Saturday, January 19, 2013

'ठाकुर-माँ-स्वामीजी के शरणागत बने रहना !'(कबूतर-छुरी और सुनसान), [ $@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [63]

काला कबूतर -छुरी और सुनसान !
 (उत्कृष्ट विवेक-प्रयोग का नेट-प्रैक्टिस सर्वत्र भगवत् दृष्टि )
शिवजी पर चढ़ाया जाने वाला बेलपत्र तीन पत्तियों से बना होता है। तीनों पत्ते यदि आपस में जुड़े हुए न रहें, तो उसे बेलपत्र नहीं कहते हैं। ठाकुर- माँ-स्वामीजी भी ठीक उसी प्रकार एक डंठल से जुड़े तीन पत्तियों जैसे हैं। तीनों में कोई अंतर नहीं है, तीनो एक ही वस्तु है। एक ही वस्तु के तीन रूप हैं। जब हमलोग ठाकुर-माँ-स्वामीजी के जीवन की घटनाओं, या विभिन्न विषयों पर दिए गये उनके उपदेशों को अलग अलग रूप से सुनते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि, ठाकुर ने इस विषय पर ऐसा कहा है, माँ ने कुछ और कहा है, स्वामीजी ने वैसा कहा है। किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा है।
जब हम उनके जीवन और संदेशों के भीतर प्रवेश करते हैं, उनके मर्म को समझने का प्रयत्न हैं, तो पाते हैं कि तीनों ने एक ही बात कही है, किसी की बात में कोई अंतर नहीं है। किन्तु इस बात को समझ पाना उतना आसन नहीं है। फिर भी इस बात को स्मरण में रखना अच्छा है कि तीनों में कोई अंतर नहीं है। श्रीरामकृष्ण के शरीर में रहते समय ही उनकी पूजा प्रारंभ हो गयी थी। माँ सारदा देवी ने ठाकुर का शरीर रहते समय ही ठाकुर की पूजा
सर्वप्रथम की थी। उसके बाद ठाकुर के निकट माँ को रख कर पूजा करना आरम्भ हुआ। उसके बाद जब स्वामीजी भी चले गये तब उनके पास स्वामीजी के चित्र को बैठा कर पूजा शुरू हुई। यह देखकर किसी व्यक्ति को अच्छा नहीं लगा, वह व्यक्ति माँ के पास आकर बोला, ' माँ अमुक व्यक्ति  -ठाकुर और आपके चित्र के पास स्वामीजी की छवि को बैठा कर पूजा कर रहा है।' माँ ने कहा, ' अरे, उनलोगों ने तो विवेकानन्द को श्रीरामकृष्ण के बगल में बैठाया है, मैं होती तो उनको सिर पर बैठाती। ' तीनो में कोई अंतर नहीं है।
जो लोग इस युग में पृथ्वी पर मनुष्य बन कर जन्मे हैं, उनका भाग्य असाधारण है। क्योंकि इस युग में ठाकुर-माँ-स्वामीजी का जीवन और सन्देश निःशब्द, अदृष्ट रूप से विश्व के आकाश में कृपा-वायु बनकर बह रही है। किन्तु उन्हें ग्रहण करने के लिये अपनी पात्रता बढ़ाने की जरूरत है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो मानो सुनकर भी नहीं सुनते। फिर अब भी बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें उनके संदेशों को सुनने का अवसर नहीं मिला है। पर यदि किसी में उनके संदेशों को सुनने की उत्कंठा हो, तो वह उनके संदेशों को अवश्य सुन सकता है, किन्तु उन संदेशों को सुनकर अपने जीवन में उतारना ज्यादा महत्वपूर्ण बात है।
विगत कुछ वर्षों में विश्व के विभिन्न देशों की अवस्था कितनी उलट दिखाई दे रही है। स्वामीजी कहा करते थे कि जगत में इतिहास की गति सर्वदा तरंगाकार हुआ करती है। कभी उत्थान तो कभी पतन होता रहता है। एक बार किसी देश के मनुष्यों की सभ्यता बढ़ते हुए उत्तुंग शिखर पर पहुँच जाती है, फिर उसका पतन शुरू हो जाता है। इतिहास की गति इसी प्रकार चलती रहती है। इस समय इतिहास की ऐसी ही एक अधोगति का समय चल रहा था। किन्तु इस समय जो कुछ घटित हो रहा है,वह सोचा भी नहीं जा सकता। कोई भी व्यक्ति किसी रूप में शान्ति से नहीं जी पा रहा है। आज सभी मनुष्य हर समय किसी न मिसी प्रकार के आतंक के बीच जी रहे हैं। चाहे वे घर में हों, रास्ते में हों, गाड़ी में हो किसी की सुरक्षा निश्चित नहीं है। तथा मनुष्य का मन इतना नीचे गिर चुका है कि व्यक्ति और समाज के जीवन से विवेक और नैतिकता बिलकुल समाप्त हो गयी है। 

जहाँ विश्व का परिवेश और परिस्थिति इस प्रकार की हो, और उस युग में जन्म ग्रहण करने के बाद भी जिस व्यक्ति को ठाकुर-माँ-स्वामीजी के संदेशों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है, उनसे अधिक भाग्यवान और सौभाग्यवती दूसरा कोई नहीं है। क्योंकि उनके संदेशों को वे युवक-युवतियां अपने जीवन में उतरने का प्रयत्न करें, तो उनमें से प्रत्येक का जीवन अत्यन्त उत्कृष्ट,महान और सुन्दर (manifested) बन जायेगा। और व्यक्ति जीवन के उत्कृष्ट और महान बनने से ही समाज और देश भी महान बन जाता है। आज इसी चीज की आवश्यकता सर्वाधिक है। किन्तु व्यक्ति चरित्र को सुंदर रूप में गढ़ने की तरफ किसी की नजर नहीं है।
एक वर्ग ऐसा है,जो धर्म को नहीं मानता। फिर एक समूह वैसे लोगों का है, जो धर्म को मानते हैं, किन्तु उनके लिये उनका धर्म ही सबकुछ है, जो केवल अपने ही धर्म को दुनिया का एकमात्र धर्म बनाने पर आमदा रहते है। अन्य लोगों का धर्म खराब है, इसीलिये अन्य धर्मों को नष्ट करने की चेष्टा करते है, यहाँ तक कि अन्य धर्म के अनुयायियों की हत्या करके भी उस धर्म को नष्ट करने की चेष्टा करते हैं। किन्तु ठाकुर-माँ-स्वामीजी की बातों को यदि सभी लोग ग्रहण करते, या अब भी ग्रहण कर लें तो ये सब बन्द हो जाते। किसी भी बाहरी प्रयास की जरूरत नहीं पडती। यदि सभी लोग देश के सभी मनुष्यों को अपना समझकर, सबों के कल्याण के लिये, सभी लोग अपने स्वार्थ को थोडा त्याग करें, और दूसरों के स्वार्थ को, दूसरों के मंगल को अपने से बड़ा समझकर देखे तो समाज बहुत उत्कृष्ट बन सकता है।
हमलोगों के देश में भी धर्म के नाम पर बहुत कुछ चल रहा है। सभी धर्मों के अनुयायी कर रहे हैं। विश्व का प्राचीनतम धर्म भारत का सनातन धर्म है, किन्तु उस धर्म के अनुयायी भी दूसरों का अनुकरण करके, बहुत जोर-शोर से यह प्रचार करने में लगे हैं कि -
उनके धर्म को बहुत बड़ा बनाकर सम्पूर्ण भारत में पुनः सुप्रतिष्ठित करना होगा! इस प्रकार के प्रचार- मार्ग को ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि डराने-धमकाने से विभिन्न धर्मों के बीच आपसी भाईचारा और और सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता। यह प्रेम का मार्ग नहीं है, जो प्रेम-सम्बन्ध को नष्ट करता हो, उस प्रकार के मार्ग पर सनातन धर्म के अनुयायियों को भी चलता देखने से बहुत से लोगों के मन में थोडा थोडा आतंक या डर भी पैदा होने लगा है। आज भी यह जारी है। इस समय मनुष्य के रूप में बाघ-भालू खुले घूम रहे हैं, कब किसकी गर्दन मरोड़ देंगे, कहा नहीं जा सकता है। 
सर्वत्र, सम्पूर्ण विश्व में, भारतवर्ष के हरेक प्रान्तों में नारी जाती की अवमानना और भ्रष्टाचार देखा जा सकता है। इस परिस्थिति में भारत के युवाओं को क्या करना चाहिये ?  क्या हमलोगों को परम्परागत रूप से चले आ रहे प्रचलित कर्मकांडों को धर्म समझकर लकीर के फकीर बने रहना चहिये? या इसके आलावा भी कोई धर्म है ? धर्म क्या है ? मनुष्य-जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ना ही धर्म है, जीवन को उत्कृष्ट बनाना, पशु मानव से देवमानव में- विकसित होना, अपने हृदय को प्रेम से परिपूर्ण कर लेना ही धर्म है। इसी को सच्चा धर्म कहते हैं। किन्तु इस सच्चे धर्म को जीवन में उतारने की बात कौन सोचता है ? हमलोगों में से कोई मन्दिर में, तो कोई मस्जिद में या गिर्जा में जाते हैं, या किसी अन्य स्थानों में जो अनुष्ठान आदि मनाये जाते हैं, उसमें ही ध्यान देते हैं। वहाँ शनिवार-मंगलवार-शुक्रवार-रविवार या हफ्ते में किसी एक दिन चले जाते हैं, या लगातार भी आते जाते रहते हैं।
मन्दिर जायेंगे तो वहां, ' भोजन-भजन और प्रवचन ' चलेगा। मन्दिर में यदि " च्वय-चुष्य" या "चाटने-पीने " लायक प्रसाद भी मिल जाय तो क्या कहना? प्रसाद रूपी भोजन हो जाने के बाद थोड़ा भजन-कीर्तन होगा।  वह भजन चाहे सुर में हो या बेसुरा हो, चाहे जिस किसी के नाम का का हो कोई फर्क नहीं पड़ता। भजन के बाद किसी शास्त्र के उपर थोड़ा प्रवचन भी चला। जिसने शास्त्र पढ़ा, वो बोला और अपने घर चला गया, उसके बाद जिसका जीवन जैसे चल रहा था, वैसे ही चलने लगा। स्वामीजी अपने भाषणों में अक्सर कहते थे, " तुमलोग अभी सुन रहे हो, सुनने के बाद घर लौट जाओगे। जो भोजन किया वह भी हजम हो जायेगा, और जो सुना वह भी हजम हो जायेगा। भोजन यही सही रूप में पच जाता है, तो उसका सार प्राप्त होता है, शरीर को पौष्टिकता मिलती है। किन्तु वैसे हजम करने से कोई लाभ नहीं होगा। जो कुछ सुना वह हजम कर गया, तब क्या लाभ हुआ ? पचाने के बाद उससे पौष्टिकता ग्रहण करनी चाहिये।"
किन्तु पौष्टिकता ग्रहण करने का धैर्य हमारे भीतर नहीं होता, तथा उसके लिये जो प्रयत्न, चेष्टा, श्रम या जो तपस्या करनी चाहिए, मन को इन्द्रिय विषयों के प्रलोभन में जाने से रोकना ही तपस्या है। उस तपस्या के लिये हम तैयार नहीं होते,क्योंकि तपस्या के लिये जितनी तीव्र इच्छाशक्ति होनी चाहिये, वह इच्छाशक्ति अभीतक विकसित नहीं हुई है। इसीलिये अनगिनत बार सत्संग-प्रवचन सुनने के बाद भी जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और हमारी अंतर्निहित दिव्यता प्रकाशित नहीं हो पाती। हमारी अवस्था तो ऐसी है कि इस कान से सुना और उस कान से निकाल दिया। अभी अच्छा प्रवचन सुना, सुनने के समय लगा, वाह क्या बात है ! इसके अलावा यह भी होता है कि जब प्रवचन चल रहा होता है, उसी बीच हमलोग दुनियादारी की बातें, द्वेष-हिंसा के विचार भी सोचते रहते हैं। और जब वहां से बाहर निकल आये तो कहना ही क्या ? जैसा था, (अपने को भेंड -M /F समझता था ) वैसा ही रह गया, तो क्या लाभ ? थोड़े समय के लिये सुना। जितने दिनों तक कैंप में रहे, तबतक कोई बुरा कार्य नहीं किया, किन्तु उतने से क्या होगा ? उससे क्या जीवन में परिवर्तन आएगा ?
जीवन में परिवर्तन लाने के लिये आदर्श को ग्रहण करना पड़ेगा। और अपने दैनन्दिन जीवन में दिव्यता  को प्रकाशित करने के लिये, उसे सुन्दर बनाने के लिये, पूर्ण करने करने की जितनी संभावना है, उसको विकसित करने लिये निरन्तर परिश्रम करना होगा। किन्तु हमारे भीतर आदर्श के प्रति वैसी निष्ठा नहीं है। कई लोग तो दीक्षा लेने के बाद भी जप-ध्यान नहीं करते हैं। कुछ लोग सुबह-शाम का रूटीन निभा देते हैं। बहुत से लोग तो गुरु का नाम और मंत्र को भी भूल जाते हैं। मैंने स्वयं दीक्षित भक्तों में अनगिनत ऐसे लोगों को देखा है, यह देखकर बहुत दुःख होता है कि कितने लोग तो अपने गुरु का नाम भी याद नहीं रख पाते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो मन्त्र भूल जाते हैं। क्या मन्त्र प्राप्त हुआ थे, उसे भी भूल जाते हैं। फिर बहुत से लोग तीव्र अधीर चित्त से जप करते हैं। हमलोग अपने बचपन से सुनते आये हैं, " व्यग्रचित्तेन यद् जप्तं तज्ज्पं निष्फ़लं  भवेत। " ऊँगली का पोर और नखाग्र की सहायता से जप करना ही पर्याप्त नहीं है, व्यग्र या तीव्र अधीर चित्त से जप करने का कोई फल नहीं मिलता। धर्म का अर्थ हमलोग इतना ही  जानते हैं ? इन सब यांत्रिक क्रियाओं में धर्म नहीं है। स्वामी विवेकानन्द 9 जुलाई 1897 ई0 को अलमोड़ा से लिखित अपनी कविता-
जाग्रत देवता  में कहते हैं-
ओ विमूढ़ !
जाग्रत देवता की उपेक्षा मत करो,
उसके अनन्त प्रतिबिम्बों से ही यह विश्व परिपूर्ण है।
काल्पनिक छायाओं के पीछे मत भागो,
जो तुम्हें विग्रहों में डालती हैं;
उस परम प्रभु की उपासना करो,
जिसे सामने देख रहे हो;

अन्य सभी प्रतिमाएं तोड़ दो ! 
"  ज़िन्दा-ख़ुदा  " ' जाग्रत देवता '
 वह, जो तुममें है और तुम्हारे बाहर भी है,
जो सब के हाथों से काम करता है,
जो सब के पैरों से चलता है,
जो हरेक शय में पैठा हुआ है,
पहले उसीकी बन्दगी करना शुरू कर दो !
और तब, बेशक! तुम
 अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो ! 
हे विमूढ़ (blasphemer) दल !
ईश-निन्दकों की जमात! 
" बन्दे " के रूप में सामने खड़े-" जिन्दा-ख़ुदा " 
की उपेक्षा करते हो ?
वे तो हर जगह पर मौजूद खुदा की जानदार तस्वीरें है !
अल्लाह की जिन्दा तस्वीरों में (अल्ला) को देखना छोड़ कर,
ख़याली पत्थर के पीछे मत भागो,

व्यर्थ के द्वंद्व-विवादों,
'महज अल्लाह परवरदिगार ' को ही अनेक रूप में देख कर,
 पहचानने में भूल मत करो,
 (पानी, अकुआ या वाटर के नाम पर झगड़ने की बात ) को भूल जाओ,
और इसी
' एकलौता काबिल ए गौर'
 अल्लाह-परवरदिगार की इबादत करो; जिसे सामने देख रहे हो !

