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बुधवार, 14 अगस्त 2013

" संगच्छध्वं संवदध्वं " राष्ट्रीय एकता और स्वामी विवेकानन्द {National unity and Swami Vivekananda} sarisa camp 29.12.2005


'चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है।'  
'ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी' के अनुसार " Nation" (राष्ट्र) की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है- ‘एक विशाल व्यक्ति–समूह, जिसकी भाषिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परम्पराएं एक हों, तथा जो एक सरकार के अधीन हो, ‘राष्ट्र’ के अंतर्गत आता है।’ ‘ब्रिटानिका रेडी रिफरेंस इनसाइक्लोपीडिया’ में राष्ट्र (Nation) शब्द का अर्थ इस प्रकार है– ऐसे लोगों का समूह जिनकी साझा पहचान उनके अंदर एक मनोवैज्ञानिक बोध और राजनीतिक इकाई का निर्माण करती है।
'ऑक्सफोर्ड डिक्सनरी' में ही 'National' (राष्ट्रीय) शब्द को परिभाषित करते हुए कहा गया है- " relating to or characteristic of a nation; common to a whole nation:this policy may have been in the national interest." - अर्थात किसी राष्ट्र या कौम से सम्बद्ध कोई विशेषता जो किसी एक पूरे देश या जाति के हित में सामान्य रूप अपनाई जाती हो। उदहारण के लिये - राष्ट्रिय विदेश नीति, राष्ट्रिय वेश-भूषा (नेशनल ड्रेस), राष्ट्रिय सम्पत्ति, राष्ट्रिय ध्वज, राष्ट्र-गान, राष्ट्रिय चरित्र आदि; इस दृष्टि से National का पर्यायवाची शब्द है- कौमी, जातीय, राष्ट्रीय, सर्व साधारण का या  सारे देश का।
१५ अगस्त १९४७ को जो भारतवर्ष को तीन टुकड़ों में बाँट कर जो राष्ट्र गठित हुआ था, उसके पहले क्या भारत का अस्तित्व नहीं था ? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है ! -एक लंबी अवधि तक भारत एक राष्ट्र न होकर बहुत से राज्यों के रूप में था। वैदिक कालीन भारतवर्ष की सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था बहुत उन्नत अवस्था में थी। यहाँ गणतन्त्र भी प्रतिष्ठित था। कृषि, विज्ञान, गणित, चिकित्सा, शिल्प हर क्षेत्र में भारतवर्ष एक उन्नत राष्ट्र था।  भौतिक से रूप से उन्नत होने के साथ साथ भारतीय लोगों की आध्यात्मिक जिज्ञाषा भी जाग्रत हुई. 
भारतीय वाङ्मय में सम्पूर्ण भारत की कल्पना एक ऐसे राष्ट्र के रूप में की गयी है, जिसका भू–खंड भारत और इसमें रहनेवाली जनता भारतीय है–
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
 वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र संततिः। 
आदिकाव्य ‘रामायण’ में भारत के भौगोलिक और सांस्कृतिक स्वरूप को ‘राष्ट्र’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है. श्रीराम के मुख से आदिकवि वाल्मीकि की पंक्तियां हैं–
नेयं स्वर्णपुरी लंका रोचते मम् लक्ष्मणः। 
जननी–जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। 
भारतीय राष्ट्रीय चेतना के सम्यक् स्वरूप के साक्षात्कार हेतु ‘अथर्ववेद’ के ‘भूमिसूक्त’ का अध्ययन–अनुशीलन भी सहायक है। भूमिसूक्त’ भारत–भूमि की विशालता और उसके नानाविध प्राकृतिक वैभव का विराट गौरवान्वयन है। इसमें हमारी मातृभूमि की गरिमा का अभिज्ञापन है। राष्ट्रीय चेतना के आधारभूत तत्त्व–देशप्रेम और जन्मभूमि के प्रति रागात्मक संवेदन का बड़े उदात्त शब्दों में प्रकटीकरण है. इसी ‘भूमि सूक्त’ के आधार पर डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने ‘दि फंडामेंटल यूनिटी ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक में भारत की राष्ट्रीय चेतना को पश्चिम से आयातित मानने की अवधारणा को सतर्क खंडित किया है. इस भूमि-सूक्त के एक मंत्र में  कहा गया है –
‘सानो भूमिर्विसृजतां माता पुत्राय मे पयः। ’ 
 'सा नः भूमिः मे पयः विसृजताम् माता पुत्राय' -अर्थात यह भूमि हमारी माता है, हम इसके पुत्र–जो जन इस सम्बंध का अनुभव करता है, उसी के लिए माता दूध (कल्याण) का विसर्जन करती है।  
इसी आधार पर भारतीय विद्वानों ने भी ‘राष्ट्र’ शब्द को परिभाषित किया है। डॉ. सुधींद्र के अनुसार, ‘भूमि, भूमिवासी जन और जन–संस्कृति; इन तीनों के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है। ’‘भूमि’- अर्थात भौगोलिक एकता, ‘जन’- अर्थात जनगण की राजनीतिक एकता, ‘जन–संस्कृति’ अर्थात सांस्कृतिक एकता–तीनों के समुच्चय का नाम ‘राष्ट्र’ है। आगे वे पुनः लिखते हैं– ‘भूमि उसका (राष्ट्र का) कलेवर है, जन उसका प्राण है और संस्कृति उसका मानस है.’ श्री वासुदेव शरण अग्रवाल ने ‘राष्ट्र’ शब्द को अर्थित करते हुए लिखा है– ‘राष्ट्र का सम्मिलित अर्थ पृथ्वी, उसपर रहनेवाली जनता और उस जनता की संस्कृति है.’ राष्ट्र को परिभाषित करते हुए रविन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था - " वैसे लोगों के समूह को राष्ट्र कहते हैं, जो विभिन्न प्रकार के रंग-रूप, भाषा, और वेश-भूषा में रहते हुए भी आपसी समानता और भाईचारा के बुनियाद पर एक एक साथ सुख-शांति पूर्वक निवास करते हैं। " सारतः ‘राष्ट्र’ शब्द का सम्मिलित अर्थ है- पृथ्वी, उस पर बसनेवाली जनता और जन-संस्कृति. जब ये तीनों स्वर एकमेक होते हैं, तब ‘राष्ट्र’ का जन्म होता है.
क्या इस परिवर्तनशील जगत के पीछे क्या कोई अपरिवर्तनशील सत्ता भी है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? जिस प्रकार आज के पाश्चात्य वैज्ञानिक वाह्य जगत में ब्रह्माण्ड की रचना के रहस्यों को खोजने में लगे हुए हैं, उसी प्रकार भारत ने भी इन प्रश्नों के उत्तर वाह्य जगत में ही खोजने की चेष्टा की थी. किन्तु कुछ धीर मनुष्यों (ऋषियों) ने नेत्रों को अंतर्मुखी बना कर अपने ही अन्तर्जगत में स्थित शाश्वत चैतन्य सत्ता का आविष्कार किया और सिद्धान्त दिया कि 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे” अर्थात जिन पंचमहाभूतों से पूर्ण ब्रह्मांड संरचित है उन्हीं तत्वों से हमारा शरीर निर्मित है, तथा जो सत्ता हमारे शरीर को चला रही है, वही चैतन्य सत्ता वाह्य जगत के पीछे रहकर उसे भी चला रही है ! सबसे पहले यह सत्य भारत में ही आविष्कृत हुआ था कि एक ही ब्रह्म इस विश्व-ब्रह्माण्ड के पीछे अवस्थित हैं. इसलिये अनासक्ति के साथ इसका उपभोग करो, किसी दूसरे के धन की आकांक्षा मत करो. तुम केवल मरण धर्म शरीर ही नहीं हो. तुम तो अमृत के पुत्र हो, तुम मृत्यु को भी जीत सकते हो।  
भारत का यही ज्ञान हजारों वर्षों से राष्ट्रीय एकता को अखण्ड बनाये हुए थी. बहु-भाषीय, बहु-जातीय, बहु-धर्मीय व्यवस्था के बावजूद भारत -ऋग्वेद के ऋषियों के द्वारा आविष्कृत सत्य  - ' एकम सत विप्राः बहुधा वदन्ति!' हमारी राष्ट्रिय अखण्डता को अक्षुण बनाये हुए थी.  इसी सिद्धान्त- ' सत्य तो एक ही है ! बुद्धिमान लोग उसका वर्णन अनेक प्रकार से करते हैं' को आधार मान कर भारत के लोग आपस में मिल-जुल कर रहते आ रहे थे. किन्तु बाद में पुरोहितों ने अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये साधारण जनता को आध्यात्मिकता या तात्विक-दर्शन से वंचित करने के लिये केवल कर्म-काण्ड द्वारा पूजा अनुष्ठान को ही धर्म कहकर प्रचारित कर दिया। धर्म के दुर्बल हो जाने से ही राष्ट्रीय एकता खण्डित हो गयी और मुट्ठीभर विदेशी आक्रमण कारियों से पराजित होकर भारत पराधीन हो गया.
ऐसे भी समय आये जब इस उपमहाद्वीप का बहुत बड़ा भाग एक साम्राज्य के अधीन रहा; इस बार अनेक बार विदेशियों ने हमले किये। उनमें से कुछ यहाँ बस गये और भारतीय हो गये; और राजा या सम्राट के रूप में शासन किया। कुछ ने देश को लूटा-खसोटा और धन संपत्ति बटोर कर वापस चले गये। महान उपलब्धियों के भी वक्त आये और देश को जड़ता और दुख के भी अनेक दौरों से गुजरना पड़ा। और जब हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बात करते हैं तब हमारा तात्पर्य भारतीय इतिहास के उस दौर से होता है जिसमें भारत पर अंग्रेजों का शासन था और यहां के लोग विदेशी आधिपत्य को समाप्त करके स्वाधीन हो जाना चाहते थे।  हिन्दू-मुस्लिम सैनिकों ने मिलकर लार्ड क्लाइव से पलासी युद्ध किया था, तब से हम हिन्दू-मुसलमान लोग अपने को भारतीय कौम और अंग्रेजों को विदेशी समझते हैं। 
स्वामीजी ने ऋग्वेद के दसवें मण्डल का अंतिम सूक्त को उद्धरित करते हुए कहा था " एकचित्त हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है।भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिये राष्ट्रीय एकता आवश्यक है।  स्वतंत्र सामाजिक चेतना ही राष्ट्रीयता में परिणत हो जाती है।  राष्ट्र के समस्त नागरिकों की भाषागत, वंशगत, धर्मगत एकात्मकता ही राष्ट्रीय एकता के प्रमुख अवयव हैं। इसीलिये महामण्डल का संघगीत है -
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। 
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते || 
ईश्वर हमें उपदेश दे रहे हैं कि जीवन में मिल कर रहना, संगठित होकर काम करना ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। हम मिलकर चलें, एक सी ही बात कहें और हमारे सोचने विचारने में समानता हो, तभी हमारा काम ठीक होता है, काम में सफलता मिलती है अन्यथा हम लक्ष्य से कोसो दूर अपनी अपनी डफली अपना अपना राग अलापते रह जाते हैं। हम अपना स्वार्थ साधते रहते हैं और लड़ाइयां होती रहती हैं। यह समय की पुकार है कि हम मिल कर रहें। मिलकर चलें, मिलकर बोलें और समानरूप से सोचे। ऋग्वेद के दसवें मण्डल का अंतिम सूक्त है यह संगठन सूक्त। यह मंत्र उस सूक्त का एक भाग है। निश्चित रूप से अंत में कही गई बात पूरी बात का सार होती है। 
तुम समान ज्ञान प्राप्त करो, अर्थात शिक्षापद्धति में कोई भेदभाव न हो, क्योंकि शिक्षार्थी ज्ञान तो अपनी योग्यता  तथा क्षमता के अनुसार अलग अलग प्राप्त करेंगे। समानता से एक दूसरे के साथ संबंध जोड़ो, समता भाव से मिल जाओ। तुम्हारे मन समान संस्कारों से युक्त हों। कभी एक दूसरे के साथ हीनता का भाव न रखो। जैसे अपने प्राचीन श्रेष्ठ लोक के समय ज्ञानी लोग अपना कर्तव्य पालन करते रहे, वैसे तुम भी अपना कर्तव्य पूरा करो। समानता की अवधारणा कठिन है। इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई छोटा और बड़ा नहीं होता, सब बराबर हैं। छोटे और बड़े तो अपने कर्मों के अनुसार होते ही‌ हैं। किन्तु समानता का अर्थ है कि बिना  पक्षपात के, सब के साथ उनकी‌ क्षमता, योग्यता तथा उनकी आवश्यकताओं के अनुसार व्यवहार करना। 
मंत्र में बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से उपदेश दिया गया है। हमारा चलना दिखाई देता है, बोलना सुनाई देता है – पर इन सब का आधार मन ही है ! मन सूक्ष्म है,वह दिखाई नही देता किन्तु, एक साथ अनुशासन बद्ध होकर बोलने और कदम से कदम मिलाकर चलने की प्रेरणा देने वाला तो मन ही है ! वशीभूत मन ही इस पर नियंत्रण रखता है कि हम साथ चलें और एक सा बोलें। सैनिको के कदम-ताल चलने में क्यों अधिक बल रहता है क्योंकि अभ्यास कराते समय बोलते भी हैं दाएं-बाएं या लेफ्ट-राईट-लेफ्ट-राईट-लेफ्ट। अनपढ़ को भी सिखाते हैं - बायाँ हाथ में घाँस-दायाँ में माटी, बोलो 'घाँस-माटी-घाँस-माटी-घाँस।  तो इस तरह पैरो को उठाना, मुख से बोलना और मन की प्रेरणा यह सब एक ही उद्देश्य के लिए काम करते हैं इसलिए शक्ति का प्रतीक बन जाते हैं। 
आज समाज की, देश की स्थिति इससे विपरीत चल रही है। हमें पता है कि संगठन में शक्ति है – ' संघे शक्ति कलौयुगे'। परंतु आज नेतृत्व ऐसे लोगो के पास है जो जनता (या संगठन) को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, भाषा के नाम पर प्रांत के नाम पर बांट रहे हैं। 'नेताओ का चुनाव' भी उनकी योग्यता के आधार पर नही होता जाति या घर्म के नाम पर होता है। अपने मानव समाज और उसकी व्यवस्था को एक मशीन की तरह मानें तो जैसे मशीन के हर पुर्ज़े का महत्व है, हर पुर्ज़े का अपना काम है। सब पुर्ज़े ठीक से अपना अपना काम कर रहे हैं तो मशीन ठीक से चलती रहती है यदि कोई एक छोटा सा पुर्ज़ा भी काम न करे तो मशीन रुक जाती है। 

