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बुधवार, 18 सितंबर 2013

" हिन्दू धर्म " (सनातन धर्म) के उपर स्वामी विवेकानन्द का शोध-पत्र !

" धर्म-महासभा " में १९ सितम्बर, १८९३ ई० को पठित - " Paper on Hinduism "

 Swami Vivekananda in Chicago 

by Swami Vivekananda  
(Read at the Parliament on 19th September, 1893)  

प्रागैतिहासिक युग से चले आनेवाले केवल तीन ही धर्म आज संसार में विद्यमान हैं-हिन्दू धर्म (वैदिक धर्म), पारसी धर्म और यहूदी धर्म। उनको अनेकानेक प्रचण्ड आघात सहने पड़े हैं, किन्तु फिर भी जीवित बने रहकर वे सभी अपनी आन्तरिक शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
पर जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म ईसाई धर्म को आत्मसात नहीं कर सका, वरन अपनी सर्वविजयनी दुहिता ( all-conquering daughter)-- ईसाई धर्म --द्वारा अपने जन्म-स्थान से ही निर्वासित कर गया, और केवल मुट्ठी भर पारसी ही अपने महान धर्म की गाथा गाने के लिये अब अवशेष हैं,-वहाँ भारत में एक के बाद एक न जाने कितने सम्प्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिल सा दिया; किन्तु भयंकर भूकम्प  के समय समुद्र-तट के जल के समान वह कुछ समय पश्चात हजार गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिये पीछे हट गया; और जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्म-माता (वेदान्तिक धर्म या हिन्दू धर्म ) की विराट काया ने चूस लिया, आत्मसात कर लिया और अपने में पचा डाला। 
वेदान्त दर्शन की अत्युच्च अध्यात्मिक उड़ानों से लेकर -आधुनिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनी मात्र प्रतीत होते हैं, मूर्ति-पूजा के निम्न स्तरीय विचारों एवं तदानुषंगिक अनेकानेक दन्तकथाओं तक, और बौद्धों के अज्ञेयवाद (Agnosticism) तथा जैनों के निरीश्वरवाद (Atheism) -इनमें से प्रत्येक के लिये हिन्दू धर्म में स्थान है. तब यह प्रश्न उठता है कि वह कौन सा एक सामान्य विन्दु है, जहाँ पर इतनी विभिन्न दिशाओं में जानेवाली त्रिज्याएँ केन्द्रस्थ होती हैं ? वह कौन सा एक सामान्य आधार है, जिस पर ये प्रचण्ड विरोधाभास आश्रित हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर देने का अब मैं प्रयत्न करूँगा। 
' The Hindus' हिन्दू जाति (१६ संस्कार, चार पुरुषार्थ, चार आश्रम - युक्त सनातन धर्म का पालन करने वाली जाति) ने अपना धर्म श्रुति - वेदों से प्राप्त किया है। उनकी धारणा है कि वेद अनादि और अनन्त (without beginning and without end) हैं। श्रोताओं को, संभव है, यह बात बेतुका लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती है ? किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक है ही नहीं ! वेदों का अर्थ है-  भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। ' the accumulated treasury of spiritual laws discovered by different persons in different times.'
जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त मनुष्यों को पता लगने के पूर्व से ही अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्य-जाति उसे भूल भी जाये, तो भी वह नियम अपना काम करता ही रहेगा, ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत का शासन करने वाले नियमों के सम्बन्ध में भी है. एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ, और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता (individual spirits and the Father of all spirits-ठाकुर श्री रामकृष्ण !) के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे  आविष्कार के पूर्व भी थे, और यदि हम उन्हें भूल भी जायें, तो भी बने रहेंगे।
इन नियमों या सत्यों का आविष्कार करने वाले ' ऋषि ' कहलाते हैं, और हम उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा (गुरु या Leader of the Mankind ) मानकर सम्मान देते है। श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता है कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं। 
यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हों, पर इनका एक आदि तो अवश्य होना चाहिये। किन्तु वेद हमें यह शिक्षा देते हैं कि सृष्टि का न आदि है, न अन्त ! विज्ञान भी इस बात को प्रामाणित करता है कि ' the sum total of cosmic energy is always the same.' अर्थात समग्र विश्व की समस्त उर्जा-समष्टि का परिमाण सदा एक सा रहता है।  तो फिर, यदि ऐसा कोई समय था, जब कि किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं था, उस समय यह सम्पूर्ण व्यक्त उर्जा कहाँ थी ? कोई कोई कहते हैं कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी. तब तो ईश्वर कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त होता है, इससे तो वह विकारशील हो जायेगा। प्रत्येक विकारशील पदार्थ यौगिक होता है और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्यम्भावी है, जिसे हम विनाश कहते हैं. इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल है. अतः ऐसा समय कभी नहीं था-जब यह सृष्टि नहीं थी ! 
मैं एक उपमा दूँ : स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएं हैं जिनका न आदि है न अन्त, और जो सामान्तर हैं। ' God is the ever active providence ' ईश्वर नित्य क्रियाशील महा-शक्तिस्वरूप है, सर्व-विधाता है, जिसकी प्रेरणा से प्रलय-पयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता है, उनका कुछ काल तक पालन होता है और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्टि कर दिये जाते हैं। 
‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् '- अर्थात् पूर्व कल्प कि भांति प्रभु ने इस कल्प में भी सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, द्यौ और पृथ्वी आदि को रचा। इस वाक्य का नित्य पाठ प्रत्येक (द्विज) हिन्दू बालक प्रतिदिन करता है। इस मन्त्र में हम सृष्टि रचना के विषय में नियमित रूप से विचार किया करते हैं।
{संध्योपासन द्विजमात्रके लिये बहुत ही आवश्यक कर्म है । दिन और रात्रि के, रात्रि और दिन के तथा पूर्वान्ह और अपरान्ह के संधिकाल में एकाग्रचित्त होकर जो उपासना की जाती है, उसे संध्या कहते हैं।  ऋत और सत्य सृष्टि रचना का मन्त्र-" ॐ ऋतञ्च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत । ततो रात्र्यजायत । ततः समुद्रो अर्णवः । समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत ।अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी । सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापुर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥ अघमर्षण मन्त्र (ऋ० अ० ८ अ० ८ व० ४८)}
यहाँ पर मैं खड़ा हूँ। अपनी आँखें बन्द करके यदि मैं अपने अस्तित्व को समझने का प्रयत्न करूं कि मैं क्या हूँ- ‘मैं’ मैं’ ‘मैं’, तो मुझमें किस भाव का उदय होता है ? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ। तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के समूह के सिवाय और भी कुछ भी नहीं हूँ ? वेदों की घोषणा है – नहीं, मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ। शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूँगा। मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और जब इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही। मेरा एक अतीत भी है। इस शरीर-ग्रहण के पूर्व भी मैं विद्यामान था। आत्मा किसी पदार्थ से सृष्टि नहीं हुई है, क्योंकि सृष्टि का अर्थ होता है भिन्न-भिन्न द्रव्यों का संयोग- वियोग, संघात और विघटन । अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए। इससे सिद्ध हो गया है कि आत्मा का सृजन नहीं हुआ था, वह कोई सृष्टि पदार्थ नहीं है।
कुछ लोग जन्म से ही सुखी होते हैं। पूर्ण स्वास्थ्य का आनंद भोगते हैं, उन्हें सुन्दर शरीर उत्साह पूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं। दूसरे कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते, तो कोई मूर्ख होते हैं, और येन-केन-प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों ? 
यदि ये सभी एक ही न्याय और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किये हों, तो ऐसा फिर उसने एक को सुखी और दूसरे को दुखी क्यों बनाया ? भगवान् ऐसा पक्षपाती क्यों है ? फिर ऐसा मानने से भी बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवन में दुखी है, वे भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे। न्यायी और दयालु भगवान् के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुखी क्यों रहे ? दूसरी बात यह कि ' the idea of a creator God does not explain the anomaly ' सृष्टि-उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला यह सिद्धान्त सृष्टि में इस वैषम्य के लिये कोई कारण बताने का प्रयत्न तक नहीं करता बल्कि वह तो केवल एक सर्व-शक्तिमान् स्वेच्छाचारी पुरुष का निष्ठुर व्यवहार ही प्रकट करता है। 
अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिये, जिनके फलस्वरूप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करता है। और ये कारण हैं, उसके ही द्वारा पूर्व जन्म में किये गए कर्म ! क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती ? ' two parallel lines of existence — one of the mind, the other of matter.' यहाँ जड़ पदार्थ और मन (सूक्ष्म जड़-पदार्थ) सत्ता की दो समानान्तर रेखायें हैं। यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर (ठोस-तरल और गैस ) ही, जो कुछ यहाँ है , उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो फिर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। किन्तु - ' it cannot be proved that thought has been evolved out of matter' इस बात को सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ वस्तुओं से हुआ है ?  और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य है, तो अध्यात्मिक अद्वैवाद (spiritual monism) निश्चय ही तर्कसंगत है और भौतिक अद्वैतवाद (materialistic monism) से किसी भी प्रकार कम वांछनीय नहीं;  परन्तु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं है।
हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता है; किन्तु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शारीरिक रूपाकृति है, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता है। आत्मा की कुछ ऐसी विशेष प्रवृत्तियाँ होती हैं, जिनकी उत्पत्ति अतीत के कर्म से होती है. - एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा ' laws of affinity' या ' योग्यं योग्येन युज्यते ' के नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति को प्रकट करने के लिये सबसे उपयुक्त आधार हो।
यह सिद्धान्त विज्ञान सम्मत है, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और एक ही काम को पुनः पुनः दुहराते रहने से आदत का निर्माण होता है। अतएव नवजात शिशु की प्राकृतिक आदतों की व्याख्या करने के लिये एक ही कार्य को बार बार दुहराते रहना या पुनरावृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती हैं। और चूँकि वे उस नवजात शिशु के प्रस्तुत जीवन में प्राप्त तो नहीं हुई हैं, तो इससे यह निशिचित रूप से सिद्ध हो जाता है, कि उस शिशु ने इन प्रवृत्तियों को पिछले जन्मों से ही प्राप्त किया होगा। 
(पुनर्जन्म के विरोध में ) एक दूसरा तर्क भी दिया जाता है, यदि उपरोक्त बातों को स्वतः-सिद्ध मान भी लिया जाय, तो मुझे अपने पूर्व जन्म की कोई भी बात स्मरण क्यों नहीं है ? इसका समाधान सरल है. मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हूँ. यह मेरी मातृभाषा नहीं है. वस्तुतः इस समय (अंग्रेजी बोलते वक्त) मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं है, पर उन शब्दों को सामने लाने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मेरे मन में उमड़ पड़ते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि चेतना (Consciousness) मानस-सागर की सतह मात्र है और भीतर उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित है। केवल प्रयत्न तथा उद्दम कीजिये, वे सब उपर उठ आयेंगे, और अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।- पुनर्जन्म को लेकर 'This is direct and demonstrative evidence'  यह एक प्रत्यक्ष और ठोस सबूत है.
हमारे ऋषियों ने समस्त संसार के समक्ष इस चुनौती को रखा है, कि किसी सिद्धान्त को स्वयं जाँच कर के सत्यापित करना ही उसका पूर्ण प्रमाण है। वे कहते हैं-हमने उस रहस्य का पता लगा लिया है, जिससे स्मृति-सागर की गंभीरतम गहराई तक मन्थन क्या जा सकता है- उसका प्रयोग कीजिये और आप अपने पूर्व जन्मों की सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर सकेंगे। 
अतएव हिन्दू का यह विश्वास है कि वह आत्मा है ! ''उसको शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती; जल भिगो नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। " गीता २/२३ हिन्दुओं की यह धारणा है कि -'आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित है; और मृत्यु का अर्थ है, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थान्तरित हो जाना।' यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं है। वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध मुक्तस्वभाव है। परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती है, और अपने को जड़ ही समझती है। प्रश्न यह है कि यह ज्ञानस्वरूप आत्मा जड़ का दासत्व क्यों करती है ? यह सभी की चेतना का एक तथ्य है कि विश्व का प्रत्येक व्यक्ति अपने को शरीर मानता है। स्वयं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होने का भ्रम (देहाध्यास या Universal Error) कैसे हो जाता है ? इसका उत्तर हिन्दू के ' मैं नहीं जानता ' के सिवा कुछ नहीं है। वर्तमान अवस्था हमारे पूर्वानुष्ठित कर्मों के द्वारा निश्चित होती है और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा। आत्मा संसार-चक्र (जन्म-मृत्यु) में लगातार घूमती हुई कभी उपर विकास करती है, कभी प्रत्यागमन करती है।
पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता है -' Is man a tiny boat in a tempest ?' क्या मनुष्य प्रचण्ड तूफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका है, जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती है और दूसरे ही क्षण भयानक गर्त में नीचे धकेल दी जाती है, अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती है; क्या वह कार्य-कारण  की सतत प्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ी हुई अशक्त, असहाय भग्न पोत है, क्या वह उस (wheel of causation) कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ है, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हुए, अपने मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता है ? 
इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता है, पर यही प्रकृति का नियम है। तो फिर क्या कोई आशा नहीं है ? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं है ? -यही करुण पुकार निराश-विह्वल ह्रदय के अन्स्तल से उपर उठी और उस करुणामय के सिंघासन तक जा पहुंची। वहाँ से आशा तथा सांत्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःप्रेरणा प्रदान की, और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्य-स्वर में इस आनन्द-सन्देश की घोषणा की - 
" शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥"
वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-
मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति
   नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
-- श्वेताश्वतरोपनिषद्॥३।८॥

' हे अमृत के पुत्रों ! सुनो, हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो, मैंने उस अनादि पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त अज्ञान-अंधकार के परे है. केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो. दूसरा कोई पथ नहीं है। " 
' अमृत के पुत्रो '- "Children of immortal bliss" -- कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम -अमृत के अधिकारी से आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दें. निश्चय ही हिन्दू किसी मनुष्य को भी पापी कहना अस्वीकार करता है.आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनंद के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। " Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so " आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं। आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव-स्वरुप पर घोर लांछन है। आप उठें ! हे सिंहो ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनंदमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास है, न कि आप हैं दास जड़ के। अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि-व्यापार कुछ निर्मम विधानों का संघात है, और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा है; वरन वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्रकृति नियमों के मूल में, जड़-तत्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान है, ' जिसके आदेश से वायु चलती है, अग्नि दहकती है, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती है। ' और उस पुरुष का स्वरुप क्या है ? वह सर्वत्र है, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान है, सब पर उसकी पूर्ण दया है। 
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं

भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि।।

" तू हमारा पिता है, तू हमारी माता है, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा है, तू ही सभी शक्तियों का मूल है; हमें शक्ति दे। तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला है; तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे।  ' वैदिक ऋषियों ने यही गाया है।  हम उसकी पूजा किस प्रकार करें ? प्रेम के द्वारा।
'ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिये। ' वेद हमें प्रेम के सम्बन्ध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं।  

