क्या सर्व-समावेशी 'वेदान्त' भारत का राष्ट्रीय धर्म नहीं हो सकता ?
(वेदान्त का प्रतिपाद्य है- 'विश्व का एकत्व', विश्वबन्धुत्व नहीं)
' विवेकानन्द - दर्शनम् '
(वेदान्त का प्रतिपाद्य है- 'विश्व का एकत्व', विश्वबन्धुत्व नहीं)
' विवेकानन्द - दर्शनम् '
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
[In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं।]
[In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं।]
श्री श्री माँ सारदा और आप , मैं ...या कोई भी ...
नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
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विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्
' विवेकानन्द - वचनामृत '
२०.
अहमस्म्येव सर्वत्र नास्ति यन्न भवाम्यहम्।
कथं दुःखं परेषां यत् न मे तत् दुःखकारणम् ॥
1.'In everybody I reside.'
There is nothing that I am not.
2.' The universe is my body.'
How can the woes of others not be the cause of my suffering ?
3. ' We are bound to feel in other bodies than this one.'
१.['In everybody I reside.'There is nothing that I am not. देखो सभी कैसे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं! सारे मन मेरे मन हैं। सबके पैरों से मैं ही चलता हूँ। सबके मुँह से मैं ही बोलता हूँ। ' In everybody I reside.' सबके शरीर में मेरा ही निवास है ! ऐसा कुछ नहीं है जो मैं न होऊँ ! तो फिर मैं इसका अनुभव क्यों नहीं कर पाता हूँ ? इसका कारण है वही व्यक्तित्व भाव, वही शूकरपना (that piggishness.) इस मन (सूक्ष्म-शरीर) से तुम इतने आबद्ध हो चुके हो कि तुम यहीं (इसी शरीर में) रह सकते हो, वहाँ नहीं।
' क्या वेदान्त भावी युग का धर्म होगा ?
(स्वामी जी का भाषण-कौशल)
इधर लगभग महीने भर से मेरे व्याख्यानों में उपस्थित रहने के कारण तुम लोगों को अब तक वेदान्त दर्शन के आधारभूत सिद्धान्तों का थोड़ा-बहुत परिचय मिल चुका होगा। संसार भर में प्राचीनतम धर्म-दर्शन है वेदान्त, लेकिन वह लोकप्रिय हुआ है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसलिये ' क्या वेदान्त भावी युग का धर्म होगा ?' इस प्रश्न का उत्तर दे सकना बड़ा कठिन है।
मैं यह पहले ही बता दूँ कि अधिकांश मानवता कभी इसे अपना धर्म मानेगी, इसका मैं अनुमान नहीं लगा पाता। क्या अमेरिका जैसे एक समग्र राष्ट्र को वह कभी प्रभावित कर सकेगा ? शायद वह कर सके! जो भी हो, आज की संध्या का प्रतिपाद्य विषय यही रहेगा।
वेदान्त क्या नहीं है, इससे आरम्भ करते हुए, बाद में वेदान्त क्या है, इसका परिचय दूंगा। लेकिन यह याद रखो कि निष्पक्ष सिद्धान्तों पर जोर देने के साथ साथ वेदान्त का किसी अन्य मत या पंथ के साथ कोई विरोध नहीं है। हाँ, जहाँ तक मौलिक सिद्धान्तों का प्रश्न है, उसके लिये अपने सत्य पक्ष का त्याग करना, या अन्य किसी मत से समझौता कर लेना संभव नहीं है।
तुम सबको मालूम है कि धर्म के निर्माण के लिये कुछ उपादान आवश्यक होते हैं। इनमें ग्रंथ का स्थान सर्वोपरि है। ग्रंथ की शक्ति अद्भुत है। कारण जो भी हो, ग्रंथ मानवीय श्रद्धा के ध्रुव केन्द्र हैं। आज के जीवित धर्मों में ऐसा कोई भी नहीं है, जिसका अपना ग्रंथ न हो। तर्कवाद और लम्बी-चौड़ी बातों के बावजूद मानवता ग्रंथों से चिपकी हुई है। आपके देश में ही ग्रंथरहित धर्म के प्रचार का सारा प्रयास विफल हुआ है। भारत में किसी भी नये सम्प्रदाय का आरम्भ तो सफलतापूर्वक हो जाता है, किन्तु कुछ ही वर्षों में वे इसलिये दिवंगत हो जाते हैं कि उनके पीछे कोई ग्रंथ नहीं होता।
यही अन्य देशों में भी होता है; उदाहरणार्थ एकेश्वरवादी (Unitarian त्रिदेव-विरोधी) आन्दोलन के उत्थान और पतन के इतिहास को लो। वह तुम्हारे राष्ट्र के सर्वोच्च चिन्तन का प्रतीक है। मेथोडिस्ट (Methodist या वैस्ले-पंथी नियमवादी चर्च), बैप्टिस्ट (Baptist बपतिस्मा-दाता) और इतर ईसाई सम्प्रदायों की भाँति, एकेश्वरवादी-चर्च (Unitarian Church) का उतना प्रचार क्यों नहीं हो सका ? कारण स्पष्ट है - उसका अपना कोई ग्रंथ न था ! इसके ठीक विपरीत यहूदियों को देखो। मुट्ठी भर लोग, हर राष्ट्र से खदेड़े जाकर भी संगठित हैं, क्योंकि उनका अपना धर्मग्रन्थ है। पारसियों को लो, दुनिया भर में वे केवल एक लाख ही होंगे। जैन सम्प्रदाय के अनुयायी भारत में दस ही लाख रह गये हैं। क्या तुम जानते हो कि ये थोड़े से पारसी और जैनी केवल अपने धर्मग्रंथों की बदौलत ही जीवित हैं ? आज जितने भी जीवित धर्म हैं, उनमें से प्रत्येक का अपना अलग-अलग धर्मग्रन्थ है।
धर्म की दूसरी आवश्यकता है व्यक्तिविशेष के प्रति पूज्य भाव। वह विशिष्ट व्यक्ति सम्पूर्ण विश्व का प्रभु या एक महान उपदेशक (पैग़म्बर) के रूप में पूजा जाता है। मनुष्य के लिये, किसी अपने ही जैसे देहधारी मानव की उपासना करना अनिवार्य है। कोई अवतारी पुरुष, पैग़म्बर या कोई महान पथ-प्रदर्शक नेता मानव को चाहिये ही चाहिये ! सारे धर्मों-सम्प्रदायों में आज यही बात दिखाई पड़ेगी। हिन्दू (सनातन-धर्म) और ईसाई धर्मों में अवतार की मान्यता है। बौद्ध, इस्लाम, यहूदी आदि धर्मों में पैग़म्बर को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। लेकिन लक्ष्य सबका समान है --उनकी पूजा भावना किसी न किसी व्यक्ति या विशिष्ट-व्यक्ति समुदाय (१० गुरु,२४ तीर्थंकर) पर केन्द्रित है।
धर्म की तीसरी आवश्यकता यह है कि सबल और विश्वासपात्र होने के लिये उसे केवल अपने ही ग्रंथ और उपास्य को सत्य मानना चाहिये। अन्यथा साधारण जन-समाज पर उसका प्रभाव नहीं के बराबर होगा। क्योंकि उदारवादिता (Liberalism) मानव मन में कट्टरपन (fanaticism-धर्मान्धता) को जगा नहीं पाती; स्वयं अपने सम्प्रदाय को छोड़कर अन्य संप्रदाय के प्रति शत्रुता का भाव नहीं जगा सकती, अतः वह मर जाती है। इसीलिये औदार्यवाद (लिबरलिज्म) को बार बार पराभूत होना पड़ेगा। उसका प्रभाव भी इने-गिनों तक ही सीमित रहता है। इसका कारण भी स्पष्ट है-उदारवादिता हमें स्वार्थरहित बनाने की चेष्टा करती है! किन्तु हमलोग निःस्वार्थी बनना ही नहीं चाहते। क्योंकि उससे कोई तात्कालिक लाभ हमें नज़र नहीं आता। स्वार्थी बने रहने में ही हमारा अधिक हित है।? जब हम गरीब या साधनहीन होते हैं, केवल तभी हम उदारता की हामी भरते हैं । (W.T.O में क्या है ?) किन्तु धन और शक्ति-संचय के क्षण में हम तुरन्त घोर अनुदार हो जाते हैं। गरीब जनतंत्रवादी (democrat) होता है, धनी बनते ही वह सामन्तवादी (feudal) बन जाता है। मानव-स्वभाव की यही प्रवृत्ति धर्म-क्षेत्र में भी दिखाई पड़ती है।
किसी पैग़म्बर का आविर्भाव होता है। वह अपने अनुयायियों को ज़न्नत में जाने का प्रलोभन और हर तरह के पुस्कारों की गारंटी देता है, और अनुसरण न करने वालों को चिरंतन नरक भोगने की धमकी देता है। और इस प्रकार वह अपने पंथ का प्रचार करता है। वर्तमान सारे प्रचारशील धर्म घोर कट्टरपंथी हैं। जो संप्रदाय अन्य संप्रदायों से जितनी अधिक घृणा करेगा, वह उतना ही सफल होगा और अपने अनुयायियों की संख्या उत्तरोत्तर (Love Jehad) बढ़ाता जायगा। संसार के अधिकांश भागों में भ्रमण करने के उपरान्त और विविध जातियों के मध्य रहने एवं विश्व की वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए, मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि विश्वबन्धुत्व के सम्बंध में (राजनीतिज्ञों की इफ़्तार पार्टी और गंगा-जमुनी तहज़ीब) इतनी बातें होते रहने पर भी प्रस्तुत स्थिति चलती ही रहेगी।
वेदान्त इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं करता। उसकी सबसे मौलिक कठिनाई यही है कि दुनिया के किसी एक ही ग्रंथ को सर्वश्रेष्ठ समझकर, उसी पर आस्था रखने को अनिवार्य नहीं मानता। एक ग्रंथ का दूसरे पर अधिकार उसे मान्य नहीं है। कोई भी ग्रंथ ईश्वर, जीव, परम तत्व आदि सम्बन्धी सभी सत्यों का एकमात्र आश्रय हो सकता है, इस दावे का वह प्रबल विरोध करता है। तुममें से जिन्होंने उपनिषद् पढ़े हैं, उन्हें मालूम होगा कि उनकी बार बार यही यही घोषणा है -- " नॉट बॉय दि रीडिंग ऑफ़ बुक्स कैन वि रियलाइज दि सेल्फ़ !"
मैं यह पहले ही बता दूँ कि अधिकांश मानवता कभी इसे अपना धर्म मानेगी, इसका मैं अनुमान नहीं लगा पाता। क्या अमेरिका जैसे एक समग्र राष्ट्र को वह कभी प्रभावित कर सकेगा ? शायद वह कर सके! जो भी हो, आज की संध्या का प्रतिपाद्य विषय यही रहेगा।
वेदान्त क्या नहीं है, इससे आरम्भ करते हुए, बाद में वेदान्त क्या है, इसका परिचय दूंगा। लेकिन यह याद रखो कि निष्पक्ष सिद्धान्तों पर जोर देने के साथ साथ वेदान्त का किसी अन्य मत या पंथ के साथ कोई विरोध नहीं है। हाँ, जहाँ तक मौलिक सिद्धान्तों का प्रश्न है, उसके लिये अपने सत्य पक्ष का त्याग करना, या अन्य किसी मत से समझौता कर लेना संभव नहीं है।
तुम सबको मालूम है कि धर्म के निर्माण के लिये कुछ उपादान आवश्यक होते हैं। इनमें ग्रंथ का स्थान सर्वोपरि है। ग्रंथ की शक्ति अद्भुत है। कारण जो भी हो, ग्रंथ मानवीय श्रद्धा के ध्रुव केन्द्र हैं। आज के जीवित धर्मों में ऐसा कोई भी नहीं है, जिसका अपना ग्रंथ न हो। तर्कवाद और लम्बी-चौड़ी बातों के बावजूद मानवता ग्रंथों से चिपकी हुई है। आपके देश में ही ग्रंथरहित धर्म के प्रचार का सारा प्रयास विफल हुआ है। भारत में किसी भी नये सम्प्रदाय का आरम्भ तो सफलतापूर्वक हो जाता है, किन्तु कुछ ही वर्षों में वे इसलिये दिवंगत हो जाते हैं कि उनके पीछे कोई ग्रंथ नहीं होता।
यही अन्य देशों में भी होता है; उदाहरणार्थ एकेश्वरवादी (Unitarian त्रिदेव-विरोधी) आन्दोलन के उत्थान और पतन के इतिहास को लो। वह तुम्हारे राष्ट्र के सर्वोच्च चिन्तन का प्रतीक है। मेथोडिस्ट (Methodist या वैस्ले-पंथी नियमवादी चर्च), बैप्टिस्ट (Baptist बपतिस्मा-दाता) और इतर ईसाई सम्प्रदायों की भाँति, एकेश्वरवादी-चर्च (Unitarian Church) का उतना प्रचार क्यों नहीं हो सका ? कारण स्पष्ट है - उसका अपना कोई ग्रंथ न था ! इसके ठीक विपरीत यहूदियों को देखो। मुट्ठी भर लोग, हर राष्ट्र से खदेड़े जाकर भी संगठित हैं, क्योंकि उनका अपना धर्मग्रन्थ है। पारसियों को लो, दुनिया भर में वे केवल एक लाख ही होंगे। जैन सम्प्रदाय के अनुयायी भारत में दस ही लाख रह गये हैं। क्या तुम जानते हो कि ये थोड़े से पारसी और जैनी केवल अपने धर्मग्रंथों की बदौलत ही जीवित हैं ? आज जितने भी जीवित धर्म हैं, उनमें से प्रत्येक का अपना अलग-अलग धर्मग्रन्थ है।
धर्म की दूसरी आवश्यकता है व्यक्तिविशेष के प्रति पूज्य भाव। वह विशिष्ट व्यक्ति सम्पूर्ण विश्व का प्रभु या एक महान उपदेशक (पैग़म्बर) के रूप में पूजा जाता है। मनुष्य के लिये, किसी अपने ही जैसे देहधारी मानव की उपासना करना अनिवार्य है। कोई अवतारी पुरुष, पैग़म्बर या कोई महान पथ-प्रदर्शक नेता मानव को चाहिये ही चाहिये ! सारे धर्मों-सम्प्रदायों में आज यही बात दिखाई पड़ेगी। हिन्दू (सनातन-धर्म) और ईसाई धर्मों में अवतार की मान्यता है। बौद्ध, इस्लाम, यहूदी आदि धर्मों में पैग़म्बर को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। लेकिन लक्ष्य सबका समान है --उनकी पूजा भावना किसी न किसी व्यक्ति या विशिष्ट-व्यक्ति समुदाय (१० गुरु,२४ तीर्थंकर) पर केन्द्रित है।
धर्म की तीसरी आवश्यकता यह है कि सबल और विश्वासपात्र होने के लिये उसे केवल अपने ही ग्रंथ और उपास्य को सत्य मानना चाहिये। अन्यथा साधारण जन-समाज पर उसका प्रभाव नहीं के बराबर होगा। क्योंकि उदारवादिता (Liberalism) मानव मन में कट्टरपन (fanaticism-धर्मान्धता) को जगा नहीं पाती; स्वयं अपने सम्प्रदाय को छोड़कर अन्य संप्रदाय के प्रति शत्रुता का भाव नहीं जगा सकती, अतः वह मर जाती है। इसीलिये औदार्यवाद (लिबरलिज्म) को बार बार पराभूत होना पड़ेगा। उसका प्रभाव भी इने-गिनों तक ही सीमित रहता है। इसका कारण भी स्पष्ट है-उदारवादिता हमें स्वार्थरहित बनाने की चेष्टा करती है! किन्तु हमलोग निःस्वार्थी बनना ही नहीं चाहते। क्योंकि उससे कोई तात्कालिक लाभ हमें नज़र नहीं आता। स्वार्थी बने रहने में ही हमारा अधिक हित है।? जब हम गरीब या साधनहीन होते हैं, केवल तभी हम उदारता की हामी भरते हैं । (W.T.O में क्या है ?) किन्तु धन और शक्ति-संचय के क्षण में हम तुरन्त घोर अनुदार हो जाते हैं। गरीब जनतंत्रवादी (democrat) होता है, धनी बनते ही वह सामन्तवादी (feudal) बन जाता है। मानव-स्वभाव की यही प्रवृत्ति धर्म-क्षेत्र में भी दिखाई पड़ती है।
किसी पैग़म्बर का आविर्भाव होता है। वह अपने अनुयायियों को ज़न्नत में जाने का प्रलोभन और हर तरह के पुस्कारों की गारंटी देता है, और अनुसरण न करने वालों को चिरंतन नरक भोगने की धमकी देता है। और इस प्रकार वह अपने पंथ का प्रचार करता है। वर्तमान सारे प्रचारशील धर्म घोर कट्टरपंथी हैं। जो संप्रदाय अन्य संप्रदायों से जितनी अधिक घृणा करेगा, वह उतना ही सफल होगा और अपने अनुयायियों की संख्या उत्तरोत्तर (Love Jehad) बढ़ाता जायगा। संसार के अधिकांश भागों में भ्रमण करने के उपरान्त और विविध जातियों के मध्य रहने एवं विश्व की वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए, मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि विश्वबन्धुत्व के सम्बंध में (राजनीतिज्ञों की इफ़्तार पार्टी और गंगा-जमुनी तहज़ीब) इतनी बातें होते रहने पर भी प्रस्तुत स्थिति चलती ही रहेगी।
वेदान्त इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं करता। उसकी सबसे मौलिक कठिनाई यही है कि दुनिया के किसी एक ही ग्रंथ को सर्वश्रेष्ठ समझकर, उसी पर आस्था रखने को अनिवार्य नहीं मानता। एक ग्रंथ का दूसरे पर अधिकार उसे मान्य नहीं है। कोई भी ग्रंथ ईश्वर, जीव, परम तत्व आदि सम्बन्धी सभी सत्यों का एकमात्र आश्रय हो सकता है, इस दावे का वह प्रबल विरोध करता है। तुममें से जिन्होंने उपनिषद् पढ़े हैं, उन्हें मालूम होगा कि उनकी बार बार यही यही घोषणा है -- " नॉट बॉय दि रीडिंग ऑफ़ बुक्स कैन वि रियलाइज दि सेल्फ़ !"
