Wednesday, January 23, 2013

$$$" मन ही सब कुछ है !' (মনই সব) [ "या मतिः सगातिर्भवेत - भ्रमर-कीट न्याय " ] अष्टम अध्याय : Chapter 8. " मनुष्य का मन ", स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [66- 51 A]

'मन ही सबकुछ है'
 
(মনই সব)

सब कुछ मन पर ही निर्भर है। सभी ज्ञानी कह गये हैं, कि जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसने सम्पूर्ण जगत को ही जीत लिया है।  मन मनुष्य का मित्र भी हो सकता है, और शत्रु भी हो सकता है। जो व्यक्ति अपने अतिचंचल मन को भी जीत लेता है, मन को वशीभूत कर लेता है, अपने मन का स्वामी (प्रभु) बन जाता है, मन उसका मित्र बन जाता है; किन्तु जो व्यक्ति मन का  गुलाम है, मन उसके साथ शत्रुता कर सकता है। स्वामीजी कहते थे-" You become what you think ! " या मतिः सगातिर्भवेत " -जिसकी जैसी 'मति' (मनोवृत्ति, प्रवृत्ति, मनोभाव या इच्छा) उसकी  वैसी गति होती है। (सभी वैदिक ग्रंथों में उल्लेख है कि हमारे मनोभावों (मनोवृत्ति,प्रवृत्ति,या इच्छा) के अनुसार ही हमारी चेतना का स्तर निर्धारित होता है।) अष्टावक्र संहिता में कहा गया है -

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
 
किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥१-११॥

स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी मति (जिस प्रकार की इच्छा) होती है वैसी ही गति होती है ।।११।। 
[महोपनिषद ४.११४ के अनुसार केवल अपनी आत्मा के अवलोकन की इच्छा ही मोह का क्षय करने वाली है,जबकि इच्छा मात्र अविद्या है, जिसका नाश करना ही मोक्ष को प्राप्त होना है। ]
माँ सारदा कहती थीं न, " मने बद्ध, मनेई मुक्त। "- इसका तात्पर्य यह है कि बंधन या मुक्ति मनुष्य के मन में उठने वाली इच्छाओं पर (श्रेय-प्रेय निर्णय विवेक पर) निर्भर करती है, बाह्य परिस्थितियों पर नहीं। 'ब्रह्मबिंदु-उपनिषद' में कहा गया है -
 " मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।" 
अर्थात मनुष्यों की संसार-बद्ध दशा या मोक्ष या मुक्ति का कारण उसका मन ही है। गीता (6/5) में कहा गया है-आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: " #- तुम स्वयं ही अपने बन्धु तथा स्वयं ही अपने शत्रु हो। आत्मा या मन के अतिरिक्त अन्य कोई शत्रु नहीं है। (स्वामी विवेकानन्द कहते थे यही गीता का अन्तिम और श्रेष्ठ उपदेश है।) मनुष्य का शांत और संयमित मन सच्चे मित्र के जैसा हमेशा उसका हित करता है। जबकि आसक्त मन (ईश्वर की पादपद्मों के बजाय संसार में या कामिनी-कांचन में आसक्त मन) मनुष्य का शत्रु बनकर उसके बंधन का कारण होता है, दुःखदायक हो जाता है। इसीलिये भगवान ने उपदेश दिया कि- 'उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्' -विवेकयुक्त-मति (श्रेय-प्रेय इच्छा) की सहायता से मनुष्य अपना उद्धार करे, और (आत्मावलोकन की दृढ़ इच्छा से) कभी अपने मन को अवसादग्रस्त या अधोगामी न होने देगा। 
पातंजल योगसूत्र 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१. १२॥' के भाष्य में व्यासदेव ने  सूत्र की व्याख्या करते हुए मन को (तीव्र इच्छा चित्त की वृत्ति को) निरुद्ध करने के उपाय का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया है - 'अथासां निरोधे क उपाय इति ।' [- (अथ) अब , (आसाम्)  इन ( मानसिक वृत्तियों -मन में उठने वाली अधोगामी इच्छाओं) को निरुद्ध करने का उपाय (कः) क्या है?

चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय वहति पापय च ।
 या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा ।
 संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः 
खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत 
 इत्युभयाघीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१२॥ #

मन नदी के प्रवाह की मानो दो मुख्य धारायें हैं। एक धारा 'ब्रह्माभिमुखी' है, जो मनुष्य को भलाई या कल्याण की ओर ले जाती है। और दूसरी धारा बुराई या पाप की ओर ले जाती है। जो धारा कैवल्य या परम कल्याण (Final Liberation -ईश्वर के साथ एकत्व) की ओर ले जाती है उस धारा की तली विवेक के पक्के फर्श से जुड़ी हुई होती है। और जो प्रवाह संसार से आसक्ति, की ओर बंधन की ओर ले जाता है उसकी तली अविवेक से भरी हुई होती है। इसीलिये 
वैराग्य या आसक्ति-त्यागरूपी बाँध के फाटक से उस अधोमुखी प्रवाह को बन्द कर देना आवश्यक है। एवं सदैव जागृत विवेक-दृष्टि की सहायता से मन के 'ब्रह्माभिमुखी' या कल्याण-मुखी  स्रोत को निरन्तर प्रवाहित रखना युक्तिपूर्ण है। ऐसा होने से ही मन की अनिष्टकारी प्रवृत्ति  संयत हो जाती है।
श्रीरामकृष्ण कहते थे, "मन पर ही सब कुछ निर्भर है । मन धोबी के यहाँ का धुला हुआ कपड़ा जैसा है; जिस रंग में रँगवाओगे उसी रंग का हो जायगा । मन से ही ज्ञानी (चित्त में उठने वाली इच्छा या a desire that arises in the mind ) और मन से ही अज्ञानी है । जब तुम कहते हो कि अमुक आदमी खराब हो गया है, तो अर्थ यही है कि उस आदमी के मन (मती,बुद्धि या इच्छा) में खराब रंग आ गया है ।"
[पृष्ठ 1184, श्रीरामकृष्ण वचनामृत (सम्पूर्ण), परिशिष्ट (क) : परिच्छेद -2, सुरेन्द्र के मकान पर श्रीरामकृष्ण।1881ई.आषाढ़ महीना । Blog date:  January 23, 2025/]    
 महाभारत [विदुर नीति- उद्योगपर्व] में कहा गया है -मन,वचन, कर्म से जिस प्रकार के कार्यों में सदैव व्यस्त रहोगे, उसी कार्य में लगे रहने की इच्छा तुम्हारे मन का हरण कर लेगी, अर्थात तुम्हें प्रभावित करेगी। इसलिये जो कल्याणकारी कार्य (प्राथना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-पर्योग आदि) हैं, उसी के साथ युक्त रहना उचित है। मन को (यानि उसमें उठने वाली बुरी इच्छाओं को) अपना सबसे बड़ा शत्रु समझकर, सबसे पहले उसको अपने वश में करो, उसके बाद ही दूसरे शत्रु या मित्रों को अपने वश में लाने का प्रयत्न करना अच्छा होगा। अपने मन को वश में लाये बिना, दूसरों को वश में लाने की चेष्टा करने से, तुम स्वयं शक्तिहीन या निर्बल हो जाओगे 
    कामना-वासना की पूर्ति करने में ही समस्त शक्ति को खर्च कर देने से मन को वश में नहीं लाया जा सकता है। सबसे पहले त्याग का भाव (ऐषणाओं के प्रति अनासक्ति का भाव) रहना चाहिए। फिर निरन्तर अभ्यास करते रहने से मन नियंत्रित, वशीभूत और शांत हो जाता है। ( प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करते करते ध्यान-समाधि हो जाने पर  मन नियंत्रित, वशीभूत और शांत हो जाता है।) मन के शांत और स्थिर हो जाने के बाद यह चिंतन करना चाहिए -कि जीवन क्या है, जीवन सार्थक कैसे होता है, अर्थात जीवन का लक्ष्य क्या है ? किस प्रकार का जीवन यापन करने से जीवन सार्थक हो सकता है -अथवा पूर्णत्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? 
मन की गति किस ओर है, बहुत धैर्य के साथ उसका पर्यवेक्षण करना पड़ता है। ( अर्थात मन में उठने वाली इच्छाओं की गति इष्टदेव के पदपद्मों की ओर, या आत्मावलोकन की ओर है या इद्रियभोगों की ओर है ?) मन का साक्षी बनकर मन को देखने का अभ्यास करते करते, ऐसा स्पष्ट दिखना चाहिये कि -" यह मन है, और यह मैं हूँ !" इस प्रकार मन को दृश्य बनाकर उसका द्रष्टा बन जाने से मन बिना किसी संकोच के अपना असली चेहरा मुझे दिखा देगा। हो सकता है, मैं यह देखूं कि मन में अच्छे विचार भी हैं, कुछ बुरे विचार भी हैं। फिर मन के द्वारा ही यह विवेक-विचार करना होगा, कि यदि मैं मन में उठने वाले अच्छे विचारों (अच्छी इच्छाओं) को पुष्ट करूँगा, तो उसका फल कैसा होगा ? और यदि बुरे विचारों को पुष्ट करूँगा तो उसका परिणाम कैसा होगा? कुछ मनोभाव ऐसे भी हो सकते हैं, जिनको पहचाना नहीं जा सके कि वे अच्छे हैं, या बुरे हैं? मान लो ऐसा लगे कि, इसमें बुराई क्या है ? ठीक तो है! अब यह देखना होगा कि जो इच्छा अभी अच्छी लग रही है, उस इच्छा को पूर्ण कर लेने पर उसका परिणाम शीघ्र क्या होगा, और बाद में क्या होगा ? तीन प्रकार के परिणाम हो सकते हैं। पहले पहल तो सुखकर, बाद में हानिकारक या बहुत बुरा परिणाम दे सकता है। या जो पहले भी खराब और बाद में भी खराब फल देता है। या ऐसा भी हो सकता है, कि पहले पहल स्वादिष्ट नहीं लगता किन्तु उसका फल बाद में बहुत अच्छा मिलता है। जिस इच्छा (संकल्प) को पूरी करने से परिणाम अन्त में शुभ होता है, वैसे ही मनोभावों (प्रवृत्ति, इच्छा) को पुष्ट करने (बारम्बार दोहराने) की आवश्यकता है। इसी उचित-अनुचित,  शाश्वत -नश्वर, श्रेय-प्रेय इच्छा में निर्णय करने की क्षमता को विवेक कहा जाता है। मन के भीतर पहले इच्छा का जन्म होता है, फिर उस इच्छा को पूर्ण करने का संकल्प (दृढ़ इच्छाशक्ति) मन में उठता है। फिर उस संकल्प को हमलोग प्रयत्न के द्वारा कार्य में रूपांतरित कर लेते हैं। इसलिये मन में उठने वाले विचारों एवं इच्छाओं को- मनोभावों को बहुत सावधानी के साथ विवेक-प्रयोग करके केवल उन्हीं इच्छाओं को प्रश्रय देना उचित होगा जो आपात मधुर (मिथ्या-Apparent) फल देने वाले न हो, क्योंकि उसका परिणाम बाद में बुरा भी हो सकता है। [हमारे शास्त्रों में इच्छा को शक्ति या देवी का रूप माना गया है। महोपनिषद ४.११४ के अनुसार अपनी आत्मा के अवलोकन की इच्छा मोह का क्षय करने वाली है,जबकि इच्छा मात्र अविद्या है, जिसका नाश करना ही मोक्ष को प्राप्त होना है। इच्छा, ज्ञान आदि के संदर्भ में कोशों में न्याय सिद्धान्त से यह श्लोक प्रायः उद्धृत किया जाता है, " आत्मजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः। कृतिजन्या भवेच्चेष्टा चेष्टाजन्या भवेत् क्रिया॥"
      यदि हम शांत मन से इसी विषय पर चिंतन करें कि " जीवन क्या है, जीवन सार्थक कैसे हो सकता है, या पूर्णत्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? तो हम यही देखेंगे कि इन्द्रिय-भोगों में आसक्त रहने से जीवन सार्थक नहीं होता! दूसरों का हित करने, सहानुभूति रखने, अपने -पराये का भेद छोड़कर सभी से प्रेम करने में ही सच्चा आनन्द है- जो जीवन को सार्थक बना सकता है। किन्तु जीवन को सार्थक करने में सबसे बड़ी बाधा खड़ी कर देता है हमारा स्वार्थ, मुझे किस इच्छा को पूरा करने में अधिक भोग-सुख मिलेगा- इसका अन्वेषण करने लगा हमारा मन। इसीलिए स्वार्थी मनोभाव को,स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को कम करना होगा, दूसरों के कल्याण के विषय में अपने से अधिक ध्यान रखना सीखना होगा। और ये सभी काम केवल मन की सहायता से ही किये जा सकते हैं। अतएव हम समझ सकते हैं कि अपने मन के द्वारा ही अपना सच्चा कल्याण किया जा सकता है, जीवन को सार्थक किया जाता है। इसी बात को गीता में - 'अपने द्वारा अपना उद्धार करना' कहा गया है। 
        जिस प्रकार कामना-वासना का अधिक्य ,अधिक से अधिक भोग करने की इच्छा या स्वार्थपूर्ण इच्छायें जीवन को सार्थक करने के प्रतिकूल हैं, वैसे ही कुछ अन्य प्रकार की इच्छायें भी हैं, जो जीवन को संकुचित कर देते हैं, जीवन को सार्थक नहीं होने देते। जैसे किसी के प्रति ईर्ष्या, घृणा , वैर-भाव, या किसी को चोट पहुँचाने की इच्छा या विचार; जीवन को सार्थक करने की प्रतिकूल मनोभाव हैं, क्योंकि ये सभी प्रेम, सहानुभूति, परोपकार की इच्छा के विपरीत मनोभाव हैं। ऐसा मनोभाव या मनोवृत्ति जीवन के लक्ष्य-(पूर्णत्व प्राप्ति) की दिशा में अग्रसर होने में बाधक, विकास या हृदय का विस्तार होने में प्रतिबन्धक हैं। इसीलिये इन सब नकारात्मक विचारों के लिए मन में कोई जगह नहीं होनी चाहिए, इस प्रकार की बुरी इच्छाओं को मन में उठने ही नहीं देना चाहिएद्रष्टा (साक्षी) भाव से जब हम अपने मन उठने वाली इच्छाओं का (मति या मनोवृत्ति का) विश्लेषण करेंगे, तो देखेंगे कि हमलोग अपनी अपूर्ण इच्छाओं (कामनाओं) को पूर्ण करने के लिये विषय-भोग के नशे में धुत्त (Drunk) रहना चाहते हैं; इसलिए विषय-भोगों में मत्त रहने को ही अपना स्वार्थ समझ लेते हैं।  और जो उस नशे को उतारने की कोशिश करता  है उसके प्रति अपने मन में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि मनोभाव पाल लेते हैं। और ऐसा करके दूसरों की क्षति कर सकें या नहीं, अपना सबसे अधिक नुकसान तो कर ही लेते हैं। क्रोध करने से भी ठीक वही होता है, दूसरों को क्षति पहुँचाने से अधिक नुकसान अपना होता है। इसलिए विवेकवान होकर यदि हमलोग 'सत मति' ('मति'-मनोवृत्ति, अच्छी प्रवृत्ति) बनाये रखें तो हमारे जीवन की स्वाभाविक गति ही हमलोगों को लक्ष्य की दिशा में, जीवन को सार्थक बनाने की दिशा, सच्चे आनन्द की दिशा में ले जाएगी। 
      हमलोगों की भावना जिस प्रकार की होगी, अर्थात जैसे विचारों , इच्छाओं को हम अपने मन में उठने देंगे, जिस वस्तु (आत्मा, ईश्वर या भोग) में हमलोग अपने मन को निरंतर लगाए रखेंगे हमलोगों की सिद्धि (उपलब्धि) भी वैसी ही होगी। कहा भी गया है -"यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी॥" यदि किसी आदर्श (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) के उपर पूरी श्रद्धा रखते हुए हम अपने मन को पुर्णतः नियोजित कर सकें तो उस आदर्श में निहित समस्त भाव हमारे अपने हो जाते हैं। यदि किसी ध्येय वस्तु में मन को पूर्णतः संलग्न रख सकें तो हम 'तदगत' - तदाकाराकारित' हो सकते हैं ! उसीमें विलीन हो सकते हैं, या 'खो' सकते हैं, या उस ध्येय वस्तु के साथ  मिलकर एकाकार  हो सकते हैं। श्रीरामकृष्ण कहते थे न -" सुना नहीं ? भौंरे की चिन्ता करते करते झींगुर भौंरा ही बन जाता है? वह अनुभव कैसा होता है जानते हो ? मानो हण्डी की मछली को गंगा में छोड़ दिया हो।"(सविकल्प समाधि)

[श्रीरामकृष्ण वचनामृत में योग समाधि अनुभव 'तदाकाराकारित' होने  या 'खो जाने' का एक छोटा सा प्रसंग इस प्रकार है :-  अमृत- महाराज ! इस समाधि-अवस्था में भला आपको क्या जान पड़ता है?
श्रीरामकृष्णदेव-  " सुना नहीं ? भौंरे की चिन्ता करते करते झींगुर भौंरा ही बन जाता है? वह अनुभव कैसा होता है जानते हो ? मानो हण्डी की मछली को गंगा में छोड़ दिया हो।"(सविकल्प समाधि)
अमृत - क्या जरा भी अहंकार नहीं रह जाता ?
श्रीरामकृष्ण- हाँ, बहुधा मेरा कुछ अहंकार रह जाता है। सोने के एक टुकड़े को तुम चाहे जितना घिस डालो पर अन्त में एक छोटा सा कण बचा ही रहता है । और, जैसे कोई बड़ी भारी अग्निराशी है, उसकी एक जरा सी चिनगारी हो । बाह्य ज्ञान चला जाता है, परन्तु प्रायः थोड़ा सा अहंकार रह जाता है, शायद वे विलास के लिए रख छोड़ते हैं । ‘मैं’ और ‘तुम’ इन दोनों के रहने ही से स्वाद मिलता है । कभी कभी इस ‘अहं’ को भी वे मिटा देते हैं । इसे ‘जड़ समाधि’ या ‘निर्विकल्प समाधि’ कहते हैं । तब क्या अवस्था होती है, यह कहा नहीं जा सकता ! नमक का पुतला समुद्र नापने गया था । ज्योंही समुद्र में उतरा कि गल गया । ‘तदाकाराकारित’ ! अब लौटकर कौन बतलाये कि समुद्र कितना गहरा है ! (निर्विकल्प समाधि) (29 मार्च 1883 समाधितत्व-सविकल्प और निर्विकल्प-27]" आचार्य शंकर ने भी कहा है-

 भावितं तीव्रवेगेन यद्वस्तु निश्चयात्मना। 

       पुमांस्तद्धि भवेच्छीघ्रं ज्ञेयं भ्रमरकीटवत्।। 

(अपरोक्षानुभूति -१४०)

