मेरे बारे में

शनिवार, 11 जुलाई 2015

पंचम वेद - [1] श्रीरामकृष्ण वचनामृत की शिक्षा है ~ " Be and Make " या मनुष्य बनो और बनाओ '

किसी विख्यात कवि ने " श्रीरामकृष्ण वचनामृत " को पंचम वेद की संज्ञा दी है। श्रीरामकृष्ण वचनामृत (या पंचम वेद) की शिक्षा ~  " Be and Make " ~  अर्थात 'चरित्रवान मनुष्य बनो और बनाओ '  का प्रचार-प्रसार करना ही युवाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, जिसे पूरा करने का बीड़ा सबसे पहले स्वामी विवेकानन्द ने उठाया था! 
सनातन धर्म में चार वेदों का ही उल्लेख मिलता है, यहाँ हम  " श्रीरामकृष्णवचनामृत " को पंचम वेद क्यों कहा गया है,इसी बात पर चर्चा करने जा रहे हैं। संसार के अन्य सभी धर्मों में कोई न कोई व्यक्ति उसका प्रतिष्ठाता होता है, किन्तु सनातन धर्म को किसने प्रतिष्ठित किया ? सनातन धर्म का प्रतिष्ठाता (फाउंडर) कोई एक व्यक्ति-श्रीराम ने या श्रीकृष्ण ही नहीं है। कि केवल उनको ही एकमात्र भगवान या पैगम्बर के रूप में पूजना आवश्यक हो।   
फिर सनातन धर्म कैसे प्रतिष्ठित हो गया ? सनातन धर्म के प्रतिष्ठाता ऋषि लोग हैं। विभिन्न काल में विभिन्न ऋषियों द्वारा आविष्कृत सत्यों के संचित राशि को ही वेद अर्थात नॉलेज या ज्ञान कहते हैं, जिसका 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन ' करने से अमृत प्राप्त होता है । श्रीरामकृष्ण वचनामृत में वही अमृत प्राप्त होता है।
जब कुछ अतिबुद्धिमान व्यक्तियों को भोजन-वस्त्र-आवास आदि समस्याओं का हल मिल गया, तो उनके मन में मनुष्य जीवन के कुछ बुनियादी सवाल-'Fundamental Questions About Life' उठने लगे। Who am I? -  मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ?

कोऽहं कस्त्वं कुत आयातः  का मे जननी को मे तातः
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न-विचारम्॥
 (भज-गोविन्दं- २३)

हम कौन हैं, तुम कौन हो, हम कहाँ से आये हैं, कौन मेरी माता, कौन मेरे पिता - हमारा इस संसार में क्या है?
मुझे कहाँ जाना है? मेरा सत्य स्वरूप क्या है ? बाह्य जगत में जो कुछ दिख रहा है, वह सब कुछ तो नित्य परिवर्तन-शील है, जो परिवर्तनशील है वह सत्य नहीं हो सकता। यह संसार एक स्वप्न की तरह ही झूठा एवं क्षण-भंगुर है। इसको छोड़कर आत्मचिंतन करें ! जीवने आनंद, पावित्र्य शोधनम् ।  ततः किम्   ---- तो क्या ? 

लब्धा विद्या राजमान्या ततः किं ?
प्राप्ता सम्पत्प्राभवाढ्या ततः किम् ।


तृप्तो मृष्टान्नादिना वा ततः किं ?
येन स्वात्मा नैव साक्षात्कृतोऽभूत् ॥ १॥ 

यदि तुमने ' राजमान्य विद्या ' (राजाओं या सरकार द्वारा सम्मानित ऊँची डिग्री) को उपार्जित कर लिया है, या किसी भी उपाय से अधिकतम धन भी अर्जित कर लिया है, या छप्पन भोग खाकर तृप्त हो गए हो, तो क्या ? यदि तुमने अभी तक अपनी आत्मा का साक्षात्कार या आत्मानुभूति नहीं की है, तो ये सब व्यर्थ ही हैं। 
उन ऋषियों ने इन प्रश्नों का उत्तर खोजना प्रारम्भ किया, और उनके समक्ष सत्य उद्घाटित हो गये ।
श्रीरामकृष्णवचनामृत  (Gospel of Sri Ramakrishna) को पंचम वेद क्यों कहते हैं ? क्योंकि इस ज्ञान को स्वयं भगवान ने दिया है। वेद का अर्थ है- नॉलेज या ज्ञान। और कोई भी सच्चा ज्ञान जो किसी व्यक्ति को अमर बना देने की शक्ति रखता हो, कभी किसी एक ही व्यक्ति या एक ही देश में कैद होकर नहीं रह सकता। इसीलिये हम ऐसा नहीं कह सकते कि अमुक देश के किताब या या अमुक व्यक्ति ने जो कह दिया बस उतना ही ज्ञान है ! उसके बाद कोई व्यक्ति या देश सच्चे ज्ञान बारे में जान ही नहीं सकता। क्योंकि ज्ञान कभी एक ही पुस्तक या देश में आकर समाप्त नही हो जाता , और किसी भी देश का कोई भी मनुष्य किसी भी समय में सच्चे ज्ञान को अविष्कृत कर सकता है ! मुण्डक १/२/१२ में महर्षि अङ्गिरा कहते हैं    

' परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान ब्राम्हणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृत: कृतेन ।'  

अर्थात कर्तापन के अभिमान के साथ सकाम कर्म से प्राप्त किये जाने वाले लोकों (भोगों ) के सुखों की परीक्षा करके या विवेक-प्रयोग करके योगसाधक को इस निष्कर्ष पर पहुँच जाना चाहिये कि 'कृतेन अकृतः न अस्ति '। अर्थात  – “विनाशी पदार्थो से वह अविनाशी नहीं मिल सकता” किये जाने वाले अनुष्ठानों से स्वतः सिद्ध नित्य परमेश्वर नहीं मिल सकते।अपने परीक्षण, अनुभव  एवं चिंतन के पश्चात
समस्त प्रकार के इन्द्रिय-भोगों की अनित्यता और दुःखरूपता को समझकर उसे - ' निर्वेदम् आयात'  अर्थात वैराग्य को प्राप्त हो जाना चाहिये।
यह विवेक जितना और अधिक गहरा होता जायेगा, मन और बुद्धि भी उतना अधिक शांत और स्थिर होती जायेगी।  इस  विवेक-प्रयोग का अभ्यास तब तक चलना चाहिये जब तक कि विवेक-ज्योति के प्रकाश में उस अन्वेषक को साश्वत परम सत्य या " वह अमर आत्मा मैं ही हूँ" (सोsहम् अस्मि- आई ऐम ही) की अनुभूति नहीं हो जाती। 
 कश्चित् धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत् आवृत्तचक्षुः अमृतत्वम् इच्छन् । 
कश्चित् धीरः कुछ अत्यंत प्रबुद्ध लोगों ने आखों को मूँद कर, का तात्पर्य है मन को रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श आदि इन्द्रियों में जाने से मन को खींच कर आविष्कृत किया परम सत्य क्या है ? प्रतिदिन दो बार मनःसंयोग का अभ्यास करने का उद्देश्य योगसाधक की विवेक-शक्ति को तब तक विकसित करते रहना है जब तक कि अंत में वह ' अहंब्रह्मास्मि ' का अनुभव करने में समर्थ न हो जाय। इस अवस्था में साधक माया (सिंह होकर भी भेड़ होने के भ्रम delusion) से मुक्त होकर यथार्थ 'मनुष्य' या ऋषि बन जाता है। उसी शांत मन में उन्हें सत्य के दर्शन हो जाते हैं। इस प्रकार ऋषियों ने सत्य को केवल अविष्कृत किया है, उसका सृजन नहीं किया है। 
इसीलिये वेद को अपौरुषेय कहा गया है- वेद का किसी व्यक्ति ने सृजन नहीं किया है; अर्थात ज्ञान का सृजन भी सर्शक्तिमान ईश्वर ने किया है। वेद का अर्थ है ज्ञान अतः सनातन धर्म का आधार ज्ञान है। और यह ज्ञान किसी एक ही व्यक्ति को एक ही तरीके से, एक ही समय में प्राप्त नहीं हुआ। बहुत से ऋषियों ने विभिन्न तरीकों से विभिन्न समय में विभिन्न वेदों को आविष्कृत किया। फिर उन्होंने क्या किया ? धीरे धीरे इस ज्ञान को वे अपने शिष्यों के पास थाती के रूप में छोड़ते चले गये। फिर विशाल बुद्धि-वेरी इंटेलिजेंट वेदव्यास का अवतरण हुआ। उन्होंने अपने शिष्यों की सहायता से उन सभी वेदों को संकलित किया। यह ज्ञान कुछ ऋषियों ने गीतों के रूप में कहा, कभी किसी अन्य रूप से कहा, कभी विभिन्न कहानियों के रूप में अपने शिष्यों को दिया, उन सभी को इस प्रकार संकलित किया गया कि उस ज्ञान के चार मुख्य वेद-ऋग,शाम,यजुर,अथर्व - बन गये।
  जबकि श्रीरामकृष्ण वचनामृत तो स्वामी विवेकानन्द के गुरु -गॉड हिमसेल्फ - स्वयं भगवान श्रीरामकृष्ण ने ही अपने श्रीमुख से कहा है ।
 श्री महेन्द्रनाथ गुप्ता (The Recorder of the Gospel of Sri Ramakrishna) श्रीरामकृष्णवचनामृत के लेखक -जिन्हें 'एम' या 'मास्टर महाशय' के नाम जाना जाता है; : उनका जन्म 14 जुलाई 1854 ई ० को हुआ था, उनके पिता का नाम श्री मधुसूदन गुप्ता था, जो कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक अधिकारी थे। और उनकी माता का नाम स्वर्णमयी देवी था।
उन्होंने कोलकाता के हेयर स्कूल तथा प्रेसीडेंसी कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। उन्हें पाश्चात्य-शिक्षा और प्राच्य-विद्या दोनों पर सामान रूप से अधिकार था ।  एक ओर जहाँ उन्हें  अंग्रेजी साहित्य, इतिहास, अर्थशास्त्र, पश्चिमी दर्शन और ब्रिटिश कानून आदि की पूरी जानकारी थी, वहीँ दूसरी ओर संस्कृत साहित्य और व्याकरण, दर्शन, पुराणों,स्मृतियों, जैन, बौद्ध धर्म, आयुर्वेद और ज्योतिष आदि विषयों में भी दक्षता प्राप्त थी।
धर्मनिरपेक्ष एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के शिक्षा -क्षेत्र में वे जीवन भर एक प्रख्यात शिक्षाविद रहे थे।   कॉलेज की पढाई समाप्त करने के बाद उन्होंने लगातार- नराईल हाई स्कूल, सिटी स्कूल, रिपन कॉलेज स्कूल, महानगर स्कूल, आर्य स्कूल, ओरिएंटल स्कूल, ओरिएंटल सेमिनरी और मॉडल स्कूल; आदि कई स्कूलों में प्रधानाध्यापक के रूप में काम किया था। 
एक शिक्षक के रूप में धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करना केवल उनका पेशा था; किन्तु उनका सारा ध्यान मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान के ऊपर ही केन्द्रित रहता था। ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व के मनुष्यों को पुनरुज्जीवित करने के लिये ही अदृष्ट (भाग्य) ने उनका चयन कर लिया था। वे बाल्यकाल से ही अत्यंत पवित्र (निःस्वार्थी) थे, और वे साधुओं -मंदिरों के दर्शन और दुर्गा पूजा समारोह आदि के अवसर पर बहुत ज्यादा भाव-विव्हल हो जाते थे। लगता है नियति प्रारम्भ से ही उनको भगवान श्रीरामकृष्ण के निकट लाने के लिये उन्हें तैयार कर रही थी। 
 श्रीम एक शिक्षक थे, बल्कि अपने स्कूल के प्रिंसिपल थे, बड़े विद्वान थे,संस्कृत,बंगला,अंग्रेजी भाषाएँ जानते थे उनकी स्मरण शक्ति फोटोजेनिक थी। श्री'म' श्रुतिधर थे, वे जो कुछ भी देखते या सुनते थे वह सब उनके मन में छप जाता था। वे ठाकुर के कमरे में बैठकर कुछ बिन्दुओं को नोट के लेते थे, घर में आकर उन बिन्दुओं पर मन को एकाग्र करते थे तब मानो सारा वार्तालाप उनके आँखों के समक्ष साकार हो उठता था। श्रीम ने वचनामृत देख कर लिखा है| यही वचनामृत  सौन्दर्य है ! ठाकुर को पता था कि विश्व इतिहास में भगवान से वार्तालाप में ज्ञान का प्रत्यक्ष रिकॉर्डिंग पहली बार हो रहा है, इसलिये वे बीच बीच में श्री म से पूछते थे -बताओ उस दिन मैंने क्या कहा था ? इस प्रकार श्रीरामकृष्ण ने अपने वचनामृत को एडिट भी किया है, ताकि 'वेद' अर्थात नॉलेज या ज्ञान सही रूप में लोगों के सामने आये, और सम्पूर्ण विश्व में सच्चे ज्ञान का वेद का प्रसार हो सके !  
श्रीरामकृष्ण वचनामृत के रिकॉर्डर ' मास्टर महाशय ' १८८२ ई० के मार्च महीने में पहलीबार दक्षिणेश्वर पहुंचे थे। वे पहले से श्रीरामकृष्ण के विषय में कुछ नहीं जानते थे।  श्री महेन्द्रनाथ गुप्त जो श्री'म' के नाम से विख्यात हुए वे  वे उस समय ब्रह्म-समाज के सदस्य थे, और श्यामबाजार कोलकाता में विद्यासागर हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। 
भगवान श्रीरामकृष्ण ने पहली नजर में ही उन्हें अपने "चिह्नित" शिष्यों में से एक के रूप में पहचान लिया था। श्री'म' ने अपनी डायरी में, श्री रामकृष्ण की अपने भक्तों के साथ हुई बातचीत को रिकॉर्ड कर लिया था सम्पूर्ण विश्व के आध्यात्मिक इतिहास में, पहली बार किसी बुद्ध और ईसा की श्रेणी के मानवजाति मार्गदर्शक नेता के मुख से निसृत शब्दों को एक डायरी में डायरेक्टली रिकार्डेड या सीधा दर्ज किया गया है। 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत' इसी डायरी का पण्डित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है। 
जो कभी राम और कभी कृष्ण बन कर आये थे, वे ही इस बार युग की आवश्यकतानुसार भगवान श्रीरामकृष्ण (ठाकुर) के रूप में अवतरित हुए थे। उन्होंने जो लीला की थी और सन्देश दिए थे, उसको  श्री'म' ने ठाकुर के साथ अपने निजी-सम्पर्क के माध्यम से,ही असंख्य युवाओं एवं सत्य अन्वेषकों के बीच, प्रसारित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी उनके जीवन की यह युगांतरकारी घटना एक बहुत ही अजीब तरीके घटित हुई थी ।
 श्री'म' कई सदस्यों वाले एक संयुक्त परिवार में रहते थे। एक शिक्षाविद् के रूप में अपना कैरियर शुरू करने के लगभग दस वर्षों के बाद, उनके परिवार के सदस्यों के बीच द्वेषपूर्ण झगड़े शुरू हो गये थे। मास्टर महाशय की पत्नी और सास में पटता नहीं था, मैं ही सास-बहु के झगड़े का कारण हूँ, यह सोचकर अति संवेदनशील श्री'म' निराशा और अवसाद से ग्रस्त हो गये। जीवन के प्रति उनकी रूचि ही बिल्कुल समाप्त हो गयी थी। और एक दिन रात के समय अपने इस जीवन को समाप्त करने के उद्देश्य से घर छोड़ कर बाहर निकल गये।
किन्तु उनकी पत्नी बुद्धिमती थीं, उन्हें भय हुआ कि कोई अनहोनी न हो जाये, इसीलिये उन्हें देर रात में  उनका मन बदलने की इच्छा से उत्तर वराहनगर में अवस्थित उनकी बहन के घर ले गयीं। उस रात उन्होंने वहीँ विश्राम किया। और दूसरे दिन प्रातः काल अपने भांजे और मित्र सिधू (श्री सिद्धेश्वर मजूमदार) के साथ श्री'म' वराहनगर से बाहर निकलकर एक बाग से दूसरे बाग में घूमते हुए, दक्षिणेश्वर के बागान-बाड़ी टेम्पल गार्डन में पहुँच गये जहाँ उस समय श्रीरामकृष्ण रह रहे थे। 
१८८२ के फ़रवरी महीने के एक रविवार को (सही तारीख का रिकॉर्ड नहीं है) छुट्टी थी, इसलिये घूमने निकले थे। कुछ समय तक गुलाब के बागों में घूमने के बाद सिधू ने श्री'म' के उद्विग्न मन को शांत करने के उद्देश्य से कहा, " गंगाजी के किनारे एक सुन्दर बगीचा है, देखने चलिएगा ? वहाँ एक परमहंस रहा करते हैं। "
[किसी स्थान,व्यक्ति या घटनाओं का वर्णन श्री'म' अपने एक अनोखे अंदाज में किया करते थे। उनके चरित्र का यह एक विशिष्ट गुण था। आज भी दक्षिणेश्वर काली मंदिर वाले ठाकुर के कमरे में वह तख़्त, जिस पर बैठकर वे प्रवचन देते थे रखी हुई है। और उनके सोने की एक चौकी है, जिसकी ऊँचाई उस तख्त से थोड़ी अधिक है।] 
 इस दिन जो वार्तालाप हुए थे उसी को अपनी डायरी श्री 'म' ने इस प्रकार लिखा था - " संध्या का समय था। श्री'म' ने श्रीरामकृष्णदेव के कमरे में प्रवेश किया। इसी समय उन्होंने भगवान श्रीरामकृष्णदेव के प्रथम बार दर्शन किये। उन्होंने देखा (ऑब्सर्व किया -अर्थात गौर से देखा),कमरा लोगों से भरा हुआ है (मतलब हजारों नहीं,१०-१२ लोग होंगे); सब लोग चुपचाप बैठे उनके वचनामृत का पान (ड्रिंकिंग क्यों ? अमृत को कान से पीया जाता है, नॉट लिस्निंग) कर रहे थे। श्रीरामकृष्ण तख्त (व्यासपीठ) पर पूर्व की ओर मुँह किये बैठे हुए प्रसन्नवदन हो ईश्वरीय चर्चा कर रहे हैं। भक्तगण फर्श पर बैठे हुए हैं।"

श्री'म' को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो साक्षात् 'शुकदेव' ही भगवत् -प्रसंग कर रहे हैं। 

अभी तक जितने भी आध्यात्मिक महापुरुष हैं उनमें से शुकदेव को पवित्रतम माना जाता है, क्यों ? क्योंकि उनको बॉडी-सेन्स, या मैं शरीर हूँ -ऐसा बोध बिल्कुल नहीं था। पवित्रता का अर्थ होता है, शरीर-बोध बिल्कुल नहीं रहना। और उस समय श्रीरामकृष्ण 'भगवान की' (अर्थात सर्वव्याप्त सत्ता की?) कथा कह रहे थे, उस समय उनमें भी अपने शरीर का होश बिल्कुल नहीं था। जैसे ही हमलोगों मैं-पना का विचार उठता है, यह मेरा शरीर है का विचार- उठता है, वैसे ही मैं दूसरे से भिन्न हूँ यह सोचकर सभी प्रकार के स्वार्थ की बातें मन में आने लगती हैं, दर्शन इन्द्रिय से जुड़ा मन या अहं अपने से भिन्न शरीर का माप-तौल करने लगती हैं ।
 तुम यदि किसी छोटे से बच्चे से पूछो कि तुम्हारा नाम क्या है ? तो वे आपके प्रश्न का उत्तर देने की परवाह नहीं करता, क्यों? क्योंकि उस अवस्था में बच्चे को अपने 'नाम और रूप' नेम ऐंड फॉर्म, की कोई चिंता नहीं रहती। किन्तु जब वे बड़े हो जाते हैं, तो हर जगह अपना नाम लिखा हुआ देखना चाहते हैं। क्यों ? क्योंकि उस समय तक अपने को शरीर मानने और उसका एक फिक्स्ड नाम होने का एहसास गहरा हो गया होता है। बॉडी ऐंड नेम -नाम और रूप तो मिथ्या हैं, किन्तु उम्र बढ़ने पर सत्य प्रतीत होता है। इसीलिए भगवान श्रीरामकृष्ण कभी 'मैं' नहीं कहते थे, वे हमेशा अपने शरीर की ओर इंगित करते हुए कहते थे -'यह'! वे मानो यह कहना चाहते थे कि वे इस शरीर से भिन्न हैं।
मास्टर महाशय में ज्ञान के साथ साथ भक्ति भी थी इसीलिये वे लिखते हैं, मानो शुकदेव ही भगवान की कथा कह रहे हैं।  अथवा मानो श्रीचैतन्य पूरी धाम में भक्तों के साथ बैठकर भगवान का नामगुण गान कर रहे हैं, यहाँ शुकदेव ज्ञान के प्रतिक हैं और श्री चैतन्य भक्ति के प्रतिक हैं। जब श्री चैतन्य कृष्ण-संकीर्तन करते थे, उनके भक्त पागल के समान नृत्य करने,या जमीन पर लोटने लगते थे। श्री'म' के पहले भी कई लोग श्री रामकृष्ण  के निकट जाते रहे थे, किन्तु उनके अतिरिक्त और किसी ने उनमें इस ज्ञान और भक्ति के अद्भुत सम्मिलन पर गौर क्यों नहीं किया ? 
क्योंकि श्रीरामकृष्ण जानते थे कि श्रीम के माध्यम से ही उनके उपदेश विश्व के लोगों तक लाइव टेलीकास्ट होंगे, इसीलिये वे उनसे बीच बीच में पूछ लेते थे-तुम इस विषय में क्या समझे? भूल समझने पर सूधार भी करते रहते थे। यहाँ उस दिन वे कह रहे थे - " जब एक बार हरिनाम या रामनाम लेते ही रोमांच होता है, आँसुओं की धारा बहने लगती है, तब निश्चित समझो कि संध्यादि रिचुअल्स करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। 'रादर रिचुअल्स विल ड्राप अवे ऑफ़ देमसेल्व्स ' - तब अनुष्ठानिक कर्मों को त्याग देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है, या कर्म आप ही आप छूट जाते हैं । उस अवस्था में केवल रामनाम, हरिनाम या केवल ॐ का जप करना ही पर्याप्त है। " आपने फिर कहा - " द संध्या मर्जेज इन द गायत्री, एंड द गायत्री मर्जेज इन ॐ ." 
श्रीरामकृष्ण को विस्मित होकर देखते हुए मास्टर महाशय सोचने लगे-' वाह, कैसा सुन्दर स्थान है! व्हाट अ चार्मिंग मैन ! हाउ ब्यूटीफुल हिज वर्ड्स आर ! कितने अच्छे महात्मा हैं ! कैसी सुन्दर वाणी है ! यहाँ से हिलने तक की इच्छा नहीं होती। ' राम शब्द का अर्थ है -चर्निंग या आलोड़न - ' रमयति इति राम ' । श्रीरामकृष्ण मास्टर महाशय के मन को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे!
वे बड़े बुद्धिमान व्यक्ति थे, वे केवल देखते नहीं थे, ऑब्जर्व करते थे। पूज्य भरत महाराज भी माँ के मंदिर से लौटे भक्तों  से पूछते थे -बताओ आज माँ कैसी साड़ी पहनी हैं ? थोड़ी देर बाद श्रीम के मन में विचार आया - 'ऐसे प्रशांत से दिखने वाले महापुरुष कौन हैं ? इनके पास फिर लौट जाने की इच्छा हो रही है। एक बार देख आऊँ, कहाँ आया हूँ ? फिर यहाँ आकर बैठूंगा। '

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" तुम्हारे देश का जनसाधारण मानो एक सोया हुआ तिमिंगल,(Leviathan-लिवाइअथन,भीमकाय समुद्री जन्तु ) है। इस देश की जो शिक्षा व्यवस्था है, वहाँ परमसत्य  को जानने की
[अर्थात 'मौलिक' (seminal) या विशेष मानसिक अवस्था प्राप्त मनुष्य बनने और बनाने -अर्थात 'BE AND MAKE ' की ] कोई व्यवस्था नहीं है।  इसीलिये देश के युवा देश के कल्याण के लिये कुछ नहीं कर सक रहे हैं। बेचारे करें भी तो कैसे ? कालेज से निकलकर ही देखते हैं, कि वे सात बच्चों के बाप बन गये हैं, उस समय जैसे तैसे जो नौकरी हाथ लग जाये, क्लर्की या डिप्टी मजिस्ट्रेट की नौकरी स्वीकार कर लेते हैं; बस यही हुआ शिक्षा का परिणाम ! उसके बाद गृहस्थी के बोझ में इतना दब जाता है कि देश का कल्याण करने या ब्रह्म-चिन्तन करने का फिर उसको समय कहाँ? जब अपना ही स्वार्थ पूरा नहीं होता, तब दूसरों के लिये क्या करेगा ?
यह सनातन धर्म का देश है। यह देश गिर अवश्य गया है, परन्तु निश्चय ही फिर से उठेगा ! और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जायगी। देखा नहीं है, नदी या समुद्र की लहरें जितनी नीचे उतरती हैं, उसके बाद उतनी ही जोर से उपर उठती हैं। देखता नहीं है, पूर्वाकाश में अरुणोदय हुआ है (- अबकी बार मोदी सरकार, नहीं श्रीरामकृष्ण परमहंस सरकार !) सूर्य उदित होने में अब अधिक विलम्ब नहीं है। तुम लोग इस समय कमर कस कर तैयार हो जाओ। गृहस्थी करके क्या होगा ?


