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गुरुवार, 4 जून 2015

२१ जून अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस: स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित 'योग-विज्ञान' (3)

योग वह प्रणाली है जिसके माध्यम मनुष्य यह जान सकता है कि -वह वास्तव में क्या है ? सैन  फ़्रांसिस्को में २० मार्च, १९०० को दिये भाषण
सोsहमस्मि : 'I AM THAT I AM'
में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जो कुछ विभेदयुक्त (differentiated या भेद-भाव पैदा करता) है, वह सब प्रकृति है। वनस्पति-जीवन, पशुजीवन और मनुष्यजीवन तीनों का गुण (स्वभाव) प्रकृति है। मनुष्य का जीवन निश्चित नियमों के अनुसार चलता है और उसी प्रकार उसका मन भी निश्चित नियमों के अनुसार ही चलता है। मन के भीतर उठने वाले विचार यों ही उत्पन्न नहीं होते। उनके उदय, अस्तित्व और अंत का एक नियम है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार बाह्य प्रकृति नियम से आबद्ध है, उसी प्रकार अंतःप्रकृति अर्थात जीवन और मानव-मन भी। जब हम मनुष्य के अस्तित्व और मन को ध्यान में रखते हुए नियम पर विचार करते हैं, तब यह तुरन्त स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्र इच्छा
( फ्री विल) और 'मुक्त अस्तित्व' (फ्री  एग्ज़िस्टन्स) जैसी कोई वस्तु नहीं हो सकती। हम जानते हैं कि पशु-प्रकृति (एनिमल नेचर) किस प्रकार पूर्णरूपेण नियमबद्ध है। पशु किसी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। यही बात मनुष्य के सम्बन्ध में भी सत्य है, मानव-प्रकृति भी नियमबद्ध है। मानव-मन के क्रिया-कलापों को नियंत्रित करनेवाला नियम ही -'कर्म का विधान' (द  लॉ ऑफ़ कर्मा) कहा जाता है।
शून्य कुछ उत्पन्न होता हुआ किसीने नहीं देखा। यदि कोई बात मन में उठती है, तो वह भी किसी न किसी पदार्थ से उत्पन्न हुई होगी। जब हम 'फ्री विल' की बात करते हैं, तब हमारा आशय यह होता है कि इच्छा किसी अन्य कारण से उत्पन्न नहीं होती। परन्तु यह सत्य नहीं हो सकता। इच्छा (एक कार्य है,इसीलिये ) कारण से उत्पन्न होती है, कारण द्वारा उत्पन्न होने से वह स्वतंत्र नहीं हो सकती -वह नियम से बँधी हुई है। …मेरी प्रत्येक क्रिया किसी न किसी कारण से उत्पन्न होती है, अतः स्वतंत्र नहीं है। जीवन और मन का यह नियमन ही कर्म का नियम है। 
यदि प्राचीन काल में ऐसा सिद्धान्त पश्चिमी समाज में प्रतिपादित किया जाता, तो भारी उथल-पुथल मच जाती। पश्चिम का मनुष्य यह सोचना भी नहीं चाहता कि उसका मन नियम से शासित होता है। किन्तु भारत में जैसे ही वहाँ की प्राचीनतम दर्शन-पद्धति (योग) द्वारा यह प्रतिपादित किया गया, स्वीकार कर लिया गया। मन की स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं, वह हो भी नहीं सकती। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन से भारतीय मन में कोई उथल-पुथल क्यों नहीं हुई ? भारत ने इसे शांतिपूर्वक स्वीकार कर लिया; यही भारतीय विचारधारा की विशेषता है; और यहीं पर वह अन्य सभी विचारधाराओं से भिन्न है। 
