Tuesday, January 15, 2013

" युवा जीवन का आदर्श " ( যুব জীবনের আদর্শ) [62-15 A-अध्याय -3.स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ] $@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना "

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युवा जीवन का आदर्श

    यह कहने की आवश्यकता नहीं कि देश का भविष्य युवाओं पर निर्भर करता है। किन्तु,  युवाओं के ऊपर ऐसा भरोसा इस बात निर्भर करता है कि युवालोग इस बहुमूल्य मानव-जीवन को किस दृष्टि से देखना सीख रहे हैं, अपना तथा सम्पूर्ण देश का भविष्य गढ़ने के प्रति वे कितने विचारशील (सजग) हैं, अपनी  पसन्द के अनुसार अपने भविष्य का निर्माण करने के प्रति कितना दृढ़ निश्चयी हैं? अध्यवसाय (diligence-यत्न की धुन, परिश्रम की पराकाष्ठा) के द्वारा अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रति उनमें कितनी निष्ठा है? उनके भीतर एक ओर जहाँ यौवन की स्वाभाविक चंचलता, अपरिपक्व नजरिया और मानवीय दुर्बलतायें हैं, वहीँ दूसरी ओर उनके ऊपर परिवेश का हानिकारक प्रभाव भी पड़ता है। 
      अभी 'शिक्षा'- कहलाने के योग्य ऐसी कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं है, जो उन्हें 'जीवन का सच्चा अर्थ' (True meaning of life) समझाने में सहायक हो सके, तथा 'मनुष्यत्व' (अन्तर्निहित दिव्यता)  को उद्घाटित करने के लिये जो परम  आवश्यक विचार (निःस्वार्थपरता आदि गुण) हैं उन गुणों को विकसित करने में सहायक हो सके। सस्ते साहित्य, सिनेमा, संगीत, मोबाईल-इंटरनेट आदि मनोरंजन के जितने भी साधन प्रचलित हैं, वे युवाओं को भावनात्मक पोषण (Emotional nourishment) प्रदान करने की अपेक्षा क्षति ही अधिक पहुंचा रहे हैं। वर्तमान राजनीति, अर्थात राजनीतिक दल युवाओं के जीवन का विकास और उनके यथोचित कल्याण के उपर ध्यान न देकर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जिस प्रकार इनका उपयोग करती हैं, वे कई कारणों से अक्सर उनके पतन का कारण बन जाता है। एक ओर अपने मन की स्वाभाविक कमजोरी तो दूसरी ओर बाह्य-परिवेश का हानिकारक प्रभाव-इन दोनों पाटों फँसे युवाओं के लिए ,रीढ़ की हड्डी को सीधे रखकर अपने पैरों पर खड़े होना, तथा जीवन -गठन के पथ पर अग्रसर हो पाना कठिन हो जाता है।
    इस कठिन परिस्थिति से बाहर निकलने का मार्ग क्या है ? मार्ग खोजने के लिए, पहले एक उपयुक्त आदर्श की तलाश करनी होगी। युवा लोग यदि अपने जीवन में किसी सच्चे आदर्श को केवल ग्रहण कर लें, तो उसका अनुसरण करते हुए मानव-जीवन के प्रति बेहतर समझ विकसित कर सकेंगे, अपने जीवन के उद्देश्य का निर्धारण कर सकेंगे, तथा उसी लक्ष्य की ओर अग्रसर होने के पथ का चयन का करके, उसी पथ पर अविचलित रूप से निरंतर अग्रसर हो सकेंगे। मानव मन में पूर्णत्व प्राप्ति (perfection) की जो उच्चतम अवधारणा हो सकती है, उसके जीवन्त प्रतिबिम्ब को आदर्श कहा जाता है। पूर्णता के एक ऐसे अनुकरणीय व्यक्तित्व को आदर्श (Role Model) कहेंगे, जिसको अपने सामने एक उदाहरण के स्वरुप रखकर उसका अनुकरण सचमुच किया जा सकता हो। 
     अपने अतीत के जीवन पर नजर डालने से - बीते दिनों को ध्यान से देखने पर यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि - बचपन से लेकर अभी तक हमने जो कुछ भी सीखा है, लगभग सबकुछ अनुकरण के माध्यम से ही सीखा है हमलोगों ने बातचीत करने का सलीका, चलना-फिरना, मातृभाषा आदि जो कुछ को सीखा है, वह सब अनुकरण के माध्यम से ही सीखा है। अपने जीवन में हमलोगों का आचरण, हमारी शालीनता, यहाँ तक कि हमारा जो एक विशिष्ट प्रकार स्वभाव (Nature) बन गया है, वह भी मूलतः किसी आदर्श का अनुकरण करने के माध्यम से ही गठित हो गया है। अतएव हमारे सामने ऐसा कोई आदर्श (उदाहरण) अवश्य रहना चाहिए, जिसे देखकर हमलोग  निश्चित रूप से अच्छा स्वभाव अर्जित कर सकें, सुरुचिपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी, शिष्टाचार और समग्र रूप से चरित्र के जितने भी बेहतर गुण हैं उन्हें सीख सकें। युवाओं के सामने ऐसा एक अनुकरणीय आदर्श अवश्य होना चाहिये। इसका पहला लाभ तो यह होगा कि, इससे हमें 'मनुष्य जीवन' के प्रति बेहतर समझ विकसित करने में मदद मिलेगी। द्वितीयतः उसमें ऐसे कुछ ऐसे उच्च भाव (पवित्र विचार) भी रहने चाहिये जिसका हमलोग अनुसरण कर सकें। और तीसरी बात उस आदर्श में यह होनी चाहिये कि वे हमारी जीवन-नौका के कर्णधार बनकर, धैर्य पूर्वक पतवार चलाकर, मार्ग में आने वाले खतरों बचकर निकल जाने में  सहायक हो सकें।
      खतरे कई दिशाओं से आ सकते हैं। हो सकता है कि, मन के भीतर ही दो परस्पर-विरोधी आदर्शों में टकराव होने लगे, जिसके कारण हमारे आत्मविश्वास, निष्ठा, अध्यवसाय में कमी आने लगे और इन्द्रिय-सुख भोग की स्वार्थ केन्द्रित प्रवृत्तियाँ फिर से अपना सिर उठाने की चेष्टा करने लगे।[स्वामी जी ने कहा था -जिसका कोई निर्दिष्ट आदर्श है, वह यदि एक हजार भूलें करे तो यह निश्चित है कि जिसका कोई भी आदर्श नहीं वह दस हजार भूलें करेगा अतएव एक आदर्श रखना अच्छा है। "] अतएव हमारे जीवन का उद्देश्य (मनीषा या मर्त्य में से अमृत को पाना) बिलकुल मध्याह्न के सूर्य के जैसा प्रखर और देदीप्यमान होना चाहिये, और उसे प्राप्त करने की पद्धति (चार योग) को या किसी एक को सावधानीपूर्वक और व्यापक रूप से निर्धारित कर लेना चाहिए। तथा जिस आदर्श को एकबार जीवन का ध्रुवतारा (नेता, गुरु या बड़ा भैया) मानकर ग्रहण कर लिया हो, उन्हीं को आजीवन पकड़े रहना चाहिये।
    आदर्श एक ही होना उचित है, एकाधिक नहीं। क्योंकि कई आदर्शों का अनुसरण करने से कोई भी आदर्श प्राप्त नहीं हो सकेगा। अतएव किसी एक आदर्श को ग्रहण करना, तथा उसी एक मात्र आदर्श के लिये अपने सम्पूर्ण जीवन को न्योछावर कर देना उचित है। और यही जीवन में सफल होने का रहस्य है। किसी ने थोड़ा थोड़ा करके बहुत से आदर्शों को लिया, किन्तु किसी एक भी आदर्श पर अपना मन-प्राण न्योछावर नहीं कर सका - तो इस प्रकार करने वाला कोई व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।  इस बात को भूल जाने से सम्पूर्ण जीवन में कोई आदर्श मूर्तमान नहीं हो सकेगा। और कई बार विफल होकर सच्चे आदर्श का अविष्कार कर भी लें,  तो तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। इसीलिए प्रारम्भ में ही दूसरों से पूछकर युवा आदर्श को  जान लेना अच्छा है, ताकि जीवन असफलता का अनुभव करके सच्चे आदर्श को पहचानने की हताशा जनक परिस्थिति से बचा जा सके। 
    आदर्श ऐसा होगा जो हमें चिन्तन-मनन करना सीखा सके। जो जीवन मिला है, उसका सदुपयोग कैसे कर सकता हूँ, इस जीवन का अर्थ क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या होना उचित है ? इन सभी गंभीर प्रश्नों का उत्तर खोजने में मेरा आदर्श मुझे रास्ता दिखलायेगा। जीवन को जिस प्रकार समझा हूँ, उस जीवन को सार्थक करने के लिये आदर्श मुझे प्रयत्नशील बना देगा, प्रेरणा प्रदान करेगा, उद्देश्य को पाने (या परिवर्तनशील देह-मन से अपरिवर्तनीयआत्मा को पाने) के मार्ग में यदि कोई खतरा या जोखिम आयेगा, तो उस खतरे से बाहर निकालने के लिए मेरा जीवंत आदर्श किसी सच्चे मित्र की तरह अपना हाथ बढ़ा देगा। इसलिए हमारा आदर्श एकदम स्पष्ट होगा, ध्रुवतारा के जैसा अपरिवर्तनीय, और अग्नि के समान सदा प्रकाशमान (radiant-जिसके चेहरे से नजर न हटे।) होना चाहिए
     जो आदर्श पुस्तक में लिखा हो, या जिस आदर्श का स्वयं अनुसरण नहीं करें और दूसरों को उनका अनुसरण करने पर भाषण दिया जाये, तो वह भाषण अस्थायी रूप से हमारे मन में कुछ हलचल तो पैदा कर सकता है, किन्तु वह हमें अविचल भाव से आजीवन प्रयत्न करने की प्रेरणा नहीं दे सकता। वास्तविक जीवन जैसा है, उससे बिल्कुल अलग कोई सूक्ष्म तत्व या उपदेश देने की चेष्टा करें तो उसमें वैसी शक्ति नहीं होगी। जिस शिक्षक /नेता के जीवन में आदर्श सम्पूर्ण रूप से अभिव्यक्त होता है, उसके जीवन के माध्यम से ही हमलोग आदर्श को सबसे अच्छी तरह प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि हमलोगों का उद्देश्य तो आदर्श के विषय में कुछ शब्दों को रट लेना नहीं है, बल्कि अपने जीवन में उस आदर्श को व्यावहारिक रूप से प्रयोग में लाना है। इस प्रकार का अनुकरणीय जीवन हमलोग अक्सर देख नहीं पाते हैं- तथा वह संभव भी नहीं है। किन्तु कुछ जीवन ऐसे भी हुए हैं, जिस जीवन में आदर्श पूर्णतया अभिव्यक्त हुआ है, और जिनका नश्वर शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी,  हमलोगों के सामने उनका जीवन जीवन्त होकर विराजता है। ऐसा जीवन अग्नि के समान ज्योतिर्मय होता है, जो किसी राष्ट्र को पीढ़ी दर पीढ़ी अनुप्रेरित कर सकता है। ऐसा जीवन कभी बदलता नहीं है।
     स्वामी विवेकानन्द के रूप में, ऐसा ही आदर्श हमलोग प्राप्त कर सकते हैं। आज हमलोग जिस किसी को महान व्यक्ति के रूप में जानते हैं, कल वे बदल भी सकते हैं, और किसी अन्य आदर्श का प्रचार कर सकते हैं। या यह भी हो सकता है कि आज जिनको बहुत महान व्यक्ति समझ रहा हूँ, कल उन्हीं के जीवन में कोई प्रतिकूल या घटिया विचार भी प्रतिबिम्बित होता दिखाई दे।  किन्तु विवेकानन्द तो हर युग के पिछड़े, दबे-कुचले मनुष्यों से सहानुभूति रखने वाले, दिन-दलितों के हमदर्द महावीर हैं, जिनके कंठ से बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानव-जाति को जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होने का विराट आह्वान ध्वनित हुआ था। जिनके अपने  जीवन में सर्वोच्च आदर्श जीवन्त हो उठा था,'बहुजनहिताय'  जिनका निर्भीक सन्देश आज भी  मनुष्य-मात्र को उसके उच्चतम जीवन-आदर्श को प्राप्त करने के लिये अनुप्रेरित करता है। सुदूर अतीत के विस्मृत किंवदन्तीयों में वर्णित लोककथाओं में से उनको खोज कर बाहर नहीं निकलना पड़ता। विवेकानन्द तो यज्ञ में आहुति दी जाने वाली जीवन्त ' होम-शिखा सम ' हैं, 'कोटि-भानुकर-दीप्त-सिंह' हैं। उनके जीवन्त विचार (lively thought) उनके ह्रदय से निकल कर किसी विद्युत् -प्रवाह के जैसा हमलोगों की अस्थि-मज्जा में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण सत्ता में सिहरण का अनुभव करवाते हैं। 
नके संदेशों को सुनने के लिये भूतकाल की लोककथाओं में जाने की आवश्यकता नहीं होती, उनकी उनकी शक्ति और प्रेरणा अभी और इसी समय हमलोगों के भीतर नये जीवन का संचार कर सकती है। पौरुष (manhood) के संदेशवाहक विवेकानन्द, मनुष्यों की दुर्बलता, हताशा और अवसाद के उपर बज्र बनकर टूट पड़ते हैं। उनके बादलों के गर्जना के सदृश्य ओजस्वी संदेशों में -सम्पूर्ण मानवजाति के लिये  'आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास तथा त्याग और सेवा' - के आदर्श गुंजायमान हो उठते हैं। विवेकानन्द ने मनुष्य के भीतर ही ईश्वर का दर्शन किया था। (वे कहते थे, " मैं उस ईश्वर का दास हूँ, जिसे लोग अज्ञान के कारण मनुष्य कहते हैं ! ") पूर्णत्व प्राप्त किसी उत्कृष्ट आदर्श में जो भी सद्गुण रहने चाहिये वे सभी गुण उनमें दिखाई पड़ते हैं। और वे कभी बदले नहीं थे, और कभी बदलेंगे भी नहीं। (चिर-युवा स्वामी विवेकानन्द ने मात्र 39 वर्ष की आयु में ही अपने शरीर को त्याग दिया था।) इसीलिए वे हमारे सच्चे आदर्श हो सकते हैं।
       विवेकानन्द जितना हिन्दुओं के हैं, उतने ही मुसलमानों के भी हैं, उतना ही वे विश्व के अन्य देशों के भी हैं।  वे जितना पुरुषों के लिये हैं, उतना ही नारियों के लिये भी हैं। धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित, भारतीय और अभारतीय -सबों के लिए हैं। वे जिस प्रकार वर्तमान युग के लिए प्रासंगिक हैं, उतने ही प्रासांगिक वे भविष्य के युग में रहने वाले हैं। (जिस प्रकार वे वर्तमान  
पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकते हैं, उसी प्रकार भावी पीढ़ियों को भी उनके मार्गदर्शन की आवश्यकता बनी रहेगी।) वर्तमान या भविष्य में जो कोई व्यक्ति पूर्णत्व-प्राप्त मनुष्य बनने के लिए आग्रही होगा, उन सबों के पथप्रदर्शक हैं, स्वामी विवेकानन्द। 
      वे चाहते थे कि हमलोग अपने दरिद्र और अशिक्षित देशवासियों को ही अपना आराध्य देवता मानें। वे कहते थे, ' मैं उसी को महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये रोता है।' खाली-पेट सो जाने वाले मनुष्यों को धर्म का उपदेश देना उनकी दृष्टि में पाप था। वे अपने को दार्शनिक या धार्मिक व्यक्ति कहलाना पसन्द नहीं करते थे। वे कहते थे मैं गरीब हूँ, और गरीबों से प्यार करता हूँ। वे कहते थे, मैं जितना भारत का हूँ, उतना ही विश्व का भी हूँ। इसके बावजूद अपने देश के गरीबों की दुर्दशा की बात याद करके अश्रु बहते हुए, बिना नींद के कितनी ही रातें बिता दिए थे। भारतमाता की करोड़ो संताने, जो देवताओं तथा ऋषियों के वंशधर हैं, किन्तु आज लगभग पशुओं की श्रेणी में गिर चुके हैं, यह देखकर उनका हृदय दुःख से व्यथित हो जाता था। वे मानवजीवन की अपूर्णता-अधूरापन और हारे-थके मनुष्य की गरिमा के पतन को सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने राष्ट्र के युवाओं से आह्वान किया था, " आओ भाइयों, हममें से प्रत्येक युवा भारत के करोड़ो-करोड़ पददलित मनुष्यों के लिये दिनरात प्रार्थना करें, जो लोग दरिद्रता, पुरोहिताई (Priesthood) और यातना के पिंजड़े में बन्द हैं उनके लिए दिनरात प्रार्थना करें- " हे गौरीनाथ, हे जगदम्बे, मुझे मनुष्यत्व दो ! माँ , मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो। मुझे मनुष्य बना दो!"
      हे वर्तमान भारत के युवा समूह ! हमलोग तुम्हारे सामने विवेकानन्द को युवा-आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते है। अपने अपने हृदय में स्वयं अपनी तथा अपने भाई-बहनों की अपूर्णता को ईमानदारी से अनुभव करके देखो। जड़ता, आलस्य एवं आत्मसन्तुष्टि के विचारों को झटक कर फेंक दो। उठो, वीर्यवान बनो। मर्त्य की सहायता से से अमरत्व को आविष्कृत करने का दृढ़-
संकल्प लेकर कार्य में कूद पड़ो। बाह्य और अन्तः दोनों प्रकृति के विरुद्ध संग्राम के पथ पर अग्रसर हो जाओ। स्वयं (पूर्णत्व -प्राप्त) 'मनुष्य' बनो और दूसरों को भी (पूर्णत्व -प्राप्त)  'मनुष्य' बनने में सहायता करो। विवेकानन्द ने यही व्रत तुमलोगों के ऊपर अर्पित किया है।
     यदि तुमलोग उनको अपने आदर्श के रूप में ग्रहण कर लो, तो वे तुमलोगों की अनुभव-शक्ति (Heart), बुद्धि शक्ति (Head)और कर्म-शक्ति (Hand) को जाग्रत कर देंगे। इसप्रकार 3H की शक्ति को विकसित कर तुमलोग करोड़ो -कड़ोड़ स्वदेशी स्त्री-पुरुषों के कल्याण के कार्य को करने में सक्षम हो जाओगे। और परिवेश का जो प्रभाव तुम्हारे जीवन को अवनत बनाये रखने (भेंड बनाय रखने) में प्रयत्नशील है, उस प्रभाव को अस्वीकार करके तुमलोग अपने जीवन की संभावनाओं (अपने सिंहत्व) को प्रस्फुटित करने में समर्थ हो जाओगे। वे तुम्हें एक सुस्पष्ट जीवनबोध (मनुष्य जीवन का उद्देश्य) देंगे, और तदनुसार जीवन-गठन की पद्धति भी देंगे। कोई खतरा या संकट आने पर वे एक सच्चे मित्र की तरह पास में आकर खड़े हो जायेंगे। जीवन-गठन करते समय बाहर से और भीतर से कई बाधा-विघ्न आयेंगे। संशय, गन्दे-अपवित्र विचार, इन्द्रिय-विषयों में सुख पाने की प्रवृत्ति नहीं छोड़ पाने की दुर्बलता- हताशा- अवसाद, नाम, यश, धन-लोलुपता, इनके अतिरिक्त बाहर से आने वाले अन्य कई प्रकार के कठिनतर प्रलोभन तुमको डूबा देने, तुम्हारी विवेक-शिखा को बुझा देने का प्रयास करेंगे। किन्तु तुमलोग  यदि स्वामी विवेकानन्द को अपना मित्र- शिक्षक-सलाहकार जैसा बना लो, तो कोई भी शत्रु तुम्हारे सामने अपराजेय बनकर खड़ा नहीं रह सकता। तुम अविचल रहकर सामने के मार्ग को बिल्कुल स्पष्ट रूप से देख सकोगे तथा क्रमशः हम अपने उदेश्य को अवश्य प्राप्त कर लोगे।
      वर्तमान समय में उनसे उत्कृष्ट आदर्श और कोई नहीं है। विशेष रूप से जो युवक देश से प्यार करते हैं, जो नया भारत गढ़ने का हौसला रखते हैं, और इसके लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देना चाहते हैं, जो जंग लगकर मरने के बजाय घिस कर मरना या वीर की तरह लड़ते हुए मर जाना अधिक पसन्द करते हैं, जो मनुष्य जीवन का अर्थ जानना चाहते हैं, जो पशुओं के जैसा बोझा ढोते रहने वाले जीवन से घृणा करते है, जो युवा अनियंत्रित अविनीत, मुंहजोर और धृष्ट होकर बाहरी गंदे परिवेश का गुलाम बने रहने को जिन्दा रहने का लक्षण नहीं मानते, वैसे युवाओं के लिए यह स्वामी विवेकानन्द रूपी युवा-आदर्श अतुलनीय और अद्वितीय है। 
    इसलिए भाइयों- उठो, जागो! इस आदर्श को जीवन में ग्रहण करो, और अपने लक्ष्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो। निर्भीक बनो। सारी धुंध मिट जाएगी। जीवन सूर्य की उज्ज्वल रौशनी से जगमगा उठेगा।
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['तमसो मा ज्योतिर्गमय' हे सूर्य! हमें भी अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, जब सूर्य की गति उत्तर की ओर होती है, तो बहुत से पर्व प्रारम्भ होने लगते हैं। 
 यही विशेष कारण है, जो सूर्य की उत्तरायण गति को पवित्र बनाते हैं और मकर संक्रान्ति का दिन सबसे पवित्र दिन बन जाता है।क्रांति का अर्थ है परिवर्तन। पर जब यही परिवर्तन किसी सार्थक दिशा में हो, तो उसे संक्रांति कहा जाता है। 
इन्हीं दिनों में ऐसा प्रतीत होता है कि वातावरण व पर्यावरण स्वयं ही अच्छे होने लगे हैं।
 कहा जाता है कि इस समय जन्मे शिशु प्रगतिशील विचारों के, सुसंस्कृत, विनम्र स्वभाव के तथा अच्छे विचारों से पूर्ण होते हैं। स्वामी विवेकानन्द का जन्म भी 12 जनवरी 1863 ई., सोमवार, मकर-संक्रांति के दिन प्रात:काल सूर्योदय के किंचित् काल बाद 6 बजकर 49 मिनट पर हुआ था।स्वामीजी का जन्म एक ऐसे समय हुआ जब ऊर्जा का संचार करने वाले महान व्यक्ति की देश में आवश्यकता थी।   
 आज युवा दिवश है, 12 जनवरी 2013 को हम उनकी 150 वीं जयंती मना रहे हैं, आज का युवा 'दुर्बलता, हताशा और अवसाद ' से ग्रस्त हो चूका है। कौन ऐसा आदर्श है जो उनको इस अवसाद के गर्त से उबार सकता है ? यहाँ सभा में वे बच्चे बैठे हैं, जिन्हों ने रैली में भारत में जन्मे सर्वोत्कृष्ट आदर्श नर-नारियों के रूप में झांकी निकाली थी। यहाँ 'गांधीजी, रोबिन्द्र्नाथ, बाला साहेब अम्बेडकर ' और श्रीरामकृष्ण, अमर  सिंह राठौर, भगत सिंह,  नेताजी,और विवेकानन्द,उपस्थित हैं तो दूसरी ओर 'भारत-माता ', कस्तूरबा, झाँसी की रानी, और श्रीश्री माँ सारदा भी उपस्थित हैं। युवादिवस के मौके पर अब - कोई राष्ट्रिय ' युवा- आदर्श ' चुन लेने का समय आ गया है।]