जो जीवन मैंने अपनी आँखों से देखा है, जिसकी छाया में मैं रह चुका हूँ, जिनके चरणों में बैठकर मैंने सब सीखा है, उन श्रीरामकृष्ण का जीवन जैसा उज्ज्वल और महिमान्वित है, वैसा मेरे विचार में अन्य किसी अवतार या पैग़म्बर का नहीं है। यदि तुम्हार हृदय खुला है, तो तुम उनको अवश्य ग्रहण करोगे। यदि तुममें सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति है, तो तुम उन्हें अवश्य प्राप्त करोगे। अँधा, बिल्कुल अँधा है वह, जो समय के चिन्ह नहीं देख रहा है, नहीं समझ रहा है। वर्तमान युग का अन्त होने के पहले ही तू लोग ठाकुर की अधिकाधिक आश्चर्यमयी लीलाएँ देख पाओगे। भारत के पुनरुत्थान के लिये इस शक्ति का आविर्भाव बिल्कुल सही समय पर हुआ है।
मैं तुमको विश्वास दिलाता हूँ कि संसार के किसी भी देश में सार्वभौमिक धर्म और विभिन्न सम्प्रदायों में भ्रातृभाव के ऊपर चर्चा और बहस प्रारम्भ होने के भी बहुत पहले, इस नगर (कोलकाता) के पास, एक ऐसे अवतार रहते थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन ही एक आदर्श सर्वधर्म-समन्वय, 'अविरोध' या 'पार्लियामेंट ऑफ़ रिलीजन्स '  का मूर्तमान स्वरुप था। इस तरह के किसी महान आदर्श पुरुष पर हार्दिक अनुराग रखते हुए, उनकी पताका के नीचे आश्रय लिये बिना न कोई राष्ट्र उठ सकता है, न बढ़ सकता है।  यदि यह राष्ट्र उठना चाहता है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा कि इस ' नाम ' (श्रीरामकृष्ण) के चारों ओर उत्साह के साथ एकत्र हो जाना चाहिये।
अतएव कर्तव्य की प्रेरणा से अपने राष्ट्र और धर्म की भलाई के लिये मैं यह आध्यात्मिक 'राष्ट्रीय-आदर्श' तुम्हारे सामने प्रस्तुत करता हूँ। मुझे देखकर उनकी कल्पना न करना; मैं एक बहुत ही दुर्बल माध्यम हूँ। उनके चरित्र का निर्णय मुझे देखकर न करना। वे इतने बड़े थे कि मैं या उनके शिष्यों में लोई दूसरा सैकड़ों जीवन तक चेष्टा करते रहने के बावजूद भी उनके यथार्थ स्वरुप के एक कड़ोरवें अंश के तूल्य भी न हो सकेगा। अपने कार्य के लिये वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव की बात है! 

" इंडिया मस्ट कॉन्कर द वर्ल्ड !' भारत को अवश्य ही सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करनी है। हाँ, यह हमें करना ही है; इसकी अपेक्षा किसी छोटे आदर्श से मुझे कभी भी सन्तोष न होगा। प्रभु का कार्य रुक नहीं सकता। या तो हम सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करेंगे या मिट जायेंगे। हमें संकीर्ण सीमा के बाहर जाना होगा, अपने ह्रदय को विशाल बनाना होगा, और यह दिखाना होगा कि हमारा प्राचीन भारतवर्ष आज भी जीवित है, अन्यथा हमें इसी पतन की दशा में लड़कर मरना  होगा, इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं। छोटी छोटी बातों (जातिवाद और सम्प्रदायवाद ) को लेकर हमारे देश में जो द्वेष और कलह हुआ करता है, मेरी बात मानो ऐसा सभी देशों में है।किन्तु जिन सब (पश्चमी ) राष्ट्रों का मेरुदण्ड आध्यात्मिकता नहीं- राजनीती है; वे सब राष्ट्र आत्मरक्षा के लिये - फॉरेन पालिसी (वैदेशिक नीति) का सहारा लेते हैं। जब उनके अपने देश में बहुत अधिक लड़ाई-झगड़ा आरम्भ हो जाता है, तब वे जानबूझ कर किसी विदेशी राष्ट्र (ईरान-इराक़) से झगड़ा मोल ले लेते हैं, इस तरह तत्काल उनके यहाँ गृह-विवाद बन्द हो जाता है। हमारे देश के भीतर भी गृहविवाद है, परन्तु उसे रोकने के लिये कोई फॉरेन पालिसी या वैदेशिक नीति नहीं है। संसार के सभी राष्ट्रों में अपने वेदों के सत्य का प्रचार ही भारत की 'इटरनल फॉरेन पालिसी'  होनी चाहिए। यह सनातन वैदेशिक नीति हमें एक अखण्ड राष्ट्र के रूप में संगठित करेगी। " 

याद रहे १९ वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि आने वाले पचास वर्षों तक व्यर्थ के देवी-
देवताओं की उपासना छोड कर केवल भारत माता की उपासना करनी चाहिए। यही एकमात्र जाग्रत देवी है और हमारा राष्ट्र एकमात्र उपासस्य इसका फल भारत को आजादी के रुप में मिला। आज २१ वीं शताब्दी में पुनः परिस्थिति कठिन है, आत्मश्रद्धा के बोध के अभाव, आत्यन्तिक सुख की विस्मृति से उत्पन्न ऐन्द्रिक सुख-भोग की भौतिक व्यवस्था ने मनुष्य को साधना पथ से विमुख कर तकनीक-केन्द्रित कर दिया है।
परिणामतः आज के साधारण मनुष्य ने आत्मत्याग और तप के नित्य आनन्दवर्धक पथ को छोड कर, सहज ही प्रस्तुत आयातित जीवन प्रणाली को अंगीकार कर लिया है। जिसने उसकी प्रतिरोधि क्षमता - अर्थात प्रलोभन और मृत्यु भय के सामने भी अभीः - निर्भय रहने की विशेष मानसिक शक्ति को समाप्त कर दिया है।  और तात्कालिक सुख-भोग की तकनीक-प्रस्तुत पद्धति को अपना जीवन दर्शन बना लिया है। इसका स्वाभाविक परिणाम है समाज जीवन के सभी क्षेत्रों के असह्य भ्रष्टाचार।  
इस असह्य भ्रष्टाचार के खात्मे के बिना भारत का कल्याण संभव नहीं है। भारत का कल्याण इसलिये जरुरी है कि यदि भारत नष्ट होता है तो, विश्व को प्रकाश दिखा सकने वाली जीवन-गठन की प्रणाली ही नष्ट हो जायेगी। भौतिक विकास और भौतिक सुख की तकनीक-जनित जीवन-प्रणाली ने एक मनुष्य़ को दुसरे मनुष्य के शोषक के रुप में खडा कर दिया है। परिणामतः मनुष्य मात्र के कल्याण के विचार 'सर्वे भवन्तु सुखिनः'  आज के कलखण्ड में निरर्थक सिद्ध हो रहे हैं।

 ऐसे में हमें सबके कल्याण का विचार-'सर्वे भवन्तु सुखिनः' को पुनः प्रतिस्थापित करना होगा। पर यह किसी एक स्थान में केन्द्रित चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन से संभव न होगा, अथवा किसी कानून से भी इसका समाधान नहीं है। कोई लोकपाल-दिक्पाल- (केजरीवाल और उसका बाप -अन्नाहजारे) भी इसको सर्वाभिमुखी जीवन की प्रणाली के रुप में प्रतिष्ठित नही कर सकता है।
अभी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो आक्रोश है, वह मात्र सत्ता प्रतिष्ठान के भ्रष्टाचार के विरुद्ध है।  ये सब इस के साधन हैं समवेत रुप से साधन हैं। पर यह चरित्रनिर्माण और मनुष्यनिर्माणकारी आन्दोलन एक कार्यक्रम नही है, सतत चलने वाली साधना है। इसलिये चरित्रनिर्माण और मनुष्यनिर्माण के कार्य को भारतवर्ष के गाँव-गाँव में सार्वकालिक आन्दोलन के रुप में प्रतिष्ठा तो करनी होगी।  इसे व्यक्ति के स्तर पर कुटुम्ब के स्तर पर स्थापित करने का जोशीला प्रयास करना होगा - यही महामण्डल का उद्देश्य है।
स्वामी जी कहते हैं - " तुम लोगों का अब काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव में जाकर देश के लोगों को समझा दो कि अब आलस्य से बैठे रहने से, युवाओं के चरित्र-निर्माण में देर करने से काम न चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझकर कहो-' भाई, सब उठो, जागो, और कितने दिन सोते रहोगे ?  पंचम वेद अर्थात श्रीरामकृष्ण वचनामृत को पढ़ कर -चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति [वीर्यवानभव ! अर्थात मौलिक (seminal) मनुष्य - विशेष मानसिक शक्ति प्राप्त मनुष्य-अभीः होने की पद्धति] को सीखो और सरल करके उन्हें दूसरे युवाओं को भी समझा दो। तू काम में लग जा; फिर देखेगा, इतनी शक्ति आएगी कि तू उसे सँभाल न सकेगा। दूसरों के लिये रत्ती भर सोचने से ह्रदय में सिंह का सा बल आ जाता है। "  
 " भारत के युवाओ ! उठो, जागो, शुभ मुहूर्त आ गया है। सब चीजें अपने आप तुम्हारे सामने खुलती जा रही हैं। हिम्मत करो और डरो मत। केवल हमारे ही शास्त्रों में ईश्वर के लिये 'अभीः ' विशेषण का प्रयोग किया गया है। और यह निर्भीकता ही वह विशेष मानसिक शक्ति है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। हमें 'अभीः' निर्भय (विशेष मानसिक अवस्था प्राप्त मनुष्य) बनना होगा, तभी हम अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करेंगे।
उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस समय विर्यमान (विशेष मानसिक शक्ति प्राप्त) युवाओं की आवश्यकता है।  उन्हीं के लिये यह कार्य है, उठो--जागो, संसार तुम्हें पुकार रहा है !
इस कार्य की सिद्धि युवकों से ही हो सकेगी। प्रश्न उठता है कि युवा कैसे हों?  इसका उत्तर देते हुए तैत्तिरियोपनिषद् २.७ कहता  है -
 युवा स्यात्। साधुयुवा, अध्यायकः। आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठः। 
 तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् । स एको मानुष आनन्दः। 

 
' द यंग, द एनर्जेटिक, द स्ट्रांग, द वेल-बिल्ट कैरेक्टर , द इंटेलेक्चुअल यूथ '- अर्थात साधु स्वभाव वाला चरित्रवान नवयुवक, जो अध्ययनशील अर्थात वेद पढ़ा हुआ हो, अत्यन्त आशावान् [ कभी निराश न होने वाला ] हो, दृढ़निश्चय वाला हो और बलिष्ठ हो। एवं इसी युवावस्था में यह धन- धान्य से पूर्ण सम्पूर्ण पृथ्वी भी उसी की हो।  [ उसका जो आनन्द है ] वह एक मानुष आनन्द है।
ऋषि कहते हैं- युवाओं पहले इस ब्रह्म-आनन्द को प्राप्त 'मनुष्य' बनो। मत सोचो कि तुम ग़रीब हो, मत सोचो कि तुम्हारे मित्र नहीं हैं। अरे, क्या कभी तुमने देखा है कि रुपया मनुष्य का निर्माण करता है ? नहीं, मनुष्य ही सदा रूपये का निर्माण करता है। यह सम्पूर्ण संसार मनुष्य की शक्ति से, उत्साह की शक्ति से, विश्वास की शक्ति से निर्मित हुआ है। "

भारत में आवश्यकता है - 'पावर ऑफ़ आर्गेनाईजेशन' की अर्थात संघ-परिचालनशक्ति की, समझे? क्या तुममें से किसी में यह कार्य करने की बुद्धि है? यदि है, तो तुम इस कार्य को बखूबी कर सकते हो। तारक-दादा, शरत और हरि (जैसे महामण्डल नेता ) भी यह कार्य सकेंगे। श्री 'अमुक जी ' सचमुच बड़ा कारगुजार आदमी है; किन्तु उसमें मौलिकता बहुत कम है। फिर भी वह बड़े काम का और अध्यवसायशील व्यक्ति है, उसकी भी जरुरत 'अन्नदान या विद्यादान ' में पड़ सकती है। 

हमें कुछ चेले (disciples) भी चाहिये--वीर युवक--समझे ? बुद्धि के तीव्र और हिम्मत के पूरे- 'यम' का सामना करने वाले-तैर कर समुद्र पार करने को तैयार--समझे ? हमें ऐसे सैकड़ों चाहिये--स्त्री और पुरुष दोनों। जी-जान से इसी के लिए प्रयत्न करो। चेले बनाओ और हमारे 'प्यूरिटी-ड्रिलिंग मशीन'( महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर-रूपी पवित्र करने वाले टकसाल में) युवाओं को डाल दो।
समाज में, पूरे भारत में -बिजली की शक्ति के समान काम करना होगा, electrify the world ! बैठे बैठे गप्पें लड़ाने और घण्टी हिलाने से काम नहीं चलेगा। घण्टी हिलाना, भोगी-गृहस्थों का काम है। गृहस्थ होकर भी स्वामीजी के सैनिक बनने की चाह रखने वाले युवाओं का काम है-'
'डिस्ट्रीब्यूशन एंड प्रापगैशन ऑफ़ थॉट-कर्रेंट्स."अर्थात 'चरित्रवान मनुष्य बनो और बनाओ' आन्दोलन का प्रचार-प्रसार करना। यदि यह कर सकते हो तब तो ठीक है। चरित्र-निर्माण हो जाय, फिर मैं तुम लोगों के बीच आता हूँ, समझे ?
 दो हजार, दस हजार, बीस हजार संन्यासी (त्यागी गृहस्थ) चाहिये, स्त्री-पुरुष दोनों, समझे? चेले चाहिये, जिस तरह भी हों। तुम लोग अपनी जान की बाजी लगाकर कोशिश करो। भोगी नहीं त्यागी गृहस्थ चाहिये--समझे?  --शिक्षित युवक चेले चाहिये, मूर्ख नहीं। उथलपुथल मचा देनी पड़ेगी, कमर कस कर लग जाओ- पश्चिम (गुजरात) से पूर्व (कलकत्ते) के बीच में बिजली की तरह चक्कर लगाते रहो।
आध्यात्मिकता की बड़ी भारी बाढ़ आ रही है --साधारण व्यक्ति महान बन जायेंगे, अनपढ़ उनकी कृपा से बड़े बड़े पण्डितों के आचार्य बन जायेंगे--'उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत्'-Arise! Awake! and stop not till the goal is reached." उठो, जागो और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो तब तक न रुको। 


ह्रदय को विस्तृत करते जाना ही जीवन है, और संकोच ही मृत्यु। जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आराम-
तलब है, आलसी है, उसके लिये नरक में भी जगह नहीं है। सवा सौ करोड़ देशवासियों के लिये जिसमें इतनी करुणा होती है कि खुद उसके लिये नरक में भी जाने को तैयार रहता है--उनके लिये कुछ कसर उठा नहीं रखता, वही श्रीरामकृष्ण का पुत्र है, --इतरे कृपणाः -दूसरों को हीनबुद्धि वाले समझना। जो इस
समय पूजा के महासन्धि-मुहूर्त (this great spiritual juncture) में कमर कस कर खड़ा हो जायेगा, गाँव गाँव में, घर घर में, उनका संवाद देता फिरेगा वही मेरा भाई है --वही ठाकुर का पुत्र है। यही रामकृष्ण के सन्तानों को परखने का तरीका है --वे अपना भला नहीं चाहते, प्राण निकल जाने पर भी दूसरों की भलाई चाहते हैं।
 जिन्हें अपने ही आराम की सूझ रही है, जो आलसी हैं, जो अपनी जिद के सामने सब का सिर झुक हुआ देखना चाहते हैं, वे हमारे कोई नहीं, वे हमसे राजी-ख़ुशी से पहले ही अलग हो जायें। श्रीरामकृष्ण का चरित्र, उनकी शिक्षा इस समय चारों ओर फैलाते जाओ--यही साधन है, यही भजन है, यही साधना है, यही सिद्धि है। उठो, उठो, बड़े जोरों की तरंग (tidal wave) आ रही है- 'Onward! Onward!'; आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, स्त्री-पुरुष आचाण्डाल (Pariah) सब उनके निकट पवित्र हैं।
Onward! Onward! आगे बढ़ो, आगे बढ़ो ! नाम का समय नहीं है, यश का समय नहीं है, मुक्ति का समय नहीं है, भक्ति का समय नहीं है, इनके बारे में फिर कभी देखा जायगा। अभी इस जन्म में श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा के महान चरित्र का, उनके महान जीवन का, उनकी महान आत्मा का प्रचार करना होगा। 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत ' बनाने के लिए बस इतना ही करना है; इसको छोड़ कर अन्य कुछ योजना लेने की जरुरत नहीं है। "

पौराणिक मान्यता के अनुसार ऋषि दुर्वासा के श्राप से सभी देगगण अपने राजा इंद्र सहित बलहीन हो गए थे।  उस समय दानवों का राजा बलि हुआ करता था।  शुक्राचार्य दानवों के गुरु थे।  वे जब-तब राजा बलि को इंद्र के खिलाफ़ बरगलाते थे और वे देवों पर आक्रामण कर उनकी संपत्ति पर अपना अधिकार जमा लेते थे।  घर से बेघर हुए देवताऒं ने अपने राजा इंद्र को अपनी व्यथा-कथा कह सुनायी, पर वह तो स्वयं निस्तेज था, मदद नहीं कर पाया।
इस तरह सभी देवताओं ने ब्रह्मा को अपना दुखडा कह सुनाया। ब्रह्मा ने उन्हें श्री विष्णु के पास भिजवाया। विष्णु ने सारी बतें सुन चुकने के बाद समुद्र मंथन की योजना बनाई। वे जानते थे कि दानवों को बलहीन करने के लिए ' विशेष मानसिक शक्ति ' (अभीः का अमृत ) चाहिए और वह समुद्रमंथन के जरिए ही हासिल की जा सकती है।  उन्हीं की योजना के अनुसार उन्होंने वासुकि नाग को नेति, मन्दराचल पर्वत को मथानी और स्वयं कच्छप बनकर मथानी का आधार बनने का आश्वासन दिया।  इस तरह समुद्र मंथन का अभियान चलाया गया और वहाँ से प्राप्त शक्तियों को अपने अधिकार में लेते हुए उन्होने दानवों को फ़िर एक बार पाताल की ओर लौटने पर मजबूर कर दिया था। इसी पौराणिक कथा को उदाहरण बनाकर  पोएट किंग भर्तृहरि कहते हैं -

रत्नैर्महाहैंस्तुतुषुर्न देवा न भेजिरेभीमविषेण भीतिम्।
सुधा विना न प्रययुर्विरामं न निश्चिततार्थाद्विरमन्ति धीराः।।

सन्धि विग्रह :रत्नैः महा-अर्हैः तुतुशुः न देवाः न भेजिरे भीम-विषेण भीतिं। सुधां विना न प्रययुः विरामं न निश्चित् अर्थात् विरमन्ति धीराः।।

-समुद्र मंथन करने से जब अनमोल रत्न निकले तो देवता लोग उन्हें देखकर लालच में नहीं पड़े, उससे (tempted ) नहीं हुए, या उसके प्रलोभन में रुक नहीं गये । फिर जब समुद्र मंथन से भयंकर विष भी निकला, तो उससे उनको भय नहीं हुआ और न ही वह विचलित हुए।  जब तक अमृत नहीं मिला- वह मानसिक शक्ति - 'अभीः' नहीं मिला --- तब तक वह समुद्र मंथन के कार्य पर डटे रहे। धीर, गंभीर और विद्वान पुरुष जब तक अपना लक्ष्य नहीं प्राप्त हो तब अपना कार्य बीच में नहीं छोड़ते।


 image
 [थाईलैंड के हवाई अड्डे पर स्थापित समुद्र मंथन की यह प्रतिकृति
 १५ फिट ऊँची और करीब ५२ फ़ीट लंबी है। ]

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "
देशभक्ति के सम्बन्ध में मेरा अपना पैमाना है। बड़े काम करने के लिये तीन बातों [' 3H ' हर्ट, हैण्ड,हेड के विकास] की आवश्यकता होती है :-

१.हर्ट :  ह्रदय की अनुभव-शक्ति। क्या तुम अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों की करोड़ों सन्तानें आज पशुतुल्य हो गयी हैं ? क्या देश के दुर्दशा की चिन्ता ही तुम्हारे ध्यान का एकमात्र विषय बन बैठी है ? और क्या इस चिन्ता में विभोर होकर तुम अपने नाम-यश, पुत्र-कलत्र, धन-संपत्ति, यहाँ तक कि अपने शरीर तक की भी सुध बिसर गये हो ? क्या तुमने ऐसा किया है ? यदि 'हाँ', तो जानो कि तुमने देशभक्त होने की 
पहली सीढ़ी पर पैर रखा है-हाँ, केवल पहली ही सीढ़ी पर !