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन !
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुस्वाम !! (कठ० उप०१.२.२३)
- यह परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है; जिसको यह स्वीकार कर लेता है ! उसी के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है यह परमात्मा उसके लिए अपने यथार्थ रूप को प्रकट कर देता है !
दूसरे, वह व्यक्तिविशेष की आराधना को और भी अधिक अग्राह्य मानता है। तुममें से वेदान्त के विद्यार्थी -वेदान्त से आशय उपनिषद् हैं -जानते हैं कि केवल यही धर्म किसी व्यक्तिविशेष से चिपका नहीं है। कोई भी 'एक व्यक्ति' -स्त्री या पुरुष वेदान्तियों की आराधना का पात्र नहीं बन सका है। यह सम्भव नहीं। कोई भी मानव किसी पक्षी या कीट की अपेक्षा अधिक पूज्य नहीं होता। हम सब भाई हैं। अन्तर केवल परिमाण का है। जो क्षुद्र कीट है, बिल्कुल वही मैं भी हूँ। वेदान्त में किसी अपने ही जैसे किसी मनुष्य को उद्धारक मानकर मुक्ति के लिये गिड़गिड़ाना मनुष्य की महिमा को कम करना माना जाता है। वेदान्त में किसी विशेष ग्रन्थ या किसी व्यक्तिविशेष की पूजा करना- या किसी विशेष वेशभूषा,आचार-अनुष्ठान में कट्टर होना - कुछ भी नहीं है।
इससे भी अधिक कठिनता ईश्वर सम्बन्धी है। इस देश में तुम जनतंत्रवादी रहना चाहते हो ? वेदान्त प्रजातान्त्रिक ईश्वर का ही उपदेश करता है।
इससे भी अधिक कठिनता ईश्वर सम्बन्धी है। इस देश में तुम जनतंत्रवादी रहना चाहते हो ? वेदान्त प्रजातान्त्रिक ईश्वर का ही उपदेश करता है।
जैसे प्रजातन्त्र में तानाशाही-सरकार नहीं होती-फिर भी लोकतन्त्र को किसी भी राजतन्त्र की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली माना जाता है। लोकतन्त्र की यथार्थ शक्ति वहां के प्रजाओं में रहती है, हर व्यक्ति ही वह शक्ति है। कोई राजा नहीं। मैं सबको समान देखता हूँ। किसी जनप्रतिनिधि के सामने मुझे पगड़ी उतारने या सिर झुकाकर- फ़र्शीसलाम नहीं करना पड़ता। जहाँ लोकतन्त्र होता है, वहां के हर व्यक्ति में अद्भुत शक्ति छिपी रहती है।
वेदान्त पूर्णरूपेण यही है। उनका ईश्वर, सर्वथा सबसे दूर, एक ऊँचे सिंहासन पर विराजने वाला महाराजा नहीं। किन्तु अब भी अधिकांश लोग ऐसे हैं, जो अपने ईश्वर को उसी रूप में देखना चाहते हैं। वे किसी ऐसे मानवदेह-धारी ईश्वर को देखना चाहते हैं, जिससे सभी भयभीत हों और जिसको चढ़ावा चढ़ाकर प्रसन्न रखा जाय। वे उसके सामने दीप जलाते हैं और नाक रगड़ते हैं। वे एक राजा से शासित होना चाहते हैं और यहाँ की भाँति स्वर्ग में भी उसी राजा से शासित होने की बात पर विश्वास रखते हैं। कम से कम इस राष्ट्र से तो राजा मिट ही गया है। अब स्वर्ग का राजा है कहाँ ? केवल वहीँ जहाँ दुनियावी राजा अब भी राज कर रहे हैं। इस लोकतान्त्रिक देश में राजा प्रत्येक मनुष्य में निहित हो गया है। यहाँ तुम सब लोग राजा हो। यही वेदान्त का भी ध्येय है। तुम सब ईश्वर हो, केवल एक ईश्वर पर्याप्त नहीं। वेदान्त का अभिमत है, (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है) तुम सब ईश्वर हो।
इन क्रांतिकारी सिद्धान्तों के कारण वेदान्त की कठिनाई और भी बढ़ जाती है। वह ईश्वर की पुरानी धारणा का प्रतिपादन करता ही नहीं। सुरलोक में रहकर हमारी अनुमति के बिना ही संसार की गतिवधियों को संचालित करने वाले, अपनी लीला के लिये शून्य से हमारा सर्जन करनेवाले और निज परितोष के लिये हमें विपदा में डाल देने वाले ईश्वर की जगह वेदान्त सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक ईश्वर का निरूपण करता है। इस राष्ट्र से तो राजराजेश्वर की विदाई चुकी है। लेकिन वेदान्त से तो स्वर्ग का साम्राज्य सहस्रों वर्ष पूर्व ही लुप्त हो गया था।
भारत (अभी सार्वभौमिक प्रजातान्त्रिक देश नही बन सका है,इसीलिये) किसी लौकिक परम भट्टारक की धारणा का परित्याग नहीं कर सकता। इसी कारण वेदान्त (अभी-२०१४ तक तुष्टिकरण की नीति चल रही है) भारत का धर्म नहीं हो सकता। किन्तु अमेरिका तो एक समृद्ध सार्वभौम प्रजातान्त्रिक देश है; इसी कारण वेदान्त इस राष्ट्र का धर्म हो सकता है ! परन्तु यह उसी हालत में सम्भव है, जब तुम दिमाग में धुँधली विचारधाराओं एवं अन्धविश्वासों वाले मनुष्य न बनकर उसे भली भाँति समझ सको और समझो, जब तुम सच्चे स्त्री-पुरुष बनो और जब तुम सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक बनो, क्योंकि वेदान्त केवल अध्यात्म का ही विषय है।
स्वर्गस्थ ईश्वर की धारणा क्या है ? कोरा भौतिकवाद ! जबकि वेदान्त के अनुसार ईश्वरीय अनंत तत्व हम सबों में समाविष्ट है ! बादलों के ऊपर कोड़ा लेकर बिराजने वाला कोई ईश्वर बैठा है; इसकी निरी ईश-तिरस्कारिता (ईशनिन्दा) पर विचार करो। यह भौतिकवाद है,कोरा भौतिकवाद ! यदि शिशु ऐसा सोचें तो कोई बात नहीं। लेकिन परिपक्व बुद्धिवाले ऐसी बातों की शिक्षा देने लगें, तो यह अत्यधिक अरुचिकर है। भौतिकवादी उपदेशों (शिक्षा) में बताया जाता है- यह सब कुछ जड़ है, मनुष्य मिट्टी का पुतला है, केवल स्थूल रूप में जानने योग्य इन्द्रियगोचर विषय है,उसका प्रत्येक अंश मिट्टी है,कोरी मिट्टी। यह सुन सुन कर मनुष्य अपनी महिमा को ही भूल जाता है ! यह भी कोई धर्म है ? अफ्रीका के मम्बो-फम्बो 'धर्म' की भाँति यह भी कोई धर्म नहीं है।
ईश्वर अजर-अमर-अविनाशी आत्मा है, इसलिये आत्मा और सत्य के द्वारा ही उसकी उपासना होनी चाहिये। क्या आत्मा मात्र स्वर्ग-निवासी है ? आत्मा है क्या ? हम सब आत्मा हैं ! फिर क्या कारण है कि हम इसकी अनुभूति नहीं करते ? कौन मुझे तुमसे अलग करता है ? देह और कुछ नहीं! देह को भूलो, और सब आत्मा ही है।
ये वे बातें हैं, जिन्हें आम आदमी गहराई से समझना नहीं चाहता। वेदान्त किसी धर्मग्रन्थ या किसी व्यक्तिविशेष की उपासना पर टिका हुआ धर्म नहीं है। No book, no person, no Personal God. शेष मनुष्य जाति से पृथक कोई मनुष्य नहीं,'तुम कीट मात्र और मैं जगदीश्वर' --ऐसा कुछ नहीं है। यदि तुम जगदीश्वर प्रभु हो तो मैं भी जगदीश्वर प्रभु हूँ। अतः वेदान्त पाप नहीं मानता। भूलें जरूर हैं, लेकिन पाप नहीं। कालान्तर में सभी को अपने यथार्थ स्वरुप का बोध होने वाला है। कोई शैतान नहीं-ऐसी कोई बकवास नहीं। वेदान्त के अनुसार जिस क्षण तुम अपने को या अन्य किसी मनुष्य को पापी समझते हो, वही पाप है। इसीसे अन्य सब भूलों का या उनका जिन्हें बहुधा पाप की संज्ञा दी जाती है, सूत्रपात होता है। हमारे जीवन में अनेक भूलें हुई हैं। फिर भी हम आगे ही बढ़ते रहे हैं। हमसे भूलें हुई हैं, यह विवेक-जाग्रत हो जाना ही मनुष्य के लिये गौरव की बात है !
बीते जीवन का सिंहावलोकन करो, आत्मसमीक्षा करके देखो। यदि (महामण्डल से जुड़ जाने के बाद), तुम्हारी आज की हालत पहले से अच्छी हुई है, प्रकृति या पाशविकता के विरूद्ध संघर्ष करके तुम यदि पहले से बेहतर मनुष्य बन सके हो; तो उसका श्रेय तुम्हारे परिश्रम की पराकाष्ठा के साथ साथ पिछली भूलों को भी मिलना चाहिये। सफलता भी गौरवशालिनी ! और विफलता भी गौरवशालिनी ! बीते हुए कल की चिन्ता मत करो। आगे बढ़ो !
इस तरह तुम देखते हो कि वेदान्त पाप और पापी की स्थापना नहीं करता। वह (ईश्वर) एक ऐसी सत्ता है, जिससे हम कभी कदापि आतंकित नहीं होंगे; क्योंकि वह हमारी अपनी आत्मा है। उससे हमें भयभीत क्यों होना चाहिये ? बल्कि सत्य तो यह है कि विश्व में केवल एक ही सत्ता है, जिससे हमें कोई डर नहीं-और वह सत्ता है ईश्वर ! तो क्या ईश्वर से डरने वाला मनुष्य ही यथार्थ में सबसे बड़ा अन्धविश्वासी नहीं है ? निज छाया को देखकर कोई भले ही डर जाये, किन्तु कोई भी मनुष्य स्वयं से कभी नहीं डरता। ईश्वर मानव की ही आत्मा है। वही एक ऐसी सत्ता है, जिससे तुम कदापि भयभीत नहीं हो सकते। ईश्वर का डर किसी मनुष्य के दिल में इतना बैठ जाये, कि वह उससे थर्रा उठे -ये सब बातें अनर्गल नहीं हैं तो और क्या हैं ? ईश्वर की कृपा कहो कि हम सब पागलखाने में नहीं हैं। किन्तु यदि हममें से अधिकांश पागल नहीं हो गये होते, तो हम ' ईश्वर से डरो ' जैसी धारणा का आविष्कार ही कैसे किये होते ? इसीलिये भगवान बुद्ध ने कहा था कि -'न्यूनाधिक मात्रा में सारी मानवता विक्षिप्त है।' मुझे तो प्रतीत होता है कि उनका यह कथन बिल्कुल सत्य है !
कोई धर्मग्रन्थ नहीं, कोई व्यक्ति (अवतार) नहीं, कोई सगुण ईश्वर नहीं। इन सभी को जाना होगा। फिर इन्द्रियों को भी जाना होगा। हम इन्द्रियों के दास नहीं रह सकते। ग्लेशियरों में ठंड से ठिठुर कर मरने वाले व्यक्तियों को इतनी मीठी नींद आने लगती है कि वे जगाने से भी जगना नहीं चाहते। हमलोग इन्द्रिय-सुख की सस्ती वस्तुओं के शिकार हैं, भले ही उससे हमारा सर्वनाश ही क्यों न हो।'अली-मृग-मीन-पतंग-गज ' की तरह हमने भुला दिया है कि जीवन में और अधिक महान वस्तुएँ हैं।
वेदान्त पूर्णरूपेण यही है। उनका ईश्वर, सर्वथा सबसे दूर, एक ऊँचे सिंहासन पर विराजने वाला महाराजा नहीं। किन्तु अब भी अधिकांश लोग ऐसे हैं, जो अपने ईश्वर को उसी रूप में देखना चाहते हैं। वे किसी ऐसे मानवदेह-धारी ईश्वर को देखना चाहते हैं, जिससे सभी भयभीत हों और जिसको चढ़ावा चढ़ाकर प्रसन्न रखा जाय। वे उसके सामने दीप जलाते हैं और नाक रगड़ते हैं। वे एक राजा से शासित होना चाहते हैं और यहाँ की भाँति स्वर्ग में भी उसी राजा से शासित होने की बात पर विश्वास रखते हैं। कम से कम इस राष्ट्र से तो राजा मिट ही गया है। अब स्वर्ग का राजा है कहाँ ? केवल वहीँ जहाँ दुनियावी राजा अब भी राज कर रहे हैं। इस लोकतान्त्रिक देश में राजा प्रत्येक मनुष्य में निहित हो गया है। यहाँ तुम सब लोग राजा हो। यही वेदान्त का भी ध्येय है। तुम सब ईश्वर हो, केवल एक ईश्वर पर्याप्त नहीं। वेदान्त का अभिमत है, (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है) तुम सब ईश्वर हो।
इन क्रांतिकारी सिद्धान्तों के कारण वेदान्त की कठिनाई और भी बढ़ जाती है। वह ईश्वर की पुरानी धारणा का प्रतिपादन करता ही नहीं। सुरलोक में रहकर हमारी अनुमति के बिना ही संसार की गतिवधियों को संचालित करने वाले, अपनी लीला के लिये शून्य से हमारा सर्जन करनेवाले और निज परितोष के लिये हमें विपदा में डाल देने वाले ईश्वर की जगह वेदान्त सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक ईश्वर का निरूपण करता है। इस राष्ट्र से तो राजराजेश्वर की विदाई चुकी है। लेकिन वेदान्त से तो स्वर्ग का साम्राज्य सहस्रों वर्ष पूर्व ही लुप्त हो गया था।
भारत (अभी सार्वभौमिक प्रजातान्त्रिक देश नही बन सका है,इसीलिये) किसी लौकिक परम भट्टारक की धारणा का परित्याग नहीं कर सकता। इसी कारण वेदान्त (अभी-२०१४ तक तुष्टिकरण की नीति चल रही है) भारत का धर्म नहीं हो सकता। किन्तु अमेरिका तो एक समृद्ध सार्वभौम प्रजातान्त्रिक देश है; इसी कारण वेदान्त इस राष्ट्र का धर्म हो सकता है ! परन्तु यह उसी हालत में सम्भव है, जब तुम दिमाग में धुँधली विचारधाराओं एवं अन्धविश्वासों वाले मनुष्य न बनकर उसे भली भाँति समझ सको और समझो, जब तुम सच्चे स्त्री-पुरुष बनो और जब तुम सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक बनो, क्योंकि वेदान्त केवल अध्यात्म का ही विषय है।
स्वर्गस्थ ईश्वर की धारणा क्या है ? कोरा भौतिकवाद ! जबकि वेदान्त के अनुसार ईश्वरीय अनंत तत्व हम सबों में समाविष्ट है ! बादलों के ऊपर कोड़ा लेकर बिराजने वाला कोई ईश्वर बैठा है; इसकी निरी ईश-तिरस्कारिता (ईशनिन्दा) पर विचार करो। यह भौतिकवाद है,कोरा भौतिकवाद ! यदि शिशु ऐसा सोचें तो कोई बात नहीं। लेकिन परिपक्व बुद्धिवाले ऐसी बातों की शिक्षा देने लगें, तो यह अत्यधिक अरुचिकर है। भौतिकवादी उपदेशों (शिक्षा) में बताया जाता है- यह सब कुछ जड़ है, मनुष्य मिट्टी का पुतला है, केवल स्थूल रूप में जानने योग्य इन्द्रियगोचर विषय है,उसका प्रत्येक अंश मिट्टी है,कोरी मिट्टी। यह सुन सुन कर मनुष्य अपनी महिमा को ही भूल जाता है ! यह भी कोई धर्म है ? अफ्रीका के मम्बो-फम्बो 'धर्म' की भाँति यह भी कोई धर्म नहीं है।
ईश्वर अजर-अमर-अविनाशी आत्मा है, इसलिये आत्मा और सत्य के द्वारा ही उसकी उपासना होनी चाहिये। क्या आत्मा मात्र स्वर्ग-निवासी है ? आत्मा है क्या ? हम सब आत्मा हैं ! फिर क्या कारण है कि हम इसकी अनुभूति नहीं करते ? कौन मुझे तुमसे अलग करता है ? देह और कुछ नहीं! देह को भूलो, और सब आत्मा ही है।
ये वे बातें हैं, जिन्हें आम आदमी गहराई से समझना नहीं चाहता। वेदान्त किसी धर्मग्रन्थ या किसी व्यक्तिविशेष की उपासना पर टिका हुआ धर्म नहीं है। No book, no person, no Personal God. शेष मनुष्य जाति से पृथक कोई मनुष्य नहीं,'तुम कीट मात्र और मैं जगदीश्वर' --ऐसा कुछ नहीं है। यदि तुम जगदीश्वर प्रभु हो तो मैं भी जगदीश्वर प्रभु हूँ। अतः वेदान्त पाप नहीं मानता। भूलें जरूर हैं, लेकिन पाप नहीं। कालान्तर में सभी को अपने यथार्थ स्वरुप का बोध होने वाला है। कोई शैतान नहीं-ऐसी कोई बकवास नहीं। वेदान्त के अनुसार जिस क्षण तुम अपने को या अन्य किसी मनुष्य को पापी समझते हो, वही पाप है। इसीसे अन्य सब भूलों का या उनका जिन्हें बहुधा पाप की संज्ञा दी जाती है, सूत्रपात होता है। हमारे जीवन में अनेक भूलें हुई हैं। फिर भी हम आगे ही बढ़ते रहे हैं। हमसे भूलें हुई हैं, यह विवेक-जाग्रत हो जाना ही मनुष्य के लिये गौरव की बात है !
