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गुरुवार, 29 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (9) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

 ' विवेकानन्द - दर्शनम् '
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]  

 
श्री श्री माँ सारदा और आप , मैं ...या कोई भी ... 
नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है। क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।]
 

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९.
आलस्य रोदनं वापि भयं कर्मफलोद्भवम्।
त्वयीमानि न शोभन्ते जहि मनोबलैः॥ 

With the strength of your mind give up indolence and weeping or any fear from fate -- these do not behove you. 
तुम अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर जो चाहो कर सकते हो, क्योंकि इच्छाशक्ति सीधी परमात्मा के पास से आती है ! अपनी इसी प्रबल इच्छाशक्ति की सहायता से आलस्य और रोदन करना छोड़ दो, या किसी भी प्रारब्ध से मत डरो- ये सब तुझे शोभा नहीं देते। 
व्याख्या : सभी के जीवन में कुछ न कुछ दुःख-कष्ट आते ही रहते हैं, कुछ लोग उससे बचने के लिये शनिग्रह-शान्ति लिये शमी की लकड़ी ढूँढ़ने लगते हैं, या हाथ दिखाकर कोई विशेष पत्थर-जड़ित अँगूठी पहनते हैं। या उससे बचने के लिये किसी तांत्रिक या मौलवी के पास जाकर यंत्र  ताबीज में हजारों खर्च कर देते हैं। विवेकानन्द के सैनिकों को ऐसा करना शोभा नहीं देता ! क्योंकि हमलोग जानते हैं मनुष्य केवल मरणधर्मा नश्वर शरीर ही नहीं है; शरीर तो अविनाशी आत्मा का वस्त्र है ! यथार्थ मनुष्य परिवर्तनशील शरीर और मन नहीं है, वह तो अपरिणामी आत्मा है ! फिर उसको कोई शोक या मोह कैसे हो सकता है ? आचार्य चाणक्य ने ठीक ही कहा है -
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु, रत्नसंज्ञा विधीयते॥
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं - जल, अन्न और सुभाषित- अर्थात सुन्दर वचन। मूर्खों ने ही पत्थर के टुकड़ों (हीरे आदि)को रत्न का नाम दिया हुआ है॥ 
सुभाषितमयैर्द्रव्यैः सङ्ग्रहं न करोति यः ।
सोऽपि प्रस्तावयज्ञेषु कां प्रदास्यति दक्षिणाम् ।।

भावर्थ : काव्यशास्त्र-विनोद वार्तालाप में भाग लेना एक यज्ञ है और उस यज्ञ में हम दूसरों के प्रति सुभाषित शब्दों की आहुति दे सकते हैं । सुभाषित कथन रूपी संंपदा का जो संग्रह नहीं करता वह प्रसंगविशेष की चर्चा के यज्ञ में भला क्या दक्षिणा देगा ? ऐसे अवसर पर एक व्यक्ति से मीठे बोलों की अपेक्षा की जाती है, किंतु जिसने सुभाषण की संपदा न अर्जित की हो यानी अपना स्वभाव तदनुरूप न ढाला हो वह ऐसे अवसरों पर औरों को क्या दे सकता है ?
जब जीवन में कभी किसी सगे-संबन्धी, पड़ोसी या मित्र के द्वारा कही गयी कोई बात या उनके किसी कार्य से दुःख पहुँचता हो; या किसी आत्मीय बन्धु से बिछुड़ने का दुःख होता हो, उस समय याद रखने वाला विशेष कष्ट-हरण फॉर्मूला (सूत्र) है - 'सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता !' अर्थात सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है ! अध्यात्मरामायण (२/६/६) में लक्ष्मणजी निषादराज गुहसे कहते हैं ‒ 
  
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
 अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥

 ‘सुख-दुःखको देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । दूसरा सुख-दुःख देता है‒यह समझना कुबुद्धि है । दूसरा दुःख देता है‒यह कुबुद्धि है, कुत्सित बुद्धि है, खोटी बुद्धि है । मैं करता हूँ‒यह वृथा अभिमान है । सब लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं ।’ 
यही बात तुलसीकृत रामायण (मानस २/९२/२) में भी आयी है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
इस प्रसंग के मुताबिक राम, लक्ष्मण और सीता को वनवास के दौरान कष्ट में देख कर जब निषाद राजा माता कैकई को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मण निषाद-राज को ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से भरी बात कहते हुए समझाते हैं कि कोई किसी को सुखी या दु:खी नहीं करता बल्कि सभी अपने किए गए कर्मों का फल भोगते हैं।

 अमुक व्यक्ति ने मुझे दुःख दे दिया‒यह सिद्धान्तकी दृष्टिसे गलत है । इस विषयमें एक बात तो यह है कि हमलोग उस माँ सारदा के बेटे हैं- जो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है; जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। जिसके आदेश से सौर मण्डल के नौ ग्रह अपने अपने पथ पर निरन्तर बिना कोई एक्सीडेन्ट किये घूमते रहते हैं। श्री श्रीमाँ सारदा परम दयालु हैं, परम हितैषी हैं, अन्तर्यामी हैं और सर्वसमर्थ हैं । ऐसी शक्तिरूपिणी माँ के रहते हुए, उनकी जानकारी में- कोई उनके किसी सन्तान को भी दुःख दे सकता है क्या ?
दूसरी बात यह है कि अगर दूसरा दुःख दे सकता है, तो दुःख कभी मिटनेका है ही नहीं; क्योंकि दूसरा तो कोई-न-कोई रहेगा ही । कहीं जाओ, किसी भी योनिमें जाओ, देवता बन जाओ, राक्षस बन जाओ, असुर बन जाओ, भूत-प्रेत-पिशाच बन जाओ, मनुष्य बन जाओ, दूसरा रहेगा ही । फिर दुःख कैसे मिटेगा ? इसीलिये माँ सारदा की शिक्षा है -" इस जगत में कोई पराया नहीं है, सबको अपना बनना सीखो ! यदि जीवन में शान्ति चाहते हो तो दूसरों का दोष मत देखो,अपने दोषों को देखो!" 
ये दोनों बातें बड़ी प्रबल हैं ।
परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा।
आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति॥
दूसरों के बारे में बोलने में सभी हमेशा ही कुशल होते हैं पर अपने बारे में नहीं जानते हैं, यदि जानते भी हैं तो गलत ही॥
हमारे सामने सुख और दुःख दोनों आते हैं । सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है, प्रत्युत सब अपने किये हुए कर्मोंके फलको भोगते हैं । सामान्य रूप से हम सभी कर्म-व्यवस्था (Law of Karma) को समझते हैं - अच्छे कर्म करने से हम पुण्य अर्जित करते हैं, और बुरे कर्मों से पाप । पुण्य का फल सुख होता है, और पाप का दु:ख। मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव '3H' - Hand, Head, Heart - या शरीर, मन और ह्रदय होते हैं। सभी कर्मों में तीनों प्रकार का अंश होने पर भी, जिस क्रिया में जिस अवयव की प्रधानता होती है, हम उसे उसी नाम से पुकारते हैं । उसी के अनुसार होने वाले कर्मों को भी तीन भागों में विभाजित किया गया है। 
१) शारीरिक - शरीर के अवयवों के द्वारा की गई कोई भी क्रिया, जैसे - उछलना, कूदना, देना, लेना, उठना, बैठना, इत्यादि ।
२) मानसिक - मन भी शरीर का अवयव है । ज्ञान का वह मुख्य साधन है । मन से किए गए कर्म कुछ तो केवल मन ही करता है, जैसे - सोचना, सीखना, ईर्ष्या करना, सुखी होना, इत्यादि; और कुछ शरीर के अन्य अवयवों के साथ मिलकर करता है, जैसे - देखना, सुनना, छूना, इत्यादि । यहां संशय हो सकता है कि देखना, सुनना, आदि तो शारीरिक कर्म हैं ? किन्तु, नहीं, इनको मानसिक में ही गिना जाता है, क्योंकि आँखें हमारी इन्द्रिय नहीं हैं ये केवल खिड़की या यंत्र हैं। वास्तविक दर्शन इन्द्रिय (ऑप्टिक नर्व) मस्तिष्क में हैं। 