बाह्य और आन्तरिक प्रकृतियाँ दो भिन्न वस्तु नहीं है, वस्तुतः वे एक हैं। प्रकृति समस्त घटनाओं की समष्टि है। 'प्रकृति' से आशय है -वह सब जो है, वह सब जो गतिशील है। हम जड़ वस्तु (मैटर) और मन (माइंड) में अत्यधिक भेद मानते हैं। हम सोचते हैं कि मन जड़ वस्तुओं से पूर्णतः भिन्न कोई अन्य वस्तु है। वस्तुतः वे एक ही प्रकृति हैं, जिसका अर्द्धांश दूसरे अर्द्धांश पर सतत क्रिया करता है। जड़ पदार्थ विभिन्न संवेदनों ( sensations इन्द्रियबोध) के रूप में मन पर प्रभाव डालता है। ' दीज सेन्सेशन्स आर नथिंग बट फोर्स' - ये संवेदनायें शक्ति (ऊर्जा) के सिवा और कुछ नहीं हैं। बाहर से आने वाली शक्ति भीतर की शक्ति को आन्दोलित करती है। बाह्य शक्ति के प्रति प्रतिउत्तर (रीस्पान्ड) करने अथवा उससे दूर हट जाने की इच्छा से आन्तरिक शक्ति जो रूप धारण करती है, उसे हम विचार कहते हैं। 
जड़ पदार्थ और मन दोनों ही वास्तव में शक्ति (ऊर्जा) ही हैं, और यदि तुम उनका विश्लेषण गहराई से करो , तो पाओगे कि मूलतः दोनों एक हैं। बाह्य शक्ति किसी प्रकार आन्तरिक शक्ति को प्रेरित (evoke)  सकती है, इसी बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे कहीं एक दूसरे से संयुक्त होती हैं -वे अवश्यमेव अखण्ड (अविच्छिन्न) हैं और इसिलिये वे मूलतः एक ही शक्ति हैं। जब तुम इन सबके (स्थूल और सूक्ष्म जड़ पदार्थों के) मूल में जाते हो, तब वे सरल एवं सामान्य प्रतीत होती हैं। चूँकि वही शक्ति (ऊर्जा) एक रूप में जड़ वस्तु, दूसरे रूप में मन होकर प्रकट होती है, अतः मन और जड़ पदार्थ को भिन्न समझने का कोई कारण नहीं है। मन जड़ पदार्थ के रूप में परिवर्तित होता है और जड़ पदार्थ मन के रूप में। विचार-शक्ति (थॉट पॉवर) ही स्नायु-शक्ति (नर्व फ़ोर्स), पेशी-शक्ति (मशल पॉवर) बन जाती है, और नर्व-पॉवर एवं पेशी-शक्ति या मशल पॉवर ही विचार-शक्ति । प्रकृति ही यह सब शक्ति है, चाहे वह जड़ वस्तु के रूप में अभिव्यक्त हो, चाहे मन के  रूप में। 
सूक्ष्मतम मन एवं स्थूलतम जड़-पदार्थ के बीच केवल मात्रा का ही अन्तर है। अतएव समस्त विश्व को मन या जड़ दोनों कहा जा सकता है। इन दोनों में क्या कहें यह महत्व नहीं रखता। तुम मन को सूक्ष्म जड़ पदार्थ कह सकते हो, अथवा शरीर को मन का स्थूल रूप। तुम किसे किस नाम से पुकारते हो, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। गलत ढंग से सोचने के कारण ही -'मैटेरियलिज्म एवं स्प्रिचुअलिटी' -भौतिकवाद एवं आध्यात्मवाद के बीच संघर्ष से कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। वास्तव में दोनों में कोई भेद नहीं है। मुझमें और हीनतम सूअर में केवल मात्रा का अंतर है, सूअर कम अभिव्यक्त हुआ, मैं अधिक। कभी मैं उससे बुरा हो जाता हूँ, कभी सूअर मुझसे अच्छा रहता है। 
