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सोमवार, 26 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (7) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

हिन्दी अनुवाद की भूमिका 
यह महामण्डल पुस्तिका मेरे हाथों में १९९३ के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में आई थी। तब से मैंने इसको अनगिनत बार पढ़ा है। किन्तु इस पुस्तिका में स्वामी जी द्वारा अंग्रेजी में कहे गये जिन उक्तियों को उद्धरण के भीतर (within quotes) रखा गया है, वहाँ इन उक्तियों को 'Complete Works of Swami Vivekananda' के किस खण्ड से लिया गया है, इस सन्दर्भ को सूचित नहीं किया गया है। तत्वज्ञान से परिपूर्ण इस पुस्तिका का अनुवाद करने के लिये स्वामी जी ने किस प्रसंग में इन उक्तियों को कहा होगा, इसे समझना बहुत जरुरी था। 
'गूगल बाबा' के कृपा से नेट पर अंग्रेजी में सारे प्रसंग और सन्दर्भ मिल गये, किन्तु अद्वैत आश्रम, कोलकाता तथा मायावति से हिन्दी में प्रकाशित 'विवेकानन्द साहित्य' अभी तक नेट पर उपलब्ध नहीं है। इसका क्या कारण है, यह मुझे नहीं पता। 
मैंने स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी में कथित उक्तियों को हिन्दी में अनुवाद करते समय अपने सन्तोष के लिये विवेकानन्द साहित्य से पूरे निबंध को ही उद्धृत कर दिया है, और जहाँ आवश्यक लगा है, कुछ पन्नों को स्वयं भी अनुवादित किया है। इसे पढ़ने से परम पूज्य श्रीनवनीहरण ने छोटे छोटे श्लोकों में जो गागर में सागर भरा है, उस अमृत का पान किया जा सकता है, समझने में आसानी हो सकती है। 
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 ' विवेकानन्द - दर्शनम् '
७. 
' वेद का अर्थ है- अपरिवर्तनशील सत्यों का समूह '
 
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]  
 
'राधू' के साथ पवित्र माँ श्री श्री सारदा 
 
नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति | 
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्

[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।] 
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      ७. 
जीवः शिव इति ज्ञानं नरो नारायणो ध्रुवम् । 
जीवसेवा परो धर्मः परोपकृतये वयम् ।। 

1. Every being is God (Shiva) --this is true knowledge; ' man is the greatest of all beings.'

2. ' There is no greater Dharma than this service of living beings.'

3.  ' Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others.' 

१. प्रत्येक जीव ईश्वर (शिव) है --यही सच्चा ज्ञान है; " मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है ! "

२.  ' जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।'

३. " धन्य हैं वे, जो अपने शरीर को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं।"

प्रसंग : [ १. श्रीमती ओली बुल (धीरा माता) को अगस्त १८९५ का पत्र/ २. गुरु-शिष्य संवाद : ऋग्वेद पर सायण भाष्य/ ३.' विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय' ४/५६ ]   
१. स्वामी जी द्वारा उद्धृत यह तात्विक दर्शन श्रीमती ओली बुल (धीरा माता) को अगस्त १८९५ को लिखे पत्र से लिया गया है।
वे लिखते हैं - " अपने देशवासियों के प्रति मैंने अपना थोड़ा-सा कर्तव्य निभाया है। अब जगत के लिये --जिससे कि मुझे यह शरीर मिला है, देश के लिये --- जिसने कि मुझे यह भावना प्रदान की है तथा उस मानवता (इंसानियत ) के लिये---जो मुझे उनमें से एक होने की अनुमति देती है, ताकि मैं भी अपनी गणना मनुष्य के रूप में कर सकूँ, कुछ करना है। " The older I grow, the more I see behind the idea of the Hindus that man is the greatest of all beings."  
जितनी ही मेरी उम्र बढ़ रही है, उतना ही मैं " मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है " --हिन्दुओं की इस धारणा का तात्पर्य अनुभव कर रहा हूँ। मुसलमान भी यही कहते हैं। अल्ला ने जब सारी सृष्टि रचना कर ली तो सबसे अंत में मनुष्य को बनाया, अपनी इस रचना को देखकर अल्ला बहुत खुश हुए, क्योंकि वह अपने बनाने वाले को भी जान सकने में सक्षम था ! अल्ला ने सभी फ़रिश्तों (Angels) को बुलवाया और आदम (Adam) को प्रणाम करने के लिये कहा। सारे फ़रिश्तों ने आदम के सामने अपने सिर को झुकाया पर इब्लीस (Iblis) ने प्रणाम नहीं किया। तब अल्ला ने कहा-दूर हटो शैतान ! इस प्रकार इब्लीस शैतान (Satan) बन गया। 
This earth is higher than all heavens; यह पृथ्वी (भारत माता) सब स्वर्गों से ऊँची है ---विश्व-ब्रह्माण्ड का यही सर्वश्रेष्ठ पाठशाला है ! मंगल ग्रह (Mars) या बृहस्पति ग्रह (Jupiter) पर यदि कोई प्राणी रहते भी हों, तो वे हमारी अपेक्षा उच्च स्तर के जीव नहीं हो सकते, क्योंकि वे अभी तक हमलोगों से सम्पर्क नहीं कर सके हैं।
मनुष्य की अपेक्षा तथाकथित उच्च प्राणी यदि कोई है, तो वे दिवंगत आत्मायें हैं, और वे 'मरे हुए लोग' अब भी मनुष्य ही हैं किन्तु इन्होंने अभी एक भिन्न प्रकार का शरीर ले लिया है। यह सत्य है कि अब उनका शरीर सूक्ष्म है, (जिन्हें हम इन चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकते ) किन्तु अब भी वे दो-हाथ, दो पैर आदि से युक्त मनुष्य-शरीर ही है। और वे पूरी तरह से अदृश्य (absolutely invisible) हुए बिना, इसी धरती पर एक अन्य आकाश (another Âkâsha) में रहते हैंवे लोग भी सोच-विचार करते हैं, और हमलोगों की तरह ही समझ (consciousness -चैतन्य, संज्ञा या भान) तथा अन्यान्य सब कुछ रखते हैं। इसीलिये वे भी मनुष्य ही हैं, देवता लोगों और देवदूतों के बारे में भी यही बात है।
किन्तु केवल मनुष्य ही ईश्वर बन सकता है, तथा अन्य लोगों (दिवंगत लोगों, देवताओं या फ़रिश्तों) को पुनः मनुष्य-जन्म मिलने के बाद फिर से ईश्वरत्व (बुद्धत्व) की प्राप्ति हो सकती है। " 

७.२   'जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।' यह तात्विक दर्शन गुरु-शिष्य संवाद का अंश है; स्वामीजी बागबाजार में स्व० बलराम बोस के भवन में ठहरे हुए हैं। विगत दस दिनों से शिष्य वहीँ  रहते हुए स्वामीजी के साथ ऋग्वेद पर सायण भाष्य पढ़ रहे थे। किसी धनी व्यक्ति के निजी पुस्तकालय से मैक्समूलर द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद ग्रन्थ के सब भाग लाये गये हैं।
स्वामीजी ने मैक्समूलर के संबन्ध में कहा, " मुझे कभी कभी ऐसा अनुमान होता है कि सायणाचार्य ने अपने भाष्य को पुनरुज्जीवित करने के उद्देश्य से स्वयं मैक्समूलर के रूप में जन्म लिया है। ऐसा सिद्धान्त मेरा बहुत दिनों से था, पर मैक्समूलर से मिलने के बाद और भी दृढ हो गया है। ऐसा परिश्रमी और ऐसा वेद-वेदान्त सिद्ध पण्डित हमारे देश में भी नहीं पाया जाता। इसके अतिरिक्त श्रीरामकृष्ण पर भी उनकी कैसी गहरी भक्ति है! क्या तू समझ सकता है ? उनके अवतारत्व पर भी उन्हें विश्वास है। मैं उनके ही भवन में अतिथि रहा था --कैसी देखभाल और सत्कार किया ! दोनों वृद्ध पति-पत्नी को देखकर ऐसा अनुमान होता था कि मानो वशिष्ठ देव और देवी अरुन्धती संसार में वास कर रहे हैं। मुझे विदा करते समय वृद्ध की आँखों से आँसू टपकने लगे थे।"
शिष्य - अच्छा महाराज, यदि सायण ही मैक्समूलर हुए हैं तो पवित्र भूमि भारत को छोड़कर उन्होंने म्लेच्छ बनकर क्यों जन्म लिया ?
स्वामीजी - ' हम आर्य हैं ', 'वे म्लेच्छ हैं', आदि विचार अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं। जो वेद के भाष्यकार हैं, जो ज्ञान की तेजस्वी मूर्ति हैं, उनके लिये वर्णाश्रम या जातिविभाग कैसा ? उनके सामने यह सब अर्थहीन है। मानवजाति के कल्याण के लिये वे जहाँ चाहें जन्म ले सकते हैं । विशेषकर जिस देश में विद्या और धन दोनों हैं यदि वे वहाँ जन्म नहीं लेते, तो इतना बड़ा ग्रन्थ छापने का खर्च कहाँ से आता ? क्या तुमने नहीं सुना कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस ऋग्वेद को छपवाने के लिये ९ लाख रूपये नक़द दिये थे, परन्तु उससे भी काम पूरा नहीं हुआ। भारत के सैकड़ों वैदिक पण्डितों को मासिक वेतन देकर इस कार्य में नियुक्त किया गया था। विद्या और ज्ञान के निमित्त इतना व्यय और ऐसी प्रबल ज्ञान-तृष्णा वर्तमान समय में क्या किसी देश में देखी  है। इसकी भूमिका में मैक्समूलर ने लिखा है कि उन्हें २५ वर्ष तो केवल इसे लिखने में ही लगे और फिर छपवाने में २० वर्ष और लगे। ४५ वर्ष तक एक ही पुस्तक में लगे रहना क्या साधारण मनुष्य का कार्य है ? इसीसे समझ लो कि मैं उनको स्वयं सायण क्यों कहता हूँ ?
इस वार्तालाप के बाद पुनः ग्रंथपाठ होने लगा- प्रसंग था, 'वेद का आश्रय लेकर ही सृष्टि का विकास हुआ है।'  यह जो सायण का मत है, इसका समर्थन स्वामीजी ने नाना प्रकार से किया और कहा, 'Veda means the sum total of eternal truths' " वेद का अर्थ है- अपरिवर्तनशील सत्यों का समूह। वैदिक ऋषियों ने जिन शाश्वत सत्यों को प्रत्यक्ष किया था; उनका अनुभव केवल वैसे ऋषि ही कर सकते हैं जिनको अतीन्द्रिय दृष्टि प्राप्त हो जाती है, हमारे जैसे साधारण मनुष्य उनका अनुभव नहीं कर पाते। (क्योंकि ऋषि बनने के लिये पहले चरित्रवान मनुष्य बनना आवश्यक होता है, वर्ना लोग कहेंगे जिसे आप भगवान मानते हैं, वो तो एक अच्छा इंसान भी नहीं है। )
इसी कारण वैदिक ऋषि को "the seer of the truth of the Mantras" मन्त्र के अर्थ का द्रष्टा कहा जाता है; कोई भी ब्राह्मण (जिसे 'मैं ब्रह्म हूँ ' के अर्थ का अनुभव नहीं हुआ किन्तु) जिसके गले जनेऊ लटका हो, उसे हम ऋषि की उपमा नहीं दे सकते। समाज के अन्दर ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र आदि  की वर्ण-व्यवस्था, या जाति विभाग वेदों के बाद आया है। वेद-मंत्र (सो Sहम् आदि महावाक्य E=M के जैसा) अनन्त भावों की समष्टि को शब्दों में व्यक्त करने की चेष्टा मात्र है।
'शब्द' पद का प्राचीन वैदिक अर्थ है - वह सूक्ष्म भाव, जो बाद में अपने को स्थूल  रूप में व्यक्त करता है। इसीलिये महाप्रलय के समय भावी सृष्टि का सूक्ष्म बीज समूह वेदों में ही कुण्डलित रहता है। इसी कारण पुराणों में सबसे पहला अवतार 'मत्स्यावतार ' का उल्लेख मिलता है-  " ब्रह्म नामक नैमित्तिक प्रलय होने के कारण सारा लोक समुद्र मे डूब गया। श्री हरि ने हयग्रीव की चेष्टा जान ली और वेदों का उद्धार करने के लिए मत्स्यावतार ग्रहण किया।" प्रथमावतार में ही वेदों का उद्धार हो गया था !
[ बह्माजी के सोने का जब समय आ गया और उन्हें नींद आने लगी, उस समय वेद उनके मुख से निकल पड़े और उनके पास ही रहने वाले हयग्रीव नामक दैत्य ने उन्हें चुरा लिया। दैत्यों ने सोचा कि देवता लोग वेद मंत्रों के बल से प्रबल प्रतीत होते हैं। अतः मैं वेदों का अपहरण करूंगा। ऐसा निश्चय  करके उसने वेदों को हर लिया। ब्रह्माजी कार्तिक मास की प्रबोधनी एकादशी को भगवान की शरण में गये  भगवान ने उन्हें आश्वासन  दिया कि वे वेदों का उद्धार करेंगे और मछली के समान रूप धारण करके आकाश  मार्ग से वे विन्ध्य पर्वत निवासी कश्यप  मुनि की अंजलि में जा गिरे। मुनि ने उसे करूणवश क्रमशः कमंडल, कूप, सर, सरिता, आदि अनेक स्थानों में रखते हुए अंत में उसे समुद्र में डाल दिया। वहां भी वह बढ़कर विशालकाय हो गया। तदनन्तर उन मत्स्य-रूपधारी भगवान ने शंखासुर (हयग्रीव)  का बध किया और उसे हाथ में लिए बदरीवन में गए। वहां समस्त ऋिषियों को बुलाकर आदेश  दिया कि जल के भीतर बिखरे हुए वेदों की खोज करो और रहस्य सहित उनका पता लगाकर शीघ्र ले आओ। तब अपने अपने तेज बल से संपन्न समस्त ऋिषियों ने यज्ञ और बीज सहित वेदमंत्रों का उद्धार किया। जिस वेद के जितने मंत्रों को जिस ऋिषि ने उप्लब्ध किया, वही उतने भाग का तबसे ऋिषि माना जाने लगा। ब्रह्मा समेत सब ऋिषियों ने आकार प्राप्त किए हुए वेदों को भगवान को अर्पण कर दिया। (पद्म पुराण)
फिर उसी वेद से क्रमशः सृष्टि का विकास होने लगा। या दूसरे शब्दों में कहें तो वेद मंत्रों के शब्दों (नाम) में निहित भावों के अर्थानुसार सभी निर्मित वस्तुओं ने एक एक करके स्थूल आकार (रूप) लेना शुरू कर दिया। क्योंकि शब्द (नाम या भाव) ही सभी स्थूल पदार्थों (gross objects) के सूक्ष्म रूप (subtle forms) हैं। पूर्व समस्त कल्पों (previous cycles or Kalpas.) में भी इसी क्रमानुसार सृष्टि हुई थी, यह बात हमलोग वैदिक सन्ध्या-मंत्र में देख सकते हैं। वहाँ ऋषि कहते हैं -  

" सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ,
पृथिवीं दिवं चान्तरीक्षमथो स्वः। 
प्रजा: सृज यथापूर्वं याश्रच् मय्यनुशेरते । ससर्जेदं स पूर्ववत ॥ 
  
- विधाता ने सृष्टि को प्रक्षेपित (projected) किया है, विश्व-ब्रह्माण्ड का सृजन (created) नहीं किया है । भगवान ने या परमात्मा ने सूरज, चाँद, पृथ्वी, आकाश, उच्चतर वायु मण्डल और स्वर्ग आदि को पूर्व कल्पों के अनुरूप एक ही तरीके और प्रक्रिया के अनुसार प्रक्षेपित कर दिया है। "क्या तुम समझते हो भई, प्रक्षेपित करना क्या है?
(अर्थात अनादिकाल के हमारे कर्मों के द्वारा महाप्रलय में हमारी जो स्थिति थी वैसे ही सृष्टि प्रकट कर दिये! भगवान् ने अपनी जेब से निकाल कर कुछ बनाया वनाया नहीं है, जैसे सृष्टि पहले थी वैसे ही प्रकट कर दिया है। हम साधारण लोग (जो पुनर्जन्म में विश्वास करने के बाद भी यज्ञोपवीत के समय दिये जाने वाले संध्या -मंत्र का अर्थ नहीं जानते) समझते हैं कि भगवान् ने जब संसार बनाया  तो एक को मनुष्य बना दिया , एक को गधा बना दिया,  एक को कुत्ता बना दिया । ऐसा क्यों ? कोई जलचर, कोई भूचर, कोई खेचर, कोई स्वेदज, कोई अण्डज, कोई उदभिज, कोई जरायुज ये तमाम प्रकार का सृष्टि का वैषम्य चौरासी लाख योनियों का, ऐसा क्यों ? उस जीव ने क्या गुनाह किया था ? अभी तो सृष्टि शुरू हुई है। उन्होंने तो प्रकट किया है- ‘यथपूर्वम’ । इसलिये न वैषम्य है न ‘नैर्घृण्य’ है।
निर्दयी नहीं हैं भगवान। वो तो समदर्शी है । वह  भगवान, परमात्मा या ब्रह्म स्वयं  सत् चित् आनन्द स्वरूप होकर भी अनेकों रूप धारण कर लेते हैं । फिर दूसरे को भी अपने समान बना देता है । लेकिन जीव की पर्सनैलिटी सदा रहती है। जीव बह्रा नहीं बन सकता । संसार का प्राकट्य करना , संसार का रक्षण करना, प्रलय करना ये तमाम कार्य भगवान् स्वयं करते हैं । हां अपना अपना ज्ञान, अपना आनन्द ये सब कुछ दे देते हैं । -श्रीकृपालु जी महाराज)
शिष्य - परन्तु महाराज, जब पहले से ही कोई वास्तविक ठोस वस्तु (रूप) न रही  हो, तो शब्द (नाम) किसके लिये और कैसे प्रयोग किये जा सकते हैं ? और जिन पदार्थों को हमने पहले कभी देखा ही नहीं हो, उसे कोई नाम कैसे दे सकते हैं ?
स्वामी जी-  हाँ, ऊपरी तौर पर देखने से ऐसा ही लगता है। (नवनी दा से मैंने १९९७ में पूछा था मिट्टी को मिट्टी या पत्थर को पत्थर सबसे पहले इस नाम से किसने पुकारा था ? दादा बोले कुछ लोग ऐसे होते हैं जो धरती में कान लगाकर उसके नाम को सुन  सकते हैं ! ) परन्तु देखो यह जो घट है, इसके टूट जाने पर क्या इसके घटत्व का भी नाश हो जायगा ? नहीं, क्योंकि यह घट तो स्थूल कार्य (effect) है, परन्तु घटत्व घट की सूक्ष्म अवस्था या शब्दावस्था (कारण) है। ठीक उसी प्रकार सभी पदार्थों की शब्दावस्था ही उनकी सूक्ष्मावस्था है, और जिन वस्तुओं को हम देखते, सुनते, स्पर्श करते, या किसी भी तरीके से महसूस (perceive) करते हैं, वे ऐसी सूक्ष्म या शब्दावस्था में अवस्थित पदार्थों की स्थूल अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं -जैसे कार्य (रूप) और उसका कारण (नाम) ! यहाँ तक कि जब सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड विलोपित (लय) हो जाता है, उस समय भी ब्रह्माण्ड की चेतना अथवा समस्त स्थूल पदार्थों की सूक्ष्म यथार्थता (स्वरुप) या जगत बोधात्मक शब्द- ' ॐ ' ब्रह्म के भीतर कारण रूप से वर्तमान रहते हैं। 
'creative manifestation' के पूर्व ' this sum total of causal entities vibrates into activity' अर्थात 'सृजनात्मक अभिव्यक्ति बिन्दु' अथवा जगत के विकास या प्रक्षेपण से पूर्व  इन पदार्थों की सूक्ष्मस्वरूप समष्टि या कारणात्मक सत्ताओं की समष्टि क्रियाशीलता के रूप में कम्पायमान होने लगती है।  तथा उसी का प्रकृतिस्वरूप शब्द-गर्भात्मक अनादि (eternal) एवं मौलिक (primal) नाद, 'ॐ' -कार अपने आप ही उठता रहता है।  उसके बाद उसी कारण स्वरुप समष्टि से प्रत्येक पदार्थ-विशेषों की प्रथम सूक्ष्म छवि (subtle image) अर्थात शाब्दिक रूप और तत्पश्चात उनका स्थूल रूप प्रकट होता है। वही कारण-शब्द या शब्द-चैतन्य ही ब्रह्म हैं, यह शब्द ही वेद है ! यही सायण का अभिप्राय है, समझे ? 
शिष्य - महाराज, ठीक समझ में नहीं आया ।
स्वामी जी - इतना तो समझ गये कि जगत में जितने घट हैं, उन सबके नष्ट होने पर भी ' घट ' शब्द रह सकता है। उसी प्रकार जगत का नाश हो जाने पर पर, अर्थात जिन वस्तुओं (महत तत्व या पंचभूतों+प्राण) की समष्टि से जगत बना है, उनके नाश होने पर भी - चेतना में उन सभी पदार्थों के प्रतिनिधित्व करने वाले, या उन पदार्थों के बोध कराने वाले शब्द क्यों नहीं रह सकते हैं? और समय आने पर उनसे पुनः सृष्टि क्यों नहीं प्रकट हो सकती ? 
शिष्य - परन्तु महाराज, ' घट घट ' चिल्लाने से तो घट नहीं बनता है। 
स्वामीजी - तेरे या मेरे इस प्रकार चिल्लाने से नहीं बनते, किन्तु सिद्धसंकल्प ब्रह्म में घट की स्मृति होते ही घट का प्रकाश हो जाता है। जब साधारण धर्म-अभ्यासी (मनःसंयोग में प्रतिष्ठित) की इच्छा-शक्ति से अघटन घटित हो जाता है, तब सिद्ध-संकल्प ब्रह्म का तो कहना ही क्या ! सृष्टि से पूर्व ब्रह्म पहले शब्दात्मक (सूक्ष्मभाव-नाम) बनते हैं, फिर ॐ-कारात्मक या नादात्मक रूप धारण करते हैं, तत्पश्चात पूर्व कल्पों के विशेष विशेष शब्द जैसे भूः, भुवः, स्वः अथवा गो, मानव, घट, पट इत्यादि का प्रकाश उसी ओंकार से होता है। पूर्ण इच्छा-शक्ति से सम्पन्न ब्रह्म, या सिद्ध-संकल्प ब्रह्म में जैसे ही कोई भाव (नाम) उठता है, तदनुरूप (corresponding) स्थूल पदार्थ (रूप) भी प्रकट हो जाता है, इसी प्रकार क्रमशः विविधता-पूर्ण जगत अभिव्यक्त होता चला जाता है। अब तो समझे न कि कैसे शब्द ही सृष्टि का मूल है ?
शिष्य - हाँ, महाराज, समझ में तो आया, किन्तु ठीक धारणा नहीं होती। 
स्वामी जी - अरे बेटे ! ब्रह्मस्वरूपता की आन्तरिक अनुभूति (inward realisation) उसकी स्पष्ट अवधारणा होना क्या इतना सुगम समझता है ? जब मन (अहं) ब्रह्म में स्वयं को लीन करने के लिये आगे बढ़ता है, वह एक एक करके ऐसी समस्त अवस्थाओं में से गुजरता है और अन्त में निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त होता है। समाधि में प्रविष्ट होने की प्रक्रिया में, सर्व प्रथम ब्रह्माण्ड (सूर्य-चन्द्र आदि अत्यन्त द्रुत गति के साथ परिवर्तित होता हुआ) विचारों का एक समूह प्रतीत होता है, तत्पश्चात समस्त वस्तुएं (ज्ञाता) स्वयं को ॐ (ज्ञेय-ज्ञान स्वरुप परमात्मा) के अथाह महासागर में खो देता है। तत्पश्चात मैं-पन भी पूरी तरह से पिघल जाता है, वह है भी या नहीं इस पर सन्देह होने लगता है। यही उस अपरिवर्तनशील नाद-ब्रह्म की अनुभूति है ! इस अवस्था से आगे ही मन (अहं) ब्रह्म की सत्यता में लीन हो जाता है! बस, सब निर्वाक, स्थिर, निश्चल, परमानन्द, परम शान्ति ! 
स्वामीजी की बातों को सुनकर शिष्य मूक होकर बैठ गया, और सोचने लगा जिस प्रकार स्वामीजी समाधी अवस्था का वर्णन कर रहे है, उसे समझा रहे हैं- उस अनुभव से स्वयं गुजरे बिना दूसरा कोई वैसी व्याख्या नहीं कर सकता ! 
स्वामीजी ने फिर कहा, " अवतारतुल्य महापुरुष (ईश्वर-कोटि ?) लोग समाधि अवस्था से जब ' मैं ' और ' मेरा' के राज्य में लौट आते हैं, तब वे प्रथम ही अव्यक्त नाद का अनुभव करते हैं। फिर नाद के स्पष्ट होने पर ओंकार का अनुभव करते हैं। ओंकार के पश्चात् शब्दमय जगत (क्या हुआ, उठो उठो !) का अनुभव कर अन्त में स्थूल पंचभौतिक जगत को प्रत्यक्ष देखते हैं।
(रोहनिया उंच, से कबीर चौरा अस्पताल का दृश्य ?) किन्तु साधारण साधक लोग (जीव कोटि) अनेक कष्ट सहकर यदि किसी प्रकार नाद के परे पहुँचकर ब्रह्म की साक्षात् उपलब्धि कर भी लें, तो फिर जिस अवस्था में स्थूल जगत का अनुभव होता है, वहाँ वे उतर नहीं सकते -(शरीर अहं में लौट नहीं सकते ?) -ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं-क्षीरे नीरवत्, दूध में जल के समान। " स्वामीजी द्वारा कथित वेदोक्त ज्ञान की महिमा से शिष्य इतना मोहित हो गया कि अब उसकी नजर में भक्ति-कर्म- मनःसंयोग का कोई महत्व नहीं रह गया। 
गिरीश बाबू ने शिष्य को ज्ञान-भक्ति-कर्म का समान महत्व समझाने के लिये स्वामी जी से कहा, " हाँ जी नरेन्द्र, तुम्हें एक बात सुनाऊँ ? वेद-वेदान्त तो तुमने इतना पढ़ लिया, परन्तु देश में जो घोर हाहाकार, अन्नाभाव, व्यभिचार, भ्रूण हत्या, तथा अन्य महापातक आँखों के सामने रत-दिन हो रहे है, उन्हें दूर करने का भी कोई उपाय क्या तुम्हारे वेद में बतलाया गया है ?
आज तीन दिन से अमुक की गृहणी का, जिसके घर में पहले प्रतिदिन ५० लोग खाते थे, चूल्हा नहीं जला है। अमुक घर की कुल-बधुओं को गुण्डों ने अत्याचार करके मार डाला, कहीं भ्रूण हत्या हुई, कहीं विधवाओं को छल-कपट करके लूट लया गया है- इन सब अत्याचारों को रोकने का कोई उपाय क्या तुम्हारे वेद में है ? " इस प्रकार जब गिरीश बाबू समाज के भीषण चित्रों को एक के बाद एक सामने लाने लगे तो स्वामीजी निस्तब्ध होकर बैठ गए। जगत के दुःख-कष्टों को सोचते सोचते स्वामीजी की आँखों से आँसू टपकने लगे, और इसके बाद वे उठकर बाहर चले गये, मानो वे हमसे अपने मन की अवस्था छिपाना चाहते हों। 
गिरीश बाबू बोले- ' देखो, स्वामीजी कितने उदार ह्रदय हैं ! मैं तुम्हारे स्वामीजी का आदर केवल इसी कारण नहीं करता कि वे वेद-वेदान्त के एक बड़े पण्डित हैं; वरन उनकी इसी महाप्राणता के कारण उन पर श्रद्धा करता हूँ। देखो न, जीवों के दुःख से वे कैसे रो पड़े और रोते रोते बाहर चले गये। मनुष्यों के दुःख और कष्टों की बातें सुनकर उनका ह्रदय दया से पूर्ण हो गया और वेद-वेदान्त न जाने कहाँ भाग गये ! ' 
शिष्य- महाशय, हम कितने प्रेम से वेद पढ़ रहे थे ! आपने मायाधीन जगत की ऐसी-वैसी बातें सुनाकर क्यों स्वामीजी का मन दुख दिया ? 
गिरीश बाबू- क्या जगत में ऐसे दुःख और कष्ट रहते हुए भी स्वामीजी उधर न देखकर एकान्त में केवल वेद ही पढ़ते रहेंगे ? उठाकर रख दो अपने वेद-वेदान्त को। 
शिष्य - आप स्वयं हृदयवान हैं, इसीसे केवल ह्रदय की भाषा सुनने में आप की प्रीति है, परन्तु इन सब शास्त्रों से जिनके अध्यन से लोग जगत को भूल जाते हैं, आपकी प्रीति नहीं है। अन्यथा आपने ऐसा रंगभंग न किया होता। 