२. हैण्ड : अच्छा माना कि तुम अनुभव करते हो; पर पूछता हूँ, क्या लोगों की भर्तस्ना न कर ,उनकी सहायता का भी कोई उपाय सोचा है ? अपने देशवासियों की खोई हुई श्रद्धा को वापस लौटाने का कोई यथार्थ कर्तव्य-पथ भी निश्चित किया है?  यही दूसरी बात है।

३. हेड : क्या तुम (भी मीरा की तरह ) पर्वताकार विघ्न-बाधाओं को लांघकर कार्य करने को तैयार हो ? यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी तलवार लेकर तुम्हारे विरोध में खड़ी हो जाय, तो भी क्या तुम जिसे सत्य समझते हो, उसे पूरा करने का साहस करोगे ? यदि पुत्र-कलत्र तुम्हारे प्रतिकूल हो जाएँ, भाग्य-लक्ष्मी तुमसे रूठकर चली जाय, नाम की कीर्ति भी तुम्हारा साथ छोड़ दे, तो भी तुम क्या उस सत्य में संलग्न रहोगे ? फिर भी क्या तुम उसके पीछे लगे रहकर अपने लक्ष्य की ओर सतत बढ़ते रहोगे ? जैसा की राजा कवि भर्तृहरि ने कहा है-

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
 

लक्ष्मीः स्थिरा भवतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
 

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
 

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥

"नीति में निपुण मनुष्य (सो कॉल्ड बुद्धिजीवी लोग ) चाहे निंदा करें या प्रशंसा, लक्ष्मी आयें या इच्छानुसार चली जायें, आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो; परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के मार्ग से अपने कदम नहीं हटाते हैं॥"
स्वामी विवेकानन्द कह्ते हैं - " क्या तुममें ऐसा अटल धैर्य  है ?  [ जो किसी भी प्रकार के प्रलोभन (seduction  या  temptation) या मृत्यु का भय के सामने भी अटल रहेगा ?  क्या तुमने उस विशेष मानसिक अवस्था, पंचम वेद (अमृत ) को प्राप्त कर लिया है जो मनुष्य को ' वीर्यवान' (seminal) अर्थात 'मौलिक'  और 'अभीः' बना देती है ? जिस विशेष मानसिक अवस्था -' परमपद ' को प्राप्त करके मीरा गा उठती  हैं- 'राणा ने विष का प्याला भेजा पीवत मीरा हाँसी रे ! ' ] बस यही तीसरी है।" 

यदि तुममें ये तीन बातें हैं, तो तुममें से प्रत्येक अद्भुत कार्य कर सकता है। तब फिर तुम्हें समाचार पत्रों में अपना फोटो छपवाने की अथवा भाषण देते रहने की आवश्यकता नहीं होगी, स्वयं तुम्हारा मुख ही दीप्त हो उठेगा। फिर तुम चाहे पर्वत की कन्दरा में रहो, तो भी तुम्हारे विचार पर्वत की चट्टानों को भेदकर बाहर निकल आयेंगे और सैकड़ों वर्ष तक सारे संसार में प्रतिध्वनित होते रहेंगे। और हो सकता है, तब तक ऐसे ही रहें, जब तक उन्हें किसी मस्तिष्क का आधार न मिल जाय, और वे उसीके माध्यम से कार्यशील हो उठें। विचारों की निष्कपटता और पवित्र उद्देश्य में ऐसी ही जबरदस्त शक्ति छुपी रहती है। 
उसी विशेष मानसिक शक्ति को प्राप्त करने के लिये चरित्र-निर्माण करने और मनुष्य बनने की जो शिक्षा-पद्धति श्रीरामकृष्ण ने विवेकानन्द आदि अपने शिष्यों को काशीपुर उद्यान बाड़ी में दी थी, महामण्डल उसी शिक्षा पद्धति को भारत के गाँव गाँव तक पहुँचा देने का कार्य विगत ४८ वर्षों से करता चला आ रहा है। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमारे गुरु और प्रभु कितने मौलिक (seminal) थे ! और हममे से प्रत्येक को या तो मौलिक (seminal)- अर्थात वीर्यवान होना होगा या फिर कुछ नहीं।" विवेकानन्द ने युवाओं का बार बार - आह्वान किया था - " वीर्यवानभव ! अर्थात ' वीर्यवान मनुष्य बनो और बनाओ ! BE AND MAKE' " वीर्यवान-मनुष्य बनने का अर्थ होता है - चरित्रनिर्माण के द्वारा उस विशेष मानसिक शक्ति को प्राप्त करना, जो किसी भी प्रलोभन या भय के उपस्थित होने पर अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता ।
यह आजके युग के लिये यही-" युवाओं के उस विशेष मानसिक शक्ति को प्राप्त करने के लिये 'जागना  और उठ खड़े होना', श्रीरामकृष्ण का पंचम वेद ही स्वामी विवेकानन्द का नव-वेदान्त है। 
 भारत में जिन व्यक्तियों को यह विशेष मानसिक स्थित प्राप्त हो जाती है, उन्हीं के नाम के आगे श्री लगाकर श्रीअमुक कहते हैं। जैसे हम कहते हैं- श्रीअरविन्द की या श्री नवनिहरन मुखोपाध्याय की पुस्तकें।
 किन्तु आजकल कुछ ढोंगी या ठगबाबा लोग स्वयं को उनसे भी श्रेष्ठ समझते हैं, और वे अपने नाम के आगे दो बार श्री-श्री लगाते हैं। जब नेपाल में राजतंत्र था तब वहाँ के राजा स्वयं के नाम के आगे श्री-५ महाराजाधिराज वीर विक्रम शाह जी कहलवाना पसंद करते थे । क्योंकि पाँच बार श्री-श्री कहना अच्छा नहीं लगेगा, इसीलिये वे एक ही बार थोक भाव से श्री-५ कहने से खुश हो जाते थे। 
किन्तु वे नहीं जानते थे कि जिसे वह विशेष मानसिक अवस्था प्राप्त हो चुकी हो, या उसे प्राप्त करने के लिये जो युवा 'BE AND MAKE' के चरित्रनिर्माण आन्दोलन से जुड़े हुए हैं, केवल वही व्यक्ति अपने नाम के आगे श्री लगाने अर्थात 'मौलिक' वीर्यवान (seminal) व्यक्ति कहलाने के अधिकारी है। 
प्राचीन युग में श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण, श्री नचिकेता, श्रीईसा, श्री मोहम्मद, श्री चैतन्य, और आधुनिक युग में श्री रामकृष्ण को चरित्रवान मनुष्य की वह विशेष मानसिक शक्ति प्राप्त हुई थी, जिसके कारण उनका नाम मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं के इतिहास में अमर हो गया है। श्रीरामचन्द्र के चरित्र की विशेषता है अटल सत्य-निष्ठा, श्रीकृष्ण  चरित्र के चरित्र की विशेषता है -त्याग, ठाकुर कहते थे -गीता का अर्थ उसके नाम को उल्टा करके पढ़ने से तागी-तागी अर्थात त्यागी हो जाता है। श्रीनचिकेता- के चरित्र में सत्य और आत्मश्रद्धा जैसी विशेष मानसिक शक्ति प्राप्त थी। 
वैदिक काल का एक छोटा सा लड़का -नचिकेता अपने पिता बाजश्रवा की कर्मकाण्डीय बेईमानी के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर खडा करता है, और स्वर्ग से भी महान दुर्लभ अमरत्व (वेद) को मानवजाति के कल्याण के लिये लेकर प्रस्तुत हो जाता है।  बूढी गाये दान करने के पाप से बचाने के लिये नचिकेता अपने पिता से विद्रोह कर बैठा था, पर उसने पाप के खिलाफ ही बगावत नहीं की, बल्कि वास्तविक जीवन मूल्यो को स्थापित करने के लिये साक्षात मृत्यु के देवता से भी वाद विवाद किया। यह वैदिक विद्रोह तथा विमर्श आज भी प्रासंगिक है। क्योंकि जड और भ्रष्ट व्यवस्था से विद्रोह करना ही युवा स्वभाव है। सामने चाहे जैसी भी शक्ति हो, युवा जब भी सपने सजाता है परिवर्तन का व्रत लेता है, नये युग का सृजन होता ही है।
आज फिर वही स्थिति है- पर इस काल का नचिकेता विभ्रम में है।
आज के युवाओं भी यम से लड़ने का साहस उसी प्रकार अक्षुण्ण बना हुआ है, किन्तु केवल अधिकाधिक धन कमाना ही जीवन-लक्ष्य न बनाकर चरित्रवान-मनुष्य बनने और बनाने के कार्य -' वीर्यवान मनुष्य बनो और बनाओ ! BE AND MAKE' से अपने अग्रजों, अभिभावकों और पितरों से विद्रोह करके वह जुड़े या नहीं ? इसी बात को लेकर वह अति संकोच में है।

नचिकेता की याद इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि नचिकेता में क्षुद्र अहं नहीं है, बल्कि निर्वैयक्तिक प्रेरणा (Impersonal inspiration)  है। वह पिता के शाप से दुखी न हो कर सगुण आक्रोश-आत्मश्रद्धा से आप्लावित हो जाता है। आज का आन्दोलित युवा में दुख है, आक्रोश है परिवर्तन की इच्छा शक्ति भी है, परन्तु एक बडा अभाव सर्वत्र दृष्टि गोचर हो रहा है, वह आत्मश्रद्धा का अभाव तथा रचनाधर्मी औदार्य की कमी। ये दोनो ही युद्ध की मानसिकता (आतंकवाद या नक्सलवाद ) से नही निर्मित किया जा सकता है। अपितु इसके तप की आवश्यकता है सृजनात्मक कल्पना की जरुरत है। वस्तुतः मूल्यों का संकट सृजनात्मक कल्पना के अभाव का संकट है।जब सृजनात्मक कल्पना अवकाश पर होती है तो मूल्यों का क्षरण तो अवश्यंभावी है। अस्मिता का पहचान का संकट भी आपतित होता है। यह सब कुछ एक नये विमर्श के साथ ही पूर्णता को प्राप्त होगा। 
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने युवाओ का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा था - 

उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत्।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति।।

 -उठो, जागो, लक्ष्य-प्राप्ति किये बिना विश्राम मत लो ! सत्पुरूषों के पास जाकर वह तत्वज्ञान (अर्थात उस विशेष मानसिक अवस्था ) को प्राप्त करो जो किसी व्यक्ति को मौलिक (seminal) बना देता है ! ज्ञानी उस तत्व ज्ञान के मार्ग को छुरे की तीक्ष्ण एवं दुस्तर धार के समान दुर्गम बताते हैं। 

 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " एक मात्र श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य मनुष्य में अन्तर पाया जाता है। इसका और दूसरा कारण नहीं। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है । इस श्रद्धा को तुम्हें पाना ही होगा । श्रीरामकृष्ण कहते थे, 'जो अपने को दुर्बल सोचता है, वह दुर्बल ही हो जाता है, और यह बिल्कुल ठीक ही है। हमारे राष्ट्रिय खून में एक प्रकार के भयानक रोग का बीज समा रहा है, वह है प्रत्येक विषय को हँसकर उड़ा देना, गाम्भीर्य का अभाव, इस दोष का सम्पूर्ण रूप से त्याग करो। वीर बनो, श्रद्धा सम्पन्न होओ, और सब कुछ तो इसके बाद आ ही जायगा। किसी बात से मत डरो। तुम अद्भुत कार्य करोगे। जिस क्षण तुम डर जाओगे, उसी क्षण तुम बिल्कुल शक्तिहीन हो जाओगे। संसार में दुःख का मुख्य कारण भी ही है, यही सबसे बड़ा कुसंस्कार है, और यह निर्भीकता है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। अतएव उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।" — Arise, awake and stop not till the desired end is reached. -' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ। '

हाँ, यह पथ कठिन है! यदि प्रबुद्ध युवा-वर्ग स्वयं अपना चरित्रनिर्माण करने, और दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनाने में अपना जीवन को सगुण सकारात्मक परिवर्तन के लिये आतंकवाद या उग्रवाद की सहायता ली जाये- यह न तो संभव है न तो अपेक्षित ही है। आज मात्र स्वयं जागने और उठ खड़े होने तक सीमित रहने का वक्त नहीं है। अपितु आज आवश्यकता है, स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनने के साथ साथ दूसरों को भी चरित्र-मनुष्य के लिये अनुप्रेरित करने तक न रुकने की। न रुकने का मतलब है कि ' वीर्यवान मनुष्य बनो और बनाओ ! BE AND MAKE' के लिये अहर्निश यत्न करते रहना है। चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के पथ को जिस प्रकार से ऋषि दुधारी तलवार की तरह दुर्गम बताते है; उसी तरह से आज का कालखण्ड भी सत्य और न्याय के पथ पर चलने वाले यत्न के लिये दुर्गम है।
यही युवा का मोह है, वह खुद के जीवन को लेकर ऐसा स्वार्थी और लालची हो गया हो,  ऐसा तो मुझे दिखता नहीं। परन्तु अपने बन्धु-बान्धव, रिश्ते- नाते को भ्रष्टचार में लिप्त देखकर मोह में संकोच का शिकार है। यह अपने परिवेश, अपनी भाषा का संकोच तो है ही, सर्वाधिक है जीवन के उन क्षणो को कठोरता से अस्वीकृत करने का जब लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था में उसको वैचारिकी की प्रतिबद्धता का घूंट पिलाया जाता है। इस संकोच से मुक्ति का उपक्रम करने की जिम्मेदारी युवा की ही है। नई जीवनदृष्टि और नए मूल्यों के सृजन का युग शुरु होता है। 
यही चरित्र-निर्माण युवा श्रीकृष्ण ने भी किया था। [भगवान श्रीकृष्ण बचपन में ग्वालबाल मित्रों से कहतेहैं इन महान वृक्षों को देखो] वास्तविक परिवर्तन के लिये सबसे पहले स्वयं को और गोकुल के अपने बांधवों को दानवी आतंक से मुक्त किया, उसके बाद कूद गये वे दानवी सत्ता के केन्द्र पर। यही रणनीति भ्रष्टाचार के दानव से लडने की सार्थक नीति है। तो क्षुरस्य धारा निशितादुरत्या दुर्गम पथ पर आगे बढने के लिये इसका संज्ञान और संकल्प दोनो ही आवश्यक है।    
गीता २/५३ में भगवान श्रीकृष्ण 'Finale of the yogic pursuit' सत्य-अन्वेषण के समापन समारोह का वर्णन करते हुए कहते हैं -  
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
   समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।   

जब तेरी ' श्रुतिविप्रतिपन्ना-बुद्धि '-शास्त्रों के भाँति-भाँति के सिद्धान्तों को सुनने से विचलित हुई बुद्धि 'समाधौ - अचला-निश्चला' परमात्मा (ठाकुर श्रीरामकृष्ण) के स्वरूपमें -' स्थास्यति ' अर्थात  ठहर जायेगी; तब तू -' योगम् अवाप्स्यसि ' योग को प्राप्त हो जायेगा अर्थात् तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जायेगा।  कठोपनिषद का यह मन्त्र आज कुछ अधिक सार्थक लग रहा है। भारतीय इतिहास के किसी भी कालखण्ड में युवाओं के उस विशेष मानसिक शक्ति को प्राप्त करने के लिये
'जागने और उठ खड़े होने' की इतनी आवश्यकता भी कभी नहीं रही है।  इस काल की अपेक्षा तो मात्र इतनी है कि युवा अपने अन्दर सकारात्मक भाव,'जीवन-गठन ' और 'चरित्र-निर्माण ' के महत्व को समझकर स्वयं को समकालीन युग धर्म (भोगवाद ) से अलग खड़ा करे। शाश्वत मूल्यों (आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास , अनुशासन, आत्मसंयम आदि चरित्र के गुणों) को स्वीकर करता हुआ युवा कुछ नया कर दिखाये, 'नव- नवल-परिवर्तन' BE AND MAKE का वाहक बने। इसके लिये भ्रष्टाचार से जन्मे भोगवाद रूपी दानव की छाया अपने और अपने कुटुम्ब पर न पड़ने देने का उपक्रम करना होगा।
वर्तमान युग में वही विशेष मानसिक स्थिति (अभीः)  श्री क्षुदिराम चटोपाध्याय को प्राप्त थी। श्रीरामकृष्ण के पिता श्री क्षुदीराम चटर्जी भगवान रघुबीर अर्थात श्रीरामचन्द्र के बड़े निष्ठावान भक्त थे। उनकी माता चन्द्रमणि देवी सरलता और दया की प्रतिमूर्ति थी। पहले वे लोग देरे नामक गाँव में रहते थे, जो कामारपुकुर से ५ किलोमीटर की दूरी पर है। उस गाँव के जमींदार ने मुकदमें में क्षुदिराम को झूठी गवाही देने के लिये कई प्रलोभन दिए, फिर धमकाया कि इंकार करने पर तुम्हें अपना खेत-खलिहान, घर-द्वार छोड़ कर गाँव से निकल जाना होगा। जब जमींदार ने उनका गाँव में रहना दूभर कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने वे अपने परिवार के साथ देरे गाँव को छोड़ दिया और केवल अपने भगवान को अपने साथ लेकर कामरपुकुर में आकर बस गये। ठाकुर के पिता श्री क्षुदिराम चट्टोपाध्याय को ऐसी ही मानसिक शक्ति प्राप्त थी, वे झूठ नहीं बोले और अपना सब कुछ त्याग दिया। इसीको चरित्र या विशिष्ट मानसिक शक्ति कहते हैं, उनकी माँ ने भी अपने पति का साथ दिया, यह गप नहीं सत्य है! पौराणिक कहानी नहीं है, कल्पना नहीं है। बिल्कुल वर्तमान युग की घटना है। आज भी जो श्रीरामकृष्ण को जानते हैं, उनके पिता के सच्चे जीवन को भी जानते हैं ! भगवान (सत्य) पर पूर्ण विश्वास रखने के कारण उनका जीवन भी अमर हो गया है!
हम यदि भगवान श्रीरामकृष्ण के वचनों को- अर्थात पंचम वेद श्रवण-मनन-निदिध्यासन करेंगे, तो हम अवश्य वीर्यवान बनेंगे अर्थात हमें वह विशेष मानसिक शक्ति प्राप्त हो जायेगी जो किसी प्रकार के प्रलोभन (टेम्पटेशन) या भय का सामना होने से भी, हमें अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होने देगी। 

श्रीरामकृष्णवचनामृत (वेद) को अर्थात उनके उपदेशों को व्यवहार में लाने से या केवल पढ़ने-सुनने से भी आध्यात्मिक लाभ अवश्य मिलता है । क्योंकि इसे पढ़ते समय अवचेतन मन में श्रीरामकृष्ण उपस्थित रहते हैं। वचनामृत के हर बून्द में ठाकुर व्याप्त हैं, इसलिये महामण्डल के शिविर में जो भी व्यक्ति आता है, वह यही सोचता है कि श्रीरामकृष्ण ने मनुष्य 'बनने और बनाने' की जो शिक्षा अपने शिष्य स्वामी विवेकानन्द को दी थी, वही शिक्षा महामण्डल के शिविर में भी उपलब्ध हो सकती है। सा सोचकर महामण्डल शिविर में झाड़ू लगाने का कार्य भी, भगवान की पूजा बन जाती है। वहाँ विद्वान ऋषि तुल्य बड़े भाईयों सानिध्य मिलता है, बेलुड़ मठ से पधारे सन्यासियों की सेवा करने, शिविर में सौंपे गए विभिन्न कार्यों - गार्ड ड्यूटी, झाड़ू लगाने, भोजन परोसने आदि कार्य करने से चित्त-शुद्धि होती है, और हर प्रशिक्षणार्थी में भगवान दीखते हैं ।
मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेताओं की आवश्यकता हर युग में होती है। माँ सारदा देवी एक पत्र में श्री 'म' को लिखती हैं - " एक समय उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) तुम्हारे पास से ये सब बातें (वेद) धरोहर के रूप में रखवायी थीं, और अब आवश्यकतानुसार वे ही इन्हें प्रकाशिक करा रहे हैं। यह जान रखना कि इन सब ज्ञान की बातों को प्रकाशित न करने से लोगों की चेतना नहीं जागेगी। 
मास्टर महाशय वचनामृत का प्रारम्भ गोपी-गीता से करते हैं - 

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥

गोपियाँ कहती हैं - 'तव कथा अमृतं' 
प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । हमलोग यह कथा जानते हैं कि समुद्रमंथन से सही समय पर अमृत अवश्य निकलता है, इसीलिये आज भी कुम्भ के मेले में लाखों हिन्दू लोग आते हैं। क्योंकि उनका विश्वास है कि सही मुहूर्त में (महेन्द्र योग) में डुबकी लगाने से अमृत अवश्य मिलता है। किन्तु अमृत पान करने का अर्थ अनन्त काल तक इसी शरीर को जीवित रखना नहीं है। 
 वेदों का (ज्ञान) केवल श्रवण करने से भी अमृत प्राप्ति हो जाती है। अमर होने का अर्थ है साश्वत-जीवन की प्राप्ति। हजारों वर्ष पूर्व भी जिन मनुष्यों ने ईश्वर की अनुभूति कर ली थीं, उन्हें साश्वत जीवन प्राप्त हुआ है, उनका जीवन अमर हो गया है ! क्या आज भी जो लोग बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, नानक, कबीर, तुलसीदास, सूरदास आदि के जीवन और उदेशों का अनुसरण नहीं कर रहे हैं ? वे मर कर भी अमर हैं, क्योंकि आज भी किसी न किसी देश में उनके प्रेरणादायी जीवन को याद करते हैं, उनके उपदेशों पर चर्चा करते हैं; ऐसे जीवन को ही साश्वत जीवन कहते हैं, इसी को अमृतपान करना कहते हैं। वही प्राचीन ज्ञान (नॉलेज)जो वेदों में है, अर्थात वे सत्य-समूह जिसे हमारे ऋषियों ने अविष्कृत किया था उस पर धूल-कीचड़ जम गए थे, उन्हीं उपदेशों को झाड़-पोंछ कर जब एक नए रूप में स्वयं भगवान के मुख से सुनते हैं तो वह अमृत के समान लगता है, जिसका पान करने से आत्मसाक्षात्कार या ईश्वरानुभूति हो जाती है!  भगवान श्रीरामकृष्ण के मुख से निसृत - पंचमवेद का प्रथम उपदेश है -'मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना है'। क्योंकि केवल इस उपदेश का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करने से भी किसी मनुष्य को साश्वत-जीवन की प्राप्ति हो सकती है। किन्तु वे वचन किनके लिये अमृत तुल्य हैं ? 

 तप्तजीवनं = नॉट टू ऑल ! 

