब हम अपने यथार्थ द्रष्टा -(Witness Consciousness), और दृश्य -(Reflected Consciousness) शरीर और मन (Body-mind complex) के बीच अंतर को पृथक -पृथक रूप से पहचान लेते हैं, तब देखा जाता है, कि शरीर की सीमाएं फिर हमें प्रभावित नहीं कर पाती हैं।
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अध्याय (1)
द्रष्टा दृश्य तादात्म्य विवेक
अर्थात द्रष्टा और दृश्य का पृथक्करण 'Analysis of Seer and Seen' इस पुस्तक 'दृग-दृश्य विवेकः' में मनुष्य
के तीन प्रमुख अवयव 3-'H' (Hand,Head, Heart या देह -मन -आत्मा) को पृथक-पृथक रूप से समझने और उनकी शक्तियों को विकसित करने की तकनीक बताई गयी है। अंग्रेजी भाषा में 'discriminate' शब्द का प्रयोग रंग-रूप, नस्ल, जाति, भाषा, धर्म, लिङ्ग आदि के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद-भाव करने के नकारात्मक अर्थों में किया जाता है। किन्तु इस ग्रंथ में 'विवेक' का शब्द का प्रयोग एक विशेष विद्या, 'ब्रह्म-विद्या' को समझने के लिए,विवेक-प्रयोग के सकारात्मक अर्थों में किया गया है। ब्रह्मविद्या का अर्थ होता है -द्रष्टा (अविनाशी ब्रह्म) को दृश्य (नश्वर जगत) से पृथक करने की विद्या।यह वेदान्त प्रकरण ग्रन्थ तर्कसंगत विचार-प्रक्रिया के माध्यम से सत्य -असत्य - मिथ्या का पृथक्करण करते हुए - जीव और ब्रम्ह के बीच एकत्व -'Oneness' को समझने में हमारी सहायता करती है। किन्तु (good-pleasant) श्रेय-प्रेय,अपरिवर्तनशील और परिवर्तनशील (changeless and changing),सत-असत (Real-unreal), शाश्वत-नश्वर, या अचल और चंचल, में इस विवेक-प्रयोग करने की विवेक-प्रयोग विद्या द्वारा श्रेय-प्रेय, आँवला -इमली में कौन सचमुच अच्छा है, और कौन सुखद तो है किन्तु है क्या अच्छा भी है ?--की समझ-- को वेदान्त की श्रुति -परम्परा (गुरु-शिष्य परम्परा) में ही सीखना पड़ता है। प्राप्त होती है। आम तौर से इस तरह के ग्रंथों का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया जाता है, अथवा भगवान की स्तुति में कोई श्लोक लिखा जाता है। किन्तु इसके प्रथम श्लोक में केवल 'साक्षी' शब्द आया है, और गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने कई नामों में एक नाम साक्षी भी बताया है। इस प्रकार इस ग्रंथ के प्रारम्भ में भी 'साक्षी' शब्द से ब्रह्म के अवतार का स्मरण कर लिया गया है।
इस ग्रंथ के 1 से 5 तक के श्लोक में मनुष्य के यथार्थ स्वरुप को जानने का कौशल (technique of realizing your true self) बतलाया गया है। यह पुस्तक किसी हितैषी शिक्षक की तरह हमें मूर्त से अमूर्त की ओर ले जाने जाने का प्रयास करती है। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ ही सीधा मूलभूत प्रश्नों के उत्तर खोजने से होता है।
इस पुस्तक का प्रथम श्लोक समुद्र की तरह गहरा (profound) मंत्र है, और सम्पूर्ण मानवता के लिए परम् परमहितकारी है। इस पहले श्लोक में लेखक बड़े नाटकीय अंदाज में घोषणा करते हैं कि अस्तित्व (Existence या सत्ता) अपने को चार चरणों में अभिव्यक्त करती है: -
रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं दृक्तु मानसम् ।
दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते ॥ वाक्यसुधा १॥
"The eye is the seer and form (and color) the seen. That (eye) is the seen and mind is (its) seer. The Witness alone is the seer of thoughts in the mind and never the seen."
१. रूपं दृश्यं लोचनं दृक्- देखने के लिए सर्वप्रथम रंग-रूप ( form and color स्थूल शरीर और रंग) दृश्य हैं, जिनको हम नेत्रों के द्वारा देखते और पहचानते हैं। यहाँ रंगरूप कथित वस्तु (perceived-गोचर वस्तु ) है, और देखने वाला-द्रष्टा या पहचानने वाला (perceiver) आँख है।
[EYE: यहां, "आंख" शब्द का तात्पर्य - वास्तविक 'sense organ of vision' से है। वास्तविक दर्शन-इन्द्रियाँ (optic nerve) से है, जो मस्तिष्क में अवस्थित हैं। केवल यह नेत्र-गोलक ही नहीं, जिसमें स्क्लेरा (sclera-श्वेत पटल) कॉर्निया (cornea-पुतली या लेन्स के आगे का उभार), रेटिना (retina-आँख के पिछले भाग का चित्रपट) रहते हैं -यह देखने का केवल बाह्य उपकरण है। जब बाह्य उपकरण, मस्तिष्क में अवस्थित दर्शन-इन्द्रियां और मन तीनों एक साथ जुड़ जाते हैं -तभी कथित वस्तु की पहचान होती है। [घड़ी देखकर हम झट से समय बता देते हैं !] यहाँ "आँख" शब्द से पाँच विषयों-रूप,रस,गंध-शब्द,स्पर्श आदि का अनुभव करने में सक्षम मस्तिष्क में अवस्थित उनकी समस्त समतुल्य इन्द्रियों - corresponding sense organs of vision, hearing, feeling, tasting, and smelling. , आंख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा का प्रतिनिधत्व करने वाली इन्द्रियों को इंगित किया गया है। यहाँ आँखों के लिए एकवचन -'आंख' शब्द का उपयोग दर्शन इन्द्रिय के लिए किया जा रहा है, क्योंकि यद्यपि भौतिक रूप से हमारी दो ऑंखें हैं, किन्तु दर्शन क्रिया मस्तिष्क में अवस्थित केवल एक दर्शनेन्द्रिय (one single sense organ of vision-ऑप्टिक नर्भ) द्वारा नियंत्रित होती है। तात्पर्य है कि शब्दादि विषयों में होने वाले परिवर्तन को इन्द्रियाँ जानती हैं; अतः विषय दृश्य हैं और इन्द्रियाँ द्रष्टा हैं ।
[EYE: Here, the word "eye" means this sense organ of vision, and not the physical structure consisting of sclera, cornea, retina, etc. The word "eye" is used to represent all sense organs, that is, the sense organs of vision, hearing, feeling, tasting, and smelling. The singular form is used to refer to the sense organs because the faculty of perception is only one. Although, physically we have two eyes, the eyes are controlled by one single sense organ of vision.]
श्लोक का पहला चरण कहता है, रूप (आकार या इन्द्रधनुष के 7 रंग) दृश्य है और नेत्र द्रष्टा है। अर्थात जो द्रष्टा (Subject) है,वह दृश्य (Object) से भिन्न या पृथक होता है। ऋषि हमसे इस सिद्धान्त पर ऑंखें मूंदकर विश्वास करने के लिए नहीं कह रहे हैं। हमलोग केवल अपने सामान्य ज्ञान (Common Sense) या सामान्य बौद्धिक समझ (Intellectual understanding) के द्वारा ही समझ सकते हैं कि द्रष्टा, दृश्य वस्तु से पृथक होती हैं। इस नियम के अनुसार घड़ा दृश्य हैं और द्रष्टा -ऑंखें इनसे भिन्न हैं, इनको देखने वाली हैं। घड़े को ऑंखें देखती हैं, इसलिए ऑंखें घड़े से पृथक हैं यह हमलोगों का सामान्य अनुभव है, हम सामान्य बुद्धि से यह समझ सकते हैं।
यहाँ विश्वास के आधार पर ही किसी सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने की बात नहीं है। हर मनुष्य इस सिद्धान्त को अपनी बौद्धिक समझ के द्वारा समझ सकता है। लेखक कहते हैं कि हमारे जीवन के प्रत्येक अनुभव में एक अनुभवकर्ता (experiencer) द्रष्टा तथा दूसरा अनुभव करने योग्य कोई भौतिक वस्तु या ज्ञेय पदार्थ (Object) अवश्य रहता है, जिसे किसी इन्द्रियों और मन की सहायता से देखा, चखा, सूँघा, सुना या छूआ,चखा,सूँघा जा सकता है। वेदान्त को समझने के लिए इतना सामान्य ज्ञान होना ही पर्याप्त है, इसी बौद्धिक समझ के सहारे आगे बढ़ते रहो। इस प्रकार 'विवेक-प्रयोग' का पहला सिद्धान्त यह निकला कि " दृष्टा, दृश्य से बिल्कुल पृथक या अलग होता है।" यह कोई गूढ़ दार्शनिक बात नहीं है। इतना तो हम सभी केवल अपनी सामान्य बुद्धि के बल पर भी समझ सकते हैं।
2. तद् दृश्यं दृक् तु मानसं- वह नेत्र भी दृश्य है,और मन उसका द्रष्टा है। श्लोक के दूसरे चरण में थोड़ा और गहराई से विचार करते हैं तब पाते हैं कि ऑंखें भी दृश्य हैं, और मन उसका द्रष्टा बन है। कैसे? अपने मन के द्वारा जान रहा हूँ कि मेरी आँखों की अवस्था क्या है ? क्या बिना चश्में के मैं पढ़ सकता हूँ या नहीं ?-यह बात ऑंखें स्वयं नहीं जानती, हम लोग अपने मन के द्वारा ही अपनी आँखों की अवस्था को जानते हैं। इस प्रकार मन जब द्रष्टा बन जाता है, तब ऑंखें दृश्य बन जाती हैं।
इन्द्रियों में होने वाले परिवर्तन को मन जानता है; अतः इन्द्रियाँ दृश्य हैं और मन द्रष्टा है । मनमें होनेवाले संकल्प-विकल्प, चंचलता-स्थिरता आदि विकारोंको बुद्धि जानती है; अतः मन दृश्य है और बुद्धि द्रष्टा है । बुद्धि में होने वाले विकारों (समझना, न समझना अथवा कम समझना आदि) को स्वयं जानता है; अतः बुद्धि दृश्य है और स्वयं (स्वरूप) द्रष्टा है । यह साक्षी स्वयं अपरिवर्तनशील तथा निर्विकार है; अतः वह किसीका भी दृश्य नहीं है, प्रत्युत सबका द्रष्टा है। नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा (बृहदा॰ ३ । ७ । २३)‘इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है ।’ ' स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता ‘वह सम्पूर्ण ज्ञेयको जानता है, पर उसका ज्ञाता कोई नहीं है ।’
MIND: The mind is a flow of thoughts. The sense organs are controlled by the mind. Although, the term mind usually refers to the faculty of feeling emotions and the term intellect refers to the faculty of thinking ideas, here the term "mind" should be understood to include intellect, memory, and ego or I-thought (that is, "I think," "I decide," and "I remember").
अगर हम ब्रह्म को बुद्धि से जानने की चेष्टा करते हैं तो हमने मानो ब्रह्म को बुद्धि का विषय बना लिया अर्थात् ब्रह्म तो दृश्य (एकदेशीय) हो गया और बुद्धि द्रष्टा (व्यापक) हो गयी । बुद्धि में वही विषय आता है, जो बुद्धि से छोटा होता है । अतः जब तक हम ब्रह्म को बुद्धि के ज्ञान से देखेंगे, बुद्धि से उस पर विचार करेंगे, तब तक हमारी स्थिति जड़ में ही रहेगी । कारण कि सांसारिक विषयों से लेकर बुद्धि तक सब प्रकृति का कार्य होने से दृश्य (जड़) ही है ।
1.रूपं दृश्यं लोचनं दृक्- आकृति या रूप दृश्य है और नेत्र द्रष्टा है।
2.तद् दृश्यं दृक् तु मानसं- वह नेत्र भी दृश्य है,और मन उसका द्रष्टा है।
3. दृश्याः धीवृत्तयः साक्षी- मन में उठने वाले समस्त विचारों का भी एक द्रष्टा है, जिसे साक्षी चेतना कहते हैं।
4. दृक् एव न तु दृश्यते- वह साक्षी चेतना ही वास्तविक द्रष्टा है, वह किसी के लिए दृश्य नहीं है।
कोई भी स्थूल रूप (object) दृश्य है और नेत्र द्रष्टा (subject) है। ये नेत्र-द्रष्टा (seer) भी मन की दृष्टि से दृश्य (scene) की श्रेणी में आ जाते हैं। उसी प्रकार मन शब्द से लक्षित उसकी समस्त वृत्तियॉँ (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार आदि) भी साक्षी (the witness-स्वयं प्रकाश आत्मा) की दृष्टि से दृश्य हैं। यह साक्षी किसी के द्वारा दृश्य नहीं बनता, अतः वह ही वास्तविक द्रष्टा है। अंत में बुद्धि की वृत्तियों का (चित्त -मन-बुद्धि -अहंकार का) भी जो द्रष्टा है, वह साक्षी केवल द्रष्टा है, किसी के लिए भी वह दृश्य नहीं है। महत्व के बढ़ते हुए क्रमानुसार वे चार स्तर इस प्रकार हैं -
i) रूपं - "आकार (form-आकृति) " पंचेन्द्रियों से ग्राह्य विश्व-ब्रह्माण्ड के स्थूल-सूक्ष्ण भैतिक पदार्थ।
ii) लोचनं - "आंख" अर्थात पाँच विषयों का अनुभव करने में सक्षम-नाक,कान,जिह्वा,त्वचा आदि पाँच इन्द्रियाँ।
iii) मानसं - "मनस् या मन" जिसे चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार को एक साथ मिलाकर अन्तःकरण कहते हैं।
iv) साक्षी - "चैतन्य आत्मा (Witness consciousness)”, ब्रह्म या सच्चिदानन्द (existence-consciousness-bliss) या माँ जगदम्बा का सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध। इसे वेदान्त का सर्वोच्च तत्व कहा जाता है।
SEER: The one who sees or knows. The subject of the action of seeing. The word "seer" can be taken to represent eye, the seer (of forms and color); ear, hearer (of sounds); nose, smeller (of smells); tongue, taster (of tastes); skin, feeler (of touch perceptions); mind, feeler (of emotions); intellect, thinker (of thoughts); and Self, the Witness of all thoughts. The real Seer is the Self alone. The sense organs and mind are considered seers only in a relative sense.
1.रूपं दृश्यं लोचनं दृक्- आकृति या रूप दृश्य है और नेत्र द्रष्टा है। श्लोक का पहला चरण कहता है जो द्रष्टा (the Subject) है वह दृश्य वस्तु (Object) से भिन्न या अलग है। यह पुस्तक हमसे इस सिद्धान्त पर ऑंखें मूँदकर विश्वास करने के लिए नहीं कहती। बल्कि हम इसे केवल अपने सामान्य ज्ञान (Common Sense) या सामान्य बौद्धिक समझ (Intellectual understanding) के द्वारा ही समझ सकते हैं कि ज्ञाता ज्ञेय वस्तु से भिन्न है। यहाँ विश्वास के आधार पर ही किसी सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने की बात नहीं है। हर मनुष्य इस सिद्धान्त को अपनी बौद्धिक समझ के द्वारा समझ सकता है। 'घट द्रष्टा घटात् भिन्नः'। इस नियम के अनुसार घड़ा दृश्य हैं और द्रष्टा -ऑंखें इनसे भिन्न हैं, इनको देखने वाली हैं। घड़े को ऑंखें देखती हैं, इसलिए ऑंखें घड़े से पृथक हैं यह हमलोगों का सामान्य अनुभव है, हम सामान्य बुद्धि से यह समझ सकते हैं। लेखक कहते हैं कि वेदान्त को समझने के लिए इतना सामान्य ज्ञान होना ही पर्याप्त है, इसी बौद्धिक समझ के सहारे आगे बढ़ते रहो। हमारे जीवन के प्रत्येक अनुभव में एक अनुभवकर्ता (experiencer) द्रष्टा तथा दूसरा अनुभव करने योग्य कोई भौतिक वस्तु या ज्ञेय पदार्थ (Object) अवश्य रहता है, जिसे किसी इन्द्रियों और मन की सहायता से देखा, चखा, सूँघा, सुना या छूआ,चखा,सूँघा जा सकता है।
SEEN: The object of the action of seeing or knowing. This term represents all that is seen, heard, felt, smelt, tasted, thought, and known. In reality, the Self is the only Seer, and everything else is seen.It appears that the eye is the seer of the forms and colors. However, it cannot function without the mind, and is not really the seer. It is also in reality seen, but with respect to the action of perception of names and forms, we can say that the eye is an instrument for the mind. The mind is an instrument for the Self, the real Seer.
