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मंगलवार, 22 जनवरी 2013

🔱🙏धर्म सनातन है 🔱🙏[SVHS-29 ] 🔱🙏 "सर्वोच्च की ओर कदम बढ़ाना -प्रपत्ति (शरणागति) है ! 🔱🙏"धर्म व्यवहार की वस्तु है, धर्म तो आचरण में उतारने की चीज है। 🔱🙏 [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-खण्ड -5 : (धर्म और समाज) ]🔱🙏

🙏धर्म सनातन है 🙏

     सनातन धर्म के नाम से भी कुछ है- ऐसा हमने सुना है। तो क्या ' सनातन ' नाम का कोई धर्म भी है ? नहीं वैसी कोई बात नहीं है। ' धर्म ' तो सनातन ही होता है, अर्थात शाश्वत होता है। 'धर्म' हमेशा के लिये (forever) सदैव रहने वाली चीज है। जब जगत की सृष्टि हुई, उसी के साथ साथ धर्म की भी सृष्टि हुई है। जबतक यह जगत रहेगा, तबतक धर्म भी रहेगा। सृष्टि हमेशा के लिये है, इसीलिये धर्म भी हमेशा के लिये है, अर्थात धर्म सनातन है, अनदि-अनन्त है! ब्रह्मसूत्र (२.१.३५) में कहा गया है- 'अनादित्वात्' अर्थात सृष्टि अनादि -अनन्त # है। विश्वधर्म-महासभा में, 19 सितम्बर, 1893 को  'हिन्दुधर्म ' के उपर भाषण देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा था, " सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । (ऋग्वेदः सूक्तं १०.१९०) "-अर्थात ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी।  -(धाता) परमेश्वर जैसे पूर्व कल्प में सूर्य, चन्द्र, विद्युत्, पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि बनाता था। वैसे ही अब बनाये हैं और आगे भी वैसे ही बनावेगा। --इस वाक्य का नित्य पाठ प्रत्येक हिन्दू बालक प्रतिदिन करता है। " (१/८) 
आचार्य शंकर ने अपने गीता-भाष्य में एक स्थान पर पुराणों  से कुछ श्लोक को उद्दृत करते हुए कहा है- "आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः।" --यह सब भूतों का आजीव्य ~ "जीविका या रोजी का साधन " सनातन ब्रह्मवृक्ष है। यही ब्रह्मवन है, इसी में ब्रह्म सदा रहता है।  संसारसे विरक्त हुए पुरुष को ही भगवान का  तत्त्व जानने में अधिकार है; अन्यको नहीं। यहाँ उन्होने भी जगत को जीवों के वास करने लायक एक सनातन वृक्ष कह कर उल्लेखित किया है। 
        समस्त सृष्ट पदार्थों तथा प्राणियों का एक धर्म रहता है। जो कुछ भी सृष्ट  होता है, वह एक धर्म के साथ ही होता है। धर्म बाहर से आने वाली वस्तु नहीं है, यह आंतरिक वस्तु है। इसीलिये धर्म की व्याख्या करते समय अक्सर आग और पानी का उदाहरण देकर समझाया जाता है कि जैसे आग और पानी का एक धर्म होता है, उसी प्रकार मनुष्य का भी एक धर्म होता है। किन्तु आग और पानी के उदाहरण से मनुष्य के धर्म की व्याख्या करना बहुत ठीक नहीं है। क्योंकि, पदार्थ या अन्य जीव और मनुष्य के धर्म में एक विशेष अन्तर होता है। मनुष्य से भिन्न किसी अन्य पदार्थ  या अन्य प्राणी (पशु या देवता ) में  धर्म का विकास  नहीं होता। किन्तु मनुष्य योनि में  धर्म विकसित होता है,  मनुष्य धर्म के क्षेत्र में उन्नत (बेहतर) हो सकता  है। क्योंकि इसका विकास मनुष्य के ' धर्मबोध ' के उपर निर्भर करता है, इसीलिए वह उन्नत मनुष्य बन सकता है। किन्तु, मनुष्य यदि अपने धर्मबोध को जाग्रत करके अभिव्यक्त या प्रकट करने प्रयास नहीं करे, तो उसका भी धर्म - ईंट, लकड़ी या पत्थर के जैसा ही होगा। वह आग की तरह  दूसरों  को दुःख  में जला सकता है। चोर का धर्म तो चोरी करना है इसीलिये वह चोरी करने को ही अपना धर्म कह सकता है, पानी का धर्म नीचे की ओर बहना है, इसीलिये क्या मनुष्य भी  नीचे ही गिरता रहेगा? कदापि नहीं, क्योंकि मनुष्य का धर्म है- जीवन को विकसित करना, उपर उठाना, ह्रदय की परिधि को  विस्तृत करना, पराये को भी अपना बना लेना, दूसरों की भलाई के लिए  काम आना।  अपने मन में महाराज रन्तिदेव के जैसी परदुःख-कातरता लाना**, ताकि हमलोग भी प्राणिमात्र के हृदय में प्रवेश कर उनके दुखों को स्वयं सहन कर सकें जिससे की सभी प्राणी अपने सभी प्रकार के दुखों से बच सकें।  मनुष्य का धर्म है- धीरे धीरे इन्द्रियगोचर जितनी भी वस्तुयें हैं, उन सबके आवरण में जो सत्य (परम् सत्य) छुपा है उसको जानने के लिये व्याकुल हो जाना।
        ऐसा धर्मबोध केवल मनुष्य में ही हो सकता है अन्य किसी पदार्थ या प्राणी में नहीं। क्योंकि केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो धर्मशास्त्र के अनुसार विचारवान, विवेक-बोध सम्पन्न बन सकता है। इसीलिये वह केवल इन्द्रिय-विषय भोगों से मिलने वाले शारीरिक सुखों से ही तृप्त नहीं हो सकता,  वह 'मननलब्ध परम् आनन्द '  की खोज करता है -- इसी परमान्दानुसन्धान  में लगे रहने को उन्नत मनुष्य बनना कहते हैं।  इसमें भी तृप्त न होकर  वह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड  की सत्ता की उपलब्धि पाना चाहता है। वह अपने तुच्छ  व्यष्टि अहं को  विश्वात्मा (माँ जगदम्बा के मातृहृदय ) के विराट विश्वव्यापी अहं साथ एकीकृत कर लेना चाहता है। उसका क्षुद्र ससीम 'मैं ' वृहत 'मैं ' में रूपांतरित हो जाता है। उसकी भेद-बुद्धि  समाप्त हो जाती है, समदृष्टि  की  प्राप्ति करके वह ससीम शरीर-मन  की सीमा के बाड़ को तोड़ कर अनन्त के साथ मिल कर एक हो जाता है। इसको ही वास्तविक धर्म कहा जाता है। जो व्यक्ति इस धर्म-मार्ग में क्रमशः उपर उठता रहता है, उसका आचरण ( चरित्र ) बिलकुल अन्य प्रकार का हो जाता है।
 क्योंकि धर्म आचरण में लाने की चीज  है, उसको यदि जीवन  में नहीं उतारा गया तो वैसे  शुष्क ज्ञान का कोई मोल नहीं है। इसीलिये कहा जाता है " धर्मं चर " - धर्म को आचरण के द्वारा प्रकट करो। धर्म के बारे में कहा गया है कि  -- "व्यवहृयमानः",  "अनुष्ठीयमानः।" अर्थात धर्म व्यवहार की वस्तु है, धर्म तो आचरण में  उतारने  की चीज है।   
       किसी स्थान में एक भागवती-पण्डित रहा करते थे। वे भागवत पाठ करके उस पर प्रवचन देते थे। वे शास्त्रों की बड़े सुन्दर ढंग से व्याख्या करते थे, इसीलिये शाम के समय उनके प्रवचन में गाँव के बहुत से लोग एकत्रित हो जाते थे। दूसरे लोगो से अपने पती के प्रवचनों की प्रशंसा सुन कर, एक दिन उनकी पत्नी के मन में भी सुनने की इच्छा हुई। वह अपने घर के कार्यों को समाप्त करने के बाद थोड़ी देर से प्रवचन स्थल पर पहुंची, और थोड़ी देर सुनने के बाद सोंची सचमुच कितना सुन्दर उपदेश देते हैं ! जब घर लौट कर आई, तो एक भूखे व्यक्ति की कराऊँ प्रार्थना सुनकर, प्रवचन कहे गये अपने पति के उपदेशों को याद करके अपने रात के भोजन को उसे दे दिया। वह बहुत खुश होकर वहां से चला गया। कुछ ही देर बाद एक जर्जर वृद्धा ठंढ में कांपते हुए किसी प्रकार उसके दरवाजे पर आकर भोजन की भिक्षा मांगने लगी, कोई अन्य उपाय न देखकर उसने अपने पति का भोजन उस को दे दिया। तब वृद्धा ठंढ से बचने के लिये एक कम्बल देने की प्रार्थना करने लगी, किसी गरीब की स्त्री के पास जैसे किसी को देने के लिए कुछ नहीं होता, उसने अपने पति के एकमात्र कम्बल को भी उसे दे दिया। वह वृद्धा स्त्री बहुत आशीर्वाद देकर वहाँ से चली गयी। उस स्त्री ने सोचा कि जब उसके पती यह सुनेंगे, कि उसने उनके उपदेशों को कितने अच्छे ढंग से काम में उतारा है, तो वे बहुत प्रसन्न होंगे। उसके पति जब घर लौटे तो बहुत भूख लगी थी, उन्हों ने अपनी पत्नी को शीघ्र खाना देने को कहा। तब उनकी पत्नी ने बताया कि उनका भोजन किसी भूखे व्यक्ति को दान कर दिया गया है। तब उन्हों ने बहुत क्रुद्ध होकर पूछ-तुमने अपना खाना क्यों नहीं दिया ? अपना खाना पहले ही दे दी थी यह जान लेने के बाद वे समझ गये कि अब कोई उपाय नहीं है, क्योंकि अब घर में खाना नहीं था। तब एक ढेला गुड़ मुंह में डाल कर एक लोटा पानी पीकर जब सोने गये तो देखते हैं, कम्बल भी नहीं है। कम्बल के बारे में जानकारी देते समय पत्नी ने बताया कि, थोड़ी देर पहले उन्हीं से उसने यह धर्म-ज्ञान प्रप्त किया था, जिसका फल अभी अभी फला है। तब उसके पति ने आवाक होकर कहा, " अरी भागवान, वे सब धर्म के उपदेश केवल कहने के लिये ही होते हैं, करने के लिये बिल्कुल नहीं होते। " उसी प्रकार हममें से कई लोगों के लिये धर्म-वर्म की बातें केवल कहने की बात है।  इसीलिये गोस्वामी तुलसीदासजी ' रामचरित- मानस '  उत्तरकाण्ड : शिव-पार्वती संवाद में दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं- 

" भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥

बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा॥

-अर्थात जो संसार रूपी सागर का पार पाना चाहता है, उसके लिए तो श्री राम जी की कथा दृढ़ नौका के समान है। किन्तु विषयी लोगों के लिए श्री हरि के गुणसमूह का गायन भी केवल कानों को सुख देने वाले और मन को अच्छा लगने वाले वस्तु मात्र हैं। 
        जो अभी जिस अवस्था में हैं, उस अवस्था से यथार्थ मनुष्य बनने की दिशा में जितना उन्नत होना उसके लिए उचित हो,  उतना ऊँचा उठने का प्रयत्न निष्ठापूर्वक  करने से  वह प्रयास  यथार्थ धर्मलाभ में सहायक होता है। सद्कर्म  करने के लिए  स्वयं को (या तुच्छ अहं को ) थोड़ा भूलना पड़ता है, स्वयं को वंचित करके दूसरों के लिये कुछ करना पड़ता है। ऐसा करना से हृदय विस्तृत हो जाता है, और यही धर्म  का अवश्यम्भावी फल भी है।स्वामी विवेकानन्द ने अपने परिव्राजक जीवन में अपने एक गुरु भाई से भेंट होने पर कहा था, ' तुम्हारा ईश्वर- टिश्वर  क्या है, वह तो मैं नहीं समझता, किन्तु इतना समझता हूँ कि मेरा हृदय बहुत विस्तृत हो गया है।'  
माँ सारदा कहती थीं- " जब जैसा तब तैसा ।" उनके इस कथन का  बहुत लोग गलत  अर्थ लगाते  हैं कि जैसे  मुहर्रम के जुलुस में घुस  गया हूँ , और सभी 'हसन -हुसैन ' कहकर अपनी छाती पीट रहे हैं; तब क्या  " जब जैसा तब तैसा " के उपदेशानुसार मुझे भी छाती पीटना शुरू कर देना चाहिए ? नहीं, इस उपदेश का अर्थ है किसी मनुष्य के लिए जिस परिस्थिति में जैसा व्यवहार करना उचित हो, उस परिस्थिति में वैसा ही व्यवहार करने से उसे धर्म की शक्ति प्राप्त होती है। 
       श्रीश्री ठाकुर रामकृष्णदेव अपने गृहस्थ भक्तों को 'कर्मयोग ' के इस कौशल को समझाने के लिये  ' बगूला भष्म कर देने वाले तपस्वी कौशिक' तथा  'धर्म-व्याध '  की कहानी सुनाया करते थे। महाभारत के  'पतिव्रता उपाख्यान' में यह कथा आती है। कौशिक नामक एक ब्राह्मण थे, उन्हों ने वेद-उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्यन किया था, धर्म में उनकी मती थी, बड़े कठोर तपस्वी थे। एक दिन एक वृक्ष के नीचे बैठकर वेदमन्त्र आदि का उच्चरण कर रहे थे, इसी समय एक बगुला उनके उपर बिट कर दिया। ब्राह्मण ने क्रोध करके बगुले की ओर देखा और उसके हानी की कामना करने लगे, तो उसके साथ ही साथ वह बगुला जमीन पर गिर कर मर गया। ब्राह्मण को बहुत पशचाताप हुआ। फिर भी, वे उठे और भिक्षा मांगने के लिये एक गाँव की ओर निकल पड़े, और एक घर के द्वार पर जाकर भिक्षा माँगे ।  इसी बीच उस घर के मालिक भूखे थे, खाने के लिये घर पर आ गये। गृहणी को उनकी सेवा-सुश्रुषा करने में कुछ विलम्ब हो गया। ब्राह्मण क्रोधित होकर बोले, मुझे खड़ा रहने के लिये कहकर इतनी देरी से भिक्षा देने का मतलब ? उस पतिव्रता स्त्री ने कहा, ब्राह्मण देवता क्षमा करें, पति तो परमेश्वर होते हैं, उनकी सेवा करने में थोडा विलम्ब हो गया। तपस्वी ने क्रुद्ध होकर कहा- गृहस्थ होकर ब्राह्मण की अवज्ञा करती हो ? क्या तुमने यह कभी नहीं सुना कि ब्राह्मण अग्नि के समान होते हैं, क्रोधित हो जाने पर सम्पूर्ण विश्व को भी जला सकते हैं ?  यह सुनकर गृहणी ने कहा,  " हे ब्राह्मण मैं कोई बगुला नहीं हूँ, आपका क्रोध मेरा  क्या नुकसान कर सकेगा  ? अपने क्रोध को रोकिये। जो क्रोध और मोह का त्याग कर सकते हैं, उन्हीं को ब्राह्मण कहा जाता है। सीलिये सनातन  धर्म को समझना कठिन है क्योंकि  यह सत्य के उपर प्रतिष्ठित है। आपने धर्म के मर्म को ठीक से नहीं समझा है। आप मिथिला नगरी में जाइये वहाँ धर्म-व्याध से पूछने पर वह आपको सच्चा धर्मोपदेश देंगे। वे माता-पिता के सेवापरायण, सत्यवादी और जितेन्द्रीय हैं। अप मेरे पतिसेवा का फल देखिये, आपकी क्रोधाग्नि में बगुला जल गया है, यह मैं ने जान लिया है। मैंने आपको बहुत सी बातें बताई हैं, इसीलिये आपको मुझे क्षमा कर देना चाहिये।"  ब्राह्मण ने कहा, तुम्हारे तिरस्कार से मेरा अवश्य कल्याण होगा। तुम्हारा मंगल हो ! "     
       कौशिक उस स्त्री की आश्चर्य जनक बातों पर विचार करते हुए स्वयं को अपराधी समझकर अपने को बुरा-भला कहते हुए धर्म की सूक्ष्म शक्ति पर विचार करने लगे। उन्होंने सोचा मुझमें श्रद्धा जाग्रत होना चाहिये मैं आज ही मिथिला नगरी के ओर रवाना होऊंगा। मिथिला में खोज करने पर पता चला कि तपस्वी व्याध तो मांस बेचने का काम करते हैं। धर्मव्याध ब्राह्मण को देखकर आगे बढकर उनका अभिवादन किये और बोले आपको ब्राह्मणी ने मिथिला में मेरे पास आने के लिये कहा है, इन सब बातों को मैं जानता हूँ। आप मुझे आदेश दीजिये मैं  आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? कौशिक और भी ज्यादा आश्चर्य हुआ। धर्म व्याध बोले यह स्थान आपके लायक नहीं है, यदि आप चाहें तो मेरे घर पर चल सकते हैं। व्याध के घर पर ब्राह्मण की यथायोग्य अभ्यर्थना करके दोनों में धर्म के उपर चर्चा होने लगी। धर्म की मुख्य बात आचरण है, इसीलिये कौशिक ने शिष्टाचार के विषय में प्रश्न किया। धर्मव्याध ने बहुत से उपदेश दिए। जो कर्तव्य न्याय-युक्त हो वही धर्म है। धर्मव्याध के बहुत से उपदेशों में एक बहुत महत्वपूर्ण उपदेश है-
तं सदाचारमाश्चर्यं पुराणं शाश्वतं ध्रुवम्।
धर्म्यं धर्मेण पश्यन्तः स्वर्गं यान्ति मनीषिणः ।।
- मनीषी लोग सदाचारी व्यक्तियों के द्वारा प्रदर्शित अच्छे आचरण रूपी उस असाधारण अनादि अविच्छिन्न नित्यधर्म को धर्मदृष्टि से देखकर स्वर्ग गमन करते हैं। गीता 14/27 में भी धर्म को शाश्वत कहा गया है - "शाश्वतस्य च धर्मस्य। "  
       उपरोक्त उपाख्यान में जैसे ब्राह्मण कौशिक को  धर्मव्याध नामक शूद्र से शिक्षा ग्रहण करते देखा गया है। वैसे ही महाभारत के एक अन्य  उपाख्यान में देखा जा सकता है कि एक ब्राह्मण ने वैश्य से शिक्षा ग्रहण किया था। वास्तव में जाति व्यवस्था पहले गुण और कर्म के पार्थक्य के उपर आधारित थी, और वह आन्तरिक संस्कार में बाधक नहीं था। स्वामीजी ने कहा था कि जाति प्रथा को एक लाख में एक-दो लोग ही  समझ पाते हैं ।
         जाजलि नामक एक ब्राह्मण वन में कुटिया बनाकर रहते थे। वे सागर की तट पर बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या किये थे। लकड़ी की तरह बैठे बैठे सिर पर जटा बन गया था। उस जटा को घोसला समझकर एक पक्षी ने घोसला बना लिया, उसमें अंडा दिया, बच्चे हुए, उनके भी पंख निकले और बड़े होकर उड़ने लगे। बहुत दिनों के बाद जब पक्षी लोग नहीं आने लगे थे, तब वे अपनी सिद्धि की असधारण कहानी सबों को सुनाने लगे। इधर सागर के राक्षस लोग उसको कहने लगे कि तुमको इतना अहंकार करना उचित नहीं है, वाराणसी में तुलाधर नामक एक वैश्य रहते हैं, वे एक महान धर्मज्ञ के रूप में विख्यात हैं; फिर भी वे अपने बारे में ऐसा नहीं कहते। जाजलि जब पुनः अपनी बड़ाई करने लगे तो आकशवाणी हुई, महान ज्ञानी तुलाधर वैश्य  भी अपने मुख से ऐसी बात नहीं कह सकते हैं। तब जाजलि ने भी इतने दिनों की हठ साधना को व्यर्थ का पथश्रम स्वीकार किया और वाराणसी पहुँचकर जाजलि के पास उपस्थित हुए। तुलाधर ने जाजलि की समस्त तपस्या, अहंकार और अपने पास आने का उद्देश्य बता दिया। जाजलि ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, बनिये का काम करते हो, ऐसे ज्ञान के अधिकारी कैसे बन गये ? पूरी बात विस्तार से समझाईये।  तुलाधर ने सबसे पहले कहा-

वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम।
      सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।।

(महाभारतम्-12-शांतिपर्व-268)

- हे जाजले ! जिस पुराने धर्म को लोग सर्वभूत के लिये हितकर रूप में जानते हैं, मैं उसी सनातन धर्म और उसके रहस्य को जानता हूँ। जो व्यक्ति सर्वभूतों के सुहृत और समस्त जीवों का हित करने में लगे रहते हैं, वास्तव में उन्हीं को धर्मज्ञ कहा जा सकता है।  आगे कहते हैं-

यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित्कथंचन।
अभयं सर्वभूतेभ्यः स प्राप्नोति सदा मुने।।

-जिस व्यक्ति से किसी को भय नहीं होता, जो स्वयं किसी व्यक्ति या वस्तु से भयभीत नहीं होता, वे ही यथार्थ धर्म को जानते हैं। 
जो धर्म सनातन है , जो धर्म सार्वभौमिक है, उसे महाभारत के उद्योगपर्व में बताया गया है-
 
न तत्परस्य संदध्यात्‌ प्रतिकूलं यदात्मनः।
संग्रहेणैष धर्मः स्यात्‌ कामादन्यः प्रवर्तते ॥ 
 (महाभारत उद्योगपर्व ३९/७२) 

- जैसा व्यवहार अपने लिये प्रतिकूल लगता हो वैसा व्यवहार दूसरों के साथ कभी नहीं करना चाहिये, संक्षेप में इसी को धर्म कहते हैं; कामना के कारण ही धर्म का रूप अन्य प्रकार का हो जाता है। 
          ठीक यही बात बाइबिल के 'ओल्ड टेस्टामेंट' भाग में कही गयी  है। इसके पहले उद्धृत श्लोक में जो कहा गया है, पैगम्बर मोहम्मद ने भी लगभग वही कहा है। जो सनातन धर्म-स्रोत सृष्टि के समय से बहता चला आ रहा था, बाद के समय में बनने वाला कोई भी प्रसिद्द धर्म उस मूल रूप में उससे कोई अधिक भिन्न नहीं हैं। श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने इसी सत्य को अपनी अनुभूति से जान कर समूर्ण मानवजाति को पुनरुज्जीवित करना चाहा था। किन्तु संकीर्णता और दुकानदारी बुद्धि ने धर्म के साँस को ही रुद्ध कर दिया है। नियम है कि जो किसी समय में उत्पन्न होता है , समय के भीतर ही उसका नाश भी हो जाता है ; [ `जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु , र्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ' (गीता-२.२७)   जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है ।]  
किन्तु जो  शाश्वत, सनातन है- (आत्मा ) उसका कभी नाश नहीं होता, उसकी कभी मृत्यु नहीं होती । सनातन धर्म यही कहता है कि समस्त प्राणियों में एक ही वस्तु (आत्मा या परमात्मा) है- जो अविनाशी है , उसको अपनी अनुभूति से जानकर समस्त जीवों की सेवा करना ही धर्म की अंतिम बात है। गीता में भगवान (परमात्मा श्रीकृष्ण) कहते हैं, जो मनुष्य अनन्य भक्ति के साथ 'मेरी' सेवा करता है, वह गुणातीत होकर परम वस्तु को प्राप्त करता है।  इसके गीता भाष्य में  आचार्य शंकर ने ' मेरी ' शब्द का अर्थ बताते हुए कहा है -  समस्त जीवों के हृदय में स्थित नारायण या ईश्वर। भागवत में कथा आती है कि युधिष्ठिर जब नारद से यह प्रश्न करते हैं, आप मुझे बताइये कि सनातन धर्म है क्या ? युधिष्ठिर उवाच -

 भगवत्र्छ्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनतनम ।

नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्मेहेतवे ।
वक्ष्ये सनातनं धर्में नारायणमुखाच्छुतम ॥५॥

- नारद कहते हैं, मनुष्यों के धर्म सेतुस्वरुप भगवान को प्रणाम करके मैं आज बतलाऊंगा कि सनातन धर्म क्या है, जिसे मैंने स्वयं नारायण के मुख से सुना है। इसके बाद वे भगवान के मुख से सुने सनातन धर्म की परिभाषा मे जो कुछ कहते हैं, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। 
         जब हमलोग अनौपचारिक ढंग से बातचीत करते हैं तो कहते हैं कि श्रीरामकृष्ण तो ईश्वर -ईश्वर कहकर पागल हो गये थे। लेकिन, उसी पागल ब्राह्मण के शिष्य स्वामी  विवेकानन्द आधुनिक शिक्षा में शिक्षित थे, देश-विदेश की यात्रा किये थे, भारत के गरीबों के लिये कितना अश्रु बहाते थे,  देश के उन्नति की बात कहते समय वे कहते थे कि मैं समाजवाद में विश्वास करता हूँ, लेकिन वास्तव में कहीं वे साम्यवाद में तो विश्वास नहीं करते थे ? उपरोक्त श्लोक में नारदजी "वक्ष्ये सनातनं धर्में " कहने के बाद कहते है-

अन्नाद्यादेः संविभागो भुतेभ्यश्च यथार्थतः ।
तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥१०॥

- समाज में अन्नादि जो कुछ भी उत्पन्न होगा, उस सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P) को जनसाधारण के बीच जिसकी जितनी आवश्यकता हो, उसी हिसाब से वितरण करना होगा। किन्तु जो (राज्य कर्मचारी, नेता)  लोग उस सकल राष्ट्रिय उत्पाद को जब सबकी आवश्यकता अनुसार वितरण करेंगे उस समय  यह मनोभाव रखते हुए वितरण करना होगा  " तेष्वात्म-देवताबुद्धिः"--अर्थात वे सभी मनुष्य हमलोगों के आत्मास्वरुप, देवता हैं, इस ज्ञान से देना होगा। इसको कहते हैं- 'सनातन धर्म' !! 
     स्वामीजी ने कहा था, जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, मेरा समस्त धर्म उसको रोटी खिलाना होगा । जो ईश्वर भूखे को एक मुट्ठी अन्न नहीं दे सकता, जो किसी विधवा के अश्रु नहीं पोछ सकता, वैसे ईश्वर पर मैं विश्वास नहीं करता।' स्वामीजी कहते हैं , " जो सनातन, असीम, सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञ हैं वे कोई व्यक्तिविशेष नहीं - तत्व मात्र हैं। (किसी संगठन में) जिस मनुष्य  (नवनीदा) के भीतर यह यह अनन्त तत्व जितना अधिक प्रकाशित होता है, वह उतना ही महान होता  है। बाकी सभी लोगों को उनकी पूर्ण प्रतिमूर्ति बनना होगा। परम् तत्व के साथ  एकात्मता की अनुभूति करने के अतिरिक्त धर्म और कुछ नहीं है, तथा प्रेम ही इसका साधन है। " उन्होंने यह भी कहा था, " उस धर्म की नीति में किसी के प्रति शत्रुता  या उत्पीड़न का स्थान नहीं हो सकता। उसमें प्रत्येक नर-नारी देव स्वरूप  स्वीकृत होंगे। और उसकी समस्त शक्ति मनुष्यजाति को उसके अन्तर्निहित देवस्वभाव की अनुभूति करने में सहायता करने में ही व्यय होगी।" --ऐसे धर्म को ही सनातन कहते हैं। 
    स्वामीजी ने कहा था, " एक आश्चर्यजनक सत्य मैंने अपने गुरुदेव से सीखा, वह यह है कि संसार में जितने धर्म हैं, वे परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे केवल एक ही चिरन्तन शास्वत धर्म के भिन्न भिन्न भाव मात्र हैं। यही एक सनातन धर्म चिर काल से समग्र विश्व का आधारस्वरुप रहा है और चिर काल तक रहेगा, और यही धर्म विभिन्न देशों में, विभिन्न भावो में प्रकाशित हो रहा है। "7/261]

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>>>प्रपत्ति (शरणागति)- प्रपत्ति दो मूल धातु से बना है- ‘प्र’ और ‘पद’। ‘प्र’ का अर्थ है ऊँचा और ‘पद’ यानि कदम। अर्थात सर्वोच्च की ओर कदम बढ़ाना ही प्रपत्ति है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।
        यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः, तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्॥

{मुण्डक उपनिषद (3.2.3) और कठोपनिषद (1.2.23)}

>>आचार्य रामानुज, इस श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखते हैं:"यथा अयं प्रियतमः आत्मानम् प्राप्नोति, तथा भगवान स्वमेव प्रयतत इति भगवतैव उक्तं।"
अर्थ: जैसे हम अपने प्रियतम को स्वयं प्रयत्न कर प्राप्त करते हैं, वैसे ही भगवान स्वयं, अपनी निर्हैतुक कृपा से, शरणागत जीवात्मा को अपना लेते हैं।  एक शरणागत को भगवत-प्राप्ति हेतु अपनी ओर से कोई प्रयत्न नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करना भगवान की निर्हैतुक कृपा में बाधा होगा।
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
 तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥ 

– (श्वेताश्वतरोपनिषत् 6-18)

जो श्रृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को उत्पन्न करता हैऔर जो उसके लिये वेदों को प्रवृत करता है, अपनी बुद्धि को प्रकाशित करने वाले उस देव की मैं मुमुक्षु शरण ग्रहण करता हूँ।

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। 
(गीता 8.14)

हे पार्थ! जो योगी मुझ में अनन्य-चित्त होकर भक्ति भाव से सदैव मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, जो मेरे साथ निरंतर संपर्क चाहता है, उसके लिए मैं सरलता से सुलभ रहता हूँ क्योंकि वह निरन्तर मेरी भक्ति में तल्लीन रहता है।

" मुझे भरोसो एक बल, एक आस विश्वास। 

 एक राम घनश्याम हित , चातक तुलसीदास।। "

(दोहावली ) 

- भावार्थ : प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं कि केवल एक ही भरोसा है, एक ही बल है, एक ही आशा है, और एक ही विश्वास है। एक रामरूपी श्यामघन ( मेघ ) के लिए ही यह तुलसीदास चातक बना हुआ है।  
[जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द के केवल एक सहायक, एक सामर्थ्य, एक विश्वास और शरण ~ अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण हैं!
>>>राम चरम श्लोक (रामायण युद्धकाण्ड 18.33)
जब विभीषण अपना सब कुछ त्यागकर भगवान की शरण में आते हैं तो भगवान ने शरणागति-मार्ग की व्याख्या करते हुए कहा:

‘सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
  
अभयं सर्व भूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम।।’

जो एक बार भी मेरी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे अभय चाहता है, उसको मैं सब भूतों का अभयदान देता हूँ, यह मेरा व्रत है।
>>>कृष्ण चरम श्लोक (गीता 18.66)
भगवान ने गीता में पहले कर्म-योग, उसके बाद ज्ञान योग और फिर भक्ति योग की विस्तृत व्याख्या की। सभी प्रकार के योगों के बारे में भगवान से सुनने के पश्चात अर्जुन ने अपनी असमर्थता व्यक्त की तो भगवान ने आखिरी उपदेश दिया:

सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।  
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षिष्यामी मा शुचः।। 
 (गीता 18.66)

सभी उपायों (कर्म-योग, ज्ञान योग, भक्ति योग) को त्यागकर मेरी शरणागति करो, मैं तुम्हारे सभी पापों को नष्ट कर तुम्हें मोक्ष प्रदान करूँगा। 
>>>शरणागति का उपाय को दो भागों में वर्गीकरण किया गया है:
१) साध्योपाय: वह उपाय जो हमारे द्वारा स्थापित किया जाये और हमारे द्वारा क्रियाशील हो। इसे स्वगत स्वीकारा भी कहते हैं क्योंकि इस उपाय में हम अपने प्रयत्नों द्वारा भगवान तक पहुँचने का प्रयत्न करते है। उदाहरण स्वरुप बांदरी का बच्चा जो स्वयं उछलकर अपने माँ को पकड़ता है। इसलिए इस उपाय को मर्कट-किशोर-न्याय भी कहते हैं। कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग साध्योपाय है।
२) सिद्धोपाय: वह उपाय जो पहले से स्थापित है और हमें सिर्फ उसका चुनाव करना है। क्योंकि इस उपाय में हमारे भगवान तक पहुँचने का उत्तरदायित्व भगवान पर ही होता है और भगवान ‘सत्य-संकल्प’ हैं, कभी भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं चूकते। उदाहरण स्वरुप बिल्ली का बच्चा जिसे पकड़कर ले जाने की जिम्मेदारी स्वयं बिल्ली की है। इसलिए इस उपाय को मर्घर-किशोर न्याय भी कहते हैं। 
शरणागति सिद्धोपाय है। शरणागति भी भक्ति ही है पर क्ति योग में भक्ति उपाय है और शरणागति में स्वयं भगवान श्रीरामकृष्ण ही उपाय हैं। एक शरणागत कर्म, ज्ञान, भक्ति सबका अनुशीलन करता है पर उपाय के तौर पर नहीं बल्कि सिर्फ भगवान के मुखोल्लाष के लिये। इस मार्ग में सफलता कि 100  फीसदी गारंटी है क्योंकि बांदरी का बच्चा शायद चूक भी जाए अपनी माँ को पकड़ने में, पर बिल्ली अपने बच्चे को सुरक्षित उस पार करने में कभी नहीं चुकती। यह उपाय खास तौर पर मेरे जैसे अयोग्य, लाचार और सभी साधनों से हीन साधकों के लिये है
उदाहरणस्वरुप छत पे जाने के दो उपाय हैं। एक तो सीढियों के द्वारा और दूसरा लिफ्ट से। सीढ़ी से चढ़ना साध्योपाय है क्योंकि व्यक्ति को अपने सामर्थ्य पर भरोसा है। लिफ्ट के द्वारा जाना सिद्धोपाय है क्योंकि लिफ्ट का उपयोग करने का अर्थ ही है की हमने अपनी हार स्वीकार कर ली है कि हम अपने स्वयं के प्रयास से छत पे चढ़ने में असमर्थ हैं और दूसरा की हम जल्दी से जल्दी छत पे जाना चाहते हैं। इस उदाहरण में लिफ्ट भगवान हैं और लिफ्टमैन गुरु। हमें लिफ्ट (अवतार वरिष्ठ)  और लिफ्टमैन (स्वामी विवेकानन्द) पर पूर्ण विश्वास होने की जरुरत है
>>(सवाल) भगवान हमारे ‘उपाय’ बनने को क्यों तैयार होंगे?
>>(उत्तर):  भगवान हमेशा ही हमारे उपाय बनने को उत्सुक रहते हैं पर हमें अपने बल, बुद्धि और सामर्थ्य पर यकीन होता है। हम भगवान से पृथक हो इस संसार का आनंद लेना चाहते हैं, इसलिए भगवान हमारे ‘उपाय’ नहीं बनते। जबतक हम अपनी हार स्वीकार कर भगवान से असहाय अवस्था में प्रार्थना नहीं करेंगे तबतक भगवान हमारे उपाय कैसे बन सकते हैं। गजेन्द्र और द्रौपदी के संकट में भी भगवान ने तबतक ‘उपाय’ बनना स्वीकार नहीं किया जबतक उन्होंने शरणागति नहीं की
टिप्पणी:- नारायण के प्रति कोई भी शरणागति बिना श्री (महालक्ष्मी माता) के पूर्ववर्ती शरणागति के सफल नहीं होती।‘श्री’ शब्द महालक्ष्मी मैया को सूचित करता है, यह श्री सूक्तं से स्पस्ट है| हम माता महालक्ष्मी के माध्यम से भगवान नारायण की शरणागति करते हैं| वात्सल्यमयी माता (लक्ष्मीआषः ऋषिकेष: देव्या कारुण्यरुपया- माँ तारा , माँ सारदा देवी !) अपने पुत्रों को उसके दोषों समेत अपनाती हैं और हमारे अनर्थों को नष्ट कर, भगवान के समक्ष हमारे शरणागति कि सिफारिश करती हैं। माता के इस गुण को ‘पुरुषकारत्वं’ भी कहते हैं। 
श्री शब्द का निम्न ३ अर्थ बताये गए हैं:
१) श्रयते श्रीयते इति श्रियःजो भगवान का आश्रय लेती हैं एवं जीवात्माओं को आश्रय प्रदान करती।
२) श्रुनाती श्रावयति इति श्रियः जो जीवात्माओं के प्रार्थनाओं को सुनती हैं एवं भगवान (ठाकुर देव) को सुनाती हैं (बढ़ा -चढ़ा कर)।
३)श्रृनाती श्रीनाति इति श्रियः >जो हमारे पापों सहित संचित कर्मों को नष्ट करके हमें निर्मल बनाती हैं एवं भगवान के करीब लाती ।
>>शरीर-मन -आत्मा भाव (Body-Mind-Soul,3H feeling) :
वेदों को ‘अपौरुषेय, नित्य, शाश्वत और निराकार’कहा गया है। वेद भगवान के स्वांस हैं। वेद-व्यास स्वयं भगवान के ‘ज्ञान-शक्ति’ अवतार कहे जाते हैं, जिन्होंने वेदों को 4  भागों में विभाजित किया और तदन्तर प्रत्येक वेदों को 4 उप-भागों में: मंत्र संहिता (उपासना, यज्ञ और कर्म-कांड के मंत्र)/ब्राह्मणम् (यज्ञों और कर्मकांडों की विस्तृत विधि)/अरण्यक (संहिताओं और ब्राह्मणों के ऊपर टीका)/उपनिषद या वेदांत (ब्रह्मज्ञान -कांड)
>>>हमारे यहाँ (भारत की संस्कृति में) 3 नास्तिक (अवैदिक) और 6 आस्तिक (वैदिक) दर्शन हैं: नास्तिक दर्शन >(१) चार्वाक  (२) बौद्ध  (३) जैन। 
आस्तिक (वैदिक दर्शन)>(१) न्याय (गौतम) (२) वैशेषिक (कणाद)(३) सांख्य (कपिल)(४) योग (पतंजलि)(५) पूर्व-मीमान्षा (जैमिनी)(६) उत्तर-मीमान्षा (बादरायण। )
>>>मीमान्षा दर्शन
मीमान्षा का अर्थ है वैदिक आदेशों की पड़ताल और व्याख्या। मीमान्षा में कुल २० अध्याय हैं, जिनमें आखिरी के ४ अध्याय को ज्ञान-कांड या ब्रह्म-काण्ड कहा गया है, जिनमें विशुद्ध दर्शन है। अराधना किसकी की जाए ? यह उत्तर-मीमान्षा का विषय में ! जबकी अराधना कैसे की जाए, यह पूर्व-मीमान्षा का विषय है। भगवान वेद-व्यास (बादरायण) ने वेदांत-दर्शन के सार-स्वरुप ‘ब्रह्म-सूत्र’ की रचना की।