Sunday, January 13, 2013

🔱🔆🙏" स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार" /(স্বামীজীর শিক্ষা চিন্তা) (Swamiji's educational thoughts : शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार ) [SVHS-4.1 : स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना" अध्याय - 4 : शिक्षा : समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि ! ] [स्वामीजी की शिक्षा-नीति : ॐ श्री गुरुवे नमः 'विद्या गुरुमुखी'- शीक्षावल्ली में बड़ी 'ई ' क्यों ?]

 शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार 
 
     शिक्षा का आभाव ही हमलोगों के समस्त दुःखों का कारण है। यह दुःख केवल लौकिक विपन्नता ही नहीं है। हमें उपार्जन करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाता है। जितनी आमदनी होती है, उतने में परिवार का ठीक से भरण पोषण नहीं हो पाता है। यदि जीवन धारण करने योग्य भोजन मिल भी जाता है, तो रहने के लिये घर नहीं होता है । गंभीर बीमार होने पर आवश्यक उपचार कराने का कोई प्रावधान नहीं होता है । सामान्य की सुविधा तो दूर की बात है, उसका बहुत छोटा सा भाग भी नहीं मिल पाता है । अधिकांश देशवासी उस शिक्षा से वंचित हैं। स्वामीजी कहते थे -सच्ची शिक्षा के द्वारा ये सभी दुःख दूर किये जा सकते हैं।'
          स्वामी विवेकानन्द के मन की पीड़ा तो और भी गहरी थी। श्रीरामकृष्ण के मन में जो पीड़ा थी, श्री  सारदा देवी के मन में जो व्यथा थी, वही व्यथा स्वामीजी के हृदय में संचारित हुई थी। युवावस्था में ही उनके पिता का देहान्त हो गया था, उसके बाद परिवार की स्थिति इतनी दयनीय हो गयी थी कि माँ-बहन-भाइयों को ठीक से भोजन भी नहीं मिल पाता था। नौकरी के लिये प्रयास करते हैं तो  कहीं नौकरी नहीं मिलती। इन सब दुःखों को भोगने के बाद आगे के जीवन में जो दुःख मिला वह भी कम नहीं था। श्रीरामकृष्णदेव के देहान्त हो जाने के बाद का दुःख और परिव्राजक जीवन शुरू होने के पहले जो दुःख-कष्ट भोगना पड़ा वह भी कम मर्मान्तक नहीं था। बड़ानगर/बराहनगर ?  में दूसरों के दिये पैसे से भाड़े पर ' भूतों वाला मकान ' लेकर रहना पड़ा, जहाँ हर रोज साग-भात खाने को भी नहीं मिल पाता था। किसी दिन नमक-भात मिल गया, किसी दिन भात के साथ साग भी नहीं मिला, किसी दिन नमक भी नहीं मिला, किसी दिन भात भी नहीं मिल पाता था। लंगोटी के उपर लपटने वाला धोती सबों के लिये एक ही होता था, प्रत्येक गुरुभाई के लिये अलग- अलग धोती की व्यवस्था नहीं थी । ऐसा भी हुआ था कि सर्वत्यागी ठाकुर की जो सन्तान किसी काम से बाहर जायेंगे, उस धोती को सिर्फ वे ही बांध कर निकलेंगे। स्वामीजी के पास कोई मिलने आता, तो कोई गुरु भाई स्वामीजी के शरीर पर चादर डाल देते हैं। जब भोजन का घोर आभाव हो जाता, तब स्वामीजी कहते- " आज भोजन पकाने-खाने का कोई झंझट नहीं है, कुछ मिला नहीं है, आज पूरा अवकाश है।  इसीलिये आज बहुत साधन-भजन होगा, खूब जप-ध्यान होगा, खूब शास्त्र-पाठ होगा, खूब भजन होगा। " क्या हमलोग ऐसे कष्ट की कल्पना भी कर सकते हैं ?
          माँ सारदा देवी के जीवन में कितना कष्ट था ! फ़टी हुई साड़ी में गिट्टठा बांध कर पहनी हैं। क्योंकि जाते समय श्रीरामकृष्ण ने सारदा देवी को कह रखा था, " तुम, कामारपुकुर में रहना, शाक बो देना, साग-भात खाना और हरिनाम करना।" -- " देखो, किसी के सामने एक पैसे के लिये भी हाथ मत फैलाना, अर्थात किसी से कुछ मांगना नहीं। " साग बुन देना और खा लेना।" इतने सारे कष्टों को उनलोगों ने किसके लिये भोगा था ?..हम मनुष्यों के लिये ! मनुष्य यहाँ कितना दुःख भोग रहा है (गन्दी नाली के कीड़े जैसा किलबिल कर रहा है। ), उस दुःख को कौन दूर करेगा? इसीलिये माँ कहती थी न, " क्या रामकृष्णदेव यहाँ रसगुल्ला खाने के लिये आये थे ? हमलोग सभी मनुष्यों के पाप, ताप, दुःख-कष्ट को उठाने के लिये ही तो आये हैं; श्री रामकृष्ण  भी इसी लिये आये हैं, मैं भी इसीलिये आई हूँ।"
      स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के पास जाकर अपने व्यक्तिगत जीवन का, मानव जीवन का चरम लक्ष्य (निर्विकल्प समाधि) और उसे प्राप्त करने का उपाय सीख लिया था। फिर कठोर साधना करके उस परम-वस्तु या 'ब्रह्मज्ञान' को भी प्राप्त कर लिया था। [...एक दिन सायंकाल ध्यान करते-करते नरेन्द्रनाथ अप्रत्याशित रूप से.... महाप्रलय, निर्विकल्प समाधि में डूब गए। इन्द्रियग्राह द्वैतप्रपंच मानो महाशून्य में लीन हो गया। देश-काल- निमित्त से परे अवस्थित निज-बोध -स्वरुप आत्मा अपनी महिमा में (सच्चिदानन्द में) स्थित हुई। वह कैसी अवस्था है यह मानवी भाषा में प्रकट नहीं हुई है -हो ही नहीं सकती। काफी देर बाद उनकी समाधि भंग हुई। "उन्होंने अनुभव किया कि उनका मन उस स्थिति में सम्पूर्ण रूप से कामनाशून्य होने पर भी, एक अलौकिक शक्ति उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध, जबरदस्ती पंचेन्द्रियग्राह्य बाह्य जगत में उतारकर ला रही है। वि ०च ० ७४]   उस अनिवर्चनीय आनन्द के  हिलोरे  में एक बार डूबकी लगा लेने के बाद, उनके मन से विश्व-कल्याण की चिन्ता स्वाभाविक रूप से ओझल हो गयी थी। वे श्रीरामकृष्ण देव के पास जा कर बोले,` ठाकुर कुछ ऐसा कर दीजिए कि " मैं निरंतर उसी निर्विकल्प समाधि के आनन्द में डूबा रह सकूँ।'  किन्तु इस बात को सुनकर, अपने सबसे प्रिय शिष्य की भर्त्सना करते हुए श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं, " अरे तूँ  .... यह बात कहता है ? छि: ! छिः ! ऐसी बात तूँ ने सोच भी कैसे लिया ? बार बार यही बात कहते तुझे लज्जा नहीं आती ?  जबकि जगत में इतना दुःख है, इतना कष्ट है ! तुम स्वयं ब्रह्माननद में डूबे रहोगे ? उनकी ओर देखोगे भी नहीं ? तुम उनको देखना, उनको मुक्त करना, उनकी सहायता करना, उनके बंधनों को खोल देने का प्रयत्न करना। विवेकानन्द ने कहा, " महाशय, यह सब मुझसे नहीं होगा। " रामकृष्ण बोले -" मुझसे नहीं होगा माने ? तेरी हड्डी करेगी।" 
      और उसी समय विवेकानन्द ने अपने गुरु से सम्पूर्ण मानव-जाति के प्रति उस संवेदना को, उस दुःख को उत्तराधिकार के रूप में ग्रहण कर लिया था। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण मानवता के इतिहास में ढूँढने से भी नहीं मिलता है!  उस घटना के बाद, सभी मनुष्यों का दुःख , केवल लौकिक दुःख ही नहीं  - जनसाधारण की गरीबी, पारिवारिक वैमनस्य, या केवल भूख, अभाव, अशिक्षा आदि सामान्य दुःखों ने ही नहीं ,  बल्कि वह दुःख जिसकी कोई सीमा नहीं है, जो दुःख मनुष्य के भवबन्धन में बंधे रहने के कारण है, और मनुष्य जिस मुक्ति की आकांक्षा से आर्त  क्रंदन कर रहे हैं-  उनकी उसी पीड़ा ने स्वामी जी के हृदय में अपना घर बना लिया था। 
[- " उन्होंने अनुभव किया - " बहुजनहिताय , बहुजन-सुखाय कर्म करूँगा , अपरोक्षानुभूति द्वारा उपलब्ध सत्य का प्रचार करूँगा। इस महती कामना का सूत्र पकड़कर उनका मन निर्विकल्प स्थिति में लौट आया। अनुभव किया कि जगत के दुःख और दैन्य से पीड़ित मोहभ्रान्त (Hypnotized) जीवों को, स्वयं ज्ञानामृत से परितृप्त होकर उस अमृत का पान कराने के लिए, भारत प्राचीन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की तरह उन्हें भी मेघ-गम्भीर स्वर से पुकारना होगा 
"शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥

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वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्॥

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय॥"

'हे अमृत के पुत्रों ! (मानवमात्र के प्रति यह सम्बोधन  - 'अमृतस्य पुत्राः', शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को सम्बोधित करते हुए कहा गया है।) सुनो, हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो, मैंने उस आदित्य के समान दैदीप्यमान पुरातन पुरुष (ब्रह्म -अवतार वरिष्ठ) को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया के परे है । केवल उस पुरुष की जानकर ही मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है, इसके अतिरिक्त मृत्युंजय होने का अन्य कोई मार्ग नहीं। ' (-- श्वेताश्वतरो-पनिषद् ॥ २।५, ३।८॥) हिन्दुधर्म पर निबंध /वि ० सा ० १/१२]

" हे अमृत के पुत्र सुनो,  हे दिव्यधाम के निवासी सुनो, मुझे मार्ग मिल गया है। जो अन्धकार और अज्ञान के परे है, उसे जान लेने पर हम मृत्यु के परे जा सकते हैं। ( माया और भ्रम/२/५८)  

" हे अमृतपुत्रो ! सुनो, हे द्युलोकवासी देवताओं ! सुनो, मैंने एक ऐसी किरण (ray- ज्योति) देख ली है, जो सभी अंधकारों और सभी संशयों के उस पार है। वह पुरातन (Ancient One-ब्रह्म) मुझे मिल गया है। " इसका मार्ग उपनिषदों में सन्निहित है। (९/१३०)  
   
" हे अमरता के पुत्रों, वे सब जो इस स्तर पर रहते हैं। और वे सब जो ऊपर स्वर्गों में निवास करते हैं, सुनो, मैंने रहस्य को पा लिया है , महान ऋषि कहता है , ' मैंने उसे पा लिया है, जो समस्त अंधकार से परे है। केवल उसी की अनुकम्पा से हम भवसागर के पार होते हैं। ' (उपास्य और उपासक/३ /२२२)      

" हे अमृत के पुत्रो, हे दिव्यधामनिवासियो, सुनो - मैंने अज्ञानान्धकार से आलोक में जाने का रास्ता पा लिया है। जो समस्त तम के पार है, उसको जानने पर ही वहाँ जाया जा सकता है - मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं। " (राजयोग -अवतरणिका/१/३८)   

" हे अमर पुत्रो, मेरे देशवासियो, यह हमारा राष्ट्रीय जहाज युगों से सभ्यता को ले आता , ले जाता रहा है और इसने अपनी अतुलनीय सम्पदा से संसार को समृद्ध बनाया है। अनेक गौरवपूर्ण शताब्दियों तक हमारा यह जहाज जीवन-सागर में चलता रहा है और करोड़ों आत्माओं को उसने दुःख से दूर संसार के उस पार पहुँचाया है। आज शायद उसमें एकछेद हो गया हो और इससे वह क्षत हो गया हो, यह चाहे तुम्हारी गलती से या चाहे किसी और कारण से। तुम जो इस जहाज पर चढ़े हुए हो , अब क्या करोगे ? क्या तुम दुर्वचन कहते हुए आपस में झगड़ोगे ? क्या तुम मिलकर उस छेद को बन्द करने की पूर्ण चेष्टा करोगे ? हम सब लोगों को अपनी पूरी जान लड़ाकर ख़ुशी ख़ुशी उसे बन्द कर देना चाहिए।  अगर न कर सके तो हम लोगों को एक संग डूब मरना होगा। पर किसी के लिए शुभेच्छायें छोड़कर बुरे शब्द हमारे मुँह से न निकलें। (" This national ship of ours, ye children of the Immortals, my countrymen, .......  Let us all gladly give our hearts' blood to do this; and if we fail in the attempt, let us all sink and die together, with blessings and not curses on our lips.---क्योंकि हम सभी देशवासी उसी अमृत के पुत्र हैं ! )      
   