अब देखें कि श्री कृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्ण अवतार मानते हैं, इस प्रेम के सिद्धान्त का पूर्ण विकास किस प्रकार किया है और हमें क्या उपदेश दिया है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र (lotus leaf),की तरह रहना चाहिये। पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिये -उसका ह्रदय (Heart) ईश्वर में लगा रहे और उसके हाथ (Hand )कर्म करने में लगे रहें। इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिये ही ईश्वर से प्रेम करना सबसे अच्छा है, और उसके निकट यही प्रार्थना करनी उचित है - 
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥

- शिक्षाष्टकं४॥ 
' हे जगत के ईश्वर, (ठाकुर देव !)  मुझे न तो सम्पत्ति चाहिये, न सन्तति, न विद्यायदि तेरी इच्छा है, तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के चक्र में पडूंगा; पर हे प्रभो, केवल इतना ही दे कि मैं फल की आशा छोड़ कर तेरी भक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिये ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो। ' कृष्ण के एक शिष्य उस समय भारत के सम्राट थे। उनके शत्रुओं ने उन्हें राजसिंहासन से च्युत कर दिया था और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के जंगल में आश्रय लेना पड़ा था। वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया, " मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते हुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता है ? " 
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, " महारानी, देखो -यह हिमालय कैसा भव्य और सुन्दर है। मैं इससे प्रेम करता हूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता; पर मेरा स्वभाव ही ऐसा है कि मैं भव्य और सुन्दर वस्तु से प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं भगवान से भी प्रेम करता हूँ. वह अखिल सौन्दर्य, समस्त सुषमा का मूल है। वही एक ऐसा पात्र है, जिससे प्रेम करना चाहिये। उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव है, और इसीलिये मैं उससे प्रेम करता हूँ। मैं किसी बात के लिये उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता। उसकी जहाँ इच्छा हो मुझे रखे। मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम के लिये ही उस से प्रेम करना चाहता हूँ, "I cannot trade love"- मैं प्रेम का सौदा नहीं कर सकता। ' 
वेद घोषणा करते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप है, वह केवल पंचभूतों के बन्धनों में बन्ध गयी है; और उन बन्धनों के टूटते ही वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगी।  अवस्था का नाम है- मुक्ति, जिसका अर्थ है स्वाधीनता --अपूर्णता के बन्धनों से छुटकारा, जन्म-मृत्यु से छुटकारा। 
और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता है और यह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती है। अतएव अपने जीवन को पवित्र बना लेना ही, उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय है। उसकी दया किस प्रकार काम करती है ? वह पवित्र ह्रदय में अपने को प्रकाशित करता है। पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवन में ईश्वर-दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है। ' तब उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती है, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं। ' तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ का खिलौना नहीं रह जाता। यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धान्त है--यही उसका अत्यन्त मार्मिक भाव है। 
हिन्दू शब्दों और सिद्धान्तों के जाल में जीना नहीं चाहता। यदि इन साधारण इन्द्रिय-संवेद्द विषयों से परे और भी कोई सत्ताएँ हैं, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता है। यदि उसमें कोई आत्मा है, जो जड़-वस्तु नहीं है, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्वात्मा है, तो वह उसका साक्षात्कार करेगा। वह उसको अवश्य देखेगा और मात्र उसी से उसकी समस्त शंकाएँ दूर होंगी। अतः एक हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता है-' मैंने आत्मा का दर्शन किया; मैंने ईश्वर का दर्शन किया है। ' और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त है। हिन्दू धर्म भिन्न भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धान्तों पर विश्वास करने के लिये संघर्ष और प्रयत्न में निहित नहीं है, वरन यह साक्षात्कार है, वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है, वह है 'Being and Becoming' अर्थात - होना और बनना  !
 इस प्रकार हिन्दुओं की सारी साधना-प्रणाली का लक्ष्य है- सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना ! और इस प्रकार ईश्वर को जान कर, उसका दर्शन कर, उसी स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण हो जाना -हिन्दुओं का धर्म है। 
और जब मनुष्य पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसका क्या होता है ? तब वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता है। जिस एक मात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना चाहिये, उसे -अर्थात ठाकुर ! को पाकर वह परम तथा असीम आनंद का उपभोग करता है और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता है। यहाँ तक सभी हिन्दू एकमत हैं। भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म है। परन्तु perfection is absolute ' पूर्ण असीम होता है, और असीम दो या तीन नहीं हो सकता। उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता। अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती है, तब वह ब्रह्म के साथ एक हो जाती है। और वह ईश्वर को केवल अपने ही स्वरुप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में -- परम सत्, परम चित, परम आनंद के रूप में प्रत्यक्ष करती है।
इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते हैं कि इसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व 'Individuality' को खोकर जड़ता प्राप्त करता है या पत्थर के समान बन जाता है ! प्रचलित लोकोक्ति है -' जाके पैर न फटी बेवाई, सो क्या जाने पीर परायी।' मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती। यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता है, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना चाहिये, और उसी तरह क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ साथ आनंद की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिये, और विश्व-चेतना का बोध होने पर आनंद की परम अवस्था प्राप्त हो जायेगी। 
अतः उस असीम विश्व-व्यक्तित्व ' Infinite Universal Individuality ' की प्राप्ति के लिये इस कारास्वरूप दुःखमय ससीम व्यक्तित्व (देहाध्यास या Universal Error) के धरावाहिकत्व का अंत होना ही चाहिये। जब मैं उस प्राणस्वरूप के साथ एक हो जाउँगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है। जब मैं ज्ञानस्वरूप के साथ एक हो जाउँगा, तभी अज्ञान (देहाध्यास) का अन्त हो सकता है, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी है। विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया है कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र है, वास्तव में मेरा यह शरीर एक अविच्छिन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड है, और ' my other counterpart ' मेरे दूसरे पक्ष -आत्मा (Heart) के संबंध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष है। 
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्यों ही कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जायगा, त्यों ही उसकी प्रगति रुक जायगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। उदाहरणार्थ रसायन शास्त्र यदि एक बार उस मूल एक तत्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। भौतिकी जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगी, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं, तब वह वहीं रुक जायगी। वैसे ही, धर्म-शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु-लोक में एक मात्र जीवन है, जो इस परिवर्तनशील जगत का शाश्वत आधार है, जो एकमात्र परमात्मा है, अन्य सब आत्माएँ जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियाँ हैं। इस प्रकार अनेकता और द्वैत में होते हुए इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती है। धर्म इससे आगे नहीं जा सकता। यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य है। 
समग्र विज्ञान अंततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे। आज हिन्दू को यह देखकर बहुत प्रसन्नता होती है कि जिस सनातन सिद्धान्त को वह इतने वर्षों से अपने सीने से चिपकाये हुआ था - ' जगत ब्रह्म की सृष्टि (creation) नहीं अभिव्यक्ति (Manifestation) है' (ब्रह्म ही जगत बन गया है !) अब उसकी यही शिक्षा अधिक सशक्त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के अतरिक्त प्रकाश में दी जा रही है।
अब हम वेदान्त दर्शन की महाप्राण उद्घोषणाओं से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं। यह मैं प्रारम्भ में ही आपको बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद (polytheism) नहीं है। प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने, तो वह यही पायेगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं। यह अनेकेश्वरवाद नहीं है, और न एकदेववाद (monotheism) से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती है। ' गुलाब को चाहे किसी भी नाम से क्यों न पुकारें, उसकी सुगंध तो मीठी ही होगी। ' नाम ही व्याख्या नहीं होती। 
बचपन की एक बात मुझे यहाँ याद आती है। एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोपदेश कर रहा था। बहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया कि " अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगा दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकती है ? " एक श्रोता ने चट चुभता सा जवाब दे डाला, " अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता है ? " पादरी बोला, " मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा। " हिन्दू भी तनकर बोल उठा, " तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें दण्ड देगी। "  
वृक्ष अपने फलों से जाना जाता है। जब मूर्तिपूजक कहे जाने वाले लोगों में ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ, जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूँ, और अपने से यही पूछता हूँ--" क्या पाप-कर्म से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती है ? " 
अंधविश्वास मनुष्य का महान शत्रु है, पर धर्मान्धता तो उससे भी बढ़कर है। ईसाई किसी गिरजाघर में ही क्यों जाता है ? क्रूस को पवित्र क्यों समझता है? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों किया जाता है ? कैथोलिक ईसाईयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? और प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयों के मन में प्रार्थना के समय इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं ? मेरे भाइयो ! मन में किसी मूर्ति के बिना आये कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव है, जितना श्वास लिये बिना जीवित रहना। ' Law of Association ' साहचर्य के नियम के अनुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भाव-विशेष का उद्दीपन हो जाता है, अथवा मन में भावविशेष का उद्दीपन होने से तदुनुरूप मूर्ति-विशेष का भी आविर्भाव होता है। इसीलिये तो हिन्दू आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता है। वह आपको बतलायेगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को अपने ध्यान के विषय परमेश्वर में एकाग्रता से स्थिर रहने में सहायता करता है। वह यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता है, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर है, और न सर्वव्यापी ही। और सच पूछिये तो दुनिया के लोग ' सर्वव्यापित्व ' का क्या अर्थ समझते हैं ? वह तो केवल एक शब्द या प्रतीक मात्र है। क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल है ? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं, उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं ? 
' by the Laws of our mental constitution' अपनी मानसिक संरचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनंतता की भावना को नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता है; उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावानुसार गिरजाघर, मस्जिद या क्रूस से जोड़ लेते हैं। हिन्दू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यपित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं। अन्तर यह है कि जहाँ अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की आराधना में ही बिता देते हैं और उससे आगे नहीं बढ़ते, क्योंकि उनके लिये तो धर्म का अर्थ यही है कि कुछ विशिष्ट सिद्धान्तों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकृत कर लें और अपने मानव-बन्धुओं की भलाई करते रहें--वहाँ एक हिन्दू की सारी धर्म-भावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती है। 
मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना है। मूर्तियाँ, मन्दिर, गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्म-जीवन की बाल्यावस्था में केवल आधार या सहायक मात्र हैं; पर उसे उत्तरोत्तर उन्नति ही करनी चाहिये। मनुष्य को कहीं पर अटकना नहीं चाहिये। शास्त्र का वाक्य है - 
उत्तमो ब्रह्मसदभावो ध्यानभावस्तु मध्यमः |

स्तुतिर्जपोअधमो भावो बाह्यपूजाअधमाधमा ||
(महानिर्वाण तन्त्र ४/१२)
बाह्य पूजा या मूर्ति-पूजा सबसे नीचे की अवस्था है; आगे बढ़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है, और सबसे उच्च अवस्था तो वह है, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाय। देखिये, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा है -

 न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकम्
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ 
- काठकोपनिषत् २-२-१५
 ' सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चन्द्रमा या तारागण ही; वह विद्युत्-प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती, तब इस सामान्य अग्नि की बात ही क्या ! वे सभी उसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं। 'पर वह किसीकी मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को ही पाप बताता है। वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता है। ' बालक ही मनुष्य का जनक है। ' तो क्या किसी वृद्ध पुरुष का बचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा? 
यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरुप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता है, तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा ? और जब वह उस अवस्था के परे पहुँच गया है, तब भी उसके लिये मूर्ति-पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है। 
हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा है, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा है। हिन्दू के मतानुसार निम्नतम जड़पूजावाद से लेकर सर्वोच्च ब्रह्मवाद तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने जन्म तथा साहचर्य की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धी के निमित्त मानवात्मा के विविध प्रयत्न हैं, और वह प्रत्येक उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता है। 'every soul is a young eagle ' प्रत्येक आत्मा उस युवा गरुड़ पक्षी के समान है, जो धीरे धीरे ऊँचा उड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्ति-सम्पादन करता हुआ 'till it reaches the Glorious Sun' अंत में उस भास्वर सूर्य तक पहुँच जाता है। 
' Unity in variety ' अनेकता में एकता प्रकृति का विधान है और हिन्दुओं ने इसे स्वीकार किया है। अन्य प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिबद्ध कर दिये गये है और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता है। वह समाज के सामने केवल एक कोट रख देता है, जो जैक, जॉन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिये। यदि वह जॉन या हेनरी के शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढँकने के लिये बिना कोट के ही रहना होगा। हिन्दुओं ने यह जान लिया है कि निरपेक्ष ब्रह्म-तत्व का साक्षात्कार, चिन्तन या वर्णन केवल सापेक्ष के सहारे ही हो सकता है, और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चन्द्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूंटियाँ हैं, जिनमें धार्मिक भावनायें लटकाई जाती हैं। ऐसा नहीं है कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर एक के लिये हो, किन्तु जिनको अपने लिये इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं है, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं कि वे गलत हैं। हिन्दू धर्म में वे अनिवार्य नहीं हैं। 
एक बात आपको अवश्य बतला दूँ। भारतवर्ष में मूर्ति-पूजा कोई जघन्य बात नहीं है। वह व्यभिचार की जननी नहीं है। वरन वह अविकसित मन के लिये उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय है। अवश्य, हिन्दुओं के बहुतेरे दोष हैं, उनके कुछ अपने अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिये कि उनके वे दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं, वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते। एक हिन्दू धर्मान्ध भले ही चित पर अपने आपको जला डाले, पर वह विधर्मियों को जलाने के लिये 'fire of Inquisition' 'इन्क्विजिशन ' न्यायिक परीक्षा की अग्नि कभी भी प्रज्ज्वलित नहीं करेगा। और इस बात के लिये उसके धर्म को उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता है। 
अतः हिन्दुओं की दृष्टि में समस्त धर्म-जगत भिन्न भिन्न रुचिवाले स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में से होते हुए एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा है, प्रगति है। प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव से एक ईश्वर का उद्भव कर रहा है, और वही ईश्वर उन सबका प्रेरक है। तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं ? हिन्दुओं का कहना है कि ये विरोध केवल आभासी हैं। उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरूप अपना समायोजन करते समय होती है। 
वही एक ज्योति भिन्न भिन्न रंग के काँच में से भिन्न भिन्न रूप से प्रकट होती है। समायोजन के लिये इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक है। परन्तु प्रत्येक के अन्तस्तल में उसी सत्य का राज्य है। ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिन्दुओं को यह उपदेश दिया है- 
 मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥ गीता ७/७॥ 
 ' प्रत्येक धर्म में मैं, मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ ! ' 

यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् ।।
गीता १०/४१ ।।
 तथा जहाँ भी तुम्हें मानव-सृष्टी को उन्नत बनानेवाली और पावन करने वाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखायी दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ है। '
और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ ? सारे संसार को मेरी यह चुनौती है कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक उक्ति तो दिखा दे, जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिन्दुओं का ही उद्धार होगा और किसी दूसरे का नहीं। व्यास देव ' वेदान्त सूत्र ' में कहते हैं 
अन्तरा चापि तु तद्दृष्टेः।। ब्रसू-३,४.३६ । 
" हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं। " एक प्रश्न और है -
- ' ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केन्द्रित करनेवाला हिन्दू अज्ञेयवादी (agnostic) बौद्ध धर्म और निरीश्वरवादी ( atheistic) जैन धर्म पर श्रद्धा कैसे रख सकता है ?' इसीलिये कि यद्दपि बौद्ध तथा जैन धर्म के अनुयायी ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते, तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महत्वपूर्ण केन्द्रीय सत्य-' मनुष्य में ईश्वरत्व का विकास ' की ओर उन्मुख रहती है। उन्होंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा है। और जिसने पुत्र को देख लिया, उसने पिता को भी देख लिया। 
भाइयो ! हिन्दुओं की धार्मिक मान्यताओं की यही संक्षिप्त रुपरेखा है। हो सकता है कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने में असफल रहा हो, पर यदि (सार्वभौमिक भ्रम ' Universal Error ' या सार्वभौमिक देहाध्यास को मिटा देने का उपाय बताने वाला) कभी कोई सार्वभौमिक धर्म ' Universal Religion ' होना है, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा, वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा; जिसका सूर्य श्रीकृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा, जो न तो ब्राह्मण होगा, न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम, वरन इन सबकी समष्टि होगा, किन्तु फिर भी जिसमें विकास के लिये अनंत अवकाश होगा; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से किंचित उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने ह्रदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना उपर उठ गये उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धा से अपना सीश झुका देता है और लोग जिसके मनुष्य होने में सन्देह करते हैं, उसे भी अपनी बाहुओं से आलिंगन कर सके और उनमें सबको स्थान दे सके। वह धर्म ऐसा होगा, जिसकी नीति में उत्पीड़न या असहिष्णुता के लिये कोई स्थान नहीं होगा; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में अन्तर्निहित दिव्यता को स्वीकार करेगा और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य मानवता को अपने यथार्थ स्वरुप, अपनी अन्तर्निहित दिव्यता का साक्षात्कार करने के लिये सहायता देने में ही केन्द्रित होगा। 


 Verily, verily I say unto thee, except a man born be born again, he cannot see the Kingdom of God.