>>>अद्वैत दर्शन (शंकराचार्य)
1.ब्रह्म निर्गुण है
2. ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या, जीवा ब्रह्म एव ना परः
3. ज्ञान ही मुक्ति का एक मात्र मार्ग है
4.उपाधि या अविद्या के कारण जीव अपने को ब्रह्म का अंश मानता है पर उपाधि के नष्ट होने पर जीव ब्रह्म ही हो जाता है।
>>विशिष्टाद्वैतवाद  (विशिष्टाद्वैत दर्शन) : श्री रामानुजाचार्य इस मतवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं।  इस सिद्धांत में ईश्वर की सगुण रूप में कल्पना की गई है । भक्ति या शरणागति ही मुक्ति का सर्वोत्तम मार्ग है। मुक्ति के बाद भी जीव - जब तक शरीर में रहेगा - कभी ब्रह्म नहीं हो सकता। ज्ञान और आनंद की अवस्था में ही जीवात्मा ब्रह्म के बराबर हो जाता है। जीवात्मा मुक्ति के बाद नित्य वैकुण्ठ लोक में ब्रह्म की सेवा करता है।
ब्रह्म द्वारा निर्मित होने के कारण जगत मिथ्या नहीं अपितु सत्य है। ब्रह्म, जीवात्मा और माया (तत्त्व-त्रय); तीनों ही सत्य और नित्य हैं। आत्मा और प्रकृति, ब्रह्म से अपृथक और ब्रह्म के विशेषण हैं,  जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति। ब्रह्म चेतन आत्मा और अचेतन प्रकृति से विशिष्ट है। यह विशिष्ट ब्रह्म से पृथक कोई तत्त्व नहीं है। यही विशिष्टाद्वैत (विशिष्ट अद्वैत, विशिष्टयो: अद्वैतं)है।
>>अभेद श्रुति (चार महावाक्य) > वेदों के वो मंत्र हैं जो जीव और ब्रह्म की एकता प्रतिपादित करते हैं। 
1.अहं ब्रह्मास्मि – “मैं ब्रह्म हुँ” ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१०)
2.तत्वमसि – “वह ब्रह्म तु है” ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७)
3.प्रज्ञानं ब्रह्म – “वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है” ( ऐतरेय उपनिषद १/२)
4.सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् – “सर्वत्र ब्रह्म ही है” ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१)
>>भेद श्रुति > जीव और ब्रह्म के मध्य भेद तो स्थापित करते हैं।

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। 

(कठ0 1.3.1; मुण्डक0 3.1.1; श्वेताश्वतर उप. ४.१.६)

यह मनुष्य शरीर मानो एक पीपलका वृक्ष है। ईश्वर और जीव — ये दोनों सदा साथ रहनेवाले दो मित्र मानो दो पक्षी हैं। ये दोनों इस शरीररूप वृक्षमें एक साथ एक ही हृदयरूप घोंसलेमें निवास करते हैं। शरीर में रहते हुए प्रारब्धानुसार जो सुखदुःखरूप कर्मफल प्राप्त होते हैं;  वे ही मानो इस पीपल के फल हैं। इन फलों को जीवात्मारूप एक पक्षी तो स्वादपूर्वक खाता है। अर्थात् हर्ष-शोक का अनुभव करते हुए कर्मफलको भोगता है। दूसरा ईश्वररूप पक्षी इन फलों को खाता नहीं, केवल देखता रहता है।  अर्थात् इस शरीरमें प्राप्त हुए सुख-दुःखों को वह भोगता नहीं केवल उनका साक्षी बना रहता है।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। 
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।

(गीता 15.18)

[यस्मात्-क्योंकि; क्षरम्-नश्वर; अतीत:-परे; अहम् मैं हूँ; अक्षरात्-अक्षर से भी; अपि-भी; च-तथा; उत्तमः-परे; अत:-अतएव; अस्मि-मैं हूँ; लोके-संसार में; वेदे-वैदिक ग्रंथों में; च तथा; प्रथितः विख्यात; पुरुष उत्तमः पुरुषोत्तम के रूप में।
क्योंकि मैं - "क्षर से" - नश्वर सांसारिक पदार्थों और यहाँ तक कि "अक्षर से भी" या अविनाशी आत्मा से भी परे हूँ (उत्तम हूँ) इसलिए मैं वेदों और स्मृतियों दोनों में ही दिव्य परम पुरूष - पुरुषोत्तम के रूप में प्रसिद्ध हूँ।
यह सर्वविदित है कि एक अपरिवर्तनशील वस्तु के बिना अन्य परिवर्तनों का ज्ञान होना संभव नहीं होता है। अत यदि शरीर, मन,  बुद्धि और बाह्य जगत् के विकारों का हमें बोध होता है; तो उससे ही इस अक्षर का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है।  जो स्वयं कूटस्थ रहकर अन्य विचारों को प्रकाशित करता है। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि केवल क्षर की दृष्टि से ही परमात्मा को अक्षर का विशेषण प्राप्त हो जाता है अन्यथा वह स्वयं निर्विशेष ही है। इसलिये यहाँ भगवान् कहते हैं क्षर और अक्षर से अतीत होने के कारण लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। अर्थात् भगवान् पूर्ण होने से पुरुष है तथा क्षर और अक्षर से अतीत होने से उत्तम भी है इसलिये वेदों में तथा लोक में भी कवियों और लेखकों ने उन्हें पुरुषोत्तम नाम से भी संबोधित और निर्देशित किया है।
>>>घटक श्रुति (जो भेद और अभेद श्रुति का मेल कराते हैं)  रामानुजाचार्य  के लिये सबसे बड़ी चुनौती शास्त्र के उन वाक्यांशों का विवेचन करना था जो जीव और ब्रह्म की एकता प्रतिपादित करते हैं
जब हम एक आत्मा को शरीर से संयुक्त देखते हैं, तो हम व्यवहारिक रूप से दोनों को पृथक नहीं अपितु अवियोज्य (अभिन्न) देखते हैं। उदाहरण:- जब हम किसी को लंगड़ा, गोरा, कुण्डलों वाला, या दंडी स्वामी आदि संबोधनों से पुकारते हैं, तो हम वास्तविक में उस आत्मा को पुकारते हैं यद्यपि लंगड़ा, गोरा, कुण्डलों वाला, या दंडी स्वामी आदि का संबंध शरीर से है। जब हम किसी को नाम से पुकारते हैं, तो क्या नाम का संबंध आत्मा से है? नहीं, आत्मा को अनाम है। नाम तो शरीर का होता है, पर शरीर चेतनाहीन है, कभी पलटकर जबाब नहीं देगा। हम शरीर की पहचान से आत्मा को पुकारते हैं और आत्मा संबोधन को स्वीकार भी करता है। आत्मा स्वयं ज्ञानमय और ज्ञानयुक्त है पर बिना शरीर के वह कोई भी कार्य नहीं कर सकता। इस तरह से हम देखते हैं कि आत्मा और शरीर में घनिष्ठ और अवियोज्य संबंध है।
उसी प्रकार जब हम हम यह कहते हैं कि हर वस्तु ब्रह्म है, तो हम वास्तव में उस वस्तु के अन्तर्यामी ब्रह्म को ही संबोधित कर रहे हैं। “मैं ब्रह्म हूँ”, कहने का आशय मेरे अन्दर विराजमान परमात्मा से है। क्योंकि हर वस्तु ब्रह्म का शरीर है और ब्रह्म उसके अन्तर्यामी आत्मा; इसलिए हर वस्तु को ब्रह्म कहा गया है क्योंकि वो ब्रह्म का अभिन्न अंश है। शरीर का कोई भी संबोधन आत्मा को ही प्रेरित होता है।
अहम् ब्रह्मास्मि:- इसका अर्थ यह है कि ‘अहम ब्रह्मात्म को स्मीत्यर्थ:’। अर्थात अहम् पदवाची जो जीव है, इसके भीतर अन्तर्यामी रूप से परमात्मा विराजते हैं।
तत्वमसि:- इसका अर्थ हुआ- तदात्मकोसि, अर्थात तत् शब्द वाच्य जो परमात्मा है, वह सदा तुम्हारे अन्तर्यामी रूप से विराजते हैं। वह आत्मा के भी आत्मा हैं।
जीवो ब्रह्मः :- इसका भावार्थ ‘जीवो ब्रह्मात्मक इति भावः’ (जीव का आत्मा ब्रह्म है)।
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् :- इदं दृश्यमान सर्वं अपि ब्रह्म ब्रह्मात्मकमित्यत्यर्थः, याने जो कुछ यह दिखाई पड़ता है, इन सब के भीतर अन्तर्यामी रूप से परमात्मा विराजते हैं ।
इति सर्वं समंजसम। 

एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ।। 
 (कठोपनिषद 2.2.12)
जो परमात्मा सदा सब के अन्तरात्मारूप से स्थित हैं, जो अद्वितीय और सर्वथा स्वतन्त्र हैं, वे ही सर्वशक्तिमान् सर्वभवन-समर्थ परमेश्वर अपने एक ही रूप को अपनी लीला से बहुत प्रकार का बना लेते हैं। उन परमात्मा को जो ज्ञानी महापुरुष निरन्तर अपने अंदर स्थित देखते हैं।
>>>शेष-शेषी (Master-servant > दास्य भाव > या गुरु- शिष्य परम्परा को दर्शाता है !   तदनुसार ब्रह्म सगुण और सविशेष है । भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए वह (ब्रह्म) स्थूल-सूक्ष्म, चेतन-अचेतन विशिष्टरूपों का धारण करता है ।
अतः दास्यभाव की भक्ति को आदर्श भक्ति माना गया है ।   इस मतवाद के अनुसार ज्ञान मुक्ति का साधन नहीं है, भक्ति से ही परमात्मा प्रसन्न होकर मुक्ति प्रदान करते हैं ।  रामानुज ने अपने दार्शनिक सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए ब्रह्म सूत्रों पर श्रीभाष्य लिखा है ।   जीव और ईश्वर के संबंध को विशिष्ट रूप में स्वीकार करने से इनका दार्शनिक सिद्धांत विशिष्टाद्वैत कहलाता है । यह माना जाता है कि कबीर के गुरू रामानंद रामानुज की ही परंपरा से संबद्ध थे ।   रामानुजाचार्य के इस विशिष्टाद्वैत सिद्धांत से प्रभावित होकर उत्तर भारत में काशीवासी रामानंद ने अपनी भक्ति में इनके दर्शन को कुछ परिवर्तन के साथ ग्रहण किया ।    यह परिवर्तन सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर लक्षित किया जा सकता है ।  रामानंद ने अपना संप्रदाय चलाने के लिए राम की पूजा-अर्चना की विधि में भी परिवर्तन किया । अपना दीक्षा मंत्र को नया बनाया ।  तिलक और वेशभूषा में भी नवीनता को स्थान दिया ।
 इन सभी परिवर्तनों से रामानंदी संप्रदाय उत्तर भारत में फैल गया ।   रामानंद के संबंध में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी शिष्य परंपरा में जाति-वर्ग विहीन शिष्यों को स्थान दिया ।   जिन्हें दलित या निम्न कहा जाता था, उस वर्ग के कई शिष्य रामानंद की मंडली में थे ।  नारी को शिष्यत्व की दीक्षा देने वाले भी रामानंद ही थे ।  यह एक क्रांतकारी कदम था जो उस समय से रूढ़िवादी समाज के लिए नई चुनौती बनकर आया था ।   हिंदी के भक्ति कवि कबीर निर्गुण विचारधारा के होने पर भी रामानंद के शिष्य थे और गोस्वामी तुलसीदास सगुणोपासक होने पर भी रामानंद के सिद्धांतों में शंकराचार्य और रामानुजाचार्य से साम्य रखते थे। गोस्वामी तुलसदास ने रामचरितमानस और विनय पत्रिका में अपने दार्शनिक सिद्धांतों का विस्तार से वर्णन किया है ।  ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दोनों रुपों में वर्णन करने के कारण यह निश्चय करना कठिन हो जाता है कि तुलसी के आराध्यदेव सगुण है या निर्गुण क्योंकि तुलसी दोनों को अभेद मानते हैं । 
  सगुनहिं, अगुनहि नहिं कुछ भेदा ।  गावहि श्रुति पुरान बुध वेदा ।  
अगुन अरूप अलख अज जोई । भगत प्रेमवस सगुण सो होई । 
 इस प्रकार कई उक्तियाँ उनके ग्रंथों में मिलती हैं किंतु मूलतः उनके आराध्य राम सगुण ही हैं।
कोई भी ज्ञात या अज्ञात व्यक्ति मदद करने के लिए तभी आगे आएगा जब कोई अपने धर्म का पालन करता रहेगा। रामायण में, यहां तक कि बंदर और गिलहरी भी श्री राम की मदद करने के लिए आए थे, जबकि रावण के अधार्मिक कार्य का समर्थन उसके अपने भाई विभीषण ने भी नहीं किया था
प्रायः यह प्रश्न लोग पूछते रहते हैं कि  'क्या श्री तुलसीदास जी महाराज राम और विष्णु में तथा सीता और लक्ष्मी में भेद मानते थे? बिल्कुल नहीं -श्री तुलसीदास जी विशिष्टाद्वैत मत की परम्परा से थे। भगवान का रूप चाहे भिन्न हो, किन्तु स्वरूप तो एक ही है। एक व्यक्ति यदि अनेक शरीर धारण कर ले, तो शरीर का भेद होने से भी आत्मा का भेद नहीं होता। 
भगवान का स्वरूप विभू है, सर्वव्यापी हैं। वे अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। चाहे राम रूप हो या विष्णु या नरसिंह, या अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण परमहंस भगवद-स्वरूप तो एक ही है। भगवान का दिव्य विग्रह शुद्ध सत्त्व से निर्मित होता है जो स्वयं-प्रकाश तत्त्व है किन्तु अचेतन। अर्थात, यह ज्ञानस्वरूप तो है किंतु ज्ञानी नहीं। भगवान के दिव्य विग्रह के निरूपक धर्म (गुण) हैं: सौंदर्य, सौकुमार्य, लावण्य आदि।
>>> श्री देवी कौन हैं ? रामचरित मानस में समस्त देवता भगवान विष्णु से प्रार्थना करते हैं कि वो अवतार लें।  कौन हैं वो भगवान? “#सिन्धुसुता_प्रियकन्ता। ” - अर्थात समुद्र की पुत्री लक्ष्मी के प्रिय पति, अर्थात विष्णु। जब प्रकट होते हैं, तब की स्तुति देखिये: “#भयऊ_प्रकट_श्रीकंता। ” श्री देवी कौन हैं ? यह श्री सूक्त से स्पष्ट है। 

राघवत्वे अभवत सीता रुक्मिणी कृष्ण जन्मनि;
अन्येषु चावातारेशु विष्णो: श्री अनपायनी। 

विष्णु-पुराण, (1.9.144)

Goddess Lakshmi is forever united with the Lord ... Rama, Sri becomes Sita, when He is Krishna, she is Rukmini. In all the expansions of Narayan, Sri is inseparable from Narayana.
---जब विष्णु राम होते हैं तो लक्ष्मी सीता, जब विष्णु कृष्ण होते हैं तो लक्ष्मी रुक्मिणी होती हैं। अन्य सभी अवतारों में भी श्री देवी विष्णु के नित्ययोग में रहती हैं।
 >>>जीव अनेक एक श्रीकंता : ब्रह्म की पहचान है, श्री का पति। चाहे वो किसी भी रूप में हों, उनके वक्षस्थल पर श्री का निवास है। तुलसीदास भी राम को श्रीवत्स चिन्ह से विशिष्ट बताते हैं (विप्रपादाब्ज चिन्हम)। भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर चरण से प्रहार किया था, जहाँ श्रीवत्स चिन्ह होता है। गोपियों ने भी भगवान कृष्ण के वक्षस्थल में स्थित लक्ष्मी की स्तुति की थी।इस प्रकार तो यही सिद्ध होता है कि राम, कृष्ण, विष्णु, वामन आदि एक ही ईश्वर के भिन्न-भिन्न रूप हैं, जो श्री के पति हैं।
श्री राम-वाल्मीकि संवाद> अयोध्या काण्ड में कहा गया है = 'श्रुति सेतु पालक' वेदों की मर्यादा के रक्षक राम !  
छन्द
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥

जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥

हे राम! आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकीजी (आपकी स्वरूप भूता) माया हैं, जो कृपा के भंडार आपका रुख पाकर जगत का सृजन, पालन और संहार करती हैं। जो हजार मस्तक वाले सर्पों के स्वामी और पृथ्वी को अपने सिर पर धारण करने वाले हैं, वही चराचर के स्वामी शेषजी लक्ष्मण हैं। देवताओं के कार्य के लिए आप राजा का शरीर धारण करके दुष्ट राक्षसों की सेना का नाश करने के लिए चले हैं।
छंद- छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना'। यह आह्लाद वर्ण या मात्रा की नियमित संख्या के विन्यास से उत्पन्न होता है। इस प्रकार, छंद की परिभाषा होगी 'वर्णों या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'। छंद का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। जिस प्रकार गद्य का नियामक व्याकरण है, उसी प्रकार पद्य का छंद शास्त्र है।
इन प्रमाणों का आलोकन करने के बाद तो रंचमात्र भी संशय नहीं होना चाहिए कि राम और विष्णु भिन्न-भिन्न हैं। जो राम हैं वही विष्णु, जो विष्णु हैं वही राम। विष्णु के सहस्र नामों में एक नाम राम भी है। भगवान की पहचान है, वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह, जहाँ लक्ष्मी का निवास होता है
 >>>आचार्य रामानुज का जन्म सन् 1016 ई. मद्रास के निकट तिरुकुंदर गाँव में हुआ था ।  शंकराद्वैत से भिन्न धाराणाओं की वजह से रामानुज ने जीव, जगत और ईश्वर के संबंध को लेकर एक नया दार्शनिक मत प्रस्तुत किया, जिसे विशिष्टाद्वैत की संज्ञा मिली है । रामानुज के अनुसार जीव, जगत और ईश्वर के बीच उसी तरह का संबंध है जिस तरह का संबंध शरीर और उसके अंगों के बीच होता है ।
  ईश्वर और जीव का शेष शेषी भाव संबंध है । जीव शेष है, ईश्वर शेषी अर्थात स्वामी है ।  ईश्वर की सेवा-पूजा, दास्तव स्वीकार कर ही जीव मोक्ष का अधिकारी हो सकता है ।
आंतरिक अर्थ:> पांचजन्य शँख की ध्वनि प्रणव (ॐ कार)  को दर्शाती है। प्रणव (ॐ कार) शेष-शेषी भाव को दर्शाता है।  रामानुज संप्रदाय में शेष को ही जीवात्मा का स्वरुप कहा गया है। जीवात्मा भगवान का शेष और शेषी भगवान के उपयोग के लिये है। यह आत्मा भगवान के सिवा किसी अन्य का शेष नहीं होता एवं स्वतंत्र भी नहीं होता। अनंत नाग भगवान की आदि काल से सेवा कर रहे हैं, इसलिए वो 'आदि शेष' कहलाते हैं।  शरीर-आत्मा (Body and Soul) > समस्त आत्मा और प्रकृति भगवान के शरीर हैं और भगवान सबके अन्तर्यामी अंतरात्मा। 
अकार: अकारार्थो विष्णु: जगदुदय रक्षा प्रलयकृत: अकार विष्णु को दर्शाता है जो सृजन, नियंत्रण और विनाश करते हैं।मकार: मकारार्थो जीवः तदुपकरनम वैष्णवं इदम् |: मकार ने जीवात्मा को निरूपित किया है। उकारः उकारो अनन्यार्घम नियमिति संबंधमनयो: | : उकार जीवात्मा (मकार) का भागवान (अकार) के प्रति अनान्यार्घ-शेषत्वं और अनन्य शरणत्वंम् दर्शाता है| उकार श्री महालक्ष्मी माता को भी दर्शाता है।
[नव-विधा सम्बन्धं > 
https://ramanujramprapnna.blog › 2018/05/22 ›]
[सृष्टि अनादि -अनन्त #  ब्रह्मसूत्र में कहा गया है- "न कर्माविभागादिति चेन्न, अनादित्वात् ॥ (२.१.३५) [अर्थात करुणा से, वह ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण) सृष्टि के नए चक्र की शुरुआत करता है और प्रत्येक जीव को पिछले कर्म के अनुसार नाम और रूप प्रदान करता है। उसमें कोई क्रूरता या पक्षपात नहीं है क्योंकि वह अपने पिछले कर्म के अनुसार ही शरीर को शरीर प्रदान करता है। व्यक्ति, सृष्टि और प्रलय का यह चक्र और आत्मा के कर्म अनादि है, जिसकी शुरुआत कभी नहीं हुयी। काले बादलों का रंग श्रीकृष्ण  के दिव्य-मंगल-विग्रह जैसा दिखता है। कृष्ण (माँ काली ?) प्रलय के दौरान सभी जीवों की रक्षा करते हैं।-ब्रह्मसूत्र(२.१.३४)]
सभी को कण्णन (कृष्ण) कहना गोकुल की गोपियों स्वभाव है। कण्णा (सबसे अधिक प्यार करने वाला) और कण्णन का इस्तेमाल कृष्ण को प्रेमपूर्वक बुलाने के लिए किया जाता है। जैसे “दूधवाला कण्णन”। 
ठाकुरदेव के किसी शरणागत को अन्य देवताओं के पास इस विचार से ही जाना चाहिए कि श्री कृष्ण (अर्थात स्वामी विवेकानन्द के लिए अवतार वरिष्ठ ) ही उनके अन्तर्यामी हैं। इस प्रकार, वे केवल कृष्ण की ही पूजा करते हैं। 
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् । 

सर्वदेव नमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति ॥

आकाश से गिरा हुआ जल, जिस किसी भी प्रकार सागर को ही जा मिलता है; वैसे ही किसी भी देवता को किया गया नमस्कार केशव (कृष्ण) तक ही पहुँचती है ।
[साभार:तिरुपावै 4/ /https://ramanujramprapnna.blog/2019/12/20/]
आळि उळ् पुक्कु–मुगन्धु कोदु –आर्तु –एरि > समुद्र की गहराई में डुबकी लगाओ;स्वयं को जल से भर लो और, एरि – आकाश में ऊपर उठो; सभी को प्रदान करो (समुद्र का जल);गर्जन की आवाज़ के साथ; गहरे समुद्र में डुबकी लगाकर, अपने आप को भरने के बाद, गर्जन की आवाज़ के साथ आकाश में उच्च उठो। जैसे हनुमान सीता का पता लगाने और उनसे मिलने के बाद गर्जन करते हुए उत्साह के साथ वापस आए और हनुमान जी को लौटते देख दूसरे वानर जिस तरह उत्साह दिखा रहे थे।
महासागर उपनिषद हैं और बादल आचार्य (गुरुदेव या C-IN-C नवनीदा)  हैं। शिष्य आचार्य के समक्ष आत्मसमर्पण करते हैं और रहस्य मंत्रों के उपदेश का अनुरोध करते हैं। बिना कुछ अपने पास रखे, आचार्य हम पर भगवद-अनुभव के आनंद की वर्षा करें। सर्वोत्कृष्ट अर्थ निकालकर शेर की तरह दहाड़ते हुए, हम पर अपनी कृपा बरसाओ।
ऊळि मुदल्वन् : प्रधान कारण;> गोपियों ने उन्हें ‘पद्मनाभन’ कहा; जिसने अपनी नाभि से ब्रह्मा की रचना की और जिसने संसार की रचना की। जैसे प्रलय के समय कृष्ण (अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव या माँ काली ? ) हर किसी को अपने उदर में रखते हैं और सृजन के समय फिर से करुणा से नाम और रूप देते हैं। भगवान हम सभी को देखता है जिसने अभी तक शरीर प्राप्त नहीं किया है, उसके लिए तब लिए खेद महसूस करता है।  और इतनी दयालुता के साथ सिर्फ अपने संकल्प मात्र से (मन में सोचकर) श्रृष्टि की प्रक्रिया शुरू करते है।  और फिर वह खुशी के साथ उज्ज्वल हो जाते हैं – आप, बारिश के देवता वरुण देव या इंद्र , हमारे प्रति भी ऐसी ही कृपा करें

काले बादलों का रंग कन्नन (कृष्ण, काली, बालक राम) के दिव्य-मंगल-विग्रह जैसा दिखता है। कृष्ण प्रलय के दौरान सभी जीवों की रक्षा करते हैं। करुणा से, वह सृष्टि के नए चक्र की शुरुआत करता है और प्रत्येक जीव को पिछले कर्म के अनुसार नाम और रूप प्रदान करता है। उसमें कोई क्रूरता या पक्षपात नहीं है क्योंकि वह अपने पिछले कर्म के अनुसार ही शरीर को शरीर प्रदान करता है।  सृष्टि और प्रलय का यह चक्र और व्यष्टि आत्मा (M/F) के कर्म अनादि है, जिसकी शुरुआत कभी नहीं हुयी। 
>>>आपन सोची होत नहिं प्रभु सोची तत्काल। अतः व्यक्ति अपनी इच्छाओं को पूरा करने में सर्वशक्तिमान नहीं होता। किन्तु भगवान इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं। वे निष्पक्ष होने के कारण स्वतन्त्र अणुजीवों की इच्छाओं में व्यवधान नहीं डालते। किन्तु जब कोई कृष्ण की इच्छा करता है तो भगवान उसकी विशेष चिन्ता करते हैं; और उसे इस प्रकार प्रोत्साहित करते हैं कि भगवान को प्राप्त करने की इच्छा पूरी हो और वह सदैव सुखी रहे। 
वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयति।।
न कर्माविभागादिति चेन्नानादित्वात् ।।
(ब्रह्म सूत्र 2.1.34-35।।)

“भगवान् न तो किसी के प्रति घृणा करते हैं, न किसी को चाहते हैं, यद्यपि ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है। 
[(जिसने दुनिया बनाई, उसका  रंग काले बादलों की तरह है। )]
 स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। (गीता 1.19) कुरुक्षेत्र में, कृष्ण द्वारा पांचजन्य शंख बजाने ने कौरवों को भयभीत कर दिया, और पांडव बहुत खुश हुए। पाँचजन्य शंख की कर्कश ध्वनि भगवान के रक्षण-अनुग्रह की घोषणा करने के लिए है।  दुश्मनों के लिए जो एक घातक हथियार है, वो भक्तों के लिए कृष्ण का एक प्यारा आभूषण है
गीता 13.32 में कहा गया है -  
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥

अनादित्वात् निर्गुणत्वात् परमात्मा अयम् अव्ययः शरीरस्थः अपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ 
(अन्वयः> कौन्तेय ! अयम् अव्ययः परमात्मा शरीरस्थः अपि अनादित्वात् निर्गुणत्वात् न करोति न लिप्यते ।)शब्दार्थ > परमात्मा the Supreme Self, अव्ययः = imperishable, अविनाशी है  नाशरहितः/अनादित्वात् = (being without beginning-अनादि होने के कारण- अमूलत्वात्/निर्गुणत्वात् =being devoid of alities, गुणों से रहित होने के कारण, गुणरा-हित्यात्/शरीरस्थः = dwelling in this body, इस शरीर में निवास करने वाला -क्षेत्रस्थः है/ अपि -though शरीर में रहते हुए भी , न करोति = कर्म नहीं करता -न आचरति/ न लिप्यते = is not  is tainted. परमात्मा स्वरुप आत्मा कभी दागदार नहीं होता -लिप्तो न भवति ।']

अनादित्वात्-आदि रहित; निर्गुणत्वात्-प्रकृति के गुणों से रहित; परम-सर्वोच्च; आत्मा-आत्मा; अयम्-यह; अव्ययः-अविनाशी; शरीर-स्थ:-शरीर में वास करने वाला; अपि- यद्यपि; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; न करोति-कुछ नहीं करता; न लिप्यते-न ही दूषित होता है।
BG 13.32: परमात्मा अविनाशी है और इसका कोई आदि नहीं है और प्रकृति के गुणों से रहित है। हे कुन्ति पुत्र! यद्यपि यह शरीर में स्थित है किन्तु यह न तो कर्म करता है और न ही प्राकृत शक्ति से दूषित होता है।
[हे कौन्तेय ! अनादि और निर्गुण होने से यह पुरुष (परमात्मा) अविनाशी है। शरीर में स्थित हुआ भी, वस्तुत:, वह न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त होता है।
[ Being without beginning and being devoid of (any) विशेषता qualities-alities, the Supreme Self, imperishable, though dwelling in the body, O Arjuna, neither acts nor is tainted.]
व्याख्या -  यद्यपि चैतन्य आत्मा (पूर्ण, भगवान या अवतारवरिष्ठ-ठाकुरदेव)  के सान्निध्य मात्र से शरीर, मन - इन्द्रिय आदि  उपाधियाँ स्वक्रियाओं में प्रवृत्त होती हैं तथापि आत्मा सदा अकर्त्ता ही रहता है। भगवान सभी प्राणियों के शरीर में परमात्मा के रूप में निवास करते हैं। उनकी कभी शरीर के रूप में पहचान नहीं होती और न ही वे इसके अस्तित्त्व की अवस्थाओं से प्रभावित होते हैं। भौतिक शरीर में उनकी उपस्थिति उन्हें किसी प्रकार से पदार्थ नहीं बनाती और न ही वे कर्म के नियम तथा न ही जन्म-मृत्यु के कालचक्र के अधीन होते हैं जबकि वहीं दूसरी ओर आत्मा इन सबका अनुभव करती है।
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>>सृष्टि, स्थिति, प्रलय >
श्रृष्टि :असत-कार्य वाद: श्रृष्टि के मूल में कोई जीवित कारण नहीं है। प्रकृति यानि अचित तत्त्व से चेतन का उद्भव होता है।
सत-कार्य वाद: > हर श्रृष्टि के मूल में कोई जीवित कारण अवश्य होता है। आधुनिक विज्ञान और वेदान्त दर्शन, दोनों ही सत-कार्यवाद ही मानते हैं। विज्ञान के अनुसार सूक्ष्म से स्थूल का उद्भव होता है। वेदांत दर्शन के अनुसार स्थूल (ब्रह्म) से सूक्ष्म (जीवात्मा) की श्रृष्टि होती है। ब्रह्म का अर्थ है बृहद, विशाल। वेदों का उपदेश है:- “कारणं तु ध्येय”। जगत-कारणत्वं ब्रह्म का ध्यान करो। इस जगत के आदि कारण , जगत-कारण (कारणस्य करणं) भगवान श्रीमन नारायण को ही ‘ब्रह्म’, ‘परमात्मा’ और ‘भगवान’ से संबोधित किया गया है। 

श्रृष्टि का अर्थ है: सूक्ष्म पदार्थों का सकल पदार्थों में परिवर्तन। श्रृष्टि से पहले सबकुछ अव्यक्त ,निराकार, नामविहीन होता है। 
श्रृष्टि की प्रक्रिया > जगत प्रलय के काल में सूक्ष्म अवस्था में होता है। सूक्ष्म अचित तत्त्व से ‘मूल प्रकृति’; मूल प्रकृति से ‘महान’ (महत तत्व) और फिर उससे ‘अहंकार तत्त्व’ का उदय होता है। यह अहंकार तत्त्व, गुण रूपी अहंकार से अलग है। अहंकार  से कई तत्त्वों का सृजन होता है। कुल २४ अचेतन तत्त्व हैं (मूल प्रकृति, महान, अहंकार, मन, ५ कर्मेन्द्रियाँ, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचभूत और पञ्च-तन्मात्र)। आत्मा २५ वाँ तत्त्व है और २६ वाँ तत्त्व ईश्वर हैं। पञ्च-तन्मात्र पंचभूत (सकल तत्वों) की सूक्ष्म अवस्था है। पञ्च-भूतों तक की श्रृष्टि भगवान स्वयं करते हैं।
>>>पंचीकरणं विद्या >पञ्चीकरणं उस प्रक्रिया का नाम है जब भगवान भिन्न-भिन्न तत्त्वों का मिश्रण कर प्राकृत संसार का निर्माण करते हैं। "आकाशात वायु: वायोर अग्निः " -आकाश से वायु , वायु से अग्नि, अग्नि से भूमि और भूमि से आपः (जल) का निर्माण होता है। यहाँ भी शरीर-आत्मा भाव है। वास्तव में भगवान स्वयं ही पञ्च-भूतों का निर्माण करते हैं। भगवान एक तत्त्व को दो भागों में बाटते हैं और तत्पश्चात प्रत्येक भाग को ४ भागों में। उस १/८ भाग का मिश्रण दूसरे तत्त्व के साथ करते हैं। इसी प्रकार, हर तत्त्व का एक दूसरे से मिश्रण कर प्राकृत संसार का निर्माण होता है।
>>>स्थिति (रक्षण-पोषण) >जिस प्रकार जल उपज का पोषण करता है उसी प्रकार करता है, उसी प्रकार भगवान अपने जीवात्माओं का पोषण-पालन करते हैं। श्री विष्णु इस संसार में श्रीमन नारायण के प्रथम अवतार हैं। भगवान हंस अवतार लेकर ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान देते हैं और हयग्रीव अवतार लेकर वेदों की रक्षा करते हैं। मनु और ऋषियों के द्वारा शास्त्र को स्थापित करते हैं।
स्वयं मृत्यु-लोक में अवतार लेकर जीवात्माओं को प्रशिक्षित करने हेतु विभिन्न लीलाएं करते हैं और गीता आदि शास्त्रों का उपदेश देते हैंधर्म और सत्य के मार्ग पर जीवात्माओं का मार्गदर्शन करने हेतु सभी प्राणियों और काल में अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में रहते हैं
जीवात्मा की आयु १०० वर्ष है। हमारा उत्तरायण देवताओं के लिये दिन और दक्षिणायन रात होता है। इस प्रकार हमारे एक वर्ष का देवताओं का एक दिन होता है। १२००० देव-वर्षों का एक चतुर्युग (एक युग-चक्र)। १००० चतुर्युगों का ब्रह्मा का एक दिन होता है और इतने ही समय की रात्रि। ब्रह्मा के रात्रि-काल में नैमित्यिक प्रलय (अवांतर प्रलय) होता है। ब्रह्मा के एक दिन (कल्प) में १४ मनु होते हैं। हर मनु की आयु ७१ चतुर्युगों की होती है। अभी हमलोग ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध (दूसरा ५० वर्ष) में श्वेत-वाराह कल्प में वैवश्वत मन्वंतर के २८वें चतुर्युग के कलियुग में हैं। (द्वितीय परार्धे, श्वेतवाराह कल्पे, वैवश्वत मन्वंतरे, अष्टाविंशतितमे, कलियुगे)   ब्रह्मा के १०० वर्ष होने पर प्राकृत प्रलय होता है और सारी श्रृष्टि पुनः श्रीमन नारायण में समाहित हो जाती है। हर चतुर्युग में भगवान के अवतार होते हैं, यद्यपि उनके क्रम बदलते रहते हैं
>>>संहार (प्रलय) : संहार का अर्थ है जीवात्माओं को सूक्ष्म स्थिति में वापस खींचना ताकि लौकिक आकांक्षाओं के प्रति उनका आकर्षण काम हो। जैसे उद्दंड पुत्र को उसके हितार्थ पिता कुछ समय के लिये बंदी बनाकर रखते हैं। रूद्र, अग्नि, काल और अन्तर्यामी भगवान संघार को संचालित करते हैं।=
प्रलय 4 प्रकार के होते हैं:
1.नित्य प्रलय: मनुष्य की आयु 100 वर्षों की है, उसके बाद उसे शरीर बदलना होता है।
2.नैमित्यिक प्रलय: ब्रह्मा के १ दिन पूर्ण होने पर रूद्र ३ लोकों (भू:, भुवः, स्वः) को प्रलय जल में डुबो देते हैं। ब्रह्मा की रात्रि के पश्चात जब पुनः दिन आता है तो ब्रह्मा फिर से श्रृष्टि की प्रक्रिया शुरू करते हैं।
3.आत्यन्तिक प्रलय: जीवात्मा लीला विभूति को त्यागकर नित्य विभूति को जाता है और फिर कभी वापस लौट कर नहीं आता।
4.  प्राकृत प्रलय: ब्रह्मा की आयु पूर्ण होने पर रूद्र समस्त लोकों का विनाश कर देते हैं और स्वयं ब्रह्मा में समा जाते हैं। सारे ब्रह्मा और समस्त लीला विभूति एक बार फिर से भगवान श्रीमन नारायण में समा जाते हैं।
>>>श्रृष्टि, स्थिति और संहार का उद्देश्य : भगवान के लिये श्रृष्टि, स्थिति और संहार लीला मात्र है, पर जीवात्मा के लिये यह कर्म-बंधन से मुक्त होने का मौका है। हम सभी अनादि काल से मृत्यु-लोक में अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोग रहे हैं। शुभ कर्मों के फलस्वरूप हमें सुख की प्राप्ति होती है और अशुभ कर्मों के फलस्वरूप दुःख की। इस तरह से शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप), दोनों ही प्रकार के कर्म हमें संसार में बंधने वाले हैं। 
हमारे कर्मों का अनंत कोष ‘संचित कर्म’ कहलाता है। उस संचित का वो भाग जो हमें इस जन्म में भोगना होता है, वो ‘प्रारब्ध कर्म’ कहलाता है। एक ‘कर्म योगी’ हमेशा पाप-कर्मों से दूर रहता है और पुण्य कर्मों को भगवान की सेवा के रूप में करता है एवं उसका फल भगवान को समर्पित करके ही उपभोग करता है।
अगर हम श्रृष्टि का उद्देश्य न समझें तो श्रृष्टि निरर्थक हो जायेगा पर निर्हेतुक कृपा के स्वामी भगवान प्रलय के पश्चात फिर से श्रृष्टि करते हैं। यह प्रक्रिया अनंत काल से जारी है। श्रृष्टि और प्रलय, दोनों ही अवस्था में हम भगवान के अभिन्न अंश हैं। पूर्वाचार्यों ने ये बात विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से समझाया है:
१) नृत्य करता हुआ मोर:  जिस प्रकार मोर बादल को देख प्रसन्नचित्त होकर नृत्य करता है, उसी प्रकार भगवान भी हमारी माता महालक्ष्मी को देखकर प्रसन्न होते हैं और श्रृष्टि करते हैं। समझने हेतु अगर हम मोर को ब्रह्म, पंख को अचित और मोर की आँखों को चित (आत्मा) मान लें तो मोर का पंख फैलाकर नृत्य करना श्रृष्टि है और पंखों को समेट लेना ही संहार। दोनों ही स्थति में चित, अचित ब्रह्म से अभिन्न होते हैं। क्या पंख और मोर एक ही हैं? नहीं। क्या मोर पंख से भिन्न है? नहीं। उसी प्रकार चित और अचित भी ब्रह्म नहीं हैं पर ब्रह्म के अभिन्न अंश हैं।
२) समुद्र की लहरें: जिस प्रकार वायु के कारण समुद्र में लहरों का निर्माण होता है, उसी प्रकार भगवान के संकल्प शक्ति मात्र से संसार की श्रृष्टि होती है। अगर लहरों को चित, अचित  और समुद्र को ब्रह्ममान लें तो श्रृष्टि को संहार की प्रक्रिया स्पष्ट समझ आती है।
३) मकड़ी का जाल: इस उदाहरण में मकड़ी ब्रह्म है और जाल चित, अचित। जिस प्रकार मकड़ी जाल को फैलाती है और अंततः वापस अपने अन्दर खींच लेती है, उसी प्रकार भगवान भी चित, अचित को नाम, रूप आदि देकर इस संसार की श्रृष्टि करते हैं और प्रलय-काल में सारे चित,अचित भगवान में ही समा जाते हैं।
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🙏>>> सत्य का अनुभव ही धर्म है : भारत में धर्म प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तिगत कार्य है। गीता-भाष्य मे आचार्य शंकर कहते हैं-  द्विविधो हि वेदोक्तः धर्मः प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षणः च । जगतः स्थितिकारणं प्राणिनां साक्षात् अभ्युदयनिःश्रेयसहेतुः यः स धर्मो ब्राह्मणाद्यैः वर्णिभिः आश्रमिभिः च श्रेयोर्थिभिः अनुष्ठीयमानः ।  7/245] 
🙏जब भारत में किसी प्रकार से यह बात दूर तक फ़ैल जाती है कि अमुक मनुष्य को सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव हो गया है, ..अब उसके लिये धर्म और आत्मा का अमरत्व और ईश्वर आदि विषय जटिल नहीं रह गये हैं, तो तमाम स्थानों से लोग उसके दर्शन करने आते हैं, और धीरे धीरे उसकी देवता के समान पूजा करने लगते हैं। 7/246]
"हमें अपनी इन्द्रियों द्वारा यह संसार जितना प्रत्यक्ष प्रतीत होता है, उससे भी कहीं अधिक प्रत्यक्ष हमें सत्य का अनुभव हो सकता है।7/247] 