बीते जीवन का सिंहावलोकन करो, आत्मसमीक्षा करके देखो। यदि (महामण्डल से जुड़ जाने के बाद), तुम्हारी आज की हालत पहले से अच्छी हुई है, प्रकृति या पाशविकता के विरूद्ध संघर्ष करके तुम यदि पहले से बेहतर मनुष्य बन सके हो; तो उसका श्रेय तुम्हारे परिश्रम की पराकाष्ठा के साथ साथ पिछली भूलों को भी मिलना चाहिये। सफलता भी गौरवशालिनी ! और विफलता भी गौरवशालिनी ! बीते हुए कल की चिन्ता मत करो। आगे बढ़ो !
इस तरह तुम देखते हो कि वेदान्त पाप और पापी की स्थापना नहीं करता। वह (ईश्वर) एक ऐसी सत्ता है, जिससे हम कभी कदापि आतंकित नहीं होंगे; क्योंकि वह हमारी अपनी आत्मा है। उससे हमें भयभीत क्यों होना चाहिये ? बल्कि सत्य तो यह है कि विश्व में केवल एक ही सत्ता है, जिससे हमें कोई डर नहीं-और वह सत्ता है ईश्वर ! तो क्या ईश्वर से डरने वाला मनुष्य ही यथार्थ में सबसे बड़ा अन्धविश्वासी नहीं है ? निज छाया को देखकर कोई भले ही डर जाये, किन्तु कोई भी मनुष्य स्वयं से कभी नहीं डरता। ईश्वर मानव की ही आत्मा है। वही एक ऐसी सत्ता है, जिससे तुम कदापि भयभीत नहीं हो सकते। ईश्वर का डर किसी मनुष्य के दिल में इतना बैठ जाये, कि वह उससे थर्रा उठे -ये सब बातें अनर्गल नहीं हैं तो और क्या हैं ? ईश्वर की कृपा कहो कि हम सब पागलखाने में नहीं हैं। किन्तु यदि हममें से अधिकांश पागल नहीं हो गये होते, तो हम ' ईश्वर से डरो ' जैसी धारणा का आविष्कार ही कैसे किये होते ? इसीलिये भगवान बुद्ध ने कहा था कि -'न्यूनाधिक मात्रा में सारी मानवता विक्षिप्त है।' मुझे तो प्रतीत होता है कि उनका यह कथन बिल्कुल सत्य है !
कोई धर्मग्रन्थ नहीं, कोई व्यक्ति (अवतार) नहीं, कोई सगुण ईश्वर नहीं। इन सभी को जाना होगा। फिर इन्द्रियों को भी जाना होगा। हम इन्द्रियों के दास नहीं रह सकते। ग्लेशियरों में ठंड से ठिठुर कर मरने वाले व्यक्तियों को इतनी मीठी नींद आने लगती है कि वे जगाने से भी जगना नहीं चाहते। हमलोग इन्द्रिय-सुख की सस्ती वस्तुओं के शिकार हैं, भले ही उससे हमारा सर्वनाश ही क्यों न हो।'अली-मृग-मीन-पतंग-गज ' की तरह हमने भुला दिया है कि जीवन में और अधिक महान वस्तुएँ हैं।
एक पौराणिक कथा है कि ईश्वर ने एक बार धरती पर शूकरावतार लिया। उनकी एक शूकरी भी थी। कालान्तर में उनके कई शूकर सन्ताने हुईं। अपने परिवार के साथ बड़े चैन से रहने लगे। कीचड़ में लोटते हुए वे खूब मस्त थे। वे अपनी दिव्य महिमा एवं प्रभुता भूल बैठे। देवगण बड़े चिन्तित हुए। वे धरती पर उतर आये और-उनसे शूकर-शरीर त्याग कर देवलोक लौट चलने की विनती करने लगे। ईश्वर ने उनकी एक न सुनी और उन सबको दुत्कार दिया। वे बोले- ' मैं बड़ा प्रसन्न हूँ और इस रंग में भंग देखना नहीं चाहता हूँ।' कोई चारा न देख देवों के देव महादेव (स्वामी विवेकानन्द) ने अपने त्रिशूल से प्रभु का शूकर-शरीर नष्ट कर दिया। तत्क्षण ईश्वर की दिव्य भव्यता लौट आयी और वे बड़े विस्मित थे कि शूकर-स्थति में वे प्रसन्न रहे कैसे !!
मानवीय आचरण भी इसी प्रकार का है। मनुष्य भी जब उसके यथार्थ निर्गुण स्वरुप, या अवैयक्तिक भगवान (Impersonal God) की चर्चा सुनते हैं, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है कि ' मेरे व्यक्तित्व का क्या होगा ? मेरा तो व्यक्तित्व (शूकरत्व-M/F) ही लुप्त हो जायेगा। ' फिर कभी ऐसा विचार मन में उठे तो उस शूकर की दशा याद कर लेना और देखना कि तुममें से प्रत्येक की प्रसन्नता का पारावार कितना असीम है ! तुम अपनी वर्तमान स्थिति (इन्द्रियजीवन-अँगूठा चूसने) से कितने सन्तुष्ट हो। लेकिन जब तुम्हें यह अनुभव हो जायेगा कि तुम यथार्थतः 'क्या' हो !! तो तुम तत्क्षण आश्चर्यचकित हो जाओगे कि तुम अभी तक तुम इन्द्रिय-जीवन (शूकर-पन) के परित्याग के प्रति तुम अनिच्छुक क्यों थे ? तुम्हारे व्यक्तित्व में धरा ही क्या है ? क्या वह शूकर-जीवन से कुछ बढ़कर है ? फिर भी तुम इस इन्द्रियजीवन को छोड़ना नहीं चाहते ! प्रभु हमारा कल्याण करें।
अब सुनो कि वेदान्त क्या है, उसकी शिक्षा क्या है ? पहले तो वह यह शिक्षा देता है कि सत्यको देखने के लिये तुम्हें अपने से भी बाहर जाने की जरूरत नहीं। सभी अतीत और सभी अनागत इसी वर्तमान में निहित हैं।जब तुम यह सोचते हो कि तुम अतीत को जानते हो, तो तुम केवल वर्तमान ही अतीत की कल्पना करते हो। वर्तमान में ही सब कुछ है, केवल वही 'एक' है-एकमेवाद्वितीयम्! जो कुछ है, था और होगा, सब इसी वर्तमान में है। इससे परे किसी अवस्था की कल्पना में कोई प्रवृत्त हो तो वह विफल मनोरथ होगा।
क्या इस पृथ्वी से भिन्न स्वर्ग का चित्रण कोई धर्म कर सकता है ? और यह दृष्टिगोचर जगत, यह सब आर्ट ही तो है, केवल इस कला (और कलाकार) का ज्ञान हमें धीरे धीरे होता है। हमलोग पंचेन्द्रियों के सहारे इस सृष्टि को निरखते हैं; और उसे रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श आदि से युक्त पाते हैं। मानलो, मुझमें विद्द्युत-चेतना का स्फुरण जाये तो सब कुछ बदल जायगा। मानलो मेरी इन्द्रियाँ सूक्ष्मतर हो जायें, तो तुम सब बदले नजर आओगे। मैं ही अगर बदल जाऊँ तो तुम भी बदल जाओगे। यदि मैं इन्द्रिय-मन की सीमा पार करलूँ, तो तुम सब आत्मरूप तथा ईश्वर-रूप दिखोगे। जगत का दृस्य रूप सत्य नहीं है !!!
लेकिन हम इसको शनैः शनैः ही समझ सकेंगे, और तब देखेंगे कि स्वर्ग आदि सब कुछ यहीं है, इसी क्षण है और दिव्य सत्ता पर अध्यासों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह सत्ता सभी लोकों और स्वर्गों बढ़कर है। लोगों का विचार है कि यह संसार त्रुटिपूर्ण है, और वे कल्पना करते हैं कि स्वर्ग कहीं अन्यत्र है। यह संसार बुरा नहीं है। तुम यदि जान सको तो यह साक्षात् ईश्वर है। इसका बोध भी दूभर है, और इस पर विश्वास करना और भी दुष्कर है। कल फाँसी पर लटकाया जाने वाला हत्यारा भी ईश्वर है,पूर्ण ब्रह्म है। (इन्द्रियातीत सत्य को जाने बिना) अवश्य ही यह विषय जटिल है, पर बोधगम्य हो सकता है।
इसीलिये वेदान्त का प्रतिपाद्य है,'विश्व का एकत्व', विश्वबन्धुत्व नहीं। मैं बिल्कुल वैसा ही हूँ, जैसा कोई मनुष्य है,कोई जानवर है-बुरा, भला या और कुछ भी ? सब परिस्थितियों में यह एक ही देह, एक ही मन और एक ही आत्मा है। आत्मा कभी नहीं मरती। कहीं कोई विनाश नहीं, देह का भी अन्त नहीं। मन भी मरता नहीं है। देह का अन्त हो भी कैसे ? एक पत्ती झड़ जाय तो क्या पेड़ का अन्त जायगा ? यह विराट विश्व ही मेरा शरीर है। देखो, सभी कैसे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं! सारे मन मेरे मन हैं। सबके पैरों से मैं ही चलता हूँ। सबके मुँह से मैं ही बोलता हूँ। ' In everybody I reside.' सबके शरीर में मेरा ही निवास है !
मैं इसका अनुभव क्यों नहीं कर पाता हूँ ? इसका कारण है वही व्यक्तित्व भाव, वही शूकरपना (that piggishness.) इस मन से तुम इतने आबद्ध हो चुके हो कि तुम यहीं (इसी शरीर में) रह सकते हो, वहाँ नहीं। अमरत्व ( immortality) क्या है? कितने कम लोग यह उत्तर देंगे कि "It is this very existence of ours!"- ' वह हमारा यह जीवन ही है! ' बहुतेरों की धारणा है कि यह जीवन मरणशील है, प्राणहीन है--ईश्वर यहाँ नहीं है, स्वर्ग पहुँचने पर ही वे अमर होंगे। उनकी कल्पना है कि मृत्यु के बाद ही ईश्वर से उनका साक्षात्कार होगा। लेकिन यदि वे इसी जीवन में और अभी उसका साक्षात्कार नहीं करते, तो मरने के बाद तो भी उसे नहीं देख पायेंगे। यद्द्पि अमरता पर उनकी आस्था है, तो भी वे नहीं जानते कि अमरता मरने और स्वर्ग जाने से नहीं, बल्कि व्यक्तिवाद की इस शूकर-प्रवृत्ति और इस क्षुद्र देह-बन्धन से स्वयं को आबद्ध न करने पर ही प्राप्त होती है। ' कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं ', निज को सब में, सबको निज में जानने, समस्त मन से देखने की ही संज्ञा अमरता है। हम इस एक के शरीर के अलावा अन्य शरीरों में भी स्वयं को महसूस करने के लिए बाध्य हैं। हमें दूसरों के शरीर में भी आत्मदर्शन अवश्य ही मिलेगा। उसी प्रकार सहानुभूति या समानुभूति क्या है ? क्या सहानुभूति की भी सीमा निर्दिष्ट है ? संभवतः एक समय ऐसा भी आयेगा, जब कि समस्त सृष्टि से (कुत्ते के पिल्ले के साथ भी) मैं एकात्मता की अनुभूति करने में समर्थ हो जाऊँगा !
क्या इस पृथ्वी से भिन्न स्वर्ग का चित्रण कोई धर्म कर सकता है ? और यह दृष्टिगोचर जगत, यह सब आर्ट ही तो है, केवल इस कला (और कलाकार) का ज्ञान हमें धीरे धीरे होता है। हमलोग पंचेन्द्रियों के सहारे इस सृष्टि को निरखते हैं; और उसे रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श आदि से युक्त पाते हैं। मानलो, मुझमें विद्द्युत-चेतना का स्फुरण जाये तो सब कुछ बदल जायगा। मानलो मेरी इन्द्रियाँ सूक्ष्मतर हो जायें, तो तुम सब बदले नजर आओगे। मैं ही अगर बदल जाऊँ तो तुम भी बदल जाओगे। यदि मैं इन्द्रिय-मन की सीमा पार करलूँ, तो तुम सब आत्मरूप तथा ईश्वर-रूप दिखोगे। जगत का दृस्य रूप सत्य नहीं है !!!
लेकिन हम इसको शनैः शनैः ही समझ सकेंगे, और तब देखेंगे कि स्वर्ग आदि सब कुछ यहीं है, इसी क्षण है और दिव्य सत्ता पर अध्यासों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह सत्ता सभी लोकों और स्वर्गों बढ़कर है। लोगों का विचार है कि यह संसार त्रुटिपूर्ण है, और वे कल्पना करते हैं कि स्वर्ग कहीं अन्यत्र है। यह संसार बुरा नहीं है। तुम यदि जान सको तो यह साक्षात् ईश्वर है। इसका बोध भी दूभर है, और इस पर विश्वास करना और भी दुष्कर है। कल फाँसी पर लटकाया जाने वाला हत्यारा भी ईश्वर है,पूर्ण ब्रह्म है। (इन्द्रियातीत सत्य को जाने बिना) अवश्य ही यह विषय जटिल है, पर बोधगम्य हो सकता है।
इसीलिये वेदान्त का प्रतिपाद्य है,'विश्व का एकत्व', विश्वबन्धुत्व नहीं। मैं बिल्कुल वैसा ही हूँ, जैसा कोई मनुष्य है,कोई जानवर है-बुरा, भला या और कुछ भी ? सब परिस्थितियों में यह एक ही देह, एक ही मन और एक ही आत्मा है। आत्मा कभी नहीं मरती। कहीं कोई विनाश नहीं, देह का भी अन्त नहीं। मन भी मरता नहीं है। देह का अन्त हो भी कैसे ? एक पत्ती झड़ जाय तो क्या पेड़ का अन्त जायगा ? यह विराट विश्व ही मेरा शरीर है। देखो, सभी कैसे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं! सारे मन मेरे मन हैं। सबके पैरों से मैं ही चलता हूँ। सबके मुँह से मैं ही बोलता हूँ। ' In everybody I reside.' सबके शरीर में मेरा ही निवास है !
मैं इसका अनुभव क्यों नहीं कर पाता हूँ ? इसका कारण है वही व्यक्तित्व भाव, वही शूकरपना (that piggishness.) इस मन से तुम इतने आबद्ध हो चुके हो कि तुम यहीं (इसी शरीर में) रह सकते हो, वहाँ नहीं। अमरत्व ( immortality) क्या है? कितने कम लोग यह उत्तर देंगे कि "It is this very existence of ours!"- ' वह हमारा यह जीवन ही है! ' बहुतेरों की धारणा है कि यह जीवन मरणशील है, प्राणहीन है--ईश्वर यहाँ नहीं है, स्वर्ग पहुँचने पर ही वे अमर होंगे। उनकी कल्पना है कि मृत्यु के बाद ही ईश्वर से उनका साक्षात्कार होगा। लेकिन यदि वे इसी जीवन में और अभी उसका साक्षात्कार नहीं करते, तो मरने के बाद तो भी उसे नहीं देख पायेंगे। यद्द्पि अमरता पर उनकी आस्था है, तो भी वे नहीं जानते कि अमरता मरने और स्वर्ग जाने से नहीं, बल्कि व्यक्तिवाद की इस शूकर-प्रवृत्ति और इस क्षुद्र देह-बन्धन से स्वयं को आबद्ध न करने पर ही प्राप्त होती है। ' कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं ', निज को सब में, सबको निज में जानने, समस्त मन से देखने की ही संज्ञा अमरता है। हम इस एक के शरीर के अलावा अन्य शरीरों में भी स्वयं को महसूस करने के लिए बाध्य हैं। हमें दूसरों के शरीर में भी आत्मदर्शन अवश्य ही मिलेगा। उसी प्रकार सहानुभूति या समानुभूति क्या है ? क्या सहानुभूति की भी सीमा निर्दिष्ट है ? संभवतः एक समय ऐसा भी आयेगा, जब कि समस्त सृष्टि से (कुत्ते के पिल्ले के साथ भी) मैं एकात्मता की अनुभूति करने में समर्थ हो जाऊँगा !
इससे लाभ ? इस शूकर-देह का परित्याग करना कठिन है। अपनी छोटी सी वासनामय शूकर-देह की इन्द्रियों से मिलने वाले भोगों को त्यागने से पश्चाताप होता है। वेदान्त का लक्ष्य 'देह-भाव-त्याग' नहीं, 'देह-भाव-अतिक्रमण' है। तपश्चर्या आवश्यक नहीं --दो देहों का भी उपभोग भला--तीन का भी भला। एक से अधिक देहों में जीवनयापन करने में सक्षम होना अच्छा है। जब मैं निखिल सृष्टि से तादात्म्य का सुख (भूमानन्द) लूट सकता हूँ-तो सम्पूर्ण सृष्टि ही मेरा शरीर है !