( चेतावनी : वैज्ञानिक मानसिकता के साथ इस वैदिक धर्म को एवं सनातन सिद्धांतों को जानने जानने के लिये निवृत्ति मार्गी युवाओं के साथ साथ प्रवृत्ति मार्गी युवाओं को भी, चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण प्राप्त करके द्वारा यथार्थ ' मनुष्य ' बनना  होगा। 'आदर्श मनुष्य' बने बिना, केवल पुस्तक पढ़कर या किसी आशाराम टाईप 'नकली-सन्त' के निर्देशन में ऋषि (या नेता) बनने का प्रयत्न करेंगे तो मस्तिष्क बिगड़ भी सकता है। )
" If there is ever to be a universal religion, (to expunge universal Error)  it must be one which will have no location in place or time; which will be infinite like the God it will preach, and whose sun will shine upon the followers of Krishna and of Christ, on saints and sinners alike; which will not be Brahminic or Buddhistic, Christian or Mohammedan, but the sum total of all these, and still have infinite space for development; which in its catholicity will embrace in its infinite arms, and find a place for, every human being, from the lowest grovelling savage not far removed from the brute, to the highest man towering by the virtues of his head and heart almost above humanity, making society stand in awe of him and doubt his human nature. It will be a religion which will have no place for persecution or intolerance in its polity, which will recognise divinity in every man and woman, and whose whole scope, whose whole force, will be created in aiding humanity to realise its own true, divine nature. 
आप ऐसा ही धर्म जगत के सामने सामने  रखिये, और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जायेंगे ! (भारत माता फिर से अपनी गौरवशाली सिंहासन पर विराजमान हो जायेगी !!!) सम्राट अशोक की परिषद बौद्ध परिषद थी। अकबर की परिषद अधिक उपयुक्त होती हुई भी, केवल बैठक-विनोद गोष्ठी भर ही थी। किन्तु पृथ्वी के कोने कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिये सुरक्षित था कि ' प्रत्येक धर्म में ईश्वर हैं! ' 
वह जो हिन्दुओं का ब्रह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धों का बुद्ध, यहूदियों का जिहोवा और ईसाईयों का स्वर्गस्थ पिता है, आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यान्वित करने की शक्ति प्रदान करे ! 
नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुँधला और कभी देदीप्यमान होते धीरे धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते करते उसने समस्त जगत की परिक्रमा कर डाली और अब ' वह ' (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के रूप में आविर्भूत होकर) एकबार फिर से प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा है! 
हे स्वाधीनता की मातृभूमि कोलम्बिया (अमेरिका), तू धन्य है ! यह तेरा ही सौभाग्य है कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने हाथ नहीं भिगोये, तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हरण कर सहज में ही धनी और सम्पन्न होने की चेष्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था ।  

बुधवार, 21 अगस्त 2013

' आदर्श मनुष्यों (Ideal Man ) का निर्माण करने वाला संगठन ' [ Ideal and Organisation]

स्वामी विवेकानन्द की योजना के अनुसार गाँव गाँव में आदर्श मनुष्यों (Ideal Man ) का निर्माण करने वाले संगठन (Organization) के नेताओं का निर्माण करने में पाठ-चक्र की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
सामान्य कक्षा में वक्ता और श्रोता के बीच दूरी होती है, इस विशेष कक्षा में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से Ideal and Organisation अर्थात स्वामी विवेकानन्द को आदर्श मानकर उनकी शिक्षाओं के अनुरूप आदर्श-मनुष्यों के निर्माण लिये नये पाठ-चक्र की स्थापना कैसे होती है, उसकी जानकारी दी जायेगी। भारत के विभिन्न स्थानों से आये प्रशिक्षणार्थियों, शाखा संचालकों को या जो लोग इस कैम्प में पहली बार आये हैं, यदि उन्हें महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम अच्छा लगा हो, और वे अपने गाँव या इलाके में इसकी शाखा खोलना चाहते हों, या किसी पुराने पाठ-चक्र के संचालक को अपने संगठन के संचालन में यदि कोई कठिनाई हो, या कोई प्रश्न हो, तो आप इस विशेष प्रशिक्षण कक्षा में उसको अपनी भाषा में पूछ सकते हैं, यहाँ से उसी भाषा में उसका उत्तर दिया जायेगा।
श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति मार्गी या संन्यासी थे;किन्तु उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं. प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम् अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है।गीता में 'योग शब्द प्रवृत्ति मार्ग अर्थात 'कर्मयोग' के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने निवृत्ति मार्ग के अधिकारीयों के लिये १८९७ में एक संगठन बनाया ' रामकृष्ण मठ और मीशन ' तथा आदर्श-वाक्य दिया 'आत्मनो मोक्षार्थम् जगत् हिताय च' – For one's own salvation and for the welfare of the world ! जिसका मुख्यालय बेलुड़, पश्चिम बंगाल में  है.

यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। मनु महाराज कहते हैं- विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि -निवृत्तिअस्तु महाफला।  
  
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
     प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला । ।
 मनुस्मृतिः५.५६ । ।
 अर्थ-मांसभक्षण,मद्यपान और मैथुन में दोष नहीं है। मनुष्यों में यह गुण प्रकृति प्रदत्त हैं, किन्तु इनसे निवृत्ति लेना अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि निवृत्ति ही सबसे बड़ा फल है !
चारे में जब मछली फंसती है, तो वह डोर को खींचने लगती है, उस समय डोर को ढील देनी पड़ती है; डोर को ढील देते हुए मछली को थोड़ी देर तक खाने देना पड़ता है, बाद में मछली को खींच लिया जाता है. पहले ही खींचने से डोरी टूट जाएगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण जिस व्यक्ति में भोग-वासना अधिक देखते थे, उन्हें थोड़ा भोग कर लेने के लिये कहते थे, किन्तु अन्त में यह भी जोड़ देते थे -" लेकिन यह जान लेना कि इसमें कुछ रखा नहीं है ! " श्रुति भगवती बहुत दयालु है, यदि किसी को पुत्र की कामना हो, तो उसके लिये पुत्रेष्टि-यज्ञ का विधान दिया है. यहाँ तक कि शत्रू-नाश, अन्न वृद्धि आदि के लिये भी यज्ञ का करने का विधान है. ऐसा करके शास्त्र हमें असत कर्म करने लिये प्रोत्साहित नहीं करते, इसप्रकार उसके भोग-प्रवण मन को क्रमशः शास्त्रोमुखी बनाने की ही चेष्टा करते हैं.
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -' जब तक सम्पूर्ण जगत यह नहीं जान लेता कि वह और ईश्वर एक है, तब तक मैं हर जगह के मनुष्यों को अनुप्रेरित करता ही रहूँगा ' " It may be that I shall find it good to get outside of my body -- to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God !
 अपने इसी वचन को प्रमाणित करते हुए, हम जैसे गृहस्थ या प्रवृत्ति मार्गी पुरुषों या कर्म -योगियों के लिये उनकी ही प्रेरणा से १९६७ ई० में ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' नामक संगठन की स्थापना हुई। जिसका आदर्श वाक्य है ' Be and Make ' और नारा है ' चरैवेति चरैवेति ' -अर्थात आगे बढ़ो, आगे बढ़ो! इसका मुख्यालय ' भुवन-भवन ' पो० बलराम धर्म सोपान,  खरदा,उत्तर २४ परगना, ७००११६, पश्चिम बंगाल में है. इस समय भारत के विभिन्न राज्यों में इसके ३१५ से अधिक केन्द्र क्रियाशील हैं, और निरन्तर इसकी शाखायें हिन्दी भाषी प्रदेशों में भी खुलती जा रही हैं.  उसी प्रकार निवृत्ति मार्गी स्त्रियों के लिये भी एक मठ दक्षिणेश्वर में है, और प्रवृत्ति मार्गी स्त्रियों के लिये महामण्डल की सहयोगी संस्था (Sister concern )  के रूप /में ' सारदा नारी संगठन ' भी कार्यरत है. यदि भारत में महामण्डल की स्थापना नहीं हुई होती तो हम जैसे अधिकांश गृहस्थ आदर्श के अभाव में शास्त्रोक्त धर्म को छोड़ देते (और 'चार-धाम की यात्रा से मोक्ष मिलता है' -सोचकर उत्तराखण्ड में बादल फटने से मोक्ष को प्राप्त हो गये होते।)  
महामण्डल द्वारा संचालित पाठचक्र का उद्देश्य ' Ideal Man ' आदर्श-मानव का निर्माण करना है। 'one-sided man ' एक पक्षीय मनुष्य को ' Ideal Man ' में या 'man with capital M' में रूपान्तरित करना है। विश्व की जनसंख्या ६ अरब है, किन्तु उनमें मनुष्यत्व का उन्मेष नहीं हुआ है; इसीलिये आम तौर से विश्व भर में humanity या मानवता का घोर आभाव दिखाई दे रहा है। किन्तु जो अभिभावक या नेता ' तुम तो ऐसे सुधरोगे नहीं !' जैसी टीका-टिप्पणी करके मनुष्य निर्माण करना कहते हैं, वे नहीं जानते कि प्रत्येक मनुष्य का शरीर भगवान मन्दिर है ! इसीलिये किसी के चरित्र में दुर्बलता दिखे, या कमजोरी दिखे तब भी कहीये नहीं ! उसका उत्साह नहीं बढ़ायेंगे तो वह लड़ लेगा और संगठन को नुकसान पहुंचेगा। यदि किसी को वातावरण या कुसंग के प्रभाव से अनजाने ही पीने वालों की संगती हो गयी हो, तो उससे भी मीठा रहिये- महामण्डल सदस्य को दवा छोड़ कर ' अंगूर ' का जूस या जिस किसी पेय में अल्कोहल हो, उसे हाथ भी नहीं लगाना चाहिये;  अंगूर का रस छोड़ कर बाकी सब फल का रस पी सकते हो, ऐसे समझाना चाहिये। हमारे जीवन का लक्ष्य और संकल्प होना चाहिये -चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण !
भावी संचालकों (नेताओं) को सबसे पहले अपने गाँव के किसी स्कूल में या सुविधाजनक स्थान में, या किसी मैदान में पेड़ के नीचे जहाँ तरुण और युवा लोग शाम को एकत्र होते हैं, वहाँ पहुंचकर उनसे कहें, आओ हमलोग अपने गाँव में भी स्वामी विवेकानन्द के विचारों तथा जीवन गठन के भावों को तथा नया भारत गढ़ने की उनकी योजना को कार्यरूप देने के लिये एक साप्ताहिक पाठ चक्र का शुभारम्भ करें ! उनको स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्र को आह्वान, विवेकानन्द संक्षिप्त जीवनी, शक्तिदायी विचार, महामण्डल द्वारा प्रकाशित कुछ पुस्तिकाओं यथा- 'जीवन-गठन ' 'मनः संयोग', 'चरित्र के गुण', 'चरित्र-निर्माण कैसे करें', 'एक युवा आन्दोलन' आदि  को उन्हें दिखलाते हुए, उन्हें अपनी भाषा में सामूहिक रूप से पढ़कर, उस पर चर्चा करके उन्हें अनुप्रेरित करें कि इन अच्छे विचारों को अपनाने से हमारा, हमारे परिवार, समाज और देश का बहुत भला हो सकता है. आरम्भ में विवेकानन्द साहित्य के मोटे वोल्यूम को सामूहिक रूप में पढ़ना ठीक नहीं होगा, कोई सदस्य चाहे तो अलग से अपने घर में पढ़ सकता है.
 महामण्डल एक त्री -आयामी संगठन है, जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम " विवेकानन्द युवा पाठचक्र " की स्थापना की जाती है. सभी सदस्यों को सबसे पहले (महामण्डल PC ) पाठचक्र के उद्देश्य के विषय में स्पष्ट अवधारणा होनी चाहिये, इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि इसका सार, मौलिक कार्य क्या है ? हमें आदर्श मनुष्य बनना है, एक आयामी मनुष्य से त्री-आयामी मनुष्य बनना है , one sided man नहीं रहना है. इसके लिये अपने किसी ऐसे ही आदर्श के साँचे में अपने जीवन को ढाल कर अपना जीवन गढ़ लेना पड़ता है. उसके लिये ५ कार्य प्रार्थना, मनःसंयोग, संकल्प-ग्रहण सूत्र आदि का अभ्यास प्रतिदिन करना है. (व्रत तो आप लोग रहते होंगे ? १७ अगस्त को एकादसी है, कठोर तप करें कृपा बरसेगी,आप अनुभव करेंगे।)  इन्हें करने से क्या लाभ होगा ? विवेक-प्रयोग ही स्वाभाव बन जायेगा, दृढ़ संकल्प और प्रचण्ड इच्छा शक्ति की सहायता मन वशीभूत हो जायेगा, हमारे द्वारा केवल सद्कर्म ही होंगे, उससे सद्प्रवृत्ति बन जाएगी, और सद्चरित्र गठित हो जायेगा।
जब आपके इलाके के कुछ प्रबुद्ध निवासी आपके इस शुभ संकल्प को देखकर अनुप्रेरित हो जाएँ, तो सबसे पहले अपने गाँव या शहर का नाम आगे लिखकर पाठ चक्र स्थापित करें ' ग्राम का नाम' विवेकानन्द युवा पाठचक्र " के नाम से नया पाठचक्र अपने गाँव या शहर में स्थापित कर सकते हैं. पूरी निष्ठा के साथ और नियमित रूप से विवेकानन्द को पढ़ें, विवेक-जीवन या विवेक-अंजन पढ़ें, केंद्र के साथ नियमित सम्पर्क में रहिये.  फिर उसके अनुमोदन हेतु रजिस्टर्ड ऑफिस -' भुवन-भवन ' के सम्पर्क में रहते हुए मासिक रिपोर्ट भेजते रहें। कुछ महीनों तक कार्य करने के बाद, 'भुवन-भवन ' के परामर्श के अनुसार एक दिवसीय शिविर का आयोजन कर लेते हैं, तो आपके केन्द्र को ' युवा महामण्डल ' का नाम व्यवहार करने की अनुमति दी जा सकती है. यह प्रयास तभी करें जब आपको यह विश्वास हो जाये कि यह संगठन अब कभी बन्द नहीं हो सकता है. युवा महामण्डल का स्थायी-प्रतिनिधि के निर्देशानुसार महामण्डल संचालन समिति का गठन करने के बाद, समिति का अनुमोदन केन्द्रीय संस्था से करवा केन चाहिये। यह अनुमति मिल जाने के बाद आप अपने लेटर पैड  पर महामण्डल का 
 ' monogram'  या नाम-चिन्ह  का व्यवहार कर सकते हैं; और दो, दो, महीने पर रिपोर्ट भेज सकते हैं.
फिर जब त्रि-दिवसीय शिविर का आयोजन कर लेते हैं, या समीति को ऐसा लगे कि इस केन्द्र के पास महामण्डल-ध्वज,बिगुल,शिविर में प्रातः काल बजने वाला दादा का गाया चैंटिंग CD भी होना चाहिये तो, किसी पुराने केन्द्र से जानकारी प्राप्त करके केन्द्र से सम्बद्ध करने का आवेदन फॉर्म प्राप्त कर लें,और उसे भर कर मुख्यालय  भेज दें. संबंधन अनुमति (affiliation) मिल जाने बाद ही, और अब आप ३ महीने पर रिपोर्ट भेज सकते हैं. इसके पीछे कारण यही है, कि जब पौधा छोटा होता है, तो उसको अधिक नजदीक से देख-भाल करनी पड़ती है.
अतः पाठ-चक्र से भी महामण्डल का उतना ही घनिष्ट सम्बन्ध है, जितना किसी संबंधन प्राप्त केन्द्र का. क्या आपको स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य निर्माण-कारी शिक्षा-पद्धति में पूर्ण आस्था है, क्या आप केवल स्वामी विवेकानन्द को ही अपना आदर्श स्वीकार करते हैं ? क्या आप यह स्वीकार करते हैं कि स्वामीजी ही हमारे मार्गदर्शक नेता हैं ? (मूर्ति माने बिन, सगुन को जाने बिन ? जइयो कहाँ ऐ हुजूर ? समस्त साधना ही व्यर्थ है! धर्म हमेशा 'अवतार' का, 'सगुण-साकार' का समर्थक होता है) यदि इन प्रश्नों का उत्तर हाँ है, तो आप के इकाई का नाम पाठ चक्र हो या महामण्डल आप हमारे लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं ! महामण्डल अपने पाठ चक्र और प्रशिक्षण-शिविर आदि के माध्यम से -ज्ञान,कर्म,भक्ति और राजयोग -चारों मार्गों का समन्वयव करके आदर्श मनुष्यों का निर्माण करने का प्रयास करता है.हम कौन हैं ? जीवन क्या है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? पाठ चक्र में इसी प्रकार ज्ञान-योग के द्वारा चिन्तन-मनन किया जाता है . पाठ चक्र में जिस पुस्तिका से पाठ चल रहा है, उसके खत्म हो जाने के बाद ही, दूसरी को लेना चाहिए।
प्रत्येक केन्द्र में पाठ चक्र शुरू होने के पहले, एक हस्ताक्षर-पंजी पर हस्ताक्षर और ५ कार्यों का साप्ताहिक आत्ममुल्यांकन करने के बाद , हिन्दी में महामण्डल द्वारा हिन्दी प्रकाशित स्वदेश-मन्त्र और संघ-मन्त्र संस्कृत और हिन्दी अनुमोदित धुन के अनुसार पाठ करना चाहिये। पाठचक्र की अवधि १.३० घन्टे से २ घन्टे तक हो सकती है, आधा घन्टा तो प्रार्थना और स्वदेश-मन्त्र में चला जाता है, किन्तु २ घन्टे से अधिक समय तक पाठ चक्र न होना ही अच्छा है. उतना ही खाओ, जितना पच सके. 
अखिल भारत विवेकानन्द तो समझा लेकिन ' महामण्डल '-का क्या अर्थ है ? एक वृहत वृत में भारत के मानचित्र के दक्षिणी प्रान्त पर स्वामीजी परिव्राजक के वेश-भूषा में खड़े हैं.इसका तात्पर्य है कि महामण्डल किसी खास जाति या धर्म के लोगों का संगठन नहीं है, जो भी मनुष्य भारतमाता को जीवन्त मूर्ति समझकर, इसके समस्त सन्तानों को अपने ह्रदय से प्रेम करते हों वे इसके सदस्य बन सकते हैं. १८८७ में उन्होंने संन्यास लिया था, १८९० से अगस्त १८९३ तक परिव्राजक जीवन था, इसीलिये हाथ में लाठी थी. किनारे किनारे वज्र का प्रतीक है, नीचे ' Be and Make ' लिखा है, उपर में 'चरैवेति चरैवेति ' लिखा है. भारत की सम्पूर्ण जनसंख्या को देश-भक्ति के रंग में रंग देंगे, चरित्र-निर्माण आन्दोलन देश के हर गाँव में पहुँचा देंगे इसी संकल्प के साथ हमें भी स्वामीजी के पीछे पीछे चलते जाना है!
उनके गुरु ने अपने शिष्य नरेन्द्रनाथ के उपर सम्पूर्ण जगत में उस 'शिक्षा'  का प्रचार-प्रसार करने का उत्तरदायित्व सौंपा था जिसे वेदों में, 'श' के साथ 'ई' की मात्रा लगा कर "शीक्षा" कहा जाता है। (तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा-वल्ली ' देखें वहाँ शिक्षा को 'शीक्षा' लिखा गया है ) जो शिक्षा मनुष्य को पैगम्बर या मानवजाति के सच्चे 'नेता' में परिणत कर दे उसी को 'शीक्षा' कहते हैं। इसीलिये 'अनपढ़ ठाकुर' ने स्लेट पर लिखा था- " नरेन् शिक्षा देगा ! " और उसी 'शीक्षा'  को प्राप्त करके भारतवासी मानवजाति के पथप्रदर्शक या सच्चे नेता बनेंगे।
 