जैसे मैं द्रष्टा हूँ और यह पुस्तक दृश्य है, अतः यह पुस्तक और मैं दोनों एक दूसरे से पृथक हैं। इस बात को हमलोग केवल साधारण बुद्धि (common sense) से भी समझ सकते हैं। अनेक नाम-रूपों से परिपूर्ण यह जगत दृश्य है (Object), और ऑंखें द्रष्टा (Subject) हैं। प्रत्येक इन्द्रिय विषयों (रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श) का अनुभव करते समय हमलोग इस बात के प्रति जागरूक (aware) भी रहते हैं कि मैं अभी अमुक विषय का अनुभव कर रहा हूँ। फिर अपनी सामन्य बुद्धि (common sense) के आधार पर ही हम समझ सकते हैं, कि द्रष्टा दृश्य से अलग होता है। द्रष्टा - आँखे, दृश्य - इस पुस्तक, टेबल या माइक्रोफोन से अलग हैं -इस बात को हम केवल सामान्य ज्ञान से समझ सकते हैं। इस प्रथम श्लोक से वेदान्त के तीन कार्यकारी सिद्धान्त प्राप्त होते वे द्रष्टा-दृश्य विवेक-प्रयोग विद्या को समझने के आधारभूत नियम हैं।
Three Principles of Seer-Seen Discrimination:
इस प्रकार पहला सिद्धान्त यह निकला कि-1. The seer is always different from the seen. " दृष्टा दृश्य से बिल्कुल अलग या भिन्न होता है।" यह कोई गूढ़ दार्शनिक बात नहीं है, इतना तो हम सभी केवल अपनी सामान्य बुद्धि के बल पर भी समझ सकते हैं। फिर हम पाते हैं कि ऑंखें केवल उन्हीं वस्तुओं को देख पाती हैं जो उससे दूर हों, ऑंखें अपने आप सीधे या प्रत्यक्षतः नहीं देख सकती। अपनी आँखों को हमलोग केवल फोटो में या दर्पण में ही देख सकते हैं। किन्तु directly या प्रत्यक्षतः सीधे अपनी आँखों को नहीं देख सकते। इसी प्रकार और थोड़ा विचार करने से हम समझ सकते हैं कि जो साधन या उपकरण (Instrument) हमें देखने के लिए उपलब्ध हैं, उन आँखों का अस्तित्व (entity-सत्ता) एक (One) है, जबकि दृश्य, नाम-रूप (रंग और आकृतियाँ) अनेक हैं। इस प्रकार दूसरा सिद्धान्त क्या निकला ?
दूसरा सिद्धान्त यह हुआ कि द्रष्टा एक है दृश्य अनेक (Many) हैं-(Seer is one scenes are many) इसी प्रकार यहाँ बैठकर जो कुछ मैं देख रहा हूँ, वह दृश्य निरंतर परिवर्तन-शील है; अभी इस हॉल में इतने लोग नहीं थे, कुछ देर बाद फिर इसमें दूसरे लोग चले आएंगे। इससे तीसरा सिद्धान्त यह निकला कि, द्रष्टा अपरिवर्तनीय है और दृश्य निरंतर परिवर्तनशील है। इस प्रकार इस श्लोक में वेदान्त को समझने के तीन कार्यकारी नियम (Operating Rules) प्राप्त होते हैं- १. द्रष्टा दृश्य से अलग या भिन्न होता है २. द्रष्टा एक (One) होता है दृश्य अनेक (Many) होते हैं ३. द्रष्टा सापेक्षिक दृष्टि से अपरिवर्तनशील अभिज्ञता (constant-awareness,अचल जागरूकता ) रहता है, और दृश्य परिवर्तनशील होने से जड़ (inert) होता है। [The seer is ‘aware’ and the seen relative to it is ‘inert’. द्रष्टा सचेतन होता है और दृश्य सापेक्षिक दृष्टि से उसकी अपेक्षा जड़ होता है।]
2.तद् दृश्यं दृक् तु मानसं- वह नेत्र भी दृश्य है,और मन उसका द्रष्टा है। श्लोक के दूसरे चरण में थोड़ा और गहराई से विचार करते हैं तब पाते हैं कि ऑंखें भी दृश्य हैं, और मन उसका द्रष्टा बन है। कैसे? अपने मन के द्वारा जान रहा हूँ कि मेरी ऑंखें खुली हुई हैं। या मेरी आँखों की अवस्था क्या है ? क्या बिना चश्में के मैं पढ़ सकता हूँ या नहीं, -यह बात ऑंखें स्वयं नहीं जानती, हम लोग अपने मन के द्वारा ही अपनी आँखों की अवस्था को जानते हैं। इस प्रकार मन जब द्रष्टा बन जाता है, तब ऑंखें दृश्य बन जाती हैं। तब उस द्रष्टा मन के लिए नया नाम आता है -'knower' ज्ञाता, और ऑंखें ज्ञेय (known) बन जाती हैं। मन केवल आँखों की अवस्था का ही ज्ञाता नहीं है, बल्कि नाक -कान आदि पंचेन्द्रीय से युक्त शरीर के हर अंग की क्रिया का ज्ञाता है। मैं सूँघ पा रहा हूँ या नहीं ? यह कौन जनता है ? मन ही जानता है। सुन पा रहा हूँ या नहीं ? बाहर से पता नहीं चलता कि सामने वाला बहरा है या नहीं ? 'fair enough' - एकदम उचित बात है ! निष्कर्ष यह निकला की 'नेत्र आदि समस्त इन्द्रियों के सहित यह शरीर ज्ञेय है और मन उसका ज्ञाता है। अब वेदान्त को समझने का पहला कार्यकारी नियम लागु करके देखें- क्या ज्ञाता मन ज्ञेय इन्द्रियों और शरीर आदि से अलग है ? क्या मन आँखों से अलग है ? हमारा अनुभव कहता है कि हाँ है ! दूसरा सिद्धान्त लागु करें - क्या ज्ञाता मन एक है और ज्ञेय विषय अनेक हैं ? हाँ, हमारी समस्त इन्द्रियों तथा शरीर की अनेकों अवस्थाओं को जानने वाला मन एक है। तीसरा सिद्धान्त लागु करें - शरीर-इन्द्रियों की अवस्थाएं निरंतर परिवर्तनशील हैं, किन्तु उनकी अवस्थाओं को जानने वाला मन 'सापेक्षिक रूप से 'aware' अपरिवर्तनशील है।
WITNESS: The ultimate Seer which sees without the help of any other entity. The Self alone is the Witness.
3. दृश्याः धीवृत्तयः साक्षी- मन में उठने वाले समस्त विचारों का भी एक द्रष्टा है, जिसे साक्षी चेतना कहते हैं।और यहीं से, प्रथम श्लोक के तीसरे चरण से वेदान्त का असली जादू (magic) शुरू हो जाता है। इससे भी गहराई में उतर कर देखते हैं, तब पता चलता है कि मन भी एक ज्ञेय पदार्थ (object) जिसका कोई ज्ञाता या साक्षी है।(contents of our mind is also something that we know) क्योंकि मन में क्या चल रहा है, उसमें कैसे विचार उठ रहे हैं, मन में उठने वाले विचारों कोई साक्षी हर समय देख रहा होता है। अर्थात मन भी एक ज्ञेय पदार्थ है और इसका भी कोई ज्ञाता या साक्षी है,और यह साक्षी ही मन को भीतर से प्रकाशित कर रहा है।
फिर mind changes into mind -कभी प्रसन्न कभी उदास -होता रहता है, again it's obvious, फिर से यह स्पष्ट है। यहाँ कहा जा रहा है कि मन स्वयं एक दृश्य वस्तु है, क्या हम अपने मन की विभिन्न अवस्थाओं को नहीं जानते ? आपने जो कहा उसे मैं समझा या नहीं समझा ? मेरा मन उदास है या खुश है ? मेरे मन में क्या इच्छा उठी उसे मैं जान रहा हूँ। जब मैं किसी घटना को याद करता हूँ, तो क्या मैं नहीं जानता मैं कुछ याद कर रहा हूँ ? जब कोई चीज चाभी या नाम याद नहीं आती तो क्या मैं यह नहीं जानता कि मेरी स्मरणशक्ति या यादाश्त 'memory' मुझे धोखा दे रही है ? इस प्रकार मन की समस्त क्रिआओं को मैं देख सकता हूँ !इस प्रकार थोड़ा गहराई से चिंतन करने पर हम देखते हैं कि, मन की बुद्धि आदि वृत्तियों (चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार) का भी कोई साक्षी है, मन का भी कोई द्रष्टा है ! यदि मन एक दृश्य है, मन भी एक ज्ञेय वस्तु है, तो इस मन का भी कोई द्रष्टा या ज्ञाता होना ही चाहिये। There is a seer of the mind there is a knower of the mind, वह ज्ञाता या द्रष्टा कौन है ? उसे हम ठीक-ठीक नहीं जानते किन्तु उसे witness या साक्षी कह सकते हैं ! क्योंकि यह मन की समस्त गतिविधियों को देखता है , इसीलिए वह इसका साक्षी है। मन उस साक्षी के लिये दृश्य बन जाता है, और साक्षी उसका द्रष्टा है।
अतः यह स्पष्ट हो गया कि मन भी कोई ऐसी वस्तु है, जिसे देखा जा सकता है, जाना जा सकता है।और इस कार्य को हम अभी तुरंत कर सकते हैं। (close your eyes and look into your mind)आँखों को मूँद कर मन को देखने की चेष्टा करें, इसको ही 'Intro Inspection' या आत्मनिरीक्षण अथवा मनःसंयोग कहते हैं। आप इसे अभी करके देख सकते हैं।ऑंखें और मन भी चुँकि परिवर्तनशील शरीर के ही अंग हैं, अतः द्रष्टा के रूप में उनको सापेक्षिक रूप से अपरिवर्तनशील कहा जाता है, जबकि दृश्य -शरीर-इन्द्रियां आदि निरंतर परिवर्तनशील है। वैसे मन स्वयं भी अपनी अवस्थाओं में-चित्त, मन,बुद्धि अहं आदि अवस्थाओं में परिवर्तनशील रहता है।
ये ऑंखें पुस्तक से एकदम पृथक हैं, इसमें विश्वास करने की जरूरत नहीं पड़ती , मैं बिल्कुल आश्वस्त हूँ कि ऑंखें पुस्तक से अलग हैं। उसी प्रकार हमें अपने अनुभव से बिल्कुल आश्वस्त होना पड़ेगा कि , हाँ मैं इस मन और शरीर से बिल्कुल पृथक अजर-अमर अविनाशी साक्षी हूँ। किन्तु हमने देखा है कि मनःसंयोग का अभ्यास करते समय या 'intro- inspection ' या 'आत्म-निरीक्षण' करते समय, यह मन भी अपने को दो भाग में बाँट कर द्रष्टा मन से दृश्य मन को देख सकता है ? तो फिर हम यह क्यों समझें कि मन से भिन्न कोई दूसरा साक्षी है, जो मन की गतिविधियों को देख रहा है ? वेदान्त इसके उत्तर में कहता है, एकाग्रता का अभ्यास करते करते (ध्यान के गाढ़ा तैलधारवत होने से) एक अवस्था ऐसी आती है, जब मन नहीं होता किन्तु तुम होते हो !
और सुषुप्ति की अवस्था तो इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जिसका अनुभव हम प्रतिदिन करते हैं। गहरी नींद में हम नहीं थे तो सोया कौन था ? नहीं, क्यों यह शरीर ही सोया पड़ा था। किन्तु जब तुम उठते हो तब कहते हो-मुझे बड़ी अच्छी नींद आयी, कुछ पता ही नहीं चला ? जिस समय मन आत्म-निरीक्षण नहीं कर रहा होता है, क्या उस समय भी तुम अपने अपने मन को जान नहीं रहे होते हो ? basic level of awareness is going on'- जागरूकता (awareness) अपने सापेक्षिक स्तर पर निरंतर क्रियाशील रहती है। ऐसी कोई चीज है जो मन को प्रकाशित (illumining) कर रही है। इसीलिए मन भी अपने को द्रष्टा-दृश्य में बांटकर आत्मनिरीक्षण कर सकता है। किन्तु मन को आत्मनिरीक्षण की क्षमता कौन प्रदान कर रहा है ? बुद्धि यादों का स्मरण कर रही है। तब भी मन में एक consciousness चेतना बनी हुई है। जैसे कोई सर्जन ऑपरेशन करते समय मन को पूरा एकाग्र कर लेता है, उस समय भी मन रहता है, किन्तु मैं -पन का होश नहीं रहता। अतः साक्षी मन (अहं) से बिल्कुल पृथक है।
जगत के साथ सबसे गहरी आसक्ति (attachment) का उदाहरण, हम जानते हैं कि माँ की ममता के द्वारा दिया जाता है। और बच्चे के प्रति वैसी ममता का रहना अनिवार्य भी है। किन्तु जो माँ अपने बच्चे के बिना एक मिनट नहीं रह सकती ,वह माँ जब गहरी निद्रा में सो जाती है, तब बच्चे को, जगत को और अपने शरीर को बिल्कुल भूल जाती है। और ऐसा हर रात में होता है। क्योंकि तुम मन नहीं, मन के साक्षी हो, और साक्षी-चेतना (witness consciousness, चैतन्य आत्मा) सदैव मन (जड़) से पृथक होती है।
वेदान्त कहता है - " तुम अपने मन के ज्ञाता हो, और ज्ञाता ज्ञेय से हमेशा अलग होता है!" वेदान्त केवल इतना ही नहीं है, किन्तु इतना समझ लेने से भी जगत की सारी समस्याएं दूर हो जाती हैं। समस्या शरीर, मन या जगत में होती हैं। साक्षी उससे हमेशा अलग होता है। मेरी गरीबी, मेरी असफलता, मेरी इच्छा -भले तुम उन्हें पकड़े रहो, किन्तु वे तुम्हारे स्वरूप का हिस्सा नहीं हैं। तुम कितना भी पकड़े रहो, सब चला जायेगा।
हम हर रोज अनुभव करते हैं कि रात्रि में नींद के समय सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं। चाहे कोई व्यक्ति I.C.U. (गहन चिकित्सा केन्द्र) में सोया हुआ है या अमेरिका के प्रेजिडेंट का देह-मन व्हाइट हॉउस में सोया हुआ है -गहन निद्रा में दोनों की अवस्था एक सी होती है। उसी प्रकार संसार की (देह-मन की) समस्यायें हमसे बिल्कुल अलग हैं, किन्तु हम उन्हें पकड़े रहना चाहते हैं। जैसे बन्दर को पकड़ने के लिए मदाड़ी संकीर्ण मुंह वाले बर्तन में चना भर कर बन्दर के समक्ष रख देता है। और बंदर जब संकरे मुख वाले बर्तन में हाथ डालकर, चने को अपनी मुट्ठी में भर लेता है, और जब हाँथ बाहर निकालना चाहता है,तब नहीं निकाल पाता, बर्तन उसके हाथों में फंस जाता है, और मदाड़ी उसे पकड़ लेता है। अगर उसी समय बंदर मुट्ठी खोल दे तो वह भाग सकता था। किन्तु वह चने से इतना आसक्त हुआ रहता है, कि उसे छोड़ना नहीं चाहता और पकड़ा जाता है। इसको कोई पकड़ नहीं सकता था परन्तु भ्रम और इच्छा के कारण वह पकड़ा जाता है। यदि कोई मंकी चने को छोड़ दे तो वह मंक बन जाता है।
इस पर एक मजेदार घटना भी है। इन दिनों समाज में साधारण गृहस्थ लोगों का सही मार्गदर्शन करने में समर्थ शिक्षकों, नेताओं का घोर अभाव हो गया है। अधिकांश नेता, शिक्षक और तथाकथित धर्मोपदेशक पेशेवर व्यापारी (Professional businessman) बन गए हैं, जबकि आध्यात्मिक ज्ञान खरीदने-बेचने की वस्तु नहीं है। इसीलिए कुछ भारतीय लोग भी, पाश्चात्य योगा-पर्यटकों के समान,आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए, सच्चे साधु/शिक्षक की खोज में महामण्डल द्वारा -" स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में आने के बजाए, कुम्भ मेले में या हिमालय पर रहने वाले सन्यासियों के पास जाना अधिक लाभकारी समझते हैं।