" क्या ईश्वर देखा जा सकता है?  तुम अपने इतने दूतों को क्यों भेजती हो ? स्वयं तुम क्यों नहीं आती ? ऐसे विचार हम सभी के मन में उठते हैं, परन्तु कब ? -जब हमें तीव्र मानसिक क्लेश होता है ! पर दूसरे ही क्षण हम उन्हें भूल जाते हैं, क्योंकि हमारे चारो ओर अनेक मोहरूपी जाल हैं। ...हमारा पाशविक अंश हमें नीच दशा में पहुंचा देता है, और खाने, पीने, मरने, जन्म लेने और फिर खाने-पीने में व्यस्त हो जाते हैं। (7/249)
🙏" जब तक जगन्माता के लिये सर्वस्व त्याग नहीं किया जाता, तब तक वे दर्शन नहीं देतीं। " 250] 
🙏 ' काम-वासना दूसरा शत्रु है। ' मनुष्य वस्तुतः आत्मस्वरुप है, आत्मा निर्लिंग है, वह न तो स्त्री है, न पुरुष। ..काम तथा कांचन के कारण ही उनको माँ के दर्शन नहीं होते। सारा विश्व माता का ही रूप है और वह प्रत्येक शरीर में वास करती है। प्रत्येक स्त्री माता का रूप है, अतः किसी स्त्री को स्त्री-भाव (भोग्या?) से मैं कैसे देख सकता हूँ  ? ..हमें उस अवस्था को पहुँच जाना चाहिये, जबकि प्रत्येक स्त्री में केवल जगन्माता का ही स्वरुप दिखे। " 7/251] 
🙏भैरवी ब्राह्मणी मानव देह में साक्षात् विद्वत्ता ही थीं। ...साधन सिखलाये।  स्त्री-पुरुष के भेदभाव को समूल नष्ट करने की साधना -को सीखकर, उनके मन का स्वरुप पलट गया, वे स्त्री-पुरुष के भेद की कल्पना बिल्कुल भूल गये, और इस प्रकार जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण बिल्कुल बदल गया। ..... जीवन में कड़ी तपस्याओं  द्वारा जो आध्यात्मिक संपदा एकत्र की थी वह अब वितरण करने का समय आ गया था। ..जो कुछ हो रहा है, वह सब T ही करा रहे हैं, मैं स्वयं कुछ नहीं कर रहा हूँ। (7/256)
जीवन-समस्या का एक ही समाधान है और वह है ईश्वर तथा धर्म। (2-48)
🙏उनका जीवन कितना धन्य है जिनका काम-भाव सम्पूर्ण नष्ट हो गया है। हमारी दृष्टि भी इसी प्रकार की होनी चाहिये स्त्री में जो ईश्वरत्व वास करता है, उसे हम कभी ठग नहीं सकते। इस प्रकार की अच्युत पवित्रता अनिवार्य है। (3/4)  
🙏महाराज रन्तिदेव के जैसी परदुःख-कातरता लाना** चन्द्रवंशी राजा संकृतिके दो पुत्र थे - गुरु और रन्तिदेव । इनमें रन्तिदेव बड़े ही न्यानशील, धर्मात्मा और दयालु थे । दूसरोंकी दरिद्रता देखना उनसे सहा ही नहीं जाता था । अपनी सारी सम्पत्ति उन्होंने दीन दुखियोंको बाँट दी थी और स्वयं बड़ी कठिनतासे निर्वाह करते थे । ऐसी दशामें भी उन्हें जो कुछ मिल जाता था, उसे दूसरोंको दे देते थे और स्वयं भूखे ही रह जाते थे ।एक बार रन्तिदेव तथा उनके पूरे परिवारको अड़तालीस दिनोंतक भोजनकी तो कौन कहे, पीनेको जल भी नहीं मिला । देशमें घोर अकाल पड़ जानेसे जल मिलना भी दुर्लभ हो गया था । भूख - प्याससे राजा तथा उनका परिवार - सब - के - सब मरणासन्न हो गये । उनचासवें दिन कहींसे उनको घी, खीर, हलवा और जल मिला । अड़तालीस दिनोंके निर्जल व्रती थे वे । उनका शरीर काँप रहा था । कण्ठ सूख गया था । शरीरमें उठनेकी शक्ति नहीं थी । भूखा मनुष्य ही रोटीका मूल्य जानता है । रन्तिदेव ऐसी दशामें भोजन करने जा ही रहे थे कि एक ब्राह्मण अतिथि आ गये । करोड़ों रुपयों में से दस - पाँच लाख का दान कर देना सरल है । अपना पूरा धन दान करने वाले उदार भी मिल सकते हैं; किंतु जब अन्नके बिना प्राण निकल रहे हों, तब अपना पेट काट कर दान करने वाले महापुरुष विरले ही होते हैं । रन्तिदेवने बड़ी श्रद्धा से उन विप्र को उसी अन्न में से भोजन कराया । विप्रके भोजन कर लेनेपर बचे हुए अन्नको राजाने अपने परिवारके लोगोंमें बाँट दिया । वे सब भोजन करने जा ही रहे थे कि एक शूद्र अतिथि आ गया । उस दरिद्र शूद्रको भी राजाने आदरपूर्वक भोजन करा दिया । अब एक चाण्डाल मेरे ये कुत्ते भूखे हैं और मैं भी बहुत भूखा हूँ ।'रन्तिदेवने उन सबका भी सत्कार किया । सभी प्राणियोंमें श्रीहरि को देखनेवाले उन महापुरुषने बचा हुआ सारा अन्न कुत्तों और चाण्डालके लिये दे दिया । अब केवल इतना जल बचा था, जो एक मनुष्यकी प्यास बुझा सके । राजा उससे अपना सूखा कण्ठ गीला करना चाहते थे कि एक और चाण्डाल आकर दीन स्वरसे कहने लगा - ' महाराज ! मैं बहुत थका हूँ । मुझ अपवित्र नीच को पीनेके लिये थोड़ा पानी दीजिये ।'  उसकी दयनीय अवस्था पर रन्तिदेव का मन एकाग्र होगया, वे मनन करने लगे। ...इस मनुष्यके प्राण जलके बिना निकल रहे हैं ।और इसे जल दे देने से मेरे प्राण भी निकल जायेंगे। यह प्राण - रक्षाके लिये मुझसे जल माँग रहा है ।और  इसे यह जल देनेसे मेरी भूख - प्यास, थकावट, चक्कर, दीनता, क्लान्ति, शोकविषाद और मोहादि सब सदा के लिये मिट जायँगे ।' जैसे जागनेपर स्वप्न लीन हो जाता है, वैसे ही भगवान् वासुदेवमें चित्तको तन्मय कर देनेसे राजा रन्तिदेवके सामनेसे त्रिगुणमयी माया विलीन हो गयी। और 'एक्तामता की अनुभूति ' हो गयी ! परम दयालु (आत्मज्ञानी) राजा रन्तिदेव  ने स्वयं प्यासके मारे मरणासन्न रहनेपर भी वह जल आदर एवं प्रसन्नताके साथ चाण्डालको पिला दिया ।भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले त्रिभुवनके स्वामी ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही रन्तिदेवकी परीक्षाके लिये इन रुपोंमें आये थे । राजाका धैर्य देखकर वे प्रकट हो गये । राजाने उनको प्रणाम किया, उनका पूजन किया । बहुत कहनेपर भी रन्तिदेवने कोई वरदान नहीं माँगा । और उन्होंने सृष्टिकर्ता से प्रार्थना की-
न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परामष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा ।
आतिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥  
श्रीमद्भा० ९।२१।१२ )
  "हे भगवन ! न तो मैं अष्टसीद्धियों से युक्त सर्वोच्च स्थान चाहता हूँ और न मुक्ति। मैं तो यह चाहता हूँ  की प्राणिमात्र के हृदय में प्रविष्ट होकर उनके दुखों को स्वयं सहन कर सकूँ जिससे की सभी प्राणी अपने सभी प्रकार के दुखों से बच सकें | "रन्तिदेव के प्रभाव से उनके परिवार के सब लोग भी नारायणपरायण होकर योगियों की परम गति को प्राप्त हुए । 
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शनिवार, 19 जनवरी 2013

🔱🙏स्वामीजी का धर्म 🔱🙏 [SVHS-25 ] स्वामी विवेकानन्द द्वारा अविष्कृत (शैक्षिक) धर्म 'Be and Make ' ] 🔱🙏 [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-25 ] (खण्ड -5 : धर्म और समाज )


[स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना - SVHS-25]

(खण्ड -5 : धर्म और समाज :  Religion and Society ) 

🙏स्वामी विवेकानन्द का यथार्थ धर्म (शैक्षिक धर्म) है- 'Be and Make '🙏  

आदर्श और उद्देश्य के प्रति संवेदनशील होना या भाव रखना अच्छा है, किन्तु अतिशय भावुकता अच्छी चीज नहीं है। फिर भी हमलोगों में से कई व्यक्ति अतिशय भावावेग में बह जाते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि हम किसी भाव या उच्च आदर्श के ऊपर गहराई से विचार किये बिना ही केवल भावुकता में बहकर उसे ग्रहण कर लेते हैं। 
 यह बात सत्य है कि स्वामी विवेकानन्द ने धर्म का प्रचार किया था। यह भी सत्य है कि धर्म के साथ उसके गंध की तरह संयुक्त अतिशय भावुकता रूपी अफीम के वशीभूत हो हमलोग कई बार अपने कर्तव्यपथ से दूर चले जाते हैं। किन्तु, यह भी सत्य है कि अफीम के नशे की तरह अतिशय भावुकता भी स्थायी नहीं है , किन्तु धर्म सनातन है। स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के इसी सत्य को अतिशय भावुकता (कट्टरता) रूपी अफीम से अलग कर, समस्त मानव जाति के लिए ग्राह्य एक विशुद्ध धर्म - "Be and Make : अर्थात मनुष्य बनो और बनाओ" को ही धर्म के रूप में प्रस्तुत किया है।       
        चाहे जिस कारण से भी हो समय के प्रवाह में सच्चा धर्म भी दूषित हो ही जाता है; चाहे वह राष्ट्रीय विचारधारा के कारण हो, सामाजिक सोच के कारण हो या धार्मिक नासमझी के कारण। प्रायः यही देखा जाता है कि किसी भी धर्म का शुद्ध स्वरुप उसके अनुयायियों के आचरण से व्यक्त होता हुआ नहीं प्रतीत होता है। केवल धर्म के क्षेत्र में ही ऐसा होता है - ऐसा दावा हम नहीं कर सकते। अन्यान्य क्षेत्रों में भी हमलोगों ने ऐसी घटनाओं को घटते देखा है तथा आज भी देख रहे हैं। किन्तु जब धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था आती है तब धर्म को नये रूप में सर्वग्राह्य और सुपाच्य बनाकर प्रस्तुत करना पड़ता है। 
स्वामीजी के इस नव प्रचार में केवल एक ही विशिष्टता हैऔर वह वैशिष्ट्य भी  भारतीय विचारधारा के अनुरूप ही है। अन्यान्य क्षेत्रों के विचारकों ने जहाँ केवल एक-एक विषय को लेकर ही चिन्तन किया है तथा उसका फल  समाज को प्रदान किया है ; किन्तु युग नायक विवेकानन्द का वैशिष्ट्य यही कि उन्होंने मनुष्य को उसकी समग्रता में देखते हुए अपने विचार रखे हैं। उनके विचारों में समग्र मानव अर्थात मनुष्य की समग्र सत्ता और समाज को एक विषय के रूप में देखा जा सकता है।   
 अन्य विचारकों में से किसी ने केवल राष्ट्र के ऊपर चिंतन किया है, तो किसी ने समाज के ऊपर। समाज में भी किसी ने जातिप्रथा के ऊपर, तो किसी ने विभिन्न धर्मों पर, किसी ने शिक्षा पर, किसी ने कृषि पर, किसी ने कला के ऊपर, तो किसी ने साहित्य को लेकर, तो किसी ने संगीत के ऊपर अथवा -उसी प्रकार के भिन्न-भिन्न विषयो के ऊपर। 
किन्तु, उपरोक्त समस्त क्षेत्र जिस मनुष्य के साथ जुड़े हुए हैं, स्वामीजी ने उसी मनुष्य के ऊपर चिन्तन किया है। तथा उन्होंने एक ऐसे धागे का आविष्कार किया  जो इन सब विचारों के भीतर से होकर गुजर सकता है और उस धागे को मनुष्य के गले पहना दिया और उसका नाम दिया -धर्म। और कहा की यही - (Be and Make रूपी धर्म) वह धागा है जो मनुष्य को सभी ओर से संयम में रखेगा।
       इसलिए भिन्न -भिन्न नाम वाले जो धर्म हैं, वे समय के प्रभाववश केवल भावुकता प्रदान करते हैं या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं; किन्तु, स्वामीजी का धर्म इस तरह के व्यक्तिगत धर्मों से पूर्णतया अलग किस्म का है। 'धर्म' का नाम सुनते ही जो नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हों , वे यदि चाहें तो इसके लिए एक नये शब्द का अविष्कार कर सकते हैं, ऐसा करने से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसा कहना कि, जो लोग किसी विशेष तरीके से जीवन यापन करते हैं, वे ही धार्मिक हैं, शेष अधार्मिक हैं, गलत है। जो अपने जीवन को सभी ओर से धर्म के वास्तविक केन्द्र में संयमित रख सकते हैं, वे ही यथार्थ धार्मिक हैं मनुष्य जब अपने केन्द्र से जुड़ जाता है, तभी वह दूसरे मनुष्यों के साथ स्वयं को जुड़ा हुआ अनुभव करता है। ऐसा योग तभी साधित होता है, जब मनुष्य धर्म के (Be and Make रूपी धर्म के) उस वैश्विक धागे  को धारण कर लेता है। 
       स्वामीजी जब मनुष्य को परिभाषित करते हैं, तो उसमें सूत्र के रूप में यही बात सन्निहित रहती है। स्वामीजी के अनुसार मनुष्य एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि असीम है, जबकि उसका केन्द्र एक स्थान में निश्चित है। इस धागे का (धर्म-सूत्र) का निहितार्थ अत्यन्त विस्तृत है। जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म का अनुयायी होता है , उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। यही विकास की कुँजी है और मनुष्य का समग्र विकास ही धर्म की मूल बात है। इस उन्नति के पथ पर अग्रसर होते हुए मनुष्य अपनी क्षुद्र सत्ता -मिथ्या अहं या 'मैं'- बोध को खोना सीख लेता है। मनुष्य अपनी संकीर्णता, स्वार्थपरता का त्याग करता हुआ, अपनी महिमा को प्राप्त करने की ओर आगे बढ़ता जाता है। यह आगे बढ़ना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ना है। 
क्योंकि स्वामीजी के अनुसार -"Unselfishness is God: निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है।" यदि इस उक्ति को ही धर्म कहा जाय तो भला इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? क्या स्वामी विवेकानन्द से पहले धर्म की ऐसी परिभाषा अन्य किसी भाषा में भी इससे पहले कभी दी है? जिन्होंने यह बात नहीं बताई समाज ने उनको, कभी जननेता के आसन पर प्रतिष्ठित भी नहीं कियाहै। स्वामी विवेकानन्द ने फिलॉसफी, जप- तप, मन्दिर, केले का थम, घंटी -आदि चीजों को व्यक्तिगत धर्म का अंग बताया है; किन्तु जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है 'परोपकार'। अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व की उपलब्धि (अनुभूति) करना ही धर्म है।[दादा कहते थे- "To feel the unity of all living beings within the universal circumference of one's heart is Dharma."]  यह उपलब्धि हो जाने पर हमारे द्वारा किया गया कोई भी कार्य परोपकार हो जाता है, और वही है - धर्म ! यह धर्म कायरों के लिए नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर दूसरों को मारता है और वीर अपने कच्चे ' मैं '(तुच्छ अहं) को मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ या जिस किसी को भी मैं अपने सुखद जीवन का बाधक समझता हूँ, या हानि पहुँचाने वाला समझता हूँ , उसे मार देता हूँ क्योंकि वास्तव में मैं कायर हूँ। 
किन्तु, जो वीर होता है वह इस वृहत जगत (भवसागर) के पार जाने के (जीवन) लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे 'मैं ' और 'मेरा' को मारता है। इसीलिए धर्म कायरों के लिए नहीं , वीरों के लिए है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है," मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण होना ही धर्म है।" ["Religion is the manifestation of the 'divinity' (infinite power) already in man!"] उस धर्म की अभिव्यक्ति बुराई को हराने, कल्याण कार्यों को सम्पादित करने, भूखों को अन्नदान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने तथा शुद्ध बुद्धि को उद्घाटित करने के प्रयास में होती है। [विवेकदर्शन के अभ्यास सहित 3H विकास के प्रयास में होती है।]
    स्वामी विवेकानन्द मनुष्य को सुखी बनाने वाले धर्म को ही वास्तविक धर्म या शैक्षिक धर्म (Be and Make) की संज्ञा देते थे। उन्होंने कहा था - “(शैक्षिक) धर्म का मूल उद्देश्य है मनुष्य को सुखी करना, किंतु परजन्म में सुखी होने के लिए इस जन्म में दु:ख भोग करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है। इस जन्म में ही, इसी मुहुर्त से सुखी होना होगा। जिस धर्म के द्वारा ये संपन्न होगा, वहीं मनुष्य के लिए उपयुक्त धर्म है।”
 जो धर्म मनुष्य को इस संसार में सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख मिलेगा - का आश्वासन देना बिल्कुल झूठी बात है।  यदि मनुष्य इस संसार में सुख प्राप्त करना चाहता हो तो केवल अपनी सुख-सुविधा की बात, अपने स्वार्थ की बात सोचने से वह प्राप्त नहीं होगा। 
यथार्थ (शैक्षिक) धर्म-बोध मनुष्य को उसकी असीम परिधि तक जन-कल्याण की भूमिका में नियोजित कर देता है। यही बोध उसको अपना और दूसरों के दुःख दूर करने की शक्ति और  साहस से भर देता है। यहीं से अन्तःकरण में हित -अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज या विवेक-श्रोत का उद्घाटन हो जाता है। इसी शैक्षिक धर्म से नैतिकता का जन्म होता है। शैक्षिक धर्म (या वास्तविक धर्म) Be and Make ' हमें सबों के साथ जोड़ता है, और नैतिकता उस ' योगस्थ मनुष्य '  के कर्मों की नीति निर्धारित करती है।
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[>>लंकाकाण्ड की फलश्रुति : लंकाकाण्ड सुनने का परिणाम :Result of listening Lanka incident :- सन्त तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस में लंकाकाण्ड का फलश्रुति देते हुए कहा है—
   