 और तब हमारी भारतमाता अपने "जगद्गुरू" के गौरवशाली सिंहासन पर फिर से विराजमान हो जाएगी। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं का आह्वान करते है-
 'चरैवेति चरैवेति!' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो !  
देखो यह अवसर कहीं बीत न जाये। वे हमे सचेत करते हुए कहते हैं- " समय तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा है, किन्तु अपने आमोद पूर्ण जीवन से सन्तुष्ट, अपने सुन्दर प्रसादों में मनोरम वस्त्राभूषणों से विभूषित, अनेकविध भोज्य  पदार्थों से तुष्ट; हे मोहनिद्रा में अभिभूत नर-नारियों! ..जगत के इस महा सत्य पर विचार करो, संसार में चारो ओर दुःख ही दुःख है।देखो,संसार में पदार्पण करता हुआ शिशु भी वेदनापूर्ण रुदन करने लगता है। यह एक हृदयविदारक सत्य है।  
कभी कभी इन उपदेशों को भूलकर मैं मोह से अभिभूत हो जाता हूँ। तब इस स्थिति में हठात तथागत बुद्ध का सन्देश मुझे सुनाई पड़ता है-'सावधान ! संसार के सकल पदार्थ नश्वर हैं। संसार दुःखमय है। 
" सर्वं दुःखम् अनित्यम् ध्रुवम् "
तभी मेरे कानों में ईसा की घोषणा गूंजने लगती है-
"प्रस्तुत रहो ! (अर्थात मन को एकाग्र करने का अभ्यास करो !), स्वर्गराज्य अत्यन्त समीप है !"

स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था, कि  "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है।" उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? सत्ययुग कहने से हमलोगों को क्या समझना चाहिये? क्या यही कि - श्रीरामकृष्ण आये, और जितनी भी अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अपवित्रता मैलापन आदि भाव समाज में थे, वे सभी समाप्त हो गये-सब कुछ सुन्दर हो गया और मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये !  किन्तु हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि युगपरिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है, 

कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । 

चरैवेति चरैवेति॥
 -सोये रहने का नाम है कलिकाल में रहना, जब नींद टूट गयी तो द्वापर में रहना कहेंगे, जब उठ कर खड़े हो गये तब जीवन में त्रेता युग चलने लगता है; फिर जब चलना शुरू कर दिये, तब उसे सत्ययुग में रहना कहते हैं। इसलिये सत्ययुग का लक्ष्ण है, निरन्तर आगे बढ़ना-"चरैवेति चरैवेति।"    जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है,  जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे बढ़ता जाता है, उसका भाग्य भी आगे बढ़ता जाता है, इसीलिये- 
" हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! आगे बढो, आगे बढो ! "

सोये रहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य सोया हुआ है- "कलिः शयानो भवति" वह अभी ' कलिकाल में वास 'कर रहा है, और स्वामीजी की ललकार -  सुनने से जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, " संजिहानस्तु द्वापरः" वह द्वापर युग में वास कर रहा है. 

" उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति |"

- जो व्यक्ति (पुरुषार्थ करने के लिये ) उठ कर के खड़ा हो जाता है- अर्थात मनुष्य बन जाने के लिये, अपना चरित्र-निर्माण करने के लिये कमर कस कर उठ खड़ा होता है, वह त्रेता युग में वास कर रहा है, 

" कृतं संपद्यते चरन् । "

और अपनी मंजिल की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है,अर्थात जो व्यक्ति मनुष्य बन जाने के लिये तप करना (मन को एकाग्र करने का अभ्यास ) शुरू कर दिया है, वह मानो सत्य युग में वास कर रहा होता है।
 महामण्डल-ध्वज में वज्र का सम्पूर्ण चित्र अंकित है, इसके ' गुम्फाक्षर '(monogram) में उसका केवल प्रतीक अंकित है. यह वज्र ही देवासुर संग्राम में वृत्तासुर को मारने वाला अस्त्र है। 