और तब, बेशक ! तुम
अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो ! ]

ठाकुर-माँ स्वामीजी की उपदेशों का सारांश इतना ही है। ओ विमूढ़ ! तुम लोग जिसे धर्म समझ रहे हो, वह तो मुर्ख लोगो का धर्म है। जीव-जगत जो कुछ भी देख रहे हो, सब उन्हीं की अभिव्यक्ति है। वे जगत में सर्वत्र व्याप्त हैं, सत्य तो यह है कि वे ही जगत बन गये हैं ! ठाकुर-माँ स्वामीजी की भावधारा का मूल बिन्दु यही है (- शिवज्ञान से जीव सेवा ! इस विश्व, चराचर जगत में, सृष्टि की रचना में जड़ -चेतन का भेद नहीं है, सब एक का ही विविध रूप है ! )
 सम्पूर्ण जगत-सृष्टि एक और अखण्ड है। जगत में जो कुछ है, पर्वत-पहाड़-नदी-वृक्ष जिसको हमलोग प्राणी नहीं मानते हैं, जिसको जड़ समझते हैं, या जीव-जन्तु कहते हैं, वे सभी चैतन्य-मय हैं, सभी ईश्वर हैं। जीव तो ईश्वर है ही, किन्तु समस्त जीवों में श्रेष्ठ है मनुष्य। सभी मनुष्यों में में ईश्वर को नहीं देख पाने से, ईश्वर दर्शन नहीं होता। ठाकुर-माँ-स्वामीजी को वैसा हुआ था। सभी मनुष्यों के भीतर ईश्वर को देख पाने से, कोई पराया नहीं रह जाता। किसी भी मनुष्य से ईर्ष्या, वैर, विरोध, शत्रुता, कपट नहीं किया जा सकता है। किसी को हिंसा नहीं कर सकते हैं। स्वार्थपर नहीं बन सकते हैं। अपने भोग की आकांक्षा को लालच-वश दूसरों को हानी पहुंचाकर भी पूर्ण करूँगा, ऐसा विचार उसके मन में उठ ही नहीं सकता है। और इसीको धर्म-लाभ कहते हैं।स्वामीजी कहते हैं, चरित्र ही धर्म है। बाकि सब सतही दस्तूर हैं। और जो लोग इबादत के रस्मी दस्तूर के मर्म को नहीं जानते, या अनुष्ठानिक पूजा-अर्चना के महत्व को ठीक से नहीं समझ पाते, उनके लिये इबादत या आरधना केवल व्यायाम या घुटनों की कवायद बनकर रह जाती है। किन्तु ये सब धर्म के मुख्य अंग नहीं हैं। चाणक्य नीति में कहा गया है,

अग्निर्देवो द्विजातीनां,
मुनीनां हृदि दैवतम्‌ 
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां;
सर्वत्र समदर्शिनः ।।

पहले अग्नि को ही एकमात्र देवता माना जाता था। जो लोग अपना अधिकांश समय मौन होकर  व्यतीत करते हैं, उनको मननशील या मुनि कहते हैं। उनके लिये भगवान उनके हृदय में रहते हैं, कहीं बहार में नहीं रहते। ठाकुर-माँ-स्वामीजी की भाषा में कहें तो जो कुछ दिख रहा है, सब उन्हीं का भिन्न भिन्न रूप है। जिन लोगों की बुद्धि इतनी तेज नहीं है, जो लोग इन बातों को समझ नहीं पाते हैं, उनके लिये प्रतिमा (या रोल मॉडल या पूर्णमनुष्य के आदर्श) की आवश्यकता होती है। "सर्वत्र समदर्शिनः", और जो समदर्शी हैं, (अर्थात जिन्होंने एकाग्रता का अभ्यास करके अपने सच्चे स्वरूप को जान लिया है, या जिन्हें आत्मसाक्षात्कार हो चूका है) उनके लिये ईश्वर सर्वत्र हैं। ऐसा कोई स्थान (देश-कल-निमित्त) नहीं है,जहाँ ईश्वर नहीं हों। 
उपनिषद युग की एक कहानी है। उस समय गुरुकुल ( जहाँ विद्यार्थी आश्रम में गुरु के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे,) हुआ करते थे। कुछ लडके गुरु के आश्रम में अर्थात उनके घर में वेद आदि सीखने,पढ़ने, ज्ञान प्राप्त करने जाया करते थे। वहाँ पहुंचकर गुरु की सेवा करना उनका कार्य था। गुरु की सेवा-सुश्रुषा करने से यथार्थ ज्ञान होता है। उनको जंगल से लकड़ी लाने के अतिरिक्त अन्य कार्य भी कर करने पड़ते थे। इसी प्रकार से बहुत दिन बीत गये। एक दिन छात्रों ने गुरु से पूछा आप क्या हमलोगों को ज्ञान सिखायेंगे? कब से सिखायेंगे ? गुरु बोले -हाँ सिखाऊंगा। 

तुमलोग एक काम करो, सभी अपने हाथों में एक एक कबूतर ले लो। कबूतर और एक छूरी लेकर इधर उधर चले जाओ। और अपने अपने कबूतर को काट कर लेते आना। किन्तु ध्यान रखना किकोई, कहीं देखता न हो। उस समय के गाँव थे, खाली खाली मैदान, सुनसान-बियाबान जंगल पहाड़ थे। लोग जन बहुत कम थे, कहीं जंगल तो कहीं नदियाँ थीं। गुरु का आदेश सुनकर सभी छात्र कोई किसी तरफ तो कोई किसी तरफ निकल पड़े। कोई इधर, कोई उधर छिप कर छुरी से काटने लगे। दोपहर का समय बीत जाने के बाद सभी एक एक करके गुरु के पास आने लगे।
गुरु सबसे पूछते- काट कर ले आये ? किसी ने देखा तो नहीं ? -नहीं, किसी ने नहीं देखा। कहाँ गये थे ? - घने जंगल में चला गया था, जहाँ कोई प्राणी तो क्या पशु-पक्षी भी नहीं थे। दूसरे छात्र ने कहा -नदी के किनारे, जहाँ एक गाय भी नहीं चर रही थी। एक अन्य छत्र बोला मैं तो समुद्र के किनारे चला गया था। वहाँ दो तीन लोग घूम रहे थे, यह देख कर मैं समुद्र के जल में डूबकी लगा दिया और पानी के भीतर में काटा। इसी प्रकार सभी अपना अपना वृतान्त सुनते रहे। किन्तु दिन ढल गया। शाम होने को था। पर एक छात्र अभी तक वापस नहीं आया था। तब सभी को चिंता होने लगी। गुरुदेव बोले -जाओ जाओ खोजो कहाँ है? वे लोग थोडा इधर उधर देखे पर कहीं मिला नहीं।
इसी बीच वह लड़का रोते रोते कबूतर लिए हुए गुरु के चरणों में गिर कर बोला, गुरुदेव ! मैं आपके आदेश का पालन नहीं कर सका। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गयी है। आप क्या करेंगे, दण्ड देंगे या क्षमा कर देंगे मुझे सब स्वीकार होगा। क्यों क्यों। सभी तो काट कर ले आये हैं। पर वे लोग कैसे यह काम कर सके होंगे मैं नहीं जानता। मैं तो घने जंगल में गया था, नदी के किनारे गया था, समुद्र के किनारे गया था, पानी के नीचे भी डूबकी लगाया। किन्तु सभी जगह देखता हूँ, हजार सिर, हजार आँखें, अनन्त हाथ, अनन्त पैर। कोई सुनसान जगह नहीं मिला। भगवान जगन्नाथ की बड़ी बड़ी की आँखें हर स्थान में ज्वलंत होकर निहार रही थीं। ऐसा कोई स्थान मुझे नहीं मिला जो भगवान के लिये दृष्टिगोचर न हो,या जहाँ भगवान की आँखें नहीं देख रही हों।
गुरुदेव ने कहा, तुमको अब और कुछ पढने की आवश्यकता नहीं है। तुम घर चले जाओ। तुम्हें पूर्ण ज्ञान  हो चूका है। इसी अवस्था को पाने के लिये तो वेद पढ़ा जाता है, वेदाभ्यास (ज्ञान का नेट प्रैक्टिस ) किया जाता है। मनुष्य जीवन में इससे बड़ी अभिज्ञता, प्रत्यक्ष ज्ञान (या Perception) और कुछ नहीं है। ईश्वर दर्शन होने का यही प्रमाण है। सर्वत्र उनका ही दर्शन करना। ( केवल मनुष्य जीवन में ही इसे व्यव्हार अपनाया जा सकता है! )      
हमें यह सीखना होगा कि किसी व्यक्ति को ऐसी दृष्टि कैसे प्राप्त होती है ? ऐसी दृष्टि जिसको मिल जाती है, उसी को यथार्थ मनुष्य बनना कहते हैं। इसी को मनुष्य बन जाने का मार्ग कहते हैं। और इसीलिये स्वामीजी के गद्य-पद्द्य में दिये गये समस्त संदेशों को स्मरण में रखना आवश्यक हो जाता है। चरित्र ही धर्म है। जो पवित्र है, जो केवल प्राण धारण करने तक स्वार्थ को स्वीकार करता है। जिसके हृदय में सबके प्रति संवेदना होती है,जो सबों से सहानुभूति रखता है, जिसके हृदय में सबों के लिये स्थान है, जो सबों के लिये जितना अधिक सोचता है, उतना अपने लिए नहीं सोचता।
पहले ठाकुर के जन्मोत्सव पर प्रत्येक वर्ष सुन्दरवन जाया करता था, एकबार ऐसा ही दृश्य देखने को मिला था। अलग अलग द्वीपों पर उत्सव मनाया जाता था था, कुछ सन्यासी भी हमलोगों के साथ जाते थे। उस समय मोटर-बोट नहीं था, चप्पू वाली नौका चलती थी। रात्रि में किसी द्वीप पर उत्सव समाप्त हो जाने के बाद, दूसरे द्वीप पर जाने में नाविक सारी रात चप्पू चलाते रहते थे। इस नदी, उस नदी को पार करके किसी द्वीप पर पहुँचता था। एकबार किसी द्वीप पर होने वाले एक उत्सव में गया था। वहां जाने पर सुना कि एक अन्य सन्यासी भी उत्सव में भाग लेने आये हैं। वे अगले दिन होने वाले उत्सव में भी हमलोगों के साथ जायेंगे।
दुसरे दिन तटबंध के किनारे किनारे जा रहे थे, कोई सडक या मोटर गाड़ी नहीं थी। वहां बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने कभी अपनी आँखों से कोयले का ईंजिन भी नहीं देखा है। वैसे स्थान में सन्यासी मेरे साथ बातचीत करते हुए चल रहे थे। ऊँचे तटबन्ध के दोनों किनारे समतल स्थान के बीच बीच में घर बने हुए थे।
 संयासिजी को जब भी कोई घर दिखाई पड़ता, और सामने घर की स्वामिनी दिखाई देती वे अचानक नीचे उतर कर एक ही बात हर किसी से कहते- " ओमा ! यह घर तुम्हारा नहीं है, ये भगवान का घर है। ओमा! तुम्हारे पती तुम्हारे नहीं हैं, भगवान के हैं। ओमा, तुम्हारे लड़के-बच्चे भी तुम्हारे नहीं हैं, सब भगवान के हैं। इस बात को हमेशा याद रखना और घर के सारे काम करना। "
जैसे ही बीच में कही घर के सामने, घर का कोई व्यक्ति खड़ा दिख जाता, उतर जाते और सब से यही बात कहते। हमलोगों के साथ साथ जो लोग चल रहे थे, उनमे से किसी ने कहा यह साधू बाबा तो एकदम पगला गये लगते हैं। किन्तु यही सीखने वाली बात है। हमें आजीवन नेट-प्रैक्टिस करना है, 'सच्चा विवेक-प्रयोग' है --  कि यहाँ कुछ भी अपना नहीं है, सबकुछ उनका है- भगवान का है ! मेरे भीतर जो भगवान हैं, वे ही सबों के भीतर हैं। इस बात को चेष्टा करते करते (नेट प्रैक्टिस - सद्गुरु और माता-पिता को जूते उतार कर प्रणाम करने से ) सीखनी होगी। मन को हर समय समझाते रहना होगा, यह अभ्यास उतना आसान नहीं है, कठिन है।
यदि हमलोग श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग, माँ सारदा की जीवनी, विवेकानन्द-चरित आदि ग्रन्थों को ठीक से पढ़ें, सुनें, उनके नाम-रूप-लीला- धाम की विवेचना करें; अकेले में बैठकर विश्वास पूर्वक मनन करें, तो हमलोग उनके सान्निध्य या सामीप्य (vicinity) प्राप्त कर सकते हैं। वे लोग सामने बैठे हैं, उनकी 'साक्षात् उपस्थिति' का अनुभव कर सकते हैं। यही एक मात्र उपाय है;  आध्यात्मिक रूप से विकसित होने का (विवेक-प्रयोग का नेट प्रैक्टिस ही ) यही एकमात्र उपाय है। निरंतर विवेक-प्रयोग करते हुए अपना ऐसा चरित्र निर्माण करना होगा कि हमलोग समदर्शी बन जायें, और सर्वत्र उन्हीं को देख सकें, और उनकी सेवा साक्षात् शिव समझकर करने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाये।