दर्शन क्रिया के लिये तीन बातें आवश्यक हैं - बाहरी यंत्र (नेत्र), मस्तिष्क में स्थित दर्शन इन्द्रिय और तीसरा मन भी उससे संयुक्त रहे। इनमें मन की क्रिया अधिक होती है । हम सभी ने अनुभव किया है कि, गम्भीर विचार में मग्न होने पर, आंखें खुली होते हुए भी नहीं देखतीं। यह इसी कारण से है कि आंखों से आते हुए चित्र पर जब तक मन ध्यान देकर उसको पहचानेगा नहीं, तब तक आंखें अपना काम सही रूप से करते हुए भी हमें कुछ नहीं बताएंगी । इसी प्रकार, पांचों ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त signals मन के analysis के बिना व्यर्थ हो जाते हैं ।   
वास्तव में, मन के बिना कोई कर्म होता ही नहीं । जिन भयंकर रोगों में मन काम करना बन्द कर देता है, वहां मानसिक ही नहीं, शारीरिक और वाचिक क्रियाएं भी बन्द हो जाती हैं । दूसरी ओर, जिस क्रिया से मन युक्त नहीं होता, वह कर्म होता ही नहीं, जैसे - हृदय का धड़कना, पलक का झपकना । यहां तक कि अन्यमनस्क भाव से पैर या हाथ हिलाना आदि क्रियाएं कर्म नहीं होतीं (उस समय जो मन सोच रहा होता है, वही कर्म होता है, शारीरिक हिलना नहीं) ।
३) वाचिक - वाणी से किए गए कर्म, जैसे - सच बोलना, झूठ बोलना, प्रशंसा करना, चुगली करना, डांटना, इत्यादि । जहां शारीरिक कर्म से हम वस्तुओं पर प्रभाव डालते हैं, वहां वाणी से हम दूसरे के मन पर प्रभाव डालते हैं, जिससे उसकी आत्मा (ह्रदय) पर प्रभाव पड़ता है। यहां तक कि हम अपने मन और आत्मा पर भी वाणी से प्रभाव डालते हैं - जप आदि का यही महत्त्व है । अपने मन का हाल (जो कि आंखों से सर्वदा प्रकट नहीं हो पाता) भी हम वाणी से दूसरे को अवगत कराते हैं । इस प्रकार वाणी (ह्रदय) का कर्म- प्रेम का महत्व बहुत ही विशेष होता है ।
वास्तव में, ’पुण्य’ और ’पाप’ - ये कर्म करने के बाद और फल देने से पूर्व की अवस्थाएं होती हैं, जिसको शास्त्र में ’कर्माशय’ या ’अदृष्ट’ कहा जाता है । हमारे किए हुए कर्म जैसे प्रकृति के ताने- बाने में बुन जाते हैं, और समय आने पर फल देते हैं । इस अवस्था में कर्मों को तीन वर्गों में समझा जाता है, जिनको कि हम बैंक के account के रूप में समझ सकते हैं -
च) सञ्चित - यह एक savings account की तरह होता है, जिसमें कि जन्म-जन्मान्तरों से किए गये हमारे कर्म जुड़ते जाते हैं - पुण्य positive account balance में और पाप negative account balance में ।
छ) प्रारब्ध - सञ्चित में से जो कर्म इस जन्म में फलित होने वाले हैं, गर्भाधान होते ही, वे इस current account में transfer हो जाते हैं । जैसे जैसे फल मिलता जाता है, वैसे वैसे कर्माशय debit होकर, current account balance कम हो जाता है ।
ज) क्रियमाण - इस जन्म में जो हम कर्म करते जा रहे हैं, उनके कर्माशय इसमें जुड़ते जाते हैं । इनमें से कुछ कर्म इसी जन्म में फल देंगे । वे प्रारब्ध में transfer हो जाते हैं । जो अन्य जन्मों में फल देंगे, वे मृत्यु के बाद सञ्चित कर्मों में जुड़ जायेंगे।
योगदर्शन में पतञ्जलि बताते हैं कि फल तीन रूपों में प्राप्त होते हैं- 

 ‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३)
अर्थात्‌ पहले किये हुए कर्मोंके फलसे जन्म, आयु और भोग होता है। 
१. जाति - यह हमारी योनि है - पेड़, कीड़ा, मछली, आदि से लेकर मनुष्य तक । इस सीढ़ी पर पेड़ सबसे नीचे हैं, और मनुष्य सबसे ऊपर । जैसे-जैसे हम इस सीढ़ी पर ऊपर चढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे हमारा ज्ञान बढ़ता जाता है, और हमारे भोग के प्रकार बढ़ते जाते हैं । और मनुष्य जन्म पर पहुंच कर, ये भी अपनी पराकाष्ठा को पहुंच जाते हैं। मनुष्य जन्म कई प्रकार से बहुत ही विशेष है । जानवरों में प्रधानत: खाना-पीना, प्रजनन करना और निद्रा के सिवा, अन्य क्रियाएं बहुत कम पाई जाती हैं । दूसरी ओर, मनुष्य अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त कर सकता है - भौतिकी, गणित, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, कृषि, लोहकारी, आदि । और उसके मनोरंजन-रूपी भोगों का तो जैसे कोई अन्त ही नहीं है, जैसे - संगीत, नाटक, पहेली, क्रिकेट, आदि शारीरिक व मानसिक अनेकों क्रीडाएं । एक यही योनि है जिसमें हम इतना ज्ञानार्जन कर सकते हैं कि मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए मनुष्य जीवन को व्यर्थ मत जाने दो - ऐसा उपदेश बारम्बार हमारे शास्त्रों में पाया जाता है।
२) आयु - जाति के समान, यह भी अगले विभाग - भोग - पर सीमा लगाती है । यही नहीं, मोक्ष की प्राप्ति के लिए भी जो अत्यन्त परिश्रम की आवश्यकता है, वह लम्बी आयु के बिना सम्भव नहीं है । इसलिए वेदों में परमात्मा ने मनुष्यों से सदा लम्बी आयु के लिए प्रयत्न करने का उपदेश दिया है - ’जिजीविषेच्छतं समा: (यजु० ४०।२)’।
३) भोग - ये अन्य सभी भौतिक सुख-दुख हैं जो हमारे दैनिक जीवन का अंश हैं । 
 हममें से जो समझते हैं कि अनजाने में किया गया पाप, पाप नहीं है - वे गलत समझते हैं ! देखिए, किसी देश में रहने के लिए हमारे द्वारा उस देश के कर्तव्य-सम्बन्धी कानून जानने आवश्यक हैं। इन्कम-टैक्स कितना है, कैसे भरना है, जन्म-मरण की रजिस्ट्री कैसे करवानी है - क्या ये सब कानून जाने बिना किसी का गुजारा हो सकता है? ' Ignorance of Law is no excuse' अर्थात कानून की अनभिज्ञता कोई बहाना नहीं है। यदि आप इन्कम-टैक्स वाले को कहते है कि "भाई, मैंने टैक्स नहीं भरा क्योंकि मुझे नियम मालुम नहीं था" तो आप जानते हैं कि वह क्या कहेगा, और आपको जुर्माना भी देना पड़ेगा ! ठीक इसी प्रकार जीवन जीने के लिए परमात्मा ने वेद के रूप में धर्म और अधर्म का पूर्णतया उपदेश कर दिया है । और फिर यदि आप अपना कर्तव्य जानने में आलस करते हैं, तो जुर्माना तो आपको देना ही पड़ेगा ! कई बार हम यह भी सुनते हैं कि भला करने के लिए बुरा भी करना पड़े, तो वह ठीक है, उसमें कोई पाप नहीं है । स्मरण करिये युधिष्ठिर की कहानी जहां भले के लिए ’अश्वस्थामा हतो (हाथी) मारा गया’ - यह आधा सत्य कहने के लिए भी उन्हें नर्क में समय काटना पड़ा ! परमात्मा की व्यवस्था यही है कि छोटे से छोटे कर्म का फल हमें मिलकर ही रहता है । कर्मों, उनके आशयों और उनके फलों को इस प्रकार जानकर, हमें धर्म-अधर्म को समझने की, सत्कर्म करने की प्रेरणा मिलती है, और बुरे मार्ग को छोड़ने का कारण स्पष्ट हो जाता है । सांसारिक सुखों से धीरे-धीरे विरक्ति होकर, हमारा संसार से बन्धन क्षीण होने लगता है, और परमात्मा से बन्धन दृढ़ होने लगता है ।
सुख-दुःख किसे कहते हैं ?
सर्वं परवशं दु:खं सर्वमात्‍मवशं सुखम्‌ ।
एतव्‍दिद्यात्‍समासेन लक्षणं सुखदु:खयो: ।।
पराधीन के लिए सर्वत्र दुःख है और स्वाधीन के लिए सर्वत्र सुख। यह सुख और दुःख की संक्षिप्त विशेषता या लक्षण हैं। 
अब एक बात बड़े रहस्यकी, बहुत मार्मिक और कामकी है । आप ध्यान दें । आपने अच्छा काम किया है तो सुखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी और बुरा काम किया है तो दुःखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी । यह तो है कर्मोंकी बात । 
 यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्।
तथा पूर्वकॄतं कर्म कर्तारमनुगच्छत्॥
जिस प्रकार एक बछड़ा हजार गायों के बीच में अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। और चूँकि कर्म करने से ही हमारा चरित्र बनता है, अतः अपने चरित्र की रक्षा में निरन्तर तत्पर रहना चाहिये। 
वॄत्तं यत्नेन संरक्ष्येद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत:॥
चरित्र की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिए, धन तो आता-जाता रहता है। धन के नष्ट हो जाने से व्यक्ति नष्ट नहीं होता पर चरित्र के नष्ट हो जाने से वह मरे हुए का समान है॥   
कस्यैकान्तं सुखम् उपनतं, दु:खम् एकान्ततो वा।
नीचैर् गच्छति उपरि च, दशा चक्रनेमिक्रमेण॥
किसने केवल सुख ही देखा है और किसने केवल दुःख ही देखा है ?  जीवन की दशा एक चलते पहिये के घेरे की तरह है- जो क्रम से ऊपर और नीचे जाता रहता है॥
न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत:॥
जो सम्मान करने पर हर्षित न हों और अपमान करने पर क्रोध न करें, क्रोधित होने पर कठोर वचन न बोलें, उनको ही सज्जनों में श्रेष्ठ कहा गया है॥
दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत्।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत्॥
दिन में वह करना चाहिए जिससे रात में सुख से रहा जा सके। जब तक जीवित हैं तब तक वह करना चाहिए जिससे मरने के बाद सुख से रहा जा सके॥ 
तत् कर्म यत् न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासाय अपरं कर्म विद्या अन्याशिल्पनैपुणम्॥
वह कर्म है जो बंधन में न डाले, वह विद्या है जो मुक्त कर दे। अन्य कर्म श्रम मात्र हैं और अन्य विद्याएँ यांत्रिक निपुणता मात्र हैं॥
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते।
न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन:॥
न करने योग्य कार्य को प्राण जाने की परिस्थिति में भी नहीं करना चाहिए और कर्त्तव्य का कभी त्याग नहीं करना चाहिए, यह सनातन धर्म है॥
मातॄवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्।
आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पश्यति॥
दूसरों की स्त्रियों को माता के समान, दूसरों के धन को मिट्टी के समान, समस्त प्राणियों को अपने समान जो देखता है, वह (वास्तविक रूप में ) देखता है॥
आलस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम्॥
आलसी के लिए विद्या कहाँ,  विद्याहीन के लिए धन कहाँ, निर्धन के मित्र कहाँ और बिना मित्रों के सुख कहाँ॥
सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम्।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम्॥
सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख त्याग देना चाहिए। सुख चाहने वाले के लिए विद्या कहाँ और विद्यार्थी के लिए सुख कहाँ॥
अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम्, अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना:।
यत् सारभूतं तदुपासितव्यं, हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात्॥
अनेक शास्त्र हैं, बहुत जानने को है और समय कम है और बहुत विघ्न हैं। अतः जो सारभूत है उसका ही सेवन करना चाहिए जैसे हंस जल और दूध में से दूध को ग्रहण कर लेता है॥
अब परिस्थितिको लेकर सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है । वह परमात्माका विधान है, जो हमारे कर्मोंका नाश करके हमें शुद्ध करनेके लिये हुआ है । वह परमात्मा कैसे किसीको दुःख देगा ? 
स हि भवति दरिद्रो यस्य तॄष्णा विशाला।
मनसि च परितुष्टे कोर्थवान् को दरिद्रा:॥
जिसकी कामनाएँ विशाल हैं, वह ही दरिद्र है। मन से संतुष्ट रहने वाले के लिए कौन धनी है और कौन निर्धन॥
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
 विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है॥
शोको नाशयते धैर्य, शोको नाशयते श्रॄतम्।
शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपु॥  
शोक धैर्य का नाश करता है, शोक स्मृति का नाश करता है, शोक सबका नाश करता है, शोक के समान दूसरा शत्रु नहीं है॥ अशोक बनो !