योऽध्रुवेणात्मना नाथा न धर्म न यशः पुमान् ।
ईहेत भूतदयया स शोच्यः स्थावरैरपि ॥

( श्रीमद्भा० ६।१०।८ )
' जो पुरुष नाशवान् शरीरके द्वारा समर्थ होकर भी प्राणियोंपर दया करके धर्म या यश प्राप्त करनेकी इच्छा, चेष्टा, प्रयत्न नहीं करता, वह तो स्थावर वृक्ष - पर्वतादिके द्वारा भी शोचनीय है; क्योंकि वृक्ष - पर्वतादि भी अपने शरीरके द्वारा प्राणियोंकी सेवा करते हैं ।'
देवराज इन्द्र ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि ' जो कोई अश्विनीकुमारोंको ब्रह्माविद्याका उपदेश करेगा, उसका मस्तक मैं वज्रसे काट डालूँगा ।' वैद्य होनेके कारण अश्विनीकुमारोंको देवराज हीन मानते थे । अश्विनीकुमारोंने महर्षि दधीचिसे ब्रह्मविद्याका उपदेश करनेकी प्रार्थना की । एक जिज्ञासु अधिकारी प्रार्थना करे तो उसे किसी भय या लोभवश उपदेश न देना धर्म नहीं है । महर्षिने उपदेश देना स्वीकार कर लिया । अश्विनीकुमारोने ऋषिका मस्तक काटकर औषधद्वारा सुरक्षित करके अलग रख दिखा और उनके सिरपर घोड़ेका मस्तक लगा दिया । इसी घोड़ेके मस्तकसे उन्होंने ब्रह्माविद्याका उपदेश किया । इन्द्रने वज्रसे जब ऋषिका वह मस्तक काट दिया, तब अश्विनीकुमारोंने उनका पहला सिर उनके धड़से लगाकर उन्हें जीवित कर दिया । इस प्रकार ब्रह्मपुत्र अथवां ऋषिके पुत्र ये दधीचिजी घोड़ेका सिर लगनेसे अश्वशिरा भी कहे जाते हैं ।
जब त्वष्टाके अग्नि - कुण्डसे उत्पन्न होकर वृत्रासुरने इन्द्रके स्वर्गपर अधिकार कर लिया और देवताओंने अपने जिन अस्त्रोंसे उसपर आघात किया, उन अस्त्र - शस्त्रोंको भी वह असुर निगल गया, तब निरस्त्र देवता बहुत डरे । कोई और उपाय न देखकर देवता ब्रह्माजीकी शरणमें गये । ब्रह्माजीने भगवानकी स्तुति की । भगवानने प्रकट होकर दर्शन दिया और बताया - कि यह युद्ध तो अच्छाई और बुराई के बीच चलने वाला युद्ध है, जब कोई व्यक्ति लोक-कल्याण की इच्छा से जीवित अवस्था में अपनी हड्डियों का दान कर देगा, और उससे जो वज्र बनेगा, उसी से असुर मरेगा। ' महर्षि दधीचिकी हड्डियाँ उग्र तपस्याके प्रभावसे दृढ़ तथा तेजस्विनी हो गयी हैं । उन हड्डियोंसे वज्र बने, तभी इन्द्र उस वज्रसे वृत्रको मार सकते हैं । महर्षि दधीचि मेरे आश्रित हैं, अतः उन्हें बलपूर्वक कोई मार नहीं सकता । तुमलोग उनसे जाकर याचना करो । माँगनेपर वे तुम्हें अपना शरीर दे देगे ।'
देवता साभ्रमती तथा चन्द्रभागाके सङ्गमपर दधीचिऋषिके आश्रममें गये । उन्होंने नाना प्रकारसे स्तुति करके ऋषिको सन्तुष्ट किया और उनसे उनकी हड्डियाँ माँगीं ।
 महर्षिने कहा कि उनकी इच्छा तीर्थयात्राचा करनेकी थी । इन्द्रने नैमिषारण्यमें सब तीर्थोका आवाहन किया । वहाँ स्त्रान करके दधीचिजी आसन लगाकर बैठ गये । जिस इन्द्रने उनका सिर काटना चाहा था, उन्हीके लिये ऋषिने अपनी हड्डियाँ देनेमें भी सक्कोच नहीं किया ! शरीरसे उन्हें तानिक भी आसक्ति नहीं थी । एक - न - एक दिन तो शरीर छूटेगा ही । यह नश्चर देह किसीके भी उपयोगमें आ जाय, इससे बड़ा और कोई लाभ नहीं उठाया जा सकता । महर्षिने अपना चित्त भगवानमें लगा दिया । मन तथा प्राणोंको हदयमें लीन करके वे शरीरसे ऊपर उठ गये । जङ्गली गायोंने अपनी खुरदरी जीमोंसे महर्षिके शरीरको चाट - चाटकर चमड़ा, मांसादि अलग कर दिया । इन्द्रने ऋषिकी हड्डी ले ली । उसी हड्डीसे विश्वकर्माने वज्र बनाया और उस वज्रसे इन्द्रने वृत्रको मारा । इस प्रकार एक तपस्वी दधिची के अनुपम त्यागसे इन्द्रकी, देवलोककी वृत्रासुर से रक्षा हुई ।
वज्र अच्छाई की संगठित-शक्ति का प्रतिक है, जिसके द्वारा बुराइयों को जीता जा सकता है. भगिनी निवेदिता ने -गेरुआ पर वज्र के निशान वाले पताका को  स्वाधीन-भारत का राष्ट्रीय-ध्वज बनाने का प्रस्ताव दिया था, किन्तु हमारे छद्म-धर्मनिर्पेक्ष राजनितिक नेताओं ने उनके द्वारा निर्मित पताका को 'भगवा-पताका ' की संज्ञा देकर अस्वीकार कर दिया. उसी ध्वज को महामण्डल-ध्वज के रूप में चुन लिया गया है।
मासिक रिपोर्ट में किन बातों का उल्लेख करना है ? अभी क्या पढ़ा जा रहा है, कितना अटेंडेंस कितना होता है ? सभी सदस्य विवेक-प्रयोग, प्रेम प्रयोग, आदि ५ कार्य करते हैं या नहीं ? यदि करते हैं तो उसका फल क्या हो रहा है ? यदि अब भी लेट आता है, तो क्या कारण है ? जो टी.वि सिनेमा के कारण लेट आता हो,वह महामण्डल कर्मी नहीं हो सकता। मुख्य कार्य आत्मविकास करके Ideal Man  में रूपान्तरित हो जाना है.इस कार्य में फल कितना मिल रहा है ? प्रतिमाह महामण्डल सचिव को इ-मेल से जानकारी देना चाहिये,एवं शिविर अथवा जयन्ती आयोजित करनी हो तो, सारे कार्यक्रम की जानकारी - जैसे ध्वजा रोहन कैसे व्यक्ति से करवानी चाहिए ? मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि बनने का निमंत्रण किन लोगों को भेजना उचित है; इन सब विषयों पर महामण्डल की केन्द्रीय समीति से दिशानिर्देश पहले प्राप्त कर लेना चाहिये।
किसी भी आयोजन के लिये केन्द्र से मार्गदर्शन प्राप्त करना क्यों अनिवार्य है?  क्योंकि साधारण तौर से जो लोग केवल अख़बारों में अपना नाम छपवाने के लिये महापुरुषों (तुलसीदास, कबीरदास, मुंशी प्रेमचन्द, राम-हनुमान, रानीसती दादी, खाटूवाले श्यामबाबा या स्वामी विवेकानन्द की 'सार्धशती  या जयन्ती ' )  आदि मनाते हैं, वे स्वयं को जनाने के उद्देश्य से ही यह सब आयोजन करते हैं, उन्हें उनकी चरित्र-निर्माणकारी शिक्षाओं से कुछ लेना-देना नहीं होता। किन्तु महामण्डल सम्पूर्ण भारत को अपना परिवार मानता है, इसीलिये बच्चों में क्या संस्कार डाले, कैसे डालें इस शिक्षा को गाँव-गाँव तक या प्रत्येक परिवार में पहुंचा देना ही पाठचक्र का उद्देश्य है.अतः अपना सुन्दर जीवन गठन करने के साथ साथ (simultaneously), महामण्डल के नेताओं को ' ब्रह्म', 'परमात्मा' और 'भगवान' का अर्थ समझ लेने के बाद, सारे संकोच त्याग कर, उच्च स्वर से घोषणा करनी होगी कि - " इस युग के आदर्श स्वामी विवेकानन्द हैं, तथा इस युग के भगवान श्रीरामकृष्ण हैं! " जब तक भारतवर्ष इस आदर्श को स्वीकार नहीं कर लेता,तब तक - मुर्दा-घाट (जैसे राज-घाट आदि) पर विदेशियों से माला-फूल चढ़वा कर,नकली महात्मा और नकली भगवानों की पूजा करते रहने से चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण नहीं हो सकता, और भारत एक भ्रष्टाचार-मुक्त महान देश भी नहीं बन सकता. अतः इस युग में टी.वी. पर चलने वाला भागवत-रामायण का कथा वाचन यदि वयोवृद्ध लोग सुनते हों तो सुने; किन्तु युवाओं को स्वामी विवेकानन्द के सन्देश -Be and Make से परिचित कराना सभी देशभक्त सन्तों का परम कर्तव्य होना चाहिये ! मन को वश में करने की दवा -अभ्यास और वैराग्य ही है, किन्तु वैराग्य का नाम सुनने से मुँह का स्वाद कड़वा हो जाता है, इस लिये ह्लोग उसको लालच कम करना कह सकते हैं,क्योंकि यदि कड़वी दवा हो, तो शहद मिलाकर दो लेकिन पिलाओ जरुर।
जो युवा नेता गाँव गाँव में स्वामी विवेकानन्द की योजना के अनुसार आदर्श मनुष्यों (Ideal Man ) का निर्माण करने वाले नेताओं का निर्माण करने वाले संगठन (Organization) की स्थापना करने में अगुवा बनना चाहते हैं, उनको पहले यह समझना होगा कि आदर्श मनुष्य कैसा होता है ? वैसे मनुष्य कैसे तैयार किये जाते हैं? 
मनुष्य के तीनों अवयव-'3H ' में fully developed मनुष्य-निर्माण का कार्य प्रतिमा गढ़ने जैसा कलाकारी का कार्य है! जो शिल्पकार को मूर्ति गढ़ना जानते हैं, उनके पास लकड़ी, बाँस, पुआल, मिट्टी आदि जमा कर दिया जाय तो वह सुन्दर मूर्ति गढ़ लेता है. जीवन गढ़ना भी ठीक उसी प्रकार का कार्य है.इसकी शुरुआत पहले स्वयं को चरित्रवान मनुष्य के रूप में गढने से होनी चाहिये। आदर्श मनुष्य का निर्माण कैसे होता है, इसको समझने और समझाने के लिये ' जीवन गठन ' पुस्तिका से PC का प्रारम्भ करना अच्छा होगा। 
स्वामी विवेकानन्द ने भारत के भावी नेताओं के निर्माण का जो मानदण्ड रखा है, उसके अनुसार - " आदर्श मनुष्य का मन-मस्तिष्क शंकर के जैसा मेधा-सम्पन्न होगा, ह्रदय बुद्ध के जैसा विशाल होगा, जो एक मेमने की रक्षा के लिये भी अपने प्राणों को न्योछावर करने के को तत्पर रहेगा। और उसका शरीर इतना सुगठित होगा कि वह अथक परिश्रम करने से कभी थकेगा नहीं।" ऐसा ही आदर्श मनुष्य ' बनना और बनाना ' महामण्डल के नेताओं उद्देश्य है.  जीवन को परिभाषित करते हुए स्वामीजी ने कहा है-" Life is unfoldment and development of a being (प्राणी ) under the circumference tending to press it down." अर्थात एक अन्तर्निहित शक्ति (पूर्णता) अपने को अभिव्यक्त करना चाह रही है, और वाह्य परिवेश तथा परिस्थितियाँ उसको दबाये रखना चाहती हैं, परिस्थिति और परिवेश के दबाव को हटाकर पूर्ण विकसित हो जाना जीवन है! किन्तु मन को नियंत्रित करने का कौशल सीखे बिना, इन्द्रियाँ और विषय-भोग हमें पशु जैसा जीवन जीने को विवश किये रहते हैं। इसीलिये हमारे शास्त्रों में ज्ञान प्राप्ति का उपाय बताया गया है -श्रवण, मनन और निदिध्यासन! क्योंकि जो कुछ हमने सुना है, जब तक उसका अर्थ हमारी बुद्धि के सामने स्पष्ट नहीं होता, तब तक उस विषय की धारणा नहीं हो पाती है.
 3H का विकास अर्थात ' Head-Hand-Heart ' का विकास - मेधा या बुद्धि का अधिष्ठान मस्तिष्क में है, प्रेम और सहनुभूति का अधिष्ठान ह्रदय में होता हा, आदर्श मनुष्य केवल एक या दो पहलुओं में ही विकसित नहीं होता, उसके तीनों पहलु सुसमन्वित रूप में विकसित होते हैं. यदि हममें कर्म करने की शक्ति तो रहे, किन्तु बुद्धि न हो तो हमें 'एक पक्षीय ' मनुष्य कहा जायेगा। या बुद्धि भी रहे, किन्तु ह्रदय का विकास नहीं हुआ हो, हमारा ह्रदय यदि आत्मकेन्द्रित हो, तो दूसरों के सुख-दुःख को देखकर मेरा ह्रदय द्रवित नहीं होगा। इस प्रकार हम आदर्श मनुष्य 'Ideal Man ' न बनकर One sided man ही बने रहेंगे। आदर्श मनुष्य बनने के लिये ' 3H development process ' या 3H विकास की पद्धति का अनुसरण करना होगा।  
मनुष्य का पहला ' H ' (Hand) या प्रमुख अवयव शरीर है इसकी शक्ति का विकास कैसे होगा ?- इसका उपाय स्वामी विवेकानन्द ने बताया है। दैहिक(Hand) शक्ति को बढ़ाने का उपाय है, व्यायाम और पौष्टिक आहार। इसका नियमित अभ्यास करने से दुर्बल भी बलवान हो जायेगा, सारा दिन काम करने से भी उसको थकावट नहीं होगी। अंग-प्रत्यंग में फुर्ती बनी रहेगी, इसका कारण बिल्कुल वैज्ञानिक है- जिस अंग का हमलोग अधिक व्यवहार करते हैं, वो अंग अधिक मजबूत होजाता है. शरीर को रूप-आकार हमलोग नहीं देते हैं, वह प्रकृति के नियमानुसार जन्म लेता है, फिर स्वतः उसमें विकास होता है. व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा शरीर को सबल और स्वस्थ रखना आवश्यक है, क्योंकि तभी हमलोग स्वामीजी के कार्य को करने में सक्षम हो सकेंगे।
दूसरा ' H '(Head) या मन है : किन्तु मन तो सूक्ष्म वस्तु है, उसे बाहर से देखा नहीं जा सकता, फिर की शक्ति बढ़ाने के लिये मन का व्यायाम कैसे करेंगे ? मन का अस्तित्व है, उसके कार्यों को देखने से इतना तो समझ में तो आता है;  किन्तु उसको यदि अपनी आवश्यकता अनुसार जब और जहाँ चाहें लगाने और हटा लेने का अभ्यास नहीं करेंगे तो उसकी शक्ति का विकास नहीं होगा। जैसे किसी बच्चे को सदैव गोदी में ही रखे रहें, तो वह बलवान नहीं बन पाता है; इसका सिद्धान्त यही है कि जिस किसी अवयव का व्यवहार कम होगा, या बिल्कुल नहीं होगा वह organ दुर्बल हो जाता है. मन का व्यायाम है- कारण और कार्य के उपर चिन्तन करना। कार्य स्थूल है, वह सबको दीखता है, पर उसके पीछे उसका कारण क्या है ? मन को विकसित करने के लिये पहले यह समझना पड़ेगा कि यह जीवन क्या है ? कहाँ से आया है ?
इसे जानने के लिये जीवन के उपर ही चिन्तन-मनन करना पड़ता है. जैसे देश में हर स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है, यह तो हर किसी को दीखता है, प्रधानमन्त्री कार्यालय से भी कोयला घोटाले की फाइलें गायब हो जाती है; किन्तु उसका कारण क्या है ? यह किसी भी दल के नेता को नहीं दीखता।इसका कारण है, देश के हर स्तर पर चरित्रवान मनुष्यों का आभाव। जब हमलोग यह समझ लेंगे कि चरित्र का आभाव ही समस्त समस्याओं का कारण है, तो हम चरित्र-निर्माण की शिक्षा को पूरे जोर-शोर से फ़ैलाने में क्यों नहीं लगेंगे ? जैसे विशाल बरगद के वृक्ष का कारण उसका बहुत छोटा सा बीज होता है, उसी प्रकार भ्रष्टाचार का कारण चरित्र का आभाव ही तो है, यदि हम एक दूसरे को कोसना छोड़ कर चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण - ' बनो और बनाओ ' (Be and Make) के कार्य में अब भी लग जायें तो देश से बाढ़ और अकाल जैसी समस्याओं को दूर करने में कितना समय लगेगा ? हमें अपने स्कूलों में प्राथमिक कक्षा से ही मन का व्यायाम करना अर्थात कारण और कार्य पर चिन्तन करना सिखाया जाये तो, हमारा मन कभी दुर्बल नहीं होगा, कारण की ओर हमारी दृष्टि तुरंत चली जाएगी।
मन के व्यायाम का पहला सोपान है - मनः संयोग। मन, हमारे शरीर का सबसे चंचल हिस्सा। मन को साधने या उसे जीतने में कई लोगों को बरसों लग जाते हैं। युवा पीढ़ी के साथ यह समस्या सबसे आम है कि उनका मन कभी एक जगह नहीं टिकता। पढ़ाई, खेल, नौकरी या निजी जीवन, हर जगह युवा वैसे ही चलता है, व्यवहार करता है, जैसा मन कहे। जब तक मन लगा काम किया, नहीं तो छोड़ दिया। मन के मुताबिक चलना युवाओं का स्वभाव हो गया है। बस, यहीं से शुरू होती है असफलता और अशांति की कहानी। मन को साधने से ही सारे संकट मिट सकते हैं। मुश्किल समय में मन ही सबसे ज्यादा भटकता है और सही निर्णय नहीं लेने देता। मन स्थिर रहे तो सारे संकट से छुटकारा मिल सकता है।
 मन बहुत चंचल है, उसको एकाग्र और स्थिर करने का प्रशिक्षण लेना पड़ता है. मन लगाकर पढ़ने या जिस किसी भी कार्य को करने से वह कार्य जल्दी हो जाता है, और याद भी रहता है. जो कुछ भी कर रहे हों, स्वामी जी को ही पढ़ रहे हों, तो उनकी प्रत्येक उक्ति चाहे वह "Be and Make !" जैसी छोटी ही क्यों न हो; उसी पर तबतक विचार-मंथन चलता रहेगा, जब तक कि उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो जाता। यही है मन का व्यायाम और उसका पौष्टिक आहार है- स्वामीजी के शक्तिदायी विचारों का अध्यन करना।
मन को जीतना मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं है ! पूरे समय भागदौड़, ढेर सारा धन कमाने के बाद भी हम जीवन के किसी हिस्से में असफल और अशांत ही रहते हैं। मन को साधना एक बड़ी चुनौती है। अब प्रश्न है, मन को कैसे जीता जाए?  दरअसल यह एक दिन का कार्य नहीं है, बल्कि निरंतर किया जाने वाला अभ्यास है।  जीवन में अगर स्थायी शांति और सुख की इच्छा हो तो मन को साधना ही पड़ेगा। मन को साधने का एक सबसे बड़ा फायदा है कि यह हमें एक रास्ते पर ले जाएगा, भटकाएगा नहीं। मन को जीतने के लिए, हमें भोगों के प्रति लालच को कम करना पड़ता है, अपने भीतर खुद से ही लडऩा पड़ता है, जो तकलीफ तो देता ही है, हमारे सामने कई बार विचित्र स्थितियां भी पैदा कर देता है।  श्रीकृष्ण से अर्जुन कहते हैं-
  चज्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
                  तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। गीता ६/३४ ।।