दृढ विश्वास के साथ तीव्र वेग से मनुष्य जिस वस्तु के बारे चिन्तन करने पर अपने मन को एकाग्र कर लेता है, वह शीघ्र ही उस वस्तु में परिणत हो जाता है,जैसे झींगुर भ्रमर में परिणत हो जाता है।भारत में एक किम्वदंती प्रचलित है कि भौंरा किसी विशेष कीड़े (झींगुर) को पकड कर अपने घर में ले आता है, और उसे बंद करके बहुत पिटाई करता है। फिर दरवाजा बंद करके घर के चारो और गुण-गुण करके चक्कर काटता रहता है। घर में बंद झींगुर डर के मारे तीव्रवेग से भौंरे के बारे में सोचता रहता है, और अंत में स्वयं भौंरा बन जाता है। श्रीमद् भागवत में भी कहा है-

यत्र तत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया,

स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् भयाद् वापि याति तत्तत् स्वरूप ताम्।

व्यक्ति स्नेह, द्वेष एवं भय से प्रेरित होकर अपने समस्त मन को, भावना को, बुद्धि द्वारा जहाँ -जहाँ संलग्न रखता है
 मन वैसा ही आकार धारण कर लेता है। व्यक्ति उसी के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इसलिए मैं अपने मन को किस विषय में नियोजित कर रहा हूँ - इस बात को लेकर बहुत सतर्क रहना चाहिये। हमारी चेष्टा यह होनी चाहिये कि भय और शत्रुता के साथ नहीं, बल्कि शुभ कामना के साथ,उत्साह और नेक इरादों के साथ- अपना कल्याण तथा सभी के कल्याण के प्रति शुभ संकल्प में मन को पूरी तरह नियोजित रखना चाहिए। इसलिए वेदों में प्रार्थना की गयी है -  यस्मान्न ऋते किंच न कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। जिस मन की सहायता के बिना कोई कर्म नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन 'शिव संकल्प' या कल्याणकारी संकल्प वाला हो।  अर्थात हे प्रभु , मेरे मन के सभी संकल्प केवल कल्याणकर हों।
       अपने मन को केवल कल्याणकारी संकल्पों में, शुभ संकल्पों में नियोजित रखने से ही हमलोग जीवन की पूर्णता (अंतर्निहित दिव्यता) को अभिव्यक्त कर सकते हैं, जीवन को सार्थक कर सकते हैं। हमारा जीवन भी कल्याणप्रद हो सकता है, और अपने इस जीवन को सभी देशवासियों का कल्याण करने के लिए ही व्यतीत किया जा सकता है। ऐसा करने से जीवन पर किसी नैराश्य की छाया नहीं पड़ेगी। किसी असफलता के आघात से दुःख नहीं भोगना होगा। कभी हार के दुःख से, या पराजय की ग्लानी से हमारा मन कभी मलीन नहीं होगा। हमारा मन अपने अस्तित्व के साथ एकत्व (Oneness of existence)  के अनुभूति की चमक , निःस्वार्थ प्रेम के सुगंध, अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) की अनुभूति जन्य आनन्द के हिल्लोल से सम्पूर्ण जगत को हर्षित करने में सक्षम हो जायेगा। इसीलिये हमेशा यह याद रखना अच्छा है कि -" या मतिः सगातिर्भवेत !" 
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The Maha Upanishad 4.114 states that the desire to see one's own soul is a powerful force that can destroy attachment to the material world. This is because realizing one's true self, the soul, can lead to a detachment from the ego and its desires. Conversely, mere desire, especially for material possessions or worldly pleasures, is described as ignorance, and the destruction of this ignorance is a key step towards attaining salvation. 
The Upanishad emphasizes the importance of realizing one's true nature, which is often equated with Brahman or Universal Consciousness. This realization, achieved through a focused desire to understand the Self, leads to a transcendence of the ego and its attachments
Attachment is seen as a consequence of ignorance, a lack of understanding of the true nature of reality. This ignorance fuels the cycle of birth and death (samsara). 
The destruction of ignorance, achieved through the realization of the Self, leads to liberation (moksha or salvation). This state is characterized by the cessation of the cycle of rebirth and a merging with the ultimate reality. 
The Upanishad highlights the importance of the soul (Atman) and its connection to the Universal Self. By realizing the soul, one can transcend the limitations of the ego and the material world.
The Upanishads also suggest that even while engaged in worldly actions, one can strive for salvation by purifying the spirit of desire and aligning it with the realization of the Self. ] 

>>इच्छा शक्ति मूलतः हमारे अहंकार और शांत विवेक-युक्त मन में उठने वाली इच्छाओं   का परिणाम है- ये दोनों मिलकर हमें किसी खास कार्य के लिए प्रेरित करते हैं। अर्थात शांत मन से श्रेय-प्रेय इच्छाओं पर विवेक-विचार करने के बाद उसी काम या इच्छा को पूरा  करने के लिए प्रेरित करती है जो हम जानते हैं कि सही है। यह हमारे शांत मन की शक्ति है जो हमें विवेक-प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती है।  यही मन अगर हमेशा अशांत , चंचल और अनियंत्रित बना रहे तो हमें वह करने के लिए मजबूर कर सकता है जो हमारे लिए हानिकारक है। 

जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिये, जिन गुणों की आवश्यकता होती है, उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण गुण है—”दृढ़ इच्छा शक्ति।” (या विवेक-प्रयोग शक्ति) अन्य गुण, जैसे ईमानदारी, साहस, परिश्रम और लगन आदि, दृढ़ इच्छा-शक्ति के अभाव में व्यर्थ हो जाते हैं।

इच्छा-शक्ति के दो शत्रुओं को तुरंत पहचानना आवश्यक है:-इच्छा शक्ति के दो प्रमुख शत्रु हैं- (क) अतीत के बारे में हमारा पछतावा और (ख) भविष्य के प्रति हमारी चिंताएँ

इच्छाशक्ति बढ़ाने का सर्वोत्तम उपाय ठाकुर, माँ ,स्वामीजी के शरण में रहना है - अर्थात श्रीरामकृष्ण देव को अपना 'power of attorney' मुख्तारनामा दे देना। और उनके जीवन और उपदेशों का यथासम्भव अनुसरण करते रहना  !]      

"जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसा ही फल मिलता है। हमारी भावनाएं और श्रद्धा ही हमारे जीवन का मार्ग प्रशस्त करती हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति तीर्थ में जाता है, तो उसे वहां जाने से पहले अपनी भावना और श्रद्धा के अनुसार तैयारी करनी चाहिए।   

मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ । 
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी 

अर्थात तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, दवा तथा गुरू में जिस प्रकार की जिसकी भावना या 'श्रद्धा'  होती है, उसके अनुसार ही उसे सिद्धि प्राप्त होती है।

इच्छाशक्ति हमें क्रियाशक्ति की ओर ले जाती है, और क्रियाशक्ति ज्ञान शक्ति की ओर ले जाती है। सब कुछ चेतना है। हम जैसा सोचना और बोलना चाहते हैं। यह इच्छा शक्ति है। हम आत्मावलोकन (आत्मसाक्षात्कार या बोध प्राप्त) करने के लिए अपने चंचल-मन को शांत और आदर्श या इष्टदेव पर वैराग्य पूर्वक एकाग्र करने का अभ्यास/ प्रयास करते हैं। यह क्रिया शक्ति है। जब अपने आत्मस्वरूप का चिंतन करते हैं (अर्थात इष्टदेव का नाम-जप करते हैं- उनके जीवन और उपदेशों का अनुसरण करते हैं ) यह ज्ञान शक्ति है।
"Iccha shakti leads to kriyashakti, which leads to Jnana shakti.   All is Consciousness. We desire to think and speak. This is Iccha Shakti. We make an effort towards realization. This is Kriya Shakti. We think and know. This is Jñana Shakti." 

पौराणिक साहित्य में इच्छा को शक्ति या देवी का जो रूप दिया गया है, वैदिक साहित्य में उसकी पुनरावृत्ति उपनिषदों के सिवाय अन्यत्र नहीं होती। सीतोपनिषद में इच्छा शक्ति का विभाजन तीन रूपों – योगशक्ति, भोगशक्ति व वीरशक्ति में किया गया है। महोपनिषद ४.११४ के अनुसार अपनी आत्मा के अवलोकन की इच्छा मोह का क्षय करने वाली है, जबकि  इच्छामात्र अविद्या है (कामिनी-कांचन आदि ऐषणाओं में आसक्ति ही अविद्या है) जिसका त्याग करना या अनासक्त हो जाना ही मोक्ष को प्राप्त होना है। इच्छा, ज्ञान आदि के संदर्भ में कोशों में न्याय सिद्धान्त से यह श्लोक प्रायः उद्धृत किया जाता है : " आत्मजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः। कृतिजन्या भवेच्चेष्टा चेष्टाजन्या भवेत् क्रिया॥"  

{या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा । जो प्रवाह 'विवेकविषयनिम्ना' है -  विवेक के क्षेत्र (विषय) की ओर झुका हुआ (निम्ना) है - अर्थात उस 'विवेकज ज्ञान' की ओर झुका हुआ है,  जो व्यक्ति को 'मति' (मन में उठने वाली इच्छा या 'बुद्धि' ) और 'पुरुष' या 'आत्मा' (द्रष्टा या साक्षी) के बीच अंतर  को  समझने की अनुमति देता है -  वह  व्यक्ति को कैवल्य या मोक्ष (Final Liberation) की ले जाता हो, वही प्रवाह भलाई या कल्याण की ओर बहता है।   
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । 
दूसरी ओर, जो धारा 'अविवेक-विषय निम्ना' है अर्थात अविवेकी मति (इच्छा या बुद्धि) और पुरुष (साक्षी  आत्मा) के बीच विद्यमान अंतर को समझने में असमर्थ  विषय (भोगों) की ओर झुका हुआ (निम्ना) है - जो अविवेकी प्रवाह संसार-प्राग्भार (कामिनी-कांचन में आसक्ति) की ओर ले जाने वाला है, वह प्रवाह बुराई या पाप की ओर बहता है। 
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते '  - (तत्र) उनमें से  जो (बाह्य) विषयों की ओर (कामिनी -कांचन की ओर) जो प्रवाह है, उस बहिर्मुखी प्रवाह को (वैराग्येण-renunciation ) त्याग से (या कामिनी-कांचन के प्रतिअनासक्त हो जाने से) (खिलीक्रियते- powerless) शक्तिहीन किया जाता है। 
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यते।' - इसके परिणामस्वरूप विवेक-दर्शन के चिंतन के अभ्यास से(क्षण और उसके क्रम के बीच मन को एकाग्र करने से ) एक समय में चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है और 'विवेकस्रोत' अर्थात्  विवेकज-ज्ञान का स्रोत (आत्मा,सच्चिदानन्द) उद्घाटित (unlocked) हो जाते हैं।
 "इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। (इति) इस प्रकार, (चित्त-वृत्ति) मन में उठने वाली अविवेकी इच्छाओं दमन  (निरोधः) - वैराग्य (त्याग renunciation या ऐषणाओं से अनासक्ति) तथा विवेक-दर्शन का अभ्यास (या इच्छा में विवेक का अभ्यास - practice of discriminating)  (उभय) दोनों साधनों  पर निर्भर करता (अधीनः)  है। -||12||
 [ एक बार मनः संयोग के क्लास में दादा ने कहा था, शायद 5000 साल पहले व्यासदेव जानते थे कि भविष्य में विवेकननन्द नामक एक सुदर्शन पुरुष आयेंगे और " विवेकदर्शनाभ्यासेन" अर्थात  विवेकानन्द के चित्र के उपर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से हमलोगों की 'विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत' विवेक-दृष्टि उद्घाटित हो जाएगी। तब हमारा मन निम्नगामी और अवसादग्रस्त भी नहीं होगा, उसका प्रवाह 'ब्रह्माभिमुखी' या उत्तरायण बन रहेगा जैसे कि वाराणसी में गंगाजी उत्तरायण बहती है।]

[মা সারদা বলতেন না, "মনে বদ্ধ, মনেই মুক্ত" এর অর্থ হল, মুক্তি বা আবদ্ধতা মনের উপর নির্ভর করে, বাহ্যিক অবস্থার উপর নয়।  श्रीरामकृष्ण परमहंस देव के सभी शिष्यों ने, विशेष रूप से श्री श्रीमाँ सारदा ने यह शिक्षा (उपदेश) ठाकुर देव से सीखा था। श्री श्रीमाँ सारदा ने विशेष रूप से इसी शिक्षा (शी'क्षा) का स्वयं अनुसरण किया था, तथा इसी सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया था। और दूसरों तक पहुँचा भी दिया था।]     

[#जन्माद्यस्य यतः – ब्रह्मसूत्र 1/1/2 और श्रीमगभगवत का मंगलाचरण का प्रथम पद है, जो यह सिद्ध करता है की श्रीमद्भागवत महापुराण भी वेद सम्मत ग्रन्थ ही है । या यूं कहें कि वेदान्त में  ब्रह्म के जिन रहस्यों का  उद्घाटन किया गया है, उन्हीं शुष्क रहस्यों का उद्घाटन श्रीमद्भागवत महापुराण में सरल-सरस रूप में करेगी । 
चिदात्मा शम, शांत, निर्विकार, निर्गुण , निरवयव, और सच्चिदानन्द स्वतरूप है। जीव का मन माया से (M/F) ढका रहने के कारण अपना आत्मस्वरूप* स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं पड़ता। (चिदात्मा का तात्पर्य है चैतन्य स्वरूप परमात्मा, जो सभी प्राणियों में व्याप्त है।
 शुद्ध मन (विषयों से अनासक्त मन) गुरु का काम करता है, मनुष्य को भगवान की ओर ले जाता है। मन के शुद्ध होने पर - श्रीभगवान का दर्शन लाभ होता है। (ऐषणाओं से पूर्णतः अनासक्त होकर विवेकदर्शन का अभ्यास करने से आत्मसाक्षात्कार होता है।) 
 मन को इन्द्रिय-विषयों से खींच कर जब आत्मनिष्ठ किया जायेगा तभी वह स्वरुप में स्थित होगी। योगसूत्र 1/3 में लिखा है- "तदा द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानम्" अर्थात चित्तवृत्तियों (मति, मनोवृत्ति या प्रवृत्ति) के निरुद्ध या शांत हो जाने पर द्रष्टा पुरुष (साक्षी) अपने स्वरुप में अवस्थित रहते हैं। यही अज्ञान के आवरण से जीवात्मा का उद्धार है। दूसरी ओर विषयासक्त मन (तीनो ऐषणाओं में आसक्त मन) जीवात्मा के बन्धन का कारण है और विषय-रहित शुद्ध मन ही उसके मोक्ष का कारण है- 'मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।' 
श्रीरामकृष्णदेव ने कहा है - " मन आसक्ति-रहित होने से ही भगवान का दर्शन होता है। शुद्ध मन से जो वाक्य निकलता है वही उनकी वाणी है। शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि शुद्ध आत्मा के समान है क्योंकि उसके अतिरिक्त और कोई शुद्ध पदार्थ नहीं है। ... उनका दर्शन मिलने पर धर्माधर्म के परे जाया जा सकता है। 
" अन्त में वह मन ही गुरु बनता है और गुरु का काम करता है , किन्तु वह मन शुद्ध, सत्व -गुण से प्रेरित और पवित्र होकर ईश्वर के उच्च शक्ति के प्रकाश के यंत्र स्वरुप होता है। मनुष्य गुरु शिष्य के कान में मंत्र देते हैं , और जगद्गुरु योग्य शिष्य के ह्रदय में मंत्रशक्ति संचारित करते हैं। गुरु इष्ट-देवता (अवतार वरिष्ठ) में लयप्राप्त हो जाते हैं। गुरु, कृष्ण , वैष्णव तीनों एक हैं और एक ही तीन हैं। वासनाओं से मुक्त वशीभूत मन जीव का परम् मित्र है , फिर वासनासक्त मन ही उसका भयंकर शत्रु है।  शुद्ध मन ही जीवात्मा को ब्रह्माभिमुखी करता है, (आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करता है) और संसार-सागर से उसका उद्धार करता है। दूसरी ओर वासनासक्त मन जीव को नरक में गिराता है। (गीता -पेज १७३)]
[आध्यात्मिकता के अभ्यास में 'मति' यानि (ऐषणाओं में आसक्ति,अनासक्ति की प्रवृत्ति या मनोवृत्ति या मनोभाव) ही प्रमुख होती है न कि बाह्य गतिविधियाँ (बाह्य-वेशभूषा) । यदि कोई वृंदावन जैसे तीर्थ स्थान पर रह रहा है किन्तु उसका मन कोलकाता में रसगुल्ला खाने का चिन्तन करता है तब यह माना जाएगा कि वह कोलकाता में ही है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति कोलकाता की भीड़-भाड़ में रहता है किन्तु अपने मन को वृंदावन की दिव्य भूमि में तल्लीन रखता है तब वह वहाँ होने का लाभ पा सकता है।] 

[" या मतिः सगातिर्भवेत "इच्छाशक्ति या 'मति' मनोवृत्ति या प्रवृत्ति को समझने के लिए परिच्छेद ~ 13, (27 अक्टूबर 1882' श्री रामकृष्ण वचनामृत) Blog date :  August 6, 2021' के ५ और ६ अध्याय को को पढ़ना अनिवार्य है।

[( 27 अक्टूबर 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-13 ]

(मन ही सब कुछ है) कर्मयोग,  संसार तथा निष्काम कर्म* 

ब्राह्मभक्त- " महाराज, बिना सब त्याग किए क्या ईश्वर नहीं मिलते ?" 

[Devotee: "Sir, can't we realize God without complete renunciation?"]