 "सर्वत्र समदर्शिनः"समदर्शी चरित्र वाला मनुष्य बनने के बाद ही,हमलोग अपने देशवासियों या विश्व के अन्य मनुष्यों के   काम में आने लायक " वृक्ष जैसे उपकारी " मनुष्य बन जायेंगे। यदि हमलोग मनुष्य मात्र के लिये उपकारी नहीं बन सके, तो ऐसा दुर्लभ ' मनुष्य-जीवन ', जिसमें सर्वत्र भगवान को देखना और सेवा करना संभव हो जाता है, व्यर्थ चला जायेगा। जीवन सार्थक नहीं होगा, निरर्थक हो जायेगा, मृत से भी अधम जीवन हो जायेगा। यदि हमलोग केवल अपने ही बारे में सोचते रहें, केवल अपने लिये ही सबकुछ करें, भोग की आकांक्षा को क्रमशः यदि बढ़ाते रहने की चेष्टा करें, तो बढ़ती चली जाएगी। भागवत में है, महाभारत में है, पुराणों में बहुत से श्लोक हैं- क अग्नि में घी ढालने से अग्नि बुझती नहीं है, बल्कि और अधिक भड़क उठती है
न जातु कामः कामानुपभोगेन शाम्यति ।
 हविषा कृष्णवर्त्मॆव भूय एवाभिवर्धते ॥
(Swami Vivekananda's Translation: Desire is never satisfied by the enjoyment of desires; it only increases the more, as fire when butter is poured upon it)-अर्थात कामना-वासना की पूर्ति के लिये कोई भी वस्तु - कामना की अग्नि में डाल देने से, कामना की अग्नि बुझती नहीं है,बल्कि दुगनी शक्ति के साथ पुनः प्रज्ज्वलित हो जाती है। इसीलिये बाहर से भोग्य वस्तुओं को डाल कर कामना-वासना को, या भोग की इच्छा को समाप्त नहीं किया जा सकता है। कामना-वासना को त्याग करने के लिये, एकाग्रता का अभ्यास करना सीखना होगा। 
इच्छाशक्ति  के प्रवाह को दृढ़-संकल्प के द्वारा विवेक-प्रयोग करके मन को समझाना पड़ेगा कि , अब इतना कामना वासना के पीछे नहीं दौडूंगा। शास्त्रों में बहुत सुन्दर कहा गया है, कि परलोक या स्वर्ग में जितने सुख हैं, तथा पृथ्वी पर जितने सुख हैं, वे सब सुख मिलाकर भी त्याग के सुख के सामने षोड्स कला के एक कला ( या 16 आना का 1 आना ) भी नहीं है। त्याग से मिलने वाला सुख (देहाध्यास के त्याग से मिलने वाला सुख ?) सबसे अधिक होता है। इसीलिये स्वामीजी उपनिषदों को बार बार उद्दृत करते हुए कहते थे- त्याग, त्याग, त्याग " त्यागेन एके अमृतत्व मानशु: " - ठाकुर कहते थे बता सकते हो, गीता के उपदेशों एक शब्द में कैसे ब्यक्त किया जा सकता है ? वह है त्याग ! गीता, गीता, गीता - को बार बार बोलने से क्या सुनाई देगा ? तागी, तागी, तागी। कुछ लोगों ने सोचा कि ठाकुर अधिक पढ़ना-लिखना नहीं सीखे थे, शायद इसीलिये 'त्यागी' को 'तागी' कह रहे हैं। किन्तु संस्कृत के एक विद्वान् भी वहां उपस्थित थे, उनहोंने बताया कि संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'त्यागी ' और ' तागी ' अर्थ एक होता है।
ठाकुर के चले जाने के बाद, मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिये उनकी सभी संतानें माँ के पास जाने लगे थे। इसके पहले तो माँ को कोई समझ भी नहीं पाते थे। बाद में थोड़ा-बहुत समझ सके थे। सचमुच उनका जीवन अद्भुत था, अभूतपूर्व था ! प्राचीन काल में- सीता, सावित्री, दमयन्ती आदि जितनी भी महान नारियां हुई हैं, वे श्री श्रीमाँ की तुलना में कुछ भी नहीं हैं। उनके जैसा असाधारण जीवन किसी भी देश के इतिहास में ढूँढने से भी नहीं मिलता है।
भगवान बुद्ध ने भी अपनी स्त्री का त्याग किया था। भगवान राम ने भी अन्त में सीता को बनवास भेज दिया था, इसके पीछे कारण चाहे जो भी रहा हो। किन्तु ठाकुर ने न तो कभी माँ का त्याग किया, और न उनको कभी वनवास के लिये भेजा। उन्होंने श्रीमाँ को ही जगत-जननी के रूप में स्वीकार किया था। ऐसा दूसरा उदाहरण जगत के इतिहास में कहीं नहीं है। मेरे पहले बोलते हुए माताजी कह रहीं थीं- "वे तो बिलकुल अपनी माँ हैं ! हमलोग जिद करके, (उनसे रूस करके-जाओ मैं नहीं खाऊंगा की जिद ठान कर) जबरदस्ती उनकी गोदी में बैठ जायेंगे !"
तुमलोगों के ऐसे कैम्प में तुमलोगों के साथ बात करते करते ऐसा लगा मानो माँ की एक बहुत विशाल मूर्ति सामने है, और तुमलोग जो जहाँ है, वहीँ माँ की गोदी में चढ़ कर बैठ गयी हो। वे तो हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, भारतीय, विदेशी, पुरुष-स्त्री, बालक-वृद्ध, शिशु -  सबों की माँ हैं। माँ तो पवित्रता-स्वरूपिणी हैं, पवित्रता की साकार मूर्ति हैं; वैसी माँ की गोदी में शरण लेने से, समस्त अपवित्र भाव दूर हो जायेंगे। हमलोगों की स्वार्थपरता दूर हो जाएगी। दूसरों का कल्याण, दूसरों का हित, दूसरों अपना बना लेना- यही हमलोगों के जीवन का व्रत बन जायेगा। और यही बात स्वामीजी ने भी हमलोगों को सिखाया है- " यह जीवन बहुत छोटा है, क्षण-स्थायी है, और इस जीवन के जितने भी ऐश्वर्य, भोग की वस्तुएं हैं, वे सब भी क्षण-स्थायी हैं। इसीलिये केवल वही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीना सीख जाते  हैं। ' किसी का दर्द मिल सके तो लो उधार- जीना इसीका नाम है।' और जो लोग ऐसा नहीं कर पाते, वे मृत से भी अधम हैं।"
हमलोग कहीं मृत से अधम नहीं बन जाएँ, इस शिविर में हमलोग दूसरों के लिये जीना सीखेंगे। माँ की पुकार को सुनकर, कहाँ कहाँ से सैंकड़ो की संख्या में कमउम्र की और उम्रदराज स्त्रियाँ कितनी दूर दूर से आ रही हैं। यहाँ पर समय की आवश्यकता के अनुरूप सही कार्य हो रहा है। यह कार्य बड़े बड़े उत्सव, बड़े बड़े कीर्तन, बड़े बड़े संगीत, बड़े बड़े प्रवचन, बहुत बड़े पूजा-पंडाल में भोग-प्रसाद खिला देने से भी नहीं हो सकता है। मन में इसकी ललक रहनी चाहिये।
 ठाकुर-माँ-स्वामीजी की छत्र-छाया में शरण लेने का प्रयत्न करना चाहिये। तैतीस करोड़ देवता की बात को याद करके, काली-शिव की पूजा करने और ठाकुर-माँ-स्वामीजी को छोड़ देने की जरूरत नहीं है। वे हमलोगों के जीवन में गुणवत्ता लाने वाले हैं, हमारे जीवन-धन हैं। यह विश्वास रहना चाहिये की वे हमारे सगे माँ-बाप-भैया जैसे हैं। उनको अपना जानकर-उनके जीवन और उपदेशों को सुनना, उस पर मनन-

चिन्तन करना, आत्मसात करना और अपने जीवन तथा आचरण में उतार लेना होगा। उनकी शिक्षाओं को चरित्रगत करना होगा। हमलोगों के आचार-व्यवहार में, बोलने और चिन्तन करने में उन्हीं के भाव अभिव्यक्त या प्रकाशित होने चाहिए। ऐसा करने का नाम ही है चरित्र गठन।
यह कार्य महामंडल के माध्यम से विगत 35 वर्षों से लड़कों के लिये चलता आ रहा है, उसी प्रकार लड़कियों के लिये नारी संगठन भी प्रारंभ हुआ है। पश्चिम बंगाल के बाहर बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, एवं ओडिशा में भी कार्य चल रहा है। कुछ समय पहले रायपुर गया था, वहां 35-40 लड़कियां विभिन्न स्थानों से आई थीं। अंबिकापुर  बहुत दूर-दराज का दुर्गम रास्ता पार कर के आई थी, विलासपुर, भिलाई आदि जगहों से आई थीं। 2-3 घंटे चर्चा हुई। वे लोग कैम्प में शामिल होने की बहुत इच्छुक थीं। यही है एकमात्र कार्य। सबसे बड़ा कार्य। वर्तमान युग में जैसी आबोहवा हो गयी है, विभिन्न संवाद माध्यमों के द्वारा आजकल जो परोसा जा रहा है, उसको मुंह से कहा भी नहीं जा सकता,सारी मर्यादाएं टूट रही हैं। इन सबसे समाज को बचना होगा।
भारतवर्ष तो में अभी सुर भी कुछ बदला बदला नजर आ रहा है। विद्यासागर, रविन्द्रनाथ, बंकिमचन्द्र, सुभाषचन्द्र आदि का नाम देश में कम सुनाई देता है। इस बार लक्ष्मीपूजा में टी . वी . के संवाददाताओं को अधिक काम नहीं मिला तो वे राजनितिक नेताओं के घर घर में पहुंच गये। उनसे पूछ रहे थे, क्या आप लक्ष्मी पूजा मना रहे हैं ? क्या आप इस सब पर विश्वास करते हैं? हाँ, मैं तो इन सब पर विश्वास नहीं करता, किन्तु घर में हो रहा है, सभी खुशियाँ मना रहे हैं। तो मैं उनकी खुशियों में बाधक क्यों बनुगा? क्या अपने प्रसाद खाया था ? हाँ, घर में ही प्रसाद बन रहा है, बिना खाए कैसे रहता ? किन्तु ऐसी धार्मिकता से कोई लाभ नहीं होता। ऐसा नहीं है कि प्रसाद खा लेने से धार्मिक हो जाऊंगा, या नहीं खाने से ही प्रगतिशील विचारों वाला बन जाऊंगा। यह सब समझने की बातें हैं, अन्दर से समझना होता है।
धर्म क्या है ? अंतर्निहित वस्तु ( पूर्णता, दिव्यता या ब्रह्मत्व) के विकास और प्रकाश को धर्म कहते हैं। इस जीवन को महान जीवन में रूपांतरित कर लेना धर्म है। हमलोगों को उसी धर्म का पालन करना चाहिये। इसका वास्तविक नाम आध्यात्मिकता है। अर्थात हमलोग केवल हड्डी और मांस के बने पिजड़ा या कोई बंदीगृह नहीं हैं। इस पिंजड़े के भीतर एक वस्तु (पंछी) है, जो अनन्त शक्तिशाली है। जो ज्ञानमय है, आनन्दमय है, प्रेममय है। उसको जाग्रत करना होता है। जो उसका सन्देश सुनकर, उसे जगाने की चेष्टा करता है; उसका जीवन आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।
ठाकुर-माँ-स्वामीजी के जीवन को उपर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो उन लोगों को कितना दुःख भोगना पड़ा है! किन्तु उनलोगों का जो भी दुःख कष्ट था, वह दूसरों के लिये था, वे लोग कभी अपने दुःख के कारण नहीं रोये थे, वे लोग दूसरों के दुःख को दूर करने के लिए रोते थे। दूसरों के दुःख को देखकर उन्हें अपने छाती में असह्य कष्ट का अनुभव होता था। हमलोगों को भी अपना हृदय टटोल कर देखना होगा कि दूसरों के दुःख को देखने से हमारे दिल को दुःख पहुँचता है, या नहीं? यदि नहीं होता, तो हमलोगों के वैभव, पहनावे-ओढ़ावे से आरम्भ करके, हमलोगों का खान-पान, चलना-फिरना, तथा घर में जितने भी प्रकार के आधुनिक उपकरण या वैसे सब वस्तुओं का अम्बर भी हो तो, सब व्यर्थ है, क्योंकि ये सब यहीं पड़े रह जायेंगे। मनुस्मृति में कहा गया है-

             एक-एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयात्ति यः |
                  शरीरेण समं नाशं सर्व मन्यत्तु गच्छति ||

- अर्थात् मनुष्य के मरणोपरांत उसके साथ केवल उसका धर्म ही जाता है। इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी साजो-सामान हैं, शरीर नष्ट होने साथ ही साथ वे सब नष्ट हो जाते है। एक मात्र धर्म ही सच्चा मित्र है जो मरने के बाद भी जीवात्मा का साथ देता है और सब चीजें तो शरीर के साथ ही यहीं छूट जाती हैं,  नष्ट हो जाती है। 
चाहे जितनी बड़ी बड़ी चीजों को संग्रहित क्यों न क्या जाय, सब कुछ यहीं पड़े रह जाते हैं। किन्तु इस कठोर सत्य को हम समझना नहीं चाहते हैं। किन्तु नहीं, फिर भी हमलोग उसी के पीछे दौड़ते रहते हैं। जो विशाल धन-दौलत, संपन्नता हमलोगों के भीतर पहले ही से मौजूद है, उस गुप्त कोश की तरफ हमारी दृष्टि (आत्मा की दिव्य आँख -मन की दृष्टि ) कभी जाती ही नहीं है। एक बार यदि भीतरी गुप्त-कोश में छुपी दौलत -'कोहेनूर ' पर नजर पड जाये तो, बहार में दिखने वाली जितनी भी सम्पदाएँ हैं, आन्तरिक वस्तु के सामने ये सभी तुच्छ लगने लगेंगी। स्वामीजी ने उपनिषदों के बालक नचिकेता की कहानी सुनाई थी, जो यम के आमने-सामने खड़ा हुआ था, और बातचीत की थी। किन्तु यमराज उसको बालक समझकर भीतर के आत्मतत्व को नहीं देकर विभिन्न प्रकार के प्रलोभन दे रहे थे। उसको भोग की क्स्तुओं का लोभ दिखा रहे थे, नाच-गान दिखाकर बाहरी वस्तुओं में उसके मन को भुलाने की कोशिश कर रहे थे। किन्तु उस बालक ने आत्मतत्व को जान लेने के बाद ही यमराज का पीछा छोड़ा था। वैसी ही चेष्टा हमलोगों के भीतर भी होनी चाहिए।
इसीलिये यह हमारा परम सौभाग्य है कि इस युग में जन्म ग्रहण करके ठाकुर-माँ-स्वामीजी का नाम सुन पा रहे हैं। सन्यासिनी माँ, अभी माँ के जीवन की एक घटना तुम्हें सुना रही थी। इस प्रकार की कितनी ही घटनाएँ हैं। किन्तु सच्चा लाभ तो तब मिलेगा, जब हमलोग उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार सकेंगे। अक्सर कोई चीज जब आसानी से प्राप्त हो जाती है, तो हम उसका मूल्य नहीं समझते है। हमलोग कैसे मनुष्य बन सके हैं, इस बात को हम नहीं जानते, इसीलिए इसका मूल्य भी नहीं समझ पाते हैं। इसीलिये शंकराचार्य ने कहा था, यदि हमलोग इस देव-दुर्लभ मनुष्य जीवन एवं उसके साथ ही साथ पुरुषार्थ, अर्थार्थ स्वयं की कार्यक्षमता, उद्द्य्म, और संकल्प में दृढ़ बने रहने का पौरुष को, इस मनुष्य जीवन में प्राप्त करके भी यदि उन्हें अपने व्यव्हार में लाकर, अपने जीवन को पूर्ण नहीं बना सकें, तो हमलोग  नितान्त ही कृपण और नितान्त मूर्ख हैं।  इससे बढ़कर मुर्खता और कुछ भी नहीं है। हमलोग इन तीन दिनों तक जो कुछ सुनेंगे, सीखेंगे, उसको घर लौट जाने के बाद जीवन में उतरने का अभ्यास करेंगे। जो जीवन और सन्देश अभी पुस्तकों में है, उसको पढना होगा। 