"समर विजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान। 

'बिजय- बिबेक-बिभूति' नित तिन्हहि देहिं भगवान॥

121 क॥"

-भावार्थ--जो सुजान लोग श्री रघुवीर की समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥  
[🔱🙏स्वामी विवेकानन्द द्वारा अविष्कृत (शैक्षिक) धर्म Be and Make ! वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उन्नत हो सकता है।" (सू.सु.-2) और यही 'Be and Make' मार्ग पर, अर्थात 'पशु-मानव' से 'मनुष्य', और मनुष्य से 'देवमानव' बनने और बनाने के मार्ग पर आगे बढ़ना है।]  
 और श्रीरामकृष्ण-विवेकानंद वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में 'Be and Make' रूपी शैक्षिक धर्म का वैशिष्ट्य भी यही है :ठाकुर बचपन में अपने एक मित्र किशोरी से कहते थे - 'तुम ख हो!' साभार: विवेक-जीवन ब्लॉग dated -16 सितंबर 2019/"सार्थ गुर्वाष्टकम्" - अर्थ के साथ गुरु अष्टकम !/श्रीरामकृष्ण-विवेकानंद वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का वैशिष्ट्य/[ 6 दिसम्बर,2023 से 26 फरवरी 2024 दिल्ली तपस्या काल की फलश्रुति : विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयते -  विवेकानन्द- दर्शन के अभ्यास से विवेकस्रोत का उद्घाटन होने पर सर्वत्र 'ख' ही रह जाता है ! ] 
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'ठाकुर-माँ-स्वामीजी के शरणागत बने रहना !'(कबूतर-छुरी और सुनसान), [ $@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [63]

काला कबूतर -छुरी और सुनसान !
 (उत्कृष्ट विवेक-प्रयोग का नेट-प्रैक्टिस सर्वत्र भगवत् दृष्टि )
शिवजी पर चढ़ाया जाने वाला बेलपत्र तीन पत्तियों से बना होता है। तीनों पत्ते यदि आपस में जुड़े हुए न रहें, तो उसे बेलपत्र नहीं कहते हैं। ठाकुर- माँ-स्वामीजी भी ठीक उसी प्रकार एक डंठल से जुड़े तीन पत्तियों जैसे हैं। तीनों में कोई अंतर नहीं है, तीनो एक ही वस्तु है। एक ही वस्तु के तीन रूप हैं। जब हमलोग ठाकुर-माँ-स्वामीजी के जीवन की घटनाओं, या विभिन्न विषयों पर दिए गये उनके उपदेशों को अलग अलग रूप से सुनते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि, ठाकुर ने इस विषय पर ऐसा कहा है, माँ ने कुछ और कहा है, स्वामीजी ने वैसा कहा है। किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा है।
जब हम उनके जीवन और संदेशों के भीतर प्रवेश करते हैं, उनके मर्म को समझने का प्रयत्न हैं, तो पाते हैं कि तीनों ने एक ही बात कही है, किसी की बात में कोई अंतर नहीं है। किन्तु इस बात को समझ पाना उतना आसन नहीं है। फिर भी इस बात को स्मरण में रखना अच्छा है कि तीनों में कोई अंतर नहीं है। श्रीरामकृष्ण के शरीर में रहते समय ही उनकी पूजा प्रारंभ हो गयी थी। माँ सारदा देवी ने ठाकुर का शरीर रहते समय ही ठाकुर की पूजा
सर्वप्रथम की थी। उसके बाद ठाकुर के निकट माँ को रख कर पूजा करना आरम्भ हुआ। उसके बाद जब स्वामीजी भी चले गये तब उनके पास स्वामीजी के चित्र को बैठा कर पूजा शुरू हुई। यह देखकर किसी व्यक्ति को अच्छा नहीं लगा, वह व्यक्ति माँ के पास आकर बोला, ' माँ अमुक व्यक्ति  -ठाकुर और आपके चित्र के पास स्वामीजी की छवि को बैठा कर पूजा कर रहा है।' माँ ने कहा, ' अरे, उनलोगों ने तो विवेकानन्द को श्रीरामकृष्ण के बगल में बैठाया है, मैं होती तो उनको सिर पर बैठाती। ' तीनो में कोई अंतर नहीं है।
जो लोग इस युग में पृथ्वी पर मनुष्य बन कर जन्मे हैं, उनका भाग्य असाधारण है। क्योंकि इस युग में ठाकुर-माँ-स्वामीजी का जीवन और सन्देश निःशब्द, अदृष्ट रूप से विश्व के आकाश में कृपा-वायु बनकर बह रही है। किन्तु उन्हें ग्रहण करने के लिये अपनी पात्रता बढ़ाने की जरूरत है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो मानो सुनकर भी नहीं सुनते। फिर अब भी बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें उनके संदेशों को सुनने का अवसर नहीं मिला है। पर यदि किसी में उनके संदेशों को सुनने की उत्कंठा हो, तो वह उनके संदेशों को अवश्य सुन सकता है, किन्तु उन संदेशों को सुनकर अपने जीवन में उतारना ज्यादा महत्वपूर्ण बात है।
विगत कुछ वर्षों में विश्व के विभिन्न देशों की अवस्था कितनी उलट दिखाई दे रही है। स्वामीजी कहा करते थे कि जगत में इतिहास की गति सर्वदा तरंगाकार हुआ करती है। कभी उत्थान तो कभी पतन होता रहता है। एक बार किसी देश के मनुष्यों की सभ्यता बढ़ते हुए उत्तुंग शिखर पर पहुँच जाती है, फिर उसका पतन शुरू हो जाता है। इतिहास की गति इसी प्रकार चलती रहती है। इस समय इतिहास की ऐसी ही एक अधोगति का समय चल रहा था। किन्तु इस समय जो कुछ घटित हो रहा है,वह सोचा भी नहीं जा सकता। कोई भी व्यक्ति किसी रूप में शान्ति से नहीं जी पा रहा है। आज सभी मनुष्य हर समय किसी न मिसी प्रकार के आतंक के बीच जी रहे हैं। चाहे वे घर में हों, रास्ते में हों, गाड़ी में हो किसी की सुरक्षा निश्चित नहीं है। तथा मनुष्य का मन इतना नीचे गिर चुका है कि व्यक्ति और समाज के जीवन से विवेक और नैतिकता बिलकुल समाप्त हो गयी है। 

जहाँ विश्व का परिवेश और परिस्थिति इस प्रकार की हो, और उस युग में जन्म ग्रहण करने के बाद भी जिस व्यक्ति को ठाकुर-माँ-स्वामीजी के संदेशों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है, उनसे अधिक भाग्यवान और सौभाग्यवती दूसरा कोई नहीं है। क्योंकि उनके संदेशों को वे युवक-युवतियां अपने जीवन में उतरने का प्रयत्न करें, तो उनमें से प्रत्येक का जीवन अत्यन्त उत्कृष्ट,महान और सुन्दर (manifested) बन जायेगा। और व्यक्ति जीवन के उत्कृष्ट और महान बनने से ही समाज और देश भी महान बन जाता है। आज इसी चीज की आवश्यकता सर्वाधिक है। किन्तु व्यक्ति चरित्र को सुंदर रूप में गढ़ने की तरफ किसी की नजर नहीं है।
एक वर्ग ऐसा है,जो धर्म को नहीं मानता। फिर एक समूह वैसे लोगों का है, जो धर्म को मानते हैं, किन्तु उनके लिये उनका धर्म ही सबकुछ है, जो केवल अपने ही धर्म को दुनिया का एकमात्र धर्म बनाने पर आमदा रहते है। अन्य लोगों का धर्म खराब है, इसीलिये अन्य धर्मों को नष्ट करने की चेष्टा करते है, यहाँ तक कि अन्य धर्म के अनुयायियों की हत्या करके भी उस धर्म को नष्ट करने की चेष्टा करते हैं। किन्तु ठाकुर-माँ-स्वामीजी की बातों को यदि सभी लोग ग्रहण करते, या अब भी ग्रहण कर लें तो ये सब बन्द हो जाते। किसी भी बाहरी प्रयास की जरूरत नहीं पडती। यदि सभी लोग देश के सभी मनुष्यों को अपना समझकर, सबों के कल्याण के लिये, सभी लोग अपने स्वार्थ को थोडा त्याग करें, और दूसरों के स्वार्थ को, दूसरों के मंगल को अपने से बड़ा समझकर देखे तो समाज बहुत उत्कृष्ट बन सकता है।
हमलोगों के देश में भी धर्म के नाम पर बहुत कुछ चल रहा है। सभी धर्मों के अनुयायी कर रहे हैं। विश्व का प्राचीनतम धर्म भारत का सनातन धर्म है, किन्तु उस धर्म के अनुयायी भी दूसरों का अनुकरण करके, बहुत जोर-शोर से यह प्रचार करने में लगे हैं कि -
उनके धर्म को बहुत बड़ा बनाकर सम्पूर्ण भारत में पुनः सुप्रतिष्ठित करना होगा! इस प्रकार के प्रचार- मार्ग को ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि डराने-धमकाने से विभिन्न धर्मों के बीच आपसी भाईचारा और और सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता। यह प्रेम का मार्ग नहीं है, जो प्रेम-सम्बन्ध को नष्ट करता हो, उस प्रकार के मार्ग पर सनातन धर्म के अनुयायियों को भी चलता देखने से बहुत से लोगों के मन में थोडा थोडा आतंक या डर भी पैदा होने लगा है। आज भी यह जारी है। इस समय मनुष्य के रूप में बाघ-भालू खुले घूम रहे हैं, कब किसकी गर्दन मरोड़ देंगे, कहा नहीं जा सकता है। 
सर्वत्र, सम्पूर्ण विश्व में, भारतवर्ष के हरेक प्रान्तों में नारी जाती की अवमानना और भ्रष्टाचार देखा जा सकता है। इस परिस्थिति में भारत के युवाओं को क्या करना चाहिये ?  क्या हमलोगों को परम्परागत रूप से चले आ रहे प्रचलित कर्मकांडों को धर्म समझकर लकीर के फकीर बने रहना चहिये? या इसके आलावा भी कोई धर्म है ? धर्म क्या है ? मनुष्य-जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ना ही धर्म है, जीवन को उत्कृष्ट बनाना, पशु मानव से देवमानव में- विकसित होना, अपने हृदय को प्रेम से परिपूर्ण कर लेना ही धर्म है। इसी को सच्चा धर्म कहते हैं। किन्तु इस सच्चे धर्म को जीवन में उतारने की बात कौन सोचता है ? हमलोगों में से कोई मन्दिर में, तो कोई मस्जिद में या गिर्जा में जाते हैं, या किसी अन्य स्थानों में जो अनुष्ठान आदि मनाये जाते हैं, उसमें ही ध्यान देते हैं। वहाँ शनिवार-मंगलवार-शुक्रवार-रविवार या हफ्ते में किसी एक दिन चले जाते हैं, या लगातार भी आते जाते रहते हैं।
मन्दिर जायेंगे तो वहां, ' भोजन-भजन और प्रवचन ' चलेगा। मन्दिर में यदि " च्वय-चुष्य" या "चाटने-पीने " लायक प्रसाद भी मिल जाय तो क्या कहना? प्रसाद रूपी भोजन हो जाने के बाद थोड़ा भजन-कीर्तन होगा।  वह भजन चाहे सुर में हो या बेसुरा हो, चाहे जिस किसी के नाम का का हो कोई फर्क नहीं पड़ता। भजन के बाद किसी शास्त्र के उपर थोड़ा प्रवचन भी चला। जिसने शास्त्र पढ़ा, वो बोला और अपने घर चला गया, उसके बाद जिसका जीवन जैसे चल रहा था, वैसे ही चलने लगा। स्वामीजी अपने भाषणों में अक्सर कहते थे, " तुमलोग अभी सुन रहे हो, सुनने के बाद घर लौट जाओगे। जो भोजन किया वह भी हजम हो जायेगा, और जो सुना वह भी हजम हो जायेगा। भोजन यही सही रूप में पच जाता है, तो उसका सार प्राप्त होता है, शरीर को पौष्टिकता मिलती है। किन्तु वैसे हजम करने से कोई लाभ नहीं होगा। जो कुछ सुना वह हजम कर गया, तब क्या लाभ हुआ ? पचाने के बाद उससे पौष्टिकता ग्रहण करनी चाहिये।"
किन्तु पौष्टिकता ग्रहण करने का धैर्य हमारे भीतर नहीं होता, तथा उसके लिये जो प्रयत्न, चेष्टा, श्रम या जो तपस्या करनी चाहिए, मन को इन्द्रिय विषयों के प्रलोभन में जाने से रोकना ही तपस्या है। उस तपस्या के लिये हम तैयार नहीं होते,क्योंकि तपस्या के लिये जितनी तीव्र इच्छाशक्ति होनी चाहिये, वह इच्छाशक्ति अभीतक विकसित नहीं हुई है। इसीलिये अनगिनत बार सत्संग-प्रवचन सुनने के बाद भी जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और हमारी अंतर्निहित दिव्यता प्रकाशित नहीं हो पाती। हमारी अवस्था तो ऐसी है कि इस कान से सुना और उस कान से निकाल दिया। अभी अच्छा प्रवचन सुना, सुनने के समय लगा, वाह क्या बात है ! इसके अलावा यह भी होता है कि जब प्रवचन चल रहा होता है, उसी बीच हमलोग दुनियादारी की बातें, द्वेष-हिंसा के विचार भी सोचते रहते हैं। और जब वहां से बाहर निकल आये तो कहना ही क्या ? जैसा था, (अपने को भेंड -M /F समझता था ) वैसा ही रह गया, तो क्या लाभ ? थोड़े समय के लिये सुना। जितने दिनों तक कैंप में रहे, तबतक कोई बुरा कार्य नहीं किया, किन्तु उतने से क्या होगा ? उससे क्या जीवन में परिवर्तन आएगा ?
जीवन में परिवर्तन लाने के लिये आदर्श को ग्रहण करना पड़ेगा। और अपने दैनन्दिन जीवन में दिव्यता  को प्रकाशित करने के लिये, उसे सुन्दर बनाने के लिये, पूर्ण करने करने की जितनी संभावना है, उसको विकसित करने लिये निरन्तर परिश्रम करना होगा। किन्तु हमारे भीतर आदर्श के प्रति वैसी निष्ठा नहीं है। कई लोग तो दीक्षा लेने के बाद भी जप-ध्यान नहीं करते हैं। कुछ लोग सुबह-शाम का रूटीन निभा देते हैं। बहुत से लोग तो गुरु का नाम और मंत्र को भी भूल जाते हैं। मैंने स्वयं दीक्षित भक्तों में अनगिनत ऐसे लोगों को देखा है, यह देखकर बहुत दुःख होता है कि कितने लोग तो अपने गुरु का नाम भी याद नहीं रख पाते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो मन्त्र भूल जाते हैं। क्या मन्त्र प्राप्त हुआ थे, उसे भी भूल जाते हैं। फिर बहुत से लोग तीव्र अधीर चित्त से जप करते हैं। हमलोग अपने बचपन से सुनते आये हैं, " व्यग्रचित्तेन यद् जप्तं तज्ज्पं निष्फ़लं  भवेत। " ऊँगली का पोर और नखाग्र की सहायता से जप करना ही पर्याप्त नहीं है, व्यग्र या तीव्र अधीर चित्त से जप करने का कोई फल नहीं मिलता। धर्म का अर्थ हमलोग इतना ही  जानते हैं ? इन सब यांत्रिक क्रियाओं में धर्म नहीं है। स्वामी विवेकानन्द 9 जुलाई 1897 ई0 को अलमोड़ा से लिखित अपनी कविता-
जाग्रत देवता  में कहते हैं-
ओ विमूढ़ !
जाग्रत देवता की उपेक्षा मत करो,
उसके अनन्त प्रतिबिम्बों से ही यह विश्व परिपूर्ण है।
काल्पनिक छायाओं के पीछे मत भागो,
जो तुम्हें विग्रहों में डालती हैं;
उस परम प्रभु की उपासना करो,
जिसे सामने देख रहे हो;

अन्य सभी प्रतिमाएं तोड़ दो ! 
"  ज़िन्दा-ख़ुदा  " ' जाग्रत देवता '
 वह, जो तुममें है और तुम्हारे बाहर भी है,
जो सब के हाथों से काम करता है,
जो सब के पैरों से चलता है,
जो हरेक शय में पैठा हुआ है,
पहले उसीकी बन्दगी करना शुरू कर दो !
और तब, बेशक! तुम
 अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो ! 
हे विमूढ़ (blasphemer) दल !
ईश-निन्दकों की जमात! 
" बन्दे " के रूप में सामने खड़े-" जिन्दा-ख़ुदा " 
की उपेक्षा करते हो ?
वे तो हर जगह पर मौजूद खुदा की जानदार तस्वीरें है !
अल्लाह की जिन्दा तस्वीरों में (अल्ला) को देखना छोड़ कर,
ख़याली पत्थर के पीछे मत भागो,

व्यर्थ के द्वंद्व-विवादों,
'महज अल्लाह परवरदिगार ' को ही अनेक रूप में देख कर,
 पहचानने में भूल मत करो,
 (पानी, अकुआ या वाटर के नाम पर झगड़ने की बात ) को भूल जाओ,
और इसी
' एकलौता काबिल ए गौर'
 अल्लाह-परवरदिगार की इबादत करो; जिसे सामने देख रहे हो !