गिरीश बाबू - अच्छा ज्ञान और प्रेम में भेद कहाँ है, यह मुझे समझा दो । देखो तुम्हारे गुरु स्वामीजी जैसे पण्डित हैं, वैसे ही प्रेमी भी हैं। तुम्हारा वेद भी तो कहता है कि 'सत-चित -आनन्द ' ये तीनों एक ही वस्तु है। देखो स्वामीजी कितना अभी कितना पाण्डित्य दिखा रहे थे, परन्तु जगत के दुःख की बात सुनते ही और उन क्लेशों का स्मरण आते ही वे जीवों के दुःख में रोने लगे। यदि वेद-वेदान्त में ज्ञान और प्रेम में भेद दिखलाया गया है, तो मैं ऐसे शास्त्र को दूर से ही दण्डवत करता हूँ।
 शिष्य निर्वाक होकर सोचने लगे -' बिल्कुल ठीक, गिरीश बाबू के सब सिद्धान्त यथार्थ में वेदों के अनुकूल ही हैं।'इतने में स्वामीजी वापस आये और शिष्य को सम्बोधित करके उन्होंने कहा, ' कहो, क्या बातचीत हो रही थी ?'
 शिष्य ने उत्तर दिया, ' वेदों का ही प्रसंग चल रहा था। गिरीश बाबू ने इन ग्रंथों को नहीं पढ़ा है, परन्तु इनके सिद्धान्तों का ठीक ठीक अनुभव कर लिया है । यह बड़े विस्मय की बात है ! ' 
स्वामीजी - जिसमें सच्ची गुरुभक्ति होती है उसके समक्ष समस्त सत्य स्वयं  प्रकट हो जाते हैं। फिर पढ़ने या सुनने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, किन्तु अपने गुरु में ऐसी भक्ति और विश्वास जगत में दुर्लभ हैं। जिनको गिरीश बाबू के समान अपने गुरु में भक्ति और विश्वास मिला है, उन्हें शास्त्रों को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं, किन्तु गिरीश बाबू की नकल करना औरों के लिये हानिकारक है। उनकी बातों को मानो, पर उनके आचरण देखकर कोई कार्य न करो। 
शिष्य- जी महाराज । 
स्वामीजी- केवल 'जी' कहने से काम नहीं चलता। मूर्खों की तरह हर बात पर 'जी' मत करो, मैं जो कहता हूँ पहले उसके तात्पर्य को ठीक ठीक समझो। मेरे कहने से ही किसी बात पर विश्वास न किया करो। जब ठीक समझो तभी उसको ग्रहण करो । श्री रामकृष्ण ने अपनी सब बातों को समझकर ग्रहण करने को मुझसे कहा था । युक्ति-तर्क और शास्त्र जो कहते हैं, उन पर कसने के बात ही उसको ग्रहण करना। सतत चिन्तन-मनन करते रहने से बुद्धि निर्मल होती है, और फिर उसी बुद्धि में ब्रह्म का प्रकाश होता है। समझे न? 
शिष्य - जी हाँ; परन्तु भिन्न भिन्न लोगों की अलग अलग मतों को सुनने से मस्तिष्क मस्तिष्क ठीक नहीं रहता। गिरीश बाबू ने कहा, ' क्या होगा यह सब वेद वेदान्त को पढ़ने से ? फिर आप कहते हैं -तुम जो कुछ भी पढ़ो या सुनो उस पर मनन करो । अब मुझे क्या करना चाहिये ?
स्वामीजी - मेरी और उनकी दोनों बातें सत्य हैं; परन्तु दोनों की युक्ति दो भिन्न दृष्टिकोण से आई है-बस। एक व्यक्ति की अवस्था ऐसी है, "मूकास्वादनवत् - मानो किसी गूँगे व्यक्ति ने गुड़ खाया पर उसके स्वाद को अभिव्यक्त करने में असमर्थ है !" ( जब स्वयं आत्मा ही किसी को अनायास चयन कर लेती है) जहाँ युक्ति या तर्क का अन्त हो जाता है । 
अन्य व्यक्ति के आध्यात्मिक जीवन में एक दूसरी अवस्था भी हो सकती है, जहाँ किसी साधक को वेदादि शास्त्रों की आलोचना या पठन-पाठन करते करते ही सत्य वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान हो पाता है। तुम्हे अध्यन और गहन चिन्तन-मनन करते हुए ही आगे बढ़ना होगा, तुम्हारे लिये आत्मानुभूति करने का यही सही मार्ग है। समझते हो न ? 
निर्बोध शिष्य ने, अपने लिए स्वामीजी के इस आदेश को सुनकर यह समझा कि गिरीश बाबू परास्त हो गये हैं, उनकी ओर देखकर कहा, ' महाशय, सुना आपने ? स्वामीजी ने मुझे वेद-वेदान्त के पठन-पाठन और विचार करने का ही आदेश दिया है। '
गिरीश बाबू- हाँ, तुम ऐसा ही करते जाओ। स्वामीजी के आशीर्वाद से तुम्हारा सब काम इसीसे ठीक होगा। 
इसी समय स्वामी सदानन्द वहाँ आ पहुँचे ; उनको देखते ही स्वामीजी ने कहा, " अरे, जी० सी ० से देश की दुर्दशाओं को सुनकर मेरे प्राण बड़े व्याकुल हो रहे हैं । देश के लिये क्या तुम कुछ कर सकते हो ? (केवल देश के लिये ही जी सकते हो ? )
स्वामीजी - पहले एक छोटा सा सेवाश्रम स्थापित करो, जहाँ से सब दीन -दुःखियों को सहायता मिला करे और जहाँ रोगियों ( भवरोग ?) तथा असहाय लोगों की बिना जाति या धर्म भेद के सेवा हुआ करे । समझे ?
सदानन्द - जो महाराज की आज्ञा।
स्वामी जी - ** जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। यदि कोई व्यक्ति पूरी निष्ठा के साथ इस 'Be and Make' रूपी सेवा-धर्म का अनुष्ठान (महामण्डल कैम्प) करने का प्रयत्न करेगा तो उसका संसार बंधन सुगमता से छिन्न हो जायगा -हाथ पर रखे आँवले के समान ' मुक्तिः करफलायते'। There is no greater Dharma than this service of living beings. If this Dharma can be practiced in the real spirit, then " मुक्तिः करफलायते — Liberation comes as a fruit on the very palm of one's hand".
अब गिरीश बाबू से कहने लगे, " देखो गिरीश बाबू, लगता है कि यदि जगत के दुःख को दूर करने के लिये मुझे सहस्रों बार जन्म लेना पड़े, तो भी तैयार हूँ ! इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो, तो वह मैं करूँगा। और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा ? सबको अपने साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा। क्या तुम बता सकते हो कि ऐसे भाव मेरे मन में क्यों उठते हैं ? 
गिरीश बाबू- यदि ऐसा न होता तो श्रीरामकृष्ण तुम्हीं को सबसे ऊँचा आधार क्यों कहते ? 
यह कहकर गिरीश बाबू अन्य किसी कार्य के लिये चले गये। 
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७.३  ***" धन्य हैं वे, जो अपने शरीर को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं।"
स्वामी जी का उपरोक्त तात्विक दर्शन उनके ' पराभक्ति व्याख्यान माला ' ' Universal love and how it leads to self surrender ' ' विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय' ४/५६ : में प्राप्त होता है। 
समष्टि (the universal-ब्रह्म श्रीरामकृष्ण) से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि (उसकी सन्तानों) से प्रेम कैसे कर सकते हैं ? ईश्वर (ब्रह्म) ही वह समष्टि है, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को यदि अखण्ड रूप से चिन्तन किया जाय, तो वही ईश्वर है, और उसे पृथक पृथक रूप से देखने पर वही यह दृश्यमान संसार है-व्यष्टि है। समष्टि वह इकाई है, जिसमें लाखों छोटी छोटी इकाईओं का योग है। इस समष्टि के माध्यम से ही सारे विश्व को प्रेम करना सम्भव है। भारतीय दार्शनिक व्यष्टि (The particularised thing, M/F) पर ही नहीं रुक जाते; वे तो व्यष्टि पर एक सरसरी दृष्टि डालकर तुरन्त एक ऐसे व्यापक या समष्टि भाव की खोज में लग जाते हैं, जिसमें सब व्यष्टियों या विशेषों का अन्तर्भाव हो। इस समष्टि की खोज ही भारतीय दर्शन और धर्म का लक्ष्य है। 
ज्ञानी पुरुष (ज्ञान पिपाशु सत्यार्थी) ऐसे एक समष्टि (wholeness of things) की, ऐसे एक निरपेक्ष (absolute) और व्यापक तत्व (generalised Being-श्रीरामकृष्ण) की कामना करता है, जिसे जानने से वह सब कुछ जान सके। 
भक्त उस एक सर्वव्यापी पुरुष (ठाकुर देव) की साक्षात् उपलब्धि कर लेना चाहता है, जिससे प्रेम करने से वह सारे विश्व से प्रेम करने की पात्रता अर्जित कर सके।  
योगी उस मुलभुत शक्ति (one generalised form of power) को अपने अधिकार में लाना चाहता है, जिसके नियमन से वह इस सम्पूर्ण विश्व का नियमन कर सके। यदि हम भारतीय चिन्तन प्रणाली के इतिहास का अध्यन करें, तो देखेंगे कि भारतीय मन सदा से हर विषय में - भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान, भक्ति तत्व, दर्शन आदि सभी में-- एक समष्टि या व्यापक तत्व की इस अपूर्व खोज में लगा रहा है। 
इसलिए भक्त इस निष्कर्ष पर पहुँचता है, कि यदि तुम एक के बाद दूसरे व्यक्ति से प्रेम करते चले जाओ, लगातार अपने प्रेम के पात्र को बदलते चले जाओ, तो भी अनन्त काल में भी संसार को एक समष्टि के रूप में प्यार करने में प्यार करने में समर्थ न हो सकोगे। पर अन्त में जब यह मूल सत्य ज्ञात हो जाता है कि समस्त प्रेम की समष्टि ईश्वर है (sum total of all love is God या समस्त सत्यों का सार प्रेम है !), संसार के मुक्त, बद्ध या मुमुक्षु (struggling towards liberation) सारे जीवात्माओं की आदर्श समष्टि ही ईश्वर (श्रीरामकृष्ण) है, तभी यह विश्व-प्रेम सम्भव होता है। ईश्वर (ठाकुर) ही समष्टि है और यह परिदृश्यमान जगत उसी का परिच्छिन्न भाव है, उसी की अभिव्यक्ति है। यदि हम इस समष्टि -(ब्रह्मस्वरूप श्रीरामकृष्ण) को प्यार करें, तो इससे सभी को प्यार करना हो जाता है। तब जगत को प्यार करना और उसकी भलाई करना सहज हो जाता है। ' it is no joke to do good to the world' किन्तु पहले भगवत्-प्रेम (ठाकुर का नाम जप) के द्वारा हमें यह शक्ति प्राप्त कर लेनी होगी, अन्यथा संसार की भलाई करना (भारत का कल्याण -बनो और बनाओ!) कोई हँसी-खेल नहीं है। 
भक्त कहता है, " सब कुछ उसीका है, वह मेरा प्रियतम है, मैं उससे प्रेम करता हूँ।" इस प्रकार भक्त को सब कुछ पवित्र प्रतीत होने लगता है, क्योंकि वह सब आखिर उसी का तो है ! सभी उसी की सन्तान हैं, उसके अंगस्वरूप हैं, उसी की प्रतिमूर्तियाँ हैं-तब फिर हम किसी को चोट कैसे पहुंचा सकते हैं !? फिर हम दूसरों को बिना प्यार किये कैसे रह सकते हैं ? भगवान (सत्य) के प्रति प्रेम के प्राप्त होते ही, उसके निश्चित परिणामस्वरूप उसके सभी बन्दे के प्रति, सर्व भूतों के प्रति प्रेम अवश्य आयेगा। हम ईश्वर के जितने समीप आते हैं, उतने ही अधिक स्पष्ट रूप से देखते हैं, कि सब कुछ उसी में अध्यस्त है! जब जीवात्मा इस परम प्रेमानन्द को आत्मसात करने में सफल होती है, तब ईश्वर को सर्व भूतों में देखने लगती है।
इस प्रकार हमारा हृदय प्रेम का एक अनन्त स्रोत बन जाता है। फिर जब हम इस प्रेम की और भी उच्चतर अवस्थाओं में कदम रखते हैं, तब संसार की वस्तुओं में क्षुद्र भेद की भावनाएँ हमारे हृदय से सर्वथा लुप्त हो जाती हैं। तब मनुष्य मनुष्य (नर) के रूप में नहीं दीखता, वरन साक्षात ईश्वर (नारायण) के रूप में ही दीख पड़ता है; पशु में पशु-रूप नहीं दिखायी पड़ता, वरन उसमें भी स्वयं भगवान ही दीख पड़ते हैं; यहाँ तक कि ऐसे प्रेमी की आँखों से बाघ-रूप लुप्त हो जाता है, और उसमें स्वयं भगवान प्रकाशमान दीख पड़ता है। इस प्रकार भक्ति की इस प्रगाढ़ अवस्था में सभी प्राणी हमारे लिये उपास्य हो जाते हैं। श्री विष्णु पुराण में प्रह्लाद जी के चरित्र का उदाहरण देते हुए कहा गया है -

एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी । 
कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम् ॥९॥ 

' हरि को सब भूतों में अवस्थित जानकर ज्ञानी को सब प्राणियों के प्रति अव्यभिचारिणी भक्ति (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परम-प्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना ‘अव्यभिचारिणी’ भक्ति है) रखनी चाहिये।' 
इस प्रगाढ़, सर्वग्राही प्रेम के फलस्वरूप पूर्ण आत्मसमर्पण की अवस्था उपस्थित होती है। तब यह दृढ विश्वास हो जाता है कि संसार में भला-बुरा जो कुछ होता है, कुछ भी हमारे लिये अनिष्टकर नहीं होता। शास्त्रों ने इसी को 'अप्रातिकूल्य' कहा है। ऐसे अनन्य प्रेमी के जीवन में जब कोई दुःख आता है, तो कहता है - " दुःख ! स्वागत है तुम्हारा।" यदि कष्ट आये, तो कहेगा, " आओ कष्ट ! स्वागत है तुम्हारा। तुम भी तो मेरे प्रियतम के पास से ही आये हो । " यदि सर्प आये तो कहेगा," विराजो, सर्प!" यहाँ तक कि मृत्यु भी आये, तो वह अपने अधरों पर मुस्कान लिये उसका स्वागत करेगा। " धन्य हूँ मैं, जो ये सब मेरे पास आते हैं; इन सबका स्वागत है।" 
इस पूर्ण निर्भरता की अवस्था में, भगवान (श्री रामकृष्ण) और जो उनकी संतानें हैं, उन सबके प्रति प्रगाढ़ प्रेम में की खुमारी में भक्त स्वयं को प्रभावित करने वाले गम और ख़ुशी के फर्क को महसूस नहीं कर पाता। इसलिये दुःख-कष्ट आने पर वह तनिक भी विचलित नहीं होता। जहाँ पहुँचकर गम और ख़ुशी का फर्क महसूस ही नहीं होता, तो वह शिकायत किस बात की करे ? ' प्रेम स्वरुप ठाकुर, तेरी इच्छा पूर्ण हो '-- इस अटल शरणागति को प्राप्त कर लेना, सभी प्रकार की भव्य और वीरतापूर्ण उपलब्धियों से भी सचमुच एक बहुत विलक्षण और बहुमूल्य उपलब्धि है !
अधिकांश मनुष्यों के लिये शरीर ही सब कुछ प्रतीत होता है, देह ही उनकी सारी दुनिया है; दैहिक सुख-भोग ही उनका सर्वस्व है। शरीर और दैहिक-भोग से सम्बन्धित वस्तुओं की पूजा करने का भूत हम सब में प्रविष्ट हो गया है। भले ही हम लम्बी-चौड़ी बातें करें, बड़ी ऊँची ऊँची उड़ानें भरे, किन्तु हमारा आचरण गिद्धों के जैसा है, जो उड़ता तो बहुत ऊँचाई पर है, किन्तु उसकी निगाहें नीचे पड़े हुए सड़े-गले मांस के टुकड़े को ही ढूँढ़ती रहती हैं। उसी प्रकार हमारा मन भी सदा सड़े-गले मांस के टुकड़े में ही पड़ा रहता है।
 हम शेर से अपनी शरीर की रक्षा क्यों करें ? हम उसे शेर को क्यों न दे दें। कम से कम उससे शेर की तृप्ति होगी, और यह कार्य आत्मत्याग और उपासना से अधिक भिन्न न होगा। क्या तुम ऐसे एक भाव की उपलब्धि कर सकते हो, जिसमें स्वार्थ की तनिक भी गन्ध न हो ? क्या तुम अपना अहं-भाव सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर सकते हो ? यह प्रेम-धर्म की वह चोटी है, सिर को चकरा देनेवाली ऐसी ऊँचाई है, जिस पर बहुत थोड़े से लोग ही चढ़ पाते हैं। किन्तु जब तक मनुष्य इस आत्म-बलिदान के लिये सतत तत्पर और सदा तैयार रहने के इस सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाता, वह कभी उत्तम भक्त नहीं बन सकता। हम अपने इस शरीर को अल्प अथवा अधिक समय तक भले ही बनाये रख लें, पर उससे क्या ? हमारे शरीर का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यम्भावी है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं है।  'Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others.' " धन्य हैं वे, जो अपने शरीर को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं।"
' एक साधु पुरुष केवल अपनी सम्पत्ति ही नहीं, वरन अपने प्राण भी दूसरों की सेवा में उत्सर्ग कर देने के लिये, सदैव उद्दत रहता है। इस संसार में जब मृत्यु निश्चित है, तो श्रेष्ठ यही है कि बीमारी से सड़ कर मरने के बजाय, यह शरीर किसी उत्तम कार्य में ही अर्पित हो जाय!' हम भले ही अपने जीवन को पचास वर्ष, या बहुत हुआ तो, सौ वर्ष तक खींच ले जाएँ, पर उसके बाद? उसके बाद क्या होता है? 
जो वस्तु संयोजन से उत्पन्न होती है, वह एक दिन विघटित होकर नष्ट भी होती है। ऐसा समय अवश्य आता है, जब उसे विघटित होना पड़ता है। ईसा, बुद्ध और मुहम्मद सभी दिवंगत हो गये। संसार के सारे महापुरुष और आचार्यगण आज इस धरती से उठ गये हैं। भक्त कहता है, " इस क्षणभंगुर संसार में, जहाँ प्रत्येक वस्तु टुकड़े टुकड़े हो धूल में मिली जा रही है, हमें अपने समय ल सदुपयोग कर लेना चाहिये।" और वास्तव में जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्व भूतों की सेवा में न्योछावर कर दिया जाय। हमारा सबसे बड़ा भ्रम यह है कि हम शरीर हैं, और चाहे जिस प्रकार हो, हमें इसकी रक्षा करनी होगी, इसे सुखी रखना होगा। और यह भयानक देहात्मबुद्धि ही संसार में सब प्रकार के स्वार्थपरता की जड़ है। 
यदि तुम यह निश्चित रूप से जान सको, कि तुम शरीर से बिल्कुल पृथक हो, तो फिर इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं रह जायगा, जिसके साथ तुम्हारा विरोध हो। तब तुम सब प्रकार की स्वार्थपरता के अतीत हो जाओगे। हमें ऐसा रहना चाहिये, मानो हम दुनिया की सारी चीजों के लिये मर गये हों। ' बाज़ार से गुजरा हूँ, खरीद-दार नहीं हूँ ' और वास्तव में यही आत्मसमर्पण है। Let things come as they may. ' जो होने का है, हो!' --यही सच्ची शरणागति है। यही 'तेरी इच्छा पूर्ण हो' का तात्पर्य है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम हर किसी से झगड़ते रहें, गलत कार्यों में संलग्न रहें, पर हर समय यही सोचते रहें, कि हमारी ये सारी कमजोरियाँ और सांसारिक आकांक्षायें भगवान की इच्छा से हो रही हैं। 
हो सकता है कि हमारे स्वार्थपूर्ण प्रयत्नों से भी कुछ भला हो जाय; पर वह ईश्वर देखेगा, उसमें हमारा-तुम्हारा कोई हाथ नहीं। यथार्थ भक्त अपने लिये कभी कोई इच्छा या कार्य नहीं करता। उसके हृदय के अन्तर्तम प्रदेश से तो बस यही प्रार्थना निकलती है, " प्रभो, लोग तुम्हारे नाम पर बड़े बड़े मन्दिर बनवाते हैं, बड़े बड़े दान देते हैं; पर मैं तो निर्धन हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है। अतः मैं अपने इस शरीर को ही तुम्हारे चरणों में अर्पित करता हूँ। मेरा परित्याग न करना, मेरे प्रभो !" जिसने एक बार इस अवस्था का आस्वादन कर लिया है, उसके लिये परमप्रिय श्रीभगवान् के चरणों में ऐसा चिरस्थायी आत्मसमर्पण कुबेर के धन और इन्द्र के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है; नाम-
यश और सुख-सम्पदा की महान आकांक्षा से भी महत्तर है। 
भक्त के शान्त आत्मसमर्पण से हृदय में जो शान्ति आती है, उसकी तुलना नहीं हो सकती, वह बुद्धि के अगोचर है। इस अप्रातिकूल्य अवस्था की प्राप्ति होने पर उसमें किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं रह जाता; और तब फिर स्वार्थ में बाधा देनेवाली कोई वस्तु भी संसार में नहीं रह जाती; (जिसे हटाने के लिये उसे क्रोधित होना पड़े।) इस परम शरणागति (=शान्ति) की अवस्था में (- जहाँ गम और ख़ुशी का फर्क भी महसूस नहीं होता) सब प्रकार की आसक्ति समूल नष्ट हो जाती है। तब रह जाती है, केवल प्रेमात्मिका भक्ति या सर्वभूतों की अन्तरात्मा और आधारस्वरूप उस भगवान (श्रीरामकृष्ण) के प्रति 'all-absorbing love' सर्वग्रासी-प्रेम ! भगवान के प्रति प्रेम की यह आसक्ति ही सचमुच ऐसी है, जो जीवात्मा को नहीं बाँधती, बल्कि उसके समस्त बन्धनों को सफलतापूर्वक छिन्न कर देती है। 
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रविवार, 25 मई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (6) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

' विवेकानन्द - दर्शनम् '
६.  
चिरयुवा (सदा-यविष्ठ) बने रहने का  सुनिश्चित विज्ञान है-' राजयोग विद्या ' ! 
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
[ विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम् ] 
[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]


नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||




[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।]
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६.
ईश्वरो वै यविष्ठः स्यादिति श्रुतिविवेचना । 
युवानो धर्मशीलाः स्युधर्मः शीलस्य भूषणम् ॥ 

1. God is the most youthful --- so holds the Vedas (Rig Veda 1.26.2)

2. ' One should be devoted to religion even in one's youth.' 
 
3. Youths should be righteous, ' be moral, be brave', and learn the right code of conduct ; virtue and righteousness beautify character. 

१. वेदों में कहा गया है - जो (सदा) सर्वस्मिन्काले (यविष्ठ) अतिशय बलवान रहे उसे 'युवा' कहते हैं- " नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः |  अग्ने दिवित्मता वचः ||

२. ' जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील बनना चाहिये । कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ?
३. ' युवाओं को धार्मिक (सदाचारी) बनना चाहिए, ' पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो', तथा न्यायोचित आचार संहिता को सीखो; सद्गुण एवं धार्मिकता चरित्र को अलंकृत करते हैं।
प्रसंग : [१. महामण्डल पुस्तिका "युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द " ऋग वेद ०१.०२६.००२/ २.(वि० सा० ख ६ : वार्ता एवं संलाप : ११)/ ३. ( ५ जनवरी १८९० को इलाहबाद से श्री यज्ञेश्वर भट्टाचार्य को लिखित पत्र)]  
विषयवस्तु :  (६.१ ) युवावर्ग स्वाभाव से ही अतिवादी होता है, जो कुछ करता है उसे अती तक ले जाता है। जिससे प्रेम करता है, अत्यधिक प्रेम करता है; जिस बात से घृणा करता है, अत्यधिक घृणा करता है। यही उनका वैशिष्ट होता है क्योंकि उनके भीतर अनन्त प्राण-उर्जा होती है। किन्तु यही उनकी कमजोरी का कारण भी बन जाती है। कच्चे कोयले में आँच देते समय इतना धुआँ निकलता है, कि आँखें जलने लगती हैं, पर भोजन नहीं पक सकता। किन्तु जब धुआँ निकलना बन्द हो जाता है, और कोयला में आग पकड़ लेता है, केवल तभी खाना पकाया जा सकता है।
'यौवन' (जवानी) जीवन का यह पड़ाव, ही कार्य करने का सही समय है। किन्तु युवावस्था में धुआँ-निकलने की अवधि का अतिक्रमण कर लेना ही सबसे बड़ी समस्या है। और इस समस्या का समाधान है शिव ज्ञान से जीव सेवा ' अर्थात ' Be and Make' के माध्यम से इस कर्म करने में सक्षम जीवन का गठिन कर लेना। 
ऐसा सुगठित और समाजोपयोगी यौवन ही समाज के सभी समुदायों के समस्त प्रकार के आहार्य को पकाने (ग्रहणीय बनाने) वाली अग्नि है। और इस युवा-ऊर्जा से वंचित कोई भी समाज जड़-पर्वत के जैसा गतिशून्य (Stand still) हो जाने को बाध्य है। ' आहार्य ' शब्द का अर्थ केवल खाद्द्य पदार्थ ही नहीं है। जिस किसी वस्तु का आहरण या ग्रहण नहीं करने से, जीवन अप्रगतिशील बन जाता हो, वही है आहार्य ! (जैसे सत्संग या पाठचक्र भी आहार्य है।) कच्चे आहार (खाद्य-पदार्थ) को पका कर ग्रहणीय बनाने के लिये अग्नि आवश्यक होती है। 
इसीलिये वेदों में अग्नि को अन्नपालक कहा गया है। किस प्रकार की अग्नि होनी चाहिये ? जो सर्वदा यविष्ट बनी रहे, वरणीय और तेजःसम्पन्न अग्नि होनी चाहिये ! युवा-संप्रदाय ही समाज का सभी प्रकार से अन्नपालक, अग्निस्वरूप, तेजःसंपन्न, वरणीय हैं। कुशलता पूर्वक कर्म का निष्पादन करने के लिये इस अग्नि की आवश्यकता है। किन्तु यह अग्नि विध्वंश करने वाली अग्नि नहीं होनी चाहिये। चंचलता और अस्थिर यौवन रहने से कार्य का निष्पादन नहीं हो सकता है। जिस प्रकार युवाओं का जीवन चंचल और जोशीला होता है, उसी प्रकार अग्नि की लहलहाती हुई शिखा में सर्वग्रसिता शक्ति होती है। इसीलिये अग्नि का  आह्वान करते हुए - ऋग्वेद संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २६.२ में कहा गया है -
   नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥२॥
- अर्थात सदा तरुण रहने वाले हे अग्निदेव ! आप सर्वोत्तम होता (यज्ञ सम्पन्न कर्ता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर स्तुति वचनो का श्रवण करें॥
क्योंकि नियंत्रण में नहीं रखने से कोई भी शक्ति कार्यकर नहीं होती है। यज्ञ का अर्थ होता है त्याग के द्वारा सम्पादित कर्म। झूठी प्रशंसा या चाटुकारिता के द्वारा युवाजीवन के क्रोध को शान्त करने की चेष्टा से काम नहीं होगा। दीप्तिमान (ओजस्वी) वचनों के द्वारा अग्निस्वरूप युवा-समुदाय को, उनकी अन्तर्निहित शक्ति के संबन्ध में जाग्रत करना होगा। 
आधुनिक युग में भगवान (श्रीरामकृष्ण) सबसे प्रथम युवा नेता थे ; जिन्होंने अपने स्तुति-वचनों से १८ वर्ष के तरुण नरेन्द्र नाथ का जीवन गठित करके उनकी यौवन ऊर्जा को समाजोपयोगी बनाकर चिर युवा स्वामी विवेकनन्द में रूपान्तरित कर दिया था ! जिस उपाय से ईश्वर सदैव युवा रहते हैं, चिरयुवा बने रहने के उपाय का एक सुनिश्चित विज्ञान (Exact Science) है - 'राजयोग विद्या' ! तीनों ऐषणाओं को त्याग कर मनुष्य जिस मानसिक-एकाग्रता का अभ्यास करके ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकता है, युवाओं के लिये उसी सुनिश्चित विज्ञान को महामण्डल के द्वारा " मनः संयोग " के नाम से सरल भाषा में प्रकाशित किया गया है।  
 { महामण्डल पुस्तिका "युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द " }
६.२. ' One should be devoted to religion even in one's youth.' स्वामी जी का उपरोक्त दर्शन 'वार्ता एवं संलाप : ११' कथानक में इस प्रकार मिलता है -
स्वामीजी उत्साही युवकों के सामने सदैव त्याग के उच्च आदर्श रखते थे। बहुधा अविवाहित युवकों को ब्रह्मचर्य और त्याग का उपदेश दिया करते थे। मठ के संन्यासियों से शिष्य ने बहुधा सुना है कि कई भाग्यवान युवकों ने उनके उत्साहपूर्ण वचनों से प्रेरित होकर गृहस्थाश्रम का त्याग करके सन्यासी (लीडर ट्रेनी) बनना चाहा; किन्तु स्वामीजी के गुरुभाइयों ने उनमें से बहुत अनुरोध किया कि इनमें से एक को संन्यास दीक्षा (लीडरशिप ट्रेनिंग) न दी जाय। इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा था, " आह, यदि हमलोग भी पापी, तापी, दिन-दुःखी और पतितों के उद्धारसाधन से इनकार कर दें, तो फिर इस जगत में कौन इनकी देख-भाल करेगा ? तुम इस विषय में किसी प्रकार की बाधा न डालो। "   
'न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशु: (कैवल्योपनिषत् १/२) — न कर्म से, न सन्तान से और न धन से, वरन कुछ असाधारण विरले लोगों (rare ones) ने मात्र त्याग से अमृतत्व प्राप्त किया है। जो ब्रह्मचारी अपनी श्राद्ध क्रिया करने के बाद गंगाजी में पिण्ड आदि डालकर लौट आये, उन्होंने स्वामीजी के चरण कमलों की वंदना की। स्वामीजी आशीर्वाद देते हुए बोले, " तुम मनुष्य जीवन के सर्वश्रेष्ठ व्रत [' Be and Make'] को ग्रहण करने के लिये उत्साहित हुए हो। धन्य है तुम्हारा वंश, और धन्य है तुम्हारी गर्भ-धारिणी माता -' कुलं पवित्रं जननी कृतार्था !'
गीता भी कहती है -"काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु:" -अर्थात ज्ञानी जानते हैं कि कामनाओं के लिये किये गये कर्म का त्याग करना ही संन्यासी जैसा जीवन जीना है। (जो महामण्डल के कर्मी नहीं हैं-जो इस चरित्र-निर्माण आन्दोलन के साथ नहीं जुड़े हैं, उनमें से) कोई कामिनी के दास हैं, कोई अर्थ के, कोई नाम-यश के या विद्या अथवा पाण्डित्य के। इस दासत्व को छोड़ कर बाहर निकलने से ही वे मुक्ति के पथ - " मनुष्य बनो और बनाओ " के पथ पर चल सकते हैं ! 
शिष्य- महाराज क्या संन्यास ग्रहण करने ( या महामण्डल कर्मी बनने) से ही सिद्धि-लाभ होता है ?
स्वामीजी - सिद्धिलाभ होता है या नहीं, यह बाद की बात है। जब तक तुम भीषण संसार की सीमा से बाहर नहीं आते, जब तक वासना के दासत्व को नहीं छोड़ सकते, तब तक भक्ति या मुक्ति की प्राप्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती। ब्रह्मज्ञ के लिये ऋद्धि-सिद्धि बड़ी तुच्छ बात है।
शिष्य- महाराज, क्या संन्यास ग्रहण करने (महामण्डल का लीडर ट्रेनी बनने) के लिये क्या विशेष उम्र होने तक प्रतीक्षा करनी होती है ' is there any special time'? 
स्वामीजी- संन्यास धर्म (बनो और बनाओ) की साधना में किसी प्रकार का कालकाल नहीं है। श्रुति कहती है, "यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्"  —जिस समय भी तुम्हारे मन में भारत-भक्ति सर्वोच्च जीवन लक्ष्य प्रतीत हो, और कामिनी-कंचन से वैराग्य का उदय हो तभी प्रव्रज्या (लीडर ट्रेनी बनना) करना उचित है। 'योगवशिषिठ' में भी है -  
युवैव धर्मशील: स्यात् अनित्यं खलु जीवितम्।
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति॥

अर्थात्- जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील बनना चाहिये । कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ? मृत्यु का पता नहीं कब हो जाये, यह सोचकर जीवन में सबसे पहले से सत्य या ईश्वर की खोज करनी चाहिये।  यह जीवन अनित्य है, यह समझकर युवावस्था से ही धर्म का पालन या ईश्वर की खोज में लग जाना चाहिये।
— "Owing to life itself being frail and uncertain, one should be devoted to religion even in one's youth. For who knows when one's body may fall off?"

विविदिषा संन्यास - आत्म-तत्व को जानने की प्रबल इच्छा ' strong yearning' जिस सत्यार्थी में रहती है, उसे शास्त्र पाठ या साधनादि द्वारा अपना स्वरुप जानने के लिए किसी ब्रह्मज्ञ पुरुष की कृपा अनायास प्राप्त हो जाती है, (यह पूर्व जन्म के संस्कार से ही होता है) और वह संन्यास लेने (लीडर ट्रेनी) का अधिकार प्राप्त कर लेता है।  
 इसी कारण सिद्धार्थ गौतम को योगियों और साधुओं के पास जाने पर भी जब कहीं शान्ति नहीं मिली तब
 ' इहासने शुष्यतु मे शरीरम् '- कहकर आत्मज्ञान लाभ करने के लिये वे स्वयं ही बैठ गये और गौतम-बुद्ध होकर उठे ! 'लीडर ट्रेनी बनने और बनाने' का त्याग-व्रत लेकर महामण्डल आन्दोलन से जुड़कर ब्रह्मज्ञ होना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इस लीडरशिप ट्रेनिंग (वैराग्य) को प्राप्त करना ही परम पुरुषार्थ है। यह वैराग्य उतपन्न होने पर जिनका संसार से अनुराग हट गया है, वे ही धन्य हैं। सच्चे संन्यासी (जो सादा पोशाक में भी महामण्डल-ऋषि हैं) हैं, वे ही गृहस्थों के उपदेशक हैं। उन पवित्र संन्यासियों को देखकर गृहस्थ भी उन पवित्र भावों को अपने जीवन में परिणत करते हैं और ठीक ठीक कर्म -'Be and Make' करने को तत्पर होते हैं। 
शिष्य - महाराज, लोक कल्याण (भारत कल्याण) में तत्पर यथार्थ संन्यासी मिलता कहाँ है ? 
स्वामीजी - आह, यदि हजार वर्ष में भी श्रीरामकृष्ण के समान कोई गृहस्थ संन्यासी जन्म ले लेते हैं तो सब कमी पूरी हो जाती है। वे जिन उच्च आदर्श और भावों को छोड़ जाते हैं, उनके जन्म से सहस्र वर्षों तक लोग उनको ही ग्रहण करते हैं। 
भारतवर्ष में अभी तक इस संन्यास प्रथा [ ' मठवासी शिक्षण संस्थान' (monastic institution-संन्यासी आचार्यों के आश्रम में युवाओं को रख कर 'नेतृत्व का प्रशिक्षण' देने वाली संस्था)] के होने के कारण ही यहाँ उनके सामान महापुरुष जन्म ग्रहण करते हैं। दोष सभी आश्रमों (मनुष्य की आयु को १०० वर्ष मानकर मनुष्य जीवन को जिन चार आश्रमों में बाँटा गया है, उनमें से) में हैं, पर किसी में कम तो किसी में अधिक। दोष रहने पर भी इस आश्रम को अन्य आश्रमों का जो शीर्ष स्थान प्राप्त हुआ है, इसका कारण क्या है ? सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं - जगत के मंगल के लिये ही उनका जन्म होता है। यदि ऐसे संन्यास-आश्रम (गृहस्थ-आश्रम में भी संन्यासी जैसा जीवन जीने वाले श्री नवनीहरण) के भी तुम कृतज्ञ न हो तो तुम्हें धिक्कार है, कोटि कोटि धिक्कार। इन बातों को कहते कहते स्वामीजी का मुखमण्डल प्रदीप्त हो उठा । संन्यास आश्रम के गौरव प्रसंग पर चर्चा करते समय स्वामीजी मानो साक्षात मूर्तिमान संन्यास के रूप में प्रतिभासित होने लगे।
 इस आश्रम की सर्वोच्चता का अनुभव कर मधुर स्वर में शंकराचार्य रचित 'कौपीन पंचकम्' की आवृत्ति करने लगे -(Five Stanzas on the wearer of loin-cloth) जो संन्यासी कमर पर मात्र लंगोट धारण कर विचरण करते हैं- (उन 'तोता पूरी जी' ठाकुर के 'नंगटा गुरु' को समर्पित पाँच छन्द

 
 वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः |
विशोकमन्तःकरणे चरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||१||
 
अद्वैत वेदान्त के उपवन (पंचवटी-दक्षिणेश्वर) में सदैव विचरण करने वाले, भिक्षान्न में जो मिल गया 
उसी से सन्तुष्ट और सदा आनन्दित, सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त अन्तःकरण के साथ गाँव-गाँव 
भटकने वाला वह संन्यासी सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर)
भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है !
 