श्रीरामकृष्ण (सहास्य)- नहीं जी, तुम लोगों को सब कुछ क्यों त्याग करना होगा? तुम लोग जैसे  हो, बड़े अच्छे हो; क्योंकि तुमलोग मध्यम मार्ग पर चल रहे हो -इधर भी हो और उधर भी, आधा खाँड़ (molasses) और आधा शीरा (गुड़रस)! ('50-50' लोग हँसते हैं) बड़े आनन्द में हो ।नक्स का खेल जानते हो? मैं ज्यादा काटकर जल गया हूँ । तुम लोग बड़े सयाने हो, कोई दस में हो, कोई छः में, कोई पाँच में । मैं ज्यादा नहीं काटा इसलिए मेरी तरह जल नहीं गए । खेल चल रहा है । यह तो अच्छा है । (सब हँसे) 

“सच कहता हूँ, तुम लोग गृहस्थी में हो, इसमें कोई दोष नहीं । पर मन ईश्वर की ओर रखना चाहिए । नहीं तो न होगा । एक हाथ से काम करो और एक हाथ से ईश्वर को पकड़े रहो । काम खतम हो जाने पर दोनों हाथों से ईश्वर को पकड़ लेना ।” 

“सब कुछ मन पर निर्भर है । मन ही से बद्ध है और मनही से मुक्त । मन पर जो रंग चढ़ाओगे उसी से वह रँग जायगा । जैसे रँगरेज के घर के कपड़े, लाल रंग से रँगो तो लाल; हरे से रँगो तो हरे; सब्ज से रँगो, सब्ज; जिस रंग से रँगो वही रंग चढ़ जायगा । 

देखो न, अगर कुछ अंग्रेजी पढ़ लो तो मुँह में अंग्रेजी शब्द आ जाते हैं-फुट्-फट् इट्-मिट् । (सब हँसे) और पैरों में बूट-जूता, सीटी बजाकर गाना-ये सब आ जाते हैं । और पण्डित संस्कृत पढ़े तो श्लोक आवृत्ति करने लगता है । " मन को यदि कुसंग में रखो तो वैसी ही बातचीत, वैसी ही चिन्ता हो जाएगी । यदि भक्तों के साथ रखो तो ईश्वर चिन्तन, भगवतप्रसंग-ये सब होंगे ।” 

“मन (मनोवृत्ति) ही को लेकर सब कुछ है । एक ओर स्त्री है और एक ओर सन्तान । स्त्री को एक मनो-भाव से और सन्तान को दूसरे मनो-भाव से प्यार करता है, किन्तु है एक ही मन ।”

परिच्छेद~ 13,  [( 27 अक्टूबर 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत]  

(६) 

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । 

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ 

 (गीता- 18 /66)  

मामेकं शरणं ब्रज ('मेरी' ही शरण में आओ) : ठाकुर कहते थे बादशाही अमल का सिक्का अंग्रेजी राज में नहीं चलता; उसी तरह आधुनिक युग में -मामेकं शरणं ब्रज का तात्पर्य है अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव, माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द की शरण में आओ ! मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति (सांसारिक ऐषणाओं में आसक्त मनोवृत्ति या प्रवृत्ति) की विरति, या मन को ऐषणाओं से अनासक्त बनाना तब तक संभव नहीं होती है,  जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन प्रदान नहीं करते हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा [अवतार वरिष्ठ भगवान  श्रीरामकृष्ण परमहंस देव] के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं। अपने श्रीकृष्ण अवतार में भगवान् ने स्पष्ट घोषणा किया था  --अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा," तुम मेरी शरण में आओ " , मा शुच " तुम शोक मत करो।"  मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा। मन और बुद्धि (देश-काल-निमित्त) के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप श्रीरामकृष्ण-तत्व (सच्चिदानन्द) का साक्षात्कार करना है।] 

श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मभक्तों के प्रति) -मन ही में बन्धन है और मन ही में मुक्ति । मैं नित्य मुक्त शुद्ध-बुद्ध आत्मा हूँ; चाहे संसार में रहूँ, चाहे अरण्य में, मुझे बन्धन कैसा? मैं ईश्वर की संतान हूँ; राजा-धिराज का बेटा (राजपूत); मुझ भला कौन बाँध सकता है? साँप के काटने पर यदि दृढ़ता के साथ यह कहा जाय कि ‘विष नहीं है’ तो सचमुच विष उतर जाता है ! उसी प्रकार दृढ़ता के साथ यह कहते कहते कि ‘मैं बद्ध नहीं, मैं मुक्त हूँ’, वास्तव में वैसा ही हो जाता है । मनुष्य मुक्त ही हो जाता है । 

“किसी ने ईसाईयों की एक किताब दी थी; मैंने पढ़कर सुनाने के लिए कहा । उसमें केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही भरा था । (केशव के प्रति) तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही सुनायी देता है। 

जो व्यक्ति बार बार ‘मैं बद्ध हूँ’ मैं बद्ध हूँ’ कहता रहता है वह बद्ध ही हो जाता है, जो दिन-रात ‘मैं पापी हूँ’ मैं पापी हूँ’ यही रटता रहता है, वह सचमुच पापी ही बन जाता है 

“ईश्वर के नाम पर इस प्रकार का ज्वलन्त विश्वास होना चाहिए-‘क्या! मैंने उनका नाम लिया है, अब भी मुझमें पाप रह सकता है ! मुझमें भला पाप कैसा ! मुझे भलाबन्धन कैसा!’ 

कृष्णकिशोर सनातनी हिन्दू था-सदाचारनिष्ठ ब्राह्मण ! एक बार वह वृन्दावन गया था । एक दिन घूमते घूमते उसे प्यास लगी । उसने एक कुएँ के पास जाकर देखा, एक आदमी खड़ा है । उसने उससे कहा, ‘क्यों रे तू मुझे एक लोटा पानी पिला सकता है? तू कौन जात है? वह बोला, ‘महाराज, मैं नीची जाति का हूँ- चामर हूँ ।’ कृष्णकिशोर ने कहा, ‘तू शिव शिव कह । ले, अब पानी खींच दे ।’ 

“ भगवान् का नाम लेने से मनुष्य का शरीर, मन-सब कुछ शुद्ध हो जाता है ।" 

[यदि स्वामी विवेकानन्द द्वारा चुना गया कोई भक्त - गुरुदेव प्रदत्त युगावतार का 'नाम' जपता है तो उस मनुष्य का देह, मन, ह्रदय सब कुछ शुद्ध हो जाता है।]      

“केवल ‘पाप’ ‘नरक’ यही सब बातें क्यों?  एक बार कहो कि जो कुछ अयोग्य काम किए हैं, उन्हें फिर नहीं करूँगा, और उनके नाम पर विश्वास रखो ।”

श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर नाममाहात्म्य गाने लगे- 

आमि दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोली मा जदि मरी।  

आखेरे ए -दीने ना तारो केमने जाना जाबे गो शंकरी।।  

(भावार्थ)-

“दुर्गा दुर्गा अगर जपूँ मैं जब मेरे निकलेंगे प्राण । 

देखूँ कैसे नहीं तारती, कैसे हो करुणा की खान ॥” 

“मैंने, माँ के निकट केवल भक्ति माँगी थी । हाथ में फूल लेकर माँ के पादपद्मों में चढ़ाया था; कहा था, ‘माँ, यह लो तुम्हारा पाप, यह लो तुम्हारा पुण्य, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा ज्ञान, यह लो तुम्हारा अज्ञान, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारी शुचिता, यह लो तुम्हारी अशुचिता, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा धर्म, यह लो तुम्हारा अधर्म, मुझे शुद्ध भक्ति दो ।’ 

गाना समाप्त कर श्रीरामकृष्ण बोले- “संसार में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा? जनक राजा को हुआ था ।  परन्तु कोई एकदम फट से जनक राजा नहीं बन जाता । जनक राजा ने निर्जन में बहुत तपस्या की थी। 

संसार में रहते हुए भी बीच बीच में एकान्तवास करना चाहिए । गृहस्थी से बाहर निकलकर एकान्त में अकेले रहकर अगर भगवान् के लिए तीन दिन ही रोया जाय तो वह भी अच्छा है । यहाँ तक कि यदि अवसर पाकर एक ही दिन निर्जन में रहकर भगवच्चिन्तन किया जाए तो वह भी अच्छा है । लोग स्त्री-पुत्रों के लिए रोकर लोटाभर आँसू बहाते हैं, ईश्वर के लिए भला कौन रोता है? बीच बीच में निर्जन में रहकर भगवत्प्राप्ति के लिए साधना करनी चाहिए । संसार के भीतर, विशेषकर कामकाज (बिजनेस -ब्यापार) की झंझट में रहकर प्रथम अवस्था में मन को स्थिर करते समय अनेक बाधाएँ आती हैं । जैसे रास्ते के किनारे लगाया हुआ पेड़; जिस समय वह पौधे की स्थिति में रहता है, उस समय घेरा न लगाने पर गाय-बकरियाँ खा जाती हैं । किन्तु बाद में तना मजबूत होने पर घेरे की आवश्यकता नहीं रहती । फिर उसे हाथी बांधनेपर भी कुछ नहीं होता। 

“रोग तो हुआ है सन्निपात (typhoid) का । पर जिस कमरे में सन्निपात का रोगी है, उसी कमरे में पानी का घड़ा और इमली का अचार रखा है । अगर रोगी को आराम पहुँचाना चाहते हो तो पहले उसे उस कमरे से हटाना होगा । संसारी जीव मानो सन्निपात का रोगी है; और विषय है पानी का घड़ा । विषयभोगतृष्णा मानो जलतृष्णा है । इमली, अचार की बात सिर्फ सोचते ही मुँह में पानी आ जाता है, वे चीजें पास नहीं लानी पड़तीं । ऐसी चीज रोगी के कमरे में ही रखी है । संसार में स्त्री-सहवास ऐसी ही ही चीज है (स्त्री की संगति, स्त्री का साहचर्य इमली के अँचार जैसी ही चीज है) इसीलिए निर्जन में जाकर चिकित्सा कराना आवश्यक है ।” 

“विवेक-वैराग्य प्राप्त करके (विवेकज ज्ञान जन्य ऐषणाओं से अनासक्ति प्राप्त करके) संसार में (गृहस्थ आश्रम में) प्रवेश करना चाहिए ।  संसारसमुद्र में काम-क्रोधादि मगर हैं । बदन में हलदी मलकर पानी में उतरने पर मगर का डर नहीं रहता । विवेक-वैराग्य ही हलदी है । सदसत्-विचार का नाम विवेक है । ईश्वर ही सत् हैं, नित्यवस्तु हैं बाकी सब असत् अनित्य, दो दिन के लिए है-यह बोध ही विवेक है । और ईश्वर के प्रति अनुराग चाहिए, प्रेम, आकर्षण चाहिए-जैसे गोपियों का कृष्ण के प्रति था । एक गाना सुनो- 

(भावार्थ)- “विपिन में बंसी बज उठी । मुझे तो जाना ही होगा, श्याम मेरी राह देख रहा है । तुम लोग चलोगी या नहीं, बताओ । तुम लोगों के लिए श्याम एक नाम है, पर सखि, मेरे लिए श्याम हृदय की व्यथा है । बंसी तुन्हारे कान में बजती है, पर मेरे तो वह हृदय में बजती है । श्याम की बंसी बज रही है । हे राधे, अब चलो, तुम्हारे बिना कुंज में शोभा नहीं आती ।” 

श्रीरामकृष्ण ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से यह गीत गाते गाते केशव आदि भक्तों से कहा, “राधाकृष्ण को मानो या न मानो, पर उनके इस आकर्षण को तो ग्रहण करो ! ईश्वर के लिए इस प्रकार की व्याकुलता हो, इसके लिए प्रयत्न करो । व्याकुलता के आते ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है ।”

(ब्राह्म भक्तों के प्रति) - एक रामप्रसाद का गीत सुनो - 

आय मन, बेड़ाते  जाबी। 

काली कल्पतरु मूले रे (मन) चारी फल कुड़ाये पाबी l 

(भावार्थ)-“चल मन घूमने चलें । कालीरूपी कल्पतरु के नीचे तुझे (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) चारों फल पड़े मिल जाएँगे ।

रामप्रसाद ने कहा था, यह संसार ‘धोखे की जगह’ (मृगमरीचिका) है । परन्तु ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति होने पर- 

"एई संसारई मजार कुठि (mansion of mirth) , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी। 

जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिलो त्रुटि। 

से जे येदिक उदिक दूदिक् रेखे , खेयेछिलो दूधेर बाटी।"  

‘यह संसार मौज की जगह है । मैं यहाँ खाता, पीता और मौज उड़ाता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी किसी बात में कसर नहीं थी । उसने यह और वह-दोनों बाजू सम्हालकर दूध का प्याला पिया था।’(सब हँसने लगे) 

[A very interesting discourse of Sri Ramakrishna Paramahamsa;

Devotee: "Sir, can't we realize God without complete renunciation?"

Master (with a laugh): "Of course you can? Why should you renounce everything? You are all right as you are, following the middle path - like molasses partly solid and partly liquid.

I tell you the truth: there is nothing wrong in your being in the world. But you must direct your mind towards God; otherwise you will not succeed. Do your duty with one hand and with the other hold to God. After the duty is over, you will hold to God with both hands.

It is all a question of mind. Bondage and liberation are of the mind alone. The mind will take the color you dye with it. It is like white clothes just returned from the laundry. If you dip them in red dye, they will be red. If you dip them in blue or green, they will be blue or green. They will take only the colour you dip them in, whatever it may be.

Bondage is of the mind and freedom is also of the mind. A man is free if he constantly thinks : 'I am free soul. How can I be bound, whether I live in the world or in the forest? I am a child of God, the King of Kings. Who can bind me?

The wretch who constantly says, 'I am bound, I am bound' only succeeds in being bound. He who says day and night, 'I am a sinner, I am a sinner' verily becomes a sinner.

If a man repeats the name of God, his body, mind and everything become pure. Why should one talk only about sin and hell, and such things? Say but once, "O Lord, I have undoubtedly done wicked things, but I won't repeat them.' And have faith in His name."

Sri Ramakrishna at this time became intoxicated with divine love and sang:

"If only I can pass away repeating Durga's name,

How canst Thou then, O blessed One,

Withhold from me deliverance,

Wretched though I may be? .........

"Why shouldn't one be able to realize God in this world? Kind Janaka had such realization. But one cannot be King Janaka all of a sudden . Janaka at first practiced much austerity in solitude."

Even if one lives in the world, one must go into solitude now and then. It will be of great help to a man if he goes away from his family, lives alone, and weeps for God even for three days. Even if he thinks of God for one day in solitude, when he has the leisure, that too will do him good. People shed a whole jug of tears for wife and children. But who cries for the Lord? Now and then one must go into solitude and practice spiritual discipline to realize God. Living in the world and entangled in many of its duties, the aspirant, during the first stage of spiritual life, finds many obstacles in the path of concentration. While the trees on the foot-path are young they must be fenced around; otherwise they will be destroyed by cattle. The fence is necessary when the tree is young, but it can be taken away when the trunk is thick and strong. Then the tree won't be hurt even if an elephant is tied to it.

The disease of worldliness is like typhoid. And there are a huge jug of water and jar of savory pickles in the typhoid patient's room. If you want to cure him of his illness, you must remove him from that room. The worldly man is like the typhoid patient. The various objects of enjoyment are the huge jug of water, and the craving for their enjoyment in his thirst.  The very thought of pickles makes the mouth water; you don't have to bring them near. And he is surrounded with them. The companionship of woman is the pickles. Hence treatment in solitude is necessary.

[https://groups.google.com/g/babasatsang/c/WJvAihaezbU] 

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[इसी बात को  महाभारत में इस प्रकार कहा गया है-
अविजित्य य आत्मानममात्यान्विजिगीषते।
अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते।।५४।।
आत्मानमेव प्रथमं देशरूपेण यो जयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते।।५५।।

भावार्थ- जो राजा (नेता ) अपने चंचल मन और इन्द्रियों को वशीभूत किये बिना अपने मन्त्रियों को जीतना चाहता हैऔर मन्त्रियों को जीते बिना शत्रुओं पर विजय पाना चाहता है, वह अजितेन्द्रिय राजा (नेता) निश्चय ही पराजित होता है। जो राजा अपनी (आत्मा को) अर्थात अवशीभूत मन को सबसे पहला शत्रु समझकर सर्वप्रथम उससे लड़ कर जीत लेता है, तत्पश्चात मन्त्रियों और शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसे अवश्य विजय प्राप्त होती है।]
मन यदि ईश्वर के पादपद्मों के प्रति आसक्त हो जाये तो वह मुक्त हो जायेगा। (अर्थात अवतार वरिष्ठ के चरणों में आत्मसमर्पण करके उनके जीवन और उपदेशों का थोड़ा भी अनुसरण करने लगे तो माँ सारदा देवी की कृपा से वह मुक्त हो जायेगा। अन्यथा मन यदि , सांसारिक आसक्ति और इच्छाओं से (ऐषणाओं से,कामिनी-कांचन और नामयश में आसक्त) बंधा हुआ है, तो वह बंधा ही रहेगा (भेंड़त्व से सम्मोहित ही रहेगा।) ]   
[विद्यार्थियों के लिये एकाग्रता का अभ्यास करना परम हितकारी है। इससे उनकी एकाग्रता शक्ति बढ़ जाती है। वे चार घंटे की पढाई को एक घंटे में पूरी कर सकते हैं। बाकि बचे समय को अपनी रूचि के अनुसार किसी नयी विधा को सीखने में व्यतीत कर सकते हैं। और अपने युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने अभ्यास करने से मनोविज्ञान के नियम Law of Association या 'साहचर्य का नियम ' के अनुसार उनके सद्गुण छात्रों युवाओं के चरित्र में आने लगते हैं। अनायास उनका चरित्र भी सुन्दर बन जाता है। ऐसे युवा जब पढ़-लिख कर उच्च पद पर जायेंगे तो भ्रष्टाचार स्वतः समाप्त हो जायेगा।
छात्रों-युवाओं को भारत के योग्य नागरिक बनाने के उद्देश्य से ऋषि पतंजली ने योग-सूत्र या अष्टांग-" यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि " की पद्धति का आविष्कार किया था। किन्तु श्रीरामकृष्णदेव ने युवा-आदर्श विवेकानन्द को समाधि में जाने की इच्छा जताने पर उनकी भर्त्सना की थी।इसीलिए महामण्डल में 'ध्यान और समाधि'  का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है।और स्वामीजी ने कहा था कि बिना किसी योग्य गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है, इसीलिये अष्टांग के तीन अंगों- ' प्राणायाम-ध्यान-समाधी ' का प्रशिक्षण  महामण्डल द्वारा नहीं दिया जाता है।
अष्टांग के शेष पाँच अंग 'यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा 'को भी दो भाग में बाँट कर, यम-नियम का पालन आजीवन करना है। बाकी बचे 'योग-सूत्र'-जिनके द्वारा मन पर नियंत्रण किया जा सकता है, 'आसन -प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास दिन में दो बार निश्चित और नियत समय पर करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि चरित्र-वान मनुष्य बनने के लिये आजीवन यम-नियम का अभ्यास करते हुए 'आसन-प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास करना मनःसंयोग या एकाग्रता (Concentration) की साधना की प्रथम सीढ़ी है।]
[एक बार कैम्प में जेनेरेटर चलाने वाले पर गुस्सा हो गया था, दादा ने गुस्सा होने से मना किया। इस आदत को छोड़ दो ! तब मैंने कहा था -  मैं ईश्वर की संतान हूँ; राजाधिराज का बेटा (मैं 'राजपूत' हूँ शायद इसीलिए कुछ अन्यायदेखने से गुस्सा आता होगा !' तब दादा ने कहा था यदि तुम राजपूत हो - तो क्या मैं राजा नहीं हूँ ? ); मुझे भला कौन बाँध सकता है? अर्थात बंधन और मुक्ति (मोक्ष) मन पर निर्भर है अर्थात मनोवृत्ति पर निर्भर है यानि -ऐषणाओं में आसक्ति,अनासक्ति पर निर्भर है। परिच्छेद ~ 13, (27 अक्टूबर 1882' श्री रामकृष्ण वचनामृत) Blog date :  August 6, 2021