जब
संसार तपाग्नि से तप्त प्रतीत होता है, यदि जगत तप्त नहीं लगे तो ठाकुर के वचन आपके लिए नहीं हैं। जब किसी व्यक्ति को संसार दावाग्नि तप्तं - जगत दहकते हुए अंगारे जैसा प्रतीत होने लगता है,उसे क्षणभंगुर नश्वर जीवन से वैराग्य हो जाता है, तब वह अपने गुरु के निकट पहुँचता है। गुरु का मूल उद्देश्य साधको तथा जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन करना है तथा उन्हें मोक्ष मार्ग में प्रतिष्ठित करना है । पहले जीवन की क्षणभंगुरता का अनुभव होना चाहिये, यहॉं के माता-पिता स्त्री-पुत्रादि क्षणिक है। अत: एक दिन इनका वियोग निचित है, फिर भी सफल-धनी लोगों को आसानी से वैराग्य नहीं होता। 
 श्रीगुरु के शरण में जाकर उनसे प्रार्थना करता है -प्रभो! मैं संसाररूप दावाग्नि से जल रहा हूॅं। पहले संसार को दु:खालय समझकर प्रथम इससे विरक्ति होनी चाहिए। दीक्षा के लिए सर्वप्रथम शिष्य में तीव्र वैराग्य भावना का उदय होना आवयक है। इसके बाद यदि गुरु उसे अंगीकार करना चाहें तो कम से कम एक वर्ष तक उसकी परीक्षा लें। जिसका चारित्र्य परीक्षित नहीं है, उसे कभी भी विद्या का दान नहीं करना चाहिए। जब वह कहे कालरूप व्याल ने मुझे डस लिया है। गुरुदेव ! मैं आपकी शरण में हूॅं मेरा उद्धार कीजिये।
इसके बाद अकारण करुणालय श्रीगुरुदेव उसकी आर्तवाणी सुनकर उसे अपने समीप बैठाकर उसके हाथ को अपने चरणों में रखवाकर कहें कि यदि तुम संसार से भयभीत हो, मेरी शरणागत हो, तो मैं तुम्हें आत्मसात् करता हूॅं। तेरा रक्षक होता हूॅं, तू भय मत कर, मैं तुम्हें बचा लूँगा! 'मोक्षः = पुनर्जन्मात् मुक्तिः'  जिससे तुम्हें पुनः पुनः जन्म-मरण रूपी इस संसार दावाग्नि में दग्ध न होना पडे।
‘अधिकार का निर्णय‘ दीक्षा में परम आवयक वस्तु है। जो जिस भाव का अधिकारी हो उसे उसी भाव की दीक्षा देनी चाहिए। योग्य अधिकारी प्राप्त होने पर उसे भगवत्सम्बन्ध कराना ही चाहिए। तभी उस व्यक्ति को ठाकुर के वचन अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं,  सभी को अमृत नहीं लगते।

कविभिरीडितं---  

केवल कवि अर्थात आत्मज्ञानी ऋषियों, भक्त कवियों को आपके वचन अमृत तुल्य लगते हैं, वे आपके वचनो की प्रसंशा करते हैं। क्योंकि उन्होंने आपके (ईश्वर के) दर्शन किये हैं, अर्थात आत्मसाक्षात्कार किया है। इसीलिये वे दूसरों को भी आपके उपदेशों का अनुसरण करने की शिक्षा देते हैं। यदि तुम इनका पालन करोगे तो भगवान प्रसन्न होंगे। 

जब कम उम्र के बच्चों से स्कूल में शिक्षक पूछते हैं,या तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ? बोर्ड पर लिखो -व्हाट यू विल लाइक टू बी ? तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या है ?  अधिकांश लोग लिखते डॉक्टर-इंजीनियर आदि आदि, किसी ने लिखा मैं बड़ा होकर डबलडेकर बस का ड्राइवर बनूँगा ! क्योंकि  मेट्रो शहरों में तगड़े सरदार जी लोग ही उन बसों को चलाया करते हैं। किन्तु डॉक्टर, इंजीनियर या ड्राइवर आदि कैरियर चूजिंग तो हो सकता है, क्या डॉक्टर, इंजीनियर या ड्राइवर बनना भी किसी जाग्रत मनुष्य के जीवन का उद्देश्य हो सकता है ? मनुष्य जीवन का उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति ही है; क्योंकि इसी से अमरत्व प्राप्त होता है।  
 कल्पषापहम् - 
जो भी व्यक्ति तुम्हारे जीवन और उपदेशों को पढ़ेगा, या केवल श्रवण करेगा, उस पर मनन करेगा, उसके सभी पाप-ताप नष्ट हो जायेंगे। पाप क्या है ? स्वार्थपरता जो जितना स्वार्थी होगा उसकी बुद्धि उतनी मोहित होती जाएगी। जो जितना निःस्वार्थी बनेगा उतना ही पवित्र बनता जायेगा। इस्लाम में पाप को गुनाह कहते हैं, पहले गुनाह से तौबा करना जरुरी है। उसी को जन्नत मिलेगा ! नहीं तो  नरक में डाल दिये जाओगे, यह डर भी मनुष्यों को निःस्वार्थी बना देता है, क्योंकि जो पवित्र या निःस्वार्थी  बना है, वही वचनामृत समझेगा।
माँ सारदा मणि देवी पवित्रता अर्थात निःस्वार्थपरता की मूर्तरूप थीं, एक बार सर्दी के समय सुबह में उसे एक कुत्ता ने स्पर्श कर लिया तो, वह गंगा में स्नान करने में ठंढ लगेगी यह सोचकर माँ ने कहा था- तुम केवल मुझे छू तुम पवित्र हो जाओगे। वह शक्ति उन्हें निःस्वार्थपरता से प्राप्त हुई थी। जो मनुष्य निःस्वार्थी होगा, केवल उसी को यह उपदेश अमृत प्रतीत होगा। 

श्रवणमङ्गलं-  
दी मोमेंट यू हियर इट, आपके मन को एक नयी शक्ति प्राप्त होगी। हो सकता है कि उसी क्षण उनकी कुछ बातें समझ में न आ सकें, किन्तु सुनते रहने से और उस पर मनन करते रहने से धीरे धीरे आप समझ जायेंगे। जो दूर से भी इन बातों को सुनेंगे उनको यह प्रभावित करेगी।  

श्रीमदाततं --
 जो व्यक्ति श्रीमद् आदतं अर्थात बहुत परिश्रम से ठाकुर के सन्देश का प्रचार प्रसार सम्पूर्ण विश्व में करेगा,भगवान के आशीर्वाद से उसमें दाता के सभी अच्छे गुण-जैसे अष्टसिद्धि नवनिधि आदि समाहित हो जायेंगे। 
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः----

जो आपकी कथामृतको कहते हैं, सुनते हैं, विचार करते हैं, वे ‘भूरिदाः’ अर्थात बहुत देनेवाले हैं । क्योंकि  वे देनेवाले भी हैं और लेनेवाले भी हैं । मानो सुननेवालोंको देते हैं और सुनकर लेते हैं । सुननेवालोंको लाभ होता है तो कहनेवालोंको नहीं होता है क्या ? होता ही है । इस वास्ते भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं। 
अभी क्या कोई तुमको भगवान के जैसा दाता कहता है, जो अपने भक्तों को ' श्रद्धा-भक्ति-विवेक-वैराग्य और ज्ञान' देते हैं ? अभी तो हम केवल भीख देकर, या चंदा देकर स्वयं को दानी -दाता कहलवाना पसंद करते हैं ?इसलिये स्वामीजी कहते थे -नील डाउन एंड गीव ! माँगने वाला तुम्हें तुम्हारे हृदय को बड़ा करने का अवसर दे रहा है, इसलिये माँगने वाला देने वाले से अधिक श्रेष्ठ है !
 श्रीरामकृष्ण ने यह पंचम वेद क्यों दिया ? क्योंकि वे हमलोगों से प्यार करते हैं ! प्रभु ईसा बन कर आये तो उन्हीं के लोगों ने उन्हें शूली पर चढ़ा दिया। फिर भी वे मनुष्य का शरीर धारण करके अवतरित क्यों होते रहते हैं ?  वे मनुष्य शरीर धारण कर के कभी यहाँ तो कभी वहाँ क्यों जन्म लेते रहते हैं ? भगवान  श्रीरामकृष्ण को उनके जीवित रहते समय अपने ही लोगों की आलोचना सुननी पड़ी, भगवान बुद्ध को अपने जीवन में अपने ही लोगों की आलोचना सुननी पड़ी। फिर भी वे बार बार नए नामरूप में अवतरित होते हैं; क्योंकि वे हमें प्यार करते हैं।
वे हमें इतना प्यार क्यों करते हैं ? भगवान मनुष्यों से इतना प्रेम क्यों करते हैं कि हर युग में प्रताड़ित होकर भी अवतरित होते ही रहते हैं ?  बार बार अपने ही लोगों द्वारा प्रताड़ित होकर भी मनुष्य के रूप में आते है? अभी नवनी दा बनकर घर छोड़ कर महामण्डल में क्यों रहते हैं ? यह बहुत आश्चर्यजनक बात है, आप कभी किसी माँ के व्यवहार को ऑब्जर्ब करें या गौर से देखें माँ अपने बच्चे से इतना प्यार क्यों करती है ? 
कोई छोटा सा बच्चा -टॉडलर जब खड़े होने या चलने का प्रयास करता है, तो माँ उसे उत्साहित करने लगती है, उसे अपनी ओर बुलाने लगती है - आ जा मेरा बेट्टा , मेरे पास आ जा ! क्यों ? माँ तो उसे अपने गोदी में उठाकर भी ला सकती थी, किन्तु वह चाहती है कि बच्चा स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर चलना सीख जाये, और उसके पास अपने पैरों से चल कर आये।  (क्योंकि अभी अभी पशु जीवन से मनुष्य जीवन में आने के बाद उसने दो पैरों पर खड़े होकर चलना सीखा है) । माँ अपने बच्चे का इतना हित क्यों करना चाहती है ? 
क्योंकि 'वन-नेस'  इज कॉज ऑफ़ लव ! एकात्म-बोध ही सच्चे प्रेम का कारण है ! जन्म के ठीक पहले तक माँ और बच्चा एक ही थे, एकत्व में थे ये दोनों अलग अलग नहीं थे। इसलिये भगवान ने हमारी रचना की है, सृष्ट होने से पहले हम सभी भगवान (ठाकुर) के साथ एकत्व की अवस्था में थे, हमलोग उनसे अलग नहीं थे, इसीलिए ठाकुर हमें इतना प्यार करते हैं!

 क्या वे सभी जीवों से प्यार करते हैं ? हाँ, वे सभी जीवों से प्यार करते हैं; किन्तु मनुष्य को विशेष रूप से प्यार करते हैं। क्यों ? क्योंकि मनुष्य में विचार करने, चिन्तन-मनन करने, विवेक-प्रयोग कर के सही निष्कर्ष पर पहुँचने की विशेष क्षमता रहती है, यह क्षमता भी भगवान ने ही दी है या स्वयं मनुष्य ने विकसित की है-चाहे जो हो; इसी विशेष क्षमता के कारण ऐसा कहा जाता है कि मनुष्य को भवगवान ने अपने ही रूप में गढ़ा है !
इसीलिये मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाता है ! इस्लाम भी मनुष्य को सब जोवों में श्रेष्ठ कहता है, क्योंकि मनुष्य में विवेक-विचार करने की क्षमता है। इसीलिये उसमें यह सम्भावना है कि वह अपने बनाने वाले को भी जान सकता है। श्रीमद्भागवत पुराण ११/९/२८ में कहा गया है -

सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृपपशून्खगदंशमत्स्यान्।
तैः तैः अतुष्टहृदयः
पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः

किन्तु यदि उसमें विवेक-विचार करने की क्षमता नहीं होती तो भले ही उसका ढाँचा मनुष्य का होता किन्तु आचरण में वह पशु ही रहता। जहाँ विवेक-प्रयोग करने की क्षमता मनुष्यों में भगवान ने ही दी है, वहीं संसार और भोग के विषय भी उन्हों ने ही बनाये हैं,
विषयों के प्रलोभन (temptations) भी भगवान ने ही बनाये हैं, किसी शैतान ने नहीं। 
 मनुष्य में विवेक-प्रयोग करने की क्षमता रहने पर भी, वैसे फिल्मों के पोस्टरों से रोड-चौराहा भरा रहता है, जिसमें बड़े अक्षरों में ' A ' (अर्थात सिर्फ व्यस्कों के लिये ) लिखा रहता है । इंटरनेट पर भी ऐसे प्रलुब्ध करने वाले साइट्स भरे पड़े हैं, जो युवाओं को बर्बाद कर रहे हैं।  विवेक-बुद्धि रहने पर भी, हर जगह उन विज्ञापनों के प्रलोभन में अधिकांश मनुष्य फँस जाते हैं। 
क्योंकि पाँचो इन्द्रियों से जो भी सूचनायें आती रहती है, जिसके छाप चित्त के ऊपर गिरते रहते हैं, और उन्हीं के निर्देशानुसार मन कार्य करता है। अतः पाँचो इन्द्रियों को संयम में रखकर ही मन को नियंत्रित किया जा सकता है। जब हम इन्द्रियों को नियंत्रित कर लेते हैं, तो मन स्थिर होने लगता है, उसकी चंचलता समाप्त हो जाती है। शिवसंकल्प सूक्त के छठे मन्त्र में मन को ज़रारहित व अतिवेगशील भी कहा है। वस्तुतः जिन इन्द्रिय-विषयों में मन को अतिशय आसक्ति होती है, मन हमें बड़े वेग से खींच कर वहीँ ले जाता है । मनःसंयोग के अभ्यास तथा वैराग्य से यदि मन सधा हुआ न हो तो मनुष्य को बड़ी द्रुत गति से वह विषयों के अति मोहक मार्ग पर भटका कर कर्त्तव्य से च्युत कर देता है । किन्तु समुचित रूप से सधा होने पर सन्मार्ग पर चलते हुए मनुष्य के सम्मुख कुछ भी असम्भव नहीं रहने देता । यही सधा हुआ मन स्वामी विवेकानन्द को तप के लिए पर्वत की कंदराओं में-मायावती आश्रम बनवाने की प्रेरणा देता है, तथा परमार्थ के लिए- सुदूर सात समुद्रों के पार- शिकागो के विश्वधर्म सम्मेलन में भी ले जाता है ।
ऋषियों ने इस मन को जरारहित अर्थात् सदा युवा रहने वाला भी बताया है । महाराज भर्तृहरि ने अपने वैराग्यशतक में अंतहीन तृष्णाओं से घिरे मनुष्य की दयनीय अवस्था का चित्रण करते हुए कहा है-

भोगा न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णो वयमेव जीर्णाः ।।

इसका भावार्थ यह है कि भोगों को हम नहीं भोगते, भोग ही हमें भोगते हैं, हम स्वयं ही (उन भोगों द्वारा) भुक्त हो जाते हैं, तप नहीं तपता, तप तो हम जाते हैं, काल नहीं बीतता, हम बीत जाते हैं, तृष्णाएं जीर्ण अथवा बूढी नहीं होतीं, हम ही जीर्ण या बूढे हो जाते हैं । उनका भी यही मानना है कि तृष्णाएं सदा युवा रहती हैं । जिस चंचल मन में इन तृष्णाओं का जन्म होता है, विषय उसे अपनी और आकर्षित करते हैं, तथा वह तृप्ति के साधन जुटाता हुआ अतृप्ति में ही डूबा रहता है । इसीसे मन को जरारहित कहा है, जरा का अर्थ है बुढ़ापा ।
उपनिषद में इन इन्द्रियों को वश में करने के लिए एक बहुत सुन्दर व विचारोत्तेजक उदाहरण दिया है।  हमारा शरीर एक रथ है,  इन्द्रियाँ इस रथ के घोड़े हैं, बुद्धि सारथि है, मन लगाम है और इसमें यात्रा करने वाला यात्री आत्मा है। यदि सारथी घोड़ों को नियन्त्रित न करे, लगाम को ढीली छोड़ दे, तो घोड़े मनमानी करेंगे व गलत रास्ते पर चलेंगे और यात्री को उसकी मंजिल पर नहीं पहुँचाएँगे।  घोड़ा अपने सवार को गिरा भी सकता है या उसे गलत रस्ते में भटका भी सकता है । अतः कुशल सारथि लगाम कस कर रखता है । विवेकशील जन मन को वश में रखते हैं व विवेकहीन, मंदबुद्धि मन के ही वशवर्ती हो जाते हैं । मन को नियंत्रण में रखने वाला ही वास्तव में कुशल, प्रवीण या उत्तम सारथी है । दूसरे शब्दों में सधा हुआ, विवेकशील मन ही प्रवीण सारथी है, क्योंकि मन में जो संकल्प उठ जाते हैं, उनसे मन को वियुक्त करना कठिन व दुःसाध्य होता है। वह सही दिशा में ले जाये, उसीमें जीवन का श्रेय है, अन्यथा अधोगति भी वही मन करता है।

जैसे अनियंत्रित व अप्रशिक्षित घोडा अपने सवार को नीचे गिरा देता हैं, वैसे ही अनियंत्रित और स्वेच्छाचारी मन मनुष्य को पतन के गर्त्त में गिरा देता है । ऐसा विवेक-रहित मन काम्य नहीं हैं । ‘राइजिंग अबभ डेलूजन ’(rising above delusion): भ्रम से मुक्त होने के लिये इसके लिए सत्यार्थी या अन्वेषक

(seeker) को सर्वप्रथम विवेक-प्रयोग का अभ्यास प्रतिदिन करते हुए क्रमशः पहले से अधिक मात्रा में विवेक को मनोगत (inculcate) करते रहना चाहिये। अतएव हमारे पूर्वज ऋषियों ने शिवसंकल्प- सूक्त ६ में ऋषि कुशल सारथी के उपमान द्वारा सधे हुए मन का वरण करते हुए कहा है - 

 सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्ने नीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।
   हृत्प्रतिष्ठं  यदजिरं   जविष्ठं   तन्मे  मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ६॥

अन्वय- यत् मनुष्यान् सुषारथिः अश्वानिव नेनियते अभीशुभिः वाजिन इव यत् हृत्प्रतिष्ठं अजिरं जविष्ठं तत् मे मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।
सरल भावार्थ- कुशल सारथी जिस प्रकार लगाम के नियंत्रण से गतिमान अश्वों को गंतव्य पथ पर मनचाही दिशा में ले जाता है, उसी प्रकार जो (सधा हुआ) मन मनुष्यों को लक्ष्य तक पहुंचाता है । जो जरारहित, अतिवेगशील मन इस ह्रदय प्रदेश में स्थित है, ऐसा हमारा वह मन श्रेष्ट-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ।

अश्वादि को सारथी ज्यों चलाता, मन हाँकता इन्द्रियों को अभय हो।
जो है सहज ही अजर शक्तिशाली, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ६॥

 यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
    यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ३॥

 यस्मात् ऋते किंचन कर्म न क्रियते तत् में मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।' जिसके बिना किसी भी कर्म को करना संभव नहीं, ऐसा हमारा मन शुभ संकल्पों से युक्त हो ! मन इन्द्रियों से परे है, उनसे उत्कृष्ट है । यह प्रकृष्ट ज्ञान का साधन है ।  हमारा मन सभी संकल्पों का अयन (आश्रय) है। ऋषि कहते हैं की, हे परमात्मा ! ऐसा हमारा मन श्रेष्ठ और कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो

जो बुद्धि में, चित्त-अन्तःकरण में, रहती अमर ज्योति के साथ लय हो।
जिसके बिना कर्म रहते असम्भव, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥ ३॥

साधारणतया कहा करते हैं कि मन को बाहर की वृत्तियों से हटाकर भीतर की ओर ले जाइये। यह कहना आसान है परन्तु करना कठिन है। हम जितना बाहर की ओर से उसे हटाते हैं वह बाहर के दृश्यों को अपनी ओर खींचता है। आप उसे अन्तर्मुखी करना चाहते हैं परन्तु वह हृदय में विराजित इष्ट की मूर्ति को देखना छोड़ कर पुनः पुनः बाह्य इन्द्रिय विषयों में भाग जाता है।
 यदि आप अपने शरीर के भीतरी अंगों की रचना और बनावट की दक्षता पर विचार करने लगें तो आपके काम के सरल होने की सम्भावना है। मन को आप किसी वस्तु से हटाने के लिए आदेश न दीजिए, अपितु आप किसी विशेष वस्तु के चिन्तन में लगाइये। आप मन को अपने शरीर के अंगों के रचयिता के ध्यान में लगाइये। 
 रोगी हृदय और स्वस्थ हृदय में क्या अन्तर है? आपको कैसे ज्ञात हो कि अमुक हृदय अस्वस्थ है और अमुक स्वस्थ? अमुक हृदय पवित्र है और अमुक अपवित्र? जो हृदय उदार है उसको आप ‘पवित्र’कहेंगे। जो संकुचित है उसको ‘अपवित्र’। ईश्वर तो ‘महः’ (महान) है, उसमें तो समस्त जगत् के लिए स्थान है। ईश्वर के लिए कोई ‘पराया’ नहीं। इसलिए यदि उपासक ईश्वर के इस गुण का अनुभव नहीं करता तो वह उपासक नहीं है। यदि हम यह धारणा करें, यह सोचें कि हे ईश्वर, तू महान् है। हमारे हृदय रोगी हैं। हममें संकुचितता आ रही है। तू इस संकुचितता के रोग को दूर कर दे तो ज्यों ही हमको अनुभव होगा कि यह हमारी संकुचितता रोग हैं, त्यों ही हम इसको दूर करने का यत्न करेंगे।

मन एक पराधीन उपकरण है- वह बहिर्मुखी या अन्तर्मुखी किसी भी दिशा में स्वेच्छा पूर्वक नहीं दौड़ सकता है! मन को दिशा देने वाली मूल सत्ता का नाम ‘आत्मा’ है। उसके दौड़ने की शक्ति प्रदान करने वाली वाली सत्ता जिस स्थिति में रह रही होगी, चिन्तन की धारा उसी दिशा में बहेगी। सामवेद कहता है कि " आत्मा मनसो मनः वस्तुतः आत्मा ही मन को "मन" बनाने वाला है। हम तो बाद में हैं, इससे भी पहले वह हमारे अन्दर विद्यमान है । ‘मन’ का मैल दूर करने के लिए हमें जैसे विद्युत् पंखस्य पंखा है ! वैसे ही  मन के भी मन; अर्थात् मन को मनन-शक्ति प्रदान करनेवाले परमात्मा (अपने इष्टदेव प्रभु श्रीरामकृष्ण ) के ज्ञान के स्वरूप को देखना होगा। अभी ऐसा प्रतीत होता है कि वह परमात्मा हमसे बहुत दूर है, अतः लोग उसे जंगलों पहाड़ों में ढूँढते हैं।
१८-१९ वीं सदी में भारत की अवस्था ऐसी थी, जहाँ ज्ञान का जन्म हुआ था, वहीं धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक झगड़े हो रहे थे । भारत के युवा वेद को अर्थात मन में केवल शिवसंकल्प ही रखने वाले ज्ञान को भूल गये थे, और भारत के अधिकांश युवाओं का मन बहिर्मुखी होकर दूसरी दिशा (पाश्चात्य भोगवादी दिशा) में चल पड़ा था। यहाँ तक कि जब समाज के नेता लोग (ब्रह्मसमाज -आर्यसमाज ) भी प्रलुब्ध हो रहे थे । इस अवस्था में सर्वधर्म-समन्वय अर्थात धर्मों के बीच 'अविरोध ' को स्थापित करने के लिये भगवान श्रीरामकृष्ण को मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बन कर स्वयं अवतरित होना ही पड़ा। क्योंकि उन्होंने वचन दिया (गीता ४/८) है - 

 परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय    संभवामि   युगे   युगे ॥