इसी तरह मानव समाज या  संगठन ठीक से चलता रहे , मिलकर काम करें इसके लिए ईश्वर का आदेश है मिलकर चलो , मिलकर बोलो और एक ही तरह सोचो ताकि लक्ष्य की प्राप्ति हो सके। इस मिलकर चलने की प्रक्रिया में मनुष्य को अपना स्वार्थ छोड़ना होगा, पद का लालच और घमण्ड छोड़ना होगा। क्योंकि, ये विरोधी विचार हैं, नकारात्मक चिंतन को उपजाते हैं। हम सभी दीवार के कंगूरे नही बन सकते हैं किसी को नींव का पत्थर भी बनना है। और यह भी सत्य है, कि नींव के पत्थर की मज़बूती पर ही भवन की मज़बूती निर्भर करती है। 
समाज या संगठन में भी कोई काम छोटा या कोई बड़ा नहीं है। इसके लिए ज़रुरी है कि सब अपना काम सुव्यवस्थित ढंग से करते रहें। एक दूसरे की सहायता करते हुए आगे बढ़ते रहें। अंधे और लंगड़े का सहयोग भी अच्छा उदाहरण है। अंधा देख नहीं पाता, चल सकता है और लगड़ा देख पाता है चल नहीं सकता। अंधे ने लगड़े को अपने कंधे पर बैठाया । अंधा चल रहा था और लंगड़ा मार्ग दिखा रहा था। दोनों ही लक्ष्य तक पहुँच गए। ये कहानियां तो केवल उदाहरण है। सत्य तो यही है कि एक दूसरे की सहायता करते हुए मिलकर चलो। सारे सांसारिक सुख व सम्पत्तियाँ तुम्हारे लिए है।
समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्। 
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ||


 तुम्हारे विचार समान हों अर्थात तुम्हारे लक्ष्य एक हों तथा उनके प्राप्त करने के लिये विचार भी एक समान हों। तुम्हारी सभा सबके लिए समान हो, अर्थात सभा में किसी के साथ पक्षपात न हो और सबको यथा योग्य सम्मान प्राप्त हो। तुम सबका संकल्प एक समान हो। तुम सबका चित्त एक समान-भाव से भरा हो। एक विचार होकर किसी भी कार्य में एक मन से लगो। इसीलिए तुम सबको समान छवि या मौलिक शक्ति मिली है। 

समानी व आकूति: समाना हृदयानि व:|
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ||