ऐसा ही दिल्ली का कोई युवा व्यवसायी (Young businessman) सांसारिक दुःख-कष्ट से बचने का उपाय पूछने के लिए हिमालय पर रहने वाले किसी साधु से मिलने अक्सर जाया करता था। उसके मार्गदर्शक नेता/आध्यात्मिक शिक्षक बहुत ऊँचे पहाड़ों पर रहते थे। ऐसा माना जाता है, जो साधु जितनी अधिक ऊँचाई पर रहेंगे , उनका ज्ञान भी उतना ऊँचा होगा। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द चाहते थे कि पर्वतों की कन्दराओं और अरण्यों में छिपे वेदान्त को सामान्य नागरिकों किसानो-मजदूरों-खेल के मैदानों, कारखानों तक ही नहीं भारत के द्वार द्वार तक पहुँचा दिया जाये। एक दिन उस युवा कारोबारी ने बहुत ऊँचे पहाड़ पर रहने वाले साधु से कहा- महाराज, मैं बहुत दुःखी हूँ, बड़े कष्ट में हूँ। संन्यासी ने पूछा क्या तुम्हें दुःख का अनुभव हो रहा है ? हाँ , तभी तो आपके पास आया हूँ। साधु बोले यदि तुम अपने दुःख का अनुभव कर रहे हो, तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम अपने दुःखों को जानने वाले हो। इस प्रकार वास्तव में तुम दुःख के ज्ञाता हो, तुम स्वयं दुःखी नहीं हो। बल्कि अपने मन में होने वाले दुःख को देखने वाले द्रष्टा हो। क्योंकि विवेक-प्रयोग का मौलिक सिद्धान्त (गुरुत्वाकर्षण के नियम जैसा-आध्यात्मिक नियम) है कि ज्ञाता (Subject) सदैव ज्ञेय वस्तु (object ) से अलग होता है। तुम दुःख-सुख को जानने वाले हो, स्वयं दुःखी नहीं हो। जो भय को जानने वाला है, वह भयभीत नहीं होता। उदासी को देखने वाला उदास नहीं है।
उस युवा कारोबारी ने जब मन की समस्या को अपने से थोड़ा अलग करके देखा, तो उसकी घबड़ाहट कम होने लगी और उसकी बुद्धि थोड़ी स्थिर हुई । अब साघु बोले अब जरा विचार करो कि क्या मन के दुःख-कष्ट तुम्हारे साथ संलग्न हो गए हैं ? स्वयं से पूछ कर देखो कि क्या वे दुःख-कष्ट तुमको belong करते हैं ? दुःख-कष्ट का अनुभव तो तुम्हारा मन कर रहा है। युवक ने कहा - यह ठीक है कि मन मुझसे अलग है, किन्तु इसमें तो कोई संदेह नहीं कि यह मेरा मन है, इसीलिए मैं अपने मन के दुःखी या उदास होने से स्वयं को दुःखी और उदास अनुभव करता हूँ।
साधु ने पूछा- क्या वास्तव में यह मन तुम्हारा मन है ? ये क्या प्रश्न हुआ ? जरूर यह मेरा मन है, मैं इसकी हर अवस्था को जानता हूँ! साधु बोले नहीं, जरा और ठीक से सोच कर बताओ - मानलो तुम किसी ट्रेन से जा रहे हो। सामने के सीट पर बैठे आदमी से तुम्हारा परिचय हो गया , तुम उसको अच्छी तरह जान गए, कुछ घंटों बाद वह उतर गया। तुम उसको जानते हो, क्या करता है, कैसा दीखता है, सब कुछ तुम जानते हो, किन्तु इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि वह यात्री तुमसे संलग्न हो गया, तुमसे जुड़ा हुआ है - या तुमको belong करता है ? थोड़ी देर सोचने के बाद वह युवक बोला - " महाराज आप ठीक कहते हैं, यह मन मुझे बिल्कुल अलग है, अतः अब मैं बिल्कुल शांत हूँ।"
किन्तु कहानी का दिलचस्प हिस्सा (interesting part of the story) यहाँ से शुरू होती है, उसको अपने गुरु से असली शिक्षा अब मिलती है। साधु कहते हैं -'नहीं तुम शान्त नहीं हो, तुम अपने मन की शांति के ज्ञाता हो। 'जिस प्रकार मन के दुःख के साथ जब तुम्हारा 'अहं -बोध या 'मैं'-पन' संलग्न (attach) हो गया था, तब तुम अपने को दुःखी सझने लगे थे। किन्तु जब तुम्हारे जीवन्मुक्त शिक्षक ने यह समझा दिया कि तुम मन नहीं हो, मन के साथ संलग्न नहीं हो, मन तुमसे अलग वस्तु है, और तुम मन के ज्ञाता हो। तुम मन के भी साक्षी हो, उससे भिन्न हो। अतः इस समय गुरु के उपदेश को सुनकर उस कारोबारी पर दुःख का प्रभाव कम हो गया और वह दुःख-कष्ट की उपेक्षा करके,मन पर नियंत्रण रखने में अभी तो समर्थ हो गया है।
किन्तु यह कारोबारी जिस प्रकार इस समय मन की शांति के साथ स्वयं संलग्न (attach) हो कर कह रहा है कि -अब मैं बिल्कुल शांत हूँ ! उसी प्रकार जब यह लौटकर दिल्ली जायेगा तो सांसारिक लोगों के उपदेश को सुनकर - मन के दुःख को अपना दुःख मानकर उस दुःख के साथ भी फिर से संलग्न (attach) हो जायेगा। इसीलिए साधु ने कहा - ' तुम शांत नहीं हो, तुम अभी अपने मन में उपस्थित शांति के ज्ञाता हो, जिस प्रकार पहले तुम अपने मन में उपस्थित शांति की कमी या दुःख के ज्ञाता थे! तुम मन की ख़ुशी के ज्ञाता हो, उदासी के ज्ञाता हो, उदास नहीं हो, तुम दुखी नहीं हो! तुम मन के सुख-दुःख से परे हो! इस बोध में प्रतिष्ठित हो जाना ही सच्ची शांति है।"
अपने साक्षी स्वरूप की विस्मृति का सबसे बड़ा कारण है -आत्मा का देह के साथ तादात्म्य कर लेना या देहध्यास। जब कभी ठोकर लगकर नाख़ून उखड़ जाता है, उस समय जिस शारीरिक दुःख का अनुभव होता है, उस समय क्या कोई सोंच सकता है कि मैं आत्मा हूँ ? वेदान्त एनेस्थीसिया नहीं है, वेदान्त इस दृष्टिगोचर दुनिया को बदलने की चेष्टा नहीं करता यह सत्यार्थी को भ्रममुक्त या विसम्मोहित करता है।भले अभी हमलोगों को आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ हो , फिर भी यह वेदान्त हमारी सहायता करता है। क्या तुम्हें पेट में दर्द का अनुभव होता है ? हाँ , तब तुम वह हो, जो दर्द का ज्ञाता है। तब तुम अवश्य इससे पृथक हो। स्वामी तुरियानन्द जी एक बार नासूर (carbuncle) का ऑपरेशन बिना एनेस्थीसिया के करवा लिए थे, किन्तु जब बैंडेज करते समय रुई को खींचा तो कराह पड़े; डॉक्टर ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा-यदि तुम पहले ही मुझे सावधान कर देते, कि तुम बैंडेज उखाड़ने वाले हो; तो इस समय भी मैं पहले ही मन और देह से अपने को अलग कर लेता। उन्होंने बंगला में कहा था 'बोलबे तो आगे मन के तूले निताम।' यह उदाहरण एक स्पष्ट प्रमाण है कि मनुष्य अपने देह-मन से बिल्कुल अलग है,उसका ज्ञाता है। clear proof that you exist apart from your mind. एक नए साधु जो सिद्ध नहीं हुए थे -उनकी नकल करने गए तो चिल्ला पड़े। बोले 'वो शाला किताब का बात किताब में ही रह गया। ' इससे भी बड़ा कष्ट शारीरक कष्ट होता है, पाईल्स या पेट में आँव हो जाय - तो पहले डॉक्टर से मिलो; उसके बाद वेदान्त (लीडरशिप क्लास 😄) के पास आ सकते हो।
कर्मयोग जगत का कल्याण करके चित्त को शुद्ध करने की बात कहता है। भक्तियोग सारा ध्यान ईश्वर पर लगाकर जगत की सेवा करने की बात कहता है। राजयोग योगिक समाधि (Concentration) के द्वारा मन को बदलने का प्रयास करता है। ज्ञानयोग अज्ञान को दूर करने के लिए केवल बौद्धिक -समझ या सामान्य ज्ञान का प्रयोग करता है। क्योंकि ज्ञान स्वयं ही मन को शांत कर देता है ! knowledge itself calms down the mind !
4. दृक् एव न तु दृश्यते- वह साक्षी चेतना ही वास्तविक द्रष्टा है, वह किसी के लिए दृश्य नहीं है। श्लोक के चौथे चरण में यह समझ में आता है कि हर अनुभव के अनुभवकर्ता (subject) हम स्वयं हैं, अतः हम स्वयं कभी 'object ' या ज्ञेय पदार्थ नहीं हो सकते। और यह मन हमारे लिए एक ज्ञेय पदार्थ जैसा ही है। हमलोग जगत और इसके विषयों का अनुभव मन के द्वारा ही करते हैं, अतः यह मन हमारा केवल उपकरण या साधन है। जिसको अन्तःकरण कहा जाता है। इससे क्या निष्कर्ष निकला? यही कि हमलोग मन (इन्द्रिय,शरीर) नहीं हैं, हम इसके द्रष्टा, ज्ञाता या साक्षी है;और यह हमारे लिए एक नया और बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन (Revelation) है। क्योंकि इसके पहले हम स्वयं को केवल एक 'body mind complex' मन-शरीर मिश्रित संरचना समझ रहे थे। हम यह समझ रहे थे कि मैं केवल एक व्यक्ति 'individual' हूँ अर्थात आईने में जो M/ F शरीर दीखता है , और इसके भीतर का मन जो इस शरीर को स्त्री-पुरुष मानता है,वही मैं हूँ। आमतौर से हम सभी ऐसा ही सोचते हैं कि 'boundary of the body is this skin' केवल इस त्वचा तक ही मैं हूँ! मेरे शरीर की सीमा बस इस त्वचा तक ही है;और इस त्वचा के उधर (beyond) जो कुछ है, वह मैं नहीं हूँ। किन्तु 'विवेक-प्रयोग विद्या' सिखाने वाली यह पुस्तक हमें शिक्षा देती है, कि हमलोग यह शरीर या मन नहीं हैं, बल्कि हम इसके इसके ज्ञाता, द्रष्टा या अनुभवकर्ता हैं।इसके पहले वाले निबन्ध में भी हमने यह जान लिया था कि हम लोग देह-मन नहीं हैं बल्कि हम स्वरूपतः इस देह-मन (2'H') के साक्षी (आत्मा 3rd 'H') हैं !
अब प्रथम श्लोक के चौथे चरण पर पहुँचकर "Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षण पाने वाला वेदान्त का भावी नेता/शिक्षक (Would be Leader of Vedanta) अपने जीवनमुक्त प्रशिक्षक/C-in-C/ नेतावरिष्ठ नवनीदा पूछता है - क्या मैं उस साक्षी चेतना (existence-consciousness-bliss) को जान सकता हूँ ? नहीं, 'तुम' उसे कभी नहीं जान सकते -क्योंकि कि 'वह' तो तुम्हारा स्वरूप ही है। [साक्षी [चैतन्य-आत्मा] दृक् एव, न तु दृश्यते (न एव दृश्यः)॥the sākŝi (the witness, namely, the Ātman) is the seer only, and never the scene.]
तुम अपने विषय में साधारण बुद्धि का प्रयोग करके कितना और क्या जानते हो ? बस वही परिचय जो तुम्हारे पासपोर्ट में या आधार कार्ड में लिखा है। किन्तु वास्तव में तुम क्या हो ? चौथे चरण में लेखक कहते है -साक्षी (आत्मा) मन से पृथक है और उसका ज्ञाता है। किन्तु क्या यह आत्मा अभी हमारे लिए सत्य है या हमें इसकी अनुभूति करनी बाकि है ? नहीं, इस समय हमें इसकी अनुभूति नहीं है, किन्तु महामण्डल के 5 अभ्यासों को सीखकर भविष्य में अपने स्वरुप की अनुभूति की जा सकती है। बल्कि इस समय भी अपने साक्षी स्वरुप को सामान्य ज्ञान या बौद्धिक समझ के द्वारा भी अनुभव किया जा सकता है। हम सभी लोग इसी समय एक ज्ञाता के रूप में सभी ज्ञेय वस्तुओं से (देह-मन से) पृथक हैं ! तो फिर इस समय उसकी अनुभूति क्यों नहीं हो रही है? क्योंकि सब कुछ समझने के बाद भी, विवेक-प्रयोग आदि का अभ्यास करने के बाद भी बंदर ने केले/या चने को मुट्ठी में पकड़ा हुआ है। हमने अपने मन से शरीर-इन्द्रियों के साथ तादतम्य कर लिया है। इसीलिए हम अपने को बन्धन में फंसा महसूस करते हैं।
फिर भी यह न समझना कि वह अज्ञात ही रह जाता है। नाम-रूप दृश्य (object-पदार्थ) है, द्रष्टा (subject कर्ता है); फिर वह (आँख) दृश्य या ज्ञेय है, मन उसका ज्ञाता है; फिर मन की वृत्तियाँ (चित्त-मन-बुद्धि -अहंकार) दृश्य है, इसका द्रष्टा साक्षी (आत्मा) है; और साक्षी को कभी नहीं देखा जा सकता, किन्तु उसे अज्ञात या अज्ञेय भी नहीं समझना चाहिये ; उसका बोध नहीं प्रतिबोध होता है। यह बुद्धत्व प्राप्त करना असम्भव नहीं है।
केनोपनिष्द 2.4 कहता है -'प्रतिबोध विदितं मतं अमृतत्वं हि विन्दते ।' -तुम स्वयं वह साक्षी चैतन्य (conscious witness) हो, जो इस बुद्धि को प्रकाशित करता है। मनुष्य के अधिकार में ज्ञानोपलब्धि के दो साधन इन्द्रिय और आत्मा हैं। इन्द्रियों से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे बोध और आत्मा के द्वारा जिस ज्ञान की उपलब्धि होती है, उसे प्रतिबोध कहते हैं। मन की बहिर्मुखी वृति के द्वारा उपलब्ध ज्ञान का नाम ही बोध है, परन्तु जो ज्ञान अन्तर्मुखी वृति के द्वारा प्राप्त हुआ करता है उसे बोध नहीं कह सकते; उसका नाम प्रतिबोध है। इस अन्तर्मुखी वृति का कार्यक्षेत्र आत्मा और परमात्मा होते हैं, इसलिए आत्मा को जो अपने स्वरूप का ज्ञान या ईश्वर का ज्ञान प्राप्त हुआ करता है, उसी का नाम प्रतिबोध है। 'प्रतिबोध विदितं मतं' परमात्मा की उपलब्धि प्रतिबोध में अर्थात प्रत्येक अनुभूति में होने लगती है। और जब किसी महापुरुष को " प्रत्येक बोध में ब्रह्मबोध होने लगता है - बोध बोध में ब्रह्मबोध होता है; तब उस महापुरुष के लिए फिर मरण कैसा?”जब किसी पैगम्बर/नेता /शिक्षक को वह अवस्था प्राप्त हो जाती है-तब वह जिस तरफ अपनी नजरों को घुमाता है, वह वहीँ ब्रह्म को देखता है -
देहाभिमाने गलिते विज्ञाने परमात्मनि ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधय: ।।
अपने
शरीर से अभिमान के नष्ट हो जाने पर और स्वयं को परमात्मा से युक्त जान
लेने के बाद मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहां-वहां उसे समाधि का अनुभव होता है।
अर्थात् परमतत्त्व का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य को जागृत अवस्था में भी
समाधि का अनुभव हो जाता है। यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधय: ।।
आत्माकाश मे देहाभिमान जीव भाव की सृष्टि कर देता है । देहाभिमान के नष्ट होते ही जीवात्मा अपने ब्रह्म स्वरूप मे प्रतिष्ठित हो जाता है । जीव को ब्रह्म होने मे उतनी ही देर लगती है जितनी देर किसी 'ब्राह्मण' को 'मनुष्य' होने मे लगती है । 'ब्राह्मण' (ब्रह्मवेत्ता व्यक्ति) मनुष्य ही है केवल 'ब्राह्मणत्व का अभिमान' हटाना है इसी प्रकार देहाभिमान हटा देने पर जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है!