और न इस बात पर विवाद करने से कोई लाभ है कि पहले जड़ (स्थूल शरीर) होता है या (चेतन) मन । क्या मन पहले आता है, जिससे जड़ वस्तु निकली है ? या पहले जड़ वस्तु हुई, जिससे मन निकला ? बहुत से दार्शनिक तर्क इन बेकार प्रश्नों को लेकर आगे बढ़ते हैं। यह तो वैसे ही है, जैसे कि यह पूछना कि पहले अण्डा हुआ या मुर्गी ? दोनों ही प्रथम हैं और दोनों ही अंतिम -मन और जड़ वस्तु, जड़ वस्तु और मन । यदि मैं यह कहूँ कि जड़ पदार्थ पहले होता है और सूक्ष्मतर  होता हुआ वह मन बन जाता है, तब मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि पदार्थ के पूर्व मन अवश्य रहा होगा। अन्यथा पदार्थ कहाँ से आया ? जड़-पदार्थ मन से पहले है, और मन जड़-पदार्थ से पहले है। यह सदैव मुर्गी-अण्डे जैसा प्रश्न है।
समस्त प्रकृति कारणत्व के नियम (law of causation-कारण-कार्य संबंध) से बँधी हुई है और देश-काल (time and space) में स्थित है। हम कोई चीज देश (खाली जगह-अंतरिक्ष) से परे देख सकते, तो भी हम देश को नहीं जानते। हम लोग कोई चीज काल से परे नहीं जानते, पर हम काल को भी नहीं जानते।  ' We cannot understand anything except in terms of causality, yet we do not know what causation is.'
हम किसी चीज को कार्य-कारण संबन्ध के सिवा और किसी रूप में नहीं समझ सकते, तथापि हम नहीं जानते हैं कि कार्य-कारण संबन्ध क्या है ? ' दीज थ्री थिंग्स — टाइम, स्पेस, एंड  कॉज़ैलिटी ( कारण-
कार्य-सिद्धान्त )— आर इन एंड थ्रू एव्री फिनोमिना, बट दे आर  नॉट  फिनोमिना.' ये तीन --देश, काल और कार्य-कारण -प्रत्येक घटना में विद्यमान हैं। परन्तु वे घटना नहीं हैं।  

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मानो वे रूप या साँचे हैं, जिनमें ज्ञेय बनने के पूर्व हर वस्तु का ढलना आवश्यक है। कोई भी पदार्थ-उपादान (सब्स्टन्स-सार वस्तु, या सत्ता) प्लस टाइम, स्पेस, एंड  कॉज़ैलिटी (कार्य- कारण संबन्ध) का संघात है। उसी प्रकार हमारा 'मन' भी -उपादान (मन-वस्तु या चित्त) प्लस टाइम, स्पेस, एंड  कॉज़ैलिटी -या मन -उपादान, देश, काल और कार्य-कारण संबन्ध  संघात है।    
इसी तथ्य को दूसरे प्रकार से भी व्यक्त किया जा सकता है। प्रत्येक वस्तु उपादान (अस्तित्व) और नाम-रूप का योग है। नाम और रूप आते-जाते रहते हैं,( मिथ्या अहं का जन्म-मृत्यु होता रहता है) किन्तु उपादान (अस्तित्व या आत्मा ) सदा वही रहता है। यह घड़ा उपादान (मिट्टी), रूप और नाम से निर्मित है। जब यह टूट जाता है, तब तुम इसे घड़ा नहीं कहते और न तुम इसके घड़ा रूप को ही देखते हो। इसका नाम और रूप नष्ट हो जाता है, किन्तु इसका उपादान शेष रहता है। उपादान में जो अंतर किया जाता है, वह नाम और रूप के द्वारा ही किया जाता है। ये वास्तविक नहीं हैं, क्योंकि ये नष्ट हो जाते हैं। जिसे हम प्रकृति कहते हैं, वह अपरिवर्तनशील एवं अविनाशी उपादान नहीं है। प्रकृति समय, स्थान और कॉज़ैशन ( कारणत्व या कारण-कार्य-संबंध) है। प्रकृति माया है। माया का अर्थ है -' नाम और रूप ' जिसमें प्रत्येक वस्तु ढाली जाती है। माया सत्य नहीं है। यदि यह सत्य होती, तो उसे हम नष्ट या परिवर्तित नहीं कर सकते। उपादान तत्व (noumenal) है और माया घटना। जो  यथार्थ 'मैं ' (द्रष्टा) है उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता, और दूसरा जो दृश्य-रूप 'मैं ' (स्वयं को कर्ता मानने वाला मिथ्या अहं) है, वह सतत परिवर्तित और नष्ट हो रहा है।  
वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी अस्तित्व रखता है, उसके दो पहलु हैं। एक तात्विक-अपरिवर्तनशील एवं अविनाशी; दूसरा नामरूपात्मक जो परिवर्तनशील एवं नश्वर है। मनुष्य अपने सच्चे स्वरूप में -तत्व, उपादान या आत्मा है। यह आत्मा कभी परिवर्तित नहीं होती, कभी नष्ट नहीं होती। किन्तु वह एक रूप (M/F) का चोला पहने हुए तथा एक नाम से सम्बद्ध प्रतीत होती है। ये नाम और रूप अखण्ड और अविनाशी नहीं हैं, वे सतत परिवर्तित और नष्ट होते हैं। फिरभी लोग मूर्खतापूर्वक इस परिवर्तनशील रूप-- 'शरीर और मन' में अमरत्व की खोज करते हैं - वे एक शाश्वत शरीर प्राप्त करना चाहते हैं। मैं उस प्रकार का अमरत्व नहीं चाहता। 
मेरे और प्रकृति के बीच क्या संबन्ध है ? जहाँ तक प्रकृति का आशय नाम-रूप या टाइम, स्पेस, एंड  कॉज़ैलिटी से है, मैं प्रकृति का अंश नहीं हूँ, क्योंकि मैं मुक्त, अविनाशी और अपरिवर्तनशील हूँ। मेरी (यथार्थ मैं की) स्वतंत्र इच्छा है या नहीं -इसका प्रश्न ही नहीं उठता। मैं किसी प्रकार की इच्छा से पूर्णतः परे हूँ। जहाँ भी इच्छा है, वह मुक्त नहीं है। इच्छा की स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं है। मुक्ति उस 'वस्तु' की है, जो मिथ्या नाम-रूप  के बन्धन (कारणत्व ?) में बँधकर उनसे अपना तादात्म्य करके उसका दास बनने पर इच्छा (M/F वाला अहं) का रूप धारण करती है। वह तत्व (नित्य-मुक्त अविनाशी, सत्य) -आत्मा -मानो अपने को (नश्वर,मिथ्या ) नाम-रूप के साँचे में ढालती है, और तुरन्त बद्ध हो जाती है, जब कि वह पहले मुक्त थी।
फिर भी उसका मौलिक स्वरुप अब भी वर्तमान है। इसीलिये वह कहती है, 'मैं मुक्त हूँ, इन सब बन्धनों के बावजूद मैं मुक्त हूँ ! ' वह इसे कभी नहीं भूलती। ' बट व्हेन द सोल हैज  बिकम द विल , इट इज़ नो मोर रियली फ्री.' परन्तु इच्छा (नाम-रूप का अहं से उत्पन्न) का रूप धारण कर लेने पर वह वास्तव में स्वतंत्र नहीं रह जाती। प्रकृति डोर खींचती है और जैसा चाहती है, वैसा ही उसे नाचना पड़ता है। इसी प्रकार हमने और तुमने वर्षों से (कई पूर्व जन्मों में कभी स्त्री तो कभी पुरुष बन कर) नाच नाचा है। वह सब जो हम देखते, करते, जानते और अनुभव करते हैं, हमारे समस्त विचार और कार्य प्रकृति के इशारे पर नाचने के सिवा और कुछ नहीं है। इनमें से किसी में स्वतंत्रता न तो रही है और न है। निम्नतम से लेकर उच्चतम तक समस्त ' विचार एवं कार्य '--नियम से बँधे हैं और इनमें से किसीका भी हमारे वास्तविक स्वरुप से संबन्ध नहीं है। 