 तुम सबका संकल्प एक जैसा हो। तुम्हारा हृदय समान हो, तुम्हारा मन समान हो। तुममें परस्पर मतभेद न हो। तुम्हारे मन के विचार भी समता युक्त हों। यदि तुमने इस प्रकार अपनी एकता और संगठन स्थापित की तो तुम यहां उत्तम रीति से आनंदपूर्वक रह सकते हो और कोई शत्रु तुम्हारे राष्ट्र को हानि नही पहुंचा सकता है।
अंग्रेजों ने कभी भी युद्ध करके भारत में किसी राज्य को नहीं जीता था वो हमेशा छल और साजिस से ये काम करते थे। अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने का अधिकार जहाँगीर ने 1618 में दिया था और 1618 से लेकर 1750 तक भारत के अधिकांश रजवाड़ों को अंग्रेजों ने छल से कब्जे में ले लिया था। बंगाल उनसे उस समय तक अछूता था। और उस समय बंगाल का नवाब था सिराजुदौला (१७३७-१७५७ ) । बहुत ही अच्छा शासक था, बहुत संस्कारवान था । उसने अंग्रेजों को व्यापार की इज़ाज़त कभी नहीं दी । अंग्रेजों ने कई बार बंगाल पर हमला किया लेकिन हमेशा हारे। 
भारत में ब्रितानी राज का प्रारंभ सन् 1757 से माना जा सकता है जब ब्रितानी ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को पलासी- युद्ध में पराजित कर दिया था। अंग्रेजों के पास प्लासी के युद्ध के समय मात्र 300 सिपाही थे और सिराजुदौला के पास 18 हजार सिपाही । अंग्रेजी सेना का सेनापति था रोबर्ट क्लाइव और सिराजुदौला का सेनापति था मीरजाफर । रोबर्ट क्लाइव ये जानता था की आमने सामने का युद्ध हुआ तो एक घंटा भी नहीं लगेगा और हम युद्ध हार जायेंगे। रोबर्ट क्लाइव ने तब अपने दो जासूस लगाये और उनसे कहा की जा के पता लगाओ की सिराजुदौला के फ़ौज में कोई ऐसा आदमी है जिसे हम रिश्वत दे लालच दे और रिश्वत के लालच में अपने देश से गद्दारी कर सके । उसके जासूसों ने ये पता लगा के बताया की हाँ उसकी सेना का सेनापति ही ऐसा आदमी है जो रिश्वत के नाम पर बंगाल को बेच सकता है और अगर आप उसे कुर्सी का लालच दे तो वो बंगाल के सात पुश्तों को भी बेच सकता है। और वो आदमी था मीरजाफर, वह प्लासी के युद्ध में रोबर्ट क्लाइव के साथ मिल गया क्योकि रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफ़र को बंगाल का नवाब बनाने का लालच दे दिया था। आगे चलकर मीर जाफ़र का नाम भारतीय उपमहाद्वीप में 'देशद्रोही' व 'ग़द्दार' का पर्रयायवाची बन गया।  इस प्रकार जितने भूभाग पर ब्रिटिस राज स्थापित था उतने ही भूभाग को हमलोग भारत कहते हैं,
 किन्तु ब्रिटिश शासन काल में पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के चका-चौन्ध या आडम्बरी जीवन को देखकर भारत चकित हो गया, और भारत का पढ़ा-लिखा अभिजात्य वर्ग अंग्रेजी सभ्यता का अन्धानुकरण करने लगा. और अंग्रेजों के कथनानुसार वेदों-उपनिषदों के ज्ञान को गड़ेड़ीयों का गीत समझकर अंग्रेजी शिक्षापद्धति में पले-बढ़े आधुनिक भारत ने अपनी आत्मश्रद्धा को ही खो दिया। सनातन धर्म को भूलकर ये लोग शराब, क्लब, नाच को ही सभ्यता समझ बैठे। भोगवादी सभ्यता को अपना लेने से आजाद भारत में प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा का बोलबाला हो गया.
आजाद भारत के नेताओं ने स्वामीजी के परामर्श -'पहले मनुष्य बनो और बनाओ ' पर कभी ध्यान नही दिया जिसके फलस्वरूप स्वामीजी का नया भारत गढ़ने का स्वप्न पूरा नहीं हुआ. भारत चावल-गेहूँ के उत्पादन में विश्व का दूसरा बड़ा राष्ट्र है. दुग्ध-उत्पादन में भारत विश्व में प्रथम स्थान रखता है. अन्तरिक्ष में उपग्रह को भेजने वाले क्रायोजेनिक इंजन का स्वदेश में निर्माण कर लिया गया है. फिर भी क्या कारण है कि आज भी भारत की ६० % आबादी गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन बिताने को मजबूर है ? शिक्षा का दर पुरुषों में ६० % और स्त्रियों में २७ % ही क्यों है ? एक ओर धनियों के लिये जहाँ बड़े बड़े महल हैं वहीं दरिद्रों की टूटी फूटी झोपड़ियाँ भी हैं. शिशु को पौष्टिक आहार नहीं मिलता है, एक ओर पाँचतारा सुविधा से युक्त हॉस्पिटल हैं, वहीँ बीमार होने पर  गरीबों को उचित उपचार की सुविधा भी नहीं है. 
इन्हीं  विरोधाभासों के कारण भारत की राष्ट्रीय एकता में बाधा पहुँचती है. भारत को छोटे छोटे टुकड़ों में बाँटने की साजिशें चलती रहती है. हमलोग मानवाधिकार को लेकर तो बहुत व्यस्त रहते हैं, किन्तु मनष्यों का कुछ कर्तव्य भी होता है, जिसका पालन करने से ही उसके अधिकार सुरक्षित रह सकते हैं. उन कर्तव्यों को सूचीबद्ध करने की ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता ? कुछ स्वार्थी लोग अधिक भोग के लालच में सत्ता की कुर्सी पाने के लिये जिन राज्यों को बाँट कर उनकी संख्या में वृद्धि तो कर रहे हैं, किन्तु झारखण्ड आदि राज्यों में केवल कुर्सी-कुर्सी का खेल चल रहा है, आम जनता की  स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. जबकि स्वामीजी ने बहुत पहले ही कहा था -  
" याद रखो की राष्ट्र झोपड़ी में बसा है; परन्तु हाय! उन लोगों लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं. निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पतियों की संख्या पर नहीं, बल्कि ' आम जनता की हालत ' पर निर्भर है. क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ? उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति (पूजा और नमाज की पद्धति) को बनाये रखते हुए, क्या तुम उनके खोये हुए व्यक्तित्व (individuality या आत्मश्रद्धा) उन्हें वापस दे सकते हो ? क्या समता, स्वतंत्रता; कार्य-कौशल तथा पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो ? क्या तुम उसी के साथ साथ स्वाभाविक आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा तथा आध्यात्म-साधनाओं में कट्टर सनातनी हिन्दू भी हो सकते हो ? यह काम हमें करना है, और हम इसे करेंगे ही !
 (" Yes, We Can ! We Will Do !) तुम सबने इसीके लिये जन्म लिया है."
 उन्होंने कहा था -" जनसाधारण की उपेक्षा ही राष्ट्रीय-महापाप है ! उन्हें कौन प्रकाश देगा, कौन उन्हें शिक्षित बनाने के लिये द्वारा द्वार तक घूमेगा? उसी को मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये रोता है, अन्यथा वह तो दुरात्मा है. जब तक करोड़ो देश-वासी भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूँगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ, परन्तु सत्ता की कुर्सी या सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता। 
केवल स्वामीजी द्वारा निर्देशित 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ' के बल पर ही भारत एक उन्नत राष्ट्र बन सकता है, तथा राष्ट्रिय एकता भी अखण्ड रह सकती है. स्वामीजी ने कहा था धर्म के दो पहलु हैं, एक उसका आनुष्ठानिक पक्ष है- जैसे पूजा और नमाज; दूसरा उसका अध्यात्मिक पक्ष है-'एक नूर से सब जग उपजा' इस सत्य को समझकर पृथ्वी के सभी संप्रदाय के लोगों से प्रेम और क्षमा का व्यवहार रखना। स्वामीजी का मानना था कि विश्व के सभी धर्म एक ही बात कहते हैं- " To do good and to be good ! this is whole of Religion. " धर्म वह वस्तु है, जो पशु-मानव  को मनुष्य में तथा मनुष्य को देवता में उन्नत करा देता है " धार्मिक मनुष्य का अर्थ है चरित्रवान, पवित्र जीवन और प्रेमपूर्ण ह्रदय वाला मनुष्य। विभिन्न जाति-संप्रदाय के मनुष्यों की पूजा या नमाज की पद्धतियों, बाहरी वेश-भूषा, आचार-अनुष्ठान में अंतर रहना बहुत स्वाभाविक है. यदि बगीचे में एक ही रंग के फूल खिले हों, तो शोभा नहीं होती, रंग-बिरंगे फूलों से ही बगीचे की शोभा बढती है। किसी शायर ने कहा है - चमन की शोभा फूलों के विविध रंग और खुशबू के मेल-जोल से बढ़ती है:  
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है। 
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं,  तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो। 
 (चमन = बगीचा), (इख़्तिलात = मेल-जोल),(इख़्तिलात-ए -रंग-ओ-बू = रंग और ख़ुशबू का मेल-जोल)
 किन्तु क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता का सहारा लेकर हिन्दू-मुसलमानों में झगड़ा कराने वाली एक पार्टी जिसकी स्थापना एक विदेशी ने भारत में अंग्रेजी राज्य को स्थायी बनाने के लिए किया था वह एक संप्रदाय-विशेष को अपना वोट-बैंक बनाने के लिये दंगे करवाती रहती है. इसीलिये श्रीरामकृष्ण ने ' सर्वधर्म समन्वय ' को स्थापित करते हुए कहा था -जितने मत उतने पथ ! जिस  किसी भी साधन-पद्धति (पूजा- नमाज ) को अपनाकर मनुष्य निःस्वार्थी बन जाता हो, वही धर्म है! क्योंकि स्वार्थी मनुष्य ही अशिक्षित और गरीब लोगों का शोषण करते हैं. इसीलिये चाहे हम किसी भी संप्रदाय में जन्म ग्रहण किये हों, निःस्वार्थी मनुष्य बनना ही हमारा प्रथम कर्तव्य है. स्वामीजी कहते थे, विभिन्न लेबल या ब्राण्ड से चिपके तथाकथित धार्मिक लोग जी ' त्रिपुण्ड और टोपी ' धारण करने को ही धर्म समझते हैं,और वैज्ञानिक तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते वैसे ही क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले राजनितिक पार्टियाँ सत्ता की कुर्सी पाने के लिये धर्मों के बीच भाईचारे और सौहार्द को नष्ट कर देते हैं. जब मनुष्य " मेरा धर्म बड़ा है, नहीं तेरा धर्म नहीं- मेरा धर्म बड़ा है !"  कहकर आपस में झगड़ा करने लगता है तो वह निःस्वार्थी बनने के बजाये - राक्षस जैसा बन जाता है और शैतान की तरह उन्मादी आचरण करने लगता है, अगर क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता की प्रतिमूर्ति दिगविजय सिंह के शब्दों में कहें तो - ' आदरणीय हफ़िज सईदजी ' जैसा बन जाता है जो २६/११ का मास्टर माइण्ड था.
 इसीलिये स्वामीजी ने कहा था, सम्पूर्ण भारत को आध्यात्मिकता या रूहानियत से प्लावित कर दिया जायेगा; जब सभी धर्म के लोग एक दुसरे की अनुष्ठानिक पद्धति पूजा-नमाज पर न झगड़ कर; समस्त धर्मों की सार बात निःस्वार्थपरता और प्रेम को जीवन में धारण कर लेंगे तो यह राष्ट्रिय एकता ही विश्व-शान्ति या वसुधैव कुटुम्बकम का रूप धारण कर लेगी।