श्लोक का चौथा चरण कहता है -यह साक्षी (आत्मा) ही सच्चा द्रष्टा है। फिर मन क्या है ? मन है दृश्य वस्तु। साक्षी, इन्द्रिय, शरीर और मन मिलकर इस सम्पूर्ण जगत के द्रष्टा हैं। किन्तु सच्चा द्रष्टा एक मात्र साक्षी चैतन्य ही है। उपनिषद् में यह शिक्षा यह दी गई है कि इस प्रतिबोध (आत्मानुभव) से, प्राप्त विज्ञान से, मनुष्य अमरता (मोक्ष-डीहिप्नोटाइज्ड या जीवन्मुक्त अवस्था) प्राप्त करता है। उसे अपने पुरुषार्थ से 3H का बल (शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार का बल ) विकसित करना चाहिये; और उपलब्ध विज्ञान से अमरता लाभ करना चाहिए। अपने जीवन के हर कार्यक्षेत्र में इस अनन्त चैतन्य का अनुभव करने से यह शक्ति विकसित होती है, केवल समाधि में रहने से नहीं होती।
और यह सम्भव है, परन्तु इस प्रतिबोध की प्राप्ति अहंकार के तिरोहित या नाश होने से ही हुआ करती है। अहंकार के नाश से ममता का नाश होता है और ममता के नाश से मनुष्य (आत्मा) और परमात्मा के बीच से 'द्वैत का परदा' उठ जाता है। यह साक्षी ही एकमात्र ज्ञाता है, बाकी सबकुछ ज्ञेय है। यह साक्षी चैतन्य -मन,बुद्धि अहंकार से अलग है। मन-बुद्धि-अहंकार शरीर हर कुछ निरंतर बदलता रहता है, साक्षी कभी नहीं बदलता। फिर यह साक्षी एक है -बाकि सब अनेक है।
अद्वैत- वेदान्त में साक्षी की परिभाषा: श्रीरामकृष्णस्तवराजः में कहा गया है- "बुद्धेश्चसाक्षी निखिलस्य जन्तोः। यो वेत्ति सर्वं न च यस्य वेत्ता, परात्मरूपो भुवि रामकृष्णः ॥१॥" जो सबको जानते हैं उनको कोई नहीं जानता, वह कौन है ? श्री रामकृष्ण ? [स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥ श्वेताश्वतरोपनिषद्||३. १९||] नहीं , अद्वैत -वेदान्त कहता है - 'तत्त्वमसि' -वह तुम ही हो ! तुम स्वयं ('वह' शाश्वत चैतन्य श्रीरामकृष्ण) ही अपनी बुद्धि और अहं के साक्षी हो।
जैसे 'धन' में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति अपने को ‘धनवान्’ समझता है; किन्तु 'धन' (कामिनी,कांचन और कीर्ति) आसक्ति नहीं रहने से धनवान्-व्यक्ति (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटा हुआ व्यक्ति-सद्गृहस्थ) तो रहता है, पर अब उसका नाम 'धनवान्' (संसारी -धनपशु) नहीं रहता । ऐसे ही दृश्य के सम्बन्ध से ‘द्रष्टा’ कहलाता है; किन्तु दृश्य का सम्बन्ध न रहने पर द्रष्टा तो रहता है, पर ‘द्रष्टा’ संज्ञा नहीं रहती । तात्पर्य है कि एक ही चिन्मय तत्त्व (समझने के लिये) दृश्य के सम्बन्ध से द्रष्टा, साक्ष्य के सम्बन्धसे साक्षी, करण के सम्बन्ध से कर्ता और शरीर के सम्बन्ध से शरीरी कहा जाता है । किन्तु वास्तव में उस तत्त्व का कोई नाम नहीं है । वह केवल अनुभवरूप है । [साभार http://satcharcha.blogspot.com/]
माण्डूक्य उपनिषद में कहा है -" शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥"-जीवन की चार अवस्थाएँ है - 1. जागृति 2. स्वप्न 3. सुषुप्ति 4. तुर्यगा । तुर्यगा - तीनो अवस्था से मुक्त होना तुर्यगा है। ब्रह्म को जिस इन्द्रियातीत ज्ञान अवस्था मेँ आत्मरुप और अखण्ड जाने वही अवस्था तुर्यगा है।जाग्रत आदि तीन अवस्थाओं से रहित शिव, अद्वैत स्वरूप,निर्विकल्प समाधि की जो चौथी अवस्था है वह तुर्यगा है। यह तुर्यगा अवस्था जीवन्मुक्त पुरुषों में इसी देह में विद्यमान रहती है।
मंत्र में जिसे - 'शान्तं, शिवं, अद्वैतं' कहा जा रहा है वह 'तुम' और 'मैं' ही हूँ। शान्तं -शिवं -अद्वैतं हमलोगों का ही नाम है। 3rd'H' हृदय (Heart) या आत्मा का का ही एक नाम शांति है, ऐसा नहीं कि आध्यात्मिक आत्मा शांत होती है,आत्मा स्वभावतः शांति ही है। चाहे तुम्हारा मन (Head) और शरीर (Hand) शांत रहता हो या नहीं रहता हो, जगत शांत हो या सतत् परिवर्तनशील रहता हो, किन्तु तुम (3rd 'H') साक्षी भाव से हमेशा के लिये अक्षुब्ध (undisturbed ) हो । वह शांति -साम्यभाव (equilibrium, संतुलन) ही तुम्हारा स्वरूप है। यहाँ तक कि तुम जब तुम देह-मन के साथ तादात्म्य करके जगत के साथ तादात्म्य कर लेते हो, अपना मान बैठते हो। और अपने को मन -देह के साथ एकदम संलग्न (attached-आसक्त) समझते हो, और कहते हो मन का दुःख मेरा दुःख है, मन का अज्ञान मेरा मन है, मन का संसारी स्वभाव मेरा स्वभाव है, तब तुम अपने आप से यह सब मिथ्या (false) भाषण करते हो, स्वयं से झूठ बोलते हो। वह ज्ञाता जो मन-बुद्धि को भी जान रहा है, वास्तव में हम स्वयं 'शान्तं -शिवं -अद्वैतं' ही हैं। [सदा सत्य बोलो ! 'मैं वह हूँ !'] यहाँ भी वेदान्त समझने के द्रष्टा या साक्षी को समझने के लिए वेदांत के (विवेक-प्रयोग विद्या) के तीन मौलिक नियमों का प्रयोग करें -
१. द्रष्टा और दृश्य यहाँ भी भिन्न हैं, जो 'साक्षी-चेतना ' (Witness consciousness) मन को देख रही है, वह निश्चित रूप से मन से अलग कोई वस्तु है।
२.दूसरा नियम है, द्रष्टा एक रहता है, दृश्य अनेक होता है। मन में अनेकों विचार, इच्छायें , भावनायें आती -जाती रहती हैं, विचारों का प्रवाह चलता रहता है, किन्तु उसको जानने वाला साक्षी एक ही होता है।
३. तीसरा मौलिक नियम है कि द्रष्टा साक्षी चेतना अपरिवर्तनीय है, मन में उठने वाले विचार, दृश्य या ज्ञेय विचार, इसकी इच्छायें-आकांक्षाएं निरंतर परिवर्तन शील है। मन की अवस्था सापेक्षिक रूप से निरंतर बलदती रहती है, किन्तु मन की अवस्थाओं में परिवर्तन को देखने वाला साक्षी नहीं बदलता, हर परिस्थिति में वह - मन को साक्षी भाव से देखता रहता है। अंतिम निष्कर्ष The seer is ‘aware’ and the seen relative to it is ‘inert’. यह निकला कि द्रष्टा जागरूक (aware या चेतन) और दृश्य सापेक्षिक रूप से जड़ है। अब इस पुस्तक के अगले २,३,४ और ५ तक के श्लोक को देखेंगे, तो पता चलेगा कि इन श्लोकों में इस पुस्तक के प्रथम श्लोक को ही और अधिक स्पष्ट रूप में समझाने की चेष्टा की गयी है।
नीलपीतस्थूलसूक्ष्म ह्रस्वदीर्घादि भेदतः ।
नानाविधानि रूपाणि पश्येल्लोचनमेकधा ॥ वाक्य-सुधा २॥
नील-पीत-स्थूल-सूक्ष्म-ह्रस्व-दीर्घ-आदि-भेदतः नाना-विधानि रूपाणि [भवन्ति], लोचनं (चक्षुस्-इन्द्रियं) तु] एकधा (एक-रूपेण) [एव तानि] पश्येत्॥हमारी आँख द्रष्टा बनकर, नीला-पीला रंग, स्थूल-सूक्ष्म, छोटा -बड़ा आदि अनेक प्रकार के आकृतियों को या रूपों को देखती है। इस श्लोक में प्रथम श्लोक के पहले चरण की व्याख्या है।
1. नील-पीत-स्थूल-सूक्ष्म: - नीला-पीला आदि 7रंग, स्थूल-सूक्ष्म आकृति।
2. -ह्रस्व-दीर्घ-आदि-भेदतः - छोटे, लम्बे इत्यादि अंतर के आधार पर भेद दिखाई देता है। 3. नाना-विधानि रूपाणि - आकृतियाँ रूप कई प्रकार की हैं।
4. पश्येत् लोचनं एकधा - किन्तु इन सबको देखने वाली ऑंखें एक ही रहती हैं।
1-3 तक के सोपान में कहा जा रहा है कि बाह्य जगत में विभिन्न रंग रूप और आकार के पंचेन्द्रिय ग्राह्य वस्तुओं की संख्या अनन्त है।4. श्लोक के चौथे चरण में कहा गया सभी रंग रूपों के देखने वाला एक मात्र नेत्र हैं।
यह श्लोक विवेक-प्रयोग के तीन मौलिक सिद्धान्तों में से प्रथम सिद्धान्त -" द्रष्टा एक होता है, दृश्य अनेक होते हैं" के समर्थन में कहा गया है। बाह्य जगत में कुछ रूप विभिन्न रंगों और आकर में है, नीले,पीले, स्थूल -सूक्ष्म हैं। कुछ लम्बे है, कुछ नाटे कद के अनेक (Many) नाम-रूप हैं -किन्तु समस्त प्रकार के रंग-रूपों का द्रष्टा एक (One )ऑंख ही है।उसी प्रकार शब्द,रस,गंध, स्पर्श आदि विषय भी मस्तिष्क में अवस्थित उसके corresponding senses, कान, जिह्वा, नाक, त्वचा आदि सम्बंधित इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव में आते हैं। बाह्य जगत की सम्पूर्ण जानकारी मन ही प्राप्त करता है; इस दृष्टि से देखने पर मन पाँचों इन्द्रियों का स्वामी है। यहाँ मन द्रष्टा है और इन्द्रियाँ दृश्य हैं।
प्रथम श्लोक में हमने समझा था कि 'विवेक-प्रयोग विद्या' तीन मौलिक सिद्धान्तों (operating principles) के अनुसार कार्य करती है-1.द्रष्टा एक होता है और दृश्य अनेक होते हैं। 2.द्रष्टा दृश्य से सदैव भिन्न होता है। 3.तीसरा सिद्धान्त कहता है कि दृश्य (सापेक्षिक दृष्टि से) निरंतर परिवर्तनीय होता है, किन्तु द्रष्टा (सापेक्षिक दृष्टि से) अपरिवर्तनीय होता है। निष्कर्ष क्या निकला? यही कि द्रष्टा, दृश्य से सदैव भिन्न या अलग होता है।
अब श्लोक 3 को लेते हैं, इसमें पहले श्लोक के दूसरे चरण 'तद्दृश्यं दृक्तु मानसम्' की व्याख्या है। तद् [लोचन-आदि-सूक्ष्म-इन्द्रियं तु] दृश्यं [भवति यस्मात् एव] मानसं (मनस्) दृक्। आँख (कान,नाक,जिह्वा,त्वचा आदि) भी दृश्य है और मन उसका द्रष्टा है।
आन्ध्यमान्द्यपटुत्वेषु नेत्रधर्मेषु चैकधा ।
सङ्कल्पयेन्मनः श्रोत्र त्वगादौ योज्यतामिदम् ॥ ३॥
आन्ध्य-मान्द्य-पटुत्वेषु च
नेत्र-धर्मेषु [लोचन-इन्द्रियस्य नाना-विध-धर्मेषु] मनस् एकधा (केवलं)
सङ्कल्पयेत्। श्रोत्र-त्वच्-आदौ [इन्द्रियेषु] इदं [दृश्-दृश्य-विवेकत्वं]
योज्यतां (योगं कार्यताम्)॥सङ्कल्पयेन्मनः श्रोत्र त्वगादौ योज्यतामिदम् ॥ ३॥
उस आँख के अंधापन, मन्दता या तीक्ष्णता आदि विविध धर्मों को हमारा एक मन समझता है।इसी प्रकार कान,नाक, जिह्वा, त्वचा आदि इन्द्रिय-विषयों के बारे में भी समझना चाहिये।
1.आन्ध्य-मान्द्य-पटुत्वेषु - अंधापन, मंददृष्टि, तीक्ष्णदृष्टि आदि कई अवस्थाएं हैं।
2. नेत्र -धर्मेषु च एकधा -- नेत्र के इन अनेक लक्षणों या गुणों को समझने वाला मन एक ही है।
3. सङ्कल्पयेत् मनः श्रोत्र - वह मन ही जो कान आदि के बहरेपन आदि लक्षणों को जानता है।
4. त्वच्-आदौ योज्यतां - त्वचा आदि अन्य इन्द्रियों के विषय में भी यही बात लागू होती है।
इस श्लोक में हमारी आँखों के विशिष्ट गुणों का (different characteristics of eyes) का वर्णन प्राप्त होता है। आन्ध्य-मान्द्य-पटुत्वेषु नेत्र-धर्मेषु च एकधा- कभी ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति बिल्कुल अँधा होता है, वह देख नहीं सकता। तो कोई मान्ध्य होता है, dull vision का व्यक्ति बिना चश्में के नहीं देख पाता। मोतिया-बिंद होने पर उसका ऑपरेशन करवाना पड़ता है। कभी किसी की ऑंखें एक दम पटु होती हैं अर्थात वह अच्छीतरह से देख सकता है। यहाँ 'पटु' का अर्थ है - 20 /20 vision, clearly देख सकता है। ये सब नेत्रधर्म या आँखों के विशिष्ट गुण हैं। ये सब नेत्रों की विभिन्न लक्षण हैं। किन्तु आँखों की इन अवस्थाओं को जानने वाला साधन या उपकरण केवल मन ही है। उसी प्रकार मेरे दोनों कान ठीक हैं या खराब हैं, या दाहिने वाले कान में हियरिंग एड लगाना पड़ेगा ? फूलों की गंध को या कुकिंग गैस लिक होने के गंध को मेरे नाक सूंघ पा रहे हैं या नहीं ? इसको कौन जान रहा है ? केवल आंख और नाक ही नहीं सभी इन्द्रिय-विषयों का अनुभव करने वाला, एकधा = by itself जानने वाला मेरा मन है। योज्यताम = सभी इन्द्रियों को यहाँ लगा सकते हैं, इसमें कोई दार्शनिक बात नहीं कही जा रही है, यह हमलोगों का सामान्य अनुभव है।
इसी लॉजिक के अनुसार मन वह वस्तु है , जो शरीर में रहकर भीतर से शरीर की अवस्था को जानता है। इसलिए हमारा मन, हमारे शरीर और इन्द्रियों से अलग है, इसका अनुभव हम सभी करते रहते हैं। इसलिए ज्ञाता मन, ज्ञेय नेत्रों तथा अन्य समस्त इन्द्रियों से अलग है। द्रष्टा दृश्य से और ज्ञाता ज्ञेय से पृथक है। मन इन्द्रियों का ज्ञाता है अतः वह सभी इन्द्रियों से अलग है। मन सूक्ष्म है, शरीर स्थूल है। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि शायद मस्तिष्क से मन की उत्पत्ति होगी ? if mind is generated from my brain ? किन्तु क्या मेरे मन की उत्पत्ति इस शरीर के एक हिस्से मस्तिष्क से कभी हो सकती है ? हमारा अनुभव कहता है, ऐसा कदापि नहीं हो सकता ! क्योंकि ब्रेन भी स्थूल शरीर का ही हिस्सा है। कभी कभी भ्रमवश हम सोचते हैं कि यह मन-बुद्धि ही शरीर और बाह्यजगत का ज्ञाता है। किन्तु जब उस मन के भी भीतर अवस्थित होकर, साक्षी भाव से मन को देखते हैं, तब पाते हैं कि, उस साक्षी के लिए मन भी शरीर और बाह्य जगत के जैसा दृश्य बन जाता है। बाह्यजगत क्या है ? इसकी त्वरित परीक्षा करें - quick examination -तो पाते हैं समस्त नाम-रूप दृश्य वस्तु हैं, या ज्ञेय पदार्थ है। चौथा श्लोक पहले श्लोक के तीसरे भाग 'दृश्याः धीवृत्तयः साक्षी' की व्याख्या करता है, मन के विचार भी उसी प्रकार ज्ञान के विषय हैं, जैसे यह पुस्तक एक ज्ञेय वस्तु है। विचार मुझसे अलग है, मैं मन के कंटेंट्स का द्रष्टा हूँ। यहाँ कहा गया है