'माई ट्रू सैल्फ इस बियॉन्ड आल लॉ !!'-- मेरा सच्चा स्वरूप देश, काल, कारणत्व आदि समस्त प्रकार के नियमों से परे है ! जब तुम (नाम-रूप की) दासता (मिथ्या अहं ) से तादात्म्य स्थापित लेते हो, तब तुमको नियम के अधीन रहना पड़ता है। तुम नियम से बँधे रहते हुए भी प्रसन्नता का अनुभव करते हो। फिर जितना अधिक तुम प्रकृति और उसके आदेशों का पालन करते हो, उतना अधिक तुम बँध जाते हो। जितना ही तुम 'अविद्या ' के साथ सामंजस्य स्थापित करते हो, उतना ही तुम विश्व के प्रत्येक वस्तु के इशारे पर नाचते हो। ' इज़  दिस हारमनी विथ नेचर, दिस ओबेडिएंस टू लॉ, इन एकॉर्ड विथ द ट्रू नेचर एंड डेस्टिनी ऑफ़ मैन ? क्या प्रकृति (नाम-रूप ) के साथ यह सामंजस्य, यह नियम का पालन मनुष्य के सच्चे स्वरूप और उसके भाग्य के अनुकूल है? क्या किस खनिज पदार्थ या वनस्पति ने कभी प्रकृति के नियमों के विरुद्ध संघर्ष करने का साहस दिखलाया है? यह मेज प्रकृति के नियम के सामंजस्य में है, परन्तु यह सदा मेज ही बनी रहती है। इसके आगे उन्नति नहीं करती। मनुष्य प्रकृति के नियमों  के विरुद्ध युद्ध और संघर्ष करना प्रारम्भ करता है। वह अनेक भूलें करता है, कष्ट भोगता है ! परन्तु अंत में प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है, और अपने लक्ष्य -मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जब वह मुक्त हो जाता है -तब प्रकृति उसकी दासी बन जाती है। 'द  अवेकनिंग ऑफ़ द सोल टू इट्स बाँडेज एंड इट्स एफर्ट टु स्टैंड अप एंड अस्सर्ट इटसेल्फ — दिस  इज  कॉल्ड लाइफ ! ' आत्मा का अपने बँधन के प्रति जागरूक हो जाना, उठ खड़े होना और निरन्तर अपने सच्चे स्वरूप में प्रतिष्ठित रहने का प्रयत्न करते रहना - इसीको जीवन कहते हैं ! इस संघर्ष में सफलता प्राप्त करने को ही क्रम-विकसित होना (evolution) कहते हैं। 
अंतिम विजय , जब समस्त दासता नष्ट हो जाती है, मोक्ष -निर्वाण या मुक्ति कहलाती है । विश्व में प्रत्येक वस्तु मुक्ति के लिए संघर्षरत है। जब तक मैं प्रकृति से, नाम-रूप से, देश-काल एवं कारणत्व (time, space and causality)  से बँधा हुआ हूँ, मैं नहीं जानता कि वस्तुतः मैं हूँ क्या ? किन्तु इस बँधन में भी मेरा स्वरुप पूर्णतः खो नहीं जाता। मैं बँधनों को तोड़ने के लिए जोर लगाता हूँ, और एक एक करके मेरे सारे बँधन टूटते चले जाते हैं। फिर एक दिन मुझे अपने अन्तर्निहित दिव्यत्व का बोध हो ही जाता है। तब पूर्ण मुक्ति प्राप्त होती है। मुझे अपने स्वरूप का पूर्णतम और स्पष्टतम ज्ञान हो जाता है --मैं जानता हूँ कि 'मैं अनन्त आत्मा हूँ, प्रकृति का स्वामी हूँ , उसका दास नहीं । 'बियॉन्ड आल डिफरेन्शीऐशन ऐंड कॉम्बिनेशन, बियॉन्ड स्पेस, टाइम एंड कॉज़ैशन, आई एम दैट आई एम ' समस्त भेदों एवं संघातों से परे , देश, काल एवं कारणता से परे , मैं अपना स्वरूप हूँ  ! सोsहमस्मि : 'I AM THAT I AM'

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