 दुष्टोंका विनाश, चरित्रवान मनुष्यों (भक्तों) का परित्राण (रक्षा) और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना, इसके लिये भगवान् अवतार लेते हैं । 
दुष्टोंका विनाश करना, और चरित्रवान भक्तों की रक्षा करना । इसका अर्थ यह नहीं कि दुष्टोंको मार देना और भक्तोंको न मरने देना, पर साधू या भक्त भी तो मर जाते हैं । तो चरित्रवान मनुष्यों की रक्षा का अर्थ, उनके शरीर को ‘अभी जैसा है उसे ज्यों का त्यों कायम रखना’‒ यह नहीं है । इसका अर्थ है ‘उनके अटल-चरित्र की रक्षा ।’ 
जब युगों युगों के संघर्ष के बाद किसी व्यक्ति का चरित्र गठित हो जाता है, तो वह वीर्यवान मनुष्य बन जाता है, अर्थात उसे एक विशिष्ट प्रकार की मानसिक शक्ति (Specific Mental Power) प्राप्त हो जाती है ! और वह ऐसा मौलिक (seminal) मनुष्य बन जाता है, जो किसी भी प्रलोभन (टेम्पटेशन ) या मृत्यु का भय उपस्थित होने पर भी अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता ।
ऐसे मौलिक (seminal) मनुष्य की दृष्टिमें शरीरका कोई मूल्य नहीं है । वहाँ मूल्य है ‘भगवद्‌भक्ति’ का। भगवान्‌की तरफ चलने वाली मीरा तो गाती है - " पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे, राणा ने विष का प्याला भेजा पिवत मीरा हाँसी रे!" मंसूर आदिने फाँसी स्वीकार कर ली हँसते-हँसते । शरीरकी वहाँ कोई इज्जत नहीं है । इसको तो ‘एकान्तविध्वंसिषु’ कहा है । यह नष्ट होनेवाला ही है, यह तो नष्ट होनेवाली चीज है‒‘पिण्डेषु नास्था भवन्ति तेषु ।’
' धर्म संस्थापनार्थाय’ उन्हे जितनी बार जन्म लेना पडे, वे लेते हैं। प्रभु के धरा पर आगमन के फलस्वरूप ही अधार्मिक शक्तियों का विनाश और धार्मिक शक्तियों की ’पुनर्स्थापना’ होती है। लोग शंका करते हैं कि भगवान्‌को अवतार लेनेकी क्या जरूरत है ?
क्या प्रभु ऎसा संकल्प नहीं ले सकते हैं कि धार्मिक शक्तियों की यह विजय स्थायी हो और दुष्ट प्रवृत्तियाँ फिर उन पर कभी हावी न हों?  क्या वे साधुओंकी रक्षा, दुष्टोंका विनाश और धर्मकी स्थापना संकल्पमात्रसे नहीं कर सकते ? कर नहीं सकते, यह बात नहीं । वे तो करते ही रहते हैं फिर अवतार लेनेमें क्या कारण है ?
सर्वेश्वर ने सारे ब्रह्माण्ड की संरचना एक खेल के तौर पर मनोरंजन के लिये  की है। खेल में हार जीत, उतार चढाव होने पर ही उसमें रस आता है; आनंद मिलता है। इस दैवी नाटक के लेखक, अभिनेता, संचालक, निर्देशक आदि वे ही हैं। भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं । उस लीलाको गा-गाकर भक्त मस्त होते रहते हैं । यह बिना अवतारके नहीं हो सकता । भगवान्‌की चर्चा चलती है, कथा चलती है, लीला चलती है । यह सब अवतार होनेसे ही हो सकता है । तो लोग गा-गाकर संसारसे तरते जाते हैं और तरते ही रहते हैं । भगवान् इस तत्त्वको जानते हैं । इस वास्ते अवतार लेकर लीला करते हैं और संत-महात्मा भी इस वास्ते भगवच्चर्चा करते हैं ।
तो भक्तोंकी रक्षा क्या है ? भक्तोंका धन हैं भगवान् । उन भगवान्‌की लीला कहते, सुनते, विचार करते रहें‒यही वास्तवमें भक्तोंकी रक्षा है और इस वास्ते ही हनुमान्‌जीको ‘प्रभु वरित्र सुनिबे को रसिया’ कहा है । भगवान्‌का चरित्र सुननेके लिये वे रसिया हैं रसिया । वाल्मीकिरामायणमें आता है कि जब भगवान् दिव्य साकेतलोक जाने लगे तो हनुमान्‌जीने कहा मैं साथ नहीं चलूँगा । जबतक आपकी कथा भूमण्डलपर रहेगी, मैं भूमण्डलपर रहूँगा । जहाँ-जहाँ आपकी कथा होगी, वहाँ-वहाँ सुनूँगा । उनको भगवान्‌को छोड़कर कथाका लोभ लगा गया था ।
कोई नेता या ’आदर्श पुरुष’ जब अपने व्यवहारिक जीवन में भी धर्म पर, चरित्र-निर्माण और ' BE AND MAKE ' के मार्ग पर चलता है तो उसकी प्रतिक्रिया समाज के दूसरे लोगों पर भी होती है। वे सोचने लगते हैं, “यह भला आदमी कितना महान है जो धर्म पर चल रहा है। उसके जीवन में सुख-शांति सुख-शांति छाई है। अपने उदाहरण के जरिये वह समाज के अन्य लोगों में भी अनजाने ही भली भावनाओं को अनुप्रारित कर रहा है और इस प्रकार उन्हें भी आनंदित कर रहा है।” फिर जीवन-सुधार या चरित्रनिर्माण की एक लहर ही चल पडती है। ऎसे ’आदर्श पुरुष’ या नेता का नमूना बनकर ही भगवान अवतार लेते हैं।  गीता ४/६ में भगवान कहते हैं -

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा
भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
संभवाम्यात्ममायया ।।

-अर्थात ' मैं अजन्मा और अवनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ। '
उनको इस संसार से कुछ पाने की इच्छा नहीं है, फिरभी  केवल प्रेम के वशीभूत होकर ही भगवान मनुष्य शरीर में अवतरित होते हैं। प्रेम केवल देना जानता है, बदले में कुछ पाने की अपेक्षा नहीं रखता। माँ को स्कूल में पढ़ना नहीं है, फिर भी बाहर बैठकर अपने बच्चे की प्रतीक्षा करती हैं, क्योंकि वह अपने बच्चे को प्यार करती है।

माँ का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि वह बच्चे को जन्म देती है, किन्तु माँ समस्त प्रकार की करुणा, निःस्वार्थपरता पवित्र प्रेम का मूर्त रूप है। हमलोग गंगा में स्नान करने को पवित्रता समझते हैं, कुछ हद तक ठीक है किन्तु पवित्रता का अर्थ है निःस्वार्थपरता, माँ का तात्पर्य है निःस्वार्थपरता !  उसी प्रेम के वशीभूत होकर भगवान अजन्मा होकर भी बार बार अवतरित होते रहते हैं। इसीलिये इस अवतार में श्रीरामकृष्ण भगवान की पूजा माँ के रूप में ही करते हैं।दुर्गा सप्तशती में कहा है-

      नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम् ,
              तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम ॥ २/६४॥  

[नित्य = अविनाशी , एव = ही,सा= वह, जगत=संसार, मूर्तिः = मूर्ति, रूप/ तया = उसका, सर्वं = सारा, इदं= यह, ततम् = फैला है/तथापि= तब भी, तत् समुत्पत्तिः = उनका जनम हुआ, बहुधा = अनेक बार, श्रूयतां = सुनो, मम = मुझसे। ] 
 

वह नित्य स्वरुप है , यह फैला हुआ सारा संसार उसी का रूप है । तब भी उनका अनेक बार जनम हुआ, ऐसा क्यों कहा जाता है,वह मुझसे सुनो ।

देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा,
उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते॥ २/६५॥

[देवानां = देवताओँ के,कार्यसिद्ध्यर्थम= कार्यों को पूर्ण करने के लिए,आविर्भवति = प्रकट होती हैं
सा यदा= वह जब/ उत्पन्न= उत्पन्न हुई, इति =ऐसा, तदा = तब, लोके= संसार में, सा = वह, नित्य अपि = नित्य होते भी अभिधीयते = कहा जाता है]
 

देवताओं के कार्यों को पूर्ण करने के लिए जब वो प्रकट होती है । तब नित्य होते हुए भी संसार में उनका जनम हुआ ऐसा कहा जाता है।
तंत्र में भी शिव-शक्ति के अवतरण का यही कारण कहा गया है। जो सर्व्याप्त देवी या शक्ति अपने को ज्ञान के रूप में सर्वत्र विस्तृत करती हैं उसी को तंत्र कहते हैं । ' शिवः = परम ईशः' / 'शक्तिः = शिवस्य शक्तिः' शिव और शक्ति अर्थात ज्ञान और क्रिया (शक्ति) देवताओं के कार्य को सिद्ध करने के लिये जगन्माता स्वयं अवतरित होती हैं।
 
अब प्रश्न उठता है कि किस मनुष्य को हम अवतार या 'भगवान' कह सकते हैं ? विष्णु पुराण में 'भग- वान' के विषय में कहा गया है - 
 ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्रियः |
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षड नाम भग इतीर्यते" ||
अर्थात - हर प्रकार का ऐश्वर्य, हर प्रकार की सम्पन्नता, हर प्रकार का पराक्रम, हर प्रकार की श्री अर्थात लक्ष्मी, हर तरह का ज्ञान,सम्पूर्ण रूप से वैराग्य - सम्पूर्ण रूप से इन्हीं छःगुणों को भग कहते हैं !! और ये समस्त गुण सम्पूर्ण रूप से जहाँ निवास करे उसे भगवान कहते हैं।  
जो भगवान कण - कण में व्याप्त हैं और सबसे अलग भी है ! जिसके पास हर तरह की सम्पन्नता(सम्पूर्ण लक्ष्मी) है फिर भी निर्लिप्त है ! जो सबसे बलवान है फिर भी बल का अहंकार नहीं है ! गाँव - गाँव मेंमंदिर - मंदिर में यहाँ तक की घट-घट में जिसकी पूजा होती है यानि सबसे बड़ा यशस्वी है, जिसके पास अणिमा, लघिमा,प्राप्ति, आदि अष्टसिद्धियाँ हैं- फिर भी अपने मुंह अपनी बड़ाई नहीं करता ! 
ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज- जो मनुष्य इन छ: गुणों से सम्पन्न होते हैं, उन्हें भगवान या 'भगवत' कहा गया है।  और भगवत (श्रीरामकृष्ण) के उपासक (स्वामी विवेकानन्द) भागवत कहलाते हैं।
 'विष्णुसहस्रनाम' अर्थात भगवान विष्णु के एक हजार नामों में एक नाम है - 'नेता ', अर्थात सम्पूर्ण मानवजाति का मार्गदर्शक नेता ! महामण्डल- अर्थात चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन के नेता स्वयं को प्रथम युवा नेता- श्रीरामकृष्ण के दास 'स्वामी विवेकानन्द'; के दास (श्री नवनिहरन मुखोपाध्याय -नवनी दा) का दास समझते हैं ! उनको विदित है कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त भारत निर्माण सूत्र -BE AND MAKE प्रचार-प्रसार करने, एवं युवाओं के जीवन-गठन में उनका सही मार्गदर्शन करने के लिये ही भगवान श्रीरामकृष्ण ने हमारा चयन किया है;अपनी गद्दी हथियाने के लिए नहीं। महामण्डल या मिशन के किसी दिग्भ्रमित नेता से,श्रीरामकृष्ण की गद्दी को खतरा होगा, उस दिन उसके रावण जैसी घमण्ड को चूर करने के लिये उन्हें आने की जरुरत भी नहीं पड़ेगी, वीर सेनापति विवेकानन्द के सैनिक ही उसकी दुर्गति करके रख देंगे !
 इसलिए हे महामण्डल के नेताओं जब मनुष्य शरीर प्राप्त हो ही गया ही, तो BE AND MAKE का प्रचार जी जान से करो! -स्वयं 'मनुष्य' (ब्रह्मविद्) बनो और दूसरों को 'मनुष्य' बनने में सहायता करके अपने जीवन को धन्य बना लो ! और जिस प्रकार कोई बिटिया अपने माँ-बाप के यहाँ पल-बढकर,उनकी प्रतिष्ठा बचाकर एक दिन अपने पति के यहाँ चली जाती है,उसी प्रकार तुम भी अपनी एक साफ-सुथरी प्रतिष्ठा लेकर अपने पति परमात्मा (श्रीरामकृष्ण) के यहाँ जाओ, और यहाँ उनके समस्त सन्तानों को भी चरित्र-निर्माण करने और मनुष्य बनने का मार्ग दिखाओ !!
महामण्डल के जो नेता अन्दर से सचमुच अच्छे हैं, अर्थात जो अपने को श्रीरामकृष्ण के दास के दास के  दास का दास समझते हैं, उनको ये शब्द बाण की तरह नहीं चुभेगा। किन्तु जो गलत हैं, अर्थात नाम-यश पाने के लिये महामण्डल से जुड़े हैं, उन्हें ये शब्द अवश्य बाण की तरह चुभेंगे !!
भगवान् कृष्ण जब गोकुल से मथुरा चले गए तो यहाँ उनके वियोग में राधा समेत सभी गोपियां अत्यन्त व्याकुल हो गयीं। कृष्ण को जब यह पता चला तो वह अपने सखा उद्धव जी को गोपियों को समझाने के लिये गोकुल भेजा।
 श्रीकृष्ण ने कहा ,' हे ऊधो तुम ज़रा वृन्दाबन तो जाना,वहाँ की गोपियों को ब्रह्म-ज्ञान का कुछ तत्व समझाना ,वे विरह कि वेदना में सदा आंसू बहाती हैं, तड़पती है ,सिसकती है, सदा मुझको ही याद करती रहती हैं। तो ऊधो जी ने हँस कर कहा, ठीक है, मै अभी जाता हूँ वृन्दाबन ! ज़रा मै भी ,तो देखू केसा है ये प्रेम का बंधन ! 
वो गोपियाँ कैसी हैं,जो ज्ञान बल को, प्रेम बल (भक्ति) से कम बताती है, और निर्थक प्रेम लीला का सदा गुणगान गाती है?  जब वे मथुरा से कुछ दूर निकल गए और वृदाबन निकट आया, तो उसी प्रेम ने, अपना अनोखा रंग दिखलाया ! उधो के वस्त्र रास्ते के किनारे लगे कंटीले पौधों में उलझ गये, उन्हें लगा ये काँटे मानो कह रहे है, कि हे ऊधो, यह प्रेमियों की भूमि है, वहाँ तुम अपने ब्रह्म ज्ञान के हंकार के साथ मत जाओ, नही तो तुम्हारा ब्रह्म ज्ञान चला जायेगा। किन्तु उद्धव जी को अपने ज्ञान पर बहुत भरोसा था, उन्होंने मन ही मन कहा - नही मैं सब देख लुगा, मैं इन गोपियाँ का मन और किसी और ब्रह्म में लगवा दूंगा ,श्री उधव जी महाराज इस भाव से गए। वहाँ पहुँच पहले तो गोपियाँ को प्रस्ताव दिया कि हे गोपियाँ तुम इस प्रकार ब्रह्म में मन को लगाओ , प्रत्याहार - धारणा द्वारा इस ब्रह्म का चिन्तन करो, अपने ह्रदय में एसे ब्रह्म में ध्यान करो। 

उद्धव गोपियों को ज्ञान मार्ग से भक्ति का उपदेश देने लगे तथा निर्गुण एवं सगुण में भेद बताने लगे । माना  कि मन चंचल और अस्थिर होता है, किन्तु विवेक के द्वारा उसे नियंत्रित किया जा सकता है ! उद्धव ने गोपियों से कहा, विवेकज-ज्ञान (जीव-शिव विवेक, नर-नारायण विवेक) के बिना कहीं भी सुख नहीं है।     

सदा बसै उर माहीं
 

ज्ञान बिना कहुं वै सुख नाहीं।
 

घट घट ब्यापक दारु अगिनि ज्यों सदा बसै उर माहीं॥
 

निरगुन छांडि सगुन को दौरति सुधौं कहौं किहिं पाहीं।
 

तत्व भजौ जो निकट न छूटै ज्यों तनु ते परछाहीं॥

पूर्णब्रह्म परमात्मा सबके घट-घट में वैसे ही व्याप्त हैं जैसे लकडी में अग्नि व्याप्त रहती है अर्थात् लकडी को जब तक जलाया न जाए तब तक उसमें से अग्नि नहीं निकलती। वैसे ही जब तक योग साधन नहीं किया जाता तब तक घट-घट में व्याप्त पूर्णब्रह्म (आत्म तत्त्‍‌व) का ज्ञान नहीं होता। तुम निर्गुण को छोडकर सगुण की ओर दौडती हो। निर्गुण के बिना सगुण की प्राप्ति कैसे होगी? तुम उस परम तत्त्‍‌व का स्मरण करो जो शरीर की परछाई की भांति है और कभी भी विलग होने वाला नहीं है।  

गोपियां निर्गुण ब्रह्म का विरोध करती हुई कहती हैं कि- अब तक तो हमने सगुण का ध्यान कर बहुत सुख पाया लेकिन निर्गुण से हमें क्या सुख मिलेगा-जिसका न आकार है, न स्वरूप-न हम जिसे जानती हैं।

तिहि तें कहौ कौन सुख पायो हिहिं अब लौं अवगाही।

 

सूरदास ऐसें करि लागी ज्यों कृषि कीन्हें पाही॥ 

सूरदास कहते हैं कि गोपियों ने निर्गुण साधना की उपमा ' मेड़ पर खेती ' करने के समान दी है अर्थात् गोपियों ने अनुसार निर्गुण साधना वैसी ही है जैसे मेड पर खेती करना। उनकी दृष्टि में निर्गुण साधना या निर्गुण भक्ति व्यर्थ की बात है।
ऊधौ मन माने की बात।
 

दाख छुहारा छांडि अमृत फल, विषकीरा विष खात॥
 

ज्यौं चकोर को देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।
 

मधुप करत घर कोरि काठ मैं, बंधत कमल के पात॥
 

ज्यौं पतंग हित जानि आपनौ, दीपक सौं लपटात।
 

सूरदास जाकौ मन जासौं सोई ताहि सुहात॥

राग घनाक्षरी पर आधारित सूरदास जी का यह पद बहुत लोकप्रिय है। इस पद का भावार्थ है कि मन पर नियंत्रण मुश्किल है। रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श में से जो भी विषय इसे भा जाता है, वह उसी से चिपक जाता है। मन जिस पर आ जाय, अविवेकी मनुष्य को वही विषय अच्छा लगने लगता है, भले चाहे उसके प्राण ही क्यों न चले जाएँ ।
 
गोपियां कहती हैं कि- ' हे उद्धव! यह तो मन के मानने की बात है। किसी को कुछ अच्छा लगता है तो किसी को कुछ। अब सर्प को ही लो.. उसे दाख-छुआरा व अमृत (रस से परिपूर्ण) फल अच्छे नहीं लगते। इसीलिए वह विष का सेवन करता है। इसी तरह यदि चकोर को कपूर दिया जाए तो वह उसका परित्याग कर अंगार को ही ग्रहण करता है। भ्रमर काठ को विदीर्ण कर उसमें अपना घर बना लेता है लेकिन स्वयं कमल दल में बंद हो जाता है। पतंगा दीपक को प्राणपण से चाहने के कारण ही उस पर अपने प्राणों को न्योछावर कर देता है।
(लेकिन भगवान श्रीरामकृष्ण को भगवान जानकर दास भाव से उनकी भक्ति करने वाले भक्त को कोई भय नहीं रह जाता !)   सूरदास कहते हैं कि जिसको जो रुचता है वह उसी को पाता है। 
आगे गोपियों ने तो एक बात एईसी गजब की कही, जिससे गोपियों का ऐसा अद्भुत प्रेम देखा कि उधव का सब ज्ञान चला गया। गोपियाँ ने कहा उधव तुम कहो जिस ब्रह्म का चिन्तन करने को हम तैयार है, पर पहले तुम हमारे एक प्रश्न का उत्तर दो और हमारा एक काम कर दो। उधव बोले क्या ? गोपियों ने कहा -
"क्या मनके बिना ब्रह्म का चिंतन मनन और ध्यान हो सकता है ? उद्धव बोले नही हो सकता !  बस हमारा मन उस कन्हैया के पास है ,तुम हमारा मन हमे लाकर देदो फिर तुम कहो जिस ब्रह्मका चिन्तन करने को हम तैयार हैं ।
हे उधो, मन ना भये दस बीस। 

 एक हु थो सो गयो श्याम संग, को अराधे ईस।।
 

इन्द्री सिथिल भईं केशव बिनु, ज्यों देह बिनु सीस। 

आसा लागि रहति तन स्वासा, जीव ही कोटि बरीस॥ 

तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
  
सूर हमारैं नंदनंदन बिनु और नहीं जगदीस॥
 
गोपियां बोलीं कि हे उद्धव! यदि हम तुम्हारी बात मान भी लें तो यह संभव कैसे होगा, क्योंकि मन कोई दस-बीस तो हैं नहीं, एक ही है। वह मन भी हमारे श्यामसुंदर अपने साथ ले गए हैं, अब निर्गुण निराकार ब्रह्म के ऊपर हमलोग किस मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करें ?
 हमारी सभी शारीरिक इंद्रियां भी केशव के बिना शिथिल हो गई हैं, वैसे ही जेसे शीशविहीन देह होती है। इस शरीर में जो श्वास चल रहे हैं वह केवल कृष्ण से मिलने की आशा में ही हैं। इस प्रकार हम कृष्ण मिलन की आस में करोडों वर्षो तक जी सकती हैं। 
हे उद्धव! आप तो हमारे श्यामसुंदर के सखा हैं और योग विद्या के सर्वज्ञ भी। सूरदास के शब्दों में गोपियों ने उद्धव को आभास करा दिया कि श्रीकृष्ण ही उनके सर्वस्व हैं। हे उधो एक मन था वो तुमारा चोर ले गए कन्हैया ,अब हम किस मनसे चिंतन करे .......? उधवजी ने तो हाथ जोड़े , की अब में नमन करता हु इन गोपियाँ के चरण रज को ...... 