धर्म को अपने जीवन का एक अलग हिस्सा बनाकर रखने से काम नहीं होगा। घर में जैसे एक कमरा रसोई का होता है, एक खाने का कमरा होता है, एक सोने का कमरा होता है, बैठने का कमरा अलग होता है, वैसे ही एक पूजा का कमरा भी होता है। उसी प्रकार धर्म को भी जीवन का एक टुकड़ा (अनुच्छेद) बनाकर रखने से नहीं होगा। धर्म को जीवन में अंतर्भूत (immanent) करना चाहिये। तभी धर्म हमारे समग्र जीवन को भरे रखेगा।
इसीलिये कहा जाता है कि शिक्षा की कुछ आवश्यकता होती है। हाँ शिक्षा की कुछ आवश्यकता है। किन्तु शिक्षा से ही सबकुछ नहीं होता; इस बात को ठाकुर, माँ, स्वामीजी ने अपने जीवन द्वारा प्रमाणित किया है। स्वामीजी ने कुछ शिक्षा पायी थी, इसीलिये कि आगे चलकर पूरे विश्व को सुनाना था। किन्तु ठाकुर-माँ के जीवन में वैसा नहीं हुआ था, जीवन-गठन में स्कूली-शिक्षा की तूच्छता को प्रमाणित करने के लिये ही  बाहर की शिक्षा लेने की आवश्यकता उन्हें नहीं हुई थी। किन्तु हमलोगों के लिये बाहर की शिक्षा रहने से सुविधा होती है। बाहर से झटका देने जैसा। जैसे भीतर को जगाने के लिये बाहर से शिक्षा का झटका देना काम करता है। हमलोग पुस्तकों को पढ़ सकते हैं, सुन सकते हैं, समझ सकते हैं, इसीलिये ताकि हम उनको हृदयंगम कर सकें। नहीं तो जीवन भर केवल पढ़ते-सुनते रहने से भी कुछ नहीं होगा। या केवल लोगों को सुनाने के लिये अच्छा भाषण देने से भी नहीं होगा।

वाग्‍वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्‌। 
वैदुष्यं विदुषां तद्वद् भुक्तयॆ न तु मुक्‍तये॥

Swami Vivekananda's Translation: Wonderful methods of joining words, rhetorical powers, and explaining texts of the books in various ways — these are only for the enjoyment of the learned, and not religion.
- शास्त्रों के शब्दों को आश्चर्यजनक भावभंगिमा बनाकर व्याख्या करने, या उसके सिद्धान्तों पर भाषण झाड़ देने से बोलने वाले को मौज-मस्ती मिलती है, भोग-विलास होता है, लेकिन मुक्ति नहीं मिलती, धर्म की उपलब्धी नहीं होती है। 

और हमलोग भक्ति भक्ति चिल्लाते हैं। भक्ति इतनी आसान वस्तु नहीं है। किसी तीर्थ में जाने से थोड़ी देर के लिये भक्ति जाग जाती है। किन्तु भक्ति शब्द का वास्तविक अर्थ है, अपने जिस ईष्ट के प्रति हम श्रद्धा रखते हैं, उनके विचारों को अपने जीवन में उपयोग करना। भागवत में कहा गया है, जो व्यक्ति अपने ईष्ट की मूर्ति की पूजा बहुत अच्छे तरीके से करता है, किन्तु उनके भक्तों की या दूसरों की जो उनके भक्त नहीं हों, उनकी पूजा जो नहीं करता, वह अति सामान्य भक्त हैं, अर्थात अति निम्न कोटि के भक्त हैं। आगे कहा गया है, उस भक्त को भी उत्तम भक्त नहीं कह सकते जो, ईश्वर से प्रेम करता है, ईश्वर के भक्तों को अपना प्रिय मानता है, जो मुर्ख हैं उनके उपर कृपा करता है, जो विद्वेषी हों या शत्रुता रखते हों, उनकी उपेक्षा करता है।
फिर उत्तम भक्त कौन है ? जो अपनी आत्मा में सबों की आत्मा को देखता है, तथा सबों की आत्मा में जो अपने आत्मरूपी ईश्वर को देखता है-वही उत्तम भक्त है। भक्ति के मार्ग से धर्म-लाभ करने या चरित्र-निर्माण के द्वारा इसी भक्त की अवस्था को प्राप्त करना पड़ता है। भक्ति उतनी आसान वस्तु नहीं है, बहुत कठिन है। अभी, कल ही एक धार्मिक प्रतिष्ठान से एक बेयरिंग पत्र मिला था। पाँच रूपये की डाक टिकट को दस रुपया देकर छुड़ाना पड़ा। वह पत्र बहुत नामी संस्था के द्वारा भेजा गया एक सायक्लोस्टाइल पत्र था। उसमे केवल इतना लिखा था- " तुम मेरा अनुसरण करो, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। "इतना लिख कर प्रेषक और प्रेषित केवल पता देकर भेज दिया था। धर्म कभी इतनी आसनी से अर्जित होने वाली वस्तु नहीं है। इसीलिये इस प्रकार के धर्म की पहेली में उलझने की जरुरत नहीं है। हमलोग अक्सर कुछ अलौकिक चीजों को देखने-सुनने की तरफ दौड़ पड़ते हैं। किन्तु ऐसा कुछ नहीं है, जो अलौकिक होता हो।
 स्वामीजी ने कहा है, " मिरेकल्स डू नॉट हैपन !" अर्थात अलौकिक या अतिप्राकृतिक रूप से कुछ भी घटित नहीं होता, जो कुछ भी घटित होता है, वह प्रकृति के भीतर ही घटित होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था- " बादलों से वृष्टि होती है, उसके लिये महेन्द्र को क्या करना है ? " उस समय भी इतनी वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकृति के नियमों को देखा जाता था ! किन्तु आजकल हर चीज को देखकर हम भौचक्का हो जाते हैं, या भ्रान्ति में पड़ जाते हैं। यहाँ किसी के पास स्पष्ट धारणा नहीं है।
मनुष्य क्या है ? इसकी स्पष्ट धारणा नहीं है। जीवन क्या है, या इसका लक्ष्य क्या है ? इसकी कोई स्पष्ट धारणा नहीं है। हमें जो मनुष्य जीवन मिला है, इसका सदुपयोग कैसे हो सकता है ? इन सबके बारे में कोई स्पष्ट धारणा नहीं है। विभिन्न प्रकार के परिवेश और परिस्थितियों में रहते हुए जैसे तैसे संचार माध्यमों के द्वारा प्रभावित और दिग्भ्रमित होकर जो लोग  अन्य मार्गों में भटक गये हैं, उनका अनुकरण करते हुए हमलोग अपने मार्ग को छोड़ कर उन्हीं के पीछे दौड़ रहे हैं।
ऐसे दिग्भ्रान्ति के युग में भी हमलोगों के लिये कोई भय नहीं है। मा भयः ! मा भयः ! माँ हैं , ठाकुर-माँ-स्वामीजी हैं। उनको कास कर पकड़ लेना होगा, वैसा करने से हम कभी गिरेंगे नहीं, या ठोकर लगने से भी संभल जायेंगे, या दुबारा कभी गुमराह (पथ-भ्रष्ट) नहीं होंगे, हमारा जीवन नष्ट नहीं होगा, पूर्ण हो उठेगा। आइये ठाकुर-माँ-स्वामीजी के चरणों में एक साथ मिलकर प्रार्थना करें, ताकि हम सफल हो सकें। 

 
                      
            
                     
  
  
         

Tuesday, January 15, 2013

" युवा जीवन का आदर्श " ( যুব জীবনের আদর্শ) [62-15 A-अध्याय -3.स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ] $@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना "

 [१६] 