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Tuesday, January 22, 2013

🔱🙏धर्म सनातन है (ধর্ম সনাতন) 🔱🙏[SVHS-29 ] 🔱🙏 [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-खण्ड -5 : (धर्म और समाज) ]🔱🙏 "सर्वोच्च की ओर कदम बढ़ाना -प्रपत्ति (शरणागति) है ! 🔱🙏"धर्म व्यवहार की वस्तु है, धर्म तो आचरण में उतारने की चीज है। 🔱🙏

🙏धर्म सनातन है 🙏

(ধর্ম সনাতন) 

     सनातन धर्म के नाम से भी कुछ है- ऐसा हमने सुना है। तो क्या ' सनातन ' नाम का कोई धर्म भी है ? नहीं वैसी कोई बात नहीं है। ' धर्म ' तो सनातन ही होता है, अर्थात शाश्वत होता है। 'धर्म' हमेशा के लिये (forever) सदैव रहने वाली चीज है। जब जगत की सृष्टि हुई, उसी के साथ साथ धर्म की भी सृष्टि हुई है। जबतक यह जगत रहेगा, तबतक धर्म भी रहेगा। सृष्टि हमेशा के लिये है, इसीलिये धर्म भी हमेशा के लिये है, अर्थात धर्म सनातन है, अनदि-अनन्त है! ब्रह्मसूत्र (२.१.३५) में कहा गया है- 'अनादित्वात्' अर्थात सृष्टि अनादि -अनन्त # है। विश्वधर्म-महासभा में, 19 सितम्बर, 1893 को  'हिन्दुधर्म ' के उपर भाषण देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा था, " सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । (ऋग्वेदः सूक्तं १०.१९०) "-अर्थात ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी।  -(धाता) परमेश्वर जैसे पूर्व कल्प में सूर्य, चन्द्र, विद्युत्, पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि बनाता था। वैसे ही अब बनाये हैं और आगे भी वैसे ही बनावेगा। --इस वाक्य का नित्य पाठ प्रत्येक हिन्दू बालक प्रतिदिन करता है। " (१/८) 
आचार्य शंकर ने अपने गीता-भाष्य में एक स्थान पर पुराणों  से कुछ श्लोक को उद्दृत करते हुए कहा है- "आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः।" --यह सब भूतों का आजीव्य ~ "जीविका या रोजी का साधन " सनातन ब्रह्मवृक्ष है। यही ब्रह्मवन है, इसी में ब्रह्म सदा रहता है।  संसारसे विरक्त हुए पुरुष को ही भगवान का  तत्त्व जानने में अधिकार है; अन्यको नहीं। यहाँ उन्होने भी जगत को जीवों के वास करने लायक एक सनातन वृक्ष कह कर उल्लेखित किया है। 
        समस्त सृष्ट पदार्थों तथा प्राणियों का एक धर्म रहता है। जो कुछ भी सृष्ट  होता है, वह एक धर्म के साथ ही होता है। धर्म बाहर से आने वाली वस्तु नहीं है, यह आंतरिक वस्तु है। इसीलिये धर्म की व्याख्या करते समय अक्सर आग और पानी का उदाहरण देकर समझाया जाता है कि जैसे आग और पानी का एक धर्म होता है, उसी प्रकार मनुष्य का भी एक धर्म होता है। किन्तु आग और पानी के उदाहरण से मनुष्य के धर्म की व्याख्या करना बहुत ठीक नहीं है। क्योंकि, पदार्थ या अन्य जीव और मनुष्य के धर्म में एक विशेष अन्तर होता है। मनुष्य से भिन्न किसी अन्य पदार्थ  या अन्य प्राणी (पशु या देवता ) में  धर्म का विकास  नहीं होता। किन्तु मनुष्य योनि में  धर्म विकसित होता है,  मनुष्य धर्म के क्षेत्र में उन्नत (बेहतर) हो सकता  है। क्योंकि इसका विकास मनुष्य के ' धर्मबोध ' के उपर निर्भर करता है, इसीलिए वह उन्नत मनुष्य बन सकता है। किन्तु, मनुष्य यदि अपने धर्मबोध को जाग्रत करके अभिव्यक्त या प्रकट करने प्रयास नहीं करे, तो उसका भी धर्म - ईंट, लकड़ी या पत्थर के जैसा ही होगा। वह आग की तरह  दूसरों  को दुःख  में जला सकता है। चोर का धर्म तो चोरी करना है इसीलिये वह चोरी करने को ही अपना धर्म कह सकता है, पानी का धर्म नीचे की ओर बहना है, इसीलिये क्या मनुष्य भी  नीचे ही गिरता रहेगा? कदापि नहीं, क्योंकि मनुष्य का धर्म है- जीवन को विकसित करना, उपर उठाना, ह्रदय की परिधि को  विस्तृत करना, पराये को भी अपना बना लेना, दूसरों की भलाई के लिए  काम आना।  अपने मन में महाराज रन्तिदेव के जैसी परदुःख-कातरता लाना**, ताकि हमलोग भी प्राणिमात्र के हृदय में प्रवेश कर उनके दुखों को स्वयं सहन कर सकें जिससे की सभी प्राणी अपने सभी प्रकार के दुखों से बच सकें।  मनुष्य का धर्म है- धीरे धीरे इन्द्रियगोचर जितनी भी वस्तुयें हैं, उन सबके आवरण में जो सत्य (परम् सत्य) छुपा है उसको जानने के लिये व्याकुल हो जाना।
        ऐसा धर्मबोध केवल मनुष्य में ही हो सकता है अन्य किसी पदार्थ या प्राणी में नहीं। क्योंकि केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो धर्मशास्त्र के अनुसार विचारवान, विवेक-बोध सम्पन्न बन सकता है। इसीलिये वह केवल इन्द्रिय-विषय भोगों से मिलने वाले शारीरिक सुखों से ही तृप्त नहीं हो सकता,  वह 'मननलब्ध परम् आनन्द '  की खोज करता है -- इसी परमान्दानुसन्धान  में लगे रहने को उन्नत मनुष्य बनना कहते हैं।  इसमें भी तृप्त न होकर  वह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड  की सत्ता की उपलब्धि पाना चाहता है। वह अपने तुच्छ  व्यष्टि अहं को  विश्वात्मा (माँ जगदम्बा के मातृहृदय ) के विराट विश्वव्यापी अहं साथ एकीकृत कर लेना चाहता है। उसका क्षुद्र ससीम 'मैं ' वृहत 'मैं ' में रूपांतरित हो जाता है। उसकी भेद-बुद्धि  समाप्त हो जाती है, समदृष्टि  की  प्राप्ति करके वह ससीम शरीर-मन  की सीमा के बाड़ को तोड़ कर अनन्त के साथ मिल कर एक हो जाता है। इसको ही वास्तविक धर्म कहा जाता है। जो व्यक्ति इस धर्म-मार्ग में क्रमशः उपर उठता रहता है, उसका आचरण ( चरित्र ) बिलकुल अन्य प्रकार का हो जाता है।
 क्योंकि धर्म आचरण में लाने की चीज  है, उसको यदि जीवन  में नहीं उतारा गया तो वैसे  शुष्क ज्ञान का कोई मोल नहीं है। इसीलिये कहा जाता है " धर्मं चर " - धर्म को आचरण के द्वारा प्रकट करो। धर्म के बारे में कहा गया है कि  -- "व्यवहृयमानः",  "अनुष्ठीयमानः।" अर्थात धर्म व्यवहार की वस्तु है, धर्म तो आचरण में  उतारने  की चीज है।   
       किसी स्थान में एक भागवती-पण्डित रहा करते थे। वे भागवत पाठ करके उस पर प्रवचन देते थे। वे शास्त्रों की बड़े सुन्दर ढंग से व्याख्या करते थे, इसीलिये शाम के समय उनके प्रवचन में गाँव के बहुत से लोग एकत्रित हो जाते थे। दूसरे लोगो से अपने पती के प्रवचनों की प्रशंसा सुन कर, एक दिन उनकी पत्नी के मन में भी सुनने की इच्छा हुई। वह अपने घर के कार्यों को समाप्त करने के बाद थोड़ी देर से प्रवचन स्थल पर पहुंची, और थोड़ी देर सुनने के बाद सोंची सचमुच कितना सुन्दर उपदेश देते हैं ! जब घर लौट कर आई, तो एक भूखे व्यक्ति की कराऊँ प्रार्थना सुनकर, प्रवचन कहे गये अपने पति के उपदेशों को याद करके अपने रात के भोजन को उसे दे दिया। वह बहुत खुश होकर वहां से चला गया। कुछ ही देर बाद एक जर्जर वृद्धा ठंढ में कांपते हुए किसी प्रकार उसके दरवाजे पर आकर भोजन की भिक्षा मांगने लगी, कोई अन्य उपाय न देखकर उसने अपने पति का भोजन उस को दे दिया। तब वृद्धा ठंढ से बचने के लिये एक कम्बल देने की प्रार्थना करने लगी, किसी गरीब की स्त्री के पास जैसे किसी को देने के लिए कुछ नहीं होता, उसने अपने पति के एकमात्र कम्बल को भी उसे दे दिया। वह वृद्धा स्त्री बहुत आशीर्वाद देकर वहाँ से चली गयी। उस स्त्री ने सोचा कि जब उसके पती यह सुनेंगे, कि उसने उनके उपदेशों को कितने अच्छे ढंग से काम में उतारा है, तो वे बहुत प्रसन्न होंगे। उसके पति जब घर लौटे तो बहुत भूख लगी थी, उन्हों ने अपनी पत्नी को शीघ्र खाना देने को कहा। तब उनकी पत्नी ने बताया कि उनका भोजन किसी भूखे व्यक्ति को दान कर दिया गया है। तब उन्हों ने बहुत क्रुद्ध होकर पूछ-तुमने अपना खाना क्यों नहीं दिया ? अपना खाना पहले ही दे दी थी यह जान लेने के बाद वे समझ गये कि अब कोई उपाय नहीं है, क्योंकि अब घर में खाना नहीं था। तब एक ढेला गुड़ मुंह में डाल कर एक लोटा पानी पीकर जब सोने गये तो देखते हैं, कम्बल भी नहीं है। कम्बल के बारे में जानकारी देते समय पत्नी ने बताया कि, थोड़ी देर पहले उन्हीं से उसने यह धर्म-ज्ञान प्रप्त किया था, जिसका फल अभी अभी फला है। तब उसके पति ने आवाक होकर कहा, " अरी भागवान, वे सब धर्म के उपदेश केवल कहने के लिये ही होते हैं, करने के लिये बिल्कुल नहीं होते। " उसी प्रकार हममें से कई लोगों के लिये धर्म-वर्म की बातें केवल कहने की बात है।  इसीलिये गोस्वामी तुलसीदासजी ' रामचरित- मानस '  उत्तरकाण्ड : शिव-पार्वती संवाद में दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं- 

" भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥

बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा॥

-अर्थात जो संसार रूपी सागर का पार पाना चाहता है, उसके लिए तो श्री राम जी की कथा दृढ़ नौका के समान है। किन्तु विषयी लोगों के लिए श्री हरि के गुणसमूह का गायन भी केवल कानों को सुख देने वाले और मन को अच्छा लगने वाले वस्तु मात्र हैं। 
        जो अभी जिस अवस्था में हैं, उस अवस्था से यथार्थ मनुष्य बनने की दिशा में जितना उन्नत होना उसके लिए उचित हो,  उतना ऊँचा उठने का प्रयत्न निष्ठापूर्वक  करने से  वह प्रयास  यथार्थ धर्मलाभ में सहायक होता है। सद्कर्म  करने के लिए  स्वयं को (या तुच्छ अहं को ) थोड़ा भूलना पड़ता है, स्वयं को वंचित करके दूसरों के लिये कुछ करना पड़ता है। ऐसा करना से हृदय विस्तृत हो जाता है, और यही धर्म  का अवश्यम्भावी फल भी है।स्वामी विवेकानन्द ने अपने परिव्राजक जीवन में अपने एक गुरु भाई से भेंट होने पर कहा था, ' तुम्हारा ईश्वर- टिश्वर  क्या है, वह तो मैं नहीं समझता, किन्तु इतना समझता हूँ कि मेरा हृदय बहुत विस्तृत हो गया है।'  
माँ सारदा कहती थीं- " जब जैसा तब तैसा ।" उनके इस कथन का  बहुत लोग गलत  अर्थ लगाते  हैं कि जैसे  मुहर्रम के जुलुस में घुस  गया हूँ , और सभी 'हसन -हुसैन ' कहकर अपनी छाती पीट रहे हैं; तब क्या  " जब जैसा तब तैसा " के उपदेशानुसार मुझे भी छाती पीटना शुरू कर देना चाहिए ? नहीं, इस उपदेश का अर्थ है किसी मनुष्य के लिए जिस परिस्थिति में जैसा व्यवहार करना उचित हो, उस परिस्थिति में वैसा ही व्यवहार करने से उसे धर्म की शक्ति प्राप्त होती है। 
       श्रीश्री ठाकुर रामकृष्णदेव अपने गृहस्थ भक्तों को 'कर्मयोग ' के इस कौशल को समझाने के लिये  ' बगूला भष्म कर देने वाले तपस्वी कौशिक' तथा  'धर्म-व्याध '  की कहानी सुनाया करते थे। महाभारत के  'पतिव्रता उपाख्यान' में यह कथा आती है। कौशिक नामक एक ब्राह्मण थे, उन्हों ने वेद-उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्यन किया था, धर्म में उनकी मती थी, बड़े कठोर तपस्वी थे। एक दिन एक वृक्ष के नीचे बैठकर वेदमन्त्र आदि का उच्चरण कर रहे थे, इसी समय एक बगुला उनके उपर बिट कर दिया। ब्राह्मण ने क्रोध करके बगुले की ओर देखा और उसके हानी की कामना करने लगे, तो उसके साथ ही साथ वह बगुला जमीन पर गिर कर मर गया। ब्राह्मण को बहुत पशचाताप हुआ। फिर भी, वे उठे और भिक्षा मांगने के लिये एक गाँव की ओर निकल पड़े, और एक घर के द्वार पर जाकर भिक्षा माँगे ।  इसी बीच उस घर के मालिक भूखे थे, खाने के लिये घर पर आ गये। गृहणी को उनकी सेवा-सुश्रुषा करने में कुछ विलम्ब हो गया। ब्राह्मण क्रोधित होकर बोले, मुझे खड़ा रहने के लिये कहकर इतनी देरी से भिक्षा देने का मतलब ? उस पतिव्रता स्त्री ने कहा, ब्राह्मण देवता क्षमा करें, पति तो परमेश्वर होते हैं, उनकी सेवा करने में थोडा विलम्ब हो गया। तपस्वी ने क्रुद्ध होकर कहा- गृहस्थ होकर ब्राह्मण की अवज्ञा करती हो ? क्या तुमने यह कभी नहीं सुना कि ब्राह्मण अग्नि के समान होते हैं, क्रोधित हो जाने पर सम्पूर्ण विश्व को भी जला सकते हैं ?  यह सुनकर गृहणी ने कहा,  " हे ब्राह्मण मैं कोई बगुला नहीं हूँ, आपका क्रोध मेरा  क्या नुकसान कर सकेगा  ? अपने क्रोध को रोकिये। जो क्रोध और मोह का त्याग कर सकते हैं, उन्हीं को ब्राह्मण कहा जाता है। सीलिये सनातन  धर्म को समझना कठिन है क्योंकि  यह सत्य के उपर प्रतिष्ठित है। आपने धर्म के मर्म को ठीक से नहीं समझा है। आप मिथिला नगरी में जाइये वहाँ धर्म-व्याध से पूछने पर वह आपको सच्चा धर्मोपदेश देंगे। वे माता-पिता के सेवापरायण, सत्यवादी और जितेन्द्रीय हैं। अप मेरे पतिसेवा का फल देखिये, आपकी क्रोधाग्नि में बगुला जल गया है, यह मैं ने जान लिया है। मैंने आपको बहुत सी बातें बताई हैं, इसीलिये आपको मुझे क्षमा कर देना चाहिये।"  ब्राह्मण ने कहा, तुम्हारे तिरस्कार से मेरा अवश्य कल्याण होगा। तुम्हारा मंगल हो ! "     
       कौशिक उस स्त्री की आश्चर्य जनक बातों पर विचार करते हुए स्वयं को अपराधी समझकर अपने को बुरा-भला कहते हुए धर्म की सूक्ष्म शक्ति पर विचार करने लगे। उन्होंने सोचा मुझमें श्रद्धा जाग्रत होना चाहिये मैं आज ही मिथिला नगरी के ओर रवाना होऊंगा। मिथिला में खोज करने पर पता चला कि तपस्वी व्याध तो मांस बेचने का काम करते हैं। धर्मव्याध ब्राह्मण को देखकर आगे बढकर उनका अभिवादन किये और बोले आपको ब्राह्मणी ने मिथिला में मेरे पास आने के लिये कहा है, इन सब बातों को मैं जानता हूँ। आप मुझे आदेश दीजिये मैं  आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? कौशिक और भी ज्यादा आश्चर्य हुआ। धर्म व्याध बोले यह स्थान आपके लायक नहीं है, यदि आप चाहें तो मेरे घर पर चल सकते हैं। व्याध के घर पर ब्राह्मण की यथायोग्य अभ्यर्थना करके दोनों में धर्म के उपर चर्चा होने लगी। धर्म की मुख्य बात आचरण है, इसीलिये कौशिक ने शिष्टाचार के विषय में प्रश्न किया। धर्मव्याध ने बहुत से उपदेश दिए। जो कर्तव्य न्याय-युक्त हो वही धर्म है। धर्मव्याध के बहुत से उपदेशों में एक बहुत महत्वपूर्ण उपदेश है-
तं सदाचारमाश्चर्यं पुराणं शाश्वतं ध्रुवम्।
धर्म्यं धर्मेण पश्यन्तः स्वर्गं यान्ति मनीषिणः ।।
- मनीषी लोग सदाचारी व्यक्तियों के द्वारा प्रदर्शित अच्छे आचरण रूपी उस असाधारण अनादि अविच्छिन्न नित्यधर्म को धर्मदृष्टि से देखकर स्वर्ग गमन करते हैं। गीता 14/27 में भी धर्म को शाश्वत कहा गया है - "शाश्वतस्य च धर्मस्य। "  
       उपरोक्त उपाख्यान में जैसे ब्राह्मण कौशिक को  धर्मव्याध नामक शूद्र से शिक्षा ग्रहण करते देखा गया है। वैसे ही महाभारत के एक अन्य  उपाख्यान में देखा जा सकता है कि एक ब्राह्मण ने वैश्य से शिक्षा ग्रहण किया था। वास्तव में जाति व्यवस्था पहले गुण और कर्म के पार्थक्य के उपर आधारित थी, और वह आन्तरिक संस्कार में बाधक नहीं था। स्वामीजी ने कहा था कि जाति प्रथा को एक लाख में एक-दो लोग ही  समझ पाते हैं ।
         जाजलि नामक एक ब्राह्मण वन में कुटिया बनाकर रहते थे। वे सागर की तट पर बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या किये थे। लकड़ी की तरह बैठे बैठे सिर पर जटा बन गया था। उस जटा को घोसला समझकर एक पक्षी ने घोसला बना लिया, उसमें अंडा दिया, बच्चे हुए, उनके भी पंख निकले और बड़े होकर उड़ने लगे। बहुत दिनों के बाद जब पक्षी लोग नहीं आने लगे थे, तब वे अपनी सिद्धि की असधारण कहानी सबों को सुनाने लगे। इधर सागर के राक्षस लोग उसको कहने लगे कि तुमको इतना अहंकार करना उचित नहीं है, वाराणसी में तुलाधर नामक एक वैश्य रहते हैं, वे एक महान धर्मज्ञ के रूप में विख्यात हैं; फिर भी वे अपने बारे में ऐसा नहीं कहते। जाजलि जब पुनः अपनी बड़ाई करने लगे तो आकशवाणी हुई, महान ज्ञानी तुलाधर वैश्य  भी अपने मुख से ऐसी बात नहीं कह सकते हैं। तब जाजलि ने भी इतने दिनों की हठ साधना को व्यर्थ का पथश्रम स्वीकार किया और वाराणसी पहुँचकर जाजलि के पास उपस्थित हुए। तुलाधर ने जाजलि की समस्त तपस्या, अहंकार और अपने पास आने का उद्देश्य बता दिया। जाजलि ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, बनिये का काम करते हो, ऐसे ज्ञान के अधिकारी कैसे बन गये ? पूरी बात विस्तार से समझाईये।  तुलाधर ने सबसे पहले कहा-

वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम।
      सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।।

(महाभारतम्-12-शांतिपर्व-268)

- हे जाजले ! जिस पुराने धर्म को लोग सर्वभूत के लिये हितकर रूप में जानते हैं, मैं उसी सनातन धर्म और उसके रहस्य को जानता हूँ। जो व्यक्ति सर्वभूतों के सुहृत और समस्त जीवों का हित करने में लगे रहते हैं, वास्तव में उन्हीं को धर्मज्ञ कहा जा सकता है।  आगे कहते हैं-

यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित्कथंचन।
अभयं सर्वभूतेभ्यः स प्राप्नोति सदा मुने।।

-जिस व्यक्ति से किसी को भय नहीं होता, जो स्वयं किसी व्यक्ति या वस्तु से भयभीत नहीं होता, वे ही यथार्थ धर्म को जानते हैं। 
जो धर्म सनातन है , जो धर्म सार्वभौमिक है, उसे महाभारत के उद्योगपर्व में बताया गया है-
 
न तत्परस्य संदध्यात्‌ प्रतिकूलं यदात्मनः।
संग्रहेणैष धर्मः स्यात्‌ कामादन्यः प्रवर्तते ॥ 
 (महाभारत उद्योगपर्व ३९/७२) 

- जैसा व्यवहार अपने लिये प्रतिकूल लगता हो वैसा व्यवहार दूसरों के साथ कभी नहीं करना चाहिये, संक्षेप में इसी को धर्म कहते हैं; कामना के कारण ही धर्म का रूप अन्य प्रकार का हो जाता है। 
          ठीक यही बात बाइबिल के 'ओल्ड टेस्टामेंट' भाग में कही गयी  है। इसके पहले उद्धृत श्लोक में जो कहा गया है, पैगम्बर मोहम्मद ने भी लगभग वही कहा है। जो सनातन धर्म-स्रोत सृष्टि के समय से बहता चला आ रहा था, बाद के समय में बनने वाला कोई भी प्रसिद्द धर्म उस मूल रूप में उससे कोई अधिक भिन्न नहीं हैं। श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने इसी सत्य को अपनी अनुभूति से जान कर समूर्ण मानवजाति को पुनरुज्जीवित करना चाहा था। किन्तु संकीर्णता और दुकानदारी बुद्धि ने धर्म के साँस को ही रुद्ध कर दिया है। नियम है कि जो किसी समय में उत्पन्न होता है , समय के भीतर ही उसका नाश भी हो जाता है ; [ `जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु , र्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ' (गीता-२.२७)   जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है ।]  
किन्तु जो  शाश्वत, सनातन है- (आत्मा ) उसका कभी नाश नहीं होता, उसकी कभी मृत्यु नहीं होती । सनातन धर्म यही कहता है कि समस्त प्राणियों में एक ही वस्तु (आत्मा या परमात्मा) है- जो अविनाशी है , उसको अपनी अनुभूति से जानकर समस्त जीवों की सेवा करना ही धर्म की अंतिम बात है। गीता में भगवान (परमात्मा श्रीकृष्ण) कहते हैं, जो मनुष्य अनन्य भक्ति के साथ 'मेरी' सेवा करता है, वह गुणातीत होकर परम वस्तु को प्राप्त करता है।  इसके गीता भाष्य में  आचार्य शंकर ने ' मेरी ' शब्द का अर्थ बताते हुए कहा है -  समस्त जीवों के हृदय में स्थित नारायण या ईश्वर। भागवत में कथा आती है कि युधिष्ठिर जब नारद से यह प्रश्न करते हैं, आप मुझे बताइये कि सनातन धर्म है क्या ? युधिष्ठिर उवाच -

 भगवत्र्छ्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनतनम ।

नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्मेहेतवे ।
वक्ष्ये सनातनं धर्में नारायणमुखाच्छुतम ॥५॥

- नारद कहते हैं, मनुष्यों के धर्म सेतुस्वरुप भगवान को प्रणाम करके मैं आज बतलाऊंगा कि सनातन धर्म क्या है, जिसे मैंने स्वयं नारायण के मुख से सुना है। इसके बाद वे भगवान के मुख से सुने सनातन धर्म की परिभाषा मे जो कुछ कहते हैं, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। 
         जब हमलोग अनौपचारिक ढंग से बातचीत करते हैं तो कहते हैं कि श्रीरामकृष्ण तो ईश्वर -ईश्वर कहकर पागल हो गये थे। लेकिन, उसी पागल ब्राह्मण के शिष्य स्वामी  विवेकानन्द आधुनिक शिक्षा में शिक्षित थे, देश-विदेश की यात्रा किये थे, भारत के गरीबों के लिये कितना अश्रु बहाते थे,  देश के उन्नति की बात कहते समय वे कहते थे कि मैं समाजवाद में विश्वास करता हूँ, लेकिन वास्तव में कहीं वे साम्यवाद में तो विश्वास नहीं करते थे ? उपरोक्त श्लोक में नारदजी "वक्ष्ये सनातनं धर्में " कहने के बाद कहते है-

अन्नाद्यादेः संविभागो भुतेभ्यश्च यथार्थतः ।
तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥१०॥

- समाज में अन्नादि जो कुछ भी उत्पन्न होगा, उस सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P) को जनसाधारण के बीच जिसकी जितनी आवश्यकता हो, उसी हिसाब से वितरण करना होगा। किन्तु जो (राज्य कर्मचारी, नेता)  लोग उस सकल राष्ट्रिय उत्पाद को जब सबकी आवश्यकता अनुसार वितरण करेंगे उस समय  यह मनोभाव रखते हुए वितरण करना होगा  " तेष्वात्म-देवताबुद्धिः"--अर्थात वे सभी मनुष्य हमलोगों के आत्मास्वरुप, देवता हैं, इस ज्ञान से देना होगा। इसको कहते हैं- 'सनातन धर्म' !! 
     स्वामीजी ने कहा था, जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, मेरा समस्त धर्म उसको रोटी खिलाना होगा । जो ईश्वर भूखे को एक मुट्ठी अन्न नहीं दे सकता, जो किसी विधवा के अश्रु नहीं पोछ सकता, वैसे ईश्वर पर मैं विश्वास नहीं करता।' स्वामीजी कहते हैं , " जो सनातन, असीम, सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञ हैं वे कोई व्यक्तिविशेष नहीं - तत्व मात्र हैं। (किसी संगठन में) जिस मनुष्य  (नवनीदा) के भीतर यह यह अनन्त तत्व जितना अधिक प्रकाशित होता है, वह उतना ही महान होता  है। बाकी सभी लोगों को उनकी पूर्ण प्रतिमूर्ति बनना होगा। परम् तत्व के साथ  एकात्मता की अनुभूति करने के अतिरिक्त धर्म और कुछ नहीं है, तथा प्रेम ही इसका साधन है। " उन्होंने यह भी कहा था, " उस धर्म की नीति में किसी के प्रति शत्रुता  या उत्पीड़न का स्थान नहीं हो सकता। उसमें प्रत्येक नर-नारी देव स्वरूप  स्वीकृत होंगे। और उसकी समस्त शक्ति मनुष्यजाति को उसके अन्तर्निहित देवस्वभाव की अनुभूति करने में सहायता करने में ही व्यय होगी।" --ऐसे धर्म को ही सनातन कहते हैं। 
    स्वामीजी ने कहा था, " एक आश्चर्यजनक सत्य मैंने अपने गुरुदेव से सीखा, वह यह है कि संसार में जितने धर्म हैं, वे परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे केवल एक ही चिरन्तन शास्वत धर्म के भिन्न भिन्न भाव मात्र हैं। यही एक सनातन धर्म चिर काल से समग्र विश्व का आधारस्वरुप रहा है और चिर काल तक रहेगा, और यही धर्म विभिन्न देशों में, विभिन्न भावो में प्रकाशित हो रहा है। "7/261]

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Saturday, January 19, 2013

🔱🙏स्वामीजी का धर्म (স্বামীজীর ধর্ম ) 🔱🙏' धर्म और नीतिबोध' (Religion and Ethics) [SVHS-25 : 5.1] 🔱🙏 [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ] (खण्ड -5 : धर्म और समाज )

🙏स्वामीजी का धर्म 🙏 

(धर्म और नीतिबोध : Religion and Ethics)  

        चिन्तनशील होना अच्छा है, किन्तु अतिशय भावुकता (sentimentality) अच्छी चीज नहीं है। फिर भी हमलोगों में से कई व्यक्ति अतिशय भावावेग में बह जाते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि हम किसी भाव या उच्च आदर्श के ऊपर गहराई से विचार किये बिना ही केवल भावुकता में बहकर उसे ग्रहण कर लेते हैं। 
      यह बात सत्य है कि स्वामी विवेकानन्द ने धर्म का प्रचार किया था। यह भी सत्य है कि धर्म के साथ उसके गंध की तरह संयुक्त अतिशय भावुकता रूपी अफीम के वशीभूत हो हमारी बुद्धि भ्रमित हो जाती है और कई बार अपने कर्तव्यपथ से हमलोग दूर चले जाते हैं। लेकिन, यह भी सत्य है कि अफीम का नशा सत्य नहीं है, धर्म ही सत्य -'सनातन' है।  स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के इसी सनातन सत्य को अशुद्धता से मुक्त करके समस्त मानव जाति के लिए ग्राह्य (सुपाच्य) एक विशुद्ध धर्म (आत्मश्रद्धा या 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ') के  रूप में प्रस्तुत किया है। 
        चाहे जिस प्रकार के विचार हों, चाहे वह राष्ट्रप्रेम की अवधारणा हो, सामाज- कल्याण की बात हो, धार्मिक विचार हों, या अन्य कोई उच्च भाव हो - समय के प्रवाह में  दूषित हो ही जाता है; उसका शुद्ध स्वरुप उपयोग होता हुआ दिखाई नहीं देता।  केवल धर्म के क्षेत्र में ही ऐसा होता है - ऐसा नहीं कह सकते। अन्यान्य क्षेत्रों में भी हमलोगों ने ऐसी घटनाओं को घटते देखा है तथा आज भी देख रहे हैं। जब ऐसी अवस्था आती है तब उस विचार या अवधारणा को नए रूप में सजा लेना पड़ता है, प्रचार करना पड़ता है। स्वामीजी के इस नव प्रचार में केवल एक ही विशिष्टता हैऔर वह वैशिष्ट्य भी  भारतीय विचारधारा के अनुरूप ही है। अन्यान्य क्षेत्रों के विचारकों ने जहाँ केवल एक-एक विषय को लेकर ही चिन्तन किया है तथा अपने चिंतन का फल समाज को प्रदान किया है। लेकिन युग नायक विवेकानन्द का वैशिष्ट्य यही कि उन्होंने मनुष्य को उसकी समग्रता में देखते हुए अपने विचार रखे हैं। उनके विचारों में सम्पूर्ण मानव अर्थात मनुष्य की समग्र सत्ता तथा उसके समग्र समाज को ही एक विषय के रूप में देखा जा सकता है।  अन्यान्य विचारकों में से किसी ने केवल राष्ट्र के ऊपर चिंतन किया है, तो किसी ने समाज के ऊपर। समाज में भी किसी ने जातिप्रथा के ऊपर, तो किसी ने विभिन्न धर्मों पर, किसी ने शिक्षा पर, किसी ने संस्कृति पर, किसी ने कला के ऊपर, तो किसी ने साहित्य को लेकर, तो किसी ने संगीत के ऊपर अथवा -उसी प्रकार के भिन्न-भिन्न विषयो के ऊपर। लेकिन स्वामीजी ने उपरोक्त समस्त क्षेत्र जिस मनुष्य के साथ जुड़े हुए हैं, उसी 'मनुष्य' के विषय में चिन्तन किया है। और इन सब विचारों के भीतर से गुजरते हुए, उन्होंने एक सूत्र (धागे) का आविष्कार कर लिया, तथा उस धागे को मनुष्य के गले पहना दिया और उसका नाम दिया -धर्म#। और कहा की यही (आत्मश्रद्धा) वह धागा है जो मनुष्य को सभी ओर से धारण किये रहेगा। इसलिए भिन्न -भिन्न नाम (Trademark) वाले  जो धर्म हैं, वे समय के प्रभाववश केवल भावुकता (sentimentality) प्रदान करते हैं या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं; किन्तु, स्वामीजी का धर्म पूर्णतया अलग किस्म का है। फिर जिन लोगों को 'धर्म' के नाम से ही चिढ़ हो, वे यदि चाहें तो 'धर्म' की जगह किसी नये शब्द (जैसे इंसानियत) का भी अविष्कार कर सकते हैं, ऐसा करने से उसके तात्पर्य पर वास्तव में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
[#  क्योंकि कहा गया है -' धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः । तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।‘‘जो पुरूष धर्म का नाश करता है, धर्म उसी का नाश कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है । इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म ( आत्मश्रद्धा या निःस्वार्थपरता ) का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए।  धर्म शब्द की रचना 'धृ' धातु से हुई है जिसका अर्थ धारण करने योग्य; जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व सिद्ध होता है वह उस वस्तु का धर्म कहलाता है। उदाहरणार्थ आत्मा का धर्म भगवान से प्रेम करना है “वैषेषिक दर्शन” में महर्षि कणाद द्वारा प्रतिपादित धर्म की परिभाषा यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः सः धर्मः " — वह तत्व धर्म है जिससे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और श्रेयस (पारलौकिक कल्याण-यानि मोक्ष) की प्राप्ति होती है। ‘श्रेयस’ वह अवस्था है जहाँ मनुष्य केवल सुख की आकांक्षा नहीं करता, वरन् मोक्ष, शांति और चिरस्थायी तृप्ति की ओर अग्रसर होता है। धर्म को केवल लौकिक या केवल पारलौकिक की संज्ञा देना उचित नहीं। इसकी महत्ता इसी में है कि यह संतुलन स्थापित करता है — आत्मा और शरीर के बीच, कर्तव्य और अधिकार के बीच, भोग और त्याग के बीच। यह जीवन के विविध पक्षों में समरसता का विधान है। उदाहरणार्थ, गीता में कहा गया —“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः”। (गीता -3.35) अर्थात व्यक्ति को अपने धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए, क्योंकि वहीं से उसका कल्याण संभव है।स्व-धर्म हमारे निजी जीवन की स्थिति, परिपक्वता और व्यवसाय पर लागू होता है और जैसे-जैसे हम आध्यात्मिक रूप से उन्नत होते हैं वैसे ही हमारी परिस्थितियों में परिवर्तन आने पर हमारा स्वधर्म भी परिवर्तित हो सकता है। दादा कहते थे एक लाख में एक व्यक्ति भी धर्म क्या है ,बता दे तो बहुत समझा जायेगा , इसलिए धर्म पर बोलते समय इन दोनों परिभाषाओं पर अवश्य बोलने कहते थे।]   
     ऐसा कहना कि, जो लोग किसी विशेष निर्दिष्ट तरीके से जीवन यापन करते हैं, वे ही धार्मिक हैं, शेष अधार्मिक हैं, गलत है। जो अपने जीवन को सभी ओर से समेट कर धर्म के वास्तविक केन्द्र (आत्मश्रद्धा या निःस्वार्थपरता) में धारण किये रह सकते हैं, वे ही यथार्थ धार्मिक हैं। मनुष्य जब अपने केन्द्र से (आत्मा या ह्रदय से) जुड़ जाता है, तभी वह दूसरे मनुष्यों के साथ स्वयं को जुड़ा हुआ अनुभव करता है। ऐसा योग तभी साधित होता है, जब मनुष्य धर्म के (आत्मश्रद्धा या निःस्वार्थपरता केउस वैश्विक धागे  को धारण कर लेता है। और स्वामीजी द्वारा दी गयी मनुष्य की परिभाषा में यही बात एक सूत्र या प्रमेय (Theorem) के रूप कही गयी है। स्वामीजी के अनुसार 'मनुष्य एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है (असीम है), जबकि उसका केन्द्र एक स्थान में निश्चित है। ' इस सूत्र  का अभिप्राय बहुत व्यापक है। जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म में विश्वास रखता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। यही विकास की बुनियाद है। और मनुष्य का यह समग्र विकास (Overall development) ही स्वामीजी के धर्म की मूल बात है। इसी विकास के पथ पर अग्रसर होते हुए मनुष्य अपनी क्षुद्र सत्ता को (मिथ्या अहं या 'मैं'- बोध को) खोना सीख लेता है। ह्रदय की संकीर्णता, स्वार्थपरता का त्याग करता हुआ, मनुष्य विशालता (ब्रह्मत्व) की ओर अग्रसर होता है। और इस प्रकार आगे बढ़ना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ना है क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार -"Unselfishness is God, 'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है।" यदि इस उक्ति को ही धर्म कहा जाय तो भला इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? किस जनननायक (नेता) ने अन्य भाषा में इस धर्म के बारे में नहीं बताया है? जिन्होंने नहीं बताया, जनता ने उनको कभी नायक (Hero) के आसन पर प्रतिष्ठित नहीं किया है। 
             स्वामी विवेकानन्द ने फिलॉसफी, जप- तप, मन्दिर, दीपस्तम्भ, केले का थम, घंटी -आदि चीजों को व्यक्तिगत धर्म का अंग बताया है; किन्तु जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है 'परोपकार'। प्रसारित परिधि (Expanded perimeter) के अन्तर्गत 'समस्त प्राणियों के साथ एकात्मकता की अनुभूति' करना ही धर्म है।' 'सभी प्राणियों के साथ एकात्मकता की अनुभूति ('Feeling of oneness with all living beings)'- ऐसी अनुभूति हो जाने पर हमारे द्वारा किया गया कोई भी कार्य परोपकार हो जाता है, और वही है - धर्म ! यह धर्म कायरों का नहीं, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर दूसरों को मारता है और वीर अपने को 'मैं'-पन को '(तुच्छ अहं को) मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ। या जो कोई मुझे हानि पहुँचा सकता है या जिस किसी को सुखद-सपनों से भरे जीवन का बाधक या समाप्त करने वाला समझता हूँ, उसे मार देता हूँ क्योंकि वास्तव में मैं कायर हूँ।
    किन्तु, जो वीर होता है वह इस वृहत जगत (जन्म-मृत्यु चक्र) से पार जाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे 'मैं'-पन को मारता है। इसीलिए धर्म तो वीरों के लिए ही होता है ! स्वामी विवेकानन्द ने कहा है," मनुष्य में अन्तर्निहित शक्ति का स्फुरण होना ही धर्म है।" "Religion is the manifestation of the 'divinity' (infinite power) already in man!"  उस धर्म की अभिव्यक्ति - बुराई को हराने, कल्याण कार्यों को सम्पादित करने,भूखों को अन्नदान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने तथा 'शुद्ध -बुद्धि को उद्घाटित करने' के प्रयास में होती है। [विवेकदर्शन के अभ्यास सहित 3H विकास के 5 अभ्यास में होती है।]
     धर्म का मुख्य कार्य ही है मनुष्य को शान्ति प्रदान करना।  स्वामीजी का विचार था कि - जो धर्म मनुष्य को इस संसार में सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख मिलेगा - का आश्वासन देना बिलकुल झूठी बात है। उन्होंने कहा था  " परजन्म में सुखी होने के लिए इस जन्म में दु:ख- भोग करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है। इस जन्म में ही, इसी मुहुर्त से सुखी होना होगा। जिस धर्म के द्वारा यह संपन्न होगा, वहीं मनुष्य के लिए उपयुक्त धर्म है।” यदि मनुष्य इस संसार में सुख प्राप्त करना चाहता हो तो केवल अपनी सुख-सुविधा की बात, अपने स्वार्थ की बात सोचने से वह सुख प्राप्त नहीं होगा। यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को उसकी विस्तारित परिधि (Extended circumference)  तक जन-कल्याण की भूमिका में नियोजित कर देता है। यही बोध उसको अपना और दूसरों के दुःख दूर करने की शक्ति और  साहस से भर देता है। यहीं से नैतिकता का जन्म होता है। धर्म -मनुष्य को समस्त प्राणियों के साथ जोड़ देता है और नीतिबोध (sense of morality) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के 'कर्म करने की नीति'  को निर्धारित करता है। 
स्वामीजी कहते हैं - " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। कोई मनुष्य चाहे रत्नखचित सिंहासन में आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से निःस्वार्थ है तो वह ब्रह्म में स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो , चीथड़े क्यों न पहनता हो, सर्वथा दीनहीन ही क्यों न हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे कि वह संसार में घोर रूप से लिप्त है। "      
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'ठाकुर-माँ-स्वामीजी के शरणागत बने रहना !'(कबूतर-छुरी और सुनसान), [ $@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [63]