स्वामीजी ने कहा था- अद्वैत-वेदान्त के सागर में विश्व के समस्त धर्म -'हिन्दू-मुसलमान-पारसी-सिख-ईसाई ' एक हो जाते हैं, वेदान्त की भूमि पर खड़े होकर देखने से वेद-कुरान और बाइबिल में कोई विरोध नजर नहीं आता है। उनहोंने कहा था कि सर्व-धर्म समन्वय की बुनियाद पर जो नया भारत बनेगा-उसका ह्रदय आध्यात्मिकता या रूहानियत जन्य प्रेम से परिपूर्ण होगा, उसका शरीर इस्लामिक भाईचारे द्वारा गठित और मस्तिष्क वेदान्त द्वारा गठित होगा। वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामिक शरीर के साथ हृदय की रूहानियत या प्रेम को मिला देने से जब विभिन्न मतावलंबियों में अभेद भाव स्थापित हो जायेगा, तो राष्ट्रीय एकता भी स्थापित हो जाएगी। क्योंकि ह्रदय का प्रेम ही एकता का वह सूत्र है, जिसमे राष्ट्रीय एकता की भावना को पिरोया जा सकता है.  
[जलपाईगुड़ी महामण्डल के भाई समीर दासगुप्ता, सचिव; उत्तर बंगाल विवेकानन्द युवा महामण्डल के बंगला भाषण का १० मिनट का हिन्दी सारांश ]
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कँगूरा=चोटी, शिखर, कलश। गुंबद, बुर्ज=turret/ किले की दीवार में थोड़ी-थोड़ी दूर पर बने हुए ऊँचे स्थान, जहाँ से खड़े होकर सिपाही लड़ते हैं। 
वह जो चमकीली, सुंदर, सुघड़ इमारत - इस महामण्डल को आप देख रहे हैं; वह किस पर टिकी है ? 
इसके कंगूरों (शिखर) को आप देखा करते हैं, क्या आपने कभी इसकी नींव की ओर ध्यान दिया है?  दुनिया चकमक देखती है, ऊपर का आवरण देखती है, आवरण के नीचे जो ठोस सत्य है, उस पर कितने लोगों का ध्यान जाता है ?
ठोस 'सत्य' सदा  'शिवम्' होता ही है, किंतु वह हमेशा 'सुंदरम्' भी हो यह आवश्यक नहीं है। सत्य कठोर होता है, कठोरता और भद्दापन साथ-साथ जन्मा करते हैं, जिया करते हैं। हम कठोरता से भागते हैं, भद्देपन से मुख मोड़ते हैं - इसीलिए सत्य से भी भागते हैं। नहीं तो इमारत के गीत हम नींव के गीत से ही प्रारंभ करते। 
वह ईंट महान है, जो कट-छँटकर कंगूरे पर चढ़ती है और बरबस लोक-लोचनों को आकृष्ट करती है। किंतु, धन्य है वह ईंट, जो  ज़मीन के सात हाथ नीचे जाकर गड़ गई और इमारत की पहली ईंट बनी! क्योंकि उसी पहली ईंट पर, उसकी मज़बूती और पुख़्तेपन पर- सारी इमारत की अस्ति-नास्ति निर्भर करती है।उस ईंट को हिला दीजिए, कंगूरा बेतहाशा ज़मीन पर आ गिरेगा। कंगूरे के गीत गानेवाले हम, आइए, अब नींव के (महामण्डल शिविर में डी.सी.सी.फिल्ड के) गीत गाएँ। 
वह ईंट जो ज़मीन में इसलिए गड़ गई कि दुनिया को इमारत मिले, कंगूरा मिले! वह ईंट जो सब ईंटों से ज़्यादा पक्की थी, जो ऊपर लगी होती तो कंगूरे की शोभा सौ गुनी कर देती! किंतु जिस ईंट ने यह समझ लिया कि इमारत की पायदारी (टिकाऊपन) उसकी नींव पर मुनहसिर (निर्भर) होती है, इसलिए उसने अपने को नींव में अर्पित किया। वह ईंट जिसने अपने को सात हाथ ज़मीन के अंदर इसलिए गाड़ दिया कि इमारत सौ हाथ ऊपर तक जा सके। वह ईंट जिसने अपने लिए अंधकूप इसलिए कबूल किया कि ऊपर के उसके साथियों को स्वच्छ हवा मिलती रहे, सुनहली रोशनी मिलती रहे। वह ईंट जिसने अपना अस्तित्व इसलिये विलीन कर दिया कि संसार एक सुंदर सृष्टि देखे। 
सुंदर सृष्टि सुंदर सृष्टि (संगठन) हमेशा से ही बलिदान खोजती है, बलिदान ईंट का हो या व्यक्ति का। हमारा समाज (या संगठन) सुंदर बने, इसलिए कुछ तपे-तपाए लोगों को 'मौन-मूक शहादत का लाल सेहरा' पहनना ही पड़ता है। शहादत भी (मार्टर्डम, स्वधर्मार्थ प्राण त्यागवही सच्ची है जो और मौन-मूक हो ! (जैसे नवनीदा ने खड़दह से कोननगर में आकर दी थी। और कोननगर से खड़दह तक की शवयात्रा में, विभिन्न राज्यों से आये महामण्डल के हजारों अनुशासित कर्मी 'मौन-मूक' होकर चल रहे थे, किसी भी अख़बार ने उनकी शहादत की खबर नहीं छापी ! पर वे अमर हैं ! )  जिस शहादत (गाँधी की शहादत) को शोहरत मिलती है, जिस बलिदान को प्रसिद्धि प्राप्त होती है, उसको ही इमारत का कंगूरा, या मंदिर का कलश कहते हैं। हाँ, सच्ची शहादत तो वही है, जो मौन और मूक होती है! (जैसे नेताजी, नवनीदा जैसी शहादत) ऐसी शहादत ही सुन्दर समाज (या सुन्दर संगठन) की आधारशिला यही होती है। 
कुछ लोग सोचते हैं कि ईसा की शहादत ने ईसाई धर्म को अमर बना दिया ; वे कहते हों तो कहें। किंतु मेरी समझ से ईसाई धर्म को अमर बनाया उन लोगों ने, जिन्होंने उस धर्म के प्रचार में अपने को अनाम उत्सर्ग (कुर्बान) कर दिया। उनमें से कितने ज़िंदा जलाए गए, कितने सूली पर चढ़ाए गए, कितने वन-वन की ख़ाक छानते हुए जंगली जानवरों का शिकार हुए, कितने उससे भी भयानक भूख-प्यास के शिकार हुए। उनके नाम शायद ही कहीं लिखे गए हों - उनकी चर्चा शायद ही कहीं होती हो। किंतु ईसाई धर्म उन्हीं के पुण्य प्रताप से फल-फूल रहा है। वे नींव की ईंट थे, गिरजाघर के कलश उन्हीं की शहादत से चमकते हैं। 
यदि आज हमारा देश आज़ाद हुआ है, तो सिर्फ़ उन लोगों के बलिदानों के कारण नहीं, जिन्होंने इतिहास में स्थान पा लिया है। देश का शायद ही कोई ऐसा कोना हो, जहाँ कुछ ऐसे दधीचि नहीं हुए हों, जिनकी हड्डियों के दान ने ही विदेशी वृत्रासुर का नाश किया। जब तक मनुष्य भ्रम में रहता है, अज्ञान या हिप्नोटाइज्ड अवस्था में रहता है, वह पंचेन्द्रियग्राह्य जगत को ही सत्य समझता है। हमलोग बचपन में यही देखते और समझते थे कि सूर्य घूमता है, और पृथ्वी स्थिर है। और हम यह मान बैठे थे कि जिसे हम देख नहीं सकें वह सत्य नहीं है, किन्तु बड़े होने पर पता चलता है कि यह तो हमारी भ्रान्त धारणा थी ! बुद्धि की मूढ़ धारणा थी ! सत्य (अविनाशी आत्मा या ईश्वर या 3rd 'H') तो ढूँढ़ने से ही प्राप्त होता है। या यूँ कहें की कोई विरला 'एथेन्स का सत्यार्थी' सत्य की खोज करता है, और एक दिन उस सत्य को अपने भीतर ही आविष्कृत कर लेता है ! वह सत्यार्थी 'अन्तःप्रकृति पर विजय प्राप्त करके अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करता है,और मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) हो जाता है'। स्वामी जी कहते हैं -" बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मतवाद (डॉक्ट्रिन्स), अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर या मूर्तियाँ (forms) तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं!"   
 (This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details.) 
हमारा कर्तव्य है,अर्थात धर्म है, ऐसी नींव की ईटों की ओर ध्यान देना। सदियों के बाद हमने नई समाज की सृष्टि की ओर कदम बढ़ाया है। इस नए समाज (सुन्दर संगठन) के निर्माण के लिये भी हमें नींव की ईंट चाहिए।अफ़सोस कंगूरा बनने के लिए चारों ओर होड़ा-होड़ी मची है, नींव की ईंट बनने की कामना लुप्त हो रही है। सात लाख़ गाँवों का नव-निर्माण! हज़ारों शहरों और कारखानों का नव-निर्माण! कोई शासक इसे संभव नहीं कर सकता। ज़रूरत है ऐसे नौजवानों की, जो इस काम में अपने को चुपचाप खपा दें।जो एक नई प्रेरणा से अनुप्राणित हों, एक नई चेतना से अभीभूत, जो शाबाशियों से दूर हों, दलबंदियों से अलग।जिनमें कंगूरा बनने की कामना न हो, कलश कहलाने की जिनमें वासना न हो। सभी कामनाओं से दूर - सभी वासनाओं से दूर। 
उदय के लिये आतुर हमारा समाज (संगठन के वुड बी लीडर्स) चिल्ला रहा है। हमारी नींव की ईंटें किधर हैं? देश के नौजवानों को यह चुनौती है!--रामवृक्ष बेनीपुरी 
(रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म सन 1902 में बिहार के मुज़फ़्फरपुर जनपद के अंतर्गत बेनीपुर गाँव में हुआ था।प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हि हुई, किंतु मैट्रिक पास करने से पहले ही वह गाँधी जी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े और कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा।  छोटी उम्र से ही वे अख़बारों में लिखने लग गए थे।उन्होंने 'तरुण भारत','किसान-मित्र','बालक','युवक','कर्मवीर','हिमालय' और 'नई धारा' जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी किया। )
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के अनुसार - ‘किसी भी सरकार का एक ही धर्मग्रंथ होता है और वह है हमारा संविधान। एक ही प्रार्थना होती है वह है भारत-भक्ति। सरकार की एक ही शक्ति है वह है उसके 125 करोड़ भारतवासी और किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होनी चाहिए।
’मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य समीक्षामहे।। 
सब व्यक्ति मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सभी व्यक्तियों को मित्र (भगवती-भगवान) की दृष्टि से देखूं। सभी परस्पर मित्र की दृष्टि से देखा करें। हे दृढ़ता के देव ! आप हमें दृढ़ता दीजिये। शुक्ल यजुर्वेद ३६-१८.
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कलश और नींव का पत्‍थर 
(हरिवंशराय बच्चन)
अभी कल ही पंचमहले पर कलश था,
और चौमहले,तिमहले,दुमहले से खिसकता अब हो गया हूँ नींव का पत्थर !
काल ने धोखा दिया,या फिर दिशा ने,या कि दोनों में विपर्यय;
एक ने ऊपर चढ़ाया,दूसरे ने खींच नीचे को गिराया,
अवस्था तो बढ़ी, लेकिन व्यवस्थित हूँ कहाँ घटकर !
आज के साथी सभी मेरे कलश थे, आज के सब कलश कल साथी बनेंगे। 
हम इमारत,जो कि ऊपर से उठा करती बराबर और नीचे को धँसी जाती निरंतर। 
यह कविता निम्नलिखित व्याख्या के साथ सन १९६१ में आकाशवाणी केन्द्र, नई दिल्ली से प्रसारित की गयी थी।  
 "यहाँ कलश किसी भवन के ऊँचे भाग का प्रतीक है--हालाँकि आधुनिक भवन निर्माण कला में कलश नहीं रक्खा जाता पर प्रतीक अपना अर्थ त्यागने को तैयार नहीं। नींव का पत्थर ईमारत का सबसे निचला भाग हुआ। जीवन के किसी भी क्षेत्र की उपलब्धि को इमारत का रूपक दिया जा सकता है। 
हर क्षेत्र में कुछ चीजें नींव के पत्थर की जगह होती हैं। उन्हीं के ऊपर सारी इमारत का दामोदर होता है, पर वे दिखाई नहीं देतीं। कलश भले ही ऊपर दिखाई दे, भवन का श्रृंगार हो, पर उसपर निर्भर नहीं रहा जा सकता; वही सारी इमारत पर निर्भर रहता है।
पर गतिमान जीवन की कोई उपलब्धि स्थिर नहीं। जो कलश बनकर ऊपर ऊपर रहता है, उसे समय पा कर बल संचित करना, और ऊपर के कलशों को संभालना पड़ता है। यह विचित्र है कि अधिक बल पाकर, अधिक महत्वपूर्ण बनकर उसे नीचे जाना पड़ता है। और, दिखावटी और निर्बल ऊपर आते जाते हैं।  किसी स्थिति पर नींव की ओर जाने वाले को असन्तोष भी हो सकता है -जो हल्के दिखावटी हैं, वे तो ऊपर हैं; जो भारी और ठोस हैं, वे नीचे ! इस कविता में इस असन्तोष को समझा और दूर किया गया है।           



