मूलं तरोः केवलमाश्रयन्तः पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः |
कन्थामिव श्रीमपि कुत्सयन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||२||

जिसका आश्रय केवल पंचवटी के वृक्ष नीचे है, दोनों अंजलि में जितना भोजन अंटा  -उसी अल्प भाग को खाने वाला, धन-दौलत को गुदड़ी (कन्थामिव- पैबन्द लगे गेंदरे) के समान ठोकर मारता है, वह संन्यासी (नवनी दा) सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर) भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है !  
  
स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः सुशान्तसर्वेन्द्रियवृत्तिमन्तः |
अहर्निशं ब्रह्मसुखे रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||३||

अपने हृदयस्थ परमानन्द द्वारा सदैव आल्हादित रहते हुए जो अपनी समस्त इन्द्रियों की उत्कट इच्छाओं को पूर्णतः शान्त करने में समर्थ हो जाता है, वह दिन रात ब्रह्मानन्द (नाम की खुमारी) में मस्त रहता है। वह संन्यासी (नवनी दा) सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर) भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है ! 
देहादिभावं परिवर्तयन्तः स्वात्मानमात्मन्यवलोकयन्तः |
नान्तं न मध्यं न बहिः स्मरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||४|| 

मन और शरीर में निरन्तर होने वाले परिवर्तनों को वह साक्षी भाव से देखता है और समस्त जीवों को अपनी आत्मा के समान देखता है। सृष्टि-स्थिति-लय को भी सिया-राम मय देखने वाला वह संन्यासी (नवनी दा) सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर) भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है !    
  
 ब्रह्माक्षरं पावनमुच्चरन्तो ब्रह्माहमस्मीति विभावयन्तः |
भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ||५||


गुरु द्वारा प्रदत्त पवित्र ब्रह्म के नाम, जो जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला है, को जपता हुआ, निरंतर- `I am Brahman', 'मैं ब्रह्म हूं' के ऊपर एकाग्रता (प्रत्याहार-धारणा) का अभ्यास करता है। और भिक्षा में मिले अन्न पर निर्भर रहता हुआ, जो गाँव गाँव में चरित्र-निर्माण आन्दोलन को फ़ैलाने का प्रयत्न करता है- वह संन्यासी (नवनी दा) सचमुच धन्य है जो कमर में 'कटी-मात्र वस्त्रावृत्त होकर' (लँगोटी पहनकर) भारत के गाँव में स्वदेश-मन्त्र का पाठ करने वाले युवाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है !    
 फिर कहने लगे, " बहुजनहिताय बहुजनसुखाय " ही संन्यासियों (महामण्डल के नेताओं) का जन्म होता है।   इस विविदिषा संन्यास (पूज्य नवनी दा से लीडर ट्रेनी बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करके भी) जो इस ऊँचे लक्ष्य - 'Be and Make' आन्दोलन से भ्रष्ट हो जाता है, उसका तो जीवन ही व्यर्थ है- वृथैव तस्य जीवनम् !
महामण्डल में नेतृत्व का प्रशिक्षण क्यों दिया जाता है ? औरों के निमित्त अपना जीवन उत्सर्ग करने, जीव के आकाशभेदी क्रन्दन को दूर करने, जो मातायें -बहनें सम्मान का जीवन पाने के लिये तरस रही हैं- उनके आँसू पोछने, पुत्र-वियोग से पीड़ित अभिभावकों के मन को शान्ति देने, सर्वसाधारण को जीवन-संग्राम में सक्षम करने, शास्त्रों के उपदेशों को फैलाकर सबका ऐहिक और परमार्थिक मंगल करने और ज्ञानलोक से सबके भीतर जो ब्रह्म-सिंह सुप्त है, उसे जाग्रत करने । महामण्डल के सभी कर्मियों बैठे बैठे क्या कर रहे हो ? 'arouse the sleeping lion of Brahman in all by throwing in the light of knowledge.' उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करो ! उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत -उठो जागो, और तब तक रुको नहीं, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय। 
३.  ५ जनवरी १८९० को इलाहबाद से श्री यज्ञेश्वर भट्टाचार्य को लिखित पत्र में कहते हैं -
प्रिय फ़कीर, नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अंतःकरण पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिये। नैतिक होने के साथ - साथ वीर भी बनो --अपने प्राणों के लिये कभी न डरो ! धार्मिक मत-मतान्तरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची न करना। कायर लोग पापाचरण करते हैं, वीरपुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते-यहाँ तक कि वे कभी अपने मन में पापपूर्ण विचारों को उदय भी नहीं होने देते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। स्वयं मनुष्य बनो, तथा जो लड़के तुम्हारे देखभाल में हैं, उनको साहसी, नीतिपरायण तथा दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील बनाने की चेष्टा करो। युवाओं-तुम्हारे लिये नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। इसके सिवाय अन्य किसी धार्मिक-मतवाद को मानना तुम्हारे लिये आवश्यक नहीं है। कायरपन, पाप, असत आचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिये, बाकी आवश्यकीय वस्तुएं अपने आकर उपस्थित होंगी। राम को कभी टीवी-सिनेमा या अन्य ऐसे खेल-तमाशे जिससे चित्त की दुर्बलता बढ़ती हो, स्वयं न ले जाना या जाने देना। --तुम्हारा नरेन्द्रनाथ
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' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (5) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

' विवेकानन्द - दर्शनम् '
५. 
 आज भी 'ऋषि'  अर्थात  ब्रह्मवेत्ता ' मनुष्य ' बना जा सकता है !
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )

[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.

इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 

Holy Mother of earth
  कोटि ब्रह्माण्ड नायिका माँ सारदा देवी

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।] 
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[ विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम् ] 
 ५.
ज्ञानभक्तिक्रियायोगैः राजयोगसमाश्रये । 
समं वै लभते ज्ञानमेकेनैवाधिकेन वा ॥ 

'By Work, or Worship, or Psychic control, or Philosophy - by one, or more, or all of these ' - the same knowledge is attainable. 


' कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों के सहारे '--एक ही 'ब्रह्म-ज्ञान' प्राप्त किया जा सकता है !