काला कबूतर -छुरी और सुनसान !
 (उत्कृष्ट विवेक-प्रयोग का नेट-प्रैक्टिस सर्वत्र भगवत् दृष्टि )
शिवजी पर चढ़ाया जाने वाला बेलपत्र तीन पत्तियों से बना होता है। तीनों पत्ते यदि आपस में जुड़े हुए न रहें, तो उसे बेलपत्र नहीं कहते हैं। ठाकुर- माँ-स्वामीजी भी ठीक उसी प्रकार एक डंठल से जुड़े तीन पत्तियों जैसे हैं। तीनों में कोई अंतर नहीं है, तीनो एक ही वस्तु है। एक ही वस्तु के तीन रूप हैं। जब हमलोग ठाकुर-माँ-स्वामीजी के जीवन की घटनाओं, या विभिन्न विषयों पर दिए गये उनके उपदेशों को अलग अलग रूप से सुनते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि, ठाकुर ने इस विषय पर ऐसा कहा है, माँ ने कुछ और कहा है, स्वामीजी ने वैसा कहा है। किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा है।
जब हम उनके जीवन और संदेशों के भीतर प्रवेश करते हैं, उनके मर्म को समझने का प्रयत्न हैं, तो पाते हैं कि तीनों ने एक ही बात कही है, किसी की बात में कोई अंतर नहीं है। किन्तु इस बात को समझ पाना उतना आसन नहीं है। फिर भी इस बात को स्मरण में रखना अच्छा है कि तीनों में कोई अंतर नहीं है। श्रीरामकृष्ण के शरीर में रहते समय ही उनकी पूजा प्रारंभ हो गयी थी। माँ सारदा देवी ने ठाकुर का शरीर रहते समय ही ठाकुर की पूजा
सर्वप्रथम की थी। उसके बाद ठाकुर के निकट माँ को रख कर पूजा करना आरम्भ हुआ। उसके बाद जब स्वामीजी भी चले गये तब उनके पास स्वामीजी के चित्र को बैठा कर पूजा शुरू हुई। यह देखकर किसी व्यक्ति को अच्छा नहीं लगा, वह व्यक्ति माँ के पास आकर बोला, ' माँ अमुक व्यक्ति  -ठाकुर और आपके चित्र के पास स्वामीजी की छवि को बैठा कर पूजा कर रहा है।' माँ ने कहा, ' अरे, उनलोगों ने तो विवेकानन्द को श्रीरामकृष्ण के बगल में बैठाया है, मैं होती तो उनको सिर पर बैठाती। ' तीनो में कोई अंतर नहीं है।
जो लोग इस युग में पृथ्वी पर मनुष्य बन कर जन्मे हैं, उनका भाग्य असाधारण है। क्योंकि इस युग में ठाकुर-माँ-स्वामीजी का जीवन और सन्देश निःशब्द, अदृष्ट रूप से विश्व के आकाश में कृपा-वायु बनकर बह रही है। किन्तु उन्हें ग्रहण करने के लिये अपनी पात्रता बढ़ाने की जरूरत है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो मानो सुनकर भी नहीं सुनते। फिर अब भी बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें उनके संदेशों को सुनने का अवसर नहीं मिला है। पर यदि किसी में उनके संदेशों को सुनने की उत्कंठा हो, तो वह उनके संदेशों को अवश्य सुन सकता है, किन्तु उन संदेशों को सुनकर अपने जीवन में उतारना ज्यादा महत्वपूर्ण बात है।
विगत कुछ वर्षों में विश्व के विभिन्न देशों की अवस्था कितनी उलट दिखाई दे रही है। स्वामीजी कहा करते थे कि जगत में इतिहास की गति सर्वदा तरंगाकार हुआ करती है। कभी उत्थान तो कभी पतन होता रहता है। एक बार किसी देश के मनुष्यों की सभ्यता बढ़ते हुए उत्तुंग शिखर पर पहुँच जाती है, फिर उसका पतन शुरू हो जाता है। इतिहास की गति इसी प्रकार चलती रहती है। इस समय इतिहास की ऐसी ही एक अधोगति का समय चल रहा था। किन्तु इस समय जो कुछ घटित हो रहा है,वह सोचा भी नहीं जा सकता। कोई भी व्यक्ति किसी रूप में शान्ति से नहीं जी पा रहा है। आज सभी मनुष्य हर समय किसी न मिसी प्रकार के आतंक के बीच जी रहे हैं। चाहे वे घर में हों, रास्ते में हों, गाड़ी में हो किसी की सुरक्षा निश्चित नहीं है। तथा मनुष्य का मन इतना नीचे गिर चुका है कि व्यक्ति और समाज के जीवन से विवेक और नैतिकता बिलकुल समाप्त हो गयी है। 

जहाँ विश्व का परिवेश और परिस्थिति इस प्रकार की हो, और उस युग में जन्म ग्रहण करने के बाद भी जिस व्यक्ति को ठाकुर-माँ-स्वामीजी के संदेशों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है, उनसे अधिक भाग्यवान और सौभाग्यवती दूसरा कोई नहीं है। क्योंकि उनके संदेशों को वे युवक-युवतियां अपने जीवन में उतरने का प्रयत्न करें, तो उनमें से प्रत्येक का जीवन अत्यन्त उत्कृष्ट,महान और सुन्दर (manifested) बन जायेगा। और व्यक्ति जीवन के उत्कृष्ट और महान बनने से ही समाज और देश भी महान बन जाता है। आज इसी चीज की आवश्यकता सर्वाधिक है। किन्तु व्यक्ति चरित्र को सुंदर रूप में गढ़ने की तरफ किसी की नजर नहीं है।
एक वर्ग ऐसा है,जो धर्म को नहीं मानता। फिर एक समूह वैसे लोगों का है, जो धर्म को मानते हैं, किन्तु उनके लिये उनका धर्म ही सबकुछ है, जो केवल अपने ही धर्म को दुनिया का एकमात्र धर्म बनाने पर आमदा रहते है। अन्य लोगों का धर्म खराब है, इसीलिये अन्य धर्मों को नष्ट करने की चेष्टा करते है, यहाँ तक कि अन्य धर्म के अनुयायियों की हत्या करके भी उस धर्म को नष्ट करने की चेष्टा करते हैं। किन्तु ठाकुर-माँ-स्वामीजी की बातों को यदि सभी लोग ग्रहण करते, या अब भी ग्रहण कर लें तो ये सब बन्द हो जाते। किसी भी बाहरी प्रयास की जरूरत नहीं पडती। यदि सभी लोग देश के सभी मनुष्यों को अपना समझकर, सबों के कल्याण के लिये, सभी लोग अपने स्वार्थ को थोडा त्याग करें, और दूसरों के स्वार्थ को, दूसरों के मंगल को अपने से बड़ा समझकर देखे तो समाज बहुत उत्कृष्ट बन सकता है।
हमलोगों के देश में भी धर्म के नाम पर बहुत कुछ चल रहा है। सभी धर्मों के अनुयायी कर रहे हैं। विश्व का प्राचीनतम धर्म भारत का सनातन धर्म है, किन्तु उस धर्म के अनुयायी भी दूसरों का अनुकरण करके, बहुत जोर-शोर से यह प्रचार करने में लगे हैं कि -
उनके धर्म को बहुत बड़ा बनाकर सम्पूर्ण भारत में पुनः सुप्रतिष्ठित करना होगा! इस प्रकार के प्रचार- मार्ग को ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि डराने-धमकाने से विभिन्न धर्मों के बीच आपसी भाईचारा और और सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता। यह प्रेम का मार्ग नहीं है, जो प्रेम-सम्बन्ध को नष्ट करता हो, उस प्रकार के मार्ग पर सनातन धर्म के अनुयायियों को भी चलता देखने से बहुत से लोगों के मन में थोडा थोडा आतंक या डर भी पैदा होने लगा है। आज भी यह जारी है। इस समय मनुष्य के रूप में बाघ-भालू खुले घूम रहे हैं, कब किसकी गर्दन मरोड़ देंगे, कहा नहीं जा सकता है। 
सर्वत्र, सम्पूर्ण विश्व में, भारतवर्ष के हरेक प्रान्तों में नारी जाती की अवमानना और भ्रष्टाचार देखा जा सकता है। इस परिस्थिति में भारत के युवाओं को क्या करना चाहिये ?  क्या हमलोगों को परम्परागत रूप से चले आ रहे प्रचलित कर्मकांडों को धर्म समझकर लकीर के फकीर बने रहना चहिये? या इसके आलावा भी कोई धर्म है ? धर्म क्या है ? मनुष्य-जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ना ही धर्म है, जीवन को उत्कृष्ट बनाना, पशु मानव से देवमानव में- विकसित होना, अपने हृदय को प्रेम से परिपूर्ण कर लेना ही धर्म है। इसी को सच्चा धर्म कहते हैं। किन्तु इस सच्चे धर्म को जीवन में उतारने की बात कौन सोचता है ? हमलोगों में से कोई मन्दिर में, तो कोई मस्जिद में या गिर्जा में जाते हैं, या किसी अन्य स्थानों में जो अनुष्ठान आदि मनाये जाते हैं, उसमें ही ध्यान देते हैं। वहाँ शनिवार-मंगलवार-शुक्रवार-रविवार या हफ्ते में किसी एक दिन चले जाते हैं, या लगातार भी आते जाते रहते हैं।
मन्दिर जायेंगे तो वहां, ' भोजन-भजन और प्रवचन ' चलेगा। मन्दिर में यदि " च्वय-चुष्य" या "चाटने-पीने " लायक प्रसाद भी मिल जाय तो क्या कहना? प्रसाद रूपी भोजन हो जाने के बाद थोड़ा भजन-कीर्तन होगा।  वह भजन चाहे सुर में हो या बेसुरा हो, चाहे जिस किसी के नाम का का हो कोई फर्क नहीं पड़ता। भजन के बाद किसी शास्त्र के उपर थोड़ा प्रवचन भी चला। जिसने शास्त्र पढ़ा, वो बोला और अपने घर चला गया, उसके बाद जिसका जीवन जैसे चल रहा था, वैसे ही चलने लगा। स्वामीजी अपने भाषणों में अक्सर कहते थे, " तुमलोग अभी सुन रहे हो, सुनने के बाद घर लौट जाओगे। जो भोजन किया वह भी हजम हो जायेगा, और जो सुना वह भी हजम हो जायेगा। भोजन यही सही रूप में पच जाता है, तो उसका सार प्राप्त होता है, शरीर को पौष्टिकता मिलती है। किन्तु वैसे हजम करने से कोई लाभ नहीं होगा। जो कुछ सुना वह हजम कर गया, तब क्या लाभ हुआ ? पचाने के बाद उससे पौष्टिकता ग्रहण करनी चाहिये।"
किन्तु पौष्टिकता ग्रहण करने का धैर्य हमारे भीतर नहीं होता, तथा उसके लिये जो प्रयत्न, चेष्टा, श्रम या जो तपस्या करनी चाहिए, मन को इन्द्रिय विषयों के प्रलोभन में जाने से रोकना ही तपस्या है। उस तपस्या के लिये हम तैयार नहीं होते,क्योंकि तपस्या के लिये जितनी तीव्र इच्छाशक्ति होनी चाहिये, वह इच्छाशक्ति अभीतक विकसित नहीं हुई है। इसीलिये अनगिनत बार सत्संग-प्रवचन सुनने के बाद भी जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और हमारी अंतर्निहित दिव्यता प्रकाशित नहीं हो पाती। हमारी अवस्था तो ऐसी है कि इस कान से सुना और उस कान से निकाल दिया। अभी अच्छा प्रवचन सुना, सुनने के समय लगा, वाह क्या बात है ! इसके अलावा यह भी होता है कि जब प्रवचन चल रहा होता है, उसी बीच हमलोग दुनियादारी की बातें, द्वेष-हिंसा के विचार भी सोचते रहते हैं। और जब वहां से बाहर निकल आये तो कहना ही क्या ? जैसा था, (अपने को भेंड -M /F समझता था ) वैसा ही रह गया, तो क्या लाभ ? थोड़े समय के लिये सुना। जितने दिनों तक कैंप में रहे, तबतक कोई बुरा कार्य नहीं किया, किन्तु उतने से क्या होगा ? उससे क्या जीवन में परिवर्तन आएगा ?
जीवन में परिवर्तन लाने के लिये आदर्श को ग्रहण करना पड़ेगा। और अपने दैनन्दिन जीवन में दिव्यता  को प्रकाशित करने के लिये, उसे सुन्दर बनाने के लिये, पूर्ण करने करने की जितनी संभावना है, उसको विकसित करने लिये निरन्तर परिश्रम करना होगा। किन्तु हमारे भीतर आदर्श के प्रति वैसी निष्ठा नहीं है। कई लोग तो दीक्षा लेने के बाद भी जप-ध्यान नहीं करते हैं। कुछ लोग सुबह-शाम का रूटीन निभा देते हैं। बहुत से लोग तो गुरु का नाम और मंत्र को भी भूल जाते हैं। मैंने स्वयं दीक्षित भक्तों में अनगिनत ऐसे लोगों को देखा है, यह देखकर बहुत दुःख होता है कि कितने लोग तो अपने गुरु का नाम भी याद नहीं रख पाते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो मन्त्र भूल जाते हैं। क्या मन्त्र प्राप्त हुआ थे, उसे भी भूल जाते हैं। फिर बहुत से लोग तीव्र अधीर चित्त से जप करते हैं। हमलोग अपने बचपन से सुनते आये हैं, " व्यग्रचित्तेन यद् जप्तं तज्ज्पं निष्फ़लं  भवेत। " ऊँगली का पोर और नखाग्र की सहायता से जप करना ही पर्याप्त नहीं है, व्यग्र या तीव्र अधीर चित्त से जप करने का कोई फल नहीं मिलता। धर्म का अर्थ हमलोग इतना ही  जानते हैं ? इन सब यांत्रिक क्रियाओं में धर्म नहीं है। स्वामी विवेकानन्द 9 जुलाई 1897 ई0 को अलमोड़ा से लिखित अपनी कविता-
जाग्रत देवता  में कहते हैं-
ओ विमूढ़ !
जाग्रत देवता की उपेक्षा मत करो,
उसके अनन्त प्रतिबिम्बों से ही यह विश्व परिपूर्ण है।
काल्पनिक छायाओं के पीछे मत भागो,
जो तुम्हें विग्रहों में डालती हैं;
उस परम प्रभु की उपासना करो,
जिसे सामने देख रहे हो;

अन्य सभी प्रतिमाएं तोड़ दो ! 
"  ज़िन्दा-ख़ुदा  " ' जाग्रत देवता '
 वह, जो तुममें है और तुम्हारे बाहर भी है,
जो सब के हाथों से काम करता है,
जो सब के पैरों से चलता है,
जो हरेक शय में पैठा हुआ है,
पहले उसीकी बन्दगी करना शुरू कर दो !
और तब, बेशक! तुम
 अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो ! 
हे विमूढ़ (blasphemer) दल !
ईश-निन्दकों की जमात! 
" बन्दे " के रूप में सामने खड़े-" जिन्दा-ख़ुदा " 
की उपेक्षा करते हो ?
वे तो हर जगह पर मौजूद खुदा की जानदार तस्वीरें है !
अल्लाह की जिन्दा तस्वीरों में (अल्ला) को देखना छोड़ कर,
ख़याली पत्थर के पीछे मत भागो,

व्यर्थ के द्वंद्व-विवादों,
'महज अल्लाह परवरदिगार ' को ही अनेक रूप में देख कर,
 पहचानने में भूल मत करो,
 (पानी, अकुआ या वाटर के नाम पर झगड़ने की बात ) को भूल जाओ,
और इसी
' एकलौता काबिल ए गौर'
 अल्लाह-परवरदिगार की इबादत करो; जिसे सामने देख रहे हो !