बहुत से लोग ऐसे हैं, जो यह उपदेश सुनते ही संत्रस्त हो जाते हैं। उन्हें यह सुनना पसन्द नहीं कि वे क्षुद्र पशुदेह-धारी नहीं, जिसका किसी निरंकुश भगवान ने सर्जन किया है। मेरा उनसे अनुरोध है,' ऊपर उठो!' वे कहते हैं कि 'पाप में हमारा जन्म हुआ,किसी के अनुग्रह के बिना अपना उद्धार नहीं कर सकते।' मैं कहता हूँ,'तुम दिव्य तेजसम्भूत हो !' उनका जवाब है,"आप नास्तिक हैं,ऐसी बकवास करने का आप साहस कैसे करते हैं ? एक अति दुःखी जीव परमेश्वर कैसे हो सकता है ? हम सभी पापी हैं।" तुम्हें विदित है, कभी कभी मैं बेहद निराश हो जाता हूँ। सैकड़ों स्त्री-पुरुष मुझसे कहते हैं कि यदि नरक कहीं हैं, तो कोई धर्म कैसे हो सकता है ? यदि ये लोग ख़ुशी ख़ुशी नरक जाते हैं, तो इन्हें कौन रोक सकता है?
तुम जिसका स्वप्न देखोगे, जो सोचोगे, उसकी सृष्टि करोगे। अगर यह नरक है, तो मरते ही तुम्हें नरक दिखेगा। अगर वह असत और शैतान है, तो तुम्हें शैतान ही मिलेगा। अगर प्रेत है, तो प्रेत ही देखोगे। तुम जो कुछ सोचते हो, वही बनते भी हो। अगर तुम्हें सोचना हो तो अच्छे-ऊँचे विचार मन में लाओ। मान लिया कि तुम कमजोर क्षुद्र कीट हो। अपने को कमजोर घोषित करने से हम और कमजोर बनेंगे,हमारी हालत बेहतर न होगी। कल्पना करो कि हमने प्रकाश बुझा दिया, खिड़कियाँ बन्द कर दीं और कमरे को अंधकारपूर्ण कहने लगे ! इससे बढ़कर प्रलाप क्या होगा ? अपने को पापी कहने से मुझे कौन सा लाभ होने वाला है ? यदि मैं अँधेरे में हूँ, तो रौशनी कर लूँ। फिर सारी बला टली। फिर भी मानव स्वभाव कितना विचित्र है ! विश्व-मन को अपने जीवन का नित्य आधार जानकर भी लोग शैतान,अँधेरा, झूठ आदि पर ही ज्यादा सोचते हैं। तुम उन्हें सही बताओ, उन्हें विश्वास नहीं होता। उन्हें अँधेरा ही ज्यादा पसन्द है।
यह वेदान्त की ओर से उठाया गया एक महान प्रश्न है कि लोग इतने भयभीत क्यों हैं? जवाब सीधा है कि उन्होंने अपने को असहाय और पराश्रित बना लिया है। हम इतने आलसी हैं कि अपने लिये स्वयं कुछ नहीं करना चाहते। हम अपना प्रत्येक काम करवाने के लिये किसी सगुण ईश्वर, किसी त्राता की या किसी पैग़म्बर की कामना करते हैं। एक बड़ा आमिर आदमी कभी पैदल नहीं चलता, हमेशा कार पर घूमता है। लेकिन कुछ वर्ष बाद जब वह पंगु बन जाता है, तो उसकी नींद खुलती है। वह महसूस करने लगता है कि उसके जीने का ढंग अन्ततः अच्छा नहीं था। मेरे लिये कोई दूसरा नहीं चल सकता। जब कभी किसी ने मेरे लिये कुछ किया, तो उससे नुकसान मेरा ही होता था। किसी का हर काम, कोई दूसरा व्यक्ति करने लग जाये तो उसके हाथ-पैर बेकार हो जायेंगे। चाहे कुछ भी हो, हमें सब कुछ स्वयं खटने से ही प्राप्त होता है, वही हमें धर्म के क्षेत्र में भी करना है। दूसरे की ओर से हुआ कोई काम कभी हमारा अपना नहीं हो सकता है ! मेरे व्याख्यानों से अध्यात्म के रहस्य तुम नहीं सीख पाओगे। तुम जो कुछ भी सीख सके हो, उसके लिये मैं चिनगारी मात्र हूँ, जिसने इसको अंगारे में परिवर्तित किया। पैग़म्बर या उपदेशक इतना ही कर सकते थे। सहायता प्राप्त करने के लिये मारे मारे फिरना मूर्खता है।
तुम जानते हो, भारत में बैलगाड़ियाँ होती हैं। यों एक गाड़ी में दो बैल जोते जाते हैं, और कभी कभी जुए की नोक पर हरी घास का एक गुच्छा लटका दिया जाता है, वह बैलों के ठीक सामने किन्तु उनकी पहुँच से कुछ दूर होता है। बैल लगातार उसे खा लेने की कोशिश करते हैं, लेकिन असफल ही रहते हैं। हमें दूसरों से मिलने वाले सुख या मदद का असली रूप यही है। हम सोचते हैं, कि हमें सुरक्षा, शक्ति, विवेक, संतोष आदि बाहर से मिलेंगे। हमारी आशा सतत बनी रहती है, किन्तु वह कभी पूरी नहीं होती। किसी को भी बाहर से सहायता कभी नहीं प्राप्त होती।
मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है,उसे बाहर कहीं से कोई सहायता नहीं प्राप्त होने की। न कोई सहायता कभी मिली, मिल रही है और न मिलेगी ही। सहायता की आवश्यकता भी क्या है ? क्या तुम पुरुष और स्त्री नहीं हो ? क्या पृथ्वी के पालक को दूसरों की सहायता चाहिये? क्या तुमको लज्जा नहीं आती ? तुम खाक बन जाओ तो तुम्हें मदद मिलेगी। पर तुम तो अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हो ! स्वयं अपना उद्धार करो, स्वयं कठिनाइयों से छुटकारा पाओ ! कोई तुम्हारा सहायक नहीं है और न कभी था। अपनी रक्षा स्वयं करो,यह सोचना कि कोई सहायक है, मीठा सपना मात्र है। उससे कोई लाभ नहीं होने का।
एक बार एक ईसाई मेरे पास आया और बोला-'आप घोर पापी हैं। ' मैंने जवाब दिया-' जीहाँ, मैं पापी हूँ; आप अपना काम देखिये।'
वह ईसाई एक प्रचारक था, उसने मुझे तंग करना न छोड़ा। मैं जब उसे देखता हूँ, तो भाग खड़ा होता हूँ। वह कहने लगा-' मेरे पास आपकी भलाई के लिये कुछ उपाय है। आप पापी हैं और नरक में गिरने जा रहे हैं। ' मेरा जवाब था-' बहुत खूब ! और कुछ ?' मैंने उससे प्रश्न किया-'आप कहाँ जाने वाले हैं ?' वह बोल उठा- ' मैं स्वर्ग जाने वाला हूँ। ' मैंने बता दिया-' मैं नरक ही जाऊँगा।' उस दिन से उसने पिण्ड छोड़ दिया। फिर एक दूसरे ईसाई महोदय आते हैं और कहते हैं-' आपका सर्वनाश निश्चित है; लेकिन यदि आप इस धर्म-सिद्धान्त पर विश्वास करें, तो ईसा मसीह आपको बचा लेंगे।' अगर यह सच होता-मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि यह कोरा अन्धविश्वास है-तो ईसाई राष्ट्रों में कोई कुटिलता न होती।थोड़ी देर के लिये इसमें विश्वास कर भी लें -मानने में लगता क्या है-लेकिन फिर कोई असर क्यों नहीं नजर आता ? मेरे पूछने पर कि ' आप लोग इतने कुटिल स्वभाव वाले और खल क्यों हैं ?' तो जवाब मिला-'अभी हमें अधिक परिश्रम करना है। ' ईश्वर से प्रार्थना करने से वे हमारा उद्धार कर देंगे।'
तुम जिसका स्वप्न देखोगे, जो सोचोगे, उसकी सृष्टि करोगे। अगर यह नरक है, तो मरते ही तुम्हें नरक दिखेगा। अगर वह असत और शैतान है, तो तुम्हें शैतान ही मिलेगा। अगर प्रेत है, तो प्रेत ही देखोगे। तुम जो कुछ सोचते हो, वही बनते भी हो। अगर तुम्हें सोचना हो तो अच्छे-ऊँचे विचार मन में लाओ। मान लिया कि तुम कमजोर क्षुद्र कीट हो। अपने को कमजोर घोषित करने से हम और कमजोर बनेंगे,हमारी हालत बेहतर न होगी। कल्पना करो कि हमने प्रकाश बुझा दिया, खिड़कियाँ बन्द कर दीं और कमरे को अंधकारपूर्ण कहने लगे ! इससे बढ़कर प्रलाप क्या होगा ? अपने को पापी कहने से मुझे कौन सा लाभ होने वाला है ? यदि मैं अँधेरे में हूँ, तो रौशनी कर लूँ। फिर सारी बला टली। फिर भी मानव स्वभाव कितना विचित्र है ! विश्व-मन को अपने जीवन का नित्य आधार जानकर भी लोग शैतान,अँधेरा, झूठ आदि पर ही ज्यादा सोचते हैं। तुम उन्हें सही बताओ, उन्हें विश्वास नहीं होता। उन्हें अँधेरा ही ज्यादा पसन्द है।
यह वेदान्त की ओर से उठाया गया एक महान प्रश्न है कि लोग इतने भयभीत क्यों हैं? जवाब सीधा है कि उन्होंने अपने को असहाय और पराश्रित बना लिया है। हम इतने आलसी हैं कि अपने लिये स्वयं कुछ नहीं करना चाहते। हम अपना प्रत्येक काम करवाने के लिये किसी सगुण ईश्वर, किसी त्राता की या किसी पैग़म्बर की कामना करते हैं। एक बड़ा आमिर आदमी कभी पैदल नहीं चलता, हमेशा कार पर घूमता है। लेकिन कुछ वर्ष बाद जब वह पंगु बन जाता है, तो उसकी नींद खुलती है। वह महसूस करने लगता है कि उसके जीने का ढंग अन्ततः अच्छा नहीं था। मेरे लिये कोई दूसरा नहीं चल सकता। जब कभी किसी ने मेरे लिये कुछ किया, तो उससे नुकसान मेरा ही होता था। किसी का हर काम, कोई दूसरा व्यक्ति करने लग जाये तो उसके हाथ-पैर बेकार हो जायेंगे। चाहे कुछ भी हो, हमें सब कुछ स्वयं खटने से ही प्राप्त होता है, वही हमें धर्म के क्षेत्र में भी करना है। दूसरे की ओर से हुआ कोई काम कभी हमारा अपना नहीं हो सकता है ! मेरे व्याख्यानों से अध्यात्म के रहस्य तुम नहीं सीख पाओगे। तुम जो कुछ भी सीख सके हो, उसके लिये मैं चिनगारी मात्र हूँ, जिसने इसको अंगारे में परिवर्तित किया। पैग़म्बर या उपदेशक इतना ही कर सकते थे। सहायता प्राप्त करने के लिये मारे मारे फिरना मूर्खता है।
तुम जानते हो, भारत में बैलगाड़ियाँ होती हैं। यों एक गाड़ी में दो बैल जोते जाते हैं, और कभी कभी जुए की नोक पर हरी घास का एक गुच्छा लटका दिया जाता है, वह बैलों के ठीक सामने किन्तु उनकी पहुँच से कुछ दूर होता है। बैल लगातार उसे खा लेने की कोशिश करते हैं, लेकिन असफल ही रहते हैं। हमें दूसरों से मिलने वाले सुख या मदद का असली रूप यही है। हम सोचते हैं, कि हमें सुरक्षा, शक्ति, विवेक, संतोष आदि बाहर से मिलेंगे। हमारी आशा सतत बनी रहती है, किन्तु वह कभी पूरी नहीं होती। किसी को भी बाहर से सहायता कभी नहीं प्राप्त होती।
मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है,उसे बाहर कहीं से कोई सहायता नहीं प्राप्त होने की। न कोई सहायता कभी मिली, मिल रही है और न मिलेगी ही। सहायता की आवश्यकता भी क्या है ? क्या तुम पुरुष और स्त्री नहीं हो ? क्या पृथ्वी के पालक को दूसरों की सहायता चाहिये? क्या तुमको लज्जा नहीं आती ? तुम खाक बन जाओ तो तुम्हें मदद मिलेगी। पर तुम तो अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हो ! स्वयं अपना उद्धार करो, स्वयं कठिनाइयों से छुटकारा पाओ ! कोई तुम्हारा सहायक नहीं है और न कभी था। अपनी रक्षा स्वयं करो,यह सोचना कि कोई सहायक है, मीठा सपना मात्र है। उससे कोई लाभ नहीं होने का।
एक बार एक ईसाई मेरे पास आया और बोला-'आप घोर पापी हैं। ' मैंने जवाब दिया-' जीहाँ, मैं पापी हूँ; आप अपना काम देखिये।'
वह ईसाई एक प्रचारक था, उसने मुझे तंग करना न छोड़ा। मैं जब उसे देखता हूँ, तो भाग खड़ा होता हूँ। वह कहने लगा-' मेरे पास आपकी भलाई के लिये कुछ उपाय है। आप पापी हैं और नरक में गिरने जा रहे हैं। ' मेरा जवाब था-' बहुत खूब ! और कुछ ?' मैंने उससे प्रश्न किया-'आप कहाँ जाने वाले हैं ?' वह बोल उठा- ' मैं स्वर्ग जाने वाला हूँ। ' मैंने बता दिया-' मैं नरक ही जाऊँगा।' उस दिन से उसने पिण्ड छोड़ दिया। फिर एक दूसरे ईसाई महोदय आते हैं और कहते हैं-' आपका सर्वनाश निश्चित है; लेकिन यदि आप इस धर्म-सिद्धान्त पर विश्वास करें, तो ईसा मसीह आपको बचा लेंगे।' अगर यह सच होता-मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि यह कोरा अन्धविश्वास है-तो ईसाई राष्ट्रों में कोई कुटिलता न होती।थोड़ी देर के लिये इसमें विश्वास कर भी लें -मानने में लगता क्या है-लेकिन फिर कोई असर क्यों नहीं नजर आता ? मेरे पूछने पर कि ' आप लोग इतने कुटिल स्वभाव वाले और खल क्यों हैं ?' तो जवाब मिला-'अभी हमें अधिक परिश्रम करना है। ' ईश्वर से प्रार्थना करने से वे हमारा उद्धार कर देंगे।'
जब जीवन में कोई समस्या आती है, तो उसका समाधान निकालने के लिये संधर्ष मुझे ही करना पड़ता है; चाहे प्रार्थना हो या पूजा (सत्यनारायण कथा) मुझे ही करना पड़ता है। it is I who work out my problems — and God takes the credit. This is not good. समस्याओं का समाधान 'मैं' निकालूँ -और ईश्वर उसके गौरव का भागी बने। यह ठीक नहीं। मैं कदापि ऐसा नहीं करने का। मैं एक बार रात के खाने के लिये किसी के घर पर निमंत्रित था। गृहस्वामिनी ने मेरे मुँह से 'कल्याण हो'- कहलवाना चाहा। मैं बोला, " देवी जी! मैं आपकी कल्याण कामना करता हूँ; मेरा आशीर्वाद और धन्यवाद दोनों आपको समर्पित है।" किन्तु जब मैं किसी काम में लगता हूँ, तो मैं स्वयं को ' तेरा कल्याण हो'- कह लेता हूँ! गौरव (गुणगान) तो मुझे मिलना चाहिये, क्योंकि मैंने जो कुछ भी पाया है, बहुत कड़ी मिहनत से, परिश्रम की पराकाष्ठा करके ही प्राप्त किया है।
कड़ा परिश्रम करो तुम, और गुणगान करो दूसरे की! यह इसलिये कि तुम अन्धविश्वासी हो, डरपोक हो। (एक बार जब तुमने आत्मसाक्षात्कार कर लिया है !) तो अब हजारों वर्षों से पाले-पोसे अन्धविश्वास की अब कोई आवश्यकता नहीं। बादलों में बैठे किसी सगुण पुरुष के सामने गिड़गिड़ाने की क्या आवश्यकता है? (आत्मा ही ईश्वर है! इसे निरंतर याद रखने में) या आध्यात्मिक बन जाने में थोड़ा विशेष परिश्रम लगता है- 'परिश्रम की पराकाष्ठा' करनी पड़ती है।
अन्धविश्वास( superstitions) भी भौतिकवाद (चार्वाक मत : materialism) का ही छद्म रूप है; क्योंकि उसका अस्तित्व ही देहाध्यास अर्थात इस भावना पर टिका हुआ है कि मैं शरीर, शरीर और केवल शरीर मात्र हूँ (consciousness of body) ! जड़वादियों के लिये तो आत्मा का अस्तित्व ही नहीं होता। किन्तु आत्मा (या ब्रह्मविद्) के सामने किसी प्रकार का अन्धविश्वास वैसे ही नहीं टिक सकता,जैसे सूर्य के सामने अन्धकार नहीं टिक सकता। आत्मा अन्धविश्वास से निर्लेप है, यह इन्द्रिय-विषयों की क्षुद्र वासनाओं से परे है!
अन्धविश्वास( superstitions) भी भौतिकवाद (चार्वाक मत : materialism) का ही छद्म रूप है; क्योंकि उसका अस्तित्व ही देहाध्यास अर्थात इस भावना पर टिका हुआ है कि मैं शरीर, शरीर और केवल शरीर मात्र हूँ (consciousness of body) ! जड़वादियों के लिये तो आत्मा का अस्तित्व ही नहीं होता। किन्तु आत्मा (या ब्रह्मविद्) के सामने किसी प्रकार का अन्धविश्वास वैसे ही नहीं टिक सकता,जैसे सूर्य के सामने अन्धकार नहीं टिक सकता। आत्मा अन्धविश्वास से निर्लेप है, यह इन्द्रिय-विषयों की क्षुद्र वासनाओं से परे है!