और तब, बेशक ! तुम
अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो ! ]

ठाकुर-माँ स्वामीजी की उपदेशों का सारांश इतना ही है। ओ विमूढ़ ! तुम लोग जिसे धर्म समझ रहे हो, वह तो मुर्ख लोगो का धर्म है। जीव-जगत जो कुछ भी देख रहे हो, सब उन्हीं की अभिव्यक्ति है। वे जगत में सर्वत्र व्याप्त हैं, सत्य तो यह है कि वे ही जगत बन गये हैं ! ठाकुर-माँ स्वामीजी की भावधारा का मूल बिन्दु यही है (- शिवज्ञान से जीव सेवा ! इस विश्व, चराचर जगत में, सृष्टि की रचना में जड़ -चेतन का भेद नहीं है, सब एक का ही विविध रूप है ! )
 सम्पूर्ण जगत-सृष्टि एक और अखण्ड है। जगत में जो कुछ है, पर्वत-पहाड़-नदी-वृक्ष जिसको हमलोग प्राणी नहीं मानते हैं, जिसको जड़ समझते हैं, या जीव-जन्तु कहते हैं, वे सभी चैतन्य-मय हैं, सभी ईश्वर हैं। जीव तो ईश्वर है ही, किन्तु समस्त जीवों में श्रेष्ठ है मनुष्य। सभी मनुष्यों में में ईश्वर को नहीं देख पाने से, ईश्वर दर्शन नहीं होता। ठाकुर-माँ-स्वामीजी को वैसा हुआ था। सभी मनुष्यों के भीतर ईश्वर को देख पाने से, कोई पराया नहीं रह जाता। किसी भी मनुष्य से ईर्ष्या, वैर, विरोध, शत्रुता, कपट नहीं किया जा सकता है। किसी को हिंसा नहीं कर सकते हैं। स्वार्थपर नहीं बन सकते हैं। अपने भोग की आकांक्षा को लालच-वश दूसरों को हानी पहुंचाकर भी पूर्ण करूँगा, ऐसा विचार उसके मन में उठ ही नहीं सकता है। और इसीको धर्म-लाभ कहते हैं।स्वामीजी कहते हैं, चरित्र ही धर्म है। बाकि सब सतही दस्तूर हैं। और जो लोग इबादत के रस्मी दस्तूर के मर्म को नहीं जानते, या अनुष्ठानिक पूजा-अर्चना के महत्व को ठीक से नहीं समझ पाते, उनके लिये इबादत या आरधना केवल व्यायाम या घुटनों की कवायद बनकर रह जाती है। किन्तु ये सब धर्म के मुख्य अंग नहीं हैं। चाणक्य नीति में कहा गया है,

अग्निर्देवो द्विजातीनां,
मुनीनां हृदि दैवतम्‌ 
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां;
सर्वत्र समदर्शिनः ।।

पहले अग्नि को ही एकमात्र देवता माना जाता था। जो लोग अपना अधिकांश समय मौन होकर  व्यतीत करते हैं, उनको मननशील या मुनि कहते हैं। उनके लिये भगवान उनके हृदय में रहते हैं, कहीं बहार में नहीं रहते। ठाकुर-माँ-स्वामीजी की भाषा में कहें तो जो कुछ दिख रहा है, सब उन्हीं का भिन्न भिन्न रूप है। जिन लोगों की बुद्धि इतनी तेज नहीं है, जो लोग इन बातों को समझ नहीं पाते हैं, उनके लिये प्रतिमा (या रोल मॉडल या पूर्णमनुष्य के आदर्श) की आवश्यकता होती है। "सर्वत्र समदर्शिनः", और जो समदर्शी हैं, (अर्थात जिन्होंने एकाग्रता का अभ्यास करके अपने सच्चे स्वरूप को जान लिया है, या जिन्हें आत्मसाक्षात्कार हो चूका है) उनके लिये ईश्वर सर्वत्र हैं। ऐसा कोई स्थान (देश-कल-निमित्त) नहीं है,जहाँ ईश्वर नहीं हों। 
उपनिषद युग की एक कहानी है। उस समय गुरुकुल ( जहाँ विद्यार्थी आश्रम में गुरु के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे,) हुआ करते थे। कुछ लडके गुरु के आश्रम में अर्थात उनके घर में वेद आदि सीखने,पढ़ने, ज्ञान प्राप्त करने जाया करते थे। वहाँ पहुंचकर गुरु की सेवा करना उनका कार्य था। गुरु की सेवा-सुश्रुषा करने से यथार्थ ज्ञान होता है। उनको जंगल से लकड़ी लाने के अतिरिक्त अन्य कार्य भी कर करने पड़ते थे। इसी प्रकार से बहुत दिन बीत गये। एक दिन छात्रों ने गुरु से पूछा आप क्या हमलोगों को ज्ञान सिखायेंगे? कब से सिखायेंगे ? गुरु बोले -हाँ सिखाऊंगा। 

तुमलोग एक काम करो, सभी अपने हाथों में एक एक कबूतर ले लो। कबूतर और एक छूरी लेकर इधर उधर चले जाओ। और अपने अपने कबूतर को काट कर लेते आना। किन्तु ध्यान रखना किकोई, कहीं देखता न हो। उस समय के गाँव थे, खाली खाली मैदान, सुनसान-बियाबान जंगल पहाड़ थे। लोग जन बहुत कम थे, कहीं जंगल तो कहीं नदियाँ थीं। गुरु का आदेश सुनकर सभी छात्र कोई किसी तरफ तो कोई किसी तरफ निकल पड़े। कोई इधर, कोई उधर छिप कर छुरी से काटने लगे। दोपहर का समय बीत जाने के बाद सभी एक एक करके गुरु के पास आने लगे।
गुरु सबसे पूछते- काट कर ले आये ? किसी ने देखा तो नहीं ? -नहीं, किसी ने नहीं देखा। कहाँ गये थे ? - घने जंगल में चला गया था, जहाँ कोई प्राणी तो क्या पशु-पक्षी भी नहीं थे। दूसरे छात्र ने कहा -नदी के किनारे, जहाँ एक गाय भी नहीं चर रही थी। एक अन्य छत्र बोला मैं तो समुद्र के किनारे चला गया था। वहाँ दो तीन लोग घूम रहे थे, यह देख कर मैं समुद्र के जल में डूबकी लगा दिया और पानी के भीतर में काटा। इसी प्रकार सभी अपना अपना वृतान्त सुनते रहे। किन्तु दिन ढल गया। शाम होने को था। पर एक छात्र अभी तक वापस नहीं आया था। तब सभी को चिंता होने लगी। गुरुदेव बोले -जाओ जाओ खोजो कहाँ है? वे लोग थोडा इधर उधर देखे पर कहीं मिला नहीं।
इसी बीच वह लड़का रोते रोते कबूतर लिए हुए गुरु के चरणों में गिर कर बोला, गुरुदेव ! मैं आपके आदेश का पालन नहीं कर सका। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गयी है। आप क्या करेंगे, दण्ड देंगे या क्षमा कर देंगे मुझे सब स्वीकार होगा। क्यों क्यों। सभी तो काट कर ले आये हैं। पर वे लोग कैसे यह काम कर सके होंगे मैं नहीं जानता। मैं तो घने जंगल में गया था, नदी के किनारे गया था, समुद्र के किनारे गया था, पानी के नीचे भी डूबकी लगाया। किन्तु सभी जगह देखता हूँ, हजार सिर, हजार आँखें, अनन्त हाथ, अनन्त पैर। कोई सुनसान जगह नहीं मिला। भगवान जगन्नाथ की बड़ी बड़ी की आँखें हर स्थान में ज्वलंत होकर निहार रही थीं। ऐसा कोई स्थान मुझे नहीं मिला जो भगवान के लिये दृष्टिगोचर न हो,या जहाँ भगवान की आँखें नहीं देख रही हों।
गुरुदेव ने कहा, तुमको अब और कुछ पढने की आवश्यकता नहीं है। तुम घर चले जाओ। तुम्हें पूर्ण ज्ञान  हो चूका है। इसी अवस्था को पाने के लिये तो वेद पढ़ा जाता है, वेदाभ्यास (ज्ञान का नेट प्रैक्टिस ) किया जाता है। मनुष्य जीवन में इससे बड़ी अभिज्ञता, प्रत्यक्ष ज्ञान (या Perception) और कुछ नहीं है। ईश्वर दर्शन होने का यही प्रमाण है। सर्वत्र उनका ही दर्शन करना। ( केवल मनुष्य जीवन में ही इसे व्यव्हार अपनाया जा सकता है! )      
हमें यह सीखना होगा कि किसी व्यक्ति को ऐसी दृष्टि कैसे प्राप्त होती है ? ऐसी दृष्टि जिसको मिल जाती है, उसी को यथार्थ मनुष्य बनना कहते हैं। इसी को मनुष्य बन जाने का मार्ग कहते हैं। और इसीलिये स्वामीजी के गद्य-पद्द्य में दिये गये समस्त संदेशों को स्मरण में रखना आवश्यक हो जाता है। चरित्र ही धर्म है। जो पवित्र है, जो केवल प्राण धारण करने तक स्वार्थ को स्वीकार करता है। जिसके हृदय में सबके प्रति संवेदना होती है,जो सबों से सहानुभूति रखता है, जिसके हृदय में सबों के लिये स्थान है, जो सबों के लिये जितना अधिक सोचता है, उतना अपने लिए नहीं सोचता।
पहले ठाकुर के जन्मोत्सव पर प्रत्येक वर्ष सुन्दरवन जाया करता था, एकबार ऐसा ही दृश्य देखने को मिला था। अलग अलग द्वीपों पर उत्सव मनाया जाता था था, कुछ सन्यासी भी हमलोगों के साथ जाते थे। उस समय मोटर-बोट नहीं था, चप्पू वाली नौका चलती थी। रात्रि में किसी द्वीप पर उत्सव समाप्त हो जाने के बाद, दूसरे द्वीप पर जाने में नाविक सारी रात चप्पू चलाते रहते थे। इस नदी, उस नदी को पार करके किसी द्वीप पर पहुँचता था। एकबार किसी द्वीप पर होने वाले एक उत्सव में गया था। वहां जाने पर सुना कि एक अन्य सन्यासी भी उत्सव में भाग लेने आये हैं। वे अगले दिन होने वाले उत्सव में भी हमलोगों के साथ जायेंगे।
दुसरे दिन तटबंध के किनारे किनारे जा रहे थे, कोई सडक या मोटर गाड़ी नहीं थी। वहां बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने कभी अपनी आँखों से कोयले का ईंजिन भी नहीं देखा है। वैसे स्थान में सन्यासी मेरे साथ बातचीत करते हुए चल रहे थे। ऊँचे तटबन्ध के दोनों किनारे समतल स्थान के बीच बीच में घर बने हुए थे।
 संयासिजी को जब भी कोई घर दिखाई पड़ता, और सामने घर की स्वामिनी दिखाई देती वे अचानक नीचे उतर कर एक ही बात हर किसी से कहते- " ओमा ! यह घर तुम्हारा नहीं है, ये भगवान का घर है। ओमा! तुम्हारे पती तुम्हारे नहीं हैं, भगवान के हैं। ओमा, तुम्हारे लड़के-बच्चे भी तुम्हारे नहीं हैं, सब भगवान के हैं। इस बात को हमेशा याद रखना और घर के सारे काम करना। "
जैसे ही बीच में कही घर के सामने, घर का कोई व्यक्ति खड़ा दिख जाता, उतर जाते और सब से यही बात कहते। हमलोगों के साथ साथ जो लोग चल रहे थे, उनमे से किसी ने कहा यह साधू बाबा तो एकदम पगला गये लगते हैं। किन्तु यही सीखने वाली बात है। हमें आजीवन नेट-प्रैक्टिस करना है, 'सच्चा विवेक-प्रयोग' है --  कि यहाँ कुछ भी अपना नहीं है, सबकुछ उनका है- भगवान का है ! मेरे भीतर जो भगवान हैं, वे ही सबों के भीतर हैं। इस बात को चेष्टा करते करते (नेट प्रैक्टिस - सद्गुरु और माता-पिता को जूते उतार कर प्रणाम करने से ) सीखनी होगी। मन को हर समय समझाते रहना होगा, यह अभ्यास उतना आसान नहीं है, कठिन है।
यदि हमलोग श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग, माँ सारदा की जीवनी, विवेकानन्द-चरित आदि ग्रन्थों को ठीक से पढ़ें, सुनें, उनके नाम-रूप-लीला- धाम की विवेचना करें; अकेले में बैठकर विश्वास पूर्वक मनन करें, तो हमलोग उनके सान्निध्य या सामीप्य (vicinity) प्राप्त कर सकते हैं। वे लोग सामने बैठे हैं, उनकी 'साक्षात् उपस्थिति' का अनुभव कर सकते हैं। यही एक मात्र उपाय है;  आध्यात्मिक रूप से विकसित होने का (विवेक-प्रयोग का नेट प्रैक्टिस ही ) यही एकमात्र उपाय है। निरंतर विवेक-प्रयोग करते हुए अपना ऐसा चरित्र निर्माण करना होगा कि हमलोग समदर्शी बन जायें, और सर्वत्र उन्हीं को देख सकें, और उनकी सेवा साक्षात् शिव समझकर करने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाये।

 "सर्वत्र समदर्शिनः"समदर्शी चरित्र वाला मनुष्य बनने के बाद ही,हमलोग अपने देशवासियों या विश्व के अन्य मनुष्यों के   काम में आने लायक " वृक्ष जैसे उपकारी " मनुष्य बन जायेंगे। यदि हमलोग मनुष्य मात्र के लिये उपकारी नहीं बन सके, तो ऐसा दुर्लभ ' मनुष्य-जीवन ', जिसमें सर्वत्र भगवान को देखना और सेवा करना संभव हो जाता है, व्यर्थ चला जायेगा। जीवन सार्थक नहीं होगा, निरर्थक हो जायेगा, मृत से भी अधम जीवन हो जायेगा। यदि हमलोग केवल अपने ही बारे में सोचते रहें, केवल अपने लिये ही सबकुछ करें, भोग की आकांक्षा को क्रमशः यदि बढ़ाते रहने की चेष्टा करें, तो बढ़ती चली जाएगी। भागवत में है, महाभारत में है, पुराणों में बहुत से श्लोक हैं- क अग्नि में घी ढालने से अग्नि बुझती नहीं है, बल्कि और अधिक भड़क उठती है
न जातु कामः कामानुपभोगेन शाम्यति ।
 हविषा कृष्णवर्त्मॆव भूय एवाभिवर्धते ॥
(Swami Vivekananda's Translation: Desire is never satisfied by the enjoyment of desires; it only increases the more, as fire when butter is poured upon it)-अर्थात कामना-वासना की पूर्ति के लिये कोई भी वस्तु - कामना की अग्नि में डाल देने से, कामना की अग्नि बुझती नहीं है,बल्कि दुगनी शक्ति के साथ पुनः प्रज्ज्वलित हो जाती है। इसीलिये बाहर से भोग्य वस्तुओं को डाल कर कामना-वासना को, या भोग की इच्छा को समाप्त नहीं किया जा सकता है। कामना-वासना को त्याग करने के लिये, एकाग्रता का अभ्यास करना सीखना होगा। 
इच्छाशक्ति  के प्रवाह को दृढ़-संकल्प के द्वारा विवेक-प्रयोग करके मन को समझाना पड़ेगा कि , अब इतना कामना वासना के पीछे नहीं दौडूंगा। शास्त्रों में बहुत सुन्दर कहा गया है, कि परलोक या स्वर्ग में जितने सुख हैं, तथा पृथ्वी पर जितने सुख हैं, वे सब सुख मिलाकर भी त्याग के सुख के सामने षोड्स कला के एक कला ( या 16 आना का 1 आना ) भी नहीं है। त्याग से मिलने वाला सुख (देहाध्यास के त्याग से मिलने वाला सुख ?) सबसे अधिक होता है। इसीलिये स्वामीजी उपनिषदों को बार बार उद्दृत करते हुए कहते थे- त्याग, त्याग, त्याग " त्यागेन एके अमृतत्व मानशु: " - ठाकुर कहते थे बता सकते हो, गीता के उपदेशों एक शब्द में कैसे ब्यक्त किया जा सकता है ? वह है त्याग ! गीता, गीता, गीता - को बार बार बोलने से क्या सुनाई देगा ? तागी, तागी, तागी। कुछ लोगों ने सोचा कि ठाकुर अधिक पढ़ना-लिखना नहीं सीखे थे, शायद इसीलिये 'त्यागी' को 'तागी' कह रहे हैं। किन्तु संस्कृत के एक विद्वान् भी वहां उपस्थित थे, उनहोंने बताया कि संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'त्यागी ' और ' तागी ' अर्थ एक होता है।
ठाकुर के चले जाने के बाद, मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिये उनकी सभी संतानें माँ के पास जाने लगे थे। इसके पहले तो माँ को कोई समझ भी नहीं पाते थे। बाद में थोड़ा-बहुत समझ सके थे। सचमुच उनका जीवन अद्भुत था, अभूतपूर्व था ! प्राचीन काल में- सीता, सावित्री, दमयन्ती आदि जितनी भी महान नारियां हुई हैं, वे श्री श्रीमाँ की तुलना में कुछ भी नहीं हैं। उनके जैसा असाधारण जीवन किसी भी देश के इतिहास में ढूँढने से भी नहीं मिलता है।
भगवान बुद्ध ने भी अपनी स्त्री का त्याग किया था। भगवान राम ने भी अन्त में सीता को बनवास भेज दिया था, इसके पीछे कारण चाहे जो भी रहा हो। किन्तु ठाकुर ने न तो कभी माँ का त्याग किया, और न उनको कभी वनवास के लिये भेजा। उन्होंने श्रीमाँ को ही जगत-जननी के रूप में स्वीकार किया था। ऐसा दूसरा उदाहरण जगत के इतिहास में कहीं नहीं है। मेरे पहले बोलते हुए माताजी कह रहीं थीं- "वे तो बिलकुल अपनी माँ हैं ! हमलोग जिद करके, (उनसे रूस करके-जाओ मैं नहीं खाऊंगा की जिद ठान कर) जबरदस्ती उनकी गोदी में बैठ जायेंगे !"
तुमलोगों के ऐसे कैम्प में तुमलोगों के साथ बात करते करते ऐसा लगा मानो माँ की एक बहुत विशाल मूर्ति सामने है, और तुमलोग जो जहाँ है, वहीँ माँ की गोदी में चढ़ कर बैठ गयी हो। वे तो हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, भारतीय, विदेशी, पुरुष-स्त्री, बालक-वृद्ध, शिशु -  सबों की माँ हैं। माँ तो पवित्रता-स्वरूपिणी हैं, पवित्रता की साकार मूर्ति हैं; वैसी माँ की गोदी में शरण लेने से, समस्त अपवित्र भाव दूर हो जायेंगे। हमलोगों की स्वार्थपरता दूर हो जाएगी। दूसरों का कल्याण, दूसरों का हित, दूसरों अपना बना लेना- यही हमलोगों के जीवन का व्रत बन जायेगा। और यही बात स्वामीजी ने भी हमलोगों को सिखाया है- " यह जीवन बहुत छोटा है, क्षण-स्थायी है, और इस जीवन के जितने भी ऐश्वर्य, भोग की वस्तुएं हैं, वे सब भी क्षण-स्थायी हैं। इसीलिये केवल वही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीना सीख जाते  हैं। ' किसी का दर्द मिल सके तो लो उधार- जीना इसीका नाम है।' और जो लोग ऐसा नहीं कर पाते, वे मृत से भी अधम हैं।"
हमलोग कहीं मृत से अधम नहीं बन जाएँ, इस शिविर में हमलोग दूसरों के लिये जीना सीखेंगे। माँ की पुकार को सुनकर, कहाँ कहाँ से सैंकड़ो की संख्या में कमउम्र की और उम्रदराज स्त्रियाँ कितनी दूर दूर से आ रही हैं। यहाँ पर समय की आवश्यकता के अनुरूप सही कार्य हो रहा है। यह कार्य बड़े बड़े उत्सव, बड़े बड़े कीर्तन, बड़े बड़े संगीत, बड़े बड़े प्रवचन, बहुत बड़े पूजा-पंडाल में भोग-प्रसाद खिला देने से भी नहीं हो सकता है। मन में इसकी ललक रहनी चाहिये।
 ठाकुर-माँ-स्वामीजी की छत्र-छाया में शरण लेने का प्रयत्न करना चाहिये। तैतीस करोड़ देवता की बात को याद करके, काली-शिव की पूजा करने और ठाकुर-माँ-स्वामीजी को छोड़ देने की जरूरत नहीं है। वे हमलोगों के जीवन में गुणवत्ता लाने वाले हैं, हमारे जीवन-धन हैं। यह विश्वास रहना चाहिये की वे हमारे सगे माँ-बाप-भैया जैसे हैं। उनको अपना जानकर-उनके जीवन और उपदेशों को सुनना, उस पर मनन-