2. नेत्र -धर्मेषु च एकधा -- नेत्र के इन अनेक लक्षणों या गुणों को समझने वाला मन एक ही है।
3. सङ्कल्पयेत् मनः श्रोत्र - वह मन ही जो कान आदि के बहरेपन आदि लक्षणों को जानता है।
4. त्वच्-आदौ योज्यतां - त्वचा आदि अन्य इन्द्रियों के विषय में भी यही बात लागू होती है।
इस श्लोक में हमारी आँखों के विशिष्ट गुणों का (different characteristics of eyes) का वर्णन प्राप्त होता है। आन्ध्य-मान्द्य-पटुत्वेषु नेत्र-धर्मेषु च एकधा- कभी ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति बिल्कुल अँधा होता है, वह देख नहीं सकता। तो कोई मान्ध्य होता है, dull vision का व्यक्ति बिना चश्में के नहीं देख पाता। मोतिया-बिंद होने पर उसका ऑपरेशन करवाना पड़ता है। कभी किसी की ऑंखें एक दम पटु होती हैं अर्थात वह अच्छीतरह से देख सकता है। यहाँ 'पटु' का अर्थ है - 20 /20 vision, clearly देख सकता है। ये सब नेत्रधर्म या आँखों के विशिष्ट गुण हैं। ये सब नेत्रों की विभिन्न लक्षण हैं। किन्तु आँखों की इन अवस्थाओं को जानने वाला साधन या उपकरण केवल मन ही है। उसी प्रकार मेरे दोनों कान ठीक हैं या खराब हैं, या दाहिने वाले कान में हियरिंग एड लगाना पड़ेगा ? फूलों की गंध को या कुकिंग गैस लिक होने के गंध को मेरे नाक सूंघ पा रहे हैं या नहीं ? इसको कौन जान रहा है ? केवल आंख और नाक ही नहीं सभी इन्द्रिय-विषयों का अनुभव करने वाला, एकधा = by itself जानने वाला मेरा मन है। योज्यताम = सभी इन्द्रियों को यहाँ लगा सकते हैं, इसमें कोई दार्शनिक बात नहीं कही जा रही है, यह हमलोगों का सामान्य अनुभव है।
इसी लॉजिक के अनुसार मन वह वस्तु है , जो शरीर में रहकर भीतर से शरीर की अवस्था को जानता है। इसलिए हमारा मन, हमारे शरीर और इन्द्रियों से अलग है, इसका अनुभव हम सभी करते रहते हैं। इसलिए ज्ञाता मन, ज्ञेय नेत्रों तथा अन्य समस्त इन्द्रियों से अलग है। द्रष्टा दृश्य से और ज्ञाता ज्ञेय से पृथक है। मन इन्द्रियों का ज्ञाता है अतः वह सभी इन्द्रियों से अलग है। मन सूक्ष्म है, शरीर स्थूल है। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि शायद मस्तिष्क से मन की उत्पत्ति होगी ? if mind is generated from my brain ? किन्तु क्या मेरे मन की उत्पत्ति इस शरीर के एक हिस्से मस्तिष्क से कभी हो सकती है ? हमारा अनुभव कहता है, ऐसा कदापि नहीं हो सकता ! क्योंकि ब्रेन भी स्थूल शरीर का ही हिस्सा है। कभी कभी भ्रमवश हम सोचते हैं कि यह मन-बुद्धि ही शरीर और बाह्यजगत का ज्ञाता है। किन्तु जब उस मन के भी भीतर अवस्थित होकर, साक्षी भाव से मन को देखते हैं, तब पाते हैं कि, उस साक्षी के लिए मन भी शरीर और बाह्य जगत के जैसा दृश्य बन जाता है। बाह्यजगत क्या है ? इसकी त्वरित परीक्षा करें - quick examination -तो पाते हैं समस्त नाम-रूप दृश्य वस्तु हैं, या ज्ञेय पदार्थ है। चौथा श्लोक पहले श्लोक के तीसरे भाग 'दृश्याः धीवृत्तयः साक्षी' की व्याख्या करता है, मन के विचार भी उसी प्रकार ज्ञान के विषय हैं, जैसे यह पुस्तक एक ज्ञेय वस्तु है। विचार मुझसे अलग है, मैं मन के कंटेंट्स का द्रष्टा हूँ। यहाँ कहा गया है
कामः सङ्कल्पसन्देहौ/ श्रद्धाऽश्रद्धे धृतीतरे ।
ह्रीर्धीर्भीरित्येवमादीन् / भासयत्येकधा चितिः ॥ ४॥
कामः, सङ्कल्प-सन्देहौ, श्रद्-धा-अ-श्रद्-धे, धृति-इतरे [धृति-स्व-विपरिते], ह्रीः, धीः, भीः इति एवम् आदीन्
[वृत्ति-विशेषान्] चितिः (चैतन्यं) एकधा (केवलं) भासयति॥
[वृत्ति-विशेषान्] चितिः (चैतन्यं) एकधा (केवलं) भासयति॥
-अर्थात
कामना, संकल्प, संदेह, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, लज्जा, ज्ञान, भय आदि मन
की विभिन्न वृत्तियों को भी एक ही साक्षी चेतना चेतनता को प्रकाशित करती
है।
1.कामः, सङ्कल्प-सन्देहौ --इन्द्रिय सुख पाने की कामना, संकल्प और सन्देह।
2.श्रद्धा -अश्रद्धे धृति इतरे ---आस्तिक्य बुद्धि है, या नास्तिक है, धैर्यवान (धीर)है या धैर्य में कमी है।
3. ह्रीः, धीः, भीः इति एवम् आदीन् --- 'लज्जा-घृणा- भय' और ऐसे अन्य वृत्तियों या भावों को।
4. भासयति एकधा चितिः ----- मन की समस्त वृत्तियों को प्रकाशित करने वाली चेतना वही रहती है।
इस श्लोक में पहली बार चितिः (consciousness) या चैतन्य शब्द से हमारा परिचय होता है। श्रद्धा -आस्तिक्यबुद्धि, अश्रद्धा -मैं आत्मा को नहीं मानता -इस बुद्धि को भी चेतना प्रकाशित करती है। धृति का अर्थ है कठिन होने से भी उच्च भावों को धारण किये रहने की क्षमता। पानी में भींगकर भी सही समय पर पाठचक्र में उपस्थित होना -धृति का उदाहरण है। इतरे -आदि आदि। ये समस्त मनोभाव यथा- ह्री =शील, नम्रता। धी =समझ , भय आदि जितने भी मनोभाव हैं, वे सारे मनोभाव साक्षी-चेतना (witness consciousness) द्वारा ही प्रकाशित होते है। या उन सबको चेतना ही प्रकाशित करती है। यह चितिः या 'चेतना' [होश या consciousness) ही मन के अन्तर्वस्तुओं (Contents) को प्रकाशित करती है। मन के अन्तर्वस्तु क्या हैं ? काम (desire-इन्द्रिय सुख पाने की इच्छा ),क्रोध,लोभ, मद, मोह, ईर्ष्या,द्वेष आदि भावों से मैं अवगत हूँ। क्या ये volatile substance कपूर की तरह ज्वलनशील, या उड़नशील पदार्थ हैं, या इनमें से कुछ शत्रु मुझे प्रभावित करना चाह रहे है? यहाँ आत्मनिरीक्षण नहीं करना पड़ता , स्वाभाविक रूप से मैं जानता हूँ कि मुझे 'लज्जा-घृणा -भय ' में कौन ध्यान का बाधक है ?या कोई न कोई अन्य चाहत है।? चेतना सीधे हमारे विचारों को प्रकाशित कर देती है। काम (desire) मन का विषय है और चेतना उसे प्रकाशित करती है। संकल्प -विकल्प उत्पन्न होने लगते हैं। यदि मन को कहीं सन्देह (confusion) या विभ्रान्ति हो रही है, तो मन के उस असमंजस से भी हम तत्काल अवगत हो जाते हैं।
इस पुस्तक का पंचमश्लोक बहुत काव्यमय सुंदर श्लोक है - यह हमारे यथार्थ स्वरूप की व्याख्या करता है। यह प्रथम श्लोक के चौथे चरण -'दृक् एव न तु दृश्यते' की व्याख्या करती है।
2.श्रद्धा -अश्रद्धे धृति इतरे ---आस्तिक्य बुद्धि है, या नास्तिक है, धैर्यवान (धीर)है या धैर्य में कमी है।
3. ह्रीः, धीः, भीः इति एवम् आदीन् --- 'लज्जा-घृणा- भय' और ऐसे अन्य वृत्तियों या भावों को।
4. भासयति एकधा चितिः ----- मन की समस्त वृत्तियों को प्रकाशित करने वाली चेतना वही रहती है।
इस श्लोक में पहली बार चितिः (consciousness) या चैतन्य शब्द से हमारा परिचय होता है। श्रद्धा -आस्तिक्यबुद्धि, अश्रद्धा -मैं आत्मा को नहीं मानता -इस बुद्धि को भी चेतना प्रकाशित करती है। धृति का अर्थ है कठिन होने से भी उच्च भावों को धारण किये रहने की क्षमता। पानी में भींगकर भी सही समय पर पाठचक्र में उपस्थित होना -धृति का उदाहरण है। इतरे -आदि आदि। ये समस्त मनोभाव यथा- ह्री =शील, नम्रता। धी =समझ , भय आदि जितने भी मनोभाव हैं, वे सारे मनोभाव साक्षी-चेतना (witness consciousness) द्वारा ही प्रकाशित होते है। या उन सबको चेतना ही प्रकाशित करती है। यह चितिः या 'चेतना' [होश या consciousness) ही मन के अन्तर्वस्तुओं (Contents) को प्रकाशित करती है। मन के अन्तर्वस्तु क्या हैं ? काम (desire-इन्द्रिय सुख पाने की इच्छा ),क्रोध,लोभ, मद, मोह, ईर्ष्या,द्वेष आदि भावों से मैं अवगत हूँ। क्या ये volatile substance कपूर की तरह ज्वलनशील, या उड़नशील पदार्थ हैं, या इनमें से कुछ शत्रु मुझे प्रभावित करना चाह रहे है? यहाँ आत्मनिरीक्षण नहीं करना पड़ता , स्वाभाविक रूप से मैं जानता हूँ कि मुझे 'लज्जा-घृणा -भय ' में कौन ध्यान का बाधक है ?या कोई न कोई अन्य चाहत है।? चेतना सीधे हमारे विचारों को प्रकाशित कर देती है। काम (desire) मन का विषय है और चेतना उसे प्रकाशित करती है। संकल्प -विकल्प उत्पन्न होने लगते हैं। यदि मन को कहीं सन्देह (confusion) या विभ्रान्ति हो रही है, तो मन के उस असमंजस से भी हम तत्काल अवगत हो जाते हैं।
इस पुस्तक का पंचमश्लोक बहुत काव्यमय सुंदर श्लोक है - यह हमारे यथार्थ स्वरूप की व्याख्या करता है। यह प्रथम श्लोक के चौथे चरण -'दृक् एव न तु दृश्यते' की व्याख्या करती है।
नोदेति नास्तमेत्येषा न वृद्धिं याति न क्षयम् ।
स्वयं विभात्यथान्यानि भासयेत्साधनं विना ॥ ५॥
एषा [चितिः] नउदेति,
न अस्तम् एति, न वृद्धिं न क्षयं [च] याति। [एषा] स्वयं विभाति
[विविध-वृत्ति-रूपतस् भाति], अथ [च अन्य-]साधनं विना [एषा] अन्यानि भासयेत्
(प्रकाशयेत्)॥
1.न उदेति न अस्तम् एति एषा ---यह साक्षी सूर्य की तरह न उदित होता है न अस्त होता है।
2.न वृद्धिं न क्षयं याति -- यह बढ़ता नहीं है, न ही यह घटता है।
3.स्वयं विभाति अथ अन्यानि - यह स्वयं प्रकाशवान है, और दूसरों को भी प्रकाशित करता है।
4. भासयेत् साधनं विना -- यह बिना किसी बाहरी सहायता के सबकुछ को प्रकाशित (illuminate) करता है।
2.न वृद्धिं न क्षयं याति -- यह बढ़ता नहीं है, न ही यह घटता है।
3.स्वयं विभाति अथ अन्यानि - यह स्वयं प्रकाशवान है, और दूसरों को भी प्रकाशित करता है।
4. भासयेत् साधनं विना -- यह बिना किसी बाहरी सहायता के सबकुछ को प्रकाशित (illuminate) करता है।
सूर्य
की उपमा देते हुए इस ग्रंथ के लेखक कहते हैं, अन्तर्निहित यह साक्षी
चैतन्य,स्व-प्रकाशवान है, सूर्य की तरह यह भी कभी उदित और अस्त नहीं होती।
सूर्य की तरह साक्षी चेतना (Witness Consciousness) का न तो उदय होता है, न
अस्त होता है। इसमें कोई वृद्धि अथवा क्षय भी नहीं होते है। यह स्वयं
प्रकाश्य है, तथा बिना किसी साधन की अपेक्षा के अन्य समस्त को प्रकाशित
करती है। पंचदशी (१. ७) में भी कहा गया है :मासाब्द युग कल्पेषु गतगाम्येष्वनेकधा। नीदेति नास्तमेत्येका संविदेषा स्वयंप्रभा ॥ [The
Purusha is this supreme Light of intelligence, In all the countless
months, years, ages, and aeons, which are past and which are yet to
come, Samvit (pure Consciousness), which is one and self-luminous, does neither rise nor set.]
सृष्टि के आदि से प्रलय तक, दिन, मास, वर्ष , युग, कल्प, 'from big bang to big crunch' तक समय बीतता जाता है, किन्तु चेतना निरंतर साक्षी रूप में प्रकाशित रहती है। शरीर बूढ़ा होता है, मरता है, किन्तु चेतना सदैव प्रकाशित रहती है, साक्षी द्रष्टा बनी रहती है। [संवित (सच्चिदानन्द) एषा स्वयं प्रभा] इसलिए न तो इसका उदय होता है, या अस्त होता है।
वह विशुद्ध चेतना (pure consciousness) फिजियोलॉजी, साइकोलॉजी, ब्रेन-बायोलॉजी या कृत्रिम बुद्धि प्रौद्योगिकी (artificial intelligence technology) आदि से प्रोड्यूस होने वाली कोई कृत्रिम चेतना (artificial consciousness) नहीं है ! मुण्डक उपनिषद कहता है (२२-१०), 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति'- "उसकी ज्योति से यह सब जगत भासित है।” यह शुद्ध चेतना मौलिक (fundamental) चेतना है, This is before matter (पंचभूत बनने से पहले) it only functions through mind and the brain या आधारभूत चेतना है। यह न बढ़ती है न कम होती है। कोई तर्क करते हैं कि गहरी नींद में तो चेतना नहीं रहती ? कभी ऐसा लगता है कि किसी क्लास में हम अधिक conscious या सचेत रहते है, किसी क्लास में कम सचेत रहते हैं ?