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मंगलवार, 27 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (8) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

हिन्दी अनुवाद की भूमिका 
यह महामण्डल पुस्तिका मेरे हाथों में १९९३ के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में आई थी। तब से मैंने इसको अनगिनत बार पढ़ा है। किन्तु इस पुस्तिका में स्वामी जी द्वारा अंग्रेजी में कहे गये जिन उक्तियों को उद्धरण के भीतर (within quotes) रखा गया है, वहाँ इन उक्तियों को 'Complete Works of Swami Vivekananda' के किस खण्ड से लिया गया है, इस सन्दर्भ को सूचित नहीं किया गया है। तत्वज्ञान से परिपूर्ण इस पुस्तिका का अनुवाद करने के लिये स्वामी जी ने किस प्रसंग में इन उक्तियों को कहा होगा, इसे समझना बहुत जरुरी था। 
'गूगल बाबा' के कृपा से नेट पर अंग्रेजी में सारे प्रसंग और सन्दर्भ मिल गये, किन्तु अद्वैत आश्रम, कोलकाता तथा मायावति से हिन्दी में प्रकाशित 'विवेकानन्द साहित्य' अभी तक नेट पर उपलब्ध नहीं है। इसका क्या कारण है, यह मुझे नहीं पता। 
मैंने स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी में कथित उक्तियों को हिन्दी में अनुवाद करते समय अपने सन्तोष के लिये विवेकानन्द साहित्य से पूरे निबंध को ही उद्धृत कर दिया है, और जहाँ आवश्यक लगा है, कुछ पन्नों को स्वयं भी अनुवादित किया है। इसे पढ़ने से परम पूज्य श्रीनवनीहरण ने छोटे छोटे श्लोकों में जो गागर में सागर भरा है, उस अमृत का पान किया जा सकता है, समझने में आसानी हो सकती है।   
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 ' विवेकानन्द - दर्शनम् '
८. 
" श्रीरामकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन ही सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था ! "

(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]  

 
 
नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति | 
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्

[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।] 
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८.
उत्तिष्ठत चरैवेति गुणान् तामसिकान् जहि । 
जातश्चेत्  प्रेहि संसारात् त्वक्त्वा चिह्नमनूत्तमम् ॥ 

1.  ' Arise ! Awake ! and stop not till the goal is reached !'

2.  ' Onward ! Onward !' Give up all numbing qualities. 

3.  ' As you have come into this world, leave some mark behind.' 

१. ' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ।'

२. ' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! जड़वत कर देने वाली आदतों का परित्याग कर दो।'

३. ' काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा।'

प्रसंग- [१. कोलकाता-अभिनन्दन का उत्तर:५: २०३/ २. ग्रीष्मकाल, १८९४ में स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र/३. (From the Diary of a disciple २३ / बेलूड़ मठ निर्माण के समय वर्ष १८९८ ]