"স্বামীজীর শিক্ষা চিন্তা সেই ভববন্ধন ছেদের বিদ্যার অধিকার মানুষকে দেয়।"  
इसलिए 'स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार' का तात्पर्य उस विद्या से है जो मनुष्य-मात्र  को उसी भवबंधन (जन्म-मरण का चक्र) को काट देने की विद्या (4 -योग) सीखने का अधिकार प्रदान करता है। स्कूल के पाठ्यक्रम (curriculum) में कौन कौन विषय होंगे, उन्हें किस प्रकार (10+2, या 10+3, करके ) पढ़ाना होगा ?---इस तरह का कोई शैक्षिक विचार देने के लिए विवेकानन्द नहीं आये थे। विवेकानन्द से हमें वैसी शिक्षा लेने की जरूरत भी नहीं है। 
           शिक्षा के सम्बन्ध में इस प्रकार के विचार देने के लिए बहुत से लोग हैं। यद्यपि, वैसी शिक्षा स्वामी विवेकानन्द ने भी दी है, बिल्कुल न दी हो वैसा नहीं है। किन्तु ' स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार' का तात्पर्य उस शिक्षा से है, उस विद्या से है - जिस विद्या को प्राप्त करके मनुष्य सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है! " सा विद्या या विमुक्तये !" - वही विद्या सच्ची विद्या है जिससे मुक्ति प्राप्त हो जाती है। उस प्रकार की मुक्ति-प्रदान करने वाली विद्या या शिक्षा-व्यवस्था हमलोगों के देश में बहुत प्राचीन युग से ही चलती आ रही है। तैत्तरीय उपनिषद में उस शिक्षा के विषय में कहा गया है। उसके एक अध्याय का नाम ही " शीक्षा-वल्ली " है।  वेद के छह अंगों में एक का नाम- 'शिक्षा ' है। यह शिक्षा उच्चारण शिक्षा या 'वर्ण शिक्षा ' के नाम से प्रचलित है। 
       यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि तैत्तरीय उपनिषद के शीक्षावल्ली में ' श ' के साथ ई--कार अर्थात दीर्घ 'ई' की मात्रा लगी हुई है। प्रश्न उठता है कि क्या वेद में 'ई' की मात्रा क्या वैसे ही लगा दी गयी होगी ? अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'शिक्षा' के किसी गूढ़तर अर्थ को इंगित किया जा रहा है। और " विवेकानन्द के शैक्षिक विचार " उसी 'शिक्षातत्व' के सम्बन्ध में है। वेद, उपनिषद में लगता है, 'श ' में 'ई'-कार लगा कर उसी महान शीक्षा की बात कही गयी है। हालाँकि उपरी तौर से देखने पर यह प्रतीत होता है कि यहाँ भी स्वर या वर्ण के उच्चारण-शिक्षा ही शिक्षा दी जा रही है, किन्तु वास्तव में यहाँ संकेत किसी अन्य 'शिक्षा'  की तरफ किया गया है-"आनंदम ब्राह्मणो विद्वान  न बिभेति कदाचन " -(तैत्तिरीय-उपनिषद: 2.3.1)[“जो ब्रह्म के आनन्द को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता।” जिसको जानकर मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है। तुम अमृतस्य पुत्र हो : तुम्हारे अस्तित्व में वह चीज दी गई है। यह पहले से ही वहां है। ]  क्योंकि संस्कृत में "शी" को एक अलग शब्द माना गया है, और इसका एक विशेष अर्थ भी है। "शी" का अर्थ होता है- 'प्रशान्ति (tranquility)' और ईक्षा का अर्थ होता है देखना, प्राप्त करना, और जान लेना। इस प्रकार शी + ईक्षा = शीक्षा का अर्थ हुआ -उस आनन्दमय तत्व (परम प्रशान्ति) को देख लेना- `To Behold That Tranquility' (आत्म-साक्षात्कार )। उस अनन्त शान्ति के आनन्द को देखने, प्राप्त करने या जानने में समर्थ बना देने वाली विद्या को ही "शीक्षा " कहते हैं। 
         'स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार' हमें उसी अवस्था तक ले जाते है। उन्होंने  कहा है, कि पहले मनुष्यों को वर्ण परिचय सिखाओ, पढना-लिखना सिखाओ।  शिक्षा यदि छात्रों के पास न आ सके, शिक्षकों के पास, विद्या के पास नहीं आ सके- तो शिक्षक को ही छात्रों के पास, तुम्हारे देश के गरीब इत्यादि लोगों के पास जाना पड़ेगा।
    आज हमलोग Adult Education Programme आदि कितना कुछ कर रहे हैं। किसी समय स्वामीजी ने कहा था, " वे लोग तो हमारे स्कूलों तक पहुँच नहीं सकेंगे। नये नये स्कूल खोलते जाने से क्या होगा?  तुमलोगों को ही उनके खेत-खलिहानों में कल-कारखानों में, घर-घर में , द्वार-द्वार तक , गाँव-गाँव में जाना होगा। दिन के समय उनको पढने का समय नहीं मिलेगा। क्योंकि उनके लड़के-लडकियों को घर-गृहस्थी के हजार काम करने पड़ेंगे, गौओं को चराने जायेंगे, खेती के कई कार्य करने होंगे। ऐसी परिस्थिति में क्या उन्हें अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजने का उपाय है ? संध्या के समय सब को एक स्थान पर एकत्र करो- उनको शुरू से ही गढ़ने की चेष्टा करो। अक्षर की पहचान कराने से भी शुरू करोगे तो उनमें से कई लोग नहीं बता सकेंगे। इसीलिये उनको कहानियाँ सुनाओ, इतिहास, भूगोल, विज्ञान, आदि विषयों का ज्ञान दो। इसके साथ ही साथ उन लोगों के भीतर धर्मभाव भी प्रविष्ट करा दो। अद्भुत शिक्षा -" फिर इसी प्रकार की शिक्षा देते देते सबों को उसी परम-शिक्षा ('शी'क्षा) की ओर अग्रसर करा दो।" स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचारों में सम्पूर्ण जगत को परिवर्तित कर देने का बीज, सन्निहित है। वे कहते हैं, कि शिक्षा एक ऐसा मन्त्र है, जिसके बल से ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान नहीं हो सकता। वैसी शिक्षा क्या पुस्तकों से प्राप्त हो सकती है ? यह शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान तो निश्चय ही नहीं है, डिग्री पाने वाली शिक्षा से भी इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।  इसलिये ऐसी शिक्षा स्कूल-कॉलेज,यूनिवर्सिटी खोल कर नहीं दी जा सकती
       विवेकानन्द कहते हैं, क्या कुछ तथ्यों को रट कर सिर में घुसा लेना ही शिक्षा है? नहीं, यदि वैसी बात होती तब तो लाईब्रेरी ही महान विद्वान् हो जाते। शब्दकोश ही ऋषि बन जाते। क्योंकि उसमें तो ज्ञान की सारी बातें लिखी हुई हैं ही । किन्तु, यदि किसी व्यक्ति के दिमाग में जानने योग्य सभी बातें ठूँस दी जाएँ, तो क्या उससे ही वह शिक्षित हो गया? कदापि नहीं। स्वामी जी उपहास की भाषा में व्यंग करते हुए कहते हैं, " शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जायें, जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर हजम न कर सके। जिस शिक्षा से हम हम अपना जीवन-गठन कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-निर्माण कर सकें और उच्च विचारों  को ठीक वैसे ही चरित्रगत कर सकें, जैसे खाना पच कर रक्त मज्जा से एकीकृत हो जाता है। कुछ पवित्र, सुंदर और महान भावों को भी यदि हम उसी प्रकार आत्मसात  कर सकें (assimilate करना) , वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।"
         उच्च विचारों  को चरित्रगत कर लेने का अर्थ क्या हुआ ? वे पवित्र भाव मेरे चरित्र में, मेरे आचरण में , मेरे व्यवहार में , मेरी वाणी में , मेरे विचारो में ,मेरे कार्यों के द्वारा अभिव्यक्त होने लगेंगे। 
    श्री रामकृष्णदेव ने तो अपने जीवन से ही यह दिखला दिया था कि इस प्रकार की शिक्षा कैसे प्राप्त की जाती है। श्री रामकृष्णदेव, श्री सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा की कौन-सी प्रणाली सिखलाई है ?  उनकी शिक्षा-नीति इस प्रकार तथा कथित B.A., M.A., Ph.D. की डिग्री प्राप्त करके नाम के आगे 'डाक्टर' लगाने वाली शिक्षा-पद्धति नहीं थी। हमलोगों को जैसी शिक्षा मिल रही है, उसका फल तो हम देख ही रहे हैं। अतिशिक्षित होने के बाद भी उन व्यक्तियों का जैसा आचरण हमलोग देख रहे हैं, उनके बारे में  इसी दुःख को व्यक्त करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक अनोखी बात कही थी"So long as millions die in hunger and ignorance, I hold every man a traitor who having been educated at their expense pays not the least heed to them." - अर्थात " जब तक करोड़ों मनुष्य भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, किन्तु अब उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता।" 
      इस देश के जनसाधारण के पैसों से शिक्षित होकर कुछ लोग डॉक्टर-इंजीनियर बन रहे हैं। कुछ  वर्ष पहले मैंने आकलन करके देखा था कि सरकार को इसके लिए प्रति व्यक्ति 1.50 लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं । सरकारी खजाने से खर्च करने का अर्थ होता है , जनसाधारण की कमाई से खर्च।  भारत की सामान्य जनता दिन-रात खून- पसीना बहाकर जो श्रम करती है, उसी से भारत वर्ष का राष्ट्रीय आय का कोष बनता है। उसी राष्ट्रीय आय को सरकार शिक्षा के उपर खर्च करके किसी व्यक्ति को डाक्टर या इंजिनियर बनने का अवसर देती है। आज के समय में उस खर्च का आकलन किया जाय तो शायद 1.50 लाख से कई गुना अधिक खर्च करना पड़ेगा। किन्तु, डाक्टर, इंजीनियर बन जाने के बाद वे पैसा कैसे कमाते हैं ? देखते ही देखते कुछ ही वर्षों के भीतर बड़े बड़े आलीशान बंगले बन जाते हैं। एक-दो महंगी गाड़ियाँ भी कहीं न कहीं से उपहार में आ ही जाती हैं। यही हाल अन्य पेशों से जुड़े दूसरे लोगों का भी है। स्वामीजी कहते थे, " I hold every man a traitor who having been educated at their expense..." जो मनुष्य जनसधारण के मिहनत की कमाई पर शिक्षा प्राप्त करके उनके हित की कोई चिंता नहीं करता, उनकी सेवा नहीं करता, जिनके लिये उसके हृदय में थोड़ी भी पीड़ा नहीं होती उनको मैं देशद्रोही कहता हूँ। " हमलोगों के देश में ऐसी ही शिक्षा तो दी जा रही है। 
