मेरे बारे में

बुधवार, 31 जुलाई 2013

$$$ 'ईसा और श्रीरामकृष्ण !' [सरिसा रामकृष्ण आश्रम कैम्प ]

[ २००५ में महामण्डल का 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर ' पश्चिम बंगाल के सरिसा रामकृष्ण मिशन आश्रम में आयोजित हुआ था। यह  कैम्प में २५ दिसम्बर से प्रारम्भ होता है, किन्तु इस कैम्प में संयोगवश मैं २३ दिसम्बर को ही पहुँच गया था। २४ दिसंबर को 'रामकृष्ण मिशन आश्रम' सरिसा में प्रभु ईसा मसीह का जन्म दिन मनाया जा रहा था। श्री रामकृष्णदेव की संध्या आरती के बाद महामण्डल के सभी भाइयों के साथ मंदिर के प्रांगण में मैं भी उपस्थित था।  पूज्य नवनी-दा ने सरिसा रामकृष्ण आश्रम कैम्प में  'बड़े दिन की पूर्वसंध्या' (Christmas Eve) ' क्रिसमस ईव*' के अवसर पर जो  भाषण दिया वो इस प्रकार था -]
स्वामी विवेकानन्द के जीवन में आज के दिन-२४ दिसम्बर का एक विशेष महत्व है। आज के ही दिन वे अपने गुरुभाई स्वामी प्रेमानन्द (बाबूराम घोष) की माता जी के निमन्त्रण पर अन्य सभी गुरु भाइयों के साथ हावड़ा के निकट स्थित उनके गाँव-आँटपुर पहुँचे थे। रात में मकान के बाहर वाले प्रांगण में विराट धुनी रमा कर नरेन्द्रनाथ अपने गुरुभाइयों (श्रीरामकृष्ण के अन्यतम किशोर-सन्यासी शिष्यों) के साथ धुनी ताप रहे थे. शशी, तारक, शरद्, गंगाधर, काली, निरंजन आदि सब थे वहाँ। गाँव निस्तब्ध है -उपर निर्मल आकाश में ग्रहनक्षत्र झलमला रहे हैं। एक नया आलोक मण्डल मानो उन सबके अन्त:करण में जगमगाने लगा। धूनी की धधकती अग्नि शिखा ने मानो उन नवयुवकों में सर्वस्व त्याग की बलवती भावना ने सबको पूर्णतया जागृत कर दिया। पवित्र धुनी को तापते- हुए नरेन्द्र ध्यान में चले गये, उनको ईसा मसीह के शिष्यों के त्याग और आस्था-निष्ठा का अनुभव हुआ। एक नये आलोक से उनका अन्त:करण जगमगा उठा था।
अचानक नरेन्द्र ने आँखें खोलीं और ईसामसीह के जीवन की अलौकिक घटनाओं पर चर्चा करने लगे. भगवत् चर्चा के मध्य ईसा मसीह के त्यागी शिष्यों की मर्मस्पर्शी गाथा पुन: नरेन्द्रनाथ ने दोहरायी। वे उनके शिष्यों के त्याग और आस्था-निष्ठा का प्रभावी वर्णन करने लगे। उनके शिष्यों ने अपने जीवन में त्याग को स्वीकार करके, जिस निष्ठा के साथ प्रयास करके ईसाई धर्म को सम्पूर्ण विश्व में फैला दिया था, उनके जीवन की घटनाओं के आलोक में ही उत्साह और आवेग से अधीर नरेन्द्रनाथ को मानो अपने और अन्य गुरु भाइयों के भावी जीवन का पथ दीख पड़ने लगा ! 

['क्रिसमस ईव': अन्य समाजों की तुलना में ईसाई लोग बहुत कम त्योहारों को मनाते हैं। ईसाइयों के दो ही मुख्य त्योहार हैं क्रिसमस इव तथा पास्का या ईस्टर। पहला क्रिसमस जो कि यीशु के जन्म-दिन को मनाने का त्योहार है और दूसरा ईस्टर जो यीशु मसीह के पुनरुत्थान की याद में मनाए जाने वाला त्योहार है।क्रिसमस इव का अर्थ होता है क्राइस्ट्स मास। इसमें ‘क्रिस’ का अर्थ ईसा मसीह और ‘मस’ का अर्थ ईसाइयों का प्रार्थनामय समूह या ‘मास’ है। क्रिसमस ईसाई धर्म का सबसे बड़ा त्योहार है। यह पर्व प्रभु यीशु के जन्म उत्सव के रूप में 25 से 31 दिसंबर तक मनाया जाता है, जो 24 दिसंबर की मध्यरात्रि से ही आरंभ हो जाता है। 24 दिसंबर की रात से ही नवयुवकों की टोली जिन्हें कैरल्स कहा जाता है, यीशु मसीह के जन्म से संबंधित गीतों को प्रत्येक मसीही के घर में जाकर गाते हैं। क्रिसमस प्रेम का संदेश देने वाला त्योहार है।  क्रिसमस की पूर्व रात्रि, गि‍‍‍‍रिजाघरों में रात्रिकालीन प्रार्थना सभा की जाती है जो रात के 12 बजे तक चलती है। 25 दिसंबर की सुबह गिरजाघरों में विशेष आराधना होती है, जिसे क्रिसमस सर्विस कहा जाता है। इस आराधना में ईसाई धर्मगुरु यीशु के जीवन से संबंधित प्रवचन कहते हैं। आराधना के बाद सभी लोग एक-दूसरे को क्रिसमस की बधाई देते हैं। क्रिसमस का विशेष व्यंजन 'केक' है, केक बिना क्रिसमस अधूरा होता है। 
ईसाईयों का सबसे बड़ा शिक्षाप्रद-पर्व है पास्का पर्व। पास्का या ईस्टर को नया जीवन पाने के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। यह खुद को बदल देने के लिये-एक संकल्प लेने का त्योहार है, खुद के मन में छिपे पापों, कमजोरियों और झुकाओं या प्रोपेन्सिटीज पर विजयी होने का त्योहार है। और नये उत्साह और आशा से परहितमय और सेवामय जीने के लिये खुद को समर्पित करने का त्योहार है, जिससे हम जहाँ भी रहें या जो कोई काम करें, हमारे व्यवहार को देखने से  दुनिया को यही लगना चाहिये कि मानो एक जीवित येसु ही उनके साथ में हैं। "प्रभु येशु जी उठे हैं। अल्लेलूईया अल्लेलूईया अल्लेलूईया दुनिया के लोगो खुशी मनाओ। तुम्हारे प्रभु जी उठे हैं।”


ईसा के पुनरूत्थान (revivification या पुनरुज्जीवन) को समझना ईश्वर की ओर से दिया गया एक अनुपम वरदान है।  जिसके गहरे अनुभव से हमारा जीवन बदल जाता है और हम इस धरा पर रहते हुए ही एक अलौकिक सुख (मोक्ष -भ्रममुक्त अवस्था) का अनुभव करने लगते हैं। खुद को यह याद दिलाना की कि येसु ने मेरे लिये अपना जीवन दिया और इस दुनिया में जीने और इसे मृत्यु के द्वार से, भवसागर से पार होने के एक ऐसा रास्ता दिखाया जिसमें प्रवेश करने से मेरे जीवन का अन्त नहीं होता, बल्कि मूझे एक ऐसा जीवन मिलता है जो सदा सदा के लिये जीवित रहता है।

संसार की सृष्टि के प्रारम्भ से ही ईश्वर न केवल हम मनुष्यों के साथ बल्कि सारी सृष्टि के साथ एक अटूट सम्बन्ध (योग) बनाये रखना चाहता है; एक प्रेम भरा सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है। और ज़ाहिर है कि वह सब कुछ का सृष्टिकर्ता है, तो अपनी ही सृष्टि से उसका सम्बन्ध (योग) क्यों नहीं होगा? उसने मनुष्य को पूरी आज़ादी दी है, लेकिन कभी-कभी मनुष्य उस आज़ादी का दुरूपयोग कर, ईश्वर से दूर चला जाता है, और ईश्वर नहीं चाहता कि उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना जिसे उसने अपने ही प्रतिरूप में बनाया है, उससे विमुख होकर नष्ट हो जाये। 