विषयवस्तु : (८.१ भारत को अवश्य ही सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करनी है। अतः भारत के युवाओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है अपने जीवन में सर्वधर्म-समन्वय को प्रतिष्ठित करना !]
 भारत के युवाओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है ? इस बार स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से स्वामी विवेकानन्द को उद्धरित करते हुए कहा प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था -" भारत की नियति है-विश्व का कल्याण करना" - और यही चुनौती हमारे युवाओं के समक्ष है। विश्व का कल्याण केवल चरित्रवान युवाओं के द्वारा ही सम्भव है। ब्रह्मविद् मनुष्य ही जगत को ब्रह्मरूप में देखकर -अपने पराये का भेदभाव छोड़ कर, शिवज्ञान से जीव सेवा कर सकता है। इसी लक्ष्य की पृष्ठभूमि में कोलकाता-अभिनन्दन का उत्तर (. २०३)- में स्वामीजी कहते हैं -" मनुष्य अपनी व्यष्टि चेतना को समष्टि चेतना में लीन कर देना चाहता है, वह जगत प्रपंच का कुल सम्बन्ध छोड़ देना चाहता है, वह अपने समस्त सम्बन्धों की माया काटकर संसार से दूर भाग जाना चाहता है। वह सम्पूर्ण दैहिक पुराने संस्कारों को छोड़ने की चेष्टा करता है। यहाँ तक कि वह एक देहधारी मनुष्य है, इसे भी भूलने का भरसक प्रयत्न करता है। परन्तु अपने अन्तर के अन्तर में सदा ही एक मृदु अस्फुट ध्वनि उसे सुनाई पड़ती है, उसके कानों में सदा ही एक स्वर बजता रहता है, न जाने कौन दिन-रात उसके कानों में मधुर स्वर से कहता रहता है, पूर्व में हो या पश्चिम में- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादिपि गरीयसी
दुर्भाग्य से पाश्चात्य मानसिकता रखने वाले लोग न केवल आध्यात्मिकता को बल्कि नैतिकता को भी सदैव सांसारिक समृद्धि के साथ जुड़ा हुआ विषय मानते हैं। और जब कोई वेदशी मानसिकता वाले चश्में से भारत को देखते हैं, तो वे तुरन्त इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस देश में धर्म नहीं टिक सकता, नैतिकता नहीं टिक सकती। किन्तु मेरा अनुभव है कि भारत में जो जितना दरिद्र है वह उतना ही अधिक साधु है। 
परन्तु इसको जानने के लिये समय की जरूरत है। भारत के राष्ट्रीय जीवन के इस रहस्य को समझने के लिये, कितने विदेशी (काँग्रेसी) दीर्घ काल तक भारत में रहकर प्रतीक्षा करने के लिये तैयार है? बहुत थोड़े से भारत-प्रेमी लोगों में ही इतना धैर्य है कि राष्ट्र के इस चरित्र का गहराई से विश्लेषण करें। सम्पूर्ण विश्व में केवल भारत ही एक ऐसा देश है, जिसके लिये गरीबी (स्टेसन पर चाय बेचने) का मतलब अपराध और पाप नहीं है। यही एक ऐसा राष्ट्र है, जहाँ न केवल गरीबी का मतलब अपराध और पाप नहीं लगाया जाता, बल्कि उसे यहाँ बड़ा ऊँचा आसन दिया जाता है। यहाँ दरिद्र संन्यासी के गेरुआ वेश को ही सबसे ऊँचा स्थान मिलता है।
किन्तु पाश्चात्य देशों विशेषकर इंग्लैण्ड में जैसी असीम व्यावहारिकता और जीवनी शक्ति है, वैसी तुम अन्य किसी राष्ट्र में नहीं देखोगे। वह वीरों की जाति है, वे यथार्थ क्षत्रिय हैं, भाव छिपाना --उन्हें कभी प्रकट न करना उनकी शिक्षा है, बचपन से ही उन्हें यह शिक्षा मिली है।  मेरा दृढ विश्वास है कि अगर कल मेरा शरीर छूट जाय, तो मेरा प्रचार-कार्य इंग्लैण्ड में अक्षुण्ण रहेगा और क्रमशः विस्तृत होता जायगा। 
किन्तु जो जीवन मैंने अपनी आँखों से देखा है, जिसकी छाया में मैं रह चुका हूँ, जिनके चरणों में बैठकर मैंने सब सीखा है, उन श्रीरामकृष्ण का जीवन जैसा उज्ज्वल और महिमान्वित है, वैसा मेरे विचार में अन्य किसी अवतार या पैग़म्बर का नहीं है। यदि तुम्हार हृदय खुला है, तो तुम उनको अवश्य ग्रहण करोगे। यदि तुममें सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति है (यदि तुम सत्यार्थी हो), तो तुम उन्हें अवश्य प्राप्त करोगे। अँधा, बिल्कुल अँधा है वह, जो समय के चिन्ह नहीं देख रहा है, नहीं समझ रहा है। वर्तमान युग का अन्त होने के पहले ही तू लोग ठाकुर की अधिकाधिक आश्चर्यमयी लीलाएँ देख पाओगे। भारत के पुनरुत्थान के लिये इस शक्ति का आविर्भाव बिल्कुल सही समय पर हुआ है। 
मैं तुमको विश्वास दिलाता हूँ कि संसार के किसी भी देश में सार्वभौमिक धर्म और विभिन्न सम्प्रदायों में भ्रातृभाव के ऊपर चर्चा और बहस प्रारम्भ होने के भी बहुत पहले, इस नगर के पास, एक ऐसे अवतार रहते थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन ही एक आदर्श 'Parliament of Religions',या  सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था। इस तरह के किसी महान आदर्श पुरुष पर हार्दिक अनुराग रखते हुए उनकी पताका के नीचे आश्रय लिये बिना न कोई राष्ट्र उठ सकता है, न बढ़ सकता है (न 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' बन सकता है।) यदि यह राष्ट्र उठना चाहता है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा कि इस ' नाम ' (श्रीरामकृष्ण) के चारों ओर उत्साह के साथ एकत्र हो जाना चाहिये। 
अतएव कर्तव्य की प्रेरणा से अपने राष्ट्र और धर्म की भलाई के लिये मैं यह आध्यात्मिक 'राष्ट्रीय-आदर्श' तुम्हारे सामने प्रस्तुत करता हूँ। मुझे देखकर उनकी कल्पना न करना; मैं एक बहुत ही दुर्बल माध्यम हूँ। उनके चरित्र का निर्णय मुझे देखकर न करना। वे इतने बड़े थे कि मैं या उनके शिष्यों में लोई दूसरा सैकड़ों जीवन तक चेष्टा करते रहने के बावजूद भी उनके यथार्थ स्वरुप के एक कड़ोरवें अंश के तूल्य भी न हो सकेगा। अपने कार्य के लिये वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव की बात है! 
'India must conquer the world' भारत को अवश्य ही सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करनी है। हाँ, यह हमें करना ही है; इसकी अपेक्षा किसी छोटे आदर्श से मुझे कभी भी सन्तोष न होगा। प्रभु का कार्य रुक नहीं सकता।या तो हम सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त करेंगे या मिट जायेंगे। हमें संकीर्ण सीमा के बाहर जाना होगा, अपने ह्रदय को विशाल बनाना होगा, और यह दिखाना होगा कि हमारा प्राचीन भारतवर्ष आज भी जीवित है, अन्यथा हमें इसी पतन की दशा में लड़कर मरना  होगा, इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं। छोटी छोटी बातों को लेकर हमारे देश में जो द्वेष और कलह हुआ करता है, मेरी बात मानो ऐसा सभी देशों में है।
जिन सब राष्ट्रों का मेरुदण्ड आध्यात्मिकता नहीं- राजनीती है; वे सब राष्ट्र आत्मरक्षा के लिये वैदेशिक नीति (Foreign policy) नीति का सहारा लेते हैं। जब उनके अपने देश में बहुत अधिक लड़ाई-झगड़ा आरम्भ हो जाता है, तब वे किसी विदेशी राष्ट्र से झगड़ा मोल ले लेते हैं, इस तरह तत्काल गृह-युद्ध (आतंकवाद) बन्द हो जाती है। हमारे देश के भीतर भी गृहविवाद है, परन्तु उसे रोकने के लिये कोई वैदेशिक नीति नहीं है। संसार के सभी राष्ट्रों में अपने शास्त्रों का सत्य प्रचार ही भारत की सनातन वैदेशिक नीति होनी चाहिए, यह हमें एक अखण्ड राष्ट्र के रूप में संगठित करेगी। क्या हम लोग सदा ही पाश्चात्य देशों के कदमों में बैठकर ही सब बातें, यहाँ तक कि धर्म भी सीखेंगे ?
हाँ, हम उनसे कल-कारखानों के काम सीख सकते हैं, विज्ञान और तकनीक सीख सकते हैं, किन्तु हमें भी उन्हें कुछ सिखाना होगा। और वह है हमारा धर्म, हमारी आध्यात्मिकता। तुम्हारे पूर्वजों के उन्हीं अपूर्व रत्नों के लिये, वेदान्त के ज्ञान के लिये, भारत से बाहर के मनुष्य किस तरह उद्ग्रीव हो रहे हैं, यह मैं तुम्हें कैसे समझाऊं ? चैतन्यराज्य के अपूर्व तत्वसमूहों के बदले जड़ राज्य के अद्भुत तत्वों को प्राप्त करेंगे। चिर काल तक भिखारी शिष्य बने रहने से हमारा काम नहीं चलेगा, हमें आचार्य भी होना पड़ेगा। न आँख दिखाकर, न आँख झुकाकर, आँख मिलाकर विदेशों से सम्बन्ध रहना होगा, समभाव के न रहने पर मित्रता सम्भव नहीं। 
(हजारों वर्ष तक गुलाम रहने के बाद) अब  भी, कितनी ही शताब्दियों तक संसार को शिक्षा देने की सामग्री तुम्हारे पास यथेष्ट है।इस समय यही करना होगा। उत्साह की आग हमारे हृदय में जलनी चाहिये। मैं तुमसे कहना चाहूँगा कि निस्सन्देह बुद्धि का आसान ऊँचा है, परन्तु यह अपनी परिमित सीमा के बाहर नहीं बढ़ सकती। ह्रदय--केवल ह्रदय के भीतर से ही दैवी प्रेरणा का स्फुरण होता है, और उसकी अनुभव शक्ति से ही उच्चतम जटिल रहस्यों की मीमांसा होती है, और इसलिये 'भावुक' बंगालियों को ही यह काम करना होगा। 
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । — Arise, awake and stop not till the desired end is reached. -' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ। '
भारत के युवाओ ! उठो, जागो, शुभ मुहूर्त आ गया है। सब चीजें अपने आप तुम्हारे सामने खुलती जा रही हैं। हिम्मत करो और डरो मत। केवल हमारे ही शास्त्रों में ईश्वर के लिये 'अभीः ' विशेषण का प्रयोग किया गया है। और यह निर्भीकता ही है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। हमें 'अभीः' निर्भय (ऋषि-पैग़म्बर-अवतार) बनना होगा, तभी हम अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करेंगे। 
उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबली (कच्चा मैं या 'अहं मुक्त' युवाओं) की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि युवकों से ही हो सकेगी। प्रश्न उठता है कि युवा कैसे हों? उत्तर है- युवा साधु स्वभाव वाले- अर्थात चरित्रवान हों, अध्ययनशील (उपनिषदों को पढ़ा हुआ ) हों, आशावादी हों, दृढ़निश्चय वाले हों और बलिष्ठ हों। उन्हीं के लिये यह कार्य है, उठो--जागो, संसार तुम्हें पुकार रहा है ! 'The young, the energetic, the strong, the well-built, the intellectual' - 
 युवा स्यात्। साधुयुवा, अध्यायकः आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठः। 
तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् । स एको मानुष आनन्दः।  तैत्तिरियोपनिषद् २.७  
अर्थ -- अब यह [ इस ब्रह्म के ] आनन्द की मीमांसा है- साधु स्वभाव वाला नवयुवक, वेद पढ़ा हुआ, अत्यन्त आशावान् [ कभी निराश न होने वाला ] तथा अत्यन्त दृढ़ और बलिष्ठ हो एवं उसीकि यह धन- धान्य से पूर्ण सम्पूर्ण पृथ्वी भी हो । [ उसका जो आनन्द है ] वह एक मानुष आनन्द है। 
ऋषि कहते हैं- युवाओं पहले इस ब्रह्म-आनन्द को प्राप्त 'मनुष्य' बनो। मत सोचो कि तुम ग़रीब हो, मत सोचो कि तुम्हारे मित्र नहीं हैं। अरे, क्या कभी तुमने देखा है कि रुपया मनुष्य का निर्माण करता है ? नहीं, मनुष्य ही सदा रूपये का निर्माण करता है। यह सम्पूर्ण संसार मनुष्य की शक्ति से, उत्साह की शक्ति से, विश्वास की शक्ति से निर्मित हुआ है। 
एक मात्र श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य मनुष्य में अन्तर पाया जाता है। इसका और दूसरा कारण नहीं। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है । इस श्रद्धा को तुम्हें पाना ही होगा । श्रीरामकृष्ण कहते थे, 'जो अपने को दुर्बल सोचता है, वह दुर्बल ही हो जाता है, और यह बिल्कुल ठीक ही है। हमारे राष्ट्रिय खून में एक प्रकार के भयानक रोग का बीज समा रहा है, वह है प्रत्येक विषय को हँसकर उड़ा देना, गाम्भीर्य का अभाव, इस दोष का सम्पूर्ण रूप से त्याग करो। वीर बनो, श्रद्धा सम्पन्न होओ, और सब कुछ तो इसके बाद आ ही जायगा। किसी बात से मत डरो। तुम अद्भुत कार्य करोगे। जिस क्षण तुम डर जाओगे, उसी क्षण तुम बिल्कुल शक्तिहीन हो जाओगे। संसार में दुःख का मुख्य कारण भी ही है, यही सबसे बड़ा कुसंस्कार है, और यह निर्भीकता है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। अतएव उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
{ यह जगत तीन स्तरों वाला है। एक स्थूल जगत जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। दूसरा सूक्ष्म जगत जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं तथा तीसरा कारण जगत जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है। जीव इस जगत में आता है और इसमें फंस जाता है। इसका वर्णन करते हुए कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं, "दो मार्ग हैं- एक श्रेय का, दूसरा प्रेय का। प्रेय का मार्ग बंधन में डालता है तथा श्रेय का मार्ग मुक्ति की ओर ले जाता है।" 
यह संसार ईश्वर के द्वारा निर्मित है। वे ही इसके अधिपति है। वेदान्त के अनुसार तो ईश्वर ही स्वयं को विभिन्न पदार्थों एवं प्राणियों के रूप में अभिव्यक्त कर रहे हैं। सृष्टि में वैषम्य तो रहेगा ही, तभी उससे इस ईश्वर के सृष्टि रूपी फुलवारी की शोभा-सुषमा बढ़ती है,और मनुष्य की नेतृत्व क्षमता को उभर कर सामने आने का अवसर मिलता है।यह एक व्यायामशाला है जिसमें अचेतन को अधिक चेतन बनने का—अविकसित को अधिक विकसित होने का अवसर मिलता है। सृष्टि में प्रिय और उपयुक्त लगने वाले पदार्थ एवं प्राणी इसलिए हैं कि विश्व की, सुख-शान्ति को समुन्नत होने में सहायता मिल सके। उसी प्रकार अप्रिय, अनुपयुक्त,अवांछनीय एवं अवरोधात्मक तत्व इसलिए हैं कि उनसे बचने बचाने के संदर्भ में मनुष्य की नेतृत्व क्षमता, कुशलता, सजगता एवं सामर्थ्य बढ़ाने के अवसर मिलते रहें। 
आत्मिक प्रगति के लिए या मनुष्य बनने के लिये चरित्र के गुणों को अर्जित करना जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक चरित्र के दुर्गुणों का उन्मूलन भी है। इस उभय-पक्षीय क्रिया-प्रक्रिया को अपनाकर ही मनुष्य पूर्णता प्राप्ति की ओर अग्रसर होता रहता है, और सृष्टि सौंदर्य से लेकर प्रगति प्रयोजन के विविध क्रिया-कलाप सम्पन्न होते हैं। यदि संसार में केवल एक उपयुक्त पक्ष ही रचा गया होता तो यहाँ किसी के करने सोचने के लिए कुछ बचता ही नहीं सब कुछ नीरस हो जाता और सर्वत्र निष्क्रियता दृष्टिगोचर होती। सृष्टि में सत्-असत् का निर्माण सर्वथा उपयुक्त ही किया गया है भले ही वह हमें प्रिय-अप्रिय-सुखद-दुखद के रूप में उपयुक्त, अनुपयुक्त स्तर का भला बुरा ही क्यों न प्रतीत होता हो। उपयुक्त परिवेश में हमें जहाँ सुख, सन्तोष की अनुभूति मिलती है, वहीं बुरे और दुखद परिस्थितियों से जूझते हुए अपनी नेतृत्व-प्रतिभा को सजग एवं सदाशयता को प्रखर बनाने का समुचित अवसर भी मिलता है। सुख ईश्वर की दया है और दुख उसकी कृपा। यह दोनों ही वरदान मनुष्य के लिए प्रकारान्तर से उपयुक्त ही नहीं आवश्यक भी हैं।
सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों में सुखोपलब्धि की मान्यता मृग-तृष्णा के समान कभी पूरी न हो सकने वाली भ्रान्ति है, इसलिए उसे माया कहते हैं। अन्धकार और प्रकाश की तरह मनःसंयोग (ब्रह्मविद्या) और माया का विरोध है। जहाँ एक होगी वहाँ दूसरी रह ही न सकेगी। मन पर पूर्ण नियंत्रण रखने में समर्थ ब्रह्मवेत्ता मनुष्य अपनी मानवी अपूर्णता को पूर्णता में विकसित करने, हर्ष-विषाद के आवेशों को शान्त सन्तुलन में रूपान्तरित करने, परावलंबन को स्वावलंबन में परिवर्तित करके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि को प्राप्त हो जाता है। इसलिए तत्वदर्शियों ने मनःसंयोग (या ब्रह्मविद्या) की महत्ता पग-पग पर दर्शायी है और ब्रह्मज्ञान को विकसित करने के लिए परिपूर्ण प्रोत्साहन दिया है। स्वर्ग और मुक्ति इसी मनःसंयोग के दो मधुर फल बताये हैं। उसी वशीभूत मन को अमृत और पारस भी कहा गया है।
वेद में कहा गया है,' मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः' - मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। जब मन संसारिक विषयों में डुबा (आसक्त) होता है तो बंधन का कारण होता है और विषयों से रिहत होने पर मुक्ति दिलाता है । मन को विषयों से रहित करने के लिए इसे जीतना पडता है । जिस ने मन को जीत लिया उसने सारा जग जीत लिया।