     किन्तु, स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा ऐसी नहीं है। विवेकानन्द कहते हैं, शिक्षा मनुष्य को सही ढंग से विवेक-विचार करने की शक्ति देगा, इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास पर संयम रखने की क्षमता प्रदान करेगा। विचार, इच्छा, या संकल्प को प्रभावोत्पादक बनाने की शक्ति जहाँ से मनुष्य को प्राप्त होगी , उसे ही शिक्षा कहेंगे।  ऐसी शिक्षा हमें कहाँ प्राप्त होती है ? हमें ऐसी शिक्षा नहीं दी जा रही है। विवेकानन्द  कहते हैं, ' शिक्षा मनुष्य को स्वावलंबी बना देगी, उसे अपने पैरों पर खड़े होना सिखाएगी । शिक्षा मनुष्य को सुंदर चरित्र से विभूषित करेगी। जो शिक्षा मनुष्य को चरित्रवान नहीं बना सके, क्या उसे शिक्षा कहेंगे ? शिक्षा मनुष्य को परार्थता सिखलाएगी, दूसरों के कल्याण के लिये सोचना सिखाएगी। जिस शिक्षा से यह सब नहीं मिले, क्या उसे शिक्षा कहेंगे? हमलोगों के देश में क्या हो रहा है ? जो जितना अधिक शिक्षित  है, वह उतना ही अधिक स्वार्थी है। तथाकथित शिक्षा के द्वारा आमतौर से तो यही हो रहा है । निश्चित रूप से इसमें कुछ अपवाद भी अवश्य हैं। लेकिन साधारण तौर पर उन्हीं को बहुत शिक्षित माना जाता है, जो बड़े चालाक हैं; जो यह जानते हैं कि दूसरों को धोखा देकर, दूसरों का हक मार कर,  किस प्रकार अपना भोग सुख सम्पत्ति बढ़ाया जाता है 
      शिक्षा तो चल ही रही है, लेकिन जैसी है स्वामी विवेकानन्द ने वैसी कोई पद्धति नहीं दी थी। विवेकानन्द के अनुसार यथार्थ शिक्षा तो मनुष्य को स्वार्थशून्य (100 % selfless) बना देगी, पूर्णतया भयशून्य बना देगी, सबों का हितैषी और सेवापरायण बनाएगी। शिक्षा उसकी बुद्धि को तीक्ष्ण बना देगी। वैसी प्रखर बुद्धि से सम्पन्न बना देगी जिसमें परम सत्य (इन्द्रियातीत सत्य )को जान लेने की क्षमता होगी। सच्ची शिक्षा बुद्धि को धीरे -धीरे इतनी कुशाग्र बना देगी कि वह जिस कार्य में अपनी बुद्धि लगा देगा, या जिस  कार्य को करेगा उसे अत्यन्त सुन्दर ढंग से सम्पादित कर सकेगा। इसको कहते हैं शिक्षा। हमलोग ऐसी शिक्षा कहाँ पा रहे हैं ? स्वामी विवेकानन्द उसी शिक्षा को भारत भर में प्रचलित करा देना चाहते थे।
     वे यह भी कहते थे कि " देखो भाई, केवल शिक्षा देने से ही नहीं होगा; शिक्षा के साथ ही साथ संस्कृति भी देनी होगी।" क्योंकि संस्कृति नहीं देने से मनुष्य बाहरी आक्रमण से समाज की रक्षा नहीं कर सकता। जब बाहरी भाव आकर मनुष्य की बुद्धि पर छा जाते हैं, वे मनुष्य को अभिभूत करने की चेष्टा करते हैं।  धर्मान्तरित करने की चेष्टा करते हैं, उस समय उस समाज की जो प्राचीन सांस्कृतिक विचार धारा प्रवाहित होती आ रही है वह संस्कृति ही उसकी रक्षा करने में सहायता कर सकती है। हमें अपनी प्राचीन भारतीय संस्कृति को एक बार फिर से जाग्रत करना होगा, उससे प्रेरणा ग्रहण करनी होगी। क्योंकि हमलोग अपनी संस्कृति को लगभग भूल ही चुके हैं। यह संस्कृति केवल सच्ची शिक्षा के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। हमने अपनी प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में दी जाने वाली शिक्षा (तत्त्वमसि) के श्रवण,मनन , और  निदिध्यासन द्वारा जिस ज्ञान (अहं ब्रह्मास्मि-अन्तर्निहित दिव्यता-Inherent Divinity) की उपलब्धि की, जान गया, (आत्मा ही परमात्मा है) ज्ञान हुआ , ये सारी अनुभव जब आत्सात होकर रक्त-मज्जा से अन्तर्भूत हो जाती हैं, तभी वे संस्कृति में रूपांतरित हो पाती हैं
        मनुष्य अपने को सुसंस्कृत बनाने के लिये स्वयं को परिशोधित करता  रहता है, मन को पवित्र बनाता रहता है। जिस प्रकार देव-मूर्ति गढ़ने के लिये पहले एक साँचा, साँचा में डालकर आकार लाना पड़ता है। उसके बाद धीरे धीरे पूर्ण रूप देने के लिये सूक्ष्म कार्यों के द्वारा उसको सुरुचिपूर्ण ढंग से सुषमामण्डित कर लिया जाता है। उसी तरह शिक्षा भी मनुष्य के जीवन को पहले एक साँचे में डाल कर उसको एक सुन्दर आकृति (pattern) में ढाल देती है; तत्पश्चात सूक्ष्म शिल्पकारिता (Craftsmanship) के द्वारा उसको वस्तुतः एक सुसंस्कृत मनुष्य में रूपान्तरित कर देती है। जब कोई व्यक्ति इस प्रकार सही अर्थों में (Truly) एक सुसंस्कृत मनुष्य में परिणत हो जाता है, तब उसके जीवन का सौन्दर्य और सुगन्ध चारो ओर अन्य मनुष्यों को भी प्रभावित करने लगते हैं। तथा उन्हें भी उन्नत मनुष्य बनाने की चेष्टा करता है।  
        आजकल हमलोग अपने खराब परिवेश की दुहाई  निरंतर देते रहते हैं, हम कहते हैं आज हमलोगों का परिवेश अत्यन्त खराब हो गया है, ऐसे बुरे परिवेश में अच्छा रह पाना, अच्छामनुष्य बनना एकदम सम्भव नहीं है। किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि इस परिवेश की रचना भी तो  हमलोगों ने ही की है। हमारा जीवन, हमारी शिक्षा, हमारी संस्कृति हमारे चारो ओर एक विशेष प्रकार के आभामण्डल (aura) का निर्माण कर देती है। यदि हमलोग अच्छे बनेंगे, तभी हमारा परिवेश भी अच्छा बन सकता है। हमारे भौतिकवादी सोच (इन्द्रियभोग) ही हम लोगों को ऐतिहासिक खेल की कठपुतली में परिणत कर देती है। जबकि सच्चाई यह है कि मनुष्य ऐतिहासिक कठपुतली नहीं है, बल्कि मनुष्य ही इतिहास की रचना करता है। (दुनिया का इतिहास ऐसे छः व्यक्तियों का इतिहास है -जिनमें आत्मविश्वास कूटकूट कर भरा था।इतिहास नामक कोई अन्य वस्तु नहीं है, जो हमलोगों को औसत दर्जे का मनुष्य बनने को मजबूर करे। इतिहास नामक कोई काल्पनिक जीव या हौआ नहीं है। स्वामीजीने कहा है - "मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का तथा परस्पर मिलजुल कर इतिहास का निर्माता है।और यही बिल्कुल तर्क संगत बात है। इस धारणा को वैज्ञानिक बता कर कि 'इतिहास हम मनुष्यों का निर्माण करता है ', चाहे कोई कितना ही प्रमाणित करने की चेष्टा करे, यह बिलकुल ही तर्कहीन बात है और जो बात अतर्कपूर्ण है वह अवैज्ञानिक तो है ही । 
      हमलोगों को इस बात की धारणा नहीं है कि-  'हमारा जीवन भी वास्तव में भी सिर्फ एक शक्ति का खेल मात्र है।' लेकिन शक्ति के इस खेल में हमेशा एक लय (Rhythm) रहता है, इस जीवन रूपी खेल को अनुशासित  रहकर नियमानुसार ही खेलना पड़ता है। इस जीवन का भी एक विज्ञान है। उस विज्ञान को जान लेने के बाद अपने जीवन को रूपान्तरित किया जा सकता है। अपनी पसन्द के अनुसार अपने भाग्य का निर्माण किया जा सकता है, अपने संकल्प या कल्पना के अनुसार इतिहास का निर्माण किया जा सकता है। लेकिन हमलोग इस विज्ञान को सीखने के विषय में उदासीन हैं, इसीलिये जीवन में दुःख आने पर टूट जाते हैं और अपनी असफलता के लिये दूसरों को उत्तरदायी ठहराने लगते हैं। जिसको  उत्तरदायी ठहराते हैं, उसके उपर हम आक्रोश से फट पड़ते हैं । उनसे घृणा करने लगते हैं, उनसे दुश्मनी ठान लेते हैं, प्रतिहिंसक (vengeful) होकर बदला लेना चाहते हैं। और इतना सब कुछ उस सच्ची शिक्षा (भवबन्धन काट देने वाली शिक्षा) के अभाव होता है। 
        सच्ची शिक्षा मनुष्य को इस जगत के सम्बन्ध में एक सही दृष्टिकोण (एक ही अनेक बन गया है की ब्रह्ममयी दृष्टि) प्रदान करेगा । मनुष्य जीवन कितना दुर्लभ और बहुमूल्य है, उसकी समझ आ जाएगी। मनुष्य जीवन के उद्देश्य (ईश्वरलाभ) के विषय में जागृत कर देगी। जीवन कैसे सार्थक हो सकता है, यह समझ प्राप्त होगी। मनुष्य यदि इन बातों को समझ ले, तो वह निश्चय ही अपने जीवन को इस प्रकार से विकसित करेगा, या जीवन का गठन करेगा, कि उसका वह अनुपम असाधारण जीवन दूसरों को भी प्रभावित कर सकेगा। यदि हम स्वयं अपने जीवन को ही सही ढंग से नहीं गढ़ सके, आदर्श जीवन के सम्बन्ध में स्पष्ट धारणा नहीं बना सके, तो हम अपनी भावी पीढ़ी की भी जीवन-गठन करने में कोई सहायता भी नहीं कर सकते। और इस प्रकार समाज भी क्रमशः नीचे गिरता चला जायेगा। इस समय समाज की ओर नजर उठाकर देखने से इस विषय के उपर और अधिक कहने की जरुरत नहीं रहेगी। इतिहास या परिवेश के उपर दोष नहीं देकर, यदि हम यह समझ सकें कि 'जीवन-गठन के विज्ञान का ज्ञान' [Man-Making and Life-Building Education' का ज्ञान] नहीं रहना ही समाज के पतन का कारण है, तो उससे अपना और देश का भला होगा। सच्ची शिक्षा इसी जीवन -विज्ञान की शिक्षा (मनुष्य-निर्माण और चरित्रगठनकारी शिक्षा) को कहते हैं। स्वामीजी सबसे पहले सभी देश के मनुष्यों को यही शिक्षा प्रदान करना चाहते थे।  [और इसके लिए वे पहले ऐसा करने में समर्थ शिक्षकों को प्रशिक्षण देने में समर्थ जीवन्मुक्त शिक्षक, पैगम्बर, 'नेता' (महामण्डल लीडर्स) निर्माण करना चाहते थे।] इसलिलिये 'स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार' कहने का तात्पर्य पाठ्य-विषय, शिक्षा पद्धति,  (प्लस टू हो या प्लस थ्री) जैसे तुच्छ विचारों पर जुगाली करते रहना नहीं है।   
       स्वामीजी ने कहा है, " प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। " प्रयत्न का अर्थ है - चेष्टा, कोशिश, परिश्रम। अविराम उद्यम;किस लिये ? "मनुष्य" बन जाने के लिए। मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? प्रत्येक प्राणी के जीवन के साथ एकात्मता का अनुभव करते हुए अपने सच्चे जीवन को प्राप्त करना। ह्रदय का विस्तार। सभी प्राणियों के कल्याण में अपने जीवन को सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर देना। शिक्षा मनुष्य को सभी प्राणियों के कल्याण के लिए विचार करना सिखाती है। तथाकथित शिक्षित लोग जो केवल अपने स्वार्थ  की ही चिंता करते हैं, वास्तव में अशिक्षित ही रह जाते हैं। स्वार्थपरता ही संकीर्णता है। और स्वामी विवेकानन्द ने कहा था संकीर्णता मृत्यु है और विस्तार ही जीवन है !" [ स्वामी विवेकानन्द के "जीवन-गठन विज्ञान" के अनुसार  Unselfishness Tending Towards Zero ही मृत्यु है, और निःस्वार्थपरता का 100 % विस्तृत होना जीवन है !] जब कोई व्यक्ति या कोई राष्ट्र पाशविक शक्ति (घोर स्वार्थपरता) से मजबूत हो जाता है, तब वह दूसरों के अधिकार पर अपना हक ज़माने की चेष्टा करने लगता है। किन्तु जो व्यक्ति या राष्ट्र 'यथार्थ शिक्षा' में शिक्षित होता है, उसके ह्रदय का सम्प्रसारण होता है, प्रेम का विस्तार होता है। वह प्रेम के द्वारा अपने हृदय को विस्तृत करके यथार्थ जीवन (शाश्वत  जीवन) का अधिकारी बन जाता है। श्रीमद भागवत में 'स्वार्थपर लोगों ' के विषय में एक बहुत सुन्दर उक्ति है- जो मनुष्य दूसरों के सामने आये संकट को अपना दुःख-कष्ट नहीं समझता, वह घोर स्वार्थी (पशु जैसा) होता है। जो दूसरों के कष्ट को अपने जैसा समझ लेता है, वह अपने लिये कुछ भी नहीं चाहता। किन्तु कोई यदि उससे कुछ चाहता है तो वह कभी 'न' नहीं कहता। 