मंगलवार, 13 अगस्त 2013

श्री मनोज साधवानी द्वारा ' स्वामी विवेकानन्द का जीवन और सन्देश '

परमपूज्य स्वामी रंगनाथानन्द ने एक बार कहा था- " मैंने समग्र विवेकानन्द साहित्य ७१ पढ़ा है, और अभी ७२ वीं बार पढ़ रहा हूँ।" स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं कहा था, मैंने सम्पूर्ण मानवता के लिये क्या किया है, इसे कोई दूसरा विवेकानन्द ही समझ सकता है। 
१.  उनके अविर्भाव की पृष्ठ भूमि: उनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी ने भगवान शिव (काशी विश्वनाथ) से पुत्र बनकर स्वामीजी के रूप में जन्म लेने की प्रार्थना की थी. स्वामीजी निवृत्ति मार्ग के ऋषि थे, जिनको समाधी से जगा कर धराधाम पर स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने धराधाम पर अवतीर्ण कराया था। जिस प्रकार प्रभु श्रीराम का का काज करने के लिये हनुमाजी महाराज समूद्र लाँघ गये थे, ठीक उसी प्रकार स्वामीजी महाराज ने भी ७ समूद्र लाँघकर ठाकुर द्वारा सौंपे गए कार्य - (नरेन् पूरे विश्व को शिक्षा देगा !) को पूरा कर दिखाया था। श्रीरामकृष्ण देव ने स्वयं यह कहा था कि जो राम जो कृष्ण वही रामकृष्ण; उनके इस कथन से भी यही सिद्ध होता है कि रामावतार में जो स्वामीजी हनुमान बन कर आये थे।  रामकृष्ण-अवतार के साथ वही हनुमानजी स्वामीजी बन कर आये थे. स्वामीजी का दृढ़ संकल्प नचिकेता के सदृश्य था।  इसीलिये कठोपनिषद के उत्तिष्ठत जाग्रत मन्त्र को सुना कर उन्होंने अपने ' कोलम्बो टू अल्मोड़ा ' लेक्चर के द्वारा सम्पूर्ण भारत की आत्मश्रद्धा रूपी कुण्डलिनी को जाग्रत कर दिया था। पूज्य नवनीदा की भाषा में कहें तो- " स्वामी विवेकानन्द हम युवाओं के गुरु, सखा और मार्गदर्शक नेता हैं ! जो उनको जिस रूप में चाहे ग्रहण कर सकता है. 
२.  उनका जीवन-चरित : (प्रथम १८ वर्ष ) अब उनके जीवन पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाये। १२ जनवरी १८६३ को उनका जन्म हुआ, उनके बचपन का नाम बिले था. तब से लेकर १८८१ ई तक १८ वर्ष के नरेन्द्रनाथ बनने तक की घटनाओं  को देखें. बाल्यकाल से ही साहसी, बुद्धिमान, दयालु, गंभीर, गंभीर ध्यानी, संगीत पारंगत, कसरती थे. ज्ञानी तो इतने थे कि छात्र जीवन में ही जर्मन दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर, कान्ट, हेगल आदि के पुस्तको का अध्यन कर लिया था. यही नहीं आगे चलकर जब उन्होंने हर्बर्ट स्पेन्सर को उनकी पुस्तक में वर्णित गलतियों पर उनका ध्यान आकृष्ट किया तब उनके कहे अनुसार स्पेन्सर ने उन त्रुटियों को सुधार लिया था।  उनके कॉलेज के प्रिंसिपल विलियम हेस्टि ने भी अपने छात्र की अद्भुत मेधा का उल्लेख किया था। 
३. ठाकुर के सानिध्य में :(१८८१ से १८८६ तक) स्वामीजी की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी, बिना स्वयं परीक्षा किये किसी भी बात को स्वीकार नहीं करते थे. सबसे पहले अपने गुरु की परीक्षा लेते हैं. ' टाका माटी, माटी टाका ' को एक समान जानकर ठाकुर ने इस अनुभूति को इतना आत्मसात कर लिया था, कि उस समय प्रचलित चाँदी के सिक्के को छूने से भी उनको काँटा चुभने जैसा दर्द होता था. उनके बिछावन के नीचे एक सिक्का रखकर इसकी सत्यता को भी जाँचा कर देख लिया था. गुरु भी समझ गये थे, यह किसका कार्य हो सकता था ? यह एक अद्भुत गुरु-शिष्य सम्बन्ध था. ठाकुर से उन्होंने सीखा था, ' जीवों के उपर दया नहीं, शिव ज्ञान से जीव सेवा ! 'उसी  समय उन्होंने कहा था, यदि मुझे अवसर मिला तो मैं ठाकुर के इस उपदेश को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करके दिखा दूंगा ! इसी ६ वर्ष की अवधि में ठाकुर ने नरेन्द्रनाथ के जीवन को एक मार्गदर्शक नेता के रूप में गढ़ दिया था। 
४. समाधी का त्याग और चपरास : ठाकुर का शरीर रुग्न हो जाने पर जब वे काशीपुर उद्द्यान बाटी में थे, उन्होंने उसी समय से मानव-जाति के मार्गदर्शक नेता के निर्माण का प्रशिक्षण देना प्रारंभ कर दिया था. और भावी नेताओं में त्याग और सेवा भावना को प्रविष्ट कराने के उद्देश्य से -जब स्वामीजी ने समाधि के आनन्द में डूबे रहने की इच्छा व्यक्त की थी तब ठाकुर ने उनकी भर्त्सना करते हुए कहा था- छिः छिः तुम अपनी मुक्ति के लिये कामना करते हो ? लोक कल्याण के लिये अपनी मुक्ति या अमृत तक का त्याग कर देने का उपदेश दिया था. और विश्व के भावी मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने का सामर्थ्य (शक्ति-पात) प्रदान करके -एक स्लेट पर लिखकर ' चपरास ' दे दिया था - " नरेन्द्र शिक्षा देगा ! "
५. परिव्राजक जीवन : अंग्रेजी शासन की बेड़ियों में जकड़ी 'भारत- माता ' के फैले हुए बायें हाथ, कोलकाता से प्रारंभ करके दाहिने हाथ पश्चिम में गुजरात के कक्ष-भुज तक, और उसके मस्तक कश्मीर से प्रारंभ करके, उन्होंने दक्षिण में स्थित कन्याकुमारी तक परिभ्रमण करते हुए, अंत में भारतमाता  के चरण कन्याकुमारी की शिला पर बैठकर गौरव शाली अतीत, गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी वर्तमान की दुर्दशा, और भविष्य में भारत माता को विश्व-गुरु के सिंहासन पर आसीन होते हुए देख लिया था. तथा भारतमाता की आत्मा कहाँ बसी हुई उसको भी खोज निकाला था और कहा था -भारत का भविष्य इतना गौरशाली बनने वाला है, जितना वह अतीत में भी नहीं थी. 
६. नरेन्द्रनाथ से विश्वविजयी विवेकानन्द: १८९३ तक पाश्चात्य भ्रमण, १८९७  में कोलम्बो से अल्मोड़ा तक घूम-घूम कर सारे भारत को मोहनिद्रा से जाग्रत करने के लिये वेदान्त मन्त्र 'उत्तिष्ठत जाग्रत ' सुना कर भारत की कुण्डलिनी को जाग्रत कर दिया। उनका वही सन्देश भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का आधार बना. विदेशों भारत लौटने के बाद उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन के नेता अश्विनी कुमार दत्त से Congress की पोल खोलते हुए कहा था Indian National Congress के एक विदेशी संस्थापक,एक अंग्रेज I.C.S ए.ओ.ह्युम तथा उसके प्रथम अध्यक्ष डब्लू.सी. बोनर्जि जैसे अंग्रेज-परस्त लोग जो भारत भारत में पूजा और नमाज में झगड़ा लगा कर, धर्म को राजनीती से अलग करवाकर, दीर्घ काल तक भारत में अंग्रेजों के राज्य को स्थायी कराना चाहते हैं।  ए. ओ. ह्यूम तथा डब्लू. सी. बोनार्जी द्वारा स्थापित कांग्रेस का बनारस अधिवेशन तो  तीन दिन का तमाशा है, इसके अधिवेशन में भारत के अभिजात्य वर्ग को I.C.S की परीक्षा में उम्र छूट के लिये जो प्रस्ताव पारित किया गया था उसकी भाषा को देखने से भारी शर्मिन्दगी होती है.  देश को जीवन्त माता माता के रूप में देखो और उसके सगुण रूप की आराधना करो.  ' सिंहवाहिनी भारतमाता ' के सगुण रूप से जोड़ने की परामर्श के कारण वन्देमातरम द्वारा स्वंत्रता आन्दोलन का नारा बना और देश आजाद हुआ। सनातन धर्मावलम्बियों की आँखे खोलने के लिये , उनके खोये हुए आत्मगौरव को पुनः प्राप्त करने के लिये यह कहना कि - मुझे हिन्दू संन्यासी कहना उचित नहीं, बल्कि अनजाने ही उस प्रकार अपमानित करना है, जैसे पंचानन को पेंचो कहना!
७. रामकृष्ण मठ-मीशन की स्थापना : सनातन धर्म की गुरु-शिष्य परम्परा को पुनर्स्थापित करने के लिये एक विशुद्ध संन्यासी किन्तु भारत प्रेमी सन्यासी मठ की स्थापना   
८. मायावती तथा प्रबुद्ध भारत :  अन्तरराष्ट्रीय समुदाय के लिये मायावती मठ तथा प्रबुद्ध भारत पत्रिका की स्थापना की थी क्योंकि वे चाहते थे कि श्रेष्ठ विचार जन जन तक पहुँच जाएँ।  " जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन (महामण्डल का पाठ-चक्र एवं युवा प्रशिक्षण शिविर) कर दूँ, जो उच्च एवं  श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुंचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें।  हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है ? यह सर्वसाधारण को जानने दो।  विशेष कर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं ? और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो।  रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकर धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान (श्रीरामकृष्ण) पर श्रद्धा रखो. काम शुरू कर दो।  देर-सबेर मैं आ ही रहा हूँ।  " धर्म को बिना हानी पहुँचाये जनता की उन्नति " -इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो ! "
९. बेल-पत्र के तीन पत्ते: ठाकुर-माँ के बिना स्वामीजी के जीवन को समझना आसान नहीं होगा। क्योंकि किसी विशेष प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये ही उन्होंने स्वामीजी को तैयार किया था. विश्व के समस्त धर्मों में समन्वय स्थापित कराने की शिक्षा देने में समर्थ नेता का निर्माण करने के लिये, पहले ठाकुर (श्रीरामकृष्ण) ने स्वयं पूजा और नमाज आदि विभिन्न धर्म-पथों से साधना करने के बाद, अपने जीवन से प्रमाणित करते हुए कहा था - ' जितने मत उतने पथ !' ठाकुर के आने के बाद ही, विश्व के समस्त देशों में 'Universal Religion' या ' सार्वभौमिक धर्म ' के उपर चर्चा आरंभ हो गयी थी.
१०. माँ सारदा: ने कहा था, ठाकुर देव का आगमन मातृत्व शक्ति को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिये हुआ था. 
११. स्वामीजी के जीवन के चार प्रमुख आयाम थे- भारतप्रेमी, युवाशक्ति का सदुपयोग, गुरु, संगठन क्षमता! 
१२.भारत के प्रति सन्देश: हे भारत! मत भूलना कि तुम्हारी नारी जाति का आदर्श सीता, सावित्री और दमयन्ती हैं ! यदि मुझे प्राचीन भारतीय संस्कृति संस्कृति और तथाकथित आधुनिक भारतीय संस्कृति में से किसी एक को चुनने को कहा जाय, तो मैं प्राचीन भारतीय संस्कृति के पक्ष में ही अपना मत दूंगा। क्योंकि जो व्यक्ति पाश्चात्य सभ्यता और अपनी देव-संस्कृति को भूल कर केवल अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा-पद्धति के अनुसार अपना जीवन गठित करते हैं, उनके भीतर रीढ़ की हड्डी या मेरुदण्ड ही नहीं होता है. भारत माता अब जाग चुकी है, अब वह कभी सो नहीं सकती, हमलोगों को अब उन्हें फिर से विश्व-गुरु के सिंहासन पर आसीन करवाना होगा ! ईश्वर अवतरित ही होते हैं, दीन-दुखियों और असहायों की सहायता करने के लिये। 
१३. युवाओं के प्रति सन्देश : उन्होंने आजादी से पहले ही सावधान किया था - यदि संगठित प्रयास के द्वारा चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण कार्य प्रारंभ नहीं किया गया, तो आज जिस प्रकार हमारे देश को विदेशी राजा लोग लूट रहे हैं, आजादी के बाद देशी राजा लोग लूटेंगे। शिकागो भाषण के बाद अमेरिकी समाचारपत्र Herald में समाचार छपा था- जिस देश में स्वामीजी जैसे प्रबुद्ध लोग रहते हों, उस देश भारत में अब हमारे ईसाई मिशनरियों या धर्म-प्रचारकों को भेजने की आवश्यकता नहीं है. और उसके बाद से ही भारत के प्रति पाश्चात्य देशों में हीन भावना थी वह पूरी तरह से बदल गयी थी.
 तरुण और युवा मित्रों को लिखे एक पत्र में उनहोंने कहा था- " याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा है; परन्तु हाय! उन लोगों लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं. निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पतियों की संख्या पर नहीं, बल्कि ' आम जनता की हालत ' पर निर्भर है. क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ? उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति (पूजा और नमाज की पद्धति) को बनाये रखते हुए, क्या तुम उनके खोये हुए व्यक्तित्व (individuality या आत्मश्रद्धा) उन्हें वापस दे सकते हो ? क्या समता, स्वतंत्रता; कार्य-कौशल तथा पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो ? क्या तुम उसी के साथ साथ स्वाभाविक आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा तथा आध्यात्म-साधनाओं में कट्टर सनातनी हिन्दू भी हो सकते हो ? यह काम हमें करना है, और हम इसे करेंगे ही ! 