सृष्टि के आदि से प्रलय तक, दिन, मास, वर्ष , युग, कल्प, 'from big bang to big crunch' तक समय बीतता जाता है, किन्तु चेतना निरंतर साक्षी रूप में प्रकाशित रहती है। शरीर बूढ़ा होता है, मरता है, किन्तु चेतना सदैव प्रकाशित रहती है, साक्षी द्रष्टा बनी रहती है। [संवित (सच्चिदानन्द) एषा स्वयं प्रभा] इसलिए न तो इसका उदय होता है, या अस्त होता है।
वह विशुद्ध चेतना (pure consciousness) फिजियोलॉजी, साइकोलॉजी, ब्रेन-बायोलॉजी या कृत्रिम बुद्धि प्रौद्योगिकी (artificial intelligence technology) आदि से प्रोड्यूस होने वाली कोई कृत्रिम चेतना (artificial consciousness) नहीं है ! मुण्डक उपनिषद कहता है (२२-१०), 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति'- "उसकी ज्योति से यह सब जगत भासित है।” यह शुद्ध चेतना मौलिक (fundamental) चेतना है, This is before matter (पंचभूत बनने से पहले) it only functions through mind and the brain या आधारभूत चेतना है। यह न बढ़ती है न कम होती है। कोई तर्क करते हैं कि गहरी नींद में तो चेतना नहीं रहती ? कभी ऐसा लगता है कि किसी क्लास में हम अधिक conscious या सचेत रहते है, किसी क्लास में कम सचेत रहते हैं ?
शुद्ध
चेतना (pure consciousness) के ऊपर हाल ही में एक संगोष्ठी (seminar) का
आयोजन किया गया था। उसमें एक शोधपत्र का शीर्षक था - " Pure Consciousness
Events " किन्तु शीर्षक ही स्व-विरोधाभासी है। क्योंकि शुद्ध चेतना में
कोई घटना नहीं हो सकती , वह केवल साक्षी है। द्रष्टा या साक्षी
अपरिवर्तनशील होगा ही। चौथे श्लोक में कहा गया- कामः
सङ्कल्पसन्देहौ/श्रद्धा -अश्रद्धा यह सब, भासयत्येकधा चितिः' साक्षी इन
सबको प्रकाशित करता है, आप यहाँ ऐसा क्यों कहते हैं ? मन ही इन सबको भी
प्रकाशित करता है ऐसा क्यों नहीं कहते ? क्योंकि हम देखते है कि मन में भी
आत्मनिरीक्षण (Intro Inspection) करने की क्षमता होती है। किन्तु जब हमलोग
आत्मनिरीक्षण नहीं भी कर रहे होते हैं, उस समय भी हम स्वयं के प्रति अवश्य
जागरूक (aware) रहते हैं। दूसरा प्रमाण वेदान्त देता है कि गहरी नींद की
अवस्था में भी शुद्ध चैतन्य साक्षी भाव से बना रहता है। वेदान्त का साक्षी
चैतन्य गृहस्थ या संन्यासी बनने की शर्त नहीं रखता, आप जिस अवस्था में
हैं, शुद्ध चेतना वहीँ प्रकाशित है।
नींद में संसार मेरे लिए नहीं रहता। गहरी नींद में केवल चेतना ही रहती है, क्योंकि उस समय उसके सचेत होने के लिए कोई विषय नहीं होता। गहरी
नींद में भी चेतना -स्वयं विभाति। जाग्रत, स्वप्न अवस्था में अनेक को
प्रकाशित करती है। जगत के विषय में सचेत होने के लिए हमें किसी न किसी
इन्द्रिय की या इन्स्ट्रूमेन्ट की आवश्यकता होती है। हम यह कैसे जानते हैं
कि हम अभी इस auditorium में बैठे हैं ? किसी अन्य के विषय में अवगत होने
से पहले हम अपने स्वयं बारे में जागरूक (aware) रहते हैं। अपने को, स्वयं
को जानने के लिए चेतना को किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती, दूसरी वस्तु
को जानने के लिए इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। साक्षी चेतना (Witness
Consciousness) ही जगत को जानने के लिए शरीर, मन इन्द्रियों का उपयोग करता
है। पर यह स्वयं प्रकाश है। भासयेत साधनं बिना -चेतना बिना की
इन्स्ट्रूमेन्ट के स्वयं प्रकाशित रहती है। हम साधारण लोग जिसे होश या
conscious state समझते हैं, उस अवस्था को हम चेतना के साथ मन को जोड़ कर
समझते हैं। किन्तु वेदान्त का साक्षी-चैतन्य (Witness consciousness) - मन के नहीं रहने पर भी रहता है।
किसी
शिक्षक ने अपने शिष्यों से पूछा - मनःसंयोग और विवेक-प्रयोग के तीन
कार्यकारी सिद्धांतों को सीख लेने के बाद तुम लोग तो समझ गए होगे कि वास्तव में 'तुम' साक्षी हो ? बहुतों ने हाँ में मुण्डी हिलाया। उन्होंने
कहा -"बहुत बड़े गड्ढे में गिरोगे !" ट्रैफिक जाम जहाँ फंसे कि 'मैं साक्षी
हूँ ' का भाव भाग जायेगा। पर शुद्ध चेतना उस समय भी रहती है। शुद्ध चेतना कभी थकती नहीं या बोर होकर सोती भी नहीं है, यह तो मन है जो दुनिया के विषय में सोचते सोचते थककर सो जाता है। समाधि
में चित्त की वृत्तियों का निरोध होने पर सच्चिदानन्द स्वरुप में विश्राम
मिलता है, जो सदा बना रहता है। जिनको समाधि हो जाती है, उनके नींद के घंटे
कम हो जाते हैं। स्थूल शरीर के मरने पर सूक्ष्म शरीर दूसरा शरीर प्राप्त
करता रहता है, किन्तु चेतना, सूक्ष्म शरीर के पहले भी थी, और निकल जाने के
बाद भी रहती है। यही पहले श्लोक के चौथे भाग की व्याख्या है।अगले श्लोक में
समझेंगे कि सुषुप्ति में भी चेतना रहती है।
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Analysis of Seer and scene (Seen):
How to know the One and Only : one o one दृग्दृश्य विवेक : वाक्य सुधा:[Analysis of the Seer and the scene : भारती तीर्थ स्वामिना विरचितः http://upasanayoga.org/docs/DrDV.htm/and https://www.chinfo.org ] Chapter 1: (Verses 1-5) THE BASIC LAWS OF DISCRIMINATION
रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं दृक्तु मानसम् ।दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते ॥ १॥
[स्थूल-]रूपं दृश्यं [ग्रहक-योग्यं भवति यस्मात् एव] लोचनं [चक्षुस्-आदि-इन्द्रियं] दृक्। तद् [लोचन-आदि-सूक्ष्म-इन्द्रियं तु] दृश्यं [भवति यस्मात् एव] मानसं (मनस्) दृक्। [सूक्ष्म-रूपाः] धी-वृत्तयः दृश्या: [भवन्ति यस्मात् एव] साक्षी [चैतन्य-आत्मा] दृक् एव, न तु दृश्यते (न एव दृश्यः)॥
रूप
दृश्य है और नेत्र द्रष्टा है। ये नेत्र-द्रष्टा भी मन की दृष्टि से दृश्य
की श्रेणी में आ जाते हैं। उसी प्रकार मन शब्द से लक्षित उसकी समस्त
वृत्तियॉँ (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार आदि) भी साक्षी की दृष्टि से दृश्य हैं।
यह साक्षी किसी के द्वारा दृश्य नहीं बनता, अतः वह ही वास्तविक द्रष्टा
है।
The
form is perceived and the eye is its perceiver. The eye is perceived
and the mind its perceiver. The mind with its modifications perceived
and the witness is verily the perceiver, but it is not perceived.
नीलपीतस्थूलसूक्ष्मह्रस्वदीर्घादि भेदतः ।नानाविधानि रूपाणि पश्येल्लोचनमेकधा ॥ २॥
नील-पीत-स्थूल-सूक्ष्म-ह्रस्व-दीर्घ-आदि-भेदतः
नाना-विधानि रूपाणि [भवन्ति], लोचनं (चक्षुस्-इन्द्रियं) तु] एकधा
(एक-रूपेण) [एव तानि] पश्येत्॥
हमारी आँख द्रष्टा बनकर, नीला-पीला रंग, स्थूल-सूक्ष्म, छोटा -बड़ा आदि अनेक प्रकार के आकृतियों को या रूपों को देखती है।
The forms appear as various on account of such distinctions as blue, yellow, gross,subtle, short, long etc. The eye, on the other hand, sees them, itself remaining one and the same.
हमारी आँख द्रष्टा बनकर, नीला-पीला रंग, स्थूल-सूक्ष्म, छोटा -बड़ा आदि अनेक प्रकार के आकृतियों को या रूपों को देखती है।
The forms appear as various on account of such distinctions as blue, yellow, gross,subtle, short, long etc. The eye, on the other hand, sees them, itself remaining one and the same.
आन्ध्यमान्द्यपटुत्वेषु नेत्रधर्मेषु चैकधा ।सङ्कल्पयेन्मनः श्रोत्रत्वगादौ योज्यतामिदम् ॥ ३॥
आन्ध्य-मान्द्य-पटुत्वेषु
च नेत्र-धर्मेषु [लोचन-इन्द्रियस्य नाना-विध-धर्मेषु] मनस् एकधा (केवलं)
सङ्कल्पयेत्। श्रोत्र-त्वच्-आदौ [इन्द्रियेषु] इदं [दृश्-दृश्य-विवेकत्वं]
योज्यतां (योगं कार्यताम्)॥उस आँख के अंधापन, मन्दता या तीक्ष्णता आदि विविध धर्मों को हमारा एक मन समझता है।इसी प्रकार कान,नाक, जिह्वा, त्वचा आदि इन्द्रिय-विषयों के बारे में भी समझना चाहिये।
Such characteristics of the eye as blindness, sharpness or dullness, the mind is able to recognize because it is a unity. This also applies to the ear, skin etc.
कामः सङ्कल्पसन्देहौ श्रद्धाऽश्रद्धे धृतीतरे ।ह्रीर्धीर्भीरित्येवमादीन् भासयत्येकधा चितिः ॥ ४॥
कामः, सङ्कल्प-सन्देहौ, श्रद्-धा-अ-श्रद्-धे, धृति-इतरे [धृति-स्व-विपरिते], ह्रीः, धीः, भीः इति एवम् आदीन् [वृत्ति-विशेषान्] चितिः (चैतन्यं) एकधा (केवलं) भासयति॥
कामना, संकल्प, संदेह, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, लज्जा, ज्ञान, भय आदि मन की विभिन्न वृत्तियों को भी एक ही साक्षी चेतना चेतनता को प्रकाशित करती है।
Consciousness illumines desire,determination and doubt, belief and non belief, constancy and its opposite, modesty, understanding, fear and other, because it is a unity.
नोदेति नास्तमेत्येषा न वृद्धिं याति न क्षयम् ।स्वयं विभात्यथान्यानि भासयेत्साधनं विना ॥ ५॥
एषा [चितिः] न उदेति, न अस्तम् एति, न वृद्धिं न क्षयं [च] याति। [एषा] स्वयं विभाति [विविध-वृत्ति-रूपतस् भाति], अथ [च अन्य-]साधनं विना [एषा] अन्यानि भासयेत् (प्रकाशयेत्)॥
साक्षी चैतन्य की चेतनता का न तो उदय होता है, न अस्त होता है। इसमें कोई वृद्धि अथवा क्षय भी नहीं होते है। यह स्वयं प्रकाश्य है, तथा बिना किसी साधन की अपेक्षा के अन्य समस्त को प्रकाशित करती है।
This Consciousness does neither rise nor set. It does not increase; nor does it suffer decay. Being self-luminous, it illumines everything else without any other aid.
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Chapter 2: (Verses 6-12)/“Ego & Reflected Consciousness”
चिच्छायाऽऽवेशतो बुद्धौ भानं धीस्तु द्विधा स्थिता ।एकाहङ्कृतिरन्या स्यादन्तःकरणरूपिणी ॥ ६॥
चित्-छाया-आवेशतस् (चिति-प्रतिबिम्ब-अनुप्रवेशात्) बुद्धौ भानं [बुद्धिः स्वयम्-प्रकाशमाना इव वर्तते]। धीः (बुद्धिः) तु द्विधा [न एकधा] स्थिता। एका अहम्-कृतिः [अहम्-विषय-अन्तर्-करण-रूपिणी], अन्या [इदम्-विषय-]अन्तर्-करण-रूपिणी स्यात्॥
बुद्धि में साक्षी चेतना का प्रतिबिम्ब पड़ने से जड़ बुद्धि स्फूर्ति से युक्त हो जाती है। तथा इसमें जानने का सामर्थ्य भी जाग्रत हो जाता है। उसके बाद यह बुद्धि दो वृत्तियों से युक्त दिखने लगती है, प्रथम अहंकार और दूसरी अन्तःकरण वृत्ति।
Buddhi appears to possess luminosity on account of the reflection of Consciousness in it. Intelligence is of two kinds. One is designated egoity, the other as mind.
छायाऽहङ्कारयोरैक्यं तप्तायःपिण्डवन्मतम् ।तदहङ्कारतादात्म्याद्देहश्चेतनतामगात् ॥ ७॥
छाया-अहङ्कारयोः (चित्-छाया च अहम्-कृतिः च तयोः) ऐक्यं [विरुद्ध-धर्मि-]तप्त-अयस्-पिण्डवत् मतम्। तद्-अहङ्कार-ताद्-आत्म्यात् [अ-चेतनः] देहः चेतनताम् अगात् [ज्ञान-स्व-रूपत्वम् प्राप्नुयात्]॥
प्रतिबिंबित चेतना और अहंकार का सम्बन्ध लोहे के लाल तप्त गोले और अग्नि के समान होता है। अहंकार जब देह के साथ तादात्म्य करता है, तब देह भी चेतनवान हो जाता है।
In the opinion of the wise, the identity of the reflection and of ego is like the identity of the fire and the iron ball. The body having been identified with the ego passes for a conscious entity.
अहङ्कारस्य तादात्म्यं चिच्छायादेहसाक्षिभिः ।सहजं कर्मजं भ्रान्तिजन्यं च त्रिविधं क्रमात् ॥ ८॥
अहङ्कारस्य ताद्-आत्म्यं त्रि-विधं चित्-छाया-देह-साक्षिभिः (चिति-छाया देहः प्रत्यक्-आत्मा च तेभिः) – सह-जं, कर्म-जं, भ्रान्ति-जन्यं च क्रमात् [अहङ्कारस्य चित्-छायया सह-जं ताद्-आत्म्यम् इत्यादि-क्रमात्]॥
अहंकार का चिदाभास, देह और साक्षी चैतन्य के साथ तादात्म्य क्रमशः -सहज, कर्मज और भ्रान्तिजन्य होता है।
The identification of the ego with the reflection of Consciousness, the body and the Witness are of three kinds, namely, natural,due to past karma, and due to ignorance,respectively.
सम्बन्धिनोः सतोर्नास्ति निवृत्तिः सहजस्य तु ।कर्मक्षयात् प्रबोधाच्च निवर्तेते क्रमादुभे ॥ ९॥
[छाया-अहङ्कार-]सम्बन्धिनोः सतोः [यावत् सति], [तावत्] सह-जस्य तु [ताद्-आत्म्यस्य] निवृत्तिः न अस्ति, उभे [कर्म-ज-भ्रान्ति-ज-ताद्-आत्म्ये] कर्म-क्षयात् प्रबोधात् च क्रमात् निवर्तेते॥
अहंकार का चित-प्रतिबिम्ब के साथ जो सहज तादात्म्य है, उसकी निवृत्ति नहीं होती है। किन्तु शेष दो प्रकार के तदात्म्यों की निवृत्ति क्रमशः कर्मक्षय और तत्वज्ञान से हो जाती है।
The mutual identification of the ego and the reflection of Consciousness, which is natural, does not cease so long as they are taken to be real. The other two identification disappear after the wearing out of the result of Karma and the attainment of the knowledge of the highest Reality respectively.
अहङ्कारलये सुप्तौ भवेद्देहोऽप्यचेतनः ।अहङ्कारविकासार्धः स्वप्नः सर्वस्तु जागरः ॥ १०॥
अहङ्कार-लये सुप्तौ, [तदा] देहः अपि अ-चेतनः भवेत्। अहङ्कार-विकास-अर्धः ‘स्वप्नः’ [नाम], सर्वः [विकासः] ‘जागरः’ [नाम भवेत्]॥
अहंकार जब पूर्ण लय को प्राप्त होता है, उस समय देह की अचेतनता से लक्षित सुषुप्ति अवस्था प्राप्त होते है। अहंकार के अर्ध-जागृत अवस्था में स्वप्न लोक में विचरण, तथा अहंकार के पूर्ण जागृत अवस्था में जाग्रत अवस्था प्राप्त होती है।
In the state of deep sleep, when ego disappears the body also becomes unconscious. The state in which there is the half manifestation of the ego is called the dream state, and the full manifestation of the ego is the state of waking.