और तब, बेशक ! तुम
अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो ! ]

ठाकुर-माँ स्वामीजी की उपदेशों का सारांश इतना ही है। ओ विमूढ़ ! तुम लोग जिसे धर्म समझ रहे हो, वह तो मुर्ख लोगो का धर्म है। जीव-जगत जो कुछ भी देख रहे हो, सब उन्हीं की अभिव्यक्ति है। वे जगत में सर्वत्र व्याप्त हैं, सत्य तो यह है कि वे ही जगत बन गये हैं ! ठाकुर-माँ स्वामीजी की भावधारा का मूल बिन्दु यही है (- शिवज्ञान से जीव सेवा ! इस विश्व, चराचर जगत में, सृष्टि की रचना में जड़ -चेतन का भेद नहीं है, सब एक का ही विविध रूप है ! )
 सम्पूर्ण जगत-सृष्टि एक और अखण्ड है। जगत में जो कुछ है, पर्वत-पहाड़-नदी-वृक्ष जिसको हमलोग प्राणी नहीं मानते हैं, जिसको जड़ समझते हैं, या जीव-जन्तु कहते हैं, वे सभी चैतन्य-मय हैं, सभी ईश्वर हैं। जीव तो ईश्वर है ही, किन्तु समस्त जीवों में श्रेष्ठ है मनुष्य। सभी मनुष्यों में में ईश्वर को नहीं देख पाने से, ईश्वर दर्शन नहीं होता। ठाकुर-माँ-स्वामीजी को वैसा हुआ था। सभी मनुष्यों के भीतर ईश्वर को देख पाने से, कोई पराया नहीं रह जाता। किसी भी मनुष्य से ईर्ष्या, वैर, विरोध, शत्रुता, कपट नहीं किया जा सकता है। किसी को हिंसा नहीं कर सकते हैं। स्वार्थपर नहीं बन सकते हैं। अपने भोग की आकांक्षा को लालच-वश दूसरों को हानी पहुंचाकर भी पूर्ण करूँगा, ऐसा विचार उसके मन में उठ ही नहीं सकता है। और इसीको धर्म-लाभ कहते हैं।स्वामीजी कहते हैं, चरित्र ही धर्म है। बाकि सब सतही दस्तूर हैं। और जो लोग इबादत के रस्मी दस्तूर के मर्म को नहीं जानते, या अनुष्ठानिक पूजा-अर्चना के महत्व को ठीक से नहीं समझ पाते, उनके लिये इबादत या आरधना केवल व्यायाम या घुटनों की कवायद बनकर रह जाती है। किन्तु ये सब धर्म के मुख्य अंग नहीं हैं। चाणक्य नीति में कहा गया है,

अग्निर्देवो द्विजातीनां,
मुनीनां हृदि दैवतम्‌ 
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां;
सर्वत्र समदर्शिनः ।।

पहले अग्नि को ही एकमात्र देवता माना जाता था। जो लोग अपना अधिकांश समय मौन होकर  व्यतीत करते हैं, उनको मननशील या मुनि कहते हैं। उनके लिये भगवान उनके हृदय में रहते हैं, कहीं बहार में नहीं रहते। ठाकुर-माँ-स्वामीजी की भाषा में कहें तो जो कुछ दिख रहा है, सब उन्हीं का भिन्न भिन्न रूप है। जिन लोगों की बुद्धि इतनी तेज नहीं है, जो लोग इन बातों को समझ नहीं पाते हैं, उनके लिये प्रतिमा (या रोल मॉडल या पूर्णमनुष्य के आदर्श) की आवश्यकता होती है। "सर्वत्र समदर्शिनः", और जो समदर्शी हैं, (अर्थात जिन्होंने एकाग्रता का अभ्यास करके अपने सच्चे स्वरूप को जान लिया है, या जिन्हें आत्मसाक्षात्कार हो चूका है) उनके लिये ईश्वर सर्वत्र हैं। ऐसा कोई स्थान (देश-कल-निमित्त) नहीं है,जहाँ ईश्वर नहीं हों। 
उपनिषद युग की एक कहानी है। उस समय गुरुकुल ( जहाँ विद्यार्थी आश्रम में गुरु के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे,) हुआ करते थे। कुछ लडके गुरु के आश्रम में अर्थात उनके घर में वेद आदि सीखने,पढ़ने, ज्ञान प्राप्त करने जाया करते थे। वहाँ पहुंचकर गुरु की सेवा करना उनका कार्य था। गुरु की सेवा-सुश्रुषा करने से यथार्थ ज्ञान होता है। उनको जंगल से लकड़ी लाने के अतिरिक्त अन्य कार्य भी कर करने पड़ते थे। इसी प्रकार से बहुत दिन बीत गये। एक दिन छात्रों ने गुरु से पूछा आप क्या हमलोगों को ज्ञान सिखायेंगे? कब से सिखायेंगे ? गुरु बोले -हाँ सिखाऊंगा। 

तुमलोग एक काम करो, सभी अपने हाथों में एक एक कबूतर ले लो। कबूतर और एक छूरी लेकर इधर उधर चले जाओ। और अपने अपने कबूतर को काट कर लेते आना। किन्तु ध्यान रखना किकोई, कहीं देखता न हो। उस समय के गाँव थे, खाली खाली मैदान, सुनसान-बियाबान जंगल पहाड़ थे। लोग जन बहुत कम थे, कहीं जंगल तो कहीं नदियाँ थीं। गुरु का आदेश सुनकर सभी छात्र कोई किसी तरफ तो कोई किसी तरफ निकल पड़े। कोई इधर, कोई उधर छिप कर छुरी से काटने लगे। दोपहर का समय बीत जाने के बाद सभी एक एक करके गुरु के पास आने लगे।
गुरु सबसे पूछते- काट कर ले आये ? किसी ने देखा तो नहीं ? -नहीं, किसी ने नहीं देखा। कहाँ गये थे ? - घने जंगल में चला गया था, जहाँ कोई प्राणी तो क्या पशु-पक्षी भी नहीं थे। दूसरे छात्र ने कहा -नदी के किनारे, जहाँ एक गाय भी नहीं चर रही थी। एक अन्य छत्र बोला मैं तो समुद्र के किनारे चला गया था। वहाँ दो तीन लोग घूम रहे थे, यह देख कर मैं समुद्र के जल में डूबकी लगा दिया और पानी के भीतर में काटा। इसी प्रकार सभी अपना अपना वृतान्त सुनते रहे। किन्तु दिन ढल गया। शाम होने को था। पर एक छात्र अभी तक वापस नहीं आया था। तब सभी को चिंता होने लगी। गुरुदेव बोले -जाओ जाओ खोजो कहाँ है? वे लोग थोडा इधर उधर देखे पर कहीं मिला नहीं।
इसी बीच वह लड़का रोते रोते कबूतर लिए हुए गुरु के चरणों में गिर कर बोला, गुरुदेव ! मैं आपके आदेश का पालन नहीं कर सका। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गयी है। आप क्या करेंगे, दण्ड देंगे या क्षमा कर देंगे मुझे सब स्वीकार होगा। क्यों क्यों। सभी तो काट कर ले आये हैं। पर वे लोग कैसे यह काम कर सके होंगे मैं नहीं जानता। मैं तो घने जंगल में गया था, नदी के किनारे गया था, समुद्र के किनारे गया था, पानी के नीचे भी डूबकी लगाया। किन्तु सभी जगह देखता हूँ, हजार सिर, हजार आँखें, अनन्त हाथ, अनन्त पैर। कोई सुनसान जगह नहीं मिला। भगवान जगन्नाथ की बड़ी बड़ी की आँखें हर स्थान में ज्वलंत होकर निहार रही थीं। ऐसा कोई स्थान मुझे नहीं मिला जो भगवान के लिये दृष्टिगोचर न हो,या जहाँ भगवान की आँखें नहीं देख रही हों।
गुरुदेव ने कहा, तुमको अब और कुछ पढने की आवश्यकता नहीं है। तुम घर चले जाओ। तुम्हें पूर्ण ज्ञान  हो चूका है। इसी अवस्था को पाने के लिये तो वेद पढ़ा जाता है, वेदाभ्यास (ज्ञान का नेट प्रैक्टिस ) किया जाता है। मनुष्य जीवन में इससे बड़ी अभिज्ञता, प्रत्यक्ष ज्ञान (या Perception) और कुछ नहीं है। ईश्वर दर्शन होने का यही प्रमाण है। सर्वत्र उनका ही दर्शन करना। ( केवल मनुष्य जीवन में ही इसे व्यव्हार अपनाया जा सकता है! )      
हमें यह सीखना होगा कि किसी व्यक्ति को ऐसी दृष्टि कैसे प्राप्त होती है ? ऐसी दृष्टि जिसको मिल जाती है, उसी को यथार्थ मनुष्य बनना कहते हैं। इसी को मनुष्य बन जाने का मार्ग कहते हैं। और इसीलिये स्वामीजी के गद्य-पद्द्य में दिये गये समस्त संदेशों को स्मरण में रखना आवश्यक हो जाता है। चरित्र ही धर्म है। जो पवित्र है, जो केवल प्राण धारण करने तक स्वार्थ को स्वीकार करता है। जिसके हृदय में सबके प्रति संवेदना होती है,जो सबों से सहानुभूति रखता है, जिसके हृदय में सबों के लिये स्थान है, जो सबों के लिये जितना अधिक सोचता है, उतना अपने लिए नहीं सोचता।
पहले ठाकुर के जन्मोत्सव पर प्रत्येक वर्ष सुन्दरवन जाया करता था, एकबार ऐसा ही दृश्य देखने को मिला था। अलग अलग द्वीपों पर उत्सव मनाया जाता था था, कुछ सन्यासी भी हमलोगों के साथ जाते थे। उस समय मोटर-बोट नहीं था, चप्पू वाली नौका चलती थी। रात्रि में किसी द्वीप पर उत्सव समाप्त हो जाने के बाद, दूसरे द्वीप पर जाने में नाविक सारी रात चप्पू चलाते रहते थे। इस नदी, उस नदी को पार करके किसी द्वीप पर पहुँचता था। एकबार किसी द्वीप पर होने वाले एक उत्सव में गया था। वहां जाने पर सुना कि एक अन्य सन्यासी भी उत्सव में भाग लेने आये हैं। वे अगले दिन होने वाले उत्सव में भी हमलोगों के साथ जायेंगे।
दुसरे दिन तटबंध के किनारे किनारे जा रहे थे, कोई सडक या मोटर गाड़ी नहीं थी। वहां बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने कभी अपनी आँखों से कोयले का ईंजिन भी नहीं देखा है। वैसे स्थान में सन्यासी मेरे साथ बातचीत करते हुए चल रहे थे। ऊँचे तटबन्ध के दोनों किनारे समतल स्थान के बीच बीच में घर बने हुए थे।
 संयासिजी को जब भी कोई घर दिखाई पड़ता, और सामने घर की स्वामिनी दिखाई देती वे अचानक नीचे उतर कर एक ही बात हर किसी से कहते- " ओमा ! यह घर तुम्हारा नहीं है, ये भगवान का घर है। ओमा! तुम्हारे पती तुम्हारे नहीं हैं, भगवान के हैं। ओमा, तुम्हारे लड़के-बच्चे भी तुम्हारे नहीं हैं, सब भगवान के हैं। इस बात को हमेशा याद रखना और घर के सारे काम करना। "
जैसे ही बीच में कही घर के सामने, घर का कोई व्यक्ति खड़ा दिख जाता, उतर जाते और सब से यही बात कहते। हमलोगों के साथ साथ जो लोग चल रहे थे, उनमे से किसी ने कहा यह साधू बाबा तो एकदम पगला गये लगते हैं। किन्तु यही सीखने वाली बात है। हमें आजीवन नेट-प्रैक्टिस करना है, 'सच्चा विवेक-प्रयोग' है --  कि यहाँ कुछ भी अपना नहीं है, सबकुछ उनका है- भगवान का है ! मेरे भीतर जो भगवान हैं, वे ही सबों के भीतर हैं। इस बात को चेष्टा करते करते (नेट प्रैक्टिस - सद्गुरु और माता-पिता को जूते उतार कर प्रणाम करने से ) सीखनी होगी। मन को हर समय समझाते रहना होगा, यह अभ्यास उतना आसान नहीं है, कठिन है।
यदि हमलोग श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग, माँ सारदा की जीवनी, विवेकानन्द-चरित आदि ग्रन्थों को ठीक से पढ़ें, सुनें, उनके नाम-रूप-लीला- धाम की विवेचना करें; अकेले में बैठकर विश्वास पूर्वक मनन करें, तो हमलोग उनके सान्निध्य या सामीप्य (vicinity) प्राप्त कर सकते हैं। वे लोग सामने बैठे हैं, उनकी 'साक्षात् उपस्थिति' का अनुभव कर सकते हैं। यही एक मात्र उपाय है;  आध्यात्मिक रूप से विकसित होने का (विवेक-प्रयोग का नेट प्रैक्टिस ही ) यही एकमात्र उपाय है। निरंतर विवेक-प्रयोग करते हुए अपना ऐसा चरित्र निर्माण करना होगा कि हमलोग समदर्शी बन जायें, और सर्वत्र उन्हीं को देख सकें, और उनकी सेवा साक्षात् शिव समझकर करने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाये।

 "सर्वत्र समदर्शिनः"समदर्शी चरित्र वाला मनुष्य बनने के बाद ही,हमलोग अपने देशवासियों या विश्व के अन्य मनुष्यों के   काम में आने लायक " वृक्ष जैसे उपकारी " मनुष्य बन जायेंगे। यदि हमलोग मनुष्य मात्र के लिये उपकारी नहीं बन सके, तो ऐसा दुर्लभ ' मनुष्य-जीवन ', जिसमें सर्वत्र भगवान को देखना और सेवा करना संभव हो जाता है, व्यर्थ चला जायेगा। जीवन सार्थक नहीं होगा, निरर्थक हो जायेगा, मृत से भी अधम जीवन हो जायेगा। यदि हमलोग केवल अपने ही बारे में सोचते रहें, केवल अपने लिये ही सबकुछ करें, भोग की आकांक्षा को क्रमशः यदि बढ़ाते रहने की चेष्टा करें, तो बढ़ती चली जाएगी। भागवत में है, महाभारत में है, पुराणों में बहुत से श्लोक हैं- क अग्नि में घी ढालने से अग्नि बुझती नहीं है, बल्कि और अधिक भड़क उठती है
न जातु कामः कामानुपभोगेन शाम्यति ।
 हविषा कृष्णवर्त्मॆव भूय एवाभिवर्धते ॥
(Swami Vivekananda's Translation: Desire is never satisfied by the enjoyment of desires; it only increases the more, as fire when butter is poured upon it)-अर्थात कामना-वासना की पूर्ति के लिये कोई भी वस्तु - कामना की अग्नि में डाल देने से, कामना की अग्नि बुझती नहीं है,बल्कि दुगनी शक्ति के साथ पुनः प्रज्ज्वलित हो जाती है। इसीलिये बाहर से भोग्य वस्तुओं को डाल कर कामना-वासना को, या भोग की इच्छा को समाप्त नहीं किया जा सकता है। कामना-वासना को त्याग करने के लिये, एकाग्रता का अभ्यास करना सीखना होगा। 
इच्छाशक्ति  के प्रवाह को दृढ़-संकल्प के द्वारा विवेक-प्रयोग करके मन को समझाना पड़ेगा कि , अब इतना कामना वासना के पीछे नहीं दौडूंगा। शास्त्रों में बहुत सुन्दर कहा गया है, कि परलोक या स्वर्ग में जितने सुख हैं, तथा पृथ्वी पर जितने सुख हैं, वे सब सुख मिलाकर भी त्याग के सुख के सामने षोड्स कला के एक कला ( या 16 आना का 1 आना ) भी नहीं है। त्याग से मिलने वाला सुख (देहाध्यास के त्याग से मिलने वाला सुख ?) सबसे अधिक होता है। इसीलिये स्वामीजी उपनिषदों को बार बार उद्दृत करते हुए कहते थे- त्याग, त्याग, त्याग " त्यागेन एके अमृतत्व मानशु: " - ठाकुर कहते थे बता सकते हो, गीता के उपदेशों एक शब्द में कैसे ब्यक्त किया जा सकता है ? वह है त्याग ! गीता, गीता, गीता - को बार बार बोलने से क्या सुनाई देगा ? तागी, तागी, तागी। कुछ लोगों ने सोचा कि ठाकुर अधिक पढ़ना-लिखना नहीं सीखे थे, शायद इसीलिये 'त्यागी' को 'तागी' कह रहे हैं। किन्तु संस्कृत के एक विद्वान् भी वहां उपस्थित थे, उनहोंने बताया कि संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'त्यागी ' और ' तागी ' अर्थ एक होता है।
ठाकुर के चले जाने के बाद, मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिये उनकी सभी संतानें माँ के पास जाने लगे थे। इसके पहले तो माँ को कोई समझ भी नहीं पाते थे। बाद में थोड़ा-बहुत समझ सके थे। सचमुच उनका जीवन अद्भुत था, अभूतपूर्व था ! प्राचीन काल में- सीता, सावित्री, दमयन्ती आदि जितनी भी महान नारियां हुई हैं, वे श्री श्रीमाँ की तुलना में कुछ भी नहीं हैं। उनके जैसा असाधारण जीवन किसी भी देश के इतिहास में ढूँढने से भी नहीं मिलता है।
भगवान बुद्ध ने भी अपनी स्त्री का त्याग किया था। भगवान राम ने भी अन्त में सीता को बनवास भेज दिया था, इसके पीछे कारण चाहे जो भी रहा हो। किन्तु ठाकुर ने न तो कभी माँ का त्याग किया, और न उनको कभी वनवास के लिये भेजा। उन्होंने श्रीमाँ को ही जगत-जननी के रूप में स्वीकार किया था। ऐसा दूसरा उदाहरण जगत के इतिहास में कहीं नहीं है। मेरे पहले बोलते हुए माताजी कह रहीं थीं- "वे तो बिलकुल अपनी माँ हैं ! हमलोग जिद करके, (उनसे रूस करके-जाओ मैं नहीं खाऊंगा की जिद ठान कर) जबरदस्ती उनकी गोदी में बैठ जायेंगे !"
तुमलोगों के ऐसे कैम्प में तुमलोगों के साथ बात करते करते ऐसा लगा मानो माँ की एक बहुत विशाल मूर्ति सामने है, और तुमलोग जो जहाँ है, वहीँ माँ की गोदी में चढ़ कर बैठ गयी हो। वे तो हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, भारतीय, विदेशी, पुरुष-स्त्री, बालक-वृद्ध, शिशु -  सबों की माँ हैं। माँ तो पवित्रता-स्वरूपिणी हैं, पवित्रता की साकार मूर्ति हैं; वैसी माँ की गोदी में शरण लेने से, समस्त अपवित्र भाव दूर हो जायेंगे। हमलोगों की स्वार्थपरता दूर हो जाएगी। दूसरों का कल्याण, दूसरों का हित, दूसरों अपना बना लेना- यही हमलोगों के जीवन का व्रत बन जायेगा। और यही बात स्वामीजी ने भी हमलोगों को सिखाया है- " यह जीवन बहुत छोटा है, क्षण-स्थायी है, और इस जीवन के जितने भी ऐश्वर्य, भोग की वस्तुएं हैं, वे सब भी क्षण-स्थायी हैं। इसीलिये केवल वही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीना सीख जाते  हैं। ' किसी का दर्द मिल सके तो लो उधार- जीना इसीका नाम है।' और जो लोग ऐसा नहीं कर पाते, वे मृत से भी अधम हैं।"
हमलोग कहीं मृत से अधम नहीं बन जाएँ, इस शिविर में हमलोग दूसरों के लिये जीना सीखेंगे। माँ की पुकार को सुनकर, कहाँ कहाँ से सैंकड़ो की संख्या में कमउम्र की और उम्रदराज स्त्रियाँ कितनी दूर दूर से आ रही हैं। यहाँ पर समय की आवश्यकता के अनुरूप सही कार्य हो रहा है। यह कार्य बड़े बड़े उत्सव, बड़े बड़े कीर्तन, बड़े बड़े संगीत, बड़े बड़े प्रवचन, बहुत बड़े पूजा-पंडाल में भोग-प्रसाद खिला देने से भी नहीं हो सकता है। मन में इसकी ललक रहनी चाहिये।
 ठाकुर-माँ-स्वामीजी की छत्र-छाया में शरण लेने का प्रयत्न करना चाहिये। तैतीस करोड़ देवता की बात को याद करके, काली-शिव की पूजा करने और ठाकुर-माँ-स्वामीजी को छोड़ देने की जरूरत नहीं है। वे हमलोगों के जीवन में गुणवत्ता लाने वाले हैं, हमारे जीवन-धन हैं। यह विश्वास रहना चाहिये की वे हमारे सगे माँ-बाप-भैया जैसे हैं। उनको अपना जानकर-उनके जीवन और उपदेशों को सुनना, उस पर मनन-