(" Yes, We Can ! We Will Do !) तुम सबने इसीके लिये जन्म लिया है. अपने  विश्वास रखो. दृढ़ संकल्प, दृढ इच्छाशक्ति ही महत कार्यों की जननी हैं! Onwards for ever ! (क्रम विकास- Be and Make के मार्ग पर) हमेशा आगे ही बढ़ते रहो, " मरते दम तक गरीबों और पददलितों के लिये सहानुभूति- यही हमारा आदर्श वाक्य है ! " बहादुर लड़कों, आगे बढ़ो ! "(२/३२१)
तभी तो हजारों युवा आज अपनी मातृभूमि के लिये अपने प्राणों की आहूति देने को तैयार हैं. उन्होंने कहा था, यदि पहाड़ मुहम्मद के पास नहीं आ सकता तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना होगा। अर्थात यदि भारत के गरीब और पददलित लोग उच्च विचारों को ग्रहण करने लिये साधू-सन्तों के पास नहीं आ सकते तो साधू-संतों को ही उनके पास जाना होगा। 
१४. भारत एवं विश्व के कल्याण के लिये संगठन : स्वामीजी विश्व सभ्यता को प्रबुद्ध बनाने के उद्देश्य से अमेरिका के विभिन्न स्थानों पर जितने ' वेदान्ता सोसाईटी ' की स्थापना की थी उनके कार्यो में तेजी लाने के उद्देश्य दुबारा पाशचात्य देशो की यात्रा की थी.

१५. प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थों के लिये:  उनका उपदेश था - Be and Make ! उन्होंने कहा था- " साथ ही एक केन्द्रीय महाविद्यालय (गृही पुरुषों के लिये अ ० भा० वि० यु० महामण्डल तथा स्त्रियों के लिये सारदा नारी संगठन ) एवं  भारत की चारों दिशाओं में उसकी विभिन्न शाखाएँ स्थापित करने की हमारी योजना को न भूलना। खूब मेहनत से कार्य करो. ….मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाति में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उनकी शिक्षा गरीब से गरीब और हीन से हीन लोगों भी को दी जाये।"
 " जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन (महामण्डल का पाठ-चक्र एवं युवा प्रशिक्षण शिविर) कर दूँ, जो उच्च एवं  श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुंचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें. हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है ? यह सर्वसाधारण को जानने दो. विशेष कर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं ? और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो. रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकर धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान (श्रीरामकृष्ण) पर श्रद्धा रखो. काम शुरू कर दो. देर-सबेर मैं आ ही रहा हूँ. " धर्म को बिना हानी पहुँचाये जनता की उन्नति " -इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो ! "
१६. निवृत्ति मार्गियों के लिये: ठाकुर से फटकार खाने के बाद उन्होंने जो समझा था उसीको ध्यान में रखते हुए, उन्होंने निवृत्ति मार्गियों के लिये सन्देश दिया था -" आत्मनो मोक्षार्थं जगत हितायच !" उनके इन्हीं दो संदेशों के माध्यम से जो जहाँ पर है, अपने अपने अभिरुचि के अनुसार दोनों मार्गों में से किसीएक को चुन कर अपना मनुष्य जीवन सार्थक बना सकता है।
[' स्वामी विवेकानन्द का जीवन और सन्देश चाम्पा , छत्तीसगढ़ के प्रिय भाई ' श्रीमनोजसाधवानी ; सरिसा आश्रम कैम्प २८. १२. २००५ ]




 
 

शनिवार, 10 अगस्त 2013

$$$ काँग्रेस का अर्थ तो पार्टी नहीं अधिवेशन होता है ?

स्वाधीनता आन्दोलन  और  स्वामी विवेकानन्द !
आज के भाषण का विषय है- स्वामी विवेकानन्द एवं स्वदेशी आन्दोलन ! इस विषय का चयन स्वदेशी आन्दोलन की शतवार्षिकी (सेन्टिनेरी ऑफ़ स्वदेशी मूवमेन्ट) को ध्यान में रखकर किया गया है। आज से ठीक १०० वर्ष पहले,  १९०५ ई ० में ही Lord Curzon (लार्ड कर्जन) ने बंग-भंग (पार्टीशन ऑफ़ बेंगॉल
का अध्यादेश लागु किया था, जिस का विरोध करने के लिये भारतवासियों ने 'स्वदेशी आन्दोलन' का प्रारंभ किया था।  जब १९०५ ई. में वंगभंग हुआ, तब स्वदेशी का नारा जोरों से अपनाया गया। तो 
उसी वर्ष कांग्रेस ने भी इसके पक्ष में मत प्रकट किया। देश का पूँजीपति वर्ग उस समय कॉटन की मिलें तथा अन्य फैक्ट्री आदि खोलना शुरू कर रहे थे।  इसलिए स्वदेशी आंदोलन उनके लिए बड़ा ही लाभदायक सिद्ध हुआ। स्वदेशी आन्दोलन की बुनियाद इस विचारधारा पर रखी गयी थी, कि यदि अंग्रेजों को आर्थिक दृष्टि से कमजोर बना दिया जाय तो देश को शीघ्र आजाद कराया जा सकता है।  वास्तव में १८७४ ई ० में ही अंग्रेजों ने आसाम के ग्वालपाड़ा जिले के साथ बंगाल, बिहार, उड़ीसा के कुछ हिस्से को आसाम में मिला देने का प्रस्ताव लाया था। किन्तु लार्ड कर्जन ने १९०३ ई ० में बंगाल प्रेसिडेन्सी को विभाजित करने का प्रस्ताव रखा था।  जब यह खबर अख़बारों में छपी तो इसका तीव्र विरोध शरू हो गया इसी आंदोलन के अवसर पर विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर पिकेटिंग शुरु हुई। पिकेटिंग करने के लिये 'अनुशीलन समितियाँ' (कार्यकारिणी समितियाँ) बनीं जो अंग्रेजों द्वारा दबाए जाने के कारण 'क्रांतिकरी समितियों' में परिणत हो गई। ऋषि अरविंद के छोटे भाई वारींद्र कुमार घोष ने बंगाल में क्रांतिकारी दल स्थापित किया। जब यह आन्दोलन बहुत अधिक जोर पकड़ने लगा तो, भारत की राजधानी को १९११ में कोलकाता से उठाकर दिल्ली ले जाया गया।  दिल्ली-दरबार (1911) में वंगभंग के निर्णय को रद्द कर दिया गया, पर 'स्वेदशी-आंदोलन' नहीं रुका और वही आंदोलन 'स्वतंत्रता आंदोलन' में परिणत हो गया। 
यहाँ यह बात ध्यान देने की है- स्वामी विवेकानन्द का शरीर ४ जुलाई १९०२ को गया और १९०३ में ही लार्ड कर्जन ने १९०३ ई ० में बंगाल प्रेसिडेन्सी को विभाजित करने का प्रस्ताव रखा-क्या इन दोनों घटनाओ के बीच कोई सम्बन्ध है ? इस बात को समझने के लिये हमें इतिहास के पुराने पन्नो को पलटना होगा। अंग्रेजो के विरुद्ध स्वतन्त्रता संग्राम की दो धारायें थीं एक क्रान्तिकारी धारा (भगतसिंह और नेताजीसुभाष )और दूसरी संविधानिक-व्यबस्था (साबरमती के तथाकथित सन्त)  के  अनुसार चलने वाली धारा। यह स्वदेशी आन्दोलन संविधानिक व्यवस्था के अनुसार चलने वाला आन्दोलन था। जबकि १८५७ का सिपाही-विद्रोह संविधानिक आन्दोलन नहीं था, यह प्रथम स्वाधीनता संग्राम था। संथाल विद्रोह, नील मजदूर विद्रोह ये सब संविधानिक आन्दोलन नहीं था, प्रथम संविधानिक आन्दोलन स्वदेशी आन्दोलन के रूप में आया था।  'भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस'  (Indian National  Congress) की स्थापना १८८५ ई० को हुई थी, और ठाकुर (श्रीरामकृष्ण) का शरीर १६ अगस्त १८८६ में गया था. I.N.C की स्थापना अंग्रेजों ने की थी, कॉंग्रेस का अर्थ होता है, अधिवेशन (सम्मेलन)। तब उसका अर्थ था, भारत का राष्ट्रीय अधिवेशन, किन्तु अब कांग्रेस का अर्थ पार्टी हो गया है। उस  समय अधिवेशन (तीन दिन का सम्मेलन) के माध्यम से भारत के सम्भ्रान्त-अभिजात (कुलीन) वर्ग के भरतीय लोग अपने अंग्रेज हुक्मरानों के सामने प्रार्थना करते हुए अपनी मांगों को रखते थे। 