अन्तःकरणवृत्तिश्च चितिच्छायैक्यमागता ।वासनाः कल्पयेत् स्वप्ने बोधेऽक्षैर्विषयान् बहिः ॥ ११॥
[इदं-विषय-[अन्तर्-करण-वृत्तिः च (अपि) चिति-छाया-ऐक्यम् आगता [तप्त-अयस्-पिण्डवत्]। स्वप्ने [सा वृत्तिः इमाः[] वासनाः कल्पयेत्। बोधे (जागरे) [सा वृत्तिः इमान् विषयान् अक्षैः (इन्द्रियैः) बहिस् कल्पयेत्॥
बुद्धि की अन्तःकरण वृत्ति भी प्रतिबिंबित चेतनता के साथ तादात्म्य करके जीवन्त हो जाती है। कामना-वासना के अनुरूप ही स्वप्नलोक की सृष्टि करती है। जाग्रत अवस्था में भी इसी वृत्ति के द्वारा बाह्य जगत के विषयों की कल्पना होती है।
The inner organ which in itself but a modification identifying itself with the reflection of Consciousness imagines ideas in the dream. And the same inner organ imagines objects external to itself in the waking state with respect to the sense-organs.
मनोऽहङ्कृत्युपादानं लिङ्गमेकं जडात्मकम् ।अवस्थात्रयमन्वेति जायते म्रियते तथा ॥ १२॥
मनस्-अहम्-कृती-उपादानं [इदं-विषय-अन्तर्-करणं च अहम्-वृत्तिः च तयोः उपादान-कारणं] लिङ्गं (सूक्ष्म-शरीरं) एकं [प्रत्येकं भवति]। [तद् लिङ्गं] जडा-आत्मकं [अपि। [तद् लिङ्गं] अवस्था-त्रयं (जागर-आदि-त्रयं) अन्वेति (अनुभवति)। तथा ‘[इदं लिङ्गं] [जीव-उपाधिः] जायते म्रियते [च]’ [इति अनुभवः]॥
अन्तःकरण वृत्ति -मन तथा अहंकार वृत्ति का उपादान एक जड़ लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर ही है। इस सूक्ष्म शरीर के आवागमन के कारण ही तीन अवस्थाओं की एवं जन्म-मरण की प्राप्ति होती है।
The subtle body which is the material cause of the mind and egoism is one and of the nature of insentience. It moves in the three states and is born and it dies.
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Chapter 3: (Verses 13-21)“The Powers of Maya”
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरूपकम् ।विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत् ॥ १३॥
मायायाः [समष्टि-लिङ्गस्य] शक्ति-द्वयं हि [प्रसिद्धं श्रुत्या] विक्षेप-आवृति-रूपकं (विक्षेप-आवरण-रूपम्)। विक्षेप-शक्तिः (जनिका-शक्तिः) जगत् लिङ्ग-आदि-ब्रह्म-अण्ड-अन्तं [व्यष्टि-आत्मक-लिङ्ग-शरीर-आदिं आ समष्टि-आत्मक-ब्रह्म-अण्डात्] सृजेत्॥
माया की दो शक्तियाँ हैं -विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति। विक्षेप शक्ति लिंग-शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक का सृजन करती है।
Two powers, undoubtedly, are predicated of Maya, viz., those of projecting are veiling.The projecting power creates everything from the subtle body to the gross universe.
सृष्टिर्नाम ब्रह्मरूपे सच्चिदानन्दवस्तुनि ।अब्धौ फेनादिवत् सर्वनामरूपप्रसारणा ॥ १४॥
[श्रुतितस्] ‘सृष्टिः’ नाम ब्रह्म-रूपे सत्-चित्-आनन्द-वस्तुनि सर्व-नाम-रूप-प्रसारणा, अब्धै फेन-आदिवत् [यथा एक-समुद्र-जले नाना-जल-रूपाणि]॥
जैसे एक समुद्र में अनेक फेन -बुदबुदे आदि नामरूप उत्पन्न होते हैं, वैसे ही एक सच्चिदानन्द स्वरूप-ब्रह्म में अनेक नाम और रूपों के प्रसारण हो जाने को सृष्टि कहते हैं।
The manifestation of all names and forms in the entity which is Existence – Consciousness– Bliss and which is the same as Brahman, like the foams etc. in the ocean, is known as creation.
अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः ।आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम् ॥ १५॥
अपरा शक्तिः [आवरण-शक्तिः] दृश्-दृश्ययोः भेदम् अन्तर् [व्यष्टितस् आवृणोति], ब्रह्म-सर्गयोः [भेदं] च बहिस् [समष्टितस्] आवृणोति। सा [आवरण-शक्तिः] संसारस्य कारणं [न तु विक्षेप-शक्तिः ईश्वर-सृष्ठि-कारणम्]॥
अंदर में द्रष्टा और दृश्य का भेद करके, बाहर ब्रह्म और सर्ग के भेदों को माया की आवरण शक्ति ढँक देती है। यह आवरण शक्ति ही संसार का कारण है।
The other power conceals the distinction between the perceiver and the perceived objects which are recognized within the body as well as the distinction between Brahman and the phenomenal universe which is perceived outside. This power is the cause of the phenomenal universe.
साक्षिणः पुरतो भाति लिङ्गं देहेन संयुतम् ।चितिच्छाया समावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः ॥ १६॥
[यद् व्यष्टि-]लिङ्गं देहेन संयुतं [संयुक्तं कर्मेण] चिति-छाया-समावेशात् साक्षिणः पुरतस् [अग्रं] भातं (भासमानं), [तद् लिङ्गं] व्यावहारिकः जीवः स्यात्॥
व्यावहारिक जीव शब्द (मन के भीतर विद्यमान) उस व्यवहार करने वाले कर्ता के लिए प्रयुक्त होता है, जो साक्षी चेतना के अत्यन्त निकट होता है, तथा जो चेतनता की छाया से युक्त होने के कारण ही जीवन्त प्रतीत होता है।
The subtle body which exists in close proximity to the Witness identifying itself with gross body becomes the embodied empirical self, on account of its being affected by the reflection of Consciousness.
अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते ।आवृतौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽपयाति तत् ॥ १७॥
[दृश्-दृश्य-अन्यस्-अन्य-धर्माणाम्] आरोपात् (अध्यासात्) अस्य [व्यावकारिक-जीवस्य] जीवत्वं [संसारित्वं] साक्षिणि अपि अवभासते। आवृत्तौ विनष्टायां [भ्रान्ति-अन्-उदये] तु, भेदे (अ-ताद्-आत्म्ये) भाते [स्पष्टं ज्ञाते विवेके सति] च, तद् [जीवत्वं] अपयाति (अपगच्छति)॥
अविवेकी मनुष्य इस व्यावहारिक जीव के जीवत्व का आरोपण साक्षी में करके उस साक्षी को ही जीव रूप से देखता है। oh !! जब विवेक प्राप्त करके जीव एवं साक्षी को यथावत देख लिया जाता है तब माया की आवरण शक्ति नाश को प्राप्त हो जाती है।
The character of an embodied self appear through false superimposition in the Sakshi also. With the disappearance of the veiling power, the distinction between the seer and the object becomes clear and with it the jiva character of the Sakshi disappears.
तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति ।या शक्तिस्तद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते ॥ १८॥
[यथा व्यष्टि-आत्मके] तथा [समष्टि-आत्मके] च [यावत्] सर्ग-ब्रह्मणः भेदम् आवृत्य या [आवरण-]शक्तिः तिष्ठति, [तावत् तद्-वशात् ब्रह्म विकृतत्वेन [विकारिणा] भासते॥
यह आवरण शक्ति ही ब्रह्म और सृष्टि के भेद को भी ढँक देती है। एवं इसीके कारण ब्रह्म 'नम-रूपों ' के धर्मों से युक्त दीखता है।
Similarly Brahman, through the influence of the power that conceals the distinction between It and the phenomenal universe,appears as endowed with the attributes of change.
अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयोः ।भेदस्तयोर्विकारः स्यात् सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित् ॥ १९॥
अत्र
अपि आवृति-नाशेन ब्रह्म-सर्गयोः भेदः (अ-ताद्-आत्म्यं) विभाति [विवेकेन
स्पष्टं ज्ञायते]। तयोः [ब्रह्म-सर्गयोः] विकारः सर्गे [एव] स्यात्, न
क्व-चिद् ब्रह्मणि॥
यहाँ पर भी आवरण के नाश होने पर दोनों- " ब्रह्म और सृष्टि" का भेद स्पष्ट हो जाता है। और " विकार मात्र सृष्टि में ही होते हैं, ब्रह्म में नहीं " यह बात भी स्पष्ट हो जाती है।
In this case also, the distinction between Brahman and the phenomenal universe becomes clear with the disappearance of the veiling power. Therefore change is perceived in the phenomenal universe, but never in Brahman.
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥ २०॥
अस्ति, भाति, प्रियं, नाम, रूपं च इति [सर्वस्य] अंश-पञ्चकं। आद्य-त्रयं [अस्ति भाति प्रियं च इति-प्रथम-त्रयं] ब्रह्म-रूपम्। ततस् [त्रयात्] द्वयं [नाम रूपं च इति-द्वयं] जगत्-रूपम्॥
जगत का प्रत्येक विषय पॉँच अंशों से युक्त होता है। ये हैं अस्ति (होना) भाति (भासित होना) , प्रियता और नाम तथा रूप हैं। इसमें प्रथम तीन ब्रह्मरूप हैं और शेष दो जगत-रूप हैं।
Every entity has five characteristics, viz.,existence, effulgence, lovability, form and name. Of these, the first three are reflection of Brahman, and the next two to the creation.
खवाय्वग्निजलोर्वीषु देवतिर्यङ्नरादिषु ।अभिन्नाः सच्चिदानन्दाः भिद्येते रूपनामनी ॥ २१॥यहाँ पर भी आवरण के नाश होने पर दोनों- " ब्रह्म और सृष्टि" का भेद स्पष्ट हो जाता है। और " विकार मात्र सृष्टि में ही होते हैं, ब्रह्म में नहीं " यह बात भी स्पष्ट हो जाती है।
In this case also, the distinction between Brahman and the phenomenal universe becomes clear with the disappearance of the veiling power. Therefore change is perceived in the phenomenal universe, but never in Brahman.
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥ २०॥
अस्ति, भाति, प्रियं, नाम, रूपं च इति [सर्वस्य] अंश-पञ्चकं। आद्य-त्रयं [अस्ति भाति प्रियं च इति-प्रथम-त्रयं] ब्रह्म-रूपम्। ततस् [त्रयात्] द्वयं [नाम रूपं च इति-द्वयं] जगत्-रूपम्॥
जगत का प्रत्येक विषय पॉँच अंशों से युक्त होता है। ये हैं अस्ति (होना) भाति (भासित होना) , प्रियता और नाम तथा रूप हैं। इसमें प्रथम तीन ब्रह्मरूप हैं और शेष दो जगत-रूप हैं।
Every entity has five characteristics, viz.,existence, effulgence, lovability, form and name. Of these, the first three are reflection of Brahman, and the next two to the creation.
ख-वायु-अग्नि-जल-उर्वीषु [पञ्च-भूतेषु] देव-तिर्यक्-नर-आदिषु [शरीर-लक्षणेषु भौतिकेषु] सत्-चित्-आनन्दाः अ-भिन्नाः। [सर्वेषु] रूप-नामनी भिद्येते [अ-निर्वचनीय-माया-कार्यत्वेन]॥
आकाश,वायु , अग्नि, जल तथा पृथ्वी पंच भूतों से बने जड़ प्रपंच में, तथा देवता, पशु, मनुष्य आदि चेतन प्राणियों में सच्चिदानन्द तत्व अभिन्न है। भेद मात्र नाम-रूपों की दृष्टि से ही होते हैं।
The attributes of Existence, Consciousness and Bliss are equally present in the space, air,fire, water and earth as well as in deities,animals and men etc. Names and forms alone make one differ from the other.
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Chapter 4: (Verses 22-31)“Meditation Techniques”
उपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः ।समाधिं सर्वदा कुर्याद्-हृदये वाऽथवा बहिः ॥ २२॥
द्वे नाम-रूपे उपेक्ष्य [अवज्ञाय मानस-कायेन अ-परम-अर्थत्वेन], सत्-चित्-आनन्द-तत्-परः [सन्] हृदये अन्तर्-करण-विषये वा [वक्ष्यमाण-स-दृशेन] अथवा बहिस् [बाह्य-वस्तु-विषये वक्ष्यमाण-स-दृशेन] समाधिं सर्वदा कुर्यात्॥
जगत शब्द से लक्षित नाम-रूपों की उपेक्षा करके अपने हृदय में अथवा बाह्य जगत में सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म को ही सर्वत्र देखते हुए उसी में चित्त को समाहित करने/रखने का सतत प्रयास करना चाहिए।
Having become indifferent to name and form and being devoted to Sac-chid-ananda aspects, one should always practice samadhi either within the heart or outside.
सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि ।दृश्यशब्दानुवेधेन सविकल्पः पुनर्द्विधा ॥ २३॥
हृदि [व्यष्टौ] समाधिः द्वि-विधः – स-विकल्पः निस्-विकल्पः [च]। पुनर् (भूयस्) स-विकल्पः द्विधा – दृश्य-शब्द-अनुविद्धेन [अनुभव-दृश्य-विषयेण श्रुति-शब्द-विषयेण च], [अथवा ‘अनुविद्धः’ श्रुति-अनुरूपेण स्थापितः इत्यर्थः]॥
अब समाधि का परिचय देते हुए लेखक कहते हैं कि समाधि दो चरणों में सिद्ध होती है। सविकल्प और निर्विकल्प समाधि। सविकल्प समाधि में भी क्रमशः दो चरण होते हैं - दृश्यानुविद्ध और शब्दानुविद्ध।
Two kinds of Samadhi to be practiced in the heart are known as Savikalpa and Nirvikalpa. Savikalpa-Samadhi is again divided into two classes, according to its association with a cognizable object or a scriptural word.
कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम् ।ध्यायेद्दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ॥ २४॥
चित्त-गाः (हृदय-स्थाः) दृश्याः काम-आद्याः [भवन्ति]। चेतनं [आत्मानं चैतन्यं] तद्-साक्षित्वेन [काम-आदि-साक्षित्वेन] ध्यायेत्। अयं स-विकल्पकः दृश्य-अनुविद्धः समाधिः॥
हृदय में दृष्यानुविद्ध सविकल्प समाधि का अभ्यास करने के लिए इस तथ्य पर गहराई से विचार करो कि 'कामादि सभी वृत्तियाँ जड़ दृश्य हैं ,तथा हम उसके साक्षी चेतन तत्व हैं।' इसके फलस्वरूप जो अन्तःस्थिति उत्पन्न होती है, उसको ही दृश्यानुविद्ध सविकल्प समाधि कहते हैं।
See the desires etc as objects of perception, and see yourself, the conscious-ness, as their seer. When we deeply meditate on these facts then we glide into an quiet yet awareful state which is called Dryshya prompted Savikalpa-Samadhi, facilitated by seer-seen viveka.
असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ।अस्मीति शब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ॥ २५॥
“सः अ-सङ्गः, सत्-चित्-आनन्दः, स्व-प्रभः, द्वैत-वर्जितः [आत्मा अहम्] अस्मि” इति, अयं स-विकल्पकः [श्रुति-]शब्द-विद्धः समाधिः॥
इसके बाद शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि का अभ्यास करना चाहिए। महावाक्यों में स्वरूप के विषय में जो लक्षण कहे गए हैं -जैसे असंग, सच्चिदानद, स्वप्रकाश, द्वैत रहित आदि तत्व कहे गए हैं; वह मैं ही हूँ। इन्हें अपने ध्यान का विषय बनाकर स्व-स्वरूप का और गहराई से ज्ञान प्राप्त करके -उसी शाश्वत साक्षी चैतन्य की अनुभूति में समाहित होकर स्थित रहने को शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि कहते हैं।
Using the scriptural pointers as: I am Existence- Consciousness-Bliss, unattached, self-luminous and free from duality etc., one should go deep into the truth of seer, and abide in that Self. This is known as the Savikalpa-Samadhi facilitated by scriptural words.