ननु स्वार्थपरो लोको न वेद परस्पङ्कटम् ।
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वरः ॥
( श्रीमद्भा० ६ । १० । ६ )

 देवता लोग जब संकट में पड़कर ब्रह्मास्त्र का निर्माण करने के लिए महर्षि दधीचि की हड्डी माँगने गए, तब पहले दधीचि ने यह कहकर, कि देवताओं के संकट से उन्हें बेचैन होने की क्या जरूरत है;  देवताओं के मुख से, 'यथार्थ धर्म अर्थात कर्तव्य क्या है' -यह सुनने की अभिलाषा से छल किये थे। उस समय देवता लोग से यह सब उपदेश बुलवाकर दधीचि चेहरे पर मुस्कान के साथ अपने प्राण त्याग कर उन्हें अपनी हड्डीयों का  दान कर दिये थे। यह है जीवन को सार्थक कर लेने की पराकाष्ठा!  
    हमलोग स्वामीजी के जीवन में भी मानव कल्याण के लिये इस महान त्याग के आदर्श को देख सकते हैं। सच्ची शिक्षा मनुष्य को स्वार्थ त्याग करने के लिये उत्साहित करती है। परस्पर के लिये सहानुभति और दूसरों के कल्याण के लिये त्याग की भावना ही समाज को धारण किये रह सकती है। त्याग की इस भावना का आभाव हो जाने से, फिर चाहे उस देश में गणतंत्र हो, या समाजवाद और साम्यवाद या कोई भी 'वाद ' हो- किसी देश या समाज को स्वस्थ या समृद्ध नहीं बना सकता । जो राष्ट्र इस शिक्षा (त्याग और सेवा)  को नहीं प्राप्त कर सका हो, तो उसकी अधोगति अनिवार्य है।  'शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार'  व्यक्तिगत, सामाजिक और मानव-कल्याण के सच्चे उपाय का मार्ग दर्शक है। 
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 "यदि गरीब लड़का शिक्षा के मन्दिर  तक न आ सका, तो शिक्षा को उसके पास जाना चाहिए।" केवल धन से गरीब ही नहीं, जो विचारों से भी गरीब लोग हैं' -शिक्षक को उनके पास भी जाना पड़ेगा। ...  मैं कहता हूँ -मुक्त करो ; जहाँ तक हो सके लोगों के बन्धन खोल दो।... जब तुम अपने सुख की कामना को समाज के कल्याण के लिए त्याग सकोगे तब तुम भगवान बुद्ध बन जाओगे, तब तुम मुक्त हो जाओगे !"

" जहाँ प्रेम है , वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है , वहीं संकोच। सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है। जो प्रेम करता है , वही जीवित है ; जो स्वार्थी है, वह मृतक है। अतः प्रेम प्रेम के निमित्त , क्योंकि यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिए श्वास लेना। निष्काम प्रेम, निष्काम कर्म इत्यादि का यही रहस्य है। " (--४/३१०)    

श्री रामकृष्ण कहा करते थे, " जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक मैं सीखता हूँ। ” वह व्यक्ति या वह समाज जिसके पास सीखने को कुछ नहीं है वह पहले से ही मौत के जबड़े में है। 

जब लोग तुम्हे गाली दें तो तुम उन्हें आशीर्वाद दो।  सोचो, तुम्हारे झूठे दंभ (मिथ्या अहंकार) को बाहर निकालकर वो तुम्हारी कितनी मदद कर रहे हैं। 

हम जो बोते हैं वो काटते हैं।  हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं।  हवा बह रही है, वो जहाज जिनके पाल खुले हैं, इससे टकराते हैं, और अपनी दिशा में आगे बढ़ते हैं, पर जिनके पाल बंधे हैं हवा को नहीं पकड़ पाते।  क्या यह हवा की गलती है ?…..हम खुद अपना भाग्य बनाते हैं |

-स्वामी विवेकानन्द  
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वयम् अमृतस्य पुत्राः (श्वेताश्वर उपनिषद)
अमृतस्य पुत्रा वयं, सबलं सदयं नो हृदयम् l
गतमितिहासं पुनरुन्नेतुं, युवसङ्घटनं नवमिह कर्तुम् ॥
भारतकीर्तिं दिशि दिशि नेतुं, दृढसङ्कल्पा विपदि विजेतुम् l
ऋषिसन्देशं जगति नयेम, सत्त्वशालिनो मनसि भवेम ll
कष्टसमुद्रं सपदि तरेम, स्वीकृतकार्यं न हि त्यजेम l
दीनजनानां दुःखविमुक्तिं, महतां विषये निर्मलभक्तिम् ॥
सेवाकार्ये सन्ततशक्तिं, सदा भजेम भगवति रक्तिम् l
सर्वे अमृतस्य पुत्राः शृण्वन्तु ये दिव्यानि धामानि आतस्थुः॥ 
युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक एतु पथ्येव सूरेः।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद् - द्वितीयोऽध्यायः)
वेद कहते हैं कि मृत्यु से रहित अविनाशी ईश्वर की संतान हैं चूँकि संतान में पिता के गुण होना स्वाभाविक है इसलिए वेदानुसार हम भी अमृत हैं, बदलाव प्रकृति का नियम है जिस के अनुसार संसार की हर वस्तु प्रति क्षण बदलती रहती है। पूरे ब्रह्मांड में जन्म-मरण एवं बनने और टूटने की प्रक्रिया प्रतिक्षण चलती रहती है। शारीरिक अर्थात सांसारिक जीवन तो प्राकृतिक सिद्धांत अनुसार माता पिता के द्वारा पैदा होता है और प्रकृति के नियम अनुसार संसार की कोई भी वस्तु - जड़ या चेतन कभी एक जैसी नहीं रह सकती। 
भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं; जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु, अर्थात जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है - जो बना है उसका मिटना अनिवार्य है। इसलिए शरीर रूप में तो कोई भी अमृत अर्थात मृत्यु से रहित नहीं हो सकता। लेकिन आत्मा जन्म मरण से रहित है। 
वेद का ये महामंत्र - वयम् अमृतस्य पुत्राः, शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को सम्बोधित करते हुए कहा गया है।
अष्टावक्र गीता में जनक से अष्टावक्र कहते हैं :

यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।

        अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥ १-४॥

 अर्थात: यदि स्वयं को देह से अलग कर के देखोगे और चित को स्थिर करके आत्मा में स्थित हो जाओगे तो अभी सुखी और शांत हो जाओगे और बंधन मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त कर लोगे।
जागने के बाद, अमृत रूप का ज्ञान और अनुभव हो जाने के पश्चात क्या करना चाहिए ? शास्त्र कहते हैं :यावत जीवेत - सुखम् जीवेत, धर्मकार्यम कृत्वा अमृतं पिबेत्।। अर्थात: जब तक संसार में जीओ - सुख पूर्वक जीओ। धर्म के कार्य करते हुए - अर्थात जो भी कार्य करो, धर्म को सामने रखते हुए करो - नेक कमाई से जीवन यापन करते हुए भलाई के काम भी करते रहो - दूसरों का भी भला करो। तथा ज्ञान रुपी अमृत पान करते रहो। 
साभार /https://www.jaisanatanbharat.com/2023/01/blog-post_2.html] 
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Tuesday, January 8, 2013