[ हमारे समस्त ज्ञान स्वानुभूति पर आधारित हैं। वैज्ञानिक तुमको किसी भी विषय पर विश्वास करने को नहीं कहेंगे। वे प्रत्येक व्यक्ति से यही कहेंगे " तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं, और तब उस पर विश्वास करो। " प्रत्येक निश्चित (अचूक) विज्ञान (Exact science) की एक सामान्य आधार-भूमि है और उससे जो सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं, इच्छा करने पर कोई भी उनका सत्यासत्य तत्काल समझ लेता है। अब प्रश्न है, कि धर्म के क्षेत्र में भी ऐसी कोई सामान्य आधार-भूमि है भी या नहीं ? 
कोई धर्म कहता है कि बादलों के उपर एक महान पुरुष है, वही सारे संसार का शासन करता है; और वक्ता महोदय बिना कोई प्रमाण दिये, मुझसे इसी सिद्धान्त में विश्वास करने को कहते हैं। उस अदृश्य सत्ता के लिये जिसकी शक्ति से यह विश्व-ब्रह्माण्ड संचालित हो रहा है, मेरे भी ऐसे अनेक भाव हो सकते हैं, जिन पर विश्वास करने करने की सीख मैं दूसरों को देता हूँ। किन्तु यदि कोई युक्ति-प्रमाण मांगता है, तब मैं भी निरुत्तर हो जाता हूँ। इसीलिये, आजकल धर्म और दर्शन-शास्त्रों की इतनी निन्दा सुनी जाती है। आजका प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति, यही समझता है कि ' संसार के विभिन्न धर्म कुछ बे- सिर-पैर की बातों के गट्ठर भर हैं, उनके सत्यासत्य सिद्धान्तों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है;  जिसके जी में जो आया, बस, वही बक गया है !' 
तुम यदि पृथ्वी के भिन्न भिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करो, तो तुमको ज्ञात हो जायगा कि वे दो श्रेणी में विभक्त हैं। कुछ धर्म शास्त्र पर आधारित हैं, और कुछ की शास्त्र-भित्ति नहीं है। जो शास्त्र-भित्ति पर स्थापित धर्म हैं, वे सुदृढ़ हैं और उनके मानने वालों की संख्या भी अधिक है। उक्त सभी सम्प्रदायों में यह मतैक्य दीख पड़ता है कि उनकी उनकी शिक्षा विशिष्ट व्यक्तियों (अवतारों या पैग़म्बरों) के प्रत्यक्ष अनुभव मात्र हैं। 
ईसा ने कहा है- " मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं।" उनके शिष्यों ने भी कहा है, " हमने ईश्वर का अनुभव किया है। " --आदि आदि। बौद्ध धर्म के विषय में भी ऐसा ही है। भगवान गौतम बुद्ध की प्रत्यक्ष अनुभूति पर यह धर्म स्थापित है। उन्होंने कुछ सत्यों का अनुभव किया था। हिन्दुओं के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है; उनके शास्त्रों में 'ऋषि' नाम से सम्बोधित किये जाने वाले ग्रन्थकर्ता कह गये हैं, " हमने कुछ सत्यों का अनुभव किये हैं! "
 अतः यह स्पष्ट है कि सभी धर्माचार्यों (ऋषियों या पैग़म्बरों) ने ईश्वर को देखा था। उन सभी ने आत्मदर्शन किया था; अपने अनन्त स्वरुप का ज्ञान सभी को हुआ था, सभी ऋषियों ने अपने भविष्य अवस्था को देखा था, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये हैं। भेद इतना ही है कि इनमें से अधिकांश धर्मों के ठीकेदार लोग यह दावा करने लगे हैं कि ' इस समय वे अनुभूतियाँ असम्भव हैं। जो विभिन्न नाम वाले धर्मों के प्रथम संस्थापक थे, बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रचलन हुआ, ऐसे केवल थोड़े से व्यक्तियों के लिये ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव हुआ था। अब ऐसे अनुभव करने के लिये कोई रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्म पर केवल विश्वास भर किया जा सकता है।' धर्म के ठिकदारों के इस तर्क मैं अपने अनुभव के आधार पर पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ !! 
यदि पहले किसी रसायन शास्त्री वैज्ञानिक को हाइड्रोजन पेरोक्साइड (H2O2) और पोटेशियम परमैंगनेट (KMnO4) के बीच प्रतिक्रिया कराकर जो भाप (H2O) और ऑक्सीजन (O2) मिला है; तो इससे यह सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुंचा जा सकता है, कि ऑक्सीजन का आविष्कार होने के पहले भी कोटि कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, और भविष्य में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी। एक-रूपता ही प्रकृति का एक बड़ा नियम है। एक बार जो घटित हुआ है, वह पुनः पुनः घटित हो सकता है !
इसीलिये योग-विद्या के आचार्यगण कहते हैं कि ' धर्म के सत्यों का जब तक कोई अनुभव नहीं कर लेता, तब तक धर्म की बात करना वृथा है। जिन्हें आत्मा की अनुभूति या ईश्वर-साक्षात्कार न हुआ हो, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि आत्मा या ईश्वर है ? यदि कहीं कोई ईश्वर है, तो मुझे भी उसका साक्षात्कार करना होगा; यदि आत्मा नामक कोई वस्तु है- तो उसकी उपलब्धि करनी पड़ेगी। अन्यथा विश्वास न करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है। ' 
मनुष्य (सत्यार्थी या भावी पैग़म्बर) चाहता है सत्य, वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है, वेद कहते हैं- ' तभी उसके सारे सन्देह दूर हो जाते हैं, सारा भ्रम -जाल छिन्न-भिन्न हो जाता है और सारी वक्रता सीधी हो जाती है। ' मुण्डक२/२/८ 
और तब वह ऋषि बोल पड़ता है - ' हे अमृत के पुत्रों, हे दिव्यधाम-निवासियों, सुनो---मैंने अज्ञान के अंधकार से उस आलोक के राज्य में जाने का मार्ग प्राप्त कर लिया है। जो (ब्रह्म श्रीरामकृष्ण) समस्त तम के पार है, उसको जान लेने (या पहचान लेने) पर ही वहाँ जाया जा सकता है। --मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं है!' श्वेता/२-५,३-८
इस सत्य को प्राप्त करने के लिये, राजयोग-विद्या (पातंजल योग-सूत्र) मानव के समक्ष बिल्कुल व्यावहारिक और वैज्ञानिक प्रणाली को आजमा कर देखने का प्रस्ताव रखती है। मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूँ, परन्तु तुम यदि साधना न करो, उन यम-नियमों का पालन और मनःसंयोग का अभ्यास न करो, तो तुम कभी धार्मिक अर्थात ऋषि या पैग़म्बर न हो सकोगे। सभी युगों, सभी देशों, के निष्काम और पवित्र अवतार या पैग़म्बर इसी सत्य का प्रचार कर गए हैं। संसार का कल्याण छोड़ कर अन्य कोई नाम-यश की कामना उनमें नहीं थी। 
वे सभी कहते हैं, " हमारी इन्द्रियाँ और मन-बुद्धि जिन सत्यों का अनुभव करा सकती हैं, मैंने उससे उच्चतर सत्य प्राप्त कर लिया है! और यदि तुम चाहो, तो तुम भी इस प्रशिक्षण-पद्धति की परीक्षा लेकर या आजमा कर देख सकते हो। तुम महामण्डल निर्दिष्ट साधना-प्रणाली लेकर सरल भाव से साधना करते रहो, फिर भी यह उच्चतर सत्य यदि प्राप्त न हो, तब तुम भले ही कह सकते हो, कि इस उच्चतर (अविनाशी ब्रह्म) सत्य के विषय में कही जाने वाली बातें किसी सनकी दिमाग की उपज हैं ! किन्तु इससे पहले मनःसंयोग पर आधारित उपरोक्त की सत्यता को बिल्कुल अस्वीकृत कर देना किसी तरह युक्तिपूर्ण नहीं है। " अतएव महामण्डल द्वारा लंगरखाना से संयुक्त निर्दिष्ट शिविर प्रशिक्षण-प्रणाली के माध्यम से श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिये आवश्यक है, और तब ज्ञान (ब्रह्म ) का प्रकाश अवश्य प्राप्त होगा। 
बाह्य जगत के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना, मनुष्य की आभ्यान्तरिक प्रकृति या मन के व्यापारों का पर्यवेक्षण करने की अपेक्षा सहज होता है। क्योंकि उसके लिये हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके हैं, पर अन्तर्जगत के व्यापार को समझने में मदद करने वाला कोई भी यन्त्र नहीं है। राजयोग-विद्या पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यंतरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का उपाय सीखा देती है। मन का पर्यवेक्षण करने वाला यन्त्र स्वयं मन ही है !