हममें पवित्र आत्मा (विवेक-आनन्द) का निवास है और ईश्वर का वही आत्मा हमारा ईश्वरीय जीवन जीने में उचित मार्गदर्शन करता है। लेकिन यदि बार-बार हम उसकी प्रेरणा को अनसुना कर देंगे तो धीरे-धीर हमारी अंतरात्मा पवित्र आत्मा की प्रेरणा के प्रति उदासीन हो जायेगी, और हम पाप के चंगुल में फंसते जायेंगे, और हमें इस बात का तनिक भी आभास नहीं होगा कि हम ईश्वर से कितनी दूर चले गए हैं! ईश्वर और मनुष्यों का यह प्रेम भरा मधुर सम्बन्ध सदा बना रहे इसलिए ईश्वर ने हमें कुछ नियम व आज्ञाएं दी हैं जिनका पालन प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए। 
पहली आज्ञा है- हमारा प्रभु (ब्रह्म, अल्ला-श्रीरामकृष्ण देव) ही एकमात्र प्रभु है, अपने प्रभु ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपने सारे मन और सारी शक्ति से प्यार करो। और दूसरी आज्ञा है- अपने पड़ौसी को अपने समान प्यार करो। यही दो आज्ञाएं हमारे धर्म और आध्यात्मिकता का आधार हैं।  दरसल इन दो आज्ञाओं में तीन महत्वपूर्ण बिंदु छिपे हुए हैं और इन तीनों ही बिंदुओं का संक्षिप्त सार केवल ढाई अक्षर का और वो है – प्रेम। ईश्वर के प्रति प्रेम, अपने पड़ौसी के प्रति प्रेम और अपने स्वयं के प्रति प्रेम। ये तीनों ही बिंदु एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। 
“यदि कोई यह कहता है कि मैं ईश्वर को प्यार करता हूँ और वह अपने भाई से बैर करता है, तो वह झूठा है। यदि वह अपने भाई को, जिसे वह देखता है, प्यार नहीं करता, तो वह ईश्वर को, जिसे उसने कभी नहीं देखा, प्यार नहीं कर सकता.” संत योहन (४:२०) 
कहा जाता है कि यदि एक मेंढक को उबलते पानी में डालो तो वह थोडा भी तापमान अधिक होने पर मर जाता है, लेकिन यदि उसे समान्य तापमान वाले पानी में डालो और धीरे-धीरे उस पानी को गरम करो तो वह बहुत देर तक उस गरम पानी को सह सकता है। हम जब पानी के अंदर होते हैं तो हमें उसका नुकसानदायक तापमान महसूस नहीं होता, लेकिन अगर कोई बाहर से उसे छुए तो बता सकता है कि हम कितने ठन्डे या गरम पानी में हैं।
 उसी प्रकार जब हम कुसंग में विषयी लोगों के साथ रहते हुए अपने चारों ओर पापमय वातावरण पाते हैं तो हमें अपनी आध्यात्मिक हानि का आभास नहीं होता। लेकिन यदि कोई हमसे बेहतर आध्यात्मिक जीवन जीने वाला व्यक्ति है,(कोई गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित वेदाध्यापक, लोकशिक्षक या 'मानवजाति का मार्गदर्शक नेता' है) तो वह हमारी कमजोरी हमें बता सकता है। जब हम अपने जीवन की अंधी दौड़ में कुछ पल रुककर सोचें कि क्या मैं बपतिस्मा में मिले उसी नवजीवन को जी रहा हूँ या इस संसार का जीवन जी रहा हूँ? क्या मैं बपतिस्मा द्वारा प्रभु येसु के अनुसरण करने के निमंत्रण को भूल गया हूँ और अपना क्रूस रास्ते में ही छोड़ दिया है? ख्रीस्तीय जीवन चुनौती भरा जीवन है, क्रूस ढोने का जीवन है।
”मैं तुम से कहता हूँ-माँगो और तुम्हें दिया जायेगा; ढूँढ़ो और तुम्हें मिल जायेगा; खटखटाओ और तुम्हारे लिए खोला जायेगा। क्योंकि जो माँगता है, उसे दिया जाता है; जो ढूँढ़ता है, उसे मिल जाता है और जो खटखटाता है, उसके लिए खोला जाता है।" ईसा ने उन्हें एक दृष्टान्त सुनाया, ”क्या अन्धा अन्धे को राह दिखा सकता है? क्या दोनों ही गड्ढे में नहीं गिर पडेंगे? शिष्य गुरू से बड़ा नहीं होता। पूरी-पूरी शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह अपने गुरू-जैसा बन सकता है।” 
चालीसा-काल हमें अपने दयालु पिता की ओर वापस मुड़ने का निमंत्रण देता है। ईश्वर हम सबको ऎसी कृपा दे कि हम अपने स्वर्गीय पिता के दयालु प्रेम को पहचान कर अपने पापों से विमुख होकर सारे ह्रदय से उसकी ओर लौटें। संत पौलुस न कहा है कि यदि (हमारे भीतर) मसीहा नहीं जी उठते तो हमारा धर्म प्रचार व्यर्थ है और हमारा विश्वास भी व्यर्थ है। प्रभु का पुनरुत्थान ही हमारे विश्वास का मूल आधार है।  लेकिन इस वैज्ञानिक युग में प्रभु के मृतकों में से जी उठना की घटना को सिद्ध करना ही आज हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। संत पौलुस हमसे कहते हैं कि बपतिस्मा द्वारा हमें नवजीवन मिला है और हमारा पुराना जीवन मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाया जा चुका है. (देखें रोमियों के नाम पत्र 6:4-14)
जब तुम्हें अपनी ही आँख में पड़े लट्ठे का पता नहीं, तो तुम अपने भाई की आँख का तिनका क्यों देखते हो? जब तुम अपनी ही आँख में गिरे लट्ठे को नहीं देखते हो, तो अपने भाई से कैसे कह सकते हो, ‘भाई! मैं तुम्हारी आँख का तिनका निकाल दूँ?’ ढोंगी! पहले अपनी ही आँख में गिरा लट्ठा निकालो। तभी तुम अपने भाई की आँख का तिनका निकालने के लिए अच्छी तरह देख सकोगे।” 
"कोई अच्छा पेड़ बुरा फल नहीं देता और न कोई बुरा पेड़ अच्छा फल देता है। हर पेड़ (श्रीरामकृष्ण)अपने फल (स्वामी विवेकानन्द) से पहचाना जाता है।"
ईसाई धर्म-गुरु भी निवृत्ति-मार्गी होते हैंसंत पौलुस ने अपने पत्रों में बारंबार चर्च को "ईसा का आध्यात्मिक शरीर" कहा  है।  यह माना जा सकता है कि वास्तविक चर्च अदृश्य ही है। फिर भी उस अदृश्य वास्तविक चर्च की पूर्ण सदस्यता की अनिवार्य शर्त बाहरी संस्कार ही हैं, अत: अदृश्य चर्च से अलग नहीं किया जा सकता है। आजकल प्राय: सभी प्रोटेटैंस्ट भी इस बात को मानते हैं।
मुक्ति के लिये चर्च की पूर्ण सदस्यता अपेक्षित होते हुए भी अनिवार्य नहीं है। ईसाई धर्म के प्रारंभ से ही कुछ लोग आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत (संन्यास) लेते थे, वे बहुधा निर्जन स्थानों में रहकर एकांतवासी होते थे। किंतु धीरे-धीरे उनके पड़ोस में रहने वाले उनके कुछ शिष्य भी उनके निर्देश के अनुसार साधना करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि एक ही स्थान में रहनेवाले साधकों ने एक ही अधिकारी का शासन स्वीकार कर लिया। इस प्रकार के प्रथम इसाई मठ की स्थापना लगभग 320 ई. में संत पाकोमियस द्वारा मिस्र में हुई थी। इसके अनुकरण पर फिलिस्तीन, सीरिया और एशिया माइनर में बड़ी संख्या में पुरुषों और स्त्रियों के मठों की स्थापना हुई थी और पाँचवीं शताब्दी में सिकंदरिया, आंतिओक, कुंस्तुंतनिया आदि शहरों में भी ऐसे मठ स्थापित हो चुके थे।]  
नाज़रेत के ईसा – क्रूसित येसु से जगत के मसीहा बन गये। हम बाइबल में पाते हैं कि येसु की मृत्यु के बाद शिष्य पूरी तरह से हताश और निराश तो थे ही भय से मारे-मारे फिर रहे थे। उन्हें लगा कि सब कुछ का अन्त हो गया है। किन्तु उनके शिष्यों ने देखा कि येसु मारे जाने के बाद तीसरे ही दिन फिर से जी उठे हैं, और वे येसु की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने कि लिये निकल पड़े। और इस प्रकार ईसाई धर्म पूरी दुनिया में फैल गया। ईसा का जीवन समाप्त नहीं हुअ पर वे सदा-सदा के लिये जीवित हो गये। ईसा मसीह का जीवनकाल अल्प रहा पर उनके जीवन का प्रभाव युगानुयुग तक बना रहेगा। इसीलिये क्योंकि उन्होंने सत्य के लिये कार्य किया, जगत को  प्रेम का मार्ग दिखाया और दुनिया को सुन्दर और बेहतर बनाने के लिये दुःखों को गले लगाया। उनके शिष्यों के त्याग और आस्था-निष्ठा का प्रभावी वर्णन करने लगे जन्म से लेकर मृत्यु तक का, उस अपूर्व आत्मदान एवं पुरुत्थान की कहानी का जीती-जागतीभाषा में वर्णन करते करते श्रीरामकृष्ण का प्रसंग आया।  
ईसा और श्रीरामकृष्ण ! प्रभु ईसा मसीह ने अपने शिष्यों को अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध करने का नहीं बल्कि उसे जन-जन तक प्रचारित करने का आदेश दिया था। और ईसा के देह-त्याग के बाद उनके प्रधान शिष्य सन्त पॉल ने किस दृढ़ विश्वास के साथ उनके नव-धर्म का प्रचार किया था। ईश्वरीय संदेश पहुंचाने के मार्ग में हज़रत ईसा को जब यहूदियों के व्यापक विरोध और यातनाओं का सामना करना पड़ा, तो ईसामसीह ने अपने १२ मछुआरे शिष्यों को संबोधित करते हुए पूछा था कि तुम में से कौन है जो मेरी सहायत करने के लिये तैयार है? उनके उन शिष्यों ने जिन्हें उन पर भरोसा था, कहा हम तैयार हैं। ईसा ने कहा था, " यदि तुम मेरा अनुसरण करना चाहते हो- तो तुम्हारे पास जो भी ' मेरा ' कहकर है- मेरा घर, गाड़ी, रुपया, पद आदि का अहंकार है, वह सब गरीबों में बाँट दो, तभी तुम मेरे पीछे आ सकोगे।" प्रभु येसु ने उनका अनुसरण करने वालों के लिए एक शर्त रखी है कि, ' इफ एनी मैन विल फॉलो मी, लेट हिम डिनाइ हिमसेल्फ, टेक अप हिज क्रॉस एण्ड फॉलो मी !' (Christ said, "If any man will follow me, let him deny himself, take up his cross and follow me" (Mark 8:34)  “जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह अपने मिथ्या अहं को त्याग दे और अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे हो ले.”
इसी प्रकार संत  कबीर ने भी सदियों  से दबे - कुचले  समाज  में  तत्कालीन  शासक वर्ग, धर्म  के ठेकेदारों, मुल्ला व पंडितो -पुरोहितों  पर  गुस्सा -क्षोभ  था, जनमानस  के  गुस्से  का इजहार  करते  हुए शोषित वर्ग  की पंक्ति  मे  खड़ा होकर  आवाज  बुलन्द  कर   लोगों  के आत्म- सम्मान  के  लिए  ललकारा और  कहा था-
कबिरा  खड़ा  बाजार  में , लिये  लुकाठी  हाथ. 
 जो  घर  फूके  आपणा ,चले  हमारे  साथ . 
यूरोपीय देशो में सामन्त वाद के विरोध और ईश् निन्दा के कारण  कोपेरनिकश ,ब्रूनो ,गेलेलियो  आदि  न जाने कितनों को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।  कितनों को दर -दर की ठोकरे खानी पड़ी।  कितनों  को देश निकाला हुआ।  इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो देश की सेवा करना चाहता हो, उसे केवल अपना स्वार्थ पूरा करने में नहीं लगे रहकर, सभी देशवासियों के कल्याण के लिये अपना सब कुछ, अपनी जान तक को न्योछावर कर देने का दृढ़-संकल्प रहना चाहिये।
उन्होंने तथा उनकी वाणी से अनुप्राणित उनके गुरु भाइयों ने मानो फिर एक बार अनुभव किया कि जब भारतवासी आदर्श को विभक्त, खण्डित और आंशिक रूप में देखते हुए एक दूसरे के साथ विवाद में रत थे, जब विषमता और भेद के बीच हम कोई सामंजस्य ढूंढ़ निकालने का प्रयत्न तक नहीं कर रहे थे, जिस समय सारे उच्च आदर्श नष्ट-बुद्धि से विकृत और भ्रष्ट-चरित्र के द्वारा कलंकित होकर कर्महीन तामसिक जड़ता के बीच व्यर्थ और निष्फल हो रहे थे, उस समय -उन उन संकट के दिनों में श्रीरामकृष्ण ने सभी समस्याओं की मीमांसा करते हुए, सभी विभिन्न और विशिष्ट धर्म-मतों की साधनाओं को एक समन्वय के बीच में यथायोग्य स्थान  देकर, देव-मानव बनने के आदर्श के परिपूर्ण रूप को अपने जीवन में प्रकटित किया था. कहा था - ' मानहूश तो मानुष !' जब तक किसी कोई व्यक्ति माया निवृत्ति और ईश्वर-प्राप्ति नहीं कर लेता, वह भूलें  करता ही रहेगा। मनुष्यों को मोह-निद्रा से जाग्रत करना ही होगा।
नरेन्द्रनाथ भारत के भविष्य को ऋषि दृष्टि से देखते हुए गुरुभाइयों से कह रहे थे, " हमलोगों को अपना जीवन  आदर्श मनुष्य या देवमानव के रूप में गठित करके जगत के समक्ष उदाहरण के रूप में रखना होगा, तभी हमलोग बनो और बनाओ के सन्देश को विश्व भर में प्रचारित करने वाले प्रचारक या सन्देश-वाहक बन सकते हैं। हमें पूर्ण त्याग के आदर्श पर चलना होगा तभी आगे चलकर कुछ गृहस्थ युवा भी ईश्वर सन्देशवाहक, अग्रदूत या 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में भावी वेदाध्यापक ' के रूप में प्रशिक्षित किये जा सकते हैं। 
इसलिये युवा काल से ही हमलोगों को इन्द्रियभोगों का पूर्ण त्याग करना होगा,संसार बन्धन से निकल जाने के लिये आजीवन ब्रह्चारी रहने का संकल्प लेना होगा। और हमलोगों को जो वेदान्त ठाकुर से प्राप्त हुआ है, उसे सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित करना होगा। "यह प्राचीन पृथ्वी धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, देशप्रेम के नाम पर, नर-रक्त से नहा-नहा कर जिसके लिये प्रतीक्षा करती आ रही है, उस बहु-प्रार्थित, बहु-इप्सित, 'सर्वधर्म- समन्वय' के सन्देश का प्रचार हमलोग करेंगे- ‘‘ठाकुर की यही इच्छा थी।’’ नरेन्द्रनाथ कह रहे थे, ‘‘ और ठाकुर ने इस सर्वधर्म -समन्वय की शिक्षा देने का उत्तरदायित्व मुझे सौंपा था।"  नरेन्द्रनाथ ने कहा, ‘‘गुरु भ्राताओ, अब कर्म-यज्ञ " Be and Make " का प्रारम्भ हो रहा है, आहुति चाहिए।’ और सभी गुरुभाइयों ने समवेत स्वर में कहा - ‘सब पूर्णतया समर्पित हैं।’ 
संस्कृत में एक कहावत है, ‘श्रेयंसी बहु विघ्नानी’, जिसका अर्थ है, अगर कोई वस्तु अत्यधिक बहुमूल्य है तो उसे प्राप्त करने के मार्ग में बहुत से विघ्न या विकर्षण आते है. सदैव सत्य को अवरोध घेरते आए हैं। हमारे सामने भी प्रतिकूल स्थितियाँ आएँगी। ठाकुर के अधिकांश प्रौढ़ अनुयायियों का माथा ठनकेगा। ये प्रश्न खड़े करेंगे। हमारी कोई नहीं सुन रहा होगा। हमें उपेक्षा भी सहनी पड़ सकती है और बदतर से बदतर स्थिति में से भी गुजरना पड़ सकता है। धन हमारे पास है नहीं। साधन भी नहीं के बराबर हैं। किसी को विवश नहीं किया जा रहा है। सब अपने में स्वतन्त्र हैं, जिन्हें बाद में निर्णय लेने का मन हो वे इस यज्ञ के साक्षी बनकर हमारे साथ रह सकते हैं।’’ नरेन्द्रनाथ की भारी संगीतमयी आवाज़ गूँज रही थी-‘‘हम सब तैयार हैं।’’
मानव-कल्याण के व्रत में अपने को सम्पूर्ण रूप से उत्सर्ग कर देने का पवित्र संकल्प लेकर उन्होंने अपने आपको कृतार्थ माना। 
जब नरेन्द्र आदि भक्तगण उस रात्रि में पहले ईसामसीह की जीवनी तथा ईसाई धर्म के प्रथम प्रचारकों के गम्भीर आत्मविश्वास की चर्चा कर रहे थे,उस दिन उन्हें यह ज्ञात न था कि वह ईसामसीह की जन्मरात्रि थी। 
बाद में इस संयोग की बात को जानकर वे बड़े विस्मित हुए थे! आँटपुर से संन्यासीगण तारकेश्वर जाकर शिवजी की आराधना के बाद वराहनगर लौट आये. " ( विवेकानन्द चरित पृष्ठ ८४-८५ )
पाँच इन्द्रियों के माध्यम से जितना कुछ भोगा जा सकता था, उन सब विषयों को भोग लेने पर भी आज के मनुष्य को सन्तोष नहीं हो रहा है, वह अब artificial sens organs बनाने की तैयारी में लगा हुआ है. जबकि बाली के मारे जाने पर उसकी पत्नी तारा को भगवान श्रीराम ने उपदेश दिया था |
 " छिति जल पावक गगन समीरा , पंच रचित अति अधम शरीरा | 
 प्रगट सो तनु तव आगे सोवा , जीव नित्य केही लगी तुम्ह रोवा || 
 ' पृथ्वी , जल ,अग्नि , आकाश और वायु - इन पांच तत्त्वों से यह अधम शरीर बना हुआ है | वह शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है और जीव नित्य है , फिर तुम किसके लिए रो रही हो ? जो किसी अनिष्ट प्रसंग पर क्षुब्ध होता है , वह भगवान का भक्त नहीं कहा जा सकता | भक्त को तो ऐसा मानना चाहिए कि जो कुछ प्रभु करते हैं हमारे हित के लिए ही करते हैं , हम अज्ञानवश उसे समझ नहीं पाते | क्योंकि कष्ट में हमें भगवान याद आते हैं , इसलिए कभी - कभी कष्ट देकर भगवान हमें चेतावनी देते रहते हैं कि मुझे भूलो मत , नहीं तो बड़ी दुर्दशा होगी ; यह मनुष्य शरीर भोगों के लिए नहीं मिला है , मुझे प्राप्त करने के लिए ही मिला है - इसलिए इसे व्यर्थ कामों में न गंवाओ |
क्रिसमस इव के अवसर पर यहाँ आकर हमें जो करना है, वह पूर्ण मनुष्य बनने का संकल्प लेना है. अभी तक हमलोग आंशिक रूप से मनुष्य बन सके हैं, पशुता (या स्वार्थपरता) को हटाकर पूर्ण मनुष्य बन जाना है.कौन किस धर्म में पैदा हुआ है, किस जाति में पैदा हुआ है, वह कोई बड़ी बात नहीं है। बृहद (ब्रह्म) या बड़ा उसी को कहा जाता है, जिसके जीवन से दूसरों को भी कुछ मिलता है।  स्वामी विवेकानन्द अपनी कविता " सखा के प्रति " में कहते हैं - 


 The paths of Yoga and of sense-enjoyment,
The life of the householder and Sannyâs,

Devotion, worship, and earning riches,
Vows, Tyâga, and austerities severe,
I have seen through them all. What have I known?


योग (निवृत्ति) और (प्रवृत्ति) इन्द्रिय-विषयों का सुख भोगने का पथ,
गृहस्थ और संन्यास का जीवन,
भक्ति, पूजा, और धन-दौलत का अर्जन,
गंभीर प्रतिज्ञा,त्याग, और तपस्या
मैंने उन सभी के राहों पर चलकर देखा है,
और अन्त में मुझे क्या समझ आया ?