लेकिन इन दिनों आत्मा के क्षेत्र में भी यहाँ और वहाँ क्षुद्र वासनायें प्रक्षेपित होने लगी हैं। आत्मा को भूत-प्रेत मानकर आयोजित की जाने वाली अनेकों प्रेतात्मा सम्बन्धी बैठकों में, मैं भी गया हूँ। उनमें से एक प्लानचेटलीपि-बैठक का संचालन एक महिला कर रही थी। वे मुझसे बोलीं- ' आपकी माताजी और आपके पितामह मेरे यहाँ आते हैं। ' किन्तु मेरी माता जी तो अभी जीवित हैं! लोगों का यह प्रिय विषय सा हो गया है, कि मरने के बाद भी उनके सगे सम्बन्धी उसी पुराने सुपरिचरित शरीर में जी रहे हैं, और प्रेतात्मवादी उनके अन्धविश्वास का फायदा उठाते हैं। मुझे बड़ा दुःख होगा कि मेरे स्वर्गीय पिता अपने उसी गन्दे शरीर को अभी भी धारण किये हुए हैं। कुछ लोगों को इससे बड़ी सान्त्वना मिलती है कि उनके सभी पितर अभी भी जड़ शरीर में लिपटे हुए हैं।
एक बैठक में तो ईसा मसीह को मेरे सामने हाजिर करवा दिया गया! मैं पूछ बैठा-" प्रभो, आप कैसे हैं ? -Lord, how do you
do?" मेरे लिये ऐसी बातें निराशाजनक हैं। यदि वह सन्त महापुरुष अभी तक शरीरधारी ही है, तो हम बेचारे जीवधारियों क्या होगा ? यदि यह सब सच भी हो, तो भी मुझे उनकी आवश्यकता नहीं। मैं सोचने लगा -'"Mother, Mother!
atheists- माँ ! माँ ! इनको क्षमा करो -ये नास्तिक लोग हैं ! सचमुच ऐसे लोगों की यही संज्ञा होनी चाहिये। इनमें केवल पंचेन्द्रियों विषयों को भोगने की वासना ही बची हुई है। जोकुछ इन्द्रिय-विषयों को इन्होने यहाँ भोगा है, मरने के बाद भी उन्हीं को और अधिक पाने के इच्छुक हैं ! '
वेदान्त का ईश्वर क्या है ? वह व्यक्ति नहीं नियम (धम्म) या मूलतत्व (principle) है। तुम और मैं सभी सगुण ईश्वर हैं। ब्रह्माण्ड का परम परमेश्वर, विश्व का स्रष्टा,पालनकर्ता और संहारकर्ता परमेश्वर एक निर्गुण-निर्विशेष तत्व (impersonal principle -अवैयक्तिक सिद्धांत) है। तुम-हम, चूहे-बिल्ली, भूत-प्रेत आदि सभी उसके रूप हैं, सभी सगुण (Personal Gods) ईश्वर हैं। तुम्हारी इच्छा किसी सगुण ईश्वर की उपासना करने की होती है। किन्तु तुम जिस नाम-रूपधारी (ब्रह्म श्रीरामकृष्ण) की उपासना करना चाहते हो, वे तो तुम्हारी आत्मा ही हैं ! -वह तो अपनी आत्मा की ही उपासना है! यदि तुम मेरी राय मानो तो किसी भी गिरजाघर में कदम न रखो। बाहर निकलो, और जाकर अपने को प्रक्षालित कर डालो। जब तक कि युग युग से चिपके-जमे तुम्हारे अन्धविश्वास बह न जायें, तब तक बारम्बार प्रक्षालित करते रहो। शायद यह काम तुम्हें न रुचे, क्योंकि तुम तो इस देश में नहाते ही कम हो, स्नान पर स्नान, तीर्थों में जाकर बारम्बार गंगाजी में डुबकी लगाना, यह तो भारत की रीति है, तुम्हारे समाज की नहीं।
मुझसे प्रायः पूछा गया है, ' मैं इतना अधिक हँसता और व्यंग-विनोद क्यों करता हूँ ?' इतना हँसता और हंसाता कि पेट में दर्द करने लगता है, तो कभी कभी गम्भीर हो जाता हूँ ! क्योंकि मेरा स्वरुप ईश्वर है, और ईश्वर केवल आनन्दपूर्ण है। सभी अस्तित्व के मूल में एकमात्र वही है, निखिल विश्व का वही शिव है, सत्य है। तुम सब उसीके अवतार मात्र हो ! यही गौरव की बात है। उसके जितने अधिक निकट तुम होओगे, तुम्हें उतना ही कम चीखना-चिल्लाना पड़ेगा। उससे जितनी दूर हम होते हैं, उतना ही अधिक हमें अवसाद झेलना पड़ता है। जितना अधिक जानते हैं, उतना ही संकट टलता जाता है। यदि प्रभु में लीन होने वाला भी पीड़ित रहे, तो उसकी तल्लीनता से लाभ क्या ? ऐसे ईश्वर का भी कोई उपयोग है? प्रशान्त महासागर में उसे फेंक दो ! हमें उसकी जरूरत नहीं।
वेदान्त का ईश्वर तो अनन्त है, निर्विशेष सत्ता है --सच्चिदानन्द है, निर्विकार है, अमर है,अभय है, और तुम सब उसके अवतार हो, उसके मूर्त रूप हो! वेदान्त का ईश्वर वह है, जिसका स्वर्ग सर्वत्र ही है।
इस धरती रूपी स्वर्ग में सर्वत्र सगुण ईश्वर निवास करते हैं। इसलिये तुम सभी मंदिरों मे प्रार्थना, पुष्प-समर्पण आदि से विरत रहो !
तुम्हारी प्रार्थना का ध्येय क्या है ? स्वर्ग-प्राप्ति, स्वयं के लिये किसी वस्तु की प्राप्ति, और दूसरों को उससे वंचित रखने की कामना।" प्रभो ! मुझे भोजन खूब मिले, दूसरा भले ही भूखा रहे।" नित्य,अनंत,शाश्वत, सच्चिदानन्द स्वरुप उस ईश्वर की कैसी भव्य कल्पना है ! जिसमें कोई भेद नहीं, कोई दोष नहीं,जो सदा स्वतंत्र, निरंतर निर्मल एवं सतत परिपूर्ण है ! उसे हम समस्त मानवीय लक्षणों, कार्य-व्यापारों, एवं सीमाओं में जकड़ देना चाहते हैं ? उसे हमारे लिये खाना देना पड़ेगा, कपड़ा देना पड़ेगा। वस्तुतः ये सारे काम हमें स्वयं करने होंगे, और कभी भी किसीने यह सब हमारे लिये नहीं किया। यही स्पष्ट सत्य है। पर तुम शायद ही कभी इन बातों का विचार करते हो।
तुम्हारी प्रार्थना का ध्येय क्या है ? स्वर्ग-प्राप्ति, स्वयं के लिये किसी वस्तु की प्राप्ति, और दूसरों को उससे वंचित रखने की कामना।" प्रभो ! मुझे भोजन खूब मिले, दूसरा भले ही भूखा रहे।" नित्य,अनंत,शाश्वत, सच्चिदानन्द स्वरुप उस ईश्वर की कैसी भव्य कल्पना है ! जिसमें कोई भेद नहीं, कोई दोष नहीं,जो सदा स्वतंत्र, निरंतर निर्मल एवं सतत परिपूर्ण है ! उसे हम समस्त मानवीय लक्षणों, कार्य-व्यापारों, एवं सीमाओं में जकड़ देना चाहते हैं ? उसे हमारे लिये खाना देना पड़ेगा, कपड़ा देना पड़ेगा। वस्तुतः ये सारे काम हमें स्वयं करने होंगे, और कभी भी किसीने यह सब हमारे लिये नहीं किया। यही स्पष्ट सत्य है। पर तुम शायद ही कभी इन बातों का विचार करते हो।
तुम तो यह कल्पना करते कि एक ईश्वर है, जिसके तुम विशेष कृपा-प्राप्त हो, जो तुम्हारी मनौतियाँ पूरी करता है; और तुम उससे समस्त मानव, सभी प्राणियों पर कृपा करने का अनुरोध नहीं करते, बल्कि निज के लिये, निज परिवार के लिये, अपनी बिरादरी भर के लिये उसके अनुग्रह का आग्रह करते हो। यदि कहीं कोई हरिजन, आदिवासी या मुसलमान, या ईसाई भूखा है, तो तुम्हें उसकी कोई चिन्ता नहीं होती। उस समय तुम यह विचार नहीं करते कि हिन्दुओं का राम ही मुसलमानों अल्ला है, और ईसाईयों का गॉड है। ईश्वर सम्बन्धी हमारी धारणायें,प्राथनायें, उपासनायें स्वयं को केवल शरीर समझने के कारण, देहाध्यास के कारण-अविद्या के प्रभाव से विकृत हो चुकीं हैं। हो सकता है, मेरी बात तुम्हें अच्छी न लगे। आज तुम भले मुझे कोस लो, लेकिन कल तुम मुझे आशीर्वाद दोगे।
हमें विचारशील अवश्य बनना चाहिये। किसी भी योनि में जन्म दुःखदायी है। हमें भौतिकता से ऊपर उठना ही होगा ! ' My Mother (?) would not let us get out of Her clutches; nevertheless we must try. (Try का अर्थ है उद्द्योग करना : स्वयं को केवल शरीर नहीं समझना होगा '3H' का विवेक निरंतर जाग्रत रखकर,पशु भाव से ऊपर उठना होगा। अर्थात '3H' को विकसित करने के लिये जितना -आहार,निद्रा,भय और वंशविस्तार करने की इच्छा
अनिवार्य हो, उतने से ही संतुष्ट रहना होगा। मेरे ह्रदय में ही ईश्वर का
आवास है, यह विवेक जाग्रत रखते हुए त्याग पूर्वक भोग करना सीखना होगा। हमें निरंतर देहात्मबोध से उपर रहना होगा।) ' मेरी ' माँ ' हमें अपनी वज्र-मुष्टिका से मुक्त होने नहीं देना चाहेंगी; फिर भी हमें प्रयत्न करना होगा। (पाशविक) प्रकृति के विरुद्ध यह संघर्ष ही उपासना है, अन्य सब कुछ भ्रम मात्र है।
पशु प्रकृति (आहार,निद्रा,भय, मैथुन) के विरुद्ध संघर्ष नहीं कर सकता; तुम एक सगुण ईश्वर हो; और इस समय मैं अपने प्रवचनों के द्वारा तुम्हारी उपासना कर रहा हूँ। यही महत्तम प्रार्थना है। इसी जीव-शिववाद के अर्थ में सम्पूर्ण विश्व की उपासना करो-उसकी सेवा करते हुए। मेरा ऊँचे मंच पर खड़ा होना (व्यासपीठ पर बैठना), मैं जानता हूँ, उपासना जैसा नहीं प्रतीत होता है। किन्तु यदि इसमें (अन्य कोई स्वार्थ नहीं केवल) सेवा-भाव है, तो यही उपासना है।
पशु प्रकृति (आहार,निद्रा,भय, मैथुन) के विरुद्ध संघर्ष नहीं कर सकता; तुम एक सगुण ईश्वर हो; और इस समय मैं अपने प्रवचनों के द्वारा तुम्हारी उपासना कर रहा हूँ। यही महत्तम प्रार्थना है। इसी जीव-शिववाद के अर्थ में सम्पूर्ण विश्व की उपासना करो-उसकी सेवा करते हुए। मेरा ऊँचे मंच पर खड़ा होना (व्यासपीठ पर बैठना), मैं जानता हूँ, उपासना जैसा नहीं प्रतीत होता है। किन्तु यदि इसमें (अन्य कोई स्वार्थ नहीं केवल) सेवा-भाव है, तो यही उपासना है।
अनंत सत्य अप्राप्य है। (अर्थात ससीम मन-बुद्धि; असीम, अनंत सत्य की धारणा नहीं कर सकती) वह सतत ही इस लोक में विद्द्यमान है। (ईश्वर जब मेरे ह्रदय में सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मरूप में विद्द्य्मान हैं, तो उसी प्रकार कण-कण में वे ही अनुस्यूत हैं!) वह अज है-अमर है। वह जो विश्व का प्रभु है, जन जन में है। मन्दिर केवल एक है, वह है देह-मन्दिर। यही अकेला सनातन देव-मन्दिर है। इसी देह में उसका, परमात्मा का, राजराजेश्वर (the King of
kings) का निवास है। किन्तु हम उसे (अस्ति-भाति-प्रिय) को नहीं देख पाते (केवल नाम-रूप ही दीखता है), इसीलिये हम उसकी पाषाण प्रतिमायें बनाते हैं, उनपर ऊँचे मन्दिर खड़े करते हैं। भारत में सदा से वेदान्त रहा है, लेकिन भारत ऐसे मंदिरों से भरा पड़ा है। केवल मन्दिर ही नहीं, किन्तु मूर्तियों से भरी अजन्ता-एलोरा की गुफाएँ भी हैं।
इसी को कहते हैं -" गंगा किनारे रहने वाला मूर्ख व्यक्ति नहाने के लिये कुआँ खोदते हैं"। यही हमारा हाल है। ईश्वर में निवास करते हुए भी हम बाहर जाकर उसकी मूर्तियाँ बनाने लगते हैं। हमारी बुद्धि मारी गयी है, और यह बड़ा भरी भ्रम है। 'सगुण-ईश्वर रूप में सबकी उपासना करो--सारे आकार उसके मन्दिर हैं।' बाकी सब कुछ भ्रम है। सत्य (ईश्वर) को खोजने के लिये हमेशा भीतर की ओर देखो, बाहर की ओर कदापि नहीं। वेदान्त-प्रतिपादित ईश्वर यही है और उसकी उपासना भी यही है! स्वभावतः वेदान्त में कोई सम्प्रदाय नहीं है, कोई शाखा-प्रशाखा नहीं है, कोई जाति-भेद नहीं है। किन्तु ऐसा स्वभावतः उदारवादी, सच्चा धर्म-निरपेक्ष वेदान्त भला भारत (विश्व) का राष्ट्रीय धर्म कैसे हो सकता है ?
यहाँ तो एक धर्म मानने वालों के भीतर सैकड़ों जातियाँ हैं ! यदि कोई किसी की थाली छू दे, तो वह चिल्ला उठता है -' परमात्मा मुझे उबार लो, मैं जाति-च्यूत गया !' (मुझे अमुक जाति में जन्मे शरीर से स्पर्श हो गया, मैं तो भ्रष्ट हो गया, अब मुझे फिर से गंगाजी में नहाना होगा) पहली विदेश-यात्रा से लौटकर जब मैं (स्वामी विवेकानन्द) भारत गया (१८९७ ई० में), तो अनेक सनातनी हिन्दुओं ने पाश्चात्यों के साथ मेरे सम्पर्क और कट्टरता के नियमों के भंग करने को, हिन्दू-सम्प्रदाय विरोधी ठहरा कर खूब हो-हल्ला मचाया। पाश्चात्य लोगों (भिन्न मतावलम्बी ईसाई, मुसलमान लोगों) को मेरा वैदिक-सत्य की शिक्षा देना उन्हें बहुत नागवार या अप्रिय लगा।
[ शिष्य bk : जिस देश में हजारों वर्ष पहले वेदान्त का जन्म हुआ, वहाँ इतना कट्टर जाति-वाद कैसे आ गया ?