मनःसंयोग या मन को एकाग्र करने की पद्धति को राजयोगविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं, चूँकि यह मनःसंयोग या ब्रह्मविद्या परिष्कृत चिन्तन पर—सद्ज्ञान पर या चरित्र-निर्माण पर आधारित है। इसके लिए किसी उच्चचरित्र निष्ठा वाले सत्कर्म परायण, तत्वदर्शी गुरुजनों के पास जाना चाहिए। और उनसे मन को एकाग्र करने की पद्धति को सीखकर अपने चरित्र-निर्माण के कार्य में जुट जाना चाहिये। जो ज्ञान व्यावहारिक जीवन का अंश बन सके वस्तुतः वहीं सच्चा ज्ञान है।
इसके माध्यम से ब्रह्म को जानने वाला (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) आत्मा की—परमात्मा की—जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने का उपयुक्त उपाय एवं चिन्तन पथ पर अग्रसर हो जाता है। यह कल्प-वृक्ष जिसे प्राप्त हो गया वह उपयुक्त और अनुपयुक्त परिस्थितियों से समान रूप से लाभान्वित हो सकता है और हरी भली-बुरी परिस्थिति में खट्टे-मीठे आनन्द का अनुभव करता रह सकता है। बिना अन्तः विक्षोभ का सामना किये मात्र अपनी आन्तरिक विभूतियों के आधार पर किस तरह सुखी, संतुष्ट रहा जा सकता है, इस कौशल की प्राप्ति ब्रह्मवेत्ता को सहज ही प्राप्त हो जाती है।
लेकीन इस मन को जीतना बडा ही मुश्कील काम है। यह मन बहुत ही चंचल और बलवान है । एक क्षण में यहां है तो दुसरे ही क्षण विश्व के दुसरे कोने में पहुंच जाता है । गीता में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं-

चंचलं हि मनः कृष्णं प्रमाधि बलवद दृढं ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
हे कृष्ण यह मन चंचल और बलवान है। इसका इसको वश में करना वायु को वश मे करने के समान दुषकर है । किन्तु वशीभूत मन- अमृत इसलिए कि इस ज्ञान को प्राप्त करने वाले अपने आपको अविनाशी आत्मा अनुभव करता है, शरीर के मरण को दुखद नहीं मानता, साथ ही ऐसी योजनाएँ बनाता है जो अनेक जन्मों में पूरी होने पर भी अधीरता या निराशा उत्पन्न न करें। ब्रह्मज्ञान को पारस इसलिए कहा गया है कि लोहे जैसी घटिया परिस्थितियाँ और ओछे व्यक्तित्व वाला मनुष्य भी उस दृष्टिकोण के प्रभाव से स्वर्ण जैसे सुन्दर एवं बहुमूल्य बन जाते हैं। मानव जीवन में सन्निहित अगणित विभूतियों से लाभ उठा सकने योग्य कुशलता एवं दूरदर्शिता एवं मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने की योग्यता भी मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। साथ ही उस लक्ष्य की पूर्ति भी इसी तत्व-दर्शन के सहारे हो सकती है जिसके लिए कि यह सुरदुर्लभ नर शरीर उपलब्ध हुआ है।
मुण्डक उपनिषद (१. १. ४) के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है- १. अपरा विद्या अर्थात केवल बाहरी, नश्वर, विनाशी वस्तुओं का ज्ञान, जो आत्मतत्व की जानकारी में किसी तरह सहायक नहीं होता। साँसारिक ज्ञान —आजीविका उपार्जन एवं आहार विहार जैसे भौतिक प्रयोजनों की ही एक सीमा तक पूर्ति कर सकता है। साँसारिक ज्ञान चाहे कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो शान्ति और प्रगति का चिरस्थायी पथ प्रशस्त नहीं कर सकता। इसके लिए ब्रह्मज्ञान का—आत्मज्ञान का—ही आश्रय लेना पड़ता है।  छांदोग्य उपनिषद् (७/१/२-३) में नारद-सनत्कुमार-संवाद मे भी इसी पार्थक्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। मंत्रविद् नारद सकल शास्त्रों मे पंडित हैं, परंतु ब्रह्मविद् न होने से वे शोकग्रस्त हैं। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता, या सुन्दर चरित्र जो कि उच्चस्तरीय सफलताओं की आधार शिला है—तात्विक दृष्टि मिलने से ही प्राप्त होती है। २. परा विद्या (श्रेष्ठ ज्ञान) अर्थात ब्रह्मविद्या या मनःसंयोग की महिमा बताते हुए शास्त्र कहता है— 
अथ परा, यया तदक्षरमधिगम्यते । - मुण्डकोपनिषत् १-१-६
यया तदक्षरम् अधिगम्यते सा परा विद्या अथ उच्यते । जिस मनःसंयोग की पद्धति के द्वारा अविनाशी ब्राह्मतत्व का ज्ञान प्राप्त होता है उसी मन को एकाग्र करने की पद्धति -अष्टांगयोग या राजयोगविद्या को ही पराविद्या  कहते है। कहा गया है—
तस्यै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा । वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यम् आयतनम् ॥ - केनोपनिषत् ४-८ 
तां परब्रह्मविद्यां प्राप्तुं तपः, दमः, कर्माणि,  च साधनानि भवन्ति ॥ अर्थात उस ब्रह्मविद्या के तीन आधार हैं—(1) तप, (2) संयम (3) सत्कर्म। वेद उस ब्रह्मविद्या के अंग हैं। सत्य को प्राप्त करना उसका उद्देश्य।

सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् ।
आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम् ॥ 
- श्वेताश्वतरोपनिषत् १-१६
क्षीरे घृतमिव अस्मिन् विश्वे आत्मा सर्वव्यापकः । आत्मानम् विज्ञातुं तप एव साधनम् ? आत्मा च ब्रह्म । मानवजन्मनः रहस्यं सारभूतं लक्ष्यमिदम् ॥ अर्थात ज्यों दूध में स्थित है घी, सर्वत्र है परिपूर्ण है, त्यों पूर्ण प्रभु परमेश जग में व्याप्त है सम्पूर्ण है। यह ब्रह्मविज्ञान (१) आत्मज्ञान और (२) तपश्चर्या पर आधारित है। वह आत्म विद्या और तप, साधन से ही प्राप्तव्य है, परब्रह्म तत्व परम प्रभो, उपनिषदों से ज्ञातव्य है।
जिस मनःसंयोग को सीखकर विद्यार्थी आत्मा को अपने आपको—अपने स्वरूप, हित और बौद्धिक लक्ष्य को समझ कर हृदयंगम कर लेता है उस बौद्धिक प्रक्रिया (राजयोग विद्या) का नाम ही शिक्षा है। इसी ज्ञान को प्राप्त करना जीवन को सार्थक बनाने वाला परम पुरुषार्थ है। अस्तु ज्ञान का महत्व और महात्म्य बताते हैं। आत्मा की प्राप्ति ही परमात्मा की प्राप्ति है। आत्मबोध और ईश्वर दर्शन में मात्र शब्दों का ही अन्तर है। आत्मा का उच्चस्तर की परमात्मा है। अपने आपको " Be and Make " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन में नियोजित कर देना ही ईश्वर भक्ति —योगसाधना एवं तपश्चर्या है। सारा साधना विज्ञान और तत्व-दर्शन इसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमता है। इस संदर्भ में आप्त वचन इस प्रकार हैं—
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते | 
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ||
 -केनोपनिषद २.४ 
नाना नाम-रूपों में प्रतीयमान चराचर जो यह जगत है, इसमें सर्वत्र अर्थात सभी वस्तुओं में अन्तर्यामी रूप से ब्रह्मतत्व विराजमान है। जिस  भाग्यशाली सत्यार्थी (जिज्ञासु ) ने ' मतं ' - यह जान लिया है,  वह 'अमृत्तत्वं '-मोक्ष को 'विन्दते ' -अवश्य प्राप्त करता है। इस मनःसंयोग या इस मन की एकाग्रता रूपी बल से संपन्न साधक परमात्मसाक्षात्कार की कारणस्वरूपा ब्रह्मविद्या, अविरल-भक्ति, राजयोगविद्या आदि नामों से विख्यात विद्या (शिक्षा) -द्वारा 'अमृतम् '-अविनाशी परमात्मा को 'विन्दते '-प्राप्त करता है। अर्थात उसे अविलम्ब भगवत्साक्षात्कार हो जाता है।
 यहाँ सदगुरुदेव इस बात पर बल देते हैं कि ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने के लिये सर्वप्रथम धैर्य आवश्यक है। अध्यवसाय पूर्वक प्रतिदिन अभ्यास करने पर मन की एकाग्रता रूपी बल प्राप्त होगा। फिर भगवान के प्रति अविरल भक्ति उत्पन्न होगी। जिससे प्रसन्न होकर वे स्वयं जीव का वरण करके उसे अपने स्वरुप का साक्षात्कार करा देंगे। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुस्वाम !! प्रत्येक बोध (बौद्ध प्रतीति)— में प्रत्यगात्मरूप से जाना गया है वही ब्रह्म है— यही उसका ज्ञान है, क्योंकि उस ब्रह्म ज्ञान से अमृत की प्राप्ति होती है । अमृतत्त्व अपने ही से प्राप्त होता है, विद्या से तो अज्ञानान्धकार को निवृत्त करने का सामर्थ्य मिलता है। आत्मा से परमात्मा को जाना जाता है ज्ञान के द्वारा ही अमृतत्व प्राप्त होता है। दिव्य ज्ञान को ही अमृत के रूप में जाना जाता है। 
ओशो कहते हैं - " बह्म का ज्ञान असंभव है, लेकिन उसकी अनुभूति संभव है। ज्ञान तथा अनुभूति बुनियादी रूप से भिन्‍न बातें है। एक बहुत ही बारीक—से भेद को समझ लेना है। अनुभूति सदैव वर्तमान में है, ज्ञान सदा अतीत की बात हो गई। परमात्मा कोई वस्तु नहीं है। वस्तु को जाना जा सकता है। परमात्मा एक प्रक्रिया है। वस्तु का अर्थ होता है कुछ जो रुक गया है। प्रक्रिया का अर्थ होता है कि वह चलती जाती है, चलती ही जाती है। 
साधारण बुद्धि से हम परमात्मा को भी एक वस्तु की भांति ही सोचते हैं। परमात्मा कोई वस्तु नहीं है। वह एक प्रवाह है, एक सातत्य है। वह शाश्वत रूप से चलता चला जाता है। वह कभी रुकता नहीं, वह कभी रुक नहीं सकता। न रुकना ही उसकी प्रकृति है। अत: तुम एक प्रक्रिया को कैसे जान सकते हो? जैसे ही तुम कहते हो कि मैंने जान लिया, तुम रुक गये—और प्रक्रिया चलती चली जाती है। अंत: तुम नहीं कह सकते कि तुमने परमात्‍मा का अनुभव कर लिया है। क्योंकि: उसका तो अर्थ होता है कि अब वह अतीत की बात हो गई। और उसका तो अर्थ हुआ कि 'तुम' उसके पार चले गये। तुम पहले से अनुभव कर चुकें और उसके पार—चलें गए हो। तुम परमात्मा के पार कभी भी नहीं जा सकते, इसलिए तुम कभी पूरे अर्थों में ऐसा नहीं कह सकते कि तुमने जान लिया कि तुमने अनुभव 'कर लिया। तुम उसे कभी भी अतीत में नहीं रख सकते। उसे तुम्हारी स्मृति का हिस्सा कभी भी नहीं बनाया जा सकता। तुम अनुभूति की प्रक्रिया में हो सकते हो, लेकिन वह कभी अनुभव नहीं बन सकता। वह सदा ही अनुभूति है—एक जीवंत प्रक्रिया, एक मृत स्मृति कभी नहीं। 
ईश्वरो वै यविष्ठः- ब्रह्म सदा युवा है, सदाबहार है। वहाँ बुढ़ापा नहीं घटता। इसीलिए तो उसकी मृत्यु नहीं होती। अस्‍तित्‍व सदाबहार है, जीवंत है, धड़कता रहता है। ज्ञान के कारण तुम बूढ़े होते हो। जिस क्षण तुम कहते हो कि मैंने जान लिया, तुम जानने से रुक गये। तुम सोचते हो कि तुमने अनुभव कर लिया, उसी क्षण अनुभव होना रुक गया। हम अतीत में जीते हैं, इसीलिए हम इतने मुर्दा हैं। जीवन सदा वर्तमान में है, और मन सदा अतीत में है। इसलिए मन कभी भी जीवन को नहीं जान सकता। उनका कोई मिलन स्थल नहीं हो सकता है। ऐसी कोई भी जगह नहीं हो सकती जहां कि मन, जीवन से मिल सके। इसीलिए उपनिषद मन के विरुद्ध हैं।  एक आदमी जो कि क्षण— क्षण जीता है, और जो अतीत के प्रति मरता चला जाता है, वह कभी भी किसी चीज से आसक्त नहीं होता। आसक्ति आती है अतीत के इकट्ठे होने के कारण। यदि तुम अतीत से हर क्षण अलग होते चले जाओ, तो तुम सदा ताजा, युवा तथा नवजात रहोगे। तुम जीवन के साथ धड़कोगे, वह धड़कना ही तुम्हें अमरत्व प्रदान करेगा। तुम अमर हो ही, सिर्फ तुम्हें इस बात का पता नहीं है।
मन सदा उसकी स्मृति ही है जो कि तुम जी चुके, उसकी जो कि गुजर चुका, उसकी जो कि अब नहीं है। कुछ और नहीं, बस तुम्हारे ऊपर अतीत की जमी हुई धूल है। उसे दूर फेंक दो। उसे धो डालो ताकि, तुम ताजा और युवा हो सको, और वर्तमान से, शाश्वत युवा ब्रह्म से मिल सको।जानने की प्रक्रिया में अतीत को सदा पीछे छोड़ते जाना है। यही बुनियादी त्याग है। अतीत के प्रति मर जाओ ताकि तुम वर्तमान के प्रति जीवंत हो सको। तुम दोनों नहीं कर सकते। यदि तुम अतीत के प्रति जीवित हो तो तुम वर्तमान में मृत होओगे। यदि तुम वर्तमान में जीना चाहते हो तो अतीत के प्रति मर जाओ हर क्षण अतीत की धूल को झाडू कर फेंकते जाओ। उसे इकट्ठा मत होने दो, उसे त्यागते जाओ, उसे दूर फेंकते जाओ। उसका कोई उपयोग नहीं है। संन्यासी वह नहीं है जिसने घर—बार छोड़ दिया है, धन छोड़ दिया है, परिवार छोड़ दिया है, बल्कि वह है जिसने अतीत को छोड़ दिया है—क्योंकि वही तो बुनियादी संपदा है।