  —Have known there's not a jot of happiness,
Life is only a cup of Tantalus;
The nobler is your heart, know for certain,
The more must be your share of misery.

-है यही जाना मैंने कि बिन्दुमात्र भी खुशी वहाँ नहीं,
जीवन केवल टैंटलस का एक कप है;
जिसका जितना अधिक संवेदनशील ह्रदय होगा, 
इसे निश्चय समझना उतना अधिक उसे दुःख भी उठाना होगा।
  Listen, friend, I will speak my heart to thee;
I have found in my life this truth supreme—
Buffeted by waves, in this whirl of life,
There's one ferry that takes across the sea.

 मित्रों, सुनो ! मैं तुमको अपने दिल की बात कहूँगा;
मैंने अपने जीवन में इसको हो सर्वोच्च-सत्य के रूप में पाया है-
 जीवन के इस भँवर में, लहरों के थपेड़ों से बचाकर 
इस मानव-शरीर रूपी नौका से भवसागर से पार जाया जा सकता है.

In Jiva and Brahman, in man and God,
In ghosts, and wraiths, and spirits, and so forth,
In Devas, beasts, birds, insects, and in worms,
This Prema dwells in the heart of them all.


जीव और ब्रह्म में, मनुष्य और ईश्वर में,
भूत और प्रेतात्मा, मुक्त-आत्माओं आदि में,
देवताओं, जानवरों, पंछियों,कीड़े-मकोड़ों में,
- वह सर्वोच्च सत्य प्रेम ही है, 
जो उन सभी के दिल में बसता है.
  Say, who else is the highest God of gods?
Say, who else moves all the universe?
The mother dies for her young, robber robs—
Both are but the impulse of the same Love!

 तुम्हीं सोचो देवताओं में सर्वोच्च भगवान (ठाकुर) और कौन है? 
सोच कर देखो, इस विश्व-ब्रह्मांड को कौन चलाता है?
एक माँ अपने युवा-पुत्र को बचाने के लिये
और डाकू लूट-पाट के लिए मर जाते है -
किन्तु, ये दोनों प्रेम के आवेग का परिणाम ही तो हैं !

Let go your vain reliance on knowledge,
Let go your prayers, offerings, and strength,
For Love selfless is the only resource;—
Lo, the insects teach, embracing the flame!



ज्ञान पर अपने व्यर्थ निर्भरता को छोड़ दो,
अपनी प्रार्थना, पूजा, और ताकत का अभिमान जाने दो,
क्योंकि निःस्वार्थ-प्रेम ही समस्त शक्तियों का श्रोत है !
देखो, दिये की लौ को गले लगाते हुए पतंगे भी यही सीख देते हैं ! 

 Say—comes happiness e'er to a beggar?
What good being object of charity?
Give away, ne'er turn to ask in return,
Should there be the wealth treasured in thy heart.

Ay, born heir to the Infinite thou art,
Within the heart is the ocean of Love,
"Give", "Give away"—whoever asks return,
His ocean dwindles down to a mere drop.

ভিক্ষুকের কবে বলো সুখ? কৃপাপাত্র হয়ে কিবা ফল ?
দাও আর ফিরে চাও, থাকে যদি হৃদয়ে সম্বল।
অনন্তের তুমি অধিকারী প্রেমসিন্ধু হৃদে বিদ্যমান,
'দাও, দাও'-সেবা ফিরে চায়, তার সিন্ধু বিন্দু হয়ে যান।
 
 सोचो- भिक्षुक को क्या कभी सुख मिल सकता है ?
और जीवन भर दया का पात्र बने रहने में अच्छा क्या है?
 तुम बारम्बार सोचो, 
यदि सचमुच तुम्हारे ह्रदय में सचमुच कीमती सम्पत्ति हो, 
तो बिना किसी प्रतिदान की आशा के, तुम केवल देना सीखो,
क्योंकि तुम तो अनन्त के अधिकारी हो, 
ह्रदय में तुम्हारे प्रेम-सिन्धु हिलोरे लेता है.
' तुम दो, और केवल देना सीखो ' जो व्यक्ति  सेवा के बदले कुछ पाने की आशा करता है,
उसके ह्रदय का विस्तार-संकीर्ण हो जाता है, प्रेम का सागर सुखकर बिन्दु हो जाता है!

From highest Brahman to the yonder worm,
And to the very minutest atom,
Everywhere is the same God, the All-Love;
Friend, offer mind, soul, body, at their feet.

These are His manifold forms before thee,
Rejecting them, where seekest thou for God?
Who loves all beings without distinction,
He indeed is worshipping best his God.

 ব্রহ্ম হ'তে কীট-পরমাণু, সর্বভূতে সেই প্রেমময়,
মন প্রাণ শরীর অর্পণ কর সখে, এ সবার পায়।
বহুরূপে সম্মুখে তোমার, ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈবর?
জীবে প্রেম করে যেই জন, সেই জন সেবিছে ঈশ্বর
 
ब्रह्म और परमाणु-कीट तक, सब भूतों का है आधार
एक प्रेममय, प्रिय, इन सबके चरणों में दो तन-मन वार!
बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ हैं ईश? 
व्यर्थ है खोज। 
जीवों को शिव समझ प्रेम करता है जो जन , 
उसी जन ने जीव-सेवा करके पूजा है जगदीश।

हमलोग इस जगत में केवल पाने के लिये नहीं आये हैं, देने के लिये आये हैं।  लेकिन देने के पहले कुछ कमाना भी तो होगा। क्या कमाना है, क्या अर्जित करना है ? जो हमें अर्जित करना है वह है-मनुष्यत्व ! जीवन-गठन ! केवल रुपया-पैसा कमा लेने से नहीं होगा, जीवन को सच्चे मनुष्य के साँचे में गठित करना  होगा। 
कैसे बनायेंगे ? उसका ही तरीका इस शिविर में बताया जायेगा। इसी आशा को लेकर हमलोग आये हैं. मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं, शरीर है हमारा एक मन है; इसके भीतर और एक वस्तु है हृदय या आत्मा जिसका पता हमें आसानी नहीं चलता है, उसको प्राप्त करने की विद्या भी सीखनी चाहिये। 3H को बनाने की विद्या सीखनी चाहिये। भीतर में जो दूसरों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख के जैसा अनुभूति करने क शक्ति है, उसी को ह्रदय कहते हैं। ह्रदय का विकास का अर्थ वह Heart नहीं है, जिसको हमलोग Blood pumping machine समझते हैं. क्या तुम अपने ह्रदय की गहराइयों से देश के गरीब और निस्सहाय मनुष्यों के दुःख का अनुभव करते हो ? यहाँ तक कि तुम्हारे रातों की नीन्द चली गयी है ? तुम अपने घर और अपने पद-प्रतिष्ठा तक को भूल गए हो ? क्या तुमने दूसरों का दुःख दूर करने का उपाय सीखा है ? देशसेवा करने की योग्यता कैसे अर्जित होती है ? यथार्थ मनुष्य कैसे बना जाता है, यही सीखने के लिये हमलोग यहाँ आये हैं. 
अभी जो हमारा मनुष्य-रूप है वह more than half animal का है. हर रोज थोडा थोड़ा प्रयास करके हमें पूर्ण मनुष्य बनना होगा-इस बात को हमेशा याद रखना चाहिये। ईश्वर का प्रेम मेरे माध्यम से प्रकट होना चाहिए, मनुष्य और ईश्वर में कोई फर्क नहीं है - यह बात मेरे जीवन और व्यवहार से प्रकट होनी चाहिये। मैं जिसको स्पर्श करूँ उसे ऐसा प्रतीत होना चाहिये मानो ईश्वर ही उसका स्पर्श कर रहे हैं।  ऐसे मनुष्य यदि हजारो-लाखों की संख्या में निर्मित हो जाएँ तो भारत कितना महान हो जायेगा !
वैसा महान भारत बनाने के लिये हमें मन को वशीभूत करने में समर्थ मनुष्य बनकर दिखाना होगा। प्रतिदिन हमलोग यदि पाँच मिनट भी स्वामी विवेकानन्द पर मन को एकाग्र करेंगे तो हमें भगवान का प्रसाद मिलेगा। भगवान के प्रसाद का अर्थ है, प्रसन्नता -विवेकानन्द ही भगवान का प्रसाद हैं।  यह विवेक-प्रयोग जब हमारे जीवन में उतर आएगा, तो हमारा जीवन बिल्कुल बदल जायेगा। इसीके लिये हमें अवश्य प्रयत्न करना चाहिये। जय जय रामकृष्ण भूवन-मंगल !
-----------------