ज्ञान बजाई डुगडुगी ,विरह बजाया ढोल। 
 उधो सूधो रह गए सुन गोपियाँ के बोल ।।

 ...उद्व जी ने गोपियाँ को अपना गुरु बना लिया , अगर किसी गोपि की चरण रज को माथे पे लगाने को मिल जाये , तो भगवान में अपने आप प्रेम हो जाता है ! जय श्री राधे !
ब्रज से लौटकर उद्धव जी ने भगवान को गोपियों का सारा हाल सुनाया। उद्धव ने जब श्रीकृष्ण को ब्रज की दशा का हाल सुनाया तो श्रीकृष्ण भाव विभोर होकर बोले, हे सखा! ब्रज को मैं भुला नहीं सकता। 

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं
 


हंस सुता की सुंदर कगरी अरु कुंजनि की छांहीं॥
 

वै सुरभी वै बच्छ दोहनी खरिक दुहावन जाहीं।
 

ग्वालबाल मिलि करत कुलाहल नाचत गहि गहि बाहीं॥
 

यह मथुरा कंचन की नगरी मनि मुक्ता हल जाहीं।
 

जबहिं सुरति आवति बा सुख की जिय उमगत तन नाहीं॥
 

अनगन भांति करी बहु लीला जसुदा नंद निबाहीं।
 

सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै यह कहि कहि पछिताहीं॥

राग सारंग में निबद्ध सूरदास जी का यह पद भाव प्रधान है। हंससुता (यमुना) का वह तट, लताओं से आच्छादित मार्गो की वह छाया का सुख मैं कैसे भूल सकता हूं? [गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता, तो मौसमे गुल को हँसाना भी हमारा काम होता। ]  
  मैं उन गायों व बछडों को भी नहीं भूल सकता और न ही उस गोशाला को जहाँ मैं गायों का दूध दूहता था। हम सब ग्वाल बाल एक दूसरे की बांहों में बांहें डालकर कोलाहल मचाते हुए नाचा करते थे। उस सुख को भी मैं कैसे भुला दूं?  
हे उद्धव! यह मथुरा नगरी यद्यपि स्वर्ण, मणि-मुक्ताओं से बनी हुई है, लेकिन जब भी मुझे ब्रज के उस सुख की याद आती है तब मन भर आता है और मुझे तन की भी सुधि नहीं रहती। मैंने वहाँ अनेक प्रकार की अनंत लीलाएं कीं, जिन्हें मैया यशोदा ने बहुत ही निभाया है।
 सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण जब उद्धव से ब्रज के उस सुख की बात बतला रहे थे तब बात कहते-कहते बीच में ही मौन हो जाते थे। ऐसा कहकर मन ही मन पश्चाताप भी करने लगते थे। 

इसीलिये सूरदास जी आगे कहते हैं - कि मेरा मन चाहता है कि मैं भगवान् श्रीकृष्ण की रसीली रास लीलाओं का नित्य ही गान करूं। विहाग राग पर आधारित इस पद को जो लोग भक्तिभाव से कृष्ण लीलाओं को सुनते हैं तथा अन्य लोगों को भी सुनाते हैं उनके चरणों में मैं शीश झुकाऊं। 

भाव भगति है जाकें
 

रास रस लीला गाइ सुनाऊं।
 

यह जस कहै सुनै मुख स्त्रवननि तिहि चरनन सिर नाऊं॥
 

कहा कहौं बक्ता स्त्रोता फल इक रसना क्यों गाऊं।
 

अष्टसिद्धि नवनिधि सुख संपति लघुता करि दरसाऊं॥
 

हरि जन दरस हरिहिं सम बूझै अंतर निकट हैं ताकें।
 

सूर धन्य तिहिं के पितु माता भाव भगति है जाकें॥

वक्ता व श्रोता अर्थात् कृष्ण लीलाओं का गान करने व अन्य को सुनाने के फल का मैं और क्या वर्णन करूं। इन सबका फल एक जैसा ही होता है। तब फिर इस जिह्वा से क्यों न कृष्ण लीलाओं का गान किया जाए। जो दीनभाव से इसका गान करता है, उसे अष्टसिद्धि व नव निधियां तथा सभी तरह की सुख-संपत्ति प्राप्त होती है। जिनका मन निर्मल या पवित्र है, अर्थात जो निःस्वार्थ हैं या जो हरिभक्त हैं, वह सबमें ही हरि स्वरूप (या जीव में शिव) को देखते हैं। सूरदास कहते हैं कि वे माता-पिता धन्य हैं जिनकी संतानों में हरिभक्ति का भाव विद्यमान है।

भगति हीन गुण सब सुख ऐसे। लवन बिना बहू व्यंजन जैसे।।
इसीलिये सब सुख माँगने की अपेक्षा भक्त को भगवन से हमेशा भक्ति माँगना चाहिए। क्यूंकि भक्ति के बिना सभी गुण, सब सुख ऐसे ही हैं जैसे नमक के बिना उत्तम से उत्तम व्यंजन स्वादहीन है।  उसी तरह प्रभु के चरणों की ‍भक्ति के बिना जीवन का सुख, समृद्धि सभी फीके है।
आज के युग में कहें तो युगावतार श्रीरामकृष्ण के प्रति भक्ति, जिसमें जाग्रत हो जाय तो उन माता-पिता का जीवन भी धन्य हो जाता है ! एक बार श्रीरामकृष्ण ने विवेकानन्द से कहा; उस समय वे नरेन्द्रनाथ थे -'मेरे पास आओ, मैं तुम्हें अष्टसिद्धि दूँगा!' उनमें से कोई एक सिद्धि भी प्राप्त हो जाना पर्याप्त माना जाता है। किसी के पास एक भी सिद्धि आ जाय तो हजारों लोग उसके पीछे पीछे चलने लगते हैं। ' नरेन्द्रनाथ सरलता से पूछते हैं,'क्या इन सिद्धियों से ईश्वरलाभ होगा ?' ठाकुर बोलते हैं-नहीं, किन्तु उससे तुमको इस संसार में सहायता मिलेगी, लोग तुम्हारी प्रसंशा करेंगे। उन्होंने कहा -तब मुझे यह सब नहीं चाहिये, धन्यवाद! 
इसको ही विराग कहते हैं -पूर्ण त्याग ! श्रीरामकृष्ण को भी कई लोग कामिनी -कांचन का प्रलोभन दिये थे, कुछ उनकी प्रसंशा तो कुछ बुराई करते थे, किन्तु वे इन सब चीजों से निर्लिप्त रहते थे। विराग का अर्थ होता है पूर्ण रूप से त्याग। जो सम्पूर्ण ज्ञान का मालिक है फिर भी घमंडी नहीं है ! सम्पूर्ण त्यागियों के बादशाह श्रीरामकृष्ण जैसा त्यागी (वैरागी) होने के बाद भी त्यागी होने का दिखावा न करके अपनी पत्नी (लक्ष्मी-माँ सारदा) के साथ रहता है ! 
भगवान् के जन्म के विषय में कुछ लोग शंका करते हुए कहते हैं कि‘पूर्णकामअजन्मा भगवान् जन्म क्यों लेते हैं ? इस शंका का समाधान करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि ‘पानी में डूबते हुए अनन्यगति बालक को देखकर वत्सल पिता प्रेमविह्वल होकर जैसे स्वयं पानी मे कूद पड़ता है वैसे ही सर्वेश्वर भी संसार-महासागर में गोते लगाते हुए अनन्यगति जीवों को देखकर उनके उद्धार के लिए स्वयं प्रेमविह्वल होकर कूद पड़ते हैं। उस समय के लोग चाहे श्रीरामकृष्ण को कुछ भी कहें-प्रसंशा करे या पगला कहें, ठाकुर जानते थे कि वे वास्तव में कौन हैं ! 
एक बार कुछ लोग उनके विषय में चर्चा कर रहे थे, कुछ उनको अवतार कहते थे, तो कुछ लोग शंका करते थे, श्रीरामकृष्ण भी वहीं बैठे हुए थे, वे अपने बगल में बैठे व्यक्ति महेन्द्रनाथ श्रीम (मास्टर महाशय) से से कुहनी-संकेत में पूछे कि लोग मेरे बारे में क्या कह रहे हैं, और तुम मुझे क्या समझते हो? तो ये हैं भगवान ! यह भगवान् जैसा महान शब्द केवल परब्रह्म परमात्मा - [विष्णुः= वैष्णववादिनः पूज्यः परम ईशः, परमेश्वरः = शिवः विश्वस्य सृष्टि, स्थिति व प्रलयकारकः] के लिए ही प्रयुक्त होता है , अन्य के लिए नही।
शास्त्र  (विष्णुपुराण ६ । ५ । ७८) में भगवत्ता के लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं‒
                                
'उत्पत्तिं च विनाशं च भूतानामागतिं गतिम्। 
वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति।। 
‘जो समस्त प्राणियों के उत्पत्ति-नाश, सद्गति -दुर्गति  को और विद्या-अविद्या  को भली-भाँती जानता है,उसे भगवान् कहते हैं।’
 आप इस पुस्तक-श्रीरामकृष्ण वचनामृत में देखेंगे कि श्रीरामकृष्ण आगे चलकर मास्टर महाशय से पहला प्रश्न विद्या और अविद्या के विषय में ही करते हैं ।

===========

रविवार, 28 जून 2015

🔱🙏 With some rare photos of Navnee da. 🔱🙏'20th' Bihar-Jharkhand three-day state level youth training camp youth training camp, Janibigha, Gaya (Bihar)'🔱🙏 नवनीदा दुर्लभ फोटो के साथ on (16-22 April 2015) को जानिबिघा , गया (बिहार) युवा प्रशिक्षण शिविर। 🔱🙏

 '2015 youth training camp' Janibigha, Gaya (Bihar) Report:


Displaying FullSizeRender.jpg

Sri Nabaniharan Mukhopadhyay

[L to R
Dr. Dayananda ,Pranab da, Ranjeet Mahanti,] 

 at " 20th Bihar- Jharkhand state level 

youth training camp, Janibigha, Gaya (Bihar)'


>>>of 20th Bihar Jharkhand state level youth training camp held at -
Janibigha, Gaya (Bihar) and description of revered Nabni da’s visit to Bihar-Jharkhand during 16-22 April 2015.

On 10th April I was in Delhi when Pramod da told me over telephone that Subodh Pandit from Janibigha was there to attend Vivek Vahini Camp. In camp when Subodh requested Nabni da to grace the camp with his benevolent presence at Janibigha.
 
 Displaying FullSizeRender.jpg

After preliminary inquiry about the camp 81 year old Dada generously consented to come even in this hot summer. I was told that Pramod da, Pranav Da and Basudev Bagh along with Dada are arriving Koderma on 16th April evening. Briefing about itinerary Pramod da said that on 17th Dada will stay at Koderma and on 18th morning will reach camp site Janibigha by road via Rajauli-Sirdala road-Bandhua crossing.

I was instructed by Pramod da to arrive at Koderma anyhow before Dada’s arrival. You may go back to Delhi afterwards, he said. 

My left thumb underwent plastic surgery and on that count I had to stay at Delhi till 15th May. Meanwhile Ranen da called up to express concern over Dada’s well being and entrusted the same to me to take due care of him during his visit to the remote village. 

Dharmendra and me went station to receive Dada and the team. Ajay Agrawal, Sudip and Ramchandra joined us at station.
 
 Displaying FullSizeRender.jpg
Since arrival at station and through out his stay at Telaiya it was like ‘anand ki haat’ at my home on 17th night till 10 P.M. Many persons began dropping in to meet and seek blessings of Nabni da. Sudip’s mother and other members of Sarda Nari Sangathan came to meet. All were so happy to be in the proximity of revered Nabni da.

On 18th morning we started for Janibigha in Innova car. At Dharmendra’s insistence dada stopped for a while at his school where he requested to say something before school children. Dada said what he would say to them, children should better be instructed to recite some poem or prayer. They did recite and after listening to them dada instructed Dharmendra to make them learn some prayer in Sanskrit also.

After spending half an hour with children we left for campsite via ‘Rajauli-Sirdala-Lalsalam turning’ to reach Janibigha at 1.30 P.M.

‘Vivekanand Jnana Mandir’ all that started in the year 12 th January 1985 as a library at Jhumri Telaiya, is now operating as a full fledged school at Janibigha .  where 700 beneficiaries are the students who are growing with most desirable heritage of inspiration of Ramakrishna Vivekananda Order courtesy Mamamandal movement.

Displaying FullSizeRender.jpg

 ( Today it seems more than clear that the venture called library as ‘Vivekananda Jnan Mandir’ was founded by the blessings of none other but Swamiji himself that got transferred to Janibigha later, only to build the future leaders of Mahamandal Movement Ajay Pandey, Subodh Pandit, Jaiprakash Mehta, The Medical Practitioner Dayanand, Dhaneswar Pandit, Pankaj Mehta, Jamuna Mehta, Brajesh, Rahul, Guddu  and the likes whose hearts the all encompassing ones points only to the inspiration of Swamiji. )

Evening session (18-05-2015) : The evening session was organised in the newly built premises of Vivekananda Jnan Mandir Vidyalaya. 

 Displaying FullSizeRender.jpg

The inaugural flag hoisting was done by Mahamandal President Sri Nabaniharan Mukhopadhyay at 5.40 P.M. The 40 Vivek Vahini children and 185 campers from Bihar-Jharkhand saluted the Mahamandal flag under the guidance of Sri Ranjeet Mohanty, the trainer who came all the way from Kolkata. 

After flag hoisting the Vivek Vahini children presented a half an hour show in the school premises before Nabni da, Sri Pranab Jana Roy, Sri Pramod Ranjan Das, Sri Basudev bagh and others.

Rahul Kumar, Secretary of Janibigha Mahamandal delivered welcome address,
Gajanan Pathak from Hazaribag unit spoke on "why Mahamandal is unavoidably desirable.?" 

Dharmendra Singh spoke on ‘Swamiji’s teachings and Mahamandal’,

Sri Kailash Singh Postmaster Janibigha (father of Ananda Fauji) briefed about the welfare work as undertaken by Mahamandal during the last 20 years in the village .

while Dr. Hareram Pandey from Barhi the teacher spoke on ‘Objects and activities of Mahamandal’ and he presented a summary of all speeches as delivered by various speakers with an element of neutrality. 
Most revered Nabni da was happy to see all presentations and speeches and asked, " where is Biren (Sri Birendra Kumar Chakrawarti) , is he not there?" First day of the camp was quite heartening. Villagers attended in good numbers from Janibigha and nearby villages. 

Programmes on 19-05-2015 : Ajay Pandey took the class of Manah Sanyog exactly based on Mahamandal booklets that was prepared and divided in two classes. He underlined the importance of Manah Sanyog beautifully through narrating a storty – “'जहाँ बावन वहीं तिरपन की कहानी ” ( where there is 52 there only could be 53 ). 
Classes as undertaken were: 

Aims and activities –by Dharmendra Singh,
 Jeevan Gathan (Life Building) – by Gajanan Pathak, 
Charitra Gathan – Dr. Hareram Pandey,
Charitra ke gun – Brajesh Singh and Amit kumar,

Charitra Nirman ki Prakriya and Auto Suggestion – Subodh Pandit & Pramod Kumar. Question answer session was conducted by Bijay Singh and Dharmendra Singh on second day. 

Gajanan Pathak after the end of the classes came to see Nabni da. J.M. Jha (colleague of Jitendra Babu) 
was with him. He was dissatisfied with his own class and he asked - ‘जीवन-गठन किसे कहते हैं ? 
 Gajanan Pathak : Sir,  what exactly is Jeevan Gathan ? 

 Displaying FullSizeRender.jpg

Revered Nabani dada said: When someone develop into a life so beautifully that whosoever coming to meet him should feel like it was lucky for him to meet such a person. Any shorter answer so crisp and concise is not possible."

 Displaying FullSizeRender.jpg

[अपने जीवन को इतने सुन्दर ढंग से गढ़ लेना कि, जो कोई भी मुझसे मिलने आये उसे ऐसा प्रतीत हो कि मुझसे मिलना उसका सौभाग्य था ! - जीवन गठन के विषय में इससे संक्षिप्त उत्तर नहीं दिया जा सकता है।]
Dyuring  the discussion and mention of some dreams as experienced by Gajanan Pathak,  dada 
(SRI NABANIHARAN MUKHPADHYAYA) said- "that all life scripts written beforehand are there with Jaganmata.  Improbable happens at times and even a dream question- On turning out to be true is not ruled out altogether."

[नवनी दा के शब्द इस प्रकार थे -  " यह पता नहीं कि कैसे, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति की जीवन-लीला (जगन्माता के पास ) कहीं पूर्व से लिखकर रखी हुई है ! 'अघटन आज भी घटित होता है ' -इसलिये  किसी किसी स्वप्न का सच होना भी सम्भव हो सकता है ! " ]

In the concluding evening session general folk were present in great numbers to hear venerable Nabni da though his address as such was not pre scheduled in the evening programme. 

When Pramod da requested for his ‘Ashirvachan’ (blessings) Nabni da said – ‘I don’t have that ego to think of giving any blessings but after others having spoken I may say something’. 

Dharmendra presented the life-sketch of Sri Ramakrishna beautifully. Bijay Singh said in brief about teachings of Thakur-Maa-Swamiji and role of Mahamandal in spreading the same. Then Nabni da poured his heart in his public address.

Thereafter there was a cultural programme presented  by school children. One students presented a folk song related to Goddess Durga in Bhojpuri language and when another student began with singing a similar song Nabni da said that the melody and rhythm is simply missing in these songs and said that it feels that someone is saying something loudly in an inebriated condition. 

Without getting to know the meaning of the students will not be able to learn anything, so Nabani da said- " The condition about the level of music in Bihar-Jharkhand is really pathetic. Camp music could be seen only in Hazaribag camp."  Gajanan Pathak should be encouraged to send his students to receive training of Vivek Geeti. It has been seen that our Telaiyan musicians do not display even ten percent of the zeal for Vivek Geeti as they show for Rabindra Sangeet. As a result thereof none other Mahamandal volunteer knows to sing - 'खंडन-भवबंधन', ' जय जय रामकृष्ण ', ' विश्वस्यधाता' which are vital songs at our Mahamandal camps, except one Ajay Pandey.

In Hindi belt these mahamandal songs are yet to be spread. When I requested using public address system saying that if campers are finding it difficult to come up with some good song besides folk song or general patriotic song they should recite any poem as composed by Swamiji.  but for the lack of training even in the schools run by the volunteers of Bihar Jharkhand mahamandal none of the camper brother could take part in the cultural programme on the lines of expected parameters. 

Ultimately the evening session came to a close without such presentations which were otherwise desirable on the occasion. 

After reaching our place of camp stay Pranab da played the many of Vivek Geeti songs on his mobile phone that were sang by Vireshwar da ('जुड़ाते चाइ कोथाये जुड़ाई ?' आदि) which Nabni da kept on listening to for hours. 
Pranab da asked me to remind him right before next PSTC so that he can give these songs in a pen drive to facilitate training of these songs for students at Hazaribag.

Programmes on 20-04-2015 : After completing the remaining parts of the scheduled classes Dhaneswar Pandit took a class on ‘How’s and Why’s of Path Chakra.’ 
Jaiprakash Mehta from Fulwaria narrated the story of Swami Vivekananda. 
Question answer session on last day of the camp was taken by revered Nabni da himself. 

One of the founder member and volunteer of Janibigha Vivekananda Gyan Mandir School, Dr. Dayanand, and Dhaneshvar Pandit requested dada to come to his house for ‘Jalpaan’. 

 Displaying FullSizeRender.jpg

Consenting to request dada visited his house and afterwards came to open ground in an autorickshaw along with Pranab da, Ranjeet Mohanty and others for flag down. 

 Displaying FullSizeRender.jpg
In spite of his frail structure and uneven health the 81 year old Nabni da was standing in the ground like and iron willed soldier of Swamiji reciting sangh mantra. After flag down at 6.30 PM with Nabni da and others left for Telaiya via Rajauli in two cars to reach at 9.30 PM. 

 Campers shared their camp experience in presence of chief guest at the concluding session Sri Ranjeet Mohanty. Pramod da threw light on the importance of camp.

Next day on 21-4-2015 Nabni da, Pramod da, Pranab da, Basudeb da left for olkata via train in the afternoon. 

Revered Dada must have faced tremendous discomfort in walking on feet on platform in noon time but he said with unparalleled enthusiasm and poise that - " even with one hand and one leg working he’ll keep on taking part in mahamandal camps."

Displaying FullSizeRender.jpg

With His Holiness Navni Da

(Mrs. Aparajita Singh and Mr. Vijay Singh)

उस दिन की चर्चा का विषय था स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त जीवन-गठन के निम्नलिखित  सूत्र -

" प्रत्येक जीवात्मा का चरम लक्ष्य है, मुक्ति या स्वाधीनता -जड़वस्तु और चित्तवृत्ति के दासत्व से मुक्ति लाभ करके उन पर प्रभुत्व स्थापित करना, बाह्य और अन्तः प्रकृति पर 'अधि'कार जमाना। " १/८४

"प्रत्याहार का अर्थ है, एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना -मन की बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। इसमें कृतकार्य होने पर ही एचएम यथार्थ में चरित्रवान मनुष्य बनेंगे, इससे पहले तो हम मशीन मात्र हैं।" १/८६

"यह शरीर मन का एक बाह्य आवरण मात्र है। शरीर और मन, दो अलग अलग वस्तुएं नहीं हैं, वे तो सीप और उसके खोल के समान हैं। अतः हम यदि अन्तर्जगत पर जय-लाभ कर सकें, तो बाह्य जगत को जीतना फिर बड़ा आसान हो जाएगा।" १/१७३

"कोई अपराधी इसलिये अपराधी नहीं है कि वह वैसा बनना चाहता है, वरन इसलिये है कि उसका मन उसके वश में नहीं है। समस्त सांसरिक दुःखों का कारण है, इंद्रियों की दासता।" "४/११२ 

 ४/१६३ " प्रत्येक व्यक्ति सम्मोहित हो चुका है। मुक्त होने, अपने वास्तविक स्वरूप के बोध होने कार्य इसमें है कि सम्मोहन के प्रभाव को हटा दिया जाय। 

"इस बात को सदैव याद रखना चाहिये कि हमलोग कोई शक्ति कहीं बाहर से प्राप्त नहीं कर रहे है। वे हममें पहले से ही हैं। शक्तियों के प्रवर्धन की पूरी प्रक्रिया है सम्मोहन का प्रभाव हटाना। "४/१८१

  मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। वे सिंह-विक्रम के साथ देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। वे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र का विस्तार करनेगे - और इस प्रकार हम धीरे धीरे समग्र भारत में फैल जायेंगे।

" कहो कि जिन कष्टों को हम अभी झेल रहे हैं, वे हमारे ही किये कर्मों के फल हैं। यदि यह मान लिया जाय, तो यह भी प्रमाणित हो जाता है कि वे फिर हमारे द्वारा नष्ट भी किये जा सकते हैं। "

 " केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो; असत संस्कार रोकने का बस यही एक उपाय है। ऐसा कभी मत कहो कि अमुक के उद्धार की कोई आशा नहीं है। क्यों ? इसलिये कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का- कुछ अभ्यासों की समष्टि का द्योतक मात्र है और इस प्रकार का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का पुनर्गठन कर सकता है। ब्रहचर्यवान मनुष्य के मस्तिष्क में प्रबल शक्ति -महती इच्छाशक्ति संचित रहती है।


 Displaying FullSizeRender.jpg

 It is so said in Ramcharitmanas -

राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥

जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ॥

=======================================

🙏गृहस्थ सन्त प्रेम भूषण जी महाराज का सत्संग 🙏

"जो बिना बताये आये वे अतिथि। जो उपलब्ध है, उसी से सेवा करना धर्म है। जो अकेले खाता है, वह पाप खाता है, विष का ही भक्षण करता है। कोई मरता नहीं -धर्मशील व्यक्ति और धार्मिक व्यक्ति का अंतर - संतोष ही कसौटी है। आधा घंटा भी शांत नहीं बैठे, हर क्षण फोन आवे तो ऐसे व्यक्ति की मृत्यु  शीघ्र होती है। एक मुख से अनेक व्यवहार कैसे होगा ? जो बोलो उसका पालन करो। रामचरित्र का पालन करना ही धर्म है। धर्म त्याग सिखाता है। धर्म भगवान कौन हैं ? धर्मराज ? नहीं ! रामो मूर्तिमान धर्म विग्रहो। सूत्र है- सम्मान की चाहत ही अपमान करवा देती है। हम स्वयं अपना सम्मान करवाना चाहते हैं।
गृहस्थाश्रम भी परमार्थ तत्व में प्रवेश करने का साधन है। यज्ञ या पूजन करने का अधिकार गृहस्थ को ही प्राप्त होता है। इसीलिये ठाकुर भी गृहस्थाश्रम आदर्श दिखाने के लिये विवाह करते हैं। प्रभु (ठाकुर)आनन्द के समुद्र हैं। जीव का सुख टुकड़ों में बंटा है, आनन्द नित्य नविन बना रहे इसका उपाय क्या है? हमारे दुःख का कारण यह है कि हम जैसा चाहते हैं, वैसा होता नहीं है, जैसा होने वाला होता है, वैसा ही होता है। छिपकली छत के बीच क्यों लटकी हो? नहीं रोकूँ तो छत निचे गिर जाये। ऐसा कोई घर नहीं है,जिसका मुखिया डिस्टर्ब नहीं है। होइहें वही जो राम रची राखा। होगा वही जो कृष्ण कर रखा। बस आप मौज में रहो ! 
संसार का होकर देख लिया, अपने को भगवान से जोड़ो। कुछ छोड़ना नहीं है, भगवान से जोड़ लेना है। भोजन में आने के लिए कहना नहीं पड़ता है, किन्तु भजन में आने के लिए कहना पड़ता है। भगवान के चरणों में स्वतः स्फूर्त प्रेम रखो। व्यवस्थाओं को समेटिये ठाकुर से जुड़ते जाइये, जीवन कब तक रहेगा कोई नहीं जानता है। जिससे विमुख होकर जीव को पश्चाताप होता है। दिन सुन्दर कौन जब हम सत्संग में लगें।विषयों का नशा भगवान ही छोड़ा देंगे।
  
राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ॥ 

राम जी की कथा सुनाने के बाद शिव जी पार्वती जी से पूछते हैं कि अब आपको क्या सुनाऊँ । पार्वती जी कहती हैं कि आपकी कृपा से अब मैं राम जी के प्रताप को जान गई हूँ।
मेरा मन राम चरित से तृप्त नहीं हुआ है । राम जी का चरित सुनकर जो बस कह देते हैं वे उसका विशेष रस नहीं जानते हैं । जो जीवन मुक्त महामुनि लोग हैं वे भी भगवान के गुणों को निरंतर सुनते रहते हैं ।

 बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग,
 मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥६१॥

मन इन्द्रियों का आसन बनाकर विषयों में सुख चाहता है, इन्द्रियों की गति सिर्फ विषयों तक है, पद कमल परागा रस अनुरागा मन मधुप करे मधुपान। मन लगा के पढो, आध घंटा आठ घन्टे के बराबर है, देखना इन्द्रियों के घोड़े न हर दम भगें, संयम का चाबुक चलता रहे। दुराचारी की संख्या क्यों बढ़ी है ? घर के मुखिया की इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं। राम ही राम  रटन लगे जिभिया, मन के सहयोगी हैं बुद्धि,चित्त अहंकार। विकार कहाँ से आता है, जो समझदार लोग हैं, अत्यधिक पढ़े लोग समस्या हैं। हमको संस्कार में रहना होगा -मेरा मन भ्रमर बन कर आपके चरण कमल पराग का पान करता रहे।  
धर्म-पत्नी , पतन से संभारे धर्म में  लगा दे उसका नाम है धर्म पत्नी। २४ घन्टे का १० % भगवान का है, भक्ति में बहुत टोटरम नहीं है, यथा लाभ तथा संतोषम। जो हमारा नहीं है, उसे लेने से कष्ट ही होगा। ये माचिस की डिब्बी तुम्हारी है, इसका प्रमाण क्या है? यही प्रमाण है कि इसके दाम का दुगना तुम्हारा गिर गया होगा। ये उपदेश नहीं ये कथा है। सरकार के श्रीमुख वचन हैं। धर्मशील व्यक्ति दुःख में नहीं रहता है। कुटिल व्यक्ति खुद दुःख में रहता है। मो सो कौन कुटिल खल कामी ? स्वाभाव सरल रखें, भगवान की कृपा से ही मन की कुटिलता जा सकती है। हमारी जो सबसे प्रिय वास्तु है, उसी का त्याग श्रेष्ठ है। बचपन से खिलौना छीन लो ऐसे रोयेंगे, जैसे राजसिंघसन छिना गया है। जवान लड़के-लड़कियों में संस्कार दें, होनर किलिंग से रोक नहीं सकते हैं। अपना सुख छीनता नजर आता है, तभी व्यक्ति अपना परिवार छोड़ता है। लाला माने लाओ लाओ ! ज्ञानी को भी देने के लिये समझाना पड़ता है, अपना ही पैसा बैंक-मनेजर देना नहीं चाहता है।
 बिश्वामित्र ने चार भाई मांग लिए तो वसिष्ठ को  समझान पड़ा। सत्संग प्रजा स्वयं करती है, यदि सरकारी बन जाये तो प्रौढ़ शिक्षा विभाग के नाम पर आज तक ४० से उपर का कोई व्यक्ति शिक्षित नहीं हुआ। बाल -विकास परियोजना दुपहरिया में मास्टर लोग खिचड़ी ही बनाते रहते है। भोजन करा के १०० रुपया देकर श्रोता बुलाया जाय , तो उसका क्या फल होगा ? छठा से दसवाँ तक वजीफा के लिये पढ़े, तप पढ़ नहीं पायेगा। पढ़ेगा तो बढेगा। वशिष्ठ ने समझाया ऋषि के साथ जायेंगे तो विवाह जल्दी हो जायेगा।  दशरथ मान गए। पग पग पर अगर आप यथार्थ में रहेंगे तो सुखी रहेंगे। 
भगवान भक्त की इच्छा पूरी नहीं करते, जिसमें उसका हित हो वही करते हैं। आप साधू हैं, या नहीं ? यह सर्टिफिकेट (चपरास) गुरु देंगे, गवाही की जरुरत ही गलत आदमी को होती है। लड़की का भाई कपड़ा नहीं सिलवाता है, शरण में आ जाओ कृपा बरसेगी। किसको कहना बैठाना है, इसका ध्यान रखो। हमारे श्रेष्ठ हमें टोकते हैं, तो हमारा मंगल होगा। श्रेष्ठ यदि मेरे अपराध पर मौन रहे तो कनिष्ठ का विनाश अवश्यम्भावी है, श्रेष्ठ को चुप नहीं रहना है, बोलते रहना है। का हम स्वागत करें, यदि गुरु शिष्य का स्वागत करे तो शिष्य का पुन्य नष्ट होता है। रामचरित मानस गाने से और सुनने से अघा गया तो भक्त नहीं है। राम कथा जानिये तब भी सुनिये। अच्छे वक्ता को अच्छा श्रोता होना जरुरी है। 

जीव की कथा सुनने से अघा सकते हैं, भगवान की कथा नित्य-नविन है। रामकाज करने के लिये पहला गुण है शीलता, विनम्रता श्रेष्ठ की आज्ञा का पालन करने से विनम्रता आती है, अहंकारी मनुष्य रामकाज नहीं कर सकता। रावण की संस्कृति आसुरी है,भगवान इतना धन नहीं दे दे कि दिमाग ही ख़राब हो जाये। 3000/= रूपए का एक कार्ड देने वाले अपने धन के अहंकार का प्रदर्शन करते हैं। तिथि मैं तय करूँ तब बेटी की शादी में जा सकता हूँ, बेटों की शादी में तो यूँ भी नहीं जाता। 

मुझे तूने मालिक,बहुत कुछ दिया है, तेरा शुक्रिया है, तेरा शुक्रिया है। 
मेरे लिए तूने, सबकुछ किया है,तेरा शुक्रिया है, तेरा शुक्रिया है।।

ना मिलती अगर, दी हुई दात तेरी,तो क्या थी जमाने में,औकात मेरी। 
ये बंदा तो तेरे,सहारे जिया है,तेरा शुक्रिया है,तेरा शुक्रिया है।।

ये जायदाद दी है,ये औलाद दी है,मुसीबत में हर वक्त,इमदाद दी है। 
तेरा ही दिया मैंने, खाया पिया है,तेरा शुक्रिया है,तेरा शुक्रिया है।।

मेरा ही नहीं तू,सभी का है दाता,सभी को सभी कुछ,देता दिलाता। 
जो खाली था दामन,तूने भर दिया है,तेरा शुक्रिया है,तेरा शुक्रिया है।।

तेरी बंदगी से मैं,बंदा हूँ मालिक,तेरे ही करम से मैं,जिन्दा हूँ मालिक। 
तुम्हीं ने तो जीने के,काबिल किया है,तेरा शुक्रिया है,तेरा शुक्रिया है।।

मेरा भूल जाना,तेरा ना भुलाना,तेरी रहमतों का,कहाँ है ठिकाना। 
तेरी इस मोहब्बत ने,पागल किया है,तेरा शुक्रिया है,तेरा शुक्रिया है।।

मुझे तूने मालिक,बहुत कुछ दिया है,तेरा शुक्रिया है,तेरा शुक्रिया है। 
मेरे लिए तूने,सबकुछ किया है,तेरा शुक्रिया है,तेरा शुक्रिया है।।

मेरा भूल जाना तेरा न भुलाना, तेरी रहमतों का क्या है ठिकाना? 
 तेरा शुक्रिया है, मुझे तूने मालिक बहुत कुछ दिया, तेरा शुक्रिया है।
 
जो प्रयत्न से जी रहा है, वो धन्य हैं। जिसमें चरित्र बल श्रेष्ठ हो वही श्रेष्ठ काम कर सकता है।भारत युद्ध की नहीं प्रेम की तैयारी करता है।  नर शरीर से श्रेष्ठ से कोई शरीर नहीं है। मनुष्य मरने के लिये नहीं भजन करने आया है।

एक ही पत्नी में संकल्प रहेगा, विकल्प रहेगा ही नहीं, तो जन्म-जन्म एक ही पति-पत्नी से संबंध रहेगा। न मानोगे तो ऊपर से कहवाएंगे। शिवजी केवल रामजी कि सुनते हैं। संस्कारी परिवार में पिता को वो अच्छा लगता है, जो धर्म को, पुत्र वही करता है, जो पिता कहता है। नित्य नवीन प्रेम के लीये तन,मन, धन तीनों छोडना पड़ता है, ठाकुर को भी भक्त के लिये बैकुंठ छोड़ना पड़ता है।
 पत्नी से प्रेम चाहना है तो, धन त्यागिये। त्याग से ही प्रेम होता है। आदमी केवल भजन को त्यागता है, जगत को पकड़ता है। जो मनमुखी चलता है, जीजा कि बात पर चलता है, वह बहुत रोता है। समस्त परिवार एक स्वर में बोलें, विवाह से ही परमार्थ का प्रारम्भ होता है। 

जब तक हमारी पत्नी नहीं कहे ( सर्टिफिकेट नहीं दे ? 6th may 2016 को marriage anniversary of ' Bijay-Aprajita '  ) - 'हम सन्त हैं !' तब तक हम महा बसन्त हैं। शिवजी को माँ पार्वती कह रही हैं, आप त्रिभुवन के गुरु हैं! माँ प्रमाणित करती हैं, आप दिन रात राम नाम जपते हैं। ]
वह पितृत्व धन्य  है, जिसके पुत्र के नाम से उसका नाम धन्य है। धर्म को धारण करने वाले पिता के यहाँ भक्त पुत्र आयेगा। धर्म धुरंधर के यहाँ चरित्र के गुण स्वयं बढ़ते हैं। भये प्रकट कृपाला-संसार के अद्भुत भार-संभार ठाकुर प्रकट हो गए। कीजे शिशु लीला, रास-लीला है ब्रह्म लीला- भगवान ने माँ से पूछाये ठीक है ? दिन भर ब्च्चा जिस घर में रोवे तो घर दरिद्र हो जाता है। रोदन ठाना-]
-कौन बोल रहा है ? ब्रह्म आये हैं ! माँ काली ने कहा, जाकर पूछो किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्म आये हैं ?    पहले शिव कथा क्यों ? श्रोता की रूचि कहाँ है इसको जांचना है, रामजी के पवित्र सेवक हैं-कहीं रहे भगवाने में रहे ये सुचिता  है, जो बाह्य अंतर को पवित्र करे, पुण्डरीकाक्षाये नमः जिसके नयन शंख के सामान कमल के समान हैं, उनका स्मरण शौच है ! भूत-प्रेत के समाज में रह कर, समाज बिलकुल ठीक है, ड्राइवर को गाली देने वाला मालिक उससे भी निम्न कोटि है, कर्मचारी इसीलिये काम कर रहा है, कि उसकी चेतना मेरे जैसी नहीं है, हम यह समझ जाएँ, की जिसका जैसा स्वाभाव है, उसको उसी में रहने दें, और हम अपनी साधना में लगे रहें -
 
क्योंकि देखो चली जा रही है उमर धीरे धीरे .
 तेरे हाथ पाँव में बल न रहेगा, झुकेगी तुम्हारी कमर धीरे धीरे, 
शिथिल अंग होंगे सब एक दिन तुम्हारे, तेरी मन्द होगी नजर धीरे धिरे। 
चली जा रही है, उमर धीरे पल पल आठों पहर धीरे धिरे। 
परचर्चा से भगवत चर्चा का समय नहीं मिलता ? जो जैसा है, परिवार-जगत वैसा ही लगेगा। परिस्थिति चाहे जैसी हो मनःस्थिति भक्त की हो, अमृत-मदिरा सब पिये , सुख सबको मिले। विष हम पियेंगे। शिवजी जानते थे कि उनको विष पीना होगा। दुःख हमारा हो जाये।  पता है फिर भी नहीं पता है।   सेवा माँ-बाप के चरण दबाने की आदत वाले ही सेवा कर सकते हैं। जान कर भी अनजान बने रहें, प्रशंशा करने वाले से सावधान हो जायें। आगे का भला सोचने वाला उसको पुरोहित कहते हैं। पुरोहित जी रघुवंश पुरोधा हैं, वशिष्टजी, चार पुत्र -चार नाम। मन-मुखी नहीं बनो गुरु का शरण तो लेना ही होता है। 
नर्तकी गुरु, ग्राम की पुत्रवधू ने अपनी एक एक चूड़ी उतार कर एक चूड़ी पहनी, माने अकेला रहो। गुरु बनाइए नहीं शिष्य बनिये। गुरु कोई लड्डू-पेड़ा  है क्या ?  [किस ओर तेरी मंजिल किस ओर जा रहा है?विश्चास की दृढ़ता ही लक्ष्य को नजदीक ले आती है, जिसकी लगी रे लगन भगवान में उसकी दिया भी जलेगी तूफान में।अनहोनी को होनी कर दे उसका नाम है राम रे।
महापुरुष को नेत्र से प्रणाम करो। हर काम में विश्वास रखिये फल मिलेगा माई ने तीन भाइयों को कहा समुद्र को उड़ाह लाओ !हिरा-मोती समुद्र ने दिया। पड़ोसी माँ ने पाँच बेटों को भेजा जिनको माँ की बात में विश्वास नहीं था। सितुहा लेकर वापस आ गये।][भगवान जिसको जिस काम को करने के लिये भेजे हैं,उसको वही काम करना चाहिये -भगवान ने ठाकुर की कथा ही कहने को भेजे हैं,ऐसे ही करेंगे -वैसे नहीं करेंगे।'रामकाज लगी तव अवतारा !'जामवन्त जी कहें मेरे लिये क्या उचित है ? जिसका जो काम है वही करे तब समाज की व्यवस्था कायम रहती है। नहीं तो पूजा घर की माचिस बाथरूम में चली जाती है।   
छिपाइए किसी के दोषों को या किसी की चारित्रिक कमी को प्रकट मत करिए, वह  बात जो आप स्वयं नहीं पचा पा  रहे हैं, दूसरा क्यों छिपा कर रखेगा ? विनोद घर में करो, बाहर गंभीर रहो। मैंने जगत के पिता को अपना पुत्र मान लिया।
पूज्य नवनी दा जैसे महापुरुष किसी को अपने से बहुत निकट नहीं आने देते, कन्टाप या थापड़ पर सकता है, निकटता में दोष संभव है। सत्संग करो पर सन्तों की निकटता से दूर रहो। घर छूट जायेगा, संतों के संग जागो पर भागो मत। संत को देखकर। थाली में खाना लेलो, एने ओने छिटब तो मारब। आरे आव पारे आव, नदिया किनारे आव -अब कौन माँ गा सकती है?

ए चंदा मामा, आरे आवा पारे आवा, नदिया किनारे आवा। 
सोने के कटोरवा में, दूध-भात ले के आवा। 
बबुआ के मुंह में घुटूक...!
घुटुक-घुटुक!
आवा हो उतरी आवा हमारी मुंडेर, कब से पुकारिले भईल बड़ी देर ।
भईल बड़ी देर हां बाबू को लागल भूख ।
ऐ चंदा मामा ।।
मनवा हमार अब लागे कहीं ना, रहिलै देख घड़ी बाबू के बिना
एक घड़ी हमरा को लागै सौ जून ।
ऐ चंदा मामा ।।
" अस मन करत  उठाये लेऊँ  कोरवा,देखो रे प्रभु वदन मनोहर  " सबका लड़का मेरा ही पोता  है ? विनाश की नींव पर विकास का महल मत बनाओ। तीन बेटा तीनों बाहर अमेरिका में तो यहाँ सेवा करने के लिये कौन है ? विद्या का अर्थ है- विनय, जिसमें विनय है, उसको विद्या आ ही जाएगी। राम कथा एक ही है, २७ जन्म तक यही कथा गाने से मुक्ति होगी। जीवन का निष्कर्ष यही है, प्रभु-प्रेम में लग जाना।
 किताबों में जानकारी है, विद्या नहीं है, विद्या क्या है ? सो अहम् ! संस्कार होगा तो विद्या थोड़े ही समय में आ जाएगी। अख़बार को दिन भर मत पढो क्या पढना है, वही पढो।
 बद्संग को रोक कर सत्संग का समय निकलना पड़ता है। मुद-मंगल अन्दर की प्रसन्नता -दो महिना का बच्चा खुद मुस्कराए वो मुदिता है. 
सत्य का संग ही सत्संग है. क्या पढ़े गुरुगृह में केवल संस्कार पढ़ कर आये। प्रयोगाताम्क पढाई - जो जीवन में काम लगे. रामकथा से मोह भाग जाता है।   चाहे तन में अधिक बीमारी हो , प्रतिकूल चले नर-नारी हो, सत्संग करो, सत्संग करो, यह अवसर फिर नहीं मिलने का सत्संग करो, सत्संग करो.
========================================

२० वां बिहार-झाड़खण्ड त्रि-दिवसीय  (१६-२२ अप्रैल २०१५) युवा प्रशिक्षण शिविर, जानिबिघा , गया (बिहार) का रिपोर्ट : 
१० मार्च को प्रमोद दा ने मुझे दिल्ली में फोन पर बताया कि, " विवेक-वाहिनी शिविर में जानिबिघा से सुबोध पंडित आया था,उसने नवनीदा से जानिबिघा जाने का आग्रह किया तो, तो दादा बोले कि बिजय कैम्प में जाने को बोला है ? मुझसे तो उसने नहीं कहा ? प्रमोददा ने उनसे कहा कि बिजय ने एस.पी.टी.सी में ही आपसे कहा था आप भूल गये हैं। इस पर ८१ वर्ष के दादा गर्मी के दिन में भी तैयार हो गये हैं। मैं, प्रणवदा और बासुदेव बाघ  १६ अप्रैल २०१५ को शाम ७ बजे कोडरमा पहुँच रहे हैं, १७ अप्रैल को दादा वहीँ विश्राम करेंगे और १८ अप्रैल को कार से रजौली-सिरदला रोड होकर बन्धुआ क्रासिंग से जानिबिघा ग्राम पहुँचेंगे। सुबेश मास्टर रोड से गाइड कर के ले जायेगा। तुमको उनके आने के पहले कोडरमा आ जाना होगा।"
मैंने बताया कि डॉक्टर ने छः हफ्ते तक यहीं रहने को कहा है, [२७ फरवरी  को दिल्ली में मेरे बायें हाथ के अंगूठे का प्लास्टिक-सर्जरी हुआ था, डॉक्टर अनुराग जैन ने कहा कि छः सप्ताह के बाद (१५ मई ) को ही अंगूठे के टैन्डन (नस) में जुड़ा स्टील वायर काटा जा सकता है। तब तक बैण्डेज नहीं खोला जा सकता।]   प्रमोद दा बोले कि तुम वैसे ही चले आओ, कैम्प के बाद फिर वापस दिल्ली चले जाना। फिर रणेन दा का फोन आया कि तुम लोग अभी नवनी दा को इतनी उम्र के बाद भी जानिबिघा क्यों ले जा रहे हो ?  वहाँ यदि उनकी तबियत बिगड़ जाये तो क्या होगा ? प्रमोद ने बताया था कि वीरेन दा ने ही प्रोग्राम तय किया है, तब रणेन दा बोले कि तुम उनको अपने साथ ले जाना और उनका पूरा ध्यान रखना। 
 मैं  १६ अप्रैल को सुबह ६ बजे कोडरमा पहुँच गया । मैंने सोचा था कि प्रमोद दा और प्रणव दा को होटल में ठहरा देना अच्छा होगा, और दादा और उनका पी.ए नीचे वाले दो कमरों में रहेंगे । मैंने नीचे का कमरा और बाथरूम आदि ठीक करवा लिया। मैं और धर्मेन्द्र सिंह कार लेकर समय पर स्टेशन पहुँचे, थोड़ी देर में अजय, सुदीप और रामचन्द्र भी आ गए । दादा का बोगी प्लेटफार्म के अंतिम छोर पर था, वे लोग उतर  कर मेरे और रामचन्द्र के पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहे थे,( रामचन्द्र का पैर ठीक होने में अभी १ महीना और लगेगा।) सभी लोग पैदल ही धीरे धीरे पुल की तरफ चलने लगे। दादा को पैदल उतनी दूर तक जाने में थकान होने लगी, तो हमलोग एक जगह दादा को पंखे के सामने बैठने का आग्रह किये। वहाँ पहले से एक व्यक्ति (पगला? ?या कौन ?) बैठा हुआ था, उसने जगह साफ करके दादा से बैठने को कहा, और उनके चरण छुए।  फिर मेरे बैण्डेज वाले बाएं हाथ की ओर देखकर मुझे भी बैठने को कहा। थोड़ी देर बाद जब हमलोग चलने को तैयार हुए तो उसने दादा के चरणो को पुनः स्पर्श किया, दादा ने  सुदीप से १० रुपया लेकर उसे दिया और आदर से झुककर उसको  प्रणाम किया। ( ....... क्या वे उस समय खुली आँखों से ध्यान कर रहे थे ? उसमें भी ब्रह्म का दर्शन कर रहे थे ?)
हमलोग जब घर पहुँचे तो बहुत से लोग दादा को देखने के लिये आने लगे। सुदीप की माँ तथा अन्य महिलायें भी 'सारदा नारी संगठन ' से मिलने आयी थीं। प्रमोद दा ने कहा कि हम लोग होटल में नहीं ठहरेंगे, यहीं रहेंगे और चारो लोग घर में ही रुके। तिलैया में १६ के शाम से लेकर १७ के १० बजे रात्रि तक घर में आनन्द का वातावरण बना रहा, अनगिनत महिला-पुरुषों ने दादा के सत्संग का लाभ उठाया। १८ अप्रैल २०१५ को प्रातः  १०. ३० बजे
 हमलोग कार से जानिबिघा के लिये प्रस्थान किये। धर्मेन्द्र सिंह ने मुझसे रास्ते में अपना स्कूल (इंडियन पब्लिक स्कूल)  पर थोड़ी देर के लिये दादा को ले जाने का अनुरोध किया, दादा ने अनुमति दे दी और हम सभी लोग उनके स्कूल पहुँचे। वहाँ दादा से धर्मेन्द्र ने अनुरोध किया कि आप बच्चों को आशीर्वाद में कुछ शब्द बोल दीजिये; दादा ने मुझसे कहा कि मैं आशिर्बाद दूँगा, ऐसा अहंकार मैं नहीं रखता, तुम इन बच्चों को ही कुछ प्रार्थना या कविता सुनाने के लिये बोलो। बच्चों ने जब हिन्दी में प्रार्थना आदि सुनाये तो दादा ने धर्मेन्द्र से उन्हें संस्कृत में भी कोई प्रार्थना सिखाने का आदेश दिया। बच्चों ने लाइन से दादा के चरण स्पर्श किये, दादा ने उनके सिर पर हाथ रखा और टॉफी दिया।
आधे घंटे बाद हमलोग निकले और ' रजौली-सिरदला-लालसलाम मोड़'  होते हुए १.३० बजे ग्राम जानिबिघा पहुँचे; झुमरीतिलैया में १९८५ में स्थापित ' विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' अब जानिबीघा में एक विद्यालय  के रूप में स्थानान्तरित हो चुका है, जहाँ अभी ७०० बच्चे पढ़ते हैं । (आज समझ में आया कि ' विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ' की स्थापना तिलैया में स्वामीजी के आशीर्वाद से हुई थी, और इसे जानिबीघा में स्थानान्तरित कर वे महामण्डल आन्दोलन के नेताओं का निर्माण कर रहे हैं) - [कैलाश माँझी, सुबोध पंडित ,अजय पाण्डेय, जयप्रकाश मेहता, डॉ दयानन्द, धनेश्वर पंडित, पंकज मेहता, जमुना मेहता, ब्रजेश आदि के ह्रदय के विकास को देखकर ऐसा ही प्रतीत होता है।)  विद्यालय के ऑफिस को दादा का कैम्प ऑफिस बनाया गया था, वहाँ दादा ने थोड़ा विश्राम किया। प्रमोद दा ने हमलोगों को छाँछ और चाय पिलाया, वे १७ के सुबह में ही एडभांस पार्टी के रूप में जानिबीघा पहुँच गये थे।   
हमलोग जानिबिघा के पोस्टमास्टर के नये बने भवन में ठहराये गए थे। दोपहर के समय खाना खाने के बाद हमलोग वहीं चले गये। निरंकारी-सम्प्रदाय का सदस्य होने के  अहंकार ने दोपहर के समय उसको (बिडियो साहब को ) दादा के कमरे में बिछे दूसरे पलंग, जो उनके पी.ए  का था पर सोने के लिये उकसा दिया। पूज्य दादा अपने सेवक के कष्ट को देखकर मुझसे बोले-क्या हमें इस कमरे का भाड़ा भी देना होगा ? फिर मेरे समझाने के बाद वो उस कमरे में कभी नहीं गया।
शिविर का उद्घाटन महामण्डल के अध्यक्ष श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ने किया। उनके समक्ष विवेक वाहिनी के बच्चों ने एक शो प्रस्तुत किया ; धर्मेन्द्र सिंह, डॉक्टर हरेराम पाण्डेय, गजानन्द पाठक ने महामण्डल शिविर की अनिवार्यता पर अपने विचार रखे, दादा उनके भाषण को सुनकर प्रसन्न हुए। और पूछने लगे बीरेन क्या यहां नहीं आया है ? प्रथम दिन का शिविर उत्साहवर्धक रहा । अच्छी संख्या में ग्रामवासी स्त्री-पुरुष उपस्थित हुए थे। दूसरे दिन प्रातः अजय पाण्डेय ने मनःसंयोग की कक्षा ली, जो बिल्कुल महामण्डल पुस्तिका मनःसंयोग के आधार पर दो कक्षा के अनुसार मिहनत से तैयार की हुई थी। 
गजानन्द पाठक : जीवन-गठन किसे कहते हैं ? 
पूज्य नवनी दा : " अपने जीवन को इतने सुन्दर ढंग से गढ़ लेना कि, जो कोई भी मुझसे मिलने आये उसे ऐसा प्रतीत हो कि मुझसे मिलना उसका सौभाग्य था ! - जीवन गठन के विषय में इससे संक्षिप्त उत्तर नहीं दिया जा सकता है। " 