S.V : १००० वर्षों की गुलामी और कुछ स्वार्थी राजाओं के कारण। सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था में मनुष्य के जन्मजात चार प्रकार के गुणों के कारण मानव-जाति चार वर्ण -ब्राह्मण,क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र में विभक्त किया गया था। इसके पीछे हमारे आचार्यों का उद्देश्य घृणा फैलाना नहीं था, बल्कि मनुष्य निर्माण की शिक्षा -पाशविक प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करके ब्रह्म को जानकर ब्राह्मण बनना, अर्थात स्वयं मनुष्य (ब्राह्मण-ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनना और दूसरों को भी (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य या ब्राह्मण) मनुष्य बनने में सहायता करना था। किन्तु दुर्भाग्य वश भारत इसी बीच गुलाम बन गया। और हमारा जातीय-प्रासाद, अर्थात वेदान्त की बुनियाद पर मनुष्य-निर्माण की पद्धति, या चरित्र-निर्माण की पद्धति द्वारा राष्ट्र-निर्माण का सपना अधूरा ही रह गया। इसी कार्य को पूरा करने के लिये श्रीरामकृष्ण अपने लीला-पार्षदों के साथ अवतरित होना पड़ा। और आज वही शक्ति महामण्डल के रूप में आविर्भूत होकर सम्पूर्ण भारत में क्रियाशील हो रही है। इसीलिये भारत गुलामी के बाद भी अपने वेदान्ती विरासत को नहीं भूला क्योंकि ठीक समय पर - मैकाले की शिक्षा-पद्धति आने के साथ ही साथ ठाकुर आविर्भूत हो गये ! और आजाद भारत में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल आविर्भूत हो गया। बहरागोड़ा, राँची, जमशेदपुर, तिलैया, जनिबिगहा, फुलवरिया, बरही, हजारीबाग, छपरा, जैसे नये नये स्थानों में इसकी शाखायें निरंतर खुलती ही जा रही हैं ! किन्तु अब २०१४ में ' काँग्रेस-मुक्त और पूर्णतः आज़ाद भारत' में भी धर्म-जाति के नाम पर इतने भेद और अंतर कैसे बने रह सकते हैं ? अर्थात शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगे। वास्तव में वेदान्ती धर्म का अर्थ है असाम्प्रदायिक धर्म, किन्तु काँग्रेस और मुल्ला मुलायम, लालू, नीतीश, ममता जैसे लोग हिन्दू (वेदान्ती) को भी साम्प्रदायिक कहकर यूपी-बंगाल में धर्म-परिवर्तन, और दंगा करवाते रहते हैं, इसलिये सबसे पहले साम्प्रदायिक-दंगा विरोधी बिल लाकर एक सच्चा वेदान्ती धर्म-निरपेक्ष प्रजातान्त्रिक संविधान (नेपाल+ भारत १२५ करोड़+ ३ करोड़ =१२८ करोड़) में लागु करना ही होगा। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को केवल अनावृत किया था, ईश्वरीय शक्ति के रूप में वह गुरुत्वाकर्षण धरती में पहले से विद्द्य्मान था। क्योंकि जिसको हम वैज्ञानिक आविष्कार कह रहे हैं, वह भी एक प्रकार का अन्धविश्वास ही है। गुरुत्वाकर्षण के नियम को तोड़कर चन्द्रमा पर पहुँचा जा सकता है। किन्तु ऋषियों द्वारा आविष्कृत वेदान्तिक नियमों (महावाक्यों) को तोड़ने का सामर्थ्य किसी में नहीं है। भौतिक जगत के ज्ञान को अनावृत करने वाले आविष्कारक को वैज्ञानिक कहते हैं, किन्तु -'न्यूटन-शुक्ला ' के आगे शीश झुकाने की हम कोई चिन्ता नहीं करते। क्योंकि जिसको हम वैज्ञानिक आविष्कार कह रहे हैं, वह भी एक प्रकार का अन्धविश्वास ही है। यह बिल्कुल ही वेदान्त नहीं। यह कोरा भौतिकवाद या जड़-जगत पर लागु होने वाला नियम है-'जायस्व म्रियस्व' किन्तु मनुष्य तो जड़ शरीर मात्र नहीं है-वह जन्म-मरण के नियम को तोड़ कर अमर या बंधन मुक्त हो सकता है ! इस आध्यात्मिक ज्ञान अविष्कारक को, प्रकार के अन्य आध्यात्मिक जगत के ज्ञान- ' वेदान्त' (महावाक्यों) को अनावृत करने वाले आविष्कारक को ऋषि कहते हैं, पशुपतिनाथ के १०८ वेदपाठी इसी ऋषि मन की सहायता से इस बार नेपाल को इस बार नेपाल का सर्वसमासी वेदान्ती धर्म-निरपेक्ष प्रजातान्त्रिक संविधान तैयार करना होगा। तभी विश्व बचेगा, इसीलिये मोदीजी ने कहा कि सम्पूर्ण विश्व की नजरें नेपाल पर टिकी हुई हैं। (८ अगस्त २०१४,८am - क्या स्वामीजी आज भी कार्य नहीं कर रहे हैं ?) ]
लेकिन इतने भेद और अन्तर रहेंगे कैसे ? जब हम सभी, हिन्दू- मुसलमान- ईसाई आत्मस्वरूप हैं, समान हैं! अब पूर्णतया आज़ाद भारत में अमीर गरीब को, पण्डित अज्ञानी को, (ब्राह्मण शूद्र को, मुसलमान हिन्दू को, हिन्दू ईसाई को, सिख मोना को) देखकर नाक-भौं कैसे सिकोड़ पायेगा? यदि समाज की रुपरेखा न बदले, तो वेदान्त-धर्म के सदृश धर्म प्रभावशाली कैसे हो ? सम्पूर्ण विश्व में विवेकी यथार्थ विचारशील मानवों की संख्या विपुल होने में हजारों साल लगेंगे। मानव को नयी बातें सुझाना, उन्हें उच्च विचार प्रदान करना बड़ा ही श्रमसाध्य है। रूढ़िगत-विश्वासों का उन्मूलन तो और भी दुष्कर है -बहुत ही दुष्कर। ये शीघ्र विनष्ट नहीं होते, पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी अँधेरे में काँप उठता है, बचपन में सुनी कहानियाँ याद हो आती हैं, और वे प्रेत देखने लगते हैं।
वेदान्त शब्द 'वेद' से बना है और 'वेद' का अर्थ है -ज्ञान। समस्त ज्ञान वेद है और ईश्वर की भाँति अनन्त है। कोई व्यक्ति ज्ञान की कभी सृष्टि नहीं करता। क्या तुमने कभी ज्ञान का सृजन होते देखा है? ज्ञान सदा यहीं है, क्योंकि वह स्वयं ईश्वर है। इसलिये ज्ञान का अन्वेषण मात्र होता है।- - -आवृत का अनावरण मात्र होता है। (न्यूटन ऋषि या वैज्ञानिक?) अतीत, वर्तमान, अनागत इन तीनों का ज्ञान हम सब में विद्यमान है। हम केवल उसका अनुसन्धान मात्र करते हैं, और कुछ नहीं। ये सारे ज्ञान (महावाक्य) स्वयं ईश्वर हैं। वेद संस्कृत भाषा के महान ग्रन्थ हैं। हम अपने देश में वेदपाठी (पशुपतिनाथ में भी १०८ वेदपाठी) के सामने नतमस्तक होते हैं,लेकिन किसी भौतिक शास्त्र के विशेषज्ञ -'न्यूटन-शुक्ला ' के आगे शीश झुकाने की हम कोई चिन्ता नहीं करते। क्योंकि उसके द्वारा आविष्कृत वैज्ञानिक नियम भी कोरा अन्धविश्वास ही है। (विद्या-बुद्धि लगाकर इस पर विजय पाया जा सकता है) यह बिल्कुल ही वेदान्त नहीं। यह कोरा जड़वाद है। जबकि समस्त ईश्वरीय ज्ञान शाश्वत,अटल और पवित्र हैं। ज्ञान ही ईश्वर है। अनन्त ज्ञान पूर्ण मात्रा में प्रत्येक जीवधारी में पूर्णमात्रा में निहित है। तुम या कोई मनुष्य अज्ञानी नहीं है, भले ही ऐसा दिखाई पड़े। तुममें से प्रत्येक ईश्वरावतार है। तुम सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, दिव्यस्वरूप के अवतार हो। हो सकता है, मेरी बातों पर तुम्हें हँसी आये, किन्तु वह समय दूर नहीं, जब तुम इसे समझ सकोगे। तुम्हें समझना पड़ेगा। कोई पीछे नहीं रहने पायेगा।
इस वेदान्त का लक्ष्य क्या है ? जिस वेदान्त की चर्चा मैंने अभी की है, वह कोई नया धर्म नहीं।
इसी को कहते हैं -" गंगा किनारे रहने वाला मूर्ख व्यक्ति नहाने के लिये कुआँ खोदते हैं"। यही हमारा हाल है। ईश्वर में निवास करते हुए भी हम बाहर जाकर उसकी मूर्तियाँ बनाने लगते हैं। हमारी बुद्धि मारी गयी है, और यह बड़ा भरी भ्रम है। 'सगुण-ईश्वर रूप में सबकी उपासना करो--सारे आकार उसके मन्दिर हैं।' बाकी सब कुछ भ्रम है। सत्य (ईश्वर) को खोजने के लिये हमेशा भीतर की ओर देखो, बाहर की ओर कदापि नहीं। वेदान्त-प्रतिपादित ईश्वर यही है और उसकी उपासना भी यही है! स्वभावतः वेदान्त में कोई सम्प्रदाय नहीं है, कोई शाखा-प्रशाखा नहीं है, कोई जाति-भेद नहीं है। किन्तु ऐसा स्वभावतः उदारवादी, सच्चा धर्म-निरपेक्ष वेदान्त भला भारत (विश्व) का राष्ट्रीय धर्म कैसे हो सकता है ?
यहाँ तो एक धर्म मानने वालों के भीतर सैकड़ों जातियाँ हैं ! यदि कोई किसी की थाली छू दे, तो वह चिल्ला उठता है -' परमात्मा मुझे उबार लो, मैं जाति-च्यूत गया !' (मुझे अमुक जाति में जन्मे शरीर से स्पर्श हो गया, मैं तो भ्रष्ट हो गया, अब मुझे फिर से गंगाजी में नहाना होगा) पहली विदेश-यात्रा से लौटकर जब मैं (स्वामी विवेकानन्द) भारत गया (१८९७ ई० में), तो अनेक सनातनी हिन्दुओं ने पाश्चात्यों के साथ मेरे सम्पर्क और कट्टरता के नियमों के भंग करने को, हिन्दू-सम्प्रदाय विरोधी ठहरा कर खूब हो-हल्ला मचाया। पाश्चात्य लोगों (भिन्न मतावलम्बी ईसाई, मुसलमान लोगों) को मेरा वैदिक-सत्य की शिक्षा देना उन्हें बहुत नागवार या अप्रिय लगा।
[ शिष्य bk : जिस देश में हजारों वर्ष पहले वेदान्त का जन्म हुआ, वहाँ इतना कट्टर जाति-वाद कैसे आ गया ?
S.V : १००० वर्षों की गुलामी और कुछ स्वार्थी राजाओं के कारण। सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था में मनुष्य के जन्मजात चार प्रकार के गुणों के कारण मानव-जाति चार वर्ण -ब्राह्मण,क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र में विभक्त किया गया था। इसके पीछे हमारे आचार्यों का उद्देश्य घृणा फैलाना नहीं था, बल्कि मनुष्य निर्माण की शिक्षा -पाशविक प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करके ब्रह्म को जानकर ब्राह्मण बनना, अर्थात स्वयं मनुष्य (ब्राह्मण-ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनना और दूसरों को भी (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य या ब्राह्मण) मनुष्य बनने में सहायता करना था। किन्तु दुर्भाग्य वश भारत इसी बीच गुलाम बन गया। और हमारा जातीय-प्रासाद, अर्थात वेदान्त की बुनियाद पर मनुष्य-निर्माण की पद्धति, या चरित्र-निर्माण की पद्धति द्वारा राष्ट्र-निर्माण का सपना अधूरा ही रह गया। इसी कार्य को पूरा करने के लिये श्रीरामकृष्ण अपने लीला-पार्षदों के साथ अवतरित होना पड़ा। और आज वही शक्ति महामण्डल के रूप में आविर्भूत होकर सम्पूर्ण भारत में क्रियाशील हो रही है। इसीलिये भारत गुलामी के बाद भी अपने वेदान्ती विरासत को नहीं भूला क्योंकि ठीक समय पर - मैकाले की शिक्षा-पद्धति आने के साथ ही साथ ठाकुर आविर्भूत हो गये ! और आजाद भारत में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल आविर्भूत हो गया। बहरागोड़ा, राँची, जमशेदपुर, तिलैया, जनिबिगहा, फुलवरिया, बरही, हजारीबाग, छपरा, जैसे नये नये स्थानों में इसकी शाखायें निरंतर खुलती ही जा रही हैं ! किन्तु अब २०१४ में ' काँग्रेस-मुक्त और पूर्णतः आज़ाद भारत' में भी धर्म-जाति के नाम पर इतने भेद और अंतर कैसे बने रह सकते हैं ? अर्थात शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगे। वास्तव में वेदान्ती धर्म का अर्थ है असाम्प्रदायिक धर्म, किन्तु काँग्रेस और मुल्ला मुलायम, लालू, नीतीश, ममता जैसे लोग हिन्दू (वेदान्ती) को भी साम्प्रदायिक कहकर यूपी-बंगाल में धर्म-परिवर्तन, और दंगा करवाते रहते हैं, इसलिये सबसे पहले साम्प्रदायिक-दंगा विरोधी बिल लाकर एक सच्चा वेदान्ती धर्म-निरपेक्ष प्रजातान्त्रिक संविधान (नेपाल+ भारत १२५ करोड़+ ३ करोड़ =१२८ करोड़) में लागु करना ही होगा। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को केवल अनावृत किया था, ईश्वरीय शक्ति के रूप में वह गुरुत्वाकर्षण धरती में पहले से विद्द्य्मान था। क्योंकि जिसको हम वैज्ञानिक आविष्कार कह रहे हैं, वह भी एक प्रकार का अन्धविश्वास ही है। गुरुत्वाकर्षण के नियम को तोड़कर चन्द्रमा पर पहुँचा जा सकता है। किन्तु ऋषियों द्वारा आविष्कृत वेदान्तिक नियमों (महावाक्यों) को तोड़ने का सामर्थ्य किसी में नहीं है। भौतिक जगत के ज्ञान को अनावृत करने वाले आविष्कारक को वैज्ञानिक कहते हैं, किन्तु -'न्यूटन-शुक्ला ' के आगे शीश झुकाने की हम कोई चिन्ता नहीं करते। क्योंकि जिसको हम वैज्ञानिक आविष्कार कह रहे हैं, वह भी एक प्रकार का अन्धविश्वास ही है। यह बिल्कुल ही वेदान्त नहीं। यह कोरा भौतिकवाद या जड़-जगत पर लागु होने वाला नियम है-'जायस्व म्रियस्व' किन्तु मनुष्य तो जड़ शरीर मात्र नहीं है-वह जन्म-मरण के नियम को तोड़ कर अमर या बंधन मुक्त हो सकता है ! इस आध्यात्मिक ज्ञान अविष्कारक को, प्रकार के अन्य आध्यात्मिक जगत के ज्ञान- ' वेदान्त' (महावाक्यों) को अनावृत करने वाले आविष्कारक को ऋषि कहते हैं, पशुपतिनाथ के १०८ वेदपाठी इसी ऋषि मन की सहायता से इस बार नेपाल को इस बार नेपाल का सर्वसमासी वेदान्ती धर्म-निरपेक्ष प्रजातान्त्रिक संविधान तैयार करना होगा। तभी विश्व बचेगा, इसीलिये मोदीजी ने कहा कि सम्पूर्ण विश्व की नजरें नेपाल पर टिकी हुई हैं। (८ अगस्त २०१४,८am - क्या स्वामीजी आज भी कार्य नहीं कर रहे हैं ?) ]
लेकिन इतने भेद और अन्तर रहेंगे कैसे ? जब हम सभी, हिन्दू- मुसलमान- ईसाई आत्मस्वरूप हैं, समान हैं! अब पूर्णतया आज़ाद भारत में अमीर गरीब को, पण्डित अज्ञानी को, (ब्राह्मण शूद्र को, मुसलमान हिन्दू को, हिन्दू ईसाई को, सिख मोना को) देखकर नाक-भौं कैसे सिकोड़ पायेगा? यदि समाज की रुपरेखा न बदले, तो वेदान्त-धर्म के सदृश धर्म प्रभावशाली कैसे हो ? सम्पूर्ण विश्व में विवेकी यथार्थ विचारशील मानवों की संख्या विपुल होने में हजारों साल लगेंगे। मानव को नयी बातें सुझाना, उन्हें उच्च विचार प्रदान करना बड़ा ही श्रमसाध्य है। रूढ़िगत-विश्वासों का उन्मूलन तो और भी दुष्कर है -बहुत ही दुष्कर। ये शीघ्र विनष्ट नहीं होते, पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी अँधेरे में काँप उठता है, बचपन में सुनी कहानियाँ याद हो आती हैं, और वे प्रेत देखने लगते हैं।
वेदान्त शब्द 'वेद' से बना है और 'वेद' का अर्थ है -ज्ञान। समस्त ज्ञान वेद है और ईश्वर की भाँति अनन्त है। कोई व्यक्ति ज्ञान की कभी सृष्टि नहीं करता। क्या तुमने कभी ज्ञान का सृजन होते देखा है? ज्ञान सदा यहीं है, क्योंकि वह स्वयं ईश्वर है। इसलिये ज्ञान का अन्वेषण मात्र होता है।- - -आवृत का अनावरण मात्र होता है। (न्यूटन ऋषि या वैज्ञानिक?) अतीत, वर्तमान, अनागत इन तीनों का ज्ञान हम सब में विद्यमान है। हम केवल उसका अनुसन्धान मात्र करते हैं, और कुछ नहीं। ये सारे ज्ञान (महावाक्य) स्वयं ईश्वर हैं। वेद संस्कृत भाषा के महान ग्रन्थ हैं। हम अपने देश में वेदपाठी (पशुपतिनाथ में भी १०८ वेदपाठी) के सामने नतमस्तक होते हैं,लेकिन किसी भौतिक शास्त्र के विशेषज्ञ -'न्यूटन-शुक्ला ' के आगे शीश झुकाने की हम कोई चिन्ता नहीं करते। क्योंकि उसके द्वारा आविष्कृत वैज्ञानिक नियम भी कोरा अन्धविश्वास ही है। (विद्या-बुद्धि लगाकर इस पर विजय पाया जा सकता है) यह बिल्कुल ही वेदान्त नहीं। यह कोरा जड़वाद है। जबकि समस्त ईश्वरीय ज्ञान शाश्वत,अटल और पवित्र हैं। ज्ञान ही ईश्वर है। अनन्त ज्ञान पूर्ण मात्रा में प्रत्येक जीवधारी में पूर्णमात्रा में निहित है। तुम या कोई मनुष्य अज्ञानी नहीं है, भले ही ऐसा दिखाई पड़े। तुममें से प्रत्येक ईश्वरावतार है। तुम सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, दिव्यस्वरूप के अवतार हो। हो सकता है, मेरी बातों पर तुम्हें हँसी आये, किन्तु वह समय दूर नहीं, जब तुम इसे समझ सकोगे। तुम्हें समझना पड़ेगा। कोई पीछे नहीं रहने पायेगा।