रविवार, 21 जुलाई 2013

अमृतवाणी

: श्रीरामकृष्ण वचनामृत : 
१ सिद्ध पुरुष का अहंकार
1.१२७ . अपनी निम्न-प्रकृति के साथ बहुत संग्राम करने के पश्चात आत्मज्ञान के लिये तीव्र-साधना करने के बाद ही समाधि-अवस्था प्राप्त होती है। समाधी होने पर 'मैं' 'मेरा ' कुछ नहीं रह जाता। किन्तु ऐसी समाधी बहुत मुश्किल है। 'मैं' बड़ा बलवान होता है-किसी तरह जाना ही नहीं चाहता। तभी तो हमें फिर-फिरकर संसार में जन्म लेना पड़ता है।
2.१३१ . कुछ महापुरुष सप्तम भूमि या समाधी की सर्वोच्च अवस्था में पहुँचकर भगवद-बोध में विलीन हो जाने के बाद भी लोककल्याण के लिये उस भूमि से उतर आते हैं। समाधी के बाद भी वे इच्छापूर्वक ' विद्या का अहं ' रख लेते हैं। समाधी के बाद भी कोई-कोई 'मैं' को रख छोड़ते है- 'दास मैं या भक्त का मैं। ' शंकराचार्य ने लोकशिक्षा के लिये ' विद्या का मैं ' रख छोड़ा था।
3. १३२ . यह अहं का आभास-मात्र है, यह पानी पर खिंची गयी लकीर के समान होता है। रस्सी जल जाने पर भी उसका आकार बना रहता है, पर उसके द्वारा किसी को बांधा नहीं जा सकता। इसी प्रकार ज्ञानाग्नि में दग्ध हो जाने के बाद अहं का भी केवल आकार भर रह जाता है।
4.१३६ ." लेकिन इस 'मैं' को बनाये रखने वाला मैं नहीं, जगदम्बा हैं ! प्रार्थना को स्वीकार करना  ( फिर से शरीर में लौटा देना, जबरन भेज देना ? समाधी को  कौन त्यागना चाहेगा ? ) जगदम्बा के ही हाथ में है।
  २ किताबी ज्ञान का खोखलापन 
5.१४४ .ईश्वर के राज्य में विद्या, बुद्धि, युक्ति आदि का विशेष मूल्य नहीं है। वहाँ तो गूँगा बोलता है, अन्धा देखता है और बहरा सुनता है।
6.१५८ . वृथा तर्क मत करो। तर्क करके तुम किसी को उसकी भूल नहीं समझा सकते। जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कृपा होती है तभी मनुष्य अपनी गलतियों को समझ पाता है।
7.१६० . जिसके द्वारा ईश्वरप्राप्ति हो वही ' परा-विद्या ' है ! दर्शन, न्याय, व्याकरण आदि सारे शास्त्र केवल भार-स्वरुप हैं, वे चित्त में भ्रम ही पैदा करते हैं। ग्रन्थ मानो ग्रंथि (गाँठ) ही हैं ! यदि वे ईश्वर का ज्ञान करा दें तभी उनसे लाभ होता है।
३ प्रचारक के दोष
8.१६८ . हे प्रचारक, क्या तुम्हें बिल्ला (चपरास या प्रचार करने का अधिकार) मिला है ? राजा का बिल्ला जिसे मिलता है-भले ही वह एक सामान्य प्यादा हो- उसका कहना लोग भय और श्रद्धा के साथ सुनते हैं। वह व्यक्ति अपना बिल्ला दिखाकर बड़ा दंगा तक रोक सकता है। हे प्रचारक, तुम पहले भगवान का साक्षात्कार कर उनकी प्रेरणा और आदेश प्राप्त कर लो, बिल्ला पा लो। बिना बिल्ला मिले यदि तुम सारा जीवन भी प्रचार करते रहो तो उससे कुछ न होगा, तुम्हारा सारा श्रम व्यर्थ होगा।
9.१७० . प्रश्न- जो व्यक्ति भाषण देने और प्रचार करने में तो कुशल हो परन्तु जिसका जीवन उन्नत न हो, उसके विषय में आपका क्या मत है?
ऊतर  -ऐसा मनुष्य तो दूसरों की धरोहर रखी हुई सम्पति को उड़ाने वाले की तरह होता है। वह लोगों को बड़ी आसानी से उपदेश देता है, पर सच पूछो तो उसमें उसके स्वयं के भाव या विचार नहीं होते-सभी दूसरों से उधार लिये होते हैं।
10.१७२ . प्रश्न- आजकल जिस तरह का धर्मप्रचार हो रहा है, उसके बारे में आपकी क्या राय है ?
उत्तर - यह तो बिल्कुल वैसा है, जैसे किसी व्यक्ति के पास केवल एक ही जन के लायक भोजन तैयार हो, और वह सौ जनों को न्योता देने चले। कुछ लोग थोड़ी सी साधना करते ही गुरु-गिरी करने लग जाते हैं।
11. १८१ . फूल के पूरी तरह खिल जाने पर उसकी सुगन्ध से मधुमक्खियाँ अपने आप खिंची चली आती हैं। इसके लिये उन्हें आमन्त्रण नहीं देना पड़ता। इसी प्रकार जब साधक पूर्ण सिद्ध हो जाता है, तो उसके पवित्र-जीवन और चरित्र की मधुर सुगन्ध चारों ओर फ़ैल जाती है, और सत्य-प्राप्ति की स्पृहा रखने वाले व्यक्ति अपने आप उसकी ओर आकर्षित होते हैं। उसे उपदेश सुनाने के लिये श्रोता की तलाश नहीं करनी पड़ती।
12.१८३ . जब दीपक जल जाता है, तो न जाने कहाँ से पतिंगे आकर उसमें गिरते हुए अपने प्राणों का बलिदान देने लगते हैं; दिए की लौ कभी पतिंगों को बुलाने नहीं जाती। सिद्ध पुरुषों का प्रचार भी इसी तरह का होता है। वे किसी को बुलाने नहीं जाते, फिर भी न जाने कहाँ से सैकड़ों, हजारों लोग उनके निकट उपदेश ग्रहण करने अपने आप आने लगते हैं।
13.१८७ . जब बारिश का पानी छत से बहता हुआ शेर या अन्य किसी प्राणी के मुँह के आकारवाले परनाले से नीचे गिरता है, तब ऐसा दिखाई देता है कि मानो पानी उस शेर के मुँह से ही आ रहा हो, परन्तु वास्तव में पानी तो आसमान से आता है। इसी तरह साधू-सन्तों के मुख से जो सत्य या ईश्वरीय तत्व प्रचारित होते हैं, वे वास्तव में उनके स्वयं के नहीं होते, वे ईश्वर के ही निकट से आते हैं।
 ४ संसारासक्त लोगों का जीवन  
14.२०७ . बद्ध-जीवों या संसारी जीवों को किसी तरह होश नहीं आता। वे इतना दुःख भोगते हैं, इतना धोखा खाते हैं, इतनी विपदायें झेलते हैं, फिर भी वे नहीं चेतते -उन्हें चैतन्य नहीं होता।
15.२२३ . प्रश्न - संसारी जीव सब कुछ त्यागकर भगवान को क्यों नहीं भज सकता है ?
उत्तर - क्या कोई नट रंगमंच पर उतरते ही अपना मुखौटा हटा देता है ? संसारियों को पहले नाटक में अपना काम पूरा कर लेने दो, उसके बाद ठीक समय पर वे अपना बनावटी साज उतारेंगे।
 ५ भिन्न भिन्न प्रकार के साधक 
16.२३० . पौधों में साधारणतः पहले फूल आते हैं, बाद में फल, परन्तु लौकी, कुम्हड़े आदि की बेल में पहले फल और उसके बाद फूल होते हैं। इसी तरह साधारण साधकों को तो साधना करने के बाद ईश्वर लाभ किन्तु जो नित्यसिद्ध होते हैं, उन्हें पहले ही ईश्वर का लाभ हो जाता है, साधना पीछे से होती है।
17.२५३ . जो सबकी दृष्टि से दूर एकान्त में भी ' भगवान देख रहे हैं ' इस भय से कोई अधर्म-आचरण नहीं करता, वही यथार्थ धार्मिक है। निर्जन वन सुन्दर नवयुवती को अकेली देखकर भी जो धर्म के भय से भीत होकर उस पर कुदृष्टि नहीं डालता, वही यथार्थ धार्मिक है। जो वीराने में,किसी उजड़े घर में मुहरों से भरी थैली देखकर भी उसे उठाने के मोह को रोक सकता है, वही ठीक ठीक धार्मिक है। जो केवल दिखावे भर के लिये या ' लोग क्या कहेंगे ' इस भय से सिर्फ लोगों के सामने धर्म का अनुष्ठान करता है, उसे ठीक ठीक धार्मिक नहीं कहा जा सकता। निर्जन, नीरव में अनुष्ठित होने वाला धर्म ही यथार्थ धर्म है, भीड़-भाड़ और सड़क पर कोलाहल में अनुष्ठित होने वाला धर्म धर्म नहीं है।
18.२६२ . प्रश्न- हमें तो हमेशा दाल-रोटी की फ़िक्र करनी पड़ती है, हम साधना कैसे करें ?
उत्तर- तुम जिसके लिये श्रम करोगे, जिसका काम करोगे, वही तुम्हें भोजन देगा। जिसने तुम्हें संसार में भेजा  है उसने पहले से ही तुम्हारे खुराक का प्रबन्ध कर रखा है।
19.२६३ . घर, संसार, लड़के-बच्चे, परिवार सब दो दिन के लिये है। नारियल का पेड़ ही सत्य है, फल अनित्य हैं-
लगते और झड़ जाते हैं।
20.२६७ . तुम संसार में रहकर गृहस्थी चला रहे हो इसमें हानि नहीं; परन्तु तुम्हें अपना मन ईश्वर की ओर रखना चाहिये। एक हाथ से कर्म करो, और दूसरे हाथ से ईश्वर के चरणों को पकड़े रहो। जब संसार के कर्मों का अन्त हो जायेगा तब दोनों हाथों से ईश्वर के चरणों को पकड़ना।
21.२८३ . जिस प्रकार बालक एक हाथ से खम्भा पकड़कर जोरों से गोल-गोल घूमता है - उसे गिर पड़ने का डर नहीं होता- उसी प्रकार ईश्वर को पक्का पकड़कर संसार के सभी काम करो, इससे तुम विपत्ति से मुक्त रहोगे।
22.२८९ . मन में सदा यह भाव रखना कि घर-द्वार, परिवार, इनमें से कुछ तुम्हारा नहीं है, सब भगवान के हैं; तुम भगवान के दास हो, उन्हीं की आज्ञा का पालन करने संसार में आये हो। यह भाव दृढ हो जाने पर वास्तव में किसी भी वस्तु के प्रति ममत्व-बुद्धि नहीं रह जाती।
23.२९३ . वह मनुष्य धन्य है जिसका मस्तिष्क और ह्रदय दोनों ही समान रूप से विकसित हुए हैं। सभी परिस्थितियों में वह सरलता के साथ उत्तीर्ण हो जाता है। .....
24.२९६ . संन्यास-ग्रहण का योग्य अधिकारी कौन है ? जो संसार को पूर्णरूपेण त्याग देता है, ' कल क्या खाऊंगा, क्या पहनूँगा ' इसकी बिलकुल फ़िक्र नहीं करता, वही ठीक-ठीक संन्यासी बनने लायक है। जो ताड़ के पेड़ पर से निर्भय होकर नीचे कूद सकता है वही संन्यास ग्रहण करने का योग्य अधिकारी है।
25.२९९ . सफ़ेद स्वच्छ कपड़े पर अगर थोड़ा सा भी कालिख लग जाये तो वह बहुत भद्दा दिखाई देता है। साधुओं का छोटा सा दोष भी बड़ा भारी मालूम होता है।
साधक जीवन के लिये कुछ सहायक बातें 
६ मूर्ति पूजा
26.329. श्रीरामकृष्ण ने एक बार केशवचन्द्र सेन से, जो कि उन दिनों मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे, कहा था,
" मूर्तियों को देखने पर तुम्हारे मन में भला मिट्टी, पत्थर या लकड़ी की बात क्यों उठती है ? तुम इनमें सच्चिदानन्दमयी माँ (या अल्ला) का आविर्भाव क्यों नही अनुभव करते ? "
27.३३० . यदि मूर्तियों के बारे में चिन्मय-बोध रखकर पूजा की जाये, तो उनकी पूजा करते हुए पूजक को ईश्वरदर्शन तक हो जाता है, परन्तु जो मिट्टी या पत्थर समझकर मूर्ति की पूजा करता है उसकी पूजा का कोई फल नहीं होता।
28.३३१ . यदि मूर्तिपूजा में कोई भूल भी हो तो क्या भगवान नहीं जानते कि पूजा उन्हीं की हो रही है ? वे उस पूजा से अवश्य ही प्रसन्न होंगे। तुम उनकी भक्ति करो, उनसे प्रेम करो, बस!
७  तीर्थ यात्रा 
29.३३६ . दुनिया में चारों कोने घूम आओ, कहीं कुछ नहीं मिलेगा। जो यहाँ ( अपने ह्रदय में ) है, वही वहाँ भी है।
 30.३५७ . जैसे रुई के पहाड़ में एक छोटी सी चिनगारी पड़ जाने पर वह देखते ही देखते जलकर खाक हो जाता है, वैसे ही भक्ति के साथ भगवान का नामगान करने पर पर्वत समान पाप भी नष्ट हो जाता है।
 ८ सरलता 