"राष्ट्रिय एकता एवं स्वामी विवेकानन्द " (জাতীয় সংহতি ও স্বামী বিবেকানন্দ )('अन्तर्निहित एकात्मता की अनुभूति' - ही 'धर्म' ) [$$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [60] (9.समाज और सेवा),

राष्ट्रीय एकता एवं स्वामी विवेकानन्द

हाल के वर्षों में 'राष्ट्रिय एकता' पर बहुत जोर दिया जाने लगा है। इसके पूर्व 'राष्ट्र-चेतना ' या 'राष्ट्रनिर्माण'जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया जाता था। राष्ट्रिय एकता की भावना को स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य, भारत की सधारण जनता के बहुआयामी विविधताओं में एकत्व की खोज करना है।  इसी प्रयत्न को इस समय ' national unity ' या ' nation building ' के बदले  ' national integration ' या ' राष्ट्रीय एकता ' के नाम से अभिहित किया जाता है ।
संभवतः यह परिवर्तन किसी विशिष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया है। कदाचित पूर्व में प्रयुक्त 
' विविधता में एकता ' जैसे आदर्श वाक्य का प्रभाव उतनी सघनता (compactness) के साथ परिलक्षित नहीं हो रहा था। और हाल के दिनों में ' राष्ट्रिय एकता ' को कमजोर करने वाली अपकेन्द्री विघटनकारी शक्तियों (centrifugal force) के सक्रीय होने के फलस्वरूप अलगाववादी शक्तियाँ समाज पर हावी होने लगीं थीं। यह अलगाववाद देशवासियों के भीतर फूट (division) पैदा करता है, इस आपसी फूट को रोकने के लिये जो चेष्टा की जाती है, उसे ' integrating force ' या एकीकरण की शक्ति कहा जाता है। इसीलिये वर्तमान परिवेश में यह विषय- ' National Integration ' और अधिक महत्वपूर्ण हो उठा है।
पहले यह समझने की चेष्टा करें, कि भारतवर्ष में 'राष्ट्र ' शब्द का प्रयोग की अर्थ में किया जाता है ? प्राचीन भारतवर्ष में पूरा राज्य अनेक छोटे-छोटे प्रांतों में विभक्त होता था , प्रत्येक प्रांत का राज्यपाल एक सैनिक होता था , जिसे महाक्षत्रप कहते थे। यहाँ अब भी भाषा या जाति-प्रजाति के आधार पर गठित छोटे छोटे कई सम्प्रदाय बड़ी आसानी से स्वयं को प्रान्त (nation-state) के रूप स्थापित कर सकते हैं। किन्तु भारतवर्ष की भौगिलिक परिसीमा में कभी केवल ही प्रजाति (race) का निवास-स्थान नहीं रहा है। इस देश में बहुत प्राचीन समय से ही विविध जाति एवं प्रजातियों के समुदाय आपस में मिलजुल कर एक साथ रहते चले आये हैं। जैसे आर्यों की निवास भूमि भारत थी, फिर आर्यों का समुदाय भी कई जातियां में विभक्त था। इसके अतिरिक्त अनेक जातियों और प्रजातियों के लोग सीमा पार से भारत में आते रहे हैं।
 किन्तु, फिर भी उत्तर में हिमालय की बुलंद चोटियाँ,एवं तीन ओर समुद्र से घिरे इस विशाल उपमहाद्वीप (जम्बुद्विपे भारत खण्डे) में देश-विदेशों के साथ समुचित संचार व्यवस्था न होते हुए भी या या बाहय जगत से अपर्याप्त सम्पर्क होने के बावजूद, - विविध भाषाओँ, वेशभूषा, रीती-रिवाज, एवं  अनेकों प्रकार की मुखाकृति और शारीरिक गठन होने के बावजूद, इसी भूखण्ड पर समस्त मानव-जाती के बीच एकत्व की भावना प्रतिष्ठित हुई थी।
इतनी विविधताओं के बीच ऐसा कौन सा रसायन था जिसने भारतीय जनता को एकता-सूत्र में बांधे रखा था?  विभिन्न रंग-रूप और सुगंध के पुषों द्वारा निर्मित किसी माला के जैसा भारत की आम जनता रूपी पुष्पों को गूंथने वाला वह सूत्र क्या था ? वह रसायन,उसका  वह सूत्र ' धर्म 'था। इस ' धर्म ' के बाह्य स्वरूपों में कई प्रकार की विविधताएँ रहीं, किन्तु उसके अंतस्तल में महान एकात्मता का निष्पाप स्वर माधुर्य निरंतर ध्वनित होता रहता था। 'अन्तर्निहित एकात्मता की अनुभूति' - ही वह 'धर्म' था जिसने सम्पूर्ण भारतवर्ष को सहस्त्रों वर्षों से एकता के सूत्र में बांधे रखा था। अन्य कोई भी शक्ति ऐसा करने में सक्षम नहीं थी। क्योंकि उस समय इस विशाल देश में सामाजिक, राजनैतिक या राष्ट्रियता आदि विचारों के आधार पर देश में एकत्व स्थापित करने का अवसर कभी नहीं मिला था। अन्य सभी दृष्टि से सम्पूर्ण देश अनेक प्रकार से विभाजित था।
लेकिन जैसे जैसे इस देश में विदेशी धर्म आते गये, और अपने प्रचार और प्रभाव फैलाने में लग गये, तब इस देश के प्राचीन धर्म के प्रभाव से जो ' राष्ट्रीय एकता ' निर्मित हुई थी, वह शिथिल होती चली गयी। मानवीय एकात्मता का वह सूत्र ही ढीला पड़ने लगा। सामूहिक शक्ति एवं  सामूहिक एकता के ह्रास होने से कमजोर देश को विदेशियों ने गुलाम बना लिया। खोयी हुई शक्ति एवं एकता को पुनः प्राप्त करने के उद्देश्य से अनेक सुझाव दिए गये, कई तरह के प्रयत्न किये जाने लगे। राष्ट्रिय शक्ति एवं एकता में इस ह्रास का सारा दोष प्रचलित धर्म पर ही आरोपित कर दिया गया और नये धार्मिक आन्दोलन प्रारंभ हुए। धर्म के अतिरिक्त अन्य विरोधी साधनों को भी प्रयुक्त करने का प्रयास हुआ।
 किन्तु जीवंत प्राचीन धर्म-वृक्ष के नवजात तना-टहनी-मंजरी की उपेक्षा कर इधर उधर से से इकट्ठे किये गये फुटकर मृतप्राय धार्मिक विचारों के संग्रह रूपी सूखे डंठल को स्थापित करने की चेष्टा भी राष्ट्रिय एकता को पुनर्प्रतिष्ठित करने में अक्षम सिद्ध हुई । उसी प्रकार जब मनुष्य को धार्मिकता विहीन केवल एक सामजिक-आर्थिक जीवमात्र समझ लेने वाली बुद्धियुक्त राजनैतिक तरीके (हथकंडे) आजमाए गये तो, वे भी राष्ट्र के एकीकरण एवं राष्ट्रीय एकता के आदर्श को प्राप्त करने में असमर्थ ही रहे। अब हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि ' राष्ट्रिय एकता ' जैसे महत्वपूर्ण विषय के उपर स्वामी विवेकानन्द ने क्या प्रकाश डाला है ?
 राष्ट्र,समाज या सभ्यता के विषय में स्वामी विवेकानन्द का मूल सूत्र है - " याद रखना होगा कि मानव-
सभ्यता का मूल धर्म पर टिका हुआ है। यह यदि अक्षुण बना रहता है, तभी समाज-शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंग स्वस्थ और सुन्दर दिखेंगे। " हम यह देख चुके है कि भारतीय राष्ट्रिय एकता मूल आधार धर्म ही था। क्योंकि वह एकता राजनैतिक, सामाजिक अथवा राज्य के प्रयासों का परिणाम नहीं  थी। भारतवर्ष में राष्ट्रिय एकता का प्राकट्य मुगल काल में हुआ था। ब्रिटिश शासन में राजनैतिक अथवा प्रशासकीय एकीकरण विकसित होकर भलीभांति स्थापित हो गयी थी। किन्तु भारतीय लोगों का ' धर्म ' जो समग्र मानव जाति में अन्तर्निहित एकात्मता के वास्तविक आधार पर टिका हुआ था, धर्म का वह मुख्य भाव जो भारतीय राष्ट्रिय एकता का मुख्य आधार था वह शनै: शनै: क्षय होता चला गया।
 स्वामीजी कहते हैं, " इस बात का हमारे पास क्या प्रमाण है कि यह अथवा कोई दूसरी सभ्यता, जब तक कि वह धर्म पर, मनुष्य के भीतर की नैतिकता या चरित्र पर आधारित न हो, स्थायी होगी ? कोई भी राष्ट्रीय व्यवस्था यदि मनुष्य की ईमानदारी के उपर, उसके धर्म के उपर प्रतिष्ठित न रहे तो वह अधिक दिनों तक टिकाऊ नहीं हो सकती है। "
 इसीलिये स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट निर्णय था- " भविष्य के भारत निर्माण का पहला कार्य, वह पहला सोपान जिसे युगों के महाचल पर खोद कर बनाना होगा, भारत की यह धार्मिक एकता  (सभी धर्मों में एकत्व-बोध की जाग्रति)  ही है। उसी मौलिक एकत्व की प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर अपने और राष्ट्र के कल्याण के लिये सभी प्रकार के आपसी मतभेदों और महत्वहीन कलह को वर्जन करने का समय आ गया है।अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करना ही भारत में राष्ट्रिय एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। "
( इस देश में पर्याप्त पन्थ या संप्रदाय हुए हैं। आज भी ये पन्थ पर्याप्त संख्या में हैं और भविष्य में भी पर्याप्त संख्या में रहेंगे। ..अतः सम्प्रदायों का होना तो स्वाभाविक ही है, परन्तु जिसका होना आवश्यक नहीं है, वह है इन सम्प्रदायों के बीच के झगड़े-झमेले। संप्रदाय अवश्य रहें पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाये। " 5/262 यह शिक्षा हम सबको मिलनी चाहिये कि हम हिन्दू अथवा दुसरे सम्प्रदाय के लोग भिन्न भिन्न मतों के होते हुए भी आपस में कुछ सामान्य भाव भी रखते हैं, और अब वह समय आ गया है कि अपने हित के लिये हम इन तुच्छ भेदों और विवादों को त्याग दें। 5/181)
अन्यान्य जातियों के साथ भारतीय जाती के पार्थक्य की तुलना करते हुए स्वामीजी ने कहा था-  " किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा भारत की समस्याएं अधिक जटिल और गुरुतर हैं। जाति, धर्म, भाषा, शासन-