[एलेन ओक्टेवियन ह्यूम (६ जून, १८२९ - ३१ जुलाई, १९१२) ]
उस समय के एक बुद्धिमान अंग्रेज सर ए. ओ. ह्यूम  ने की थी जो ब्रिटिशकालीन भारत में सिविल सेवा के अधिकारी थे। वे यह समझ चुके थे कि यदि अंग्रेज लोग भारत के अभिजात्य वर्ग की मांगों को बलपूर्वक दबाने की चेष्टा करेंगे तो विद्रोह हो जायेगा, उसीसे बचने के लिये उनकी मांगों को अग्रेज दरबार से पूरा करवा देने के उद्देश्य से I.N.C का गठन हुआ था। उन दिनों कांग्रेस के कुलीन डेलीगेट्स लोग क्लब में इकट्ठे होकर भोजन पार्टी में खाने-पीने-नाचने के बाद जो प्रस्ताव पारित होते थे, उसमें लिखा जाता था कि 
'यह हमारा सौभाग्य है कि हम भारतवासी आप जैसे महान अंग्रेज जाती के दास हैं, अतः आपको हमारे उपर कृपा करनी चाहिये।' ११८५ से लेकर १८९५ तक के कांग्रेस अधिवेशन में जितने प्रस्ताव पारित हुए थे, उनको अभी देखने से बड़ी शर्मिन्दगी होगी।
इंग्लैंड में ह्यूम साहब ने अंग्रेजों को यह बताया कि भारतवासी अब इस योग्य हैं कि वे अपने देश का प्रबंध स्वयं कर सकते हैं। उनको अंग्रेजों की भाँति सब प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिए और सरकारी नौकरियों में भी समानता होना आवश्यक है। जब तक ऐसा न होगा, वे चैन से न बैठेंगे। इंग्लैंड की सरकार ने ह्यूम साहब के सुझावों को स्वीकार किया। भारतवासियों को बड़े से बड़े सरकारी पद मिलने लगे। कांग्रेस को अंग्रेजी सरकार अच्छी दृष्टि से देखने लगी और उसके सुझावों का सम्मान करने लगी। वे कहते थे कि भारत में एकता तथा संघटन की बड़ी आवश्यकता है।
स्वामीजी ३१ मई १८९३ ई ० को भारत से अमेरिका के लिये प्रस्थान किये थे, और १७ जनवरी १८९७ को अमेरिका से वापस लौट आये थे।  किन्तु उस समय तक भारत स्वामी विवेकानन्द को नहीं पहचान नहीं सका था।  जब शिकागो भाषण के बाद वे विश्व विख्यात भी हो गये थे, तब भी कोलकाता के लोग यह नहीं जानते थे, कि  स्वामी विवेकानन्द वास्तव में कोलकाता के ही युवा नरेन्द्रनाथ दत्त हैं।  जब तक १९ सितम्बर १८९३ को शिकागो में जब स्वामी विवेकानन्द ने 'हिन्दू धर्म' पर अपना व्याख्यान नहीं दे दिया था, तब तक पाश्चात्य जगत भारत की ओर अवज्ञा की दृष्टि से देखता था। 
भरतीय लोग स्वयं भी आत्महीनता की भावना से इस कदर ग्रस्त थे कि बड़े होकर किसी अंग्रेज साहब की चपरासी-गिरी करने में भी अपने लिये बड़े गौरव की बात समझते थे।  किन्तु जब स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण के बाद पाश्चात्य देश भारत की सभ्यता और संस्कृति के प्रसंशक बन गये और भारत की ओर मुग्ध दृष्टि से देखने लगे, तो भारत ने अपनी खोयी हुई राष्टीय-आत्मश्रद्धा को फिर से प्राप्त कर लिया।
१८९७ में स्वामीजी आलासिंगा को पत्र लिखते हैं, और जनवरी में दक्षिण भरत से लेकर कश्मीर और लाहौर तक पुरे भारत को ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' का मन्त्र सुना कर, उसको नीन्द से जगा देते हैं. जिसके परिणाम स्वरुप १९०२ में उनके जाने के बाद जब १९०३ में बंगभंग की प्रथम घोषणा हुई थी, उस समय तक स्वामीजी के राष्ट्र के प्रति आह्वान को सुनकर सम्पूर्ण भारत की आत्मश्रद्धा जाग्रत हो चुकी थी. 
उनके भारत वापस लौटने के पहले तक I.N.C में केवल जो भाषण-भोजन और प्रस्ताव आदि अग्रेज दरबार के सामने गिड़गिड़ाते हुए भेजे जाते, वह तरीका स्वामीजी को पसन्द नहीं था।  क्योंकि अंग्रेज दरबार की चापलूसी करने वाले तात्कालीन बड़े बड़े बैरिस्टर, डाक्टर, अंग्रेजी पढ़े-लिखे उच्च श्रेणी के कुलीन और धनी-मानी काँग्रेस नेताओं को भारत की आम गरीब जनता की समस्यायों से कुछ लेना-देना नहीं था। 
किन्तु अपने परिव्राजक जीवन में ही सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करके स्वामीजी ने यह जान लिया था, कि यथार्थ भारत आज भी गाँव की झोपड़ियों में वास करता है,यदि भारत के आम जनता की अवस्था को समझना है, तो गाँव-गाँव की झोपड़ियों में जाकर उनकी समस्याओं से अवगत होना होगा। श्री अश्विनी कुमार दत्त ने १८९५ के कांग्रेस अधिवेशन में डेलिगेट बनकर भाग लिया था, भारत लौटने के बाद स्वामीजी ने कहा था, कि यह कांग्रेस अधिवेशन तो तीन दिन का तमाशा  है; उसमें काँग्रेसी डेलिगेट्स लोग (अभी २० नवम्बर २०१७ तक भी विदेशिनी की सन्तान राहुल को अपना अध्यक्ष चुनते हैं ) सच्चे राष्ट्रीय हित की बात कहाँ करते हैं? 
कांग्रेस ने उस अधिवेशन के बाद यह प्रस्ताव पारित किया था कि I.C.S परीक्षा के लिये एक सेन्टर भारत में भी खुलना चाहिये तथा उसमें भाग लेने के लिये अंग्रेजों के एज लिमिट की तुलना में भारतीय अभ्यर्थियों के एज लिमिट को बढ़ाना चाहिए, इससे प्रतियोगिता में भाग लेने में सुविधा होगी। किन्तु कांग्रेस के इस प्रस्ताव के पास होने पर भी ३० करोड़ भारत वासियों में से कुल मिलाकर ३००० लोग भी आई.सी.एस बनने का स्वप्न नहीं देख सकते थे। भारत की आम गरीब जनता को इस प्रस्ताव के पास होने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला था। 
इस प्रकार हम समझ सकते हैं, कि सम्पूर्ण भारत वासियों को संगठित करके राष्ट्रीय आन्दोलन में सहभागी बनाने की विचार धारा का प्रवेश I.N.C में स्वामीजी की प्रेरणा से, उनके १८९७ में उनके भारत लौटने के बाद ही हुआ था. वे जानते थे कि स्वतंत्रता आन्दोलन को जन-आन्दोलन का रूप देने के लिये भारत के गरीब ग्रामीण जनता को उससे जोड़ना ही पड़ेगा। २४ जनवरी १८९४ को लिखे एक पत्र में स्वामीजी ने कहा था," याद रखो की राष्ट्र झोपड़ी में बसा है; परन्तु हाय ! उन लोगों  लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं. निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पतियों की संख्या पर नहीं, बल्कि ' आम जनता की हालत ' पर निर्भर है. क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ?"
१९०५ के स्वदेशी आन्दोलन के पीछे भी स्वामीजी द्वारा ' कोलम्बो टू अल्मोड़ा ' तक उनके संदेशों की प्रेरणा ही कार्य कर रही थी. 'आक्टेवियन ह्यूम ' ने जिस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थापना बम्बई में 'गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज' के भवन में की। उसके प्रथम अध्यक्ष डब्ल्यू.सी.बनर्जी (बाबू व्योमेश चन्‍द्र बनर्जी (29 दिसंबर, 1844, कोलकाता; मृत्यु- 21 जुलाई 1906 इंग्लैंड) ) बनाये गए थे। वे कोलकाता उच्च न्यायालय के प्रमुख वक़ील थे, तथा भारत में अंग्रेज़ी शासन से प्रभावित थे और उसे देश के लिये अच्छा मानते थे। बाबू व्योमेश बनर्जी अंग्रेज़ी चाल-ढाल के इतने कट्टर अनुयायी थे कि इन्होंने स्वयं अपने पारिवारिक नाम 'बनर्जी' का अंग्रेज़ीकरण करके उसे 'बोनर्जी' कर दिया। इन्होंने अपने पुत्र का नाम भी 'शेली' रखा, जो कि अंग्रेज़ों में अधिक प्रचलित था। 1902 ई. में वे तो इंग्लैंड में जाकर बस ही गये थे। 
काँग्रेस के प्रथम अध्यक्ष श्री डब्ल्यू.सी.बनर्जी का यह मानना था कि भारत के किसी भी राष्ट्रीय आन्दोलन को धर्म से सदैव अलग रखने से ही, भारत में अंग्रेजों के शासन को सदा के लिये स्थायी रूप कायम रखा सकता है। अतः आगे चलकर यही कांग्रेस पार्टी की मुख्य विचार धारा बन गयी।   
[ जिसके बल से इमरजेंसी लगाकर १९७६ में संविधान के प्रीएम्बल में सेक्यूलर शब्द जोड़ दिया। बाबू दिगबिजय सिंह और सलमान खुर्शीद, और मौलाना मुलायम टाईप नेता इसी क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत-माता की दो सन्तानों हिन्दू-मुसलमान में फूट डाल कर अपना उल्लू सीधा करते आ रहे हैं, और असंख्य घोटालों में लूटा गया देश का काला-धन विदेशी बैंकों में जमा होता जा रहा है। २०१३ में चायवाले का बेटा के आने तक भारत में- 'तथाकथित कुलीन(अटल-अडवाणी-यशवन्त-शत्रुघ्न सिन्हा आदि) लोगों के माध्यम से एक प्रकार से अंग्रेजी राज्य ही कायम था।] 
२४ जनवरी १८९४ को अमेरिका से लिखे एक पत्र में स्वामीजी लिखते हैं " …. समस्त अमेरिकी जनता जिसे 
(तब नरेन्द्रनाथ दत्त अभी नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को)  सिर-आँखों पर बैठा रही है, उस पर कीचड़ उछालकर प्रसिद्धि लाभ करने के इरादे से ही पत्रिका ऐसा छाप दिया है। ऐसे छल को यहाँ के लोग खूब समझते हैं, एवं इसे यहाँ कोई महत्व नहीं देता। किन्तु भारत के पादरी ( कुछ Indian National Congress के अंग्रेज संस्थापक ए.ओ.ह्युम तथा उसके प्रथम अध्यक्ष डब्लू.सी. बोनर्जि जैसे अंग्रेज-परस्त (इटली-परस्त नेता) लोग जो भारत भारत में पूजा और नमाज में झगड़ा लगा कर, धर्म को राजनीती से अलग करवाकर, दीर्घ काल तक भारत में अंग्रेजों के राज्य को स्थायी कराना चाहते हैं.) अवश्य ही इस आलोचना का लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे। यदि वे ऐसा करें, तो उनसे कहना - " हे यहूदी, याद रखो, तुम पर ईश्वर का न्याय घोषित हुआ है." उन लोगों की तथाकथित कुलीन नेताओं की पुरानी इमारत की नींव भी ढह रही है; पागलों के समान चीत्कार रहने के बावजूद उसका नाश अवश्यम्भावी है."  उन पर मुझे दया आती है कि यहाँ प्राच्य धर्मों के समावेश के कारण भारत में आराम से जीवन बिताने के साधन कहीं क्षीण न हो जाएँ। किन्तु इनके प्रधान पादरियों में से एक भी मेरा विरोधी नहीं। खैर, जो भी हो,  तालाब में उतरा हूँ, तो अच्छी तरह से  स्नान अवश्य करूँगा। 
किन्तु जिन ओस की बून्दों के बिना गुलाब खिल ही नहीं सकता, पर उसे कोई याद नहीं रखता; उसी प्रकार १९०५ के बंगभंग और स्वदेशी आन्दोलन का मुख्य प्रेरणा स्रोत स्वामीजी द्वारा ' कोलम्बो से अल्मोड़ा ' तक दिया गया राष्ट्र को सन्देश ही था. 