31.४१७ . यथार्थ मनुष्य तो वही है, जो ' मान-होश ' हो- अर्थात जिसको अपने स्वरुप का होश हो। दूसरे लोग तो नीरे 'मानुष' हैं।
32.४१८ . जो अहंकार आत्मा की महिमा को प्रकट करता है वह अहंकार नहीं। जो विनय आत्मा के गौरव को नीचे लाती है  वह विनय नहीं।
33.४२१ . तुम भक्त बनो पर इसका अर्थ यह नहीं कि तुम बुद्धू बनो। मन में सदा विवेक-विचार करना चाहिये सत क्या, असत क्या, और मिथ्या क्या है ? नित्य क्या और अनित्य क्या है? फिर जो अनित्य या मिथ्या है, उसे छोड़कर नित्य वस्तु -ईश्वर में मन को लगाना चाहिये।
34.४३१ . पेड़ में जब फल आ जाता है तो फूल अपने आप झड़ जाता है। इसी तरह मनुष्य में दैवी भाव का विकास होने पर दोष-दुर्बलता आदि मानवीय भाव अपने आप दूर हो जाते हैं।
 ९ स्त्रियों के प्रति मनोभाव 
35.४३५ . नारी मात्र ही भगवती जगज्जननी का अंश है। अतः सभी स्त्रियों को की ओर मातृदृष्टि से देखना चाहिये।
36.४४१ . स्त्रियाँ शक्ति की एक-एक मूर्ति हैं। पश्चिम की ओर विवाह के समय दुल्हे के हाथ में तलवार रहती है जिसके नोक पर सुपाड़ी खोंसा रहता है; और बंगाल में सरौता। इसका अर्थ है कि उस शक्ति-स्वरूपिणी कन्या की सहायता से वर-वधु अविद्या की गाँठ या मायापाश को काट सकेगा। यह वीर भाव है। मैंने वीरभाव की साधना नहीं की। मेरा सन्तान भाव है।
१० सभी धर्मों का ईश्वर एक ही है।
37.४५७ . जिस प्रकार एक ही जल को कोई 'वारी ' कहता है, और कोई 'पानी', कोई 'वाटर' कहता है तो कोई 'एक्वा', उसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्द को देशभेद के अनुसार कोई 'हरि ' कहता है तो कोई ' अल्लाह ', कोई ' गॉड ' कहता है तो कोई ' ब्रह्म।'
38.४७० . अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने स्वयं के धर्म को श्रेष्ठ समझते हुए व्यर्थ का शोर मचाता है। जब चित्त में यथार्थ ज्ञान का प्रकाश आ जाता है तो सब साम्प्रदायिक कलह शान्त हो जाते हैं। ...वह देखता है कि सभी धर्म-मतों के पीछे एक अखण्ड सच्चिदानन्द विराजमान है।
 ११विश्वास 
39.४९६ . भगवान पर विश्वास न होने के कारण ही मनुष्य को इतना कष्ट भोगना पड़ता है।
40.५११ . जो जैसा चिन्तन करता है वह वैसा ही बन जाता है। भ्रमर का चिन्तन करते करते झींगुर भी भ्रमर बन जाता है। इसी प्रकार सदा सच्चिदानन्द का चिन्तन करते रहने से मनुष्य सच्चिदानन्द-स्वरुप ही हो जाता है।
41.५१४ . जो सोचता है ' मैं जीव हूँ ' वह जीव ही रह जाता है; जो सोचता है ' मैं शिव हूँ ' वह शिव ही बन जाता है। मनुष्य जैसी भावना करता है, वैसा ही बन जाता है।
42.५२३ . ईश्वर-निर्भरता कैसी होती है ? जैसे कड़ी मेहनत करने के बाद तकिये से टेककर बैठे हुए आराम से हुक्का पीना। अर्थात किसी तरह की फ़िक्र नहीं है, जो करना हो ईश्वर ही करेंगे-यह भाव।
 १२ विवेक-प्रयोग 
43.५४३ . प्रश्न- क्या संसार मिथ्या है ?
उत्तर- जब तक ईश्वर का ज्ञान नहीं होता तब तक मिथ्या है। तब तक मनुष्य उन्हें भूलकर ' मैं-मेरा ' करते हुए माया में बद्ध होकर, कामिनी-कांचन के मोह के मुग्ध होकर संसार में और भी डूबता जाता है। माया के कारण मनुष्य इतना अँधा हो जाता है कि जाल में से भागने का रास्ता रहने पर भी भाग नहीं पाता। तुम लोग तो स्वयं देखते हो कि संसार कैसा अनित्य है। देखो न, यहाँ कितने लोग आये और चले गये। कितने पैदा हुए और कितने मर मिट गये। संसार इस क्षण है तो दूसरे ही क्षण नहीं ! यह अनित्य है ! (अर्थात मिथ्या है।) जिन्हें तुम इतना
 ' मेरा मेरा ' कह रहे हो, तुम्हारे आँखें बन्द करते ही वे कोई न रहेंगे। संसार में कोई नहीं है, फिर भी इतनी आसक्ति कि नाती के लिये काशी-यात्रा नहीं हो पाती। कहते हैं, मेरे बेटे हरि का क्या होगा ? जाल में से निकलने की राह खुली है, फिर भी मछली भाग नहीं पाती। रेशम का कीड़ा अपनी ही लार से कोश बनाकर उसमें फंस कर जान गँवा देता है। संसार इस प्रकार मिथ्या है, अनित्य है।
44.५४४ . अहंकार को कैसे दूर करना चाहिये, जानते हो ? धान कूटते समय बीच-बीच में रुककर देखना पड़ता है, यदि मूसल की चोट ठीक से नहीं पड़ी हो, तो फिर से कूटना पड़ता है। तराजू पर कोई वस्तु तौलते समय, जब तक  काँटा ठीक न हो तब तक ठहर कर देखना पड़ता है।
मैं समय-समय पर स्वयं को गालियाँ देकर देखता था कि मुझमें अहंकार उठता है या नहीं; और विचार करता था - " भला यह शरीर क्या है ? सिर्फ़ हाड़-मांस का ढाँचा ! इसके अन्दर क्या है ? खून, पीब आदि गन्दी चीजें ! जिस शरीर के भीतर सदा मल भरा हुआ है, उस पर भला इतना अहंकार क्यों किया जाय ?
 १३ वैराग्य 
45.५५५ . भगवान के घर की चाभी उलटी दिशा (अन्तर्मुखी) में घूमने-वाली होती है। भगवान के समीप पहुँचने के लिये तुम्हें संसार का सब कुछ त्याग करना होगा।
46.५५८ . जिसे तीव्र वैराग्य (अपरिवर्तन शील सत्य को जानने की तीव्र अभिलाषा) होता है, वह भगवान (सत्य) के सिवा और कुछ नहीं चाहता। संसार उसे कुएँ जैसा प्रतीत होता है, उसे डर लगता है कि कहीं मैं डूब न जाऊं। आत्मीयों को वह काले नाग की तरह देखता है, उनसे दूर भागने को मन होता है, और भागता भी है।  'घर-गृहस्थी का बन्दोबस्त कर लूँ, फिर ईश्वर-चिन्तन करूँगा ' ऐसा विचार वह नहीं करता। उसके भीतर बड़ी ज़िद होती है।
47.५६० . जो परमहंस होता है, पूर्ण ज्ञानी होता है, वह मोची-मेहतर की अवस्था से लेकर राजा -महाराजा की अवस्था तक सब कुछ स्वयं भोगकर देख आता है। इसके सिवा ठीक-ठीक वैराग्य कैसे आएगा !
48.५६४ . वैराग्य कई प्रकार का होता है। संसार में दुःख-कष्ट पाकर एक प्रकार का -'मर्कट- वैराग्य' आता है। परन्तु, संसार के सभी भोगसुख असार, अनित्य हैं इस बोध के कारण जो वैराग्य आता है, वही यथार्थ वैराग्य है। किसी में यदि यह, ' बुद्ध-वैराग्य ' आ जाये तो सब कुछ रहते हुए भी उसके लिये कुछ नहीं है।
 १४ उद्द्यम-शीलता 
49.५६८ . किसान लोग बैल खरीदते समय अच्छे बैल कैसे पहचानते हैं जानते हो ? इस बारे में वे बड़े जानकर होते है। वे बैल की पूँछ पर हाथ लगाकर देखते हैं, जिस बैल में दम नहीं होता वह पूंछ पर हाथ लगाने से अंग ढीला कर जमीन पर लेट जाता है। परन्तु जो बैल फुर्तीला,तेज होता है वह पूँछ को छूते ही, चिढ़ कर उछलने लगता है। किसान लोग ऐसे ही बैल को खरीदा करते हैं।
जीवन में सफलता पानी हो तो अपने भीतर पुरुषार्थ, साहसिकता या मर्द्पना रखना चाहिये। कई लोग ऐसे होते हैं, जिनमें कोई दम ही नहीं होता -मानो दूध में भिगोया हुआ चिउड़ा हो, नरम और ठण्डा ! भीतर कोई जोर नहीं, कोई उत्साह नहीं, उद्दम करने का कोई सामर्थ्य नहीं ! इच्छा-शक्ति का नामो निशान नहीं, ऐसे लोग जीवन में कभी सफल नहीं होते।
  १५ एकाग्रता-ध्यान 
50.६०५ .मन के स्थिर होने पर श्वास स्थिर होता है-कुम्भक हो जाता है। यह कुम्भक भक्तियोग के द्वारा भी होता है, तीव्र भक्ति से भी श्वास स्थिर हो जाता है। 
 51.६०६ .गहरे ध्यान में ध्येय वस्तु का यथार्थ स्वरुप प्रकट होकर ध्याता के अंतःकरण को प्रकाशित कर देता है।
52.५९९ . मन को एकाग्र करने का सबसे सरल उपाय है, उसे दीप की शिखा पर स्थिर करना। शिखा के सबसे भीतर का नीला भाग मानो कारणशरीर है। उस पर मन को स्थिर करने से मन शीघ्र ही एकाग्र हो जाता है। इस नीली ज्योति के बाहर का भाग मानो सूक्ष्मशरीर है और उसके भी बाहर का भाग स्थूल-शरीर।
 53.८८९ . "जिस शरीर के द्वारा ईश्वरीय आनन्द का अनुभव और उपभोग होता है, वह कारण-शरीर है। तन्त्र-शास्त्र में इसे कहते हैं, ' भागवती तनु। '[ईश्वर की कृपा से प्रेम की देह उत्पन्न होती है, उसमें प्रेम के नेत्र, प्रेम के कर्ण होते हैं। उन्हीं प्रेमनेत्रों से उनके दर्शन होते हैं, उन्हीं प्रेम-कर्णों से उनकी वाणी सुनाई देती है। "] इन सब से अतीत है ' महाकारण ' (तुरीय)। " स्थूल-शरीर अर्थात अन्नमय और प्राणमय कोश। सूक्ष्म शरीर अर्थात मनोमय और विज्ञानमय कोश। महाकारण पंचकोशों के अतीत है। जिस समय चैतन्य देव का मन महाकारण में लीन हो जाता, उस समय वे समाधिमग्न हो जाते। इसी का नाम निर्विकल्प या जड़ समाधि है।
[सभी मनुष्यों का अस्तित्व तीन स्तंभों (3H) पर आधारित है - [Hand]शरीर, [Head] मन और [Heart] आत्मा। मन, शरीर और आत्मा के बीच सेतु का काम करता है ! मनुष्य के व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण तत्व आत्मा होती है जो कि शरीर और मन दोनों को शक्ति प्रदान करती है और नियंत्रित करती है ! बहुत अद्भुत और आश्चर्यजनक है हमारे शरीर की रचना। दिखाई देने वाला भौतिक शरीर सिर्फ खून, हड्डी और मांस का जोड़ ही नहीं है इसे चलायमान रखने वाले शरीर अलग हैं। कारण शरीर (Causal Body) स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का कारण है, इसलिए उसे कारण शरीर कहते हैं। इसके कारण हमें चेतना का अनुभव होता है। 
इसे बीज शरीर भी कहते हैं। इसमें शरीर और मन की वासना के बीज विद्यमान होते हैं। यह हमारे विचार, भाव और स्मृतियों का बीज रूप में संग्रह कर लेता है। मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है। कारण शरीर कभी नहीं मरता।
आनन्दमय रहने की प्रवृति के कारण ही वह निर्गुण निराकार ब्रह्म माया प्रकृति के साथ सयुंक्त होकर इस सृष्टि की रचना करता है। एकोहं बहुस्यामि के संकल्प में बधकर इस विचित्र संसार के रूप में स्वंय को प्रकट करता है। अपनी इसी प्रवृति से वशीभूत ही योगी मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य लेकर ब्रह्मनंद में  निमग्न होकर पुन: उसी तत्व में विलिन हो जाता है। कैसी अद्भूत लीला है उस परमप्रभु की जो कि बुद्धि की समझ से पूर्णत: बाहर है। प्रत्येक प्राणी वहीं से प्रकट होता है और चाहे चाहे अंत में उसी में विलीन हो जाता है। सैदव उत्साहित, उल्लासित, प्रसन्न रहना ही आत्मा का मूल स्वभाव है। उसकी लीला उसी को समर्पित कर सदैव आनंदमय रहना चाहिए। 