युवा जीवन का आदर्श

    यह कहने की आवश्यकता नहीं कि देश का भविष्य युवाओं पर निर्भर करता है। किन्तु,  युवाओं के ऊपर ऐसा भरोसा इस बात निर्भर करता है कि युवालोग इस बहुमूल्य मानव-जीवन को किस दृष्टि से देखना सीख रहे हैं, अपना तथा सम्पूर्ण देश का भविष्य गढ़ने के प्रति वे कितने विचारशील (सजग) हैं, अपनी  पसन्द के अनुसार अपने भविष्य का निर्माण करने के प्रति कितना दृढ़ निश्चयी हैं? अध्यवसाय (diligence-यत्न की धुन, परिश्रम की पराकाष्ठा) के द्वारा अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रति उनमें कितनी निष्ठा है? उनके भीतर एक ओर जहाँ यौवन की स्वाभाविक चंचलता, अपरिपक्व नजरिया और मानवीय दुर्बलतायें हैं, वहीँ दूसरी ओर उनके ऊपर परिवेश का हानिकारक प्रभाव भी पड़ता है। 
      अभी 'शिक्षा'- कहलाने के योग्य ऐसी कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं है, जो उन्हें 'जीवन का सच्चा अर्थ' (True meaning of life) समझाने में सहायक हो सके, तथा 'मनुष्यत्व' (अन्तर्निहित दिव्यता)  को उद्घाटित करने के लिये जो परम  आवश्यक विचार (निःस्वार्थपरता आदि गुण) हैं उन गुणों को विकसित करने में सहायक हो सके। सस्ते साहित्य, सिनेमा, संगीत, मोबाईल-इंटरनेट आदि मनोरंजन के जितने भी साधन प्रचलित हैं, वे युवाओं को भावनात्मक पोषण (Emotional nourishment) प्रदान करने की अपेक्षा क्षति ही अधिक पहुंचा रहे हैं। वर्तमान राजनीति, अर्थात राजनीतिक दल युवाओं के जीवन का विकास और उनके यथोचित कल्याण के उपर ध्यान न देकर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जिस प्रकार इनका उपयोग करती हैं, वे कई कारणों से अक्सर उनके पतन का कारण बन जाता है। एक ओर अपने मन की स्वाभाविक कमजोरी तो दूसरी ओर बाह्य-परिवेश का हानिकारक प्रभाव-इन दोनों पाटों फँसे युवाओं के लिए ,रीढ़ की हड्डी को सीधे रखकर अपने पैरों पर खड़े होना, तथा जीवन -गठन के पथ पर अग्रसर हो पाना कठिन हो जाता है।
    इस कठिन परिस्थिति से बाहर निकलने का मार्ग क्या है ? मार्ग खोजने के लिए, पहले एक उपयुक्त आदर्श की तलाश करनी होगी। युवा लोग यदि अपने जीवन में किसी सच्चे आदर्श को केवल ग्रहण कर लें, तो उसका अनुसरण करते हुए मानव-जीवन के प्रति बेहतर समझ विकसित कर सकेंगे, अपने जीवन के उद्देश्य का निर्धारण कर सकेंगे, तथा उसी लक्ष्य की ओर अग्रसर होने के पथ का चयन का करके, उसी पथ पर अविचलित रूप से निरंतर अग्रसर हो सकेंगे। मानव मन में पूर्णत्व प्राप्ति (perfection) की जो उच्चतम अवधारणा हो सकती है, उसके जीवन्त प्रतिबिम्ब को आदर्श कहा जाता है। पूर्णता के एक ऐसे अनुकरणीय व्यक्तित्व को आदर्श (Role Model) कहेंगे, जिसको अपने सामने एक उदाहरण के स्वरुप रखकर उसका अनुकरण सचमुच किया जा सकता हो। 
     अपने अतीत के जीवन पर नजर डालने से - बीते दिनों को ध्यान से देखने पर यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि - बचपन से लेकर अभी तक हमने जो कुछ भी सीखा है, लगभग सबकुछ अनुकरण के माध्यम से ही सीखा है हमलोगों ने बातचीत करने का सलीका, चलना-फिरना, मातृभाषा आदि जो कुछ को सीखा है, वह सब अनुकरण के माध्यम से ही सीखा है। अपने जीवन में हमलोगों का आचरण, हमारी शालीनता, यहाँ तक कि हमारा जो एक विशिष्ट प्रकार स्वभाव (Nature) बन गया है, वह भी मूलतः किसी आदर्श का अनुकरण करने के माध्यम से ही गठित हो गया है। अतएव हमारे सामने ऐसा कोई आदर्श (उदाहरण) अवश्य रहना चाहिए, जिसे देखकर हमलोग  निश्चित रूप से अच्छा स्वभाव अर्जित कर सकें, सुरुचिपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी, शिष्टाचार और समग्र रूप से चरित्र के जितने भी बेहतर गुण हैं उन्हें सीख सकें। युवाओं के सामने ऐसा एक अनुकरणीय आदर्श अवश्य होना चाहिये। इसका पहला लाभ तो यह होगा कि, इससे हमें 'मनुष्य जीवन' के प्रति बेहतर समझ विकसित करने में मदद मिलेगी। द्वितीयतः उसमें ऐसे कुछ ऐसे उच्च भाव (पवित्र विचार) भी रहने चाहिये जिसका हमलोग अनुसरण कर सकें। और तीसरी बात उस आदर्श में यह होनी चाहिये कि वे हमारी जीवन-नौका के कर्णधार बनकर, धैर्य पूर्वक पतवार चलाकर, मार्ग में आने वाले खतरों बचकर निकल जाने में  सहायक हो सकें।
      खतरे कई दिशाओं से आ सकते हैं। हो सकता है कि, मन के भीतर ही दो परस्पर-विरोधी आदर्शों में टकराव होने लगे, जिसके कारण हमारे आत्मविश्वास, निष्ठा, अध्यवसाय में कमी आने लगे और इन्द्रिय-सुख भोग की स्वार्थ केन्द्रित प्रवृत्तियाँ फिर से अपना सिर उठाने की चेष्टा करने लगे।[स्वामी जी ने कहा था -जिसका कोई निर्दिष्ट आदर्श है, वह यदि एक हजार भूलें करे तो यह निश्चित है कि जिसका कोई भी आदर्श नहीं वह दस हजार भूलें करेगा अतएव एक आदर्श रखना अच्छा है। "] अतएव हमारे जीवन का उद्देश्य (मनीषा या मर्त्य में से अमृत को पाना) बिलकुल मध्याह्न के सूर्य के जैसा प्रखर और देदीप्यमान होना चाहिये, और उसे प्राप्त करने की पद्धति (चार योग) को या किसी एक को सावधानीपूर्वक और व्यापक रूप से निर्धारित कर लेना चाहिए। तथा जिस आदर्श को एकबार जीवन का ध्रुवतारा (नेता, गुरु या बड़ा भैया) मानकर ग्रहण कर लिया हो, उन्हीं को आजीवन पकड़े रहना चाहिये।
    आदर्श एक ही होना उचित है, एकाधिक नहीं। क्योंकि कई आदर्शों का अनुसरण करने से कोई भी आदर्श प्राप्त नहीं हो सकेगा। अतएव किसी एक आदर्श को ग्रहण करना, तथा उसी एक मात्र आदर्श के लिये अपने सम्पूर्ण जीवन को न्योछावर कर देना उचित है। और यही जीवन में सफल होने का रहस्य है। किसी ने थोड़ा थोड़ा करके बहुत से आदर्शों को लिया, किन्तु किसी एक भी आदर्श पर अपना मन-प्राण न्योछावर नहीं कर सका - तो इस प्रकार करने वाला कोई व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।  इस बात को भूल जाने से सम्पूर्ण जीवन में कोई आदर्श मूर्तमान नहीं हो सकेगा। और कई बार विफल होकर सच्चे आदर्श का अविष्कार कर भी लें,  तो तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। इसीलिए प्रारम्भ में ही दूसरों से पूछकर युवा आदर्श को  जान लेना अच्छा है, ताकि जीवन असफलता का अनुभव करके सच्चे आदर्श को पहचानने की हताशा जनक परिस्थिति से बचा जा सके। 
    आदर्श ऐसा होगा जो हमें चिन्तन-मनन करना सीखा सके। जो जीवन मिला है, उसका सदुपयोग कैसे कर सकता हूँ, इस जीवन का अर्थ क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या होना उचित है ? इन सभी गंभीर प्रश्नों का उत्तर खोजने में मेरा आदर्श मुझे रास्ता दिखलायेगा। जीवन को जिस प्रकार समझा हूँ, उस जीवन को सार्थक करने के लिये आदर्श मुझे प्रयत्नशील बना देगा, प्रेरणा प्रदान करेगा, उद्देश्य को पाने (या परिवर्तनशील देह-मन से अपरिवर्तनीयआत्मा को पाने) के मार्ग में यदि कोई खतरा या जोखिम आयेगा, तो उस खतरे से बाहर निकालने के लिए मेरा जीवंत आदर्श किसी सच्चे मित्र की तरह अपना हाथ बढ़ा देगा। इसलिए हमारा आदर्श एकदम स्पष्ट होगा, ध्रुवतारा के जैसा अपरिवर्तनीय, और अग्नि के समान सदा प्रकाशमान (radiant-जिसके चेहरे से नजर न हटे।) होना चाहिए
     जो आदर्श पुस्तक में लिखा हो, या जिस आदर्श का स्वयं अनुसरण नहीं करें और दूसरों को उनका अनुसरण करने पर भाषण दिया जाये, तो वह भाषण अस्थायी रूप से हमारे मन में कुछ हलचल तो पैदा कर सकता है, किन्तु वह हमें अविचल भाव से आजीवन प्रयत्न करने की प्रेरणा नहीं दे सकता। वास्तविक जीवन जैसा है, उससे बिल्कुल अलग कोई सूक्ष्म तत्व या उपदेश देने की चेष्टा करें तो उसमें वैसी शक्ति नहीं होगी। जिस शिक्षक /नेता के जीवन में आदर्श सम्पूर्ण रूप से अभिव्यक्त होता है, उसके जीवन के माध्यम से ही हमलोग आदर्श को सबसे अच्छी तरह प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि हमलोगों का उद्देश्य तो आदर्श के विषय में कुछ शब्दों को रट लेना नहीं है, बल्कि अपने जीवन में उस आदर्श को व्यावहारिक रूप से प्रयोग में लाना है। इस प्रकार का अनुकरणीय जीवन हमलोग अक्सर देख नहीं पाते हैं- तथा वह संभव भी नहीं है। किन्तु कुछ जीवन ऐसे भी हुए हैं, जिस जीवन में आदर्श पूर्णतया अभिव्यक्त हुआ है, और जिनका नश्वर शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी,  हमलोगों के सामने उनका जीवन जीवन्त होकर विराजता है। ऐसा जीवन अग्नि के समान ज्योतिर्मय होता है, जो किसी राष्ट्र को पीढ़ी दर पीढ़ी अनुप्रेरित कर सकता है। ऐसा जीवन कभी बदलता नहीं है।
     स्वामी विवेकानन्द के रूप में, ऐसा ही आदर्श हमलोग प्राप्त कर सकते हैं। आज हमलोग जिस किसी को महान व्यक्ति के रूप में जानते हैं, कल वे बदल भी सकते हैं, और किसी अन्य आदर्श का प्रचार कर सकते हैं। या यह भी हो सकता है कि आज जिनको बहुत महान व्यक्ति समझ रहा हूँ, कल उन्हीं के जीवन में कोई प्रतिकूल या घटिया विचार भी प्रतिबिम्बित होता दिखाई दे।  किन्तु विवेकानन्द तो हर युग के पिछड़े, दबे-कुचले मनुष्यों से सहानुभूति रखने वाले, दिन-दलितों के हमदर्द महावीर हैं, जिनके कंठ से बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानव-जाति को जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होने का विराट आह्वान ध्वनित हुआ था। जिनके अपने  जीवन में सर्वोच्च आदर्श जीवन्त हो उठा था,'बहुजनहिताय'  जिनका निर्भीक सन्देश आज भी  मनुष्य-मात्र को उसके उच्चतम जीवन-आदर्श को प्राप्त करने के लिये अनुप्रेरित करता है। सुदूर अतीत के विस्मृत किंवदन्तीयों में वर्णित लोककथाओं में से उनको खोज कर बाहर नहीं निकलना पड़ता। विवेकानन्द तो यज्ञ में आहुति दी जाने वाली जीवन्त ' होम-शिखा सम ' हैं, 'कोटि-भानुकर-दीप्त-सिंह' हैं। उनके जीवन्त विचार (lively thought) उनके ह्रदय से निकल कर किसी विद्युत् -प्रवाह के जैसा हमलोगों की अस्थि-मज्जा में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण सत्ता में सिहरण का अनुभव करवाते हैं। 
नके संदेशों को सुनने के लिये भूतकाल की लोककथाओं में जाने की आवश्यकता नहीं होती, उनकी उनकी शक्ति और प्रेरणा अभी और इसी समय हमलोगों के भीतर नये जीवन का संचार कर सकती है। पौरुष (manhood) के संदेशवाहक विवेकानन्द, मनुष्यों की दुर्बलता, हताशा और अवसाद के उपर बज्र बनकर टूट पड़ते हैं। उनके बादलों के गर्जना के सदृश्य ओजस्वी संदेशों में -सम्पूर्ण मानवजाति के लिये  'आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास तथा त्याग और सेवा' - के आदर्श गुंजायमान हो उठते हैं। विवेकानन्द ने मनुष्य के भीतर ही ईश्वर का दर्शन किया था। (वे कहते थे, " मैं उस ईश्वर का दास हूँ, जिसे लोग अज्ञान के कारण मनुष्य कहते हैं ! ") पूर्णत्व प्राप्त किसी उत्कृष्ट आदर्श में जो भी सद्गुण रहने चाहिये वे सभी गुण उनमें दिखाई पड़ते हैं। और वे कभी बदले नहीं थे, और कभी बदलेंगे भी नहीं। (चिर-युवा स्वामी विवेकानन्द ने मात्र 39 वर्ष की आयु में ही अपने शरीर को त्याग दिया था।) इसीलिए वे हमारे सच्चे आदर्श हो सकते हैं।
       विवेकानन्द जितना हिन्दुओं के हैं, उतने ही मुसलमानों के भी हैं, उतना ही वे विश्व के अन्य देशों के भी हैं।  वे जितना पुरुषों के लिये हैं, उतना ही नारियों के लिये भी हैं। धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित, भारतीय और अभारतीय -सबों के लिए हैं। वे जिस प्रकार वर्तमान युग के लिए प्रासंगिक हैं, उतने ही प्रासांगिक वे भविष्य के युग में रहने वाले हैं। (जिस प्रकार वे वर्तमान  
पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकते हैं, उसी प्रकार भावी पीढ़ियों को भी उनके मार्गदर्शन की आवश्यकता बनी रहेगी।) वर्तमान या भविष्य में जो कोई व्यक्ति पूर्णत्व-प्राप्त मनुष्य बनने के लिए आग्रही होगा, उन सबों के पथप्रदर्शक हैं, स्वामी विवेकानन्द। 
      वे चाहते थे कि हमलोग अपने दरिद्र और अशिक्षित देशवासियों को ही अपना आराध्य देवता मानें। वे कहते थे, ' मैं उसी को महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये रोता है।' खाली-पेट सो जाने वाले मनुष्यों को धर्म का उपदेश देना उनकी दृष्टि में पाप था। वे अपने को दार्शनिक या धार्मिक व्यक्ति कहलाना पसन्द नहीं करते थे। वे कहते थे मैं गरीब हूँ, और गरीबों से प्यार करता हूँ। वे कहते थे, मैं जितना भारत का हूँ, उतना ही विश्व का भी हूँ। इसके बावजूद अपने देश के गरीबों की दुर्दशा की बात याद करके अश्रु बहते हुए, बिना नींद के कितनी ही रातें बिता दिए थे। भारतमाता की करोड़ो संताने, जो देवताओं तथा ऋषियों के वंशधर हैं, किन्तु आज लगभग पशुओं की श्रेणी में गिर चुके हैं, यह देखकर उनका हृदय दुःख से व्यथित हो जाता था। वे मानवजीवन की अपूर्णता-अधूरापन और हारे-थके मनुष्य की गरिमा के पतन को सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने राष्ट्र के युवाओं से आह्वान किया था, " आओ भाइयों, हममें से प्रत्येक युवा भारत के करोड़ो-करोड़ पददलित मनुष्यों के लिये दिनरात प्रार्थना करें, जो लोग दरिद्रता, पुरोहिताई (Priesthood) और यातना के पिंजड़े में बन्द हैं उनके लिए दिनरात प्रार्थना करें- " हे गौरीनाथ, हे जगदम्बे, मुझे मनुष्यत्व दो ! माँ , मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो। मुझे मनुष्य बना दो!"
      हे वर्तमान भारत के युवा समूह ! हमलोग तुम्हारे सामने विवेकानन्द को युवा-आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते है। अपने अपने हृदय में स्वयं अपनी तथा अपने भाई-बहनों की अपूर्णता को ईमानदारी से अनुभव करके देखो। जड़ता, आलस्य एवं आत्मसन्तुष्टि के विचारों को झटक कर फेंक दो। उठो, वीर्यवान बनो। मर्त्य की सहायता से से अमरत्व को आविष्कृत करने का दृढ़-
संकल्प लेकर कार्य में कूद पड़ो। बाह्य और अन्तः दोनों प्रकृति के विरुद्ध संग्राम के पथ पर अग्रसर हो जाओ। स्वयं (पूर्णत्व -प्राप्त) 'मनुष्य' बनो और दूसरों को भी (पूर्णत्व -प्राप्त)  'मनुष्य' बनने में सहायता करो। विवेकानन्द ने यही व्रत तुमलोगों के ऊपर अर्पित किया है।
     यदि तुमलोग उनको अपने आदर्श के रूप में ग्रहण कर लो, तो वे तुमलोगों की अनुभव-शक्ति (Heart), बुद्धि शक्ति (Head)और कर्म-शक्ति (Hand) को जाग्रत कर देंगे। इसप्रकार 3H की शक्ति को विकसित कर तुमलोग करोड़ो -कड़ोड़ स्वदेशी स्त्री-पुरुषों के कल्याण के कार्य को करने में सक्षम हो जाओगे। और परिवेश का जो प्रभाव तुम्हारे जीवन को अवनत बनाये रखने (भेंड बनाय रखने) में प्रयत्नशील है, उस प्रभाव को अस्वीकार करके तुमलोग अपने जीवन की संभावनाओं (अपने सिंहत्व) को प्रस्फुटित करने में समर्थ हो जाओगे। वे तुम्हें एक सुस्पष्ट जीवनबोध (मनुष्य जीवन का उद्देश्य) देंगे, और तदनुसार जीवन-गठन की पद्धति भी देंगे। कोई खतरा या संकट आने पर वे एक सच्चे मित्र की तरह पास में आकर खड़े हो जायेंगे। जीवन-गठन करते समय बाहर से और भीतर से कई बाधा-विघ्न आयेंगे। संशय, गन्दे-अपवित्र विचार, इन्द्रिय-विषयों में सुख पाने की प्रवृत्ति नहीं छोड़ पाने की दुर्बलता- हताशा- अवसाद, नाम, यश, धन-लोलुपता, इनके अतिरिक्त बाहर से आने वाले अन्य कई प्रकार के कठिनतर प्रलोभन तुमको डूबा देने, तुम्हारी विवेक-शिखा को बुझा देने का प्रयास करेंगे। किन्तु तुमलोग  यदि स्वामी विवेकानन्द को अपना मित्र- शिक्षक-सलाहकार जैसा बना लो, तो कोई भी शत्रु तुम्हारे सामने अपराजेय बनकर खड़ा नहीं रह सकता। तुम अविचल रहकर सामने के मार्ग को बिल्कुल स्पष्ट रूप से देख सकोगे तथा क्रमशः हम अपने उदेश्य को अवश्य प्राप्त कर लोगे।
      वर्तमान समय में उनसे उत्कृष्ट आदर्श और कोई नहीं है। विशेष रूप से जो युवक देश से प्यार करते हैं, जो नया भारत गढ़ने का हौसला रखते हैं, और इसके लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देना चाहते हैं, जो जंग लगकर मरने के बजाय घिस कर मरना या वीर की तरह लड़ते हुए मर जाना अधिक पसन्द करते हैं, जो मनुष्य जीवन का अर्थ जानना चाहते हैं, जो पशुओं के जैसा बोझा ढोते रहने वाले जीवन से घृणा करते है, जो युवा अनियंत्रित अविनीत, मुंहजोर और धृष्ट होकर बाहरी गंदे परिवेश का गुलाम बने रहने को जिन्दा रहने का लक्षण नहीं मानते, वैसे युवाओं के लिए यह स्वामी विवेकानन्द रूपी युवा-आदर्श अतुलनीय और अद्वितीय है। 
    इसलिए भाइयों- उठो, जागो! इस आदर्श को जीवन में ग्रहण करो, और अपने लक्ष्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो। निर्भीक बनो। सारी धुंध मिट जाएगी। जीवन सूर्य की उज्ज्वल रौशनी से जगमगा उठेगा।
============

['तमसो मा ज्योतिर्गमय' हे सूर्य! हमें भी अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, जब सूर्य की गति उत्तर की ओर होती है, तो बहुत से पर्व प्रारम्भ होने लगते हैं। 
 यही विशेष कारण है, जो सूर्य की उत्तरायण गति को पवित्र बनाते हैं और मकर संक्रान्ति का दिन सबसे पवित्र दिन बन जाता है।क्रांति का अर्थ है परिवर्तन। पर जब यही परिवर्तन किसी सार्थक दिशा में हो, तो उसे संक्रांति कहा जाता है। 
इन्हीं दिनों में ऐसा प्रतीत होता है कि वातावरण व पर्यावरण स्वयं ही अच्छे होने लगे हैं।
 कहा जाता है कि इस समय जन्मे शिशु प्रगतिशील विचारों के, सुसंस्कृत, विनम्र स्वभाव के तथा अच्छे विचारों से पूर्ण होते हैं। स्वामी विवेकानन्द का जन्म भी 12 जनवरी 1863 ई., सोमवार, मकर-संक्रांति के दिन प्रात:काल सूर्योदय के किंचित् काल बाद 6 बजकर 49 मिनट पर हुआ था।स्वामीजी का जन्म एक ऐसे समय हुआ जब ऊर्जा का संचार करने वाले महान व्यक्ति की देश में आवश्यकता थी।   
 आज युवा दिवश है, 12 जनवरी 2013 को हम उनकी 150 वीं जयंती मना रहे हैं, आज का युवा 'दुर्बलता, हताशा और अवसाद ' से ग्रस्त हो चूका है। कौन ऐसा आदर्श है जो उनको इस अवसाद के गर्त से उबार सकता है ? यहाँ सभा में वे बच्चे बैठे हैं, जिन्हों ने रैली में भारत में जन्मे सर्वोत्कृष्ट आदर्श नर-नारियों के रूप में झांकी निकाली थी। यहाँ 'गांधीजी, रोबिन्द्र्नाथ, बाला साहेब अम्बेडकर ' और श्रीरामकृष्ण, अमर  सिंह राठौर, भगत सिंह,  नेताजी,और विवेकानन्द,उपस्थित हैं तो दूसरी ओर 'भारत-माता ', कस्तूरबा, झाँसी की रानी, और श्रीश्री माँ सारदा भी उपस्थित हैं। युवादिवस के मौके पर अब - कोई राष्ट्रिय ' युवा- आदर्श ' चुन लेने का समय आ गया है।]

Sunday, January 13, 2013

🔱🔆🙏" स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार" /(স্বামীজীর শিক্ষা চিন্তা) (Swamiji's educational thoughts : शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार ) [SVHS-4.1 : स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना" अध्याय - 4 : शिक्षा : समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि ! ] [स्वामीजी की शिक्षा-नीति : ॐ श्री गुरुवे नमः 'विद्या गुरुमुखी'- शीक्षावल्ली में बड़ी 'ई ' क्यों ?]

 शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार 
 
     शिक्षा का आभाव ही हमलोगों के समस्त दुःखों का कारण है। यह दुःख केवल लौकिक विपन्नता ही नहीं है। हमें उपार्जन करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाता है। जितनी आमदनी होती है, उतने में परिवार का ठीक से भरण पोषण नहीं हो पाता है। यदि जीवन धारण करने योग्य भोजन मिल भी जाता है, तो रहने के लिये घर नहीं होता है । गंभीर बीमार होने पर आवश्यक उपचार कराने का कोई प्रावधान नहीं होता है । सामान्य की सुविधा तो दूर की बात है, उसका बहुत छोटा सा भाग भी नहीं मिल पाता है । अधिकांश देशवासी उस शिक्षा से वंचित हैं। स्वामीजी कहते थे -सच्ची शिक्षा के द्वारा ये सभी दुःख दूर किये जा सकते हैं।'
          स्वामी विवेकानन्द के मन की पीड़ा तो और भी गहरी थी। श्रीरामकृष्ण के मन में जो पीड़ा थी, श्री  सारदा देवी के मन में जो व्यथा थी, वही व्यथा स्वामीजी के हृदय में संचारित हुई थी। युवावस्था में ही उनके पिता का देहान्त हो गया था, उसके बाद परिवार की स्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी कि माँ-बहन-भाइयों को ठीक से भोजन भी नहीं मिल पाता था। नौकरी के लिये प्रयास करते हैं तो  कहीं नौकरी नहीं मिलती। इन सब दुःखों को भोगने के बाद आगे के जीवन में जो दुःख मिला वह भी कम नहीं था। श्रीरामकृष्णदेव के देहान्त हो जाने के बाद का दुःख और परिव्राजक जीवन शुरू होने के पहले जो दुःख-कष्ट भोगना पड़ा वह भी कम मर्मान्तक नहीं था। बड़ानगर/बराहनगर ?  में दूसरों के दिये पैसे से भाड़े पर ' भूतों वाला मकान ' लेकर रहना पड़ा, जहाँ हर रोज साग-भात खाने को भी नहीं मिल पाता था। किसी दिन नमक-भात मिल गया, किसी दिन भात के साथ साग भी नहीं मिला, किसी दिन नमक भी नहीं मिला, किसी दिन भात भी नहीं मिल पाता था। लंगोटी के उपर लपटने वाला धोती सबों के लिये एक ही होता था, प्रत्येक गुरुभाई के लिये अलग- अलग धोती की व्यवस्था नहीं थी । ऐसा भी हुआ था कि सर्वत्यागी ठाकुर की जो सन्तान किसी काम से बाहर जायेंगे, उस धोती को सिर्फ वे ही बांध कर निकलेंगे। स्वामीजी के पास कोई मिलने आता, तो कोई गुरु भाई स्वामीजी के शरीर पर चादर डाल देते हैं। जब भोजन का घोर आभाव हो जाता, तब स्वामीजी कहते- " आज भोजन पकाने-खाने का कोई झंझट नहीं है, कुछ मिला नहीं है, आज पूरा अवकाश है।  इसीलिये आज बहुत साधन-भजन होगा, खूब जप-ध्यान होगा, खूब शास्त्र-पाठ होगा, खूब भजन होगा। " क्या हमलोग ऐसे कष्ट की कल्पना भी कर सकते हैं ?
          माँ सारदा देवी के जीवन में कितना कष्ट था ! फ़टी हुई साड़ी में गिट्टठा बांध कर पहनी हैं। क्योंकि जाते समय श्रीरामकृष्ण ने सारदा देवी को कह रखा था, " तुम, कामारपुकुर में रहना, शाक बो देना, साग-भात खाना और हरिनाम करना।" -- " देखो, किसी के सामने एक पैसे के लिये भी हाथ मत फैलाना, अर्थात किसी से कुछ मांगना नहीं। " साग बुन देना और खा लेना।" इतने सारे कष्टों को उनलोगों ने किसके लिये भोगा था ?..हम मनुष्यों के लिये ! मनुष्य यहाँ कितना दुःख भोग रहा है (गन्दी नाली के कीड़े जैसा किलबिल कर रहा है। ), उस दुःख को कौन दूर करेगा? इसीलिये माँ कहती थी न, " क्या रामकृष्णदेव यहाँ रसगुल्ला खाने के लिये आये थे ? हमलोग सभी मनुष्यों के पाप, ताप, दुःख-कष्ट को उठाने के लिये ही तो आये हैं; श्री रामकृष्ण  भी इसी लिये आये हैं, मैं भी इसीलिये आई हूँ।"
      स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के पास जाकर अपने व्यक्तिगत जीवन का, मानव जीवन का चरम लक्ष्य (निर्विकल्प समाधि) और उसे प्राप्त करने का उपाय सीख लिया था। फिर कठोर साधना करके उस परम-वस्तु या 'ब्रह्मज्ञान' को भी प्राप्त कर लिया था। [...एक दिन सायंकाल ध्यान करते-करते नरेन्द्रनाथ अप्रत्याशित रूप से.... महाप्रलय, निर्विकल्प समाधि में डूब गए। इन्द्रियग्राह द्वैतप्रपंच मानो महाशून्य में लीन हो गया। देश-काल- निमित्त से परे अवस्थित निज-बोध -स्वरुप आत्मा अपनी महिमा में (सच्चिदानन्द में) स्थित हुई। वह कैसी अवस्था है यह मानवी भाषा में प्रकट नहीं हुई है -हो ही नहीं सकती। काफी देर बाद उनकी समाधि भंग हुई। "उन्होंने अनुभव किया कि उनका मन उस स्थिति में सम्पूर्ण रूप से कामनाशून्य होने पर भी, एक अलौकिक शक्ति उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध, जबरदस्ती पंचेन्द्रियग्राह्य बाह्य जगत में उतारकर ला रही है। वि ०च ० ७४]   उस अनिवर्चनीय आनन्द के  हिलोरे  में एक बार डूबकी लगा लेने के बाद, उनके मन से विश्व-कल्याण की चिन्ता स्वाभाविक रूप से ओझल हो गयी थी। वे श्रीरामकृष्ण देव के पास जा कर बोले,` ठाकुर कुछ ऐसा कर दीजिए कि " मैं निरंतर उसी निर्विकल्प समाधि के आनन्द में डूबा रह सकूँ।'  किन्तु इस बात को सुनकर, अपने सबसे प्रिय शिष्य की भर्त्सना करते हुए श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं, " अरे तूँ  .... यह बात कहता है ? छि: ! छिः ! ऐसी बात तूँ ने सोच भी कैसे लिया ? बार बार यही बात कहते तुझे लज्जा नहीं आती ?  जबकि जगत में इतना दुःख है, इतना कष्ट है ! तुम स्वयं ब्रह्माननद में डूबे रहोगे ? उनकी ओर देखोगे भी नहीं ? तुम उनको देखना, उनको मुक्त करना, उनकी सहायता करना, उनके बंधनों को खोल देने का प्रयत्न करना। विवेकानन्द ने कहा, " महाशय, यह सब मुझसे नहीं होगा। " रामकृष्ण बोले -" मुझसे नहीं होगा माने ? तेरी हड्डी करेगी।" 
      और उसी समय विवेकानन्द ने अपने गुरु से सम्पूर्ण मानव-जाति के प्रति उस संवेदना को, उस दुःख को उत्तराधिकार के रूप में ग्रहण कर लिया था। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण मानवता के इतिहास में ढूँढने से भी नहीं मिलता है!  उस घटना के बाद, सभी मनुष्यों का दुःख , केवल लौकिक दुःख ही नहीं  - जनसाधारण की गरीबी, पारिवारिक वैमनस्य, या केवल भूख, अभाव, अशिक्षा आदि सामान्य दुःखों ने ही नहीं ,  बल्कि वह दुःख जिसकी कोई सीमा नहीं है, जो दुःख मनुष्य के भवबन्धन में बंधे रहने के कारण है, और मनुष्य जिस मुक्ति की आकांक्षा से आर्त  क्रंदन कर रहे हैं-  उनकी उसी पीड़ा ने स्वामी जी के हृदय में अपना घर बना लिया था। 
[- " उन्होंने अनुभव किया - " बहुजनहिताय , बहुजन-सुखाय कर्म करूँगा , अपरोक्षानुभूति द्वारा उपलब्ध सत्य का प्रचार करूँगा। इस महती कामना का सूत्र पकड़कर उनका मन निर्विकल्प स्थिति में लौट आया। अनुभव किया कि जगत के दुःख और दैन्य से पीड़ित मोहभ्रान्त (Hypnotized) जीवों को, स्वयं ज्ञानामृत से परितृप्त होकर उस अमृत का पान कराने के लिए, भारत प्राचीन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की तरह उन्हें भी मेघ-गम्भीर स्वर से पुकारना होगा 
"शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥

******
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्॥

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय॥"

'हे अमृत के पुत्रों ! (मानवमात्र के प्रति यह सम्बोधन  - 'अमृतस्य पुत्राः', शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को सम्बोधित करते हुए कहा गया है।) सुनो, हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो, मैंने उस आदित्य के समान दैदीप्यमान पुरातन पुरुष (ब्रह्म -अवतार वरिष्ठ) को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया के परे है । केवल उस पुरुष की जानकर ही मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है, इसके अतिरिक्त मृत्युंजय होने का अन्य कोई मार्ग नहीं। ' (-- श्वेताश्वतरो-पनिषद् ॥ २।५, ३।८॥) हिन्दुधर्म पर निबंध /वि ० सा ० १/१२]

" हे अमृत के पुत्र सुनो,  हे दिव्यधाम के निवासी सुनो, मुझे मार्ग मिल गया है। जो अन्धकार और अज्ञान के परे है, उसे जान लेने पर हम मृत्यु के परे जा सकते हैं। ( माया और भ्रम/२/५८)  

" हे अमृतपुत्रो ! सुनो, हे द्युलोकवासी देवताओं ! सुनो, मैंने एक ऐसी किरण (ray- ज्योति) देख ली है, जो सभी अंधकारों और सभी संशयों के उस पार है। वह पुरातन (Ancient One-ब्रह्म) मुझे मिल गया है। " इसका मार्ग उपनिषदों में सन्निहित है। (९/१३०)  
   
" हे अमरता के पुत्रों, वे सब जो इस स्तर पर रहते हैं। और वे सब जो ऊपर स्वर्गों में निवास करते हैं, सुनो, मैंने रहस्य को पा लिया है , महान ऋषि कहता है , ' मैंने उसे पा लिया है, जो समस्त अंधकार से परे है। केवल उसी की अनुकम्पा से हम भवसागर के पार होते हैं। ' (उपास्य और उपासक/३ /२२२)      

" हे अमृत के पुत्रो, हे दिव्यधामनिवासियो, सुनो - मैंने अज्ञानान्धकार से आलोक में जाने का रास्ता पा लिया है। जो समस्त तम के पार है, उसको जानने पर ही वहाँ जाया जा सकता है - मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं। " (राजयोग -अवतरणिका/१/३८)   

" हे अमर पुत्रो, मेरे देशवासियो, यह हमारा राष्ट्रीय जहाज युगों से सभ्यता को ले आता , ले जाता रहा है और इसने अपनी अतुलनीय सम्पदा से संसार को समृद्ध बनाया है। अनेक गौरवपूर्ण शताब्दियों तक हमारा यह जहाज जीवन-सागर में चलता रहा है और करोड़ों आत्माओं को उसने दुःख से दूर संसार के उस पार पहुँचाया है। आज शायद उसमें एकछेद हो गया हो और इससे वह क्षत हो गया हो, यह चाहे तुम्हारी गलती से या चाहे किसी और कारण से। तुम जो इस जहाज पर चढ़े हुए हो , अब क्या करोगे ? क्या तुम दुर्वचन कहते हुए आपस में झगड़ोगे ? क्या तुम मिलकर उस छेद को बन्द करने की पूर्ण चेष्टा करोगे ? हम सब लोगों को अपनी पूरी जान लड़ाकर ख़ुशी ख़ुशी उसे बन्द कर देना चाहिए।  अगर न कर सके तो हम लोगों को एक संग डूब मरना होगा। पर किसी के लिए शुभेच्छायें छोड़कर बुरे शब्द हमारे मुँह से न निकलें। (" This national ship of ours, ye children of the Immortals, my countrymen, .......  Let us all gladly give our hearts' blood to do this; and if we fail in the attempt, let us all sink and die together, with blessings and not curses on our lips.---क्योंकि हम सभी देशवासी उसी अमृत के पुत्र हैं ! )      
   