चिन्तन करना, आत्मसात करना और अपने जीवन तथा आचरण में उतार लेना होगा। उनकी शिक्षाओं को चरित्रगत करना होगा। हमलोगों के आचार-व्यवहार में, बोलने और चिन्तन करने में उन्हीं के भाव अभिव्यक्त या प्रकाशित होने चाहिए। ऐसा करने का नाम ही है चरित्र गठन।
यह कार्य महामंडल के माध्यम से विगत 35 वर्षों से लड़कों के लिये चलता आ रहा है, उसी प्रकार लड़कियों के लिये नारी संगठन भी प्रारंभ हुआ है। पश्चिम बंगाल के बाहर बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, एवं ओडिशा में भी कार्य चल रहा है। कुछ समय पहले रायपुर गया था, वहां 35-40 लड़कियां विभिन्न स्थानों से आई थीं। अंबिकापुर  बहुत दूर-दराज का दुर्गम रास्ता पार कर के आई थी, विलासपुर, भिलाई आदि जगहों से आई थीं। 2-3 घंटे चर्चा हुई। वे लोग कैम्प में शामिल होने की बहुत इच्छुक थीं। यही है एकमात्र कार्य। सबसे बड़ा कार्य। वर्तमान युग में जैसी आबोहवा हो गयी है, विभिन्न संवाद माध्यमों के द्वारा आजकल जो परोसा जा रहा है, उसको मुंह से कहा भी नहीं जा सकता,सारी मर्यादाएं टूट रही हैं। इन सबसे समाज को बचना होगा।
भारतवर्ष तो में अभी सुर भी कुछ बदला बदला नजर आ रहा है। विद्यासागर, रविन्द्रनाथ, बंकिमचन्द्र, सुभाषचन्द्र आदि का नाम देश में कम सुनाई देता है। इस बार लक्ष्मीपूजा में टी . वी . के संवाददाताओं को अधिक काम नहीं मिला तो वे राजनितिक नेताओं के घर घर में पहुंच गये। उनसे पूछ रहे थे, क्या आप लक्ष्मी पूजा मना रहे हैं ? क्या आप इस सब पर विश्वास करते हैं? हाँ, मैं तो इन सब पर विश्वास नहीं करता, किन्तु घर में हो रहा है, सभी खुशियाँ मना रहे हैं। तो मैं उनकी खुशियों में बाधक क्यों बनुगा? क्या अपने प्रसाद खाया था ? हाँ, घर में ही प्रसाद बन रहा है, बिना खाए कैसे रहता ? किन्तु ऐसी धार्मिकता से कोई लाभ नहीं होता। ऐसा नहीं है कि प्रसाद खा लेने से धार्मिक हो जाऊंगा, या नहीं खाने से ही प्रगतिशील विचारों वाला बन जाऊंगा। यह सब समझने की बातें हैं, अन्दर से समझना होता है।
धर्म क्या है ? अंतर्निहित वस्तु ( पूर्णता, दिव्यता या ब्रह्मत्व) के विकास और प्रकाश को धर्म कहते हैं। इस जीवन को महान जीवन में रूपांतरित कर लेना धर्म है। हमलोगों को उसी धर्म का पालन करना चाहिये। इसका वास्तविक नाम आध्यात्मिकता है। अर्थात हमलोग केवल हड्डी और मांस के बने पिजड़ा या कोई बंदीगृह नहीं हैं। इस पिंजड़े के भीतर एक वस्तु (पंछी) है, जो अनन्त शक्तिशाली है। जो ज्ञानमय है, आनन्दमय है, प्रेममय है। उसको जाग्रत करना होता है। जो उसका सन्देश सुनकर, उसे जगाने की चेष्टा करता है; उसका जीवन आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।
ठाकुर-माँ-स्वामीजी के जीवन को उपर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो उन लोगों को कितना दुःख भोगना पड़ा है! किन्तु उनलोगों का जो भी दुःख कष्ट था, वह दूसरों के लिये था, वे लोग कभी अपने दुःख के कारण नहीं रोये थे, वे लोग दूसरों के दुःख को दूर करने के लिए रोते थे। दूसरों के दुःख को देखकर उन्हें अपने छाती में असह्य कष्ट का अनुभव होता था। हमलोगों को भी अपना हृदय टटोल कर देखना होगा कि दूसरों के दुःख को देखने से हमारे दिल को दुःख पहुँचता है, या नहीं? यदि नहीं होता, तो हमलोगों के वैभव, पहनावे-ओढ़ावे से आरम्भ करके, हमलोगों का खान-पान, चलना-फिरना, तथा घर में जितने भी प्रकार के आधुनिक उपकरण या वैसे सब वस्तुओं का अम्बर भी हो तो, सब व्यर्थ है, क्योंकि ये सब यहीं पड़े रह जायेंगे। मनुस्मृति में कहा गया है-

             एक-एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयात्ति यः |
                  शरीरेण समं नाशं सर्व मन्यत्तु गच्छति ||

- अर्थात् मनुष्य के मरणोपरांत उसके साथ केवल उसका धर्म ही जाता है। इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी साजो-सामान हैं, शरीर नष्ट होने साथ ही साथ वे सब नष्ट हो जाते है। एक मात्र धर्म ही सच्चा मित्र है जो मरने के बाद भी जीवात्मा का साथ देता है और सब चीजें तो शरीर के साथ ही यहीं छूट जाती हैं,  नष्ट हो जाती है। 
चाहे जितनी बड़ी बड़ी चीजों को संग्रहित क्यों न क्या जाय, सब कुछ यहीं पड़े रह जाते हैं। किन्तु इस कठोर सत्य को हम समझना नहीं चाहते हैं। किन्तु नहीं, फिर भी हमलोग उसी के पीछे दौड़ते रहते हैं। जो विशाल धन-दौलत, संपन्नता हमलोगों के भीतर पहले ही से मौजूद है, उस गुप्त कोश की तरफ हमारी दृष्टि (आत्मा की दिव्य आँख -मन की दृष्टि ) कभी जाती ही नहीं है। एक बार यदि भीतरी गुप्त-कोश में छुपी दौलत -'कोहेनूर ' पर नजर पड जाये तो, बहार में दिखने वाली जितनी भी सम्पदाएँ हैं, आन्तरिक वस्तु के सामने ये सभी तुच्छ लगने लगेंगी। स्वामीजी ने उपनिषदों के बालक नचिकेता की कहानी सुनाई थी, जो यम के आमने-सामने खड़ा हुआ था, और बातचीत की थी। किन्तु यमराज उसको बालक समझकर भीतर के आत्मतत्व को नहीं देकर विभिन्न प्रकार के प्रलोभन दे रहे थे। उसको भोग की क्स्तुओं का लोभ दिखा रहे थे, नाच-गान दिखाकर बाहरी वस्तुओं में उसके मन को भुलाने की कोशिश कर रहे थे। किन्तु उस बालक ने आत्मतत्व को जान लेने के बाद ही यमराज का पीछा छोड़ा था। वैसी ही चेष्टा हमलोगों के भीतर भी होनी चाहिए।
इसीलिये यह हमारा परम सौभाग्य है कि इस युग में जन्म ग्रहण करके ठाकुर-माँ-स्वामीजी का नाम सुन पा रहे हैं। सन्यासिनी माँ, अभी माँ के जीवन की एक घटना तुम्हें सुना रही थी। इस प्रकार की कितनी ही घटनाएँ हैं। किन्तु सच्चा लाभ तो तब मिलेगा, जब हमलोग उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार सकेंगे। अक्सर कोई चीज जब आसानी से प्राप्त हो जाती है, तो हम उसका मूल्य नहीं समझते है। हमलोग कैसे मनुष्य बन सके हैं, इस बात को हम नहीं जानते, इसीलिए इसका मूल्य भी नहीं समझ पाते हैं। इसीलिये शंकराचार्य ने कहा था, यदि हमलोग इस देव-दुर्लभ मनुष्य जीवन एवं उसके साथ ही साथ पुरुषार्थ, अर्थार्थ स्वयं की कार्यक्षमता, उद्द्य्म, और संकल्प में दृढ़ बने रहने का पौरुष को, इस मनुष्य जीवन में प्राप्त करके भी यदि उन्हें अपने व्यव्हार में लाकर, अपने जीवन को पूर्ण नहीं बना सकें, तो हमलोग  नितान्त ही कृपण और नितान्त मूर्ख हैं।  इससे बढ़कर मुर्खता और कुछ भी नहीं है। हमलोग इन तीन दिनों तक जो कुछ सुनेंगे, सीखेंगे, उसको घर लौट जाने के बाद जीवन में उतरने का अभ्यास करेंगे। जो जीवन और सन्देश अभी पुस्तकों में है, उसको पढना होगा। 

धर्म को अपने जीवन का एक अलग हिस्सा बनाकर रखने से काम नहीं होगा। घर में जैसे एक कमरा रसोई का होता है, एक खाने का कमरा होता है, एक सोने का कमरा होता है, बैठने का कमरा अलग होता है, वैसे ही एक पूजा का कमरा भी होता है। उसी प्रकार धर्म को भी जीवन का एक टुकड़ा (अनुच्छेद) बनाकर रखने से नहीं होगा। धर्म को जीवन में अंतर्भूत (immanent) करना चाहिये। तभी धर्म हमारे समग्र जीवन को भरे रखेगा।
इसीलिये कहा जाता है कि शिक्षा की कुछ आवश्यकता होती है। हाँ शिक्षा की कुछ आवश्यकता है। किन्तु शिक्षा से ही सबकुछ नहीं होता; इस बात को ठाकुर, माँ, स्वामीजी ने अपने जीवन द्वारा प्रमाणित किया है। स्वामीजी ने कुछ शिक्षा पायी थी, इसीलिये कि आगे चलकर पूरे विश्व को सुनाना था। किन्तु ठाकुर-माँ के जीवन में वैसा नहीं हुआ था, जीवन-गठन में स्कूली-शिक्षा की तूच्छता को प्रमाणित करने के लिये ही  बाहर की शिक्षा लेने की आवश्यकता उन्हें नहीं हुई थी। किन्तु हमलोगों के लिये बाहर की शिक्षा रहने से सुविधा होती है। बाहर से झटका देने जैसा। जैसे भीतर को जगाने के लिये बाहर से शिक्षा का झटका देना काम करता है। हमलोग पुस्तकों को पढ़ सकते हैं, सुन सकते हैं, समझ सकते हैं, इसीलिये ताकि हम उनको हृदयंगम कर सकें। नहीं तो जीवन भर केवल पढ़ते-सुनते रहने से भी कुछ नहीं होगा। या केवल लोगों को सुनाने के लिये अच्छा भाषण देने से भी नहीं होगा।

वाग्‍वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्‌। 
वैदुष्यं विदुषां तद्वद् भुक्तयॆ न तु मुक्‍तये॥

Swami Vivekananda's Translation: Wonderful methods of joining words, rhetorical powers, and explaining texts of the books in various ways — these are only for the enjoyment of the learned, and not religion.
- शास्त्रों के शब्दों को आश्चर्यजनक भावभंगिमा बनाकर व्याख्या करने, या उसके सिद्धान्तों पर भाषण झाड़ देने से बोलने वाले को मौज-मस्ती मिलती है, भोग-विलास होता है, लेकिन मुक्ति नहीं मिलती, धर्म की उपलब्धी नहीं होती है। 

और हमलोग भक्ति भक्ति चिल्लाते हैं। भक्ति इतनी आसान वस्तु नहीं है। किसी तीर्थ में जाने से थोड़ी देर के लिये भक्ति जाग जाती है। किन्तु भक्ति शब्द का वास्तविक अर्थ है, अपने जिस ईष्ट के प्रति हम श्रद्धा रखते हैं, उनके विचारों को अपने जीवन में उपयोग करना। भागवत में कहा गया है, जो व्यक्ति अपने ईष्ट की मूर्ति की पूजा बहुत अच्छे तरीके से करता है, किन्तु उनके भक्तों की या दूसरों की जो उनके भक्त नहीं हों, उनकी पूजा जो नहीं करता, वह अति सामान्य भक्त हैं, अर्थात अति निम्न कोटि के भक्त हैं। आगे कहा गया है, उस भक्त को भी उत्तम भक्त नहीं कह सकते जो, ईश्वर से प्रेम करता है, ईश्वर के भक्तों को अपना प्रिय मानता है, जो मुर्ख हैं उनके उपर कृपा करता है, जो विद्वेषी हों या शत्रुता रखते हों, उनकी उपेक्षा करता है।
फिर उत्तम भक्त कौन है ? जो अपनी आत्मा में सबों की आत्मा को देखता है, तथा सबों की आत्मा में जो अपने आत्मरूपी ईश्वर को देखता है-वही उत्तम भक्त है। भक्ति के मार्ग से धर्म-लाभ करने या चरित्र-निर्माण के द्वारा इसी भक्त की अवस्था को प्राप्त करना पड़ता है। भक्ति उतनी आसान वस्तु नहीं है, बहुत कठिन है। अभी, कल ही एक धार्मिक प्रतिष्ठान से एक बेयरिंग पत्र मिला था। पाँच रूपये की डाक टिकट को दस रुपया देकर छुड़ाना पड़ा। वह पत्र बहुत नामी संस्था के द्वारा भेजा गया एक सायक्लोस्टाइल पत्र था। उसमे केवल इतना लिखा था- " तुम मेरा अनुसरण करो, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। "इतना लिख कर प्रेषक और प्रेषित केवल पता देकर भेज दिया था। धर्म कभी इतनी आसनी से अर्जित होने वाली वस्तु नहीं है। इसीलिये इस प्रकार के धर्म की पहेली में उलझने की जरुरत नहीं है। हमलोग अक्सर कुछ अलौकिक चीजों को देखने-सुनने की तरफ दौड़ पड़ते हैं। किन्तु ऐसा कुछ नहीं है, जो अलौकिक होता हो।
 स्वामीजी ने कहा है, " मिरेकल्स डू नॉट हैपन !" अर्थात अलौकिक या अतिप्राकृतिक रूप से कुछ भी घटित नहीं होता, जो कुछ भी घटित होता है, वह प्रकृति के भीतर ही घटित होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था- " बादलों से वृष्टि होती है, उसके लिये महेन्द्र को क्या करना है ? " उस समय भी इतनी वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकृति के नियमों को देखा जाता था ! किन्तु आजकल हर चीज को देखकर हम भौचक्का हो जाते हैं, या भ्रान्ति में पड़ जाते हैं। यहाँ किसी के पास स्पष्ट धारणा नहीं है।
मनुष्य क्या है ? इसकी स्पष्ट धारणा नहीं है। जीवन क्या है, या इसका लक्ष्य क्या है ? इसकी कोई स्पष्ट धारणा नहीं है। हमें जो मनुष्य जीवन मिला है, इसका सदुपयोग कैसे हो सकता है ? इन सबके बारे में कोई स्पष्ट धारणा नहीं है। विभिन्न प्रकार के परिवेश और परिस्थितियों में रहते हुए जैसे तैसे संचार माध्यमों के द्वारा प्रभावित और दिग्भ्रमित होकर जो लोग  अन्य मार्गों में भटक गये हैं, उनका अनुकरण करते हुए हमलोग अपने मार्ग को छोड़ कर उन्हीं के पीछे दौड़ रहे हैं।
ऐसे दिग्भ्रान्ति के युग में भी हमलोगों के लिये कोई भय नहीं है। मा भयः ! मा भयः ! माँ हैं , ठाकुर-माँ-स्वामीजी हैं। उनको कास कर पकड़ लेना होगा, वैसा करने से हम कभी गिरेंगे नहीं, या ठोकर लगने से भी संभल जायेंगे, या दुबारा कभी गुमराह (पथ-भ्रष्ट) नहीं होंगे, हमारा जीवन नष्ट नहीं होगा, पूर्ण हो उठेगा। आइये ठाकुर-माँ-स्वामीजी के चरणों में एक साथ मिलकर प्रार्थना करें, ताकि हम सफल हो सकें।