सृष्टि के अधिकाँश रहस्य विज्ञान मानव मन की समझ से बाहर है। इनमें न उलझकर यही मन बनाना चाहिए कि जो कुछ उसने रचा है वह उत्तम है उसी के अनुसार हमें अपना जीवनक्रम बनाना है जीवनोउदे्श्य बनाना है। जो भी उस तक पहुँचता है वही उसकी लीला को ठीक से समझ पाता है अत: व्यर्थ की माथा पच्ची में पड़कर एक  जीवन का उदे्दश्य बनाकर व्यस्त रहे मस्त रहे वाले सिद्धांत पर चलना चाहिए।
ब्रह्म (आत्मा) सत्य है और उसके अतिरिक्त सब कुछ मिथ्या है।अज्ञान के कारण हमलोग ब्रह्म (आत्मा) का अनुभव नहीं कर पाते हैं। इसे अविद्या कहते है। यह अविद्या कारण शरीर है, क्योंकि यह नित्य, आध्यात्मिक पूर्ण सत्ता का अज्ञान ही है जिसने हमारी बुद्धि की कोलाहलपूर्ण इच्छाओं, मन के विचारों और शरीर के कर्मों को जन्म दिया है।]

१६ ईश्वरीय रूप-दर्शन तथा ध्वनि-श्रवण
54.९१० . शुद्ध-ह्रदय भक्त ईश्वरीय रूपों को देख सकता है, ईश्वर की कृपा से भीतर दिव्य ' भागवती तनु ' निर्मित होता है, जिसमें दिव्य इन्द्रियाँ होती हैं; उन्हीं के द्वारा इन रूपों के दर्शन होते हैं। केवल सिद्ध पुरुष ही इन्हें देख सकते हैं। साधना करते करते साधक के भीतर एक प्रेम की देह उत्पन्न होती है, उसमें प्रेम के नेत्र, प्रेम के कर्ण होते हैं। उन्हीं प्रेमनेत्रों से उनके दर्शन होते हैं, उन्हीं प्रेम-कर्णों से उनकी वाणी सुनाई देती है। "
 55.६१४ . तुम चाहे जिस मार्ग से जाओ, मन के स्थिर हुए बिना योग नहीं होता। मन योगी के वश में होता है, योगी कभी मन के वश में नहीं होता।
 56.९०८ . ईश्वर का साक्षात्कार दो प्रकार का होता है-एक में जीवात्मा तथा परमात्मा का योग होता है, दूसरे में ईश्वरीय रूपों के दर्शन होते हैं। पहला ज्ञान है और दूसरी भक्ति। मैं सच कहता हूँ, शपथ-पूर्वक कहता हूँ-सचमुच ईश्वर को देखा जा सकता है; जैसे इस समय हम-तुम बैठकर बातचीत कर रहे हैं, इसी तरह उनके दर्शन तथा उनसे सम्भाषण हो सकते हैं। 
57.९१२ . अनाहत ध्वनी सदा अपने आप उठ रही है। यह प्रणव ध्वनी है। यह परब्रह्म से आ रही है। योगी इसे सुन पाते हैं। विषयासक्त जीव इसे नहीं सुन पाते। योगी समझ सकते हैं कि यह ध्वनी एक ओर नाभि में से उठती है तथा दूसरी ओर उस क्षीरोद-शायी परब्रह्म से।  
१७ कुण्डलिनी तथा आध्यात्मिक जागृति
58. ९०२ . बिना कुण्डलिनी के जागे चैतन्य प्राप्त नहीं होता। मूलाधार में कुण्डलिनी सुप्त रहती है। जाग जाने पर वह स्वाधिष्ठान, मणिपुर आदि चक्रों को भेदती हुई अन्त में मस्तक में जा पहुँचती है, तभी समाधि होती है। 
59.९०६ . सप्त-भूमि : मन स्वभावतः गुदा, लिंग और नाभि, इन तीन निम्न स्तर की भूमियों में ही चढ़ता-उतरता रहता है, उसकी दृष्टि इन्हीं में -आहार,निद्रा, भय, मैथुन आदि में ही निबद्ध रहती है। 
इन तीन भूमियों को पार कर यदि मन चौथी भूमि ह्रदय तक जा पहुंचे तो साधक को प्रभा-ज्योति के दर्शन होते हैं। किन्तु ह्रदय तक उठने के बाद भी, मन पुनः नीचे की तीन भूमियों में -गुदा,लिंग नाभि में उतर आता है। 
ह्रदय का अतिक्रमण कर यदि किसी का मन पाँचवी भूमि कण्ठ तक जा पहुँचे तो फिर वह ईश्वरीय चर्चा छोड़कर अन्य किसी प्रकार की बातें-विषय-सम्बन्धी बातें इत्यादि -नहीं कर सकता। कण्ठ में पहुँचने के बाद भी मन पुनः गुदा, लिंग, नाभि में उतर असक्त है, इसीलिये तब भी सावधान रहना चाहिये। 
फिर कण्ठ का अतिक्रमण कर यदि किसी का मन भौंहों के मध्यस्थल तक जा पहुंचे तो फिर उसके पतन की आशंका नहीं रहती। उस समय वह परमात्मा के दर्शन प्राप्त कर निरन्तर समाधि-मग्न रहता है। 
इसके तथा सहस्रार के बीच केवल एक काँच की तरह स्वच्छ परदे भर की आड़ है। 
इस समय परमात्मा इतने निकट होते हैं कि साधक को ऐसा प्रतीत होता है, मानो मैं उनमें मिल गया हूँ, उनके साथ एक हो गया हूँ; परन्तु तब भी वह एक नहीं हुआ है। 
यहाँ से मन यदि कभी नीचे उतरे तो अधिक से अधिक कण्ठ या ह्रदय तक ही उतरता है-उसके नीचे नहीं उतर सकता। 
जीव-कोटि के साधक यहाँ से फिर नहीं उतरते -उनके इक्कीस दिन तक निरन्तर समाधि में लीन रहने बाद वह व्यवधान या परदा छिन्न हो जाता है तथा वे परमात्मा के साथ पूर्णतया मिलकर एक हो जाते हैं। सहस्रार में परमात्मा के साथ सम्पूर्ण एक हो जाना ही सप्तम भूमि में चढ़ना है।
 १८ भगवान तथा भक्त
60.६४५ . बच्चे का स्वभाव ही है अपने को कीचड़-मिट्टी में सान लेना, पर माँ उसे गन्दा नहीं रहने देती, नहला-धुलाकर साफ़ कर देती है। इसी तरह मनुष्य का स्वाभाव ही है पाप करना, परन्तु वह कितना भी पाप क्यों न करे, भगवान उसके उद्धार का उपाय कर ही देते हैं। 
61.६५२ . यथार्थ-प्रेमी भक्त ईश्वर को किस दृष्टि से देखता है ? वह ईश्वर को अत्यन्त निकट के की तरह देखता है। जैसे व्रज की गोपियाँ श्रीकृष्ण को ' जगन्नाथ ' के रूप में नहीं देखती थीं, वे तो उन्हें 
' गोपीनाथ ' के रूप में देखा करती थीं। 
62.६५३ . ईश्वर को माँ कहकर पुकारते हुए भक्त इतना आनन्दमग्न क्यों हो जाता है ? क्योंकि बालक माँ के निकट ही सबसे अधिक स्वछन्द रहता है, माँ के ही उपर उसका सब से अधिक जोर चलता है। 
63.६५९ . जिस प्रकार सरल बालक रुपया-पैसा सब छोड़ गुड़िया को उठा लेता है उसी प्रकार विश्वासी भक्त भी संसार के सब धन-मान आदि छोड़कर ईश्वर को ही ग्रहण करता है। दूसरा कोई ऐसा नहीं कर पाता। 
64.६६३ . भक्तों की सांसारिक परिस्थिति: देवकी को कारागार में चतुर्भुज शंखचक्रगदाधारी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए, परन्तु उसका कारावास कटा नहीं।    
65.६७२ . यह नहीं कि भगवान हमें भोजन (मोटर-बंगला-दौलत) देते हैं, इसलिये वे दयामय हैं, पिता अपनी सन्तान को भोजन तो देगा ही। वास्तव में वे इसलिये दयामय हैं, कि वे हमें कुपथ में जाने से बचाते हैं, मोह या प्रलोभन से हमारी रक्षा करते हैं।
१९ मार्गदर्शक नेता या गुरु की आवश्यकता 
66.६८७-९० . गुरु कौन है ? एकमात्र ईश्वर ही सारे जगत के गुरु हैं। जो गुरु के बारे में मनुष्य-बुद्धि रखता है उसके साधन-भजन का क्या फल होगा ? गुरु के बारे में मनुष्य-बोध नहीं रखना चाहिये। गुरु मानो मध्यस्थ हैं। जैसे मध्यस्थ प्रेमी को प्रेमिका से मिला देते हैं, वैसे ही गुरु भी साधक को इष्ट के साथ मिला देते हैं।
67.६९३ . गुरु (या नेता) का प्रयोजन : जिस जिस के के पास से कोई शिक्षा या लौकिक ज्ञान प्राप्त होता हो, उन सभी को गुरु न कहकर एक निर्दिष्ट व्यक्ति को ही गुरु (या मानवजाति का नेता ) कहने की क्या आवश्यकता है? किसी अनजान जगह में जाना हो, तो जो रास्ता जानता है ऐसे किसी एक व्यक्ति के निर्देशानुसार ही जाना चाहिये। अनेक लोगों से रास्ता पूछते रहने पर गड़बड़ हो जाती है। वैसे ही ईश्वर के निकट (अनन्त आकाश के अज्ञात राज्य में ) जाना हो तो एक अनुभवी गुरु के निर्देशनुसार चलना चाहिये। इसीलिये एक गुरु (नेता) का प्रयोजन है।
68.६९४ . जो खुद शतरंज खेलते हैं वे बहुत समय नहीं समझ पाते कि कौनसी चाल ठीक रहेगी ? परन्तु जो तटस्थ रहकर खेल देखते रहते हैं वे खेलने वालों की चाल से अच्छी चाल बता सकते हैं। संसारी लोग सोचते हैं, हम बड़े बुद्धिमान हैं ! परन्तु वे धन-मान, विषय-सुख (या सत्ता-सुख) आदि में आसक्त रहते हैं। वे स्वयं खेल में डूबे रहते हैं, ठीक चाल नहीं समझ पाते। 
परन्तु जो आत्म-साक्षात्कारी गुरु महात्मा  (नेता ) होते हैं, वे संसार में रहते हुए भी, विषयों से पुर्णतः अनासक्त हो जाते हैं। इसीलिये वे संसारियों से अधिक बुद्दिमान (विवेक-सम्पन्न ) होते हैं। वे खुद नही खेलते (माँ-बाप,स्त्री-पुरुष, दोस्त-दुश्मन का खेल नहीं खेलते) इसीलिये अच्छी चाल बता सकते हैं। इसीलिये सत्य को जानकर धर्मजीवन यापन करना हो, तो जो साधू-महात्मा ईश्वर का ध्यान-चिन्तन  करते हैं, जिन्होंने उन्हें प्राप्त कर लिया है, उन्हीं की बातों पर विश्वास रखकर चलना चाहिये। यदि तुम्हें मामले-मुकदमे की सलाह चाहिये हो तो तुम नामी वकील की ही सलाह लोगे, न कि किसी ऐरे-गैरे की ! 
69.६९८ . ऐसे (साक्षात्कारी-नेता) गुरु यदि पण्डित या शास्त्रज्ञ न भी हों, तो घबराने का कारण नहीं। उन्होंने पुस्तकी विद्या भले न सीखी हो, पर उनमें यथार्थ ज्ञान की कभी कमी नहीं होती। पुस्तक पढ़कर भला क्या ज्ञान होगा ? ऐसे व्यक्ति के निकट ईश्वरीय ज्ञान का अनन्त भण्डार होता है। 
70.७०२ . जिसमें गुरु (नेता ) के प्रति सच्ची भक्ति होती है उसे गुरु के सगे-सम्बन्धियों को देखकर गुरु का ही उद्दीपन होता है। वह उन्हें प्रणाम कर उनकी चरण-धूलि ग्रहण करता है, उन्हें खिलाता-पिलाता है, उनकी सेवा-शुश्रूषा करता है। ऐसी अवस्था होने पर फिर अपने गुरु (या नेता) के दोष नहीं दिखाई देते। अन्यथा, ' यथार्थ -मनुष्य ' या नेता में भी कुछ न कुछ दोष तो रहेंगे ही - केवल गुण ही गुण नहीं रह सकते। परन्तु अपनी भक्ति के कारण वह शिष्य (अनुयायी ) अपने गुरु (नेता) को मनुष्य की दृष्टि से नहीं देखता, वह उन्हें भगवान -के ही रूप में देखता है। जिस प्रकार पीलिया हो जाने पर सब कुछ पीला ही पीला दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार इस शिष्य को भी सब कुछ ईश्वरमय (सबकुछ शाश्वत-चैतन्य का घनीभूत रूप ) ही दिखाई देता है। उसकी भक्ति ही उसे दिखा देती है कि ईश्वर ही सब कुछ हैं, वे ही गुरु, पिता, माता, मनुष्य, पशु, जड़, चेतन -सब कुछ बने हैं ! 
71.७२१ . जब लकड़ी का बड़ा भारी (गरु) कुन्दा पानी पर बहता है तब उस पर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी पर एक कौआ भी बैठे तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार जब  अवतार-महापुरुष (नेता) आते हैं, उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं, किन्तु सिद्ध पुरुष काफी श्रम करके किसी तरह स्वयं तरता है। 
 २० ज्ञानयोग की प्रणाली 
72.७३७ . जब तक भगवान ' वहाँ वहाँ ' (अर्थात दूर या बाहर ) हैं, तब तक अज्ञान है; जब वे ' यहाँ ' (अर्थात ह्रदय) में हैं , तभी ज्ञान है। " जिसके लिये भगवान यहाँ (अर्थात ह्रदय में ) हैं, उसके लिये वहाँ (अर्थात बाहर ) भी हैं। जिसके लिये वे यहाँ नहीं हैं, उसके लिये वहाँ भी नहीं है। जो उन्हें अपने ह्रदय-मन्दिर में देखता है वह उन्हें जगत-मन्दिर में भी देखता है। 
73.७४० . विचार दो प्रकार का होता है -अनुलोम और विलोम। अनुलोम मार्ग से विचार करते हुए मनुष्य सृष्टि से सृष्टिकर्ता में, कार्य से कारण में जा पहुँचता है। फिर विलोम मार्ग से विचार शुरू होता है, ईश्वर को प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य देखता है कि सृष्टि के सभी क्रिया-कलापों में सर्वत्र वे ही प्रकाशित हैं। एक है विश्लेषणात्मक और दूसरा है संश्लेषणात्मक - 'नेति-नेति' और ' इति इति।' 
74.७४१ . ज्ञान एकत्व की ओर ले जाता है, अज्ञान नानात्व की ओर। 
75.७४२ . " श्रवण, मनन, निदिध्यासन " यही वेदान्त साधना का क्रम है। ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या ' इस सत्य को पहले सुना; फिर मनन यानी विचार करते हुए उसे मन में दृढ़ किया; इसके बाद निदिध्यासन -अर्थात मिथ्या वस्तु, जगत (नाम-रूप ) का त्याग कर सत्य वस्तु  ब्रह्म (अस्ति-भाति-प्रिय) के ध्यान में मन को निमग्न किया। परन्तु इसके विपरीत यदि इस सत्य ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या ' को सुना, समझा, पर मिथ्या वस्तु को त्यागने का प्रयत्न नहीं किया, तो इससे क्या फायदा ?
 इस प्रकार का ज्ञान तो संसार में आसक्त लोगों के ज्ञान की तरह है, ऐसे ज्ञान से वस्तु लाभ नहीं होता। पक्की धारणा चाहिये , त्याग चाहिये -तभी तो होगा। ( विवेक-प्रयोग से यह धारणा पक्की हो जाये कि, नाम-रूप शरीर आदि मिथ्या है, तो उसमें आसक्ति को त्याग देना चाहिये।) मुँह से तो कह रहे हो, ' जगत तीन काल में नहीं है, जगत है ही नहीं, असत है,-एकमात्र ब्रह्म ही हैं ' आदि, परन्तु जैसे ही जगत के रूप-रस-स्पर्श आदि भोग्य विषय सामने आते हैं, कि उन्हें सत्य मानकर बन्धन में पड़ जाते हो। संसारी, विषयासक्त लोगों का ज्ञान ऐसा ही होता है, इसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। 
76.७४३-४५ . ज्ञानयोग की कठिनाईयाँ : इस कलियुग में ( जब तक मोह-निद्रा में सोये हो) ज्ञानयोग बहुत कठिन है। एक तो मनुष्य का जीवन पूरी तरह से अन्न पर ही निर्भर है, दूसरे -आयु भी बहुत कम है। फिर देहात्म-बुद्धि किसी भी हालत में नहीं जाना चाहती। अगर रोग-शोक, सुख-दुःख आदि धर्मों का बोध रहे तो फिर वह ज्ञानी कैसा ? पहले देहात्मबोध का कांटा ज्ञानाग्नि में जलकर खाक हो जाना चाहिये। संसार के प्रति आसक्ति जितनी कम होगी, ज्ञान उतना ही बढ़ेगा। जब तक देहात्मबुद्धि है, तब तक 'सोsहं ' भाव हानिकारक है। इससे प्रगति नहीं होती, पतन ही होता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तथा औरों को धोखा देता है।