"স্বামীজীর শিক্ষা চিন্তা সেই ভববন্ধন ছেদের বিদ্যার অধিকার মানুষকে দেয়।"  
इसलिए 'स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार' का तात्पर्य उस विद्या से है जो मनुष्य-मात्र  को उसी भवबंधन (जन्म-मरण का चक्र) को काट देने की विद्या (4 -योग) सीखने का अधिकार प्रदान करता है। स्कूल के पाठ्यक्रम (curriculum) में कौन कौन विषय होंगे, उन्हें किस प्रकार (10+2, या 10+3, करके ) पढ़ाना होगा ?---इस तरह का कोई शैक्षिक विचार देने के लिए विवेकानन्द नहीं आये थे। विवेकानन्द से हमें वैसी शिक्षा लेने की जरूरत भी नहीं है। 
           शिक्षा के सम्बन्ध में इस प्रकार के विचार देने के लिए बहुत से लोग हैं। यद्यपि, वैसी शिक्षा स्वामी विवेकानन्द ने भी दी है, बिल्कुल न दी हो वैसा नहीं है। किन्तु ' स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार' का तात्पर्य उस शिक्षा से है, उस विद्या से है - जिस विद्या को प्राप्त करके मनुष्य सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है! " सा विद्या या विमुक्तये !" - वही विद्या सच्ची विद्या है जिससे मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उस प्रकार की मुक्ति-प्रदान करने वाली विद्या या शिक्षा-व्यवस्था हमलोगों के देश में बहुत प्राचीन युग से ही चलती आ रही है। तैत्तरीय उपनिषद में उस शिक्षा के विषय में कहा गया है। उसके एक अध्याय का नाम ही " शीक्षा-वल्ली " है।  वेद के छह अंगों में एक का नाम- 'शिक्षा ' है। यह शिक्षा उच्चारण शिक्षा या 'वर्ण शिक्षा ' के नाम से प्रचलित है। 
       यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि तैत्तरीय उपनिषद के शीक्षावल्ली में ' श ' के साथ ई--कार अर्थात दीर्घ 'ई' की मात्रा लगी हुई है। प्रश्न उठता है कि क्या वेद में 'ई' की मात्रा क्या वैसे ही लगा दी गयी होगी ? अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'शिक्षा' के किसी गूढ़तर अर्थ को इंगित किया जा रहा है। और " विवेकानन्द के शैक्षिक विचार " उसी 'शिक्षातत्व' के सम्बन्ध में है। वेद, उपनिषद में लगता है, 'श ' में 'ई'-कार लगा कर उसी महान शीक्षा की बात कही गयी है। हालाँकि उपरी तौर से देखने पर यह प्रतीत होता है कि यहाँ भी स्वर या वर्ण के उच्चारण-शिक्षा ही शिक्षा दी जा रही है, किन्तु वास्तव में यहाँ संकेत किसी अन्य 'शिक्षा'  की तरफ किया गया है-"आनंदम ब्राह्मणो विद्वान  न बिभेति कदाचन " -(तैत्तिरीय-उपनिषद: 2.3.1)[“जो ब्रह्म के आनन्द को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता।” जिसको जानकर मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है। तुम अमृतस्य पुत्र हो : तुम्हारे अस्तित्व में वह चीज दी गई है। यह पहले से ही वहां है। ]  क्योंकि संस्कृत में "शी" को एक अलग शब्द माना गया है, और इसका एक विशेष अर्थ भी है। "शी" का अर्थ होता है- 'प्रशान्ति (tranquility)' और ईक्षा का अर्थ होता है देखना, प्राप्त करना, और जान लेना। इस प्रकार शी + ईक्षा = शीक्षा का अर्थ हुआ -उस आनन्दमय तत्व (परम प्रशान्ति) को देख लेना- `To Behold That Tranquility' (आत्म-साक्षात्कार )। उस अनन्त शान्ति के आनन्द को देखने, प्राप्त करने या जानने में समर्थ बना देने वाली विद्या को ही "शीक्षा " कहते हैं। 
         'स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार' हमें उसी अवस्था तक ले जाते है। उन्होंने  कहा है, कि पहले मनुष्यों को वर्ण परिचय सिखाओ, पढना-लिखना सिखाओ।  शिक्षा यदि छात्रों के पास न आ सके, शिक्षकों के पास, विद्या के पास नहीं आ सके- तो शिक्षक को ही छात्रों के पास, तुम्हारे देश के गरीब इत्यादि लोगों के पास जाना पड़ेगा।
    आज हमलोग Adult Education Programme आदि कितना कुछ कर रहे हैं। किसी समय स्वामीजी ने कहा था, " वे लोग तो हमारे स्कूलों तक पहुँच नहीं सकेंगे। नये नये स्कूल खोलते जाने से क्या होगा?  तुमलोगों को ही उनके खेत-खलिहानों में कल-कारखानों में, घर-घर में , द्वार-द्वार तक , गाँव-गाँव में जाना होगा। दिन के समय उनको पढने का समय नहीं मिलेगा। क्योंकि उनके लड़के-लडकियों को घर-गृहस्थी के हजार काम करने पड़ेंगे, गौओं को चराने जायेंगे, खेती के कई कार्य करने होंगे। ऐसी परिस्थिति में क्या उन्हें अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजने का उपाय है ? संध्या के समय सब को एक स्थान पर एकत्र करो- उनको शुरू से ही गढ़ने की चेष्टा करो। अक्षर की पहचान कराने से भी शुरू करोगे तो उनमें से कई लोग नहीं बता सकेंगे। इसीलिये उनको कहानियाँ सुनाओ, इतिहास, भूगोल, विज्ञान, आदि विषयों का ज्ञान दो। इसके साथ ही साथ उन लोगों के भीतर धर्मभाव भी प्रविष्ट करा दो। अद्भुत शिक्षा -" फिर इसी प्रकार की शिक्षा देते देते सबों को उसी परम-शिक्षा ('शी'क्षा) की ओर अग्रसर करा दो।" स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचारों में सम्पूर्ण जगत को परिवर्तित कर देने का बीज, सन्निहित है। वे कहते हैं, कि शिक्षा एक ऐसा मन्त्र है, जिसके बल से ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान नहीं हो सकता। वैसी शिक्षा क्या पुस्तकों से प्राप्त हो सकती है ? यह शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान तो निश्चय ही नहीं है, डिग्री पाने वाली शिक्षा से भी इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।  इसलिये ऐसी शिक्षा स्कूल-कॉलेज,यूनिवर्सिटी खोल कर नहीं दी जा सकती
       विवेकानन्द कहते हैं, क्या कुछ तथ्यों को रट कर सिर में घुसा लेना ही शिक्षा है? नहीं, यदि वैसी बात होती तब तो लाईब्रेरी ही महान विद्वान् हो जाते। शब्दकोश ही ऋषि बन जाते। क्योंकि उसमें तो ज्ञान की सारी बातें लिखी हुई हैं ही । किन्तु, यदि किसी व्यक्ति के दिमाग में जानने योग्य सभी बातें ठूँस दी जाएँ, तो क्या उससे ही वह शिक्षित हो गया? कदापि नहीं। स्वामी जी उपहास की भाषा में व्यंग करते हुए कहते हैं, " शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जायें, जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर हजम न कर सके। जिस शिक्षा से हम हम अपना जीवन-गठन कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-निर्माण कर सकें और उच्च विचारों  को ठीक वैसे ही चरित्रगत कर सकें, जैसे खाना पच कर रक्त मज्जा से एकीकृत हो जाता है। कुछ पवित्र, सुंदर और महान भावों को भी यदि हम उसी प्रकार आत्मसात  कर सकें (assimilate करना) , वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।"
         उच्च विचारों  को चरित्रगत कर लेने का अर्थ क्या हुआ ? वे पवित्र भाव मेरे चरित्र में, मेरे आचरण में , मेरे व्यवहार में , मेरी वाणी में , मेरे विचारो में ,मेरे कार्यों के द्वारा अभिव्यक्त होने लगेंगे। 
    श्री रामकृष्णदेव ने तो अपने जीवन से ही यह दिखला दिया था कि इस प्रकार की शिक्षा कैसे प्राप्त की जाती है। श्री रामकृष्णदेव, श्री सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा की कौन-सी प्रणाली सिखलाई है ?  उनकी शिक्षा-नीति इस प्रकार तथा कथित B.A., M.A., Ph.D. की डिग्री प्राप्त करके नाम के आगे 'डाक्टर' लगाने वाली शिक्षा-पद्धति नहीं थी। हमलोगों को जैसी शिक्षा मिल रही है, उसका फल तो हम देख ही रहे हैं। अतिशिक्षित होने के बाद भी उन व्यक्तियों का जैसा आचरण हमलोग देख रहे हैं, उनके बारे में  इसी दुःख को व्यक्त करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक अनोखी बात कही थी"So long as millions die in hunger and ignorance, I hold every man a traitor who having been educated at their expense pays not the least heed to them." - अर्थात " जब तक करोड़ों मनुष्य भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, किन्तु अब उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता।" 
      इस देश के जनसाधारण के पैसों से शिक्षित होकर कुछ लोग डॉक्टर-इंजीनियर बन रहे हैं। कुछ  वर्ष पहले मैंने आकलन करके देखा था कि सरकार को इसके लिए प्रति व्यक्ति 1.50 लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं । सरकारी खजाने से खर्च करने का अर्थ होता है , जनसाधारण की कमाई से खर्च।  भारत की सामान्य जनता दिन-रात खून- पसीना बहाकर जो श्रम करती है, उसी से भारत वर्ष का राष्ट्रीय आय का कोष बनता है। उसी राष्ट्रीय आय को सरकार शिक्षा के उपर खर्च करके किसी व्यक्ति को डाक्टर या इंजिनियर बनने का अवसर देती है। आज के समय में उस खर्च का आकलन किया जाय तो शायद 1.50 लाख से कई गुना अधिक खर्च करना पड़ेगा। किन्तु, डाक्टर, इंजीनियर बन जाने के बाद वे पैसा कैसे कमाते हैं ? देखते ही देखते कुछ ही वर्षों के भीतर बड़े बड़े आलीशान बंगले बन जाते हैं। एक-दो महंगी गाड़ियाँ भी कहीं न कहीं से उपहार में आ ही जाती हैं। यही हाल अन्य पेशों से जुड़े दूसरे लोगों का भी है। स्वामीजी कहते थे, " I hold every man a traitor who having been educated at their expense..." जो मनुष्य जनसधारण के मिहनत की कमाई पर शिक्षा प्राप्त करके उनके हित की कोई चिंता नहीं करता, उनकी सेवा नहीं करता, जिनके लिये उसके हृदय में थोड़ी भी पीड़ा नहीं होती उनको मैं देशद्रोही कहता हूँ। " हमलोगों के देश में ऐसी ही शिक्षा तो दी जा रही है। 
     किन्तु, स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा ऐसी नहीं है। विवेकानन्द कहते हैं, शिक्षा मनुष्य को सही ढंग से विवेक-विचार करने की शक्ति देगा, इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास पर संयम रखने की क्षमता प्रदान करेगा। विचार, इच्छा, या संकल्प को प्रभावोत्पादक बनाने की शक्ति जहाँ से मनुष्य को प्राप्त होगी , उसे ही शिक्षा कहेंगे।  ऐसी शिक्षा हमें कहाँ प्राप्त होती है ? हमें ऐसी शिक्षा नहीं दी जा रही है। विवेकानन्द  कहते हैं, ' शिक्षा मनुष्य को स्वावलंबी बना देगी, उसे अपने पैरों पर खड़े होना सिखाएगी । शिक्षा मनुष्य को सुंदर चरित्र से विभूषित करेगी। जो शिक्षा मनुष्य को चरित्रवान नहीं बना सके, क्या उसे शिक्षा कहेंगे ? शिक्षा मनुष्य को परार्थता सिखलाएगी, दूसरों के कल्याण के लिये सोचना सिखाएगी। जिस शिक्षा से यह सब नहीं मिले, क्या उसे शिक्षा कहेंगे? हमलोगों के देश में क्या हो रहा है ? जो जितना अधिक शिक्षित  है, वह उतना ही अधिक स्वार्थी है। तथाकथित शिक्षा के द्वारा आमतौर से तो यही हो रहा है । निश्चित रूप से इसमें कुछ अपवाद भी अवश्य हैं। लेकिन साधारण तौर पर उन्हीं को बहुत शिक्षित माना जाता है, जो बड़े चालाक हैं; जो यह जानते हैं कि दूसरों को धोखा देकर, दूसरों का हक मार कर,  किस प्रकार अपना भोग सुख सम्पत्ति बढ़ाया जाता है 
      शिक्षा तो चल ही रही है, लेकिन जैसी है स्वामी विवेकानन्द ने वैसी कोई पद्धति नहीं दी थी। विवेकानन्द के अनुसार यथार्थ शिक्षा तो मनुष्य को स्वार्थशून्य (100 % selfless) बना देगी, पूर्णतया भयशून्य बना देगी, सबों का हितैषी और सेवापरायण बनाएगी। शिक्षा उसकी बुद्धि को तीक्ष्ण बना देगी। वैसी प्रखर बुद्धि से सम्पन्न बना देगी जिसमें परम सत्य (इन्द्रियातीत सत्य )को जान लेने की क्षमता होगी। सच्ची शिक्षा बुद्धि को धीरे -धीरे इतनी कुशाग्र बना देगी कि वह जिस कार्य में अपनी बुद्धि लगा देगा, या जिस  कार्य को करेगा उसे अत्यन्त सुन्दर ढंग से सम्पादित कर सकेगा। इसको कहते हैं शिक्षा। हमलोग ऐसी शिक्षा कहाँ पा रहे हैं ? स्वामी विवेकानन्द उसी शिक्षा को भारत भर में प्रचलित करा देना चाहते थे।
     वे यह भी कहते थे कि " देखो भाई, केवल शिक्षा देने से ही नहीं होगा; शिक्षा के साथ ही साथ संस्कृति भी देनी होगी।" क्योंकि संस्कृति नहीं देने से मनुष्य बाहरी आक्रमण से समाज की रक्षा नहीं कर सकता। जब बाहरी भाव आकर मनुष्य की बुद्धि पर छा जाते हैं, वे मनुष्य को अभिभूत करने की चेष्टा करते हैं।  धर्मान्तरित करने की चेष्टा करते हैं, उस समय उस समाज की जो प्राचीन सांस्कृतिक विचार धारा प्रवाहित होती आ रही है वह संस्कृति ही उसकी रक्षा करने में सहायता कर सकती है। हमें अपनी प्राचीन भारतीय संस्कृति को एक बार फिर से जाग्रत करना होगा, उससे प्रेरणा ग्रहण करनी होगी। क्योंकि हमलोग अपनी संस्कृति को लगभग भूल ही चुके हैं। यह संस्कृति केवल सच्ची शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। हमने अपनी प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में दी जाने वाली शिक्षा (तत्त्वमसि) के श्रवण,मनन , और  निदिध्यासन द्वारा जिस ज्ञान (अहं ब्रह्मास्मि-अन्तर्निहित दिव्यता-Inherent Divinity) की उपलब्धि की, जान गया, (आत्मा ही परमात्मा है) ज्ञान हुआ , ये सारी अनुभव जब आत्सात होकर रक्त-मज्जा से अन्तर्भूत हो जाती हैं, तभी वे संस्कृति में रूपांतरित हो पाती हैं
        मनुष्य अपने को सुसंस्कृत बनाने के लिये स्वयं को परिशोधित करता  रहता है, मन को पवित्र बनाता रहता है। जिस प्रकार देव-मूर्ति गढ़ने के लिये पहले एक साँचा, साँचा में डालकर आकार लाना पड़ता है। उसके बाद धीरे धीरे पूर्ण रूप देने के लिये सूक्ष्म कार्यों के द्वारा उसको सुरुचिपूर्ण ढंग से सुषमामण्डित कर लिया जाता है। उसी तरह शिक्षा भी मनुष्य के जीवन को पहले एक साँचे में डाल कर उसको एक सुन्दर आकृति (pattern) में ढाल देती है; तत्पश्चात सूक्ष्म शिल्पकारिता (Craftsmanship) के द्वारा उसको वस्तुतः एक सुसंस्कृत मनुष्य में रूपान्तरित कर देती है। जब कोई व्यक्ति इस प्रकार सही अर्थों में (Truly) एक सुसंस्कृत मनुष्य में परिणत हो जाता है, तब उसके जीवन का सौन्दर्य और सुगन्ध चारो ओर अन्य मनुष्यों को भी प्रभावित करने लगते हैं। तथा उन्हें भी उन्नत मनुष्य बनाने की चेष्टा करता है।  
        आजकल हमलोग अपने खराब परिवेश की दुहाई  निरंतर देते रहते हैं, हम कहते हैं आज हमलोगों का परिवेश अत्यन्त खराब हो गया है, ऐसे बुरे परिवेश में अच्छा रह पाना, अच्छामनुष्य बनना एकदम सम्भव नहीं है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि इस परिवेश की रचना भी तो  हमलोगों ने ही की है। हमारा जीवन, हमारी शिक्षा, हमारी संस्कृति हमारे चारो ओर एक विशेष प्रकार के आभामण्डल (aura) का निर्माण कर देती है। यदि हमलोग अच्छे बनेंगे, तभी हमारा परिवेश भी अच्छा बन सकता है। हमारे भौतिकवादी सोच (इन्द्रियभोग) ही हम लोगों को ऐतिहासिक खेल की कठपुतली में परिणत कर देती है। जबकि सच्चाई यह है कि मनुष्य ऐतिहासिक कठपुतली नहीं है, बल्कि मनुष्य ही इतिहास की रचना करता है। (दुनिया का इतिहास ऐसे छः व्यक्तियों का इतिहास है -जिनमें आत्मविश्वास कूटकूट कर भरा था।इतिहास नामक कोई अन्य वस्तु नहीं है, जो हमलोगों को औसत दर्जे का मनुष्य बनने को मजबूर करे। इतिहास नामक कोई काल्पनिक जीव या हौआ नहीं है। स्वामीजीने कहा है - "मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का तथा परस्पर मिलजुल कर इतिहास का निर्माता है।और यही बिल्कुल तर्क संगत बात है। इस धारणा को वैज्ञानिक बता कर कि 'इतिहास हम मनुष्यों का निर्माण करता है ', चाहे कोई कितना ही प्रमाणित करने की चेष्टा करे, यह बिलकुल ही तर्कहीन बात है और जो बात अतर्कपूर्ण है वह अवैज्ञानिक तो है ही । 
      हमलोगों को इस बात की धारणा नहीं है कि-  'हमारा जीवन भी वास्तव में भी सिर्फ एक शक्ति का खेल मात्र है।' लेकिन शक्ति के इस खेल में हमेशा एक लय (Rhythm) रहता है, इस जीवन रूपी खेल को अनुशासित  रहकर नियमानुसार ही खेलना पड़ता है। इस जीवन का भी एक विज्ञान है। उस विज्ञान को जान लेने के बाद अपने जीवन को रूपान्तरित किया जा सकता है। अपनी पसन्द के अनुसार अपने भाग्य का निर्माण किया जा सकता है, अपने संकल्प या कल्पना के अनुसार इतिहास का निर्माण किया जा सकता है। लेकिन हमलोग इस विज्ञान को सीखने के विषय में उदासीन हैं, इसीलिये जीवन में दुःख आने पर टूट जाते हैं और अपनी असफलता के लिये दूसरों को उत्तरदायी ठहराने लगते हैं। जिसको  उत्तरदायी ठहराते हैं, उसके उपर हम आक्रोश से फट पड़ते हैं । उनसे घृणा करने लगते हैं, उनसे दुश्मनी ठान लेते हैं, प्रतिहिंसक (vengeful) होकर बदला लेना चाहते हैं। और इतना सब कुछ उस सच्ची शिक्षा (भवबन्धन काट देने वाली शिक्षा) के अभाव होता है। 
        सच्ची शिक्षा मनुष्य को इस जगत के सम्बन्ध में एक सही दृष्टिकोण (एक ही अनेक बन गया है की ब्रह्ममयी दृष्टि) प्रदान करेगा । मनुष्य जीवन कितना दुर्लभ और बहुमूल्य है, उसकी समझ आ जाएगी। मनुष्य जीवन के उद्देश्य (ईश्वरलाभ) के विषय में जागृत कर देगी। जीवन कैसे सार्थक हो सकता है, यह समझ प्राप्त होगी। मनुष्य यदि इन बातों को समझ ले, तो वह निश्चय ही अपने जीवन को इस प्रकार से विकसित करेगा, या जीवन का गठन करेगा, कि उसका वह अनुपम असाधारण जीवन दूसरों को भी प्रभावित कर सकेगा। यदि हम स्वयं अपने जीवन को ही सही ढंग से नहीं गढ़ सके, आदर्श जीवन के सम्बन्ध में स्पष्ट धारणा नहीं बना सके, तो हम अपनी भावी पीढ़ी की भी जीवन-गठन करने में कोई सहायता भी नहीं कर सकते। और इस प्रकार समाज भी क्रमशः नीचे गिरता चला जायेगा। इस समय समाज की ओर नजर उठाकर देखने से इस विषय के उपर और अधिक कहने की जरुरत नहीं रहेगी। इतिहास या परिवेश के उपर दोष नहीं देकर, यदि हम यह समझ सकें कि 'जीवन-गठन के विज्ञान का ज्ञान' [Man-Making and Life-Building Education' का ज्ञान] नहीं रहना ही समाज के पतन का कारण है, तो उससे अपना और देश का भला होगा। सच्ची शिक्षा इसी जीवन -विज्ञान की शिक्षा (मनुष्य-निर्माण और चरित्रगठनकारी शिक्षा) को कहते हैं। स्वामीजी सबसे पहले सभी देश के मनुष्यों को यही शिक्षा प्रदान करना चाहते थे।  [और इसके लिए वे पहले ऐसा करने में समर्थ शिक्षकों को प्रशिक्षण देने में समर्थ जीवन्मुक्त शिक्षक, पैगम्बर, 'नेता' (महामण्डल लीडर्स) निर्माण करना चाहते थे।] इसलिलिये 'स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार' कहने का तात्पर्य पाठ्य-विषय, शिक्षा पद्धति,  (प्लस टू हो या प्लस थ्री) जैसे तुच्छ विचारों पर जुगाली करते रहना नहीं है।   
       स्वामीजी ने कहा है, " प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। " प्रयत्न का अर्थ है - चेष्टा, कोशिश, परिश्रम। अविराम उद्यम;किस लिये ? "मनुष्य" बन जाने के लिए। मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? प्रत्येक प्राणी के जीवन के साथ एकात्मता का अनुभव करते हुए अपने सच्चे जीवन को प्राप्त करना। ह्रदय का विस्तार। सभी प्राणियों के कल्याण में अपने जीवन को सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर देना। शिक्षा मनुष्य को सभी प्राणियों के कल्याण के लिए विचार करना सिखाती है। तथाकथित शिक्षित लोग जो केवल अपने स्वार्थ  की ही चिंता करते हैं, वास्तव में अशिक्षित ही रह जाते हैं। स्वार्थपरता ही संकीर्णता है। और स्वामी विवेकानन्द ने कहा था संकीर्णता मृत्यु है और विस्तार ही जीवन है !" [ स्वामी विवेकानन्द के "जीवन-गठन विज्ञान" के अनुसार  Unselfishness Tending Towards Zero ही मृत्यु है, और निःस्वार्थपरता का 100 % विस्तृत होना जीवन है !] जब कोई व्यक्ति या कोई राष्ट्र पाशविक शक्ति (घोर स्वार्थपरता) से मजबूत हो जाता है, तब वह दूसरों के अधिकार पर अपना हक ज़माने की चेष्टा करने लगता है। किन्तु जो व्यक्ति या राष्ट्र 'यथार्थ शिक्षा' में शिक्षित होता है, उसके ह्रदय का सम्प्रसारण होता है, प्रेम का विस्तार होता है। वह प्रेम के द्वारा अपने हृदय को विस्तृत करके यथार्थ जीवन (शाश्वत  जीवन) का अधिकारी बन जाता है। श्रीमद भागवत में 'स्वार्थपर लोगों ' के विषय में एक बहुत सुन्दर उक्ति है- जो मनुष्य दूसरों के सामने आये संकट को अपना दुःख-कष्ट नहीं समझता, वह घोर स्वार्थी (पशु जैसा) होता है। जो दूसरों के कष्ट को अपने जैसा समझ लेता है, वह अपने लिये कुछ भी नहीं चाहता। किन्तु कोई यदि उससे कुछ चाहता है तो वह कभी 'न' नहीं कहता। 

ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ॥
( श्रीमद्भा० ६ । १० । ६ )

 देवता लोग जब संकट में पड़कर ब्रह्मास्त्र का निर्माण करने के लिए महर्षि दधीचि की हड्डी माँगने गए, तब पहले दधीचि ने यह कहकर, कि देवताओं के संकट से उन्हें बेचैन होने की क्या जरूरत है;  देवताओं के मुख से, 'यथार्थ धर्म अर्थात कर्तव्य क्या है' -यह सुनने की अभिलाषा से छल किये थे। उस समय देवता लोग से यह सब उपदेश बुलवाकर दधीचि चेहरे पर मुस्कान के साथ अपने प्राण त्याग कर उन्हें अपनी हड्डीयों का  दान कर दिये थे। यह है जीवन को सार्थक कर लेने की पराकाष्ठा!  
    हमलोग स्वामीजी के जीवन में भी मानव कल्याण के लिये इस महान त्याग के आदर्श को देख सकते हैं। सच्ची शिक्षा मनुष्य को स्वार्थ त्याग करने के लिये उत्साहित करती है। परस्पर के लिये सहानुभति और दूसरों के कल्याण के लिये त्याग की भावना ही समाज को धारण किये रह सकती है। त्याग की इस भावना का आभाव हो जाने से, फिर चाहे उस देश में गणतंत्र हो, या समाजवाद और साम्यवाद या कोई भी 'वाद ' हो- किसी देश या समाज को स्वस्थ या समृद्ध नहीं बना सकता । जो राष्ट्र इस शिक्षा (त्याग और सेवा)  को नहीं प्राप्त कर सका हो, तो उसकी अधोगति अनिवार्य है।  'शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार'  व्यक्तिगत, सामाजिक और मानव-कल्याण के सच्चे उपाय का मार्ग दर्शक है। 
====================
 "यदि गरीब लड़का शिक्षा के मन्दिर  तक न आ सका, तो शिक्षा को उसके पास जाना चाहिए।" केवल धन से गरीब ही नहीं, जो विचारों से भी गरीब लोग हैं' -शिक्षक को उनके पास भी जाना पड़ेगा। ...  मैं कहता हूँ -मुक्त करो ; जहाँ तक हो सके लोगों के बन्धन खोल दो।... जब तुम अपने सुख की कामना को समाज के कल्याण के लिए त्याग सकोगे तब तुम भगवान बुद्ध बन जाओगे, तब तुम मुक्त हो जाओगे !"

" जहाँ प्रेम है , वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है , वहीं संकोच। सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है। जो प्रेम करता है , वही जीवित है ; जो स्वार्थी है, वह मृतक है। अतः प्रेम प्रेम के निमित्त , क्योंकि यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिए श्वास लेना। निष्काम प्रेम, निष्काम कर्म इत्यादि का यही रहस्य है। " (--४/३१०)    

श्री रामकृष्ण कहा करते थे, " जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक मैं सीखता हूँ। ” वह व्यक्ति या वह समाज जिसके पास सीखने को कुछ नहीं है वह पहले से ही मौत के जबड़े में है। 

जब लोग तुम्हे गाली दें तो तुम उन्हें आशीर्वाद दो।  सोचो, तुम्हारे झूठे दंभ (मिथ्या अहंकार) को बाहर निकालकर वो तुम्हारी कितनी मदद कर रहे हैं। 

हम जो बोते हैं वो काटते हैं।  हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं।  हवा बह रही है, वो जहाज जिनके पाल खुले हैं, इससे टकराते हैं, और अपनी दिशा में आगे बढ़ते हैं, पर जिनके पाल बंधे हैं हवा को नहीं पकड़ पाते।  क्या यह हवा की गलती है ?…..हम खुद अपना भाग्य बनाते हैं |

-स्वामी विवेकानन्द  
===============
वयम् अमृतस्य पुत्राः (श्वेताश्वर उपनिषद)
अमृतस्य पुत्रा वयं, सबलं सदयं नो हृदयम् l
गतमितिहासं पुनरुन्नेतुं, युवसङ्घटनं नवमिह कर्तुम् ॥
भारतकीर्तिं दिशि दिशि नेतुं, दृढसङ्कल्पा विपदि विजेतुम् l
ऋषिसन्देशं जगति नयेम, सत्त्वशालिनो मनसि भवेम ll
कष्टसमुद्रं सपदि तरेम, स्वीकृतकार्यं न हि त्यजेम l
दीनजनानां दुःखविमुक्तिं, महतां विषये निर्मलभक्तिम् ॥
सेवाकार्ये सन्ततशक्तिं, सदा भजेम भगवति रक्तिम् l
सर्वे अमृतस्य पुत्राः शृण्वन्तु ये दिव्यानि धामानि आतस्थुः॥ 
युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक एतु पथ्येव सूरेः।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद् - द्वितीयोऽध्यायः)
वेद कहते हैं कि मृत्यु से रहित अविनाशी ईश्वर की संतान हैं चूँकि संतान में पिता के गुण होना स्वाभाविक है इसलिए वेदानुसार हम भी अमृत हैं, बदलाव प्रकृति का नियम है जिस के अनुसार संसार की हर वस्तु प्रति क्षण बदलती रहती है। पूरे ब्रह्मांड में जन्म-मरण एवं बनने और टूटने की प्रक्रिया प्रतिक्षण चलती रहती है। शारीरिक अर्थात सांसारिक जीवन तो प्राकृतिक सिद्धांत अनुसार माता पिता के द्वारा पैदा होता है और प्रकृति के नियम अनुसार संसार की कोई भी वस्तु - जड़ या चेतन कभी एक जैसी नहीं रह सकती। 
भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं; जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु, अर्थात जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है - जो बना है उसका मिटना अनिवार्य है। इसलिए शरीर रूप में तो कोई भी अमृत अर्थात मृत्यु से रहित नहीं हो सकता। लेकिन आत्मा जन्म मरण से रहित है। 
वेद का ये महामंत्र - वयम् अमृतस्य पुत्राः, शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को सम्बोधित करते हुए कहा गया है।
अष्टावक्र गीता में जनक से अष्टावक्र कहते हैं :

यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।

        अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥ १-४॥

 अर्थात: यदि स्वयं को देह से अलग कर के देखोगे और चित को स्थिर करके आत्मा में स्थित हो जाओगे तो अभी सुखी और शांत हो जाओगे और बंधन मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त कर लोगे।
जागने के बाद, अमृत रूप का ज्ञान और अनुभव हो जाने के पश्चात क्या करना चाहिए ? शास्त्र कहते हैं :यावत जीवेत - सुखम् जीवेत, धर्मकार्यम कृत्वा अमृतं पिबेत्।। अर्थात: जब तक संसार में जीओ - सुख पूर्वक जीओ। धर्म के कार्य करते हुए - अर्थात जो भी कार्य करो, धर्म को सामने रखते हुए करो - नेक कमाई से जीवन यापन करते हुए भलाई के काम भी करते रहो - दूसरों का भी भला करो। तथा ज्ञान रुपी अमृत पान करते रहो। 
साभार /https://www.jaisanatanbharat.com/2023/01/blog-post_2.html] 
=======