प्रणाली - ये ही एक साथ मिलकर एक राष्ट्र की सृष्टि करते हैं। यदि एक एक जाति को लेकर हमारे राष्ट्र की तुलना की जाय तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र गठित हुए हैं, वे संख्या में यहाँ के उपादनों से कम हैं। यहाँ आर्य हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्क हैं, मुगल हैं, यूरोपीय हैं, -मानो संसार की सभी जातियां इस भूमि में अपना खून मिला रही हैं। भाषा का यहाँ एक विचित्र ढंग का जमावड़ा है, आचार-व्यवहारों के सम्बन्ध में दो भारतीय जातियों में जितना अंतर है, उतना पूर्वी और यूरोपीय जातियों में नहीं है। " (5/180)
  इसी लिये यहाँ राष्ट्रिय एकता स्थापित करना एक दुष्कर कार्य है। इसीलिये यहाँ एकीकरण की प्रणालीयाँ दोषरहित होनी चाहिये। लेकिन परानुकरण-प्रेमी इस देश ने बिना विवेक-विचार किये अन्यान्य राष्ट्रों के दृष्टान्त का अनुकरण करना आरम्भ कर दिया है, जिसके परिणाम स्वरूप देश विखराव के पथ पर अग्रसर हो रहा है। स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से कहा है, " हमारे पास एकमात्र सम्मिलन भूमि है, हमारी  पवित्र परम्परा  (heritage), हमारा धर्म। एकमात्र सामान्य आधार वही है, और उसी बुनियाद पर हमलोगों को राष्ट्रिय जीवन गठित करना होगा। यूरोप में राजनैतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है। किन्तु एशिया में राष्ट्रिय ऐक्य का आधार धर्म ही है। " (5/180)
इस मूल विषय के उपर स्वामीजी के ये विचार अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं गहन विचारोत्तेजक हैं," सुधार  करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुंचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ। आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः उपर उठने दो एवं अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो। " (5/11)
अतीत में विविधताओं के बावजूद भारत की एकता सुदृढ़ थी। किन्तु राजनैतिक एकता की कमी अवश्य थी। मुगलकाल और अंग्रेजों के शासन काल में दुर्दैव एवं प्राकृतिक विपदाओं के बीच भी भारतियों ने अधिकतम सीमा तक राजनैतिक और प्रशासकीय एकता प्राप्त की थी। कालान्तर में विशाल भारतवर्ष धीरे धीरे बंटवारे के कारण सिकुड़ता गया, अंग्रेजी शासन के अंतर्गत भी जितना राष्ट्र शेष रह गया था, वह भी स्वतंत्रता के तुरन्त बाद दो भागों में विभाजित हो गया। इसका कारण था आपसी द्वेष, इर्ष्य, हिंसा, झगड़े-फसाद आदि। ततपश्चात यह भी तीन टुकड़ों में विभाजित हो गया। देश को बाँटने वाली शक्तियाँ आज भी सक्रीय हैं। वर्तमान में जिस भूखंड को भारत के नाम से जाना जाता है,वहां के निवासियों में भी हिंसा और संघर्ष कोई अन्त दिखाई नहीं देता।
राजनीती को धर्म से अधिक महत्व देने के कारण ही ' राष्ट्रीय एकता ' की स्थापना नहीं हो सकी है, यह तथ्य अब असंदिग्ध रूप से स्पष्ट है। प्रजातंत्र के नाम पर धर्म-निरपेक्षता की निकृष्टतम परिणति राजनितिक विवाद, दलगत एवं व्यक्तिगत स्वार्थ के रूप में दिखाई देती है। इसके परिणाम स्वरुप हमारे देश के सामान्य नागरिकों की यातनाओं एवं कष्टों में कमी के बजाय वृद्धि ही हुई है। इसीलिये एक ओर जहाँ देश-व्यापी हिंसा, शोषण, बलात्कार, अर्थ लोलुपता, भ्रष्टाचार, नाम,यश और पद की लोलुपता और धर्म निरपेक्ष शिक्षा के नाम पर अनैतिकता इत्यादि समस्त गंदगियों को जला ही डालना होगा, तो  दूसरी ओर धर्म के नाम पर (आशा राम बापू जैसे ढोंगी बाबाओं के के द्वारा फैलाये जाने वाले ) अन्धविश्वास, कुरीतियों,स्त्रियों के प्रति रुढ़िवादी मानसिकता, सामाजिक अत्याचार, घृणा एवं ऊँच-नीच के समस्त भेद-भाव को पूर्ण रूप से समाप्त करना होगा। इसीलिये समस्त समस्याओं की जड़ को खोज कर, उस " जड़ में आग रखना " आवशयक होगा। केवल तब ही वास्तविक 'राष्ट्रिय एकता' संभव हो सकेगी।स्वामीजी कहते हैं, "यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिये आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। ऋगवेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा मुझे याद आती है, जिसमें कहा गया है-
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥(6.64.1)
-' तुम सब लोग एक मन हो जाओ ' क्योंकि एक मन हो जाना ही समाज-गठन का रहस्य है। और यदि तुम आर्य और द्रविड़, ब्राह्मण और अब्राह्मण जैसे तुच्छ विषयों को लेकर तू तू मैं मैं करोगे, झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढाओगे -तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है। अब वह समय आ गया है कि अपने हित के लिये, अपनी जाति के हित के लिये हम इन तुच्छ भेदों और विवादों को त्याग दें। अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करना ही भारत में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। इस बात को याद रखो कि भारत का भविष्य सम्पूर्णतया इसी पर निर्भर करता है। बस, इच्छा-शक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना-यही सारा रहस्य है। " (5/192)
किन्तु एक मन होना, अभिन्न हृदय होना और इच्छशक्ति का संचय करना जैसे कार्य राजनीती या लोकसभा में बिल पास करवाने से संभव नहीं है। " लोगों को संसद के कानून से पुण्यात्मा नहीं बनाया जा सकता। और इसीलिये धर्म -राजनीती की अपेक्षा अधिक गहरे महत्व की वस्तु है, वह जड़ तक पहुँचता है और आचरण के मूल से सम्बन्ध रखता है। "
किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केवल यही (लोकपाल बिल पास करो आदि ) करने का प्रयास कर रहे हैं। और यही कारण है कि " राष्ट्रिय एकता " केवल वाद-विवाद का विषय बन कर रह गया है।  केवल सच्चे धर्म मार्ग पर चलने से ही (-चरित्र निर्माण करने और मनुष्य बनने के 'Be and Make ' के मार्ग पर चलने से ही ) मानव मात्र में अन्तर्निहित एकात्मता का विकास हो सकता है,और यही एकमात्र पथ है। भारत के नव-निर्माण का विचार राजा राममोहन राय के समय से प्रारंभ हुई थी। किन्तु इस आन्दोलन के अगुवा लोगों की दृष्टि समाज के उच्च वर्ग तक ही केन्द्रित थी। जबकि सबसे पहले स्वामीजी ने इस सत्य को उद्घाटित किया कि " कुछ उच्च शिक्षित और दौलतमन्द व्यक्तियों से राष्ट्र नहीं बनता, बल्कि राष्ट्र तो देश सामान्य जनता के द्वारा गठित होता है " स्वामीजी अत्यन्त खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं, "  जाती डूब रही है। देश की सामान्य जनता का अभिशाप हमलोगों के सिर पर है। भंगियों और चाण्डालों को उनकी वर्तमान हीन दशा में किसने पहुँचाया? हमारे आचरण में हृदयहीनता हो और साथ ही हम आश्चर्यजनक अद्वैतवाद के उपदेश भी दें- क्या यह कटे पर नमक छिड़कने जैसा नहीं है? तुम्हारे पास संसार का महानतम धर्म है और तुम जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक बातों पर पलते हो। तुम्हारे पास ज्ञान-अमृत की धारा प्रवाहित हो रही है, किन्तु तुम उन्हें गन्दी नाली का पानी पिलाते हो। देश में खाद्स्य सामग्रियों का भंडार रहने के उपरांत भी हम कई लोगो को भूख से मरने दे रहे हैं। मुख से अद्वैत की बातें करते हैं, दूसरों को सिखाते हैं कि सभी मनुष्य एक ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं, दूसरी ओर हम उनसे घृणा भी करते हैं।  "
 हमारे सुधारकों को यह नहीं दिखाई देता है कि बीमारी कहाँ है। वे नहीं जानते की राष्ट्र का भविष्य  जनसाधारण की दशा पर निर्भर करता है। याद रखना होगा की गरीब की झोपड़ियों में ही हमारा राष्ट्री जीवन स्पंदित होता है, किन्तु झोपड़ियों में रहने वाली यह जाती अपने व्यक्तित्व और मनुष्यत्व को भूल गयी है। " इसीलिये स्वामीजी कहते हैं- उन झोपड़ियों में बसने वाले वास्तविक देश के व्यक्तित्व  और पुरुषार्थ को फिर से विकसित करना होगा। " मेरा आदर्श है राष्ट्रिय सांस्कृतिक वैशिष्ट को अक्षुण रखते हुए भारतीय समाज को राष्ट्रीय स्तर पर पुष्ट और उन्नत करना। इसलिए जो व्यक्ति जहाँ खड़ा है, उसे उसके वर्तमान स्तर से एक सोपान उपर  उठाकर चरम पुरुषार्थ को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर कर दो।"
 सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें इन सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवरियाँ भेदकर, वनों को शून्यता से दूर लाकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीन कर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। स्वयं को इस सम्मोहन से मुक्त करो। तुम अपने को और प्रत्येक व्यक्ति को उसके सच्चे स्वरूप की शिक्षा दो और घोरतम मोह-निद्रा में पड़ी हुई इस जीवात्मा को इस नींद से जगा दो।"
 " वे जो लोग किसान हैं, वे कोरी, जुलाहे जो भारत के नगण्य मनुष्य हैं, विजाती-विजित स्वजाति-निन्दित निन्दित छोटी छोटी जातियाँ हैं, वे ही लगातार चुपचाप काम करती जा रही है और अपने परिश्रम का फल भी नहीं पा रही हैं। यदि ये निम्न श्रेणियों के लोग अपना अपना काम बन्द कर दें, तो तुम लोगों को अन्न-वस्त्र मिलना कठिन हो जाये! यदि मेहतर लोग एक दिन के लिये काम करना बन्द कर देते हैं, तो कैसी 'हाय तोबा ' मच जाती है ? यदि वे तीन दिन काम बन्द कर दें तो संक्रामक रोगों से शहर बर्बाद हो जाये। इन्हें ही तुमलोग नीच समझ रहे हो और अपने को शिक्षित मान कर अभिमान कर रहे हो ? हम उनकी उन्नति के लिये क्या कर रहे हैं? उनके मुख में एक कौर अन्न देने के लिये क्या कर रहे हैं ? हम उन्हें छूते भी नहीं, और 'दुर ' 'दूर' कहकर भगा देते हैं। हमारे इस देश में, इस वेदान्त की जन्मभूमि में सैंकड़ो वर्षों से हमारे जनसाधारण को सम्मोहित करके इस हीन अवस्था में डाल दिया गया है। वे लगातार डूबते जा रहे हैं। ऐसा देश कहाँ है, जहाँ मनुष्यों को जानवरों के साथ एक ही जगह पर सोना पड़ता हो ?
 जिनके रुधिर-स्राव से मनुष्य जाति की यह जो कुछ उन्नति हुई है, उनके गुणगान कौन करता है ? लोकनायक, धर्मवीर, रणवीर, कवि-गुरु, आदि तो सबकी नजरों के सामने हैं, सबके पूज्य हैं; परन्तु जहाँ कोई नहीं देखता, जहाँ कोई एकबार 'वाह' 'वाह' भी नहीं करता, जहाँ सब लोग घृणा करते हैं, वहां वास करती है, अपार सहिष्णुता, अनन्य प्रीति और निर्भीक कार्यकारिता; हमारे गरीब, घर-द्वार पर दिन-रात मुँह बन्द करके कर्म करते जा रहे हैं, उसमें क्या वीरत्व नहीं है ? बड़ा काम आने पर बहुतेरे वीर हो जाते हैं, दस हजार आदमियों की वाहवाही के सामने कापुरुष भी सहज ही में प्राण दे देता है, घोर स्वार्थी भी निष्काम हो जाता है, परन्तु अत्यन्त छोटे से कार्य में भी सबके अज्ञात भाव से जो वैसी ही निःस्वार्थता , कर्तव्य परायणता दिखाते हैं, वे ही धन्य हैं- वे तुम लोग हो- भारत के हमेशा के पददलित श्रमजीवियों ! - मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। " 

जब तक करोड़ों भूखे ओर अशिक्षित रहेंगे तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूंगा,जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परन्तु जो उनपर तनिक भी  ध्यान नहीं देता ! उसी को मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये रोता है, अन्यथा वह तो दुरात्मा है।
जनसाधारण का खोया हुआ व्यक्तित्व एवं पुरुषार्थ केवल धर्म के द्वारा ही वापस लौटाया जासकता है।
 स्वामीजी का कथन हैं - "धर्म का अर्थ है चरित्र !" उनके अनुसार धर्म का अर्थ अच्छा होना और अच्छा करने से है।यदि देश के सामान्य नागरिक चरित्रवान नहीं हैं, यदि उसमें स्वयं अच्छा बनने और दूसरों की भलाई करने की क्षमता नहीं अर्जित की है। तो राष्ट्रियता की भावना उत्पन्न नहीं हो सकती। केवल  मानवमात्र में अन्तर्निहित एकात्मता की अनुभूति करने वाले धर्म से अनुप्राणित व्यक्ति ही यह कह सकता ही यह कह सकता है और अनुभव कर सकता है ["मैं एक भारतीय हूँ, भारत में निवास करने वाला हर व्यक्ति मेरा भाई है, प्रत्येक भारतवासी मेरा प्राण है, भारत की मिटटी मेरे लिये सर्वोच्च धर्म है और भारत का कल्याण मेरा कल्याण है। '] "मैं भारतवासी हूँ, और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। भारत वासी मेरे प्राण हैं। भारत की मिटटी मेरा स्वर्ग है। भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है। " इसी एकात्मता की अनुभूति के आधार पर, इसी भावना के आधार पर भारतवर्ष की बहुआयामी जनता वास्तव में एकता के सूत्र में आबद्ध हो सकते है। देश के जनसाधारण का समग्र व्यक्तित्व ही एकीभूत होकर एक राष्ट्रीय- व्यक्तित्व या राष्ट्र-सत्ता का रूप धारण कर लेता है।
इटली के क्रान्तिदर्शी और देशभक्त, इटली के दिल की धड़कन, इतालवी स्वतंत्रता / एकीकरण के लिए कार्यकर्ता मैज्जिनी (Mazzini 1805-72) के समान ही स्वामीजी भी इस प्रकार के एक राष्ट्रीय -व्यक्तित्व (Personality ) में विश्वास करते थे, और यह मानते थे कि-   " Nationality is the personality of peoples " -अर्थात देश के सामान्य नागरिकों का एकीकृत व्यक्तित्व ही राष्ट्रीयता है।"
किन्तु स्वामीजी के अनुसार भारतवर्ष का वह ' राष्ट्रिय -व्यक्तित्व ' एक आध्यात्मिक सत्ता थी, और वह मातृ-सत्तात्मक भी थी। इसीलिए उनके इन शब्दों से कैसा उद्दात माधुर्य झंकृत होता है- " हे भारत ! मत भूलना कि तुम्हारी सामाजिक व्यवस्था अनन्त वैश्विक मातृत्व -महामाया -का प्रतिबिम्ब मात्र है। मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है।"