चिन्तन करना, आत्मसात करना और अपने जीवन तथा आचरण में उतार लेना होगा। उनकी शिक्षाओं को चरित्रगत करना होगा। हमलोगों के आचार-व्यवहार में, बोलने और चिन्तन करने में उन्हीं के भाव अभिव्यक्त या प्रकाशित होने चाहिए। ऐसा करने का नाम ही है चरित्र गठन।
यह कार्य महामंडल के माध्यम से विगत 35 वर्षों से लड़कों के लिये चलता आ रहा है, उसी प्रकार लड़कियों के लिये नारी संगठन भी प्रारंभ हुआ है। पश्चिम बंगाल के बाहर बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, एवं ओडिशा में भी कार्य चल रहा है। कुछ समय पहले रायपुर गया था, वहां 35-40 लड़कियां विभिन्न स्थानों से आई थीं। अंबिकापुर  बहुत दूर-दराज का दुर्गम रास्ता पार कर के आई थी, विलासपुर, भिलाई आदि जगहों से आई थीं। 2-3 घंटे चर्चा हुई। वे लोग कैम्प में शामिल होने की बहुत इच्छुक थीं। यही है एकमात्र कार्य। सबसे बड़ा कार्य। वर्तमान युग में जैसी आबोहवा हो गयी है, विभिन्न संवाद माध्यमों के द्वारा आजकल जो परोसा जा रहा है, उसको मुंह से कहा भी नहीं जा सकता,सारी मर्यादाएं टूट रही हैं। इन सबसे समाज को बचना होगा।
भारतवर्ष तो में अभी सुर भी कुछ बदला बदला नजर आ रहा है। विद्यासागर, रविन्द्रनाथ, बंकिमचन्द्र, सुभाषचन्द्र आदि का नाम देश में कम सुनाई देता है। इस बार लक्ष्मीपूजा में टी . वी . के संवाददाताओं को अधिक काम नहीं मिला तो वे राजनितिक नेताओं के घर घर में पहुंच गये। उनसे पूछ रहे थे, क्या आप लक्ष्मी पूजा मना रहे हैं ? क्या आप इस सब पर विश्वास करते हैं? हाँ, मैं तो इन सब पर विश्वास नहीं करता, किन्तु घर में हो रहा है, सभी खुशियाँ मना रहे हैं। तो मैं उनकी खुशियों में बाधक क्यों बनुगा? क्या अपने प्रसाद खाया था ? हाँ, घर में ही प्रसाद बन रहा है, बिना खाए कैसे रहता ? किन्तु ऐसी धार्मिकता से कोई लाभ नहीं होता। ऐसा नहीं है कि प्रसाद खा लेने से धार्मिक हो जाऊंगा, या नहीं खाने से ही प्रगतिशील विचारों वाला बन जाऊंगा। यह सब समझने की बातें हैं, अन्दर से समझना होता है।
धर्म क्या है ? अंतर्निहित वस्तु ( पूर्णता, दिव्यता या ब्रह्मत्व) के विकास और प्रकाश को धर्म कहते हैं। इस जीवन को महान जीवन में रूपांतरित कर लेना धर्म है। हमलोगों को उसी धर्म का पालन करना चाहिये। इसका वास्तविक नाम आध्यात्मिकता है। अर्थात हमलोग केवल हड्डी और मांस के बने पिजड़ा या कोई बंदीगृह नहीं हैं। इस पिंजड़े के भीतर एक वस्तु (पंछी) है, जो अनन्त शक्तिशाली है। जो ज्ञानमय है, आनन्दमय है, प्रेममय है। उसको जाग्रत करना होता है। जो उसका सन्देश सुनकर, उसे जगाने की चेष्टा करता है; उसका जीवन आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।
ठाकुर-माँ-स्वामीजी के जीवन को उपर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो उन लोगों को कितना दुःख भोगना पड़ा है! किन्तु उनलोगों का जो भी दुःख कष्ट था, वह दूसरों के लिये था, वे लोग कभी अपने दुःख के कारण नहीं रोये थे, वे लोग दूसरों के दुःख को दूर करने के लिए रोते थे। दूसरों के दुःख को देखकर उन्हें अपने छाती में असह्य कष्ट का अनुभव होता था। हमलोगों को भी अपना हृदय टटोल कर देखना होगा कि दूसरों के दुःख को देखने से हमारे दिल को दुःख पहुँचता है, या नहीं? यदि नहीं होता, तो हमलोगों के वैभव, पहनावे-ओढ़ावे से आरम्भ करके, हमलोगों का खान-पान, चलना-फिरना, तथा घर में जितने भी प्रकार के आधुनिक उपकरण या वैसे सब वस्तुओं का अम्बर भी हो तो, सब व्यर्थ है, क्योंकि ये सब यहीं पड़े रह जायेंगे। मनुस्मृति में कहा गया है-

             एक-एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयात्ति यः |
                  शरीरेण समं नाशं सर्व मन्यत्तु गच्छति ||

- अर्थात् मनुष्य के मरणोपरांत उसके साथ केवल उसका धर्म ही जाता है। इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी साजो-सामान हैं, शरीर नष्ट होने साथ ही साथ वे सब नष्ट हो जाते है। एक मात्र धर्म ही सच्चा मित्र है जो मरने के बाद भी जीवात्मा का साथ देता है और सब चीजें तो शरीर के साथ ही यहीं छूट जाती हैं,  नष्ट हो जाती है। 
चाहे जितनी बड़ी बड़ी चीजों को संग्रहित क्यों न क्या जाय, सब कुछ यहीं पड़े रह जाते हैं। किन्तु इस कठोर सत्य को हम समझना नहीं चाहते हैं। किन्तु नहीं, फिर भी हमलोग उसी के पीछे दौड़ते रहते हैं। जो विशाल धन-दौलत, संपन्नता हमलोगों के भीतर पहले ही से मौजूद है, उस गुप्त कोश की तरफ हमारी दृष्टि (आत्मा की दिव्य आँख -मन की दृष्टि ) कभी जाती ही नहीं है। एक बार यदि भीतरी गुप्त-कोश में छुपी दौलत -'कोहेनूर ' पर नजर पड जाये तो, बहार में दिखने वाली जितनी भी सम्पदाएँ हैं, आन्तरिक वस्तु के सामने ये सभी तुच्छ लगने लगेंगी। स्वामीजी ने उपनिषदों के बालक नचिकेता की कहानी सुनाई थी, जो यम के आमने-सामने खड़ा हुआ था, और बातचीत की थी। किन्तु यमराज उसको बालक समझकर भीतर के आत्मतत्व को नहीं देकर विभिन्न प्रकार के प्रलोभन दे रहे थे। उसको भोग की क्स्तुओं का लोभ दिखा रहे थे, नाच-गान दिखाकर बाहरी वस्तुओं में उसके मन को भुलाने की कोशिश कर रहे थे। किन्तु उस बालक ने आत्मतत्व को जान लेने के बाद ही यमराज का पीछा छोड़ा था। वैसी ही चेष्टा हमलोगों के भीतर भी होनी चाहिए।
इसीलिये यह हमारा परम सौभाग्य है कि इस युग में जन्म ग्रहण करके ठाकुर-माँ-स्वामीजी का नाम सुन पा रहे हैं। सन्यासिनी माँ, अभी माँ के जीवन की एक घटना तुम्हें सुना रही थी। इस प्रकार की कितनी ही घटनाएँ हैं। किन्तु सच्चा लाभ तो तब मिलेगा, जब हमलोग उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार सकेंगे। अक्सर कोई चीज जब आसानी से प्राप्त हो जाती है, तो हम उसका मूल्य नहीं समझते है। हमलोग कैसे मनुष्य बन सके हैं, इस बात को हम नहीं जानते, इसीलिए इसका मूल्य भी नहीं समझ पाते हैं। इसीलिये शंकराचार्य ने कहा था, यदि हमलोग इस देव-दुर्लभ मनुष्य जीवन एवं उसके साथ ही साथ पुरुषार्थ, अर्थार्थ स्वयं की कार्यक्षमता, उद्द्य्म, और संकल्प में दृढ़ बने रहने का पौरुष को, इस मनुष्य जीवन में प्राप्त करके भी यदि उन्हें अपने व्यव्हार में लाकर, अपने जीवन को पूर्ण नहीं बना सकें, तो हमलोग  नितान्त ही कृपण और नितान्त मूर्ख हैं।  इससे बढ़कर मुर्खता और कुछ भी नहीं है। हमलोग इन तीन दिनों तक जो कुछ सुनेंगे, सीखेंगे, उसको घर लौट जाने के बाद जीवन में उतरने का अभ्यास करेंगे। जो जीवन और सन्देश अभी पुस्तकों में है, उसको पढना होगा। 

धर्म को अपने जीवन का एक अलग हिस्सा बनाकर रखने से काम नहीं होगा। घर में जैसे एक कमरा रसोई का होता है, एक खाने का कमरा होता है, एक सोने का कमरा होता है, बैठने का कमरा अलग होता है, वैसे ही एक पूजा का कमरा भी होता है। उसी प्रकार धर्म को भी जीवन का एक टुकड़ा (अनुच्छेद) बनाकर रखने से नहीं होगा। धर्म को जीवन में अंतर्भूत (immanent) करना चाहिये। तभी धर्म हमारे समग्र जीवन को भरे रखेगा।
इसीलिये कहा जाता है कि शिक्षा की कुछ आवश्यकता होती है। हाँ शिक्षा की कुछ आवश्यकता है। किन्तु शिक्षा से ही सबकुछ नहीं होता; इस बात को ठाकुर, माँ, स्वामीजी ने अपने जीवन द्वारा प्रमाणित किया है। स्वामीजी ने कुछ शिक्षा पायी थी, इसीलिये कि आगे चलकर पूरे विश्व को सुनाना था। किन्तु ठाकुर-माँ के जीवन में वैसा नहीं हुआ था, जीवन-गठन में स्कूली-शिक्षा की तूच्छता को प्रमाणित करने के लिये ही  बाहर की शिक्षा लेने की आवश्यकता उन्हें नहीं हुई थी। किन्तु हमलोगों के लिये बाहर की शिक्षा रहने से सुविधा होती है। बाहर से झटका देने जैसा। जैसे भीतर को जगाने के लिये बाहर से शिक्षा का झटका देना काम करता है। हमलोग पुस्तकों को पढ़ सकते हैं, सुन सकते हैं, समझ सकते हैं, इसीलिये ताकि हम उनको हृदयंगम कर सकें। नहीं तो जीवन भर केवल पढ़ते-सुनते रहने से भी कुछ नहीं होगा। या केवल लोगों को सुनाने के लिये अच्छा भाषण देने से भी नहीं होगा।

वाग्‍वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्‌। 
वैदुष्यं विदुषां तद्वद् भुक्तयॆ न तु मुक्‍तये॥

Swami Vivekananda's Translation: Wonderful methods of joining words, rhetorical powers, and explaining texts of the books in various ways — these are only for the enjoyment of the learned, and not religion.
- शास्त्रों के शब्दों को आश्चर्यजनक भावभंगिमा बनाकर व्याख्या करने, या उसके सिद्धान्तों पर भाषण झाड़ देने से बोलने वाले को मौज-मस्ती मिलती है, भोग-विलास होता है, लेकिन मुक्ति नहीं मिलती, धर्म की उपलब्धी नहीं होती है। 

और हमलोग भक्ति भक्ति चिल्लाते हैं। भक्ति इतनी आसान वस्तु नहीं है। किसी तीर्थ में जाने से थोड़ी देर के लिये भक्ति जाग जाती है। किन्तु भक्ति शब्द का वास्तविक अर्थ है, अपने जिस ईष्ट के प्रति हम श्रद्धा रखते हैं, उनके विचारों को अपने जीवन में उपयोग करना। भागवत में कहा गया है, जो व्यक्ति अपने ईष्ट की मूर्ति की पूजा बहुत अच्छे तरीके से करता है, किन्तु उनके भक्तों की या दूसरों की जो उनके भक्त नहीं हों, उनकी पूजा जो नहीं करता, वह अति सामान्य भक्त हैं, अर्थात अति निम्न कोटि के भक्त हैं। आगे कहा गया है, उस भक्त को भी उत्तम भक्त नहीं कह सकते जो, ईश्वर से प्रेम करता है, ईश्वर के भक्तों को अपना प्रिय मानता है, जो मुर्ख हैं उनके उपर कृपा करता है, जो विद्वेषी हों या शत्रुता रखते हों, उनकी उपेक्षा करता है।
फिर उत्तम भक्त कौन है ? जो अपनी आत्मा में सबों की आत्मा को देखता है, तथा सबों की आत्मा में जो अपने आत्मरूपी ईश्वर को देखता है-वही उत्तम भक्त है। भक्ति के मार्ग से धर्म-लाभ करने या चरित्र-निर्माण के द्वारा इसी भक्त की अवस्था को प्राप्त करना पड़ता है। भक्ति उतनी आसान वस्तु नहीं है, बहुत कठिन है। अभी, कल ही एक धार्मिक प्रतिष्ठान से एक बेयरिंग पत्र मिला था। पाँच रूपये की डाक टिकट को दस रुपया देकर छुड़ाना पड़ा। वह पत्र बहुत नामी संस्था के द्वारा भेजा गया एक सायक्लोस्टाइल पत्र था। उसमे केवल इतना लिखा था- " तुम मेरा अनुसरण करो, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। "इतना लिख कर प्रेषक और प्रेषित केवल पता देकर भेज दिया था। धर्म कभी इतनी आसनी से अर्जित होने वाली वस्तु नहीं है। इसीलिये इस प्रकार के धर्म की पहेली में उलझने की जरुरत नहीं है। हमलोग अक्सर कुछ अलौकिक चीजों को देखने-सुनने की तरफ दौड़ पड़ते हैं। किन्तु ऐसा कुछ नहीं है, जो अलौकिक होता हो।
 स्वामीजी ने कहा है, " मिरेकल्स डू नॉट हैपन !" अर्थात अलौकिक या अतिप्राकृतिक रूप से कुछ भी घटित नहीं होता, जो कुछ भी घटित होता है, वह प्रकृति के भीतर ही घटित होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था- " बादलों से वृष्टि होती है, उसके लिये महेन्द्र को क्या करना है ? " उस समय भी इतनी वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकृति के नियमों को देखा जाता था ! किन्तु आजकल हर चीज को देखकर हम भौचक्का हो जाते हैं, या भ्रान्ति में पड़ जाते हैं। यहाँ किसी के पास स्पष्ट धारणा नहीं है।
मनुष्य क्या है ? इसकी स्पष्ट धारणा नहीं है। जीवन क्या है, या इसका लक्ष्य क्या है ? इसकी कोई स्पष्ट धारणा नहीं है। हमें जो मनुष्य जीवन मिला है, इसका सदुपयोग कैसे हो सकता है ? इन सबके बारे में कोई स्पष्ट धारणा नहीं है। विभिन्न प्रकार के परिवेश और परिस्थितियों में रहते हुए जैसे तैसे संचार माध्यमों के द्वारा प्रभावित और दिग्भ्रमित होकर जो लोग  अन्य मार्गों में भटक गये हैं, उनका अनुकरण करते हुए हमलोग अपने मार्ग को छोड़ कर उन्हीं के पीछे दौड़ रहे हैं।
ऐसे दिग्भ्रान्ति के युग में भी हमलोगों के लिये कोई भय नहीं है। मा भयः ! मा भयः ! माँ हैं , ठाकुर-माँ-स्वामीजी हैं। उनको कास कर पकड़ लेना होगा, वैसा करने से हम कभी गिरेंगे नहीं, या ठोकर लगने से भी संभल जायेंगे, या दुबारा कभी गुमराह (पथ-भ्रष्ट) नहीं होंगे, हमारा जीवन नष्ट नहीं होगा, पूर्ण हो उठेगा। आइये ठाकुर-माँ-स्वामीजी के चरणों में एक साथ मिलकर प्रार्थना करें, ताकि हम सफल हो सकें।