 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " आध्यात्मिकता अर्थात धर्म ही भारत का प्राण है ! अतः भारत का कोई भी आन्दोलन जो धर्म से रहित होगा, उसमें कभी गति नहीं हो सकती है.उनके भाषण की प्रेरणा से ही आज भी देश के लाखों युवाओं में राष्ट्रीय स्वाभिमान या आत्मश्रद्धा का जो भाव जाग्रत हो रहा है, उसको देखकर तो यही लगता है कि भारतमाता अब फिर से कभी सो नहीं सकती है। 

 
 बाल गंगाधर तिलक (जन्म: २३ जुलाई, १८५६ - मृत्यु:१ अगस्त, १९२०)
उनके ऐसे ही ओजस्वी भाषणों से प्रभावित होकर बाल गंगाधर तिलक ने ही सबसे पहले ब्रिटिश राज के दौरान पूर्ण स्वराज की माँग उठायी। तिलक का लक्ष्य स्वराज था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने उग्र विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया। तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए, इनका यह कथन कि "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा"  बहुत प्रसिद्ध हुआ। इन्हें आदर से "लोकमान्य" (पूरे संसार में सम्मानित) कहा जाता था। इन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है। तिलक का जीवन घटना-प्रधान रहा है। वे मौलिक विचारों के व्यक्ति थे। वह संघर्षशील और परिश्रमशील थे। वे आसानी से कुछ भी ठुकरा सकते थे। वह तब विशेष प्रसन्नता का अनुभव करते थे, जब उन्हें कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता था। 
तिलक का दृढ़ विश्वास था कि पुराने देवताओं और राष्ट्रीय नेताओं की स्वस्थ वंदना से लोगों में सच्ची राष्ट्रीयता और देशप्रेम की भावना विकसित होगी। विदेशी विचारों और प्रथाओं के अंधानुकरण से नई पीढ़ी में अधार्मिकता पैदा हो रही है और उसका विनाशक प्रभाव भारतीय युवकों के चरित्र पर पड़ रहा है। उनका यह मानना था कि युवाओं का चरित्र-निर्माण तभी किया जा सकता है, जब उन्हें अपने धर्म और पूर्वजों का अधिक आदर करना सिखाया जाएँ। उनका कहना था कि हिन्दू-मुस्लिम दंगो का कारण लॉर्ड डफ़रिन द्वारा शुरू की गई फूट डालो और राज करो की नीति है। इन दंगों को नियंत्रित करने का एकमात्र तरीक़ा यह है कि सरकारी अधिकारी हिन्दू मुसलमानों के बीच कड़ाई के साथ निष्पक्ष आचरण करें। मरणोपरान्त श्रद्धांजलि देते हुए गान्धी जी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा था.  
१९०५ से लेकर १९११ तक बंगभंग को केन्द्र में रखते हुए जो आन्दोलन चलाया गया, वही भारत का पहला जन-आन्दोलन था,स्वदेशी आन्दोलन के उपर क्रन्तिकारी आन्दोलन की छाप नहीं पड़ी थी, किन्तु दोनों आंदोलनों पर स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है. स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ जब धर्म को जोड़ा गया और " वंदे मातरम् " का नारा जब इस युग का महामंत्र बन गया तभी सम्पूर्ण भारत में स्वदेशी आन्दोलन का प्रभाव दिखाई पड़ने लगा. 
स्वामीजी के गुरुभाई स्वामी सारदानन्द जी एवं सिस्टर निवेदिता क्रान्तिकारी आन्दोलनों को अनुप्रेरित करते थे. 
लाला लाजपत राय, बी. जी. तिलक, और विपिन चन्द्र पाल ने तीनों ने स्वामीजी से प्रेरणा प्राप्त की थी। स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में बंगाल में हबीबगंज ज़िले के पोइल गाँव (वर्तमान में बांग्लादेश) में जन्मे  

 

विपिन चन्द्र पाल (7 नवंबर, 1858 - 20 मई, 1932) का नाम भारत में 'क्रान्तिकारी विचारों के जनक' के रूप में आता है, जो अंग्रेज़ों की चूलें हिला देने वाली 'लाल' 'बाल' 'पाल' तिकड़ी का एक हिस्सा थे। जिन्होंने 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में ज़बर्दस्त आंदोलन चलाया था। इन्हीं लोगों के कारण नरम पन्थ और चरम पन्थ के आधार पर कांग्रेस दो भागों बँट गयी थी. किन्तु १९०५ में जो कांग्रेस अधिवेशन बनारस में हुआ था, उसमें एक आयरिश महिला होकर भी निवेदिता कांग्रेस के दोनों गुटों से अनुरोध करने गयी थी कि आपलोग अलग अलग बैठकें मत करो, इससे भारत को हानी होगी। निवेदिता के माध्यम से स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा ने ही, क्रांतिकारियों को भी अनुप्रेरित किया था. स्वामीजी ने भारत की खोई हुई आत्मश्रद्धा को निःसन्देह पुनः वापस लौटा दिया था. 
स्वामीजी के शिकागो भाषण के पहले हम भारतीय लोग अंग्रेजी पढ़-लिख कर अपने पूर्वजों को मूर्ख समझते थे और जैसा अंग्रेज लोग कहते थे कि वेद तो गड़ेड़ीये का गीत है - हमलोग भी वेद-उपनिषदों को shepherd song समझकर हीन भावना से ग्रस्त हो गये थे. किन्तु उसी कठोपनिषद के मन्त्र ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' को अंग्रेजी में अनुवाद करके फिर से सुनाया -'Arise, Awake and Stop not till the goal is reached ' तो इस जागरण-मन्त्र ने भारत से देश-प्रेम और राष्ट्रीय श्रद्धा के आभाव को पूरी तरह से दूर कर दिया। उनका यही भाव आजतक होने वाले समस्त राष्ट्रीय आंदोलनों के लिये नींव का पत्थर सिद्ध हुआ है, उनकी विचार धारा को जीवन और आचरण में अपनाये बिना किसी भी राष्ट्रीय आन्दोलन (चरित्र-निर्माण का आन्दोलन भी ) का सफल होना संभव नहीं है। 
( २६ दिसम्बर २००५ को सायं कालीन सत्र में श्री वीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती दिये गये बंगला भाषण का हिन्दी सारांश)