हि = क्योंकि; कृष्ण =हे कृष्ण (यह ); मन: =मन; चज्जलम् = बड़ा चज्जल (और ); प्रमाथि = प्रमथन स्वभाव वाला है (तथा); दृढम् = बड़ा दृढ़ (और ); बलवत् = बलवान् है; (अत:) = इसलिये; तस्य = उसका; निग्रहम् = वश में करना; अहम् = मैं; वायो: = वायु की; इव = भांति; सुदुष्करम् = अति दुष्कर; मन्ये =मानता हूं; 

हे भगवन ! यह मन तो बहुत चंचल है, इन्द्रिय भोगों का आकर्षण इसको बल पूर्वक मथ देता है, इसको वश में लाना तो उतना ही कठिन है, जैसे वायु को मुट्ठी में पकड़ना। अर्जुन की इस बात से भगवान इन्कार भी नहीं करते हैं, किन्तु उसको वश में लाने का एक उपाय या औषधि भी बता देते हैं- 

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
      अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्राते ।।६/३५ ।।

महाबाहो = हे महाबाहो; असंशयम् =नि: सन्देह; मन: =मन;चलम् = चज्ज्ल; दुर्निग्रहम् =कठनिता से वश में होने वाला है; तु =परन्तु; कौन्तेय = हे कुन्तीपुत्र अर्जुन अभ्यास; अभ्यासेन = अभ्यास अर्थात् स्थिति के लिये बारम्बार यन्त्र करने से; गृह्मते =वश में करता है।  

श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है॥ ठीक यही उपाय योगसूत्र में महर्षि पतंजली ने भी बताया है-'अभ्यासवैराग्या-
भ्याम तन्ननिरोधः।' और यही उपाय श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है.
 मन को साधने का सबसे आसान तरीका है- निरन्तर मन को एकाग्र करने का अभ्यास (अष्टांग के पाँच अंग- यम-नियम-आसन -प्रत्याहार -धारणा तक अभ्यास ) और लालच को कम करते जाना अर्थात वैराग्य । सुबह-शाम दो बार थोड़ी देर तक आसन, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करना चाहिये, किन्तु यम (सत्य,अहिंसा,ब्रह्मचर्य,आस्तेय और अपरिग्रह ) -नियम (शौच,संतोष,तपः, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधानम) का पालन जीवन भर प्रतिक्षण करते रहना चाहिये। मन, वचन या कर्म के द्वारा किसी को हानि पहुंचाना, कष्ट देना या दु:खी करना, हिंसा का कार्य है। सामान्यत: सोचा जाता है कि हथियारों से या हाथ पैर से किसी को मारना-पीटना ही हिंसा है, जबकि यह तो हिंसा का मात्र एक प्रकार है। बिना हाथ हिलाए, बिना बोले भी हिंसा हो सकती है। 
यदि आप किसी से मन ही मन घृणा करें या उसकी उपेक्षा (अनदेखा) करें तो यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है। अहिंसा धर्म को पूरी तरह से अपनाने का तात्पर्य है कि मन, वचन अथवा कर्म से किसी भी मनुष्य को दु:ख, कष्ट, अथवा किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचाना। न करें स्वयं के प्रति हिंसा- हिंसा सदैव दूसरों के साथ होती हो यह भी आवश्यक नहीं है, जाने-अनजाने मनुष्य खुद अपने प्रति भी हिंसा का आचरण करता रहता है। मनुष्य हीन भावनासे, अज्ञानता से और मनोरोगों से घिरकर जाने-अनजाने स्वयं के प्रति भी हिंसा करता है। प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग कमजोरियां एवं दोष होते हैं। इसलिए समझदारी यह कहती है कि हमें दूसरों के दोषों एवं अपराधों को संभवत: सहन करते हुए क्षमता कर देना चाहिए। जो व्यक्ति बार-बार जानबूझकर कोई अपराध करें और क्षमा करने पर, समझाने पर भी न माने ऐसे व्यक्ति का मुनासिब (आवश्यक) प्रतिकार अवश्य करना चाहिए। क्षमा का उद्देश्य दोषी या अपराधी को सुधरने या बदलने का मौका देना होता है। लेकिन क्षमा कायरता की पहचान नहीं होनी चाहिए। अर्थात् यदि क्षमा को कोई अपराधी आपकी कायरता, कमजोरी, मजबूरी समझे तो ऐसे व्यक्ति को सबक सिखाना आवश्यक हो जाता है। अत: जिनके सुधरने या बदलने की संभावना हो उसे क्षमा करना धर्म है अन्यथा नहीं। इस प्रकार पतंजली ऋषि के सूत्रों के माध्यम मन रूपी डॉन को पकड़ना मुश्किल तो है, किन्तु नामुमकिन बिल्कुल नहीं है ! 
 तीसरे ' H ' (Heart) या ह्रदय की शक्ति का विकास कैसे होगा ? इसके लिये पहले हमें यह समझना होगा कि  इस मुख्य अवयव ह्रदय (Heart) का कार्य (या function ) क्या है ? उसका कार्य है -अनुभव करना, To feel for others, अपने देश की वर्तमान अवस्था को देखने से जो दुःख-वेदना की अनुभूति होती है, वह ह्रदय का ही कार्य है. दूसरों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख जैसा अनुभव करने (empathy) से ह्रदय की शक्ति विकास होता है. इस प्रकार ह्रदय (Heart) का व्यायाम है-समानुभूति या (empathy)! अभी हमलोगों का हृदय आत्मकेन्द्रित होने के कारण, स्वार्थपरता में ही रत रहने के कारण जम कर ' पत्थर ' जैसा hard हो गया है. अपने ही देश-वासियों को दुःख में डूबा देखकर भी द्रवित नहीं होता है. ह्रदय की शक्ति को बढ़ाने के लिये अपने आस-पास रहने वाले सभी मनुष्यों की आवश्यकताओं को, उनकी दुःख-वेदना को अपने ह्रदय में अनुभव करना होगा।
 हमारे साथ हमारे घर में ही, कितने लोग रहते हैं - दाई, नौकर, या मजदूर लोग रहते हैं, उनका बच्चा पढ़ने में तेज है, छठी कक्षा तक स्वयं पढ़ लिया है, पर सातवीं कक्षा में tutor (अनुशिक्षक) नहीं मिलने से आगे नहीं पढ़ पा रहा है, किन्तु उनके अभिभावकों के पास इतना पैसा नहीं है, कि वे उसको कहीं ट्यूशन (tuition) दिल सकें। यह बात तुम्हारे कानों में आती है, तुम कोई बड़ा ऑफिसर या धनी-मानी व्यक्ति हो, -तुमने feel किया- ओह ! इतना तेज लड़का था, क्या अब आगे नहीं पढ़ पायेगा ? क्या पैसे के आभाव में उसकी पढाई छूट जायेगी? -मुझे उसके लिये कुछ करना चाहिये। मेरे घर में एक मौसी या चाची बर्तन माँजने का काम करती है, वह भी अपने बेटे को पढ़ाना चाहती है, उसके लिये हमलोग अपने पाठचक्र की छत के नीचे एक निःशुल्क कोचिंग सेन्टर 'free coaching center ' तो खोल सकते हैं. यह बात मैं अपने पाठचक्र के दोस्त को बताया उन सबने feel किया, हाँ ये बात तो ठीक है, यदि हमलोग बारी बारी से एक दिन का श्रमदान करें तो उनका पैसा खर्च नहीं होगा, दूसरे गरीब और असहाय बच्चे भी पढ़ सकेंगे. यदि उनके बिल्कुल अपने भैया जैसे बनकर पूरी श्रद्धा और निष्ठा से पढ़ते हो, तो कोई लड़का यदि बहकने वाला भी होगा तो तुम उसे सुधार सकोगे।
कभी यह दिखाई देगा कि पहले जो लड़का कोचिंग में रेगुलर आता था, उसने आना भी कम कर दिया है, अब पढाई में उतना ध्यान भी नहीं देता है; बाद में पूछने से पता चला कि उसके पिता रिक्सा चलते थे, दो  दिन से बीमार हो गये हैं, इसीलिये उसके घर में चूल्हा नहीं जला है ; वह दो दिन कुछ खाया ही नहीं है तो पढ़ेगा कैसे? जब तक उसके पिता स्वस्थ नहीं होते तुम उस दोस्त को अपने घर ले जाकर माँ से कहकर ईश्वर बुद्धि से खाना खिला दिया। तुम्हारी माँ ने जब उसको बैठाकर प्रेम से खाना खिला दिया - तो उसका मुख कितना उज्ज्वल हो गया ! उसके प्रसन्न और चमकते चेहरे को देखकर तुम्हारे हृदय में कितने असीम आनन्द का अनुभव हुआ ! ह्रदय का आनन्द कितना असीम हो सकता है, इसका पता तमको आज चला -कि सचमुच सुख और आनन्द में कितना बड़ा अंतर होता है !! 
तुम उसके पिता को डॉक्टर के यहाँ ले गये, उसने दवा देकर उसके  पिता को अच्छा कर दिया, तब उसका आनन्द जो होगा वह खुद आइसक्रीम खाने के सुख से बहुत बड़ा होगा ! मनुष्यों के दुःख को दूर करने की जितनी चेष्टा करते जाओगे, तुम्हारा ह्रदय उतना ही अधिक विशाल होता जायेगा। यही है ह्रदय का व्यायाम इससे हृदय की feel करने की शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है. इस प्रकार अपने 3H को विकसित करने का अवसर इस प्रशिक्षण शिविर में प्राप्त होता है. दूसरे मनुष्य के दुःख-कष्ट को अपना दुःख-कष्ट जैसा अनुभव करके उनके दुःख को दूर करने की चेष्टा करने से ह्रदय का व्यायाम होता है.
ह्रदय का पौष्टिक आहार है, माँ ठाकुर स्वामीजी के जीवन को नजदीक से देखना- वे लोग केवल मौखिक सहानुभूति दिखाकर काम नहीं चलाते थे, माँझी की बहु ने माँ से आकर कहा कि उसका बेटा मर गया है, माँ इसे सुनकर ऐसे रो पड़ी मानो उन्हीं का बेटा मर गया हो, फिर सान्तवना देते हुए उसको स्नेह के साथ मुढ़ी- लाय खाने को दिया, अपने हाथ से उसके सिर में तेल लगा दिया। उनके जीवन को देखने से हमलोग भी 'मातृ ह्रदय ' की हृदयवत्ता प्राप्त करके ' heart whole Man ' या Ideal Man बन सकते हैं ! हमारा जीवन सुन्दर बन सकता है.
 फिर अपने ह्रदय के बन्द दरवाजे को खोलना होगा। ह्रदय के अंदर जो प्रेम का झरना है, वह जमकर पत्थर जैसा हो गया है, अहंकार के पत्थर से बन्द है, उसको unfold नहीं करने से, उस प्रेम को अभिव्यक्त नहीं करने से वहाँ विद्यमान जो चुम्बकत्व है, वह सुप्त-प्राय हो गया है, मेरे ह्रदय का चुबंक क्यों किसी को आकर्षित नहीं करता है ? हमें अपने हृदय में विद्यमान ब्रह्म की सत्ता को, ह्रदय के feeling को अभिव्यक्त करने का कौशल सीखना होगा। पहले उस सूप्त सत्ता को प्रकाशित या प्रकट करना है, फिर उसको विकसित करना होगा। किन्तु परिवेश और परिस्थिति हृदय के बन्द दरवाजे को खोलने नहीं देंगे, उसको press करके बन्द किये रखना चाहेंगे। इस दबाव को हटाने के लिये जो दृढ़ संकल्प और प्रचण्ड इच्छा शक्ति चाहिये उसे कहा से लाऊंगा ? मन को बदलने का कार्य भी मन के द्वारा ही होता है, इसके लिये यहाँ - ' संकल्प ग्रहण विधि ' या ' चमत्कार जो तुम कर सकते हो ' का अभ्यास करना, या मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो- 'Autosuggestion' या ' आत्मसुझाव ' की पद्धति भी बताई जाती है. इसे सीखकर अब दृढ़ संकल्प और प्रचण्ड इच्छा शक्ति के बल पर मनुष्य बनने के काम में जुट जाउँगा।
अभीतक तो मनुष्य जीवन क्या है, किस लिए मिला है ? यह सब नहीं समझता था, पूस-मेला ( या धजाधारी पहाड़ का मेला) में जाकर life enjoy करने का मौका मिलता है-इतना ही जानता था. इतने दिनों तक सहज-प्रवृत्ति के अनुसार आहार निद्रा-विषयभोग या खाना, सोना, वंश विस्तार करने को ही जीवन का आनन्द मानकर मनुष्य-जीवन बिता रहा था? साधारण डिग्री वाली शिक्षा प्राप्त लोगों के लिये मनुष्य बनने का अर्थ- I.A.S, I.P.S - बनकर उत्कृष्ट पशु-जीवन जीना ही है. अपने घर में ही फ्रिज में चील्ड बियर रखो, V.D.O  में CD डाल कर मनपसन्द सिनेमा देखो - life enjoy करो ! मोहनिद्रा में सोया हुआ आदमी सोचता है, इन्द्रिय भोग और धन-सम्पत्ति अर्जित करने में रत आदमी सोचता है, मैं बहुत सुखी हूँ ! किन्तु यह सुख तो क्षणिक है, इन्द्रिय विषयों से प्राप्त होने वाला सुख अवसाद में परिणत हो जाता है.
 इसलिये ' विवेक-प्रयोग ' द्वारा संचालित जीवन ही, श्रेष्ठ जीवन है,  किन्तु मन इन्द्रिय भोगों में ही सुख मान कर उससे बाहर निकलना नहीं चाहता, बार बार उसी को पाना चाहता है, मनुष्य की गरिमा से नीचे गिर देता है. हमारा यह पतन हमारा मन ही करा रहा है, मनुष्य बनने की दृढ़-इच्छाशक्ति के बल पर जो परिवेश मेरे मन को नीचे गिरा  देता है, उसे बदलना होगा, कुसंग को पूरी तरह से त्याग देना होगा। मन का केन्द्रापसारी होकर विषय-मुखी बने रहना, मानसिक पतन है, मानसिक दिवालियेपन की पहचान है!
भारत के अधिकांश जनता का मन विषय-भोगो के पीछे ही नष्ट हो रहा है- भारत को इस मोहनिद्रा से जगाने के लिये ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' के मन्त्र को सुनाने का उत्तरदायित्व स्वामीजी ने युवाओं पर ही सौंपा है. जीवन-गठन  करना मनुष्य-जीवन का श्रेष्ठ पक्ष है.इसीलिये 3H निर्माण को स्वामीजी पुनर्जीवन का उपाय, पुनरुद्धार या 
' Regeneration of India ' कहते हैं ! आम आदमी जो कुछ करता है, केवल जीवन निर्वाह के लिये ही करता है. किसी प्रकार जीवन-निर्वाह कर लेना निम्न पहलु का जीवन है; जीवन-निर्वाह तो गली गली घूमने वाले पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। किन्तु हमलोग तो मनुष्य हैं, हमारा मन जिन विषयों में आसक्त होकर दुर्बल हो गया है, विषय के उन व्यसनों से मन को मुक्त करना होगा, विषयगामी मन को उपर उठाने के लिये मन के साथ ही संग्राम छेड़ देना होगा। मन में परिवर्तन लाकर उसे संस्कारों के द्वारा सुसंस्कृत बना देना होगा। मन को बदलने का कार्य भी मन के द्वारा ही होता है, इसीको इच्छा शक्ति कहते हैं,इस सूप्त इच्छा शक्ति को जाग्रत और अभिव्यक्त करके मनुष्य बन जाना ही शिक्षा या प्रशिक्षण का उद्देश्य है.
हमलोग स्वरूपतः अमृत-पुत्र हैं, किन्तु पाँच इन्द्रियों और शरीर को ही मैं समझने वाले पशु-मानव से हमारा स्वरूप ढंका हुआ है. इन्द्रियाँ हमें भोगों की ओर प्रेरित करती हैं, और हमलोग भोग में उन्मत्त होकर अपनी जवानी को व्यर्थ में गँवा देते हैं. अत्मवस्तु भीतर में है, किन्तु वह पशु मानव के आवरण में छुपा हुआ है, हमलोग दूसरों को हानी पहुँचाकर भी भोग के लिये उतारू हो जाते हैं. अमावस्या की रात्रि में यदि १००० वाट के बल्ब को भी आवरण से ढंक दिया जाय तो, स्विच दबाने से भी उसका प्रकाश बाहर नहीं आयेगा। धर्म वह वस्तु है जो पशु-मानव को देव मानव में, उससे भी उपर ब्रह्म में भी उन्नत कर देता है. हमारे जो युवा भाई अपने गाँव में 'आदर्श मनुष्यों (Ideal Man ) का निर्माण  करने वाला संगठन ' खोलना चाहते हैं, वे ही तो मानव जाति के सच्चे नेता हैं.
पशु मानव को नरदेव में रूपान्तरित करने की वैज्ञानिक पद्धति को अष्टांग या पतंजली योग-सूत्र कहते हैं. मनः संयोग सीखकर मन को शक्तिशाली बना लेने से यह संभव हो जाता है ! हमलोग अपने प्रशिक्षण शिविर और 
' पाठ-चक्र' में ' संसार-चक्र ' से मुक्ति  (या इसके समस्त प्रकार के बन्धनों से मुक्त होने का) प्राप्त करने का उपाय सीखते हैं ! यही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है! केन्द्र के सचिव-अध्यक्ष को इस बात पर दृष्टि रखनी है कि कोई सदस्य ५ काम में टिक तो मार रहा है, फिर भी यदि उसमें विकास नहीं हो रहा है, तो उसका कुछ कारण अवश्य है. अवश्य उसका विवेक सो रहा है, इसीलिये व्यसनों को त्याग नहीं पा रहा है. विवेक-प्रयोग करते रहने से, आदत अवश्य बदलती है. नजर रखनी होगी कि सदस्य साधना कर रहा है या नहीं ? अंत में एक गाना माँ मुझे मनुष्य बना दो गा कर समापन करना अच्छा होगा। 
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गुरुवार, 15 अगस्त 2013