 २१ भक्ति-मार्ग 
77.७४९ . विषयासक्ति जितनी कम होगी, ईश्वर के प्रति भक्ति उतनी ही बढ़ेगी। 
78.७५६ . यदि अपने प्रेमास्पद को इष्टदेवता के रूप में देखा जाये, तो मन बड़ी सरलता से भगवान की और चला जाता है। 
79.७६४ . ठाकुरजी में अनुराग हो, तो विवेक, वैराग्य, जीवों के प्रति दया, साधुसेवा, सत्संग, ईश्वर की महिमा का गुणगान, सत्यवचन इत्यादि सद्गुणों का उदय होता है। यदि किसी में अनुराग-जनित सद्गुणों को प्रकाशित होते देखो तो निश्चय जानना कि उसे ईश्वरदर्शन होने में देर नहीं। 
80.७७३ . समाधि के बाद जीव वापस नहीं लौटता। पर यह बात जीव कोटि के सम्बन्ध में है। अवतार या ईश्वर कोटि की बात अलग है। ईश्वर कोटि भक्तों में अनुलोम-विलोम दोनों भाव पाये जाते हैं। वे समाधि में भी जा सकते हैं, और फिर उतर कर (मनुष्य रूपी ) ईश्वर के साथ दास्य, वात्सल्य या अन्य कोई भाव-सम्बन्ध स्थापित कर भक्ति का आस्वादन भी कर सकते हैं। समाधि में अहं या जगत (क + मन) का अत्यन्त अभाव होने पर ब्रह्म-दर्शन होता है; तब (माँ की कृपा से यदि फिर से शरीर में लौटने का मौका मिला तो) दिखाई देता है कि ब्रह्म ही जीव-जगत सब कुछ हुआ है। 
 २२ प्रेम 
81.७७५ . पारसी किताबों में है-चमड़ी के भीतर मांस है, मांस के भीतर हड्डी, हड्डी के भीतर मज्जा, फिर और भी बहुत कुछ है ! इन सबके भीतर प्रेम है ! 
82.७९९ . यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना, माया के द्वार छोड़े बिना किसी को आत्मज्ञान नहीं होता, और तब तक दुःख-कष्टों अन्त नहीं होता। ज्योंही महामाया की कृपा होती है, त्योंही जीव को ईश्वरदर्शन होते हैं और वह  दुःख-कष्टों के हाथ से छुटकारा पा जाता है। नहीं तो लाख विचार करो, कुछ भी नहीं होता। 
83.८०० . साधारणतः भक्त ईश्वर का सगुण-साकार रूप ही देखना चाहता है। परन्तु इच्छामय ईश्वर यदि चाहें तो भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी बनाते हैं, भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी। उसे भाव-समाधी में रुपदर्शन भी होते हैं, और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरुप के दर्शन भी।
84.८०३ . मेरी माँ (जगन्माता) ने कह दिया है कि वही वेदान्त की ब्रह्म है। जीव के कच्चे मैं को नष्टकर उसे ब्रह्मज्ञान देने की शक्ति उसी में है। भक्तिमार्ग का सार है- ज्ञान-भक्ति के लिये व्याकुल होकर निरन्तर प्रार्थना करना, माँ के चरणों में आत्मनिवेदन करना। इस तरह पहले मेरी माँ की शरण आओ। मेरी बात पर विश्वास रखो, कि यदि तुम ह्रदय से माँ को पुकारोगे तो माँ अवश्य ही तुम्हारी पुकार सुनेगी-तुम्हारी इच्छा पूरी करेगी। फिर, यदि तुम उसके निर्गुण निराकार स्वरुप का दर्शन करना चाहो, तो उसी से प्रार्थना करो। सर्वशक्ति स्वरूपिणी जगन्माता की कृपा से तुम समाधी में ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो। 
 85.८१० . नारदादि आचार्य ज्ञानलाभ करने के बाद भी लोक-कल्याण के लिये भक्ति लेकर रहते हैं। 
 86.८१८ . ईश्वर पर प्रेम-भक्ति बढ़ने से कर्म कम हो जाता है और जो कर्म रहता है, उसे उनकी कृपा से अनासक्त होकर किया जा सकता है। भक्तिलाभ होने पर विषय-कर्म, धन, मान, यश आदि अच्छे नहीं लगते। मिश्री का शरबत पीने के बाद गुड़ का शरबत पीना किसे अच्छा लगेगा ? 
 87.८२३ . ह्रदयकमल में इष्टदेवता को प्रतिष्ठित करने के बाद, उनके स्मरण-चिन्तन रूपी दीपक को सदा प्रज्वलित रखना चाहिये। संसार के काम-काज करते हुए बीच-बीच में भीतर की ओर दृष्टि डालकर देखते रहना चाहिये। 
 २३ सेवाभाव से किया गया कर्म पूजा के समान है।
88.८२४ . " जो नाम है, वही ईश्वर है, नाम और नामी अभिन्न हैं - यह जानकर सदा अनुरागसहित नाम लेते रहना चाहिये। कृष्ण और वैष्णव, भक्त और भगवान अभिन्न हैं यह जानकर सदा साधू-भक्तजनों की श्रद्धापूर्वक सेवा-वन्दना करनी चाहिये तथा यह जगत-संसार श्रीकृष्ण का ही है इस बात की ह्रदय में धारणा कर सब जीवों पर दया ....। ' सब जीवों पर दया ' इतना कहते ही श्रीरामकृष्ण एकाएक समाधी-मग्न हो गए। कुछ देर बाद अर्ध-बाह्य अवस्था में आकर कहने लगे, " जीवों पर दया ? धत मूर्ख ! तू स्वयं कीटाणु-कीट होकर जीवों पर दया करेगा ? दया करने वाला तू कौन है ? नहीं, नहीं, ' जीवों पर दया ' नहीं-'शिव-ज्ञान से जीव की सेवा ! ' 
89.८२५ . समाज सेवा चरित्र-निर्माण का उपाय है, जीवन का उद्देश्य नहीं: पहले साधन-भजन के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लो, उनका लाभ कर लो। वे शक्ति दें तभी तुम लोगों का हित कर सकते हो, अन्यथा नहीं। (समाज सेवा करने की योग्यता केवल खादी का कुरता-पैजामा पहनने से ही प्राप्त नहीं होता-पहले मनुष्य बनना पड़ता है। )
90.८२७ . निष्काम कर्म (कैम्प आदि) एक उपाय है - उद्देश्य नहीं; जीवन का उद्देश्य है ईश्वरलाभ। कर्म तो आदिकाण्ड है -वह जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता। कर्म को जीवन का सर्वस्व मत समझो। ईश्वर से भक्ति के लिये प्रार्थना करो। यदि सौभाग्यवश भगवान तुम्हारे सामने प्रकट हो जाएँ, तो क्या तुम उनसे अस्पताल-दवाखाने, कुँए-तालाब, रास्ते, धर्मशालाएं  इन्हीं सब के लिये प्रार्थना करोगे ? नहीं, ये सब चीजें तभी तक सत्य प्रतीत होती हैं,जब तक भगवान के दर्शन नहीं होते। एक बार उनके दर्शन हो जाएँ, तो ये सब स्वप्नवत, अनित्य, असार लगने लगते हैं। तब साधक उनसे केवल ज्ञान और भक्ति की ही प्रार्थना करता है। 
91.८२८ . शम्भु मल्लिक ने लोकहित के लिये अस्पताल, दवाखाने, स्कूल, रास्ते,तालाब (कैम्प ?) आदि बनवाने की बात कही थी। मैंने कहा -सामने जो काम (कैम्प आदि) आ पड़े, जिसे किये बिना चल नहीं सकता हो, ऐसे काम को निष्काम भाव से करना चाहिये। जान -बूझकर स्वयं को बहुत अधिक कामों में उलझाना ठीक नहीं, इससे मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है। 
२४ कर्म तथा नैष्कर्म्य
92.८३१ . ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होने पर कर्म-त्याग अपने आप हो जाता है। ईश्वर जिन लोगों से कर्म करवा रहे हैं, उन्हें करने दो। जिनका समय आ गया है, वे सब छोड़कर कहें, - ' मन, ह्रदय में विराजमान (ठाकुर देव) माँ को तू देख और मैं देखूँ, और कोई न देखे। 
93.८३३ . जब तक सच्चिदानन्द में मन लीन न हो जाये, तब तक उन्हें पुकारना और संसार के काम-काज करना, दोनों बातें चल सकती हैं। उनमें मन तल्लीन हो जाने पर कोई काम करने की आवश्यकता नहीं रहती।
94.८३४ . इसीलिये कहता हूँ, शुरू-शुरू में कर्म की बड़ी चहल-पहल रहती है। परन्तु तुम ईश्वर की ओर जितना ही अग्रसर होओगे, उतना ही तुम्हारा कर्म कम होता जायेगा। अन्त में सर्व कर्म-त्याग होकर समाधी होगी। समाधी होने के बाद प्रायः देह नहीं टिका करती। किसी-किसी की देह लोकशिक्षा के लिये रह जाती है -जैसे नारदादि ऋषि और चैतन्यदेवादि अवतारों का हुआ। 
कुआँ खोद चुकने के बाद कोई कोई कुदाल, कड़ाही आदि की बिदाई कर देते हैं, पर कोई-कोई उन्हें रख देते हैं- सोचते हैं, रहने दो, मुहल्लेवालों में से किसी के काम आएगा। ऐसे महापुरुष लोग जीवों का दुःख देखकर कातर होते हैं। वे ऐसे स्वार्थी नहीं होते कि सोचें, हमें ज्ञान-लाभ हुआ कि सब हो गया। 
 २५ ब्रह्म [ ईश्वर]
95.८३८ . साँप के दातों में विष होता है, उसके काटने से दूसरे लोग मर जाते हैं, पर स्वयं साँप को कुछ नहीं होता। इसी तरह, जगत में दुःख, पाप, अशान्ति आदि जो कुछ है, वह सब जीव के लिये है। ब्रह्म इस सब से निर्लिप्त है। भला,बुरा,सत -असत सब जीव के लिये है, ब्रह्म के लिये यह सब कुछ नहीं है, वह इस सब से परे है। 
96.८४१ . ब्रह्म वायु की तरह है, जो सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों को ले जाती है, पर स्वयं दोनों से निर्लिप्त रहती है। [किन्तु ब्रह्म को हमारी तरह Anosmia का रोग नहीं होता है। वे तो दुर्गन्ध-सुगन्ध में अनासक्त रहते हैं।
 Anosmia, or the loss of the sense of smell, is not often regarded as a major treatment priority. inability to perceive odor chronic sinusitis, which is treatable, will affect 11 percent of people at some point in their lives.many have been suffering in silence for years.there is a perception that nothing can be done.More than 90 percent of patients in this category can regain their sense of smell after steroid treatment to reduce inflammation.treatment depends on the cause it is necessary to know how anosmia is caused.]
 २६ ब्रह्म ही द्वैत-प्रपंच की सत्ता है 
97.८४४ . 'जगत मिथ्या है ' कहना आसान है। पर वास्तव में इसका क्या अर्थ है, जानते हो ? जैसे कपूर के जलने पर कुछ भी नहीं बचता। लकड़ी के जलने पर कम से कम रख तो बच रहती है। विचार के अन्त में समाधी होती है, तब मैं, तुम, जगत इस सब का पता ही नहीं रहता। उस अवस्था में ....विश्व-ब्रह्माण्ड लूप्त होकर सब शान्त चैतन्य स्पन्दन ..केवल अस्ति मात्र रह जाता है। जब ' व्यक्तित्व-बोध ' या 'मैं ' -पन का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है, तब समाधी में ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त होता है। तब सत-असत, वास्तव-भ्रम आदि सम्बन्धी सब प्रश्नों का सदा के लिये विराम हो जाता है। 
२७ समाधि तथा ब्रह्मज्ञान
98.९१७ . यथार्थ ज्ञान होने पर अहंकार नहीं रहता। समाधि हुए बिना ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता। भरे दोपहर के समय सूरज ठीक माथे के उपर रहता है। उस समय मनुष्य अपने चारों ओर देखता है, पर उसे अपनी छाया नहीं दिखाई देती। वैसे ही यथार्थ ज्ञान होने पर, समाधि होने पर अहंकार रूपी छाया नहीं रहती। यदि ठीक-ठीक ज्ञान होने के पश्चात भी किसी में 'अहं' दिखाई पड़े तो ऐसा जानना कि वह ' विद्या का अहं ' है, 'अविद्या का अहं नहीं। 
99.९१८ . बुद्धदेव नास्तिक थे या नहीं ? " वे नास्तिक नहीं थे; वे अपनी उपलब्धियों के विषय में मुँह से कुछ कह नहीं सके। ' बुद्ध ' माने क्या है जानते हो ? -' बोध ' स्वरूप का चिन्तन करते हुए वही बन जाना-ज्ञानस्वरूप बन जाना। जिस अवस्था में ' स्वरूप का ज्ञान ' - होता है, वह 'अस्ति' तथा 'नास्ति ' के बीच की अवस्था है। [ जो क्षण बीत  गया, और जो क्षण आने वाला है -उसके क्रम के बीच की अवस्था। ] अस्ति तथा नास्ति प्रकृति (देश-काल-निमित्त) के गुण-धर्म हैं। यथार्थ सत्य 'अस्ति' 'नास्ति ' के परे है। "
100.८४९-५०-५२ . समाधि अवस्था में उपलब्ध ब्रह्म मानो दूध है, साकार (ठाकुर)-निराकार (सच्चिदानन्द) ईश्वर मानो माखन हैं ! और चौबीस तत्वों से बना जगत मानो छाछ (मट्ठा) है। जब तक तुम माया के राज्य में हो, (जब तक 'मैं '-बोध बना हुआ है) तब तक तुम्हें माखन (ठाकुर-सच्चिदान्द) और छाछ - ईश्वर और जगत, नित्य और लीला -दोनों को स्वीकार करना ही होगा। ईश्वर का साकार रूप (ठाकुर देव) भी कम सत्य नहीं, देह, मन या बाह्य जगत की अपेक्षा वे अनन्त-गुना अधिक सत्य हैं ! कारण, जब तक समाधि न प्राप्त हो, तब तक तुम्हारी अद्वैत की धारणा भी द्वैतामत्क ही रहती है। तुम उसका निरपेक्ष वर्णन नहीं कर सकते, उसमें तुम्हारे स्वयं के व्यक्तित्व का रंग चढ़ ही जाता है। जब तक ' अहं ' है, तब तक साकार ईश्वर (ठाकुर) भी सत्य हैं, और जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है।
२८ ईश्वर- माया- शक्ति
102.८५८ . जहाँ कहीं कार्य है - सृष्टि, स्थिति, प्रलय है - वहीँ शक्ति है। परन्तु जल स्थिर रहने पर भी जल है, और तरंग-पूर्ण होने पर भी जल ही है। वह सच्चिदानन्द ही आद्द्या-शक्ति हैं-जो सृष्टि, स्थिति, प्रलय किया करती हैं। 
103.८६१ . मेरी ब्रह्ममयी माँ ही सब कुछ बनी है। वह आद्या-शक्ति ही जीव-जगत बनी है। मेरी माँ ही वेदान्त का ब्रह्म है। वह तो ब्रह्म का व्यक्त रूप है। 
104.८६५ . अनुलोम और विलोम। 'नेति नेति ' करते हुए समाधि में पहुंचकर तुम्हारा ' अहं ' ब्रह्म में विलीन हो जाता है। फिर जब तुम समाधि से उतर कर नीचे आते हो, तब तुम्हें दिखाई देता है कि ब्रह्म ही तुम्हारे 'अहं ' के रूप में तथा सारे जगत के रूप में व्यक्त हो रहा है। 
105.८६६ . जिसका नित्य (स्वरुप) है, उसी की लीला भी है। फिर जो नित्य (अवस्था) में है, वही लीला में भी है। साधक लीला में से होते हुए नित्य में पहुँचता है; फिर नित्य में से उतर कर लीला में आता है। तब उसे लीला मिथ्या नहीं प्रतीत होती, वह नित्य की ही अभिव्यति प्रतीत होती है। 
106.८६८ . मैं सभी को स्वीकार करता हूँ। तुरीय और जाग्रत, स्वप्न-सुषुप्ति सभी अवस्थाओं को ग्रहण करता हूँ। फिर ब्रह्म और माया, जीव -जगत, सब कुछ ग्रहण करता हूँ। जिस प्रकार एक ही फल से छिलका, गूदा और बीज आते हैं, उसी प्रकार जीव, जगत, जड़, चेतन सभी पदार्थ एक ही ईश्वर से आते हैं। सब का ग्रहण न करने से वजन में कुछ कमी रह जाती है। इसीलिये मैं नित्य और लीला दोनों को लेता हूँ। 