स्वानुभूतिरसावेशाद्दृश्यशब्दावुपेक्ष्य तु ।निर्विकल्पः समाधिः स्यान्निवातस्थितदीपवत् ॥ २६॥
दृश्य-शब्दान् उपेक्षितुः [अवज्ञानिनः मानस-कायेन] स्व-अनुभूति-रस-आवेशात् [स्व-ज्ञानम् एव स्व-रूप-अनुभवः तस्य आवेशात् अ-भेद-भावात्], समाधिः [व्यष्टौ] निस्-विकल्पः स्यात्, नि-वात-स्थित-दीपवत्॥
दृश्य और शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले तत्व-विवेक के कारण जब एक तरफ स्वानुभूति के दिव्यरस का अत्यधिक आविर्भाव होता है, तथा दूसरी तरफ विवेक-वशात ही समाहित अवस्था के रस से भी निरपेक्ष होकर निवातस्थ दीपक के समान स्थित रहते हैं, तब निर्विकल्प समाधि सहजता से प्राप्त हो जाती है।
The Nirvikalpa-Samadhi is that in which the mind becomes steady like the light kept in a place free from wind and in which the student becomes indifferent to both objects and words on account of his complete absorption in the bliss of the realization of the Self.
हृदीव बाह्यदेशेऽपि यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि ।समाधिराद्यः सन्मात्रान्नामरूपपृथक्कृतिः ॥ २७॥
हृदि इव, यस्मिन् कस्मिन् वस्तुनि बाह्य-देशे [समष्टौ] अपि च, आद्यः [स-विकल्पः दृश्य-अनुविद्धः] समाधिः सत्-मात्रात् नाम-रूप-पृथक्-कृतिः [नाम-रूप-विवेकः]॥
जिस प्रकार अपने हृदय में (इस ग्रंथ के प्रथम श्लोक से प्रारम्भ कर समाधि तक गति हुई) उसी प्रकार बाह्य जगत में भी किसी विषय को निमित्त बनाकर सर्वप्रथम दृश्यानुविद्ध समाधि सिद्ध करने हेतु विषय के अन्तर्गत सत्स्वरूपता से नाम-रूप को पृथक करना चाहिए।
Like the samadhi prompted by drig-drishya,one should now practice samadhi using any external objects. Here the first step is to discriminate between names & forms and pure existence.
अखण्डैकरसं वस्तु सच्चिदानन्दलक्षणम् ।इत्यविच्छिन्नचिन्तेयं समाधिर्मध्यमो भवेत् ॥ २८॥
“[इदं] वस्तु अ-खण्ड-एक-रसं सत्-चित्-आनन्द-लक्षणं [अस्ति]” इति इयं अ-विच्छिन्न-चिन्ता [वि-जातीय-प्रत्यय-रहित-स-जातीय-प्रत्यय-प्रवाह-रूपा चिन्ता] मध्यमः [द्वितीयः स-विकल्पः श्रुति-शब्द-अनुविद्धः] समाधिः भवेत्॥
तत्पश्चात यह सत्ता अखण्ड, एकरस, सच्चिदानन्द स्वरुप ब्रह्म ही हैं ; इस प्रकार के किसी न विषय को निमित्त बनाकर, सतत तत्व-विवेक बनाये रखना मध्यम प्रकार की अर्थात शब्दानुविद्ध सविकल्प समाधि होती है।
The entity which is always of the same nature and unlimited and which is characterized by Existence- Consciousness-Bliss, is verily Brahman. Such uninterrupted reflection is called the intermediate absorption,that is the Savikalpa-Samadhi associated with scriptural word.
स्तब्धीभावो रसास्वादात्तृतीयः पूर्ववन्मतः ।एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत् कालं निरन्तरम् ॥ २९॥
[यः] स्तब्धी-भावः (स्थिर-भावः) [स्व-विज्ञानं] रस-आस्वादात् पूर्ववत् [रस-आवेशात्] (DrDV.26), [सः समाधिः तृतीयः [समष्टौ निस्-विकल्पः] मतः। एतैः षड्भिः समाधिभिः [व्यष्टि-समष्ठि-दृश्य-शब्द-चथुर्-स-विकल्प-समाधिभिः व्यष्टि-समष्ठि-द्वि-निस्-विकल्प-समाधिभ्यां च] निस्-अन्तरं कालं नयेत्॥
जब स्वानुभूति के रसास्वादन से स्तब्धीभाव तुल्य अवस्था हो जाती है, तब तीसरे प्रकार की - अर्थात निर्विकल्प समाधि हो जाती है। इस प्रकार छह समाधियों के अभ्यास में अपना काल व्यतीत करना चाहिए।
The insensibility of the mind as before,on account of the experience of Bliss, is designated as the third kind of Samadhi (Nirvikalpa). The practitioner should uninterruptedly spend his time in these six kinds of Samadhi.
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ॥ ३०॥
परम-आत्मनि विज्ञाते, [तद्-फलं च] देह-अभिमाने गलिते [शिथिली-भूते यावत्], [तावत् मुमुक्षोः] यत्र यत्र मनस् याति, तत्र तत्र [इमे षड्] समाधयः [स्युः]॥
जिस समय देहाभिमान का नाश तथा परमात्मा का विज्ञान प्राप्त हो जाता है, उसके बाद मन चाहे जहाँ कहीं भी जाए, वह समाधि अवस्था में ही रमता है।
[ देहाभिमान (जड़ के साथ 'मैं'-पन) सर्वथा मिट जाने पर जब परमात्मतत्त्व का बोध हो जाता है तब जहाँ जहाँ मन जाता है वहाँ-वहाँ परमात्मतत्त्व का अनुभव होता है अर्थात् उसकी अखण्ड समाधि (सहज समाधि) रहती है। मन (अहं) का मिट जाना ही समाधि का अनुभव है। और मन मिट गया तो परमात्मा से मिलन हो गया। अब कहां जाना है? देहाभिमान सर्वथा मिट जाने पर जब परमात्मतत्त्व का बोध हो जाता है, तब समाधि से लौटने के बाद ? जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ परमात्मतत्त्व का अनुभव होता है अर्थात उसकी अखंड समाधि (सहज समाधि रहती है)।]
With the disappearance of the attachment to the body and with the realization of the Supreme Self, to whatever object the mind is directed, one effortlessly revels in Samadhi.
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ ३१॥
तस्मिन् पर-अवरे [समष्टि-व्यष्टि-रूपे अथवा पर-अ-पर-तत्त्वे] दृष्टे [सति], हृदय-ग्रन्थिः भिद्यते। सर्व-शंशयाः छिद्यन्ते। अस्य कर्माणि च क्षीयन्ते। (MunU.2.2.8)॥
माया से परे या देश-काल-निमित्त से परे इस दिव्य तत्व (शाश्वत चैतन्य आनन्द) का दर्शन होने पर - हृदय में स्थित अविद्या तथा सभी कर्मों का क्षय हो जाता है।
By beholding Him who is high and low,the fetters of the heart are broken, all doubts are solved and all his karmas wear away.
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अध्याय 5 : जीव की प्रकृति
अवच्छिन्नश्चिदाभासस्तृतीयः स्वप्नकल्पितः ।विज्ञेयस्त्रिविधो जीवस्तत्राद्यः पारमार्थिकः ॥ ३२॥
अवच्छिन्नः, चित्-आभासः, तृतीयः [च] स्वप्न-कल्पितः [इति] जीवः त्रिविधः विज्ञेयः। तत्र आद्यः [अवच्छिन्नः इव जीवः] पारम-अर्थिकः [ब्रह्म-भूतः]॥
अवच्छेदः कल्पितः स्यादवच्छेद्यं तु वास्तवम् ।तस्मिन् जीवत्वमारोपाद्ब्रह्मत्वं तु स्वभावतः ॥ ३३॥
अवच्छेदः [परिच्छिन्नत्वं] कल्पितः स्यात्, अवच्छेद्यं [यद् कल्पनेन अवच्छेत्तुं शक्यं] तु वास्तवं [पारम-अर्थिकं सत्यं ब्रह्म एव]। तस्मिन् [पारम-अर्थिके] जीवत्वं [अवच्छिन्नत्वं] आरोपात्, ब्रह्मत्वं [अ-द्वैतं] तु स्व-भावतस्॥
अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणैकताम् ।तत्त्वमस्यादिवाक्यानि जगुर्नेतरजीवयोः ॥ ३४॥
“तद् त्वम् असि” [इति] आदि-वाक्यानि अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणा एकतां जगुः (प्रख्यातवन्ति), न इतर-जीवयोः [चित्-आभास-स्वप्न-कल्पित-जीवयोः – यस्मात् बिम्ब-प्रतिबिम्ब-एक-देशित्वं न शक्यं, यः च कल्पितः सः कल्पिनम् एव च]॥
ब्रह्मण्यवस्थिता माया विक्षेपावृतिरूपिणी ।आवृत्यखण्डतां तस्मिन् जगज्जीवौ प्रकल्पयेत् ॥ ३५॥
विक्षेप-आवृति-रूपिणी माया ब्रह्मणि अवस्थिता [न पृथक्-स्थिता]। अ-खण्डतां आवृत्य, [अन्-आदिः माया] तस्मिन् [ब्रह्मणि] जगत्-जीवौ प्रकल्पयेत् [सृजेत् इव]॥
जीवो धीस्थचिदाभासो भवेद्भोक्ता हि कर्मकृत् ।भोग्यरूपमिदं सर्वं जगत् स्याद्भूतभौतिकम् ॥ ३६॥
चित्-आभासः धी-स्थः, भोक्ता कर्म-कृत् [च] हि (यस्मात्), [प्रसिद्धः व्यावहारिकः] ‘जीवः’ भवेत्। इदं सर्वं भूत-भौतिकं भोग्य-रूपं ‘जगत्’ स्तात्॥
अनादिकालमारभ्य मोक्षात् पूर्वमिदं द्वयम् ।व्यवहारे स्थितं तस्मादुभयं व्यावहारिकम् ॥ ३७॥
मोक्षात् पूर्वं, इदं द्वयं [जीव-जगत्] अन्-आदि-कालं आरभ्य व्यवहारे स्थितं। तस्मात् उभयं व्यावहारिकं॥
चिदाभासस्थिता निद्रा विक्षेपावृतिरूपिणी ।आवृत्य जीवजगती पूर्वे नूत्ने तु कल्पयेत् ॥ ३८॥
[यथा माया ब्रह्मणि] निद्रा चित्-आभास-स्थिता विक्षेप-आवृति-रूपिनी। पूर्वे व्यावहारिके जीव-जगती आवृत्य, [निद्रा] नूत्ने तु [प्रति-नवे स्वप्ने जीव-जगती] कल्पयेत्॥
प्रतीतिकाल एवैते स्थितत्वात् प्रातिभासिके ।न हि स्वप्नप्रबुद्धस्य पुनः स्वप्ने स्थितिस्तयोः ॥ ३९॥
प्रतीति-काले
(दृष्ट-काले) एव स्थितत्वात्, एते [नूत्ने जीव-जगती] प्रातिभासिके,
स्वप्न-प्रबुद्धस्य हि (यस्मात्) [च] पुनर्-स्वप्ने (अपर-स्वप्ने) तयोः
[पूर्व-जीव-जगतोः] न स्थितिः (अनुवृत्तिः), [तस्मात् एते न
सा-तत्य-व्यावहारिके]॥
यः प्रातिभासिक-जीवः तद् प्रातभासिकं जगत् वास्तवं [सत्यं] मन्यते, अन्यः तु व्यावहारिकः [जीवः उभे प्रातिभासिके] मिथ्या [अ-सत्यतया] इति [मन्यते]॥
व्यावहारिकजीवो यस्तज्जगद्व्यावहारिकम् ।सत्यं प्रत्येति मिथ्येति मन्यते पारमार्थिकः ॥ ४१॥
यः व्यावनारिक-जीवः तद् व्यावहारिकं जगत् सत्यं प्रत्येति [मन्यते]। पारमार्थिकः [जीवः एभे व्यावहारिके] मिथ्या इति मन्यते॥
पारमार्थिकजीवस्तु ब्रह्मैक्यं पारमार्थिकम् ।प्रत्येति वीक्षते नान्यद्वीक्षते त्वनृतात्मना ॥ ४२॥
पारमार्थिक-जीवः तु [जीव-]ब्रह्म-ऐक्यं पारमार्थिकं प्रत्येति। [सः ज्ञानी] अन्यद् [भेद-वस्तु] न [सत्यतया] वीक्षते (मन्यते), अन्-ऋत-आत्मना [अ-सत्यतया] तु वीक्षते॥
माधुर्यद्रवशैत्यानि नीरधर्मास्तरङ्गके ।अनुगम्याथ तन्निष्ठे फेनेऽप्यनुगता यथा ॥ ४३॥
साक्षिस्थाः सच्चिदानन्दाः सम्बन्धाद्व्यावहारिके ।तद्द्वारेणानुगच्छन्ति तथैव प्रातिभासिके ॥ ४४॥
यथा माधुर्य-द्रव-शैत्यानि नीर-धर्माः (जल-धर्माः) तरम्-गके (तरम्-गे) अनुगम्य (अन्तर् स्थित्वा), अथ (इत्था च) तद्-निष्ठे [जल-निष्ठे] फेने अपि अनुगताः, तथा एव सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] साक्षि-स्थाः सम्बन्धात् [स्व-अधिष्ठानेन नाम-रूप-दृश्यस्य मिथ्या-विवर्त-सम्बन्धात् नाम-धेयतया], [न सत्य-परिणाम-सम्बन्धात्] व्यावहारिके अनुगच्छन्ति, तद्-द्वारेण [व्यावहारिक-सम्बन्धेन च] प्रातिभासिके (अनुगच्छन्ति)॥
यथा माधुर्य-द्रव-शैत्यानि नीर-धर्माः (जल-धर्माः) तरम्-गके (तरम्-गे) अनुगम्य (अन्तर् स्थित्वा), अथ (इत्था च) तद्-निष्ठे [जल-निष्ठे] फेने अपि अनुगताः, तथा एव सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] साक्षि-स्थाः सम्बन्धात् [स्व-अधिष्ठानेन नाम-रूप-दृश्यस्य मिथ्या-विवर्त-सम्बन्धात् नाम-धेयतया], [न सत्य-परिणाम-सम्बन्धात्] व्यावहारिके अनुगच्छन्ति, तद्-द्वारेण [व्यावहारिक-सम्बन्धेन च] प्रातिभासिके (अनुगच्छन्ति)॥
लये फेनस्य तद्धर्मा द्रवाद्याः स्युस्तरङ्गके ।तस्यापि विलये नीरे तिष्ठन्त्येते यथा पुरा ॥ ४५॥
यथा पुरा (पूर्वं) [विपर्यासेन], फेनस्य लये [प्रकृत्या ज्ञानेन वा सति], द्रव-आद्याः तद्-धर्माः [फेन-अधिष्ठान-धर्माः] तरम्-गके स्युः (तिष्ठेयुः)। तस्य [तरम्-गस्य] अपि विलये, एते [अधिष्ठान-धर्माः] नीरे (जले) तिष्ठन्ति॥
यथा पुरा (पूर्वं) [विपर्यासेन], फेनस्य लये [प्रकृत्या ज्ञानेन वा सति], द्रव-आद्याः तद्-धर्माः [फेन-अधिष्ठान-धर्माः] तरम्-गके स्युः (तिष्ठेयुः)। तस्य [तरम्-गस्य] अपि विलये, एते [अधिष्ठान-धर्माः] नीरे (जले) तिष्ठन्ति॥
प्रातिभासिकजीवस्य लये स्युर्व्यावहारिके ।तल्लये सच्चिदानन्दाः पर्यवस्यन्ति साक्षिणि ॥ ४६॥
[तथा] प्रातिभासिक-जीवस्य [तद्-जगतः च] लये [प्रबोधनेन सति], सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] व्यावहारिके स्युः (तिष्ठेयुः)। तद्-लये [व्यावहारिक-लये ज्ञानेन सति], [सत्-चित्-आनन्दाः लक्षणानि] साक्षिणि पर्यवस्यन्ति (निष्ठां प्राप्नुवन्ति) [एषा ब्राह्मी स्थितिः] (BhG.2.72); [तदा द्रष्टुः स्व-रूपे अवस्थानम् (YS.1.3)]॥
[तथा] प्रातिभासिक-जीवस्य [तद्-जगतः च] लये [प्रबोधनेन सति], सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] व्यावहारिके स्युः (तिष्ठेयुः)। तद्-लये [व्यावहारिक-लये ज्ञानेन सति], [सत्-चित्-आनन्दाः लक्षणानि] साक्षिणि पर्यवस्यन्ति (निष्ठां प्राप्नुवन्ति) [एषा ब्राह्मी स्थितिः] (BhG.2.72); [तदा द्रष्टुः स्व-रूपे अवस्थानम् (YS.1.3)]॥
इति भारतीतीर्थ स्वामिना विरचितः दृग्दृश्यविवेकः समाप्तः ॥
साभार https://sanskritdocuments.org/
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