उनका यह सन्देश और अधिक स्पष्ट हो उठता है, जब वे कहते है- " आगामी 50 वर्षों तक हमारी गरीयसी भारत माता ही, हमारी एकमात्र आराध्य देवी हों, दुसरे व्यर्थ के देवताओं को बुल जाने से भी कोई हनी नहीं है। दुसरे सभी देवी देवता अभी सो रहे हैं। तुम्हारा देश nation एकमात्र यही देवता जाग्रत है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके कान हैं, वे सभी जगह व्याप्त हैं। " उनकी दृष्टि में अपने राष्ट्र का  कितना विस्मयकारी, आकर्षक और जीवन्त स्वरुप था!
 केवल वही व्यक्ति जिसका आत्मविकास सच्चे धर्म या आध्यात्मिकता के प्रभाव से हुआ हो, वही  सम्पूर्ण राष्ट्र को एक जीवंत एकीकृत सत्ता या व्यक्तित्व के रूप में देख सकता है। ऐसी दृष्टि प्राप्त हो जाने के बाद ही, देश की जो साधारण जनता के भिन्नत्व को नहीं देखते, जो अपने अस्तित्त्व को बनाये रखने में व्यस्त है, जो केवल अपने स्वार्थ-पूर्ति में मत्त है, और प्रतिस्पर्धाओं में व्यस्त है, उनको अलग अलग सत्ता के रूप में न देखकर समग्र राष्ट्र को - एक अखंड सत्ता, जिसके हजारों सिर हैं, हजारों नेत्र हैं, और हजारों हाथ है, ' सहस्र शीर्ष, सहस्र आक्षा, सहस्र पैर सहस्र पानी, पुरुष-सूक्त ' के जैसा समस्त भूमि को व्याप्त करके स्थित हैं, के रूप में देखा जा सकता है। जिस राष्ट्र में सच्चे धर्म के प्रभाव से ऐसे अन्तर्दृष्टि -संपन्न लोगों की संख्या में वृद्धि होती रहती है, वहीँ पर वास्तविक राष्ट्रिय एकता संभव है- अन्यत्र या अन्य किसी उपाय से कभी संभव नहीं है।
इस संदर्भ में स्वामीजी के विचारों का वैशिष्ट्य यह है कि जिस प्रकार राष्ट्रिय क्षेत्र में उसका प्रयोग सम्भव है,उसी प्रकार आवश्यक होने पर इनमें विश्व-शांति लाने की क्षमता भी है। किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय संघ या इस विचारधारा के अस्तित्व में आने से बहुत पहले  स्वामीजी ने कहा था- " अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय संघ, तथा अन्तर्रष्ट्रीय विधान - यही इस युग की प्रधान आवश्यकता है। " और स्वामीजी के राष्ट्रीय एकता के विचार और कुछ नहीं उसी वैश्विक-एकात्मता स्थापित करने की ओर उठने वाला पहला कदम है, या पहला सोपान है।
अब प्रश्न  यह है कि वह कौन सा धर्म होगा, जो समस्त जन साधारण को इस प्रकार एकत्व के सूत्र में बांध सकता है, या सभी धर्मों में समन्वय को स्थापित कर सकता है ? एक ऐसे देश में जहाँ भिन्न भिन्न धर्म, भिन्न भिन्न संप्रदाय एक साथ रह रहे हों, उस देश में किसी एक ही धर्म के उपर जोर देकर, सभी धर्म-मत के अनुयायियों में समन्वय स्थापित करना कभी संभव नहीं होगा। इसीलिये स्वामीजी कहते हैं, " भले ही इस सर्वजन-समन्वयकारी सिद्धान्त को हमलोग वेदान्तवाद कहें या अन्य किसी वाद से संबोधित करें, सत्य तो यह है की अद्वैतवाद ही किसी भी धर्म या विचारधारा का अंतिम समाधान है। एवं केवल अद्वैत की भूमि से ही मनुष्य समस्त धर्म और संप्रदाय को प्रेम पूर्ण नजरों से देख सकता है। मेरा विश्वास है की वेदांत ही भावी शिक्षित मनुष्यों का धर्म होगा। इसका श्रेय हिन्दूओं को मिल सकता है कि वे अन्य समुदायों से पूर्व इस स्थिति को प्राप्त करें। "इस देश में पुरुष और स्त्रियों के बीच इतना अंतर क्यों समझा जाता है, यह समझना कठिन है। वेदान्त में तो कहा है कि एक ही चैतन्य सत्ता सर्वभूतों में विद्यमान है। तुम लोग स्त्रियों की केवल निन्दा ही करते रहते हो। उनकी उन्नति के लिये तुमने क्या किया है, बोलो तो ? स्मृति आदि लिखकर, नियम-नीति में आबद्ध करके इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम ' बच्चा पैदा करने की मशीन' बना डाला है। महामाया की साक्षात् मुर्तिरूप इन स्त्रियों का उत्थान हुए बिना क्या तुम लोगों की उन्नति संभव है ? "
 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल हा, न कुरान है; परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय (अविरोध) से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्यजाति को यह शिक्षा देनी चाहिये कि सब धर्म उस धर्म के , उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न भिन्न रूप है ,इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है। "
 इस समन्वय का अर्थ यह नहीं कि इधर उधर छिटके विभिन्न धार्मिक विचारों का निर्जीव संकलन होगा, जिसकी व्यर्थता पर चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। और न ही इस सर्वधर्म समन्वय के पीछे किसी धर्मावलम्बियों का किसी दूसरे धर्म में धर्मांतरण करने की कोई मंशा है। क्योंकि स्वामीजी अन्यत्र कई बार स्पष्ट रूप से घोषणा कर चुके हैं कि " एकीकरण के उद्देश्य की पूर्ति के लिये किसी हिन्दू का इस्लाम में धर्मान्तरण करना, किसी ईसाई या बौद्ध का हिन्दु में धर्मनान्तरण करना न केवल अनावश्यक है, बल्कि इस प्रकार का धर्मान्तरण व्यक्ति-विशेष के लिये हानिकारक तो है ही,  सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए भी ऐसा करना हानिकारक होगा। "
 परन्तु मनुष्य को यह कैसे सिखाया जाय कि " विभिन्न धर्म उस ' मानव-मात्र में अन्तर्निहित एकात्मता ' की अनुभूति करने वाले धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं ? स्वामीजी इसी बात पर प्रकाश डालते हुए अन्यत्र कहते हैं, " मैं तुमको विश्वास दिलाता हूँ कि विश्व के किसी भी देश में सार्वभौम धर्म एवं विभिन्न संप्रदायों में भ्रातृभाव के उठापित और पर्यालोपित होने के बहुत पहले ही इस नगर के (कोलकता) के पास एक ऐसे महापुरुष थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श धर्म महासभा का स्वरूप था। ये थे श्रीरामकृष्णदेव। इसीलिए धर्मांतरण करने में अपनी शक्ति का क्षय और दूसरों का अनिष्ट किये बिना, एकात्मता के धर्म का प्रचार करने का सबसे सरल उपाय है- श्रीरामकृष्ण का जीवन-वृतान्त प्रत्येक के सम्मुख रख देना। क्योंकि " श्रीरामकृष्ण का जीवन उनके द्वारा प्रदत्त उपदेशों का एक जीता जगता नमूना है। " उनके जीवन को देखकर लोग यह स्वयं समझ जायेंगे कि धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर चलने वाले समस्त संघर्ष अवश्य समाप्त हो जाने चाहिए।
यद्दपि स्वामीजी ने अद्वैतवाद को या वेदान्त को भविष्य का धर्म कह कर पुकारा है, किन्तु  उसको कार्य में रूपांतरित करने के आभाव का पहलु भी,स्वामीजी की दृष्टि से बचा नहीं था।  इसी भाव को व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-" परन्तु साथ ही व्यावहारिक वेदान्त  जो समस्त  मानव जाती को अपनी आत्मा का स्वरुप समझता है, एवं उसी के अनुकूल सभी मनुष्य के साथ व्यव्हार करता है- उस कर्म में परिणत वेदान्त का विकास हिन्दुओं में सार्वजनिक रूप से होना अभी भी शेष है। "
" इसके विपरीत मेरा अनुभव यह है कि यदि किसी धर्म के अनुयायि व्यावहारिक जगत के दैनिक कार्यों के क्षेत्र में , इस ' साम्य भाव ' को बहुत हद तक अपना सके हैं तो, वे इस्लाम और केवल इस्लाम के अनुयायी हैं। यद्दपि ऐसे आचरण के पीछे जिस ' एक्तामता या साम्य भाव ' के सिद्धान्त का जो गूढ़ अर्थ है,-इस्लाम के अनुयायी उससे अनभिज्ञ हैं, पर हिन्दु उसे साधारणतः स्पष्ट रूप से समझते हैं। क्योंकि   इसकी भित्ति स्वरूप जो सकल तत्व गीता आदि में विद्यमान है, उस सम्बन्ध में हिन्दुओं की धरना स्पष्ट है  एवं इस्लाम को मानने वाले उस सत्य से परिचित नहीं हैं। "
" इसलिए हमें दृढ विश्वास है कि वेदान्त के सिद्धान्त कितने ही उदार और विलक्षण क्यों न हो, व्यावहारिक इस्लाम की सहायता के बिना, मनुष्य जाति की बहुसंख्यक जन साधारण के लिये वे मूल्यहीन हैं।"
 स्वामी विवेकनन्द अपने विचारों, कार्यों और सत्यपरायणता को भी ऐसी ही निर्भयता के साथ व्यक्त कर सकते थे। 1898 में मोहम्मद सरफराज हुसैन को लिखे अपने पत्र में उनके साथ राष्ट्रीय एकता एवं विकास के उपाय पर चर्चा करते हुए स्वामीजी कहते हैं, " हमारी मातृभूमि के लिए इन दोनों विशाल मतों का सामंजस्य - हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म रूपी दो विशाल मतों का समन्वय - वेदान्तिक मस्तिष्क और इश्लामी शरीर -यही एक मात्र आशा है।
" मैं अपने मनस चक्षु से भावी भारत की पूर्ण अवस्था को देख सकता हूँ, वर्तमान विवाद और संघर्ष को समाप्त कराकर भविष्य के अजेय भारत भारत वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी शरीर लेकर महिमामय और अपराजेय शक्ति से जग उठा है!"
वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामी शरीर पर किसी विशिष्ट हिन्दू या मुसलमान या किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का एकाधिकार नहीं होगा। इसका तात्पर्य है कि बहुसंख्यक लोगों का संगठित मस्तिष्क जो इस विशाल का्य राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करेगा, वह वेदांत के विचारों से ओतप्रोत होगा, और उस बिराट पुरुष का देह अर्थात राष्ट्र का सामाजिक जीवन का दैनिक व्यावहार इस्लाम की सामाजिक समानता लाने में जो व्यावहारिक क्षमता है, उसे वेदांत अद्वैत परक सिद्धांतों के आधार पर इस विशालकाय राष्ट्र की राजनैतिक संरचना में उसके राष्ट्रीय, सामाजिक एवं व्यष्टि के जीवन में कार्यरूप में परिणत करना होगा।  तब और केवल तभी राष्ट्रीय एकता संभव हो सकेगी- अन्य कोई मार्ग नहीं है! राष्ट्रिय एकता के विषय में स्वामीजी के यह विचार और सिद्धाम्त यही थे जिसे आज भी प्रयोग करने से भारत का कल्याण शिघ्त्रता से हो सकता है।

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  [जैसे शक-हूण, हूण मध्य एशिया की एक खानाबदोश जाति थी। यह जाति अपने समय की सबसे बर्बर जातियों में गिनी जाती थी। अनेक घुम्मकड़ और लड़ाकू क़बीलों का अस्तित्व था, जैसे 'नोमेड', 'वाइकिंग', 'नोर्मन', 'गोथ', 'कज़्ज़ाक़', 'शक' और 'हूण' आदि। रोमन साम्राज्य को तहस-नहस करने में हूणों का भी बहुत बड़ा हाथ था।
उत्तर-पश्चिम भारत में हूणों द्वारा तबाही और लूट के अनेक उल्लेख मिलते हैं। गुप्त काल में हूणों ने पंजाब तथा मालवा पर अधिकार कर लिया था। तक्षशिला को भी क्षति पहुँचायी। भारत में आक्रमण हूणों के नेता तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल के नेतृत्व में हुआ। मथुरा, उत्तर प्रदेश में हूणों ने मन्दिरों, बुद्ध और जैन स्तूपो को क्षति पहुँचायी और लूटमार की।
500 ई. के लगभग हूणों का नेता तोरमाण मालवा का स्वतंत्र शासक बन गया। उसके पुत्र ने पंजाब में सियालकोट को अपनी राजधानी बनाकर चारों ओर बड़ा आतंक फैलाया। अंत में मालवा के राजा यशोवर्मन और बालादित्य ने मिलकर 528 ई. में उसे पराजित कर दिया। लेकिन इस पराजय के बाद भी हूण वापस मध्य एशिया नहीं गए। वे भारत में ही बस गए और उन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया।
ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में उत्तर-पश्चिम भारत में यूनानी राज्य का अंत हो गया तथा उसके स्थान पर शक नामक एक अन्य विदेशी जाति ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।  शक शासक महाराजा एवं राजाधिराज जैसी गौरवपूर्ण उपाधियां धारण करते थे। बाद में शकों को कुषाण भी कहा जाने लगा। कुजूल कैडफाइसिस , जिसे कैडफाइसिस प्रथम कहा जाता है , पहले बड़ा शक शासक था। उसके बाद उसका पुत्र विम कैडफाइसिस (कैडफाइसिस द्वितीय) राजगद्दी पर बैठा। उसने कुषाण राज्य को पंजाब और गंगा-यमुना के दोआबे तक बढ़ा लिया। उसने सोने तथा तांबे के सिक्के चलाए। तथा इन सिक्कों में स्वयं का एक महान राजा एवं शिवभक्त के रूप में उल्लेख किया। उसके कुछ सिक्कों पर नंदी बैल के साथ त्रिशूलधारी शिव का चित्र अंकित है। इसी वंश का तीसरा महान शासक कनिष्क था।कनिष्क का राज्यारोहण 78 ईस्वी में हुआ। अपने राज्यारोहण के अवसर पर कनिष्क ने ' शक संवत ' चलाया। कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान , सिंध का भाग , बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेश शामिल थे। अपने चरमोत्कर्ष के समय कनिष्क का साम्राज्य पश्चिमोत्तर में खोतान से पूर्व में बनारस तक एवं उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में सौराष्ट्र एवं मालवा तक फैला था। कनिष्क के इस विशाल साम्राज्य की राजधानी पुरुष पुर यानी आधुनिक पेशावर थी।]
 
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