 मनःसंयोग या एकाग्रता की शक्ति का सही सही नियमन कर जब मन को बहिर्मुखी होने से रोककर, अन्तर्जगत की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है। और तब उसके प्रकाश में हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या देखने से क्या और कैसे घटित होने लगता है। मन की शक्तियाँ प्रकाश की किरणों के समान नाना प्रकार के बाह्य विषयों में इधर-उधर बिखरी हुई हैं। जब उन्हें केंद्रीभूत कर दिया जाता है, तब वे सब कुछ को आलोकित कर देती हैं। यही ज्ञान का एकमात्र उपाय है। पर इसके लिये काफ़ी अभ्यास करना आवश्यक है।
कुछ और कहने के पहले मैं सांख्य-दर्शन के सम्बन्ध में कुछ कहूँगा। इस सांख्य दर्शन पर पूरा राजयोग आधारित है। सांख्य के अनुसार ज्ञान की प्रणाली इस प्रकार है - पहले ज्ञेय विषय के साथ आँख आदि बाह्य उपकरणों का संयोग होता है। ये चक्षु आदि (आँख,कान,नाक,जिह्वा और त्वचा) बाहरी उपकरण फिर उसे मस्तिष्क-स्थित अपने अपने इन्द्रिय-गोलकों के पास भेजते हैं, इन्द्रियाँ मन के निकट, और मन उसे निश्चात्मिका बुद्धि के पास ले जाता है; तब पुरुष या आत्मा उसका ग्रहण करती है। फिर जिस सोपानक्रम में से होता हुआ वह विषय अंदर आया था, उसी में से होते हुए लौट जाने की पुरुष मानो उसे आज्ञा देता है। इस प्रकार विषय गृहीत होता है। पुरुष को छोड़कर शेष सब जड़ है। एकमात्र पुरुष ही चेतन है। मन तो मानो आत्मा का दिव्य चक्षु है। उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है। आधुनिक शरीर वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आँखें वास्तविक दर्शन-इन्द्रिय नहीं हैं, वे तो बाह्य खिड़की है, इन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायु-केन्द्र 'ऑप्टिक नर्भ' में अवस्थित है; और समस्त इन्द्रियों के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही समझना चाहिये।  
बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है, अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी है। अभिभावक लोग कहते हैं, मन लगाकर पढ़ो; पर मन को लगाया कैसे जाता ? यह शिक्षा हमें नहीं दी जाती है। इसी कारण हममें से अधिकांश लोग अपने आभ्यंतरिक जगत की क्रिया-विधि का निरीक्षण करने की शक्ति खो बैठे हैं। हमारी इन्द्रियाँ स्वभावतः बहिर्मुखी हैं, उसके साथ साथ जुड़ा हुआ मन भी बहिर्मुखी बन गया है।  मन को इन्द्रियों से खींचकर उसे अंतर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उसे मन के उपर ही निवेशित करना होगा, तांकि वह अपना स्वाभाव समझ सके, अपने आप को विश्लेषण करके देख सके। किन्तु यह एक अत्यन्त कठिन कार्य है, अतएव इस क्षेत्र में हमारे 'ऋषियों' जिन्हें हम धार्मिक क्षेत्र के महान वैज्ञानिक- 'महर्षि पतंजलि'  के नाम से जानते हैं, द्वारा आविष्कृत वैज्ञानिक प्रणाली -'अष्टांग-योग' द्वारा अग्रसर होना सबसे सुरक्षित उपाय है। इस विषय में वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार अग्रसर होने का यही एक मात्र उपाय है।  
अब आप पूछ सकते हैं कि इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है ? पहले तो, ज्ञान स्वयं ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है; दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है। यह हमारे समस्त दुःखों का हरण करेगा। जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु का साक्षात दर्शन कर लेता है--जिसका किसी काल में नाश नहीं है, जो स्वरूपतः शाश्वत चैतन्य है, या नित्य पूर्ण और नित्य शुद्ध है, तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ ग़ायब हो जाता है! वह जान लेता है कि मैं मरने वाला नहीं हूँ, और कोई नहीं मर सकता, फिर वह 'अभिः'-बन जाता है, तब उसे मृत्यु का भी नहीं रह जाता। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है । इन दोनों का आभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसी क्षण, इसी देह में उसे परमानन्द -सच्चिदानन्द की प्राप्ति हो जाती है, वह मुक्त हो जाता है! फिर स्वयं बंधन-मुक्त होकर दूसरों को भी बंधन मुक्त करने की एकमात्र वासना ही उसे जीवित रखती है! 
इस ज्ञान की प्राप्ति के लिये एकमात्र उपाय है-एकाग्रता! मन की शक्तियों को एकाग्र करने के सिवा अन्य किस तरह संसार में समस्त वैज्ञानिक सिद्धान्त; 'गुरुत्वाकर्षण' का नियम आदि आविष्कृत हुए हैं? यदि प्रकृति के द्वार कैसे खटखटाना चाहिये, उस पर कैसे आघात करना चाहिये -वह वैज्ञानिक पद्धति अगर सीख ली जाय, तो बस -प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है। उस आघात करने की शक्ति और तीव्रता मनःसंयोग से ही आती है। मानव-मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं है। वह जितना अधिक एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है; यही रहस्य है। जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अंधकारमय स्थान भी अपने गुप्त रहस्य खोल देते हैं, उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अन्तरतम रहस्य प्रकाशित कर देता है। 
तब हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुँचेगे। तभी, आत्मा है या नहीं, हमारा जीवन क्या केवल सामान्य जीवन-काल तक ही सीमित है, अथवा अनन्तकाल तक रहने वाला है? संसार में कोई ईश्वर है या नहीं, वह सब हम स्वयं देख सकेंगे। सब कुछ हमारे ज्ञान-चक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा। तुम्हारा धर्म चाहे जो हो-तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, मुसलमान हो या बौद्ध या ईसाई -इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं; तुम मनुष्य हो, बस- इतनी सी योग्यता ही पर्याप्त है ! जब तक कोई बात स्वयं प्रत्यक्ष न कर सको, तब तक उस पर विश्वास न करो- राजयोग यही शिक्षा देता है। सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिये अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। किन्तु इस राजयोग की साधना में दीर्घ काल तक निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है। 
राजयोगी कहते हैं, हम पहले अन्तर्जगत का ज्ञान प्राप्त करेंगे, फिर उसीके द्वारा बाह्य और अन्तर उभय प्रकृति को वशीभूत कर लेंगे। पाश्चात्य देशों में लोग इसको रहस्य या गुप्त विद्या समझते थे, इन सब योग-प्रणालियों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ देना पड़ेगा। जिससे बल मिलता है, उसीका अनुसरण करना चाहिये; जो तुमको दुर्बल बनता है, वह समूल त्याज्य है। ऐन्द्रजालिक रहस्य को जानने की स्पृहा मानव-मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आजकल निकृष्टतर अनेक श्रीश्री गुरु नामधारी व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं जिसके कारण इसकी शिक्षा देने वाले शिक्षकों का निर्माण करना आवश्यक हो गया है। किन्तु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है ! चार हजार वर्ष से भी पहले यह इस विज्ञान को आविष्कृत किया गया था। अन्धविश्वास करना ठीक नहीं, भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो, ठीक उसी प्रणाली से यह धर्म-विज्ञान भी सीखना होगा। इसमें गुप्त रखने की कोई बात नहीं किसी विपत्ति की आशंका भी नहीं है। 
प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। 
बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। 
कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। 
बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं। १/३४  
[ Each soul is potentially divine.

The goal is to manifest this Divinity within by controlling nature, external and internal.

Do this either by Work, or Worship, or Psychic control, or Philosophy - by one, or more, or all of these - and be free.

This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details.-RAJA YOGA, Preface] 

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