=================================

गुरुवार, 4 जून 2015

२१ जून अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस: स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित 'योग-विज्ञान' (3)

योग वह प्रणाली है जिसके माध्यम मनुष्य यह जान सकता है कि -वह वास्तव में क्या है ? सैन  फ़्रांसिस्को में २० मार्च, १९०० को दिये भाषण
सोsहमस्मि : 'I AM THAT I AM'
में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जो कुछ विभेदयुक्त (differentiated या भेद-भाव पैदा करता) है, वह सब प्रकृति है। वनस्पति-जीवन, पशुजीवन और मनुष्यजीवन तीनों का गुण (स्वभाव) प्रकृति है। मनुष्य का जीवन निश्चित नियमों के अनुसार चलता है और उसी प्रकार उसका मन भी निश्चित नियमों के अनुसार ही चलता है। मन के भीतर उठने वाले विचार यों ही उत्पन्न नहीं होते। उनके उदय, अस्तित्व और अंत का एक नियम है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार बाह्य प्रकृति नियम से आबद्ध है, उसी प्रकार अंतःप्रकृति अर्थात जीवन और मानव-मन भी। जब हम मनुष्य के अस्तित्व और मन को ध्यान में रखते हुए नियम पर विचार करते हैं, तब यह तुरन्त स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्र इच्छा
( फ्री विल) और 'मुक्त अस्तित्व' (फ्री  एग्ज़िस्टन्स) जैसी कोई वस्तु नहीं हो सकती। हम जानते हैं कि पशु-प्रकृति (एनिमल नेचर) किस प्रकार पूर्णरूपेण नियमबद्ध है। पशु किसी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। यही बात मनुष्य के सम्बन्ध में भी सत्य है, मानव-प्रकृति भी नियमबद्ध है। मानव-मन के क्रिया-कलापों को नियंत्रित करनेवाला नियम ही -'कर्म का विधान' (द  लॉ ऑफ़ कर्मा) कहा जाता है।
शून्य कुछ उत्पन्न होता हुआ किसीने नहीं देखा। यदि कोई बात मन में उठती है, तो वह भी किसी न किसी पदार्थ से उत्पन्न हुई होगी। जब हम 'फ्री विल' की बात करते हैं, तब हमारा आशय यह होता है कि इच्छा किसी अन्य कारण से उत्पन्न नहीं होती। परन्तु यह सत्य नहीं हो सकता। इच्छा (एक कार्य है,इसीलिये ) कारण से उत्पन्न होती है, कारण द्वारा उत्पन्न होने से वह स्वतंत्र नहीं हो सकती -वह नियम से बँधी हुई है। …मेरी प्रत्येक क्रिया किसी न किसी कारण से उत्पन्न होती है, अतः स्वतंत्र नहीं है। जीवन और मन का यह नियमन ही कर्म का नियम है। 
यदि प्राचीन काल में ऐसा सिद्धान्त पश्चिमी समाज में प्रतिपादित किया जाता, तो भारी उथल-पुथल मच जाती। पश्चिम का मनुष्य यह सोचना भी नहीं चाहता कि उसका मन नियम से शासित होता है। किन्तु भारत में जैसे ही वहाँ की प्राचीनतम दर्शन-पद्धति (योग) द्वारा यह प्रतिपादित किया गया, स्वीकार कर लिया गया। मन की स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं, वह हो भी नहीं सकती। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन से भारतीय मन में कोई उथल-पुथल क्यों नहीं हुई ? भारत ने इसे शांतिपूर्वक स्वीकार कर लिया; यही भारतीय विचारधारा की विशेषता है; और यहीं पर वह अन्य सभी विचारधाराओं से भिन्न है। 
बाह्य और आन्तरिक प्रकृतियाँ दो भिन्न वस्तु नहीं है, वस्तुतः वे एक हैं। प्रकृति समस्त घटनाओं की समष्टि है। 'प्रकृति' से आशय है -वह सब जो है, वह सब जो गतिशील है। हम जड़ वस्तु (मैटर) और मन (माइंड) में अत्यधिक भेद मानते हैं। हम सोचते हैं कि मन जड़ वस्तुओं से पूर्णतः भिन्न कोई अन्य वस्तु है। वस्तुतः वे एक ही प्रकृति हैं, जिसका अर्द्धांश दूसरे अर्द्धांश पर सतत क्रिया करता है। जड़ पदार्थ विभिन्न संवेदनों ( sensations इन्द्रियबोध) के रूप में मन पर प्रभाव डालता है। ' दीज सेन्सेशन्स आर नथिंग बट फोर्स' - ये संवेदनायें शक्ति (ऊर्जा) के सिवा और कुछ नहीं हैं। बाहर से आने वाली शक्ति भीतर की शक्ति को आन्दोलित करती है। बाह्य शक्ति के प्रति प्रतिउत्तर (रीस्पान्ड) करने अथवा उससे दूर हट जाने की इच्छा से आन्तरिक शक्ति जो रूप धारण करती है, उसे हम विचार कहते हैं। 
जड़ पदार्थ और मन दोनों ही वास्तव में शक्ति (ऊर्जा) ही हैं, और यदि तुम उनका विश्लेषण गहराई से करो , तो पाओगे कि मूलतः दोनों एक हैं। बाह्य शक्ति किसी प्रकार आन्तरिक शक्ति को प्रेरित (evoke)  सकती है, इसी बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे कहीं एक दूसरे से संयुक्त होती हैं -वे अवश्यमेव अखण्ड (अविच्छिन्न) हैं और इसिलिये वे मूलतः एक ही शक्ति हैं। जब तुम इन सबके (स्थूल और सूक्ष्म जड़ पदार्थों के) मूल में जाते हो, तब वे सरल एवं सामान्य प्रतीत होती हैं। चूँकि वही शक्ति (ऊर्जा) एक रूप में जड़ वस्तु, दूसरे रूप में मन होकर प्रकट होती है, अतः मन और जड़ पदार्थ को भिन्न समझने का कोई कारण नहीं है। मन जड़ पदार्थ के रूप में परिवर्तित होता है और जड़ पदार्थ मन के रूप में। विचार-शक्ति (थॉट पॉवर) ही स्नायु-शक्ति (नर्व फ़ोर्स), पेशी-शक्ति (मशल पॉवर) बन जाती है, और नर्व-पॉवर एवं पेशी-शक्ति या मशल पॉवर ही विचार-शक्ति । प्रकृति ही यह सब शक्ति है, चाहे वह जड़ वस्तु के रूप में अभिव्यक्त हो, चाहे मन के  रूप में। 
सूक्ष्मतम मन एवं स्थूलतम जड़-पदार्थ के बीच केवल मात्रा का ही अन्तर है। अतएव समस्त विश्व को मन या जड़ दोनों कहा जा सकता है। इन दोनों में क्या कहें यह महत्व नहीं रखता। तुम मन को सूक्ष्म जड़ पदार्थ कह सकते हो, अथवा शरीर को मन का स्थूल रूप। तुम किसे किस नाम से पुकारते हो, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। गलत ढंग से सोचने के कारण ही -'मैटेरियलिज्म एवं स्प्रिचुअलिटी' -भौतिकवाद एवं आध्यात्मवाद के बीच संघर्ष से कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। वास्तव में दोनों में कोई भेद नहीं है। मुझमें और हीनतम सूअर में केवल मात्रा का अंतर है, सूअर कम अभिव्यक्त हुआ, मैं अधिक। कभी मैं उससे बुरा हो जाता हूँ, कभी सूअर मुझसे अच्छा रहता है। 
और न इस बात पर विवाद करने से कोई लाभ है कि पहले जड़ (स्थूल शरीर) होता है या (चेतन) मन । क्या मन पहले आता है, जिससे जड़ वस्तु निकली है ? या पहले जड़ वस्तु हुई, जिससे मन निकला ? बहुत से दार्शनिक तर्क इन बेकार प्रश्नों को लेकर आगे बढ़ते हैं। यह तो वैसे ही है, जैसे कि यह पूछना कि पहले अण्डा हुआ या मुर्गी ? दोनों ही प्रथम हैं और दोनों ही अंतिम -मन और जड़ वस्तु, जड़ वस्तु और मन । यदि मैं यह कहूँ कि जड़ पदार्थ पहले होता है और सूक्ष्मतर  होता हुआ वह मन बन जाता है, तब मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि पदार्थ के पूर्व मन अवश्य रहा होगा। अन्यथा पदार्थ कहाँ से आया ? जड़-पदार्थ मन से पहले है, और मन जड़-पदार्थ से पहले है। यह सदैव मुर्गी-अण्डे जैसा प्रश्न है।
समस्त प्रकृति कारणत्व के नियम (law of causation-कारण-कार्य संबंध) से बँधी हुई है और देश-काल (time and space) में स्थित है। हम कोई चीज देश (खाली जगह-अंतरिक्ष) से परे देख सकते, तो भी हम देश को नहीं जानते। हम लोग कोई चीज काल से परे नहीं जानते, पर हम काल को भी नहीं जानते।  ' We cannot understand anything except in terms of causality, yet we do not know what causation is.'
हम किसी चीज को कार्य-कारण संबन्ध के सिवा और किसी रूप में नहीं समझ सकते, तथापि हम नहीं जानते हैं कि कार्य-कारण संबन्ध क्या है ? ' दीज थ्री थिंग्स — टाइम, स्पेस, एंड  कॉज़ैलिटी ( कारण-
कार्य-सिद्धान्त )— आर इन एंड थ्रू एव्री फिनोमिना, बट दे आर  नॉट  फिनोमिना.' ये तीन --देश, काल और कार्य-कारण -प्रत्येक घटना में विद्यमान हैं। परन्तु वे घटना नहीं हैं।  

 TheAbsoluteAndManifestation.svg

मानो वे रूप या साँचे हैं, जिनमें ज्ञेय बनने के पूर्व हर वस्तु का ढलना आवश्यक है। कोई भी पदार्थ-उपादान (सब्स्टन्स-सार वस्तु, या सत्ता) प्लस टाइम, स्पेस, एंड  कॉज़ैलिटी (कार्य- कारण संबन्ध) का संघात है। उसी प्रकार हमारा 'मन' भी -उपादान (मन-वस्तु या चित्त) प्लस टाइम, स्पेस, एंड  कॉज़ैलिटी -या मन -उपादान, देश, काल और कार्य-कारण संबन्ध  संघात है।    
इसी तथ्य को दूसरे प्रकार से भी व्यक्त किया जा सकता है। प्रत्येक वस्तु उपादान (अस्तित्व) और नाम-रूप का योग है। नाम और रूप आते-जाते रहते हैं,( मिथ्या अहं का जन्म-मृत्यु होता रहता है) किन्तु उपादान (अस्तित्व या आत्मा ) सदा वही रहता है। यह घड़ा उपादान (मिट्टी), रूप और नाम से निर्मित है। जब यह टूट जाता है, तब तुम इसे घड़ा नहीं कहते और न तुम इसके घड़ा रूप को ही देखते हो। इसका नाम और रूप नष्ट हो जाता है, किन्तु इसका उपादान शेष रहता है। उपादान में जो अंतर किया जाता है, वह नाम और रूप के द्वारा ही किया जाता है। ये वास्तविक नहीं हैं, क्योंकि ये नष्ट हो जाते हैं। जिसे हम प्रकृति कहते हैं, वह अपरिवर्तनशील एवं अविनाशी उपादान नहीं है। प्रकृति समय, स्थान और कॉज़ैशन ( कारणत्व या कारण-कार्य-संबंध) है। प्रकृति माया है। माया का अर्थ है -' नाम और रूप ' जिसमें प्रत्येक वस्तु ढाली जाती है। माया सत्य नहीं है। यदि यह सत्य होती, तो उसे हम नष्ट या परिवर्तित नहीं कर सकते। उपादान तत्व (noumenal) है और माया घटना। जो  यथार्थ 'मैं ' (द्रष्टा) है उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता, और दूसरा जो दृश्य-रूप 'मैं ' (स्वयं को कर्ता मानने वाला मिथ्या अहं) है, वह सतत परिवर्तित और नष्ट हो रहा है।  
वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी अस्तित्व रखता है, उसके दो पहलु हैं। एक तात्विक-अपरिवर्तनशील एवं अविनाशी; दूसरा नामरूपात्मक जो परिवर्तनशील एवं नश्वर है। मनुष्य अपने सच्चे स्वरूप में -तत्व, उपादान या आत्मा है। यह आत्मा कभी परिवर्तित नहीं होती, कभी नष्ट नहीं होती। किन्तु वह एक रूप (M/F) का चोला पहने हुए तथा एक नाम से सम्बद्ध प्रतीत होती है। ये नाम और रूप अखण्ड और अविनाशी नहीं हैं, वे सतत परिवर्तित और नष्ट होते हैं। फिरभी लोग मूर्खतापूर्वक इस परिवर्तनशील रूप-- 'शरीर और मन' में अमरत्व की खोज करते हैं - वे एक शाश्वत शरीर प्राप्त करना चाहते हैं। मैं उस प्रकार का अमरत्व नहीं चाहता। 
मेरे और प्रकृति के बीच क्या संबन्ध है ? जहाँ तक प्रकृति का आशय नाम-रूप या टाइम, स्पेस, एंड  कॉज़ैलिटी से है, मैं प्रकृति का अंश नहीं हूँ, क्योंकि मैं मुक्त, अविनाशी और अपरिवर्तनशील हूँ। मेरी (यथार्थ मैं की) स्वतंत्र इच्छा है या नहीं -इसका प्रश्न ही नहीं उठता। मैं किसी प्रकार की इच्छा से पूर्णतः परे हूँ। जहाँ भी इच्छा है, वह मुक्त नहीं है। इच्छा की स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं है। मुक्ति उस 'वस्तु' की है, जो मिथ्या नाम-रूप  के बन्धन (कारणत्व ?) में बँधकर उनसे अपना तादात्म्य करके उसका दास बनने पर इच्छा (M/F वाला अहं) का रूप धारण करती है। वह तत्व (नित्य-मुक्त अविनाशी, सत्य) -आत्मा -मानो अपने को (नश्वर,मिथ्या ) नाम-रूप के साँचे में ढालती है, और तुरन्त बद्ध हो जाती है, जब कि वह पहले मुक्त थी।
फिर भी उसका मौलिक स्वरुप अब भी वर्तमान है। इसीलिये वह कहती है, 'मैं मुक्त हूँ, इन सब बन्धनों के बावजूद मैं मुक्त हूँ ! ' वह इसे कभी नहीं भूलती। ' बट व्हेन द सोल हैज  बिकम द विल , इट इज़ नो मोर रियली फ्री.' परन्तु इच्छा (नाम-रूप का अहं से उत्पन्न) का रूप धारण कर लेने पर वह वास्तव में स्वतंत्र नहीं रह जाती। प्रकृति डोर खींचती है और जैसा चाहती है, वैसा ही उसे नाचना पड़ता है। इसी प्रकार हमने और तुमने वर्षों से (कई पूर्व जन्मों में कभी स्त्री तो कभी पुरुष बन कर) नाच नाचा है। वह सब जो हम देखते, करते, जानते और अनुभव करते हैं, हमारे समस्त विचार और कार्य प्रकृति के इशारे पर नाचने के सिवा और कुछ नहीं है। इनमें से किसी में स्वतंत्रता न तो रही है और न है। निम्नतम से लेकर उच्चतम तक समस्त ' विचार एवं कार्य '--नियम से बँधे हैं और इनमें से किसीका भी हमारे वास्तविक स्वरुप से संबन्ध नहीं है। 
'माई ट्रू सैल्फ इस बियॉन्ड आल लॉ !!'-- मेरा सच्चा स्वरूप देश, काल, कारणत्व आदि समस्त प्रकार के नियमों से परे है ! जब तुम (नाम-रूप की) दासता (मिथ्या अहं ) से तादात्म्य स्थापित लेते हो, तब तुमको नियम के अधीन रहना पड़ता है। तुम नियम से बँधे रहते हुए भी प्रसन्नता का अनुभव करते हो। फिर जितना अधिक तुम प्रकृति और उसके आदेशों का पालन करते हो, उतना अधिक तुम बँध जाते हो। जितना ही तुम 'अविद्या ' के साथ सामंजस्य स्थापित करते हो, उतना ही तुम विश्व के प्रत्येक वस्तु के इशारे पर नाचते हो। ' इज़  दिस हारमनी विथ नेचर, दिस ओबेडिएंस टू लॉ, इन एकॉर्ड विथ द ट्रू नेचर एंड डेस्टिनी ऑफ़ मैन ? क्या प्रकृति (नाम-रूप ) के साथ यह सामंजस्य, यह नियम का पालन मनुष्य के सच्चे स्वरूप और उसके भाग्य के अनुकूल है? क्या किस खनिज पदार्थ या वनस्पति ने कभी प्रकृति के नियमों के विरुद्ध संघर्ष करने का साहस दिखलाया है? यह मेज प्रकृति के नियम के सामंजस्य में है, परन्तु यह सदा मेज ही बनी रहती है। इसके आगे उन्नति नहीं करती। मनुष्य प्रकृति के नियमों  के विरुद्ध युद्ध और संघर्ष करना प्रारम्भ करता है। वह अनेक भूलें करता है, कष्ट भोगता है ! परन्तु अंत में प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है, और अपने लक्ष्य -मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जब वह मुक्त हो जाता है -तब प्रकृति उसकी दासी बन जाती है। 'द  अवेकनिंग ऑफ़ द सोल टू इट्स बाँडेज एंड इट्स एफर्ट टु स्टैंड अप एंड अस्सर्ट इटसेल्फ — दिस  इज  कॉल्ड लाइफ ! ' आत्मा का अपने बँधन के प्रति जागरूक हो जाना, उठ खड़े होना और निरन्तर अपने सच्चे स्वरूप में प्रतिष्ठित रहने का प्रयत्न करते रहना - इसीको जीवन कहते हैं ! इस संघर्ष में सफलता प्राप्त करने को ही क्रम-विकसित होना (evolution) कहते हैं। 
अंतिम विजय , जब समस्त दासता नष्ट हो जाती है, मोक्ष -निर्वाण या मुक्ति कहलाती है । विश्व में प्रत्येक वस्तु मुक्ति के लिए संघर्षरत है। जब तक मैं प्रकृति से, नाम-रूप से, देश-काल एवं कारणत्व (time, space and causality)  से बँधा हुआ हूँ, मैं नहीं जानता कि वस्तुतः मैं हूँ क्या ? किन्तु इस बँधन में भी मेरा स्वरुप पूर्णतः खो नहीं जाता। मैं बँधनों को तोड़ने के लिए जोर लगाता हूँ, और एक एक करके मेरे सारे बँधन टूटते चले जाते हैं। फिर एक दिन मुझे अपने अन्तर्निहित दिव्यत्व का बोध हो ही जाता है। तब पूर्ण मुक्ति प्राप्त होती है। मुझे अपने स्वरूप का पूर्णतम और स्पष्टतम ज्ञान हो जाता है --मैं जानता हूँ कि 'मैं अनन्त आत्मा हूँ, प्रकृति का स्वामी हूँ , उसका दास नहीं । 'बियॉन्ड आल डिफरेन्शीऐशन ऐंड कॉम्बिनेशन, बियॉन्ड स्पेस, टाइम एंड कॉज़ैशन, आई एम दैट आई एम ' समस्त भेदों एवं संघातों से परे , देश, काल एवं कारणता से परे , मैं अपना स्वरूप हूँ  ! सोsहमस्मि : 'I AM THAT I AM'