क्या राजनीति मनुष्य को गिरगिट बना देती है ?

प्रश्न : आत्मा क्या है ? 
उत्तर :  किसी देश के राजा और प्रजा दोनों मुर्ख थे उन्होंने एक साधू से पूछा आप बताइये कि बुद्धिमान किसे कहते हैं ? साधू ने कहा कि जो व्यक्ति आत्मा को शून्य कहकर उड़ा देता हो, वह मूर्ख है. श्रुति और शास्त्रों में आत्मा को जानने की युक्ति दी गयी है,श्रवण -मनन और निदिध्यासन - जिसकी सहायता से आत्मा को समझने में सहायता मिल सकती है. किन्तु उसको पुस्तकों के द्वारा या प्रयोग शाला में दूरबीन से देखकर या चिमटे से पकड़ कर दिखाया नहीं जा सकता कि देखो -यही आत्मा है. निर्धारित साधना पद्धति को सीख कर स्वयं आत्मा की उपलब्धी करनी होती है -या आत्मसाक्षात्कार करना होता है. शास्त्रों में ' चैतन्यात सर्वं उत्पन्नम ' या  'जन्मादि यस्य यतः ' आदि सूत्रों के द्वारा केवल उसका संकेत भर दिया जा सकता है. यह दृश्यमान जगत प्रपंच ब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है, उसी में स्थित है, फिर उसी में लीन हो जाता है. किन्तु इन बातों को भाषण के द्वारा नहीं समझा या समझाया नहीं जा सकता है. इसकी अनुभूति करनी होती है.
 एक बार किसी स्थान में पूछा गया था कि परमात्मा या ब्रह्म एक है, तो उससे इतनी आत्मायें कैसे निकली ? एक ही वस्तु के इतने टुकड़े हो गये तब तो ब्रह्म भी खत्म हो गया होगा ? ब्रह्म या आत्मा अनन्त हैं, विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि अनन्त का अंश नहीं होता। अनन्त से अनन्त को निकालने से अनन्त ही बचता है. इतनी आत्मायें कहा से आती हैं ? विश्व में मनुष्यों की संख्या छः अरब है, वास्तव में ये सभी भगवान के ही मूर्त रूप हैं- मनुष्य के रूप में हमें भगवान को ही देखने की विद्या अर्जित करनी चाहिये। मन्दिर को हमलोग भगवान का शो रूम कह सकते हैं, जिसे देखकर प्रत्येक मनुष्य शरीर रूपी मन्दिर में अवस्थित भगवान की याद हो जाती है.
आत्मा ही इस जगत का निमित्त और उपादान कारण दोनों हैं. जगत को निर्मित करने के लिये Raw Material जैसा अलग से कुछ नहीं है.
आमतौर से हमलोग जीवात्मा को आत्मा कहते हैं, किन्तु जीव का शरीर भी एक मन्दिर है, जिसमें वही ब्रह्म अवस्थित हैं. फिर उसके परे भी जो कुछ है, वह ब्रह्म ही है. 'सोअयं आत्मा चतुष्पादः ' - समूचा विश्व ब्रह्माण्ड इसके एक पाद या एक अंश में अवस्थित है, उसके तीन पाद इसके परे हैं. इससे अधिक नहीं कहूँगा।
प्रश्न : धर्म का अर्थ यदि धारण करना है, तो क्या धारण करना है ? इसे समझाइये।
उत्तर: धर्म हमें धारण करता है, अर्थात हमारी रक्षा करता है. इसका अर्थ हुआ कि आध्यात्मिकता या रूहानियत ही वास्तव में धर्म है, जो हमें पशु बन जाने से बचाए रखता है, यह हमें राक्षस नहीं बनने देता है. हमें मनुष्य से देवता में उन्नत कर देता है.
प्रश्न : जन्म के पहले मैं कहाँ था ? मेरा स्वरुप क्या है ? 
उत्तर : गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को बोलते हैं,
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।४/५ ।।
" हे परन्तप अर्जुन मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ. " बुद्ध को भी अपना ५०० पूर्व जन्म याद था. किन्तु हमलोगों को इस बहस में न पड़कर यह देखना चाहिये कि इस जन्म में मेरा क्या कर्तव्य है ? कण्ठ फूट जाने के बाद कोई तोता राम राम बोलना नहीं सीख पाता है. इसलिये तरुण या युवा अवस्था में हमलोगों का पहला कर्तव्य अपने जीवन को गठित करना, चरित्र-निर्माण करके यथार्थ मनुष्य बन जाना है. नहीं तो इस जन्म के बाद , या इस शरीर की मृत्यु हो जाने के बाद जहाँ कहीं भी जाउँगा, वहाँ इसी शरीर को लेकर तो नहीं जा सकूँगा ? यह प्रश्नोत्तर कठोपनिषद में है, महाभारत में है. 
मृत्यु के बाद कहाँ जाउँगा ? इसको जानने की  आवश्यकता अभी नहीं है. किन्तु अपना चरित्र निर्माण किये बिना यह युवा अवस्था बीत गयी तो, बुड्ढा हो जाने पर कुछ भी नहीं हो सकेगा। जब तक मिट्टी कच्ची है, उसके आकार में परिवर्तन लाया जा सकता है. किन्तु उसको पका देने के बाद उसके आकार में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है.
  मेरा स्वरुप क्या है ? यह कोई ' कौन बनेगा करोड़पति ' में पूछा जाने वाला प्रश्न नहीं है. आत्मा बोल देने से कुछ नहीं होगा- इसकी उपलब्धी करनी होगी। जगत और ब्रह्म स्वरूपतः  एक ही वस्तु है, ब्रह्म के सिवा अन्य कोई वस्तु नहीं है. ठाकुर ने कहा था - ' ब्रह्म ही वस्तु है बाकी सबकुछ अवस्तु है. ' वस्तु के उपर अवस्तु आरोपित है! किन्तु 'परिणाम वाद' और 'विवर्त-वाद' पर बहस करके इसे समझा नहीं जा सकता। द्रष्टा-दृश्य विवेक का अभ्यास करना होता है, यह सब मुख से कहने से कुछ नहीं होता। चरित्र गठन करने से ही पता चल सकता है. अपने स्वरुप की उपासना करो ! ऐसा किसने कहा ? इस शिविर में किसी की उपासना करना तो सिखाया नहीं जाता है. स्वामी विवेकानन्द से प्रेम करने को यदि उपासना समझते हो तो कर सकते हो. 
प्रश्न : धार्मिक मनुष्य (Religious) और धर्म-निरपेक्ष (Secular) मनुष्य में क्या अंतर होता है ?
उत्तर : अंग्रेजी का रिलिजन शब्द ग्रीक रूट ' Rejoining ' से हुआ है, हमलोग ईश्वर से आये  हैं, और धर्म के मार्ग पर चलकर उनसे पुनः मिल जायेंगे। Secular का अर्थ है धर्म से अलग रहना ' To shun Religion' . धर्म निरपेक्षता शब्द का अविष्कार धूर्त कांग्रेसियों ने हिन्दू-मुसलमानों के बीच झगड़ा करवाने के लिये किया है. ठाकुर ने कहा है- मनुष्य को अपने जीवन आदर्श के रूप में ' सर्वधर्म समन्वय ' को अपनाना  चाहिये; Secular अर्थात ' सर्वधर्म समभाव ' की वकालत करने वाले राजनीतिज्ञ सोचते हैं- सभी धर्म बेकार हैं - इसलिये धर्म या आध्यात्मिकता और रूहानियत की बातों से जनता को दूर रखना चाहिये। ऐसा भाव मनुष्य को पशु या राक्षस बना देता है. 
प्रश्न: ईश्वर बनने की सम्भावना समस्याओं में दब कैसे जाती है ? 
उत्तर : ईश्वर छुपने और छुपाने के खेल में निपुण या expert है. वह मनुष्य की संभावना को समस्याओं के आवरण में छुपा देता है. बिलियर्ड बॉल की तरह समस्याओं से टकराते टकराते उन्हीं समस्याओं के बीच से ईश्वर स्वयं प्रकट हो जाता है. समस्याओं को हल करने के प्रयत्न में ईश्वरत्व प्रकट हो जाता है. अपने ही अनादर वह आनन्द को छुपाये हुए है, किन्तु मनुष्य को लगता है, नये साल को मनाने के लिये शराब पीने से आनन्द होगा। किन्तु जो विवेकी होता है, वह जानता है कि ' नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ! ' किन्तु बोतल नहीं नाचती मनुष्य नाचने लगता है. 
रूहानियत के नशे में सूफ़ी फ़क़ीर लोग भी नाचने लगते हैं. हमलोगों के ह्रदय के अन्दर वह ईश्वर ही प्रेम (आनन्द) का चुम्बक बन कर छुप गया है; वही चुम्बक दूसरों के ह्रदय को खीँच रहा है. वास्तव में समस्यायें नहीं, आनन्द और प्रेम ही हमें खीँच रहा है; किन्तु हम दूसरों को अपना बनाने की कला नहीं जानते इसीलिये अपने रिश्तेदारों में., सास-बहु एक दूसरे में ईश्वर को देखना नहीं जानते। यदि मानव मात्र में वही विद्यमान हैं, इस सत्य को अपनी उपलब्धि से कोई नहीं जान लेता तो समस्याओं को देखकर उसका विश्वास डोल जाता है, और वह डर कर पहले ही आक्रमण कर देता है. गुगली वाले गेन्द को देखकर जैसे बैट्स मैन डर जाता है. और जल्दी रन पूरा करने मत दौड़ो गेन्द को खेल देना ही काफी है. गेन्द को स्वीकार कर लेना ही काफी है. हमने जो आर्डर दिया था, वही पार्सल आ रहा है. पार्सल को खोलकर देखो, धैर्य है तो समस्याओं को दूर हटकर संभावनाएँ खुल जायेंगी; ईश्वर की लीला समझ में आ जाएगी। इसके अन्दर किसको छुपाया है, बाहर से देखकर समझ ही नहीं आता. नव वर्ष की शुभकामना में बहुत कुछ छुपा हुआ है. हमें यह विचार करना चाहिये कि इस वर्ष हमने अपनी कितनी और कौन कौन सी संभावनाओं को अभिव्यक्त कर लिया है ? ' well begun is half done ' कोई जाग्रत व्यक्ति ही इस कहावत का वास्तविक अर्थ समझ सकता है. 
यदि सही दिशा में चलना शुरू कर दिया तो अब हमारे आगे मन का नाटक और अधिक चलने वाला नहीं है. कम परिश्रम से ज्यादा आनन्द मिलने वाला है. अब हमलोग समस्या रूपी गुगली बॉल से घबड़ाने वाले नहीं हैं. क्या हममें अपने आप पर अकंप विश्वास है ? अटल विश्वास कभी काँप नहीं सकता है. हर समस्या के आने पर उसको खोलकर देखने की स्वीकारता ही उसकी चाभी है, जब तक कोई समस्या डरावनी लग रही है, हमारी प्रार्थना भी चलती रहनी चाहिये। जलालुद्दीन रूमी की कविता है 
The Guest House

This being human is a guest house.
Every morning a new arrival.

A joy, a depression, a meanness,
some momentary awareness comes
As an unexpected visitor.