एक मछुआ शिष्य ने जीसस से कहा, ''जीसस! मुझे कुछ दिन के लिए जाने दो ताकि मैं मृत पिता के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित कर सकुं और वह सब कर सकूं जो कि एक बेटे को करना चाहिए।''
जीसस ने कहा, ''तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है। मुर्दे मुर्दे को दफना देंगे।''
जीसस के लिए वह सारा गांव ही मुर्दा था। इसलिए उन्होंने कहा कि और मुर्दे हैं जो मुर्दे को दफना देंगे; उसके लिए तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।
क्यों कहा जीसस ने कि मुर्दे मुर्दे को दफना देंगे? क्योंकि जो लोग भी अतीत में जीते हैं वे सब मुर्दे ही हैं। केवल वही जिंदा हैं जो कि वर्तमान में जीते हैं। जीवन का अर्थ होता है वर्तमान, यहीं और अभी।

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचिन्त्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ।। 
-केनोपनिषद २.५ ।।

हे मानव ! यदि इसी जन्म में परमात्मा को जान लिया ।तो यह लाभ महान, अन्यथा तू नर जन्म विनष्ट किया ।। जगती के कण -कण का चिन्तन‌, धीर पुरुष जब करते हैं । देख ब्रह्म , मृत्यूपरांत वे अमृत तत्व को वरते हैं ।।५ ।। इसी शरीर में रहते रहते यदि ब्रह्म की अनुभूति हो गयी तब तो मनुष्य शरीर धारण करना सार्थक हो जायगा और यदि न जान सके तो महाविनाश है। धीर लोग प्रत्येक वस्तु में उसे विशेष रूप से चिन्ता करके इस लोक से जाकर अमृत होते हैं।
 तैत्तरीय उपनिषद् २ वल्ली १ में ब्रह्मविद्या का सारभूत मंत्र है- 'ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम।'  ब्रह्म को जानने वाला (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य ) परम पद को प्राप्त हो जाता है। जिसे ईश्वर की अनुभूति होती हैं, वह उस परब्रह्म की सद्गुण, सत्कर्म, सद्विचार एवं सत् स्वभाव रूपी किरणों को, विभूतियों को अपने में धारण करता चला जाता है और ब्रह्म जानने वाला ब्रह्मवत् बन जाता है। अज्ञान का समाधान होने पर जो शुद्ध दृष्टि और निर्मल विवेक उदय होता है, उसी को स्वर्ग, मुक्ति आदि नामों से पुकारते हैं।
ब्रह्मविद्या (मनःसंयोग ) या मन की एकाग्रता रूपी बल आत्मा की—परमात्मा की—जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने का उपयुक्त उपाय एवं चिन्तन पथ-प्रशस्त करती है। यह कल्प-वृक्ष जिसे प्राप्त हो गया वह उपयुक्त और अनुपयुक्त परिस्थितियों से समान रूप से लाभान्वित हो सकता है और हरी भली-बुरी परिस्थिति में खट्टे-मीठे आनन्द का अनुभव करता रह सकता है। बिना अन्तः विक्षोभ का सामना किये मात्र अपनी आन्तरिक विभूतियों के आधार पर किस तरह सुखी, संतुष्ट रहा जा सकता है, इस कला का नाम ब्रह्मविद्या है।
 यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।  आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् । न बिभेति कुतश्चनेति। जहाँ मन के सहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है उस ब्रहमानन्द को जानने वाला पुरुष कभी भय को प्राप्त नहीं होता।}