107.८६९ . प्रश्न- यदि ईश्वर ही सबकुछ बनें हैं, तो फिर जगत में इतनी विविधता, 'अहं' का इतना तारतम्य क्यों है ? 
उत्तर - यह उनका खेल है-उनकी लीला है ! एक राजा के चार बेटे हैं; हैं तो वे राजा के बेटे, पर खेल में कोई मन्त्री बना है, तो कोई कोतवाल, कोई और कुछ बना है। राजा का बेटा होकर ' कोतवाल कोतवाल UBS ' खेल रहा है।
 २९ साकार और निराकार 
 108.८७६ . साकार रूप में ईश्वर के दर्शन किये जा सकते हैं, उनका स्पर्श किया जा सकता है; जैसे मित्र के साथ बातचीत की जाती है वैसे ही उनके साथ प्रत्यक्ष सम्भाषण किया जा सकता है। 
109.८७८ . ईश्वर नित्य भी है और लीलामय विश्वपिता भी। अखण्ड सच्चिदानन्द ब्रह्म की धारणा नहीं की जा सकती है। वह मानो अनन्त, असीम समुद्र की तरह है, उसमें पड़ कर मनुष्य मानो  किनारा न डूबने लगता है।( ' जैसे उड़ी जहाज को पंछी पुनि जहाज पै आवै')- परन्तु साकार लीलामय ईश्वर (ठाकुर देव) को पाकर उसे मानो किनारा मिल जाता है। 
110.८८० . भक्त के सम्मुख ईश्वर नाना रूपों में प्रकट होता है। परन्तु ज्ञानी को समाधि में निर्गुण, निराकार, निरुपाधिक ब्रह्म का ज्ञान होता है। ज्ञान और भक्ति में यही अन्तर है। 
111.८८१ . जिस प्रकार पानी ही जमकर बर्फ बन जाता है, उसी प्रकार निराकार, अखण्ड, सच्चिदानन्द ब्रह्म ही भक्त की भक्ति से साकार रूप धारण करता है। जैसे बर्फ पानी से ही पैदा होती है, पानी में ही रहती है, और पानी में ही मिल जाती है, वैसे ही ईश्वर का साकार रूप भी निराकार ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, उसी में अवस्थित रहता है तथा उसी में विलीन हो जाता है। 
112.८८४ . सच्चिदानन्द कैसे हैं ? कोई नहीं बता सकता।  इसीलिये पहले वे अर्धनारीश्वर बने। जानते हो, उन्होंने ऐसा क्यों किया ? - यह दिखलाने के लिये कि वे स्वयं ही प्रकृति, पुरुष दोनों हैं। फिर एक सीढ़ी नीचे उतर आकर वे अलग-अलग पुरुष (M) और प्रकृति (F) बने। 
113.८८७ . कालीमाता को योगमाया क्यों कहते हैं ? योगमाया= पुरुष और प्रकृति का योग। तुम जो कुछ देख रहे हो, वह सभी कुछ पुरुष-प्रकृति का योग है। देखा नहीं, शिव-काली की मूर्ति में शिव के उपर काली खड़ी हुई है। शिव शव जैसे पड़े हैं; काली शिव की ओर देख रही है। पुरुष निष्क्रिय है, इसीलिये शिव शव जैसे पड़े हैं। पुरुष के साथ युक्त होकर प्रकृति सृष्टि-स्थिति-प्रलय आदि सभी कार्य कर रही है। राधा-कृष्ण की युगल-मूर्ति का भी यही अर्थ है। 
114.८८८ . ईश्वर की ओर तुम जितना ही अधिक अग्रसर होओगे, उतना ही उनके ऐश्वर्य का भान कम होता जायेगा। साधक को पहले दशभुजा-धारिणी दुर्गा के रूप के दर्शन होते हैं। उस रूप में ऐश्वर्य का अधिक प्रकाश है। फिर दर्शन होते हैं, द्विभुज रूप के -तब दस भुजाएँ नहीं रहतीं, उतने अस्त्र-शस्त्र नहीं रहते। फिर गोपाल रूप के दर्शन होते हैं - कोई ऐश्वर्य नहीं, केवल एक बालक का रूप है। इसके बाद भी दर्शन होते हैं -केवल ज्योति के दर्शन!
३० ईश्वर की सर्वव्यापकता
115.८९१ . ईश्वर कहते हैं, " मैं साँप बन कर काटता हूँ, और मैं ही ओझा बनकर झाड़ता हूँ, मैं हाकिम बन कर हुक्म देता हूँ, और मैं ही प्यादा बनकर मरता हूँ। " 
116.८९४ . ईश्वर इस देह में किस प्रकार रहते हैं ? जिस प्रकार पिचकारी की छड़ पिचकारी में अछूती रहती है, उसी प्रकार ईश्वर (या आत्मा) भी देह में निर्लिप्त होकर रहते हैं। 
117.८९६ . जिसमें यथार्थ विश्वास है कि ' ईश्वर ही कर्ता हैं, मैं अकर्ता, यन्त्र-स्वरुप हूँ ' उसके द्वारा कभी पाप कर्म नहीं हो सकता। जो ठीक नाचना जानता है, उसके पैर कभी बेताल नहीं पड़ते। चित्त शुद्ध हुए बिना तो ' ईश्वर है ' इसी पर विश्वास नहीं होता। 
118.८९७ . क्या स्व-विवेक की सहायता से चाहें तो अच्छे काम कर सकते हैं, और चाहें तो बुरे काम भी- क्या यह free will की बात सच है ? श्रीरामकृष्ण - सब कुछ ईश्वराधीन है ! सब उन्हीं की लीला है। देखो न, बगीचे में सभी पेड़ समान नहीं होते। सज्जन, दुर्जन -सब उनकी माया है, उनका खेल है। " जब तक ईश्वर का लाभ नहीं होता, तब तक लगता है कि हम स्वाधीन हैं। "
119.९१९ . ज्ञान अज्ञान दोनों के पार हो जाओ, तभी उन्हें जान पाओगे। नानात्व का ज्ञान ही अज्ञान है। पाण्डित्य का अहंकार भी अज्ञान-जन्य ही है। एक ईश्वर सर्वभूतों में विराजमान हैं -इस निश्चयात्मक बुद्धि का नाम ज्ञान है। उन्हें विशेष रूप से जानना विज्ञान है। 
 ३१ समाधि के पश्चात होने वाला विज्ञान 
120.९२६ . ' नेति नेति ' विचार करते हुए समाधि-अवस्था प्राप्त होने पर आत्म-स्वरुप की उपलब्धि होती है। विज्ञान यानी विशेष रूप से (direct perception) जानना। किसी ने दूध के बारे में सुना भर है, किसी ने दूध देखा है, और किसी ने दूध पीया है। जिसने केवल सुना ही है वह अज्ञानी है, जिसने देखा है वह ज्ञानी है, जिसने पीया है, उसे विज्ञान अर्थात विशेष रूप से ज्ञान हुआ है। ईश्वर के दर्शन प्राप्त करने के पश्चात उनके साथ परम आत्मीय की तरह वार्तालाप आदि होना -इसी का नाम विज्ञान है।...विज्ञानलाभ होने बाद संसार में भी रहा जा सकता है। उस समय स्पष्ट अनुभव होता है कि ईश्वर ही जीव-जगत बने हैं, वे संसार से अलग नहीं हैं। ज्ञानलाभ करने के पश्चात जब रामचन्द्र ने कहा कि वे संसार में नहीं रहेंगे, तब दशरथ ने उन्हें समझाने के लिये वशिष्ठ को उनके पास भेज दिया। वशिष्ठ ने कहा, ' राम ! यदि संसार ईश्वर से रहित हो, तो तुम उसका त्याग कर सकते हो। ' रामचन्द्र चुप्पी साधे रहे, क्योंकि वे भली-भाँति जानते थे कि ईश्वर को छोड़कर कुछ भी नहीं है।
121.९३० . एक बार श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ से पूछा - ' तेरे जीवन का ध्येय क्या है ? " नरेन्द्रनाथ ने कहा-
" सदा समाधि में मग्न रहना। " सुनकर श्रीरामकृष्ण  बोले, " छी, छी ! तेरा इतना उच्च आधार है और तेरे मुंह से ऐसी बात ! मैंने तो सोचा था कि तू एक विशाल वटवृक्ष के समान होगा, तेरी छाया में हजारों लोगों को आश्रय मिलेगा; परन्तु वैसा न होकर तू केवल अपनी मुक्ति चाहता है ! यह तो बहुत ही तुच्छ बात है ! मुझे तो सभी भाव अच्छे लगते हैं। मैं एक ही सब्जी को कभी उबालकर, कभी तल कर, कभी उसकी चटनी बनाकर तो कभी रसेदार तरकारी बनाकर खाना पसन्द करता हूँ। मैं समाधि में निर्गुण भाव से ईश्वर का अनुभव ग्रहण करता हूँ, फिर उनके विभिन्न रूपों के साथ विभिन्न भाव-सम्बन्ध स्थापित कर आनन्द का उपभोग करता हूँ। तू भी ऐसा ही करना। [सर्वोच्च कृपा ] तू एक ही आधार में ज्ञानी और भक्त दोनों बन। " 
122.९३१ . लोग नहीं समझते कि विज्ञान केवल इन्द्रियग्राह्य वस्तुओं के ही बारे में ज्ञान प्रदान करता है, इन्द्रियातीत राज्य की कोई खबर वह नहीं देता। प्राचीन ऋषियों ने ईश्वर का साक्षात्कार किया था। 
123.९२१ . जीव के मरे बिना शिव प्रकट नहीं होता, अर्थात जीवत्व के नष्ट हुए बिना शिवत्व प्राप्त नहीं होता। फिर, शिव के भी शव बने बिना - माँ आनन्दमयी उसके ' वक्षःस्थल ' पर नृत्य नहीं करती। अर्थात इस ' शिवत्व-अभिमान ' का भी अतिक्रमण करने के बाद ही सर्वोच्च आनन्द की अवस्था प्राप्त होती है।
124.९२३ . अहंकार के दूर होते ही, जीवत्व का नाश हो जाता है। इस समाधि की अवस्था में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। जीव नहीं, ब्रह्म ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। [' आत्म-बोध तुमको नहीं आत्मा को हुआ था।? ]
३२ सिद्धि-प्राप्ति के कुछ लक्षण
125.९५० . ईश्वर के दर्शन होने पर देहात्मबुद्धि चली जाती है, तब देह और आत्मा अलग-अलग है, यह अनुभव हो जाता है। 
126.९५४ . साँप को पकड़ने जाओ तो तुरन्त काट खाता है, पर कोई अगर उसका मन्त्र जान ले तो कई साँपों को अपने गले में लपेट कर खेल दिखा सकता है। उसी प्रकार, ज्ञानलाभ कर लेने के पश्चात मनुष्य पर कामिनी-कांचन का परिणाम नहीं होता। 
127.९५८ . दूध को पानी में छोड़ दो तो वह पानी के साथ मिलकर एक हो जाता है, परन्तु उसका मक्खन बना लिया जाये तो फिर वह पानी में नहीं मिलता, तब वह पानी पर तैरने लगता है। इसी तरह, ईश्वर लाभ कर लेने के पश्चात मनुष्य हजारों संसारासक्त बद्ध जीवों के बीच रहकर भी स्वयं बद्ध नहीं होता। फिर भी संसार के सामने आदर्श रखने के लिये उसे कामिनी से सावधानी बरतनी चाहिये। 
128.९७१ . ईश्वर को जानकर संसार में रहने से अपनी ब्याहता पत्नी के साथ प्रायः सांसारिक सम्बन्ध नहीं रहता। दोनों भक्त बन जाते हैं, और सदा ईश्वर-सम्बन्धी वार्तालाप करते हैं, ईश्वरीय प्रसंग में ही मग्न रहते हैं। वे दोनों भक्तों की सेवा करते हैं। सर्वभूतों में ईश्वर विद्यमान हैं, वे उन्हीं के सेवा करते हैं। 
३३ यथार्थ शिक्षा और धर्म
129.९७२ . मैं दाल-रोटी प्राप्त करने वाली विद्या नहीं सीखना  चाहता; मैं ऐसी विद्या सीखना चाहता हूँ, जिसे ज्ञान का उदय होकर मनुष्य वास्तव में कृतार्थ हो जाता है। 
130.९८२ . मैंने हिन्दू, इस्लाम, ईसाई आदि विभिन्न धर्मों की साधना की है, मैंने देख लिया है कि विभिन्न मार्गों से होते हुए सभी उस एक ही ईश्वर की ओर अग्रसर हो रहे हैं। 
३४ श्रीरामकृष्ण का अखण्ड भगवदभाव
131.९८७ . ' ॐ तत् सत् ' मन्त्र में से केवल 'तत् ' का उच्चारण करते ही श्रीरामकृष्ण उच्च निर्विकल्प समाधि की अवस्था में पहुँच जाते थे। 'सत् ' कहने पर उसके सापेक्ष 'असत् ' की भी सुप्त चेतना कहीं रह सकती है, तथा परम पवित्र ' ॐ ' में भी कुछ न्यूनता रह सकती है; किन्तु 'तत्  ' का उच्चारण करते ही उनकी चेतना से सापेक्षता की सभी कल्पनाएँ सम्पूर्ण रूप से विलुप्त हो जातीं, सत् और असत् के बीच के सभी भेद विलीन हो जाते, तथा वे उस सर्वातीत, निरपेक्ष एकत्व की अनुभूति में निमग्न हो जाया करते। 
132.९९७ .एक बार मुझे दर्शन हुआ था -देखा सारा ब्रह्माण्ड और सभी जीव -जन्तु आदि एक ही पदार्थ से बने हुए हैं; मानो मोम का बना घर हो, उसमें बगीचा, रास्ते, आदमी, जानवर सब कुछ एक ही मोम से बने हों। 
३५ भला और बुरा सब में भगवान हैं
133.१००० . माँ ने मुझे समझा दिया -'वेश्या भी मैं ही हूँ; मेरे सिवा कुछ नहीं है। ' snr dns,pda 'और एक दिन गाड़ी में बैठकर मछुआ-बाजार की सडक पर से जाते देखा - माँ सज-धज कर, जूड़ा बाँधे, बिन्दी लगाये बरामदे में खड़ी-खड़ी हुक्के में तमाखू पी रही है और मोहिनी बनकर लोगों का मन मोह रही है। देखकर मैंने विस्मित होकर ' माँ, तू यहाँ इस रूप में है ' कहकर प्रणाम किया। 
134.१००१ . चैतन्य के जागृत होने पर ही चैतन्यस्वरूप को जाना जा सकता है। बहुत दिन हुए, वैष्णवचरण ने कहा था, जब मनुष्य के भीतर ईश्वर के दर्शन होंगे, तभी पूर्ण ज्ञान होगा। अब देख रहा हूँ कि वे ही भिन्न-भिन्न रूपों में घूम रहे हैं। कभी साधू के रूप में, कभी ठग के रूप में, तो कभी शठ के रूप में। इसीलिये मैं कहता हूँ,' साधू-रूपी नारायण, ठग-रूपी नारायण, शठ-रूपी नारायण, लुच्चा -रूपी नारायण '। अब चिन्ता होती है सब को खिलाया कैसे जाय ! 
 ३६ श्रीरामकृष्ण की व्याधि 
135.१००७ . देह को रोग होने पर ऐसा लगता है कि मुझी को रोग हुआ है। गरम पानी से हाथ जल जाने पर लोग कहते हैं, पानी से हाथ जल गया। किन्तु वास्तव में हाथ ताप से जला पानी से नहीं। व्याधि, पीड़ा -सब देह को हुआ है, आत्मा इन सब के अतीत है। माँ ने मुझे यह व्याधि इसलिये दी है कि लोग देखकर सीख सकें, कि देह में तीव्र पीड़ा के होते हुए भी किस प्रकार आत्मचिन्तन में, भगवद-भाव में मग्न रहा जा सकता है। ...ऐसे समय में भी माँ मुझे यही दिखा रही है कि आत्मा ही देह का स्वामी है। 
 ३७ श्रीरामकृष्ण का देवमानव भाव 
138.१०१० . अब मैं देख रहा हूँ, माँ और मैं दोनों एक बन गये हैं। ननद के डर से राधा ने कृष्ण से कहा-' तुम मेरे ह्रदय में  रहो; बाहर न आओ। ' फिर वह कृष्ण का दर्शन करने के लिये व्याकुल हो गयी, इतनी व्याकुल कि ह्रदय में तीव्र यातना होने लगी। परन्तु अब कृष्ण किसी दशा में बाहर आने का नाम ही न लेते थे। 
139.१०१२ . प्रसिद्द पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि की बातें सुन रहा था; इतने में देखा, माँ मानो उसके भीतर का सब कुछ दिखा दे रही है। - शास्त्र-वास्त्र बहुत पढ़ लेने से क्या होगा ? विवेक-वैराग्य न हो तो सब निरर्थक है ! 
140.१०१५ . एक गुप्त बात बतलाता हूँ, सुनो। मुझे एक दिव्य दर्शन हुआ। देखा - इस आवरण (देह) के भीतर से सच्चिदानन्द बाहर निकल आये और बोले - " मैं ही युग युग में अवतार लेता हूँ ! " उस समय मैंने सोचा कि शायद मैं स्वयं ही अपने ख्यालों में ये सब बातें कह रहा हूँ। फिर चुपचाप देखने लगा, तब देखा वे ही और भी कह रहे हैं, ' चैतन्य ने भी शक्ति की आराधना की थी '।