इस वेदान्त का लक्ष्य क्या है ? जिस वेदान्त की चर्चा मैंने अभी की है, वह कोई नया धर्म नहीं।
वह स्वयं ईश्वर ही की भाँति प्राचीन है। देश-काल बंधन उसे बाँध सकते, वह सर्वत्र है। प्रत्येक को इस सत्य का ज्ञान है। विभिन्न सम्प्रदायों के माध्यम से हम सब इसीका रूप निश्चित कर रहे हैं। विश्व मात्र का लक्ष्य यही है। बाह्य प्रकृति पर भी यही नियम लागू है। बाह्य प्रकृति का कण कण इसी लक्ष्य की ओर, अन्तर्निहित दिव्यता को अविष्कृत करने की ओर धावित हो रहा है। तुम क्या सोचते हो कि परिशुद्ध अनंत आत्मायें इस परम सत्य के दर्शन से वंचित हैं? नहीं, वह सर्वसुलभ है, क्रमशः सभी इसी लक्ष्य पर पहुँच हैं --अन्तर्निहित दिव्यता (अमरत्व या मुक्ति) की ओर ! सनकी, हत्यारा, रूढ़िवादी, या जिनको इस देश में भीड़ द्वारा संगसार कर दिये जाता है; सभी इसी लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। हमारा काम इतना ही है कि अनजाने जो कुछ हम कर रहे हैं, उसे हम समझकर करें- ज्यादा अच्छे ढंग से करें। (स्वयं ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बने और दूसरों को ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने में सहायता करें -Be and Make यही सभी भारतवासियों का आदर्श वाक्य बने!) What is human love?: मानवीय प्रेम क्या है ? (इश्क इंसान को हिन्दू-मुसलमान नहीं इंसान बना देता है-ताजमहल इसी बात का प्रतीक है) समग्र अस्तित्व का एकत्व ('The unity of all existence' सह-अस्तित्व की भावना) तुममें पहले से ही विद्यमान है। उससे रहित कभी किसी ने जन्म ही नहीं लिया। तुम किसी भी आधार पर उसे अस्वीकार करो, वह सदा हर युग में अपने अस्तित्व को सिद्ध करता है। मानवीय अनुराग क्या है ? यह न्यूनाधिक रूप में इसी एकत्व का महिमा-मण्डन ही तो है : ' मैं तुम, अपनी स्त्री, सन्तान, बन्धु-बान्धवों से अभिन्न हूँ।' ससुराल-नैहर के लोगों के प्रति विशेष-प्रेम दर्शाकर तुम केवल अनजाने इस अभिन्नता का अनुमोदन कर रही हो। ' कभी किसी ने पति से पति के नाते नहीं, अपितु पति में निवसित आत्मा के हेतु प्रेम दर्शाया है।' ' न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति। .... न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति। आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम्॥ बृ॥२.४.५॥' पत्नी पति से अभिन्नता का अनुभव करती है, पति भी पत्नी में निज को ही पाता है - 'दो जिस्म एक जान का अनुभव' स्वाभाविक तौर पर होने लगता है, जान-बूझकर वह ऐसा नहीं कर पाता है।
Unity is knowledge, diversity is ignorance: सम्पूर्ण जगत एक ही सत्ता है। उसके अतिरिक्त और कुछ हो भी नहीं सकता। विविधताओं से परे हम इसी सार्वभौमिक अस्तित्व को प्राप्त करने की ओर बढ़ रहे हैं। परिवार से कुटुम्ब, कुटुम्ब से जाति, जाति से राष्ट्र, राष्ट्रों से मानवता- कितनी विविध इच्छायें संघबद्ध होकर उस एकत्व की ओर अग्रसर हो रही हैं! इस एकत्व की अनुभूति ही सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान है। एकत्व की अनुभूति-अपनापन, ही ज्ञान है। और परायापन या विभेद देखना ही अज्ञान है। इस ज्ञान पर तुम सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। चाहें या न चाहें, हम सभी मुक्ति के अधिकारी हैं। हम सभी अन्त में बन्धन-मुक्त होकर रहेंगे, क्योंकि मुक्त होना तुम्हारा स्वभाव है।
हम तो मुक्त हैं ही, केवल हम यह जानते भर नहीं और हमें पता नहीं कि हम क्या करते रहे हैं। संसार के सभी धर्म एक ही ध्येय, एक ही नैतिक मानदण्ड का प्रचार कर रहे हैं -" सबके प्रति
स्वार्थरहित बनो, दूसरों से पेम करो (Be unselfish, love others.)"। किन्तु सभी सम्प्रदाय अपने अपने पैग़म्बरों या अवतारों द्वारा बताये ईश्वर के नाम को लेकर झगड़ा करते हैं। कोई कहता है, 'यह जेहोवा का आदेश है।' दूसरे चिल्लाये, " मसीहा का है!" कोई कहता है, 'यह आदेश अल्ला ने केवल उसके ही ग्रन्थ में दिया है।' अगर यह जेहोवा का आदेश होता, तो जेहोवा से अपरिचित सम्प्रदाय वालों को यह उपदेश कैसे प्राप्त हुआ? यदि यह केवल ईसा मसीह का सन्देश है, तो उन्हें न जानने वालों को वह कैसे प्राप्त हुआ ? अगर केवल विष्णु ही ऐसा कर सके तो उनको न जानने वाले एक यहूदी का यह जीवन-ध्येय कैसे बन गया ? एक अन्य प्रेरणा-स्रोत है, जो इन सब से महत्तर है ! वह प्रेरणा-स्रोत कहाँ है ? वह स्रोत मानवदेह-रूपी इसी सनातन मन्दिर में है, क्षुद्र से लेकर महान तक की आत्मा में है! अनन्त निःस्वार्थता, असीम त्याग, अनन्त के साथ एकात्मबोध प्राप्त करने की असीम व्याकुलता- मानवमात्र के ह्रदय में ही छिपी हुई है!
अपने अज्ञान के कारण हम देखने में विभक्त एवं ससीम (साढ़े तीन हाथ का शरीर) लगते हैं, और सम्मोहित व्यक्ति बनकर स्वयं को श्रीअमुक या श्रीमती अमुक (स्त्री-पुरुष) ही समझने लगे हैं। किन्तु समूची प्रकृति इस भ्रम को हर क्षण असत्य सिद्ध करने का प्रयास करती रहती है। हमारे हृदय से हर क्षण आवाज उठती रहती है - सबसे विलग मैं कोई तुच्छ स्त्री या पुरुष शरीर मात्र नहीं हूँ- मैं एक सार्वभौमिक अस्तित्व हूँ। आत्मा निज महिमा के सहारे क्षण-प्रतिक्षण जाग्रत हो रही है और अपने स्वयं की अन्तर्निहित दिव्यता की घोषणा कर रही है। यह वेदान्त सर्वत्र है, केवल तुम्हें उससे अवगत होना है।
वास्तव में धर्म क्या है ? ये निरर्थक विश्वासपुंज-आधारित साम्प्रदायिक कट्टरता एवं अन्धविश्वास- समूह ही हमारी प्रगति में बाधक है। अगर सम्भव हो, तो हम इन्हें दूर फेंकें और यह समझें कि ईश्वर सत्य-आत्मा के द्वारा एक उपास्य परमात्मा है। अब और अधिक भौतिकवादी (चार्वाक मतावलम्बी) बनने की चेष्टा मत करो। नश्वर इन्द्रिय-भोगों में ज्यादा आसक्त मत रहो। ईश्वर के सम्बन्ध में हमारी अवधारणा यथार्थतः आध्यात्मिक होनी चाहिये। ईश्वर के सम्बन्ध में हमारी जो अवधारणायें कमो-बेश जड़वाद से अनुप्रेरित हैं, उन्हें अवश्य विदा करना होगा। जैसे जैसे मनुष्य अधिकाधिक आध्यात्मिक होता जाता है, निरर्थक विचार उससे स्वतः दूर होते जाते हैं। वस्तुतः प्रत्येक देश में सदा से कुछ ऐसे पुरुष हुए हैं, जो भौतिकता का परित्याग कर देने में समर्थ हैं, और आत्मज्ञान के अमर अलोक में खड़े होकर आत्मा की आराधना आत्मा के द्वारा करते हैं।
यदि वेदान्त - जो यह शाश्वत चैतन्य होने का ज्ञान है, जिसे केवल अपने अनुभव से जाना जाता है, कि सभी आत्मा एक है, चारों ओर फ़ैल जाय तो सारी मानवता आध्यात्मिक हो जायेगी। परन्तु क्या यह सम्भव है ?
मैं नहीं जानता; हजारों वर्षों से ऐसा सम्भव नहीं हुआ है। फिर भी पुरानी रूढ़ियों और अन्धविश्वास को एक न एक दिन विदा लेना ही होगा। तुम सभी आज भी अपने पुराने अन्धविश्वासों को अभी भी चिरस्थायी बनाने की फ़िराक में लगे रहते हो। (जबरन, डराकर या लालच देकर मुल्ला मुलायम के राज्य में अभी भी धर्म-परिवर्तन चल रहा है ? काँग्रेसियों को स्वार्थवश यह दिखाई नहीं देता।) इन सब के अतिरिक्त गोतिया-भाई, जाति-भाई, राष्ट्र-बन्धु के प्रति अधिक मोहग्रस्त रहने की बाध्यता भी है। वेदान्त-सिद्धि के मार्ग में ये सब बहुत बड़ी बाधाएं हैं। बहुत थोड़े से लोग ही यह समझ पाते हैं कि वास्तव में धर्म क्या है ?
विश्व भर में धर्मक्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्तियों में अधिकांश वास्तव में राजनीतिक कार्यकर्ता ही रहे हैं। यही मानव इतिहास रहा है। इनमें से शायद ही किसी ने समझौता न करने वाले ढंग से, केवल सत्य की कसौटी पर खरा उतरने की चेष्टा किया हो। इन लोगों ने हमेशा से कबीलाई अन्धविश्वास या जनसमूह (वोटबैंक) नामक ईश्वर की उपासना की है।उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों या समाज में प्रचलित दुर्बलताओं (कुर्मी-यादव-मुस्लिम-गठबंधन) को दूर हटाने का प्रयास न कर, अधिकतर उनका समर्थन ही किया है। क्योंकि उनका लक्ष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना न होकर, सदा प्रकृति के ही अनुकूल बन जाना रहा है। भारत में जाकर कोई यदि किसी नये धर्म का प्रचार करने लगे, तो वहाँ के लोग उस पर ध्यान ही नहीं देंगे। लेकिन यदि तुम बताओ, कि ऐसा वेदों में कहा गया है-तो वे कहेंगे, ' ये ठीक है।' मैं यहाँ वेदान्त मत की शिक्षा दे रहा हूँ, किन्तु तुममें से कितने हैं, जो विवेक-विचार पूर्वक इसे समझने या स्वीकार करने को तैयार होंगे ? किन्तु वेदान्त के महावाक्य ही पूर्णतया केवल सत्य पर आधारित हैं, और (मुझे प्राचीन ऋषियों या पैग़म्बरों द्वारा आविष्कृत इन सार्वभैमिक सत्यों की व्याख्या करने का कार्यभार, जगतगुरु श्रीरामकृष्ण के द्वारा मुझे सौंपा गया है।) मुझे तुम्हारे लिये इसका प्रतिपादन करना ही होगा।
सत्यसाधकों (seekers of truth) का प्रशिक्षण : द्वैत के सम्पूर्ण रूढ़ि-विश्वासों से दूर आत्मनिर्भर बनने (चरित्रवान बनने) का प्रशिक्षण-शिविर : इस प्रश्न का एक दूसरा पहलु भी है। प्रत्येक धर्म-गुरु यही कहते हैं कि सर्वोच्च एवं पूर्ण सत्य की अनुभूति एकाएक सबके लिये सम्भव नहीं; क्रम से उपासना, प्रार्थना एवं अन्य प्रचलित धार्मिक विधि-विधानों का सहारा लेकर, धीरे धीरे मानव को यहाँ तक पहुँचाना होगा। मैं कह नहीं सकता कि ये तरीका गलत है या सही। भारत में मैं दोनों मार्गों से कार्य करता हूँ।
कोलकाता में ईश्वर के सभी रूपों की आराधना करने के लिये, काली-मन्दिर, शिव-मन्दिर, राम-मन्दिर, कृष्ण-मन्दिर या बेलुड़ में श्रीरामकृष्ण-मन्दिर के साथ ही साथ वेद, बाइबिल, कुरान, ईसा, बुद्ध, मोहम्मद की शिक्षाओं पर आधारित अनेकों उपासना-गृह मिल जायेंगे। इन्हें चलने दो, मन्दिर-प्रतिमा आदि तोड़ने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन हिमालय की ऊँचाइयों पर (मायावती में) हमने एक ऐसा आश्रम बनाया है, जहाँ पूर्ण सत्य (सच्चिदानन्द) की अपेक्षा और किसी वस्तु (ईश्वर के मूर्त नाम-रूप?) का प्रवेश नहीं हो सकता।
कोलकाता में ईश्वर के सभी रूपों की आराधना करने के लिये, काली-मन्दिर, शिव-मन्दिर, राम-मन्दिर, कृष्ण-मन्दिर या बेलुड़ में श्रीरामकृष्ण-मन्दिर के साथ ही साथ वेद, बाइबिल, कुरान, ईसा, बुद्ध, मोहम्मद की शिक्षाओं पर आधारित अनेकों उपासना-गृह मिल जायेंगे। इन्हें चलने दो, मन्दिर-प्रतिमा आदि तोड़ने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन हिमालय की ऊँचाइयों पर (मायावती में) हमने एक ऐसा आश्रम बनाया है, जहाँ पूर्ण सत्य (सच्चिदानन्द) की अपेक्षा और किसी वस्तु (ईश्वर के मूर्त नाम-रूप?) का प्रवेश नहीं हो सकता।
तुम्हारे सम्मुख आज के व्याख्यान में वेदान्त के जिन महावाक्यों की व्याख्या मैंने की है, वहाँ मैं इन सिद्धान्तों का प्रयोग होता हुआ देखना चाहता हूँ। आश्रम एक अंग्रेज दम्पति के संरक्षण में है। मेरे जीवन का ध्येय सत्यार्थीओं या सत्यसाधकों (seekers of truth) का प्रशिक्षण, शैशव-किशोरा वस्था से ही निर्भीक, अन्धविश्वास रहित मनुष्यों (नरश्रेष्ठों) का निर्माण करना रहा है। वे वहाँ ईसा, बुद्ध, शिव एवं विष्णु आदि नामों को सुनने नहीं पायेंगे।-इनमें से किसी का भी नहीं। आरम्भ से ही उन्हें आत्मनिर्भर (चरित्रवान मनुष्य They shall learn, from the start, to stand
upon their own feet. ) बनने की शिक्षा दी जायेगी। शैशव अवस्था से ही वे सीखेंगे कि ' ईश्वर आत्मा है, आत्मा और सत्य के द्वारा ही उसकी आराधना होनी चाहिये।' सबको आत्मा के रूप में देखना होगा। यही आदर्श है। इसकी सफलता का मुझे कोई अनुमान नहीं। आज मैं अपने प्रिय विषय का प्रचार कर रहा हूँ। यदि द्वैत के सम्पूर्ण रूढ़ि-विश्वासों से दूर ऐसे ही आदर्श के अनुरूप मेरा भी लालन-पालन हुआ होता, तो कितना भला होता !
द्वैतवाद धर्म का किंडरगार्टन : कभी कभी मैं यह स्वीकार करता हूँ कि द्वैत-मार्ग में भी कुछ अच्छाई अवश्य है, जो दुर्बल हैं- उनकी यह सहायता करता है। यदि कोई तुमसे ध्रुव तारे (polar star) को दिखा देने का अनुरोध करे, तो पहले तुम उसे उसके निकटवर्ती उज्ज्वल नक्षत्र, बाद में क्षीण प्रकाश का नक्षत्र, तत्पश्चात और अधिक धुँधला नक्षत्र और सबसे अन्त में ध्रुव-नक्षत्र दिखाओ। इस प्रकार क्रमशः अधिक उज्ज्वल नक्षत्रों को दिखलाने की पद्धति से उसके लिये ध्रुव-तारा को देखने-समझने में आसानी होगी। समस्त साधनायें (मनःसंयोग का अभ्यास -शारीरिक व्यायाम- बौद्धिक प्रशिक्षण आदि), दीक्षा-विधियाँ, धर्मग्रन्थ, ईश्वर का मूर्त रूप आदि धर्म के आरम्भिक रूप हैं, धर्म की शिशुशालायें (किंडरगार्टन) मात्र हैं।
क्रमिक प्रशिक्षण-प्रणाली (gradual training process) : तदुपरान्त मैं इस प्रशिक्षण के दूसरे पहलु का भी विचार करता हूँ। यदि संसार इस धीमी चाल, क्रमिक प्रशिक्षण-प्रणाली का अनुसरण करता है, तो सत्य-साक्षात्कार में उसे कितनी लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ? कितनी देर हो जाएगी ? यह प्रक्रिया किस सीमा तक सफल हो सकेगा, इसका निर्णय कैसे किया जाय ? आज तक तो यह सफल नहीं रहा है। आखिरकार क्रम से हो,या क्रमरहित, दुर्बल मनुष्य के लिये सरल हो या जटिल - क्या द्वैत-मार्ग असत्य पर आधारित नहीं है? क्या सारे प्रचलित धार्मिक अनुष्ठान ज्यादातर कमजोरी बढ़ाने वाले, इसीलिये दोषपूर्ण नहीं हैं? ये गलत सिद्धान्त मानवों की भ्रामक धारणा पर आधारित हैं। दो गलतियों से कभी एक सत्य का निर्माण होता है? मिथ्या नाम-रूप कभी सत्य सिद्ध किया जा सकता है? अँधेरा कभी उजाला होगा ?