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८.२ **' Onward ! Onward !' Give up all numbing qualities. आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! जड़वत कर देने वाली आदतों का परित्याग कर दो।
" जहाँ जहाँ श्रीरामकृष्ण का नाम जायेगा, वहाँ के कीट-पतंग तक देवता हो जायेंगे, हो भी रहे हैं, देखकर भी नहीं देखते ? यह बच्चों का खेल नहीं, यह बुजुर्गी छाँटना नहीं, यह मजाक नहीं-' उत्तिष्ठत् जाग्रत'।  उठो, जागो ! --प्रभु प्रभु ! वे अपने पीछे हैं ! मैं और लिख नहीं सकता-Onward! आगे बढ़ो, मैं केवल इतना ही कहता हूँ कि जो जो मेरा यह पत्र पढ़ेंगे, उन सब में मेरा भाव भर जायेगा, विश्वास करो। Onward! Great Lord! आगे बढ़ो ! -प्रभु प्रभु ! पत्र प्रकाशित न करना। मुझे अनुभव हो रहा है, मानो कोई मेरा हाथ पकड़ कर लिखवा रहा है। Onward! Great Lord! आगे बढ़ो ! -प्रभु प्रभु ! सब बह जायेंगे--Take care, He is coming! होशियार --वे आ रहे हैं ! जो जो उनकी सेवा के लिये --उनकी सेवा नहीं वरन उनके पुत्र दीन-दरिद्रों, पापी-तापियों, कीट-पतंगों तक की सेवा के लिये तैयार होंगे, उन्हीं के भीतर उनका आविर्भाव होगा (वे ब्रह्म को जान लेंगे ! 'ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम।') उनके मुख पर सरस्वती बैठेंगी, उनके हृदय में महामाया महाशक्ति आकर विराजित होंगी। जो नास्तिक हैं, अविश्वासी हैं, किसी काम के नहीं हैं, ढोंगी हैं--वे अपने को उनका शिष्य क्यों कहते हैं ? वे चले जाएँ। मैं और नहीं लिख सकता। " इति ---
[ ग्रीष्मकाल, १८९४ में स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र: " एक बात याद रखो: विश्व के महान शिक्षक (अवतार या पैग़म्बर, सत्यद्रष्टा ऋषि) शिक्षा देने के लिये आते हैं। नाम-यश के लिये नहीं; परन्तु उनके चेले उनके उपदेशों को पानी में बहाकर नाम के लिये हाथापाई करने लग जाते हैं --बस यही संसार का इतिहास है। (श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा जैसा जीवन के साँचे में युवाओं को ढालकर;)  'बनो और बनाओ' आन्दोलन को यदि भारत के गाँव गाँव तक ले जा सको तो समझूँगा, तुम सब 'मनुष्य' हो और काम के योग्य हो। पोथी-पत्रों का काम नहीं-जबानी शिक्षा दो। फिर धीरे धीरे अपने केन्द्र बढ़ाते जाओ--क्या यह कर सकते हो ? --या सिर्फ घड़ी-घण्ट बजाना ही आता है? स्त्री-भक्त जितनी हैं, क्या विधवाओं को शिष्या नहीं बना सकतीं ? और तुम लोग उनके मस्तिष्क में कुछ विद्या नहीं भर सकते ?आओ ! उठकर काम में लग जाओ तो सही। अजी, गप्पें लड़ाने और घण्टी हिलाने का जमाना गया, समझे? अब काम करना होगा। जरा देखूं भी, बंगाली के धर्म की दौड़ कहाँ तक होती है ! शिकागो में श्री हेल का घर मेरा केन्द्र है; उनकी पत्नी को मैं माँ कहता हूँ; उनकी कन्यायें मुझे भैया जी कहती हैं। ऐसा महापवित्र और दयालु परिवार मैं तो दूसरा नहीं देखता।
भारत में आवश्यकता है संघ-परिचालनशक्ति (power of organisation) की, समझे? क्या तुममें से किसी में यह कार्य करने की बुद्धि है? यदि है, तो तुम इस कार्य को बखूबी कर सकते हो। तारक-दादा, शरत और हरि भी यह कार्य सकेंगे। 'अमुक' सचमुच बड़ा कारगुजार आदमी है; किन्तु उसमें मौलिकता बहुत कम है। फिर भी वह बड़े काम का और अध्यवसायशील मनुष्य है, उसकी भी जरुरत 'अन्नदान या विद्यादान ' में पड़ सकती है। हमें कुछ चेले (disciples) भी चाहिये--वीर युवक--समझे ? बुद्धि के तीव्र और हिम्मत के पूरे- 'यम' का सामना करने वाले-तैर कर समुद्र पार करने को तैयार--समझे ? हमें ऐसे सैकड़ों चाहिये--स्त्री और पुरुष दोनों। जी-जान से इसी के लिए प्रयत्न करो। चेले बनाओ और हमारे पवित्र करने वाले साँचे (श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा जैसा जीवन के साँचे 'purity-drilling machine' में ) युवाओं को डाल दो।
समाज में, पूरे भारत में -बिजली की शक्ति के समान काम करना होगा, electrify the world ! बैठे बैठे गप्पें लड़ाने और घण्टी हिलाने से काम नहीं चलेगा। घण्टी हिलाना, भोगी-गृहस्थों का काम है। गृहस्थ होकर भी स्वामीजी के सैनिक बनने की चाह रखने वाले युवाओं का काम है-'distribution and propagation of thought-currents.' अर्थात 'मनुष्य बनो और बनाओ' आन्दोलन का प्रचार-प्रसार करना। यदि यह कर सकते हो तब तो ठीक है। चरित्र-निर्माण हो जाय, फिर मैं तुम लोगों के बीच आता हूँ, समझे ? दो हजार, दस हजार, बीस हजार संन्यासी (त्यागी गृहस्थ) चाहिये, स्त्री-पुरुष दोनों, समझे? चेले चाहिये, जिस तरह भी हों। तुम लोग अपनी जान की बाजी लगाकर कोशिश करो। भोगी नहीं त्यागी गृहस्थ चाहिये--समझे ? --शिक्षित युवक चेले चाहिये, मूर्ख नहीं। उथलपुथल मचा देनी पड़ेगी, कमर कस कर लग जाओ- गुजरात और कलकत्ते के बीच में बिजली की तरह चक्कर लगाते रहो।
आध्यात्मिकता की बड़ी भारी बाढ़ आ रही है --साधारण व्यक्ति महान बन जायेंगे, अनपढ़ उनकी कृपा से बड़े बड़े पण्डितों के आचार्य बन जायेंगे--'उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत्'-Arise! Awake! and stop not till the goal is reached." उठो, जागो और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो तब तक न रुको। ह्रदय को विस्तृत करते जाना ही जीवन है, और संकोच ही मृत्यु। जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आराम-तलब है, आलसी है, उसके लिये नरक में भी जगह नहीं है। सवा सौ करोड़ देशवासियों के लिये जिसमें इतनी करुणा होती है कि खुद उसके लिये नरक में भी जाने को तैयार रहता है--उनके लिये कुछ कसर उठा नहीं रखता, वही श्रीरामकृष्ण का पुत्र है, --इतरे कृपणाः -दूसरों को हीनबुद्धि वाले समझना। जो इस समय पूजा के महासन्धि-मुहूर्त (this great spiritual juncture) में कमर कस कर खड़ा हो जायेगा, गाँव गाँव में, घर घर में, उनका संवाद देता फिरेगा वही मेरा भाई है --वही ठाकुर का पुत्र है। यही रामकृष्ण के सन्तानों को परखने का तरीका है --वे अपना भला नहीं चाहते, प्राण निकल जाने पर भी दूसरों की भलाई चाहते हैं। जिन्हें अपने ही आराम की सूझ रही है, जो आलसी हैं, जो अपनी जिद के सामने सब का सिर झुक हुआ देखना चाहते हैं, वे हमारे कोई नहीं, वे हमसे राजी-ख़ुशी से पहले ही अलग हो जायें। 
श्रीरामकृष्ण का चरित्र, उनकी शिक्षा इस समय चारों ओर फैलाते जाओ--यही साधन है, यही भजन है, यही साधना है, यही सिद्धि है। उठो, उठो, बड़े जोरों की तरंग (tidal wave) आ रही है- 'Onward! Onward!'; आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, स्त्री-पुरुष आचाण्डाल (Pariah) सब उनके निकट पवित्र हैं।
Onward! Onward! आगे बढ़ो, आगे बढ़ो ! नाम का समय नहीं है, यश का समय नहीं है, मुक्ति का समय नहीं है, भक्ति का समय नहीं है, इनके बारे में फिर कभी देखा जायगा। अभी इस जन्म में श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा के महान चरित्र का, उनके महान जीवन का, उनकी महान आत्मा का प्रचार करना होगा। 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत ' बनाने के लिए बस इतना ही करना है; इसको छोड़ कर अन्य कुछ योजना लेने की जरुरत नहीं है।
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८.३ ***   काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा। As you have come into this world, leave some mark behind. वरना पेड़-पत्थर भी तो पैदा तथा नष्ट होते रहते हैं। मनुष्य जीवन की सार्थकता फिर कहाँ रही ? मुझे करके दिखा दे कि तेरा वेदान्त पढ़ना सार्थक हुआ है। जाकर सभी को यह बात सुना -" तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति मौजूद है, उसी शक्ति को जाग्रत करो।" केवल अपनी मुक्ति से क्या होगा ? मुक्ति की कामना भी तो महा स्वार्थपरता है। छोड़ दे ध्यान, छोड़ दे मुक्ति की आकांक्षा। मैं जिस काम में लगा हूँ, उसी काम में लग जा। अधिक से अधिक क्या होगा ? मर ही तो जायेगा ? मेरे-तेरे जैसे न जाने कीड़े पैदा होते रहते हैं और मरते रहते हैं। इससे दुनिया को क्या हानि-लाभ ? एक महान उद्देश्य को लेकर मर जा। मरणा तो है ही; पर अच्छा उद्देश्य लेकर मरणा ठीक है। इस भाव -" Be and Make " का घर घर प्रचार कर, अपना और देश का कल्याण होगा। तुम्हीं लोग देश की आशा हो। तुम्हें कर्म-विहीन देखकर मुझे बड़ा कष्ट होता है। लग जा, काम में लग जा। 
विलम्ब न कर मृत्यु तो दिनोंदिन निकट आ रही है ! ' बाद में करूँगा' कहकर और बैठा मत रह, यदि बैठा रहेगा, तो फिर तुझसे कुछ भी न हो सकेगा।
[" देखता नहीं, भारत पेट की चिन्ता से बेचैन है। भोग की इच्छा कुछ तृप्त हो जाने पर ही, लोग योग की बातें सुनते या समझते हैं। अन्न के आभाव में दुर्बल शरीर, दुर्बल मन, रोग-शोक-परिताप से ग्रस्त जनता को प्रवचन देने से क्या होगा?  विदेशियों के द्वारा देश के सर्वश्रेष्ठ संसाधनों की निकासी (दोहन), कच्चे माल का अप्रतिबन्धित निर्यात, और सबसे बढ़कर तुम लोगों की आपस की घृणित दास-सुलभ ईर्ष्या ने ही तुम्हारे देश की अस्थि-मज्जा को खा डाला है। धर्म की बात सुनाना हो तो पहले इस देश के लोगों के पेट की चिन्ता को दूर करना होगा। नहीं तो केवल प्रवचन देने से विशेष लाभ नहीं होगा। 
पहले कुछ ऐसे त्यागी गृहस्थों की आवश्यकता है, जो अपने परिवार  के लिये  न सोचकर दूसरों के लिये  अपने जीवन का उत्सर्ग करने को तैयार हों। महामण्डल शिविर के माध्यम से कुछ युवाओं को नेतृत्व प्रशिक्षण दिया जा रहा है, शिक्षा समाप्त होने पर ( या चपरास प्राप्त होने पर) ये लोग द्वार द्वार पर जाकर सभी को उनकी वर्तमान शौचनीय स्थिति (नारायण होकर वाराह अवतार क्यों लेते हो?) समझायेंगे; उस स्थिति से उन्नति किस प्रकार हो सकती है, इस विषय में प्रशिक्षण देंगे और साथ ही साथ धर्म के महान तत्वों को सरल भाषा में उन्हें साफ़ साफ़ समझा देंगे।
तुम्हारे देश का जनसाधारण मानो एक सोया हुआ तिमिंगल (Leviathan) है। इस देश की जो शिक्षा व्यवस्था है, वहाँ परमसत्य (ब्रह्म) को जानने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसीलिये वे देश के कल्याण के लिये कुछ नहीं कर सक रहे हैं। बेचारे करें भी तो कैसे ? कालेज से निकलकर ही देखते हैं, कि वे सात बच्चों के बाप बन गये हैं, उस समय जैसे तैसे जो नौकरी हाथ लग जाये, क्लर्की या डिप्टी मजिस्ट्रेट की नौकरी स्वीकार कर लेते हैं; बस यही हुआ शिक्षा का परिणाम ! उसके बाद गृहस्थी के बोझ में इतना दब जाता है कि देश का कल्याण करने या ब्रह्म-चिन्तन करने का फिर उसको समय कहाँ? जब अपना ही स्वार्थ पूरा नहीं होता, तब दूसरों के लिये क्या करेगा ? 
यह सनातन धर्म का देश है। यह देश गिर अवश्य गया है, परन्तु निश्चय ही फिर से उठेगा ! और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जायगी। देखा नहीं है, नदी या समुद्र की लहरें जितनी नीचे उतरती हैं, उसके बाद उतनी ही जोर से उपर उठती हैं। देखता नहीं है, पूर्वाकाश में अरुणोदय हुआ है(-अबकी बार मोदी सरकार !) सूर्य उदित होने में अब अधिक विलम्ब नहीं है। तुम लोग इस समय कमर कस कर तैयार हो जाओ। गृहस्थी करके क्या होगा ? तुम लोगों का अब काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव में जाकर देश के लोगों को समझा दो कि अब आलस्य से बैठे रहने से, युवाओं के चरित्र-निर्माण में देर करने से काम न चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझकर कहो-' भाई, सब उठो, जागो, और कितने दिन सोते रहोगे ? और वेद के चारों महावाक्यों का मर्म सरल करके उन्हें समझा दो। 
तू काम में लग जा; फिर देखेगा, इतनी शक्ति आएगी कि तू उसे सँभाल न सकेगा। दूसरों के लिये रत्ती भर सोचने से ह्रदय में सिंह का सा बल आ जाता है। तुम लोगों से मैं इतना स्नेह करता हूँ, परन्तु यदि तुम लोग दूसरों के लिये परिश्रम की पराकाष्ठा करते हुए मर भी जाओ तो भी यह देखकर मुझे प्रसन्नता ही होगी। 
शिष्य - परन्तु महाराज, जो लोग मुझपर निर्भर हैं, उनका क्या होगा ? 
स्वामी जी - यदि तू दूसरों के लिये प्राण देने को तैयार हो जाता है, तो भगवान उनका कोई न कोई उपाय करेंगे ही !"न हि कल्याणकृत्कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति" - हे तात, कल्याण करने वाला व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता। त्याग ही असली बात है। त्यागी हुए बिना कोई दूसरों के लिये सोलह आना प्राण देकर काम नहीं कर सकता। त्यागी सभी को समभाव से देखता है, सभी की सेवा में लगा रहता है।
शिष्य - महाराज, दूसरों के लिये काम करने से समय समय पर बहुधा धन की आवश्यकता होती है। वह कहाँ से आयेगा ? 
स्वामी जी - मैं कहता हूँ, जितनी शक्ति है, पहले उतना ही कर। धन के आभाव से यदि कुछ नहीं दे सकता, तो न सही; पर एक मीठी बात या एक दो सदुपदेश तो उन्हें दे सकता है ? क्या इसमें भी धन लगता है? 
शिष्य -जी हां, यह तो कर सकता हूँ ।
स्वामीजी- ' जी, कर सकता हूँ'-केवल मुँह से कहने से काम नहीं बनेगा। जो कर सकता है, वह मुझे कर के दिखा, तब जानूँगा कि तेरा मेरे पास आना सफल हुआ।
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