Welcome and entertain them all!
Even if they're a crowd of sorrows,
who violently sweep your house
empty of its furniture,
still treat each guest honorably.
He may be clearing you out
for some new delight.

The dark thought, the shame, the malice,
meet them at the door laughing,
and invite them in.

Be grateful for whoever comes,
because each has been sent
as a guide from beyond.

From Essential Rumi

पुरे वर्ष के लिये ३६५ प्रार्थनायें बनानी हैं, रोज एक नई प्रार्थना करनी है. हमारे A.C. से रूहानी हवा आनी चाहिये, राहत वाली हवा हमें नहीं चाहिये। "Believe, and You are Saved"(John 6:40)
For this is the will of God, that every one who sees the Son and believes in him should have eternal life; and I will raise him up at the last day." स्वरुप के उपर जो निगेटिव राख जमा हो गया है, वह प्रार्थना के बल पर उड़ जायेगा। जो प्रार्थना हमारे ह्रदय चुम्बक को छू जाती हैं, वे अवश्य ही विश्वास की अनुभूति करता है -सेल्फ को रियालाइज करता है. 'You are light of my life; you are sleeper of my soul '
पैर के तलवे को भी सोल Sole कहा जाता है. चरित्रवान मनुष्य वही है, जिसका विवेक सदा जाग्रत रहता है, स्वप्न में भी उससे कोई बुरा कार्य नहीं हो सकता है. आदत ही परिपक्व होकर व्यसन बन जाता है. व्यसन की गुलामी ही पशु बनाये रखती है. एक एक कर के समस्त व्यसनों को तोड़ डालो। प्रचण्ड इच्छा शक्ति और दृढ संकल्प के बल पर मनुष्य बन जाओ ! 
*' सामूहिक ध्यान ' नहीं हो सकता, 'सामूहिक प्रार्थना' की जा सकती है. काली और नरेन्द्र एक साथ बैठकर ध्यान कर रहे थे, नरेन्द्र ने काली के शरीर को स्पर्श कर दिया तो उनका सारा भाव नष्ट हो गया. ठाकुर को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने नरेन्द्र को डांट लगाई थी - उसका अपना भाव क्यों खराब करते हो. समूह में बैठकर ध्यान करते समय यदि हम दूसरों को शरीर से न भी स्पर्श करें तो भी विचार तरंगों का प्रभाव दूसरों के मन पर पड़ता है. मोबाईल के जमाने में ह्मोग ध्वनी तरंगों के माध्यम से ही तो बात करते हैं. यदि एक साथ कई लोग ध्यान में बैठेंगे तो उनकी विचार तरंगे आपस में टकराएंगी। इसलिये ग्रुप में बैठकर ध्यान करने को सही नहीं कहा जा सकता, अभी सुनने में आया कि भुनेश्वर में एक लाख लोग एक साथ बैठकर ध्यान किया। पर उनको मिला क्या होगा ?
* महामण्डल का एक भी कार्यकर्ता paid worker या (वेतन भोगी कर्मी )नहीं है. इस तरह की एक भी संस्था विश्व में कहीं नहीं है, जिसके ३१५ शाखायें हैं. आज से केवल १० साल पहले ऐसी एक संस्था आस्ट्रेलिया में खुली है. 
* आग का धर्म है जला देना, बर्फ का धर्म शीतलता है- किन्तु यह उनकी विशिष्टता या Individuality नहीं है, यह तो उनकी Natural Quality या प्राकृतिक गुणवत्ता है. किन्तु प्रत्येक मनुष्य को अपना जीवन गठित करने या चरित्र का निर्माण करने के लिये स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है. चरित्र मनुष्य का जन्मजात या स्वाभाविक गुण नहीं है, उसमें परिवर्तन लाया जा सकता है, अंश से पूर्ण बनना पड़ता है. पशु-पक्षी-वृक्ष आदि तो पहले से पूर्ण होते हैं, आग, पानी, बिजली आदि भी पहले से पूर्ण होते हैं, किन्तु मनुष्य को अपना विवेक-प्रयोग करके प्रचण्ड इच्छा शक्ति और दृढ़ संकल्प के बल पर मनः संयोग सीखकर चरित्रवान मनुष्य बनना पड़ता है. किसी मनुष्य में जन्म से ही धर्म नहीं होता। चरित्रवान मनुष्य को ही शिक्षित या धार्मिक मनुष्य कहा जाता है.
* 'चरैवेति चरैवेति'- का अर्थ है; और आगे जाओ ! और आगे जाओ ! किसी गरीब लकड़हारे से संसयासी ने कहा था-जंगल में लकड़ी काटते हुए और आगे जाओ- उसकी बात मान कर आगे बढ़ने से आगे उसे चन्दन का वन मिला, और आगे जाने पर चाँदी -सोना-हिरा आदि का खान मिला और वह लकड़हारा मालामाल हो गया; किन्तु उस संन्यासी ने लकड़हारे को कहा और आगे जाओ, एक साधू की कुटिया मिलेगी-वहाँ तुम उस परम चैतन्य को प्राप्त कर लोगे जिससे सबकुछ निकला है, जिसमें अवस्थित है, और जिसमें लीन हो जाता है. संसारी क्षण-भंगुर विषयों को  भोगने में अपना जीवन व्यर्थ न करो, अपनी 3H की शक्तियों का वृथा क्षय करने से कोई लाभ नहीं होगा। पहले एक दीपक जलता है, फिर उससे दूसरा दीपक जलता है; किन्तु एक दीपक से एक साथ १००० दीपक नहीं जल सकता है. सामूहिक ध्यान के द्वारा एक साथ १००० मन को प्रदीप्त नहीं किया जा सकता है-उनको electrocute किया जा सकता है-अर्थात विद्युत् के झटके से मारा जा सकता है. जैसे एक ही स्विच को दबाने से १००० टुन्नी बल्ब जल जाते हैं, किन्तु यदि हाई वोल्ट का करेन्ट निकला तो, एक विद्युत् के एक ही झटके कितने ही बल्ब फ्यूज भी हो सकते हैं. इसीलिये सभी को चैतन्य एक साथ मिल जाय -यह आवश्यक नहीं है; पहले योग्य पात्र बनो चरित्र निर्माण करो !
* राजनीतिज्ञ और गिरगिट एक जैसे होते हैं ! राजनीतीक नेता बनने का अर्थ है - मनुष्य से गिरगिट बनजना ! एक-आध अपवाद भी हो सकते हैं - जैसे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ! किन्तु दर्जी से खादी का कुर्ता-पैजामा सिलवाकर कोई नेता नहीं बना जाता है- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने के लिये पहले चरित्रवान मनुष्य बनना पड़ता है नहीं तो प्रधानमन्त्री बनने के बाद भी कोएले की कालिख से मुँह काला हो जाता है. आई. पी. एस. होकर सीबीआई के डिरेक्टर को भी तोता बन जाना पड़ता है ! एक ही राजनैतिक पार्टी में हरा-पीला-लाल-नीला रंग के नेता होते हैं, या कोई सेप्रेटिस्ट, कोई बाम पंथी कोई दक्षिण पंथी भी हो सकता है. लेकिन सभी राजनीतिज्ञ लोग गिरगिट ही होते हैं- लाभ होता देखने से, अवसर देखकर गिरगिट के जैसा रंग बदल लेते हैं.  इसीलिये महामण्डल में राजनीति का प्रवेश पूरी तरह से निषिद्ध है !! जो बात स्वयं समझ में आ गया है, वही बोलता हूँ, पुस्तक में अच्छी बाते हैं, उनको रट कर नहीं बोलता हूँ.
* डंके की चोट पर कह सकता हूँ कि -' स्वामी विवेकानन्द के जैसा दूसरा मनुष्य आजतक पृथ्वी पर नहीं जन्मा है ! ' ठाकुर-माँ-स्वामीजी चुम्बक के बहुत बड़े पहाड़-Great Magnet  जैसे है उनके सामने यह शरीर रूपी नौका जैसे ही पहुँचेगी इसमें लोहे से बने जितने भी नट -बोल्ट लगे हैं सभी खुल जायेंगे ! अर्थात मन इन्द्रिय विषयों में आसक्त रहना छोड़ देगा, इन्द्रियों की समस्त जंजीरे टूट जाएँगी ! जैसे कोई शिप यदि किसी चुम्बक के पहाड़ के निकट से गुजरेगा -तो जिन पटरों को लोहे की कील ठोक कर जोड़ा गया था, वे सभी कीलें उखड़ जाएँगी
* नेता को पूर्ण ह्रदयवान मनुष्य बनना पड़ता है - Be a heart whole Man ! स्वामीजी कहते हैं-' बनो और बनाओ ' Be and Make !' इतने बड़े काम को अकेला नहीं कर पाउँगा - इसीलिये जवानी की उर्जा से भरपूर युवाओं का एक संगठन बनाना होगा। आनन्द मठ के लेखक बंकिमचन्द्र ने कहा था- हे वर्षा की बूँदों ! तुम अकेले मत धरती पर गिरना। धरती पर गिरते समय सभी से कहो- आई भाइयों हम सभी एक साथ उतरें! इसीके लिये हम  ह्रदय एक सामान हो. आकूति - फल की प्राप्ति एक समान हों. हमलोग एक ही बात कहेंगे - भारत का कल्याण ! चरित्र-निर्माण और मनुष्य निर्माण ! तुम बंकिमचन्द्र द्वारा कथित वर्षा की बून्द बनो ! अपने साथ पढने वाले सभी युवाओं को स्वाती नक्षत्र की बून्द पीने के लिये इस कैम्प में लेकर आओ ! देश की अवस्था बहुत खराब है. शक्ति को ही वीर्य कहते हैं, शक्ति को बर्बाद मत करो ! तुम युवा लोग चरित्रवान मनुष्य बनकर देश की हालत को सुधारो ! आतंकवादी हिंसा या तोड़-फोड़ करने से देश नहीं बनेगा !
* चरित्र गठन के लिये डिग्री होना आवश्यक नहीं है: अभी हाल ही में Value Education  " मूल्य-आधारित शिक्षा" के नाम पर ' Art of Living ' की पुस्तिकाओं को बहुत सी स्कूलों में वितरित किया जा रहा है. किन्तु किसी हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक ने पूछा है कि -इन पुस्तकों को पढ़ने वाले शिक्षक कहा से आयेंगे ? इसमें केवल संकेत भर दिये गये हैं - किन्तु इसकी व्याख्या कौन करेगा ? मैं एकबार पाठ चक्र में जाने के लिये स्टेसन पर खड़ा था एक शिक्षक भी पास में खड़ा था, उसका एक छात्र जब वहाँ आया तो अपने ही छात्र को जेब से निकाल कर एक सिगरेट दिया और दोनों ने एकसाथ प्लेटफ़ॉर्म पर ही सिगरेट पीना शुरू कर दिया। हमलोगों ने पढ़ा था - माता पिता अतिथि भी नारायण नारायणी हैं, गुरु माथा के मणि हैं, ये सभी साक्षात् नारायण हैं ! किन्तु चित्त विनोद के चक्कर में पड़कर शिक्षकों का चित्त ही जड़ हो रहा है, विनोद क्या है- यह शिक्षक क्या जानेगा ?
चरित्र गठन के लिये डिग्री होना आवश्यक नहीं है, जिस व्यक्ति के पास कोई डिग्री नहीं है-वह भी चरित्रवान मनुष्य बन सकता है. चैतन्य देव बहुत बड़े विद्वान् थे लेकिन ठाकुर के पास कोई शिक्षा नहीं थी, पुराणों में जितने महापुरुष हुए हैं-उनका चरित्र महान था, किन्तु शिक्षा साधारण ही थी. Values का अर्थ होता है- सदभाव या जीवन-मूल्य किन्तु हमारे नेताओं को Value Education किसे कहते हैं-यह भी पता नहीं है.
* Intellect is the function of Manas  or mind but Heart is the seat of feeling. मन के चार कार्य -संशयो, निश्चयो, गर्वं, स्मरणं च धारणा. चित्त है संचित स्मृतियों का गोदाम या भण्डार घर, यही  अहं या कर्तापन अहंकार बन कर स्मरण करता और धारणा करता है, चित्त ही मन-वस्तु mind stuff है-  चित्त तरंगायित होकर जब मन बन जाता है, तब वह  संकल्प-विकल्प करता है या संशय करता है।  बुद्धि का कार्य है निश्चय करना, किन्तु अहं के बिना संशय कौन करेगा? कर्ता के बिना कर्म नहीं हो सकता यहाँ अहंकार का अर्थ डींगे हाँकना या boasting नहीं है. किन्तु 3H में आत्मा के लिये Heart क्यों कहा है ? स्वामीजी ने एक दिन विचार किया कि मानव शरीर में आत्मा का आसन कहाँ होना चाहिये ? शरीर विज्ञान की सहायता से यह समझे कि Physical Heart तो blood pumping मशीन है, यह रक्त संचार को नियंत्रित करता है; उसके नजदीक ही एक ग्रन्थि है जिसका नाम ही ' Sympathetic ganglia ' या सहानुभूति ग्रन्थि है. पता नहीं किस वैज्ञानिक ने क्या सोचकर इसका यह नाम रख दिया होगा ? लेकिन आत्मा का काम भी तो सहनुभूति करना है. विज्ञान के बिना धर्म अन्धा है, धर्म के बिना विज्ञान पंगु है. अपने हृदय को जानो तुम्हें अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जायेगा।
* प्रवृत्ति और निवृत्ति भगवान ने जब इतनी सुन्दर सृष्टि बनाई और उसमें स्वयं छुप गये तथा इतने विवेकी मनुष्यों को बनाया जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता है, तब उन्होंने स्वयं को जानने के दो मार्ग बनाये - प्रवृति और निवृत्ति। जब सृष्टि बनी तभी से प्रवृत्ति मार्ग बना - yes, I want to be engaged in the world; मैं इस जगत के आनन्द का उपभोग करूँगा, और जी भरकर उपभोग करने के बाद जिस जन्म में गुरु मिलेंगे इसको निस्सार समझने के बाद इसको त्याग कर भगवान को पकड लूँगा ! प्रवृत्ति का अर्थ है- आनन्द पाने के लिये जगत को स्वीकार करना। निवृत्ति का अर्थ है - त्याग - इस जगत में जिसे तुम सुख समझ रहे हो, वो तो दुःख कारण है, इसलिये निवृत्ति मार्गी ऋषि स्वामी विवेकानन्द एवं हमारे उपनिषद मनुष्यों के त्याग पूर्वक भोग करने का उपदेश देते हैं. जब ठाकुर ने बंकिम चन्द्र से पूछा कि तुम क्या करते हो ? इसके उत्तर में आनन्द मठ के रचयिता बंकिम चन्द्र बोले- आहार,निद्रा, भय और मैथुन ! तन ठाकुर ने  उन्हें धिक्कारते हुए कहा था- देखता हूँ तुम नाम से ही नहीं अक्ल से भी टेढ़े ही हो, छेछड़ा आदमी हो क्या ? ये वही बंकिम चन्द्र हैं, जिन्होंने वन्दे मातरम रचा था. उनको हमलोग प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि समझ सकते हैं.