मैं एक दिवंगत व्यक्ति (T) का सेवक हूँ ! उनका मैं एक सन्देश वाहक मात्र हूँ। मैं प्रयोग करना चाहता हूँ। वेदान्त-शिक्षा, जिसे मैंने अभी अभी तुमको दिया है; उस पर कोई ठोस प्रयोग पहले कभी नहीं हुआ है। यद्द्पि वेदान्त विश्व का प्राचीनतम दर्शन है, फिर भी कुछ स्वार्थी तत्वों ने अन्धविश्वास आदि समस्त विकारों को इसमें मिला दिया है।
मैं एक दिवंगत व्यक्ति (T) का सेवक हूँ ! उनका मैं एक सन्देश वाहक मात्र हूँ। मैं प्रयोग करना चाहता हूँ। वेदान्त-शिक्षा, जिसे मैंने अभी अभी तुमको दिया है; उस पर कोई ठोस प्रयोग पहले कभी नहीं हुआ है। यद्द्पि वेदान्त विश्व का प्राचीनतम दर्शन है, फिर भी कुछ स्वार्थी तत्वों ने अन्धविश्वास आदि समस्त विकारों को इसमें मिला दिया है।
क्या ईसा-मूसा-बुद्ध मानवों के मुक्तिदाता- वे ईश्वर और हम कीड़े हैं ? ईसामसीह ने कहा था- "मैं और मेरे पिता एक हैं" और तुम इसे दुहराते रहते हो, फिर भी साधारण ईसाई इसका क्या अर्थ समझता है? यह महावाक्य उनके लिये कैसे सहायक सिद्ध हो सकता है? लगभग बीस सदियों तक मानव-जाति इस महावाक्य के मर्म को न समझ सकी। ईसा मानवों के मुक्तिदाता (saviour) ठहराये गये। वे ईश्वर हम कीड़े हैं ! यही हाल भारत में भी है। हर देश में यही धारणा प्रत्येक सम्प्रदाय-विशेष की रीढ़ है। सैंकड़ों, हजारों वर्षों से दुनिया में लाखों-करोड़ों की संख्या में जगदीश्वर (Lord of the world), अवतारी पुरुष, उद्धारक, पैग़म्बर आदि की आराधना व्यक्ति को प्रेरित करती आई है। लोगों को यही सिखाया गया है कि साधारण गृहस्थ लोग असहाय हैं, दुःखी जीव हैं और मुक्ति के लिये किसी व्यक्ति-विशेष या व्यक्ति समूह पर ही उनको आश्रित रहना है।
इन विश्वास-भावनाओं में अद्भुत तत्व अवश्य हैं। किन्तु वे अपनी चरम अवस्था में भी धर्म की शिशुशालायें मात्र हैं। और उनसे किसी को कोई खास सहायता नहीं मिली। मानव एक प्रकार के सम्मोहन के द्वारा स्वयं को नश्वर शरीर मात्र समझने लगा है। हाँ, इस दशा में भी कुछ ऐसे स्थितप्रज्ञ लोग हैं, जो इस मोह-जाल को काट फेंकते हैं। मेरा विश्वास है कि विश्व की गली गली में लाखों-करोड़ों ऋषियों या पैग़म्बरों के आविर्भाव का अनुकूल समय आएगा; और उनके अथक प्रयास से धर्म की ये शिशुशालाएँ विनष्ट हो जाएँगी और यथार्थ धर्म --' आत्मा से आत्मा की आराधना' अधिक सजीव और शक्तिशाली हो सकेगा।
इन विश्वास-भावनाओं में अद्भुत तत्व अवश्य हैं। किन्तु वे अपनी चरम अवस्था में भी धर्म की शिशुशालायें मात्र हैं। और उनसे किसी को कोई खास सहायता नहीं मिली। मानव एक प्रकार के सम्मोहन के द्वारा स्वयं को नश्वर शरीर मात्र समझने लगा है। हाँ, इस दशा में भी कुछ ऐसे स्थितप्रज्ञ लोग हैं, जो इस मोह-जाल को काट फेंकते हैं। मेरा विश्वास है कि विश्व की गली गली में लाखों-करोड़ों ऋषियों या पैग़म्बरों के आविर्भाव का अनुकूल समय आएगा; और उनके अथक प्रयास से धर्म की ये शिशुशालाएँ विनष्ट हो जाएँगी और यथार्थ धर्म --' आत्मा से आत्मा की आराधना' अधिक सजीव और शक्तिशाली हो सकेगा।
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2.' The universe is my body.' How can the woes of others not be the cause of my suffering ? ' राजयोग पर चौथा पाठ' ४/९० कुछ प्रमुख अंश :
मन को वश में करने की शक्ति प्राप्त करने के पूर्व हमें उसका भली प्रकार से अध्यन और विश्लेषण करना चाहिये।
चंचल मन को संयत करके हमें उसे विषयों से खींचना होगा, और उसे एक विचार में केन्द्रित करना होगा। बार बार इस क्रिया (प्रत्याहार और धारणा) को करना आवश्यक है। इच्छाशक्ति द्वारा मन को विषयों (आहार-निद्रा-भय-मैथुन) में जाने से रोककर, प्रबल इच्छाशक्ति से उसकी क्रियाओं को रोक कर, मन को वश में करके-नित्य सुबह शाम हृदयस्थ ईश्वर की महिमा का चिन्तन करना चाहिये।
मन को वश में करने की शक्ति प्राप्त करने के पूर्व हमें उसका भली प्रकार से अध्यन और विश्लेषण करना चाहिये।
चंचल मन को संयत करके हमें उसे विषयों से खींचना होगा, और उसे एक विचार में केन्द्रित करना होगा। बार बार इस क्रिया (प्रत्याहार और धारणा) को करना आवश्यक है। इच्छाशक्ति द्वारा मन को विषयों (आहार-निद्रा-भय-मैथुन) में जाने से रोककर, प्रबल इच्छाशक्ति से उसकी क्रियाओं को रोक कर, मन को वश में करके-नित्य सुबह शाम हृदयस्थ ईश्वर की महिमा का चिन्तन करना चाहिये।
मन को स्थिर करने का सबसे सरल उपाय है, चुपचाप बैठ जाना और उसे देखते रहना। और उसे कुछ क्षण के लिये वह जहाँ जाय, उसे जाने देना। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो,"I am the witness watching my mind drifting.’- “ मैं मन नहीं हूँ; मैं मन को विचरण करते हुए देखने वाला साक्षी हूँ !“ Then see it think as if it were a thing entirely apart from yourself. इसके बाद, ऐसी कल्पना करो मानो मन सोच रहा हो कि वह तो, तुमसे (द्रष्टा या साक्षी) से बिल्कुल ही भिन्न है। अपने को ईश्वर (सच्चिदानन्द) से अभिन्न मानो, मन अथवा जड़ पदार्थ के साथ एक करके कदापि न सोचो।
सोचो कि मन तुम्हारे सामने एक विस्तृत तरंगहीन सरोवर है और आने-जानेवाले विचार इसके तल पर उठने वाले बुलबुले हैं। विचारों को रोकने का प्रयास न करो, वरन उनको देखो और जैसे जैसे वे विचरण करते हैं, वैसे वैसे तुम भी उनके पीछे चलो। यह क्रिया धीरे धीरे मन के वृत्तों को सीमित कर देगी। कारण यह है कि मन विचार की विस्तृत परिधि में घूमता है और ये परिधियाँ विस्तृत होकर निरन्तर बढ़ने वाले वृत्तों में फैलती रहती हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी सरोवर में ढेला फेंकने होता है।
हमारा उद्देश्य इस क्रिया को उलट देना है, बहिर्मुखी या केंद्रापसारी वृत्तों को केन्द्राभिमुखी वृत्तों में परिणत करना है। बड़े वृत्तों से प्रारम्भ करके उन्हें छोटा बनाते चले जाते हैं--यहाँ तक कि अन्त में हम मन को एक बिन्दु पर स्थिर करके उसे वहीँ रोक सकें।
सोचो कि मन तुम्हारे सामने एक विस्तृत तरंगहीन सरोवर है और आने-जानेवाले विचार इसके तल पर उठने वाले बुलबुले हैं। विचारों को रोकने का प्रयास न करो, वरन उनको देखो और जैसे जैसे वे विचरण करते हैं, वैसे वैसे तुम भी उनके पीछे चलो। यह क्रिया धीरे धीरे मन के वृत्तों को सीमित कर देगी। कारण यह है कि मन विचार की विस्तृत परिधि में घूमता है और ये परिधियाँ विस्तृत होकर निरन्तर बढ़ने वाले वृत्तों में फैलती रहती हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी सरोवर में ढेला फेंकने होता है।
हमारा उद्देश्य इस क्रिया को उलट देना है, बहिर्मुखी या केंद्रापसारी वृत्तों को केन्द्राभिमुखी वृत्तों में परिणत करना है। बड़े वृत्तों से प्रारम्भ करके उन्हें छोटा बनाते चले जाते हैं--यहाँ तक कि अन्त में हम मन को एक बिन्दु पर स्थिर करके उसे वहीँ रोक सकें।
दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो, “मैं मन नहीं हूँ, मैं द्रष्टा हूँ! मैं देखता हूँ कि मैं सोच रहा हूँ- अर्थात मेरा मन सोच रहा है। मैं द्रष्टा हूँ और मन दृश्य है। मैं अपने मन (दृश्य) तथा अपनी क्रिया का अवलोकन कर रहा हूँ।" प्रतिदिन मन और विचारों से अपने को अभिन्न समझने का भाव कम होता जायगा, यहाँ तक कि अन्त में तुम अपने को मन से बिल्कुल कर सकोगे, और सचमुच इसे अपने से भिन्न जान सकोगे।
इतनी सफलता प्राप्त करने के बाद मन तुम्हारा दास हो जायेगा, और उसके उपर इच्छानुसार शासन कर सकोगे। “The first stage of being a Yogi is to go beyond the senses. “ इन्द्रियों से परे हो जाना योगि की प्रथम अवस्था है। जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।
जितना सम्भव हो सके, एकान्त सेवन करो। तुम्हारा आसन सामान्य ऊँचाई का होना चाहिये। प्रथम कुशासन बिछाओ, फिर मृगचर्म और उसके ऊपर रेशमी कपड़ा। अच्छा होगा कि आसन के साथ पीठ टेकने का साधन न हो और वह दृढ़ हो।
चूँकि विचार एक प्रकार के चित्र हैं, अतः हमें उनकी रचना नहीं करनी चाहिये। हमें अपने मन से सारे विचार दूर हटाकर रिक्त कर देना चाहिये। जितनी शीघ्रता से विचार आयें, उतनी ही तेजी से उन्हें दूर भगाना जरुरी है, नहीं तो पुराने संस्कार पशुभाव में ले जायेंगे। इसे कार्यरूप में परिणत करने के लिये हमें जड़-तत्व और देह के परे जाना परमावश्यक है। वस्तुतः मनुष्य का समस्त जीवन ही इसको सिद्ध करने का प्रयास है।
प्रत्येक ध्वनि का अपना अर्थ होता है। हमारी प्रकृति में ध्वनि ' ॐ ' और उसका अर्थ (T)- इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध है।
हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर है। उसका चिन्तन करो। यही नहीं कि हम ज्ञाता को जान सकते हैं, अपितु हम तो वही हैं।
अशुभ को देखना तो उसकी सृष्टि ही करना है। जो कुछ हम हैं, वही हम बाहर भी देखते हैं, क्योंकि यह जगत हमारा दर्पण है। यह छोटा सा शरीर हमारे द्वारा रचा हुआ एक छोटा सा दर्पण है, बल्कि समस्त विश्व हमारा शरीर है। इस बात का हमें सतत चिन्तन करना चाहिये, तब हमें ज्ञान होगा कि न तो हम मर सकते हैं और न दूसरों को मार सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक शरीर मेरा ही स्वरुप तो है ! हम अजन्मा हैं, और अमर हैं और प्रेम ही हमारा कर्तव्य है !
‘ यह समस्त विश्व हमारा शरीर है। समस्त स्वास्थ्य, समस्त सुख हमारा सुख है, क्योंकि यह सब विश्व के अन्तर्गत है।’ कहो, ‘ मैं विश्व हूँ !’ अन्त में हमें ज्ञात हो जाता है कि सारी क्रिया हमारे भीतर से इस दर्पण में प्रकट हो रही है। यद्दपि हम छोटी छोटी लहरों के समान प्रतीत हो रहे हैं, तथापि समस्त समुद्र हमारा आधार है और हम उसके साथ एक हैं। समुद्र के बिना लहर का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
यदि कल्पना का सदुपयोग करें, तो वह हमारी परम हितैषिणी है। यह युक्ति के परे जा सकती और वही एक ऐसी ज्योति है, जो हमें सर्वत्र ले जा सकती है।
अंतःस्फुरण प्रदान करनेवाली शक्ति हमारे भीतर है। हमें स्वयं अपनी उच्च मनःशक्तियों से प्रेरित होना होगा। --'तो फिर मैं दूसरों को दुःख में गिरा देखकर भी मैं स्वयं सुख में रह सकता हूँ ? दूसरों की मुसीबतें मेरे दुख का कारण क्यों नहीं हो सकतीं ?
इतनी सफलता प्राप्त करने के बाद मन तुम्हारा दास हो जायेगा, और उसके उपर इच्छानुसार शासन कर सकोगे। “The first stage of being a Yogi is to go beyond the senses. “ इन्द्रियों से परे हो जाना योगि की प्रथम अवस्था है। जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।
जितना सम्भव हो सके, एकान्त सेवन करो। तुम्हारा आसन सामान्य ऊँचाई का होना चाहिये। प्रथम कुशासन बिछाओ, फिर मृगचर्म और उसके ऊपर रेशमी कपड़ा। अच्छा होगा कि आसन के साथ पीठ टेकने का साधन न हो और वह दृढ़ हो।
चूँकि विचार एक प्रकार के चित्र हैं, अतः हमें उनकी रचना नहीं करनी चाहिये। हमें अपने मन से सारे विचार दूर हटाकर रिक्त कर देना चाहिये। जितनी शीघ्रता से विचार आयें, उतनी ही तेजी से उन्हें दूर भगाना जरुरी है, नहीं तो पुराने संस्कार पशुभाव में ले जायेंगे। इसे कार्यरूप में परिणत करने के लिये हमें जड़-तत्व और देह के परे जाना परमावश्यक है। वस्तुतः मनुष्य का समस्त जीवन ही इसको सिद्ध करने का प्रयास है।
प्रत्येक ध्वनि का अपना अर्थ होता है। हमारी प्रकृति में ध्वनि ' ॐ ' और उसका अर्थ (T)- इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध है।
हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर है। उसका चिन्तन करो। यही नहीं कि हम ज्ञाता को जान सकते हैं, अपितु हम तो वही हैं।
अशुभ को देखना तो उसकी सृष्टि ही करना है। जो कुछ हम हैं, वही हम बाहर भी देखते हैं, क्योंकि यह जगत हमारा दर्पण है। यह छोटा सा शरीर हमारे द्वारा रचा हुआ एक छोटा सा दर्पण है, बल्कि समस्त विश्व हमारा शरीर है। इस बात का हमें सतत चिन्तन करना चाहिये, तब हमें ज्ञान होगा कि न तो हम मर सकते हैं और न दूसरों को मार सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक शरीर मेरा ही स्वरुप तो है ! हम अजन्मा हैं, और अमर हैं और प्रेम ही हमारा कर्तव्य है !
‘ यह समस्त विश्व हमारा शरीर है। समस्त स्वास्थ्य, समस्त सुख हमारा सुख है, क्योंकि यह सब विश्व के अन्तर्गत है।’ कहो, ‘ मैं विश्व हूँ !’ अन्त में हमें ज्ञात हो जाता है कि सारी क्रिया हमारे भीतर से इस दर्पण में प्रकट हो रही है। यद्दपि हम छोटी छोटी लहरों के समान प्रतीत हो रहे हैं, तथापि समस्त समुद्र हमारा आधार है और हम उसके साथ एक हैं। समुद्र के बिना लहर का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
यदि कल्पना का सदुपयोग करें, तो वह हमारी परम हितैषिणी है। यह युक्ति के परे जा सकती और वही एक ऐसी ज्योति है, जो हमें सर्वत्र ले जा सकती है।
अंतःस्फुरण प्रदान करनेवाली शक्ति हमारे भीतर है। हमें स्वयं अपनी उच्च मनःशक्तियों से प्रेरित होना होगा। --'तो फिर मैं दूसरों को दुःख में गिरा देखकर भी मैं स्वयं सुख में रह सकता हूँ ? दूसरों की मुसीबतें मेरे दुख का कारण क्यों नहीं हो सकतीं ?
3. ' We are bound to feel in other bodies than this one.'
अमरता मर कर स्वर्ग जाने से नहीं मिलती, बल्कि अपने मिथ्या व्यक्तित्व, केवल इसी एक क्षुद्र (देह-मन) में स्वयं आबद्ध कर लेने वाली शूकर-प्रवृत्ति (piggish
individuality) को त्याग देने से प्राप्त होती है। ' कोई पराया
नहीं है, सभी अपने हैं ', निज को सब में, सबको निज में जानने, समस्त मन से
देखने की ही संज्ञा अमरता है। हम इस एक के शरीर के अलावा अन्य शरीरों में भी स्वयं को महसूस करने के लिए बाध्य हैं। हमें दूसरों के शरीर में भी आत्मदर्शन अवश्य ही मिलेगा। उसी प्रकार सहानुभूति या समानुभूति (sympathy) क्या है ? क्या
सहानुभूति को देश-काल की सीमा में, या इसे केवल मनुष्य-शरीरों के प्रति
अन्य जीवों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं --की सीमा में बाँधा जा सकता है?
संभवतः एक समय ऐसा भी आयेगा, जब कि समस्त सृष्टि से (कुत्ते के पिल्ले के
साथ भी) मैं एकात्मता की अनुभूति करने में समर्थ हो जाऊँगा !
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